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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चतुर्दश गुणस्थानंगळनितुं संभविसुगुं। देवगतियोळु नरकगतियोळे तंते मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टयं संभविसुगुं । इंद्रियमार्गणेयोळु पंचेंद्रियक्के चतुर्दशगुणस्थानंगळनितुं संभविसुगुं । कायमार्गणयोळु त्रसकायक्कयुं चतुर्दशगुणस्थानंगळनितुं संभविसुगुं। शेषंद्रियकायंगळोळु प्रत्येकमों दोंदु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमक्कुं।
|न ति | म दे। ए वि ति. च.पं.पृ.अ. ते.वा.वन त्र. गुण ४/५/१४४२११११४२ १ १ १ १ १४
जीव २१४२२४२२२२४४४४१० नरकगतियोळसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तनिवत्यपर्याप्तजीवसमासेगळेरडेयप्पुवु। तिर्यग्गतियो एकेंद्रिय- ५ बादरसूक्ष्मद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियअसंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवसमासँगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । मनुष्यगतियोळु संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवसमासंगळुमेरडेयप्पुवु । देवगतियोळु संजिपंचेंद्रियपर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त जीवसमासेगळे रडेयप्पुवु । इंद्रियमार्गयोळेकेंद्रियदोळु बादरसूक्ष्मेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासगळु नाल्कप्पुवु। द्वींद्रियदोळु द्वींद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळु यरडेयप्पुवु। त्रींद्रियदोळु त्रींद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळेरडेयप्पुवु । चतु- १० रिद्रियदोळु चतुरिंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासंगळेरडेयप्पुवु। पंचेंद्रियदोळु संज्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळु नाल्कप्पुवु। कायमार्गयोळु पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकपंचकदोळु एकेंद्रियबादरसूक्ष्मपर्याप्त अपर्याप्तजीवसमासंग प्रत्येकं नाल्कुनाल्कप्पुवु। त्रसकायिकंगळोळु द्वींद्रियत्रोंद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळु पत्तु संभविसुववु गतिमायणायां
इंद्रिय मार्गणायां कायमार्गणायां नीतिमा दे।
ए।बी। तीच ।। पृ। अ। ते । वा । व । त्र। ४।५।१४।४।
१।१।१।१।१४। १।१।१।१।१। १४ । २।१४।२।२। ४।२।२।२।४।
४।४।४।४।४।१०
पर्याप्ती द्वौ। देवगतो नरकगतिवद्द्वौ । इन्द्रियमार्गणायां एकेन्द्रिये बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियो पर्याप्तापर्याप्ताविति १५ चत्वारः । द्वीन्द्रिये त्रीन्द्रिये चतुरिन्द्रिये च तत्तत्पर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ द्वो। पञ्चेन्द्रिये संश्यसंज्ञिनो पर्याप्तापर्याप्ताविति चत्वारः । कायमार्गणायां पृथ्व्यादिपञ्चसु एकेन्द्रियवत् चत्वारः चत्वारः, त्रसे शेषा दश ॥६७८॥ एक मिथ्यादृष्टिगुणस्थान होता है। जीवसमास नरकगतिमें संज्ञीपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त दो होते हैं। तियंचगतिमें चौदह होते हैं। मनुष्यगतिमें संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्त दो होते हैं। देवगतिमें नरकगतिके समान दो होते हैं। इन्द्रियमार्गणामें एकेन्द्रियमें बादर और २. सूक्ष्म एकेन्द्रियके पर्याप्त और अपर्याप्त होनेसे चार होते हैं। दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रियमें अपने-अपने पर्याप्त और अपर्याप्त होनेसे दो-दो होते हैं। पंचेन्द्रियमें संज्ञीअसंजीके पर्याप्त-अपर्याप्तके भेदसे चार हैं। कायमार्गणामें पृथिवीकायिक आदि पांच कायोंमें एकेन्द्रियकी तरह चार-चार जीवसमास होते हैं। त्रसमें शेष दस जीवसमास होते हैं ॥६७८॥
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