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गो० जीवकाण्डे
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सा३० को २
सा= अं= को २ कषायज. ०००=००००००० उ अनुभागज. ००%D8००००० उ योगस्थानज. ०००=३०००० उ
०००००
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आबाध कालसूचनात्थं दंडस्तस्योपरिस्थितत्रिकोणः तद्ज्ञानावरणद्रव्यनिषेकविन्यासः।
एकसमयाद्यधिकांतःकोटिकोटिरचना मी पेळल्पट्ट जघन्यस्थितिय समयाधिरुमप्पुदर स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळु भनिनंतसंख्यातलोकमात्रमक्कुमिनु समाधिकादिदमुत्कृष्टस्थितिपयंतं त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिप्रमित१० स्थितिय स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळु मनुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळु योगस्थानंगळुमरियल्पडुव
वितल्ला मूलप्रकृतिगळ्गमुत्तरप्रकृतिगळगं परिवर्तनक्रममरियल्पडुगुमितवेल्लं कूडि भावपरिवर्तनमक्कुमिल्लिगुपयोगियप्पा-वृत्तं :
सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधयोग्यानि । स्थानान्यनुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे ॥
१५ अन्तःको २-
n०० ०३० को २ सा.
कषाय । जघ००5००००:००3००उ अनुभाग TETO o oo oo Sao =2oo9o0o0o 2003
| जघ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००उ
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योग
अत्रोयोग्यार्यावृत्तं२० विशेषार्थ-योगस्थान, अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थान, कषायाध्यवसायस्थान और
स्थितिस्थानोंके परिवर्तनसे भावपरिवर्तन होता है। आत्माके प्रदेशोंके परिस्पन्दको योग कहते है। यह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धमें कारण होता है। इन योगोंके जघन्य आदि स्थानोंको योगस्थान कहते हैं। जिन कषाययुक्त परिणामोंसे कर्मोंमें अनुभागबन्ध होता है,
उनके जघन्य आदि स्थान अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान हैं। जिन कषाय परिणामोंसे २५ स्थितिबन्ध होता है, उनके जघन्य आदि स्थान कषायाध्यवसायस्थान हैं, इन्हींको स्थिति
बन्धाध्यवसायस्थान भी कहते हैं। कर्मोकी स्थितिके जघन्यादि स्थानोंको स्थितिस्थान कहते हैं । एक-एक स्थितिभेदके बन्धके कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसायस्थान होते हैं। एक-एक कषायाध्यवसायस्थानके असंख्यात लोक प्रमाण अनभागबन्धाध्यवसाय
स्थान होते हैं। एक-एक अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानके जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग ३० योगस्थान होते हैं।
इस परिवर्तन के सम्बन्धमें उपयोगी आर्याच्छन्दका अभिप्राय इस प्रकार है
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