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________________ ५६२ गो० जीवकाण्डे ज १।४९ बेरिरिसि अपतिसिदोडिनितक्कुं ज ३४३ इदरोळु पदिमूरु रूपगळं तेगेदिरि१५। ६००० ६००० सुवुदु ज १३ शेषमिदु ज ३३० अपत्तितमिदु ज ११ इल्लि धन ज १३ मिदरोळु ६००० ६००० २०।१० ६००० प्रथमद्वितीयऋणंगळु संख्यातगुणहीनंगळेदु किंचिदूनं माडि ज १३= मत्तं प्रक्षेपकप्रक्षेपक ६००० ज १५।७।७ ऋणमिनितक्कु ज १७ मिदं बेरिरिसि ज १५। ७ । ७ अपत्तितमिदु १५ । २।१०।१० १५ । २०० १५। २०० ५ ज ४९ इदरोळु मुन्निन पिशुलिधनमनेकादशरूपं कूडुत्तिरलुभयधनमिदु ज ६० अपत्तितमिदु २०।१० २०० शेषघनमपवर्त्य ज १५ ७ । ४९ अत्रस्थमृणं ज १ ४९ १५ १० ६०० पृथक्संस्थाप्य शेषमपवर्त्य ज ३४३ । इतस्त्रयोदशरूपाण्यपनीय पृथक्संस्थाप्य ज १३ । शेषं ज ३३० । अपवर्त्य ज ११ एकत्र संस्थाप्य ६००० ६००० २०१० अस्य प्राक् पृथग्धृतधने ज १३ प्रथमद्वितीयऋणं संख्यातगुणहीनमिति किंचिदूनं कृत्वा ज १३-। एकत्र ६००० ६००० संस्थाप्य पुनः प्रक्षेपकप्रक्षेपके ज १५ ७। ७। ऋणं ज १ ७ । पृथक् संस्थाप्य शेषं ज १५ ७ ७। १५ २ १० । १० । १५ २०० १५ २०० १० एक हीन गच्छका एक बार संकलन धन मात्र है सो साधिक जघन्यको दो बार उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देनेपर प्रक्षेपक-प्रक्षेपक होता है । उसका पूर्व सूत्रानुसार एक हीन सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका तथा सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार और दस, दो तथा दस एक भागहार हुआ। पिशुलि दो हीन गच्छका दो बार संकलित धन मात्र होती है। सो साधिक जघन्यको तीन बार उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेसे पिशुलि होती है। उसको पूर्व सूत्रानुसार १५ दो हीन और सातसे गुणित उत्कृष्ट संख्यात और एक हीन तथा सातसे गुणित उत्कृष्ट संख्यात व सात गुणित उत्कृष्ट संख्यात गुणाकार तथा दस, तीन, दस दो, दस एक भागहार होते हैं। इनमें पिशुलिके गुणाकार में दो कम किये थे, उस सम्बन्धी प्रथम ऋणका प्रमाण साधिक जघन्यको दोका और एक हीन तथा सातसे गुणित उत्कृष्ट संख्यातका तथा सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार तथा दो बार उत्कृष्ट संख्यातका और छहका और तीन २० बार दसका भागहार करनेपर होता है। उसको अलग स्थापित करके शेषका अपवर्तन करने पर साधिक जघन्यको एक हीन सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका तथा उनचासका तो गुणाकार हुआ और उत्कृष्ट संख्यात छह हजारका भागहार होता है। यहाँ गुणाकार में एक हीन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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