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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका 1 । ज ३ इदं प्रक्षेपकदो कूडिदोर्ड ज १० अपर्वात्ततमिदु ज इदरोळ संख्यात गुणहीनमप्प १० १० प्रक्षेपक प्रक्षेपकॠणमं किचिदूनं माडि धनमं १६३ 1 ज १३ = साधिकं माडि मेलण जघन्यदोळु ६००० 1 कूडिदोडे लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुं ज २ मुन्नं प्रक्षेपकप्रक्षेपकधनदोळु बेरिरिसिद ज १३ त्रयोदश ६०० रूपधनदोतन्न संख्यात भागमात्र ऋण रहितधनमं साधिकं माडुवुदु | अंतु माडुत्तिरलु साधिकद्विगुणलब्ध्यक्षरमक्कुं ज २ । मोदलोळत्कृष्ट संख्यातगुणित संख्यात भागद सप्तदशमभागमात्रगळु I ज १५ । ७ संख्यात भागवृद्धियुक्तस्थानंगळ पिशुलिपर्यंतमागि नडदु लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुं । १५ । १० T I अपवर्त्य ज ४९ । प्राक्तनपिशुलिधनैकादशरूपाणि मेलयित्वा जं ६० । अपवर्त्य इदं ज ३ । प्रक्षेपके २०० २०० १० 1 1 ज ७ । संयोज्य ज १० । अपवत्येंद ज प्राक्पृथग्वृतकिंचिदूनत्रयोदशरूपैः संख्यातगुणहीनप्रक्षेपकप्रक्षेपक१० १० ऋणेन पुनः किंचिदूनितैः ज १३ = | साधिकं कृत्वा उपरितनजघन्ये युते सति लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति । ६००० Jain Education International ज २ । प्रथमतः उत्कृष्ट संख्यातगुणित संख्यात भागस्य सप्तदशमभागमात्रेषु ज १५ । ७ संख्यात भागवृद्धियुक्त- १० १५ । १० उस सम्बन्धी द्वितीय ऋणका प्रमाण साधिक जघन्यको उनचासका गुणाकार तथा उत्कृष्ट संख्यात और छह हजारका भागहार करनेपर होता है । उसको अलग रखकर शेषका अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यको तीन सौ तैंतालीसका गुणाकार और छह हजारका भागहार होता है । यहाँ गुणाकार में तेरह कम करके अलग रखना । उसमें साधिक जघन्यको तेरहका गुणाकार और छह हजारका भागहार जानना । शेष साधिक जघन्यको तीन सौ तीसका गुणाकार और छह हजारका भागहार रहा । तीससे अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यको ग्यारहका गुणाकार और दस गुणित बीसका भागहार हुआ । उसे एक जगह स्थापित करना । यहाँ गुणाकार में से तेरह कम करके जो अलग स्थापित किये थे, उस सम्बन्धी प्रमाणसे प्रथम द्वितीय ऋण सम्बन्धी प्रमाण संख्यात गुणा कम है। इसलिए कुछ कम करके साधिक जघन्य किंचित् कम तेरह गुणाको छह हजारसे भाग देनेपर इतना शेष रहा सो अलग रहे । तथा प्रक्षेपक प्रक्षेपक सम्बन्धी गुणाकार में एक घटाया था, उस सम्बन्धी ऋणका प्रमाण साधिक जघन्यको सातका गुणाकार और उत्कृष्ट संख्यात तथा दो सौका भागहार किये होता है । उसको अलग रखकर शेष पूर्वोक्त प्रमाण साधिक जघन्यको उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार और २० For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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