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________________ ५४५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मत्तं केशण्णंगळु तम्मभिप्रार्याद तरल्पडुव विशेषकरणगाथासूत्रद्वयं : तिरियपदे रूऊणे तदिट्ठहेछिल्ल संकळणवारा। कोट्टधणस्साणयणे पभवं इठूणिदुड्ढपदसंखा ॥ तिर्यक्पदे रूपोने तदिष्टाधनस्तनसंकलनवारा। भवंति कोष्ठधनस्यानयने प्रभवः इष्टोनितोध्वंपदसंख्या॥ तत्तो रूवहियकमे गुणगारा होंति उड्ढगच्छोत्ति । इगिरूवमादिरूउत्तरहारा होति पभवोत्ति ॥ ततो रूपाधिकक्रमेण गुणकारा भवंत्यूर्ध्वगच्छपयंतं । एकरूपादिरूपोत्तरहारा भवंति प्रभवपय्यतं । इल्लिष्टमप्पुदावुदानुमोदु तिर्यक्पददोळ ६ रूपोनमागुत्तिरलु ६ तत्तत्पदप्रमाणे इष्टाध- १० स्तनसंकलनवारा भवंति। आ तिर्यग्गच्छेदद केळगे प्रक्षेपकोनैकवारसंकलनादिसर्वसंभवद्वारआनयेत् । पुनरेतदेव केशववणिभिः स्वाभिप्रायेण आनेतुं गाथाद्वयमुच्यते तिरियपदे रुऊणे तदिट्टहेठिल्लसंकलणवारा । कोट्ठधणस्साणयण पभवं इठूण उड्ढपदसंखा ॥१॥ तिरियपदे अनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानेषु यद्विवक्षितं स्थानं तत् तिर्यक्पदं ६, तस्मिन् रूऊणे रूपोने १५ कृते ६ तदिठ्ठहेढिल्लसंकलणवारा तदिष्टपदे प्रक्षेपकादधस्तनकोष्ठेषु प्रतिकोष्ठमेकैकं संकलनमिति संभवतां क्रमेणैकवारद्विवारादिसंकलनानां संख्या भवति ५ ॥ तत्र इष्टस्य 'कोठूधणस्स' चतुर्वारसंकलनधनगतकोष्ठधनस्य आणयणे आनयने 'इट्ठण उड्ढपदसंखा' तदिष्टसंकलनवारस्य प्रमाणेन ४ न्यूनोर्ध्वपदं-६-४ पभवो आदिभवति ॥२॥ तत्तोरूवयिकमे गुणगारा होंति उड्ढगच्छोत्ति । इगिरूवमादिरू उत्तरहारा होंति पभवोत्ति ॥२॥ तत्तो तमादि २ मादिं कृत्वा रूवहियकमे रूपाधिकक्रमेण गुणगारा गुणकारा अनुलोमगत्या होंति बढ़ते हुए चार पर्यन्त अंक रखकर १४२४३४४ परस्परमें गुणा करनेपर २४ हुए। यह भागहार हुआ। और गच्छ दो के प्रमाणसे लेकर एक-एक बढ़ता अंक रखकर २४३४४४५ परस्पर गुणा करनेपर १२० भाज्य हुआ। सो भाज्य १२० में भागहार २४ से भाग देनेपर २५ लब्ध पाँच आया। इस पाँचसे पूर्वोक्त छहके पाँचवें भागको गुणा करनेपर पाँच रहे । यही दो का चार बार संकलन धन होता है। इसी तरह तीनका तीन बार संकलन धन लाना हो, तो गच्छ तीनमें एक कम करके दो शेष रहे। उसे उत्तर एकसे गुणा करनेपर भी दो ही हुए। यहाँ तीन बार संकलन है। अत: उसमें एक अधिक बार चारका भाग देनेपर आधा रहा। उसमें मुख एक जोड़नेपर डेढ़ हुआ । यहाँ तीन बार कहा है, अतः एकसे लेकर एक-एक बढ़ते ३० तीन पर्यन्त अंक रखकर १४२४३ = परस्परमें गुणा करनेपर भागहार छह हुआ। और गच्छको आदि लेकर एक-एक अधिक अंक रख ३४४४५ परस्परमें गणा करनेपर भाज्य साठ हुआ। भाज्य साठमें भागहार छहसे भाग देनेपर दस पाये। इस दससे पूर्वोक्त डेढ़को गुणा करनेपर छठे भेदमें तीन कम गच्छका तीन बार संकलन धनमात्र पन्द्रह पिशुलि-पिशुलि होती हैं । इसी तरह सर्वत्र विवक्षित संकलित धन लाना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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