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________________ ५४६ गो० जीवकाण्डे संकलनवारंगळ प्रमाणमक्कुमल्लि कोष्ठधनस्यानयने विवक्षित ४ चतुर्वारसंकलनधनमंतप्पल्लि । प्रभवः आदि ये तुंटक्कुमेंदोडे इष्टोनितोर्ध्वपदसंख्या स्यात् । तन्न विवक्षितसंकलनवारप्रमाणमं नाल्कं कळेदुळिदूर्ध्वपदप्रमाणमें तुरंतुटु प्रभवमक्कु, दिल्लि ऊर्ध्वगच्छमु मूरप्पुववरोळु नाल्कं कळेदुळिद द्विरूपुगळु प्रभवमें बुदथें । ततो रूपाधिक क्रमेण तदादिभूतप्रभवभूत द्विरूपं मोदल्गोंडु मुंद रूपाधिकक्रमदिदं गुणकारा भवत्यूर्ध्वगच्छपथ्यंतं अनुलोमक्रमदि गुणकारंगळप्पु ऊर्ध्वगच्छप्रमाणांकक्के नवरमुत्पत्तियक्कुमन्नवरं ज २।३।४।५।६ ई गुणकारंगळ्गे केळग एकरूपादि रूपोत्तरहाराः भवन्ति एकरूपादिरूपोत्तरमप्प भागहारंगळु विलोमक्रमदिंदमप्पुवु। प्रभवपर्यंतं मेलण गुणकारभूतप्रभवांकमाद्यंकमवसानमन्नेवरमन्नवरं ज ३।४।५।६ केळग अपत्तितलब्धं चतुर्वारसंकलन १६।५।४।३।२।१ ___इंतनंतभागवृद्धियुक्तचरमज्ञानविकल्पद तिर्यक्पदे १६ १६ १६ १६ १६ र तिर्यग्गच्छदोळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रगच्छदोळु २ रूपोने २ एकरूपोनमादोडे तत् १० धनमक्कु भवन्ति उड्ढगच्छोत्ति ऊर्ध्वगच्छाङ्कोत्पत्तिपर्यन्तं-ज २ ३ ४ ५ ६ तेषां गुणकाराणां अधः हारा भागहाराः इगिरूवमादि एकरूपादयः रूउत्तरा-रूपोत्तरा होंति भवन्ति विलोमक्रमेण रूपाधिकेष्टवारस्थानेषु पभवोत्ति प्रभवाङ्कपर्यन्तं ज २ ३ ४ ५ ६ अपवर्तिते लब्धं चतुर्वारसंकलनधनं भवति१६ १६ १६ १६ १६ ५ ४ ३ २ १ .... एवमनन्तभागवृद्धियुक्तचरमविकल्पे तिर्यक्पदं सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्र २ इस संकलित धनको अपने अभिप्रायके अनुसार लानेके लिए केशववर्णीने दो गाथाएँ कही हैं । उनका अर्थ उदाहरण पूर्वक कहते हैं-अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थानोंमें जो विवक्षित स्थान है,वह तिर्यक पद है। जैसे छठा स्थान तिर्यक्पद है। उसमें एक घटानेपर उसके नीचे पाँच संकलन बार होते हैं। प्रक्षेपकके नीचे कोठोंमें-से प्रत्येकमें क्रमसे एक बार, दो बार आदि २० सम्भव संकलनोंकी संख्या होती है। यहाँ इष्ट चार बार संकलन धन गत कोठेके धनको लानेके लिए इष्ट संकलन बारके प्रमाण ४ को ऊर्वपद ६ में कम करनेपर ६-४ =२ आदि होता है । इस आदि दोसे लगाकर एक-एक अधिकके क्रमसे ऊध्वे गच्छ छह पर्यन्त गुणकार होते हैं यथा २, ३, ४, ५, ६ । इन गुणाकारोंके नीचे भागहार एक रूप आदि एक अधिक बढ़ते हुए उल्टे क्रमसे होते हैं । सो यहाँ चार बार संकलनके कोठेमें चूर्णि है। जघन्यमें पाँच २५ बार अनन्तका भाग देनेसे जो प्रमाण आता है, उतना चूणिका प्रमाण है। इस प्रमाणके गुणकार क्रमसे दो, तीन, चार, पाँच, छह हैं और पाँच, चार, तीन, दो एक भागहार हैं। गुणकारसे चूणिके प्रमाणको गुणा करके भागहारोंका भाग देनेपर यथायोग्य अपवर्तन करनेपर छह गुणित चूर्णि मात्र प्रमाण आता है। इसका आशय यह है जो १६, १६, १६, १६, १६ यह चूणिका प्रमाण है । 'ज' अर्थात् जघन्य पर्याय ज्ञानमें १६ अर्थात् अनन्तका पाँच बार ३० १. मणांकमेन्नेवर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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