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________________ ९०७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नियमदिदमक्कुमा नाल्कुमपर्याप्तगुणस्थानंगळावु दोडे पेळ्दपं: मिच्छे सासणसम्मे पुंवेदयदे कवाडजोगिम्मि । णरतिरिये वि य दोण्णि वि होतित्ति जिणेहि णिढेि ॥६८१।। मिथ्यादृष्टौ सासादनसम्यग्दृष्टौ पुवेदासंयते कवाटयोगिनि नरतिरश्चि च द्वावपि भवत इति जिन निदिष्टं। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं पुवेदोदयासंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं कवाटसमुद्घातसयोगकेवलिगुणस्थानदोमितु मनुष्यरोळं तिय्यंचरोळमा यरडुमौदारिककाययोग, तन्मिश्रकाययोगमुमप्पुर्वेदितु वीतरागसर्वरिदं पेळल्पटुदु । मत्तमौदारिकमिश्रकाययोगदोळ एकेंद्रियबादरसूक्ष्मद्वित्रिचतुरिंद्रियासंजिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियापर्याप्नजीवसमाससप्तकम सयोगिकेवलियोळु कवाटसमुद्घातदोळ औदारिकमिश्रयोगमदुर्बु कूडि जीवसमासाष्टकमक्कुं १० | औ मिश्र ४ वेगुव्वं पज्जते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु । सुरणिरयचउठाणे मिस्से ण हि मिस्सजोगो दु ॥६८२।। वैगुः पर्याप्त इतरस्मिन् खलु भवति तस्य मिश्रस्तु। सुरनारकचतुःस्थाने मिश्रे न हि मिश्रयोगस्तु ॥ वैक्रियिककाययोग पंचेंद्रियपर्याप्त देवनारकमिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टय- १५ दोळक्कुं। तन्मिश्रयोगं देवनारकमिथ्यादृष्टिसासादनासंयतगुणस्थानत्रयदोळमक्कुं। वैक्रियिकतन्मिश्रयोगः अपर्याप्तचतुर्गुणस्थानेष्वेव नियमेन ॥६८०॥ तेषु केषु ? इति चेदाह मिथ्यादृष्टी सासादने वेदोदयासंयते कपाटसमुद्घातसयोगे, चैतेषु अपर्याप्तचतुर्गुणस्थानेषु स ओदारिकमिश्रयोगः स्यादित्यर्थः । ती योगी द्वावपि नरतिरश्चोरेवेति सर्वहरुक्तम् । जीवसमासाः औदारिकयोगे पर्याप्ताः सप्त । तेन मिश्रयोगे अपर्याप्ताः सप्त । सयोगस्य चैकः एवमष्टी ॥६८१।। वैक्रियिककाययोगः पर्याप्तदेवनारकमिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्गणस्थानेषु भवति खलु स्फुटम् । तु-पुनः २० चार गुणस्थानों में होता है ॥६८०॥ किन गुणस्थानोंमें होता है,यह कहते हैं मिथ्यादृष्टि में, सासादनमें, पुरुषवेदके उदय सहित असंयतमें और कपाट समुद्घात सहित सयोगकेवलीमें इन चार अपर्याप्त अवस्था सहित गुणस्थानों में औदारिकमिश्रयोग २५ होता है । औदारिक और औदारिकमिश्र ये दोनों भी योग मनुष्य और तिर्यंचोंमें ही सर्वज्ञदेवने कहे हैं। औदारिक योगमें सात पर्याप्त जीवसमास होते हैं। अतः औदारिक मिश्र योगमें सात अपर्याप्त जीवसमास होते हैं और सयोगकेवलीके एक जीवसमास होता है इस तरह आठ जीवसमास होते हैं ॥६८१॥ वैक्रियिक काययोग पर्याप्त देव नारकियोंके मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें ३० होता है । वैक्रियिक मिश्रकाय योग मिश्रगुणस्थानमें तो नहीं होता, अतः देवनारकियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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