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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७८३ tfsig विकल दोपुट्टि संख्यातसहस्रवर्षगळनिट्टु बंदु पंचेंद्रियजीवनागि तद्भवप्रथम समयं मोवल्गो'डु कृष्णनील कपोत तेजः पद्मलेश्येगळोळु प्रत्येकमंतर्मुहूर्त्तातिर्मुहूतंगळनिदु शुक्लश्येयं पोद्दिदोडदुत्कृष्टांत रं शुक्ललेश्येगे सप्तांतर्मुहर्त्ताधिक संख्यात वर्षसहस्राधिकमप्प पळितोपमा संख्यातैकभागाधिकसागरोपमद्वयाभ्यधिकावल्यसंख्यातैकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनप्रमितमक्कुं । नील कपोत तेजो. पद्मलेश्या अंत=कृ २१ । १० २१ ८ अपूव ८ पू व ८ सा ३३ सा ३३ ज २१ २१ २१ । ६ पूव-८ सा ३३ २१ पदिनाळनेय अंतराधिकारंतिदु दु । Jain Education International २१ । ६ व ७००० पुद २ aa २१ २१ । ५ व ७००० प सागरोप २ a २१ शुक्ललेश्या २१ । ७ व ७००० सागरोप १ a a पुद्गल प २ पुद्गल परा २ a a For Private & Personal Use Only प a २१ अनंतरं भावाधिकारमुमं अल्पबहुत्वाधिकार मुमंनों वे सूत्रदिदं पेदपं :भावादी छल्लेस्सा ओदइया होंति अप्पबहुगं तु । दवमाणे सिद्धं इदि लेस्सा वण्णिदा होंति ॥५५५॥ भावतः षड्लेश्या औयिका भवंति अल्पबहुकं तु । द्रव्यप्रमाणे सिद्धं इति लेश्या वर्णिता भवंति ॥ तैजसी च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त स्थित्वा प्राग्वत् सौधर्मद्वये पल्यासंख्यातैकभागाधिकद्विसागरोपमस्थिति एकेन्द्रियेण आवल्यसंख्यातैकभागमात्र पुद्गलपरावर्तनानि विकलेन्द्रियेषु संख्यातसहस्रवर्षाणि च नीत्वा पञ्चेन्द्रियभवप्रथमसमयात् कृष्णनीलकपोततेजः पद्मलेश्यामु एकैकान्तर्मुहूतं स्थित्वा शुक्लां गच्छति तदासप्तान्तर्मुहूर्त संख्यातवर्षस हस्रपलितोपमासंख्यातैकभागाधिक सागरोपमद्वयावल्य- संख्यातैकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनानि उत्कृष्टान्तरं भवति ॥ ५५३ - ५५४ ॥ इत्यन्तराधिकारः ॥ १३ ॥ अथ भावाल्पबहुत्वाधिकारावाह इतना उत्कृष्ट अन्तर पद्मलेश्याका होता है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या में भी जानना । किन्तु शुक्ल से पद्म और तेज में एक-एक अन्तर्मुहूर्त ठहरकर पहलेकी तरह सौधर्म युगलमें पल्यके असंख्यात भाग अधिक दो सागरकी स्थिति बिताकर एकेन्द्रियों में आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गल परावर्तन और विकलेन्द्रियोंमें संख्यात हजार वर्ष बिताकर पंचेन्द्रिय होता है । वहाँ भवके प्रथम समय से कृष्ण, नील, कपोत, तेज, और पद्मलेश्यामें एक अन्तमुहूर्त ठहरकर शुक्ललेश्या में जाता है। तब सात अन्तर्मुहूर्त, संख्यात हजार वर्ष, पल्यंके असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर, और आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गल परावर्तन उत्कृष्ट अन्तर होता है ॥५५४|| ५ १० १५ २० www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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