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________________ ६५८ गो० जीवकाण्डे अनंतरं तिय्यंग्मनुष्यगतिगळोळवधिविषयक्षेत्रमं पेळ्दपं। तिरिए अवरं ओघो तेजालंबे य होदि उक्कस्सं । । मणुए ओघं देवे जहाकम सुणुह बोच्छामि ॥४२५॥ __तिर्याश्च्यवरमोघः तेजोऽवलंबे च भवत्युत्कृष्टं। मनुजे ओघः देवे यथाक्रमं श्रृणुत ५ वक्ष्यामि ॥ तिर्यग्गतिय तिय्यंचरोळु देशावधिज्ञान जघन्यमक्कु । मेले तेजः शरीरपयंतं सामान्योक्त द्रव्यक्षेत्रकालभावंगळुत्कृष्टदिदमल्लिपय्यंत विषयमप्पुवु। मनुजरोळ देशावधिजघन्यं मोदल्गोंडु सावधिज्ञानपय्यंतं सामान्योक्तसचमुमप्पुषु । देवगतियोळु देवर्करो यथाक्रमदिदं पेव केळि : पणुवीसजोयणाई दिवसंतं च म कुमारभोम्माणं । संखेज्जगुणं खेतं बहुगं कालं तु जोइसिगे ।।४२६॥ पंचविंशतिर्योजनानि दिवसस्यांतश्च कुमारभौमानां। संख्येयगुणं क्षेत्र बहुकःकालस्तु ज्योतिष्के॥ __भावनरोळं व्यंतरोळं जघन्यदिदमिप्पत्तैदु योजनंगळुमोदु दिनदोळगे विषयमक्कु। १५ ज्योतिष्करोळु भवनवासिव्यंतररुगळ जघन्यविषयक्षेत्रमं नोडलु संख्यातगुणितं क्षेत्रमक्कु बहु कालमक्कु। नरके योजनं संपूर्ण भवति ॥४२४॥ अथ तिर्यग्मनुष्यगत्योराह तिर्यग्जीवे देशावधिज्ञानं जघन्यादारभ्य उत्कृष्टतः तेजःशरीरविषयविकल्पपर्यन्तमेव सामान्योक्ततद्व्यादिविषयं भवति । मनुजे देशावधिजघन्यादारभ्य सर्वावधिज्ञानपर्यन्तं सामान्योक्तं सर्व भवति ॥४२५॥ २. देवगतौ यथाक्रमं वक्ष्यामि शृणुत भावनव्यन्तरयोजघन्येन पञ्चविंशतियोजनानि किंचिदूनदिवसश्च विषयो भवति । ज्योतिष्के क्षेत्रं ततः संख्यातगुणं, कालस्तु बहुकः ॥४२६॥ पृथिवीमें आधा-आधा कोस बढ़ता जाता है। इस तरह प्रथम नरकमें सम्पूर्ण योजन क्षेत्र होता है ॥४२४॥ अब तिर्यचगति और मनुष्यगतिमें कहते हैं तियंचजीवमें देशावधिज्ञान जघन्यसे लेकर उत्कृष्टसे तेजसशरीर जिस भेदका विषय है, उस भेद पर्यन्त होता है। सामान्य अवधिज्ञानके वर्णनमें वहाँ तक द्रव्यादि विषय जो कहे हैं, वे सब होते हैं। मनुष्यमें देशावधिके जघन्यसे लेकर सर्वावधिज्ञान पर्यन्त जो सामान्य कथन किया है, वह सब होता है। आगे यथाक्रम देवगति मैं कहूँगा। उसे ३० सुनो ॥४२५॥ अब देवगतिमें कहते हैं भवनवासी और व्यन्तरोंमें अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र जघन्यसे पचीस योजन है और काल कुछ कम एक दिन है । तथा ज्योतिषी देवोंमें क्षेत्र तो इससे संख्यातगुणा है और काल बहुत है।४२६॥ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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