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________________ ८८६ गो० जीवकाण्डे साधारणंगळेप्पुवु । करणलब्धि भव्यनोळयप्पुरिदं सम्यक्त्वग्रहणदोळं चारित्रग्रहणदोळमक्कुं। अनंतरमीयुपशमसम्यक्त्वमं कैको ब जीवनं पेळ्दपरु : चउगइ भव्वो सण्णी पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो। जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमइ ॥६५२॥ चतुर्गतिभव्यः संज्ञिपर्याप्तः शुद्धश्च साकारः। सल्लेश्यो जागरिता सलब्धिकः सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥ चतुर्गतियभव्य, संज्ञियं पर्याप्तकर्नु विशुद्धनुं भेदग्रहणमाकारमें बुददरोळकूडिदनुमप्पुरिदं साकारनुं स्त्यानगृद्धयादिनिद्रात्रयरहितनुं भावशुभलेश्यात्रयदोळन्यतमलेश्यायुतनुं करणलब्धिपरिणतनुमितप्प जीवं यथासंभवमप्प सम्यक्त्वमं पोदईगुं। चत्तारि वि खेसाई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तु ।।६५३।। चतुर्णा क्षेत्राणामायुबंधेन भवति सम्यक्त्वं । अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुष्कं मुक्त्वा ॥ नारकायुष्यमुमं तिर्यगायुष्यमुमं मनुष्यायुष्यमुमं देवायुष्यमुमं परभवायुष्यंगळं कट्टिद बद्धायुष्यरुगळप्प जीवंगळु सम्यक्त्वम स्वीकरिसुवरल्लि दोषमिल्लमणुवतमहाव्रतंगळं पडेयल्के १५ नेरेयरल्लि, देवायुबंधमाद जीवंगळ अणुव्रतमहावतंगळं स्वीकरिसुवर। चतस्रोऽपि सामान्याः भव्याभव्ययोः संभवात् । करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च ॥६५१॥ अथोपशमसम्यक्त्वग्रहणयोग्यजीवमाह-- यः चतुर्गतिभव्यः संज्ञी पर्याप्तकः विशुद्धः आकारेण भेदग्रहणेन सहितः स्त्यानगृद्धयादिनिद्रात्रयरहितः भावशुभलेश्यात्रये अन्यतमलेश्यः करणलब्धिपरिणतः स जीवो यथासंभवं सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥६५२॥ चतुर्णा परभवायुषां एकतमबन्धेन जातबद्धायुष्कस्य सम्यक्त्वं भवत्यत्र दोषो नास्ति । अणुव्रतमहाव्रतानि तु एकं बद्धदेवायुष्क मुक्त्वा नान्ये लभन्ते ॥६५३॥ हैं-भव्य और अभव्य दोनोंके होती हैं। किन्तु अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणाम रूप करणलब्धि भव्यके ही होती है। वह भी सम्यक्त्व और चारित्र ग्रहणके समय होती है ॥६५१॥ उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके योग्य जीवको कहते हैं जो चारों गतियों में से किसी भी गतिमें वर्तमान है। किन्तु भव्य, पर्याप्तक, विशुद्ध, साकार उपयोगवाला, स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओंसे रहित अर्थात्, तीन शुभ भाव लेश्याओंमें-से किसी एक लेश्याका धारक और करणलब्धि रूप परिणत होता है, वह जीव यथासम्भव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥६५२॥ परभव सम्बन्धी चारों आयुओं में से किसी भी एक आयुका बन्ध कर लेनेपर जो जीव बद्धायु हो गया है, उसके सम्यक्त्व उत्पन्न होने में कोई दोष नहीं है। किन्तु अणुव्रत और महाव्रत एक बद्धदेवायु-जिसने परभव सम्बन्धी देवायुका बन्ध किया है-को छोड़कर अन्य आयुका बन्ध कर लेनेवाले बद्धायुष्कके नहीं होते ॥६५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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