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________________ ७०६ गो० जीवकाण्डे भागमसंख्यातभागं संख्यातभागं संख्यातगुणमसंख्यातगुणमनंतगुणमेब हानिवृद्धिगळ नामंगळुमुत्कृष्टसंख्यातमुमसंख्यातलोक, सर्वजीवराशियुमेंब प्रमाणंगळु भागक्रमदोळं गुणितक्रमदोळमिवेयप्पुर्वेदु श्रुतज्ञानमार्गणेयोल पेळव क्रममिल्लियुमरियल्पडुगुम बुदु तात्पर्य ॥ नाल्कनय संक्रमणाधिकारंतिदुदु ॥अनंतरं कर्माधिकारमं गाथाद्वयदिदं पेळ्वपं: ५ श्रुतज्ञानमार्गणायां उक्तकमेणैव भवन्ति । तत्र अनन्तभागः असंख्यातभागः संख्यातभागः संख्यातगुणः असंख्यात गुणः अनन्तगुणश्चेति नामानि । उत्कृष्टसंख्यातमसंख्यातलोकः सर्वजीवराशिश्चेति भागक्रमे गणितक्रमे च प्रमाणानि भवन्ति ॥५०६॥ इति संक्रमणाधिकारश्चतुर्थः ॥ अथ कर्माधिकारं गाथाद्वयेनाह नाम और उनका प्रमाण पहले श्रुतज्ञानमार्गणामें जैसा कहा है , वैसा ही जानना। उनके नाम अनन्तभाग, असंख्यात भाग, संख्यात भाग, संख्यात गुण, असंख्यात गुण और अनन्त 1. गुण हैं । उनका प्रमाण जीवराशि, असंख्यात लोक और उत्कृष्ट संख्यात क्रमसे हैं। यह भाग और गुणेका प्रमाण है ।।५०६॥ विशेषार्थ-अनन्त भाग, असंख्यात भाग, संख्यात भाग, संख्यात गुण, असंख्यात गुण, अनन्त गुण ये छह स्थानोंके नाम हैं। इनका प्रमाण गुणकार और भागहार में पूर्ववत् जानना। पूर्व में वृद्धिका अनुक्रम कहा है हानिमें उससे उलटा अनुक्रम है ; वही कहते हैं। १५ कापोतलेश्याके जघन्यसे लगाकर कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट पर्यन्त विवक्षा हो,तो क्रमसे संक्लेशकी वृद्धि होती है। यदि कृष्णलेश्याके उत्कृष्टसे लगाकर कापोतलेश्याके जघन्य पर्यन्त विवक्षा हो, तो संक्लेशकी हानि होती है। तथा पीतके जघन्यसे लगाकर शुक्लके उत्कृष्ट पर्यन्त विवक्षा हो,तो क्रमसे विशुद्धिकी वृद्धि होती है । यदि शुक्लके उत्कृष्टसे लगाकर पीतके जघन्य पर्यन्त विवक्षा हो,तो क्रमसे विशुद्धिकी हानि होती है । सो वृद्धिमें षट्स्थानपतित वृद्धि और २० हानिमें षट्स्थानपतित हानि जानना। पूर्व में कहा था कि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र बार अनन्त भागवृद्धि होनेपर एक बार अनन्त गुणवृद्धि होती है। उसमें अनन्त गुणवृद्धिरूप स्थान नवीन षट्स्थान पतित वृद्धिका प्रारम्भरूप प्रथम स्थान है। उसके पहले जो अनन्त भाग वृद्धिरूप स्थान है, वह विवक्षित षस्थानपतित वृद्धिका अन्तस्थान है। नवीन षट्स्थानपतित वृद्धिके अनन्त २५ गुणवृद्धिरूप प्रथम स्थानके आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्त भागवृद्धिरूप स्थान होते हैं,उसके आगे पूर्वोक्त अनुक्रम जानना। यहाँपर कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट स्थान षट्स्थानपतितका अन्त स्थानरूप होनेसे पूर्व. स्थानसे अनन्तभाग वृद्धिरूप है। और कृष्णलेश्याका जघन्य स्थान षट्स्थान पतितका प्रारम्भरूप प्रथम स्थान है। उसके पूर्व नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान,उससे अनन्त गुण वृद्धि३० रूप है। तथा कृष्णलेश्याके जघन्यका समीपवर्ती स्थान उस जघन्य स्थानसे अनन्त भाग वृद्धिरूप है। हानिकी अपेक्षा कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट स्थानसे उसके समीपवर्ती स्थान अनन्त भाग हानिको लिये है। कृष्णलेश्याके जघन्य स्थानसे नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्त गुण हानिको लिये है । इसी प्रकार अन्य स्थानोंमें भी जानना ॥५०६॥ ___चतुर्थ संक्रमण अधिकार समाप्त हुआ। अब कर्माधिकार दो गाथाओंसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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