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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका गुणमक्कु। जहखादसंजमो पुण उवसमदो होदि मोहणीयस्स । खयदो वि य सो णियमा होदि त्ति जिणेहि णिढुिटुं ॥४६८॥ यथाख्यातसंयमः पुनरुपशमाद्भवति मोहनीयस्य । क्षयतोपि च स नियमाद् भवति इति जिनैर्निर्दिष्टं ॥ यथाख्यातसंयम मते मोहनीयदुपशमदिंदमक्कु। मोहनीयनिरवशेषक्षयदिदमुआ यथाख्यातसंयम नियमदिदमक्कुम दितु जिनरुर्गाळंदं पेळल्पटुदु। तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । बिदियकसायुदयेण य असंजमो होदि णियमेण ॥४६९॥ तृतीयकषायोदयेन च विरताविरतगुणो भवेयुगपत् । द्वितीयकषायोदयेन च असंयमो भवति । नियमेन ॥ . प्रत्याख्यानावरणतृतीयकषायोददिदं विरताविरतगुणमोम्मों दलोळेयक्कुं। संयमुमसंयममुमोम्मोदलोळेयककुमदुकारणमागि सम्यग्मिथ्यादृष्टिय तंते देशसंयतनुंमिश्रसंयमियक्कुमेंबुदथें । द्वितीयकषायोदयदोळप्रत्याख्यानकषायोदयदोळसंयम नियमदिधं मक्कु। संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं । जीवो समुव्यतो सामाइयसंजदो होदि ।।४७०॥ संगृह्य सकलसंयममेकयममनुतरं दुरवगम्यं । जीवःसुमुद्वहन् सामायिकसंयमो भवति ॥ संगृह्य सकलसंयमं व्रतधारणादिपंचविघमप्पसंयममं युगपत्सर्वसावधाद्विरतोस्मि येदितु संग्रहिसि संक्षेपिसि एकयमं भेदरहितसकलसावद्यनिवृतिस्वरूपमप्प एकयममं अनुत्तरं असदृशं सूक्ष्मसांपरायसंयमगुणो भवति ॥४६७॥ स यथाख्यातसंयमः पुनः मोहनीयस्योपशमतः निरवशेषक्षयतश्च नियमेन भवतीति जिनरुक्तम् ॥४६८॥ प्रत्याख्यानकषायोदयेन विरताविरतगुणो युगपद् भवति, संयमासंयमयोर्युगपत्संभवात् । सम्यग्मिथ्यादृष्टिवद्देशसंयतोऽपि मिश्रसंयमीत्यर्थः । अप्रत्याख्यानकषायोदये असंयमो नियमेन भवति ॥४६९॥ सकलसंयम-व्रतधारणादिपञ्चविधं युगपत्सर्वसावद्याद्विरतोऽस्मीति संगृह्य-संक्षिप्य, एकयमं-भेदरहितपर्यन्त होते हैं। सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त संज्वलन लोभका उदय होते हुए सूक्ष्म साम्पराय नामक २५ संयमगुण होता है ।।४६७।। यथाख्यात संयम नियमसे मोहनीयके उपशमसे अथवा सम्पूर्ण क्षयसे होता है, ऐसा जिनदेवने कहा है ॥४६८॥ ___ तीसरी प्रत्याख्यान कषायके उदयसे एक साथ विरतअविरतरूप गुण होता है, क्योंकि संयम और असंयम एक साथ होते हैं। अर्थात् जैसे तीसरे गुणस्थानमें सम्यक्त्व ३० और मिथ्यात्व मिले-जुले होते हैं, वैसे ही देशसंयत नामक पंचम गुणस्थानमें संयम और असंयम मिला हुआ होता है। दूसरी अप्रत्याख्यान कषायके उदयमें नियमसे असंयम होता है ॥४६९॥ व्रतधारण आदि रूप पाँच प्रकारके सकल संयमको एक साथ 'मैं समस्त सावद्यसे विरत हूँ' इस प्रकार संगृहीत करके एक यम रूपसे धारण करना सामायिक संयम है। ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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