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________________ इल्लिगुपयोगियप्पार्थ्यावृत्तं : - कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु । जातो मृतश्च बहुशः परिभ्रमन्काल संसारे ॥ उत्सर्पणावसर्पणगळ समयमालेयोळे नितोळवनितु समयंगळोळु यथाक्रर्मादि पुट्टिदनुं पो दिदनुमनंतवारं कालसंसारदो परिभ्रमित्तं जीवनुं । भवपरिवर्त्तनं पेळल्पडुगुं - नरकगतियोळ सर्वजघन्यायुर्दशवर्षसहस्रप्रमितमक्कु मंतप्पायददमलिये पुट्टि पोरमट्टु मत्तं संसारदोळु परिभ्रमिसि या जघन्यायुर्ष्याददमल्लिये पुट्टिदनितु दशवर्षसहस्रंगळ समयंगळे नितोळवनितु वारंगळनलिये पुट्टिदनुं मृतमादनुं । बलिकेकैकसमयाधिकभावददं त्रयस्त्रिशत्सागरोपमंगळु समानं माडल्पट्टुवु । बळिक्कमा नरकगतियिदं बंदु तिर्य्यग्गतियो अंतर्मुहूर्त्तजघन्यायुष्यदिदं पुट्टि मुन्निनंते यंतर्मुहूर्त्त समयंगळे नितोळवनितु वारं १० पट्टि मेले समयाधिक भावदिदं त्रिपल्योपमंगळमा जीवनदं परिसमाप्ति माडल्पट्टविते । मनुष्यगतियो ं त्रिपल्योपमंगळा जीवानंदमे परिसमाप्ति माडल्पडुवुवु । नरकगतियोळपेदंते देवगतियोळं दशवर्षसहस्त्रसमयसमाप्तियिदं मेले समयोत्तरक्रमायुष्यनागुत्तमेकत्रिशत्सागरोपमंगळ परिजन्मनैरन्तर्यमुक्तं । मरणस्याप्येवं नैरतयं ग्राह्यं । तदेतत्सर्वं कालपरिवर्तनं भवति । अत्रोपयोग्यार्यावृत्तं - उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु । Jain Education International ७९५ जातो मृतश्च बहुशः परिभ्रमन् कालसंसारे ॥ उत्सर्पणावसर्पणयोः सर्वसमयमालायां क्रमेण उत्पन्न: मृतश्व अनन्तवारकालसंसारे परिभ्रमन् जीवः । भवपरिवर्तनमुच्यते - नरकगतौ सर्वजघन्यायुर्दशसहस्रवर्षाणि तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः संसारे भ्रान्त्वा तेनैव आयुषा तत्रैवोत्पन्नः । एवं दशसहस्रवर्ष समयवारं तत्रैवोत्पन्नो मृतः । पुनः एकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रशत्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । पश्चात् तिर्यग्गती अन्तर्मुहूर्तायुषा उत्पन्नः प्राग्वत् अन्तर्मुहूर्तसमयबारमुत्पन्नः उपरिसमयाधिकभावेन त्रिपल्योपमानि तेनैव जीबेन परिसमाप्यन्ते । एवं मनुष्यगतावपि त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवेन परिसमाप्यन्ते । नरकगतिवद्देवगतावपि दशसहस्रवर्षसमयसमाप्तेरुपरि समयोत्तरक्रमेण एकत्रिंश For Private & Personal Use Only ५ १५ परिवर्तन है । इस विषय में उपयोगी आर्यावृत्तका आशय इस प्रकार है - काल संसारमें अनन्त बार भ्रमण करता हुआ जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयों में क्रमसे उत्पन्न हुआ और मरा। २५ ३० भवपरिवर्तन कहते हैं— नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष है । उस आयु से नरक में उत्पन्न हुआ । पुनः संसार में भ्रमण करके उसी आयुसे वहीं उत्पन्न हुआ । इस प्रकार दस हजार वर्षके समयोंकी जितनी संख्या है, उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मरा । पुनः एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तैंतीस सागर पूर्ण किये। फिर तिर्यंचगति में अन्तर्मुहूर्तकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । पहलेकी तरह अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। फिर एक-एक समयकी आयु बढ़ाते-बढ़ाते उसी जीवने तीन पल्य तक सब आयु भोग डाली । इसी प्रकार मनुष्यगति में भी उसी जीवने तीन पल्य तककी सब आयु भोगकर समाप्त की । नरकगतिकी तरह देवगतिमें भी दस हजार वर्षके समयप्रमाण दस हजार वर्षकी आयुसे उत्पन्न होकर उसे भोगनेके पश्चात् एक-एक समयकी आयु क्रमसे बढ़ाते-बढ़ाते इकतीस सागरकी आयु पूर्ण की। इस प्रकार भ्रमण करनेके पश्चात् आकर पुनः पूर्वोक्त जघन्यस्थितिवाला नारकी होकर नया भवपरिवर्तन २० ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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