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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७६९ रज्जुवर्ग पुटुगु। रूवपरिहोणे । रूपमेकप्रदेशमदरिदं होनमादोडिदु ७१७ रूऊणगुणेणहिये ७।७।१५ मुहेण गुणियम्मि गुणगणियं = २॥ १६ ॥ १६ मुखं पुष्करसमुद्रमक्कु । मत्त ७।७.१५ मिदं संकलितधनम चतुविशतिखंडंगळिंदम जंबूद्वीपक्षेत्रफलदिदम योजनांगुलंगळ वर्गदिंदमुं रूवपरिहोणे , 2. रूऊणगुणेणहिये -- मुहेण गुणयम्मि गुणगणियं = २ । १६ । १६ पुनरिदं चतुर्विंशति ७ । ७ । १५ ওও ७७ । १५ विवक्षित गच्छके आधा प्रमाणमात्र विवक्षित गुणाकारको रखकर परस्परमें गुणा ५ करनेपर जो प्रमाण होता है,वही प्रमाण विवक्षित गच्छ प्रमाण मात्र विवक्षित गणाकार का वर्गमूल रखकर परस्परमें गुणा करनेपर होता है। जैसे विवक्षित गच्छ आठके आधे प्रमाण चार जगह विवक्षित गुणाकार नौको रखकर परस्परमें. गुणा करनेपर पैंसठ सौ इकसठ होते हैं । वही विवक्षित गच्छमात्र आठ जगह विवक्षित गुणाकार नौका वर्गमूल तीन रखकर परस्परमें गुणा करनेपर पैंसठ सौ इकसठ होते हैं। इसी प्रकार यहाँ विवक्षित गच्छ एक राजूके अधच्छेदके अधच्छेद प्रमाण मात्र जगह सोलह-सोलह रखकर परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,वही राजूके अर्धच्छेद मात्र सोलहका वर्गमूल चार-चार रखकर परस्परमें गुणा करनेपर प्रमाण होता है । सो राजूके अर्धच्छेद मात्र जगह दो-दो रखकर गुणा करनेपर राजू होता है और उतनी ही जगह दो-दो बार दो रखकर परस्परमें गुणा करनेपर राजूका वर्ग होता है । सो जगत्प्रतरको दो बार १५ सातका भाग देनेपर इतना ही होता है। उसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण हो, उसको एक हीन गुणाकार के प्रमाण पन्द्रहसे भाग दें। यहाँ आदिमें पुष्कर समुद्र है, उसमें लवणसमुद्र समान खण्डोंका प्रमाण दोको दो बार सोलहसे गुणा करे जो प्रमाण हो, उतना है, वही मुख है। उससे गुणा करे। ऐसा करनेपर एक हीन जगत्प्रतरको दो सोलह-सोलहका गुणाकार और सात सात पन्द्रहका भागहार हुआ। अथवा राजूके अर्धच्छेद प्रमाण सोलहफा वर्गमूल चार- २० को रखकर परस्परमें गुणा करनेसे भी राजूका वर्ग होता है। अथवा राजूके अधच्छेद प्रमाण स्थानोंमें दो-दो रखकर उन्हें परस्परमें गुणा करनेसे राजूका प्रमाण होता है और राजू प्रमाण स्थानोंमें दो-दो रखकर परस्परमें गुणा करनेसे राजूका वर्ग होता है। सो ही जगत्प्रतरमें दो बार सातसे भाग देनेपर भी इतना ही होता है । इसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण हो उसे एक हीन गुणाकार, पन्द्रहसे भाग दो। इसको मुखसे गुणा करो। सो यहाँ आदिमें पुष्कर २५ समुद्र है, उसमें लवणसमुद्र के समान खण्डोंका प्रमाण दोको दो बार सोलहसे गुणा करो, २४१६४१६ उतना है। वही यहाँ मुख है, उसीसे गुणा करो। ऐसा करनेसे एक कम जगत्प्रतरको दो, सोलह-सोलहसे गुणा और सात, सात, पन्द्रहसे भाग हुआ; यथा=२४१६४१६ । एक लवण समुद्रमें जम्बूद्वीपके समान चौबीस खण्ड होते हैं। अतः ७७/१५ इस राशिमें चौबीससे गुणा करना। और जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलसे गुणा करना। एक योजनके सात लाख अड़सठ हजार अंगुल होते हैं । यहाँ राशि वर्गरूप है और वर्गराशिका भागहार Jain Education Internatio For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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