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________________ ८८० गो० जीवकाण्डे प्रमितं वामरप्परु।-३-। सनत्कुमारकल्पद्वयदोळु गुणप्रतिपन्नारदं किंचिदूनैकादशजगच्छेणिमूलभक्त जगच्छेणिप्रमितवामरप्परु। किंचिदूनक्किल्लि हारंगळु साधिकगळेदु निश्चैसुवद ११ ब्रह्मकल्पद्वयवामहं निजनवममुलभक्तजगच्छ्रेणिमात्रं किंचिदूनं वामरप्परु ९ लांतवकल्पद्वयदोळु निजसप्तममूलभक्तजगच्छेणिमात्रं किंचिदूनमागि वामरप्परु शुक्रकल्पद्वयदोळु निजपंचममूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्रं किंचिदूनमागि वामरप्परु । ५। शतारकल्पद्वयदोळु निजचतुर्थमूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्रं किंचिदूनमागि वामरप्पा ४ । ज्योतिष्करोळु गुणप्रतिपरिदं किंचिदूनमागि पण्णट्ठिमात्र प्रतरांगुलभक्तजगत्प्रतरमात्र वामरप्पर ।।६५= व्यंतररोळु गुणप्रतिपन्नराशित्रयहीन संख्यातप्रतरांगुल भक्तजगत्प्रतरमात्रं वामरप्परु । ४।६५-८ ११४ । भवनवासिगरोळु गुणप्रतिपन्नराशित्रयहीनघनांगुलप्रथममूलमात्रं जगच्छेणिप्रमितं वामरुगळप्परु -१-। तिय्यंचरोळु १० गुणप्रतिपन्नराशिचतुष्टयविहीनसकलसंसारिराशितत्रत्यवामरुगळप्परु १३-। प्रथमपवियोल गुणप्रतिपन्नराशित्रयहीनघनांगुलद्वितीयमूलगुणजगच्छ्रेणियोळु साधिकद्वादशांशविहीनमात्रं वामरुगळप्परु --२-१२। द्वितीयपृथ्विोळु गुणप्रतिपन्नराशित्रयविहीन निजद्वादशमूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्र वामरुगळप्पु १३ तृतीयपृथ्वियोळु निजदशममूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्र गुणप्रतिपन्नरु गळिदं किंचिदूनमक्कु १ . चतुर्थपृथ्वियोळु गुणप्रतिपन्नरुगळिवं विहीन ३ निजाष्टममूल १५ जगच्छ्रेणिः । सनत्कुमारद्वयादिपञ्चयुग्मेषु किंचिदूना क्रमशो निजकादशमनवमसप्तमपञ्चमचतुर्थमूलभक्तजगच्छ्रेणिः, ऊनतात्र हाराधिका ज्ञेया। ज्योतिष्के पण्णट्ठिप्रतराङ्गुलभक्तः व्यन्तरसंख्यातप्रतराङ्गलभक्तश्च जगत्प्रतरः किंचिदूनः । भवनवासिषु किंचिदूना घनाङ्गुलप्रथममूलहतजगच्छ्रेणिः । तिर्यक्षु किंचिदूनः सर्वतिर्यग्राशिः १३-। प्रथमपृथिव्यां किंचिदूना धनाङ्गलद्वितीयमूलगुणहतजगच्छ्रेणिः साधिकद्वादशांशोना -२-१ । द्वितीयादि १२ देवोंमें कुछ कम देवराशि प्रमाण मिथ्यादृष्टि होते हैं। सौधर्मयुगलमें घनांगुलके तृतीय २. वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाणमें से कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। सानत्कुमार आदि पाँच युगलों में क्रमसे जगतश्रेणिके ग्यारहवें, नौवें, सातवें, पाँचवें और चौथे वर्गमूलका भाग जगतश्रेणिमें देनेसे जो प्रमाण आवे, उसमें कुछ-कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। यहाँ कमीका कारण भागहारकी अधिकता जानना। ज्योतिषीदेवोंमें पण्णट्ठिप्रमाण प्रतरांगुलसे और व्यन्तरोंमें संख्यात प्रतरांगुलसे जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, ६ उसमें कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। भवनवासियों में घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगत्श्रेणि प्रमाणमें कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। तिर्यचोंमें कुछ कम सर्वतिर्यचराशि प्रमाण मिथ्यादृष्टि हैं। प्रथम पृथिवीमें धनांगुलके दूसरे वर्गमूलसे कुछ अधिक बारहवें भागसे हीन जगतश्रेणिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, उतने सब नारकी हैं; उनसे कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें क्रमसे जगतश्रेणिके बारहवें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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