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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६०७ मदेत दोडे असत्यनिवृत्तियं मेणु मौन, वारगुप्तियुमें बुदक्कुं। उरःकंठ शिरोजिह्वामूलदंतनासिकाताल्वोष्ठाख्यंगळष्टस्थानंगळं स्पृष्टतेषत्पृष्टता विवृततेषद्विवृतता संवृतता रूपंगळप्प पंचप्रयत्नंगळु वाक्संस्कार कारणगळे बुवक्कुं । शिष्टदुष्टरूपमप्प वाक्प्रयोगमुं तल्लक्षणशास्त्र संस्कृतादि व्याकरणंगळं वाक्प्रयोगमें बुदक्कुं। इदिवनिदं माडल्पटु बनिष्टकथनरूपमभ्याख्यानमुं। परस्परविरोधकारणकलहवचनमुं परगे दोषसूचनपैशुन्यवचनम । धर्मार्थकाममोक्षाऽसंबधवचन- ५ रूपमबद्धप्रलापमुं इंद्रियविषयंगळोळु रत्युत्पादिकयप्प वापरीतिवचनमुं। अवरोळऽरत्युत्पादिका वाग्रूपारतिवचनम परिग्रहाजनसंरक्षणाद्यासक्तिहेतु वाक्कुपधिवचनम बुदक्कुं । व्यवहारदोळु वंचनाहेतुवाक् निकृतिवाक्कै बुदक्कुं। तपोज्ञानाधिकरोळमविनयहेतुवाक्कप्रणतिवागे बुदु अक्कुं। स्तेयहेतुवचनं मोषबागेबुदक्कुं। सन्मार्गोपदेशवाक् सम्यग्दर्शनवागे बुदक्कुं। मिथ्यामाग्र्गोपदेशवाक् मिथ्यादर्शनवागेबुदक्कुमितु द्वादशभाषेगळे बुदक्कं । द्वींद्रियादिपंचेंद्रियपय्यंतमाद जीवंगळु व्यक्तवक्तृत्वपर्यायमनुळ्ळ वक्तृगळप्पुवु। द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितमप्प बहुविधमसत्यवचनं मृषाभिधानमक्कुं। जनपदसत्यादिदशप्रकारमप्प सत्यं मुंपेळल्पट्ट लक्षणमुळळुदक्कुमी सत्यप्रवाददोळु द्विलक्षगुणितपंचाशत्पदंगळु षडुत्तरकोटियक्कुवक्तृभेदान् बहुविधं मृषाभिधानं दशविधं सत्यं च प्ररूपयति । तद्यथा-असत्यनिवृत्तिर्मोनं वा वाग्गुप्तिः । उरःकण्ठशिरोजिह्वामूलदन्तनासिकाताल्वोष्ठाख्यानि अष्टौ स्थानानि । स्पृष्टतेषत्स्पृष्टताविवृततेषद्विवृततासंवृतता- १५ रूपाः पञ्च प्रयत्नाश्च वाक्संस्कारकारणानि । शिष्टदुष्टरूपः प्रयोगः वाक्प्रयोगः तल्लक्षणशास्त्र संस्कृतादिव्याकरणं वा । इदमनेन कृतमित्यनिष्टकथनरूपमभ्याख्यानं । परस्परविरोधकारणं कलहवचनं । परदोषसूचनं पैशुन्यवचनं । धर्मार्थकाममोक्षासंबद्धवचनरूपः अबद्धप्रलापः । इन्द्रियविषयेषु रत्युत्पादिका वाक् रतिवाक । तेषु अरत्युत्पादिका वाक् अरतिवाक् । परिग्रहार्जनसंरक्षणाद्यासक्तिहेर्वाक उपधिवाक । व्यवहारवञ्चनाहेक निकृतिवाक् । तपोज्ञानादिषु अविनयहेतुर्वाक् अप्रणतिवाक् । स्तेयहेतुर्वाक् मोषवाक् । सन्मार्गोपदेशवाक् २० सम्यग्दर्शनवाक् । मिथ्यामार्गोपदेशवाक् मिथ्यादर्शनवाक् । एवं द्वादशभाषाः । द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ता जीवा व्यक्ताव्यक्तवक्तृत्वपर्यायाः वक्तारः । द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितं बहुविधमसत्यवचनं मृषावाक् । जनपदसत्यादिदस प्रकारके सत्यका कथन करता है। इन सबका स्वरूप इस प्रकार है-असत्यसे निवत्तिया मौनको वचन गुप्ति कहते हैं । उर, कण्ठ, शिर, जिह्वामूल, दाँत, नाक, तालु, ओठ ये आठ स्थान हैं । स्पृष्टता, किंचित् स्पृष्टता, विवृतता, किंचित् विवृतता, संवृतता ये पाँच प्रयत्न हैं । २५ ये सब स्थान और प्रयत्न वचन संस्कारके कारण हैं। शिष्टरूप और दुष्टरूप वचनप्रयोग होता । है। 'यह इसने किया है' ऐसा अनिष्ट वचन अभ्याख्यान है । परस्परमें विरोधका कारण वचन कलह वचन है। दूसरेके दोषको सूचन करना पैशुन्य वचन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसे असम्बद्ध वचन असम्बद्ध प्रलाप है। जो वचन इन्द्रियोंके विषयोंमें रति उत्पन्न करे,वह रतिवाक् है । जो उनमें अरति उत्पन्न करे,वह अरतिवाक् है । परिग्रह के अर्जन और संरक्षण- ३० में आसक्ति उत्पन्न करनेवाले वचन उपधिवाक् है । व्यवहारमें छल-कपट करने में हेतु वचन निकृतिवाक् है । तपस्वी और ज्ञानी जनोंके प्रति अविनयमें हेतु वचन अप्रणतिवाक् है । चोरी करने में हेतु वचन मोषवाक् है । सन्मार्गका उपदेश करनेवाले वचन सम्यकदर्शनवाक् है। मिथ्या मार्गका उपदेश करनेवाले वचन मिथ्यादर्शनवाक् है । इस प्रकार बारह प्रकारकी भाषा है। दोइन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव, जिनमें वक्तृत्व पर्याय व्यक्त और ३५ अव्यक्त हैं,वे वक्ता हैं । द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावकी अपेक्षा अनेक प्रकारका असत्य वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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