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जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज विरचितया अनगारपर्मामृतपरिण्यारयया व्यारयया समलङ्कवं
हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् SHREE GNĀTĀDHARMA KATHANGA SOOTRAM
द्वितीयो भाग.
नियोजक सस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्यास्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराज
प्रकाशक दिल्लीनिवासि - लालाजी-किशनचदजी - साजौहरी-प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदय.
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति धीर-सयत् विक्रम-सवत् ईसवीसन
१९६३
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प्रति १२००
२४८९
२०२०
मरयम-रू. २५-०-०
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મળવાનું ઠેકાણુ
ભા. 8 સ્થાનકવાસી
शास्त्रोद्धार समिति, डिया दूपा २२७, श्रीन
२२और (सौराष्ट्र)
Pablished by Shri Akhil Bharat S S Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), w Ry, India
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्यय निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥
हरिगीतच्छन्द
फरते अपशा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते है तत्व कुछ फिर रत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तच इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
મધ્ય ૩ ૨૫edo
। माति १२०० રિ મ વત્ ૨૪૮૯ વિક્રમ સંવત ૨૦૧૯ सिपीसन १८
મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટિગ પ્રેસ, घोडा सा भभाषा
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दिल्ली निवासी श्रीमान् लालाजी किशनचदजी सा, जौहरीजी के वश का सक्षिप्त जीवन
परिचय
भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली मे श्री नेमीचदजी चौरड़िया का जन्म हुआ । आप बहुत होनहार व्यवसायी और धर्मप्रेमी थे । आप बत्तीस शास्त्र के ज्ञाता थे । आप जैन एर वैदिक साहित्य के भी ज्ञाता थे । आपके पास अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के अतिरिक्त धार्मिक साहित्य का विशाल भंडार था । अल्प वय में ही आप स्वर्गारोहण कर गये । आपके सर से छोटे पुत्र श्री कपूरचदजी चोरडिया भी आप ही की भाति निर्भीक उत्साही कर्मशील एव धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले थे। बीमारी की अवस्था में भी आपने सामायिक जो कि आपका नित्य नियम था, कभी नहीं छोडा । मृत्यु के अतिम दिन तक आपने सामायिक व्रत की आराधना की थी । लाल कपूरचंदजी ने अपने ना पार को बहुत पढाया था । दिल्ली के गणमान्य व्यक्तियों मे आपका नाम था । अनेक वर्षो तक आप समाज के प्रेसीडेन्ट रहे । आपके नेतृत्व मे दिल्ली श्री ने बहुत उन्नति की ।
सघ
आपके सुपा श्री किशनचदजी चौरडिया भी जाप ही की भावि उद्योगी, विवेकवान एव श्रद्धालु श्रावक ह । प्रतिदिन सामायिक, व हर सप्ताह आयंनिल अथवा उपवास का तप करते हैं और अनेक प्रकार के वार्मिक नियम पालते हैं । धार्मिक मवृत्तियों मे सदा दिलचस्पी से भाग लेते हैं । स्थानीय सघ की कार्यकारिणी के आप सदस्य है ।
लाला किशनचदजीकी धर्मपत्नी श्रीमती नगीना देवी चारडिय । प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्नी, एव अनेक धार्मिक व सामाजिक सस्थाओं से समध रखनेवाली है ओर बडी का है, आपका धार्मिक ज्ञान बहुत गंभीर है | आप निचक्षण बुद्धिवाली एव माहित्यप्रेमी हैं। आपके निजी पुस्तकालय मे अनेक जमूल्य हस्त लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त लगभग पाच हजार पुस्तको का सग्रह है । शास्त्रों का स्वाध्याय करना आपका दैनिक नियम है । अनेक महासतीजी महाराज भी आपके ज्ञान का लाभ उठाते है ।
श्रीमती नगीना देवी के पिता लाला धन्नोमल सुजती दिल्ली के प्रसिद्ध रईसों में से थे । धर्म के प्रति
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भरी हुई थी । अनेक दीक्षाएँ आपने कराई । तन, मन, धन से साधुयो की सेवा करने में आपको अपूर्व आनद मिलता था । आपका स्वर्गवास दी ही हो गया था।
स्व. लाला धन्नोमलजी की धर्मपत्नी एव श्रीमती नगीनादेवीजी की माता फूलमतीजी महाराज साहब को जैनदीक्षा अगीकार किये हुए ३१ वर्ष हो है। आप क्योटद्ध, सरलस्वभाषी, घोरसयमी (कठिन सयम पालने वाले) है, सो चौथे आरे की वानगी ही हो। अनेक चपों से आप दिल्ली में स्थवि स किये हुए है। आपके सदुपदेश से दिल्ली के अनेक व्यक्ति अपनी शास्त्रो रसमिति के सदस्य बने है। ___ श्रीमती नगीना देवीकी भाति उनकी पुत्री सुश्री विजयकुमारी वडी निर्भीक युत्पन्नमति, एव धार्मिक रुचि वाली हैं। आपके तृपुन सरलस्वभाव विनयशील
महतावचद भी बड़े धर्मनिष्ठ, समाजसेवी, विनयवान एव सुशिक्षित नवयुश्क हैं । ___ श्रीमती नगीनादेवीके दो पुत्रियाँ और भी हैं । एक-सुश्री विनयकुमारी, सका विवाह जोधपुर निवासी श्रीमान् हुक्मचदजी साहब जैन एडवोकेट के सुपुत्र जिनेन्द्रकुमारजी जैन एडवोकेट से हुआ है। वि० अनिलकुमार जैन, जिनका वत्र इस पुस्तक मे है-इन्हीं के सुपुत्र है । श्री अनिलकुमार अपनी समिति के दस्य हैं । दूसरी पुत्री सुश्री विमलकुमारी का विवाह दिल्लोनिवासी प्रसिद्ध ग्रेसी कार्या स्त्र० श्री मुकुन्दलालनी जौहरी " कोमीनारा" ( यह उपनाम धान मत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने उ ह दिया था) के सुपुत्र श्री हुक्मचदजी सौहरीके साथ हुना है । श्रीमती विमलकुमारी भी अपनी समितिकी सदस्या हैं।
परपरा से ही चौरडिया परिवार धार्मिक प्रवृत्तियों में रुचि रखनेवाला रहा और चुस्तस्थानकवासी हैं । तन मन व धन से समाज व धर्म की खूर सेना करता आया है, यही सदा से इस परिवार का कर्तव्य रहा है।
॥ॐ शातिः॥
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ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के दूसरा भाग की विषयानुक्रमणिका भनुक्रमाक विषय
पृष्ठ अध्ययन-५ १ पाचये अध्ययन की अवतरणिका २ द्वारापति नगरी का वर्णन ३ नदनवन-उद्यानका वर्णन
७-८ १ कृष्णवासुदेवका वर्णन
९-१० ५ स्थापत्यापुत्र गाथापतिका वर्णन
११-१२ ६ अरिष्टनेमीअहतमभुका समवसरण
१४-१६ ७ समवसरणमे कृष्णका आगमन आदिका वर्णन
१७-२३ ८ स्थापत्यापुत्र गाधापतिके निष्क्रमणका वर्णन
२४-५८ ९ शैलकराजका वर्णन
६८-६२ १० मुदर्शनसेठका वर्णन
६३-१११ ११ शुस्परित्राजकके दीक्षाग्रहणका वर्णन
११२-११५ १२ स्थापत्यापुत्रके निर्वाणका निरूपण
११६-११७ १३ शैर कराजके चरित्रका वर्णन
११८-१६७ छठा अध्ययन १४ महावीरस्वामीका समवसरण
१६८-१६९ १५ इन्द्रभूतिका जीवकेविषयमे प्रश्न
१७०-१७७ सातवां अध्ययन १६ ध य सार्थवाहके चरित्रका वर्णन
१७८-२३४ अठवा अध्ययन १७ आठवे अध्ययनका अवतरण
२३५ १८ वलराजके चरित्रका वर्णन
२३६-२४० १९ बलराजके दीक्षाग्रहणका वर्णन
२४०-२४२ २० महावल आदिछह राजाओंके चरित्रका वर्णन
२४३-२८२ २१ प्रभावतीदेवीके दोहदका वर्णन
२८३-२८८ २२ तीर्थकरके जन्मनिमित्त दिशाकुमारि आदिका उत्सवकरनेका
वर्णन २८९-२९२ २३ मोहगृहके निर्माणका वर्णन
२९३-२९६
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पुत्तलिकानिर्माण मादिका वर्णन ति के स्वरूपका वर्णन चारित्रका वर्णन रित्रमे तालपिशाचका वर्णन चरित्रमे अरहनक श्रावकके चरित्रका वर्णन चरित्रका वर्णन पति रुचमी राजाकेचरित्रका वर्णन " शख" राजाकेचरित्रका वर्णन राजके चारित्रका वर्णन राजाके चरित्रका वर्णन मोके युद्धका वर्णन
केयुद्धका वर्णन गरीके निरोधका वर्णन मितपुत्तलिका का वर्णन
ओंके जातिस्मरणहोनाआदिका वर्णन पानके दीक्षावसरका निरूपण वान् के दीक्षोत्सवका वर्णन आदि उहाँ राजाओके दीक्षाग्रहणादिका वर्णन
नवां अध्ययन मारकके चरित्रका वर्णन
दशवा आययन वृद्धि और हानिकानिरूपण
ग्यारहवा अध्ययन • आराधक और विराधकत्वहोनेका कथन
___ यारहवा अध्ययन (कके विषय में सुबुद्विका दृष्टात
तेरहवा अध्ययन अध्ययनके सब धका निरूपण निरभवका निरूपण
समाप्त
२९७-३०० ३००-३२० ३२१-३३४ ३३४-३५० ३५०-३७२ ३७२-३८५ ३८५-३९६ ४९७-४१० ४१०-४३५ ४३५-४५७ ४५७-४६५ ४६६-४७१ ४७१-४८० ४८०-४९१ ४९१-५०१ ५०२-५१५ ५१५-५३९ ५४०-५५२
५५३-६५५
६५६-६६७
६६८-६७८
६७९-७२७
७२८-७३० ७३१-७८८
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बीच में बैठे हुए
आद्यमुरख्त्री श्री
Trive
खडे हुए इनके सुपुत्र -
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लालाजी किशनलालजी सा. जौहरी
चि. महेतावचन्दजी सा जैन छोटे - अनिलकुमार जैन ( दोयता )
प्रायाSiLit
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२४ मणिनिर्मितपुत्तलिकानिर्माण मादिका वर्णन २५ कोसलाधिपति के स्वरूपका वर्णन २६ अङ्गराजके चारित्रका वर्णन २७ अङ्गराज चरित्रमें तालपिशाचका वर्णन २८ अगराजके चरित्रमे अरहना श्रावक के चरित्रका वर्णन २९ असराज के चरित्रका वर्णन ३० कुणालाधिपति रुक्मी राजाकेचरित्रका वर्णन ३१ काशिराज " शख" राजाके चरित्रका वर्णन ३२ अदीनशत्रु राजके चारित्रका वर्णन ३३ जितशा राजाके चरिनका वर्णन ३४ छहराजाभोके युद्धका वर्णन ३५ कुभमराज के युद्धका वर्णन ३६ मिथिलानगरीके निरोधका वर्णन ३७ सुवर्ण निर्मितपुतलिस का वर्णन ३८ छौं राजाओंके जातिस्मरणहोनाआदिका वर्णन ३९ मल्लीभगवानके दीक्षावातरका निरूपण ४० मल्टीभगवान के दीक्षोत्सवका वर्णन ४१ जितश आदि छहो राजाओके दीक्षाग्रहणआदिका वर्णन
नवा अध्ययन ४२ माफदीदारकके चरित्रका वर्णन
दशवां अध्ययन ४३ जीवोंके वृद्धि और हानिकानिरूपण
__ ग्यारहवा अध्ययन ४४ जीवोंके आराधक और विराधकत्वहोनेका क्थन
वारहवा अध्ययन ४५ खातोदकके विषयमें सुबुद्धिका दृष्टात
तेरहवा अध्ययन ४६ तेरह अध्ययन के सब धका निरूपण ५७ नन्दमणिकारभवका निरूपण
२९७-३.. ३००-३२. ३२१-३३४ ३३४-३५० ३५०-३७२ ३७२-३८५ ३८५-३९६ ४९७-४१० ४१०-४३५ ४३५-४५७ ४६७-४६५ ४६६-४७१ ४७१-४८० ४८०-४९१ ४९१-५०१ ५०२-५१५ ५१५-५३९ ५४०-५५२
५५३-६५५
६५६-६६७
६६८-६७८
६७१-७२७
७२८-७३० ७३१-७८a
समाप्त.
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૧૬ શેઠ મીશ્રીલાલજી જેવતરાજજી લુણીયા ચડાવલવાળા અમદાવાદ ૫૫૦૨
૧૭ શેઠ રામજીભાઈ રામજી વીરાણી અને સમરતબેન
રામજી વીરાણી ટ્રસ્ટ
૧૮ એક જૈન ગૃહસ્થ
૧૯ શેઠ મુળચ છ જવાહીરલાલજી ખરડીયા ૨૦ શેઠ મુકુદચદજી ખાલીયાના સ્મરણથ
હા શેઠે મેહનલાલજી માલીયા ( પાલીવાળા ) અમદાવાદ ૫૦૦૧ ૨૧ મા ખ્રુ શ્રી વિનેાદમુનિના સ્મરણાર્થે હા શ્રી શામજી
વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી મારક ટ્રસ્ટ રાજકોટ ૫૦૦૦ ૨૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ
વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શ્રી કેશવલાલ વીરાણી રાજકાટ ૫૦૦૦ ૨૩ શ્રીમતિ મણીખાઇ વૃજલાલ પારેખ ચેરીટેબલ
ટ્રસ્ટ ફેડ હા પારેખ વૃજલાલ દુલ ભજી રાજકેટ પરપર્વ નેટ ——ઘાટકે પરવાળા શેઠ માણેકલાલ એ મહેતા તરફતી અમદાવાદમા પાલડી બસ સ્ટેન્ડ પાસે પ્લાટ ન ૨૫૦ વાળી ૬૯૮ ચા વાર જમીન સમિતિને ભેટ મળેલ છે અને જેનુ રજીસ્ટર તા ૨૩-૩-૬૦ ના રાજ થઈ ગયેલ છે
રાજકેટ ૫૦૦૧
અમદાવાદ ૫૪૨૧
અમદાવાદ ૫૦૦૧
મુરબ્બીશ્રીઓ–૨૮
( એછામા ઓછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર)
નામ
બખર
૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વધમાન કાઠારી હા કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ કાઢારી
૨ દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૩હેતા ગુલામચંદ પાનાચંદ ૪ મ્હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય ૫ સઘવી પીતામ્બરદાસ ગુવાખચ દ ૬ લલ્લુભાઈ ગેરધનદાસ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ હા શેઠ વાડીલાલ લલ્લુભાઈ
૭ નામદાર ઠાકર સાહેબ લખધીરસિંહજી મહાદુર
રૂપિયા
જેતપુર ૩૬૦૫ રાજકોટ ૩૫૪
રાજકેટ ૩૨૮ાાના ઘાટકેાપુર ૩૨૫૦
જામનગર ૩૧૦૧
ગામ
અમદાવાદ ૨૫૦૦
મારખી ૨૦૦૦
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ-૨૩
(ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ન ભર 'નામ
ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાતિલાલ મગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૫૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચદ કાળીદાસભાઈ વારીયા હા શેઠ
લાલચ દભાઈ નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ તથા વવભદાસભાઈ
ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કેડારી ચદ અજરામર છે હરવિંદભાઈ જેચ દભાઈ રાજકેટ પરપ૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવણભાઈ
બારમી ૫૦૦૫ ૫ ૩ પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે
હા શ્રી ભેગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર અમદાવાદ પર ૧ ૬ સ્વ શેઠ દિનેશભાઈના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ કાતિલાલ મણીલાલ જેશીંગભાઈ અમદાવાદ ૫૦૦૦ ૭ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ હ શેઠ
ચીમનલાલભાઈ શાતિલાલભાઈ તથા પ્રમુખભાઈ અમદાવાદ ૬૦૦૧ ૮ શ્રી શામજી વેલજી વીરા અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શેઠ શામજી વેલજી વીરાણી ૯ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વિરાણી
મારક ટ્રસ્ટ હા માતુશ્રી કડવીબાઈ વીરાણું રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૦ શેઠ પાચાલાલ પીતાંબરદાસ
અમદાવાદ પર૫૧ ૧૧ શાહ રગજીભાઈ મેહનલાલ
અમદાવાદ ૫૦૦૧ ૧૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
મારક ટ્રસ્ટ હ શેઠ દુભજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૩ શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હ શ્રીમતિ મણકુવરબેન દુર્લભજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૪ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શ્રી છોટાલાલ શામજી વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૧૫ સા માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હ. ભાવસાર ભોગીવાવ છગનલાલ અને કુટુંબીજનો
અમહાવાદ ૫૦૦૦
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પ
સહાયક મેમ્બરા--૧૩૨
( ઓછામા ઓછી ા ૫૦૦ ની રકમ આપનાર )
નખર
નામ
૧ શ્રી સ્થા જૈન સ ધ હા ઝુઝાભાઈ વેલશીભાઇ ૨ શેઠ નાત્તમદાસ આઘડભાઇ
૩ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગારધનભાઈ ૪ ખાટવીયા ગીરધર પરમાણુદ હા અમીચ દભાઇ ૫ મેરખીવાળા સઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ મણીબાઇ તરફથી હા મુળચ ઃ દેવચંદ સઘવી
૬ વેારા મણીલાલ પોપટલાલ
૭ ગૈાસલીયા હરીલાલ લાલચ તથા ચપાબેન ગૈાસલીયા
૮ શાહે મનહરલાલ પાણુજીવનદાસ
૯ શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષાત્તમદાસ
૧૦ શેઠ ચદુલાલ છગનલાલ
૧૧ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઇ ( કરાચીવાળા )
રૂપિયા
૭૫૦
વઢવાણ શહેર જોરાવરનગર ७००
જામજોધપુર ૧૫૫ ખાખીજાળીયા
૫૨૭
૧૨ કામદાર તારાચદ પેાપટલાલ પેરાજીવાળા
૧૩ મ્હેતા માહનલાલ કપુરચંદ
૧૪ શેઠ ગાવિદજીભાઈ પાપટભાઈ
ગામ
મલાડ ૫૧
૫૦૨
૫૦૨
22
મુબઈ ૨૦૧
૫૦૧ ૧૧
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લીંબડી ૧૦૧
રાજકાટ ૫૦૧
૫૦૦
29
રાજકોટ ૫૦૦ રાજકાટ ૫૦૧
અમદાવાદ
અમદાવાદ
૧૫ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી
૧૬ ત્ર પિતાશ્રી નાજીના સ્મરણાર્થે હા વેણીચક્ર શાતિલાલ
( જા જીઆવાળા) મેઘનગર ૫૦૧
૫૦૦
૧૭ શ્રી થા જૈન સધ હા શેઠ ઠાકરશી કરશનજી ૧૮ શેઠ તારાચંદ પુખરાજજી ૧૯ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ
૫૦૦
૧૦૦
27
૨૦શ્વેતા મુળચ દ રાઘવજી હા મગનલાલભાઇ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૭૫૦ ૨૧ શેઠ હરખચદ પુરુષોત્તમ હા ઇન્દુકુમાર
ચેારવાડ ૫૦૦
થાનગઢ ઔર ગાબાદ
૨૨ શેઠ કેસરીમલજી વસ્તીમલજી ગુગલીયા
મલાડ ૫૦૧
૨૩ શ્રી સ્થા. જૈન સ ઘ હા ખાટવીયા અમીચ≠ ગીરધરભાઇ ખાખીજાળીયા ૫૦૧ ૨૪ શ્રી ખીમજીભાઈ ખાવાભાઇ ફુલચદભાઈ ગુલામચ દભાઈ
નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઇ મુખઈ ૫૧
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૮ શેઠ લહેરચંદ કુવરજી હા શેઠ ન્યાલચંદ વ્હેરચંદ
૯ શાહ છગનલાલ ડેમચંદ વસા હા
માહનભાઈ
4
તથા માત્તીલાલભાઇ
સિદ્ધપુર ૨૦૦૮
મુળઇ ૨૦૦૦
૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ હા શેઠ ચંદ્રકાન્ત વીકમચ ૬ મારખી ૧૯૬૩ ૧૧ મ્હેતા સામચઇ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ મણીગૌરી મગનલાલ
૧૨ શ્વેતા પાપટલાલ માવજીભાઇ
૧૩ દેશી કપુરચદ અમરશી હા દલપતરામભાઈ ૧૪ ગડીયા જગજીવનદાસ રતનશી
પારખ દર
૧૫ શેઠ માણેકલાલ ભાથુજીભાઈ
૧૬ શ્રીમાન ચદ્રસિહજી સાહેબ મહેતા (રેલવે મેનેજર ) કલકત્તા
મારમી
૧૭ શ્વેતા સામગ્ર૬ નેણસીભાઇ ( કરાચીવાળા )
૧૮ શાહ હરીલાલ અનેાપચદ
રતલામ ૨૦૦૦
જામજોધપુર ૧૫૦૨
જામજોધપુર ૧૦૦૨
દામનગર
૧૦૦૨
૨૬ શ્રીમતિ આશાખેત હસરાજ સુરાણા ૨૭ શાહે શાતિલાલ માણેકલાલ ૨૮ શ્રીયુત વીકુમાર C/o મહેતાખચ જૈન
૧૦૦૧
૧૦૦૧
૧૦૦૧
ખભાત ૧૦૦૧
૧૯ માદી કેશવલાલ હરિશ્ચંદ્ર ૨૦ કાઠારી છબીલદાસ હૅરખચદ ૨૧ કંઠારી ૨ગીલદાસ હરખચંદ ૨૨ શાહ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા
ભાવનગર
સૌ સમરતબેન અમદાવાદ ૨૩ શેઠ કરમશી જેઠાભાઈ સામૈયા હા આ સૌ સાકરબેન મુબઈ
૨૪ શેઠ પેપટલાલ ચત્રભુજ કાઢારી ૨૫ શ્રી સ્થા. જૈન લીખડી સ પ્રદાયના ક્ષમાદ્ગુણ નિધિ પૂજ્ય શ્રી લાધાજી સ્વામીના શિષ્ય પ્રખર પતિ રત્ન શ્રી ઉત્તમચ ઇજી મહારાજના સ્મરણાર્થે પૂજ્ય લાધાજી સ્વામી પુસ્તકાલય તરફથી હા શેઠ જેશીગભાઈ પાચાલાલ
અમદાવાદ ૧૦૦૧
મુબઈ ૧૦૦૧
૧૦૦૦
૧૦૦૩
૧૦૦૦
સુરેન્દ્રનગર ૧૦૦૧
અમદાવાદ ૧૦′′
મુખપૃ ૧૦૦૧
અમદાવાદ ૧૦૦૧ દિલ્હી ૧૦૧
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પર શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટારીવાળા
મુબઈ ૫૦૧ ૫૩ પારેખ રતિલાલ નાનચદ મોરબીવાળા તરફથી તેમના
પિતાશ્રી નાનચદ ગોવિદજીના સ્મરણાર્થે તથા તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ વસત બહેનના અઠ્ઠાઇતપ નિમિત્તે હા ભુપતલાલ રતિલાલ
અમદાવાદ પેપર ૫૪ ૩ શાહ ત્રીભોવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની - શીવકુંવરબાઈ તરફથી હા રતીલાલ ત્રીભવનદાસ શાહ અમદાવાદ ૫૧૧ ૫૫ શ્રીમાન નાથાલાલ માણેકચદ પારેખ
(માટુંગા) ૫૦૧ ૫૬ શ્રી લીંબડી સ પ્રદાયના ગચ્છાધિપતિ પૂ આચાર્ય
મહારાજ શ્રી લાધાજી સ્વામીના સ્મરણાર્થે હા શેઠ જેરીંગભાઈ પાચાલાલ (મહારાજ શ્રી છેટાલાલજી સદાન દીના ઉપદેશથી)
અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૭ સત્ર શ્રી વિનયમુર્તિ શ્રી લક્ષમીચ દજી મહારાજના
મરણાર્થે હા શેઠ જેટીંગભાઈ પિચાવલ (મહારાજશ્રી છોટાલાલજી સદાન દીને ઉપદેશથી)
અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૮ બા બ્ર પ્રભાવતીબેન કેશવલાલ ઉજજેનવાળા તરફથી તેમની દીક્ષા પ્રસંગે
વિરમગામ ૫૫૧ ૫૮ શેઠ શ્રીયુત હરજીવનદાસ રાયચદ હા છબીલદાસ હરજીવન અમદાવાદ ૫૦૧ ૬. શેઠ પિપટલાલ હ સરાજ તથા દિવાળીબેનના સ્મરણાર્થે હા શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ ૫૨ ૬૧ અ સી લીલાવતીબેન ઈશ્વરલાલ
અમદાવાદ ૧૦૨ ૬૨ હેમાણી પ્રભુદાસ ભ ણજી
કકર ૫૫૧ ૧૩ શેઠ લક્ષમણદાસ સજરામ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૪ શ્રી સ્થા જૈન મોટા સ ઘ
રાજડેટ ૫૦૧ ૬૫ શેઠ ચાદમલ બીરધીચ દ
નાસિક સીટી ૫૦૧ ૬૬ ઝવેરી માણેકચ દજી પન્નાલાલ છજલાણું
હા ધનવ તીબેન તથા કિરણબેન ૬૭ શેઠ હસરાજજી પૂર્ણમલજી કાકરીયા
ગાગે ળાવ ૫૧ ૬૮ શ્રી શ્વે સ્થા જૈન સભા
કલકત્તા ૫૦૧ ૬૯ શેઠ તેજસિહજી ફતેલાલજી છાજેડ
ઉદેપુર ૫૦૧ ૭૦ શેઠ રતનચદ લહમીચદ
મુબઈ ૫૦૦
દિલહી ૫૦૧
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૨૫ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હા મુળજીભાઈ મણીલાલભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૬ રવ કાતિલાલભાઈના સ્ટારણાર્થે હા શેઠ બાલચદ સાકરચદ , ૫૦૧ ૨૭ કામદાર-રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા)
૫૦૧ ૨૮ શાહ જય તીલાલ અમૃતલાલ
શીવ ૫૦૧ ૨૯ વેરા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ
છે ૫૧ ૩૦ શેઠ ગુલાબચદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હા ભાઈ અને પચ ઇ ખારોડ ૫૦૧ ૩૧ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુવર ચુનીલાલ મહેતા ધ્રાફા ૫૭૧ ૩૨ શ્રા સ્થા જૈન સંઘ
ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૩ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
રાજકોટ ૫૦૧ ૩૪ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા એ સૌ નદકુ વરબેન જામનગર ૧૦૩ ૩૫ શેઠ દેવચદ અમરશી (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૬ શ્રી સ્થા જૈન સ ધ (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૭ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ
વીરમગામ ૫૦૧ ૩૮ મહેતા શાનિતલાલ મણીલાલ હા કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬ ૩૮ શ્રીયુત લાલચદજી તથા એ સૌ ધીસાબેન
છે ૫૦૧ ૪૦ શેઠ મેહનરાજજી મુકુનચદજી ભાલીયા
૫૦ ૪૧ સ્વ શેઠ ઉકાભાઈ ત્રિીભવનદાસના સ્મરણાર્થે તેમના
ધર્મપત્ની લક્ષ્મીબાઈ ગીરધર તરફથી હા મરઘાબેન તથા મગુબેન
અમદાવાદ ૫૦૧ ૪ર પારેખ જયતીલાલ મનસુખલાલ રાજકેટવાળા હ વિનુભાઈ , ૫૦૧ ૪૩ શ્રીસ્થા જેન સ ઘ
વાકાનેર ૫૦૧ ૪૪ શ્રી થા જૈન સંઘ
બેટાદ ૫૦૧ ૪૫ શેઠ ગુદડમલજી શેષમલજી જેવર (બાર) પીપળગાવ ૫૦૧ ૪૬ વ તુરખીયા લહેરચદ માણેકચરના સ્મરણાર્થે તેમના
ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા ભાઈ જયંતીલાલ તથા પુનમચદભાઈ
વડેદરા ૫૦૧ ૪૭ શાહ અચલદાસ શુકનરાજજી હા શુકનરાજજી અમદાવાદ ૫૧ ૪૮ ભાવસાર બેઠીદાસ ગણેશભાઈ
ધ ધુકા ૫૦૧ ૪૯ અ સ હીરાબેન માણેકલાલ મહેતા
ઘાટકેપર ૫૦૧ ૫૦ મહેતા શાંતિલાલ મગનલાલ તથા આ સૌ પદમાવતી શાતિલાલ મહેતા
અમદાવાદ ૫૦૦ ૫૧ રોકે હીરાચ દજી વનેચંદજી કટારીયા
હુબલી ૨૦૧
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૮૮ શ્રીમાન લાલાજી કપુરચદજીના બેચગના ધર્મપત્ની ,
શ્રીમતી વસતદેવી હલાલા રાજમલજી હેમચંદજી તરફથી (મહાસતી શ્રી સુદર્શનામતજી તથા ફૂલ મતિજી મહાદેવીના ઉપદેશથી)
દિલ્હી પ૦૧ ૮૯ સ્વ મહાસતીજી શ્રી દ્રૌપતાદેવીજી મ સા ના સ્મરણાર્થે
શ્રી એસ એસ જૈન મહિલા સઘ તક્થી (અનેક ગુણાલ કૃત
મહાસતીજી શ્રી મોહનદેવીજી મ ચા ની પ્રેરણાથી દિલ્હી પ૦૧ ૯૦ સ્વ લક્ષ્મીચંદજીના સ્મરણાર્થે નગિનદેવી સુજતીના તરફથી હા સઘવી હેમતકુમાર જૈન
દિલ્હી ૫૦૧ ૯૧ સ્વ પિતાશ્રી લાલા ઝવેરી ઘમલજી સુજતીના સ્મરણાર્થે હા શ્રીમતી નગીનાદેવી
દિલ્હી ૫૦૧ ૯૨ લાલાજી કસ્તુરચન્દજી ખુશાલચન્દજી સ ચેતી હા જ્ઞાનચદ્રજી અલવર ૫૦૧ ૩ સ્વ પૂજ્ય પિતાશ્રી દુર્લભજી સેમચ દ દફતરી હા ગૌરીશકર દુર્લભજી દફતરી
મુબઈ ૫૦૦ ૯૪ શેઠ સેમચંદ જેઠાલાલ વેલાણી હા ચુનીલાલભાઈ જેડીયાવાળા
મુબઈ ૫૦૬ ૫ શેઠ ફેજલમલજી સુલતાનસિહજી બેરદીયા અમદાવાદ ૫૦૧ ૯૬ શેઠ છગનલાલ શામજી વીરાણી તથા
શ્રીમતી વૃજકુવરબેન છગનલાલ વીરાણી ટ્રસ્ટફડ તરફથી શેઠ છગનલાલભાઈના સ્મરણાર્થે
રાજકેટ ૫૦૧ ૯૭ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘન હા પ્રમુખ બ સીવાલ કટારીયા
હિગઘાટ ૫૦૧ ૯૮ લાલાજી રામલાલજી રેશનલાલજી (અનેક ગુણાલકૃત મહાસતીજી મેહનદેવીના ઉપદેશથી)
દિલ્હી ૫૧ ૯૯ સ્વ મહેતા મગળજી મણીલાલના સ્મરણાર્થે
તેમના ધર્મપત્ની ગુણવ તીબેન મહેતા પાડેરી ૫૫૧ ૧૦૦ બાટવીયા વનેચ અમીચઇ (મહાવીર ટેક્ષટાઈલ સ્ટાર્સ) બે ગલોર ૫૫૩ ૧૦૧ શ્રીયુત તારાચદ ગેલડા ટ્રસ્ટ
મદ્રાસ ૫૦૧ ૧૦૨ શેઠ ગુલરાજજી પુનમચ દજી મહેતા
કીસનગઢ પપ૧ ૧૦૩ શેઠ અગમલજી ત્રીકમચ દછ
ઈદેર સીટી પપ૧
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હ૧ શાહ ઉમરશી ભીમશીભાઈ (સ્વ પિતાશ્રી ભીમશીભાઈ
તથા માતુશ્રી પાલાબાઈતથા ધર્મપત્ની પાનબાઈના સ્મરણાર્થે મલાડ ૫૫૨ ૭૨ શાહ શામલાલભાઈ અમરસીભાઈ
અમદાવાદ ૫૦૨ ૭૩ મહેતા ચન્દ્રકાન્ત નૌતમલાલ
મુબઈ ૫૦૧ ૭૪ શેઠ ભીખચક લાલચ દ્ર
પીપલગામ ૫૦૧ ૭૫ મેન મનીબેન મહેતા
મુબઈ ૫૦૧ ૭૬ શ્રીમતી મધીબેન નવલચર શાહ લીમડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૫૦૧
હા મોતીબેન ૭૭ શ્રીમતી વિમલા સૂરજમલ મહેતા
બેવગામ ૫૦૧ ૭૮ ઉદાણી નિહાલચંદ્ર હાકેમચદ્ર વકીલ બી એ એલ એલ બી
રાજકેટ ૫૧ ૭. વ ઠારી મગનલાલજી કુન્દનમલજીના
સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની રાજકુવરબેન સતારા ૭પ૧ ૮૦ શેઠ મોહનલાલજી મછાલાલજી હા રમણલાલ
(૫ મુનિશ્રી ફતેચ દ મ ના શિષ્ય ૫ મુનિશ્રી કનૈયાલાલજી મ ના ઉપદેશથી)
જયપુર ૫૦૧ ૮૧ શેઠ કનૈયાલાલજી સેહનલાલજી કાડિયા
ધારડી ૧૦૧ ૮૨ શેઠ પ્રતા૫મલજી કપુરચદજી સાઢેરાવાળા (પૂજ્ય
ફતેચ દજી મ ના શિષ્ય મિથીલાલજી મ ના શિષ્ય ચાદમાવજી મ ના ઉપદેશથી)
અમદાવાદ ૫૦૧ ૮૩ શ્રીમાન લાલાજી રેશનલાલજી સમન્દરલાલજી બડત ૫૦૧ ૮૪ શ્રીમાન ભૂરમલજી દલીચ દજી સાકરિયા (પૂ મ શ્રી
સ્વામીદાસજીના સપ્રદાય પૂ આ શ્રી ફતેચ દજી મ ના શિષ્ય ૫ મુનિશ્રી કનૈયાલાલજી મ ના ઉપદેશથી સારાવ ૫૦૧ ૮૫ સ્વ ગૌરીશંકર કાળીદાસ દેસાઈના સ્મરણાર્થે હે ભૂપતલાલ ગીરીશકર
ઈદેર ૫૦૧ ૮૬ શેઠ શ્રી નરભેરામભાઈ હસરાજભાઈ કમાણી જમશેદપુર ૫૦૧ ૮૭ સ્વ મહાસતીજી શ્રી ધનદેવીજી મ સા ના સ્મરણાર્થે
રવ બચદજી સ ખલાલના ધર્મપત્ની શ્રીમતી જયદેવી તરફથી (મહાસતીજી શ્રી સુદર્શનામતીજી તથા કુલમતીજીના ઉપદેશથી)
દિલી ૫૦૧
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૧૨૩ શેઠ ઝુમરલાલજી-સીરીયા ૧૨૪ શેઠ મનસુખલાલ ત્રીભાવનદાસ ૧૨૫ શ્રી દશા શ્રીમાળી સ્થા જૈન સઘ ૧૨૬ શ્રી જૈન રત્નું પુસ્તકાલય ૧૨૭ શેઠ અજીતમલ કનૈયાલાલ
૧૨૮ શેઠ વસ્તીમલજી જોરાવરમલજી ભુરટ ૧૨૯ શેઠ ચાદમલજી હરખચદજી કાહારી
હા ખમાબેન મુળચ ૬જી -૩૦ માટત્રીયા ગુલામચદ લીલાપર ૧૩૧ન લક્ષ્મીબાઇ પુમલ મહેતા ૧૩૨ શ્રીવીર વધમાન પુસ્તકાલય હા શેઠ હીરાલાલજી ગણેશલાલજી
¿
નખર
૧
*
૭
૫૮૨-લાઈફ મેમ્બરો
અમદાવાદ તથા પરાઓ
નામ
3 શાહ કાતિલાલ ત્રીભેાવનદાસ
૯
૧૦
શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ
શેઠ છેટાલાલ વખતચંદ હા ફ્કીરચદભાઇ
૪
૫ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચ દ
૧૧
શાહ પાપટલાલ માહનલાલ
શાહ રતીલાલ વાડીલાલ
શેઠ લાલભાંઇ મગળદાસ
સ્વ-અમૃતલાલ વમાનના સ્મરણાર્થે,
હા કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ
શાહે નટવરલાલ ચ દુલાલ
શાહ નરસિંહદામ ત્રીભાવનદાસ
-૧૧ શાહ ખીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાત ચુનીલાલ ગાપાણી - ૧૨ શ્રી શાહપુર દરિયાપુરી આટકાટી-સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હા વહીવટ કર્તા શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષાત્તમદાસ
* ઉદેપુર ૫૦૧ કાઇમ્બતુર- ૫૦૧ • જમેશેપુર ૫૦૧ જોધપુર પૃ૦૧
અમદાવાદ પુત
હુબલી ૫૬૧
અમદાવાદ ૫૦૧
ખાખીજાળીયા ૩૦૨ પાલનપુર ૫૦૧
કું વારીયા ૫૦૧
રૂપિયા
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૦
મા
૫૧
૫૧
રક્ષા
૨૫૧
૩૦૧
૫૧
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કલકત્તા ૫૦૧
૧૦૪ કાનુગા ધીગડમથલ મુલતાનમલજી કવાડ ગઢસીયાણાવાળા
અમદાવાદ:૫૦૧ ૧૦૫ લાલાજી નવરતનચંદજી ચારડીયાના ધર્મપત્ની * શ્રીમતી રાજકુમારીબેન
દિલ્હી ૫૦૧ ૧૦૬ શેઠ ચીમનલાલ રૂષભચદ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૦૭ શેઠ કાનજી ભીમાણ ટ્રસ્ટ ૧૦૮ શેઠ ગીરધરલાલ હંસરાજ કામા
» ૫૦૧ ૧૦૯ અનેક ગુણાલ કૃત મહાસતી મેહમદેવજીના ઉપદેશથી * ભવધર્મી બધુઓ તરફથી
દિહી ૫૦૧ ૧૧૦ વ વિનચદઈ પારેખના સ્મરણાર્થે લાલા * ' પૂર્ણચદજી રતનચદજી પારેખની વતી હ * શ્રીમતી પ્રેમાદેવી-(શાતસ્વભાવી મહાસતીજી કુલકુવરબાઈના ઉપદેશથી).
દિલ્હી પ૦૧ ૧૧ શ્રીમતી બદામબાઈ મીશ્રીલાલજી લુણિયા ચડાવલવાળા અમદાવાદ, ૫૦૧ ૧૧૨ શેઠ ભરતકુમાર મણીલાલ દલાલ
૫૫૧ ૧૧૩ શાહ હરખચદ અમરચંદ ૧૧૪ શાહ જગજીવનદાસ વન્દાવનદાસ
૫ શેઠ હસરાજ લક્ષ્મીચદે કામાનભુવન કલકતા ૫૧ ૧૧૬ | દાદાજી સ્વ કપુરચદજી તથા દાદી
કેસરબેન ચેરડીયાના સ્મરણાર્થે હા લાલા કુલચદજી અને શ્રીમતી વિમલકુવરી ઝવેરીની વતી શ્રીમતી નગીદેવી (મહાસતીજી કુલમતીના ઉપદેશથી)
દિલ્હી, ૫૦૧ ૧૧૭ શેઠ નગીનદાસ છોટાલાલ
અમદાવાદ ૨૦૧૭ ૧૧૮ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ ગણેશભલ ગુલાબચ દ. બરારા ૫૦૧ ૧૧૯ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ
ભદેસર ૫૦૧ ૧૨૦ શ્રી સરાક જૈન વિદ્યાલય
કુમારડી ૫૦૧ ૧૨૧ ગાધી ભુરાલાલ નાનચદ
મુબઈ ૫૦૧ ૧૨૨ શ્રીમાન હિંમતસિંહજી સાહેબ ગલુડીયા
એડીસનલ કમિશ્નર અજમેર ડીવીઝનવાળાના ધર્મપત્ની આ સૌ માણેકકુવરબેન તરફથી હું ખુશાલસિંહજી ગલુડીયા -
છે પજ
૫૦૧
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૨૫૧
૩૯ શ્રી સાબરમતી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ મણીલાલભાઈ ૨૫6 ૪. ભાવસાર છોટાલાલ છગનલાલ
૨૫૧. ૪૧ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલ
૨૫૧ ૪૨ અ સૌ બેન જીવીબેન રતિલાલ હ ભાવસાર રતિલાલ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧ ૪૩ ભાવસાર ભોગીલાલ જમનાદાસ પાટણવાળા
૨૫૧ ૪૪ સઘવી બાલુભાઈ કમળશી તથા તેમના ધર્મપત્નીઓ આ સૌ ચ પાબેન તરફથી તથા વસતબેન તરફથી
૨૫૧ ૪૫ અ સ વિદ્યાબેન વનેચંદ દેસાઈ વર્ધિતપ તથા અદાઈ પ્રસંગે હા ભુપેન્દ્રકુમાર વનેચ દ દેસાઈ
૪૧૭ ૪૬ રાહ નટવરલાલ ગોકળદાસ ૪૭ અ સૌ સરસ્વતીબેન મણલાલ છગનલાલ
૩૫૧ ૪૮ અ સૌ ક કુબેન (ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની) ૩૯ ૪૯ સૌ સવિતાબેન (જય તીલાલ ભોગીલાલના ધર્મપત્ની) ૨૫૧ ૫૦ અ સૌ સુન દાબેન (રમણલાલ ભેગીલાલના ધર્મપત્ની)
૨૫૧ ૫૧ શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હા વાગમલજી રૂગનાથજી ૩૦૧ પર શેઠ મણીલાલ બાઘાભાઈ ૫૩ પટવા સુમેરમલજી અનેપચ દજી જોધપુરવાળા
૩૦૧ ૫૪ સ્વ માણેકલાલ વનમાળીદાસ શેઠના સ્મરણાર્થે હા રમણલાલ માણેકલાલ
૨૫૧ ૫૫ વ શાહ ધનરાજજી ખેમરાજજીના સ્મરણાર્થે હા કનૈયાલાલ ધનરાજજી
૩૦૧ ૫૬ શ્રી સારગપુર દ આ કે સ્થા જૈન સંઘ હા શાહ રમણલાલ ભગુભાઈ
૨૫૧ પક દોશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા લમીબાઈ લહેરચદના સમરણાર્થે હા દોશી મનહરલાલ કરશનદાસ મુળીવાળા
૨૫૧ ૫૮ શાહ પુનમચ દ ફતેચદ
૨૫૧ ૫૯ શ્રીયુત ચતુરભાઈ નદલાલ ૬૦ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઈશ્વરલાલ મહેતા
૨૫૧ ૬૧ શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહ ચીમનલાલ અમુલખભાઈ ૨૫૧ દર અ સૌ બેન લાભુબેન મગનલાલ હે શાહ અમૃતલાલ ધનજીભાઈ વઢવાણ પહેરવાળા
૩૦૧
૨૫૧
પર૧
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૨૫૧
૨૫૧
૧૩ શ્રા છીપાળ દરીયાપુરી આઠકેટી થી જન સંઘ હા શેઠ ચ દુલાલ અચરતલાલ
૨૫ ૧૪ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ C/o શાહ બાલાભાઈ મહાસુખલાલ ૨૫ ૧૫ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી
૨૫૧ ૧૬ શ્રી સુખલાલ ડી શેઠ હા ડો કે સરસ્વતીબેન શેઠ ૧૭ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ કાતિલાલ જીવણલાલ ૧૫૧ ૧૮ ભેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ
૨૫૧ ૧૯ શાહ મેહનલાલ ત્રીકમલાલ
૨૫૧ ૨૦ શ્રી છકેટી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ પિચાલાલ પિતાબદામ ૨૫૧ ૨૧ દેસાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા ભાઈલાલ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૨૨ શાહ નવનીતરાય અમુલખરાય
૨૫૧ ૨૩ શાહ મણલાલ આશારામ
૨૫ ૨૪ શેઠ ચીનુભાઈ સાકરચંદ
૨૫૧ ૨૫ શાહ વરજીવનદાસ ઉમેચદ
૨૫૧ ૨૬ શાહે રજનીકાન્ત કસ્તુરચદ ૨૭ સઘવી જીવણલાલ છગનલાલ
૨૫૧ ૨૮ શાહ શાતિલાલ મોહનલાલ ધ્રાગધ્રાવાળા
૨પર ર૯ અ સી બેન રતનબેન નાદેચા હા શેઠ ધુલજી ચ પાલાલજી ૨૫૧ ૩૦ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા
૨૫૧ ૩૧ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હે ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ
૨૫ ૩૨ શેઠ પુખરાજજી સમતોરામજી પુનમિયા સાદડીવાળા ૩૩ સ્વ પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારીમલજા
બરડીયાના મરણાર્થે હા મુળચદ જવાહરલાલજી બરડીયા ર૫૧ ૩૪ સ્વ ભાવસાર બબાભાઈ (મગળદાસ) પાનાચદના સમરણાર્થે *
હા. તેમના ધર્મપત્ની પુરીબેન ૩૫ શવ પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ માતુશ્રી મુળીબાઈના સમરણાર્થે હા કકલભાઈ કેઠારી
૩૦૧ ૩૬ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ
૨૫૧ ૩૭ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા પાર્વતીબેન ર૫૧ ૩૮ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા : ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૨૫૧
૮૬ ભાવસાર કનુભાઈ સાકરચંદ
૨૫મ” ૮૭ શેઠ ભેરૂમલજી સાહેબ જોધપુરવાળા
૨૫૧ ૮૮ સ્વ બેનાણી વર્ધમાન રામજીભાઈ કુદણવાળાના સ્મરણાર્થે , હે શાતિલાલ વર્ધમાન
૨૫ ૮૯ સ્વ કચરાભાઈ લહેરભાઈના સ્મરણાર્થે
હ શાતિભાઈ કચરાભાઈ ૯૦ એક સ્વધર્મી બધુ હ શાહ રખભદાસજી યે તીલાલજી ૨૫૧. ૯૧ અ સૌ સરસ્વતીબેન મણીલાલ ચતુરભાઈ શાહ
(સદાન દી ઇટાલાલ મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૨ ચીમનલાલ મણીલાલ શાહ (દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂ તપસ્વી'
મહારાજશ્રી માણેકચંદજીના શિષ્ય મુનિશ્રી મગનલાલજી મહારાજશ્રીના સ્મરણાર્થે )
૨૫૧ ૯૩ બેન જેકુવર વ્રજલાલ પારેખ
૨૫૧ ૯૪ શેઠ પુનમચ દજી જવાહરલાલજી બરડીયા
૨૫૧ ૯૫ અ સૌ લીલાવતી ધીરજલાલ મહેતા
છે કે ધીરજલાલ ત્રિીકમલાલ મહેતા ૯ શેઠ રાજમલજી ઘામલાલજી કોઠારી કેશીથલવાળા
૨૫૧ ૯૭ શેઠ ચુનીલાલ ભગવાનજી કે રતીલાલ ચુનીલાલ
૨૫૧ ૯૮ ભાગ્યવતી અરવીંદકુમાર કે અરવીંદકુમાર સકરાભાઈ ભાવસાર ૨૫૧ ૯ અ સ ચ ચળબેન મનસુખલાલ હા મનસુખલાલ જેઠાલાલ રૂપેરા
૨૫ ૧૦૦ સ્વ આસીબાઈ તથા વસતીમલજી ભોમાજીના સમરણાર્થે
હા શેઠ મીશ્રીમલજી દેવચંદજી એ સવાલ કેરૂવાળા ૨૫૨ ૧૦૧ સ્વ શેઠ કીશનમલજી માડતના સ્મરણાર્થે હા શીરે લઇ કીશનમલજી જતવાલા
સ્પર ૧૨ સ્વ શેઠ વકતારમલજીના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ ઘીસાલાલજી મુકનારાજજી શીયારીયા (જોધપુરવાલા) ૨૫૧ ૧૦૩ શાહ મહાસુખલાલ ભાઈલાલ ( દાન દી ૫ ડિત મુનિશ્રી છેટાવાલજી મહારાજના ઉપદેરાથો )
પ૧ ૨૦૪ અ સૌ કાન્તાબેન કાળીદાસ કે કુમાર બુક બાઈડીગ વર્કસ સ્પ૧ ૧૦૫ સ્વ હિંમતલાલ મગનલાલના સમરણાર્થે - તેમના સુપુત્રે મેસર્સ દ્વારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી
૩૫૧
૩૦૧
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૩ અ સૌ બેન કાન્તાબેન ગોરધનદાસ (ચામુનિના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૬૪ દોશી કુલચદ સુખલાલભાઈ બોટાદવાળાના સ્મરણાર્થે હા દોશી છબીલદાસ ફુલચંદભાઈ
૨૫૧ ૫ લાલાજી રામકુવરજી જૈન
૨૫૧ ૨૬ શેક છેટાલાલ ગુલાબચ દ પાલનપુરવાળા ૬૭ શાહ ધીરજલાલ મેતીલાલ
૨૫૧ ૬૮ સઘવી સુર્યકાન્ત ચુનીલાલના સ્મરણાર્થે
હા સઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ૯ ભાવસાર મેહનલાલ અમુલખરાય
૨૫૧ ૭૦ મહેતા મૂળચદ મગનલાલ
૨૫૧ ૭૧ વૈદ્ય નરસિંહદાસ સાકરચદના ધર્મપત્ની રેવાબાઈને સમરણાર્થે હા હરીલાલ નરસિહદાસ
૨૫૧ હર શાહ ફુલચ દભાઈ મુલચદ હા હસમુખભાઈ કુલચ દભાઈ ૨૫૧ ક૭૩ શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા ૭૪ શાહ લલ્લુભાઈ મગનભાઈ ચુડાવાળા હ જશવંતલાલ લલુભાઈ , ૩૦૧ ૭૫ કુમારી પુષ્પાબેન હીરાલાલ (ચાદમુનિના ઉપદેશથી) ક૭૬ શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ‘હ કમળાબેન મણીલાલ લખતરવાળા
( ચાદમુનિના ઉપદેશથી) ' હ૭ કુમારી નલીનીબેન જય તીલાલ
૨૫૧ ૭૮ સ્વ ઉમેદરામ ત્રિભુવનદાસના ધમપમી કાશીબાઈના સ્મરણાર્થે
હે શાતિલાલ ઉમેદરામ (ચાદમુનિના ઉપદેશથી) ૭૯ સ્વ ભાવસાર મેહનલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની દીવાળીબાઈના સ્મરણાર્થે હે રતીલાલ માણેકલાલ (યાદમુનિના ઉપદેશથી)
૨૫૧ ૮૦ મહેતા દેવીચદજી-ખુબ દજી ધેકા ગઢસીયાણાવાળાના મરણાર્થે હ મહેતા ચુનીલાલ હરમાનચદ
૨૫૧ ૮૧ ઘાસલાલજી મેહનલાલજી કોઠારી કે લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર ૨૫૧ ૨૮૨ ૩ શેઠ નાથાલાલ રતનાભાઈ મારફતીયાના મરણુર્થપ્પનાબેન તરફથી હ કરશનભાઈ (ચામુનિના ઉપદેશથી)
૨૫૧ ૮૩ શાહ મણલાલ છગનલાલ
૨૧ ૮૪ ભાવસાર જયંતીલાલ ભેગીલાલ ક૬૫ ભાવસાર રમણલાલભેગીલાલ
૨૧
૨૫૧
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ઉપ૧
૨૫
૨૫
૩૧
અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ
૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા ગાડાલાલ ભીખાલાલ
અજમેર ૧ શેઠ ભુરાલાલ મોહનલાલ ડુગરવાલ
અલવર ૧ શ્રીમતી ચંપાદેવી કે બુદ્ધામલજી રતનમલજી સચેતી
૨૫૧ ૨ શેઠ ચાદમલજી મહાવીરપ્રસાદ પાલાવત
૨૫ ૪ શ્રીયુત રૂષભકુમાર સુમતિકુમાર જૈન
૨૫ આસનસેલ ૧ બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની મણીબાઈ તરફથી હા રસિકલાલ, અનિલકાત, તથા વિનોદરાય
આટકેટ ૧ મહેતા ચુનીલાલ નારણજી
આણંદ ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હા મનસુખલાલભાઈ
૨૫ આકેલા ૧ શેઠ કાચનલાલ રાઘવજી અજમેરા છે. મેસર્સ અજમેરા બ્રધર્સ એન્ડ કા (પૂ સદાન દી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ૨૫
ઇગતપુરી ૧ શેઠ પન્નાલાલ લખીચદ જૈન
ઈન્દર ૧ અ સી બેન દયાબેન મેહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા
( અ સી બેન વિદ્યાબેનનાવવી તપ નિમિત્તે)
હા અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા
ઉદયપુર ૧ શેઠ રણજીતલાલજી મોતીલાલજી હિંગડ ૨ શ્રીમતી હિનીબાઈ કે રણજીતલાલજી મેતીલાલજી હિંગડ ૨૫૧
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૨૫૧
૨૫૦
૧૦૬ અ સી કાન્તાબેનના સ્મરણાર્થે
હા ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૧૦૭ શ્રી ઉમેદચદ ઠાકરશી છે. યુ ટી ગોપાણી એન્ડ સન્સ ૩૫૧ ૧૦૮ પૂ માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હા ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૧૦૯ શાહ શાતીલાલ મોહનલાલ
૨૫૧ ૧૧૦ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર હે પ્રભુદાસ મહેતા ૧૧૧ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર હા શાહ ભુરાલાલ કાળીદાસ ૨૫૧ ૧૧૨ સ્વ પિતાશ્રી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે
હા મહેતા રણજીતલાલજી મેતીલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૧૩ શેઠ પરસેતમદાસ અમરસીના ધર્મપત્ની સ્વ કુસુમબેનના * સ્મરણાર્થે તથા આ સૌ સવીતાબેનના માસખમણના નિમિત્ત
હા શેઠ સોમદ પરસોતમદાસ (પોર્ટ મુદાનવાળા) ૩૦૧ ૧૧૪ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચકજી ડુગરવાલ
રાજાજી કાકેરડાવાળા (મુનિશ્રી માગીલાલજીના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૧૧૫ ડે ધનજીભાઈ પરમોતમદાસ
૨૫૧ ૧૧૬ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર
૩૫૧ ૧૧૭ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર
૩૫૧ ૧૧૮ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર
૩૫૧ ૧૧૯ શેઠ ગેરિલાલજી યુગનલાલ ઉદેપુરવાળા
૨૫૬ ૧૨૦ શેઠ કનૈયાલાલજી સુરાણ પીપલેટાવાળા
૨૫૨ ૧૨૧ કામદાર વાડીલાલ રતીલાલ (સાબરમતી)
૨૫૨ ૧૨૨ કુમારી ચપાબેન ભેગીલાલ ભાવસાર
૨૮૦ ૧૨૩ કુમારી ઉષાબેન જય તીલાલ ભાવસાર ૧૨૪ કુમારી ચ દ્રાબેન જયંતીલાલ ભાવસાર ૧૨૫ કુમારી જયશ્રી રમણલાલ ભાવસાર
૨૫૧ ૧૨૬ શાહ ડાહ્યાભાઈ અ બાલાલ ૧૨૭ બરડીયા ચાદમલજી જવાહરલાલજી
૨૫૧ ૧૨૮ શ્રી વિજયદાન સુરેશ્વરજી જ્ઞાનમ દીર પૌષધશ ળા - ૧૨૯ શેઠ પાનાચંદ ઝવેરચદ સારગપુર ઉપાશ્રય ટ્રસ્ટ હ• વકીલ બાબુભાઈ હીંમતલાલ
૩૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૩૫૧
૩૫૧
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♦ શાહે જગજીત્રનદાસ પુરસે।તમદાસ ૩ શાહ ોકળદાસ શામજી ઉદાણી
૧૯
કલકત્તા
૧ શ્રી કલકત્તા જૈન વેસ્થા (ગુજરાતી) સઘ
કલેલ
હા મારફતીયા ચદુલાલ મણીલાલ ૫ સ્વ. શ્રીયુત વાડીલાલ પરસેાતમદાસના સ્મરણાર્થે હા ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ
૧ શેઠ મેાહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ
૨૫૧
ર્ડા. મયાચદ મગનલાલ શેઠ હાડા રતનચ મયાચદ
૨૫૧
૩ સ્વ.નાથાલાલ ઉમેદચદના સ્મરણાર્થે હા શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શેઠ મણીલાલ તલકચદના સ્મરણાર્થે
૬ શાહ નાગરદાસ કેશવલાલ
૭ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ હા શેઠ આત્મારામભાઈ મોહનલાલભાઈ
કડી
1
૧ શ્રી સ્થા દરિયાપુરી જૈન સ ઘ
હા ભાવસાર દામોદરદાસભાઇ ઇશ્વરલાલભાઈ
૨ પાર્વતીબેન હૈ જેસીંગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ
2
કરજણ
૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ મીયાગામ કરજણ
કટાર
૧ સ્થા જૈન સઘ જેસીંગભાઇ પાચ'લાલ તરફથી ( માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી ) હા ઠાકેારભાઇ રાયચ
કત્રાસગઢ
૧ શ્રી ને સ્થા જૈન સઘ હા શેડ દેવચદ અમુલખભાઇ
પાં
૫૧
કલ્યાણ
&
કે સઘવી ઠાકરશીભાઈ સઘજીના સ્મરણાર્થે
હા શાહ હીંમતવાલ હેમચક્ર
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
રા
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________________
૧૮
5 આ સો બેન ચન્દ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલજી નારી
ધર્મપત્ની હા શેઠ રણજીતલાલજી મોતીલાલજી હિંગડ૨૫૧ ૪ શેઠ છગનલાલજી બાગ્રેચા
૨૫૧ ૫ શેઠ મગનલાલજી બાગ્રેચા
૨૫૧ ૬ સ્વ શેઠ કાબુલાલજી લેઢાના સ્મરણાર્થે હા શેઠ દલતસિંહજી લેઢા
૨૫૧ ૭ સ્વ શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે હા પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા
૨પ૧ ૮ શેઠ ભીમરાજજી થાવરચ દજી બાફણા
૨૫૧ ૯ શ્રીયુત સાહેબલાલજી મહેતા
૨૫૧ ૧૦ શેઠ પન્નાલાલજી ગણેશલાલજી હીંગડ
૨૫૧ ૧૧ શેઠ દીપચંદજી પન્નાલાલજી લેઢા
૨૫૫ ૧૨ શેઠ કસ્તુરચ દછ નારૂમલજી
૨૫૧ ૧૩ શ્રી યુ એલ કોઠારી ૧૪ બાબુ પરશુરામ છગનલાલજી શેઠ
૨૫૦ ૧૫ શેઠ કનૈયાલાલ કારૂલાલજી જૈન
૨૫૧ ૧૬ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ આમડ
ઉપલેટા
ગુ૦૧
૩૫
૧ શોઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ
૨૫૧ ૨ સ્વ બેન સતેકબેન કચરા હા ઓતમચંદભાઈ છેટાલાલભાઈ
તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણુવાળા) ૨૫ ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા પ્રતાપભાઈ
૨૫૧ ૪ દેશી વિઠ્ઠલજી હરખચદ
૨૫૧ ૫ સઘણું મુળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હું તેમના પુત્ર
જયતીલાલ તથા રમણીકલાલ
ઉમરગાવ રાડ ૧;શાહ મોહનલાલ પોપટલાલ પાનેલીવાળા
૨૫૧ એડન કેમ્પ
૨૫૧
૧ મહેતા પ્રેમચંદ માણેકચદના સ્મરણાર્થે
હા રાયચંદભાઈ, પિપટલાલભાઈ તથા રસીકલાલભાઈ ૨૫૧
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ખાંભાત
૨૫
૨૫૧
૨૫ ૨૫૧
1 શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨ શેઠ ત્રીભોવનદાસ મ ગળદાસ ૩ શ્રી રસ્થા જૈન સગ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ ૫ શાહ સાકળચદ મેહનલાલ ૬ શાહ શકરાભાઈ દેવચ દ ૭ શાહે સુખલાલ દોલતચદ ૮ ગાધી બાપુલાલ મેહનલાલ ૯ બેન લલિતા માણેકલાલ
૨૫૧
૨૫
૨૫
ગાંધીધામ
૧ શાહ મોરારજી નાગજી એન્ડ કંપની
૨૫
ગુ દાલા
૧ શાહ માલશી ઘેલાભાઈ
૨૫૧
ગુલાબપુરા
૨૫૧
૧ શ્રી સ્થા જેન વર્ધમાન સંઘ
હ માગીલાલજી ઉકારમલજી ધનેપવાળા ૨ શ્રી એસવાલ પચાયત હે ગુલાબચંદ ચરડીયા
ગોંડલ
૫૧
૨૫૧
૧ સ્વ ભાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસના ધમપતિ કમલબાઈ
તરફથી હા માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીયા લીલાધર દાદર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની એ સૌ
લીલાવતી સાકરચદ ઠારના બીજા વર્ષીતપની ખુશાલીમાં ૩૦૧ ૩ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા હરીલાલ જુઠાલાલ કામદાર
૩૦૧ ૪૩ કેરી કૃપાશ કર માણેક દના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની પ્રભાકુવરબેન
૨૫ ૫ કઠારી ગુલાબચંદ રાયચદ ૨જુનવાળા
૨પ૧
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| શાš રમણીકલાલ પ્રેમચઢ
૧ દેશી રતીલાલ ટોકરશી
'
2०
કાનપુર
કુંદણી આટકાટ )
૧ પટેલ ગોવિંદલાલ ભગવાનજી
૨. પટેલ ખીમજી, જેઠાભાઈ વાઘાસી ( તેમના સ્વ સુપુત્ર રામજીભાઇના માથે )
૧ ચેઠ ચપાલાલજી દેવચંદ્રજી
કાલથી
કમ્પાલા
૧ સ્વ. શેઠ નાનચંદ મેાતીચંદ પ્રાકાવાળાના સ્મરણાથે' હુ તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ ૨,શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળી
કુશળગઢ
કાહાપુર
૧ વકીલ મણીલાલ ખેગારભાઇ હા હરીલાલભાઈ
• રોડ કીસનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ
બુરદારાડ
૧ શેઠ ગીરધારીલાલજી સીતારામજી ખેપવાળા
૨ શેઠ નરસિંહદાસ શાતિલાલજી ભારલાવાળા
»
..
(મુનિશ્રી ચામલજીના ઉપદેશથી ) |
-
I
૨૫૧
૫૧
3.२
ખારાપાડા
૧ સ્વ પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચક્ર શાહ તથા
૧ અ. સૌ એન જમકુબાઈ તથા લીલામાઈના મરણાર્થે હા નરસિંહદાસ હરજીવનદાસ
, ૧
૨ સ્વ. શેઠ એધડલાલ લક્ષ્મીચક્રના સ્મરણાર્થે હા ભાઇચદે “એલડભાઈ ૨૫૧
માયન
પા ૨૫૧
૨૫૧
૫૧
ઉપર
800
૨૫૧
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૨૩
જામખંભાળીયા ૧ શેઠ વસનજી નારણજી ૨ શ્રી શ્યા જેન સંઘ હા મહેતા રણછોડદાસ પરમાણદ ૩ સ ઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
જામનગર
૧ શાહ છોટાલાલ કેશવજી
૨૫૧ ૨ વેરા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ
૨૫૧ ૩ ડે સાહેબ પી પી શેઠ
૨૫૦ ૪ શાહ ૨૩ીલદાસ પેપરલાલ
૨૫૧ જુનારદેવ ૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ
૨૫૧ જુનાગઢ ૧ શેઠ મણલાલ મીઠાભાઈ હા હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીયાવાળા) ૨૫૧
જામજોધપુર ૧ શ્રી રથા જેન સાઘ હા મહેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ
૩૮૭ ૨ શાહ ત્રીભોવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા
૨૫૧ ૩ દેશી માણેકચ દ ભવાન
૨૫૧ ૪ પટેલ લાલજી જુઠાભાઈ
૨૫૧ ૫ શેઠ બાવનજી જેઠાભાઈ ૬ શેઠ વૃજલાલ ચુનીલાલ
૨૫૧
૨૫૧
જેતપુર
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૧ કઠારી ડોલરકુમાર વેણીલાલ ૨ અ સૌ બેન સુરજકુવર વેરીલાલ કેલરી ૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૪ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ
જેતલસર ૧ શાહ લક્ષ્મીચદ કપુરચદ ૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની
જબકબેન તરફથી હા શાતિવાલભાઈ ગડલવાળા
૨૫૧
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રેર
હું જસાણી રૂગનાથભાઈ નાનજી હા નીલચુલભાઇ
છ માસ્તર હુકમીચંદ દીપચંદ શેઠ
ગાદીયા
૧. સ્થા જૈન સંઘ હે શાહ પ્રેમચંદ કૈટાલાલ (શેઠ પેપટલાલભાઇ તરફથી) ૨૫૦
}
ગાધરા
J
k
૧ શાહુ ત્રીભેાવનદાસ છગનલાલ
૨
સ્વ. પ્રેમચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા શાહ ચુનીલાલ પ્રેમચન્દ
ઘટકણુ
'
૧ શાહ ચદુલાલ કેશવલાલ
યેાલવા (થાણા)
૧ મહેતા ગુલાબચ ૪ ગભીરમલજી
ધાડનદી
૧ શેઠ ચંદ્રભાણુ શેશભાચ ૪ ગાદીયા
3
ચુડા
૧ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા રતીલાલ મગનલાલ ગાધી
ચોટીલા
૧ શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્થા.જૈન સઘને લેટ
૧ ઢાશી ઝવેરચદ વલમજી
ચારભુજારાડ
૧ શેઠ માગીલાલજી હીરાચદજી ખાખેલ
જમશેદપુર
લેસર ( માલાસેાર)
૨૫૧
૫૧
શ્રીમાન સુન્દરલાલજી નેમીચ હતલેસર
3
૩૦૧
૩૧
૨૫૧
૩૦.
૨૫૧
૧
૩૦૧
૩૦૧
૧ સઘવી નાનચંદ્ર પાપટભાઇ થાનગઢવાળા
જયપુર
૧ શ્રીમાન શેઠ શીરમલજી નવલખાના ધર્મપત્ની આ સૌ પ્રેમલતાદેવી ૨૫૧
જસવતગઢ
૨૫૧
૨૫૧
મા
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________________
૧ શેઠ વસનજી નારણજી
૨ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા મહેતા રણુèાડદાસ પરમાણુદ
૩ સઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ
૨૩
જામખભાળીયા
૧ શાહ ટાલાલ કેશવજી ૨ વારા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ
૩ ડા સાહેબ પી પી શેઠ
૪ શાહ રગીલદાસ પેાપટલાલ
૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ
U
જામનગર
૩ દેશી માણેકચંદ ભવાન
૪ પટેલ લાલજી જુડાભાઈ
૫ શેઠ મવનજી જેઠાભાઇ
૬ શેઠ વૃજલાલ ચુનીલાલ
જીનારદેવ
૧ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ હા મહેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ ૨ શાહુ ત્રીબાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા
જેતપુર
૧ કાઠારી ડીલરકુમાર વેણીલાલ ૨ અ સૌ એન સુરજકુવર વેણીલાલ કારી
૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા નરભેરામભાઇ ( જસાપુરવાળા ) ૪ રાશી ટાલાલ વનેચંદ
જેતલસર
પા
જુનાગઢ
૧ શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા હરીલાલભાઈ ( હાટીના માળીયાવાળા ) ૨૫૧
જામજોધપુર
૧ શાહ લક્ષ્મીચ દ કપુરચદ
૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની
જખએન તરફથી હા શાતિલાલભાઈ ગેલવાળા
*
પા
૫૧
૨૫:
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
પા
320
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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'
૨૫૦ ૨૫૫ ૨૫૧ ૨૫
२४
જોધપુર શેઠ નવરતમલજી ધનવતસિંહજી ૨ શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપમલજી સામસુખા ૩ શેઠ પુખરાજજી પદમારાજજી ભડારી ૪ શેઠ વસ્તીમલ આનદમલજી સામસુખા
જોરાવરનગર ૧ થી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ ચંપકલાલ ધનજીભાઈ
ઝરીયા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ કનૈયાલાલ બી મારી
ડાંડાયચા ૨ શ્રી સ્થાન સઘ
૨૫૧
૨૫
૨૫૦
ઢસા
રજી
જ હસાગામ સ્થાજૈન સંઘ હ એક સદગૃહસ્થ તરફથી ' ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ બગડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (ઢસા જ કશન) ૨૫૧
તાસગાંવ ૧ ૩ ચુનીલાલજી દુગડને સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની
દુબાઈ તરફથી હા શેઠ રામચંદજી
થાનગઢ
૨૫૧
૨૫૧
૩૧
૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી રે શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભોવનદાસ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા સુખલાલભાઈ ૪ હસાબેન અરવીંદ હા ભાઈ રવીચદ માણેશ્ચદ
દહાણુરેડ ૧ હ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખ ધાર (કરાચીવાળા)
દાહોદ ૧ ચેક માણેકલાલભાઈ ખેગારજી
દહી ઇ લાલાજી પૂર્ણચદજી જૈન (સેન્ટ્રલ બેકવાળા)
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
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૨૫
-
૨૫૧
૩૦૧
૨ શ્રીયુત કીશનચંદજી મહેતાબચદજી ચોરડીયા -હા શ્રીમતી નગીનદેવી તથા શ્રીયુત મહેતાબચંદ જૈન
૨૫૧ ૩ અ સૌ સજનબેન ઈદરમલજી પારેખ ૪ લાલાજી મીઠનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ
૩૦૧ ૫ લાલાજી ગુલશનલાલજી જેન એન્ડ સન્સ ૬ બેન વિજયાકુમારી જૈન કે મહેતાબ દ જૈન ( વ વૃદ્ધ સરલ સ્વભાવી કુલમતીજી મહાસતીજીની પ્રેરણાથી) ૨૫૧ ૭ શ્રીમાન લાલાજી રતનચંદજી જૈન કે આઈ સી હેઝીયરી ૨૫૧ ૮ સ્વ શ્રી લાલાશ્રીચ દજી ડગરીયાના સ્મરણાર્થે રાજસ્થાન ન્યાયાધિકારી
હુકમચ દજી જૈનના સુપુત્ર જીતેન્દ્રકુમાર વકીલના સુપુત્ર અનિલકુમાર - તરફથી ભેટ હા વિનયકુમારી
૩૫૧ ૯ સ્વ લાલાજી ચ પાલાલ ગોરડીયાના સ્મર,થે લાભચદજી.
તથા હીરાલાલજી તસ્કથી હા શાત દેવી ૧૦ એક સદુગ્રહથ તરફથી હા મહેતાબચ દછ જૈન ૧૧ એક સ્વધર્મી બધુ તરફથી હા વિજયાકુમારીબેન ૧૨ બાબુ નિર જનસિહજી જૈન
૨૫૧ ધ્રાફા ૧ શેઠ મણલાલ જેચદભાઈ
૨૫૧
ધાર
૨૫૧
૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી
ધ્રાગધ્રા ૧ ભાવદીક્ષિત અ સી રૂપાળીબેન હિંમતલાલ સ ઘવીની તપશ્ચર્યા
સ ઘવી ચીમનલાલ પુરતમદાસ સ ઘવી તરફથી ૨ સ ઘવી નરસિંહદાસ વખતચદ
શ્રી સ્થા જૈન મોટા સઘ હ મ ગળજી જીવરાજ ૪ ઠક્કર નારણદાસ હરગોવિંદદાસ ૫ કઠારી કપુરચદ મ ગળજી
ધોરાજી
૩૦૫ ૨૦૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૧ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૨ અ સૌ બચીબેન બાબુભાઈ
૩૫૧
-
-
૨૫૧
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૩ ધી નવસરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ મા લીમીટેડ ૪ વ રાયચદ પાનાચદના મરણાર્થે હા ચીમનલાલ રાયચંદ શાહ ૩૧ ૫ ગાધી પિોપટલાલ જેચદભાઈ
૨૫૦ ૬ દેસાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાનાં ધર્મપત્ની દિવાળીબેન તરફથી હા કુમારી હસુમતી
૨૫ ૭ એક સદ્દગૃહસ્થ હા મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ
૨૫૧ ૮ શેઠ દલપતરામ વસનજી મહેતા
૨૫૧ ૯ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાન કચરાભાઈને તથા ચિ હસાના મરણાર્થે હા પટેલ દલીચ દ ભગવાનજી
ક ૧૦ મહેતા હેમચદ કાળીદાસ જામખંભાળીયાવાળા
૨૧ ધધુકા ૧ શેઠ પિપટલાલ ધારશીભાઈ
૨પ૧ ૨ ૩ ગુલાબચદભાઈના સ્મરણાર્થે હા વેરા પિપટલાલ નાનચદ ૨૫૫ ૩ શ્રી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણી
૨૫૧ ધુલીયા ૧ શ્રી અમલ જૈન જ્ઞાનાલય હે શેઠ કનૈયાલાલ છાજેડ
૨૫૧ નડીયાદ ૧ શાહ મોહનલાલ ભુરાભાઈ
નારાયણ ગામ ૧ શેઠ મોતીલાલજી હીરાચદજી ચેારડીયા બોરીવાળા
૨૫૧ નદુરબાર ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ
૨૫૧ નાગોર ૧ શ્રીપાલભાઈ એન્ડ કા સાગરમલજી લુકડ ડેરવાળા તરફથી
નાગપુર ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સંઘ
પાલનપુર ૧ કાગચ્છ સ્થા જૈન પુસ્તકાલય હા કેશવલાલ હ શાહ
૨૫
૨૫૧
૨૫
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૨૫૧
પાછુસણા ૧ સ્થા જૈન સંઘ હા શાહ છોટાલાલ પુંજાભાઈ
પાલેજ ૧ સ્વ મનસુખલાલ મોહનલાલ સ ઘવીના સમરણાર્થે હા ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ
પ્રાંતીજ ૧ સ્થા જૈન સંઘ હ શ્રીયુત અબાલાલ મહાસુખરામ
૪૦
૨૫૦
પૂના
૨૫
૨૦૧ ૨૫૧
૨૫૧
૧ શેઠ ઉત્તમચ દજી કેવળચદજી ધેકા
ફાલના ૧ મહેતા પુખરાજજી હસ્તીમલજ સાદડીવાલા ૨ મહેતા કુદનમલજી અમરચંદજી સાદડીવાલા
બગસરા ૧ શેઠ પિપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા
હા માનસ ઘ પ્રેમચંદ શાહ - ૨ સ્વ માતુશ્રી જબકબાઈના સ્મરણાર્થે હા દેસાઈ વૃજલાલ કાળીદાસ
બરવાળા-ઘેલાશા ૧ સ્વ મોહનલાલ નરસિંહદાસના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની સુરજબેન મોરારજી
અનાવર ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ હા. મિશ્રીલાલ જૈન વકીલ
બાજેતરા ૧ શાહ જેઠમલજી હસ્તીમલજી ભગવાનદાસજી ભણસારી
૨૫૧
૨૫
૨૫૧
૨૫૧
બીદડા
૧ શાહે કાનજી શામજીભાઇ
૨૫૧
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શેઠ ભેદાનજી શેઠીયા
૧૮
બીકાનેર
મેરાજા
૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી ( જ્ઞાનભડાર માટે)
એલારી
૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હું શેઠ હજારીમલજી હસ્તીમલજી રાંકા
મેરમા
૧ શ્રી એરમા સ્થા જૈન સઘ હું મહેતા નવલચક હાકેમચંદ
એગલેાર
૧"શેઠ કીશનલાલજી કુલચદ્રજી સાહેમ ૨ અજમેરા છેટાલાલ માનસિંગ
મેટાદ
૧ સ્વ વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનાલના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મ પત્ની છદ્મલબેન
ખાડેલી
૧ શાહુ પ્રવીણુચન્દ્ર નરસિંહદાસ સાળુ દવાળા
૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ
.
ભાણવડ
૧ શેઠ જેચ દભાઇ માણેકચદભાઈ
૨ સઘવી માણેકચદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજી માણેકચદ લાલપુરવાળા
૪ શેઠ રામજી જીણાભાઈ
૫ શેઠ પદમશી ભીમજી કાફીયા
૬ ફાફીયા ગાડાલાલ કાનજીસાઈ હા એ સૌ શાતાબેન વસનજી
છ સ્વ મહેતા પૂનમચદ ભવાનના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મ પત્ની દિવાળીબેન લીાધર (ગુ
3
"
૨૫
૨૫૧
૨૫
૫૧
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રૂપા
૨૫૧
૫૧ ૫૧
૫ ૩૫૨
૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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રહે
ભાવનગર ૧ સ્વ કુવરજી બાવાભીના મરણાર્થે હ શાહ લહેરચદ કુવરજી ૩૦૧
ભાદરણું ૧ ટી સ્થા જૈન સંઘ હ પટેલ ધુલાભાઈ ઝવેરભાઈ
- ભીલવાડા ૧ શ્રી શાતિ જૈન પુસ્તકાલય હા ચાદમલજી મામલજી સઘવી ૨૫૧ ૨ શેઠ ભીમરાજજી મીશલાલજી
૩૦૧
૨૫૧
ભીમ
૨૫
૨૫૧
૧ ચપકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હા શેઠ ગામલજી માગીલાલજી
ભુસાવળ ૧ શેઠ રાજમલજી નદલાલજી ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ
ભેજાએ ૧ જ્ઞાન મંદિરના સેક્રેટરી શાહ કુંવરજી જીવરાજ
મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચ દજી મહેતા ૨ મહેતા મણીલાલ ભાઈચ દ ૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચંદ ૪ મહેતા બાપાલાલ ભાઈચર
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
મનફરા
૧ સ્થા છકેરી સ્થા જૈન સ ઘ
૨૫૧ મનોર ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચ દજી જશવંતગઢવાળા હા પૂનમચ દશ શેરમલજી બોલ્યા
૨પ૧ માનકુવા ૧ વ મહેતા કુવરજી નાથાલાલના અરણ હા તેમના ધર્મપત્ની કુવરબાઈ હરખચદ ( માનકુવા સ્થા જૈન સંઘ માટે )
૨૫૧
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૨૫
બીકાનેર શેઠ ભરૂદાનજી શેઠીયા
બેરાજા ૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી (જ્ઞાનભંડાર માટે)
બેલારી ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ હજારીમજી હસ્તીમલજી રાક
બેરમો ૧ શ્રી બેર થા જૈન સંઘ હ મહેતા નવલચદ હાકેમચંદ
બે ગલેર ૧ શેઠ કિશનલાલજી કુલચ દજી સાહેબ ૨ અજમેરા છોટાલાલ માનસિંગ
બોટાદ ૧ વ વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સ્મરર્થે છે તેમના ધર્મપત્ની છબલબેન
બેડેલી
૨૫૧
૫૫
૨૫૧
૧ શાહ પ્રવીણચન્દ્ર નરસિંહદાસ સાથુ દવાળા ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ
૨૫૧ ૨૫૧
ભાણવડ
? ઉપર ૨૫૧ ૨૫૧
૧ શેઠ જેચ દભાઈ માણેકચ દભાઈ ૨ સ ઘવી માણેકચદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજી માણેકચંદ લાલપુરવાળા ૪ શેઠ રામજી જીભાઈ પ શેઠ પદમશી ભીમજી ફેફરીયા ૬ ફેફરીના ગાડાલાલ કાનજીભાઈ હા એ સૌ શાતબેન વસનજી ૭ સ્વ મહેતા પૂનમચદ ભવાનના સમરણાર્થે હા તેમના છે - ધર્મપત્ની દિવાળીબેન લીધર (ગુદાવાળા)
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
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હે
ભાનગર
સ્વ કુવરજી ખાવાલાઇન્ડ માર્યે હા શાહ લહેરચઃ કુવરજી ૩૦૧
ભાદરણું
૧ શ્રી સ્થા જૈન સઘ હા પટેલ ધુલાભાઈ ઝવેરભાઈ
ભીલવાડા
૧ શ્રી શાતિ જૈન પુસ્તકાલય । ચાદમલજી માનમલજી સઘવી ૨ શેઠે ભીમરાજજી મીશ્ર લાલજી
ભીમ
૧૨ પકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હા શેઠ ગામલજી માગીલાલજી
ભુસાવળ
૧ શેઠ રાજમલજી નદલાલજી ચેરીટેખલૅટ્રસ્ટ
ભાજારા
૧ જ્ઞાન મંદિરના સેક્રેટરી શાહ કુવરજી જીવરાજ
મદ્રાસ
૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચદજી મહેતા
૨ મહેતા મણીલાલ ભાઈચ દ
૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચ દ
૪ મહેતા માપાલાલભાઈચઢ
૧ સ્થા છોડી સ્વા જૈન સઘ
મા
મનાર
૧ શાહે શેરમલજી દેવીચદજી જશવ તગઢવાળા હા પૂનમચંદજી શેરમલજી એલ્યા
માનકુવા
૧ ૧ મહેતા કુવરજી નથાલાલના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મ પત્ની કુંવરબાઈ હરખચંદ ( માનકુવા સ્થા. જૈન સઘ માટે )
vi
૨૫
૩૦૧
પા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૧૧
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માંડવી ૧ શ્રી સ્થા છકેટી જૈન સંઘ હ મહેતા ચુનીલાલ વેલજી ર
માડવા ૧ શ્રી માડવા સ્થા જૈનન સઘ હ અ સૌ કચનગૌરી રતીલાલ ગોસલીયા (ગઢડાવાળા) ૨૫
માલેગાંવ ૧ શ્રી થા જૈન સંઘ હ ફતેલાલ માલ જૈન
૫૧ માગરેલ ૧ શાહ ત્રીવનદાસ નાનજી
૨૫૦ ૨ દેશી ગીરધરલાલ જેઠાલાલ
૨૫e મુબઈ તથા પરાઓ ૧ શાહ શ્રી પિતાશ્રી કુંદનમલજી મોતીલાલજી સુથાના સ્મર
હા શેઠ મોતીલાલજી જુબરમલજી (અહમદનગરવાળા) ૨ વર્ધમાન સ્થા જેને સઘ હ કામકાર રૂપચંદ શીવલાલ (અ ઘેરી) ૨૫૧ 2 અ સૌ કમળાબેન કામદાર હ કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અ ઘેરી) ૨૫૧ ૪ સ્વ માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હ તેમના પિન હકમીચદ તારાચદ દોશી (અ ઘેરી)
૨૫૧ ૫ શાહ હરજીવન કેશવજી
૨૫૧ ૬ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા એ સૌ કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૭ સઘવી હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૮ વેરા પાનાચદ સ ઘજીના સ્મરણાર્થે ત્ર બકલાલ પાનાચદ એન્ડ બ્રધર્સ
૨૫૧ ૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૧૦ સ્વ જટાશકર દેવજીભાઈ દોશીના સ્મરણાર્થે હ રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશ કર દોશી
૩૦૧ ૧૧ ઘેલાણું વલભજી નરભેરામ હે નરસીંહદાસ વલભજી ૧૨ કપાસી મોહનલાલ શીવલાલ ૧૩ ત્રીભોવનદાસ માનસિંગભાઈ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થે
હ શાહ હરખચદ ત્રીવનદાસ ૧૪ ખેતાણું મણીલાલ કેશવજી (વડિયાવાળા) ઘાટકોપર
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫
૨૫૧
રી
૨૫
૨૫.
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‘૨૫૧
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૨૫૧
૧૫ વ પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગોડલવાળાના સ્મરણાર્થે હા વૃજલાલ શામળજી બાવીસી
૩૦૧ ૧૬ શાહ રવિચંદ સુખલાલભાઈ (દાદર) ૧૭ સ્વ આશારામ ગીરધરલાલના સ્મરણાર્થે હા શાતિલાલ આશારામ વતી જશવંતલાલ શાંતિલાલ
૨૫ ૧૮ ગાધી કાતીલાલ માણેકચર ૧૯ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કુ (કાદવલી) ૨૦ અ સૌ લાબેન હા રવજીભાઈ શામજી
૨૫૧ ૨૧ સ્વ માતુશ્રી માણેકબાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ વલભદાસ નાનજી ૩૦૧ ૨૨ એક સદગૃહસ્થ હો શેઠ સુદરલાલ માણેકલાલ ૨૩ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ ૨૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા
૨૫૧ ૨૫ સ્વ માતુશ્રી ગોમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ પિટલાલ પાનાચદ ૨૫૧ ૨૬ કેટેચા જય તીલાલ રણછોડદાસ સૌભાગ્યચદ જુનાગઢવાળા ૨૭ વેરા ઠાકરશી જસરાજ
૨૫૧ ૨૮ કોઠારી સુખલાલજી પુનમચંદજી
(ખારોડ) ર૫૧ ૨૯ અ સ બેન કુદનગૌરી મનહરલાલ સ ઘવી
૨૫૫ ૩૦ કઠારી રમણીકલાલ કસ્તુરચદભાઈ ૩૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે
હા દલીચ દ અમૃતલાલ દેસાઈ ૩૨ સ્વ ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વીછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે
હા હરગોવિંદદાસ ત્રીભોવનદાસ અજમેરા ૩૩ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચ દ
૨૫ ૩૪ શેઠ સરદારમલજી દેવીચ દછ કાડીયા (સાદડીવાલા) ૩૫ શેઠ નેમચદ વરૂપચદ ખભાતવાળા હા ભાઈ જેઠાલાલ નેમચઇ ૨૫૧ ૩૬ શાહ કરશીભાઈ હીરજીભાઈ ૩૭ દડિયા અમૃતલાલ મોતીચદ
(ઘાટકોપર) ૨૫૧ ૩૮ દેશી ચત્રભુજ સુદરજી
૪૦૧ ૩૯ દેશી જુગલકિશોર ચત્રભુજ
* ૪૦૧
૨૫૧
૨૫
૨૫૧
૩૦૧
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૨૫૧
૪૦ દોશી પ્રવિણચંદ્ર ચત્રભુજ
(ઘાટકોપર) ૩૮૧ ૪૧.શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હ ઝાટકીયા નરભેરામ ભેર રછ , ૨૫૧ ૪૨ શાહ કાતીલાલ મગનલાવ
મા ૧૫૧ ૪૩ શેઠ મણીલાલ ગુલાબચ દ
ઘાટ પર ૨૫૧ ૪૪ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ
૨૫૧ કંપ શાહ શીવજી માણેકભાઈ
૨૫૧ ૪૬ મેમસ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ કે હા શેડ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૪૭ શાહ નગીનદાસ કયાજી (વેરાવળવાળા)
૨૫૧ ૪૮ મહેતા રતીલાલ ભાઈચદ
૨૫૬ ૪૯ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા
૨૫૪ ૫૦ બેન કેશરભાઈ ચ દુલાલ જેગભાઈ શાહ પ૧ પારેખ ચીમનલાલ લાલચ દ માયલાવાળાના ધર્મપત્ની એ સો
ચ ચળબાઈના સ્મરણાર્થે હા સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ પર ધી મરીના મેડન હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ ૫૩ મહેને મેટર સ્ટે હા અનોપચંદ ડી મહેતા
૨૫૧ ૫૪ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાકર મેરબીવાળા તરફથી તેમના માતુશ્રી મણીબેનના મરણાર્થે
૩૦૧ ૫૫ શ્રીયુત જસવંતલાલ ચુનીલાલ વોરા
૨૫૦ ૧૬ શાહ કુવરજી હંસરાજ પ૭ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી ૫૮ મોદી અમેચ દ સુરચદ રાજકેટવાળા હા ડોસાવાલ અમેચદ ૨૫૧ પ૯ શાહ જેઠાલાલ ડામરશી પ્રાગવાળા હ શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૬૦ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચદ જસાણીના સ્મરણાર્થે હા લક્ષ્મીચંદભાઈ તથા કેરાલાલભાઈ
૩૫૧ ૬૧ સવ પિતાશ્રી શાહ અબાલાલ પુરુષોત્તમદાસના સમરણાર્થે હા શાહ બાપાલાલ અ બાલાલ
૨૫૧ દર સ્વ કસ્તુરચદ અમરશીના સમરણ હા તેમના ધર્મપત્ની ઝવેરબેન
મગનલાલ વતી જયતીલાલ કસ્તુરચદ મશ્કરીયા (ચુડાવાળી) ર૩૧ ૬૩-શેઠ ડુંગરશી હસરાજ વીસરીયા ૬૪ શહિ રતનશી મેણુશીની કુલ ૬૫ શેઠ શીવલાલ ગુલાબચ દ મેવાવાળા ૨૬ શાહ ચ દુલાલ ઠેરાવલાલ
૨૫૫
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________________
કરી
૬૭ 4 પિતાશ્રી વીરચદ જેસીંગ, શેઠ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે "
હા કેશવલાલ વીરચંદ ૬૮ ચ દુલાલ કાનજી મહેતા ૬૯ શ્રી વર્ધમાન થા જૈન સંઘ
હા કેશરીમલજી અનેપચદજી ગુગલીયા (મલાડ) રપ૧ ૭૪ સ્વ પિતાશ્રી પતુભાઈ મનાભાઈના સ્મરણાર્થે
હા શાહ કાનજી પતુભાઈ ૭૧ અ સી પનબાઈ હા શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ ,
ર૫૧ ૭' સ્વ નાગશીભાઈ સેજપાલના સ્મરણાર્થે રામજી નાગણી , ૩૦૧ ૭૩ સ્વ ગડા વાઝારશી ત્રીભવનદાસ ગરસરવાળાના સ્મરણાર્થે : હા જગજીવન વણશી ગોડા ૭૪ સ્વ કાનજી મુળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના -
- ૧૬ ઉપવાસના પારણું પ્રસગે હા યે તિલાલ કાનજી ,, ૨૫૧ ૭૫ શાહ પ્રેમજી માલશી ગ ગર
૨૫૧ ૭૬ શાહ વેલરી જેસીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમના ધર્મપત્ની સ્વ નાનબાઈના મરણાર્થે
૩૦૧ ૭૭ સ્વ પિતાશ્રી રાયશી વેલીના સ્મરણાર્થે હા શાહ દામજી રાયગીભાઈ
૩૦૧ ૭૮ શાહ વરજાગભાઈ શીવજીભાઈ
૨૫૧ ૭૯ શાહ ખીમજી મુળજી પુજા
૨૫૧ ૮૦ અ સૌ સમતાબેન શાતિલાલ હ શાતિલાલ ઉજમશી શાહ ૨૫૧ ૮૧ સ્વ કેશવલાલ વછરાજ ઠારીના સ્મરણાર્થે સુરજબેન તરફથી
હા તનસુખલાલભાઈ ૮૨ સ્વ પિતાશ્રી હસરાજ હીરાના સમરણાર્થે
હા દેવશી હસરાજ કચ્છ બીદડાવાળા ૯૩ ઘેલાણ પ્રભુલાલ ત્રીકમજી
(બેરીવલી) ઉપર ૮૪ શેઠ ત્ર બકલાલ કસુચ્ચ દલીમડી અજરામર રાઅભડારને ભેટ (માટુંગા) ૨૫૧ ૮૫ અ સૌ બેન રજનગૌરી કે શાહ ચ દુલાલ લક્ષમીદ , ૨૫૧ ૮૬ શાહ નટવરલાલ દીપચદ તરફથી તેમના ધર્મપત્ની
અ ગૌ સુશીલાબેનના વર્ષીતપની ખુશાલીમાં ૮૭ દેશી ભીખાલાલ વૃજલાલ પાળીયાદવાળા
, ૨૫૧ ૮૮ શાહ ને પાળજી માનસ ગ
- ૨૧
ર
2, ૨૫૧
- ૨૫૧
૫
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(
૮૯ દેશી મુલચંદ માણેકચંદ ૯૦ શેઠ ચપકલાલ ચુનીલાલ દાદભાષાળા ૯૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ હૈ શાહ રવિચંદ સુખલાલ ૨ શાતીલાલ ડુંગરશી અદાણી ૯૩ શાહે કરશન લધુભાઈ ૯૪ ક્રીસનલાલ સી મહેતા
૩૪
૯૫ માતુશ્રી જીવીખાઇના સ્મરણાર્થે
હું. શામજી શીવજી કચ્છ ગુંદાળાવાળા
૯ સ્વ. કાળીદાસ જેઠાલાલ શાહના સ્મરણાર્ચ
હું સુમનલાલ કાળીદાસ ( કાનપુરવાળા )
૧૦૦ શાહે ત્રીભાવન ગેાપાળજી તથા અસૌ મેન કર્યુમા ત્રીભાવન ( થાનગઢવાળા )
૫૧,
સુંબઇ ૨૫૧ ૯૭ સુશીલાએન શકરાભાઈ ઠે નવીનચંદ્ર વસ તલાલ શાહ ( વીલેપાલે) ૨૫૧ ૯૮ એન ચદનબેન અમૃતલાલ વારિયા
મુળી
૧ ગ્રેડ ઉજમશી વીરપાળ હું શેઠ કેશવલાલ ઉજમશી
મોરબી
૧ દેશી માણેકરા સુંદરજી
૧ શ્રીચુત નાથાલાલ ડી મહેતા ૨ ચાહ દેવરાજ પેથરાજ
માટુંગા, ૨૫૦
૫૧
""
૯૬ વ શાહ રાયશી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મ પત્ની તેણુખાઈની વતી હું જેઠાલાલ રાયશી
મોમ્બાસા
(દાદર) ૨૫૧
૫૧
"9
૨૫૧
""
( શીવ ) ૨૫૧
(ગૈરંગાવ) ૨૫૧
(શીવ) ૨૫૧
૧૦૧ અ સૌ શાતાબેન (દીનુભાઈ ભેગીલાલના ધર્મપત્ની) (દાદર) ૨૫૧ ૧૦૨ ભાવસાર દ્વીનુભાઈ ભાગીલાલ
૨૫૧
મહેસાણા
૧ શાહ પદમથી સૂરચન્દના રસ્મરણાર્થે હું શીવલાલ પદમશી
૩૦૧
37
૩૧
૩૫૧
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
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ઉપ
યાદગીરી
૧ શેઠ ખાદરમલજી સુરજમલજી–એ કસ
રતલામ
૧ અનેક ભક્તજને તરફથી હશ્રીમાન કેશરીમલજી ઠક ( શ્રી કેવળચ દ મુનિશ્રીના ઉપદેશથી )
રાણપુર
૧ શ્રીમતી માતુશ્રી સમરતબાઇના સ્મરણાર્થે હ. 31 નરાન્તમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા ૨ સ્વ. પિતાશ્રી લહેરાભાઇ ખીમજીના સ્મરણાર્થે હુ શેઠ કાળીદાસ લહેરાભાઈ વસાણી
રાણાવાસ
૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચદજી હા ખાખુ રીખખચ દ્રજી
રાયચુર
૧ સ્વ માતુશ્રી મેઘીખાઈના સ્મરણાથે
હૈ શાહ શીવલાલ ગુલામચદ વઢવાણુવાળા
૨ કાળુરામજી ચાઢમલજી સ ચેતી
રાજકાટ
૧ વાડીલાલ ડાઈંગ એન્ડ પ્રિન્ટીગ વર્કસ
૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચક્ર ચીત્તલીયા
૩ શેઠ મનુભાઈ મુળચ ૪ ( એન્જીનીયર સાહેષ્ઠ )
૪ શેઠ શાતિલાલ પ્રેમચંદ તેમના ધર્મ પત્નીના વર્ષીતપ-પ્રસ ગે
જ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી
૬ મેન સર્યુંખાળા નૌતમલાલ જસાણી ( વર્ષીતપની ખુશાલી )
છ માદી સૌભાગ્યચ ૬ મેાતીચ દ
૮ અદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મપત્ની અસૌ સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિત્ત
૯ ઢાશી માતીચ દ ધારશીભાઇ
૨૫૦
૨૫૧
પા
૩૦૧
૩૦૧
૨૫૧
પા
૪૦૦
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
ર૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૩૬
૧૦ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ ( ધ્રાગધ્રાવાળા ) ૧૧ હેમાણી ઘેલાભાઈ સચદ
પર દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચ દ
૧૩ ૧ મહેતા દેવચંદ પુરૂષાત્તમના સ્મરણુાથે તેમનાં ધમ પ ની હેમકુવરખાઈ તરફથી હુ જય તીલાલ દેવચંદ મહેતા
૨૫૧
૧૪ પારેખ શીવલાલ ઝુઝાભાઈ મામ્ફાસાવાળા હુ એ સૌ કૅચનબેન પુર
પર
*
૧ પૂજ્ય વાલજીભાઈ ન્યાલચ દભાઇ
રામપુરા
૧ શેઠ તેજમલજી મનેાહરલાલજી એકર
રાવટી
શું શેઠ મીયાચદજી જીહેરમલજી કટારિયા
લખતર
૧ શાહ રાયચદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હું શાતિલાલ રાયચંદ શાહ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસના સ્મરણાર્થે
હુ ત્રીભાવનદાસ હરજીવનદાસ ૩ શાહ તલકશી હીરાથદના સ્મરણાર્થે હું ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી
૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચ દ
પ"શાહ જાદવજી એઘડભાઇના સ્મરણાર્થે હું શાતિલાલ જાદવજી ૬ દાશી ઠાકરશી ગુલાખચ દના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મ પત્ની સમરતજૈન તરફથી હું જય તીલાલ ઠાકરશી
લાલપુર
ભાઈ મગનલાલ હું પાપટલાલ તથા જેસીંગભાઈ
લાકડીયા
• તેમચંદ સવજી ભેદી હું શેડ મુલચ ૬.
૧ શ્રી લાકડીયા સ્થા જૈન સઘ હું શાહે રતનસી કરમણ્
1
લીબડી ( સૌરાષ્ટ્ર )
૨૫૦
૨૫૧
૨૫૧
૧ શાહે ચકુભાઇ ગુલાબચંદ
૫૧
૩૧
રૂપા
પા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૫૧
૨૫૬
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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લીબડી (પંચમહાલ)
૧ શાહ કુવરજી ગુલાબચ દ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચદ ૩ શેઠ વીરચદ પન્નાલાલજી કરણાવટ ૪ થી સ્થા જૈન સંઘ હ શાહ શાતિલાલ ગુલાબચદ
૨૫૧ ૨૫૧૬
૨૫૧ ૩પૃ૧
લોનાવાલા ૧ શેઠ ધનરાજજી મુલચ દરજી સુથા
લુધીયાના
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૨૧ ૨૫૧
૧ બાબુ રાજેન્દ્રકુમાર જેન દીલ્હીવાળા
વઢવાણ શહેર ૧ શેઠ દિલીપકુમાર સવાઈલાલ કે શાહ સવાઈલાલ ત્રબકલાલ ૨ કામદાર મગનલાલ ગોકલદાસ હ રતીલાલ મગનલાલ ૩ સ ઘવી મુળચદ બેચરભાઈ હ જીવણલાલ ગફલદાસ ૪ શેઠ કાતિલાલ નાગરદાસ ૫ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૬ સ ઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ છ શાહ દેવશીભાઈ દેવકરણ ૮ વેરા ડેસાભાઈ લાલચ દ સ્થા જૈન સંઘ
હ વેરા નાનચદ શીવલાલ ૯ વેરા ધનજીભાઈ લાલચ દ સ્થા જૈન સંઘ
હા વોરા પાનાચંદ ગબરદાસ ૧૦ દેશી વીરચદ સુરચદ હા દેશી નાનચદ ઉજમશી ૧૧ સ્વ વોરા મણીલાલ મગનલાલ હ ારા ચત્રભુજ મગનલાલ ૧૨ શાહ વાડીલાલ દેવજીભાઈ ૧૩ કામદાર ગધનદાસ મગનલાલના ધર્મપત્ની
અ સૌ કમળાબેન રઘુનવાલા ૧૪ શ્રી વૃજલાલ સુખલાલ
વડેદરા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ પ્રોફેસર
૨૫
૨૫a ૨૫૧
૨૫૧
૨૫
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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________________
૨૫
૨ વકીલ મલાલ કેશવલાલ શાહ
૨૫૧ ૩ સ્વ પિતાશ્રી ફકીરચદ પુજાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ રમણલાલ ફકીરચ દ
૨૫૧ વડિયા ૧ શેઠ ભવાનભાઈ કાળાભાઈ પચમીયા
૨૫૧ વલસાડ ૧ શાહ ખીમચદ મુલજીભાઈ
૨૫ વણ ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની સ્વ ચ ચળબેન છે તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા મનહરલાલ નાનાલાલ મહેતા ૨૫૧
વટામણ ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ પટેલ ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ
વડગાવ ૧ શેઠ માણેકચ દછ રાજમલજી બાફણ
વાકાનેર ખઢરીયા કાતીલાલ વ બકલાલ
૨૫૧ ૨ દફતરી ચુનીલાલ પિપટલાલ મરબીવાળા હે પ્રાણલાલ ચુનીલાલ દફતરી
૨૫૧ વીછીયા - ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ અજમેરા રાયચદ વ્રજપાળ
૨૫૧ વીરમગામ ૧ માસ્તર વીઠલભાઈ મોદી
૨૫૧ ૨ શાહ નાગરદાસ માણેકલ્ચદ
૨૫૧ ૩ શાહ મણુલાલ જીવણલાલ શાહપુરવાળાં
૨૫૧ ૪ શાહ અમુલખ નાગરદાસના ધમપત્ની આ સૌ બેન લીલાવતીના વર્ષિતપ નિમિત્તે હા શાહ કાતિલાલ નાગરદાસ
૩૦૦ ૫ સ્વ શેઠ ઉજમશી નાનીદના મરણાર્થે છે . હા ચુનીલાલ નાનચદ
પા
-
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________________
૩e
૬ સ્વ શેઠ મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ બાગઘેડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તફ઼થી હ ખીમચદભાઈ
૨૫૧ ૭ સ્વ શેઠ હરિલાલ પ્રભુદામના સ્મરણાર્થે હા અનુભાઈ
૨૫૧ ૮ સ ઘવી જેચદભાઈ નારણદાસ
૨૫૫ ૯ સ્વ શાહ વેલશીભાઈ સાકરચદ કત્રાસગઢવાળાના સ્મરણાર્થે હ ચીમનલાલભાઈ
૨૫૧ ૧૦ પારેખ મણીલાલ ટેકશી લાતીવાળા (મેડીબેનના મરણાર્થે) રપ૧ ૧૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના પુત્ર વાડીલાલભાઈના ધર્મપત્ની - અ સૌ નાર ગીબેનના વર્ષિતપ નિમિત્ત હ શાંતિલાલ નારણદાસ ૨૫૧ ૧૨ સ્વ છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની કમળાબેન તરફથી હ મ જુલાકુમારી
૨૫૧ ૧૩ શ્રી સ્થા જૈન શ્રાવિકા સઘ હ ૨ભાબેન વાડીલાલ
૨૫૧ હ કે હિમતલાલ સુખલાલ
૨૫૧ ૧૫ શાહ મુળચ દ કાનજીભાઈ હ શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ ૧૬ શેઠ મેહનલાલ પિતાબદાસ હ ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૨૧ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વર્ષિતપ નિમિત્તે હું નથુભાઈ નાનચંદ શાહ
૩૦૧ ૧૮ શેઠ મણલાલ શીવલાલ
૨૫ ૧૯ ૩ મણીયાર પરસોતમદાસ સુદરજીના સ્મરણાર્થે
હ સાકરચદ પર તમદાસ શાહ ૨૦ સ્વ મેહનદાસ ધુલાભાઈના સ્મરણાર્થે હ તેમના ધર્મપત્ની
નાથીબાઈ તરફથી હ શકરલાલ તથા શાતિલાલ
૨૫૧
૨૫
વિજયનગર
૧ શ્રી વર્ધમાન શ્વે સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ
હે છેટુમલ અજીતસિંહ
૨૫
વેરાવળ
૨૫૧
૧ શાહ કેશવલાલ જેચ દભાઈ ૨ શાહ ખીમચદ સૌભાગ્યચદ ૩ સ્વ શેઠ મદનજી જેચ દભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની,
લાડકુવરબાઈ તરફથી હ ધીરજલાલ મદનજી
૨૫૧
૨૫
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________________
૪ શ્રી થા જૈન સંઘ હ શાહ શેલેશ૮ કરશનજી પ શાહ હરકિશનદાસ કુલચદ કાનપુરવાળા
૨૫૧
સરા
૧ શ્રી સરા 0ા જૈન સંઘ હ દેશી પાનાચદ સેમચંદ
૨૫૦
સાણંદ ૧ શાહ રાઈંદ છગનલાલ હ શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ છે ૩૦૧ ૨ અ સી. ચંપ બેન હા દેશી છવરાજ લાલચદ
૨૫૧ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ
૨૫શંહ સાકરચદ કાનજીભાઈ
૨૫૧ પપુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સ ઘવી લીંબડીવાળાના સમરણથે * હા વાડીલાલ મેહનલાલ ઠારી
! ૨૫૧ દ પારેખ નેમચ દ મેતીચદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે કે હા પારેખ ભીખાલાલ નેમચદ
૨પ૧ ૭ સ ઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા જય તીલાલ નારણદાસ ૨૫૧ ૮ શાહ કસ્તુરચદ હ હરજીવનદાસ
૨૫૧ હશેઠ મેહનલાલ માણેકચદ ગાધી ચુડાવાળા તરફથી
તેમના ધર્મપત્ની મછાબેન લલુભાઈના સ્મરણાર્થે ૧૮ સ ઘવી કાન્તીલાલ હરખચ દ
૩૦૧ ૧૧ શાહ ભીખાલાલ નાગરદાસ
સાલખની
૩૦૧
૨૫
૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચદ
સાદડી
૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પુનમીયા
૨૫
સાસવડ
ગુમાઈ મુથો તરફથી
પ્ર તરફથી
૧ ચહનમલજી મુથાના“ધર્મપત્ની એ સૌ
હા અમરચદઈ સુથા
૨૫૧
|
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________________
૧ રાશી વનેચંદ વછરાજ
કરે
સિ ગાપુર
સુરત
૧ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ હા શાહ રતિલાલ લલ્લુભાઈ
૨ શ્રી કલ્યાણુચદ માણેકચ દ હુડાલાવાળા
૩ શ્રી હરીપુરા કેાટી સ્થા.જૈન સઘ હા - બાબુલાલ છે।ટાલાલ
.
સુરેન્દ્રનગર
૧ શેઠ ચાપશીભાઈ સુખલાલ ૨ ભાવસાર સુનીલાલ પ્રેમચદ
૩ સ્વ કેશવલાલ મુળજીભાઈના ધ`પત્ની અમરતભાઇના સ્મરણાર્થે હા ભાઈલાલ કેશવલાલ શાહ
૪ શાહે ન્યાલચ ઃ હરખચ દ
૫ શાહ વાડીલાલ હરખચદ ૬ શ્રી સ્થા જૈન સઘ
૧ માસ્તર જેઠાલાલ મેનજીભાઈ
હા એન્જીનીયર સાહેબ અમૃતલાલ જેઠાલાલ
સજેલી
૧ શાહે લુણાજી ગુલાખચ દભાઈ
૨ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા શાહ પ્રેમચંદ દલીચ ઇ.
સાજત
૧ અ. સૌ, ધીસામેન લાલચદ મહેતા (ફતેહનગર સઘને ભેટ)
હારીજ
7
૧ શાહ અમૂલખ મુળજીભાઇ હા પ્રાથચદ્ર અમુલખભાઇ
૨ સ્વબેન ચંદ્રકાતાના સ્મરણાર્થે હા શાહે અમુલખ મુળજીભાઈ
૧
સુવ
૧ સાવા શામજી હીરજી તરફથી સદાની જૈન મુનિશ્રી છેટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા.જૈન સધ જ્ઞાન ભડારને ભેટ ૨૫૧
સેવાલીયા
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૫૧
૩૦૧
૩૦૧
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૨૫
૨૫૧
૪ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શાહ શેભેચ કરશનજી પર શાહ હરકિશનદાસ કુલચદ કાનપુરવાળા
સરા ૧ શ્રી સરા 0ા જૈન સ ઘ દેશી પાનાચદ સેમચદ
૨૫૧
સાણ દા ૧ શાહ હિરાચંદ છગનલાલ હ શાહ ચીમનલાલ હિરાચદ ર! એ સૌ. ચ૫ બેન હે દેશી જીવરાજ લાલચદ
૨૫ ૩ પટેલ મહાસુંખલાલ ડોસાભાઈ
૨૫૫” શાહ સાકરચદ કાનજીભાઈ
૨૫૧ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણ સ ઘવી લીંબડીવાળાના રમણથે હા વાડીલાલ મોહનલાલ કોઠારી
! ! ૨૫૧ પારેખ નેમચંદ મેતીચદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે - હાઈ પારેખ ભીખાલાલ નેમચદ
૨૫ ૭ સ ઘવી નારણદાસ ધરમરાના સ્મરણાર્થે હા જયતીલાલ નારણદાસ રપ૧ ૮ શાહ કસ્તુરચદ હ હરજીવનદાસ
૨૫૧ હશેઠ મોહનલાલ માણેકચંદ ગાધી ચુડાવાળા તરફથી તેમના ધર્મપત્ની મછાબેન લલ્લુભાઈના સ્મરણાર્થે
૩૧ ૧૦ સંઘવી કાન્તીલાલ હરખચ દ
૩૦૧ ૧૧ શાહ ભીખાર્યાલ નાગરદાસ
૨૫૧ સાલમની
૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચ દ
૨૫૦
સાદડી
-
૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પુનમીયા
૨૫૧
સાસવર્ડ
૧ ચ૮નમલજી મુળાના ધર્મપત્ની એ સૌ ૨ગુબાઈ મુથો તરફથી
હા અમરચદ મુથ
૨૫૧
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સિગાપુર
૧ દેશી વનેચંદ વછરાજ
-
૨૧
સુરત
૨૫૫
૨૫ ૨૫૧
૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શાહ રતિલાલ લલુભાઈ ૨ શ્રી કલ્યાણચદ માણેકચ દ હડાલાવાળા ૩ શ્રી હરીપુરા છાટી સ્થા જૈન સંઘ હા - બાબુલાલ ઇટાલાલ
સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાપશીભાઈ સુખલાલ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૩ સ્વ કેશવલાલ મુળજીભાઈના ધર્મપત્ની અમરતબાઈના સમરણાર્થે
હા ભાઈલાલ કેશવલાલ શાહ ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચ દ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચ દ ૬ શ્રી રસ્થા જૈન સંઘ
૨૫૧ ૨પ
૨પ૧
૨૫૧
૨૫૧
૧
સુવઈ
૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાન દી જૈન મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા જૈન સંઘ જ્ઞાન ભંડારને ભેટ ૨૫૧
સેવાલીયા ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા એજીનીયર સાહેબ અમૃતલાલ જેઠાલાલ
૨૫૧ સ જેલી ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચ દભાઈ
૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શાહ પ્રેમચંદ દલીચ દ.
૨૫૧
8૫૧
૧ અ સ, ઘીસાબેન લાલચદ મહેતા (ફતેહનગર-સઘને ભેટ)
હારીજ ૧ શાહ અમૂલખ મુળજીભાઈ હા પ્રકાશચંદ્ર અમુલખભાઈ ૨ રવ બેન ચકાતાના સ્મરણાર્થે હ શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ
૪૦૧
૩૦૧
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હાટીના માળીવા ૧ ગપાલજી મીઠાભાઈ ૧ બીમતી આનદગૌરી ભગવાનદાસના સમરણાર્થે
હા તેમના નાનાબેન અ સૌ મજુલાબેન ભગવાનદાસ
૨૫૧
તા ૧૧-૧૨ થી તા. ૧૫-૩-૬૩ સુધીનાં નવા મેમ્બરે
આધ મુરબ્બીશ્રી રૂ ૫૦૦૧ શેઠ મહેતાબચદ જૈન
દિ
1. મુરબ્બીશ્રી
મુંબઈ
૩ ૨૦૦૧ શેઠ ત્રીભોવનદાસ જગજીવનદાસ , જે૦૦૧ શેઠ મહેતાબચદ ચારડીયા તથા
વિજયાકુમારી બહેન
દિહી
તા. ૧૫-૩-૬૩ સુધીના મેમ્બરની સખ્યા ૨૪ અંધ મુરબ્બીશ્રી
- - મુરબીશ્રી ૧૩ર સહાયક મેમ્બ ૫૮૪ લાઈફ મેમ્બરે ૫૧ બીજા ક્લાસના જુના સેમ્બરે
સમિતી વતી સો દાતાઓને આભાર માનું છું
રકેટ તો ઉપવું
લી સેવક, સાકરેચદ ભાઈરાદ શેઠ *
ભત્રી
U ૦૬
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૪૩
શ્રી અખિલ ભારત સ્વે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતી
રાજકાટ
શાસ્ત્રોની ટૂંકી માહિતી,
ગયા સત્તરમા વાર્ષિક રિપેમા ખતાવેલ ૨૧ શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયા પછી નીચે મુજબ વધુ કામકાજ થયેલ છે
૧ હાલમા ભગવતી ભાગ બીજો, સમવાયગ સૂત્ર તથા પ્રશ્ન વ્યાકરણુ એમ ત્રણ સૂત્રે પ્રસિદ્ધ થયા છે
૨ ભગવતી ભાગ ૩ જો બહાર પડવાની તૈયારીમા છે
૩ ભગવતી ભાગ ૪ થા તથા ૫ મે હાલમા છપાય છે
૪
જ્ઞાતા સૂત્ર ભાગ ૧ લે, ૨ જે તથા ૩ જો છપાય છે
૫ કુલ્લે લગભગ ૩૦ સૂત્રેા પૂજ્ય ગુરુદેવે લખીને પૂરા કરેલા છે તેમાના છપાયા વગરના જે સૂત્રેા ખાકી છે તેનું અનુવાદનુ તેમજ સશોધનનુ કેટલુક કામ ચાલુ છે અને કેટલુક બાકી છે
૬ નિશીય સૂત્ર, સૂર્ય પુન્નતી તથા ચંદ્ન પન્નતી સૂત્ર એ બાકી રહેલા ત્રણ સૂત્ર લખવાનુ કામ અત્યારે ચાલે છે
આવા અગમ શાસ્ત્રોના મહદ્ કાર્યમા જ્ઞાનદાનના શૈાખીને, દાનવીરે મનતી મદદ માકલાવે તેમ વિનતિ કરવામા આવે છે
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હાટીના માળીવા ૧ ગોપાલજી મીઠાભાઈ ૨ શ્રીમતી આન દગૌરી ભગવાનદાસના સ્મરણાર્થે
હા તેમના નાનાબેન અ સૌ મજુલાબેન ભગવાનદાસ
૨૫૦
“
તા ૧-૧-૧ર થી તા. ૧૫૩-૩ સુધીનાં નવા મેમ્બરે
આદ્ય મુરબ્બીશ્રી રૂ ૫૦૦૧ શેઠ મહેતાબચંદ જૈન
લિી મુરબ્બીશ્રી - રૂ ૨૦૦૧ શેઠ ત્રીભોવનદાસ જગજીવનદાસ , ૨૦૦૧ શેઠ મહેતાબચદ ચારડીયા તથા
વિજયાકુમારી બહેન
તા. ૧૫-૩-૬૩ સુધીના મેમ્બરની સખ્યા ૨૪ આદ્ય મુરબ્બીશ્રી
૩૦ - સુરબ્બીશ્રી ૧૩૨ સહાયક મેમ્બરે ૫૮૪ લાઈફ મેમ્બરે
૫૧ બીજા કલાસના જુના મૈમ્બર ૮૨૧
સમિતી વતી સૌ દાતાઓને આભાર માનું છું
રાજકેટ તે ૧૫ ફ૩
લી સેવક, સાકરચદ ભાઈચંદ શેઠ
અત્રી
૦૬
-
- -
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'भाचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार
श्रीनीतरागाय नमः
जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री- घामीलाल-प्रति-विरचितया अनगारधर्मावर्षिभ्यारयया व्याख्यया समलङ्कृत
श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम्
( द्वितीयो भाग. )
॥ अथ शैलकाख्य पञ्चमाध्ययनम् ॥
अभिहित कर्मकाख्य चतुर्थमध्ययन तत्रागुप्तेन्द्रियस्य नरकादिप्राप्ति गुप्तेन्द्रियस्य तु निर्माणादि प्राप्तिर्भवतीत्युक्तम् । इह पञ्चमाध्ययने तु पूर्वमप्रतिसली नेन्द्रियोऽपि यः पश्चात् सीनेन्द्रियो भवति स आराधको भवतीत्युच्यते, इत्येव पूर्वेण सहास्य सम्बन्ध' । जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिन पृच्छति -- 'जड़ ण भते । इ० पाँचवाँ अध्ययन प्रारम्भ ।
कूर्मक ( कच्छप ) नामका चतुर्थ अध्ययन कह दिया गया है । उस में अगुप्तेन्द्रियवाले माधु साध्वी आदि के नरकादि की प्राप्ति तथा गुप्तेन्द्रियवाले साधु सावी आदि के लिये निर्वाण आदि को प्राप्ति होती है यह कहा गया है। अब इस पंचम अभ्ययन में यह कहा जायगा की जो पहिले अप्रतिसलीन इन्द्रियवाला ( अगुप्तइन्द्रिय) होता है और बाद में फिर नही सलीनइन्द्रियवाला (गुप्तइन्द्रियवाला ) बन जाता है तो वह आराधक होता है इस तरह पूर्व अध्ययन के साथ इसका सबन्ध है । जब स्वामी सुधर्मा स्वामी से पूछते है कि-
.
- पायभु अध्ययन-प्राल.
કૃર્માંડ ( કાચએ! ) નામે ચેાથુ અધ્યયન પુરુ થઈ ગયુ છે, તે અય ચનમા અચુસેન્દ્રિયવાળા સાધુ માધી વગેરે ને નરક વગેરેની પ્રાપ્તિ તેમજ ગુપ્તેન્દ્રિય વાળા માધુ સાધ્વીઓને નિર્વાણ વગેરેની પ્રાપ્તિ થાય છે આ વાત કહેવામા આવી છે પાચમા અધ્યયન મા એ વાત ન્પષ્ટ કરવામાં આવશે કે જે પહેલા અપ્રતિ સ લીન ઈન્દ્રિયવાળા ( અગુપ્તેન્દ્રિય ) હોય છે, અને ત્યારબાદ તે મલીન ઇન્દ્રિય વાળા ( ગુપ્તેન્દ્રિયવાળા) થઈ જાય છે ત્યારે તે આરાધક હાર હૈ રીતે ચેાથા અધ્યયનના સબ ધ છે सुधभी स्वामीने प्रश्न रे हे' जयाण भते ! इत्यादि ॥
આ
न्यू स्वाभी,
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४४
સમિતિને મદદ કરવા તથા મેમ્બર થવાના
નિયમા
૧ શ ૫૦૦] પાચ હજાર એક ભરનાર સદ્ગગૃહસ્થ આવમુરખ્ખીશ્રી તરીકે દાખલ થઈ શકે છે તેમના નામથી એક સૂત્ર પ્રસિદ્ધ કરવામા આવે છે તેમ જ તેઓશ્રીનુ જીવનચરિત્ર અને ફાટી શાસ્ત્રમા છપાય છે. તેમને અમે કાપી દરેક શાસ્ત્રની મળે છે
3
ઋ
૨ા ૧૦૦] એક હજાર એક ભરનાર વ્યક્તિ મુરખી તરીકે ગણાય છે અત્યારે ફક્ત ૮૦ આવા મેમ્બરા દાખલ કરવાના ગઈ કમીટીએ ઠરાવ કરેલ છે, પાછળથી મેમ્બરો દાખલ કરી શકાય તેમ નથી રૂા ૧૦૦૧ ભરનારને રૂા. ૧૨૦] ની કિંમત ઉપરના શાસ્ત્રો ભેટ મળે છે માટે જેમને દાખલ થવુ હોય તેમણે ઢીલ ન કરવી
શજકાટ તા ૧૫-૩-૬૩
મગળવાર
૨૫] વાળા તથા ૫૦૧] વાળા મેમ્બરા હેવે લેવાનું અધ છે
દાખલ થયેલા મેમ્માની ફીમાથી, શાસ્ત્રો ભેટ આપતા સમિતિને જે નુકશાની વેઠવી પડે છે. તે ખાધ પૂરી ઙરવા માટે મેમ્બરા પાસેથી તેમજ અન્ય વ્યક્તિ તરફથી પાચ વર્ષ સુધી ભેટની રકમ મેળવવામા આવે છે જે રકમ ઓછામા ઓછી રૂા. ૨૫૫ ની હોવી જોઈએ, અને તે રકમ પાચ વર્ષ સુધી દર વર્ષે હસાથી માકલી શકાય છે
'
સાકરચંદ ભાયચંદ શેઠ મત્રી
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भनगारधर्मामृतयपिणी टीका भ० ५ द्वारायतीनगरिवर्णनम् । समये 'वारवई' द्वारावतीनाम द्वारकाऽपरनाम्नी नगर्यासीत् , सा कीशी इत्याह-पाईणपडीणायया' प्राची प्रतीच्यायता प्राचीतः प्रतीच्यामायता पूर्वस्या दिशः समारभ्य पश्चिमाया दिशि दीर्घत्यर्थः । 'उदीणदाहिणवित्थिन्ना' उदगं दक्षिणविम्तीर्णा उत्तरम्या दिशः समारभ्य दक्षिणस्यां दिशि विस्तीर्णा, 'नवजोयणविधिना ' नयोजन विस्तो, 'दुवालसनोयणायामा' द्वादशयोजनायामा द्धादशयोजनदोर्घा, 'धणहमइनिम्मिया' धनपतिमविनिर्मिता धनपतिः कुवेरस्तस्य मत्या युद्धया निर्मिता, 'चामीयर-पवर-पागार-णाणामणि-पचवन्न - कवि - सीसग - सोहिया' चामीकरमवरमाकारनानामणिपञ्चवर्णकपिशीर्पक शोभिता,चामीकरस्य प्रवर माकारस्तस्य यानि नानामणिपञ्चवर्णपिशीर्षकानि ते शोभिता, सुवर्णमयमकृष्टमाकारस्य यानि चन्द्रकान्तादिविविधमणिमयानि पञ्चवर्णानि कपिशीर्षकाणि ' गुरा' इति भाषामसिद्धानि, तैः शोभिता अळ्यापुरिहै-( तेण कालेण तेण समग्ण वारवईनाम नयरी होत्यां ) उस समय
और उस काल में द्वारावती नामकी नगरी थी ( पाईण परीणायया) यह नगरी पूर्व दिशासे पश्चिम दिशा तक लगी थी और ( उदीपदाहिण वित्थिन्ना) उत्तरदिशा से लेकर दक्षिण दिशा तक विस्तर्ण थी। (नवजोयणवित्पिन्ना) नौ योजन का इसका विस्तार था (दुवालसजोयणायामा) १२ धारह योजन की यह लवी थी । (धणवइमइ निम्मिया) धनपति- कुवेर ने इसे अपनी बुद्धि से बनाया था (चामीयर पवर पागारणाणामणि पचवन्न कविसीसग सोहिया) इसका जोमाकार (दिवार) था वह सुवर्ण से निर्मित आया। तथा इसके जो कगूरे थे वे पचवर्णवाले नाना मणियो से बनाये गये थे । अत. प्राकार और उसके कगूरों से यह नगरी बड़ी सुहावनी लगती थी । (अलपापुरी सकासा ) छे, (तेण काले ण तेण समएण धारवड नाम नयरी होत्था) ते अणे सने त समये दारावती नामे ना ती (पाईण परीणायया) A नगरी पूर्वथी मान पश्चिम PAL सुधा साक्षी मन (उदोण दाहिण पिरियन्ना) GA२ हाथी भासनक्षिण हि सुधी पहाणी ती (ना जोयणवित्थिन्ना ) नव यानि सुधीत नगरी विस्तात (दुवालसजोयणायामा ) मार यौन सी ते सामी ती (धणवइमइनिम्निया) धनपति-धुमेरे सा नगरी ने पोताना भुद्धियी मनावी ती (चामीयरपवरपागार - णाणामणि - पचवन्नकविसीसगसोहिया) a શહેરને કોટ (તાકાર) તેનાથી બનાવવામાં આવેલ હતું તેના કાગરાએ પાચ ૨ગના અનેક મણિઓ વડે બનાવવામા આવ્યા હતા કેટ અને કાગ समाथी ते
न सती ती (अलयापुरीसकासा) माधुरी (नारा)
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् -- जइ णं भंते । समणेणं भगवया महावीरेण च उत्थस्स णायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते, पंचमस्त णं भंते नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ सू० १ ॥
टीका - ' जइ ण ' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण चतुर्थस्य ज्ञाता ययनस्य अयम् = उक्तरूप अर्थ प्रज्ञप्त, पञ्चमस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थं प्रज्ञप्तः इति । सबै सुगमम् ॥ १ ॥ ।
9
श्री सुधर्मा स्वामी जम्वनामिनमाइ
1
मूलम् एव खलु जबू | तेणं कालेणं तेण समयेणं बारवई नाम नयरी होत्था, पाईणपडीणायया उद्दोणदाहिणवित्थिन्ना नवजोयणवित्थिन्ना दुवालसजोयणायामा धणवइमइनिम्मिया 'वामीयर पवरपागारणाणामणिपचवन्न कविसीसग सोहिया अलयापुरिसकासा पमुइयपक्कीलिया पच्चक्ख देवलोयभूया ॥ सू०२|| टीका - ' एव खलु ' इत्यादि । ' एव खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् जहण भते । ' इत्यादि ।
'
1
टीकार्थ - ( जइण भते ! ) हे भदत । यदि (समणेण भगवया महा वीरेण ) श्रमण भगवान महावीर ने (चउत्वस्स णायज्झयणस्स अयमडे पन्नत्ते ) चतुर्थ ज्ञाताध्ययन का यह उक्त रूप अर्थ प्रज्ञप्त (प्ररूपित ) किया है तो - ( पचमस्स ण भते ! णायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ) पश्चम ज्ञाताभ्ययन का क्या अर्थ कहा है ? “
५
ܕ
33
6
एव खलु जबू ' ' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एव खलु जनू) हे जब्रू | तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार
टीडार्थ - ( जइण भते !) हे लहन्त ! ले ( समणेण भगत्रया महावीरेण ) श्रमशुभगवान महावीरे ( उत्यस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नसे ) थोथाज्ञाताध्ययनन। पूर्वेति मर्थ निश्चित ये छे, त्यारे ( पचमस्सू ण भते । गोयुज्झ यणस्स के अट्ठे पण्णत्ते) पायमा अध्ययननो शो अर्थ मतान्यो है ? । "सू १॥
एष खलु अबू ? धत्याहि ॥
"
टीडार्थ - ( एव खलु जय !) हे न्यू | तभारा अभनो भवाम प्रभा
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ रैवतकपतवर्णनम्
कीदृश इत्याह — तुङ्गः = अत्युन्नतः, 'गगणतलमणु लिहत सिहरे ' गगनतलमनुलिहच्छिखरः आकाशमदेशमनुस्पृशति शृङ्ग यस्येत्यर्थ 'णाणानिगुच्छगुम्मलयाबलिपरिगए ' नानाविधगु उगुल्मलतारलीपरिगत नानाविधागुच्छादयः परिगताः= सर्वत समुद्भूता यत्र सः, गुच्छगुल्मलता नलीशब्दा. पूर्वं व्याख्याता, 'हसमिगमयूरको चसारसचप वायमयणसाल को इलकुलोत्रवेए 'दसमृगमयूरकोञ्चसारसचक्रवाकमदनसालको क्लिकुलोपपेत इसादि-कोक्लिान्ताना कुलैः वृन्दैः उपपेतः =युक्तः । अत्र - मदनशाल: = सारिका विशेष, अन्ये प्रसिद्धा. । ' अणेगतडकडगविवरउज्झरयपवायभार सिहर पउरे ' अने+तटस्टक वित्ररोज्झर+प्रपातप्राग्भारशिखरमचुरः, अनेके तटाः कटकामेखलाच यत्र स तथा विवराणि = कन्दराथ, उज्झरका:- निर्झराः पर्वतात् पतनशीला जलप्रवाहाथ, प्रपाताः = तटरहितनिराधारस्थानानि च, अथवा प्रपाताः = गर्ताथ, प्राग्भारा : =ईपदवनताः पर्वतभागाथ, शिपौरस्त्य दिग्विभाग में ईशान कोण में रैवतक नाम का एक पर्वत था (तुगे गगणतलम लिहत सिहरे ) यह बहुत ऊँचा था । इस की चोटी आकाश तल को छूती थी ( णाणविहगुच्छ गुम्मलयावलिपरिगए ) नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मो से लताओं से और वल्लियों से यह सर्व प्रकार से युक्त था । इन गुच्छादि शब्दो का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। (हममिगमयूर कोच मारस चक्कवावमयणसाल कोइरल कुलो
वे ) हम, मृग, मयूर, क्रोंच, सारस, चक्रवाक सारिका - मेना और कोयल इन के सम्रहो से यह उपेत -युक्त था। (अणेग तडक डगविवरउज्झरयपवायफभारमिहरपउरे) अनेक तटों से अनेक कटको ( मेखला ) से, अनेक कढराओं से, अनेक उज्झरको से, निर्झरनों से- पर्वतों से गिरते हुए जल प्रवाहों से, अनेक प्रपातो से - तटरहित निराधारस्थानों से अथवा गर्तो से कुछ कुछ झुके हुए अनेक पर्वत
हे ईशान जेबुभावतः नाभे पर्वत हतो ( तुगे गगणतलमणुलिहतसिहरे ) તે महुन् या हते। तेना शिमरेश भाराने स्पर्शता ता ( णाणाविद्दगुच्छ गुम्मलयाव लिपरिगए ) अने लतना गुरहो, शुभो, बताओो भने पटलीओ થી તે ઢંકાએલા હતા ગુરુ વગેરે શબ્દોના અર્ચા પહેલા સ્પષ્ટ કરવામા આવ્યા જે ( हसमिगमयूर कोंचसारसच कत्रायमायण सालको इललोववेए ) हस, હરણા, મેાર, ક્રોચ, સાતમ, ચકવાડ મેના અને કાયલાના સમૂહોથી તે યુક્ત ते ( अगतडक डगविव र उज्झरयपवायपन्भारसिहर पउरे) मने तटेो भेमला थे। ( उटजे ) मनेऽ ओ भने ४२जे- (अशुभ) पर्वता उपरथी નીચે વહેતા પાણીના પ્રવાહ, અનેક પ્રપાતેા-તટ વગરના નિરાધાર ક્થાને
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हाताधर्मकथा सकासा' अलकापुरीसकाशा = कुरनगरीपदृशी 'पमुझ्यपकीलिया' प्रमुदितप्रक्रीडिता 'पमुइय' प्रमुदिता:प्रमोदयुक्ताः, 'पपीलिया' प्रक्रीडिताः विविध क्रीडनपराः लोका यत्र सा, पच्चक्ख देवलोयभूया' प्रत्यक्ष देवलोकभूता मत्यक्षीभूतदेवलोकवत् प्रतीयमानेत्यर्थे ॥ २ ॥ . मूलम्-तीसे णं वारवईए नयराए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसौभाए रेवतगेनाम पव्वए होत्था, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगए हसमिगमयूर.. कोंचसारसचकवायभयणसालकोइलकुलोववेए अणेगतडकडगवियरउज्झरयपवायपब्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघचारण. विज्जाहरमिहणसविचिन्ने निच्छच्चणए दसारवरवीरतेल्लोकवलवगाणं, सोमे सुभगे पियदसणे सुरूवे पासाईए । सू०३॥ __टीका-'तीसे ण' इत्यादि । तस्या खलु द्वारावत्या नगर्या बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे 'रेवतगे' वैतको नाम 'पव्यए' पर्वतः ‘होत्था ' आसीत् , स, अलकापुरी ( कुबेर की नगरी जैसी सुन्दर होती है ठीक वैसी ही यह भी सुन्दर थी (पमुइयपकीलिया) इस में निवास करनेवाले जन सदा हर्षित रहते थे और विविध प्रकार की क्रीडाओ में तत्पर रहते थे (पच्यक्ष देवलोयभूया ) इसलिये प्रत्यक्ष में यह नगरी देवलोक के समान प्रतीत होती थी । सूत्र "२" । 'तीसेण चारचईए' इत्यादि
टीकार्थ-(तीसेण धारवईए नयरीए बहिया) उस द्वारावती नगरी के बाहिर ( उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पव्वए होत्या ) उत्तर रवी सर सय छ तवी नगरी ५ सु४२ ती (पमुइयपक्कीलिया) તેમાં રહેનારા નાગરિકે હમેશા પ્રસન્ન રહેતા હતા, અને જાત જાતની રમત ( 1) मा ५२d २उता उता (पच्चास देवलोयभूया) तथा मा नगरी પ્રત્યક્ષ દેવક જેવી લાગતી હતી . સૂત્ર “ર” છે
'तीसे ण वारवईए ' इत्यादि ॥ ।
साथ-(तीसे ॥ चारवईए नयरीए बहिया) a द्वारपती नसरीन हार' (उत्तरपुरस्थिमे दिसीमा रेवतगनामपाए होत्था ) 30 पूर्व दिशामा अन्य
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अनगारधर्मामृतपणी टीका भ० ५ रैवतकपनेतवर्णनम्
"
कीदृश इत्याह- तुङ्गः = अत्युन्नतः, 'गगणतलमणुलिहत सिहरे ' गगनतलमनुलिहच्छिखरः आकाशमदेशमनु स्पृशति शृङ्ग यस्येत्यर्थ 'णाणाविहगुच्छगुम्मलयाबलिपरिगए ' नानाविधगु उगुल्म लतापल्लीपरिगत नानाविधागुच्छादयः परिगताः = सर्वत समुद्भूता यत्र सः, गुच्छगुल्मलता मल्ली शब्दा. पूर्वं व्यारयाता, हसमिगमयूरको चसारसचकवायमयण सालको इलकुलोत्रवेए ' इसमृगमयूरक्रोञ्चसारसचक्रवाकमदनसालको क्लिकुलोपपेत हसादि कोरिलान्ताना कुलैः वृन्दैः उपपेतः =युक्तः । अत्र-मदनशालः = सारिकाविशेष, अन्ये प्रसिद्धाः । 'अणेगवटकडगविवरउज्झरयपचायपत्रभार सिहर पउरे ' अनेक्तटस्टक विवरोज्झर प्रपातमाग्भारशिखरमचुरः, अनेके तटाः कटकामेखलाच यत्र स तथा विवराणि = कन्दराथ, उज्झरका:= निर्झराः पर्वतात् पतनशीला जलप्रवाहाथ, प्रपाताः = तटरहित निराधारस्थानानि च, अथवा प्रपाताः गतश्च प्राग्भाराः = ईपदवनताः पर्वतभागाश्व, शिपौरस्त्य दिग्विभाग में - ईशान कोण में रैवतक नाम का एक पर्वत था ( तुगे गगणतलमलिहत सिर रे ) यह बहुत ऊँचा था । इस की चोटी आकाश तल को छूती थी ( णाणविहगुच्छ गुम्मलयावलिपरिगए ) नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मो से लताओं से और बल्लियों से यह सर्व प्रकार से युक्त था । इन गुच्छादि शब्दो का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। (ममिगमयूरकोंच मारस चक्कवायमयणसालको हल्ल कुलो
वे ) हम, मृग, मयूर, कोंच, सारस, चक्रवाक सारिका — मेना और कोयल इन के सम्रहो से यह उपेत-युक्त था । (अणेग तडक safar उरयपथायपभारमिहरपउरे) अनेक तटों से अनेक कटको (मेखला ) से, अनेक कदराओं से, अनेक उज्मरको से, निर्झरनो से- पर्वतो से गिरते हुए जल प्रवाहों से, अनेक प्रपातो से - तटरहित निराधारस्वानो से अथवा गर्यो से कुछ कुछ झुके हुए अनेक पर्वत
है ईशान शुभावतः नाभे पर्वत हतो ( तुगे गगणतलमणुलिहत सिहरे ) તે महुन्न उथो हते। तेना शियरे। आशने स्पर्शता ता ( जाणाविहगुच्छ गुम्मलयावह्निपरिगए ) मने लतना गुग्ो, शुभो, बताओ भने बदली। થી તે ઢંકાએલેા હતેા ગુ૭ વગેરે શબ્દોના અર્થા પહેલા સ્પષ્ટ કરવામા આવ્યા છે ( हसमिगमयूरकोंचसारसचक्कवायमयण सालको इल्ल कुलोव वे ) इस હરણા, મેર, કોચ, સારસ, ચક્રવાક મેના અને કોયલાના સમૂહોથી તે યુક્ત हतो ( अणेगतडक डगविव र उज्झरयपवायपन्भारसिहर पउरे ) ने तटो भेजता ओ ( उटजे ) भने हो भने ४२ - (राम) पर्वता उपरथी નીચે વહેતા પાણીના પ્રવાહે, અનેક પ્રપાતા-તટ વગરના નિરાધાર સ્થાના
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पाताधर्मकथाजसी वराणि शृङ्गाणि पर्वतोपरितनप्रदेशाथ, मचुराणि अधिकानि यत्र स तया, तर्त' कर्मधारयः । ' अच्छर-गण-देव संघ-चारण-विज्जाहर मिटुण-संविचिन्ने' अप्सरोगण-देवसय-चारण-विद्याधरमिथुन-सविचीर्ण -अप्सरसा गणाच, देवस राश्च, चारणा' गगनगमनलब्धिमन्तो मुनिविशेषा', विद्याधराणा मिथुनानि च ते विचीर्णः-आसे वित , 'निन्चच्छणए दसारनरवीरपुरिसतेलोक्वलवगाण' नित्य क्षणक:- दशावरचीरपुरुपत्रलोक्यवलपता, दशाहीः समुद्रविजयादयः दश, तेषु मध्ये वरास्त एव वीरा धीरपुरुषा' ते चामी-गलोक्यादपि बलवन्त , जतुळवलनेमिनाथ युक्तत्वात् तेपा-नित्यक्षणका नित्योत्सवस्थानम्', तेपा सर्वे उत्सवा स्तत्र भवन्तीति भावः । दशदशार्हाणां नामानि यथा
" समुद्दविजयो अस्खोभो थिमिओ सांगरो हिम।
अयलो धरणो पूरणो अभिचदो वसुदेवौत्ति " ॥१॥ इति ॥ भागों से तथा अनेक शिखरों से यह प्रचुर था अर्थात् ये तट, कटक आदि इस में अधिक थे। ( अच्छरगणदेवसघचारणविज्जाहरमिहुणसविचिन्ने ) अप्सराओ के गणो से, देवसघों से गगन में गमन करने की' लब्धि युक्त मुनि विशेषों से, और विद्याधरों के मिथुनों से यह सदा सेवित रहता था। (निच्चचच्छणए दसारवरवीरपुरिसते ल्लोकबलवगाण) समुद्र विजयादिक दश दशारों के बीच में उत्तम धीरवीर पुरुषों का जो की अतुल बलधारी नेमिनाथ से युक्त होने के कारण तीन लोक से भी बलवान थे यह नित्योत्सव का स्थान था। उन के समस्त उत्सव यही होते रहते थे। दश दशाों के नाम इस प्रकार है- १, समुद्र विजय २, अक्षोभ ३, स्तिमितं ४, सागर
અથવા ગોં, થોડા આગળના ભાગથી નમતા અનેક પવત ભાગે તેમજ ઘણું શિખરેથી તે પ્રચુરરૂપથી યુક્ત હતા એટલે કે તટ, કટક વગેરે તે પર્વતમા
पु०॥ प्रमाणुमा ता ( अच्छरगणदेवसघचारणविज्जाहरमिहुणसरिचिन्ने ) मसરાઓના ગણેથી, દેવસથી ગગન માગે ગમન કરતા મુનિ વિશેથી, भने विधायराना युगसाथी antत सह सरित २। डत (निच्चचच्छण र सारवरवीरपुरिसतेल्लोकपलवगाण ) समुद्र विय कोर ४० इशामा ઉત્તમ ધીર વીર પુરુષોને-કે જેઓ અતુલ બળશાળી નેમિનાથથી યુક્ત હવાને કારણે ત્રણે લાકથી બળવાન હતા–આ નિત્સવ માટેનું સ્થાન હતું તેમને બધા ઉત્સવો અહીં જ થતા હતા દશ દશાર્વેને નામો આ પ્રમાણે છે• समुद्रकिन, २ मास' 3 स्तिभित, ४ सागर, ५ डिभवान, ६ मयस,
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अनगारधर्मामृतपंण टीका ० ५ नदनधनोद्यानघर्णनम्
७
...
पुनरसौ पर्वतः ? कीदृश ? इत्याह-' सोम्मे सौम्यः = मनोहरः, सुभगः = आनन्दजकः प्रियदर्शनः = दृष्टिसुखद, सुरूपः = शोभनाकृतिकः, प्रासादीय'- प्रासादीयइत्यनतर दर्शनीयः, अभिरूप', प्रतिरूप इति त्र्याणा पदानां सग्रहः प्रासादीयः दर्शकजनमनोमोदजनकः, दर्शनीयः - नयनानन्दजनकत्वेन पुन पुन प्रेक्षणीयः अभिरूपः सुन्दराकृतिकः । यद्वा-अभि=प्रतिक्षण नव नवमिवरूप यस्य सोऽभिरूपः । प्रतिरूपः - प्रतिविशिष्टम् असाधारण रूप यस्य स प्रतिरूपः, उत्कृष्टरूपवानित्यर्थः ॥ सू० ३ ॥
C
4
A
मूलम् - तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामते एत्थ ण नदणवणे नाम उज्जाणे होत्था, सव्वोउयपुष्पफलसमिद्धे रम्मे नदणवणप्पगासे पासाईए ४, तस्स णं उज्जाणस्स वहुमझदेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिव्वे वन्नओ ॥ सू०४ ॥
५, हिमवान ६ अचल, ७ धरण, ८ पूरण ९, अभिचद, १० वसुदेव ! ( सोम्मे ) यह पर्वत बड़ा मनोहर था ( सुभगे, पियदसणे, सुरूवे, पासाईए ) सुभग था- आनन्दजनक था, प्रिय दर्शन या दृष्टि को सुखप्रद था, सुरूप था - शोभन आकृति से सपन्न या, प्रासादीय था, दर्शनीय था, अभिरूप था प्रतिरूप था । दर्शकजन के मन को मोदित करनेवाला होने से प्रासादीय, नयनो को आनन्दजनक होने से दर्शनीय, सुन्दर आकृतिवाला होने से अभिरूप अथवा इसको रूप हर एक क्षण में नवीन नवीन जैसा प्रतीत होता था इसलिये अभिरूप और असाधारणरूप सपन्न होने के कारण प्रतिरूप था। सूत्र " ३ - "
७ धारयु, ८ पुरणु, अभियछ, १० वसुदेव, ( सोम्मे ) આ પવ ત अत्यत रभाशीय हतो ( सुभगे, पियिदसणे, सुरूवे, पासाइए ) सुलग हतो, પ્રિયદશી હતા એટલે કે આખાને ગમે એવા હતેા સુરૂપ હતેા, પ્રાસાદીય હતા, દર્શનીય હતેા અભિરૂપ હતેા, પ્રતિરૂપ હતેા જેનારાએના મનને પ્રમ ન્ન કરનાર હાવાથી પ્રાસાદીય, આખાને આનન્દ આપન રહેવાથી દનીય, સુદર આકારવાળે। હાવાથી અભિરૂપ અથવા તે તેનુ રૂપ દરેક ક્ષણે નવુ નવુ લાગતુ હતુ તેથી તે અભિરૂપ હતા, અસાધાશ્ રૂપ સપન્ન હોવાને કાર્શે તે પ્રતિ રૂપ હતા ! સૂત્ર ૩ ।
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हाताधर्मकथासा खराणि शृङ्गाणि पर्वतोपरितनप्रदेशाच, प्रचुराणि अधिकानि यत्र स तथा, तत' कर्मधारयः । ' अच्छर-गण-देव संघ-चारण-पिज्जाहर मिहुण-सविचिन्ने' अप्सरोगण-देवसघ-चारण-विद्याधरमिथुन-सविचीर्ण'-अप्सरसा गणाव, देवस' घाच, चारणाः गगनगमनलब्धिमन्तो मुनिश्शेिपा', विद्याधराणा मिथुनानि च ते सविचीर्णः आसेपित , 'निच्चच्छणए दसारसरवीरपुरिसतेलोपवलवगाण' नित्य क्षणका- दशावरवीरपुरुपत्रैलोक्यपलता, दशाहा. समुद्रविजयादयः दश, तेषु मन्ये वरास्त एव वीरा धीरपुरुषाः ते चामी-नोलोक्यादपि बलवन्त , जतुळवलनेमिनाथ युक्तत्वात् तेपा - नित्यक्षणका नित्योत्सवस्थानम्', तेपा सर्वे उत्सवा स्तत्र भवन्तीति भावः । दशदशार्हाणां नामानि यथा
"समुद्दविजयो अम्खोभी थिमिओ सागरो हिमत्र ।
अयलो धरणो पूरणो अभिचदो वसुदेवोनि " ॥१॥ इति ॥ भागों से तथा अनेक शिखरों से यह प्रचुर था अर्थात् ये तट, कटक आदि इस में अधिक थे। (अच्छरगणदेवसघचारविज्जाहरमिहुणसविचिन्ने ) अप्सराओ के गणों से, देवसघों से गगन में गमन करने की' लब्धि युक्त मुनि विशेषों से, और विद्याधरों के मिथुनों से यह सदा सेवित रहता था । (निच्चचच्छणए दसारवरवीरपुरिसते ल्लोकबलवगाण) समुद्र विजयादिक दश दशाों के बीच में उत्तम धीरवीर पुरुषों का जो की अतुल बलधारी नेमिनाथ से युक्त होने के कारण तीन लोक से भी बलवान थे यह नित्योत्सव का स्थान था। उन के समस्त उत्सव यही होते रहते थे । दश दशाों के नाम इस प्रकार है- १, समुद्र विजय २, अक्षोभ ३, स्तिमितं ४, सागर અથવા ગોં, છેડા આગળના ભાગથી નમતા અનેક પવત ભાગ તેમજ ઘણા શિખરેથી તે પ્રચુરરૂપથી યુક્ત હતું એટલે કે તટ, કટક વગેરે તે પર્વતમા ४०४॥ प्रभामा ता (अच्छरगण देवसघचारणविजाहरमिहुणसविचिन्ने ) AAરાઓના ગણેથી, દેવસ ઘેથી ગગન માગે ગમન કરતા મુનિ વિશેષેથી, भने विद्याधना युगसाथी त पत सहा सेवित २२ त (निच्चवच्छणार सारवरवीरपुरिसतेल्लोकपलवगाण ) समुद्र विrय पोरे ४४ इशामा ઉત્તમ ધીર વીર પુરુ-કે જેઓ અતુલ બળશાળી નેમિનાથથી યુકત હેવાને કારણે ત્રણે લોકથી બળવાન હતા–આ નિત્યોત્સવ માટેનું સ્થાન હતું તેમને
બધા ઉત્સવો અહીં જ થતા હતા દશ દશાહના નામે આ પ્રમાણે છે-૧ • भभुद्रपि, २ मास 31 स्तिभित, ४ सा१२, ५ डिभवान, ६ मय,
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ कृष्णवासुदेववर्णनम्
राया परिवसइ, से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दस ह दसाराण, वलदेवपामोक्खाणं पचण्ह महावीराण, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसह रायसहस्साणं, पज्जुन्नपामोक्खाणं अध्धुट्टाण कुमारकोडणि, संवपामोक्खाण सट्ठीए दुद्दतसाहस्सोण, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सणि, महासेनपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीण, रुप्पिणीपामोक्खाणं छप्पन्नाए वलवगसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं वत्तसाए महिला साहस्सीण, अणंग सेणापामोक्खाणं अणेगाण गणियासाहस्साण, अन्नेसि च बहूण इसरतलवर जाव सत्थवाहपभिईणं वेयड्ड गिरिसायरपेरतस्स दाहिणड्डूभ रहस्स य वारवईए नयरीए आहेवच्च जाव पालेमाणे विहरइ ॥सू- ५॥
टीका- ' तत्थ गं' इत्यादि । तत्र तस्या खलु द्वारारत्या नगया ' कण्हे नाम ' कृष्णो नाम वासुदेव. राजा = निखण्डाधिपति परिवसति । स खलु तत्र 'समुहविजयपामोक्खाण ' समुद्रविजयप्रमुखाना दशाना 'दसाराण ' दशार्हाणा बलदेवमुखाना ' पचण्ड' पञ्चाना महावीराणाम्। उग्रसेनममुखाना पोडशाना तत्थ ण चारचईए नयरीए ' इत्यादि
C
टीकार्य - (तत्या चारचईए नयरीए) उस द्वारावती नगरी मे (कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ) कृष्ण वासुदेव नामके तीन खड के अधिपति राजा रहते थे ( सेण तत्य समुद्दविजयपामोखाण दसण्ह दसोराण) वे वश ममुद्र विजय आदि दश दशाह का ( बलदेव पामोक्खाण
तरक्षण वारवईए नयरीए ' इत्यादि ॥
अर्थ - ( तत्थण वारवईए नयरीए ) ते द्वारावती नगरीभां ( वण्हे नाम वासुदेवे राया परिवसइ) 'शु वासुदेव नामे ये भरना अधिपति राल रहेता તા ( सेण तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाण दसह साराण ) त्या विन्य वगेरे हानि ( बल्देवपामोक्खाण पचण्ह महावीराण )
સમુદ્ર મળ
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शाताधर्मकथासू
1
टीका' तस्स ण ' इत्यादि । तस्य खल रैवतकस्य अरसामते अत्र स्खल नन्दनवन नामोद्यानमासीत् तत् शमित्याह - 'सव्योउयपुष्पफलसमिद्धे ' सर्व पुष्पफलसमृद्धम् सर्वेषाम् ऋतूना पुष्पैः फलैव समृद्ध = समन्वितम् ' रम्मे ' रम्य = रमणीय ' नदन नमकाश' नन्दनयनतुल्यम्, प्रासादीयम् ४, तस्य खलूधानस्य ' बहुमज्झदेमभाए ' बहुमभ्यदेशभागे ' सुरविए नाम ' सुरप्रिय नाम, ' जक्रखापयणे ' यक्षायतनम् ' होत्था ' आसीत् तत् कीदृशमित्याह -- ' दिव्ये ' दिव्य = रम्य, वर्णकः=वर्णनग्रन्थोऽन्यनाभिहितः । अन्यत् सुगमम् ॥ सु०४ ॥
मूलम् - तत्थ ण बारवईए नयरीए कण्हे नाम वासुदेवे
+
तस्मण रेवयगस्स ' - इत्यादि ।
टीकार्थ - ( तस्स ण रेवयगस्म) उस रैवतक पर्वत के (अदूरसामते) न हृत दूर और न पास किन्तु उचित स्थान पर (पत्य नदणवणे नामं उज्जाणे होत्या) यहाँ एक नदन वन नाम का उद्यान धा (सन्वो उय पुप्फफलसमिद्धे ) यह समस्न ऋतुओं सबन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध रहता था । ( रस्मे णदणवणप्पगासे ) नदनवन के जैसा था । (पासाइए ४ ) दर्शक जन के मन को प्रमोदित करने वाला था । सुभग प्रियदर्शन आदि और भी विशेषण इसमें लगा लेना चाहिये यही यात " पामाईए " के साथ रहे हुए यह ४ पद सूचित करता है । ( तस्स ण उज्जाणस्स हुमज्झदेसभा सुरप्पिए नाम जक्खाययणे होत्था दिव्वे बन्नभो) उस उद्योन के ठीक बीचो बीच के स्थान मे सुरप्रिय नाम का यक्षायतन था । यह दिव्य था । इसका और वर्णन दूसरी जगह किया हुआ है। सूत्र
"1
" ४
( तस्सण रेवयगरस ) छत्याहि ।
टीडार्थ - ( तर ण रेवयगस्स ) रैवत पर्वथी ( अदूर सामते ) अत्यंत दूर पशु नहि ते अत्यंत नयन डेवाय तेभ ( एत्थण नदणवणे नाम उज्जाणे होत्था ) त्या नहनवन' नाभे थे उद्यान हेतु, (सव्वोउय पुष्कफलसमिद्धे) ते अधी ऋतुसोना पुष्यो भने पोथी समृद्ध ( रश्मे णदण
पगासे) नद्दनवन नेवु हेतु ( पासाइए ) हराना भनने दुषित उरनार हेतु (पासाइए ४) पहनी भाग यार नो भाडो भूभ्यो छे ते सेभ सूयवे છે કે સુભગ પ્રિયદર્શન વગેરે ખીજા પણ વિશેષ અહીં સમજવા જોઈએ ( तस्स ण उज्जाणस्स बहुमज्झदे सभाए सुरलिए नाम जक्खाययण होत्या दिव्वे વન્દ્રો) તે ઉદ્યાનની ખરાખર વચ્ચે સુરપ્રિય નામે યક્ષનુ આયતન હતુ તે દિવ્ય હતું તેનું વર્ણન અન્યત્ર કરવમા આવ્યુ છે ॥ સૂ“૪” ॥
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भनगारधर्मामृतविणी रीमा अ० ५ कृष्णवासुदेवपर्णनम् राया परिवसइ, सेणं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाण पचण्ह महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्ह रायसहस्साणं, पज्जुन्नपामोक्खाणं अधुटाण कुमारकोडीण, सवपामोक्खाणं सट्ठीए दुइतसा. हस्सोण, वीरसेणपामोरखाण एकवीसाए वीरसाहस्सणिं, महासेनपामोक्खाण छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीण, रुप्पिणीपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं,रुप्पिणीपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सीण, अणंगसेणापामोक्खाणं अणे. गाण गणियासाहस्सीण, अन्नेसिं च बहण इसरतलवर जाय सत्थवाहपभिईणं वेयड गिरिसायरपेरतस्स दाहिणभरहस्स य वारवईए नयरीएआहेवच्च जाव पालेमाणे विहरद ॥सू- ५॥
टीका-'तत्य ण' इत्यादि । तत्र तम्यां गल द्वारापस्यां नो पार नाम ' कृष्णो नाम पासुदेव. राजा-निग्यण्डाधिपति परियसति । पल नाम 'समुद्दविजयपामोरयाण' समुद्रविजयप्रमुग्यानां दशाना सागण fat वलदेवप्रमुग्याना ' पचन ' पञ्चानां महावीराणाम् । उग्रसेनमाग्वानां पोडमान
'तत्थ ण वारचईए नयरीए' इत्यादि टीकार्य-(तत्य ा चारवईए नयरीण) उस धारावती नगरी में (कणो नाम वासुदेवे गया परिचसइ) कृष्ण वासुदेव नामके तीन खड के अधिपति राजा रहते थे ( सेण तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाण दसत दसौराणं) वे वा सटर विजय आदि दश दशाही का (बलदेव पामोक्तार्ण
'तस्थण वारवई नयरीए ' इत्यादि ॥
4-(तत्थण चारचईए नयरीए) वापती नारीमा (हे माग पासुदवे राया परियमन) 7-0 पासुर नाम न उनी अधिपति in २७ता रता (मे | म य मायिजयपामोरयाण सह पसाराण ) या सण नित्य २
(दयपामोक्साण पचण्ड मापीराण ) म
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माताधर्म टीका-' तस्स ण ' इत्यादि । तस्य खलु रैवतकस्प अदरसामते अन स्वर नन्दनसन नामोद्यानमासीत् तत् शीदशमित्याह-'सयोउयपृष्फफलसमिटे' समेत कपुष्पफलसमृद्धम् सर्वेषाम् प्रातूना पुष्पैः फलेन समृद्ध = समन्वितम् , ' रम्मे रम्य रमणीय 'नदनयनमकाश' नन्दन सनतुल्यम् , मासादीयम् ४, तस्य खलूया 'नस्य 'बहुमज्झदेमभाए' बहुमभ्यदेशमागे 'सुरप्पिए नाम ' मुरप्रिय नार्म 'जक्खाययणे ' यक्षायतनम् ' होत्या ' आसीत् तत् कीशमित्याह-'दिव्ये दिव्य-रम्य, वर्णका वर्णनग्रन्थोऽन्यत्राभिहितः। अन्यत् सुगमम् ॥ सू०४ ॥ __ मूलम्-तत्थ ण वारवईए नयरीए कण्हे नाम वासुदेवे
तस्मण रेवयगस्स'-इलादि। टीकार्थ-(तस्स ण रेवयगस्म) उस रैवतक पर्वत के (अदूरसामते) यहुत दूर और न पास किन्तु उचित स्थान पर (पत्थण नदणवणे नार उजमाणे होत्या ) यहाँ एक नदन वन नाम का उद्यान था ( सन्वो उ पुप्फफलममिद्धे ) यह समस्त ऋतुओं सन्धी पुप्पों और फलों समृद्ध रहता था। ( रम्मे णदणवणप्पगासे ) नदनवन के जैसा था (पामाइए ४ ) दर्शक जन के मन को प्रमोदित करने वाला था। सुभा प्रियदर्शन आदि और भी विशेषण इसमें लगा लेना चाहिये यही था " पासाईए " के साथ रहे हुए यह ४ पद सूचित करता है । ( तस्स र उज्जोणस्स बहमन्झदेसमाए सुरप्पिए नाम जस्खाययणे होत्था दिन वनभो) उस उद्योन के ठीक बीचो बीच के स्थान में सुरप्रिय नाम व यक्षायतन या । यह दिव्य था। इसका और वर्णन दूसरी जगह किर हुआ है। सूत्र "४"
(तस्सण रेवयगरस) त्यादि ।
साथ-( तस्त्र ण रेखयगास ) रेवत थी ( अदर सामते) मत्यर ३२ ५ नहि तभी सत्यत न प न पाय तम (एत्थण नदणवर्ष नाम उजाणे होत्था ) त्या 'ननवन' नामे मे 6धान तु, (सब्बोउन पु'फफ्लसमिद्धे) ते मी तुन पु०भने ३थी समृद्ध (रम्मे पदण धणपगासे) ननवन २ तु (पासाइए) जना भनन पित ४२ना
तु (पासाइए ४) पहनी भाग यार ना म18. भूपयो छे ते मम सूयर છે કે સુભગ પ્રિયદર્શન વગેરે બીજા પણ વિશેષ અહીં સમજવા જોઈએ (तस्स ण उजाणरस बहुमज्झदेमभाए सुरपि नाम जक्साययण होत्था दिन पन्नओ) धाननी पराम२ वरये सुप्रिय नाम यक्षनु आयतन त हिन હતું તેનું વર્ણન અન્યત્ર કરવામાં આવ્યું છે તે સૂ“જ” |
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भनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ कृष्णवासुदेवषर्णनम् राया परिवसइ, से णं तत्थ समुइविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराण, वलदेवपामोक्खाण पचण्ह महावीराण, उग्गसेणपामोरखाणं सोलसह रायसहस्साणं, पज्जुन्नपामोक्खाणं अध्धुटाण कुमारकोडीण, संवपामोक्खाण सट्ठीए दुद्दतसा. हस्सोण, वीरसेणपामोक्खाण एकवीसाए वीरसाहस्सणिं, महासेनपामोक्खाण छप्पन्नाए वलवगसाहस्सीण, रुप्पिणीपामोक्खाण छप्पन्नाए वलवगसाहस्सीणं,रुप्पिणीपामोक्खाणं वत्तीसाए महिलासाहस्सीण, अणंगसेणापामोक्खाणं अणे. गाण गणियासाहस्सणिं, अन्नेसि च बहूण इसरतलवर जाव सत्थवाहपभिईणं वेयड्ड गिरिसायरपेरतस्स दाहिणभरहस्स य वारवईए नयरीए आहेवच्च जाव पालेमाणे विहरइ ॥सू- ५॥ ___टीका-'तत्य ण' इत्यादि । तत्र तस्या खलु द्वारावत्या नगया 'कण्हे नाम ' कृष्णो नाम वासुदेव. राजा-निखण्डाधिपति परिवसति । स खलु तत्र 'समुदविजयपामोक्ग्वाण ' समुद्रविजयप्रमुखाना दशाना 'दसाराण' दशार्हाणा वलदेवप्रमुखाना पचण्ड ' पञ्चाना महावीराणाम्। उग्रसेनप्रमुखाना पोडशाना
'तत्थ ण वारचईए नयरीए' इत्यादि टीकार्थ-(तत्य णं चारवईए नयरीए) उस द्वारावती नगरी मे (कण्हे नार्म वासुदेवे राया परिवसइ) कृष्ण वासुदेव नामके तीन खड के अधिपति राजा रहते थे (सेण तत्य समुद्दविजयपामोरखाण दसण्ह दसोराण) वे वा मर विजय आदि दश दशाहों का (बलदेव पामोक्खाण
'तस्थण वारवईए नयरीए' इयादि ।
साथ-( तत्थण चारवईए नयरीए) द्वारावती नगरीम (वहे नाम वासुदेवे राया परिवसइ) ए वासुदेव नामे त्रय म उनी मधिपति रात रहे। यता (से ण तत्थ समुद्दविजयपामोरसाण दसण्ह इसाराण ) त्या समुद्र विश्य वगेरे सानि। (बलदेवपामोक्खाण पचण्ह महावीराण ) मण
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हाताधर्मकथा राजसहस्राणा-पोडशमइसममिताना राज्ञाम् । प्रद्युम्नप्रमुखानाम् अर्धचतुर्थानां कुमारकोटीना-सार्धत्रिकोटिसख्यकाना यादवकुमाराणाम् । शाम्बप्रमुखाना षष्ठया दुर्दान्तसाहस्रीणामप्टिसहस्रसख्यकाना शाम्मादीना दुर्दान्तानाम् । वीर सेन प्रमुखानामेकविंशत्या वीरसाहस्रीणा-एकविंशतिसहस्रममाणाना वीरसेना दीना वीराणाम् । महासेनममुखाना पट्पञ्चाशतो बलात् साहस्रीणा=पट्पश्चाशत् सहस्रममिताना महासेनादीना चलताम् । रुक्मिणीममुखाना द्वात्रिंशतो महिलासाहस्रीणा-रुक्मिण्यादीनां द्वात्रिंशत्सहस्रममिताना महिलानाम् । अनासेना ममुखानामनेकासां गणिकासाहस्रीणाम् अनगसेनादीनामनेकसहस्रसरयासमितानां गणिकानाम् अन्येषां च वहना राजेश्वरतलवरमाडम्बिककौटुम्बिाश्रेष्ठिसेनापतीनां, यावत् सार्थवाहमभृतीना चैतादयगिरिसागरपर्यन्तस्य च, दक्षिणार्धभरतस्य च, द्वारावत्याः द्वारकायाः नगर्याश्च, आधिपत्य यावत् - अत्र यावच्छ दा पचण्ह महावीराण ) पलदेव प्रमुख पाच महावीरोका उग्रसेन प्रमुख १६ सोलह हजार राजाओं का प्रद्युम्न प्रमुख ३॥, साढे तीन करोड़ यादव कुमारों का (संप पामोक्खाण सट्ठीए दुद्दत साहस्सीणं) ६०साठ हजार दुर्दान्त शाम्ब आदिकों का ( वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसोए चीरसारस्सीण) २१इक्कीस हजार वीरसेन प्रमुख वीरोका (महासेना पामोक्खार्ण छप्पन्नाए बलवग साहस्सीण) ५६छप्पन हजार बलिष्ठ महासेन आदिकों का (रूप्पिणीपामोक्खाण पत्तीसाए महिला साम्सोण) ३२ बत्तीस हजार रूक्मिणी प्रमुख महिलाओं का ( अगसेणोपामोक्खाण अणेगाणं गणिया साहस्सीण) अनगसेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओं का निवास था। ( अन्नेसिंच बहण इसर तलवर जाव सत्यवाहपभिईणवेयगिरिसायरपेरतस्स य दाहिणभरहस्स य बारवहए नयरीए દેવ પ્રમુખ પાચ મહાવીરને, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સેળ હજાર રાજાઓને, प्रधुम्न प्रभुण सा ४२।७ यार सुभाने। (सपामोक्साण सट्ठीए दुद्द तसाहस्सीण )
सार हुन्तिसाम पोरेन (वीरसेणपामोक्साण एकवीसाए वीरसाइस्सीण) मेवीश २ वीरसेन प्रभु वाशना (महासेन पामो स्रयाण छप्पन्नाए, बलवग साहस्सीण) छपन १२ मणवान भासेन पोरन (रुप्पिणी पामोक्खाण बत्तीसाए महिलासाहस्सीण) त्रास ०१२ २भए प्रभुम भडितासाना (अग गसेणापामोरवाण अणेगाण गणियासहारसीण) भने मत ना भुभ नरे। गणितामान निवास डत (अन्नेसिंच, बहूण इसर तलवर जाव सत्यवाहपभिईर्ण वेयगिरिसायरपेर तस्सय दाहिड्ड भरहस्स य बार
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अनगारधर्मामृतर्पिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रवर्णनम् ... दय पाठोऽनुसन्येयः- पोरेवच्च ' पालयन् विहरति = आस्तेस्म । पौरपत्य पुरवासिनामग्रसरत्व, 'सामित्त ' स्वामित्व, ‘भत्तित्त ' भर्तृत्व, महत्तरगत्त' महत्तरकत्व, 'आणाईसरसेगावच्च' आज्ञेश्वर सैनापत्य 'करेमाणे' कुर्वन् इति ।।५।।
मूलम्-तत्थ णं वारवईए नयरीए थावच्चा णाम गाहावे. इणी परिवसइ, अड्डा जाव अपरिभूया, नीसेण थावच्चाएं गाहावइए पुत्ते थावच्चापुत्ते णामं सत्थवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे, तएण सा थावच्चागाहावइणी त दारय सातिरेगअट्ठवासजायय जाणित्ता सोहगंसि तिहिकरणदिवसणखत्तमुहुर्ससि कलायरियस्स उवणेइ, जाव भोगसमत्थ जाणित्ता वत्तीसाए इन्भकुलवालियाण एगदिवसेणं पाणि गेहावेइ बत्तीसओ दाओ जाव वत्तीसाए इन्भकुलवालियाहि सद्धिं विपुले सद्दफरिसरसरूववन्ने गधे जाव भुजमाणे विहरइ ॥ ६॥
टीका-'तत्थण इत्यादि । तत्र-तस्यां खलु द्वारावत्या नगया ' थापच्चाआहेवच्च जाव पालेमाणे विहरइ ) अन्य और भी अनेक राजेश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठीसेनापतियों का यावत् सार्थवाह आदिकों का, वैताढय गिरिएव सागर पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत का तथा द्वारका नगरी का आधिपत्य पौरपत्य, स्वमित्व, भर्तृत्व महत्तरकत्व, आज्ञेश्वर सेनापत्य करते हुए रहते थे अर्थात् द्वारका नगरीमें कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे । सत्र "५"
'तत्य वारवईए नयरीए' इत्यादि । टीका-( तत्थर्ण चारवईए नयरीए ) उस द्वारका नगरी में (थावचा. नयरीए आहेवच्च जाव पालेमाण विहरइ) मने भी uty घ २२, તલવરે, માડલિકે, કૌટ બિકે શ્રેષ્ઠી સેનાપતિઓ સાર્થવાહ વગેરે ઉપર વૈતાઢય ગિરિ અને સમુદ્ર સુધીના દક્ષિણ ભારતનુ, નગરીનું આધિપત્ય પરિપત્ય, ભત્વ મહત્તરકત્વ આશ્વર નેનાપતિત્વ કરતા રહેતા હતા એટલે દ્વારકા નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવ રાજ્ય કરતા હતા કે સૂત્ર ૫
(तत्यण वारवईए नयरीए इत्यादि। टी -(तत्यण पारयईए नयरीए) ले ६ नगरीमा (थावच्चा गाम गाहा
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हाताधर्मकथायो राजसहस्राणा-पोडशसहसममिताना राज्ञाम् । प्रद्युम्नममुवानाम् अर्धचतुर्थानां कुमारकोटीना-सार्धनिकोटिसख्यकानां यादवकुमाराणाम् । भाप्रमुखानी पष्ठया दुर्दान्तसाहस्रीणाअप्टिसहस्रसख्यकाना शाम्बादीना दुर्दान्तानाम् । वीर सेन प्रमुखानामेकविंशत्या चीरसाहस्रीणा एकविंशतिसहस्रममाणाना वीरसेना दीना वीराणाम् । महासेनप्रमुखाना पट्पञ्चाशतो बलमत् साहस्रीणा-पट्पञ्चा शत् सहस्रपमिताना महासेनादीना चलनताम् । रुक्मिणीममुखाना द्वात्रिंशतो महिलासाहस्रीणा-रुक्मिण्यादीना द्वात्रिंशत्सहस्रममिताना महिलानाम् । अनासेना प्रमुखानामनेकासा गणिकासाहस्रीणाम् अनद्ग सेनादीनामनेरुसहस्रसस्यासमिताना गणिकानाम् अन्येषां च वहना राजेश्वरतलपरमाडम्बिककौटुम्मिश्रेष्ठिसेनापतीना, यावत् सार्थवाहमभृतीना वैतादयगिरिसागरपर्यन्तस्य च, दक्षिणाधभरतस्य च, द्वारावत्याः द्वारकायाः नगर्याथ, आधिपत्य यावत् - अत्र यावच्छन्दा पचण्ह महावीराण ) बलदेव प्रमुख पाच महावीरोका उग्रसेन प्रमुख १६ सोलह हजार राजाओं का प्रद्युम्न प्रमुख ३॥, साढे तीन करोड़ यादव कुमारों का (संघ पामोक्खाण सहीए दुद्दत साहस्सीण) ६०साठ हजार दुर्दान्त शाम्ब आदिकों का ( वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसीए वीरसाह स्सीण) २१इक्कीस हजार चीरसेन प्रमुख वीरोका (महासेना पामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीण)५६छप्पन हजार बलिष्ठ महासेन आदिकों का (रूप्पिणीपामोक्खाण बत्तीसाए महिला साहम्सीण) ३२ बत्तीस हजार रूक्मिणी प्रमुख महिलाओं का ( अगसेणोपामोक्खाण अणेगाणं गणिया साहस्सीण) अनगसेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओं का निवास था । ( अन्नेसिंच बहण इसर तलवर जाव सत्यवाहपभिईणवे. यगिरिसायरपेरतस्स य दाहिणभरहस्स य बारवइए नयरीए દેવ પ્રમુખ પાચ મહાવરેને, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સોળ હજાર રાજાઓને, प्रधुम्न प्रमुगमा ३ ४७ या माशेन। ( सबपामोक्खाण सट्टीए दुद्द तसाहस्सीण ) साह तर हुन्तिसाप पोरेन (वीरसेणपामोक्साण एकवीसाए वीरसाहस्सीण) सेपीश तर वीरसेन प्रभुप वाशना (महासेन पामो
वाण उत्पन्नाए पलवग साहस्सीण) छपान २ पान मासेन पोरन (रुपिणी पामोक्खाण बत्तीसाए महिलासाहस्सीण) मत्रीस मा प्रभुम महिनामाना (अण गसेणापामोक्रवाण अणेगाण गणियासहास्सीण) भने मत सेना प्रेभुभ हुन गएमा निवास हेत( अन्नेसिंच, बहूण इसर तलमर जाव सत्यवाहपभिईर्ण वेय गिरिसायरपेर तरस य दाहिडे
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भनगारधर्मामृतपपिणो टीका अ० ५ प्रभु समवसरणम् ... जातक, किंचिदधिकाप्टवर्पजात ज्ञात्वा शोभने तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते 'क लायरियस्स ' कलाचार्यस्य समीपे उपनयति, यावत् सा पलाः शिक्षयति मेघ कुमारवद् द्वासप्ततिकला अनेन शिक्षिता इत्याशय । भोगसमय यौवनवयः समागमेन विषयभोगयोग्यताऽपन्न धात्वा द्वात्रिंशता 'इन्भकुल्गालियाण' इभ्यकुल बालिकानाम् महाधनाढयसार्थवाहाना द्वात्रिंशत्सख्यकन्यानाम् एकदिवसेन एकस्मिन्नेव दिने पाणि ग्राहयति पाणिग्रहण कारयति । द्वात्रिंशदायः द्वात्रिंशद् हिरण्यकोट्य द्वात्रिंशत् सुपर्णकोटयः इत्यादिरूपो मेघकुमारवदायोऽवगन्तव्य । यावत् तदनन्तर स्थापत्यापुनः द्वात्रिंशता इभ्यकुल पालिकाभिः सार्धं विपुलान् शब्दस्पर्श रसरूपवर्णगन्यान् पियान् यावद् भुजान अनुभवन् विहरति आस्तेस्म ॥मू०६॥ इस के उस स्थापत्य गोथा पत्नीने उस अपने पुत्र को आठवर्ष से कुछ _अधिक जय जाना तर शुभ तिथि करण दिवस नक्षत्र एव मुहर्त में (कलायरियस्स) कलाचार्य के पास (उवणेह) भेजदिया (जाव भोग समत्थ जाणित्ता यत्तीसाए इन्भकुलवालियाण एगदिवसेण पाणिं गेहावेह) यावत् मेघकुमार की तरह उस स्थापत्य पुत्र ने ७२बहत्तर कलाओ को सीखलिया। यौवनवय के समागमन से विषय भोग की योग्यता विशिष्टइसे जानकर बाद में उस स्थापत्यागायापत्नीने उसका वैवाहित सस्कार एकही दिनमे ३२ महाधनाढय सार्थवाहों की कन्याओं के साथ करवादिया । ( पत्तीम ओदाओ जाव यत्तीसाए इम्भकुलमालियाहिं सद्धि विपुले सद्दफरिसरूवगधे जाव भुजमाणे विहरड) ३२वत्तीस हिरण्य कोटि३२ यत्तीस सुवर्ण कोटि इत्यादि रूपदहेज इसे मेघकुमार की तरह मिला। इसके बाद स्थापत्य पुत्र ने ३२ उन इभ्यकुल यालिफाओ के साथ ગાથા પત્નીએ પિતાના પુત્રને આઠવર્ષ થી થડે મોટે થયેલે જાણીને શુભ तिथि, ४२११, दिवस, नक्षत्र मने मुहूत्तमा (कलायरियस्स) सायायनी पासे ( उवणेइ) भा८ये (जाय भोगसमत्थ जाणित्ता वत्तीसार इन्भकुला बालियाण एगदिवसेण पाणिं गेहावेइ) मेमारनी २५ स्थापत्य पुत्र પણ બેહેર કલાઓ શીખીનીની જરે તે યુવાવસ્થ સંપન્ન થઈને વિષય ભેગને લાયક થયે ત્યારે ગાથાપનીએ એક જ દિવસમાં તેનુ લગ્ન બત્રીસ माधनाढय सार्थवालानी न्यासानी साये उसाच्यु (पत्तीस ओदाओ जाव बत्तीसाए इन्भकुलवालियाहि सद्धिं पिपुले सदफरिसरूगवे जाव भुज माणे विदरह) त्रीस २९५ , की सुरण कोरे ६ मे २नी જેમજ તેને પણ મળી ત્યાર પછી સ્થાપત્ય પુત્ર બત્રીશ્ન કિકુળ બ ળાએાની
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ज्ञाताधर्मकथा णाम ' स्थापत्या नाम 'गाहामणी' गाथापत्नी परिससति । सा कोदशीत्याहआढया धनधान्यादि परिपूर्णा, यावत् अपरिभूता-अयैः परामयितुमशक्या, तस्याः खलु स्थापत्यायाः गायापत्न्याः पुत्रः 'थापच्चापुते णाम ' स्थापत्यापुनो नाम सार्थवाहदारकोऽभूत् । स कोश इत्याह-मुकुमारपाणिपाद' यावत् मुरूपः अत्र यावच्छन्दकरणादयपाठोऽनुसन्या --' अहोगपडि पुगपचिंदियमरोरे, लक्खण चजणगुणोनवेए, माणुम्माणपमाणपडिपुण्णमुजायमव्यंगमुदरगे, ससिसोमाकारे कते पियदसणे इति एतानि पदानि मागेर व्याख्यातानि ततः खल सा स्थापत्या गाथापत्नी त दारक 'सातिरेगअहवास जायय । सातिरेकाष्टवर्ष णाम गाहावाणी परिवसइ) स्थापत्य नामकी गाथा पत्नी रहती थी। (अड्डाजाव अपरिभूया ) यह धन धान्य आदि से परिपूर्ण यावत् अप रिभूत अन्य व्यक्तियों द्वारा परीभधित अशक्य थी। (तीसेण थाव. चाए गाहावइगीए पुत्ते थावच्चा पुते णाम सत्यपाहदाररा होत्था) उस स्थापत्य गाथापत्नी का पुत्र था जिप्त का नाम स्थापत्य पुत्र था। वह सार्थवाहदारक कहलाता था। (सुकुमालपाणिपाएजाव सुरूवे) इसके हाथपैर सुकुमार थे । यावत् यह अच्छे रूप वाले थे। यहा यावत् शब्द से " अहीणपडिपुण्णपचिदियसरीरे, लक्खणवजणगुणोववेए, मागुम्माणपमाण पडिपुण्णसुजायसवग सुदरगे समि सोमाकारे कते, पियदमणे " इस पाठ का सग्रह हुआ है । इनपदों का अर्थ इहिले कहा जा चुका है ( तण्ण साधावच्चा गाहावहणी त दारय सातिरेग अट्ठ वासजायय जाणित्ता सोहणसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तनुहुत्तसि) वइणी परिवसइ) स्थापत्य नामे में माथापत्नी २२ती ती (अट्ठाजावअपरिभूया) તે ધનધાન્ય વગેરેથી પરિપૂર્ણ તેમજ બીજી કોઈ વ્યક્તિથી પરાભૂત ન થાય એવી ती (तीसेण थावचा गाडा ua धावन्चापत्ते णाम सत्यवराहदारण होथा)
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मनगारधर्मामृतवपिणो टीका अ. ५ प्रभु समवसरणम् जातक, रिंचिदपिकाप्टवर्पजात झात्वा शोभने तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते 'क लायरियस्स ' कलाचार्यस्य समीपे उपनयति, यावत् सर्वा पलाः शिक्षयति मेघ कुमारवद् द्वासप्ततिकला अनेन शिक्षिता इत्याशय । भोगसमर्थ यौवनवयः समागमेन विषयभोगयोग्यताऽपन्न ज्ञात्वा द्वारिंशता 'इन्भकुल्वालियाण ' इभ्यकुल वालिकानाम् महाधनाढयसार्थवाहाना द्वात्रिंशत्सख्यकन्यानाम् एकदिवसेन एकस्मिन्नेव दिने पाणि ग्राहयति पाणिग्रहणं कारयति । द्वात्रिंशदायः द्वात्रिंशद् हिरण्यकोट्य द्वात्रिंशत् सुवर्णकोटयः इत्यादिरूपो मेघकुमारवदायोऽवगन्तव्य यावत् तदनन्तर स्थापत्यापुनः द्वात्रिंशता इभ्यकुल पालिकाभिः सार्धं विपुलान् शब्दस्पर्श रसरूपवर्णगन्यान् पियान् यावद् भुञ्जान अनुभवन् विहरति आस्तेस्म ॥सू०६॥ इस के उस स्थापत्य गोया पत्नीने उस अपने पुत्र को आठवर्ष से कुछ अधिक जब जाना तर शुभ तिथि करण दिवस नक्षत्र एव मुहर्त में (कलायरियस्स) कलाचार्य के पास (उवणेह) भेजदिया (जाव भोग समत्व जाणित्ता बत्तीसाए इन्भकुलवालियाण एगदिवसेण पाणिं गेहावेइ) यावत् मेघकुमार की तरह उस स्थापत्य पुत्र ने ७२चहत्तर कलाओ को सीखलिया। यौवनवय के समागमन से विषय भोग की योग्यता विशिष्टइसे जानकर बाद मे उस स्थापत्यागाथापत्नीने उसका वैवाहित सस्कार एकही दिनमे ३२ महाधनाढय सार्थवाहों की कन्याओं के साथ करवादिया। (बत्तीस ओदाओ जाव बत्तीसाए इस्मकुलवालियाहिं सद्धिं विपुले सद्दफरिसख्वगधे जाव भुजमाणे विहरड) ३२यत्तीस हिरण्य कोटि३२ बत्तीस सुवर्ण कोटि इत्यादि रूपदहेज इसे मेघकुमार की तरह मिला। इसके बाद स्थापत्य पुत्र ने ३२ उन इभ्यकुल बालिकाओ के साथ ગાથા પત્નીએ પોતાના પુત્રને આઠ વર્ષ થી ૩ મટે થયેલે જાણીને શુભ तिथि, ४२, पिस, नक्षत्र भने भुडूतभा (कलायरियस्स) सायायनी पास ( उवणेइ) भक्ष्या (जाव भोगसमत्थ जाणित्ता वत्तीसार इभकुलबालियाण एगदिवसेण पाणिं गेण्हावेइ) मेधभारनी २५ त स्थापत्य पुत्र પણ બેહેર કલાઓ શીખી ની ની જરે તે યુવાવસ્થા સંપન્ન થઈને વિષય ભેગને લાયક થયે ત્યારે ગાથાપનીએ એક જ દિવસમાં તેનુ લગ્ન બત્રીસ भाधनाढय सायपाडानी न्यासानी साथे ४२११७०यु ( पत्तीस ओदाओ जाव बत्तीसार इभकुलमालियाहि सदि पिपुले सदफरिसकागवे जाव भुज माणे विहरइ) त्रीसहि२९५, मी सु
गरे ४ मेमनी જેમજ તેને પણ મળી ત્યાર પછી સ્થાપત્ય પુત્ર બત્રીન્ન ભિન્નકુળ બાળાઓની
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शाताधर्मकथासूत्रे
मूळम् — तेणं कालेण तेण समएणं अरहा अरिट्ठनेमी सो वणओ दसणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमपगासे अट्ठारसहि समणसाहस्सीहि सद्धि सपरिवुडे चत्तालीसाए अज्जिया साहस्सीहि सद्धि सपरिवुडे पुव्वाणुपुत्रि चरमाणे जाव जेणेव बारवई नयरी जेणेव रेवयगपव्वए जेणेव नदनवणे उज्जाणे जेणेत्र सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूव उग्गह ओगिव्हित्ता संयमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरह परिसा निग्गया धम्मो कहिओ ॥ ७ ॥
टीका- 'तेण कालेन' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्ट नेभिर्द्वाविंशतितमस्तीर्थंकरः समवसृत इति भावः, स एव वर्गक = अन्यतीर्थक राणा यो वर्णकः ' आइगरे तित्थगरे ' इत्यादि रूप कथितः स एवारिष्टनेमि भगतोऽपि वर्णको वो य इत्यर्थः, नवर- ' दसधणुस्सेहे ' दशननुरु सेधः =दश
१४
·
विपुल शब्द रूप गधरस और स्पर्श पाचो हद्वियों के विषयों को यावत् भोगते हुए अपना समय आनन्द के साथ व्यतीत करदिया || सूत्र "६” तेण कालेन तेण समएण इत्यादि ॥
टीकार्थ- (तेण कालेन तेण समएण) उस काल और उस समय में (अरिहा अरिनेमी) उस द्वारावती नगरी में घावीसवें तीर्थकर अर्हत नेमीनाथ भगवान् आये ( सो चैत्र वण्गओ) अन्यतोर्थ करो का जैसा " आइगरे तित्थगरे" इत्यादिरूप से वर्णन किया गया है उसी प्रकार का वर्णन
સાથે પુષ્કળ રા‚ પશ, રૂપ વર્ણ અને ગધ રૂપ પાચે ઇન્દ્રિયેાના વિષચે ને ભાગવતા પેાતાને વખત સુખેથા પસાર કરવા વાગ્યે ॥ સૂત્ર “૬” ।
तेण क लेण तेण समरण इत्यादि ॥
टी अर्थ - (तेण कालेन तेण समरण) ते अणे अने ते समये (अरिहा अरिट्ठानेमी તે દ્વારકા નગરીમા ખાવીસમા તીર્થં કર અહુ ત નેમીનાથ ભગવાન પધાર્યાં ( सो चेत्र वण्णओ ) " आइगरे तिव्यगरे " ना इथमा प्रेम जीन तीर्थ रेनु વર્ષોંન કરવામા આવ્યુ છે તે પ્રમાણેજ અરિષ્ટનેમિ પ્રભુનુ વત્તુ પશુ જાણી
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मनगारपर्मामृतवपिणी टीका म०५ प्रभुसमयसरणम् धनु परिमित उत्सेध उच्श्यो यस्य सः, पुनः कथ भूतोऽसावित्याह-नील पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासे । नीलोत्पलगवलगुलिमातसीकुसुमपाशः नीलोत्पल = नीलरमल, गवल-माहिप शृङ्ग गुल्फिा -नीली, यहा-गवलगुलिका
माहिपशुहस्य लागेऽपसारिते सति तदन्तरालवर्तिनी गुलिका 'अतसी' अलसी नाम्नामसिद्धो धान्यविशेपस्तस्य कुसुम-पुप्प, तेपा प्रकाश डच प्रकाशो वर्णो यस्य स तथा, अष्टादशभिः श्रमणसाहसीभि अष्टादशसहस्रपरिमितैः श्रमणैः मुनिभिः साधं सपरिटतः चत्वारिंशता आर्यिफासाहस्रीमि' चत्वारिंशत्सहस्रपरिमिताभिरार्यिकाभिः साध्वीभिः साध सपरिसृतः, पूर्वानुपूर्वी-पूर्व्यानुपूर्ध्या तीर्थ करपरपरया चरन-विहरन् यावत् यत्रैव द्वारावती नगरी वर्तते यशैव रैवतकपर्वतः यगैर नन्दनवन नामोद्यानमस्ति, यर सुरमियस्य यक्षस्य यक्षायतन, यत्रैव, इन अरिष्टनेमि प्रभुका भी जानना चाहिये । परतु उनके वर्णन की अपेक्षा इनके वर्णन में इतनी विशेषता है कि ये (दसघणुस्से हे,नीलप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमध्यगासे) इनके शरीर की ऊँचाई दश धनुष की थी। शरीर का वर्ण नीलकममल के गवल-माहिप केशृग के अन्दरभाग जैसा गुलिका-नील के जैसा अथवा गवल तुलिका-त्वगूभाग के दूर करने पर तदन्तरालवर्तिनी महिष भृग की गुलिका के-अलसी के पुष्प के वर्ण के समान था। (अट्ठारसहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं सपरिवुडे चत्तालीसाए अजिया साहस्सीहिं सद्वि सपरिवुडे पुन्वाणुपुविचरमाणे जाव जेणेव धारवई नयरी जेणेव रेवयगपन्वए जेणेव नदनवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छद) ये अर्ह नअरिष्टनेमि प्रभु १८अढारह हजार श्रमणों के साथ और ४०चालीम हजार आर्यिकाओं के साथ २ पुर्वानुपूर्वी से-तीर्थकर લેવું જોઈએ ફક્ત અરિષ્ટનેમિ ભગવાન ની વિષે આટલું વિશેષ સમજવું જોઈએ है-( दसधणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयासि कुसुमपप्पगासे ) तेमनु शरीर દશ ધનુષ જેટલું ઊંચુ હતું તેમના શરીરને રગ નીલ કમળ ગવલમહિષના ઈંગડાના મધ્યભાગ જે, ગુલિકા–નીલ જે, અથવાતે ગવલ ગુલિકા-ઉપર ની ચામડીને ઉપાડી લીધા પછી તેની અંદરના મહિષના શી ગડાની ગુલિકા भने ससाना Y०५ना २० वा खत (अट्ठारसहि समणसाहस्सीहिं सद्धि स परिवुडे चत्तालीसाए अज्जिया साहस्सीहिं सद्धि सपरिवुडे पुवाणुपुर्वि वर माणे जाव जेणेव यारवई नयरी जेणेव रेवयगपवए जेणेव नदनवणे उज्जाणे जेणे सुरप्पियस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छद ) मत
અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ અઢાર હજાર શ્રમણાની સાથે અને ચાલીસ હજર રાશિ
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जाताधर्मकथास
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अशोकवरपादपा=अशोक्नामा महावृक्षः, तत्रेयोपागच्छति, उपागस्य ' महापडि रूप' यथामतिरूप-मुनिजनक्ल्पानुसारम् अवग्रह स्थित्यथं वसतेराज्ञां अवश्य =गृहीला सयमेन तपसा चात्मान भावयन् वासयन् विहरति-आग्तेस्म । तदा वनपालक समागत्य कृष्णाय वासुदेवाय वर्धापनिमा प्रदत्ता। परिपनिर्गताद्वारावती नगरी निवासिनो जनाना परिपत् समूहः निर्गता अरिष्टनेमिर्भगवन् समागत इति श्रृखा त वन्दितु द्वारावतीनगरीतो निःसृतेत्यर्थः । सा परिपद् भगवन्त वदित्वा धर्म श्रोतु भगवतः पुरोऽस्थिता धर्मः कथितः अरिष्टनेमिना भगवता धर्मकथा कथिता ॥ सू-७॥ परपरा के अनुसार-विहार करते हुए यावत् जहां वह द्वारावती नगरी थी उसमे जहा रैवतक पर्वत था-नदवन नामका उधान था। उसमें भी जहा सुरप्रिययक्ष का यक्षायतन था ओर उम में भी जा अशोक का उत्तम वृक्ष था, वहां पधारे (उवागच्छित्ता अहापडिख्य उग्गह ओगिहित्ता सयमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विरइ ) आकर के उन्हों ने मुनिजन के कल्पानुसार वनपाल से वमति की आज्ञा प्राप्त की-और प्रोप्त कर वे वहा तप और सयम से आत्मा को भोधित करते हुए विराजमान हो गये उस ममय वनपालकने आकर के कृष्ण वासुदेवको बधाई दी।(परिसा निग्गया धम्मो करिओ) द्वागवतीनगरी के समस्त जनों का समूह-( अरिष्टनेमि भगवान आये हए है) ऐमा सुनकर उनको वदना करने के लिये दारावती नगरी से निकले। એની સાથે પૂર્વાન પથી–એટલે કે તીર્થંકર પર પરા ને અનુસરતા વિહાર કરતા જ્યા તે દ્વારવતી નગરી હતી, જ્યા રૈવતક પર્વત હતું, જ્યા નદનવન નામે ઉઘાન હતુ અને તેમા જ્યા સુરપ્રિય યક્ષનુ યક્ષાયતન હતું અને તેમાં ५५ ज्या मनु श्रेष्ठ वृक्ष तु त्या पथार्या (पागन्छिता अहापडिरूव उगाह ओगि हित्ता सयमेण तवसा अप्प ण भ वेमाणे विहरइ ) त्या पधारीन મુનિ જનેચિત પ્રણાલિકા મુજબ વનપાલક પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને આજ્ઞા મેળવીને ત્યા તપ અને સયમથી પતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિરાજ્યા તે વખતે વન પાલકે ડ્રણ વાસુદેવની પાસે જઈને તેમને શુભ સમાચાર આપ્યા (परिसा निग्गया धम्मो कहिओ) द्वार ती नसरीन मया नागरी "AR ઇનેમિ ભગવાન અને પધાર્યા છે એવું સાંભળીને તેમની વદના કરવામાટે
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भनगारधर्मामृतपिणी रीका अ०५ समपसरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् १७
मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लठे समाणे कोडंवियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासोखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरमाहुरसद कोमुदीयं भेरि तालेह, तएणं ते कोथुविय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलि कटु-एव सामी। तहत्ति जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अतियाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता त मेघोघरसियं गंभीरं महरसदं कोमु. दियं भेरिं तालेति । तओ णिद्धमहुरगंभीरपडिसुएणं पिव सारएइण वलाहएणं पिव अणुरसियं भेरीए ॥सू०८॥
टीका--'तएण' इत्यादि । ततः तदनन्तर, खलु स कृष्णो वासुदेवोऽनया भगवानरिष्टनेमिः समागत इत्येव रूपया कथया = वनपालकथितया कथया 'लद्ध' लब्धार्थः रब्धःप्राप्तः, भगवदागमनरूपोऽर्थों येन स तथा, सन कौटु म्बिकपुरुषान् शब्दयति-आहयति, शब्दयित्वा, एव= वक्ष्यमाणप्रकारेण अवा. भगवान को वदना कर वे सब धर्म सुनने की अभिलाषा से भगवान के सामने बैठ गये । प्रभुने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। " सूत्र "७"
तएण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएण) इसके याद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेव ने (इमीसे कहाए लढे समाणे) वनपाल के मुख से अरिष्ट नेमि प्रभुका आगमन रूप अर्थ विदित कर (फौडषियपुरिसे सहावेह) कौटुम्यिक સાભળવાની ઈચ્છાથી તેમની સામે બેસી ગયા પ્રભુએ પણ તેમને ઉપદેશ भाभ्यो ॥ सूत्र “७" ॥
तएण से कण्हे वासुदेवे त्या ॥
साथ-( तएण ) त्यार माह ( से कण्हे वासुदेवे) वासुदेव (इमीसे कहाए लट्टे समाणे) वनपाला माथी मरिटनेमि प्रभुना ५५शमान पात
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शांताधर्मकथा दीत-भी देवानुमिया 'खिप्पामेव ' हिममेर्शघ्रमेव सुधर्मायों समायांगत्वा 'मेघोघरसिय' मेघौधरसिता मेघौघाना मेघसमूहाना रसितमिव रसित ध्वनिरिष ध्वनिर्यस्यारतां गम्भीरा सा 5 'महुरसह ' मधुरशब्दां 'कोमुइय' कौमुदिका उत्सवसूचनासमये वादनीया कौमुदिका नाग्नी श्रीकृणवासदेवस्य मेरी तां, भेरिदुन्दुभि 'तालेह' ताडयतम्वादयत । ततः तदनन्तर खलु ते कौटुम्बिापुरुषा कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो हष्टाः यावत् हर्पवशविसर्पद् हदया मस्तके:अलिं कृता 'एव स्वामिन् तथेति ' यावत् 'हे स्वामिन् एवमेव तथास्तु' इत्युक्त्या प्रतिश्प्वति स्वीकुर्वन्ति । प्रतिश्रुत्य आज्ञा स्वीकृत्य कृष्णस्य वामदेवरयान्तिकात समीपात 'पडिनिसमति ' प्रतिनिकामन्ति=नि सरन्ति । पतिपुरूषोंको बुलाया (सदावित्ता एव वयासी) घुलाकर उनसे ऐसा कहा(खिप्पामेव भो देवाणुप्पियो सभाए सुहम्माए ) भो देवानुप्रियो । तुम लोग शीध्र ही सुधर्मा नाम की सभा में जाकर (मेघोघरसियं गभीरमरसद्द कोमुदीय भेरि तालेह) मेघोके समूह जैसी सान्द्र मधुर शब्दवाली कौमुदिक नामकी मेरी को कि जो उत्सव की सूचना के समय बजाई जाती है घजाओ। (तएण ते कौडचियपुरिसा कण्हेण वासु. देवेण एव वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अजलिं कटु एव सामी ! तत्ति जाव पडिसुणेति) कृष्णवासुदेव की इस प्रकार आज्ञा सुनकर वे कौटुम्बिक पुरूप अधिक हर्षित एव सतुष्ट हुए और मस्तक पर अजलि रखकर हे स्वभिन् ! जैसी आपकी आज्ञा है हम वैसा ही करेगे ऐसा कहकर उन्होंने उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली (पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अतियाओ पडिनिक्खमति ) आज्ञा स्वीकार कर सामान (कौडु बियपुरिसे सद्दावेइ) औ मि: पुरुषाने माराव्या (सहाविता
एव वयानी) मातापान तमो घु-(खिप्पमिव भो देवाणुप्पिया ! संभाए , सुहम्माए ) पानुप्रियो ! सवरे तमे सुधर्भा नामनी सलाम धन (मेघोष रसिंय गभीरमहरसह कोमुदीय भेरि तालेह) भेसमूहना नवी સાન્દ્ર મધુર શદવાળી તેમજ ઉત્સવના વખતે વગાડવામાં આવતી કૌમુહિક नामना । गाडी (तएण ते कौंडु बिय पुरिसा कण्हेण वासुदेवे ण एव चुत्तासमाणा हट्ट जाव मत्थर, अजलि क₹ एव सामी । तहत्ति जोव पडिसुणे ति) કૃષ્ણ વાસુદેવની આવી આજ્ઞા સાભળીને કૌટુંબિક પુરુષે ખૂબજ હર્ષિત અને સ તુષ્ટ થયા, તથા મસ્તકે અ જલિ રાખીને કહેવા લાગ્યા,- “હે સ્વામિની આપની જેવી આજ્ઞા છે, તે પ્રમાણે જ અમે કરીશું આમ કહીને તેઓએ તેમની मासा स्वीदाधी “पडिसुणिचा कण्हरस वासुदेवरस अतयालो पडिनिक्स
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मनगारधर्मामृतपिणी टीका २०५ समपरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम्
निष्काम्य यौन सुधर्मासभा, यौन कामुदिका भेरी, विद्यते तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य व मेघरसिता गम्भीरा मधुरशब्दा कौमुदिका भेरीं ताडयन्ति = वादयन्ति । तवः = तदनन्तर 'निद्धमहुरगभीरपडिए पित्र ' स्निग्यमधुरगम्भीर प्रतिश्रुतेनैव-स्निग्ध- हृदय हर्पजनक मधुर गम्भीर प्रतिश्रुत = प्रतिवनिर्यस्य स तथा तेनेत्र केन ? 'सारहरण' शारदिकेन शरत्कालसमुद्भूतेन वलाहएण पिव' बलाहके नेव= मेवेनेव ' अणुरसिय' अनुरसितम् अनुगर्जित भेर्या, शार दिकमेघगर्जितवद भेरीध्वनिर्जात इत्यर्थः ॥ सू०८ ॥
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मूलम् - तएण तीसे कोमुइयाए भेरियाए तालियाए समाणीए वारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडगतियचउक्कचच्चरकंदरदरी विवरकुहरगिरिसिहर नगरगोउरपासायदुवारभवणदेउलप डिसुयसयसहस्स संकुलं क्ररेमाणे वारवइ नयरि सभितर बाहिरिय सव्वओ समता से 'फिर वे कृष्ण वासुदेव के पास से चलदिये । (पडिनिक्खमित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी- तेणेव उवागच्छति ) चलकर वे उस सुधर्मा सभा में जहा वह कोमुदिक नामकी भेरी रखी हुई थी वहां गये (उवागच्छित्ता त मेघोघरसिय गभीरमहरसह कोमुदिय भेरिं तालेंति ) वहा जाकर उन्होंने उस मेघो के समूह जैसी सान्द्र गभीर मधुर शब्द वाली कौमुदिक भेरी को बजाया (तओ मिहुरगभीर पडि सुरण पिव सारइण बलाहएण पिव अणुरसिय भेरीए ) बजते ही उस भेरी की व्वनी शरत्कालीन मेघ की गर्जना के समान हुई । ॥सू -८॥
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मति" आज्ञा अर्या माह तेथे। ढष्णुनी पासेथी महार नीउज्या" " "पडिकिक्ख मित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेत्र कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति ” भने ત્યાથી તે સુધર્માં સભામા જ્યા કૌમુદ્રિક નામની ભેરી મૂકેલી હતી ત્યા ગયા " उत्रागच्छित्ता त मेघोघरसिय गभीर महूरसह कोमुदिय भेरि वाले ति " ત્યા જઈને તેમણે મેઘસમૂહના જેવી સાન્દ્ર ગભીર અને મધુર શબ્દવાળી प्रौभुहिङ लेरीने बगाडी “तओ द्विमहुरगभीर परिसुरण पित्र सारइण वाहण पिव अणुरखिय भेरीए " ते लेरीमाथी शरद ऋतुना भेधनी सजलीर सान्द्र નિ ચેામેર પ્રસરી ગયેસ્
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माताधर्मकपा सद्दे विप्पसरित्था । तएणं वारवईए नयरएि नवजोयणवित्थिन्नाए वारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दसदसारा जाव गणिया सहस्साई कोमुदियाए भेरीए सदं सोचा णिसम्म हतुट्ठ० जाव पहाया आविद्ध वग्धारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोकिन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एव गयगया रहसीया संदमाणीगया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसव. ग्गुरापरिक्खित्ता कण्हस्स वासुदेवस्त अंतियं पाउभवित्था ।
तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दसदसारे जाव अंतियं पाउब्भमाणे पासह, पासित्ता हतुटू जाव कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ,सदावित्ता एव वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । चाउरंगिणी सेणं सजेह, विजय च गधहत्थिं उवहवेह । ते वि तहत्ति उवहवेंति, जाव पज्जुवासंति ॥सू०९॥ ___टीका-' तरण तीसे ' इत्यादि । ततः खलु तस्यां कौमुदिकाया भेया ताडिताया सत्या द्वारावत्या नगर्या नवयोजनविस्तीर्णाया द्वादशयोजनायामाया 'सिंघाडगतियचउकचच्चर 'कदरदरीविवरकुहरगिरिसिहरनगरगोउर पासाय दुवार
तएणं तीसे कोमुइयाए ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (तीसे को मुइयाए) उस कौमुदी (भेरियाए तालियाए समाणीयाए) भेरी के बजने पर (वारवहए नयरीए नवजोजन वित्थिनाए) द्वारावती नगरी के कि जो नव ९ योजन विस्तीर्ण (चौडी) तथा (दुवालसजोयणायामाए)१२ बारह योजन लबी थी-(सिंघाडगतिय चउफ चच्चरकददरीविवरकुहरगिरिसिहरनगरगोउरपासायदुवारंभ
" त एण तीसे कोमुइयाए " 'त्या ॥ .
साथ-"तएण" त्या२ मा " तीसे कोमुइयाए" a मुही " भेरियाए तालियाए समाणी" aशन " 'वारवइए' नयरीए नरजोजन विस्थिन्नाए "'नप योसन विस्तार' पामेली तेभ " दुवालमजोयणाएं ""भार यान सामी "सिधाडगतियटक्कचच्चरकंदरदरीविवरकुहरगिरिबिहरनगरगोउरमामायदुवारमवण
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मनगारधर्मामृतमपिंगी टीका म०५ समवसरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् २१ भवणदेउल्पडिमुयसयसहस्ससकुल' शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरकन्दरादरीविवरकुदरगिरिशिखरनगरगोपुरमासादद्वारभवनदेवकुलपतिश्रुतशतसहस्रसकुला शृङ्गाकादि देवकुलान्ताः शब्दाः प्रसिद्धाः, तेपु प्रतिश्रुताना प्रतिवनीना यानि शतमहस्राणि तैः सकुला = परिपूर्णा ता तथाविधा कुर्वन् द्वारावती नगरी 'सभितरवाहिरिय' साम्यन्तरमाद्या सर्वतः समन्तात् स शन्दा भेरी शब्दः 'विप्पसरित्या ' विपास-विशेषेण प्रसृतः । ___ततः खलु द्वारावत्या नगर्या नवयोजनविस्तीर्णाया द्वादशयोजनयामाया समुद्रविजयपमुखा दशवशाही-यावत गणिकासहस्राणि अत्र यावच्छन्दादयमर्योऽवगम्यते-बलदेवप्रमुखा पञ्च महावीराः, उग्रसेनादयः पोडशसहसममिता राजान सात्रिकोटिसख्यका यादवकुमाराः, पप्टिसहस्रसख्यकाः शाम्बादयो दुर्दान्ताः, वरिसेनममुखा एकविंशति सहस्रममिवावीराः, महानलसेनादयः पट्पञ्चाशत् सहसममाणा बलवन्तः, तथा-रुक्मिणीप्रमुग्वा द्वात्रिंशत्सहस्रपरिमितामहिला अननसेनादयोऽनेकसहस्रमख्यका वाराङ्गनाश्चेति । कौमुदीकायामेर्याः शब्द श्रुत्वा वण देउलपडिसुयसयसहस्ससकुल करे माणे चारवइ नयरिं सभितरपारिरिय सचओ समता से सद्दे विप्पसरित्या) शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कदरा, दरी, विवर, कुहर, गिरीशिखर, नगर, गोपुर, मसाददार, भवन, देवकुल, इन सय स्थानों में लाखों प्रति ध्वनियां उठी उन लाखों प्रति-वनियों से उस द्वारावती नगरी को भीतर पाहिर सय प्रकार से सब तरफ से परिपूर्ण करता हुआ वह भेरी का
शब्द बहुत जल्दी इधर उधर फैल गया। (तएण वारवईए नयरीए नव 'जोयणवित्थिनाए यारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दसदसारा जाव गणियासहस्साइ कोमुदियाए भेरीए सद्द सोच्चा निसम्म हट्ट तुट्ट जावण्हाया) इस के याद ९ नव योजन चौड़ी और १२ घारह योजन लवी उस द्वारावती नगरी में समुद्रविजय आदि दश दशाहों देउलपडिसुयसयसहस्ससकुल करेमाणे पारवइ नयरि सन्भि तरवाहिरिय सव्वओ समता से सद्दे विप्पसरित्या " द्वारावती नगीना श्रृगाट ४ि, यतु, यत्प२, ४६२२,श विष२, १७२, ARशिभर, नगर, गापुर, प्रासाह દ્વાર, ભવને દેવકુળ આ બધા સ્થાનમાં લાખ પડઘા પડયા ભેરીનો - વનિ સેકડા પડઘાઓથી દ્વારાવતી નગરીની અદર બહાર મેર પૂર્ણ રૂપે प्रसशन मधे व्यास थई गये। “तरण वारवईए नयरीए नव जोयणवित्थिन्नाए पारसजोयणायामाए समुवीजयपामोक्खा दसदसारा जार गणियासह स्माइ कोम दियाए भेरीए सद्द सोच्चा निसम्म हटु तुद्ध जाव होया " त्या२ मा निष જન પહોળી અને બાર એજન લાબી દ્વારાવતી નગરીમા સમુદ્ર વિજય
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माताधर्मका निशम्य = हृदयेऽवधार्य हृष्टास्तृष्टा यावत् स्नाताः 'आविद्धवाग्घा रियमलदामक लावा ' आविद्धवग्वारियमाल्यदामा लापा आविद्धः परिघृत 'वन्धारियमल्कदा मकलावा' प्रलम्बित पुप्पमाल्यमुक्तादि हाराणा क्लापो येस्तै मलम्बित पुष्पमाला मुक्तादि हारधारिण इत्यर्थः । ' बग्घारिय' इति देशीशब्दः प्ररम्वितार्थकः । अह तवत्थच दणो किन्नगायसरीरा अहतवस्त्रचन्दनोत्लिन्नगानशरीरा - अहतत्रस्राणि चन्दनोत्लिन्नगात्राणि येषु तानि तथाभूतानि शरीराणि येषा ते तेषा शरीराणि नूतनवसनयुक्तानि चन्दनानुलिप्तावयवकानि आसन्नित्यर्थ । नूतनवसन चन्दनानुलेपधारिण इति यावत् । अप्येकके अप्येके = केचन हयगताः अश्वारूढाः एव = एके
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यावत् गणिका साहस्र ने भेरी के शब्द को सुनकर और उसे हृदय में अवधारित कर बहुत ही अधिक हर्प से एव सतोष से युक्त हो स्नान किया - स्नान कर ( आविद्धवग्धारियदामकलावा) उन्हों ने लबी २ पुष्प मालाओ से युक्त मुक्तादि हारो को पहिरा " वग्धारिय " शब्द प्रलस्थित अर्थ का वाचक देशीय शब्द है । (अहतवत्य चदणोकिनगायसरीरा ) नवीन २ वस्त्रों से एव चदन के लेप से शरीर को सज्जित किया । जाव गणिया सहस्साइ " में जो ( यावत् ) पद आया है - वह इस बात को कहता है कि समुद्र विजय आदि दश दशाहों के साथ ." ( बलदेव प्रमुख, पाचमहावीरो ने उग्रसेन आदि १६ सोलह हजार राजाओने, ३॥ सढे तीन करोड यदव कुमारोने, ६० साठ हजार दुर्दान्त शाम्बादिकोंना २१ इक्कीस हजार वीरसेन प्रमुख वीरों ने, ५६ छप्पन हजार बलवत -महासेनदिकोने तथा रुक्मिणी- ममुख ३२ बत्तीस हजार महिलाओंने
"
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વગેરે દશ નૃશાહુએ અને ગણિકા સાહસોએ બેરીના અવાજ સાભળીને અને તેને હૃદયમા અવધારિત કરીને બહુજ હુ તેમજ સતેાષ યુક્ત થઈને સ્નાન , स्तान पुरीले " आविद्धवग्धारियदामकलावा " તેમણે લાખી લાખી પુષ્પમાળાઓ વાળા મેતી વગેરેના હારા ધારણુ કર્યા -વાગ્યારિય, શબ્દ પ્રક્ષ स्ति ( सस्ती ), अर्थ सूभवतार देशी शब्द छे" अहतवत्थ दोकिनसरी નવા નવા વસ્ત્રો તેમજ ચક્રનના લેપથી પાતાના શરીરને तेमधे युगायु " जात्र गणिया सहरसाइ ।।" भा" यावत् शहछे, તે એમ સૂચવે છે કે સમુદ્રવિજય વગેરે દશ દશાની સાથે મળદેવ પ્રમુખ
""
4
પાચમહાવીરાએ, ઉગ્રસેન वगेरे सोज- हर शन्नो
सारा नलु, उरेरोड
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- યાદવ કુમારોએ, છ હજાર દુર્દન શાખાફ્રિકાએ એકવીસ
1 પ્રમુખ વીરાએ, છપ્પન હજાર મળવાન મહાસેન વગેરેએ તેમજ
હજાર વીરસેન રુકિમણી પ્રસુ ખ
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ખત્રીસ હુજાર મહિલાઓએ પણ તેમની જેમ યિ ત અને સતુષ્ટ થઈને સ્નાન
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भमगारधर्मामृतपिणो टीका अ०५ समवसरणे कृष्णगमनाविनिरूपणम् २३ केचिद् गजगताः गजारूढाः, रसीयासदमाणीगया' रथशिषिकास्यन्दमानीगता केचिद् स्थास्ढाः, केचित् ‘सदमाणीगया' स्यन्दमानीगताः स्यन्दमानी-पाल खीनाम्ना प्रसिद्धो यादनविशेषः, तामारूढाः, अप्ये के-केचित् पादविहारचौरेण 'पुरिसबग्गुरापरिखित्ता' पुरुपव गुरापरिक्षिसाः पुरुपन्देन युक्ताः सभूय कृष्णस्य वासुदेवस्यान्ति के प्रादुर्वभूवुः समागताः। ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः समुद्रविजयप्रमुखान् दशदशाहान् यावत् अन्तिक मादुर्भवतः समागतान पश्यति, दृष्ट्वा इष्टतुष्टोऽतिशयेन प्रमुदित कृष्णवासुदेव कौटुम्विक्पुरुपान शब्दयति शब्दयित्वा चैव वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीव-भो देवानुपिया ! क्षिप्रमेव शीघ्रमेव, चतुरङ्गिणी भी उनके जैसा ही हर्पित एव सतुष्ट हो सब कुछ किया। (अप्पेगइया त्य गया एव गयगया रहसिया संदमाणीगया) इनमें कितनेक घोडो पर बैठकर कितनेक हाथियोंपर धैठकर, कितनेक रथोंपर धैठकर क्तिनेका शिधिका, स्यन्दमनी-पालखी-पर बैठकर (अप्पेगइयापायविहरचारेण पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता) कितनेक अनेक पुस्पो से युक्त होकर पाद विहार चारीगण-पैदल ही (कण्हस्स वासुदेवम्स अतिय पाउन्भवित्था) कृष्ण वासुदेव के पास प्रादुर्भूत हुए-आ गये । (तएण से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोस्खे दस दसार जाव अतिय पाउन्भमाणे पासह) इस तरह जब उन कृष्ण वादेवने समुद्रविजय आदि दश दशाओं को यावत् अपने पास में प्रादुर्भूत हुआ देखा तो (पामित्ता) देखकर (हट्ट तुह जाव कोडुपियपुरिसे सहावेड) हर्षित हो यावत् कौटुम्भिक पुरुषों को बुलाया (सदावित्ता एव क्यासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा કર્યું, અને સ્નાન પછી પિતાના શરીરને વસ્ત્ર, લેપ તેમજ હાર વગેરેથી थी शशुभार्या अप्पेगइया हयगया एव गयगया रहसीया सदमणीगया" આમાથી કેટલાક ઘેડાઓ ઉપર સવાર થઈને કેટલાક હાથીઓ ઉપર બેસીને
मा २थामा मेसीन 32 शिमित, मने पलभीमा मेसीन “अप्पेगइया पायविहरचारेण पुरिसवग्गुरा परिक्खिता" मा भने भाभानी साथे पो याबीन “कण्हस्स वासुदेवस्स अतिय पाउन्भविन्या" ए पासुनी पामे १२ 21 “तएण से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोस्खे दुसरसार जाव अतिय पाउभमाणे पासइ " । रीते वासुदेव भभुद्रविलय गेरे ४२ शाई पोरे पोतानी पासे उपस्थित थयेा नया भने “ पासित्ता" नधन "हट्टतुट्ठ जाव कोडु बियपुरिसे सदावेह" इति थ/छे टुणि पुरुषाने मामाच्या "सद्दाविता एव वयासी" बारावीन तेभए मा प्रभार ४यु " खिप्पा
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माताधर्मकथा गजाश्वरथपदातियुक्तां सेना सज्जयत, विजय = विजयनामान च गन्धारितनम् 'उववेह ' उपस्थापयर-मप्टनादिना मुसजनीकृत्य स्मानयत । तेऽपि-कौडपिन पुरुषा अपि, कृष्णवासदेचाज्ञां श्रुत्वा ' तयाऽस्तु ' उत्युक्खा तथैवोपस्थापयन्ति-आनयन्ति, यावत् पर्युपासते ॥ सू० ९॥
मूलम्-थावच्चापुत्ते विणिगए जहा मेहे तहेव धम्म सोचा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायगण करेइ, जहा मेहरस तहा चंव णिवेयणा, जाहे नो सचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहि आघवणाहि य पन्नवणाहिय सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा ४ ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणमणुमन्नित्था।
तएण सा थावच्चा आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुटित्तामा हत्थ महग्ध महरिय रायरिह पाहुड गेण्हइ, गिणिहत्ता मित्त जाव सपरिवुडा जेणेव कर्णहस्स वासुदेवस्स भवणवरपडिदुवार(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। चाउरगिणी सेण सज्जेह) भो देवानुप्रियो। तुम लोग शीध्र ही चतुरगिणी सेना को सज्जित करो (विजय च गधहत्थि उवट्ठवेह) और विजय नाम के गध हस्ती को वेष भूषा से मडित कर उपस्थित करो (ते वि तहत्तिउवट्ठवेंति ) उन कौटुम्बिकपुरुषों ने भी कृष्ण वासुदेव की ओजा सुन (तथास्तु) ऐसा कहकर वैसा ही किया यावत् उनकी पर्युपासना की ॥ सू-९॥ मेव भो देवाणुप्पिया ! चउर गिणी सेणं सज्जेह " पानुप्रियो! तमे सत्पर यतुर नि सेना तैयार ४२। “ विजय प गधहत्यि उवट्ठवेह" भने विन्य नाम: १५ थान सु१२ वेषभा Aore शन उपस्थित ४। “ते वि तहत्ति उघटुवे ति जाव पज्जुवासति " ags पुरुषाये ४५ पासुनी भाशा સાભળીને (તથાસ્તુ ) આમ કહીને તેમની આજ્ઞા મુજમ કર્યું અને તેમની પર્યું પાસના કરી છે સૂત્ર ૯ !
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tantrधर्मामृnajit टीका २०५ स्थापत्यपुत्र निष्क्रमणम्
देसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पडिहारदेसिएर्ण मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरियं रायरिहं पाहु उवणे, उवणिन्ता एवं वयासी ॥ १० ॥
टीका' यावच्चापुते वि' इत्यादि । अथ स्थापत्यापुत्रोऽपि निर्गतः = भगवन्तमरिष्टनेमिं वदतु सगृहान्निःसृत इत्यर्थ । यथा मेघ = मेघकुमार, तथैव धर्म श्रुत्वा निशम्य यनैव स्वजननी स्थापत्या गाथापत्नी वर्तते, तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पादग्रहण करोति मातुचरणयो पततिस्मेत्यर्थः । यथा मेघस्य = मेघकुमारस्य मनज्यार्थ निवेदना प्रार्थनाऽभूत् तथैव स्थापत्यापुत्रस्य निवेदना मातुरन्तिकेऽभवदित्यर्थ ।
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"
थावचापुते विणिग्गए' इत्यादि ॥ टीका (धावा विणिग्गए) स्थापत्यापुत्र भी भगवान अरि-ष्टनेमि प्रभुके चढ़ना करनेके लिये अपने घरसे निकला (जहा मेहे तहेक धम्म सोच्चा णिसम्म जेणेव यावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छद्द, खवागच्छित्ता पायग्गहण करेइ, जहामेहस्स तहा चेव णिवेयणा ) जिस प्रकार मेघकुमार ने धर्म का श्रमण किया था उसी प्रकार स्थापत्या पुत्र ने प्रभु अरिष्टनेमी भगवान के पास धर्मोपदेश सुना और सुनकर जहा अपनी माता स्थापत्या गावापत्नी थी वहां गया । जाकर उसने उसके दोनो चरण पकड लिये उसके दोनो चरणो में वह गिर गयाओर जिस प्रकार प्रवृज्या के लिये मेघ कुमार ने प्रार्थना की थी उसी
" धावन्यापुते वि णिगाए " त्याहि ॥
टीजर्थ -- "थावच्चापुत्तचि णिग्गए" स्थापत्या पुत्र प लगवान अष्टिनेभिने वहन ४२वा भाटे पोताने घेरथी नीउज्यो “जहा मेहे तहेव धम्म सोच्चा णिसम्म जैन थावच्चा गाहाइणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पायगगहण करेइ, जहामेहस्स तहाचेव णिवेयणा" भेध हुमारे प्रेम धर्मनु श्रवश हेतु तेभन स्थापत्य પુત્રે પણ પ્રભુને અરિષ્ટનેમિ ભગવાનની પાસેથી ધર્મના ઉપદેશ સાભળ્યે અને સાભળ્યા પછી ત્યા તેની માતા સ્થાપત્યા ગાથા હતી ત્યા ગયા જઈને તેણે માતાના અને પગ પકડી લીધા તે તેના પગામા આળેાટી ગયા અને જેમ મેઘકુમારે પ્રથજ્યા માટે પેાતાના માતાપિતાને વિનંતી કરી હતી તેમજ તેણે પણ કરી
का ४
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शाता था यदा स्थापत्या गाथापत्नी स्वपुत्र 'नो संचाएइ 'नो शक्नोति अस्य 'आघवित्तए ' इत्यादिना सम्बन्धः । विपयानुलोमामि - विषयानुकलामि:
ििम्भश्च, तथाहि - विषयभोग एव मनुष्यलोके साराशस्तदर्थमेव सर्वे जनाः मवर्तन्ते उक्तश्च" यदि रामा यदि च रमा, यदि तनयो विनयधीगुणोपेतः ।
तनये तनयोत्पत्तिः, सुरवरनगरे किमाधिवयम् ॥१॥" तथा-विषयप्रतिकूलराभिः विषयाः = कामभोगास्तत्मतिकलास्तत्प्रतिषेधेन सद्भाविनस्तपः सयमास्तरसम्बन्धिनीमिः रक्षणया विषयमतिकरसम्बधिरूपोऽर्थे। प्रतियोध्यते । तपः सयमादिक खलु वालुका कवलवन्निरास्वादम् असिधारो परिगमनमिव सिक्थकदन्ताहमयचणकचर्वणमिवकरेण दीप्ताग्निशिखाग्रहणमिव मेरुगिरितोलनमिव सुदुप्फर भुजाग्या समुद्रतरणमिवातिदुपरमित्येव तपः सयमभयोद्वेगकारिणीभिर्वाग्भिरित्यर्थः । वहीभिराख्यापनाभि = बहुविधराख्यानः सामान्यतः कथनैश्च, प्रज्ञापनाभिः विशेषतः कथनैश्व, सज्ञापनाभि सपोधनाभिः प्रकार से इसने भि कि (जाहे णो सचाएइ विसयाणुलोमोहि य पडीकूलाहि य यहहिं आघवणाहिं य पन्नवणाहिं य सन्नवणाहिय विनवणाहि य आधवित्तएचा ४) स्थापत्या गाथापत्नी ने उसे विषयानुकूल तथा विषयों के प्रतिकूल आदि वचनों द्वारा खूब २ समझाया-परन्तु वह उन विषयानुकूल विषय प्रतिकूल अनेक विध आख्यानो द्वारा-सामान्य कथनो द्वारा-प्रज्ञापनाओ द्वारा विशेष कथनो द्वारा सज्ञापनाओं द्वारा -सबोधन पूर्वक कथनों द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा तुमही इस वृद्धावस्था में मेरे लिये आधार भूत हो इत्यादिरूप प्रेमसहित दीन वचनों द्वारा उसे सामान्यरूप से समझाने के लिये विशेष रूप से समझाने के लिये, विज्ञापित करने के लिये सज्ञापित करने के लिये समर्थ नहीं हुई
"जाहे णो सचाएइ बिसयाणुलोमाहि य पडिकूलाहिय, बहूहिं आयवणाहि य पन्न वणाहिय सन्नवणाहि य विन्नवणाहिय आधवित्तए वा" ४ स्थापत्य गाथा पत्नी પિતાના પુત્ર વિષયાનુકૂળ તેમજ વિષયને પ્રતિકૂળ એવી ઘણી વાત કહીને ખૂબ સમજાવ્યું, પણ તે વિષયાનુકૂળ વિષયપ્રતિકૂળ અનેક આખ્યાન વડે, સામાન્ય કથ વડે, પ્રજ્ઞાપનાઓ વડે, વિશેષ કથન વડે, સજ્ઞાપનાએ વડે, સાધન પૂર્વ કથ વડે, વિજ્ઞાપનાઓ વડે, (તમેજ આ ઘડપણમાં મારે આધાર છે ) વગેરે પ્રેમયુક્તદીન વચને વડે પોતાના પુત્રને તે સામાન્ય રૂપથી સમજાવવા માટે, વિશેષ રૂપથી સમજાવવા માટે, વિજ્ઞાપિત કરવાને માટે સજ્ઞાપિત કરવા માટે સમર્થ થઈ શકી નહિ એટલે કે આખ્યાન વગેરે ચાર જાતના
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मगारगो टीका ० ५ स्थापत्यापुनिष्क्रमणम् .२७ सवोध्य कथनैश्च, विज्ञापनाभिः त्वमेव ममास्या वृद्धावस्थायामाधारोऽसि अवल पनमसीत्यादि रूपेण सभेमदीनवचनेन पुनः पुनर्विज्ञप्तिपूर्वककथनैः, अत्र-विषया नुकूलाभिराल्यानादिरूपाभिश्चतुर्विधामिर्वाग्भिस्तथा विपयप्रतिकूलाभिराख्यानादिरूपाभिश्चतुर्विधाभि भिरिति भावः । 'आघवित्तए वा' ओख्यातु वा, प्रज्ञापयितु चा, विज्ञापयितु वा सशापयितु वा । यदा स्थापत्या स्वपुत्रमाख्यानादिभिः पतियोधयितु प्रत्रज्यातो निवर्तयितु न शक्नोति स्मेति सक्षिप्तार्थ । तदा सा 'अझामिया चेव' अकामिकै अनिच्छावत्येव स्थापत्यापुत्रस्य-स्थापत्यापुत्रनाम्नः स्वतनयस्य निक्खमणमणुमन्नित्था' निष्क्रमणमन्वमन्यत = अनिच्छया मनज्याग्रहणार्थमाज्ञा प्रदत्तवतीत्यर्थ ।
ततः तदनन्तर खलु सा स्थापत्यागाथापत्नी आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्यु. त्याय, ' महत्थ' महार्थ-महाप्रयोजनक, ' महग्ध ' महाघवहुमूल्यक, 'महरिह' महा-महता श्रेष्ठपुरुपाणा योग्य, 'रायरिह ' राजाई-राज्ञा योग्य, 'पाहुड' माभृतम्=उपहार — भेट ' इति भाषा प्रसिद्ध गृह्णाति, गृहीला मित्र-यावत् संपरिवृताम् अत्र यावच्छन्देन-ज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनैरित्यस्य सग्रहः यत्रैव अर्थात् आख्यान आदि चतुर्विधवचनों द्वारा जो कि विषयानुकूलता तथा विषयप्रतिकूलता के प्रदर्शक थे जब वह स्थापत्या गाथापत्नी उसे समझाने एव प्रव्रज्या से निवर्तिन करने के लिये असमर्थ हुई (तहे अकामित्ता चेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणमणुमनित्या) तब उसने विना इच्छा के ही स्थापत्यापुत्र को प्रवृज्या गृहण करनेकी आज्ञा दे दी (तएण सा थावच्चा आसणाओ अब्भुढेइ) बाद में वह स्थापत्या अपने आसन से स्थान से- उठी- (अभुट्टित्ता महत्थ महग्ध महरिह रायरिह पाहुण गेण्इ)उठकर उसने महार्थसाधक, श्रेष्ठ पुरूषों के, तथा राजा
ओं के योग्य बहुत कीमती- उपहार लिया- (गिमिहत्ता) लेकर वह (मित्तजाव सपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स) मित्र आदि परिजनों વચન દ્વારા કે જેઓ વિષયને અનુકુળ તેમજ વિષયને પ્રતિકૂળ હતા થાપ ત્ય પત્ની સમજાવીને પ્રજા લેતા પિતાના પુત્રને અટકાવવામાં સમર્થ થઈ Asी नल "तहे अकामित्ता चेव थावच्चा पुत्तरस निक्खमणमणुमन्नित्या" त्यारे તેણે ઈચ્છા ન હોવા છતા પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવાની તેને આજ્ઞા આપી स्यारे स्थापत्या पछी याताना मासनथी भी थ (अन्भुद्वित्ता महत्थ महम्घ महरिह रायरिह पाहुण गेण्हइ) ली ४२ मा साध, उत्तम ५३धान तमा मान योग्य मई भिती लेट सीधी (गिण्डित्ता) avna (मित्त व सपरिखुडा जेणेय कण्ड्स वासुदेवस्स) भित्र वगेरे नानी साये
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माता पार ___यदा स्थापत्या गाथापत्नी स्वपुत्र 'नो सचाएइ 'नो शक्नोति अस्य 'आघवित्तए' इत्यादिना सम्बन्धः । विषयानुलोमामि = विषयानुकलामि:
ग्भिश्च, तथाहि - विपरभोग एव मनुष्यलोके साराशस्तदर्थमेव सर्वे जनाः मवर्तन्ते उक्तश्च" यदि रामा यदि च रमा, यदि तनयो विनयधीगुणोपेतः ।।
तनये तनयोत्पत्तिः, सुरवरनगरे फिमाधिवयम् ॥ १॥" । तथा-विषयमतिकूतराभिः विषयाः = कामभोगास्तत्मतिकलास्त प्रतिषेधेन सद्भाविनस्तपः सयमास्तत्सम्बन्धिनीभिः लक्षणया विषयमतिकूर सम्बन्धिरूपोऽर्थः प्रतिवोध्यते । तपः सयमादिक खलु वालुका कवलवन्निरास्वादम् असिधारो परिगमनमिव सिक्थकदन्तैहिमयचणकचर्वणमिवकरेण दीप्ताग्निशिखाग्रहणमिव मेरुगिरितोलनमिव सुदुष्कर भुजाग्या समुद्रतरणमिवातिदुपरमित्येव तपः सयमभयोद्वेगकारिणीभिर्वाग्भिरित्यर्थः । वहीभिराख्यापनाभि = बहुविधैराख्यान: सामान्यतः कथनैश्च, प्रज्ञापनाभिः विशेषतः कथनैश्च, सज्ञापनाभि सयोधनाभिः प्रकार से इसने भि कि (जाहे णो सचाएइ विसयाणुलोमोहि य पडीकूलाहि य यहहिं आघवणाहिं य पनवणाहिं य सन्नवणाहिय विनवणाहि य आधवित्तएवा ४) स्थापत्या गाथापत्नी ने उसे विषयानुकूल तथा विषयों के प्रतिकूल आदि वचनों द्वारा खूब २ समझाया-परन्तु वह उन विषयानुकूल विषय प्रतिकूल अनेक विध आख्यानो द्वारा-सामान्य कथनो बारा-प्रज्ञापनाओ द्वारा विशेष कथनो द्वारा सज्ञापनाओं द्वारा -सयोधन पूर्वक कथनों द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा तुम ही इस वृद्धावस्था में मेरे लिये आधार भूत हो इत्यादिरूप प्रेमसहित दीन वचनो द्वारा उसे सामान्यरूप से समझाने के लिये विशेष रूप से समझाने के लिये, विज्ञापित करने के लिये सज्ञापित करने के लिये समर्थ नही हुई"जाहे णो सचाएइ बिसयाणुलोभाहि य पडिकूलाहिय, बहहिं आयवणाहि य पन्न वणाहिय सन्नवणाहि य घिन्नवणाहिय आधवित्तए वा" ४ स्थापत्य | पनी પિતાના પુત્ર વિષયાનુકૂળ તેમજ વિષને પ્રતિકૂળ એવી ઘણી વાત કહીને ખૂબ સમજાવ્યું, પણ તે વિષયાનુકૂળ વિષયપ્રતિકૂળ અનેક આખ્યા વડે, સામાન્ય કથને વડે, પ્રજ્ઞાપનાઓ વડે, વિશેષ કથ વડે, સજ્ઞાપનાઓ વડે, સાધન પૂર્વક કથન વડે, વિજ્ઞાપનાઓ વડે, (તમેજ આ ઘડપણમાં મારે આધાર છે) વગેરે પ્રેમયુક્તદીન વચને વડે પોતાના પુત્રને તે સામાન્ય રૂપથી સમજાવવા માટે વિશેષ રૂપથી સમજાવવા માટે, વિજ્ઞાપિત કરવાને માટે સજ્ઞાપિત કરવા માટે સમર્થ થઈ શકી નહિ એટલે કે આખ્યાન વગેરે ચાર જાતના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म०५ स्वाम्ि
मूलम् - एवं खलु देवाणुप्पिया । मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नाम दारए इट्टे जाव सेणं ससारभयउग्विग्गे इच्छइ, अरहओ अरिट्टनेमिस्स जाव पव्वइत्तए, अहण्ण निक्खमणसक्कारं करेमि, इच्छामि णं देवाप्पिया । थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउडचामराओ य विदिन्नाओ, तरणं कण्हे वासुदेवे थावच्चा गोहावइणीं एव वयासी
अच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिए सुनिव्वुया वीसत्था, अहण्ण सयमेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि, तएण से कहे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हस्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासीमाण तुमे देवापिया | मुंडे भविता पव्वयाहि, भुंजाहिणं देवाशुपिया । विउले माणुस्सर कामभोए मम बाहुच्छायापरिग्गहिए, केवल देवाप्पियस्स अह णो संचाएमि बाउकायं उवरिमेण गच्छमाणं निवारितए, अण्णे णं देवाशुप्पियस्स जे किंचिवि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति तं सव्व निवारो ॥११॥
टीका--' एव खलु' इत्यादि । एवम् = अमुना प्रकारेण, खलु निश्चये हे देवानुप्रिय ! ममेकः = एक एव पुत्रः स्थात्यापुत्रो नाम दारक अङ्गजात, इष्ट
'एस खलु देवाणुपिया' इत्यादि ।
टीकार्थ - (देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय । (एव खलु) मैं आप के पास इसलिये आई हूँ- कि ( मम एगे पुते यावच्चा पुत्ते नाम दारए) मेरा ( एस खलु देवाणुपिया इत्यादि ) 1
टीअर्थ - ( देवाणुन्यिया ! ) डे हेवानुप्रिय 1 ( एव सलु ) हु, आपनी यासे भेटला भाटे भावी छु-डे (मम एगे पुत्ते यावच्वा पुते नाम दारए) भारी स्था
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माताधर्मकथा कृष्णवासुदेवस्य 'भवणरपडिदुवारदेसमाए' भरनवरमतिद्वारदेशभागः भवन वरस्य मधानमासादस्य मतिद्वारं वृहद् द्वारा तरालवतिलघुद्वार तस्य देशमा गोऽस्ति, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सा प्रतीहारदेशितेन द्वारपालपदर्शितेन मार्गेण यनैव कृष्णवासुदेवस्तौवोपागच्छति, उपागत्य सा करतलपरिगृहीतदशनखा मस्तके अञ्जलिं कला जयेन विजयेन च वर्धापति, वर्धापयित्वा तन्महार्थ 'महाचं महाहै राजाई मामृतम् उपनयति-कृष्णनासुदेवस्याभिमुख स्थापयति, उपनीय = उपहार कृष्णवासुदेवस्याग्रे निधाय, एव पक्ष्यमाणमकारेण अवादीत् = उक्तवती ।। सू० १०॥ से युक्त होकर जहा कृष्ण वासुदेव के (भवणवरपडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ ) प्रधान प्रासाद का बडे दरवाजे अन्दर लघुदार का देश भाग था वहा गई (उवागच्छित्ता पडिहारदेसिएण मग्गेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छद ) वहा जाकर दारपाळ द्वारा प्रदर्शित मार्ग से होकर वह जहा कृष्ण वासुदेव थे वहा गई ( उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेइ ) वहा जाकर उसने दोनों हाथो को अजलि रूप में जोड़कर और उस मस्तक पर रख कर जय विजय शब्दो का उच्चारण करते हुए उन्हें वधाई दी (वद्धावित्ता त महत्थ महग्ध महरिह रायरिह पाहुड़ उवणेइ ) वधाई देकर उसने फिर महार्थसाधक महाध महतो योग्य एव राजाओं के लायक उस भेट को राजाके समक्ष रख दिया । (उर्वणित्ता एव क्यासी) रख कर फिर उनसे ऐसा कहा-सूत्र"१०" ge पावन (भवणवरपडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ) जय! प्रधान મહેલ ના મુખ્ય દરવાજાની અંદરના લઘુદ્વારને દેશ ભાગ હતું ત્યાં ગઈ (उयागच्छित्ता, पडिहारदेखिएण मग्गेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ) ત્યાં જઈને તે દ્વારપાલવડે બતાવવામાં આવેલા મર્ગથી જ્યા કૃષ્ણ વાસુદેવ तात्या 15 (मागच्छित्ता करयल० वद्धावेइ) त्याने तेथे पोवाना હાથને અજલીના આકારે બનાવીને તેમને જય વિજય શબ્દ બેલતા કૃષ્ણ चासुदेवन वधाच्या (पद्धावित्ता त महत्थ महग्य महरिह रायरिह पाहूड उवणे.) વધાવ્યા પછી સ્થાપત્યાએ મહાઈસાધક મહાઈ–મેટા માણસને એગ્ય
भने याने सायs an तेमनी सा भू (उवणित्ता एव वयासी) - મૂકીને તેણે તેમને કહ્યું છે સૂ-૧૦
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अमगारधामृतषिणी टीका ० ५ स्थापयापुटनिमम इति सम्बन्धः । अह खलु स्वयमेव स्थापत्यापुत्रस्य निष्क्रमण सत्कार करिष्यामि । ततः खलु स कृष्णवासुदेवश्चतरङ्गिण्या सेनया सह विजय-विजयनामान गन्धहस्तिरत्नं यस्य गन्ध समाघ्राय पलायन्ते गजाः परे । दूरूढ =समास्टः सन् यौव स्थापत्याया गाथापल्या भवन वर्तते तचापागच्छति, उपागत्य च स्थापत्यापुत्रम् एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादी-देवानुप्रिय ! त्व मुण्डो भूत्वा मा खल मनज, दीक्षाग्रहण मा कुरु इति समन्धः। हे देवानुप्रिय ! त्व खलु विपुलान् बहुतरान् मानुप्यान्-मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् = शब्दादिविपयानुभवान् गाहावाणी एव वयासी ) स्थापत्या गाथापत्नी की इस बात को सुनने के याद कृष्णवासुदेव ने स्थापत्यागाधापत्नी से इस प्रकार कहा(अच्छा ही ण तुम देवाणुप्पिए ! सुनिव्वुया वीसत्था, अहण्ण सयमेव थाचच्चापुत्तस्स निरखमणसक्कार करिस्सामि) हे देवानुप्रिये ! तुम इस विषय में निश्चिन्त होकर- स्वस्थ और विस्वस्थ होकर-घेठो, मैं स्वय स्थापत्या पुत्र का निष्क्रमण सत्कार करूँगा। (तरण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणीए सेणाए विजय रत्थिरयण दुरुढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ ) ऐसा कहने के बाद वे कृष्ण वासुदेव चतुरगिणी सेना के साथ विजय नामके हस्ति रत्न पर आरूढ हो कर जहा स्थापत्यागाथापत्नी का भवन था वहा गये । (उवागच्छित्ता थावचापुत्त एव वयासी) जाकर उन्होंने स्थापत्या पुत्र से इस प्रकार कहा- (माण तुमें देवाणुप्पिया! मुडे भवित्ता पव्वयाहि ) हे देवानुप्रिय ! तुम मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण मत करो गाहावइणी एव क्यासी) स्थापत्य गाथापत्नी भावात सामील व्यापासुदेवे स्थापत्या थापनाधु ( अच्छा ही ण तुम देवाणुप्पिए ! सुनिव्वुयो वीसत्था अहण्ण सयमेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणसक्कार करिस्सामि ) 3 દેવાનુપ્રિયે ! તમે આ વિષે નિશ્ચિત, સ્વસ્થ અને વિસ્વસ્થ રહો હું જાતે स्थापत्यापुत्रने निष्ठभए सव रीश (तएण से कण्हे वासुदेवे चार गिणीए सेणाए विजय हात्थिरयण दुरुढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव ૨વા ) ત્યાર પછી કૃષ્ણાવાસુદેવ ચતુર ગિણી સેનાની સાથે વિજ્યનામના ઉત્તમ હાથી ઉપર સવાર થઈ તે જ્યા સ્થાપત્યગાથાપનીનુ ભવન હતું ત્યા गया ( उवागाच्छित्ता थावच्चापुत्त एव वयासी) त्याने तेभर स्थापत्या पुत्रने मा प्रभाए ४धु-(माण तुमे देवाणुप्पिया ! भवित्ता पव्वयाहि) हवान प्रिय ! भुलित २ तमे दीक्षा वारे। नहि (मुजाहि ण देवाणुपिया !
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___ बाताधर्मकथा वल्लभः यावत् अत्र यावच्छन्देनाय पाठोऽनुसन्धेयः कान्ता कमनीयः, मिया प्रोतिकारकः, मनोज्ञः = हृदयावस्थितः, उदुम्बरपुष्पदर्शनमिव दुर्लभः, वर्तते, स मम पुत्रः खलु ससारभयोद्विग्नः सन् इच्छति अर्हतोऽरिष्टनेमेः समीपे यावत् प्रवनितम् । अह खलु निष्क्रमणसत्कार दीक्षोत्सनं करोमि, हे देवानुपिय ! हे स्वामिन् ! अहमिच्छामि खलु स्थापत्यापुत्रस्य निकामनः = दीक्षाग्रहण कुर्वतः छत्रचामराणि-छत्रचामरमुकुटादीनि वितीर्णानि भवद्धिः प्रदत्तानि भनन्तु इति, अहमेतदर्थ भरवां समीपे समागता यन् वा छत्रचामरादीनि भान्तो वितरन्तु इति भावः।
तत खलु कृष्णवासुदेवः स्थापत्यागाथापलीमेवमयादीत् । हे देवानुप्रिये ! त्व खलु मुनिर्वृता-स्वस्था, विस्वस्था-विशेषतः स्वस्था, सुधीरा, आस्व-तिष्ठ, एक ही अङ्गजात स्थापत्य पुत्र नाम का पुत्र है। यह (इहे जाव सेण ससारभयउव्विग्गे) मुझे यल्लभ हैं । यावत् शब्द से इस पाठ का यहा सग्रह हुआ है- वह बहुत अधिक कमनीय है प्रीतिकारक है,मनोज्ञ है, मेरे हृदय में स्थान किये हुए है । और उदम्बर पुष्प के दर्शन के समान दुर्लभ है। वह मेरा पुत्र ससारभय से उद्विग्न होकर ( इच्छा अरहओ अरिट्टनेमिस्स जाव पव्वइत्तए) अहत अरिष्ट नेमि प्रभु के पास दीक्षित होना चाहता है (अण्ण निक्खमणसरकार करेमि, इच्छामिण देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तम उडचामराओ य वि दिनाओ) सो मै उसका दीक्षोत्सव करना चाहती है। इसलिये हे देवानुप्रिय ! मै आपसे यह चाहती हैं कि आप मुझे उस निमित्त-निष्क्रमण स्थापत्य पुत्र की दीक्षोत्सव के निमित्त छत्र, चामर और मुकुट आदि दे देवें। (तएण कण्हे वासुदेवे थावच्चा पत्यापुत्र नामे मेनो मे पुत्र छ त (इट्रे जाव सेण ससार भय उविग्गे) મને પ્રિય છે. અહીં (યાવતુ) શબ્દથી આપાઠને સ ગ્રહ થયે છે-તે ખૂબજ કમનીય (ઈચ્છવાયેગ્ય) છે, પ્રીતિકારક છે, મનોજ્ઞ છે, મારા હૃદયમાં તે સ્થાન પામેલ છે તેમજ ઉમરડાના પુષ્પના દર્શનની જેમ તે દુર્લભ છે તે ससार लयथा व्या ४ (इच्छद अरहओ अरिद्वनेमिस्स जाव पव्वइत्तए) मत मरिटनम प्रभुथी दीक्षित थवा या छ (अहण्ण निक्समणसक्कार करेमि, इच्छामि ण देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत मउडचाम राओ य विदिन्नओ)हुतना दीक्षाने उत्सव Gram छ छु मेरा भाटेर દેવાનુપ્રિય ! આપ મને તે ઉત્સવ નિમિત્ત નિષ્કમણ-સ્થાપત્યા પુત્રના દીલોત્સવ भाट ७२ याभर भने ३८ वगैरे भाप (वरण कण्हे वासुदेवे थावचा
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०" स्थापत्यापुननिष्क्रमणम् ३६
मृल्म्-तएण से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेण एवं वुत्ते समाणे कण्ह वासुदेव एव व्यासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया। मम जीवियतकरण मच्चु एज्जमाण निवारेसि जर वा सरीरस्वविणासिणि सरीर वा अइवयमाण निवारेसि, तएण अह तव वाहुच्छाया परिग्गहिए विउल माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे विहरामि ॥ सू० १३॥
टीका-'तएण से याचापुत्ते' इत्यादि । तत खलु स स्थापत्यापुत्र. कृष्णयासुदेवेनर मुक्तः सन् कृष्ण वासुदेवमेवमयादीत्-हे देवानुप्रिय ! यदि खल व मम " जीवियतकरण " जीवितान्तरण जीवन विनाशकारक, ‘मच्चु मृत्यु-मरणदुःख, 'एज्जमाण' एनमानन् आगच्छन्त, निवारयसि, 'जर वा' कारण इस का यह है कि मेरे राज्य में तुम्हें कुछ भी कष्ट नहीं होगा। में सदा तुम्हारी सहायता करता रगा। क्यों व्यर्थ में परम कष्ट साध्य दीक्षा ग्रहण करते हो-छोडो इसे । सत्र “११"
'तएण से थावाचापुत्ते कण्हे ण इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से यायच्चापुत्ते कण्हे ण वासुदेवेण) कृष्णवासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहे गये उस स्थापत्यपुत्र ने ( कण्ह वासुदेव एक बयासी) कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-(जहण तुम देवाणुप्पियो मम जीवियतकरणमच्चु एजमाण निवारेनि जर वा सरीरस्वविणासिणि मरीरवा अइवलमाण निवारेसि ) हे देवानुप्रिय ? यदि आपमेरे जीवन का अन्त करने वाली आते हुए मृत्यु को मुझ से दूर રાજ્યમાં રહેતા તમને કઈ પણ જાતની તકલીફ થશે નહિ હમેશા હુ તમારી મદદ માટે પડખે ઉભેજી શુ કામ વ્યર્થ નષ્ટ સાવ્ય-કડે–દીક્ષા ગ્રહણ કરવા रोया था छ। छडी मासपने। सूत्र “१३ "
(तरण से थावच्चापुत्ते कण्हेण इत्यादि )। ___साथ-(a um) त्या पछी (से यावच्चापुत्ते कण्हेण वासुदेवण) पासुहेव ५३मा गते उपायेखा स्थापत्या पुत्रे, (कण्ह वासुदेव एव वयासी) एy पासुदेवने मा प्रमाणे घु-( जण तुम देवाणुप्पिया मम जीविय तकरणमन्च एज्जमाण निगारेसि जर वा मरीररूपविणासिणि सरीर वा अइवयमाण निवारेसि ) हे पानुप्रिय ! ने तमे भा॥ ०१न नेनाश २ना भृत्यु ते
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माताधर्मकथा मम वाहुच्छाया परिगृहीता याहुच्छायां समाश्रित सन् 'भुजाहि' मुख, भासेवस्व पुन पुनर्विषयाचादरखेन विहरन गृहे तिप्ठेत्यर्थः । केवल तब देवा
प्रियरयाह नो श्वनोमि वायफायमुपरितो परत निवारयितम , वायुग्पर्शष्यतिरेकेण प्रतिकूलतया तव शरीरस्य स्पर्शने कोऽपि समर्थी नास्तीति भाव ।अन्य' खलु देवानुप्रियस्य यत् किंचिदपि आवाधी वा ईपत् पीडा वा व्यावायां वा विशेपपीडा वा उत्पादयति, तत्सर्व निवारयिष्यामीत्यर्थः । मम राज्ये तन किमपि दुख नो भविष्यति, साहाय्य ते परिप्यामि, अल परमकप्टसाध्येन दीक्षा ग्रहणेनेति भाव ॥ मू-१२॥
(-भुजाहि ण देवाणुप्पिया! विउले माणुस्सए कामभोग मम पाहुन्छाया परिग्गरिए) हे देवानप्रिय । मेरी चारच्छाया में रहते हुए तुम तो विपुल मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगो को भोगो। ( केवल देवाणुप्पि. यस्स अह णो सचाएमि वायुकाय उवरिमेण गच्छमाण निवारित्त) हे देवानुप्रिय ! प्रतिकल होकर तुम्हारे शरीर को मेरी छत्रच्छाया में रहते हुए कोई स्पर्श तक भी नहीं कर सकता है परन्तु वायुकाय को तुम्हारे ऊपर से जाते हए मुझ में रोकने की शक्ति नहीं है। अर्थात् वायु के सिवाय और किमी प्राणी में ऐसी शक्ति नहीं है जो मेरी छम्रच्छाया में रहे हुए तुम्हें विरुद्ध वन कर स्पर्श तक भी कर सके । ( अण्णे ण देवाणुप्पियस्स जे किंचि वि आवाह वा वाबाह वा उप्पाति त सच्च निवारेमि) वायकाय के सिवाय यदि कोई दूसरी व्यक्ति देवानुप्रिय तुम्हारे लिये थोड़ी सी भी किसी भी प्रकार की पीडा या विशेष पीड़ा उत्पन्न करेगा तो वह सब में निवारित करता रहूगा । विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छाया परिमाहिए) ३ वानुप्रिय ! भाश माहुरछाया मा २डता तमे मनुष्यसपना पुरण आम लोग लोगवा ( केवल देवाणुप्पियस्स अह णो सचाएमि वायुकाय उवरिमेण गच्छमाण निवारित्तए) હે દેવાનુપ્રિય ! મારી છત્ર છાયામાં રહેતા તમને પ્રતિકૂળ થઈને કઈ સ્પર્શવાની પણ હિમ્મત કરશે નહિ ફક્ત વાયુકાય કે જે તમારી ઉપર થઈને પસાર થાય છે–રેકવાની તાકાત મારામાં નથી એટલે કે પવન સિવાય બીજા કઈ પણ પ્રાણી ની એવી હિમ્મત નથી કે મારી છત્ર છાયામાં રહેતા, પ્રતિ पुण यन तभारे। स्पश पण शश? (अण्णे ण देवाणुप्पियस्म जे किं चि विआवाह वावावाह वा उप्पाएति त सव्व निवारेमि) वायुयना सिपाय लील વ્યક્તિ તમને થોડી કે વધારે પીડા આપશે તે તેને હું મટાડીશ મારા
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aritraraणी टीका २०५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम
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मृल्म्-तएण से थावच्चापुत्ते कण्हेण वासुदेवेण एव वुत्ते समाणे कण्ह वासुदेव एव व्यासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया। मम जीवितकरण मच्चु एज्जमाण निवारेसि जर वा सरीरस्वविणासिणि सरीर वा अइवयमाण निवारेसि, तएण अह तब बाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सर कामभोगे भुजमाणे विहरामि ॥ सू० १३ ॥
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टीका- 'तरण से यान्यापुत्ते ' इत्यादि । ततः खलु स स्थापत्यापुत्र' कृष्णवासुदेवेनैवमुक्तः सन् कृष्ण वासुदेवमेवमवादीत् - हे देवानुप्रिय ! यदि सलु त्वमम जीवितरण " जीवितान्तकरण जीवन विनाशकारक, ' मच्चु मृत्यु = मरणदु ख, 'एज्जमाण ' एनमानन = आगच्छन्त, निवारयसि, 'जर वा' कारण उस का यह है कि मेरे राज्य में तुम्हें कुछ भी कष्ट नही होगा । मैं सदा तुम्हारी सहायता करता रहूँगा। क्यों व्यर्थ मे परम कष्ट साध्य दीक्षा ग्रहण करते हो- छोडो इसे । सूत्र
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तएण से धान्यापुत्ते कहे पण इत्यादि ॥
टीकार्य - (तरण) इसके बाद (से यावच्चापुत्तं कण्हे ण वासुदेवेण ) कृष्णवासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहे गये उस स्थापत्यपुत्र ने ( कण्ह वासुदेव एव वयासी) कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा - ( जहण तुमं देवापियो मन जीवितकरणमच्चु एजमाण निवारेनि जर वा सरीरवचिणासिणि सरीरवा अइवलमाण निवारेमि ) हे देवानुप्रिय ? यदि आप मेरे जीवन का अन्तकरने वाली आते हुए मृत्यु को मुझ से दूर રાજ્યમા રહેતા તમને કે! પણ જાતની તકલીફ ચશે નહિ હમેશા હું તમારી મદદ માટે પડખે ઉભેાછુ નુ કામ વ્યર્થ કષ્ટ સાર્વ્ય-ડણુ દીક્ષા ગ્ર ુણુ કરવા તૈયાર થયા । ડી. આ લપને 1 सूत्र ૧૧ ( तएण से यावच्चापुत्ते कण्हेण इत्यादि ) ।
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""
राजर्थ - (त एण) त्याग पडी (से यावच्चापुत्ते कण्हेण वासुदेवेण ) ष्णुवासुदेव पडेगा जीते न्हेपामेला स्थापत्या पुत्रे, ( कण्ह वामुदेव एव वयासी ) प्यु वासुदेवने या प्रभाऐ उधु - ( जइण तुम देवाणुपिया मम जीविय तकरणमन्चू एज्जमान निनारेसि जर ना मरीररूननिणासिणि सरीर वा अइवयमाण नित्रारेसि ) हे हेवानप्रिय ! જો તમે મારા જીવન ને નાશ કરનાર મૃત્યુ તે
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ફેર
शाताधर्मकथासूत्रे
जरा वा वृद्धावस्था वा शरीररूपविनाशिनी, शरीर ना (वर्तमान शरीर ) 'अइव यमार्ण' अतिपत तम् = आत्मनः सकाशात् सर्वथा वियुज्यमान निवारयसि ततस्तदा खल अह तब बाहुच्छाया-परिगृहीतः भुजबलमाश्रितः सन् विपुलान् मानुष्यान् कामभोगान् भुञ्जानो विहरामि = गृहे वत्स्यामीत्यर्थः ।
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ससाराऽऽसक्तस्य जरामरणादि दुःखक्षयो न भवतीति संसारस्वरूपमिह सक्षेपेण निरूप्यते-आत्मकल्याणार्थी जनः खल्वेव विभावयति-
एतत् खलु ससारसुख तुच्छम् अस्मिन् ससारे कर्मवशवर्तिन प्राणिन केवल मरणाय जायन्ते, म्रियन्तेऽपि जननायैव यावन्तः कामभोगास्ते क्षणभङ्गुरा कर सकते हो तथा शरीर के स्वरूप को विनाश करनेवाली आती हुई जरावस्था को निवारण कर सकतें होवें या नियमत. आत्मा के साथ सर्वथा वियुज्यमान इस शरीर को आप रोक सकते होवें (तएण अह तव पाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सए कमभोगे भुजमाणे विहरामि) तो मैं आपकी भुजच्छाया का सहारालेकर विपुल मनुष्यभवसम्बधी कामभोगों को भोगता हुआ घर मे रह सकता हूँ । ससार में आसक्त हुए प्राणी के जरा मरण आदि के दुखो का क्षय नहीं होता है इसलिये ससार का स्वरूप सक्षेप से यहाँ निरूपित किया जाता है जो आत्मकल्याण के अर्धी मोक्षाभिलाषी जन होते हैं वे इस प्रकार से विचार करते है - यह सासारिक सुख तुच्छ है । इस ससार में कर्म वशवर्ती हुए प्राणी केवल मरण प्राप्त करने के लिये ही जन्मते हैं और जन्म धारण करने के लिये ही मरते है। जितने भी कामभोग
મારાથી દૂર કરી શકેા છે, તેમજ શરીરના સ્વરૂપને નષ્ટ કરનાર ઘડપણને મટાડી શકે છે, આત્માથી વિચેગ પામતા આ શરીરને તમે વિયુકત થવા નહિ દો तएण अह तब बाहुच्छाया परिभाहिए विउले माणुस्सर कामभोगे भुजमाणे विहरामि ) ते हुतभारी माहुभोनी छायामा रडीने पुण्डण मनुष्य ભવના કામભાગે। ભાગવતા ઘરમા જ રહી શકું તેમ છુ સ સારમા આસ ક્તિ રાખનાર પ્રાણીના જરા ( ઘડપણું ) મરણ વગેરે દુખે ને ક્ષય થતા નથી તેથી અહી ટ્રકમા સ સારના સ્વરૂપ વિષે ચર્ચા કરવામા આવે છે જે આત્મ કલ્યાણ ને જ ખનાર મેાક્ષાભિલાષી જન હેાય છે, તેઓ આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે. આ સ સારનુ સુખ નગણ્ય છે આ સસારમા ક વશ થઈને જીવ નારા પ્રાણીઓ ફક્ત મરણ પ્રાપ્ત કરવામાટે જ જન્મ પામે છે, અને જન્મ મેળવવા માટે જ મૃત્યુને ભેટે છે. સસાર ના જેટલા ફામ ભોગે છે તે
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अनगारधर्मामृतवपिणो टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् आस्रवरूपा विपदा पदानि सन्ति । लोरवर्तिनः सर्वेऽपि पदार्था सिकताकण वत् परस्परमसनद्धाः, तेपा भोगोऽपि जीवस्य पन्धनाय पुनः पुनर्मोहजननाय भवति । मोह खलु महागतस्तत्राज्ञानिनो जीवा निरर्थकमेव निपतन्ति । एतस्मिन् सखाभासे ससारे ममकः सम्पन्न । अज्ञानरजन्या विवेकदृष्टो मोहताया सत्यां पञ्चेन्द्रियत्रयो विंशति निपय तदीय शतद्वयाधिकचत्वारिंशद्विकाररूपास्तस्करा आत्मगुणरूपाणि धनान्यपहरन्ति । यथा पथिकेभ्यो न रोचते निर्जला भूमिस्तथा ममेद ससारमुख प्रमोदाय न प्रभवनि । यथा वा-शैलशिखरावस्थितपादपानां मूलानि वायुर्विशीर्णयति, तथोन्मूलयति भोगोऽपि जीवाना मनासि, यथा है-वे सव क्षणभगुर है तथा इमकेद्वारा ही जीव नवीन कर्मों का आ स्रव करता है इसलिये ये आस्रवरूप हे-विपदाओ के स्थानभूत है। इस लोक में जितने भी पदार्थ हैं वे सब चाल के कण के समान परस्पर में असरद्ध हैं। इनका भोग भी जीव के लिये नवीन नवीन कर्मों का यधदाता होती है और धार २ मोहका जनक होता है । मोह एक बड़ा भारी गर्त (खड्डा) है। इसमें आत्मज्ञान से रहितहुए प्राणी निरर्थक ही गिरते रहते हैं। इस असारससार में मेरा किस से क्या नाता है । अज्ञान रात्रि में विवेकदृष्टि के मोहाच्छादित होने पर पाचो इन्द्रियों के २३, विपय और इन विपयों के भी २४०, विकार रूप तस्कर (चौर) आत्म गुण रूप धन का अपहरण करते रहते है। जिस तरह पथिक जनों के लिये निर्जल भूमि नहीं रुचती है उसी प्रकार मुझे यह ससार सुख नहीं रुचता है । अथवा जैसे पर्वत की चोटी पर रहे हुए वृक्षो की जड़ों સર્વેક્ષણ ભાગુર છે, તેમજ એમના વડે જ જીવ કમેને આસવ (કર્મનું આત્મામ દાખલ થવુ) કરે છે એટલા માટે આ બધા આસ્રવરૂપ છે અને વિપત્તિઓનું સ્થાન છે. આ જગતમાં જેટલા પદાર્થો છે તેઓ સર્વે રેતીના કણાની જેમ પર સ્પર અસ બદ્ધ છે એમને ઉપભોગ પણ નવા નવા કર્મોના બંધનમાં પ્રાણીને ફસાવનાર છે તે વારવાર માહજનક હોય છે મેહ (અજ્ઞાન) જાને એક મેટે ખાટ (ગ) છે આત્મજ્ઞાન વગરના પ્રાણીઓ વ્યર્થ આમા પડ્યા કરે છે આ નિ ચાર જગતમાં મારે કોની સાથે કે સ બ ધ છે ? અજ્ઞાન રાત્રિમાં જ્યારે વિવેકની દષ્ટિ અજ્ઞાનથી ઢંકાઈ જાય છે ત્યારે પાશ ઈદ્રિના ત્રેવીના વિષયે અને આ વિષયના પu બસે ચાલીશ વિકાર રૂપી ચેર (તસ્કર) આત્મગુણ રૂપી ધન ને ચરતા રહે છે જેમ મુસાફરોને નિર્જળ પ્રદેશ ગમતું નથી તેમ જ મને પણ આ સમા સુખ સારુ લાગતુ નથી જેમ પર્વત પર રહેલા વૃક્ષોને શિખરે મૂળ પવન વિશtણું (છિન્નવિચ્છિન) કરી નાખે છે તેમજ સ સાર
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झाताधर्मकथागर जरा वा=वृद्धावस्था वा शरीररूपविनाशिनी, शरीर वा (वर्तमानशरीर) 'अइवयमाणे अतिपत तम्-आत्मनः सकाशात् सर्वथा वियुज्यमान निवारयसि, ततस्तदा खलु अह तव वाहुन्छाया-परिगृहीतः भुजवलमाश्रितः सन् विपुलान मानुष्यान कामभोगान् भुञ्जानो विहरामि-गृहे वत्स्यामीत्यर्थः । ___ससाराऽऽसक्तस्य जरामरणादि दुःखक्षयो न भवतीति संसारस्वरूपमिह सक्षेपेण निरूप्यते-आत्मकल्याणार्थी जनः खल्वे विभावयति--
एतत् खलु ससारसुख तुच्छम् ,अस्मिन् ससारे कर्मवशवर्तिन• प्राणिन केवल मरणाय जायन्ते, म्रियन्तेऽपि जननायैव, यावन्तः कामभोगास्ते क्षणभरा कर सकते हों तथा शरीर के स्वरूप को विनाश करनेवाली आती हुई जरावस्था को निवारण कर सकते हो। यो नियमत आत्मा के साथ सर्वथा वियुज्यमान इस शरीर को आप रोक सकते होवें (तएण अह तव पाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सए कमभोगे भुजमाणे विहरामि) तो मैं आपकी भुजच्छाया का सहारालेकर विपुल मनुष्यभवसम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ घर मे रह सकता हूँ। ससार में आसक्त हुए प्राणी के जरा मरण आदि के दुखो का क्षय नहीं होता है इसलिये ससार का स्वरूप सक्षेप से यहाँ निरूपित कियाजाता है जो ओत्मकल्याण के अर्थी मोक्षाभिलापी जन होते हैं वे इस प्रकार से विचार करते हैं-यह सासारिक सुख तुच्छ है। इस ससार में कर्म वशवर्ती हुए प्राणी केवल मरण प्राप्त करने के लिये ही जन्मते हैं और जन्म धारण करने के लिये ही मरते है। जितने भी कामभोग મારાથી દૂર કરી શકે છે, તેમજ શરીરના સ્વરૂપને નષ્ટ કરનાર ઘડપણને મટાડી શકે છે, આત્માથી વિગ પામતા આ શરીરને તમે વિયુકત થવા नहि (तएण अह तव बाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे विहरामि) हुतमारी मासानी छायामा २हीने गुण मनुष्य ભવના કામને ભેગવતા ઘરમાં જ રહી શકુ તેમ છુ સ સારમાં આસ પ્તિ રાખનાર પ્રાણના જરા (ઘડપણ) મરણ વગેરે દુખો ને ક્ષય થત નથી તેથી અહી ટ્રકમાં સસારના સ્વરૂપ વિષે ચર્ચા કરવામાં આવે છે જે આત્મ કલ્યાણ ને જ ખનાર મોક્ષાભિલાષી જ હોય છે, તેઓ આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે આ સંસારનું સુખ નગાય છે આ સંસારમાં કર્મ વશ થઈને જીવ નારા પ્રાણીઓ ફક્ત મરણ પ્રાપ્ત કરવામાટે જ જન્મ પામે છે, અને જન્મ મેળવવા માટે જ મૃત્યુને ભેટે છે સ સાર ના જેટલા કામ ભેગે છે તે
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રૂહ
अनगारी टीका १०५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
काष्ठ घुण उप मृत्युः शरीरमुत्वनति । मृत्युतक्षाः श्वासोच्छ्वासककचेन शरीरवृक्ष छिनति । मृत्यु सल रागद्वेपरिन्यालाव्याकुलतया तपाठे नाssधुयजल पिरति । यथा तैलयन्न विज्ञान निष्पीडयति, तथा मृत्यु. माणिना शरीराणि निष्पीय नाशयति । स लोकत्रयपर्तिनः प्राणिनः सोभयति । मृत्योपरा गमन मागेन पण्मासतः सुराणामपि कल्पतरुपुर परचितमाला मुकुलयति, चेतासि तेषां शोकसागरे निमज्जयति । मूर्द्धाभ्यकार पश्यन् मृत्युरूप उलूको घावन् समायाति ।
हिमानी मानानि जरा पञ्चेन्द्रियाणि विकृतानि कुवैती शिथिलयति । सा भक्षितविपत् तिमेन शरीर सहरति । भार्याऽपि जरावस्थ पुरुषम् -' अय
काटको घुन की तरह मृत्यु मेरे शरीर को धुना रही है । मृत्युरूपी बढई श्वासोच्छ्वासरूप आरे से इस शरीररूप वृक्ष को रात दिन कोट रहा है। यह मृत्यु रागद्वेपरूप विपकी ज्वाला से व्याकुल जैसी बना हुआ तृपा की तरह आयुरूपीजल को पी रहा है जैसे तेल यत्र - कोल्फ - तिलो कोपेल डालता है उसी प्रकार मृत्यु प्राणियोके शरीर को निष्पीडित कर डालता है। ऐसा तीन लोक मे कोई भी प्राणि नही है जो इस मृत्यु से क्षुभित न हो रहा हो । मृत्युके आगमन के छहमास के पहिले से देवताओ की भी कल्पवृक्षो के पुष्पों की रचित माला कुम्हला जाती है। उनका मन शोक सागर में इस कारण से इन जाता है। मच्छारूपी अधकार को देखकर मृत्युरूपी उलूक दौडता हुआ आ जाता है । हिम सतति (हिम समूह ) जिसतरह कमल बनो को विकृतकर शिथिलकर देती है उसी तरह जरावस्था भी पचेन्द्रियों को विकृत कर शिथिल कर ની જેમ મૃત્યુ મારા રારીશ્તે નષ્ટ કરી રહ્યા છે. મૃત્યુ રૂપી સુથાર શ્વાસે શ્વાસ રૂપી કન્વત વડે ગરીર રૂપી વૃક્ષને રાત દિવસ કાપી રહ્યો છે આ મૃત્યુ રાગદ્વેષ રૂપી વિષની જવાળા થી બાકુળ થઈને તરમ્યાની પેઠે આયુષ્ય જળને પી રહ્યુ છે જેમ વાણી તàાને પીલી નાખે છે તેમજ મૃત્યુ પ્રાણીઓના શકીશને નિષ્પ્રાણુ બનાવીને નષ્ટ કરીનાખે ત્રણે લેાકમા એવુ કોઈ પ્રાણી મને દેખાતુ નથી કે જે મૃત્યુથી ક્ષેાભ પામતુ ન હેાય મૃત્યુના છ મહિના પૂર્વે દેવાની પણ પ વૃક્ષના પુષ્પોની માળાએ ચીમળાઈ જાય છે તેમનુ મન ચોક સાગરમાં ડૂબી જાય છે. મૂર્છારૂપી અધારાને જોઈને મૃત્યુ રૂપી ઘુવડ દોડતા આવે છે ઝાકળા જેમ કમળ વાને નષ્ટ કરી નાખે છે, શિથિલ મનાવીદે ને તેમજ ઘડપણુ પાચ ઇન્દ્રિયને વિકૃત કરીને
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કુદ
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
पुरातनास्तर व स्फोटरस्थानलेन दद्यमाना अन्ते निपतन्ति तद्वदिह जीवाः कपायानलेन परितप्ता अशान्ता अन्ते नरकादो निपतन्ति । अहमपि समारदावा नलेन परितप्तान्तःकरणः कनापि विषयसुखे शान्ति न पश्यामि । समति मामकी नमन्तःकरणं जन्मजरामरणदुःखपापाणे परिपूर्ण वर्तते तस्मात् सानुमुक्तकण्ठ च रोदन कर्तुकामोऽपि न रोदिभि इमे हि स्वजना रुदन्त मामलोरोदिष्यन्ति । तस्मादसारेऽस्मिन् ससारे प्रवज्यैव मम शरणम् । अपर चैनमसौ मृत्युजरास्वभाव विभावयति -
को वायु विशीर्ण कर देती है उसी तरह सासारिक भोग भी जीवोंके मन को विशीर्ण करदिया करता है अपने कोटर में अवस्थित अग्नि से जैसे पुराने वृक्ष जलकर अन्त में जमीन पर गिर पडते है उसी तरह इस संसार में कषायरूपअग्निसे परितप्त होकर अशान्त हुए ये जीव भी अन्त में नरकादि दुर्गतियों में जाकर गिरजाते है। मै भी ससार दावानल से परितप्त अन्तःकरण होकर किसी भी चैपयिकसुख में शान्ति नही देख रहा हूँ । इस समय मेरा अन्त करण जन्म जरा और मरण के दुःख रूप पाषाणों से परिपूर्ण बना हुआ है । अतः में चाहता हूँ कि मे गला फाड २ कर खूब जोर से रोॐ परन्तु नही रो सकता हूँ । कारण ये मेरे पीछे लगे हुए जो जन है वे मुझे रोता देखकर रोने लग जायेंगे । इस लिये सार विहीन इस ससार मे कोई शर णभूत मेरे लिये है तो वह एक प्रव्रज्या ही है । नृत्यु और जरोके स्वभाव को यह आत्म कल्याणार्थी इस प्रकार से विचारता है
ના ભોગે પણ જીવાના મનને વશીણું (છણુ) કરી નાખે છે પેાતાની ખખાલમા સળગતા અગ્નિ જેમ જુના વૃક્ષાને ખાળીને છેવટે જમીન દોસ્ત કરી નાખે છે, તેમજ આ સસારમાં કષાય રૂપ અગ્નિમા સતપ્ત થઈને અશ ન્ત થયેલા જીવા પણુ અન્તે નરક વગેરે ફુગતિએમા જઈને પડે છે સસાર દાવાનળથી સ તા થયેલુ મારૂ મન કોઈ પશુ વિષય સુખમા શાતિ જૈતુ નથી અત્યારે મારૂ મન જન્મ જરા ( ઘડપણુ ) અને મરણના દુખ રૂપી પથ્થરોથી પરિપૂર્ણ થઇ ગયુ છે એથી મને તેા એમ થાય છે કે હુ માટેથી ભૂમ પાડી પાડીને ખૂ રડુ પણ મારાથી રડાતુ પણ નથી કેમકે મારા સ્વજના મને રડતા જોઇને પેાતે પશુ રડવા માડશે એટલે નિ સાર જગતમા મારા કોઇ આધાર છે તેા તે પ્રવજ્યા જ કહી શકાય મૃત્યુ અને ઘડપણની ભય કરતા વિષેને વિચાર તે સ્થાપત્યાપુત્ર કહે છે ઊપય
"साडामा
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भनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्कमणम् समाधिरूपः कल्पतरुरुत्पद्यते च । वैराग्यनलाऽऽगमनमार्गरूपानालिका तत्र सद्भावना । ज्ञानदर्शनरूपाणि तत्र पुष्पाणि, स्वर्गापवर्गरूपाणि फलानि । देवलोके यत् सुख, यच्च सिद्धावस्था प्राप्तस्थानन्तसुग्व, तदेव तत्फलरस', इति ॥ मु०१२ ॥ ___ मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेण एव वुत्तेसमाणे थावच्चापुत्तं एव क्यासी-एएण देवाणुप्पिया । दुरतिकामणिज्जा णो खलु सका सुवलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं, तएणं मे थावच्चापुत्ते कण्ह वासुदेव एव वयासी जइण एए दुरतिकमणिज्जा णो खल्लु सका जाव नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएण तइच्छामिणं देवाणुप्पिया। अन्नाणमिच्छत्त अविरइकसायसचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए ॥ सू० १३ ॥
टीका--'तएण से कण्हे ' इत्यादि । ततः तदनन्तर खलु स कृष्णवासु देवः स्थापत्यापुोणेवमुक्तः सन् स्थापत्यापुत्रम् एववक्ष्माणप्रकारेण अवादीत्समाधि रूप कल्पतरू उत्पन्न होता है और यढता है । वैराग्यरूप जल के आने के लिये मार्गरूप नाली के समान वहा सद्भावना है । ज्ञान रूप वहां पुष्प हैं। स्वर्ग एव अपवर्ग (मोक्ष रूप इसके फल है देवलोक में जो सुग्व है तथा सिद्धावस्था प्राप्त जीव को जो अनन्त सुग्व है वही सय इसके फलों का रम है । स० १२ ॥
'तण्ण से कण्हे वासुदेवे' इत्यादि ।। टीकार्थ-(तएण) इसके याद ( से कण्हे वासुदेवे उन कृष्ण वासुदेव ने (थावच्चापुत्तेण एव वुत्ते समाणे) स्थापत्या पुत्र के इस प्रकार कहने पर ( एव वयासी) उमसे ऐसा कहा-(एएण देवाणुप्पिया ! જળના સિંચનથી સમાધિરૂપી કલ્પતરુ ઉત્પન્ન થાય છે અને વધે છે વૈરાગ્યરૂપી પાણીને લાવવામાટે સભાવનારૂપી નાળી છે જ્ઞાન દર્શન જ ત્યાં પુષ્પ છે દેવલોકમાનું સુખ તેમજ સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત જીવને જે અન ત સુખ છે તેજ આ બધા ફળને રસ છે સૂત્ર ૧૨ |
(तएण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥)
साथ-(तएण ) या२ पछी (से कण्हे वासुदेवे) वासुदे (थावच्चा पण जे णे) स्थापत्या पुत्रनी मा पात सासनीन (एव वयासी)
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माताधर्मकथा मुष्ट्र' इति मन्यते, पुत्रादयोऽपि नाद्रियन्ते । जराज्याला-श्वासकासधूमैनर्जीव व्याकुलयन्ती यस्मिन् शरीरे मज्वलति, तद भस्मसाद रोति । जरा खलु सर्गाप दामास्पद मालानलशिखेव सफल मुखमनोरथ पिनाशिनी । अठमधिकेन मृत्यु जरादि ससारस्वभावचिन्तनेन । मृत्युगरानलपतप्तस्य मम निष्क्रमणमेव शरण
भविष्यति, यत:___ससारमहारण्ये मनुष्यदेहः खलु समाधिरूपस्य कल्पतरो क्षेत्रम् । तच्च विशिष्ट पुण्यपुञ्जरूपहलेन कृष्टम् । निष्क्रमण तस्य वृक्षस्य बीजम् । वैराग्यजलाभिषेकेण डालता है। भक्षित विप की तरह तुरत ही शरीर को नष्ट कर देती है भार्या भी जरावस्थापनपुरूप को " यह उष्ट्र है " ऐसा मानने लगती है। पुत्रादिक उसका अपमान करने लगजाते है । वे इसका जरा भी सन्मान नहीं करते। यह जरारूपी ज्वाला श्वास कासरूपी धूम से जीव को व्याकुल करती हुई जिस शरीर मे प्रज्वलित होजाती है उसे भस्मसात ही कर डालती है। यह जरावस्था समस्त आपत्तियो का एक स्थान है। प्रबल अग्नि की ज्वाला के समान समस्त सुखों के मनोरथो को नाश करने वाली है। मृत्यु, जरा, आदि रूप ससार के स्वाभाव के चिन्तवन से अब यस रहो । मृत्यु तथा जरा रूप वहि की शिखा से प्रतप्त हुए मुझे तो अब निष्क्रमण (दीक्षा) ही एक शरण भूत होगा। कारण ससाररूप इस गहनवन मे यह मनुष्य देह समाधि रूप करपवृक्ष का क्षेत्र है । यह विशिष्ट पुण्य पुजरूप हल से जोता गया है। निष्क मण ( दीक्षा) उस वृक्ष का बीज है वैराग्यरूप जल के सिंचन से શિથિલ કરી નાખે છે ખાધેલા વિષની જેમ તે શરીરને જરદી નઈ કરે છે પત્ની પણ ઘરડા પુરુષને “આ ઉટ છે એમ માને છે પુત્ર વગેરે પણ તેમને તિરસ્કારે છે તેઓ પણ તેમનું સન્માન કરતા નથી આ ઘડપણની જવાળા શ્વાસ, કાસરૂપી ધુમાડાથી જીવને વ્યાકળ કરીને જે રીરમાં સળગી ઉઠે છે તેને ભસ્મીભૂત કરી નાખે છે ઘડપણ બધી આફતનું એકમાત્ર સ્થાન છે વિકરાળ અગ્નિની જવાળાઓની પિઠે બધા સુખને તેમજ મારા મૃત્યુ નાશ કરનારુ છે મૃત્યુ ઘડપણુ વગેરે ના સ્વભાવ વાળા આ જગત વિષે મારે હવે કઈ વિચાર કરે નથી મૃત્યુ તેમજ ઘડપણ રૂપી અગ્નિની જવાળાઓથી સતત થયેલા મારા માટે હવે નિષ્કમણ એટલે કે - દીક્ષાગ્રહણ કરવી-જ શરણું ભૂત થશે કેમકે સ સારરૂપી ભયકર વનમાં આ મનુષ્ય નારીર સમાધિ રૂપી કટપવૃક્ષનુ ક્ષેત્ર છે. આ વિશિષ્ટ પ્રકારના ઉત્તમ પુષ્પરૂની હળથી ખેડવામાં આવ્યું છે નિષ્ક્રમણ (દીક્ષા) તે વૃક્ષનું ( કલ્પવૃક્ષનું ) બી છે વેરાગ્યરૂપી
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भनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० ५ स्यापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
३९
समाधिरूपः कल्पतरुरुत्पद्यते च । वैराग्यजलाssगमनमार्गरूपा नालिका तत्र सद्भा वना | ज्ञानदर्शनरूपाणि तत्र पुष्पाणि, स्वर्गापवर्गरूपाणि फलानि । देवलोके यत् सुख, यच्च सिद्धावस्थां प्राप्तस्थानन्तसुख, तदेव तत्फलरस', इति ॥ ०१२ ॥ मूलम् - तणं से कहे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एव वत्तेसमाणे थावच्चापुत्त एव वयासी- एएण देवाणुप्पिया । दुरतिकमणिजा णो खलु सक्का सुचलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए नत्थ अपणो कम्मrखएणं, तरणं मे थावच्चापुत्ते कण्ह वासुदेव एव वयासी जइण एए दुरतिकमणिजा णो खलु सक्का जाव नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणत इच्छामिणं देवाणुप्पिया । अन्नाणमिच्छत्त अविरइकसायसचियस्स अत्तणो कम्मक्खय करितए | सू० १३ ॥
टीका- 'तएण से कहे ' इत्यादि । ततः = तदनन्तर खलु स कृष्णवासु देव' स्थापत्यापुत्रेणेनमुक्तः सन् स्थापत्यात्रम् एव = वक्ष्माणमकारेण अवादीत्समाधि रूप कल्पतरू उत्पन्न होता है और बढता है । वैराग्यरूप जल के आने के लिये मार्गरूप नाली के समान वहा सद्भावना है। ज्ञान रूप वहां पुष्प हैं । स्वर्ग एव अपवर्ग (मोक्ष रूप इसके फल है देवलोक में जो सुग्व है तथा सिद्धावस्था प्राप्त जीव को जो अनन्त सुख है वही सब इसके फलों का रस है । सृ० १२ ॥
तण्ण से कहे वासुदेवे ' इत्यादि ।
टीकार्य - (तरण) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे उन कृष्ण वासुदेव ने ( थावच्चापुत्त्रेण एव वृत्ते समाणे ) स्थापत्या पुत्र के इस प्रकार कहने पर ( एव वयासी) उमसे ऐसा कहा - ( एएण देवाणुपिया ! જળના મિંચનથી મમાધિરૂપી કલ્પતરુ ઉત્પન્ન થાય છે અને વધે છે. વૈરાગ્યરૂપી પાણીને લાવવામાટે સદ્ભાવનાએરૂપી નાળી છે જ્ઞાન દર્શન જ ત્યા પુષ્પ છે દેવલાકમાનુ સુખ તેમજ સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત જીવને જે અન ત સુખ છે તેજ मागधा इन रस छे | सूत्र १२ ॥
( तपण से कण्छे वासुदेवे इत्यादि । )
टीडार्थ – ( तएण ) त्यार पछी (से कण्हे वासुदेवे) कृष्णु वामुदेवे ( थावच्चा पुतेण एव कुत्ते समाणे ) स्थापत्या पुत्रनी या वात भालजीने ( एव वयासी )
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माताधर्मत्र याङ्गसूत्रे
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हे देवानुप्रिय ! एते मृत्युजरादयः खलु दुरतिक्रमणीयाः = दुःपरिहरणीया, दुर्नि वारा इत्यर्थ' । एयमेवार्थ स्पष्टीकर्ताह' णो खलु सवरा इत्यादि । नो खल शक्या सुबलि केन अनन्तपल्पता देवेन = तीर्थकरेणाऽपि यद्वा-महावलवता केनापि देवेन दानवेन या निवारयितु निवर्तयितु नो खलु शक्याः, मृत्युजरादय इत्यन्वयः । देवो नादानत्रो वा मृत्युजरादीन रिपून् वारयितु समये नास्तीत्यर्थः । नान्यात्मन कर्मक्षयेण आत्मसचितमार्गक्षय विनाऽन्योपायेन मृत्युजरादि परिहारो नैव भविष्यतीति भावः ।
1
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I
ततः सलुस स्थापत्यापुत्रः कृष्णवासुदेवमेवमवादीत् यदि खलु एते दुर तिक्रमणीया नो खलु शक्या' - यावत् - यावत्करणादन - ' सुरलिकेन देवेन दानदुरतिकमणिजा णो खलु सक्का सुवलिएणानि देवेण वा दाणवेण वा निवारित णन्नत्य अपणो कम्मस्वण्ण) हे देवानुप्रिय ! ये मृत्यु जरा आदि दुरतिक्रमणीय है दु' परिहरणीय हैं। इसका निवारण करना ससारावस्था जीव के लिये सर्वथा अशक्य है । इसी अर्थ को सूत्रकार स्पष्ट करते हुए कह रहे है कि सुलिक अनन्त बल के स्वामी तीर्थंकर देव भी अथवा महाबलवान कोई भी देव था दानव इन मृत्यु जरा आदि को को निवारण करने के लिये सामर्थ्य शाली नहीं हो सके हैं । केवल आत्म सचित सकल कर्मों का क्षय ही एक ऐसा उपाय है। जो इनका निवारण कर सकता है । इनके सिवाय और कोई दूसरा उपाय नही है । (तरण से यावच्चापुत्ते कण्ह वासुदेव एव वयासी ) कृष्ण वासुदेव की इस बात को सुनकर स्थापत्यापुत्र ने तब उन से इस प्रकार कहा - ( जण एए दुरतिकमणिजा णो खलु सका जाव न(एए ण देवाणुपिया । दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का सुबलि एणा वि देवेण वा दाणवेण वा णिवारितप णन्नत्थ अध्पणो कम्मकरण ) હે દેવાનુપ્રિય । આ મૃત્યુ વગેરે દરતીક્રમણીય છે. સસારમા રહેતા પ્રાણીને માટે તેનુ નિવારણુ અશકય છે ત્રકાર અહી એજ અને સ્પષ્ટ કરતા કહે છે કે સુખલિક એટલે કે અનન્ત બળશાળી તી કરદેવ અથવા તે મહાઅળવાન કાઇ દેવ કે દાનવ પણ આ મૃત્યુ ઘડપણ વગેરે ને દૂર કરવાનુ સામ શ્ય ધરાવી શકયા નથી ફકત આત્મ સચિત સકળ કર્મોના ક્ષયજ એક માત્ર, ઉપાય છે કે જે આ મૃત્યુ ઘડપણુ વગેરેનુ નિવારણ કરી શકે એના સિવાય जीन अध उपाय अभने हेमाता नथी (तरण से थावच्यापुत्ते क्ण्ड वासुदेव एव षयासी ) ष्णु वासुदेवनी या वात सालजीने स्थापत्या पुत्रे तेभने भा प्रभा ४ ( जइण एए दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का जाव नन्नत्थ
तेम
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अनगारधर्मामृतपिणो टीका १५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् ॥ वेन पा निवारयितुम् ' इति पत्तिपाठस्य सग्रहः। अन्यत्रात्मनः कर्मक्षयेण, तद्-तम्मात् , हे देवानमिय । जनाणमिन्दत्त अपिरट-मायमचियम्स' अज्ञानमिथ्यात्वाविरतिरूपायमनितस्य आगनम्-नानापरणीयोदयजनितात्मपरिणामरूप सशयविपर्ययादि रक्षण मि. यानान, मिथ्यात्व-मि यात्वमोहनीयोदयजनितात्मपरिणामस्प तत्त्वार्याश्रद्धान कुदादिपु सुदेवादिबुद्धिा, अविरतिः विरतेविपरीताऽपिरति , अनिवत्ति हिंसानि पापस्थानेभ्यो परिणामाभाव , सावद्य प्रवृत्तिरित्यर्थः । पाया =क्रोधमानादय , तैः सचितस्य युक्तस्य आत्मनः कर्म क्षय ज्ञानावरणीयायष्टविधर्मणा नाश कर्तुमिच्छामि खलु इत्यन्वय ॥ मू०१३ ।। नत्य जप्पणो कम्मरण त इच्छानिण दवाणुप्पियो । अन्नाणमिच्छत्त अविरडकमाय मचिग्रस्त अत्तणो कम्मरखय करित) यदि ये जन्म जरा आदि दुरतिक्रमणीय है इन्हें दूर करने के लिये सुबलिक देव दानव भी समर्थ नहीं हैं केवल कर्म क्षय ही इनकी निवृत्ति का उपाय हैजय ऐसी बात है तो हे दबानुप्रिय मे ज्ञानावरणीय के उदय से जनित आत्म परिणामस्प अज्ञान से-सशय विपर्यय आदि रूप मिथ्या ज्ञान से-मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जनित तत्त्वार्य अश्रद्धा न रूप आत्मपरिणाम ले-अथवा कुदेव आदि मे सुदेव आदि की विपरीताभि निवेश रूप बुद्धि से हिंसादिक पापस्थानो से अनिवृत्ति रूप परिणाम से मावध कार्यो मे प्रवृत्ति से क्रोवमान आदि रुप कपायों से सचित किये गये इन ज्ञानावरणीय आदि स्प आठ प्रकार के कर्मो को क्षय करने की इच्छा कर रहा है। सूत्र " १३ । अप्पणो कम्मपएण त इन्छामि ण देवाणुप्पिया । अन्नाणमिन्छत्त अविरह कसाय सचियस्स अत्तणो कम्मक्वय करित्ता) ले ये म १२ (घ५) वगैरे દુશ્તી કમણીય છે, એમનાથી મુક્તિ મેળવવાની સુબલિ દેવ દાનવ પણ સામર્થ્ય વરાવતા નથી ફક્ત –લય જ એમની નિવૃત્તિનો ઉપાય છે, ત્યારે હે દેવાનુપ્રિય ! હુ જ્ઞાન વરાયના ઉદયથી જનિત આત્મપરિણામરૂપ અજ્ઞાનથી સ રાય વિપર્યય વગેરેના મિથ્યા જ્ઞાનથી, મિથ્યાત્વ મોહનીય ! ઉદરથી જનિત તત્વાર્થ અશ્રદ્ધાન રૂ૫ આત્મ પરિણામથી, અથવા તો કુદેવ વગેરેમા સુદેવ વગેરેની વિપરીતાભિનિવેરારૂપ બુદ્ધિવી, હિંસા વગેરે પપના સ્થાનોથી, અનિ ધૃતિરૂપ પરિણામથી, સાવધ નામ પ્રવૃત્તિથી કોધ, માન વગેરે કવાથી નચિત ગ્વામ અ વેલા જ્ઞાનાવરણીય વગેરે ના આઠ પ્રકારના કાને સય ચા A સૂત્ર ૧૩ .
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् - तएण से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्त्रेण एव वुत्ते समाणे कोडुवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासीगच्छहणं देवाप्पिया! वारवइए नयरीए सिघाडगनियग चउक्कचच्चर जाव हत्थिखधवरगया महया महया सदेणं उग्घोसे माणा २ उग्घोसण करेह
४२
एवं खलु देवानुप्पिया । थावच्चापुत्ते ससारभउव्विग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छइ अरहतो अरिट्टनेमिस्स अतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए त जो खलु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वाईसरे वा तलवरे वा कोडुविय मावि इभसेट्टि - सेणावइसत्थवाहे वा थावच्चापुत्त पव्वयतमणुपव्वयंति तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणइ, पच्छातुरस्स विय से मित्तना । नियगसबधि परिजणस्स जोगखेम वट्टमाण पडिवहति तिकट्टु घोसणं घोसेह जाव घोसति ॥ सू०१४॥
टीका--' तएण से कहे ' इत्यादि । तत खलु स कृष्णनासुदेवः स्थापत्या पुत्रेणैवमुक्त सन् कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति आह्वयति, शब्दयित्वा =आहूय, एव = त्रक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुप्रियाः । यूय गच्छत द्वारवत्या नगर्यो तएण से कण्हे वासुदेवे ' इत्यादि ।
(
टीकार्थ- (ए) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे ) वे कृष्ण वासुदेव जब ( यावच्चा पुत्तेण ) स्थापत्या पुत्र के द्वारा ( एव बुत्ते समाणे ) इस प्रकार कहने पर उन्होंने (कोडबिय पुरिसे सहावेइ) कौटुम्बिक पुरूषों को बुलाया (सावित्ता एव वयासी) और बुलाकर उनसे ऐसा कहा -
( तपण से कहे वासुदेवे ) हत्याहि
टीअर्थ - (तरण) त्यारणा (से कण्हे वासुदेवे) ते कृष्णु वासुदेवने न्यारे ( भाव चापुत्त्रेण ) स्थापत्या पुत्रे ( एव वृत्त समोणे ) मा रीते त्यारे तेभले (कोड बिय पुरिसे सहावेइ ) टु मिङ पु३पाने मोसान्या ( सावित्ता,
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अनगारधर्मामृतार्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुननिष्क्रमणम् शृङ्गाटकत्रिक चतुप्फचत्वरेषु यावत्-महापयेषु-राजगार्गेषु 'हत्यिक पवरगया' हस्तिसन्धवरगता गजस्कन्यारूढा महता महता शब्देन उद्घोपयन्तः २ ब्रुवन्त उद्घोपण कुरुत । तदुद्घोपणस्वरूपमाह-' एव खलु 'त्यादि।
एव खलु हे देवानुपियाः । अय म्यापत्यापुर ससारमयोहिग्नः भीतो जन्ममरणेभ्य' अर्हतोऽरिटनेमेरन्तिके मुण्डो भूत्वा प्रजितुमिन् ति, तद् तस्मात् कारणात् हे देवानुप्रिया' ! य. कश्चित् सलु-राजा वा युवराजो वा देवी-राज्ञी वा राजकुमारो ना ईश्वरो वा तवरो या कोटुम्पिकमाडम्मिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापति(गच्छह ण देवाणुप्पिया बारवहए नयरी ए सिंघाडग तियग चउक्कच च्चरजावहत्यिखधवरगयो महया महयो मद्देण उग्घोसेमाणार उग्घोसण करेह ) हे देवानुप्रियो । तुम जाओ और द्वारावती नगरी के शृगाटक, त्रिक,चतुष्क, चत्वर यावत्-आदि-महापयोंमे राजमार्गो में- हाथी के स्कन्ध पर चढे हुए तुम मर लोग बडे जोर २ वोलते हुए ऐसी घोषणा करो (एच खलु देवानुप्पिया। यावच्चा पुत्ते ससार भउन्चिग्गे भी जम्म मरणा ण इच्छइ अरओ अरिहनेमिस्स अतिए मुडेभचित्ता पचहत्तग) हे देवानुप्रियो ! सुनो-यह स्थापत्यापुत्र ससार के भय से उद्विग्न तथा जन्ममरण से भयभीत होकर अहंत अरिष्टनेमिप्रभु के पास मुडित चन दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा कर रहा हैं-(त जो खलु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईमरे वा तलवरे वा कोटुधिय माडपिय इमसेडिसेणावह सत्यवाहे व थावच्चापुत्ते पव्ययतमणुपचयति तस्स ण कण्हे वासुदेवे अणुजाणड) मो हे देवानुप्रियो । जो कोई राजा, एव वयासी ) भने सामान भने ४यु-(गच्छह ण देवाणुप्पिया । पारवइए नयरीए सिंघाडगतियगचउक्चच्चर जाव हथिस धवरगया महया महया सद्देण उग्घोसेमाणा २ उग्घोसण करेह ) हेवानुनियो । तमे न मने दारवती નગરીના શગાટક ત્રિક ચતુષ્ક, ચત્વર વગેરે મહાપમા, રાજમાર્ગોમા હાથી ९५२ सवार थेयेस तमे मा भोट माहे माम घोषित उश-(एव बलु देवाणुप्पिया । थावच्चापुत्ते ससारभउठिवग्गे भीए जम्भमरणाण इच्छइ अरहओ अरिद्वनेमिस्स अतिए मुडे भवित्ता पवईचए ) पानुप्रियो सामना मा સ્થાપત્યા પુત્ર સ ચારભયથી વ્યાકુળ તેમજ જન્મ અને મૃત્યુથી ભયગ્રસ્ત થઈને અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુની પાસે મુડિત થઇને દીક્ષાગ્રહણ કરવાની ઇચ્છા रामे छे ( त जो सलु देवाणुप्पिया । रोया वा जुनरा या वा रेवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलपरेवा कोड चिय माड चिय इ-भसेडिसेणानइसत्यवाहेगा थाव चापुत्त पव्यय तमणुप पयति तस्स ण कण्हे वासुदेवे अगुजाणइ) तो है
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हाताधर्मकथा मूलम्-तएण से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एव वुत्ते समाणे कोडवियपुरिसे सद्दावेद, सदावित्ता एवं वयासीगच्छह पं देवाणुप्पिया। वारवइए नयरीप सिंघाडगतियग पर. कचच्चर जाव हत्थिखधवरगया मह्या महया सर्वेण उग्घोसे. माणा २ उग्घोसण करेह
एवं खलु देवानुप्पिया | यावच्चापुत्ते ससारभउविग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छइ अरहतो अरिट्टनेमिस्स अतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए त जो खल्लु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वाईसरे वा तलवरे वा कोडविय माडविय इन्भसेटि-सेणावइसत्थवाहे वा थावच्चापुत्त पव्ययत. मणुपवयति तस्स जंकण्हे वासुदेवे अणुजाणइ, पच्छातुरस्सविय से मित्तनाइ । नियगसवधि परिजणस्स जोगखेम वट्टमाण पडिवहति तिकट्ठ घोसणं घोसेह जाव घोसति ॥सू०१४॥
टीका-'तएण से कण्हे ' इत्यादि । तत खलु स कृष्णनासुदेवः स्थापत्या पुत्रोणैवमुक्त सन् कौटुम्निक पुरुषान् शब्दयति-भाह्वयति, शदयित्वा आहूय, एववक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हे देवानुप्रिया । यूय गच्छत द्वारवत्या नगर्या
'तएण से कण्हे वासुदेवे ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे ) वे कृष्ण वासुदेव जब( थावच्चा पुत्तेण ) स्थापत्या पुत्र के द्वारा ( एव वुत्ते समाणे ) इस प्रकार कहने पर उन्हों ने ( कोडुबिय पुरिसे सद्दावेइ) कौटुम्बिक पुरूषों को बुलाया (सदावित्ता एव क्यासी) और बुलाकर उनसे ऐसा कहा
(तण्ण से कण्हे वासुदेवे ) त्या
RE-(तएण) या (से कण्हे वासुदेवे) पासुनने न्यारे (थावाचापुत्तेण ) स्थापत्या पुत्र ( एव वुत्त समोणे) मा डधु त्यारे तेभर (कौड़ षिय पुरिसे सहावेइ) टुमि ५३पाने मोसाव्या (सहावित्ता,
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अनगारधर्मामृत पिणी टीका अ०५ स्थापत्यापुननिष्क्रमणम् । शृङ्गाटफत्रिक चतुकचत्वरेषु यावत्-महापयेषु राजमार्गेपु 'हत्यिकववरगया' हस्तिसन्धवरगता गजस्कन्धास्ता. महता महता शब्देन उद्घोपयन्तः २ बुनन्त उद्घोषण कुरुत । तदुद्द्योपणस्वरूपमाह-' एव खलु ' इत्यादि ।
एव खलु हे देनानुप्रियाः । अय स्थापत्यापुन ससारभयोहिग्नः भीतो जन्ममरणेभ्यः अहतोऽरिष्टनेमेरन्तिके मुण्डो भूत्ला प्राजितुमिच्छति, तद् तस्मात् कारणात् हे देवानुप्रिया ! यः कश्चित् सलु-राजा ना युवराजो वा देवी राज्ञी वा राजकुमारो ना ईश्वरो वा तन्वरो वा कोम्पिकमाडम्पिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापति(गच्छह ण देवाणुप्पिया बारवहए नयरी ए सिंघाडग तियग चउक्कच. च्चरजावधिखधवरगयो महया महया सण उग्घोसेमाणा२ उग्घोसण करेह ) हे देवानुप्रियो । तुम जाओ और द्वाराबती नगरी के शृगाटक, त्रिक,चतुष्क, चत्वर यावत्-आदि-महापयोमे-राजमार्गो में- हाथी के स्कन्ध पर चढे हए तुम मर लोग बडे जोर २ बोलते हुए ऐसी घोपणा करो (एव खलु देवानुप्पिया। यावच्चा पुत्ते ससार भउन्धिग्गे भीग जम्म मरणा ण इच्छह अरओ अरिट्टनेमिस्स अतिए मुडेभवित्ता पचहत्तण) हे देवानुप्रियों । सुनो-यह स्थापत्यापुन ससार के भय से उद्विग्न तथा जन्ममरण से भयभीत होकर अहंत अरिष्टनेमिप्रभु के पास मुडित बन दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा कर रहा है-(त जो खलु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया या देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलबरे वा कोडविय माडबिय इन्भसेट्टिसेणावह सत्यवाहे च यावच्चापुत्ते पव्ययतमणुपवयति तस्स ण कण्हे वासुदेवे अणुजाणद) सो हे देवानुप्रियो जो कोई राजा, एव वयासी ) मने माने तेभने घु-( गच्छह ण देवाणुप्पिया । गारवइए नयरीए सिंघाडगतियगचउक्कचच्चर जाव हथिस धवरगया महया महयो सद्देण उग्धोसेमाणा २ उग्घोसण करेह ) वानुप्रियो । तमे ! मन मारपती નગરીના શગાટક ત્રિક ચતુષ્ક, ચત્વર વગેરે મહાપમા, રાજમાર્ગોમા હાથી 6५२ सवार थयेस तमे या भाट! माहे माम घोषित उश-(एत्र सलु देवाणुप्पिया । यावयापुत्ते ससारभविग्गे भीए जम्भमरणाण इच्छइ अरहओ अग्नेिमिस्स अतिए मुडे भवित्ता पपईचए) पानुप्रिया साली सा સ્થાપત્યા પુત્ર સ ચારભયથી વ્યાકુળ તેમજ જન્મ અને મૃત્યુથી ભયગ્રસ્ત થઈને અહં ત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુની પાસે મુડિત થઈને દીક્ષાગ્રહણ કરવાની ઇચ્છા रामेछे ( त जो सलु देवाणुप्पिया ' रोया या जुगरा या वा देवी या कुमारे वा ईमरे वा तलपरेवा कोडु त्रिय माड थिय इभसे द्विसेणारइमत्यवाहेवा याव चादुत्त पव्यय तमणुपचयति तस्स ण कण्हे वासुदेवे अणुजाणइ ) ते ३
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साताधर्मकथासूत्रे सार्थवाहा स्थापत्यापुन मत्रजन्तमनुप्राजति स्थापत्यापुत्रेण सह यः कोऽपि नि क्रमण पतुमिच्छति तस्मै खलु कृष्णवामदेव 'अणुजाणइ ' अनुजानाति, आज्ञा ददाति । ' पन्छाउरस्सपिय' पश्चादातुरस्यापि च-पश्चात् जातुरस्य-द्रव्या. धभावाद् दुःखितस्य तस्य-तत्सम्बन्धिनः मित्रज्ञातिनिनकसम्बन्धिपरिजनस्य 'जोगखेम' योगक्षेम अल लाभो योग लब्धपरिरक्षण क्षेम तयोः समाहारद्वन्दु योगक्षेम वर्तमान प्रतिवहति ये प्रत्रज्याया प्रपत्ता भविष्यन्ति, तत्सम्बन्धिमित्रादीना यत् खलु योगक्षेमरूपकार्य कर्तव्यतया वर्तते, तत् सर्व कृष्णवासुदेवः सपादयिष्यतीत्यर्थ । इति कृत्वा इत्येव विज्ञापन मनसि निधाय घोपणाबार्तारूपा, घोपयत ययेय वार्ता द्वारावतीनगरो निवासिना सर्वेपा कर्णगता भवेत् , युवराज, देवी, राज्ञी, राजकुमार ईश्वर, तलघर, कौटुम्निक, माण्डविक, इभ्यश्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह स्थापत्यापुत्र के साथ दीक्षा लेनो चाहते हो उसलिये कृष्णवासुदेवे आज्ञा प्रदान करते हैं (पच्छातुरस्स विय से मित्तनाईनियगसरधिपरिजणस्स जोगखेम वट्टमाण पडिवहति त्ति कटूटुघोसण घोसेह जाव घोसति ) जो दीक्षा लेनेवाले के कुटुबी जन किसी भी प्रकार से दुःखी होंगे तो उनके सवधी मित्र, ज्ञाति, निजक, सबधी परिजन के योग क्षेम को भी कृष्ण वासुदेव करेगे तात्पर्य इसका यह है कि जो जन प्रव्रज्या में प्रवृत्त होगे उनके सम्बन्धी मित्रादिको का जो कर्तव्यतया योग-अलब्ध का लाभ, क्षेमलब्ध का परिरक्षण रूप कार्य होगा वह सब कृष्ण वास्तुदेव सपादित करेगा " इस प्रकार की इस घोषणा को हे देवानुप्रियो ! तुम अपने चित्त में अच्छी तरह धारण कर जिस प्रकार यह बात द्वारावती नगरी દેવાનુપ્રિયે ? જે કોઈ રાજ, યુવરાજ, દેવી, રાજકુમાર, ઈશ્વર, તલવર કૌટુંબિક, માડબિક ઈભ્ય, શ્રેણી, સેનાપતિ કે સાર્થવાહ સ્થાપત્યા પુત્રની સાથે દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ચાહે છે તેમના માટે કૃષ્ણ વાસુદેવ દીક્ષા સ્વીકારવાની આજ્ઞા પ્રદાન ४२ छ (पजतुरस्स वि य से मित्तनाई नियगसबधिररिजणस जोगखेम वहमाण पडिबत्ति त्ति कटु घोसण घोसेह जाव घोसति ) दीक्षाना२ मुटुमार। જે તેમની દીક્ષાબાદ ગમેતે પ્રકારે દુખી હશે તે તેમના સ બ ધી, મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક સ બ ધી પરિજનેનુ ચાગક્ષેમ પણ કૃષ્ણ વાસુદેવ કરશે આને ભાવાર્થ એ પ્રમાણે છે કે જે માણસે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરશે તેમના સ બ ધી મિત્ર વગેરેનું જે કર્તવ્યતયાયેગ-અલબ્ધને લાલ, સેમ-લખ્યનુ પરિરક્ષણરૂપ કાર્ય થશે-ને બધુ કૃષ્ણ વાસુદેવ પુરૂ કરશે હે દેવાનુપ્રિ 1 આ ઘણાને તમે સારી પેઠે ચિત્તમાં ધારણ કરે જેથી દ્વારાવતી નગરીને દરેકે દરેક માણસ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
પ
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तथोच्चै स्वरेण दुन्दुभ्यादिनायैः सह भारण कुरुतेत्यर्थः । यानद् घोषयन्ति । कृष्णवासुदेवस्यादेशानुसारेण आदेशकारिणः पुरुषाः द्वारावत्यां नगर्या घोषणा कृतवत इत्यर्थ' ॥ म्रु० १४॥
मूलम् -तएण थावच्चापुत्तस्स अणुराएण पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुह पहाय सव्वालकारविमूसिय पत्तेय २ पुरिससहस्तवाहिणीसु सिवियासु दुरूढ समाणं मित्तणाइपरिवुड थावच्चापुत्तस्स अतिय पाउन्भूय, तएण से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समतिय पाउव्भवमाण पासइ, पासित्ता कोडुवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी
जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयार्पाएहि (कल सेहि) पहावे, महावित्ता जाव अरहतो अरिट्टनेमिस्स छत्ताइच्छत्त पडागातिपडाग पासइ, पासित्ता विज्जाहरचारणे जाव पासित्ता सिवियाओ पच्चोरुहइ ॥ सू० १५ ॥
टीका- 'तएण ' इत्यादि । स्थापत्यापुनस्य अनुरागेण = स्नेहेन पुरुषमहस्र निष्क्रमणाभिमुख स्नात सर्वालङ्कारनिभूपित प्रत्येक प्रत्येक पुरुषसहस्रवाहिनीपु
के समस्त मनुष्यो के कर्णे गोचर हो सके इस तरह से बडे २ जोर से दुदुभि आदि बाजो के साथ करो । इस तरह कृष्णवासुदेव की इम आज्ञा को उन आदेश कारोपुरूषो ने प्रमाणभूत मान कर उसे द्वारावती नगरी मे घोषित करके सुना दिया। सूत्र 46 १४ " तएण थावच्चा पुत्तस्स ' इत्यादि ।
6
टीकार्थ - (तरण ) इसके बाद (यावच्चापुत्तस्स अणुराण) स्थापत्य पुत्र के अनुराग से ( पुरिससहस्स ) १ हजार पुरूष (निक्समणाभि સુધી આ વાત સારી રીતે પહોંચી કે તમે મેટેથી દુદુભિ વગેરે વાજાએ વગાડે અને આ વાતની ઘેાષણા કરી કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞાને કૌટુ બિક પુરુષાએ સપ્રમાણ માનીને દ્વારાવતી નગરીમાં તેની ઘેાષણા કરી ॥ સૂત્ર ૧૪
( तण धावञ्चापुतस इत्यादि )
टीजर्थ -- (तरण ) त्यारणाह ( यावच्चापुतरस अणुराएण ) स्थापत्यात्र भये विशेष प्रेम होवाने जर ( पुरिस सहस्स) भे: उत्तर पुरुषों (निक्स
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ઈંદ્
ज्ञाताधर्मक वाङ्गसूत्रे
,
शिविकास दुरूढ = समारूढ सत् मिनज्ञातिपरिटत स्थापत्यापुनस्य अन्तिके समोपे प्रादुर्भूतम् उपस्थितम् । तत खलु स कृष्णनामुदेवोऽन्तिके ' पाउनमान' प्रादुर्भरत् पुरुपसहस्रपश्यति दृष्ट्वा कौटुम्बिकपुरुषान् आदेशकारिण पुरुषान शब्दयति शब्द यित्वा वक्ष्यमाणप्रकारेण अनादीत् यथा मेवस्य निष्क्रमणाभिषेक, तथैव 'सेयापीए हिं' श्वेतपीते. जलपूर्णहप्यसुवर्णमयैः कलशैः कृष्णवासुदेवः दीक्षोत्सुक पुरुषमहस्रसहित - स्थापत्यापुत्र म्नपयति, स्नपयिला यानमर्वालङ्कारविभूषित कृत्वा पुम्पसहस्रवाहिनी शिविकामारोध कृष्णवासुदेव द्वारापतीनगरी भागेन गत्वा अर्हतोऽरिष्टः उपरि छत्रनय, पताकानिपता का पता को परिपताका पुरुषन्दै सह पश्चति । ' विज्जाहरचारणे' निवास्चारणान विद्यापरान् = मुह) निष्क्रमण के सन्मुख हो गये अर्थात् दीक्षित होने के लिए तैयार हो गये ( पहाय ) उन्होंनेस्नात करके ( सव्वालकरविभूमिय) सब प्रकार के अलकारो से अपने २ शरीर को विभूषित किया (पत्तेय२पुरि समररसवाहिणी सिवियासु दुख्ढ समाण मित्तणाsपरिवुड ) वाद में मित्रादि परिजनो से युक्त हुआ प्रत्येक व्यक्ति उन मेसे १ हजार पुरूषों को वहन करनेवाली शिविकापर आरूढ होकर (याचच्चापुत्तस्त अतिय पाउन्भूय ) स्थापत्या पुत्र के पास आया । (तरण से कण्हे वासुदेवे पुरिस सहरसमनिय पाऊभवमाण पामह ) जब कृष्ण वासुदेव ने पुरुष सहस्रको स्थापत्यापुत्र के पास आया हुआ देखा तो (पासित्ता कोडबिय पुरिसे सहावेह ) देखकर उन्होने कौटुनिक पुरुषों को बुलाया (सदावित्ता एव वयामी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा - ( जहा मेहस्स निक्खमाणाभिसेओ तहेव सेया पीएहिं व्हावेड, पहावित्ता जाव अरहओ अरिट्टनेमिस्स छत्ताइच्छन्त पडागाइपडाग पाड पासित्ता
मुह ) निष्भ ( दीक्षा ) भाटे तैयार यह गया ( व्हाय ) तेथेो नहाया, ( सव्वाल कर विभूसिय) सधी लतना धरेला भोथी तेमने पोताना शरीर शत्रुगार्या (पत्तेय २ पुरिससहस्ववाहिणी सिवियामु दुरूह समाण मित्तणाई परिवुड ) त्यार माह मित्र वगेरे परिकनोनी साथे तेथेोभाथी हरेट दीक्षार्थी डलर पुरुषो वहन उरेनी पासी उपर सवार थने ( थावचा पुत्तरस अतिय पाउन्भूय ) स्थाप या पुत्रनी याने भाव्यो (तण्ण से कहे वासुदेवे पुरिससहस्समति पाउ भवमाण पासइ) पणुवाहने भय रे मेडन्नर पुरुषाने स्थापत्यात्रने त्या आवेसा लेया ( पामित कोडु बिय पुरिसे सहावेइ ) तेभ छोटु नि पुरुषाने मोसाच्या ( सदावित्ता एव वयासी) ने तेमने
अ ( जहा मेहस्स निक्समणाभिसे जो तहेर सेयापीद्दि व्हावेइ पाविता जात्र अरहओ अद्विनेमिरम छत्ताइच्छव पागाइपडाग पासइ पासित्ता विज्जा
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०५ स्थापत्यापुननिष्क्रमणम् चारणब्रमणान् यावत्-मन 'जभए य देवे ओपयमाणे' इत्यादि पाठोऽनुसन्येयः, जुम्भादेवाश्च गगनादयतरतः पश्यति, दृष्या शिक्षिकान 'पच्चोराइ ' प्रत्यवरोहति अवतरति ॥ १५॥
मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्त पुरओ काउं जेणेव अरिहा आरिहनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेस सव्वं तं चेव आभरण० तएणं से थावच्चागाहावइणा हसल. क्खणेणं पडगसाडएण आभरणमल्लालकारे पडिच्छइ, हारवारि धारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाति असणि विणिम्मुचमाणी २ एव वयासी-- चिजाहरचारणे जाव पासित्ता सिवियाओ पच्चोरुहट) जिस प्रकार मेघ कुमार का निष्क्रमणाभिषेक ( दीक्षाका उत्सव ) हुआ था उसी प्रकार जलपूर्ण वेतपीतकलशो द्वारा - रूप्यसुवर्णके घटों द्वारा कृष्णवासुदेव ने दीक्षा के उत्सुक - हजार पुरुप सहित स्थापत्यापुत्र का अभिषेक किया । अभिषेक कर के फिर उन्होने उसे सर्व प्रकारके अलकारोसे विभूपित किया। विभूपित करके फिरवे उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ कराकर ढारावती नगरी के ठीक बीचो पिच से होकर लेनले । चलते २ जब उन्हो ने अहंत अरिष्टनेमिप्रभु के छनोपरिछत्र-तीन ठत्रों को और पताको परिपताकाको पुरपवृन्दो के साग देग्वा-तथो विनाधरों को चारण श्रमणो को आकाश से उतरते हुए कृभक देवो को देखातो देख कर वे शियिका से नीचे उतरे ॥ १० १० । हाचारणे जाव पासित्ता मिविया ओ पन्वोकाइ ) २५ मेधारने नि મણાભિષેક થયો તેમજ જળથી પરિપૂર્ણ સફેદ પીળા કળશે વડે તેમજ ચાદી
નાના ઘડાઓ વડે કૃષ્ણ વાસુદેવે દીક્ષાર્થી સ્થાપત્યા પુત્ર તેમજ તેની સાથેના એક હજાર પુરુષનો અભિષેક કર્યો અભિષેક પછી તેમણે તેને બધા ઘરેણાઓ થો શણગાર્યો રાણુગાર્યા બાદ તે પુરુષ સહસ્ત્ર વા ની પાલખી ઉપર સ્થા પત્યા પુત્રને બેસાડીને કાગવતી નગરીની બરાબર વચ્ચે ના માર્ગે થઈને ચાલ્યા જતા જતા ત્યારે તેઓએ અડન અટિનેમિ પ્રભુના છત્ર ઉપર છત્ર આમ ત્રણ ઉપરા ઉપરી છત્ર, પતાકાની ઉપર પતાકાઓને તેમજ પુરુષ સમાજને જે અને વિદ્યાધરને ચારણ શ્રમણને આકાશમાંથી નીચે ઉતરતા, તે જ જુભકદેવોને જોયા ત્યારે જોઈને તેઓ પાલખી ઉપરથી નીચે ઉતરી પડયા ૧૫
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ज्ञाताधर्मकथासूत्र शिविकासु दुरुढ=समारूढ सत् मित्रज्ञातिपरिटत स्थापत्यापुत्रम्य अन्ति के समोपे प्रादुर्भूतम् उपस्थितम् । तत खलु स कृष्णासुदेयोऽन्तिके 'पाउमाण प्रादुर्भवत् पुरुषसहस्र पश्यति, दृष्ट्वा कौटुम्निमपुरुपान्आदेशकारिणः पुरुपान शब्दयति, शब्द यित्वा ए३ वक्ष्यमाणपकारेण अपादीत्-यथा मेवस्य निष्क्रमणाभिषेक , तथैव 'सेयापीएहि' श्वेतपीते. जलपूर्णरूप्यसुवर्णमयैः कलशैः कृष्णमासुदेवः दीक्षोत्मक पुरुपमहस्रसहित-स्थापत्यापुत्र म्नपयति, स्नपयित्वा यापद्मलिङ्कारविभूपित कृत्वा पुम्पसहसवाहिनीं शिपिकामारोह्य कृष्णासुदेव द्वारापतीनगरीम यभागेन गत्वा अर्हतोऽरिष्टनेमे छनोपरिच्छत्र उत्रत्रय, पताकातिपताका-पताकोपरिपताका पुपन्दै सह पश्चति । 'विजाहरचारणे' विधायरचारमान् विद्याधरान्मुह) निष्क्रमण के समुख हो गये अर्थात् दीक्षित होने के लिए तैयार हो गये (हाय ) उन्होंनेस्नात करके (सन्चालकरविभूनिय ) मय प्रकार के अलकारो से अपने २ शरीर को विभूपित किया (पत्तय २पुरि ससहस्सवाहिणीसु सिरियासु दुख्ढ ममाण मित्तणाहपरिघुड ) बाद में मित्रा दि परिजनो से युक्त हुआ प्रत्येक व्यक्ति उन मेंसे १ हजार पुरूषों को वहन करनेवाली शिबिकापर आरूढ होकर (यावच्चापुत्तस्स अतिय पाउन्भूय ) स्थापत्या पुत्र के पास आया । (ताण से करे वासदेवे परिससहस्समनिय पाउभयमाण पासह ) जय कृष्ण वासुदेव ने पुरुष सहसको स्थापत्यापुत्र के पास आया हुआ देखा तो (पासित्ता कोडविय पुरिसे सहावेह) देखकर उन्होने कौटुबिक पुरूषों को घुलाया (सदावित्ता एव चयामी)चुलाकर उनसे ऐसा कहा--(जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तदेव सेया पीएहिं पहावेइ, हाचित्ता जाव अरहओ अरिट्टनेमिस्स छत्ताइ उत्त पडागाडपडाग पासड - पासित्ता मणाभिमुह ) निभY (lal) माटे तयार थ६ गया (हाय ) तसा नहाया, (सव्वाल करविभूसिय) मधी तना घरेयासाथी तमन पोताना शरी२ शार्या (पत्तय २ पुरिससहस्सपाहिणीसु सिरियामु दुरुर समाण मित्तणाई परिवुड ) त्या२ मा मित्र मेरे परिवानानी साथे तसाभाथी ४२४ क्षार्थी से ॥२ पुरुषो वनउरे सेवा परी ५२ सवार थने (थावच्चा पुत्तरस अतिय पाउन्भूय ) स्था५ ॥ पुत्रन पाने माल्यो (तएण से कण्हे वासुदेवे पुरिस सहस्समतिय पाउन्भवमाण पासइ) वासुदृ३ य २ मत२ पुरुषाने स्थापत्यापुत्रने त्या पावसा या (पासिता कोडु विय पुरिसे सहावेइ ) भो जो पुरुषाने माराव्या (सदावित्ता एत्र वयासी) मादापीन तमने
घु (जहा मेहरम निस्समणाभिसे ओ तहेव सेयापीहिं पहावेइ पावित्ता जाद अरहओ अस्टिनेमिस्म छत्ताइच्छ३ पहागाइपडाग पासइ पासित्ता विज्जा
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुननिष्क्रमणम्
चारणश्रमणान् यावत्-र 'जभर य देवे जोवयमाणे इत्यादि पाठोऽनुसन्येय, जृम्भ+देवाथ गगनादवतरतः पश्यति, हा शिविकात ' पच्चोरुहs ' प्रत्यवरोइति अवतरति ॥ १५ ॥
मूल्म्-तणं से कहे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरिहा अरिनेमी तेणेत्र उवागच्छङ, उवागच्छित्ता सेस सव्व तं चेत्र आभरण० तएणं से थावच्चागाहावइणा हसलक्खणं पडगसाडएण आभरणमल्लालकारे पडिच्छइ, हारवारि धारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाति असूणि विणिम्मुचमाणी २ एव वयासी
विजाहरचारणे जाव पासित्ता सिवियाओ पच्चोरुह्ह ) जिस प्रकार मेत्र कुमार का निष्क्रमणाभिषेक । दीक्षाका उत्सव ) हुआ उसी प्रकार जलपूर्ण वेतपीतकलशो द्वारा रूप्यसुवर्णके घटों द्वारा कृष्णवासुदेव ने दीक्षा के उत्सुक - हजार पुरुष सहित स्थापत्यापुत्र का अभिषेक किया । अभिषेक कर के फिर उन्होने उसे सर्व प्रकारके अलकारो से विभूषित किया। विभूषित करके फिरवे उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ कराकर द्वारावती नगरी के ठीक बीचो विच से होकर लेचले । चलते २ जय उन्हो ने अर्हत अरिष्टनेमिप्रभु के उन्नोपरिछत्र- तीन छत्रों को और पताको परिपताकाको पुरुषवृन्दो के साथ देवा तथा विद्याधरों को चारण श्रमणो को आकाश से उतरते हुए नृभक देवों को देखातो देख कर वे शिविका से नीचे उतरे || सू० १७ ॥
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हरचारणे जाव पामित्ता सिवियागो पन्चोरुहइ ) प्रेम भवडुगरनो निष्ठु માભિષેક થયા તેમજ જળથી પરિપૂર્ણ સફેદ પીળા ફળશે! વડે તેમજ ચાદી નેનાના ઘડા વડે કૃષ્ણવાસુદેવે દીક્ષાર્થી સ્થાપત્યા પુત્ર તેમજ તેની સાથેના એક હજાર પુરુષાને પ્રભિષેક કર્યાં અભિષેક પછી તેમણે તેને ખના ઘરેણાએ થી ગણગાયે શણગાર્યો બાદ તે પુરુષ મહસ્ત્ર વાહિની પાત્રો ઉપર સ્થા પા પુત્રને એમાડીને દ્વારાવની નગરીની બામર વચ્ચે ના માર્ગે થઈ ને ચાલ્યા જતા જતા જ્યારે તેએએ અહ ત અષ્ટિનેમિ પ્રભુના ત્ર ઉપર છત્ર આમ ત્રણ ઉપરા દ્રપરી છત્રા, પતાકાની ઉપર પતાકાઓને તેમજ પુરુષ સમાજને જોયા અને વિદ્યાધરેને ચારણ શ્રમણેાને માળમાથી નીચે ઉતરતા, તે જ જુલકદેવેને જોયા ત્યારે જોઇને તેએ પાલખી ઉપરથી નીચે ઉતરી પડયા ॥૧૫॥
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शाताधर्मकथासत्रे जइयव्वं जाया । घडियव जाया। परिकमियव्य जाया। अस्ति च णं अट्टे णोपमाएयव्व जामेवदिसि पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया ॥ सू० १६ ॥
'तएण से कण्हे ' इत्यादि।
टीका-ततः खलु स कृष्गवासुदेवः स्थापत्यापुन पुरत. 'काउ' कृत्वा यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः, तत्रैवोपागच्छति अपमुञ्चति । उपागम शेप सर्व तदेव शेष आदक्षिणपदक्षिणादिक सर्व चरित यत् खलु मेवकुमारस्य, तदेवान वाच्यम् । स्थापत्यापुनोऽहतोऽरिष्टनेमे समीपादीशानकोणदिग्भागे स्वयमेव 'आभरणम ल्लालकारे' आभरणमाल्यालङ्कारान् 'ओमुयइ ' अवमुश्चति भरतारयति । ततः खलु सा स्थापत्यागाथापत्नी हमलक्षणेन हसस्वरूपेण शुक्लपर्णेन 'पडगसाडए ण' पटशाटकेन पृथुलपस्त्रेण आभरणमाल्पालङ्कारान् प्रतोति प्रतिगृहाति ।
तण्ण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे ) वे कृष्णवासुदेवे (धावच्चा पुत्त) स्थापत्या पुत्र को (पुरओकाउ ) आगे करके (जेणेव अरिहा अरिहनेमि तेणेव उवागच्छइ ) जहा अहंत अरिष्टनेमि प्रभु थे वहा गये (उवागच्छित्ता सेस मव्य त चेव आभरण० ) वहा जाकर उन्हों ने प्रभु की आदक्षिण प्रदक्षिणा पूर्वक वदना की। मेघकुमार ने दीक्षा अगीकार करते समय जो कुछ किया वह सब वहा स्थापत्या पुत्र ने भी किया बाद मे स्थापत्या पुत्रने अरिष्टनेमि प्रभु के पास से ईशानकोण में जाकर स्वय ही अपने माला और अलकारो को उत्तारा (तएण से) इस समय वहां उपस्थित रही हई उसकी माता गाथा पत्नी ने हस के जैसी शुक्लवर्णवाली अपनी पटशाटिका में उनअवता
(तएण से कण्हे वासवे इत्यादि ) ॥
थ-(तएण) त्या२६ (से कण्हे वासुदेवे) वासुदेव (थापच्चा पुत्त) स्थापत्या पुत्रने (पुरमो काउ ) भाग शमीन (जेणेर अरिहा अस्ठुिनेमी तेणेव उवागच्छइ) या मत मारिष्टनाभि प्रसुता त्या गया ( उवागन्छित्ता सेस सय त चे आभरण० ) त्या सधन ती प्रभुनी माक्षिष्य प्रह ક્ષિણની સાથે વદના કરી મેઘકમારે દીક્ષા વખતે જે કઈ કર્યું હતું તે બધુ સ્થાપત્યા પુત્રે પણ કર્યુ ત્યાર બાદ સ્થાપત્યા પુત્રે અરિષ્ટનેમી પ્રભુની પાસેથી
शान मा त माया अने पाया तार्या, ( तएण से) ते વખતે તેની માતા સ્થાપત્યાગાથાપની ત્યા હતી તેમણે હ સ જેવી સ્વચ્છ સફેદ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
मकाशानि
'हावारिधारडिन्नमुत्तान लिप्यगासाङ' हावारि गराउनका 'अणि ' अश्रूणि 'विणिम्नमाणी २, विनिर्मुञ्चन्ती मुक्ताहारजलधारा वि कीर्णानि पुनः पुनर्निपातयन्तीत्यर्थ, एक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् - यतितव्य जात 'हे पुत्र । सयमारानाथं यत्न कुरु, पटितव्य जात ! हे वत्स ! सयमे सलग्नोभव, पराक्रमितव्य जान ! हे जग ! सयमप्रतिकूलान् आलस्यादीन वारयितु कायादिपल मदर्शय, अस्मिथ अर्थे ' णो पमाएयन्त्र ' नो ममादितव्यम् = प्रमारस्य वशे कदापि मा भू, इत्युक्त्वा = इति कथयित्वा स्थाप त्यापुनस्य माता स्थापत्या गाथापत्नी यस्यादृशः सकाशात् प्रादुर्भूता - आयाता तस्यामेवदिशि प्रतिगता ॥ ग्र० १६ ॥
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४९
रित माला अलकारों को लेकर रसलिया । रखते समय वह (हार वारिधार छिन्नमुत्तालिप्पासाह असृणि विणिम्मुचमाणी २ एव वयासी) हारवारिधारा और निमुक्तावली के समान आसुओ को बार २ बहाती जानी थी। दमी स्थिति में बनी हुई उस स्थापत्या गाथा पत्नी ने फिर अपने पुत्र से उस प्रकार कहा - ( जहयव्य जाया ! घडियन्व जाया । परिकमियन्व जागा | अस्सिंचण अड्डे णो पमाएयन्व जामेवदिसिपाउन्या तामेव दिसिं पडिगया ) हे पुत्र । सयम की आराधना के लिये तुम प्रयत्न शील रहना । हे पुत्र । तुम सयम में सलग्न रहना । हे पुत्र सयम के प्रतिकूल आलस्य आदिको को निवारण करने के लिये अपने शारीरिक आदि बल को प्रस्फुरित करते रहना । इस सयम् रूप अर्थमें हे बेटा तुम कभी भी एकक्षण भी प्रमादके वावर्ती मत होना । ऐसा कहकर वह माता स्थापत्यागोया पत्नी जिस दिशा से आई थी उसी दिशा मे वापिस चली गई ।। ० १ ॥
સાડીમા તે ઉતારેલી માળા અને ઘરેણા વગેરે લઈ લીધા માળા અને ઘરેણા श्री भाडीमा भूक्ती वणते (हावारिधारन्निमुत्तावटिप्पगामाइ असूणि विणिम्मुच माणी एव वयासी ) तेनी आमामाथी नजिता सामु शे હાર પાણીની ધારા અને છિન્ન મુક્તવળીની જેમ સતત ટપકી ા હતા. આમ આસુભીની आमोथी स्थापत्यागाथा पत्नी पोताना पुत्रने वा बागी- जइयन्न जाया ! घडि यव्व लाया ! परिक्कमियन्त्र जाया अस्मि चण अट्टे णो पमाएयव्व जामेव दिसि पाउ भूयासामेव दिसि पडिगया ) हे पुत्र ! सयभनी भाधना भाटे तभे સદા સાવધ રહેજે દૈવત્સ! સયમની સાધના માટે પ્રતિકૃળ આળસ્ય વગેરેના નિવારણ માટે પેાતાના શારીરિક બળ પ્રસ્ફુરિત કરતા રહે જે આ ભયમની સાધનામા તમે કોઈ પણ વખતે પ્રમાદ કરતા નહિ. આ પ્રમાણે સબાધીને સ્થાપાપની ત્યાંથી પેાતાને ઘેર પછી વળી સૂત્ર ૧૬ |
श्री ७
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ज्ञाताधर्मकथासूत्र मूलम्-तएण से थावच्चापुत्ने पुरिससहस्सेहि सद्धि सयमेव पचमुष्ट्रिय लोय करेइ जाव पवइए । तएण से थावच्चापुत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए जाय विहरइ, तएणं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिटनेमिस्स तहारूवाणं थेराण अतिए सामाइयमाइयाइ चउद्दसपुवाइ अहिजइ, अहि जित्ता वहहि जाव चउत्थेणं विहरति ।
तएण अरिहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्त त इन्भाइयं अणगारसहस्ससीसत्ताए दलयइ, तएण से थावच्चापुत्ते अन्नया कयाइ अरह अरिटनेमि वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एवं वयासी-इच्छामि ण भते तुम्भेहि अभणुनाउ समाणे सहस्सेण अणगारेणं सद्धिं वहिया जणवयविहारं विहरित्तए, अहासुह देवाणुप्पिआ | तएण से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्लेणं सद्धि तेण उरालेणं उग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहार विहरइ ॥ सू० १७ ॥
'तएण से थावचापुत्ते' इत्यादि । टीका-तत तदनन्तर खलु स स्थापत्यापुत्रः पुरुषमहस्रेग सार्ध स्वयमेव 'तएण से यावच्चा पुत्ते' इत्यादि ।।
टोकार्थ-(तएण) इसके बाद (से यावच्चा पुत्ते) उस स्थापत्या पुत्रने पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पचमुट्टिय करेइ) उन एक हजार दीक्षित पुरुषोके साथ अपने केशोका पचमुष्टी लोंच किया-(जाच पन्चइए) यावत्
(तएण से थावच्चा पुत्ते ) या ॥
साथ-(तएण) त्या२मा (से थावच्चापुत्ते) स्थापत्या पुत्रे (पुरिखमह स्सेहि सद्धि मयमेध पपमुद्विय लोय करेइ) ीक्षा पाभेदा मे २ पुरुषानी साथे पोताना वानु पाय भुमी बुयन यु (जाव पव्वइए) अनेर
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुननिष्क्रमणम्
५१
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पञ्चमुष्टिक लोच करोति कृत्वा च यावत् मत्रजितः सहस्रपुरुषे सह स्थापत्यापुत्रो ऽईदरिष्टनेमेः समीपे चत्वारिमहानतानि उच्चारितवान् । ततस्तदनन्तर सस्थापत्या पुत्रः अणगारे ' अनगारः द्रव्यतो भावतश्च मुनिजत, स की इत्याह- 'इरि यासमिए 'ईर्यासमित ईर्यासमितिः यतनापूर्वक गमन, तया समन्वित, यथा कथमप्यन्यजीनविराधना न स्यात्तयोपयोगपूर्वकगमनवानित्यर्थः, 'भासासमिए ' भाषासमितः भाषासमितियुक्त यावत् विहरति=यावरउन्देन 'एपणास मिए, आयाणभडमत्त निक्खेवणासमिए, उच्चारपासनणखेल जलसिंघाण पारिहा afrया समिए " इत्यादि वान्यम् । एषणासमित = एपणासमितियुक्तः निर्दोषभिक्षाग्रहणशील, आदानभाण्डामननिक्षेपणासमितः = भाण्डामात्राद्युपकरणानाम् आदाने ग्रहणे निक्षेपणाचा स्थापनेच या समितिस्तया युक्त, उच्चारस्रवण प्रव्रजित होकर उसने सहस्र पुम्पों के साथ अरिष्टनेमि प्रभुके समीप फिर पचमहाव्रतोंका उच्चारण किया। इस तरह वे स्थापत्यापुत्र अथ द्रव्य और भाव दोनों रूपसे अनगारा स्थापन्न बन गये । यही बात (तरण से बाव च्चा पुत्ते अणगारे जाए ) इन पदो द्वारा व्यक्त की गई है । ( ईरियासमिए, भातासमिए जाव विहरह ) वे यतना पूर्वक चलने लगे ईर्ष्या समिति से युक्त वन गये - जिस तरह किसी भी अन्य जीव की विराधना न हो इस तरह उपयोग पूर्वक चलने लगे भाषा समिति आदि समिति से युक्त हो गये । यहा यावत् शब्द से एसणाममिए, आयाणभडमत्त निक्खेवणासमिए, उच्चारपास वणखेल्ल जल्लसिंघाणपरिट्ठावणीया समिए " टन अवशिष्ट समितियों आदि का ग्रहण हुआ है । निर्दोष भिक्षा लेना एपणा ममिति है । भाण्डामन्रादि उपकरणों के आदान में ग्रहण में और निक्षेपण में उपयोग पूर्वक प्रवृति करना પ્રશ્નજિત થઇ ને તેણે એક હજાર પુરુષાની સાથે અરિષ્ટનેમિ પ્રભુની સામે પચ મહાનતાનું ઉચ્ચારણ કર્યું આ રીતે તે સ્થાપત્યા પુત્ર દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ અનગાર अवस्थापन थ जरा भी वात (तरण से थावच्चापुते अणगारे जाए ) मा हो व प्रभा भावी हे तेथे देवा अायुगार थया ते नाथेना सूनथी जताने (ईपिया समिए, भासा समिए, जात्र विहाइ) ઇર્યાસમિતિથી યુક્ત થઈ ગયા એટલે કેઈપણ જીવને વિરાધના (કષ્ટ) ચાયનહિ એવી રીતે જતનથી ચાલવા લાગ્યા તે ભાષાસમિતિ વગેરે સમિતિથી યુક્ત થઈ ગયા यावत् राज्च्यी ( एमणासमिए आयाणभ डामनिखेववणासमिए, उच्चार पासवण खेल उजल्लसि धाणपरावणीया समित) मा समितिमेो वगेरेतु ग्रहयु થયુ છે નિર્દોષ ભિક્ષા સ્વીકારવી ‘એષણા-સમિતિ” છે. ભ ડામત્રાદિ ઉપકરણેાના આદાન એશ્લે ગ્રહણુમા અને તિક્ષેપણુ મૂકવામા ઉપયોગ પૂર્ણાંક-પ્રવૃત્તિ થી તે
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् — तएण से थावच्चापुते पुरिससहस्सेहि सद्धिं सयमेव पचमुट्टिय लोय करेइ जाव पव्त्रइए । तएण से थावचापुत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए जाव विहरइ, तएण से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिहनेमिस्स तहारुवाणं थेराण अंतिए सामाइयमाइयाइ चउद्दस पुव्बाइ अहिज्जह, अहिज्जित्ता बहूहि जाव चउत्थेण विहरति ।
५०
तएण अरिहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्त तं इभाइय अणगारसहस्तसीसत्ताए दलयइ, तएण से थावच्चापुते अन्नया कयाइ अरह अरिट्टनेमि वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एव वयासी- इच्छामि ण भते तुम्भेहि अभ गुन्नाउ समाणे सहस्सेण अणगारेण सद्भिवहिया जणवयविहार विहरितए, अहासुह देवाणुप्पि । तएण से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धि तेण उरालेणं उग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहार विहारइ ॥ सू० १७ ॥
'तरण से थावच्चापुचे ' इत्यादि ।
टीका -- तत तदनन्तर खलु स स्थापत्यापुत्र पुरष महोग सार्धं स्वयमेव 'तरण से थावच्चा पुत्ते' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (से यावच्चा पुत्ते) उस स्थापत्या पुत्रने पुरिससहस्सेहिं सद्धि सयमेव पचमुहिय करेह ) उन एक हजार दीक्षित पुरुषो के साथ अपने केशोंका पचमुष्ठी लोच किया - ( जाव पव्वइए) यावत्
(तरण से थावच्चा पुत्ते ) त्याहि ॥
अर्थ - (तरण ) त्यारणा ( से थावच्चापुसे) स्थापत्या पुत्रे ( पुरिस सह सेहि सद्धि सयमेव पचमुट्ठिय लोय करेइ ) हीक्षा पाभेला मेड इनर पुरुषानी साथै पोताना वाजनु पाथ भुठी तुयन यु ( जाव पञ्चइए) अनेर
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अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ५ स्थापत्यापुननिषमणम् रहित अनासपा, हिमादिवर्जितः, अममः, ममत्वरहित , किचन द्रव्यभावपरि ग्रहयनितः छिन्नग्रन्थ, म्नेहरहिना, निस्प ठेपः-द्रव्यभानले पार्जितः, कास्यपात्र मित्र मुक्ततोय तोयस्पम्नेहरहितसात् , शहब नीरजनः रागसम्बन्धरहितवाद, जीवश्वामतिहतगति. सर्वदविहारित्वात् , जात्यकनामिन जातरूप निरविचार सयमाचात् , गगनमिन निरालम्पनः देशग्रामकुलाद्यालम्पनरहितत्वात् , आदर्शफलक इव प्रस्टम्वभावः दर्पणवन् म्बन्छस्वभावत्यात , वायुरि वा प्रतिवद्धः क्षेत्रा दिए प्रतिवन्धरहितत्वात् , गारदलिलमिवशुद्वहदय =शरहतुनलबन्निर्मलहृदयः से वर्जित हुग-परिनिर्वृत हो गये- मनवचनकाय के सन्ताप से रहित बन गये । अनाव- हिंसादि पापो से रहित हो गये, ममता भाव से रहित हो गये, अकिंचन हो गये, द्रव्य और मावरूप परिग्रह से मुक्त बन गये । स्नेह रहित हो गये निस्पलेप हो गये द्रव्य भाव लेप से रहित हो गये । तोय जलरूप स्नेह से रहित होने के कारण कास्य पात्र की तरह वे मुत्ततोय बन गये। राग के सबन्ध से रहित होने के कारण वे शख की तरह निर्मल हो गये। सर्व देश में विहारी होने के कारण वे जीव की तरह अप्रतियध विहारी बन गये । निरतिचार सयम के पालक होने के कारण वे शुद्धसुवर्ण की तरह वे जातरूप हो गये । देश, ग्राम आदि के आलवन से रहित होने के कारण वे गगन की तरह निरालम्ब हो गये । दर्पण की तरह स्वच्छ स्वभाव से युक्त होने के कारण वे प्रकट स्वभाव हो गये । क्षेत्रादिकों में प्रतिवन्ध रहित સ તાપથી રહિત થા અનાસવ–હિ સા વગેરે પાપકાથી હિત વયા, મમતા ભાવથી રહિત થયા, અચિન થયા, તેમજ દ્રવ્ય ને ભાવના પરિગ્રહથી મુક્ત થયા, નેહરહિત થયા, નિરુપલેપ થયા, દ્રવ્ય ને ભાગ લેપથી હિત વયા, તોય (પાણી) રૂપ નેહ વગર હોવાને કારણે તે કાર્યપાત્રની જેમ મુક્ત તોય થયા રાગના સ બધ થી રહિત હોવા બદલ તે ખની જેમ નિર્મળ થવા સર્વ દેશમાં વિહાર કરનાર હોવાથી તે જીવના જેમ અપ્રતિહત ગતિવાળા (જેની ગતિ કયાય રેવાય નહિ ક એવા ) વયા નિરતિચાર સભ્ય ને પાળના હોવા થિી તે ગુદ્ધ નોનાની જેમ જાત રૂપ થયા, દેગ, ગામ વગેરે ના બાલ બન થી રહિત લેવા બદલ તે આકારનો પિઠે નિરાલ બ થયા અરીસાની જેમ નિમ ળ વભાવના હોવાથી તે “પ્રકટ વભાવ વાળા થયા, એગ વગેરેમાં પ્રતિબંધ વગના હોવાથી તે પવનની જેમ અપ્રતિ બદ્ધ વિહારી વવા, કપાયે.
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हाताधर्मकथासूत्र श्लेप्मनल्लशिद्धाणपरिष्ठापनिकासमितः उन्चारादीना परिष्ठापनिकासमितः = उत्सर्जने शास्त्रोक्तविधिमति , तया युक्त इत्यर्थ । स मनः ममित वच समित कायसमित., मनोगुप्तः वचनगुप्तः कायगुप्त गुप्तेन्द्रियः इन्द्रियाणामसत्मतिनि वर्तनात् गुप्तब्रह्मचर्यः अक्रोधः अमान: अमायः अलोम अतएव गान्तः, प्रशान्तः भशशमावसम्पन्नः, उपशान्तः, कपायकारणनित. परिनितः, योगत्रयसन्तापइसका नाम भाण्डामत्रानिक्षेपणा समिति है तथा उभयकाल प्रतिलेखना करना उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, जल्ल शिधाण इनके परिष्ठावन करने में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रवृत्ति करना यह उच्चार प्रस्रवण श्लेष्म जल्ल शिंघाण परिष्ठापनिका समिति है। इसी तरह वे स्थापत्यानगार मनः ममिति से, वचन समिति से कायसमिति से मनोगुप्ति से वचन गुप्ति से कायगुप्ति से युक्त हो गये तथा इन्द्रियों की असत् विषयो में प्रवृत्ति के निवर्तन से, गुप्तेिन्द्रिय हो गये। मन, वचन और काय से पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले होने से गुप्त ब्रह्मचारी हो गये क्रोध कपाय से सर्वथा रहित होने से अक्रोध मान कपाय के अभाव से अमान, मायाकषाय के अभाव से अमाय, लोभकषाय के अभाव होने से अलोभ परिणति वाले बन गये । इसी लिये वे शान्त प्रशान्त प्रशम भाव मपन्न, उपशात-कपायों के कारणों
ભાડામત્રાનિક્ષેપણું સમિતિ છે, તેમજ બને કાળમાં પ્રતિ લેખના કરવી આ ચોથી સમિતિ છે ઉચાર, પ્રસવણ ધ્ય, જલ, શિ ઘણુ એમનુ પરિષ્ઠાવન કરવામાં શાસ્ત્રમાં કહ્યા મુજબ પ્રવૃત્તિ કરવી આ ઉચાર પ્રસવણ શ્લેષ્મ જલ શિ ઘાણ પરિ ઠાનિક સમિતિ છે આ સમિતિથી પણ તેઓ યુક્ત હતા આ રીતે સ્થાપત્ય નગાર મન સમિતિથી, વચન સમિતિથી, કાય સમિતિથી, મને ગુપ્તિથી વાય ગુપ્તિથી યુક્ત થયા તે ઈન્દ્રિયની અસત વિષમ પ્રવૃત્તિના નિવર્તનથી ગુપ્તેન્દ્રિય થયા તે મન વચન અને કાય (શરીર) થી પૂર્ણ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરનાર હવા બદલ ગુમ-બ્રહ્મચારી થયા તે સપૂર્ણ રીતે ક્રોધ-કષાય વગર હવા બદલ અક્રોધ માન કષાયના અભાવથી અમાન, માયા કપાયના અભાવથી અમાય, લોભ-કવાયના અભાવથી અભ પરિણતિવાળા થયા એટલા માટે જ તે શાત, પ્રશાત પ્રામભાવ સંપન્ન, તેમજ ઉપશાત કષા ના કારણોથી વર્જિત થયા-પરિનિર્વત થયા-મન, વચન અને કાયાએ ત્રણ યોગના
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका २० ५ म्यापत्यापुत्रनिक्रमणम् सूर्यइव दीप्ततेनाः परेपा क्षोभावात, सागर इव गम्भीरः उदारहदयत्वात , म. न्दरइयाप्रकम्प परीपहोत्सर्गरविचलितत्वात् , पभव्य जातस्थामा गृहीतभारपार गत्यात् , सिंह इव दुर्धर्षः उपसर्गमृगैः पराजेतुमशक्यत्वात , वसुन्धरेव सर्वस्पर्शविसहः शीतोष्णादिसर्वसहत्त्वात् , सुहुताशन इव तेजसा ज्वलन तेजोलेश्यादिलन्धिमत्वात् , तस्य स्थापत्यापुगनगारस्य न कुत्रापि प्रतिवन्धो भवति । प्रतिन्धो द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्विधः, तत्र द्रव्यतः सचित्ताचित्तमिश्रेपु, क्षेत्रतो ग्रामन गराऽरण्यादिषु, कालतः-समयावलिकादिपु, भारतः क्रोधभयहास्यादिषु । स से युक्त हो गये। दसरे जीवों को क्षोभ करने वाले तेज से सम्पन्न होने के कारण ये सूर्य की तरह दीप्त तेजवाले बन गये । उदार होने से सागर की तरह इन का हृदय गभीर हो गया। परीपह और उप सों से अविचलित होने के कारण ये सुमेम्की तरह अप्रकप बन गये। गृहीत भार को पार लगाने के कारण वृपभ की तरह ये विशिष्ट शक्ति शाली हो गये। उपमर्ग रूपी मृगों से पराजेतु अशक्य होने के कारण ये सिंह की तरह दुर्धप बन गये। शीत उष्ण आदि सय सहन करने के कारण ये वसुधरा (पृथिवि) की तरह सर्व स्पर्शसह बन गये । तेओ लेश्यादि लब्धि सपन्न होने के कारण ये जाज्वल्यमान हुताशन (मग्नि ) की तरह विशिष्ट तेजसे चमकने लगे इन स्थापत्या पुत्र मुनिका कहीं पर भी प्रतिवन्ध नहीं था। यह प्रतिवन्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का कहा गया है। द्रव्य की अपेक्षा सचित्त, अचित्त तथा मिश्र वस्तुओं में, क्षेत्र की अपेक्षा प्राम,
ભ પમાડન ર તેજથી યુક્ત હોવાથી તે સૂર્યની પેઠે દીપ્ત તેજ વાળા થયા Cદાર હતા તેથી સાગરની જેમ તેમનું હૈયુ ગભીર થઈ ગયુ પરીષહ અને ઉપસર્ગોના આકરા પ્રહારોથી પણ તે વિચલિત થતા નહિ તેથી સુમેરુ પર્વત ની જેમ તે અપ્રક૫ થયા સ્વીકારેલા કર્તવ્યના ભારને છેક સુધી પાર લઈ જવા માટે તે બળદ ની જેમ વિશેષ પ્તિ શાળી થયા ઉપસર્ગ રૂપી હરણે થી પરાજિત ન થવાથી તે સિંહની પિઠે દુધ થયા ડી, ગરમી વગેરે બધુ સહન કરવાથી તે વસુ વર (પૃથિવી) ની જેમ વર્ષ પૂર્ણ થયા તે વેશ્યા વગેરેની સિદ્ધિ યુક્ત હોવાથી તે સળગતા અગ્નિ ની જેમ સવિગેપ તેજથી પ્રકાશિત થયા સ્થાપત્યા પુત્ર પ્રતિબ ધ રહિત થયા આ પ્રતિબધ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ ચાર પ્રકાર છે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ચિત્ત, અચિત્ત તેમજ મિશ્ર વસ્તુઓમા, ક્ષેત્રની દષ્ટિએ ગામ, નગર, અરણ્ય (વન)
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साताधर्मकथासूत्रे कपायोपशमितत्वात्, पुष्करपत्रमियनिरुपलेपः भोगाभिलापरूपलेशर्जितत्वात् , कूर्मइव गुप्तेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियत्वात् , सद्भिविषाणमिन एकजातः खड्गी वन्य जन्तुविशेप 'गेंडा' इतिभाषापसिद्धः तस्य पिपाण शृग तह देकजात स्वारमाव लम्वितलोत्, विहगइव विषमुक्तः पक्षिवत् सनिधियमितत्वात् , भारण्डपसीव अअप्रमत्ता-भारण्डपक्षिणो हि एकोदराः पृथग्ग्रीवा अन्योन्यफलभक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा चकितचित्तास्तिष्ठन्ति, तद्वत् प्रमादरहितत्वात् कुन्जरहर गरः कर्मशत्रु पराजेतु दृढोत्साहनत्वात् , चन्द्रइव सोम्यलेश्यः शुभपरिणामबचाव , होने के कारण वे वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहारी बन गये। कपायों के उपशमित हो जाने से शरत् काल के जल के समान वे निर्मल हृदय से युक्त हो गये। भोगामिलाप रूप लेप से रहित होने के कारण वे पुष्कर (कमल) पत्र की तरह निरूपलेप हो गये । कछप की तरह वे अपनी इन्द्रियों को गुप्त करने वाले होने से गुप्तेन्द्रिय बन गये । केवल अपनी आत्मा के ही अवलम्बन करने वाले होने से वे गेंडाहाथी के विपाण की तरह एक जात हो गये । सनिधि से वर्जित होने के कारण पक्षी की तरह वेविप्रमुक्त होगये। भारण्ड पक्षी की तरह वे अप्रमत्त रहने लगे। ये भारण्ड पक्षी एक उदवाले होते है, ग्रीवा इसकी पृथक होती है, अन्योन्य फल भक्षी होते हैं-दो जीव होते है । ये सर्वदा चकित चित्त रहा करते है। कर्मरूप शत्रु को पराजित करने के लिये दृढ उत्साह सपन्न होने के कारण ये कुजर (हाथी) की तरह शर बन गये । शुभपरिणामो से युक्त होने के कारण ये चन्द्रमण्डल की तरह सौम्य लेश्या ન ઉપશમનથી શરદ તુના પાણીની જેમ તે સ્વરછ હદયવાળા થયા, ભેગ વિલાસ રૂપ લેપથી રહિત લેવાથી પુષ્કર કમળપત્ર ની જેમ નિરુપલેપ થયા કાચબાની જેમ તે પિતાની ઇન્દ્રિયને ગુપ્ત કરનાર હોવાથી ગુપ્તેન્દ્રિય થયા કેવળ પિતાના આત્માને જ અવલ બ આપનાર હોવાથી તે છે ડા હાથીના વિષાણ (શી ગડા) ની જેમ એક જાત થયા સનિધિ વગર હોવાથી પક્ષી ની જેમ તે વિપ્રમુક્ત થયા ભાર ડપક્ષીની જેમ તે અપ્રમત્ત (મદ વગર) રહેવા લાગ્યા, આ ભારડ પક્ષી એક પેટ વાળા હોય છે તેમની ડોક પૃથ હોય છે અન્ય ફળ ભણી હોય છે તેમજ બે જીવ હોય છે તે હમેશા ચકિતચિત્ત રહે છે તે સ્થાપત્યા પુત્ર કર્મના શત્રુને પરાજિત કરવા માટે દઢ ઉત્સાહ સ પન્ન લેવાથી ફજર (હાથી) ની જેમ ગૂર ગયા શુભ પરિણામોથી યુક્ત હોવાથી તે ચામડળ ની જેમ સૌમ્ય લેક્ષા વાળા થયા બીજા જીવને
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका २० ५ स्थापत्यापुत्रनिक्रमणम् सूर्यडर दीप्ततेनाः परेपा क्षोभस्त्वात् , सागर इस गम्भीरः उदारहृदयत्वात् , मन्दरइवाप्रकम्प परीपहोत्सर्गरविचलितत्वात् , वृषभटर जातस्थामा गृहीतभारपार गत्यात् , सिंह इव दुर्धर्षः उपसर्गमृगै पराजेतुमशक्यत्वात , वसुन्धरेव सर्वस्पर्गविसहः शीतोष्णादिसर्वसहत्वात् , सुहुताशन इव तेजसा ज्वलन् तेजोलेश्यादिलब्धिमत्वात् , तस्य स्थापत्यापुनानगारस्य न कुत्रापि प्रतिवन्यो भवति । प्रतिन्वधो द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदान्चतुर्विधः, तत्र द्रव्यतः-सचित्ताचित्तमिश्रेषु, क्षेत्रतो ग्रामन गराऽरण्यादिपु, कालत.-समयावलिकादिपु, भावत' क्रोवभयहास्यादिषु । स से युक्त हो गये। दसरे जीवों को क्षोभ करने वाले तेज से सम्पन्न होने के कारण ये सूर्य की तरह दीप्त तेजवाले बन गये । उदार होने से सागर की तरह इन का हृदय गभीर हो गया। परीपर और उप सर्गो से अविचलित होने के कारण ये सुमेरुकी तरह अप्रकप घन गये। गृहीत भार को पार लगाने के कारण वृपभ की तरह ये विशिष्ट शक्ति शाली हो गये। उपसर्ग रूपी मृगों से पराजेतु अशक्य होने के कारण ये सिंह की तरह दुर्धर्प बन गये । शीत उष्ण आदि सब सहन करने के कारण ये वसुधरा (पृथिवि) की तरह सर्व स्पर्शसह चन गये। तेओ लेश्यादि लब्धि सपन्न होने के कारण ये जाज्वल्यमान हुताशन (मग्नि) की तरह विशिष्ट तेजसे चमकने लगे इन स्थापत्या पुत्र मुनिका कहीं पर भी प्रतिवन्ध नहीं था। यह प्रतिवन्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का कहा गया है। द्रव्य की अपेक्षा सचित्त, अचित्त तथा मिन वस्तुओं में, क्षेत्र की अपेक्षा त्राम, ક્ષોભ પમાડનાર તેજથી યુક્ત હોવાથી તે સૂર્યની પેઠે દીપ્ત તેજ વાળા થયા Cદાર હતા તેથી સાગરની જેમ તેમનું હૈયુ ગભીર થઈ ગયુ પરીષહ અને ઉપસર્ગોના આ પ્રહારોથી પણ તે વિચલિત થતા નહિ તેથી સુમેરુ પર્વત ની જેમ તે અપ્રક૫ થયા સ્વીકારેલા કર્તવ્યના ભારને છેક સુધી પાર લઈ જવા માટે તે બળદ ની જેમ સવિશેષ પક્તિ શાળી થયા ઉપસર્ગ રૂપી હરણે થી પરાજિત ન થવાથી તે સિહની પેઠે દુધઈ થયા -ડી, ગરમી વગેરે બધુ સહન કરવાથી તે વસુ ધર (પૃથિવી) ની જેમ સર્વ પ થયા તેને વેશ્યા વગેરેની સિદ્ધિ યુક્ત હોવાથી તે સળગતા અગ્નિ ની જેમ વિમેવ તેજથી પ્રકાશિત થયા સ્થાપત્યા પુત્ર પ્રતિબ ધ રહિત થયા આ પ્રતિબધ દ્રવ્ય, દેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ ચાર પ્રકારને કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ચિત્ત, અચિત્ત તેમજ મિત્ર વસ્તુઓમા, ક્ષેત્રની દષ્ટિએ ગામ, નગર, અરણ્ય (વન)
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भाताचमकथासत्रे समतृणमणिलोटमाञ्चन', समसुखदुःमः, इहलोकपरलोकाऽपतिपदा, जीवित मरणकाक्षा गर्जित , ससारपारगामी फर्गनितिनाथमभ्युस्थित , पच खलु मोक्षमागे विहरति । ततः गलु स स्थापत्यापुनोऽहतोऽरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थविराणान्तिके सामायिकादीनि चतुर्दशपूर्माणि अधीते, अधीत्य च बहुभिर्याव
चतुर्थेन चतुर्थभक्तादिनोऽऽत्मान भावयन् विहरति । नगर, अरण्य आदिको में काल की अपेक्षा समय आवलिफआदिकों में भाव की अपेक्षा क्रोध, भय, तथा हास्यादिको में, उन स्थापत्या पुत्र को किसी भी प्रकार का प्रतिवन्ध नरी था। उन की दृष्टि में तृण, मणि, रोष्ट और कांचन समान थे। सुख और दु.ग्व समान थे । इह लोक और परलोक से वे अप्रतिवद्ध थे । जीविताशसा और मरणा शसा से वे रहित बन चुके थे। मसार से रहित हो चुके थे कर्मों के नाश करने में ही उनका पुरुषार्थ लगा हुआ था। इस तरह वे समिति आदि को से समित हो कर मुक्ति के मार्ग में सावधान होकर विचरण करने लगे । (तएण से यावच्चापुत्ते अरओ अरिहनेमिस्स तरा रूवाण थेराण अतिए सामाइयमाहयाइ चोद्दसपुवाइ अहिजइ ) धीरे २ उन स्थापत्यापुत्र अनगार ने अहंत अरिट्टनेमि प्रभु के तयारूप म्थविरो के पास सामयिक आदि चौदह पूर्वी का अध्ययन भी कर लिया ( अरिजित्ता बहहिं जाव चउत्थेण विहरह) उनका अध्ययन करके फिर उन्होने चतुर्थ भक्तादि तपस्या से अपने को भावित किया વગેરેમા, કાળની અપેક્ષાએ સમય આવલિ વગેરેમા, ભાવની દષ્ટિએ કોધ, ભય તેમજ હાસ્ય વગેરેમાં તે સ્થાપિત છે. પુત્રને કેઈપણ જાતને પ્રતિબંધ હટે નહિ तना भाटे तो तृष, भ, ato (भानु ) भने अयन (सानु) આ બધા સરખા જ હતા સુખ દુખ અને સરખા હતા ઈહ લોક અને પર લેકથી તે અપ્રતિબદ્ધ ( સ્વતંત્ર) હતા છવિતાશ સા તેમજ મણાશ સાથી તે રહિત થવા સ ષારના વિષયેથી રહિત થઈને કર્મોના વિનાશમાજ તેઓ પુરુષાર્થ સ લગ્ન હતા આ પ્રમાણે તે સ્થાપવાપુત્ર સમિતિ વગેરેથી સમિત थान भुतिमामा सावधान ने विय२९५ ४२वा साया (तग्ण से थावच्चा पुत्ते अरहओ अरिनेमिस्स हारूवाण येराण अतिए सामाइयमाझ्याइ चोदस पुवाइ अहिजड) घाम धीमे स्थापत्या-पुत्र मनगारे मरिष्टनभि प्रभनी પાસે થી તેમજ તથારૂપ સ્થવિરાની પાસેથી મામયિક વગેરે ચૌદપૂનુ અધ્ય यन ५ यु (अहिन्जिता पहूहि जाब चउत्थेण विहरइ) अध्ययन या पा સ્થાપત્યા પુત્રે ચતુર્થ ભક્ત વગેરે તપસ્યાથી પિતાને આત્માને ભાવિત કર્યો
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"अम्गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्याच निष्क्रमणम्
ततः खलु अर्हमरिष्टनेमि स्यापत्यापुत्रस्यानगारस्य त=सहागत 'इन्भाइय' भ्यादिभ्यष्ठसेनापतिप्रभृतिकम् अनगारसहस्र शिष्यतया ददाति । स्थापत्यापुत्रेण सह ये सहस्रपुरपा दीक्षा गृहीतवन्तस्ते सर्वे तस्यैव शिष्याः कृता इति भावः । ततः खल्लुस स्थापत्यापुत्रोऽनगारोऽन्यदा कदाचित् अर्हन्तमरिष्टनेमिं वदते वाचा स्तोति, नमस्यति, कायेन प्रणमति चन्दित्वा नमस्कार च कृत्वा एवं = वक्ष्यमाणमकारेणभवादीत्
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}
इच्छामि खलु भदन्त ! हे भगवन् युष्माभिः ' अन्भणुन्नाए अभ्यनुज्ञातः सन् आशा प्राप्य सहस्रेणानगारेण साधं वहिः द्वारावती नगरीतो बहिर्निःसृत्य जनपद विहार देशे ग्रामानुग्रामविचरण, विहर्तु कर्त्तम् भवदाज्ञया देशे बिहार कर्तु मिच्छामीत्यर्थः । हेदेनानुमिय यथातुख= विहरेत्यर्थः ।
9
यावत् शब्द से उक्त अर्थ लिया गया है । (तएण अरिहा अरिनेमि धावच्चापुत्तस्स अणगारस्स त इभाइय अणगारसहस्स सीसत्ताए दलह ) इसके बाद अहंत अरिष्टनेमि प्रभु ने उन अनगार स्थापत्या पुत्र के लिये उनके साथ आये हुए उस, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति आदि अनगार सहस्र को शिप्यरूप से दे दिया । (तएण से थावच्चापुते अनया कथाइ अरह अरिट्ठनेमिं वदइ नमसह ) इसके बाद उन स्थापत्या पुत्र ने किसी समय अर्हत अरिष्टनेमि को वदना की और उन्हें नमस्कार किया - (वदित्ता नमसित्ता एव वयासी ) वन्दना नमस्कार करके फिर उन्हों से उन्होंने ऐसा करा- ( इच्छामि ण भते । तुम्भेहिं अम्भणुन्नाये समाणे सहस्सेण अणगारेण सद्धिं पहिया जणवयविहार विरस्तिए) भदत ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मै इन हजार अनगारों को साथ लेकर द्वारावती नगरी से बाहिर जनपद विहार करना चाहता हूँ ।
‘यावत्' शब्दयो उहुत अर्थ ना भग्रह थयो छे (तरण अरिहा अस्ट्रिमि थावच्चापुत्तरस्र अणगारस्स ส इभाइय अणगारसहस्स सीसत्ताए दलयइ ) ત્યાર પછી અર્હત અષ્ટિનેમિ પ્રભુએ અનગાર સ્થાપત્યાપુત્રને તેમની સાથે આવેલા અને પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરેલા ઈલ્ય, શ્રેષ્ઠી સેનાપતિ વગેરે અનગાર સહસ્ર ने शिष्य इथे याच्या ( तएण से थायच्चापुत्ते अन्नया क्याइ अरह अट्टिनेमि वदइ नम सइ ) त्यार माह स्थापत्या पुत्रे अ वजत अर्हत अरिष्टनेभि अलुने वहन तेभ नभर र्या (वदित्वा नमसिता एव वयांसी ) वहन मनै नमस्र जरीने तभऐ तेभने विनती पुरो - ( इच्छामि पण भवे । तुमेहि नाये समणे सहस्सेण अणगारेण सद्धि बहिया जणवयविहार विहरिए ) હે ભદત ! તમારી આજ્ઞા થાય તેહુ એક હજાર અનગારા ની સાથે હરાવતી
मा० ८
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हाताधर्मकथाङ्गयो
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तत खलु स स्थापत्यापुत्रोऽनगारसहस्रेण साध तेनोदारेण मधानेन-पहजीवनिकायरक्षणपरत्वाद । उग्रेण तीव्रण परीपहोपसर्ग सहिष्णुत्वात् , प्रयत्नेनयतनामधानत्वात् बहिर्जनपदविहार विहरति ॥ १७ ॥
मूलम्-तेण कालणं तेण स्मएणं सेलगपुरे नामं नगरं हात्था, सुभृमिभागे उजाणे, सेलए राया, पउमावइ देवी, मंडुए कुमारे जुवराया। तस्स णं स्लगस्स पथगपामोवखा पचमंतिसया होत्था, उप्पत्तियाए वणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुर चिंतयति, थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे राया णिग्गतो धम्मकहा, धम्म सोच्चा जहाण देवाणुप्पियाणं अतिए वो उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरनं जाव
(अहासुह देवाणुप्पिया' तएण से थावच्चा पुत्ते अणगारसहस्सेण सद्धि तेण उरालेण उग्गेण पयत्तेण परगहिएण बहिया जणवयविहार विहरड) प्रभु ने उनसे कहा-यथासुख देवानुप्रिय ! प्रभु की इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर वे स्थापत्यापुत्र पट्जीचनिकाय की रक्षा करने मे तत्पर होने के कारण उदार, परीपह और उपसर्गो को सहन करने के कारण उग्र, यत्तना प्रधान होने के कारण प्रयत्न और भगवान् की आज्ञा को प्रधान रूप से अगीकार करने के कारण प्रगृहीत ऐसे १एक हजार शिष्यों को साथ लेकर वहा से बाहिर देशों में विहार किया। सूत्र “१७" नगरीनी २ ५६ पिलार ४२१॥ याहु छ (अहासुहे देवाणुप्पिया । तएण से थावच्च अणगारसहस्सेण सद्धि तेण उराले ण उग्गेण पयत्तण पग्गहिएण पहिया जणवयविहार विहरह) प्रभुमे तेने घु- देवानुप्रिय सुभेची विखार કરે. આ રીતે સ્થાપત્યા પુત્રે આજ્ઞા મેળવીને જીવનિકાયના રક્ષણમાં સદા તૈયાર હોવાથી ઉદાર, પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી ઉગ, યતના પ્રધાન હેવાથી, પ્રયત્ન અને ભગવાનની આજ્ઞા પ્રધાન રૂપથી સ્વીકારવાથી પ્રગૃહીત એવા એક હજાર શિષ્યની સાથે ત્યાં થી બહારના દેશોમાં વિહાર કર્યો સ૧૭
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भनगारधर्मामृतवपिणो टोका अ०५ शैल राजवर्णनम् पव्वइया, तहाणं अहं नो सचाएमि पवइत्ताए, अहन्न देवाणुप्पियाण अंतिए पचाणुव्वइयं जाव समणोवासए जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे विहरामि।पथगपामोक्खा पंचमंतिसयासमणोवालया जाया, थावच्चापुत्ते पहिया जणवयविहारं विहरइ ॥सू०१८॥
'तेण कालेण ' इत्यादि। टीका-तस्मिन् काले तम्मिन् समये शैलकपुर नाम नगरमासीत् । नगराद् वहिः सुभूमिभाग नामोद्यानम् । तस्मिन् नगरे शैलको नाम राजाऽभूत् । पद्मावतीदेवी-पप्रावतीनाम्नीदेवी पट्टराज्ञो । मण्डककुमारी युवरानोऽभवत् । तस्य खलु शैलकस्य राज्ञः पान्थकप्रमुखाः पञ्चशतानि मन्त्रिणः अमात्याः आसन् , कीदृशास्ते मन्त्रिण इत्याह-' उप्पत्तियाए ' औत्पत्तिक्या शास्त्राभ्यासादि निमित्त विनैव सद्भाविनी तथाविधक्षयोपशमजन्या मति रौत्पत्तिकी तया, 'वैणइयाए ' वैनयिस्या-विनय
'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि। टोकार्य-(तेण कालेण तेण समएण ) उस काल और उस समय में (सेलगपुरे नाम नगर होत्या) शैलक पुर नाम का नगर था (सुभूमि भागे उजाणे सेलए राया पउभावइ देवी मुडए कुमारे जुवराया) उस में सुभूमि माग नाम का उद्यान या । शेलक पुर राजा का नाम शैलक था। उसकी पटरानी का नाम पद्मावती था। मंडूक नाम का इसका युवराज कुमार था। (तस्स ण सेलगस्स पथगपामोक्खा पच मतिसयहोत्या) इस शैलक राजा के पथिक प्रमुख पाँचसौ मत्री थे। (उप्पत्तियाए वेणइयाए,कम्मियाए,परिणामियोए, उववेया रजधुर चिंत
तेण कालेण तेण समएण इत्यादि ।
A-(वेण कालेण देण समएण) ते आणे भने ते समये ( सेलगपुरे नाम नगर होत्था) : १२ नामे न तु (सुभूमिभागे उज्जणे सेडए राया पउमावइ देवी मुडए कुमारे जुवराया) त्या सुभूमि माग नाभे धान હતુ શિલડ પુરના રાજાનું નામ શૈલક હતુ પદ્માવતી તેની પટરાણી હતી भडू नाम ते राजन युवरा४ ते ( तस्म ण से उगरस पथग पामोक्खा पचम तिमय होत्या) 0 15 राजन पाय प्रभुप पायसे। भीमाता (उत्पत्तियाए वेगइयाए कम्मियाए परिणामियाए अवेया रज्जबुर विषय ति) मा
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जाताधर्मकथाहरणे पासको जात । श्रमणोपासकाना धर्म. सविस्तरमुपासकदशास्त्रस्यागारधर्मसजीबनी टीकाया वर्णितस्तत एव विज्ञेयः । यावत् 'अहिगयजीवाजीवे ' अधिगत जीवाजीवः, जीवाजीवस्वरूपाविज्ञः, यारत् यथा परिगृही तैम्तपःकर्ममिरास्मान भावयन् विहरति । पान्थकममुखाः पच्चशत मन्त्रिणः श्रमणोपासका जाता द्वादशव्रतधारिणः श्रावका अभूनन् । स्थापत्यापुनः वहिः शैलकपुर नाम्नो नगराद् बहिर्जनपदविहार विहरति-करोति स्म ॥१८॥ द्वारा अभ्यनुज्ञात होकर शैलकराजा ने १२ यारह प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया-वे श्रमणोपासक बन गये। श्रमणोपासकों के धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन हमने उपासकदशाग सूत्र की अगार धर्मसजीवनी नाम की टीका में किया है । सो वहा से जान लेना चाहिये । जीव और अजीव का क्या स्वरूप है इस बात को भी वे जानने वाले घन गये । अनेक प्रकार की तपश्चर्या भो वे करने लगे। इस तरह यथा परिगृहीत तप कर्मों द्वारा वे अपने आपको भावित करते हुए रहने लगे। (पथगपामोक्खा पचमतिसया समणोवासया जायाथावच्चापुत्ते पहिया जणवयविहार विहरइ ) राजा के जो पायक प्रमुख पांचसौ मत्री थे- वे भी श्रमणोपासक बन गये- १२ व्रत धारी हो गये - स्थापत्यापुत्र अनगार उस शैलकपुर नगर से बाहर जनपद में विहार कर गये ! सूत्र "१८" સુખ થાય તેમ કરે આ પ્રમાણે સ્થાપત્યા અનગારથી આજ્ઞાપિત થયેલા કૌલક રાજાએ બાર પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મો સ્વીકાર્યા અને તેઓ શ્રમણોપાસક થયા શ્રમણોપાસકેના ધર્મોનું સવિસ્તર વર્ણન અમે ઉપસદશાગસૂત્રની અગાર ધર્મ સજીવની નામની ટીકામાં કર્યું છે જિજ્ઞાસુ અને તેમાથી જાણી શકે છે જીવ અને અજીવના સ્વરૂપ વિશેનું જ્ઞાન પણ શિલક રાજાને થઈ ગયુ અનેક જાતની તપસ્યા તેઓ કરવા લાગ્યા આ રીતે યથાપરિગ્રહીત તપ કર્મો વડે પોતાની જાતને ભાવિત કરતા રહેવા
या (पथगपामोखा...पचमतिसया समणोपासया जाया थाकवावे बहिया जणश्यविहार RIMAL 14 प्रभुम पाया भत्री હતા તેઓ પણ શ્રમ"
જે બાર શ્રત ધારી થઈ ગયા ત્યાર બાદ
બહાર બીજા જનપદમા વિહાર
સ્થાપત્યા પુત્ર કરવા માટે
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अमगारमामृतवपिणी टीका भ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
मूलम्-तेणं कालेणं तेण समएणं सोगधिया नाम नयरी होत्था, वन्नओ, नीलासोए उजाणे वाओ, तत्थ ण सोगधियाए नयरीए सुदंरुणे नामं नयरसेटी परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए।
तेणं कालेण तेण समएणं सुए नाम परिव्वायए होत्था, रिउवेयजजुटवेयसामवेयअथव्वणवेयसद्विततकुसले सखसमए लद्धढे पंचजमपंचनियमजुत्तं सोयमूलय दसप्पयारं परिव्वायगधम्म दाणधम्म च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवे माणे पन्नवेमाणे धाउरत्तवस्थपवरपरिहिए, तिदंडकुंडियछत्तछलुयंकुसपवित्तयकेसरीहत्थगए परिवायगसहस्सेणंसद्धिं सपरिबुडे जेणेव सांगधियानयरी जेणेव परिवायगावसहसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करिता संखसमणेणं अप्पाण भावमाणे विहरइ।
तएणं सोगधियाए णयरीए सिघाडगतिगचउक्कचच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ । एव खल्ल सुए परिवायए इह हव्वमागए जाब विहरइ, परिसा निग्गया सुदसणो निग्गए, तएण से सुए परिवायए तीसे परिसाए सुंदसणस्स य अन्नेसिं च वहण सखाणंधम्म परिकहेइ-एव खलु सुदंसणा अम्ह सायमूलए धम्म पन्नत्ते, सेऽविय सोए दुविहे पन्नत्ते त जहा-दवसाए य, उदएण मट्टियाए य, भावसोए दवेहि य मतेहि य, जन्न अम्हं देवाणुप्पिया किचि असुइ भवामो, त सव्व सज्जो पुढवीए आलिप्पइ, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जड, तओ त असुई सुई भवइ, एव खल्लु जीवा
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飯
anarasarres
पासको जात | श्रमणोपासकानां धर्म. सविस्तरमुपासकदशाह सूतस्यागारधर्म संजीवनी टीकाया वर्णितस्तत एव निज्ञेयः । यावत् ' अहिगयजीनराजीवे ' अधिगत जीवाजीवः, जीवाजीवस्वरूपाविज्ञः यावत् यथा परिगृही तैस्तपः कर्मभिरात्मानं भावयन् विहरति । पान्यकममुखाः पच्चशत मन्त्रिण' श्रमणोपासका जाता द्वादशव्रतधारिणः श्रावका अभूवन् । स्थापत्यापुनः बहिः-शैलकपुर नाम्नो नगराद् बहिर्जनपदविहार विहरति करोति स्म ॥ १८ ॥
}
द्वारा अभ्यनुज्ञात होकर शैलक राजा ने १२ पारह प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया- वे श्रमणोपासक बन गये । श्रमणोपासकों के धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन हमने उपासकदशाग सूत्र की अगार धर्मसजीवनी नाम की टीका मे किया है । सो वहा से जान लेना चाहिये । जीव और अजीव का क्या स्वरूप है इस बात को भी वे जान ने वाले बन गये । अनेक प्रकार की तपश्चर्या भो वे करने लगे । इस तरह यथा परिगृहीत) तप कर्मों द्वारा वे अपने आपको भावित करते हुए रहने लगे। (पथगपामोक्खा पचमतिसया समणोवासया जायाथावच्चापुते बहिया जणवयविहार चिहरह ) राजा के जो पाथक प्रमुख पाचसौ मन्त्री थे- वे भी श्रमणोपासक बन गये- १२ व्रत धारी हो गये - स्थापत्यापुत्र अनगार उस शैलकपुर नगर से बाहर जनपद में विहार कर गये | सूत्र
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સુખ થાય તેમ કરી આ પ્રમાણે સ્થાપત્યા અનગારથી આજ્ઞાપિત થયેલા શૈલક રાજાએ ખાર પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મો સ્વીકાર્યો અને તે શ્રમણેાપાસક થયા શ્રમણેાપાસકાના ધર્માંનુ સવિસ્તર વધુન અને ઉપાસકદશાગસૂત્રની અગાર ધર્મ સજીવની નામની ટીકામા કર્યું છે જિજ્ઞાસુ જન તેમાથી જાણી શકે છે જીવ અને અજીવના સ્વરૂપ વિષેનુ જ્ઞાન પણુ રીલક રાજાને થઈ ગયુ અનેક જાતની તપસ્યા તે કરવા લાગ્યા આ રીતે યથાપરિગ્રહીત તપ કર્યાં વડે પેાતાની જાતને ભાવિત કરતા રહેવા લાગ્યા ( पथगप्रामोक्खा पचमतिसया समणोवासया जाया थावच्चाते घहिया जणत्रयविहार विहारइ ) रामना पाथ પ્રમુખ પાસે મત્રી હતા તે પણ શ્રમÌપાસક તેમજ ખાર વ્રત ધારી થઈ ગયા ત્યાર બાદ સ્થાપત્યા પુત્ર અનાર શૈનકપુર નગરથી બહાર ખીજા જતપદામા વિહાર કરવા માટે નીકળી પડયા ! સૂત્ર ૧૮ ૫
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मनगारधर्मामृतवपिणो टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् स कीदृश इत्याह-आढयः विभवशाली, यावत् अपरिभूता केनापि पराभ वितुमशक्यः। ___ तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुको नाम परिव्राजक आसीत् । सकीदृश इत्याद "रिउव्वेयनजुधेयसामवेयअथवणवेयसहितंतकुसले" ऋग्वेद यजुर्वेदसामवेदाथ वेदपष्ठितन्त्र-कुशलः सर्ववेदसर्वत त्रनिपुण इत्यर्थः, 'सखसमये लद्धट्टे' साख्यसमये लब्धार्थः सांख्यशास्त्राभिमतसकलतमार्थामिज्ञः' पञ्चयमपञ्च नियमयुक्त, तत्र अ. हिंसा सत्यास्तेदब्रह्मचर्यापरिग्रहाः पञ्चयमाः, शौचसन्तोपतपः स्वाध्यायेश्वरमणिका नगर सेठ रहता था। यह विशेष विभूतिशाली था और अपरिभूत था-कोई भी व्यक्ति इसका तिरस्कार (अपमान) नहीं कर सकता था। (तेण कालेण तेण समएण सुए णाम परिवायए होत्था) उसी काल
और उसी समयमें शुक नाम का परिव्राजक था (रिउव्वेय, जजुब्वेय, सामवेय, अथव्वणवेय, सहिततकुसले, सख समए लद्धढे पचजम पच नियमजुत्त सोयमूलग दसप्पयारपरिव्वायगधम्म दा-धम्मच सोयधम्म च तित्थाभिसेयच जाधवमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए ) यह ऋवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद पष्टितत्र इनमें कुशल थानिपुण था। सांख्य सिद्धान्त प्रतिवादित सकल तत्वों के अर्थका ज्ञाता था। पचयम और पचनियम से युक्त तथा शौच मूलक दश प्रकारके परिव्राजक धर्मका दान रूपधम का शौच रूप धर्मका तीर्थाभिषेकका उपदेश देता था उसका प्रचार करता था। अहिंसा,सत्यअस्तेय ब्रह्मचर्य और परिग्रह ये पाच यम हैं। शौच सन्तोप तप स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिશેઠ રહેતું હતું તે ખૂબ જ ઐશ્વર્ય સંપન્ન અને અપરિભૂત હતો કઈ પણ यति तमना तिर न ४२शती ती (तेण कालेण तेण समएण सुए णाम परिव्वायए होत्था ) ते आणे भने ते साये में शुभ नामे परिवा
४ ता (रिउव्वेय, जजुम्वेय, सामवेय, अथव्वणवेय, सद्विततकुखले, सख समए लद्धडे पचजमप चनियमजुत्त सोयमूलग दसप्पयारपरिव्यायगधम्म दाणधम्म च सोयधम्म च तित्थाभिसेय च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्तवत्य पवरपरिहिए) ते २६, यावे, सामवेद, अथवे तेभर पष्ठितमा કુશળ હેત, નિપુણ હતે સાખ્યસિદ્ધાન્તમાં કહેલા બધા તને તે જાણ નાર હતું તે પાચ યમ તેમજ પાચ નિયમ થી યુક્ત હતું તે શૌચમૂલક દશ જાતના પરિવ્રાજક ધર્મને, દાનરૂપ ધર્મને શૌચરૂપ ધર્મને તીર્થાભિષેક (તીર્થસ્નાન) ને ઉપદેશ આપતું હતું અને પિતાના ધર્મને પ્રચાર કરતા હતે અહિંસા, સત્ય અસ્તેય, બ્રહાચર્ય અને પરિગ્રહ એ પાચ “યમ ” છે
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हाताधर्मकथा
जलाभिषेय पूयप्पाणे अवि-घेणं सगं गच्छति, तएणं से सुदं सणे सुरस अतिए धर्म सोच्चा हट्टे सुयरस अंतिए सोयमूलय धम्मं गिoes, गण्हित्ता परिव्वायएं विपुलेण असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपरिग्गर्हणं परिलाभेमाणे जाव विहरह । तएण से सुए परिव्वायगे सोगधियाओं नयरीओ निगच्छइ, निर्गच्छत्ता वहिया जणवय विहारंविहरइ ॥ सू० १९ ॥ " तेण कालेन " इत्यादि ।
출남
टीका - तस्मिन् काले तस्मिन् समये सौगन्धिका नाम नगरी आसीत् वर्णक सौगन्धिकानगर्या वर्णन औपपातिकमृत्रोक्त चम्पानगरीवद् वाच्यम् नीलाशोक मुद्यान - नीलाशोक नामकमुपवन तत्रासीत् । वर्णक - अस्योद्यानस्य वर्णन पूर्वत्रद् बोध्यम् । तत्र खलु सौगन्धिकाया नगर्या सुदर्शनो नाम नगर श्रेष्ठी प्रतिवसति ।
'तेण कालेन तेण समएण ' इत्यदि ॥
टीकार्य - (तेण कालेन तेण समरण) उस काल और उस समय मे ( सोगधिया नाम नगरी होत्या) सौगधिका नाम की नगरी थी( चन्नओ ) इस नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्र मे जिस प्रकर नगरी का वर्णन किया गया है उसी तरह का जानना चाहिये । ( नीलासोए उज्जाणे ) इस नगरी मे उद्यान था जिसका नाम नीलाशोक था । ( वन्नओ ) पूर्वकी तरह इस उद्याने का वर्णन जान लेना चाहिये । (तत्थ ण सोगधियाए नयरीए सुदसणे नाम नयरसेट्ठी परीवसई अड्डे जाव अपरिभूए) उस सौगंधिका नगरी मे सुदर्शन नाम
तेण कालेन वेण समपर्ण इत्यादि ।
टीअर्थ - (तेण काळेण देण समरण) ते अणे अने ते सभये ( सोगधिया नाम नगरी होत्था ) सौग धिा नाभे नगरी हती ( बन्नओ) सोपपाति સૂત્રમા જે પ્રમાણે ચ પાનગરીનુ વર્ણન કરવામા ભાવ્યુ છે તે પ્રમાણેજ અહીં पशु भी सेवु लेहो, (नीला सोप उज्जाणे ) मा नगरीमा शेठ उद्यान हेतु केतु नाम नीसाशोड हुनु ( वन्नओ ) पडेलानी प्रेम या धाननु वन पशुनाशी सेवु लेहो ( तत्थण सोगधियार नयरीए सुदसणे नाम नयर सेट्ठी परिपड, अहढे जार अपरिसर) ते सौग धिडा नगरीमा सुदर्शन नामे नगर
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका १० ५ सुनदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् यत्रैव सौगन्धिका नगरी यत्रैव परिनाजकारसथ , तत्रैवोपागन्छति, उपागत्य पग्विानकायसवे भाण्डकनिक्षेप करोति = त्रिदण्डादीन्युपकरणानि स्थापयति, कृत्वा सारख्यसमयेन सार यसिद्वान्तानुसाराचारेण आत्मान भावयन् विहरति ।
ततः खलु सौगन्धिकाया नगर्या शगाटत्रिकचतुष्कचत्वरेपु यावद् राजपयेषु वहजनोऽन्योन्यस्य परस्परम्-एवमाख्याति - कथयति, एव सलु शुको नाम परिव्राजक इह अस्यां सोगन्धिकाया नगर्या हव्यमागता समागतः यावदासमान भावयन् विहरति । परिपनिर्माता । मुदर्शनोऽपि निर्गत । ततः खलु स आश्रम या वहा आया। ( उवागच्छित्ता परिवायगावससि मडल निक्सेव करेइ, करित्ता सख समणेण अप्पाण भावेमाणे विसरह) आकर उसने उम परिव्राजकाश्रम में अपने भाडों को रख दिया। और रख कर सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति चालू रखता एआ ठहर गया। (तण्ण सोगधियाग नयरीए सिंघाडगतिगचउम
चच्चरेसु बजणो अन्नमन्नस्स एबमाइग्बइ ) इसके बाद उस सौ__ गधि का नगरी में श्रृंगाटक, त्रिक, चतुक, चत्वर यावत् राजमार्ग में
अनेक जन परम्पर में इस प्रकार बात चीत करने लगे ( एव खलु सुए परिन्वायए इह हव्वमागए जाव विहरड) पधुओ। शुक नाम का परिव्राजक इस अपनी सौगधिको नगरी मे अभी आया है।- वह सारय सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति रखता हुआ परिव्राजका श्रम में ठहरा हुआ है। इस बात से परिचित होकर (परिमा निग्गया, सुदसणो, निग्गर, तण्ण से सुप परिवायए तीसे परिसाए सुदसणस्स
સૌરાધિકાનગરી હતી અને જ્યા પવ્રિાજકોને આશ્રમ હતું ત્યા આ (उबागच्छिता परिचायगावसह सि भडगनिम्खेव करेइ, करित्ता सस सभरेण अपाण भावेमाणे विहरइ ) त परिवारजना आश्रममा पहायान तने પિતાની બધી વસ્તુઓ મૂકી દીધી અને ત્યા સાખ્ય સિદ્ધાન્તને અનુસરીને पोताना मना प्रया२ ४२ २७वा साये! (तएण सोगधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउकचच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ) त्या२मा भौग. ધિકા નગરીમા & ગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક ચત્તર અને રાજમાર્ગમા ઘણુ માણસે
मा त पात। ४२१साया-( एव सलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरइ) भित्र ! मापी नगरीमा शु नामे मे परिमा હમણા જ આ છે સાખ્યસિદ્ધાંત અનુસાર તે પિતાની પ્રવૃત્તિઓ આચર ता परिना४४ मारममा आयेछे मा यातनी ! यता (परिसा
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माताधर्मकथासूत्रे धानानि पानियमाः तैर्युक्तम् शौचमूल्क दशप्रकार= यमनियमसमेलनेन दशविध परिवाजकधर्म दानधर्म दानरूप धर्म च शौचधर्म = मृट्ठा रिजनित शौचरूप धर्म च तीभिषेक = गङ्गादि तीर्थोदकस्नानं च आख्यापयन् मख्यापयन प्रवर्तयन् प्रतापयन् बोधयन् ' धाउरतरत्थपवरपरिहिए' धातुरक्तवस्त्रमपरपरिहितः गैरिकधातुरक्तवस्त्र मवरपरिधानः, गैरिकरक्तवस्त्रधारीत्यर्थ, 'तिदड-कुडिय - छत्त - उन्नालय - कुस - पवित्तय- केसरी हत्थगए ' त्रिदण्ड- कुण्डिका- छत्रपालकाकुश-पवि - क - केसरी हस्तगतः, त्रिदण्डादीनि सप्त इस्तगतानि यस्य स तथा, तत्र त्रिद ण्ड=मनोवाक्कायदण्डत्रयपरिज्ञानार्थ दण्डत्रय, कुण्डिका= कमण्डलुः, उत्रं, प्रसिद्ध, पुनालक = त्रिकाष्ठिका, अङ्कुशः - प्रसिद्धः सपल्लवच्छेदनार्थ, पवित्र तरस्रमयमङ्गुलीयक, केसरी = चीत्ररखण्ड, परिव्राजक सहस्रेण सार्धं सपरिवृत धान ये पाच नियम है। मिट्टी और पानी से शुद्ध करना इसका नाम शौच है। गंगा आदि तीर्थके जल में स्नान करना इसका नाम तीर्थाभिषेक है । इन बातों को आख्यापन- कथन करता हुआ प्रख्यापन प्ररूपणा करता हुआ यह शुक जिन वस्त्रों को परिरता था वे गैरिक धातु से रंगे हुए थे । अर्थात् गैरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को ही यह पहिरता था । ( तिडकुडिय, उत्त छलय कुसपवित्तय के सरीहत्थगण परिव्वायगसरस्से ण सद्धिं सपरिबुडे जेणेव सोगधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ ) मन, वचन और काय इन तीन दडो के परिज्ञान के लिये यह दण्ड य का पारी था। कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्टिका, अकुश, ताम्रमय अगुलीयक, (अगठी ) और चीवर खंड ये सब उस के हाथ में थे । १ एक हजार साधु मंडल से यह परिवृत था । सो जहा वह सौगधिका नगरी थी और उस में भी जहा परिव्राजकों का
શૌચ, સતાય, તપ, સ્વાધ્યાય, ઈશ્વરપ્રણિવાન એ પાચ નિયમ છે માટી અને પાણીથી શુદ્ધ કરવુ તે ગૌચ કહેવાય છે ગગા વગેરે તીથ જળામા નાહવુ તે તીર્થોભિષેક કહેવાય છે આ યમ નિયમાનુ આગ્ન્યા વચન તેમજ પ્રરૂષણા કરતે તે શુક પરિવ્રાજક ગેરિક (ગેરુઆ) વસ્ત્રો પહેરતા હતા એટલે
गेरु थीर गेला वस्त्रोते परतो तो (विद ड बुडिय, उत्त, छय कुमप वित्तयकेसरीइत्थगए परिवायगसहस्सेण सद्धिं सपरिवुडे जेणेव सोगधिया नयरी जेणेव परि वायगावस तेणेव उवागच्छइ ) मन, वयन याने अय ત્રણ દડાના પરિજ્ઞાન માટે તે દડત્રય ( ત્રણુદડ) ધારણ કરતેા હતેા કમ છુ છત્ર, ત્રિાદિકા, આ કુળ તાબાની વીટી અને ચીવખત આ મા તેના હું થ મા હતા એક હજાર સાધુઓ તેની માથે હતા તે કરતા કુશ્તે જ્યા
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका १० ५ सुनदानश्रेष्ठीवर्णनम् यौव सौगन्धिका नगरी यौन परिवानकानमय , तत्रैवोपागन्छति, उपागत्य परिवानकारसये भाण्डकनिक्षेप कगेति - त्रिदण्डादीन्युपकरणानि स्थापयति, कृत्वा सारख्यसमयेन सारयसिद्धान्तानुसाराचारेण आत्मान भावयन् विहरति ।
ततः खल सौगन्धिकाया नगर्या शृङ्गाट कत्रिकचतुप्फचत्वरेपु यावद् राज पयेषु बहुजनोऽन्योन्यस्य परस्परम्-एवमाख्याति - कथयति, एव सलु भुको नाम परिचाजक इह अस्या सोगन्धिकाया नगर्या हव्यमागतः समागतः यावदा स्मान भावयन् विहरति । परिपनिर्भता । सुदर्शनोऽपि निर्गत । ततः खलु स आश्रम था वहा आया। ( उवागच्छित्ता परिचायगावसहसि मडल निक्खेव करेद, करित्ता सख समणेण अप्पाण भावेमाणे विदरह) आकर उसने उम परिव्राजकाश्रम में अपने भाडों को रख दिया। और रख कर सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति चालू रखता हुआ ठहर गया। (तरण सोगधिवाग नयरीए सिंघाडगतिगचउक चच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एबमाइग्वइ ) इसके बाद उस सौगधि का नगरी में श्रृगाटक, त्रिक, चतुक, चत्वर यावत राजमार्ग में अनेक जन परम्पर में इस प्रकार बात चीत करने लगे ( एव खलु सुए परिन्वायए इह हन्धमागए जाव विहरड) बधुओ। शुक नाम का परिव्राजक इस अपनी सौगधिको नगरी में अभी २ आया है। - वह साख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति रखता हुआ परिव्राजका श्रम में ठहरा हुआ है। हम बात से परिचित होकर (परिसा निग्गया, सुदमणो, निग्गण, तण से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदसणस्स સૌધિકાનગરી હતી અને જ્યા પરિવ્રાજકોને આશ્રમ હતું ત્યાં આવ્યું (आगच्छित्ता परिवायगावसह सि भडगनिम्सेव करेइ, करित्ता स स सभरेण अप्पाण भावेमाणे विहरइ) त परिवारजना माश्रममा पहायान तने પિતાની બધી વસ્તુઓ મૂકી દીધી અને ત્યાં સાખ્યસિદ્ધાન્તને અનુસરીને घाताना धमनी प्रया० ४२ता २७१ साय। (तएण सोगधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउकचच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ) त्या२मा भौग. ધિકા નગરીમા શગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક ચત્વર અને ગજમાર્ગમા ઘણું માણો सात पात ४२५॥ सा-या-(एव सलु सुए परिवायए इह हव्बमागए जाव विहरइ) भित्र ! मा५० मा नगरीमा शुरु नामे में परिवार હમણા જ આવ્યા છે સા સિદ્ધાંત અનુસાર તે પોતાની પ્રવૃત્તિઓ આચર तो परिक्षा मारमा आयो छे मा यातनी MY यता १ (परिसा
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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शुरुः परिप्राजकस्तस्या परिपद सुदर्शनस्य च अन्येषा च बहूना जनाना पुरस्तात् साख्याना = साख्य मतानुयायिन धर्म परिकथयति हे सुदर्शन ! एव वक्ष्यमाण प्रकारेण खलु अस्माक शौचमूलको धर्मः प्रज्ञप्तः, तदपि च शौच द्विविध मशप्त तद्यथा - द्रव्यशौच च भावशौच च । द्रव्यशौच च उदकेन जलेन मृत्तिकया च भवति । भावशौच 'दभे हि य' दर्भेव, ' मते हि य' मन्त्रैश्च भवति । हे देवानुप्रिय | यत् खलु अस्माक किंचित्-करचरणकमण्डलु प्रभृति अशुद्ध भवति तत् सर्व ' सज्जो पुवीए ' सद्यः पृथिव्या = शुद्रनवीनमृत्तिकया, आलिप्यते अनुलिप्त क्रियते, ततः पश्चात् शुद्धेन पवित्रेण, चारिणा - जलेन प्रक्षालयते ततस्तदशुद्ध उपहत वस्तु शुद्ध भवति । एव खलु जीवाः ' जलाभिसेयपूपाणी 'जला
य अन्नेसिंच बहण सखाण धम्म परिकहेइ ) नगर निवासी परिषद् उसके पास जाने के लिये अपने २ घर से निकली। सुदर्शन भी निकला इसके बाद उस शुक्र परिव्राजक ने उस आगत परिषद् को सुदर्शन सेठ को तथा और भी एकत्रित हुए अनेक मनुष्यों को साख्यों के धर्म का उपदेश दिया । उसमें उस ने इस प्रकार कहा ( एव खलु सुदसणा अहं सोयमूले धम्मे पण्णत्ते ) हे सुदर्शन हमारा धर्म शौच मूलक प्रज्ञप्त हुआ है (सेविय सोए दुविहे पण्णत्ते) वह शौच भी दो प्रकार का कहा हुआ है- ( दव्वसोए य भावसोए य ) १ द्रव्य शौच २ भाव शौच । (coaमोएय उदएण महियाए घ) जल और मिट्टी से द्रव्य शौच होता है । (भावसोए दमेहिं य मते हिं य) भावशौच दर्भ और मत्रों से होता है । ( जन्न अम्ह देवाणुप्पिया । किंचि असुह भवइ त सव्व
निग्गवा, सुदक्षणो निमाए तरण से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसि च बहूण ससाण धम्म परिकहेइ ) नागरीओनी परिषह तेनी पासे જવા પાત પેાતાને ઘેરથી નિકળી સુદર્શન પણુ પાતના ઘેરથી ત્યા જવા માટે ખહાર નીકળ્યે ત્યાર પછી શુક પરિવ્રાજ કે ઉપસ્થિત થયેલી નગરીકે ની પરિષદ સુદર્શન તેમજ બીજા એકઠા થયેલા માણસેાની સામે સામ્યમ ના ઉપદેશ આપ્યા. ઉપદેશ આપતા શુક પરિવ્રાજકે આ પ્રમાણે કહ્યુ (વ सलु सुदु सणा अम्ह सोयमूले धम्मे पण्ण ) डे सुदर्शन ! अमारो धर्म शीय હૈ भूस अज्ञस थयो छे ( सेविय सोए दुविहे पण्णत्ते ) शौयना मे प्रहार छे ( दव्वसोए य भावसोए य ) १, द्रव्य शीय, २, लाव शोथ ( दव्वसोए य eer after a मने भाटीथी द्रव्य शौय थाय छे ( भावसोए भाह य महि
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हल' अने भ त्रीवडे थाय छे (जन्न अम्हें
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भनगारधर्मामृतवपिणी टीका म०५ सुदर्शनश्रेष्ठो वर्णनम् भिषेक पूतात्मानः जलेनाभिपेकः स्नान, तेन पूतः शुद्ध आत्मा येपा ते, माणिनः ‘अविग्येण ' अविघ्नेन प्रतिवन्धरहितेन 'सग्ग' स्वर्ग गच्छन्ति । ततः खलु स सुदर्शनः शुकस्य शुकनाम्नः परिवाजकस्य अन्तिके-समीपे धर्मशौचमूलक शुकोक्तधर्म, श्रुत्वा ' हटे । हप्टः प्रमुदितः सन् शुकस्यान्तिके शौच मूलक धर्म गृह्णाति । साख्यमत सीकुरुतेस्म शुक परिनानकस्य पर्युपासको जातः, शुकमेव धर्माचार्यत्वेन मन्यतेस्म, धर्म गृहीत्वा स मुदर्शनः परित्राजकान् प्रतिदि बस विपुलेन निस्तीर्णेन अशनपानखाद्यस्वायेन चतुर्विधाऽऽहारेण, तथा वस्त्र सज्जो पुढचीए आसिप्पड़, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिजइ ) हे देवानुप्रिय ! जो भी हमारा कोई कर चरण, कमण्डलु आदिअशुचि हो जाती है उसे पहिले शुद्ध नवीन मृत्तिका से हम माज लेते हैं और बाद में पवित्र जल से धो लेते हैं- (तओत असुई सुई भवइ, एव खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणे अविग्घेण सग्ग गच्छति ) इस तरह वह अशुचि पदार्य शुचि-पवित्र हो जाता है। इसी प्रकार जीव भी जलाभिषेक से जलस्नान से पवित्रात्मा बन कर बहुत जल्दी विना किसी रुकावट के स्वर्ग को पहुँच जाते है । (तएण से सुदसणे सुयस्स अतिए धम्म सोच्चा दृढे सुयस्स अतिए सोयमूलय धम्म गिण्डा ) इस प्रकार वे सुदर्शन शुक के पास धर्म का श्रवण कर पहुत अधिक हर्षित हुए। बाद में उन्होंने शुक से शौच मूलक धर्म अगीकार कर लिया। (गेण्डित्ता परिव्वायए विपुलेण असणपाणखाइमसाइमेण वत्थपरिग्गहेण परिलाभेमाणे जाव विहरह) शौचमूलक धर्म देवाणुपिया ? किं चि असुइ भवइ त सव्व सज्जो पुढवीए आसिप्पइ, तओ पच्छा सुध्धेण वारिणा पक्सालिज्जइ) वानुप्रिय । मभा। हाथ, ५भ. ડળ વગેરે અપવિત્ર થઈ જાય છે તે પહેલા તેને નવીન માટીથી અમે ઉટકી એ છીએ અને ત્યાર પછી શુદ્ધ પાણી થી સાફ કરી લઈએ છીએ (ત त असुई सुई भवद एव खलु जीवा जलाभिसेय पूयप्पाणे अविग्घेण सग्ग गच्छति ) से प्रभ । अपवित्र पहा पवित्र IS Mय छ २मा रीते ७५ પણ પાણીથી સ્નાન કરી પવિત્રાત્મા થઈને સત્વરે કોઈ પણ જાતના અટ
१ मुश्दी 41R 0 पायी जय (तएण से सुदसणे सुयस अतिए धम्म सोचा ह सुयस्स अतिए सोयमूलय धम्म गिण्हइ) भरते તે સુદર્શન નગર શેઠ શુકની પાસેથી ધર્મનુ શ્રમણ કરીને ખૂબજ હર્ષ પામ્યા सतना पाथी तभो शीय भृक्ष यम स्वीजयों (गेण्हित्ता परिवायए विपुलेण असणपाणखाइमसाइमेण वत्थपरिगहेण परिलाभे माणे जाव विह
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माताधर्मकथाले शुकः परिव्राजकस्तस्या परिपद मुदर्शनस्य च अन्येपा च बहूनां जनाना पुरस्ताद साख्याना-साख्यमतानुयायिना धर्म परिकथयति-हे सुदर्शन ! एव वक्ष्यमाण प्रकारेण खलु अस्माक शौचमूलको धर्मः प्रज्ञप्तः, तदपि च शौच द्विविध प्रशस तद्यथा-द्रव्यशौच च, भावशीच च। द्रव्यशीच च उदकेन जलेन मृत्तिकया व भवति । भावौष ' दम्भे हि य 'दर्भश्व, 'मते हि य' मन्त्रैश्च भवति । हे देवानुमिय ! यत् खलु अस्माक किंचित् करचरणकमण्डल प्रभृति अशुद्ध भवति तत् सर्व ' सज्जो पुढ़वीए ' सद्यः पृथिव्या शुद्रनवीनमृत्तिकया, आलिप्यते अनुलिप्त क्रियते, ततः पश्चात् शुद्धनपवित्रेण, वारिणा-नलेन प्रक्षाल्यते ततस्तदशुद्ध उपहत वस्तु शुद्ध भवति । एव खलु जीगाः 'जलाभिसेयपूयप्पाणो ' जलाय अन्नेसिंच पहण सखाण धम्म परिकह ) नगर निवासी परिषद उसके पास जाने के लिये अपने २ घर से निकली। सुदर्शन भी निकला इसके बाद उस शुक परिव्राजक ने उस आगत पम्पिद् को सुदर्शन सेठ को तथा और भी एकत्रित हुए अनेक मनुष्यों तो साख्यों के धर्म का उपदेश दिया । उसमें उस ने इस प्रकार कहा (एव खल सुदसणा अम्हं सोयमूले धम्मे पण्णत्ते ) हे सुदर्शन हमारा धर्म शौच मूलक प्रज्ञप्त हुआ है (से वि य सोग दुविहे पण्णत्ते) वह शौच भी दो प्रकार का कहा हुआ है- (दवसोए य भावसोए य) १ द्रव्य शौच २ भाव शौच । (वमोएय उदएण मट्टियाए य) जल और मिट्टी से द्रव्य शौच होता है । (भावसोए दम्भेहि य मते हिं य) भावशौच दर्भ और मत्रों से होता है । (जन्न अन्ह देवाणुप्पिया ! किंचि असुइ भवइ त सव्व निग्गवा, सुव सणो निम्गए तएण से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसिं च बहूण ससाण धम्म परिकहेइ) नामशनी परिषद तनी पासे જવા પિત પિતાને ઘેરથી નિકળી સુદર્શન પણ પિતના ઘેરથી ત્યાં જવા માટે બહાર નીકળે ત્યાર પછી શુક પરિવાજ કે ઉપસ્થિત થયેલી નગરીકે ની પરિષદ સુદર્શન તેમજ બીજા એકઠા થયેલા માણસેની સામે સાખ્યધર્મ ने पहेश माथ्ये। आप माता शु: परिना प्रभारी छु (एव सलु सुद सणा अम्ह सोयमूले धम्मे पण्ण ) सुर्शन ! आमा! ५ शीय भूमा प्रशस थये। छे (सेविय सोए दुबिहे पण्णत्ते) शोयना में प्रा२ छे ( दव्वसोए य भावसोए य) १, द्रव्य शीय, २, साप शीय (दवसोए य उदएण महियाए य) पारी भने भाटीथी द्रव्य शीय थाय छे (भावसोए दमोह य मतेहिं य ) साप शीय हम सभाप थाय छे (जन्न अन्हें
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भनगारधर्मामृतपपिणी टीका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठो रणनम् । भिषेक पूतात्माना=जलेनाभिपेकः स्नान, तेन पूतः शुद्ध आत्मा येपा ते, माणिनः · अविग्ण ' अविन्नेन प्रतिवन्धरहितेन 'सग्ग' स्वर्ग गच्छन्ति । ततः खलु स सुदर्शनः शुकस्य शुकनाम्नः परिव्राजकस्य अन्तिके-समीपे धर्म शौचमूलक शुकोक्तधर्म, श्रुत्वा ' हटे । हृष्टः प्रमुदितः सन् शुकस्यान्तिके शौच मूलक धर्म गृह्णाति । सांख्यमत सीकुरुतेस्म शुक परिचालकस्य पर्युपासको जातः, शुकमेव धर्माचार्यत्वेन मन्यतेस्म, धर्म गृहीत्वा स मुदर्शनः परिव्राजकान् प्रतिदि वस विपुलेन निस्तीर्णेन अशनपानखाद्यस्वाधेन चतुर्विधाऽऽहारेण, तथा वस्त्र सज्जो पुढवीए आसिप्पड़, तओ पच्छा सुद्धण वारिणा पक्खालिजइ ) हे देवानुप्रिय ! जो भी हमारा कोई कर चरण, कमण्डलु आदिअशुचि हो जाती है उसे पहिले शुद्ध नवीन मृत्तिका से हम माज लेते हैं और बाद में पवित्र जल से धो लेते हैं- (तओत असुई सुई भवइ, एव खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणे अविग्घेण सग्ग गच्छति ) इस तरह वह अशुचि पदार्थ शुचि-पवित्र हो जाता है । इसी प्रकार जीव भी जलाभिषेक से जलस्नान से पवित्रात्मा बन कर बहुत जल्दी विना किसी रुकावट के स्वर्ग को पहुँच जाते है । (तएण से सुदसणे सुयस्स अतिए धम्म सोच्चा हट्टे सुयस्स अतिए सोयमूलय धम्म गिण्इ ) इस प्रकार वे सुदर्शन शुक के पास धर्म का श्रवण कर यहुत अधिक हर्पित हुए। बाद में उन्होंने शुक से शौच मूलक धर्म अगीकार कर लिया। (गेण्डित्ता परिव्वायए विपुलेण असणपाणखाइम साइमेण वत्थपरिग्गहेण परिलाभेमाणे जाव विहरइ ) शौचमूलक धर्म देवाणुप्पिया ? किं चि असुइ भवइ त सव्व सज्जो पुढवीए आसिप्पइ, तो पच्छा सुध्धेण वारिणा पक्सालिज्जइ) पानुप्रिय । ममा , ५॥ भ. ડળ વગેરે અપવિત્ર થઈ જાય છે તે પહેલા તેને નવીન માટીથી અમે ઉટકી એ છીએ અને ત્યાર પછી શુદ્ધ પાણી થી સાફ કરી લઈએ છીએ (ત त्त असुई सुई भवद एव खलु जीवा जलाभिसेय पूयप्पाणे अविग्घेण सग्ग गच्छ ति ) से प्रभ । मपवित्र पहा पवित्र 25 जय छे मारी ७५ પણ પાણીથી સ્નાન કરી . પવિત્રાત્મા થઈને સત્વરે કઈ પણ જાતના અટ ४५ है भुश्छेदी १५२ २ पाथी नय , (तएण से सुद् सणे सुयरस अतिए धम्म सोचा ह सुयस्स अतिए सोयमूलय धम्म गिण्हइ) भरीत તે સુદર્શન નગર શેઠ શુની પાસેથી ધર્મનુ શ્રમણ કરીને ખૂબજ હર્ષ પામ્યા भनी पाथी तभी शीय भूख धर्म स्वीय (गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेप असणपाणखाइमसाइमेण वत्यपरिगाहेण परिलाभे माणे जाव विह
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
दनन्तर खलु
प्रतिग्रहेण प्रतिलाभयन् सत्कारयन समानयन् यानद् विहरति= विचरति । ततस्तशुकः परिवाजकः सौगन्धिकाया नगर्यां निर्गच्छति, निर्गत्य च बहिर्जनपद विहारविहरति = करोतिस्म ॥ १९ ॥
मूलम् - तेण कालेन तेण समएणं थावच्चापुत्तस्स समोसरण, परिसा निग्गया सुदसणो विणिग्गओ, थावच्चापुत्तं वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता एव वयासी- तुम्हाणं कि मूलए धम्मे पन्नत्ते ? तणं थावच्चापुत्ते सुदसणेण एव बुत्ते समाणे सुदसण एव वयासी- उदसणा अम्हाणं विणयमूले धम्मे पन्नत्ते सेविय विए दुविहे पन्नत्ते त जहा - अगारविणए अणगार विणए य, तत्थ णं जे से अगारविणए से णं चत्तारि अणुव्वयाई सत्त सिक्खात्रयाइ, एक्कारस उवासगपडिमाओ । तत्थण जे से अणगारविणए से ण चत्तारि महाव्वयाइ त जहा - सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण सव्वाओ मुसावायाओं वेरमण सव्वाओ
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अगीकार करके उन्होंने फिर अशन पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चारों प्रकार के आहार से और वस्त्र के प्रदान से उस शुरु परिव्राजक को लाभान्वित किया सत्कारित किया, -सम्मानित किया। (तरण से सुपरिन्यायगे सोगधियाओ नयरीओ निगच्छड निग्गच्छित्ता बहिया जणविहार विरह ) इसके बाद वह शुक परिव्राजक सौगधिका नगरी से निकला और निकल कर बाहर अन्य देशो की ओर बिहार कर गया। सू-१९
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ર૬) ગૌચ મૂલક ધર્મ સ્વીકારીને તેમણે શુક પરિનજકને અશન, પાન, ખાવ અને સ્વાદ્ય રૂપ ચારે પ્રકારના આહાર તેમજ વસ્ત્રો અર્ષાંતે લાસાન્વિત કર્યાં हमने सन्मान (तरण से सुए परिव्यायगे सोगधियाओ नयरीओ नि छ, निगडित्ता घहिया जणत्रपविहार विरइ ) त्यार पी शु परिवा સૌગખિકા નગરીથી બહારના ખીજા દેશ તરફ વિહાર કરવા નીકન્યા સ૦૧૯મા
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् अदिन्नादाणाओ वेरमणं सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं जाव मिच्छादसणसालाओ वेरमण, दसविहे पचक्खाणे वारस भिक्खुपडिमाओ इच्चेएणं दुविहेण विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुव्वेणं अट्टकम्मपगडीओ खवेता लोयग्गपइटाणा भवति ॥ सू० २०॥
(तेण कालेण ) इत्यादि
टीका-तस्मिन् काले तस्मिन् समये सौगन्धिकायां गर्या यावच्चापुत्रस्य समवसरणमागमनमभूत्, तदा परिपन्निर्गता= सौगन्धिका नगरी निवासिनो लोकाः स्थापत्यापुत्र वन्दितु निर्गता', गुदर्शनोऽपि-मुदर्शनाम्ना नगरश्रेष्ठी अपि, निर्गतः, तत्रागत्य थावच्चापुत्र वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नत्वा च एवम् वक्ष्य माणमकारेण, अवादीत्-हे भगवान् ! युप्माक कि मूलको धर्मः प्रशतः ? ततस्त
तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । टीकार्थ-( तेण कालेण तेण समण्ण ) उस कल और उस समय मे उस सौगन्धिकानगरी में विहार करते हुए (धावच्चापुत्तस्स समोसरण) स्थापत्यापुन अनगार का आगमन हुआ। (परिसा निग्गया,सुदसणो वि णिग्गओ) स्थापत्यापुत्र का आगमन सुनकर सौगधिका नगरीके निवासी जन उनको वदना करने के लिये चले सुदर्शनसेठ भी चला। (धावच्चा. पुप्त वदाइ, नमसद, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी) उसने वहाँ पहुंचकर स्थापत्या पुत्र अनगारको वचन से स्तुति करने रूप वदना की तथा काय से उन्हें नमन किया। वदना नमस्कर करके फिर उसने उनसे इस प्रकार
तेण काळेण नेण समपण इत्यादि ।
साथ-(तेण कालेण तेण समष्ण) तेणे भने त मभये ते सोग घिरा नगरीमा विहा२ ४२ता (धावच्चा पुत्तम समोसरण) क्या५त्यापुत्र मन शार मा-या ( परिसा निगाया सुन सणा वि णिग्गओ) भ्यायत्यापुत्रने मायानी જાણ થતા જ નૌગ વિના નગરીના નાગરિકે તેમને વદન કરવા નીકળી પડયા सुशन 28 ५ तभने ५४न ४२१। नीsuया (यावच्चापुत्त वदइ, नमसह वदिता, नमसित्ता एव वासी) त्या पडाचीन तमो न्या५त्या पुन अनगार ના વચનથી સ્તુતિ કીને ૧દન કર્યા તેમજ કાયાથી નમીને તેમને નમસ્કાર કર્યા વદ અને નમસ્કાર કરીને સુદર્શન શેઠે તેમને વિનતી કરી (
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भाताधर्मकथासू
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दनन्तर खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनेनैवमुक्तः सन् सुदर्शनमेवमवादीदहे सुदर्शन ! अस्माक धर्म' दुर्गतौ पततो जन्तून् धरति रक्षति शुभस्थान प्रापयति इति धर्मः आचार, विनयमूला-विनयति अपनयति नाशयति सकनकेशकारकमविध कर्म यः स विनय कर्मापन यनसमर्थचारित्रलक्षणोऽनुष्ठान विशेषः स एव मूल कारणं यस्य स तथा उक्त चकर्मणा द्राग् विनयनाद् विनयो विदुषां मत । अपवर्ग फलादयस्य मूल धर्मतरोरयम् ॥ १ ॥ इति । चारित्रमाश्रित्य व्धस्थितिष इत्यर्थ, यद्वा विनयो विनीतता द्रव्यभावास्यां नम्रता तन्मूलकः, प्रज्ञप्तः = तीर्थकरै मरपितः । सोऽपि च विनयो द्विविधः तद्यथाकहा ( तुम्हा ण कि मूलए धम्मे पनन्ते ) हे भगवान ? आपका धर्म किं मूलक प्रज्ञप्त हुआ हैं । (तएण धविच्चापुस्ते सुदसणेण ण्व बुत्ते समाणे सुदसण एव वयसी) इस प्रकार सुदर्शन सेठ के द्वारा इस प्रकार पूछे गये स्थापत्या पुत्र अनगार ने उससे इस प्रकार कहा (सुदसणा अम्हाण विणमूले धम्मे पन्नत्ते) हे सुदर्शन हमारा धर्म-विनय मूलक प्रज्ञप्त हुआ है । दुर्गतिमे जाने से जो प्राणियो को बचाता है और शुभ स्थान में उन्हें पहुँचाता है उसका नाम धर्म-आचार है । सकल क्लेशोंका दाता जो अष्ट प्रकार का कर्म है उसे जो नाश करता है उसका नाम विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप अनुष्ठान विशेष है। यह विनय ही धर्म का मूल कारण कहा गया है कहा भि है जिसके द्वारा जीव झटिति कर्मों का नाश कर देता है तथा अपवर्ग रूप फल से युक्त हुए जो धर्मरूपी वृक्षका मूल है - वही विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप ही माना गया है किं मूल धम्मे पन्नत्ते ) हे भगवान | आपना धर्मना भूजलूत सिद्धान्तो शु छे (तरण थावच्चापुत्त सुदसणेण एव वुप्त समाणे सुद सण एव वयासी ) સુદર્શન શેઠના આ પ્રશ્નને સાભળીને સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે જવાખમાં तेभने उ ( सुदत्रणा अम्हाण विणण्मूले धम्मे पन्नत्ते ) हे सुदर्शन ! सभाग ધર્મના આધાર વિનય મૂલક છે. દુગતિમા જતા પ્રાણીઓને જે અટકાવે છે અને શુભસ્થાનામા તેમને લઈ જાય છે તે ધમ-આચાર કહેવાય છે. સમ સ્ત કલેશાને ઉત્પન્ન કરનાર આઠ પ્રકારના કર્મોને જે નાશ કરે છે તેનુ નામ • વિનય ’ છે. એવુ જ વિનય ચારિત્ર રૂપ અનુષ્ઠાન વિશેષ છે આ વિનય જ ધર્મનુ મૂળ કારણ છે કહ્યુ છે કે જેના વડે જીવ જલદી કાંના નાશ કરે છે તેમજ અપવર્ગ (મેાક્ષ) રૂપી વૃક્ષનુ જે મૂળ છે તે ‘વિનય’ જ છે આવા विनय चारित्र ३५० गाय छे ( से विय विणए दुविहे पण्णत्ते ) ते विनय
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मनगारधर्मामृतवपिणी टीफा अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् अगारविनयोऽनगारविनयश्च । तन खलु य स जगारपिनयः स खलु चतवारिअणु
तानि, सप्त शिक्षात्रतानि, एकादशोपासकमतिमाः । अगारविनयविपये सविस्तर वर्णनमुपासस्दशाङ्गटीकायामगारधर्मसजीवन्या द्रष्टव्यम् , तर चतुर्विशतितमतीर्थ पर श्री महावीरशासनत्वेन आनन्दगायापतिवर्णने पञ्चाणुतानि पञ्चमहाव्रतानि वर्णितानि । अत्रारिष्टनेमेाविंशतितमतिर्थफरशासनचतुर्थतम्य परिग्रहविरमण(से वि य विणये दुविहे पण्णत्ते) वह विनय भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है । (तजहा) वह इस प्रकार से-(अगारविण अणगारविणए) १ अगार विनय-दूसरा अनगार विनय । ये दो भेद चारित्र पर विनय को लक्ष्य में रखकर किये गये है। जर विनय का अर्थ विनीतता-नम्रता होती है उस समय द्रव्य की अपेक्षा नम्रता और भाव की अपेक्षा नम्रता इस तरह भी उसके दो भेद हो जाते हैं (तत्थ ण जे से आगारविणए सेण चत्तारि अणुव्वयाड सत्तसिक्खावयाड एस्कारसउवासगपडि माओ) अगारविनय चार अणुव्रत सात शिक्षाबत तया ११ उपासक प्रतिमा रूप है। इस विपयका विस्तृत वर्णन उपासक दशांगकी टीका अगारधर्म सजीवनी मे किया गया है अतः यह विषय वहा से जानलेना चाहिये । विशेप केवल इतना ही है-वहा चौवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का शासन होने से उपासक दशास्त्र मे आनन्दगाथापति के वर्णन में पाच अणुव्रत और पाच महाव्रत कहे गये है किन्तु यहां याईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि भगवान के शासन में चौथे व्रत का ना ५९ मे १२ उपा। माया छ (त जहा ) ते प्रारी २मा प्रमाणे छे (अगारविणए अणगारविणा) १, भागार विन्य, २, मना२ विनय આ બને વિનયને પ્રકારે ચારિત્ર ગત વિનયને અનુલક્ષીને જ કરવામાં આવ્યા છે જ્યારે વિનય શબ્દને અર્થ “વિનીતતા” (નમ્રતા) થાય છે ત્યારે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નમ્રતા તેમજ ભાવની અપેક્ષાએ પણ નગ્નતા આ રીતે प तन मे लेह थाय छ (तत्थ ण जे से अगारविणए से ण चत्तारि अणुव्वयाइ सत्त सिक्सापयाइ, एक्कारस उपासगपडिमाओ) भाग२ विनय पाय मा ઘત સાત શિક્ષાનત તેમજ અગિયાર ઉપાસક પ્રતિમા રૂપ છે આ વિષે સ વિસ્તાર માહિતી ઉપાસક દરગઝૂત્રની અગારધર્મસ જીવની ટીકામાં આપે લી છે જિજ્ઞાસુ જનોએ ત્યાથી જાણી લેવું જોઈએ વિશેષ કેવળ એટલું જ છે કે ત્યા વીસમા તીવ ર શ્રી મહાવીર સ્વામીનું શાસન હોવાથી આન દ ગાથાપનીના વર્ણનમાં પ ચ અણુવ્રત અને પાચ મહાનત કહેલા છે પર તુ અહીં બાવીસમાં તીર્થ કર શ્રી અટિનેમી ભગવાનના આસનમ ચેથાવતને
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तापमंकथायो दनन्तर खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनेनैवमुक्तः सन् सुदर्शनमेवमवादी
हे सुदर्शन ! अस्माक धर्मः दुर्गती पततो जन्तुन धरति रक्षति शुभस्थान प्रापयति इति धर्मः आचार, विनयमूला विनयति अपनयति नाशयति सकल. स्केशकारकमष्टविध कर्म यः स विनय कर्मापनयनसमर्थचारित्रलक्षणोऽनुष्ठान विशेपः स एव मूल कारण यस्य स तथा,-उक्त च
कर्मणा दाग विनयनाद् विनयो विदुषां मत ।
अपवर्ग फलादयस्य मूल धर्मतरोरयम् ॥ १॥ इति । चारित्रमाश्रित्य रन्धस्थितिफ इत्यर्थ , यद्वा विनयो विनीतता द्रव्यभावाभ्यां नम्रता तन्मूलक', प्रज्ञप्तः तीर्थकरै मरपितः। सोऽपि च विनयो द्विविधः तद्यथाकहा (तुम्हा ण कि मूलए धम्मे पन्नत्त) हे भगवान ? आपका धर्म कि मूलक प्रज्ञप्त हुआ हैं। (तएण विच्चापुत्ते सुदसणेण एव वुत्ते समाणे सुदसण एव वयसी) इस प्रकार सुदर्शन सेठ के द्वारा इस प्रकार पूछे गये स्थापत्या पुत्र अनगार ने उससे इस प्रकार का (सुदसणा अम्हाण विणयमूले धम्मे पन्नत्ते) हे सुदर्शन हमारा धर्म-विनय मूलक प्रज्ञप्त हुआ है। दुर्गतिमे जाने से जो प्राणियो को बचाता है और शुभ स्थान में उन्हे पहुँचाता है उसका नाम धर्म-आचार है। सकल क्लेशोंका दाता जो अष्ट प्रकार का कर्म है उसे जो नाश करता है उसका नाम विनय है। ऐसा विनय चारित्र रूप अनुष्ठान विशेष है। यह विनय ही धर्म का मूल कारण कहा गया है-कहा भि है जिसके द्वारा जीव झटिति कर्मों का नाश कर देता है तथा अपवर्ग रूप फल से युक्त हुए जो धर्मरूपी घृक्षका मूल है-वही विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप ही माना गया है किं मूलए धम्मे पन्नत्ते) लगवान ! मापन पाना भूगभूत सिद्धान्त | छे (तएण थावच्चापुत्त सुदसणेणं एव वुत्त समाणे सुदसण एव वयासी) સુદર્શન શેઠના આ પ્રશ્નને સાભળીને થથાપત્યા પુત્ર અનગારે જવાબમાં तभने छु ( सुद सणा अम्हाण विणयमले धम्मे पन्नत्ते) सुशन! अभाग ધર્મને આધાર વિનય મૂલક છે દુર્ગતિમાં જતા પ્રાણીઓને જે અટકાવે છે અને રાજસ્થાનમાં તેમને લઈ જાય છે તે ધર્મ-આચાર કહેવાય છે સમ સ્ત કલેશને ઉત્પન્ન કરનાર આઠ પ્રકારના કર્મોને જે નાશ કરે છે તેનું નામ વિનય છે એવું જ વિનય ચારિત્ર રૂપ અનુષ્ઠાન વિશેષ છે આ વિનય જ ધનું મૂળ કારણ છે કહ્યું છે કે જેના વડે જીવ જલદી કમેને નાશ કરે છે તેમજ અપવર્ગ (મોક્ષ) રૂપી વૃક્ષનું જે મૂળ છે તે “વિનય જ છે આવે विनय यास्त्रि ३५० गयाय छ (से विय विणए दुविहे पण्णत्ते) ते विनय
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ सुदर्शन श्रेष्ठवर्णनम्
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ष्ठानाः = मोक्षपदावस्थिता भवन्ति । लोकाग्रे सिद्धिपदे प्रतिष्ठान स्थितिर्येपा ते तथा सिद्धा भवन्ति ॥ २० ॥
मूलम् - तएण थावच्चापुत्ते सुदसणं एव वयासी तुम्भेणं सुदसणा । किं मूल धम्मे पन्नते ? अम्हाणं देवाणुप्पिया । सोयमूले धम्मे पन्नत्ते जाव सग्गं गच्छति, तएण थावच्चापुत्ते सुदसणं एव वयासी - सुदसणा । से जहानामए केइ पुरिसे एग मह रुहिरकय वत्थ रुहिरेण चेत्र धोवेजा तएण सुदंसणा तस्स रुहियस्स स्स रुहिरेणं चैत्र पक्खालिजमाणस्स अस्थि काइ सोही ? णो इट्टे समट्ठे, एवामेव सुदसणा । तुम्भपि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसणं नत्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चैव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही, सुदसणा । से जहा णामए केइ पुरिसे एगं मह रुहिरकय वत्थ सज्जियाखारेण अणुलिपड़, अणुलिपित्ता पयण आरुहेइ आरुहित्ता उन्ह गाहेइ, गाहिता ततो पच्छा सुद्धेणवारिणा धोवेजा सेणूणं सुदसणा । तस्स रुधिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेण अणुलित्तस्स पण आरुहियस्स उण्ह गाहियस्स सुद्वेण वारिणा लोयग्गपट्ठागा भवति ) इस प्रकार विविध विनयमूलक धर्म की की आराधना से जीव क्रम २ से अष्ट विध कर्मो की प्रकृतियों को खपाकर लोकके अग्र भाग में विराजमान हो जाते है । - सिद्ध पदके भोक्तावन जाते हैं। सूत्र ||२०||
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लोयग्गपइट्टाणा भवति ) मा शेते विनयना मने अक्षरो ? धर्मना भूज એવા ધર્માંની આરાધના કરવાયી જીવ ધીમે ધીમે અનુક્રમે કર્માંની આઠ જાતની પ્રકૃતિએના નારા કરીને લેાકના અગ્રભાગે સ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, તેઓ सिद्धपहने लोगवनार थाय छे, ॥ सू-२० ॥
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हाताधर्मकथागतो व्रतेऽन्तर्भावात् चाउज्जामो धम्मो इति वचनात् चत्वारि आणुनतानि, चत्वारि महानतानि आसन् इति विशेषः । तन खलु यः सोऽनगारविनयः स खलु पञ्च महाातानि, तद्यथा-सर्वस्मात् प्राणाविपाताद विरमण१, सर्वस्माद् मृपानादाद निरमण२, सर्पस्माद् अदत्तादानाद् पिरमण३, सर्पम्मात् परिग्रहाद् विरमण । सर्वस्माद रात्रिभोजनाद् विरमण, यात्रन्मिल्यादर्शनल्याद् विरमण, दशविध प्रत्याख्यान द्वादशभिक्षुमतिमा., इत्येतेन द्विविधन, पिनयमूलकेन धर्मेण 'अणुपुत्वेण ' अनुपूज्र्येण क्रमेण 'अहम्मपगडीनो' अष्टकर्ममरुती: ज्ञाना वरणीयाद्यष्टकर्मप्रकृतीः 'खवेत्ता' क्षपयित्वा ' लोयग्गपइट्ठाणा' लोकायप्रति पाचवें परिग्रहविरमणव्रत में अन्तर्भाव होने से ' चाउज्जामो धम्मो' इस वचन से चार अणुव्रत और चार महाव्रत कहे गये हैं।
(तत्थ ण जे से अणगारविणए से णं चत्तारि महन्वयाइ त जहा) इसी तरह जो अनगार विनय है वह चार महावत रूप है जैसे (सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण सव्वाओ मुसावायाओ वेरमण सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमण,सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमण, सव्वाओ भोयणाओ वेरमण जाव मिच्छादसणसल्लाओ वेरमण) समस्त प्राणातिपात से विरमण, समस्त मृपागाद से विरमण समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त परिग्रह से विरमण होना इन चार प्रकार के महाव्रतरूप तथा समस्त रात्रि भोजन से विरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण होना इन रूप तथा (दसविहे पच्चक्खाणे चारसभिक्खुपडिमाओ दस विध प्रत्याख्यान रूप और १२ बारह भिक्षु प्रतिमा रूप है ( इच्चेएण दुविहेण विणयमूलएण धम्मेण अणुपुत्वेण अट्ट कम्मपगडीओ खवेत्ता पायमा परियड विरभ व्रतमा सन्तल वाथी " चाउज्ज्ञामो धम्मो" से क्यनथी या२ मानत भने थारमारत या छ (तत्थ ण जे से अणगार विणए से ण चत्तारिमव्वयाइ त जहा) मा रीते १ मना२ पिनय पार यार महानत ३५ छे रेभ (सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण सव्वाओ मुसावायाओ वेरमण सव्वाओ अदिन्नदाणाओ वेरमण सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमण सव्वाओ राइ भोयणाओ वेरमण जाय मिच्छोद सणसल्लाओ वेरमण) स४ प्राथातिपातथी विर મવુ સકળ મૃષાવાદ (અસત્યભાષણ) થી વિરમવુ, સકળ અદત્તાદાનથી વિરમવુ, અને સકળ પરિગ્રહથી વિરમગુ આ ચાર જાતના મહાવત રૂપ છે રાત્રિ सोनयी विरभवु यात भिथ्याशन शयथी वि२भित थयु, (दसविहे पच्च क्खाणे बारसभिक्खुपडिमाओ) शिविध प्रत्याभ्यान३५ गते मा२ प्रतिभा३५ छे (इत्चेएण दुविहेण विणयमूलएण धम्मेण अणुपुव्वेण अट्ठ कम्मपगडीओ सवेत्तों
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका भ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीपर्णनम् ष्ठानाः मोक्षपदावस्थिता भवन्ति । लोकाग्रे सिद्धिपदे प्रतिष्ठान स्थितिपा ते तथा सिद्धा भवन्ति ॥ २० ॥
मूलम्-तएण थावच्चापुत्ते सुदसणं एव वयासी-तुभेण सुदसणा । किं मूलए धम्मे पन्नत्ते ? अम्हाणं देवाणुप्पिया । सोयमूले धम्मे पन्नत्ते जाव सग्ग गच्छंति, तएण थावच्चापुत्ते सुदसणं एव वयासी-सुदसणा । से जहानामए केइ पुरिसे एग मह रुहिरकय वत्थ सहिरेण चेव धोवेजा तएणं सुदसणा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पखालिजमाणस्त अस्थि काइ सोही' णो इणहे समढे, एवामेव सुदसणा | तुम्भंपि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नस्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही, सुदसणा । से जहा णामए केइ पुरिसे एगं मह रुहिरकय वत्थ सज्जियाखारेणं अणुलिपइ, अणुलिपित्ता पयण आरुहेइ आरुहित्ता उपह गाहेइ, गाहित्ता ततो पच्छासुद्धेणवारिणा धोवेजा से पूण सुदसणा | तस्स रुधिरकयस्स वत्थस्त सजियाखारेण अणुलित्तस्स पयण आरुहियस्स उपह गाहियस्स सुद्धेण वारिणा लोयग्गपइट्ठागा भवति ) इस प्रकार विविध विनमूलक धर्म की की आराधना से जीव क्रम २ से अष्ट विध कर्मों की प्रतियो को खपाकर लोकके अग्र भागमे विराजमान हो जाते है ।-सिद्ध पदके भोक्ताबन जाते हैं। सूत्रा२०॥
लोयग्गपइद्वाणा भवति ) मा शत विनयना पने सारे धर्मना भणजे એવા ધર્મની આરાધના કરવાથી જીવ ધીમે ધીમે અનુકમે કર્મોની આઠ જાતની પ્રકૃતિઓને નારા કરીને લેકના અગ્રભાગે સ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, તેઓ सिद्धपहने सामना२ थाय छ, ॥ सू-२० ॥
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છે.
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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पक्खालिज माणस्स सोही भवइ ? हंता भवइ, एवामेव सुदंसणा ! अम्हपि पाणाइवायवेरमणेणं अस्थि सोही, जहा वा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्वेणं वारिणा पखालिजमा णस्स अस्थि सोही तएण से सुदंसणे सबुद्धे थावच्चापुत्त वदइ, नमसइ, वदित्ता नर्मसित्ता एवं क्यासी ~ इच्छामिणं भंते । धम्म सोच्चा जाणित्तए जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ ॥ सू० २१ ॥
( aण थावच्चा० ) इत्यादि ।
टीका - ततः खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनमेवमवादीत्-तत्र ग्लु सुदर्शनः किं मूलको धर्मः प्रज्ञप्तः ? एत्र स्थापत्यापुत्रेण पृष्टः सन् सुदर्शनो वदति - ' अम्हाण' इत्यादि । हे देवानुप्रिय ! अस्माक शौचमूलो धर्मः मझरा, यावत् स्वर्ग गच्छन्ति अत्र यावच्छदेन - ' सेऽपि य सोए दुनिहे पन्नत्ते त जहा दव्त्रसोए य भार
तएण थावच्चा पुत्ते इत्यादि ।
टीकार्थ - (तपर्ण धावच्यापुत्ते) इस प्रकार कहने के बाद स्थापत्यापुत्र अनगार ने पुन: (सुदसण एव) सुदर्शन से इस प्रकार कहा - (तुम्भेण सुदसणा कि मूलए धन हे सुदर्शन ! तुम्हारा धर्म कि मूलक प्रज्ञप्त हुआ है ( अम्हाण देवाणुप्पिया ' सोयमूले धम्मे पनन्ते ) तत्र सुदर्शन ने कहा हे देवनुप्रिय ' हमारा धर्म शौचमूलक प्रज्ञप्त हुआ है । ( जाव सग्ग गच्छति ) इस सुदर्शन के कथन " में स्वर्ग जाते हैं " यहा तक का पाठ लगा लेना चाहिये - जैसे- "सोविय सोए दुविहे पन्नत्ते तजहा तएण थावच्चा पुत्ते ' इत्यादि ।
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टीडार्थ - (तरण थावचापुत्ते) (सुद सण एव ) या शेते उपदेश भावता स्था पत्यापुत्र अनगारे दूरी, (सुदसण एव) सुहरानने भोषता ज्छु - (तुन्भेण सुद सणा । किं मूल धम्भे पन्नत्ते) हे सुद्दर्शन तमारा धर्मनु भूण शु अज्ञप्त थ्यु छे ? ( अम्हाण देवाणुपिया ! सोयमूले धम्मे पन्नत्ते) वाण न्यायता सुहराने धु " हेवानुप्रिय । भारा धर्मनु भूग शौय (पवित्रता) छे” भेटले भारी धर्म सग्ग गच्छति) 'यावत्' सर्गभा होये छे " सुदर्शनना भ" सोविय सोए दुविहे पन्नतेत जहाँ
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શૌચ મૂલક કથનમા
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فقا
अनगारधामृतपपिणी टीका अ.५ सुदर्शन ठोवर्ण नम् सोए य इत्यादि एव खलु जीया जलाभिसेयपूयप्पाणो अपिग्येण ' इति पर्यन्त वाच्यम् । ततः खलु स्थात्यापुन सुदर्शनमेवमवादीत-मुदर्शन ! तद् यथानामकः कश्चित् पुरुप एक महद् 'रुहिरकय ' रुपिरकृत शोणितलिप्त वस्ख रुपिरेण चैव शोणितेनैव 'धोवेज्जा' धावयेत् प्रक्षालयेत् तदा खलु सुदर्शन । तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य प्रक्षाल्यमानस्यास्ति-भान्ति काचित् ' सोही' शोधि शुद्धिः निर्मलता, 'जो इणहे सम? ' नायमर्यः समर्थ रुधिररिप्त वस्त्र रुधिरेणैव प्रक्षालित सन् पवित्र मातीत्ययमयः समर्थो न भवति मामाणिकी बुद्धिमुपगन्तु न शक्नोतीत्यर्थः । हे सुदर्शन । एवमेन 'तुभपि' तवापि 'पाणाइवाएण' प्राणातिपातेन यावन्मिध्यादर्शशल्येन नास्ति शोधि', सुदर्शन ! अय यथानामकः कश्चित् पुरुपः दवसोए य भावसोण्य" इत्यादि से लेकर " एव खलु जीवा जला भिसेयपूयप्पाणो अविग्घेण" (तएण धावच्चापुत्ते सुदसणं एव वधासी) इस प्रकार सुदर्शन का कथन सुनकर स्थापत्यापुत्र अनगारने उस सुदर्शन से इस प्रकार कहा-(सुदसणा! से जहानामए केहपुरिसे एग मह रुहिरकय वत्य हिरेण चेव धोवेज्जा तएण सुदसणा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्यस्म महिरेण चेव पक्वालिज्जमाणस्स अत्यिकाइ सोही!) हे सुदर्शन ! जैसे कोई पुस्प एक बड़े भारी रुधिर लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोवे तो रुधिर (खन) से प्रक्षाल्यमान उस वस्त्र की शुद्धि होती है जैसे (णो इणटे समहे) यह अर्थ समार्थित नहीं होता-रुधिर से लिप्स हआ वस्त्र रुधिर से धोने पर साफ-शुद्ध होता है-जैसा यह अर्थ प्रामाणिक बुद्धि द्वारा मा य नही होता है (एवामेव सुदसणाऽ तुम्भपि पाणाहवाण जावमिच्छादसणसल्लेण नत्यि सोही जहा तस्स सरिरकयस्स वत्यस्स सहिरेण चेव पखालिजमाणस्म नत्यि सोही) ६व्यस्रोए य भावसोए य" मडी थी “ एव सलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेण" मही सुधा सुशननु ४थन समान (तएण थावच्चा पुत्ते सुद सण एव क्यासी) माते सुहसननी शीय भू मायनी वात सामजान स्थापत्या पुत्र मनगारे तेमने मा प्रमाणे धु-(सुद सणा | से जहा नामरा केइ पुरिसे एग मह रहिरकय वत्य रुहिरेण चेव धोवेज्जा तएण सुदसणा ? तस्स रुहिरकयस्स ववास रहिरेण चे पसालिज्जमाणस अधिकाइ सोही ) હે સુદાન ! કે ઈ પુસ્ય લેહીભીનુ મેટુ લૂગડુ લોહીથી જ માફ કરે છે તે बोलीथी मा ४३९ दूगड शु शुद्ध थरी । (जो इणद्वे समटे ) म सही ભીનું લૂગડુ લેહીથી થાય જ નહિ આ વાત પ્રામાણિક બુદ્ધિથી ગમે तेने शमतो ५४ मा य थाय । न ( एवामेन सुद सणा ? तु भपि पाणाइवाएण जाव मिच्छाद सणसल्लेण नथि सोही) ते शते सुरान तारी ५९
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છે.
शाताधर्मकथासूत्रे
पक्खालिज माणस्स सोही भवइ ? हंता भवइ, एवामेव सुदसणा | अम्हपि पाणाइवायवेरमणेणं अस्थि सोही, जहा वा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पखालिनमाणस्स अस्थि सोही, तरणं से सुदसणे सबुद्धे थावच्चापुत्त वदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - इच्छामिण भंते । धम्म सोच्चा जाणित्तए जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव परिलाभेमाणे विहरइ ॥ सू० २१ ॥
(तएण थापच्चा० ) इत्यादि ।
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टीका - ततः खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनमेवमवादीत्-तत्र ग्लु सुदर्शनः किं मूलको धर्मः प्रज्ञप्तः ? एव स्थापत्यापुत्रेण पृष्टः सन् सुदर्शनो वदति-' अम्हा' इत्यादि । हे देवानुप्रिय ! अस्माक शौचमूलो धर्मः प्रज्ञप्तः यावत् स्वर्ग गच्छन्ति अत्र यावच्छब्देन 'सेsनिय सोए दुनिहे पन्नत्ते त जहा दव्वसोए य भान तएण थावच्चा पुत्ते इत्यादि ।
टीकार्थ - (तएण चावच्यापुत्ते) इस प्रकार कहने के बाद स्थापत्यापुत्र अनगार ने पुन: (सुदसण एव) सुदर्शन से इस प्रकार कहा - (तुभेण सुदसणा कि मूल धम्मे पनते हे सुदर्शन ! तुम्हारा धर्म कि मूलक प्रज्ञप्त हुआ है ( अम्हाण देवाणुप्पिया ' सोयमूले धम्मे पन्नत्ते ) तब सुदर्शनने कहा हे देवनुप्रिय ' हमारा धर्म शौचमूलक प्रज्ञप्त हुआ है । ( जाव सग्ग गच्छति ) इस सुदर्शन के कथन " में स्वर्ग जाते है " यहा तक का पाठ लगा लेना चाहिये-जैसे- "सोवियसोए दुविहे पन्नत्ते तजहा
"
तएण थावचा पुत्ते ' इत्यादि ।
टीजर्थ - (तएण थावच्चापुत्ते) (सुद सण एव ) या शेते पहेरा आवता स्था पत्यापुत्र अनगारे इरी, (सुदसण एव) सुधर्शनने भोधता उछु - (तुभेण सुह सणा । किं मूल धम्भे पन्नत्ते) हे सुद्दर्शन तमारा धर्मनु भूण शु अज्ञप्त थ्यु छे ? ( अम्हाण देवाणुपिया ! सोयभूले धम्मे पत्ते) नवा "हे देवानुप्रिय । भारा धर्मनु भूग शौथ (पवित्रता) शौय भूत छे (जाव सग्ग गच्छति) 'यावत्' स्वर्गमा पहाये हे " सुदर्शनना अथनभा मडी सुधी सेवु लेधसे प्रेम " सो विय सोए दुविद्दे पन्नते त जहाँ
सायता सुदृश ने उछु छे" भेटले भारी धर्भ
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अनगारधर्मामृतपणी टीका २०५ सुदर्शनये ष्टोवर्णनम्
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सोए य इत्यादि एव खलु जीना जलाभिसेयप्यप्पाणो अग्णि ' इति पर्यन्त वाच्यम् । ततः खलु स्थात्यापुत्र सुदर्शनमेवमवादीत् - सुदर्शन । तद् यथानामकः कश्चित् पुरुष एक महद् ' रुहिरस्य ' रुपिरकृत शोणितलिप्स व रुधिरेण चैव= शोणितेनैव 'थोवेज्जा' धावयेत् प्रक्षालयेत् तढा खलु सुदर्शन ' तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य प्रक्षाल्यमानस्यास्ति भवन्ति काचित् ' सोही ' शोधि शुद्धिः निर्मलता, ' णो ण सम' नायमर्थ समर्थ = रुधिरलिप्त वस्त्र रुधिरेणैव प्रक्षालित सन् पवित्र भवतीत्ययमर्थः समर्थो न भवति मामाणिकी बुद्धिमुपगन्तु न शक्नोतीत्यर्थः । हे सुदर्शन । एवमेन 'तुम्भपि ' तत्रापि ' पाणाडवाएण ' प्राणातिपातेन यावन्मिथ्यादर्शशल्येन नास्ति शोधिः, सुदर्शन ! अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः दव्वसोए य भावसोय " इत्यादि से लेकर " एव खलु जीवा जला भिसेयपूयप्पाणो अविग्वेण " (तरण धावन्यापुते सुदसणं एव वयासी) इस प्रकार सुदर्शन का कथन सुनकर स्थापत्यापुत्र अनगारने उस सुदर्शन से इस प्रकार कहा - ( सुदसणा ! से जहानामए के पुरिसे एग मह रुहिरकय वत्थ रुहिरेण चेव धोवेज्जा तरुण सुदसणा ! तस्स रुहिरकस् वत्थम कहिरेण चैव पक्खालिज्जमाणस्स अत्थिकाइ सोही ! ) हे सुदर्शन ! जैसे कोई पुम्प एक बडे भारी रुधिर लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोवे तो रुधिर (खून) से प्रक्षाल्यमान उस वस्त्र की शुद्धि होती है जैसे ( णो इण्डे समहे ) यह अर्थ समार्थित नही होता रुधिर से लिप्त हुआ रधिर से धोने पर साफ-शुद्ध होता है - जैसा यह अर्थ प्रामाणिक बुद्धि द्वारा मा य नही होता है ( एवामेव सुदसणा तुम्भपि पाणाइवाण्ण जावमिच्छादसणसल्लेण नत्यि सोही जहा तस्स ffererre arora कहिरेण चैव पखालिज माणस्म नत्थि सोही )
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सोए य भावसोए थ 99 मही थी " 'एव सलु जीना जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेण " मडी सुधी सुदर्शननु उथन भभवु लेखे ( तपूर्ण यावच्चा पुत्ते सुदसण वयासी) या ते सुहराननी शौय भूझ धर्मविपेनी वात सालजीने स्थापत्या पुत्र अनगारे तेमने भी प्रमाणे - ( सुद्द सणा ' से जहा नामए केइ पुरिसे एग मह रहिरकय वत्य रहिरेण चैव गोवेज्जा तएण सुदसणा ? तस्स रुहिरकयरस वास रहिरेण चेन एक्सादिज्जमाणस्स अस्थिकाइ सोही १ ) હું સુદરા નં 1 જે ઇ પુષ લેાહીભીનુ મોઢુ લૂગડુ લાહીથી જ માફ કરે તે તે बोलीथी भाई रे गड्डु शु गुद्ध थशे । ( जो इणट्टे समडे ) भ बोली ભીનુ લૂગડુ લેાહીથો સ્વ૰ થાય જ નહિ આ વાત પ્રામાણિક બુદ્ધિથી ગમે तेने तो पशु भा य थाय ? नहि ( एवामेन सुदसणा ? तुमपि पाणा इवाए जाब मिच्छाद सणसल्लेण नत्यि सोही ) ते रीते सुदर्शन | तारी प
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शाताधर्मकथासूत्रे एक महद् रुधिरकृत रख ' साज्जियाखारेण ' सर्जिकाक्षारेण सज्जीनाम्ना प्रसि द्धया क्षारमृत्तिकया 'अणुलिंपइ' अनुलिपति अनुलिप्य ! — पयण' पचन पामस्थान 'आरुहेइ ' आरोहयति रुधिरलिप्त रख क्षारमृत्तिकानुलिप्त कृत्वा क करिमश्चिम् मृ मयादिपाने निधाय तत्पान चुलिकोपरिस्थापयतीत्यर्थः । आ 'उण्ह गाहेई' उप्ण ग्राहयति उष्णीकरोति ग्राहयित्वा तत पश्चात् शुद्धेन गरिणा धावयेत् , हे सुदर्शन ! स नून तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य सर्जिकासारेण अनुलि. प्तस्य पचनमारोहितस्योप्ण ग्राहितस्य शुद्धेन वारिणा 'परखालिज्जमाणस्स 'म इसी तरह हे सुदसण? तुम्हारी भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्या दर्शन शल्य से शुद्धि नही होती है। जैसे उस शोणितलिप्त वस्त्र की मधिर से धोने पर शुद्धि नही होती है। (सुदसणा' से जहाणामए केहपुरिसे एग मह रुहिरकयवत्य सजियाखारेण अणुलिंपड, अणुलि पित्ता पयण आरुहेइ, आरुहिता उण्हे गाहेह, गाहिता तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा धोवेजा से शृण सुदसणी ! तस्स रुहिरकयस्स बत्यस्स सज्जियाखारेण अणुलित्तस्स पयण आरुहियस्स उण्ड गाहियस्स सुद्धणं सुद्धणं वारिणी पश्खलिज्जमाणस्स सोही भवइ) शुद्वि का प्रकार इस तरह है सुदर्शन ! जैसे कोई पुरुप एक महान रुधिरलिप्त वस्त्र को साजी खारसे अनुलिप्त कर कीसी मिटि के बर्तन मे रख उसे चूलेपर रखता है-रखकर फिर उसे गर्म करता है-गर्म कर उसके बाद उसे फिर शुद्ध जल से प्रक्षालित करता है तो हे सुदर्शन ! निश्चय से પ્રાણાતિપાત થી કે યાવત્ મિથ્યાદર્શન રાવ્યથી શુદ્ધિ થતી જ નથી જેમ है सोडीयी १२ मेरा सूडानी शुद्धि खडी 43 यती नथी (सुद सणा ? से जहा णामए केइ पुरिसे एग मह रुहिरकयवत्थ सज्जियासारेण अणुलिंपड, अणुलिंपित्ता पयण आरहेइ, आरुहिता उण्हे गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धण वारिणा धोवेज्जा से णूण सुद सणा | तस्स रुहिरकयस्म वत्थस्स सज्जियासारेण अणुलित्तस्स पयण आरुहियस्म ऊण्ह गाहियस्स सुद्वेण सुद्धेण वारिणापक्सा रिज्जमाणस्स सोही भवइ) सुशन सहीथी ५२७.ये। सूनानी शुद्धि આ પ્રમાણે થાય જેમ કે સૌ પહેલા લેહભીનાં વસ્ત્રને માણસ સાજીખાર ના પાણીમાં બળીને માટીના વાસણમાં મૂકીને તેને ચૂલા ઉપર ચઢાવે છે અને નીચે અગ્નિ પ્રકટાવીને તેને ઊન કરે છે અને ત્યાર બાદ લગડાને શુદ્ધ પાણીથી સાફ કરી નાખે છે તે તે નિશ્ચિત પણે સાજીખારમાં બળવાથી
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अनगारधर्मामृतपिणो टीका अ० ५ सुदर्शन श्रेष्टीवर्णनम् क्षाल्यमानस्य 'सोही' शोधिर्भवति । हन्त । भवति । एवमेव सुदर्शन । अस्माकपि 'पाणाइवायवेरमेण' माणातिपातचिरमणेन यावत् मिथ्यादर्शनयल्यविरमणेना स्ति शोषिः, आत्मन पवित्रता भवति, यथा वा तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य यावत् शुद्धेन वारिणा प्रताल्यमानस्यास्ति शोषिः । वनस्पोऽयमात्मा रुविररूप माणातिपातायप्टादशपापस्थानोपलिप्तः सम्यक्त्वरूपया क्षारमृत्तिस्याऽनुलेप प्राप्य शरीरमाण्ड जिनारपस्थविरकल्परूपपचनस्थानोपरी सस्थाप्य तपोऽग्निना परितापितः सयमरूपशुद्धजलेन प्रक्षालितः सन् निर्मल साउदर्पणवत्प्रकाशमानो भवति नान्ययेत्यर्थः । ये तु पाणातिपातादि परायणा जीवा' शुद्धयर्थ मृद्वारिज नित शौच जलाभिषेक च कुर्वन्तः सन्ति, तान् मति दयन्ते खलु जीपानीपतत्त्ववे दिनो विद्वांम'-अहो ! प्राणातिपातादि सेवनजनित ज्ञोनावरणीयाधष्टविधर्ममलनिरन्तरलेपानुलेपसग्रहपरायणा अपि इमे जीया पुनः प्राणातिपानादिभिरेवशुद्धिमिच्छन्ति अहो ! कीदृशो मोहस्य महिमा वरीपति ।। उस रुधिरलिस वस्त्र की सर्जिका खार से अनुलिप्त होने पर, पाकस्थान पर रखे जाने पर गर्म किये जने पर, और शुद्ध जल से प्रक्षालित हो जानेपर शुद्धि होती है ? (हता भवइ) हाँ होती है (वामेव सुदसणा! अम्ह पि पाणाइवायवेरमणेण जाव मिच्छादसणमलवेरमणेण अस्थि सोही) तो इसी तरह हे सुदर्शन ! हमारी भी प्राणातिपातविरमण से यावत् मिथ्यादर्शन शल्प के चिरमण से शुद्धि होती है अर्थात् आत्मा की परित्रता होती है। (जहा वातस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि सोही) जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र को यावत् शुद्ध जल से प्रक्षालित करने पर शुद्धि हो जाती है। (तएण ચૂલા ઉપર ચઢાવીને ગરમ, કરવાથી તેમજ શુદ્ધ પાણીથી સાફ કરવા થી १२७ 23 Mय नहि (हता भवइ) सुशन मा ४यु " -१२ थ, नयछे " ( ण्वामे सुद सणा | अम्हेपि पाणाइनायरमणेण जाव मिच्छा दसणसल्लवेरमणेण अत्यिसोही) तो मा प्रमाणे ४ प्रातिपात विभाथी યાવત્ મિથ્યાદર્શન પત્યના વિરમણથી શુદ્ધિ થાય છે એટલે કે એમનાથી मात्मा पवित्र थाय ( जहा वा तस्स रहिरफयम्स वयस्स जाव सुद्धण वारिणा पक्सालिज्जमाणस्स अन्थि सोही) म साडीलाना सार तभा शापीथी शालय छ (तएण से सुद सणे सवुद्धे यावन्चापत्त यदइ नमसइ, वदित्ता नमसिता एव वयासी) शतपश अपामेला सुरीन શેઠે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગરને વિનતી કરતા કહ્યું “ હે ભગવાન શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મના આરાધક તમને ધન્ય છે “આ રીતે કહોને તેમને વદન તેમજં નમસ્કાર
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माताधर्मकथासूत्र एक महद् रुधिरकृत यस ' साज्जियाखारेण ' सर्जिकाक्षारेण सज्जीनाम्ना प्रसि. दया क्षारमृत्तिकया 'अणुलिंपइ ' अनुलिपति अनुलिप्य ! 'पयण' पचन पाऊस्थान 'आरुहेइ ' आरोहयति रुधिरलिप्त यस क्षारमृत्तिकानुलिप्त कृत्या क कस्मिंश्चिम् ममयादिपाने निधाय तत्पान चुलिकोपरिस्थापयतीत्यर्थः । आरोप 'उण्ह गाहेइ' उप्ण ग्राहयति उष्णीकरोति ग्राहयित्वा तत पश्चात् शुद्धेन परिणा धावयेत् , हे सुदर्शन ! स नून तस्य रुविरकृतस्य वस्त्रस्य सर्जिकासारेण अनुलि. प्तस्य पचनमारोहितस्योप्ण ग्राहितस्य शुद्धेन वारिणा 'परखालिज्जमाणस्स 'म इसी तरह हे सुदसण? तुम्हारी भी प्राणातिपात से यावत् मिध्या दर्शन शल्य से शुद्धि नहीं होती है। जैसे उस शोणितलिप्त वस्त्र की मधिर से धोने पर शुद्धि नहीं होती है। (सुदसणा' से जहाणामए केहपुरिसे एगं मह रुरिरकयचत्य सजियाखारेण अणुलिंपड, अणुलिं. पित्ता पयण'आरुहेइ, आरुहिता उण्हे गाइ, गारिता तओ पच्छा सुद्धण वारिणा धोवेजा से गूण सुदसणो ! तस्स सरिरमयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेण अणुलित्तस्स पयण आरुहियस्स उण्ड गायिस्स सुद्धणं सुद्धणं वारिणी पक्खलिज्जमाणस्स सोही भवड) शुद्धि का प्रकार इस तरह है सुदर्शन ! जैसे कोई पुरुष एक महान रुधिरलिप्स वस्त्र को साजी ग्वारसे अनुलिप्त कर कीसी मिटि के बर्तन में रख उसे चूलेपर रखता है-रखकर फिर उसे गर्म करता है-गर्म कर उसके बाद उसे फिर शुद्ध जल से प्रक्षालित करता है तो हे सुदर्शन ! निश्चय से પ્રાણાતિપાત થી કે યાવત્ મિથ્યાદાન નથી શુદ્ધિ થતી જ નથી જેમ
सोडीथी ४२च्या सूडानी शुद्धिही १ यती नथी (सुद सणा ? से जहा णामए केइ पुरिसे एग मह रुहिरकयवत्थ सज्जियासारेण अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता पयण आरहे इ, आरुहित्ता उण्हे गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा धोवेज्जा से गूण सुद सणा | तस्स रुहिरकयरस पत्थस्स सज्जियासारेण अणुलित्तस्स पयण आरुहियस्स ऊण्ह गाहियस्स सुद्धेण सुद्धेण वारिणापक्सा लिज्जमाणस्स सोही भइ) सुशन I हाथी १२ये। सूडानी शुद्धि આ પ્રમાણે થાય જેમ કે સૌ પહેલા લેહીભીનાં વસ્ત્રને માણસ સાજીખાર ના પાણીમાં બોળીને માટીના વાસણમાં મૂકીને તેને ચૂલા ઉપર ચઢાવે છે અને નીચે અગ્નિ પ્રકટાવીને તેને ઊન કરે છે અને ત્યાર બાદ લુગડાને શુદ્ધ પાણીથી સાફ કરી નાખે છે તો તે નિશ્ચિત પણે સાજીખારમા બળવાથી
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गरधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
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दष्टान्तकी योजना इस प्रकार दाटन्तिमे करनी चहिये वस्त्र के जैसा यह अत्मा है रुधिरके जैसे प्राणातिपातादिक १८ अठारह पापस्थान हैं । इन से यह मलीन हो रहा है। क्षार मृत्तिका जैसा सम्यक्त्व है । सोजन यह आत्मा इस सम्यक्त्व रूप क्षार मृत्तिका से अनुलिप्त हो जाता है और अपने शरीर रूप भाडको जिनकल्य तथा स्थविर कल्य रूप पचन स्थान पर स्थापित करता तप, रूप अग्निसे अपने आपको तपाता है त यह स्वच्छ दर्पण की तरह प्रकाशमान होने लगता है । इस शुद्धि मार्ग के अतिरिक आत्माकी शुद्धि और किसी मार्ग से नही हो सकती है। जो प्राणातिपातादिकोंमें परायण ने हुए जीव शुद्धिके लिये मृतिका एव जल का उपयोग करते हैं और उससे आत्माकी शुचिता मनते है गगादि तीर्थोंमें स्नान करने से पापोंकी निवृत्त होना मानते हैं उनके प्रति जीव और अजीवके स्वरूपको जाननेवाले विद्वज्जन सदय हो कर कहते है की देखोतो मही यह कैसीमोह की प्रगल महिमा है जो प्राणातिपात आदि सेवन से जनित ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कमल के निरन्तर लेपानुलेप के सग्रह करने में परायण बने हुए भी
આ ઉક્ત દૃષ્ટાન્ત દૃષ્ટાન્તિ રૂપે આ રીતે સમજવુ જોઈએ-આ આત્મા વસ રૂપે છે પ્રાણાતિપાત વગેરે અઢાર પાપસ્થાના લેાહીની જેમ છે. એમનાથી આત્મા મિલન થઈ રહ્યો છે માજીખારના રૂપમા સમ્યક્ત્વ છે, જ્યારે આત્મા સમ્યક્ત્વ ૩૫ સાજીખાથી અનુલિપ્ત થાય છે અને પેાતાના શરીર રૂપી વાસણને જિન-૫ તેમજ સ્થાવિરપરૂપ પચન સ્થાન ( ચૂલા ) ઉપર મૃકે છે તપ રૂપ અગ્નિ વડે શરીર રૂપી વાસણને તપાવે છે ત્યારે તે સ્વચ્છ દર્પણ ના રૂપમા પ્રકાગિત થાય છે. આત્માની શુદ્ધિને આ ડેવળ એકજ રાગ છે કે જેનાથી આત્મશુદ્ધિ ચામ પણે સભવિત થાય છે એના સિવાય બીજા કોઈ ઉપાયથી આત્મશુદ્ધિ થવી અઞ ભવિત છે જે પ્રાણાતિપાત વગેરેમા લીન થયેલા જીવા શુદ્ધિને માટે માટી અને પાણીના ઉપ ચૈાગ કરેછે, અને તેમનાથી આત્મ શુદ્ધિ માને છે−ગળા વગેરે તીર્થ સ્થાનેામા સ્નાન કરવાથી પાપે નષ્ટ થાય છે એમ માને છે તેમના પ્રત્યે જીવ અને જીવના સ્વરૂપને જાણનારા વિદ્વાનેા સય થઈને કહેકેજુએ! તેા ખરા, અજ્ઞાનને આ કેને પ્રમળ મહિમા છે ? કે જેએ પ્રાણાતિપાત વગેરેના સેવનથી જનિત જ્ઞાનાવરણીય વગેરે આઠ પ્રકારના ફ રૂપી જળને હંમેશા લેપાનુ
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झाताधर्मकथासूत्रे ततः स्थापत्यापुनपचनश्रणानन्तर ग्बल स सुदर्शः समुद्धः सम्यक्त्वमान्दः सन् स्थापत्यापुत्र पन्दते श्रुतचारिनरक्षणसमममाराधनेन धन्योऽसि भगाभित्यादिवाक्येन स्तोति इत्यर्थः । नमस्पति स्वापापं गोधपन् अदेयपचनतया गुरू भावेन पिनय प्रकटयन् कायेन प्रणमतीत्यर्थः । वन्दित्वा नत्या एवम्वक्ष्यमाण प्राकारेणावादी-छामि खलु भदन्त ! हे भगवान् ! धर्म-विनयमूलक भवदुक्त श्रुतचारित्रलक्षण श्रुत्वा ज्ञातुम् , जीवाजीवपुण्यपापासपसरनिर्जरासन्धमोक्षरूपाणि तत्वानि सम्यक सर्वथा वेत्तुमित्यर्थः यावत्-यापत् करणादन धर्मश्रवणजीवाजी वादितत्त्वज्ञानानन्तर श्रावधर्मस्वीकारेण, श्रमणोपासमोजोत , स कीदृश इत्याह -अधिगतजीवाजीवो यावत् प्रतिलाभयन् सत्कारयन् समानयन् विहरति ॥२१॥ से सुदसणे सयुद्धे थावचा पुत्त बदह नमसड, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी) इस प्रकार सपोधित हुए सुदर्शन सेठने स्थापत्यापुत्र अनगार की हे भगवान् श्रुतचारित्र रूप धर्म के आरा न करने वाले होने से आपको धन्य है इत्यादि बचनो द्वारा वदना की नमस्कार किया। वदना नमस्कार कर फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा (इच्छामिण भते ! धम्म सोच्चा जाणित्तर जाव समणोवासए जाए-अहिंगया जीवा जीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरड ) हे भदत ! विनय मृलक श्रुतचारित्र रूप धर्म को सुनकर में जीव, अजिव, पुण्य, पाप, आरव, सवर, निर्जरा एव मोक्ष इन तत्त्वों को जानना चाहता है। इस प्रकार वह धर्मश्रवण और जीवाजीवादितत्वो के बाद श्रीवक धर्म स्वीकार कर श्रमणो पासक बन गया। श्रमणोपासक बनकर फिर उसने स्थापत्यापुत्र अनगार का आहार आदि प्रदान कर सरकार किया-सन्मान किया। કર્યા વદના અને નમસ્કાર કરીને તેમણે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને વિનતિ કરી -(इच्छामि ण भते । धम्म सोच्या जाणित्तए जाय समणोवासए जाए अहिगय जीवाजीवे जार पडिलाभेमाणे विहरइ) 8 मत ! विनरभूत श्रुतयारित्र રૂપ ધર્મની વાત સાંભળીને હું હવે જીવ, પુણય, પાપ, આસવ, સવર, નિર્જરા, બધ અને મોક્ષ ચા આ તને સ્પષ્ટ રૂપે સમજવાની ઈચ્છા રાખુ છુ આ પ્રમાણે સ્થાપત્યા પુન અનગર ના મઢેથી આ બધા જીવ અજીવ વગેરે તો વિષે સાભળીને શેઠ શ્રાવક ધર્મ સ્વીકારીને શ્રમણોપાસક થઈ ગયા શ્રમણે પાસ થઈને શેઠે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને આહાર વગેરે અપીને સત્કાર કર્યો સન્માન કર્યું
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अनगारधर्मामृतवपिणो टोका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
तएण से सुदसणे सुयेणं परिव्वायएणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अव्भुटेइ, अभुष्ठित्ता करयल० सुयं परिव्वायग एवं वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया । अरिहओ अरिट्ठनेमिस्स अतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ, तस्स णं अतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ॥ सू० २२ ॥
टीका-तएण इत्यादि-ततस्तदनन्तर खलु तस्य शुकस्य परित्राजकस्य 'इमीसे कहाए' अम्याः कथायाः 'लहस्स' लब्धार्थस्य-ज्ञातार्थस्य सतः 'अयमेयाख्वे' अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणरूपः 'अज्यथिए' आयात्मिक आत्मगतोविचारः, यावत् समुदपद्यत-प्रादुर्भूतः-एव ग्वलु सुदर्शनेन शौचमूल धर्म 'विप्पजहाय' निमजहाय-परित्यज्य विनयमूलो धर्म. 'पडिवन्ने' प्रतिपन्नः स्वीकृतः । तत्-तस्मात् श्रेय खलु मम मुदर्शनस्य दृष्टि-दर्शन जिनप्रवचने श्रद्धान 'वामेत्तए' वमयितु त्याजयितु पुनरपि शौचमूलकं धर्ममाख्यातुम् , सुदर्शनस्य यद् विनयमूल
'तएण तस्म सुयस्स' इत्यादि।
टीकार्य-तएण) इसके याद (तस्स सुयस्स) उस शुक परिव्राजकको जय (इमीसे कहाए लाइट्ठस्स समाणस्स) यह ससचार विदित हुआ सुदर्शन से श्रमणोपासक बन गया-यह खबर मिली-तब (अयमेयारूवे अज्झथिए जाच समुपज्जित्था) उस के मनमें यह प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ (एव खलु सुदसणेण सोयमूल धम्म विप्पजहाय विणय मूले धम्मे पडिवन्ने ) सुदर्शन शौच मलक धर्मको परित्याग कर विनयमूलक धर्म कोस्वीकार लिया है, (त से य खलु मम सुदसणस्स दिठिवामेत्तए पुणरवि सोयनलय धम्मे आधवित्तए) सो अव मुझे
'तएण तस्स सुयस्स ' इत्यादि ।
टीआय (तएणं ) त्या२ माई (तस्स सुयस्स) २४ परिवान्यारे (इमीसे कहाए लद्धदृस्स समाणस्स) मा पात माली भुगन 03 श्रभास थप गया त्यारे ( अयमेवारूचे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था) तेना मनमा विया२ २४-(ण्य सलु सुद सणेण सोयमूल धम्म विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने) : सुशन श० शीय भूख धर्म त्यने विनय Fa: धर्म स्वी आर्या छ ( त सेय सलु मम सुद सणास दिवि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलय धम्मे आपवितए) ते ३ भारे सुशननी विनय भृसत धर्म 6परथी श्रद्धा भटा
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हाताधर्मकथा मूलम्-तएणं तस्स सुयस्स परिवायगस्स इमीसे कहाए लद्धहस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था, एव खल्लु सुदसणेणं सोयमूल धम्म विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने, तं सेय खल्ल मम सुदंसणस्त दिद्धि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए तिकटु एव सपेहेइ, सं. पहित्ता परिवायगसहस्सेणंसद्धिं जेणेव सोगधिया नगरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिवायगावसहसि भडनिक्खेव करेइ, करित्ताधाउरत्तवत्थपरिहिए पवि. रलपरिवायगेहि सद्धिं सपरिवुडे परिवायगावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झ मज्झेणं सुदंसणस्त गिहे जेणेव सुदसणे तेणेव उवागच्छइ ।
तएण से सुदसणे त सुय एजमाण पासइ, पासित्ता नो अब्भुट्टेइ, नो पच्चुग्गच्छइ णो अढाइ नो परियाणाइ नोवदइ तुसिणीए सचिटइ, तएण से सुए परिव्वायए सुदसण अणभुष्ट्रिय० पासित्ता एव वयासी-तुमं णं सुदसणा । अन्नदा मम एजमाण पासित्ता अब्भुट्ठसि जाव वदसि इयाणिसुदसणा। तुम मम एजमाण पासित्ता त कस्स णं तुमे जाव णो वदसि सुदसणा । इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवन्ने। ये जीव पुनः उन्ही प्राणातिपातादिको के सेवन से अपनी शुद्धि की कामना कर रहे हैं। सूत्र २१॥ લેપને સગ્રહવામા લીન થયેલા એ જીવે ફરી તેજ પાણાતિપાત વગેરેના सेवनयी पोतानी शुद्धि छे छे ॥ सूत्र “ २१ " ||
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अनगारघामृतपपिणो टोका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
तएणं से सुदसणे सुयेणं परिवायएणं एव वुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुटेइ, अभुट्टित्ता करयल० सुयं परिवायगं एव वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया । अरिहओ अरिट्ठनेमिस्स अतेवासी थावच्चापुत्ते नाम अणगारे जाव इहमागए इह चेव नीलासोए उजाणे विहरइ, तस्स णं अतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ॥ सू० २२ ॥
टीका-तएण इत्यादि-ततस्तदनन्तर खलु तस्य कस्य परिव्राजकस्य 'इमीसे कहाए' अस्याः कथाया. 'लहस्स' लब्धार्यस्य-ज्ञातार्थस्य सतः 'अयमेयारूचे' अपमेतद्रूपः वक्ष्यमाणरूप• 'अज्यथिए' आ यात्मिक आत्मगतोविचारः, यावत् समुदपद्यत प्रादुर्भूतः एव ग्खलु सुदर्शनेन शौचमूल धर्म 'निप्पजहाय' विषजहाय-परित्यज्य विनयमूलो धर्मः 'पडिवन्ने प्रतिपन्नः स्वीकृतः । तत्=तस्मात् श्रेय खलु मम मुदर्शनस्य दृष्टिं दर्शन जिनप्रवचने श्रद्धान 'वामेत्तए' वमयितु त्याजयितु पुनरपि शौचमूलक धर्ममाख्यातुम् , सुदर्शनस्य यद् विनयमूल
'तण्ण तस्स सुयस्स' इत्यादि ।
टीकार्य-तएण) इसके बाद (तस्स सुयस्स) उस शुक परिव्राजकको जब ( इमीसे कहाए लहस्स समाणस्स) यह ससचार विदित हुआ सुदर्शन से अनणोपासक न गया-यह खबर मिली-तब (अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था) उस के मनमें यह प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ (एच खलु सुदसणेण सोयमूल धम्म विप्पजहाय विणय मृले धम्म पडिवन्ने) सुदर्शन शौच मलक धर्मको परित्याग कर विनयमूलक धर्म कोस्वीकार लिया है , (त से य खलु मम सुदसणस्स दिठिवामेत्तए पुणरवि सोयमूलय धम्मे आधवित्तए) सो अब मुझे
'तएण तस्स सुयस्स ' इत्यादि ।
टीडा (तएणं ) त्या२ मा (तस्स सुयस्स) शु४ परिना न्यारे ( इमीसे कहाए लद्धट्टरस समाणस्स ) मा पात मामजी सुन ० श्रमपास 25 गया त्यारे ( अयमेवारूवे अझत्थिा जाव समुपज्जित्था) तेना मनमा विया२ २७-(ण्य सलु सुद सणेण सोयमूल धम्म विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पहिवन्ने ) सुशन शेडे शीय भूख धर्म त्याने विनय भूव धर्म स्वी आर्या छ ( त सेय सलु मम सुद सणस्स दिवि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलय धम्मे आपविचए) तो वे मारे मुशननी विनय भूख धर्म ९५२थी श्रद्धा भटा
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દરે
शाताधर्मकथासूत्रे
धर्मविषयक श्रद्वान तदपनीय पुनरपित शोचमूल के धर्मे स्थापयितु ममोचितमि त्यर्थः । ' चिकट्टु ' इतिकृत्या - इद मनसि धृत्या एवम् उक्तप्रकारेण ' सपेहर ' सप्रेक्षते विचारयति, 'सपेहित्ता' सप्रेक्ष्य इत्येव मनसि विचार्य, परिनाकसहस्रेण
यत्रैव सौगधिका नगरी यौन परिवाज कावसथः परिवाज कानामावसथ आश्रम तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य परिना कावमचे भाण्ड निक्षेपम् त्रिदण्डापकरणान स्थापन करोति, कृत्वा धातुरक्ता परिहितः गैरिकरागरञ्जितनवारी प्रविरलपरिनाज कैः कतिपयपरिनाजका श्रमात् ' पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्रामति = निः सरति । प्रतिनिष्क्रम्य निःसृत्य सौगन्धिकाया नगर्यां 'मज्झ मज्झेण' मध्यमध्येन यमयभागेन यत्र सुदर्शनस्य गृह, यनैव सुदर्शनस्तत्रोपागच्छति ।
,
यही योग्य है कि मैं सुदर्शन की विनय मूलक धर्मको दृष्टिको हटाकर उसे समझाकर स्थापित करूँ । (त्तिकएव सपेहेड ऐसा मनमें धारण कर उसने पूर्वोक्तरूप से उसे समझाने का विचार किया - (सपेहिता परिव्वायगसहस्सेण सद्धि जेणेव सोगधिया नगरी जेणेत्र परिव्वापगा वसहे तेणेव उवागच्छछ) विचारकर वह फिर परिव्राजक सहस्र के साथ जहा वह सौगंधिका नगरी और उस में भी जहां परिव्राजकाश्रम था वहा आया । ( उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहसि भडनिक्खेव करेइ) आकर उसने उस परिव्राजकाश्रम में अपने भाँडोको रख दिया (करिता धाउरत्तवत्यपरिहिए पविरलपरिव्यायगेहिं सद्धिं सपरिवुडे परिव्यायगव सीओ पडिनिक्खमई ) रखकर फिर वह गैरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रो को पहिरे हुए कुछेक परिव्राजको के साथ २ उस परिव्राजकाश्रम से बाहर निकला ( पडिनिक्खमित्ता सोगधियाए
डीने इसे सोय भूस धर्म प्रत्ये तेनी श्रद्धा भावपी लेहो ( त्ति कट्टु एव सपेद्देइ ) मा रीते मनमा विचार उरीने तेथे पडेसानी प्रेम तेने समभववानी विचार यो (सपेहित्ता परिव्वायगसहस्सेण सद्धिं जेणेत्र सोगधिया नयरी जेणेव परिन्वायगावसहे तेणेव उवागच्छछ ) विचार मरीने ते इरी भेड सडेस પરિનાજકોની સાથે જ્યા તે સૌગવિકા નગરી અને તેમા પણ જ્યા પરિવ્રાજ अश्रम तो त्या आव्या ( आगच्छित्ता परिव्वायगावसह सि भडनिम्खेव | करेइ ) भाचीने तेते पोतानी मधी वस्तुओ त्या भूमी ( करिता वापरतनत्यपरिहिए पविरल परिव्वायगेहिं सद्धिं सावुिडे परिव्वायगाव सहाओ पडिनिक्खमई ) भूडीने તે નૈરિકધાતુથી ૨ગાએલા વસ્ત્રો પહેરીને થાડા પરિઞાજકાને સાથે લઇને आश्रभनी मार नीउज्ये ( प डिनिक्स मिठा सोगधियाए नयरीए मज्झ मज्झेण
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
ततः खलु स सुदर्शनस्त शुकमेजमानम् आगच्छन्त पश्यति, दृष्ट्वा 'नो अब्भुहेइ' नो अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थान न करोतिस्म 'नो पन्चुग्गच्छद' नो प्रत्युद्गच्छति अभिमुख न गच्छति, ' नो गाढाइ ' नो अद्रियते ओदर न कुरुते 'नो' परियाणाइ 'नो परिजानाति-आगमन नानुमोदयति, नो वन्दते न स्तौति, 'तुसिणीए सचिइ ' तूप्णीकः सतिष्ठति ।।
ततः खलु स शुरु परित्राजकः सुदर्शनमनभ्युत्थित दृष्ट्वा एवमवादीत्-त्व खलु सुदर्शन ! अन्यदा अन्यस्मिन् समये मामेजमान दृष्ट्वा अभ्युत्तिष्ठसि यावदनयरीए मज्झ मज्झे ण जेणेव सुदसणस गिहे जेणेव सुदसणे तेणेव उवागच्छद ) बाहर निकल कर सौगधिका नगरी के ठीक बीचो बीच से होकर जहा सुदर्शन का घर और उसमे भी जहा सुदर्शन था वहा गया (तए ण से सुदसणे त सुय एजमाण पासइ) सुदर्शन ने आते हुए परिव्राजक को देखा (पासित्ता नो अन्भुटेड, नो पञ्चुग्गच्छद, णो
आढाइ णो परियाणाइ नो वदह, तुसिणीए सचिट्ठइ ) परन्तु देखकर वह उठा नहीं उसके सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उस के आगमन की उसने सराहना नही की। स्तुति भी नही की केवल चुपचाप बैठा रहा । (तए ण से सुए परिव्वायए सुदसण अणभुट्टिय० पासित्ता एव वयासी) जब शुक ने ऐसा देखा अर्थात् सुदर्शन को नहीं उठा हुआ, सामने नहीं आया हुआ, आदि रूप से देखा तो देखकर उसने उससे इस प्रकार कहा- (तुम ण सुदसणा ! अन्नया मम एजमाण पासित्ता अब्भुट्टेसि जाव वदसि इयाणि सुदसणा! तुम मम जेणेव सुद सणस्स गिहे जेणेव सुद सणे तेणेव उवागच्छइ) महार नजान સૌગ ધિકા નગરીની બરાબર વચ્ચે થઈને જ્યા સુદરાનનું ઘર અને તેમાં પણ ज्या सुदर्शन तो त्या गया (तएण से सुद सणे त सुय एज्जमाण पासइ) सुदराने ५४ ५नाने सावता नया (पासित्ता नो अब्भुटूठेइ, नो पच्च गच्छइ, णो आढाइ, णो परियाणाइ, नो वदइ, तुसिणीए सचिट्ठइ) ५२ न ને તે ઉભા થયા નહિ, સ્વાગત માટે તેની સામે ગયા નહિ, તેને આદર આ નહિ, તેના આગમનની તેમણે સરાહના કરી નહિ, તેની સ્તુતિ પણ ४री नड ५४त तसा युझ्या५ पातानी या मेसी १ २द्या (तएण से सुए परिव्वायए सुद सण अणभुटिय० पासित्ता एव वयासी ) शर पाना- शहने मार भाटे पातानी सामे नही मानधन डधु-(तम ण सुद सणा। अन्नया मम एज्नमाण पासित्ता अब्भुठेमि जाय व दसि इयोणि
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anarasures
कधर्मविषयक श्रद्वान तदपनीय पुनरपित शोचमूल के धर्मे स्थापयितु ममोचितमित्यर्थः । ' तिरुड ' इतिकृत्वा = इद मनसि धृत्या, एवम् उक्तप्रकारेण ' सपेहेर ' प्रेक्षते विचारयति, 'सपेहित्ता' सप्रेक्ष्य इत्येव मनसि विचार्य, परिप्राजकसहस्रेण सायनैव सौगधिकानगरी यौन परिमाज कावसथः = परित्राजकानामावसथ आश्रम तत्रैवोपागन् उति, उपागत्य परिवाजका मये भाण्डनिक्षेपम् त्रिदण्डाद्युपकरणान स्थापन करोति, कृत्वा धातुरक्तवस्त्र परिहितः गैरिकरागरञ्जित नगरी प्रविरलपरिवाजकैः कतिपयपरिनजिकाश्रमात् ' पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्रामति = निः सरति । प्रतिनिष्क्रम्य निःसृत्य सौगन्धिकाया नगर्या 'मज्झ मज्झेण' मध्यमध्येन मध्यमध्यभागेन यत्र सुदर्शनस्य गृह, यनैव सुदर्शनस्तत्रैवोपागच्छति ।
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यही योग्य है कि मैं सुदर्शन की विनय मूलक धर्मको दृष्टिको हटाकर उसे समझाकर स्थापित करूँ । (त्तिकहुएव सपेहेइ ऐसा मनमें धारण कर उसने पूर्वोक्तरूप से उसे समझाने का विचार किया - (सपेहिता परिव्वायगसहस्सेण सद्वि जेणेव सोगधिया नगरी जेणेव परिव्वायगा वसहे तेणेव उवागच्छछ) विचारकर वह फिर परिव्राजक सहस्र के साथ जहा वह सौगधिका नगरी और उस मे भी जहां परिवाजकाश्रम था वहा आया । ( उवागच्छित्ता परिव्वायगावसरसि भडनिक्खेव करेइ) आकर उसने उस परिव्राजकाश्रम में अपने भाँडोको रख दिया (करिता धाउरत्तवत्यपरिहिए पविरलपरिव्यायगेहिं सद्धिं सपरिवुडे परिव्यायगव सहीओ पडिनिक्खमई ) रखकर फिर वह गैरिक धातु से रगे हुए वस्त्रों को पहिरे हुए कुछेक परिवाजको के साथ २ उस परिव्राजकाश्रम से बाहर निकला ( पडिनिक्खमित्ता सोगधियाए
डीने ईरी शीय भूस४ धर्म प्रत्ये तेनी श्रद्धा भावची लेहो ( त्ति कट्टु ए सपेद्देइ ) मा रीते मनमा विचार उरीने तेथे पडेसानी प्रेम तेने समन्ववाना विचार यो (सपेहित्ता परिव्वायगसहरसेण सद्धिं जेणेत्र सोगधिया नयरी जेणेव परिवायगाव हे वेणेव उवागच्छ्छ ) विचार हरीने ते इरी सहस પરિનાજકાની સાથે જ્યા તે સૌગયિકા નગરી અને તેમા પણુ જ્યા પિતાજ अश्रम हतो त्या सान्या ( उत्रागच्छित्ता परिव्यायगावसह सि भडनिक्खे / करेइ ) भाचीने तेते पोतानी अधी वस्तुओ त्या भूडी ( करिता धाउरत नत्थपरिहिए पविरल परिव्वायगेहिं सद्धिं सरवुिडे परिव्नायगावसहाओ पडिनिक्खमई ) भूडीने તે નૈરિકધાતુથી રંગાએલા વસ્ત્રો પહેરીને થાડા પરિવ્રાજકાને સાથે લઈને आश्रभनी आर नीउज्यो ( पडिनिक्स मिठा सोगधियाए नयरीए मज्झ मज्झेण
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अनेगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ सुदर्शन श्रेष्ठोवर्णनम्
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ततः खलु स सुदर्शनस्त शुकमेजमानम् आगच्छन्त पश्यति, दृष्ट्वा 'नो अब्भुडे ' नो अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थान न करोतिस्म 'नो पन्चुग्गच्छछ' नो प्रत्युद्गच्छति अभिमुख न गच्छति, 'नो आढाइ ' नो अद्रियते आदर न कुरुते 'नो ' परियाणा ' नो परिजानाति = आगमन नानुमोदयति, नो वन्दते न स्तौति, 'तुसिणीए सचिव ' तृष्णीकः सतिष्ठति ।
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ततः खलु स शुरु परित्राजकः सुदर्शनमनभ्युत्थित दृष्ट्वा एवमवादीत्-त्व खलु सुदर्शन ! अन्यदा अन्यस्मिन् समये मामेजमान दृष्ट्वा अभ्युत्तिष्ठसि यावद् - नयरी मज्झ मज्झेण जेणेव सुदसणस्स गिहे जेणेव सुदसणे तेणेव उचागच्छइ ) बाहर निकल कर सौगधिका नगरी के ठीक बीचो बीच से होकर जहा सुदर्शन का घर और उसमें भी जहा सुदर्शन था वहा गया (तएण से सुदसणे त सुय एजमाण पासइ ) सुदर्शन ने आते हुए परिव्राजक को देखा (पासित्ता नो अब्भुट्टेड, नो पच्चुग्गच्छइ, णो आढाइ णो परियाणा नो वदह, तुसिणीए सचि ) परन्तु देखकर वह उठा नही उसके सामने नहीं गया, उसका आदर नही किया, उस के आगमन की उसने सराहना नही की । स्तुति भी नहीं की केवल चुपचाप बैठा रहा । (तएण से सुए परिव्वायए सुदसण अणभुट्टिय पासिता एव वयासी) जब शुक ने ऐसा देखा अर्थात् सुदर्शन को नही उठा हुआ, सामने नही आया हुआ, आदि रूप से देखा तो देखकर उसने उससे इस प्रकार कहा- तुम ण सुदक्षणा ! अन्नया मम एज्जमाण पासित्ता अभुद्वेसि जाव वदसि इयाणि सुदसणा । तुम मम
जेणेव सुदसणस्स गिहे जेणेव सुदसणे तेणेव उवागच्छइ ) महार नीजीने સૌગ ધિકા નગરીની બરાબર વચ્ચે થઈને જ્યા સુદાનનુ ઘર અને તેમા પણુ न्या सुहरान हतो त्या गयो ( तएण से सुदसणे त सुय एज्जमान पासइ ) सुदर्शने पशु परिनाभने भावता लेया ( पासित्ता नो अब्भुट्ठेइ, नो पच्चु गच्छ, णो आढाइ, णो परियाणाइ, नो वदइ, तुसिणीए सचिदुइ) ५२ तु ले ને તે ઉભા થયા નહિ, સ્વાગત માટે તેની સામે ગયા નહિ, તેને આદર આયા નહિ, તેના આગમનની તેમણે સરાહના કરી નહિ, તેની સ્તુતિ પણ मेरी नहि तेथे सुपयाय पोतानी भग्यामे मेसी ४ रह्या (तरण से सुप परिव्वायत सुदसण अणभुट्टिय० पासित्ता एव वयासी ) शु परिनान} शेडने सत्ार भाटे पोतानी सामे नही भावता लेने सुदसणा ! अन्नया मम एज्जमाण पासित्ता अन्भुट्ठेसि जाव
छु - (तुम ण वदसि इयाणि
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शाताधर्मकथासूत्रे
अत्र याच्छदेन -' पच्चुग्गन्छसि' आढासि, परिजाणासि ' इति वाच्यम्, चन्दसे, इदानी सुदर्शन ! त्व मामेजमान दृष्ट्वा यावद् नो वन्दसे, अभ्युत्थानादिक करोपीत्यर्थः तत्कस्य खलु लया सुदर्शन । अयमेतद्रूपो नियमूलः प्रतिषेणः हे सुदर्शन ! मम धर्म परित्यज्य त्वया कस्य धर्मः स्वीकृत इत्यर्थः ।
ततः खलु स सुदर्शनः शुकेन परिव्राजकेनैत्रमुक्त. सन् आसनादभ्युत्ति प्रति, अभ्युत्थाय करतलपरिगृहीत- शिर आप मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा शुरु परिनाजकमेव वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-एव खलु देवानुप्रिया ? अर्हतोऽरिष्टनेमेः अन्तेवासी शिष्य. स्थापत्यापुत्रनामाऽनगार यावद् पूर्वानुपूर्व्याचरन् ग्रामानुग्राम
एजमाण पासित्ता जाव णो वदसि त कस्स ण तुमे सुदसणा इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) सुदर्शन | जब तुम किसी समय मुझे आता हुआ देखता था तो देखकर उठता था - यावत् वदना करता था। परन्तु अब इस समय सुदर्शन ! तुम मुझे आता हुआ देखकर यावत् उठे नही तुमने मेरी वदना नही की। तो हे सुदर्शन ' तुमने किसका यह इस रूप विनय मूलक धर्म स्वीकार कर लिया है । (तएण से सुदसणे सुकेण परिव्वायएण एव बुत्ते समाणे आसणाओ अभुट्ठे, अम्मुट्ठित्ता करयल० सुय परिव्वायग एव व्यासि ) इस प्रकार शुक परिब्राजक के द्वारा कहा गया वह सुदर्शन अपने स्थान से उठा और उठकर उसने दोनो हाथो को अजलि रूप में कर और उसे मस्तक पर रख उससे इस प्रकार कहो कि ( एव खलु देवाणुपिया । अरिहाओ अरिष्टनेमिस्स अतेवासी यावच्चा पुत्ते नाम अणगारे जाव इहमागए इह चैत्र नीला सोए उज्जाणे विरह ) हे देवानुप्रिय ! अहंत अरिष्टनेमि प्रभु के
सुदसणा । तुम मम एज्जमाण पाक्षित्ता जाव णो वदसि त कस्स ण तुमे सुदसणा इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) हे सुदर्शन / पडेला तु गभे त्यारे भने આવતા જોતા ત્યારે સ્વાગત માટે ઉભે થતા અને સામે આવીને વદન વિગેરે કરતા હતા પણ અત્યારે મને જોઈને તુ ઉભું થયે નથી તેમજ તે મને વદન પ કર્યો નથી. હું સુદર્શન ' તે આ કેવાપ્રકારના વિનમૂળક ધર્મ સ્વીકાર્યાં છે ? (aण से सुदसणे सुकेण परिव्वायए ण एव पुत्ते समाणे आसणाओ अन्मुठेइ अभुट्ठित्ता करयल • सुय परिव्वायग एन व्यासी ) शुद्ध परिप्रान्नानी वात सालजीने सुदर्शन પેાતાના સ્થાનેથી ઉભા થયા અને ઊભા થઈને અન્ને હાથની અ જલીને મસ્તકે भूडीने तेने उधु-(एव खलु देवाणुप्पिया । अरिहाओ अरिट्ठने मिस्स अतेवासी थावच्चा पुसे नाम अणगारे जाव इहमागए इहचैव नीलासोए उज्जाणे विहरइ ) हे देवानुप्रिय !
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अनगारधर्मामृतवपिणी रीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्टीवर्णनम सन् सुख सुखेन विहरन् . इति सग्रहः । दह-सौगन्धिकानगर्यामागतोऽस्ति, इहैव अस्यामेव नगर्या पहिभांगे नीलाशोके नीलाशोकनाम्नि उद्याने विहरति, तस्य= स्थापत्यापुत्रस्य खलु अन्तिके समीपे विनयमूलो धर्मः प्रविपन्नः मया स्वीकृत । यदा स्थापत्यापुत्र इहागतम्तदाऽहमपि वदितु तत्रगतस्तदा तदुपदिष्टधर्मस्था श्रुत्वा विनयमूलमाहत्तपर्म समीचीन विज्ञाय स एव धर्मः स्वीकृतो मयेतिभाव ॥२२॥
मूलम्-तएणं से सुए परिव्वायए सुदसणं एव वयासीत गच्छामो सुदसणा। तव धम्मारियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतिय पाउभवामो इमाइ च णं एयारूवाड अहाइं हेउइ पसिणाइ कारणाइ वागरणाइ पुच्छामो, त जइणं मे से इमाइ अट्टाइ जाव वागरइ, तएण अह वदामि नमसामि अहमेसे इभाइ अट्टाइं जाव नो से वाकरेइ, तएण अह एएहि चेव अटेहि हेउहिं निप्पट्रपसिणवागरणं करिस्सामि ॥ सू० २३ ॥ अतेवासी स्थापत्या नाम के अनगार मुनि परपरा के अनुसार चलते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सुस पूर्वक इस सौगधिका नाम की नगरी में आये और अब वे नीलाशोक नाम के उद्यान में ठहरे हुए हैं। (तस्सण अतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) उनके पास मने विनय मूल धर्म समीचीन समझ कर स्वीकार कर लिया है। तात्पर्य इसका यह है कि में भी उनको वदना करने के लिये गया था। उन के मुख से जर मैंने धर्मकथा सुनी तर मुझे उनका सिद्धान्त निर्दोष युक्ति शास्त्र से अविरुद्ध प्रतीत हुआ अतः मैने उनसे उनके उस धर्म को अगीकार कर लिया है । सूत्र ॥२२ ।। અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુના એ તેવાસી (મિધ્ય) સ્થાપત્યા પુત્ર નામના અન ગાર મુનિ પર પરાને અનુસરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતા સૌગ ધિકા नगरीमा सुमेथी माव्या भने भए। नीमा धानमा Gतय छ (तस्स ण अतिए विणयमूले धम्मे पटिवन्ने) तेमनी पाने में मापे ममलने વિનય મૂવક ધર્મ સ્વીકાર્યો છે તાત્પર્ય એ છે કે , પણ તેમને વદન કવ્વા ગર્યો હતે તેમના શ્રીમુખથી મેં ધર્મકથા સાંભળી મને તેમના સિદ્ધાતે નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્ર સમ્મત લાગ્યા એથી મે તેમની પાસેથી આ धर्म:-पीया छ । सूत्र २२ ।।
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द
माताधर्मकथागतो
'तरण से सुए ' इत्यादि ।
टीका-ततः खलु म शुकः परिमाजकः सुदर्शननामक अष्ठिनम् एववक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-तवन्तस्मात् गन्छाम' खलु सुदर्शन ! तर धर्माचार्यस्य स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भवामः । ' इमाइ च ' इमान् अनन्तरमेव वक्ष्यमाण तया सनिकृष्टान, च शब्दादन्याश्च सल एतद्रूपान्थ्य माणस्वरूपान् , अर्थान् अयमाणत्वाद् अधिगम्यमानत्वादर्थाः भावा पक्ष्यमाणयात्रा यापनीयादयस्तदन्ये हेतून्य प्रयव्यतिरेकलक्षगहेतुना ज्ञायमान बाद् हेतुरूपास्तान् , प्रश्नान-प्रश्नविपयत्यात् प्रश्नरूपास्तान्, कारणानि-कारण तत्मारझयुक्तिरूपम् , उपपत्तिमात्र तद्विपयत्वाद् कारणानि तानि, व्याकरणानि-सममाण व्याख्यायमानत्वात् व्याकरगानि च तानि पृच्छाम' | तद्-तस्माद् यदि खलु मम स स्थाप
'तएण से सुए' इत्यादि।
टीकार्य-(तएण) इसके बाद (से सुप)उसशुक (परिवायए) परिवा जक ने (सुदसण एव क्यासी) सुदर्शन से ऐसा कहा-(त गच्छामो ण सुदसणा तव धम्मायरियम्स यावच्चापुत्तस्स अतिय पाउन्भवामो) तो हे सुदर्शन ! मैं यहाँ से-अब तुम्हारे धर्मचार्य स्थापत्यापुत्र के पास जाता हूँ। (इमाइ च ण ण्यारूवाइ अट्ठाइ हे उइ पसिणाइ कारणाइ वागरणाड पुच्छामो त जहण मे से इमाइ अट्ठाइ जाव वागरह, तएण अह वदामि नमसामि,अहमे से इमाइ अट्ठोइ जाव नो से वागरेइ तएण अह एएहिं चेव अहिं हेहिं निप्पपसिण वागरण करिस्सामि) और इस प्रकार के इन अर्थो को, हेतुओ को, प्रश्नों को कारणो को, व्याकरणों को, उनमे पूछू गा, यदि वे मेरे इन अर्थो का यावत् व्याकरणों प्रश्न
'तए ण से सुए इत्यादि।
टीर्थ ( तएण) त्या२ मा४ ( से सुए) शु (परिवायए ) पRिAr (सुदस ण एव पयासी) सुशनने मा प्रभारी उधु-(त गच्छामो ण सुद सणां ! तव धम्मायरियस थापच्चापुत्तरस अतिय पाउन्भवामो) उ सुशन ! ते! चे मडी थी ? भाधा तास घभ शुरु न्या५ यापुत्रनी पासे 6 छु ( इमाइ चण एयारूवाइ अढाइ हेउइ पसिणाइ कारणाइ वागरणाइ पुन्छामो त जइण मे से इमाइ, अठ्ठाइ, जाव वागरइ तएण अह वदामि, नमसामि, अहमेसे इमाई अट्ठाइ जाव नो से वागरेइ तएण अह एएहिं चेव अट्रेहि हेउहिं सिरप पसिण वागरण करिम्सामि) तेभनी साये मी, तुमी, प्रश्नो, २१, भने व्या४२को 1 - 7 ते भा२। मथो, तु अरना
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अनगारधर्मामृतपणी टी० अ० ५ सुदर्शनश्रेष्टीवर्णनम्
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त्यापुत्र: इमान् अर्थान् यावद् व्याकरोति= मम मनाना समीचीन समाधान करिष्यति ततस्तदनन्तर खलु जह उन्देवन्दिष्ये, नमस्यामि नमस्कारप्यामि । अथ मम स इमान् अर्थान् यानद् व्याकरणानि नो व्याकरोति=न स्प टीकरिष्यति, ततस्तदा खलु अहम् एतैरेव अर्हेतुभिः 'निष्पट्टपरिपणजागरण ' निःस्पष्टप्रश्नव्याकरण = निः स्पष्टानि अव्यारयातानि मनुव्यावरणानि प्रश्नो तराणि येन स तथा तम्, प्रश्नोत्तरकरणासमर्थ करिष्यामि ॥ २३ ॥
मूढम् -तएणं से परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्टिणा सद्धि जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्त एवं वयासीजत्ता ते भते | जवणिज ते अव्वावाह पित, फासूयं विहार ते ' ।
तएण से थावच्चापुते सुएण परिवायगेण एव बुत्ते समाणे सुयं परिव्वायग एव वयासी-सुया । जन्तावि मे जवणिजंपि मे अव्वावाहपि मे फासूय विहारंपि मे, ॥
तएण से सुए थावच्चापुत्त एव वयासी-कि भंते । जत्ता' ॥ सुया | जन्न मम णाणदसणचरित्ततवनियमसजममाइएहि जोएहि जयणा से तं जत्ता ।
से कि त भते । जवणिज १ ।
विशेष का अच्छी तरह से समाधान कर देगे तो में उन्हें नमस्कार करूँगा । यदि वे मेरे इन अर्थो से लेकर व्याकरणो तक की वालों का कोई ठीक २ स्पष्टीकरण नही करेगे। तो मैं उन्हें उसी समय इन्हीं अर्थ हेतुओं द्वारा प्रश्नोत्तर करने में असमर्थ कर दूंगा ॥ सू० २३ ॥
કારણા તેમજ વ્યારુગ્ણા વિષેના પ્રશ્નો ના મારી પેઠે સમાધાન કરશે તે હુ તેમને વદન કરીશ અને જે તે માગ અર્થાં વ્યાકરણા વગેરે ના વિષે સારી રીતે સ્પર્ટી કન્ગ્યુ ન કરી કે તે હું તેમને તરત જ પ્રશ્નોત્તર કરવામા
२५ ॥
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हाताधर्मकथाम 'तण्ण से सुए ' इत्यादि।
टीका-ततः खलु म शुकः परिवाजकः सुदर्शननामक येष्ठिनम् एव वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-तत्-तस्मात् गन्छामः सलु मुदर्शन ! तर धर्माचार्यम्य स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भवामः । ' इमाइ च ' इमान् अनन्तरमेव वक्ष्यमाण तया सनिकृष्टान, च शब्दादन्याश्च सलु एतद्रूपान्य माणम्परूपान् , अर्थान: अर्यमाणत्वाद् अधिगम्यमानत्वादर्था' भावा वक्ष्यमाणयात्रा यापनीयादयस्तदन्पे हेतून् अवयव्यतिरेकलक्षगहेतुना ज्ञायमानत्वाद् हेतुरूपास्तान् , मश्नान प्रश्नवि पयत्वात् प्रश्नरूपास्तान्, कारणानिकारण तत्साधकयुक्तिरूपम् , उपपतिमात्र तद्विपपत्ताद् कारणानि तानि, व्याकरणानि सप्रमाण व्यारयायमानत्वात् व्याकरणानि च तानि. पृच्छाम' । तद्-तस्माद् यदि खलु मम स स्थाप
'तएण से सुए' इत्यादि।
टीकार्य-(तएण) इसके बाद (से सुप)उसशुक (परिव्वायए) परिवा जक ने (सुदसण एव वयासी ) सुदर्शन से ऐसा कहा-(त गच्छामो ण सुदसणा! तव धम्मायरियम्म यावच्चापुत्तस्स अतिय पाउन्भवामो) तो हे सुदर्शन ! मैं यहाँ से-अब तुम्हारे धर्मचार्य स्थापत्यापुत्र के पास जाता है। (इमाइ च ण ण्यारूवाइ अट्ठाइ हेइ पसिणाइ कारणाइ चागरणाइ पुच्छामो त जडण मे से इमाइ अट्ठाइ जाव वागरह, तएण अह वदामि नमसामि, अत्मे से इमाइ अट्ठोइ जाव नो से वागरेइ तएण अह एएहिं चेव अतुहिं हे उहिँ निप्पपसिण वागरण करिस्सामि) और इस प्रकार के इन अर्थो को, हेतुओ को, प्रश्नों को कारणो को, व्याकरणों को, उनमे पूछ गा, यदि वे मेरे इन अर्थों का यावत् व्याकरणो प्रश्न
'तए ण से सुण् इत्यादि। __ ( तएण) त्या२ मा ( से सुए) शु (परिवायए) परिमा (सुदस ण एव घयासी) सुशनने या प्रमाणे उधु (ते गच्छामो णं सुदसणी! तव धम्मायरियास थावच्चापुतरस अतिय पोउभवामो) सुहान! ते ३ मही थी हु भाछ। तारा धर्म शुभ स्था५ यापुनी पासे ४६ ७ (इमाइ चर्ण पयारुवाइ अट्टाइ हेइ पलिणाइ कारणाइ वागरणाइ पुच्छामो त जइण में से इमाइ, अट्ठाइ, जाव बागरइ तएण अह वदामि, नमसामि, अहमेसे इमाइ अट्ठाइ जाव नो से वागरेइ तए अह एएहिं चेत्र अटेहिं हेउहिं निप्प ट्रपसिण वागरण करिस्सामि) तेमनी साये हु अथी, अतुमा, प्रश्नो, २, અને વ્યાકરણ ના વિશે ચર્ચા કરીશ, જે તે મારા અર્થો, હેતુઓ. પ્ર.
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
पन्नत्ता, तं जहा - सहजायया सहवड्डियया सहपसुकीलि / यया, ते णं समणाणं निग्गथाण अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवा ते दुविहा पन्नता, त जहा सत्थपरिणया य असत्य परिणया य, तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गथाण अभक्खेया, तत्थ णं जे ते सत्यपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, त जहा फासुगाय अफासुगा य, अफासुया णं सुया । नो भक्खेया, तत्थ णं जे ते फासूया
दुविहा पन्नत्ता, जहा - जाइया य अजाइया य, तत्थ णं जे ते अजाइया ते अभक्खेया तत्थ णं जेते जाइया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - एसणिजा य अणेसणिजा य । तत्थ णं जे ते असणिज्जा ते णं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुबिहा पन्नत्ता, लद्धा य अलद्धा य, तत्थणं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया, एएणं अद्वेणं सुया । एव वच्चंति - सरिसवया भक्वेया वि, अभक्खेया वि, एव कुलत्था वि भाणियव्वा, नवर इम णाणत - इत्थि कुलत्थाय धन्नकुलत्था य इत्थि कुलत्था तिविहा पन्नन्ता त जहा - कुलवधूयाइ य कुलमाउयाइ य कुलधूयाइ य, धन्नकुलत्था तहेव, एव मासा वि, नवरं इम नाणत-मासा तिविहा पन्नत्ता, त जहा- कालमासा य अत्थमासा य, धन्नमासा य, तत्थ पां जे ते कालमासा ते णं दुवालसविहा पन्नन्ता त जहा - सावणे जाव आसाढे, ते णं अभक्खेया
या नवे । 1
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हाताधर्मस्थाने सुया । जवणिजे दुविहे पन्नत्त, तजहा इदियजवणिज्जे य नो इदियजवणिजे य से किं तं इदियजवणिजे ।
सुया । जन्नं ममं सोइंदिय-चविखदिय-घाणिढियजिभिदिय फासिदियाइ निरुवहयाइ वसे वहति, से तं इंदियजवणिज ।
से कि तं नो इंदियजवणिज ।
सुया ! जन्न कोहमाणमायालोभा खीणा उपसंता नो उदयति से तं नो इंदियजवणिज्जे ।
से कि त भते । अव्वाचाहं ?
सुया जन्न मम वाइयपित्तिय सिमिय सन्निवाइया विविहा रोगायंका णो उदीरेंति से तं अव्वावाहं ।
से किं तं भते फासुयविहारं ।
सुया । जन्न आरामेसु वा उजाणेसु वा देवकुलेसु वा सभासु वा पव्वएसु वा इत्थीपसुपडगविवज्जिएसु वसहाँसु पाडिहारिय पीठफलगसेज्जासथारय उम्गिमिहत्ताण विहरामि,से त्त फासुयविहार।
सरिसवया ते भंते । कि भक्खेया अभक्खेया। सुया । सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ।
से केणढेणं भंते एव वुच्चइ १ सरिसवया भक्खया वि अभक्खेया वि।
सुया । सरिसवया दुविहा पन्नत्ता, त जहा- मित्तसरिसवया धन्नसरिसवया य, तत्थ ण जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् भते !' हे भदन्त ! ते तव याना नर्तते ? 'जवणिज्ज ते ' यापनीय ते तब वर्तते , ' अव्यागाह पि ते ' अव्यारापमापि ते वर्तते १. 'फासुयविहार ते ' प्रासुक विहारस्ते तव वर्तते ।
ततस्तदनन्तर स स्थापत्यापुनः शुकेन परित्राजकेनैव मुक्तः सन् शुक परिब्राजकमेरमवादीत्-हे शुक । 'जत्ता पि मे' यात्राऽपि मे ममाऽस्ति, 'जवणि ज्जपि मे' यापनीयमपि मे ममाऽस्ति, 'अबानाहपि मे' अव्यावाधमपि मे मम वर्तते, 'फासुयविहार पि मे' मासुक विहारोऽपि मे ममाऽस्ति ।
ततस्तदनन्तर खलु स शुकः स्थापत्यापुरमेवमवादीत् 'किं भते । जत्तो' का भदन्त यात्रा हे भदन्त । काकि स्वरूपा तर यात्रा। स्थापत्यापुत्र अनगार था वहा गया। (उवागच्छित्ता थावच्चापुत्त एव वयासी) वहा जाकरउसने स्थापत्यापुत्र से ,ऐसा कहा-(जत्ताते . भते! जवणिज्ज ते अव्वाचार पि ते फासुयविहार ) तो हे भदत ! आपकी यात्रा है क्या आपके यापनीय है क्या? आपके अव्यायाध है क्या? आपके प्रासुक विहार है क्या? (तएण से थावच्चापुत्ते सुएण परिवायगेण एष वुत्ते समाणे सुय परिव्वायग एव वयासी) इस प्रकार शुक परिव्राजक से पूछे गये उन स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसशुक परिव्राजक से ऐसा कहा-(सुया जत्ता वि मे, जवणिउजपि मे अन्वानाहपि में फायविहारपि मे) हे शुक हमारा यात्रा भी है, यापनीय भी है हमारा अव्यायाध भी है हमारे प्रास्तुक विहार भी है। (तएण से सुए थावच्चायुत्त एव वयासी) जर स्थापत्यापुत्र अनगार ने शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-तय उसने स्थापत्यपुत्र अनगार ( उवागच्छित्ता थावाचापुत्त एव वयासी) त्याने तो स्थापत्याधुत्र ने धु-(जत्ता ते भते । जवणिज्जते अव्वाबाह पि ते फासुयविहार ) महन्त ! શું તમારી યાત્રા છે ? યાપનીય છે? આવ્યાબાધ છે? તમારે પ્રાસુર विडा२ छ? (तएण से थ'वच्चापुत्ते सुरण परिवायगेण एव वुत्ते समाणेसुय परि व्यायग एव क्यासी) शु४ परिवानी मा पात सालजीन स्थापत्यापुत्र मानगारे शु परिवाराने यु-(सुया ! जत्ता वि मे जवणिज्जपि में अव्या वाहपि में फासुयविहार पि में) 3 शु। ममारी यात्रा पर छे, यायनीय पर छे, मामाघ ५१ छ भने सारे प्रासु विडार पY (तएण से सुए थावच्चापुत्त एव वयासी) न्यारे स्थापत्या पुत्र सनारे शु परिनाने मा प्रमाणे उखु, त्यारे स्थापत्या पुत्र मनगारे तेमने उधु-(किं
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माताधर्मकथासूत्र एगे भव दुवे भव अणेगे भव अक्खए भव अव्वए भव __ अवट्टिए भव अणेगभूयभावभविएवि भव ।
सुया ! एगे वि अह दुवेवि अहं जाव अणेगभूयभाव भविएवि अह ।
से केणतुणं भते । एवं वुच्चइ एगे वि अहं जाव अणेगभूयभविएवि अह ।
जण्णं सुया। दवट्टयाए एगे अह नाणदसणट्टयाए दुवेवि अह पएसट्टयाए अक्खएवि अहं अधएवि अहं अवाट्टए वि अह उवओगट्टयाए अणेगभूयभाव भविएवि अहं।
___ एत्थ णं से सुए सबुद्धे थावच्चापुत्तं वदह नमसइ,वदित्ता नमसित्ता एव वयासी-इच्छामि णं भते। तुभ अंतिए केवलिपन्नत्त धम्म निसामित्तए, धम्मकहा भाणियव्वा ॥सू० २४॥
'तएण से सुए ' इत्यादि
टीका- ततस्तदनन्तर स शुरु परित्राजकसहस्रेण सुदर्शनेन श्रेष्ठिना च साधं यत्रैव नीलाशौफनामोद्यान यत्रैव स्थापत्यापुन नामाऽनगार आसोत, तनवो पागच्छति, उपागत्य स्थापत्यापुनमेम्वक्ष्यमाणमकारेणानादीत्- 'जत्ता ते
'तएण से सुए' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (से सुए) वह शुक परिव्राजक (परित्या यगसहस्सेण सुदसणेण य सेट्टिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उजाणे जेणेव थावच्चा पुत्तो अणगारे तेणेव उवागच्छद) १ एक हजार परिव्राजको के-और सुदर्शन के साथ जहा नीलाशोक उद्यान तथा उसमें जहा
'तएण से' सुए' त्या !'
टरी ( तएण) त्या२ मा ( से सुए)शु परिवा१४४ (परिवायगसहम्सेण सुदसणेण य सेट्ठिणा सद्धि जेणेव नीलासोए उताणे जेणे यावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ) १२ परिart भने सुशन शनी साथे rl નીલાશોક ઉદ્યાન હતું અને તેમાં ક્યા સ્થાપત્યા પુત્ર અનગર હતા ત્યા ગયે
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भन गारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् परिणामः, तपा-जनशनादिकं द्वादशविध , नियमः द्रव्यक्षेत्रकालभावतोऽभिग्रह ग्रहहणमुत्तरगुणरूपम् , सयमा चारित्रग्रहणेनैव सयमे प्रतिवोधिते पुनःसयम पदोपादानादुभयकालपतिलेखनरूप, कालचतुष्टा ये स्वाध्यायादिकरणरूपश्च सयमो ग्राह्यः । आदिपदाद् ध्यानावश्यकादिः तर ध्यान-धर्म-यानादि, आवश्यक पड्रिप तेपु, 'जोएहि' योगेपु मनोवास्कायव्यापारेषु, 'जयणा' यतना प्रत्ति, सैपायाना मम वर्तते । नान्या शत्रुजयादियाना वीतरागमार्गे वर्तते इत्यर्थः ।
एवमेव भगवतीसूत्रेऽष्टादशशतकस्य दशमोद्देशके भगवता सोमिल ब्राह्म णाय प्रोक्तम्
शुको वदति-से किंतभते जवणिज्जे' अथ किं तद् भदन्त ! यापनीयम् ।
चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से अथवा क्षय से जोस्थूल तथा सूक्ष्म प्राणातिपात आदि पापों सेनिवृत्ति रूप आत्मा का परिणाम होता है वह चारित्र है। तप-अनशन आदि के भेद से १२ प्रकार का है ) द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव को लेकर उत्तर गुणरूप जो नाना प्रकार के नियम-अभिग्रह-ग्रहण से ही सयम भी ग्रहीत हो जाता है फिर भी जी यहाँ सयम का स्वतत्र ग्रहण किया गया है वह "उभय काल में प्रतिलेखना करना और काल चतुष्टय में स्वाध्याय करना इस रूप सयम है, यह वाश्य इस अर्थ को सूचित करता है। आदि पद से "ध्यान आव श्यक" ये ग्रहीत हुए है। धर्म यान आदि का नाम ध्यान तथा आवश्य करने योग्य कर्तव्य का नाम आवश्यक है। यह आवश्यक प्रकार है। इन ज्ञानादिकों मे तथा योगों मे जो यतना है यही यात्रा है-अन्य कोई यात्रा नही है यह बात भगवती सूत्र में भगोन ने अठारहमा शतक के પ્રાણાતિપાત વગેરે પાપ થી નિવૃત્તિ રૂપે આત્મા ને પરિણામ થાય છે તે ચારિત્ર છે તપ, અનાન વગેરે ભેદથી બાર પ્રકારનું છે A દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભવની સાથે ઉત્તર ગુણ રૂપ જે અનેક જાતના નિયમ-(અભિગ્રહ) ગ્રહણથી જ સ યમનું પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે, છતા એ અહીં જે સયમનુ સ્વત ત્ર રૂપે ગ્રહણ કરવામા આવ્યું છે, તે બંને વખત પ્રતિ લેખના કરવી અને તલ ચતુષ્ટયમાં સ્વાધ્યાય કરવો તે “સ યમ ” છે, આ વાક્ય એજ અર્થ અહી સચવે છે, આદિપદ વડે “ધ્યાન આવશ્યક » પદ્યનું સૂચન થાય છે ધર્મ વિશે ધ્યાન વગેરે ‘ધ્યાન” કહેવાય છે, તેમજ આવશ્યક રૂપે કરવા યોગ્ય કર્તવ્યનું નામ આવશ્યક છે આ આવશ્યકતા છે પ્રકારે છે અજ્ઞાનાદિ વગેરેમા તેમજ ગેમા જે યતના છે તેજ યાત્રા છે બીજી કોઈપણ જાતની યાના છે જ નહિ આ વાત “ભગવતી સૂત્ર ” ને અઢારમાં રાતના દશમા ઉદ્દેમાં ભગવાને સોમિલ બ્રાહ્મણને કહી છે,
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साताधर्म कथासूत्रे
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शुकस्य प्रश्न श्रुत्वा स्थापत्यापुनी वदति - 'मृगा' इत्यादि । हे शुरु | 'जन्न यत् खलु मम पाणदसणचरितवर नियमसनममाइएहिं ' ज्ञानदर्शनचारित्र तपोनियमसयमादिकेषु ज्ञान - ज्ञानावरणीयस्य क्षयोपशमात् दायादवा प्रादुर्भूतो जीवाजीवादि तत्त्वनिर्णय लक्षण आत्मपरिणामः, दर्शन = दर्शनमोहनीयस्य क्षयोप शमात् क्षयाद्वा ऽऽविर्भूतस्तत्र श्रद्धानरूप आत्मपरिणामः, चारित्र = चारित्रमोहनीयस्य क्षयोपशमात् क्षयाद्वा जातः स्कूलसूक्ष्मपाणातिपातादि निरमणलक्षण आत्म से इस तरह पुनः पूछा (किं भते जत्ता ) हे भदन्त ! यात्रा शब्द का अर्थ क्या है ? (सुया जन्न मम णाणदसणचरित्त तवनियम सजमाइ एहिं जोएहिं जयणा से त जत्ता ) स्थापत्यापुत्र अनगार ने कहा है शुक' ज्ञानदर्शन, चारित्र, तप, नियम, सयम, आदिकों में एव मन वचन और काय इनके व्यापारो में जो हमारी यतनाचार पूर्वक प्रवृत्ति है वही यात्रा है - और ऐसी यात्रा हमारी आनद के साथ हो रही है । अन्य शत्रुजयादि तीर्थो की यात्रा वीतराग मार्ग में नही है । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से, अथवा क्षत्र से जीवअजीव आदि तत्वों के विषय में जो उनके स्वरूप आदि का निर्णय रूप आत्म परिणामउत्पन्न होता है वह ज्ञान है ।
૨૪
दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से अथवा क्षय से, जीव के जो तत्त्व श्रद्धान रूप आत्म परिणाम होता है वह दर्शन है ।
1
भते जत्ता ) हे महत! यात्रा सपना अर्थ शुछे ( सुया जन मम गौण द सण चरिचतन नियमसजममाइएहिं जोरहिं जयणा से त जत्ता ) स्थाप त्यायुनानगारे ह्यु-डे शुम् । ज्ञान दर्शन, शास्त्रि, तप, नियम, भयम, वगैरे મા અને મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારામા જે અમારી જતનપૂર્વક આચરણુ કરવાની પ્રવૃત્તિ છે, તેજ યાત્રા છે, અને એ યાત્રા અમારી સુખેથી પસાર થઈ રહી છે, શત્રુ જય વગેરે તીર્થોની યાત્રા વીતરાગ માને અનુસરનારાઓ માટે નથી. જ્ઞાનાવરણીય કર્મોના ક્ષયાપશમથી અથવા ક્ષયથી જીવ અજીવ વગેરે વિષયમા જે તેમના સ્વરૂપ વગેરેના નિર્ણય રૂપ આત્મ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે તે જ્ઞાન છે
દન માહનીય કર્મોંના ક્ષયે પશમથી મથવા ક્ષયથી જીત્રતા જે તત્ત્વ શ્રદ્ધાન રૂપ આત્મપરિણામ હોય છે તે દશન છે
ચારિત્ર સાહનીય ના ક્ષયે પશમથી અથવા કાયથી જે સ્થૂલ તેમજ સૂક્ષમ
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अनगारधर्मामृतपिणी टीफा अ० ५ सुदर्शनथेष्ठीवर्णनम्
शुकः पृच्छति-'से कि' इत्यादि । अथ किं तद् नोइन्द्रिययायनीयम् । स्थान पत्यापुत्र आह- सुया' इत्यादि । हे शुक! यत्-यस्मात् खलु क्रोपमानमाया लोभाः क्षीणा क्षय प्राप्ता., उपशान्ता उपशम प्राप्ता सन्तो नो उदयन्ते-नोदीर्यन्ते, नो इन्द्रिययापनीय नोडन्द्रिय मनस्तस्य विकाराः कपाया इह नो इन्द्रियशब्देन गृह्यन्ते, तेपा यापनीय वशीकरण ममास्ति ।
शुको वदति-' से किं' इत्यादि । अब किं तद् भदन्त अव्यानाधम् ? । स्थापत्यापुआह-' सुया।' इत्यादि । हे शुक 1 यत्-यस्मात् खलु मम वातिक पैत्तिकश्लैष्मिकसानिपातित= ! वातिकाः वातप्रकोपजनिता पैत्तिकाः प्रकोप समुद्भवाः, श्लैप्मिका कामकोपमभया', सान्निपातिका बातपित्त श्लेष्मणा समूह 'सनिपातः, तत्र भवाः विविधा ' रोगायका' रोगातका रोगाश्चातकाचेति इन्द्रिय यापनीय है । ( से कि त नो इदियजवणिज्जे) भदत ! नो इन्द्रिय यापनीय का क्या अर्थ है ? (मुया जन्न कोह माण माया लोभा खीणा उबसता नो उदयति से त नो इदियजाणिज्जे ) हे शुक जो क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपाये क्षयावस्थापन्न होकर या उपशम अवस्थावाली होकर उदय में नहीं आ रही है यही नो इन्द्रिय यापनीय है। नो इन्द्रियका अर्थ मन होता है । मन के विकार ये क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार कपाये हैं । इसलिये ये नो इन्द्रिय शब्द से गृहीत गए है। यापनीय शब्द का अर्थ वश करना हैं। ये सय कपायें मेरे वश मे हो रही हैं - यही नो इन्द्रिय यापनीर मेरे वर्त रहा है। (से कि मते अव्वाचार) भदत ! अव्यावाध का तात्पर्य क्या है ? (सुया जन्न मम वाडयपित्तिय सिभियसन्निवाइया धन्द्रिय यायनीय (से कि त नो इदियजबणिज्जे ) महत ! धन्द्रिय यापनीयन । म य छ (सुया जन्न कोहमाण मायालोमा खीण! उबम ता नो उन्य ति से न नो इ दियजवणिज्जे) शुअध, भान, माया, અને લેભ એ ચારે કષાય ક્ષય પામીને અથવા તે ઉપશમિત થઈને ફરી ઉદય પામતી નથી એજ ને ઈન્દ્રિય યાપ લય છે ને ઇન્દ્રિય એટલે મન, અને ફોધ, માન, માયા, અને લોભ એ ચારે મનના વિકારે છે એથી આ બધાને ઇન્દ્રિય ખેથી પૃહીત થયા છે યાયનીય શબ્દનો અર્થ વરા કરવું છે. આ બધા જા રે મારે વશ થયેલા છે એજ ઈન્દ્રિય યાપનયને ए पी २हो छ ( से फि भ ते अध्याघाह ) 3 लहत । सच्यामाधना शो अर्थ छ ? ( सुगा जन्न मम वाइरित्तिमिनियसमिइया विपिहा
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माताधर्मकथा स्थापत्यापुत्रः कथयति-हे शुक ! यापनीय द्विविध प्रजप्त, तद् यथा इन्द्रियया यनीय नोइन्द्रिय यायनोय च ।
शुको बूते-अथ किं तद् इन्द्रिययापनीयम्. ।
स्थापत्यापुनः समाधत्ते-'मुया ! इत्यादि । हे शुरु ! यत्-यस्मात् कारणात् खलु मम श्रीन्द्रि-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-निवेन्द्रि-स्पर्शेन्द्रियाणि निस्पहतानि वशे वर्तन्ते, तद् इन्द्रिययानीम् इन्द्रियाणा वशीकरण मम पर्वते. । 'त' इतिवाक्यालङ्कारे, एवमन्यत्रापि । दशमेंउद्देशक में सोमिल ब्राह्मण से कही है । (से कि त भते जवणि ज्ज ) हे भदत! यापनीय शब्द का क्या अर्थ है ? (सुया ! जबणिज्जे दुविहे पण्णत्ते त जहा-इदियजवणिज्जे य जो इदियजवणिज्जे य) इस प्रकार शुक परिव्राजक के पूछने पर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसे सम. झाया कि हे शुक ! यापनीय दो प्रकार का कहा हुआ है -जैसे १ इन्द्रि योपनीय २ नो इन्द्रिय यापनीय । (से किं त इदियजवणिज्ज) इन्द्रिय यापनीय का क्या स्वरूप है इस प्रकार शुरू के पूछ ने पर स्थापत्या पुत्र ने कही (सुया ! जन्न मम सोइदिय चक्खिदिय जिभिदिय फासिदियाइ निरुवहयाइ वसे वट्टति, से त इदियजवणिज्ज ) शुक ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणइन्द्रिय, जिह्वाइन्द्रिय, स्पर्शनइन्द्रिय निरुपहत बन कर जो मेरे वश में हो रही हैं यही इन्द्रिय यापनीय है अर्थात् विना किसी बाधा के अपने विपयो को ग्रहण करने में समर्थ होने पर भी ये पाचो इन्द्रियां जो मेरे वश में वर्त रही हैं यही (से कि त भते अवणिज ) महन्त ! यापनीय शहना म छ ? (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते व जहा इ दियजवणिज्जे य णो इदिय जवणिज्जे य ) शु४५रिवाना प्रश्न सामजीन स्थापत्यापुत्र मनगारे तन સમજાવતા કહ્યું કે-હે શુક! યા૫નીયના બે પ્રકારે કહ્યા છે (૧) ઈન્દ્રિય યાપ नीय अन (२) नन्द्रिय यापनीय (से कि त ई दियजवणिज्न ) धन्द्रिय ચાપનયનુ સ્વરૂપ શું છે? શુક પરિવ્રાજકના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં સ્થાપત્યા પુત્રે
यु-(सुया ! जन्न मम सोइ दिय चक्खि दिय जिभि दियफासि दियाइ निरुवह याइ बसे पट्ट ति, से त इदियजवणिज्ज ) 3 शु! श्रीन्द्रिय, यशु छन्द्र ઘાણ ઈન્દ્રિય, જિ હા ઈન્દ્રિય, સ્પર્શ ઈન્દ્રય, નિરુપહત થઈને મારા વશમા થઈને તે જ ઇન્દ્રિય યાપનીય છે એટલે કે કઈપણ જાતન વાધા વગર વિષયને ગ્રહણ કરવાની તાકત હોવા છતા એ પાચે ઈન્દ્રિયે મારે વશ થયેલી છે જ
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अनगारधर्मामृतषिणी टीफा अ० ५ सुदर्शनधेष्ठीवर्णनम्
शुकः पृच्छति-से किं' इत्यादि । अथ किं तद् नोडन्द्रिययायनीयम् । स्थापत्यापुत्र आह-' सुया' इत्यादि । हे शुस ! यत्-यस्मात् खलु क्रोपमानमाया लोभाः क्षीणा क्षय माता', उपशान्ता उपशम माता सन्तो नो उदयन्ते-नोदीयन्ते, नो इन्द्रिययापनीय नोइन्द्रिय मनस्तस्य निकाराः कपाया इह नो इन्द्रियशन्देन गृह्यन्ते, तेपा यापनीय वशीकरण ममास्ति ।
शुको वदति-' से किं' इत्यादि. । अब किं तद् भदन्त अव्यानाधम् ? । स्थापत्यापुन आह-'सुया ।' इत्यादि । हे शुक ! यत्-यस्मात् खलु मम वातिक पैत्तिकश्लेप्मिकसानिपातिमा ! यातिकाः पातप्रकोपजनिता पत्तिकाः प्रकोपसमुद्भवा', श्लैष्मिकाफमकोपप्रभवा', सानिपातिका मातपित्त श्लेष्मणा समूहासनिपातः, तत्र भवाः विविधा ' रोगायका ' रोगातङ्काः रोगाश्चातकाचेति इन्द्रिय यापनीय है । ( से कि त नो इदियजवणिज्जे ) भदत ! नो इन्द्रिय यापनीय का क्या अर्थ है ? (सुया जन्न कोहमाण माया लोभा खीणा उघसता नो उदयनि से त नो इदियजवणिज्जे ) हे शुक जो क्रोध, मान, मारा और लोभ ये चार कपाये क्षयावस्थापन्न होकर या उपशम अवस्थावाली होकर उदय में नहीं आ रही है यही नो इन्द्रिय यापनीय है। नो इन्द्रियका अर्थ मन होता है । मन के विकार ये क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार पाये हैं । इसलिये ये नो इन्द्रिय शब्द से गृहीत भए हे। यापनीय शब्द का अर्थ वश करना हैं । ये सब कपायें मेरे वश में हो रही हैं - यही नो इन्द्रिय यापनीच मेरे वर्त रहा है। (से कि मते अव्यावाह) भदत । अव्यायाध का तात्पर्य क्या है ? (सुया जन्न मम वाइयपित्तिय सिभियसन्निवाइया धन्द्रिय यापनीय) (से कि त नो इदियजवाणिज्जे ) महत ! ! छन्द्रिय यापनीयन सो अर्थ थ य (सुया अन्न कोहमाण मागालोमा खीण! उपमता नो उन्य ति से त नो इ दियजवणिज्जे) शु! अध, भान, माया, અને લોભ એ ચારે કપાય ક્ષય પામીને અથવા તે ઉપસમિત થઈને ફરી ઉદય પામતી નથી એજ નો ઈન્દ્રિય યાપનીય છે કે ઇન્દ્રિય એટલે મન, અને ક્રોધ, માન, માયા, અને લેભ એ ચારે મનનાજ વિકારે છે એથી આ બધાને ઈન્દ્રિય નથી ગૃહીત થના છે યાપનીય શબ્દનો અર્થ વગ કરવું છેઆ બધા પાપો મારે વળ થયેલા છે એજ ઈન્દ્રિય યાપનીને हु पर्ती हो छु ( से कि भते अन्यायाह ) & महत | मच्यामा न
मथ छे ? ( सुपा जन्न मम वाइरित्तिमिभियसविनाइया विविहा
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भाताधर्मपथासूत्रे द्वन्द्वः रोगा दाहज्वरादयः, आतङ्काः शीघ्रघातिनः लूलादयः गो उदीयन्ते,तन् अन्यावाध-व्यानाधाना शरीरपीड़ानामभावः मम पर्वते. ।
शुकः पृच्छति-से कि ' इत्यादि । अथ कोऽसौ भद त' मामुक विहारः।? ___ स्थापत्यापुगो वदति-'मुया' इत्यादि । हे शुक! यत् यस्मात् खलु आरा मेपु-उपवनेषु, उद्यानेषु पुष्पप्रधानेपु राजपनेपु. देवकुलेषु व्यन्तरायतनेषु, समासु परिपत्सु 'पापमु' पर्वतेषु इदमुपलक्षण तेनायादशरथानेषु इत्यर्थ । स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितासु वसतिपु प्राविहारिक-पुनः समर्पणीय, पीठफलाशग्यासविविहा रोयायका नो उदीरेंति से त अव्यागाह से कि त भते फायविहार आरामेसु उजाणेस्तु देवउलेसु, सभालु, पन्वएतु, इत्थी पसुपडग विवज्जियासु वसहीस्लु पाडि हारिय पीठफलग सथारय उग्गिण्डित्ता ण विहरामि सेत्त फायविहार ) शुक ! जिस कारण से वात, पित्त और कफ से जनित तथा इन तीनों के सन्निपात से जनित जो विविध प्रकार के दाहज्वर आदि रोग शीघ्र घातक शूलादिक आतक मुझे उदित नहीं हो रहे है यही अव्यायाध मेरे वर्त रहा है। व्यायाध शब्द का अर्थ शारीरिक पीडा है-- और इस का अभाव इस समय मेरे में वर्त ररा है। यही अव्यावाध का स्वरूप है। हे भदन्त ! प्रासुक विहार का क्या स्वरूप है ? उत्तर-हे शुक! जिस कारण मैं उपवनो मे पुष्प प्रधान राजकीय बनो में देवघरों में अर्थात् व्यन्तरायतनो में परिषदो में पर्वतों में ऊपलक्षण से अठारह स्थानों में, स्त्री, पशु, पडक-नपुसकों से विहीन वसतिओं में मठों में रोयाय का नो उदीरे ति से त अन्वावाह से किं त भते पासुयविहार आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पव्वएसु इत्थी, पसुपडगविविज्जियासु वसहीसु पाडिहारिय पीठफ्लगसेज्जासथारय उम्पिण्हिताण विहरामि से त फासुयविहार) હે શુક! વાત, પિત્ત અને કફથી જન્મતા તેમજ આ ત્રણેના સન્નિ પાતથી ઉદ્ભવતા અનેક દાહજવર વગેરે, રોગ શીઘઘાતક શૂળ વગેરે આતક મારા શરીરમાં ઉદ્ભવતા નથી એજ અવ્યાબાધ મારામાં જતી રહ્યો છે અવ્યાબાનું સ્વરૂપ એજ છે શુકે સ્થાપત્યા પુત્રને બીજો પ્રશ્ન કર્યો –હે ભદત ' પ્રાસુક વિહારનું સ્વરૂપ શું છે? તેને ઉત્તર આપતા સ્થાપત્યા પુત્ર કહે છે–હે શુક ! હું ઉપવનેમા, પુષ્પ પ્રધાન રાજકીય નેમ, દેવ ઘરમાં એટલે કે વ્યતરાયતનેમા, પરિષદમા પર્વતેમા-ઉપલક્ષણથી અઢાર થામાં સ્ત્રી, પશુ,પડક, નપુસક વગરની વસ્તીઓમા મઠમા પ્રાતિહારિક
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम् स्तारसमगृह्य-याचित्वा विहरामि-निचरामि, स प्रासुकनिहारः । 'त' इति वा क्यालङ्कारे । शुक पुनरप्युपहासार्थ पृच्छति-'सरिसरया' इत्यादि। हे भदन्त ! 'सरिसक्या' ते तक कि भल्या , उत अभक्ष्याः किम् ? स्थापत्यापुत्र' समाधत्ते -'सुया ! ' इत्यादि । हे शुक ! 'सरिसवया' सरिसपयशब्दार्थ. भल्या जपि, अभक्ष्या अपि, सिरिसरया' इति पदस्थायमेदाद् भ-या अभक्ष्या भवन्तीति भावः । शुकः पुनराह-' से केणट्टण ' इत्यादि । भदन्त ! हे भगवन् तत् केना र्थेन एवमुन्यते-' सरिसपया' भक्ष्या अपि, अभक्ष्या अपीति ।
स्थापत्यापुत्रो वदति-' सुया ।' इत्यादि । 'सरिसरया' सरिसवयशब्दयोध्या अर्था द्विविधा प्रज्ञप्ता , तद् यथा 'मित्तसरिसपया वनसरिसवया य' प्रातिरिक-पुनः समर्पणीय- पीठ, फलक, शय्या सस्तारक को याचित कर विचरण करता हूँ- यही मेरा प्राप्सुक विहार है । उपहास करने के अभिप्राय से पुन शक परिव्राजक पूछना है कि (सरिसबया ते भते किं भरखेया अभरखेया ?) भदत ! " सरिसवय" तुम्हारे सिद्धान्तानुसार भक्ष्य हैं या अभव्य है ? (स्तुपा सरिसवथा भक्खेया वि अभस्खेया चि ) स्थापत्या पुत्र ने कहा- शुक! सरिसवय भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। (से केणठेण भते ! एव बुच्चइ सरिसक्या भक्खेया नि अभक्खेया वि) शुक ने उनसे पुन पूछा भदत । आप यह किस अर्थ को अपेक्षा लेकर ऐसा कहते है कि सरिसवय भक्ष्य भी हैं
और अभक्ष्य भी हैं । (सुयो सरिसवया दुविहा पन्नत्ता तजहा मित्त सरि सवया धन्नसरिसक्या) स्थापत्यापुत्रने उसे समझाया कि शुक !सरिसवय -એટલે કે યાચના કરેલી વસ્તુ કે જે પાછી અપાય જેમકે પીઠ, ફળક, રાયા સ તારકની યાચના કરી ને વિચરૂ છુ એજ મારો પ્રાણુક વિહાર છે शु परिवा४४ पासना गलिप्रायथा ३२ प्रश्न ४२ छ (सरिसच्या ते भते किं भक्खेया अभया ' ) 3 महत ! 'सरिसवय ' तभा ख प्रभा लक्ष्य छ उ मलक्ष्य ? (सुथा सरिसयया भक्खेया वि अभया वि) स्थापत्या પુત્રે તેના ઉત્તરમાં કહ્યું- હે શુક ! “મરિસવય” ભય પણ છે અને અભક્ષ્ય ५ छ (से के गहेण भते । एव वुच्चइ सरिससवया भक्सेया वि अभया वि) शु भने प्रश्न ध्या-3 3 लात तेभ 'सरिसक्य' ते लक्ष्य तेभर मन५ ४या अर्थनी पक्षासे उडी २हा छ। (सुया सरिसक्या दुविहा पन्नता त जहा मित्त सरिसवया धनसरिसवया) स्थापत्याधुत्रे तने समજાવતા કહ્યું કે હે શુક ! “રિમવય’ શબ્દને અર્થે બે રીતે થાય છે ?
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हाताधर्मकथा मिन सदृशयम , धान्यमर्पपकाश्च । ' सरिसपया' इत्यम्य द्विविधोऽयः सदृशव यस सर्पपकावेति । तत्र सदृशवयसो मिनरूपा सर्पपकास्त धान्यरपा इति भावः। तत्र खलु ये ते मित्र सदृशपयसा मिनरूपाः समानश्यसस्ते निरिधाः प्राप्ताः प्रतियोधिप्ताः तद् यथा-' सहनायया' सहजातका समानकालजन्मानः, 'सहवडियया' सह पर्धितकाः समानकाले वृद्धि प्राप्ताः, 'सह परकीलियया' सह पासु क्रीडितकाः सहै। यूलिझोडाकारिणश्चेति । वे सो मित्ररूयाः सदृशायस्का' खलु श्रमणाना निर्ग्रन्थानामभक्ष्याः भोक्तु न कल्पन्ते । तर ग्वलु ये ते धान्यसर्पपदो प्रकारसे प्रज्ञप्त हुआ है-१ मित्रसरिसवय दूसरा धान्य सरिसवय- मरिसवय शब्द की ' सदृशवय" और मर्पपक" इस प्रकार संस्कृत छाया होती है। जब सदृशयय-समान आयुवाले मित्रजन -ऐसा छायार्थक "सरिसवय" पद लिया जाता है-तर उस पक्ष के अनुसार सरिसवय अभक्ष्य है ऐसा अर्थ बोध होता है तथा सर्वपक छायोर्थक जप सरिसवय पद लिया जाता है ता" सरिसवय" भक्ष्य भी है ऐसा अर्थबोध होता है। इसी विषय को अधिक और स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि- (तत्व ण जे त मित्त सरिसवया ते तिविदा पनत्ता, जहा- सह जायया, सह सवडियया, सहपसुकीलियया ते ण समणाण निग्गथाण अभक्खेया) इनमे जो मित्र सरिसवय हैं वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हुए हैं- जैसे सह जातक, सत्यधितक, सह पासुक्रीडितक अपने माय जिनका जन्म हुआ हैं वे सहजातक हैं । अपने साथ २ जो वृद्धि को प्राप्त हुए हे वे सहवर्धित हैं । तथा जो भित्र, सरिसक्य, २ धान्य, 'सरिसक्य ' शनी सस्कृत छाया १, सशक्य, અને ૨, સર્ષક બે રીતે થાય છે જ્યારે સરિસવય ને “શદશવય” ( સર ખી આયુષ્ય ધરાવનારા મિત્ર જન) આ અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યારે “સરિસવય અભક્ષ્ય છે આ અર્થ જણાય છે તેમજ “સરિસય. પદ સર્ષક ( સરસિયુ ) અર્થમાં લેવાય છે ત્યારે તે ભફ છે આવે પણ मथ थाय छे मेरा पातने विशेष २५०८ ४२॥ सूत्र॥२४ छ । (तत्थण जेत मित्त सरिसरया ते तिविहा पन्नत्ता, तजहा-सहनायया, सहसवढियया, सहप सुकीलियया तेण समणाण निग्ग थाण अभक्ग्वेया) मामा यारे सरिसवय શબ્દને અર્થ મિત્ર હોય છે, ત્યારે તેના ત્રણ પ્રકાર સમજવા જોઈએ જેમકે ૧, સહજાતક૨, સહવર્ધિત, અને ૩, સહપાસુકીડિતક આપણી સાથે જન્મ લેનાર સહજાતક કહેવાય છે. આપણે સાથે મોટા થનાર સહવર્ધિત
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अनगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
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कास्ते द्विविधा = द्विमकारा मज्ञप्ता तद् यथा शस्त्र परिणताय । तन ग्लु ये ते अशस्त्रपरिणताः सचित्तास्ते श्रमणाना निर्ग्रन्थानामभक्ष्याः अरगया. तत्र खलु ये शस्त्रपरिणताः शस्त्रपरिणत्या चित्तास्ते द्विविधा मज्ञप्ताः, तद् यथा- प्रासुकाथ अ मासुका । अमासुकाः खलु हे शुक ! नो भक्ष्या = अखाद्याः । तत्र खलु ये ते मासुकास्ते द्विविधा ग्रज्ञप्ता, वद् यथा-' जाइया य अजाइया य " याचिताथ, अयाचिताश्च । तत्र खल-ये ते अयाचितास्ते अभक्ष्याः अखाद्या । तत्र खलु ये ते -याचितास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा एपणीयाश्च अनेपणीयाश्च । तत्र खलु
साथ २ धूलि मे खेले हैं वे मह पासु क्रीडितक है। ये सब श्रमण निथो को अभय है । (तत्थण जे ते धन्नसरिसक्या ते दुदिश पण्णत्ता, तजहा सत्यपरिणया य असत्थ परिणयाय) जो धान्य सरिसवय है वे दो प्रकार के हैं- जैसे १ शस्त्र परिणत २ अशस्त्र परिणत - (तत्थ ण जे ते असत्थ परिणया ते समणाण णिग्गवाण अभक्खेया तत्थण जे ते सत्यपरिणयाते विहा पण्णत्ता त जहा फासुगाय अफासुगाय ) इन में जो अशत परिणत सचित्त- धान्यसरिसवय है वे श्रमण निर्ग्रन्थो को अभक्ष्य है- अखाद्य हैं । जो शस्त्र परिणत अचित्त है वे प्रासुक और अप्राक के भेद से दो प्रकार के हैं ( अफासुयाण सुया णो भक्खेया तत्यण जे ते फासूया ते दुविहा पन्नत्ता त जहाँ जाइयाय अजाइया थ तत्थण जे ते जाइया ते दुविहा पन्नत्ता त जहा एसणिज्जा य अणेणिज्जा य ) इन मे जो अप्राक वान्य सरिसवय हे वे हे शुक खाने કહેવાય છે, તેમજ જેએ એકી સાથે માટીમા રમતા રમતા મોટા થયા છે તેએ સહપાસુક્રીડિતક મિત્ર કહેવાય છે શ્રમણ નિથા માટે આ બધા અલક્ષ્ય છે ( तत्थण जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पण्णत्ता, त जहा सत्य परिणयाय असत्थ परिणयाय ) धान्य भेटले ने सनान्ना उपमा सरिसवय (सरसियु ) छेतेना में अक्षर - १ शस्त्र परिबुत, २, मरास्त्र परिशत, ( तत्थण जे ते असत्यपरिणया ते समणाण णिग्गथाण अभक्खेया तत्थण जे ते सत्यपरिणया ते दुविहा पण्णत्तो त जदाफासुगाय अफासुगाय ) भाभा ने અગસ્ત્ર પવિદ્યુત- સચિત્ત ' ધ ન્ય સરિસય છે તે શ્રમણ નિગ્ર થા માટે સ ક્ષ્ય છે, અખાદ્ય છે તેમજ ગસ્રપરિણત-અચિત્ત છે તે પ્રાસુક અને અપ્રાસુક आम मे प्रारना छे (अफासुयाण सुया णो भक्खेया-तत्य ण जे ते फासुया दुवि पन्नता त जहा जाइयाय अजाइयाय तत्थण जे ते जाइया वे दुविहा पन्ना त जहा एसाणिज्जाय अणेस णिज्जाय ) भाभाथी भी प्रासु धान्य सरसियु ( सस्मिवय ) छे, ते समान है आसु धाय सरसिया ( सरिसवय ) ना
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मकथा ये ते 'अणेसणिज्जा' अनेपणीयास्ते खलु अभक्ष्याः । न खलु ये ते 'एसणिज्जा' एपणीया , ते द्विविधा प्राप्ताः-तद् यथा-लयात्र अलन्याश्च । तत्र खलु ये तेभरब्धास्ते अभक्ष्याः । तत्र खलु ये ते लब्धास्ते अमणाना निर्ग्रन्थाना भक्ष्याः हे शुक ! एतेनायेंन उक्तरूपेण अर्थेन उक्तार्थमादायेत्यर्थ , एवमुच्यते 'सरिसवया' सरिसायशब्दाच्या अर्था भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपीति । ___ 'एव कुलत्या विभाणियव्या' एक उक्तमकारेण कुठस्था अपि भणितव्याः, 'नवेर' विशेष. इद नानात्व स्वीकुलस्थाश्च धान्यकुलत्याच । स्त्रीकुलस्था त्रिविधा योग्य नहीं हैं। प्राप्तुक धान्य सरिसक्य दो प्रकार के है जैसे याचित
और अयाचित । इन में भी जो अयाचित हैं वे अभक्ष्य हैं- श्रमण निर्ग्रन्थों को साने योग्य नहीं है । योचित एपणीय और अनेपणीय के भेद से दो प्रकार के हैं (तत्यण जे ते अणेसणिज्जाते ण अभक्खेया) इन मे जो अनेषणीय धान्य सरिसवत्र है वे अखाद्य है । (तस्थण जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पनत्ता लहाय अलद्वाय, तत्यण जे ते अलद्वा, ते अभक्खेया, तत्थ ण जे ते लद्धा ते समणाण निग्गधाण भक्खेया) जो एपणीय सरिसवय हैं ये रप और अलब्ध के भेद से दो प्रकार के हैं- अलब्ध अभक्ष्य और लब्ध श्रवण निर्ग्रन्थों को भक्ष्य हैं । ( एएण अटेण सुया एच बुच्चति-सरिसवया- भरखेया वि अभक्खेया वि एव कुलस्था वि भानियवा) हे शुक! सरिसक्य पद के इन पूर्वोक्त अर्थों को लेकर ऐसा में कहता हूँ कि सरिसक्य भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी है। इसी तरह " कुलत्या" के विषय में भी ऐसा ही सम झना चाहिये । (णवर इम नाणत्त) परन्तु इस मे इस तरह विशेषता પ્રકાર છે-વાચિત અને અયાચિત, આમાં અયાચિત સરિસવય અભક્ષ્ય ગણાય છે શ્રમણ નિર્ચ થે આહારમાં અયાચિત સરિસવયને પ્રવેગ કરતા નથી (तत्थण जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पत्ता लद्धा य अलद्धाय, तस्थण जे ते अलद्धा, ते अभक्खेया, तत्थण जे ते लद्धा ते समणाण निग्गयाण भक्खेया) એષણીય (ઈચ્છનીય) સરિસવયના લબ્ધ અને અલબ્ધ બે પ્રકારો છે નિર્ચ
ને માટે અલખ્ય સરિસવય (સરશિય) અભક્ષ્ય છે અને લબ્ધ સરિતવય लक्ष्य छ (एपण अटेण सुया एव वुच्चति सरिसवया भक्खया वि अभक्खेया वि एघ कुस्त्या वि भाणियवा) शु! म प्रभारी सरिसक्य ने पूर्वात રીતે અર્થ સ્પષ્ટ કરતા તેને ભક્ષ્ય અને અભક્ષ્ય આમ બંને રીતે કહી શકાય मा शत 'सत्या' ना विचे ५९४ समझ न (णवर इम नाणत )
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भनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
१०३ प्रज्ञप्ता,तदयया कुल नयूका इतिच कुलमानका इतिच, कुल दुहितर इतिच । धान्य कुलत्थास्तथैन. ।
एव मासाःमापा अपि, नवरं विशेपः-इद नानात्वम् मासा मापा त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-कालमासाश्च अर्थमापाश्च धान्यमापाश्च । तन खलु ये ते काल मासास्ते ग्यलु हादशविधाः प्रज्ञप्ता', तदयया-श्रावणो यावद आपाहः, ते खलु अभक्ष्याः । अर्थमापा द्विविधाः-हिरण्यमापाच, सुवर्णमापाश्च, ते खलु अभक्ष्या धान्यमापास्तथैव ॥ है- (इत्थी कुरुत्था य धन्न कुलत्या य) एक स्त्री कुलस्था दूसरी धान्य कुलस्था । तात्पर्य इसका-कुलस्था की छाया कुलस्था है- इसका अर्थ स्त्री कुलस्था और धान्य कुलस्था है। कुलथी जात का अन्न विशेष जो होता है वही यह धान्य कुलत्या से ग्रहण हुआ है । (इत्थी कुरत्या तिविहा पन्नत्ता त जहा कुल वधूयाट य कुल माउयाइय, कुल यूयाइय) इन में जो कुलत्था का वाच्या स्त्री कुलस्था है वह तीन प्रकार का हैं जैसे- १ कुलवधू २ कुलमात का ३ और कुल दुहिता (लड़की) (धन्न कुलत्या तहेव) धान्यकुल्स्था अर्य का निरूपण धान्य मरिसवय के समान जानना चाहिये। (एव मासा विनवर इम नाणत्त- मासा तिचिहा पन्नत्ता, त जहा- काल मासाय, अस्थमासाघ, धन्न मासाघ, तत्य ण जे ते काल मासा ते पा दुवारसविता पन्नत्ता, त जहा- साब णे जाव आसाढे ते ण अभक्खेया, अत्यमासा दुविहा हिरन्न मासा सुवण मासाय तेण अभक्खेया धन्न मासा तहेव ) इसी तरह "मासा" मानु स्पटी २९ वी 3 (इस्थी कुल्त्याय धनकुलत्योय) से श्री કુલસ્થા અને બીજુ ધાન્ય ( અનાજ) કુલસ્થા ની છાયા ‘કુલસ્થા ” થાય છે તેના બે રીતે અર્થ સમજી શકાય છે. સ્ત્રી ને પણ કુલસ્થા કહેવાય છે અને તુલસ્થા એક જાતનું કઠેળ પણ હોય છે તેને “કળથી” કહે છે ( इत्थीकुलत्था तिरिहा पन्नत्ता त जहा कुलवधूयाइय कुलमाउयाइ य कुल धूपा इय) श्री मुसस्थाना २ छ भ3-(१) १ १५, (२) शुण भातृ, भने (3) जुज दुहिता ( १) (धन्नकुलत्या तहेव) धान्यार्थवाचा सस्था भनु नि३५ धान्य सरिसवनी म सभा (एव मासा वि नवर इम नाणत्त मासा तिनिहा पन्नता त जहा-काल मासाय, अत्यमासाय, धनमासीय तत्थण जे ते कालमासा तेण दुवालसविहा पन्नत्ता हा सावणे जाव आसाढे तेण अभपरोया अत्यमासा दुविहा हिरन्न मासा सुषण्णमासाय तेण अभवरोया पन्नमासा तहेव) मा प्रभारी को 'भान' गण्त विधे ५५
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atareasurer
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स्थापत्यापुनस्य तत्वज्ञान जिज्ञासया शुकः पृच्छति - ' एजे भन' इत्यादि. | ' एगे भग' एको भवान् ? अय भावः - आत्मान एकत्वस्वीकारे श्रोत्रादि विज्ञानानामवयवाना चात्मनेकतोपलब्ध्या एकल दूपयिष्यामीति ।
'
दुवे भव' द्वौ भन्न् ? अयमाशयः - आत्मनो द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येके त्वविशिष्टार्थस्य द्वियविरोधेन द्वित्व दुपयिष्यामीति । ' अणेगे भव' अनेके भरान् ? - आत्मानोऽनेकलस्सी कारेऽहमित्येकत्वविशिष्टार्थस्यानेकत्ल निरोधेनानेकत्वदपयिष्यामीति भावः । ' अवखएभव ' अक्षयो भवान ? ' * अव्यएभन अ व्ययो भवान्, ' अवट्टिए भव' अवस्थितो भवान्, आत्मान्त्य इति भरता स्त्री क्रियते इतिपश्नत्रयाभिप्राय' ।
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शब्दाभिधेय के विषय में भी जानना चाहिये । किन्तु विशेषता इस प्रकार है-मास तीन तरह के हैं- जैसे- कालमास अर्थमाप, धान्यमाष इन मे जो कालमास हैं वे १२ बारह प्रकार है । जैसे श्रावण मास से लेकर आषाढ मास तक | ये सब अभक्ष्य है । हिरण्य मापा और सुवर्णमाषा के भेद से अर्थ माप दो प्रकार हैं । ये भी अभक्ष्य हैं । धान्यमाष के विषय में धान्य सरिसव के समान प्ररूपणा जाननी चाहिये । अब स्था पत्या पुत्र अनगार से शुरू परिव्राजक तत्त्वज्ञान की जिजामा से प्रश्न करता है कि - ( एगे भव दुबे भव अणेगे भव अवए भव अव्वल भव अवट्टिए भव अगभूयभावभविए विभव ?) आप एक कैसे हैं 2 अर्थात् आत्मा में यदि एस्त्व माना जावे तो श्रोत्रादि विज्ञानों एव अवयवो की अपेक्षा जो उसमे अनेकता की उपलब्धि होती है उस से उसमें एकता नहीं बनती है । यहा " भव " आत्मा का बोधक है વિશેષાર્થો ન્હણવા જોઇએ > માસ શબ્દના અર્થ ત્રણુ રીતે થાય છે જેમ से आग भास, (१) अर्थ भाष, (२) धान्य भाष, (3) जण वाथ भास (મહિના ) ના શ્રાવણુ થી માડીને આષાઢ સુધી ખાર પ્રકાર છે. આ ખધા અભક્ષ્ય છે હિરણ્યમાષ અને સુવર્ણમાષ આ મને અમાષના એ પ્રકાશ છે. એ પણ અભક્ષ્ય છે અનાજના રૂપમા જે ધાન્ય માત્ર ( અડદ) છે તેના માટે ધાન્ય સરિસવની જેમજ નિરૂપણુ સમજવુ જોઇએ શુક પિર १०२४ तत्त्वज्ञाननी निज्ञासाथी तेभने प्रश्न रैछे ( एगे भय दुवे भव अणेगे भत्र अFar भव अव्बर भन अबट्ठिए भव अणेगभूयभात्रभरि विभव ? ) તમે એક ઇં, એ કેવી રીતે ? એટલે કે આત્મા મા જો એન્ન મનાય તે શ્રોત્ર વગેરે વિજ્ઞાને અને અવયવેાની અપેક્ષાએ તેમા અને તા હાય છે તેથી આત્મામા એકત્વ સિદ્ધ થતું નથી અહીં ‘ ભવ શબ્દ આત્મ
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ઉપલબ્ધ
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__ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका २०५ सुदर्शनष्ठीवर्णनम्
१०५ 'अणेगभूयभावभरिए वि भव' अनेक भूतभाव भरिकोऽपि भवान् ? अनेके अशा अवयवाभूता =अतीताः, भावा वर्तमाना भरिका भाविनश्च यस्य स तथा, आत्मा अनित्य इति पक्षो भवता स्वीक्रियत इत्यर्थः । अनयोनित्यानित्यक्षयोरेकतआत्मा एक है- इस सिद्धान्त को लेकर शुक स्थापत्या पुत्र अनगार से कहता है कि यह आत्मा का एकत्व पक्ष युक्ति सगत नही बैठता है कारण श्रोत्रादि इन्द्रियों से जो भिन्न २ विज्ञान उत्पन्न हुए हैं एव जो भिन्न अवयवों की उपलब्धि होती है उस से आत्मा में एकत्व बाधित होता है ! इसी तरह यदि आत्मा में द्वित्व माना जावे तो यह भी पक्ष युक्ति युक्त प्रतीत नही होता है कारण “ अह ' अह" इत्याकाररूप जो आत्मा में एकत्व की प्रतीति होती है उससे एकत्व विशिष्ट अर्थ की ही प्रतीति होती है इसलिये इस प्रतीति से उस में द्वित्व (दो) का विरोध आता है। "अणेगे भव" आत्मा को अनेक भी इसी लिये मानना युक्ति सगत प्रतीति नहीं होता है कि उस में फिर ' अह' अह' इत्याकारक एकत्व प्रतीति नहीं बन सकती है । इस प्रतीति से उस में एकत्व ( एकपन ) का ही मान होता है अनेकता के साथ इस प्रतीति का विरोध है । इसलिये यह पक्ष भी दक्षित ठहरता है । 'अक्खए भव' आत्मा अक्षय है 'अव्वए भव' अव्यय है अवहिए भव आत्मा ને માટે છેઆત્મા એક છે. આ સિદ્ધાન્તને વિષે શુક પરિવ્રાજક સ્થાપત્ય પુત્ર અનગારને કહે છે કે આત્મા વિષે એકત્વપલ યુક્તિ સ ગત લાગત નથી કારણ કે શ્રોત્ર વગેરે ઇન્દ્રિયો થી જે જુદી જુદી જાતના વિજ્ઞાને ઉ૫ જ થયા છે અને જે જુદા જુદા અવયવોની ઉપલબ્ધિ થાય છે તેથી આત્મા મા એકત્વ બાધિત થાય છે આ રીતે જ જે આત્મામાં દ્વિત્ર માનવામાં मावता मा पात ५५ अथित सागती नथी, उभो 'अह ' 'अह ' म! રીતે જે આત્મામા એકત્વની પ્રતીતિ થાય છે તેથી આત્મા એક વિશિષ્ટ છે એ અર્થ જ સ્પષ્ટ થાય છેઆ રીતે આત્મામા હિન્દુ વિષે પણ વા ही था, "अणेगे भव ” मामाने मने पर मानी न सय भ તેમાં પછી “અહ” “અહ” આ જાતની એકત્વની પ્રતીતિ સભવિત થઈ શકતી નથી એનાથી તેમાં એકત્વની પ્રતીતિ થાય છેઆ રીતે અનેકતા ની સાથે આ પ્રતીતિ નો વાધે ઉભો થાય છે આ પ્રમાણે આ પક્ષ પણ सोप ०४ उपाय ( अक्सए भव ) मात्भ अक्षय छ (अव्यए भव ) मव्यय
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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पक्षपरिग्रहोऽन्यतर दूपयिष्यामीत्याशयः । स्थापत्या पुनो हति- 'सुया' इत्यादि । हे शुक ! एकोऽहम्, द्वाप्यहम् यावत्- अनेक भूतभा प्रभवि कोऽप्यहम् । पुनः शुकः पृच्छति - ' से केणद्वेण भते !' इत्यादि । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुन्यते - एकोऽप्यह यावत्- अनेकभूतभावभविकोऽप्यहम् ?
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• अवस्थित है, नित्य है 'अणेगभूयभावभविए वि भव' अनेक भूत, भाव और भविक पर्यायों वाला है अनित्य है भूत शब्द का अर्थ - अतीत, भाव का अर्थ वर्तमान एव भविक का अर्थ भविष्यत कालीन है अर्थात् आत्मा के भूत पर्याय रूप अश वर्तमान पर्याय रूप अश तथा भविष्यत काल में होने वाले पर्याय रूप अश उस के अवधव, रूप है । इससे आत्मा में अनित्यता सिद्ध होती है। इस तरह शुक ने स्थापत्या पुत्र अनगार के इन समस्त पक्षों को दूषित किया । नित्य • पक्ष अनित्य पक्ष साथ विरूद्ध पड़ता है और अनित्य पक्ष नित्य पक्ष के साथ विरुद्ध पडतो है इत्यादि । अब स्थापत्यापुत्र अनगार स्याद्वाद - सिद्धान्त के अनुसार उत्तर देते हैं । ( सुया एगे वि अह दुवेवि अह जाव अणेग भूयभाव भविवि अह ) हे शुक। मैं एक भी हॅ, मे- दो भी हूँ, यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायों वाला भी हूँ (सेकेण द्वेण मते एव चुन्चइ, एगे चि अह जाव अणेगभूयभावभविए वि छे ( अवट्ठिए भव ) आत्मा अवस्थित छे नित्य है, ( अणेगभूयभावभत्रिए विभव) अने लृत, लाव भने लावि पर्याय वाणी छे मनित्य छे, मृत શબ્દના અથ ભૂતકાળ છે. ભાવ રાખ્તના અથ વતમાનકાળ અને ભાવિક રા અથ ભવિષ્ય કાળ થાય છે, એટલે કે આત્માના ભૃત પર્યાય અરા, વમાન પર્યાય અશ તેમજ ભવિષ્યમાં થનારા પર્ષીય રૂપ અશ તેના ( આત્માના ) અવયવ રૂપ છે એથી આત્મમા અનિત્યતા સિદ્ધ થાય છે આ રીતે શુક પરિવ્રાજકે સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારના બધા પક્ષેાને સદોષ સિદ્ધ કર્યાં, આત્મા વિષે નિત્ય અને અનિત્ય આમ ખને પક્ષે એક બીજાથી વિરૂદ્ધ છે આ પ્રમાણે જ અનિદ્ધપક્ષ નિત્યપક્ષ ની સાથે વિરુદ્ધ છે. પાપુત્ર અનગાર સ્યાદ્વાદ સિદ્ધાન્ત મુજબ શુકપરિવ્રાજકને જવામ भापता हे छे - ( सुया एगे वि अह दुवेवि अह जाव अणेगभूयभाविभावि रवि अह ) હૈ 1 શુક डोड પુછુ છુ, હું એ પણુ છુ, અને હુ અનેક ભૂત, ભાવ તેમજ ભવિક પર્યાય वाणो पशु छ ( से केणट्टेण भते एत्र वुच्चर, एगे वि अह जय अणेभूय भावभवि वि अह ) शुद्धे स्थापत्यापुत्र मनुगारने उधु में हे महन्त ।
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भनगारधर्मामृतपिंणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
१०७ अथ स्थापत्यापुत्र स्याद्वादमवलम्व्योत्तर करोति 'जण्ण सुया !' इत्यादि। यत् खलु हे शुकी 'दबट्ठयाए एगे अह' द्रव्यार्थतया एकोऽहम् । द्रव्यत्वेनामे-। कोऽस्मि जीवद्रव्यरय एकत्वात् , न तु प्रदेशाभिमायेण । ___- 'नाणदसणट्टयाए दुवेवि अह' ज्ञानदर्शनार्थतया द्वारप्यहम् । ज्ञानदर्शनार्थद्व - याभिमायेण द्विस्वभावकोऽहमस्मीत्यर्थः । द्वावप्यहमित्यनेन अनेकोऽपि भानि-- तिप्रश्नस्याप्युत्तर प्रदत्तम् , उक्तरीत्या द्विस्वभारकत्वाम् श्रोत्रादिविज्ञानानामवय वाना चात्मनोऽनेरुत्वाच । यथा एको देवदत्त एकस्मिन्नेवकाले पितृत्वपुत्रत्वभ्रा. तृत्वादीननेकान् स्वभावान् प्राप्नोति । अह) सो भदत! आप ऐसा किस अर्थ को लेकर कह रहे है कि मैं एक भी हूँ यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायो वाला भी हूँ हे शुक! ऐसा जो में कह रहा हूँ सो किस अर्थ की अपेक्षा को लेकर कह रहा। हूँ यह सुनो (जपण सुया । दवट्ठयाए एगे अदणाणदसणट्ठयाण, दुवेवि अह, पएसट्टयाए, अक्खए वि अह अन्धए वि अह अवहिए.. वि अह उवओगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अह) मैं एक हैं ऐसा जो मेरा कहना है वह हे शुक । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा है। (द्रव्याथिक नय का विषय एक अखण्ड द्रव्य होता है। अत उस दृष्टि - से मै द्रव्य को एक होने की वजह से एक है। प्रदेशों की अपेक्षा से एक नही है। ज्ञान, दर्शन की अपेक्षा से मैं दो रूप भी? दो स्वभा वाला भी हैं। आत्माका लक्षण उपयोग है । यह उपयोग ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से दो प्रकार का है । इस दृष्टि से मे एक होता हुआ भी दो रूप हूँ। इस कथन से मै अनेक भी हूँ इस प्रश्न તમે કયા આધારે કહી રહ્યા છે કે હું એક પણ છુ અનેક પણ છે અને હું અનેક ભૂત, ભાવ અને ભવિક પર્યાય વાળ પણ છુ ? સ્થાપત્યા પુત્ર અનગાર શુક પરિવ્રાજક ને જવાબ આપતા કહેવા લાગ્યા કે-(૪ सुया । दबट्टयाए एगे अह णाणदसणट्टयाए दुवेवि अह पएसट्टयाए अक्खए वि अह अव्वए वि अह अवढिए वि अह अओगट्टयाए अणेगभूयभावविए विअह) 3 शुभ मे छु ” भा३ मा वुद्रव्याबि' नयनी मधे ક્ષાઓથી છે દ્રવ્યાર્થિક નયનો વિષય એક અ બ ડ દ્રશ્ય હોય છે, દ્રવ્ય એક હેવાથી, આ દષ્ટિએ હું એક છુ, પ્રદેશની અપેક્ષાથી હુ એક નથી જ્ઞાન દર્શનની દષ્ટિએ મારા બે રૂપ પણ છે હું બે જાતના વભાવવાળ પણ છુ. આત્માનું લક્ષણ ઉપગ છે જ્ઞાન અને દરનની દષ્ટિએ ઉપગના બે પ્રકાર થાય છે આમ હુ એક દાવા છતા પણ બે રૂપ વાળે આથી “ હ
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૨૦૮,
माताधर्मकथा 'पएसट्टयाए अखए वि अह अबए पि अह अहिए वि अह' प्रदेशार्थतया-अक्षयोऽप्यहम् असख्यातानामात्मपदेशानामे कस्यापि केनापिप्रकारेण क्षया _ऽभावात् । अव्ययोऽप्यहम्-केनापि प्रकारेणैकस्याप्यात्मप्रदेशस्य नाशाभावात् ।
का भी उत्तर हो जाता है। इस तरहसे मानने पर भी वरा अर प्रत्यय होने में कोई बाधा नही ओती है। और उक्तरीति से आत्मा में हित्व भावता आने पर उसमें श्रोत्रादि विज्ञानों की तथा अवयवो की अनेकतो भी विरुद्ध नहीं पड़ सकती है । यर विरुद्धता तो आत्मा में एक स्वभावता मानने पर ही आती है। मूल में एक रोने पर भी अनेक स्वभाव की मान्यता बाधित नही होती है । जैसे देवदत्त एक पदार्थ में पितृत्व, पुत्रत्व, भ्रातृत्व भादि अनेक स्वभाव एक ही काल में होते हए प्रतीति होते है। एक आत्मा के असख्यात प्रदेश शास्त्र. कारों ने कहे हैं । इन में से कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जिसका किसी भी प्रकार से क्षय हो सके अतः इस प्रदेश की अपेक्षा से मैं
आत्मा अक्षय है। इसी तरह एक भी आत्मा के प्रदेश का किसी भी तरह से नाश नही हो सक ने के कारण मैं आत्मा अव्यय हूँ। अव्यप शब्द का जो किन्ही २ ने ऐसा अर्थ किया है कि कितनेक प्रदेशों का व्यय नही होता है सो वर आगम से विरुद्ध पड़ता है कारण इस
અનેક છું એ પ્રશ્નને ઉત્તર પણ પુષ્ટ થાય છે આ માન્યતાથી ત્યા “અહની પ્રતીતિમા કેઈણ જાતને વાત જ નથી અને આ રીતે આત્મામ દ્વિસ્વભાવની સ્થાપન થી તેમા શ્રોત્ર વગેરે વિજ્ઞાનની તેમજ અવયની અને કતામાં પણ કઈ પણ જાતને વિરોધ જણાને નથી આત્મામા એક સ્વભાવતા માનવામાજ આ વાધે ઊભે થાય છે આ પ્રમાણે મૂળ રૂપે એક હોવા છતા પણ અનેક સ્વભાવની માન્યતા કોઈ પણ રીતે બાધિત થતી નથી જેમકે દેવદત્ત આ એક પદાર્થમાં પિતૃત્વ પુત્રત્વ ભ્રાતૃત્વ વગેરે ઘણું સ્વભાવની. પ્રતીતિ એકજ કાળમાં થાય છે એક આત્માના અસ ગ્યાત પ્રદેશ રાસ્ત્રકારે એ કહ્યા છે આ અસ ખ્યાત પ્રદેશોમાથી કઈ પણ એવો પ્રદેશ નથી કે જેને કોઈપણ રીતે નાશ થઈ શકે એથી આ પ્રદેશની અપેક્ષાએ હું “આત્મા ” અક્ષય આ રીતે આત્માના એક પણ પ્રદેશને ગમેતે સંજોગોમાં કે ઈપણ રીતે નાશ નહિ થવાથી હ “આત્મા અવ્યય અ ય શબ્દનો અર્થ ? કોઈ એ એવી રીતે કર્યો છે કે “કેટલાક પ્રદેશ નો શ્વય થતું ન હોય તે અવ્યય તે આ અર્થ આગમથી વિરુદ્ધ છે કારણકે આ અર્થને માનવાથી “કેટલાક પ્રદેશને નાશ થાયે છે” આ અર્થ પણ નીકળે છે ” ત્રિકાળમાં
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मैनगारधर्मामृतवर्षिण टोका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्टोवर्णनम्
१०९.
यत्तु - अव्ययः कियतामपि च व्ययाभावादित्युक्त, तदागम विरुद्धम् - क्रियतामपी त्युक्पा कियताना नाशोभनतीत्पर्थस्यापि बोधापत्तिसमनात् । अवस्थितोऽप्यहम् - अमरूपात प्रदेशाच्च कदाचिदपि न विनश्यति तेन मम स्वरूपमविचल सदाऽ वस्थायीत्यर्थः । तस्मान्नित्यस्वरूपोऽप्यहमस्मीति भावः । शिष्यबुद्धिनिर्मलीकर णार्थमेकस्मिन्नेवार्थेऽनेकपर्यायशब्दाना प्रयोग |
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(6
'उवगद्वयाए अगभूय भावभविए वि अह' अनेक भूतभावभनिकोडप्य हम् । अनेके विषयभेदाद् नहुविधा उपयोगा भूताः = अतीताः, भाना वर्तमाना, स्तथा भविकाः =भावि यस्य स तथा, अतीतकाले महत्र - उपयोगा' श्रोत्रादि प्रकार के कथन में " किननेक प्रदेशों का नाश होता है " ऐसा अर्थ भी हो जाता है । असख्यात प्रदेशों से युक्त पना आत्मा में त्रिकाल में भी नष्ट नही होता है अत यह असख्यात प्रदेशों से युक्त रहने रूप जो आत्मा का स्वरूप है उससे यह आत्मा अविचल है सदा अवस्थित है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मै नित्य स्वरूप वाला हूँ । मै अक्षय है, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ ऐसे जो ये सब पर्याय शब्द एक ही आत्मा रूप अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं वे शिष्य की बुद्धि को निर्मल करने के लिये प्रयुक्त हुए है ऐमा जानना चाहिये । उव ओगट्टयाए अगभूयभावभत्रिए वि अह " यहा अनेक शब्द विषय भेद की अपेक्षा अनेकविध उपयोगों का वाचक हैं ये अनेकविध उपयोग जिस के पहिले हो चुके हैं तथा वर्तमान में जिस में हो रहे है और भविष्य में जिस में होंगे अर्थात् अतीतकाल में श्रोत्रादि विज्ञान रूप उपयोग जिस में उत्पन्न हुए है, नष्ट हुए हैं, वर्तमान काल मे भी जिस में પણ આત્મામા અસખ્યાત પ્રદેશાના યુક્ત ભાવ નષ્ટ થતા નથી એટલા માટે અસ ખ્યાત પ્રદેશાથી યુક્ત રહેનારૂ આત્માનુ સ્વરૂપ છે તેનાથી આ આત્મા અવિચળ છે હુ મેરા અવસ્થિત છે એનાથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે હુ નિત્ય સ્વરૂપ વાળા છુ હું અક્ષય છુ હું અવ્યય છુ હુ અવસ્થિત છુ, અને આ બધા એક અર્થ વાચક પર્યાય શબ્દો આત્મા રૂપ અર્થમાં પ્રયુક્ત કરવામા આવ્વા છે, તે વિષ્યની બુદ્ધિને નિર્મળ બનાવવા માટેજ, આમ समल सेवु लेहाणे ( उनओगट्टयाए अणेगभूयभावभरि वि अह ) महीं જે અનેક રાખ્યું જે તે વિષય ભેદની અપેક્ષાથી અનેક વિધ ઉપયેગાના વાચક છે આ અનેકવિધ ઉપયેાગે જેના પહેલા થઈ ગયા છે, વર્તમાન કાળમા જેમા ચડ રહ્યા છે અને ભવિષ્યમા જેમા થશે એટલે કે શ્રોત્ર વગેરે વિજ્ઞાન રૂપ જેમા ભૂતકાળમા ઉત્પન્ન થયા છે, વર્તમાન કાળમા પણ જેમા
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নামখা विज्ञानरूपा उत्पन्ना विनष्टाश्च वर्तमानकाळेऽपि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, तथा भ विष्यत् काले उत्पत्स्यन्त पिनशिष्यति च, त उपयोगा आत्मनः कथचिदभिन्ना स्तेनानेकभूतभावभविकोऽप्यहमस्मीत्येवमनित्यपक्षोपि मम दोपाय नास्तीत्यर्थः । पत्तु-अत्रभावाः सत्ताः परिणामा पा इति व्यारण्यात तदयुक्तम्___अतीताना भाग्निा च भावानामनेकान्वयितयाऽतीतार्यकभूतशदात् मागेव प्रयोक्तव्यस्य भावशब्दस्य तदनन्तर प्रयोगो न सगरउते अपि च-तन्मतेऽतीत भविकाना भावान्वयितया ततः पूर्वन या सहैव प्रयोक्तव्ययोरतीतभविकशब्दउत्पन्न शेते है नष्ट होते है तरा भविष्यत् काल में जिस में उत्पन्न होंगे और नष्ट होंगे वे उपयोग आत्मा से कथचित् अभिन्न हैं। अतः इस उपयोग की अपेक्षा में आत्मा अनेक भूत, भाव, भविक वाला भी हूँ इस तरह आत्मा में अनित्यता भी आ जाती है सो यह अनित्यतो का पक्ष भी हमारे लिये दोयारह नहीं होता है। यहा पर जो किन्ही २ ने भाव शब्द का अर्थ मत्ता या परिणाम इस रूप से किया है वह ठीक नहीं है । भाव शब्द या वर्तमान कालार्थ का ही वाचक है सत्ता या परिणाम का वाचक नहीं । कारण जो अतीत और भावी भाव होते है वे अनेकार्थान्वयी होते हैं इमलिये अतितार्थक भूतं शब्द से पहिले ही प्रयोक्तव्य भावशब्द का उस के बाद प्रयोग करना सगत प्रतीत नहीं होता।
अपिच- सत्ता यो परिणामवादियों के मत मे अतीत और भवि ष्यतं भोवों को भागन्वयी होने के कारण अतीत और भविष्यत् ઉત્પન્ન થયા છે નષ્ટ થયા છે તેમજ ભવિષ્ય કાળમાં પણ જેમાં ઉત્પન્ન થશે અને નાશ પામશે તે ઉપયગો આત્માથી કથ ચિત અભિન્ન છે એટલા માટે આ ઉપગની અપેક્ષાએ હુ “આમ” ઘણા ભૂત, ભાવ અને ભાવિક વાળ પણ છુ આ રીતે આત્મામા અનિત્યતા પણ આવી જાય છે તે આ અનિત્ય ભાવને પક્ષ પણ અમારા માટે સદોષ કહી રોકાય નહિ કેટલાક ભાવ શબ્દને અર્થ સત્તા કે પરિણામ પણ કરે છે તે ઉચિત નથી અહી ભાવ શબ્દ ફક્ત વર્તમાન કાળનો વાચક છે સત્તા કે પરિણામ અર્થને વાચક નથી કારણ કે જે અતીત અને ભાવી ભાવ હોય છે તે અનેકાર્યાન્વયી હોય છે, અથી અતીતાર્થક ભૂત શબ્દની પહેલા જ પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલા ભાવ શબ્દને તેને પછી પ્રગ કરે ઉચિત લાગતું નથી વળી સત્તા કે પરિણામ વાદીઓના મતે અતીત અને ભવિષ્ય ભાવો ભાવાનૂની હવા બદલ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शन श्रेष्टीवर्णनम्
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योर्भावशन्दव्यनधानेन प्रयोगो न सगच्छते, तस्माद् भावशब्दोऽत्र वर्तमानकालार्थपरस्येव भगवदाशयोऽवगम्यते ।
अनः=अस्मिन् स्थाने स्थापत्यापुत्रस्य वचनानि श्रुत्वा स शुकः सबुद्धः सम्यग्वोध प्राप्तः सन् स्थापत्यापुत्रमनगार वन्दते स्तौति, नमस्यति प्रणमति, वदित्वा नवा चैनमवादीत् हे भदन्त । इच्छामि खलु युष्माकमन्तिके केवलिप्रज्ञप्त धर्मे निशामयतु = श्रोतुम् ।
( भूत, भविक ) ये दोनों शब्द भाव के पहिले या भाव के बाद साथ २ प्रयुक्त होने चाहिये भाव शब्द से व्यवहित होकर प्रयुक्त नही होने चाहिये परन्तु यहाँ तो वे दोनों शब्द भाव शब्द से व्यवहित होकर ही प्रयुक्त हुए है इसलिये भावशब्द यहा वर्तमान कालार्थ परक है ऐसा ही भगवान् का आशय ज्ञात होता है । ( एत्य ण से सुए संयुद्धे धावच्चा पुत्त वदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता, एव वयासी, इच्छा मिणं भते ! तुम्भे अतिए केवलिपन्नत्त धम्म निसामित्त धम्मका भाणिव्वा ) इस स्थान में स्थापत्यापुत्र अनगार के वचनों को सुनकर वह शुक परिव्राजक सम्यक् बोध को प्राप्त हो गया और उसने फिर उन स्थापत्यापुत्र अनगार को वदना की स्तुति की उन्हे नमस्कार किया । वदना नमस्कार कर फिर वह उनसे इस प्रकार कहने लगा हे भदत ! मैं आप से केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ । शुक परिव्राजक की इस प्रकार प्रार्थना सुन कर स्थापत्या पुत्र ने उसे धर्म
અતીત અને ભવિષ્ય (ભૂત, ભાવિક) આ મને ગબ્દો ભાવ પહેલા કે ભાવ પૂછી સાથે સાથે પ્રયુક્ત થવા જોઇએ ભાવ રાખ્તથી વ્યવહિત (યુક્ત) થઇને પ્રયુક્ત થવા ન જોઇએ પશુ અહીં તે તે મને શબ્દો ભાવ શબ્દની વ્યíહત ( યુક્ત ) થઈને જ પ્રયુક્ત થયા છે એથી અહી ભાવ શબ્દ વર્તમાનકાળના અ जतावे छे भगवाननो अलिप्राय येवो नशाय रे ( एत्यण से सुए सबुद्ध थावच्चापुत्त वदइ नमसइ नदित्ता नमसित्ता एव वयासी इच्छामिण भते ! तुभे अतिए केवलिपन्नत्त धम्म निसामित्तए, धम्मका भाणियन्ना) मा प्रभाले स्थापत्या પુત્ર અનગારના વચને! સાભળીને શુ- પરિવ્રાજકને સમ્યક્ત્વમેધ થયે અને તેણે સ્થાપત્યાપુત્ર અનઝારને વદન કર્યા સ્તુતિકી અને તેમને નમસ્કાર કર્યાં વદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમને કહ્યુ કે હે ભદત 'હુ તમારા શ્રી મુખથી કેવલી પ્રનસ ધમ ને સાભળવાની ઈચ્છા રાખુ છુ શુક પરિત્રાજ ની આવી વિનંતી માભળીને સ્થાપત્યાપુત્રે તેને ધર્મકથા સભળાની સ્થા
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे.
विज्ञानरूपा उत्पन्नानिष्टाथ वर्तमानकालेऽपि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च तथा भ विष्यत् काले उत्पत्स्यन्त विनशिष्यति च त उपयोगा आत्मनः कथचिदभिन्ना स्तेनानेकभूतभावभविकोऽप्यहमस्मीत्येवमनित्यपक्षोपि मम दोपाय नास्तीत्यर्थः । यत्तु - अत्रभावा. सत्ताः परिणामा ना इति व्याख्यात तदयुक्तम्
अतीताना भाविना च भावानामनेकान्नयितयाऽतीतार्थक भूतात्मागे प्रयोक्तव्यस्य भावशब्दस्य तदनन्तर प्रयोगो न सगच्छते अपि च- तन्मतेऽतीत भविकाना भावान्वयितया ततः पूर्वन वा सदैव प्रयोक्तव्ययोरतीत भविकशब्द
'
उत्पन्न होते है नष्ट होते है तथा भविष्यत् काल में जिस में उत्पन्न होगे और नष्ट होंगे वे उपयोग आत्मा से कथचित अभिन्न हैं । अतः इसे उपयोग की अपेक्षा में आत्मा अनेक भूत, भाव, भविक वाला भी हूँ इस तरह आत्मा में अनित्यता भी आ जाती हैं सो यह अनित्यता का पक्ष भी हमारे लिये दोषावह नही होता है। यहा पर जो किन्ही २ ने भाव शब्द का अर्ध मत्ता या परिणाम इस रूप से किया है वह ठीक नहीं है । भाव शब्द यहा वर्तमान कालार्थ का ही वाचक है सत्ता या परिणाम का वाचक नहीं । कारण जो अतीत और भावी भाव होते हैं वे अनेकार्थान्मयी होते हैं इसलिये अतितार्थ क भूर्त शब्द से पहिले ही प्रयोक्तव्य भावशद का उस के बाद प्रयोग करना सगत प्रतीत नही होता ।
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अपिच - सत्ता यो परिणामवादियों के मत मे अतीत और भवि यत भोवों को भावान्वयी होने के कारण अतीत और भविष्यत्
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ઉત્પન્ન થયા છે નષ્ટ થયા છે તેમજ ભવિષ્ય કાળમા પણુ જેમા ઉત્પન્ન થશે અને નાશ પામશે તે ઉપયાગે આત્માથી થચિત્ત અભિન્ન છે એટલા માટે આ 'ઉપયાગની અપેક્ષાએ હું આત્મા ધણા ભૂત, ભાવ અને ભાવિક વાળે પણ છુ આ રીતે આત્મામા અનિત્યતા પણ આવી જાય અનિત્ય ભાવને પક્ષ પણ અમારા માટે સદેષ કહી રાકાય નહિ કેટલાક ભાવ શબ્દને અર્થ સત્તા કે પરિણામ પણ કરે છે તે ઉચિત નથી અહીં ભાવ શબ્દ ફક્ત વર્તમાન કાળને વાચક છે સત્તા કે પરિણામ અનેા વાચક નથી કારણ કે જે અતીત અને ભાવી ભાવે હાય છે તે અનેકાર્થાન્વયી હાય છે, અથી અતીતાક ભૂત રાખ્તની પહેલા જ પ્રયુક્ત કરવામા આવેલા ભાવ શબ્દને તેના પછી પ્રયાગ કરવા ઉચિત લાગતા નથી. વળી સત્તા કે પવિણામ વાદીઓના મતે અતીત અને ભવિષ્ય ભાવે ભાત્રાત્ત્વની હાવા બઢવ
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ शुरुपरिवाजकदीक्षानिरूपणम् ११३
'तएणसे इत्यादि।
टीका-ततरतदनन्तर खलु स शुरुः परित्राजक स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य एव क्ष्यमाण प्राकारेणादीत्-इन्छामि खलु भग्न्त परिव्राजकसहस्रेण साध सपरिटतो देवानुमियाणामन्ति के मुण्डो भूत्वा भवजितम् । भवतां समीपेऽह परिचालकसहस्रग सह केशोल्लुश्चनेन मुण्डो भूत्वा दीक्षा ग्रहीतुमिच्छा मीत्यर्थः । ततः स्थापत्यापुत्रोऽवादीत्-हे देवानुप्रिय यथासुख यावत्= ईप्सित कार्ये दीक्षाग्रहणरूपे लिम्म मा कुरू, इत्येवमुक्तः सन् शुरुः परिव्राजका यावत्
तएण से सुए परिवायए इत्यादि
टीकार्ध-(तपण) इसके बाद (से सुए) उस शुक (परिवायए) परिब्राजकने ( थापच्चायुत्तस्स अतिए धम्म सोच्चा ) स्थापत्यापुत्र अनगार के मुखसे श्रुत चारित्र रूप धर्मका अवण कर (णिसम्म ) उसे हृदय मे अवधारित कर ( एव वयानी) उन से इस प्रकार का-(इच्छामिण भते । परिव्वायगसहस्से गं सद्धिं सपरिवुडे देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भवित्ता पचहत्तए ) हे भदन । मैं आप देवानुप्रिय के पास इन १ एक हजार परिव्रज्को के साथ २ मुडित होकर दीक्षित होना चाहता हूँ ( अहासुह जाव उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए तिदउय जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिंह उप्पाडेइ उप्पाडित्ता जेणेव थाव च्चापुत्ते तेणेव उवागच्छह ) शुक परिव्राजक की इस भावना को जान कर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उससे कहा हे देवाणुप्रिय । तुम्हे जैसे सुख हो वैसा करो-इच्छित कार्य जो दीक्षा ग्रहण है उसमें तुम
(तएण से सुा परिव्यायए इत्यादि ) टीमाथ-(तएण) त्या२ मा (से सुण) शु (परिव्यायए) परिना (थावच्चा पुत्तास अतिए धम्म सोचा ) स्थापत्यापुत्र मनमान! श्री भुम थी श्रुत्र यात्रि ३५ धर्मनु अपए ४शन (णिसम्म ) तने सारी पेठे यमा सव धारित शने ( एव वगासी ) तमन मा शत यु- ( इन्छामि ण भते ! परिव्वायगसाहस्सेण सद्धिं सपरिपुडे देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भवित्ता पव्व इत्तए) 3 RED | भारी पाथी मे ६०१२ परिमानी साथै अडित यधन हक्षित था याडू छु ( अहासुद्द जाव उत्तर पुरथिमे दिसीमाए तिड डय जार धाउरत्ताओ य एग ते एडेइ एडिना सयमेव सिह उपाडेइ उप्पाहिता जेणेव थावच्चापुत्ते तेणेर उवागइ) शुभ परिधानी हक्षित यानी ४२ સાભળીને સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારે તેમને કહ્યુ “હે દેવાનુપ્રિય ' તમને જેમ ગમે તેમ કરો અંચિત કાર્યમાં એટલે કે દીક્ષાગ્રહણ કરવામાં મેડુિ કરે નહિ આ રીતે
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जाताधर्मकथासूत्रे
अथ स्थापत्यात्रो धर्मकथा स्थयतिस्म । ननु ीशी धर्मकथा भगवतोषदिप्टेति जिज्ञासायामाह - ' धम्मक्हा भाणियव्या' इति । धर्मकथा भणितव्या औपपातित्रोक्ता धर्मकथा रान्या सा चोपासक दशा सूत्रस्यागार धर्मसभीवनया मया विस्तरतो व्याख्याता ततोऽपगन्तव्या ॥ २४ ॥
मूलम् - एर्ण से सुए परिव्वायए थावच्चापुत्तस्स अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासी- इच्छामि णं भते । परिव्यायगसहस्सेणं सद्धि सपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भविता पव्वत्त, अहासुहं जाव उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए तिडडयं जाव धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडिसा सयमेव सिंह उप्पाडेइ, उप्पाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्त्रइए सामाइयमाइयाइ चउदसपुव्वाइ अहिजइ । तएणं यावच्चापुसे सुयस्त अणगारसहस्स सीसत्ताए वियरइ । तएणं से थावच्चापुत्ते सोगधियाओ नीलासोयाओ पडिनिक्ख मइ, पडिनिक्खभित्ता वहिया जणवयविहारं विहरइय ॥ सू० २५ ॥
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कथा सुनाई । किस प्रकार की धर्म कथा स्थापत्या पुत्र ने शुक परिव्राजक को सुनाई सो यह कथा औपपातिक सूत्र में वर्णित हुई है । वही कथा यह समझनी चाहिये । उपासकदशांगसूत्र की जो अगारधर्म स जीवनी टीका है उसमे मैंने इस कथा को विस्तार से व्याख्यात किया है। सूत्र ॥ २४॥
પત્યાપુત્ર અનગારે જે ધર્માંકથા શુક પરિઞાજકને કહી સભળાવી તેનુ વર્ણન ઔષપાતિક સૂત્ર ” મા કરવામા આવ્યુ છે જિજ્ઞાસુઓએ તે ત્યાથી જાણી લેવી જોઇએ “ ઉપાસકદશાગ સૂત્ર ૐ”ની અગારધર્મ સ જીવની ટીકામા પશુ મે આ કથાનુ સવિતર વર્ણન કર્યું છે
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॥ सूत्र
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शुकपरियाजकदीक्षानिरूपणम् ११३
'तएणसे इत्यादि।
टीका-ततस्तदनन्तर खलु स शुरुः परित्राजक स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य एव वक्ष्यमाण प्राकारेणावादीत्-इच्छामि खलु भ-न्त ! परित्राजकसहस्रेण साधं सपरिटतो देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डो भूत्वा पत्रजितम् । भरता समीपेऽह परिवानसहा सह केशोरलुचनेन मुण्डो भूत्वा दीक्षा ग्रहीतुमिच्छा मीत्यर्थः । ततः स्थापत्यापुत्रोऽवादीन-हे देवानुप्रिय यथासुख यावत्= ईप्सित कार्य दीक्षाग्रहणरूपे विलम्व मा कुरू, इत्येवमुक्त' सन् शुकः परित्रानका यावत्
तएण से सुए परिवाया इत्यादि
टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (से सुए) उस शुक (परिव्यायप) परिब्राजकने (थायच्चापुत्तस्स अतिए धम्म सोच्चा ) स्थापत्यापुत्र अनगार के मुखसे श्रुत चारित्र रूप धर्मका श्रवण कर (णिसम्म ) उसे हृदय मे अवधारित कर (एव वयानी) उन से इस प्रकार कहा- ( इच्छामिण भते । परिव्वायगसरस्से ण सद्धि सपरिवुडे देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भवित्ता पन्वइत्त ) हे भदन । मैं आप देवानुप्रिय के पास इन १ एक हजार परिव्रज्को के साथ २ मुडित रोकर दीक्षित होना चाहता हूँ (अहासु जाव उत्तरपुरत्यिमे दिसीभा तिव्य जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिंह उप्पाडेइ उप्पाडित्ता जेणेव थाव च्चापुत्ते तेणेव उवागच्छद) शुक्र परित्राजक की इस भावना को जान कर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उससे कहा हे देवाणुप्रिय । तुम्हे जैसे मुग्व हो वैसा करो-इच्छित कार्य जो दीक्षा ग्रहण है उसमें तुम
(तएण से सुा परिख्यायए इत्यादि ) टी--(तपण) त्या२ मा६ (से सुए) शु (परिव्यायए) परिन (यावच्चा पुत्तम्स अतिए धम्म सोचा ) स्थापत्यापुत्र अनाना श्री भुम थी श्रुत्र त्यारित्र ३५ मनु श्र१९ शेने (णिसम्म ) तेने सारी पेठे यमा अ५ धारित प्रशन ( एप वासी) तमन २ गते घु- (इन्छामिण भते ! परिव्वायगसाहरसेण सद्धिं सपरिपुडे देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भवित्ता पव्व इत्तए ) महत भारी पाथी से 8२ ५R-
नानी साथै भुलित यधन हीक्षित थवा न्याहू छु ( अहासुह जाव उत्तर पुरथिमे दिसीमाए तिड टय जार धाउरत्ताओ च एग ते एडेइ एडिता सयमेव सिह उपाडेइ उत्पाहिता जेणे थावच्चापुत्ते तेणेर उवागन्सइ) शु परिननी दीक्षित यवानी ४२छ। સાભળીને સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારે તેમને કહ્યુ “હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમ ગમે તેમ કરો ઈરિત કાર્યોમા એટલે કે દીક્ષાગ્રહણ કરવામાં મોડુ કરે નહિ આ રીતે
० १९
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साताधर्मकथाम ___ अप स्थापत्यापुत्रो धर्मकथा स्थयतिस्म । ननु यीशी धर्मकथा भगवतोप दिप्टेति जिज्ञामायामाह-'धम्माहा भाणियच्या ' इति । धर्मकथा भणितव्या औपपातिकसूत्रोक्ता धर्मकथान पाया सा चोपासम्दशास्त्रस्यागारधर्मसनी बनीटीकाया मया विस्तरतो व्याख्याता ततोऽजगन्तव्या ॥ २४ ॥
मूलम्-तएणं से सुए परिवायए थावच्चापुत्तस्स ऑतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासो-इच्छामि णं भते । परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं सपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए, अहासुहं जाव उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए तिडडय जाव धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिह उप्पाडेइ, उप्पाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मुडे भवित्ता जाव पवइए सामाइयमाइयाइ चउदसपुवाइ अहिज्जइ । तएणं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ । तएण से थावच्चापुत्ते सोगधियाओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वहिया जणवयविहार विहरइय ॥ सू० २५ ॥ कथा सुनाई । किस प्रकार की धर्म कथा स्थापत्या पुत्र ने शुक परिव्राजक को सुनाई सो यह कथा औपपातिक सूत्र में वर्णित हुई है । वही कथा यह समझनी चाहिये । उपासकदशांगमूत्र की जो अगारधर्म स जीवनी टीका है उसमे मैने इस कथा को विस्तार से व्याख्यात किया है। सूत्र ॥ २४ ॥
પત્યા પુત્ર અનગારે જે ધર્મકથા શુક પરિબાજોને કહી સંભળાવી તેનું વર્ણન “પપાતિક સૂત્ર” માં કરવામાં આવ્યું છે જિજ્ઞાસુઓએ તે ત્યાથી જાણી લેવી જોઈએ “ઉપાસકદશા સૂત્ર” ની અગારધર્મસ છવની ટીકામાં ५६ मे मा ४थानु सरित२ पान यु छ ।सूत्र । २४ "॥
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शुरुपरिमानकदीक्षानिरूपणम् 'तणसे इत्यादि ।
टीका - ततस्तदनन्तर सलुस शुरुः परिवाजक व्यापाि असा निशम्य एव वक्ष्यमाण माकारेणावादीद - मिस ! सहस्रेण सार्धं परितो देवानुमियाणामन्तिके मुठी समीपेऽह परिनानकसहस्रेग सह केशोल्लुअनेन मुण्टो मीत्यर्थः । ततः स्थापत्यापुनोवादी हे देवानुप्रिया कार्ये दीक्षाग्रहणरूपे माकु इत्येमुक्तःशु
"
तरण से सुए परिव्यायण इत्यादि
टीकार्थ - (ण) हमके बाद (मेसु) उस शु
व्राजकने (धावच्च्चादुत्तस्स अतिए पम्प मोच्चा) 2n
के मुखसे श्रुत चारित्र रूप धर्मका श्रवण कर (হ अवधारित कर ( एव वयामी) उन में म भते । परिव्वायगसरस्से ण महि परि
I
भवित्ता पव्वइतर ) हे भदन मैं हजार परिव्रज्को के साथ २ दिन ( अहासु जाव उत्तरपुरस्त्विमेि य एगते एडे, एडित्ता सयमेन च्चापुत्ते तेणेव उवागच्ह ) शुक्र जान कर स्थापत्यापुत्र अनगार
जैसे सुग्व हो वैसा करो - shr
71
( तएण से सुग परिन्याया टीडार्थ --- (तरण ) त्यारा ( 3
पुत्तम्स अतिए धम्म सोच्"
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ચારિત્ર રૂપ ધર્મનુ શ્રવણ
धारित अने ( एन चाल परिव्वायगसाहरसेण सहि इत्तए ) हे लहत तु થઇને દીક્ષિત થવા
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१ २५ ॥
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गला त्रिदण्डिका यावत् निदण्डादीनि सहोपकरणानि यात्रत् गैरिकधातुरक्तानि वखाणि चैकान्ते एकान्तमदेशे ' पढेड ' एडविन्त्यजति एडि त्यक्त्वा 'सयमेव सिंह उप्पाडे ' स्वयमेव स्वहरतेनैव शिखां जटारूपात् उत्पाटयति=लुश्चति ।
यत्तु - दीपिकाकारेण कस्तूरचन्द्रगणिना-यतिना 'सयमेव सहि उप्पादे ' इति स्नकपोलकल्पित मूल प्रदर्श्य, दीपिकाया - स्वयमेव = स्वहस्ताभ्यामेव परिवा जवसतिः त्रिदण्डिकाना निवासा यन्मठ तामुत्पाटयतिस्म समूल विनाशितवानित्यर्थः " इत्युक्त, तदुसमी चनम् - हस्तलिखितेषु गुद्रितेषु च प्राचीन पुस्त
तदुक्तमूलपाठवलोकनेन, सर्वत्र 'सिंह' इत्येन पाठस्य दर्शनेन च उत्सूत्र मविलम्ब मत करो - इस प्रकार स्थापत्यापुत्र के कहने पर उस शुक परिव्राजकने ईशान कोण मे जाकर अपने त्रिदडिका आदि सात उपकरणो को तथा गैरिक धातु से रक्त हुए वस्त्रो को एकान्त स्थान मे रख दिया उन्हें छोड दिया और छोडकर फिर अपने आप अपनी जटारूप शिखा का उत्पादन किया । दीपिका कार कस्तूर चन्द्र जी गणिने (सयमेव वसहि उप्पाडे " एसा कपोलकल्पित मूल पाठ दिखा कर दीपिका में जो ऐसा लिखा है कि उसने अपने हाथो से त्रिण्डिकों के निवास योग्य मठ को समूल उग्वाट डाला यह ठीक नही है कारण ऐसा पाठ हस्त लिखित एव मुद्रित हुई प्राचीन प्रतियो मे देखने में नही आता है । वहां तो "सिंह" यही पाठ लिखा हुआ मिलता है । इस तरह से अपनी कपोलकल्पना से पाठ को कल्पित कर रखना यह उत्सूत्र प्ररूपणा है अपनी शिखा को उत्पादित कर - लुञ्चितकर वह शुक परिव्राजक
"
સ્થાપત્યા પુત્રની આજ્ઞા સાભળીને શુક પરિવ્રાજકે ઈરાન કાણુમા જઇ ને પેાતાના ત્રિદડ વગેરે માત ઉપકરણા તેમજ ગેરૂ ર ગના વેઓને એક તરફ મૂકી દીધા એટલે કે આ બધી વસ્તુઓના તેણે સદાને માટે ત્યાગ કરી દીધા એના પછી તેણે જટા રૂપ પેાતાની શિખાનુ લુથન કર્યું દીપિકાકાર કસ્તૂર ચદ્રજી ગણુએ " सयमेव वसहि उप्पाडेइ " આવા કપાલકલ્પિત મૂળ
પાઠ
બતાવતા દીપિકામા એ પ્રમાણે લખ્યુ છે કે તેણે ( પરિવ્રાજકે ) પેાતાના હાથેાથી ત્રિદડિકાના નિવાસ (મઠ) ને સમૂળ નષ્ટ કરી નાખ્યું હત આ વાત ઠીક કહી શકાય નહિ કેમ કે આ જાતના પઠે હસ્તવિખિત તેમજ मुद्रित (छपायेली) भूनी अतामा मेरा भजनो नथी ते प्रतोमा तो 'सिह ' પાઠેજ લખેલા મળે છે આવી રાંતે પાતાની કપાલક-પના મૂક અસત્ય વાતેથી પાઠકોને ભ્રમમા મૂકવાના પ્રયાસે કરવા તે ખરેખર Grसूत्रप३
(2
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अमृतर्पणी टीका अ० ५ शुरुपरिनाजक दीक्षानिरूपणम्
रूपणा जनितानन्तससारित्वापत्तेः । उत्पाटय यत्रैव स्थापत्यापुत्रोऽनगारस्तत्रै पागच्छति, उपागत्य मुण्डोभूत्वा यावत् मनजितः दीक्षां गृहीतवान् । सामायि कादीन्येकादशाङ्गानि चतुर्दशपूर्माणि अधीतेस्म । तदा शुक्रस्य सार्थभूताः सहस्रपरिवाजका अपि दीक्षा गृहीतवन्त । ततस्तदनन्तर खलु स्थापत्यापुत्रोऽनगार सहस्र तदानी दीक्षितान् सहस्रमनगारान् शुकस्य शिष्यतया वितरति दत्तवान् । ततः खलु स स्थापत्यापुन' सोगन्धिकाया नगर्याः नीलाशोत् नीलाशोकना मकादुधानात् प्रतिनिष्क्रामति, निर्गच्छतिस्म, प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य वर्जिनपदविहार देशमध्ये विहार विहरति करोतिस्म ॥ २५ ॥
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जहा स्थापत्यापुत्र अनगार विराज मान थे वहा गया- ( उवागच्छित्ता मुडे भवित्ता जाव पव्ड समाहपमाइया चउदमपुण्याह अहिज्जह) जाकर वह मुडिन हो उनके पान दीक्षित हो गया। सामायिक आदि ग्यारह अङ्गो को और नतुर्दश पूर्वोको उसने उनके पास पढा । शुक के साथ रहे हुए उन १ हजार परिव्राजको ने भी भगवती दीक्षा धारण करदी | (तएण धावचा पुत्ते सुयस्स अणगारसहस्म सीसत्ताए वियरइ) स्थापत्यापुत्र अनगार ने इन १ एक हजार साबुओ को शुक परिब्राजक का शिष्य बना दिया । (तएण से बावच्चापुत्ते सोगंधिओ नीला सोयाओ पनि मह, पडिनिक्वमित्ता वहियो जणवयविहार बिहरह) इसके बाद स्थापत्यापुत्र अनगार उस नौगधिका नगरी से, नीला शोक उद्यान से निकले और निकल कर बाहर जनपदों में बिहार करने लगे || सू० २५ ॥
"
પણા જ છે. પેાતાની શિખાનુ સુચન કરીને શુક રિવાજક જ્યા
પુત્ર અનગાર હતા ત્યા गया समाइयमाइय इ चउरमाइ
પત્યા ( उवागच्छित्ता भुडे भनित्ता जवि पत्रइए aloons ) યા જઈને મુ ડિન થઇને તેમની પાસેથી દીક્ષા મેળવી લીધી સામયિક વગેરે અગિયાર અગે ને તેમજ ચતુ`શ પૂર્વાને તેણે સ્થાપત્યાપુત્ર અનગાર પાસે રહીને અભ્યાસ કર્યાં શુદ્ર ની સાથે રહેન રા એક હજાર પરિવાજએ પણ ભાગવતી દીક્ષા स्वीजरी सीधी (तरण थानच्यापुत्ते सुयस्त अणगारसहस्स सोसत्ताए वियरइ ) સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે તે એક હજાર સાધુઓને શુ પિરાજકના જ શિષ્યે મનાવ્યા ( उण से थावच्चापुत्ते सोग धियाओ नीलासोयाओ पfsनिक्ख मइ, पडिनिस्यमिता दहिया जणत्रयविहार विहारइ ) त्या जाह न्याय त्यापुत्र અનગર સૌગધિકા નગરી અને નીવાગે ઉનની બહાર થઈને બીજા જન પદ (વેશ) મા વિહાર કરવા નીકળ્યા ! સુત્ર ૨પ ॥
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माताधर्मकथासूत्रे
मूलम्-तएण से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेण सद्धिं संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उत्रागच्छ, उवागच्छित्ता पुडरीय पव्वय सणिय २ दुरूह, दुरुहित्ता मेघघणस निगास देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टय जाव पाओवगमण णुवन्ने, तणं से थावच्चापुत्ते वहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउ णित्ता मासियाए सलेहणाए सहि भत्ताइ अणसणाइ छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणसमुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे जाव पहीणे || सू० २७ ॥
११६
टीका- 'तणसे' इत्यादि । ततस्तदनन्तर सड़ स स्थापत्यापुनोऽनगारहस्रेग साधे सपरितो ग्रामानुग्राम विहरन् यनैत्र पुण्डरीक पुण्डरीकनामक पर्वतस्त त्रैवोपागच्छति, उपागत्य च पुण्डरीक पर्वत शनैः शनै दूंरोहति - आरोहति, दूरुप ' मेघघणस निगास' मेघघनसनिकाश मेघाना घन समूहस्तद्वत् कालवर्ण 'देवस
तरण से थावच्या पुत्ते इत्यादि ।
टीकार्थ - (तएण ) इसके बाद ( से धावच्चापुत्ते ) ये स्थापत्यापुत्र अणगार सहस्सेणं सद्धिं सपरिबुडे ) हजार अनगार के साथ२ ग्रामानु ग्रामविहार करते हुए ( जेणेव पुडरीए फवए) जदा पुडरीक पर्वत था ( तेणेव उवागच्छद्द ) वहा आये (उवागच्छित्ता पुडरीय पव्वय सणिय २ दुरूह ) वहा आकर वे उस पुडरीक पर्वत पर धीरे २ चढे ( दुरू हित्ता मेघघणसनिगास देवसनिवार पुढविसिलापट्टय जाव पाओव
6
तण से थावच्चापुत्ते ।" इत्यादि ॥
टोअर्थ - (तएण ) त्यारमाह ( से थावच्चापुत्ते) स्थाप यापुत्र ( अणगारसहरसेण ग्रामथी जीने ग्राम पर्वत हतो ( तेणेव
सद्धि स परिबुडे ) मे उन्नर अगुगारनी साथै मे विहार उरता ( जेणेव पुरी पव्त्रए ) या युडरी उवागन्छइ ) त्या आव्या ( उवागच्छित्ता पुडरीय पव्पय सणिय २ दुरुदइ ) त्या पोथीने तेथे। पर्वतथर धीमे धीमे यढ़वा भाडया ( दुखदित्ता मेघघण सनिगास देवसनिवाय पुढविसिलापट्टय जाय पाओनगमण णुवने ) यढीने तेम
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्र निर्वाणनिरूपणम्
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न्निनाय ' देवसनिपात-निर्माणाद्युत्सवसमये यत्र देवा समागत्य मिलन्ति, देवा ना सनिपातः समिलन यत्र त ' पुढविसिकापय' पृथिवी शिलापटक प्रतिलेख यित्वा यात् ' पाओगमण पन्ने' पादपोपगमनमनुपात. सहस्रशिष्यै सह पादपोपगमनसस्तारक कृतवान् । तत खलु स स्थापत्यापुत्री हूनिवर्षाणि सामान ' ' परियाग श्रामण्यपर्याय = चारित्रपर्याय पाउणत्ता ' पालयित्वा मासिक्या सलेखनना पष्ठिभक्तानि अनशनेन जिला यावत् - केवल्वरज्ञानदर्शने सति 'समुप्पादेत्ता ' समुत्पाद्य जन्तसमये केवलज्ञाना केवलदर्शन च समाप्य ततः पश्चात् सकलकर्मक्षये सिद्धः मुक्ति प्राप्तः यावत् बुद्धो मुक्त. सर्पदु ख प्रहीणः जन्मजरामरणादिदु खरहितो जात ॥ २६ ॥
गमण वने ) चढकर उन्हों ने मेघ सम्रह के समान कृष्ण वर्णवाले तथा निर्वाण आदि के उत्सव के समय जहां देव एकत्रित होते हैं ऐसे पृथिवी शिलापटक पर प्रतिलेखना कर पावत् पादपोपगमन सथारा धारण कर लिया। साथ के उन १ हजार साबुओं ने भी पापोपगमन सयारा ले लिया। (तणं से बावच्चातुत्ते बहुणि वासाणि सामन परि याग पाणिन्ता मासियाण सटेरणाए सट्ठि भत्ताइ अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरमाणदसण समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्वे जाव पहीणे ) इस तरह उन स्थपत्यापुत्र अनगार ने अनेक वर्षो तक श्रामण्य पर्याय का पालन करके एक मान की सखेखना से साठ भक्तो का अनशन द्वारा छेदन करनात् अन्त समय मे केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त कर लिया। उन्हें प्राप्त कर फिर वे सफल कर्मों के क्षय होने पर सिद्ध बन गये । यह यात् शब्द से कुछ मुक्त सर्व दुःख प्रहीण जन्मजरा नरणादि दुख रहितो जाता इन पदों का संग्रह हुआ है |०२६|| મે। સમૂડ જેવી કાળી તેમજ નિર્વાણુ વગેરેના ઉત્સવના વખતે દેવા જ્યા એકઠા થાય છે એવી શિલાપર પ્રતિલેખના કરીને પાપે પગમન સ શા સ્વીકાર્યો તેમની साथै थे! उत्तर साधुय पशु (ण से थावच्चापुत्ते बहृणि वासाणि सामन्नप रियोग पाउति मासियाए सले६णाए सट्ठि त्ताइ अणसणाए छेदित्ता जान केवलवर नाणदसण समुप्पाचा तओपच्छा सिद्धे जोव पणे ) मा रीते भ्यायत्यात्र અનગારે ઘણા વર્ષો સુધી શ્રાવણ્ય ય યનું પાલન કરીને એક મહિનાની સલેખનાથી સાઈ ભક્તોનુ અનરાન વડે ચેન કરીને છેવટે કેવળ જ્ઞાન કેવળ દર્શન મેળવ્યુ ત્યાર બાદ બધા કર્મો ક્ષય થયા ત્યારે તેમને મિત્ર પદ મળ્યુ साडी मे 'यावत्' भाग्यो तेही ( वुद्ध मुक सर्वदु नरहीण जन्म जरामरणादिदु खरहितो जात ) आ होना सश्रद्ध थयो छे ॥ सू६॥
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माताधर्मक यात्रे मूलम्-तएणं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेण सद्धि संपरिवुडे जेणेव पुडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुडरीय पव्वय सणिय २ दुरूहड, दुरूहिता मेघघणसनिगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव पाओवगमण गुबन्ने, तएण से थावच्चापुत्ते वहणि वासाणि सामन्नपरियाग पाउ णित्ता मासियाए सलेहणाए सहि भत्ताइ अणसणाइ छेदित्ता जाव केवलवरनाणदसणसमुप्पाउता तओ पच्छा सिद्धे जाव पहीणे ॥ सू० २७ ॥
टीका-'तएण से' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु म स्थापत्यापुनोऽनगारहस्रग साधं सपरितो ग्रामानुग्राम विहरन् यनैव पुण्डरीक पुण्डरीकनामक पर्वतस्त त्रैवोपागच्छति, उपागल च पुण्डरीक पर्वत शनैः शनै दूरोहति-आरोहति, दूरुह्य 'मेघघणसनिगास' मेघधनसनिकाश मेघाना धन समूहस्तद्वत् कालवणे 'देवस
तण्ण से थावच्चा पुत्ते इत्यादि ।
टीका-(तरण ) ईसके याद ( से धावच्चापुत्ते ) ये स्थापत्यापुत्र अणगार सहस्सेणं सद्धि सपरिवुडे ) हजार अनगार के साथ ग्रामानु ग्रामविहार करते हुए (जेणेव पुडरीए पञ्चए ) जदा पुडरीक पर्वत था (तेणेव उवागच्छ ) बहा आये (उवागच्छित्ता पुडरीय पव्वय सणिय २ दुरूहइ) वहा आकर वे उस पुडरीक पर्वत पर धीरे २ चढे (दुरू हित्ता मेघघणसनिगास देवसनियाय पुढविसिलापट्टय जाव पाओव
'तरण से थावच्चापुत्ते ।। ईत्यादि
टार्थ-(नएण) त्या२॥४( से थावच्चापुत्ते) स्था५ यापुत्र (अणगारसहस्सेण सद्धि सपरिवुडे) मे १२ अ॥२नी साथे 23 मथी थी | विडा२ ४२ता (जेणेव पुडरीए पत्रए ) ज्या पर्वत तो (तेणेव उवागन्छइ) त्या मा०या ( उवागच्छित्ता पुडरीय पपय सणिय २ दुरूहइ ) त्या पलायन । ५ ५५२ धीमे धीमे २०१! माया (दुरूहित्ता मेघधण सनिगास देवसनिवाय पुढविसिलापट्टय जाव पाओगमण णुव ने ) यान भए
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिर्वाणनिरूपणम्
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न्निनाय ' देवसनिपातनिर्माणाद्युत्सवसमये यत्र देवा समागत्य मिलन्ति, देवा ना सनिपातः समिलन यत्र त' पुढविसिकापट्टय पृथिवीशिलापटक प्रतिलेख free यात् ' पाओगमण पन्ने' पादपोपगमनमनुपात सहस्रशिध्यै सह पादपोपगमनसस्तारक कृतवान्। तत खलु स स्थापत्यापुत्रो नहूनवर्षाणि सामान परियाग श्रामण्यपर्याय वारिनपर्याय पाउणत्ता ' पालयित्वा नासिक्या सलेखनना पष्ठिभक्तानि अनशनेन ङिच्चा यावत् - केवलवरज्ञानदर्शने सति समुप्पाडेत्ता ' समुत्पाद्य जन्तसमये के लाना केवलदर्शन च समाप्य ततः पश्चात् सकलकर्मक्षने सिद्धः मुक्ति प्राप्तः यावत् बुद्धो मुक्त. सर्पदु ख प्रहीणः जन्मजरामरणादिदुः खरहितो जात ॥ २६ ॥
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गमण वने ) चढकर उन्हों ने मेघ सम्रह के समान कृष्ण वर्णवाले तथा निर्वाण आदि के उत्सव के समय जहा देव एकत्रित होते हैं ऐसे पृथिवी शिलापटक पर प्रतिलेखना कर पावत् पादपोपगमन सधारा धारण कर लिया। साथ के उन १ हजार साधुओं ने भी पादपोपगमन सारा ले लिया । (तएण से बावच्चात्ते बहुणि वासाणि सामन्न परि याग पाडणित्ता मासिया सटेरणा सट्ठि भत्ताइ अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरना दसण समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्वे जाव पहीणे ) इस तरह उन स्थपत्यापुत्र अनगार ने अनेक वर्षो तक श्रामण्य पर्याय का पालन करके एक माल की सलेखना से साठ भक्तो का अनशन द्वारा छेदन कर पावत् अन्त समय मे केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त कर लिया । उन्हें प्राप्त कर फिर वे सफल कर्मों के क्षय होने पर सिद्ध बन गये । यहा यावत् शब्द से बुद्ध मुक्त सर्व दुःख प्रहीण जन्मजरा मरणादि दुख रहितो जोता " इन पदो का मग्रह हुआ है | सृ०२६॥
મેર સમૂડ જેવી ડાળી તેમજ નિર્વાણુ વગેરેના ઉત્સવના વખતે દેવે જ્યા એકઠા થાય છે એવી શિલાપર પ્રતિલેખના કરીને પાપાપગમન સ થારા સ્વીકાર્યો તેમની साथै थे ! इन्तर भाधुये पशु (ण से थावच्चापुत्ते बहूणि वासाणि सामन्नप रियोग पाउत्ति मासियाए सलेहणाए सट्ठि + त्ताइ अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवर नाणदा सण समुपाडेचा तओपच्छा सिद्धे जोव पणे ) मा रीते स्थापत्यात्र અનગારે ઘણા વર્ષો સુધી શ્રાવણ્ય પયયનું પાલન કરીને એક મહિનાની સલેખનાથી સાઈઠ ભક્તોનુ અનરાન વડે કેદન કરીને છેવટે કેવળ જ્ઞાન કેવળ દર્શન મેળવ્યુ ત્યાર બાદ બધા કર્મો ક્ષય થયા ત્યારે તેમને સિદ્ધ પદ મળ્યુ सही ? 'यावत्' भाग्यो हे तेथी ( बुद्ध मुक सर्व दुसरहीण जन्म जरामरणादिदु खरहितो जात ) मा होना सग्रह थयो छे । सू६ ॥
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ઢ
ताधर्मकथासूत्रे
मूलम् - तएण से सुए अन्नया क्याई जेणेव सेलगपुरे नयरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेत्र समोसरिए परिसा निग्गया सेलओ निग्गओ धम्म सोच्चा देवाशुप्पिया। पथगपामोक्खाइ पंच मंतिसयाइ आपुच्छामि मंडुयं च कुमार रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारयं पव्वयामि, अहासुह, तए ण से सेलए राया सेलागपुरं नयर अणुपचिस, अणुपविसित्ता जेणेत्र सप गिहे जेणेव वाहिरिया उटूाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे सन्निसन्ने, तएण से सेलए राया पथगपामो+खे पंच मतिस सावे, सद्दावित्ता एव बयासी - एव खलु देवाणुप्पिया । भए सुयस्स अंतिए धम्म णिसंते सेविय धम्मे इच्छिए पडि च्छिए अभिरुइए अहण देवाणुपिया । ससारभयउठिवग्गे जाव पव्वयामि, तुम्भ णंदेवाणुप्पिया कि करेह कि ववसाह कि वा ते हियइच्छति ?,
तण ते पथगपामोक्खा सेलग राय एव वयासी-जइणं तुब्भे देवाप्पिया । ससारभउत्रिग्गा जाव पव्त्रयह अम्हाण देवाशुप्पिया । किमन्ने आहारे वा आलवे वा अम्हेऽवि य णं देवाध्विया । ससारभयउत्विग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुपिया | अम्ह वहुसु कज्जेरा य कारणेसु य जाव तहा of पव्वतियाणवि समणाण बहुसु जाव चक्खुभूए ।
तएण से सेलगे पथगपामोक्से पचमतिलए एव वयासी
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अनगारधर्मामृतविण टीका अ० ५ शैलराजवरिनिरूपणम्
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जइणं देवाणु तुभे ससार जाव पव्वयह त गच्छह णं देवा० सएस २ कुटुंबे जेट्टे पुत्ते कुडुबमज्झे ठावेत्ता पुरिससहस्स वाहिणिओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउव्भवहत्ति, तहेव पाउञ्भवति ।
तणं से सेलए राया पच मतिसयाई पाउव्भवमाणाई - पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठे कोडुविय पुरिमे सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी - खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया। मडुयस्स कुमारस्त महत्थ जाव रायाभिसेय उट्ठवेह० अभिसिचाइ जात्र राया यावद् विहरइ ॥ सू० २७ ॥
टीका - ततस्तदनन्तर खलु स शुकोऽन्यदा = अन्यस्मिन् काले, कदाचित् कस्मिंश्चित् समये यनैव शैलकपुर नाम नगर यनैव सुभूमिभाग= सुभूमिभागनामकम् उद्यान ' तेणे समोसरिए ' तनैव समवसृतः समागत । परिपन्निर्गता = शैलकपुर नगरनिवासिना जनानासहतिः शुकनामाऽनगार समागत श्रुत्वा व वन्दितु शैलक पुरनगरार्नित्यर्थ । शैलकोsपि निर्गतः शैलफनामा नृपोऽपि शुकमनगार वन्दितु नगरादहिर्निःसृत' । निर्गत्य यौनशुकोनगारस्तत्रोपागच्छति । अथ
'तणं से सुए' इत्यादि
टीनार्थ - ( नए) इसके बाद (से सुए) वे शुक अनगार (अनया कथाड) किसी एक समय ( जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव समोसरिए) जहा शैलकपुर नाम का नगर और उम में भी जहा सुभृमिभाग नाम का उद्यान था वहा विहार करते २ आये ( परिमा निग्गया सेलओ निग्गओ, धम्म सोचा जाव देवाणुविद्या पथगपामोखाइ पचमतिस ( तरण से सुए
इत्यादि।
टी अर्थ -- सएण ) त्यारणाह ( से मुए ) शु४ अनगार (अन्नया कयाइ) मेड चमते ( जेणेत्र सेलगपुरे नयरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेत्र समा सरिए ) क्या रौस र नाभे नगर अने तेमा पशु क्या सुभृभि लाग नाभे विधान हेतु त्या विहार उस्ता उस्ता साव्या ( परिसा निगाया सेल्ओ निशा ओ धम्म सोचा जाव देवाणुप्पिया पथगपामोक्साइ पचमतिसयाइ आपु
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भाताधर्मकथासूत्रे
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शुकनाम्नानगारेण धर्मकथा कथिता । परिषत् प्रतिगता । तत को राजा-धर्म श्रुत्वा यावत् - सबुद्धः शुकमेनमनादीत् देवानुप्रिय ! पण पत्र मन्त्रि शतानि पञ्चशतसंख्यकान् पा थकादीन् मन्त्रिणः आपृच्छामि, मन्हूरु च कुमार स्वपुन राज्ये स्थापयामि, ततः पथात् देानुमियाणामन्ति के मुण्डो भूत्यागारादन गारता मनजामि = स्वीकरोमि । शुक जाह-यथामुख = प्रज्याग्रहणे लिम्बो न करणीय इत्यर्थ. । तत खलु स शैल्को राजा शैलकपुर नगरमनुप्रविशति, अनुपवियत्र स्वक=निज गृह नैना 1 उहाणसाला उपस्थानशाला=सभा याइ आपुच्छामि महुयच कुमारे रज्जे ठावेमि तओ पच्छा देवाणुपियाणं अनिए मुडे भनिन्ता आगाराओ अणगारय पव्वयामि ) इनका आगमन सुनकर शैलपुर नगर निवासी जनों का समूह उनके वदना करने के लिये नगर से बहार निकला। शैलकपुर राजा भी निकले। ये सब चलकर वहा आये जा वे शुक अनगार विराज मान थे। शुक्र अन गार ने सब को धर्म कथा सुनाई। सुनकर सबलोग वापिस चले गये । शैलक राजा धर्म का उपदेश सुनकर यावत् प्रतिबुद्ध हो गया। उसने शुक अनगार से इस प्रकार कहा -देशनुप्रिय । मैं पाथक प्रमुख पाच सौ मन्त्रियों से पूछलेता हूँ और अपने पुत्र महक कुमार को राज्य में स्थापित कर देता हूँ। बाद में मैं देवानुप्रिय आपके पास मुडित होकर अगार अवस्था से अनगार अवस्था धारण करलूगा । ( अहासुह तएण से सेल राया सेलगपुर नयर अणुपविसर, अणु
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च्छामि मडुयच कुमारे रज्जे ठावेमि तओ पच्छा देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भक्त्तिा आगाराओ अणगारय पब्वयामि ) तेभनु आगमन सालजीते शैल પુરના નાગરિકાના સમૂહે તેમની વદના કરવા માટે બહાર નીકળ્યા શૈલક પુરના રાજા પણ વન માટે બહાર જવા નીકળ્યા તે ખધા જ્યા શુક પરિક જડ વિરાજમાન હતા ત્યા પહાચ્યા શુક પિરાજકે બધાને ધર્મસ્થા સભળાવી ધ કથા સાભળી ને બધા પાત પેાતાને સ્થાને જતા રહ્યા ધમ કથા સાભળીને શૈલક રાજા ને એમ થયા તેમણે શુદ્ધ અનગારને વિનતી કરતા કહ્યુ કે—‹ દેવાનુપ્રિય ! હુ મારા પાચસે મત્રીઓને પૂછી લઉ છુ અને મારા પુત્ર મઢુક કુમારને રાજ્યસિહાસને બેસાડી દઉં ત્યાર પછી તમારી પાસે મુક્તિ થઈને હુ અગાર અવસ્થા ત્યજીને અનગાર અવસ્થા ધારણ अपविes अणुपवि श्रीश ( अहासुद्द तरण सेसेलए राया सेलगपुर नयर
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ. ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् १२१ स्थान, तत्रैवोपागन्उति. उपागत्य सिंहासने 'सन्निसन्ने' सनिपण्ण =उपविष्टः ।तत खलु स शैलको राजा पान्थकप्रमुग्वाणि पञ्चमन्त्रिशतानि पञ्चशतसल्यकान् पान्थकादीन् मन्त्रिण शब्दयतिआहयति, शब्दयित्वा आहृय एव वक्ष्यमाणप्रका रेण, अवादीत्-एव सलु हे देवानुपियाः ! मया शुकस्य-शुकनाम्नोऽनगारस्या. न्तिके समीपे धर्म =श्रुतचारिवलक्षण ‘णिसते' निगान्तः अतः, सोऽपि च “धर्मः' इच्छिए ' इटवान्छितः, 'पडिन्छिए ' प्रतीप्सिता ग्रहीतुमभिलपितः 'अभिरुइए ' अभिरचितःप्रत्यात्मप्रदेशे रचिविषयीभूतः, अह खलु हे देवानुमिया ! 'ससारभयउबिग्गे' समारेभयोद्विग्न जन्मजरामरणेष्टवियोगानिष्टसयो गादिभयोद्विग्नः सन् यापद् प्रवजामिन्दीमा हिप्यामि । हे देवानुपिया. ! यूय किं करिष्यय किं व्यवमायिष्यथ कीदृश व्यवसायमुद्यम करिष्यथ, किंवा युप्माक 'हृदययेप्सित इति, भवता मनोगतोविचार कीदृशो वर्ततो इत्यर्थ । ततः खलु ते पविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उद्यानसाला तेणेत उवागच्छ, उवागचित्ता सीहासणे सन्निसन्ने, तएण से सेलए राया पथगपामोस्खे पचमतिमए सद्दावेह) शैलक राजा के इस प्रकार के विचार सुन कर शुक अनगार ने उनसे कहा-यथा सुख-अर्थात् शुक-अनगार की हम तरह दीक्षा ग्रहण करने मे अनुमति प्राप्त कर शैलक राजा वहा से शैलक पुर नगरमे आये। आकर वे जहा अपना घर और जहाजपनी बाहिर उपस्थानशाला सभास्थान-था वहा गये-वहा जाकर उन्होंने सिहासन पर बैठकर पांचसौ पायक प्रमुख मत्रियों को बुलाया-(सदावित्ता एव वयासी-एव खलु देवाणुपिया मए सुयस्स अतिए धम्मे णिसते से विय धम्मे इच्छिए पडिचिए, अभि रुहए अहण देवाणुप्पिया! समारभय विग्गे जाव पन्चयामि तुम्भे ण सित्ता जेणेव मए गिहे जेणेव बाहिरिया अदानसाला तेणेव उवागच्छइ, उचागरिउत्ता सोहासणे सन्निसन्ने, ताण से सेलए राया पथगपामोक्खे १नमतिसा सदावेइ) સૈવિક રાજાના આ જાતના વિચારો સાંભળીને શુઝ અનગારે તેમને કહ્યું--
યથાસુખ ” એટલે ક ત બને જેમાં મુખ મળે તે કરે શુક પાકની દિક્ષા ગ્રહણ કરવા માટેની અનુમતિ મેળવીને ફૌલક રાજા ત્યાથી તૈલકપુર નગ ૨માં આવ્યા ત્યાં આવીને તેઓ સીધા પિતાના મહેલની અંદર ઉપસ્થાન ગાળ એટલે કે સભાન હતું ત્યાં પહોચ્યા ત્યાં જઈને તેમણે સિંહાસન ६५२ मेभान पाय 146 प्रभु भत्रामाने मोसाव्या (सहावित्ता एय पयासी एव गट दवाणुपि । मए सुयस्त अतिए एम्मे णिसते से चिपसे इन्छिए पडिन्छिा अभिरडा अह or पाणुपिया ! मसारभर उठिगे जार पर.
मा १६
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शाताधर्मव थासूत्रे
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पान्थरुममुखा पान्यकादयो मन्त्रिणः शैलक राजानमेवमदन यदि खलु यूय देवा नुप्रिया । ससारमयोद्विग्नाः यावत् प्रनजत= प्रब्रजित्य, तर्हि अस्माक हे देवानु प्रिय != हे राजन् ! कोऽन्य आधारः = आश्रयो वा आरम्भ = सादौ प्रपततां - धारकः वा भविष्यति, यतोऽस्माक भवानेवशरणम् इत्यर्थः । वयमपि च खलु हे देवानुप्रिय | समारभयोद्विग्ना याद् भवद्भि सार्धमेन मनजाम: दीक्षा ग्रहीदेवाप्पिया! किं करेह विवसर, किंवा ते रियच्छति १ ) बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवाणुप्रियो ? मैंने शुरू अनगार के पास श्रतचारित्र रूप धर्म का उपदेश सुना है वह मुझे बहुत अच्छा लगा है। मेरी इच्छा उसे ग्रहण करने की हो रही है हर एक आत्मप्रदेशमें वह मेरी रुचिका विषयभूत बन गया है। हे देवानुप्रियो ! मैं ससार के भय से जन्म जरा मरण इष्ट वियोग अनिष्ट सयोग आदि के डर से इस समय उद्विग्न हो रहा हूँ अतः मैं सयम धारण करूँगा | अत' हे देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे, कैसा उद्यम करोगे - आपलोगों का मनोगत विचार कैसा क्या हो रहा है ? (तएण ते पथगपामोक्खा सेलग राय एव वयासी) राजा की इस प्रकार वाणी सुनकर उन पाथक प्रमुख पाचसौ मत्रियों ने उस शैल्क राजा से इस प्रकार कहा - ( जइण तुभे देवाप्पिया ! ससारभविग्गा जाव पव्वयह, अम्हाण देवाणुपिया ! किमन्ने आहारे वा अलबे वा अम्हे वि य ण देवाणुप्पिया । ससारभउ विवग्गा जाव पव्वयामो) हे देवानुप्रिय ! यदि आप ससार भय से यामि तुभेण देवाणुपिया । किं करेह किं ववस किंवा हियइच्छति 1) जोसावी ને રાજાએ તેમને કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય 1 મે શુક અનગ૨ પાસેથી શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મના ઉપદેશ સાભળ્યેા છે તેનાથી હું બહુજ પ્રભાવિત થયા છુ શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મોને સ્વીકારવાની મારી તી. ઈચ્છા છે, મારા આત્માના પ્રત્યેક ભાગમાં શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ વ્યાપ્ત થઈ ગયા છે હૈ દેવાનુપ્રિયા f સસારના ભયથી જન્મ જરા ( ઘડપણ) ઇષ્ટજનના વિયેાગ, અનિષ્ટ સ યેાગ વગેરેની બીકથી અત્યારે વ્યાકુળ થઇ રહ્યો છુ તેથી હું સયમ ધારણ કરીશ હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે શુ કરશે ? તમે શે ઉદ્યોગ કરશે! ? આ વિષે તમારા भनभा उ लतना वियारो भाववा भाड्या छे ? (तरण ते पथगपामोक्सा सेलगं राय एव वयासी ) रामनी वाली सालजीने पाथड प्रभुण पायसेो भत्री रौसपुराने भा प्रमा उधु - (जइण तुम्मे देवाणुपिया । ससारभउब्बिगा जाव पव्वयह अम्हाण देवाणुपिया ! किमन्ने आहारे वा आठवेवा अम्हे वि य ण देवाणु पिया | ससारभव्त्रिगा जाव पव्त्रयामी) डे हेगनुप्रिय ! तमे ने ससार लयश्री लय
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अनगारधर्मामृतपिंगी टीका अ० ५ शैलकराजचस्तनिरूपणम् १२३ प्यामः । हे देशानुपिय ! हे स्वामिन् ! यथाऽस्माक बहुपु कार्येपुराज्याधिकृतकार्येषु च कारणेपु-राज्यरक्षणोपायेषु च यावत्-तथा - खलु भवद्भिः सार्ध मनजितानामपि अमणाना बहुपु यावत् कार्यादिपु चक्षुर्भूतः । यथाऽस्माकमपिकतेषु भवान् विश्रामस्थान, राज्यकार्येशु भवानेव नेवतुल्यो नेताऽस्ति तथा चारित्र पाल्नकार्येष्यपि भवानेव नेताभरिप्यतीतिभावः । उद्विग्न हो कर दीक्षित होना चाहते हैं तो हे देवानुप्रिय ! अब हमलोगों का और कौन आपके सिवाय दूसरा आधार हो सकेगा कौन दुवा दिक के समय हमलोगों के लिये आलपन देने वाला होगा, क्योंकि हमारे लिये तो आपही एक शरण भूत है। अत जब आप दीक्षित होना चाहते है तो हम लोग भी ससार भय से उद्विग्न हो कर आप के साथ ही दीक्षा सयम धारण करेंगे। (जहा देवाणुप्पिया। अम्ह यहसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव तराण पव्वतियणवि समणा ण यहुसु जाव चक्खुभूए) हे देवानुप्रिय ' जोस तरह आप हमलोगों के लिये अनेक राज्याधित कार्यो मे अनेक कारणों मे-राज्य सरक्षण के उपायो में-चक्षुभूत रहे हैं उसी तरह आपके साथ प्रवृजित हुए हमलोगों के चारित्र पालन कार्य में भी आप ही नेता रहेंगे। (तरण से सेलगे पथगपामोस्खे पचमतिसए एव वयासी) मत्रि मडल की इस प्रकार बात सुनकर उस शैलक राजा ने उन पायक प्रमुख पाचसो मत्रियों से इस प्रकार कहा.ત્રસ્ત થઈને દીક્ષા મેળવવાની ઈરછા રાખે છે તો તમારા સિવાય અમારે બીજે કે આવાર થશે ? આફતના વખતે અમને આશ્રય આપનાર કેણ થશે ? અમારે માટે તે તમે જ શરણ રૂપ છે, એટલે જ્યારે તમે દીક્ષિત થવાની ઈરછા રાખે છે ત્યારે અમે લેકે પણ આસ સાથ્થી કટાળી ગયા છીએ તમારી साथे ममे ५५ यम दीक्षा सयम पार उशशु ( जहा देवाणुप्पिया ! अम्ह वहुसु कज्जेसु य कारणेसुय जीव तहाण पबतियाणवि समणाण बहुसु जाव चम्सुभूए) डे पानुप्रिय ! तमे भी मार भाट ઘણા ગજવીટના મેમાં ઘણું કારણે મા-રાજ્ય સરક્ષણ વિષેના ઉપા
મા ચકુભૂત રહ્યા છે તેથી અમારી સાથે પ્રત્રજિત થઈને પણ અમે લેકે ચારિત્રપાલન કાર્યમાં પણ તમે જ અમારા નેતા થઓ એવી અમારી ઇરછા छ, (तएण से सेलो पथगपामोक्खे पचम तिसए एव पयासी) भत्रीमा આ જાતના વિચાર સાભળીને તૈલક રાજાએ તે પાથર પ્રમુખ પાચસો
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भाताधर्मकथासूत्र ततः खलु स शैलकः पायकप्रमुख पञ्चमन्त्रिगत पञ्चशतसायकान् पान्या दीन् मन्त्रिण, ए-वक्ष्यमाणमकारेणानादी-यदि खलु ह देवानुप्रियाः । यूय ससारभयोद्विग्नाः यावत् पाजत प्राजिप्यय दीक्षा ग्रहीन्यथ, तत् तर्हि गच्छत खल हे देवानुप्रियाः ! सकेपु स्वकेपु कुटुम्मेषु ज्येष्ठान पुत्रान कुटुम्बम ये स्था. पयित्वा पुस्पसहस्रवाहिनीः शिक्षिकाः दुरुढाः मारूढाः सतो ममान्तिक प्रादु भवतेति । तथैर मादुर्भनन्ति ते पञ्चशनानि मन्त्रिण स स ज्येष्ठपुत्र कुटुम्ब म ये स्वस्थाने स्थापयित्वा शिरिमामाख्ढा. सन्तः शैलपस्य समीपे उपस्थिता अभूवन्नित्यर्थः ।
ततः खलु स शैलक राजा पञ्चमन्त्रिशतानिश्चशतानि मन्त्रिणः मादुर्भवतः समागतान् पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतृष्टः कौटुम्निकपुरपान् = आज्ञाकारिणः पुरुपान्
(जइण देवाणु० तुम्भे ससार जाव पच्चयह त गन्छह ण देवाणु० सासु २ कुडवेसु जेठे पुत्ते कुडनमज्झे ठावेत्ता पुरिसहस्सबाहिणिओ सीहाओ दुरूढा समाणा मम अन्तिय पाउन्भवत्ति तहेव पाउन्भवति) हे देवानुप्रिय । यदि आप लोग ससार भय से उद्विग्न है ओर यावत् प्रबजित होना चाहते है तो जाओ और अपने २ कुटुम्बो मे अपने २ स्थानों पर ज्येष्ट पुत्रो को स्थापित करके पुरुप सहस्रवाहिनी शिविकाओं पर आरूढ हो कर फिर मेरे पास आजाओ इस प्रकार राजा के कथन को सुनकर उनसपने अपने २ कुडुम्बों में अपने २ स्थान पर अपने २ ज्येष्ठ पुत्रों को स्थापित किया और बाद मे फिर वे सरके सब शैलक राजा के पास में पुरुष सहस्रवाहिनी शिक्षिकाओं पर आरूढ़ हो कर उपस्थित हो गये। (तएण से सेलए राया पचमतिसयाइ पाउन्भ घमाणाइ पासइ पासित्ता तुढे कोड बिय पुरिसे सद्दावेद सहावित्ता भत्रीमाने या प्रमाणे ४थु-(जइण देवाणु• तुन्भे ससार जाव पव्ययह त गच्छह ण देवाणु० सएसु २ कुडु बेसु जेटे पुत्ते कुडु बमझ ठावेत्ता पुरिससहस्स बाहिणिओ सीहाओ दुरूढो समाणा मम अतिय पाउन्भवइत्ति तहेव पाउ न्भनति) होवानुप्रियो । २५२ तमे ससारमयथा सत्रस्त है तो જાઓ અને પોતપોતાના કુટુંબોમાં પિતાના સ્થાને જયેષ્ઠ પુત્રો ને મૂકીને પુરુષસહસવાહિની પાલખીઓમાં બેસીને મારી પાસે આવે આ રીતે રાજાનું કથન સાંભળીને તેઓ બધા પિતાપિતાને સ્થાને જયેષ્ઠ પુત્રોને મૂકીને પુરુષ सवाहिनी पसभागाभा सा२ २नी पाने माव्या (तएण से सेलए राया पचमतिसयाइ पाउ भवमाणाइ पासह पासिता तद्वतुडे कोड विय
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अनेगारधर्मामृतवपिणो टोका अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् १२५ शन्दयति, आवयति । शब्दयित्वा बाहय, एच-वक्ष्यमाणप्रकारेणापादीन-भिप्रमेव शीघ्रमेव भो । देवानुपिया ! मण्ट्मास्य कुमारस्य महाय-महापयोजनक यावत्राज्याभिषेक ' उपहनेह' उपस्थापयत कुरुत । 'अभिसिंचति' अभिपिञ्चन्ति, ततस्ते कोटुम्पिक पुरुपाः सुवर्णरजत कोमण्डूककुमार स्नापयित्वा सीलङ्कार विभूपित कृत्वा, तस्य राज्याभिषेक कुर्वन्ति स्मेत्यर्थः । यानद् मण्डको राजा जात विहरतिभास्ते ॥ मृ०२७॥
मूलम्-तएण से सेलए राया मडुयं राय आपुच्छइ, तएणं से मंडुए राया कोडुवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । सेलगपुर नगर आसित्त समन्जिओवलित्त गधोदयसित्तं गधवटिभूत करेह य कारवेह य, एव दयासी) इसके बाद उस शैलक राजा ने जय उन पाचसौ मत्रियो को अपने समीप उपस्थित हुआ देखा-तो देखकर वह बहुत अधिक प्रसन्न एव सतुष्ट हुआ ओर उसी समय उसने कौटुम्त्रिक पुरुपो को बुलाया-चुलाकर उनसे कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मडुयस्स कुमारस्स महत्व जाव रायाभिसेय उवट्ठवे, अभिसिंचइ जोव राया यावत् विहरड) भो देवानुप्रियो! तुम लोग शीध्र ही मडक कुमार का महार्थ साधक-महाप्रयोजन भूत-यावत् राज्याभिषेक करो। उन्हो ने उसका राज्याभिषेक किया अर्थात् सुवर्ण रजत के कलगो से मडूक कुमार का अभिषेक कर और उसे समस्त अलकारो से विभूपित कर राज्य पद में अभिषिक्त किया। इस तरह मडूक कुमार राज्य पदासीन हो गया ॥ सूत्र २७॥ पुरिसे सहावेइ सहावित्ता एव वयासी) त्या२ मा पोताना पायो भत्रीमाने આવેલા જોઈને રાજા ખૂબજ પ્રસન્ન થયા અને સંતુષ્ટ થયા રાજાએ તરત જ पोतानो पुरुषाने Bाव्या मन मोसावीन तेभने उधु-( खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । मडुयस्स-कुमारस्स महत्थ जाव रायाभिसेय उवठ्ठवेह अभिसि घइए जाव राया यावद् विहरइ) हेवानुप्रियो ! तमे सत्परे भ३४ रार કુમનિ મહાઈસાધક મહાપ્રયજન ભૂત-રાલ્યાભિષેક કરો કૌટુંબિક પુરુ
એ રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ મડક રાજકુમાર રાજ્યભિષ કર્યો એટલે કે તેઓએ તેને રૂપાના કળશથી મક કુમારને અભિષેક કર્યો અને બધા અલ કારથી તેને પુગારીને અન્ય નિ હાસન ઉપર બેસાડો રે સૂત્ર - ૨૭”
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माताधकथासूत्र करित्ता य कारवित्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं से मडुए राया दोच्चपि कोडुवियपुरिसे सदावंड, सदावित्ता एव वयासो-खियामेव भो । सेलगस्त रन्नो महत्व जाव निरखमणाभिसेय जहेव मेहस्त तहेव, र पउमावतीदेवी अग्ग केसे पडिच्छइ । सच्चेव पडिग्गह गहाय सीय दुरूहति, अवसेस तहेव जाव सामाइयमाइयाइ एकारस अगाई अहिज्जइ, अहिजित्ता वहहि चउत्थ जाव विहरइ, तएण से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताइ पथगपामोक्खाई पच अणगारसयाइ सोसत्ताए वियरड, तएण से सुए अन्नया कयाइ सेलगपुराओ नयराओसुभूमिभागाओ पडिनिस्खमइ, पडिनिस्खमित्ता वहि या जणवयविहार विहरइ, तएण से सुए अणगारे अन्नया कयाइ तेणं अणगारसहस्सेण सद्धि सपरिवुडे पुव्वाणुपुत्रि चरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेव पोडरीए पव्वए जाव सिद्धे ॥ सू० २८॥
'तएण से सेलए ' इत्यादि।
टीका-तत स शैलको राजा मण्डूक राजानमापृच्छति, हे देवानुपिय ! अह दीक्षा ग्रहीष्यामीती । तत खलु स मण्डको राजा कौटुम्बिरपुरुपान् आदेश कारिण पुरुपान् शब्दयति आवयति, शब्दयित्वा आहूय एव वक्ष्यमाणप्रकारे
'तएण से सेलए राया' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से सेलए राया) उस शैलक राजा ने (मड्डय राय आपुच्छ) मडूक राजा से पूछा कहा कि हे देवानुप्रिय। में दीक्षा सयम लूगा (तण्ण से महुए राया कोडषिय पुरिसे सद्दावेद) (तएण से सेलए राया) त्या
--(वएण) त्यो२ मा (सेलराया) 01 पये (मड्य राय आपु इ) म. रानने - पानुप्रिय । दीक्षा Alstu (तएण से मडुए राया कोडु वियपुरिसे सदाइ) सार ५० म. समेटम
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अनगार धर्मामृतवर्षिणी टीधा अ० ५ शैल्कराजचरितनिरूपणम्
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नानादीत् क्षिप्रमेव शीतमेन मेा देवानुनियाः शैलम्पुर नगरम् ' आसित्तसमजिओनलित ' आसिक्त समार्जितोपलिप्त = आसिक्तम् जलेनाऽऽर्द्रीकृत, समार्जित समार्जन्या कचवरायपमारणेन सशुद्ध उपलिप्त गोमयादिना सलिप्त, गन्धोदकसिक्त पुनर्गन्धोदकेन प्रसिक्त गन्धवर्तिभृत अगरनर्विरूप सुगन्धमय यूप कुरुत, अन्यैश्थ कारयत कृत्वा च कारयित्वा च 'एयमाणत्तिय' एनामाज्ञप्तिका = एता ममाज्ञा मत्यर्पयत = मनदादिष्ट कार्य सर्व सपादितमस्माभिरित्या वेदयतेत्यर्थः । तत खलु स मण्डको राजा 'दोन्चवि' द्वितीयमपि द्वितीयवारमपि कौटुम्बिकपुस्पान=आदेशकारिण: पुरुषान् शब्दयति = आइति शब्दयित्वा एवमवादीत्
इसके बाद मडुक राजा ने कौटुबिक पुरुषो को बुलाया (सावित्त एव घयासी ) बुलाकर उन से ऐसा कहा ( खिप्पामेव भो देवाणुप्रिया ! सेलगपुर नगर आमित्त समज्जिओ वलित्त गधवट्टिभूत्त करेहय कारवेय) भो देवानुप्रियो । तुम लोग शीघ्र ही शैलकपुर नगर को जल से छिडको मिचित करो, कच वर आदि के अपनयन से उसे साफ करो, गोमयादि से उसे लीपो गधोदक से उसे बार २ सिक्त प्रसिक्त करो गधवर्त्तिरूप करो- सुगधमय करो, तथा दूसरो से कर वाओ । ( करिता कारवित्ता य ण्यमाणत्ति य पच्चष्पिण ) कर के और करा पीछे हमें इस आज्ञा के पालन की खबर दो हमने आप की आज्ञानुसार मय कार्य संपादित कर दिया है- ऐसा पीछे हमे समाचार दो (या से मडुए राया दोच्चपि कौटुबियपुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एव वयासी ) इसके बाद मडूक राजा ने दुबारा भी
पुरुषाने मोलाच्या ( सद्दावित्ता एव वयासी ) गोसावीने या प्रभा - ( सिप्पामेव भो देनाणुनिया 1 सेलगपुर नगर आसित्तसमनिओलित्त गधपट्टिभूत क्रेय कारवेश्य ) हे हेवानुप्रियो ! तमे शेसरने पालीथी સત્વરે સિચિત કરો કચરા વગેરે સાફ કરીને, છાણુ વગેરેથી લીપે તેમજ સુવાસિત પાણીથી વાર વાર તેને મિચિત કરી અને તેને ગધતિ એટલે કે ધૂપસળીની જેમ સુવાસિન અનાવા તેમજ ખાએથી સુવાસમય અનાવડાવે (करिता वारवित्ताय एयमाणत्तिय पच्चपिण) या प्रमाणे लते उने भने श्रीभगोनी पानेथी उरावडावीने जम चु३ ध्यानु भने न्यानो ( तएण से मुडए या दोन्च पि कोडु धियपुरिसे सद्दानेइ, सद्दानित्ता एन वयामी ) ત્યાર બાદ મહૂક ગાએ ખીજી વખત કૌટુંબિક પુરુષેને મેલાવ્યા અને
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शाताधर्मकथासूत्र करिता य कारवित्ता य एयमाणत्तिय पच्चप्पिणह, तएणं से मडुए राया दोच्चपि कोडवियपुरिसे सदावेड, सदावित्ता एवं वयासो-खियामेव भो । सेलगस्त रन्नो महत्व जाव निक्ख. मणाभिसेय जहेव मेहस्त तहेव, णरं पउमावतीदेवी अग्ग केसे पडिच्छइ । सच्चेव पडिग्गह गहाय सीय दुरूहति, अवसेस तहेव जाव सामाइयमाइयाइ एकारस अगाइं अहिज्जइ, अहिजित्ता वहूहि चउत्थ जाव विहरइ, तएण से सुए सेलयस्स अणगारस्त ताइ पथगपामोक्खाइ पच अणगारसयाइ सोसत्ताए वियरड, तएण से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नयराओसुभूमिभागाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिस्खमित्ता वहिया जणवयविहार विहरइ, तएण से सुए अणगारे अन्नया कयाइं तेणं अणगारसहस्सेण सद्धि सपरिवुडे पुवाणुपुषि चरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेव पोडरीए पवए जाव सिद्धे ॥ सू० २८ ॥
'तएण से सेलए ' इत्यादि ।
टीका-तत स शैलको राजा मण्डूक राजानमापृच्छति, हे देवानुप्रिय ! अह दीक्षा ग्रहीप्यामीती । तत खलु स मण्डको राजा कोटुम्निमपुम्पान् आदेश कारिण पुरुपान् शब्दयति-आयति, शब्दयित्वा-आहूय एव वक्ष्यमाणप्रकारे
'तएण से सेलए राया' इत्यादि । टीकार्य-(तएण) इसके वाद (से सेलए राया) उस शैलक राजा ने (मडुय राय आपुच्छइ ) मडूक राजा से पूछा कहा कि हे देवानुप्रिय ! मैं दीक्षा सयम लूगा (तएण से महुए राया कोडबिय पुरिसे सद्दावेइ )
(तएण से सेलए राया ) त्यादि
A -(तएण, त्यो२ माह (से लएराया) से २०जये (मय राय आपु इ) भइ रामने उधु- वानुप्रिया दीक्षा -10 (तएण से मडुए राया कोडु वियपुरिसे सदावेद) ना२ ५० भडू, रानमे टुगि
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भनगारधर्मामृतवपिणो टोका १० ५ शैलफराजचरितनिरूपणम् 'पडिग्गह' पतद्ग्रह पात्र गृहीत्वा शिविका दूरोइन्ति । आरोहन्ति अम्बधाच्यादयः रजोहरणपात्रादिक शैलराजा तन्मत्रिणोऽपि शिविकामारोहन्तिस्मेत्यर्थ । अवशेष तथैव, यथा मेघकुमारः श्रीमरावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रवज्या गृहीतवान् ' तथैव शुकस्य समीपे शैलस्नृपेण मनज्या गृहोता, तदा-शैलकनृपस्य मणिोऽपि पञ्च शतसख्यकाः पान्थकपमुखास्तव प्ररज्या गृहीतवन्त इत्यर्थः । यावत्-गृहीत्वाच सामायिकादीनि एकादशाहान्यधीतेस्म । अधीत्य च बहुभिश्चतुर्थभक्तादिभिस्त पोभिः यानत्-आत्मान भावयन् विहरति । तदनन्तर स शुरुः शैलकस्याऽनगा रस्य तानि पान्थक प्रमुखाणि पश्चाऽगारशतानि तान् पान्थकप्रमुखान् पञ्चशतसंख्यकाननगारानित्ययः, शिष्यतया वितरति ददातिस्म। ने अपने वस्त्राञ्चल में लिया था। (सच्चेव पडिग्गह गहा य सीये दुरुहति अवसेस तहेव, जाव सामाइयमाझ्याइ एक्कारसअगाइ अहि. ज्जह ) शैलक राजा उमके मत्री तथा उसकी अम्बधानादि ये सय के सब रजोदरण एव पात्रादिकों को लेकर शियिका ( पालखी ) मे आरूढ हो गये । जिस प्रकार मेयकुमारने श्री महावीर स्वामी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी उसी प्रकार शुक अनगार के पास शैलक नृपने भी प्रव्रज्या धारण की। नृपके साथ २ उस के पायक प्रमुख पाच सौ मत्रियोंने भी वही पर दीक्षा ग्रहण की यावत् दीक्षा ग्रहण करने के बाद उस शैलकराज ऋपिने सामायिक आदि बारह अगो का अध्ययन किया। (अहिज्जित्ता यहिं च उत्य जाब विहरइ, तए ण से सुए सेलयस्स अणगारम्स ताह पगपामोक्खाइ पच अणगारसयाई सीसत्ताए वियरइ ) अ ययन करने के बाद उन्हों ने फिर अनेकविध चतुर्थ भक्त आदि की तपस्या की याद मे शुक अनगार ने उन शैलक अनगार के પટરાણી પદ્માવતી દેવીએ શૈલક રાજાના વાળે ચાર આગળ છોડીને આગળના पागाने पोताना परायणमा सीधा ( सच्चेर पडिग्गह गहाय सोय दुरुहति अवसेस तहेव जाव सामाइयमाइयाइ एक्कारस अगइ अहिजइ) शैशी તેમના મત્રીઓ તેમજ શૈલક ૨ જાની અમ્મધાત્રી વગેરે બધા રજોહરણ અને પાત્રો વગેરે લઈને પાલખીમાં સવાર થઈ ગયા ભગવાન મહાવીરની પાસે જેમ મેઘકુમારે પ્રવ્રજ્યા લીધી હતી તેમજ અનગારની પાસે ડીલક રાજાએ પ્રજ્યા સ્વીકારી ૨ જાની સાથે તેમના પાસે પાથક પ્રમુખ મત્રીએ એ પણ ત્યા જ દીક્ષા લીધી , દીક્ષા લીધા બાદ જૈવ રાજાએ સામયિક वगैरे अगिया भगोनु ।पयन यु (अहिन्जिता बहूहिं चउत्थ जावविहरह, तएण से सुण सेलयाम असारस्स ताइ पथगपामोक्साइ पच अणगारसयाइ सीसत्ताए वियाई) 44न ५० तेभरे मने तना यतुर्थमनवगैरेनी તપસ્યા કરી = અનગારે રૌવક અનગ ને પાથડ પ્રમુખ પાચસો અને
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
क्षिप्रमेयभो । शैल्कस्य राज्ञो महार्थ = महाप्रयोजनक मोक्षफलक यावत् निष्क्रमणा भिषेकम् = दीक्षोत्सरम् उपत्थापयत = कुरुत, यथा मेघस्य मेघकुमारस्य प्रथमाध्ययने निष्क्रामणाभिषेको वर्णित तथैव तद्वदप्रापि वाच्य इत्यर्थः । मण्ट्रनृपाऽऽजया कौटुम्बिकपुरुषाः शैलकनृपस्य निष्क्रमणाभिषेक मेघकुमारजत् कृतवन्त इति भावः नवर तत्रैतान् भेदः यत्- पद्मावती देवी पद्मावती नाम्नी राती शैल्फनृपस्य स्त्र भार्या, अग्रकेशान् = अग्रभूतान् केशाग्रभागरूपान चतुरहुलपतिार नापितरतितान् केशान् प्रतीच्छति = वस्त्राञ्चले गृह्णाति, मेघकुमारस्य तु स्वमाता धारिणीदेवी केशान् गृह्णातिस्मेतिभावः सच्चेवा तदिच= तद्वत् = मेघकुमारवदित्यर्थः,
कौटुम्बिक पुरुषो को घुलाया, और बुलाकर उन से ऐसा करण (विप्पा मेव भी सेलगस्म रन्नो महत्थ जाव निश्खमणाभिसेय जहेव मेरस्म तहेव - णवर पउमावती देवी अग्गकेसे पडिच्छड ) तुम लोग शीघ्र ही शैलक राजा को मोक्षफल साधक यावत् निष्क्रमणाभिषेक दीक्षोत्सव - मेघकुमार के दीक्षोत्सव की तरह करो । मेघकुमार का दीक्षोत्सव जैसा प्रथम अध्ययन में वर्णित किया है वैसा ही यहा पर भी समझ लेना चाहिये । इस प्रकार मडूक राजा की आज्ञा सुनकर उन कौटुम्बिक पुरूषो ने शैलक राजा का दीक्षोत्सव मेघकुमार के दीक्षोत्सव की अच्छी तरह से किया । उसमें और इसमें केवल इतना ही भेद रहा कि इस दीक्षोत्सव में पद्मावती देवी जो शैल्क रोजा की मुख्य रानी थी उसने उसके नापित कर्तित चतरगुल्वर्जित अग्र केशों को अपने चत्राञ्चल में लिया और मेघकुमार के दीक्षोत्स में मेघकुमार के नापित कर्तित चतुरगुलवर्जित केशों को उस की माता धारिणी देवी
तरह
मोवावीने ते धु-डे ( सिप्पामेव भो सेलगरस रन्नो महत्थ भिसेच जक्षेत्र मेहस्स तहेव णवर पाउमावती देवी अग्गगवेसे મેરકુમારના દીક્ષોત્સવની જેમ માક્ષદાયક ફૌલક રાજાનેા પ્રથમ અધ્યયનમાં મેઘકુમારના દીલોત્સવ વિષે જેમ વણુન કરવામાં આવ્યુ છે તેમ જ અહી પણુ સમજવુ જોઇએ આ રીતે મહૂક રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ કૌટુબિક પુરુષાએ મેઘકુમારના દીક્ષોત્સવની જેમજ સરસ રીતે દીક્ષોત્સવ ઊજવ્યે મેઘકુમારના દીક્ષોત્સવમા અને રૌલ ગજાના દીક્ષોત્સવમા તફાવત આરલેજ સમજવો ડે-મેઘરાજાના દીક્ષોત્સવ વખતે જ્યારે તેમના માતા પરિણીદેવીએ ચાર આગળ છેડીને બાકીના બધા નાપિત વડે કપાએલા વાળા પાતના અચળામા લીધા હતા, અને શૈલક રાજાના દીોત્સવમા તેમના
ज्गव निक्समणा पडिइ) तभे દીક્ષોત્સવ ચેો
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अनगारधर्मामृतवर्षिण टोका १० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम्
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'पडिग्गह' पतद्ग्रह पान गृहीत्वा जिविका दूरोहन्ति | आरोहन्ति अम्नधात्र्यादयः रजोहरणपात्रादिक शैलकराजा तन्मनिणोऽपि शिविकामारोहन्तिस्मेत्यर्थ । अवशेष तथैव यथा मेघकुमारः श्रीमरावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रत्रज्या गृहीतवान् । तथैव शुकस्य समीपे शैलकनृपेण मन्नज्या गृहीता, तदा-शैलकनृपस्य मत्रिणोऽपि पञ्च शतसख्यकाः पान्थकप्रमुखास्तत्रेय प्रज्या गृहीतवन्त इत्यर्थः । यावत्- गृहीत्वाच सामायिकादीनि एकादशाङ्गान्यधीतेस्म । अधीत्य च भवतुर्थभक्तादिभिस्त पोभिः यावत्-आत्मान भावयन् विहरति । तदनन्तर स शुक्रः शैलकस्याऽनगारस्य तानि पान्थर प्रमुखाणि पञ्चाऽगारशतानि = तान् पान्थकप्रमुखान् पञ्चशतसंख्यकाननगारानित्यर्थः, शिष्यतया वितरति ददातिस्म ।
ने अपने चत्राञ्चल में लिया था । ( सच्चेव पडिग्गह गहा य सीय दुरुहति अवसेस तहेव, जाव सामाइयमाइयाड एक्कारसअगाइ अहिज्जह ) शैलक राजा उसके मंत्री तथा उसकी अम्नधात्रादि ये सन के सब रजोहरण एवं पात्रादिकों को लेकर शिविका ( पालसी ) मे आरूढ हो गये। जिस प्रकार मेपकुमारने श्री महावीर स्वामी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी उसी प्रकार शुक अनगार के पास शैलक नृपने भी प्रव्रज्या धारण की। नृपके साथ २ उस के पावक प्रमुख पाच सौ मन्त्रियोंने भी वही पर दीक्षा ग्रहण की यावत् दीक्षा ग्रहण करने के बाद उस शैलक राज ऋषिने सामायिक आदि ग्यारह अगो का अध्ययन किया । (अहिज्जित्ता वहहिं चत् जाव विहरह, तण से सुए सेलयस्स अणगारम्स ताह पोखाइ पच अणगारसयाई सीसत्ता चिरइ ) अपयन करने के बाद उन्हों ने फिर अनेकविध चतुर्थ भक्त आदि की तपस्या की बाद मे शुक अनगार ने उन शैलक अनगार के
પટરાણી પદ્માવતી દેવીએ શૈલક રાજાના વાળા ચાર આગળ ઝોડીને આગળના વાળાને પેાતાના વસ્રાચળમાં ( सच्चे पडिगगह गहाय सोय दुरुहति अवसेस तद्देव जाव सामाइयमाइयाइ एक्कारस अगाइ अहिजद ) शैसउगन्न તેમના મત્રીએ તેમજ રૌલક ૨જાની અમ્મધાત્રી વગેરે ખધા રોહરણ અને પાત્રો વગેરે લઈને પાલખીમા સવાર થઈ ગયા ભગવાન મહાવીરની પાસે જેમ મેઘકુમારે પ્રનન્યા લીધી હતી તેમજ નુક અનગારની પાસે શૈલક રાજ્યએ પ્રમજ્યા સ્વીકારી ૨જાની સાથે તેમના પાચસા પાથક પ્રમુખ મત્રી એ પણ ત્યા જ દીક્ષા લીધી, દીક્ષા લીધા ખાદ ચૈત્ર રાજાએ સામયિક वगेरे अगियार म गोनु गायन र्यु (अहिजित्ता बहूहिं चउत्थ जावविरह, तएण से सुग सेलयाम अगारस्स ताइपथगपामोक्साइ पच अणगारसयाई सीसत्ताए वियाई ) न पड़ी तेम ने ललना यतुलन वगेरेनी અનગારે ફીક અતગ ને પાયઃ પ્રમુખ પાચસે અન
उनी
તપુરના
शु
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शशिधर्मकथासूत्रे
त्तः खलु सशुरुः शुकनामानगार, अन्यदा कदाचित् = अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले शैलकपुरानगरात् सुभूमिभागा दुधानात् प्रतिनिष्क्रामति=प्रतिनिर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य = प्रति निर्गत्य वहिः = वाले जनपद विहार विहरति । ततस्तदनन्तर खलु सशुकोनगारोऽन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कमिश्रित् काले तेन पूर्वोक्तेन स्वशिष्येण अनगारसहस्रेण सार्धं सपरिटतः पूरानुपूर्व्या तीर्थकर गणधर परपरया चरन् ग्रामानुग्राम हिरन्यत्रैव पुण्डरीक = पुण्डरीकनाम्नाममिद्धः परतः यावत् तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पुण्डरीक पर्यंतमारुह्य पृथिवीशिलापट्टक प्रतिलेरय लिये पथक प्रमुख आदि ५०० सौ अनगारों को शिष्य रूप से वितरित कर दिया । (तरण से सुए अन्नया कयाइ सेलगपुराओ नयराओ सुभूमिभागाओ पडिनिक्खड़, पडिनिक्खमित्ता नहिया जणवयविहार विरह, ) इस के बाद किसी एक समय वे शुरू अनगार शैलक पुर नगर से और उस सुभूमिभाग नाम के उद्यान से निकले और निकल कर उन्हों ने वहा से बाहर जनपदों की ओर विहार कर दिया । (तएण से सुए अणगारे अन्नया कपाइ तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धि सपडिबुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामोणु गाम विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे ) ग्रामानुग्राम विहार करते २ वे किसी एक समय उस अपने शिष्य अनगार सहस्र के साथ तीर्थकर, गणधर परपरा के अनुसार चारित्र की आराधना करते हुए जहा पुडरीक नाम का प्रसिद्ध पर्वत था वहां आये वहां आकर उन्हों ने वहां के पृथिवी शीला पट्टक की प्रतिलेखना की प्रतिलेखना कर के फिर उन्हों ने उस
शारीने शिष्य ३ये साध्या (तएण से सुए अन्नया कयाइ सेलगपुराओ नयराओ सुभूमिभागाओ..पढिनिक्सम पडिनिक्स मित्ता बहिया जणवयविहार विहारइ ) ત્યાર ખાદ કોઈ એક વખતે શુક અનગર શૈલકપુરના સભૂમિભાગ ઉદ્યાનથી हार नीडीने त्याथी मारना मील नहोभा विहार ये ( तएण से सुए अणगारे अन्नया कयाइ तेण अणगारसहरसेण सद्वि सपडिवुडे पुन्नाणुपुव्वि चरमाणे गामाणु'म विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्वे ) शु परि ત્રાજક એક ગામની બીજે ગામ વિહાર કરતા કરતા કાઈ વખતે પોતાના એક હજાર અનગાર શિષ્યેાની સાથે તીર્થંકર, ગણાધીની પર પગને અનુ સરત ચારિત્રની આરાધના કરતા કરતા જવા પુડરીક નામે પ્રસિદ્ધ પર્વત હતા ત્યા ગયા પહેાચીને તેમણે ત્યા પૃથિવી શિલાપટ્ટકની પ્રતિલેખન કર્યાં પછી તેમણે તેના ઉપર પાતાના એક હજાર શિષ્યેની સાથે પાદપેાગમન
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अनगारधर्मामृतयर्पिणीटी० अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् सहस्रशिष्यैःसह पादपोपगमनमस्तारक कृतान् , ततः खलु स शुको पनि पाणि श्रावण्यपर्याय पालयित्वा केवलपरज्ञानदर्शने समुत्पाद्य सकल कर्मक्षये मति सिद्धः -मुक्ति प्राप्त इत्यर्थ ।। २८॥
मूलम्-तएर्ण तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहि अतेहि य पतेहि य तुच्छेहि यलूहेहि य अरसहि य विरसेहि ये सीएहिय उण्हेहि य कालातिकतेहि य पमाणाइक्कतेहि य णिच पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालयस्स सुहोचियस्त सरीरगसि वेयणा पाउव्भूया, उज्जला जाव दुरहिया सा कडुयदाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे यावि विहरइ, तएणं से सेलए तेणं रोयायकेण सुके जाए यावि होत्था, तएणं से सेलए अन्नया कयाइ पुव्वाणुपुवि चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे जाव विहरइ, परिसा निग्गया मडुओ वि निग्गओ सेलय अणगारंजाव वंदइ, नमसइ, वदित्ता नमस्सित्ता पज्जुवासइ, तएण से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुक भुकं जाव सव्वावाह सरोग पासइ, पासित्ता एव क्यासी-अह णं भते । तुभ अहापवत्तेहिं तिगिच्छएहि अहापवत्तेणं ओसहभेसज्जेण भत्तपाणेणं तिगिच्छ
आउटावेमि, तुम्भे ण भते मम जाणसालासु समोसरह फासुअ पर अपने सहस्र शिष्यों के साथ २ पादपोपगमन सथारा किया । इस तरह जन शुक अनगार ने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का परिपालन कर के अन्त समय में केवलज्ञान केवल दर्शन प्राप्तकर सफल कर्मो के क्षय होने पर मुक्ति को प्राप्तकर लिया। ।। सू०२८॥
સથારે કર્યો આ રીતે તે શુડ પરિવ્રાજકે ધણું વર્ષો સુધી શ્રમય પર્યાપન પરિપાલન કરીને છેવટે કેવળજ્ઞાન કેવળ દર્શન મેળવીને બધા કર્મો ત્યારે In ॥२ भुलित भणी ॥ सूत्र “२८" ॥
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साताधर्मकथासूत्र एसणिज्जं पीढफलगसेज्जासथारग ओगिणिहत्ताण विहरइ, तएणं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रन्नो एयमह तहत्ति पडिसुणेइ, तएणं से मडुए सेलय वंदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० २९ ॥
टीकार्थ---'तएण तस्स' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु तस्य शेलकस्य राजर्षे स्तैः अनगारधर्मानुसारेण माप्तैः । अतेहि ' अन्तैः बल्लचणकादिभिः, 'पतेहि , प्रान्तः पर्युपिते , 'तुन्छेहिय ' तुच्छै अस्पैश्च लूहेहिय' रुखैः अस्नि
__ 'तएण तस्स सेलगस्स' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण)इसके पाद (पयइ सुकुमालयस्स सुहोचियस्स) प्रकृति सुकुमार तथा सुखोपभोग के योग्य (तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स) उस शैलक राजामपि के (मरीरगसि ) शरीर में (तेहिं अतेहिं य पतेहिं य तुच्छे हिं य लूहे हिं अरसे हिं य विरसेहि य सीएहिं य, उण्हेहि य कालाइक्कते हि य पमाणाहक्कते हिं य, णिच्च पाणभोयणे हिं य) अनगार धर्म के अनुसार प्राप्त हुए अन्त प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, शीत, उष्ण, तथा कालातिकान्त (असमय मे) नित्य पान भोजन आहार करने से (वेयणा पाउन्भूया) वेदना प्रकट हुई। बल्ल चणक आदि का नाम अत हैं । पर्युपित (वासी) अन्न का नाम प्रान्त है। अल्प आहार का नाम तुच्छ है। स्निग्धता (घृतादि) रहित आहार का
(तएण तस्स सेलगस्स इत्यादि)
1-(तएण) त्या२ मा (पयइ सुकुमालयरस सुहोचियस्सशरीरनी प्रति सुकुमार तमन्द माराम सोगवा येश्य (तस्स सेलगस रायरिसिस्स) २४ ऋषि शै (सरीरगसि )ना शरीरमा ( तेहिं अतेहिय पतेहि य तुच्छेहि य लहेहि अरसेहिं य विरसे हिंय सीएहिं य उण्हेहिंय कालाइक तेहिय पमाणाई क तेहिंय, णिच्च पाणभोयणेहिंय ) मनगार धर्मभुमा थयेला अन्य, प्रात, तु२७, २०क्ष, स२म, विरस, शीत, Gog तेभर समय (सातिशत) भहमेशा पान, सन (भाडा२) उपाधी ( वेयणा पाउन्भूया) वहना થવા વાગી બલ ચણક (ચણા) વગેરે “અત” કહેવાય છે વાસી આહાર નુનામ “પથુષિત” છે થોડા આહારનું નામ તુચ્છ છે સ્નિગ્ધતા (ઘી સહિત) વગર આહાર રુક્ષ કહેવાય છે હિગ વગેરેના વઘાર વગરના આહારને
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मेनेगारधर्मामृतवपिणो टीका अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् ग्धैश्च, 'अरसेहिय' अरसे हिमादिव्यागार रहितैश्च, 'विरसेहिय' विरसै. पुराण त्वाद् विगतरसैश्च ' सीयेहिय' शीतैः शीतलैश्च ' उण्हेहिय ' उण्णश्च 'कालातिक्कतेहिय' कालातिक्रान्तै क्षुधापिपासा कालेष्वप्राप्तैश्च ‘पमाणाडक्कतेहिय' प्रमाणातिक्रान्तैश्च बुभुभापिपासाऽननुकूलैश्च=सुभुक्षापिपासा यत्प्रमाणा वर्तते, तामतिक्रान्तः तन्निनारणाऽसमर्थ स्वल्पलम्परित्यर्थः । नित्यपानभोजनश्च प्रतिदिवस माप्तैरनपानश्च नित्य प्रतिकूलपानभोजन कुतइति भाव । प्रकृतिसुकुमारकस्य स्वभावकोमलस्य, सुम्मोचितस्य मुखाहस्य, लेशतोऽपि क्लेशासहस्येत्यर्थः, शरीरे वेदना व्याधिः प्रादुर्भूता उत्पन्ना,सा वेदना कीदृशीत्याह-उज्जलान्दु खातिशयेन मलयाग्निवज्जाज्वल्यमाना यावत्-अत्र यावत्करणेन-विउला, पगाढा, इत्यनयोः नाम रूक्ष है । हिंग आदि के वधार से रहित हुए नीरस आहार का नाम अरस है। पुराने नीरस अन्न के बने हुए आहार का नाम विरस आहार है । यनाकर रखे हुए शीतल-ठडे-आहार का नाम शीत है । गरम २ का नाम उष्ण है । क्षुधा पिपासा के समय में नही प्राप्त हुए आहार का नाम कालातिक्रान्त है । अथवा क्षुधा पिपासा के अनुसार नहीं प्राप्त हुआ आहार भी कालातिक्रान्त कहा जाता है । जितनी भूख लगी हो,जितनी प्यास लगी हो उतने आहार पानी का नहीं मिलना थोडा सा मिलना इससे शरीर में अशक्ति आदि उत्पन्न हो जाती है । अनगार अवस्था मे साधु को अनुकूल आहार पानी नहीं मिलता है। अतः प्रतिकूल आ होर पानी के सेवन से शरीर मे विविध प्रकार की याधाएँ उपस्थित हो जाती है। ऐसा ही राजमपि शैलक अनगार के लिये हुआ। उनके शरीर અરસ કહે છે જૂના થઈ ગયેલા અનાજને આહાર બનાવવામા આવે તે “વિરસ નામે ઓળખાય છે બહુ વખત પહેલા બનાવીને મૂકી રાખવા ઠા થઈ ગયેલા આહારને “શીત' કહેવામા આવે છે એકદમ ગરમ આહારને ઉષ્ણક હે છે ભૂખ અને તરસના વખતે અહાર ન મળે તેને કાલાતિકાત કહેવાય છે અથવા ભૂખ અને તરસને ચગ્ય આહાર ન મળે તેને પણ કાલાતિકાત કહેવાય છે ભૂખ અને તરસના પ્રમાણમાં આહાર અને પાણી મળે નહિ થોડા પ્રમાણમાં મળે તે એનાથી શરીરમાં શિથિલતા આવી જાય છે અનગાર આખ્યામાં સાધુને અન ફળ આહાર પણ મળતું નથી એથી પ્રતિ કળ આહાર પણીના નેવનથી શરીર અનેક રીતે નબળું થઈ જાય છેરાજકષિ અનગરની હાલત પણ આવી જ
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माताधर्मकथासूत्र एसणिज्ज पीढफलगसेज्जासथारग ओगिणिहत्ताण विहरइ, तएणं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रन्नो एयमह तहत्ति पडिसुणेइ, तएणं से मडुए सेलयं वदइ नमसइ पदित्ता नमसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० २९ ॥
टीकार्थ--'तएण तस्स' इत्यादि। ततस्तदनन्तर खलु तस्य शेलकस्य राजर्षे स्तैः अनगारधर्मानुसारेग माप्तैः । अतेहि ' जन्तःबल्लचणकादिभि., 'पतेहि , पान्तः पर्युपित , 'तुच्छेडिय' तुच्छै अल्पैश्व 'लूहे हिय' रुक्षः अस्नि
'तएण तस्स सेलगस्स ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण)इसके बाद (पयइ सुकुमालयस्स सुहोचियस्स) प्रकृति सुकुमार तथा सुखोपभोग के योग्य (तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स) उस शैलक राजाषि के (मरीरगसि) शरीर में (तेहिं अतेहिं य पतेहिं य तुच्छे हिं य लहे हिं अरसे हिं य विरसेहि य सीएहिं य, उण्हेहिं य कालाइक्कते हिं य पमाणाहरकते हि य, णिच्च पाणभोयणे हिं य) अनगार धर्म के अनुसार प्राप्त हुए अन्त प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, शीत, उष्ण, तथा कालातिक्रान्त (असमय मे ) नित्य पान भोजन आहार करने से (वेयणा पाउन्भूया) वेदना प्रकट हुई । बल्ल चणक आदि का नाम अत हैं। पर्युषित (वासी) अन्न का नाम प्रान्त है। अल्प आहार का नाम तुच्छ है । स्निग्धता (घृतादि) रहित आहार का
(तएण तस्स सेलगरस इत्यादि)
सार्थ-(तएण) त्या२ मा (पयइ सुकुमालयस्स सुहोचियस्सो शरीरनी प्रति सुमार तेमाल आराम साग। येश्य (तस्स से लगस्स रायरिसिस्स) • *पि ५ ( सरीरंगसि ) ना शरीरमा (तेहिं अतेहिंय पतेहि य तुच्छेहिं व
लहेहि अरसेहिं य विरसे हिय सीएहिं य उण्हेहिय कालाइक्क तेहिय पमाणाई कतेहिंय, णिच्च पाणभोयणेहिंय ) सनसार थम भुसा था अन्य, मात, तु२७, १क्ष, २०२, विरस, शीत, BY तेभर सयभय (सातित) भा भेशा पान, मेन (मा२) ७२पाथी ( वेयणा पाउन्भूया) वहना થવા વાગી બલિ ચણક (ચણા) વગેરે “અત” કહેવાય છે વાસી આહાર નુનામ “પર્યુંષિત છે ચેડા આહારનું નામ તુચ્છ છે સ્નિગ્ધતા (ઘી હિત) વગર આહાર અક્ષ કહેવાય છે હિગ વગેરેના વઘાર વગરના આહારને
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अमगारधर्मामृतषिणी रीका अ० ५ शैलकरामचरितनिरूपणम् १३५ कस्मिंश्चित् काले पूर्वानुपूर्व्या चरन् यारत्-यत्रैव शेलकपुर नामनगर यौन सुभूमि भाग नामोद्यान तमोपागच्छति जागत्यच यावद् सयमेन तपसा स्वात्मान भावयन् विहरति । परिसन्निर्गता मण्डकोऽपि निर्गतः, यत्र शैलकोऽनगारस्तवा. गत्य शैलकमनगार यावद् चन्दते नमस्यवि, वदित्वा नत्वा स मण्डकः पर्युपास्ते सेवते स्म ।
ततः खलु स मण्डूको राजा शैलकम्यानगारस्य शरीर शुष्क रूक्ष यावत्-सव्यावाध-पीडित सरोग-रोगाकान्त पश्यति दृष्टा एवमनादीत-अह खलु भदन्त । खाने पीने की मचि जाती रही । (तएण से सेलए तेण रोगायकेण तुक्के जाए याचि होत्था तएण से सेलए अन्नया कयाइ पुव्वाणुणुब्धि चरमाणे जाव जेणे सुभूमिभागे जाव विहरइ । इससे वे शैलक अनगार उस रोग से-सामान्य ज्वरादि व्याधि से, आतग से-प्ररलतर मस्तक शूलादि शीघघातक व्याधि से-सूग्व गये-निल कुल दुबले पतले शरीर वाले हो गये । किसी एक समय पूर्वानुपूर्वी से विहार करते हुए ये जहां शैलक पुर नगर और उसमें भी जहा सुभूमि भाग नाम का उद्यान था वहां आये । तप और सयम से अपने आत्माको भावित करते हुए ये वहा ठहर गये । (परिसा निग्गया मडुओ वि निग्गओ, से लय अणगारे जाव वदह, नमसह, वदित्ता नमसित्ता, पज्जुवासह ) जनता वदना करने के लिये आई मंडूक भी आया। सबने शैलक राजऋषि को वदना की नमस्कार किया। वदना नमस्कार करके मडूक राजा ने उन की सेवा की। (तएण से मडुए राया सेलयस्स अणगा
भी थई गयो तो (तएण से सेल्ए वेण गेयाय पेण सुस्के जाए यावि होत्या तएण से सेलए अन्नया कयाइ पुव्वाणुपुब्धि परमाणे जाब जेणेव सुभूमि भागे जाप विहरइ) तथा शैत मना२ सामान्य थी मात मेरो સખત રોગથી સૂકાઈ ગયા સાવ દૂબળા થઈ ગયા કેઈ વખતે પૂર્વાનુ પૂર્વી થી વિહાર કરતા શૈલક અનગાર સલક પુર નગરના સુભૂમિભાગ ઊવાનમાં આવ્યા, અને તપ અને સયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા તેઓ त्या २४ाया (परिसा निग्गया मडुओ विनिग्गओ सेल्य अणगारे जाव बदइ, नमसइ वदित्ता, पज्जुवासइ) तम पहन ४२५। भाटे नागडानी परिपक्ष નગરની બહાર નીકળી ત્યાં પહોંચીને બધા નાગરિકોએ શૈલક રાજઋષિને વદન અને નમકાર કર્યા વદન અને નમસ્કાર કરીને મહૂક રાજાએ તેમની સેવા 5 / am - राहुए गया सेल्यस भणगारस्स सरीरय सुक्क भुक्क जाव
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माताधर्म कथासूत्र सग्रहः । विपुला-विस्तीर्णा आत्ममतिपदेशव्यापिनी, मागाटा प्रर्धमाना तीयतरा, अतएव-दुरध्यामा दुःसहा । वेदनायाः परिणाम प्रदर्शयति-' कडयदाइ' इत्यादि । ' कडयदाह पित्तज्जरपरिगयसरीरे, फण्डकदाहपित्तज्वरपरिगतशरीर:कण्डकेन-कण्हत्या, दाहेन हृदयकरचरणनयनज्यलनेन पित्तरेण च परिगत व्यात शरीर यस्य स तथा, चापि विहरती-मास्ते। ततः सल स शैलकस्तेन रोगा तरून रोगेण सामान्येन व्याधिना, आतङ्केन मालतरेण व्याधिना, च शुको जात थाप्यासीत् । ततः खलु स शैलक 'अन्नया फयाइ' अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् में जो वेदना उत्पन्न हुई वह ( उज्जला जाव दुररिया) यष्टुत अधिक दुखातिशय से वर्धिन थी अतः प्रलय कालीन अग्नि की तरह शरीर को जला रही थी। यहा यावत् शब्द से "विउला पगाढा " इन पदो का संग्रह हुआ है । आत्मा के प्रति प्रदेश में व्याप्त होने से वर वेदना विपुल थी तथा तीव्रतर थी बहुत अधिक दिन प्रतिदिन बढने से वह प्रगाढ थी। इसलिये दुर यासथी पड़ी तकलीफ के साथ वह सरन करने योग्य थी। इस वेदनाजन्य शरीर में क्या २ परिणाम हुआ इस घात को सूत्रकार (कडय दाइपित्तज्जरपरिगयसरीरे ) इन पदों द्वारा प्रकट करते हैं वे कहते हैं कि उन राजऋषि शलक अनगार का शरीर कडयन-खुजली-के दाहसे और पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। हृदय में, हाथों में, चरणो में और नेत्रों में उनके जलन होने लग गई। पित्तज्वर से पित्त में अधिकाधिक गर्मी आ गई- इस से लिया हुआ आहार उन्हें नहीं पचता और वमन द्वारा वह बाहिर निकल जाता या भनो शरीरमा (उज्जला जाव दरहिया) वन भूम या माडी હતી તેથી પ્રલયના અગ્નિની જેમ તેમના શરીરમાં બળતરા થતી હતી અહીં
यावत्' शाह थी (विमला पगाढा) मा पहानी सड था'छे आमा ના બધા પ્રદેશમાં વેદના વ્યાપ્ત થઈ હતી તેથી તે “તીવ્રતર” હતી દિવસે દિવસે વેદના વધતી જ જતી હતી તેથી તે “પ્રગાઢ હતી એટલા માટે જ વેદના દુરધ્યાસ એટલે કે બહુ કદથી સહ્ય હતી વેદનાને લીધે રાજ ષિના शरीरनी खासत ते सूत्र १२ डी २५४ ४२ता ४ छ (क डुय दाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे) राषि मना२नु शरी२ यन-१२ જવાની પીડા અને પિત્તના જવાથી પ્રાપ્ત થઈ ગયું તેમને છાતીમાં હાથમાં, પગમાં અને આખામાં બળતરા થવા માંડી પિત્તજવર થી પિત્તમાં ગરમીનું પ્રમાણ વધી જવાથી કરેલા આહારનું પાચન થતું નહિ અને તે ઊલટી થઈને બહાર નીકળી જતે હેતે ખાવાપીવા તરફ તેમને સાવ અણુ
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अनगारधर्मामृतवर्षिण टीका अ० ५ शेलकराज चरित्र निरूपणम्
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स्वीकृरूतेस्म । ततस्तदनन्तर स मण्डूको राना शैलक वन्दते नमस्यति, वदिला नत्वा च यस्यादिश प्रादुर्भूतः आगत., तामेव दिन प्रतिगत स्वप्रासाद समाप्तः ॥ २९ ॥
मूलम् - तएण से सेलए कल्ल जाव जलते सभंडमत्तोवगरणमायाए पन्थयपामोक्खेहि पचहि अणगारसहि सद्धि सेलगपुरमणुपविसइ अणु पविसित्ता जेणेव मडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फासुय पीढ जाव विहरइ । तएण से मंडुए विच्छिए सदावेइ, सद्दावित्ता एव वयासीतुभेण देवाणुपिया सेलयस्स फासुएसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं आउद्देह, तरणं ते तेगिच्छया मडुएणं रन्ना एव बुत्ता हट्ठट्ठा समाणा सेलयस्स अहापवतेहि ओसहभेसज्जभत्तपाणेहि तेगिच्छ आउट्ठेति, मज्जपाणय च से उवदिसति तएण तस्स सेलयस्स अहापवतेहि जाब मज्जमाणेण रोगाय के उवसंते होत्था हट्टे मल्लसरीरे जाते ववगयरोगायके, तएण से सेलए तंसि रोगास उवसंतमि समाणसि तसि विपुलसि असण० पाण खाइमसाइम, सज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झो
कह कर उस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया । (तएण से मडुए सेलय वदह नमसइ वदित्ता नमसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूत तामेव दिसि पडिगए) इसके बाद वे मडूक राजा शैलक अनगार को वदना नमस्कार कर जिस दिशा से प्रकट हुए थे- आये थे उसी दिशा तरफ चले गये । अर्थात् वा मे अपने राज महल में वापिस आ गये || सूत्र २९ ॥
વિનતિ સાભળીને સૈલક અનગારે તેમની વિનતિને “ તહુત્તિ” આમ કહીને स्वीजरी सीधी (तएण से मडुत सेलय वदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता जामेव दिसिं पारब्भूए तामेत्र दिपिडिगए) त्यार माह भई शब्द शैव अनगारने વદન અને નમસ્કાર કરીને નથી આવ્યા હતા ત્યા જતા ચ્હા એટલે કે તે પેાતાના રાજમવનમા ગયા !સૂત્ર ૨૯
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५३६ युष्माक यथामत्तैः यथायोग्य रोगोपशमनममयः चिकित्सक वैयः यथाहतेन न्यथायोग्येन प्रासुकेन औपधभैषज्येन औषधम् -एकद्रव्यनिर्मित, भैपज्य-द्रव्य समुदायनिर्मित तेन, भक्तपानेन निराधागपानेन, चिरित्सामार्तयामि कारयामि । हे भदन्त ! यूय खलु मम यानशालामु रयादिशाला समवसरत-आगच्छत तर मुखेन तिष्ठता प्रामुकमेपणीय पीठफटकशग्यासस्तारकमवगृह्य विहरति । ततः सलु स शैलकोऽनगारो मण्डूकस्य राज्ञ-एतमथै तथेति मतिशगोति रस्स सरीरय सुक्क भुक्क जाव सन्चावाह सरोग पासड) इस के पाद ज्यों ही महक राजा ने शैलक राजमपि के शरीर को शुष्क क्ष यावत् पीडित एव रोगाकान्त देखा तो (पासित्ता एव वयामी) देख कर उन से इस प्रकार कहा-(अहं ण भते ! तुम्भ अहा पवत्तेरितिगि च्छाहिं अहापवत्तण ओसभेसज्जेण भत्तपाणेण तिगिच्छ आउहावेमि) हे भदत ! मैं आपकी यथा योग्य-रोगो पशमन करने में समर्थ-वैद्यों द्वारा-उचित प्रामुक (निर्दोप) औषध और भैषज्य से तथा निरवच अन्नपान से चिकित्सा करवाना चाहता है-इसलिये (तुन्भे णं भते । मम जाणसालासु समोसरह, फासु एसणिज्ज पीठफलगसेज्जासथारग
ओगिण्डित्तो गं विहरइ) आप मेरी रथशाला में पधारे और वहा विराजे सुख शाता से वहा ठहरे, प्रास्लुक एपणीय, पीठफलक शग्या सस्तारक को मुनि के कल्पानुसार याचित कर टेले । (तएण से सेलए अणगारे म यस्स रपणो ण्यम तह त्ति पडिसुणे ) इस प्रकार मडूक राजा के प्रार्थना करने पर उन शैलक अनगार ने उसकी " तरत्ति"ऐसा सवाव ह सरोग पासइ) त्या२ मा मडू२०१, बिना शरने शुण ३६ याक्तू पाहत तम तयुत (पासित्ता ५५ क्यासी)नधन तभने । प्रभारी यु-( अह ण भवे ! तुब्भ अहापवत्तेहि तिगिच्छपहि अहापवत्ते ण ओसह सज्ज ण भत्तपाणे त तिगिच्छ आउढावेमि) मत મારી ઈચ્છા છે કે હું રાગોને મટાડનાર એગ્ય વરની ઉચિત પ્રાસુક ઔષધ અને ભ્રષદ્વારા તેમજ નિરવદ્ય અન્નપાન થી તમારી ચિકિત્સા ( ઈલાજ) ३२१ मेटसा भाट (तुब्भेण भते ! मम जाणसालासु समोसरह फासुअ एपणिज्ज पीढफलासेज्जासथारग ओगिमिहत्ताण विहरइ) , तमे सभार २५ શાળામાં પધારે અને સુખ શાંતિ પૂવક ના રહે મુનિ જનચિત પ્રાસુક मेषीय,
पासच्या सस्तार त्यायो भने (तएण सेलए अग गारे मडुयस्मरणो एयमठ्ठ वह त्ति पउिसुणेइ) म २२४ी 24। प्रभारी
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका भ० ५ शैलकराजमषिचरितनिरूपणम् १३९ राजा चिकित्सकान् वैद्यान् शब्दयनि आइयति । शब्दयित्वा-आहूय, एव -वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीस्-यूय खल देनानुप्रियाः । शैलकस्य राजः 'फासु एसणिज्जेण' प्रासुकैपणीयेन यावत् औपरपजेन ' तेगिन्छ' चिकित्सा रोगनिवारणोपायम् आवर्तयत कुरुत । ततस्तदन्तर चिकित्सकाः चैधा मण्डुकेन विमुक्ताः हष्टतुष्टा:=प्रमुदिताः मतः शैल कस्य यथापवृत्तैः साधुकल्प्यैः प्रासुकैपणीयरित्यर्थः, औपधभैपज्यभक्तपानश्चिकित्सा व्याधिप्रतीकारम्. पावर्तयति करोति ' मज्जपाणय च, मद्यपानकच-मद्यस्य, निद्राकारकद्रव्यविशेपस्य पान च 'से' तस्य-शैलकस्य उपदिशन्ति । कर आज्ञा लेकर ठहर गये । (तएणं से मडचिगिच्छए सद्दावेद) इसके पाद मडक राजा ने वैद्योंको बुलाया (सद्दावित्ता एव क्यासी) घुलाकर उनसे ऐसा कहा (तुम्भेण देवाणुप्पिया । सेनयस्स फासुएसणिज्जेण जाव चिगिच्छ आउदृहे) हे देवानुप्रियो | तुम लोग शैलक राज ऋपि अनगार की प्रासुक एपणीय औषध भेपज से चिकित्सा करो । (तएण ते तेगिच्छया मटुराण रन्ना एवं बुत्ता हट्ठ तुट्ठा समाणा सेलयस्स अहापवत्तेहिंओसहभेसज्ज भत्तपाणेहिं चिगिच्छ ओउट्टे ति ) इस प्रकार मडूक राजा द्वारा कहे गये उन वैद्यो ने हर्प एव सतोप से युक्त होकर उन शैलक राजऋषि की यथा प्रवृत्त निर्दीप औपध भेपजों से तथा भक्त पानो से चिकित्सा करना प्रारभ कर दिया। (मज्ज पाणयच से उव दिसति ) और निद्रा कारक द्रव्य विशेप का पीना उन्हें बतला दिया। यहां यह जो मद्य शब्द प्रयुक्त हुआ है वह मदिरा अर्थ का वाचक नही हैं। किन्तु निद्रा कारक पेयद्रव्य विशेष का वाचक है । क्यों कि साधु मेजवान तसा त्या सजाया (वएण से मडुए चिगिच्छए सद्दावेद) त्यार माह भड लगे धोने मासाव्या (सदारित्ता एव वयासी) मालावीन तमन मा प्रमाणे यु (तु भेण देवाणुपिया ! सेलयस्स फासुएसणिज्जे ण जाव वेगिन्छ आउटेह ) देवानुप्रियो ! तमे शas सपि मनमानी प्रासुर मेषीय मोषध मन लेप यी विस्सिा ४२। (तएण ते तेगिच्छया मडुएण रना एव वुत्ता हट्ठा तुट्ठा, समाणा सेलयरस अहापवहिं ओसहमेसज्जमनपाणेहि चिगिच्छ आउड़े ति) मा शत मgs रानी पात सामी ने लत तर સંતુષ્ટ થયેલા વૈવો શૈલક રાજઋવિની ઉચિત ઔધ અને ભેષજેથી તેમજ मनानाथी शिरिसा (Ual ) ४२२१ २ (मनपाणयच से अदिसति) અને નિદ્રાવશ થઈ શકાય તેવા પદાર્થ વિશેષને પીવાની વિધિ તેમને સમनवी मी ( मज्ज) भ५ श०० माया छ त महि। (२) ना भय
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वाताधमकथा वयन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी एवं पासत्थे, २ पासस्थविहारी कुसीले २ कुसीलविहारी पमत्ते ससत्ते उउवद्धपीढफलगसज्जा सथरए पमत्ते यावि विहरइ । नो सचाएइ फासुएसणिज्ज पीढ पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता वहिया जणवयविहार अन्भुज्जएण पयत्तेण, पग्गहिएण विहीरत्तए। सू०३०॥
टीका-'त एण से इत्यादि-ततस्तदनन्तर खलु स शैलक कल्ये-प्रभाते यावत् तेजसा ज्वलति-सूर्ये उदिते सतीत्यर्थः 'सभडमत्तोरगरणमायाए' स भाण्डामत्रो पकरणमादाय भाण्डामत्राणि अशनपानादिपात्रादि तैः सहोपकरण रजोहरणादिकम् आदाय गृहीत्वा, पान्थकामुखैः पञ्चभिरनगारशतैः साध शैल्यपुरमनुमविशति, अनुपविश्य यत्रैव मण्डूकस्य यानशाला वर्तते तोवोपागच्छति, उपागत्य पामुक पीठफलकशग्या सस्तारक गृहीत्वा यावद् विहरति । ततस्तदनन्तर खलु स मण्डूको
'तएण से मेलए' इत्यादि। टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से सेलए) वे राजऋषिशैलक अनगार (कल्ल जाव जलते सभडमत्तोवगरणमायाए पथय पामोक्खेहिं पच हिं अणगारसएहिं सद्धिं सेल्गपुरमणुपविसइ) प्रातः काल जब सूर्य उदित होकर तेज से चमक ने लगा था " सभडमत्तोवगरणमायाए" भाण्डोपकरणको लेकर पायक प्रमुख पाच सौ अनगारों के साथ शैलकपुर नगर में प्रविष्ट हुए । (अणुपविसित्ता जेणेव मडुयस्स जाणसालातेणेव उवागच्छइ ) प्रविष्ट हो कर जहा मडूक राजा की यान शाला थी वहा पहुँचे-(उवागच्छित्ता-फाय पीढ़ जाव विहरइ ) पहुँच कर वहां से मुनि के कल्पानुसार एषणीय पीठ फलक शय्या सस्तारक की याचना
(तएण सेलए) त्याहि ॥
साथ-(तएण ) त्या२ माई ( सेलए ) शैल अनार ( कल्ल जाव जलते सभडमत्तोवगरणमायाए पथयपामोक्खेहिं सद्धि सेलगपुरमणुपविसइ) सवारे सूय 6.4 पायो त्यारे (सभडमत्तोवगरणमायाए) ला५४२६४ લઈને પાથક પ્રમુખ પાચ અનગારની સાથે લિક પુર નગરમાં પ્રવિણ થયા ( अणुपविसित्ता तेणेव मडुयस जाणसाला तेणेव स्वागच्छइ) प्रवेशान तया ज्या भडू शकतनी २था ती न पडाय। ( उवागच्छित्ता फासुय पाढ जाव विहर ) त्या पायीन शैव मनगारे मुनि ४८पानुसार गोषणीय, पाठ ફળક શય્યા સસ્તારકની યાચના કરી અને તે બધી વસ્તુઓ તેમજ આજ્ઞા
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अगर टीका अ० ५ शैलक राजकपिचरितनिरूपणम्
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राजा चिकित्सकान् वैद्यान् शब्दयनि आह्वयति । शब्दयित्वा =आहूय एव ==वक्ष्यमाणप्रकारेण अत्रादीत्-यूय खल देनानुप्रियाः । शैलकस्य राजर्षेः ' फालु एस णिज्जेग ' प्रासुकैपणीयेन यावत् औपवभेपजेन ' तेगिच्छ' चिकित्सा रोगनिवारणोपायम् आवर्तयत कुरुत । ततस्तद्ान्तर चिकित्सकाः वैद्या मण्डुकेन रन्जिवमुक्ताः दृष्टतुष्टाः=प्रमुदिताः सन्तः शैलकस्य यथामवृत्तः साधुकल्य्यैः प्रासुकैपणीयैरित्यर्थः, औषधभैषज्यभक्तपानैश्चिकित्सा=व्याधिप्रतीकारम् आवर्तयति
करोति 'मज्जपाणय च, मद्यपानकच = मद्यस्य, निद्राकारकद्रव्यविशेषस्य पान च' से ' तस्य = शैलकस्य उपदिशन्ति ।
कर आज्ञा लेकर ठहर गये। (तएणं से मडुए चिच्छिए सदावेइ) इसके बाद मडुक राजा ने वैद्योंको बुलाया (सद्दावित्ता एव वघासी ) बुलाकर उनसे ऐसा कहा (तुभे पण देवाणुप्पिया । सेन्नयस्स फाप्लुएसणिज्जेण जाव चिच्छि आउट्टे ) हे देवानुप्रियो । तुम लोग शैलक राज ऋषि अनगार की प्राक एपणीय औषध भेषज से चिकित्सा करो। (तएण ते गच्छया मण्ण रन्ना एव वृत्ता हट्ठ तुट्टा समाणा सेलयस्स अहापवत्ते हिओसहभे सज्जभत्तपाणेहिं चिच्छि आउट्टे ति ) इस प्रकार मडूक राजा द्वारा कहे गये उन वैद्यो ने हर्ष एव सतोप से युक्त होकर उन शैलक राजऋषि की यथा प्रवृत्त निर्दोष औषध भेषजों से तथा भक्त पानो से चिकित्सा करना प्रारंभ कर दिया। (मज्ज पाणयच से उब दिसत ) और निद्रा कारक द्रव्य विशेष का पीना उन्हे बतला दिया । यहा यह जो मद्य शब्द प्रयुक्त हुआ है वह मदिरा अर्थ का वाचक नहीं हैं । किन्तु निद्रा कारक पेयद्रव्य विशेष का वाचक है। क्यों कि साधु
भेजवीने तेथे! त्या रोजया (तएण से मडुए चिमिच्छए सद्द वेइ ) त्यार माह भडू रान्नमे वेधोने मीसाव्या ( सद्दावित्ता एव वयासी ) गोसावीने तेभने याप्रमाणे ज्छु ( तुम्मेण देवाणुप्पिया ! सेलयस्स फासुएसणिज्जे न जाव तेगिच्छ आउट्टेह ) डे ठेवानुप्रियो ! तमे रोस राष्ट्रऋषि नगारनी प्रसुड भेषीय भौषध भने लेषण थी विजित्सा । (तरण ते तेगिच्छया मडुएण ना एत्ता हट्ठा तुट्ठा, समाणा सेलयस्स अहापवत्तहिं ओसहमे सज्जभत्ता ि चिगिच्छ आउट्टे ति ) मा रीते मडुड राजनी बात सालजी ने अर्पित ते
સતુષ્ટ થયેલા વૈદ્યો શૈલક રાજઋષિની ઉચિત ઔષધ અને લેષોથી તેમજ लघुनपानीथी चिन्त्सिा ( झा ) नासाग्या ( मज्नपाणयच से उबदिंसति ) અને નિદ્રાવશ થઈ શકાય તેવા પદ્મા વિશેષને પીવાની વિધિ તેમને મમ નવી અહીં ( ૪૬૬ ) મદ્ય શ॰ આન્યા છે તે દિરા ( દારુ) ના અ
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धान
इह मद्यशब्दो न मदिरार्थकः किंतु निद्राजनन-पानशेषार्थक | सानो चिकित्साया मापणीयोपधानामेव प्रस्तुतत्वादिद मदिरायाः प्रसङ्गाभावात् साधो पानानधिकारित्वात् आगमेदि साधोर्मयपानप्रतिषेधात् मद्यपानस्य चारित्र विश्वसत्याच साधोः सुरापानेन साधुत्वमङ्गापतेथ, यथा दशनैकालिकमूसुर वा मेरगनानि अन्ना मज्जग रस |
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ससक्ख न पिवे भिक्यू जम सारखमप्यणो ॥ अ०५, उ०२, गा०३६ ॥ डूई सुडिया तस्स माया मोस च भिगो ।
आजसोय अनिव्वाण सयय च असाहुया || अ५ ३०२, गा०३८ जनों की चिकित्सा में प्रासुक एपणीय औषधियों का ही विधान है और यही कारण या चल रहा है । यहा मदिरा का तो कोई प्रकरण ही नही चल रहा है । दूसरे साधुओं को मद्यपान का अधिकार ही नहीं है । वे उसके शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार अनधिकारी हैं । आगम में साधुओ को मद्यपान करने का निषेध किया गया है। कारण वह चारित्र का विश्वसक होता है । जहा चारित्र नहीं वहां साधुता कैसी सुरापान से साधुता का भाग होता है यह बात आगम में स्पष्ट हैजैसे देश वैकालिक सूत्र में "सुर वा मेरग वावि अन्न वा मज्जग रस, ससक्ख न पिवे भिक्खू जस सारक्खमप्पणी" अ०५ उ०२ गा ३६ चड्डूई सुडिया तस्स माया मोस च भिक्खुणो अजसोय अनिव्वा
ને બતાવવા માટે નહિ પણ નિદ્રાવળ થવાય તેવા પેટા પદાર્થ વિશેષ તૈ સૂચવવા માટે પ્રયુક્ત થયેા છે કેમકે-સાધુએની ચિકિત્સામા પ્રાસુક એષણીય ઔષધીએજ ગ્રાહ્ય સમજાય છે અહી પ્રકરણ પણ ઔષધીઓનુ જ ચાલી રહ્યુ છે મદિરા વિષે ની તે અહી કઈ વાત જ નથી ખીજી વાત અ પણ છે કે સાધુઓને મદ્યપાન ના અધિકાર પણ નથી, શાસ્રીય વિધિવિધાનની દૃષ્ટિએ તેઆ મદ્યપાનની ખાખતમા અનધિકારી ગણાય છે આ ગમે તે સાધુઓને મદ્યપાન કરવાની મના કહી છે કેમકે મદ્યપાનથી ચારિત્ર ન આય છે. જરા ચારિત્ર નથી ત્યા સાધુતાની કલ્પના કરવીજ ર છે દારૂ પીવાથી સાધુતા નારા પામે છે આ વાત આગમમા સ્પષ્ટ રીતે સમજાવવામાં આવી છે દા ત દશ વૈકલ્પિક સૂત્ર મા સ્પષ્ટ પણે કહેવામા આવ્યુ छे े- (सुरवा मेरगना वात्रि अन वा मजगरस, ससस्य न पिवे भक्खू जस सारक्स मप्पणी ) अ प उ १, गा वड्डूई सुडिया तस्स माया मोसच
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अनवार तर्पिगी टीका अ. ५ शेलकराजमपि परितनिरूपणम् १४१
'भिक्ख' भिक्षुः 'अप्पणो 'जात्मन. स्वस्य, 'जस' यश' सयम 'सार क्ख' सरक्षन 'सुर' सुरा मदिराना मेरग ' मेरक सरकानामधेय मद्य ' वारि' वाऽपि 'अन्न वा' अन्यद्वा अन्यमपिमदिवजात 'मज्जग' मायक मदजनक रम 'ससक्स ससाक्षि 'नपि न पिवेत् साक्षिमि कैरल्यादिभिः सहेति ससाक्षि, केवल्यादिक साक्षीकृत्येत्यर्थ । एकान्तेऽपि न पिवेदिति भावः । ३६ ॥
'तस्स ' तस्य मुरापायिनः 'भिक्खुणो' भिक्षोः साधोः 'सयय ' सतत 'सुण्डिया' मद्यपानविपयाऽऽसक्ति', च पुनः माया-कपट ‘मोस' मृपा असत्यभापण, च पुन 'अजसो ' अयशः अपरीतिः असयमश्च 'अनिव्वाण' अनिर्वाणम्-अनुपशान्ति , च पुनः ' असाहुया' असाधुता साधु पदानहत्व वर्धते । सर्वानर्थमूल मद्यपानमिति भावः ॥ ३८ ॥
अनयोविस्तृतव्याख्या दशकालिकमूत्रस्य मत्कृताऽऽचारमणिमज्ञपातोऽच गन्तव्या ।
वैद्यकेऽपि-बुद्धिभ्रशकरत्वान्मद्य प्रतिपिद्धमितियो यते । 'शालिग्रामनिघट, ण समय च असाहुपा" अ० ५ उ०२ गाथा ३८ इन दो गाथाओ द्वारा यह कहा गया है कि जो साधु अपने सयम रूप यश की रक्षा करना चाहता है वह मदिरा मेरक-सरका तथा और भी जो मादक द्रव्य उनका सेवन न करे । इस के सेवन करने से सेवन करने वाले में मद्यपान विषयक आमक्ति बढती है, कपट असत्य भाषण असमभाव की वृद्धी होती है और परिणामो में शान्ति नही रहती है । असाधुता जगती है-चढती है । मद्यपान समस्त अनर्थो का मूल कारण है। इन दोनो गाथाओं की विस्तृत व्याख्या मैंने दश वैकालि सत्र के आचार मणि मजूपा में की है। वहा से जान लेनी चाहिये । वैद्यक ग्रन्थ जो शालिग्राम निघटु है उस में भी बुद्धि को ध्वस करने वाली होने के भिक्खुणो अजसोय अनिव्वा ण समय च असाहुया ) 4 ५६ २, या 3८ આ બે ગાથાઓ વડે આ વાત આપષ્ટ કરવામાં આવી છે કે જે સાધઓ પિતાને સ યમ રૂપ યરાને રક્ષવા ચાહે છે, તે મદિરા (દારૂ) મેર (સરકો) અને બીજા પણ કેટલાક મ દક પદાર્થો છે તેમનું સેવન કરે નહિ એમના સેવનથી સેવન કરનારમાં મદ્યપાન વિશેની આસક્તિ વધે છે કપટ અસત્ય વચના અને અસ યમ જેવા ભાવોની પણ વૃદ્ધિ થાય છે, અને છેવટે એનાથી જીવનમાં પ્રતિભ ગ થાય છે અસાધુતા (દુષ્ટતા ) વધે છે ખરેખર મવપાન જગતના બધા અનર્થોનું મૂળ કારણે છે ઉક્ત ને ગયાઓની સવિસ્તર વ્યાખ્યા “દકાલિપા મૂત્રની આચાર મણિ મજૂષામા આવી છે જિના
* જાણી લેવું જોઈએ “શાલિગ્રામ નિટુ નામે વૈક ગ થમા
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माताधर्मकथा कथ तर्हि सम्यग्दर्शनादिरत्ननयसरक्षमस्य साधोधिकित्साया मधपानाधिका र: स्यात् । ____ आचाराङ्ग सूत्रेऽपि (श्रु०२, उ०२) मद्यपानस्य सल्पनापि साधुः प्रायत्रि तभागी भवतीति प्रतियोधितम् उक्त चान्यनापि यथा
अज्ञानाद् वारुणी पीत्वा सस्कारेणैव शुध्यति । मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्तिकमिति स्थितिः ॥ मनु०अ०११-श्लो०१४६ ।
मदिरामज्ञात्वा यदि पिवेत् तर्हि पुनरुपनयनसंस्कारेणेव शुन्यति, नान्यथेति भाव । यदि मदिरा ज्ञाता पिवेत् तर्हि प्राणान्तकरणेनर शुध्यति नान्यति स्थितिधर्मस्य मर्यादाऽस्तीत्यर्थः । कारण मद्यपान निपिद्ध किया है । अत. विचार ने जैसी बात है कि साधु जो तपसजम का सरक्षक होता है वह अपनी चिकित्सा कराने में मद्यपान का अधिकारी कैसे हो सकता है। आचाराग सूत्र में भी (श्रु० २ उ०२) मद्यपान करने को सकल्प भी साधुओ को त्याग देना चाहिये । यदि वह ऐसा करता है तो उसे प्रायश्चित्त का भोगी पनना पड़ता है। अन्य सिद्धान्त कारों ने भी " अज्ञानात् वारूणी पीत्वा सस्कारेणैव शुद्धयति, मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्तिक मितिस्थितिः । मनु स्मृति० अ० ११ श्लोक १४६, इस श्लोक द्वारा विपय समझाया है कि यदि कोइ अज्ञान भाव से मदिरा को पी लेना है तो वह पुन. उपनयन सस्कार से ही शुद्ध हो सकता है अन्यथा नहीं। यदि वह जानबूझ कर मदिरा का सेवन करता है तो वह अपने प्राण अपेण कर ही शुद्ध हो
પણ મદિરાને બુદ્ધિને નષ્ટ કરનારી હેવા બદલ તેને વિષેધ સૂચચે છે એટલે આવી નાની સરખી વાતે દરેક વ્યક્તિ સમજી શકે છે તે પછી રત્નત્રયના સ રક્ષક સાધુજને પિતાની ચિકિકામાં પણ મદિરા પન કેવી રીતે કરી શકે છે? તેઓ આવુ કરે તેમને તેનું પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું પડે છે બીજા पण शास। महिना निवेध ४२ता छ ( अज्ञानात् , वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैर शुद्धयति । मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणातिकमिति स्थिति ॥ मनुस्मृति अध्याय ११ श्लोक-१४६ । ) मा १९ हवामा मयु छ / અજાણમાં પણ મદિરાનુ સેવન કરી જાય તે ય પવીત (જનેઈ) સકારથી લે ફરી શુદ્ધ થાય છે અને જે તે જેણી બૂઝને મંદિરનું સેવન કરે તે પિતાના પ્રાણને અર્પણ કરીને એટલે કે મૃત્યુને ભેટીને જ તે શુદ્ધ થઈ શકે છે, બીજા કોઈપણ ઉપાયથી તેની શુદ્ધિ અસભવિત છે ધર્મશાસ્ત્રનું એજ વિધાન
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भतगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराज पिचरितनिरूपणम्
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अन्य पूर्वापरलपाटसमालोचनतोऽप्यत्र मद्यशब्दस्य मदिराधस्त्व न सिध्यति तथाहि यथाप्रवृत्तचिकित्सनै र्यथामटत्तेनौषधभैषज्येन भक्तपानेन चिवित्सामावर्तयामीति स्वीकृत्य मण्डवेन शैल कानगार इत्थ मार्थितः यूय खलु मासुरमेदणीय फीटपलकादिकमवगृह्य विहरतेति, शैल कानगारस्तथेति प्रतिश्रुत्य मण्डूकस्य यानशालाया तथैव विहरतिरम ततोमडकेन चिकित्सका आदिष्टा - मासुकेपणीयेन यावत चिकित्सामावर्तयतेति ततश्चिक्रिसका मण्डकस्याज्ञानुसारेण मासुकै पणीयैरेवोपधादिभिचिकित्सा कुर्वत साधोरक्ल्प्य प्रवचननिषिद्ध माहवेनाप्यना दिष्ट तदाज्ञाविरुद्ध मत्र पाययितुं कथ मवृत्ताः स्युः ! कथमपि न ।
सकता है अन्यथा नहीं । यही धर्म की मर्यादा है। यहां पर के पूर्वा पर के मूल पाठ के समालोचन से भी मद्यशब्द में मदिरा अर्थ सिद्ध नही होता है । जब महूक राजा ने शैलक राजऋषि के समक्ष यह प्रार्थ ना की कि मैं 'यथा प्रवृत्तेन औषध भैषज्येन भक्तपानेन चिकित्सा आवतयामि' रोगोपशमन करने में समर्थ वैद्यों के द्वारा यथा योग्य निर्दोष प्रासुक औषध भैषज्य से आपकी चिकित्सा वराऊँगा आप मेरी यान शाला में प्रासुक एपणीय पीठ फलक आदि की याचना करके वहां रहें तब इस महूक राजा की प्रार्थना को सुनकर वे शैलक अनगार ' तथेनि ' कहकर उसे स्वीकार कर के वहा उनकी यानशाला में आये । इनके आते ही महक ने वैद्यों को बुलाकर यह आदेश दिया कि आप लोग प्राक एणीय आदि औषध भेषज से इनकी चिकित्सा करें। तथ उन वैद्यों ने भडूक की आज्ञानुसार प्रासुक एपणीय औषध आदि से उनकी चिकित्सा करने लगे । फिर सोचने की घात है कि जब साधु
છે અહીં પૂર્વાપરના મૂળપાઠથી પણ મદ્યશબ્દથી મંદિશ વિષેને અ સિદ્ધ થતા નથી. જેમકે મડૂક રાજાએ કૌલક રાજ ઋષિની સામે વિનતી કરતા
- ( ययाप्रवृत्तकै चिकित्सकैं यथाप्रवृत्तेन औषधभैषज्येन भक्तपातेन चिकित्सा आवर्तयामि ) रोगोने મટાડનારા સમથ વૈઘોઢારા હુ યથાચિત પ્રાચુક ઔષધ ભૈષજ્યથી તમારી ચિકિત્સા (ઇલાજ) ક઼ગવીશ મારી થગાળામા તમે પ્રાસુ એષણીય પીઠ લક વગેરેની યાચના કરીને ત્યા રીકાઓ ત્યારે મહૂક રાજાની વિન તીને સ્વીકારતા ‘ તથતિ' (મારૂ) કહીને તેઓ તેમની સ્થાળામા આવ્યા રૌલક અનારની ચિકિત્સા માટે મહૂકે વૈકોને ખેલાવ્યા અને ખેલા વીને એમ આજ્ઞા કરી કે તમે પ્રાસુ એવણીય વગેરે ભૈષજયા એમની ચિકિત્સા નારુકા વૈદ્યોપણ મહૂક રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણેજ પ્રાસુ- એષણીય રેથી તેમની ચિકિત્સા ( ઈલાજ ) કરવા લાગ્યા એની સાથે સાથે
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हाताधर्मकथा कथ तहिं सम्यग्दर्शनादिरत्ननयसरक्षास्य साधोत्रिफित्साया मद्यपानाधिका र: स्यात् ।
आचांराग सूत्रेऽपि (श्रु०२, उ०२) मद्यपानस्य सरस्पेनापि साधु मायधि तभागी भवतीति प्रतियोधितम् उक्त चान्यनापि यथा--
अज्ञानाद् वारुणी पीत्वा सस्कारेणैव शुध्यति । मतिपूर्वमनिर्देश्य माणान्तिकमिति स्थिति. ॥ मनु०अ०११-श्लो०१४६ ।
मदिरामज्ञात्वा यदि पिवेत् तर्हि पुनरुपनयनसंस्कारेणेव शुष्यति, नान्यथेति भाव । यदि मदिरा ज्ञाता पिवेत् तर्हि प्राणान्तकरणेनैव शुध्यति नान्यति स्थितिधर्मस्य मर्यादाऽस्तीत्यर्थः । कारण मद्यपान निपिद्ध किया है। अतः विचार ने जैसी बात है कि साधु जो तपसजम का सरक्षक होता है वह अपनी चिकित्सा कराने में मद्यपान का अधिकारी कैसे हो सकता है। आचाराङ्ग सूत्र में भी (श्रु० २ उ०२) मद्यपान करने को सकल्प भी साधुओ को त्याग देना चाहिये । यदि वह ऐसा करता है तो उसे प्रायश्चित्त का भोगी बनना पड़ता है। अन्य सिद्धान्त कारों ने भी " अज्ञानात् वारूगी पीत्वा सस्कारेणैव शुद्वयति, मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्तिक मितिस्थितिः । मनु स्मृति० अ० ११ श्लोक १४६, इस श्लोक द्वारा विषय समझाया है कि यदि कोइ अज्ञान भाव से मदिरा को पी लेना है तो वह पुन. उपनयन सस्कार से ही शुद्ध हो सकता है अन्यया नहीं। यदि वह जानबूझ कर मदिरा का सेवन करता है तो वह अपने प्राण अपेण कर ही शुद्ध हो
પણ મદિરાને બુદ્ધિને નષ્ટ કરનારી હોવા બદલ તેને વિષેધ સૂય યો છે એટલે આવી નાની સરખી વાતેતે દરેક વ્યક્તિ સમજી શકે છે તે પછી રત્નત્રયના સ રક્ષક સાધુજને પિતાની ચિકિતષામા પણ માિ પન કેવી રીતે કરી શકે છે? તેઓ આવુ કરે તેમને તેનું પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું પડે છે બીજા ५ शा । महिरानी निषेध ४२ता छ ( अज्ञानात् , वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैर शुद्धयति । मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणातिकमिति स्थिति ॥ मनुस्मृति अध्याय ११ श्लोक-१४६ । ) मा 43 उवामा मान्य छ અજાણમાં પણ મદિરાનું સેવન કરી જાય તે યોપવીત (જનોઈ) સંસ્કારથી તે ફરી શુદ્ધ થાય છે અને જે તે જાણી ખૂછને મદિરાનું સેવન કરે તે પિતાની પ્રાણેને અર્પણ કરીને એટલે કે મૃત્યુને ભેટીને જ તે શુદ્ધ થઈ શકે છે, બીજા કેઈપણ ઉપાયથી તેની શુદ્ધિ અસ ભવિત છે ધર્મશાસ્ત્રનું એજ વિધાન
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितानरूपणम् १४५
किं च-मद्यपानात् पूर्वापरलकाले सुखप्रसुप्तस्य शैलकस्य राजः चातुर्मामिक प्रतिक्रमितुकामेन पान्यकेन क्षमापनार्थ शिरसा तचरणसम्पर्शे कृते सति स उत्थाय क्रोधाविष्टो जातः । ततोऽमौ पान्थकः शैलकानगारं वन्दमानः स्वशीर्पण तच्चरणयोः स्पृशन् प्रार्थयतिस्म-क्षमन मेऽपराध, नैव पुनः करिष्ये इति । मद्यशब्दस्य निपिद्धमद्यार्थरत्वेतु-मूलम्ने शैलकस्य राजपित्रिशेपण नोपपद्यते,पान्थकानगारकृत तद् वन्दनादिकं च विरुध्यते ।
किंच-मद्यशब्दस्य मदिरार्थकत्वस्वीकारे शैलमस्य पश्चात्तापादये सति विशुद्धवैयावृत्ति करना भी विरुद्ध पडता है । किंच मद्य के पान करने से पूर्वापराह्नकाल में सुख से सुप्त हुए शैलक राजप्रापि के, चातुर्मासि प्रतिक्रमण करने की इच्छा से जय क्षमापना याचनार्थ मस्तक से चरणो का स्पर्श किया तो वे जग गये और अचानक निद्रा भग होने से उन्हें क्रोध आ गया। पांधक ने जर उनकी यह दशा देखी तो उसने नमन करते हुए उनके चरणो को छूकर प्रार्थना की महाराज ! आप मेरे अपराध को क्षमा कीजिये आगे ऐसा अन नहीं करूंगा। यदि मद्य शब्द को निषिद्ध मद्यार्थक-मदिरार्थक-माना जाये तो मूल सत्र में शैलक के लिये जो राजऋषि शब्द का प्रयोग किया गया है-उन्हें जो राजऋपि के विशेषण से विशेपित किया है-वह नही बनता है और न पायक अनगार कृत उन के प्रति वदना आदि कृत्य युक्ति सगत बैठते हैं। यदि यहाँ मद्य शब्द को मदिरार्थक स्वीकार किया जावे तो उन्हें जो पश्चात्ताप के હેવા બદલ પાથલ અનગારની તેમની માટેની વૈયાવૃત્તિ પણ ઉચિત ગણાતા જ નહિ અને બીજુ કે જ્યારે મદ્યપાન કરીને પૂર્વીપ હુ કાળમાં લક રાજ ઋષિ મુખેથી સૂતા હતા ત્યારે ચાતુર્માસિ પ્રતિક્રમણ કરવાની ઈચ્છાથી જ્યારે ક્ષમાપના તાટે પાથરે તેમના ચરણમાં પિતાના મતકને સ્પર્શ કર્યો ત્યારે તેઓ જાગ્રત થઈ ગયા અને ચિતા નિદ્રાભ ગ થતા તેઓ નોધા વિષ્ટ થઈ ગયા પાથકે તેમને ગુસ્સે થયેલા તેને ફરી તેમના ચરણે મા મસ્તક નમાવીને વિન તી કરતા કહ્યું કે હે ભગવાન ! મારો ગુને માફ કરે ફરીથી આવુ નહિ થાય જે મધુ શબ્દ મદિરાના અર્થને સૂચવનારો હોયતો મૂળસૂત્રમા શૈલકને માટે રાજક િશબ્દનો પ્રયોગ કવ્વામા આવ્યા છે, તેમને રાજકવિના વિશેષણથી શોધવામા આ યા છે તે કેવી રીતે બને ? પાથક અનગારે તેમના પ્રત્યે ક્ષમાપના રૂપ વદન વિનય વગેરે બતાવ્યો તે પણ ઉચિત કેવી રીતે કરી ગય ? બીજુ કે જે મદ્ય શબ્દને મદિના અર્થમાં સ્વીકારીએ તે ૩૪ અનાર પશ્ચાત્તાપના Cદયથી વિશુદ્ધ ચારિત્રના આરાધન
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साताधर्मकथा __अग्रिममूलपाठावलोग्नेन च मूलगुणनाशक निपिद्धमयमिह नैव विज्ञायते, तथाहि-चतुर्विधाऽऽहारे मद्यपाने च मून्तितस्यापिगैरकम्य प्रमाददोपयशात् केवल जनपदविहारानईता नाता, न तु मूलगुणनाशस्तम्याभूदिति विज्ञाय पान्यकामु खेषु पञ्चशतानगारेपु प्रधानतया मुरय पान्यकमनगारं तस्य चैयारत्यकरणार्थ स्दापयित्वा पायकपर्मितास्ते सर्वेऽनगारारहिर्जनपदविहार विहरन्तिस्मेति रयते । यदि शैर केन निपिद्धभद्य सेवित स्यात् तर्हि तस्मिन् मूलगुणरहितेऽनगारधर्मात् प्रच्युते च सति पान्थकोनगारस्य तद्वयारत्यकरण विरुध्यते । मर्यादा के अनुसार अकल्प्य तथा प्रवचन निपिद्ध वस्तु के देने के लिये मडूक राजा ने उन से नहीं कहा तो भला वे उसकी आज्ञा के विरद्ध मद्य उन्हें कैसे पिलाने में समर्थ हो सकते थे। तथा आगे का मूल पाठ देख ने से भी यही बात पुष्ट होती है कि मूल गुणों का विना शक निषिद्ध मध इस मद्य शब्द का वाच्यार्थ नहीं हो सकता है। तथा हि- "चतुविध आहार एव मद्यपान में मृच्छित बने हुए भी शैलक को प्रमाद दोप के वश से केवल जन पदो में विहार करने की
ओर से ही अशक्ति आ गई है, उनके मूलगुणो का नाश नहीं हुआ है ऐसा समझ कर पायक को छोड और समस्त मुनिजन वहा से याहि रजन पदों में बिहार कर गये और पाथक को वे उनकी चयावृत्ति करने के लिये छोड़ गये। ऐसा सूत्रकार आगे कहेंगें। यदि शलक ने निषिद्ध मद्यका सेवन किया होता तो वे मूलगुणो से भी रहित हो जाते और इस तरह अनगोर धर्म से रहित होने पर पांथक अनगोर को उनकी બીજી વાત એ પણ છે કે જ્યારે સાધુમર્યાદા મુજબ અકય તેમજ પ્રવ ચન નિષિદ્ધ વસ્તુ ને આપવા માટે મક રાજાએ વૈદ્યોને આદેશ આપે નહિ તે વૈદ્યોની શી તાકાત કે તેઓ તેમની આજ્ઞાને ઓળગીને શૈલક અનગારને મદ્ય પીવડાવે ? તેમજ આગળના “મૂળ પાઠને જેવાથી પણ આવાત સિદ્ધ થાય છે કે ગુણેને નષ્ટ કરનાર મદ્ય અહીં મદ્ય-શના વાચ્યાર્થી થઈ શકે જ નહિ જેમ – ચાર જાતના આહાર અને મદ્ય પાનમાં મચ્છવશ થયેલા શૈલકને પ્રમાદ દેવથી ફન જનપદ વિહાર કરવા માટેની અરાતિ જ આવી ગઈ છે તેમના મૂળગુણેને નાશ થશે નથી આવું સમજીને જ પાથકને ત્યાં મૂકીને બધા મુનિએ ત્યાથી બીજા બહારના જન પદમાં વિહાર કરવા માટે નીકળી પડયા પાથકને શૈવ ની વૈયાવૃત્તિ માટેજ મુનિઓ મૂકીને ગયા હતા આ સૂત્રકાર આ પ્રમાણે આગળ વર્ણન કરવાના જ છે હવે જે રૌલકે આગમનિષિદ્ધ મદિરાનું સેવન કર્યું હતતે તેઓ મૂળ ગુણોથી પણ હીન થઈ જાત અને આ પ્રમાણે અનુગાર ધમ રહિત
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भनगारधर्मामृतवर्पिणी टीका म०५ शैलकराजमपिचरितानरूपणम् १५५
किं च मद्यपानात् पूर्वापरनकाले सुखप्रमुप्तस्य शैलफस्य राजः चातुर्मामिके प्रतिक्रमितुकामेन पान्यकेन समापनार्थ शिरसा तचरणसम्पर्शे कृते सति स उत्थाय क्रोधाविष्टो जातः । ततोऽसौ पान्थकः शैलकानगारं वन्दमानः स्वशीर्पण तच्चर णयोः स्पृशन् प्रार्थयतिस्म-क्षमन्च मेऽपराध, नैव पुनः करिष्ये इति । मद्यशब्दस्य निषिद्धमद्यार्थत्वेतु-मूलमने शैलकस्य राजर्पित्रिशेपण नोपपद्यते,पान्थकानगारकृत तद् वन्दनादिकं च पिरुध्यते ।
कि च-मद्यशब्दस्य मदिरार्थकत्वस्वीकारे शैलकस्य पश्चात्तापादये सति विशुद्धवैयावृत्ति करना भी विरुद्ध पड़ता है। किंच मद्य के पान करने से पूर्वापराहकाल में सुख से सुप्त हुए शैलक राजऋषि के, चातुर्मासि प्रतिक्रमण करने की इच्छा से जर क्षमापना याचनार्थ मस्तक से चरणो का स्पर्श किया तो वे जग गये और अचानक निद्रा भग होने से उन्हें क्रोध
आ गया। पथक ने जन उनकी यह दना देखी तो उसने नमन करते हुए उनके चरणो को छूकर प्रार्थना की महाराज ! आप मेरे अपराध को क्षमा कीजिये आगे ऐसा अब नही करूगा। यदि मध शब्द को निपिद्ध मद्यार्यक-मदिरार्थक-माना जावे तो मूल सूत्र में शैलक के लिये जो राजऋषि शब्द का प्रयोग किया गया है-उन्हें जो राजऋषि के विशेषण से विशेपित किया है-वह नही बनता है और न पायक अनगार कृत उन के प्रति वदना आदि कृत्य युक्ति सगत बैठते है। यदि यहाँ मद्य शब्द को मदिरार्थक स्वीकार किया जाये तो उन्हें जो पश्चात्ताप के હોવા બદલ પાથક અનગારની તેમની માટેની વૈયાવૃત્તિ પણ ઉચિત ગણાતા જ નહિ અને બીજુ કે જ્યારે મદ્યપાન કરીને પૂર્વીપ દ્ધ કાળમા શૈલક રાજ કવિ સુખેથી સૂતા હતા ત્યારે ચાતુર્માસિ પ્રતિક્રમણ કરવાની ઈચ્છાથી
જ્યારે ક્ષમાપના તાટે પાથકે તેમના ચરણોમાં પિતાના મતકને સ્પ કર્યો ત્યારે તેઓ જાગ્રત થઈ ગયા અને એચિતા નિદ્રાભગ થતા તેઓ લોધા વિષ્ટ થઈ ગયા પાકે તેમને ગુસ્સે થયેલા તેને ફરી તેમના ગુણે મા મસ્તક નમાવીને વિનતી કશ્તા કહ્યું કે હે ભગવાન ! મારો ગુને માફ કરો ફરીથી આવુ નહિ થાય જે મદ્ય શબ્દ મદિરાના અને સૂચવનારો હોય તે મૃળમૂત્રમાં ઐલાના માટે રાજકવિ શબ્દને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે તેમને રાજઋષિના વિશેષથી સ બોધવામાં આવ્યા છે તે કેવી રીતે બને ? પાથક અનગારે તેમના પ્રત્યે ક્ષમાપના રૂપ વદન વિનય વગેરે બતાવ્યું તે પણ ઉચિત કેવી રીતે કરી શકાય ? બીજુ કે જે મદ્ય શબ્દને મદિનાના અમલ કારીએ તો અનાર પશ્ચાત્તાપના Cદાવી વિશુદ્ધ ચારિત્રની આરાધન
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ताधर्मकथा चारित्राराधनार्थ कृत प्रतिज्ञस्य कृतनिधयस्य तदनन्तरद्वितीयेति प्रभातकाले आनु. पूर्ध्या ग्रामानुग्रामविहारार्थ प्रतिरपि पुनः मायचित्तग्रहणमन्तरेण नोपपद्यते । तस्मादत्र मद्यशब्दो नास्ति मदिरार्थकः । किं तु-'मज्जपाणय पीए पुष्यावरण्डका लसमयसि सुहप्पसुत्ते' इत्याग्रिममूळपाठमामाण्यात् निद्राजनरूपानद्रव्यविशेषार्थक एवेति निश्चीयते ।
वचतः पूर्वापरमूलपाठपर्यालोचनेन 'मज्नपाणय च से उपदिसति' 'जाव. मज्जपाणेण' मज्जपाणए य मुछिए ''सुबह मज्जपाणय पीए' इति -पाठा: प्रक्षिप्ता एवेति मुधियो विमर्शयन्तु ।
ततस्तदनन्तर तस्य शैलकस्य यथामवृत्तैः मासुकैपणीयैर्यारत्-औषधभैपज्यै ध्याहारैश्च रोगातङ्काः उपशान्ता अभूवन् , हष्टः प्रसन्नचित्तः, मल्लशरीर मल्लवत् उदय होने पर विशुद्ध चारित्र आराधन के लिये कुन निश्चय देवाजाता है और उसके बाद जो द्वितीय दिन प्रातःकाल में आनुपर्ध्या ग्रामानुग्राम विहार की उनमें प्रवृत्ति पाई जाती है वह भी नहीं घटित हो सकती है। कारण प्रायश्चित्त ग्रहण के विना ऐसी प्रवृत्ति होती नहीं है । इसलिये यहां मद्य शब्द मदिरार्थक नहीं हैं किन्तु यह “ मज्ज पाणय पीए पुन्यावरणहकालसमयसि सुरप्पसुत्ते " इस अग्रिम मूल पाठ की प्रमाणता से निद्राजनक पान द्रव्य विशेष अर्थवालो ही है ऐसा निश्चित होता है। तत्वत विचार किया जाये तो पूर्वापर मूल पाठों की पर्यालोचना से “ मज्जपाणय च से उपदिसति जाच मज्जपाणेण, मज्जपाणए य मुच्छिए, मज्जपाणए मुच्छिए, सुबहु मज्जपाणय पीए" ये सब पाठ प्रक्षिप्त ही ज्ञात होते हैं ऐसा बुद्धिमान् जन विचार करें। (तएणतस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं जाव मज्जणपाणेण रोयायके उवसते માટે કત પ્રતિજ્ઞ દેખાય છે અને ત્યાર બાદ તેઓ બીજા દિવસે સવારે જ પૂર્વપરપરા અનુસાર એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવાની ઈચ્છા કરે છે જે આવુ હેત તેમનામાં આવી ઈચ્છા પણ પ્રકટ કેવી રીતે થાત? કેમકે પ્રાયશ્ચિત્ત વગર આવું તે કરી શકે જ નહિ એટલા માટે અહીં મદ્ય શબ્દ मशिना अर्थ सूयवती नथी पY ( मज्जपाणय पीए पुश्वावरण्हकालसमय सि सुहप्पसुत्ते “ भय श५६ भूपाने मनुसक्षी त निद्रा न पान द्रव्य विशेष " म २१ सूयवना छ (मजपाणय च से उपदिसति जाव मज्जपाणेण मज्जपाणए य मुच्छिए मज्जपाणए मुछिए, सुबहुमज्जपाणय पीए ) पूर्वापरनी અપેક્ષાએ મૂળપાઠ વિષે આપણે ગભીર પણ વિચાર કરીએ તો ઉક્ત પાઠ प्रक्षिप्त साग (तएण तस्स सेलयस्स अहापरत्तेहिं जाय मज्जणपाणेण रोया
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ५ शैलफराजकपिचरितनिरूपणम् १४७ पुष्टशरीर. जात , व्यपगतरोगातङ्कः सर्वव्याधिरहितो जात इत्यर्थः । ततः खलु स शैलफस्तस्मिन् रोगातङ्के उपशान्ते सति तस्मिन् विपुले अतिशये अशनपानखायस्वाये चतुर्विवाऽऽहारे मद्यपानके च निद्राजनकपानद्रव्यविशेषे च मूछितः आसक्तः पवितः-स्नेहरज्जुभिर्वद्धः गृद्धोन्लोलुप 'अझोववन्ने ' अ युपपन्न,, सरसाहाराघधीनजीवन । 'मोसन्नो' अबसन्न अवसन्न इवावसन्नः श्रान्ततुल्यः, आवश्य-स्वाध्यायप्रतिलेखन-यानादिक्रियासु शैथिल्येन श्रान्तइचमोक्षमार्गे शिहोत्या ) इस प्रकार इम शैलक राजऋपि के यथा प्रवृत्त प्रासुक एपणीय यावत्-औपच भैपज्यो से और पल्याहार से रोगातक उपामित हो गये (ढे मरल सरीरे जाए ववगयरोयायके, तण्ण सेलए तसि रोगाय कमि उवसतसि समाणसि तसि विपुलसि असण० पाण खाइम साइमे मज्जपाणेण य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्नो, ओसन्न विहारी एव पासत्थे २ पासत्यनिहारी कुसीले २ कुसील विहारी पमत्ते ससत्ते उउरद्वपीठफलकसेज्जासधारए पमत्ते याचि विहर) वह प्रसन्न चित्त हो गया शरीर से मी मल्ल की तरह पुष्ट हो गये। इस प्रकार रोग और आतको से सर्वथा रहित हो गये । इस के बाद वह राजपि विविध प्रकार के विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार में एव मद्यपान मे आसक्त हो गये। उन में स्नेह रूपी रज्जु से बन्ध गये-गृद्ध-लोलप-हो गये और सरस आहार के आधीन जीवन वाले बन गये। थके हुए व्यक्ति की तरह वह स्वाध्याय, यके उपसते होत्या) मा प्रमाणे यथा प्रवृत्त प्रासु मेषीय यावत् यौषध ભવથી અને યોગ્ય પથ્ય આહારથી લક રાજઋષિના રોગો મટી ગયા (हढे महसरीरे जाए धवगयरोयायके, दएण सेटए तसिरोगाय फसि उवसवसि समाणसि तसि विपुलसि असण०पाण साइम साइमे मज्जपाणेणय मुछिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्नो, ओसन्न विहारी एव पासत्थे २ पासस्थविहारी मुसोले २ फुसील विहारी पमत्ते ससने उउवद्धपीठफळगसेज्जास्थारए पमत्ते यावि विहरइ ) त्या शरीरथी युट तेमन प्रसन्न चित्त ५ गया माशत રેગ અને આતકે થી તેઓએ એકદમ મુક્તિ મેળવી લીધી ત્યારબાદ તેઓ જાત જાતના પુ કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલા અદન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર પ્રકારના આહારમાં તથા મદ્યપાનમા આસક્ત થઈ ગયા તેઓ નેહરૂપી દેરીથી બે ધાઈ ગયા ગ્રુદ્ધ-એટલે કે લાલુપ થઈને સરસ આહારના સેવનમાં તેઓ ટેવાઈ ગયા બ્રાન્ત વ્યક્તિની પેઠે સવાધ્યાય પ્રતિ
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..___ हाताधमकथा
१४८ थिल इत्यर्थः । 'ओसनविहारी अप्रसन्नविदारी निधिलाऽऽचारी आलस्यवशेन मन्दीभूतचरणकरण इत्यर्थः । एवअनेन प्रकारेण 'पासत्य' पार्श्वस्य'-साधुगु णाना पार्थ विष्ठतीति पार्थम्यः जानादीना न सम्यगाराधमः । पावस्थापिहारीपार्थस्थाना यो विहारस्तथावर्तन पार्श्वम्यनिहारः सोऽस्याम्तीति पार्थस्थपिहारी, कुशीला उत्तरगुणचिराधनया मचलनपायोदयेन च कुस्मिताऽऽवार' । कुशील विहारी-कुत्सिताचारशीलः । 'पमत्ते' ममत्तापमाघतिस्म-मोहनीयादिकर्मोदयमभावात् सज्जलनपायनिद्रारिकथाऽन्यतमप्रमादयोगेन सयमाराधनेषु सीदतिस्मेति प्रमत्तः । कतरिक्त । 'ससत्ते' ससक्तः गौरवश्याश्रयेण सकीर्णाचार , ऋतुबद्धपीठफलफशग्यासस्तारके प्रमत्तथापि विहरति, शेषकालेऽपि कारणमन्तरेण प्रति लेखन, ध्यान आदि मोक्ष मार्ग में भी शिथिल हो गये । अवसन्न विहारी हो गये-शिथिलाचारवाले बन गये -आलस्य के वश से चरण
सत्तरी और करण सत्तरी के आराधना ढीले पड गये इस प्रकार वह पार्श्वस्थ हो गये-साधु गुणो के पास में रहने वाला पने रहे-ज्ञानादिकों का सम्यक् आरधन कर्ता वह नहीं रहे। पार्श्वस्यों के विहार जैसा इनका वर्ताव हो गया। उत्तर गुणों की विराधना से और सज्वलन कपाय के उदय से वह कुत्सित आचार वाले हो गये । कुशील विहारी हो गये। मोहनीय आदि कमों के उदय के प्रभाव से यह सज्वलन कषाय निद्रा विकथा रूप प्रमादों में से किसी एक प्रमाद के योग से सयम की आराधना करने में शिथिल परिणामी हो गये । गौरवत्रय के आश्रय से उनका आचार शिथिल हो गया। हर एक समय कारण के विना भी पीठ फलकादि का सेवन करने वाले बन गये सदा इन લેખન ધ્યાન વગેરે ક્રિયાઓમા તેમજ મેક્ષમાર્ગમાં તેઓ શિથિલ થઈ ગયા અવ સન્ન વિહારી થઈ ગયા, -શિથિલ આચાણ વાળા થઈ, અળસને લીધેચરણ કરી અને કાણસત્તરી રહિત થઈ ગયા આમ તેઓ પાર્થસ્થ થઈ ગયા સદગુણેમાં રચ્યાપચ્યા બનીને રહેનારા બની ગયા જ્ઞાન વગેરેની સમ્યફ આરાધના તેમનાથી હવે નહતી થતી પાર્વના વિહારની જેમ તેમનું આચરણ થઈ ગયુ ઉત્તર ગુણેની વિરાધનાથી અને સ જવલન કષાયના ઉદયથી તેઓ કુત્સિત આચાર વાળા થઈ ગયા કુશીલ વિહારી થઈ ગયા મેહનીય વગેરે કર્મોના ઉદયને લીધે તેઓ સજવલન કષાય નિદ્રા વિકથા રૂપ પ્રમાદોમાં થી કોઈ પણ એક પ્રમાદના રોગથી સયમને આરાધનામા શિથિલ થઈ ગયા ગૌરવશ્રયના આશ્રયથી તેમને આચાર શિથિલ બની ગયા કારણ વગર પણ તેઓ ગમે ત્યારે પીઠ ફલક વગેરે નું સેવન કરવા લાગ્યા તેઓ હમેશા તેના ઉપર પડયા જ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजमपिचरितनिरूपणम् १४९ पीठकलकादिसेवी सनात इत्यर्थः । ‘नो संचाएइ नो शक्नोति, अस्य विर्तुमित्यत्रान्वयः, मासुकैपणीय पोठ-पीठादिकं प्रत्यर्य मण्डक च राजनमापृच्छच बहिर्जनपदविहार ' अन्भुज्जएण' अभ्युद्यतेन-उत्तमयुक्तेन, ' पयत्तेण' प्रदत्तेन भगादनुतातेन प्रमादरहितेन, 'पग्गहिऐग' प्रगृहीतेन तीर्थकरैरपि स्वीकृतेन विहर्तु कर्तुम् । सज्वलनकपायनिद्राविक गऽन्यतमममादवशगत शैलको पहिर्जन पदविहार कर्तुमसमर्थों जात इत्ययः ॥ ३० ॥
मूलम्-तएण तेसि पथयवजाण पचण्ह अणगारसयाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाण जाव पुनरत्तावरत्तकालसम. यसि धम्मजागरिय जागरमाणाण अयमेयारूव अभत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एव खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज जाव पबपर पड़ा रहने लगे (नो सचाण्इ फास्तुण्सणिज्ज पोडे पच्चप्पिणित्ता मडय च राया अपुन्धित्ता बहिया जणवयविहार-अभुजाण पयत्तेण पग्गहिएण विहरित्तए ) प्रास्तुक एपणीय पीठ आदि को प्रत्यर्पित कर (देकर ) तथो मडूकराज से पूछकर यह बाहर जनपदों में विहार करने के लिये समर्थ नहीं हुए। जो विहार उत्तम योग रूप उद्यम से युक्त होकर किया जाता है अर्थात् जिसमें प्रमत्त दशा नहीं रहती हैजिसके करने की भगवान् की आज्ञा है । तथा तीर्य करो ने भी जिसे किया है । तात्पर्य इसका यह है कि सज्वलन कपाय, निद्रा तथा वि कथारूप प्रमोदों में से किसी एक प्रमाद के वशगत होकर वहा से विहार करने के लिये असमर्थ बन गये । सूत्र ॥ ३० ॥ २ता ता (नो सवाएइ फासुएसणिज्ज पीढ पच्चपिणित्ता मडु च राया अपु छित्ता पहिया जणवयविहार अव्भुज्नएण पयत्तेण पग्गहिएण विहरित्तए) मासु એષણીય પીઠ ફલક વગેરે પાછા આપી તેમજ મ ડૂક રાજાને પૂછીને બહારના બીજા જનપદે મા વિહાર કરવા માટે પણ તેઓ સમર્થ થઈ શક્યા નહિ જે વિહાર ઉત્તમ ગ રૂય ઉદ્યમ વડે કરવા મા આવે છે, એટલે કે જેમા પ્રમત્ત દશા રહેતી નથી તેમજ જે વિહારને કરવાની ભગવાને આજ્ઞા આપી છે, અને તીર્થકરો પણ જેને કરતા આવ્યા છે તેમાં તેઓ અસમર્થ થઈ ગયા તાત્પર્ય એ છે કે આ મંજવલન કષાય, નિદ્રા તેમજ વિકથા ઉપ પ્રમો માથી કોઈ પણ એક પ્રકારના વશવતી થઈને ત્યાંથી બહાર વિહાર કરવા સમવ થઈ શકયા નહિ કે સૂત્ર ૩૦ |
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
इए, विउलेणं असण० ४ मज्जपाणए मुच्छिए नो संचाएइ जाव विहस्तिए, नो खलु कप्पर देवाणुप्पिया । समणाणं निम्गथाण जाव पमत्ताणं विहरित्तए, त सेय खलु देवानुपिया । अम्ह कल्ल सेलय रायरिति आपुच्छित्ता पाडिहारिय पीढफलगसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्त पथयं अणगारं वेयावच्चकर ठवेत्ता वहिया अब्भुज्जएण जाव पवतेण, पग्गहियेण जणवयविहार बिहरितए, एवं सपेर्हेति, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते सेलय आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासथारय पच्चपिणति, पच्चप्पिणित्ता पथय अणगार वेया वच्चकरं ठावति ठावित्ता वहिया जाव विहरति ॥ सू०३१ ॥
टीका- 'तएण तेमिं ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु तेपा पान्थकवर्जाना पञ्चानामनगारशताना पञ्चशतानगाराणाम्, अन्यदा कदा चिन्=अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले, एकतः सहितानाम् = एकत्र मिलिताना यात्रत् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये = धर्म नागरिका= ध्यानमरोधिनी कथा जाग्रता=कुर्वताम् तएण तेसिंपथयवज्जाण ' इत्यादि ॥
(
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद (तेसिं पथयवज्जाण पचण्ड अणगार सघाण अन्नया कयाइ एगयओ सहियाण जाव पुव्वावर त्तकालसमयसि धम्मजागरिय जागरमा णाण अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्प जित्या) उन पाचसो, पाथक अनगार बर्ज मुनियों को किसी एक समय मध्य रात्रि मे जबकि वे धर्मभ्यान प्रबोधिनी कथा को एकत्र समिलित होकर
( तएण तेसिं पथयवज्जाण ) इत्यादि ॥
टीअर्थ - (तरण ) त्यार माह ( तेसि पथयवज्जाण पचण्ह अणगारख्याण अन्ना कयाइ एगयओ सहियाण जात्र पुव्वावरत्तकालसमयसि धम्मजागरिय जागरमाणाण अयमेवारूत्रे अज्झत्थिए जात्र समुप्यजित्था ) पायसेो पाथ अन ગાર વજ્ર મુનિએને કોઈ એક વખતે મધ્યરાત્રિમા જ્યારે તેએ બધા એકઠા થને ધર્મધ્યાન પ્રમાધિની કથા વિષે ચર્ચા કરી રહ્યા હતા ત્યારે તેઓને આ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ४ शैलकराजमपिचरितनिरूपणम् १५१ अयमेतद्रूप वक्ष्यमाणप्रकारक 'अभत्तिए ' अभ्यर्थितः प्रवचनसंमतः यावत्यावत् करणेन-चिंतिए, पत्थिए, मनोगए इत्येप सङ्ग्रह । चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः साल्प'= विचारः ' समुप्पज्जित्या' समुदपधत अभवत्-एव अमुना मकारेण खलु-निधये शैलको राजर्पिः ' चइत्ता' त्यक्त्या, 'रज्ज' राज्य यावत् प्राजितदीक्षा गृहीतवान स चेदानी 'विउलेण' विपुलेन अतिशयेन अशन पानखाद्यस्त्राचे चतुर्विधाहारे निद्राजनकपानद्रव्यविषे च मृच्छित. आसक्तः नो शक्नोति यावद् कुनापि विहर्तुम् । नो खलु कल्पते देवानुमियाः ! श्रमणाना पावत् प्रमत्ताना विर्तुम् , हे देवानुप्रिया ! ममादिनो भूत्वा श्रमणाना सयममार्गे विहाँ न कल्पते, किंतु अभ्युद्यतेन इत्यर्थः । ' त सेय ' तच्छ्रेयः तव तस्मात् श्रेयः खल देवानुमिया अस्माक कल्ये प्रभाते शैलक राजर्पिमापृन्छय कर रहे थे। इस तरह का प्रवचन समत चिन्तित, प्राथित, मनोगत सकल्प-विचार उत्पन्न हुआ। ( एव खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्ज जाव पन्वइए विउलेण असण ४ मज्जपाणे मुछिए नो सचाण्ड जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पियो ! समणाणं निग्गथाण जाव पमत्ताण विरित्तए ) शैलफ राजा ने राज्य का परित्याग कर भगवती दीक्षा अगीकार की हैं-इस तरह वे राजऋषि बने हैं-परन्तु अब वे विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार में तथा निद्रा कारंक पान द्रव्य विशेष में आसक्त हो रहें हैं । कही पर भी बाहर विहार नहीं करना चाहते हैं। इस तरह हे देवानुप्रियो ! श्रमगो को प्रमत्त घनकर सयम मार्ग मे विहार करना रहना-उचित नहीं है। (त सेय खलु देवाणुप्पिया! अम्ह कल्ल सेलय रायरिसिं आपुच्छित्ता જાતને પ્રવચન સમત, ચિતત, પ્રાર્થિત, મને ગત સકલ્પ વિચાર ઉદ્ભવ્ય (एवं खलु सेलए रायरिसि चइत्ता रज्ज जान पव्वा विउलेण ४ मज्जपाणे मुन्छि ए नो सचाएइ जाव विहरित्तए नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! समण ण निग्गयाण जाव पमत्ताण विद्दहित्तए) शैख शये यमन त्याने माती टीक्षा સ્વીકારી છે એથી તેઓ રાજઋષિ તરીકે પ્રસિદ્ધ થયા છે પણ અત્યારે તેઓ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વસ્થ આહાર તેમજ નિદ્રાકારક પાનદ્રવ્ય વિશેષમાં આસક્ત થઈ રહ્યા છે બીજે કઈ વિહાર કરવાની પણ તેઓની ઈરછા લાગતી નથી હે દેવાનુપ્રિયે ! આ રીતે શ્રમણોને પ્રમત્ત थ७२ सयभमागभा २हीने विडार ४२३। यो सातु नथी (त मेय सलु देवाणुप्पिया | अम्ह कल्ल सेलय रायरिसिं आपुच्छित्ता पादिहारिय पीद
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हाताधकपासू 'पाडिहारिय' मातिहारिक-मत्यर्पणीय, पीठफलफशग्यासस्तारक मत्यमे, शैलकस्यानगारस्य पान्थरमनगार 'वेयारचकर 'वैयारत्यार-सेवाकारक, स्थापयित्या बहिरभ्युद्यतेन यावद्-इह यावत्करणात-अभ्युद्यतेन-सोयमेन प्रदत्तेन-तीर्थकरानुज्ञापितेन, प्रग्रहीतेन तीर्थकराङ्गीकृतेन जनपदविहार इत्यस्य सग्रहः । विहर्तुम् -कर्तुम् शैलकानगारस्य वैयारत्याय पान्यामनगार पहिर्षिहर्तुमस्माक श्रेय इत्यर्थ एवम्-उक्तपफारेण ' सपेहेंति' सप्रेक्षन्ते, विचारयन्ति । 'सपेहित्ता' सप्रेक्ष्य विचार्य, कल्ये यावज्जलति-सूर्ये उदिते सति शैलम्मापृउच मातिहारिक-प्रत्य पणीय पीठफलमशग्यासस्तारक 'पञ्चप्पिणति' प्रत्यर्पयन्ति प्रत्यर्य पान्यकमनगार 'वेयावच्चकर' वैयाकृत्यफर, 'ठावति' स्थापयन्ति ठारित्ता' स्थापयित्वा पहिर्यावद्-इह यानरकरणात्-अभ्युद्यतेन प्रदत्तेन, प्रगृहीतेन जनपदविहार इत्यस्य सग्रहः, विहरन्ति । शैलकानगारस्य ये पञ्चशतसख्यकाः पान्थकप्रमुखा अन पाडिहारिय पीठफलगसेज्जासथारग पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पथय अणगार वेयावच्चकर ठवेत्ता पहिया अन्भुज्जएणं जाव पवत्तेण परगरिएण जणवयविहार विहरित्तए) इसलिए हे देवानुप्रियों ! हम लोगों को यही कल्याण कारक है कि प्रात' होते ही हम लोग शैल्क राजऋषि से पूछकर और प्रत्यर्पणीय पीठ फलकशय्यासस्तारक को रखकर वापिस देकर तथा शैलक राजऋषि की वैयावृत्ति करने के लिये पांथक अनगार को रखकर यहा से सोद्यम के साथ प्रदत्त तीर्थकर की दी हुई आज्ञा के अनुसार प्रगृहीत तीर्थ कर की आज्ञा को अगीकार कर ऐसो बाहिर देशों में विहार करें। (एव सपेहेंति, सपेहिता कल्ल जाव जल ते सेलय आपुच्छित्ता पाडिहारिय पीठफलगसेज्जास था रय पच्चप्पिणति, पच्चप्पिणित्ता पथयअणगार वेयावञ्चकर ठावति फल्गसेज्जासथारग पच्चप्पिणित्ता सेलगरस अणगारस्स पथय अणगार , वेयाव च्चकर ठवेत्ता बहिया भन्भुज्जएण जाव पवत्तेण पगहिएण जणक्यविहार विहरित्तए) मेटये पानुप्रिय।। मा५॥ माटे ४८याएन। भाग 2 or રહ્યો છે કે સવારે રોનક રાજકવિની આજ્ઞા મેળવીને પીઠફલક, શય્યા સસ્તા રક વગેરે પાછા આવીને રોનક રાજઋષિની વૈયાવૃત્તિ કરવા માટે પાથક અન ગારને નીમીને Cઘમપૂર્વક આપણે અહીંથી તીર્થકરોની આજ્ઞા મુજબ તેમજ તીર્થકરોની આજ્ઞાનું પાલન કરતા બહારના બીજા દેશમાં વિહાર કરવા નીકળી ५७ एव सपेहेंति सपेहित्ता कल्ल जाव जलते सेलय आपुच्ठित्ता, डियारिय पीठफलगसेज्जासथारय पच्चप्पिणित्ता पथयअणगार वेयावन्चकर ठावति
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजक पिचरितनिरूपणम्
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गाराः शिष्यरूपेण सहचरा आसन् तेषु पान्थक शैलकानगारसेवार्थं स्थापयित्वा पान्यकवर्जास्ते सर्वेऽनगाराः पीठफलकादिक प्रत्यये वहिर्जनपदविहार कुर्वन्ति स्मेत्यर्थः ॥ ३१ ॥
मूलम् - तएण से पंथए सेलयस्स सेज्जासथारयउच्चारपासवणखेल सिघाणमल्लओसहभे सज्जभत्तपाणपण अगिलाए विएण वेयावडिय करेइ, तएण से सेलए अन्नया कयाइ कतिय चाउम्मासियसि विउल असण० आहार माहारिए सुबहु मज्जपाणय पीए पुव्वावरण्हकालसमयसि सुहप्पसुत्ते, तरणं
पन्थए कत्तियचाउम्मासियसि, कयकाउस्सग्गे देवसिय पडिकमण पडिक्कते चाउम्मासि पडिकमिउकामे सेलय रायरिसिं खामण्डयाए सीसेण पाएसु सघहेइ, तएण से सेलए पंथपणं सीसेणं पाएसु सघट्टिए समाणे आसुस्ते जाव मिसिमिसेमाणे उट्टेइ, उट्टित्ता एव वयासी-सं केस ण भो एस अप्पत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए जेणं मम सुहृत्पसुत पाएसु संघट्टेइ ? तणं से पथए सेलएण एवं वृत्ते समाणे भीए तत्थे तसिंय करयल क
ठावित्ता बहियां जाव विहरति ) इस प्रकार उन्होंने विचार कियाविचार करके प्रातःकाल जय सूर्य अपनी प्रभा से प्रकाशित होने लगा तब उन्होंने शैलक राजऋषि से पूछकर प्रतिहारिक - प्रत्यर्पणी पीठ फलग शय्या सस्तारक को वापिस दे दिया-वापिस देकर फिर उन्हों ने उन की वैयावृत्ति करने के लिये पावक अनगार को रख दिया । रखकरें फिर वे वहा से बाहर दूसरे देशों में बिहार कर गये | सूत्र ॥ ३१ ॥
ठविता बहिया जाव विहरति ) या प्रभाऐ तेमाओ विचार अय, वियार કરીને જ્યારે સવારે સૂર્ય ઉદય પામ્યા ત્યારે રૌલક રાજઋષિની અન્નામેળવીને પ્રત્યર્પણીય એટલે કે પીક શય્યા સસ્તારને પાછા માપીને રાજૠષિની વૈયાવૃત્તિ માટે પાથક અન ન્ને ના નિયુક્ત કરીને તેઓ ત્યાંથી બહારના બીજા દેશેમા વિહાર કરવા નીકળ્યા ! સૂત્ર ૩૧
जा २०
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माताधर्मक्थागमो वं वयासी-अहण्णं भंते । पंथए कायकउस्सग्गे देवसिय पडि. कमणं पडिकते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघदृमि, त खमंतु मं देवाणुप्पिया। खमतु मेऽ वराहं तुम्मण्णं देवाणुप्पिया गाइभुज्जो एवं करणयाए त्तिकच सेलयं अणगार एतम सम्मं विणएण भुज्जो २ खामेइ ।
तएणं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएण एवंवुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खल्लु अहं रज्ज च जाव ओसन्नो .. जाव उउवद्धपीठफलगसेज्जासंथारगं गिमिहत्ता विहरमि, त नो खलु कप्पइ समणाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं जाव विहरित्तए, तं सेय खलु मे कल्ल मडुथ राय आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारयं पञ्चप्पिणित्तापंथएण अण. गारेणं सद्धि बहिया अन्भुजएणं जाव जणवयविहारण विहरितए । एव सपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं याव विहरइ ॥ सू० ३२॥
- टीका-'तएण से ' इत्यादि-ततस्तदनन्तर खलु स पान्थकः शैलकस्य ' सेज्जासथारयउच्चारपासवणखेलसिंघाणमल्लओसहभेसज्जभत्तपाणएण' शय्यास स्तारकोचारमस्रवणखेलसिंघाणमलौपधभैष्यज्यभक्तपानेन 'अगिलाए' अग्लान' सन् - 'तएण से पथए इत्यादि' ॥ सूत्र ॥ ३२॥
टोकार्थ-(तएण) इसके बाद (से पथए ) वह पाथक ( सेलयस्स) शैलक अनगार की (सेज्जासथारयउच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणमल्ल ओसहभेसज्जभत्तपाणएण) शय्या सस्तारक के द्वारा उच्चार प्रस्रवण, खेल, जल्ल सिंघाण मल आदि की परिष्ठापना द्वारा औषध भैषज्य द्वारा, भक्त पान लाने के द्वारा (अगिलाए ) विना कोई ग्लानभाव के . (तएण से पथए) त्या |
Aथ-(तएण) त्या२ माह (से पथए) पाय (सेलयस्स) शेखर राना (सेज्जाम्रथारयउच्चारपोसवण-खेल्ल-जल्ल-सिधाणमल्ल-ओसहभेसज्जभत्तपाणएण ) શયા સસ્તારક દ્વારા, તેમજ ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણ, ખેલ, સિ ધાણ મલ વગેરેની
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अनगारधर्मामृतवपिणी टोका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १५५ विनयेन वैयात्त्य सेवा करोति । ततः खलु स शैलकः 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले 'कत्तियचाउम्मासियसि' कार्तिकचातुर्मासिके विपुलम् अधिकम् , 'असग' अशनपानखाद्यस्वाद्यम् 'आहारमाहारिए' आहारमाहारितः चतुर्विधाहारमतिशयेन कृत्वेत्यर्थः मुबहु ' मज्जपाणय' मद्यपानक-निद्राजनकपानकद्रव्पनिशेप 'पीए' पीतः पीत्वेत्यर्थः। 'पूर्वापराहकालसमयसि' पूर्वापराहकालसमये-दिवसस्य चतुर्थे पहरे मुखमसुप्तः मनोज्ञमगीतः भोजनातिशशयेन निद्राकारकपानकद्रव्यसेवनेन च गादनिद्रा प्राप्त इत्यर्थः । यत्तु समाधिना सुखेन सुप्त इत्यर्थ इत्युक्त तन्न युक्तम् प्रमादसद्भावे समाधेरसम्भवात् अमर्यादितनिदाताः समाधेर्दूरवर्तित्वाच्च । ततस्तदनन्तर स पान्यकः 'कत्तियचाउम्मासियसि' (विणएण) बडे विनय के साथ (वेयावडिय करेइ) वैयावृत्ति करने लगा । (तरण से सेला अन्नया कयाइ) एक दिन की बात है कि शैलक अनगार (कत्तिय चाउम्मासियसि विउल असण. आहारमाहा रिए सुबहु मज्जपाणय पीए पुववरण्यकालसमयसि सुहप्पसुत्ते) चर्तुमासके कार्तिक महिने में बहुत अधिक अशन, पान, खाद्य, और स्वायरूप चतुर्विध आहार कर के और निद्राकारक पानक द्रव्य विशेष 'को पी करके दिवस के चतुर्थ प्रहर में सुख से सोये हुए थे। यहां पर जो कोइ २ ऐसा पाठ कहते हैं कि वे समाधि पूर्वक सुख से सोये हुए थे वह ठीक नहीं है । कारण प्रमाद के सद्भाव में समाधि का होना धनता नहीं है । अमर्यादित निद्रा और समाधि इनका परस्पर विरोध है ऐसी स्थिति में तो समाधि बहुत दूर रहा करती है। (तएणं से परि४५॥ द्वारा ( अगिलाए) 3 ५५ जतन! मागमा घशा विनाना मनान (विणएण) भूमर नम्र ने (वेयावडिय करेइ) यावृत्ति ४२१॥ साच्या (तएण से सेलए अन्नया फयाइ) ४ हिस रीस पि (कत्तियचाउम्मासियसि विउल असण - आहारमाहरिए सुबहु मज्जपाणय पीए पुववरणहकालसमयसि सुहप्पसुत्ते) यातुभांसना त भाममा भूम प्रभा મા અશન વાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહાર કરીને અને નિદ્રા કારક આપાનક દ્રવ્ય વિશેષનુ પાન કરીને સાજના છે. વાપહેરના વખતે સુખેથી સુતા હતા અહી “ ઘણા લેકે સમાધિ પૂર્વક સુખેથી શૈલક રાજકવિ સતા હતા ? એ પ્રમાણેને પાઠ લેવાનું કહે છે તે યોગ્ય ગણાય જ નહિ કેમકે પ્રમાદઅવસ્થામાં સમાધિ થઈ શકતી નથી અમર્યાદિત નિદ્રા અને સમાધિ આ બંને વચ્ચે વિરોધ છે આવી સ્થિતિમાં સમાધિ થઈ શકતી જ નથી
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हाताधर्म माने कातिकचातुर्मासिके 'कायकाउस्सगे' कृतमायोत्सर्ग 'देवसिय ' देवसिक प्रतिक्रमण परिक्रान्ता कृतवान् , चातुर्मासिक 'पडिकमिउ कामे' प्रतिक्रमितुकामः शैलक राजर्पि 'खामणट्टयाए 'क्षमापनार्थाय शीर्पण मस्तकेन पादयो सघट्टयति स्पृशति । ततस्तदनन्तर खलु स शैलकः शैलकराजर्षि पान्थकेनन्यान्यकानगारेण शीर्पण पादयो सहितः संस्पृष्टः सन् 'आमुरुत्त 'आशुरुतः मटितिकोपयुक्ता, यावत् क्रोधानलवेगेन 'मिसिमिसेमाणे' मिसमिसन् देदीप्यमानः 'उठेइ ' उत्तिष्ठति, 'उहित्ता' उत्थाय एव-वक्ष्यमाणमकारेण अबादीत् ' से' सः 'केस' एषः एतादृशः कोऽस्ति खल्ल भोः ! 'एस' एप: ' अप्पत्यियपस्थिय ' आर्थितमार्थकः, यावत् परिवर्जितः श्री ही धी रहितः, यः खलु मां
पथए कत्तिय चाउम्मासिंयसि कय काउस्सग्गे देवसिय पडिक्कमण पडि ,क्कते चाउम्भासिय पडिक्कामिउकामे सेलय रायरिसि खामणट्टयाए सीसेणं पाएसु स घट्टेइ ) इसी समय पांथक अनगार ने उसी चतुर्मास के कार्तिक महीने में कायोत्सर्ग करके देवसिक प्रतिक्रमण किया। फिर “चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की इच्छा से उसने शैलक राजऋषि के
अपने कृत दोपो की क्षमा याचना निमित्त मस्तक से दोनों चरणों का स्पर्श किया । (तएण से सेलए पथएण सीसेण पाएसुस घटिए समाणे -आसुरूत्ते जाव मिसिमिसे माणे उठेइ ) पायक अनगार के मस्तक से
दोनों चरणों में स्पष्ट हुए वे शैलक राजर्षि इकदम कोप से लाल हो -गये । और मिस मिसाते हुए यावत् क्रोधानल के वेग से दे दीप्यमान होते हुए-वे उठकर बैठ गये। (उद्वित्ता एव वयासी) बैठकर इम प्रकार करने लगे- (से केसण मो एस अप्पत्थिय पत्थिए जाव परिव. (तपण से पथए कत्तियचाउम्मासि यसि कयकाउत्सगो देवसिय पडिकमण पडिक्कते चाउग्नासिय पडिस्कामिउकामे सेलय रायरिसि सामणद्वया सीसेण पापसु सघट्टेइ ) मा मते यातुर्मासना ति: भासभा १ ॥५४ मनगारे કાન્સ કરીને દૈવસિક પ્રતિક્રમણ કર્યું ત્યાર પછી ચાતુર્માસિક પ્રતિક્રમણ કરવાની ઈચ્છાથી તેમણે પિત ના ની ક્ષમાપના માટે શૈલક २२ पिना यशभा पाताना मस्ताना २५। यो तएण से सेलए पथएण सीसेण पाएसु सपट्रिएसु समाणे आसुरुत्ते जात्र मिसमिसेमाणे उद्वेइ ) પાથક અનગારના મસ્તકના બે ને પગેમા થયેના સ્પર્શથી શૈલક રાજઋષિ એકદમ લાલ ચેળ થઈ ગયા, અને કોધ ની જવાળામાં સળગતા તેઓ लहान महा २५ गया (उद्वित्ता एव पयासी) 8t न तेमाये ॥ प्रभार
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अनगारधर्मामृतपणी टीका अ० ५ शैलकराजऋपिचरितनिरूपणम्
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सुखसुप्त पादयोः सवध्यति । ततः खलु स पाथकः शैल के नैवमुक्तः सन् भीतः = भययुक्तः त्रस्तः = उद्विग्न', त्रसितः कम्पितः करतलपरिग्रहीत शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एव - पक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् - ' अहष्ण ' अह सलु भदन्त ! पान्थकः कृतकायोत्सर्ग' 'देवसिय' दैवसिक= प्रतिक्रमण मतिक्रान्तः । हे भदन्त । अह खलु पान्यकनाम भवदीयशिष्यः कायोत्सर्ग कृत्वा दैनिक प्रतिक्रमण कृतवान्, अधुना चातुर्मासिक क्षमापयन् देवानुमियं वन्दमानः शीर्पेण पादयो' सघट्टयामि, हेदेनानुमियाः तत् तस्माद् क्षमभ्व माम्, क्षमध्व मे ममापराध, 'तुमज्जिए ) अरे ! यह कौन ऐसा हैं जो श्री ट्री से रहित बुद्धिवाला हुआ यहा विना बुलाये आ गये है और ण मम सुष्पसुत्त पाएस सघट्टेड ) सुख पूर्वक सोए हुए मुझे पैरों मे स्पर्श कर रहा है । (तएण से पथ सेलण एव बुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिय करयल० कट्टु एव वयासी ) इस प्रकार शैलक के द्वारा कहे जाने पर वह पाथक अनगार डर गया, उद्विग्न हो गया, रोम २ उसका कप गया। उसी समय उसने दोनों हाथों की अजलि जोड कर और उसे मस्तक पर रखकर इस प्रकार कहा - अहण भते पवए कयकाउसग्गे देवसिय पीडिक्कमणं पडिक्कते चाउमा सिय खामेमाणे देवाणुपिय ! वदमाणे सीसेणं पाए समि) हे भदत ! मैं हूँ आपका शिष्य मैं पांथक ने कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण कर लिया है । अब चातुर्मासिक दोषों की क्षमा कराने निमित्त हे देवानुप्रिय आपकी बदना करते हुए मैं आपके चरणों का स्पर्श किया है । (त खम तुम देवाणुध्विया । खमतु मेऽवराह तुमण्णं
४ - ( से केसण भो एस अपत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए ) गरे । आा अ છે ? જે શ્રી હી થી રહીત મૂખ ખેલાવ્યા વગર જ અહીં આવતા રહ્યો છે ( ण मम सुहृदवसुत पाएसु सघट्टेइ ) ने सुमेधी विश्राम इश्नारा भने पशोभा स्पर्श पुरी रह्यो छे (तएण से पथए सेलएण एव वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिय करयल० पट्ट एव वयासी ) शैस ऋषिनी मा वात सालजीने पाथ અનગાર ડરી ગયા, ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયા અને તેમના અણુ અણુમા ભય બ્યાસ થઈ ગયા તરત જ તે અને હાથેાની અજલિ મન્તર્ક મૂકીને આ प्रभाचे आहेवा साग्या - ( अण्ण भते पथए कयकाउसग्गे देवसिय पडिक्कमण पढिवक्कते चाउम्माखिय सामेमाणे देवानुप्पिय ! व दमाणे सीसेण पाएमु सट्टेमि ) હે ભદત ! આતે હું છુ આપને શિષ્ય પાથક મે કાયાત્મગ કરીને દેવસિક પ્રતિક્રમણ કરી લીધુ છે. ચાતુર્માસિક દોષોની ક્ષમાપના માટે તમારા ચરણેામા भे भस्तङना स्पर्श छे ( त समेतु म दवाणुप्पिया ! खमतु मेऽमराह'
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ण ' यूय खलु । हे देवानुमियाः ' जाइ शुज्जो' न भूयः एव करणाय प्रवर्तिष्ये इति कृत्वा = इत्युक्त्वा शैलकमनगारमेतदर्थं सम्यग विनयेन 'भुज्जो सुज्जो' भूयो भूयः पुन पुनः ' खामेइ ' क्षमयति शैलस्य राजर्षे क्रोवोपशमनार्थं पुनः पुनः स्वापराध क्षमयति स्मेत्यर्थ' ।
ततः खलु तस्य शैलरुस्य राजर्षेः पान्यकेनैवमुक्तस्य अयमेतद्रवीक्ष्यमाणरूपः यावत् सकल्प समुदपद्यत = अभनत् - एवम् = अमुना प्रकारेण सलु निश्वये, अह सर्व राज्य त्यक्त्वा च यावत् दीक्षा गृहीत्वा पुनर्विपुलानपानादौ मूच्छितः गृद्धः अध्युपपन्नः अवसन्नः, यावत् अवसन्नविहारी, पार्श्वस्थविहारी कुशीलः कुशीलविहारी प्रमत्तः ससक्तचतुर्मासापगमेऽपि ऋतुनद्धपीठफलकशग्यासस्तारक गृहीत्या विहदेवाणुपिया ! णाह मुज्जो एव करणयाए त्ति कट्टु सेलय अणगार एयम सम्म विणण भुज्जो २ खामेइ ) इसलिये हे देवानुप्रिय ! आप मुझे क्षमा कीजिये | अप मैं हे देवानुप्रिय ! पुनः ऐसा नही करूँगा । इस प्रकार कहकर उसने वार २ शैलक अनगार से अपने इस अपराध की बड़े विनय के साथ क्षमा मागी । (लएणं तस्म से लयस्स रायरिसिस्स पथरण एव वृत्तस्स अयमेयारू वे जाव समुप्पज्जिया) इस प्रकार पांथक अनगार के कहने पर उस शैलक राजर्षि के मन मे यह इस प्रकार का यावत् सकल्प उत्पन्न हुआ (एव खलु अह रज्ज च जाव ओसनो जाब उउ बद्धपीठ फलग सेज्जासधारण गिष्टित्ता विरामि त नो खलु कप्पड़ समणाण ओसन्ना ण पासत्या पण जाव विहरित्तए) मैने समस्त राज्यका परित्याग कर यावत् जिनदीक्षा धारण की है परन्तु अन मै पुन विपुल अशन
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तुमण्ण देवाणुपिया । णाई मुज्जो एव करणयाए तिकट्टु सेलय अणगार एयम सम्म विणएण भुज्जो २ खामेइ ) मेथी हे हेवानुप्रिय ! तभे भने क्षभा કરા હું દેવાનુપ્રિય ! હવેથી મારાથી આવુ કોઈપશુ દિવસ થશે નહિં. આ પ્રમાણે પાથક અનગારે શૈલક રાજઋષિની પેતાના અપરાધ બદલ વાર વાર विनम्र थाने क्षमा याचना उरी, ( तपण तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स्र पथएण एवं वुत्तरस अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जिस्था ) मा प्रभा पाथ अनगारनी વાત સાભળીને શૈલક રાજર્ષિના મનમા આ જાતના સકલ્પ-વિચાર સ્ફુર્યાં ॐ ( एवं खलु अह रज्ज च जान ओसनो जाव उउचदपीढफ्लगसेज्जा सधारण गिव्हित्ता विरामि त नो खलु कप्पइ भ्रमणार्ण ओसन्नाण पासस्थान जाव विहरित्तर ) स रा पैलवना त्याग उरीने भे निनदीक्षा भेजवा छे પશુ અત્યારે ફરી હું પુષ્કળ પ્રમાણુમા અશન, વાન વગેરેના સેવનમા આસ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ५ शैलष राजऋपिच रित निरूपणम्
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1 पा
रामि । तत्= तस्मात् नो ख्लु कल्पते श्रग्णानाम् अनगाराणा 'पासल्याण र्श्वत्थाना यावत् क्रोन' असन्नाण कुसीलाणं पमत्ताण ससत्ताण इत्येवा सग्रह | 4 अवसन्ना ' पार्श्वस्था कुशीलाः प्रमत्ताः ससक्ताश्च भूत्वाऽनगाराणा विहन्तुं न कल्पते इत्यर्थः ।
"
,
त सेय' तन्ड्रेयः तत् तस्मात् श्रेयः खलु मे मम क्ल्ये प्रभातकाले मण्डूक राजानमापृच्छय प्रतिहारिक = प्रत्यर्पणीय, पीठफ्लकशय्यासस्तारक प्रत्यय पान्यकेनानगारेण सार्धं वहि: ' अब्भुज्जरण 'अभ्युद्यतेन=उत्तमसहितेन यावत्इह यावत् करणात् - ' पव्वण, पग्गहियेण ' इत्यनयो सग्रह ।' पव्वत्तेण ' प्रदत्तेन, तीथकरानुज्ञापितेन गुरूपदिष्टेन इत्यर्थः, ' परगहियेण ' प्रटहीतेन, daiकृतेन, गुरसकाशान्मयाद्ङ्गीकृतेनेत्यर्थः जनपद विहारेण विहर्तुम् । नवपान आदि में मूच्छित धन रहा हूँ । उन में रनेहरूपी रज्जु से बँध गया हूँ । लोलुप हो गया हूँ । सरस आहार आदि के अधीन मेरा जीवन हो गया है । स्वायाय प्रतिलेखन आदि आवश्यक क्रियाओ से मैं शिथिल हो रहा हूँ | मेरी चरण सत्तरी और करण सत्तरी दोनों ही आलस्य के वश से मदीभूत हो रही हैं। इसलिये मैं पार्श्वस्थ हो रहा हूँ। पार्श्वस्थों के जैसा मेरा बिहार वर्ताव हो गया है। कुशील - कुत्सित आचार वाला बन गया हूँ | कुशील विहारी हो रहा हूँ । प्रमत्त दशाधीन होकर गौरव से सकीर्ण आचारवाला बना हुआ है। ऋतुद्ध पीठ फल्क शय्या सस्तारक का से वी हो रहा हूँ । अतः अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील प्रमत्त एव ससक्त होकर अनगार रूप से रहना यह श्रेयस्कर नही है । ( त सेय खलु मे कल्ल मड्डय राय आपुच्छित्ता पाडिहारिय पीठ કત થઈ રહ્યો છુ સ્નેહરૂપી દારીમા હુ ખધાઈ ગયે છુ હું લેલુપ થઇ ગયા છુ મારૂ જીવન સરસ આહારને આધિન થઈ ગયુ છે પ્રતિલેખન વગેરે આવશ્યક ક્રિમા હું શિથિલ થઈ ગયા છ સત્તરી અને કર સત્તરી ખને આળસને લીધે મદ થઇ રહી છે પાસ્વસ્થ થઇ રહ્યો છુ મારે વિહાર અને આચરણ પણ પારવ'ત્થાની જેમ જ થવા માડયા છે કુશીલ-એટલે કે હુ કુત્સિત આચરણ વાળા થઇ ગયા છુ કુશીલ—વિહારી થઈ રહ્યો છુ પ્રમત્તના જેવી દશાવાળા હુ, ગૌરવત્રયથી સકી આચાર વાળા થઇ રહ્યો છુ હું ઋતુબદ્ધ પીઠ રૅલક શય્યા સસ્તારક ને સેવનારા થઈ ગયા છુ એથી અવસન્ન, પાત્સ્વસ્થ કુશીલ પ્રમત્ત અને ससक्त थाने अनगार इये रहेवु श्रेयस्ार नथी ( त सेर्य खलु में कल्ल महुय राय आपुच्छिता पाडिहारिय पीठफलग सेज्जा सधारय पञ्चविनिता पथरण
સ્વાઘ્યાય
મારી ચરણ
એથી હુ
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भाताधर्मकथा कल्पिविहारेण देशमध्ये विहार गर्नु श्रेय इत्यर्थ । एवम् उक्तप्रकारेण, 'संप्रेक्षते स्व मनसि विचारयतिस्मेत्यर्थः । ' सपेहिता 'संप्रेक्ष्य चिनार्य, कल्ये यावद्विारति । अत्र यावच्छन्देन-जन्तेमहय राय आपुच्छित्ता, पाहिहारिय, पीड़फलग सेज्जासथारय पच्चप्पिणइ, पञ्चप्पिणित्ता पथएण अनगारेण सदि बहिया अभुज्जएण जाव जणवयविहारेणं' इतिपाठस्य सग्रहः ॥ ३२ ॥ फलग सेज्जा संधारय पच्चपिणित्ता पंधण्ण अणगारेणं सद्धि पहिया अन्भुजएण जाव जणग्यविरारेण विररित्तए एव संपेहेर, संपेहित्ता कल्ल याव विहरह) मेरा रिततो अय इसी में हैं कि प्रात काल मडक राजा से पूछकर प्रतिरारिका-जो ये पीठ फलग शय्या सस्तारक है उन्हे पीछे देकर पायक अनगार के साथ उत्तम योगरूप उद्यम से युक्त-अप्रमत्तदशा विशिष्ट-तीर्थ करादि द्वारा आचरित और गुरू जन द्वारा उपदिष्ट-ऐमाविरार यहा से कर । अर्थात् नव कल्पित विहार से अन्य देशों में विहार करना ही मुझे अय हितकारक है । इस प्रकार का विचार शैलक अनगार ने किया। याद में वे इसी विचार के अनुसार वहां से विहार कर गये। यहा यावत् शब्द से "जलते-मडय राय आपुच्उित्ता पाडिहारिय पीठफलग सेजासधारय पच्चप्पिणड, पच्चेपिणित्ता पथएण अणगारेण सद्धि यरिया अम्भुनण्ण जाव जणक्य विहारेण" इस पाठ का सग्रह हुआ है । इसका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है । सूत्र ॥ ३० ॥ अणगारेण सद्धि बहिया अभुजए ण जाव जणवय विहारेण विहरित्तए एव सपेहेह संपेहिता कल्ल याव विहरइ) ड भारा पाताने भाटे तो मेरा श्रेयर ગણાય કે સવારે મહૂકરાજાને જણાવી પીઠ ફલક શય્યા સખ્તારક સેપીને પાથક અનગારની સાથે cત્તમ યોગરૂપ ઉદ્યમથી યુક્ત-અપ્રમત્તદશાવિશિષ્ટ -અને તીથકર વગેરે દ્વારા આચરિત અને ગુરુ જન દ્વારા ઉપદિષ્ટ વિહાર કરૂ એટલે કે નવ કલ્પિત વિહારથી બીજા દેશોમાં વિહાર કરે જ હવે અત્યારના સજોગોમાં મારે માટે હિતાવહ છે આરીતે રોલક અનગારે વિચાર કર્યો ત્યાર પછી એ વિચાર પ્રમાણે જ ત્યાંથી તેઓએ બીજે વિહાર કર્યો मडी यात्' श७४थी "जलते मडुय राय आपुन्छिता पाडिहारिय पीठफळगसेज्जा संथारय पञ्चप्पिणइ, पच्चप्पिणिता पथएण अणगारेण सदि बहिया अध्भुज्जएण जाव जणययविहारेण) मा पाइने स थ छे माना पर्थ पहला સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. સૂત્ર “૩૨ ” છે
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अमगारधर्मामृतधषिणोटी० अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् ११
मूलम्-एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाण अंतिए पवइए समाणे ओसन्ने जाव सथारए पमत्ते विहरइ, से ण इहलोए चेव वहणं समणाण ४ हीलणिज्जे ससारो भाणियव्वो ॥ सू० ३३ ॥ टीका-'एवामेव' इत्यादि-एवमेन अनेन प्रकारेणैव यथा शैलको रानपिः प्रमादी जातस्तथैव हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! योऽस्माक निग्रंथो वा निर्ग्रन्थी वा आचर्योपा न्यायानामन्तिके समीपे प्राजितः गृहीतप्रव्रज्यः सन् अबसन्न यावत्-सस्तारकेअत्र यावच्छन्देन-अवसननिहारी, पार्थस्थः पार्थास्थविहारी, कुशील कुशीलविहारी प्रमत्तः ससक्तः ऋतुबद्धपीठफलकशग्या' इत्यतः पाठ' सगृह्यते । एव चावसन्नत्यादि विशिष्ट सन् ऋतुपद्धपीठफल मशग्यासस्तारके प्रमत्तः-प्रमादीभूत्वा विहरति अवतिष्ठते, स खलु इह लोके चैव बहूना अमणाना४ श्रमणीना श्रावकाणा श्राविकाणा
'एवामेव समणाउसो' इत्यादि । टीकार्थ-( एवामेव ) जिस तरह शैलक राजऋषि प्रमादी हुवे उसी तरह ( समणाउसो) हे आयुष्मन्त श्रमणो ! (जो अम्ह निग्गंथो वा निग्गथी वा आयरिय उवज्झयाण अतिए पव्वइए समाणे ओसन्ने जाव सथोरण पमत्ते विदरइ इह लोग चेव बहण समणाण ४ हीलणिज्जे ससोरो भाणिययो) जो कोई हमारा निर्ग्रन्थ वा निर्ग्रन्थी जन आचार्य , उपाध्याय के पास प्रत्रजित होता हुआ अवसन्न धन जाता है यावत् ऋतु घद्ध पीठ फलकशग्या सस्तारक मे प्रमत्त होकर बैठा रहता है वह इस लोक में अनेक श्रमण,श्रमणी श्रावक,श्राविकाओ द्वारा हीलनीय होता
(एवामेव समणाउसो) त्या
Ashथ-(एवामेव) रेभ शैल४२।१ *षि प्रमाश थयातम (समणासो) 3 मायुष्मन्त श्रभो ! (जो अम्ह निगगथोवा निग्गीवो आयरिय उवज्झयाण अतिए पवइए समाणे ओसन्ने जाव सथारए पमत्ते विहाइ इह लोए चेव वहूर्ण समाणाण ४ हील णिज्जे ससारो भाणियव्वो) अ सभा नि નિર્ચ થી જન આચાર્ય ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રવ્રુજિત થઈને અવસન્ન થઈ જાય છે યાવત્ ઋતુ બદ્ર પી. ફલક રાવ્યા સસ્તારકમાં પ્રમત્ત થઈને બેસી રહે છે તે આ લેકમા ઘણા શ્રમણે શમણીઓ અને શ્રાવક શ્રાવિકાઓ દ્વારા
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होताधर्मकथा हीलनीयः निन्दनीय खिसनीयः गईणीयः परिभानीयः, भाति । परलोकेऽपिच खलु आगच्छति, प्राप्नोति बहूनि दण्डानानि 'ससारो भाणिययो' ससारो भणि सव्यः । संसारे स परिभ्राम्यति अत्र ससारपरिभ्रमणपाठो पान्य -यथा- 'मैं पाइय अणवदग्ग दीहमद्ध चाउरत ससारक तार अशुपरियष्टइ ' अनादिकम् अनवदनम् अनन्त दीर्घाद्ध दीर्धकाल, दोर्धाधान वा दीर्धमार्ग, चातुरन्त चतुर्निमाग, चतुर्गविक, ससारएव कान्तार दुर्गममार्ग तत्, तथा अनुपर्यटति पुनःपुन म्यतीत्यर्थः ॥३३॥
मूलम्-तएण ते पथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा अन्नमन्न सदाति, सदावित्ता एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेणं सद्धि पहिया जाव विहरइ, त सेयं खल्लु देवाणुप्पिया । अम्ह सेलयं उबसपज्जित्ताणं विहरित्तए, एवं संपेहति, सपेहिता सेलय राय उपसंपजित्ताणं विहरंति ॥ सू० ३४ ॥ है, निंदनीय होता है, खिंसनीय होता है, गर्हणीय होता है, परिभ वनीय होता है तथा परलोक में भी अनेक दण्डो को पाता है । ससार में वह परिभ्रमण करता है।
ससार परिभ्रमण सबन्धी पाठ यहा इस प्रकार से लगा लेना चाहिये। " अणाइय अणघदग्ग दीमद्ध चाउरतसमारकतार अणुपरियहह" इसका भाव इस प्रकार है-ऐसा जीव अनादि अनतरूप ससार कान्तार में कि जो चतुर्गतिरूप विभाग वाला है और जिसका मार्ग या काल बहुत दीर्घ है उसमें पुनः पुनः भ्रमण करता रहता है। सूत्र ॥ ३३ ॥ હીલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે, ખિસનીય હોય છે, ગહણીય હોય છે, પરિભવનીય હોય છે તેમજ પરકમાં પણ ઘણી જાતની શિક્ષાને પાત્ર થાય છે તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતા જ રહે છે
ससा२ परिभर विष पा8 मडी मा प्रभारी तg नये (अणाइय अणवद्ग्ग दीहमद चाउरतसमारकतार अणुपरियट्टई) मान! माप मा प्रभारी છે કે-ચતુર્ગતિ રૂપ વિભાગવાળા અનાદિ અનત રૂપ સ સાર તાતારમાં કે જેને માર્ગ ખૂબજ દીધું છે વારંવાર જીવ પરિભ્રમણ કરતા રહે ) ૩૩
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अनगारधर्मामृतवपिणो टीका अ० ५ शैलकराजमपिवरितनिरूपणम् १६३
टीका-'तएण' इत्यादि-ततस्तदनन्तर पान्थावर्जाः पञ्चअनगारशतानि-पान्धक रहिताः पञ्चशतमख्यका अनगारा एकोनपञ्चशतसख्यका अनगारा इत्यर्थः । 'इमीसे कहाए । अस्या स्थाया , ल्यवलोपे कर्मण्यधिकरणे चेति वार्तिकेन पञ्चमी । इमा स्थामारण्येत्यर्थः । ' लट्ठा'रब्धार्थाः माप्ताभिलपिताः सन्तः ' अन्नमन्न' अन्योन्य परस्पर 'सदावे ति' शब्दयन्ति आवयन्ति, शब्दयित्वाआहृय, एव वक्ष्यमाणपकारेण अवादिपुः-शैलको राजर्पिः पान्थकेनानगारेण साधं हि विद् विहरति, अत्र यावच्छन्देन-अन्भुज्जएण परत्तेण पडिग्गहिएण जणवयविहार इति पाठस्य सग्रह अस्य व्याख्या प्रागुक्ता । तत्-तस्मात् श्रेय: खलु हे देवानुमियाः अस्माक शैलक शैलकराजर्पिम् ' उपसपज्जित्ता उपसद्य
'तएण ते पथगवजा' इत्यादि ।। टीकार्थ-(तएण इसके बाद (ते पथगवजा पच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठासमणा अन्नमन्न सद्दावेति) वे पांथक वर्ज५००) सौ अनगार अर्थात् ४९९ चे साधु जो शैरक राजऋषि के शिष्य थे जब इस कथा को सुना-तो सुनकर अभिलपित अर्थ की प्राप्ति वाले बनकर उन्हो ने आपस में एक दसरे को बुलाया-(सदावित्ता एव वयासी) घुलाकर इस प्रकार विचार किया-(सेलए रापरिसी पथएण अणगारेण सद्धिं पहिया जाव विहरइ ) शैलक राजऋषि पांथक अनगार के साथ बाहर जनपदों में यावत् विहार कर रहे हैं।
यहा यावत् शब्द से " अन्भुज्जएण पवत्तेणं पडिग्गहिएणंजणवय विहार " इस पाठ का संग्रह किया गया है। इन पदो की व्याख्या
(तण्ण ते पथगवजा) इत्यादि !
थ-(तएण) तारा (ते पथगवज्जा पच अणगारसया इमीसे कहाए लद्धट्टा समाणा अन्नमन्न सदाति ) पायाने मा ४२ता भीort यारसा नवा રાજઋષિ શૈલકના શિષ્યઓએ જ્યારે આ બધી વિગત જાણું ત્યારે ઈચ્છિત અર્થની પ્રાપ્તિની અભિલાષા રાખતા તેઓએ એક બીજાને એક સ્થાને એકઠા य। भाटे मासा (सहावित्ता एव वयासो) मालाचीन में व्याये । थएन तो विया२ ४२११ साया, (सेलए रायरिसी पथएण अणगारेण सर्शि पहिया जाव विहरइ) शैक्ष४ सय ५५ सनगारनी साथे महार જનપદમા વિહાર કરી રહ્યા છે,
मडी (यापन ) श छ तेनाथी ( अन्भुज्जए ण पवत्तेण पडिग हिएण जगवयविहार ) मा पाईना सम यो छ, म पहानी
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हाताधर्म यासो हीलनीयः निन्दनीय खिंसनीयः गईणीयः परिभानीयः, भाति । परलोकेऽपिच खलु आगच्छति, माप्नोति यहूनि दण्डानानि 'ससारो भाणियगो' ससारो मणि सव्यः । ससारे स परिभ्राम्यति अत्र ससारपरिभ्रमणपाठो मान्य -यथा- 'अ णाइय अणपदग्ग दीहमद चाउरत ससारक तार अणुपरियष्टइ ' अनादिकम् अनवदनम् अनन्त दीर्धाद्ध दीर्धकाल, दोर्धावान वा दीर्धमार्ग, चातुरन्त चतुर्तिमाग, चतुर्गतिक, ससारएव कान्तार दुर्गममार्ग तत्, तथा अनुपर्यटति पुनःपुन म्यतीत्यर्थः ॥३३॥
मूलम्-तएणं ते पथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्टा समाणा अन्नमन्न सदावति, सदावित्ता एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेण सद्धिं वाहिया जाव विहरइ, त सेयं खलु देवाणुप्पिया । अम्ह सेलयं उबसपज्जिताणं विहरित्तए, एव संपेहेंति, सपेहिता सेलय रायं उपसपजि. ताणं विहरंति ॥ सू० ३४ ॥ है, निंदनीय होता है, खिंसनीय होता है, गर्हणीय होता है, परिभ चनीय होता है तथा परलोक में भी अनेक दण्डो को पाता है । ससार में वह परिभ्रमण करता है।
ससार परिभ्रमण सबन्धी पाठ यहाइस प्रकार से लगा लेना चाहिये। "अणाइय अणवदग्ग दीहमद्ध चाउरतसमारकतार अणुपरियहा" इसका भाव इस प्रकार है-ऐसा जीव अनादि अनतरूप ससार कान्तार में कि जो चतुर्गतिरूप विभाग वाला है और जिसका मार्ग या काल बहुत दी है उसमें पुनः पुनः भ्रमण करता रहता है। सूत्र ॥ ३३ ॥ હિલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે, ખિ સનીય હોય છે, ગર્હણીય હોય છે, પરિભવનીય હોય છે તેમજ પરેલેકમાં પણ ઘણી જાતની શિક્ષાને પાત્ર અય છે તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતો જ રહે છે
ससार परिसभ विच पाठ मही मा प्रभारी नयी नये (अणाइय अणवदग्ग दीहमद चाउरतसमारकतार अणुपरियट्टई ) मानो माया प्रभारी છે કે–ચતુર્ગતિ રૂપ વિભાગવાળા અનાદિ અન તરૂપ સ સાર કાતારમાં કે જેને માર્ગ ખૂબજ દીધું છે વાર વાર જીવ પરિભ્રમણ કરતા રહે છે સૂત્ર ૩૩
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अनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० ५ शैलकराजमपिचरितनिरूपणम्
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टीका- 'तएण ' इत्यादि - ततस्तदनन्तर पान्थरुवः पञ्चअनगारशतानि=पान्थक रहिताः पञ्चशतमख्यका अनगारा एकोनपञ्चशतसख्यका अनगारा इत्यर्थः । 'इमीसे कहाए' अस्या श्याया व्यवलोपे कर्मण्यधिकरणे चेति वार्तिकेन पञ्चमी । इमा कथामाम्येत्यर्थः । ' लखट्ठा ' व्धार्थाः प्राप्ताभिलपिताः सन्तः अन्नमन्न' अन्योन्य परस्पर ' सहावे ति शब्दयन्ति आह्वयन्ति, शब्दयित्वा = आहूय एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिपुः - शैलको राजर्पिः पान्थकेनानगारेण सार्धं विद् विहरति, अन यावच्छदेन-अव्भुज्जएण पनत्तेण पडिग्गा दिएण जणवयविहार इति पाठस्य संग्रह अस्य व्याख्या मागुक्ता । तत् = तस्मात् श्रेयः खलु हे देवानुप्रियाः अस्माक शैलक शैलकराजर्षिम् ' उवसपज्जित्ता उपसद्य = तएण ते पथगचज्जा ' इत्यादि ॥
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टीकार्य - (तरण इसके बाद (ते पथगवज्जा पच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा समणा अनमन्न सद्दावेंति) वे पाथक वर्ज५००) सौ अनगार अर्थात् ४९९ वे साधु जो शैलक राजऋषि के शिष्य थे जब इस कथा को सुना तो सुनकर अभिलपित अर्थ की प्राप्ति वाले बनकर उन्हो ने आपस में एक दूसरे को बुलाया - ( सद्दावित्ता एव वयासी) बुलाकर इस प्रकार विचार किया - ( सेलए राघरिसी पथएण अणगारेण सद्धिं परिया जाव विहरइ ) शैलक राजऋषि पाथक अनगार के साथ बाहर जनपदों में यावत् विहार कर रहे हैं ।
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यहा यावत् शब्द से 'अन्भुज्जएण पवन्तेण पडिग्गहिएण जणवय बिहार " इस पाठ का संग्रह किया गया है । इन पदो की व्याख्या
( तण ते पथगवज्जा ) इत्यादि !
टीडार्थ - (तएण ) त्यार बाह (ते पथगवज्जा पच अणगारसया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाना अन्नमन्न सहावेंति ) पाथने माह उश्ता मीन यारसो नवालु રાજઋષિ શૈલના શિષ્યએએ જ્યારે આ ખષી વિગત જાણી ત્યારે ઇચ્છિત અની પ્રાપ્તિની અભિલાષા રાખતા તેઆએ એક બીજાને એક સ્થાને એકઠા यश भाटे मोलाच्या ( सद्दावित्ता एव वयासी ) गोसावीने भेामेा थाने तेथे। विचार श्वा साभ्या, (सेलए रायरिसी पथएण अणगारेण सि बहिया जाव विहरइ ) डे शेस राष्ट्रऋषि पाथ अनगारनी साथै महार જનપદ્મમા વિહાર કરી રહ્યા છે,
मडी ने ( यावत् ) शब्द छे तेनाथी ( अभुज्जए ण पवतेण परिग्ग हिएण जगवयविहार ) मा पाउना સગ્રહ થયા છે, આ પાની
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
उपगत्य तदाज्ञामीकृत्य हि जनपदविहार कर्तुमित्यर्थ । एव अमुना मका रेण सप्रेक्षन्ते परस्पर पर्यालोचयन्ति, समेय पर्या दोन्य शैलक 'राय' राजान राजर्षिमित्यर्थ उपसपध = उपेत्य तदाशामादाय विहरन्ति ॥ ३४ ॥
मूलम् तपणं सेलए पथगपामोक्खा पंच अणगारसया वहूणि वासाणि सामन्नपरियाग पाउणित्ता जेणेव पोंडरीये पव्त्रए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जहेव यावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा । एवामेव समणाउसो जो अम्ह निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव विहरिस्es |
एव खल जंबू । समणेण भगवया महावीरेण जाव संप' तेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्तेत्ति वेमि ॥३५॥
॥ पचम णायज्झयण समन्त ॥
पहिले कर दी गई है । ( त सेय खलु देवाणुप्पिया । अम्ह सेलय उब सज्जित्ताणं विहरित ) इसलिये हे देवानुप्रियो 'अब हम लोगो को यही उचित-कल्याण कारक मार्ग है कि हम सब उन शैलक राजऋषि की आज्ञा को अगीकार कर बाहर जनपदों में विहार करें।
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( एव सपेर्हेति ) इस प्रकार उन्होंने विचार किया - (सपेहिता सेलय राय उपसपजित्ताण विहरति ) विचार कर वे सब के सब शैलक राजा - राजऋषि के पास पहुॅचे और उनकी आज्ञा लेकर बिहार करने लगे | सूत्र ॥ ३४ ॥
व्यभ्या पहेला श्वामा भावी छे ( त सेय खलु देवापिया ! अम्ह सेल्य उवसपज्जित्ताण विहरितए) मेथी हे हेवानुप्रियो । અમારા માટે એજ હિતાવહ છે કે અમે બધા તે શૈલક રાજઋષિની આજ્ઞા મેળવીને બહાર ના જનદેમા વિહાર માટે નીકળીએ
( एव सपेहेंति) या प्रभो विचार अर्यो ( सपेहित्ता सेलय राय उपसप जित्ताण विहरति ) विचार पुरीने तेथे मघा शेव रापिनी पासे गया અને તેમની આજ્ઞા મેળવીને વિહાર કરવા લાગ્યા! સૂત્ર “ ૩૪ ” ૫
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ५ शैल्कराजमपिचरितनिरूपणम्
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टीका -- ततस्तदनन्तर खलु ' सेलए ' शैलकराजर्षिः ' पथगपामोक्खा पान्थकप्रमुखाः, 'पच 'पञ्च, जगगारसया' अन्गारशतानि बहूनि वर्षाणि 'सामन्नपरियाग ' श्रामण्यपर्याय 'पाउणत्ता' पालयिसा यत्रैत्र पुण्डरीकः पुण्ड पर्वतस्तत्रेोपगच्छन्ति, उपागत्य यथैव स्थापत्यापुत्रः सिद्धस्तथैव सिद्धः । मासिकीं सलेसना कृत्वा केवलीभूता सिद्धा मुक्ता जाता इत्यर्थः ।
एवमेन शैलराजर्षिटेन, हे श्रमणा आयुष्मन्तः । योऽस्माक निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावद् प्रमाद परित्यज्य अभ्युद्यतेन सोद्यमेन प्रदत्तेन तीर्थकरानुज्ञा
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' तरणं सेलए पंथगपामोक्खा ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (ar) इसके बाद (सेलए) वे शैलक राजऋषि और (प पामोक्खा पच सय अणगारसया ) पायक प्रमुख पांचसौ अनगार (बहणि वासाणि) अनेक वर्षो तक (सामन्नपरियाग पाउणित्ता श्रामण्यपर्याय का पालन करके ( जेणेव पोंडरीये पव्वए तेणेव उवागच्छति ) जहा पुडरीक पर्वत था वहा आये । ( उवागच्छित्ता जहेव धावच्चा पुत्ते तव सिद्धा) वहा आकर स्थापत्यापुत्र अनगार की तरह १ मास की सलेखना कर केवली होकर मुक्त हो गये । अर्थात् सिद्ध हो गये ।
( एवा मेव समणाउसो जो अम्ह निग्गंधो वा निग्गयी वा जाव बिहरिस्त ) इसी तरह शैलक राजऋषि की तरह - ( समणाउसो ) हे आयुष्मत श्रमणो ! (जो अम्ह निग्गथो वा निग्गथी वा जाव विहरि स्सइ) जो श्रमण और निर्ग्रन्थ सा वीजन यावत् प्रमाद निर्ग्रन्थ हमारा
( तएण सेउए पथगपामोक्खा ) इत्यादि
टीडार्थ - (तएण ) त्यार माह (सेटए) शैव शरऋषि ने (पथगपामोक्खा पच अणगारसया ) पाथ प्रमुख पायसेो अनगार ( बहूणि वासाणि ) घा वर्षो सुधी ( सामन्नपरियाग पाउणित्ता ) श्रामण्य पर्यायनु यासन उरीने ( जेणेव पोंडरोये पoत्रए तेणेत्र उवागच्छति ) न्या युडरी पर्वत हतो त्या आव्या (उत्रागाच्छित्ता जहेवयावच्चा पुत्ते तद्देव सिद्धा ) त्या भावीने स्थापत्या પુત્ર અનગારની જેમ એક માસની સલેખના કરીને કેવળી થઈ મુક્ત થઈ ગયા એટલે કે તે સિદ્ધ થયા
"
( एत्रामेत्र समणाउसो जो अम्म निग्ायो वा निगायो ना जाव विहरिसइ) मा प्रभाशे शैलम् राष्ट्रऋषिनी प्रेम (समणाउसो ) से आयुष्भत श्रमशेो ! ( जो अम् निग्गयो वा निग्गथो वा जाव विहरिस्सइ) ने अभाश निर्भय श्रम भने નિ થ સાધ્વી જત પ્રમાદ વેગેરેને ત્યજીને મેમ પ્રદત્ત-જ્ઞ કરાનુજ્ઞાપિત
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हाताधर्म कथा पितेन गुरूपदिष्टेन, प्रगृहीतेन तीर्थकरैरङ्गीकृतेन जनपदविहारेण विहरिष्यति सो ऽनगारश्चतुर्विधसयस्यार्चनीयो चन्दनीयोभूत्वा यावत् ससारस्थान्त कृत्या मोक्षगामी भविष्यति ॥
एव खलु जम्मूः । श्रमणेन भगवता महागीरेण यावत् समाप्तेन सिद्विगति गतेन पञ्चमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमय: उक्तरूपोऽर्थ प्रज्ञा कथित । इति अवी मि-अस्य व्याख्यापूर्वपत् ॥
जो मोसन्नो य पासयो कुमीओ वि पमायो ।
सवेगा उज्जभो होडमा सिद्वो सो शैली जहा ॥ १ ॥ छाया-योऽवसन्नश्च पार्धस्थः कुशीनोऽपि प्रमादतः।
सवेगादुद्यतश्चेत् स्याव पिद्धोऽमौ शैल को यया ॥ १ ॥ ३५ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशमापाकलिवकलितक
लापालापक-मविशुद्धगयपद्यनैकग्रन्यनिर्मापक-यादिमानमर्दक-श्रीशाहूछ त्रपतिकोल्हापुररानमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराज गुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरचिताया 'ज्ञाताधर्मकथा' सूत्रस्थानगारधर्मामृतव
पिण्याख्याया व्याख्याया पश्चमम-ययन सपूर्णम् ॥ का परित्याग कर सोद्यम प्रदत्त-तीर्थ करानुजापित-गुरूपदिष्ट और प्रगृहीत-तीर्थ करों द्वारा अगीकृत किये गये ऐसे जनपद विहार से युक्त होगा वह अनगार चतुर्विध सघका अर्चनीय वदनीय होकर यावत् ससार का अन्त कर मोक्ष गामी होगा।
(एव खलु जबू ! समणेण भगया महावीरेण जाव सपत्ते ण पंचमस्स णायन्झयगस्त अयमद्दे पपगत्तेत्तिमि ) इस प्रकार हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि सिद्धगति को प्राप्त कर चुके हैं इस पाच वे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ऐसा मे कहता हूँ" इति ब्रवीमि " इन पदों की व्याख्या पहिले की ગુરૂ પદિષ્ટ અને પ્રગ્રહીત તેમજ તીર્થ કરે દ્વારા સ્વીકૃત એવા જનપદ વિહારથી યુક્ત થશે તે અનગાર ચતુર્વિધ સઘને અનીય, વદીય થઈને યાવત, સસારને અત કરીને મોક્ષપદ મેળવશે
एव खलु जवू ! समणेण भगवया महावीरेण जाध सपत्ते ण प चमस्स णाय झयणास अयमद्धे पण्णत्ते तिबेमि) मारीत ! सि०५ गति पामेवा ભગવાન મહાવીરે આ જ્ઞ તા અવ્યયનના પાચમા અધ્યયનને અર્થ પ્રજ્ઞસ त्या के माम तने राई छु ' इति विमि " भी पहनी व्याया
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अनगारधामृतपरिणी टीका अ०५ और कगजनपिचरितनिरूपणम् १६७ गई व्याख्या के अनुसार ही जानना चाहिये । इस सग्रह श्लोक का अर्थ इस प्रकार है-जो प्रमाद से अवसान पार्श्वस्थ तथा कुशील हो जाता है वह सायु-अनगार-सवेगभागे से अपने चारित्र मे उद्यम शील होकर औलक राजऋपि की तरह सिद्ध पदका भोका हो जाता है। सूत्र ॥ ३५ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "जाता धर्मकथानसून की अनगारधर्मामृतवर्पिणी व्याख्या का पाचवा
अ-ययन समाप्त।।५॥ પહેલા કરવા માં આવી છે આ સ ગ્રહ શ્લોકને અર્થ આ પ્રમાણે છે-કે જે પ્રમાદથી અવસગ્ન પાર્વસ્થ તેમજ કુશીવ થઈ જાય છે, તે સાધુ (અનગાર) સ વેગ ભાવથી પિતાના ચારિત્રમા ઉવમીલ થઇને શૈલક રાજ ઋષિની જેમ સિધ્ધ પદને મેળવનાર થાય છે | મૂત્ર “૩૫” . શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર શ્રી ઘારીલાલજી મહરાજકૃત જ્ઞાતાધર્મકથાગ સૂત્રની અનગાર ધર્મામૃતવર્ષિણ વ્યાખ્યાનું પાચમુ અધ્યયન સમાપ્ત hપા
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अथ षष्ठमध्ययन प्रारभ्यतेगत पञ्चमाध्ययन-समति पप्ठमारभ्यते अस्याय पूर्वेण महामिसम्बन्धः पत्र माध्ययने प्रमादयतोऽनयमाप्तिः अप्रमादपवश्रगुण अगापि वावर दोपगुणौ कथ्ये ते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्येदमादिमसूत्रम् ।
मूलम्-जइणं भते । समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्त णायज्झयणस्स अयमहे पन्नत्ते छहस्स णं भते । नायज्झयणस्स समणेणं जाव सपत्तेणं के अहे पन्नत्ते , एव खल्ल जं । तेणं कालेणं तेण समएण रायगिहे समोसरणं परिसा निग्गया। तेणं कालेण तेणं समएण समणस्स जे? अतेवासी इदभूई अदूरसामतेजाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ ॥सू०१॥
छठो अध्ययन का प्रारभपांचवां अध्ययन सम्पूर्ण हो चुका है । अब छठा अध्ययन प्रारम्भ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध है कि पाचवें अध्ययन में जो ऐसा कहा गया है कि प्रमाद युक्त अनगार को अनेक अनर्थों की प्राप्ति होती है तथा जो प्रमाद से रहित होते है उन्हें अनेक गुणों का लाभ होता है सो इस अध्ययन द्वारा उन्हीं दोष और गुणो का कथन किया जावेगी इसी सबध को लेकर यह अध्ययन प्रारभ हुआ है । इस का आदि सूत्र यह है-(जइण भते ! समणेण इत्यादि ।
છઠ્ઠા અધ્યયનને પ્રારભપચમા અધ્યયન પછી આ છઠું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે પાચમાં અધ્યયનમાં આ પ્રમાણે નિરૂપણ કરવામા આવ્યુ છે કે પ્રમાદિ અનગાર ઘણા અનર્થો મેળવે છે તેમજ જે આ પ્રમાદિ હોય છે તે ઘણુ ગુણ પ્રાપ્ત કરે છે તે હવે આ અધ્યયનમા તે ગુણે અને દેશનું કથન વર્ણવવામાં આવશે પાચમા અધ્યયનની સાથે આ છઠ્ઠા અવયનને એ જ સ બ ધ છે આ સ બ ધને વિચારવાના ઉપક્રમથી જ આ અધ્યયન શરૂ થયું છે છઠ્ઠા અધ્યયન नु प सूत्र मा छ -जइण भते । समणेण इत्यादि ।
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अनगारामृतवपिणी टीका था. ६ महावीरस्वामिसमवसरणम्
टीकार्थ-'जइण भंते इत्यादि, यदि खलु भदन्त श्रमणेन यावत् सम्माप्तेन पञ्चमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्यः प्राप्तः पप्ठस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन यावत्सप्राप्तेन कोऽथे प्रज्ञप्तः एव खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे समवसरण, परिपत् निर्गता, तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य ३ ज्येष्ठऽन्तेवासी इन्द्रभूतिः अदूरसामन्ते जाव धर्मध्यानोपगतो विहरति ।मु०१॥
टीकार्थ-(भते) हे भदत (जडण) यदि (जावस पत्तेण समणेण) मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने (पचमस्स णायज्झयणस्स) पाचवे ज्ञाता ययन का ( अयमढे पन्नत्ते ) यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है तो (छहस्सण भते ! नायज्झयणस्स समणेण जावस पत्तेण के अटे पन्नत्ते) उन्ही मुक्ति प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है।
(एव खलु जबू!) इस प्रकार जब स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सुधर्मा स्वामी उन से इस तरह करते है कि हे जव। सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है
(तेण कालेण तेण समएण रायगिहे समोसरण परिसा निग्गया) उस काल और उस समय में राजगृह नगर में भगवान महावीर का आगमन हुआ। भगवान् के आगमन की बात सुनकर राजगृह नगर से परिपद उन को वदना करने के लिये उनके समिप पहुँची (ते ण कालेण तेण समएण) उकसाल और उस समय में (समणस्स जेहे अतेवासीह
टाडा--(भते) महन्त ! (जइण ) ले (जाव सपत्तेण समणेण ) भुति भेगवेहा श्रम भगवान महावीरे ( पचमस्स गोयज्झयणस्स ) पायम! साताध्ययनन। (अयम पन्नत्ते) मा पूरित म नि३पित ध्य ता (छद्रस्स ण भते ! नायज्झयणस्स समणेण जाव सपत्तण के अट्टे पन्नत्ते ?) भुति मेवेस श्रम लगवान महावीरेधाज्ञात व्ययनन । अर्थ प्र३पित छ ? ( एव सलु जबु।) yाभीना मतना प्रशने मामणीने साप मापता सुधमा સ્વામી તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જ બૂ! તમારા પ્રશ્ન ને ઉત્તર સાભળે
(तेण कालेण त्ण समएण रायगिहे समोसरण परिसा निया) કાળે અને તે સમયે ગજગૃહ નગરમાં ભગવાન મહાવીર પધાર્યા ભગવાન મહાવીર સ્વામીના આગમનની જાણ થતા તેમને વદન કરવા માટે રાજગૃહ नारथी परिषद नीजी (रण कालेण तेण समएण ) ते अणे अनेते मते (समणस्म जट्टे जसेवामी इदभई यदूरसाते जाव चम्मझाणोवगए
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साताधर्मव्यास मूलम्-तएण से इंदभई जायसङ्के० समणस्स३ एवं वयासी -कहण्णं भते। जीवा गुरुयत्त वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छति ? गोयमा । से जहा नामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्क तुव णि. च्छिड्ड निरुवहयं दंभेहिं कुसहि वेढेइ, वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिपइ लिपित्ता उण्हे दलयइ, सुकं समाण दोच्चपि दम्भेहि य कुसेहि य वेढेइ वेढित्ता मटियालेवेण लिपइ लिपित्ता उण्हे सुक्क समाणं तच्चपि दभेहि य कुसेहि य वेढेइ वेढित्ता मट्टियालेवेण लिंपइ । एवं खल्ल एएणुवाएणं अतरा वेढेमाणे अंतरा लिपेमाणे अतरा सुकवेमाणे जाव अट्रहि मटियालेवेहि आलिपइ, अस्थाहमतारमपोरिसियास उदगसि पविखवेजा, से णूण गोयमा । से तुवे तेसि अण्ह मटियालेवाण गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुयभारियत्ताए उप्पि सलिलमाइवइत्ता अहे धरणियलपइहाणे भवइ। एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइ. वाएण जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुत्वेण अटकम्मपगडोओ समजिणति, तासि गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुयभारियताए कालमासे काल किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नरगतल पइट्ठाणा भवति, एव खल्लु गोयमा । जीवा गुरुयत्त हव्वमागच्छति ॥ सू० २ ॥ दभूई अदूरसामते जाच धम्मज्झाणीवगए विहरह) श्रमण भगवान् महावीर के प्रधान अतेवासी जिनका नाम इन्द्रभूतिथा उचित स्थान परबेठे हुए धर्म भ्यान में तल्लीन थे। सूत्र-१ विहरइ) श्रम समपानना प्रधान सतवासी धन्द्रभूति लयित स्थानमा ધર્મ ધ્યાનમાં લીન હતા | સૂત્ર ૧ |
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ६ इन्द्रभूते' जीवविषये प्रश्न १७१
टीकार्थ-ततः खल स इन्द्रभृतिः जातश्रद्धः०यमणस्य भगवतो महावीरस्य एव-क्ष्यमाणमकारेण-अबादीत् कयं खलु भदन्त । जीवाः 'गुस्यत्त' गुस्कत्वअधोगमनस्वभावकत्ल च लहुयत्त' लघुकत्व-उर्ध्वगमनस्वभावकत्व 'च मागच्छइ हव्यमागन्छन्ति = भगवान् महावीरस्वामी दृष्टान्तप्रदर्शन पुरः सरमुत्तरमाह-' गोयमा' इत्यादि। गौतम !' से ' अथ, 'जहानामए । यथानामका यत्किंचिन्नामकः, एक महत् शुष्क तुम्ब निश्उिद्र-छिद्रवर्जित 'निरुपय निरुपहत वातादिकृतविकाररहितम्. अविशीर्णम् अविदारितमित्यर्थः दभैःडाभनाम्ना प्रसिद्धैस्तृणविशेषः, कुशै. स्वनामविख्यातैस्तणविशेषैः, वेष्टयति, वेष्टयित्वा मृत्तिकालेपेन 'लिंपड' लिम्पति-लिप्त करोति 'लिंपित्ता' लिप्त्वा 'उण्हे' उष्णे-मर्यातपे' ददाति-धारयति, शुष्क सत् द्वितीय मपि-द्वितीय
तएणसे इदभूई जाय सड्डे' इत्यादि । टीकार्य-(तएण) इनके बाद (से इदभूई जाय सड़े०) उन इन्द्रभूति ने कि जिन्हें प्रभु के ऊपर-अपूर्व श्रद्धा है (समणस्स३ एव वयासी) श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार पूछा-(कण भते ! जीवा गुरुयत्तवा लहुयत्त वाहन्धमागधति) हे भदत जीव कैसे भारी अधोगमन करने केस्रभाव को और कैसे लधु स्वभाववाले उर्ध्व गमन करने के स्वभाव को प्राप्नकरते है ? उनके इस प्रश्नका उत्तर भगवान् दृष्टान्त पूर्वक इस प्रकार देते हैं
(गोयमा! से जहा नामए केइ पुरिसे एग मह सुक्क तुब निच्छिह निरुवय दम्भेहिं कुसेहिं वेढेड, वेदित्ता मट्टियालेवेण लिंपड, लिपित्ता उण्हे दलयइ) हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष एक घडी सी निश्छिद्र, वातादि
'तएण से इदभूई जाय सड्ढे' इत्यादि
टीआर्थ-(तएण) त्या२ मा (से इदभूई जाय सड्ढे) प्रलु २ भूम al धरावना न्द्रभूतिय (समणस ३ एष वयासी) श्रम समपान मडावीरने या प्रमाणे प्रश्न पूछयो (कहण्ण भते ! जीवा गुसयत्त वा लहुयत्त वा हव्यमा गच्छति) महन्त ! सारे अधोगमन ४२ना२ २१मापन तम गमन કરનાર લઘુ સ્વભાવને જીવ કવી રીતે મેળવે છે? તેમના આ પ્રશ્નનો જવાબ ભગવાન મહાવીર સ્વામી દુષ્ટાતની સાથે આ પ્રમાણે આપે છે
( गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एग मह सुक्क तुब निजिद निरुवय दभेहि कुसेहि वेढेइ वेदित्ता महियालेवेण लिंपह पिता उन्हे दलयइ) गौतम! म १६ मास मे भेटी
नितहिनि
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माताधर्मकच असते पारमपि दर्भेश्च कुशेश्व वेष्ट पनि, चेष्टयित्वा मृत्तिकालेपेन लिम्पति. । लिप्या उष्णे ददाति, शुष्क सत् ततीयमपितृतीयपारमपि दर्भश्र कुशैश्च वैष्टयति, वेष्टयित्वा मृत्तिकालेपेन लिम्पति । एष खलु 'एएणुशारण ' पनेनोपायेन, अन्तरामध्ये, वेष्टयन्, अन्तरामध्येन लेपयन , अन्तरा-माये शोपयन, यावत् अष्टभिर्मत्ति कालेपैः आलिम्पति-समन्तालिप्त करोति, 'अत्याह' अम्ता-ताघ यारतिजले नासिका न डति तात् म्ताय गाध, स्तापमिति नजममास' तम्मिन् अगाघे ऽति गम्भीरे इत्यर्थः, अथवा-'अत्याह' अय देशीशन्द अगाधार', आपत्वात् सप्तम्यर्थे प्रथमा, 'अतार' अतारे तरीतुमशक्ये, 'अपोरिसियसि अपोरुपिके पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुपिक, न पौरुपिकमित्यपौरुपिक तस्मिन् पुरुषप्रमाणाद धिके, पुरुषैरगाह्ये ' उदर्गसि ' उदके-जले 'पकिय वेज्जा' प्रतिपति । कृतविकार रहित, ऐसीपूरी-०कि जो फटी तुटीं नहिं है तुनी को दर्भा से और कुशों से वेष्टित करता है, और वेष्टितकर फिर उसे मिट्टी के लेप से लपेट देता है-लपेट कर उसे धूप मे सुकाता है (सुक्क समाण दोच्चपि भेदिय कुसेहिय- वेढेड, वेढित्ता मट्टियाले वेणलिंपइ, लिपित्ता उण्हे सुक्क समाण तच्चपि भेहिय कुसे हिय वेढेइ, वेढित्ता महिया लेवेण लिंपह) जन वह अच्छी तरह शुष्क हो जाती है तय दुवारा भी वह उसे दर्भ और कुशों से परि वेष्टित करता है
और परिवेष्टित कर के फिर उस पर मिट्टी का लेप करता हैलेपकर पहिले की तरह फिर उसे धूप में सूग्वने के लिये रख देता है। सुख जाने पर उसे पुनः तृतीय चार दर्भ और कुशों से वेष्टित करता है। वेष्टित करके फिर उस पर मिट्टी का लेप करता है ( एव खलु एएण वारण अतरा वेढेमाणे अतरा लिंपेमाणे अतरा सुक्कवे. माणे जाव अहहिं महियालेवेहिं आलिंपह, अत्याहमतारमपोरिसियास રહિત વગર તૂટેલી બીને દાભ તેમજ કુશથી વીટી લે છે અને ત્યાર બાદ માટીથી તેની આસ પામ લેપ કરે છે અને તેને તાપમાં सवे छ (सुक्क समाण दोच्च पि द मेहिय कुसेहिय वेढेइ, वेढित्ता मट्टियाले वेण लिंपई, लि पित्ता उण्हे सुक समाण तच्च पि दब्भेहिय कुसेहिय वेढेइ, वेढित्ता मट्रियालेवेण लिपइ ) या तभी सारी शेते सू७ तर त्यारे બીજી વખત પણ તેને દાભ અને કુમથી વી ટાળીને ફરી તેના ઉપર માટીને લેપ કરે છે લેપ કર્યા બાદ તેને તાપમાં મૂકે છે આમ સૂઈ ગયા બાદ त्रा मत हाल मन शथी वाटाणी भाटरीना ५ ५२ छ ( एव सलु एएणुवारण अत्तरा वेढेमाणेअतरा लिंपेमाणे अरा सुक्कवेमाणे जाप अहि मट्टियालेवेहि मालि पइ अत्याहमतारमपोरिसिय सि उद्गसि पक्सिवेज्जा) मा
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गारगोटीका अ० ६ ६ भूने जीवविवये प्रश्न
ક્
I
जय-नून = निथेन ! तत्तुम् तेपामण्टाना मृत्तिकालेपाना सम्बन्धाद् 'गुरुture ' गुरुक्तया 'भारिययाए' भारिकतया दर्भकुशमृत्तिकानां भारेण भारा क्रान्तात्या, जतएव - ' गुरुयभारिययाए ' गुरुकमारिकता उक्त हेतुद्वयस्य सद्भावेन शीघ्र निमज्जनस्वभावता प्रदर्शिता उपरि सलिलमतिनज्य = अतिक्रम्य परित्यज्य अधोनीचे धरणीतलप्रतिष्ठान = पृथ्वीतल प्रतिष्ठानमा नारी यस्य तत् भवति = भूमितलमाश्रित्य तिष्ठतीत्यर्थः ।
1
एवमेव गौतम ! जीवा अपि प्राणातिपातेन यात्र पुर्या अष्टकर्ममकृतिः समर्जयन्ति तामा गुरुरुतया उदगसि पक्खिवेना ) इस तरह के उपायसे वीच २ में वेष्टित कर घीच २ में लिंपकर बीच २ मे सुका कर जन आठ बार मिट्टी के लेप से उसे वह लिप्स कर चुकता है और वाद मे उसे अगाध गहरे पानी में कि जो अतार तथा पुरुष प्रमाण से अधिक है डाल देता है ' अत्थाह यह देशीय शब्द है और इसका अर्थ अगाध होता है ( से शृण गोयमा से तु तेसिं अहह मट्टियालेवाण गुरुयात्ताए भारिमत्ताए गुरियनारि यता उपि सलिलमत्ता अहे धरणियलपइट्टोणे भवइ ) तो निश्चय से हे गौतम! वह तुनी उन आठ बार के मिट्टी के लेपो के सब से गुरु हो जाने के कारण और ८ वार के दर्भ कुशों के भार से वजन दार हो जाने के कारण जैसे शीघ्र ही ऊपर में पानी को छोड कर नीचे पानी के बैठ जाती है ( एवामेन गोयमा ! ) इसी तरह हे गौतम । ( जीवा वि पाणाइवाएण जाव मिच्छादसणसल्लेण अणुपुवेण अट्टकम्म पगडीओ समज्जिगति ) जीव मी प्राणातिपातया
मिथ्यादर्शनगल्येन आनु भारिकतया गुरुकमारिक
પ્રમાણે તુમીને આઠ વખત દાભ અને કુશેાથી વીટાળીને તયા આ વખત માટીને લેપ કરીને તાપમા સુવે છે ત્યાર બાદ તેને ઉંડા ‘· અતાર ' તેમજ पुरुष प्रभाणु उरता वधारे घेरा पालीमा नाभीहे छे ( अथाह ) या देशीय शब्द छे भने तेन! अर्थ भागाध होय ते ( से णूण गोग्रमा ! से तु वे सि अठ्ठण्ह महियाले वाण गुरुयात्ताए भारिंयत्ताए गुरियमास्यित्ताए उपि सलिलमइ वइत्ता अहे धरणियलपाणे भाइ ) डे गौतम ! पाणीभा नाथेसी ते तुणी આ વખત માટીના લેપથી ભારે થઇ જવાને કારણે તેમજ આઠ વખત દાભ તથા કુશના ભારથી ભારે થઇ જવાને લીધે પાણીમા નાખતાની સાથે જ पाशीमा नीचे कती रहे छे अर्थात् डूणी लय छे ( एवामेव गोयमा । ) भा प्रभा डे गौतम ! ( जीवा वि पाणाइवारण जाव मिठान सण सल्लेण अणुपुवेण अनुकम्मपगडीओ समज्जिणति ) व पशु भाषातिपात यावत्
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माताधकथा उया कालमासे काल क-या धरणीतलमतिनज्य भयो नरस्त प्रतिष्ठाना भवन्ति, नरकादौ पतन्तीत्यर्थः, एव खलु गौतम ! जीपा गुरुकत्व हव्यमागच्छति शीघ्र नाप्नुवन्ति, यस्मिन्समये माणातिपातादिक कुर्वन्ति, तस्मिन्नेव समये गुरुत्व मा सुबन्तीति हव्य शब्दो द्योतयति ॥ मू०२ ॥
मूलम्-अहणं गोयमा से तुवे तसि पढमिल्लुगसि महि यालेवसि तिनंसि कुहियसि परिसडियसि इसि धरणियलाओ उप्पइत्ताण चिटइ, तएणतर च णं दोचपि मटियालेवे जाव उप्पइत्ताण चिट्टइ, एव खल्ल एएणं उवाएण तेसु अहसु वत् मिथ्या दर्शन शल्य से कम२ कर अष्टकर्मों की प्रकृनियों को उपार्जित करते रहते है । अर्थात् उन से वधते रहते -(तासि गरुयत्ताए भारियत्ताए गरुयभारित्ताए कालमासे काल किच्चा धरणियल महवडत्ता अहे नरगतलपदहणा भवति, एवं खलु गोयमा। जीवा गुरुयत्त हव्वमागच्छति ) उन प्रकृतियो को पौगालिक होनेके कारण गुरु और भारी होने से ये कर्म यध वाले जीव भी गुरु और भारी हो जाते है इस लिये वे काल मास मे काल करते हैं तय धरीणितल को अतिक्रमण कर नीचे नरकतल मे प्रतिष्ठित होजाते हैं।
इस तरह हे गौतम । जीव जिस समय प्राणातिपात आदि कर्मों को करते है उसी समय में वे गुरुत्व अवस्था को प्राप्तहो जाते हैं यहयात
व्य शब्द से द्योतित होती है। सूत्र "२" મિથ્યાદર્શન શવ્યથી ક્રમપૂર્વક આઠ કર્મોની પ્રકૃતિઓનું ઉપાર્જન કરતો રહે छ सेट मा भाथी छ पाता तय छ (तासिं गुरुयत्ताए भारिताए
गुरुयभारित्ताए कालमासे काल क्यिा घराणियलमइवाइत्ता अह नरगतलपइटाणा ___ भवति एव खलु गोयमा ! जीवा गुरुयत्त हव्यमागन्छति) ते ज्ञानावराति मी
ની પ્રકૃતિઓ પદુગલિક છે, ગુરુ તેમજ ભારે છે, એટલા માટે તેમનાથી આ કર્મ બ ધવાળા જીવો પણ ગુરુ તેમજ ભારે થઈ જાય છે એથી તે જ કાળ માસમાં કાળ કરે છે ત્યારે પૃથ્વીનું અતિક્રમણ કરીને તેની નીચે નરક તળમાં અવસ્થિત થઈ જાય છે આ પ્રમાણે હે ગૌતમ! જીવ જયારે પ્રાણાતિપાત વગેરે કર્મો કરે છે તે સમયે જ તેઓ ગુરુત્વ અવસ્થા મેળવે છે. આ વાત “હવ્ય” શબ્દ થી पाय छ ॥ सूत्र २ ॥
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ इन्द्रभूते जीवविषये प्रश्न
महियाले तिनेसु जाव विमुक्तवधणे अहे धरणियलमइवइत्ता उप्पि सलिलतलपट्ठाणे भवइ ।
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एवमेव गोयमा । जीवा पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसण सल्ल वेरमणेणं अणुपुव्वेणं अट्टकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पि लोयग्गपइडाणा भवति, एव खलु गोयमा । जीवा लहुयत्त हव्वमागच्छंति, एवं खलु जंबू । समणेण भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्तेति वेमि ॥ सू० ३ ॥
॥ छटुं नायज्झयणं सम्मन्त ॥ ६ ॥
"
टीका -- अथ खलु गौतम ! तत्तुम्व तस्मिन् ' पढमिल्लुगसि ' प्रथमे मृति कालेपे ' तिम्नसि स्तिमिते आर्द्रता माप्ते ततः 'कुहियसि ' कथिते विनष्टे 'परिसडियसि' परिशटिते - बन्धनमुक्ते सति, ईषत् स्तोक धरणीतलाद् उत्पत्यउभूष खलु तिष्ठति । ततोऽनन्तर च खलु द्वितीयेऽपि मृत्तिकालेपे यावदुत्प
'अण गोयमा' इत्यादि ।
टीकार्य - ( अहणे गोयमा ) हे गौतम । जैसे (से तुवे तमि पढमि लुगसि महियाले सि तिन्नसि कुहियसि परिसडियसि ईसि धरणिय लाओ उपइतोण चिट्ठह ) वह तुबी अपने ऊपर का पहेला लेप जब आई ( गिला ) हो जाता है, कूथित विनष्ट हो जाता है- परिशटित बधन मुक्त हो जाता है तब नीचे से कुछ ऊपर को उठ जाती है ( तयणतरच ण दोच्चपि मट्टियालेवे जाव उप्पादन्ताण चिट्ठ
--
( अहण गोयमा । ) छत्यादि !
टी अर्थ - ( अण गोयमा ) हे गौतम! भ सेतुबे तसि पढमिल्लु सिमट्टियाले सि तिन्नसि कुहिय सि परिसडियसि ईसिं धरणियलाओ उत्पन्ताण चिट्ठइ) पालीमा डूजी गयेसी तुणीनी (यरनो पहेलो बेय न्यारे पालीथी भाई यह लय छे-थित-नाश-यामे छे, परिशरित- भुक्त य लय हे त्यारे ते नीचे थी ४६ थोडी उपर भावे छे, ( तएणतर च र्ण दोच्चपि मट्टियाले
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नाताया तया काळमासे काल कृ-गाधरणीतलमतिमज्य अधो नरकत प्रतिष्ठाना भवन्ति, नरकादौ पनन्तीत्यर्थः, एच खल गौतम ! जोगा गुरुकत्ल हत्यमागच्छति शीघ्र प्राप्नुवन्ति, यस्मिन्समये प्राणातिपातादिक कुर्वन्ति, तस्मिन्नेव समये गुरुत्व प्रा भुवन्तीति हव्य शब्दो द्योतयति ।। मू०२ ।।
मूलम्-अहणं गोथमा से तुवे तंसि पढमिल्लुगसि मटि. यालेवसि तिनंसि कुहियसि परिसडियंसि इसिं धरणियलाओ उप्पइत्ताण चिट्ठइ, तएणंतर च णं दोच्चंपि महियालेवे जाव उप्पइत्ताण चिट्टइ, एवं खल्ल एएण उवाएण तेसु अहसु वत् मिथ्या दर्शन शल्य से क्रम२ कर अप्टफर्मों की प्रकृतियों को उपार्जित करते रहते है । अर्थात् उन से बचते रहते है-(तासिं गरुयत्ताए भारियत्ताए गरुयभारित्ताए कालमासे काल फिच्चा धरणियल महवडत्सा अहे नरगतलपहणा भवति, एव खलु गोयमा। जीवा गुरुयत्त व मागच्छति ) उन प्रकृतियो को पौदालिक होनेके कारण गुरु और भारी होने से ये कर्म वध वाले जीव भी गुरु और भारी हो जाते हैं इस लिये वे काल मास मे काल करते है तब धरीणितल को अतिक्रमण कर नीचे नरकतल मे प्रतिष्ठित होजाते हैं। __ इस तरह हे गौतम । जीव जिस समय प्राणातिपात आदि कर्मों को करते है उसी समय में वे गुरुत्व अवस्था को प्राप्तहो जाते हैं यहयात हव्य शब्द से थोतित होती है। सूत्र "२" મિથ્યાદર્શન શયથી ક્રમપૂર્વક આઠ કર્મોની પ્રકૃતિઓનું ઉપાર્જન કરતો રહે छ सरले मा8 थी 4 मधात तय छ (तासिं गुरुयत्ताए भारित्ताए गुरुयभारित्ताए कालमासे काल विच्चा घराणियलमइवाइत्ता अह नरगतलपइट्ठाणा भवति एव सलु गोयमा ! जीवा गुरुयत्त हन्धमागन्छति) ते ज्ञानावरही ની પ્રકૃતિએ પૌગલિક છે, ગુરુ તેમજ ભારે છે, એટલા માટે તેમનાથી આ કર્મ બ ધવાળા જી પણ ગુરુ તેમજ ભારે થઈ જાય છે એથી તે જી કાળ માસમાં કાળ કરે છે ત્યારે પૃથ્વીનું અતિક્રમણ કરીને તેની નીચે નરક તળમાં અવસ્થિત થઈ જાય છે આ પ્રમાણે છે ગતમ! જીવ જયારે પ્રાણાતિપાત વગેરે કર્મો કરે છે તે સમયે જ તેઓ ગુરુત્વ અવસ્થા મેળવે છે આ વાત “હવ્ય” શબ્દ થી राय छ । सत्र २ ॥
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ६ इन्द्रभृते जीवविषये प्रश्न
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हव्यमागच्छन्ति शीघ्र प्राप्नुवन्ति अस्मिन्नेव समये कर्मक्षये प्रवृत्ता भवन्ति तस्मिन्नेव समये लघुत्व प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ।
एव खलु जम्बः श्रमणेन भगवता महावीरेण पष्ठस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः इति नवीमि, शेष सुगमम् ॥ मु०३ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्गल्लभ-प्रसिद्धवाच पञ्चदशभापाकलितळलितकलापाला पर- प्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहूत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु- चालनाचारि - जैनाचार्य - जैन धर्मदिना करपूज्यश्री - पामीलाप्रतिविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथा ' सूत्रस्थानगारधर्मामृतवपिंण्याख्याया व्याख्याया पष्ठमभ्ययन सपूर्णम् || ६ ||
( एव वलु गोपमा । जीवलपत्त व मागच्छति - एव खलु जवू । समणेण भगवा महावीरेण छस्स नायज्ज्झयणस्स अग्रमडे पन्नते त्तिवेमि ॥ ३ ॥ इस तरह हे गौतम । जिव उर्ध्व गमन स्वभाव को शीघ्र प्राप्त कर लेते है-अत् वे जिस समय कर्मक्षय करने में प्रवृत्त होते हैं उसी समय में वे लघुस्य स्वभाव को माप्त हो जाते हैं । इस प्रकार हे जवू | श्रमण भगवान महावीरने उठे अ ययन का यह अर्थ कहा है। सू० ३। श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाता धर्मवाङ्गसूत्र की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्यारया का छट्टा अ ययन समाप्त। ६ ॥
1
( एवं पत्रु या । जीवा लहुयत्त हव्यमागच्छति - एन खलु जनू समणेण भगनया महान नायज्यणस्स अयमट्टे पनते त्तिभि | ३ | આ પ્રમાણે હે ગૌતમ ! જીવ ઉર્ધ્વગમનવાળા સ્વભાવને તરત જ મેળવી લે છે એટલે કે જ્યારે જીવ કર્મોના નાશ માટે પ્રવૃત્ત થાય છે, ત્યારે જ તે લઘુત્વ સ્વભાવને મેળવે છે હું જબ્રૂ આમ ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા અને ધ્યયનના અથ નિરુપિત કર્યાં છે ! સુત્ર ૩ ॥
શ્રી નૈનાચાર્યે જૈનધમ દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહેારાજકૃતજ્ઞાતાધમ કથાગ સૂત્રની નગાર ધમામૃતવિષ`ણી વ્યાખ્યાનું ટ્રેક્ટુ અધ્યયન સમાપ્ત rs
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जाताधर्मकथा त्य खलु तिष्ठति, एव खलु एतेन उपायेन तेषु अष्टसु मतिकालेपेयु स्तिमितेषु यावत् विमुक्तवधने सति-अधो धरणीवलमतित्रज्य-उत्प य उपरि सलिलतलपति ष्ठान भाति । ___एवमेव गौतम ! जीनाः प्राणातिपातविरमणेन यावत् मिथ्यादर्शनशल्य. चिरमणेन आनुपूा अष्टरमप्रकृति क्षपयिता गगनतमुत्पत्य उपरि लोकाग्रे प्रतिष्ठाना. सिद्धस्वरूपास्थिता भरन्ति । एवं खलु गौतम जी लघुकल एव खलु पण उवाण तेसु अहसु मटियालेवेसु तिन्नेसु जान विमुक्क पधणे अहे धरणियलमहवडत्ता अपि सलिलतलपट्ठाणे भवइ ) इसी तरह द्वितीय मिट्टी का लेप जन गीला होकर नष्ट शे जाता है परिगटित (सुख ) जाता है तब वह तुपी पहिले की अपेक्षा और कुछ वहा से ऊँची उठ जाती है । इसी तरह होते . जर उस तुबी के वे आठों ही लेप गीले कृथिन एव परिशस्ति हो जाते हैं तब वह तुयी बिलकुल धरितल से उठकर ऊपर पानी में आ जाती है (एवामेव गोयमा ' जीवा पाणाइवायरमणेण जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अणुपुत्वेण अट्ठ कम्मपगड़ीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइता उप्पि लोयग्ग पइहाणा भवति ) इसी तरह हे गौतम । जीव प्राणातिपात के पिरमण से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य के विरमण से क्रमश अष्ट कर्मों की प्रवृत्तियो को नष्ट कर ऊपर की ओर गगनतल में उठ कर लोक के अग्रभागमें सिद्ध स्वरूप से अवस्थित हो जाता है। जाव उप्पाइत्ताण चिटुइ ण्य सलु एएण उपाएण तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तिनेसु जाव निमुकाधणे अहे धरणियल मइवइत्ता उप्पिं सलिलतल पइठ्ठाणे भवइ ) २१ शते तुम011 परनी भी मतना ५५ लाना ने ! ગળી જાય છે, નષ્ટ થઈ જાય છે અને પરિશટિત થઈ જાય છે ત્યારે તે પહેલા કરતા પાણીમાં કઈક થોડી વધારે ઉપર આવી જાય છે આમ તબડીના આઠે આઠ લેપ ભીના થઈને ઓગળી જાય છે ત્યારે તુંબડી પોતાની મેળે જ पानी ७५२ तथा मा छे ( एवामेव गोयमा । जीवा पाणाइवायवेरमणे ण जाव मिच्छाद सणसल्लवेरमणेण अणु पुव्वेण अट्ट कम्म पगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पलोयग्गपइट्ठाणा भव ति )
આ પ્રમાણે જ હે ગૌતમ! જીવ પ્રાણાતિપાત ના વિરમણથી ય વત મિથ્યા દશન રાજ્યના વિરમણથી અનુક્રમે આઠ કર્મોની પ્રકૃતિઓનો નાશ કરી ને ઉપર ગગનતળમાં પહોચીને લેડના અગ્ર ભાગમાં સિદ્ધ વરૂપથી અવસ્થિત થાય છે
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ६ इन्द्रभूते जीवविपये प्रश्न १७७ हव्यमागच्छन्ति शीघ्र प्राप्नुवन्ति, अस्मिन्नेव ममये कर्मक्षये प्रत्ता भवन्ति तस्मिन्नेव समये लघुकत्व प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । . ___ एव खलु जम्यूः अमणेन भगवता महावीरेण पष्ठस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः इति नवीमि, शेप सुगमम् ॥ सू०३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूमल्लम-प्रसिद्धवाचापञ्चदशभापाकलितललितक
लापालापा-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिनाकरपूज्यश्री-बासीलारतिविरचिताया 'ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
विण्यारयाया व्यारयायां पष्ठमध्ययन सपूर्णम् ॥ ६॥ ( एव ग्वल गोयमा जीवालहुयत्त हव्य मागन्छति-एव खलु जबू। समणेण भगवया महावीरेण छटस नायज्ज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्तिवेमि ॥ ३ ॥ इस तरह हे गौतम । जिव उर्ध्व गमन स्वभाव को शीघ्र प्राप्त कर लेते है-अर्शत् वे जिस समय कर्मक्षय करने में प्रवृत्त होते हैं उसी समय मे वे लघुरत्व स्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं । इस प्रकार हे जन् । श्रमण भगवान महावीरने उटे अश्यनका यह अर्थ कहा है।सू०३। श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता धर्मकथाङ्गसूत्र की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का छट्ठा
अ ययन समाप्त।। ६॥ (एव जल गया । जीना पहुयत्त हव्यमागन्छ ति-एन खलु जय । समणेण भगया महावीयेग दुस नायज्झुयणस्स अयम? पन्नवे तिमि ।३। આ પ્રમાણે હે ગૌતમ! જીવ ઉર્ધ્વ ગમનવાળા સ્વભાવને તત જ મેળવી લે છે એટલે કે જ્યારે જીવ કર્મોના નાશ માટે પ્રવૃત્ત થાય છે, ત્યારે જ તે લકત્વ સ્વભાવને મેળવે છે તે જ બૂ આમ ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા અ ધ્યયનને અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે કે સૂત્ર ૩ | શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધમદિવાકર શ્રી ઘામલાલજી મહારાજકૃત જ્ઞાતાધર્મકથા સૂત્રની નગાર ધમામૃતવર્ષિ વ્યાખ્યાનુ અધ્યયન સમાપ્ત પદા
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अथ सप्तममध्ययनं प्रारभ्यते
गत पष्ठमध्ययनम् साम्मत सप्तममारभ्यतेऽस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः इहानन्तराध्ययने प्राणातिपातादि क्रियायता कर्मगुरुता मोक्ता, तदभिन्नाना कर्म लघुता ततश्चानर्थार्थमाप्तिरूपोऽयं इहतु प्राणातिपातादि विरति स्खलितसर क्षकाणामनधर्विप्राप्तिः मोन्येते । तत्राद्य सूनमाह
मूलम् - जइणं भते । समणेणं जाव सपत्तेणं छट्टरस नाथ ज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते सत्तमस्स ण भंते । नायज्झयणस्स के अठ्ठे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समपर्ण रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभृमिभागे उज्जाणे, तत्थणं राय
सातवाँ अध्ययन प्रारम्भ
Jam
छठा अभ्ययन सम्पूर्ण हो चुका- अब सातवां अध्ययन प्रारंभ होता है । इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध हैछठे अध्ययन में प्राणातिपात आदि करनेवाले प्राणियों में कर्म गुस्ता कही गई है और नहीं करने वालो में कर्मलघुता कही गई है तथा इन दोनो का फल क्रमश. अनर्थ एव अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अब इस अध्ययन में यह कहा जावेगा कि जो प्राणातिपात आदि से विरति धारण करके भी उससे स्खलित हो जाते हैं वे जीव अनर्थ परपरा को भोगते हैं और जो उसकी रक्षा करते हैं वे अभीष्ट - इच्छित अर्थ को प्राप्त कर लेते हैं ।
સાતમું અધ્યયન પ્રાર ભ
છઠ્ઠા અધ્યયન બાદ હવે સાતમુ અધ્યયન શરૂ થાય છે સાતમા અધ્ય ચનના છઠ્ઠા અધ્યયનની સાથે સબંધ આ પ્રમાણે ડ્રી અધ્યયન મા પ્રાણાતિપાત વગેરે કરનાર પ્રાણીઓમા કર્મની ગુરૂતા કહેવામા આવી છે અને પ્રાણાતિપાત નહિ કરનાર પ્રાણીઓમા કર્મીની લઘુતા કહેવામા આવી છે તેમજ અનુક્રમે આ ખનેનુ ફળ એટલે કે અનર્થ અને અની પ્રાપ્તિ થવી
આ વિષે કહેવામા આવ્યુ છે હવે સાતમા અધ્યયનમા કહેવામા આવશે કે જે પ્રાણાતિપાત વગેરેથી વિરતિ ધારણ કરવા છતા તેનાથી સ્ખલિત થઇ જાય છે, તે જીવા અન પર પરા એને ભાગવે છે અને જે જીતે તેની રક્ષા કરે છે તેઓ અલી૦/-મનગમતા એટલે કે ઈચ્છિત અથ ને મેળવે છે
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___ अनगारधर्मामृतपणिोटी० १०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १७९ गिहे नयरे धण्णे नाम सस्थवाहे परिवसइ० अड्डे० भद्दा भारिया अहीण पंचेदिय० जाव सुरूवा तस्स णं धण्णस्ल सत्थवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्यवाहदारया होत्था त जहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए तस्त णं ध. पणस्त सस्थवाहस्स चउपह पुत्ताण भारियाओ चत्तारि सुहाओ होत्था, त जहा-उझिया भोगवड्यारक्खइया रोहिणिया।सू०१॥ ____टीका--'जदण भते ' इत्यादि-अथ जम्बूस्वामी पृच्छति हे भदन्त ! यदि खलु श्रमणेन भावता महावीरेण यावत् मुक्तिसमाप्तेन पष्ठस्य ज्ञाताध्ययनस्याय मर्थः प्राप्त , हे महन्त मप्तमस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थ. प्रज्ञप्तः ? एर जम्बू सामिना पने कृते सति सुधर्मास्वामी प्राह एव खलुनम्बूः तस्मिन् काले तस्मिन्
'जइण मते ! समणेण' इत्यादि । टीकार्थ-(जइण भते !) जनस्वामी पूछते हैं कि हे मदत ! (समणेण जाय सपत्तण उट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते सत्तमस्त ण भते नायज्ञयणस्स के अटे पण्णत्ते?) श्रमण भगवान् महावीर ने जो मुक्ति को प्राप्त हो चुके है छठे जाताध्ययन का यह पूर्वोक्त अयें प्ररूपित किया है तो हे भदत ! ससम ज्ञाता-ययन का उहोंने क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? (एव खलु जत्रू!) इसका उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी जनूम्बामी से करते है कि हे जवू ! सुनो श्रमण भगवान महावीर ने जो सातवें ज्ञाता ययन का अर्थ प्ररूपित किया है वह इस प्रकार है (तेण काग तेण समण्ण) उस काल और उस समय
'जइण भते ! समणेण ' त्या !
Atथ-(जइण भते !) भू स्वामी प्रश्न पूछे ३ -1! (समणेण जाव सपत्तण उस्म नायज्झयणस्स अपमढे पण्णत्ते सतमस्स ण भते नायज्झ यणस के अढे पण्णत्ते १ ) मुक्ति पामता भए लगवान महावीरे ७४ જ્ઞાતાધ્યયનને અથ પૂર્વોક્ત રીતે રજુ કર્યા છે ત્યારે હે ભદત ! તેઓશ્રીએ सातमा हाताध्ययन श म ५३पित यो छ १ (एव सलु जतू!) मा પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા શ્રી સુધમાં સ્વામી તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જબ! સાભળે! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમા જ્ઞાતાયનને અર્થ આ પ્રમાણે
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अथ सप्तममध्ययनं प्रारभ्यते
गत पष्ठमध्ययनम् साम्मत सप्तममारभ्यतेऽस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः इहानन्तराध्ययने प्राणातिपातादि क्रियारता कर्मगुरुता मोक्ता, तदभिन्नाना कर्म लघुता ततश्चानर्थार्थप्राप्तिरूपोऽर्य इहतु माणातिपातादि विरति स्खलितसर क्षकाणामनर्थमाप्तिः मोच्येते । तत्राय सूत्रमाह
मूलम् जइणं भंते । समणेणं जाव सपत्तेणं छट्टस्स नाथ ज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते सत्तमस्स णं भंते । नायज्झयणस्स के अठ्ठे पन्नते ? एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समपर्ण रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, तत्थणं राय
सातवाँ अध्ययन प्रारम्भ
छठा अध्ययन सम्पूर्ण हो चुका- अब सातवाअ ययन प्रारंभ होता है । इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध हैछठे अध्ययन में प्राणातिपात आदि करनेवाले प्राणियों में कर्म गुस्ता कही गई है और नहीं करने वालों में कर्मलघुता कही गई है तथा इन दोनो का फल क्रमशः अनर्थ एव अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अब इस अध्ययन में यह कहा जावेगा कि जो प्राणातिपात आदि से विरति धारण करके भी उससे स्खलित हो जाते हैं वे जीव अनर्थ परपरा को भोगते हैं और जो उसकी रक्षा करते है वे अभीष्ट इच्छित अर्थ को प्राप्त कर लेते हैं ।
સાતમું અધ્યયન પ્રારંભ
છઠ્ઠા અધ્યયન બાદ હવે સાતમુ અધ્યયન શરૂ થાય છે. સાતમા અધ્ય યનના છઠ્ઠા અધ્યયનની સાથે સબંધ આ પ્રમાણે છે ઠ્ઠી અધ્યયન મા પ્રાણાતિપાત વગેરે કરનાર પ્રાણીઓમા કર્મની ગુરૂતા કહેવામા આવી છે અને પ્રાણાતિપાત નહિ કરનાર પ્રાણીઓમા કમની લઘુતા કહેવામા આવી છે તેમજ અનુક્રમે આ ખનેનુ ફળ એટલે કે અનર્થ અને અર્થની પ્રાપ્તિ થવી આ વિષે કહેવામા આવ્યુ છે હવે સાતમા અધ્યયનમાં કહેવામા આવશે કે જે પ્રાણાતિપાત વગેરેથી વિરતિ ધારણ કરવા છતા તેનાથી સ્ખલિત થઈ જાય છે, તે જીવાઅનથ પર પરા એને ભાગવે છે અને જે જીતે તેની રક્ષા કરે છે તેએ અભી!–મનગમતા એટલે ફે ઈચ્છિત અથ ને મેળવે છે.
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অনলনামূদবি । গ) ও ৭ যানাবিস নাম १ धनपालः, २ धनदेव, ३ धनगोपः, धनरक्षितश्चेति । तस्य खलु धन्यसार्थवाह स्य चतुर्गा पुत्राणा मार्याश्चतस्र स्नुपाः-पुत्रवध बभूवुः तद्यथा- १ उज्झित्ता, २ भोगवतिका, ३ रक्षिता, ४ रोहिणिकाच. ॥ मू १॥
मूलम्-तएणं तस्त धण्णस्त अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयसि इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था एव खलु अह रायगिहे वहण ईसर जाव पविभईणं सयस्त कुडुवस्स वहसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुवेतु य मतेसु य गुज्झेसुय रहस्सेसुय निच्छएसुय ववहारे सुय आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणे आहारे आलंबणे चक्खुमेढीभूए जाव सव्व कज्जवड्ढावए तणणजइ जमए गयसि वा चुयसि वा मसि वा भग्गसि वा लुग्गसि वा सडियसि वा पडियासि वा विदेसत्थं सि वा विप्पवासियसि वा इम्मस्त कुटुंबस्स कि मन्ने आहारे वा हुए चार सार्थवाह दारक-पुत्र-थे (त जहा ) उनके नाम ये हैं-(धणपाले, धणदेवे वणगोवे धणरक्खिए) धनपाल, वनदेव, धनगोप, धन रक्षित (तस्स ण धण्णस्त सत्यवाहस्स चऊण्ह पुत्ताग भारियाओ चत्तारि सुण्डाभो होत्या) उस धन्य सार्थवाह को उन चारपुत्रो की भार्याएँ पुन वधुए-थी (तजहा-अज्झिया, भोगवइया, रक्खड्या, रोहिणिया) धन पालपुत्र की भार्या उज्झिताथी १ वनदेवकी भार्याभोगवतिका थी २,धन गोपकी भार्यारक्षिताधी ३, धनरक्षित की भार्या रोरिणिकारी४ ॥सू०१॥ ( त जहा ) तमना नामे मा प्रमाणे छ-(धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरस्सि ५) नाण, धन, धना५ मन धनक्षित ( तस्मण धण्णस्स सत्थवा हरस च उण्ड पुत्ताण भारियाओ चत्तारि सुण्क्षाओ होत्था ) पन्य साथ पालना मा यारे पुत्राने माया लती (त जहा उझिया भोगवइया, रस्सइया, रोहिणिया) पनपानी मार्या Glril ती १, धनवनी सार्या सोगवति! હતી, ૨, ધનગોપની ભાર્યા રક્ષિતા હતી ૩, ધનગક્ષિતની ભાર્યા હિણિકા ती x. ॥ भूत्र १ ॥
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साधका समये राजगृह नाम नगरमासीत् , नगरस्य पहिः सुभृमिभाग नाममुद्यान 'तत्य ण' तत्र खलु राजगृहे नगरे धन्यनामा सार्या परिवसतिस्म स कीदृश , 'अड़े' आहयः पहुधन धान्य समृद्ध , तम्य मदानारनी भार्या, सा कि भूता ? अ हीनंपञ्चन्द्रियशरीरा 'जार सवा' इह याकरणादिद ज्ञातव्य ' लक्षण जण गुणोववेया माणुम्माणपणागपडिपुण्णमुजायसवगसुदरगा, ससि सोमा कारा काता पियदसणा मुरूषा 'ति एतानि पदानि यान्यातपूर्वाणि 'तस्स ण
तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य पुनाः भद्राया भार्या या 'अत्तया' आत्मजा अङ्गजा-निजकुक्षिसभा इत्ययः चत्वारः सार्थवाहदारका सन् , तद् यथा में (रायगिहे नाम नयरे होत्या ) राजगृह नाम का नगर था (सुभूमिभागे उज्जाणे) वहा घाहिर में एक सुभूमि भाग नाम का उद्यान था। (तत्य ण रायगिहे धणे नाम सत्यवाहे परिचम ) उम राजगृह में धन्य नाम का सार्थवाह रहता था। (अड़े०भद्दा मारिया, अहीण पचे दिय० जाव सुरूवा) यह बहुत अधिक धन घान्य से समृद्ध था। इसकी भद्रानाम की भार्या थी।
इसका शरीर अहीन पचेन्द्रियो से परिपूर्ण था। सुन्दर अगवाली थी।" यावत् शब्दसे" लक्खणजण गुगोश्वेया, माणुम्माणपमाण पडिपुषण-सुजाय-सम्यग सुदरगा, ससिसोमोकारा, कता पियदसणा सुरुवा " इस पाठका सग्रह किया गया है
कोई बार पहिले इन पदो का अर्थ लिखा जा चुका है । (तस्सण धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भद्दा भारिया अत्तया चत्तारि सत्यवाह दारया होत्था) उस धन्य सार्थवाह के भद्राभायाँ की कुक्षी से उत्पन्न निइपित ज्या छ ( तेण कालेण तेण समपण ) ते णे अन ते सभये (रायगिहे नाम नगरे होत्या ) राड नामे नगर तु (सुभूमिभागे उज्जाणे)
नगरनी महा२ सुभूमिमा नाभे से धान तु (तत्थ ण रायगिहे धण्णेनाम सत्थवाहे परिवसइ) नगरमा धन्य नामे साथ वार्ड २डेते डत (अड्ढे भद्दा भारिया अहीण पचेदिय जाव सुरुवा) ते घऐ। २१ धन ધાન્યથી સમૃદ્ધ હતો ભદ્રા નામે તેની પત્ની હતી તેનું શરીર અહીન પચન્દ્રિયથી પરિપૂર્ણ હતુ તે સુ દર અગોવાળી હતી “યાવત” શબ્દથી गडा ( लक्खणजणगुणोववेया, माणु माणरमाणपडिपुण्णसुजायसव गसुदरगा, ससिसोमाकारा, कता पियद सणा सावा ) मा पानी सडथयो छ ! पहाना पडे। घी वयत सस्पष्ट ४२वामा मा०ये। छ ( तस्सण धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्यवाहदोरया होत्या) धन्य સાથ વાહને ભદ્રા ભાર્યાના ઉદર જન્મ પામેલા ચાર સાર્થવાહ દાર -પત્ર-હતા .
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अनगार घरिणी व ३०७ ६ र सावारिनिरूपणम
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ईश्वराः - ऐश्वर्यसम्पन्नाः ' जावपण ' यावत् शब्देन 'तलवरमाडविय कोड भिसेसेराह ' एतेष सग्रहः तेन तलवरमाड म्यिक् कोडुम्ब के भ्यश्रेष्ठि सेनापत्ति सार्थवाहमभृतीना 'सयस्स ' स्वकस्थ - निजस्य कुटुम्बस्य नहुषु ' कज्जेसु ' कार्येषु प्रयोजनेपुच पुन ' ' कारणेसु' कारणेपु - कार्यजातसम्पादक हेतुपुच, ' कुटु' कुटुम्नेषु बान्धवेषु च ' मते ' मन्त्रेषु वर्त्तव्य निश्वयार्थं गुप्तविचारेषु च ' गुप्छेसु ' गुह्येपु लज्जाया गोपनीयव्यवहारेषु च ' रहस्सेसु ' रहस्येषु - प्रच्छन्न व्यवहारेषुच 'निच्छएस ' निश्वयेपु = पूर्ण निर्णयेषु च 'ववहारेसु' व्यवहारेषु च नावादि समाचरितलोकविपरीतादि क्रिया प्रायश्चित्तेषु अत्र चकाराः समुचयार्थ का एतेषु विषयेषु'आपुच्छ णिज्जे ' आमच्उनीय' ईपत्पटुयोग्य एकनार मित्यर्थः ' पडिपुच्छणि जे' परिमच्छनीयः सर्वतो भावेन प्रष्टव्य | मेढी' मेधिः श्रीहियवादिणमर्दनार्थ पशुवन्धनस्तम्भ, तत्सादृश्यादयमपि मेधि : - मेधिरूप:, कुड्डनस्स बहुसु कज्जेसु य कारणे सु य, कुडवे सु य, मतेसु य, गुझे रहस्से निच्छए, वारे सु य, आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, मेढीप माणे आहारे आलवणे ) मैं राजगृह नगर मे अनेक ऐश्वर्यशाली तलवर, माडरिक कौटुबिक इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदिजनों के तथा अपने निज कुटुम्बके प्रयोजनी भूत कार्यों में, कार्यो के साधन भूत कारणो में बन्धुजनों के कर्तव्य को निश्चय करने के लिये प्रवृत्त गुप्तविचागे में लज्जावश गोपनीय बहारो मे - प्रच्छन्नव्यवहारोमेंपूर्ण निर्णयों मे, बाधवादिजनो द्वारा समाचरित लोक विरुद्धादिकायो के प्रायश्रितों मे अर्थात् इन सब विषयो मे पृछा जाता है, ये सबलोग मेरी अच्छी तरह से सलाह लेते हैं। मै इन सब के लिये मेघी रूप हूँ जान पन्मिईण सयरस कुडु बरस बहसु कज्जेसु य कारणेसुय, उड्डवेमु य, मतेसुय, गुज्झे रहस्से निच्छए बवहारेसुय, आपुणिज्जे पडिपुच्छ णिज्जे, मेढीपमाणे आहारे आलवणे ) भ्गृह नगरमा है धात्रा मेश्वयंशाजी, तलवर, भाउमिङ, जैट जि, हस्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह वगेरेना तेभन पोताना કુટુંબના જ ખાસ નામામા, કાર્ટેના સાધન ભૂત કારણામા સગા વહાલાના કબ્યાના નિશ્ચય માટે ની ગુપ્ત મત્રણાએમાપવા યાગ્ય લજ્જાથી સબ પિતપનીય કાર્યોંમ-પ્રચ્છન્ન વ્યવહારેમા-પૂણુ નીચામા સગા સ ઞ ધીઓ વડે આચારથી વિરુદ્ધ અનાચરણીય કરવામા આવેલા કાર્યોમાટે ની પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિમા–એટલે કે આ બધી સામાજિકરાજનીતિક અને ધાર્મિક ખાખતામા બધા મને પૂછે છે મધા માણુને મારી સલાહ લે છે આ ધા ઘેરે ઝડે . કોપી રૂપ છે, પ્રાણુ રૂપ છુ અનાજ વગેરેની હાટણી માટે
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बातावर्गकथा आलवे वा पडिवधे वा भविस्सइ?त सेयं खल्ल मम वल्ल जाव जलते विउल असणं ४ उववखडावेत्ता मित्तणाइ० चउण्ह सुण्हाण कुलघरवग्गं आमतेत्ता त मित्तणाइ णियगसयण. य चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्ग विउलेणं असणं ४ धुवपुप्फ वत्थ गधजाव सकारेत्ता सम्माणेत्ता तस्लेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ चउण्ह सुण्हाणं परिरक्खणट्टयाए पंचर सालि अक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किण्ह वा सारखेइ वा संगोवेइ वा सत्रड्डे वा ॥ सू० २ ॥ ____टीका- 'तरण तस्स ' इत्यादि- ततस्तदनन्तर खलु तस्य धन्यसार्थवा हस्य अ यदा कदाचित् 'पुबत्तावरतकालममयसि' पूर्वरात्रापररानकालममये कुटुम्मजागरण कुर्वतो 'इमेयारूपे ' अयमेतद्रप 'अझथिए 'आध्यास्मिकः आन्तरोपायसाध्यमुग्वदु.खादिरूप यावत्सल्य' 'मुपज्जित्या ' समुदपद्यत 'एच' अमुना प्रकारेण खलु 'निश्चयेन अह राजगृहे नगरे पहना 'ईसर'
'तएण तस्स धण्गस्स' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (तस्स धण्णम्स उस धन्य सार्थवार को (अन्नया कयाइ) किसीएक समय (पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि) मध्यरात्रि के समय मे जब कि वह कुटुर जागरणासे जगरहा था ( इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था ) इस प्रकार का यह आध्यात्मिक-आंतर उपाय साध्या सुख दु खदिरूप यावत् सकल्प उत्पन्नहुवा ( एव खलु अर रायगिहे पहण ईसर जाव पन्भईण सयस्स
'तरण तस्स धणस्स ' इत्यादि !
साथ-(तएण ) त्या२ ॥6 (तस्स धण्णस्स ) घन्य सार्थ पाइने ( अन्नया कयाइ) is quते ( पुश्वरत्तावरत्तकालसमयसि ) २५रात्रिना समये स्यारे ते टुम २४२तु तु (इमेयारूवे अज्झस्थिर जाव समुप्पज्जित्था) ત્યારે આ જાતને આધ્યાત્મિક એટલે કે આતરિક ઉપાયથી સાધ સુખદુ ખ वगैरे ३५ यावत् सय ६०या-( एव खलु अह रायगिहे बहूण ईसर
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भमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यमार्थनाहचरितनिरूपणम्
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तस्मात्कारणत् 'ण णज्ज' न ज्ञायते मया 'ॐ' यत् यदि 'मए' मयि 'गयसि' गते ग्रामादी 'वा' 'चुयसि' च्युते - स्खलितेन कर्मनशादनाचरतः स्त्रपदात्पतिते इत्यर्थ 'मयसि ' मृते - माणनियोगे सति वा भग्गमि भग्ने रोगादिना कुज वजत्वेनाsसमर्थीभूते वा 'लुग्गमि रुग्णे- रोगावस्थामाप्तेसति 'सडियसिवा ' सटिते व्याधिविशेषेण जीर्णता गते सति, त्रा' पडियसि पतिते प्रासादादितो ग्लानभावादवा 'विदेसत्यसि ' देशान्तर गत्वा तनैव स्थिते वा 'विप्पवसियसि ' विप्रोषिते - स्वस्थान विनिर्गते - देशान्तरगमनप्रवृत्ते सति वा ' मन्ने ' अह मन्ये
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आधार, आलम्बन एव चक्षु इन पदो के साथ सूत्रकार इसी घात को और जोरदार शब्दों से समझाने के लिये उपमा चाचक भूत शब्द का प्रयोग करते हुए कहते है कि यह धन्यसार्थवाह उन सब के लिये त्रिभूत था, प्रमाणभूत था, आधारभूत था, आलघनभूत था और चक्षुभूत था । इस तरह यहाँ पुनरक्ति दोष का सद्भाव भी नही माना जा सकता है ।
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कारण पहिले कथन में उसे स्वय मेधि आदि रूप कहा गया है और इस कथन में उसे उन २ जैसा कहा गया है । इस प्रकार पुनरुक्ति दोप की चारण हो जाता है । यह धन्य सार्थवाह समस्त ईश्वर आदि जनों के सर्व कार्यों का सपादक था- इसलिये उसे यह " सर्व कार्य वर्द्धक " कहा गया है | इस प्रकार वर धन्य सार्थचाह अपने में इन समस्त घातों का विचार करके अनआगे ऐसा विचार करता है (त पण पाज्जज म गयसि वा चुयसि वा, मयसि वा भग्गसि वा, लुग्गसि वा, सडियसि
ભૂત
કથનમા જ તેને
સાથે સૂત્રકાર એ જ વાતને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે ઉપમાવાચક શબ્દના પ્રયોગ કરતા કહે છે કે ધન્ય સાવાહ બધાને માટે મૈધિભૂત હતા, પ્રમાણ ભૃત હતા, આધાર ભૂત હતા, આલખન ભૂત હતા અને ચક્ષુ ભૂત હતા એથી અહી પુનરુક્તિ રૂપ. ટાન્ન ઉદ્ભવવાની રાકયતાથી ઉભી થતી નથી કેમકે પૂર્વ મેથિ વગેરે રૂપ બનાવવામા આવ્યો છે અને આ વનમા પણ તેને તે પ્રમાણે જ વહુઁવવામાં આળ્યેા છે આ રીતે પુનરુક્તિ દોષનુ નિવારણ પણુ થઈ જ ગયુ કહેવાય ધન્ય સા`વાહ બધા ઈશ્વર વગેરે લેાકેાના બધા કામેાને પાર પમાડનાર હતા એથી જ તેને “ સર્વ કા વક ” કહેવામા આવ્યે છે આ પ્રમાણે ધન્ય સાથે વાહ પેાતાની મેળે આ બધી વાતે વિષે વિચાર કરતા આગળ આમ વિચારે છે કે (તળ गज्जर ज मए गय सिवा चुयसित्रा मयसिना भग्गखिना, लुग्गमिंग, सक्षिय सिवा,
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होताधर्मकथा अर्थादेतदवसम्मनैव सर्वस्यापि कुटुम्बस्पारस्थानम् ' पमाणे' प्रमाणम् प्रत्यक्षादि प्रमाण रद् वरतुतत्वप्रतियोधकः 'आधारे' आधार-आधारयत् कुटुम्यादीनामाश्रय 'आलपणे' आरम्मन रज्यादिपत् विपद्गर्तपतज्जनोद्धारकतयाऽवलम्बनम् ' चक्षु' चक्षुः नेन तद्वत् सकलायक , यदुक्त ( मेधि प्रमाणमाधार आलम्पन चक्षुरिति । तदेव रपप्टयोधार्थमौपम्यवाधिभूतश इसमेलनेन पुनरावर्तयति मेधिभूतः इत्यादि, यावदिति -- यावन्उन्टेन ( पमाणभूए आहारभूए आपणभूए चरसूभूए ) इत्येपा सग्रहो गोध्यः अर्थत पुनरुक्तिदोष वारण तु पूर्वन मेधिरिति आरोपित मेधित्वयानित्याद्यर्थेन यो यम् । सबकन्जन डावए ' सर्व कार्यवर्धक:- सर्वेपा कार्यागा, वर्धका सम्पादोऽस्मि. 'त' तद् प्रमाणरूप है। वीहि कव आदिके कणों को मर्दन करने के लिये पशु जिस स्तभ में बाधे जाते हैं उसका नाम मेधी है । मेघी के सहारे से जिस तरह पशुओं का अवस्थान रहता है उसी तरह उसके सहारे से समस्त कुटुयका अवस्थान था इमलिये इसे मेधीरुप कहा गया है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाण जैसे घस्तुतत्व के प्रतियोधक रोते हैं उसी तरह यह भी सब के लिये वस्तु का वास्तविक स्वरूप समझा दिया करतो था अत• इसे प्रमाण रूप प्रकट किया है । मैं ही कुटुम्ब आदिका आश्रय भूत हू, रज्ज्यादिक की तरह विपत्तिरूप खड्डे में पतित जनो का उद्धारक होनेके कारण में उनका अवलयन रूपढ़े।
चक्षु जिस प्रकार सामने के पदार्थ का यथार्थ प्रकाशन करता है उसी तरह यह भी मनुष्यों को राय लेने पर वास्तविक वस्तु के रहस्य से परिचित्त करा देता था। अतः इसे यहाँ चक्षुरूप कहा गयो है इसीलिये (चक्खु मेढीभूए जाव सव्वकज्जवड्डाबार) मेधि प्रमाण, બળદો જે થાભલાને બાંધવામાં આવે છે તેનું નામ મેથી છે એધી જેમ પશઓને માટે ખાસ કેન્દ્રરૂપમાં રહેલે આધાર છે તેમજ તેપણે બધાને માટે મેથી રૂપ હતે પ્રત્યક્ષ વગેરે પ્રમાણે જેમ વસ્તુના તત્ત્વને બતાવનારા હોય છે તેમજ ધન્યસ થ વાહ પણ બધાને દરેકે દરેક વસ્તુનું સાચું સ્વરૂપ સમજાવતો હતું તેથી તેને પ્રમાણે કહ્યું છે કુટુંબને હું જ આશરે છુ હુ જ ઉંડા ખાડામાં પડેલા માણસને દેરીની જેમ ઉદ્ધારક છું એથી હું તેમના માટે અવલ બન (આધાર) રૂ૫ છુ ચક્ષુ જેમ સામેની વસ્તુને પ્રકાશિત કરે છે તેમજ તે પણ સલાહ માટે આવેલા માણસોને વસ્તુને साया २९स्ययी पाडे ४२तेतो मेटसा भाटे (चक्खुमेढीभूए जाव सव्वकज्जयावए) भपि प्रमाण माधार मा मन भने यar - पानी
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__ अनगारधर्मामृतवपिणी टोफा अ० ७ धन्यत्तार्थवाहवरितनिरूपणम् १८ मित्रज्ञातिनिजकन्यजनसम्पन्थिनः परिजनांश्च चतस्त्रः स्नुषा कुलगृहवर्ग च विपुलेन अशनादिना ४ धूपपुष्पवस्त्रगधादिभिर्यावत् 'सक्कारेता' सत्कृत्य ' सम्मा णेत्ता' सम्मान्य मधुरवचनादिना, तस्यैर मित्रज्ञत्यादेः चतसणा स्नुपाना कुल गृहवर्गस्य पुरतः समक्ष चतसृणा स्नुपाणा ' परिरक्खगट्टयाए परीरक्षणार्थ पञ्च आमतेत्ता) तो मेरी अब इसी में भलाई है कि मै कल सूर्योदयहोते ही प्रातःकाल सूर्य के उदय होने पर विपुल मात्रा में अशन पान, खाय, स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार कराकर मित्र जाति, निजक स्वजन सम्बन्धी जनों को तथा परिजनो को चारों अपनी इन पुत्र वधूओं को, इनके माता पिता आदिको को भोजनार्थ आमत्रित करके (त मित्तणाइ णियग सयण० य चउण्ड सुण्हाण कुलघरवग्ग विउलेण असण ४ बुवपुष्फवत्थगध जाव सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाह. चउण्ह सुण्हाण परिरक्खणट्टयाए पच २ मालि अक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किण्ह वा सारक्खेइ वा सगोवेइ वा सबढेड वा) उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन सबधियो को परिजनों को चारो इन अपनी पुत्र ववूओ को और इनके माता पिता आदिकों को उस विपुल अशनादि से और धूप पुष्प, वस्त्र गध आदि से यावत् सत्कृत करू मधुरवचनादि द्वारा उन्हें सम्मानित करूँ। सत्कृत और सन्मानित करके बाद मे मै उन्ही मित्र ज्ञाति आदि जनो के चारो और अपनी इन पुत्र वधूओ के कुल गृह वर्ग के समक्ष इन चारो पुत्र चउण्ह सुहाण उलघरवग आमतेत्ता) सवार थता ४ सवारे सूय यता અરાન, પાન, સ્વાવ અને ખાદ્ય આમ ચાર પ્રકારને વિપુલ માત્રામાં આહાર તૈયાર કરાવીને મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક સ્વજન, સબધી તેમજ પરિજને અને ચારે પુત્રે ચારે પુત્રવધૂઓ તથા એમના માતાપિતા વગેરેને જમવા માટે मोसावाने ( त मित्तणाइ णियगसयण य चउण्ह सुण्हाण कुलघरवग्ग विउलेण असण ४ धुव पुप्फरत्थगव जाव सकारेचा सम्माणेत्ता त्तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह सुकाण परिरक्षणद्वयाए पचरसालि अक्सए दलइत्ता जाणामि तावका किण्ह वा सारखेइवा सगोवेइवा सवढेइवा ) मित्र, ज्ञाति, नि:, श्वन સબ ધીઓને, પરિજનને, પિતાની ચારે પુત્રવધુઓને, અને તેમના માતા પિતા વગેરેને પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલા અશન વગેરે ચારે પ્રકારના આહારો થી અને ધૂપ, પુપ વસ્ત્ર ગ ધ વગેરેથી સત્કાર કરૂ તથા મધુરવાણી થી તેમનું સન્માન કરૂ તેમની સત્કાર તેમજ સન્માનની વિધિ પૂરી કર્યા બાદ હુ મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે તથા પુત્રવધુઓના કુટુંબીજનેની સામે ચારે પુત્ર
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हाताधर्मयाने इमस्स' अस्य कुटुम्मस्य 'कि' क ' आहारे' आधारः आश्रयो भूमिरित्र 'वा' अथवा 'भालने' आलम्र-पतवो रज्जादिकमित्र अथवा 'पटिबधे' प्रतिवन्धः प्रमार्जनिका शलाकादीना परिरक्षणाय दपरकहर 'मविस्सइ' भविष्यति
त' तद्-तस्मात् ' सेय' श्रेयः खलु निश्चये मम 'पल्ल' कल्ये-धाममातसमये यावत्-तेजसा 'जलते ज्वलतिसति-दिनकरे उदय प्राप्त विपुल-प्रचुर आशन ४ ' उवक्खडावेत्ता' उपस्कार्य निप्पाय मित्रज्ञाति निनक स्वजन सम्ब-न्धिन परिजनान् चतस्रः स्नुपा 'कुलघरवग्ग ' कुटगृहसगं, कुलगृह-पितृगृह सद् बंग मातापित्रादिक 'आमतेत्ता' आमच्य=भोजनार्थमाहूय 'त' तान् चा पडियसि वा विदेसत्यसि वा विप क्सयसि वा हमस्स कुडुवस्स किं मन्ने आरारे वो आलवे वा पडियधे वा भविस्सइ ?) कि ऐसा मैं यदि यहा से दूसरे ग्राम आदि को चला जाऊँ, या कर्मवशात् स्वपद से च्युत हो जा , मरजाऊँ किसी रोग आदि के द्वारा कुबडा या लूला बन जाउँ, रोग से ग्रसित हो जाउँ, किसी व्याधि विशेप से जीणे शरीर हो जाउँ किमी मकान आदि से अचानक गिरजाउँ विदेश जाकर चहाँ रहने लगजाऊँ,अथवा यहां से विप्रोपित परदेश रहने वाला जाऊतो , ऐसी स्थिति में मुझे ऐसा कोई नही ज्ञात होता है कि जो इस मेरे कुटुम्ब का आधार होगा आलग्नभूत होगा उसकी पहारू समार्जनी की सीका को एकत्र बांध कर रक्षा करने वाले डोरेके सामान रक्षा करने वाला होगा। इसलिये जब मै ऐसा मानता हूँ (त सेय खलु मम कल्ल जाव जलते विउल असण ४ उवक्खडावेत्ता मित्तणाइ०चउण्ड सुहाण कुलघरवर्ग' पडिय सिवा, विदेसत्य सि वा विप्पवसय सि वा इमरस कुडु बस्स किं मन्ने आहारे वा - आलबे वा पडिब धे वा भविरसइ १) महाथी मा म त २९ ३ કર્મવશાત સ્વપદ (પિતાના અધિકાર) થી ભ્રષ્ટ થઈ જાઉં કે મરણને ભેટ, રેગ વગેરેમા સપડાઈને કૂબડે અથવા અપગ થઈ જાઉ, રોગી થઈ જાઉ કોઈ વ્યાધિ વિશેષમા સપડાઈને સાવ દુર્બળ શરીરવાળો થઈ જાઉ, કે મકાન ઉપરથી ઓચિંતો પડી જાઉ, વિદેશમાં જઈને ત્યાં રહેવા લાગુ અથવા તે અહીથી વિપ્રોષિત-પરદેશમાં રહેનાર થઈ જાઉ ત્યારે એવી સ્થિતિમાં મને એવી કઈ પણ વ્યક્તિ દેખાતી નથી કે જે મારા કુટુંબને આધાર થઈ શકે, આલ બન ભૂત થઈ શકે સાવરણીના છુટા પડેલા તણાઓને એકીસાથે બાંધનાર દેરીની જેમ મારા આ કુટુંબને એકી સાથે સ પીને રાખનાર તેમજ તેની રક્ષાકરનાર કેણ હશે? જે અત્યારે આવી પરિસ્થિતિ છે તો મારે એ વિચાર છે કે(त सेय सलु मम कल जाव जलते विउल असण ४ -
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १८९ विसजेइ, तएणं साउज्झिया धपणस्स तहत्ति एयमढें पडिसुणेइ पडिसुणित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पच सालि अक्खए गेण्हइ गेण्हित्ता एगतमववकमइ एगतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झथिए० एवं खलु तयाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालिणं पडिपुण्णा चिति । त जया णं मम ताओ इमे पच सालि अक्खए जाइस्सइ तयाण अह पलंतराओ अते पच सालि अक्खए गहाय दाहामि त्तिकट्ट एव सपेहेइ सपेहित्ता ते पच सालि अक्खए एगते एडेइ एडित्ता सकम्मसजुत्ता जाया यावि होत्था ॥ सू० ३॥
टीका-'एव सपेहेइ' इत्यादि-एव उक्तरूपेण सप्रेक्षतेमनसि विचार्यते 'सपेहिता समेक्ष्य-पर्यालोच्य कल्ये प्रभातसमये, यावत् तेजसा जलति, सूर्य उगते सति मित्रज्ञाति जनप्रमुखान् चतसणा स्नुपाणा कुलगृहवर्ग च-पित्गृहसम्बन्धिमाता पिनादीन्, आमनयति निमन्त्रयति, आमच्य विपुलमशनादिक चतुर्विधाहार उप
'एव सपेहेइ सपेहिता' इत्यादि । टीकार्थ-(एव सपेहेड) धन्यसार्थवाह ने इस पूर्वोक्त प्रकार अपने मन में विचार किया ( सपेहित्ती ) विचार करके ( कल्ल जाव मित्तणाइ० चण्ड सुण्डाण कुलघरवग्ग आमतेइ आमतित्ता विउल असण ४ उवक्खड़ावेइ ) फिर उसने प्रातकाल होते ही सूर्य के उदय हो जाने पर मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि को और चारों ही पुत्रवधूओ के कुल गृह वर्ग को-उनके माता पिता आदिको को आमत्रित किया । आमवित
एर सपेहेइ, सपेहित्ता' त्या !
Astथ--(एर सपेहेइ) धन्यसा या ३३ पोताना मनमा पियार व्यो (सपेहित्ता) विया२ १२ (कल्ल जाव मित्तणाइ चण्ह सुण्हाण कुलघर वग्ग आमतेइ आमतित्ता विउल असण ४ असहावेइ) बारे सूर्यध्यामता ની સાથે જ તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન વગેરેને અને ચરે ચાર પુત્ર વધાના બીજનોને તેમના માતાપિતા વગેરેને જમવા માટે આમત્રિત
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माताधर्मकथाहायचे पश्च सख्यकान् शाल्यक्षतान शालिकणान दया 'जाणामि' जानामि 'ता' तावद निश्चयेन 'का' स्नुपा 'किह' कथ केन प्रकारेण 'सारखेह' मेरसयति सगोपयति -संवरणतः, मजूपादिपु सस्थापनेन गोपन करोति. अथवा का-वधू ' सबढेर' सम्बर्धयति बहुत्वकरणतः वपनादिना ? ॥ ० २ ॥
मूलम्-एवं सपेहेइ सपाहिता कलं जाव मित्तणाइ० चउण्ह सुण्हाण कुलघरवग्ग आमतेइ आमंतित्ता विउल असणं ४ उवक्खडावेइ, तओ पच्छा पहाए भोयणमडवसि सुहासण. मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाण कुलघरवग्गेणं सद्धि त विउल __ असण ४ जाव सकारेइ सम्माणेइ सकारिता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाण कुलघरवग्गस्त य पुरओ पच' सालि अक्खए गेण्हइ गेण्हित्ता जेठा सुण्हा उज्झिया त सदोवेइ सद्दवित्ता एव वयासी-तुम ण पुत्ता मम हत्थाओ इमे पच सालि अक्खए गेण्हाहि गेमिहत्ताअणुपुवेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जयाणऽह पुत्ता | तुम इमे पच सालि अक्खए जाएजा तयाण तुम मम इमे पच सालि अक्खए पडिदिजाएजासि तिकटु सुण्हाए हत्थे दलयइ दलयित्ता पडिधधूओं की परीक्षा के निमित्त उन्हें पांच पाच शालिकणों को - और देकर यह ज्ञात करूँ कि इन मे से कौन पुत्र वधू किस तरह से इनकी रक्षा करती है, कौन पुत्र वधू इन्हे मजूपा आदि मे रखकर गुप्त रखती है और कौन सी पुत्रवधू वपनादि क्रिया द्वारा उन्हे बढाती है। सूत्र '२' વઓની પરીક્ષા માટે તેમાથી દરેકને પાચ પાચ શાલિકણે (ડાગરના કણે પુ અને આપને એ વાતની પરીક્ષા કરૂ કે તેઓમાથી કોણ કેવી રીતે તે માલિકોને સાચવી રાખે છે ઈ પુત્ર વધૂ શાલિકોને પેટી વગેરે મા મૂકીને ગુપ્ત રાખે છે? અને કઈ પુત્રવધૂ શાલિકણે તે વાવીને તેમની वृद्धि २ छे १ ॥ सूत्र २ ॥
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भनगारधर्मामृतमर्पिणी टीका भ०७ ध पसार्थवाहचरितनिरूपणम एवमवदत् हे पुत्रि व खलु मम हस्तादिगान् पञ्च शाल्यक्षतान गृहाण, गृहीत्वाच 'अणुपुब्वेण ' अणुपा -अनुक्रमेण सरक्षन्ती सगोपायन्ती ' विहराहि' विहर । 'जया' यदा-यस्मिन् समये खलु हे पुनि ! अह 'तुम' तरपार्थे इमान् पश्च शाल्यक्षतान् 'जाएजना' याचप, ' तया' तदा तस्मिन् समये खलु 'तुम' त्व मम इमान् पञ्चशाल्यक्षतान् ' पडिदिज्जासि प्रतिदयाः पवाद् मह्य समर्पये, इतिकन्या-इत्युक्त्वा ज्येष्ठाया स्नुपायाः हस्ते ददाति, दत्वा च प्रतिविसर्जयति, धन्य सार्थवाह ने अपने मित्र ज्ञाति आदि जनों के तथा उन चारो जपनी पुत्रवधूभो के कुल गृवर्ग के सामने पांच शाल्यक्षतो को लिया और लेकर ज्येष्ठा जो पुत्रवधू थी कि जिसका नाम उज्झिका थी उसे बुलाया (सदायित्ता एव पयासी तुम ण पुत्ता ! मम हत्थाओ इमे पच सालिअक्ख गेण्हाहि, गेण्हित्ता अणुपुब्वे ण सारक्खेमाणी सगोवेमाणी विहराहि) बुलाकर उससे ऐसा कहा-पुत्रि! तुम मेरे हाथ से इन पांच शाल्यक्षतो को लो और लेकर इन्हे सुरक्षित रखो सम्मा लकर अच्छी तरह से रखो। (जयाण अह पुत्ता तुम इमे पच सालिअक्खए जाएज्जतयाण तम मम इमे पच सालिअस्खए पडिदिज्जारज्जासि ) जय मैं हे पुत्रि! तुम से इन पाच शालि अक्षतों को मागू तब तुम मेरे लिये इन्हें पीछे देनो ।
( साडु लुहाए हत्थे दलयह) ऐसा कहकर उसने उस ज्येष्ठ स्नुपा के हाथ में उन शाल्पक्षतो को दे दिया । ( दलयित्ता पडिविसज्जेह ) देकर फिर उसे विसर्जित कर दिया। મેહમાનેને સત્કાર તેમજ સન્માન થઈ ગયું ત્યારે ધન્ય સાર્થવાહે પિત ના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે સ્વજને તેમજ ચારે પુત્ર વધૂઓના માતાપિતા વગેરે સગાવહાલા એની સામે પાચ શાલિકણે (ડાગના કણે) લીલા અને पोताना सौथी मोटा पुत्रनी लायl Gloristने मोसावी (सदारित्तो एव वयासी तुम ण पुत्ता । ममहत्याओ इमे पचसरि अक्सए गेण्याहि छिहत्ता अणुपुव्वेण सारवग्वेमाणी सगोवेमाणी विहराहि) मालावीन तन 41 प्रो કહ્યું “હે પુત્રિઆ પાચ શાલિકને તમે સ્વીકારો અને એમને સારી रात समाजाने सुशक्षित राम (जयाण अह पुत्ता । तुम इमे पच सालि अक्खए जाएज्ज तयाण तुम मम इमे पचसालि अस्सए पडिदिज्जासि)पत्रि। જ્યારે હું તમારી પાસેથી શાલીકણે માગુ ત્યારે તમે મને પાછા આપજો (त्तिक? सुहाए इत्थे दलयइ ) साम डाने तो मोटा पुत्रनी १५ना
ने भृीहीधा (दलयित्ता पटिविसज्जेइ ) nalson
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माताधर्मकथाले स्कारयति-निष्पादयति. ततः पत्रात् स्नातो भोजनमण्डपे सुग्वामननिषण्ण:सुखेनासने उपविष्टः सन् मित्रज्ञाविस्वननादिभिः साद्धं चतसृणा स्नुपाणा च कुलगृहनगेंगच सार्द्ध तद्विपुलमशानादिक भोजयित्वा यावत्सत्कारयति वस्त्रादिभिः समानयति मधुरपचनादिना, सत्कार कृत्वा समानयित्वा तस्य धन्यसार्थवाहस्यैव स्वमित्रज्ञाति प्रमुग्वाणामग्रे चतसगा स्नुपाणा कुलटनर्गस्य पुरत पञ्चशाल्प क्षतान् , गृह्णन्ति गृहीत्वा ज्येष्ठा स्नुपा उज्यिका नाम्नी तां शन्दयति शब्दयित्वा करने के बाद फिर उसने विपुल मात्रा में अशनादि रूप चतुर्विध आहार तैयार करवाया।
(तओ पच्छा पहाए भोयण मडवनि सुहासण. मित्तगाइ० चउण्ह य मुण्हाण कुलघरवग्गेण सद्धि त विउल असण ४ जाव सरकारेइ, सम्माणेइ ) जर चतुर्विध आहार निष्पन्न हो चुकी तब वह स्नान करके भोजनशाला मे सुख से आसन पर उपविष्ट (धैठगया) हो गया
और मित्र, ज्ञाति एव स्वजनादि को के सार २ और अपनी पुत्रवधूओं के माता पिता आदिकों के साथ २ उस चतुर्विध भोजन की विपुल सामग्री का आहार करने के बाद में उन सयका उस ने वस्त्रादि से सत्कार किया तथा मधुरवचनादि से सम्मान किया। (सक्कारिता सम्माणेत्ता तस्लेव मित्तणाइ० चउपह य सुण्डाण कुलघरवग्गस्त य पुरओ पच सालि अक्खए गेण्ड, गेण्डित्ता जेठा सुण्डा उज्झिया त सद्दावेइ ) जब मयका सत्कार और सन्मान हो चुका तर उस के बाद કર્યા આમ ત્રણ આપ્યા પછી ધન્ય સાર્થવાહે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે ને ચાર પ્રકારને આહાર બનાવડાવ્યું
(तओपच्छाण्हाए भोयणमडवासि सुहासण मित्तणाइ चउण्य सुण्हाण फुलघरवग्गेण सद्धिं त विउल असण ४ जाव सकारेइ सम्माणेइ) न्यारे ચારે જાતનો આહાર તૈયાર થઈ ગયા ત્યારે તે સ્નાન કરીને રસોઈ ઘરમાં સુખેથી આસન ઉપર બેસી ગયો અને મિત્ર, જ્ઞાતિ અને પિતાના સ્વજને વગેરેની સાથે તેમજ પિતાની પુત્ર વધૂઓના સગા વહાલાઓ માતાપિતાએ ની સાથે ચારે જાતનાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં તૈયાર કવ્વા મા આવેલા આહારને જ જમ્યા પછી તેણે વસ્ત્રો વગેરે આપીને તે બધાને સત્કાર્યો તેજ मधु२ क्यनाथी ते मयानु सन्मान ४यु (सक्कारिता सम्माणेत्ता तस्सेव मिचणाइ, चउण्ड्य सुण्हाण कुलघरवग्गरस य पुरओ पचसालि अक्खए गेहइ, गेण्हित्ता जेट्टा सुण्ह उझिया त सदावेइ ) यारे मा मामनित
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arraft टीका अ० ७ ध यसार्थवाहचरिचनिरूपणम्
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तस्मात् कारणात् यदा यस्मिन् समये खलु मम तात श्वसुर इमान् पञ्च शाल्य क्षतान् याचिष्यति । तया ण ' तदानी तस्मिन्नेव समये खलु अह ' पल्ल्तराओ' पलान्तरात्- कोष्टागारम ये अन्यतरा पलनात् 'अने' अन्यान् पञ्चशाल्यक्षतान् 'गहाय ' गृहीला 'दाहामि दास्यामि, इति कृत्वा - इति मनसि निधाय 'एच सपेहेइ' एव सप्रेक्षते - चिन्तयति 'रूपेहिता ' सप्रेक्ष्य पर्यालोच्य ' ते ' तान् श्वसुरमदत्तान पञ्चशाल्यक्षतान् ' एगते ' एकान्ते ' एडेइ ' एडति - प्रक्षिपति - पातयतीत्यर्थः ' एडित्ता' प्रक्षिप्य 'सकम्मसजुत्ता' स्वकर्म समयुक्ता-जाताचाप्य भवत् स्वगृहादिकार्य करणे उक्ताऽऽसीदित्यर्थः ॥ ०३॥
मूलम् - एवं भोगवतियाए वि, णवरं सा छोल्लेइ छोल्लित्ता अणुगिलइ अणुगिलित्ता जाया, एव रक्खियावि, णवरं गेहड़ हित्ता इमेयारुवे अज्नत्थिए० एवं खलु मम ताओ इमस्ल मित्तनाइ० चउण्हय सुण्हाण कुलघरवग्गस्स य पुरओ सहावेत्ता एव वयासी-तुमण्णं पुत्ता मम हत्थाओ जान पडिदिजा त्ति कहु पच सालि अक्खए जाइम्सड तयाण अहं पल्लतराओ अते पच सालिअक्खए गाय दहामित्ति कट्टु एव सपेहेड सपे हित्ता ते पंच सालि अक्खए गते एडेइ, एडित्ता सकम्मसजुत्ता जाया यावि होत्था ) जब ऐसा कितने ही पल्यक चावलो के कोष्ठागार में भरे हुएरखे हैं तो जिस समय श्वशुरजी इन पाच शाली - अक्षतों को मुझसे मा गैंग मैं उसी समय कोष्टागार के मध्य में से किसी एक दूसरे पल्यक से लेकर इन पाच शालि-अक्षो को दे दूंगी। ऐसा उसने विचार किया | विचार करके बाद में उसने श्वसुर प्रदन्त पाचशालि अक्षतो को एकान्त मे दिया । और डालकर फिरवह अपने घर के काम करने में लग गई || सू० ३ ॥
जयाण मम ताओत्ति द्रटु पच सलि अक्सर जाइस्सइ तयाण अंह पल्लतराओ अते पच सालि अक्खए गहाय दहामि तिकटु एव सपेहेइ, सपेहिता ते पच साठि अक्सर एगते एडेइ, एडित्ता सकम्मसजुचा जाया यानि होत्या ) જ્યારે, ઘણા પલ્ય ચેખા કાઠારમા છે તે જે વખતે સસરા પાચ શાલિ કણે! માગશે તે વખતે પાચ શાલિકણા કાઠારના પફેમાથી લઇને તેમને આપી દઈશ આ પ્રમાણે વિચારીને સસએ આપેલા પાંચ શાલિકણેને મેાટા પુત્રની વધૂએ એક તરફ્ ફેકી દીધા અને ફુંકીને પોતાના હુમેશાના
ઘરકામમા પરોવાઇ ગઇ । સૂત્ર 66 3 "
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साधर्मस्था ततस्तदनन्तर खलु सा-उज्यिका नाम्नी पः धन्यस्य सार्थवारस्यैतमय वापि , तथेति कृत्वा-तथास्थिति कययित्वा 'पडिगुणेड' प्रतिश्रणोति नीकरोति । 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य धन्यस्य सार्थवाहम्य हस्तात् ' ते ' वान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृहति गृहीत्वा 'एगतमरकामह' एकान्तमपक्रामति एकान्त स्थाने गच्छति 'एगतमयकामियाए ' एकान्तमपक्रमितायाः एकान्त गच्छन्त्या' मनसि 'इमेयारू' अयमेतद्प 'अन्झत्यिए' आध्यात्मिक -आत्माश्रयो या. वत्सकल्पासमुदपद्यत एवममुना प्रकारेण सलु निश्चयेन 'तायाण' तातस्य श्वशुरस्य (तायाण ) अत्र आदरार्थ बहुपचन, 'कोहागारंसि' कोठागारे 'वहवे ' बाव -अनेकसख्यकाशालिना 'पल्ला' पल्यका-पल्ययामाननिशेपा तैः 'पडिपुमा' मतिपूर्णाः भृतास्तिष्ठति सार्द्धनयमपाप्रमिताना धान्यानामेक पल्लक इत्यभिधीयते ते पल्लका वहव कोष्ठागारे भृताः सतीति भावः । 'त जया णं ' तद्__ (तएण सा उमिया धण्णस्स-तहत्ति एयम पडिसुणेइ) चलते समय उस ज्येष्ठ पुत्र वधू उज्झिका ने धन्य सार्थवार के " तथास्तु" कहकर इस कथनरूप अर्थको स्वीकार करलिया ( पडिसुणित्ता घण्णस्स सत्यवाहस्स हत्याओ ते पच सालि अक्खए गेण्इ) स्वीकार करके धन्य सार्थवाह के हाथ से उन पाच शाल्यक्षों को फिर उसने ले लिया।
(गेण्डित्ता एगतमवक्कमइ) लेकर फिर वह वहा से एकान्त स्थान मे चली गई । (एगतमवकामियाए इमेयारूवे अज्झथिए ) वहा ओकर उसने ऐमा विचार किया-(पव खलु तायाण कोट्ठागारसि वहवे पल्लासालि ण पडिपुण्णा चिति)तात-श्वशुरजी-के कोष्ठाचार में-अनेक चावलो के पत्यक भरेहए रक्खे हैं । यहा पत्यक एक प्रमाण विशेष का नाम है। यह ३॥) मन का होता है। त जयाण ममताओं
सापाने तभने पानी मा मापी (तएण सा उझिया धण्णस्स तहत्ति एयम पडिसुणेइ) ती मते भाटा पुत्रनी १५ मे पन्य साथ पाने सा३ ' ( तथा ) मा हान तनी माज्ञान म्वरी (पडिसुणित्ता धण्णस सत्यवाहस्स .याओ ते पच सालिअक्सए गेण्हइ) माज्ञा स्वीय पछी ધન્ય સાર્થવાહના હાથથી તેમણે પાચ શાલિકણે લઈ લીધા
(गेण्हित्ता एगतमवक्कमइ ) शासि , सधने व त्याथी सात स्थान त२५ ती २ही (एगतमवकमियाए इमेयारुवे अज्झथिए०) त्या मे, त२५ भावाने तो विया२ -( एव सलु तायाण कोटागार सि वहवे पल्लासालिण पडिपुण्णा चिटुति ) " भा२१ असरानी २मा यामाना ! यी मरे। છે ( ૫૮૫ક એક પ્રમાણ વિશેષનું નામ છે તે કા મનુ હોય છે ) (ત
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अनगारधर्मामृतपिणी टोका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् ध्यात्मिा-आत्माश्रेय चिन्तितः प्रार्थितः मनोगत सक्ल्प. समुदपद्यत, एव खलु मा तात श्वसुरः 'हमरस' एतेपा मित्रज्ञातिप्रमुखाणा 'पुरो' पुरतः-समक्ष पुनश्चतसृणां स्नुपाणा कुलगृहवर्गस्य पुरतोऽग्रे शब्दयित्वा चैवमवादीत् वक्ष्यमाणरीत्या मा कथितवान् त्व खलु 'पुत्ता' हे पुत्रि ! मम हस्तादिमान पञ्चशालिरणान् गृहाण गृहीत्वा आनुपूर्व्या सरक्षन्ती सगोपायन्ती विहर, यावद् यदाऽह पुनर्याचेय तदा खलु व मह्यमिमान् पञ्चशाल्यक्षतान् 'पडिदिज्जाएजासि' प्रतिदद्याः प्रति समर्पयेः, इति कथयित्वा मम हस्ते पञ्चशालिकणा ददाति 'त-भवियव्य मेत्य कारण ' तस्माइवितव्यमत्र किंचित्कारणमित्येव 'सपेहेइ ' सपेक्षते -पर्यालोचयति विचारयतीत्यर्थः ‘सपेहिता' सप्रेक्ष्य-पर्यालोच्य 'ते' तान् ____उसने वे ले लिया । लेने के बाद उसे ऐसा विचार आया ( एव खलु मम ताओ इमस्स मित्तणाइ० चउण्ड य सुण्हा ण कुलघरवग्ग स्स य पुरओ सहावेत्ता एव चयासी ) कि ये मेरे तात-श्वसुर-जो मुझे इस मित्र ज्ञाति-आदि मडली के समक्ष बुलाकर इसतरह कह रहे हैं (तुमण्ण पुत्ता ! मम हत्याओ जाव पडि दिज्जाएज्जासि त्तिक? मम । हत्यसि पच सालि अस्खए दलयइ त भवियत्वमेत्य कारणेण ) कि "हे
पुत्रि । तुम मेरे हाथसे पांच शाल्यक्षतो को लो और लेकर इन्हे सु रक्षित देखो । जब मै तुम से इन्हे पीछे वापिस मागू तो तुम इन पाचो शाल्यक्षतोको मुझे समर्पित कर देना । सो ऐसा करकर जो ये पाच शाल्यक्षनो को मुझे दे रहे हैं तो इस विषय में कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये (त्तिकट्टु एव सपेहेड, सपेहित्ता ते पच सालि કણને લા લીધા અને ત્યાર બાદ તેને આ જાતને વિચાર ઉદ્ભવ્યો-(૪ सलु मम ताओ इमरस मित्तणाइ चउण्ह य सुण्हाण कुलघरवग्गस य पुरओ सदावेत्ता एव वयासी) ' भा२१ सस। पोताना भित्र, जाति पोरे तमा यारे પુત્રવધૂઓ ના માતાપિતા વગેરેની સામે મને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહી २॥ छ-( तुमण्ण पुत्ता। मम हत्याओ जाव पडिदिज्जाएज्जासि त्ति कद मम हत्यसि पचसालि अक्सए दलयइ त भरियामेत्यकारणेण ) " पुति। આ પાચ શાલિકણે તમે મારી પાસેથી લે અને લઈને એમને સંભાળીને રાખે ત્યારે હું તમારી પાસેથી શાલિકણે માગુ ત્યારે આ પાચે શાલિક તમે મને પાછા આપને આમ કહીને મને આ શાલિકણે આપી રહ્યા છે તે सेना पाय गते १२ए तो आयु " य (त्ति कटु एव सपेहेइ सपेहिता ते पचसोलि अक्सए सुद्धे यत्थे यघइ ,यधिचा रयण फर डियाए पक्सिवेह
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
एजासि तिकट्टमम हत्थसि पच सालि अक्खए दलयइ त भवि यव्वमेत्थ कारणेणं तिक्हु एवं संपेहेइ सोहित्ता ते पंच सालि अक्खए सुद्धे वत्थे वधइ, वंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवे पक्खिवित्ता ऊसीसा मूले ठावेइ ठावित्ता तिसझ पडिजागर माणी विहरइ || सू० ४ ॥
टीका - एक भोगवतिकामपि - भोगवती नाम्नो स्तुपामध्याह्वयति नव 'सा' भोगवती श्वशुरदत्तपञ्चशालितणरूपानक्षतान् स्वस्थाने नीला 'छोल्लेइ ' तुपरहित करोति 'छोलिया ' निष्तुपीकृत्य ' अणुगिल्ड' अनुगिलति - भक्षयति, 'अणुगिलिता ' अनुगिल्य भक्षयित्वा ' जाया ' स्वकार्यसमयुक्ता जाताचा प्यासीत् स्वगृहकार्यकरणे लग्नाऽभवदिति भावः । एवमनेनैव मकारेण रक्षितामपि - रक्षितानाम्नीं तृतीया स्तुपामप्याहयति, आहूय तेन पचसख्याः शालिणा दत्ता, नवरसा तान् गृह्णावि, रम गृहीत्वा चायमेतद्रूप : ' अज्झत्थिए ' आ
" एव भोगवतिया एवि ' इत्यादि । सूत्र
टीकार्थ - (एच भोगवतियाए वि) उसी तरइ भोगवतिका नामकी अपनी पुत्रवधू थी उसे भी धन्यसार्थवाहने बुलाया (णवर) इसमें विशे पता केवल इतनी रही कि (सा छोल्लेइ) उसने उन शाल्यक्षतोंको अपने स्थान पर लेजाकर तुषरहित किया (छोरिलत्ता अणुगिलह ) और तुष रहित कर वहउन्हे खा गई ( अणुगिलित्ता जाया ) खाकर याद में अपने काम मे लग गई । (एव रक्खिया वि) इसी प्रकार धन्यसार्थवाहने अपनी तीसरी रक्षिता नामकी पुत्रवधू को बुलाया (णवर गेण्ड, गेव्हित्ता इमेयारूवे आज्झथिए० ) बुलाकर उसे मी पाच शालिकणो को दिया । एव भोगबतियाएवि ' इत्यादि
"
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अर्थ -- ( एव भोगवतियाए वि ) मा प्रभा धन्यसार्थ वाडे लोभवति । નોમની પેાતાની ભીજી પુત્રવધૂને ખેલાવી (ર) ભગવતિકાના વિષે વધારાનુ એ लधुवु लेहये जे ( सा छोलेइ ) तेथे शादिम्याने पोताना निवास स्थाने सर्व बहने तुष (शतरा) वगरना मनाना (छोल्लित्ता अणुगिलइ ) भने शातिशो नारा साइरीने तेभने माघ गर्ध ( अणुगिलित्ता जाया ) आधा पछी ते पोताना अभभा परोवार्ध ग ( एव रक्खिया वि) या रीते धन्यसार्थवाहे पोतानी भी पुत्रवधू रक्षिताने गोसावी ( णवर गेण्डर गण्हित्ता इमेयात्रे अज्झथिए ) मसावीने तेभने पशु पाय शासि आया रक्षित શાલિ
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अनगारधर्मामृतर्पणी टीका अ० ७ धयसार्थवाहचरितनिरूपणम्
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वावेह वावित्ता दोच्चापि तच्चपि उक्खयनिहए करेह करिता वाडपक्खेव करेह करिता सारखखेमाणा संगोवेमाणा अणु पुवेणं संवह । तणं ते कोडुविया रोहणीए एयमट्ट पडिसुति ते पंच सालि अक्खए गिण्हति गिव्हित्ता अणुपुवेण सारखति सगोवति विहरति तपणं ते कोडुंबिया पढम पाउससि महावुट्टिकायसि णिवइयंसि समाणंसि खुड्डायं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति करिता ते पंच सालि अक्खए ववति दुच्चपि तच्चपि उक्खयनिहए करेंति करिता वाडिपरिक्खेव करेति करिता अणुपुत्रेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा सबड्डे माणा विहरति ॥ सू० ५ ॥
टीका- 'तएण से घण्णे ' ततस्तदनन्तर खलु स धन्यसार्थवाह ' तत्र ' तस्यैव मित्रादीन् यावचतुर्थी रोहिणिका स्नुपा शब्दयति, शब्दयित्वा 'जाब ' यावच्छब्देन यथा तृतीया रक्षिका शाल्यक्षतविषये चिंतयति तथैव रोहिणिकापि तएण से धण्णे ' इत्यादि ।
"
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद से घण्णे) उस धन्यसार्थवाह ने (तहेव मित्त जाव चउथि रोहिणीय सुण्ड सहावेइ ) उसी तरह मित्रादि परिजनों के समक्ष अपनी चतुर्थ पुत्रवधू कि जिसका नाम रोहिणी था उसे बुलाया (सद्दावित्ता जाव त भणियव्व ) बुलाकर उसे पाच शाल्यक्षत देकर उन्हे सुरक्षित रखने के लिये उससे कहा ।
श्वसुर की बात सुनकर जिस प्रकार प्राप्त शाल्यक्षतों के विषय में तृतीय पुत्रवधू रक्षिका ने विचार किया था उसी तरह इस चतुर्थ पुत्रवधू तरण से धण्णे ' त्याहि !
टी अर्थ - (तएण ) त्यार माह (से धण्णे ) धन्य सर्थवाडे (तक्षेत्र मित्त जाव थि रोहिणीय सुह सहावेइ) मा प्रभाऐ ४ भित्र वगेरे समधीयानी साभे पोतानी थोथी पुत्र वधू रोडियीने मोसावी ( सद्दावित्ता जाव त भणियव्व ) ખેલાવીને તેણે પાચ શાલિકણા આપીને તેઓને સુરક્ષિત રાખવા માટે કહ્યુ. સસગની વાત સાભળીને રાહિણીએ ત્રીજી પુત્રવધૂ રક્ષિકાએ જેમ વિચરશ કર્યાં તેમજ તે પણ આ વિષે ઘણી જાતના વિચારો કર્યા. છેવટે તે
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शामकथा पञ्चशाल्यक्षतान् ' सुद्धे ' शुद्धे - पवित्रे ' वत्ये ' वस्त्रे 'वध' बम्नाति - 'बधिता' वध्वा ' रयणकरडियाए ' रत्नकर डिकाया - रत्न डिन्निकाया ' पक्खिवेद ' प्रक्षि पति रक्षार्थं स्थापयति 'पक्खिविता ' प्रतिक्षिप्य स्थापयित्वा 'उसीसामूछे' उच्छीर्षकमूले - उपधानस्याधोभागे 'ठावेई ' स्थापयति 'ठावित्ता' स्थापयित्वा ' तिसझ ' त्रिसध्य - प्रातर्मध्याह्नमायकाल लक्षणे 'पडिजागरमाणी ' प्रति जाग्रती तद्रक्षार्थं सावधानासती विहरह ' विहरति ॥ सु० ४ ॥
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मूलम् - तण से धपणे सत्थवाहे तहेत्रमित्त जाव चउत्थि रोहिणीयं सुह सहावेइ सद्दावित्ता जाव तं भणियत्व एत्थ कारणं तं से खलु मम एए पच सालि अक्खए सारक्खेमाणीए सगोवेमाणीए सवढेमाणीए तिकट्टु एव सपेहेइ संपे - हित्ता कुलघरपुरिसे सहावेइ सद्दावित्ता एव वयासी - तुम्भेणं देवाशुप्पिया। एए पंच सालि अक्खए गिण्हड़ गिव्हित्ता पढन पाउसंसि महाबुद्धिकार्यंसि निवइयसि समानंसि खुड्डागं केयार सुपरिकम्मियं करेह करिता इमे पच सालि अक्खए
अक्खए सुद्धे वत्थे बधइ बघित्ता रयणकरडियाए पक्खिवेइ, पक्खि वित्ता उसीसामू ठावेइ, ठाचित्ता तिसज्झ पडिजागरमाणी विहर इ ) ऐसा जब उसने विचार किया तो विचार करके उसने उन पाच शाल्य क्षतों को शुद्ध वस्त्र में बाधा बाधकर उन्ह फिर रत्ननिर्मित एक डब्बे मे रख दिया। रखकर उस डब्बे को उसने उसीसे के नीचे भाग में सिरहाने के अधोभाग में रख दिया। इस तरह वह प्रातः मध्यान्ह और सायकाल में इन तीनों कालो में उसकी सभाल मे सावधान होकर रहने लगी। सूत्र ४
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पक्खिवित्ता उसीसा मूले ठावेइ शक्त्तिा तिसझ पडिजागरमाणी विहरई ) भाभ વિચારીને તેણે માર્ચ શાલિકણાને શુદ્ધ વજ્રમા આધીને રત્ન જડેલી એક ડાખલીમાં મૂકી દીધા ડાખલીમાં મૂકીને તેણે તે ડાખલીને પેાતાના એ શીકાની નીચે મૂકી દીધી. આ પ્રમાણે તે સવાર ખપેર અને સાજ આમ ત્રણે વખત તે,ડાખલીને સભાળીને રાખવા લાગી ॥ સૂત્ર ૪ ૫
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अनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १९९ 'खुड्डाग ' क्षुलक ‘कयार ' केदार क्षेत्र वयारा, इति भाषा प्रसिद्ध 'सुपरि कम्मिय ' सुपरिवर्मित शाल्यक्षतवपनयोग्य 'रेह' कुस्त, कृत्वा च 'इमे' इमान् पञ्चशील्यक्षतान ' यावेह ' चपत परोहाथ क्षेत्र मक्षिपत, उप्त्वा क्षेत्रो वपन कृत्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि वार ' उक्खयनिहए ' उत्खातनिहतान क्षेत्रे जातान् पुनस्तान् वर्धनार्थ द्वित्रिभारम्-उत्पाटय अन्यत्र क्षेचे समारोपितान् 'रेह' कुरुत एकस्मात् स्थानादन्यस्थाने रोपयत 'करित्ता' कृत्वा-रोपयित्वा, 'वाडिपडिक्खेव ' चाटिकापरिक्षेप = माकारागरेण वाटिका कुरुत कृत्वा सरक्षन्त, सगोपायन्त आनुपूर्व्या अनुक्रमेण 'सवडे ' सवर्धयत । सुपरिकम्मिय करेह ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग इन पाच शालि अक्षतो को लो-और लेकर जब सर्व प्रथम वर्षाकाल के प्रारम्भ में जलराशि रूप अप्काय महा वृष्टिरूप से भूमि पर गिरे तो उस समय तुम डोटी सी एक क्यारी में शालि अक्षतो को योने के योग्य करो ( करित्ता इमे पच सालि अक्खए वावेह वावित्ता दोच्चपि तच्चपि उक्खय निहए करेह, करित्ता वाडिपश्खेव करेह करित्ता सारक्खेमाणा सगोवेमाणा अणुपुत्वेण सबढेर ) जय वह क्यारी अच्छी तरह से परिकर्मित हो जावे तो उसमें इन पाच शालि अक्षतों को तुम लोग यो दो।
चोकर दुबारा तियारा उन्हे उत्खात निहत करो-अर्थात् जब वे खेत में-क्यारी में-अकुररूप से उत्पन्न हो जावे तब उन्हें वृद्धिंगत करने के लिये वहा से उखाडो और फिर दूसरी जगह-क्यारी मे उन्हें आरोपित करो। इस तरह दो तीन बार करो। करके फिर उस खेत को वाड़ी से परिवृत करो-प्राकार के आकार जैसी काटो की बाड़ से હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે આ પાચ પાલિકણે છે અને વર્ષાકાળ ના પ્રારંભમાં અપૂકાયમહાવૃષ્ટિ રૂપે જળ વૃષ્ટિ થાય ત્યારે તમે નાની સરખી એક કયારી २ मा शासि पापी शत शत योग्य मानापन, (करित्ता इमे पच सालि अक्सए वावेह पावित्ता दोच्च पि तच्च पि उक्चइ निहए करेह, करित्ता वाडि पक्खेव करेह करिता सारखेमाणा सगोवेमाणा अणुपुव्वेण सवढेह) ४यारी જ્યારે સરસ રીતે તૈયાર થઈ જાય ત્યારે તેમાં આ પાચે શાવિકને વાવજો
વાવીને બીજી અને ત્રીજી વખત ઉખાત નિહિત કરો એટલે કે જ્યારે શાલિકણે ક્યારીમાં ઊગી જાય ત્યારે તેઓના વધન માટે તે સ્થાનેથી ઉપડીને ફરી બીજે સ્થાને રોપ આ પ્રમાણે તમે બે ત્રણ વખત કરો આમ કરીને તમે તે રાાલિકણવાળી કયારીની ચેમેર કાટાઓની વાડ બનાવે આ
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ताधर्मकथा विविधप्रकारेण चिन्तयति, 'त भणियच तस्माइवितव्यमत्र किनिस्कारणेन मम तातेन श्वसुरेण मा पच शाल्यक्षता दत्ता.,तत्र योऽपि हेतुरस्ति । 'त तद् तस्मास्कारणात् ' सेय' श्रेय मुखकरमेतदेव खलु मम 'एए' पतान् पश्च शाल्य क्षतान् सरक्षन्त्याः । सगोपायन्त्याः सवर्द्धयन्त्याः इति निश्चित्य एव सप्रेसवे पर्यालोचयति, सप्रेक्ष्य च पुलगृहपुस्पान कृषिकर्मनिपुगनिजकुटुम्बपुरुषान् शब्दयति आह्वयति शन्दयित्वा चैत्र क्ष्यमाणमकारेणावाटीद , हे देवानुपियाः यूय खलु एतान् पचशाल्यक्षतान गृहीत गृहीत्वा 'पदमपाउससि ' प्रथम प्रापि चर्पाकाल मारम्भसमये ' महाद्विकायसि ' महारष्टिकाये 'निश्यसि समाणसि' निपतिते सति महावृष्टिरूपेण जलराशि रूपेऽफाये भूमो निपतिते सतीत्यर्थः रोहिणीकाने भी विविधरूप से विचार किया। अन्त में इस निष्कर्ष पर वह पहुँची कि श्वसुरजीने जो ये पांच शाल्यक्षत मुझे दिये हैं
और इनकी रक्षा आदि करने के विषय में जो मुझ से कहा है सो इसमे कोइ न कोइ कारण अवश्य है। (त सेय खलु मम एए पच सालि अक्खए सारक्खेमाणीए सगोवेमागीए सवड्डेमाणी त्तिकट्टु एव सपे हेइ) इसलिये मुझे यही सुखकर है कि मैं इन पाच शाल्यक्षतों की रक्षा करूँ इन का सगोपन और सवर्द्धन करूँ। ऐसा निश्चय कर उसने यह पूर्वोक्त रूप से विचार किया। (सपेहिता कुलघरपुरिसे सहावेह) विचार कर फिर याद में उसने कृषिकर्म करने में निपुण अपने कुटुम्ब के पुरुयो को धुलाया। (सदावित्ता एव वयासी) घुला कर ऐसा कहा(तुम्भेण देवाणुप्पिया! एए पच सालि अक्खए गिण्डर गिणिहत्ता पढमपाउससि महाडिकायसि निवइयसि समाणसि खुड्डाग केयार
એ નિર્ણય ઉપર આવી કે સસરાએ મને પાચ શાલીકણે આપ્યા છે અને તેની રક્ષા માટે મને જે કઈ કહ્યું છે તેની પાછળ કઈને કઈ કારણ તે ચોક્કસ डायु
(त सेय सलु मम एए पच सालि अक्खए सारखेमाणीर स गोवेमाणीए सवइढेमाणीए त्ति कट्टएव सपेहेह), भारी से ३२०४ छ કે હુ તેઓની રક્ષા કરૂ તેઓનુ સેગેપન તેમજ સંવર્ધન કરૂ આ પ્રમાણે २॥डियो से पाय शनि ने भाटे विया२ च्या (स पेहित्ता कुलघरपुरिसे सहावेइ ) पिया२ रीने तेथे कृषि ४२पामा मेटले. मे पामा यतुर या पाताना मना भासान मासाव्य (सहावित्ता एव वयासी) બોલાવીને તેણે આ રીતે કહ્યું(तुभेण देवाणुपिया! एए पप सालि अक्खए गिण्हइ गिणिहत्ता पढम पाउससि महावुड्ढिकाय सि निघइय सि समाण सि खुहाग केयार सुपरिकम्मिय करेह)
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antaraft का अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
मूलम् — तरणं ते साली अणुपुव्वेणं सारक्खिजमाणा संगोविजमाणा सर्वाद्विजमाणा साली जाया किपहा किण्हो भासा जाव निउरंवभूया पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरुवा । तण साली पत्तिया बत्तिया गन्भिया पसूया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सहइया पत्तइया हरिय पकडा जाया यावि होत्था, तएण ते कोडुंबिया ते सालिए पत्तिए जाव सल्लइयपत्तइए जाणित्ता तिक्खेहिं णव पजणएहि असियएहि लुणेति लुपिता करयलमलिए करेंति, करिता पुणति, तत्थण चोक्खाणं सूयाणं अवखडाणं अप्फुडियाण छड्डुछडाप्रयाणं सालीण मागहए पत्थए जाए । तएण ते कोडुबिया ते साली णवसु घडएस पविखवति पक्खिवित्ता
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माणा विहरति ) जब सर्व प्रथम वर्षा काल के प्रारभ में जलराशी रूप अकाय महा वृष्टि के रूप भूमि पर बरसा तन उन लोगो ने शालि वपन के योग्य एक छोटा क्यारी बनाया । बनाकर उस में उन पाच शालि अक्षतों को वो दिया। बाद मे जय वे अक्कुर के रूप मे उत्पन्न हो गयेउन्हे मूलस्थान से उग्वाड कर दूसरे स्थान में आरोपित कर दिया। इस तरह दो तीन बार उन्हें उग्वाड़ और आरोपित किया पश्चात् उस खेत को बाड़ से परिवृत कर दिया । इस प्रकार कर के उन सब ने क्रमशः उनकी रक्षा की - उपद्रवों से उन्हें बचाया और उन्हें नहाया || सू०५ ॥
-तय
પ્રારભમા જ્યારે સૌ પ્રથમ અાય મહાવૃષ્ટિ ના રૂપમા જળ વર્ષો થઇ ત્યારે તે લેાએ રાલિકણેાને વાવવા ચાગ્ય એવી એ- નાની સરખી કયારી છે.નાવી નાની ક્યારી બનાવીને તેઓએ તેમા પાચ શાલિકણેને વાવ્યા જ્યારે માલિકા અકુરિત થયા ત્યારે તેઓએ તેમના પેાતાના મૂળ સ્થાનેથી ઉપાડીને ખીજા સ્થાને રાપી દીધા ત્યાર ખાદ્ય ક્યારીને તેઓએ કાટાની વાડ કરી લીધી . આ પ્રમાણે તે લેાકેાએ યથાક્રમે વાવેલા રાલિ ્ાની રક્ષા કરી, ઉપ દ્રવેાથી તેમની સભાળ રાખી અને તેમનુ વર્ધન કર્યું। સૂત્ર
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प्रांताधर्मकपा ततस्तदनतर खलु ते कोम्भिकपुरपाः रोहिण्या; एतमर्थ शाल्यक्षतसब धनरूपमर्थ प्रति शृण्वन्ति-रोहिणी कथनानुसारेण स्वीकुर्वन्ति स्वीकृत्य च तान् पञ्च शाल्यक्षतान् गृहन्ति गृहीत्या चानुपण क्रमेण सरक्षन्ति सगोपायन्ति, 'वि हरति ' आसते । ततस्तदनतर ते पौटुम्बिका पुस्पाः प्रथममापि महा दृष्टिकाये निपतिते सति पुरक केदार सुपरिवर्मित शालियपनयोग्य कुर्वन्ति कृत्वा च तान पच शाल्यक्षतान् उपन्ति द्वितीयमपि तृतीयमपि द्वित्रिवार 'उक्खय निहए' उत्खात निहतान् मूलस्थानादुरपाट्य अन्यत्र स्याने समारोपितान कुर्वन्ति कृत्वा वाटिका परिक्षेप दुर्वत्ति कृत्वा च आनुपूठा अनुक्रमेण-सरक्षन्तः-सम्यक रक्षा कुर्वन्तः सगोपायन्तः सवर्धयन्तो रिहरन्ति ॥ सू० ५ ॥ उसे घेर दो-और घेर कर उस की रक्षा करो-उपद्रवों से उसे बचावो इस प्रकार क्रमशः इन शालि अक्षतो को तुम रोग बढाओ । (तण्ण ते कोडुपिया रोहिणीए एयमह पडिसुणति ते पचसालिमक्खए गिण्हति गिपिहत्ता अणुपुब्वेण सारसेति स गोवति विहरति) रोरिणिका के इस शालि अक्षत वर्धनरूप अर्थ को उन कौटुम्निक पुरुषों ने स्वीकार कर लिया और उन पाच शालि अक्षतों को उससे ले लिया। लेकर रोहिणीका के कहने के अनुसार क्रमश. उन सब ने रक्षा की और उप द्रवों से उन्हें बचाया।। ।
(तएण ते कौडुपिया पढमापाउससि महा बुद्धिमायसि णिवइयसि समाणसि खुड्डीय केयार सुपरिकम्भिय करंति, करिता ते पच सालि अक्खए ववति दुच्चपि तच्चपि उक्खय निए करेंति, करित्ता वाडि परिक्खेव करेंति, करित्ता अणुपुब्वेणं सारक्खेमाणा सगोवेमाणा सब. પ્રમાણે તમે તે વાવેલા શાલિકની વિવિધ રીતે સંભાળ પૂર્વક રક્ષા કરતા ५२ता तसानु न । (तएण कोडु बिया रोहिणीए एयमट्ठ पडिसुण ति ते पच जालि अक्सए गिह ति गिहित्ता अणुपुत्वेण सारक्खे ति स गोवति विहर वि) હિણીના–રાલિકના , વર્ધન માટેના બધા સૂચને કૌટુંબિક પુરુષોએ વીકાર્યા, અને પાચે શાલિકોને તેમની પાસેથી લઈ લીધા - લઈને હિણીની સૂચના મુજબ શાલિકણે ની તેમણે ઉપદ્રથી રક્ષા કરી છે
(तएण ते कौडु पिया पढमापाउस सि महाबुढिहाय मि णित्रयसि समाण सि खुड्डीय फेयार सुपरिकम्मिय करे ति, करिचा ते पसालि अखए वत्र ति दुच्च पि तच्च पि अक्सए निहए करे ति, करित्ता वाडिपरिक्खेव करे ति करिचा अणुपुत्वेण सारक्खेमाणा सगोवेमाणा सवढेमाणा विहर ति) १) जना
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्- . २०३ 'मेह निउरसभूया' मेनिकुरम्वभूता अन्योन्यशाखामशाखानुप्रवेशात् धन निरतरच्छायरमणीयमेघाना निकुरवः समूहस्तद्नत् शोभाशालिन इत्यर्थः अतएव 'पासाईया' प्रासादीपा दर्शकमनः प्रसन्नता हेतुत्वात् ' दरिसणिज्जा' दर्शनीयाः नेत्रानन्दकारित्वात् 'अभिरुवा ' अभिरूपाः कमनीयत्वात् ' पडिख्वा' प्रतिरूपा-सर्वया चित्तहारित्वात् । ततस्तदनन्तर खलु 'साली' शालय 'पत्तिया परिता-पत्रयुक्ता जाता 'वर्तिताः-वृत्ताकारतया चतुला जाता नालरूपतया शाखा दिना समतया या वृत्तभाव माताः 'गम्भिया' गर्मिता प्रवर्धनानन्तर जातगर्भा:अन्तः सातमञ्जरिका इत्यर्थ 'पम्याः' ममूता निस्सृतमञ्जरिका 'आगयगधा ' भागतगन्धाः सर्वतः प्रसरत्सुरभिगन्धाः 'खीराइया ' क्षीरकिता:समुत्पन्नदुग्मा , ' पद्धफला बरफलाः क्षीरस्य कणरूपेण परिणामादुत्पन्नफला 'पक्का ' पक्वाः कणाना परिपाकात् परिपुष्टा ' परियागया' पर्यायागता.= सर्वावयवेन पक्कापस्थामुपगताः । 'सल्लइया ' गलाकिताः शुष्कपरत्वेन निकुर भूया, पासाईया, दरसणिजा, अभिरूवा पडिरूवा ) वर्ण से वह काली हो गई आभा भी उसकी काली निकलने लगी । यावत् वह मेघ निकुरम्ब समृर जैसी हो गई। __ शाखा प्रशाखाओ के परस्पर मे प्रवेश से, सान्द्र और अन्तर रहित छाया से रमणी य मेघों के समूह सी तरह वह शोभित होने लगी। जो भी कोई उसे देखता तो उसका मन आनन्द से खिल उठता। नेत्रो को उसके दर्शन से बहुत अधिक शीतलता प्राप्न होती। इस लिये वह कमनीय और प्रतिरूप बन रही थी। चित्ताकर्षक थी और घहुत अधिक मनोज्ञ थी। (तएण साली पत्तिया, वत्तिया, गभिया, पस्या, आगय गधा खीराइया, बदकला, पक्का, पडियागया, सल्लाया, पत्तइया हरियपव्यकडा, जाया यावि होत्थो) धीरे २ समयानुसार वह તે શ્યામ રંગના થડ ગયા. તેમનામાથી કાળી આભા કુટવા લાગી યાવત તે મેઘનીકુર બ જેવા થઈ ગયા
આ રીતે વાવેલી તેડાગર શાખા પ્રશાખાના પ્રવેશથી સાદ તેમજ સઘન યાથી રમણીય મેઘસમૂહે જેવી શોભવા લાગી છે કે તેના સૌંદર્ય ને જોતું ત્યારે તેનું મન હર્ષઘેવુ થઈને નાચી ઉઠતું હતું તેને જોવાથી નેત્ર શીતળતા અનુભવતા હતા એથી તે કમનીય અને પ્રતિરૂપ લાગતી હતી તે त्तिने मापनारी भर भूमी मना२ ती (तपण साली पत्तिया, पचिया, गभिया, पस्या आगमगधा, सीराइया बदफला पफापडियागया, सल्लल्या
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_माताधमाया उवलिपंति, उवलिपित्ता लंछियमुदिए करेंति, करित्ता कोटागारस्स एगदेससि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खमाणा सगोवेमाणा विहरति । तएण ते कोडविया दोच्चमि वासरत्तसि पढम पाउसंसि महावुटिकायंसि निवइयसि खुड्डाग केयार मुपरिकम्मिय निवइयसि खुड्डाग केयार सुपरिकम्मियं करोति ते साली ववति दोच्चपि तच्चपि उक्खयणिहए जाव लणेति जाव चलण तलमलिए करेंति, करेत्ता पुणंति तत्थण सालीण वहवे कुडवा जाव एगदेससि ठावेंति ठाविता सारक्खमाणा सगोवेमाणा विहरतिातएण ते कोडुबिया तच्चंसिवासारत्तसि महाबुट्टिकार्यसि निवइयंसि वहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लणेति लुाणता संवहति सवहित्ता खलय करेंति खलय करित्ता मलेति जाव वहवे कुभा जाया, तएण ते कोडंधिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति जाव विहरति उत्थे वासारत्ते वहवे कुंभसया जाया ॥ सू०६॥ ( टीका-ततस्तदनन्तर खलु ते शालय आनुा सरक्ष्यमाणासंगोप्यमानाः संवर्यमानाः शालय ' जाया' जाता:-निप्पन्नाः किंभूता ? किण्हा ' कृष्णा. वर्णतः श्यामाः 'किण्होभासा ' कृष्णावभासाः कृष्णच्छायाः श्यामकान्तयः यावद्
तएण ते साली अणुपुव्वेण' इत्यादि । ____टीकार्थ-(तएण) इसके बाद से साली) अन्य खेत में आरोपित की गई वह शाली (अणुपुत्रेण) क्रम २ से (सारक्खिज्जमाणा, सगोविज माणा सबडिज्जमाणा साली जाया) उन लोगो से रक्षितकी जाकर सगोपित की जाकर बढाई गई सो खूब पढ गई (किण्हा किण्हो भासा, जाव
'तएण ते साली अणुपुश्वेण ' त्या
सार्थ (तएण) त्या२०१६ (ते सालो) vilon मेतरमा 60-7 पावेदा शालि ४. (अणुपुत्वेण ) यथाभ (सारक्सिज्जमाणा स गोविज्जमाणा, सब दिनमाणा सालीजाया) तमाथी रक्षित, सगापित भर पति ने पूजा वृद्धि भाभ्या (किण्हा किण्होमासा जोव निउर वभूया, पासाईया दरसणिज्जा, अभिरूवा)
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अनगारधर्मामृत' टीका अं० ७ध सार्थवाहचरितनिरूपणम्
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पत्रितान् यारत् शल्यकित पत्रकितान् ज्ञात्या तीक्ष्णैः ' णवपज्जणएहिं ' नपा यनकै - नपानि-नवीनानि पायनकानि = लोइकारेण तापितानि कुट्टितानि तीक्ष्णचारी कृतानि कृत्वा पुनस्तापयिला जले निरोलनानि येपा तानि, तै: 'असियएहिं ' 'असिय' इति दात्रार्थं कोऽयदेशी शब्द. दानरित्यर्थः, लुनन्ति=छेदयन्ति, लविता करतलमलिए ' करतलमृदितान् करणवान् कुर्वन्ति, शालिकणान् मञ्ज रीतो निस्सारयन्तीत्यर्थ' ' [ पुणति नन्ति पलालादीनपसारयन्ति तत्र खलु
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(तरण ते कौडुबिया ते सालीए पनिए जाव सल्लइय पत्तइए जाणित्तो तिक्खे हि णवपज्जणहि अरु एहि लुणेति, लुणित्ता करयलमलिए करेति करिता पुणति, तत्थणं चोकवाण सयाण अक्खडाण अप्फुडियाण उड्डछडापूयाण सालीण मागहए पत्थए जाए) इस तरह जन वह शालि-सस्य पूर्णरूप पककर तयार हो गई और जब उन कौटुनिक पुरुषोंने उसे पत्रित यावत् शाल्यकित पत्रांकित पके हुए पत्तो वाली और शालि से युक्त देखा तो उसे पूर्ण पकी हुई जानकर तीक्ष्ण नव पायनक वाले दात्रों से-हैसियोसे उन लोगो ने उसे काट लिया | लहार के द्वारा जो तापित और कुटित कर पहिले तीक्ष्ण धारी वाले बनाये गये ये हैं और बाद में फिर तापित कर जलमे बुझाये गये हैं " यह " नच पायनक " इस शब्द का अर्थ है । यह " आसिएहि " यह हँसिया ( दात्र ) वाचक देशीय शब्द हे | काटकर फिर उन्होंने उसशालि मजरो मे से हाथो से मर्दित कर शालिकणों को निकाला |
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( तएण ते कौडु बिया ते खाली पत्तिए जाव सल्लइय पत्तइ जाणित्तो तिक्खेहिं णनपजणएहिं आसियएहिं लुणेति लुणित्ता करयलमालिए करे ति, करिता पुणति तत्थण चोरसाण सयाण अक्सडाण अप्फुडियाण छड्डछडापूयाण साली rainee पत्थ जाए ) या प्रमाणे न्यारे ते विधान ३ये परियज्व થઈને તૈય ૨ થઈ ગઈ ત્યારે કૌટુબિક પુરુષાએ તેને પત્રિત યાવત રાલ્ફ તિ પનાકિન એટલે કે પાડેલા પાદડા વાળી જોઈ ત્યારે તેને પૂરૂપે પરિપકવ થયેલી જાણીને તીક્ષ્ણ ધારવાળી દાતરડીથી તેને કાપી નાખી
લુહાર વડે તપાવી તેમજ ટીપીને પહેલા તીક્ષ્ણ ધારવળા બનાવવામા આવે અને ત્યા બાદ ફરી તપાવાતે પાણીમા ઠંડા કરવામા આવે તેને નવ પાયનક ’કહેવામા આવે છે
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'आमिशेडि' मा छात्र ( हातरडी ) वाय देशी राष्ट छे ડાગરને કાપીને તેઓએ સાલિમ જરીને હથેળીથી મસળીને શાલીકા છૂટા પડયા ભૂસાને તેઓએ ત્યાથી દૂર કર્યું
આ રીતે તે સ્થાન ભૂસુ
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शाताधर्मकथासूत्रे
शलाकारूपेणावस्थिताः पत्तइया' पत्र किता=पत्र
प्रायः क्षरणादल्प
पनाः, 'हरियाडा' हरितपर्वकाण्डाः - हरितानि=परिपत्रतया हरितालवर्णानि आशुकानि मादुर्भवदकुरत्पीतवर्णानि पर्वकाण्डानि येषा ते तथा, जाताश्चाप्य भवन् सम्पूर्णतया परिपक्ता जाता इत्यर्थः । ततः खलु ते कौटुम्बिका तान् शालीन
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शाली - धान्य-पत्र युक्त होने लगी, आकार में गोल २ दिखलाई देने लगी । नाल के ऊपर शाखा आदि - अवयव समान रूप से नीचेकी और छत्तो के समान झुक गये थे इसलिये वह आकार मे गोलाकार दिखलाई देती थी। जब वह अच्छी तरह वर्धित हो चुकी तत्र उसमें भीतर मजरी आगई और बाहिर निकल आई। चारो और सुगधि उसमे से फैलने लगी ।
धीरे २ उस मजरीमे दूध भा उत्पन्न हो गया । और वह दुग्ध कणरूप से परिणम गया इससे उस मजरी में अन्न भी आगये । वे अन्न के दाने भी परिपक्व हो गये सपूर्ण रूप से अच्छी तरह पककर पुष्ट हो गये । इस तरह जब वह शालि-धान्य पककर तैयार हो गई -तब उसके पत्ते शुष्क हो चले और वे शलाई के आकर में उसमें लटकने लगे । धीरे २ कुछ २ पके हुए पत्ते उसमें से क्षरित भी हो गये । इसलिए उसमें बहुत कम पत्ते लगे हुए रह गये । उसके पर्व काण्ड परिपक्व होने के कारण प्रादुर्भविन अकुर के समान पीले हो गये ।
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पत्तइया, हरिय पत्रकडा जाया यानि होत्या) समय ता यथा मे ते डागर પાડા વાળી થવા માડી આકારમા તે ગાળ દેખાવા લાગી ડાગરની દાડીની ઉપર નાની શાખાએ વગેરે અવયવા સરખી રીતે છતરીના આકારમા નીચે નમેલા હતા એથી જ તે આકારમાં ગાળ દેખાતી હતી જ્યારે તે સારી પેઠે મેાટી થઇ ગઈ ત્યરે તેમા મજરીએ નીકળી અને તેની સુવાસ ચેમેર પ્રસરી ગઈ ધીમે ધીમે મજરીઓમા દૂધ ઉત્પન્ન થયુ અને યથાસમયે તે દૂધ તેમાજ કણાના રૂપમાં બધાવા લાગ્યુ આમ સમય જતા શાલિકણેાસ પૂર્ણ રીતે પરિપકવ તેમજ પુષ્ટ થઈ ગયા આ રીતે જ્યારે તે શાલિયાન્ય નો પાક તૈયાર થઈ ગયા ત્યારે તેના પાદડાસૂકાઇ ગયા અને તે શલાકા (સળી) ના આકારે તેમા લટકવા લાગ્યા તેમા લટકવા લાગ્યા ધીમે ધીમે પાકેલા પાદડા તેમાથી ખરવા લાગ્યા એથી ખૂબજ થાડા પાદડા તેની ઉપર રહી ગયા તેના પવકાડ ( છોડની બે ગાડ વચ્ચેના ભાગ ) પરિપકવ થઇ જવાથી પ્રાફુ ભવિત અકુરની જેમ પીળા થઇ ગયા હતા
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अनगारधर्मामृतपिणी टीक अ0 9 धन्यसार्थवाहचिरितनिरूपणम् २०७ चिह्नन चिह्निताः,मुद्रिता =नाममुद्रादिनाऽवितास्तान् कुर्वन्ति, कृता 'कोट्ठागारस्स' कोष्ठागाहस्य एकदेशे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा सरक्षन्तः सगोपायन्तो विहरन्ति ।
तत. खलु ते कौटुम्बिका द्वितीये वाराने द्वितीयर्पसम्बन्धि चातुर्मास्यकाले प्रथमप्रापि प्राट् प्रारम्भसमये महारप्टिकाये निपतिते महावर्षायां सत्या क्षुल्लक केदार सुपरिकम्मियं ' सुपरिवर्मित-विशिष्ट लक्ष्णमृत्तिकादिदानेन हलकुदागदिनोत्खनने च सस्कारित कुर्वन्ति, कृत्वा तान् शालीन वपन्ति 'दोच्च पितञ्चपि' द्विरपि निरपि-द्वित्रिपारमापि' उपवयनिहए ' उत्खातनिहतान् उत्पाटिनरोपितान् यावत् लुनन्ति, यावत् चरणतलमृदितान् कुर्वन्ति, कृत्वा पुनन्ति से चिह्नित कर उनपर नामकी मुहर लगा दी । पश्चात् भडार में उन्हें एक ओर रख दिया । समय २ पर वे लोग उनकी रक्षा और सभाल भी करते रहे। (तएण ते कौडविया दोच्चपि वासारत्तसि पढम पाउससि महाधुटिकायसि निवइयसि खुट्ठाग केयार सुपरिकम्मिय फरेति) इसकेबाद उन कोटुम्विक पुरुपोने द्वितीय वर्ष समन्धी चौमासा जय लगा -तव-सर्व प्रथम मवृष्टि के रूप में जल के यरस जाने पर, हल से जोत कर तथा कुद्दाल आदि से खोदकर एक छोटा सा खेत तैयार किया। उसमें चिकनी और नरम मिट्टी डालकर उसे बहुत ही अच्छा शालि उपजाने के योग्य बना दिया । (ते शोलि वपति, दोच्यपि तच्चपि उक्खय निदए जाव लुति ) यादमें उस शाली को उसमें वो दिया।
पहिले की तरह जब वह धान्य अकुरित हो आई तब उन्होंने उसे वहा से उखाड कर दूसरी जगह आरोपित कर दिया । इस तरह यह भूती दीया यथा समय तसा तभनी समाण ५ मत 8ता (तपण ते कोड बिया दोच्चचि वासारत्तसि पढम पाउससि मह वुढिकायसि निवइयसि खुड्डाग के यार सुपरिकम्मिय करेंति) या२ ५७। अनि पुरुवारी 1 4 ચેમાસાના દિવસે આવ્યા ત્યારે સૌ પહેલા મહાવૃષ્ટિના રૂપે જળવર્ષા થયા બાદ હળથી ખેડાને તેમજ કોદાળી વગેરે થી ખોદીને એક નાનું ખેતર તૈયાર કર્યું જેમાં ચીકણી અને કમળ માટી નાખીને તેને ખૂબ જ સરસ વાલિ (१२) पा११। यो नापी धु (ते सालीवपति, दोच्चपि तच्चपि उक्सयनिहए जाव लुणेंति) त्या२ पछी भेतरमा शालिनी धा
પહેલાની જેમ જ્યારે શાલિના અકરો બહાર નીકળ્યા ત્યારે કૌટુંબિક માણસ એ તેના છેડેને ત્યાથી ઉપાડીને બીજા સ્થાને રેપી દીપા આ
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
तस्मिन् स्थाने 'चोखाण ' चोक्षाण = कचनर निरमारणेन स्वच्छानाम् 'सध्याण' सुकिताना=कयुक्तानां वपनयोग्यानामित्यर्थः ' अक्खडाण' अखण्डानाम्=अक्ष तानाम् ' अष्फुडियाण ' आफुटितानाम् = भत्रुटितानाम् ' उड्डउडाप्यारी' छड छडापूतानोमू - 'छड-उड ' शब्दपूर्वक सूर्पादिना शोधितानां शालीनां शालि horai ' माग ' मागधकः- मगधदेशमसिद्ध, 'पत्थर' प्रस्थकः = मानविशेषो जातः, मागधमस्थपरिमिता शालयः सजाता इत्यर्थ ।
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ततः खन्तु ते कौटुम्बिकास्तान् शालीन् 'नासु ' नवकेषु नृतनेषु घटेषु लघुकलशेषु' पक्खिवति प्रक्षिपन्ति स्थापयन्ति भरन्तीत्यर्थ, उत्क्षिप्य ' उवलिपति ' उपलिम्पन्ति = पटमुखे पिधानकस्य गोमयादिना सयोजनेन मुख निरोध कुर्वन्ति, उपलिप्य ' लछियमुद्दिए 'लाज्मुिद्रितान् लाञ्चिता = रेखादि उसके प्यार आदिको पलाल को वहा से हटाया। इस तरह उसस्थान मे चोखे - कूडा करकट निकलजाने से बिलकुल स्वच्छ हुए-शुक युक्त - वपन योग्य ऐसे अखड - अक्षत-सारित टूटे नहीं तथा उड़ छड शब्द पूर्वकम्पादि से शोधित किये गये शालिकग निकले जो मगध देश प्रसिद्ध ९ प्रस्थ प्रमाण हुए । (तरण ते कौडुबिया ते सालि णवण्सु, घडए, पक्खियति पक्खिवित्ता उचलिपनि, उवलिपित्ता लग्यितु दिए करेति करिता कोट्टागारस्स एगदेखि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खे माणा, सगोवेमाणा विहरति ) इस के बाद उन कौटुम्बिक पुरुषोने उन शालिकणों को नवीन छोटे २ घड़ों में भरकर रख दिया । भरने के बाद उन घडोंका मुख ढँक दिया और उसे गोयर आदि से लीपकर बदकर दिया । बन्द करके फिर उन घडों को रेखादि चिह्न
વગેરે સાફ કરવાથી સ્વચ્છ રાલિકા શૂક યુક્ત-વાવવા ચાગ્ય, અખડ–અક્ષત સૂપ વગેરે, થી છડે છડે શુ કરાવડાવીને સાકરેલા શાલિકણ્ણા નીકળ્યા ते शालीला भगवद्वेश प्रसिद्ध प्रस्थ प्रभाशु ता ( तएण ते कोडु बिया से वाणिवर घडए पक्खिवति पक्खिवित्ता, उवलिन ति उवलिंपित्ता लछिमु हिए करेति, करिता कोट्टागारस्स एगदेससि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खेमाणा, सगोवेमाणा विहरति ) त्यार माह और मिड पुरुषो मे शालिने नवा नाना નાના કળશૈામા ભરીને મૂકી દીધા
ત્યાર બાદ કળશેના મે ઢાકીને તેમને છાણુ વગેરેથી લીંપીને અધ કરી દીધા કળશેને અધ કરીને રેખાઓ વગેરેથી તેમને ચિહ્નિત કરીને તેમના ઉપર નામની મહાર લગાવી દીધી ત્યાર પછી ભડારમાં એક
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोक अ० ७ घन्यसार्थवाह चिरितनिरूपणम्
चिहनेन चिह्निताः, मुद्रिता = नाममुद्रादिनाऽङ्कितास्तान् कुर्वन्ति कृला 'कोट्ठागारस्स' कोठागाहस्य एकदेशे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा सरक्षन्तः सगोपायन्तो विहरन्ति । ततः खलु ते कौटुम्निका द्वितीये वर्षाराने द्वितीयवर्षसम्बन्धि चातुर्मास्यकाले प्रयममापि मातृट् पारम्भसमये महादृष्टिकाये निपतिते महावर्षार्या सत्यां क्षुल्लक केदार 'सुपरिकम्मियं सुपरिवर्मित = विशिष्ट लक्ष्णमृत्तिकादिदानेन हलकुदालादिनोत्खनने च सस्कारित कुर्वन्ति कृत्वा तान् शालीन् वपन्ति 'दोच्च पि तन्चपि द्विरपि निरपि द्वित्रिवारमापि ' उक्म्वयनिहए ' उत्खातनिहतान् = उत्पाटितरोपितान् यावत् लुनन्ति यावत् चरणतलमृदितान् कुर्वन्ति कृत्वा पुनन्ति
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से चिह्नित कर उनपर नामकी मुहर लगा दी । पश्चात् भडार में उन्हें एक ओर रख दिया । समय २ पर वे लोग उनकी रक्षा और सभाल भी करते रहे । (तएण ते कौडविया दोच्चपि वासारन्तसि पढम पाउससि महाबुट्टिकायसि निवइयसि खुट्टाग केयार सुपरिकम्मिय करेति । इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषोने द्वितीय वर्ष सबन्धी चौमासा जब लगा -तब- सर्व प्रथम महदृष्टि के रूप में जल के बरस जाने पर, हल से जोत कर तथा कुद्दाल आदि से खोदकर एक छोटा सा खेत तैयार किया । उसमें चिकनी और नरम मिट्टी डालकर उसे बहुत ही अच्छा शालि उपजाने के योग्य बना दिया । ( ते शालि पति, दोच्यपि तच्चपि उक्य निहए जाव लुणेति ) वाद में उस शाली को उसमें बो दिया ।
पहिले की तरह जब वह धान्य अङ्कुरित हो आई तब उन्होंने उसे वहा से उखाड़ कर दूसरी जगह आरोपित कर दिया। इस तरह यह
મૂકી દીધા યથા સમય તેએ તેમની સભાળ પણ રાખતા હતા ( સપન તે कडुबिया दोच्चचि वाखारतसि पढम पाउससि मह वुढिकायसि निवइयसि खुड्डा के यार सुपरिकम्मिय करेंति) यार पछी अटु मिह पुरुषोयो जीन वर्षे ચામાઞાના દિવસે આવ્યા ત્યારે સૌ પહેલા મહાવૃષ્ટિના રૂપે જળવર્ષો થયા માદ હળથી ખેડાને તેમજ કાદાળી વગેરે થી ખેાદીને એક નાનુ ખેતર તૈયાર કર્યું. તેમા ચીકણી અને કામળ માટી નાખીને તેને ખૂબજ સરસ રાલિ ( डागर ) वात्रा योग्य मनावी दीधु (ते सालीवपति, दोच्चपि तच्चपि उक्सय निए जाव दुर्णेति ) त्यार पछी पेतरभा शाखिनेवापी होधी
પહેલાની જેમ જ્યારે શાલિના અકુશ બહાર નીકળ્યા ત્યારે કૌટુમિક માણસેા એ તેના છેડાને ત્યાથી ઉપાડીને ખીજા સ્થાને ૨ પી દીધા આ
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माताधकथासूत्र तस्मिन् स्थाने 'वोरखाण' चोक्षाण-उच परनिम्मारणेन स्पन्छानाम् 'मइयाण' शूकिताना-सूकयुक्तानां वपनयोग्यानामित्यर्थः ' अखडाण' अवण्डानाम्अक्ष तानाम् ' अस्फुडियाण ' अस्फुटितानाम् अत्रुटितानाम् ' उहउहापूयार्ग ' छड छडापूतानाम्- 'छड-उड' शब्दपूर्वक सूढिना शोषिताना शाल ना शालि कणानां 'मागहए 'मागधा- मगधदेशसिद्ध, 'पत्यए' प्रस्थका-मानविशेषी जातः, मागधप्रस्थपरिमिता शालयः सजाता इत्यर्थे ।
तत. खलु ते फौटुमिकास्तान् शालीन् 'नाएमु ' नरकेपु-नूतनेषु घटेपु लघुकलशेपु 'परिवति' प्रक्षिपन्ति स्थापयन्ति भरन्तीत्ययः, उत्क्षिप्य ' उवलिपति ' उपलिम्पन्ति घटमुखे पिधानकस्य गोमयादिना सयोजनेन मुख निरोध कुर्वन्ति, उपलिप्य ' लच्यिमुदिए ' लामिछमुद्रितान् लान्छिता- रेखादिउसके प्यार आदिको पलोल को-वहा से हटाया । इस तरह उसस्थान में चोखे-कूडाकरकट निकलजाने से बिलकुल स्वच्छ हुग-शक युक्त -चपन योग्य ऐसे अखड-अक्षत-सावित-टूटे नहीं तथा उड़ छड शब्द पूर्वक भूपादि से शोधित किये गये शालिकण निकले जो मगध देश प्रसिद्ध १ प्रस्थ प्रमाण हुए। ( ताण ते कौडपिया ते सालि णवण्प्सु, घडएस्सु, पक्खियति पक्खिवित्ता उचलिपति, उवलिंपित्ता लछिया दिए करेति, करित्ता कोडागारस्स एगदेससि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खे माणा, सगोवेमाणा विहरति ) इस के बाद उन कौटुम्बिक पुरुषोने उन शालिकणों को नवीन छोटे २ घडों में भरकर रख दिया । भरने के बाद उन घडोंका मुख ढक दिया और उसे गोयर आदि से लीपकर बदकर दिया। बन्द करके फिर उन घडों को रेखादि चिह्न વગેરે સાફ કરવાથી સ્વચ્છ રાલિકણે શુક યુક્ત-વાવવા યોગ્ય, અખડ-અક્ષત સૂપ વગેરે, થી છડે છડ શબ્દ કરાવડાવીને સાફ કરેલા શાલિક નીકળ્યા ते शासी। भगवश प्रसिद्ध से ५२५ प्रभाए ता ( तएण ते कौडु बिया ते सालिणवएसु घडएसु पक्खिव ति पक्विवित्ता, उवलिपति उवलिंपित्ता लछि"मु दिए करे ति, करिता कोदागारस्स एगदेससि ठावेंति, ठावित्ता सारखेमाणा, सगोवेमाणा विहरति ) त्या२ मा टुमि पुरुषोये शामिणाने न नाना નાના કળશમાં ભરીને મૂકી દીધા
- ત્યાર બાદ કળશના મે ઢાકીને તેમને છાણ વગેરેથી લીંપીને બધા કરી દીધા કળશને બધ કરીને રેખાઓ વગેરેથી તેમને ચિહ્નિત કરીને તેમના ઉપર નામની મહેર લગાવી દીધી ત્યાર પછી ભડારમાં એક કળશેને
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अनगारधामृतपिणी टीका अ० ७ घन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २०९ यावत् यहवा हद्घटाः जाता: अनेकवृहद्घटाः शालिपूर्णा अभूवन्नित्यर्थः । तताखलु ते कौटुम्धिकाः शालीन् कोष्ठागारे प्रक्षिपन्ति स्थापयन्ति यावत् सगो पायन्तो विहरन्ति । चतुर्थे ' पासारत्रे-चतुर्थवर्षसम्बन्धि-चातुर्मास्यकाले वर्ष चौमासा प्रारभ हुआ और उस में सर्व प्रथम महावृष्टि के रूप में जय जलकी वर्षा हुई तो उन कौटुम्चिक पुरुषों ने अनेक खेत सुपरिकर्मित किये
उन में उस शाली को यो दिया। यावत् उसे काट लिया। जब वह सब कट चुकी तय गट्ठा के रूपमें पांधा तव मस्तक परस्कट पर भार रूप से उसे रख कर वे सप खलिहान में ले आये । लाकर वहां उन्हों ने धान्यमर्दन के योग्य खलिहान तैयार किया । उस के तैयार हो जाने पर उस में उस शाली को फैला कर रख दिया। बाद में पैलो द्वारा उस की दॉय की । यावत् वह धान्य इतना निष्पन्न हुआ कि उससे घडे २ घडे भर गये। (ताण ते कोडयिया साली कोट्ठागारसि परिखवंति, जाव विहरति, चउत्थे चासोरते यहवे कुभसया जाया) इसके बाद उन लोगो ने उन धान्य को कोठागार में रख दिया और समय २ उस की देखभाल करने लगे। इसी तरह जब चौथे वर्प का चतुर्मास
આ રીતે સમય પસાર થતા જ્યારે ત્રીજી વખત વર્ષો કાળ આવ્યું અને મહાવૃષ્ટિના રૂપે પ્રથમ જળ વર્ષ થઈ ત્યારે કૌટુંબિક પુરુષોએ ઘણા ખેતરે તૈયાર કર્યો
બધા ખેતરમાં તેઓએ શાલી વાવી અને આમ સમય જતા જ્યારે તે પહેલાની જેમ પરિકન થઈ ગઈ ત્યારે કૌટુંબિક પુરુએ શાલિને પાક કાપી લીધે જ્યારે લણણી થઈ ત્યારે ભારાઓ ખાધી માથે તેમજ ખભે મૂકીને બધા ખેતરની માલિને ખોળામાં લઈ આવ્યા ત્યા લાવીને તેઓએ ધાન્ય મન વ્ય ખળુ તૈયાર કર્યું તૈયાર કર્યા બાદ તેઓએ શાલિ ને પાથરી દીધી અને બળદે ફેરવીને શું કર્યું આ પ્રમાણે આગળની પહેલાની જેમ બધી વિધિઓ પતાવ્યા બાદ ખેતરમાથી શાલધાન્ય આટલું બધું થયું કે જેનાથી ઘણા મોટા મેટ કળશે ભરાઈ ગયા
(तएण ते कोडुविया साली कोट्ठागारसि पक्खिति, जाव विहरति च उत्थे वासारते बहवे कुभसया जाया)
ત્યાર બાદ તેઓએ શલિધાન્ય થી ભરેલા કળશને કોઠારમાં મૂકી દીધા અને યથા સમય તેમની સંભાળ રાખવા લાગ્યા આ પ્રમાણે જ ચોથા વર્ષના
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हाताधर्मकामा तर खलु शालीना बहरः कुडवाः शालिगभृता पहरः कुडना अभूवन मंजाता यावत् एपदेशे स्थापयन्ति, स्थायित्ला सरसन्तः सगोपायन्तो विहरन्ति । ततः खलु ते कौटुबिकास्तृतीये वाराने महारष्टियाये निपतिते सति रहन् केदारोन् सुपरिकर्मितान् यारद् टनन्ति, लरित्या सदन्ति-भाररूपेण तान् पद्धा मस्तके रकधेवा निधाय सले स्थापयितु समानयन्ति. ततोऽपनीय तानवहन्ति,समुपन समानीय 'सलय ' खरर-धान्यमर्दनस्थान ' यति' कुर्वन्ति शालीन खले स्थापयन्तीत्यर्थः, कृत्वान्सले सस्थाप्य ' मले ति ' सले प्रसार्यालीवदर्भदैयन्ति उत्खाक (उखारना) निखात (रोपना । स्पक्रिया उन्होंने दो तीन वार की यावत् धीरे २ उसके पूर्णत पफजाने पर उन्हों ने उसे काट लिया। (जाव चरण तल मलिए फरेति, करेत्ता पुणति, तत्यण सालीण यहवे फुडवा जाव एगदेससि ठाति ठोवित्ता सारयसमाणा सगोवेमाणाविररति) यावत् उसे अपने २ पैरों के तलियो से मर्दित किया। बाद में उसे पलालआदि के अपसारण (दूर ) से साफ पिया। इस तरह वहां शालियों के अनेक कुडच ( घडे ) उन से भर गये । यावत् उन कुडयो (घड़ो) को उन्हों ने ले जाकर परिले की तरह भडार में एक तरफ रख दिया।
रखकर वे समय २ पर उनकी सारसभाल भी करने लगे। (तण्ण ते कौडुपिया तच्चपि वासारत्तसि महा बुडिकायसि निवइमि यहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाब लुण नि, लुणित्ता मवहति स वहित्ता वलय करेंति, खल्यकरेत्ता मलेति, जाव रवे कुभा जाया) इस तरह धीरे २ समय निकल ने पर जय तीसरी घार वर्षा काल सम्बन्धी રીતે આ ઉત્પાત (ઉપાડવુ) નિખાત (રાપવુ ની કિતા તેમણે બે ત્રગુવાર કરી સમય જતા યથાસમયે જ્યારે પાક રૌયાર થઈ ગયે ત્યારે તેઓએ તેને કાપી લીધે
(जाव चरण तल मलिए करेंति कोत्ता पुणति, तत्थण सालीण बहवे कुडवा जाव एगदेससि, ठाति ठापित्ता सारखेमाणा सगोवेमाणा विहरति)
અને “યાવત’ તેને પોતાના પગોથી મુક્તિ કે વાર પછી તેમાથી ભૂસ વગેરે સાફ કર્યું આ પ્રમાણે ત્યા શાલિ ( ડાગર) નો ઘણુ કુડા-કળશે -ભરાઈ ગયા આ રીતે તે કૌટુંબિક પુરુએ પહેલાની જેમ જ શાલિથી પરિપૂર્ણ કળશેને કોઠારમાં એક તરફ મૂકી દીધા યથા સમય શાલિના કળ શેની તેઓ સભાળ પણ રાખતા હતા
(तएण ते कौडविया तच्चपि व सारत्तमि महावुद्धिमायसि निवइयसि वहवे केयारे सुपरिसम्मिए जार लुणेति, लुणित्ता, समहति साहिता खलय, करेंति, खलय करेचा मलेति जार रहये कुभा जाया)'
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अनगारत्रामृतवर्पिणी टोका म०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्- - - २११ हंता अस्थि । तएणं पुत्ता । मम ते सालि अक्खए पंडिनिनाएहि । तएणं सा उज्झिया धण्णस्त सत्थवाहस्स एयम? सम्म पडिसुणेइ, पडिसुणिता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पल्लाओ पंचसालिअक्खए गेण्हई, गिहित्ती जेणेवं धपणे सत्थवाहे तेणेष उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धपणं सत्यवाहं एवं वयासी एएणं ते पंचसालिअक्खए-त्ति कटु धपणस्स सस्थवाहस्स हत्थसि ते पंच सालि अक्खए दलयइ । तएणं धण्णे सत्थवाहे उज्झिय सवहसोवियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-कि णं पुत्ता । ते चेव एए पंच सालि अक्खए उदाहु अन्ने । तएणं उझिया धणं सत्थवाहं एवं वयासीएवं खलु तुम्भे ताओ । इओ अईए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुल० जाव विहराहि । तएणं अह तुम्भं एयम, पडिसुणित्ता ते पंचसालिअक्खए गेहामि, गिण्हित्ता एगंतमवकमामि। तएणं मम इमेयारूवे अज्झथिए जीव समुपजित्था-एव खलु तायाण कोटागारसि० जाव सकम्मसपउत्ता जाया, त ण खलुताओ ते चेव पंच सालिअक्खएं एएण अन्ने । तएणं से धपणे उझियाए अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उन्झितिय तस्स मित्तणाइ० चउण्हे य सुहाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्से छारुज्झियं च छौंणुज्झिय च कयवरुज्झियं चं समुच्छियं च सम्मच्छियं च पाउवदाइं च पहाणोवदाई च बाहिरपेसणकारि ठवेइ।
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| রামখাের वानां शालीनां रहूनि कुम्भभवानि जातानि वहनि कुम्भशतानि शालिसंभवानि जावानि ॥ सू० ॥६॥
मूलम्-तएणं तस्स धण्णस्स पचमयंसि संवच्छरति परिणममार्णसि पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयांरूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु मए इओ अईए पंचमे संवच्छरे चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणहयाए ते पचसालि अक्खया हत्ये दिन्ना तं सेय खलु मम कल्ल जाव जलते पचं सालिअक्खए . पडिजाइत्तए जाव जाणामि ताव काए किण्हं सारक्खिया वा -संगोविया वा सवविया जाव त्ति के एवं संपेहेइ, संहिता कल जाव जलते विउल असणपाणिखाइमसाइम उवक्खडाबेइ, उवक्खडावत्ता मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघर जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेट्ट उज्झिय सदावेइ, सहावित्ता एव वयासी
एव खलु अह पुत्ता । ईओ अईए पचमास सवच्छरंसि इमस्स मित्तनाई० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तव हत्थसि पंचसालि अक्खए दलयामि, जयाणं अह पुत्ता। एए पंचसालि अक्खए जाएजा तयाणं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिज्जाएसित्ति, से नूणं पुत्ता । अहे समढे', प्रारभ हुआ तब उस समय बोई गई और पर्धित हुई उस धान्य के सैकडो कुभं तैयार हो गये । अर्थात् वह धान्य इतनी अधिक निपजी कि जिससे सैकड़ो घडे २ घडे उससे भर गये। सूत्र "६" ચોમાસામાં વાવવામાં આવેલી શાલિથી એક મોટા કળશ ભરાઈ ગયા એટલે કે શાલિ ધાન્યને એટલે બધે સરસ પાક તૈયાર થશે કે તેનાથી એકડે મોટા મોટા કળશે ભરાઈ ગયા છે. સૂત્ર “દ” .
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अंगारधर्मामृतवर्षिगोटी० अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
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तस्स कुलघरस्स हिरन्नस्स य जात्र कसठूस विउल धण जात्र साव तेजस् य भडागारिणि ठवेइ ।
:. एवामेव समणाउसो । जात्र पच य से महव्वयाई रक्खि या भवंति से ण इहभवे चेत्र बहूणं समणाणं ४ अचणिजे४ जहा व सा रक्खिया ॥ ३ ॥
रोहिणियावि एवं चेव, नवर तुव्भं ताओ । मम सुबहुय सगडी सागडं दलाह जेणं अहं तुम्भ ते पच सालिअक्खए पडिपिज्जामि । तएण से धपणे रोहिणि एव वयासी - कहं णं पुत्ता । तुम मम ते पच सालिअक्खए सगडी सागडेण निज्जाड़स्ससि । तएणं सा रोहिणी धण्ण एव वयासी - एवं खलु ताओ ! तुभे इओ पचमे सवच्छरे इमस्त मित्त० जाव बहवे कुभसया जाया, तेणेत्र कमेणं, एत्र खलु ताओ । तुभे ते पच सालिअक्खए सगडी सागडेण निजाए म । तएण से धपणे सत्थवाहे रोहिणियाए सुबहुय सगडोसागड दलयइ । तएणं सा रोहिणी सुबहु सगडीसागड गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोट्ठागार बिहाडेइ, विहाडित्ता पल्ले उभिदइ, उभिदित्ता सगडोसागड भरई, भरिता रायगिहे नगर मज्झमज्झेण जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ । तएण रायगिहे नयरे सिघाडग जाव बहुजो अन्नमन्ने एवम इक्खइ - धन्नेण देवाणुप्पिया ! धण्णे सत्थवाहे, जस्स ण रोहिणिया सुन्हा पच सालिअक्खए सगड - सागडिएण निज्जाएइ । तएण से धपगे सत्थवाहे ते पच सालि
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ज्ञाताधर्मकथा एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गधो वा णिग्गंधी वा जाव पव्वइए, पंच य से महत्वयाई उज्झियाइं भवंति सेर्ण इह भवे चैव वहूण समणाणं ४ जाव अणुपरियद्दिस्सर जहा सा उज्झिया ॥ १ ॥
एव भोगवइयावि, नवरं तस्स जाव कडतियं च कुदृतियं च पसतिय च, एव रुधतिय, रधतिय, परिवेसतिय च परिभारतिय च अन्तरिय च पेसणकारि महाणसिणि ठवेइ ।
एवामेव समणाओ । जो अहं समणो वा जाव पचयसे महाव्वयाइ फोडियाइ भवति से णं इह भवे चेत्र बहूण समप्राण ४ जाव हीलणिजे ४ जहा व सा भोगवइया ॥ २ ॥
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एवं रक्खियावि, नवर जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छद्द उवागच्छित्ता मजूस विहाडेइ, विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंचसालिअक्खए गेहइ, गिव्हित्ता जेणेव घण्णे तेणेव उवा गच्छइ, उवागच्छित्ता पचसालिअक्खए धण्णस्स हत्थे दलयइ । तएण से धपणे रक्खइय एव वयासी - कि ण पुत्ता ते चेव एए पचसालिअक्खया उदाहु अन्ने ? ति । तएण रक्विइया घण्णं सत्थवाह एव वयासी-ते चैव ताया। एए पच सालिअक्खया णो अन्ने । कह ण पुत्ता ! एव खलु ताओ तुन्भे इओ पचमनि जाव 'भविव्व एत्थ कारणेणं - ति कट्टु ते पचसालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसझ पडिजागरमाणी२ विहरामि त एएण कारणेण ताओ । ते चेव एए पच सालिअक्खया, णो अने । तएण से धण्णे रक्खिइयाए अतिए एयमह सोचा हट्टतुङ०
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मगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम
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परीक्षार्थ ते पञ्च शाल्यक्षता हस्ते दचा आसन्, 'सेय ' श्रेयः = उचितम् अस्य प्रतियाचितुमित्यनेन सबन्ध ! एव खलु मम कल्ये यावज्ज्वलति = सूर्योदये सति = मनाते पञ्चशाल्यक्षतान् 'पडिजाइत्तए ' प्रतियाचितु = प्रतिग्रहीतुम्, ' जाणामि ' जानामि = तदधुना निर्णयामि यत्- 'जान' यावत् = यावत्सख्यकाः शाल्यक्षता मया दत्तास्ते 'ताप' तापत्= तावन्परिमिताः कथा स्नुपया 'किह ' कथ= केन प्रका रेग सरक्षिताः सगोपिताः सवर्द्धिता यावत् ' तिक' इति कृत्वा इत्यभिमाय मनसि निधाय एव = त्रक्ष्यमागमकारेण समेक्षयति = विचारयति, सप्रेक्ष्य कल्ये यावज्ज्वलति प्रभातसमये विपुलमशन पान खाय स्वाद्य चतुर्विधमाहारम् उपस्का सवच्छरे चउण्ह सुण्हाण परिक्खणट्टयाए ते पत्र सालि अक्खया हत्थे दिन्ना - त सेय खलु मम कल्ले जाव जल ते पत्र सालि अक्खए पडिजाइत ) कि मैंने आज से गत पांचवे वर्ष मे चारों अपनी पुत्रवधूओं के उन की बुद्धि की परीक्षा के निमित्त हाथों में उन पाच पांच शालिअक्षों को दिया था, तो अब प्रातःकाल होते ही जब सूर्योदय हो जायगा- मैं 'उन पाच शालि अक्षतों को उनसे पीछे माग लूँ यह उचित है। ( जाव जाणामि ताव काए किण्ह सारविखया वा सगोविया वा स वड्डिया जाव त्ति कट्टु एव स पेहेर ) इससे मैं यह निर्णय कर लूँगा कि जितने शाल्यक्षत मैंने उन्हें दिये थे वे उतने शाल्यक्षत किस पुत्र वधू ने किस प्रकार से सरक्षित किये हैं, सगोपित किये हैं और सवधित किये हैं । इस पूर्वोक्त प्रकार से उसने विचार किया (सपेहित्ता
( एव खलु मए इओ अईए पचमे सवच्छरे चउण्हाण परिक्खणट्टयाए ते पचसाल अक्खया हत्थे दिना-त सेय खलु मम क्ल्लते जात्र जलते पचसालि अक्खए डिजाइन )
કે આજથી પાચ વર્ષ પહેલા મે ચારે પુત્રવધૂને તેમની બુદ્ધિ પરીક્ષા માટે તેમના હાથેામા પાચ શાલિકણા આપ્યા હતા તેા હવે સવારે સૂર્ય ઉદય પામતાની સાથે જ હું તેમની પાસેથી પાચે શાલિકા પાછા માગુ
એ જ ઉચિત છે
( जात्र जाणामि ताव काए किण्ह सारक्खिया वा सगोविया वा सर्वाड्डिया जाव चि कहुँ एव सपेहेइ )
એનાથી મને એ વાતની ખખર પડશે કે મે જેટલા શાલિકા તેમને આપ્યા હતા તેને કઇ પુત્રવધૂએ કેવી રીતે સ રક્ષિત, સ’ગાપિત તેમજ સવર્ધિત કર્યો છે. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યાં
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dिishra अक्खए सगडीसागडेणं निजाइए पासइ, पासित्ताह पंडिच्छा, पडिच्छित्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुहाणं कुल घरस्त पुरओ रोहिणियं सुण्हं तस्स कुलघरस्त बहुसु कज्जेसुध जाव रहस्सेसु . य आपुच्छणिजं जाव सबकजव विय पमाणभूयं ठावेइ ।
एवामेव समणाउसो जाव पंच य से महावया संवड्डिया भवंति से णं इह भवे चेव वहूर्ण समणाणं० ४ अञ्चणिजे जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणिया । ___ एव खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्त अयमढे पन्नत्ते-तिवेमि ॥
॥सत्तम नायज्झणं समत्त ॥७॥ टीका- तरण तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य ध यस्य-धन्यसाथैवो पाहस्य पश्चमे सवत्सरे' परिणममाणसि' परिणम्यमाने-सपूर्यमाणे सति पूर्वरा प्रापररात्रकालसमये अयमेतद्रूपः- आध्यात्मिका आत्मनि विचार - यावद मनोगतः सकल्पः समुदपद्यत-एव खलु मया 'इओ' इता-अद्यतनादिवसाप्रांग अतीते पञ्चमे वर्षे चतसृणा स्नुपाणा 'परिक्खंगट्टयाए ' परीक्षणार्थीयन्बुदि
तण्ण तस्स धण्णस्स' इत्यादि। - टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (तस्स धण्णस्स) उस धन्य सार्थवाह को (पचमयसि सबच्छरसि परिणममाणसि) पांच वर्ष जय पूर्ण हो चुके, तष'( पुश्वरत्तावरत्तकालसमयसि ) मध्यरात्रि के समय में (इमेयॉरवे अज्झथिए जाव समुप्पन्जित्था) इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ (एव खलु मए इओ अईए पच में
" तरण तस्स घण्णस्स"त्यादि
सार्थ-(तए) या२ ६ (तस्स धण्णस्स) धन्य साने (पचयनि सबरसि परिणममाण सि) पाय या ५२॥ यया त्या३(पुबरसाई रत्तहालसमयसि) २५3थी शत्रिना मत (इभेयासवे अज्झथिए जाय समु पजिया આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવતું મનોગત સક૫ ઉદ્દભવ્ય
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मनगार धर्मामृतावणी टीका अ०७ धयसार्थवाहचरिचनिरूपणम् यदा खल्ल अह पुत्रि ' एतान पञ्च शाल्यक्षतान् याचेय तदा खलु त्व मद्यमि मान् पश्च शाल्यक्षतान् प्रतिदया 'इति, स नन पुत्रि । अर्थ. समर्थ ? उजिप्रता माह- हन्त ! अस्ति-एतत्सत्यमस्ति । श्रेष्ठीपाह- 'त' तत्-तस्मात् खलु त्व हे पुत्रि ! मह्य तान् ‘पडिनिज्जापहि प्रतिनिर्यातय-प्रतिममर्पय । तत खल सा उज्झिता यस्य सार्थवाहस्य एतमय सम्यक प्रतिशृणोति-स्वीकरोति, प्रति श्रुत्य यत्रैव कोप्ठागार तत्रोपागच्छति, उपागत्य 'पल्लाओ' पल्लात्-शालि कुलघरवग्गस्स पुरओ तव हत्यसि पच सालि अक्खए दलयामि) बुलाकर उससे ऐसा कहा हे पुत्रि ! आज से गत पांचवें वर्ष में मैंने जो इन मित्र, ज्ञाति आदि परिजनों के और चारों पुत्रवधूओं के कुल गृहवर्ग के समक्ष तुम्हारे हाथ में पाच शारि-उक्षतों को दिया था। (जयाण अह पुत्ता एए पच सालि अक्खए जागजा) और हे पुत्रि ऐसा कहा था कि जब में इन पाच शालि-अक्षतो को मांगू (तयाण तुम मम इमे पच सालि अक्सए पडिदिजाएसि त्ति) तब तुम मुझे इन पाच सालि-अक्षतो को पीछे वापिस दे देना (से गूण पुत्ता अहे समहे) हे पुत्रि ! कहो यही बात कही थी न ? (हंता अस्थि ) तब उज्झिताने कहा-हाँ यही बात कही थी (तण्ण पुत्ता ! मम ते सालि अक्खए पडिदिज्जाएहि ) तो पुत्रि । तुम मुझे उन पाच शालि अक्षतो को अब पीछे वापिस दे दो । (तण्ण सा उज्झिया धण्णस्स सत्यवाहस्स एयम सम्म पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव कोठागार तेणेव उवागच्छद)
બોલાવીને તેને કહ્યું કે હે પત્ર! આજથી પાચ વર્ષ પહેલા મે તને આ બધા મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજને અને ચારે પુત્રવધૂઓના સગા વહાલાઓની સામે તમારા હાથમાં પાચ શાલિકણે આપ્યા હતા (जयाण अह पुत्ता एए पचसालि अक्खए जाएज्जा)
અને એમ કહ્યુ હતુ કે જ્યારે હું તમારી પાસેથી આ પાચ શાલિકણે માગુ (तयाण तुम मम इमे पच सालि अक्खए पडिदिज्जएसित्ति)
त्या३ त भने २५ पाये शालि। पाछ। मापन (से गूण पुत्ता अट्रे समठे है पतिसमे तभन मेरी पाती तीन ? (हता अत्यि) त्यारे alrsताये घु- " मे पात ४ी ती " तण्ण पुत्ता ! मम ते सालि अक्सए पडिनिज्जाएहि) तो पुति! पाये शालि तमे भने પાછા આપી
(तएण सा उज्झिा धण्णस्स सत्यवाहस्स, एयम सम्म पडिमुणेइ पडिसुणिता जेणेव कोडागार तेणेच उवागच्छद)
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
रयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिमभृतीन् चतसृणां च स्नुपाणी कुलगृहबर्गेण सार्द्धं 'भोजयित्वा यावत्तान् समान्य तस्यैव मित्रज्ञातिमभृतेः, चतसृणा स्नुषाणां कुल गृहवर्गस्य च पुरतो 'जे' ज्येष्ठां= ज्येष्ठपुत्रवधूम् ' उज्झिय' उज्झिताम् = उज्झितानाम्नी शब्दयति, शब्दयिला एनमनादीन् एव खलु अहं पुत्रि ! इतोऽतीते पश्चमे सरत्रसरे अस्य मित्रादेवतसृणां स्तुपाणा कुलगृहवर्गस्य च पुरतस्तत्र हरते पञ्च शाल्यक्षतान् ' ढलयामि ददामि दत्तवान् कथितत्राच कल्ल जाव जलते विउल असणपाणग्वाइमसाइम उवक्खडावेउखडावित्ता- मित्तनाइ० चउण्ट सुण्हाण कुलघर जाव सम्माणिस्ता तस्सेव मित्तणाह० चउण्ट् य सुण्हाण कुलघरवग्गस्स पुरओ जेट्ठ उज्झि य सहावे ) विचार कर के फिर उसने प्रातःकाल सूर्योदय होने पर विपुलमात्रा में अशन, पान, ग्वाद्य एव स्वाद्य रूप से चारों प्रकार का आहार तैयार करवाया ।
।
जब चारों प्रकार का आहार अच्छी तरह निष्पन्न हो चुका तब उसने अपने समस्त मित्र ज्ञाति आदि परिजनों के और चारों पुत्रव धूओं के कुलवर्ग के साथ भोजन किया। बाद मे उन मक्का सन्मान सत्कार किया । और उन्ही मित्रादि परिजनों के एव अपनी चारों पुत्रवधुओं के कुलवर्ग के समक्ष जेठी जो पुत्रवधू थी कि जिस का नाम उज्झता था उसे बुलाया । (सद्दावित्ता एव वयासी एव खलु अह पुस्ता ! इओ अईए पचमसि सवच्छरसि इमस्स मित्तनाइ चउण्ह य सुव्हाण
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(सपेहित्ता क्ल्ल जाव जलते विउल असण पाण खाइम उत्रक्खडावेइ उत्रक्खडावित्ता मित्तनाह चउण्ड सुण्हाण कुलधर जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाइ चउण्हय सु ण्हाण कुलधरवग्गस्स पुरओजेड उज्झिय सदावे )
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વિચાર કરીને તેણે સવારે સૂર્ય ઉદયપામ્યા ભાઇ અશન, પાન ખાદ્ય અને સ્પદ્ય આમ ચાર જાતના પુષ્કળ પ્રમાણમા આહાર તૈયાર કરાવડાવ્યે
ચારે જાતને આહાર સારી રીતે તૈયાર થઇ ગયા ત્યારે તેણે પેાતાના અધા મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજના તેમજ ચારે પુત્રવધૂઓના સગ વહાલાઓની સાથે ભાજન કર્યું જમ્યા ખાદ તેણે બધાને સત્કાર - તથા સન્માન કર્યું ત્યારાદ મિત્ર વગેરે પરિજને અને ચારે પુત્રવધૂઓનાં સગાવહાલાઓની સામે તેણે માટા પુત્રની વધુ ઉન્નિતાને મેલાવી
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( सहावित्ता एव वयासी एव खलु अहपुत्ता । इओ अईए पचमसि सवच्छरसि इमस्स मित्तनाइ चउदय सुण्हाण कुलघरवग्गस्स पुरओ तत्र इत्यसि पत्र सालि भवख दलयामि )
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मनगारधर्मामृतवपिगी टीका अ ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् दत्-एव खलु यय हे तात ! अतीते पञ्चमे सवत्सरे अस्य मित्रज्ञातिप्रभृतेः, चतमृणा च स्नुपाणा कुलगृहवर्गस्य 'जाय ' यावत् पुरतः पञ्च शाल्यक्षतान् दत्वा कथितवन्तः-हे पुत्रि ! त्वमेतान् पञ्चशाल्यक्षतान सरक्षन्ती सगोपायन्ती विहरति । ततः खलु अह युष्माकमेतमर्थ प्रतिशृणोमि प्रतिश्रुत्य तान् पञ्चशाल्पक्षवान् गृहामि, गृहीत्वा-एकान्तमपक्रामामि, तत खलु तदा मम मनसि अयमे तद्रूप आध्यात्मिक विचार यायन्मनोगतः सक्ल्पः समुदपद्यत एव खलु 'तायाण' एव वयासी एव खलु तुम्भे ताओ ! इओ अईए पचमे सवच्छरे इमस्स मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाण कुल जाव विहरादि ) उन पांच शालि अक्षतो को हाथ में लेकर धन्य सार्थवाह ने उसे शपथ दिलाई-और दिलाकर उससे ऐमा पूछा पुत्रि । कहो-ये पाच शालि अक्षत वे ही हैं था और दूसरे है ? हम प्रकार धन्य सार्थवाह के कथन को सुनकर उज्झिताने उससे ऐसा कहा हे तात ! आपने आज से गत पाचव वर्ष में मित्र जाति आदि परिजनों के और अपनी पुत्रवधुओ के कुल गृह वर्ग के समक्ष पाच शालि अक्षतों को देकर ऐसा कहा था-हे पुत्रि । तुम मेरे इन पाच शालि अक्षतों की रक्षा करती रहो-इन्हे उपद्रवों से पचाकर सुरक्षित रखो- (तएण अह तुम्भ एयमह पडिसुणेमि पडिसुणित्ता ते पच सालि अक्खए गेहामि गिद्वित्ता एगतमवकमामि-तरण मम इमेयाख्वे अज्झथिए जाव समुप्पजिस्था) मैंने आपके इस कथन को स्वीकार कर लिया था। और उन पांच शालि अक्षतों को ले लिया सत्यवाहे एव वयासी एव खलु तुब्भे ताओ ! इओ अईए पचमे सवच्छरे इमस्स मित्तनाइ चउण्हय सुण्डाण कुठ जाय विहरा हि)
તે પાચ શાલિકને હાથમાં રખાવીને ધન્યસાથે વાહે તેને શપથ (સમ) આપીને ફરી પૂછ્યું કે હે પુત્રિ I બેલે, આ પાચે શાલિકણે મારા આપેલા જ છે કે બીજી આ રીતે ધન્યસાર્થની વાત સાંભળીને ઉન્નિતાએ તેમને કહ્યું-“હે તાત ! આજથી પાચવર્ષ પૂર્વે મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનો તેમજ ચારે પુત્રવધૂઓના સગાવહાલાઓની સામે મને પાચ શાલિક આપતા તમે કહ્યુ હતુ કે હે પુત્રિ ! તમે મારા આ પાચ શાલિકની રક્ષા કરે અને એને ઉપદ્રવોથી બચાવે
(तएण अह तुम्भ एपमट्ठ पडिसुणेमि, पडिमुणित्ता ते पचासालि अमर गेण्हामि, गिण्डित्ता एगतमवककमामि-तएण मम इमेयारूवे अज्झथिए जान समुप्पज्जित्था)
મે તમારી આજ્ઞા પ્રમાણે તે માલિકણે લઈ લીધા ત્યાર બાદ હુ
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माताधर्मकथा कोष्ठात् पञ्च शाल्यक्षवान् गृहाति, गृहीत्या यत्रैय धन्य सार्थवाहम्तत्रैवोपाग च्छति, उपागत्य धन्य सार्थवाहमेयमवादी- एते खलु ते पण शाल्पक्षताः, इति कृत्वा इत्युक्त्वा धन्यस्य सार्थवाहस्य हस्ते तान् पञ्च माल्यक्षतान् ददाति.! तत खलु धन्य उज्झिता पुत्रवधू ' सहसारिय' शपथशापिता = शपयमुक्का करोति-शपथं कारयति, कृत्वा एवमवदत्-किं खलु पुनि ! त एव-एते पत्र शाल्यक्षताः, उदाहु अथवा अन्ये ' । ततः खलु उमिता धन्यसार्थवाहमेवमवइस प्रकार उज्झिताने उस धन्य सार्थवाह के इस कथन रूप अर्थको स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके जरा कोष्ठागार धा-वहां पर गई।
(उवागच्छित्ता पल्लाओ पच मालि अक्खए गेह, गिहित्ता जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेय उवागच्छइ ) वरा जाकर उसने शालि कोष्ठ से पाच शालि-अक्षतों को ले लिया और ले जाकर जरा धन्य सार्थवाह था वहां ओई। (उवागच्छित्ता घण्ण सत्थवाह एव वयासी) आकर उसने धन्यसार्थवार से ऐसा कहा-(राण ते पच सालि अक्खए त्ति कट्टु घण्णस्स सत्यवाहस्म हत्यसि ते पच सालि अक्खए दलयइ) आपके वे पाच शालि अक्षत ये हैं। ऐसा कहकर उसने धन्यमार्थवाह के हाथ में उन पांच शालि अक्षतों को दे दिया (तएण धण्णे सत्यवाहे उज्झिय सबहसाविय करेह करित्ता एवं चयासी-किं ण पुत्ता! ते चेव एए पच सालि अक्खए उदार अन्ने ? तण्ण जझिया धण्ण सत्यवाहे ઉઝિતાએ ધન્યસાર્થવાહની આજ્ઞા સ્વીકારી અને ત્યાર પછી તે જ્યા ઠાર હિતે ત્યા- ગઈ
(उवागच्छित्ता पल्लाओ पचसालि अक्खए गेहद, गिण्डित्ता जेणेव धण्णे सस्थवाहे तेणेन उवागच्छइ )
ત્યાં જઈને તે શાલિકેછમાથી પાચ શાલિકો લઈ લીધા અને લઈને ते धन्यसा पानी पासे पायी (उवागछित्ता धण्ण सत्यवाह एव क्यासी) ત્યાં આવીને તેણે ધન્યસાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું
(एएण ते पचसालि अक्खए ति कटु धण्णस्स सत्यवाहस्स इत्थसि ते पच सालि अक्खए दलयइ)
* તમે આપેલા પાચ શાલિકણે આ રહ્યા ” આમ કહીને તેણે પાચે પાચ શાલીકણે ધન્ય થવાહને આપી દીધા
(तएण धण्णे सत्यवाहे उज्झिय सवहसाविय करेइ करित्ता एव क्यासी कि पुत्ता ते चेव एए पच सालि अक्खए उदाहु अन्ने ? तएण · । घण्ण
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका १०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २२१ जाज्वल्यमान उज्झिता तस्य मित्रज्ञातिमभृतेः, चतसृणा च स्नुपाणा कुलगृहवर्गस्य च पुरतस्ता तस्य-स्वस्य कुलगृहस्य 'छारुझियच' क्षारोझिका भस्मप्रक्षेपिकाम्, 'छाणुज्झिय च ' छगणोज्झिका-गोमयमक्षेपिकाम् ‘कयवरुझिय' कचबरो. झिका=गृहकचवरप्रक्षेपिकाम्, 'समुच्छियच' समुक्षिका-गृहागणे जलच्छटक दायिकाम्, 'समज्जियच । समानिका गृहसमार्जनकारिकाम् , 'पाओवदाइय पादोदकदायिकांपादमक्षालनजल्दारिकाम्, 'हाणोवदाइय ' स्नानोदक्दा. यिका-स्नानार्थजलदायिकाम् , 'वाहिरपेसणकारिय बाह्यमेपणकारिक' वाह्यपेपणकार्यकारिकाम् , 'ठवेइ' स्थापयति-तादृशकार्यकारिणीत्वेन नियोजयतीत्यर्थः। माणे उज्झितिय तस्स मित्तणाइ० चउण्ड य सुण्हाण कुलघरवग्गस्स य पुरओं तस्स कुलघरस्स छोरुज्झिय च छाणुज्झिय च कयवरुज्झिय च समुच्छिय च मम्मच्छिय च पाउवदाइ च पहाणोवदाइ च पाहिर पेसण कारिंठवेइ ) इस तरह वह धन्य सार्थवाह उज्झिताके मुख से इस कथन रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में अवधारण कर शीघ्र ही कुपित हो गया। मिस मिसाने लग गया-क्रोधरूपी अग्निसे जलने लगा। उसने उसी समय उशिता को उस मित्र ज्ञाति आदि कों के तथा चारो पुत्र वधूओं के कुलगृवर्ग के समक्ष अपने घर की राख डालने वाली गोबर फैकने चाली' कृड़ाकर कट साफ करने वाली, घरके आगण में पानी छिडकने वाली घुहार देने वाली, पाद प्रक्षालन तथा स्नान के लिये जल
देने वाली, बाहर जाने का काम करने वाली बना दिया। ___अर्थात् बाहिरी काम करने वाली दासी के पद पर उसे रख दिया। पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झिय च छाणुज्झियं च करवरुझिय च समुच्छिय च सम्मच्छिय च पाउबदाइ च हागोवदाइ च वाहिरपेसणकारि ठवेइ)
આ પ્રમાણે તે ધાવ સાર્થવાહ ઉજિઝતાના મુખેથી આ વાત સાંભળીને તેને હદયમા અવધારણ કરીને એકદમ ગુસ્સે થઈ ગયો
કુપિતાવસ્થામાં તે ક્રોધની જ્વાળાઓમા સળગવા લાગ્યો તેણે તેજ ક્ષણે ઉઝિતાને મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજને તેમજ ચારે પુત્રવધુઓ ના કુળના માણનેની સામે વરની રાખ સાફ કરનારી, છાણ સાફ કરનારી, કચરો વગેરે સાફકરનારી, ઘરના આંગણામાં પાણી છાટનારી, સાવરણી થી કચરો વાળનારા, પગ ધોવા માટે તેમજ સ્નાન કરવા માટે પણ તૈયાર રાખનારી અને ઘરની બહારના કામે કરનારી બનાવી દીધી
એટલે બહારના કામ કરનારી દામીનારૂપે ધન્યભાઈવાહે તેની નિમણુક કરી,
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भाताधकपारणे तातानाम् आदरार्थ बहुपचनम् तातस्येत्यर्थः, श्वशुरस्य कोठागारे बहवः पठाः शालीना प्रतिपूर्णारितष्ठन्ति, तद् यदा खलु मम समाशात् तात इमान पत्र शाल्यक्षतान् याचिप्यते तदा खल अह पल्ल तराकोठाभ्यन्तराद् अन्यान् पत्र शाल्यक्षतान् गृहीत्वा दास्यामि, इति कृत्वा एकान्तेऽपक्राम्य तान् मक्षिप्य स्त्र कर्मसयुक्तां-स्वकार्यसलग्नो समभवत् 'त' तदन्तस्मात् कारणात् नो खल्ल तात! तएव पञ्च शाल्यक्षताः, किंतु एते खत्यन्ये कोप्ठाभ्यन्तरादानीताः सन्तीत्यर्यः । तत खलु स धन्यः सार्थवाह उज्झिताया अन्तिके पतमर्थ श्रुत्वा 'आसुरुत्ते' आशुरुतः शीघ्रकोपान्वितः यावत् 'मिसमिसेमाणे' मिसमिसन= क्रोधाग्निना था। लेकर फिर मैं आपके पास किसी एकान्त स्थान में चली आईवहां आते ही मुझे इस प्रकार का विचार आया
(एव खलु तायाण कोडागारसि० जाय सकम्भ सपउत्ता जाया त णो खलु ताओ ते चे पच सालि अश्वत, पण अन्ने ) मेरे श्वसुर जी के यहा कोष्ठागार में तो बहुत से पल्लशालियों के भरे पडे हैं तो जिस समय श्वसुर जी इन प्रदत्त पाच शालि अक्षतों को मुझ से पीछे वापिस मागेगे तो मै दसरे शालि कोष्ठ के भीतर से अन्य पाच शालि अक्षतों को उठाकर दे दूँगी । इस प्रकार विचार कर मैंने आपके द्वारा दिये हुए पांच शालि अक्षतों को इधर उधर डाल दिया और अपने दैनिक कार्य करने में लग गई । अत' हे तात ! ये शालि-अक्षत वे पाँच शालि अक्षत नही हैं-किन्तु उनसे भिन्न दूसरे ही है । (तएण से धण्णे उज्झियारा अतिए एयम सोच्चाणिसम्म आसुरत्ते जाव मिसि मिसे તમારી પાસેથી એક તરફ ગઈ ત્યા આવતા જ મને વિચાર કુર્યો
( एव खलु तायाण कोडागारसि. जाप ससम्म सपउत्ता जाया त णो खलु ताओते चेवपचसालिअक्ख एएण अन्ने)
મારા સસરાના કોઠારમાં ડાગરથી ભરેલા ઘણુ પત્ય છે તે જ્યારે પણ તેઓ મારી પાસેથી ફરી પાચ રાલિકણ માગશે ત્યારે કે ઠારમાથી બીજા પચ રાલિકણે તેમને આપીશ આમ વિચાર કરતા મે તમારા આપેલા પાચ શાલિકને આમ તેમ ફેકી દીધા અને તવાર બાદ હું મારા હમેશાના ઘર કામમાં પરોવાઈ ગઈ એથી હે તાત! આ શાલિકણે તમે જે આપેલા હતા તે નથી પણ આ તે બીજા જ છે __ (तएण से धण्णे उज्झियाए अतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म आसुरते जाव मिसेभिसे माणे उज्झतिय तस्स मित्तगाइ० च उल्हय सुण्हाण कुलघरवग्गस्सय
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पाताधर्मकथा श्रीवर्धमानस्वामीमाह- एसमेन हे श्रमणाः ! अयुग्मन्तः । योऽस्माकं निर्गन्यो वा निग्रन्थीवा यारत्मानितः सन् विहरति यदि पन च तस्य महानतानि उजिम तानि परित्यक्तानि भान्ति तर्हि स खलु इह भवे एर बहना श्रमगाना४चतुर्विधसड्डस्य हीर नीयः,निन्दनीयः, गहणीयः,यावत् चातुरन्तससारवान्तारमनुपर्यटिप्यति यथा सा उज्झिना ।
एव भोगवतिकाऽपि भोगपतिकानाम्नी शाल्यक्षतमक्षिका द्वितीया पुत्रवधू रपि । नवर-विशेषस्त्वयम् तामोगरतिकातस्य-निजस्य कुलगृहस्य यारत् 'कडंति यच ' पण्डन्तिकाम्-उखादी तण्डुलादीना तुपापसारणार्थ मुशलादिनाऽवघा तिनीम्, 'कुट्टयतियच' अट्टयन्तिका-तिलादिचूर्णकारिमाम् , 'पीसतिय च' "पेपयतिमा-घरट्टादौ गोघूमादीना पेपणकारिकाम् , 'स्थतियच ' रुन्धयन्तिको (एवामेव समणाउसो जो अम्द निग्गयो वा निग्गयी वा जाचे पन्वइए पच य से महव्ययाइ उझिपोइ भनि, से ण इहमवे चेबरण समणाणे ४ जाव अणुपरियहिस्सट जहा सा उमिया) श्री वर्धमान स्वामी इसका उपसहार करते हुए करते है कि हे आयुष्मत श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ'अथवा निर्घन्धी साध्वीजन दीक्षा सयम लेते समय पचमहोवत लेते हैं और यदि वह अपने महावतों का परित्याग कर देता है तो वह उज्झिता की तरह इस भव में ही अनेक श्रमणजनों के द्वारा तथो चतुर्विध सघ के द्वारा हीलनीय होता है, निंदनीय होता है, गर्हणीय होता है-यावत् वह चतुर्गतिरूप इस संसार में परिभ्रमण करता रहता है । ( एव भोगवइया वि' नवर जाव कडतिय च, कुह तिय च' पीसतिय च, एव रुधतिय च, रध तिय परिवेसतिय परिभाय
( एवामेव समणा उसो जो अम्ह निग्गयो वा निग्गयीवा जाव पवइए पच यसे महन्बयाइ उझियाइ भति, सेण इहभवें चेत्र वहूग समगाण ४ जाव अणुपरियटिस्सइ जहा सा उज्झिया)
શ્રી વર્ધમાન સ્વામી આવિષે ઉપસ હાર કરતા કહે છે કે તે આયુમત શ્રમણ ! અમારા જે કઈ નિગ્રંથ કે નિર્ચ થી સાધ્વીજન દીક્ષા સયમ લેવાના વખતે પાચ મહાવ્રતે સ્વીકારે છે અને ભવિષ્યમાં સ્વીકારેલા તે મહાત્રને ને પરિત્યાગ કરે છે તે તે ઉજિઝતા ની જેમજ આ ભવમા ઘણા શ્રમણે વડે તેરજ ચતુર્વિધ સંઘ વડે હલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે, ગહણીય હોય છે-થાવત–તે ચતુર્ગનિ વાળા આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતું રહે છે __ (एव भोगवइयावि, नवर जाव कडतिय च कुट्टयतियच पीसतियच, एवं
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भनगारधर्मामृनवषिणो टोका अ० ७ घ यसार्थबोहचरितनिरूपणम् यन्ने चणककोद्रवादीना तुपापसारिकाम् , 'रधतिय च' रन्धयन्तिकाम् ओदनादि पाचिकाम् ' परिवेसयतिच' परिवेषणकारिकाम् 'परिभायतिय च ' परिभाज यन्तिका-पर्वदिनादौ स्वजनगृहेपु खण्डखाघाटीना सविभागकारिकाम् ' अभि तरिय च पेसणकारिय' आभ्यन्तरिका च प्रेपणकारिका-गृहाभ्यन्तरप्रेषणकार्य कारिकाम् ' महाणसिणि ' महानसिकां महानससम्बन्धिसम्लकार्यकारिणी'वे' स्थापयति-गृहाभ्यन्तरकार्यकारिणीत्वेन नियोजयतीत्यर्थः । श्री वर्धमानम्वामी तिय च अन्भतरिय च पेसणकारिं महाणसिणिं ठचे ) इसी तरह धन्य सार्थवाह ने अपने जो दूसरी पुत्रवधू भोगवतिका नाम की थी कि जिसने उन पाच शालि अक्षतों को खा लिया था उसे बुलाया, और उससे भी झिता की तरह दिये हुए पाच शालि अक्षतों को वापिस मागा-उसने " वे पाच शालि अक्षत मने खा लिया है जब ऐसा कहा-तय उस धन्य सार्थवाहने उन मित्र जाति आदि परिजनों के समक्ष और पुत्रवधूओ के कुलगृह के व्यक्तियों के समक्ष अपने घर के भीतरी काम पर रख दिया।
उसके अधीन में घर का भीतर का यह काम दिया गयाओखली में मृशल से धान्य कूटना और चावल तैयार करना, तिल आदि का चूर्ण करना, चक्की से गेहुओ आदि पीस कर आटा तैयार करना, चना आदि की दाल नाना तथा क्रोद्रव आदि को फर्श से दल कर उनके छिल के दूर कर उन की कुद ई बनाना ' चावल पकाना, रूपतिय च रपतिय परिवेसतिय, परिमायतिय च भतरिय च पेसणकारि महाणसिणि ठवेइ)
આ પ્રમાણે જ ધન્યસાર્થવાહે પિતાની બીજી પુરવભેગ વતીકાજે પાચે શાલિહો ખાઈ ગઈ હતી–તેને બેલાવી અને તેની પાસેથી પણ ઊંજિઝતાની જેમ પાચે રવિક મા યા જવાબમાં ભગવતીકાએ જ્યારે એમ કહ્યું “કે તે પાચે શાલિકણે હું ખાઈ ગઈ છુ ત્યારે ધન્યભાર્થવાહ તેને મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનો તેમજ ચારે પુત્ર વધૂઓના કુટુંબીઓની સામે તેને ઘરની અંદરના કામમાં તેની નિમણુક કરી
ધન્યભાર્થવાહે ઘરના નીચે મુજબના કામે તેને સોપ્યા હતા ખાણિયા સાબેલાથી શાળ (ધા ય) ખાડવી અને ચોખા તૈયાર કરવા, તેલ વગેરેને ભૂકો કરે ઘટીમાં ઘઉ વગેરે દળીને લેટ તૈયાર કરો આખા ચણ વગેરે ની દાળ તૈયાર કરવી તથા દરો વગેરેને ઘટીથી ભરડીને તેના છોતરા દર
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वाताधर्मकथा
प्राह एवमेव = अनेनैव प्रकारेण हे आयुष्मन्तः ! श्रमणाः ! योऽस्माक श्रमणो वा श्रमणीचा मत्रजित सन् विहरति, यदि पच च तस्य महाव्रतानि 'फोडियाइ ' स्फोटितानि = खण्डितानि भवति तर्हि स खलु हमने चैव बहूनां श्रमणार्ना ४ चतुर्विधसघस्य हीलनीय, यावत् समारमनुपर्यटिप्यति यथा च सा भोगत्रतिका धन्य सार्थवाहस्य द्वितीय पुत्रवधूः ।
एव रक्षिताऽपि = रक्षितानाम्नी धन्यसार्थवाहस्य तृतीयपुत्रवधूरपि, नवरधयसार्थवाहन दत्तशाल्लक्षवान् मत्यर्पयितु याचिता सतो यत्रैव वासगृह त
भोजन करने वालों को भोजन परोसना, स्वजन के घरों में खण्ड - खाना खाद्य आदि का विभाग करना रसोई घर का समस्त कार्य करना । ( एवामेव समणाउसो जो अम्ह समणो वा जाव पचय से महत्वयाइ फोडियाइ भवति से ण इह भवे चैव चण समणाण ४ जाव हीलणिजो ४ जहाच सा भोगवइया ) इसी तरह हे आयुष्मत श्रमणो ! जो हमारा श्रमण अथवा श्रमणी जन मत्रजित होकर पच महावनों का खंडन करता है वह भोगवतिका की तरह इस भव में ही अनेक श्रमणों द्वारा तथा चतुर्विध सघ द्वारा हीलनीय होता है, यावत् अनादि अनंत इस ससार में परिभ्रमण करता है । (एव रक्खिश्यावि नवर जेणेव वास घरे तेणेव उवागच्छित्ता मजूस विहाडे, विहाडित्ता रयणकरडगाओ ते पच सालि अक्खए गेण्हइ ) इसी तरह धन्य सार्थवाह ने अपनी तृतीय पुत्रवधू से जिस का नाम रक्षित था अपने द्वारा दिये हुए ५ शालि अक्षतों को मागा-सो वह जहा अपना वासगृह था वहा आई
કરી તેમાથી કાદરી અનાવવી, ભાત તૈયાર કરવા, જમનારાઓને પીરસવું સગા સ ખ ધીઓના ધામા પીરસણ વગેરે માલવુ સેાઈઘરનુ બધુ કામ કરવું (एवामेव समणाउसो जो अम्ह समणोना जाव पचय से महन्वपार कोडियाइ भवति से इह भवे चैव बहूण ४ जान हीलणिज्जो समणाण ४ जहान सा भोगवइया) આ પ્રમાણે હે આયુષ્મન્ત શ્રમણા ! જે અમારા શ્રમણુ કે શ્રમણીજન પ્રવ્રુજિત થઈને પાચ મહાત્રતાનુ ખડન કરે છે તે ભગવતીકાની જેમ આ ભવમા ઘણા શ્રમણો વડે તેમજ ચવિધ સ ધદ્વારા હીલનીય હાય છે યાવત્ અનાદિ અન ત આ સતારમાં પરિભ્રમણ કરે છે
( एव रविवइयावि नवर जेणेव वासघरे तेणेत्र उगच्छा, उनागच्छित्ता मजूस विहाडे विहरिता रयणकरडगाओ ते पचसालि अक्खए गेण्डर ) ते ४ ધન્યસાથ વાહે પેાતાની ત્રીજી પુત્રવધૂ રક્ષિતા પાસેથી પાતે આપેલા પચ શાલિકણા માગ્યા તે ત્યાથી પેતાના નિવાસ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
રર वोपागच्छति, उपागत्य मञ्जूपा 'पिता' विटाति-उद्घाटयति विघटय्य मञ्जूपाभ्यन्तरस्थात् रत्नकरण्ड कात् तान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रय धन्य. सार्थवाहस्तोवोपागन्छति उपागत्य पञ्च शाल्यक्षतान् धन्यसार्थवाहस्य हस्ते ददाति । ततः खलु स ध यः सार्थवाहो रक्षिता रक्षिताभिधा तृतीयपुत्र वधूमेवमवदत्-किं खलु पुत्रि त एवैते पञ्चशाल्यक्षताः उदाहु- अथवा अन्ये, इति । तत खलु रक्षिता धन्य सार्थवाहमे कमवदत् त एव तात ! एते पश्च शाल्यक्षताः, नो अन्ये धन्यः सार्थवाह आह कथ सलु पुत्रि । रक्षितान्माइ-एव खलु तात ! यूयमित पञ्चमे सवत्सरे जाव' यावत् सर्वेपा मित्रज्ञातिप्रभृतीना वहा आकर उसने अपनी पेटी ग्वोली-उस में से रखी हुई रत्न की डिबिया निकाली-निकाल कर उसमें रखे हुए पाच शालि अक्षतों को लिया (गिहिता जेणेव चण्णे तेणेव उवागच्च्ह ) और लेकर जहा धन्य सार्थवाह थे-यह वहा आई ( उवागच्छित्ता पचसालि अक्खए धण्णस्स हत्थे दर यह ) वहा आकर उसने पाच शालि अक्षतो को धन्य सार्थवाह के हाथ मे सोंप दिया। (तएण से चणे रक्खिहय एव चयोसी) धन्य सायवार ने उन्हें लेकर रक्षिता से ऐसा कहा (किंण पुत्ता! ते चेव एए पच सालि अावया उदाहु अन्नेत्ति ) हे पुत्रि ! ये पाच शालि अक्षत वे ही हैं या और दूसरे ? (तरण रक्खिइया धणे सत्यवाह एव वयासी ते चेव ताया! एए पच सालि अक्खया णो अन्ने ) तर रक्षिता ने धन्य सार्थवार से कहा-हे तात ! ये पाच शालि अक्षत वे ही है अन्य नहीं हैं । (फर ण पुत्ता । एव खलु ताओ तुम्भे સ્થાને આવી ત્યા તે પિટી ખાવીને અ દરથી રત્નજડિત ડાબલી બહાર કાઢી मसीमाथी तेथे पाय पनि सीधा (गिणिहत्ता जेणेव धण्णे तेणेव उवागच्इ) અને લઈને ધન્યભાર્થવાહ જ્યા હતા ત્યા આવી (उवागछित्ता पचमालि अक्खए धष्णस्महत्ये दलयइ)
ત્યાં આવીને તેણે પાચે શાલિક ધાન્યસાર્થવાહને આપી દીધા (तएण से धण्णे रविपश्य एव ययासी) धन्यमा पाई राति बन २क्षि ताने धु (किं ण पुत्ता ! ते चेत्र एए पचसालि अक्खया उदाह अन्ने ! ति)
" पुनि । म पाय शावित छ भी ?" (तएण रक्खिया धण्णे सत्यवाहे एव पयासी ते चेव ताया । एए पच सालि अक्खया णो अन्ने )
ત્યારે રક્ષિતાએ ધન્યસાર્થવાહને કહ્યું-“હે તાત ! આ પાચ શાલિક તે જ છે બીજા નહિ
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हाताधर्मका पुरतः पञ्च शाल्पक्षतान् मन्य दत्तान्तस्तदा मम मनमि माल्यो जाता-यातः सर्वेषां पुरतः पश्च शाल्यक्षतान् ददाति तत् 'भविया एत्य कारणेण ' 'भवित ध्यमत्र केनापि कारणेन अस्मिन् रिपये किमपि कारणमवश्य विधते 'तिका' इति कृत्वा इतिविचार्य तान् पञ्चशाल्यक्षतान् शुद्धेम्पले निर्मले वले बद्ध्या रत्नकरण्ड के निक्षिप्य उन्छीकपूछे स्थापयित्वा 'तिसझ' त्रिसन्ध्य-प्रमावे मध्याहे सायकालेवा 'पडिजागरमाणो २ प्रतिजाग्रती २= पुनः पुनर्निरीक्षमाणा इओ पचमसि जाव (भरियन्य पत्य कारणेण ) तिकटु ते पच सालि अक्खए सुद्धे चत्थे जाव तिसम्म पडि जागर माणी २ विररामि ) इस प्रकार रक्षिता की बात सुनकर धन्य सार्थवाह ने उससे पूछा-पुत्रि। ये इसी तरह से अभी तक कैसे रक्खे रहे-तय रक्षिता ने करा-सुनो मैं बताती है-आपने आज से गत पाच वर्ष में जो ये पांच शालि अक्षत मुझे ममस्त मित्र ज्ञाति आदि परिजनों के तथा पुत्रवधुओं के कुलगुर वर्ग के समक्ष दिये थे उस समय मेरे मन में ऐसा विचार आया कि ये तात जो मुझे सब जनों के सामने इन पाच शालि अक्षतों को दे रहे हैं और इन की रक्षा आदि के विपय में कर रहे हैं-सो इस में कोई न कोई कारण अवश्य है-ऐसा विचार कर मैंने उन पाच शालि अक्षतों को स्वच्छ-निर्मलवस्त्र में बान्ध कर एक रत्न की डिबिया में रख दिया और उसे अपने सिरहाने में रखकर आज तक मैं उसकी हर समय सभाल करती आ रही हैं।
(कहण पुत्ता एव खलु ताओ ! तुम्भे इओ पचमसि जाव 'भवियव्व एत्थ कारणेण 'त्ति कटुं ते पचसालि अक्खए सुद्धे वत्थे जाव ति सम्म पडि जागरमाणी २ विहरामि)
આ રીતે રક્ષિતાની વાત સાંભળીને ધન્યસાર્થવાહે તેને પૂછ્યું “હે પુત્ર! અત્યાર સુધી કેવી રીતે આ શાલિકાને રાખવામાં આવ્યા ત્યારે રક્ષિતાએ જવાબ આપતા કહ્યું “સાભળો, બધી વિગત તમારી સામે રજુ કરૂ છું આજથી પાચ વર્ષ પહેલા બધા મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજને તેમજ ચારે પુત્રવધૂઓના કુટુંબીજનેની સામે તમે મને શાલિક આપ્યા હતા તે તાત! તમે મને બધા વજનેની સામે પાચ શાલિક આપીને તેઓની રક્ષા માટે મને આજ્ઞા આપી હતી જેથી મે વિચાર કર્યો કે આમાં કોઈ રહસ્ય ચેકસ છુપાયેલુ છે આમ વિચાર કરીને પાચે શાલિકોને સ્વચ્છ નિર્મળ વસ્ત્રમાં બાધીને એક રત્નની ડાબલીમાં મૂકી દીધા, અને તેને ઓશીકાની નીચે મૂકીને આજ (દિવસ) સુધી તેની રક્ષા કરતી રહીં છુ
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अंगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ७धन्य सार्थवाहचरितनिरूपणम् २२७ विहरामि अद्यावधि तिष्ठामि तदेतेन कारणेन हे तात ! त एवैते पञ्च शाल्यक्षताः, नो अन्ये । ततःखलु स धन्यः सार्थवाहो रक्षिताया अन्तिके समीपे एतमर्थ श्रुत्वा हृष्ट तुष्ट तस्य-निजस्य कुलगृहस्य 'हिरणस्य ' हिरण्यस्य चरजतस्य यावत् कास्यदृष्य विपुल यावत्स्वापतेयस्य-हिरण्यादि यावन्मात्रधनस्य 'भाण्डागारिणि ' भण्डागाराधिष्ठात्री 'ठवे' स्थापयति-पबंधनाधिकारिणी त्वेन नियोजयतीत्यर्थ । श्रीवर्धमानस्वामी प्राह एवमेव हे श्रमणा. ! आयुष्मन्त योऽस्माक श्रमणो वा श्रयणी वा मनजितः सन् विहरति,यदि पञ्चच तस्य महानतानि
(त एएण कारणेण ताओ । ते चेव एए पच सालि अक्खए णो अन्ने) इस कारण हे तात ! वे पाच शालि अक्षत ये हो है, दूसरे नहीं है । (तएण से धपणे रक्खिइयाए अतिए एयम सोच्चा तु० तस्स कुलधरस्स हिरन्नस्स य जाव कसदूस विउलघण जाव सावतेजस्स य भडागारिणि ठवेइ ) इस तरह उस धन्य सार्थवाह ने रक्षिका के मुख से इस अर्थ को सुन कर बटुन अधिक प्रसन्न और सतुष्ट होकर उसे अपने घर में जितना भी सोना चादी आदि धन था उसकी अधिकारि णि बना दिया।
(एवामेव समणाउसो जाव पच य से महत्वयाइ भवति, सेण इह भवे चेव यहण समणाणं ४ अच्चणिज्जे४ जहाव सा रक्खिया) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रम गों। जो हमारा श्रमण और अमणी जन प्रत्र जित होकर इतस्नत विहरण करता है यदी उस के पाच महावत (त एएण कारणेण तानो । ते चेव एए पचमालि अक्खए णो अन्ने)
એટલે હે તાત ! તે પાચ શાલિકણ એજ છે, બીજા નથી ( तएण से धण्णे रक्खिइयाए अतिए एयम सोन्चा हस्तु तस्स कुल धरस्म हिरनस्मय जात कसइस विउल धणजाय तेजस्सय भडारगारिणि ठवेइ)
આ રીતે ધાન્યસાર્થવાહે રક્ષિકાના મુખેથી બધી વિગત સાભળીને ખૂજ પ્રસન્ન તેમજ સ તુદ થતા તેને પિતાના ઘરમાં જેટલું સોનુ ચાદી વગેરે ધન હતું તેની અધિકારીણી બનાવી દીધી
( एवामेव समणाउसो जाच पचयसे महब्धयाइ रक्खियाइ भवाते सेणं इहभवे व रहण समणाग ४ अच्चगिज्जे ४ जहाव सा रक्खिया)
આ પ્રમાણે છે આયુમન્ત અમણે જે અમારા શ્રમણ તેમજ શ્રમણી જને પ્રજિત થઈને આમ તેમ વિહાર કરતા રહે છે તેમ કરતા જે તેમના
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naraserjet
रक्षितानि भवन्ति स खलु इ६भने चैन रहना श्रमणाना४ चतुर्निधसनस्य अर्चनीय यावत् समाननीयो भाति यथा सा रक्षिता = धन्यसार्थवाहस्य तृतीया पुत्रवधूः ।
"
रोहिणि काऽप्येवमेव = रोहिणिकानाम्नी धन्यसार्ववाहस्य चतुर्थपुत्रवधूरपि पूर्व वदेव विज्ञेया, नगर विशेषस्त्वम् श्रेष्ठिना समाहूय ' मदत्तान् पञ्चशाल्यक्षतान् समर्पय ' इत्येव कथिता सती रोहिणिका वेष्टिन प्रत्याह- हेतात ' युय मध्य सुत्र हुकम् = अनेकसख्यक 'सगडीसागढ शकटीशाकट शकटय: = लघुगाडिकाः शाकट=टसमूहैः शकटय शास्ट चेति समाहारे शकटीशाकटम् = अनेकगाडी शकटममूह 'दलह ' दत्त = मयन्छत, येन शकटयादिनाऽह 'तुभ' युष्माक तान् 'सुरक्षित रहते है तो वह इस भव में ही अनेक श्रमणादि जनों द्वारा तथा चतुर्विध संघ द्वारा अर्चनीय होता है यावत् समान नीय होता है । जैसे वह धन्य सार्थवाह की तृतीय पुत्रवधू रक्षिता हुई है । (रोहि णियावि एव चेव नवर तुम्भे ताओ ! मम सुपय सगड़ी सागड दलाह जेण अह तुम्भ ते पच सालि अव पडिणिजाए मि ) इसी तरह धन्य सार्थवाह की चौथी पुनवधू रोहिणी का भी चरित्र जानना चाहिये परन्तु इसमे जो विशेषता है - वह इस प्रकार है- नव धन्यसार्थवाहने चौथी अपनी पुत्रवधू रोहिणिका को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा कि मैने आज से गत पाचवे वर्ष जो तुझे पांच शालि-अक्षत दिये
- उन्हे तुम वापिस मुझे आज दो-तय रोहिणिकाने उनसे कहा है तात 'आप मेरे लिये अनेक छोटी गाडिया और बडी २ गाडिया दीजिये कि जिनके द्वारा मैं आपके उन पाच शालि अक्षतो को भर
પાચ મહાત્રતા સુરક્ષિત રહે છે તે આ ભવમા તે અનેક શ્રમણેા દ્વારા અ નીય હાય છે યાવતુ સન્માનનીય હાય છે, ધન્યસા વાહુની ત્રીજી પુત્રવધૂ રક્ષિતા જેમસન્માનીત થઈ તેમજ તે પણ સન્માનીત થાય છે
(रोहिणियावि एव चैव नवर तुब्भे ताओ । मम सुबहु सगडी सागड दलह जेण अह तुम्भ ते पच सालि अक्खए पडिणिज्जाए मि )
આ પ્રમાણે હવે આપણે ધન્યસાથ વાહની ચેથી પુત્રવધૂ હણીના ચિત્ર વિષે પણ જાણવુ જોઇએ. તેના ચરિત્રની વિશેષ વાત આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે ધન્યસા વાડે પેતાની ચેાથી પુત્રવધૂ હિણિકાને ખેલાવી અને ખાલાવીને તેને એમ કહ્યું કે આજથી પાચ વર્ષ પહેલા મે તને પાચ શાલિકણા આપ્યા હતા તેમને પાછા આપે ત્યારે હિણિકાએ તેમને કહ્યુ કે હું તાત ! તમે મને અનેક નાની મેાટી ગાડીઓ આપા કે જેથી તમે આપેલા પાચ શાલિકણાને તેમા ભરાવીને અહી લાવુ અને તમને પાછા
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भनगारधर्मामृतवरिणी टीका भ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २२९ पश्च शाल्यक्षतान् पिडिणिज्जाएमि' प्रनिनिर्यातयामि भतिसमर्पयामि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाही रोहिणीमेवमवदत्- कथ खलु हे पुत्रि ! व मम तान् पञ्च शाल्यक्षतान् शरटीशाकटेन 'पडिणिज्जाइस्ससि' प्रतिनिर्यातयिष्यसि प्रतिसमर्पयिष्यसि ? ततः खलु सा रोहिणी धन्य सायगाहमेवमवदत्-एव खलु हे तात! यूयम् इतः पञ्चमे सवत्सरे-अस्य त्रिज्ञातिप्रभृतेः पुरतः सरक्षणार्थ सगोपनार्थ पञ्च शाल्यक्षतान् मह्य दत्तवन्तः, तान् गृहीत्वा मया चिन्तितम्-अत्रकेनापि वाकर यहा ला सकू-और आपको पीछे वापिस करसके (तएण से धण्णे रोहिणि एव वयासी) रोरिणिका की इस प्रकार बात सुनकर धन्यसार्थवाहने उससे ऐसा कहा-(कह ण पुत्ता! तुम मम ते पच सालि अक्खए सगडी सागडेण निजाइस्ससि) पुत्रि किस तरह तुम मुझे वे पाच शालि अक्षत शकटी और शकट समूह में भरने लायक कर पीछे वापिस देना चाह रही हो? (तएण सा गहिणि धण्ण एव वयासी-एव खल ताओ! तुम्भे इओ पचमे सवच्छरे इमरस मित्त० जाव ववे कुभसया जाया-तेणेच कमेण एव खलु ताओ। तुम्भे ते पच सालि अक्खए सगडी सागडेण निजाएमि) धन्यसार्थवाह का ऐसा करना सुन कर रोहिगिका ने कहा-तात ओजसे पांचवें वर्ष में आपने मुझे मित्र ज्ञाति आदिपरिजनों के समक्ष बुला कर५ पाच शालि अक्षत दिये थे और उनके सरक्षण सवर्धन आदि विषय में आपने शिक्षा की थी।
मापी शर्ड (तरण से धण्णे रोहिणि एव वयासी) डिएानी मारीत વાત સાભળીને ધન્યસાર્થવાહ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું (कहण पुत्ता । तुम ते पचसालि अक्खए सगडीसागडेण निज्जाइस्ससि)
હે પુત્રી ! મે આપેલા પાચ શાલિકને તમે નાની મોટી ઘણું ગાડી એમા ભરાવાને કેવી રીતે આપવા માગે છે
( तएण सा रोहिणी धण्ण एव वयामी -एव खलु ताओ ! तुम्भे इओ पचमे समच्छरे इमम मित्त जार वह कुमपया जाया तेणे कमेण एव खलु ताओ तुम्भे ते पवपालि अवर सगडी सागडेग निनाएमि) ધન્યસાર્થવાહનું કથન સાભળીને હિણિકાએ તેમને કહ્યું- હે તાત ! આ જથી પાંચ વર્ષ પહેલા મિત્રજ્ઞાતિ વગેરે પરિજને ની સામે મને બોલાવીને તમે પાચ પાલિકણે આપ્યા હતા અને આપતી વખતે તમે તેમના સંરક્ષણ આ વર્ધન વગેરેની બાબતમાં સૂચન કર્યા હતા
તમારી પાસેથી શાલિકણે લઈને મે આમ વિચાર કર્યો કે આ પાચ શાલિકણે તાતે આપ્યા છે અને તેમના સ રક્ષણ તવા સવર્ધન વિષે જે
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माताधर्मकथा कारणेन भवितव्यमिति, तदनु पितगृहपुरुषान् समाय मया वर्द्रपितु तेभ्यस्ते पञ्च शाल्यक्षता दत्ताः । ते सुपरिकर्मित केदारेषु पनादि क्रियाभिः परिवद्धिता जातोस्ते प्रथमे वर्षे मागधप्रस्थपरिमिता' शालयः । ए क्रमगो द्वितीय वर्षे शाली ना यहव कुडमाः सजाताः । तृतीय वर्षे यहयः कुम्भा । चतुर्षे सवत्सरे बहूनि कुम्भशतानि शालीना सजातानि । तेनैर क्रमेण एव खलु हे तात ! युप्माक तान् पञ्च शाल्यक्षतान् शक्टीशारटेन प्रतिनिर्यातयामि-समर्पयामिः । तत खलु स धन्यः सार्थवाहो रोहिणिकायै सुबहरम् अनेकसख्यक शस्टी शाकट ददाति,। ____ मने उन्हें लेकर ऐसा विचार किया-कि तातने जो ये पाच शालि अक्षत दिये है और उनके सरक्षण आदि के विषय में जो करा है सो नियमतः इसमें कोई न कोई कारण अवश्य है-ऐसा विचार कर मेने पितृगृह (पीयर) के पुरुषों को बुलाया और उन्हें उन पाच सालि अक्षतों को बढाने के लिये दिया। __उन लोगों ने उन्हें लेकर सुपरि कर्मित खेतो में वपनादि क्रिया द्वारा खून बढाया प्रथम पर्व में वे मगधदेश प्रसिद्ध प्रस्थप्रमाण निपजे । द्वितीय वर्ष अनेक कुडव प्रभोणगोने पर हुए। तृतीय वर्ष में वे अनेक कुभप्रमाण हुए। चौथे वर्षे सैकड़ों कुभप्रमाण हुए। इस तरह आपके द्वारा दिये हुए वे पाच शाल अक्षत आज अनेक गाडी और गाड़ा प्रमाण हुए है-इसलिये मैं आपके लिये आज उन्हें अनेक गाड़ी और गाडो प्रमाण करके पीछे वापिस देरही हैं। तण्ण से धणे सत्यवाहे रोहिणियाए सुबय सगडी सागड दलयइ, तएण सा रोहिणि सुबह કઈ મને કહ્યું છે, જેથી ચક્કસ આ વાતમાં કઈક રહસ્ય હોવું જોઈએ એમ વિચાર કરીને મે પિયરના માણસોને બોલાવ્યા અને તેમને વર્ધન માટે પાચ શાલિકણે આવ્યા
તેમણે શાલિકણે લઈ લીધા, અને સુપરિકર્મિત ખેતરોમાં વાવીને તે કણેની ખૂબ વૃદ્ધિ કરો પહેવા વર્ષે મગધ દેશ પ્રસિદ્ધ પ્રસ્થ પ્રમાણ જેટલા શાલિક થયા બીજા વર્ષે વાવવાથી ઘણા કળશે ભરાય તેટલા થયા, ત્રીજા વર્ષે બીજા વર્ષ કરતા પણ વધારે કળશે ભરાય તેટલી શાલિ થઈ ચેથા વર્ષે વાવવાથી સેકડે કળશ ભરાય તેટલી શાલિ થઈ આ પ્રમાણે તમે આપેલા પાચ શાલિક આજે ઘણી નાની મોટી ગાડીઓમાં ભ ય તેટલા થઈ ગયા છે, તેથી જ હું આપને તે પાચ શાલિકણ અનેક ગાડીઓમા ભરાય તેટલા પ્રમા મા વર્ધન કરીને પાછા આપી રહી છું (तएण से धण्णे सस्पवाहे रोहिणियाए सुबहुय सगडी सागड दलया,
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भारतविंग टीका अ ध यसार्थवाहचरितनिरूपणम
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ततः खलु सा रोहिणी सुबक शकटीशाकट गृहीला यत्रैव स्वक कुलगृह = पितृगृह तत्रैवोपागन्छति, उपागत्य कोष्ठागाराणि= कोष्ठगृहाणि ' विहाडे३ ' विघटयति= उद्घाटयति, विघटय पल्लान् = शालिकोष्ठान् ' उम्भिदेह' उद्भिनत्ति = उन्मुद्रितान् करोति, तेपामुद्रापयतीत्पर्य, उद्भिद्य शकटीशाकट भरति, भृला राजगृह नगर मध्य मध्येन यौन रूपक गृह यत्रेव धन्यः सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति । तत्र' खल राजगृहे नगरे शृङ्गाटक यावत्- महापथपथेषु बहुजनोऽन्योन्यमेनमाख्याति सगडी सागड गहाय जेणेव सप कुलघरे तेणेव उवागच्छर, उवाग छिन्ता कोहागारे विहाडे ) इस तरह रोहिणिका के वचन सुनकर धन्य सार्थवाहने उसे अनेक शकटी और शकों को दिया वह रोहिणि का उन अनेक शकटी और शकटो को लेकर जहां अपना कुलगृह था वहा पहुँची - पहुच कर उसने वहां के कोष्ठागार को उपाडा ( बिहाडित्ता पल्ल उभिदइ ) उघाड कर वहा रक्खे हुए शालि कोठों को खोला उन्हें मुद्रा रहित किया - ( उभिदित्ता सगडीसागड भरेइ ) बाद में उनसे अनेक शकटी और शकटो को भरा (भरिता रायगिह नयर मज्झ मज्ोण जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छह) भर कर राजगृह नगर के ठीक बीचो बीच के मार्ग से होकर वह जहां अपना घर या और जहा धन्य सार्थवाह थे वहा पहुँची - (नण्ण रायगिहे नपरे सिंगाडग जाव बहुजणो अन्नमन्न एवमाइक्खड, वण्णेण
तएण सा रोहिणीं सुनहु सगडीसागड गहाय जेणेत्र सए कुलघरे तेणेन उवागच्छ, उवागाच्छित्ता कोट्ठागारे बिहाडेई )
આ રીતે હિણિકાની વાત સાભળીને ધન્યસાવાડે તેને ઘણી નાની માટી ગાડીઓ આપી રાહિણિકા તે બધી નાની મેટી ગાડીઓને લઈને જા पोतानु पिनर हेतु त्या भावी त्या भात्रीने तेथे त्याना आहार उधाउये (बिहाष्टत्ता पल्ल उभिदइ ) त्या२साह त्या भूसा शदिना डोठारीने उधाया ( उभिदि तासगडी सागड भरेइ ) अने तेमनाथी नानी मोटी धार्थी गाडीओने भरी
( भरिता रायगिह नयर मज्झ मज्झेण जेणेत्र सए गिहे जेणेव घण्णे सत्थवाहे तेणे उपागच्छइ )
ભરીને રાજગૃહ નગરના ઠીક મધ્ય માર્ગે થઈને જ્યા તેનુ પોતાનુ ઘર અને જ્યા ધન્યસા વાહ હતા ત્યા પહાચી
( तपण रायगिद्दे नगरे सिंघाडग जात्र बहुजणो अन्नमन्नएमा,
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माताधकथा धन्य धन्यवादपा खलु हे देशानुपियाः धन्यः सार्थवाहः यम्य खलु रोहिणिका स्नुपा-चतुर्थपुत्रवधू पश्च शात्यक्षतान् शकटीशारटेन निर्यातयति । ततः खलु सधन्यः सार्थवाह. पञ्च शाल्पक्षतान् शकटीशारटेन निर्यातितान-समर्पितान् पश्यति दृष्ट्वा इष्टः यारत् 'पडिन्छ।' प्रतोउति-धीकरोति, प्रतीष्यस्त्री कृत्य तस्यैर मिनज्ञातिप्रभृते , चतसगा च स्नुपाणां कुलहस्य पुरतो रोहिणिकां स्नुपा तस्य-निनस्य कुलगृहस्य कुटुम्नस्य बहुपु कार्येषु च यावद् रहस्येषु च देवाणुपिया । घण्णे सत्यवाहे ते पच सालि अश्या सगडी सागडेण निजाइए पासइ पासित्ता हट तुट्ट पडिच्छहपडिचित्ता तस्सेव मित्तणइ० चउण्ड य सुण्हाण कुलघरसन पुरओ रोहिणिय सुबह तस्त कुल घरस्स पहुस्सु कज्जेसु य जाव रहस्सेसु य अपुणिज्ज जाव सन्धक जज बढाचिय पमोणभूय ठावेड) जय वे गाड़ी और गाड़े भरे हुए राजगृह के मध्यमार्ग से होकर जा रहे थे-तब लोगो ने देखकर नगर में शृगाटक आदि मार्गी के ऊपर परस्पर इस प्रकार से यात चित करना प्रोरम किया " देवाणुप्रियो देखो धन्य सार्थवाह कितना अधिक धन्य वाद का पत्र है कि जो चतुर्थ पुत्र वधू रोहिणिका के बाग पाच शालि अक्षतों की गाडी और गाडो से भरकर पीछे लौटाये हुए देख रहा है।
और हष्ट तुष्ट हो उन्हें स्वीकार कर रहा है । तथा स्वीकार करके उस रोहिणिका को मित्रज्ञाति आदि परिजनों के चारो पुत्रवधूओं के कुल धण्णेण देवाणुप्पिया ! धण्णे सत्यवाहे ते पचसालि अक्खए सगडीमागडेण नि ज्जाइए पासइ पासित्ता हट्ठ तुट्ठ पडिच्छइ पडिन्छित्ता तस्सेर मित्तणाइ चउण्ड य सुण्हाण कूल परस्स पुरओ रोहिणिय सुण्ह तस्स कुलघरस्स बहुसु कज्जेसुय जाव रहस्सेसुय आपुच्छणिज्ज जान सव्वकज्ज वडाविय पमाणभूय ठावेइ )
જ્યારે તે નાની મોટી ગાડીઓ રાજગુડ નગરના મધ્યમાર્ગે થઈને પસાર થઈ રહી હતી ત્યારે નગરના શ્રગાટક વગેરેમાં એકઠા થયેલા લોકો પરસ્પર આ પ્રમાણે વાતે કરવા લાગ્યા દેવાનુપ્રિયે! જુઓ ધન્યસાર્થવાહ કેટલે બધે ભાગ્યશાળી છે કે જે આજે ચોથી પુત્રવધૂ હિણિકા વડે પાચ શાલિકના ગડાએ અને ગાડીઓ ભરીને ફરી પાછા આવતા જોઈ રહ્યો છે અને પ્રસન્ન થઈને તુષ્ટ થઈને તેને સ્વીકારી રહી છે તે આ બધુ રવીકારીને હિણિકાને મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનો તેમજ ચારે પુત્રવધુઓના કુટુંબી
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अनगारधर्मामृतवर्षिण टोका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
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आमच्छनीया यावत् सरकार्यवर्द्धिका प्रमाणभूता 'ठवेड ' ' स्थापयति= सर्व कुटुम्पाधिष्ठात्रीत्वेन ता नियोजयतीत्यर्थ. ।
एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः । पोऽस्माक श्रमणोवा श्रमणीवा प्रत्रजितः सन् विहरति यदि पञ्च च तस्य महानतानि सवर्द्धितानि भवन्ति स खलु इहभवे एव चहूनां श्रमणाना ४= चतुर्वि सघस्य अर्चनीयः - यारत् चातुरन्त संसारकान्तार atsapp व्यतित्र जिष्यति = पारयिष्यति यथा च सा रोहिणिका = अन्यसार्थवा हस्य चतुर्थी पुत्रनधू । उक्तञ्च
"
,
गृह वर्ग के समक्ष अपने कुटुम्न के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूउने योग्य यावत् समस्त कार्यों में प्रमाणभूत उसे बना रहा है।
तथा सपूर्ण कार्यों की पढाने वाली उसे मान रहा है कारण इस का केवल यही है कि धन्य सार्थवाह ने उस रोहिणिका को अपने सम स्त कुटुम्ब की अधिष्ठात्री बना दिया । (एवामेत्र समाणाउसो ! जाव पच य से महत्वया सर्वाडिया नघति सेण इह्भवे चेव वटुण समणाण ४ अच्चणिजे जाच चीईवहस्सइ जहाब सा रोहिणिया एव खलु जवू ! समणेण भगवया महावीरेण सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयम पनन्ते तिमि ) इस तरह हे आयुष्मन्न श्रमणो ! जा हमारा श्रमण तथा श्रमणीजम दीक्षित होता हुआ अपने पत्र महाव्रतों को बढाता रहता है वह रोहिणिका की तरह हम भरमें ही अनेक श्रमण आदि महोनु भावों द्वारा तथा चतुर्विध संघ द्वारा अर्चनीय आदि होता हुआ चतु એની સામે પેાતાના કુટુંબની ધણી ખાખતામા યાવત બીજી પણ ઘણી રહે સ્યની મહત્તવપૂર્ણ વ તેામા તેની સલાહ લઈને તેને પ્રમાણ ભૂત બનાવી રહ્યો છે તેમજ રાહિણિકાને તે બધા કામેાને સપૂર્ણ રીતે પાર પાડનારી માની રહ્યો છે. કેમ કે ધન્યસાર્થવાહે ? હિણિકાને પોતાના આખા કુટુબની અધિષ્ઠાત્રી બનાવી દીધી છે
( एवामेव समाणाउसो' जाव पचय से महन्त्रया सर्वाडिया भवति से पाइह भवे चेव वहुण समणाण ४ अन्वणिज्जे जार बीई इस्सर जहान सा रोहिणिया एव खलु जत्रु ! समणेण भगवया महावीरेण सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते तिमि )
મા પ્રમાણે જ હું આયુષ્મન્ત શ્રમણે ! જે અમા શ્રમણ તેમજ શ્રમણીજન દીક્ષિત થઇને પેાતાના પચમત્રતાનુ વધન કતેા રહે છે-તે હિ ણિકાની જેમ આ જગતમા જ ઘણા શ્રમણ વગેરે મહાનુભાવે દ્વારા તેમજ ચતુર્વિધ સઘદ્વારા અચનીય હાય છે અને તે ચતુતિરૂપ આ અનાદિ
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शाताधर्मकथासूत्रे
" जहसेही त गुरुणा, जहणादजगो वह समणमघोय । जह चहुया तह भव्त्रा, जह सालिकणा तह वयाइ ॥ १ ॥” इति छाया - " यथाश्रेष्टी तथा गुरव:, यथाज्ञातिजनस्तथा श्रमणसघव । यथा वस्तथा भव्याः (श्रमणाः) यथा शालिकणास्तथा नतानि ॥ १ ॥ इति एव खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मोक्ष समाप्तेन सप्तमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम् = पूर्वोक्तः अर्थ = भार मक्षप्त =मरूपितः । ' इति ब्रवीमि इति पूर्ववत् ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगनल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाक लिवळ लिवकलापाला पक - प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छ प्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जेनधर्मदिया करपूज्यश्री - घासीलाटप्रतिविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथा ' सूत्रस्थानगारधर्मामृतव पिंण्याख्याया व्याख्याया सप्तममभ्ययन सपूर्णम् ॥ ७ ॥
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र्गति रूप इस अनादि ससार कान्तार को पारकर देता है । कहा भी हैश्रेष्ठी के स्थानापन्न यहा गुरुजन हैं ज्ञातिजनों के स्थानापन्न श्रमण सघ है, बधुओं के स्थानापन्न भव्यजन है और शालिकणों के समान पाच महाव्रत है ।
इस प्रकार हे जयू ! मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने इस सप्तम ज्ञानाध्ययन का पूर्वोक्त अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा मैं तुम से कहता हूँ ।
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासी लालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथासूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का सातवा अभ्ययन समाप्त ॥ ७ ॥
I
સ સાર કાતાર ( જગલ) ને પાર થઈ જાય છે અહી શ્રેષ્ઠીના સ્થાને ગુરુ જના છે. જ્ઞાતિજનેાના સ્થાને શ્રમણસ ઘ છે. સગાવહાલા એના સ્થાને ભ જના છે અને શાલિકા ના સ્થનિ પચમહાવ્રત છે
આ રીતે હે જમ્મૂ ! મુક્તિ મેળવેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ સાતમા જ્ઞાતા ધ્યયનના અપૂર્વોક્ત રૂપે નિરૂપિત કર્યાં છે. આમ હું તમને કહી રહ્યોછુ શ્રી જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર શ્રી ધામીલાલજી મહારાજકૃત ‘જ્ઞાતાધમ થાડગ’
સૂત્રની અનગાર ધર્મોમૃતવણી વ્યાખ્યાનુ સાતમ્ અધ્યયન સમાપ્ત ગા
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॥ अथाष्टममध्ययन प्रारभ्यते ॥ उक्त सप्तमाध्यन सम्प्रत मल्लीनामझममप्टमाध्ययनमुन्यते, एव रूपेण सहास्य सम्बन्धः-पूर्वाध्ययने 'महानताना चिरापनायामों भवति, तया तत्समारा धनाया शिवमुखावाप्तिरूपः परमार्थो भवती ' त्युक्तम् , अस्मिन्नध्ययने तु तेपा महारतानामेन स्तोकेनापि मायाशल्येन मालिन्ये सति यथावत् स्वफलजनकत्व नास्तीति प्रतियोध्यते, इत्येव प्रसगतः प्राप्तस्यैतस्याध्ययनस्य प्रथम मूत्रमाह
-: अष्टम अध्ययन प्रारमसातवा अध्ययन का भाव सपूर्ण हो गया है-अब मल्ली नामका अष्टम अध्ययन प्रारमहोता है । इसअध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबध है कि पूर्व अ-ययनमें जो यह विषय कहा गया है कि जो साधुमहात्रतो की विराधना करता है वह अनेक अनर्थो का भोक्ता होता है और चतुर्गनि ससार मे परिभ्रमण करता है जो इनकी रक्षा करता है-अच्छी तरह से आराधना करता है-वह शिव सुख प्राप्तिरूप परमार्थका भोक्ता होता है।
अब इस अध्ययन में सूत्रकार इसबातको स्पष्ट कहते हैं कि उन महावतों में यादि थोडीसी भी मायाराल्य से मलिनता आजाती है तो वे यथावत् अपने फलके जनक नहीं होते हैं। इसीसबध से प्राप्त हुए इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है जहण भते इत्यादि
આઠમું અધ્યયન સાતમુ અધ્યયન પુરૂ થઈ ગયુ છે હવે મલ્લી નામે આઠમું અધ્યયન પ્રારભ થાય છે આ અધ્યયનને પૂર્વ અધ્યયનની સાથે સ બ ધ એવી રીતે છે કે–સાતમા અવ્યયનમાં એ પ્રકારે ચર્ચા થઈ કે જે સાધુ મહાવ્રતની વિરાધના કરે છે તે ઘણા અનર્થોને ભેગવનાર હોય છે, અને તે ચતુર્ગતિ રૂપ આ સ સારમાં પરિભ્રમણ કરે છે જે પચમહાનતાની રક્ષા કરે છે–સારી પેઠે તેમની આરાધના કરે છે તે શિવસુખ પ્રાપ્તિરૂપ પરમાર્થને ભેગવતા હોય છે. - હવે આઠમા અધ્યયનમાં સૂત્રકાર એ બાબત સ્પષ્ટીકરણ કરે છે કે મહાવ્રતોમા જે ઘડી પણ માયા શલ્યથી મલીનતા આવી જાય તે તેમનું ફળ સંપૂર્ણ પણે મળતું નથી એજ સબ ધની ચર્ચા માટેના આઠમાં અખથननु मा ५ सूत्र छ 'जइण भते ' इत्यादि
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माताधर्मकथा मूलम्-जइणं भंते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भंते । के अटे पपणत्ते ।।
एवं खलु जम्बू । तेण कालेण तेण समएण इहेब जंबू. द्दीवे दीवे महाविदेहेवासे मदरस्सपवयस्स पञ्चत्थिमेणं निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेण सीयोयाए महाणइए दाहिणेण सुहावहस्त वक्खारपव्वतस्स पच्चस्थिमेण पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेण एत्थणं सलिलावतीनाम विजए पन्नत्ते, तत्थ ण सलिलावती विजए वीयसोगानामं रायहाणी पण्णत्ता, नवजोयणवित्थिन्ना जाब पच्चक्खं देवलोगभूया, तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमे दिसि'भाए इंदकुभे नामं उज्जाणे, तत्थ ण वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम राया तस्स धारणीपाभोक्ख देवीसहस्स ओरोहे, होत्था, तएण सा धारिणीदेवी अन्नया कयाइ सीहं सुमिणे 'पासित्ता ण पडिबुद्धा जाव महब्धले नाम दारए जाव उम्मुक्क जाव भोगसमत्थे । सू० १ ॥
टीका-श्री जम्यूस्वामी पृच्छति-'जयण भते !' इत्यादि ‘जइ' यदि 'ण' खलु 'भते ।" हे भदन्त ! श्रमणेन भगवता महाबोरेण श्रीवर्धमान स्वा
टीकार्थ-(जहण भते ! ) श्री जबूस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (जहण भते !) हे भदत । यदि (समणेण भगवया महाविरेण जाव संपत्तेण सत्तमस्स णायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते अट्ठमस्स ण भते! के
_ -(जइण भते !) श्री ४ यू पाभी पूछे छे : (जहण भते) aala _ (समणेण भगया महावीरेण जाव सपत्तेण सत्तमस्स णायज्झयणस्स अय. मट्टे पण्णत्ते अट्ठमस्स ण भते ! के अद्वे पण्णत्ते)
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rantarati ीका अ० ५ चलराजचरितनिरूपणम्
मिना यावत् - सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तेन सप्तमस्य ज्ञाताध्ययनस्याय मर्थः मज्ञप्तः, अष्टमस्य खलु हे भदन्त । कोऽर्थ प्रज्ञप्तः ?
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एव श्रीजम्नू स्वामिना पृष्ठः श्री सुधर्मास्वामी त कथयति- ' एव खलु जम्बू इत्यादि । एव खलु हे जम्बू' ' तस्मिन् समये - इहैव जम्बद्वीपे द्वीपे मध्य जम्बू द्वीपे महाविदेहे वर्षे महाविदेहनाम के क्षेत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य- मेरु गिरेः 'पच्चत्थि मेण पश्विमे पश्चिमाया दिशि ' निसदस्स ' निपधस्य = निपधपर्वतस्य ' वामहरप aaree / afarपर्वतस्य ' उत्तरेण ' उत्तरस्मिन् उत्तरस्या दिशि सीयोयाए महाण ए' शीतोदाया महानया. ' दाहिणे' दक्षिणे दक्षिणस्या दिशि सुसाव अट्ठे पण्णत्ते) श्रमण भगवान् महावीरने कि जो मोक्षको प्राप्त हो चुके है सातवें ज्ञाता ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्ररूपित किया है तो हे भक्त उन्होंने आठवे ज्ञाताध्ययन का क्या भाव प्ररूपित किया है । (एव खलु जबू तेण कालेन तेण समरण इहेवजवू द्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मदरम्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेण निसदस्स वासहर पच्चयस्स उत्तरेण सीयोयाए माणइए दाहिणेण सुहावहस्स वक्खारव्वयस्स पच्चत्थिमेण पच्चत्थि मलवणसमुहस्स पुरत्यिमेण एत्वण सलिलावड नाम विजए पन्नत्ते ) इस प्रकार जब स्वामी के द्वारा पूछे गये श्री सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं है जबू | तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसप्रकार है उस काल में और उस समय मे इस जबूद्वीप नामके द्वीप में स्थित महाविदेह नामका क्षेत्र में सुमेरुपर्वत की पश्चिमदिशा में, निषधर्वत की उत्तरदिशा में शीतोदा म
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મોક્ષ પામેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમા જ્ઞાતાધ્યયનને પ્રતિ રીતે અથ સ્પષ્ટ કર્યો છે તે હે ભદતા તેમણે આઠમા જ્ઞાતામ્યયનના શા અથ નિરૂપિત કર્યો છે
( एव खलु जत्रू तेण कालेन तेण समएण इहेव जनू दीवे दीवे महानिदे वासे मदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेण निसस्स नाहरपव्वयस्स उत्तरेण सीयो महादाहिणे पण सुहाबहस्स वक्खारपन्त्रयस्त पन्चत्थिमेण पञ्चत्थिमलत्र समुदस्स पुरत्थिमेण एह्थण सलिलावइ नाम विजए पन्नत्ते )
શ્રી સુધર્મસ્વામી જમ્મૂ સ્વામીને જવાબ આપતા કહે છે કે હું જબૂ તમારા પ્રશ્નનના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે-તે કાળે અને તે સમયે આ જમ્મૂ દ્વીપ નામે દ્વીપમા ન્ધિત મહાવિદેહ નામે ક્ષેત્રમા સુમેરુપર્વતની પશ્ચિમદિશામા નિષિદ્મપર્વતની ઉત્તર દિશામા, મહાનદી શીતેાદાની દક્ષિણે, સુખાત્પાદક વક્ષ‹ાર પતની પશ્ચિમે, પશ્ચિમ લવણુ મમુદ્રની પૂર્વદિશામા સલિલાવતી નામે વિજય છે પશ્ચિમ સમુદ્રમા મળનારી મહાનદી શીતેાદાની દક્ષિણ દિશામા સલિલા
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रेवटे
हाताधर्म कथासूत्रे
हस्य सुखोत्पादकस्य स्खारव्ययम्स ' क्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमे पश्चिमायां दिगि पश्चिमलवण समुद्रस्य 'पुरात्थिमेण पौरस्त्ये पूरें, अन अस्मिन् स्वाने खलु सलिलापती नामा विजयः प्रज्ञप्तः- पश्चिम समुद्रगामिन्याः शीतोदामहानया दक्षि णत. सलिल नवीनामक चक्रातिना विजेतव्य क्षेत्रखण्डमासीत्, तदेव सलिलाव विजय इत्युच्यते इत्यर्थः ।
"
तत्र खलु सलिलानतीजिये वीतशोका नाम राजवानी मज्ञप्ता कथिता । सा कीदृशी - इत्याह-न योजनविस्तीर्णा यापन् द्वादश योजनानामा प्रत्यक्ष देव लोभूता साक्षात् स्वर्गस्वरूपा । तस्या खलु वीतशोकाया राजधान्या उत्तर पौर स्त्ये- दिग्भागे ईशानकोणे इन्द्रकुम्भ नामोद्यानमामीद । तत्र खलु वीतशोकाया राजधान्या चलो नाम राजाऽभूत् । तस्य नलस्य राज्ञो धारणी प्रमुख देवीसहस्रम् . हानदी की दक्षिण दिशा में, सुखोत्पादक वक्षस्कारपर्वन की पश्चिवदिशा में, पश्चिमलवण समुद्र की पूर्व दिशा में सलिलावती नाम का विजय है । पश्चिम समुद्र में जानेवाली शीतोदा महानदी की दक्षिणदिशा में जो सलिलावती नामका विजय है जिसे चक्रवती जीता करते हैं। उसी का नाम सलिलावती विजय है ।
( तत्थण सलिलावती विजए वोयसोया नाम रायहाणी पण्णत्ता ) उस सलिलावती विजय में वीतशोका नाम की राजधानी है ( नव जोयणवित्थिन्ना जाव पच्चक्ख देवलोय या ) इसका नौ योजन का विस्तार है और १२ योजन का आयाम है। यह प्रत्यक्ष में देवलोक - अमरावती -जैसी प्रतीत होती है। (तीसेण वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए इदकुभे नाम उज्जाणे ) उस वीतशोका नगरी के ईशान कोण मे एक इन्द्रकुभ नामका उद्यान था । (तत्थण वीयसोगाए વતી નામે એક ક્ષેત્ર-ખડ છે. જેને ચક્રવર્તી સામ્રટા જીતતા આવ્યા છે-તેનુ નામ સલિલાવતી વિજય છે
( तत्क्षण सलिलावती विजय वीयसोका नाम शहाणी पण्णत्ता ) सक्षि सावती विश्यभा वीतशोध नामे थे राज्धानी छे ( नव जोयण वित्थिन्ना जाव पच्चक्स देवलोय भूया ) तेन विस्तार नव योजन भेटले तेन तेना આયામ ૧૨ ( ખાર ) ચેાજન જેટલા છે. તે પ્રત્યક્ષ દેવલાક-અમરપુરી—જેવી सु६२ छे ( तीसेण वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरात्थिमें दिखिमाए इद कुभे नाम કજ્ઞાળે) તે વીત શાકા નગરીના ઈશાન કેણુમા ઇન્દ્રકુ ભ નામે એક ઉદ્યાન હતા
( तत्थण वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम रामा, तस्स 27 पामोक्ख
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भनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ८ बलराजचरितनिरूपणम्
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अवरोधे = अन्तः पुरे आसन् वलनामकस्य तस्य राज्ञो धारणीप्रमुखा एकसहस्र सख्यकाः देव्यआमन्नित्यर्थः ।
ततस्तदनन्तर खलु सा धारिणी देवी अन्यदा कदाचित् - अन्यस्मिन् कस्मि चित् समये सिंह स्वप्ने स्वप्नावस्थायां दृष्ट्वा मतिबुद्धा जागरिता यावद् महाबलो नाम दारको जातः इह यावच्छन्देन - सा स्मत्त भर्तुरग्रे निवेदयति, ततः नपाठकमुखात् नन्युतिस्ततः सा गर्भवती जाता सपूर्णेषु मासेषु महा बल नामकः पुत्रो जात इत्यर्थो वोद्धव्यः । सा कीदृश इत्याह उमुक्त - यावद् रायहाणी घले नाम राधा, तस्स धारणी पामोक्ख देवी सहरस ओराहे होत्था) उस चीत शोका नाम की राजधानी में बल नामका राजा रहता था। उसके अन्तः पुर में धारणी प्रमुख १ हजार रानियां थी । (तरण सा धारिणी देवी अन्नया कयाह सिहे सुमिणे पासित्ता ण परिबुद्धा जाव महाले नाम दारए जाए उम्मुक्क जाव भोगसमत्थे ) एक दिनकी योत है कि जब धारिणी देवी अपनी शय्या में आनन्द के साथ सोयी हुईथी उस समय उसने रात्रि के पश्चिम प्रहर में स्वप्न में एक सिंह देखा । स्वप्न देखने के साथ साथ वह जग गई । स्वप्न का वृत्तान्त उसने अपने पतिसे निवेदिन किया । उसने स्वप्न पाठकों कों बुलाया और उनलोगोने स्वप्न फलका रहस्य उसे सुनाया रानीने भी वह सब सुना। वह गर्भवती हो गई। गर्म के नो मास रात्रि सग्ढे सात औरआनन्द के साथ उसके व्यतीत हुई। बाद मे महावल नामका पुत्र उससे उत्पन्न हुआ । at सहस ओराहे होत्या )
તે વીતશેાકા નામની રાજનીમા મલ નામે રાજા રહેતા હતા તેના રણવાસમાં ધારણી `ખ એક હજાર રાણીઓ હતી
(तरण सा धारिणीदेवी अन्नया कयाइ सिहे सुमिणे पास्सित्ताण पडिबुद्धा जान महवले नाम दारए जाए उम्मुक्कजाव भोगसमत्थे )
એક વખતની વાત છે કે ધાીિદેવી પોતાની શય્યા ઉપર સુખેથી સૂતી તે સમયે રાત્રિના છેલ્લા પહેારમા તેણે સ્વપ્નમા એક સિંહ જોયા સ્વપ્ન જોતાની સાથેજ તે જાગી ગઇ, અને સ્વપ્નની વિગત પોતાના પતિને કહી સભ ળાવી. સ્વપ્ન પાઠકને ખેલાવ્યા અને તેમણે રાજાને સ્વપ્નના ફળ વિષે બધી વાત કહી. રાણીએ પણુ સ્વપ્નના રહસ્યને સ્વપ્ન પાઠાના મુખેથી સ ભન્યુ તે સગાં થઈ ગર્ભના નવ માસ અને સાડા સાત દિવસે સુખેથી પસાર થયા ત્યાર બાદ યથા સમયે તેને મહાખલ નામે પુત્રના જન્મ થયે
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ज्ञाताधर्मकथा
भोग समर्थः = उन्मुक्तचालभान विज्ञातपरिणतमानः सर्वककुशलो भोगसमर्यो जात इत्यर्थः || सू० १ ||
मूलम् - तएण तं महव्वलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरी पामोक्खाणं पचण्ह रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेंति, पच पासायसया पचसयदाओ जाव विहरह, थेरागमणं, इदकुभे उज्जाणे समोसढा । परिसा निग्गया, बलो विनिग्गओ धम्म सोच्चा णिसम्म जं नवरं महव्वल कुमारं रज्जे ठावेइ जाव एकारसंगवी चहूणि वासाणि सामण्णवरियाय पाउणित्ता जेणेव चारुपव्व मासिएर्ण भत्तेणं सिद्वे ॥ सू०२॥
टीका - ततस्तदनन्तर खलु त 'महन्नल' महानलनामक कुमार मातापितरौ 'सरि सियाण ' सदृशीना कुलेन वयमा योग्याना कमलश्रीममुखाणा, पञ्चानां राजत्ररक न्याशतांना=पञ्चशताना रानवरकन्यानाम् एकदिवसे पाणि ग्राहयतः, पञ्च
धीरे २ वह महाचल पुत्र चाल्यकाल को पूरा करके यौवन अवस्थो को प्राप्त हुआ । अवस्थानुसार वह विकसितज्ञान वाला भी होगया सर्व कलाओं मे कुशलमति बन गया और पचेन्द्रियों के भोग भोगने लायक भी हो गया। सूत्र " १"
" तण त महल' इत्यादि
टीकार्य - (तरण) इसके बाद (त महत्वल अम्मापियरो) उस महा बल का मातापिताने (एगदिवसेण) एक ही दिन के भीतर (सरिसियाण कमलसिरी पामोखाण पचण्ह रायवर कन्नासयाण) समान कुल, वय वाली कमली आदि पाचसौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ (पाणि
સમય જતા મહાખલ ખચરણું વટાવીને જુવાન થયા ઉમરના વધારાથી વધીને તે સવિશેષ વિકાસ યુક્ત જ્ઞાનવાળા ગયા તેં બધી કળા એમાં કુશળ બુદ્ધિ વાળા અને પંચેન્દ્રિયાના ભાગેાને ભાગવવા ચેાગ્ય થઇ ગધે! ॥ સૂત્ર
"
१." ॥
"
तरण महान्पल' हत्याहि
अर्थ - ( तण्ण ) त्यारणाह ( त महत्वले अम्मा पियरी ) भडासने तेना भाता पिता ( एगदिवसेण ) इन मे दिवसभा
( सरिसियाण कमलसिरीपामोक्खा ण पचण्ह रायवर कन्नामयण ) સરખા કુળ અને સરખી આયુષ્યવાળી કમળ શ્રી વગેરે પાચસે ઉત્તમ રાજ अन्यमानी साथै ( पाणि गेण्हावे ति) परावी हीधेो ( प च पासाय सया पच सय
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भनगारधर्मामृतवपिणीटी० अ० ८ घलराजदीक्षाग्रहणादिनिरूपणम् मासादशतानि पञ्चशतवधूना निवासार्थ पञ्चशतानि प्रसादान् कारयतः। पञ्च शतदाय पञ्चशतप्रमितो दाय=योतुक · दहेज' इति भाषा प्रसिद्धः श्वसुरेण तस्मै महावलकुमाराय प्रदत्त इत्यर्थ । स महानलकुमारः यावद्-उपरि प्रासादे मानुष्यकान् कामभोगान् उपभुञ्जानः, विहरति आस्तेस्म. । अथ-थेरागमण' स्थविरागमनम्-तत्र वीतशोकाया नगयाँ स्थविराणामागमनमभूदित्यर्थः । ते स्थविराः इन्द्रकुम्भे-उद्रकुम्भनामके ' उज्जाणे' उद्याने 'समोसोदा' समत्रसृता:-अव:गृहमवगृह्यावस्थिता । परिपन्निर्गता-धीतशोकानगरी निवासीनो लोकाः स्थविराण चन्दनार्थ वहिनिःसता इत्यर्थ । चलोऽपि निर्गतःचलनामा नृपोऽपि नगर्या नि सृत । स्थविराणामन्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्य, राना वलः प्रतिबुद्धः सन्ननादीदगेण्हावेंति) विवाह कर दिया । (पच पासायसया पचसयदाओ) और पाच सौ प्रासाद उन ५०० पाच सौ वधूओ के निवास के लिये बनवादिये । महाबल कुमारके लिये उसके श्वसुर ने ५०० प्रमाण दहेज दिया । अर्थात् दहेज में भी वस्तुए महाबल कुमारको मिली-वे सब ५०० ५०० सौ थी । (जाव विहरइ ) इस तरह वह महायल कुमार यावत् महलो के उपर रहता हुआ मनुष्य भव सबधी काम भोगों को भागने लगा (थेरागमण इदकुभे उज्जाणे समोसढा परिसा निग्गया यलो वि निग्गओ) वीतशोका नामकी उसनगरी में एक समय स्थविरो का आगमन हुआ वे सब वहा के इन्द्रकुभ नाम के उद्यान में मुनिप रपरा के अनुसार अवग्रह प्राप्तकर विराजमान हुए। नगरी के परिषद मुनि वदना के लिये अपने अपने घर से निकल कर उस उद्यान में आई । बल राजा भी आया । (धम्म सोच्चा निसम्म दाओ) सन पायसे! महेस ते पायसो नववधूनान वा भाटेबनावी દીધા મહાબલ કુમારના સસરાએ પાચ પ્રમાણા દેજ આપ્યું એટલે કે મહાબલકુમારને દેજમાં જેટલી વસ્તુઓ મળી તે તમામ પાચસોની સંખ્યાपाणी ती (जार विहाइ) मा प्रमाणे + मुमार 'यात'मधा भई લેમાં રહીને મનુષ્ય ભવના બધા ભેગો ભોગવવા લાગ્યા (थेरागमण इदकुभे उज्जाणे समोसहा परिसा निग्गया बलो विनिग्गओ)
એક વખતે વીતશેક નામની તે નગરીમા સ્થવિરેનુ આગમન થયું તેઓ બધા ત્યાના ઈન્દ્રકુ ભના ઉદ્યાનમાં મુનિ પર પરાને અનુસરતા અવગ્રહ મેળવીને વિરાજમાન થયા નાગરિકની પરિષદ પિત પિત્તાના ઘેરથી નીકળીને મુનિજનની વદના માટે ઉઘામમા આવી બલરાજા પણ ત્યા આવ્યા,
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माताधर्मकथा भोग समर्थः = उन्युक्तालभार विज्ञातपरिणतमानः सर्वकलाइशलो भोगसमयों जात इत्यर्थः ॥ सू०१॥
मूलम्-तएण त महब्बल अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरी पामोक्खाणं पंचण्ह रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेति, पंच पासायसया पंचप्सयदाओ जाव विहरह,
थेरागमणं, इदकुंभे उजाणे समोसढा । परिसा निग्गया, बलो विनिग्गओ धम्म सोच्चा णिसम्म जं नवरं महव्वल कुमारं रज्जे ठावेइ जाव एकारसंगवी बहणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपयए मासिएणं भत्तेणं सिद्धे सू०२॥
टोका-ततस्तदनन्तर खलु त 'महाल' महारलनामक कुमार मातापितरौ 'सरि सियाण ' सदृशीना कुलेन वयमा योग्याना कमलश्रीपमुखाणा, पश्चाना राजवरक न्याशताना-पञ्चशताना रानवरकन्यानाम् एफदिवसे पाणि ग्राहयता, पञ्च
धीरे २ वह महायल पुत्र बाल्यकाल को पूरा करके यौवन अवस्थी को प्राप्त हुआ। अवस्थानुसार वह विकसितजान वाला भी होगया सर्वकलाओं में कुशलमति बन गया और-पचेन्द्रियों के भोग भोगने लायक भी हो गया । सूत्र "१"
'तएण त मयल ' इत्यादि
टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (त मच्चल अम्मापियरो) उस महा बल कामाता पिताने (एगदिवसेण) एक ही दिन के भीतर (सरिसियाण कमलसिरी पामोक्खाण पचण्ह रायवरकन्नासयाण) समान कुल, वय वाली कमलश्री आदि पाचसौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ ( पाणि
સમય જતા મહાબલ બચ પણ વટાવીને જુવાન થ ઉમરના વધારાથી વધીને તે સવિશેષ વિકાસ યુક્ત જ્ઞાનવાળા ગો તે બધી કળાઓમાં કુશળ બુદ્ધિ વાળે અને ૫ દ્રિના ભેગને ભોગવવા ચગ્ય થઈ ગયો સૂત્ર “1”
'तएण महापल 'त्यादि
साथ-(तण्ण ) त्यारा (त महब्बल अम्मापियरी) भामसने तेना माता पिता (एगदिवसेण ) 12 हसभा ?
(सरिसियाण कमलसिरीपामोक्खा ण पचण्ह रायर कन्नामयाण) સરખા કુળ અને સરખી આયુષ્યવાળી કમળ શ્રી વગેરે પાચસે ઉત્તમ રાજ अन्ययानी साथे (पाणि गेण्हावे ति) ५२९वीडीया (पच पासाय सया पच सय
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अनगारधर्मामृतपिणी टोका १० ८ महायलादिपाजस्वरूपनिरूपणम् ३४३ मूलम्-तएणं सा कमलसिरी अन्नया सीहं सुमिणे जाव वलभदो कुमारो जाओ, जुवराया यावि होत्था, तस्स ण महावलस्स रन्नो इमे छप्पियवालवयसगा रायाणो होत्था, त जहाँ अयले धरणे पूरणे वसु वेसमाणे अभिचदे सहजायया सहवडिया जाव अम्हहि एगयओ समेच्चा णिस्थरियव्य तिकडु अन्नमन्नस्सेयमट्ट पडिसुणेति, तेणं कालेणं तेणं समएणं इदकुभे उज्जाणे थेरा समोसढा। परिसा निग्गया, महव्वले णं धम्म सोच्चा ज नवर छप्पियवालवयंसए आपुच्छामि वलभद्द च कुमार रज्जे ठावमि,जाव छप्पिय वालवयसए आपुच्छह । तएणं ते छप्पियवालवयसगा महव्वल राय एवं वयासी-जइ ण देवाणुप्पिया | तुम्भे पव्वयह अम्ह के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामो । तएणं से महव्वले राया ते छप्पिय बालवयसए एव वयासी-जइण तुम्भे मए सद्धि जाव पवयह तो ण गच्छह जेहे पुत्ते सएहिं २ रज्जेहि ठावेहपुरिससहस्तवाहिणीओ सोयाओ दुरूढा जाव पाउन्भवति,तए णं से महव्वले राया छप्पियवालवयसए पाउन्भूते पासइ, पासित्ता, हट्टतुढे कोडुविय पुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता, वलभ. इस्स अभिसेओ आपुच्छइ, तएण से महव्वले जाव महिड्डीए जाव पवइए एकारस अगाइ अहिज्जइ, वहहिं चउत्य जाव भावमाणे विहरइ ॥ सू० ३॥
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माताधर्मकथा अत्र पूर्ववद् वर्णन गोध्यम् यथा हे देवानुप्रियाः महाबलकुमार राज्य स्थायित्वा युष्माकमन्तिके प्रवजितुमिच्छामि. तत स्थविरैः- 'पिलम्ब माकुरु ' इत्युक्तो ऽसौ बल यन्नवर=रिशेपत्तमाह-महावल महारलनामक पुत्र राज्ये स्थापयति स्थापयित्वा स्थविराणा समीपे प्रबनितः ।
यावद् एकादशामिद् एकादशाहान्यधीते स्म । बहनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा यत्र चारुपर्वतस्तत्रोपागत्य मासिकेन भक्तेन मासिकभक्तपस्याख्याने न मासिकमनशन कृत्वेत्यर्थ , सिद्ध =मुक्ति प्राप्तः ।। सू०२ ॥ ज़ नवर महब्वल कुमार रज्जे ठावेइ, जाच एक्कारसगवी यहणि वासा णि सामण्णपरियाय पाउणित्ता जेणेव चारूपव्वए, मासिएण भसणं सिद्ध ) स्थविरों से श्रुतचारित्र रूप धर्म का व्याख्यान सुनकर, उसें हृदय में धारण कर राजा पल प्रतियुद्ध हो गया । और कहने लगाहे देवानुप्रियो ! मैं महायल कुमार को राज्य में स्थापित कर आपके पास दीक्षा लेना चाहता है। इस तरह जब राजा ने कहा-तो उन स्थवि. रों ने "विलम्ब मत करो" ऐसा उससे कहा-इस प्रकार उन से आज्ञापित होता हुआ वह महायल राजा वापिस नगर में आया वहा आकर उसने महाचल कुमार को राज्य में स्थापित किया। । पाद में स्थविरों के पास जाकर दीक्षित हो गया। धीरे २ उसने ११ अगों का अध्ययन कर लिया। इस तरह उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कियो । पालन करके फिर वह जरा वंह चारु पर्वत था वहा आया। वहा आकर उसने १ माम का भक्त प्रत्या ख्यान किया। और अन्त में मुक्ति को प्राप्त कि। सूत्र "२" .. (धम्म सोच्चा निसम्म ज नवर महब्बल कुमार रज्जे ठावेइ, जाव एक्कारसंगवी बहूणि वासाणि सामण्णपरियाय पाउणित्ता जेणेव चारूपयए मासिएणभत्तेण सिद्धे)
સ્થવિરે પાસે શ્રી કૃતચરિત્ર રૂપ ધમનું વ્યાખ્યાન સાભળીને તેને સારી પેઠે હૃદયમાં ધારણ કરીને રાજા બલ પ્રતિબુદ્ધ થઈ ગયે, અને તે કહેવા લાગે-“હે દેવાનુપ્રિો! હું મહાબલ કુમારને રાજ્યાસને સ્થાપિત કરીને તમારી પાસેથી દીક્ષિત થવાં ચાહુ છુ રાજાની આ વાત સાભળીને સ્થવિરે. એ તેને કહ્યું “વિલમ્બ કરો નહિ આ રીતે તેમની આજ્ઞા મેળવીને રાજા નગ રમા આવ્યા ત્યાં આવીને તેણે મહાબલ કુમારને રાજ્યસિંહાસન ઉપર બેસાડ - * ત્યારબાદ રાજા સ્થવિરેની પાસે આવીને દીક્ષિત થઈ ગયે ધીમે ધીમે તેણે અગિયાર (૧૧) અ ગોનું અધ્યયન કર્યું આરીતે તેણે ઘણા વર્ષો સુધી કામર્શ્વ પર્યાયનું પાલન કર્યું પાલન કરીને તે જ્યા ચારુપર્વત હતું ત્યાં આવીને તેણે એક માસનું ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કર્યું અને અને મુક્તિ કે - - -
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका स० ८ महाबलादिपराजस्वरूपनिरूपणम् २४३ मूलम् - तएण सा कमलसिरी अन्नया सीहं सुमिणे जाव बलभद्दो कुमारो जाओ, जुवराया यावि होत्था, तस्स ण महावलस्स रन्नो इमे छप्पियवालवयसगा रायाणो होत्था, त जहां अयले धरणे पूरणे वसु वेसमाणे अभिचदे सहजायया सहवडिया जाव अम्हेहि एगयओ समेच्चा णित्थरियव्व त्तिकद्दु अन्नमन्नस्सेयमट्ट पडिसुर्णेति, तेण कालेणं तेणं समएणं इदकुभे उज्जाणे थेरा समोसढा । परिसा निग्गया, महव्वले पणं धम्मं सोच्चा ज नवर छप्पियवालवयलए आपुच्छामि बलभद्द च कुमार रज्जे ठावेमि, जाव छप्पिय वालवयसए आपुच्छन् । तरणं ते छप्पियवालवयसगा महव्वल रायं एवं वयासी - जइ ण देवाणुप्पिया । तुव्भे पव्वयह अम्ह के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामो । तएणं से महव्वले राया ते छप्पिय वालवयसए एव वयासी-जइणं तुभे मए सद्विजाव पव्वयह तो ण गच्छह जेठे पुत्ते सएहि २ रज्जेहि ठावेह - पुरिस सहस्तवाहिणीओ सोयाओ दुरूढा जाव पाउव्भवंति, तए णं से महव्वले राया छप्पियबालवयसए पाउन्भूते पासइ, पासित्ता, हट्टतुट्ठे कोडुविय पुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता, वलभ
इस अभिसेओ आपुच्छइ, तएण से महव्वले जाव महिड्डीए
इस्स
जाव पव्वइए एक्कारस अगाइ अहिजइ, वहूहि चउत्थ जाव भावेमाणे विहरइ ॥ सू० ३ ॥
J
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माताधर्मकथासूत्रे
टीका- 'तरण सा ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं सा वमलश्री राज्ञी महाबलस्य भार्या, अन्यदा अन्यस्मिन् काले सिहं सप्ने दृष्टा मतिबुद्धा । यावत् वलभद्रः कुमारी जात अत्र यावतरणेनायमर्थोऽयगन्तव्य - सा स्वप्नवृत्त भर्तुर निषेदयति ततः स्वप्नपाठकमुखात् स्वप्नफलश्रवण यावत् तदनन्तर सा गर्भवती जाता. सपूर्णेषु मासेषु बलभद्रनामकः कुमारः उप्तन्न इति । स युवराजश्वाप्यमवत् । तस्य खलु महावलस्य राज्ञ इमे = वक्ष्यमाणा पडपि च वालवयस्यका वालमित्राणि तएण सा कमलसिरी ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तएण ) इसके बाद (सा कमलसिरी ) महाबल राजा की रानी कमल श्री ने (अन्नया) किसी एक समय (सीर) सिर को (सुमिणे) स्वप्न में ( जाव बलभद्दो कुमारो जाओ ) देखा और देख कर वह प्रतिबुद्ध हो गई- ई-जग गई । यावत् उस के बलभद्र कुमार उत्पन्न हुआ यहा यावत् शब्द से इस पाठ का संग्रह हुआ है-कमल श्री ने स्वप्न में जो सिंह देखा था उस स्वप्न को उस ने अपने पति महाबल से कहामहाबल ने स्वप्नपाठकों को बुलाया उन्हो ने इस दृष्ट स्वप्न का क्या फल है यह बात उसे सुनाई । सुनकर सब को बडा आनन्द हुआ । कमल श्री गर्भवती हुई । नौ मास साढ़े सात दिन जब गर्भ को पूर्ण हो गया तब कमल श्री के बलभद्र नाम का कुमार उत्पन्न हुआ ।
1
( जुवराया यावि होत्था ) धीरे २ वह कुमार युवराज भी बन गया । ( तस्स ण महाबलस्स रन्नो इमे छप्पिय बालवयसगा रायाणी होत्था )
'तएण सा कमलसिरी' त्याहि
अर्थ - (तएण ) त्यारमाह (सा कमलसिरी) भडाभस राजनी राशी उभा श्रीओ (अन्नया ) अ भे वमते ( सीह ) सिडने (सुमिणे) स्वप्नभा (जाव बलभद्दो कुमारी जाओ) लेयो भने लेने से लगी ગઈ ‘યાવત્' સમય જતા તેને ખલભદ્ર નામે કુમાર જન્મ્યા અહીં યાવત્' શબ્દથી આ પાઠનો સગ્રહ થયા છે કે-કમલશ્રીએ જે સ્વપ્નમા સિંહ જોયેા હતેા તે સ્વપ્ન વિષેની ચર્ચા તેણે પેાતાના પતિ મહાબલને કી મહાબલે સ્વપ્નપાકાને ખેલાવ્યા સ્વપ્નપાઠકોએ તેને સ્વપ્નનુ ફળ ખતાવ્યું. સ્વપ્નફળને જાણીને બધાને ખૂબજ આનદ થયે કમળશ્રી સગર્ભા થઈ ગર્ભને જ્યારે નવમાસ અને સાડા સાત દિવસ પૂરા થયા ત્યારે કમળશ્રીના ઉદરથી અલભદ્રનામે કુમારના જન્મ થયે
( जुवराया यवि होत्या ) समय पसार थता कुमार सभद्र युवरान पशु गया (तरक्षण महाबलस्स रन्नो इमे छप्पियबालवय स्वगा रायाणो होत्था ) મહાખલ રાજાને ૬ ખાલમિત્ર રાજાઓ પણ હતા
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मनगारधर्मामृतवषिणी टीका ० महाबलादिपट रामस्वरूपनिरूपणम् ४६ राजान आसन् तद् यथा-(१) अचल , (२) धरण , (३) पूरणः, (४) वसुः (५) चै श्रमण , (६) अभिचद्रः, ते कीदृशा इत्याह-'सहजायया' सहजातकाः सह समानकाले समुत्पन्नाः, सहवर्धिताः, समानकाले वर्धिता', यावत्-'तेसिं अन्नया कयाइ एगयो सहियाण समुवागयाण सनिसन्माण सन्निविट्ठाण इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-जन्न देवाणुप्पिया ! अम्ह सुह वा दुक्ख वा पवजा वा विदेसगमण वा समुपज्जइ, तन्न, ' इत्यन्तस्य पाठस्य सग्रहः । तेपाम् अन्यदा क्दाचित् एक्तः सहितानां समुपागतानां सनिपण्णाना सनिविष्टानाम् अयमेत दूपः मिथः कथासमुल्लापः समुदपद्यत इतिछाया । एकत:-एकत्र-एकस्मिन् स्थाने सहिताना-मिलिताना, समुपागताना सप्ताना मध्ये एकस्य कस्यचिट भवने कार्यरशात् सप्राप्ताना, सनिषण्णानाम्-उपविष्टाना, सनिविष्टाना-स्थिरसुखासनस्थितानाम-अयमेतद्रूपान्वक्ष्यमाणस्वरूप मिथः कथासमुल्लापः परस्परवार्ता लापः समुदपद्यत अभवत् , इत्यर्थः । यत् खलु देवानुमिया ! अस्माक सुख वा दुःख वा प्रव्रज्या वा विदेशगमन वा समुत्पद्यते, वत् खलु अस्माभि. 'एगयो उस महाबल राजा के ये छह पाल मित्र राजा थे। (तंजहा अयले, धरणे, पूरणे, वसु, वेसमणे अभिचदे सहजायया, सहवड़िया जाव कम्हेहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियव्य त्ति कटु अन्नमन्नस्सेयमट्ट पडि सुणेति ) उनके नाम ये हैं- (१) अचल, (२) धरण (३) पूरण (४) वसु (५) वैश्रमण (६)ये अभिचद्र । सब महाबल राजा के साथ उत्पन्न हुए थे,और उन्ही के साथ २ बढे हुए थे। एक समय सर ये सबके सब किसी कार्यवश एक स्थान पर एकत्रित हुए तो परस्पर में इन सब ने ऐसा विचार किया-कि चाहे सुख कारक कार्य हो या दुःख कारक कार्य हो, प्रव्रज्या लेना हो या परदश जोना हो चाहे इनमें से कोई भी
(तजहा अयले,धरणे, पूरणे, वसु, वेसमणे, अभिचदे सहजायया सह वडिया जाव अम्हे हिं एगयओ समेच्चा णित्यरियच त्ति कटुअन्न मन्न स्सेयमह पडिसुणैत्ति
तेमना नाभा २मा प्रमाणे -(१) अयस, (२) ५२, (७) ५२९], (४) વસુ, (૫) વૈશ્રમણ, (૬) અભિચક આ બધા મહાબલ રાજાની સાથે જ જન્મ્યા હતા, અને તેમની સાથે જ મેટા થયા હતા, એક વખતે જ્યારે બધા કોઈ કાર્યવશ એક સ્થાને એકઠા થયા ત્યારે તેઓએ વિચાર કર્યો કે દુખ કારક કે સુખ કારક ગમે તેવું કામ હોય પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરવી હોય કે પરદેશ ખેડવું હોય, તે આપણે બધાએ સપને જ તે કામ સાથે રહીને કરવ
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भाताधर्मकथाहा समेचा' एकतः समेत्य 'णित्यरियन्व' निस्तरितव्यम् इतिहत्वाऽज्योन्यस्यैतम थे प्रतिशुण्यन्ति, अस्मामिः समिमिलित्वा सर्व कार्य सपादनीयमिति निश्रित्य परस्परमेतमथै प्रतिक्षातवन्त इत्यर्थः।। । तस्मिन् काले तस्मिन् समये इन्द्रकुम्मे उद्याने स्थविराः समवस्ताः समाग तवन्तः । परिपग्निर्गता स्थपिरान् उदितु पीवशोका नगरी निवासिनो लोका बहिनि मृताः, महाबलो राजाऽपि वन्दनार्थ निर्गत । महापलः खलु धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धः सन् स्थपिरानेजमवादीद् युप्माकमन्तिके प्राजितुमिच्छामि यन्नवर पडपि च वालवयस्यकान् आपृच्छामि बलभद्र च कुमार राज्ये स्थापयामि, ततः कार्य करना हो तो हम सब लोग मिलकर ही यह कार्य करेगे इस प्रकार से आपस मे वे सय वचन बद्ध हो गये । (तेण कालेण तेण समएण) इतने मे उस काल और उस समय में (इदकुभउज्जाणे थेरा समोसदा ) उस इदकुभ उद्यान में स्थविरों का आगमन हुआ-(परिसा निग्गया महब्बलेण धम्म सोच्चा ज नवर उपियवालवयसए आपु च्छामि बलभद्द च कुमार रज्जे ठावेमि ) स्थविरों का आगमन सुनकर वीतशोका नगरी को परिपद मुनियों को बदना करने के लिये अपने २ घर से निकल कर उद्यान मे आई, महागल राजा भी गये। धर्म का उपदेश हुआ महावल राजा धर्म का उपदेश सुन कर प्रतिबोध को प्राप्त हो गया।
उसने उसी समय स्थविरों से कहा-भदत ! में आप लोगों के पास दीक्षा धारण करना चाहता हूँ-परन्तु मेरे जो यालसखा है मैं उन से
मा प्रभारी ते प्रतिज्ञा (क्यन ) म थया (रण कालेण वेण समएण) ते अणे माने ते समये इकु भे उजाणे थेरा समोसढा ) छन्द्रन Gधानम ! વિરે પધાર્યો
(परिसा निग्गया महब्बले ण धम्म सोच्चा जन वर छप्पिय वालवयसए आपूच्छामि बलभद्दच कुमार रज्जे ठावेमि)
વિરેન, આગમન સાભળીને પિત પિતાના સ્થાનેથી નીકળીને વાત શેકા નગરીના નાગરિકેની પરિષદ મુનિની વદન માટે ઉદ્યાનમાં આવી મહાબલ રાજા પણ ત્યા ગયા મુનિઓએ ધર્મને ઉપદેશ આપે ધર્મોપદેશ શ્રવણ કરીને રાજા મહાબલને પ્રતિબંધ થયો એટલે કે વૈરાગ્ય થયો
મહાબલે તે સમયે જ સ્થવિરોને વિનતિ કરી “હે ભદત! હુ તમારી પાસેથી દીક્ષિત થવા ચાહું છું પણ તે પહેલા આ વિષે મારા બાલસાખાઓને
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भनगारधर्मामृतवपिण टीका भ० ८ महादलादिषट्र राजस्वरूपनिरूपणम् ०४७ स्थेविरे -'मा विलम्न कुरु' इत्येवमुक्त सन् स्वमाने समागत्य यावत् तान् पडपि वालवयस्यकान अपृच्छति । तत खलु ते पडपि च वाल्वयस्यका महावल रोजानमेचमवादी-यदि खलु देवानुप्रियाः! यूय प्रजिष्यथ, अस्माक कोऽन्य आधारो वा बारम्मो का भविष्यति यावत्-तस्माद् युप्माभि सहैव वय प्रव्रजामः। तत खलु स महावलो राजा तान् पडपि च वालवयस्यकान् एवमवादीत् यदि खलु यूय मया साधं यावत् प्रव्रजिप्यथ, तर्हि खलु स्व स्वभवन गच्छत ज्ये. इस विषय में पूछ लू और चलभद्र कुमारको राज्य में स्थापित कर दें पीछे आपके पास सयम लूगा । इस प्रकर राजा का कथन सुनकर स्थवि रों ने उससे " मा बिलम्ब कुरू" विलम्ब मत करो ऐसा कहास्थविरों द्वारा अनुमत हो कर राजा अपने घर पर वहां से वापिस आया और आते ही उस ने (जोच छप्पिय चाल वयसए आपुच्छड ) अपने बाल काल्य के उन छह मित्रो से पूछौ ।
(तएण ते छप्पिय पालवयसगा मध्चल राय एव वयासी) अपने मित्र महायल की बात सुनकर उन मित्रों ने उससे ऐसा कहा( जहण देवा० जाव पव्ययामो) मित्र ! यदि आप दीक्षा लेना चाहते हैं तो फिर हमारा आपके पाद और कौन दूसरा आलयन तथा आधार होगा-इसलिये हम भी आप ही के साथ दीक्षा सयम धारण करेगे। (तएण एव धयासी) इस प्रकार अपने बाल कल्य के मित्रा की यात सुनकर राजा महायल ने उन से कहा ( जहण तुम्भे मए सद्धिं जाव હું પૂછી લઉ અને બલભદ્ર કુમારને રાજ્યાસને બેસાડી દઉ ત્યાર બાદ તમારી પાસેથી સ યમ ગ્રહણ કરીશ “આ રીતે જાની વિનતી સાભળીને स्थविशय ते ४ -" मा विलम्न कुरु, मोड ४२। नडि " साम स्थविशनी આજ્ઞા મેળવીને તે રાજા પોતાને ઘેર પાછો વળે ઘેર આવીને તેણે (રાવ छपियबालवयसए आपुच्छइ पाताना ७ मालसामान पूछ्यु
(तपण ते छपियवाल्वयसगा महबल राय एव वयासी ) पोताना भित्र भामसानी वात सामान त मित्राय तेन घु-" जइण देवा जाव पच्चयामो) ७ भित्र५२ ! तमे क्षित यत्रा याडी छ। तो अभा। और આલ બન અને આધાર થશે ? એથી અમે પણ તમારી સાથે જ દીક્ષા સ યમ धारण ४शशु (तएण एव वयासी) मा शत पाताना माल सणासानी વાત સાંભળીને મહાબલે તેમને કહ્યું___(जइण तुम्भे मए सद्धि जाव पव्ययह तोण गच्छह जेहे पुत्ते सरहिं २ रज्जे
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माताकया छान् पुत्रान् सकेपु सके पु राज्येषु स्थापयत, स्थापयित्वा पुरुषसहसवाहिनी शिविका दृरूढाः समाल्दाः सन्तो यात्ममान्ति के प्रादुर्भवत, ततस्ते परपि बालवयस्यकाः स स गृहे गत्या स्त्र व ज्येष्ठपुन राज्ये स्थापयित्वा पुरुपसा सवाहिनीः शिविकाः समारूढाः सन्त महासलस्य राज्ञोऽन्तिके प्रादुर्भवन्ति । ततः खलु स महारलो राजा पडपि च नालपयस्यकान प्रादुर्भुनान् पश्यति । दृष्टा हृष्टतुष्टोऽतिशयेन तृष्टः सन् कौटुम्मिापुरुषान् शदयवि आह्वयति । शब्दायित्वा =आय बलभद्रम्य बलभद्रकुमारस्य अभिषेकः कारितः। ततो महावलो बलभद्र पन्वयह तो गच्छर जे पुत्त सहि २ रज्जेहि गर) यदि आप लोग मेरे साथ प्रवजित होना चाहते हैं तो अपने २ घर पर जाओ
और जाकर ज्येष्ठ पुत्रों को अपने २ राज्यपद पर स्थापित करो-बाद में पुरुष सहस्र यारिनी शिक्षिकाओ पर आरूढ होकर मेरे पास यश आओ (पुरिससहस्सबाहिणीओ सीयाओ दुरुढा जाव पाउम्भवति ) इस प्रकार महायल राजा की बात सुनकर वे छहों मित्र वहा से अपने २ घर पर आये और अपने २ ज्येष्ठ पुत्रों को अपने २ पद पर स्थापित कर पुरुष सहस्र चाहिनी शियिका पर आरुढ रो महाबल राजा के पास आये। (तएण से महारले राया छप्पिय बाल वयसए पाउन्भूए पांसह, पासित्ता हट्ट तुट्टे कोडुपिय पुरिस सद्दावेह, सदावित्ता बलभदस्स अभिलेओ, आपुच्छह ) महाबल राजा ने जर अपने इन छहों बाल मवाओं को अपने पास आया हुआ देखा-तो देखकर वे बहुत अधिक
જો તમે બધા ખુશીથી મારી સાથે દીક્ષિત થવા ચાહતાહે છે તો સત્વરે પિત પિતાની રાજધાનીએ જઈને પિત પિતાના મોટા પુત્રો ને રાજગાદીએ બેસાડીને હજાર પુરુષે વહન કરે એવી પુરુષ સહસવાહિની” પાલખીએ ९५२ मेसी२. मी मावा (पुरिससहस्सवाहिणोओ सीयाओ दुरूढा जाव पाउन्भवति) मारीत महामनी पात सालजीन ७ भित्र त्याथी પિતાપિતાને ઘેર આવ્યા અને પિતાના સ્થાને મારા પુત્રને રાજ ગાદીએ બેસાડીને પુરુષ સહસ્ત્ર વાહિની પાલખીઓ ઉપર બેસીને થઈને મહાબવ રાજાની પાસે આવ્યા
(तएण से महव्वले राया छप्पिय बालवयसए पाउन्भूए पासइ, पासिता हद्द तुझे कोडुबियपुरिस सदावेड सदावित्ता बलभदस्स अभिसे भो, आपुच्छइ)
પિતાના છએ બાલમિત્રોને પોતાની પાસે આવી ગયેલા જોઈને રાજા મહાબલ અત્યત હાર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થયો રાજાએ સત્વરે તે સમયે જ કૌટુંબિક પર ૧
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अनगारधर्मामृतयपिणी टो० अ० ८ महायलादि पराजस्वरूपनिरूपणम् २४९ राजानम् आपृच्छतिस्म । आपृच्छय स महावलो यारत् महद्धर्या महाद्युत्या पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकामारा यावत् स्थविराणामन्तिके मजितः दीक्षा गृहीतवान् । एकादगाहानि-आचागद्गादीनि अधीतेस्म । बहुभिश्चतुर्थादि भक्तैः यावत् आत्मानं भावयन् विहरति आस्ते स्म । सू०३ ॥
मूलम्-तएण तेसि महब्बलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराण अन्नया कयाइ एगयओ सहियाण इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था-जह अम्ह देवाणुप्पिया | एगे तवोकम्म उवसपजित्ताण विहरइ, तण्ण अम्हेहिं सव्वेहि तवोकम्म उपसपजित्ताणं विहरित्तएत्ति कटु अण्णमण्णस्न एयमट्ट पडिसुणेति, पडिसुणित्ता बहुहिं चउत्थ जाव विहरति, तऍण से महत्वले अणगारे इमेण कारणेण इस्थिणामगोय कम्म निव्वत्तिसु ॥ सू० ४॥
इर्पित एव सतुष्ट हुए। उसी समय उन ने कौटुम्बिक पुरूपों को बुलाया-धुलाकर बलभद्र कुमार का अभिषेक करवाया।
इस तरह बलभद्र कुमार अव राज्य पद आसीन हो गया। महायल राजा ने बलभद्र से पूछा-पूछकर फिर वे पुरुष सहस्र वाहिनी शिविका पर आरूढ हो गये-और महाऋद्धि एव मरापति के साथ २ चलते हुए वेस्थविरों के पास उद्यान में आये। उन्हों ने सयम ले लिया। आचारांग आदि ११ अगों का अध्ययन क्यिा और चतुर्थभक्त आदि विविध प्रकार की तपस्याओ से अपने आत्मा को भाविन किया |सू०३॥ ને બેલાવ્યા અને બેલાવીને બલભદ્ર કુમાર રાજ્યાભિષેક કરાવડા
આ રીતે બલભદ્ર કુમાર રાજ્યાસને બિરાજીત થઈ ગયા રાજા મહાબલે પ્રતા વિષે બલભદ્રને પૂછ્યું અને પૂછીને પુરુષ સહસ્ત્રાહિની પાલખી ઉપર બેસીને મહાદ્ધિ અને મહાવૃતિની સાથે શોભતા તેઓ ઉવાનમાં એ વિરની પાસે આવ્યા અને તેઓએ સયમ સ્વીકાર્યો તેમણે આચારગ વગેરે અગિયાર અગેનું અધ્યયન કર્યું અને ચતુર્થભન વગેરે અનેક પ્રકારની તપસ્યા એવા પિતાના આત્માને ભાવિત કર્યો છે. સૂત્ર “3”.
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे टीका - तेर्सि' इत्यादि । ततस्तदनन्तर तेषां महाप्रमुखाणां सप्ताना मनगाराणाम् अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिथित् काले एकतः सहितानाम् एकत्रोपविष्टानाम् अयमेतद्र = वक्ष्यमाणस्वरूपः 'मिदो' मिधः = परस्पर 'कथा समुल्लावे' कथासमुल्लापो वार्तालाप: 'रामुपज्जित्था समुदपद्यत - अभवत् हे देवानुमिया: 1 अस्माकमध्ये 'एंगे' एका=कोऽप्येकः यत् खलु तपः कर्म ' उवसपज्जिता ' उपसंपद्य अङ्गीकृत्य खलु विहरति-विहरिष्यति, अस्माभिः सर्वैः तत् खलु तपः कर्म उपसपथ ग्वल नि=निहर्तव्यम् इति कृत्वा ' अश्रममस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य एतमर्थं ' पडिसुर्णेति प्रतिशृण्वन्ति = प्रतिजानन्ति प्रतिब्रां
'
}
,
"
तएण तेर्सि महत्यलपामोक्खाणं ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (aer ) इस के बाद ( तेसि महव्यलपामोखाण सत्तण्ह अणगारण अन्नया कयाइ) उन महाचल प्रमुख मात अनगारोंको किसी एक समय (एमओ सहियाण इमेयारूवे मिहो कहा समुल्लावे समुप्प जित्था ) जब कि ये एक जगह बैठे हुए थे इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न हुआ - परस्पर में उनकी ऐसी बात चीत चली-( जण्ह अम्ह देवाप्पिया। एगे तथोकम्म उवसपज्जित्ताण विहरह) हे देवानुमियों । हम लोगों में से जो भी कोई तप कर्म को अगीकार कर अपने आप को भावित करेगा- हम सब भी वही तप कर्म आचरित करेंगे । (तण्णं अम्हेहिं सव्वेहिं तवोकम्म उवसपज्जित्ताण विहरित्तएत्ति कट्टु अण्ण
"
तरण तेसि महञ्चलपामोक्खाण
इत्याहि
टीअर्थ - (तरण ) त्यारमाह ( तेर्सि महान्यलपामोक्खाण सप्तण्ड अणगाराण - अनया कयाद ) अर्ध वणते महानस प्रभु ते साते मनशारीने ( एगयओ सहियाण इमेयारूवे मिहो कहारामुल्लावे समुप्पज्जित्था ) -न्यारे तेथेो मे स्थाने એકઠા થઈને બેઠા હતા ત્યારે આ પ્રમાણે વિચાર સ્ફુર્રી-એટલે કે તેએ આ शेते भारस परम पातथीत ४२वा साज्या - ( जाण्ह अम्ह देवाणुपिया ! एगे तवो कम्म उवा पज्जिसाण विहरइ ) डे हेवानुप्रियो ! आपद्याभाथी गभेते વ્યક્તિ જે જાતનુ તપ કમ સ્વીકારીને પોતાના આત્માને ભાવિત કરશે આપણે બધા પશુ તેજ તપ આચરીશું
( तण्ण अम्हेहिं सव्वेहिं तवोकम्म उवसपज्जित्ता पण विहरितपसि कट्टु अष्णमणस्स एयम पडिसृणेति )
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__ अनगारधर्मामृतर्पिणी टीका अ० ८ महायलादिपट्टाजस्वरूपनिरूपणम् २५६ कुर्वन्ति । प्रतिश्रुत्य बहुभिश्चतुर्थ- यावद् चतुर्थभक्तादिभिरात्मान भावयन्तो बिहरन्ति । ततस्तदनन्तर स महापलोऽनगारो' इमेण ' अनेन वक्ष्यमाणेन 'कारणेण' कारणेन मतिज्ञा कृत्वा तदन्यथा करणरूपेण भापित्वातदन्यथा करण हि माया साच स्त्रीत्वस्य कारणम् , इय मायाऽभिमानात् प्रादुर्भवति, अभिमान चात्र-'अह मेतेषां नायकोऽस्मि, एते मदधीना अनुनायकाः सन्तीति. यदि ममोत्कृष्टता न स्यात्तर्हि नायकानुनायकाना को विशेष स्यादित्येव भावनया अभिमानो माया मण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणेति ) इस प्रकार विचार कर उन्हों ने परस्पर में इस विचार को स्वीकार कर लिया।
(पडिसुणित्तो यहहिं चउत्थ जाव विहरति ) स्वीकार कर फिर उन सबने साथ ही साथ चतुर्थ भक्त आदि की तपश्चर्या करना प्रारभ कर दी-(तएण से महरले अणगारे इमेण कारणेणं इत्यिणामगोय कम्म निव्वत्र्तिसु) महायल अनगार ने इस वक्ष्यमाण कारण से स्त्री नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किया अर्थात् महावल ने प्रतिज्ञा करके भी प्रतिज्ञानुसार तपश्चरण नहीं किया किन्तु-कुटिलभाव रखकर अन्यथारूप से तपश्चरण किया-कहा कुछ और किया कुछ-इसी का नाम माया है। यह माया स्त्रीत्व प्राप्ति का कारण होती है। माया अभिमान से उद्भूत होती है-महायल के हृदय मे अभिमान इस कारण से आया था कि मैं इन सब का नायक है-ये मेरे आधीन हैं-अनुनायक हैं-यदि मेरे में - इनकी अपेक्षा उत्कृष्टता नही हो तो फिर नायक और अनुनायकों मे
આ પ્રમાણે વિચાર કરીને બધાએ મળીને એ વાતને સ્વીકારી લીધી
(पडिसुणित्ता बहूहिं चउत्थ जाव विहर ति) २वीउ२ ४शने तमामे सही સાથે ચતુર્થભક્ત વગેરે તપશ્ચર્યા શરુ કરી (तएण से महबले अगगारे इमेण कारणेण इत्थिनामगोय कम्म नियतिम्)
મહાબલ અનગારે જેના કારણ વિષેની ચર્ચા આગળ થશે–તેવા “ી નામ ગોત્ર કર્મનુ” ઉપાર્જન કર્યું એટલે કે મહાબલે પ્રતિજ્ઞા કરીને પણ તે મુજબ તપનું આચરણ કર્યું નહિ કુટિલ ભાવથી તેઓએ બીજી રીતે તપનું આચરણ કર્યુ “કહેવુ કઈ અને કરવું કઈ” તેનું નામ માયા છે એ માયા જ સ્ત્રીત્વ પ્રાપ્તિ ! કારણ બને છે અભિમાનથી માયા ઉત્પન્ન થાય છે મહાબલ ના મનમાં આરીતે અભિમાન ઉત્પન્ન થયું કે હું બધાને નાયક છુ આ બધા મારે આધીન છે-અનુનાયક છે જે મારામાં તેઓની અપેક્ષા ઉત્કૃષ્ટતા નહિ હોય તે નાયક અને અનુનાયકેમાં તફાવત છે હ્યો? આ જાતની ભાવના :
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કર
ताधकथा मुत्सादयति । ' इत्थिणामगोय' स्त्रीनामगोत्र यस्य कर्मण उदयात् सीमावः स्त्रीत्व माप्यते तत् सीनाम कर्म तथा-गोयं जाति कुल निर्वर्तक कर्म अनयो समा हारः स्त्रीनामगोत्र कर्म 'नियनिसु' निर्वतितवान् उपार्जितवान् ॥ ०४ ॥
मूलम्-जइण ते महव्लवना छ अणगारा चउत्थं उक्सपज्जित्ताण विहरति, तओ से महव्वले अणगारे छह उवसंप. ज्जित्ताण विहरइ । जइणं ते महबलवज्जा अणगारा मुटुं उपसंपज्जित्ताण विहरंति, तओ से महब्बलअणगारे अट्टम उपसपज्जित्ताण विहरइ । एव अहमं तो दसम, अह दसम तो दुवालसं इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहि आसेविय वहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्र्तिसु, त जहा
(१) अरहत (२) सिद्ध (३) पवयण (2) गुरु (५) थेर (६) बहुस्सुए (७)तवस्सीसु । वच्छल्लयाइ (८) तेसि अभिक्खणं णाणोवओगे य ॥१॥ (९) दसण (१०) विणए (११) आवस्सए य (१२) सीलब्बए निरइयार । (१३) खणलव (१४) तव (१५) चियाए (१६) वेयावच्चे (१७) समाहीय ॥२॥ (१८) अप्पुन्वणाणगहणे (१९) सुयभत्ती (२०) पवयणे पभावणया। एएहि कारणेहि तित्थयरत्त लहइ जीओ ॥सू०५॥ क्या भेद होगा-इस प्रकार की भावना ने उस के हृदय में अभिमान उत्पन्न किया और इस अभिमान ने माया को जन्म दिया। जिस कर्म के उदय से जीव स्त्रीत्वपद प्राप्त करता है वह स्त्री नाम कर्म है तथा जातिकुल निर्वर्तक जो कर्म होता है वह गोत्र है । इस प्रकार के कर्म को माया के सद्भाव से अनगार ने उपार्जित किया। सूत्र "४" એજ મહાબલના મનમાં અભિમાન ને જન્મ આપે હતો અને એ અભિ માને જ માયાને પણ ઉત્પન્ન કરી હતી જે કમના ઉદયથી જીવ સ્ત્રીત્વપદ મેળવે છે તે સ્ત્રીનામ કમ છે તેમજ જે કર્મ જાતિકુલ નિર્વતક હોય છે તે ગેત્ર છે માયા ના સદૂભાવથી આ પ્રમાણે તે અનગારે આ જાતના કર્મનું GIनन ४ ॥ सूत्र “४"
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मनगारधर्मामृतमर्पिणी टीका अ० ८ महायलादिषट्राजस्वरूपनिरूपणम् २५३ ___टीका- 'जाण ते इत्यादि । यदि खलु ते महावलपर्ना पडनगाराः 'चउत्थ चतुर्थ चतुर्थभक्तम् एकोपवासमित्यर्थ , उवसपज्जित्ता' उपसपद्य-स्वीकृत्य सलु विहरति, ततः स महारलोऽनगारः 'उह' पप्ठ-पष्ठभक्तमुपवामद्वयमुपपद्य खलु विहरति । अय भाव -यदा ते पडनगारा एकोपवास कुर्वन्ति, तदा महान लोऽप्येकोपवास करोति, परतु-पारणदिने एव स्थयति अद्य मे शिरोवाधा ते नाह पारण करिष्यामि, भवद्भिरेवपारण कर्तव्यमित्युक्त्वा मायया पप्ठ भक्त करोतीति ।
यदि ग्वलु ते महाबलवर्जा पप्ठ-पप्ठभक्तमुपसपय स्वीकृत्य खलु विदरति, ततः स महावलोऽनगारोऽष्टम अष्टमभक्तमुपसपय खलु 'पिहरइ ' विहरति. ।
'जहण ते मयलवज्जा छ अणगारा' इत्यादि । टीकार्य-(जइण) यदि वे ( मयलवज्जा) महायल अनगार को छोड़कर ( छ अणगारा ) छह अनगार ( चउत्थउवसपज्जित्ताण विहरति) चतुर्थ भक्त की तपस्या करते-तओसे) तो वह (महारल अणगारे) महाबल अनगार (छट्टउवसपज्जित्ताण विदरह ) दो उपवास करता-तात्पर्य इसका यह है कि जिस समय वे छह अनगार एक उपवास करते उस समय महाबल अनगार भी एक ही उपवास करता -परतु जप पारणा का दिन माता तो कहने लगता कि आज मेरे शिरमे दर्द हो रहा है मैं पारणा नहीं करूंगा-आप लोग ही पारणा करलो।
इस प्रकार माया को चित्त में रखकर वह दूसरा उपवास करलेता। (जहण ते महलवज्जा अणगारा छह उपसपज्जित्ताण विहरति ताओ से महरले अणगारे अट्ठम उवसपज्जित्ताण विहरइ ) इसी तरह वे
' जइण ते महमरवज्जा छ अणगारा' त्यादि
टोडाथ-(जदण) ने तशा (महान्चलवज्जा) भाम सिवायना ( अण गारा) ७ सनगा। (च उत्थ यसपज्जित्ताण विहर ति) यतु मातनी तपस्या ४२ता (तोसे) त्यारे ते (महायल भणगारे) महामना मनगार (छ? उबसपजिज त्ताण विहरइ) मे 64वाम ४२ता भेटले न्यारे ७ अनार के पास કરતા ત્યારે મહાબલ અનગાર પણ એકજ ઉપવાસ કરતા પણ જયારે પારણાને દિવસ આવતે ત્યારે તેઓ કહેતા કે આજે મારું માથું દુખવા માડયુ છે, હ પારણું કરીશ નહિ તમે લો પારણું કરો ( આરીતે માયાવરા થઈને મહાબલ અનગાર બીજે ઉપવાસ કરતા હતા
(जहण ते महन्बलगन्ना अणगारा उट्ठ उपसज्जिताण निहरति, तओ से महमलेअगगारे अट्ठम उवसपज्जित्ताण विहरइ )
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মাঘীক্ষাঙ্গ एव यदि ते पडनगारा अप्टमम् अप्टमभक्तम् उपसपद्य विहरति 'तो' तर्हि स महारलोऽनगारः दशम-दशमभक्तमुपसपद्य विहरति । अथ यदि ते पउनगारा दशम = दशमभक्तमुसपध विहरति 'तो' तदा स महारलोऽनगार 'दुवालस' द्वादश द्वादश भक्तम् उपसंपद्या विहरति, एपमधिकाधिस्तप करणादहमुत्कृष्टो भविष्या मीति मायाफरणेन स्त्रीनामगोग कर्मोपार्जितवान् तदानीं मिथ्यात्व सास्वादन च गुणस्थानमनुभवतिस्म, स्त्रीनामकर्मणो मिथ्यात्यानन्तानुगन्धि मायाहेतुकत्यादिति महायल अनगार वर्ज छह की तपश्चर्या-दो उपवास-करते तो यह महा पल भनगार अहम की तपश्चर्या-तीन उपवास करता। __ (एव अट्ठमतो दसम, अर दसमतो दुवालस हमेहि य ण वीसाए हिं य कारणेहिं य आसेविय पटुलीकहिं तित्थयरनामगोय कम्म निव्वतिसु) यदि वे छह अनगार अष्टमभक्त की तपश्चर्या करते तो यह महारल अनगार दशमभक्त की तपश्चर्या करता यदि वे दशम भक्त की तपश्चर्या करते, तो यह दादराभक्त की तपस्या करता । इस तरह अधिकाधिक तप करने से में उत्कृष्ट उत्तम-हो जाऊँगा " इस प्रकार माया पूर्वक तपस्या करने से उसने स्त्री नाम गोत्र-जिस कर्म के उदय से स्त्रीत्व की प्राप्ति शेती है ऐसा नी नाम कर्म तथा जाति कुल निर्वर्तक गोत्र कर्म का वधकर लिया। इस समय में मिध्यात्व
और सास्वादन इन दो गुणस्थानों का जीव अनुभव करता है। क्यों कि मिथ्यात्व और अनतानुवधी माया हेतुकता स्त्री नामकर्म में रहती ( આ પ્રમાણે જ્યારે તેઓ બધા છએ અનગારે છઠ્ઠના તપશ્ચર્યા–બે ઉપવાસન્કરતા ત્યારે મહાબલ અનગાર અટ્ટમની તપશ્ચર્યા–ત્રણ ઉપવાસ કરતા હતા
(एन अट्ठमतो दसम, अह दसमतो दुवालस इमेहिं य ण वीसाएहिय कार हिंय आसेविय बहुलीकएहि तित्थयरनामगोय कम्म निव्वतिसु)
તે બધા છે અનગારે જ્યારે અષ્ટમ ભક્તની તપશ્ચર્યા કરતા ત્યારે મહા બલ અનગાર દશમ ભક્તની તપશ્ચર્યા કરતા આ પ્રમાણે જ્યારે તેઓ છ અનગાર દશમભક્તની તપશ્ચર્યા કરતા ત્યારે મહાબન અનગાર દ્વાદશ ભક્તની તપસ્યા કરતા હતા આ રીતે વધારે તપ કરવાથી હું આ બધા કરતા ઉત્તમ થઈ જઈશ તેમ તેઓ માનતા પણ આમ માયાવશ તપ કરવાથી તેણે સ્ત્રીનામ ગોત્ર-એટલે કે જે કર્મના ઉદયથી સ્ત્રીત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે એવું નામ કમ તેમજ જાતિકુલ નિર્વસ્તક ગોત્ર કમને બધ કર્યો આ વખતે મિથ્યાત્વ અને સાસ્વાદન આ બે ગુણ સ્થાનેને જીવ અનુભવે છે કેમકે મિથ્યાત્વ અને અન તાનધી ગાથા
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ८ महारैलादिपद राजस्वरूपनिरूपणम २५५
भात्रः । ततः खलु स महावलोडनगार: ' इमेहिं ' एभिव शास्त्रमसिद्धैः ग्बल वीसा एहि य' विंशत्याच कारणे' विंशतिस्थानकैः ' जासेत्रिय बहुलीकएहिं ' आसेfaagतैः प्रत्येक स्थानस्य सकृत् करणादासेवितानि बहुशः सेवनाद् हु ली कृतानि तैः कृप्टरसायनपरिणामैरित्यर्थः । तीर्थंकर नामगोत्र कर्म नि व्वर्त्तिसु ' निर्वर्तितवान् उपार्जितवानित्यर्थः । त जहा तद्या-विशतिस्थानकाना नामानि गाथात्रयेण दर्शयति (१-७) अर्हत् - सिद्ध- प्रवचन- गुरु- स्थविर - 'बहुश्रुततपस्विषु वत्सलता भक्ति:- यथाऽवस्थिते गुणग्रामोत्कीर्तनरूपा ( ८ ) ' तेसि तेपाम् अईदादीनां 'अभिकखण' अभीक्ष्ण= पुन पुनः ज्ञानोपयोगः ज्ञानेपूपयोगः ज्ञानोपयोगः इत्यष्ट स्थानकानि, (९) दर्शन = सम्यक्त्व, (१०) विनयो गुरुदेवादिविषयक, (११) आवश्यकम् - उभयकालमा नश्यक करणम् (१२) शील व्रतच निरतिचार व्रतमत्याख्यान निर्मल पालनम्, (१३) क्षणलवेति- कालोप
है । इस के बाद उस महावल अनगार ने शास प्रसिद्ध इन विंशति स्थानकों के द्वारा कि जो आसेवित बहुलिकृत थे तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बध किया। प्रत्येक स्थान का एक वार सेवन करना इसका नाम आसेवित और बहुत बार सेवन करना इसका नाम बहुली कृत है | ( तजहा ) वे वीस स्थान ये हैं अरिहत (१), सिद्ध (२), प्रवचन (३) गुरु (४), स्थाविर (५), बहुश्रुत (६), तपस्वी इनमें वात्सल्यभाव-भक्ति -रखना-अर्थात् इनके यथावस्थित गुणों का उत्कीर्तन करना (७), इन के ज्ञान में निरतर उपयोग रखना (८), दर्शन का विशुद्धि करना (९) गुरुदेव आदि के विषय में विनय सपन्नता होना (१०), दोनों काल में आवश्यक क्रियाओं को करना (११), शील और व्रतों में अतिचार रहित
હેતુકતા સ્રીનામ કર્મોંમા રહે છે. ત્યાર બાદ મહાખલ અનગારે શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ વિંશતિ ( વીસ ) સ્થાનકા વડે-કે જે આસેવિત ખઠ્ઠલીકૃત હતા –તીર્થંકર નામ ગાત્ર કમના ખ ધ કર્યાં દરેક સ્થાનનુ એક વાર સેવન કરવું તે આસેવિત मी वार सेवन उखु ते मसीहृत ) ( त जहा ) वीय स्थानो नीचे भुण छे-मरिहत, (१) सिद्ध, (२) प्रवथन, (3) गुरु, (४) भ्यत्रिर, (च)जडु શ્રુત, (૬) તપસ્વીમા વાત્સત્યભાવ-ભક્તિ-રાખવી એટલે કે તેમના યયાવસ્થિત ગુણેનુ કીર્તન કરવુ (૭) તેમના જ્ઞાનમા નિરતર ઉપયેગ કરતા રહેવુ (૮) દર્શનની વિશુદ્ધિ કરવી (૯) ગુરુ દેવ વગેરેની સામે વિનય રાખવા (૧૦) અને સમયે (સવાર માજ ) આવશ્યક ક્રિયાએ ફરવર્તી, (૧૧) શીલ અને
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ज्ञाताधर्मकथा
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लक्षणं, क्षणलनादिकालेषु ममाद निहाय शुभध्यानकरणम् (१४) तपः- द्वादश विधम् (१५) त्या=दानम् तथ अभयदान सुपात्रदान च तनोभयदानं भवा त्पादन परैर्भय प्राप्तस्य सार्यमाणस्य कवचिन्त्रीयमाणस्य च परिरक्षणम्, अम यदानमिह करुणादानोपलक्षणम् । सुपात्रेभ्यो दान महत्तधारिभ्यः प्रतिमाधारि श्रावकेभ्यश्च दानम् सुपादानम् । इदमुपलक्षण तेन चतुर्विधसंघ सुखोत्पादनमि त्यर्थः । (१६) वैयावृत्य = आचार्यादीना शुभ्रपा (१७) समाधि - सर्वजीवाना सुखो त्योदनम्, (१८) अपूर्वज्ञानग्रहण - प्रसिद्धम्, (१९) श्रुतभक्तिः = जिनो कागमेषु
होकर प्रवृत्ति करते रहना व्रत, प्रत्याख्यान को निर्मल रूपसे पालन करना (१२), क्षण, लव आदि कालों में प्रमाद का परिहार (निवारण) करते हुए शुभ ध्यान करना, (१३), तप- १२ प्रकार के तपों का आराधन करना (१४), त्याग - अभय दान और सुपात्र दान देना किसी को भय उत्पादन नही करना यह अभयदान है तथा दूसरों द्वारा भय को प्राप्त हुए अथवा मार्यमाण या किसी भी तरह मरणोन्मुख हुए ऐसे व्यक्ति की अपनी शक्ति के अनुसार रक्षा करना, उन पर करुणा वरसाना, उनके प्रति दया भाव रखना यह सब अभय दान है।
यह अभयदान करुणादान का उपलक्षक है। महाव्रतधारी सकल सयमीजनों को अथवा प्रतिमाधारी श्रावकों को आहारादि दान करना यह सुपात्र दान है । चतुर्विध सघ के लिये सुख का उत्पादन करना इसका यह उपलक्षत्र है (१५), वैयावृत्य - आचार्य आदि की शुश्रूषा करना (१६) समाधि - समस्त जीवों को सुख मिले इस प्रकार का प्रय
નંતેમા અતિચાર વગર થઇને પ્રવૃત્તિ કરતા રહેવુ વ્રત, પ્રત્યાખ્યાન नु નિમળ રૂપથી પાલન કરવુ (૧૨) ક્ષણુ, લવ વગેરે કાળામા પ્રમાદ રર્ષિત થઈને शुभ हैरान धरतु ( 13 ) तप, -खार अारना तयोनु आशधन ४२, (१४)त्याग, અભય દાન અને સુપાત્ર દાન આપવુ, કોઈને પણ ભયની સ્થિતિમાં મૂકવા નહિં તે અભયદાન છે તેમજ ખીજાએ દ્વારા ભયની સ્થિતિમાં મૂકાયેલા અથવા તે કોઈપણ રીતે મરશે!ન્મુખ થતા વ્યક્તિની પાતાની શક્તિ મુજબ રક્ષા કરવી, તેમની ઉપર કરુણા રાખવી, દયાભાવ અનાવવે આબધુ અભરદાન કહેવાય છે
આ અભયદાન કરુણાદાનના ઉપલક્ષક છે મહાવ્રતધારી બધા સર્ચમી જનાને અથવાતા પ્રતિમાધારી શ્રાવકને આહાર વગેરે દાન કરવુ તે સુપાત્ર દાન છે. ચતુર્વિધ સઘના માટે સુખનુ સર્જન કરવુ આ તેના ઉપક્ષક છે (१५) वैयावृत्य-साथार्य वगैरेनी सेवा १२वी, (१६) सभाधि-णघा
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिपट्ाजस्वरूपनिरूपणम् २५७
परमानुरागः, (२०) प्रवचने प्रभावना = प्रभूतभव्येभ्यः प्रवज्यादान, भवकूपपतत्माणि नाणसमाश्वासनपरायण जिनशासनमहिमोपवृहण समस्तस्य जगतो जिनशासन रसिक करण मिथ्यात्वतिभिरापहरणं, चरणकरणशरणीकरण च । गो
एतानी - तीर्थकसमाप्तिः विंशतिस्थानकानि सर्वनीवसाधारणानि सन्तीति दर्शयितुमाह - ' एएहिं तित्थयरत्त लहइ जीवो' इति । एतैः कारणैस्तीर्थकरन लभते जीवः ।
न करना, (१७), अपूर्व ज्ञान का पढना, (१८), श्रुतभक्ति - जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित आगमो में परम अनुराग रखना, (१९), प्रवचन प्रभावना अनेक भव्य जीवों को प्रव्रज्या देना, ससारकूप में पडते हुए प्राणीयों की रक्षा करने के आश्वासन में परायण ऐसे जिनशासन की महिमा बढाना, समस्त जगत के जीवों को जिन शासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्वरूप तिमिर का ध्वस करना, और चरण सत्तरी एवं करण सत्तरी की शरण में रहना यह सब प्रवचन प्रभावन है ( २० ) |
ये २० स्थान समस्त जीवों को तीर्थ कर पदकी प्राप्ति में कारण है । (एएहि कारणेहिं तित्थयरत लहइ जीओ) इन्हीं वीस स्थानक के सेवन से जीव तीर्थकर पद को प्राप्त करता है । अन्यन्त्र भी यही बात कही है - जिनागम में अनेक तप प्रसिद्ध हैं परन्तु इन श्री बीसस्थानरूप तपस्या के समान और कोई तप नही है । इन बीस स्थानों में से कोई एक स्थान की आराधना करके जीव अरिहतो के बीच में उत्तम जिनेन्द्र के पद को पाता है।
સુખ મળે તેમ કવ્-(૧૭) અપૂર્વજ્ઞાનનુ વાચન કવુ (૧૮ શ્રુતભક્તિ-જિને ન્દ્રપ્રતિપાદિત આગમા-મા ખૂબજ અનુરાગ રાખવા, ૧૯ પ્રવચન પ્રભાવના “અનેક ભવ્યજીવાને પ્રવ્રજ્યા આપવી સસાર રૂપી વાવમા પડનાર પ્રાણીએની રક્ષા કરવા રૂપ આશ્વાસન મા પરાયણ એવા જિન શાસનના મહિમા પ્રશમ્ત કરવા જગતના બધા જીવેાને જિનશાસનના રસિક બનાવવા મિથ્યાત્વ રૂપ અધકારના નાશ કરવા, અને ચરણુસત્તરી અને કરણમત્તરીની શરણમા રહેવુ આ પ્રવચન પ્રભાવના છે ૨૦
આ વીસ સ્થાને બધા જીવાને માટે તી કરપદની પ્રાપ્તિમા કારણુ लूत होय छे " एएहि कारणेहि तित्थयरत्त लहइ जीओ " मारला द्वारा જીવ તીર્થંકર પદ મેળવે છે. બીજી ઘણી જગ્યાએ પણ એજ વાત કહેવામા આવી છે. જિનાગમામા અનેક તપ પ્રસિદ્ધ છે, પણ આ શ્રી વીસ સ્થાન રૂપ તપસ્યા જેવી ત્રીજી કાઈપણુ તપખ્યા નથી ા વીસ સ્થાનામાથી ગમે તે એક સ્થાનની આરાધના કરીને જીવ અરિહતેાની મધ્યે ઉત્તમ જિનેન્દ્રના પદને મેળવે છે
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पाताधर्मकथा यदुक्तम्भूयास्यपि तपांसिस्युः, प्रसिद्धानि जिनागमे । परश्रीविशतिस्थान - तपस्तुल्य तपो नदि ॥१॥ अन्यञ्च-पीसाए अन्नयर, ठाग आराहिऊण जे जीवा । अरिहाईण मज्झे, जिणिदपदमुत्तम लहइ ॥ २॥ पुनः-पुरिमेण पन्छिमेणय, एए सन्चे वि फासिया ठाणा । मज्झिमगेहि जिणेहि, एग दो तिणि सचे वा. ॥ ३॥
इतिवचनादादिनाथजीवेन वर्धमानजीवेन च पूर्वस्मिन् तृतीयभवे सर्वाणि विंशतिस्थानकानि सेवितानि, अन्याविंशतितीर्थकरजीरेक द्वे त्रीणि सर्वाण्यपि स्पृष्टानि, नियमो नास्ति । मल्लीनाथ जीवेन तु सर्मण्येव सेवितानीति भाव,।
एतेषु विंशति सख्याकेषु ये वसन्ति तदाराधनाया प्रत्ता भवन्ति, ते स्थानरुवासिनः कथ्यन्ते । उक्त च
" तित्थगर पयदाइम, वसइ य वीसासु ठाणगेसुज।
आराहणहमणिस, ठाणगवासी य सो हवए ॥ १ ॥" छाया-" तीर्थङ्कर पददायिपु वसति च विंशती स्थानकेषु यत् ।
आराधनार्थमनिश, स्थानकवासो च स भवति ॥१॥" इति । ____ आदि नाथ प्रभु के जीव ने और श्री महावीर प्रभुके जीवने पूर्व तृतीय भव में समस्त बीस स्थानो की आराधना की थी। बीच के याकी २२ तीर्थकरो ने किन्हीने एक फिन्हीने २ किन्हीने ३ स्थानों की और किन्हीं २ ने सबही स्थानों की आराधना की। ऐसा नियम नहीं हैं कि तीर्थकर प्रकृति के बध के लिये इन बीसोही स्थानो की आरा धना करनी पडती हो। मल्लिनाथ के जीव ने तो इन बीसोही स्थानो की आराधना की। बीस स्थानो में जो रहते है उनकी आराधना करने में प्रवृत्त होते हैं-वे स्थानकवासी कहलाते है । उक्तच-तर्थकर
પૂર્વવૃતીય ભવમાં આદિનાથ પ્રભુના જીવે અને શ્રી મહાવીર પ્રભુના જીવે વીસ સ્થાનની આરાધના કરી હતી વચ્ચેના શેષ બાવીસ તીર્થંકરો માથી કેઈએ એક કેઈએ છે, કેઈએ, ત્રણ સ્થાનની અને કઈ કેઈએ બધા સ્થાનની આરાધના કરી હતી એ કઈ ચોક્કસ નિયમ નથી કે તીર્થ કર પ્રકૃતિના બધને માટે ઉક્ત વીસે વીસસ્થાનેની આરાધના કરવી જ પડતી હાય મલ્લિનાથના જીતે આ બધાની વીસે વીસ સ્થાની આરાધના કરી હતી આ વીસ સ્થાનમાં જે રહે છે તેમની આરાધના કરવામાં જે તત્પર રહે છે તેઓ “સ્થાનકવાસી' કહેવાય છે ઉક્ત ચ-તીર્થ કર પ્રકૃતિને આપનારા - વીસ
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aanandit टीका अ० ८ महाबलादिपट्ाजस्वरूपनिरूपणम् २५९ अन्यच्च - " तीर्थकर पदमाप्तेः, स्थानकेषु च विंशतौ । वसन्त्याराधनार्थं यत्तस्मात् स्थानकनासिनः ॥ १ ॥ " इति ।
"
मूलम् - तएण ते महव्वलपा मोक्खा सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताण विहरति, जाव एगराइयं उवसपजित्ताण विहरति, तएण ते महाव्वलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलिय तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तं जहा - चउत्थं करेति, करिता सव्वकामगुणिय पारेति, पारिता छह करेति । करिता चउत्थ करेति करिता अट्टम करेंति, करिता छट्ट करेति, करिता दशम करेति करिता अट्टमं करेंति, करित्ता दुवालसम करेति, करिता दसम करेति, करिता चाउ - इसम करेंति, करित्ता दुवालसम करेति, करिता सोलसमं करेति, करिता चोदसम करेति, करिता अट्ठासमे करेति, करिता सोलर्सम करेति करिता वीसईम करेति, करिता अट्ठारसमं करेंति, करिता वीसइँम करेति करिता सोलसम करेति करिता अट्ठा रसमं करेंति करिता चोदसम करेंति, करिता सोलसंम करेंति, करिता दुबलसन करेति करिता चाउदसँम करेंति, करिता दसैँम करेति करिता वालसम करेंति, करिता अहम करेंति, करिता देसमं करेति, करिता छेंड करेंति, करिता अट्ठम करेति, प्रकृति के दाता इन २० स्थानों में जो आराधना करने के निमित्त सदा बसते है नियाम करते हैं वे ही स्थानकवासी कहलाते हैं। दूसरे इलोक का भी यही भाव है। सूत्र
"
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સ્થાનેમા આરાધના કરવાના પ્રયાજનથી જેએ હંમેશા નિવાસ કરે છે વસે છે,તેએજ સ્થાનત્રાસી કહેવાય છે. બીજા Ôાક ના પણ એજ અર્થ છે સૂત્ર ‘,પ’॥
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घाताधमकथासूत्र
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२५० करिता उत्थ करेंति करित्ता छह करेंति, करित्ता चंउत्थं करेंति, सम्वत्थ सव्वकामगुणिएणं पारेंति एव खल्ल एसा खुड्डागसीह निकालियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहि माहि सत्तहि य अहोरत्तेहि य अहासुतं जाव आराहिया भवइ,
तयाणतर दोच्चपि परिवाडीए चउत्यं करेंति, नवरं विगइवज पारेति, एव तच्चापि परिवाडी नवर पारणए अलेवाड पारेति, एव चउत्था वि परिवाडी नवर पारणए आयविलेण पारेति ॥ सू० ६ ॥
टीका-' तएण ते ' इत्यादि । तवस्तदनन्तर खल्ल ते महापलममुखा सप्तानगाराः 'मासिय' (१) मासिकीम् एकमामपरिमाणां प्रथमा भिक्षुप्रतिमाम् 'उपसजित्ताण' उपसपद्य स्वीकृत्य, विहरन्तिस्म । एवम् अमुना प्रकारेण ' जाव एगराइय' यावत् एकरात्रिकीम् अत्र यावत् करणात् 'दो मासिय तेमासिय चउम्मासिय पचमासिय छम्मामिय सत्तमासिय पढमसत्तराइदिय वीयसत्तरादिय
'तरण ते महायल पामोक्खा । इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (ते महाबलपामोक्खा ) उन महायरल प्रमुख सातों अनगारों ने (मासिय भिम्खुपडिम उवसपज्जित्ताण विहरति ) १ मास की प्रमाण चाली १ प्रथम भिक्षु प्रतिमा धारण की (जाव एगराहय उवसपज्जित्ताण विहरति) इसी तरह दो मास प्रमाण घाली द्वितीय भिक्षु प्रतिमा, तीन मास प्रमाण वाली तृतीय भिक्षु प्रतिमा, ४ चार मास प्रमाण वाली चतुर्थ भिक्षु प्रतिमा, पाच मास
'तएण ते महामल पामोक्खा ' | Vत्यादि
थ--(तएण) त्या२ मा ( महाबलपामोक्खा) भडास प्रभु सात मनारास ( मासिय भिक्खुपडिम उसपज्जित्ताण विहर ति ) मे भासनी प्रभावाजी १ प्रथम भिक्षु प्रतिमा यार उरी (जाव एगराइय उवसपज्जि त्ताण विहर ति ) मा प्रमाणे मे भास प्रमाणपाणी दातीय भिक्षुप्रतिभा, ત્રણમાસ પ્રમાણ વાળી તૃતીય ભિક્ષુપ્રતિમા, ચાર ચાર માસ પ્રમાણ વાળી ચતુ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिपराजच रितनिरूपणम्
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तच्चस तराइदिय अहोराइदिय ' इति पाठस्य सग्रहः । तन २ द्वैमासिक, ३ की, ४, चातुर्मासिक ५, पचमासिकी, ६, पाण्मासिकी, ७ सप्तमासिकी, सम ८ प्रथम सप्तरात्रंदिवा, ९ द्वितीय सप्तरात्रंदिवा, १० तृतीय सप्तरात्रंदिव, इमा दश प्रतिमा उपसपद्य, एकादशीम् - ११ अहोरात्रिकी, १२ द्वादशीम् - एक रात्रिकीम् इत्येव द्वादशप्रतिमा उपसंपद्य विहरन्ति स्म । आसा वर्णन दशाश्रुतसप्तमाध्ने निहर्पिणी टीकायां द्रष्टव्यम् ।
ततस्तदन्तर खलु ते महानलममुसा सप्तानगारा ' खुड्डारा ' क्षुल्लक ' सीह निक्कीलिय' सिंहनिष्क्रीडित - सिंहनिष्कीडितनामक सिंहो यथा विहरन स्व पथा
प्रमाग वाली पाचवी भिक्षुप्रतिमा, उमास प्रमाण वाली छठी भिक्षुप्रतिमा, ७ मास प्रमाण वाली सप्तमी भिक्षुप्रतिमा, प्रथम सात रात दिन प्रमाण वाली ८ भी भिक्षुप्रतिमा, द्वितीय सात दिन रात प्रमाण वोली १० वी भिक्षुप्रतिमा तथा १ दिन रात प्रमाण वाली ११ वी भिक्षुप्रतिमा और एक रात प्रमाण वाली १२वी भिक्षुप्रतिमा उन सब अनगारीने धारण की । समस्त प्रतिमाओं का वर्णन दशाश्रुतस्कध में सप्तम अभ्ययन में मुनि हर्षिणी नोम की टीका में किया गया है। वहां से देख लेना ।
(तएण ते महालपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डाग सीहनिक्की लिय तवोकम्म उवसपज्जिन्ताण विहरति ) इसके बाद उन महाबलप्रमुख सातो ही अनगारो ने लघु सिंह निष्क्रीडित नाम का तप किया। जिस થૅભિક્ષુપ્રતિમા પાચ માસ પ્રમાણવાળી પાચમી ભિક્ષુપ્રતિમા, છ માસ પ્રમાણુ વાળી છઠ્ઠી ભિક્ષુપ્રતિમા, સાત માસ પ્રમાણવાળી સાતમી ભિક્ષુપ્રતિમા, પ્રથમ સાત રાત દિવસ પ્રમાણવાળી આઠમી ભિક્ષુપ્રતિમા, ખીજી સાત દિવસ રાત પ્રમાણ વાળી નવમી ભિક્ષુપ્રતિમા, ત્રીજી સાત દિવસ રાત પ્રમાણવાળી દશમી ભિક્ષુ પ્રતિમા તેમજ એક દિવસ રાત પ્રમાણવાળી અગિયારમી ભિક્ષુપ્રતિમા, અને એક રાત પ્રમાણવાળી ખારમી ભિક્ષુ પ્રતિમા, તે બધા અનગારી એ ધારણ કરી આ બધી પ્રતિમા વિષે વિગતવાર ચર્ચા · દશાશ્રુતસ્ક ધ ’ ना સાતમા અધ્યયનની મુનિષિણી નામની ટીકામા કરવામા આવી છે જિજ્ઞાસુ એએ ત્યાથી જાણી લેવુ જોઇએ
(तएण ते महबलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डाग सीह निक्कीलिय तनो कम्म उवसपज्जित्ताण विहरति )
ત્યાર બાદ મહાખવ પ્રમુખ સાતે સાત અનગારાએ લઘુસિંહનિષ્ક્રીડિત નામે તપ કર્યું સિહુ જેમ પેાતાના પાછળના ભાગની તરફ ડાકીયુ કરતા
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વર
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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भाग पश्यति, तथा यत् तप पूर्वकृत पुनरावर्त्यत्तरोत्तर क्रियते तत् सिंहनिsat डितमित्युच्यते । तप कर्मोपपद्य विहरन्ति । तत्र शुल्क सिंहनिष्क्रीडित तपः कर्म केन प्रकारेण तैः कृतमित्याकाङ्क्षायामाह - ' तजहा ' इत्यादि चतुर्थ चतुर्थभक्त मे कोपनासरूप कुर्वन्ति कृपा' सन्वकामगुणिय ' सर्वकामगुणित सर्वे कामगुणा दुग्धदधिघृततैलमधुररूपा विकृतय सजाता यत्र तत् सर्वकामगुणितम् इद पारण क्रियायाविशेषण, 'पारेंति पारयन्ति पारण कुर्वन्ति । पारयित्वा षष्ठ कुर्वन्ति तत पारण कृत्वा पष्ठभक्त द्वयुपवासरूप तप कुन्ति- इत्यर्थे कृत्वा तरह सिंह अपने पश्चात् भाग का निरीक्षण करता आगे चलता है उसी प्रकार जो तप पूर्वकृन तपो को साथ लेकर आगे २ किया जाता है उस का नाम सिंहनिष्कीडित तप है । (तजा ) यह क्षुल्लक सिंह निष्की डित तप उन्होने किस प्रकार से किया इस बात को अब सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं । - (उत्थ करेंति, करिता सव्य कामगुणिय पारंति, पारिताछ करेंति, करिता चउत्थ करेंति करिता अट्टम करेंति, करिता छद्ध करेंति, करिता, दसम करेंति, करिता अट्टम करेंति, करिता दुवा लक्षम करेंति, करिता दसम करेंति, करिता चाउद्दसम करेंति करिता बुबालसम करेति ) उन्हो ने पहिले चतुर्थ भक्त - एक उपवास किया । एक उपवास करके विजय सहित पारणा किया पारणा करके फिर छट्टभक्त
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- दो उपवास किये दो उपवास करके फिर उन्हों ने पारणा किया बाद चतुर्थ भक्त किया । चतुर्थभक्त करके पारणा किया फिर तीन उप આગળ ચાલે છે તે પ્રમાણે જ જે તપ પૂર્વે કરેલા તાને સાથે લઈને भाग उवाभा आवे छे, ते तप सिह निष्ठीडित आहेवाय छे ( त जहा ) અનગારાએ આ ક્ષુલક મિઠું નિષ્કી િતતપ કેવી રીતે કર્યુ ? તે વિષે સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરતા કહે છે
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(उत्थ करेंति, करिता सव्वकामगुणिय पारेति, परिता, छट्ठ करेंति करिता चउत्थ करेंति, करिता अट्टम करेंति करिता छड करेति, करिता दसम कति करिता अट्टम करेंति, करित्ता दुवालसम करेति करिता चाउद्दसम करे ति करिता दुवालसम करेति )
તેઓએ સૌ પ્રથમ ચતુર્થ ભક્ત-એક ઉપવાસ કર્યો એક ઉપાસ કરીને વિગય સહિત પારણા કર્યા પારણા કર્યો ખાદ ફરી છભક્ત-એ ઉપવાસ કર્યો એ ઉપવાસ કરીને તેઓએ પારણા કર્યા ત્યાર ખાદ ચતુર્થ ભક્ત કર્યાં ખાદ પારણા કર્યા ત્યાર પછી ત્રણ ઉપવાસ રૂપ અષ્ટમ ભકત કર્યાં. અષ્ટમ ભકત
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अनगरधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ महाबलादिपट राजचरितनिरूपणम् २६३ चतुर्थ कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टमम् , अष्टमभक्त युपनासरूप कुर्वन्ति, कृत्या पप्ठ कुर्वन्ति, कृत्वा दशम चतुरुपरासस्प दश्मभक्त कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टम कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादश पञ्चपोवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा दशम कुन्ति कृत्वा चतुर्दश पड्डुपवामरूप कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादश कुर्वति कृत्वा पोडश सप्तोपवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा चतुर्दश कुर्वन्ति, कृत्वाऽप्टादश अप्टोपवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा पोडश कुर्वन्ति, कृत्वा विंश वासरूप अष्टभभक्त किया अष्टम भक्त करके पारणा किया फिर छट्ठभक्त रूप दो उपवास किये। पष्टभक्त करके पारणा किया फिर दशम भक्त रूप चोर उपवास किये चार उपवास करके पारणा किया फिर अष्टम भक्त रूप तीन उपवास किये। अष्टम भक्त करके पारणा कियो फिर पञ्च उपवास रूप द्वादश भक्त किया डादश भक्त करके पारणा किया। पुनः दशम भक्त किया। दशम भक्त करके पारणा किया फिर पट् उपवास रूप चतुर्दश भक्त किया । चतुर्दश भक्त करके पारणा किया पुनः द्वादश भक्त रूप पाच उपवास किये । (करित्ता सोलसम करेंति ) पाच उपवास करके पारणा किया पुन:७ उपवासरूप सोलस भक्त किया (करिता चोदसम करति) ७ उपवास करके पारणा कियो-बाद मे ६ उपवास किये (करित्ता अद्वारसम करेति)पारणा करके फिर अष्टादश भक्त रूप८उपवास किये (करिता सोलसम करेंति) आठ उपवास करके पारणा किया फिर ७ उपवास किये (करित्ता वीसइम करेंति) सात उपवास करके उसका કરીને પણ કર્યા ત્યાર બાદ છઠ્ઠ ભકત રૂપ બે ઉપવાસ કર્યા ષષ્ઠ ભકત કરીને પારણા કર્યા ત્યાર બાદ દમ ભકત રૂપ ચાર ઉપવા કર્યા ચાર ઉપવાસોના અને પારણું કર્યા ત્યાર બાદ અષ્ટમ ભક્ત રૂપ ત્રણ ઉપવા કર્યા અષ્ટમ ભક્ત કરીને પારણા કર્યા ત્યાર બાદ દ્વારા ભકત પાચ ઉપવાસ કર્યા ત્યાર પછી પારણા કર્યા ફરી દશમ ભક્ત કર્યા દશમ ભકત કરીને પારણા કર્યો અને ત્યાર બાદ છ ઉપવાસ રૂ૫ ચતુર્દશ ભકત કર્યા
ચતુર્દશ ભકત કરીને પારણા કર્યા કરી દ્વાદશ ભકત રૂપ પાચ ઉપ पास या (करित्ता सोरससम करे ति पाय 6वामे ने पाए। ४ ॥ सोलन मत सातास ४या (करिता चोदसम करेंति ) सात पास ४शन पा२५५ र्या त्या२ मा ७ 6441ो र्या करिता अट्ठारसम करेंति" पारा उशन मा मत ३५ मा पानी या “करिता सोल्सम
ત્તિ આઠ ઉપવા તળને પાર ક્યું ત્યાર બાદ સાત ૯૫વાનો કર્યો "करिता योसइम परे ति" सात पायो न तो पा२ण। ४या, त्यार
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ज्ञाताधर्मकथा
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भाग पश्यति, तथा यत् तप पूर्वकृत पुनरात्तमेत्तर क्रियते तत् मिनिकी डितमित्युच्यते । तप कर्मोपसपद्य विहरन्ति । तत्र शुल्क सिहनिक्रीडित तपः कर्म केन प्रकारेण तैः कृतमित्याकाङ्क्षायामाह - तजहा ' इत्यादि चतुर्थ चतुर्थभक्त मे कोपनासरूप कुर्वन्ति कृत्वा सच्वकामगुणिय ' सर्वकामगुणित = सर्वे कामगुणा दुपदधिघृततैलमधुररूपा विकृतय सजाता यत्र तत् सर्वकामगुणितम् इदपारगक्रियायाविशेषण, 'पारेति ' पारयन्ति =पारण कुर्वन्ति । पारयित्वा पण्ठ कुर्वन्ति तत पारण कृत्वा पष्ठभक्त द्वयुपवासरूप तपः कुर्वन्ति इत्यर्थे कृत्वा तरह सिंह अपने पश्चात् भाग का निरीक्षण करता आगे चलता है उसी प्रकार जो तप पूर्वकृत तपो को साथ लेकर आगे २ किया जाता है उस का नाम सिंहनिष्कीडित तप है । (तजा ) पर क्षुल्लक सिंह निष्की डित तप उन्हो ने किस प्रकार से किया इस बात को अब सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं । (चउत्य करेंति, करिता सन्ध कामगुणिय पाति, पारिता छ करेंति, करिता चउत्य करेंति करिता अट्टम करेंति, करिता छट्ट करेंति, करिता, दसम करेंति, करिता अट्टम करेंति, करित्ता दुवा लसम करेंति, करिता दसम करेंति, करिता चाउदसम करेंति करिता दुवालसम करेति) उन्हो ने पहिले चतुर्थ भक्त-एक उपवास किया । एक उपवास करके विजय सहित पारणा किया पारणा करके फिर छट्ठभक्त - दो उपवास किये दो उपवास करके फिर उन्हो ने पारणा किया बाद मे चतुर्थ भक्त किया । चतुर्थभक्त करके पारणा किया फिर तीन उप આગળ ચાલે છે તે પ્રમાણે જ જે તપ પૂર્વે કરેલા તાને સાથે લઇને मागण उरवामा आवे छे, ते तय सिद्ध निष्ठीडित हेवाय छे ( त जहा ) અનગારીએ આ ક્ષુલક સિંહ નિષ્ક્રી િત તપ કેવી રીતે ? તે વિષે સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરતા કહે છે
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( उत्थ करेंति, करिता सव्वकामगुणिय पारेति, परिता, छट्ठ करेंति करिता चउत्थ करेंति, करिता अहम करेंति, करिता छड करे वि, करिता दसम कति करिता अहम करेंति, करिता दुगलसम करेति करिता चाउदसम करे ति करिता दुरालसम करे ति ) તેઓએ સૌ પ્રથમ ચતુથ ભક્ત-એક ઉપવાસ કર્યો એક ઉપાસ કરીને વિગય મહિત પારણા કર્યા પારણા કર્યાં ખાદ ફરી છઠ્ઠભક્ત-બે ઉપવાસ કર્યા એ ઉપવાસ કરીને તેએએ પારણા કર્યો ત્યાર ખાદ ચતુર્થાં ભક્ત કર્યા બાદ પારણા કર્યો ત્યાર પછી ત્રણ ઉપવાસ રૂપ અષ્ટમ
ભકત કર્યાં. અષ્ટમ ભકત
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अनगरधर्मामृतपिणी टी० १० ८ महायलादिषट्र राजचरितनिरूपणम् २६३ चतुर्थ कुर्वन्ति, कृत्वाइटमम् , अष्टमभक्त न्युपवासरूप कुर्वन्ति, कृत्या पप्ठ कुर्वन्ति, कृत्वा दशम चतुरुपवासस्प दश्मभक्त कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टम कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादश पञ्चपोवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा दश्म कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्दश पडुपवामरूप कुर्वन्ति, वृत्वा द्वादश कुर्वति कृत्वा पोडश सप्तोपवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा चतुर्दश कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टादश अप्टोपवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा पोडश कुर्वन्ति, कृत्वा विंश वासरूप अष्टभभक्त किया अष्टम भक्त करके पारणा किया फिर छटुभक्त रूप दो उपवास किये। षष्टभक्त करके पारणा किया फिर दशम भक्त रूप चार उपवास किये चार उपवास करके पारणा किया फिर अष्टम भक्त रूप तीन उपवास किये । अष्टम भक्त करके पारणा कियो फिर पञ्च उपचास रूप द्वादश भक्त किया डादश भक्त करके पारणा किया। पुनः दशम भक्त किया। दशम भक्त करके पारणा किया फिर षट् उपवास रूप चतुर्दश भक्त किया। चतुर्दश भक्त करके पारणा किया पुनः द्वादश भक्त रूप पाच उपवास किये । (करित्ता सोलसम करेति) पाच उपवास करके पारणा किया पुन:७ उपवासरूप सोलस भक्त किया (करित्ता चोदसम करेंति) ७ उपवास करके पारणां कियो-बाद में ६ उपवास किये (करित्ता अट्ठारसम करेति)पारणा करके फिर अष्टा दश भक्त रूप८उपवास किये (करित्ता सोलसम करेंति) आठ उपवास करके पारणा किया फिर ७ उपवास किये (करित्ता वीसइम करेंति) सात उपवास करके उसका કરીને પણ કર્યા ત્યાર બાદ છઠ્ઠ ભકત રૂપ બે ઉપવાસ કર્યા પઠ ભકત કરીને પારણા કર્યા ત્યાર બાદ દરામ ભક્ત રૂપ ચાર ઉપવાસે કર્યા ચાર ઉપવાસોના અને પારણું કર્યા ત્યાર બાદ અષ્ટમ ભકત રૂપ ત્રણ ઉપવાસ કર્યા અષ્ટમ ભકત કરીને પારણા કર્યા ત્યાર બાદ દ્વાદશ ભકત પાચ ઉપવાસ કર્યા ત્યાર પછી પારણા કર્યા કરી દશમ ભકત ર્યા દશમ ભક્ત કરીને પારણા કર્યા અને ત્યાર બાદ છ ઉપવાસ રૂપ ચતુર્દશ ભકત કર્યા
ચતુર્દશ ભકત કરીને પારણું ક્યાં ફરી દ્વાદશ ભકત રૂપ પાચ ઉપ पास उर्या (करित्ता सोरससम करे ति पाय लास शेने पा२ र्या श सोसम्म मत साता या (करित्ता चोदसम करेंति) सात उपवास रीन पारा ४ा त्या२ मा छ Gunो र्या 'करित्ता अट्ठारसम करेंति " पार। शन माह सतत ३५ मा वायो यो “करिता सोल्सम
ત્તિ આઠ ઉપવાઓ કરીને પાણુ ર્યા ત્યાર બાદ સાત ઉપવા કર્યા "करिता योसइम करे ति" सात वायो न तो पाए। या, त्यार
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भाताधर्मकथासूत्रे झाग पश्यति, तथा यत् तप पूर्वकृत पुनराबत्योत्तरोत्तर क्रियते तन् मिडनिष्की डितमित्युच्यते । तप कर्मोपसपद्य पिहरन्ति । तत्र क्षुल्लक सिहनिक्रीडित तपः कर्म केन प्रकारेण तैः कृतमित्यासासायामाह-' तजहा ' इत्यादि चतुर्थ चतुर्थभक्तमेकोपासरूप कुर्वन्ति कृत्वा ' सनकामगुणिय ' सर्वरामगुणित सर्वे कामगुणा दुग्मदधिधृततैलमधुररूपा विकृतय सजाता यत्र तत् सर्वकामगणितम् इद पारगक्रियायाधिशेपण, 'पारेंति ' पारयन्ति-पारण कुर्वन्ति । पारयित्वा षण्ठ कुर्वन्ति, तत पारण कृत्वा पष्ठभक्त द्वयुपासस्प तप' कुन्ति- इत्यर्थं कृत्वा तरह सिंह अपने पश्चात् भाग का निरीक्षण करता आगे चलता है उसी प्रकार जो तप पूर्वकृत तपो को साथ लेकर आगे २ किया जाता है उस का नाम सिंहनिष्क्रीडित तप है । (तजहा ) यह क्षुल्लक सिंह निष्की डित तप उन्हो ने किस प्रकार से किया इस बात को अय सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं । - (चत्य करेंति, करित्ता सन्य कामगुणिय पारेति, पारिता छ करेंति, करित्ता चउत्थ करेंति करित्ता अट्ठम करेंति, करिता छह करेंति, करित्ता, दसम करेंति, करित्ता अट्टम करेंति, करित्ता दुवा लसम करेंति, करित्ता दसम करेंति, करिता चाउदसम करेंति करिता दुवालसम करेति) उन्हों ने पहिले चतुर्थ भक्त-एक उपगस किया । एक उपवास करके विगय सहित पारणा किया पारणा करके फिर छट्ठभक्त -दो उपवास किये दो उपवास करके फिर उन्हों ने पारणा किया बाद मे चतुर्थ भक्त किया । चतुर्थभक्त करके पारणा किया फिर-तीन उप આગળ ચાલે છે તે પ્રમાણે જ જે તપ પૂ કરેલા તપને સાથે લઈને मास ४२वामा मा छ, तत५ सिड नि031 उपाय छ ( त जहा) અનગાએ આ ભુલક સિંહ નિકીત તપ કેવી રીતે કર્યું તે વિશે સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરતા કહે છે
(चउत्य करेंति, करिता सधकामगुणिय पारेति, परित्ता, उट्ठ करेंति करिता चउत्थ करेंति, करित्ता अट्टम करेंति, करित्ता छ? करे ति, परित्ता दसम फरेंति करित्ता अट्टम करेंति, करित्ता दुवालसम करेति करित्ता चाउद्दसम करे ति करित्ता दुगालसम करे ति)
તેઓએ સૌ પ્રથમ ચતુર્થ ભક્ત-એક ઉપવાસ કર્યો એક ઉપાસ કરીને વિગય સહિત પારણું પારણા કર્યા બાદ ફરી છઠ્ઠભક્ત-બે ઉપવાસ કર્યા બે ઉપવાસ કરીને તેઓએ પારણા કર્યા ત્યાર બાદ ચતુર્થ ભક્ત કર્યા બાદ પારણું કર્યા ત્યાર પછી ત્રણ ઉપવાસ રૂપ અષ્ટમ ભકત કર્યો અષ્ટમ ભકત
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अनगरधर्मामृतथपिणी टी० १० ८ महाबलादिषट्र राजचरितनिरूपणम् २६३ चतुर्थ कुर्वन्ति, कृत्वाष्टमम् , अष्टमभक्त न्युपासरूप कुर्वन्ति, कृत्या पप्ठ कुर्वन्ति, कृत्ला दशम चतुरुपवासरूप दशमभक्त कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टम कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादश पञ्चपोवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा दश्म कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्दश पड्डुपवामरूप कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादश कुर्वति कृत्वा पोटश सप्तोपनासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा चतुर्दश कुर्वन्ति, कृत्वाऽप्टादश अप्टोपवासरूप कुर्वन्ति, कृत्वा पोडश कुर्वन्ति, कृत्वा विंशवासरूप अष्टभभक्त किया अष्टम भक्त करके पारणा किया फिर छट्ठभक्त रूप दो उपवास किये । षष्ठभक्त करके पारणा किया फिर दशम भक्त रूप चार उपवास किये चार उपवास करके पारणा किया फिर अष्टम भक्त रूप तीन उपवास किये। अष्टम भक्त करके पारणा कियो फिर पञ्च उपचास रूप द्वादश भक्त किया डादश भक्त करके पारणा किया। पुनः दशम भक्त किया। दशम भक्त करके पारणा किया फिर पट् उपवास रूप चतुर्दश भक्त किया । चतुर्दश भक्त करके पारणा किया पुनः हादश भक्त रूप पांच उपवास किये । (करित्ता सोलसम करेति ) पाच उपवास करके पारणा किया पुनः७ उपवासरूप सोलस भक्त किया (करित्ता चोदसम करेंति) ७ उपवास करके पारणा कियो-याद में ६ उपवास किये (करित्ता अट्ठारसम करेति पारणा करके फिर अष्टादश भक्त रूप८उपवास किये (करित्ता सोलसम करेंति) आठ उपवास करके पारणा किया फिर ७ उपवास किये ( करित्ता वीसइम करेंति) सात उपवास करके उसका કરીને પાણી કર્યા ત્યાર બાદ છઠ્ઠ ભકત રૂપ બે ઉપવાસ કર્યા પછઠ ભકત કરીને પારણું કર્યા ત્યાર બાદ દરામ ભકત રૂપ ચાર ઉપવા કર્યા ચાર ઉપવાસેના અનતે પાણું કર્યા ત્યાર બાદ અષ્ટમ ભકત રૂપ ત્રણ ઉપવાસ કર્યા અષ્ટમ ભકત કરીને પારણા કર્યા ત્યાર બાદ દ્વાદશ ભકત પાચ ઉપવાસ કર્યા ત્યાર પછી પારણા કર્યા ફી દશમ ભકત કર્યા દશમ ભક્ત કરીને પારણા કર્થી અને વાર બાદ છ ઉપવાસ રૂપ ચતુર્દશ ભત કર્યા
ચતુર્દશ ભકત કરીને પાર કર્યા ફરી દ્વાદશ ભકત રૂપ પાચ ઉપ पासे। उयो (करित्ता सोरससम करे ति पाय पाया और पा०। ४ा श मौसम sd सातासभा (करित्ता चोदसम करेंति ) सात पास उशन पा२ए। र्या त्या२ मा छ 6441 र्या " करित्ता अद्वारसम करेंति " पार! उशन मा मत ३५ मा 6वाना या " करित्ता सोलसम જતિ આઠ ઉપવાસો કીને પાણ ર્યા ત્યાર બાદ સાત ૯પવાને કર્યો "करिता घोसइम रेति " मात 6वानी ४ीन तेथे पारणा अयो, त्यार
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মানায় तितम नमोपवासरूप कुर्वन्ति । कृत्वाऽप्टादश कुन्ति कृत्वा विंशतितम कुर्वन्ति कृत्वा पोड न कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टादश कुर्वन्ति, कस्ला चतुर्दश कुर्वन्ति, कृत्वा पोडश कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादश कुन्ति कृत्वा चतुर्दश कुर्वन्ति कृत्वा दशम कुर्वन्ति कृत्वा द्वादश कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टम कुर्वन्ति, कृत्वा दशम कुर्वन्ति कृत्वा पष्ठ कुर्वन्ति, क पारणा किया-फिर ९ उपचास किये ( करित्ता अट्ठारसम करेंति ) उस का पारणा किया-फिर ८ उपवास किये (करित्ता वीसइम करेंति) आठ उपवास करके उस का पारणाफिया-फिर ९ उपवास किये (करित्तो सोल सम करेंति) ९ उपवाम करके उस का पारणा किया-फिर ७ उपवास किये ( करित्ता अद्वारसम फरेंति) सात उपवास का पारणा किया-८ उपवास किये (करित्ता चोइसम करेंति ) उन आठ उपवास का पारणा किया-फिर ६ उपपास किये (करित्ता सोलसम करेंति) ६ उपवास का पारणो किया-फिर ७ उपवाम किये (करित्ता दुवालसम कति) ७ उपवास करके उस का पारना किया-फिर ५ उपवास किये (करिता चाउद्दसम करति) ५ उपवास करके उस का पारणा किया-फिर ६ उपवास किये (करित्ता दसम फरेंति)६ उपवास करके पारणा किया फिर ४ उपवास किये ( करित्ता दुवालसम करेंति) ४ उवास का पारणा किया-पारणा करके ५ उपवास किये ( करित्ता अट्ठम करेंति ) ५ उपवास का पारणा किया-फिर ३ उपवास किये (करित्ता दसम माह से 14 पासो र्या “करिता अदारसम करे ति” भने तेना पार ४ा त्या२ माह 13 64वास। यो “ करित्ता पीसइमकरे ति" 24 8 ९५ पास उरीन तेना पार। या त्यार पछी नप पास। र्या “ करित्तो सोलसम करे ति" 14 Bास ४ तेना पा२६॥ ४ा त्या२ मा सात उपासे ४ा " करित्ता अदारमम करे ति" सात उपासना पारया शन मा पासो र्या “करित्ता चोदसम करे ति" भने मा8 6वासोना पा२९।।
र्या त्या२ पछी ७ पास या “करिचा सोलसम क्ररेति" छपवासाना पा२। ४श सात पास या “ करित्ता दुबालसम करे ति" सात पास उशन तेना पा२। र्या त्या२ माह पाय अपवासे ४ा “करित्ता चाउद्दसम करे ति" पाय 6वास शन तन। पा२। र्या त्या२ मा ७ 6वास! ४यो “करित्ता दसम करे ति ७ 64वासना पा२। ध्या, मने त्या२ पछी या२ पासे। ४. "करित्ता दुबालसम करे ति" या२ पासना पार उरीन पाय पासया करिता अट्रम करे ति" पाय 6पासना पार यो भने त्यार माह 6वासे या "करिता ।
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अनगारधर्मामृतषिणी टोका अ० ८ महावलादिपटाचरितनिरूपणम २६५ त्वाऽष्टम कुन्ति कृत्वा चतुर्थ कुर्वन्ति, कृत्वा पष्ट कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्थं कुर्वन्ति सर्वत्र सर्वकामगुणितेन पारयन्ति । चतुर्थ कुर्वन्तीत्यादि-सर्वत्र सर्वकामगुणितेन पारयन्तीत्यन्तस्याय निष्कर्षः-सिंहनिष्क्रीडितं तपोद्विविध महत् क्षुल्लकच । तत्रानुलोमगत्याकरेंति) ३ उपवाम का परणा किया फिर ४ उपवास किये ( करित्ता छह करेंति ) ४ उपवास का पारणा किया-फिर २ उपवास किये (करित्ता अहम करेंति )२ उपवास का पारणा करके फिर ३ उपवास किये (करित्ता चउत्थ करे ति ) ३ उपवास का पारणा करके फिर १ उपवास किया ( करित्ता छट्ट करे ति ) १ उपवास का पारणा करके फिर २ उप वाम किये ( करित्ता चउत्य करे ति )२ उपवाम का पारणा करके फिर एक उपवास किया (सव्वस्थ सव्वकामगुणिएण पारेति ) पारणी जो इन्हो ने किया वह सर्वत्र विगय सहित किया (एव खलु एसा खुदागसीहानिकीलियस्स तवोकम्मरस पढमा परीवाडी छहि-मासेहिं सत्ताहिं अहोरत्तेहिं य अहासुत्त जाव अहाराहिया भवइ ) इस तरह क्षुद्र सिंहनिष्क्रीटित तप की प्रथम परिपाटी है। यह छह मास और सात दिन रात तक सूत्रोक्त विधि के अनुसार यावत् आराधित होती है।
अर्थात इसके करने में सात दिन रात अधिक ६ मास का समय लगता है। यहा "सर्वकामगुणित" ऐसा जो पारणा का विशेषण उपवासाना पा२। उसन त्या२ ५४ी या 6वासे। र्या " करित्ता 3 करे ति" सा२ पासना ५२।। र्या, त्या२ माह में 60स . “करिता अदम करे ति" में 6५पासना पा२। 64वास या " करित्ता चउत्थ करैति
वासना पा२।। ४शन के पास यो "करित्ता छट्र करे ति" में 6वासना पाए। ४शन मे 64वाय या "करित्ता चउत्थ करे ति
वासना पाए। रीन. मे पास या “ सव्वत्थ सव्व कामगणि एण पारे ति" तमास. मा पा२। विजय सहित ४या उता
(एव खलु एसा खुट्टागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहि सत्तर्हि अहोरत्तेहिंय आहासुत्त जाव अहाराहिया भवइ) આ પ્રમાણે સુદ્રસિંહ નિષ્ક્રીડિત તપની આ પ્રથમ પરિપાટી છે છ માસ અને સાત દિવસ રાત સુધી સૂત્રોક્ત વિધિ મુજ “યાવી તેની આરાધના હોય છે
એટલે કે આ વ્રત કરવામાં છ માસ અને સાત દિવસ રાત એટલે मत मागे छ मडी “सर्वकामगुणित " ने पायाना विषय ३२ भू
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etaruiserer
चतुर्भक्तादि विंशतितमपर्यन्त, प्रतिलोमगत्या । विंशतितमभक्तादितश्चतुर्थभक्तपर्यन्त च मिलित्वा तपः पुलकमित्युच्यते । अनुलोमसमाप्त्यनन्तर प्रतिलोमकरणात् प्राग् मध्येऽष्टादशभक्त भरति । चतुर्थ पष्ठाष्टमादीनि तु एकैकवृद्धधा एकोपवास द्वयुपवासादीनि । इह चतुर्थपष्ठाष्टमदगम द्वादशचतुर्दशपोडशभक्तानि प्रत्येक चलारि २ निणि अष्टादशानि, द्वे विंशतितमे एव तपोदिनानि १५४ चतुःपञ्चादधिकशत, पारणदिनानि ३३ नयस्त्रिशद्भवन्ति । रखा है उससे यह निष्कर्ष निकलना है कि यह सिंहनिष्कीडित तप क्षुल्लक और महत की अपेक्षा से दो प्रकार का होता है- इनमें अनुलोम गति से प्रथम चतुर्थभक्त से प्रारभ होकर विंशतितम पर्यन्त किया जाता है और प्रति लोमगति से प्रथम विंशतितम भक्तादि से प्रारभ कर चतुर्थभक्त पर्यन्त समाप्त किया जाता है । इस तरह अनुलोम प्रतिलोम विधि से किया गया यह तप क्षुल्लक निष्क्रीडित तप माना गया है । अनुलोम विधि की समाप्ति होने के बाद प्रतिलोम विधि से इसे करने के पहिले घीच में अष्टादश भक्त हो जाते हैं। ये चतुर्थ पष्ठ अष्टमादि एक एक उपवास की वृद्धि से एक उपवास दो उपवास तीन उपवास आदि वाले होते है ।
इसमें चतुर्थ पष्ठ अष्टम, दशम द्वादश चतुर्दश और पोडश भक्त ये प्रत्येक क्रमश ४-४-३-३ हो जाते है, तथा विंशतितम ९ उपवास दो होते है । तपस्या के दिन १५४, पारणा के दिन ३३ इस प्रकार मिला
વામા આવ્યો છે તેના અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે સિંહ નિષ્ક્રીડિત તપ ભુલક અને મહેતની દૃષ્ટિએ એ પ્રકારનુ હોય છે અનુવેામ ગતિથી પહેલા ચતુર્થ ભક્તથી આરભીને વિચતિતમ સુધી તપ કરવામા આવે છે અને પ્રતિ લેામ ગતિથી પ્રથમ વિંશતિતમ ભક્ત વગેરે થી આરલિને ચતુર્થાં ભકત સુધી પુરૂ કરવામા આવે છે, આ રીતે અનુલેામ પ્રતિલામ વિધિથી કરવામા આવેલુ આ તપ ક્ષુલક નિષ્ક્રીડિત તપ ગણાય છે. અનુલેમ વિધિની સમાપ્તિ ખાદ પ્રતિલામ વિધિથી આ તપ આર ભ કરીને તેના પહેલા વચ્ચે અષ્ટાદેશ ભક્ત થઈ જાય છે આ ચતુર્થી, અન્ન, અષ્ટમ વગેરે એક એક ઉપવાસની વૃદ્ધિથી એક ઉપવાસ, એ ઉપવાસ અને ત્રણ ઉપવાસ વગેરેના હાય છે
भाभा यतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दृशम, दादृश, अतुर्दृश भने षोडश लतमा
થઇ જાય છે તેમજ વિંશતિતમ નવ ૧૫૪, અને પાણુ,
३,
મધા અનુક્રમે ચાર ચાર, ત્રણ ત્રપુ, ઉપવાસ એ હાય છે તપસ્યાના દિવસે
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अनगारधर्मामृतापिणी टीका म० ८ महावलादिपराजचरित्रनिरूपणम् २६७ उभय मिल्लिा प्रथमपरिपटया १८७ सप्ताशीत्यधिकमेकशत दिनानि भवन्ति पारणक च सर्वा सर्वकामगुणित-सविकृतिक कुर्वन्ति-इत्यर्थः । एव खलु एपा क्षुद्रसिंहनिष्क्रीटितस्य तपः कर्मणः प्रथमा परिपाटी पद्भिर्मासैः सप्तभिचाहोरात्रैश्च यथामूत्र सूत्रोक्तविधिना यावद् आराधिता भवति । उक्तरीत्या क्षुद्रसिंह निष्क्रीडितस्य तपसः प्रथमाया परिपाटया सप्तरात्रिंदिवाधिकाः पणमासा भवन्ति पारण च विकृतिसहित भवति ।
इदमस्य तपस प्रथमपरिपाटीयन्त्रम् , एकमेव द्वितिय तृतीयचतुर्थ पदिपाटीनामपि यन्त्र पो यम् ।
श रा |३|४|५|४|६|५||६ | | १/२।१/३/२/४/३/५/४/६/५/७/६/८/७/९/८
तदनन्तर प्रथमपरिपाटीकरणानन्तर द्वितीयाया परिपाट्या चतुथै कुर्वन्ति, नवर विकृतिवर्ज पारयन्ति । पारण कुर्वन्ति, एव तृतीयाऽपि परिपाटी, नगर कर प्रथम परिपाटी में १८७, दिन हो जाते है। पारणा के दिन विगय सहित आहार लिया जाता है। इस प्रकार इस क्षुद्र सिंह निष्क्रीडित तप की प्रथम परिपाटी ६ मास ७ दिन रात तक सूत्रोक्त विधि के अनुसार आराधित होती है। इस तप की प्रथम परिपाटी का यन्त्र उपर सस्कृत टीका में दिया है । इसी तरह, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ परिपाटी काभी यत्र जानना चाहिये। (तयाणतर
पारेति) जय प्रथम परिपाटी के अनुसार क्षुद्र सिंह निष्क्रीडित तप आरा धित हो चुकना है तब उसके बाद द्वितीय परिपटी में जो चतुर्थ भक्त की तपस्या करते ह वे विकृतिवर्ज आहार का पारणा करते है। આમ બનેને મરવાળો પ્રથમ પરિપાટીમાં ૧૮૭ દિવસ હોય છે પારણાના દિવસે વિગય સહિત બહાર કરવામાં આવે છે આ પ્રમાણે સુદ્રસિંહ નિષ્કીડિત તપની પ્રથમ પરિપાટી સૂક્ત વિધિ મુજબ છ માસ અને સાત દિવસ રાત સુધી આરાધિત હોય છે આ તપની પ્રથમ પરિપાટીનું યત્ર ઉપર સસ્કૃત ટીકામાં બતાવ્યા મુજબ છે આ પ્રમાણેજ દ્વિતીય, તતીય ચતુર્થ પરિપાટીના યત્ર વિશે પણ જાણવું જોઈએ (तयाण तर
परिति) જ્યારે પ્રથમ પરિપાટી મુજબ ક્ષુદ્રસિંહ-નિષ્ક્રીડિત તપની આરાધના પૂરી થઈ જાય છે ત્યારે દ્વિતીય પરિપગમાં ચતુર્થ ભક્તની તપસ્યા કરનારા વિકૃતિ વર્ષ આહારના પારણા કરે છે
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૮
आताधर्मकथा
पारण के - अलेपकृत=अस्निग्ध रूक्ष पारयन्ति । एव चतुर्व्यपि परिपाटी नवर पारणके आचामाम्लेन पारयन्ति = रूक्षान्नमचित्तजलप्लावित कृत्वा तेन पारण कुर्वन्तीत्यर्थः । सू० ६ ॥
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मूलम-तएणं ते महबलपामोक्खा मत्त अणगारा खुड्डागं सहनिक्कीलिय तवोकम्म दोहि संवच्छरेहि अट्ठावीसाए अहो - रत्तेहि अहात जाव आणाए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वदति नम॑सति वदित्ता, नमसित्ता एव वयासी - इच्छामो णं भते । महालय सहनिक्कीलिय तहेव जहा खुड्डाग नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडीए कालो एगेणं सवच्छरेणं छहि मासेहि अट्ठारसहि य अहोरतेहि समप्पेइ । सव्वपि सहनिक्कीलिय छहिं वासेहि दोहि य मासेहि बारसेहि य अहोरतेहि समप्पेइ । तएण ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालय सीहनिक्कीलिय अहासुत जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदति नमसति वदित्ता नमसित्ता बहूणि चउत्थ जाव विहरति ॥ सू० ७ ॥
इसी तरह तीसरी भी परिपाटी होती है । परन्तु इसमें जो पारणा होता है वह विगय वर्जित रूक्ष अम्न का होता है। इसी तरह की चोथी परिपाटी होती है परन्तु इस मे जो पारणा होता है वह चावल आदि का धोया हुआ धोवान पानी में अर्थात् अचित्त जल से प्लावित हुए रूक्ष अन्न याने आयल का होता है | सूत्र ६ ॥
આ પ્રમાણે ત્રીજી પરિપાટી પણ હાય છે પણુ તેના પારણા વિગય વગરના રૂક્ષ અન્નના હાય છે આ પ્રમાણે ચેાથી પરિપાટી પણ હાય છે પણ તેના પારણા ભાત વગેરેના આસામણમા એટલે કે અચિત્ત પાણીથી પ્લાવિત થયેલા રૂક્ષ અન્ન અર્થાત્ આયવિલના હેાય છે ! સૂત્ર ૬ ॥
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अंगाधर्मामृतगि टीका अ० ८ महारलादिपटू राजचरितनिरूपणम् २६९
टीका-ततस्तदनन्तर खलु ते महागलप्रमुखाः सप्तानगारा 'सुड्डाग' क्षुल्लक लघुक, सिंहनिष्क्रीडित-चतसृभिः परिपाटीभियुक्त तप कर्म द्वाभ्या सवत्मराभ्यामष्टाविंशस्याऽहोरात्रैः 'अहासुत्त' यथासूत्र मूत्रोक्तविधिना, याव-इह यावत् करणाद ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकभागानतिक्रमेण वा 'आणाए' आज्ञया भगवदाज्ञया प्रवचनानुसारेण आराध्य, यौव स्थविरा भगवन्तस्तत्रैलो पागच्छन्ति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दते स्तुवन्ति, नमस्यति भणमन्ति, वन्दित्वा नत्वा एवमनदन्
हे भदन्त । वयमिच्छामः खलु ' महालय' महत् सिंहनिष्क्रीडित तपः कर्म कतम , ततः स्थविराज्ञया महावलपमुवा सप्तानगाराः महासिंहनिप्क्रीडित तपः
'तण्ण ते मयलपामोक्खा' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (ते मयलपामोक्खा सत्तअणगारा) वे महाबल प्रमुख सातों ही अनगार (खुड्डाग सोह निक्कीलिय ) लघु सिंह निष्क्रीडित तप कर्म को (दोहि सवच्छरेहिं अट्ठोविसाए अहोरत्तेहिं) दो वर्ष २८ दिन रात तक (अहासुत्त) यया सूत्र (जाव आणाए आ राहेत्ता) यावत् भगवान की इस तप को करने की जेसी आज्ञा है उस के अनुसार आराधित कर (जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति उवागछित्ता थेरे भगवते वदति नमसति, वदित्ता नमसिता एव वयासी) जहाँ स्थाविर भगवान थे वहा गये। वहा जाकर उन्होने भगवत स्थ विरो को वदन की-उन्हे नमस्कार किया वदना नमस्कार करके फिर वे इस प्रकार योले (इच्छामो ण भते' महालय सीहनिकोलिय
'तएण ते महोबलपामोक्खा ' त्यादि ।
साथ-(तएण ) त्या२शाह 'ते महब्बलपामोरखा सत्त अणगारा' महास प्रभुम सात मनगा। (खुडाग सोहनिफीलिय) सधुसिंह निष्पीडित त५ ४म
शन (दोहि सवच्छरेहि अट्ठावीसाए अहोरत्तेहि ) मे १५ २८ पिस रात सुधा (अहासुत्त ) सूत्रत विधि भुम (जाव आणाए आराहेत्ता) भरतन આરાધવાની ભગવાનની જેવી આજ્ઞા છે, તે મુજબ આરાધીને
(जेणेव येरे भगवते तेणेव उवागच्छति उपआगच्छित्ता येरे भगवते वदति नमसति, बदित्ता, नासित्ता एव वयासो)
જ્યા સ્થવિર ભગવાન હતા ત્યાં ગયા ત્યાં જઈને તેમણે ભગવત સ્થ વિરોની વદના કરી અને તેમને નમસ્કાર કર્યો વદના અને નમસ્કાર કરીને તેઓ એ વિનતી કરતા આ પ્રમાણે કહ્યું
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ताधर्मकथा पारणके-अलेपकृत-अस्निग्ध-रूक्ष पारयन्ति। एव चतुयपि परिपाटी नवर पारणके आचामाम्लेन पारयन्ति-रूमान्नमचित्तजलप्लारित कृत्वा तेन पारण कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ सू० ६ ॥
मूलम्-तएण ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिकीलिय तवोकम्मं दोहि संवच्छरेहिं अट्ठावीसाए अहोरत्तेहिं अहासुत्त जाव आणाए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्तो थेरे भगवते वदति नमसति वदित्ता, नमसित्ता एव वयासी-इच्छामो णं भते। महालय सीहनिकोलिय तहेव जहा खुड्डागनवर चोत्तीसइमाओ नियत्तए पगाए परिवाडीए कालो एगेणं सवच्छरेणं छहि मासेहि अहारसहि य अहोरत्तेहि समप्पेइ । सम्वपि सीहनिकोलिय छहिं वासेहि दोहि य मासेहि बारसेहि य अहोरत्तेहि समप्पेइ । तएणं ते महव्वलपामोक्खा सत्त अणगारा महालय सीहनिकीलिय अहासुत्त जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदंति नमसति वदित्ता नमसित्ता वहूणि चउत्थ जाव विहरति ॥ सू० ७ ॥
इसी तरह तीसरी भी परिपाटी होती है। परन्तु इसमें जो पारणा होता है वह विगय वर्जित रूक्ष अन्न का होता है। इसी तरह की चोथी परिपाटी होती है परन्तु इस मे जो पारणा होता है वह चावल आदि का धोया हुआ धोवान पानी में अर्थात् अचित्त जल से प्लावित हुए रूक्ष अन्न याने आयधिल का होता है । सत्र ६॥
આ પ્રમાણે ત્રીજી પરિપાટી પણ હોય છે પણ તેના પારણા વિગય વગરના રૂક્ષ અન્નના હોય છે આ પ્રમાણે થી પરિપાટી પણ હોય છે પણ તેના પારણા ભાત વગેરેના ઓસામણમા એટલે કે અચિત્ત પાણીથી પ્લાવિત થયેલા આક્ષ અન્ન અર્થાત આય વિલના હોય છે n સૂત્ર ૬ .
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अनवारविंग टीका अ०८ महायलादिपटू राजचरितनिरूपणम् २६९
टीका - ततस्तदनन्तर खलु ते महानलप्रमुखाः सप्तानगारा 'सुड्डाग' क्षुल्लक= लघुक, सिंहनिप्क्रीडित- चतसृभिः परिपाटीभिर्युक्त तप कर्म द्वाभ्या सवत्मराम्यामष्टाविंशस्याऽहोरात्रैः 'अहासुत' यथासूत्र सूत्रोक्तविधिना यावद् = इह यावत् करणाद् ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकमानानतिक्रमेण वा 'आणाए ' आज्ञया = भगवदाज्ञया प्रवचनानुसारेण आराध्य, यचैव स्थविरा भगवन्तस्तत्रैनो पागच्छन्ति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दते = स्तुवन्ति, नमस्यति =मणमन्ति, वन्दित्वा नत्वा एवमनदन्
भदन्त । वयमिच्छामः खलु ' महालय' महत् सिंहनिष्क्रीडित तपः कर्म कर्तुम्, तत' स्थविराज्ञया महाबलममुखा सप्तानगाराः महासिंग निष्क्रीडित तपः 'तएण ते महत्पलपामोक्खा' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (ते महालपामो वा सत्त अणगारा) वे महाबल प्रमुख सातों ही अनगार ( खुड्डाग मोह निकीलिय ) लघु सिंह निष्क्रीडित तप कर्म को (दोहिं सवच्छरेहिं अट्ठाविसाए अहोरतेहिं ) दो वर्ष २८ दिन रात तक (अहासुत्त) यथा सूत्र (जाव आणाए आ राहेत्ता ) यावत् भगवान की इस तप को करने की जेसी आज्ञा है। उस के अनुसार आराधित कर ( जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति उबागरित्ता थेरे भगवते वदति नमसति, वदित्ता नमसिता एव वयासी) जहाँ स्थाविर भगवान थे वहा गये । वहा जाकर उन्होने भगवत स्थ विरो को वदन की उन्हें नमस्कार किया वदना नमस्कार करके फिर वे इस प्रकार बोले ( इच्छामो ण भते । महालय सीहनिक्कोलिय
1
" तएण वे महान्चलपामोक्सा ' इत्यादि ।
टीअर्थ - (तरण ) त्यारमाह 'ते महत्पलपामोक्खा सप्त अणगारा' भडास प्रभुख साते अनगारी ( खुड्डाग सोहनिफोलिय ) सधुभिंड निष्पीडित तय भ जीने (दोहि सवच्छरे हि अट्ठावीसाए अहोरतेहि ) मे वर्ष २८ हिवस रात सुधी ( अहासुस ) सूत्रोक्त विधि भुरण ( जाव आणाए आराहेत्ता ) ते तेने આરાધવાની ભગવાનની જેવી આજ્ઞા છે, તે મુજબ આરાધીને
( जेणेव येरे भगवते तेणेव उवागच्छति आगच्छित्ता येरे भगवते वदति नमसति, वदित्ता, नमसित्ता एव नयासी )
જ્યા સ્થવિર ભગવાન હતા ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેમણે ભગવત સ્થ વિરાની વઢના ડરી અને તેમને નમસ્કાર કર્યાં વદના અને નમસ્કાર કરીને તે એ વિનતી કરતા આ પ્રમાણે કહ્યુ
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शाताधर्मकथासूत्रे
धर्म कर्तुं प्रवृत्ताः, ' तत्र' बैन = महासिंहनिष्क्रीडितमपि तद्वदेन भवति--' जहा सुहाग' यथा क्षुल्लक लघुर्मिहनिष्फ्रीडित, नार विशेषस्तु 'चोत्तीसहमाओ नियत्तए ' चतुस्त्रिंशत्तमाद् निर्वर्तते - अयमर्थः चतुर्थभक्तमेको पचास रूपमादितः कृत्वाऽनुलोमगत्या पूर्वोक्त-लकसिंह निष्क्रीडिततपः कमवत् पोडशोपवासरूप चतुस्त्रिंशत्तमपर्यन्त करोति पुनस्तस्मान्निवर्तते = प्रत्यावर्तते, तद् यदा- चतुस्त्रिंशत्तम
तहेव जहा खुड्डाग नवर चोत्तीसहमाओ नियत गाए परिवाडिए कालो ण्गेण सवच्छरेण उहि मासेहिं अहारसहिय अहोरतेहि य समप्पे ) हे भदत ! हम लोग महानू सिंह निष्क्रीडित तप कर्म करना चाहते है । इसके बाद वे स्थविर भगवान् की आज्ञा से महाबल प्रमुख सातों ही अनगार ब्रहत् सिंह निष्कीडित तप कर्म करने में प्रवृत्त हो गये ।
यह महासिंहनिष्कीडित तप भी क्षुल्लकसिंह निकोडित तप की ही तरह होता है - परन्तु इसमे इतनी विशेषता रहती है कि इस तप को करने वाला सयमी एक उपवास रूप चतुर्थ भक्त को सर्व प्रथम करता है फिरवह अनुलोम गति से पूर्वोक्त लकसिंह निष्क्रीडित तप कर्म को आराधित करने के क्रम की तरह सोलह उपवास रूप चतुस्त्रि शत्तम पर्यत इस तप को करता है ।
में वहा
से लौटता है - लौटने का क्रम इस प्रकार है - जब यह
बाद
( इच्छामो ण भते ! महालय सीहनिक्कीलिय तहेव जहा खुड्डाग नवर चोचीस माओ नियत्तए एगाए परिवाडिए कालो एगेण साच्छरेण छहिं मासेहिं अट्ठारसहिय अहोरत्तेहिं य समप्पेड़ )
હે ભદત ! અમે મહાન સિંહનિષ્ક્રીડિત તપ કસ કરવા ઈચ્છી એ છીએ. ત્યાર બાદ સ્થવિર ભગવાનની આજ્ઞાથી મહાખલપ્રમુખ સાતે અન ગારો મહાન સિદ્ઘ નિષ્ક્રીડિત તપ કર્મોંમા પ્રવૃત્ત થઈ ગયા
મહાસિંહ નિષ્ક્રીડિત તપની વિધિ પણ ક્ષુ લક સિંહ નિષ્ક્રીડિત તપની વિધિની જેમજ હાય છે પણ તેના કરતા તેમા એટલી વિશેષતા હાય છે કે આ તપને આચરનાર સયમી એક ઉપવાસ રૂપ ચતુર્થાં ભકતને સૌ પહેલા આચરે છે ત્યાર બાદ તે અનુલામ ગતિથી પૂર્વે વર્ણવેલા ક્ષુલક સિંહ નિષ્ક્રી ડિત તપ કર્યંના આરાધન ક્રમની જેમજ સેાળ ઉપાસરૂપ ચતુસ્રિશત્તમ સુધી આ તપને કરે છે
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अनगारधर्मामृतयर्पिणी टीका अ० महायलादिप राजचरितनिरूपणम्
૨૭:
करणानन्तर प्रतिलोमगत्या प्रत्यावृत्तिकाले मध्ये पञ्चदशोपवासरूपं द्वात्रिंश भक्त कृत्वा पुनः पोडशोपवासरूप चतुस्त्रिंशत्तम करोति, ततश्चतुर्दशोपवासरूप त्रिंशत्तम कृपा द्वात्रिश करोति एवं पूर्वोक्तक्रमेण ततश्चतुर्थभक्तपर्यन्त करोति । इद महासिंहनिष्क्रीडितस्य तपसः प्रयमपरिपाटी यन्त्रत्
४ ३ ५
१ २ ।१ ३ १/२/१ ३ २
४ | ३
११ | १० | १२ ११ १३ | ११ | १० १२ | ११ | १३
४
५ ४ ६
१२ | १४ | १३ | १५ | १४ | १६ / १२ | १४ | १३ | १५ | १४ | १६ | १५
ress उपवासना निवेशिताः । एवमेन द्वितीयतृतीय चतुर्थपरिपाटीना
६ ५ ७ ६ ८ ७ ९ १०/९/ ७ ६ ८१७९ १०/९/
प्रत्येक यन्त्र वो यम् ।
3
इह महासिंह निष्क्रीडिते तपस्येकस्यां परिपाटयामनुलोममतिलोमत 'तुर्यषष्ठाष्टमादि त्रिंशत्तमपर्यन्तानि चत्वारि चत्वारि 'द्वात्रिंशानि त्रोणि, ' द्वे चतु त्रिंशत्तमे भवन्ति ।
"
| इस
सोलह उपवास कर चुक्ता है तब प्रतिलोम गति से प्रत्यावृत्ति काल मे बीच मे यह १५ उपवासरूप द्वात्रिंशत् भक्त करता है- पुनः सोलह उपवासरूप चतुस्त्रिंशत्तम भक्त करता है । फिर चतुर्दश उपवास रूप तीस भक्त करता है - इन्हें कर के फिर १५ उपवास करता प्रकार पूर्वोक्त क्रम से यह चतुर्थभक्त पर्यन्त तपस्या करता है । इस महासिंह निष्कीडित तप का प्रथम परिपाटीयत्र उपर संस्कृत टीका में दिया है। इस प्रकार समझ लेवें ।
यत्र मे जो अक दिये है वे अक उपवासों के हैं । इसी तरह द्वितीय तृतीय और चतुर्थ परिपाटीयो के प्रत्येक के अक जानना चाहिये । इस महासिंह निष्क्रीडित तप मे एक परिपाटी मे अनुलोम प्रतिलोम की
ત્યાર ખાદ તે ત્યાથી પા ફરે છે પાછા ફરવાના ક્રમ આ પ્રમાણે છે જ્યારે તે સાળ ઉપવાસેા કરી લે છે ત્યારે પ્રતિàામ ગતિથી પ્રત્યાવૃત્તિ કાળમા વચ્ચે પદર ઉપવાસ રૂપ દ્વાત્રિશત ભકત કરે છે ફરીતે મેળ ઉપવામ રૂપ ચતુર્ષિશત્તમ ભકત કરે છે ગ્યાર ખાદ ચતુર્દશ ઉપવાસ રૂપ ત્રીશ ભકત કરે છે અને ત્યાર પછી પદર ઉપવાસ કરે છે. આ રીતે પૂર્વો-ત ક્રમથી તે ચતુર્થ ભકત પન્ત તપસ્યા કરે છે મહાર્સિહનિષ્ક્રીડિત તપનું પ્રથમ પરિપાટી યંત્ર ઉપર સસ્કૃત ટીકામા બતાવ્યા પ્રમાણે સમજી લેવુ
આ અક ઉપવાસેના છે. આ પ્રમાણે જ દરેક બીજી, ત્રીજી અને ચેથી પરિપાટીઓના આ કા ન્તણુવા જેઈએ મહાર્સિહનિષ્ક્રીડિત તપમા એક પરિષાટિમા અનુલેામ પ્રતિલેામની અપેક્ષા ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ, વગેરેથી
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ર૭૨
साताधर्मकथाजसत्र ___ इह प्रत्येकपरिपाटया मनुलोमप्रतिलोमत सर्वाणि तपोदिनानि सकलनया ___४९७सप्तनवत्यधिकानि चत्वारि शतानि,तथा पारणदिनानि-६१एकाधिक षष्ठिम
ख्यकानि भान्ति, एपामुमयेपामाफलनेन यारान् कालो भाति, त प्रदर्शयितुमाह 'एगाए परिपाटीए' इत्यादि । एकस्याः परिपाटयाः काल:-एकेन सवत्सरेण परिभर्मासैरप्टादशभिवाहोरानै 'समप्पड़' समाप्णते मपणों भाति.। 'सबपि समपि अशेपमपि चतमभिः परिपाटीभियुक्तमित्यर्थ , ' मोहकिकीलिय' सिंह निष्क्रीडित तपः- पर्विाभ्या च मासाभ्या द्वादशभिश्वाहोरात्रै पारण दिनतैः ' समप्पेइ ' रामाप्यते- सपूर्ण भवति-यथासूत्र यापदाराधित भवतीत्यर्थः अपेक्षा चतुर्थ, पठ, अष्टम, आदि से लेकर त्रिंशत्तम-१४ उपवासो-तक सब उपवास चार चार हो जाते है । अर्थात् प्रथम भक्त ४, चतुर्थे भक्त ४ पष्ट भक्त ४ अष्टम भक्त ४,इत्यादि १४ उपवासों तक जानना चाहिये । १५ उपवास ३, और १६ उपवास २ हो जाते है।
यहां प्रत्येक परिपाटी मे अनुलोम प्रतिलोम विधि के अनुसार समस्त तपस्या के दिनों की संख्या मिलाकर ४९७ होती है । पारणा के दिनों की सरया ६१ । इन दोनो के सफलन से जितना समय होतो है-सूत्रकार उसे " एगाए परिवाडी ए " इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते हैं-वे कहते हैं कि एक परिपाटी का काल एक वर्ष ६ मास और १८रात दिनो मे समाप्त होता है । (सब वि सीनिक्कीलिय छहिं वासे हि दोहि मासेहिं बारसहिय अहोरत्ते हिं य समप्पेड़) और समस्त यर सिंह नि क्रीडित तप छह वर्ष दो मास एव १२ दिन रात मे समाप्त होता है । માડીને ત્રિરત્તમ-૧૪ ઉપવાસ-સુધી બધા ઉપવાસ ચાર ચાર હોય છે એટલે કે પ્રથમ ભક્ત ૪ ચતુર્થ ભક્ત ૪, ષષ્ઠ ભક્ત ૪, અષ્ટમ ભક્ત ૪, વગેરે ૧૪ ઉપવાસ સુધી જાણવું જોઈએ ૧૫ ઉપવાસ ૩ અને ૧૬ ઉપવાસ ૨ થઈ જાય છે
આ પ્રમાણે અહીં દરેકે દરેક પરિપાટિમાં અનુલોમ પ્રતિમ વિધિ મુજબ તપસ્યાના બધા દિવસોની ગણત્રી કરીયે તે ૪૯૭ થાય છે પારણાના દિવસોની સ ખ્યા ૬૧ હોય છે આ નેના સરવાળાના જેટલા દિવસો થાય छ सुत्रा२ 'एगाए परिवाडीए” कोरे ५। झा स्पष्ट सूत्रधार કહે છે કે એક પરિપાટને કાળ એક વર્ષ છ માસ અને અઢાર દિવસમાં पूरी थाय छे (सव्व वि सीहनिक्कीलिय छहिं वासेहिं दोहिं मासेहि वारसहिय अहोरत्तेहि य समप्पेइ मन मा सिंह नियति तपने सपूष्णु परी ५३ वामा છ વર્ષ બે માસ અને બાર દિવસ રાત એટલે વખત લાગે છે –---
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अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ८ महारलादिपदाजचरितनिरूपणम् २७३
ततस्तदनन्तर खलु ते महापलप्रमुखाः सप्तानगाराः ' महालय ' महत्, सिंह निष्क्रीडित यथासूत्र-सूत्रानतिक्रमेण यावद् आज्ञया आराध्य यत्रैव स्थविरा भगवन्तस्तौवोपागच्छन्ति उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नत्वा बहूनि बहुविधानि चतुर्थ यावद चतुर्थपष्ठाऽष्टमादीनि तपासि कुर्वन्तो विहरन्ति. ॥ मू०७॥
मूलम्-तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेणं सुक्का मुक्खा जहा खदओ नवर थेरे आपुच्छित्ता चारुपवय दुरूहति, दुरूहित्ता जाव दोमासियाए सलेहणाए सवीस भत्तसय चउरासीइं वाससयसहस्साइ सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीइ पुव्वसयसहस्लाइ सव्वाउयं पालइत्ता जयते विमाणे देवत्ताए उववन्ना । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं वत्तीस सागरोवमाइ ठिई तत्थणं महव्वल
(तपण ते महव्यलपामोक्ग्वा सत्त अणगारा महालय सिंह निक्की लिय अहासुत्त जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति) इस प्रकार वे महावल प्रमुख सातो ही अनगार इम महासिंह निष्क्रीडित तप को यथा सूत्र यावत् आराधित करके जहा स्थविर भगवत थे वहा आये । ( उवागच्छित्तो थेरे भगवते वदति नमसति, वदित्ता नमसित्ता, बहणि चउत्थ जाव विहरति) वहा आकर उन्हों ने स्थविर भगवतो को वदना की नमस्कार किया-और वदना नमस्कार करके फिर वे चतुर्थ पष्ठ अष्ठमादि तपो को करते हुए विहार करने लगे ॥सू०७॥
(तएण ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालय सिंहनिक्कीलिय अहा मुत्त जाव आराहेत्ता जेणेन थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति)
આ રીતે યથાસૂત્ર અને વાવત યથાવિધિ મહાસિનિષ્કાડિત તપને આરા ધીને મહાબલ પ્રમુખ સાતે અનગારો જ્યા સ્થવિર ભગવત હતા ત્યાં આવ્યા
(उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदति नमसति, वदित्ता नमसित्ता, वहणि चउत्थ जाब विहरति)
ત્યાં જઈને તેમણે સ્થવિર ભગવતે ને વદન અને નમસ્કાર કર્યો, અને વદન તેમજ નમરકાર કરીને તેઓ ત્યાર બાદ ચતુર્થ વૃષ્ઠ અષ્ટમ વગેરે તને
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૧૭૪
माताधर्मकथासूत्रे
वजाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिई महव्वलस्स देवस्स पडिपुन्नाई बत्तीस सागरोवमाई टिई || सू०८||
टीका- 'तएण ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु ते महानलममुसाः सप्तानगा रास्तेनोदारेण इहलोकाद्याशसारहितत्वेन प्रधानेन तपः कर्मणा ' वा 'शुरुकाः शुष्कशरीराः रक्तमासशोषणात् ' भुक्सा ' नुभुक्षिताः बहुतपस्वित्वात् । 'जहा खदओ' यथा सन्दकः स्कन्दकनामकोsनगारः भगवतीसूत्रे द्वतीयशतके प्रथ मोद्देशके वर्णितस्तथा सजाता इत्यर्थः, नगर- एतावान् विशेषः - ' थेरे ' स्थविरान् स्कन्दको महवीरमापृष्टवान् एते तु स्थविरानित्यर्थः आपृच्छय ' चारुपव्त्रय 'तरण ते महव्यलपामोखा' इत्यादि ।
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टीका- (i) इसके बाद (ते मरव्नल पामोक्खा सत्त अणगारा) वे महबल प्रमुख सातो ही अनगार ( तेण ओरालेण सुक्का भुक्खा जहा खदओ ) भगवती सूत्र के द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में वर्णित स्कदक मुनि की तरह उसे इहलोक परलोक आदि की आशसा से रहित होने के कारण प्रधान तप से शुष्क शरीर एन बुभुक्षित ( भूख युक्त ) हो गये । ( नवर थेरे आपुच्छितो चारूपव्यय दुख्हति' दुरुहिता जाब दो मासियाए सरणाए सवीस भत्तस्य चउरासीह वाससयसहस्साइ सामण्णपरियाग पाउणति ) किन्तु रकदक मुनि की अपेक्षा इन सातों अनगारो मे यह विशेषता हुई कि स्कदक मुनि ने महावीर प्रभु से आज्ञा ली और इन्हों ने स्थविर भगवतो से आज्ञा ली " तपण ते महाबल पामोक्खा सत्त अणगारा 'छत्याहि
टीजर्थ - ( सरण ) त्यारमा ( महाबलपामोक्सा सप्त अणागरा) भाजस प्रभु साते मनगारी ( तेण ओरालेण सुक्का भुक्सा जहा खदओ ) लगवती સૂત્રના ખીજા શતનકના પહેલા શકમા વર્ણિત સ્કક મુનિની જેમ તે ઇહલેાક અને પરલેાક વગેરેની અરા સા ( ઈચ્છા) રહિત હાવા ખદલ પ્રધાન તપથી શુષ્ક શરીર અને જીભુક્ષિત ( ભૂખ્યા ) થઇ ગયા
( नवर थेरे आपुच्छित्ता चारु पच्चय दुरूहति, दुरूहित्ता जाव दो मासियाए सहणाए सवीस भत्तस्य च उरासीइ वाससय सहस्साइ सामण्णपरियागं पाउणति ) સ્ક દક મુનિએ જ્યારે ભગવાન મહાવીર પાસે આજ્ઞા મેળવી હતી ત્યારે એ સાતે અનગારે એ ભગવત સ્થવિર પાસેથી આજ્ઞા મેળવી સ્કર્દમુની કરતા એમના વિશે આટલું જ વધારે જાણવુ જોઇએ આ પ્રમાણે સાતે અનગા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिपट् राजचरितनिरूपणम् २७५
चारुपर्यंत चारुनामक पर्वत ' दुमहति ' दुरोहन्ति = आरोहन्ति, ' दुरुहित्ता' दूरध =आरुह्य यानद् पृथिवीशिलापट्टक प्रमार्ण्य पादपोपगमन स्त्रीकृत्य द्विमासिक्यासलेखनया सर्विशतिक भक्तरात 'चउरासीइ वाससय सहस्साह' चतुरशीर्ति वर्पशतसहस्राणि= चतुरशीतिलक्षवर्षाणि श्रामण्यपर्याय = चारित्रपर्याय पालयन्ति, पालयित्वा चतुरशीविं पूर्वशत सदस्राणि चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि सर्वायु' पालयित्वा जयन्ते निमाने देवतयोपपन्ना: देवत्वेनोपपातमुत्पत्ति प्राप्ताः ।
तन वलु अस्त्येक काना देवाना द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि यावत् स्थिति । तत्र खलु महावलवजना पण्णा देवाना देशोनानि द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः । महावलम्य देवस्य प्रतिपूर्णानि द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिर्जाता || सू०८ ॥ इस तरह ये सानों ही अनगार भगवत स्थविरो से आज्ञा लेकर चारु नाम के पर्वत पर पहुँचे वहा पहुँच कर उन्हों ने वहां के शिलापट्टक की प्रमार्जमा की - बाद मे पादपोपगमन सधारा धारण कर लिया । दो मास की सलेखना से १२० भक्तो का छेदन कर उन्हों ने ८४ लाख वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालक किया ।
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इस तरह अपनी ८४ लाख पूर्व की समस्त आयु समाप्त कर अन्त में देह का परित्याग कर वे पांच अनुत्तर विमान के अन्दर जयन्त विमान मे ( तत्यण अत्थे गहयाण देवाण बत्तीस सागरोवमाइ० ठिई तत्यण महव्यलवज्जाण उन्ह देवाण देणाङ बत्तीस सागरोवमा इठि महव्यलस्स देवस्स पडिपुन्नाड बत्तीस सागरोवमाह ठिई ) वहां कितने क देवो की बत्तीस सागर प्रमाण स्थिति है सो महानल को छोड़कर छह देवो की स्थिति कुछ कम बत्तीस सागर की हुई और महानल की स्थिति पूर्ण छत्तीस मागर की हुई । " सूत्र ९
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ભગવત સ્થવિરાની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને ચારુ નામે પ°ત ઉપર પહાચ્યા ત્યા પહેાચીને તેઓએ પાપાપગમન સથારી ધારણ કર્યાં
આ પ્રમાણે પેાતાના ૮૪ લાખ પૂર્વનું સપૂર્ણ આયુષ્ય પૂરુ કીને અન્તે દેહ છેડીને તે પાચ અનુત્તર વિમાનમા જયન્ત નામના વિમામા દેવના પર્યાયથી જન્મ પામ્યા
(तत्थण त्या देवाण बत्तीस सागरीवमाइ० ठिई - तत्यण महन्नल चज्जाण उण्ह दवा देमृलाइ बत्तीस सागरोत्रमाह ठिई )
ત્યના કેટલાક દેવાની ખત્રીશ સાગર પ્રમાણુ સ્થિતિ છે મહાબલને ખાદ કરતા બીજા ૭ દેવાની સ્થિતિ અત્રીશ સાગર પ્રમાણમા ઘેાડી એછી થઇ અને મહાખલની સ્થિતિ પૂરી ખત્રીરા સાગર જેટલી થઇ ! સૂત્ર
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मूलम्-तएणं ते महबलवज्जा छप्पिय देवा ताओ देव. लोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिईक्खएणं अणंतरं धयं चइत्ताइहेवजंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइवसेसु रायकुलेसु पत्तेय पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायायासी, त जहा पडिबुद्धी इक्खागराया, बदच्छाए अगराया, सखे कासिराया, रुप्पी कुणा• लाहीवई,अदीणसत्तूकुरुराया, जितसत्तू पचालाहिवई। सू०९ ॥
टीका-'तएण ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तर ते महाबलाः पडपि देवास्त स्माद् देवलोकाद् जयन्ताद् विमानाद् । 'आउखएण' आयुः क्षयेण-देवसम्बन्धिन आयुष्पर्मदलिकनिर्जरणेन, देवसम्पन्ध्यायुः क्षयेण 'भास्सए ' भगक्षयेण भवनि बन्धनभूतकर्मणा गत्यादीना निर्जरण ठिइक्खएण' स्थितिक्षयेण देवसम्बन्धि स्थितिक्षयेण तेनानन्तर चय=देवशरीर त्यत्तया इहैव जम्बुद्वीपे नाम्नि द्वीपे
'तएण ते महन्यलपज्जा छप्पियदेवा' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके योद (ते महव्यल वज्जिया) महाबल के सिवाय वे ( छप्पिय देवा ) छरो देव (ताओ देवलोगाओ आउक्खएण भवक्खएण ठिइक्खएण) उस देवलोक से जयन्त विमान से-देवलोक सबन्धी आयु कर्म के दलिको की निर्जना हो जाने से अर्थात् देव पर्याय सबन्धी आयु के क्षय हो जाने से भव के कारण भूत गत्यादि कों की निर्जना हो जाने से स्थिति के क्षय हो जाने से ( अणतर ) उसी समय (चय चहत्ता ) देव शरीर को छोड़कर (इहेव जद्दीवे हीवे भारहे वासे ) इसी जवू द्वीप नाम के द्वीप में, भारतवर्ष मे-भरत क्षेत्र में
'तएण ते महब्बल बज्जा छप्पिय देवा ' त्याल
टी-(तएण) त्यामा (ते महब्बल वज्जिया) महाम सिवाय ते (छप्पियदेवा) । (ताओ देवलोगाओ आउक्खएण भवक्खएण ठिइक्खएण) તે દેવલેકના જયત વિમાનથી દેવલેક સ બ ધી આયુ કર્મના દલિકેની નિર્જરા થઈ જવાથી એટલે કે દેવ પર્યાપ સ બ ધી આયુષ્ય ક્ષય થવાથી ભવના કારણ ભૂત ગતિ વગેરેની નિજ રા થઈ જવાથી, સ્થિતિને ક્ષય હોવાથી (अर्णतर) a समय०४ (घयचइचा) व शरीरने छ।डीने (इश्व जबूहोवे दीवे भारहे वासे) पूरी५ नामना मेरद्वीपमा-भारत वर्षमा-मरत त्रमा
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ महायलादि पट्राजचरितनिरूपणम् २७७ (मध्यजम्मूद्वीपे ) भारते वर्षे भरत-क्षेत्र, विशुद्धपिठमावशेष राजकुलेषु प्रत्येक २ कुमारतया ' पच्चायाया होत्या प्रत्युत्पन्ना अभूवन तद्यथा-१. प्रति बुद्धिः-इक्ष्वाकुराज प्रथमो जीव प्रतियुद्धि नामका कोशलदेशाधिपतिः । यत्रदेशेअयो-यानगरी २ चन्द्रच्छायः-अङ्गराजः द्वीतीयो-घरणि जीयः चन्द्रच्छायनामाऽङ्ग देशाधिपतिः यत्र चम्यानगरी ३ शइख काशिराज तृतीयोऽभिचन्द्रजीवः शङ्खनामा-काशिदेशाधिपतिः यत्र वाराणसी नगरी। ४ रुक्मी-कुणालाधिपतिः चतुर्थः पूरण जीवः -रुक्मीनामकः कुणालदेशाधिपति यन श्रावस्ती नगरी । ५ अढीनशत्रु:-कुमराजः, पञ्चमो वसु जीरोऽदीनशत्रुनामक' कुरुदेशाधिपति । यन (विसुद्धपिइमाइबसेसु ) विशुद्ध माता पिता के वश वाले राज कुलों मे (पत्तय २) पृथक २ (कुमारत्ता पच्चायायासी ) पुत्र रूप से उत्पन हुए । (तजहा) इनमें (पडियुद्धी इक्खागराया चदच्छाए अगराया सखे कासि रापा, रुप्पी कुणालाहिवह, अदीणसत्त कुरु रापा, जितमत्तू पचालाहिवई ) प्रथम जो अचल को जीर या वह कोशल देश का अधिपति हुआ, जिस में अयोध्या नगरी है-इसका नाम वहा प्रतियुद्ध हुआ। दूसरा जिसका नाम धरण या वह चन्द्र छाया नाम का अङ्ग देश का अधिपति हुआ। इस अग देश में चपा नगरी है। तीसरा जो अभि चन्द्र का जीव या वह काशी देश का राजा हुआ। वहा, इसका नाम शस हुआ। इम काशी देश मे बनारस नाम की नगरी है। चौथा जो पूरण का जीव गा घर कुणाल देश का अधिपति हुआ उसका वहा नाम रुक्मी या । इस कुणाल देश मे श्रावस्ती नगरी हे । पाचवा जो "विसुद्धपिइमाइव सु" विशुद्ध मातापिताना शासनामा (पत्तया) नुहा (कुमारत्ता पच्चायायासी) पुत्र ३पेम पाभ्या (त जहा) मा अधामा
(पडिवुद्ध इक्खागराया चदच्छाए अगराया ससे कासिराया रुप्पी कुणाला हिवड अदीणसन कुरुराया, जितसत्तू पचालाहिवई)
પહેલે અચલને જીવ કેરાલ દેરાને અધિપતિ થયે કેશલ દેશનું પાટ નગર અયોધ્યા નગરી હતુ અચલને જીવ ત્યાં પ્રતિબુદ્ધ નામે પકા
બીજે ધરણ અગ દેશને અધિપતિ થયે તેનુ નામ ચદ્રરાય હતા ત્રિીજા અભિચક્રનો જીવ કાળી દેશને રાજા થયો તે ત્યા શખ નામે પ્રસિદ્ધિ પામ્યો આ કાળી દેશમાં બનારસનામે નગરી છે ચોથા પૂરણને જીવ કુણાલ દેશને અધિપતિ થયે ત્યાં તેનું નામ કમી હતુ આ કુણાલદેશમાં
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भाताधर्मकथा देशे-हस्तिनागपुरम् । .. जिनशनु पाञ्चालाधिपतिः, पष्टो वैश्रमण जीयो जित शत्रुनामकः पाञ्चालदेशाधिपतिः, यत्रदेशे काम्पिल्य नगरम् । एव पडपि पृथक २ स्थानेषु राजानो जाताः ।। मू०९ ॥
मूलम्-तएणं से महव्वले देवे तीहिं णाणेहिं समग्गे उच्चठाणट्ठिएसु गहेसु सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइएसु सउणेसु पयाहिणाणुकूलसि भूमिसपिसि मारुयसि पवायसि निप्फन्नसस्लमेइणीयसि कालंसि पमुइयपक्कीलिएसु जणवएसु अद्धरत्तकालसमयसि अस्सिणीणक्खत्तेण जोगमुवा गएण जे से हेमताण चउत्थे मासे अट्टमे पक्खे फग्गुणसुद्धे तस्स णं फग्गुणसुद्धस्स चउस्थि पक्खेण जयताओ विमाणाओ बत्तीस सागरोवमडिईयाओ अणतर चय चइत्ता इहेब जबूद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुभगस्स रनो पभावईए देवीए कुच्छिसि आहारवकंतीए सरीरवकताए भववक्क तीए गम्भत्ताए वकते तरयणि च णंचोदसमहासुमिणा वन्नओ भत्तारकहण सुमिणपाढगपुच्छा जाव विहरइ ॥ सू० १०॥ वस्तु का जीव था वह कुरु देश का अधिपति हुआ-वहा उसका नोम अदीन शत्रु था। कुरु देश में हस्तिनाग पुर है । तथा छठा जो वैश्रवण का जीव था पाञ्चाल देश का अधिपति हुआ-इसका वहा नाम जित शत्रु पड़ा था । इस मे कपिलो नाम की नगरी है।
इस तरह ये छहो पृथक र स्थानो मे राजा हुए। सूत्र " ९" શ્રાવસ્તી નગરી છે પાચમો વસુને જીવ કુરુદેશને અધિપતિ થશે તેનુનામ અદીન શત્રુ હતુ કુરુ દેશમા હસ્તિનાપુર નગર છે તેમજ છો વિશ્રવણને જીવ પાચાલ દેશને અધિપતિ થયે તેનું નામ જિત રાવ્યુ હતુ પાચલ દેશમાં કપિલા નામે નગરી છે
આ પ્રમાણે તેઆ છએ જુદા જુદા દેશમાં રાજ્ય પદે સુશોભિત थया ॥ सूत्र " "॥
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अगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादि पट्ाजचरितनिरूपणम् २७९
टीका- ' तएण से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर स महाबलो देवस्त्रिभिर्ज्ञानैः ' समग्गे ' समग्र सयुक्तः, ' उच्चद्वाणट्टिएसु' उच्चस्थान स्थितेषु ग्रहेषु सूर्यादिपु सौम्यासु दिग्दाहाद्युत्पातरहितासु ' दिसामु ' = दिन वितिमिरासु तीर्थकर गर्भावासमभावाद् व्यपगतान्धकारासु विशुद्धासु = झझावातरजः कणादि रहितत्वेन निर्मला ' जइएस ' जाविकेषु राजदीना विजयसूचकेषु ' सउणे ' शकुनेषु काकरुतोदिषु ' पर्याहणाणुकृलसि ' प्रदक्षिणानुकूले प्रदक्षिणावर्तत्वात् प्रदक्षिण, शुभावह सुरभिशी तमन्दत्वादनुकूलन तस्मिन् 'भूमिसप्पिसि ' भूमिसर्पिणी= भूमौ प्रसरणशीले मारुते वायौ, ' पवायसि ' प्रवाते वातु प्रवृत्ते ' निष्फनसस्स मेइणीयसि ' निष्पन्नसस्य मेदिनी के निष्पन्नसस्या मेदिनी भूमिर्यस्मिन् तथाभूते काले ' मुइयपवीलिए ' प्रमुदितमक्रीडितेषु जनपदेषु अर्धरात्रकालसमये अश्विनीनक्षत्रेण ' जोग' योग चन्द्रयोगम्, उपागतेन प्राप्तेन यःस = प्रसिद्ध 'हे मताण' हेमन्ताना मार्गशीर्पादि फाल्गुनान्ताना शीतकालमासाना मध्ये चतुर्थो मासः, अष्टम पक्षः कृष्णादि मासस्य शास्त्रसय मत्यादष्टमत्व पक्षस्येति भावः फाल्गुनशुद्धः=फाल्गुनस्य शुद्धः शुक्ल द्वितीयपक्षोऽस्तीत्यर्थः । तस्य फाल्गुन शुद्धस्य ' चउत्थिपक्खे ' चउर्थीपक्षे फाल्गुन शुद्धस्य पक्षस्य या चतुर्थी तिथिस्तस्याः पक्ष पार्श्वेऽर्धरा निरिति भावः तत्र - 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, जयन्ताद् विमानाद् द्वात्रिंशत्सागरोपमस्थितिकादनन्तर चय = देवसम्बन्धिशरीर त्यक्त्वा - इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे = मध्यजम्बूद्वीपे भारते वर्षे = भरतक्षेत्रे मिथिलाया राजधाया
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" तरण से महत्यले ' इत्यादि ।
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद ( से महन्यले देवे ) वह महावल का जीव देव तीहिं णाणेहिं समग्गे) मति ज्ञान श्रुतज्ञान और अवधि ज्ञान इन तीन ज्ञानों का धारी हो कर ( अणतर ) उन छहो के बाद अपनी स्थिति पूर्ण कर ( जयताओ विमाणाओ ) उम जयत विमान से (चइत्ता) चल कर ( इहेव जबूद्दीवे द्दीवे ) इसी जबू द्वीप नाम के द्वीप मे ( भार
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तपण से महन्त्रले ' त्याहि
टीडअर्थ - ( तएण ) त्यारमाह " से महन्त्रले देवे " देव भहामसनो छ " तीहिं णाणेहि समग्गे " भतिज्ञान, श्रुतनान भने अवधिज्ञान था ये જ્ઞાનાને ધારણ કરનાર થઈને “ अण तर " ते छोना पछी पोतानी स्थिति जय ताओ विमाणओ " પૂરી કરીને “ જ્યત विभानथी " " चइता ચાલીને 'इदेव जवृद्दीवे दीवे " ८४ जू द्वीप नामना सा द्वीपमा ( भार हे वासे )
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ज्ञाताधर्मकथासू
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कुभगस्स कुम्भकस्य कुम्भकनामवस्य राज्ञः ममावत्याः = प्रभावतीनाम्या देव्यः ' कुच्छिमि ' कुक्षौ ' आहाररक्कतीए ' आहारव्युत्क्रान्त्या=आहारपरिवर्त नेन मनुष्योचिताहारग्रहणेनेत्यर्थः, 'सरीरवरकतीए ' शरीरव्युस्कान्तया = देवश परिवर्तनपूर्वक मनुष्यशरीरग्रहणेनेत्यर्थ भररक्कतीए भाव्युकान्या = ' देवभव विहाय मनुष्यभरग्रहणेन 'गन्मत्ताए नक्कते' गर्भतया व्युत्क्रान्तः = गर्भरू पेण समुत्पन्नः । तस्या रजन्यां च खलु चतुर्दश महास्माः ममानती देव्या दृष्ट | हे वासे) भरत क्षेत्र मे ( मिहिलाए रामराणीग ) मिथिला राजधानी में (कुभगस्स रन्नो पभा देवी कुच्छिसि कुभक राजाकी प्रभावती देवी की कुक्षि मे ( आहार वक्कनीए) आहार के परिवर्तन से - मनुष्यो चित आहार के ग्रहण से, ( सरीरवक्कनीए ) शरीर की व्युत्क्रान्ति से देव शरीर के परिवर्तन पूर्वक मनुष्य शरीर के ग्रहण से, (भव वक्क तीए ) भव की व्युत्क्राति से देव भव को छोड़कर मनुष्य भव के ग्रहण से ( भत्ता वक्क ते) गर्भरूप से उत्पन्न हुए ।
जब यह प्रभावती की कुक्षी मे गर्भ रूप से उत्पन्न हुए तब (गहे सु उच्चट्टानट्ठिएस) सूर्यादिग्रह उच्चस्थान पर स्थित थे । ( दिसासु सोमासु ) चारों दिशाये दिग्दाह आदि उपद्रयों से रहित थी ( विति मिरासु विद्वासु ) तीर्थकर के गर्भावाम के प्रभाव से वे अन्धकार रहित वन गई थीं एव अझावात रजकण आदि से रहित हो कर निर्मल हो गई थी ।
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भरत क्षेत्रमा ' 'मिहिलाए रायद्दाणीए " मिथिला राज्धानीमा कुभगासरन्ना पभावइए देवीए कुच्छिसि "हुल राजनी अलावती हेवीना उरभा " आहार वक्कतीए " भाडाराना परिवर्तनथी मानवोचित आहारना अबुथी " सरीर वक्कतीए " शरीरनी व्युष्अतिथी भेटते द्वेव शरीरना परिवर्तन तेमन मनुष्य शरीरना श्रद्धलुथी " भववक्कतौए " लवनी व्युष्मतिथी देव लवने ત્યજીને મનુષ્ય ભવને ગ્રહણ કરવાની આપેક્ષાથી गन्ताए वक्कते " ગ રૂપે જન્મ પામ્યા
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22
न्यारे तेथे। प्रभावतीना उडरमा गर्ल३ये भवतय त्यारे " महेसु उच्चद्वाण ट्ठिए સૂર્ય વગેરે ગ્રહે! ઉચ્ચ સ્થાને હતા વિસાસુ સોમાણુ ચારે દિશાએ દિગ્દાડુ વગેરે ઉપદ્રા વગરની હતી " वितिमिरासु विसुद्धासु તીર્થંકર ના ગર્ભવાસના પ્રભાવથી દિશાએ પ્રકાશ યુક્ત તેમજ ઝ્રઝ્રનિલ રજકણ વગેરેથી રહિત થઈને સ્વચ્છ બની ગઈ.
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ८ महाबलपटू राजचरितनिरूपणम् २८१
उस समय (सउणे सु जइण्तु) काक आदि पक्षी, राजा आदि के विजय सूचक शब्द बोल रहे थे। (मामयसि) हवा भी (पयाणु कूलसि ) प्रदक्षिणावर्त हो कर ( पवायसि ) वह रही थी । सुरभी और शीतल मन्द होने के कारण वह अनुकूल थी । ( भूमि सपिसि ) भूमि का स्पर्श वह कर रही थी । (कालसि ) वह समय ऐसा था कि जिसमे (निष्फन्नसस्समेहणीयसि ) निष्पन्न सस्य से मेदिनी आच्छादितहरी __ भरी घनी हुई थी (जणव सु) जन पद भी (पमुइयपरकीलीएस्तु)
हर्ष से हर्पित बने हुए थे और विविध प्रकार की क्रीडोओ में रत थे( अद्वरत्तकालसमयसि) यह समय अर्द्ध रात्रि का था । (अस्सिणी णवत्तेण जोगमुवगएण) इस में अश्विनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग हो रहा था (जे से हेमताण चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे फग्गुण सुद्ध) यह अर्धरात्रि का समय फालगुन मास के शुक्ल पक्ष का था। यह मास हेमत काल के मासो में चौथा मास तथा ८ वां पक्ष है। (तस्स ण फरगुणसुद्धस्स चउत्थि पक्खे ण) ऐसी उस फाल्गुन शुक्ल चौथ की अर्द्धरात्रि के समय में वे महायल देव अपनी ३२ सागर की स्थिति पूर्ण करके उस जयत नामक विमान से चव कर प्रभावती देवी
ते मते (सउणेसु जइएसु) 1131 वगैरे पक्षीम। २रान वगैरेन। भाटे विल्यने सूयवनाश हो ग्यारी रह्या ता ( मारयसि) ५वन पy (पयाणुकूलसि) प्रक्षिात यन (पवाय सी) पाते तो शान भन्द भने सुगए युद्धत मनु लागतो तो ' भूमिमपिसि ' ते पृथ्वीना ५५ ३२ता पाते हो तो 'कालसि' मावो मुगल समय तो मा (निप्पन्नसरसमेइणिय सि ) निष्पन्न धानथी महिनी पृथ्वी' दसम माप २५ थी ८७ २डी ती 'जणवएसु' ५६ ५। 'पमुइय पकीलीपसु' હર્ષમાં તરબોળ થઈ રહ્યુ હતુ અને જાત જાતની ક્રીડાઓમાં મસ્ત હતું “સદ્ધ रत्तकालसमय सि' मधी शतनामत तो 'अरिसणीणस्सत्तण जोगमुवगए ण' अश्विनी नक्षत्रने यन्द्रनी साथै यो थ६ २हो तो 'जे से हे मताण चऊत्थे मासे अट्ठमे परखे फरगुणसुद्धे 'शगए भडिना ना शुख पक्ष यासत હતે આ મહિને હેમત કાળના મહિનામા એથે મહિને તેમજ આઠમ ५६ छ 'तस्सण गुणसुद्धस्स चउत्थि पकसेण' मेवी र शुस ચેના અડધી રાતના વખતે મહાબલ દેવ પિતાની બત્રીશ સાગરની સ્થિતિ પૂરી કરીને તે જ્યત નામક વિમાનમાથી ચવીને પ્રભાવતી દેવીના ગર્ભમાં
शा० ३६
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ज्ञाताधर्मन थाङ्गसत्रे
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वर्णक:= तेषां स्वप्नाना वर्णन वाच्य तच्चान्यत्र सनिस्तर द्रष्टव्यम् तेषां नामानि केवल मोच्यन्ते -- गज - नृपभ-सिंह- लक्ष्मी - पुष्पमाला-चन्द्र-सूर्य-ध्वज पूर्णक छश- पद्मसर - समुद्र - देवनिमान - रत्नराशिनहय इति । भर्तृधनम् स्वप्नवृत्त भ निवेदयतीत्यर्थः । स्वप्नपाठक पृच्छा= स्वप्नफलवाचकान समाहृय भर्त्रा कुम्भक्ट पेण स्वप्न फल पृच्छा कृतेत्यर्थः । यावत् स्वप्नपाठकैः राप्नफल निवेदित, तत्स मधमाध्ययने धारिणीदेव्या अधिकारे यथा कथित तथैव वान्य विशेषस्तु धारि या स्वप्ने गज एव दृष्टः, प्रभावत्वा तु चतुर्दश स्वप्ना इति । एव च तैरुक्तम्के गर्भ में आये । ( त स्यणि च ण चोद्दस महासुमिणा वन्नओ ) उस रात्रि में उस प्रभावतीदेवी ने १४ मा स्वप्न देखे । इन महा स्वप्नों का सविस्तर वर्णन अन्यत्र से जानना चाहिये हम यहां उन के नाम निर्देश करते है जो इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ध्वज, पूर्णकलश, पद्मसर, समुद्र देवविमान, रत्नराशि और अग्नि । इन स्वप्नो को देखकर प्रभावती ने अपने पति कुमक राजा से कहा राजा ने उसी समय स्वप्नपाठकों को बुलाया और उनसे इन स्वप्नो के फल को पूछा ।
उन्हों ने इन स्वप्नों का क्या फल है यह बात राजा को कही । यह सब विषय इसी के प्रथम अध्ययन में धारिणी देवी के अधिकार में जिस प्रकार से प्रकट किया गया है उसी प्रकार से यहा भी जानना चाहिये । धारिणी देवी ने स्वप्न मे केवल एक हाथी ही देखा था । प्रभावती ने तो चौदह महा स्वप्न देखे । अन्त मे उन स्वप्न पाठकों ने कहा- राजन प्रभावती देवी ने जो ये चौदह सुन्दर स्वप्ने देखे हैं - उन
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સ્થિત થયા त रयणि चण चोदसमहासुमिणा वन्नओ ' ते रात्रभा પ્રભાવતી દેવીએ ૧૪ સ્વપ્નો જોયા આ બધા મહાસ્વપ્ના વિષેનુ સવિસ્તર વન જિજ્ઞાસુઓએ બીજેથી જાણી લેવુ જોઈએ પ્રભાવતી દેવીએ यद्र, सूर्य, ध्व०४, पूराउजरा, पद्मसर, समुद्र, हेवविभान रत्नशशि भने અગ્નિ આટલી વસ્તુએ સ્વપ્નમા જોઇ હતી આ સ્વપ્નેને જોયા ખાદ પ્રભા વતીએ પેાતાના પતિ કુંભક રાજાને સ્વપ્ન વિષે કહ્યુ અને તેમણે તરત જ સ્વપ્નપાઠકોને મેલાવ્યા અને તેમને આ સ્વપનાના ફળ વિષે પૂછ્યુ
સ્વપ્ન પાઠકાએ આ સ્વપ્નાનુ ફળ શુ થશે તેની અધી વિગત રાજાને કહી સભળાવી જ્ઞાતાધ્યયન ના પ્રથમ અધ્યપનમા ધારિણિદેવીના પ્રસ ગમા આ વિષે સવિસ્તર વર્ણવ્યુ છે અહીં પણ તે મુજબ જ સમજી લેવુ જોઇએ સ્વપ્નમાં ધારિણી દેવીએ ફક્ત એક હુથી જ જોયા હતા પણ પ્રભાવતીએ તે! ચૌદ મહા સત્રના જોયા હતા સ્વપ્નનુ :
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अनगारर्मामृतपिणी टीका अ० ८ प्रभावतीदेवी दोहदादिनिरूपणम्
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हे राजन् ! प्रभावती देव्या चतुर्दश शोभनाः स्वप्ना अवलोकिताः । तत्प्रभावाच्च क्रवर्ती वा तीर्थकरो वा भविष्यति । स्वप्नफल श्रुत्वा सा प्रभावती गर्भ सुखसुखेन वहमाना विहरति = आस्ते स्म || सू० १० ॥
मूलम् - तपणं तीसे पभावईए देवीए तिन्ह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जलथलयभासुरपभूषणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं अत्थुयपच्चत्थुयंसि सयणिज्जंसि सन्निसन्नाओ सपिणबन्नाओ य विहरति, एग च महं सिरीदामगड पाडलमल्लिय चपय असोग पुन्नाग नाग मरुयगदमणगअणोज्जकोज्जयपउरं परमसुहफासद रिसणिज्ज महयागंधद्बणि मुयंतं अग्धायमा - णीओ डोहल विर्णेति ।
तणं ती प्रभावती देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउभूय पासित्ता अहासन्निहिया वाणमतरा देवा खिप्पामेव जलथलय० जाव दसद्भवन्नमल कुंभग्गसो य भारग्गसो य कुंभगस् रन्नो भवसि साहरंति, एगं च णं मह सिरिदामगड जाव मुयत जाव उवर्णेति, तएण सा पभावती देवी जलथलय जाव मल्लेणं जाव डोहल विणेइ, तपनं सा पभावती देवी पसत्थ
के प्रभाव से इस के या तो कोई तीपंकर जन्म लेगा या कोई चक्रवर्ती । इस प्रकार स्वप्न का फल सुनकर प्रभावती बडी प्रसन्न हुई और उस ने आनंद के साथ गर्भ को धारण करते हुए सुखपूर्वक समय को व्यतीत किया । सूत्र
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१०
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• હે રાજન્ ! પ્રભાવતી દેવીએ ચૌદ ઉત્તમ ના જોયા છે, તેના પ્રભાવ થી એમના ઉરથી તેા તીથ કર જન્મલેશે કા કાઇ ચક્રવર્તી ! ” આ પ્રમાણે સ્વપ્ન ફળ સાભળીને પ્રભાવતી ખૂબજ પ્રસન્ન થઇ અને સુખેથી ગર્ભ ધારણ કરી ને સમય પપાર કરવા લાગી ॥ સૂર ૧૦ ॥
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छाताधर्मकथासूत्रे
डोहला जाव विहरह, तरणं सा पभावई देवी नवण्ह मासार्ण बहुपडिपुपणाणं अद्धट्टमाण यरत्तिदियाण जे से हेमंताणं पढम मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्सण एक्कारसीए पुव्त्ररत्तावरत्त० अस्सिणी नक्खत्तेण जोगमुबागएण उच्चट्टानट्टिएसु गहेसु पमुइयपक्काीलिए जणवएम आरोग्गारोग्गं एकूणवीसइम तित्थयर पयाया ॥ सू० ११ ॥
टीका- ' तपण तीसे ' इत्यादि - ततस्तदनन्तर खलु तस्या प्रभावत्या देव्या त्रिपु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु = अशेषत: सम्पूर्णेषु सत्सु अयमेततूप' दोहदः गर्भसद्भाव निताभिलापः प्रादुर्भूत. धन्याः सलुता अम्मा' = पुनमातरः या बलु जलथलयभासुरप्पभूएण 'जलस्थलजभास्वरमभू - तेन जलेषु स्थलेपुच यज्जात भास्वर = विकसित, प्रभूत प्रचुर, तेन ' दसद्धान्नेण' दशार्ध वर्णेन पञ्चवर्णयुक्तेन माल्येन मारयेभ्यो हित माल्य = पुष्पजात, तेन ' अत्युयपचत्थुयसि ' आस्तृत प्रत्यास्तृते क्रमश उपर्युपरि समाच्छादिते शयनीये शरपाया ' सन्निसन्नाओ ' सन्निपण्णा=सनिविष्टा 'सण्गिवन्नाओ' सनिपन्नाः सुप्ताथ विहरन्ति सुखेन तएण तीसे पभावईए' इत्यादि ।
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टीकार्थ - (तरण) इस के बाद (तीसे पभावईए देवीए ) उस प्रभावती देवी के जय (तिष्ट मासाण बहुपडिपुत्राण ) तीन मास अच्छी तरह से पूर्ण हो चुके-तन (इमेयाख्वे दोहले पाउन्ए ) उसे इस प्रकार का दोहला उत्पन्न हुआ- ( धन्नाओ ण ताओ अम्मयाओ ) वे माताएँ धन्य हैं ( जाओ ण जल थलय भासुरप्पभूषण दसद्ध बन्ने णं मल्लेण ) जो जल मे एव स्थल में उत्पन्न हुए विकसित पचवर्णों के प्रभृतपुष्पों से ( अत्य पच्चत्युयसि सयणिज्जसि सन्निसन्नाओ मन्निवन्नाओ य 'तरण तीसे पभावइए । , त्याहि !
टीअर्थ - (तएण ) त्यारणाह (तीसे प्रभावइए देवीए ) प्रभावतीदेवीने न्यारे ( तिन्ह मासाण बहुपडिपुन्नाण ) त्रशु भडिना सारी शेते पसार थ शु¥या त्यारे (इमेयारूवे दोहले पाउ भूए) तेने या प्रमाणे होई उत्पन्न थयु ( धन्नाजो ण ताओ अम्मयाओ ) ते भाता थे। धन्य छे (जाओ ण जल थलय भासुरपभूषण दसद्धवन्नेण मल्लेण ) थे। भज भने स्थनमा उलवेसा અને વિકાસ પામેલા પાંચરગના પુષ્કળ પ્રમાણુમા એકઠા કરેલા પુષ્પાથી
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ प्रभावतीदेवी दोहदादिनिरूपणम् २८५ तिष्ठन्ति ता अम्बा वन्या , ति पूर्वेण सम्पन्ध । एकच महत् विशाल 'सिरि दामगड' श्रीदामकाण्ड श्रीदाम्ना-शोभायुक्तमालाना काण्ड समूह 'पाडलमल्लि यचपय- असोग- पुन्नाग-नागमरुयग-दमणग-अणोज्ज कोज्जयपउर' पाटलामल्लिका- चम्पिका-ऽशोक- पुनागनाग - मरुवक-दमनका- ऽनवद्यकुब्ज प्रचुर, पाटलाधा पुष्पजातयः- पाटलपुप्प, 'गुलाप' इति प्रसिद्ध मल्लिकापुप्प-चम्पकपुष्पम् , अशोकपुष्पम्, पुन्नागयुप्पम् , नागपुप्प, मरुवक पत्रजाति विशेप , दमनकपुष्पम् , अनवध - सुन्दरः, कुब्जक. शतपत्रिका विशेष , एतानि प्रचुराणि यत्र तत् तथा, 'परममुहफासदरिसणिज्ज' परममुखस्पर्शदर्शनीय परमसुखदः स्पर्शीयस्य तद् तच्च दर्शनीय दृष्टिसुग्वद चेति 'महया गधद्धाणि' महासुरभिग न्धप्राणि महासुरभिगन्धगुण तृप्तिहेतु पुद्गलसमूह मुञ्चत् प्रसारयद् तद् आजिघ्रन्त्यः विति) इस तरह एक एक पारके क्रमशः पुष्पों के अनेक स्वरो से समाच्छादित हुई शग्या पर बैठती है सुख से शयन करती है। (एग च मह सिरीदामगड पाडलमल्लियचपयअसोगगुन्नागनागमस्यगदमणगणोज्जकोज्जयपउर परमसेरफासदरिसणिज्ज सहवागवद्धणिमु यत आधायमाणीओ दोहल विणेति) और अद्वितीय श्रीदामकांड को-शोभायुक्त मालाओ के समूह को कि जिसमें पाटल (गुलाब) मलिका (मोधरा) चपक, अशोक, पुम्नाग, नाग, मरुवा, दमनक एव सुन्दर कुजक के पुष्पो का प्राचुर्य है, जिसका स्पर्श परम सुख कारक है और जो दृष्टि को आनद दायक है तथा तृप्ति कारक महासुरभि गध गुण वाले पुद्गलों को जो फैला रहा है सू घती हुई अपने गर्भ मनोरथ (भत्थुय पञ्चत्थुयसि सयणिज्जसि सन्निस्नाओ सन्निवनाओ य विहर ति) 21 રીતે અનુક્રમે પુષ્પન થરથી ઢંકાએલી એવી શા (પથારી) ઉપર બેસે છે અને સુખેથી શયન કરે છે
( एग च मह सिरीदामगड पाडलमाल्लियचपयअसोगपुन्नागनागमरुय. गदमणगअणोज्नकोज्ज पउर परमसुहफासदरिसणिज महया गधद्धणिमुयताधाय माणीओ दोहल विणेति) २मा पास (गुला), मलिस, २५७, , पुन्नाग, नाग, भरुवा, દમનક અને સુંદર કુકના પુપે પુષ્કળ પ્રમાણમાં છે, પૂર જેને અત્યંત સુખદ છે અને જે દષ્ટિને આનદ આપનાર છે અને તમકરનાર મહાસુગ ધ ગુણવાળા પુદ્ગલેને જે ફેલાવી રહ્યો છે-એવા અદ્વિતીય (સર્વોત્તમ)
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माताधर्मकथाले तेन क्यापियन श्रीदाम काण्डेन घ्राणेन्द्रिय तर्पयन्त्यः दोहद - गर्भसद्भावनित मनोरथ · विणेति' विनयन्ति-परयन्ति । ता एव जनन्यो जगति भाग्यशालिन्यः प्रशसनीया धन्याय सन्तीत्ययः ।।
ततस्तदनन्तर खलु- तस्याः प्रभारत्या देन्या इममेतप दोहद प्रादुर्भूत दृष्टा यथा सनिहिताः समीपस्थिता पानव्यन्तरादेवाः क्षिप्रमेव जलस्थलोत्पन्नानि यावदशाधवर्णानि = पश्चवर्णानि माल्यानि = पुष्पाणि कुम्भारशन कुम्भपरिमाणतः, भारामशच भारपरिमाणतच कुम्भस्य राज्ञो भाने सहरन्तिसमानयन्ति. । एकच ग्वल महत् श्रीदामकाण्ड यावद् मुञ्चत् उपनयन्ति-समीपे समानयन्ति । ततः खलु सा मभारती देवीगलस्थलज यावत्- यारच्छन्देनकी पूर्ति करती है (वे माताएँ धन्य हैं ऐसा सबंध यहा पर लगा लेना चाहिये) (तरण) इमके यार (तीसे पभारतीय देवी इमेयारूव दोहल पाउन्भूत पासित्ता अहासविरिया चाणमतरा देवा खिप्पामेव जलथग्य० जाव दसद्धवनमा कुभग्गसोय भारग्गसोय कुभगस्स रनो भवणसि साहरति) उस प्रभावती देवीके इस प्रकार के दोहलेको उत्पन्न हुआ देख कर के समीप में रहे हुए वानव्यन्तर देवोंने शीघ्र ही जल में और स्थल में उत्पन्न पचवर्ण के पुष्पो को कुभ परिमाण में और भारपरिमाण मे कुभक राजा के भवन पर लाकर रख दिया।
(एग च ण मह सिरिदामगड जाच मुयत जाव उवणेति) और साथ मे एक बड़ा भारी श्रीदामकाण्ड भी कि जिसमे 'पाटल गुलाब શ્રી દામકાડ (સુ દરમાળાઓના સમૂહ ) ની સુવાસ અનુભવતી પિતાના ગર્ભ મરથ (દેહદ)ની પૂર્તિ કરે છે (ખરે ખર તે માતાએ ધન્ય છે ) (तएण ) त्या२ माह
(तीसे पभावतीए देवीए इमेयारूवे दोहलं पाउन्भूत पासित्ता अहासमि हिया वाणमतरा देवा खिप्पामे जल थलय० जाव दसद्धवन्न मल्ल कुभगस्सा य भारगस्सो य कुभगरस्स रन्नो भवणसि साहरति) પ્રભાવતી દેવીના આ પ્રમાણેના દેહલાને ઉત્પન્ન થયેલે જાણીને પાસે રહેનારા વાન તર દેવોએ તરત જ જળ અને સ્થળમાં ઉત્પન્ન થયેલા પાચર ગના પુને કુભ પરિમાણમાં અને ભાર પરિમાણમાં કુભક રાજાના ભવન ઉપર લાવીને મૂકી દીધા
(एगच प. मह सिरिदामगड जार मुयत जाव उवणे ति ) पावणे३ ને પુછે જેમાં ગૂંથેલા છે, અને જે નેત્રોને માટે સુખદ અને સ્પર્શ પણ જેને આનદ દાયક છે, અને જેમાથી મેર સુગ ધી પ્રસરી રહી છે એ
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ८ प्रभावतीदेवी दोहदादिनिरूपणम्
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जल थलइत्यनन्तर भासुरपभूषण दसद्धवन्नेण ' इति सग्रह, माल्येन पुष्प जातेन यावत्-अत्र यावच्छब्देन - ' अत्युयपञ्चत्थुयसि ' इत्यारभ्य ' अग्वाय माणीओ' इतिपर्यन्तस्य ग्रहणम्, दोहद् विनयति पूरयति । ततः खलु सा प्रभावती देवी प्रशस्तदोहदा यावद सपूर्ण दोहदा समानित दोहदा विहरति । अथ भगतस्तस्य तीर्थंकरस्य सकल जगत्क्ल्याणकर जन्मकदाऽभवदिति जि ज्ञासायामाह - ' तएण ' इत्यादि ।
ततस्तदन्तर खलु सा प्रभावती देवी नवसु मासेषु बहुप्रतिपूणेपु = सर्नथा सपूर्णेषु तदनन्तरम् अष्टमे रात्रिंदिवेषु व्यतीतेषु योऽसौ हेमन्तानो हेमन्त ऋतु सज्ञकाना मार्गशीर्ष दिफाल्गुनान्ताना प्रथमो मासः, द्वितीयः पक्षः मार्गशीर्ष शुद्धः मार्गशीर्षमासस्य शुद्ध शुक्लः पक्षो वर्तते, तस्य - खलु एकादश्या तिथौ पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मध्यरात्रे अश्विनी नक्षत्रे योग = चन्द्र योगमुपागते- प्राप्ते आदिकेपुष्पगुथे हुए हैं और जो नेत्र को सुख देने वाले एव सुखस्पर्श है जिसमें से सुगध ही सुगंध चारों ओर फैल रही है रानिके पास लाकर उपस्थित किया । (तएण सा पभावती देवी जल थलय जाव मल्लेण जाव दोहल विणेड ) इसके अनन्तर उस प्रभावती देवीने जल थलके विकसित पच वर्ण वाले प्रभूत पुष्पों से समाच्छादित हुई शय्या पर बैठकर शयन कर श्रीदामकाण्ड को कि जो पाटल (गुलाब) आदि के पुष्पो से गुथा हुआ था यावत् गध को फैला रहा था सूप कर अपने दोहले की पूर्ति की । (तरण सा पभावती देवी पसत्य दोहला जाव विहरह, तएण सा पभावई देवी नवण्ह मामाण बहु पडिपुण्णाण अट्टमाण य रति दियाण जे से हेमन्ताण पढमे मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तरसण एगारसीए पुग्वरत्तावर त्त० ओस्सिणीनक्खत्तेण जोगमुवागएण उच्चद्वाणहिएस गहेसु पमुइयपक्कीलिए जणवण्सु आरोग्गारोग्य एगू
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भोटो लारे श्रीधाम | पशु वानव्य तरी त्या सान्या (तएण सा पभा वती देवी जलथलय जाव मल्लेण जाव दोहल विणेइ ) त्यार माह प्रभावती દેવીએ જળના વિકસિત પાચરગના પુષ્પાથી સમાચ્છાદિત શય્યા ઉપર બેસી ને, શયન કરીને, પાટલ વગેરેના પુષ્પાથી ગૂંથાયેલા સુવાસિત શ્રીદામકાર્ડને સુધીને પોતાના દેહદની પૂતિ કરી
(तएण सा पभावती देवी पसत्थदोहला निरइ, तएण सा पभानई देवी नवह मामाण बहुपडिपुण्यात अद्वमाणयराइ दियाण जे से हेमताण परमेमासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्सण एगारसीए पुण्वत्तावरत आस्सिणीनक्खत्तेण जोग
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माताधर्मकथा सति उच्चस्थानस्थितेषु उन्धरागिग तेपु ग्रहेषु मर्यादिपु प्रमुदिन मक्रीडितेषु दृष्टेषु मीडापत्सु च जनपदेपु-देशेषु सत्सु आरोग्यारोगरहिता अनागाधा पसरवेदना रहिता सतीत्यर्थः आरोग्य = अनाराध केशर्जित एकोनविंशतितम तीर्थकर मजाता-प्रजनिती ॥ सू० ११ ॥ णवीसइम तित्यपर पयाया) इस प्रकार प्रशस्त दोरला वाली वह प्रभा वती देवी कि जिस का दोहरा अच्छी तरह से पूर्ण हो चुका है और जिस दोरले को राजा आदिजनो ने भी सन्मानित किया है आनन्द पूर्व क रहने लगी। अब सूत्रकार यह प्रकट करते है कि भगवान् 'उन तीर्थ कर को जगत् कल्याण कारक जन्म किस समय आ-वे करते हैं कि जय गर्भ के नौ मास सम्पूर्ण रूप से व्यतीत हो चुके और उनके ऊपर साढे सात रात का समय और अधिक निकल चुका उस समय प्रभावती देवी ने हेमन्त काल के प्रथम मास मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन म य रात्रि के समय अश्विनी नक्षत्र मे, जय कि उसका योग चन्द्रमा के साथ हो रहा था और सूर्यादिग्रह उच्चस्थान पर स्थित थे तथा जनपदों में आनन्द की लहरे छायी हुईथी-विविध प्रकार की क्रीडाओं मे वे रत बने हुए ये यिना किसी बाधा के क्लेशवर्जित १९ वे तीर्थ कर को जन्म दिया । सूत्र ११ ।।।
मुवागएण उच्चट्ठाणद्विपसु गहेसु पमुइय पक्फीलिएमु जणवएस आरोग्गारोग्गं एकूणवीसइम तित्थयर पयया)
આ રીતે જેનુ દેહદ સંપૂર્ણ પણે પૂરું થયું છે અને રાજા વગેરે ગુરુ જનેએ પણ જેના દેહદને સન્માનીત કર્યું છે એવી પ્રશસ્ત દેહદ વાળી પ્રભાવતી દેવી આનદની સાથે પિતાના દિવસો પસાર કરવા લાગી હવે સૂત્રકાર જગત્ ના કલ્યાણ કરનાર એવા ભગવાન તીર્થકર નો જન્મ કયારે થયે તેનું વર્ણન કરતા કહે છે કે જ્યારે ગર્ભના નવમાસ પૂરા થઈ ગયા અને નવમાસ ઉપર સાડા સાત દિવસરાતને સમય પસાર થયો ત્યારે હેમતકાળના પ્રથમ મહિનાના શુકલ પક્ષ અગિયારસના દિવસે અડધી રાતના સમયે અશ્વિની નક્ષત્રમા–જ્યારે તે નક્ષત્રને યોગ ચન્દ્રની સાથે થઈ રહ્યો હતું અને સૂર્ય વગેરે ગ્રહ ઉચ્ચ સ્થાને સ્થિત હતા અને આખા જનપદમાં આન દના મજા ઓ પ્રસરી રહ્યા હતા અને બધા માણસો અનેક જાતની રમતે અને કીડાઓમાં મસ્ત થઈ રહ્યા હતા ત્યારે પ્રભાવતી દેવીએ કવેશ અને દુ ખ રહિત થઈને ૧૯મા તીથ કર ને જન્મ આપે છે. સૂત્ર " ૧૧”
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका २०८ दिशाकुमारी प्रभृतिभि उत्सवकरणम् २८५
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समयेणं अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ मयत्तरीयाओ जहा जवूद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं नवर मिहिलाए कुभयस्स पभावईए अभिलाओ सजोएव्वो जाव नन्दीसरवर दीवे महिमा, तया णं कुभए राया वहूहि भवणवइ४ तित्थयर जायकम्म जाव नामकरण, जम्हाणं अम्हे इमीए दारियाए माउए महसयणिजंसि डोहले विणीते त होउणं णामेणं मल्ली, जहा महाब्बले नाम जाव परिवड्डिया सावद्धती भगवती दियलोयचुता अणोत्रमसिरीया । दासीदास परिवुडा परिकिन्ना पीढमद्देहि || सू० १२ ॥
टीका- ' तण काळेण ' इत्यादि । तस्मिन् काले चतुर्थारकलक्षणे तस्मिन् समये जिन जमसमयेऽधोलोक वास्तव्या अष्ट दिकुमार्य महत्तरिका ः प्रधानाः भोगङ्करा १, भोगवती २, सुभोगा ३, भोगमालिनी ४, सुवत्सा ५, वत्समित्रा ६, नारिषेणा ७, चलाहका ८, इत्येतन्नामिका' समागताः । यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मवर्णित, सर्व तथैव विज्ञेयम्, नवर= एतावान् विशेषः
'तेण कालेन तेण समरण' इत्यादि
टीकार्य - (तेण कालेन तेण समएण) उस काल और उस समय में ( अहो लोगवत्थन्याओ ) अधोलोक में निवास करनेवाली (अट्ठ ) आठ ( दिसाकुमारीओ) दिक्कुमारिकाएँ (मग्रहरीयाओ जहा जबूद्दीवपन्नत्तीए जम्मणसव्वं ) जिनका नाम भोगङ्करा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी सुवत्सा, वत्समित्रा वारिषेणा और बलाहका है आई । जबूद्वीप प्रज्ञप्ति
'वेण कालेन वेण समर्पण' - त्याहि
टीजर्थ - ( तेण कालेन तेण समएण) ते अणे अने ते सभये (अहोलोग बत्थवाओ ) अधोसोभा रहेनारी ( अट्ठ ) आई ( दिसाकुमारीओ ) हिशा कुमारिम ( महयरीयाओ जहा जनदीवपन्नत्तीए जम्मण सव्न ) प्रेमना नाभेो लोगडुंग लोगवती, सुभेोगा, लोगभासिनी, सुवत्सा, वत्सभित्रा, વારિષેણા, અને ભલાહકા——ત્યા આવી જ મૂદ્દીપપ્રજ્ઞપ્તિ ' મા ભગવાન
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माताधर्मकथासूत्रे
इह मिथिलाया नगर्या कुम्मकरूप रात मभावत्याः अभिलाप वर्णन सयोक्तव्यः =क्तव्य यावत् नन्दीश्वरारे द्वीपे महिमा - उत्सनः देवैकृतः । तदा खलु कुम्भको राजा बहुभिर्भुवनपतिवानव्यन्तर प्योतिष्क वैमानिक जगोत्सवे कृते सति तीर्थकरजातकर्म यावत् नामकरण कृतवान् यस्मात् सल अस्माकम् अस्यां दारिकाया गर्भगतायां मातुर्माल्यशयनीये कुसुमय्या विषये दोहदो विनीत = में भगवान तीर्थ कर ने जन्म का जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन यहा जानना चाहिये (नगर) परन्तु उसकी अपेक्षा इसमें इतनी विशेषता है (मिहिलाए कुनयस्स पभावइ अभिलाओ ) कि यहां मिथिला नगरी कुमक राजा और रानी प्रभावती का सम्मन्ध लिया गया इसलिये मल्लीनाथ तीर्थ कर के जन्म के वर्णन करने में इनसब का योग लगा लेना चाहिये ।
( जाव नदीसर वरे दीवे महिमा ) मल्लिनाथ तीर्थकर के जन्म का उत्सव नदीश्वर नाम के द्वीप में देवों ने किया । (तयाणं कुभए राया
हहिं भवणव ४ तित्थयर जाय कम्म जाव नाम करण ) इसके बाद कुभक राजा ने अनेक भवनपति वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एव वैमानिक देवो के द्वारा जन्मोत्सव किये जाने पर तीर्थकर का जातकर्म यावत् नाम करण किया । ( जम्हा ण अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्ल सयणिज्जसि दोहले विणीए त होउण णामेण मल्ली ) नाम करण તી કર ના જન્મ વિષે જેવુ વર્ણન કવામા આવ્યુ છે તેવુ જ વર્ણન अडी पशु लावु लेहये (नवर ) पशु तेना उश्ता अहीं आरसी विशेषता युवा ले ( महिलाए कुभयास पभाईए अभिलाओ ) अडीं मिथिता નગરી, કું ભક રાજા અને રાણી પ્રભાવતીના સબંધ વિષે વર્ણન કરવામા આવે છે એટલે મલ્લિનાથ તીથ કરના જન્મ વનમા આ ખધાને ચૈત્ર અપેક્ષિત છે ( जाव न दीसरवरे दीवे महिमा ) हेवेो मे भक्तिनाथ तीर्थ ४२ म त्सव नद्वीश्वर नामना द्वीपमा अव्यो हतो (तयाण कुभए राया बहूहि भवण
४ तित्थयर जायकम्म जाव नाम करण ) धाशुा लवनयति वान व्य तर, ज्योतिष्ठ અને વૈમાનિક દેવેાએ જ્યારે સારી પેઠે ભગવાન તીર્થં કરના જન્માત્સવ ઊજવી લીધા ત્યારે કુભક રાજાએ તેમને જાતકમ યાવતુ નામકરણા સસ્કાર કર્યાં
( जम्हाण अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्लसय णिज्जसि दोहले विणीए त होउण णामेण भल्ली )
રાજાએ તેમનુ નામ મલિ પાડયુ કેમકે જ્યારે તે ગમા હતા ત્યારે તેમની માતાને માલતીના પુષ્પાની માળાની શય્યાનુ દેહદ થયુ હતું અને તેમના દાઉદની
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अनगारधर्मामृतवर्षणो दो अ०८ दिशाकुमारी प्रभृतिभि महोत्सवकरणम् २९१ देवैः पूरित', तद् भातु खलु इय नाम्ना मल्लिः मालायै हित, तर साधु वा माल्य कुसुम तद्गताभिलापरूपदोहदपूर्वकमेवस्ना दारिकाया जन्मजात तस्मा दया नाम 'मल्ली' इतिकृतम् । अस्याः स्त्रीत्वेऽपि जिनस्तीर्थकरोऽर्हदिति शब्दाना बाहुल्येन पुस्त्वे प्रवृत्तिदर्शनात्पुलिङ्गशब्देन व्यवहारः । यथा महापलो नाम = में उनका नाम मल्ली रखा गया-क्यो कि राजाने यह विचारा कि जब ये गर्भ में थी तो इनकी माताको पुष्पोंकी माल्य की शय्या के विषय में दोहला उत्पन्न हुआ था और उस दोहले की पूर्ति देवो ने की थी अतः यह पुत्री नाम से मल्ली रहो- इसी अभिप्राय से राजा ने उसका नाम मल्लि रसा ।
" मालायै हित तत्र साधु वा माल्य " इस व्युत्पत्ति के अनुसार माल्य शब्द का अर्थ कुसुम होता है । सो जन ये माता के गर्भ में थी तब माता को उस माल्य के विषय में अभिलाप रूप दोहला उत्पन्न हुआ था जिस की पूर्ति देवो ने की थी अत उस दोहद पूर्वक इस लड़की का जन्म हुआ- इस कारण राजा ने उसका नाम मल्लि रख दिया । यद्यपि यह स्त्रीरूप में थी - तौ भी "जिनः तीर्थकर अर्हत इत्यादि शब्दों की बहुलता से पुल्लिङ्ग में प्रवृत्त देखी जाती है-इसलिये यह इनका पुल्लिङ्ग शब्द से व्यवहार तीर्थ कर की अपेक्षा किया गया है | ( जहा महावले नाम जाव पडिवड्डिया " सा वह भगवती दिय लोध चुना अणोवम सिरीया दासी दास परिवुडा परिकिन्ना पीढमदेर्हि,,
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પૂર્તિ દેવાએ કરી હતી એવી જ રાજએ તે પુત્રીનુ નામ મવિ પાડયુ હતુ " मालायै हित तन साधुवा माल्य આ વ્યુત્પત્તિ મુજમ માલ્ય શબ્દના અર્થ કુસુમ ( પુષ્પ ) થાય છે જ્યારે મલિ માતાના ગર્ભમા હતા ત્યારે તેમને માય ની અભિલાષા રૂપ દોષન ઉત્પન્ન થયુ હતુ તે દાદની પૂર્તિ દેએ કરી હતી એથી માલ્યના દોહદથી જન્મેલી તે પુત્રીનુ નામ रालो भदिल थाड्यु ले या स्त्री ३ये इती छता से " जिन तीर्थकर અર્ વગેરે શબ્દો ના ખાફુલ્યથી તે પુલિંગથી જ સમાધિત કરવામા આવે છે . એટલા માટે અહી જે પુલિંગ શબ્દથી વ્યવહાર છે તે તેમની તીર્થંકરની અપેક્ષાથી જ
કરવામા આવે
( जहा महावले नाम जाव पडिवड्डिया 'सा चद्धती भगवती दियलोय चुता अणोत्रम सिरीया दासीदामपरिव़डा परिकिन्ना पोढमद्देहिं " १ " )
ભગવતી સૂત્રના મહાખવના વર્ણનની જેમ જ મલ્લિના વર્ણન વિષેષણુ
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यथा भगवती सूत्रे महालो वर्णितस्तथेय मी विज्ञेयेत्यर्थः । अथ गाथा द्वयेन मल्लि वर्णयति' सा' इत्यादि सा वर्धमाना भवती लोकच्युता अनुपम श्रीका, दासीदास परिवृता परिकीर्णा पीठमर्दे ॥ १ ॥
सा मल्ली वर्धमाना=अनुदिन वृद्धि गता, भगवती - ऐश्वर्यादिगुणयुक्ता, "लोकच्युता देवलोकादनुत्तरविमानान्च्युता=अवतीर्णा, अनुपम श्रीका=अद्वितीय शोभायुक्ता, दासीदास परिवृता, पीठमदैः यस्यैः परिकीर्णा = परिकरवती बहु सहचरी युक्तेत्यर्थः ।
असितशिरोजा सुनयना निम्बोष्ठी घालदन्तपक्तिका । वरकमलकोमलागी फुल्लोत्पलगन्धनिःश्वासा ॥ २ ॥
असित शिरोना=भ्रमरवदतिश्यामवर्णकेशा, सुनयना = सुलोचना, बिम्बोष्ठी =विम्वद्रक्तवर्णोष्ठी, धवलदन्तपक्तिका धवला कुन्दमुक्तादियच्छुक्लवर्णा दन्त पक्तिर्दन्तश्रेणिका यस्याः सा तथा, वरकमलकोमलाङ्गी = रकमलनत् - अशुष्क कमलपुष्पवत् कोमलानि मृदुलान्यङ्गानि यस्याः सा तथा, फुल्लोत्पलगन्धनि. श्वासा-विकसितनीलकमलगन्धयुक्तनि श्वासवती जाता ॥ सू० १२ ॥
माताधर्मकथासूत्रे
जिस प्रकार भगवती सूत्र में महावल का वर्णन किया गया हैउसी प्रकार से इन मत्ली का भी वर्णन जानना चाहिये-सूत्रकार इसी यान का वर्णन " सा कइ " इस गाधा द्वारा करते है-वे कहते है कि ये मल्लि नाम की कन्या प्रतिदिन वृद्धिंगत हो रही थी । ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त थी । अणुत्तर विमान से चव कर आई थी अनुपम श्री से सपन्न थी । दासी दास परिवृत्त थी और अनेक सहचरियों से युक्त ' थी।
उनके बाल भ्रमर के समान अति श्याम वर्ण वाले थे । लोचन बड़े सुहावने थे । बिम्ब जैसे लाल वर्ण वाले इनके दोनो ओठ थे। दांतो की पङ्क्ति कुन्द तथा मुक्का आदि के समान बिलकुल शुभ्र थी । अशुष्क જાણુવુ જોઇએ t सा वद्धइ" या गाथा वडे सूनअर से बात स्पष्ट ४२१ માગે છે તેએ વર્ણન કરતા કહે છે કે મલ્ટિ નામે કન્યા દિવસે દિવસે માટી થઈ રહી હતી તે અશ્વય વગેરે ગુોથી પૂણુ હતી તે અનુત્તર વિમા નથી ચવીને આવી હતી અને અનુપમ શ્રા સપન્ન હતી તે દાસી દાસેથી વીટળાયેલી તેમજ ઘણી સહચરીઓથી યુક્ત હતી
તેમના વાળ ભમરા જેવા અત્યત કાળા હતા તેમના નેત્ર મનહેર હતા અને હેઠ ખિમફળ જેવા લાલ હતા તેમની દતપ ક્તિ કુદ તેમજ મેાતી
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अनगारधर्मामृतर्पिणी टोका अ० ८ मोहगृहनिर्माणस्वरूपनिरूपणम् १९३
मूलम्-तएणं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना उम्मुकवालभावा जाव रूवण जोव्वणेण य लावन्नेण य अतीव २ उकिहसरीरा जाया यावि होत्था, तएणं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पिरायाणो विउलेण ओहिणा आभोएमाणी २ विहरइ । त जहा - पडिबुद्धि जाव जियसत्तु पचालाहिवइ, तएणं सा मल्ली कोडुवियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एव वयासी- तुम्भेणं देवाणुप्पिया । असोगणियाए एगे मह मोहणघर करेह अणेगखभसयसन्निविट, तस्स णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए छ गम्भघरए करेह, तेसि र्ण गभघरगाणं वहमज्झदेसभाए जालघरय करेह, तस्तणं जालघरयस्स वहुम ज्झदेसभाए मणिपढिय करह, जाव पच्चप्पिणति ॥सू०१३॥
टीका-'तएण सा' इत्यादि-ततस्तदनन्तर खलु सा मल्ली मल्लीनाम्नी विदेह रायवरकन्ना' विदेहराजवरकन्या-विदेहो मिथिलाजनपद', तस्य राजा कुम्भ कस्तस्य वराकन्या-पुत्री 'उम्मुक्कवालभावा' उन्मुक्तबालभाषा, व्यपगतवाल्या वस्था यावत् रूपेण च योग्नेन च लावण्येन च अतीपातीवोत्कृष्टा उत्कृष्टकमल पुष्प के जैसा इनका मृदुल अग था। विकसित नील कमल के समान गध युक्त इनका निश्वास था । सूत्र " १२"
तएण सा मल्ली ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (विदेहरायवरकन्ना सा मल्ली) विदेह राजकी कन्या वह मल्ली (उम्मुक्क बालभावा) बाल्यावस्था का परित्याग कर (जाव रूवेण जोवणेण य लावन्नेण य अतीव २ उक्किसरीरा વગેરે જેવી એકદમ સ્વચ્છ હતી તાજા કમળ પુષ્પના જેવા તેમના સુકોમળ અગે હતા તેમને નિશ્વાસ પ્રફુલિત નીલકમળ જેવો સુવાસિત હો | સૂત્ર “૧૨
'तएण सा मल्ली' या
टी -(तएण) त्या२माह (विदेहरायवरकन्ना सा मल्ली) विदेड सन्या मलित (उम्मुक्कबालभावा) अय५ वटावान (जाव स्वेण जोवणेण य
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নামগুলি शरीरा चापि जाता ऽऽसीदिति सम्बन्ध'- ततस्तदनन्तर सलु मा मलिर्देशोन वर्षशत जाता देशोन-किञ्चिदून वर्षशत जात-भूत व्यतीत यस्याः सा तथा, देशोनशतवर्षत्रयस्का सतीत्यर्थ तान् पडपि मतियुद्यादीन् राज्ञो विपुलेनावधिना= अवधिज्ञानेन आभोगय ती २ पुनः पुनः पश्यन्ती विहरति, तिष्ठति स्म । तदयया प्रतियुद्धिं यावत् जितरानुपाञ्चालाधिपतिम् । प्रतियुद्धि नामा उदयाकुट्यो राजाऽ यो याधिपतिः, चन्द्रच्छायोऽगदेशाधिपति, शहनामा काशीजनपदाधिपतिः, रुक्मीनामा कुणालाधिपति , अदीनशनुनामा कुरुदेशरानः, जितशत्रुः पश्चाला जाया यावि होत्था) यावत् रूप, यौवन पव लावण्य से अत्यत उत्कृष्ट शरीर युक्त हो गई । (तरण सा मरली देसूण वाससय जाया-ते छपि रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोएमाणी २ विरह ) उम समय उस की अवस्था शत वर्ष से कुछ कम थी । प्रतियुद्धि आदि अपने साथ के उन ६ राजाओं को ज्योंही उनोंने अपने अवधिज्ञान से जाना तो उने मालूम हो गया कि (पडियुद्धि जाब जियसतु पचालाहिवड ) अचल का जीव कोशल देश को अधिपति हुआ है-वर इक्ष्वाकुवशीय है और उसका नाम प्रतियुद्ध है।
धरण का जीव चद्रच्छाय नाम का अग देशाधिपति हुआ है। अभिचन्द्र का जीव काशी देश का अधिपति हुआ है उसका नाम इस समय शख है । पूरण का जीव कुणाल देश का अधिपत्ति हुआ है। उसका नाम रुक्मी है। वसुका जीव कुरुदेश का अधिपति हुआ है लावन्नेण य अतीव २ उक्किदुसरीरा जाया यावि होत्था) यापत २०५, यौवन અને લાવણ્યથી એકદમ ઉત્તમ શરીરવાળી થઈ ગઈ
(तएण सा मल्ली देसूण वास समजाया ते छप्पि रायागो विपुलेण ओहिणो आभोएमाणी २ विहरड)
તેમની ઉંમર તે વખતે સો વર્ષ કરતા ઓછી હતી પ્રતિબુદ્ધિ વગેરે પિતાની સાથેના તે છે રાજાઓને તેણે પિતાના અવધિજ્ઞાનથી જાણ્યા ત્યારે તેને ४] य (पडिबुद्धि जाव जियसत्त पनालाहिवइ ) अयसनी 04 शसने। અધિપતિ થયેલ છે તે ઈફવાકુવરણીય છે, અને તેનું નામ પ્રતિબુદ્ધ છે
ધરણનો જીવ અને દેશને અધિપતિ થયેલ છે અને તેનું નામ ચક છાય છે અભિચ ને જીવ કાશી દેશને અધિપતિ થયા છે અને અત્યારે તેનું નામ રાખ છે પૂરણ ને જીવ કુણાલ દેશને અધિપતિ થયું છે અને તેનુ નામ કમી છે વસુને જીવ તુ દેશને અધિપતિ થ છે અને તેનું
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अनगारधर्मामृतथपिणी टीका अ० ८ मोहगृहनिर्माणस्वरूपनिरूपणम् २९५ धेपति , एतान् पडपि राज्ञः पुनपुनरवधिज्ञानेन विलोकयन्ती तिष्ठतिस्मेत्यर्थः।
नत्रयसपना मल्ली भगवती स्वकीयावधिज्ञानोपयोगेनेद विदितवती-पूर्वभवनेहवशात्ते पडपि राजानो मा परिणेतुमागमिष्यन्तीति तेषा प्रतिबोधार्थमुपायो या विधेय इति भावयति स्मेति भावः । ततस्तदनन्तर सा मल्ली कोटुम्विक पुस्पान् आज्ञाकारिण' पुरुपान् शब्दयति-आह्वयति, शब्दयित्वा आहृय, एव% वक्ष्यमाण प्रकारेण, अवादीत-हे देवानुप्रियाः । यूय खलु अशोकवनिकायामेक महत्वृहत् मोहनगृह-समोहजनकं गृह करेह' कुरुत-निर्मात, कीदृशं तदित्याह ' अणेगखभसयसन्निविट्ठ' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टम् अनेकानि स्तम्भशतानि सन्निविष्टानि सलग्नानि यस्मिन् तत् तथाविरम् । तस्य खलु मोहनगृहस्य बहुमउसका नाम अदीन शत्रु है। वैश्रवण का जीव पांचालाधिपति हुआ है। उसका नाम जितशत्रु है (तण्ण सा मल्ली कोड पिय पुरिसे सहावेड ) इस प्रकार अपने पूर्वभव के साथियों की परिस्थिति को ज्ञात कर उस मल्ली भगवती ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया- ( सद्दावित्ता एव क्यामी) और युलाकर उन से ऐसा कहा- (तुम्भे ण देवाणुप्पिया। असोगणियाए एग मह मोहणधर करेह-अणेगखभसयसन्निविट्ठ) हे देवानमियों! तुम अशोकवनिका मे सैकड़ों खलों से युक्त एक विशाल समोहन गृह बनाओ। इस घर को बनाने को आदेश उन मल्ली भगवती इसलिये दिया था कि उन्हो ने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया था कि वे छहो राजा पूर्वभव के स्नेह से मुझ से विवाह करने के लिये यहा आगे-अत मुझे उन्हे प्रतियोधित करने के लिये उपोय करना चाहिये। નામ અદીનશત્રુ છે વેશ્રવણ ને જીવ પગાલ દેશનો અધિપતિ થયે તે અને तेनु नाम तिशत्रु छे (तण्ण सा मल्ली कोडु बिय पुरिसे सद्दावेइ) मा शत પિતાના પૂર્વભવના મિત્રોની પરિસ્થિતિ જાણીને મતની ભગવતીએ કૌટુંબિક पुरुयोन नामाव्या “ सदावित्ता एव वयासी" भने मातापी तमन छु
(तुम्भेण देवाणुप्पिया । असोगवणियाए एग मह मोहणधर करेह-अणेगखम सयसन्निपिट्ठ)
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે અશોક વનિકામાં સેકડે થાભલાઓ વાળ એક મેટું સહન ઘર બના મલી ભગવતીએ આ મોહન ઘર એટલા માટે બનાવડાવ્યું હતું કે પિતાના અવધિજ્ઞાન થી તેમણે એ વાત જાણી લીધી હતી કે તેઓ છએ રાજા પૂર્વ ભવના પ્રેમને લીધે તેમની સાથે લગ્ન કરવા અહી આવશે જેથી તેમને પ્રતિંબંધિત કરવાના ઉપાયે તેમણે આવીને કરવા જ જોઈએ કૌટુંબિક પુરુષને તેમણે આગળ કહ્યું
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নাম ध्यदेशभागे-सर्वथा मध्यस्थानभागे पह-गमधरण' गर्भगृहान् अन्त हान् कुरुत । वास भरनानि तेपा च गर्भगृहाणा बहुमन्यदेशभागे जालगृह अत्र ग्रहा न्तर्गत वस्तु यहि स्थिताः पश्यन्ति, तदर्थ कुडवेषु दार्मादिनिमितजालकानि वते. न्ते तद् जालगृह कुरुत तस्य खलु जालगृहस्य बहुमध्यदेशभागे मणिपीठिका मणिमयपीठिका, शुरुत, कृता यावत् प्रत्यर्पयन्ति मल्ली भगवत्या आदेशाद कोटुम्पिकपुरुपा मोहनगृह तत्र मध्यमागे पट्सख्यक गर्भगृह तन्मध्ये मणिमय
(तस्स ण मोहणघरस्स यहमज्मदेसभाए 3 गम्भधरए करेह ) उस समोहन गृह के ठीक मध्यमाग में गर्भगृहो को बनाओ (तो सेण गम्भघरगाण परमज्शदेसमा जालधरय करे तस्स णे जाल घरयस्स थमझदेसभाए मणिपेढिय करेर, जाव पच्चप्पिणति ) उन गर्भ गृहों के मध्यभाग में जालघर को यनाओ। जालियों में से जिस घर की वस्तु को यादिर रहे हुए मनुष्य देवि लेते हैं । वर जाल घर करलोते है । ये जालिया भीतो में काष्ट आदि की यनाकर लगाई जाती है। जिस प्रकार मकानो में हवा तथा प्रकाश आने के लिये खिड़कियां
आ करती है-उसी प्रकार से ये जालिया भी लगाई जाती है। और उस जाल गृह के ठीक पीच के स्थान में मणिनिर्मित पीठिका को बनाओ।
बनाकर पीछे इसकी हमें सूचना दो। इस प्रकार मल्ली भगवती के आदेश को पाकर उन कौटुम्यिक पुरुषों ने १ मोहन गृह, उसके बीच में छ गर्भ गृह उनके बीच में १ जाल गृह और उस के बीच में मणि
"तस्सण मोहणगरस्स पहमज्झदेसभाए गम्भघरए करेह" समाउन ઘરને અધવચ્ચે છ ગભ ગૃહ બનાવે
(तीसेण गम्भघरगाण बहुमज्झ देसभाए जाव घर य करेह तस्स ण जाल घायस्म बहुमज्झदेसमाए मणिपेढिय करेइ जान पच्चप्पिणति)
ગર્ભગૃહોના મધ્ય ભાગમા જાલ ઘર બને જે ઘરની અંદરની વસ્તુઓ ને બહારના માણસો ઘરની જાળીઓથી જોઈ લે છે, તે ઘરને જાળઘર કહે છે જાળીઓ ભી તેમાં લાકડા વગેરેની બનાવીને મૂકવામાં આવે છે. ઘરમાં પવન તેમજ પ્રકાશ ને આવવાને માટે બારીઓ હોય છે, તેમજ જાળીએ પણ મૂકવામાં આવે છે ) આ જાળ ઘરની બરાબર અધવચ્ચે મણિ જડિત પીઠિકા બનાવે
આબધુ તૈયાર થઈ જાય ત્યારે મને સૂચિત કરે આરીતે મલી ભગ વતીની આજ્ઞા સાભળીને કૌટુંબિક પુરુષેએ એક સમોહન ઘર, તેની વચ્ચે છ ગર્ભગૃહ, તેની વચ્ચે એક જાળગૃહ અને તેની વચ્ચે મણિ જટિત પીપિકા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ मणिमय पुत्तलिकानिर्माणादिनिरूपणम् २९७ पीठिकां च कृता मल्लीभगवत्या समीपमागत्यावेदयन्ति स्म. भनदीयादेशमनु सृत्य सर्व साधितमस्माभिरिति कथयन्ति स्मेत्यर्थः ॥ स. १३ ॥
मूलम्-तएण मल्लीमणिपेढियाए उवरिअप्पणो सरिसियं सरित्तय सरिव्वय सरिसलावन्नजोव्वणगुणोववेय कणगमई मत्थयच्छिड पउमुप्पलप्पिहाणं पडिम करेइ, करित्ता ज विउलं असणं पाणं खाइम साइम आहारेइ, तओ मणुन्नाओ असण ४ कल्लाकल्लि एगमेग पिड गहाय तीसे कणगमईए मत्थयच्छिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयसि पक्खिवमाणी २ विहरइ। तएणं तीसेकणगमईए जाव मच्छयछिड्डाए पडिमाए एगमगसि पिंडेपक्खिप्पमाणे २ तओ गधे पाउभवइ, से जहानामए अहिमडेइ वा जाव एत्तो अणिट्टनराए अमणामतराए।सू०१४॥
टीका-'तएण मल्ली' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु मल्ली-मल्लीकुमारी मणिपीठिकाया उपरि आत्मन• सदृशीं सदृशत्व च सदृशमयस्का स्वशरीरसहशप्रमाणा सदृशलावण्ययौवनगुणोपपेता स्वमदृशलापण्यादिगुणैः सहिता, कनकमयी सुवर्णनि मय पीठिका घनाई-और बनाकर फिर वे मल्ली भगवती के पास आये-आकर कहने लगे-आपके आदेशानुसार हमने सप चनोकर यथावत् तैयार कर दिया है । सूत्र " १३ "
'तएण मल्ली मणिपेढिया' इत्यादि। टीकार्य-(तएण) इसके बाद (मल्ली) मल्ली कुमारीने (मणिपेढियाए उपरि अप्पणो मरिसिय सरितय सरिव्वय सरिसलावन्न जोवण गुणो બનાવી અને બનાવીને તેઓ મલ્લી ભગવતીની સામે આવ્યા અને આવીને કહેવા લાગ્યા-“હે દેવાનુપ્રિયે હમારી આજ્ઞા પ્રમાણે અમે યથાવત બધુ तैयार ४२रावी हाधु छ “॥ सूत्र" १३ ,"
'तएण मल्ली मणिपेढियाएं त्या E -(तएण ) त्या२ मा ( मल्ली) भसी भारीमे (मणिपेडियाए उवरि अप्पणो सरिसिय सरित्तय सरिव्यय सरिस लावन शा ३६
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নাম ध्यदेशभागे सर्वथा मध्यस्थानभागे पह- गम्मघरण' गर्भगृहान् अन्तर्य हान् कुरुत । वास भरनानि तेपा च गर्भगृहाणा वहम यदशमागे जालगृह अत्र गृहा न्तर्गत वस्तु पहि स्थिताः पश्यति, तदर्थ कुडयेपु दार्मादिनिर्मितमालकानि बवेन्ते तद् जालगृह कुरुत तस्य खलु जाल्गृहस्य रहमध्यदेशभागे मणिपीठिका मणिमयपीठिका, कुरुत, कृता यारत् प्रत्यर्पयन्ति मल्ली भगवत्या आदेशाद कोटुम्चिकपुरुपा मोहनगृह तन मध्यमागे पदमख्यक गर्भगृह तन्मध्ये मणिमय
(तस्स ण मोहणघरस्स यहुमज्जदेसभा छ गम्भधरए करेह) उस समोहन गृह के ठीक मध्यभाग मे छ गर्भगृहो को यनाओ (ता सेण गम्भघरगाण पटुमझदेसभाए जाल वरय करे तस्स णे जाल घरयस्स थटुमादेसभाए मणिपेढिय करेर, जाव पच्चप्पिणति) उन गर्भ गृहों के मध्यभाग में जालघर को यनाओ । जालियों में से जिस घर की वस्तु को याहिर रहे हुए मनुष्य देव देते हैं। वह जाल घर करलोते है । ये जालिया भीतो में काष्ट आदि की मनाकर लगाई जाती है । जिस प्रकार मकानो में हवा तथा प्रकाश आने के लिये खिड़कियों हुआ करती है-उसी प्रकार से ये जालियां भी लगाई जाती हैं । और उस जाल गृह के ठीक पीच के स्थान में मणिनिर्मित पीठिका को बनाओ।
बनाकर पीछे इसकी हमें स्नूचना दो। इस प्रकार मल्ली भगवती के आदेश को पाकर उन कौटुम्पिक पुरुषों ने १ मोहन गृह, उसके बीच में छ गर्भ गृह उनके बीच में १ जाल गृह और उस के बीच में मणि
"तस्सण मोहणगरस्स यहुमज्झदेसमाए २ गम्भघरए करेह" सभाहन ઘરને અધવચ્ચે છ ગભ ગ્રહો અને
(तीसेण गम्भघरगाण बहुमज्झ देसभाए जाव घर य करेह तस्स ण जाल घायस्म बहुमज्झदेसमाए मणिपेढिय करेइ जाव पच्चप्पिणति)
ગર્ભગૃહના મધ્ય ભાગમાં જાલ ઘર બને જે ઘરની અંદરની વસ્તુઓ ને બહારના માણસે ઘરની જાળીઓથી જોઈ લે છે, તે ઘરને જાળઘર કહે છે જાળીઓ ભી તેમાં લાકડા વગેરેની બનાવીને મૂકવામાં આવે છે. ઘરમાં પવન તેમજ પ્રકાશ ને આવવાને માટે બારીઓ હોય છે, તેમજ જાળીઓ પણ મૂકવામાં આવે છે ) આ જાળ ઘરની બરાબર અધવચ્ચે મણિ જડિત પીઠિકા બના
આબધુ તૈયાર થઈ જાય ત્યારે મને સૂચિત કરે આરીતે મલી ભગ વતીની આજ્ઞા સાભળીને કૌટુંબિક પુરુષોએ એક સ મેહન ઘર, તેની વચ્ચે છ ગર્ભગૃહ, તેની વચ્ચે એક જાળગૃહ અને તેની વચ્ચે મણિ જટિત પીરિક
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ मणिमयपुत्तलिकानिर्माणादिनिरूपणम् २९९ मय्या यावत् मस्तकच्छिद्राया प्रतिमायामेकैकस्मिन् पिण्डे प्रतिप्यमाणे प्रक्षिप्य ___माणे सति ' तओ' ततः तस्या पुत्तलिकाया सकाशाद् गन्धः दुर्गन्धः पाउन्भ
वइ ' प्रादुर्भनतिन् यहि निस्सरति स्म । सदृष्टान्त पुत्तलिका वर्णयति-तद् यथानामकम् यथा दृष्टान्तम्-' अहिमडेइ वा ' अहिमृतक इति वा यावत्-अत्र यावच्छ देन- गोमडेड वा, सुणगमडेद वा, मज्जारमडेइ वा, मणुस्समडेइ वा, महिसमडेइ वा, मूसगमडेइ चा, आसमडेइ वा, हत्यिमडेइ या सीहमडेइ वा, वाघमडेइ वा, विगमडेइ वा, दीविमडेइ वा, इति सड्ग्रहः ' गोमृतक इति वा, शुनकमृतक इति वा, मार्जारमृतक इति वा, मनुष्यमृतक इति वा, महिपमृतक, इति वा मूपकमृतक इति वा, अश्वमृतक इति वा, हस्तिमृतक इति वा, सिंहमृतक इति वा, व्याघ्रमृतक तीसे कणगमत्तीए जाव मच्छयछिड्डाए पडिमाए एगमेगसि पिंड पक्खिप्पमाणे २ तओ गधे पाउम्भवइ ) इस प्रकार करते करते उस सुवर्ण भयी पुत्तलिका मे मस्तक के छेद द्वारा पिंड पहुँच ने पर उस पुत्तलिका से दुर्गन्ध निकल ने लगी।
(से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव एत्तो अणिहतराए अमणाम तराए ) वह दुर्गध ऐसी थी-जैसी मरे हुए सर्प के सड जाने की होती है । यहाँ यावत् शब्द से “गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा" इत्यादि का संग्रह हुआ है।
इसका अर्थ इम प्रकार है-वह दुगंध गाय के मरे हुए सडे कलेवर की होती है मरे हुए कुत्ते के सडे कलेवरकी होती है, मरे हुए पिलोव के सडे कलेचर की होती है, मनुष्य के मरे हुए सडे कलेवर की होती है, महिप के मरे हुए सडे कलेवर की होती है, मरे हुए चूहे के सडे कलेवर की होती है, मरे हुए घोडे के सडे कलेवर की भाथाना अ नामती (तएण तीसे कणगमत्तीए जान मन्छय छिड़ाए पडिमाए एगमेगसि हिंडे पक्लिप्पमाणे २ तओ गधे पाउभइ) मारीत सोनानी पूतणीमा ४२२।४
जीयनपाथी माथी हुगध नीmal asी (से जहा नामरा अहिमडेइ वा जाच एत्तो अणिद्वतराए अममतराए) भरेता मने ससा सापना २वी ते हुमती मी यारत ४थी 'गोमटेइवा, सुणगमडेवा' વગેરેને અગ્રડ થયે છે આનો અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે કે મરીને સડી ગયેલા ગાયના શરીરના જેવી મરીને સડવા માડેલા કૃતરાના શરીરના જેવી મરીને સડવા માડેલા બિલાડાના શરીરના જેવી, મરીને સડતા માણસના હારીરના જેવી, મરીને સડતા પડાના શરીરના જેવી, મરીને સડતા ઉદરના શરીરના જેવી, મરીને સડતા ઘોડાના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા હાથીના શરીરના જેવી,
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मिता 'मत्थयन्छिन ' मस्तरुन्उिद्रा मस्तकोपरिभागे छिद्रयुक्ता 'पउप्पलप्पिहाणं पद्मोत्पलपिधान = रक्तनीलकमलानि पिधानानि मस्त निद्रस्याच्छादनानि यस्या स्वा प्रतिमा = स्वतुल्य कृतिकपुत्तलिका कारयति = शिल्पकारैर्निर्मापयति । कार fear सामली कुमारी यद् 'रिल' विपुल हुलम्, अशनपानखाद्य स्वाथ= चतुर्निधमादारम् आहारयति = भुङ्क्ते तत तस्मात् - ' मणुनाओ ' मनोज्ञाम् प्रिय रसयुक्तात् अशनपानखाद्यस्वायात् चतुर्विधारमध्यात् 'पडाकटिल' फ्ल्यावलिय दिने दिने, एकमेक पिण्ड ग्राम गृहीला, तस्याः नवमय्याः मस्तकच्छिद्राया यावत् प्रतिमाया मस्तके = मस्त कोपरिभागवर्तिनि रन्त्रे मक्षिपन्ती = एकमेक ग्रास निपातयन्ती ' विहरड ' विहरति आस्ते ग्म । ततस्तदनन्तर खलु तम्या कनक ववेय कणगमइ मत्थयच्छिड पउमुप्पलप्पिाण पडिम करेह ) उस माणिपीठिका के ऊपर अपनी जैसी-अपनी जैसी बयवाली अपने शरीर के सदृश प्रमाणवाली, अपने जैसे लावण्य आदि गुणों वाली एक सुवर्ण निर्मित पुत्तलिका शिल्पियो से धनवाई । उसके मस्तक में एक बड़ा सा छेद रखवाया । वह छेद रक्त नील कमल रूप ढक्कन से ढका हुआ था ! ( करिता ज विउल असण पाण साउम साइम आरारेइ तओ मणुन्नाओ असण ४ कल्ला कल्लि एग द्वारेण पिग्गहाय विहरइ ) जब इस प्रकार की पुत्तलिका बनकर तैयार हो चुकी तब उस मल्ली कुमारी ने विपुल मात्रा में अशन, पान, साय और स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार तैयार करवाया और स्वयं खाना बाद मे उस प्रियरसयुक्त आहार में से प्रतिदिन वह एक एक ग्राम को लेकर उस मस्तक छिद्र वाली सुवर्ण की पुत्तलिका के उस मस्तको परिभागवर्ती छेद मे डालने लगी- ( तएण जोगुणोववेय कणगमइ मत्थयच्छिड्ड पउमुप्पलविहाण पडिम करेइ )
તે મણિ પીઠિકા ઉપર શિલ્પ શાસ્ત્રીએ પાસેથી પેાતાના જેવી પેાતાના જેવા આયુષ્યની, પેાતાના શરીર જેવા પ્રમાણની પેાતાના જેવા લાવણ્ય વગેરે ગુણાવાળી એક સેનાની પૂતળી બનાવડાવી તેના માથામા એક મેટુ કાણું રખાવ્યુ તે કાણુ રકતનીલ કમળના ઢાકણાથી ઢાકેલુ હતુ
(करिता ज विउल असण पाण खाइम साइम आहारेइ तओ मणुनाओ असण ४ कल्ला कल्लि एगद्वारेण पिउगहाय विहरइ )
જ્યારે આરીતે સેનાની પૂતળી તૈયાર થઈ ગઈ ત્યારે મલ્લી કુમારીએ અશન પાન ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના પુષ્કળ પ્રમાણમા આહાર તૈયાર કરાવડાવ્યા, અને હમેશા તે આહારમાથી પેતે જમતી, અને ત્યાર આાદ તેમાથી એક ફોળીઓ લઈને કાણાવાળી સાનાની પૂતળીના
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका म०८ मणिमयपुत्तलिकानिर्माणादिनिरूपणम् २९९ मय्या यावत् मस्तकन्छिद्राया प्रतिमायामेकैकस्मिन् पिण्डे प्रक्षिप्यमाणे प्रक्षिप्य माणे सति ' तओ' ततः तस्या पुत्तलिकाया सकाशाद् गधा-दुर्गन्धः पाउभवइ ' प्रादुर्भरतिबहिनिस्सरति स्म । सदृष्टान्त पुत्तलिका वर्णयति-तद् यथानामकम् यथा दृष्टान्तम्-' अहिमडेइ वा ' अहिमृतक इति वा यावत्-अत्र यावच्छ ब्देन- गोमटेड वा, सुणगमडेद वा, मज्जारमडेइ वा, मणुस्समडेइ वा, महिसमडेइ वा, मूसगमडेइ वा, आसमडेइ वा, हथिमडेइ ना सीहमडेइ वा, वाघमडेइ वो, विगमडेइ वा, दीविमडेइ वा, इति सड्ग्रहः ' गोमृतक इति वा, शुनकमृतक इति वा, मार्जारमृतक इति वा, मनुष्यमृतक इति वा, महिपमृतक, इति वा मृपकमृतक इति वा, अश्वमृतक इति वा, हस्तिमृतक इति वा, सिंहमृतक इति वा, व्याघ्रमृतक तीसे कणगमत्तीए जाव मच्छयाउड्डाए पडिमाए एगमेगसि पिंड पक्खिप्पमाणे २ तओ गधे पाउन्भवइ ) इस प्रकार करते करते उस सुवर्ण मयी पुत्तलिका मे मस्तक के छेद द्वारा पिंड पहुँच ने पर उस पुत्तलिका से दुर्गन्ध निकल ने लगी।
(से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव एत्तो अणिट्टतराए अमणाम तराए ) वह दुर्गध ऐसी थी-जैसी मरे हुए सर्प के सड जाने की होती है । यहाँ यावत् शब्द से “गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा" इत्यादि का संग्रह हुआ है।
इसका अर्थ इस प्रकार है-वह दुगंध गाय के मरे हुए सडे कलेवर की होती है मरे हुए कुत्ते के सडे कलेवरकी होती है, मरे हुए चिलोष के सडे कलेवर की होती है, मनुष्य के मरे हुए सडे कलेवर की होती है, महिप के मरे हुए सडे कलेघर की होती है, मरे हुए चूहे के सडे कलेवर की होनी है, मरे हुए घोडे के सडे कलेवर की भाथाना अ नामती (तएण तीसे कणगमत्तीए जाव मन्छय छिड़ाए पडिमाए एगमेगसि विंडे पक्खिप्पमाणे २ तओ गधे पाउभनइ) मारीत सोनानी भूतजीमा ४२२४ मे से जीये. नवाथी तभायी हु नीsman दास ( से जहा नामए अहिमडेइ वा जाच एत्तो अणि?तराए अमनामतराए) भरेक्षा भने सहा सापना रवी ते सपती मडी यात्रत ७४थी 'गोमटेइवा, सुणगमडेवा' વગેરેને સગડ થયો છે અને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે કે મરીને સડી ગયેલા ગાયના શરીરના જેવી મરીને મડવા માંડેલા કૂતરાના શરીરના જેવી મરીને સડવા માડેલા બિલાડાના શરીરના જેવી, મરીને સડતા માણસના ડારીરના જેવી, મરીને સડતા પડાના શરીરના જેવી, મરીને સડના ઉદરના ગરીરના જેવી, મરીને સડતા ઘેડાના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા હાથીના શરીરના જેવી,
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ज्ञाताधर्मकथनसूत्रे
इति वा, घृकमृतक इति या, द्वीपिमृतक इति वा, हतिन्जया, पां मृतसपौदि कलेवराणा दुर्गन्धः खलु यादृशोऽनिष्टः प्रादुर्भयति 'एसो ' एतस्माद् 'अणि छतराए ' अनिष्टवर अधिकस्तीत्रः, अतएव ' अमणामतराए ' अमन आमतर = मनसोऽति प्रतिकूलो दुर्गन्धस्तस्याः पुत्तलिकाया अभवदित्यर्थ ॥ ० १४ ॥
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसलणामं जणवए, तत्थ णं सागेए नाम नयरे, तस्स णं उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं मह एगे नागघरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चो वाए संनिहियपाडिहेरे, तत्थ ण नयरे पडिवुद्धिनामं इक्खागुराया परिवसइ, पउमावई देवी सुबुद्धी अमच्चे सामदडभेयकुसले, तएण पउमावईए देवीए अन्नया कयाइ नागजन्नए यावि होत्था । तएणं सा पउमावई नागजन्नमुवट्टिय जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहिय सिरसावत दसनह मत्थए अंजलि कट्टु एव वयासी - एव खलु सामी । मम कल्ल नागजन्नए यावि भविस्सइ, त होती है, मरे हुए हाथी के सडे कलेवर की होती है, मरे हुए सिंह के सडे कलेवर की होती है, मरे हुए व्योघ्र के सडे कलेवर की होती है घृक और द्वीपि के सढे कलेवर की होती है । इन मृत सर्पादिकों के सडे हुए कलेवरों की दुर्गंध जिस प्रकार अनिष्ट होती है उसी प्रकार इससे भी अनिष्टतर वह पुतलिका से निकलती हुई दुर्गंध थी- अमन आमतर थी मन को जरा सी भी रुचे ऐसी नही थी किन्तु मन के अतिसर्वथा प्रतिकूल थी । सूत्र 66 १४ "
મરીને સડી ગયેલા સિંહના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા વાઘના શરીરના જેવી મરીને સડી ગયેલા વરુ અને દીપડા (દ્વીપિ)ના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા સાપ વગેરેના શરીરના જેવી અનિષ્ટકારી દુધ હાય છે તેવી જ અને તેના કરતા પણ વધારે અનિષ્ટતર પૂતળીમાથી નીકળતી દુર્ગંધ હતી મનને એકદમ અણુગમે થાય તેવી સથા પ્રતિકૂળ તેમાથી नीडजती दुर्गध ती ॥ सूत्र “ ६४ " ॥
८८
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०१ इच्छामि णं सामी । तुम्भेहि अभणुन्नाया समाणी नागजन्नय गमित्तए, तुम्भेवि णं सामी । मम नागजन्नयसि समोसरहा तएणं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमट्ठ पडिसुणेइ। तएण पउमावई पडिबुद्धिणा रन्नो अभणुन्नाया हट्टतुट्ट जाव कोड वियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी-एव खलु देवाणुपिया । मम कल्ल नागजपणए भविस्सइ तं तुम्भे मालागारे सदावेह, सदावित्ता एवं वदह एव खल्लु पउमावइए देवीए कल्ल नागजण्णए भविस्सइ, त तुम्भे णं देवाणुप्पिया । जलथलय० दसद्धवन्नं मल्ल णागघरयसि साहरह, एगंच णं मह सिरिदामगंड उवणेह । तएणं जलयलय दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविह भत्तिसुविरडय हसमियमउरकोच सारसचक्कवायमयणसाल कोइलकुलोववेय ईहामियजावभत्तिचित्त महग्घ महरिह विपुलं पुप्फमंडवं विरएह तस्सणं वहुमज्झदेसभाए एग मह सिरिदामगड जाव गधधुणि मुयत उल्लोयंसि ओलंबेह, ओलवित्ता पउमावइ देवि पडिवालमाणा २ चिट्ठह। तएणं ते कोडविया जाव चिट्ठति ॥ सू० १५ ॥
टीका--' तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समयेकोसलानाम जनपदः देश आसीत्, तत्र खलु साकेतनामक नगरमासीत् । तस्य साकेत
' तेणं काले ण तेण समएण' इत्यादि । टोकार्थ-( तेण काले ण तेण समरण ) उस कोल और उस समय में (कोसला नाम जणवए ) कोशल नामका जन पद-देश था।
' तेण कालेण तेण समएण 'त्या
Estथ-विण कालेण तेण समएण) a tणे भने त मते (फोसल नाम जणपए) र नामे ५६ (३२) नो (वत्यण सागेए नाम नयरे )
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ફ્રે
श्राताधर्मकथासूत्रे
"
नगरस्य खलु उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे = ईशान कोणे भन खलु महटेक नागगृहमासीत् तत् कीदृशमित्यात - दिव्य = मधानं, सत्य कामनापूरस्त्वात् 'सच्चोवाए ' सत्यात्रपात = सत्याभिलाप, सनिहियपाडिहेरे ' सनिहितमाविहाय =सनिहित विनिवेशित मातिदायें प्रतीहारकर्म व्यन्तरदेवेन यस्मिन् तत्तथा देवराधिष्ठितमित्यर्थः । तत्र खलु नगरे= साकेतनगरे मतिबुद्धिनामा इक्ष्वाकुराजः = प्राकुनशीयो राजा परिव सवि | पद्मावती देवी तस्य भार्याऽऽसीत् । 'मुत्रुद्धिः अमच्चे ' सुबुद्धिनामक स्तस्यामात्य मत्री, स कथभूत इत्याह-' सामदडभेयकुसले ' सामदण्डभेदकुशलः ( तत्थण सागेए नाम नगरे ) उस में मात नाम का नगर था । ( तस्स पण उत्तर पुरस्थिमे दिसीभाए - एत्थ ज मह एगे नागधर होत्या दिव्वे सच्चे सच्चोवार सति हियपाsिहेरे) उस के ईशान कोण में विशाल नागघर था ।
•
यह दिव्य और प्रत्येक व्यक्ति की कामना का पूरक होने से सत्य था। जो भी कोई कामना - अभिलापा - इसके समक्ष करता वह उस की सफल हो जाती - सत्य हो जाती - इसलिये यह सत्याभिलाष था । इसके द्वार पर पन्त र देव प्रतिहार के रूप मे खडे रहते थे इसलिये यह सनिहित प्रतिहार्य था । (तत् ण नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागु राया परिवस, पउमावई देवी सुबुद्धी अमच्चे सामदडभेयकुसले ) उस साकेत ( अ योध्या) नगर में इक्ष्वाकुवंश से उत्पन्न प्रतिबुद्ध नाम का राजा रहता था । इस की भार्या का नाम पद्मावती था । अमात्य का नाम सुबुद्धि था ।
તેમા સાકેત નામે નગર હતુ
( तस्स उत्तर पुरत्थि दिसी भाप - एत्थण मह एगे पागधरe होत्या ) दिव्वे सच्चे सन्चोवाए सतिहिय पडिहेरे )
તેના ઈશાન કાણુમા એક માર્યુ નાગધર હતું
તે દિવ્ય અને દરેકે દરેક માણુસની ઈચ્છાને પૂરી કરનાર હાવાથી સત્ય હતુ ગમે તે વ્યક્તિ પેાતાની ઈચ્છા-કામના તેની સામે પ્રકટ કરા, તેની ઈચ્છા તે ચાક્કસ પૂરી પાડતુ હતુ તેની કામના સફ્ળ તેમજ સત્ય થતી હતી એથી જ તે સ યાભિલાષ હતુ બત્તર દેવા તેના દ્વારે પ્રતિહારના રૂપમા ઊભા રહેતા હતા એથીજ તે સનિહિત પ્રતિહાય હતુ
( तस्थण नयरे पडिबुद्धीनाम इक्खागुराया परिवस, पउमावर्ड देवी सुबुद्धी अमच्चे सामदड भेय कुसले )
સાકેત નગરમા ઇક્ષ્વાકુવશમા જન્મવા પ્રતિભુ નામે રાજા રહેના હતેા તેની ભાર્યાનુ નામ પદ્માવતી હતુ તેના અમાત્ય ( મત્રી) નુ નામ સુબુદ્ધિ હતુ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ षोरलाधिपतिरूपनिरूपणम
"
साम= सान्खनमयोगः, दण्ड : = युद्ध, भेदः = शत्रुपक्षे मन्त्रिसैनिनादिभिर्विरोधोत्पादनम्, तेषु कुशलः = निपुण । ततस्तदनन्तर खलु पद्मावत्या देव्या अन्यदा कदाचित् नागयज्ञ कथाप्यासीत् = नागमहोत्सव दिवस समायात इत्यर्थः । ततस्तदा खलु सा पद्मावती देवी नागयज्ञ नागमहोत्सव दिवसम् उपस्थित = समायात ज्ञात्वा यत्रैव प्रतिबुद्धिर्नाम इक्ष्वाकुराजस्तत्रैवोपागच्छति । उपागत्य करतल परिगृहीत शिरआवर्त्त दशनख मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् हे स्वामिन् । एव खलु मम क्ल्ये आगामिदिवसे नागयज्ञाश्वापि भविष्यति, तद्= तस्मात् इच्छामि यह अमात्य साम, दण्ड, और भेद नीति में कुशल था । शत्रु को शांति से वश करना यह साम नीति है, युद्ध से वश करना - उसे परास्त कर अपने आधिन बनाना -यह दण्ड निति है- शत्रु की सेना मे मन्त्री तथा सैनिको में विरोध उत्पन्न कराना इस का नाम भेद है । (तएण पउमावईए देवीए अन्नया कयाइ नागजन्नए यावि होत्था ) एक समय की बात है कि पद्मावती देवी के यहा नागयज्ञ के महोत्सव का दिन आया । (तरण सा परमावई नागजन्न मुवट्ठिय जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी- तेणेव उवागच्छ३) अत: वह पद्मावती देवी नाग यज्ञ - नागमहो त्सव का दिन आया हुआ जान कर जहाँ अपने पति प्रतिबुद्धि राजा थे वहा गई । (उवागच्छित्ता करयल परिग्गाहिय सिरसावत दसनह मत्थए अजलि कट्टु एव वयासी) वहा जाकर उस ने राजा को दोनों हाथों की अजलि बनाकर और मस्तक पर रखकर नमस्कार किया बाद में वह इस प्रकार कहने लगी- ( एव खलु सामी मम कत्ल नाग जन्नए
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હતા. શત્રુને શાતિથી
તે અમાત્ય સામ દઢ તેમજ ભેદ નીતિમા કુશળ વશકરવે તે સામનીતિ છે. યુદ્ધ લડીને વશ કરવે, તેને હરાવવે અને પેાતાને આધીન કરવા તે ઇડનીતિ તે શત્રુની સેનામા મત્રી તેમજ સૈનિકામા विशेध उत्पन्न व ते लेह नीति छे ( तएण परमाase देवीए अन्नया कयाइ नागजन्नए यात्रिहोत्या ) मे समयनी बात छे है पद्मावती हेवीने त्या नागयज्ञ नो महोत्सव हिवस भाव्या ( तपण सा पउमावई नागजन्नमुवट्टिय जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धि तेणेत्र आगच्छ ) नाग महोत्सव ना दिवसनी लय थता पद्मावती देवी प्रतियुद्ध राजनी पासे ग ( उवागच्छित्ता करयर परि गाहिय सिरसावत दसनह मत्थए अजलिं कट्टु एव वयासी) त्या नेतेले जने હાથેાની આ જિલ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યાં અને ત્યારપછી કહ્યુ ( एव खलु सामी मम कल्ल नाग जन्नए यात्रि भविस्सर त इच्छामि
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बाताधर्मत्र था
खलु स्वामिन् ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता = आदिष्टासती नागयज्ञक गन्तु नागमहोत्सव फर्तु = नागगृह गन्तुम् 'इच्छामी' ति पूर्वेण रामन्त्रयः । हे स्वामिन्! यूयमपि खल मम नागयज्ञे= नागपूजाया समयसरत = भागच्छत यतु ' मया सार्धं समागच्छ इत्यर्थः' इति व्याख्यात तत् ममादिकम् पद्मावत्या उक्ति स्वीकृत्य हिराजः पथा द् गमनपर शास्त्र विरुध्येत । ततस्तदनन्तर सल स प्रतिबुद्धिः प्रतिबुद्धिनामको पद्मात्या देव्या एतमर्थम् = प्रार्थनास्प प्रविशृणोति = स्पीकरीतिस्म । ततः खलु पद्मानी मतिबुद्धिना राज्ञाऽभ्यनुज्ञाता हृष्टा तुष्टा० यावत् फोटुम्निम्पुरुषान आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति = आइयति, शब्दयित्वा =आहूय एव = पक्ष्यमाण प्रकारेणावादीत् - हे देवानुप्रियाः । ए खलु मम ल्ये नागयज्ञको भविष्यति, यावि भविस्सह, त इच्छामिणं सामी । तुभेहि अन्भणुन्नाया समाणी नागजन्न य गमित्त ) स्वामीन् ! फल नागमहोत्सव होगा- मैं कल नाग महोत्सव मनाऊँगी अतः आपसे आज्ञा लेने आई हैं अतः आप आज्ञा दे तो मैं कल नाग महोत्सव मनाने के लिये नाग गृह जाऊँ । हे स्वभिन् ! आप भी मेरे इस उत्सव में पधारें ।
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(तरण पडिबुद्धी पत्रमाचईए देवीए एयमट्ठ पडिसुणे ) पद्मावती देवी के इस कथन को सुनकर प्रतिबुद्धि राजा ने उस के प्रार्थना रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया (तरण पउमावई पडिवुद्विणा रना अन्भनया तु जाच कोडुनि पुरिसे सहावेह ) इस के अनन्तर प्रतिबुद्धि राजा से आज्ञापित हुई वह पद्मावती देवी बहुत अधिक हर्षित एव सतुष्ट हुई । यावत् उस ने कौटुम्बिक पुरुषो को बुलाया ( सद्दावित्ता एव वासी एव खलु देवाणुपिया ! मम, कल्ल नागजण्णए भविस्सह, सामी' तुभेहिं अन्भणुन्नाया समाणी नागजम्न्नएय गमित्तए)
હૈ સ્વામિન્ આવતી કાલે મારે ત્યા નાગ મહાત્સવ થશે હુ આવતી કાલે મહાત્સવ ઉજવવાની છુ એથી નાગ મહેાત્સવ ઉજવવાની તમારી પાસેથી આજ્ઞા મેળવવા આવી છુ તમારી આજ્ઞા થાય તે હું આવતી કાલે નાગ મહાત્સવ માણુવા નાગધર જાઉ. હે સ્વામિ ઉત્સવમાં પધારવા તમને પણ હું આમત્રણ આપું છુ
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( तएण पडिबुद्धि परमावईए देवीए एयमट्ठ पडिसुणेइ ) पद्मावती नु ક્શન સાભળીને પ્રતિબુદ્વ રાજાએ તેની વિનંતી સ્વીકારી લીધી तपण परमावई पडिबुद्धिणा रन्ना अमणुन्नाया हट्ठट्ठ जाव कोटु बियपुरिसे सद्दावेइ " પ્રતિબુદ્ધિ રાજા વર્ક આજ્ઞાંકિત થયેલી રાણી પદ્માવતી દેવી ખૂબજ તિ તેમજ સ તુષ્ટ થઈ ચાવત તેણે કૌટુંબિક પુરૂષાને ખેલાવ્યા
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भनगारधर्मामृतपपिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ०५ तद्-तस्मात् यूय मालाकारान् शब्दयत, शब्दयित्वा एव बदत-एव ग्वलु पद्मावत्या देव्याः क्ल्ये प्रभाते नागयज्ञक =नाग महोत्सवो भविष्यति तद्-तस्माद् यूय खल हे देवानुमियाः जलस्थल नभास्सरमभूत जलोत्पन विकसित प्रचुरदशाध वर्ण-पञ्चवर्णमाल्य कुसुमजात माल्य च नागगृहे सहरतम्समानयत एकच खलु महत् श्रीदामकाण्डमुपनयत समानयत । तत खलु जलस्थलज भास्वर मभूतेन दशावर्णेन माल्येन 'णाणाविहभरि विरइय'नानाविव भक्ति सुरचितम् अनेकप्रकारकचिनरचना मुशोभित,पुष्पमण्डप विरचय तेति सम्बन्ध, पुनः कथभूत तदिलाह-'हसमियमउ रकोच सारसचकवायमयणमालकोइलकुलोववेव ' इसमृगमयूरकोञ्चसारसचक्रवाक मदन शालकोकिल कुलोपपेतम्-ह सादि कोकिलान्ताः प्राग व्याख्याताः, तेपा कुलै समूहैचित्ररूपैरुपपेत्त युक्त, 'ईहामियजारभत्तिचित्त ' ईहामृग यावद् भक्तिचित्रम् त तुम्भे मालागारे सद्दावेह, सद्दावित्ता ण्व वदह एव ग्वलु पउमावईए देवीए क्ल नाग जपण भविस्मड ) बुलाकर उन से उस ने ऐसा कहा देवानुप्रियो ! मेरे यहाँ कल नागमहोत्सव होगा-इसलिये तुम लोग मालियो को बुलाओ-और धुलाकर उन से ऐसा कहो-कि पद्मादेवी के कल नाग यज्ञ होगा । (त तुम्भेण देवाणुप्पिया ! जल थलय० दसवन्न मल्ल णागघरयसि साहह ) सो तुम सब हे देवानुप्रियो ! जलथल में उत्पन्न हुए विकसित पचवर्णो के पुष्पो को नागधर पर पहुँचाओ
और साथ मे एक महान् श्रीदामकाण्ड को भी। (तएण जलयल० दसद्धवने ण मल्लेणं णा वित्तिसु विस्य हँस मिय मउर कोच सारसचकवायमयणसालकोडलकुलोववेय ईहामिय जाव भत्तिचित्त
"सावित्ता एप क्यासी एव खलु देवाणुप्पिया मम क्ल्ल नाग जण्णए भविस्सइ, त तुम्भे मालागारे सनावेह सदावित्ता वदह एव खलु पउमावईए देवीए क्ल्ल नागनाए भविस्सइ"
બોલાવીને તેમને કહ્યું- “દેવાનુપ્રિયે મારે ત્યાં આવતી કાલે નાગ મહોત્સવ થશે એથી તમે માળીઓને બોલાવો અને બોલાવીને તેમને એ प्रभारी ड से पद्मावती देवीन त्या ना भडास यशे ( त तुभेण देवाणुपिया। जल थरय सवन मल्ल णागधरयसि साहरह) तोह દેવાનુપ્રિયે ! તમે બધા જળ થળમાં cત્પન્ન થયેલા પાચ ગોના પુપને અને શ્રીદામાને નાગઘરમાં પહોચાડો
"तएण जल थल० दमदवन्ने ण मल्लेण णाणाविह भत्तिसु विख्य हम मियमउर रांच सारस चमवारमयगमाल कोइलकुलोपवेय ईहामियम भत्ति चित्त महन्ध गहरिह विपुल पूपमटव विरएह)
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हाताधर्मप्रथाइरो खलु मागिन् । युप्माभिरभ्यनुमाता-आदिप्टासती नागयज्ञक गन्तु नागमहोत्सव फर्तु-नागगृह गन्तुम् 'इच्छामी' वि पूर्वेण समन्वयः । हे सामिन् ! यूयमपि खलु मम नागयज्ञे नागपजाया समवसरत-भागच्छन यतु 'मया सार्थ समागच्छन इत्यर्थः' इति व्याख्यात तत् ममादिकम् पमारत्या उक्ति मीहत्य हि राज्ञः पवा द् गमनपर शास्त्र विरुध्येत । ततस्तदनन्तर खल स प्रतियुद्धिः प्रतिदिनामको नृप पद्मावत्या देव्या एतमर्थम्भार्थनारूप प्रतिशृणोति-स्पीकरीतिस्म । ततः खलु पद्मानती मतिघुद्धिना रामाऽभ्यनुज्ञाता इष्टा तुष्टा० यावत् कोटुम्भिक पुरुषान आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति आहयति, शब्दयिता आहूय एव-क्ष्यमाण प्रकारेणावादीत- हे देवानुप्रियाः ! एप खलु मम कल्ये नागयज्ञको भविष्यति, यावि भविस्सइ, त इच्छामिण सामी ! तुम्भेहि अन्भणुन्नाया समाणी नागजन्नए य गमित्तए) स्वामीन् ! कल नागमहोत्सव होगा-में कल नाग महोत्सव मनाऊँगी-अत. आपसे आज्ञा लेने आई है अतः आप आज्ञा दे तो मैं कल नाग महोत्सव मनाने के लिये नाग गृर जाऊँ । हे स्वभिन् । आप भी मेरे इस उत्सव में पधारें।
(तएण पडिबुद्धी परमाचईए देवीए प्यमह पडिसुणेह ) पद्मावती देवी के इस कथन को सुनकर प्रतिवुद्धि राजा ने उस के प्रार्थना रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया ( तण्ण पउमावई पडिबुद्धिणा रना अन्म णुनाया हह तु जाव कोडुपिय पुरिसे सद्दावेह) इस के अनन्तर प्रतिबुद्धि राजा से आज्ञापित हुई वह पद्मावती देवी घहुत अधिक हर्षित एव सतुष्ट हुई । यावत् उस ने कौटुन्त्रिक पुरुषो को बुलाया ( सद्दावित्ता एव वयासी एव खलु देवाणुप्पिया! मम, कल्ल नागजपणए भविस्सह, सामी ' तुब्भेहिं अभणुनाया समाणी नागजन्नएय गमित्तए)
હે સ્વામિન આવતી કાલે મારે ત્યા નાગ મહોત્સવ થશે હુ આવતી કાલે મહોત્સવ ઉજવવાની છુ એથી નાગ મહોત્સવ ઉજવવાની તમારી પાસેથી આજ્ઞા મેળવવા આવી છુ તમારી આજ્ઞા થાય તે હું આવતી કાલે નાગ મહોત્સવ માણવા નાગધર જાઉ છે સ્વામિ ! ઉત્સવમાં પધારવા તમને પણ હું આમ ત્રણે આપું છું
(तएण पडिबुद्धि पउमावईए देवीए एयमह पडिसुणेइ) पावती नु थन सामजीने अतिशत तनी विनती स्वीारी सीधी “तएण पउमावई पडिबुद्धिणो रन्ना अभणुनाया हट्ट जाव कोटु चियपुरिसे सहावे" પ્રતિબુદ્ધિ રાજા વડે આજ્ઞાંકિત થયેલી રાણી પદ્માવતી દેવી પૂબજ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈ યાવત તેણે કૌટુંબિક પુરૂને બોલાવ્યા
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भनगारधर्मामृतपषिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्त्ररूपनिरूपणम् ०५ तद्-तस्मात् यूय मालाकारान् शब्दयत, शब्दायित्वा एव मदत-एच ग्वलु पद्मावत्या देव्याः कल्ये प्रभाते नागयज्ञक =नाग महोत्सवो भविष्यति तद्-तस्माद् यूय खलु हे देवानुपियाः जलस्थल नभासरप्रभूत जलोत्पन्न विकसित प्रचुरदशाध वर्ण-पञ्चवर्णमाल्य कुसुमजात माल्य च नागगृहे सहरत-समानयत एकच खलु महत् श्रीदामकाण्डमुपनयत समानयत । ततः खलु जलस्थलज भास्वर मभूतेन दशावर्णेन माल्येन 'णाणाविहभरि विरइय'नानाविव भक्ति सुरचितम् अनेकप्रकारकचित्ररचना मुशोभित,पुप्पमण्डप विरचयतेति सम्बन्धः, पुनः कथभूत तदित्याह-'हसमियमउ, रकोंच सारसचच्यायमयणमालकोइलकुलोववेव ' हसमृगमयूरक्रोञ्चसारसचक्रवाक मदन शालकोकिल कुलोपपेतम्-ह सादि कोकिलान्ताः प्राग्व्याख्याताः, तेपा कुलै समूहैश्विनरूपैरुपपेत्त युक्त, 'ईहामियजानभत्तिचित्त ' ईहामृग यावद भक्तिचित्रम् त तुम्भे मालागारे सद्दावेह, सदायित्ता ण्व वदह एव खलु पउमावईए देवीए कल्ल नाग जण्णए भविस्मइ ) बुलाकर उन से उस ने ऐसा कहा देवानुप्रियो ! मेरे यहाँ कल नागमहोत्सव शेगा-हसलिये तुम लोग मालियो को घुलाओ-और वुलाकर उन से ऐसा कहो-कि पद्मादेवी के कल नाग यज्ञ होगा । (त तुम्भेण देवाणुप्पिया ! जल बलय० दसद्धवन्न मल्ल णागघरयसि साहरह) सो तुम सब हे देवानुप्रियो ! जलथल में उत्पन्न हुए विकसित पचवर्णो के पुष्पो को नागघर पर पहुँचाओं
और साथ मे एक महान् श्रीदामकाण्ड को भी। (तएण जलथल० दसद्धव ने ण मल्लेणं पणा विभत्ति विख्य हँस मिय मउर कोच सारसचकवायमयणसालकोइलकुलोववेय ईहामिय जाव भत्तिचित्त
"सदावित्ता एम क्यासी एव खलु देवाणुप्पिया मम कल्ल नाग जण्णए भविस्सइ, त तुब्भे मालागारे सदावेह सदावित्ता 4 वदह एव खलु पउमावईए देवीए फ्ल्ल नागमणए भविम्स"
બેલાવીને તેમને કહ્યું- “દેવાનુપ્રિયેમારે ત્યાં આવતી કાલે નાગ મહોત્સવ થશે એથી તમે માળીઓને બેલા અને બેલાવીને તેમને એ પ્રમાણે કહે કે કાલે પડાવતી દેવીને ત્યા નાગ મહત્સવ થશે ( -ભેળ देवाणुपिया। जल थलय दसवन मल्ल णाधरयसि साहरह) तो है દેવાનપ્રિયે ! તમે બધા જળ થળમાં ઉત્પન્ન થયેલા પાચ ગાના પુપને અને શ્રીદામાડને નાગઘરોમાં પહોંચાડે
"तएण जल थल० दसनवन्ने ण मल्लेश णाणाविह भत्तिसु ख्यि स मियमउर काँच सारस चमवारमयणमाल कोइलकुलोरवय ईहामिय जार भत्ति चित्त महन्ध गहरिद पिपुल पूपमटव विरएइ)
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कासा बचानसमे
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अत्र यापच्छच्देन - 'ईहामृगेत्यनन्तर - नृपभतुरगमवर निगव्यालकवि भररुक शरभ कुअर नलतापघलता ' इतिपाटस्य ग्रहणम् । ईहामृगोः, रुरुशरमौ । मृगजातिविशेषौ अन्ये स्पष्टार्थाः तेपा भक्त्या चित्ररचनया चित्रम्-आश्रर्य जनम् ' महग्घ ' महार्थ - महामूलक ' महरिह ' महार्द महता योग्य, विपुल विस्तीर्णम्, ईदृश पुष्पमण्डप विरघयत कुरुतेत्यर्थः । तस्य पुष्पमण्डपस्य खल्ल वहुमध्यदेशभागे - सर्वथा मध्यभागे एक महत् श्री दामकाण्ड यावत् पाटलादिपुष्प समूहसहितगन्धत्राणि गन्धतति मुञ्चत्-मददत् ' उल्लोयसि ' उल्लोचे = चन्द्रा तपे वस्त्रनिर्मितगृहाभ्यन्त रिवावरणे -' ओल्नेह ' अवलम्पयत भोलबित्ता अब
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महग्ध महरित विपुलं पुष्फमडव विरएर ) इस के अनन्तर वे सब जलथल के विकसित पचवर्णों के पुष्पो से और अनेक प्रकार के चित्रों की रचना से सुशोभित एक पुष्प मडप बनावे, इस मडप को वे इस मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनशाल कोकिल इन सब के चित्रों से सुशोभित करें ईहा मृग-घृक, घृषभ, तुरंग, मकर, विहग, व्यालक - सर्प, किन्नर, एए, शरभ, कुजर - वनलता और पद्मलता इन के चित्रों की रचना से उसे आश्चर्य कारक बनायें ।
वह पुष्प मडप कीमती महारुपों के योग्य, एव विस्तीर्ण हो ऐसा बनावें । (तम्ण बहुमज्झदे सभाए एग मह सिरिदामगंड जाव गंध वर्ण मुयत उल्लोल यसिओलवेर, ओलवित्ता पउमावड़ देवीं पडि वाले माणा २ चिह, तएण ते कोडबिया जाव चिट्ठति ) और उस के ठीक मध्य भाग मे तने हुए चदोवा के नीचे एक वडा भारी श्रीदाम
અને ત્યાર બાદ જળથળ ના વિકાસ થયેલા પચવણના પુષ્પાથી તેમજ જાત જાતના ચિત્રોની રચનાથી શેલતા એક પુષ્પ ના માડવે બનાવે હસ, મૃગ, માર, કૌચ, સારસ, ચક્રાવાક મડનશાલ અને કૈા 1લ આખધા પશુ પખીએ ના ચિત્રો થી માડવાને શણગાર તથા મહામૃગ, વરુ, ખળદ, ઘેાડા, भगर, पक्षी व्यास, ( सर्व ), डिन्नर, रुरु, शर हाथी, वनसता, अने પદ્મલતાના સુદર ચિત્રોથી માડવાને અદ્ભુત રીતે સુશોભિત કરા
પુષ્પમ ૩પ કિંમતી તેમજ મહાપુરુષોને ચેાગ્ય વિશાળ હાવા જોઈએ ( तस्स ण बहुमज्झदेसभाए एग मह सिरिदामगडं जाव गधद्धणि मुयत उल्लोलयसि ओलवेह, ओलबित्ता पजमावइ देवी पडिवाळेमाणा २ चिट्ठा, तएण ते कोडुनिया जाव चिट्ठति )
અને તાણેલા ચદરવાની નીચે ઠીક મધ્યભાગમાં નાકને પોતાની સુવાસ થી નૃત્ય કરાવનાર એક, બહુ મેાટા શ્રીદામકાડ લટકાવે
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका म० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०७ लम्ब्य पद्मावती देवी 'पडिवालेमाणा ' प्रतिपालयन्त २ प्रतीक्षमाणाः प्रती क्षमाणास्तिष्ठत । ततस्तदनन्तर खलु ते कौटुम्बिका कौटुम्मिापुरुपा यावत्यथापमानत्यासमादिष्ट तथा कृत्या पद्मावतीदेवी प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्तिस्मा।मु०१५॥
मूलम्-तएणं सा पउमावई देवी वल्ल० कोडुविए एव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । सागेय नगर सभितर वाहिरियं आसित्त समजिओवलित्त जाव पच्चप्पिणंति तएणं सा पउमावई देवी दोच्चपि कोडुविय० खिप्पामेव लहुकरणजुत्त० जाव जुत्तामेव उवटवेह, तएण तेऽवि तहेव उवटावेति। तएणं सा पउमाई देवी अंतो अते उरसि पहाया जाव धम्मिय जाण दुरुढा, तएण सा पउमावई देवी नियगपरिवाल सपरिवुडा सागेय नगरमज्झमझेणं णिज्जाइ, णिजित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ,
ओगाहित्ता जलमजणं जाव परमसूइभूया उल्लपडसाडियाजाइ काण्ड-पुष्पो का गजरा-कि जिस से नासिका इन्द्रिय को तृप्ति कारक गध निकल रही हो को लटकावे । लटका कर फिर मुझ-पद्मावती की वहां प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहें। इस प्रकार उन कौटुम्पिकपुम्पों से पद्मावती देवी ने ऐसा कहा-पद्मावती देवी के इस कथनानुसार सब ही काम उन कौटुम्यिक पुरुषों ने किया-अर्थात् मालियो को बुलाया और उन से इस पूर्वोक्त प्रकार के पुष्प मडप की रचना करने को कहा-उन्हों ने सत्र कार्य व्यवस्थित ढग से कर दिया और पद्मावती देवी की प्रतीक्षा करते हुए वे सब वहां ठहरे रहे। सूत्र “१५"
લટકાવીને મારી-પદ્માવતી દેવીની બધા ત્યાં પ્રતીક્ષા કરતા રેકાય આ પ્રમાણે પદ્માવતી દેવીએ કૌટુંબિક પુરુષોને નાગમહોત્સવ વિષે સૂચને આપ્યા પદ્માવતી દેવીના આદેશ મુજબ કૌટુંબિક પુરુએ માળીઓને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને યથાયોગ્ય પુષ્પમડા બનાવવાની આજ્ઞા આપી આ પ્રમાણે બધુ કામ વ્યવસ્થિત રીતે પતાવીને પદ્માવતી દેવીની રાહ જોતા તેઓ स्या या ॥भत्र " १५" ।।
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HEEMAIL अन यापच्छब्देन - 'ईहामगेत्यनन्तर - पमतुरगमकरविहग यालायिभररुरु शरभकुञ्जरमनलतापमलता' इतिपाटस्य ग्रहणम् । ईहामृगो हरा, रुरुशरमौ मृगजातिविशेपो अन्ये स्पष्टाः तेपा भत्या चित्ररचनया चित्रम्-आश्चर्य जनाम् , ' महग्ध ' महार्घ-महामूलाक 'महरिह' महाई महता योग्य , विपुल विस्तीर्णम् , ईदृश पुष्पमण्डप रिचयत कुरुतेत्यर्थः । तस्य पुप्पमण्डपस्य खलु बहुमध्यदेशभागे-सर्वया मध्यभागे एक महत् श्री टामसाप्ड यावत् पाटलादिपुष्प समूहसहितगन्धघ्राणिं गन्धति मुश्चत्-प्रददत् 'उल्लोयसि' उल्लोचे-चन्द्रा तपे वसनिर्मितगृहाम्यन्त रिकावरणे-'ओल्ह ' अग्लम्बयत , भोलबित्ता अब महग्ध महरिर विपुलं पुप्फमडव विरएह) इस के अनन्तर दे सप जल थल के विकसित पचवर्णों के पुप्पो से और अनेक प्रकार के चित्रों की रचना से सुशोभित एक पुप्प मडप बनावे, इस मडप को वे हस मृग, मयूर, नौच, सारस, चक्रवाक, मदनशाल कोकिल इन सब के चित्रों से सुशोभित करें ईहा मृग-वृक, वृषभ, तुरग, मकर, विरग, व्यालक-सर्प, किन्नर, एए, शरभ, कुजर-चनलता और पद्मलता इन के चित्रों की रचना से उसे आश्चर्यकारक बनावें। __वह पुष्प मडप कीमती महारुपो के योग्य, एव विस्तीर्ण हो ऐसा पनावें । (तम्सण यहुमज्झदेसभाए एगं मह सिरिदामगंड जाव गंध द्धणि मुयत उल्लोल यसिओलवेह, ओलवित्ता पउमावइ देवीं पडि वाले माणा २ चिट्टर, तएण ते कोडुपिया जाव चिट्ठति) और उस के ठीक मध्य भाग मे तने हुए चदोवा के नीचे एक वडा भारी श्रीदाम
અને ત્યાર બાદ જળથળ ના વિકાસ થયેલા પચવર્ણોના પુથી તેમજ જાત જાતના ચિત્રોની રચનાથી શોભતો એક પુપે ને માડ બનાવે હસ, મૃગ, મેર, કી ચ, સારસ, ચક્રાવામદનશીલ અને કોગલ આબધા પશુ પંખીઓ ના ચિત્રો થી માડવાને શણગારે તથા ઈહામૃગ, વરુ, બળદ, વડે, भगर, पक्षी व्यास, (स), न२, २२, शरम लाथी, वनसता, मने પઘલતાના સુદર ચિત્રોથી માડવાને અદ્ભુત રીતે સુશોભિત કરે
પુષ્પમ ડપ કિંમતી તેમજ મહાપુરુષોને ગ્ય વિશાળ લેવો જોઈએ (तस्स ण बहुमज्झदेसभाए एग मह सिरिदामगर्ड जाव गधद्धणि मुयत उल्लोलयसि ओलबेह, ओलवित्ता पउमावइ देवी पडिवालेमाणा २ चिट्ठह, तएण ते कोड्डुपिया जाव चिट्ठति)
અને તાણેલા ચદરવાની નીચે ઠીક મધ્યભાગમાં નાકને પિતાની સુવાસ થી નૃત્ય કરાવનાર એક, બહુ માટે શ્રીદામકાડ લડાવે
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अनगारधर्मामृनवर्पिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०७ लम्ब्य पद्मावती देवी 'पडिवालेमाणा ' प्रतिपालयन्त २ प्रतीक्षमाणाः प्रती क्षमाणास्तिष्ठत । ततस्तदनन्तर खलु ते कौटुम्विका कौटुम्पिकपुरुपा यावत्यथापमानत्यासमादिष्ट तथा कृत्वा पद्मावतीदेवी प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्तिस्मा।मू०१६॥
मूलम्-तएणं सा पउमावई देवी कल्ल. कोडुविए एव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । सागेयं नगर सभितर वाहिरियं आसित्त समजिओवलित्त जाव पच्चप्पिणंति तएणं सा पउमावई देवी दोच्चपि कोडुविय० खिप्पामेव लहुकरणजुत्त० जाव जुत्तामेव उवटवेह, तएण तेऽवि तहेव उवटावेति । तएणं सा पउमाई देवी अंतो अते उरसिण्हाया जाव धम्मियं जाण दुरूढा, तएण सा पउमावई देवी नियगपरिवाल सपरिवुडा सागेय नगरमज्झमझेणं णिज्जाइ, णिजित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुक्खरणि ओगाहइ,
ओगाहित्ता जलमजणं जाव परमसूइ भूया उल्लपडसाडियाजाइ काण्ड-पुष्पो का गजरा-कि जिस से नासिका इन्द्रिय को तृप्ति कारक गय निकल रही हो को लटकावे । लटका कर फिर मुझ-पद्मावती की वहा प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहे। इस प्रकार उन कौटुम्पिकपुम्पों से पद्मावती देवी ने ऐसा कहा-पद्मावती देवी के इस कथनानुसार सय ही काम उन कौटुम्यिक पुरुषों ने किया अर्थात् मालियो को बुलाया और उन से इस पूर्वोक्त प्रकार के पुष्प मडप की रचना करने को कहा-उन्हों ने सर कार्य व्यवस्थित ढग से कर दिया और पद्मावती देवी की प्रतीक्षा करते हुए वे सब वहा ठहरे रहे। सूत्र"१५"
લટકાવીને મારી–પદ્માવતી દેવીની બધા ત્યા પ્રતીક્ષા કરતા રોકાય આ પ્રમાણે પદ્માવતી દેવીએ કૌટુંબિક પુરુષને નાગમહોત્સવ વિષે સૂચન આપ્યા પદ્માવતી દેવીના આદેશ મુજબ કૌટુંબિક પુએ માળીઓને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને યથાયોગ્ય પુષ્પમડપ બનાવવાની આજ્ઞા આપી આ પ્રમાણે બધુ કામ વ્યવસ્થિત રીતે પતાવીને પદ્માવતી દેવીની રાહ જોતા તેઓ त्या ३१॥ ॥ भूत्र “ १५"॥
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३०८
भाताया तत्थ उप्पलाइ जाव गेहइ, गिणिहत्ता जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएण, पउमावईए दासचडीओ बहूओ 'पुप्फपडलगहत्थगयाओ धूवकडुच्छगहत्थगयाओ पिट्टओसमणुगच्छति । तएणं पउमावई सबिडिए जेणेव नागधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघग्य अणुपविसइ, अणुपविसित्ता लोमहत्थग जाव धून डहइ, डहिता पडिबुद्धि पडिवालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्टइ ॥ सू० १६ ॥
टीका -'तएण सा' इत्यादि-ततम्तदनन्तर बलु सा पद्मावती देवी कल्ये द्वितीयदिवसे प्रभाते काटुम्पिकार नानारिण. पुनपान् एवम्वक्ष्यमाणमकारेणावादित्-भो देवानुमिया । क्षिप्रमेशीनमंत्र, साकेत नगर 'सभितर वाहिरिय' मान्य तरवाह्य अभ्यन्तरेण-म यमागेन मह वाद्य वहिर्भाग यत्र तत्'आसित्तसम्मजिओलित' मासिक्त समाजितोपलित-आसिक्त-सुगन्धितजलरार्दीकृत समाजित-मार्जन्यादिभिः कचरापसारणेन निर्मलीकृतं पश्चादुपलिप्त
'तएणं सा पउमावई देवी इत्यादि। टीकार्थ-(तण्ण) इस के बाद (सापउमावईदेवी) उस पद्मावतीदेवीने (कल्ल कोडुपिए एव चयासी ) दूसरे दिन प्रात काल उन कौटुम्बिक पुरुषों से ऐसा कहा-(खिप्पामेर भो दवाणुप्पिया ! सागेय नगर सभितर बाहिरिय आसित्त सम्मज्जिओचलित जाव पच्चप्पिणेति) भो देवानुप्रियो ' तुम लोग शीघ्र ही साकेत नगर को भीतर बाहिर सुगधित जल से सीचो, वुहारू लेकर उसे कूडा कर कट कचरा हटाकर बिलकुल साफ करो, गोवर आदिसे उसे लीपों इस प्रकार पद्मावतीदेवी
'तएण सा पउमावईदेवी ' त्या
टीाथ (तएण ) त्या२ मा (सा पउमाई देवी) ५पती पाये (कल्ल फोडुबिए एय वयासी) मी हसे सवारे पि पुरुषाने मी प्रमाणे छु
(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सागेय नगर सम्भितरवाहिरिय आसित्त सम्मज्जिवलित जाव पच्चविणेति)
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો સત્વરે સાકેત નગરી ની બહાર અને અ દર સુવાસિત પાણી છાટો સારણીથી કચરો એકદમ સાફ કરો અને છાણ વગેરેથી લીંપે પદ્માવતી દેવીની આજ્ઞા સાભળીને કૌટુંબિક પુરુએ તે પ્રમાણે જ
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अगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ०६ गोमयादिनाऽनुलिप्त कुरुत यापत् प्रत्यर्पयन्ति-यथा-पनापती देव्या आदिष्ट तथा कृत्वा ते कौटुम्निका हे स्वामिन्य' सर्व साधितमस्माभिरिति-तदाज्ञा प्रत्यर्पयन्ति-आवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तरं सा पद्मावती देवी 'दोच्चपि' द्वितीयवारमपि कौटुम्बिकपुरुपान् शब्दयित्वा एउमवादित्-हे देवानुमियाः! क्षिप्रमेय 'लहुकरणजुत्त०' लघुकरणयुक्त. यावद् युक्तमेव तृपयुक्ता कृत्वा रयमुपस्थाप यत । ततस्तदनन्तर खलु तेऽपि कौटुम्बिकपुस्पानपि यथा पद्मावत्या समादिष्ट तयैव रथमुपस्थापयन्ति । तत खलु सा पद्मावती देवी अन्तोऽन्तःपुरे अन्तः पुरस्य मध्ये स्नाता यापद् सर्वालकार निभूपिता धार्मिक यान=स्य, दुरुढा-आरो के आदेश को पाकर उन कौटुम्बिक पुरुषो ने वैसा ही सब कुछ कार्य ययावत कर दिया और पीछे पद्मावती के पास जाकर कहा-स्वमिनी! आपने जैसा काम करने को कहा या हम ने ग्ह काम वैसा हो कर दिया है। (तएण सा पउमावई देवी दोच्चपि कौड रिय० खिप्पामेव लह करण जुत्त०जीव जुत्तामेव उवट्ठवेद, तएण ते वि तहेव उवट्ठाति) इसके बाद पद्मावती देवीने दुवारा भी उन कौटुम्बिक पुरुपोंको बुलाया
और बुलाकर कहा-भो देवानुप्रियों । तुम लोग शीघ्र ही जल्दी २ चाल से चलने वाले लो को जोत कर यहा एक रय को उपस्थित करो। पद्मावती की इस आज्ञा को पाकर वे कौटुम्रिक पुरूप भी पद्मावती के आदेशानुसार रथ को बैलों से युक्त कर ले आये । (तएणं सा पउमा वई देवी अनो अतेउरसि पाया जाव पम्मिय जाणं दुरूढा ) रथ जय आ चुका-तर पद्मावती देवी ने अन्तः पुर के भीतर ही स्नान किया यावत् समस्त अलकारों से आपने आप को विभूपित कर फिर वह કર્યું અને ત્યાર બાદ તેમની પાસે આવીને કહેવા લાગ્યા...હે સ્વામિનિ ! તમે જે કામ કરવાની અમને આજ્ઞા આપી હતી તે કામ અમે એ સરસ રીતે પૂર્ણ કરી દીધુ છે
तएण सा पउमावईदेवी दोच्चपि कोडुपिय खिप्पामे लहकरण जुत्ता जार जुत्तामेव उपहवेह तरण तेवि तहेव उवहार्वेति)
ત્યાર બાદ પદ્માવતી દેવીએ બીજી વાર કૌટુંબિક અને બોલાવી અને બોલાવીને કહ્યુ “હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સત્વરે શીઘગતિ વાળો બળદ જેતરીને એક રથ લાવે પદ્માવતી દેવીની આપ્રમાણે આજ્ઞા સાભળીને કૌટુંબિક પુરુષે પણ તેમની આજ્ઞા મુજબ ગ્યમાં બળદ જોતરીને લઈ અ વ્યા (ત્તળ सा पउमाइ देवी अतो अते उरसि व्हाया जर धम्मिय जाण दुरुढा) न्यारे રથ સજજ થઈને આવી ગયે ત્યારે પદ્માવતી દેવીએ રણવાસની અદર જ સ્નાન કર્યું યાવત્ સર્વ પ્રકારના ઘરેણાઓથી પોતાના રાગરને શણગાઈ અને ત્યાર પછી તે ધાર્મિક રથમાં બેસી ગઈ
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साताधर्मकथा हतिस्म । ततः खलु सा पमारती देशी निजपरिवारसपरिवृता सख्यादिपरि वारेण युक्ता साकेवनगर मपमध्येन निर्याति-निर्गन्छति । निर्याय-निर्गत्य यत्रैव पुष्करणी कमलयुक्ता पापी वर्तते तत्रोपागति , उपागत्य पुष्करणीमर गाहतेप्रविशति । अगा जलमजन यावत्-रमान सत्ता परमचिभूता 'उल्लपइसाडिया' आर्द्रपटशाटिका, साईपरिधानीयवस्त्रा यानि तस्या पुष्परिण्यामुत्य लानि यावत्पद्मादीनि तानि गृहाति गृहीत्वा यत्र नागदह वर्तते तत्रैव प्रधारयति मवर्तते गमनाय । ततस्तदनन्तर सल्लु पद्मावत्या दासवेढयो वयः पुष्यपटल. कहस्तगताः हस्तपरिधृतपुप्पफरण्डकाः धृपाइन्रुकहस्तगता-पाधारपात्राणि उस धार्मिक यान पर रय पर आरूढ हो गई । (तएण सा पउमावई देवी नियगपरिवाल सपरिघुडा सागेय नयर मज्झ मज्झे ण णिज्जाइ णिज्जित्ता जेणेव पुस्खरणी तेणेव उवागच्छइ ) इस के पाद पद्मावती देवी अपने परिवार से घिरी हुई होकर उस साकेत नगर के ठीक बीचों पीच के मार्ग से होकर निकरी-निकल कर वह जहा कमलों से युक्त घापी थी-वहाँ पर आई-(उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ) आकर उस ने उस पुष्करिणी में प्रवेश किया - (ओगाहित्ता जल मजणं जाव परमसुइभूया उरल पउ साडिया जाड तत्थ उप्पलाइ जाव गेण्ड) प्रवेश कर जल स्नान किया याचत परम शची भूत बनी हुई उस ने गीली साड़ी पहि ने ही पुष्करिणी से कमल चुन लिये (गिण्डित्ता जेणे घ नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) चुन कर फिर वह जा नाग घर था उस आर चल दी-(तएण पउमावईए दासचेडीओ बहओ
( तएण सा पउमावईदेवी नियग परिवालसपरिवुडा सागेय नयर मज्म मज्झेण णिज्जाइ णिज्जिता जेणेव पुक्खरगी तेणेव उवागच्छइ)
- ત્યાર બાદ પદ્માવતી દેવી પિતાના સંપૂર્ણ પરિવારની સાથે સાકેત નગ રીની બરાબર મધ્યમાર્ગમા થઈને પસાર થઈ અને જ્યાં કમળ યુક્ત વાવ
ती त्या पडायी ( उघागरिता पुखरणि ओगाहर) त्या पायान त પુષ્કરિણું (કમળવાવ) મા ઉતરી
ओगाहित्ता जलमग्नण जाव परमसुइभूया उल्ल पउसाडिया जाइ तत्थ उप्पलाइ जाव गेह)
ઉતરીને તેણે પાણીમાં સ્નાન કર્યું યાવત તે પરમ પવિત્ર થઈને તેણે भाना सुमाथी पुरिएमाथी भजी यूपया (गोण्हित्ता जेणेव नागधरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) यूटयामा पावती देवी च्या ५२ तु ते त२६ गई
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ८ कोसलाधिपतिश्वरूपनिरूपणम्
३११
हस्ते धृतवत्यः पृष्ठतः समनुगच्छन्ति । ततः खलु मा पद्मानती देवी सद्विर्था= सखिदास्यादिपरिजनैः सह यत्रैव नागगृह तनैनोपागच्छति, उपागत्य नागगृहमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य रोमहस्तक - मयूरपिच्छनिर्मितमार्जनी गृहीत्वा नागगृह समाय यावद धूप दवि, नागगृहाभ्यन्तरे समन्तात् धूप दहति स्म । धूपं दवा प्रतिबुद्धि = पतिबुद्धिनृप स्वपतीं मतिपल्यन्ती प्रतिपालयन्ती - पुनः पुनः प्रतीक्षमाणा तिष्ठति स्म ॥ सू० १६ ॥
पुष्पड महत्थगयाओ धूवक डुच्छग हत्थगयाओ पिओ समणुगच्छति ) उसके पीछे २ उस की अनेक दास चेटिया पुष्प करण्डों को और धूप के पात्रों को हाथो में लिये हुए चली । (तएण परमावई सविडिए जेणेव नागघरे तेणेच उवागच्छह, उवागच्छित्ता नागघरय अणुविस, अणुपविसित्ता लोमहत्वग जाव धूव डड डरिता पडि बुद्धि पडिवालेमाणी २ चिट्ठह ) इस के अनन्तर पद्मावती सखी, दासी आदि परिजन रूप अपनी समस्त ऋद्धि के साथ जहा वह नाग घर था वहाँ आई वहां आकर वह नाग घर के भीतर गई भीतर जाकर उसने वहा रखी हुई मयूर पिच्छ निर्मित मार्जनी को उठाया उठा कर उस ने उससे उस नागघर को झाडा झाड कर फिर उस ने वहा यावत् धूप जलाई | धूप जला कर फिर वह अपने पतिदेव प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई बैठ गई। सूत्र
A
"
१६ "
(तरण परमावईए दास वेडीओ बहूओ पुप्फपडलगहत्थगयाओ धूवाडerrerana fugओ समणुगच्छति )
તેની પાછળ ઘણી દાસ-દાસીઓ હાથેામા ઉંચકી ચાલવા લાગી
પુષ્પ કરણ્ડકા તેમજ પદાનીએ
(तएण पउमावई सन्निड्डिए जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छ आगच्छित्ता नागघरय अणुपत्रिसड अणुपविसित्ता लीमहत्थग जाव धूव डहड़ डहित्ता पडिवुद्धि पडिनालेमाणी २ चिर )
આરીતે પદ્માવતી દેવી સખી દાસી વગેરે પરિજન રૂપ પાતાની સપૂર્ણ ઋદ્ધિની સાથે જ્યા તે નાગધર હતુ ત્યા પહેાચી અને ત્યા પહેાચીને તે નાગઘરનો આદર ગઈ ત્યા જઈને તેણે મેરપીછી હાથમા લીધી અને ત્યાર પછી તેણે નાગધરને સ્વચ્છ નાયુ નાગધરની મફાઈ કરીને તેણે ધૂપ સળગાન્યા અને પછી પોતાના પતિ પ્રતિબુદ્ધિની પ્રતીક્ષા કરતી ત્યા જ બેસી ગઈ સૂ ૧૬
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मूलम्-तएण पडिबुद्धीपहाए हस्थिखधवरगते सकोस्ट जाव सेयवरचामराहि० हयगयरहजोहमयाभडगचडकरपहकरहिं साकेयनयरं० णिगच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव नागधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हस्थिखधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता आलोए पणामं करेइ, करिता पुप्फमंडवं अणुपविसइ अणुपविसित्ता पासइ तं एगं महं सिरिदामगंड। तएण पडिबुद्धी त सिरिदामगड सुइर कालं निरिक्खइ, निरिक्खत्ता तसि सिरिदामगंडसि जाय विम्यमणे सुवुद्धि अमच्च एव वयासी-तुमन्न देवाणु पिया । मम दोच्चंण बहुणि गामागर जाव सन्निवेसाई आहि डसि बहूणि रायईसर जाव गिहाई अणुपविससि त अस्थि ण तुम कहिचि परिसए सिरिदामगंडे दिट्ठपुग्वे जारिसए णं इमं पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे
तएणं सुबुद्धी पडिबुद्धि राय एवं वयासी - एव खल्लू सामी । अह अन्नया कयाइ तुभ दोच्चेण मिहिल रायहाणि गए, तत्थ णं मए कुभगस्त रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए सवच्छरपडिलेहणगसि दिव्वे सिरिदाम डेि दिपुव्वे तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावईए सिरिदाम गडे सयसहस्सतम कल ण अग्घइ, तएणं पडिबुद्धी सुबुद्धि अमञ्च एव वयासो-केरिसिया ण देवाणुप्पिया | मल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्ल गं सवच्छरपडिलेणयसि सिरिदामगंडस्स पउमावईए देवीए सिरिदामगडे सयसहस्सतमपि कल न अग्घइ १, तएण सुबुद्धी पडिबुद्धि इक्खागुराय एव वयासी
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tantrधर्मामृतपणी टीका अ० ८ कोसाधिपतिस्वरूपनिरूपणम्
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विदेहरायवरकन्नगा सुपइट्टिय कुम्मुन्नयचारुचरणा बन्नओ, तएणं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्त अमच्चस्त अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दूय सदावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी - गच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिया । मिहिलं रायहणि तत्थ णं कुभगस्स रन्नो धूयं पभावईए देवीए अत्तयं मल्लि विदेहवररायकण्णग मन भारियन्ताए वरेहि जतिविय णं सा सयं रज्जं सुक्का, तणं से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हड० पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव वाउग्घदे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंट आसरहं पडिक पावेइ, पडिक पावित्ता दुरुढे जाव हयगय महयाभडचडगरेण साएयाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू०१८॥
टीका:- ततस्तदनन्तर खलु प्रतिबुद्धिः प्रतिबुद्धिनामको राजा स्नातो मुकुटालङ्कारवस्त्र विभूषित' हस्तिस्स्न्धवरगतः सकोरण्टमल्लदामेण सको रण्टमाल्यदाम्ना कोरण्टाख्य पुष्पतनक्वन्ति माल्यदामानि पुष्पजस्तैः सहितेन छत्रेण त्रियमाणेन यावत् श्वेतनरचामरैरुद्वोजितैश्च सहित', हयगजरथयोधमहा'तरण पडिबुद्धी पहाए' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (पडिबुद्धी) प्रतिबुद्धि राजाने ( व्हाए ) स्नान किया बाद मे वे मुकुट आदि अलकारों से और राजसी वस्त्रों से अलकृत होकर (हत्विग्वधवरगए ) अपने पह हाथी पर बैठ गये( स कोरट जाब सेयवरचामराहिं० हयगयरह जोहमया भर
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तरण पडिवुद्धिदाए' त्यादि
टीजर्थ - (तरण ) त्यारणाह (पडिबुद्धि) अतिमुद्धि रामसे ( व्हाए) स्नान રાજની વઓથી અલ કૃત થઈને पर सवार थया
हयगयरह जोह महया भडचडकरेहिं
કર્યું અને મુકુટ વગેરે આભૂષા તેમજ ( हव्यख धारगार ) पोताना पास हाथी ( सोरट जाव सेयर चामराहिं० साकेयनयर० निग्गच्छा )
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३१४
माताधर्मकथासू
भट चरकर करै य गजादीना समृदेव सहितः साकेतनगरस्य मध्यभागेन निर्गच्छति । निर्गत्य स मतिबुद्धिनृपो यत्र नागगृह नर्तते तनेोपगच्छति उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति भरतरति प्रत्यय = अधः मत्यवतीर्य आलोके - नागदर्शने प्राप्ते सति प्रणाम करोति कृत्वा पुष्पमण्डप पद्मावती निर्मापितपुष्पमयमण्डपम् अनुप्रविशति, अनुमस्त्रिय पश्यति तदेक महत्] श्रीदामकाण्डम् | च कर पर करेहि साकेय नयर० निगच्छद) उन के बैठते ही छत्र धारी ने उन पर कोरण्ट पुष्प के गुच्छों से निर्मित मालाओं से युक्त छत्र को तान दिया ।
चमर ढोर ने वालों ने उन पर श्वेत उत्तम चमर ढोरना प्रारंभ कर दिया। बाद में वे हम, गज आदि के समुदाय से युक्त होकर साकेत नगर के मध्यभाग से होकर निकले ( निग्गच्छित्ता जेणेव नाग घरे, तेणेव उवागच्छ ) निकल कर नागघर की ओर चल दिये ( उवाग च्छित्ता हत्थि खधाओ पच्चो रुहद्द, पच्चो रुरित्ता आलोए पणाम करेइ ) वहा पहुँच कर वे उस हाथी से नीचे उतरे उतर कर ज्यो ही उन्हें नाग प्रतिमा दिखलाई पड़ी तो उसी समय उन्हो ने उसे नमस्कार किया ।
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( करिता पुष्फमडप अणुपविसद, अणुपविसित्ता पासइ त एग मह सिरिदामगडे ) नमस्कार कर फिर वे पद्मावती देवी द्वारा निर्मार्पित पुष्प मडप में प्रविष्ट हुए । वहा उन्हों ने उस विशाल श्री दाम काण्ड
રાજા જ્યારે હાથી ઉપર સવાર થઈ ગયા ત્યારે છત્ર ધારીએ તેમના ઉપર કાર ટ પુષ્પાના ગુચ્છાથી ખનેલુ તેમજ સાળાએથી શેભિતુ છત્ર તાણ્યુ ચમર ધારીએ તેમના ઉપર સફેદ તેમજ ઉત્તમ ચમરા ઢોળવા લાગ્યા આમ પ્રતિબુદ્ધિ રાજા હય, ગજ વગેરે સમુદાયની સાથે સાકેત નગરના मध्यभागे थर्धने (निम्गच्छित्ता जेणेव नागधरे वेणेव उत्रागच्छह ) ने तरई નાગધર હતુ તે તરફે ગયા
( उवागच्छित्ता हत्थिखधाओं पच्चोरुहर, पञ्चोरहित्ता आलोए पणाम करे इ)
ત્યા પહેાચીને તે હાથી ઉપરથી નીચે ઉતર્યાં અને ઉતરીને જ્યારે તેઓએ નાગપ્રતિમાઓ જોઈ ત્યારે તરત જ તેમણે તેમને નમન કર્યુ
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(करिता पुप्फ मडच अणुपत्रिसर, अणुपविसित्ता पासइ, त एग मह सिरिदाम गडे નમન કર્યો માદ રાજા પદ્માવતી દેવી વડે બનાવવામા આવેલા પુષ્પ મડપમાં પ્રવિષ્ટ થયા ત્યા તેમણે મોટા શ્રીદામકાર્ડને જોયે
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अनंगारधर्मामृत पिणोटी० अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम्
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ततस्तदनन्तर खलु प्रतिबुद्धिस्त श्रीदामकाण्ड सुचिर काल = बहुकाल निरीक्षते एकाग्रमनमा पश्यतिस्म । निरीक्ष्य तस्मिन् श्रीदामकाण्डे जातविस्मयः ' अपूर्वदृष्टमिद श्रीदामकाण्ड ' मित्याश्चर्यं प्राप्तः सन् सुबुद्धि-सुबुद्धिनामक ममात्य= स्वमन्त्रिणम्, एव = पक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् - हे देनानुमियत्व खलु मम ' दोच्चेण ' दोस्थेन= तो भूला बहून् यावत् ग्रामाकरनगरसनिवेशान् अहिण्डसि = परिभ्राम्यसि, बहूनि च राजेश्वर तलवरमाडम्पिककौटुम्बिकश्रेष्ठि सेनापतिमार्यवाहाना यावद् गृहाणि अनुप्रविशसि, तदस्ति खलु स्वया दृष्टपूर्वं को देखा । (तएण पडिबुद्धि त सिरीदामगड सुइर काल निरिक्खड़, निरिक्खित्ता तसि सिरिदामगडसि जाय विम्यमणे सुबुद्धि अमच्च एव वयासी) देखने के बाद प्रतिबुद्धि राजा ने बहुत देर तक उस का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण किया ।
निरीक्षण करने के बाद उसे उस श्रीदामकाण्ड के विषय में बड़ा आश्चर्य हुआ। आश्चर्य युक्त होकर उसने अपने सुबुद्धि मंत्री से फिर इस प्रकार कहा- तुम पण देवाणुपिया | मम दोच्चेण बहणि गामागर जाव गिहाइ अणुपविससि त अस्थि ण तुम कहिंचि एरिसए सिरिदामगडे दि पुच्वे जारिस ण इमे पउमावईए देवीए सिरिदामगडे )
हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दूत होकर अनेक ग्रामों में अनेक आंकरों में, अनेक नगरो में अनेक सनिवेशो में घूमते फिरते हो वहां बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्पिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाहों के घरों मे भी आते जाते रहते हो, तो क्या तुमने ऐसा
( वग पडिबुद्धि त सिरीदामगड सुइर काल निरिक्खड़, निरिक्खित्ता तसि सिरिदामगडसि जाय विम्यमणे सुबुद्धिं अमच्च एव वयासी )
તેને જોઇને પ્રતિબુદ્ધિ રાજાએ સૂક્ષ્મ દૃષ્ટિથી બહુ વખત સુધી તેનુ નિરીક્ષજી કર્યુ
રાજાને શ્રીદામકાર્ડ જોઈને ખૂબજ આશ્ચય થયુ તેમણે પોતાના મંત્રી સુબુદ્ધિને આ પ્રમાણે હ્યુ
( तुमन्न देवाणुपिया ! मम दोच्वेग वहूणि गामागार जान गिहाई अणु परिससित अयितुम कर्हिचि एरिसए सिरिदामगडे दिट्टपुच्वे जारिसएण इमे पउमाबाई देवीए सिरिदामगडे )
હે દેવાનુપ્રિય ! મારાતા થઇને તમે ઘણા ગામે, આકરી નગરી અને સનિવેશેામાં ફરતા રહેા છે, ત્યા ઘણા રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડ મિક કૌટુ બિક, શ્રેષ્ઠી, સેનાપતિ અને સાવાલેના નિવામ સ્થાનમાં પણ આવાગમન
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ताधर्मया कुत्रचिदेतारश श्रीदामकाण्डम् , यारा बलु उद पद्मावत्या देव्या' श्रीदामका ण्ड वर्तते । तत खल्ल सुबुद्धिः मुदिनामा मन्त्री प्रतियुद्धि राजानमेवं वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादी-एव खलु स्वामिन् ! अहमन्पदा कदाचित् युष्माक दौत्येनदतो भूत्वा मिथिला राजधानी गतः।
तत्र-मिथिलाराजधान्या खलु मया कुम्भास्य-कुम्मकनाम्नो राज्ञो दुहित पुत्र्याः प्रमावत्या देव्या आत्मनाया मल्ल्या मुम्भकपस्य पुत्री या प्रमावती देव्या आत्मना गर्भना मल्ली नाम्नो कुमारी वर्षते तस्या इत्ययः, ' सवच्छर परिलेहणगसि ' ' सवत्सरपतिलेखनके पर्पपूर्तिसरयाकरणदिनसे वार्षिके जन्मदिवसोत्सवकाले इत्यर्थः दिव्यम् आश्रर्यकारक श्रीदामकाण्ड दृष्टपूर्व-पूर्वकाछे दृष्टम् । तस्य खलु श्रीदामकाण्डम्येद पद्मावत्पा श्रीदामकाण्ड शतसहस्रतमा कला श्रीदामकाड जैसा कि ये श्रीदामकाड पद्मावती देवी का है कहीं देखा है ? (तएण सुवुद्धी पडिवुद्धिं राय एव वयासी) राजा की इस प्रकार पात सुनकर सुबुद्वि अमात्य ने उन प्रतियुद्धि राजा से इस तरह कहा (एव खलु सामी । अह अन्नया कयाइ तुम दोच्चेण मिहिल राय हाणिं गए तत्थ णं मए कुभगस्स रन्नो धृया पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए सवच्छरपडिलेणगसि दिव्वे सिरिदामगडे दिट्ठपुब्वे) स्वामिन्! मैं किसी एक समय आपका दूत बनकर मिथिला राजधानीमे गयो हुआ था। वहा मैंने अभक नरेश की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा-गर्भ जा-मल्ली कुमारी की वर्ष गाठ के अवसर पर आश्चर्य कारक श्रीदाम कांड को देखा था।
(तस्स र्ण सिरीदामगडस्स इमे पउमावईए सिरिदामगडे सयसहस्सतमे कल्ल ण अग्घइ ) उस के समक्ष पद्मावती देवी का यह श्री કરે છે, તે તમે પદ્માવતી દેવીના જે શ્રીદામકાડ કઈ સ્થાને જે છે? (तएण सुबुद्धि पडिबुद्धिराय एव पयासी) Mनी प्रमाणे त सामान અમાત્ય સુબુદ્ધિએ પ્રતિબુદ્ધિ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું
- (एव खलु सामी! अह अन्नया कयाइ तुम दोच्वेण मिहिल रायहाणिगए तत्थण मए कुभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए, सवच्छर पडिलेहणगसि दिव्वे सिरिदामगडे दिट्ठपुव्वे )
હે સ્વામિન ' એક વખતે તમારા દૂત તરીકે જ હું મિથિવા રાજધાની માં ગયો હતો
ત્યા મે કુભક રાજાની પુત્રી પ્રભાવતી દેવીની આત્મના-પુત્રી-મલી કુમારીના જન્મત્સવ પ્રસંગે ખૂબજ નવાઈ પમાડે તે શ્રીદામકાડ જે તે
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अरीका अ० ८ कोल अधिपतिस्वरूपनिरूपणम्
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नाईति । मल्लीकुमार्या यदस्ति श्रीदामकाण्ड तस्य शोभासुगन्धादिगुणाना लक्षाशमपि प्राप्तुं न शक्नोति पद्मावत्याः श्रीदामकाण्ड मित्यर्थः ।
ततः खलु प्रतिबुद्धिममात्यमेवमनादीत् हे देवानुमिय! कोहशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या यस्याः खलु सवत्सरमतिलेखनके श्रीदामकाण्डस्य पद्मा त्या देव्या श्रीदामकाण्ड शतसहस्रतमामपि कला नार्हति । तत खलु सुनुद्धिः प्रतिबुद्धिमिक्ष्वाकुराज मेवमवादीत् - हे स्वामिन् 'विदेह राजवर कन्यका मल्लीमाम्नी दामकाड लक्षाश ( लाखमा भाग भी सुन्दर और सुगधीत में नही है) भी नही हैं (तएण पडिबुद्धी सुबुद्धिं अमच्च एव वयासी ) इस प्रकार सुनने के बाद प्रतिबुद्धि ने सुबुद्धि अमात्य से ऐसा कहा - (केरिसियाण देवाणुपिया । मल्ली वीदेहरायवर कन्ना ) हे देवानुप्रिय ! विदेह राजा की वह उत्तम कन्या मल्लो कुमार कैमी है कि ( जस्स ण सवच्छर पडिलेहणयसि सिरिदामगडस्स पउमाबाई देवीए सिरिदामगडे सयसहस्सत्तमपि कल न अग्घड ) जिस की वार्षिक जय ती के श्रीदाम काड के समक्ष पद्मावती देवी का यह श्रीदामकांड लक्षाश भी नही ज्ञात हो रहा है ।
(तरण सुबुद्धिपडिवुद्धिं इक्खागुराय एव वयासी ) इम तरह सुनकर सुबुद्धि ने इक्ष्वाकु वंशों में उत्पन्न प्रतिबुद्ध राजा से ऐसा कहा ( विदहरायवर कन्नगा सुपइट्ठिय कुम्मुन्नयचारुचरणा वन्नओ ) स्वा
( तस्स ण दिरीदामगडस्स इमे पउमावईए सिरीदामगडे सय सहस्सतमे फल्ल ण अधर)
તેની સામે પદ્માવતી દેવીને આ શ્રીદામાડ લક્ષાશ પણ નથી એટલે કે સુગધ કે સૌદર્યો અનેની દૃષ્ટિએ મલ્ટીકુમારીના જન્મેાત્સવપ્રસ ગના श्रीहाभाउनी सामे आ ४ थी ( तएण पडिनुद्धी सुबुद्धि अमन्च एव वयासी) भारीते भालजीने प्रतिमुद्धि सुमुद्धि अमात्यने या प्रभा ( केरिखियाण देवाणुपिया ! मल्ली वोंदेरायवरकन्ना) डे हेनुप्रि ! विदे રાજ પુત્રી મલીક઼ામારી એવી કેવી છે કે
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जस्स, ण सत्रच्छर पडिलेद्दणयसि सिरिदामगडस्त पउमानईएदे वीए सिरि दामगंडे सयसहस्सत्तम पिकल न अग्धइ
"
જેમના જન્માત્ત્તવના શ્રીદામકાડની સામે પદ્માવતી દેવીને આ શ્રીદાસ કોડ લક્ષાશ પણ લાગતા નથી
(तरण सुबुद्धि पडिबुद्धि इक्सानुराग एव वयासी) गारीने सालजीने ઇક્ષ્વાકુવંશમા ઉત્પન્ન પ્રતિબુદ્ધરાજને સુમુદ્ધિએ કહ્યું (વિ.
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तापकथाMet सुपतिष्ठित कूर्मोन्नतचारुचरणा, मुमतिष्ठिती-पुष्ठसंस्थानब ती कर्मामती कूमें पृष्ठपदुपर्युन्नती चारू-मुन्दरी चरणौ यस्या मा तथा, वर्णक वर्णन विशेषतो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादौ द्रष्टव्यम् । ___ततः खलु मतिबुद्धिभूपः मुद्देरमात्यम्यान्तिके एतमर्थ मल्लीकुमारी सौन्द
र्यादि गुणवर्णनरूप श्रुलाश्रयण गोचरीकत्य, निशम्यर्थतोऽचार्य श्रीदामकाण्डजनितहर्प =श्रीदामकाण्डगुणश्रवणमजाममोदः सन् दूत शन्दयति आहयति, शब्दयिता एमगादीव-हे देवानुप्रिय ! गफ सलु व मिथिला राजधानी, तत्र खलु कुम्भस्य राज्ञो दुहितर प्रभावत्या देव्या आत्मना मल्ली विदेहवररामक मिन् ! वह विदरराज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी अच्छे आकार वाले, कृर्म की पृष्ठ के समान उन्नत सुन्दर चरण वाली है। इस का विशेप वर्णन जदीप प्रज्ञप्ति आदि में किया गया है।
(तएण पडिघुद्धी सुबुद्धिस्स अमच्चम्स अतिए एयमट्ट सोच्चा गिसम्म, सिरिदामगड जणितहासे दूय सदावेइ ) इस प्रकार श्रीदाम काड के गुणो के श्रवण से अत्यधिक हर्पित हुए प्रतिबुद्धि राजा ने सुयुद्धि अमात्य के मुख से मल्ली कुमारी के सान्दर्य आदि गुणों का घर्णन सुनकर और उसे हृदय में निश्चित कर दूत को बुलाया (सहा वित्ता एव पयासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा (गच्छाहिण तुम देवाणुप्पिया मिडिल रायहाणि) हे देवानुप्रिय ! तुम मिथिला नाम की राजधानी को जाओ-(तत्थ ण कुभगस्प्त रणो धूय पभारईए देवीए सुपइट्रिय कुम्मुन्नय चारूचरणा वन्नओ) पाभिन्। विहेड रानी ઉત્તમકન્યા મલીકુમારી સરસ આકારવાળા કાચબાની પીઠના જેવા સુંદર ઉન્નત ચરણવાળી છે (તેમનું વિશેષ વર્ણન જ બૂદીપ પ્રજ્ઞપ્તિ વગેરે મા કર વામા આવ્યુ છે
(तएण पडिद्धि सुयुद्धिस्स अमच्चस्स अतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म सिरिदामगडजणितहासे दूय सद्दावेइ)
આ પ્રમાણે સુબુદ્ધિ અમાત્યના મેઢેથી શ્રીદામકાના ગુણ શ્રવણથી તેમજ મલીકુમારીના સૌદર્ય વગેરે ગુણોની ચર્ચા સાંભળીને તેને હાથમા અવધારિત કરીને ખૂબજ હર્ષિત થયેલા પ્રતિબુદ્ધિ રાજાએ દૂતને બેલાગ્યા (सहावित्ता एव वयासी) मोसावीनतेने धु-(गच्छाहि ण तुम देवाणुप्पिया ! मिहिल रायहाणिं) पानुप्रिय ! तमे मिवियानी पानीमा नया
(तत्थण कुभगस्स रणो ध्य पभावईए देवीए अतय मलि विदेहवरराय फणग मम भरियत्ताए परेहिं )
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अनगारधर्मामृतधारिणी का 30 ८ कोस्लाधिपतिररूपनिरुपणम ११९ न्यका मम भार्यात्वेन वरय, अयमर्थ -हे देशानुप्रिय ! मिथिला गत्वा कुन्भवनृप बहि-साकेतनगराधिपतिः प्रतिबुद्धिनामानृपस्तव कन्या मल्ली धर्मपत्नीत्वेन ग्रहीतुमिच्छति, तदनुमन्यस्वेति । । यद्यपि च सा स्वय राज्य शुल्क-मूल्य यस्याः सा तथा, स्वस्य निरुपम सुशीलादिगुणवत्तया सा यदि स्त्र शुल्कत्वेन राज्यमभिलपेत्तदाऽह सर्व राज्य समर्पयामीति भावः। तत ग्बलु स दृतः पत्घुिद्धिना राज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टो अत्तय मरिल विदेहवररायकगग मम भारियत्ताए वरेहिं ) वहां कुभक राजा की पुत्री मल्ली कुमारी को कि जो प्रभावती देवी के गर्भ से उत्पन्न हुई है मेरी भार्या के रूप से वरो अर्थात् तुम मिथिला राज धानी में जाकर कुभक राजा से कहो कि साकेताधिपति प्रतिवुद्धि राजा आपकी कन्या मरली कुमारी को अपनी धर्मपत्नी बनाना चाहते हैंसो आप इस की स्वीकृति प्रदान करो
(जइ थिय ण सा सय रजसुक्का) यद्यपि मैं इस बात को जानता हूँ कि वह कन्या राज्य ही है शुल्क जिस का ऐसी है-अर्थात् वह अनु पम सुशीलादि गुणों से युक्त होने के कारण अपने शुल्कपने से राज्य की अभिलाषा यदि करेगी तो मैं उसे समस्त अपना राज्य भी समर्पित कर दूंगा।
(नएण से दूए पडिबुद्धिमा रन्ना एव वुत्ते समाणे हट्ट पडि सुणेइ ) इम प्रकार राजा का अभिप्राय हृदयगम कर वह सुबुद्धि अमात्य घडा ही अधिक हर्पित एव सतुष्ट हुआ और उस ने मिथिला राजधानी जाना स्वीकार कर लिया । (पडिसुणित्ता जेणेव सए गेहे
અને પ્રભાવતી દેવીના ઉદરથી જન્મ પામેલી કુભકરાજાની પુત્રી કુમારીની મારી વધૂના રૂપે યાચના કરે, એટલે કે તમે મિથિલા રાજધાનીમાં જઈને કુભક રાજાને કહોકે સાકેતના અધિપતિ પ્રતિબુદ્ધિ રાજા તમારી પુત્રી મલી કુમારી ને પિતાની વધૂ બનાવવા ચાહે છે તે તમે તેની સ્વીકૃતિ આપો
(जइवियण सा सय रसुका) महाभारी मत्यन्त सोयवती ते રાજ્ય જેનુ શુઇ (કિંમત) છે આવી અદ્દભુત સુશીલ વગેરે ગુણોવાળી કન્યા છે એ વાત હુ સારી પેઠે જાણુ છુ એટલે કે અનુપમ ગુણવતી મલી કુમારી પિતાના શુક રૂપે મારા રાજ્યને પણ માગશે તે હું મારૂ આખું રાજ્ય તેને સમપિત કરવા તૈયાર છું
(तएण से दूरा पडिबुद्धिणा रन्ना एव वुत्ते समाणे हट्ट० पहिसुणे) આ રીતે રાજાને અભિપ્રાય હૃદયમાં ધારણ કરીને સુબુદ્ધિ અમાત્ય ખૂબ જ
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मानाधर्मकथा
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sfroयेन प्रमुदितो भूला प्रतिशृणोति आज्ञामहीषरोति, प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्प यत्रेव र गृह व चातुर्धष्टोऽश्वरथो वर्तते तत्रोपान्नति उपागस्य चातु fष्टमश्वरथ प्रतिपल्पयति सज्जयति प्रतिरप्य चातुर्घष्टमश्वरथ सज्जीकृस्प दृस्ट =समारूढः सन यावत्- हयगजमहामट चटयरेण सहितः साकेतात् साकेत नगराट् निमच्छति, निर्गत्य कौन विदेहजनपदः यच मिथिलानगरी तत्रत्र प्रषारयति गमनाय गतु प्रवृत्त प्रस्थित इत्यर्थः । इति प्रतिद्धिनामकस्य राशः सम्ब न्धः कथितः ॥ सू० १७॥
जेणेव घाउटे आसरहे तेणेच उथागच्छष्ट ) स्वीकार कर पहिले वह अपने घर गया |
वहा जाकर फिर वह जशं चार घटो से युक्त अश्वरथ रखा था वहाँ गया (उद्यागच्छित्ता चाउ घट आसर पडिक पावेह ) वहां जाकर उम ने उसे चातुर्घट रथ को अच्छी तरह सज्जित कर वाया (पडि कप्पाविता दुरुढे जान हम गय महया भडचड गरेण साण्याओणि गच्छइ ) जय रथ अच्छी तरह सज्जित हो चुका तो वह बाद में उस पर आरूढ़ हुआ और हय, गज, महाभटों के समूह से युक्त होकर साकेत नगर से बाहर निकला ( णिग्गच्छित्ता जेणेव विदेह जणवए जेणेव मिहिला रामराणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए निकल कर फिर वह जहा विदेह जनपद और उस में भी जहा वह मिथिला राजधानी थी उस ओर चल दिया । सूत्र 16 १७
ܝܕ
હતિ તેમજ સતુષ્ટ થયા અને તેણે મિથિલા રાજધાની જવાની રાજાની माझा स्वोझरी ( परिमुणित्ता जेणेव सए गेहे जेणेव घाउग्धटे आसरहे तेणेत्र उपागच्छइ ) स्त्रीशरीते को पहेला पोताने घेर गये।
ઘેર પહ।ચીને તે જ્યા ચાર ઘટડીએ વાળે! અશ્વરથ મૂકેલા હતા ત્યાં ગયે (चिपटे आसरह पडिकप्पोवेइ ) त्या रहने तेषु यातुर्घट રથને સારી પેઠે શણુગાન્યે
(पडिकाविता दुरूढे जात्र हयगय महया भडचडगरेण साएयायो णिगच्छ इ) જ્યારે રથ સારી રીતે તૈયાર થઇ ગયા ત્યારે તેના પર સવાર થયા અને હાથી ઘેાડા મહાભટોના દળની યાદ્ધાએની સાથે સાથે સાકેત નગરથી મહાર નીકખ્યા
( णिगच्छित्ता जेणेव निदेद्द जणवए जेणेव महिला रायहाणी तेणेत्र पहारेस्थ गमगाए )
નીકળીને તે જે તરફ વિદેહુ જનપદ અને મિથિલા રાજધાની હતી ते तर गयो । सूत्र “१७" ॥
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अनगारधर्मामृतवपिणो टी० अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
मूलम्--तेणं कालेण तेण समएणं अगनाम जणवए होत्था, तत्थण चपा नामं णयरी होत्था, तत्थण चंपाए नयरीए चदच्छाए अगराया होत्था, तस्थ णं चम्पाए नयरीए अर. हन्नगपामोक्खा वहवे सजत्ता णावावाणियगा परिवसति अड्डा जाव अपरिभूया, तएण से अरहन्नगे समणोवासए याविहोत्था अहिगयजीवाजीवे वन्नओ, तएण तेसिं अरहन्नगपामोक्खाण सजुत्ता णावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहिआणं इमे एयारूवे मिहो कहासलावे समुप्पजित्था-से य खलु अम्ह गणिम धरिम च मेज च भडग गहाय लवणसमुद्दपोतवहणेण ओगाहित्तए त्ति कटु अन्नमन्न एयम पडिसुति, पडिसुणित्ता गणिम च ४ गेण्हंति । गेण्हित्ता सगडसागडियं भरेति,भरित्ता सोहणंसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुर्तास विपुल असण०४उवक्खडावेंति मित्तणाइ० भोअणवेलाए भुजावेंति जाव आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडिसागडिय जोयति, जोइत्ता चपाए नगरीए मज्झ मज्झेणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता सगडिसागडिय मोयति, मोइत्तापोयवहणं सजेति, सजित्ता गणिमस्स य जाव चउठिवहस्स भडगस्स भरेंति, तदलाण य समियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयरस उदयमायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्त य कहस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नसिं च वहण पोयवहणपाउग्गाणं दवाण पोयवहणंभरेति । सोहणसि
का
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રરર
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माताधर्मकथा तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहत्तसि विपुल असण४ उवक्खडावेति, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ० आपुच्छंति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयटाणे तेणेव उवागच्छति ॥ सू० १८ ॥
टीका-अथ द्वितीयस्य चन्द्ररायनाम्नो नृपम्य सबन्ध प्रस्तौति-'तेण कालेणे' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर नामा जतपद आसीत् । तत्र खलु चम्पा नाम नगरी असीत् तत्र खलु चम्पाया नगर्या चन्द्रन्छायोइरान असीत् । तत्र खल चम्पायर्या नगर्याम् अहनामाखा पहया सयात्रा नौकावाणिमका - सगतायात्रा सयात्रा तत्प्रधाना नौकापाणिजका:-पोतवणिजः मिलिला देशान्तर गामिनो नौकया वाणिज्यकारिण' परिवसन्ति, क्यभूतास्ते इत्याह-आया-धन
तेणं कालेण तेणे समएण' इत्यादि। दीकार्य-(तेण कालेण तेणं समण्ण) उस काल और उस समय में (अगनाम जणवएशेत्या) अगनामका जनपद था-(तत्थण) उस जनपद में (चपानाम णयरी होत्या) चपा नाम की नगरी थी (तत्य ण चपाए नयरीए पदच्छाए अगराया होत्था ) उस चपा नगरी में चन्द्रच्छाय नाम के अग देशाधिपति रहते थे।
(तत्य णं चपाए नयरीए अरहन्नग पामोक्खा बहवे सजत्ता णावा वणियगा परिवसति) और उसी चपा नगरी में अरहन्नक प्रमुख अनेक पोतवणिक् जो साथ २ व्यापार के निमित्त परदेश की यात्रागमना गमन-करते रहते थे। नौकाओ द्वारा जो व्यापार करते हैं वे पोतवणिक कहलाते है। (अड़ा जाव अपरिभूया) ये सब धन धान्या
'तण कालेण वेण समएण' त्यादि
टाथ-(तेण कालेण तेण सणएण) ले मन समये (अगताम जणवए होत्या) भगनामे ५६ तु (तत्यण) aordपमा (चपा नाम णयरी होत्था ) २५५ नामे नगरीती (तत्थण चपाए नयरीए चपन्छाए अगराया होत्या) a या नगरीमा य द्राय नामना मधिपति २ता हा
(तत्यर्ण चपाए नपरीए अरहनगपामोरखा वहचे मजत्ताणाचा पाणियगा परिवसति)
તે ચ પ નગરીમાં અરહનક પ્રમુખ ઘણું પિતરાણિકે-કે-જેઓ વેપાર ખેડવા માટે દેશ પરદેશમાં આવ જા કરતા રહેતા હતા નિવાસ કરતા હતા नोकामे। १३ ॥ पा२ १२२ तमाशातपशि उपाय छे ( अढा जाव
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अनगारधर्मामृत टीका अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
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धान्यपूर्णा यावद् अपरिभूता परै पराभवितुमशक्या । तत = तत्र तेषु खलु सोsहनक श्रमणोपासक श्रावकथाप्यासीत्, न केवल धनधान्यादियुक्तएवासीत् किंतु भर्हतागमानुरागी श्रमणाना सेवकथाप्यासीदित्यर्थः । पुनः किं भूतोऽसावित्याह-' अहिगयजीवाजीवे ' अभिगतजीवाजीवः = जीवाजीवतत्वज्ञः वर्णकः-अस्य वर्णनमन्यत्रोक्तरीत्याऽवगन्तव्यम् । ततः खलु तेषामहरन्नकममुखाणा संयात्रा नौकावाणिजकाना व्यवसायिकानाम् अन्यदा कदाचित् = एकस्मिन् कस्मिंश्चित् समये, एकतः सहितानाम् = एकत्र समिलिताना अयमेतद्रूपः वक्ष्यमा णस्वरूप, मिथ कथासलाप परस्परकथालापः समुदपद्यत = अभवत् श्रेयः दि से परिपूर्ण यावत् दूसरो से पराभवितु अशक्य थे (तरण से अरहन्नगे समणोवासए याचि होत्या) इन में अरहन्तक श्रमणोपासक भी थी । केवल यह धन धान्यादि से परिपूर्ण ही नहीं था किन्तु आईत आगमानुरागी और श्रमण जनों का उपासक भी था ।
( अतिगत जीवोजीवे बन्नओ ) जीव का क्या स्वरूप है, अजीव का क्या स्वरूप है इस बात का यह ज्ञाता था । इस का विशेष वर्णन अन्यत्र किया गया है ।
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(तएर्ण तेमिं अरहन्नगपामोक्खाणं सजुत्ता णावा वाणियगाण अन्नया कयाह एगयओ सहिआण इमे ण्यारुवे मिहो कहासलावे समुपज्जित्था ) किसी एक दिन ये अरह्नक प्रमुख सायात्रिक पोत वणिक किसी कार्य वश जब सब के सब किसी एक स्थलपर एकत्रित हुए तो उन्हो ने परस्पर मे वक्ष्यमाण रूप से ऐसा विचार किया -
अपरिभूया ) तेथे धा धन धान्य वगेरे समस्त वैलवेोथी सपन्न ता तेथे मधा भपरान्नेय डता (तपण से अरहम्नगे समणोगासर यावि होत्या) भाभा એક અરહનક નામે શ્રમણાપાસક પણ હતા તે કેવળ ધન ધાન્યથીજ સમૃદ્ધ નહતા પણ તે આર્હુત આગમાનુરાગી અને શ્રમણનાના સેવક પણ હતા ( अहित गत जीवाजीचे वन्नओ ) व भने अव व३५ विषे ते સપૂર્ણ પણે જ્ઞાતા હતા ( આ ખાખતનુ વિશેષ વર્ણન ખીજા સ્થાને કરવામા भाव्यु छे )
(तएण तेसिं अरहन्नगपामोक्खाण सजुत्ता पाना वाणियगाण अन्नया कयाइ ओ सहिआण इमे एयाहवे मिहो महासलावे समुप्पज्जित्या )
એક દિવસે અરહનક પ્રમુખ બધા સાયાત્રિ પાતણિક ઈ સ્થળે એકઠા થયા અને તેએએ પરસ્પર મળીને આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો
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ज्ञाताधर्मकथा
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खलु अस्माक गणिम गणयित्वा व्याहारयोग्य यथा नालिकेरपूगीफलादिक, धरिम यत् तुलाधृत व्यवहारयोग्य भाति तद् धरिमम्, मेय यत्-सेटिकादिभिर्मीयते तद् मेयम्, परिन्डेय यत्-गुणतः परिधते परीक्ष्यते ब रत्नादि, तत् परिच्छेष च भाण्डक चतुर्विध कयाणक गृहीत्वा लत्रणसमुद्र पोत वहनेन भवगाहितम् = उत्तरीतुम् इति कृत्वा इति निचित्य, अन्योन्य = परस्परम् एतमर्थ चतुर्निध क्रपाणक गृहीला नोकापानेन लाणसमुद्रसतरणरूपमर्थ प्रतिष्ट ण्वन्ति = स्त्रीकुर्वन्ति । प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य गणिम च ४ गृहन्ति, गृहीत्वा शकटी शाकटिक= लघुशकटमास्टाना समूह च सज्जयन्ति - नूतनरज्ज्वाद्युपकरनेः ( सेय खलु अम्ह गणिम, घरिम, च मेज्ज च परिच्छेज्ज च भडग गहाय लवणसमुद्द पोतवहणेण ओगाहित्तए ) गणिम गिनती कर के व्यवहार योग्य - जैसे नारियल, पूगीफल आदि, धरिम-तुला पर तौलकर व्यवहार योग्य - जैसे सस्यादि, मेय सेटिकादि से प्रमाण कर व्यवहार योग्य, और परिच्छेद्य-गुणसे परीक्षा कर व्यवहार योग्य-जैसे वस्त्र रत्न आदि इन चार प्रकार के क्रयाणक को दो नौकाओमें भर कर हम लोग बाहर लवण समुद्रको पार कर चलें - इसमें हम लोगोंको बहुत लाभ होगा।
( ति कट्टु अन्नमन्न एयम पडिसुति, पडिणित्ता गणिम च ४ गेण्हति, गेण्णित्ता सगडसागडिय मरेंति ) इस प्रकार परस्पर विचार कर उन सब ने एक मत हो इस चतुर्विध क्रपाणक को लेकर नौका से लवण समुद्र को पार करने रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया ।
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( सेय खलु अम्ह गणिम, धरिम च मेज्ज च परिच्छेज्ज च भडग गाय लवणसमुद्द पोतवहणेण ओगाहित्तए )
गणिम- गश्रीने व्यवहार (वेपार ) भी शाय नेम है नारियेज, સેપારી, વગેરે રિમ-ત્રાજવા મા જોખીને વ્યવહાર ( વેપાર ) કરી શકાય જેમકે ધાન વગેરે, મૈય-માપના પ્રમાણથી વ્યવહાર (વેપાર) કરી શકાય જેમકે તેલ વગેરે અને પરિચ્છેદ્ય-ગુણથી પરીક્ષા કરીને વ્યવહાર કરી શકાય જેમકે વસ્ત્ર રત્ન વગેરે આ ચારે જાતની વસ્તુ વિક્રય માટે એ નૌકાઓમા લાદીને આપણે લેાકી મહાર લવણુસમુદ્રને પાર કરીએ તે આપણને ખૂત્ર લાભ થશે ( ति कट्टु अन्नमन्न एयम परिसुणेति, पडिणिता गणिम च ४ गेण्हति, गेण्हित्ता सगडसागडिय भरेंति )
1
આ રીતે ચારે જાતની વેપારની વસ્તુઓ નૌકાઓમા મૂકીને લવણુસમુ બંને પાર કરવાની બધાએ સ સમ્મતિથી સ્વીકારી અને સ્વીકારીને તેઓએ
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अनगारधर्मामूनवर्पिणी टोका अ० ८ अड्गराजचरितनिरूपणम् परिप्कुर्वन्ति, सज्जयित्वा गणिमस्य ४ भाण्डफम्य शकटीशाकटिक भरन्ति= पूरयन्ति । भृत्वा-पूरचित्ला शोभने तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते विपुल-विस्तीर्णम् अशनपानखाद्यस्वाध चतुर्विधमाहारमुपस्कारयन्ति = निष्पादयन्ति । मित्रजातिममुखान् भोजनवेलाया भोजयन्ति, यावद् आपृच्छन्ति स्म अरहन्नक प्रमुग्वाः स. यात्रानौकागणिजका यात्रानसरे मित्रज्ञातीन् भोजयित्वा वाणिज्यार्थ नौकया समुद्रसतरणकामास्तान मित्रज्ञातीन् स्वस्थानुमति प्रदानार्थ प्रार्थयन्ति स्मेत्यर्थः। आपृच्छय समाऱ्या शकटीशाफटिक योजयन्ति वृपभैः सह सयोजयन्ति सयोग्य चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव गम्भीरक गम्भीरकास्य समुद्रतीरसति पोतस्वीकार कर के फिर उन सपने चारों प्रकार के क्रयाणक को लिया-लेकर उसे नूतन रज्ज्वादि से परिष्कृत की गई गाडी और गाडों में भर दिया।
(भरित्ता सोरणसि तिहिकरण दिवसनक्खत्तमुहत्तसि विपुल असण ४ उवक्खडावेति) भर कर फिर उन्हो ने शुभतिथि, करण दिवस नक्षत्र रूप मुहर्त में विपुल मात्रा में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार को बनवाया - (मित्तणाह० भोअणवेलाए भुजाति जाव आपुच्छति ) जब वह घन कर तैयार हो चुका-तो उन्हो ने अपने २ मित्र, ज्ञाति आदि परिजनों को भोजन के अवसर पर भोजन करवाया और फिर उन से पूछा-हम लोग याहर व्यापार के लिये जाना चाहते हैंइसलिये आप लोग इस विषय मे अपनी २ अनुमति प्रदान करे-इर्स तरह उन से प्रार्थना की- ( अपुच्छित्ता) पूछ कर (सगडसागडियं जोयति, जोइत्ता चपाए नयरीए मज्ममझेण जेणेव गभीरए पोय ચારે જાતની વેચાણની વસ્તુઓને નવા દેરડાઓવાળી ગાડી તેમજ ગાડાઓમાં મૂકી (रित्ता सोहणसि तिहिररणनक्खत्तमुत्तसि विपुल असण४ उवक्खडावेति)
ભરીને તેઓએ શુભતિથિ, કરણ નક્ષત્રરૂપ મુહૂર્તમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાવ આમ ચારે જાતના આહાર પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવડાવ્યા (मित्ताणाइ ० भोअणवेलाए भुजावे ति जार आपुच्छवि) न्यारे माडार तैयार થઈ ગયે ત્યારે તેઓએ પિતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનોને જમવામાટે બેલાવીને જમાડયા અને જમ્યા પછી તેમને તેઓએ પૂછ્યું “ અમે બધા વેપાર ખેડવા માટે બહાર જવા ઈચકીયે છીએ ”
એથી તમે બધા અમને અનુમતિ આપે આપીને તેઓએ તેમને વિનતી ३श (आपुन्टिता) मा भगवान
(सगडसागडिय जोयति जोइता चपाए नयरीए मज्झमझेण जेणेव,
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ફેરફ
हाताधर्मकथा पत्तन = पोतनगर नौकारोहणस्थान वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागस्य शकटी. शाकटिक मुञ्चन्ति शरटीशाकटिका समूहानस्थित क्रयाणकादिक सर्व वस्तु जात मवतारयन्ति, मुक्त्वा = सर्वं स्तुजात शम्टेभ्योऽनवार्य पोतपइन = नौकायान सज्जयन्ति यथोचितनूतनोपकरणे परिष्कृत्य दृढ़ीकुर्वन्ति, सज्जयित्वा = परिष्करणेन हृदीकृत्य गणिमस्य च यावचतुर्विधस्य भाण्डकस्य = कयाणवस्य भरन्ति = गणिमादि चतुर्विधक्रयाणकस्य स्थापनेन नौकायान पूरयन्ति स्मेत्यर्थः । तण्डुलाना च समितस्य गोधूमस्य गोधूमचूर्ण निष्पन्नपकान्न विशेषम्य न तेलकस्य च गुड़स्य च घृतस्य च गोरसस्य च उदकस्य च उदकभाजनाना च औषधाना = त्रिकटुकादीनाम् पट्टणे तेणेच चागच्छति ) फिर उन्हो ने क्रयाणको से भरी हुई गाड़ी और गाड़ों को जुतवाया-जुनयो कर फिर वे सब के सब चपा नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर जहा गभीरक नाम का जहाज पर सवार होने का स्थान ( चदरगाह ) था वहा पर आये ।
( उचागच्छित्ता सगढ़ सागडिय मोयति, मोइत्ता पोयवरण सज्जेति सज्जित्ता, गणिमस्स य जाच चउन्विहस्स भडगस्स भरेंनि) वहां आकर उन लोगों ने अपनी २ गाड़ियों और गाड़ो को ढील दिया ढीलकर पोत यानों को सज्जित किया-यथोचित नूतन उपकरणों से दृढ़ किया । सज्जित करके फिर बाद में उस चतुर्विध गणिमादि रूप क्रयाक को गाडियों और गाड़ो पर से उतार २ कर नौका यान में यथोचित स्थान पर भर दिया ( तदुलाणय सभियरस य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयरस य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जा गभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति )
તેમને વેચાણુના માલસામાનથી ભરેલી ગાડી અને ગાડાને જોતર્યા અને ત્યાર પછી તેઓ અધા ચપા નગરીની ખરાખર વચ્ચેાવચ્ચના માગથી પસાર થઈને જ્યા ગ ભીરક નામનુ વહાણુ પર બેસવાનુ સ્થાન (મદર) હતુ ત્યા પહાચ્યા (उवागच्छित्ता सगडसागडिय मोयति महत्ता पोयरहण सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्त य जाव चउत्रिहस्त भडगस्स भर्रेति )
ત્યા પહેાચીને તેએાએ પેાતપેાતાની ગાડીએ તેમજ ગાડાઓને છેડીને યથાચિત નવીન ઉપકરણેાથી વહાણ તૈયાર કર્યું વહાણુને સુદૃઢ રીતે તૈયાર કરીને તેઓએ ગાડી તેમજ ગાડાએની વેચાણની બધી વસ્તુએ વહાણુમા યાસ્થાને ગેાઠવી દીધી
( तदुलाण य सभियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयरस य उदद्यमाणाण य ओसहाण य भेसज्जाग य तगस्स य, कटुस्स य आव
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
३२७
अथवा-एकद्रव्यरूपाणा च भैपज्याना पथ्यानामाहारविशेषाणाम् अथवा द्रव्यस योगरूपाणाम् च वणस्य च काष्टस्य च आवग्णानाम्=अङ्गरसकादीना च प्रहरणाना च खड्गादिशस्त्राणा अन्येषा च बहूना पोतवहनमायोग्याणा = नौकायानोपनेयानां द्रव्याणा = स्थापनेन पोतवहन = नौकायान भरन्ति पूरयन्ति स्म । शोभने = शुभावहे, णय तणस्स य, कट्टस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च बहूण पोयवहणपाउरगाण दव्वाण पोयवहण भरेंति )
नौका यान में उन्हों ने चावलों को भरा, गेहुओ को भरा, गेहुओ के आटे को और आटे से निष्पन्न पक्वान्न विशेषको भरा । तैल, गुड घृत गोरस भरा पानी भरा पानी के वर्तनो को भरा । त्रिकुट आदि औषधियों को भरा पथ्याहार विशेष भैषज्यों को भरा, तृणों को भरा लकड़ियो को भग अगस्स आदि आवरणों को, खड्ग, आदि शस्त्रों को तथा और भी अनेक वस्तुओं को जो पोत वहन के योग्य थी भरा ।
इस तरह उन्हों ने इन समस्त वस्तुओं को, यथोचित स्थान पर स्थापित उस नौकायान को भर दिया । यहा पर जो औषध और भैषज्य ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं उन से ऐसा भी अर्थ घोध होता है कि त्रिकूट आदि जो अलग २ द्रव्य है वे औषध और इन का समुदाय रूप जो द्रव्य है - जैसे चूर्ण आदि वह भैषज्य है । (4 पोयवरण पाउ ग्गाण पद का यह अर्थ है कि जो द्रव्य नौका द्वारा अच्छी तरह ढोयाजा सके वह सब उन्हो ने उस में भर दिया । ( सोहणसि तिहि करण रणाण य, पहरणाण य, अन्नॅसि च वहूण पोयवहणपाउरगाण दव्वाण पोयवहण भरेंति )
"
તેમણે ચાખા, ઘઉં, ઘઉં નાલેટ તેમજ ઘઉંના લેટથી બનાવવામા આવેલુ पपुवान्न विशेष, तेल, गोज धी, गोरस, पाणी, पाणी लवाना वासो त्रिस्ट वगेरे औषधीओ, पथ्याहार विशेष लेषन्न्यो, यारो, साउडा, અગરસ વગેરે આવરણે, ખડગ વગેરે શઓ અને બીજીપણુ ઘણી વહાણુ મા લઇજવા ચેાગ્ય બધી વસ્તુએ વહાણુમા લાદી
"
આ પ્રમાણે તેમણે બધી વસ્તુઓને યયાસ્થાને ગેાઠવીને વહાણુને સામા નથી ભરી દીધુ महीं पर लेपन्न्य' भने 'मोषध ' આ એ શબ્દ પ્રયુક્ત થયા છે તેથી અહીં આ પ્રમાણે પણુ અથ થાય છે કે ત્રિકુટ વગેરે જે જુદા જુદા દ્રવ્યેા છે તે ઔષધ અને આ બધાને એકઠા કરવા જેમકે यूथ वगैरे ते लैपन्न्य " पोयवद्दणपाउरगाण ” पहने ! अर्थ मा प्रभाहले छे કે જે દ્રવ્ય નૌકાવડે મારી રીતે લઇ જઈ શકાય તે મધુ તેમણે તેમા ભર્યું હતું
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माताधर्मक्या पत्तन-पोतनगर नौगरोहणम्यान वर्तते तोवोपागन्छति, उपागस्य शक्टो. शाकटिक मुञ्चन्ति, शस्टीशाकटिका समूहारम्यित क्रयाणकादिक सर्व वस्तु जात मवतारयन्ति, मुक्त्या सर्व रस्तुजात शस्टेभ्योऽयवार्य पोतबद्दन नौकायान सज्जयन्ति यथोचितनूतनोपकरणे परिष्कृत्य दीकुर्वन्ति, सज्जयित्वा परिष्करणेन दृढ़ीकृत्य गणिमस्य च यावचतुर्विधस्य भाण्डफस्यक्रयाणस्य भरन्ति गणिमादि चतुर्विधक्रयाणस्य स्थापनेन नौकायान पूरयन्ति स्मेत्यर्थः । तण्डुलाना च समितस्य गोधूमस्य गोधूमचूर्णनिप्पनपकानविशेपम्य न तेलकस्य च गुइस्य च धृतस्य च गोरसस्य च उदकस्य च उदकमाननाना च औपधाना-त्रिकटुकादीनाम् पणे तेणेच उवागच्छति ) फिर उन्हो ने क्याणको से भरी हुई गाड़ी
और गाड़ों को जुत वाया-जुनयो कर फिर वे सब के सब चपा नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर जहा गभीरक नाम का जहाज पर सवार होने का स्थान (बदरगाह ) था वहा पर आये ।
(उवागच्छित्तो सगड़ सागडियमोयति, मोइत्ता पोयवरण सज्जेति सनित्ता, गणिमस्स य जाय चउन्विहस्स भंडगस्स भरेंति) वहां आकर उन लोगों ने अपनी गाड़ियों और गाड़ो को ढील दिया ढोलकर पोत यानों को सज्जित किया-यथोचित नूतन उपकरणों से दृढ़ किया। सज्जित करके फिर बाद में उस चतुर्विध गणिमादि रूप क्रयाणक को गाडियों और गाड़ो पर से उतार २ कर नौका यान में यथोचित स्थान पर भर दिया (तदुलाणय सभियस्स य तेल्लयस्त य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जा गभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति)
તેમને વેચાણના માલસામાનથી ભરેલી ગાડી અને ગાડાને જોતર્યા અને ત્યાર પછી તેઓ બધા ચ પ નગરીની બરાબર વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થઈને જ્યાગભીરક નામનુ વહાણ પર બેસવાનું સ્થાન (બંદર) હતુ ત્યા પહોચ્યા __(उवागच्छित्ता सगडसागडिय मोयति इित्ता पोयरहण सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स य जाब चउनिहस्स भडगस्स भरेंति)
ત્યા પહોચીને તેઓએ પિતાપિતાની ગાડીઓ તેમજ ગાડાઓને છેડીને યાચિત નવીન ઉપકરણેથી વહાણ તૈયાર કર્યું વહાણને સુદૃઢ રીત તૈયાર કરીને તેઓએ ગાડી તેમ જ ગાડાઓની વેચાણની બધી વસ્તુઓ વહાણુમાં યથાસ્થાને ગોઠવી દીધી
(तदुलाण य सभियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जाग य तगस्स य, कस्स य आव
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ अगराजचरितनिरूपणम्
३२७ अथवा-एकद्रव्यरूपाणा च भैपज्याना पथ्यानामाहारविशेषाणाम् अथवा द्रव्यस योगरूपाणाम् च तणस्य च काष्ठस्य च आवग्णानाम् अङ्गरसकादीना च प्रहरणाना च खड्गादिशस्त्राणा अन्येपा च बहूना पोतवहनमायोग्याणा-नौकायानोपनेयाना द्रव्याणा स्थापनेन पोतवहन-नौकायान भरन्ति पूरयन्ति स्म । शोभने शुभावहे, णय तणस्स य, कट्टस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च पटूण पोयवहणपाउग्गाण दव्वाण पोयवण भरेंति )
नौका यान में उन्हों ने चावलों को भरा, गेहुओ को भरा, गेहुओ के आंटे को और आटे से निष्पन्न पक्वान्न विशेपको भरा । तैल, गुड घृत गोरस भरा पानी भरा पानी के वर्तनों को भरा। त्रिकुट आदि
औषधियों को भरा पथ्याहार विशेष भैपज्यो को भरा, तृणों को भरा लकडियो को भग अगस्स आदि आवरणों को, खड्ग, आदि शस्त्रों को तथा और भी अनेक वस्तुओं को जो पोत वहन के योग्य थी भरा। ?
इस तरह उन्हों ने इन समस्त वस्तुओं को, यथोचित स्थान पर स्थापित उस नौका यान को भर दिया। यहा पर जो औषध और भैषज्य ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं उन से ऐसा भी अर्थ बोध होता है कि त्रिकूट आदि जो अलग २ द्रव्य हैं वे औषध और इन का समुदाय रूप जो द्रव्य है-जैसे चूर्ण आदि वह भैषज्य है। "पोयवरणपाउग्गाण" पद का यह अर्थ है कि जो द्रव्य नौका द्वारा अच्छी तरह ढोया. जा सके वह सब उन्हो ने उस में भर दिया । ( सोहणसि तिहि करण रणाण य, पहरणाण य, अन्नेसि च बहूण पोयवह्णपाउग्गाण दवाण पोयवहण भरेति)
તેમણે શેખા, ઘઉ, ઘઉલટ તેમજ ઘઉના લોટથી બનાવવામા આવેલ पवान विशेष, तस, घी, रस, yell, पाए लपानी पासત્રિફટ વગેરે ઔષધીઓ, પથ્યાહાર વિશેષ ભૈષજ્ય, ચારે, લાકડા, અગરસે . વગેરે આવરણ, ખડગ વગેરે શો અને બીજી પણ ઘણી વહાણ માં લઈ જવા ગ્ય બધી વસ્તુઓ વહાણમા લાદી
આ પ્રમાણે તેમણે બધી વસ્તુઓને યથાસ્થાને ગોઠવીને વહાણુને સામા નથી ભરી દીધુ અહીં ઉપર “વિજ્ય” અને “ પધ” આ બે શબ્દ પ્રયુક્ત થયા છે તેથી અહીં આ પ્રમાણે પણ અર્થ થાય છે કે ત્રિકુટ વગેરે જે જુદા જુદા દ્રવ્યો છે તે ઔષધ અને આ બધાને એકઠા કરવા જેમકે यू परत बोलायपोयग्रहणपाउगाण " पहने। अथ मा प्रमाणे કે જે દ્રવ્ય નૌકાવડે સારી રીતે લઈ જઈ શકાય તે બધુ તેમણે તેમાં ભર્યું હતું
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माताधर्मकथा पत्तन-पोतनगर नौमारोहणस्थान वर्तते तोवोपागन्छति, उपागस्य शक्टीशाकटिक मुश्चन्ति, शस्टीशाकटिका समूहारस्थित क्रयाणकादिक सर्व वस्तु जात मवतारयन्ति, मुक्त्या सर्व रस्तुजात शस्टेभ्योऽतार्य पोतबहन नौकायान सज्जयन्ति यथोचितनूतनोपकरण परिष्कृत्य दीकुन्ति, सज्जयित्वा परिष्करणेन हद्रीकृत्य गणिमस्य च यावचतुर्विधस्य भाण्डफस्य-क्रयाणस्य मरन्ति-गणिमादि चतुर्विधक्रयाणकस्य स्थापनेन नौकायान पूरयन्ति स्मेत्यर्थः । तण्डुलाना च समितस्य गोधूमस्य गोधूमचूर्णनिप्पनपकानपिशेपम्य च तेलयस्य च गुहस्य च घृतस्य च गोरसस्य च उदकस्य च उदकमाननाना च औपधाना=त्रिकटुकादीनाम् पणे तेणेव ज्यागच्छति ) फिर उन्हो ने क्रयाणको से भरी हुई गाही
और गाड़ों को जुत वाया-जुनवो कर फिर वे सर के सब चपा नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर जहा गभीरक नाम का जहाज पर सवार होने का स्थान (बदरगाह ) था यहा पर आये।
(उवागच्छित्तीसगढ़ सागडिय मोयति, मोडत्ता पोयवरण सज्जति सज्जित्ता, गणिमस्स य जाव चउन्विहस्स भडगस्स भरेंति) वहां आकर उन लोगों ने अपनी २ गाड़ियों और गाड़ी को ढील दिया दीलकर पोत यानों को सज्जित कियो-यथोचित नूतन उपकरणों से दृढ़ किया। सज्जित करके फिर बाद में उस चतुर्विध गणिमादि रूप तयाणक को गाडियों और गाड़ो पर से उतार २ कर नौका यान में यथोचित स्थान पर भर दिया (तदुलाणय सभियस्स य तेल्लयस्त य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जा गभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति)
તેમને વેચાણના માલસામાનથી ભરેલી ગાડી અને ગાડાને જોતર્યા અને ત્યાર પછી તેઓ બધા ચ પ નગરીની બરાબર વચ્ચોવચ્ચેના ભાગથી પસાર થઈને જ્યા ગભીરક નામનુ વહાણ પર બેસવાનું સ્થાન (બંદર) હતુ ત્યા પામ્યા
(उवागन्छित्ता सगडसागडिय मोयति इित्ता पोयवहण सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स य जाव चउचिहस्स भडगस्स भरेंति)
ત્યા પહોચીને તેઓએ પિતાપિતાની ગાડીઓ તેમજ ગાડાઓને છેડીને યાચિત નવીન ઉપકરણથી વહાણ તૈયાર કર્યું વહાણને સુદઢ રીત તૈયાર કરીને તેઓએ ગાડી તેમજ ગાડાઓની વેચાણની બધી વસ્તુઓ વહાણમાં યથાસ્થાને ગોઠવી દીધી
(तदुलाण य सभियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जाग य त गस्स य, कट्ठस्स य आव
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अण्ट अङ्गराजचरितनिरूपणम्
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अथवा- एकद्रव्यरूपाणा च भैपज्याना पथ्यानामाहारविशेषाणाम् अथवा द्रव्यसयोगरूपाणाम् च तृणस्य च काष्ठस्य च आग्णानाम्=अङ्गरसकादीना च महरणाना च खड्गादिशस्त्राणा अन्येषा च बहूना पोतवहनमायोग्याणा = नौकायानोपनेयानां द्रव्याणा=स्थापनेन पोतवहन - नौकायान भरन्ति पूरयन्ति स्म । शोभने = शुभावहे, णय तणस्स य, कट्टुस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च बहूण पोचवणपाउरगाण दव्वाण पोयवहण भरेंति )
नौका यान में उन्हों ने चावलों को भरा, गेहुओ को भरा, गेहुओ के आटे को और आटे से निष्पन्न पक्वान्न विशेषको भरा । तैल, गुड घृत गोरस भरा पानी भरा पानी के वर्तनो को भरा । त्रिकुट आदि औषधियों को भरा पथ्याहार विशेष नैपज्यो को भरा, तृणों को भरा लकड़ियो को भरा अगस्स आदि आवरणो को, खड्ग, आदि शस्त्रों को तथा और भी अनेक वस्तुओं को जो पोत वहन के योग्य थी भरा ।
इस तरह उन्होंने इन समस्त वस्तुओं को, यथोचित स्थान पर स्थापित उस नौका यान को भर दिया । यहा पर जो औषध और भैषज्य ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं उन से ऐसा भी अर्थ घोध होता है कि त्रिकूट आदि जो अलग २ द्रव्य हैं वे औषध और इन का समुदाय रूप जो द्रव्य है-जैसे चूर्ण आदि वह भैषज्य है । " पोयवहणपाउग्गाण पद का यह अर्थ है कि जो द्रव्य नौका द्वारा अच्छी तरह ढोयाजा सके वह सब उन्हो ने उस में भर दिया । ( सोहणसि तिहि करण रणाण य, पहरणाण य, अन्नॅसि च वहूण पोयवहणपाउरगाण दव्नाण पोयवहण भरेंति )
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તેમણે ચાખા, ઘઉં, ઘઉં નાલેટ તેમજ ઘઉંના લેાટથી ખનાવવામા આવેલુ पपुवान्न विशेष, तेल, गोज धी, गोरस, पाणी, पाणी लवाना पास, त्रिइट वगेरे औषधीयो, पथ्याहार विशेष लैषल्यो, यारी, लाउडा, અ ગરમ વગેરે આવરણા, ખડગ વગેરે શો અને બીજીપણ ઘણી વહાણુ મા લઈજવા ચેાગ્ય અધી વસ્તુએ વહાણુમા લાદી
આ પ્રમાણે તેમણે બધી વસ્તુઓને યવાન્થાને ગેાઠવીને વહાણને સામા નથી ભરી દીધુ भड उपर लेपन्य' ने 'औषध' या मे शो પ્રયુક્ત થયા છે તેથી અહીં આ પ્રમાણે પણ અર્થ થાય છે કે ત્રિકુટ વગેરે જે જુદા જુદા દ્રવ્યા છે તે ઔષધ અને આ બધાને એકઠા કરવા જેમકે यू वगैरे ते पल्ल्य " पोयवद्दणपाउगाण " पहने अर्थ या प्रभाले छे દ્રવ્ય નૌકાવડે સારી રીતે લઇ જઈ શકાય. તે મધુ તેમણે તેમા ભર્યું હતુ
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माताभधा पत्तन-पोतनगर नौशारोहणस्यान पर्वते तत्रोपागच्छति, उपागस्य अटी. शाकटिक मुश्चन्ति, शरटीशाकटिका समूहापरिषत क्रयाणकादिक सर्व वस्तु जाव मवतारयन्ति, मुक्त्वास वस्तुजात शस्टेभ्योऽवतार्य पोवाहन-नौकायान सज्जयन्ति यथोचितनूतनोपकरणे परिष्कृत्य दृढ़ीकुर्वन्ति, सज्जयित्वा परिष्करणेन दीकत्य गणिमस्य च यावचतुर्विधस्य भाण्डकस्यन्क्रयाणकस्य भरन्ति-गणिमादि चतुर्विधक्रयाणकस्य स्थापनेन नौकायान पूरयन्ति स्मेत्यर्थः । तण्डुलाना च समितस्य गोधूमस्य गोधूमचूर्णनिप्पन्नपकानविशेषम्य च तेलकस्य च गुड़स्य च घृतस्य च गोरसस्य च उदकस्य च उदकमाननाना च औपधाना=त्रिकटुकादीनाम् पणे तेणेव उवागच्छति) फिर उन्हो ने क्याणको से भरी हुई गाड़ी
और गाड़ों को जुत वाया-जुनयो कर फिर वे सत्र के सब चपा नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर जहा गभीरक नाम का जहाज पर सवार होने का स्थान ( यदरगाह ) था वहा पर आये। . (उवागच्छित्तो सगड़ सागडिय मोयति, मोइत्ता पोयवरण सज्जेति सज्जित्ता, गणिमस्स य जाव चउन्विहस्स भडगस्स भरेंति) वां आकर उन लोगों ने अपनी गाड़ियों और गाड़ो को ढील दिया ढीलकर पोत यानों को सज्जित किया-यथोचित नूतन उपकरणों से दृढ़ किया। सज्जित करके फिर बाद में उस चतुर्विध गणिमादि रूप क्रयाणक को गाडियों और गाड़ी पर से उतार २ कर नौका यान में यथोचित स्थान पर भर दिया (तदुलाणय सभियस्स य तेल्लयस्त य गुलस्स य घयस्स यगोरयस्सय उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जा गभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति )
તેમને વેચાણના માલસામાનથી ભરેલી ગાડી અને ગાડાને જોતર્યા અને ત્યાર પછી તેઓ બધા ચ પા નગરીની બરાબર વચ્ચેવચ્ચેના ભાગથી પસાર થઈને જ્યાગભીરક નામનુ વહાણ પર બેસવાનું સ્થાન (બદર) હતુ ત્યા પહોચ્યા
(उवागन्छित्ता सगडसागडिय मोयति इित्ता पोयवहण सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स य जाव चउब्धिहस्स भडगस्स भरेंति)
ત્યા પહેચીને તેઓએ પિતાપિતાની ગાડીઓ તેમજ ગાડાઓને છેડીને યથેચિત નવીન ઉપકરણેથી વહાણ તૈયાર કર્યું વહાણને સુદઢ રીતે તૈયાર કરીને તેઓએ ગાડી તેમજ ગાડાઓની વેચાણની બધી વસ્તુઓ વહાણમા યથાસ્થાને ગોઠવી દીધી
(तदुलाण य समियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जाग य त गस्स य, कट्ठस्स य आव
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अनगारधर्मामृतधर्षिणी टीका अ० ८ अगराजचरित्रनिरूपणम्
तसि धूवसि पूइएसु ससुद्दवाएस, ससारियासु, वलयवाहासु ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पडुप्पवाइएस तूरेसु, जइ एसु सव्वसउणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु, महया उक्तिट्टिसीहणाय जयरवेण पक्खुभितमहासमुद्दरवभृयं पिव मेइणि करेमाणा एगदिसि सजुत्ता नावा वाणियगा णावं दुरूढा ।
तओ पुस्समाणयो वक्कमुदाहु - हभो सन्वेसिमत्रिभे अस्थ सिद्धीओ उवट्टिताइ कलाणाइ, पडिहयाइ सव्वपावाई, जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अय देसकालाओ, तओ पुस्समाणवेणं वक्के उदाहिए हट्टतुट्टा कुच्छिधारकन्नधारगविभज्जसंजाता णावा वाणियगा वावारिस तं नाव पुन्नुच्छगं पुण्णमुहि वधणेहिंतो मुंचति ॥ सू० १९ ॥
(
टीका - तएण तेर्सि ' इत्यादि - ततस्तदनन्तर खलु तेपामरहन्नक प्रमु खाणा यावत् नौकावाणिजकाना परिजना यात्रत् तादृशीभिर्वाग्भिरभिनन्दन्तथाभि सस्तुवन्तश्चैत्र = वक्ष्यमाणप्रकारेणावादिपुः - हे आर्य । हे पितामह ' तात हे पितः हे मातुल' हे भागिनेय ' भगनता महता समुद्रेण ' अभिरग्विज्जमागा १२ अभि तएण तेर्सि अरहन्नग जाव' इत्यादि ।
6
टीकार्य - (तरण) इसके बाद (अरहन्नग जाव वाणियगाण परियणा जावारिसेहिं वहिं अभिणदता य अभिसनमाणी य एव वयासी) उन अरहन्तक यावत् अन्य और पोतवणिजों के परिजनो ने यावत् उस २ प्रकार की वाणियों द्वारा उन सबका अभिनन्दन एव सस्तवन करते हुए उन से इस प्रकार कहा - ( अज्ज | ताय ! भाय ! माउल ! भाइणज्जे ! भगवना समुद्देणं अभिरखिज्जे माणा २ चिर जीवह भद्द
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'तएण तेखि अरहन्नग जाव' ४त्याहि टीअर्थ - "तरण" त्याच्याह "C अरहन्नग जाव वाणिय गाण परियणा जाव तारिसेहिं गूहिं अभिण दताय अभिसथुणमाणाय एव वयासी” ते भरन्न प्रमुख પતર્થાણુકાના પપને તેમનુ અનેક જાતની મ ગળવાણીયા વડે અભિન દન भने सस्तवन उरता तेभने अहेवा साग्या ( अज्ज । ताय । भाय! माउळ ! भणिज्जे भगवया समुळेण अभिरक्सिज्जेमाणार चिर जीवह भद्द च ते ) हे आर्य ।
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-AD
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माताधर्मस्था विधिकरण दिवस नक्षनमुर्ते विपुल विस्तीर्णम् , अगनपानापापस्वाध चतुर्वि धमाहारमुपस्कारयन्ति-सपादयन्ति, उपमार्य मिनमातिप्रमुसान् भोजयित्वाऽऽपृ
छन्ति, समुद्रयात्रानुमतिमदानार्थ प्रार्थयन्ति आपन्य या पोवस्थान नौका यानारोहणस्थान वर्तते तत्रोपागच्छति, उपागत्य च नत्र स्थिताः ॥१० १८ ॥
मूलम्-तएण तेसिं अरहन्नग जाव वाणियगाणं परियणा जाव तारिसेहिं वग्गूहि अभिणंदंता य अभिसधुणमाणा य एवं वयासी-अन्ज ताय भाय माउल भाइणजे भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा २ चिरजीवह भ६ च भे पुणरवि लट्टे कयकजे अणहसमग्गे नियग घरं हव्वमागए पासामोत्तिकटु ताहिं सोमाहि, निहाहि दीहाहिं, सप्पिवासाहि पप्पुयाहिं दिट्ठीहि निरीक्खमाणा मुहत्तमेत्तं सचिट्टति तओ समाणिएसु पुप्फवलिकम्मे दिन्नेसु सरसरत्तचदणददर पचंगुलितलेसु, अणुक्खिदिवसनरखत्तमुहुत्तसि विपुलं असण४ वरखड़ावेति, उवक्खडावित्ता, मित्तणाई० आपुच्छति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति) जय सर प्रकार का चतुर्विध भयाणक नोकायान में भरा जा चुका तब पुनः उन लोगों ने अशनादि रूप चतुर्विध आहार निप्पन्न करवाया, और करवा कर अपने २ मित्र ज्ञाति आदि परिजनों को जिमाया जिमा कर उन से समुद्रयात्रा कर ने की अनुमति मागी-और माग कर फिर वे सब के सब पोत वणिक् जहा नौका पर चढने का स्थान था वहा आये-और आकर वहां ठहर गये। मूत्र " १८" (सोहणसि तिहिकरणदिवसनक्खत्ताहुत्तसि विपुल असण ४ उवक्खडावेंति, उव क्खडावित्ता, मित्तगाई आपुच्छति,आपुन्ठित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेर उवागच्छति
જ્યારે ચારે જાતની વેચાણ કરવાની વસ્તુઓ જહાજમાં ભરાઈ ગઈ ત્યારે તેમણે અશન વગેરે ચારે જાતને આહાર તૈયાર કરાવડાવ્યું અને કરાવડાવીને પોતપોતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનેને જમાડયા અને જમા ડીને તેમની પાસેથી સમુદ્રયાત્રા કરવાની આજ્ઞા માગી અને આજ્ઞા મેળવીને તેઓ બધા પિતવણિકે જ્યા વહાણમાં બેસવાનું થવાનું સ્થાન હતુ ત્યા माल्या अन त्या भावीन तमामधा त्या या ॥ सूत्र “१८ ॥
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् दानादिकर्मसु, तथा-सरसरक्तचन्दन दर्दर पञ्चाङ्गुलितलेपु सरसरक्तचन्दनस्य दर्दरेण चपेटाऽऽकारेण पञ्चाङ्गुलितलेषु करतलाङ्कनेषु दत्तेषु परीधानीयेषु 'उत्तरीयेषु वस्त्रेषु च सरसरक्तचन्दनानुलिप्तकरतलमुद्रणेषु कृतेष्पित्यर्थः । अनूक्षिप्ते अनुप श्चात् ऊर्ध्वक्षिप्ते धूपे गुग्गुलादि धूमे कृते सति, पूजितेपु-धूपादिनो समानितेषु समुद्रवातेपु समुद्रसम्बन्धिपवनेषु, तथा ससारितेपु स्थानान्तरादानीय यथोचित स्थाने निवेशितेपु वलयमाहुपु-दीर्घकाष्ठरूपेषु वाहुपु, तथाउच्छूितेषु उर्ध्वमुखम वस्थोपितेपु सितेषु शुक्लेषु वजापु पताकाग्रेपु, तथा-पटुमवादितेषु पटुभिः पुस्पैः प्रवादितेषु, यद्वा-पटु यथा भवति तथा प्रवादितेषु तूर्येषु वायपु, तथा जयिकेयु जयकारकेषु सर्वशकुनेपु-यायसरुतादिषु, तथा-गृहोतेपु-प्राप्तेषु राजवरशासनेषु-समुद्रयानार्थ चम्पानगरीभूपस्याऽऽज्ञापत्रैपु तथा-महोत्कृष्टसिंहनाद धूवसि, पूइण्तु समुद्दवाएस्सु समारियासु वलयवाहासु, उसिएसु सिएसुझयग्गेसु, पडुप्पवाइएसु तुरेसु, जडएसु सव्वसउणेसु, गदिएसु रायवरसासणेतु ) इसके बाद पुप अक्षत दानादिक कर्म जब समाप्त हो चुका, परिधानीय वस्त्रो पर सरस रक्त चदन के चपेटाकार से हाथे जब लगाये जा चुके, गुग्गुल आदि धूप अग्नि में डालकर जब उस का धूम किया जा चुका समुद्रीय स्वाए जन धूपादि प्रदान द्वारा पूजित की जा चुकी दीर्घ काष्ट रूप वलय (पतवार ) स्थानान्तर से लाकर जय यथोचित स्थान पर रखे जा चुके, शुभ्र ध्वजाओं के अग्रभाग जय उर्ध्वमुख कर अवस्थापित हो चुके, चतुर बजाने वालो के द्वारा जब अच्छी तरह बाजे बजाये जा चुके जय कारक वायसरुतादिरूप सर्व शकुन जब अच्छी तरह से हो चुके और समुद्र यात्रा करने का आदेश पत्र जब चपा नगरी के राजा का प्राप्त हो चुका तब(महया उक्किहनी अणुक्खित्तसि धूवसि पूडएसु समुदवाएसु ससारियासु बलयवाहासु उसिएम सिएसु झयग्गेस पडुप्पवाइएसु तुरेसु जदएमु मन्य सउणेसु गहिएम रायवरसासणेसु)
- ત્યાર બાદ પુષ્પ અલત દાન વગેરે ની વિધિ પૂરી થઈ ગઈ, પરિધાનીય વો ઉપર સરસ લાલ ચંદનના થાપાઓ લગાવી લીધા, ગૂગળ વગેરે ધૂપ અગ્નિમાં નાખીને ધૂપ કરી લીધે, ધૂપ વગેરે અપને સમુદ્રના પવનની અર્ચનાનું કામ પુરૂ થઈગયુ, બીજા સ્થાનેથી દીર્ધકાષ્ઠરૂપ વલય એટલે કે સૂકાન વગેરે વહાણ ઉપર યથાસ્થાને મુકાઈ ગયા, શુભધ્વજાઓના અગ્રભાગ જયારે ઉર્વમુખના રૂપે અવસ્થાપિત થઈ ગયા, કુળ વાજા વાળાઓ વડે સરસ વાજા એ વગાડવાનું કામ પતિ ગયુ, જય પમાડનારા કાગડા વગેરે પક્ષી એના માગલિક શબ્દ એટલે કે સારા શુકન થઈ ગયા અને એ પાનગરીના રાજા પાસેથી સમુદ્રયાત્રા કરવાને પશ્વાને “ આદેશ ૫” તેઓની પાસે આવી ગમે ત્યારે
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গমকথা रक्ष्यमाणा २८-सुरक्ष्यमाणाः२ विरहका जीनत, भव यु'माक भवर पुनर पि लब्धार्यान् बन्धलाभान कृतकार्यान् सम्पादितसकरात्यान अनवसमग्रान्अनघाश्च ते समग्राः अनसमप्रास्तान दोगरहितत्वादना, पनेषु परिवारेषु च हामामाघात् समग्राः तथाविधान् युग्मान निनकसकीय, गृह हव्यमागतान शीप्रमागतान् पय पश्यामः, इतिकत्वात्युक्त्या तामि सौम्पाभिनिर्विकारत्तात्, स्निग्धाभिः सस्नेहत्वात्, दीर्घाभिः दर यादवलोकनात् ' सचिवासाहि ' मपि पासामिान्दशनेच्छापतीभिः, 'पपृयाहि । प्रप्लुतामिा अश्रुपूर्णाभिः दिट्ठीहिं' दृष्टिमि निरीक्षमाणा अवलोकमाना' मुहर्तमानं सतिष्ठन्ते अरहन्नादीनां परिजना अश्रुपूर्णदृष्टिभिस्तान पश्यन्तोमुहूर्तमान निश्चला अभवन्नित्यर्थः । ततः 'समाणिएसु' समापितेषु मम्यक सपादितेपु पुष्परेलिकर्मसु पुष्पासतच भे) हे आर्य! हे तात ! हे भ्रातः । हे मामा! हे भागिनेय ! आपलोग इसे भगवान् विशाल समुद्र से पार२ सुरक्षित होते हुए चिरकाल तक जीवित रहें। आप सयका कल्याण हो। (पुणरवि लद्धटे, कय कज्जे, अणहसमग्गे नियग घर हव्वमागए पासामो) हम लोग लाभ से-युक्त सम्पादित सकल कार्यों वाले विना किसी शारीरिक आदि यात्रा से रहित धन और परिवारो से परिपूर्ण हुए आप सब को घर पर शीघ्र आया हुआ देखें । (त्ति कट्टु) ऐसा कह कर वे वहा-(ताहिंसोमाहिं,निद्वाहि, दीहाहिं, सपिवासाहि, पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरीक्षमाणा मुहत्तमेत्त सचिहति) सौम्य स्निग्ध, दीर्घ, दर्शनेच्छावती और अश्रुपूर्ण दृष्टियों से उन्हें देखते हुए एक मुहर्त तक बैठे रहे । (तओ समाणिएसु पुष्फ बलकम्मेसु दिन्नेसु सरसरत्तचदणददर, पचगुलितलेसु, अणुक्खित्तास હતાત ! હે ભાઈ ! હે મામા ! હે ભાણેજ ! તમે બધા આ ભગવાન વિશાળ સમુદ્રવડે વાર વાર સુરક્ષિત થઈને ચિરકાળ સુધી જીવતા રહો तभार ४८या थाया " पुणरविलटे, कयकज्जे, अणहसमग्गे नियग धर हव्वमोगए पासामो" ममे या तभने सामान्यत थ्येना, ५ यान પાર પમાડનાર, કેઈ પણ જાતની શારીરિક મુશ્કેલી વગર એટલે કે સ્વસ્થ શરીરવાળા, ધન તેમજ પરિપૂર્ણ પરિવારથી યુક્ત થઈને ઘેર પાછા આવેલા नये “त्तिक?" माम हीन तो त्या । । ( ताहि सोमाहिं निद्धाहिं दीहाहि, सप्पिवासाहि पप्पुयाहिं, दिट्ठीहिं निरी पखमाणा मुहुत्तमेत्त सचिट्ठति)
* સૌમ્ય સ્નિગ્ધ, બહવખત સુધી દર્શનની ઈચ્છાવાળી અને આસુ ભીની દષ્ટિએથી તેમને જેતા એક મુહૂર્ત સુધી બેસી રહ્યા (तओ समाणिए सुपुप्फ बलिकम्मेसु दिनेस सरसरत्तचदणदद्दरपचयलि तलेस,
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
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दानादिकर्मसु तथा - सरसरक्तचन्दन दर्दर पञ्चाङ्गुलितलेषु सरसरक्तचन्दनस्य दर्द-रेण चपेटाऽऽकारेण पञ्चाङ्गुलितलेषु करतलाङ्कनेषु दत्तेषु परीधानीयेषु 'उत्तरीयेषु वस्त्रेषु च सरसरक्तचन्दनानुलिप्त करतलमुद्रणेषु कृतेपित्यर्थ' । अनूत्क्षिप्ते=अनुपवात् ऊर्ध्वक्षिप्ते धूपे गुग्गुलादि वृमे कृते सति, पूजितेषु = धूपादिना समानितेषु समुद्रवातेपु समुद्रसम्बन्धिपवनेषु, तथा ससारितेषु स्थानान्तरादानीय यथोचित स्थाने निवेशितेषु वलय नाहुषु दीर्घ काष्ठरूपेषु बाहुपु, तथा उच्छ्रितेषु उर्ध्वमुखम स्थापिते सितेषु शुक्षु ध्वजायेंपु पताकाग्रेषु तथा-पटुमवादितेषु पटुभिः पुरुपै: प्रवादितेषु यद्वा-पटु यथा भवति तथा मत्रादितेषु तूर्येषु वाद्येषु तथा जयिकेषु जयकार केषु सर्पशकुनेषु = वायसरुतादिषु तथा - गृहीतेषु = प्राप्तेषु राजवरशासनेषु = समुद्रयात्रार्थ चम्पानगरीभूपस्याऽऽज्ञापत्रेषु तथा महोत्कृष्टसिंहनाद
धूसि, इस समुद्दवाण्सु ससारियासु वलयवाहासु, उसिएस सिएसुझयग्गे, पडुप्पवाडएसु तूरेसु, जडएसु सव्वसउणेसु गरिएस रायवर सासणे ) इसके बाद पुप अक्षत दानादिक कर्म जब समाप्त हो चुका, परिधानीय वस्त्रो पर सरस रक्त चंदन के चपेटाकार से हाथे जय लगाये जा चुके, गुग्गुल आदि धूप अग्नि में डालकर जब उस का धूम किया जा चुका समुद्रीय हवाए जन धूपादि प्रदान द्वारा पूजित की जा चुकी दीर्घ काष्ट रूप वलय ( पतवार ) स्थानान्तर से लाकर जब यथोचित स्थान पर रखे जा चुके, शुभ्र ध्वजाओ के अग्रभाग जब उर्ध्वमुख कर अवस्थापित हो चुके, चतुर बजाने वालो के द्वारा जब अच्छी तरह बाजे बजाये जा चुके जय कारक वायसरुतादि रूप सर्व शकुन जब अच्छी तरह से हो चुके और समुद्र यात्रा करने का आदेश पत्र जन चपा नगरी के राजा का प्राप्त हो चुका तब (महया उकिमी अणुक्तिसि धूवसि पूइएस समुद्दवारसु ससारियासु वलयवाहासु उसिएस सिएस झग्गे पडवाइस तरेसु जइएमु मन्त्र सउणेसु गहिएस रायवरसासणेस ) ત્યાર માદ પુષ્પ અક્ષત દાન વગેરે ની વિવિષે પ્રીથઈ ગઈ, પિરધાનીય વસ્ત્રો ઉપર સરસ લાલ ચદનના થાપા લગાવી લીધા, ગૂગળ વગેરે પ અગ્નિમા નાખીને ધૂપ કરી લીધા, ધૂપ વગેરે અર્પીને સમુદ્રના પવનાની અર્ચનાનુ કામ પુરૂ થઇગયુ, ખીજા સ્થાનેથી દી કાષ્ઠરૂપ વાય એટલે કે સૂકાન વગેરે વહાણુ ઉપર યથાસ્થાને મુકાઇ ગયા, શુભધ્વજાઓના અગ્રભાગ જ્યારે ઉર્ધ્વમુખતા રૂપે અવસ્થાપિત થઇ ગયા, કુરાળ વાજા વાળાએ વડે સરસ વાજા એ વગાડવાનુ કામ પતિ ગયુ, જય પમાડનારા કાગડા વગેરે પક્ષી એના માગલિક શબ્દો એટલે કે સારા શુકન થઈ ગયા અને ચ પાનગરીના રાજા પાનેથી સમુદ્રયાત્રા કરવાને પવાના “ આદેશ પુત્ર ” તેઓની પાસે આવી ગયા ત્યારે
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থানায়কথায় जयरवेण उच्चस्तरयुक्त जय जय घनिता मसुभितमहाममुद्रवभूतामिव वायु मक्षोभननितमहासागरध्वनिव्यासामिव मेदिनी = पृषि प्रचुरनादवती कुर्वाणा एकदिशे एकस्या दिशि सयानानीका नाणिजका नाप नौकायान दुरूवाः आरोहति स्म ।
ततस्तदनन्तर 'पुम्समाणो' पुप्पमानर मागधो मगल पाठकः 'वकमु. दाहु' वास्यमुदाह-मगलाचनमुक्तवान् तदाह-हभी इत्यादि हे नौकायात्रिका 'सन्वेसिमनिभे' सर्वेपामपि युप्माकम् अर्थसिद्धयो भवतु, उपस्थितानि कल्या णानि भनन्तु तथा प्रतिहितानि सर्वपापानि भवन्तु-पर्वविघ्ना प्रतिहता विनष्टा भनन्वित्यर्थ । 'जुत्तो' युक्तः 'पूमो' पुष्प:=पुष्पाख्यो नक्षतविशेषः अनक लेन चन्द्रमसा युक्त इत्यर्थः । पुष्पनक्षा यात्राया प्रशस्तम् तथ चोक्तहणायजयरवेण पक्खुभित्तमहासमुद्दरवभूयपिव मेहणि करेमाणा) उत्कृष्ट सिंहनाद जैसी जय जय वनि से वायु के प्रक्षोभ से जनित महासागरकी ध्वनि से व्याप्त हुई की तरह मेदनी को करते हुए (सज्जु त्ता नावा चाणियगा एगदिसिं णाव दुरुढा) वे सायात्रिक पोत वणिक् नोव पर सवार हुए।
(तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाह) इतने में ही मगल पाठक-चारण-ने मगल ध्वनि की (हभो सव्वेसि भविभे अत्यसिद्धीओ उहि ताइ कल्लाणाइ, पडिया सव्व पावाइ, जुत्तो पूसो, विजओ मुहुत्तो अयदेसकालो) हे हे नौका यात्रिकों ! आप सरको अर्थ की सिद्धि हो, सब कल्याण आपके लिये सदा उपस्थित रहें, समस्त प्रकार के विन आपकी इस मागलिक यात्रा में नाश हो पुष्प नक्षत्र का अनुकूल चन्द्रमा के साथ योग रहा है यात्रा मे पुष्प नक्षत्र का योग प्रशस्त होता (महया उक्किासीहणायजयरवेण पक्खुभित्तमहासमुदरवभूय पिव मेइणि करेमाणा)
પવનથી–સુબ્ધ મહાસાગરના સર્વત્ર વ્યાપ્ત થયેલા વનની જેમ સિંહનાદ न्य य पनिथा पृथ्वीन शधि ४२ता (मुज्जुत्तानावा वाणियगा एगदिसिंणाव दुरूढा) ते समये भागलिग सेट है या२। म पनि यो
(हभो सब्वेसिमविभे अत्यसिद्धीओ उवहिताइ कल्लागाइ पडियाइ सधपावाइ, जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयदेसकालो)
હે પિતવણિકે ! તમને બધાને અર્થની સિદ્ધિ થાય તમને સદા કલ્યાણે પ્રાપ્ત થાઓ, મગળયાત્રાના તમારા બધા વિનાશ પામે અત્યારે ચન્દ્રની સાથે પુષ્યનક્ષત્રને અનુકૂળ રોગ થઈ રહ્યો છે ( યાત્રામાં પુષ્યનક્ષત્રને યોગ
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अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
अपि द्वादशमे चन्द्र पुष्यः सर्वार्थसाधनः ।। इति ।। विजयो मुहूर्तोऽभुना विद्यते, अय देशकाला समय प्रस्थाने शुभावह इत्युक्त-मागधेन । ततस्तदनन्तर 'पुस्समाणवेण' पुष्यमानवेन मागधेन 'इक्क' वाक्ये मागलिफरचने, 'उदाहिए' उदाहते उक्ते सति हृष्टतुष्टा अतिशयेन प्रमुदिता 'कुन्छिधारकन्नधार गम्भिन्न सजत्ताणावावाणियगा' कुक्षिधार कर्णधार गर्भज सयात्रा नौवाणिनका कुक्षिधारा नौकायाः पार्श्वतो नियोजिता सञ्चालकाः, कर्णधार नाविका प्रधानभूता नौगावाहकाः, गर्भजान्नौमध्ये स्थित्वा यथावसरकार्यफरिः, सयानाः सगताः समिलिताः सन्तो देशान्तरगामिन , नौ वाणिजका नौकया वाणिज्यकारिण भाण्डपतय. सर्वएते व्यापूत वन्त सस्त्र व्यापारे प्रवृत्ता सन्तः, ता नाव पूर्णो-सङ्गा विविधक्रयाणरजातः है-उक्तञ्च अपि डादशमे चन्द्रे पुष्यः सर्वार्थसाधन । इस समय विजय मुहर्त वर्त रहा है। प्रस्थान के लिये यह ममय शुभावह हैं । (तओ पुस्समाणवेण चक्के उदाहिए हट्ट तुट्टा कुच्छिधारकन्नधारगन्भिन्न सजात्ता जावा वाणियगा वावारिसु)इस तरह पुष्प मानव-चारण जब मगल ध्वनि कर चुका-तब हर्षित और सतुष्ट हुए कुक्षिधार-नौका के पार्श्व मे नियोजित किये गये सचालक जन, कर्णधार-खेवटियाजन, गर्भज-नौका के भीतर बैठ कर अवसरानुकूल कार्य का जन, और सायात्रिक जन-मिलकर परदेश जाने वाले पोतवणिक कि जिन का क्रयाणक नौका में मरा हुआ या-ये सब के सर अपने २ व्यापार-कार्य में प्रवृत्त हो गये (त नाव पुन्नुच्छग पुण्ण मुस्बिधणेहितो मुचति ) और उस नौका को कि जिस का मयभाग विविध ऋयाणकों से पूर्ण प्रशस्त जाय छ-४यु ५ छ- ' अपिद्वादशमे चन्द्रे पुष्य सर्वार्थ साधन ") અત્યારે વિજયના મુહૂર્તને સમય ચાલી રહ્યો છે પ્રસ્થાન માટે અત્યાર ને વખત શુભાવહ છે
(तओ पुस्समाण वेणवक्के उदाहिए हट्ठतुट्टा कुच्छिधारकन्नधार गम्भिज्ज सजात्ता णावावाणियगा वावारिसु)
આ રીતે જ્યારે પુષ્પમાનનો–ચરણને મ ગળ પાઠ થઈ ચૂકે ત્યારે હતિ તેમજ સ તુર્ણ થયેલા કુક્ષિધાર-નૌકાના પાર્વભાગમાં નિયુક્ત કરાયેલા સ ચાલ, કર્ણધા–નૌકાચલાવનારાઓ, ગર્ભજનીકાના અંદરના ભાગમાં બેસીને વસરાનુ કામ કરનારાઓ અને સાયાવિકજને વેપારીઓ-કે જેમની વસ્તુઓને નૌકામાં લાદેલી હતી, પિતપોતાના કામમાં વળગી ગયા (त नाव पुन्नुच्छग पुण्गमुहि वरणेहिं तो मुचति ) અને જેને વચ્ચેના ભાગમાં અનેક જાતની વેચાણની વસ્તુઓ ભરેલી
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माताधर्मकथा सभृतान्तराला, पूर्णमुखीं यधोचितसभृताग्रभागा न्यनेभ्यः तीरस्थशानदरज्जु बन्धनन्धिमुन्मुन्य मुश्चन्ति=रिसर्जयन्ति । मु०१९ ॥
मूलम्-तएणं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणवलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुबई गगासलिलतिक्खि सोयवेगेहिं सखुव्भमाणी२ उम्मीतरंगमालासहस्साइं समइ. च्छमाणी २ कइवएहि अहोरत्तेहि लवणसमुद अणेगाइ जोयण सयाइ ओगाढा, तएण तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजाताना वावाणियगाणं लवणसमुद्द अणेगाइ जोयणसयाई ओगाढाण समाणाण चहूइ उप्पाइयसयाइ पाउन्भूयाइ, त जहा-अकाले गजिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसबे, अभिक्खणं आगासे देवयाओ नञ्चति, एग च ण महं पिसायरूव पासति, तालजंधं दिवंगयाहि वाहाहि मसिमूसगमहिसकालग भरियमेहवन्न लंबोट्ठ निग्गयग्गदत निल्लालियजमलजुयलजीह आऊसिय वयणगडदेस चीणचिविटनासिय विगयभुग्गभुमय खज्जोयगदित्तचक्खुरागउत्तासणगं विसालवच्छ विसालकुच्छि पलवकुच्छि पहसियपयलियपयीडयगत पणच्चमाणं अप्फोडत अभिवयत अभिगज्जत बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयत नीलुप्पलगवलभरा हुआ था तथा अग्रभाग भी जिस का यथोचित अनेक प्रकार की सचालन सामग्री से व्याप्त हो रहा था तीर पर की कील मे बंधी हुई रस्सी के वधन को खोलकर छोड दिया। सूत्र" १९" ' હતી અને અગ્રભાગમાં યાચિત જાતજાતની સચાલન સામગ્રી ભરેલી હતી એવા વહાણને કિનારા ઉપર ના થાભલાનુ બ ધન ખોલીને મુક્ત કરવામાં नायु , " सूत्र "२०७॥
,
मायु
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अहराजचरिते तालपिशाचवर्णनम्
गुलिय अयसिकुसुमप्पगास खुरधार असिंगहाय अभिमुहमावयमाण पासंति | सू० २० ॥
---३३५
टीका- 'तएण सा ' इत्यादि - ततस्तदनन्तर खलु सा नो विमुक्तन्धना वन्धनरहिता पवनवलसमाहता = वायुवेगमेरिता 'उस्सियसिया' उच्छ्रितसितपटा नौकाया वायुसग्रहार्थं वृहद्वखमुच्छ्रित कृत्वा निवध्यते, उन्द्रितशुक्लपटेन सा नौः कीदृशीत्याह - ' विततपसा इव गरुडजुबई ' विततपक्षेत्र गरुडयुवतिः विततपक्षा=प्रमारितपक्षा गरुडभार्या गगने गच्छन्ती, यथा भवति तद्वदित्यर्थः, गङ्गासलिलतीक्ष्ण स्रोतो वेगैं गङ्गाजलस्य ये तीक्ष्णास्तीया स्रोतोवेगाः = माहवे
सभ्यन्ती र प्रेर्यमाणा २ समुद्र प्रतीति भावः, 'उम्मीतरङ्गमालासहस्साइ ' ऊर्मितरङ्गमालासहस्राणि ऊर्मयो महाकल्लोला बृहत्तरङ्गा, तरङ्गाः = ह्रस्वकल्लोलाः लघुतरङ्गास्तेपा माला आवलयः तासा सहस्राणि, समति क्रामन्ती २ समुत्तरन्ती २ कतिपयैर्बहुभिरहोरा दिवस रात्रिभिश्व लवणसमुद्र अनेकानि योजनशतानि
'तएण सा नावा' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तएण ) इसके बाद (विमुक्क घघणा) बन्धन से विमुक्त हुई (सा नावा) वह नौका (पवणबल समाया ) वायु के वेग से प्रेरित होकर ( गगासलिलतिक्ख सोयवेगेहिं सखुग्भमाणी २) गंगा जल के प्रवाह वेगों से पार २ इधर उधर क्षुभित होती हुई ( उस्सियसिया ) अपने ऊपर वायु स्याहार्थ घावे गये शुभ्रवस्त्र से ( वितत पक्खो - गरुड जुवईइव ) पाखों को पसार कर आकाश में उड़ती हुई गरु युवती के जैसी प्रतीत होने लगी । (उम्मीतरग मालासहस्ताइ समइच्छमाणी २ कइवएहिं अहारतेहि लवण समुद्द अणेगाइ जोयणसयाइ ओगाढा )
' तoर्ण सा नात्रा' त्याहि
टीडार्थ - (तरण) त्यार आहे (विमुक्कच घणा ) न धन भुक्त धयेलु (सा नवा । ते वायु (पवणवलस माझ्या ) धवनना आधातोथी प्रेरित थाने (गंगा सलिलतिक्स सोय वेगेहिं स खुन्भमाणी ) ગગાના તી-પ્રવાહથી ક્ષુભિત થતું ( उस्सियसिया ) पवन लगाने वडाचुने गतिभणे सेवा पोताना सढथी “ वितत पक्सा गरडजुबई इन " पाणी प्रसारेसी भने अाशमा उती ગરુડ યુવતીની જેમ લાગતુ હતુ
२छ
(उम्मीतरग माला सहस्ताइ समच्छमाणी २ कएहिं जोर लग सम्मुद्द अणेगाइ जोयणसयाट् ओगाढा )
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माताधर्मकथा 'भोगाढा ' अगाहिता तीर्णा । ततस्तदनन्तर पल तेपाम् अरहनाप्रमुग्वाणां सयात्रा नीवाणिजमाना लपणसमुद्र मनेकानि योजनशतानि अगाहितानां तीणांना सता बहूनि 'उप्पाइयसयाइ उत्पातशतानि प्रादुर्भूतानि । ता युत्पादक्षतानि वर्णयति--
त जहा' इत्यादि । तद् यया-माले गर्मितं वर्षाकाल-विना मेघचनिः, अफाले विद्युत् अझाले ‘यणियसदे' नितशन्द' मेघस्य गम्भीर बनिरभूत् तथा-अभीक्ष्ण-पुन पुनः फाशे देवता नृत्यन्ति तथा-एक च खलु महत् बाद पिशाचरूप पश्यन्ति अरहनाप्रमुखा संयात्रा नी पाणिजमा अकालमेघवनि पडे वेग के साथ उम्नियों-महालहरी के तरगो के-छोटी २ लहरों केमाला सहस्र को उल्लघन करती हुई वर नौका कितनेक दिनों के बाद लवण समुद्र में अनेक योजनों तक पहुँच गई। ( तगणं तेसिं अरहन्नग पामोखाणं सजत्तानावा वाणियगाण लपणसमुद्द अणेगाइ जोयण सयाइ ओगाढाणं समाणाण पट्टद उप्पाइसयाइ पाउन्भूयाइ ) इस के बाद उन सायात्रिक अरहन्नक प्रमुग्व नौका धणिकों को जब कि वे लवण समुद्र में अनेक सैकड़ों योजनों को पार कर चुके थे बहुत से सैकड़ो उपद्रव सामने आने लगे।
(त जहा ) जैसे- (अकाठेगज्जिए, अकाले विजुए, अकाले थणियसदे, अभिक्खण २ आगासे देवयाओ नच्चति, एग च ण मह पिसायरूव पासति ) वर्षा काल के विना हो उस समय मेघध्वनि होने
ખૂબજતી વેગે નાનામોટા સેકડો મજા ઓ ને વટાવીને કેટલાક દિવસો બાદ વહાણ લવણસમુદ્રમાં ઘણા પેજને દૂર સુધી પહોંચી ગયું
(तएण तेसिं अरहन्नगपामोक्खाण सजत्तानावा वाणियगाण लवणसमुद्द अणेगाइ जोयणसयाइ ओगाढाण समाण पहूइ उप्पाइयसयाइ पाउन्भूयाइ)
ત્યાર બાદ સાયાત્રિક અરહન્નક પ્રમુખ પટવણિકે લવણ સમુદ્રમાં જ્યારે સેકડો જ સુધી દૂર પહોચી ગયા ત્યારે સેકડો આફતે તેમની સામે
मteी ( त जहाँ) भ है __(अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसदे, अभिक्खण २ आगासे देवयाओ नच्चनि, एगच or मह पिसायरूव पासति)
વર્ષાકાળ હવા ન છતા મેઘ ગર્જનાઓ થવા માડી, વીજળીઓ જબૂ કવા લાગી અને મેઘને ગભિર કવનિ પણ થવા માડયે આકાશમાં વારંવાર દેવતાઓ નાચતા જોવામાં આવવા લાગ્યા.
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३३७ विद्युद्विद्योतन पुनः पुनर्देवनृत्यप्रदर्शनपूर्वकमेक बृहत् पिशाचरूप विलोकयन्ति । स्मेत्यर्थः । कथम्भूत तत् पिशाचरूपमित्याह- तालजय ' तालजय तालक्षवदीर्घे जघे यस्य तत्तथा, दिव गताभ्या गगनस्पर्शिम्या वाहुभ्या महादीर्घाभ्यां पाहुभ्या युक्तमित्यर्थः। मपीमशकमहिपकालक मपी-कज्जल मृपको महिपश्च प्रसिद्धः तद्वत् कालक कृष्णवर्ण यत्तत्तथा, भरियमेहबन्न ' भृतमेघवर्ण = जलपूर्णघनीभूतमेघवटावदतिश्याम, लम्बोप्ठ, निर्गतापदन्त निर्गतानि मुखाबहिर्भूतानि अग्राणि अग्रभागा येपा ते निर्गताग्रास्तथा भूतादन्ता यस्य तथोक्तस्त, 'निल्ला लियजमलजुयलजीह ' निर्लालितयमलयुगलजिहम् निर्लालित - मुखावहिष्कृत यमल=सम युगल द्वय जियो येन तत्तथा, 'आऊसियवयणगडदेस' प्रविष्टबदनलगी, बिजली चमक ने लगी, और मेघ की गभीर ध्वनि भी होने लगी। बार २ आकाश में देवता नाचते हुए दिखलाई पडने लगे।
तथा विशाल काय पिशाच का रूप भी दृष्टिगोचर होने लगा। (तालजघ दिध गयाहिं बाहाहिं मसिमसग महिसकालग) इस पिशाच की दोनों जघाएँ तालवृक्ष के समान दीर्घ थी। दोनों याहु मानो आका ा को छते थे। कज्जल, मूपक, और महिप के समान इस का वर्ण काला था । ( भरियमेवन्न, लबोंढ निग्गयग्गदत निल्ललिय जमलजुय लजीह, आऊसिय वयणगडदेस, चीण चिपिटनासिय विगय भुग्गभग्ग भुमय ) जल से भरी हुई घनी भूत मेघघटा की तरह इस का शरीर अत्यत कालाथा । ओष्ट बडे लवे थे। आगे के दाँत बाहर निकले हुए थे। इस की जिह्वा के दोनो अग्र भाग एक ही साथ मुख से बाहिर
તેમજ વિશાળ શરીરવાળા પિશાચનુરૂપ ૫, જેવામાં આવવા લાગ્યું (तालज घ दिव गयाहिं बाहाहि मासिमूसग महिकालग ) पिशायनी भने સાથળે તાલવૃક્ષની જેમ લાબી હતી અને હાથ જાણે આકાશને સ્પર્શતા હાય મેરા, ઉંદર અને પાડાના જે તેને ૨ગ કાળે હતો
(भरियमेहवन्न, ल्वोट निग्गयग्गदत निल्ललियजमलजुयलजीह, आऊ सियवयणगडदेस, चीणचिपिटनासिय विगयभुग्गभग्गभुभय)
પાણીથી ભરેલી સાન્દ્ર મેઘ ઘટાઓની જેમ તેનું શરીર ઘણુ કાળુ હતુ હઠ ઘણા લાંબા અને નીચે લબડતા હતા આગળના દાત બહાર નીકળી ગયેલા હતા તેની જીભના આગળના બંને ટેરવા એકી સાથે માથી બહાર નીકળી રહ્યા હતા તેના અને ગાલ મોમા બેસી ગયેલા હતા - शा० ४३
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माताधर्मकथा भोगाढा' अगाहिता वीर्णा । ततस्तदनन्तर ग्रल तेपाम् अरहनकप्रमुम्वाणां संयात्रा नीवाणिजकाना लपणसमुद्रमनेशनि योजनशतानि अगाहितानां तीर्णानां सता यहनि 'उप्पाइयसयाइ उत्पातशतानि प्रादुर्भूतानि । तायुत्पादशतानि वर्णयति--
'त जहा' इत्यादि । तद् यथा-माले गर्जितं काल-विना मेघवनिः, अकाले विद्युत् अकाले 'यणियसद्दे ' स्तनितशन्द' मेवस्य गम्भीर निरभूद तथा-अभीक्ष्ण=पुन पुनः आकागे देवता नृत्यन्ति तथा-एक च खलु महत् बृहद पिशाचरूप पश्यति अरहनकपमुखा' सयाना नौ वाणिजमाः अकालमेघध्वनि पडे वेग के साथ उम्नियों-मालहरों के तरगो के-छोटी २ लहरों केमाला सहस्र को उल्लघन करती हुई वर नौका कितनेक दिनों के बाद लवण समुद्र में अनेक योजनों तक पहुंच गई । (तपण तेसि अरहन्नग पामोक्खाणं सजत्तानावा वाणियगाण लवणसमुद्द अणेगाइ जोयण सयाइ ओगाढाणं समाणाण यहइ उपाइसयाइ पाउन्भूयाइ) इस के पाद उन सायात्रिक अरहन्नक प्रमुग्व नौका पणिकों को जब कि वे लवण समुद्र में अनेक सैकडों योजनो को पार कर चुके थे बहुत से सैकड़ो उपद्रव सामने आने लगे।
(त जहा ) जैसे- (अकाठेगज्जिए, अकाले विजुए, अकाले थणियसदे, अभिक्खण २ आगासे देवयाभो नच्चति, एग च ण मह पिसायरूव पासति) वर्षा काल के विना हो उस समय मेघध्वनि होने
ખૂબજતી વેગે નાનામોટા સેકડો મોજાઓ ને વટાવીને કેટલાક દિવસો બાદ વહાણ લવણસમુદ્રમાં ઘણું પેજને દૂર સુધી પહોંચી ગયું
(तएण तेसिं अरहन्नगपामोक्खाण समत्तानावा वाणियगाण लवणसमुद्द अणेगाइ जोयणसयाइ ओगाढाण समाण पहइ उप्पाइयसयाइ पाउन्भूयाइ)
ત્યાર બાદ સાયાત્રિક અરહક પ્રમુખ તિવણિકે લવણુ સમુદ્રમાં જ્યારે સે કડે જ સુધી દૂર પહોચી ગયા ત્યારે સે કો આતે તેમની સામે अभपात (त जहा) भ है।
(अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अफाले थणियसदे, अभिक्खण २ आगासे देवयाओ नच्चति, एगच ण मह पिसायरूव पासति)
વર્ષાકાળ હવા ન છતા મેઘ ગર્જનાઓ થવા માડી, વીજળીઓ જબૂ કવા લાગી અને મેઘને ગભિર ઇવનિ પણ થવા માડયે આકાશમાં વાર વાર દેવતાઓ નાચતા જોવામાં આવવા લાગ્યા
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ अङ्गगजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३३७ विद्युद्विद्योतन पुनः पुनर्देवनृत्यप्रदर्शनपूर्वक मेक बृहत् पिशाचरूप विलोकयन्ति । स्मेत्ययः । कथम्भूत तत् पिशाचरूपमित्याह- तालजघ' तालजय तालक्षवदीर्घ जङ्घे यस्य तत्तथा, दिव गताभ्या गगनस्पर्शिम्या वाहुभ्या महादीर्याभ्यां पाहुभ्या युक्तमित्यर्थः । मपीमशक्महिपालक मपी-कज्जल मृपको महिपश्च प्रसिद्धः तद्वत् कालक कृष्णवर्ण यत्तत्तथा, भरियमेहकन्न' भृतमेघवर्ण = जल्पूर्णघनीभूतमेघरटावदतिश्याम, ल्म्मोप्ठ, निर्गताग्रदन्त निर्गतानि मुखाद्वहितानि अग्राणि अग्रभागा येपा ते निर्गताग्रास्तथा भूतादन्ता यस्य तथोक्तस्त, 'निल्ला लियजमलजुयलजीह ' निर्लालितयमलयुगलजिहम् निलालित – मुखाद्वहिष्कृत यमल-सम युगल द्वय जियो न तत्तथा, 'आऊसियवयणगडदेस' प्रविष्टबदनलगी, बिजली चमक ने लगी, और मेघ की गभीर ध्वनि भी होने लगी। चार २ आकाश में देवता नाचते हुए दिखलाई पड़ने लगे।
तथा विशाल काय पिशाच का रूप भी दृष्टिगोचर होने लगा। (तालजघ दिव गयाहिं बाहाहिं मसिमसग महिसकालग) इस पिशाच की दोनों जघाएँ तालवृक्ष के समान दीर्घ थी। दोनों बोहु मानो आका श को छूते थे। कज्जल, मूपक, और महिप के समान इस का वर्ण काला था । ( मरियमेवन्न, लट्ठ निग्गयग्गदत निल्ललिय जमलजुय लजीह, आऊसिय वयणगडदेस, चीण चिपिटनासिय विगर भुग्ग भग्ग भुमय ) जल से भरी हुई घनी भूत मेघघटा की तरह इस को शरीर अत्यत काला था । ओष्ट बडे लवे थे। आगे के दॉत बाहर निकले हए थे । इस की जिह्वा के दोनो अग्र भाग एक ही साथ मुख से बाहिर
તેમજ વિશાળ શરીરવાળા પિશાચનુરૂપ પણ લેવામાં આવવા લાગ્યું (तालजघ दिव गयाहिं बाहाहि मासिमूसग महिनालग ) तपिशायनी ने સાથળ તાલવૃલની જેમ લાબી હતી અને હાથ જાણે આકાશને સ્પર્શતા હાય મેગ, ઉંદર અને પાડાના જે તેને રગ કાળે હતે
(भरियमेहवन, ल्वोट्ट निग्गयग्गदत निल्ललियजमलजुयलजीह, आऊ सियवयणगडदेस, चीणचिपिटनासिय विगयभुग्गभग्गभुभय)
પાણીથી ભરેલી સાન્દ્ર મેઘ ઘટાઓની જેમ તેનું શરીર ઘણુ કાળુ હતુ હઠ ઘણું લાબા અને નીચે લબડતા હતા આગળના દાત બહાર નીકળી ગયેલા હતા તેની જીભના આગળના અને ટેરવા એકી સાથે મેથી બહાર નીકળી રહ્યા હતા તેના બંને ગાલ મેમા બેસી ગયેલા હતા
शा० ४३
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हाताधर्मवणागण्डदेश भविष्टौ वदने गष्टदेशी कपोलमागौं यस्य तत्तया, 'चीणचिपिटनासिर्य' चीनचिपिटनासिक, चीना-स्था चिपिटा च नासिका यम्य तत्तया, 'विगय भुग्गभग्गभुमय ' विकृतभुग्नमग्नध्रुवम् विकृते सविकारे भुग्ने भन्ने अतीपत्रके भुवौ यस्य तद तथा, खजोयगदिशचपरसुराग' सघोतकदीप्तचक्षुराग, खद्योतक वदीप्यारागो लोचनरत न यस्य तत्तया, उत्तासणग' त्रासनक भयानक विशा लवक्षस्क-विस्तीरः स्थल, विशालकुक्षि-विस्तीर्णोदरम् , प्ररम्पकुति-दीर्घोदरम् , ' पहसियपयलिय पयडियगत 'प्रहसितप्रचरितमपतितगात्रम् । प्रहसितानि पविकासितानि प्रचलितानि-प्रकम्पितानि मपतितानि मर्पण थीभूतानि गा त्राणि यस्य तत्तथा, पणचमाण ' प्रनृत्यत् 'अफोडत' आस्फोटयत्, अभिवयत' अभिवजत् , ' अभिगज्जत ' अभिगर्जत् , बहुसो ' अट्टहासे विणिम्मुयत ' बहु निकल रहे थे । दोनों कपोल इसके मुख के भीतर घुसे हुए थे-अर्थात् दोनो गाल इस के पिच के हुए थे।
नाक इस की छोटी और चपटी थी । इस की दोनों भौहें विकृत भुग्न और भग्न थी। अथवा भुग्न भग्न थी अत्यन्त चक्र थी-(खज्जोयगदित्तचक्खुराग, उत्तासणग विसालवच्छ, विसालकुच्छि पलबकुच्छि पहसियपयालिय, पयडियगत्त) इस की ऑखों की ललाई खद्योत (आग्या ) के समान दीप्त थी, उरस्थल (छाती ) इस का भयोत्पादक था, पेट विस्तीर्ण और लया था। शरीर इस का प्रहसित प्रचलित एव श्लथी भूत ढीला था । यह उस समय, (पणच्चमाण अप्फोडत, अभि वयत अभिगज्जत, बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयत) नृत्य कर रहा था।
अपनी दोनो भुजाओं का आस्फालन (बजाता) कर रहा था। ऐसा ज्ञात होता था कि मानों गर्जना करता हुआ समक्ष (सामने) ही
તેનું નાક નાનુ અને ચપટું હતું તેની ખને ભમ્મરો વિકૃત ખડબચડી અને ભગ્ન હતી અથવા ભુનભગ્ન અને વકે–ત્રાસી–હતી
(खज्जोयगदित्तचक्खुराग उत्तासणग विसालवच्छ, विसालकुन्छि पलब कुच्छि, पहसिय पयालिय, पयडियगत्त)
તેની આખોની રતાશ આગિયા જેવી ચમકતી હતી તેનું વક્ષસ્થળ ભયકર હતુ પેટ વિશાળ અને લાબું હતું તેનું શરીર પ્રહસિત, પ્રચલિત અને શલથી ભૂત એટલે કે લબડી ગયેલું હતું ત્યારે (पणचमाण अप्फोडत अभिवयत, अभिगज्जत, बहसो २ अट्टहासे त्रिणिम्मुयत)
તે નાચી રહ્યો હતોપિતાના બને ભુજાઓનું તે આસ્ફાલન (અફળાવવું)
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम्
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=
शोऽहट्टहास विनिर्मुञ्चत्, 'नीलुप्पलग लगुलिय अयसिकुसुमप्पगास ' नीलोत्पल गुलिकातसी कुसुम प्रकाश नीलोत्पल नीलकमल, गवल = महिशशृङ्ग, गुलिका = कृष्णवर्णवस्तुविशेषः प्रसिद्धः, अतसीकुसुमम्, अतसी = अल्सीनाम्नामसिद्धो धान्यविशेषस्तस्य कुसुम = पुष्प, तद्वत् प्रकाशो वर्णो यस्य स तथा तम्, नीलकमलादिसदृशवर्णमित्यर्थः, खुरधार क्षुरवार क्षुरस्येव धारा यस्य स तत्तथा तम् अतितीक्ष्ण धारमित्यर्थः, अर्सि = कृपाण, गृहीत्वा अभिमुहमावयमाण' अभिमुखमापतत् पश्यन्ति सर्वेऽपि सायात्रिकाः अरहनक्प्रमुखा अवलोकन्ते स्म ॥ मु० १९ ॥
मूलम् - तएण ते अरहण्णगवजा सजत्ताणावावाणियगा एगं च णं मह तालपिसाय पासति तालजंघं दिवं गायाह वाहाहिं फुट्टसिर भमरणिगरवरमासरासिम हिसकालगं भरियमेहवन्न सुप्पणह फालसरिसजीहं लवोट्ट धवलवहअसिलिट्ट तिक्खथिरपीण कुडिलदाढोवगूढवयणं विकोसियधारासिजुयलसमस
आ रहा है। बार बार तो यह अट्टहास करता था । ( नीलुप्पलगवल गुलिय अयसि कुसुमप्पगास खुरधार असि महाय अभिमुह मावय माण पासति ) नीलकमल, गवल - महिप शृग, गुलिका-कृष्ण वर्णक विशेष, अलसी पुष्प, के समान इसका सारा शरीर अत्यत काला था । यह एक तलवार लिये हुए था, जिस की धारा क्षुरा की धारा के समान तीक्ष्ण थी । उन अरहानक प्रमुख सायात्रिको ने उसे इस तरह से देखा कि वह उस तलवार को लेकर हम लोगों की ओर आरहा है। सूत्र २०
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કરી રહ્યો હતા તેને જોઈને એમજ લાગતુ હતુ કે તે જાણે ગના કરતા સામે આવી રહ્યો હાય તે વાર વાર અટ્ટહાસ ખડખડાટ કરીને હસવુ” કરતા હતા (नीलुप्पलगवलगुलिय अयसिकुसुमप्यगास सुरधार असि गहाय अभिमुह भावयमाण पासति )
नीसम्भण, गवस, ज्यडाना शुसिभ - पृष्युवधु' विशेष, अजभीना पुष्पनी જેમ તેનુ શરીર ઘણું કાળુ હતુ
તેના હાથમા રાનીધાર જેવી તીક્ષ્ણ ધારવાળી તલવાર હતી અરડુન્નક પ્રમુખ સાયાત્રિકાને એમ થયુ કે તે પિશાચ હાથમા તલવાર લઈને તેમની તરફ જ ધસી આવી રહ્યો છે. સૂત્ર
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हाताधर्मयात्रा गण्डदेश भविष्टौ चदने गरदेशी कपोलमागी यस्य तत्तया, 'चीणचिपिटनासिय' चीनचिपिटनासिक, चीना-स्रा चिपिटा च नासिका यम्य तत्तया, 'विगय भुग्गभग्गभुमय ' विकृतभुग्नमग्नश्रुवम् विकृते सविकारे भुग्ने भग्ने अतीवचक्रे भुवो यस्य तत् तथा, खज्जोयगदिशचतुराग' खद्योतस्दीप्तचक्षुराग, खद्योतकयदीप्यारागो लोचनरस्ताव यस्य तत्तया, उत्तासणग' नामक भयानक विशालवक्षस्क-विस्तीरः स्थल, विशालकुक्षि-विस्तीदरम् , प्रलम्पक्षि-दीर्घोदरम् , 'पहसियपयलिय पयडियगत 'महसितप्रचरितमपतितगात्रम् । प्रहसितानि प्रविकासितानि प्रचलितानि-प्रकम्पितानि मपतितानि प्रर्पण शथीभूतानि गा प्राणि यस्य तत्तया, पणचमाण ' प्रनृत्यत् 'अफोडत' आस्फोटयत् , अभिवयत' अभिवजत् , ' अभिगज्जत ' अभिगर्जन , बहुसो ' अट्टहासे विणिग्मुयत ' बहु निकल रहे थे । दोनों कपोल इसके मुख के भीतर घुसे हुए थे-अर्थात् दोनों गाल इस के पिच के हुए थे।
नाक इस की छोटी और चपटी थी । इस की दोनों भौहें विकृत भुग्न और भग्न थी। अथवा भुग्न भग्न थी अत्यन्त वक्र थी-(खज्जोय गदित्तचक्खुराग, उत्तासणग चिसालवच्छ, विसालकुच्छि पलबकुच्छि पहसियपयालिय, पयडियगत्त) इस की ऑखों की ललाई ग्वद्योत (आग्या ) के समान दीप्त थी, उरस्थल (छाती) इस का भयोत्पादक था, पेट विस्तीर्ण और लया था । शरीर इस का प्रहसित प्रचलित एव श्लथी भूत ढीला था । यह उस समय, (पणच्चमाण अप्फोडत, अभि वयत अभिगज्जत, बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयत) नृत्य कर रहा था।
अपनी दोनो भुजाओं का आस्फालन (बजाता) कर रहा था। ऐसा ज्ञात होता था कि मानो गर्जना करता हुआ समक्ष ( सामने ) ही
તેનું નાક નાનું અને ચપટુ હતુ તેની બને ભમ્મરે વિકૃત ખડબચડી અને ભગ્ન હતી અથવા ભગ્નભગ્ન અને વક–ત્રાસી–હતી
(खज्जोयगदित्तचक्खुराग उत्तासणग विसालवच्छ, विसालकुच्छि पलब कुच्छि, पहसिय पयालिय, पयडियगत्त)
તેની આખોની રતાશ આગિયા જેવી ચમકતી હતી તેનું વક્ષસ્થળ ભયકર હતુ પિટ વિશાળ અને લાબું હતું તેનું શરીર પ્રહસિત, પ્રચલિત અને શલથી ભૂત એટલે કે લબડી ગયેલુ હતુ ત્યારે (पणचमाण अप्फोडत अभिवयत, अभिगज्जत, बहुसो २ अष्टहासे विणिम्मुयत)
તે નાચી રહ્યો હતે પિતાના અને ભુજનું તે આસ્ફાલન (અફળાવવું)
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अनगारधर्मामृतपणी टीका अ० ८ अरामचरित तालपिशाचवर्णनम् ३४१
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टीका - सर्वैः नौकास्थैः सायात्रिकैः पिशाचरूप दृष्ट, तत्रारकथा कवज्यै स्कृत तद् दर्शयितुमुक्तमेव पिशाचस्वरूप सविशेष वर्णयन्नाह - 'तएण ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु तेऽरहन्नकवर्ज्या सयात्रानौणिजकाः वक्ष्यमाणविशे पणs पिशाचस्वरूप पश्यति दृष्ट्वा च भीतास्त्रस्ता बहूनामिन्द्रादीना बहनि मान्यता शतानि कुर्वन्तस्तिष्ठन्तीति वाक्यार्थः । कीदृश पिशाचस्वरूप पश्यन्ती त्याह- 'एग च ण मह ' इत्यादि । एक च खलु महान्त तालपिशाचम् = अतिदीत्वेन तालवृक्षकारः पिशाचस्तालपिशाचस्तम् पश्यन्ति, स्थम्भूत तालपिशाच मित्याह-' तालजघ ' इति वालभवदीर्घे जङ्घे यस्य स तानजस्तम्, दिव गताभ्या = गगनस्पर्शिभ्या वाहुभ्या युक्त, स्फुट शिरस - स्फुट स्फुटित बन्धनरहितत्वाद् विकीर्ण शिर शिरोजातस्याद् केशजाल यस्य स तथा त, 'भमरणिगरवरमातएण ते अरणगवन ' इत्यादि ।
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अब सूत्रकार इसी पिशाच के स्वरूप का पुन: विशेष वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जितने भी उस नौका मे सायात्रिक थे उन सबने एक अरत्नक श्रावक के विना उस विकराल पिशाच को देखकर क्या २ किया उनकी कैसी स्थिति हुई इस बात को कहने के लिये पहिले वे उक्त पिशाच के स्वरूप को विशेष रूप से पुनः कहते है
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद ( अरहन्नगबज्जा) एक अरहन्नक श्रावक के सिवाय ( सत्ताणावा वाणियगा ) उन समस्त सांयात्रिक पोत वणिक् जनो ने (एग च ण मह तालपिसाय पासति ) एक बडा ताल वृक्ष के जैसा पिशाच ताल वृक्ष के समान लबी २ जघाओं वाला था । इस के दोनों ना मानो आकाश को स्पर्श कर रहे थे । इस के तएण ते अरहण्णगवज्जा ' इत्यादि
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ટીકા—સૂત્રકાર અહી ફ્રી પિશાચનુ સવિશેષવર્ણન કરવાની ઈચ્છાથી કહે છે કે પિશાચને જોઈને અરહનક શ્રાવક સિવાયના બાકીના ખીન્ત બધા સાત્રિકેની સ્થિતિ થઇ અને તે વિકરાળ પિશાચનુ રૌદ્ર સ્વરૂપ જોઇને તેઓએ શુ શુ કર્યું એનુ વર્ગુન કરતા પહેલા તે પિરાાચના સ્વરૂપનુ વિશેષ રૂપથી વર્ણન હુ અઅહીં કરૂ છુ
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तएण ત્યાર બાદ अरन्नगवरज्जा" भर न श्रावना सिवाय सजताणावा वाणियगा " मधा सायात्रिः चतवथिनो से " एगच मह तालपि साय पासति " મેાટા તાલવૃક્ષ જેવા અને તાલ વ્રુક્ષ જેવી માટી સાથળે વાળે પિશાચ જોચે
તેના ખને હાથ આકાશને સ્પર્શતા હતા છૂટા પડેલા તેના માથાના વાળ
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'भ्राताधर्मकथासूत्रे
रिसतणुयचंचलगलंतर सलोलचवलफुरुफुरंत निद्या लियग्गजीहं अवयच्छिय महल्लविगययोभच्छलालपगलंत रत्ततालय हिंगुलुयसगव्भकदरविलंवअंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतत्रयणं आऊसियअक्खचम्म उइट्टगंडदेस चोण चिपिडर्वक भग्गणासं रोसागयधमधर्मेतमारुतनिरखर फरुससिर ओभुग्गणासियपुड घाडुचभडरइयभीसणमुह उद्धमुहकन्नसक्कुलिय महंत विगयलोमसखालगलवत चलियकन्न पिंगलदिप्पतलोयणं भिउडितडियनिडाल नरसिरमालपरिणद्धचिंधं विचित्तगोणससुवद्धपरिकर अवहोलत पुप्फुयायत सप्पविच्छ्रेय गोधदरनउलसरडविरइयबिचित्तत्रेयच्छमालियागं भोगकूरकण्हसप्पधमधमेंतलबतकन्नपूर मज्जारसियाललइयखध दित्तघुघुयंत चूयकय कुंमलसिरं घटावेण भीम भयकरं कायरजणहियय फोडणं दत्तमहासं विणिभ्यंत वसारुहिरपूयमसमलमलिणपोच्चडतणुं उत्तासणय विसालवच्छ पेच्छता भिन्नणहरोममुहनयण कन्नवरवग्धचित्तकत्तीणिवसणं सरसरुहिरगयचम्मविततऊस विवाहुजुयल ताहि य खरफरुसअसिद्धि अणिट्ठ दित्त असुभ अप्पिय अमणुन्न अक्कतवग्गुहि य तज्जयत पासति, त तालपिसायरूव एजमाणं पासति, पासित्ता भीया० संजायभय अन्नमन्नस्ल कार्य समतुरगेमाणा२ बहूणं इढाण य खदाण
रुदसिव वेसणणागाणं भृयाण य जक्खाण य अज्जको किरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा२ चिह्नति ॥ १ ॥
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अनगारधर्मामृतर्वापणी टीका अ० ८ अहरामचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४१ ___टीका-सर्वैः नौकास्थैः सायात्रिकैः पिगाचरूप दृष्ट, तत्रारहन्नकश्रावकवज्यै यत्कृत तद् दर्शयितुमुक्तमेव पिशाचस्वरूप सविशेष वर्णयन्नाह-'तएण' इत्यादि।
ततस्तदन तर खलु तेरहन्नकवा सयात्रानौर्वाणिजकाः वक्ष्यमाणविशे पणक पिशाचस्वरूप पश्यति, दृष्ट्वा च भीतास्त्रस्ता बहनामिन्द्रादीना बहूनि मान्यता शतानि कुर्वन्तस्तिष्ठन्तीति वाक्यार्थः । कीदृश पिशाचस्वरूप पश्यन्ती त्याह-'एग च ण मह ' इत्यादि । एक च खलु महान्त तालपिशाचम् अतिदी. धत्वेन तालवृक्षकारः पिशाचस्तालपिशाचस्तम् पश्यन्ति, कथम्भूत तालपिशाच मित्याह-'तालजय ' इति ताललवदीचे जड्धे यस्य स तारजवस्तम् , दिव गताभ्या-गगनस्पर्शिभ्या बाहुभ्या युक्त, स्फुट शिरस-स्फुट स्फुटित वन्धनरहितत्वाद् विकीर्ण शिरः शिरोजातलाद् केशजाल यस्य स तथा त, 'भमरणिगरवरमा
'तएण ते अरहण्णगवज ' इत्यादि । अय सूत्रकार इसी पिशाच के स्वरूप का पुनः विशेष वर्णन करते हुए कह रहे है कि जितने भी उस नौका में सांयात्रिक थे उन सपने एक अरहनक श्रीवक के विना उस विकराल पिशा च को देखकर क्या २ किया उनकी कैसी स्थिति हुई इस बात को कहने के लिये पहिले वे उक्त पिशाच के स्वरूप को विशेष रूप से पुनः कहते है
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (अरहन्नगवज्जा) एक अरहन्नक श्रावक के सिवाय ( स जत्ताणावा वाणियगा ) उन समस्त सांयात्रिक पोत घणिक जनों ने ( एग च ण मह तालपिसाय पासति ) एक बडा ताल वृक्ष के जैसा पिशाच ताल वृक्ष के समान लबी २ जघाओं वाला था।
इस के दोनों वाहु मानो आकाश को स्पर्श कर रहे थे। इस के 'तएण ते अरहण्णगना 'त्याह
ટીકાર્થ–સૂત્રકાર અહી ફરો પિરાચિનુ સવિશેષવર્ણન કરવાની ઈચ્છાથી કહે છે કે પિશાચને જોઈને અરહનશ્રાવક સિવાયના બાકીના બીજા બધા સાયત્રિકોની શું સ્થિતિ થઈ અને તે વિકરાળ પિશાચનું રૌદ્ર સ્વરૂપ જોઈને તેઓએ શુ શુ કર્યું એનું વર્ણન કરતા પહેલા તે પિશાચના સ્વરૂપનું વિશેષ રૂપથી વર્ણન હું અહી જ છુ
तएण" त्या२ मा “ अरहन्नगवरज्जा" १२ नई श्रापना भिवाय "स जत्ताणावा वाणियगा" या सायात्रिपातgs रानी मे " एगच मह तालपि साय पासति" भोट तासवृक्ष २३॥ मने तास वृक्ष की भारी સાથળે વળે પિશાચ જોયો
તેના અને હાથ આકાશને સ્પર્શતા હતા છૂટા પડેલા તેના માથાના વાળ
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___ाताधर्मकथाहले रिसतणुयचंचलगलतरसलोलचवलफुरुफुरतनिल्हालियग्गजीहं अवयच्छियमहल्लविगयवीभच्छलालपगलंतरत्ततालयं हिंगुलुयसगम्भकंदरविलवअंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतवयणं आऊसियअक्खचम्मउइट्टगंडदेस चोणचिपिडवंकभग्गणासं रोसागयधमधमेतमारुतनिटुरखरफरुसझुसिर ओभुग्गणासिय. पुड घाडुन्भडरइयभीसणमुह उद्धमुहकन्नसक्कुलिय महत विगयलोमसखालगलवतचलियकन्न पिंगलदिप्पतलोयणं भिउडितडियनिडाल नरसिरमालपरिणद्धचिंध विचित्तगोणससुवद्धपरिकर अवहोलत पुप्फुयायतसप्पविच्छय गोधदरनउलसरडविरइयविचित्तवेयच्छमालियाग भोगकूरकण्हसप्पधमधमेंतलवतकन्नपूर मज्जारसियाललइयखंध दित्तधुयत घूयकय. कुंमलसिरं घंटारवेण भीम भयंकर कायरजणहिययफोडणं दित्तमट्टहास विणिम्मुयंत वसारुहिरपूयमसमलमलिणपोच्चडतणुं उत्तासणय विसालवच्छ पेच्छता भिन्नणहरोममुहनयण कन्नवरवग्यचित्तकत्तीणिवसणं सरसरुहिरगयचम्मविततऊस वियवाहुजुयलं ताहि य खरफरुसअसिणिद्ध अणि? दित्त असुभ अप्पिय अमणुन्न अक्कंतवग्गुहि य तज्जयत पासति, त तालपिसायरूव एजमाणं पासति, पासित्ता भीया० सजायभय अन्नमन्नस्स काय समतुरगेमाणा२ वहूणं इदाण य खदाण य रुद्दसिववेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अज्जकोदृकिरियाण य वहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणार चिट्ठति ॥१॥
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४३ धारौ तयोरस्योः खडूगयोयुगल-द्वय तेन समसदृश्यौ-अतितुल्ये नुके-प्रतले, चश्चल यथाभवति, यथाऽविश्रान्त गलन्त्यौ-रसातिलालसत्वात् लालाविन्दुनधः पातयन्त्यौ, अतएव रसलोले-रसास्वादानुरक्ते, चपले चञ्चले, अतएव फुरफुरायमाणे-प्रझम्पमाने, निर्लालिते मुखावहिष्कृते, अग्रजिहे-अग्रभूतजिहे जिह्वाग्रे येन स तथा तम् अतिदीर्घजिह्वमित्यर्थः तथा-' अवयच्छियमहल्लविगयवीभच्छ लालपगलतरत्ततालुय ' प्रसारितमहाविकृतवीभत्सलालाप्रगलद्रक्ततालुकम् , प्रसा. रित मुखप्रसारणेन दृश्यमान महाविकृत वीभत्स लालाभिः प्रगलद्रक्त च तालु यस्य स तथा त मुखप्रसारणप्रकटोभूतमहाविकृतलालापूर्णरक्ततालुवन्तमित्यर्थः तथा-' हिंगुलयसगम्भकदरपिलवअनणगिरिस्स ' हिड्गुलुकसगर्भक्न्दरविला. मिवाञ्जनगिरेः-हिड्लकन रक्तवर्णकद्रव्यविशेषेण सगर्भ-सान्तराल कन्दररूप वि. लमिव अजनगिरेः कन्जलपर्वतस्य मुखप्रसारण रक्तातिदीर्घ जिहा तालु युक्तमुख विवरस्य हिड्गुलक पुञ्जसम्भृतकन्दरसादृश्यादति कृष्णवर्णमहाविशालशरीरस्याञ्जभाग म्यान से निकाली हुई तलवार के समान तीक्ष्ण थी। पतलि थी। चचल थी। रस में अतिलालसाचाले होने के कारण उन से निरन्तर लार बह रही थी। रस के आस्वादन मे वे अनुरक्त थे। च चल होने के कारण वे कप रहे थे। और मुख से बाहिर निकले हुए थे। तात्पर्यइस की जीभ बहुत ल बी थी।
(अवयच्छियमल्लविगयीभच्छलालपगल तरत्तलालूय, हिंगुलय सगम्भकदरविलबअजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलतवयण) तालु इस का मुख के फाडते समय दिखलाई पडता था। महा विकराल था। बीभत्स था । लार से गीला हो रहा था और लाल था। इसका मुख अजनगिरि (काला पर्वत ) के हिंगुलक से भरे हुए कदरा रूप दिल के
તેની જીભના અને આગળના ટેરવા મ્યાનમાથી બહાર કાઢલી તલવારની જેમ તીક્ષણ હતા, પાતળા હતા ચ ચળ હતા અને વિષયના રસને ગ્રહણ કરવા માટે અત્યત લેલુ૫ તેમજ આતુર હવા બદલ તેમાથી સતત લાળ ટપકયા જ કરતી હતી તેઓ રસાસ્વાદમાં અનુરકત હતા ચ ચળ હોવાને લીધે તેઓ ધ્રુજી રહ્યા હતા, અને મેથી બહાર નીકળી રહ્યા હતા મતલબ એ છે કે તેની જીભ ખૂબ લાબી હતી
(अवयच्छियमहल्लविगयवीभन्छलालपगलतरत्तताल्य, हिंगुलुयसगम्भ कदरविलवअजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिल्तवयण)
મે પહેલ્થ કરતી વખતે તેનું તાળવું દેખાતું હતું તે બીભત્સ હત લાળથીભીનુ થઈ કહ્યુ હતુ અને લાલચોળ હતું તેનું મે આ જનગિરિ ( કાળા પર્વત) ના હિગળેથી ભરેલી કદરાના દર જેવું હતું તે બહુ વિશાળ અને
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माताधर्मस्थाले सरासिमहिसकालगं' भ्रमरनिफरसरमापराशिमहिपकारक-तत्र भ्रमरनिकर एकभ्रमरसमूह इस परमापरापिरिच, महिप इस च यः कालका-कृष्णवर्णकस्त, 'भरि यमेहान्न' भृतमेघवर्ण-जलपर्णमेघघटादतिनीलम् , 'मुप्पणह नम्व शूर्पवत् नखा यस्य स सूर्पनखस्त, फालमहानिहाय, फालमिदाग्नी मतापित बोयम् , तत्सादृश्य च वर्णदेयदीप्स्यादिभिरिति, रम्बोष्ठ-दीघौंठ, 'घालपट्ट अमिलिट तिखथिरपीणकुडिलदाढोरगृढययण ' धवलत्तालिटतीक्ष्णस्थिरपीनकुटिलद प्ट्रोपगृहबदन' धालाभिः श्वेताभिः, वृत्ताभितलामिरशियाभिविरलाभिः ती क्ष्णाभिः स्थिराभिद्रढाभिः उपचितत्वेन पीनागिस्लामिः उत्तया कुटिलाभिश्च दष्याभिरूपगूढ व्याप्त वदन यस्य स तथा तम् अविविशालदष्ट्रमित्यर्थः, 'विको सियधारासिजुयलसमसरिसतणुय चचलगलतरसलीलचनपुरुफुरतनिल्लालियग्गजीह' विकोशितधारासियुगल समसदृशतनु कचश्चलगलद्रसलोलचालफुरफुरायमाण निर्लालिताग्रजिहम् , तर रिकोशिता अपनीतावरणा धारा ययोस्तौ विकोशित शिर के बाल वधन रहित होने से इधर उधर विग्वरे हुए थे ! इस का वर्णभ्रमर समूह उडद की राशि और महिप के शृग जैसा काला था। (भरिय मेहवन्न ) जल से भरी हुई मेघ घटा के समान अत्यन्त श्याम था।
(सुप्पणह, फाल सरिस जीह लयोह, धवलवट्ट आसिलिट्ट तिक्ख थिर पीणकुडिलदाढोवगूढवयण) नख इस के सूप (सूपड़ा) जैसे थे। जिह्वा इस की अग्नि में लाल किये गये फाल के समान थी। ओष्ठ लवे २ थे । इसका मुख श्वेत, गोल, २ विरली, नुकीली, स्थिर-दृढ-स्थूल और कुटिल टेढी २ दाडों से युक्त था ।
(विकोसिय धारासिजुयल समसरिमतणुय चचल गलत रस लोल चवलफुरुफुरेंत निल्लालियग्गजीह ) इस की जिह्वा दोनों अग्र આમતેમ વિખેરાઈ ગયા હતા તેને રગ ભમરાઓના ટેળા, અડદને ઢગલે अने पाना शिंगा वो आज तो " भरिय मेइवन्न " पाया मरेती મેઘની ઘટાઓની જેમ ખૂબજ કાળે હિતે
(मुप्पणह, फालसरिमजीह लगोढ, धवलबह, आसिलिट्ट, तिक्खथिरपीण कुडिलदाढोनगूढपयर्ण)
તેના ને સૂપડા જેવા હતા તેની જીભ અગ્નિમા લાલચેળ થઈ ગયેલી હળની કસ જેવી હતી તેના હોઠ લાવ્યા હતા તેનું મો સફેદ ગળ મટેળ અણિયાળી, મજબુત મોટી તેમજ કુટિલ ત્રાસી દાઢે વાળુ હતુ ___ ( विकोसिय धारासियजुयलसमसरिसतणुय चचलगलतरसलोलचवलपुर फुरेंत निल्लालियग्गजीह)
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम्
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धारौ तयोरस्योः खड्गयोर्युगल-द्वय तेन समसदृइयौ - अतितुल्ये तनुके - प्रतले, चञ्चल यथाभवति, यथाऽविश्रान्त गलन्त्यौ = रसातिलालसत्वात् लालाविन्दूनधः पातयन्त्यो, अतएव रसलोले - रसास्वादानुरक्ते, चपले चञ्चले, अतएव फुरफुरायमाणे - प्रकम्पमाने, निर्लालिते मुखाद्वहिष्कृते, अग्रजिद्दे - अग्रभृतजिह्वे जिह्वाग्रे येन स तथा तम् अतिदीर्घजिह्वमित्यर्थः तथा - ' अनयच्छियमद्दल्लविगयनीभच्छ लालपगलतरत्ततालुय ' प्रसारितमहा विकृतीभत्सलाला मगलद्रक्ततालुकम्, मसारित मुखमसारणेन दृश्यमान महाविकृत वीभत्स लालाभिः प्रगलद्रक्त च तालु यस्य स तथा त मुखप्रसारण प्रकटीभूतमहा विकृतलाला पूर्णरक्ततालुक्न्तमित्यर्थः तथा - ' हिंगुलु सगम्भकदरनिलवअजणगिरिस्स ' हिद्गुलुकसगर्भम्न्दरविलामिवाञ्जनगिरेः- हिड्लकेन रक्तवर्णकद्रव्यविशेषेण सगर्भ = सान्तराल कन्दररूप विलमिव अञ्जनगिरेः=फञ्जलपर्वतस्य मुखप्रसारेण रक्तातिदीर्घ जिहा तालु युक्तमुख विवरस्य हिड्गुलक पुज्जसम्भृतकन्दरसादृश्यादति कृष्णवर्णमहाविशालशरीरस्याञ्ज
भाग म्यान से निकाली हुई तलवार के समान तीक्ष्ण थी । पतलि थी । चचल थी । रस मे अतिलालसावाले होने के कारण उन से निरन्तर लार वह रही थी । रस के आस्वादन में वे अनुरक्त थे । च चल होने के कारण वे कप रहे थे | और मुख से बाहिर निकले हुए थे । तात्पर्यइस की जीभ बहुत लबी थी ।
( अवयच्छिय महल्ल विगयनी भच्छ लाल पगल तरत्ततालय, हिंगुलुयसगमकदर विलबअजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलतवयण) तालु इस का मुख के फाडते समय दिखलाई पडता था । महा विकराल था । बीभत्स था । लार से गीला हो रहा था और लाल था । इसका मुख अजनगिरि (काला पर्वत ) के हिंगुलक से भरे हुए कदा रूप बिल के
તેમાથી
સતત લાળ
તેની જીભના અને આગળના ટેરવા મ્યાનમાથી જેમ તીક્ષ્ણ હતા, પાતળા હતા ચંચળ હતા અને કરવા માટે અત્યંત લાલુપ તેમજ આતુર હાવા બદલ ટપકયા જ કરતી હતી તેઓ રસાસ્વાદમા અનુરકત હતા ચ ચળ હોવાને લીધે તે ધ્રૂજીરહ્યા હતા, અને મેથી બહાર નીકળી રહ્યા હતા મતલ! એ છે કે તેની જીભ ખૂબ લાખી હતી
( अवयच्छियमहल्लवि गायत्री भन्उलाळप गलत रत्ततालय, हिंगुलुपसगव्भ कदरविल अजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलतवयण )
અહાર કાઢેલી તલવારની
વિષયના
રસેસને ગ્રહણ
મે પહેાળુ કરતી વખતે તેનુ તાળવું દેખાતુ હતુ તે ખીભત્સ હતુ લાળથીભીનુ થઈ કહ્યુ હતુ અને લાલચેાળ હતું તેનુ મે1 અજગર ( કાળા પર્વત ) ના હિગળાથી ભરેલી કદરાના દર જેવું હતુ તે મડું વિશાળ અને
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
नगिरिसाम्याद् अञ्जन गिरः कन्दरमित्र वन्स प्रतिमातीतिमान | 'अग्गिजा लुग्गितायण' अग्निज्वालोहिरद्दनम् अग्निज्वाला उद्विरद=बहिष्कुर्वद्व दन मुख यस्य स तथा तम्, यस्य मुखाइ अग्निज्वालानिम्मरति तथाविनमित्यर्थः, 'आऊसिय अक्खचरमगडदेस ' आयुमिताक्षचर्मापिष्ट गण्डदेशम् - आयुषितलियुक्तम् यदक्ष -शको जलाकर्षण कोशस्तदपष्टौ भन्त' मनि गण्डदेशौ यस्य स तथा तम्, 'चीणचिनिन कभग्गणास ' चीन चिपिट वक्रभग्ननास=चीना = इस्सा, चिपिटा=निम्ना, का=कुटिला, भग्ना भग्ने अयोजनोपरिकुट्टनेन म सृतेन नासा यस्य स तथा त, चिपिटनासिकापन्तमित्यर्थ' ' रोमागयममधर्मेत मारुतनिद्रठ्ठरखर करु सयुसिर ओभुग्गणासियपुड' रोपागतधमधमायमानमारुतनि समान था । यह स्वय अति विशाल और अत्यत काले वर्ण का था इस लिये अजनगिरि के जैसा था तथा इस की जिह्वा और तालुये दोनों अतिरक्त थे इस लिये वे हिंगुल के समान लाल थे ।
इसलिये सूत्रकार ने उस के मुख को अजनगिरि की हिंगुलक से भरी हुई कदरा से उपमित किया है । इस के मुख से अत्यन्त लाल जिहा और तालु चाला होने के कारण ऐसा ज्ञात होता था कि मानो अग्नि की ज्वाला ही बाहर निकल रही है । ( आऊसियअक्ख चम्म उहट्टगडदेस, चीणचिपिडवक भग्गणास रोसागयघमघमेतमारुत निठुर खरफरुसझुसिरओभुग्गणासिपुण्ड, घाडुव्भडरइयभीसणमुह ) इस के दोनों कपोल (गोल) पानी को खीच ने वाले शुष्क वलि युक्त चरस के समान भीतर को घुसे हुए थे । नासिका इस की इस्व चिपटी थी । टेडी इस नासि का के छेदो से जो श्वासोच्छ्रवास निकलना અતિશય કાળાર્ગનુ હતુ એટલા માટે જ તે અજનગિરિ જેવુ હતુ તેની જીભ અને તાળવુ બન્ને ખૂબજ લાલ હતા એથી તેએ હિંગળાક જેવા લાલ હતા સૂત્રારે અજનગિરિની હિંગળેાકથી ભરેલી કદરાની તેના મેાની જે ઉપમા આપી છે. તેની પાછળ એજ કારણ તેનું તાળવુ અને જીભ ખૂબજ લાલ હાવાથી એમ લાગતુ હતુ કે જાણે તેના મેામાથી અગ્નિની જવાળાઓ અહારનીકળી રહી હાય
(आऊसिय अक्ख चभ्म उहगडदेस चीण चिपिडवक भग्गणास रोसागय धम मेत मारूत निठुर खर फरूस सिरओ भुग्गणासियपुड धाडुब्भडरडयभीसणमुह તેના ખને ગાલ કાસની જેમ કરચલીયેાવાળા જેમ મામા પૈસી ગયેલા હતા નાક તેનુ નાનુ અને ચપટુ હતુ ત્રામા નાકના છિદ્રોથી શ્વાસેાચ્છવાસ
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४९ ष्टुरखरपरुपशुपिराधमुग्ननासिकापुटम् रोपात् क्रोधादिवागतः प्रबलत्या धमधमा यमानः धमधमेतिशब्द कुर्वन् मारुतोवायुनिष्ठुरस्तीत्रः खरपरुपा अतिकर्कशः पर मदुःसहः, शुपिरयो अन्धयोर्यस्य तत्तथा, तदेव भूतम्-अवमुग्न-चक्र नासिकापुट यस्य तथा तम् भस्त्रावद्धमवमायमानश्वासोच्छ्वासपूर्णवक्रनासिकायुक्तमित्यर्थः घाड. म्भडरइयभीमणमुह ' घाटोद्भटरचितभीपणमुख-तत्र घाटाम्या शिरोऽवयवविशेषा भ्याम् उद्भट विकराल दुर्दर्श रचितम् अतएव भीपण भयकर, मुख यस्य स तथा त विकृतभयानकमुखयुक्तम् ' उद्धमुहकन्नसक्कुलिय' ऊर्ध्वमुखकर्णशष्कुलीकम् ऊर्ध्वमुखेवर्णशष्कुल्यौ वर्णपुटौ यस्य स तम् । तथा-'महतविगयलोमसखालग्गलप तचलियकन्न' महाविकृतलोमशालग्नलम्ममानवलितकर्णम् , महान्ति विकतानि असुन्दराणि लोमानि ययोस्तौ महाविकृतलोमानौ, तथा-तौ च शतालग्नौ शङ्क= असिमान्तभागस्तत्रालग्नौ-सलग्नौ सस्पर्शिनौ लम्बमानौ च चलितौ-चञ्चलौ च कणों यस्य स तथा तम् , 'पिंगलदिप्पतलोयण' पिङ्गलदीप्यमानलोचन=पिङ्गले कपिले, था वह ऐसा मालम देता था कि मानों बडे क्रोध से आ रहा है-और इसी लिये वायु भरते समय भस्त्रा (धमनी ) से जैसा बम २ शब्द होते है उसी प्रकार का उस से भी धम धम ऐसा शब्द होता रहता था। वह तीव्र या अतिकर्कश या कठोर या। दुःसह था । उस का मुख शिर के अवयव विशेषो ने ऐसा ही दुर्दश बनाया था कि जिस से वह बड़ा भयकर लगता था।
(उद्धमुहकन्नसलिय ) इस के दोनों कर्णपुट ऊँचे उठे हुए ये। ( महतविगयलोमसखोलग्गलबतचलियकन्न ) इन दोनों कानों के रोम इस के महा विकराल थे शख अक्षि प्रान्त भाग तक ये दोनों कान फैले हुए थे। इसीलिये ये बडे लवे थे और चचल थे। નીકળતા હતા તે એમ જણાતું હતું કે જાણે બહુ ફોધમા ભરાઈને તે સામે ઘસી આવતું હોય, એથી જ જ્યારે તે વાસ લેતો હતો ત્યારે ભસ્ત્રા (ધમણ) માથી જેમ “ધમ ધમ શબ્દ થતું રહે છે તેવો જવનિ થયા હતો તે તીવ્ર, કર્ક કઠોર અને દુ મહ હતા તેના મોના કદ રૂપ અવય વિાથી તે દુર્દશ અને મહા ભયકર લાગતું હતું
(उद्धमुहकन्नसकुलिय) तेनी १२ त२३नी आनटी 62 64सेसी डती (महतजिगयलोमससालग्गलयतचलियन्न ) मने ४ान ५२ना सारा महावि રાળ હતા આખના ખૂણુઓ સુધી તેના અને કાન ફેલાયેલા હતા એટલા માટે જ એઓ લાંબા અને ચચળ હતા
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___ गाताधर्मकथा नगिरिसाम्पाद् अअनगिरेः कन्दरमिर तन्मुस प्रतिमातीतिमाव । 'अग्गिजालुग्गिल्तरयण ' अग्निबालोगिरद् पदनम् अग्निमाला उद्विरद-बहिष्कुम्न दन मुख यस्य स तथा तम् , यस्य मुखाद् अग्निज्जालगनिम्सरति तथाविधमित्यर्थः, 'आऊसिय अक्खचग्मउन्हगडदेस' आयुपिताक्षचपिकृष्ट गण्डदेशम्-आयुषितपलियुक्तम् यदक्षचर्म-शको जलार्पण कोशस्तपदपाटो-अन्तः भविष्टी गण्डदेशी यस्य स तथा तम् , ' चीणचिडियमगणास ' चीनचिपिट वक्रमग्ननास-चीना -इस्त्रा, चिपिटा-निम्ना, पका-कुटिला, भग्ना-भग्नेन अयोरनोपरिकुट्टनेन प्र मृतेच नासा यस्य स तथा त, चिपिटनासिकारन्तमित्यर्थ ' रोमागयपमधमेत मारुतनिट्टरवरफरसयुसिर ओभुग्गणासियपुड' रोपागतधमधमायमानमारुतनि समान था । यह स्वय अति विशाल और अत्यत काले वर्ण का था इस लिये अजनगिरि के जैसा था-तथा इस की जिह्वा और तालुये दोनों अतिरस्त थे इस लिये वे हिहगुल के समान लाल थे।
इसलिये सूत्रकार ने उस के मुख को अजनगिरि की रिंगुलक से भरी हुई कदरा से उपमित किया है । इस के मुग्व से अत्यन्त लाल जिह्वा और तालु वाला होने के कारण ऐसा ज्ञात होता था कि मानो अग्नि की ज्वाला ही याहर निकल रही है। (आऊसियअक्ख चम्म उइगडदेस, चीणचिपिडवकभग्गणास रोसागयधमधमेतमारुत निठुर खरफरुसमुसिरओभुग्गणासिपुयड, घाटुन्भडरइयभीसणमुह) इस के दोनों कपोल (गोल) पानी को खीच ने वाले शुष्क वलि युक्त चरस के समान भीतर को घुसे हुए थे। नामिका इस की इस्व चिपटी थी । टेडी इस नासि का के छेदों से जो श्वासोच्छ्वास निकलता અતિશય કાળાર ગનુ હતુ એટલા માટે જ તે અજનગિરિ જેવું હતું તેની જીભ અને તાળવું બને ખૂબજ લાલ હતા તેથી તેઓ હિંગળોક જેવા લાલ હતા
સૂત્રકારે અજનગિરિની હિંગળકથી ભરેલી કદરાની તેના મોની જે ઉપમા આપી છે તેની પાછળ એજ કારણ છે તેનું તાળવું અને જીભ ખૂબજ લાલ હોવાથી એમ લાગતું હતું કે જાણે તેના મોમાથી અગ્નિની જવાળાઓ બહાર નીકળી રહી હોય
(आऊसिय अक्ख चभ्म उटगडदेस चीण चिपिडवक भग्गणास रोसागय धम मेत मारुत निठुरखर फरुस झुसिरमओ भुग्गणासियपुड धाडुब्भडरइयभीसणमुह
તેના બંને ગાલ કેસની જેમ કરચલીવાળા જેમ મોમાં પિસી ગયેવા હતા નાક તેનું નાનું અને ચપટુ હતુ ત્રાગા નાકના છિદ્રોથી શ્વાચ્છવાસ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४५ प्ठुरखरपरुपशुपिराधमुग्ननासिकापुटम् रोपात् क्रोधादिवागत प्रबलतया धमधमा यमानः धमधमेतिशब्द कुर्वन् मारुतो वायुनिष्ठुरस्तीतः खरपरुपा अतिकशा पर मदु'सहः, शुपिरयो अन्ध्रयोर्यस्य तत्तथा, तदेव भूतम्-अवभुग्न-चक्र नासिकापुट यस्य तथा तम् भस्त्रावद्धमवमायमानधासोच्छ्वासपूर्णवक्रनासिकायुक्तमित्यर्थः घाडु. भडरइयभीमणमुह ' पाटोद्भटरचितभीपणमुख-तत्र घाटाभ्या शिरोऽवयवविशेषा भ्याम् उद्भट विकराल दुर्दर्श रचितम् अतएव भीषण भयकर, मुख यस्य स तथा त विकृतभयानकमुखयुक्तम् ' उद्धमुहकन्नसक्कुलिय' अर्ध्वमुखकर्णशष्कुलीकम् ऊर्ध्वमुखे वर्णशष्कुल्यौ वर्णपुटौ यस्य स तम् । तथा-'महतविगयलोमसखालग्गलय तचलियफन्न ' महाविकृतलोमशहालग्नलम्बमानचलितकर्णम् , महान्ति विकतानि असुदराणि लोमानि ययोस्तौ महाविकृतलोमानौ, तथा-तौ च शङ्खालग्नौ-शङ्ख = अक्षिप्रान्तभागस्तगालग्नोसलग्नी सस्पर्शिनी लम्बमानौ च चलितौ चञ्चलौ च कों यस्य स तथा तम् , 'पिंगलदिप्पतलीयण' पिङ्गलदीप्यमानलोचन-पिङ्गले कपिले, था वह ऐसा मालम देता था कि मानो बडे क्रोध से आ रहा है और इसी लिये वायु भरते समय भस्वा (धमनी) से जैसा धम २ शन्द होते हैं उसी प्रकार का उस से भी धम बम ऐसा शब्द होता रहता था। वह तीव्र या अतिकर्कश या कठोर था। दुःसह था। उस का मुख शिर के अवयव विशेषों ने ऐसा ही दुर्दर्श बनाया था कि जिस से वह बड़ा भयकर लगता था।
(उद्धमुहकन्नसक्कुलिय ) इम के दोनो कर्णपुट ऊँचे उठे हुए थे। ( महतविगयलोमसखोलग्गलबतचलियकन्न ) इन दोनो कानों के रोम इस के महा विकराल थे शख अक्षि प्रान्त भाग तक ये दोनों कान फैले हुए थे । इसीलिये ये पड़े लवे थे और चचल थे। નીકળતો હતો તે એમ જણાતો હતું કે જાણે બહુ કોધમાં ભરાઈને તે સામે ઘી આવતું હોય, એથી જ જ્યારે તે શ્વાસ લેતે હતા ત્યારે ભા (ધમણ) માથી જેમ “ધમ ઘમ શ થતો રહે છે તે જ ધ્વનિ થયા હતો તે તીવ્ર, કર્ક કઠેર અને હુ સહ હતું તેના મના કદ રૂપ અવયવથી તે દુર્દર્શ અને મહા ભયકર લાગતું હતું
(उद्धमुहकन्नसकुलिय) तेनी ५२ त२५नी अनपटी 62 पसेही ती (महतधिगयलोमससालग्गल यतचलियपन्न ) २ ४ान ५२ना सवारी भावि રાળ હતા આખના ખૂણાઓ સુધી તેના અને કાન ફેલાયેલા હતા એટલા માટે જ એઓ લાંબા અને ચચળ હતા
- On
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छाताधर्मका
नगिरिसाम्याद् अञ्जनगिरेः मन्दरमित्र तन्मुन प्रतिभातीतिभात्र । ' अग्गिजा लुग्गितायण 'अग्निजलोद्विरद् नम् अग्निज्वाला उद्विरदू=बहिष्कुर्वद्य दन मुख यस्य स तथा तम्, यस्य मुखाइ अग्निजालानिस्तरति तथाविधमित्यर्थः, 'आऊसिय अक्खचरम अट्टगडदेस ' आयुपिताक्षचर्मापकृष्ट गण्डदेशम् - आयुषित लियुक्तम् यदक्ष -शको जलाकर्षण कोशस्तदपष्टौ = अन्तः मनिष्टों गण्डदेशों यस्य स तथा तम् ' चीणचिरिकभग्गणाम ' चीन चिपिट वक्रमग्ननास = चीना =स्वा, चिपिटा=निम्ना, का=कुटिला, भग्ना=भग्ने अयोजनोपरिनेन प्र तेच नासा यस्य स तथा त चिपिटनासिकापन्तमित्यर्थः ' रोमागयषमघर्मत मारुत निठुरखर फरुसयुसिर ओभुग्गणा सियपुड' रोपागतघमघमायमानमारुतनि समान था । यह स्वय अति विशाल और अत्यत काले वर्ण का था इस लिये अजनगिरि के जैसा था तथा इस की जिह्वा और तालुये दोनों अतिरक्त थे इस लिये वे हिग्गुल के समान लाल थे ।
इसलिये सूत्रकार ने उम के मुख को अजनगिरि की हिंगुलक से भरी हुई कदरा से उपमित किया है । इस के मुख से अत्यन्त लाल जिहा और तालु वाला होने के कारण ऐसा ज्ञात होता था कि मानो अग्नि की ज्वाला ही बाहर निकल रही है । (आऊसियअक्ख चम्म उगडदेस, चीणचिपिष्डवक भग्गणास रोसागयघमघमेतमारुत निठुर खरफरुसझुसिरओभुग्गणासिपुण्ड, घाटुभरइयभीसणमुह ) इस के दोनों कपोल ( गाल ) पानी को खीच ने वाले शुष्क वलि युक्त चरस के समान भीतर को घुसे हुए थे । नासिका इस की ह्रस्व चिपटी थी । टेडी इस नासि का के छेदो से जो श्वासोच्छ्रवास निकलता અતિશય કાળાર્ગનુ હતુ એટલા માટે જ તે અજનગિરિ જેવુ હતુ તેની જીભ અને તાળવુ મને ખૂબજ લાલ હતા એથી તે હિંગળાક જેવા લાલ હતા સૂત્રકારે અ જનગિરિની હિંગળાકથી ભરેલી કદરાની તેના માની જે ઉપમા આપી છે. તેની પાછળ એજ કારણ છે તેવુ તાળવુ અને જીભ ખૂબજ લાલ હાવાથી એમ લાગતુ હતુ કે જાણે તેના મામાથી અગ્નિની જવાળાઓ મહારનીકળી રી હાય
(आऊसिय अक्ख चभ्म उहगडदेस चीण चिपिडवक भग्गणास रोसागय धम मेत मारूत निठुर खर फरुस झुसिरओ भुग्गणासियपुड धाडुव्भडरइयभीसणमुद्द તેના અને ગાલ રામની જેમ કરગલીયાવાળા જેમ મેમા પૈમી ગયેલા હતા નાક તેનુ નાનુ અને ચપટું હતુ ત્રાસા નાકના છિદ્રોથી શ્વાસાચ્છવાસ
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अगरणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचचणनम् ३४७ युक्तप्रसर्पत्सर्पादिमालाधारिणमित्यर्थं । तथा-' भोग कूरकण्हसप्पधमप ने तल तकन पूर' भोगक्रूर कृष्णसर्प मनमायमानम्यमान कर्णपूरम् = भोगें. =फणैः क्रूरा भयकरौ भोगकरो, तोच कृष्णसर्पे च भोगक्रूरकृष्णासर्पों, तौ च धमवमायमानौ फुत्कुर्वन्तौ तावेव लम्पमाने कर्णपूरे कर्णालङ्कारविशेषौ यस्य स तथा तम्, तथा - परिवृत कृष्णसर्प कर्णभूषणमित्यर्थ 'मज्जारसियाललइयखध माजीरशृगाललगितस्कन्नमू=मार्जा रशुगालाल गिता सयोजिताः स्कन्धयोर्येन स तथा तम्, 'दित्तधुधुयत धूयकप कुतलसिर' दीप्तधुधुकधुककृतकुमलशिरस्कम् = दीप्त - दीप्तस्वर यथाभवत्येव शद कुर्वन्तो यो घृका - उलूका तएव कृतः कुम्मलः शेखरकः शिरोभूषण शिरसि येन स तथा तम्, शब्दायमानोलूरुशिरोभूषणधारिणमित्यर्थः तथा-घटारवेण भीम= भयकरम् घण्टानां शब्देन भीम भयकरम्, अतिभयानकम्, तथा-' कायरजणहिययफोडण ' कातरजनहृदयस्फोटनम् = कातरजनानां भीरुजनाना यानि हृद
}
,
वर्ण सपन्न माला उस ने पहिरी हुई थी । ( भोगकर कण्हसप्पद्यम घमेत वतनपूर ) कर्णपूरो के स्थान पर इसने फणावलि से भयकर बने हुए, तथा फुत्कार करते हुए काले दो सर्पों को पहने रखे थे । ( मज्जारसियाल लइय खघ ) अपने दोनो स्कन्धों पर इसने मार्जार और शृगालो को बैठा रखा था । (दित्तधुघुयतधूयकयकुतल सिर) दीप्त स्वर जिस तरह से हो इस तरह से घू घू करते हुए उल्लुओं को इस ने अपने शिर का आभूषण-मुकुट बनाया था । ( घटारवेण भीम भय कर कायरजणहियप फोडण दित्तमत्तहहरास विणिम्मुयत वसारुहिरपूयम समलमलिणपोच्चडतणु ) घटाओ के शब्द से यह भयकर बना हुआ था। कातरजनों के हृदय का भयजनक होने से यह विदारक बना
,
वाजी भाषा तेथे पडेरेसी हती (भोगकरकण्ड्सप्प मधमें तलवतकन्नपूर ) 33લેાના સ્થાને તેણે ફ્યુાએથી ભયકર તેમજ ફુત્કાર કરતા એ કાળા સાપા પહેरेसा हुता (मज्नार सियाललइ यसघ) पोताना मने मला उपर तेथे मिसाडा भने श्रृगासने मेभाउता उता (दित्तधुधुयत धूयकयकु तलसिर ) भोटा साहे ' 'धू' ધૂ’ કરનાર વડાને તેણે પેાતના માથાના આભૂષણુ એટલે કે મુકુટ બનાવ્યા હતા (घटारवेग भीम भयकर जगद्दिययफोडण दित्त महावित वसारूहिरपूयमममलमणि पोच्चडतणु )
ઘટના ભીમ ધ્વનિથી તે ભયક લાગતા હતેા કાતર જનેને હૃદયના ક્ષયથી વિદીણું કરનાર હેાવાથી તે ‘વિદારક' હતા વાર વાર તે મહા ભયકર ઉગ્ન
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३॥
Wলাঘব दीप्यमाने भास्वरे, लोचने यस्स स तथा तम्, मानारवत्पदीप्तने मित्यर्थः, तथा ='भिउडितडियनिडाल ' भ्रफुटितडिल्ललाट-श्रुटि:- भूपता कोपकता सैर तडिद् यस्मिन् , तथाविध ललाट, भाल यस्य स तथा तम् कोपावेपेन विद्युत्सदश भूसमुलसितललामयुक्तमित्यर्थः । तथा-'नरसिरमालपरिणविध 'नरशिरोमाला परिणद्धचिन्ह-नरशिरोमालैय परिणद्ध-परिधृत चित-पिशाचत योधक लक्षणयेन स तथात=नरतुण्डमाला धारिणमित्यर्थः । तथा-'पिचित्तगोणसम्बद्धपरिवर' विचि प्रगोनसमुपद्धपरिकर-विचिन बहुवर्णकयुक्तः, गोनसै' सर्पविशेपैः, मुबद्धः परि फर कवचो येन स तथा तम्, 'अाहोलतपुप्फुयायतसप्पविच्छुय गधु दरनउलसरड विरइयविचित्तवेयच्छमालियाग' अधोलयत् फुत्युत् सर्पटश्चिकगोधोन्दुरनकुल सरटविरचितविचित्रकक्षमालिक-अधोलयन्तः किंचिम् प्रसर्पन्त' पूत्कुर्व तय ये सर्पाः दृश्चिकाः गोधा उन्दुरा नकुलाः सरटाश्च तैविरचिता विचित्रा विविध वर्णवती, वैकक्षमालिकास्कन्धलम्बितमाला यस्य स तथा तम्, स्कन्धदेशे फुत्कार
( पिंगलदिप्पतलोयण, भिडितडियनिटालनरसिरमालपरिणद्ध चिंध विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अपहोलतपप्फुयाय तसप्प विच्छय गोघदनउलसरडविरइय विचित्तवेयच्छमाल योग) इस की दोनों ऑखे मार्जार (बिल्ली की तरह पीली और चमकीली थी। इस का ललाट भू वक्रता रूप विजली से युक्त था इस ने पिशाचत्व के को धक नरमुडकी माला रूप चिह्न को धारण कर रखा था। इस ने जो कवच पहिरा हुआ था-वह अनेक वर्णवाले सो से व्याप्त हो रहा था। अथवा-कवचके स्थानापन्न इस ने विविध वर्णवाले सो को अपने शरीर पर धारण कर रक्खा था।
स्कध देश में, इधर उधर, सरकते हए तथा फुत्कार करते हुए सपों की, वृश्चिकों की, गोंहों की, उन्दुरो की, नकुलो की, सरटों की, विविध __ (पिंगलदिप्पतलोयण भिउडितडियनिडाल नरसिर-मालपरिणद्ध चिंध विचित्तगोणससुवद्धपरिकर अवहोलतपप्फुयायतसप्पविच्छुयगोधदरनउलसरडविरइय विचित्तवेयच्छमालयाग)
તેની બને આ બિલાડાની જેમ પીળી અને ચમકતી હતી વક્રિભૂ (ભમ્મર ) રૂપ વીજળીથી તેનું કપાળ યુકત હત પિશાચ પણાના પ્રમાણ રૂપે તેણે નરમુડની માળા પહેરેલી હતી ઘણાર ગના સાપેથી તે આણિત હતા અથવા કવચના સ્થાને તેણે જાતજાતના ૨ ગવાળા અનેક સાપને શરીર ઉપર ધારણ કરેલા હતા
ખભા ઉપર આમતેમ હિલચાલ કરતા એટલે કે સરકતા તેમજ ફાર કરતા સાપ, વીછીએ, ઘ, ઉદર, નેળિયાએ, અને સરની અનેક રંગો
.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम्
રૂપરે
ऊर्जीकृतभुजद्वयलम्नमानमक्षर बुधिरगजचर्मधारिणमित्यर्थः । तथा-' ताहिय खर फरुस असिद्धि अगिदित्तअसुभ अप्पिय अमणुन्न अक्कतवग्गृहि य तज्जयत' ताभिश्र खरपरुपास्निग्धनिष्टदीप्ता शुभा प्रिया मनोज्ञा कान्तवाग्भिश्च तर्जयन्त = ताभिः =तादृशीभिर्भयकराभिश्च, खरपरुपा अतिकर्कशा, अस्निग्धाः = स्नेहरहिता, अनिष्टा=दु श्रपत्वेनानीप्सिताः, दीप्ता - उपतापजनकत्वादुज्ज्वला', अशुभाः=अमङ्गला, अप्रियाः - श्रुतिकटुत्वात्, अमनोज्ञा =मनोविकृतिजनकत्वात्, अकान्ताच विकृत स्वरत्नाद् या वाचस्ताभिश्च तर्जयन्त = त्रस्तयन्त पश्यन्तिस्म । अथ पुनस्तत् ताल पिशाचरूप ' एज्जमाण ' एजमान =नावप्रति अभ्यागच्छत् पश्यन्ति, दृष्ट्वा भीता', त्रस्ताः, त्रसिताः, उद्विग्नाः, सजातभयाः अन्योन्यस्य = परस्परस्य, काय = शरीर, ' समतुरगेमाणा २ ' आश्लिष्यन्तः २ हूनामिन्द्राणा च स्कन्दाना = कार्तिकेयाणा च, रुद्र शिववैश्रमणनागाना नागो-भवनपतिविशेष', भूताना यक्षाना च भूतयक्षाः
गिद्ध अणिट्ठदित्तअसुभ अप्पियअमणुन्न अक्कल वग्गूहि य तज्जयत पासह ) उस ताल पिशाच को भयकर, अत्यन्त कर्कश, स्नेह शून्य, अनिष्ट, उपताप जनक, अमगल रूप अप्रिय अमनोज्ञ, एव अकान्त ऐसी अपनी वाणी से दूसरो को दुःखित करता हुआ उन लोगोने देखा ।
( त ताल पिसायरूव एज्जमाण पासति, पासित्ता, भीया० सजायभया अन्नमन्नस्स काय समतुरगेमाणा २ बहण इदाणय खदाण य रुदसिव वेसमणणागाण भूयाण य जक्खाण य अज्जकोट्ट किरिया बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा २ चिट्ठति ) और साथ में यह भी देखा की वह ताल पिशाच का रूप हम लोगों की और आ रहा
( ताहि य खरफरूस असिद्धि अहिदित्त असुभ अप्पियअमणुन्नभक्कत चग्गृहिय तज्जयत पासइ )
તાલ પિશાચને તે લેાકેાએ પેાતાની ભયકર, અત્યંત શ, સ્નેહ રહિત, અનિષ્ટ ઉપતાપ જનક, અમગળરૂપ અપ્રિય અમનેાજ્ઞ, અને અકાન્ત ( ીભત્સ ) વાણીથી ખીજાઓને ત્રાસ આપતા જોયા
( व ताल पिमायरूत्र एज्जमाण पासति, पासित्ता, भीया० सजायभया, अन्नमन्नस्स, काय समतुरगेमाणा २ हूण इदाण य खदाण य रुदसित्रवेसमण नागाण भूयाणय जक्खाणय अज्जकोट्ट किरिया य बहूणि उवाइयसयागि ओवा इयमाणा २ चिद्वति )
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श्राताधर्म कथासूत्रे
यानि तेपा स्फोटन भयजनकत्वेन विदारक, तथा-दित्तमहोस निणिम्यत' दिसमट्टाट्टहासम् = उग्रमट्टाहास विनिर्मुचन्त = मकुर्वन्तम्, तथा-' बसारु हिरपूयमस मलमलिणपोच्चडतणु ' वसारुधिरपूयमासमल्मलिन पोच डतनुम् = सारुधिरपूयमा समलैर्मलिना पोच्चडा आर्द्रा ' पच पच ' कुर्माणा वनुः शरीर यस्य स तथातम्, तथा - ' उत्तासणय ' उत्नासनकम् = उद्वेजक, विशालाक्षस्कम् = निस्तीर्णवक्षस्थलकम् 'पेच्छतागिन्नणहरोम मुद्दनयणम्नाखग्धचित्तरुत्तीणी सण' प्रेक्ष्यमाणाऽभिन्ननखरो ममुखनयनकर्णवरव्याघ्र चित्र कृत्तिनिवसनम् = तत्र मेक्ष्यमाणा दृश्यमाना अभिभाः =अच्छिन्नानखाथ रोमाणि च मुख च नयने च कर्णौ च यस्या सा प्रेक्ष्यमाणाऽ भिन्ननखरोममुखनयनकर्णा सा चासौ वरव्याघ्रस्य चिना- विविधकर्णका, कृत्ति धर्म सैव निवसन-परिधान पत्र यस्य स तथा तम् अखण्डव्याघ्रचर्मपरि मानमित्य र्थः, तथा-' सरसरुहिरगपचम्मतिमा हुजुर सरसरूनगजचर्म वि ततोच्छ्रुतनाहुयुगल - सरस- रुधिरार्द्रं यद् गजचर्म, तद् वितत - निस्तारित यत्र तत् सरसगजचर्मति, तदेव भूतम् उद्धृतम् उत्थापित वाहुयुगल येन स तथा तम् हुआ था चार २ यह महा उग्र, अट्टहास कर रहा था । इस का शरीर वसा - चर्बी, रुधिर, पूय - पीप, माम एव मल इन से मलिन हो रहा था । और मसक ने पर पच पच इस प्रकार का शब्द करने लगता था ।
( उत्तारणय, विशालवच्छ पेच्छताभिन्नणहरोममुनयणकत्र वरवग्धचित्तकत्ती णिवसण, सरसरुहिरगयचम्मविततऊसविय बाहु जुयल) इसे देखते ही लोग कॉप जाते थे । इस का वृक्षस्थल ( छाती ) बहुत विशाल था । इस ने जो व्याघ्र का विविध वर्ण वाला चर्म रूप वस्त्र पहिर रखा था उस मे स्पष्ट रूप से व्याघ्र के अच्छिन्न नख, रोम, मुख, नयन' और कान दृष्टिगत हो रहे थे । अपने उत्थापित किये हुए बाहु युगल मे इस ने लम्बा खून से लथपथ हुआ गीला गज का चमडा धारण कर रखा था । (ताहियखर फरुस असि अट्टहास ४२तो तो तेनु शरीर वसा-यर्णी, बोडी, पीप, भास भने भर्थी ખરડાયેલુ હતુ અને જોરથી દબાવાથી (ફસકી જવાથી) પચ’ પચ શબ્દ થતુ હતેા
(उत्तासणय, विसालवच्छपे च्छता भिन्नगह रोममुहनयणकन्ननरवग्ध चित्तकत्ती सिण, सरससहिरगयचम्म वितत ऊसवियवाहुजुयल )
તેને જોતાની સાથે જ માણુસા ધ્રૂજવા માગતા હતા તેનુ વક્ષસ્થળ ખૂબજ પહેાળુ હતુ અનેક જાતના રગોના પહેરેલા વાઘના ચામડાના અમા વાઘના આખા નખા, રુવાટા, મા આખે અને કાન સ્પષ્ટ રીતે દેખાઇ રહ્યા હતા ઉચા કરેલા ખ ને હાથમા તેણે લેહીથી ખરડાયેલુ લાખુ હાથીનુ ચામડુ પહેરેલું હતુ
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भनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ महराजचरिते मरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३५१ कप्पड़, तव सीलव्वयगुणवेरमण पच्चक्खाण पोसहोववासाइ चालित्तए वा एव खोभेत्तए वा खडित्तए वा भजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चइत्तए वा, तं जाणं तुम सीलव्वय जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं एय पोयवहणं दोहि अगलियाहिं गेहामि, गिणिहत्ता सत्तठतालप्पमाणमेत्ताइ उड्ड वेहास उवि. हामि, उबिहित्ता अतो जलसि णिव्वोलेमि जेणं तुमं अट्टदुहवस असमाहिपन्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि तएणं से अरहन्नए समणोवासए त देव मणसा चेव एवं वयासी-अह णं देवाणुप्पिया । अरहन्नए णाम समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अह सके केणइ देवेण वा जाव निग्गथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा तुम ण जा सद्धा त करेहित्तिक? अभीए जाव अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निचले निप्फदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ॥ सू० २० ॥ ____टीका-अरहन्नकाज्य सायात्रिऊर्य थानुष्ठित तदुक्तम्, अधुनाऽरहन्नकेन पिशाचरूपमवलोक्य यत् कृत तदाह-'तएण' इत्यादि । ततस्तदा ग्वलु स अरहनक. अरहन्नकनामको मुख्य मायात्रिक , श्रमणोपासक' श्रावकस्त दिव्यम्
तएण से अरहनए इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद मुख्य सायात्रिक अरहन्नक को छोड कर अन्य सायात्रिकों ने जो २ किया उस के वाद (समणोवासए अरहनए) श्रमणोपासक अरहन्नक ने (त दिव्व पिसायस्व पासित्ता ) जय दिन्य
' तएण से अरहम्नए ' त्या
ટીકાઈ–(ફળ) અરહનક સિવાયના બીજા સયાત્રિકની આવી હાલત થઈ स्या२ ५, (समणोवासए परहन्नए) श्रभास म२४ पिसायरूव पासित्ता) यारे ते हिव्य अपूट-सहमत
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ज्ञाताधर्म कथासूत्रे
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- व्यन्तरभेदास्तेषाम् तथा - आर्यको क्रियाणा च = आर्या मशान्तस्वमात्रा देव्यः कोह क्रिया = चण्डिकारूपादेव्यः, तासा बहूनि उपयाचितशतानि=बहुविधानि मा न्यताशतानि उपयाचमानाः २ कुर्वन्त २ स्तिष्ठन्ति ॥ २१ ॥
मूलम-तएणं अरहन्नए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एजमाणं पासइ, पांसित्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिन्नमुहराग णयणवन्ने अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेससि वत्थतेणं भूमिं पमजइ, पम जित्ता ठाण ठाइ, ठाइत्ता करयलओ एव वयासी- नमोत्थूणं अरहताणं जाव सपत्ताण, जइ ण अह एत्तो उवसग्गाओ मुचामि तो मे कप्पड़ पारितए अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि, तो मे तहा पच्चवखाए यन्वे त्तिकट्टु सागार भत्त पच्चक्खाइ, तएण से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासप तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहन्नग एव वयासी - ह भो । अहन्नगा अपत्थियपत्थया जाव परिवज्जिया णो खल्लु
है इस बात को देख कर वे सब के सब भयभीत हो गये, डर गये, उद्विग्न हो गये । उनके प्रति प्रदेश मे भय का सचार हो गया। इस तरह होकर वे सब परस्पर में एक दूसरे के शरीर से चिपक गये । और अनेक इन्द्रों की स्कन्द की कार्तिकेय की रूद्र की शिव की वैश्रमण की नाग की भूत की यक्ष प्रशान्त स्वभाव वाली देवियों की तथा चण्डि का रूप देवियो की सैकडों प्रकार बार २ मान्यता करने लग गये। सूत्र "२१"
તાલ પિશાચ ને તેઓએ પેાતાની તરફ જ આવતે જોયે! આરીતે જોઈને તેા અધા ભ્રયત્રસ્ત થઈગયા, ખીગયા ઉદ્વિગ્ન થઈગયા તેમના આત્માના પ્રતિપ્રદેશમા ભયનુ સચરણા થઈ ગયુ તેઓ ભયભીત થઈને એક બીજાને ચાટી પડયા, અને તેમાથી ઘણા ઈન્દ્રોની દની, કાતિ કેયની रुद्रनी, शिवनी, वैश्रभाणुनी, नागनी, लूतनी, यक्षनी, प्रशान्त स्वभाववाजी દેવીએની તેમજ ચડિકારૂપ દેવીઓનીસેક પ્રકારની વારવાર
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માનવા લાગ્મા | || સૂત્ર ૨૧ "
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tantraanaणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते थरहनकथावकवर्णनम् ३५३ स्थान समाप्तेभ्य, यदि खल्नहम् एतस्मादुपसर्गाद् पिशाचकृत सकटात्, निर्वि नो भवामि मुञ्चामि तदा मे तथा = तावत्पर्यन्तं प्रत्याख्यातव्यम्० चतुर्विधभक्त प्रत्याख्यान मयाऽनुष्ठेयमित्यर्थ इति कृत्वा साकारभक्त = चतुर्निधमाहार प्रत्या ख्यातिः । ततस्तदनन्तर ग्लु स पिशाचरूपधारी देा यनैमारनक अरहनक नामकः श्रमणोपासक = श्रावकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यारहन्नकम्-एवं= वक्ष्यमाणमकारेणावाढीत - हो । अरहनक ! हे अप्रार्थित पार्थित | = अप्रार्थित एव वयासी) बैठ कर उस ने अपने दोनो हाथों की अजलि बनाई । और उसे मस्तक पर रख कर आवर्त करते हुए वह इस प्रकार कह ने लगा - ( णमोत्यु णं अरहताण जाव सपत्ताण ) यावत् सिद्धगति को प्राप्त हुए अर्हत प्रभुओ को नमस्कार हो (जटण अर एन्तो उवसग्गाओं मुचामि तो मे कप्पर पारितए)
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यदि मे इस पिशाच कृत उपसर्ग से बच गया तो ही अशनादि ग्रहण करूँगा (अह ण एन्तो उवसग्गाओ ण मुचामि तो मे तहा पच्चक्वाण्यध्वे ) यदि में इस उपसर्ग से नही बचा तो मेरे तावत्पर्यन्त चतुर्विध आहार का त्याग है ( त्ति कट्टु ) ऐसा विचार कर ( सागार भन्त पच्चक्खाइ) उसने साकार चतुर्विध आहारका प्रत्यास्थान कर दिया । अर्थात् सागारी सधारा किया - ( तण्ण से पिसायरुवे जेणेव अर नए समणो नामए तेणेव उवागच्छद) इम के बाद वह पिशाच रूप धारी देव जहा वह श्रमणोपासक अरहन्तक बैठा था वहा आया
એસીને તેણે પેાતાના ખને હાથની અલ મનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર भूमीने देवता ते या प्रभा हेवा लाग्यो - " नमोत्युर्ण अरहताण जाव सपाण યાવત્-સિદ્ધગતિને પામેલા અર્હત પ્રભુઓને મારા નમસ્કાર છે. ( जइण अह एनो उवसग्गाओ मुचामि तो मे कप्प पारितए
""
જો હુ આ પિશાચના ઉપસૌથી મચી જઈા તેાજ આહાર વગેરે ગ્રહણ કરીશ अक्षण एत्तो उवसग्गाओ ण मुचामि तो मे रहा पच्चक्साए यव्वे " આ ઉપસર્ગથી મારી રક્ષા નહિ થાય તા તાવન્પન્ત ચારજાતના આહારના હું ત્યાગ કરૂં છુ ' तिकट्टु " आम वियारीने " सागर भत्त पच्चम्साइ" तेथे भाजर तुविष्ध भाडारनु प्रत्यास्थान यु
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એટલે કે તેઓ સાગારી મથાશ કર્યો
(तएण से पिसावे जेणेव अरहन्नए समणोनासए तेणेत्र उवागच्छइ ) ત્યાર બાદ પિશાચ રૂપ ધારીદેવ જતા શ્રમણે પાક એટાહતા ત્યા આવ્યે.
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बाता कथासूत्रे
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अपूर्वदृष्टमद्भुतं पिशाचरूपम् एजमान=नाव प्रत्ति समागच्छन्त पश्यति, दृष्ट्वाअभी तः, भयरहितः, अनस्तः नासमाप्तः अचलितः, अपाप्तक्षोभः अमभ्रातः सभ्रा न्तिरहितः अनाकुलः, अव्यग्रः अनुद्विग्नः, अमरुम्पः अभिन्नमुखरागनयनवर्ण. अभिन्नौ - अविकृती मुखरागनयनार्णो यस्य स तथा तस्प भयाभावान्मुख रागोनयनवर्ण श्रान्यथा न अदोनविमानो जातइत्यर्थः मानसः = अदीननिमनः- नदीन दैन्यप्राप्त, नापि विमनः दुर्मनः नापि विकृत मानस यस्य स तथा तस्य मनो sप्यन्यथा न जातमित्यर्थः, तथा भूतः सन् पोतनद्दनस्य नौकायानस्यैकदेशे =एक भागे वस्त्रान्तेन वस्त्राञ्चलेन खलु भूमिम् उपवेशनस्थान प्रमार्जयति प्रमा स्थानम्-उपवेशनार्ह स्थान सशोध्य जीवरादिरहित कृत्वा तत्र तिष्ठति = उपविशति, स्थित्वा = उपविश्य करतलपरिगृहीत शिर आवर्त दशनख मस्तकेऽज्जालि कृत्वा एव =वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - नमोऽस्तु अर्हद्भयो यावत् सिद्धिगतिनामधेय अपूर्व दृष्ट- अद्भूत-पिशाच रूप को (एज्ज मान ) नाव की तरफ आता हुआ (पास) देखा तो ( पासित्ता देखकर वह (अभीए ) डरा नहीं ( अतत्थे ) त्रस्त नहीं हुआ (अचलिए ) धैर्य से चलायमान नहीं हुआ ( असते ) घबराया नहीं (अणाउले ) आकूल व्याकुल नहीं बना ( अणु व्विग्गे ) उद्विग्न नहीं हुआ (अभिन्न मुहरागणघणवन्ने । उस के मुख का राग और नयनों का वर्ण विकृत नही घना ( अदी विम माणसे ) उस का मन न दीन बना और न विकृत ही बना ( पोयव ree एमदेससि वत्थ तेण भूमिं षमज्जद ) कितु नौका यान के एक तरफ वस्त्राञ्चल से भूमि को प्रमार्जित करने लगा - ( पमजित्ता ) प्रमार्जित कर के फिर वह ( ठाण ठाह ) बैठ ने के योग्य स्थान का सशोधन कर उसे जीवादि रहित कर वहा बैठ गया । (ठाइत्ता करयलओ
" एज्जमान " घोताना वडालु त२५ भवतु " पाखइ " लेयु त्यारे " पाखित्ता " लेडने ते " अभीए ” लय याभ्यो नहि, " अतत्थे त्रस्त थये। नहीं, ' अचलिए " धैर्यथी वियादित थयेो नहि, " असभते " जलशयो नहि, " अणाउले व्याज थयो नहि, (अणुविगो) उद्विग्न थयो नहि, ( अभिन्नमुहरा गणयणवन्ने ) तेना भो। २गमने आमोना वर्षानमा भराये विकृत थयो नहि ( अदीण त्रिमणमाणसे ) तेनु भन हीन બન્યુ નહિ તેમજ વિકૃત થયુ નહિ ( पोयवहणस्स एगदेस सि वत्थतेण भूमि पमज्जइ ) ते वडालुना भे तरइनी लूमिने वखना छेडाथी प्रभार्तित रखा लाग्यो ( पम्मजिता ) प्रभाति अने ते (ठाणठाइ ) जैसवा योग्य स्थाननु सशोधन अरीने स्थानने लव वोरैयी रहित नावीने त्या मे भीगयो ( ठाइत्ता करयलओ एव वयासी )
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अनगारधर्मामृतषिणी टीकाअ० ८ महराजचरिते मरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३५५ =मि यात्वानिवर्त्तनम् , प्रत्याख्यानपर्वदिनेषु हरितकायादि त्याज्यानामवश्य परित्यागः, पोपधोपवास: पोप-पृष्टिंधर्मस्य वृद्धिं धत्त इति पोपय चतुर्दश्यप्टम्यमावास्यापूर्णिमादिपूर्वदिनानुष्ठेयो प्रतविशेषः, पतेपा द्वन्दे तान् चालयितुं वा करणयोगरूपेण परिवर्तयितुम् । एव क्षोयितु वा एतान् एव परिपालयामि, अथवा परित्यजामीति क्षोभ कर्तु, खण्डयितु देशतो भक्तु भवतु सर्वतो वा उज्झितु देशविरतेस्त्यागेन, वा परित्यक्तु सम्यक्त्वस्यापि त्यागात् वा, तद् यदि खलु व शीलवत० यावत् न परित्यजसि तदा तवाहमेतत् पोतवहन नौकायान द्वाभ्यामड्गुलीभ्या तर्जनीमध्यमाभ्या गृहामि, गृहीत्वा सप्ताप्टतालममाणमात्रान् गगनभागान् यावत् , ऊर्च विहायसि-गगने 'उबिहामि' उद्विध्यामि प्रापयामि, 'उन्विहिता' उद्विध्य ऊर्ध्वमाकाशे नीत्वा, 'अतो जलसि,' अन्तको, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा आदि पर्वदिनों में अनुष्ठेय व्रत विशेष रूप पोषध को अन्यथा करण योग रूप से परिवर्तित करने की तुम इन्हें इस तरह से पालो अथवा इन का परित्याग कर दो इस रूपसे उन्हें क्षुभित करने की उन्हें एक देश अथवा सर्वदेश से खडित करने की भग करने की देश विरति के छुडवाने की अथवा सम्यक्त्व के परित्याग से उन के त्याग करवाने की मुझ में शक्ति नही है । अतः (जहणे तुम सीलव्वय जायण परिच्चयसि तो ते अह पोयवरण दोटिं अगुलियाहि गेण्हामि ) तुम इन शीलवत आदि को को स्वय छोड़ दोयदि नही छोडोगे तो में तुम्हारी इस नौका को दो अगुलियो से-तर्जनी और मध्यमा से-पकड लूंगा (गिणिहत्ता सत्तट्ट तालप्पमाणमेत्ताइ उड़ અમાસ, પૂનમ વગેરે, પર્વના દિવમાં અનુષ્ઠ વતવિશેષ રૂપ પેપને, અન્યથા કરણાગ રૂપથી પરિવર્તિત કરવાની, તમે આ તો આ રીતે આચરે કે આને પરિત્યાગ કરો આ પ્રમાણે તેમને મુભિત કરવાની, તેમને એકદેશ અથવા સર્વદેશથી ખડિત કરવાની ભગ કરવાની–દેશવિરતિના ત્યાગ અથવા સમ્યકત્વના પરિત્યાગથી તેમને પરિત્યકત કરાવડાવવાની મારામાં તાકાત નથી એથી
(जडणं तुम सीलकाय जार ण परिचयसि तो ते अह पोयवहण दोहि अगुलियाहिं गेण्हामि)
તમે પોતાની મેળે જ આ શીલનત વગેરે ને ત્યાગ કરે જે તમે આ પ્રમાણે કરશે નહિ તે હું તમારા વહાણને બે આંગળીઓથી એટલે કે તર્જની અને મધ્યમાં આગળીઓથી૫કડી પાડીશ (गिण्हित्ता सत्तद्वताल पमाण मेत्ताइ उड़ वेहास उब्धिहामि-उन्धिहितां अवो
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माताधर्मकपालको -यत् केनापि न प्रार्थित मरण, तत् मार्थित येन, स अार्थितप्रार्थित । यहाहे तत्सम्बोधनम् हे मरणमार्यक!-अपस्थित प्रस्थित । अपस्थितः येन मस्थित इव मुमूर्षुरित्यर्थस्तस्य समोधनम्, हे मरणमान्छक ! यावत् इह यावच्छन्देन 'दुरतपतलखणा, हीणपुण्णचाउद्दसिया सिरिहिरिधीकित्ति' इत्यन्तस्य सग्रहः । दुरन्तमान्तलक्षण ! दुरन्त विपाकाटु प्रान्तम् अासान लक्षण स्त्रमावो यस्य स तथा, तस्यामन्त्रण, हीनपुण्य चातुर्दशिक ! हीना क्षीणा पुण्या चन्द्रकला शुभकार फत्वात् यस्या सा हीनपुण्या-कृष्णपक्षीयेत्यर्थः, सा चामौ चतुर्दशी च हीनपुण्य, चतुर्दशी, तम्या जातः, तत्सम्बोधनम् हे भाग्यहीन इत्यर्थ । श्रीहीधी कीर्तिपरि वर्जित । हे दरिद्र । हे निर्लज्ज ! हे बुद्धिहीन ! हे कुलकरदिन ! श्री लक्ष्मी, ही लज्जा, धी-पुद्धिः, कीर्तिः यशः, ताभिः नो खलु कल्पते तवशीलवतगुणविरमणमत्याख्यानपौषधोपवासान-तन शीलानि-सामायिकदेशावकाशिक्पौषधतिथिसविभागाख्यानि, नतानि पञ्चाणुप्रतानि, गुणा: त्रीणिगुणतानि, विरमण (उवागच्छिता अरहन्नग एव वयासी) आफर उस ने अरहन्नक से इस तरह कहा (ह भो अरहानगा अपत्थियपत्थिया जोव परिवज्जिया) हे अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित | मरण की इच्छा करने वाला। यावत् शब्द से "हे दुरन्त प्रान्त लक्षण! हे हीन पुण्य चातुर्दशिक ! हे श्रीहीधी कीर्ति परिवर्जित । हे कुल कलकित । ( णो खलु कप्पइ, तव सीलन्वयगुण बेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइ चालित्तए वा एव खोभेत्तए वा खडित्तए वा भजित्तए वा उशिसए वा परिच्चह त्तएवा) मुझे तुम्हारे द्वारा पालित शीलो को व्रतो को गुणवतों को मिथ्यात्व की विनिवृत्ति को पर्व दिनों में हरित काय आदि के परित्याग
" उवागच्छित्ता अरहन्नग एव वयासी" मावीन तो महन्नने या प्रमाण अधु-"ह भो अरहन्नगा अपत्थियपत्थिया जाव परिवज्जिया" मन ! હે અપ્રાતિ પ્રાર્થિત ! મૃત્યુને ભેટવાની ઈચ્છા રાખનાર ! “યાવત્ ” શબ્દથી હે રતપ્રાત લક્ષણ! હહનપુણ્ય ચાતુર્દશિક! હે શ્રી હીધી કીતિ પરિવર્જિત ! ३ पुस !
(णो खलु कप्पइ, तव सीलव्ययगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोरवासाइ चालित्तए या एव खोभेत्तएवा खडित्तए वा भजित्तएका उज्झित्तए वा परिच्चइत्तएवा)
તમારા વડે આચરિત શીલોને, વતન, ગુણવોને, મિથ્યાત્વની વિનિ વૃત્તિને, પર્વના દિવસે મા હરિફાય વગેરેના પરિત્યાગને, ચીશ, આમ,
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अनेगारधर्मामृतवर्षणो टी०म० ८ अङ्गराजचरिते अरहन्त्रकथानकवर्णनम् ३५७ वचनात् ' चालितए' चालयितुम् = अन्ययाभाव कारयितु वा 'खोभित्तए क्षोभयितु = सशयोत्पादनेन क्षोभ कर्तुवा, तथा-' विपरिणामित्तए विपरणमयितु = विपरीताध्यवसायोत्पादनेनाप्यन्यथाकर्तुं वा, केनापि देवादिना श्रावकधमाद् विचालयितु ना शक्य इति सक्षिप्तार्थः । तत् खलु याच्याशी श्रद्धा वर्तते तत्तथा कुरु त्वयत् कर्तुमिच्छसि तत् कुरुष्वेत्यर्थः ' इति कट्टु ' इति कृत्या = इति स्वात्मन्युक्त्वा, अभीतः यावद् अत्र यावच्छब्देन 'अतस्थे, अचलिए, असंभते अणाउले, अणुविग्गे, हत्येपा पदाना सग्रह', एतान्यस्मिन्नेवमुत्रे व्याख्यातानि, णाओ चालित वा खोभित्तए वा विपरिणामित्त वा तुम ण जा संद्वा त करहि त्ति कटु अभीए जाव अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीण विमगमाणसे निच्चले निष्कदे तुसिणीए, धम्मज्झाणोवगए विहरह) हे देवानुप्रिय देव ! मैं अरनक नामका श्रमणोपासक श्रावक हूँ ।
जीव अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप को जानने वाला हूँ। किसी भी देव मे ऐसी शक्ति नही है जो मुझे इस निर्ग्रन्य प्रवचन से विच लित कर सके उस मे अन्यथा भाव रूप से परिणमास के क्षुभित कर सके सशयोत्पादन से मुझे उस में सदिग्ध बना सके तथा विपरिणामी बना सके विपरीत अत्यवसाय के उत्पादन से उस में मुझे विपरीत बुद्धि वाला कर सके, तात्पर्य इस का यही है कि कोइ भी देव ऐसा नहीं है कि जिस के द्वारा में आवक धर्म से विचलित किया जा सकू ।
इसलिये हे देव ! तुम्हारी जैसी श्रद्धा हो वैसा तुम करो। इस खोभित्तएवा विपरिणामितवा तुमण जा सद्धा त करेहि ति कट्टु अभीए जाव अभिन्नमुहरागगयणवन्ने अदीणविणमाणसे निच्चले निष्फदे तुसिणीए धम्मझोबर विरह )
હૈ દેવાનુપ્રિયદેવ ! હુ અરહન્નક નામે શ્રમણેાપાસક શ્રાવક છુ
જીવ અજીવ વગેરેના તત્ત્વાના સ્વરૂપને જાણનાર છુ કોઇપણુ દેવમા તાકાતનથી કે જે મને પેાતાના નિરૢ થપ્રવચનથી વિચિલિત કરી શકે, તેમા અન્યથા ભાવ રૂપથી પરિણુમાવી શકે, ક્ષુભિતી શકે, સશય ઉસન્ન ીને મને તેમા શંકાશીલ મનાવી શકે અને વિપરિણામી બનાવી શકે, વિપરાંત અધ્યવસાયના ઉસાદનથી નિ થ પ્રવચન પ્રત્યે મને વિપરીત બુદ્ધિવાળા કરી શકે મતલખ એ છે કે કેઈપણુ દેવમા આટલી તાકત નથી કે તે મને પેાતાના શ્રાવક ધર્મથી ડગાવી રાક
એથી દેવ ! તમારી જેવી શ્રદ્ધા હોય તેમ કરી મનમા દેવને સઅેપીને
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म५द
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र्जले - जलमध्ये, 'णियोछेमि ' नित्रोडयामि= निमज्जयामि, येन त्व' महदुइहयस ' आर्तदुर्घटवशार्त = आर्तम् - आर्त्तध्यानम् दुर्घट= हिंस) दिदुर्घटना युक्तत्वाद् रौद्रध्यानार्च, तयोर्वेशेन प्रत: - पीडितः अतएन- 'अममादिपत्ते' असमाधिप्राप्तः, अकाले चैव = मरणकालात्पूर्वमेत्र जीवीतात् 'अवरोनिज्जसि' व्यपरोपयिष्य से - व्यप तो भविष्यसि मरिष्यसीत्यर्थः । ततः पिशाचाचरणानन्तर सोऽरहनकः श्र मणोपासकः त देव पिशाचरूप मनसा चैन एव = पक्ष्यमाणमकारण अनादी पि शाचरूप देव स्वमनसि सम्बोध्य सात्मन्येव वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवानित्यर्थः, हे देवानुमिय । हे देव ! अह खलु अरहन्त्रको नाम श्रमणोपासकोऽभिगतजीवाजीवः जीवाजीवतत्त्वज्ञः, नो खलु अह शक्य केनापि देवेन वा यात् नैय्यात् घेहास उन्विद्दामि - उचिहित्ता अतो जलसि णिव्वोलेमि) और पकड़ कर सात आठ ताल प्रमोण आकाश भाग तक उसे ऊपर पानी में डुबो दूंगा । ( जेण तुम अदृहट्टवसट्टे असमाहिपते अकाले चेव जीवियाओ चवरोविज्जसि ) जिससे तुम आर्त्त और दुर्घट - रौद्र-व्यान के वश से पीडित होते हुए असमाधि को प्राप्त हो जाओगे और मरण काल से पहिले ही जीवन से रहित हो जाओगे ।
(तएण से अरहन्नए समणो वासए त देव मणसा चैव एव वयासी) इस तरह उस पिशाच रूप धारी देव के वचन सुनने के बाद उस श्रमणोपासक रहन्नक ने उस देव से अपने मन ही मन ऐसा कहा - ( अह ण देवाणुपिया । अरहन्त णाम समणोवासए अहिगयजी वा जीवे नो खलु अह सक्के केrह देवेण वा जाव निग्गथोओ पावयजलसि णिव्योले मि )
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અને પડીને સાત આઠ તાલ પ્રમાણ તેને ઉપર આકાશમાં લઈ જઈશ અને ત્યાથી પાણીમા ડૂબાડી મૂકીશ
( जेण तुम अदुवा सट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेन जीवियाओ वनरोविज्जसि ) એથી તમે આત્ત અને દુટ-રૌદ્ર--યાનથી પીડિત થતા અસમાધિને મેળવશે અને મૃત્યુકાળ ના પહેલા જ જીવન વગરના થઈ જશે
( तएण से अरहन्नए समणोवास त देव मणसा चेत्र एव वयासी ) આરીતે પિશાચ રૂપવાળા દેવની વાત સાભળીને શ્રમણેપાસક અરહનકે દેવને પેાતાના મનમા જ આપ્રમાણે કહ્યુ
( अहण देवाणुपिया ' अरहनए पाम समणीवासए अहिगयनीपाजीवे मो खल अह सक्के केणइ देवेण वा जान निग्गथाओ पारणाओ चालित्तए वा
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका १०८ अङ्गराजचरिते अन्नधावकवर्णनम ३५९
मूलम्-तएणं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नग समणोवासगं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो। अरहन्नगा० अदीण विमणमाणसे निचले निष्फदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ, तएणं से दिवे पिसायरुवे अरहन्नगं धम्मझायोवगयं पासइ, पासित्ता वलियतराग आसुरुत्ते त पोयवहण दोहि दृढ बना रहता है तो इस का परिणाम उसे विपाककाल मे कटु ही भोगना पडेगा-उसे दुरन्त प्रान्त लक्षण इम समोधन पद से योधित किया है । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में चन्द्रकला क्षीण रहती है इसलिये शुभ कारक चन्द्रकला से विहीन होने के कारण वह चतुर्दशी हीन पुण्य मानी जाती है देव कहता है कि मालूम होता है तेरा जन्म हुआ है अतः तू माग्य हीन है। इसलिये अरहनक श्रावक को उस ने हीन पुण्य चातुर्दशिक इस सयोधन पद से पोधित किया है। श्री ही आदि प्रत्येक में वर्जित पद के साथ सबोधन पद लगाकर देव ने अरहन्नक को सपोधित किरा है-जैसे हे श्री वजित हे ही वर्जित आदि । सामा. यिक, देशाव काशिक, पौपध, अतिधि सविभाग ये शील हैं। अणुव्रत ५ हैं । गुणत्रत हैं। यह सराय का धर्म है। इस तरह ४ शिक्षाव्रत, ५ अणुव्रत और ३ गुणव्रत ये १२ प्रकार आवक धर्म के यहां प्रकट किये गये हैं। सूत्र ॥२२॥
કાળમાં પકિણામ કટુ જ ભોગવવું પડશે આ જાણીને જ દેવે તેને “દુર ત પ્રાત લક્ષણ” આ પદથી સબક્યો છે કૃષ્ણ પક્ષની ચૌદશના દિવસે ચંદ્રકળા ક્ષીણરૂપે રહે છે એથી તે અમ ગળકારી ગણાય છે તે મગળકારી નહીં હોવાથી તે ચૌદશ હીન પુગ્ય ગણાય છે દેવ તેને કહે છે કે તારો જન્મ આવા સમયે જ થયું છે એથી તે અભાગિ છે અરહનક શ્રાવકને દેવે એટલા માટે જ હીનપુણ્યચાતુર્દેશિક પવડે સ બધિત કર્યો છેશ્રી, હી વગેરે દરેક પદની સાથે વર્જિત વિશેષણ લગાડીને જ દેવે અરહનકને સ બોધિત કર્યો છે જેમ કે- હે શ્રીવર્જિત ! હેહી વર્જિત વગેરે સામાયિક, દેરાવક સિક, પૌષધ, અતિથિ વિભાગ આ બધા શીલ છે અણુત પાચ છે ગુણવ્રત ત્રણ છે આ બધે શ્રાવકને ધર્મ છે આરીતે ચાર મિક્ષ વ્રત, પાચ અણુ-ત, અને ત્રણ ગુણાત આમ બાર પ્રકારને શ્રાવક ધર્મ અહી ચર્ચ पामा माया छ ॥ सूर" २२ "॥
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বাঘমকথা अभिन्नमुखरागनयनवर्णः भयाभागदप्रतिहतमायनेमतिम , दया-श्रदीनविमनो मानस भयसशयरहितत्वात् विशादवैमनस्यरहितचितः, अतएव-निश्रल' सुधीरः धर्मे दृढतर इत्यर्थः, निस्पन्द:-किंचिदपिरम्परहितः, तूष्णीक कृताकमयमः स मौन इत्यर्थ धर्मध्यानोपगतः धर्म यानमेन शरण कृन्य तत्परायणः विहरतिआस्तेस्म ॥मु०२२॥ प्रकार देव को मन में सयोधन करके उस अरहन्नक श्रमणोपासक ने मन ही मन कहा-और अभीत, अत्रस्त, अचलित, अमभ्रान्त, अना कुल, अनुदिग्न, चित्त बना रहा । निर्भय होने के कारण उस के मुख
और नेत्र की काति मे अन्तर नहीं आया। ' भय और सशय से रहित होने की वजह से उस का चित्त विषाद एव वैमनस्य से रहित रहा । इसीलिये अपने धर्म में दृढ बना हुआ वह जरा भी उस से विचलित नहीं हुआ। किन्तु चुपचाप मौन धारण कर एक धर्म ध्यान को ही इस स्थिति में शरण मान उसी मे वह तत्पर पना रहा । अप्रार्थित प्रार्थित आदि जो सोधन पद सूत्र में आये हैं उन का अर्थ इस प्रकार है-जिसे कोई भी नहीं चाहता है ऐसा अप्रा थित मरण होता है उसे भी अरहनक श्रावक चाह रहा है ।
— इसलिये देव ने उसे अप्राधित प्रार्थित इस समोधन से सबोधित किया है। देव ने यह समझ कर की यह अरहन्तक अपने धर्म पर यदि
1 અરહનક શ્રમણોપાસકે પાતાના મનમાં જ આમ કહ્યું અને તે અભીત
અત્રસ્ત, અચલિત, અસ બ્રાત, અનાકુળ, અનુદ્ધિન, ચિત્તથી શાતથઈને બેસી રહ્યો તે નિર્ભય હતું તેથી તેના મે અને આખોની કાતિમા જરાયે પરિવર્તન થયું નહિ
ભય તેમજ સરાય વગર હોવાથી તેનું ચિત્ત વિષા અને વૈમનસ્ય રહિત હતુ એથી જ તે પિતાના ધર્મ પ્રત્યે દૃઢભાવ રાખતા તે જરાએ વિચલિત થયે નહિ, પણ ચુપચાપ મૌન ધારણ કરીને ફક્ત ધમધપાનને જ આ સ્થિતિમાં શરણુ માનીને તેમાં તે તcરીન થઈ ગયે અનાથિત પ્રાર્થિત વગેરે જે સ બેધન પદે સૂત્રમાં આવ્યા છે તેનો અર્થ આ પ્રમાણે છે-કે જે મરણ ને ભેટવાનુ કેઈપણ ઈછે નહિ તે મરણને અરહનક શ્રાવક ઈચ્છી રહ્યો હતે એથી જ દેવે તેને અપ્રાતિ પ્રાતિ આ જાતના સ ધનથી સબ ધિત કર્યો છે અરહનક જે પિતાને ધર્મને વળગી રહેશે તે તેને વિપાક
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गारधामृतवदिणी टीका ८ अङ्गराजचरिते अरह प्रकथावकवर्णनम् ३६१ दढधम्मे नो दधम्मे सीलव्वयगुणे किं चालेति जाव परिचयइ णो परिच्चयइ त्तिक , एव सपेहमि, सपेहित्ता ओहि पउजामि पउंजित्ता देवाणुप्पिय ओहिणाआभोएमि, आभोइत्ताउत्तरपुरस्थिमं० उत्तरविउव्वियं० ताए उकिटाए गईए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया । तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता देवा. णुप्पियरस उवसम्ग करेमि, नो चेव णं देवाणुप्पिया , भीया वा०, त जपणं सके देविदे देवराया वदइ सच्चेणं एसमटे त दिद्वेणं देवाणुप्पियाण इड्डी जुई जसे भाव परकमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, त खामेमि णं शेवाणुप्पिया । खमतु णं देवाणुप्पिया । णाइ भुजोर एवं करणयाए त्तिकटु पजलिउड़े पायवडिए एयमट्ट विणएणं भुजोर खामेइ, खामित्ता अरहन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयति, दलयित्ता जामेव दिसि पाउन्मूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० २३॥ ___टीका । - 'तएण से दिव्वे ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स दिव्यः पिशाचरूपा-पिशाचरूपधारी, अरहनाम् अपहनकनामक श्रमणोपासक-श्रावकं 'दोच पि' द्वितीयवारमपि, तच्चपि-तृतीयवारमपि, एवम् उक्तमकररेण अवा दीन-हभो । अरहन्नक० ! अमार्थित प्रार्थित ! नो खलु कल्पते-तव शीलवत०
'तरण से दिग्वे पिसायरवे' इत्यादि। ___टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से दिव्वे पिसाय रूवे) उस पिशाचरूप धारी देव ने ( अरहन्नग समणोपासग) उस श्रमणोपासक अरहन्नक से (दोच्चपि तच्च पि ) दुबारा तियारा भी ( एव वयासी ) ऐसा ही कहा की हे अरहन्नक० । अप्रार्थित शर्थित मुझ में ऐसी शक्ति नही
'तएण से दिवे पिसायरूवे' त्यादि ____ -(तएण ) त्या “से दिव्वे पिसोयरूवे" १२४३३५ धाश देवे " अरहन्नग रमणोपारग" अभपास २०२न्न४थी "दोच्च पि तच्च पि" भी मन श्री १मत ५ " एव घयासी" मा प्रभारी धु-". અરબન્નક', અપ્રાર્થિત પ્રાર્થિત તમારા શીલ વિગેરે શ્રાવક ધર્મને બદલવાની કે
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माताधर्मकथा
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अगुलियाहि गिoes, गिपिहत्ता सत्तट्टतलाई जाव अरहन्नगं एव वयासी-हं भो । अरहन्नगा । अप्पत्थियपत्थिया जो खलु कप्पड़, तव सीलव्वय तहेव जाव धम्मज्झाणीवगए विह रइ । तएण से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो सचाएड निग्र्गथाओ० चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे सते जाव निधिवन्ने त पोचवहणं सणिय२ उवरिं जलस्स ठवेइ, ठात्तात दिव्व पिसायरुव पडिसाहरड, पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, चिउब्विता अतलिक्ख पडिवन्ने सखि खिणियाइ जाव परिहिए अरहन्नग समणोवासयं एव वयासी -हं भो । अरहरनगा | धन्नोऽसि णं तुम देवाणुप्पिया । जाव जीवियफले जस्स णं तव निग्गथे पावयणे इमेयारुवा पडिवत्ती लडा पत्ता अभिसमन्नगया । एव खलु देवाणुप्पिया । सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवर्डिसए विमाणे सभाप सुहम्माए वहूणं देवाणं मज्झगते महया सद्देणं आइक्खइ ४, एव खलु जबूद्दीवे२ भारहे वासे चपाए नयरीए अरहन्नए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खल सके केणइ देवेण वा दाणवेण वा णिग्गथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामेत्तए वा । तएण अह देवाणुपिया । सक्कस्स णो एयभट्ट सद्दहामि०, तएण मम इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जेत्था, गच्छामि ण अरहन्नयस्ल अतिये पाउब्भवामि, जाणामि तात्र अह अरहन्नग कि पिराधम्मे ? नो पियधम्मे
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भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० ८ अंगराजचरिते अरहनकायकवर्णनम् ३६६ मात्रान् यावत् ऊर्व गगने नीत्वाऽरहन्नके श्रावकमेवम्-उक्तप्रकारेण अवादीतहभो ! अरहन्नक ! अप्रार्थित प्रार्थित ! नो खलु कल्पते तब शीलव्रत तथैव सो ऽरहन्नकः पूर्ववदेव यानत् धर्मध्यानोपगतो विहरति-आस्ते स्म० । किसी भय के मौन सहित धर्म यान में ही मग्न देखा तो देख कर वह उस पर क्रोध के आवेश से अत्यत लाल पीला बन गया । और उसे पोतयान को उस ने अपनी दोनो अगुलियो-मध्यमा एव तर्जनी अगु लियों से-पकड लिया। (गिणिहत्ता मत्तट्टतलाइ जाव अरहन्नग एवं वयासी) पकड कर वह उसे ऊपर आकाश न सात आठ ताल प्रमाण आकाश भाग तक ले गया-ले जाकर फिर उस में अरहन्न श्रावक को इस प्रकार कहा - ( ह भो अरहन्नगा। अपत्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पइ तव सीलव्वय तहेव धम्मज्झाणोवगए विहरइ ) हे अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित ! मुझे तुम्हारे इन शीलवत आदिकों को विचलित आदि करना उचित नहीं हैं अतः तुम ही खुशी से उन्हे छोड दो-नही तो मैं तुम्रारी इस नौका को यहा से पटक कर पोनी में डुबो दूगाजिस से तुम असमाधि प्राप्त होकर आतध्यानादि के वशवर्ति घन मरणकाल से पहिले मृत्युके वश हो जाओगे । देवके इस कह ने पर अर. हन्नक श्रावकने कुछ भी ध्यान नही दिया प्रत्युत उसे मन ही मन કરીને ધર્મધ્યાનમાં જ તલ્લીન છે ત્યારે તે તેના ઉપર-કોધમા ભરાઈ લાલ પીળે થઈ ગયો, અને તેણે વહાણને પિતાની બે આગળીઓ-મધ્યમાં मन त नी-43 45डी दीधु " गिहित्ता सत्तद्वतलाइ जाव अरहन्नग एव वयासी' પકડીને તે વહાણને સાત આઠ તાલ પ્રમાણ જેટલું આકાશમાં લઈ ગયો અને લઈ જઈને તેણે અરિહન્તક શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહ્યું
(ह भो अरहन्नगा! अपत्थियपत्थिया । णो खलु कप्पइ तवसीलब्धय तहेव धम्मज्झाणोवगए विहरइ) .
હે અરહનક હે આપ્રાતિ પ્રાતિ! હુ તમને પિતાના શીલનત વગેરેથી વિચલિત કરૂ તે ચગ્ય ન લેખાય એથી તમે રાજીખુશીથી પોતાની મેળે જ તેમને ત્યજો નહિ તમારા વહાણને હુ અહીથી પટકીને પાણીમાં ડૂબાડી દઇશ જેથી તમે અસમાધિને મેળવીને આ ધ્યાન વગેરેના વશવતી થશે અને છેવટે મૃત્યુના સમય પહેલા જ મૃત્યુને ભેટશે દેવની આ વાત પર અરહુન્નક શ્રાવકે જરાએ ધ્યાન આપ્યું નહિ અને તેણે પિતાના મનમાં જ
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शांताधर्मकथावस
इत्यादि येन त्वं मार्तदुर्धटवशार्तः अर.माधिमाप्तः अथ ले चैन जीविताद् व्यपरो प्रयिष्य से इत्यन्त पूर्वोक्तमेववाक्य द्वितीयतृतीयवारमायुक्तवानित्यर्थः । तथापि सोऽरहन्नकः श्रापकः अदीन विमनो मानसः = विपाद मनस्य रहितचिचः, निलः = धीरः, निस्पन्दः = भयाभावद यम्परहितः = तुष्णीकः = भयरहिततत्वेन सभयंचा यापाररहितः यद्वा - कृतवी यमः, धर्मध्यानोपगतः, धर्मध्यानशरणमुपागतः विहरति आस्तेस्म० ।
ततस्तदन्तर खलु स दिव्यः पिशाचरूपोऽरहन्नक धर्मध्यानोगत पश्यति, दृष्ट्वा बलिततर कम् = अत्यन्तम् ० आशुरु = इंटिति क्रोधाविष्टस्तत् पोतवहन = नौका यन, द्वाभ्यामङ्गलीभ्याम् = तर्जनीमध्यमांभ्या गृह्णाति । गृहीत्वा सप्ताष्टतालप्रमाण हैं कि मैं तुम्हारे इन शीलादिकों का परिवर्तन आदि कर सकृ अतः तुम स्वय ही इन का परित्याग कर दो-तो ठीक है नही तो मैं तुम्हारी नौका को पानी में डुबा दूंगा ।
{
इस से तुम, आर्त्त रौद्रध्यान के वशवर्ती होकर असमाधि को प्राप्त हो जाओगे तथा मरण काल से पहिले ही जीवन से रहित शे जाओगे । इस तरह जैसा उस ने प्रथम वार कहा- द्वितीय और तृतीय वार भी अरहन्तक श्रावक को वैसा ही कहा- (तरण से दिव्वे पिसाय रूवे अरहन्नग धम्मज्झाणोवगय पासइ पसित्ता बलियतराग आलुरुत्ते त पोपवहण दोहि अगुलियाहिं गिण्हइ ) इस के बाद जब उस पिशाचरूप धारी देव ने अपनी बात पर ध्यान नही देते हुए अरहन्नक श्रावक को विषाद चैमनस्य से रहित चित्त होकर निश्चल रूप से विना
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તેમા કાઇ પણ જાતના ફેરફાર કરવાની મારામાં તાકાત નથી, જો તમે પેાતાની મેળેજ એમના ત્યાગ કરી તે ઠીક નહીં તે તમારા વહાણને હું પાણીમાં ડુબાડીદઈશ તેથી તમે આત્તરૌદ્ર ધ્યાનના વશવી થઈને અસમાધિને પ્રાસકરશે.
- તેમજ મૃત્યુના સમય પહેલા જ મૃત્યુને ભેટચે આ પ્રમાણે જેમ તેણે પહેલી વખત કહ્યુ હતું તે પ્રમાણે જ બીજી અને ત્રીજી વખત પણ અરહેન્નક શ્રાવકને દેવે કહ્યુ
( तएण से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नग धम्मज्झाणोवगय पास पासित्ता बलियतराग आसुरुते त पोयवहण दीहिं अंगुलियाहिं गिव्हs )
ત્યાર બાદ પિશાચરૂપ ધારી દેવે મરહનક શ્રાવકને વિષાદ અને વસ
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નસ્ય રહિત ચિત્તવાળા થઈને નિશ્ચળ રૂપી, ભય વગર થઈને, મૌન ધારણ
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अनगारधर्मामृतपणी टी० अ० ८ अहराजचरिते अरनकश्रावकवर्णनम् ३६३ मात्रान् यावत् ऊ. गगने नीत्वाऽरहन्नके श्रावकमेवम् उक्तप्रकारेण अवादीत्हो ! अरहन्नक ! अप्रार्थित प्रार्थित ! नो खलु कल्पते तव शीलनत - तथैव = सो Stः पूर्ववदेव या धर्मध्यानोपगतो विहरति = आस्ते स्म० ।
०
किसी भय के मौन सहित धर्मग्यान में ही मग्न देखा तो देख कर वह उस पर क्रोध के आवेश से अत्यत लाल पीला घन गया । और उसे पोतयान को उस ने अपनी दोनो अगुलियों-मयमा एव तर्जनी अगु लियों से पकड लिया । ( गिव्हित्ता मत्तट्ठतलाइ जाव अरनग एव वयासी) पकड कर वह उसे ऊपर आकाश न सात आठ ताल प्रमाण आकाश भाग तक ले गया ले जाकर फिर उस में अरहन्न श्रावक को इस प्रकार कहा - ( भो अरहन्नगा । अपत्थियपत्थिया ! णो खलु ह कप्पइ तव सीलव्वय तहेव धम्मज्झाणोवगए विहरह ) हे अरहानक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित मुझे तुम्हारे इन शीलव्रत आदिकों को विचलित आदि करना उचित नही है अतः तुम ही खुशी से उन्हें छोड दो नही तो मैं तुम्हारी इस नौका को यहा से पटक कर पानी में डुबो दूर्गाजिस से तुम समाधि प्राप्त होकर आर्त्तध्यानादि के वशवर्त्ति वन मर
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काल से पहिले मृत्युके वश हो जाओगे । देवके इस करने पर अरहन्नक श्रावकने कुछ भी ध्यान नही दिया प्रत्युत उसे मन ही मन
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કરીને ધમ ધ્યાનમા જ તલ્લીન ોંચે ત્યારે તે તેના ઉપર-ક્રોધમા ભરાઈ લાલ પીળા થઇ ગયો, અને તેણે વહાણુને પોતાની બે આગળીએ-મધ્યમા અને તર્જની-વડે પકડી લીધુ गिन्त्तिा सत्तट्टतलाइ जाव अरहन्नग एव वयासी ' પકડીને તે વહાણુને સાત આઠે તાલ પ્રમાણ જેટલુ આકાશમા લઈગયા અને લઈ જઈને તેણે અરહુન્નક શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહ્યુ
( ह भो अरहन्नगा । अपत्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पर तवसीलव्नय तदेव धम्मज्झाणोवगए विहरह )
હે અરહન્ન≤ ! હું આપ્રાર્થિત પ્રાતિ! હું તમને પેાતાના શીલવ્રત વગેરેથી વિચલિત કર્ તે ચૈગ્ય ન લેખાય એથી તમે રાજીખુશીથી પોતાની મેળે જ તેમને ત્યો નહિંતા તમારા વહાણુને હું અહીથી પટકીને પાણીમા ડૂબાડી ક્રેઈશ જેથી તમે અસમાધિને મેળવીને આન્તધ્યાન વગેરેના વશવતી થશે અને છેવટે મૃત્યુના સમય પહેલા જ મૃત્યુને ભેટશે। દેવની આ વાત પર અરહન્નક શ્રાવકે જરાએ ધ્યાન આપ્યુ નહિ અને તેણે પોતાના મન" જ
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ज्ञाताने कथासूत्रे
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ततस्तदनन्तर खलुस पिशाचरूपः पिशाचरूपधारी देवः, अरहनक यदा नो शक्नोति नैग्रन्य्यात् प्रवचनात् चालयितु न क्षोमयितु नाविपरिणमयितु वा 'ताहे, तदा स पिशाच: 'सते ' श्रान्तः = परिश्रम प्राप्तः स्थग्नः, मनसा खिन्न इत्यर्थः, यावद - अत्र यावत् करणेन - 'तते' परितते इत्यनयो सग्रह । तान्वः शरीरेण खेद माप्त, परितान्तः = सथा खिन्न, निच्चिन्ने निर्विण्णः उपसर्गकरणात् प्रतिनिवृत्त, तत् पोतवहन = नौकायान, शनैः शनैरुपरिजस्य, 'ठवेइ' स्थाप यति० 'ठावित्ता' स्थापयित्वा तद दिव्य पिशाचरूप 'पडिसाहर ' प्रतिसहरति सबोधित कर " मुझे इस निग्रर्थ प्राचसे कोइ भी देव विचलित नहीं कर सकता है " ऐसा ही विचार कहा तथा अडिग भावसे निर्भय धन मौन लिये हुए अपने धर्मध्यानमे ही वह स्थिर रहा।
( तरणं से पिसायरूवे अरहन्नग जाहे नो सचाएड, निग्गधाओ पावयणाओ चालित वा खोभित्तए वा विपरिणा मित्तए वा ताहे सते जाव निचिन्ने त पोयवहण सणिय उचरिजलस्स ठबेइ ) इस तरह वह पिशाच रूप धारी देव जय अरहन्तक श्रावक को निर्ग्रन्थ प्रवचन० से चलाने के लिये, उस से क्षुभित करने के लिये, विपरिणमित करने के लिये समर्थ नहीं हो सका तब श्रान्त और भग्न मन से खिन्न होकर वह उपसर्ग करने रूप अपने कृत्य से प्रति निवृत्त हो गया । और धीरे २ आकाश से उतार उस पोतयान को उस ने पानी के ऊपर रख दिया । ( ठावित्तात दिव्त्र पिसायम्व पडिसाहरइ )
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વિચાર કરીને ક્યુ આ નિગ્રંથ પ્રવચનથી મને કઈ પણ દેવ હટાવી શકશે નહિ ‘” આમ વિચારી ને નિશ્ચળ અને નિર્ભીય થઈને તે મૌન પાળતા તે પેાતાના ધર્મધ્યાન માજ તલ્લીન રહ્યો
(तरण से पिसायरूवे अरहन्नग जाहे नो सचाएइ निग्र्गथाओ पावयणाओ चालित वा खोभित्तएवा निपरिणामितवा ताहे सते जात्र निव्त्रिन्ने त पोयवह पू सणिय उवरि जलस्स ठवेइ )
આ પ્રમાણે પિશાચ રૂપધારી દેવ જ્યારે અહન્ન શ્રાવકને નિગ્રંથ પ્રવચનથી વિચલિત કરવામા, તેનાથી ક્ષુભિત કરવામા, વિપણિમિત કરવામાં શક્તિમાન થઈ શકયા નહી ત્યારે થાત અને લગ્નમનથી ખિન્ન થઈને ઉપ સ કરવા રૂપ પાતાના કમથી પ્રતિનિવૃત્ત થઈ ગયા અને આકાશમાથી धीमेधाभे उतरीने ते पहा! नेपाली उपर भूगंधु (ठाविचात दिव पिसायरुव परिसारण )
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०८ अहराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३६६ विलीनयति० । प्रतिसहत्य-पिशाचरूपमन्तर्हित कृत्वा दिव्य प्रशस्त परमसुदर देवरूप विकुर्वति प्रादुर्भाग्यति । विकुर्वित्या = दिव्य देवरूप प्रादुर्भाव्य, अन्तरिक्षपतिपन्ना=आकाशस्थित', 'सखिखिणियाड' सकिंकिणीकानि यावद् प्रवरवस्त्राणि परिहितः, स देवोऽरहन्नक अमणोपासकमेव वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हभो । अहो ! अरहन्नक ! धन्योऽसि खलु त्व, हे देनानुमिय ! यावत् त्वया जन्मजीवितफल लन्ध, यस्य खलु तव निर्ग्रन्थे प्रवचने इममेतद्पा पतिपत्तिः सम्यक्श्रद्धा रब्धा-उपार्जिता प्राप्ता-स्वायत्तीकृता०, अभिममन्वागता रखकर फिर उसने वह अपना दिव्य पिशाच का रूप समेट लियाअन्तर्हित कर लिया- (पडिसाहरित्ता दिव्व देवस्व विउव्वइ, विउन्धित्ता अतलिक्खपडिवन्ने सखिसिमियाइ जाव परिहिए अरहन्नग जाव समणोवासय एव चयासी) अन्तर्हित कर के फिर बाद में वह अपने वास्तविक दिव्यरूप में आ गया।
दिव्यरूप में आकर के उसने जो उस समय वस्त्रो को धारण कर रखा था-वे क्षुद्र घटिकाओ से युक्त बडे ही सुन्दर थे । आकाश में रह 'कर ही उसने श्रमणोपोसक अरहन्नक से इस प्रकार कहा-( भो
अरिहन्नगा ! धन्नो सि ण तुम देवाणुप्पिया जाव जीवियफले जस्सण तव निग्गये पावयणे इमेयारूवे पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया) अहो अरहन्नक | तुम धन्य हो। हे देवानुप्रिय तुमने यावत् जन्म और जीवन का फल प्राप्त कर लिया है जो इस निग्रंन्य प्रवचन मे इस प्रकार મૂકીને તેણે પિતાનું દિવ્ય પિશાચરૂપ અતિહિત કરી લીધુ
पडिसाहरित्ता दिव्य देवस्व विउच्वइ, विउविता अनलिक्खपडिवन्ने सखिणियाइ जाव परिहिए अरहन्नग जान समणोवासय एव वयासी)
અન્તહિંત કરીને તેણે પિતાના સાચા દિવ્ય રૂપને ફરી ધારણ કરી લીધું
દિવ્ય રૂપમાં પહેરેલા તેના વસ્ત્રો નાની નાની ઘૂઘરીઓવાળા ખુબજ સુંદર હતા આકાશમાજ સ્થિર રહીને તેમણે પાસડ અન્નકને આ પ્રમાણે કહ્યું
(ह भो अरिहन्नगा पन्नोसि ण तुम देवाणुप्पिया! नाव जीवियफले जस्त ण तब निग्गये पावयणे इमेयाख्या पडिपत्तीद्धा पत्ता अभिममन्नागया)
હે અહમ્નક તમે ધન્ય છે ! હે દેવાનુનય ! તમે એ પૂર્ણ પણે જન્મ અને જીવનનું ફળ મેળવી લીધું છે કેમ કે આ નિગ્ન થે પ્રવચનમાં આ રીતે
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ज्ञाताधर्मकया
सम्यगासेविता वर्त्तते । हे देवानुमिय | एवम् अमुना प्रकारेण ग्वल को देवेन्द्र 1 =परमैश्वर्ययत्वाद्देवानामिन्द्रः, देवराजः = देवानी राजा कान्त्यादिगुणाधिक्येन विराजमानत्वाद्, सौधर्मे = सौधर्मनामके प्रथमे कल्पे, सौधर्मावतसके विमाने सुधर्माया सुधर्मादाया सभाया देवसभाया बहूनां देवाना मध्यगतः = मध्ये स्थितः महता शब्देन उच्च स्वरेण, 'आइक्लइ ' ओख्याति = मामान्यरूपेण ब्रवीवि, भाप ते = विशेषतः कृपयति, मज्ञापयति = सामान्यतो बोधयति, प्ररूपयति, विशेषतः प्रतिनोधयति । किमित्याद ' एव खलु ' इत्यादिना ।
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की यह सम्यक श्रद्धा प्राप्त की है और उसे अपने आधीन कर लिया है । तथो वह श्रद्धा इस समय तक भी तुम्हारे द्वारा अच्छी तरह अचल रूप में सेवित हो रही है । ( एव खलु देवाणुपिया । सक्के देविंदे देवराया -सोहमे कप्पे सोहम्म वर्डिस विमाणे सभाए ) सुहम्माए ग्रहण देवाण मज्झगए महया सद्देण आह स्वई ४ ) मैंने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों किया इसका कारण यह है कि हे देवानुप्रिय ! एक दिवस परम ऐश्वर्यशाली देवों के इन्द्र शक देवराज ने सौधर्म नाम के प्रथम कल्प में सौधर्मावतसक विमान में अनेक देवों के बीच में बैठकर अपनी सुधर्मासभा में उच्चस्वर से पहिले तो सामान्य रूप से, कहा, बाद में भाषण द्वारा विशेष रूप से कहा । पहिले सामान्य रूप से समझाया, बाद में विशेषरूप से समझाया । उस मे उन्हों ने कहा - ( एव खलु जत्रूद्दीवे २ भारहे वासे चपाए नयरीए अरहन्नए सम
તમે સમ્યક શ્રદ્ધા મેળવી છે અને તેને સ્વાધીન બનાવ્યુ છે અત્યાર સુધી પણ તમે તે શ્રદ્ધા ને જ સારી રીતે અચળ રૂપે વળગી રહ્યા છે
( एन खलु देवाणुपिया ! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मव डिँसए बिमाणे सभाए सुहम्माए बहूण देवाणमज्झगए महए सद्दे आइक्खई ४) મે જે કઈ તમારી સાથે વર્તન કર્યું છે તેની પાછળનુ કારણુ આ પ્રમાણે છે કે હે દેવાનુપ્રિય 1 એક દિવસે પરમ અશ્વય શાળી દેવાના ઈન્દ્ર શક દેવરાજે સૌધમનામના પહેલા કલ્પમા સૌધર્મોવતસક વિમાનમા ઘણા દેવાની વચ્ચે બેસીને પેાતાની સુધર્માં સભામા મેાટા સાદે પહેયા તા સામાન્ય રૂપે કહ્યુ અને ત્યાર બાદ પેાતાના ભાષણ વડે વિશેષ રૂપમા કહ્યુ તેએ એ પહેલા સામાન્ય અને ત્યાર પછી વિશેષ રૂપમા સમાવતા કહ્યું
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( एव खलु जंबूदीवे२ भारदे वासे चपाए नगरीप अरहभप समणोवास
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अपहनक्शावकवर्णनम् ३६७
एव खलु जम्बूद्वीपेद्वीपे जम्बूद्वीपनीम के द्वीपे भारते वदक्षिणभरतक्षेत्रे चम्पाया नगर्याम् अरह नक' श्रमणोपासकोऽभिगतजीवाजीगो यावत्-सम्यक्त्वमूलदेशविरतिरक्षणे धर्मे दृढचित्तो वर्तते, असौ नो वलु शक्य केनापि देवेन या दानवेन वा इदमुपलक्षणम्-विन्नरेण वा, किंपुरुषेण वा महोरगेण वा गन्धर्वेण वा इतिसंयोज्यम् । तत्र देवो वैमानिको ज्योतिको वा दानवो भवनपति, इतरे विनरादयो व्यन्तरभेदाः, 'णिग्गयाओ' नैन्थ्यात् प्रवचनात् चालयितु ना यावत् क्षोभयितु वा, 'विपरिणामित्तऐं' विपरिणमयितु-विपरीताभ्यवसायोत्पदिनेनान्यथाभाव जनयितुं वा । जम्बूद्वीपान्तर्गतभरतक्षेत्रे चम्पानगरी निवासी-अरहनक नामकःश्रावको केनापि देवादिनाश्रावधर्माच्चालयितु न शक्यत इतिभाव।। जोवासए अहिंगयजीवाजीवे नो खलु सक्के केणइ देवेण वा दाण वेण वा णिग्गथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामेत्तए वा) देखो-जबूद्वीप नाम के द्वीप में दक्षिण भरत क्षेत्र में, चपा नाम की नगरी में जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता अरहन्नक नाम का श्रमणोपासक सेठ रहता है। ___ यह सम्यक्त्व मूल देश विरति रूपधर्म में इतना दृढचित्त हैं कि यह किसी भी देव दानव, किन्नर, किंपुरुप, महोरग, गन्धर्व द्वारा अपने निर्ग्रन्थ प्रवचनरूप गृहीत धर्म से विचलित नहीं किया जा सकता है।
क्षुभित नहीं किया जा सकता है । विपरीत अध्यवसाय के उत्पादून से उसमें अन्यथा भाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता है इन में वैमानिक एव ज्योतिषी देवो का देव पद से तथा भवनपति का दानव पद से ग्रहण हुआ है। शेष किन्नरादिको का कि जो व्यन्तर देव हैं उपलक्षण से ग्रहण किया गया है। अहिगय जीवाजीवे नो खेलु सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा णिग्गयाओं पा वयणाओ चालित्तए वा जाब विपरिणामेत्तए वा)
જુઓ-જે બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં દક્ષિણ ભરતક્ષેત્રમાં ચ૫ નામની નગરીમાં જીવ અજીવ વગેરે તત્ત્વોને જાણનાર અરહનક નામે શ્રમણોપાસક શેઠ રહે છે?
તે સમ્યકત્વમૂળ દેશ વિરતિ રૂપ ધર્મમાં આટલે બધે સ્થિર ચિત્ત છે કે ગમે તે દેવ દાનવ, કિન્નર કિંપુરુષ મહારગ, ગ ધ વડે પણ પિતાના નિ થ પ્રવચન રૂપ ધર્મથી તે વિચલિત થતો નથી
સુભિત તેમજ વિપરીત અધ્યવસાયના ઉત્પાદનથી તેમાં બીજો ભાવ ઉત્પન્ન થતું નથી અહી યા દેવપદથી વૈમાનિક અને જ્યોતિષી દેવેનુ તેમજ દાનવપદથી ભવનપતિનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે
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ज्ञाताधर्मकथा
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तत = देवेन्द्रवचनश्रवणानन्तर खल अह हे देवानुप्रिय 1 शक्रस्य नो ए तमर्थ श्रद्दधामि नो प्रत्येमि नो रोचयामि शोक्ताक्यार्थे मम विश्वासो न जाव इत्यर्थः । ततः खलु ममायमेतदृप = पक्ष्यमाणस्पः अभ्यर्थितः यावत् चिन्तितः, प्रार्थितः कल्पितः, मनोगतः सल्प' समुद्रपद्यत = समभवत् गच्छामि खलु रह स्थान्तिके समीपे प्रादुर्भनामिवाद् अहम् अरहर, शक्रेण प्रशमितो रहनः सफीदृशो वर्तते 'किं पियधम्मे किं प्रियधर्मा=प्रियो न यस्य स प्रियम, प्रीतिभावेन सुखेन च धर्मस्य वीकारात् मियधर्मा वर्तते किम् अथवा 'नोषि यधम्मे ' नो प्रियधर्मा स नास्ति मियधर्मा, तथा स्मिमो 'दधम्मे ' धर्मा विपत्सूपस्थितास्वपिधर्मस्यापरित्यागकरणात् दृढ = स्थिर' धर्मो यस्य स धर्मा
तात्पर्य इस का केवल एक यही है कि जबूद्वीप नाम का एक द्वीप है । उस में भरत क्षेत्र नाम का क्षेत्र है। उस मे चपा नाम की नगरी
| यह अरहनक नाम का श्रावक उमी नगरी का निवासी है। वह अपने धर्म में इतना अधिक दृढ है कि उसे अपने धर्म से विचलित कर ने की किसी भी देव दानव में शक्ति नही है । (तएण अह देवाणुप्पि या ! समस्oणो एयमह सहामि तष्ण मम इमेयास्वे अज्झत्थिए जाव समुपज्जेता) जय शक्र देवेन्द्र ने इस प्रकार कहा- तो उनके कथन को सुनने के बाद हे देवानुप्रिय मुझे उनके उन वचनों पर विश्वासश्रद्धा नही हुई वे उनके वचन मुझे रुचिकारक नही हुए । अतः मेरे मनमें इस प्रकार का अभ्यर्थित, चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित सकल्प उप्तन्न हुआ (गच्छामिण अरहनस्स अतिए पाउन्भवामि, जाणामि ताव अह તાત્પ—આ પ્રમાણે છે કે જ ભૂદ્વીપનામે દ્વીપ છે તેમા ભરતક્ષેત્ર નામે ક્ષેત્ર છે તે ક્ષેત્રમા ચપા નામે નગરી છે તે અરહન્નક શ્રાવક ચપા નામે નગરીમા વસે છે તે પેાતાના ધમમા એટલે ખા સુદૃઢ છે કે દેવ દાનવમા પણ તાકાત નથી કે તેઓ તેને પેાતાના ધમથી હટાવી શકે
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( तएण अह देवाणुपिया ! सक्कस्त० णो एयमट्ट सद्दद्दामि तएण मम इ मेयारुवे अज्झत्थिए जाव समुपज्जेत्था )
t
જ્યારે શક દેવેન્દ્ર આ પ્રમાણે કહ્યુ ત્યારે તેમની વાત સાભળીને મને તેમની વાત ઉપર શ્રદ્ધા તેમજ વિશ્વાસ એ નહિ મને તેમના વચન ગમ્યા પણ નહિ એથી મારા મનમા या भतनो अस्यर्थित, चिंतित, प्रार्थित, કૃષિત સ પ ઉત્પન્ન થયે
(गच्छामिण अरहनस्य अतिए पाउन्भवामि जाणामि तात्र अह अरहन्नगं कि
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अरहनकथावकवर्णनम् ३६९ अथवा ' नो दढधम्मे ' नो दृढधर्मा सोऽरद्दन्नको नास्ति दृढधर्मा ? स च शीलव्रतगुणान् किं चालयति = अपनयति यावत् परित्यजति, किं वा नो परित्यजति अत्र यावत् करणात् क्षोभवति किंवा नो क्षोभयति' खण्डयति किंवा नो खण्डयति १ उज्झति किं वा नो उज्झति ? इति बोध्यम् । इति कृत्वा = इत्येव मनसि विचार्य, एव समेक्षे, सप्रेक्ष्य अवधि = अवधिज्ञान प्रयुचे प्रेरयामि प्रयुज्य देवानुप्रियम् आभोगयामि पश्यामि | आभोग्य उत्तरपौरस्त्यम् - ईशानकोणदिग्भागं गच्छामि, गत्वा, ' उत्तरविउन्त्रिय ' उत्तरवैक्रिय करोमि, कृत्वा तयोत्कृष्टया गत्या - देवस म्वन्धिन्या गत्या व समुद्रः, यत्रैव देवानुप्रियस्तत्रैवोपागच्छामि, उपागत्य दे
अरनग कि पियधम्मे ? नो पियधम्मे दढधम्मे नो दृढधम्मे ? सील ध्वगुणे कि चालेति, जाव परिचयह, णो परिच्चयइ) कि चलो अरहनक के पास चलें और चलकर यह ज्ञातकरें कि अरहनक को धर्म प्रिय है, कि नही है, वह धर्म में दृढ है कि नही है । वह अपने शीलों को, व्रतो को और गुणों को छोडता है अथवा नही छोड़ता है, उन्हें क्षुभित करता है, या नही करता है, उनका खंडन करता है या नहीं करता है। प्रवचन में एक देश से भी उस में अतिचार लगाता है या नही लगाता है (तिम्ड एव सपेहेमि ) हे अरहनक ! मैंने ऐसा विचार किया (सपेहित्ता ओहिं पज्जामि ) विचार करके फिर मैंने अपने अवविज्ञान को जोडा (पउजिन्ता देवाणुपिय ओहिणा आभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरथिम० उत्तर विउव्विय० ताग उक्किट्ठाए गइए जेणेव देवाणुपिया तेणेव उवागच्छामि ) अवधिज्ञान को जोड कर मैंने उसके द्वारा आप देवानुप्रिय को देखा ।
पिम्मे नो दढम्मे ? सीलव्त्रय गुण किं चार्लेति जात्र परिच्चय, णो परिचयइ કે ચાલે! અર્હન્નકની પાસે જઇએ અને જઈને તપાસ કરીએ કે તેને ધર્માં પ્રિય છે કે કેમ ? તે પેતાના શીલેને, તેને અને ગુણેાને ત્યજે છે કે કેમ? તેમને ક્ષુભિત કરે છે કે નહિ ? તેમજ તેમનુ ખડન કરે છે કે કેમ ? अवयनभा मे हेराथी पशु तेमा अतियार लागे छे म १ ( ति कट्टु एव सपेहेमि ) हे अरहुन्न । मे या प्रमाणे विचार य ( सवेहिता अहिं पडजामि ) वियार हुने भे મારા અવધિજ્ઞાનથી સગતિ બેસાડી
( पडजित्ता देवाणुप्पिय ओहिणा आभोएमि आभोत्ता उत्तरपुर स्थिम उत्तर विउच्चिय०ताए उट्ठाए गए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुपिया तेणेत्र उत्रागच्छामि અને તેની સગતિ વડે દેવાનુપ્રિય તમને મે જોયા
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वाताधर्मकथाह
समर्थ
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तत = शक्रदेवेन्द्रद्रचनश्रवणान्तरख्लु अह हे देवानुमिय 1 अक्रम्य नो ए धामि नो मत्येमि नो रोचयामि, क्राक्यार्थे मम विश्वासो न जात इत्यर्थः । ततः खलु ममायमेतद्वष=क्ष्यमाणस्पः अभ्यर्थितः यावत् चिन्तितः प्रार्थितः कल्पित, मनोगतः सकल्पः समुदपद्यत = समभवत् - गच्छामि म्बलु रह नवस्थान्तिके समीपे मादुर्भनामि, सायद् अहम् अरहर, शक्रेण प्रशमितोऽहमकः सफीडो पर्व 'कि पिम्ये किं धर्मा=मियोधर्मो यस्य स प्रियधर्मा, प्रीतिभावेन सुखेन च धर्मस्य रवीकारात् मियधर्मावर्तते किम्, अथवा 'नो पि यधम्मे ' नो मियधर्मा स नास्ति मियधर्मा, तथा मिमों ' दम्मे धर्मा विपत्सूपस्थितास्वपिधर्मस्यापरित्यागकरणात् दृढ = रियर धर्मो यस्य म धर्मा
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तात्पर्य इस का केवल एक यही है कि जबूदीप नाम का एक द्वीप है । उस में भरत क्षेत्र नाम का क्षेत्र है । उस में चपा नाम की नगरी है । यह अरहनक नाम का श्रावक उमी नगरी का निवासी है। वह अपने धर्म में इतना अधिक दृढ है कि उसे अपने धर्म से विचलित कर ने की किसी भी देव दानव में शक्ति नही है । (तरण अह देवाणुपि या ! कसणी मठ्ठ सदामि तएण मम इमेयास्वे अज्झथिए जाव समुपज्जेत्या) जय शक्र देवेन्द्र ने इस प्रकार कहा- तो उनके कथन को सुनने के बाद हे देवानुप्रिय मुझे उनके उन वचनों पर विश्वासश्रद्धा नही हुई वे उनके वचन मुझे रुचिकारक नही हुए । अतः मेरे मनमें इस प्रकार का अभ्यर्थित, चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित सकल्प उभ हुआ (गच्छामिण अरहनस्स अतिए पाउन्भवामि, जाणामि ताव अह
તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે જ બુદ્વીપનામે દ્વીપ છે તેમા ભરતક્ષેત્ર નામે ક્ષેત્ર છે તે ક્ષેત્રમા ચપા નામે નગરી છે તે અરહે નક શ્રાવક ચ પા નામે નગરીમા વસે છે તે પેાતાના ધર્મોંમા એટલે બધા સુદૃઢ છે કે દેવ દાનવમાં પણ તાકાત નથી કે તેઓ તેને પેાતાના ધથી હટાવી શકે
( तएण अह देवाणुपिया ! सक्करस० णो एयमह सद्दद्दामि तएण मम इ मेरूवे अज्झथिए जाव समुपज्जेत्था )
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જ્યારે શક દેવેન્દ્રે આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે તેમની વાત સાભળીને મને તેમની વાત ઉપર શ્રદ્ધા તેમજ વિશ્વાસ બેઠા નહિં મને તેમના વચન ગમ્યા પણ નહિ એથી મારા મનમા या लतनो अस्यर्थित, चिंतित, आर्थित, કલ્પિત સ ક ઉત્પન્ન થયે
(गच्छामिण अरहनस्स अतिए पाउन्भवामि जाणामि तात्र अह अरहन्नर्ग कि
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अनगारधर्मामृतवपिणो टी०अ० ८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकधायकवर्णनम् ३७१ स्वधर्म दृढतारूप इति, पराक्रमः धर्माराधनजन्यशक्तिविशेषः, लब्धा-उपार्जितः, प्राप्त स्वायत्तीकृतः, अभिसमन्वागतः सम्यगासेवितः । अहो ! अरहनक । भवतामृद्धयादयो मया दृष्टा , यश्व पराक्रमो धर्मारापनाल्लब्धः प्राप्तोऽभिसमन्वागतश्व सोऽपि मया दृष्ट इति भावः।
तत्=तस्मात् क्षमयामि, खलु हे हेवानुप्रियाः ! भवन्तः, हे देवानुपियाः ! क्षमन्तु भवन्त हे देवानुमिया ! क्षन्तुमर्हन्ति भवन्तः । मत्कृताऽपराध क्षन्तु योग्या भवन्त इति भावः । नापि भूयोभूयः एष करणतया पुनः पुनरेव न करिष्यामि, इति कृत्वा-ए-मुक्त्या, प्राञ्जलिपुट =सयोजिताजली कृतकरद्वयपुट., पादपतितः पञ्चाङ्गनमनपूर्वक चरणयोः पतितः सन् एतमर्थम्-स्वकृतापराधरूप विनयेन-विनरूप पुरुषकार आपका धर्माराधन जन्य शक्तिरूप पराक्रम, ये सब गुण मैने देख लिया। इन सब गुणों को आपने अच्छी तरह उपार्जितकिया है।
अच्छी तरह इन सब को आपने अपने आधीन बनाया है। और अच्छी तरह से इन सर गुगों को आपने सेवित किया है । (त खामेमि, ण देवाणुप्पिया! खम तुण देवाणुप्पिया ! णाड भुजोर एव करणयाए त्तिकटु पजलिउडे पायवडिए एयमट्ट विणएग भुज्जो २ खामेड) अतः हे देवानुप्रिय ! आप को मैं ख माता है। आप देवानुप्रिय मुझे क्षमा करे! मैंने अभी तक जो आपके अपराध किये है मैं उन की आपसे क्षमा चाहता हूँ। आप मेरे अपराधों को क्षसो करने योग्य है। अब आगे मैं ऐसा नहीं करूँगा । इस प्रकार कह कर उस देवने अपने दोनो हाथों को जोडा और जोड़ कर फिर वह उस अरहनक आवक के चरणों में આત્મિક બળ, તમારૂ ધર્મમાદઢરૂપ પુરુષકાર, ધર્મની આરાધનારૂપ તમારૂ પરાક્રમ આ બવ ગુણે મે જોઈ લીધા છે તમે આ બધા ગુણ સારી પેઠે મેળવ્યા છે
આ બધાને સારી પેઠે તમે પોતાને સ્વાધીન બનાવ્યા છે. આ સર્વે ગુનું સેવન તમે સારી રીતે કર્યું છે
(त खामेमि ण देवाणुप्पिया ! गाइ भुज्जो २ एव करणयाए तिकटु पजलिउडे पायवडिए एयमह विगएण भुज्जो २ खामेइ )
એથી હે દેવાનુપ્રિય! તમને હુ ખમાવુ છુ દેવાનુપ્રિય તમે મને ક્ષમા કરે મે જે કઈ પણ તમારા અપરાધ કર્યા છેતેમની તમારાથી ક્ષમા ચાહુ છુ તમે મારા અપરાધ ક્ષમા કરવા યોગ્ય છે હવેથી ભવિષ્યમાં કોઈ પણ વખત મારાથી આવુ અપ વર્તન થશે નહિ આ રીતે કહીને તે દેવે પિતાના અને હાથ જોડયા અને ત્યારબાદ તેણે અરડ ન. શ્રાવકના પગમા
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माताधर्मकथा वानुमियस्योपसर्ग करोमि । नो चैत्र खलु देवानुप्रियाः ! भीता वा प्रसिता वा उद्विग्ना वा सजातभया या जाताः । तद्-तस्माद् यत् खलु शको देवेन्द्रोदेवरामो वदति, सत्यः खल एपोऽयों दृष्ट । तद् तस्मात् दृष्टा सलु देवानुमियाणा भव वाम् ऋद्धिा गुणानामैश्वर्यम् , घुतिः मान्तर तेजा, यशापयातिः, यावर-अत्र यावच्छन्देनेद द्रप्टव्यम् चल-शारीर पराक्रम, पीयम् भात्मिक पलम् , पुरुपकारः
देखकर मैं ईशान कोण फी और गया। वहा जाकर मैंने उत्तर वैक्रिय की रचना की-रचना कर उस देवभव सम्यधी उत्कृष्ट गति से जहां समुद्र था और जहां आप देवनुप्रिय थे वहा में आया (उवागच्छिन्ता देवाणुपियस्स उवसग्ग करेमि) आकर मैंने फिर आप देवानुप्रियके ऊपर उपसर्ग करना प्रारभ करदिया। (णो चेवण देवाणुप्पिया भीया वा त जण्णं सक्के देविंदे देवराया बदइ सच्चे ण एसमठे) परन्तु आप देवानु प्रिय भीत नहीं हुए, घस्त नहीं हुए त्रसित नहीं हुए उद्विग्न नहीं हुए और न उत्पन्न हुआ है भय जिस को ऐस ही हुए। इस लिये मैंने जैसा आपके विषय में शक्रदेव राजा देवेन्द्र ने कहा था वैसा ही आपको देखा-(त दिछेण देवाणुप्पियाण इड्डी, जुई जसे जाव परकमे, लद्धे पत्त अभिसमन्नागए) अब मैंने आपके गुणों का ऐश्वर्य देखलिया प्रत्यक्ष कर लिया। आपकी द्युति-आन्तरतेज, आपकी ख्याति यावत् शब्द से आप का शारीरिक पराक्रम, आपका आत्मिक बल आपका स्वधर्म में दृढता
ઇને હ ઈશાન કોણ તરફ ગયે ત્યાં જઈને મે ઉત્તર વૈકિયની રચના કરી, રચના કરીને તે દેવભવ સબંધી ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી જ્યા સમુદ્ર હતા અને જ્યાં દેવાનુપ્રિય તમે હતા ત્યા આ (उवागज्छित्ता देवाणुप्पियस्स उवसग्ग करेमि ) -આવીને દેવાનુપ્રિય તમારા ઉપર ઉપસર્ગ ( બાધા) શરૂ કર્યો
(णो चेव ण देवाणुप्पिया भीया वा त जण सक्के देविदे देवराया बदइ सच्चे ण एसमढे)
પણ દેવાનુપ્રિય તમે તેનાથી ડર્યા નથી, ત્રસ્ત થયા નથી, સિત થયા નથી, ઉદ્વિગ્ન થયા નથી તેમજ તમારામાં ભય ઉત્પન્ન થયે નથી એથી તમારા વિષે શક દેવરાજે જે કઈ કહ્યું છે તે તમને જેતા બરાબર લાગે છે (त दिटेण देवाणुप्पियाण इड्री, जुई जसे जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्त्रागए)
હવે મે તમારા ગુણેની સમૃદ્ધિ જોઈ લીધી છે તમારી વૃતિ આતર તેજ, તમારી પ્રસિદ્ધિ યાવત્ શબ્દ વડે તમારા શરીરનું શુરાતન, તમારૂ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणा टी०अ० ८ अङ्कराजचरिते अरहनका कवर्णनम् ३७१ धर्म तारूप इति पराक्रमः=धर्माराधनजन्यशक्तिविशेषः, लब्ध. = उपार्जितः, प्राप्तः = स्वायत्तीकृतः, अभिसमन्वागतः = सम्यगासेवितः । अहो । अरहनक ! भव तामृद्ध्यादयो मया दृष्टा, यश्च पराक्रमो धर्मारा नालन्धः प्राप्तोऽभिसमन्वागतच सोsपि मया दृष्ट इति भावः ।
तत्= तस्मात् क्षमयामि, खलु हे हेवानुप्रियाः । भवन्तः हे देवानुमियाः ! क्षमन्तु भवन्त हे देवानुमिया ! क्षन्तुमर्हन्ति भयन्तः । मत्कृताऽपराध क्षन्तु योग्या भनन्त इति भावः । नापि भूयोभूयः एव करणतया = पुनः पुनरेव न करिष्यामि, इति कृत्वा = एवमुक्त्वा, प्राञ्जलिपुट =सयोजिताञ्जली कृतकरद्वयपुटः, पादपतित. पञ्चाङ्गमनपूर्वक चरणयोः पतितः सन् एतमर्थम् = स्वकृतापराधरूप विनयेन = विनरूप पुरुषकार आपका धर्माराधन जन्य शक्तिरूप पराक्रम, ये सब गुण मैंने देख लिया। इन सब गुणों को आपने अच्छी तरह उपार्जित किया है । अच्छी तरह इन सब को आपने अपने आधीन बनाया है । और अच्छी तरह से इन सन गुगों को आपने सेवित किया है । (त खामेमि, देवापिया ! खम तुण देवाणुपिया ! णाइ भुज्जोर एव करण्याए त्तिकट्टु जलिउडे पायवडिए एयमड विणएग भुज्जो २ खामेइ) अतः हे देवानुप्रिय ! आप को मैं खनाता हूँ । आप देवानुप्रिय मुझे क्षमा करे ! मैंने अभी तक जो आपके अपराध किये है में उन की आपसे क्षमा चाहता हू | आप मेरे अपराधों को क्षमा करने योग्य है । अब आगे मैं ऐसा नही करूँगा । इस प्रकार कह कर उस देवने अपने दोनों हाथों को जोडा और जोड़ कर फिर वह उस अरहनक श्रावक के चरणों में
આત્મિક ; બળ, તમારૂ ધર્મમાદરૂપ પુરુષકાર, ધર્માંની આરાધનારૂપ તમારૂં પરાક્રમ આ બા ગુણા મે જોઇ લીધા છે તમે આ મા શુ મારી પેઠે મેળવ્યા છે આ બધાને સારી પેઠે તમે પેાતાને સ્વાધીન બનાવ્યા છે આ સર્વે ગુાનુ સેવન તમે સારી રીતે કર્યું છે
( त खामिण देवाणुपिया ! गाइ भुज्जो २ एव करणयाए किदु पलिउडे पायवडिए एयम विगएण भुज्जो २ खामेइ )
એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમને હુ ખમાવુ છુ દેવાનુપ્રિય તમે મને ક્ષમા કરી મે જે કઈ પશુ તમારા અપરાધ કર્યાં છે હુ તેમની તમારાથી ક્ષમા ચાહુ છુ. તમે મારા અપરાધેા ક્ષમા કરવા ચૈઞ છે. હવેથી ભવિષ્યમા ઇ પણુ વખત મારાથી આવુ અમેગ્ધ વર્તન થશે નહિ. આ રીતે કહીને તે વે પેાતાના બન્ને હાથ જોડયા અને ત્યારમાદ તેણે અરહન
શ્રાવકના પગમા
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हाताधकथा वानुपियस्योपसर्ग करोमि । नो चैन सलु देवानुप्रियाः ! भीता वा प्रसिता वा उद्विग्ना या सजातभया या जाताः । तद-तस्माद् यत् खलु शको देवेन्द्रोदेवरानो वदति, सत्यः खलु एपोऽर्थों घट । तद् तस्माद दृष्टा खलु देवानुभियागो भव ताम् ऋद्धि-गुणानामैश्वर्यम् , धुति-भान्तर तेना, यशारयातिः, याव-अत्र यावच्छन्देनेद द्रष्टव्यम् बलशारीर पराक्रम, वीर्यम्-आत्मिक पलम्, पुरुषकारः
देखकर मैं ईशान कोण की और गया। वहां जाकर मैंने उत्तर वैक्रिय की रचना की-रचना कर उस देवभव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जहां समुद्र था और जहां आप देवनुप्रिय थे वहा में आया (उवागच्छित्सा देवाणुपियस्स उवसग्ग करेमि) आकर मैंने फिर आप देवानुप्रियके ऊपर उपसर्ग करना प्रारभ कर दिया। (णो चेवण देवाणुप्पिया भीया वा त जण्णं सक्के देविंदे देवराया वदह सच्चे ण एसम?) परन्तु आप देवानु प्रिय भीत नहीं हुए, प्रस्त नही हुए असित नहीं हुए उद्विग्न नहीं हुए और न उत्पन्न हुआ है भय जिस को ऐसही हुए। इस लिये मेने जैसा आपके विषय में शक्रदेव राजा देवेन्द्र ने कहा था वैसा ही आपको देखा-(त दिछेण देवाणुप्पियाण डड्डी, जुई जसे जाव परकमे, लद्धे पत्त अभिसमन्नागए) अब मैंने आपके गुणों का ऐश्वर्य देखलिया प्रत्यक्ष कर लिया। आपकी युति-आन्तरतेज, आपकी ख्याति यावत् शब्द से आप का शारीरिक पराक्रम, आपका आत्मिक बल आपका स्वधर्म मे दृढता
જોઇને હું ઈશાન કેણ તરફ ગયે ત્યાં જઈને મે ઉત્તર પૈક્રિયની રચના કરી, રચના કરીને તે દેવભવ સબંધી ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી જ્યા સમુદ્ર હતા અને જયા દેવાનુપ્રિય તમે હતા ત્યાં આવ્યો (उवागज्छित्ता देवाणुप्पियस्स उत्सग्ग करेमि)
આવીને દેવાનુપ્રિય તમારા ઉપર ઉપસર્ગ ( બાધા) શરૂ કર્યો - (णो चेव ण देवाणुप्पिया भीया वा तं जण सक्के देविंद देवराया बदइ सच्चे ण एसम)
પણ દેવાનુપ્રિય તમે તેનાથી ડર્યા નથી, ત્રસ્ત થયા નથી, ત્રસિત થયા નથી, ઉદ્વિગ્ન થયા નથી તેમજ તમારામાં ભય ઉત્પન્ન થયો નથી એથી તમારા વિષે શક દેવરાજે જે કઈ કહ્યું છે તે તમને જેતા બરાબર લાગે છે (त दिटेण देवाणुप्पियाण इडी, जुई जसे जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमनागए)
હવે મે તમારા ગુણની સમૃદ્ધિ જોઈ લીધી છે તમારી વૃતિ આતર તેજ, તમારી પ્રસિદ્ધિ યાવત્ શબ્દ વડે તમારા શરીરનું શરાતન, તમારૂ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरित निरूपणम् ३३ पडिच्छित्ता मल्ली विदेहवररायकन्न सदावित्ता त दिवं कुडलजुयल मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए पिणद्धइ पिणद्वित्ता पडिविसज्जेइ तएणं से कुंभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे नावा वाणियगे विउलेणं वत्थगंध जाव उस्सुकं वियरइ, वियरित्ता रायमग्गमोगाढेइ आवासे वियरइ पडिविसज्जेइ, तएणं अरहन्नग सजत्तगा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता भडववहरणं करेंति, करित्ता पडिभडं 'गिण्हति, गिणिहत्ता सगडी० भरेति, भरित्ता जेणेव पोयपणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोतवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता भंड सकामेति, दक्खिणाणुकुलेणं वाउणा जेणेव चपा पोयहाणे तेणेव पोय लवेति, लवित्ता सगडी० लज्जेति, सजिचा तं गणिमं ४ सगडी० संकामेति, संकामित्ता जाव महत्थ पाहुड दिव्व च कुडलजुयल गिण्हति, गिमिहत्ता जेणेव चंदच्छाए अगराया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता त महत्थ जाव उवणेति, तएणं चदच्छाए अंगराया त दिव्वं महत्थं च कुडल युगल पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तं अरहन्नगपामोक्खे एव वयासी -तुम्भे णं देवा०। वहूणि गामागार जाव आहिडह लवणसमुद च अभिक्खण २ पोयवहणेहि आगाहेह, त अस्थियाइ भे केह कहिचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे ' तएणं ते अरहन्नगपामोक्खा चदच्छायं अगरायं एव वयासी-एव खलु सामी | अम्हे इहेव चम्पाए नयएि अरहन्नपामोक्खा वहवे सजत्तगा णावा वाणियगा परिवसामो, तएण अम्हे अन्नया कयाइ गणिमं च
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माताधर्मकथा 'म्रभावेन भूयोभूय क्षमयनि, समयित्वा जरहन्नकस्य द्वे कुण्डलयुगले ददाति दत्ता यस्या दिशः स देव मादुर्भूतस्तामे दिश प्रतिगत देवलोक गत इत्यर्थः ।।१०२३॥
मूलम्-तएणं से अरहन्नए निरुवसग्गमिति कटु पडिमं पारेइ, तएणं ते अरहन्नगपामोक्खा नावा वाणियगा दक्खि. णाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंवेति, लवित्ता सगडिसागड सन्जेति, सजित्ता तं गणिम ४ सगडि० सकामेति, संकामित्ता सगडी० जोएंति, जोइत्ता जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए वहिया अगुज्जाणसि सगडीसागड मोएइ, मोइत्तामिहिलाए रायहाणीए त महत्थ महग्य महरिह विउल रायरिहं पाहुड कुडलजुयलं च गिण्हति, गिमिहत्ता मिहिलं अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल० त महत्थ दिव्व कुंडल जुयल उवणेति । तएण तेसिं संजत्तगाणं जाव पडिच्छइ, पचाग नमन पूर्वक नमस्कार किया नमस्कार कर उसने अपने अपराध की उससे बड़े विनय के साथ चार २ क्षमा कराई। (खामित्ता) क्षमा कराकर (अरहनस्स) उसने अरहनक श्रावक के लिये (दुवे कुंडल जुयले दलयति-दलयित्ता-जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ) दो कुडल युगल दिये । देकर के फिर वह जिस दिशा से आया था-प्रकट हुआ था-उसी दिशा की ओर वापिस हो गया देवलोक को चलो गया । सूत्र "२३" । પચાગ નમનપૂર્વક નમસ્કાર કર્યા અને પિતાના અપરાધની બહુ જ વિનય સાથે पा२२ क्षमा रापी (खामित्ता) क्षमा ४२वीन (अरहन्नरस ते म२७न्न श्राप४ने (दुवेकुडलजुयले दलयति दलयित्ता जामेन दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए)
બે કુડળની જડ આપી તે આપીને જે દિશામાથી આવ્યું હતું, પ્રકટ यया तो श त२५ देसी rat २हो ॥ सूत्र “२३" ॥
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका १०८ अमराजचरित निरूपणम् ऽवतरणस्थ नि वर्तने, तत्रैवोपागछति, उपागत्य च पोत नाव, 'ल्वेंति, लम्बयन्ति तीरस्थाने व कुपु रज्ज्वादिभिर्निध्य स्थिरी कुर्वन्ति । लविता' लम्बयित्वाश कटी शाक टिमलधुर कटहच्छव टाना समूह सज्जयन्ति-नवीनोपकरणरज्वादिभिः परिप्फुर्वन्ति, सज्जयित्वा त गणिम धरिम मेय परिच्छेच चतुर्विध क्रयाणकसमूह शस्टीशाफटिके ' सकामेति सक्रामयन्ति स्थापयन्ति, सक्राम्यतेऽरहन्नक प्रमुखाः सायानिकाः शरटीशाकटिक योजयन्ति-वलीपर्दादिभियोजित कुर्वन्ति, योजयित्वा शक्टारूदास्ते यत्रैव मिथिला राजधानीवर्तते तत्रैवोपागच्छन्ति, उपा. गत्य मिथिलाया राजधान्या बहिरग्रोद्याने प्रधानोद्याने शकटीशाकटिक मोचयति-शकटेभ्यो चलीवन् पृथक्कुर्वन्ति, मोचयित्वा मिथिलाया राजधान्या तन्मसे जहा गभीर नाम का नौका के ठहर ने का स्थान था (वदर गाह था) वहा पहुचे । ( उवागच्छित्ता पोय लवेति) वहा पहुच कर उन लोगों ने नौका को खड़ा कर दिया-तीर स्थित अनेक खूटों मे रज्ज्वादि से उसे पांधकर स्थिर कर दिया । (लचित्ता सगडसागड़ सज्जेति) खडा करके छोटी छोटी गाडियों को और गाडो को तैयार किया-नवीन उपकरण एव रज्ज्वादि से उन्हें सज्जित किया। (सज्जित्ता त गणिम ४ सगडि ४ सकाति) सज्जित करके फिर उन्होंने उस गणिम, धरिम, मेय एव परिच्छेद्य रूप चतुर्विध-क्रयाणक को नौका से उतार कर उन गाडी गाडों में भरा (सकामित्ता सगडी० जोएति, जोइत्ता जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति ) भर कर फिर उन्हों ने उन्हें जोता-जोत कर जहा मिथिला नगरी थी वहाँ वे आये । (उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए पहिया अग्गुज्जाणमिसागडंसगडी मोएइ मोइत्ता मिहिलाए रायहाणीए त महत्थ महग्य महरिह विउल रायरिह पाहुड कुडलजुयल (उवागाच्छित्ता पोय लवे ति) त्या पहायान तमा नायने भी सभी (नानी होरीमाथी तेने सारी शते माधी बाधा (ल बित्ता सगड सागड सज्जे ति ) त्या२ पछी नानी मामा तेभर मोटर मासाने ही मेरे साधनाथी स र्या (सज्जित त गणिम ४ सगडि ४ स कामे ति) સજજ કર્યા બાદ તેમણે ગણિમ, ધરિમ, મેય અને પરિચ્છેદ્ય રૂપ ચાર પ્રકા ૨ની વેચાણની વસ્તુઓને નાવમાથી ઉતારીને ગાડીઓ અને ગાડાઓમાં ભરી (सकामित्ता सगडी० जोएति, जोपत्ता जेणेव महिला तेणेव उवागन्छति)
સામાન ભર્યા પછી તેમણે ગાડીઓ અને ગાડાઓને જોતર્યા અને જેતરીને જ્યા મિથિલા નગરી હતી ત્યા ગયા (उवागन्छित्ता महिलाए रायहाणीए वहिया अग्गुज्जाणसि सगडीसागड
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३७४
जाताधमेण्यास तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुंभगस्स रन्नो उवणेमो, तएण से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए त दिवे कुंडलजुयलं पिणद्धेइ, पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ, त एसणं सामी अम्हेहि कुभगराय भवणंसि मल्ली विदेह० अच्छेरए दिटे तं नो खल्ल अन्ना कावि तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसिया ,णं मल्ली विदेह०, तएण चदच्छाए ते अरहन्नगपामोखे सकारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्ता पडिविसज्जेड, तएणं चदच्छाये वाणियगजणियहरिसे दूत सदावेइ, जाव जइविय ण सा सयं रज सुका, तएण से दूते हह जाव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २२॥
टीका-'तएण' इत्यादि । ततस्तनन्तर खलु सोऽरहन्नका, 'निरूपसर्गम्' उपसर्गाभावो जात , इति कृत्वा-इतिविज्ञाय प्रतिमा साकारसस्ताररूप नियम विशेप पारयति स्म। ततस्तदनन्तर खल ते ऽरहन्नाप्रमुखा नोकावाणिजका. सायात्रिकाः दक्षिणानुकूलेन वातेन यत्रैप गम्भीरक गम्भीरनामक पोतपत्तन नौका
'तएण से अरहन्नए' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके याद (से अरहनए ) उस अरहनक श्रावक ने (निरुव सग्गामिति कट्ट) उपसर्ग दूर हो गया है ऐसा जानकर पडिम परेइ ) अपने साकारी सथारे को पारित किया।
(तएण ते अरहन्नग पामोक्खा नावावाणियगा दक्षिणानुकूलेणं वाएण जेणेव गभीरए पोचपणे तेणेव उवागच्छति ) इसके अनन्तर वे समस्त अरहनक प्रमुग्ध सायात्रिक पोत वणिक दक्षिणानुकूल वायु
'तएण से अरहन्नए' इत्यादि । ___टीर्थ-(तएण) त्या२ मा (से अरहन्नए) सरन श्राप निरुवस गामिति क१) ७५स (४८)तो रह्यो छे सेभ मानीने (पडिम पारेह) પિતાના સાકારી સથારાને પારિત કર્યો
(तएण ते अरहन्नगपामोक्खा नावाराणियगा दक्खिगानुकूलेग वाएण जे गंभीरए पोयपट्टणे तेणेप उवागच्छति )
ત્યાર પછી બધા અરહનક પ્રમુખ સાયાત્રિક પિત વણિકે દક્ષિણાનું કુળ પવથી જ્યા ગભીર નામે નાવને લાગવાનું બંદર હતુ ત્યા પહેમા
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नि
नने
पिणी टी० अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
३७४ नरममा च प्रतीच्छति-गृह्णाति, प्रतीच्छय-गृहीत्वा च मल्लौं विटेई राजम्यान ति, शब्दयित्वा च तद् दिव्य मनोहर कुण्डलयुगल मल्ल्या विदेई टोमा
'पिणढेइ' पिनद्धयति=पिनद्ध करोति परिपापयतीत्यर्थः । सर्जयति-तां कन्यान्त' पुरे स्वभृत्यै प्रापयति, ततस्तदन्तर खलु ता तान् अरहन्नरुपमुखान् नौकावाणिजकान् विपुलेन वस्त्रगन्ध
समान्य यावत् उच्छुल्क-शुल्कामार वितरति ददाति । अरहन्नतय
तृभ्यः क्रयविकयव्यवहारनियमित राजशुल्क मभृत्यैन ग्रहीव्य
प्रदत्तवानिति भावः । पितीर्य-शुल्काभावविपयफमाज्ञापत्र दत्वा, सलाः
को भेट किये। (तण्ण कुभए तेसिं सजत्तगाण जायें डिच्छित्ता मल्ली विदेघररायकन सद्दावेइ सद्दावित्तो तें जुयल मल्लीए विदेह वरराजकन्नगाए पिणद्धह) कुभक राजा पत्रिको की उस दिये हुए रत्नादि भेटको तथा कुण्डलमय
7 कर लिया-स्वीकार करने के बाद फिर विदेहवरराजकन्या करा -
री को बुलाया-धुलाकर वे दोनो दिव्य कुण्डल उस विदेह
या मल्लि कुमारी को पहिरा दिये। मेर
द्वित्ता पडिविसज्जेइ) पहिराकर फिर उसे वहां से दुतों के पान्तः पुर मे विसर्जितकर दिया। (तएणं से कुभए राया ते
पामोक्खे नावावणिगये विउले ण वत्थगध जाव उस्सुक्क मिति
इसके बाद कुभक राजाने उन अरहनक प्रमुख सायात्रिका का त्रि, गधमाला, अलकारो से सन्मान किया। सन्मान करके र तेसिं सनत्तमाण जाव पडिच्छइ, पडिन्छित्ता महीविदेह वररायकन्न वित्ता त दिन्न कुडलजुयल मल्ल र विदेह वरराज कन्नगाए पिणद्धई) રાજાએ તે સાયાત્રિકોની અને મોરની ભેટ તેમજ કુડળને કર્યા પછી વિદેહવર રાજકન્યા કુમારીને બોલાવી અને દિવ્ય કુળે વિદેહવરરાજકન્ય કુમારીને પહેરાવ્યા
पडिविसज्जेइ) परावी. ते
गा
रा--
૧૫થે ચાÉી કન્યા
- पामो
निउले ण वत्य
ग
-
.. नसूस)
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ज्ञाताधर्मकथाज्ञ
हा महाप्रयोजनक 'महम्य महा-हुमूल्यक, महार्ह महता योग्य विपुल विस्तीर्ण राजाई राजयोग्यं माभृतम् - उपहाररत्नादिक कुण्डल्युगल = देवेन द कुण्डलद्वय च गृहन्ति, गृहीला मिथिलामनुपशन्ति । अनुप्रविश्य यंत्र कुम्भकः = कुम्भक नामको मिथिला नरेशो पर्तते तनेोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिगृहीत शिर आवर्त दशनस मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तन्महार्थं प्राभृत रत्नादिक दिव्यं कुण्डल्युगल च उपनयन्ति =राज्ञ पुरत स्थापयन्ति । ततस्तदा खलु कुम्मको राजा तेषाम् = अरहन्तकादीना सायात्रिकार्णा नौकावाणिजकाना यावत् रत्नादि व गिण्हति गिण्हित्ता मिहिल अणुपविसति ) वहा आकर उन लोगों नेमिथिला राजधानी के बाहिर प्रधान यगीचे में उन गाड़ी गाड़ों को ढील दिया । ढील देने के बाद फिर उन्होंने मिथिला राजधानी में जाने के लिये उस महा प्रयोजन साधक, बहुमूल्य, महापुरुषो के योग्य रत्नादिकों को भेट (नजराने) को और देव प्रदत्त उन दोनों कुडलों को कि जो राजा के लायक थे लिया और लेकर वे मिथिला राजधानी में गये ( अणुपविसित्ता जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल० त महत्य दिव्य कुडलजुयल उवर्णेति ) वहा जाकर फिरवे जहा कुमक राजा थे वहां गये वहा पहुंचकर उन सबने राजा को दोनो हाथो की अजलि कर और उसे मस्तक पर रखकर नम स्कार किया ।
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बाद में साथ में लाया हुआ वह रत्नादिक रूप उपहार और कुडल मोह मोहत्ता मिहिलाए रायहाणीए त महत्य महग्ध महहि विउल रायरिहं पाहुड कुडल जुयल च गिण्हवि, गिण्डित्ता मिहिल अणुपविसति )
ત્યા પહેાચીને તેમણે ગાડીએ અને ગાડાઓને ઘેાડી દીધા અને ત્યાર ખાદ તેમણે મિથિલા રાજધાનીમા જવા માટે તે મહાપ્રયેાજનની સિદ્ધિ માટે અહુ કિમતી મહાપુરૂછ્યાને લાયક એવા રત્નેટ વગેરેની ભેટ તથા દેવે આપેવા અને કુંડળાને કે જેએ રાજાને યોગ્ય હતા તે લીધા અને લઈને તે મિથિલા રાજધાનીમા ગયા
( अणुपविसित्ता जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति उदागच्छित्ता करयल० त महत्थ दिव्व कुडलजुयल उपति )
ત્યા જઈને તેઓ જ્યા કું ભક રાજા હતા ત્યા પહેાચ્યા, ત્યા પહોંચીને તે બધાએ રાજાને બ ને હાથની અજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમન કર્યાં પછી સાથે લાવેલા રત્ના વગેરેના ઉપહાર તેમજ કુડળે તેમણે ભેટ કર્યો
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अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् ३७७ माभृत कुण्डलद्वय च प्रतीच्छति गृह्णाति, प्रतीच्छय-वीत्वा च मल्ली विटेह राज वरकन्या शब्दयति, शब्दायित्वा च तद् दिव्य-मनोहर कुण्डलयुगल मल्ल्या विदेह राजवरकन्यकाया 'पिणह' पिनद्धयति-पिनद्ध करोति परिमापयतीत्यर्थः । पिनद्धय प्रतिविसर्जयति-ता कन्यान्त' पुरे स्वभृत्यै प्रापयति, ततस्तदन्तर खलं स कुम्भको राजा तान् अरहनाप्रमुखान् नौकावाणिजकान् विपुलेन वस्त्रगन्धमाल्यावकारेण समान्य यावत् उच्छुल्म-शुल्काभार वितरति ददाति । अरहन्नकादिभ्योव्यवहतभ्यः क्रयविस्यव्यवहारनियमित राजशुल्क मभृत्यैनं ग्रहीव्य मित्याज्ञापत्र प्रदत्तवानिति भावः । वितीर्य-शुल्काभावविषयकमाज्ञापत्र दत्वा; उन्हों ने राजा को भेट किये। (तपण कुभ तेसिं सजत्तगाणं जावं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मल्ली विदेबररायकन सद्दावेइ सद्दावित्तो तें दिव्य कुडलजुयल मल्लीए विटेवरराजकन्नगाए पिणा) कुभक राजा ने उन सायत्रिको की उस दिये हुए रत्नादि भेटको तथा कुण्डलमय को स्वीकार कर लिया-स्वीकार करने के बाद फिर विदेहवरराजकन्या मल्ली कुमारी को बुलाया-बुलाकर वे दोनों दिव्य कुण्डल उस विदेह वरराजकन्या मल्लि कुमारी को पहिरा दिये ।।
(पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ ) पहिराकर फिर उसे वहा ले दूतों के साथ कन्यान्तः पुर मे विसर्जितकर दिया। (तएणं से कुभए राया ते अरहानगपामोक्खे नावावणिगये विउले ण वत्वगध जाव उस्सुक्क वियर) इसके बाद कुभक राजाने उन अरहनक प्रमुग्व सायात्रिका का विपुल, वस्त्र, गधमाला, अलकारो से सन्मान किया। सन्मान करके (तएण कुभए तेसिं सनत्तमाण जार पडिच्छद्, पडिन्छित्ता महीविदेह वररायकन्न सद्दावेड, सदायित्ता त दिव्य कुडलजुयल मल्लीए विदेह वरराज कन्नगाए पिणद्धइ)
કુ ભક રાજાએ તે સાયાત્રિની ને વગેરેની ભેટ તેમજ કુળને સ્વીકાર્યા સ્વીકાર્યા પછી વિદેહવર રાજકન્યા મતિવકુમારીને બોલાવી અને બેલાવીને બંને દિવ્ય કુડળે વિદેહવરરાજકન્યા મલ્લિકુમારીને પહેરાવ્યા
(पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ) परावीन तने इतनी माये त्याथी न्या તપુરમાં પહેચાડી
(तएण से कुभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे नावारणियगे विउले ण वत्य गध जाव उस्मुक वियरइ)
ત્યાર પછી કુલકરાજાએ અરહનક પ્રમુખ સાચાત્રિકેતુ વિપુલ વસ્ત્ર ગધ માળા અલકારવડે સન્માન કર્યું સન્માન કરીને તેમની વસ્તુઓને કર (મહેસૂલ
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ज्ञाताधर्मकथाप्रव
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हार्थे महामयोजनक 'महग्घ महामूल्य मा महता योग्य विपुर विस्तीर्ण राजाई राजयोग्य माभृतम् उपहाररत्नादिक कुण्डलयुगल देवेन द कुण्डलद्वय च गृहन्ति, गृहीला मिथिलामनुपमन्ति । अनुपविश्य यत्र कुम्मक = कुम्भकनामको मिथिला नरेशो पर्तते तनेोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिट हीत शिर आप दशनस मस्तकेऽञ्जलि त्या तन्महार्थं प्राभृत रत्नादिक दिन कुण्डल्युगल च उपनयन्ति=राज्ञ पुरत स्थापयन्ति । ततस्तदा खलु कुम्भके राजा तेपाम् = अरहन्नकादीना सायात्रिकार्णा नौकानाणिजकाना यावत् रत्नादि गिण्हति गिण्डित्ता मिलि अणुपविसति ) वहां आकर उन लोगों ने मिथिला राजधानी के बाहिर प्रधान यगीचे में उन गाड़ी गाड़ों को ढील दिया। ढील देने के बाद फिर उन्होंने मिथिला राजधानी में जाने के लिये उस महा प्रयोजन साधक, बहुमूल्य, महापुरुषो के योग्य रत्नादिकों को भेट (नजराने) को और देव प्रदत्त उन दोनों कुडलों को कि जो राजा के लायक थे लिया और लेकर वे मिथिला राजधानी में गये ( अणुपविसित्ता जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल ० त महत्य दिव्य कुडलजुयल उवर्णेति ) वहा जाकर फिरवे जहा कुमक राजा थे वहा गये वहा पहुंचकर उन सबने राजा को दोनो हाथो की अजलि कर और उसे मस्तक पर रखकर नम स्कार किया ।
बाद में साथ में लाया हुआ वह रत्नादिक रूप उपहार और कुडल मोर मोहत्ता मिहिलाए रायहाणीए त महत्थं महग्ध महम्हि विल रायरिहं पाहुड कुडल जुयल च गिण्हवि, गिण्डित्ता मिहिल अणुपवसति )
ત્યા પહેાચીને તેમણે ગાડીએ અને ગાડાઓને છેડી દીધા અને ત્યાર બાદ તેમણે મિથિલા રાજધાનીમા જવા માટે તે મહાપ્રયેાજનની સિદ્ધિ માટે અહુ કિમતી મહાપુરૂષાને લાયક એવા રત્ના વગેરેની ભેટ તથા દેવે આપેવા અને કુંડળાને કે જે રાજાને ચેાગ્ય હતા તે લીધા અને લઈને તે મિથિલા રાજધાનીમાં ગયા
( अणुपविसित्ता जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति उदागच्छित्ता करयल० त महत्थे दिव्व कुडलजुयल उणेति )
ત્યા જઈને તે જ્યા કુભક રાજા હતા ત્યા પહેાચ્યા, ત્યા પહેંચીને તેએ બધાએ રાજાને બને હાથની અલિ ખનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમન કર્યા પછી સાથે લાવેલા રત્ના વગેરેના ઉપહાર તેમજ કુંડળા તેમણે ભેટ કર્યો
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अभगारधामृतपिणी टीकाम०८ अक्षराजचरितनिरूपणम् पकरणरज्ज्वादिभिः परिकुर्वन्ति, सज्जयिला भाण्ड सकामयन्ति, स्थापयन्ति दक्षिणानुकूलेन वायुना यौव चम्पापोतस्थान-चम्पानगरीसमीपे नौकारतरणस्थान वर्तते तत्रैव पोत-नाव लम्बयन्ति-तीरस्थितानेकशङ्खघु रज्ज्वादिभिर्वद्धा स्थिरी कुर्वन्ति, लम्बयित्वा शकटीशाकटिक-लधुशकटबृहन्छकटाका समूह सज्जयन्तिपरिष्कुर्वन्ति, सज्जयित्वा तद् गणिम धरिम मेय परिच्छेद्य चतुर्विध भाण्ड शकटी शाकटिके शकटसमूहे सकामयन्ति स्थापयन्ति सक्राम्य यापद् महार्य माभृत दिव्य देवेन दत्त कुप्डदयुगल च गृह्णन्ति, गृहीत्वा चम्पानगया प्रविष्टा चन्द्रछायाचन्द्रन्छा यनामाऽङ्गराजः = अगदेशाधिपतिस्तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य तन्महार्थ यावद्
वहा आकर वे उन भवनो मे ठहर गये और वही रहते हुए वे अपनी फ्रयाणक गणिमादिरूप वस्तुओं का विक्रय करने लगे। और उनके विनय से जो मूल्य उन्हें प्राप्त होता था उससे दूसरी अपने व्य वहार के उपयोगी वस्तुओं को खरीदने लगे। इस तरह जब उन का सग्रह होचुका तर उन लोगों ने गाडी और गाडो को उनसे भरा-और भरकर मिथिला नगरी से प्रस्थित होकर जहा गभीरक नाम का पोत पत्तन था वहाँ आये । वहाँ आकर उन्होंने नौकायान को सज्जित किया (सज्जिता भड सकामेति, दक्षिणानुकलेण वाउणा जेणेव चपा पोयट्ठणे तेणेव पोय लति-लयित्ता सगडी० सज्जेति, सन्जित्ता त गणिम ४ सगडी० सकामेंति सक्राभित्ता जाव महत्थ पाहुड दिव्व च कुडल जुयल गिटित्ता जेणेव चदच्छाए अगराया तेणेव उवागच्छति । मज्जित
રાજાની આજ્ઞા મેળવીને અરહનક સાયાત્રિકે જ્યા રાજ માર્ગની પાસે રાજ મહેલ હતો ત્યા પહેચ્યા
ત્યાં જઈને તેઓ મહેલમાં રોકાયા અને ત્યાં રહીને જ તેઓ પિતાની વેચાણ માટેની વસ્તુઓનું વેચાણ કરવા લાગ્યા વેચાણથી તેઓને જે કઈ રકમ મળતી તેનાથી તેઓ પિતાના વેપાર માટેની બીજી વસ્તુઓની ખરીદી કરવા લાગ્યા આ પ્રમાણે વસ્તુઓને આ પ્રહ થયે ત્યારે તે લેકેએ ગાડીઓ અને ગાડાઓમાં વસ્તુઓ ભરી અને આ પ્રમાણે મિથિલા નગરીથી પ્રસ્થાન કરીને તેઓ જ્યા ગભીરડ નામે પતિ પત્તન હતું ત્યા ગયા ત્યા જઈને તેઓએ વહાણને તૈયાર કર્યું
(सज्जिचा भड सकामेति दकिवणानुकलेण वाउणा जेणेन चपापोयट्टणे तेणेव पोय त्यति लनित्ता सगडी० सज्जेति सज्जित्ता त गणिम ४ सगडी सकामेति सफामित्ता जार महत्थ पाहुड दिव्य च कुडळजुयल गिण्डति गिदित्ता जेणेव चदच्छाए अगाराया तेणेव उगच्छति)
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माताधर्मकथा रायमग्गमोगाढे ' राजमार्गमगाहान् राजमार्गममीपारस्थितान आवासान निवासस्थानानि पितरतिम्भरहन्नकादीनां वासार्थमाशा ददाति, प्रति विसर्जयति =एव व्यवस्था तदर्थ विधाय कुम्भको राजा स्वनिर्दिष्टानि वासस्थानानि गन्त मादिशति स्मेत्यर्थ । ततः सल अरहन्नक सायात्रिका यत्रत्र राजमार्गमत्र गाहिता राजमार्गसनिकृष्टा आसा मासस्थानानि वर्तन्ते तत्रोपागन्छन्ति, उपागत्य राजदत्तभवनेपु निवसन्तस्ते माण्डव्याहरण-गणिमादियम्य क्रयाणकास्तुजातस्य विक्रय कुर्वन्तिस्म० । कृत्या मातिभाण्ड-स्वकीय गणिमादिक भाण्डे विक्रीय तन्मूल्येन पुनरन्यत् मीत स्वोपयोगिाम्नुजातरूप भाण्ड प्रतिभाण्ड, तद् गृहन्ति-सचिन्वन्ति, गृहोत्या शकटी गारुटिक भरन्तिपूरयन्ति भृत्या मिथि लानगरीतः प्रस्थिता सन्तः यत्रै गम्भिरफ गम्भोरकारय पोतपत्तनम्नौकारोहण स्थान वर्तते तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतवहनम्नौकायान सज्जयन्ति-नवीनो उन की वस्तुओ पर से कर-टेक्स-माफ कर दिया। इन व्यवहारी अरहनकादिकों से क्रय विक्रय के व्यवहार पर नियमित राज शुक्ल मेरे नौकर न लेवे इस प्रकार का आज्ञा पत्र उन्हें लिखकर दे दियो । (विय रित्ता रायमग्गमोगाढेइ आवासेवियरह, पडिविसज्जे) शुक्ल भाव विषयक आज्ञापत्र प्रदान करके राजा फिर उन्हे राजमार्ग के समीप में रहे हुए राजकीय मकान ठहरने के लिये देदिये । इस प्रकार उनकी व्य वस्था करके बाद में कुभक राजा ने वहां से उन्हें विदा किया (तएणं अरहन्नग सजत्सा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे-तेणेव उवागच्छति उवागछित्ता भडववहरण करेंति, करित्ता पडिभड गिण्हति गिहित्ता सगडी० भरेंति, भरित्ता जेणेव गभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पोयवहण सज्जेति) राजा से विना विदा लेकर वे अर हनक सायात्रिक जन जहा राजमाग में राजकीय भवन थे वहां आये। માફક વેપારી અરહન્તક પ્રમુખ વગેરેની પાસેથી કય વિકેયના ઉપર મારા રાજ કર્મચારીઓ શુક(કર)લે નહિ આ પ્રમાણેનુ આજ્ઞાપત્ર રાજાએ તેમને લખી આપ્યુ (वियरित्ता रायमग्गमोगाढेइ आवासे वियरइ, पडिविसज्जेइ )
શુક માફીનું આજ્ઞાપત્ર તેમને આપીને રાજાએ રાજમાર્ગની પાસે આવેલ પિતાને મહેલ તેમને ઉતરવા માટે આપે આ પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરીને કુભક રાજાએ ત્યાંથી તેમને વિદાય કર્યા
(तएण अरहन्नग सजत्ता जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेत उवागच्छति, उवागच्छित्ता भडववहरण करेंति, करित्ता पडिभड गिण्हति गिण्डित्ता सगडी भरेंति, भरित्ता जेणेव गभीरए पोयपणे तेणेन उवागच्छति,उवागच्छित्ता पोयवहण सज्जेति)
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मनगारधर्मामृतर्पिणी टीका अ०८ अगराजचरितनिरूपणम प्रकारेणोक्तवान् हे देवानुपिया । यूय खलु वहून ग्रामागर०यावत्-अत्र यावत्क रणादिद द्रष्टव्यम्० 'ग्रामाफरनगरखेटकर्बट मडम्बहोगमुव पत्तन निगमसनिवेशान्' इति तत्र ग्रामो जनपद , आकर:-सुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानम् नगर-कररहित, सेटधूलीमाकार, कट कुनगर, मडम्प-दूरसर्ति सन्निवेशान्तर, द्रोणमुग्व-जलपथस्थ लपथयुक्त, पनन - जलपथ - स्थलपययोरे कतरेण युक्त, निगमो-वणियजनाधि ष्ठित , सनिवेश:-कटकादीनामावासः, तान् ग्रामादीन् ' आहिंडह' आहिण्ड ध्वे परिभ्राम्यथ, तथा लवणसमुद्र चाभीक्ष्ण २ पोतवहनः नौकायान , 'ओगाहेह' अवगाहध्वेन्तरथ, तत्=तस्माद् यूय कथयत-अस्ति चापि युष्माभिः किमपि कुत्र चिद् आश्चर्य दृष्टपूर्व पूर्व युष्माभिर्यत् किमप्याश्चर्य कुत्रचिद् दृष्टमस्ति, तान्मग्रे वर्णयतेत्यर्थ । ततस्तदनन्तर खलु तेऽरहन्नाप्रमुखाः व्यवहारिणश्चन्द्रच्छायमगरानमेवमवादिषु वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवन्तः-हेस्वामिन् ! एव खलु वयमिहैव चम्पाया नगर्याम् अरहन्नकममुखा वहवः सायात्रा नोकावाणिजकाः परिवसामः, सायात्रिक से इस प्रकार कहा-( तुम्भे ण देवाणुप्पिया बट्टणि गामा गर जाव आहिंडर, लवणसमुद्द च अभिक्खण २ पोयवहणेहिं ओगाहेह) हे देवानुप्रियो ! आप लोग अनेक ग्राम आकर आदि में परिभ्रमण करते रहते हो-तया लवण समुद्र को भी नौका यानी से वार २ पार करते रहते हो (त अत्थियाइ भे केइ कहिं चि अच्छेए दिव पुन्वे ? ) तो कहो यदि कहीपर आप लोगों ने कोई आश्चर्य देखा हो तो। (तएण ते अरहन्नग पामोक्खा चदच्छाय अगराय एव वयासी) ऐसा राजा की जिज्ञासा जानकर उन व्यवहारी अरहन्नक प्रमुखो ने अगदे. शाधिपति उन चदच्छाय राजा से इस प्रकार कहा- ( एव खलु सामी अम्हे इहेव चपाए नयरीए अरहन्नग पामोक्खा वहवे सजत्तगा णावा
( तुम्भेण देवाणुप्पिया पहूणि गामागार जाव आहिंडह लवणसमुद्द च अभिक्रवण २ पोयवहणेहिं ओगाहेइ )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ઘણું ગામ આકર વગેરેમાં પરિભ્રમણ કરતા જ રહો છે તેમજ લવણસમુદ્રને પણ વહાણ વડે વાર વાર પાર કરતા રહે છે
( त अत्थियाइ भे केइ कहि चि अच्छेए दिटुपुव्वे । ) तमे ५५ નવાઈની વાત જોઈ હોય તે બતાવે (तएण अरहन्नगपामोक्खा चदच्छाय अगराय एव पयासी)
અગદેશાધિપતિ રાજા ચદચ્છાયની જિજ્ઞાસા જાણીને અરહન્નક, પ્રમુખ એ તેને આ પ્રમાણુ કહ્યું-- (एव खलु सामी अम्हे इहेव चपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे
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पाताधर्मस्या माभृत दिव्य कुण्डल्युगल चोपनयन्ति, चन्द्रमायनृपस्याग्रे स्थापयतीत्यर्थः। तब खल चन्द्रन्छ।यनृपोऽङ्गाराजस्तद दिव्य महार्य कुण्डलपुर च प्रतीति हाति, मतीच्छय गृहीत्वा तान् अरहन्नरुपमुसान नौकापाणिनकान् एमादीत-वक्ष्यमान करके उसमें गाड़ी और गाड़ों से उतर कर अपने मांडों को रखा। दक्षिणानुकूल घायु के चलने पर फिर वे वहा से चले और चलकर जहां चपा नगरी के समीप में नौका के ठारने का स्थान था वहां आकर उन लोगों ने लगड़ डाल दिया अपनी नौका को टारा दिया।
नौका को ठहरा कर फिर गाड़ी और गाड़ों को मज्जित कियासज्जित करने के बाद उसमें से गणिमादि वस्तुओं को उतार २ कर उन गाड़ी और गाड़ों में भरा-मर कर फिर वे महार्य माधक प्राभूत (भेट) को और दिव्य कुडलयुगल को लेकर चपा नगरी में प्रविष्ट हुए। ' वहा प्रविष्ट होकर जहा अगदेशाधिपति चदच्छाय राजा थे-वहा गये। (उवागच्छित्ता त महत्व जाय उवणेति, तएण चदच्छाए अगराया त दिव्व महत्य च कुडलयुगल पडिच्छइ ) वहा पहुँच कर उन लोगों ने उस महार्थ साधक भेंट को और क्रडलयगल को राजा को भेट किया अगदेशाधिपति चदछाय राजा ने उस भेंट एव दिव्य महाय कुडल युगल को स्वीकार कर लिया-(पडिच्छित्ता ते अरहन्नकपामा पंखे एव वयासी) स्वीकार करके फिर उसने उन अरहन्नक आदि
તૈયાર કરીને ગાડીઓ તથા ગાડાઓમાથી પિતાના ભાડને તેમા મૂકયા દક્ષિણનુકૂળ પવન વહેવા લાગે ત્યારે તેઓ ત્યાંથી ચાલ્યા અને ચપા નગરીના પાસે વહાણને ઉભુ રાખવાની જગ્યા હતી ત્યા વગર નાખ્યું અને વહાણ ઉભુ રાખ્યું
વહાણ ઉભુ રાખીને ગાડીઓ અને ગાડાઓને તયાર કરીને તેમા ગણિમ વગેરે વસ્તુઓ વહાણુમાથી ઉતારીને મૂકી અને ત્યાર પછી મહા સાધક લેટ અને દિવ્ય કુડળની જોડ લઈને ચ પ નગરીમા ગયા
ત્યાં જઈને જ્યા અગદેશાધિપતિ ચ દછાય રાજા હતા ત્યા ગયા (उवागच्छित्ता त महत्थ जाव उवणेति तएण चदच्छाए अगाराया त दिव्य महत्थ च कुडलयुगल पडिच्छइ )
ત્યાં પહોંચીને તેઓએ મહાર્થ સાધક ભેટને તેમજ કુડળની જે રાજાને ભેટ કરી અગરેશના રાજા ચ દછાયે પણ તે ભેટ તેમજ દિવ્ય भला नी ने स्वाक्षरी (पडिच्छित्ता त अरहन्न कपामोखे एव वयासी) સ્વીકાર્યા બાદ તેણે અરહનક વગેરે સાયાત્રિકોને આ પ્રમાણે કહ્યું- -
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___ अनगारधर्मामृतपिणो टी० अ०८ अद्गराजचरितनिरूपणम
'मल्लोए ' मल्ल्या =मल्लीनाम्न्या विदेहराजपरकन्यायाः समन्यकायास्तद् दिव्य कुण्डलयुगल पिनद्धयति, पिनद्वय परिधाप्य प्रतिविसर्नयति । हे सामिन् ! तदेपा खलु अस्माभिः कुम्मकस्य राज्ञो भवने, मल्ली विदेहराजवरकन्या-विदेह राजस्य कुम्भकस्य परा सर्वगुणयुक्तत्त्वात् श्रेष्ठा कन्या, आश्चर्य दृष्टम् अवलोकितम् ।
तत् नो खलु अन्या काऽपि तादृशी देवकन्या वा यानत् अत्र यावच्छन्देनेद द्रष्ट __ व्यम्-'असुरकन्ना वा-नागकन्ना वा जवखफन्ना वा गधधकन्ना वा राजकन्ना
वा' इति । असुरकन्या वा नागकन्या वा यसकन्या वा गन्धर्वकन्या वा राजकन्या वा, इति सस्कृतम् , यादृशी खलु मल्ली विदेहराजनरकन्या, यादृशी मिथिलारी (तएण से कुभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए त दिव्व कुडलजुयल पिणद्वेइ ) भेट को स्वीकार करके उसी समय उन अभक राजा ने अपनी विदेह राजवर कन्या मरली कुमारी को बुलाया और घुलाकर वे दो कुडल उसे पहिना दिये । (पिणद्धित्ता पडिविसज्जेड ) और पहिना कर फिर उसे कन्यान्तः पुर मे प्रति विसर्जित कर दिया। (त एसण सामी अम्हें रिं कुभरायभवर्णसि मल्ली विदेह अच्छेरए दिहे, त नो खलु अन्ना कावि तारिसिया देव कन्ना वा जाव जारिसियाण मल्ली विदेह) इस तरह हे स्वामीन् ! हमने कुभक राजा के भवन में सर्व गुण स पन्न विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी रूप अश्चर्य देखा है।
हमारी दृष्टि मे अन्य कोई भी ऐसी देव कन्या, असुर कन्धा, नाग कन्या, यक्ष कन्या, गधर्व कन्या अथवा राज कन्या आश्चर्य रूपा नही है ગયા ત્યાં જઈને અમે તેમની સામે ભેટ તેમજ કાનના કુડળની જોડ મૂકી (तएणं से कुभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए त दिव्य कुडलजुयलं पिणद्धेइ)
ભેટ સ્વીકારીને તે જ વખતે કુભક રાજાએ પોતાની વિદેહ રાજવરકન્યા मसी शुभाशन मापी मन मोसावी उमेतेने पडसच्या (पिणद्धिता पडिपिसज्जेइ,) मने पडरावीन ते अन्यान्त पुरमा भzal lथी
(त एसण सामी अम्हें हिं कुभरायभवणसि मल्ली विदेहअच्छेरए दिद्वेत नो खलु अन्ना कावि तारिसिया देवकना या जार जारिसियाण मल्लीनिदेह०) આ પ્રમાણે તે સ્વામી ! અમે કુભક રાજાના મહેલમાં સર્વગુણ સંપન્ન વિદેડ રાજવર કન્યા મલી કુમારીના રૂપમાં આશ્ચર્ય જોયુ છે
અમારી સામે બીજી કોઈ પણ દેવકન્યા અસુર કન્યા, નાગ કન્યા, યક્ષ કન્યા, ગાધકન્યા, અથવા તે રાજકન્યા નથી કે જે એવી વિદેહ રાજવર કન્યા મલી કુમારી જેવી આશ્ચર્ય રૂપ હોય
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કેટર
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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ततः खलु प्रयमन्यदा कदाचिद् अन्यस्मिन् कस्मित्रिसमये गणिम च ४ गणि मादि चतुर्निध याणक पोतने भृला समुद्रे प्रस्थिताः, तथेत्र अहीनातिरिक्त= न न्यूनाधिक, किंतु यवाट वचैव भवताममे कथयामः यावत् समुद्रे गच्छन्तो वय गम्भीरपुरपतन=नौकावतरणस्थान प्राप्य शकटसमूहे सर्व कयाणक भृत्वा मिथिलायाँ नगर्यां हिस्थाने शस्टमनस्थाप्य कुम्मस्य राजोदर्शनार्थं मिथिला नगरीं प्रविष्टाः यावत् - कुम्भकस्य राज्ञ माभूत दिव्य कुण्डलयुगल चोपनयामः, कुरमनुपायोपहार वय प्रदत्तवन्त इत्यर्थः । तदा खलु स कुम्भक. वणिया परिवसामो तरण अम्हें अन्नपा कमाइ गणिम च ४ तहेव अहीणमतिरिक्त जाव कुभगस्स रनो उवणेमो) स्वामीन् सुनो हम अरहन्त्रक प्रमुख अनेक सायात्रिक पोत नणिक यही चपा नगरी में रहते हैं हम लोग किसी एक ममय, गणिमादि चतुर्विध याणक को पोत वहन में भरकर यहा से समुद्रीय रास्ते से होकर मिथिला राजधानी गये हुए थे । वहा हम ने जो कुछ देखा वह आपके समक्ष न न्यून रूप में और न अधिक रूप मे किन्तु जैसा देखा वैसा ही हम निवेदित करते है- हम लोग नौका से यहाँ से प्रस्थित होकर गभीरक पोत पत्तन पर पहुँचे वहा उतर कर हम लोगो ने समस्त अपना कयाणक शकटों " भर दिया। वहा से चल कर फिर हम लोग मिथिला नगरी के बाहिर एक उद्यान में गाडियों को रख कर कुमक राजा के दर्शन करने के लिये मिथिला नगरी गये । वहां राजा के समीप पहुँच कर हम लोगों ने उनके समक्ष अपनी भेट रख दी और कानो के दो कुडल भी
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सजत्तगा णावा वणियमा परित्रसामो तरण अम्हे अन्नया कयाइ गणिम च ४ तहेव अहीणमतिरित्त जाव कुभगस्स रन्नो उवणेमो)
હે સ્વામી । અમે અરહન્નક પ્રમુખ અનેક સાયાત્રિક પાત વાણિકા અહી ચ પાનગરીમા જ રહીયે છીએ
અમે કોઇ વખત ગણિમ વગેરે ચાર જાતની વૈચાણુની વસ્તુએ પાત વહન ના મૂકીને અહીથી સમુદ્રના માગેથી મિથિલા રાજધાનીમા ગયા હતા ત્યા અમે જે કઈ જોયુ છે તે તમારી સામે વધારે પડતુ પણ નહિ તેમજ ઓછુ પણ નહિ એટલે કે ત્યા જેવી રીતે જે રૂપમા અમે જોયુ છે તે વિષે તમારી સામે નિવેદન કરીયે છીએ અમે લેાકેા અહીથી વહાણુ વડે પ્રસ્થાન કરીને ગ ભીરક પાતપત્તન ઉપર પહાચ્યા ત્યા ઉતરીને અમે વેચાણની ખી વસ્તુએ ગાડામા ભરી ત્યાર પછી ત્યાથી ચાલીને મિથિલા નગરીની બહાર • ઉદ્યાનમાં ગાડીઓને ઉભીરાખીને કુ લફ રાજાના દર્શન માટે મિથિલા નગરીમા
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narratafort टीका अ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम्
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अत्र यावत् कहणादिद द्रष्टव्यम्-शब्दविला चैनमनादीत् - हे देवानुमिय। त्व मिथिलाया नगर्य गत्वा कुम्भक राजान ब्रूहि तत्र कन्यका मल्ली चन्द्रच्छायो वाञ्छति' इति । यद्यपि च खलु सा स्वय राज्यशुल्का = राज्यार्थीनी, एव चेत्तस्याः समग्र राज्य समर्पयामीति भावः । ततस्तदनन्तर खलु स दृतचन्द्रच्छायनृपाज्ञया हृष्टतुप्ट ==भत्यन्त प्रमुदितः सन् यावत् कतिपय सैन्यसहितो रथारूढः प्राधारयद् गमनाय=गन्तु प्रवृत्त इत्यर्थः । इति द्वितीयस्य चन्द्रच्छायनाम्नो नृपस्य सम्बन्धः कथितः ॥ मु०२४ ॥
मूलम् - तेण कालेणं तेणं समएण कुणाल नाम जणवए होत्था, तत्थ पण सावत्थी होत्था, तत्थ णं रुप्पी कुणालाहि - वई नाम राया होत्या, तस्स णं रुप्पिस धुया धारिणीए देव असा सुवाहुनाम दारिया होत्था, सुकुमाल० रूत्रेण य जोवणेणं लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किहसरीरा जाया यावि
श्रवणसे मल्ली कुमारी के ऊपर जिसका अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे उस चन्द्रच्छाय राजा ने उसी समय दूत को बुलाया। बुला कर उससे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम मिथिला नगरी में जाकर कुभक राजासे कहो कि आपकी पुत्री मल्ली कुमारी को चद्रच्छाया राजा चाहते हैं ।
यदि वह पुत्री मेरे समस्त राज्य को चाहेगी तो में उसे अपना समस्त राज्य समर्पित कर दूंगा। इस तरह वह दूत चद्रच्छाय राजा की आज्ञा से हर्षित एव सतुष्ट होता हुआ कतिपय सैन्य सहित वहा से रथ पर आरूढ होकर मिथिला नगरी की ओर प्रस्थित हो गया । इस तरह यह द्वितीय चद्रच्छाय नामके राजा का सबब कहा । सूत्र २४ "
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ચદાય રાજાએ તરત જ દૂતને ખેલાવ્યા અને તેને કહ્યુ-હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મિથિલા નગરીમા જઇને કુભ રાજાને કહેાકે તમારી પુત્રી મલી કુમારી ને ચ દહાય રાજા ચાહે છે
જે તે પુત્રી મારા આખા રાજ્યને પણ ઈચ્છશે તેા હુ તેને પેાતાનુ ૨ જ્ય મમવા તૈયારે છુ આ રીતે દૂત ચદ્રછાય રાજાની આજ્ઞાથી હર્ષિત તેમજ સતુષ્ટ થતે। નથી કેટલાક સૈન્યની માથે ત્યાથી રથ ઉપર સવાર થઈને મિથિલા નગરી તરફ ચાલ્યેા. આ પ્રમાણે આ ખીન્ન ચ દ્રષ્ટાય નામના રાજા ના સબધ વિષે કહ્યુ ।। સૂત્ર
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99 ૨૪ 11
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माताधर्मकथा.
श्वरस्य कुम्भस्य कन्यका मल्ली दिव्याथर्यरूपा निगनते, नाति वाशी कोऽपिदेवकन्या तथा न सन्त्यसुरकन्यकादयः काश्रिपि सुन्या इति भावः ।
ततस्तदनन्तर खलु च द्रच्छायनामा नृपस्वान अरहन्नकममुखान् सत्कार यतिबखादिना तेपा सत्कार करोति, सम्मानयति- मधुरवचनादिना प्रशसति । सत्कृत्य समान्य प्रतिविसर्जयति । तेभ्योऽरहन्न कादिम्यो व्यभ्यः क्रयविक्रय व्यवहारेषु राजकीय शुल्क मदोषभृत्यैर्न ग्रहीतव्यमित्याज्ञापत्र दस तान विस जयति स्मेत्यर्थ । ततः खलु चन्द्रच्छायो वाणिजकजनितद्दर्पः = अरहन्नोदि वाणिजकवचनश्राणेन मल्लीकुमाया सजातानुरागः सन् दूत शब्दयति यावद्= जैसी कि विदेह राजपर कन्या मल्ली कुमारी है । (तरणं चच्छाए ते अरहनगपामोक्खे सकारे, सम्माणे सकारिता सम्माणिसा, पडिविसज्जेह, तरणं चदच्छा वाणियगजनियररिसे दूत सदावेई, जाव जइ विग्रण सा सय रज्जसुक्कों, तएण से दूते रहे जायें पहारेत्था गमणाए ) इस प्रकार उन अरहन्त्रक प्रमुख सांयांत्रिकों के मुग्व से मल्ली कुमारी रूप आश्चर्य श्रवण करं चदच्छाय राजा ने उन अरहनक प्रमुख पोत वणिको का वस्त्रादि प्रदान द्वारा सत्कार किया और मधुर वचनादि द्वारा उनकी बहुत २ प्रशंसा की ।
बाद में उन्हें अपने पास से राजकीय शुल्क माफ कर विसर्जित कर दिया उन्हें इस प्रकार का " मेरे भव्य जन इन अरहनक आदि व्यवहारी जनों से क्रय विक्रय के व्यवहार में राजकीय शुल्क न लेवें आज्ञा पत्र लिखकर दे दिया । पश्चात् उन अरहनक आदि वणिगजनोंके वचनों के
( तएण चदच्छाए ते अरहनगपामोक्खे सकारेइ, सम्माणे सकारिता, स माणित्ता पडिविसज्जेइ तएण चदच्छाए वाणियगजणियहरिसे दूत सद्दावेइ जात्र जह वियण सासय रज्जसुक्का तएण से दूते हट्ठे जाव पहारेत्य गमणाएं ) આ રીતે તે અરહનક પ્રમુખ સાયાત્રિકાના મેાથી મત્લીકુમારી રૂપ આશ્ચય સાભળીને ચ દૃચ્છાય રાજાએ અરડુન્તક પ્રમુખ તે પાત વાણિકાના વસ્ર વગેરે આપીને સત્કાર કર્યાં તેમજ મધુર વચના વડે તેમના ખૂબજ વખાણુ કર્યો ત્યાર બાદ રાજકીય કર (મહેસૂલ) માફ કરીને તેમને વિદાય કરતી વખતે “ મારા તમામ રાજકમ ચારીઓ અરહન્નક વગેર વેપારીએ પાસેથો ક્રય વિક્રયના વ્યવહારમા રાજકીય કર લેવા નહિ ” આ જાતનુ આજ્ઞાપત્ર લખી આપ્યુ ત્યાર પછી અરહન્નક વગેરે વિણક જનાના મેાથી સાભળેલા વચનાથી મલીકુમારી ઉપર જેમના હ્રદયમા પ્રેમ ઉત્પન્ન થયા છે, એવા તે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् णेंति, तणं सुचाहृदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ, तएणं से रुप्पी राया सुबाहुदारिय अंके निवेसेइ, निवेसित्ता सुवाहुदारियाए रूवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसघर सहावे, सदावित्ता एव वयासी - तुमण्णं देवाणुप्पिया मम दोच्चेणं बहूणि गामागरनगर गिहाणि अणुपविससि त अत्थि ताई ते कस्सइरन्नो वा ईसरस्स वा कहिचि एयारिसए मजणए दिपु जारिसए ण इमीसे सुवाहुदारियाए मज्जणए ? तएण से वरिसधरे रुप्पि करयल० एव वयासी एवं खलु सामी । अह अन्नया तुम्भेण दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ ण मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मज्झणए दिट्ठे, तस्स ण मज्ज - णगस्स इमे सुबाहुदारियाए मज्जणए सहस्सइपि कलं न अग्घे, तणं से रुप्पी राया वरिसघरस्त अंतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणगजणितहास दूतं सदावे, सावित्ता एव वयासी - जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थए गमणाए ॥ सू० २५ ॥
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टीका- - अथ तृतीयस्य रुक्मिनाम्नोनृपस्य सबन्ध प्रस्तौति - ' तेणं फालेण ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुणालो नाम जनपद् =देशः आसीत्, ' तेण कालेन तेण समएण ' इत्यादि ।
टीकार्थ- ( तेण कालेन तेंर्ण समण्ण ) उस काल और उस समय में (कुणाल नाम जणवर होत्या) कुणाल नामका जनपद अर्थात् देश था ।
• तेण कालेन समएण ?
इत्यादि ॥
टीअर्थ - (वेण कलेिण तेण समर्पण ) ते अणे अने ते भमये (कुणाल नाम
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आताधर्मकथासूत्रे
होत्था, तीसे सुवाहुदारियाए अन्नया चाउम्मासियमज्ज - ए जाए यावि होत्या, तरणं से रुपी कुणालाहिवई सुवाहुदारियाए चाउम्मासियजणय उवट्टिय जाणइ, जाणित्ता कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ, सदावित्ता एव वयासी - एवं खलु देवाणुपिया | सुबाहुदारियाए कल चाउम्मासियमजणए भविस्सइ त क्लं तुभेण रायमग्गमोगाढसि मंडवं जलथलयदसद्भवन्नमल साहरेह जाव सिरिदामगंड ओलइंति । तएण से रुप्पी कुणालाहिवई सुवन्नगारसेणि सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया । रायमग्गमोगाढसि पुप्फमडवसि णाणाविहपच वन्नेहि तदुलेहि नगर आलिहइ, तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टए रयेह, रएइत्ता जाव पञ्चप्पियति, तएणं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिक्खधवरगए चाउरगिणीए सेणाए महया भडचडगरयहयरविदपरिक्खित्ते अतेउरपरियालसपरिवुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कट्टु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चीरुहइ, पच्चोरुहित्ता पुप्फमडव अणुपविसइ, अणुपविसिता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तरणं ताओ अते उरियाओ सुबाहुदारिय पयसि दुरुहेति दुरुहिता सेयपीयएहि कलसेहि पहाणेंति, पहाणित्ता सव्वालकारविभूसिय करेंति करिता पिउणो पाय वदिउ उव
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कुणालाधिपतिरस्मिन्नृपवर्णनम्
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ति, तणं सुवाहुदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ, तएणं से रुप्पी राया सुवाहुदारिय अंके निवेसेइ, निवेसित्ता सुबाहुदारिया ए रूवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसघर सद्दावेइ, सदावित्ता एव वयासी - तुमण्णं देवाशुप्पिया मम दोच्चेणं बहूणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि त अत्थि ताई ते कस्सइरन्नो वा ईसरस्त वा कहिंचि एयारिसए मजणए दिवे जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मज्जणए तएण से वरिसधरे रुप्पि करयल० एव वयासी एवं खलु सामी । अह अन्नया तुम्भेण दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ ण मए कुंभंगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मञ्झणए दिट्टे, तस्स ण मज्जणगस्स इमे सुवाहुदारियाए मज्जणए सहस्सइपि कलं न अग्घे, तणं से रुप्पी राया वरिसघरस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म सेस तहेव मज्जणगजणितहास दूतं सदावेइ, सद्दावित्ता एव वयासी- जाव जेणेत्र मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थए गमणाए ॥ सू० २५ ॥
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टीका -- अथ तृतीयस्य रुक्मिनाम्नोनृपस्य सबन्ध प्रस्तौति - ' तेण कालेन ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुणालो नाम जनपद देश, आसीत्, ' तेण कालेन तेण समएण ' इत्यादि ।
टीकार्य - ( तेण कालेन तेण समरण) उस काल और उस समय में (कुणाल नाम जणवण होत्था) कुणाल नामका जनपद अर्थात् देश था ।
' तेण कालेन समपण ' इत्यादि ॥
टीमर्थ - (वेण कालेन तेण समर्पण ) ते अजे भने ते समये (कुणाल नाम
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माता तत्र तस्मिन् देशे खलु बापस्ती नाम नगर्यासीत । तम्बारम्त्या नगर्यो सनु 'रुप्पी' मामी रुक्मिनामा कुणालाधिपति =गालदेगापिपतिर्नाम-मसिद्धः राजाऽऽसीत् । तस्य पलु रुक्मिणो दुहिता-पुत्री धारिणीदेग्या आरममा समुत्पन्ना, समाहुर्नाम-सुबाहुनाम्नी दारिकान्यका आसीत् । सा बाहदारिका कीदृशीत्याह-'सुउमालपाणिपाया' मुरुमारपाणिपादा-कोमलकरचरणवती, तथारूपेण-आकृत्या वर्णेन च, यौवनेनन्तामण्येन, कारण्येन चौत्कृष्टा-उत्कर्षवती प्रधानत्पर्ध , अतएव-उत्कृष्ट शरीरा-परमसुन्दरागी यावत् सफलानिवागुणसपमा (तत्थण सोवस्थी नाम नयरी होत्या) उस जनपद-देश-में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । (तत्यण रुप्पी कुणालारिवई नाम राया रोस्थातस्स राप्पिस्स धुया धारिणी देवीए अत्तथा सुबाहुनाम दारिया होत्या) उस श्रावस्ती नगरी में कुणाल देश के अधिपति जिन का नाम रूपमी था रहते थे। इस स्वमी राजा की एक पुत्री थी। जिस का नाम सुबाहु था।
यह धारिणी देवी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। (सुकुमाल. स्वेण य जोवणे णं लावण्णेण य उस्किट्ठा, उरिकह सरीरा जाया यावि होत्था) इस के हाय और चरण ही अधिक सुकुमार थे। यह रूप-आकृति और वर्ण से यौवन से तथा लावण्य से सब में सुन्दर मानी जाती थी। इस कारण यह परम सुन्दराङ्गी थी और स्त्री सबधी समस्त गुणों से युक्त जणवए होत्था) मुल नामे नप मेट हेश डो (तत्थण सावत्थी नाम नगरी होस्था) तेन-देशमा श्रावस्ती नामै नगरी ती
(तस्थण रुप्पी कुणालहिबई नाम राया होत्या तस्स ण सपिस्स धुया धारिपपीए देवीए अत्तया सुबाहु नाम दारिया होत्था)
શ્રાવસ્તી નગરીમાં કુણાલ દેશના અધિપતિ કમી રહેતા હતા કમી, રાજા ને એક પુત્રી હતી તેનું નામ સુબાહુ હતુ - ધારિણી દેવીના ગભથી તેને જન્મ થયો હતો
(सुकुमाल० रूवेण य जोमणे ण लावण्णेण य उक्ट्ठिा, उक्ट्ठिसरीरा जाया याधि होत्या)
તેના હાથપગ ખૂબ જ સુકોમળ હતા તે રૂપ, આકૃતિ, યવન, તેમજ લાવણ્ય બધામા સુદર ગણાતી હતી તેથી તે ખૂબ જ સુ દર અ ગોવાળી અને આ સ બ ધી બધા ગુણોથી યુક્ત હતી
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__ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३८६
जाता चाप्यासीत् । तस्याः खलु सुगाहुदारिमाया अन्यदाकदाचित् चातुर्मासिक मज्जना-स्नान-स्नानमहोत्सपश्चाप्यभूत् ततस्तदन तर स रुक्मीकुणालाधिपतिः सुवाहुदारिकाया =स्वपुत्र्याश्चातुर्मासिकमज्जनकमुपस्थित जानाति० । ज्ञात्वा कौटुम्बिकपुरुपान्= आज्ञाकारिण पुरुषान् शब्दयति=आह्वयति, शब्दयित्वा एव मवादीत्-हे देवानुप्रियाः! एक खलु सुबाहुदारिकायाः मम पुयाः कल्ये-प्रभाते द्वितीयदिवसेत्यर्थः चातुर्मासिकमज्जनक चातुर्मासिकस्नानमहोत्सवो भविष्यति, तत् तस्मात् कल्ये यूय खलु राजमार्गमवगाहे राजमार्गसनिकृष्टे मण्डपे जलस्थ लजदशार्धवर्णमाल्य-जलज स्थलन पञ्चवर्णपुप्पसमूह सहरत-समानयत, यावथी। (तीसेण सुबाहु दारियाए अन्नया चाउम्मासियमज्जणए जाए यावि होत्यो ) एक दिन इस सुबाहु पुत्री के चातुर्मासिक स्नान महोत्सव का समय आया (तएण से रुप्पी कुणालाहिवई सुना दारियाए चाउम्मासिय मजणय उवट्टिय जाणड ) कुणाल देशाधिपति रुक्मि राजा को अपनी पुत्री सुबाहु दारिका के चातुर्मासिक स्नानोत्सव का जय यान आया-तर (जणित्ता कौडयिय पुरिसे सदावेइ ) ऐसो जान कर उस ने कौटुम्विक पुरुषो को बुलाया- (सदावित्ता एव वयासी) और वुलाकर उनसे ऐसा कहा-(एव खलु देवाणुप्पिया! सुबाहु दोरियोए कल्लं चाउम्मासिय मज्जणए भविस्सइ) हे देवानुप्रियो । कल प्रातः काल सुबाहु दारिका का चतुर्मासिक म्नान होगा । (त कल्ल तुम्भेण रायम ग्गमोगाढसि मडव जलयल दसद्धवन्न मल्ल सारेह ) अत. तुम लोग राज मार्ग के समीप मुख्य मडप मे कल प्रातः काल ही जल, स्थल मे (तीसेण मुबा दारियाए अन्नया चाउम्मासिय मज्जणए जाए यावि होत्या)
એક દિવને સુબાહુ પુત્રીને ચાતુર્માસિ સ્નાન મહત્સવને સમય આવ્યે (तएण से कुणालाहिबई सुबाहु दारियाए चाउम्मासिय मज्जणय उवट्ठिय जाण)
કુણાલ દેશના રાજા રુકમીને તેની પુત્રી સુબાહુને ચાતુર્મામિક સ્નાન सपन! यारे विचार माव्या त्यारे (जणित्ता कौटु बिय पुरिसे सदावेइ ) तेरी अनि पुरुषाने मासान्या (सदावित्ता एव पयासी) मने मादापान मा प्रभारी धु(एव खलु देवाणुप्पिया! सुवाहुदारियाए सफल्ल चाउम्मासियमज्जणए भविस्सह)
હે દેવાનુપ્રિયે ! આવતી કાલે સવારે સુબાહુ દારિકાનુ ચાતુર્મામિક સ્નાન થશે (त कल्ल तुम्भेण रायमगमोगाढसि मडव जग थल दमवन्नमल्ल साहरेड)
એથી તમે આવતી કાલે સવારે રાજમાર્ગની પાસેના મુખ્ય મંડપમાં
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माताणा
तत्र-तस्मिन् देशे खलु श्रावस्ती नाम नगर्यासीत । तत्र धारस्त्या नगयों खल 'रुप्पी' कमी-रुक्मिनामा कुणालाधिपतिः कुणालदेगाधिपतिर्नाम-मसिद्धः राजाऽऽसीदछ । तस्य ग्यलु रुक्मिणो दुहिता-पुत्री धारिणीदेव्या आरममा-गर्म समुत्पन्ना,समाहुर्नाम=सुबाहुनाम्नी दारिकाम्न्य का आसीत् । सा सुबाहुदारिका कीदृशीत्याह-'सुउमालपाणिपाया' मुहमारपाणिपादा-कोमटकरचरणवती, तपारूपेण-आकृत्या वर्णेन च, यौग्नेनस्तारण्येन, कारण्येन चोत्कृष्टा उत्कर्षवती प्रधानेत्यर्थे , अतएव-उत्कृष्ट शरीरा-परममुन्दरागी यापन सफलनिवागुणसपना (तत्थण सोवत्थी नाम नयरी शेत्या ) उस जनपद-देश-में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। (तत्थण रुप्पी कुणालादिवई नाम राया होत्यातस्सणं रुप्पिस्स धुया धारिणी| देवीए अत्तया सुयानाम दारिया होत्या ) उस श्रावस्ती नगरी में कुणाल देश के अधिपति जिन का नाम रूपमी था रहते थे। इस रूपमी राजा की एक पुत्री थी। जिस का नाम सुधार था। ___ यह धारिणी देवी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। (सुकमाल० रूवेण य जोव्वणे ण लावण्णेण य उस्किहा, उरिकह सरीरा जाया यावि होत्था) इस के हाथ और चरण ही अधिक सुकुमार थे । यह रूप-आकृति और वर्ण से यौवन से तथा लावण्य से सय में सुन्दर मानी जाती थी। इस कारण यह परम सुन्दराङ्गी थी और स्त्री सबधी समस्त गुणों से युक्त जणवए होत्था) मुथार नाम नपा शेटले देश तो (तत्थण सावत्थी नाम नगरी होत्था) ते अन५४-हेशमा श्रारती नामे नगरी ती
(तत्थण रुप्पी कुणालहिवई नाम राया होत्या तस्स ण सप्पिस्स धुया धारि पीए देवीए अतया भुवाहु नाम दारिया होत्था)
શ્રાવસ્તી નગરીમાં કુણાલ દેશના અધિપતિરુકમી રહેતા હતા કમી, રાજા ને એક પુત્રી હતી તેનું નામ સુબાહુ હતુ
ધારિણે દેવીના ગર્ભથી તેને જન્મ થયે હતું (सुकुमाल० रूवेण य जोमणे ण लावण्णेण य उकिटा, उकिट्ठसरीरा जाया याचि होत्था)
તેના હાથપગ ખૂબ જ સુકોમળ હતા તે રૂપ, આકૃતિ, યૌવન, તેમજ લાવણ્ય બધામા સુદાર ગણુની હતી તેથી તે પૂબજ સુ દર અગેવાળી અને શ્રી સબ ધી બધા ગુણેથી યુક્ત હતી
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम्
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बहुमध्यदेशभागे पहक रचयत, रचयिता यावत् प्रत्यर्पयन्ति । हे सामिन् । यथा देवेन समादिष्ट तथा सर्व साधितमस्माभिरित्येव ते कथयन्ति स्मेत्यर्थः । ततस्तदनन्तर खलु स रूक्मी कुणालाधिपतिर्हस्तिस्कन्धवरगतः = गजस्कन्धोपरि वरासने विराजमान, 'चाउरगिणीए' चतुरङ्गिण्या गजाश्वरथपदातिरूपया 'सेनाए ' सेनया 'महया भडचडगड पहयरविंदपरिक्खित्ते ' भहामटचडगरपयरवृन्दपरिक्षिप्तः महाभटानां चडगरः विच्छदः समर्दः अन्यजनदुष्प्रवेश्यः तथाविधोय पहयरः समुदायस्तस्थ वृन्द=समूहः तेन परिक्षिप्तः = परिवृतः, 'चडगर ' इति ' पहयर' इति च देशीयः शब्द समूहार्थवाचकः । अत. पुरपरिवारसपरिवृतः सुबाहु सुबाहुराजमार्ग के समीप बने हुए पुष्प मडप मे अनेक रंगों से रंगे हुए चावल से नगर की रचना करो ।
( तस्स पहुमज्झ देसभा पहय रहेय) उसने ठीक बीचों बीच में एक पटक बनाओ - ( रएहत्ता जाव पच्चष्पिणति ) पट्टक बनाकर उनलोगों ने राजा को इसकी पीछे खबर कर दी - उन्हों ने कहा स्वामी ' जैसा कार्य करने के लिये आपने आज्ञा प्रदान कीथी - वैसाही सब काम हमने कर दिया है इस प्रकार की राजा को सूचना कर दी - (तरण से रुप्पी कुणाला हिवई हत्थ खधवरगए चाउरगिणीए सेणा मया भडचडगर परविंद परिक्खित्ते अतेउरपरियालसपरिबुडे सुबाहु दारिय पुरओ कट्टु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमडवे तेणेव उवागच्छड ) इस के याद वे कुणालाधिपति रुक्मी राजा हाथी पर बैठ कर चतुरगिणी सेना के साथ २ महाभटो के समूह से कि जिस से भीतर और कोई दूसरा
“ હે દેવાનુપ્રિયા । તમે સત્વરે રાજમાર્ગની પાસે બનાવવામા આવેલા પુષ્પ–મ ડપમા અને ર્ગથી રગાએલા ચાખાથી નગરની રચના કર
( तर बहुमज्म देसभाए पट्टय रहेय ) तेनी अशार अधनस्ये शे! पट्ट मनावो ( रएइचा जाव पच्चपिणाति ) या प्रमाणे ६५ जनावीने તેઓએ રાજાને સૂચના કરી કે હૈ સ્વામી! જે પ્રમાણે કામ કરવાની તમે અમને આજ્ઞા આપી હતી તે પ્રમાણે બધુ અમે તૈયાર કરી દીધુ છે
( तएण से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थि खधवरगए चाउरगिणीए सेणाए महया भडचठगरपद्दयरविंदपरिक्खित्ते अहे उरपरियालसपरिकुडे सुबाहु दारिय पुरओ कट्टु जेणेव रायमग्ग जेणेव पुप्फमडवे तेणेव उवा मच्छर )
ત્યાર પછી તે કુણાલાધિપતિ રુકમી રાજા હાથી ઉપર સવાર થઈને ચતુર ગણી સેનાની સાથે સાથે જેમા કોઇપણ પેસી શકે નિહ તેવા મહા
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प्रांताधर्मवाद
अत्र याच्छदेनेद वाटव्यम् - एकच खलु महत् श्रीदाम काण्डमुपनयत, तस्य मण्ड पस्य खलु चहुमध्यदेशभागे एक महत् श्रीदामकाण्ड यावत् पाटलादि पुष्पसमूह सहित गाणि मुञ्चत् उल्लोचे अलम्भयतः इति ततस्ते कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव मण्डपमध्ये उल्लोचे = चन्द्रातपे श्रीदाम काण्डमम्पयन्ति। तत' खलु स रुक्मी कुणालाधिपतिः सुवर्णकार पिर्णकारान् दयति, शदाि ववक्ष्यमाण मकारेणानदी - भो देशमिया 1 क्षिममेनशीयमेव राजमार्गमा राज मार्गाssसन्ने पुष्पमण्डपे ननाविधपञ्चवर्णै: अनेकविधैः पञ्चवर्णरज्जितैस्तण्डुले नगर आलिखतयत सस्तिकाद्याकारै त्रियतेत्यर्थ । तस्य लिखितचित्रस्प उत्पन्न हुए पच वर्ण के पुष्पों को लाकर उपस्थित करो ।
(जाव सिरिदाम गढे ओलइति ) तथा एक बड़ा नारी श्री दामकांडबहुत बड़ी लयी पुष्पमाला भी लाना । जो पाटल (गुलाब) आदि पुष्पों से गुथा हुआ हो और जिस में से नामिका को तृप्ति करने वाली सुगंध निकल रही हो । उस मडप के ठीक बीचो बीच ऊपर तने हुए चदरवामे उसे लटका देना । इस तरह राजाकी आज्ञानुसार उन कौटु म्बिक पुरुषो ने सघ कार्य कर दिया श्रीदाम काड को वहा ऊपर चदरवा में लटका दिया । (तएण से रुप्पी कुणालाहिवई सुवन्नागार से णि सहा वेह, सद्दावित्ता एव वयासी खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! रायमग्गमो गाढसि पुष्कमडवसि णाणाविह पचवण्णेहिं तदुलेहि नगर आलिहह ) इस के बाद उस कुणालाधिपति रुक्मी राजा ने सुनारों को घुलाधाऔर बुला कर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियो । तुम लोग शीघ्र ही જળ તેમજ સ્થળના પચત્રણના પુષ્પા લાવા
( जाव सिरिदामग डे ओलइ ति ) तेभन मे भोटो श्रीहाभार- भोटी પુષ્પમાળા પણુ સાથે લાવે તે શ્રીદામકાડ ગુલાખ વગેરે પુ॰પેથી ગુથાએલા તેમજ નાસિકા તૃપ્ત થાય તેવી સુવાસવાળો હોવા જોઈએ તેને મંડપની ખરાબર વચ્ચે ઉપર તાણવામા આવેલા ચદરવામા લટકાવો આ પ્રમાણે રાજાની આજ્ઞા સાભળીને તે રાજ પુરુષ એ તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે જ કામ પુરૂ કરી આપ્યુ. શ્રીદામકાર્ડને અધવચ્ચે ચદરવામા લટકાવ્યે
(तरण से रुप्पी कुणाल हिवई सुवन्नगारसेर्णि सदावेद, सदावित्ता एव वयासी खिप्पामेन भो देवाणुपिया ! रायमग्गमोगाउसि पुप्फमडवसि णाणा विह पचवणेहिं तदुलेहिं नगरआलिहह )
ત્યારપછી કુણાલાધિપતિએ માનીએાને મેલાવ્યા અને બેલાવીને તેને કહ્યું-
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३९१ बहुमध्यदेशभागे पटक रचयत, रचयिता यावत् प्रत्यर्पयन्ति । हे स्वामिन् ! यथा देवेन समादिष्ट तथा सर्व साधितमस्माभिरित्येव ते कथयन्ति स्मेत्यर्थः । ततस्तदनन्तर खलु स रूक्मी कुणालाविपतिहस्तिस्कन्धवरगता=गजम्कन्योपरि वरासने विराजमान , 'चाउरगिणीए' चतुरङ्गिण्या गजाश्वरथपदातिरूपया ' सेणाए' सेनया 'महया भडचडगडपहयरविंदपरिक्खित्ते ' भहामटचडगरपहयरवृन्दपरिक्षिप्तः महाभटानां चडगरः विच्छेदः समर्दः अन्यजनदुष्पवेश्य' तथाविधो य पहयर: समुदायस्तस्थ वृन्द-समूहः तेन परिक्षिप्तः परितः, 'चडगर' इति 'पहयर' इति च देशीयः शब्द समूहार्थवाचकः । अत पुरपरिवारसपरिवृतः सुवाहु-सुबाहुराजमार्ग के समीप बने हुए पुष्प मडप मे अनेक रगों से रगे हुए चावलो से नगर की रचना करो।
(तस्स पहुमज्झदेसभा पट्टय रहेय ) उसने ठीक बीचो बीच में एक पटक बनाओ-(रएइत्ता जाव पच्चप्पिणति ) पथक बनाकर उनलोगों ने राजा को इसकी पीछे खपरकरदी-उन्हों ने कहा स्वामी ! जैसा कार्य करने के लिये आपने आज्ञा प्रदान कीथी-वैसाही सब काम हमने कर दिया है इस प्रकार की राजा को सूचना कर दी-(तण्णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थि खधवरगए चाउरगिणीए सेणा मया भडचडगर पहयरविंदपरिक्खित्ते अतेउरपरियालसपरिवुडे सुबाहु दारिय पुरओ कट्टु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमडवे तेणेव उवागच्उड ) इस के बाद वे कुणालाधिपति रुक्मी राजा हाथी पर बैठ कर चतुरगिणी सेना के साथ २ महाभटो के समूह से कि जिस से भीतर और कोई दूसरा
હે દેવાનુપ્રિયે તમે સત્વરે રાજાની પાસે બનાવવામા આવેલા પુષ્પ-મડપમાં અનેક રંગથી રંગાએલા ચોખાયા નગરની રચના કરે
(तस्स बहुमज्म्म देसभाए पट्टय रहेय ) तेनी १२११२ १५५२ये में पट्ट मनाव। (रएइचा जाव पञ्चपिणाति) मा प्रभारी पट्ट मनावीर તેઓએ રાજાને સૂચના કરી કે હે સ્વામી! જે પ્રમાણે કામ કરવાની તમે અમને આજ્ઞા આપી હતી તે પ્રમાણે બધુ અમે તૈયાર કરી દીધુ છે
(तएण से रुप्पी कुणालाहिवई हत्यि खधवरगए चाउरगिणीए सेणाए महया भडचठगरपहयरविंदपरिक्खित्ते अहे उरपरियालसपरिबुढे सुबाहु दारिय पुरओ कटु जेणेव रायमग्ग जेणेव पुप्फमडवे तेणेव उवामाइ)
- ત્યાર પછી તે કુણાલાધિપતિ રુકમી રાજા હાથો ઉપર સવાર થઈને ચતુરાગિણી સેનાની સાથે સાથે જેમાં કોઈપણ પ્રેમી અને નહિ તેવા મહા
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ज्ञाताधर्मकथाper
नाम्नी दारिपुत्री, पुरत अग्रे कृत्वा कौन राजमार्गो पर पुष्पमण्डपस्तौवोपागच्छति, उपागत्य हस्तिस्कन्यात् प्रत्यरोहति मत्यवतरति प्रत्यवरुणा पुष्पमण्डपमनुप्रविशति, अनुपविश्य सिंहासन रगतः ' पुरत्याभिमुह ' पौरस्त्यामि मुग्वः पूर्वदिङ्मुखः, 'सभिसन्ने' सनिपण्ण: = उपविष्ट । ततस्तदनन् 'ताओ ' ताः, 'अतेउरियाओ' आन्त पुरवासिन्यो वनिता सुनहूदारिश पटके 'दुरुहेति' दुरोहति = आरोहयन्ति उपवेशयन्तीत्यर्थः दुरुप=आरोप श्वेतपीत केः = राजतसौवर्णेः कलशै स्नपयन्ति, स्नपयित्वा सर्वालङ्कारविभूषिता कुन्ति कृत्वा =भूपयित्वा पितुः पादौ वन्दितुमुपनयन्ति तत सल सुबाहुद्वारिका यौन रुसमी राजा तौत्रोपाग मनुष्य घुस नहीं सकता है तथा अन्त' पुर से परिवृत होते हुए अपनी पुत्री सुधादारिका को आगे करके जहां राजमार्ग के समीप पुष्पमंडप नाँ हुआ था वहाँ आये । ( उवागच्छित्ता हत्यिखघाओ पच्चोरुहर, पच्चोरुहित्ता पुप्फमडव अणुपविम-अणुविसित्ता सीरासनवरगए पुरत्याभिमूहे सन्निमन्ने ) वहा आकर वे हाथी के स्कध से नीचे उतरे। उतर कर पुष्प मडप में उपविष्ट हुए । यहा जाकर वे पूर्वदिशा की तरफ मुख कर के श्रेष्ठ सिहासन पर बैठ गये । (तणं ताओ अन्ते दरियाओ दारिय पयति दुरुदेति, दुरुहिता सेयपीयएहि कलसेहिं व्हावेंति, महावित्ता सन्चालकारविभूसिय करेंति-करिता पिउणो पाय बदिउ वर्णेति ) इसके बाद उन अन्तः पुर निवासिनी स्त्रियों ने सुबाहुदारिका को पाट पर चढाया और चढ़ा करके बैठा कर के चादी और सुवर्ण के श्वेत पीले कलशों से उसे स्नान कराया-स्नान कराने के बाद
ભટાના સમૂહની વચ્ચે તેમજ અન્ય પુરની સાથે પેાતાની પુત્રી સુબાહુ દારિકાને આગળ રાખીને જ્યા રાજમાર્ગની પાસે પુષ્પમપ હતા ત્યા ગયા
( उवागच्छित्ता हत्यिखधाओ पच्चोहर, पच्चोरुहित्ता पुष्पमडव अणुपविसह अणुपविसित्ता सीहासनवरगए पुग्त्याभिमुद्दे सन्निसन्ने )
·
ત્યા આવીને તે હાથીના ઉપરથી નીચે ઉતર્યાં ઉતરીને તેઓ પુષ્પ મડપની અ દૂર ગયા ત્યા જઈને તેઓ પૂર્વ દિશા તરફ મા કરીને એક ઉત્તમ આસન ઉપર બેસી ગયા
(तरण ताओ अतेउरियाओ सुबाहुदारिय पट्टयति दुरूति दुरुहिता से पीएहिं कलसेहिं व्हावेंति, पहावित्ता सव्नालकार विभासिय करेंति करिता विउणो पाय दिउ उवर्णेति )
ત્યારબાદ રણવાસની સ્ત્રીઓએ સુબાહુ દારિકાને પટ્ટક ઉપર ચઢાવી અને તેના ઉપર બેસાડીને ચાદી તેમજ સાનાના સફેદ અને પીળા
प्रशोशी ने
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३९३ च्छति, उपागत्य पादग्रहण करोति । तत वलु स रुक्मीराना सुवाहुदारिकामद्धे उत्सझे निवेशयति, निवेश्य सुबाहुदाम्किाया रूपेण च यौवनेनच लावण्येन च यावद् विस्मिता आश्चर्य प्राप्तः, नपं वरवर्पधरपुरुष अन्तः पुररक्षक पण्डपुरुष शब्दयति= आहयति, शब्दयित्वा एवम्बल्यमाणपकारेण, अयादीत् उक्तवान्हे देवानुप्रिय ! त्व खलु मम दौत्येन-दूतो भूत्वा वहूनि ग्रामाकरनगरगृहाणि अनुमविशसि, तद् तम्माब्रूहि-अस्तिचापि त्वया कस्यचिद राज्ञो वा ईश्वरस्य वा व्यवहारिणो वा मार्थवाहस्य वा अष्ठिनो वो कुत्रचिद् ईदृश मज्जनक दृप्टपूर्व, फिर उसे समस्त अलकारो से विभूषित किया-विभूपित करके फिर वे उसे पिता के चरणों की वदना करने के लिये ले चली।
(तएण सुबाहुदारिया जेणेव रूप्पी राया तेणेव उवागच्छा, उवाग च्छित्ता पायग्गहण करेइ, तपण से रुप्पी राया सुबाहु दारिय अके निवेसेइ, निवेसित्ता सुबाहुदारियाए रुवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए परिसधर सद्दावेड ) सुबाहु दारिका भी जहा रुक्मी राजा विराजमान थे-वहा आई वहां आकर के उसने पिता के चरणों में नमन किया इस के बाद राजाने उस सुबाहुदारिका को उठाकर अपनी गोद में बैठालिया बैठाकर उस सुबोहुदारिका के रूपसे यौवन से और लावण्य से विस्मित हुए उन राजा ने चर्पधर अत पुर के रक्षक नपुमक-कचुकी को धुलाया (सहावित्ता एव बयासी-तुमण्ण देवाणुप्पिया । मम दोच्चेण घट्टणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि, त अत्यियाह ते कस्सह નવડાવી, નવડાવીને તેને બધા ઘરેણાઓથી શણગારી, શણગારીને તેઓ તેને પિતાના ચરણેના વદન માટે લઈ ગઈ
( तएण सुबाहु दारिया जेणेव रुप्पीराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहण करेइ, तएण से रुप्पीराया सुबाहुदारिय अके निवेसेइ, निवेसित्ता मुबाहुदारियाए हवेण य जो० लाव० जाब विम्हिए वरिस पर सवेइ)
- સુબાહુ દારિકા પણ જ્યા કૂમી રાજા બેઠા હતા ત્યા આવી આવીને તેણે પિતાનાં ચરણમા વદન કર્યા ત્યારબા. રાજાએ સુબાહુ દારિકાને ઉઠા વીને પિતાના ખોળામાં બેસાડી લીધી બેસાડીને સુબાહુ દારિકાના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી વિસ્મય પામેલા રાજાએ વર્ષધર રણવાસના રક્ષક નપુસકકચકીને બોલાવ્યા
(सदारित्ता एव पयासी तुमण्ण देवाणुप्पिया । मम दोन्चे ण रहणि गामागरनगर गिहाणि अणुपविससि, त अत्थिया ते मम्सड रनो या इसरस वा कहि
घा ५०
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ज्ञाताका
यादृश खलु अस्याः मुनाहुदारिकाया मज्जनकम् । यतस्तदनन्तर खल्लुस वर्ष धरः = अन्तःपुररक्षकः पण्ठपुरुषः, रुक्मिण करतलपरिगृहीत शिर मात्र दशन मस्त कृत्वा एवमनादीत्-ए खल हे स्वामिन | अहम् अन्यदा=अन्यस्मिन् समये युग्मा दौत्येन दूतो भृत्वा मिथिग राजधानी प्रतिगतः, तत्र ख मया कुम्भस्य राज्ञो दुहितु पुत्र्याः ममात्या देव्या ममावतीदेव्या आत्म जायाः = अङ्ग जातायाः मल्लयाः महीनाम्याः, विदेहराज नररन्यकायाः यद मज्ज नकं दृप्ट, तस्य खलु मज्जनकस्य = महीमज्जनकस्य इद सुनाहुदारिकाया मज्जनक शतस्रहसतमामपि =क्षामपि कला शोनाना अश 'न अग्नेर' नाईविन प्राप्नोती रनोवा इसरस्स वा कहिं चि प्यारिसए मज्जण दिट्ठपुव्वे जारिसएण इमी से सुबाहुदारिया मज्जण ) बुलाकर उससे ऐसा कहा हे देवानु प्रिय ! तुम हमारे दून होकर अनेकग्रामों में आकरों में नगरों एवं घरों में जाते रहते हो, तो कहो तुमने पहिले ऐसा स्नपन महोत्सव कही किसी राजो का किसी ईश्वर का किसी व्यवहारी का किसी सार्थवाहक अथवा किसी श्रेष्ठी का देखा है जैसा कि इस सुबाहु दारिका का यह हुआ है ।
(तएण से वरिसधरे रुप्पि करयल० एव क्यासी- एव ग्वलु सामी अह अन्नया कयाह तुग्भेण दोच्चेण मिहिल गए, तत्थण मए कुभकस्स रनों धूया पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकनगाए मज्जणए दिट्ठे, नस्स पण मज्जणगस्स हमे सुबाहुदारिया मज्जाए सय सहस्स इमपि कल न अग्घे ) ऐसा सुनकर उस वर्ष धरने दोनो हाथों की अञ्जलि बनाकर और उसे मस्तक पर चढ़ाकर रुक्मी राजा से इस चिएयारिसए मज्जणए दिट्ठ पुग्वे जारिसए ण इमी से सुवाहुदारियाए मज्जण એલાવીને તેમણે આ પ્રમાણે કહ્યુ—“ હે દેવાનુપ્રિયા । તમે અમારા દૂતના રૂપમાં ઘણા ગ્રામા, આકારા, નગર અને ઘરેામા અવર-જવર કરતા રહેા છે. તે બતાવે કે તમે પહેલા એવા સુખાહુ દારિકા જેવા સ્નપન મહાત્સવ કાઇ રાજા, ઇશ્વર, ઈ વ્યવહારી, કેાઈ સાવાર્હ અથવા કાઈ શ્રીને ત્યા જોચા છે?
( तएण से परिधरे रुपि करयल० एव नयासी - एव खलु सामी ! अह अनया कयाइ तुब्भेण दोन्चेण मिहिल गए तत्थ ण मए कुभगस्स रन्नो धूयाए भाई देवीए अत्ताए मल्लीए विदेह रायकन्नगान मज्जणए दिट्ठे, वस्त ण मज्जणगस्स इमे सुबाहुदारियाए मज्जणए सयसहस्सइमपि कल न अग्धेइ )
આ પ્રમાણે સાભળીને તે વધરે અને હાથની અજલી બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને રુકમી રાજાને કહ્યુ કે હું સ્વામી ! હું કઈ વખત તમારા કુત
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कुणालाविपत्तिरुक्मिनृपवणनम्
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त्यर्थ' । ततस्तदनन्तर खलु म रुक्मी राजा वर्षधरस्य = वर्षधर पुरुषस्यान्ति के समीपे 'एम' श्रुत्वा निशम्य 'सेस नहेव ' शेष तथैव शेषवृत्तान्त चन्द्रच्छायनृप वद् बोध्यमित्यर्थः । तथाचाय सम्बन्धः स रुक्मी त वर्षधर प्रत्येवमवादीत्हे देवानुमिय । कीदृशी मल्ली वर्तते, तदा वर्षधर आह-नो खलु अन्या कापि ताशी देवाच्या वा यावत् यादृशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या, अत्र यावच्छ देनासुर नागयक्षगन्धर्मादि अन्यकाः सग्राह्या, ततः खल्लुस रुक्मी वर्षधरपुरुष प्रकार कहा - हे स्वामिन् । में किमी समय आपका दूत होकर मिथिला नगरी गया हुआ था वहा मैने कु भक राजा की पुत्री कि जो प्रभावती की कुक्षि से अवतरित हुई हे मल्ली कुमारी का जो विदेश राजा की पुत्रियो में सर्वोत्तम है जैसा स्नान महोत्सव देखा उसके समक्ष यह सुबाहुदारीका का मज्जनोत्सव लक्षाश - लाखमें अश को भी प्राप्त नही कर सकता है । (तरण से रुपी राया परिसवरस्म अतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म सेस तहेब मज्जणगजणितहासे दूत सहावे सदावित्ता एव वयासी जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इस के बाद रुक्मी राजाने जय वर्षपर ( कचुकी पुरुष ) के मुख से ऐसी बात सुनी तो उसका विचार कर उसने चन्द्रच्छाय राज की तरह अर्थात् राजा ने वर्ष घरसे मरली कुमारी के विषय में अपनी जिज्ञामा प्रकट की- पूछा वह कैसी है-तय वर्षधर ने उस से कहा- हे देवानुप्रिय ! क्या कहें- जैसो वह है ऐसी तो कोई भी कन्या नही है-न ऐसी कोई देव कन्या है न कोई असुर कन्या हे, न कोई नाग कन्या है, તરીકે મિથિલા નગરીમા ગયા હતેા ત્યા મે પ્રભાવતીના ગર્ભથી જન્મેલી વિદેહ રાજાની બધી પુત્રીઓમા શ્રેષ્ઠ કુભ રાજાની પુત્રી મલી કુમારીને જેવે સ્નાન મહેદ્ભવ જોયા તેની મામે સુમાહુ દારિકાને સ્નાન મહેાત્સવ લક્ષારા પણ કહી શકાય તેમ નથી
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(तरण से रुप्पीराया वरिसर अतिए अयम सोच्चा णिसम्म सेस तहेव मज्जणगजणितहासे दूत सदावेद, सदाविचा एव व्यासी जान जेणेव महिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए )
કમી રાજાએ જયારે વર્ષોંધર ( - ચુકી પુરુષ) ના મુખેથી આ પ્રમાણે વાત સાભળી ત્યારે તેના વિષે વિચાર કરીને તેણે ચન્દ્રરાય રાજાની જેમ એટલે કે રાજાએ વધસ્તે મલ્લી કુમારીના સમૃધમા પોતાની ઈચ્છા જણાવતા કહ્યુ કે તે કેવા છે ? ત્યારે જવાથ્યમા વધરે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ! શુ કહું ? જેવી તે કન્યા છે તેવી તે કઈ પણ એવી કેડ નથી દેવકન્યા
નથી
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प्रताप यारश खलु अस्याः मुगाटारिकाया मजनकम् । यतस्तानन्तर बल म वर्ष घरमअन्तःपुररक्षकः पण्डपुरुषः, रश्मिण करतलपरिगृहीत गिर आवर्त दान मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एपमादी-एव ग्यलु हे स्वामिन् ! अहम् अन्यदा-मन्य स्मिन् समये युष्मात दौत्येन-दतो भृत्या मिथिग राजधानी प्रतिगतः, तत्र सब मया कुम्भास्प राजो दुहितु =पुयाः प्रभावस्या देव्या प्रभारनीदेव्या आत्मजायाअगजाताराः मल्लयाम् महीनाम्न्याः, विदेहराजनरसन्यायाः यद् मन्मनक दृष्ट, तस्य खलु मज्जनकस्य-मलीमज्जनकस्य, इद मुबाहुदारिकाया मज्जनक शतसहसतमामपिटलक्षामपि कला-गोनाया अश 'न अग्य नाहति,न प्राप्नोती रमो वा इसरस्स या करि चिण्यारिसर मज्जणए दिट्ठपुग्वे जारिमएण इमीसे सुबाहुदारियाग मज्जण) घुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानु प्रिय ! तुम हमारे दूत रोकर अनेकग्रामो में आकरों में नगरों एव घरों में जाते रहते हो,तो कहो तुमने पहिले ऐसा स्नपन महोत्मव कही किसी राजो का किसी ईश्वर का किसी व्यवहारी का किसी मार्धवाहक अथवा किसी श्रेष्ठी का देखा है जैसा कि इस सुबाहु दारिका का यह हुआ है।
(तएण से परिसधरे रुपि करयल० एव वयासी-एव खलु सामी अह अन्नया कयाड तुम्भेण दोच्चेणं मिहिल गए, तत्वण मए कुभकस्स रन्नों धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाणमलीए विदेहरायकनगाए मजणए दिढे, तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहुदारिया मज्जणए सयसहस्स इमपि कल न अग्घेह) ऐसा सुनकर उस बर्ष धरने दोनो हाथों की अञ्जलि बनाकर और उसे मस्तक पर चढाकर रुक्मी राजा से इस चि एयारिसए मज्जणए दिट्ट पुव्वे जारिसए | इमीसे सुवाहुदारियाए मज्जणए
બોલાવીને તેમણે આ પ્રમાણે કહ્ય—હે દેવાનપ્રિયે ! તમે અમારા દૂતના રૂપમાં ઘલા ગામે, આકાર, નગરે અને ઘરમા અવર-જવર કરતા રહો છે તે બતાવે કે તમે પહેલા એ સુબાહ દારિકા જે સ્વપન મહત્સવ કોઈ રાજા, ઈશ્વર, કોઈ વ્યવહારી, કેઈ સાર્થવાહ અથવા કેઈ શ્રેષ્ઠિને ત્યા જોયા છે?
(तएणं से परिसधरे रुपि करयल. एव पयासी-एव खलु सामी ! अह अन्नया कयाद तुब्भेण दोन्चेण मिहिल गए तत्थ ण मए कुभगस्त रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्याए मल्लीए विदेह रायकन्नगा मज्जणए दिट्टे, तस्स ण मज्जणगस्स इमे सुबाहुदारियाए मज्जणए सयसहस्सइमपि क्ल न अग्धेइ)
આ પ્રમાણે સાભળીને તે વર્ષધરે બને હાથની આ જલી બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને રુકમી રાજાને કહ્યું કે હે સ્વામી ! હુ કઈ વખત તમાશ દૂત
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका २०८ काशिराजखनृपवर्णनम्
मूलम् - तेणं कालेण तेणं समएण कासी नाम जणवर होत्था तत्थ ण वाणारसी नाम नयरी होत्था, तत्थ णं सखे नाम कासी राया होत्था, तएण तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाइ तस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स सधी विसघडिए यावि होत्था, तरण से कुभए राया सुवन्नागारसेणि सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी- तुब्भे णं देवाणुप्पिया । इमस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स सधिं सघाडेह, तरणं सा सुवन्नागारसेणी एयम तहन्ति पडिसुणेइ २, पडिणित्ता त दिव्वं कुडलजुयल गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवन्नागारभिसियासु णिवेसेइ, णिवेसित्ता वहूहि आएहि य जाव परिणामेमाणा इच्छा, तस्स दिव्वरस कुंडलजुयलस्स सधि घडित्तए, नो चेवणं सचाएइ सघडित्तए, तरणं सा सुवन्नागारसेणी जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेत्ता एव वग्रासी- एव खलु सामी । अज तुब्भे अम्हे सद्दावित्ता जाव सधि सघाडेत्ता एयमाण पञ्चपिणह, तएण अम्हे त दिव्व कुडलजुयल गिण्हामो जेणेव सुवन्नागारभिसियाओ जाव नो सचाएमो सघाडित्तए, तएण अम्हे सामी । एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्न सरिसय कुडलजुयल घडेमो, तएण से कुभए राजा तीसे सुवन्नागारसेणीए अतिए एयमह सोच्चा निसम्म आसुरुते तिवलियभिउडी निडाले साहद्दु एव वयासी-से केण तुम्भे कलायाण भवह ? जेण तुभे इमस्स कुडलजुयलस्स नो सचाएह सधिं सघा -
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থানাযা सत्कारयति, सम्मानयति, सत्कृत्य समान्य प्रतिनिसर्जयति, ततः स स समी कुणालाधिपति.-मज्जनजनितहर्पः = मरलीमज्जनकगुणश्रवणमजात तद्विषयकारागः सन् दूत शन्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-पारत् अत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम् । हे देगनुप्रिय ! शीघ्रमेर मिथिको राजधानी गत्वा कुम्भक राजान बहि-'म्क्मी कुणालदेशाधिपतिस्तव कन्यया मही वाउति' इत्यादि । तत खल्लु रुरिमण आदेशानुसारेण स तो रयास्तः सन् यत्रा मिथिलानगरी, तत्रैव प्राधारयद् गमनाय गन्तु प्रवृत्तः । इति वृतीयस्य रुक्मिणो राशः समय कथित ॥ सू०२५॥ न कोई यक्ष कन्या है, न कोई गन्धर्व कन्या है आदि २।।
ऐसा चर्पधर से सुनकर रूक्मी राजा ने वर्पधर का सत्कार किया सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उसे अपने पास से विस जित कर दिया । याद में कुणाल देशाधिपति उन मरमी राजा ने मल्ली कुमारी के मज्जनोत्सव तथा गुणों के श्रवण से हर्पित और उस कुमारी में अनुरक्त चित्त हो कर दूत को बुलाया-चुलाकर फिर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम यहा से शीघ्र ही मिथिला राजधानी को जाओ और जाकर कुंभक राजा से कहो कि कुणाल देशाधिपति रुक्मी राजा तुम्हारी कन्या मल्ली कुमारी को चाहते है । इत्यादि
इस तरह अपने स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर वह दूत रथ पर सवार हो जहा मिथिला नगरी थी उस ओर प्रस्थित हो गया। यह तृतीय राजा रुक्मी का सबध कहा गया है। सूत्र " २५" કે નથી અસુર કન્યા કે નથી યક્ષ કે નથી ગ ધ કન્યા, વગેરે
આ રીતે વર્ષધરની વાત સાભળીને રમી રાજાએ વર્ષધરને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું સકાર તેમજ સન્માન કરીને તેમને પોતાની પાસેથી વિદાય કર્યો ત્યારપછી કુણાલ દેરાધિપતિ રુકમી રાજાએ ભલી કુમારીના મજજનેત્સવ તેમજ ગુણોના શ્રવણુથી હર્ષિત તથા તે કુમારીમાં અનુરક્ત ચિત્ત વાળા થઈને ડૂતને બેલા દૂતને બોલાવીને તેને કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય ! તમે અહીંથી સત્વરે મિથિલા રાજધાનીમા જાઓ અને જઈને કુ ભક રાજાને કહે કે કુણાલ દેશાધિપતિ રુકમી રાજા તમારી કન્યા મલ્લી કુમારીને ચાહે છે વગેરે
આ પ્રમાણે પોતાના સ્વામીની આજ્ઞા મેળવીને હૂત રથ ઉપર સવાર થઈને મિથિલા નગરી તરફ રવાના થયે આ રીતે તૃતીય રાજા રુકમીને સ બંધ કહેવામાં આવ્યે છે એ સૂત્ર ૨૫ II
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भनेगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ काशिराजशास्त्रनृपवर्णनम् ફ૨૭
मूलम्-तेणं कालेण तेणं समएण कासी नाम जणवए होत्था तत्थ ण वाणारसी नाम नयरी होत्था, तत्थ णं सखे नाम कासी राया होत्था, तएण तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाइ तस्स दिवस कुडलजुयलस्स सधी विसघडिए यावि होत्था, तएण से कुभए राया सुबन्नगारसेणिं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया। इमस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स सधि सघाडेह, तएणं सा सुवन्नगारसेणी एयम तहत्ति पडिसुणेइ २, पडिसुणित्ता त दिव्वं कुडलजुयल गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवन्नगारभिसियासु णिवेसेड़, णिवेसित्ता बहहि आएहि य जाव परिणामेमाणा इच्छइ, तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स सधि घडित्तए, नो चेवणं सचाएइ सघडित्तए, तएण सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेत्ता एव वयासो-एव खल सामी । अज्ज तुम्भे अम्हे सद्दावित्ता जाव सधि सघाडेत्ता एयमाण पच्चप्पिणह, तएणअम्हे त दिव्व कुडलजुयल गिण्हामो जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो सचाएमो सघाडित्तए, तएण अम्हे सामी । एयरस दिव्वस्स कुडलस्स अन्न सरिसय कुडलजुयल घडेमो, तएण से कुभए राजा तीसे सुवन्नगारसेणीए अतिए एयमट्ट सोचा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियभिउडी निडाले साहहु एव वयासी-से केण तुम्भे कलायाण भवह ? जे ण तुम्भे इमस्त कुडलजुयलस्स नो सचाएह सधिं सघा
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ज्ञाताधर्मकथासू
सत्कारयति, सम्मानयति, सत्कृत्य समान्य मतिविसर्जयति, ततः राजसमी कुणालाधिपति. - मज्जनजनितपः = मल्लीमज्जन कगुणश्रवणसजात तद्विषयकारागः सन् दूत शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्यात् अत्र यावत्करणादिद -द्रष्टव्यम् । हे देवानुप्रिय । शीघ्रमेव मिथिला राजधानी गत्वा कुम्भक राजान ब्रूहि - ' रुक्मी कुणाल देशाधिपतिस्तन कन्यका महीं बाच्छति' इत्यादि । तत खलु रुक्मिण आदेशानुसारेण स दूतो स्थास्टः सन् यंत्रे मिथिलानगरी, तत्रैत्र प्राधारयद् गमनाय = गन्तु महत्तः । इति तृतीयस्य रुक्मिणो राज्ञः सम्बन्ध कथित ॥ सु०२५||
न कोई यक्ष कन्या है, न कोई गन्धर्व कन्या है आदि २ ।
ऐसा वर्षभर से सुनकर रुक्मी राजा ने वर्षधर का सत्कार किया सन्मान किया | सत्कार सन्मान करके फिर उसे अपने पास से विस जित कर दिया। बाद में कुणाल देशाधिपति उन रुक्मी राजा ने मल्ली कुमारी के मज्जनोत्सव तथा गुणों के श्रवण से हर्पित और उस कुमारी में अनुरक्त चित्त हो कर दूत को चुलाया गुलाकर फिर उससे ऐसा कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम यहा से शीघ्र ही मिथिला राजधानी को जाओ और जाकर कुमक राजा से कहो कि कुणाल देशाधिपति रुक्मी राजा तुम्हारी कन्या मल्ली कुमारी को चाहते है । इत्यादि
इस तरह अपने स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर वह दूत रथ पर सवार हो जहा मिथिला नगरी थी उस ओर प्रस्थित हो गया । यह तृतीय राजा रुक्मी का सबध कहा गया है। सूत्र
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117 २५
કે નથી અસુર કન્યા કે નથી યક્ષકન્યા કે નથી ગધ કન્યા, વગેરે
આ રીતે વધરની વાત સાભળીને રુકમી રાજાએ વધરને સહાર કર્યાં અને સન્માન કર્યું સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમને પેાતાની પાસેથી વિદાય કર્યાં ત્યારપછી કુણોલ દેવાધિપતિ રુકમી રાજાએ મલ્લી કુમારીના મજ્જનાત્સવ તેમજ ગુાના શ્રવણથી હર્ષિત તથા તે કુમારીમા અનુરક્ત ચિત્ત વાળા થઈને દૂતને મેલાવ્યે દૂતને ખેલાવીને તેને કહ્યુ-હે દેવાનુપ્રિય ! તમે અહીંથી સત્વરે મિથિલા રાજધાનીમા ન્તએ અને જઈને કુ ભક રાજાને કહે કે કુણાલ દેશાધિપતિ રુકમી રાજા તમારી કન્યા મલી કુમારીને ચાહે છે વગેરે આ પ્રમાણે પેાતાના સ્વામીની આજ્ઞા મેળવીને ત રથ ઉપર સવાર થઇને મિથિલા નગરી તરફ રવાના થયે આ રીતે તૃતીય રાજા રુકીના સબંધ
भाये ॥ सूत्र ॥ २५ ॥
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०८ काशिराजशस्त्रनृपवर्णनम् रायवरकन्ना , तएण ते सुवन्नगारा सखराय एव वयासीणो खल्लु सामी | अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गधव. कन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना, तएणं से संखे कूडलजुयलजणितहासे दूय सदावेइ, जाव तहेव पहारेस्थ गमणाए ॥ सू० २६॥
टीका-अथ चतुर्थस्य शङ्खनामो नृपस्य सम्बन्धमस्तावमाह- तेणं कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये काशीनाम जनपद आसीत् , तत्र खलु शङ्को नाम काशीराज आसीत् । ततस्तदनन्तर खलु तस्या मल्ल्या विदेहराजवर न्याया, अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् समये, तस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि =सन्धान योजन, 'विसघडिए' विसघटित = त्रुटितश्चाप्यभवत् , ततस्तदा खलु स कुम्भको राजा सुवर्णकारश्रेणि शब्दयति,
__ 'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तेण कालेण तेण समएएण) उस काल और उस समय में (काशी नाम जणवए होत्या) काशी नाम का देश या (तत्थण वाणारसी नयरी होत्था ) उसमें घनारसी नाम की नगरी थी (तत्थण सखे नाम काशी राया होत्था ) उसमें काशी देशाधिपति शख नाम का राजा रहता था (तरण तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाइ तस्स दिव्धस्स कुडलजुयलस्स सधी विसपडिए यावि होत्था) एक समय की बात है कि उस विदेह राज वर कन्यो मल्ली कुमारी के उन दिव्य कुडलों की सधी टूट गई-उन का जोड खुल गया।
(तएण से कुभए राया सुवन्नगार सेणि सद्दावेद सद्दावित्ता एव 'तेण कालेण तेण समएणं' इत्यादि ।
टी -' तेण कालेण तेण समएण' मते (काशी नाम जणवए होत्या) भी नाम देश ता (तत्यण वाराणसी नगरी होत्था) मा मना २स नाम नारी ती (तत्थण सखे नाम कासीराया होत्था) तम! शशी દેશના અધિપતિ શખ નામે રાજા રહેતે હતો
(तएणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरफनाए अन्नया कबाइ तस्स दिव्यस्स कु डलजुयलस्त सधी विसघडिए यानि होत्था)
એક વખતની વાત છે કે વિદેહરાજવર કન્યા મલી કુમારીના દિવ્ય કુડળે સાધાને ભાગ તૂટી ગયો
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हाताधर्मका
डेत्तए ? सुवन्नगारे निव्विसए आणावेइ, तपण ते सुबझगारा कुभेण रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साइ२ गिहाइ तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सभंडामत्तोवगरणमायाएं मिहिलाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निक्खमंति, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव कासी जणवए जेणेत्र वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अग्गुज्जा
सि सगसागड मोएति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुड गिपहति, गिण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मज्झ मज्झेण जेणेत्र कासीराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी - अम्हेणं सामी । मिहिलाओ नयरीओ कुभएणं रेन्ना निव्विसया आणत्ता समाणा इह हव्वमागया त इच्छामो णं सामी । तुव्भ बाहुच्छायापरिग्गहिया निव्भया निरुव्विग्गा सुहसुर्हेण परिवसिउ । तरणंसखे कासरिया त सुवन्नगारे एव वयासी - किन्न तुभे देवाणुपिया । कुभएणं रन्ना निव्त्रिसया
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आणत्ता ?, तएण ते सुवन्नगारा सख एव वयासी - एव खलु सामी । कुभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडलजुयलस्स सधीं विसघडिए, तएणं से कुभए सुवन्नगारसेणि सदावेइ, सद्दावित्ता जाव निव्विसया आणत्ता, त एएण कारणेण सामी । अम्हे कुभएण निव्विसया आणता, तएण से सखे सुवन्नगारे एव वयासी - केरिसिया ण देवाणुपिया | कूभगस्सधूया पभावईदेवीए अत्तया मल्ली विदेह
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ०८ काशिराजशखनृपवर्णनम् ३९९ रायवरकन्ना १, तएण ते सुवन्नगारा सखरायं एव वयासीणो खलु सामी । अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना, तएणं से संखे कूडलजुयलजणितहासे दूय सहावेइ, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २६॥
टीका-अथ चतुर्थस्य शङ्खनामो नृपस्य सम्बन्धमस्तावमाह-'तेणं कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये काशीनाम जनपद आसीत् , तत्र खलु शङ्को नाम काशीराज आसीत् । ततस्तदनन्तर खलु तस्या मल्ल्या विदेहराजवरव न्याया, अन्यदा कदाचित् अयस्मिन् कस्मिंश्चित् समये, तस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि-सन्धान योजन, 'विसघडिए' विसघटित:त्रुटितवाप्यभवत् , ततस्तदा खलु स कुम्भको राजा सुवर्णकारश्रेणि शब्दयति,
'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । टीकार्य-(तेण कालेण तेण समएएण) उस काल और उस समय में (काशी नाम जणवए होत्या) काशी नाम का देश था (तत्थण वाणारसी नयरी होत्या ) उसमें घनारसी नाम की नगरी थी (तत्थण सखे नाम काशी राया होत्था ) उसमें काशी देशाधिपति शव नाम का राजा रहता था (तएण तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाइ तस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स सधी विसपडिए याचि होत्था) एक समय की बात है कि उस विदेह राज वर कन्या मल्ली कुमारी के उन दिव्य कुडलों की सधी टूट गई-उन का जोड खुल गया।
(तएण से कुभए राया सुवनगार सेणिं सदावेद सद्दावित्ता एवं 'तेण कालेण तेण समएणं ' इत्यादि।
टीर्थ-' तेण कालेण तेण समएण' मते (काशी नाम जणवए होत्या) अशी नामे देश हतो (तत्थण वाराणसी नगरी होत्था) मा मना२स नामै नगरी ती (तत्थण सखे नाम कासीराया होत्या) तेभा शी દેશના અધિપતિ શખ નામે રાજા રહેતા હતા
(तएणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरफनाए अन्नया कपाइ तस्स दिव्यस्स कु डलजुयलस्स सधी विसघडिए यानि होत्था)
એક વખતની વાત છે કે વિદેહરાજવર કન્યા મલી કુમારીના દિવ્ય કુડળોને સાધાને ભાગ તૂટી ગયે
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जाताधर्मकथा
डेत्तए । सुवन्नगारे निव्विस आणावेइ, तपणं ते सुवन्नगारा कुभेणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साइ२ गिहाइ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडा मत्तोवगरणमायाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निक्खमति, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव कासी जणवए जेणेत्र वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अग्गुज्जाणंसि सगसागड मोएति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुड गिहति, गिव्हित्ता वाणारसीए नयरीए मज्झ मज्झेण जेणेत्र कासीराया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी - अम्हेणं सामी | मिहिलाओ नयरीओ कुभएणं रेन्ना निव्विसया आणत्तासमाणा इह हव्वमागया त इच्छामो
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णं सामी । तुभ वाहुच्छायापरिग्गहिया निव्भया निरुव्विग्गा सुहंसुर्हेणं परिवसिउ । तएणंसखे कासरिया त सुवन्नगारे एव वयासी - किन्न तुभे देवाणुप्पिया । कुभएणं रन्ना निव्विसया आणत्ता १, तएण ते सुवन्नगारा सख एव वयासी -- एव खलु सामी । कुभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडलजुयलस्स संधीं विसघडिए, तएण से कुभए सुवन्नगारसेणि सदावेइ, सद्दावित्ता जाव निव्विसया आणत्ता, त एएणं कारण सामी । अम्हे कुभएण निव्विसया आणत्ता, तणं से सखे सुवन्नगारे एव वयासी - केरिसिया ण देवाणुपिया | कूभगस्सधूया पभावईदेवीए अत्तया मल्ली विदेह
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ काशिराजशननृपयर्णनम् ३९९ रायवरकन्ना १, तएण ते सुवन्नगारा सखराय एव वयासीणो खलु सामी । अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना, तएणं से संखे कूडलजुयलजणितहासे दूयं सदावेइ, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २६॥
टीका-अथ चतुर्थस्य शङ्खनामो नृपस्य सम्बन्धप्रस्तावमाह- तेणं कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये काशीनाम जनपद आसीत् , तत्र खलु शो नाम काशीराज आसीत् । ततस्तदनन्तर खलु तस्या मल्ल्या विदेहराजवरकन्याया, अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् समये, तस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि -सन्धान योजन, 'पिसघडिए' विसघटितः त्रुटितश्चाप्यभवत् , ततस्तदा खलु स कुम्भको राजा सुवर्णकारश्रेणि शब्दयति,
'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि। टीकार्य-(तेण कालेण तेण समएएण) उस काल और उस समय में (काशी नाम जणवए होत्या) काशी नाम का देश था (तत्यण वाणारसी नयरी होत्था) उसमें घनारसी नाम की नगरी थी (तत्थण सखे नाम काशी राया होत्था ) उसमें काशी देशाधिपति शख नाम का राजा रहता था (तएण तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाइ तस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स सधी विसघडिए यावि होत्था ) एक समय की बात है कि उस विदेह राज वर कन्यो मल्ली कुमारी के उन दिव्य कुडलों की सधी टूट गई-उन का जोड खुल गया। __ (तएण से कुभए राया सुचनगार सेणिं सदावेइ सद्दावित्ता एव 'तेण कालेण तेण समएणं ' इत्यादि ।
टी -' तेण कालेण तेण समएण' ते मते ( काशी नाम जणवए होत्या) अशी नामे देश तो (तत्थण वाराणसी नगरी होत्था) मा मना२स नामे नगरी ती (तत्थण सखे नाम कासीराया होत्था) तेभा अशी દેશના અધિપતિ શખ નામે રાજા રહેતે હતો
(तएणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कपाइ तस्स दिव्यस्स कु डलजुयलस्स सधी विसघडिए यानि होत्था)
એક વખતની વાત છે કે વિદેહરાજવર કન્યા મલી કુમારીના દિવ્ય કુડળોને સાધાને ભાગ તૂટી ગયે
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माताधर्मकथा शन्दयित्वा एवमवादी-हे देवाणुप्रियाः ! अस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि " सघाडेह ' सघटयत सन्धान सयोजन कुरुत वतस्तदा खलु सा मुवर्णकारश्रेणि: एतम्-कुण्डलसधानकरणरूपम् अर्थ कार्य तथाऽस्थिति कथयित्वा प्रतिशृणोतिस्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य तद् दिव्य कुण्डलयुगल गृह्णाति, गृहीत्वा यौव ‘सुवन्नगार मिसियाओ' सुवर्णकारभिसियाः सुपर्णाराणा पिका'-आमनानि -उपवेशनस्थानानि तोपगाछति, उपागत्य सुवर्णकारभिसियामु-मुवर्णकारो. पवेशनस्थानेषु निविशति-उपविशति निविश्य-उपविश्य, महाभि' = अनेकविधे आयैः-साधने यात्-अत्र यावत्करणात्-उपायैःप्रयोगैः, स्थितिमि व्यवस्था भिरिति बोध्यम् । परिणमयन्ति-पूर्वस्वरूप सम्पादयन्ति सा सुवर्णकारश्रेणिस्तस्य दिव्यस्य कुण्डल्युगलस्य सन्धि पटयितुमिच्छतीति पूर्वेण सम्बध । वयासी तुभेण देवाणुप्पिया । इमस्ल दिन्बम्स कुडलजुयलस्त सधिं सघाडे ) तय कुभक राजा ने सुवर्णकारों को बुलाया और बुलाकर उन से ऐसा कहा-हे देवानुप्रियों ! तुम लोग इम दिव्य कुडल युगल की सधि को जोड़ दो (तएण मा सुवन्नगारसेणी एयम तहत्ति पडि सुणेइ २, पडि सुणित्ता त दिवव कुडलजुयल गिण्डइ, गिण्डित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव-नगार भिसियासु णिवेसइ, णिवेसित्ता पहहिं आहिं य जाव परिणामे माणा इच्छा तस्स दिव्यस्स कुडल जुयलस्स सधित्तम् ) उस सुवर्णकार श्रेणी ने कुडलों की सधि को जोड ने रूप अर्थ को" तथास्तु कहकर स्वीकार कर लिया-और वे दोनो दिव्य कुडल राजा के पास से ले लिये । लेकर फिर वे सय जहा सुवर्णकारो के बैठने के स्थान थे वहा चले आये।
(तएण से कुभए राया सुबन्नगारसेणि सदावेइ सदावित्ता एव वयासी तु भेण देवाणुप्पिया ! इमस्स दिवस्स कुडलजुयलस्स सद्धिं सघाडेह )
- ત્યારે કુ ભક રાજાએ સનીઓને લાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયો તમે આ દિવ્ય કુળ નો સષિ ભાગ જોડી આપ
(तएण सा सुवन्नगार सेणी एयमट्ठ तहत्ति पडिमुणेइ २ पडिमुणित्ता त दिन्च कुडलजुयल गिण्हइ, गिदित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, आगच्छित्ता मुबन्नगारमिसियासु णिवेसइ, णिवेसित्ता बहूहि आएहिं य जाव परिणामेमाणा इच्छ। तस्स दिवस्स कुडळजुयरस सधित्तए) ।
તે સોનીઓએ તથાસ્તુ કહીને કુડળે ને તૂટેલા ભાગને જોડવાની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને બને દિવ્ય કુડળે રાજાની પાસેથી તેઓ એ લઈ લીધા લીધા પછી તેઓ બધા જ્યા સોનીને બેસવાના સ્થાન હતા
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ८ काशिरामदासनृपवर्णनम्
नो चैव खलु शक्नोति सपटयितुम् तैः सुपर्णकारैस्तस्य त्रुटितस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि घटयितुमने को पाया कृताः, परंतु कुण्डल सन्धेर्यथोचित योजनाभावात्ते विफलप्रयत्ना अभूवन्निति भावः । ततस्तदनन्तर खलु सा सुवर्णकारश्रेणिर्यचैत्र कुम्भक - मिथिलाराजः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतल्परिगृहीत शिर आवतं दशनख मस्तकेऽञ्जकृत्वा करद्वय सयोज्य ' बढावेत्ता ' वर्धयित्वा - 'जयजये ' ति शब्देनाभिनन्द्य एव = वक्ष्यमाणमकारेण अवादीद - हे स्वामिन् । एव खलु अद्य यूयमस्मान् शब्दयथ, शब्दयिता यावत् भवद्भिरेव वयमाज्ञप्ताः - ' अस्य कु· आकर उन स्थानों में बैठ गये- बैठकर उन लोगो ने अनेक सावनी से, अनेक उपायों से अनेक व्यवस्थाओं से उस दिव्य कुडल के युगल की सधि को जोडने की इच्छा की, परन्तु ( नो चेवण सचाएड सघडित्तए, तएण सा सुवण्णगारसेणी जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छद्द ) वे उस सधी को प्रयोचित रूप से जोड़ ने में समर्थ नही हो सके-अतः उन का समस्त प्रयत्न विफल हुआ। इस तरह विफल प्रयत्न वाले हुए वे लोग जहा मिथिलाधिपति कुमक राजा थे वहा गये उवागच्छित्ता करयल० वद्भावेत्ता एव व्यासी) वहा जाकर उस सुवर्णकार श्रेणी ने दोनों हाथो को जोडकर राजाको बवाई दी जय हो विजय हो इस तरह उसका अभिनंदन किया बाद में इस प्रकार कहा - ( एव खलु सामी ! अज्ज तुभे अम्हे सदावे, सदावित्ता जाव मधि सवाडेत्ता ण्यमाण पच्चपण ) स्वामिन् | आपने आज हमलोगों को बुलाया था और
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ત્યા આવ્યા ત્યા તેએ ખેડા અને બેસીને તે લેાકાએ જાત જાતના સાધને, ઉપાયે તેમજ અનેક જાતની વ્યવસ્થાએથી બને કુંડળાના તૂટેલા ભાગને સાધવાના પ્રયત્ન કર્યા પણ
( नो चेत्र ण मचाएड सत्रडित्तए, तएण सा सुनण्णगारसेणी जेणेव कुभए तेणेन उवागच्छर )
તેઓ! કુંડળાના તૂટેલા સ ધિભાગને સાધવામાં સમય થઈ શકયા નહિ અને તેના બધા પ્રયત્ન નિષ્ફળ બન્યા આ પ્રમાણે નિષ્ફળ પ્રયત્ન वाजा तेयो मघा न्या मिथिलाधिपति कुल राज हता त्या गया ( उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेत्ता एव वयासी ) त्याने ते सोनी હાથ જોડી ને રાજને જયયાએ જયાએ આ પ્રમાણે ના રાખ્તોથી અભિ નદિત કર્યો અને ત્યાર પછી કહેવા લાગ્યા-
ने
एव खलु सामी ! अज्ज तुम्भे अम्हे सदावेह सदावित्ता जाव सधि सघाढेता एयमाण पच्चपिणt )
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माताधर्मकथाpet
ण्डल्युगलस्य सन्धि सघटयत सन्धि समय त्रुटित सन्धि योजिला - एतामा = ममाप्तिं प्रत्यर्पयत ' इति, ततः ग्वलु वय तद् दिव्यं कुण्डलयुगल गृहीमः, सुवर्णकारकाः यावत्-तत्रैवोपागच्छामः उपागत्य तत्रोपविश्य वय कुण्डल युगलस्य सधि सघटयितु प्रयत्न कृतात परतु नो शक्नुमः सनटयितु सयोजयि तुम्, तत' तस्मात् कारणात् खलु हे स्वामिन् ! एतस्य दिव्यस्य कुण्डलस्यान्यत् सदृश कुण्डलयुगल घटयामः =रचयाम', ततस्तदनन्तर खलु स कुम्भको राजा तस्याः सुवर्णकारश्रेण्याः सुवर्णकारसमूहस्य अन्तिके समीपे, एतमर्थ = कुण्डलसन्धिसघटन
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घुलाकर ऐसा कहा था कि तुम लोग इस दिव्य कुटल युगल की सि को कि जो टूट गई है - खुल गई है-ठीक कर दो-जोड़ दो और जोड़कर हमारी इस आज्ञप्ति को पूर्ण कर इस की हमें ग्वपर दो (तरण अम्हे त दिव्य कुडलजुयल गिण्ामो जेणेव सुवन्नागारभिसियाओ जाव नो सचाएमो सघडित्तए तएण अम्हे सामी । एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्न सरिसय कुडलजुयल घटेमो ) हमने उस दिव्य कुडल युगल को ले लिया था और लेकर हम लोग जहा सुवर्ण कारों के बैठने का स्थान था - वहा चले गये थे वहां बैठकर हम लोगों ने अनेक साधनों द्वारा, अनेक उपायों द्वारा और अनेक व्यवस्थाओं द्वारा इस कुडल युगल की सधि को जोडनेका प्रयत्न किया परन्तु यथोचित रूपसे जोड़ने में हम लोग सफल प्रयत्न नही हो सके है अतः हे स्वामिन्! आपकी आज्ञा हो तो हम इस दिव्य कु उलके ममान और दूसरा कुडल युगल बना देते हैं - (तएण से कुभए राया तीसे सुवन्नगारसेणीए अतिए एमड હૈ સ્વામિન તમે આજે અમને મેલાવ્યા હતા અને ખેાલાવીને કહ્યું હતુ કે તમે લેાકા આ દિવ્ય કુકડાને સધિ ભાગ તૂટી ગયા છે તેને સારા કરી આપે, સાધી આપે અને સાધીને અમને ખબર માપે
(तरण अम्हे व दिव्व कुडल जुयल गिण्हामी जेणे सुवन्नागारभिसिया ओ जाब नो सचाएमो सघडित्तए तएण अम्हे सामी ' एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्न सरिसय कुडलजुयल घटेमो )
અમે તે કુડળની જોડને લીધી અને લઈને જ્યા સાનીએને એવસાની જગ્યાએ છે ત્યા ગયા ત્યા બેસીને અમે લેાકેાએ ઘણા સાધના ઉપાચાને ઘણી વ્યવસ્થાએ વડે આ અને કુંડળાના તૂટેલા ભાગને સાધવાના પ્રયત્ના કર્યાં, પણુ તેઓને ચગ્ય રીતે સાધવામા અમે લેાકેા સફળ થયા નથી, એથી હે સ્વામી ! આપની આજ્ઞા હાય તા આ દિવ્ય કુંડળો જેવાજ બીજા કુંડળો ઘી આપીએ
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__ अनगारधर्मामृतवाणी टीका १०८ काशिराजशस्त्रनृपवर्णनम् योग्यताराहित्यरूप श्रुत्या शब्दत कर्णगोचरीकृत्य, निशम्य अर्थतोऽवगव्य, 'आ सुरुत्ते' आशुरुतः झटितिकोधाविष्टः, 'तिवलिय' विवलिका-रेखानयाभिव्यक्ति कारिका, ' भिउडों' भृकुटि वक्रीभूतभ्रुव, ललाटे-भाले सहत्य-मानध्य-एववक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-अय खलु यूय ' कलायाण' कलादाना-लामाददत इति कलादा' स्वर्णकारास्तेषां के भरथ ? न कोऽपीत्यर्थे। ये खलु यमस्य कुण्डलयुगलस्य नो शक्नुथ सन्धि सघटयितुम् । ये खलु सुवर्णकारास्ते कलामात्र सुबर्णमादाय तद् वितत्य राजादीना मनोहर कनकमयमाभूपणादिक रचयन्ति यूय तु त्रुटितस्य सुवर्णसन्धेः सबोजनेऽप्यसमर्थाः स्थ तर्हि कलादाकुलोद्भवायूयमिति कथं सोच्चा णिसम्म आतुरुत्ते तिवलिय भिउडी निडाले साहट्ट एव वयासी) इस प्रकार उस सुवर्णकार श्रेणी के मुग्व से इस बात को सुनकर और उसे विचार कर वह कुभक राजा उस पर झटिति क्रोध से लाल पीली आखों वाला हो गया-और भ्रकुटि को मस्तक पर चढाकर इस प्रकार घोला ( से केण तुम्भे कलायाण भवह ? जेण तुम्भे इमस्स कुडल जुय लस्सनो सचाएह सधि सघाड़ेत्ता ?)जब तुम लोग इस कुडल युगल की सधि को ही नहीं जोड सकते हो तो फिर तुम सुवर्णकार कैसे ? जो सुवर्णकार होते हैं वे तो कलामात्र (थोढा) भी सोनेका पसार कर ऐसे २ आभूषण उसके घना देते है जो राजादिकोके मनको भी हरण कर लेते हैं।
तुम लोग तो टूटे हुए सुवर्ण की सधि को भी जोडने मे अक्षम बन रहे हो तो फिर कैसे हम तुम्हें सुवर्णकारों के कुलो में उत्पन्न हुआ
तएण से कुभए राया तीसे सुबन्नगारसेणीए अतिए एयमट्ठ सोच्चा णि सम्म आसुरुत्ते तिवलिय भिउडी, निडाले साह एव वयासी)
આ રીતે બનીઓના મુખેથી આ વાત સાંભળીને અને તે વિષે ખરેખર વિચારીને કુભક જાજા તેઓને ઉપર ખૂબજ ક્રોધથી લાલ પીળા થઈ ગયા અને ભમ્મર ઉચી ચઢાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા
(सेकेण तुम्भे क्लायाण भाइ ? जेण तुम्भे मस्स कुडलजुयलस्स नो सचाएह सधि सधाडेत्तए १)
- તમે આ બને કુડળોને તૂટેલા સ વિભાગને જ સ ધી પાકવામા અને મર્થ છે ત્યારે તમે સુવર્ણકાર કઈ રીતે છો ! જેઓ સુવર્ણકાર હોય છે તેઓ તે કલા માત્ર પણ ન હોય તેને ફેલાવીને એવા એવા ઘરેણાઓ તૈયાર કરી આપે છે કે જેનાથી રાજાઓના મન પણ પ્રસ ન થઈ જાય છે
તમે લોકે ત્યારે તૂટેલા સેનાને સાધે પણ જોડી શકતા નથી ત્યારે भने, तभने सुवर्ण सना
शु भेदा ४या मापारे भानी ? (मुत्र
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श्रोताधर्मकथासूत्रे
मन्ये, इति भावः । ततः स कुम्भको राजा किं कृतवान् ? इत्याह- ते' इत्यादि, तान् सुवर्णकारान् 'निव्विसए' निर्विषयान् स्वदेशतो निष्कान्तान आज्ञापयति 'भम राज्यादूर हिर्गच्छथ ' इत्याज्ञां ददाति स्मेत्यर्थः ।
तत खलु ते सुवर्णकाराः कुम्भेन= कुम्भकेन राज्ञा निर्विषया स्वदेशतो निर्ग ताभवितुम् आज्ञप्ताः सन्तः यत्रेव स्वानि यानि गृहाणि तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य 'सभडमत्तोवगरणमायाए ' सभाण्ड।मत्रोपकणमादाय स्वकीयभाण्डमाजनाधुपकरण गृहीत्वा शकटसमूहे ऽवस्थाप्य मिथिलाया राजधान्या मध्यमध्येन निष्क्रामन्ति = निर्गच्छन्ति, निष्क्रम्य विदेहस्य जनपदस्य मध्म येन म ये भूवा, यत्र काशीजनपदः, यत्रैव वाराणसी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य ' अग्गुबाणसि' 'मानें। ( सुचनगारे निव्विस आणवेद ) इस तरह कह कर उस कु भक राजा ने उन सुवर्णकारों को अपने देश से बाहर निकल जाने की आज्ञा दे दी । (तण से सुवन्नगारा कु भेणं रन्ना निव्विसया आणत्ता समा णा जेणेव साई २ गिहाई तेणेच उवागच्छति, उचागच्छित्ता सभामतोवगरणमाणाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झ मज्येण निक्खमति ) इसके बाद वे सुवर्णकार कु भक्क राजा से अपने देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञप्त होकर जहा अपने२ घर थे वहा आये । वहा आकर उन्होंने अपने २ भाड भाजन आदि उपकरणो को गाडियों में भरा और भराकर मिथिला राजधानी के बीचो बीच से होकर निकले । (निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेण जेणेत्र कासी जणवए जेणेव वाणारसी नगरी तेणेव उवागच्छति ) और निकल विदेह जनपद के भीतर से होकर जहा काशी देश और बनारसी नगरी धी वहा आये । नगारे निव्यसए आणवेइ ) या प्रमाणे ज्हीने लराल ते सुवर्थाशने પેાતાના દેશની ખહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા આપી
तण से सुवन्नगारा कुभेणं रन्ना निव्त्रिसया आणत्ता समाणा जेणेव साइ २ गिहाई तेणेत्र उवागच्छति, आगच्छित्ता सभामत्तोवगरणमायाए महिलाए रायहाणीए मज्झ मज्झेण निक्खमति )
ત્યાર પછી તે સાનીએ કુંભક રાજાની પાસેથી પેાતાના દેશમાથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા સાભળીને જ્યા પેાતાનુ ઘર હતુ ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેઓ એ પાતાના વાસણ વગેરે સામાનને ગાડીમા ભર્યાં અને ભરીને મિથિલા રાજધાનીના રાજમાર્ગે થઇને નીકળ્યા
(निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेण जेणेव कामी जणवए जेणेन वाणारसी नयरी तेणे उवागच्छति )
અને નીકળીને વિદે જન પદની વચ્ચે થઈ ને જ્યા કાદેશ અને મનારસી નગરી હતી ત્યા ગચા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ काशिराजशरानृपवर्णनम्
अग्रोद्याने = प्रधानोयाने, सगडी सागड ' शकटीशाकट धुकटवृहन्छ कटानां समूह ' मोएति' मोचयन्ति शकटेभ्यो बलीवर्दान् पृथक् कुर्वन्ति मोचयित्वा महार्थ = महाप्रयोजनक यावत्- महार्थ - महामूल्यक महाई = महता राजादीना योग्य, माभृतम् - उपहार गृह्णन्ति, गृहीत्वा वाराणस्या नगर्या मन्यमध्येन=नाराणस्या नगर्यामध्ये भूत्वा यचैव शव शइखनामा काशिराजस्तत्रैवोपागच्छन्ति० । उपागत्य करतल०यानत् मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्हे स्वामिन् ! एव वय खलु मिथिलाया नगर्या कुम्भकेन राज्ञा निर्मिपयाः स्त्रदेश निर्गता भक्तिमाज्ञप्ता सन्त इह 'हव्वमागया' हव्यमागता शीप्रमागताः,
( उचागच्छित्ता अग्गुजाणसि सगडी सागड मोएति, मोइत्ता महत्थ जाव पाहुड गिति, गिन्हित्ता वाणारसीए नयरी मज्झमज्झेण जेणेव सखे कासी रामा तेणेव उवागच्छति ) वहा आकर उन्होंने अपनी २ गाडी और गाड़ी को वहा के बगीचे में ठहरा दिया और ठहरा कर फिर ये सब महार्थसाधक कीमती तथा राजादिको के योग्य भेट को लेकर बानारसी नगरी के बीच से होकर जहा काशी राज शंख राजा थे वहा आये' (उवागच्छित्ता करयल ०जाव एव वयासी अम्हेण सामी ! मिहिलाओ - नयरीओ कुभण्णरन्ना निव्विसया ओणत्ता समाणा इह हव्वमागया) व आकर उन्होने दोनों हाथों को जोड कर और उनकी अजलि को मायेपर रखकर राजा को नमस्कार किया, बाद में इस प्रकार वे कहने लगे हे स्वाभिन् ! हमलोगों को कुभक राजा ने
उवागच्छित्ता अग्गुज्जागसि सगडी सागड मोएति, मोइत्ता महत्थ जाव पाहुड गिण्हति, गिव्हित्ता गाणारसीए नयरीए मज्झ मज्झेण जेणेव सखे कासी राया तेणेव उपागच्छति )
ત્યા આવીને તેએ એ પેાત પેાતાની ગાડીએ તેમજ ગાડાઓને ત્યાના ખાસ ઉદ્યાનમાં રાવ્યા અને રોકીને તેએ આવા મહા સાધક બહુજ કીમતી તેમજ રાજા વગરે ને યાગ્ન એવી ભેટ લઈને અનારસી નગરીની ઠીક વચ્ચે થઈ ને જ્યા કાશીરાજ રા ખરાજા હતા ત્યા ગયા
उवागच्छित्ता करयल० जाव एव वयासी अम्हेणसामी ! मिहलाओ नयरीओ कुमer रन्ना निव्विसया आणता समाणा इह - हव्यमागया )
ત્યા જઈને તેમણે મને હાયા બેડીને અજલી મન્તકે મૃકીને રાજાને વદન કર્યો અને તે કહેવા લાગ્યા હે સ્વામિન્ ! કુંભક ગાએ અમને લેાકાને મિચિલાનગરીથી મહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી છે મિથિલાનગરીની બહાર કહા
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श्रोताधर्मकथासूत्रे
मन्ये, इति भावः । ततः स कुम्भको राजा किं कृतवान् ? इत्याह- ते ' इत्यादि, तान् सुवर्णकारान् 'निव्विसए' निर्विषयान् स्वदेशतो विकान्तान आज्ञापयति " मम राज्यादरहिर्गच्छथ ' इत्याज्ञा ददाति स्मेत्यर्थः ।
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तत खल ते सुवर्णकाराः कुम्भेन=कुम्भकेन राज्ञा निर्विषया स्वदेशतो निर्ग ताभवितुम् आज्ञप्ताः सन्तः यचैव स्वानि स्वानि गृहाणि, तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य 'सभडमत्तोवगरणमायाए ' सभाण्डामत्रोपरुणमादाय स्वकीयभाण्डभाज नाधुपकरण गृहीत्वा शकटसमृहेऽवस्थाप्य मिथिलाया राजधान्या मध्यमभ्येन निष्क्रामन्ति = निर्गच्छन्ति, निष्क्रम्य विदेहस्य जनपदस्य मध्म येन म ये भूखा, यत्र काशीजनपदः, यत्र वाराणसी तोत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य 'अग्गुज्जाणसि' मानें। (सुवन्नगारे निव्विस आणवेद ) इम तरह कह कर उस कु भक राजा ने उन सुवर्णकारों को अपने देश से बाहर निकल जाने की आज्ञा दे दी । (ए से सुवन्नगारा कुभेण रन्ना निव्विसया आणत्ता समा णा जेणेव साई २ गिहाइ तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सभडाम तोरणमाणाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झ मज्झेण निक्खमति ) इसके बाद वे सुवर्णकार कुभक राजा से अपने देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञप्त होकर जहा अपने २ घर थे वहा आये। वहां आकर उन्हों ने अपने २ भाड भाजन आदि उपकरणो को गाडियो में भरा और भराकर मिथिला राजधानी के बीचो बीच से होकर निकले । (निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेर्ण जेणेत्र कासी जणवए जेणेव वाणारमी नयरी तेणेव उवागच्छति ) और निकल विदेह जनपद के भीतर से होकर जहा काशी देश और बनारसी नगरी थी वहा आये । नगारे निव्यस आणवेइ ) मा प्रमाणे उडीने उलरामये ते सुवार्थ अशने પેાતાના દેશની બહા- નીળી જવાની આજ્ઞા આપી
तण से सुवनगारा कुभेणं रन्ना निव्त्रिसया आणत्ता समाणा जेणेव साइ २ गिहाई तेणेव उपगच्छति, आगच्छित्ता सभडामत्तोवगरणमायाए महिलाए राहाणी मज्झ मज्झेण निक्खमति )
ત્યાર પછી તે સાનીએ કુંભક રાજાની પાસેથી પાતાના દેગમાથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા સાભળીને જ્યા પેાતાનુ ઘર હતુ ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેએ એ પેાતાના વાસણ વગેરે સામાનને ગાડીએમા ભર્યા અને ભરીને મિથિલા રાજધાનીના રાજમાર્ગે થઈને નીકળ્યા
(निक्aमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेण जेणेव कामी जणवर जेन वाणारसी नयरी तेणेव उपागच्छति )
અને નીકળીને વિન્દેડ જન પદ્મની વચ્ચે થઈ ને જ્યા કાશીદેશ અને બનારસી નગરી હતી ત્યા ગયા
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अनगारधर्मामृतवर्षिण टीका भ० ८ काशिराजशखनृपवर्णनम् पुत्र्या:प्रभावती देव्या आत्मजाया: अङ्ग मातायाः, मल्लयाम्मलीकुमारिकाया', कुण्डलयुगलस्य सन्धिपिसघटित त्रुटितः । ततः ग्वलु स कुम्भकः सुवर्णकार श्रेणिम् अस्मानित्यर्थः शब्दयति, शब्दयित्या यावत्-अत्रयायच्छन्देनेद द्रष्टव्यम्तेनैव वयमाञप्ता:-अस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि- सघटयत सन्धि सघटयन्त्रुटित सन्धि योजयित्वा, एतामा=ममाज्ञप्ति, प्रत्यर्पयन" इति ततः खलु वय तद् दिव्य कुण्डलयुगल गृहीत्वा निजोपवेशनस्थानमागत्य तत्रोपविश्य नानाविधैरुपायैः पूर्वस्वरूप सम्पादयन्तस्तस्य कुण्डलयुगलस्य सधि संघटयितु प्रयास कृतवन्तः, परन्तु नो शक्नुमः सघटयितुम् , तनः खलु कुम्भकस्य राज्ञः पुरोगत्वाऽस्माभिरेवमावेदि धूयाग पभावइए देवीए अत्तयाण मल्लीए कु डलजुयस्स सधी विसघडिए-तएण से कु भए सुवन्नगारसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता जाव निधि सया आणत्ता) हे स्वामीन् ! कु भक राजा की पुत्री कि जो प्रभावती की कुक्षि से उत्पन्न हुई है और जिसका नाम मल्ली कुमारी है-के दो कुडलों की सधी विघटितहो गई थी-सो कुभक राजाने हमसर सुवर्ण कारों को बुलाया था और ऐसा कहा था कि तुम लोग इन की सधी को जोड कर ले आओ-रमलोगों ने उनकी आज्ञानुसार उन दोनों कुडलो को लेलिया और लेकर हमलोग अपने २ पैठने के स्थान पर चले आए-वहा पैठकर हमलोगों ने नाना प्रकार के उपायों से उन कुडलो को पूर्वावस्थ बनाने के लिये त्रुटित सधी को जोडने का बहुत प्रयास किया परन्तु यथावत् हमलोग उसे साटित नहीं कर सके अतः हमलोग उनके समीप पहुंचे और वहा जाकर उनसे प्रार्थना की कि
(एव खलु सामी । कुभगरस्स रन्नो घूयाए पभावइए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडलजुयलस्स सधी विसघडिए तएण से कुभए मुवन्नगारसेणिं सदावेइ, सद्दा वित्ता जाव निचिसया आणत्ता)
સ્વામીન ! પ્રભાવતી રાણીના ગર્ભથી જન્મ પામેલી કુ ભક રાજાની પુત્રી મલલી કુમારીના બે કુડળોને સાધે તૂટી ગયે ઉભક રાજાએ બધા સેનીઓને બોલાવ્યા અને કહ્યું કે તમે લેકે આ કુડળની સધિને જોડી આપો અમોએ તેમની પાસેથી કડળે લઈ લીધા અને લઇને અમે બધા પોતપોતાના બેસવાના સ્થાને આવી ગયા ત્યાં બેસીને અમેએ જાત જાતના ઉપાથી તે કુડળને પહેલાના જેવા જ સારા બનાવી આપવાની એટલે કે તૂટેલો એ ધિ ભાગ ફરી નાધી આપવા માટે ઘણા પ્રયત્નો કર્યા પણ તે કુંડળાને પૂર્વવત્ સારા કરવામાં સમર્થે થઈ શકયા નહિ અમે લોકો રાજાની પાસે ગયા અને તેમને વિનતિ કરી કે હે મહારાજ ! અમે બહુ જ
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Y०६
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থমথা तत्-तस्मात् इच्छामः खलु हे स्वामिन् ! युप्माक पाहुन छाया परिगृहीताः आज च्छाया समाश्रिता अतण्य निर्भयाः, निद्विग्ना उद्वेगरहिता, मुग्व सुखेनअतिमुखेन परिवस्तुमिच्छाम इति पूर्वेण सम्बन्ध ।
ततस्तदनन्तर सल शन काशिराजस्तान् पर्णकारानेश्मनादीन-हे देवान प्रिया ! कि कुत खलु यूयं कुम्भकेन राज्ञा निर्विपया आज्ञप्ता १ ततः खलु ते सुवर्णकाराः शङ्खमेवमवादीत-हे स्वामिन् । एन खल कुम्भकम्य राज्ञो दुहितु = मिथिलानगरी से बहार चलेजाने की आज्ञा दी-सो हमलोग वहांसे निर्वासित होकर यहां आये हैं-(त इच्छामोण सामी! तुभ बाहुच्छाया परिग्गहिया निम्भयानिधिग्गा सुह सुणे परिवसिउ ) अत. हे स्वामिन् ! आपकी बाहुच्छाया का आश्रय लेकर हमलोग यहा निर्भय और निरुदिन्न होकर शान्ति पूर्वक आनन्द के साथ रहना चाहते हैं (तएण सखे कासीराया ते सुवन्नागारे एव वयासी) उनकी इस प्रकार की बात सुनने के बाद काशी देशाधिपति शग्व राजा ने उनसे ऐसा कहा-(किन्न तुम्भे देवाणुप्पिया। कुभएण रत्ना निन्धिसया आणत्ता) हे देवानुप्रियो। किस कारण से कुमक राजा ने आप लोगों को मिथिलानगरी से यारर चले जाने की आज्ञा प्रदान की
(तएण ते सुवनगारा सखं एव वयासी) सुवर्णकारों ने प्रत्युत्तरमें शख राजा से इस प्रकार कहा-(एव खलु सामी । कुभगस्स रनो ડવાની આજ્ઞા કરવાથી એથી અમે ત્યાંથી નિવસિત થઈને અહીં આવ્યા છીએ
(तं इच्छामो ण सामी ! तुम्भ पाहुच्छाया परिग्गहिया निब्भया निरूधिग्गा मुह सुहेण परिवसिउ)
એથી હે સવામિન ! તમારી બાછાયાના આશ્રયમા અમે લેકે નિર્ભય અને નિરૂદ્વિગ્ન થઈને શાતિથી સુખેથી અહીં રહેવા ઈચ્છા રાખીએ છીએ
(तएण सखे कासी राया ते सुवन्नागारे एव वयासी) તેમની આ પ્રમાણે વિનતી સાભળીને કારી દેશાધિપતિ શખ રાજાએ તેમને કહ્યું (किन्न तुम्भे देवाणुपिया । कुभएण गन्ना निसिया आणत्ता)
હે દેવાનુપ્રિયે ! કુભક રાજાએ તમને શા કારણથી મિથિલા નગરીની બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી છે?
(तएण ते सुवन्नागारा सख एव क्यासी) નીઓએ જવાબમાં શ પ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
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अनगारधर्मामृतवर्षिण टीका अ० ८ काशिराजशखनृपवर्णनम् ४०७ पुत्र्याः-प्रभावती देव्या आत्मजाया: अङ्ग मातायाः, मल्लया=मल्लीकुमारिकाया', कुण्डलयुगलस्य सन्धिनिसघटित =त्रुटित । तत खलु स कुम्भकः सुवर्णकार श्रेणिम्-अस्मानित्यर्थः शब्दयति, गन्दायित्ता यावत्-अनयारउदेनेद द्रष्टव्यम्तेनैव वयमाञप्ता:-अस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि- सस्टयत सन्धि सघट्य-त्रुटित सन्धि योजयित्वा, एतामाज्ञां-ममाज्ञप्ति, प्रत्यर्पयत" इति ततः खलु वय तद् दिव्य कुण्डलयुगल गृहीत्वा निजोपवेशनस्थानमागत्य तत्रोपविश्य नानाविधैरुपायैः पूर्वस्वरूप सम्पादयन्तस्तस्थ कुण्डलयुगलस्य सधिं सघटयितु प्रयास कृतवन्तः, परन्तु नो शक्नुमः सघटयितुम् , ततः खलु कुम्भकस्य राज्ञः पुरोगत्वाऽस्माभिरेवमावेदि धूया पभावहरा देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडलजुयस्स सधी विसघडिए-तएण से कु भए सुवन्नगारसेणि सद्दावेह, सद्दावित्ता जाव निधि सया आणत्ता) हे स्वामीन् ! कुमक राजा की पुत्री कि जो प्रभावती की कुक्षि से उत्पन्न हुई है और जिसका नाम मल्ली कुमारी है-के दो कुडलो की सधी विघटितहो गई थी-सो कुभक राजाने हमसन सुवर्ण कारों को बुलाया था और ऐसा कहा था कि तुम लोग इन की सधी को जोड कर ले आओ-हमलोगों ने उनकी आज्ञानुसार उन दोनों कुडलो को लेलिया और लेकर हमलोग अपने २ पैठने के स्थान पर चले आए-वहा वैठकर हमलोगों ने नाना प्रकार के उपायों से उन कुडलों को पूर्वावस्थ बनाने के लिये त्रुटित सधी को जोडने का बहुत प्रयोस किया परन्तु यथावत् हमलोग उसे साटित नही कर सके अतः हमलोग उनके समीप पहुंचे और वहा जाकर उनसे प्रार्थना की कि ___ (एव खलु सामी ' कुभगरस्स रन्नो वूयाए पभावइए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडल्जुयलस्स सधी विसघडिए तएण से कुभए सुवनगारसेणि सद्दावेइ, सदा. वित्ता जाव निविसया आणत्ता)
હે સ્વામીન ' પ્રભાવતી રાણીના ગર્ભથી જન્મ પામેલી કુભક રાજાની પુત્રી મતલી કુમારીના બે કુડળોને સાધે તૂટી ગયે કુભક રાજાએ બધા સોનીઓને લાવ્યા અને કહ્યું કે તમે લોકો આ કુડળની સધિને જોડી આપે અમેએ તેમની પાસેથી કુડળી લઈ લીધા અને લઈને અમે બધા પિતપોતાના બેસવાના સ્થાને આવી ગયા ત્યાં બેસીને અમોએ જાત જાતના ઉપાયોથી તે કુડળને પહેલાના જેવા જ સારા બનાવી આપવાની એટલે કે તૂટેલે નધિ ભાગ ફરી સાધી આપવા માટે ઘણું પ્રયત્ન કર્યો પણ તે કુંડળાને પૂર્વવત્ સારા કરવામાં સમર્થ થઈ શકયા નહિ અમે લેક રાજાની પાસે ગયા અને તેમને વિનતિ કરી કે હે મહારાજ ! અમે બહુ જ
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४०.
माताधर्मकथासूत्रे
तम् - अस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि सघटयितु प्रयास कतरन्तः, परतु नो शक्नुमः सघटयितुम्, ततः खलु कुम्भकस्य राज्ञ पुरो गत्वाऽस्माभिरेव मनादित्अस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि समदयितु प्रयत्न कृतन्वोऽपि जय नो शक्का सघटयितुम्, तस्मात् सलु हे सामिन् । एतत्सदृशमन्यत कुण्डलयुगल घटयामः इति । ततः क्रोधाविष्टेन कुम्भकेन राज्ञा एन 'निधिसया' निर्विषया स्वदेशतो निर्गताभवितुम्, आज्ञता. = आदिष्टाः ।
ततः स शङ्खः काशीराजः सुवर्णकाराने मवादीत् - हे देनानुमिया | वहशी खलु कुम्भकस्य राज्ञो दुहिता = पुनी प्रभावत्या देव्या आत्मना = अङ्ग जाता, मल्ली महाराज हमलोग प्रयत्न करने पर भी इस कार्य में असफलित हो रहे हैं - अतः आपको आज्ञा हो तो हम इन्ही कुडलों जैसा कुडल और बनादेवें- बस हमारा इतना ही कहना था कि राजा इकदम क्रोध के आवेश मे आ गये और हमलोगों को अपने देश से निकल जाने की आज्ञा दे बैठे | बस (त एएण कारणेण सामी ! अम्हे कु भएण निव्वि सर्या आणत्ता-तरण से सखे सुवन्नगारे एव वयासी- केरिसिया ण देवा पिया ! कु भगधूया पभावहए देवीए अत्तया मल्ली विदेह रायवरकन्ना ) हे स्वामीन् यहीकारण है कि जिससे हमलोग कु भक राजा के द्वारा देश से निकल जाने के लिये आज्ञप्तहुए हैं - शख राजाने उन सुवर्ण करों को अपने राज्यमे बसने के लिये खुशी से आज्ञाप्रदान की ।
इस प्रकार सुनने के अनन्तर उस शख राजा ने सुवर्णकारों से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो | कहो-कु भक राजा की वह विदेहवर
પ્રયત્ન કર્યાં છતા આ કામમા અમે સફળ થઇ શકયા નહિ એથી તમે આજ્ઞા આપે! તે આ કુંડળો જેવા જ ખીજા બે કુંડળા ઘડી આપીએ અમારી આ વાત સાભળીને રાજા એકદમ લાલચેાળ થઈ ગા અને અમને પેાતાના દેશથી બહાર જવાની આજ્ઞા આપી દીધી
( त एएण कारणेण साभी ! अम्हें कुभए णं निव्विसया आणता तरणं से सखे पन्नगारे एव वयामी केरिसियाण देवाणुप्पिया ! कुभगधूया पभावइए देवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवर कन्ना )
હું સ્વામીત્1 ખસ એ કારણને લીધે જ કુંભક રાજાએ અમને દેશવટે આપ્યા શખ રાજાએ તે બધા સાનીએને પોતાના દેશમા રહેવાની ખુશીથી પરવાનગી આપી
સેનીએની આ બધી વાત સાભળીને શખ રાજાએ તેમને કહ્યું કે-હે
A
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ८ काशिराजशखनृपवर्णनम् __ ४०९ विदेहराजवरकन्यका ?, ततः खलु ते मुवर्णकाराः गड्व राजानमेवमवदन्-हे स्वामिन् ! नो खलु अन्या काचित् तादृशी देवस्न्या गा गर्वस्न्या वा यावत्अत्र यावच्छेनेद यो यम्-असुरकन्या नागकन्या यक्षकन्या वो इति, याटशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या मल्लीमदृशी काऽपि कन्या लोकत्रये नास्तीत्यर्थः । ततः खलु स शङ्ख' काशीरानः कुण्डलयुगलननितहर्पः-कुण्डलयुगलमहत्त्वश्रवणमनातमल्लो विषयमानुराग सन् दूत शब्दयति,यावत्-भत्र यावन्छन्देनेद द्रष्टव्यम्शब्दयित्वा एवमवादीत्-हे ठेगानुप्रिय ! शीघ्रमेव मिथिला गत्वा कुम्भक राजान राज कन्या मल्ली कुमारी-कि जिसका जन्म प्रभावती की कुक्षि से हुआ है-कैसी है ? (तपण ते सुचनगारा सखराय एव क्यासी-णो खलु सामी ! अन्ना काड तारिसिया देवकन्ना वा गधव्वकन्ना वा जारीसियाण मल्ली विदेवरायफन्ना-तण्ण से सखे कुडलजुयलजणितहासे दूय सद्दावेह, जाव तहेव पहारेत्य गमणाग) इसके प्रत्युत्तर में उन सुवर्ण कारोंने शख राजा से इस प्रकार कहा हे स्वामिन् ! ऐसी तो कोई देवकन्या भी नहीं है, गधर्व कन्या भी नहीं है, असुरकन्या भी नहीं है, नागकन्या भी नहीं है और न कोई यक्ष कन्या ही है कि जैसी विदेह वर राजकन्या मल्लीकुमारी है। तात्पर्य इसका यही है कि-मल्ली कुमारी जैसी कन्या लोकत्रय में भी नहीं है। इस प्रकार कुडर युगल के महत्व श्रवण से मरलीकुमारी के विषय में जिसे अनुराग (भाव उत्पन्न हो चुका है ऐसे उस ग्व राजाने दूतको बुलाया-बुलाकर उस से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय । तुम शीघ्र ही मिथिला जाकर कु भक દેવાનપ્રિ બતા કુભક રાજાના વિદેહવર રાજકન્યા મટવી કુમારી કે જેને જન્મ પ્રભાવતીના ગર્ભથી થયે છે તે કેવી છે ?
(तएण ते सुवनगारा सग्वराया एव यापी-णो खलु सामी । अन्ना कार्ड तारिसिया देवकन्ना पागधयान्ना वा जारिसियाण मल्ली विटेवररायफन्नातरण से सखे कुडलजुयलजणितहासे दूय सनाई, जाव तहेव पहारेत्य गमणाए)
તેના જવાબમાં સોનીઓએ શખ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હે સ્વામીના જેવી વિદેહવર રાજકન્યા મલ્લીકુમારી છે તેવી તે દેવકન્યા પણ નથી, ગધર્વકન્યા પણ નથી, અસુર કન્યા પણ નથી, નાગકન્યા પણ નથી અને યલ કન્યા પણ નથી તાત્પર્ય એ છે કે-મલકુમારી જેવી કન્યા ત્રણે લોકમાં પણ નથી
આ રીતે કુડળોના મહત્વ વિશે વાત સાંભળતા જ માલા કુમારીના ઉપર જેના મનમાં અનુરાગ જન્મ પામ્યો છે એવા તે શખ ગજાએ દૂતને બોલાવ્યા અને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય ' તમે મિથિલા નગરીમાં સત્વરે
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हाताधर्मकथा ब्रूहि-शतः काशिराजस्तर कन्यका मली पान्दति' इत्यादि । तथैव-पूर्वोक्त में क्मिद्तवत् , प्राधारयद् गमनाय ततः शहस्य काशीरा नस्याज्ञया स दूतो रथा रूढ सन् यच मिथिलानगरी तमेव गन्तु प्रवृत्त इत्यर्थः । इति चतुर्थस्य शवस्य राज्ञः सम्बन्धः कथित ॥ मू०२६ ॥
मूलम्-तेण कालेण तेण समएणं कुरु जणवए होत्था, तत्थ ण हस्थिणाउरनयरे अदोणसत्तू नाम राया होत्था, जाव विहरइ, तत्थ णं मिहिलाए कुभगस्स पुत्ते पभावईए अत्तए मल्लीए अणुजाणए मल्लदिन्नए नामकुमारे जाव जुवराया यावि होत्था तएणं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुविय० सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह ण देवाणुप्पिया । तुम्भे मम पमढवणंसि एग मह चित्तसभ करेह अणेग जाव पञ्चप्पिणंति, तएण से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सद्दावेद, सहावित्ता एव वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया । चित्तसभ हावभावविलास विव्वोयकलिएहिं रूवेहि चित्तेह, चित्तित्ता जाव पच्चप्पिणह, तएणं सा चित्तगर सेणी तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सयाइ गिहाइ तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता, तूलियाओवन्नए य गिण्हिइ, राजासे कहो कि काशी देशाधिपति शंख राजा आपकी कन्या मल्ली कुमारी को चाहते है इत्यादि ।
इस प्रकार अपने राजा काशी राज की आज्ञा से वह दूत रथ पर आरूढ होकर जहा मिथिला नगरी थी उस ओर चल दिया। इस तरह यह चतुर्थ शख राजा का वृत्तान्त प्रकार कहा गया है । सूत्र " २६" પહોચે અને કુભક રાજાને કહે કે કાશી દેશાધિપતિ શખ રાજા તમારી કન્યા મલીકુમારીને ચાહે છે વગેરે
આ રીતે પોતાના રાજા કાશી રાજાની આજ્ઞા મેળવીને દુત રથ ઉપર સવાર થયું અને જે તરફ મિથિલા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયો. આ शत ॥ यथा ॥ ॥ २नु पर्थन २पामा मा०५ छ । १ "२६"।
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अनगारधर्मामृतपणी टीका २०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
गिण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव अणुपविसइ, अणुपविसित्ता भूमिभागे विरचइ, विरंचित्ता भूमिं सज्जेइ, सज्जित्ता चित्तसमं हावभाव जाव चित्तेउ पयत्ता यावि होत्या, तरणं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारुवा चित्तगरलापत्ता अभिसमन्नागयाजस्स णं दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसानुसारेण तथाणुरुव रूव निव्वत्तेs, तएण से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियतरियाए जालतरेण पायगुटु पासइ, तएण तस्स चित्तगरस्त इमेयारूवे जाव सेयं खलु मम मल्लीए एवि पायगुट्टाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणो ववेय रूव निव्वत्तित्तए, एव संपेहेइ, सपेहित्ता मृमिभागं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए व पायगुट्टाणुसारेण जाव निव्वत्तेइ, तरणंसा चित्तगरसेणी चित्तसभ हावभाव जाव चित्तेइ, चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव जाव एतमाणत्तिय पच्चपिणइ, तएण मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता विपुल जीवियारिह पीइदाण दलेइ, दलित्ता पडिविसज्जेइ । तएण मल्लदिन्ने अन्नया पहाए अते उरपरियाल - सपरिवुडे अम्मधाईए सद्धि जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चित्तसभ अणुपविसइ, अणुपविसित्ता हावभाव - विलास विष्ोयकलियाइ रुवाइ पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तथाणुरुवे णिव्वत्तिए तेणेव पहारेत्थ
गमणाए || सू०२७ ॥
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ताधर्मकथा टीका-अय पञ्चमस्यादोनशचनाम्मो राज्ञ सम्पन्धमस्तारमाह-'तेण कालेब' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुरुजपदः कुरु नामको देशः, आसीत् , तत्र-तस्मिन् देशे, हस्तिनापुरे-नगरे अदीनशत्रुर्नाम राजाऽऽमीत्यावद् विहरति -राज्य पालयन् स आस्त स्मेत्यर्थः ।
इतश्च तन खलु मिथिलाया कुम्भस्य पुरा प्रभारत्या' आत्मजः जातः, मल्ल्या मल्लीकुमारिकाया अनुजावका लधुभ्राता, मल्लदत्तो नाम कुमार, यावदु-राजनीतिकुशलो युपराजश्वाप्यभूत् । ततस्तदनन्तर मल्लदत्तः कुमारः
'तेण कालेणं तेण समएण' इत्यादि। टीकार्थ-(तेण कालेण तेण ममएण) उस काल और उस समयमें (कुरु जणवए होत्या-तत्यण हत्थिणाउरनयरे अदीण सतू नाम राया होत्या जाव विहरइ ) कुरु नाम का देश या-उस में हस्तिनापुर नाम के नगर में अदीन शन्नु नाम के राजा रहते थे। ये न्यान्य नीति के अनुसार अपने राज्य का परिपालन अच्छी तरह से करते थे । (तत्थ ण मिहि लाए कुभगस्स पुत्ते पभावइए अत्तए मल्लीए अणु जाणए मल्ल दिमए नाम कुमारे जाव जुवराया यावि होत्था) उस मिथिला नगरी में कु भक राजा के यहा प्रभावती से एक पुत्र और हआ था-जिस का नाम मल्ल दत्त कुमार था यह मल्ली कुमारी का छोटा भाई था।
राजनीति में यह विशेष निष्णात या । अत राजा ने इसे युवराज 'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि।
साथ-( तेण काले तेण समएण ) ते आणे भने त समये (कुरुजणवए होत्था तत्थण हत्यिगाउरनयरे अदीणसत्तू नाम राया होत्या जाव विहरह)
કુર નામે દેશ હવે તેમા હસ્તિનાપુર નામે નગરમાં અદીનશત્રુ નામે રાજા રહેતું હતું તે ન્યાય અને નીતિને અનુસરીને રાજ્ય-શાસન ચલાવતો હતો
(तत्थ ण महिलाए कुभगस्स पुत्ते पभापइए अत्तए मल्लीए अणु नाणए मल्ल दिन्नए नामकुमारे जाव जुवराया यावि होत्था)
તે મિથિવા નગરીમાં કુભક રાજાને ત્યાં પ્રભાવતી રાણીના ગર્ભથી એક પુત્રને જન્મ થયે હતું તેનું નામ મલદત્તકુમાર હતુ અને તે માટલીકુમારને ના ભાઈ હતો રાજનીતિમા તે ખૂબ જ નિષ્ણાત હતું એથી રાજાએ યુવ રાજપદે તેની નીમણુક કરી હતી
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
४१३
'
अन्यदा=अन्यस्मिन् कस्मिथित्समये, कौटुम्बिकपुरुपान गदयति = आइयति, शब्दयित्वा =आहूय एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् हे देवानुमियाः । गच्छत खलु पृय भम ' पमदवणसि प्रमदवने = अन्तःपुरस्थितोद्याने, एका महत 'चित्तसभ' चित्रसभा = चित्रगृह 'करेह' कारयत चित्रसभाया विशेषणमाह'अणेग' इति - अणेगखभसयस निविद्व ' अनेकस्तम्भशतस निविष्टम्, अनेकेअनेकप्रकारा नानावर्णदेदीप्यमानचाकचिक्यचञ्चच्चक्षुश्चित्ताहादजनकमणिगतविचित्रशिल्परचना सुशोभिता ये स्तम्भा' सुवर्णमयस्तम्भा, तेपा शतै. सनिविष्टम् =समन्त्रितम्, ‘ जान पच्चप्पिणति' यावत् प्रत्यर्पयन्ति - कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव चित्रसभा कृत्वा मल्लदत्तस्य पुरः समागत्य तदाज्ञा निवेदयति, भवदाज्ञाऽनुसारेण सर्व सावितमस्माभिरिति कथयन्ति स्मेत्यर्थ । ततः खलु स मलदत्त चित्रका पद प्रदान कर दिया था । ( तण्ण मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोड वि०सहावे सदावित्ता एव वयासी- गच्छरण देवाणुप्पिया । तुम्भे मम पमदवणसि एग मह चित्तसभ करेह अणेग जाव पच्चपिणति ) एक दिन मल्लदिन्न कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया - बुलाकर उन से ऐसा करा हे देवानुप्रियों । तुम जाओ और प्रमदोयान में अन्त पुरस्थित बगीचे में एक बडा चित्रगृह बनाओ ।
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वह अनेक सुवर्ण मय स्तभशत से समन्वित हो । इन स्तभ में नाना वर्ण के चमकीले मणि जडे हुए हो । जो अपनी चाकचिक्य से चक्षु और चित्त के आह्लादक हो । इन मणियो द्वारा उन स्तभों में विचित्र शिल्प रचना की गई हो। इस प्रकार मल्लदन्त कुमार की आज्ञा प्राप्त कर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी के अनुसार चित्र गृह की रचना (तएण मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुनिय० सदावेइ सदावित्ता एव वयासी गच्छहण देवापिया' तुभे मम पमदवणसि एग मह चित्तसभ करेह अगेग जाव पञ्चप्पिणति) એ દિવસે મલ્લનિકુમારે ડૌખિક પુરુષાને લાગ્યા અને ખેલાવીને તેમને વધુ--કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે પ્રમદેોધાનમા જાએ અને ત્યા રણુવાસના ઉડાનમા એક મેટુ ચિત્રગૃહ તૈયાર કર
ચિત્રગૃહ સે કડા સાનાના થાભલાવાળુ હેવુ જોઇએ તે થાભલાએમા ચમકતા ઘણા મણિએ જડેલા હેાવા જોઇએ પેાતાના પ્રકારાથી જેનારાની આખાને આજી દે તેવુ તેમજ ચિત્તને આહ્લાદ આપનારૂ હોવુ જોઈએ મણુિએ વડે તેના થભલાઓમા જાતજાતના ગિલ્પની રચના કરવામા આવેલી હાવી જોઈએ આ રીતે મત્લદત્ત કુમારની આજ્ઞા મેળવીને કૌટુબિક પુરુષાએ
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भाताधर्मकथाम करगि-चित्रकारान् शन्दयति, शब्दयित्वैवमादीत्- हे दानुप्रियाः ! यूयं खलु चित्रसमा-चित्रगृह हावभावविलामन्त्रिीयकलिहि हावभावविलासपिन्बोककलितः
=शृङ्गारभावाभ्या सजाता स्त्रीचेष्टा हाः, भागो मनोविकार , विलासो हावभेदः विधीका-अभिमतमाप्तावपिगर्वादनादरः, अयमपि हावभेदः । अन्यत्वेवमाहु
हायो मुखविकारः स्याद् भावश्चित्तसमुद्भवः।
विलासो नेनो ज्ञेयो विभ्रमो भू समुद्भवः ॥इति।। करके उसे खबर दी कि आपकी आज्ञानुसार हमने सत्र काम कर लिया है।
(तएणसे मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सद्दावेइ,महावित्ता एव वयोसी) इसके बाद उस मल्लदत्त कुमार ने चित्रकारों को बुलवाया और बुला कर उनसे इस प्रकार कहा-(तुम्भेण देवाणुप्पिया ! चित्तसभ रावभाव विलास विधायकलिहिँ स्वेहिं चित्तह चित्तित्ता जार पच्चप्पिणह) हे देवानुप्रियों | तुम लोग चित्रगृह को हाव, भाव, विलास, ण्ववियोक युक्त चित्रो से चित्रित करो । स्त्रियों की जो चेष्टा शृगार एव मनो विकार जन्य होती है-उस का नाम हाव है ।मानसिक विकृतिका नाम भाव है। विलास हाच का ही एक प्रकार है। अभि मत (इच्छित) की प्राप्ति होने पर भी जो गर्व से उस में अनादर होता है-उस का नाम वियोक है। यह भी हाव का ही एक भेद है । इन हाव भावादिकों के विषय में कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि मुख का जो विकार होता है वह हाव है, चित्त से जो विकार उत्पन्न होता है, वह भाव है। नेत्र તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ચિત્રગૃહનું નિર્માણ કરીને તેમને ખબર આપી કે આજ્ઞા મુજબ અમેએ બધુ કામ પુરૂ કરી નાખ્યું છે
(तएण से मल्लदिने चित्तगरसेणि सहावेइ सदावित्ता एव वयासी) ત્યારબાદ મલદત્ત કુમારે ચિત્રકારોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે
(तुब्भे ण देवाणुपिया ! चित्तसभ हावभावविलासवियोयफलिएहि रूवेहि चित्तेह, चित्तित्ता जाव पञ्चप्पिणह )
वानुप्रियो ! तमे चित्र , माप, विसास भने मिसावा . ચિત્રથી ચિત્રિત કરો સ્ત્રીઓની શગાર અને મને વિકાર જન્યને ચેષ્ટાઓ હાવ કહે છે માનસિક વિકૃતિનું નામ ભાવ છે. અમિત (ઈચ્છિત) ની પ્રાપ્તિ હોવા છતા પણ ગવથી જે તે અનાદર હોય છે તેનું નામ વિશ્લેક છે તે પણ હાવને જ એક પ્રકાર છે આ હાવ, ભાવ વગેરેના વિશે કેટલાક આ પ્રમાણે પણ કહે છે કે મને વિકાર જ હાવ છે, ચિત્તથી જ, તે
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__ अनगारधर्मामृतवर्षिण टीका १० ८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
४१५ ___एतैयादिभिः कलितैर्युक्तैः, स्पैः-चित्रविगेपै चित्रयत-चित्रित कुरुत, चित्रयित्वा यावत् प्रत्यर्पयत-ममाज्ञा मपादितेति मा कथयतेत्यर्थः । ततस्तदनन्तर खलु सा चित्रकार श्रेणिः तथेति-'तथास्तु' इत्युक्त्वा प्रतिगणोति-स्वीकुरुते स्म। पतिश्रुत्य यत्रैव स्वकानि गृहाणि, तत्रैवोपागन्छति उपागत्य 'लियाओ वन्नए य' तूलिका वर्णाश्च-तूलिका केशमप्यश्चित्रलेखनकूचिकाः, वर्णकान्पश्चवणेकद्रव्याणि, च गृह्णाति, गृहीसा यत्रैव चित्रसभा तवानुपविशति, अनुमविश्य भूमिभाग-चित्रविरचनम्थान' रिचइ वेवेक्ति-प्रोत्य चित्रणीयमिति कृत्वा रेखादिभिभित्त्यादौ विभाग करोति, 'विरचित्ता' पिपिन्य-भूमि सज्जयति से जो भाव उत्पन्न होता है वह विलास एच 5 से जो उत्पन्न होता है वह विभ्रम है । जर इस प्रकार के चित्रों से वह चित्रगृह चित्रित हो जावे-तय हमें इस की खबर दो- (तएण मा चित्तगरसेणी तहत्ति पडिसुणेह, पडिसुणित्ता जेणेव सयाद गिहाइ तेणेव उवागच्छइ उवा गच्छित्ता तृलियाओ वनएय गिण्डद, गिहिता जेणेव चित्तसमा तेणेव अणुपविसह ) इस के बाद उस चित्रकार श्रेणि ने " तथास्तु" इस प्रकार कहकर मल्लदत्त कुमार की आज्ञा को स्वीकार कर लियाऔर स्वीकार करके फिर वे सब के सब अपने २ घर आ गये-वहा आकर उन्हों ने अपनी २ तूलिकाओं को और वर्णको-पचवर्ण वाले द्रव्यों को लिया-लेकर जहा-वह चित्रगृह या उस ओर चल दिये। धहा आकर वे उस के अन्दर गये ( अणुपविसित्ता भूमिभागे विरचेइ विरचित्ता भूमि सज्जेह, सिज्जित्ता चित्तसभ हाव भाव जाव चित्तेउ ભાવ છે, નેત્રથી જે ભાવ ઉત્પન્ન હોય છે તે વિલાસ અને ભવાથી જે ઉત્પન્ન હોય છે તે વિભ્રમ છે જ્યારે આ પ્રમાણે તે ચિત્રગૃહ ચિત્રિત થઈ જાય ત્યારે અમને તમે સૂચિત કરજે ___ (तएणं सा चित्तगरसेणी तहत्ति पडिमुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव सयाइ गिहाइ तेणेच उवागन्छइ उवागच्छित्ता तूलियाओ बन्नएयगिण्हइ, गिदित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव अणुपविसइ)
ત્યારપછી તે ચિત્રકારોએ તથાસ્તુ (સારૂ) આ પ્રમાણે કહીને મલદત્ત કુમારની આજ્ઞ ને સ્વીકારી લીધી અને ત્યારપછી તેઓ બધા પોતપોતાને ઘેર આવી ગયા ત્યા આવીને તેઓએ પિતાપિતાની પીંછીઓ અને વર્ણ કે એટલે કે પાચ રગવાળા દ્રવ્યને સાથે લીધા અને લઈને જે તરફ ચિત્રગૃહ હતું તે તરફ રવાના થયા ત્યાં પહોંચીને તેઓ તેમાં પ્રવિષ્ટ થયા
अणुणविमित्ता भूमिभागे विरचेद विरचित्ता भूमि सज्जेद, सनित्ता चित्त
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gee
ntarधर्मकथाpet
मार्जनादिभिः परिष्करोति, सज्जयित्वा चित्तमभा 'छात्रभार- जाव' हावभावयावत् हावभावविलासकिय करते: स्पेचितविशेषः, 'चितेउ 'चित्रयितु 'पयत्ता' प्रवृत्ता चाप्यभवत् । सा चित्रकारयेणिचिनगृह हावभावादियुक्त चित्रविशेषैचित्रयितु वर्ततेस्म ' इत्यर्थ ।
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ततः=तन खलु एकस्य चित्रकारस्य इमेयारुवा' इयमेतद्रूपा=वक्ष्यमाणस्वरूपा चित्रकरलब्धि =चित्रकरणविशिष्टशक्ति', मनसि या रूप चिन्तयति तादृश करोत्येब भूता लब्धिः, लब्धा - उपार्जिता, माप्ता स्वायत्तिकता, अभिसमन्त्रा गतान्सम्यगासे
पत्ता यावि होत्या) अन्दर प्रविष्ट होकर सबसे पहिले उन्हों ने चित्र रचने के स्थान को रेग्वादि द्वारा अकित किया
यहा इस प्रकार का चित्र काढना चाहिये इस प्रकार के विचार से भित्ति के ऊपर रेखा आदि खीचकर उन्हों ने उस का विभाग कियाविभाग कर के फिर वहा की भूमि को उन्हों ने साफ किया साफ कर के फिर वे चित्रकार उस चित्रगृह को हाव भाव आदि वाले चित्र विशेषों से चित्रित करने में लग गये । (तएण एगस्स चित्तगस्स इमे यावे चित्तगर लद्वी लद्वा, पत्ता अभि समन्नागया- जस्सण दुपयस्स वा उपयस्स वा अवयस्स वा एगदेसमवि पास, तरसण देसाणुसारेण तयाणुरूच रूत्र निव्वत्तेह) इन में एक चित्रकार ऐसा था जिसमें चित्र करने की विशिष्ट शक्ति थी । इस ने इस शक्ति को पहिले से ही
सभ हाव भाव जाव चित्तेउ पयत्ता यावि होत्था )
તેમા પ્રવેશીને તેઓએ સૌ પહેલા ચિત્ર બનાવવાની જગ્યા ઉપર રેખાએ મનાવી
અહીં આ પ્રમાણે ચિત્ર તૈયાર કરવાનુ છે આ પ્રમાણે વિચાર કરીને ભીત વગેરે ઉપર રેખાઓ વગેરે દેરીને તેમને વિભાજન કર્યું, વિભાજન કરીને તે સ્થાનને તેએએ સ્વચ્છ ખતાવ્યુ સ્વચ્છ મનાવીને તે ચિત્રકાર ચિત્રગૃહને હાવ ભાવ વગેરેના વિશેષ ચિત્રાથી ચિત્રિત કરવા લાગ્યા
( aण एगस्स चित्तगस्स इमेयारूवे चित्तगरलद्वी लद्धा, पत्ता अभिममन्ना गना, जस्सण दुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासह, तस्त ण देसानुसारेण तयाणुरूव रूवं निव्वत्तेइ )
આ બધાએમા એક ચિત્રકાર એવા પણ હતા કે તેમા ચિઝ તૈયાર કરવાની વિશેષ શક્તિ હતી તેણે પેાતાની ચિત્ર ખનાવવાની અસાધાર
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
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विता, यस्य, खलु द्विपदस्य मनुष्यादेवी चतुष्पदस्य गवादेव, अपदस्य = चरण रहितस्य सपदीक्षादेर्वा, एकदेशमपि एकाङ्गमपि पश्यति तस्य खलु देशानुसारेण चक्षुर्गोचरीकृतैकदेशानुसारेण 'तयाणुरुव' तदनुरूप दृष्ट द्विपदादियोग्य, रूप चित्र 'निव्त्रत्ते' निर्वर्तयति = रचयति । ततस्तदनन्तर खलु स चित्रकरदारको मल्ल्या = मल्लीकुमारिकाया, ' जवणियपुरियाए ' यवनिकान्तरिताया =यवनिकया - पर दाख्येन आवरणपटेन, अन्तरिताया' - व्यवहिताया परदाभ्यन्तरस्थिताया इत्यर्थः । जालान्तरेण=गवाक्षरन्ध्रेण पदाङ्गुष्ठु पश्यति दृष्टवान् । तव खलु तस्य चित्रकारस्य = चित्रकारदारकस्य, अयमेतद्रूपः = अय वक्ष्यमाणस्वरूप, यावद् = विचारः समुदपद्यत - श्रेयः=श्रेयस्करम् अभ्युदयजनक, खलु मम मल्ल्या अपि पादाङ्गुष्ठानुसारेण सदृशक = मल्लीसमान यावद्-गुणोपपेत= मल्ल्या अद्वेषु यत्र ये सौन्दर्यादिगुणाः तैः समन्वित, उपार्जित किया था - प्राप्त किया था उस मे यह विशेष चतुर था, इस का इसे अच्छा अभ्यास था ।
यह जिस मनुष्यके, चतुष्पद गवादिके, अपद सर्पाटि अथवा वृक्षादि के जिस किसी एक एक भाग को देख लेता तो उसी के अनुसार यह उस का पूर्ण चित्र अकित कर देता था । (तएण से वित्तगरदारए मल्लीए जवणियतरियाए जालतरेण पायगुड पासह, तएण तस्स चित्तगरस्स इमेवारूवे जाव सेय खलु मम मातीए वि पायगुट्ठाणुसारेण मरिमगं जाव गुणोववेय व निव्वत्तित्तए एव सपेहेइ ) एक दिन इस चित्रकार ने परदा के भीतर बैठी हुई मल्लि कुमारी के पैर का अंगूठा गवाक्ष छिद्र से देख लिया था सो उम के मन में ऐसा विचार आया कि मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि मै मल्ली कुमारीका भी पादा गुष्ठानुसार यावत् गुणोपपेन उसी के जैसा चित्र बनाऊँ ।
પહેલેથી જ મેળવેલી હતી ચિત્રકળામા તે ખૂબ જ પ્રવી તેમજ તેને તે સારા અભ્યાસી હતા
તે ચિત્રકાર માણુમના, ગાય વગેરે ચાપગાએના, માપ વગેરે અપદોના અથવા તે વૃક્ષ વગેરેના કોઈપણ એક ભાગ જોઈ લેતે અને ત્યારમાદ તે પ્રમાણેના જ આબેહૂબ તેમના ચિત્ર દોરતે હતેા
(तरण से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियतरियाए जालतरेण पायगुड पासइ तएण तस्स चित्तगरस्स इमेयारूने जात्र सेय खलु मम मल्लीए वि पायगुद्वाणुमारेण सरिसगं जाव गुणोववेय रूप निव्वत्तित्तए एक सपेहेइ )
એક દિવસ તે ચિત્રકારે પડદાની પાળ બેઠેલી મલીકુમારીના પગને અગૂઠો ગવાક્ષના કાણામાથી જોઈ લીધા ત્યારે તેના મનમા એમ થયુ કે મલીકુમારીના પગના અગૂઠાના જેવુ જ સુ૨ ચિત્ર તૈયાર કરૂ
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ज्ञाताधर्म कथासूत्रे रूप=चित्र निर्वर्तयितु = रचयितुम् । एवम् उक्तमकारेण, सप्रेक्षते=स चित्रकरदारको विचारयतिस्म । सप्रेक्ष्य = मनसि विमृश्य, भूमिभाग = चित्रकरणस्थान सज्जयति = मार्जनले पादिना सस्करोति, सज्जयिता मल्ल्या अपि पादानुसारेण यावत् = सदृशक गुणोपेत रूप निर्वर्तयति=रचय तिम्म । ततस्तदन्तर सलु सा चित्रकारश्रेणिथिनसभा' होनभाव - जान ' हावभाव यावन् दावभाव विलास नियोककलितैः रूपैः, चित्रैः चित्तेः' चित्रयति, चिनया यौनमलदत्त कुमारस्तौ रोपागच्छति, उपागत्य यावत् एतामाज्ञा प्रत्यर्पयति- हे स्वामिन् । भरदाज्ञानुसारेण चित्रगृह मल्ली कुमारी के अग में जहा २ जो जो सौन्दर्यादि गुण है उन सब गुणों को उस मरली कुमारी के चित्र में अकित करूँ। ऐसा जब उस ने विचार किया- (सपेहिता) तो उस विचार के अनुसार (भूमि भाग सज्जे, सज्जिता मल्लीए वि पायगुडानुसारेण जावि निव्वते, तएण सा चित्तगर सेणी चित्तसम हावभावजाव चित्ते, चित्तित्ता जेणेव मल्ल दिन्ने कुमारे तेणेव जाव एतमाणत्तिय पच्चपिणइ ) उस ने वहां का भूमिभाग साफ किया-मार्जन, लेप आदि द्वारा उसे सस्कारित किया - संस्कारित करके फिर उस ने वहाँ मल्ली कुमारी का भी दृष्ट पादांगुष्ठ के अनुसार बिलकुल हर जैसे के तैसा गुणोपपेत रूप-चित्र अकित कर दिया ।
इसके बाद उस चित्रकारो की श्रेणी ने उस चित्रगृह को हावभाव विलास एव विन्चोक वाले रूपों से चित्रों से अकित कर दिया-चित्रित कर दिया - चित्रित कर फिर वे सब के सब मलदत्त कुमार जहा बैठा
મલ્ટીકુમારીના આગમા જ્યા જ્યા જે જે સૌના ચુણા છે તે બધા ગુણાને તે મલીકુમારોના ચિત્રમા અતિ કરૂ આ પ્રમાણે જ્યારે તેણે वियार अर्यो - (सपेद्दित्ता ) अने ते वियार ने अनु सरता
( भूमिभागं सज्जे, सज्जित्ता मल्लीए वि पायगुडानुसारेण जावि निव्वत्ते त सा चित्तगर सेणो चित्तसभ हावभाव जावचित्ते, चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव जात्र एतमाणात्तिय पञ्चपिणइ )
તેણે તે જગ્યાને છ ખનાવી અને માન લેપન વગેરેથી તે સ્થાનને સાફ કર્યું સાફ કર્યો ખાદ તેણે પહેલા જોયેલા મલ્લી કુમારીના પગના અગૂઠા ના જેવુ જ આમેષ ગુણાપેત રૂપ ચિત્ર સ્મૃતિ કર્યું
ત્યાર ખાદ ચિત્રકારોએ જ્યારે ચિત્રગૃહને હાવભાવ વિલાસ અને વિમ્મેકના ચિત્રોથી ચિત્રિત કરી આપ્યુ ત્યારે તે ખધા જ્યા મલકત્ત
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अदोनशत्रुनृपवर्णनम्
चित्रितमस्माभिरित्येव चिनकार श्रेणि. क्थयति स्मेत्यर्थः । ततः सलु मलदत्तचित्रकारश्रेणि 'सक्कारेइ ' सत्कारयति, वचनादिना, समानयति = वस्त्रादिना । 'सक्कारित्ता' सत्कार्य - सत्कार कृत्वा 'सम्माणित्ता' समान्य विपुल - विस्तीर्ण ' जीवियारिह 'जीविकाई -वृत्तियोग्य, 'पीइदाण प्रीतिदान - परमहर्षहरु दान ददाति दत्त्वा प्रतिविसर्जयति । ततः खलु मल्लदत्तोऽन्यदा - अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित समये स्नातोऽन्तः पुरपरिवासपरिटत: ' अम्मनाईए ' अम्बाधाच्या उपमाना सार्व यौत्र चित्रसभा - चित्रगृह वर्तते, तोत्रोपागच्छति । उपागत्य चित्रसभामनुप्रविशति = चित्रगृहे प्रवेश करोति, अनुप्रविश्य हावभावविलास निव्वोकलितानि रूपाणि= धा- वहा आये आकर के उन्होने उससे कहा स्वामिन् । हमलोगो आपकी आज्ञानुसार चित्र गृह को चित्रित कर दिया है - (तएण ) इस प्रकार चित्रकारो के मुग्व से सुनकर ( मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर सेणिसक्कारेह, सम्माणेड़, सकारिता सम्माणिप्ता, विपुलजीवियारिह पीड़दाण दले, दलित्ता पडिविसज्जेइ ) मरलदत्त कुमारने उस चित्रकार श्रेणी का सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिरउस ने उसे विपुल जीविकाके योग्य प्रीतिदान दिया और बाद मे उसे विसर्जित कर दिया । (तएण मल्लदिन्ने अन्नया पहाए अतेउरपरियाल परिबुडे अम्मधाई सद्धि जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छड) इसके पश्चात् किसी एक दिन वह मल्लदत्त कुमार स्नान कर के अन्त' पुर परिवार से युक्त होकर अपनी अम्माधात्री के साथ जहा चित्रगृह था वहाँ गया - (उवागच्छित्ता चितसभ अणुपविमइ अणुपविसित्ता हावभाव
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કુમાર બેઠા હતા ત્યા આવ્યા અને આવીને તેઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું-કે હૈ સ્વામિન। તમારી આજ્ઞા મુજબ અમેએ ચિત્રગૃહ તૈનાર કરી દીધુ છે ( तएण ) या रीते चित्रा ना भोथी भालजीने
(मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगरसेणि सकारेड, सम्माणे, सकारिता सम्माणिता, विपुलजीवियारिह पीइदाण दलेड, दलित्ता पडिविमज्जेइ )
મલ્લદત્ત કુમારે ચિત્રકારાનુ સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું, સત્કાર અને સન્માન કરીને તેણે તેમને પુષ્કળ પ્રમાણમા જીવિકાયાગ્ન પ્રીતિદાન આપ્યુ
અને ત્યાર પછી તેઓને જવાની રજા આપી
( तएण मल्लदिन्ने अन्नया हाए अते उरपरियाल सपरिवुडे अम्माईए सद्धि जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छड )
ત્યાર પકી ગઇ એક દિવસ મલદત્ત કુમાર સ્નાન કરીને રણવાસના પરિવાર ને સાથે લઈને પોતાની અય્યાધાત્રીની સાથે જ્યા ચિત્ર ગૃહ હતુ ના ગયા
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शांताधर्मकथासूत्रे
चित्राणि पश्यन् गैर मल्ल्या विदेहराज नरकन्यायाः, ' तयाणुरूने ' तदनुरूप तत्सदृश, रूप=चित्र 'णिव्यत्तिए निर्वर्तित = रचित मासोत् तीच प्राधारयद् गमनाय = गन्तु प्रवर्ततेस्म ॥ म्रु० २७ ॥
"
मूलम् - तपणं से मल्लदिन्ने कूमारे मल्लीए विदेहरायरवकन्नाए तथाणुरुवे रूवे निव्वत्तिय पास, पासित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए जावसमुपजित्था - एस णं मल्लीविदे हरायवर कन्न त्तिकद्दु लज्जिए वीडिए विअडे सपियर पच्चोसक्कइ । तएण मल्लिदिन अम्मधाई पच्चासक्कत पासित्ता एव वयासी - किन्नं तुम पुत्ता । लजिए वीडिए विअडे सयि सणिय पच्चोसकइ ?, तणं से मल्लदिन्ने अम्मधाई एव वयासी - णो जुत्त णं अम्मो । मम जेहाए भगिणीए देवयभूयाए लज्जणिजाए मम चित्तगरणिव्वत्तिय सभ अणुपविसित्तए ?, तरणं अम्मधाई मल्लदिन्न कूमार एव वयासी - नो खलु पुत्ता । एस मल्ली, एस ण मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए चित्तगरएण तयाणुरूवे विलासविनयकलियाइ रुवाइ पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहरायवरकन्नre तयारुवे णिव्यत्तिए तेणेव पहारेत्य गमणाए) वहा जाकर चित्र गृह में प्रविष्ट हुआ- प्रविष्ट होकर हावभाव, विलास एव विन्चोक से युक्त उन रूपोंको चित्रों को - चार२ देखता हुआ वह जहा विदेह राजव रकन्या का तदनुरूप चित्र बना हुआ था उस ओर गया || सूत्र २७ ॥
( उवागच्छित्ता चितसभ अणुपविमइ अणुपविसित्ता हावभाव विलासविब्बोय कलियाइ रुवाइ पासमाणे २ जेणेव मल्लीए विदेrरायवरन्ना तयाणुरूवे - व्वित्rिe da पहारेत्थ गमणाए )
ત્યા પહેાચીને તે ચિત્રગૃહમા ગયા અને જઈને હાવભાવ વિલાસ અને ખિમ્માકવાળા તે ચિત્રાને જોતા તે જ્યા વિદેહ રાજવર કન્યાના જેવુ જ ચિત્ર દોરેલુ હતુ તે તરફ ગયે ॥ સૂત્ર
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२७ ” ॥
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रूवे व्वित्तिए । तएण मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयमहं सोच्चा आसुरुते एव वयासी - केसणं भो चित्तयरए अपत्थिय पत्थिए जाव परिवज्जए जेणं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए जाव निव्वतिए तिकट्टु त चित्तगर वज्झ आणवेइ तरणं सा चित्तगरसेणी इमीसे कहाए लखट्टा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहिय जाव वृद्धावे, वडावित्ता एवं वयासी--एव खलुसामी । तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलडी लद्धा पत्ता अभिसमन्नगया, जस्स
दुपयस्स वा जाव णिवत्तेइ, त माणं सामी । तुभे तचित्तगरं वज्झ आणवेह, त तुभे णं सामी । तस्स चित्तगरस्त अन्न तया रुव दड निव्वत्तेह । तएण से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स सडासग छिदावेइ छिंदावित्ता निव्विसय आणावेइ ॥ सू०२८ ॥
टीका- 'तएण से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स मल्लदत्तः कुमारो मल्ल्या विदेहराजवरकन्याया: स्वाग्रजाताया भगिन्याः ' ' तयानुरून ' तदनुरूप = मल्लीसह रूप रूप चित्र, 'निव्वत्तिय' निवेतित= चित्रकारदारकेण रचित, पश्यति । दृष्ट्वा 'इमेयारूवे' अयमेतद्रूप. =अय पक्ष्यमाणस्वरूपः, 'अज्झत्थिए' आयात्मिकः = आन्मगतः यावत् सकल्प', 'समुपज्जित्था ' समुद्रपयत = सजातः- एपा
"
तएण से मल्लदिन्ने कुमारे ' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (ण) इसके बाद ( से मल्लढिन्ने कुमारे) उस मल्लदन्त कुमार ने (विदेहराजवरकन्नाए मल्लीप तयाणुरूव निव्वत्तिय पासह, पासित्ता हमेयारूवे अज्जत्थिए जाव ममुपज्जित्था ) विदेह राज की वर
S
तरण से मल्ल दिन्ने कुमारे ' इत्यादि ।
टीडार्थ - (तएण त्यार माह ( से मल्उदिन्ने कुमार ) ते भवत्तमारे (विदेह रायन्ना मल्लीर तयाणुरूव निवत्तिय पास, पामत्ता इमे - यारूवे अज्ज्ञथिए जान समुपज्जित्था
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जाताधर्म थालन खल मल्ली विदेह राजवरकन्या, इति कृत्या लग्नित सामान्यतः, वीडिता विशे पतो लज्जितः, व्यदः सर्वथा लज्जा प्राप्तः सन् गनैः गनः 'पच्चीसगड' प्रत्यय बस्कते-तस्मात् स्थानात् मतिनिवर्ततेस्म । ततस्तदनन्तर मलु महदत्त महदत्त कुमारम्, 'अम्माधाई' अम्मधात्री मातृमतिनिधिरूपा धानीम्तन्यादि दानेन पोषिका उपमातेत्यर्थः, 'पन्चोसमात ' मत्यवस्कमान पवानिवर्तमान दृष्ट्वा एव-वश्य माण प्रकारेणावादीन-हे पुत्र । कि-कस्मात्कारणात् ग्वालु श लज्जितो वीडितो व्यदः अत्यन्त लज्जितः सन् शनैः शनै प्रत्ययप्पस्कसे ? । तत खलु स मल्लद त्तकुमारः अम्बाधात्रीमेवमादीत-' अम्मो!' हे अम्म ! 'नो जुत्त' नो युक्त-नो कन्या मल्लीकुमारीका किजो अपनी घडी बहिन थी तदनुरूप चित्र चित्र कार दारक के द्वारा अङ्कित किया गम ज्यों ही देवा-तो देखकर उस के मन में इस प्रकार का सकल्प उत्पन्न हुआ-(एमण मल्ली विदेह रायवरकन्नत्तिकटूटु लज्जिए, वीडिए विउडे सणिय • पच्चोसकह) यहतो विदेहराज को वर कन्या मल्ली कुमारी है । ऐसा विचार करवह पहिले तो लज्जित हुआ-बाद में विशेषरूप से लज्जित हुआ। ओर इस तरह वह दुःखित होकर धीरे २ वहा से चलदिया। (तएण मल्लदिन्न अम्मधाई पच्चोसकत पासित्ता एव वयासी-किन्न तुम पुत्ता लज्जिए वीडिए विअडे सणिय २ पच्चोसका ?) इस तरह मल्लीदत्त कुमार को वहा से धीमी २ चाल से जाता हुआ देखकर उसकी अम्बा धाय ने उससे ऐसा कहा-क्यो तुम लज्जित-वीडित एव विशेष लजित होकर यहा से धीरे २ चले जा रहे हो-(तण्ण से मल्लदिन्ने
જ્યારે પિતાની મેટી બહેન વિદેહવર કન્ય મસ્તીકુમારીનું ચિત્રકારવડે દોરાયેલું આબેહૂબ ચિત્ર જોયુ ત્યારે તે જોતાજ તેના મનમાં વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે (एसण मल्ली विदेहरायवरकन तिकट्टु लजिनए वीडिए विउडे सणियर पचीसकइ)
આતે વિદેહરાજની વરકન્યા મલી કુમારી છે આમ વિચારીને પહે લાતે તે લજિત થયો અને ત્યાર બાદ તે ખૂબજ લજિજત થયે આ રીતે તે દુખી અવસ્થામાં ત્યાથી ધીમે ધીમે જતો રહ્યો
(तएण मल्लदिन्न अम्मधाई पञ्चोसक्कत पासित्ता एव पयासी-किन्न तुम पुत्ता लज्जिए वीडिए विजडे सणिय २ पच्चीसकइ ?)
આ રીતે મલ્લીકુમારને ત્યાથી ધીમે ધીમે જતો જોઈને તેની આ બા ધાયે કહ્યું કે તમે કેમ લજિત-વીડિત અને સવિશેષ પીડિત થઈને અહી થી धाम धाम ४६ २ छ। (तएण से मल्लादिम्ने अम्मधाई एव ...)
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अनगारधर्मामृतयपिणी टीका २०८ अदोनशत्रुनुपवर्णनम्
चित्त खलु मम ज्येष्ठाया भगिन्या गुरुदेवतभूतायाः, पूज्याया, लज्ननीयाया:= लज्जते यस्या सकाशात् मा लज्जनीया, 'कत्य प्रत्ययस्य त्वादपादानेSatee प्रत्ययः तस्या अग्रे मम चित्रकरनिर्वर्तिता सभा = चित्रगृहम् अनुप्रवेष्टुम्
४२३
खलु चित्रगृहे मम पूज्या ज्येष्ठा भगिनी मल्लीकुमारी स्थिताऽस्ति, तस्मादत्र मम प्रवेशकरण नोचितमित्यर्थ: । ततस्तदनन्तर खलु अम्नाधात्रीमलदत्त कुमार मेवादीत् है पुत्र 1 नो खलु निश्चयेन एपा मल्ली वर्तते, किंतु एतत् खलु मल्ल्या विदेहराजकन्याया चित्ररे तदनुरूप रूप - चित्र निपर्तित = रचितमस्ति । तस्मादत्र लज्जाकरण तव नोचितमिति भावः ।
अम्मधाई एव वयासी) इस प्रकार सुनकर उस मल्लदत्त कुमारने अम्बाधाय से ऐसा कहा - (णो जुत्त ण अम्मो ! मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूआए मम चित्तगरणिव्वत्तिय सभ अणुपविसित्तर ) मुझे चित्रकार से निवर्तित इस चित्रगृह में प्रवेश करना उचित नही है, कारण यहा मेरी गुरुदेव जैसा - पूज्य तथा जिसके समक्ष मे लजाता हूँ- जिनके सामने आते जाते मुझे लज्जा आती है-ऐसी बड़ी बहिन बैठी हुई हैं ।
तात्पर्य इसका यह है कि इस चित्रगृह में मेरी पूज्य हिन मल्ली कुमारी बैठी हुई है इसलिये उनके समक्ष मुझे यहां प्रवेश करते हुए लज्जा आती है । (तएण अम्माधाई मल्लदिन्न कुमार एव वयासी-नो खलु पुत्ता एस मल्ली - एसण मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए चित्त गरएण तयाणुरुवे चित्ते णिव्वत्तिए) ऐसा सुनकर अभ्याधात्री उपमाता ने मल्लदत्त कुमारसे इस प्रकार कहा- हे पुत्र ! ये स्वय मल्ली कुमारी नही है - यह तो विदेहराजकी उत्तम कन्या उन मल्ली कुमारी का चित्र
આ પ્રમાણે સાભળીને તે મલ્લદત્ત કુમારે અખાધાય ને આ પ્રમાણે કહ્યું કે( णो जुत्तण अम्मो ! मम जेद्वार भगिणीए गुरुदेव भूयाए लज्जणिजाए मम चित्तगरणिन्वत्तिय सभ अणुपविसत्तए )
ચિત્રકારા વડે ચિત્રિત કરવામા આવેલા આ ચિત્રગૃહમા પ્રવેશવુ મારા માટે ઉચિત નથી જેમકે ગુરુદેવ જેવી પૂજનીય તેમજ જેમની સામે જતા પણ હું લજ્જિત થાઉ છુ એવા મારા મેટા બહેન અહી બેઠા છે
મતલમ એ છે કે આ ચિત્રગૃહમા મારી પૂજન-મહેન મલી કુમારી બેઠી છે. એથી તેમની સામે જતા મને લજ્જા આવે છે
तरण अम्मावार्ड मल्लदिन्न कुमार एन यासी - नो बलु पुत्ता एसमल्ली सण मल्लीए विदेह रायनरकन्नाए चित्तगरएण तयाणुरूवे चित्ते णिव्त्रत्तिए) આ પ્રમાણે સાભળીને અબધાત્રી ઉપમાતા એ મલદત્ત કુમારને કહ્યુ કે પુત્ર । આ જાને મફ્તીકુમારી નથી પણ આ તે વિદેહરાજની ઉત્તમ
કે હૈ
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माताकपाल ततस्तदन्तर सलु मरलदत्ता मल्लदनकुमार , अम्बापाच्या पनम्-उमरूपम्, अर्थ भृत्वा, आशुरुत शीघ्र क्रोधाविष्टः, ए ल्यमागप्रशारण, आदीत-क एवं खलु भो.! चित्रकरः ' अपत्थियात्विय' आर्थितप्रार्थितः यत् केनापि न मार्यते, तदप्रार्थित मरण तत् प्रार्थित येन सोऽप्रार्थित प्रार्थित मरणपाठक इत्यर्थः यावत् परिवर्जितः पीडोति फीति परिवर्जितः, पतदोवा ययने माग व्याख्यातम् । येन खलु मम ज्येष्ठाया भगिन्या गुरु दैवतभूनाया-पूज्याया., यावत्-तदनुरूप 'निधत्तिए तिकटु' निनितम् ', उतिकत्वात्युक्त्ता, त चिनकार अध्य-इन्तव्यम्०आतापयति येन मललीचिा लिखित स पित्रारो हन्तव्य इत्याज्ञा दत्तवानित्यर्थः। तत सलु सा चिनकर अणिरस्या उक्तरूपाया: कथाया कारने तदनुरूप चित्र बनाया है। इसलिये यश लज्जो करना तुम्हे योग्य नही हैं । (तपण मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयम सोच्चा आसुरते एव वयासी) अभ्याधाय के मुग्य से ऐसी बात सुनने के बाद मल्ल दत्त कुमार ने उस अपनी अम्बाधाय से क्रोध में भरे हए होकर इस प्रकार कहा:-(केसण भो। चित्तथरए अपत्थियपत्थिए जीव परिवज्जिए जेण मम जेहाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए जाव निव्यत्तिए) अरे! कोन ऐसा मरण वाञ्छक तथा श्री हीति, एच कीर्ति से परिवर्जित चित्र कार हैं कि जिसने गुरुदेव जैसा-पूज्य मेरी ज्येष्ठ भगिनी का यहां तदनुरूप चित्र चित्रित किया है । (त्तिकट्टुत चित्तगर वज्झ आणवेइ) इस प्रकार कहकर उसने उस चित्रकार को वश्य घोषित कर दिया।
जिस चित्रकार ने मेरी पूज्य ज्येष्ठ भगिनी का यह चित्र यहां लिखा है-यह वध है इस प्रकार उसने आजा देदी- (तएण सा કન્યા મલ્લીકુમારીનું આબેહબ દેરાયેલ ચિત્ર છે એથી અહીં લજજા તમારા तमा२१ भाट योय नथा (तएण मालदिन्ने अम्मधाईए एयम? सोचा आसुरत्ते एव वयासो) समाधाय ना माथी भावात सामनी मसात કુમારે તે પિતાની આ બાધાય ને ક્રોધમાં ભરાઈને કહ્યું કે
(केमण भो ! चित्तयरए अपत्थिय रथिए जाव परिवज्जिए जेण मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए जाव नित्तिए)
અરે ! એ કણ મૃત્યુને ચાહનાર શ્રી, હી, વૃતિ અને કીતિ રહિત ચિત્રકાર છે કે જેણે ગુરુદેવ જેવા પૂજ્ય મારા મોટા બહેનનું અહીં આબેહૂલ मित्र होयु छ (त्तिक? त चित्रगर बज्ज्ञ आणवेइ) मा प्रभाए डीने ते તે ચિત્રકારને વણ્ય (મારવા યોગ્ય) ઘેષિત કર્યો
મારાપૂજ્ય મેટા બહેનનું જે ચિત્રકારે અહી જે ચિત્ર દોર્યું છે તે વાત છે આ રીતે તેણે પિતાની આજ્ઞા ઘેષિત કરી
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अनेगारधर्मामृतपिणी टीका १०८ अटीनशत्रुनृपवर्णनम्
४२५ लब्धार्था-ज्ञातार्था सती यत्रैव मल्लद्धत. कुमारस्तौगोपागन्छति, उपन्गत्य करतल परिगृहीत यात्-शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयविजय शब्देन वर्धयतिअभिनन्दयति, वर्धयित्वा, एवमवादी-हे स्वामिन् ! एव ग्यलु तस्य चित्रकरस्य, इममेतपा-वक्ष्यमाणस्वरूपा चित्रकरलब्धिलब्धा-अर्जिता प्राप्ता-स्वायत्तीकृता अभिसमन्वागता-सम्यगासेपिता, यस्य विलु द्विपदस्य पा यानत्-चतुष्पदस्य वा अपदस्य वा एकदेशमपि पश्यति तम्य खलु देशानुसारेण तदनुरूप रूप 'निबत्तेई' निवर्तयति-रचयति, तत्-तस्मात् हे स्वामिन् ! मा ग्यलु युय त चित्रकर वध्यचितगरसेणी इमीसे कहा लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छह, उधागच्छित्ता करयलपरिगयि जाव वदवेहा वद्धावित्ता एव वयासी-एव खलु सामी । तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धीलद्धा, पत्ता अभिसमन्नागया नस्सण दुपयरस वा जाव णिवत्तेइ ) इस प्रकार इस उक्त रूप कथा का हाल जर उस चित्रकार श्रेणी को मालूम हुआ तब वह जहा मल्लदत्त कुमार या वहाँ पहुँची पहुँच कर उसने उसे दोनो हाथों की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर धरकर नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा वधाई दी बधाई देकर फिर वह इस प्रकार कहने लगो-स्वामिन् । उम चित्रकार को इस प्रकार की यह चित्रकार लब्धि प्राप्त हुई है-उस पर उसका अधि कार जम गया है-उस का उसे अच्छी तरह अभ्याम हो चुका है कि जिसकी वजह से वह किसी भी द्विपद, चतुष्पद, अपद का एक देश भी देखकर उसके अनुमार तदनुरूप चित्ररच देता है । (त माण सामी।
(तएण सा चित्तगरसेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागन्छ, उयागन्छित्ता करयलपरिग्गहिय जाव बद्धावेद, पद्धावित्ता एव वयामी एव खलु सामी ' तम्स चित्तगरस्स इमेयाख्या चित्तगरद्धी लद्धा, पत्ता अभिसमन्नागया जस्सण दुपयस्स पा जाव णिवत्तेइ )
આ રીતે ચિત્રકારોને ઉપરની બધી વિગતની જાણ થઈ ત્યારે જ્યા મલદત્ત કુમાર હતા ત્યા તેઓ પહેમ્યા અને પહેચીને બંને હાથની અ જલી બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરતા જય વિજ્યના શબ્દ ઉચારતા તેણે કહ્યું કે હે સ્વામિન્ ! તે ચિત્રકારને આ પ્રમાણેની વિશેષ શક્તિ પ્રાપ્ત થઈ છે તે કલા ઉપર તેને પૂરે પૂરો અધિકાર આવી ગયેલ છે તે સારી પેઠે અભત થઈ ગયેલ છે જેથી તે કોઈ પણ દ્વિપદ (માણસ) ચતુષ્પદ (પશુ) અને અપદ (સાપ વગેરે) ના કેઈ પણ એક દેશને
न ते भु ना २ यिन होरी मा छे (त माण सामी | तुम
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ज्ञाताधर्मकथाले
माज्ञापयत - प्रधार्थमाशां मा कुरुतेत्यर्थः तत्तस्मात् हे स्वामिन् ! यूप बल तस्य चित्रकरस्यान्य तदनुरूप चित्रकरापराधसदृश, दण्ड 'निव्यते ' निर्वर्तयत=कुरुत । ततः=चित्रकरश्रेणिसविनयवचनश्रवणानन्तर, सलु स मल्ल दत्तस्तस्य - मल्लीचित्र रचयितु, चित्ररूरस्य 'सडासग' सन्दगरुम् = करुनद्धयोः सन्त्रि नाडीरूपमि त्यर्थ, 'छिंदोवेइ 'छेदयति कर्तयतिस्म यत्त' सडासगति' हस्तो छेदपतिस्म' इतिव्याख्यात- तदज्ञानविजृम्भितम् तेत्रीय चित्रकरेण हस्तिनापुरे नगरे गत्वा पुनर्मल्लीचित्र रचितमित्येतदर्थं पनिरोधक पूलपाठ विरोधात् हस्तामाने चित्रलेखना तुम्भे ते चित्तगर वज्झ आणनेर ) इसलिये हे स्वामित! आप उस चित्रकार को मारने की आज्ञा प्रदान न कीजिये (त तुभेण सामो ! तस्स चित्तागरस्स अन्न तयाणुख्य दड निव्यत्तेर, तण्ण से मल्लदिन्ने तस्स चिगरस्स मासग जिंदावे, जिंदावित्ता निव्विसय आणवेड ) किन्तु हे नाथ ! आप उस चित्रकर को बताये गये इस चित्र के अनु सार किसी और दूसरे दड का निर्धारणकर दीजिये इस प्रकार चित्र कार श्रेणी के वचन सुनने के बाद मल्लदत्त कुमार ने उस मल्ली के चित्र बनाने वाले चित्रकार की उरु और जनाओं की सधि को छिदवा दिया-कतरवा दिया
( जो " सडासगति " किसी २ टीकाकार ने ऐसा मान कर 66 उस के दोनों हाथ कटवा दिये " इस प्रकार का व्याख्यान किया है वह ठीक नही ज्ञान होता है - कारण " इसी चित्रकार ने हस्तिनापुर में जाकर मल्ली कुमारीका चित्र रचा है" ऐसा जो आगे मूलपाठ आनेवाला उस त चित्तगर वज्म आणवेह ) मेथी हे स्वामिन् । तमे ते चित्रकारने भारवानी આજ્ઞા માડી વાળા
( त तुन्भेण सामी 1 तस्स चित्तागरस्स अन्न तयाणुरूप दड निव्वत्तेह, तरण से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स सडासग छिंदा वेद, छिदावित्ता निव्त्रिसय आणवेइ) અને હે નાથ ! તમે ચિત્રકારને તે ચિત્ર ખદલ ખીજી ગમે તે સા કા આ પ્રમાણે ચિત્રકારાના વચન સાભળીને મલ્લન્તકુમારે મત્લીકુમારીનુ ચિત્ર મનાવનાર ચિત્રકારના ઉરુએ–જાધાઓના સાધાને કપાવી દીધા
66 स डास गति " भी प्रभाोना चाहना आधार सपने डेंटला टीअअरे। આમ માનતા થયા છે કે તે ચિત્રકારના અને હાથ પણ કપાવવામાં આવ્યા હતા પણ હકીકતમા આ વાત સત્યથી વેગળી છે કેમકે એ જ ચિત્રકાર આગળ હસ્તિનાપુરમાં જઈને ભલીકુમારીનું ચિત્ર
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antarajaणी टीका अ०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
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सभवात् । छेदयित्वा 'निवितय' निर्विषयम्-विषयाभिर्गत स्वदेशात् बहिर्गन्तुमित्यर्थः, आज्ञापयति=आज्ञां दत्तवान् ॥ म्रु०२८ ॥
मूलम्-तणं से चित्तगरए मल्लदिन्नेण णिव्विस आणते समाणे सभडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयराओ क्खिमइ, णिक्खमित्ता विदेहजणवय मज्झ मज्ज्ञेण जेणेव कूरुजणवए जेणेव हत्थिणाउरनयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भडणिक्खेव करेइ, करिता चित्तफलगं सज्जेइ, सजित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायगुट्टाणुसारेण एव णिव्वत्तेइ, णिवत्तित्ता कक्खनरसि छुम्भइ, छुम्भित्ता महत्थ जाव पाहुड गिves, गिपिहता हत्थिणापुर नयर मज्झ मज्झेणं जेणेव अदणिसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता त करयल जाव वद्धाविता पाहुड उवणेड़, उवणिता एव वयासी - एव खलु अह सामी ? मिहिलाओ रायहाणीओ कूभगस्स रन्नो पुत्तेणं पभावईए देवीए अत्तएर्ण मल्लदित्रेण कुमारेण निव्विस आणते समाणे इह हव्वमागए तं इच्छामिण सामी । तुम्भ बाहुच्छाया परिग्गहिए जाव परिवसित्तए, तएण से अदीणसत्तू राया त चित्तगरदारयं एवं का फिर विरोध आवेगा। हाथों के बिना चित्र लिखना कैसे बन सकता है । जघा कटवा देने के बाद फिर उस ने उसे अपने देश से बाहर चले जाने की आज्ञा दे दी । ८" २८ "
મૂળ પાઠ આગળ આવશે તેની સાથે હાથ કપાવવાની ઉક્ત વાત બધ બેસતી નથી હાર્ય વગર ચિત્ર દેરી જ કઈ રીતે રાકાય ?
મદત્તકુમારે જ ધાએ કપાવવાની સજા કરીને તે ચિત્રકારને દેશવટા माय्यो ॥ सून 66
२८
ܕܕ
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_ तापमंडया वयासी-किन्न तुम देवाणुप्पिया। मल्लदिपणेणं निविसप आणत्ते तएणं से चित्तयरदारए अदीसत्तरायं एवं वयासीएव खलु सामी । मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगरसेणि सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी-तुम्भे ण देवाणुणुप्पिया । मम चित्तसभ त चेव सव्व भाणियन जाव मम छिदावेइ, छिदावित्ता निविसय आणवेड, त एव खल्लु सामी! मल्लादिपणे कुमारेण निविसए आणत्ते ।
तएण अदीणसत्तू राया त चित्तगर एव वयासी - से केरिसए णं देवाणुप्पिया । तुमे मल्लीए तयाणुरुवे रूवे नि. वत्तिए । तएणं से चित्तगरदारए कक्खतगओ चित्तफलय णीणेइ, णीणित्ता अदीणसत्तस्स उवणेइ, उवणित्ता एव वयासी -एसणं सामी । मल्लीए विदेहराजवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्स केइ आगारभावपडोयारे निव्वत्तिए, णो खल्लु सके केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकण्णगाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए, तएण अदोणसत्तू पडिरूवजणियहासे दूय सदावेइ, सद्दावित्ता एव वयासी- तहेव जाव पहारस्थ गमणयाए ॥ सू०॥
टीका-'तएण से इत्यादि । ततस्तदन्तर खलु स चित्रकारो मल्लदत्तेन निर्वि पया देशनिर्गतो भवितुम् आज्ञाप्त सन् सभाण्डामत्रोपकरणमादाय स्वगृहमागत्य
'तएण से चित्तगरए' इत्यादि । टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (से चित्तगरण) वह चित्रकार (मल्ल दिन्ने ण,णिन्विसए आणत्ते समाणे) मल्लदत्त कुमारसे देशसे बाहिर निकल 'तएण से चित्तगरए ' इत्यादि ।
साथ-(तएण) त्या२माह (से चित्तगरए) यिार (मलन्मेिण णिधिसए आणत्ते प्रमाणे) भासत्तामा२५ अपायेसी । म २ पानीमा सामान
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अनगारधर्मामृतविणी टीका अ० ८ अदीनशनृपवर्णनम्
४२९ स्वकीय भाण्डाद्युपकरण गृहीत्वा मिथिलातो नगरीतो निष्कामति बहिनिस्परति निष्क्रम्य विदेह जनपद-विदेहदेशस्य म यमध्येन-मध्ये भूत्वा प्राकृतत्वात् पष्ठवर्षे द्वितीया, योव कुरुननादा-कुरुनामको देश., यौव हास्तिनापुर नगर, तत्रोपागच्छति, उपागत्य 'भडणिक्खेत्र' भाण्डनिक्षेप-भाण्डाद्युपकरणाना स्थापन करोनि कृत्ला 'चित्तफलग ' चित्रफलक-चित्रगोयपट्टा यस्मिन् पट्टके चित्र रचनीय तदित्यर्थ , सज्जयति-मार्जनलेयादिना सस्करीति, सज्जयित्मा मल्ल्या विदेहराज जाने के लिये आजप्त होता हुआ ( सभडमत्तोवगरणामायाए मिहिलामो गयरीओ णिस्खमह णिक्खमित्ता विदेह जणथय मज्झ मज्झेण जेणेव कुरु जणवए जेणेव हथिणोउरनयरे तेणेव उवागच्छह ) अपने घर आयो-वहा आकर उसने अपने भाण्ड आदि उपकरणों को लिया
और लेकर फिर वह मिथिला नगरीसे बाहिर निकल गया-निकल कर वह विदेह जनपद के बीच से होकर जहा कुरु जनपद था और जहा हस्तिनापुर नगर था-वहा आये-(उवागच्छित्ता भडनिक्खेव करेड, करिता चित्तफलग सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायगुट्टानुसारेण रूव णिवत्तेइ ) वहा आकर के उस ने अपने भांड' आदि उपकरणो को यथास्थान रख दिया-रखकर के फिर उसने चित्र फलक को-जिस में चित्र रचा जाता है उस पटिये को-मार्जन लेप
आदि से ठीक ठाक किया-अर्थात् पहिले उसने उस पट्टि को साफ किया पश्चात् उस पर रग आदि का लेप लगाया।
( सभडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयरीओ णिकावमह णिक्खमित्ता वि. देह जणपय मज्झ मज्झेण जेणेव कुरुजणवए जेणेव हत्यिणाउरनयरे तेणेव उवागच्छा તે પોતાને ઘેર આવ્યો અને ત્યાથી તેણે ભાડ-વાસણ વગેરે વસ્તુઓ લીધી લઈને મિથિલા નગરીની બહાર નીકળે અને નીકળીને વિદેહ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યાં કુરુજનપદ હતુ અને જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતુ ત્યા ગયે
(उवागन्छित्ता भडनिक्खेव करेइ, करिता चित्तफलग सजेड, सन्जित्ता म. ल्लीए विदेहरायवरसन्नाए पायगुट्ठानुसारेण रूव णिवत्तेइ )
ત્યાં જઈને તેણે પિતાની ભાડ વગેરે વસ્તુઓને ઉચિત સ્થાને શેઠવી દીધી અને બેઠવાને ચિત્ર તકનુ-એટલે કે જેમાં ચિત્ર દેરવામાં આવે છે તે પાટિયાન-માજન લેપન વગેરે કરીને તૈયાર કર્યું મતલબ આ પ્રમાણે છે કે પહેલા તેણે પાટિયાને સ્વચ્છ બનાયુ ત્યારપછી રગ વગેરેને લેપ કર્યો
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४३०
MEDIATED
নাখা वरकन्यायाः पादानुष्ठानुसारेण रप-नदीय चित्र निवर्तयति । निर्वयं कक्ख तरसि' कक्षान्तरे-कास्य-वाहोर्मूलस्य अन्तरे आ पन्तरे 'पर' छुपति धरतीत्यर्थः । 'छुप्पित्ता' छुप्या धृत्वा 'महत्य जार' महा यावत्-महाध, महाई, 'पाहुड' माभृतम् उपहार, गृह्णाति, गृहीत्वा हस्तिनापुर नगर-हस्तिना पुरनगरस्य मभ्यमध्येन यत्रैव-अदीनशत्रुराजा तोयोपागन्छति, आगत्य त करतल -यावद करतल परिगृहीत शिर आपत मस्तकेऽञ्जलिं मत्वा जपनयेति शब्देन वर्धयति अभिनन्दयति, वर्धयित्वा मामृतमुपचयति अग्ने म्यापयति उपनीय एवं
बाद में विदेह राजवर कन्या मरिली कुमारी का उसके ऊपर पाद के अगुष्ठ के अनुसार तदनुरूप चित्र रचा। (णियत्तित्ता कक्खतरसि छुब्भह, छुभित्ता महत्थ जाव पादु गिरड, गिरित्ता, रत्थिणा पुर नयर मज्झ मज्झेण जेणेव अदीण सतूराया तेणेव उवागच्छइ ) चित्र रचकर के फिर उसने उसे अपनी कांख में दवाया-दया कर महार्थ यावत् महार्ध प्राभृत (न मूल्य भेट) लिया, और लेकर हस्तिनापुर नगर के बीचो बीच से होकर वह जहां अदीन शत्रु राजा थे वहां गया(.उवागच्छित्ता त करयल जाव वद्वावेह, बावित्ता पाहुड उवणेह, उवणित्ता एच वयासी) वहा जाकर उसने दोनो हाथों की अजलि घनाकर और उसे मस्तक पर रख कर राजा को नमस्कार किया याद में जय विजय आदि शब्दों बोरा उन्हें बधाई दी। बधाई देकर उस ने लाये हुए भेंट को उन के समक्ष रख दिया। रख देने के बाद फिर उस
ત્યારબાદ ચિત્રકારે પગના અંગુઠાને અનુરૂપ વિદેહ રાજવર કન્યા મલી કુમારીનું આબેહૂબ ચિત્ર દેર્યું
(णिव्यत्तित्ता कवखतरसि छुब्भइ, छुभित्ता महत्थ जाच पाहूड गिण्हर गिहित्ता, हथिणापुर णयर मज्झ मज्झेण जेणेर अदीणसत्तूराया तेणेव उवागच्छइ)
ચિત્ર દેર્યા પછી ચિત્રને બગલમાં દબાવીને મહાથે સાધક-બહુ જ મૂલ્યવાન ભેટ લીધી અને લઈને હસ્તિનાપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યા અદીનશત્રુ રાજા હતા ત્યા ગયા उवागच्छित्तात करयल जाव बद्धावेइ बद्धावित्ता पाटुड उवणेइ आणित्ता एव वयासी
ત્યા જઈને તેણે બંને હાથની અજલી બનાવીને તેને માથે મૂકીને રાજા ને નમન કર્યો અને ત્યાર બાદ તેણે “જય વિજ્ય' વગેરે શબ્દોથી રાજા ને વધામણી આપી વધામણી આપીને ચિત્રકારે પોતાની પાસેની ભેટ રાજાની સામે મૂકી ભેટ અર્પણ કર્યા બાદ તેણે રાજાને આ પ્રમાણે વિનતિ કરી કે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० भ० ८ अदोनशत्रुनृपवर्णनम्
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मवादीत् - हे स्वामिन् । एवं खलु अह मिथिलातो राजधानीत' कुम्भास्य राज्ञः पुत्रेण प्रभावत्पा देव्याजात्मजेन = नगजातेन, मल्लदत्तेन कुमारेण निर्विषय = देशान्निर्गन्तुम्=आज्ञप्तः सन् इह = अस्मिन स्थाने, हव्य =शीनम् आगत । तत् = तस्मात् हे स्वामिन् । इच्छामि खलु युष्माक वाहुच्छाया परिगृहीत' - भुजबलाश्रय गृहीत्वेत्यर्थ, यात् परिवस्तुम् अत्र - यानच्छब्देन - निर्भय, निरुद्विग्नः सन् सुख सुखेन, इतिनोभ्यम् । ततः खलु सोऽदीनशत्रूराजा, त चिनकरदारकमेवमवादीत् हे देवानुप्रिय ! =कुतः खलु स मल्लदत्तेन निर्विषय:- देशाद् हिर्गन्तुम्, ने उन से इस प्रकार कहा- एव खलु अर सामी | मिहिलाओ राय हाणीओ कुभगस्स रण्णो पुतेण, पभावईए देवीए अत्तण्ण मल्ल दिग्नेण कुमारेण निव्चिसए आणते समाणे इह हव्वमागए ) हे स्वामिन् । मिथिला राजधानी से वहा के कु भक राजा के पुत्र और प्रभावती के अगज मल्लदत्त कुमार से देश से निर्वासित किया गया यहा आये हैं ।
( त इच्छामिण सामी । तुम्भ बाहुच्छाया परिग्गहिए जाव परवसित्तर ) अतः हे स्वामिन् | मैं आपकी भुजच्छाया का आश्रय लेकर यहां रहना चाहते हैं । यहा " यावत् " शब्द से " निर्भयः " निरु द्विग्नः सन् सुख सुखेन " इस पाठ का सग्रह किया गया है । ( तण से अदीणसत्तू राया त चित्तगरदारय एव क्यासी - किन्न तुम देवाणु पिया | मल्ल दिन्ने निव्विस आणत्ते) उस की इस प्रकार बात सुनकर अदीन शत्रु राजा ने उस चित्रकर दारक से इस प्रकार पूछा
( एव वलु अह सामी ! महिलाओ रायहाणीओ कुभगस्स रण्णो पुत्त्रेण पभा वईए देवी जत्तएण मल्लदिन्नेन कुमारेण निच्चिसए जागचे समाणे इह हव्त्रमा गए) હું સ્વામીત્! મિથિલા રાજધાનીના પ્રભાવતી દેવીના ગર્ભથી જન્મ પામેલા કુંભક રાજાના પુત્ર મલદત્તકુમારે મને દેશવટો આપ્યા છે તેથી અહી તમારે શણું આવ્યે છુ
( त इच्छामिण सामी ' तुम वाहुच्छाया परिग्गहिए जाव परिवसित्तए ) એથી હે સ્વામી! હું તમારી બાહુ૰ાયાના આશ્રયમા અહી રહેવા ચાહું છું અઠ્ઠી यावत् ' पहथी ' निर्भय 'निरद्विग्न] सन् सुस सुसेन '
"
આ પાઠને ઞગ્રહ કરવામા આવ્યે છે
तरण से अढीण सत्तूराया त चित्तगरदारय एव क्यासी किन तुम देणु पिया | मल्लदिन्ने निव्विसए आणते )
આ વાત સાભળીને અદીનરાત્રુ રાજાએ ચિત્રાદ્વારકને આ પ્રમાણે કહ્યુ
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४३२
ज्ञाताधर्मकयात्र
१
आज्ञप्त ? ततः स चित्रकरदारफ, अनीनशत्रु राजानमेवमनीत हे स्वामिन ! एव खलु मल्लदरा कुमारोऽन्यदा यदाचित अन्यस्मिन् कस्मिंचित समये, चित्ररुरश्रेणि चिनयारान् शन्दयति = माहूतान् । वि एवमवादीत् है देवानुप्रियाः । यूय खलु मम चित्रसभा चित्रयत त चेत्र सव्वभाणियन्त्र' तदेव सर्व भणितम् - चिनकर विषयक सफर पूर्वोक्तमेन वृत्तान्त यान्यमित्यर्थः, जान मम सडासम छिंदा वेड ' यावन्मम सन्देशक छेदयति । चित्रयत' इत्यादि,
1
"
हे देवानुप्रिय | तुम किस कारण से मल्लदत्तकुमार से निर्वासित होने के लिये आजप्त किये गये हो (तणं से चित्तरदार अदीण सतू राय एन वयाती - एव ग्वलु सामी । मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कपाइ चित्तगरसेणि सहावे, महावित्ता एव वयासी तुम्भेण देवा शुपिया ! मम चित्तसभ त चेत्र सव्व भाणियन्त्र जाव मम सडासग छिंदावेइ जिदाचित्ता निव्विसय आणवेद्द त एव ग्वलु सामी ! मल्ल दिन्नेणं कुमारेण निव्विसये आणत्ते ) उस चित्रकर दारक ने तब अदीन शत्रु राजा से कहा- हे स्वामिन् । मत्लदत्त कुमार ने किसी एक समय चित्रकारों की श्रेणी को बुलाया और बुलाकर उस से ऐसा कहा कि हे देवानुप्रियों ! तुम लोग मेरे इस चित्रगृह को चित्रित करो इस तरह पहिले की सन घटना उस चित्रकार ने अदीनशत्रु राजा को उरू और जघाओं को छेदने तक की सुना दो । छिदवा कर फिर उन्होंने मुझे
કે હે દેવાનુપ્રિય ! મલદત્ત કુમારે તમને શા કારણથી દેશમાથી નિર્વાસિત થઈ જવાની આજ્ઞા આપી છે ?
(तरण से चित्तयरदारए अदीण सत्तूराय एव वयासी - एव खलु मामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कमाइ चित्तगरसेणि सदावेइ सदावित्ता एव क्यासीतुन्भेण देवाणुपिया ! मम चित्तसभ त चेत्र सव्य भाणियन्त्र जाव मम सडाएग छिंदावे जिंदावित्तानिन्विमय आणवेइ त एवं खलु सामी ! मल्लदिन्नेणं कुमा
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अगरधर्मामृत
टीका अ० ८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
४३३
छेदयित्वा निर्विषयम् = देशनिष्कासनमाज्ञापयति ' तदेव खलु हे स्वामिन् | अह मल्लदत्तेन कुमारेण निर्विषय आज्ञप्तः ।
'
ततस्तदनन्तर खलु अद्दीनश राजा त चित्रकारमेव वक्ष्यमाण प्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुप्रिय । तत् कीन खलु त्वया मल्ल्यास्तदनुरूप रूप =चित्र निर्तितम् १, तत खलु स चिनकरदारकः कक्षान्तरात् बहुमूलाभ्यन्तराद चित्रफल्क यस्मिन् मल्ल्याश्चित्र लिखितमासीत् तदित्यर्थः, 'णीणेइ ' नयति = वहिर्नयति बहिप्करोतीत्यर्थ', ' पीणिता नtear अदीनशत्रोः राज्ञ उपनयति = अग्रे स्थापयति, उपनीय एव वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् हे स्वामिन् ! एप खलु मल्ल्या - विदेहराज नरकन्याया' पादाहुछानुसारेण तदनुरूप स्य तत्सदृगस्य रूपस्य चित्रस्य ' के ' फोsपि कश्चित् किञ्चिन्मात्रः आगार देश से बाहर निकल जाने के लिये आज्ञा दे दी । इस तरह मल्लदत्त कुमार से निर्वासित होता हुआ मैं यहा आया हूँ ।
6
(तरण अदीणसत्तूरायात चित्तगर एव बयासी से केरिसएण देवाशुपिया | तुमे मल्लीए तयागुरूवे रूवे निव्वत्तिए ? तएण से चित्तगर दारए कक्खनराओ चित्तफलय णीणेड, णीणित्ता अदीणसत्तुम्स उब
=
इ) चित्रकर की इस बात को कर्णपथ करके अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिय ? मत्लीकुमारी का चित्र तुमने तदनुरूप कैसा बनाया था । इस प्रकार राजा को वचन सुनकर उस चित्रकरदारक ने अपनी कक्षा के भीतर से दबे हुए उस चित्र फलक को कि जिसमें मल्लीकुमारीका चित्र अकित किया हुआ था बाहर निकाल और शहर निकाल कर उसे अदीनशत्रु राजा के समक्ष रख दिया । ( उवणित्ता एव वयासी) रखकर वह फिर इस દેશમાથી બહાર જતા રહેવાના હુકર કચે છે ત્યાથી તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે બહાર નીકળીને હુ અહીં આવ્યા છુ
(तएण अदीण सत्तूराया व चित्तगर एव क्यासी-से के रिसएण देवाणुप्पिया ! तुमे मल्लीए तथाणुळवे स्वे निव्वत्तिए ? तरण से चित्तगरदारए कक्खतराओ चित्तफलय णीणे, णीणित्ता अदीणसस्त उवणे )
ચિત્રકારની વાત સાભળીને અદીનરાજી રાજાએ તે ચિત્રકારને કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ! મલીકુમારીનું આબેહૂબ ચિત્ર તમે કેવુ દોર્યુ હતુ ? આ રીતે રાજાના વચના સાભળીને ચિતકાદાર કે મલ્ટીકુમારીના ચિત્રવાળુ ફલક અંગ લમાંથી ખડાં ક યું અને તેને અદીનશત્રુ રાજાની સામે મૂકી દીધુ ( उवणित्ता एन वयासी ) भूहीने तेथे गमने ४६ -
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४३२
माताधर्मकथा
१
(
त ? ततः स चित्रकरदारक, अदोनशत्रु राजानमेवमवादीत् हे स्वामिन्! एव खलु मल्लदत्त कुमारोऽन्यदा यदाचित = अन्यस्मिन् मिश्रित समये, चित्रकरश्रेणि विपारान् शब्दयति = माहूतरान् । शया एवमवादीत् है देवानुप्रियाः । यूय खलु मम चित्रसभा चिनयत त चेत्र सन्यभाणियन्त्र' तदेव सर्व भणितव्यम् - ६६ चिनकर विपयक सकल पूर्वोक्तमेव वृत्तान्त यान्यमित्यर्थः, जान मम सडासभ छिंदा वेड ' यावन्मम सन्देशक छेदयति । चित्रयत' इत्यादि, हे देवानुप्रिय ! तुम किस कारण से मल्लदत्तकुमार से निर्वासित होने के लिये आज्ञप्त किये गये हो ( तणं से चित्तपरदारण अदीण सतृ राय एन वघाती एव ग्लु सामी ! मलदिन्ने कुमारे अण्णया कपाइ चित्तगरसेणि सहावे, मद्दावित्ता एव वयासी तुम्भेणं देवा णुपिया ! मम चित्तसभ त चेत्र सव्व भाणियन जाव मम सडासग छिंदावेइ छिदावित्ता निव्विसय आणवेह त एव ग्वलु सामी ! मल्ल दिन्नेणं कुमारेण निव्विसये आणते ) उस चित्रकर दारक ने तब अदीन शत्रु राजा से कहा- हे स्वामिन् । मल्लदत्त कुमार ने किसी एक समय चित्रकारों की श्रेणी को बुलाया और बुलाकर उस से ऐसा कहा कि हे देवानुप्रियों ! तुम लोग मेरे इस चित्रगृह को चित्रित करो इस तरह पहिलेको घटना उस चित्रकार ने अदीनशत्रु राजा को उरू और जघाओ को छेदने तक की सुना दो । छिदवा कर फिर उन्होंने मुझे
-
કે હે દેવાનુપ્રિય ! મલદત્ત કુમારે તમને શા કારણથી દેશમાથી નિર્વાસિત થઈ જવાની આજ્ઞા આપી છે ?
(तरण से चित्तयरदारए अदीण सत्तूराय एव वयासी - एव खलु मामी ! मल्ल दिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगरसेणि सदावेइ सद्दावित्ता एवं क्यासीतुब्भेण देवाणुपिया ! मम चित्तसभ त चेत्र सन्व भाणियन्त्र जाव मम सडाएग छिंदावे छिंदावित्ता निन्त्रिमय आणवेइ त एव खलु सामी ! मल्लदिन्नेर्ण कुमा रेण निव्विस आणते )
ચિત્રકારદ્વારકે જ્યારે અીનશત્રુ રાજાને કહ્યુ કે હે સ્વામીન્ ! મલદત્ત કુમારે એક વખતે ચિત્રકારને લાવ્યા અને બાલાવીને તેમને કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તમે મારા ચિત્રગૃહને ચિત્રિત કરે આ રીતે ચિત્રકારે અઢીન શત્રુની સામે ઉરુએ જ ધાને કપાવવા સુધીની બધી વિગત રજૂ કરી અને તેણે અતે આ પ્રમાણે કહ્યુ કે જ ઘાને કપાવીને મલદત્તકુમારે મને પેાતાના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ जित नृपवर्णनम्
४३५
समुत्पन्न तद्विषयकानुरागवानित्यर्यः । एवभूतः सन् दुत शब्दयति शब्दयिला एवमवा दीत्-'तहेव' तथैव-काशीराजः शङ्खः स्वदृतमुक्तवान्, तद्वदित्यर्थः, यावत् प्राधारयद् गमनाय =अदीनशत्रो राज्ञ आजया स दूतो रथारूढः सन् यौत्र मिथिला नगरी तत्रैव गन्तु प्रवृत्त इत्यर्थ । इति पञ्चमस्यादीनशत्रुनाम कम्य राज्ञः सम्बन्धः कथितः ।। ० २९ ॥
मूळम् - तेण कालेणं तेणं समएण पचाले जणवए कपिल्ले पुरे नयरे, तत्थण जियसत्तू नाम राया पंचालाहिवई होत्था, तस्सण जियसत्तस्स धारिणी पामोक्ख देविसहस्स ओरेहे होत्था, तत्थण मिहिलाए चोक्खा नामं परिव्वाइया रिउव्वेंद जाव परिणिडिया यावि होत्था, तएण साचोक्खा परिव्वाइया मिहिलाए बहूण राईसर जाव सत्थवाह पभिइणं पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्म च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेहै । (तरण अदीणस पडिवजणियासे दूय सहावेड, सदावित्ता एव वयासी तहेव जाव पहारेत्य गमनाए ) इस प्रकार चित्रकर के मुख से सुनकर राजा ने उसे अपने राज्य मे रहने के लिये खुशी से आज्ञा प्रदान कर दिया । चित्र के देखने से जिन्हें मल्लि विषयक अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे उन कुरूदेशाधिपति अदीन शत्रु राजा ने अपने दूत को बुलाया - और, बुलाकर जिस प्रकार काशीराजा शख ने अपने दूत से ' कहा था उसी तरह इन्होने भी उससे कहा ! की आज्ञा प्राप्त कर वह दूत रथ पर आरुढ हो जहाँ मिथिला नगरी थी उस और चल दिया । मृत्र २९ ॥
तरण अदीणसत् पडिवजणियहासे दूय सहावे सहावित्ता एव वयासी तहेब जाव पहारेत्य गमनाए )
આ રીતે ચિત્રકારના મેાથી બધી વિગત સાભળીને રાજાએ તેને પેાતાના રાજ્યમા રહેવાની આજ્ઞા આપી દીધી ચિત્રને જોઇને જ અદીનશત્રુ રાજાના મનમા કુિમારી માટેના અનુરાગ ઉપન્ન થઇ ગયા. રાજાએ તુરત એક કૃતને નાળ્યા અને જેમ કાશીરાજ શખે પેાતાના દૂતને કહ્યુ હતુ તે પ્રમાણે જ તેણે પણ પેાતાના તને કહ્યું આજ્ઞા મેળવીને કૃત રવ ઉપર સવાર थये। भने ? त२३ मिथिला नगरी डती ते तर खाना चयेो ॥ सूत्र “ २७ " ॥
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मानाAHANI भावापडोयारे' आकारमाधमत्यवत्तारा आकृतिचेप्टयोराविर्भावा, निष्पतिर निवर्तित , पादाङ्गामानदर्शनानुमितत्पन मकतचित्रेग पूर्णरूपेमाइति चेष्टयोराविभीर किंतु पल्स एप माटोकन उत्पः नो खलु शस्य केनापि देवेन व यार-दानवेन या गन्धर्वेग या यक्षेग या मल्ल्या पिटेहरामवरकन्यायास्तदनरूप रूप निर्वतयितुम्, तस्या मल्ल्या दिहरामरकन्यायाः स्वरूप लोकोत्तर वर्णनातीत मस्ति, दर्शनादेव तत्स्वरूपस्य पूर्ण ज्ञान भवितु सत्यते, इति भावः। ततः खलु अदीनशत्रुः 'पडिरूवजणियहासे' प्रतिरूप जनितहपः पतिरूप-चित्र तेन जनितस्तदर्शनसमुत्पन्ना, हर्पःसुव कार्ये कारगोपचारादनुरागोऽपि हर्ष इत्युच्यते, मल्लीपियफानुराग इत्पर्य., स यस्यास्ति स तया, मल्लीचित्र दर्शन प्रकार योला-(एसण सामी! मल्लीरा विदेशराजवरकन्याग तयाणुरुव स्स स्वस्स केह आगारभाउपडियारे नियत्तिए,णो खलु सके केणइ देवे ण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए तयाणुरूवे ख्वे निव्वसिए) हे स्वामिन् ! मैंने विदेर राजवर कन्या मल्ली कुमारी के इस पादागुष्ठा नुसार से अकित किये गये चित्र का थोड़ा सारी-किश्चिमात्र-आकृ तिएव चेष्टाका आविर्भाव चित्रण किया है-मैने यह चित्र मल्लीकुमारी का,अकित किया है-वह उनके अगुष्ठ को देखकर अवशिष्ट अङ्गादि का अनुमान लगाकर बनाया है। - इसलिये इस चित्र में किञ्चिन्मात्रा में ही उनके आकारादिका अ कन हुआ है पूर्णरूप से नहीं। पूर्णरूप से उन विदेहराजवरकन्या मल्ली कुमारी के तदनुरूप चित्र बनाने मे न कोई देवता समर्थ है, न कोई दानव समर्थ है, न कोई गन्धर्व समर्थ है और न कोई यक्ष ही समर्थ (एसणगामी! मल्लीए विदेह राजवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्म केइ आगार भाव पडोयारे निव्वत्तिए णो खलु सक्के केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवर कण्णाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए) ' હે સ્વામીના વિદેહરાજ વર કન્યા મલીકુમારીનું તેમના પગના અંગુ ઠાને જોઈને જ તેમની આકૃતિ અને ચેહરાઓને આ છે ખ્યાલ આપતું ચિત્ર મે દોર્યું છે તેમના આ ગુઠાને જોઈને જ બાકીના બધા અંગોનું ચિત્રણ અનુમાનથી કરવામાં આવ્યું છે
એથી આ ચિત્રમાં તેમના આકાર વગેરેનું આ કન ઓછી માત્રામાં જ થયુ છે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીનું આબેહૂબ ચિત્ર બનાવવાનું સામર્થ્ય કઈ દેવતામાં નથી કે નથી કોઈ દાનવમા, નથી કે ગાધર્વમાં કે નથી કેઈ ચક્ષમાં
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ जित नृपवर्णनम्
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समुत्पन्न तद्विषयकानुरागवानित्यर्यः । एवभूतः सन् दुत शब्दयति शब्दयिला एवमंत्रा दीत् - 'तहेब' तथैव = काशीराजः शङ्खः स्वदृतमुक्तवान् तद्वदित्यर्थः यावत् माधारयद् गमनाय = अदीनशत्रो रात आज्ञया स दूतो रथारूढः सन् यौत्र मिथिला नगरी तत्रैव गन्तु प्रवृत्त इत्यर्थ । इति पञ्चमस्यादीनशत्रुनामकस्य राज्ञः सम्बन्धः कथितः || सू० २९||
मूळम् तेणं कालेणं तेणं समएण पचाले जणवए कपिल्ले पुरे नयरे, तत्थण जियसत्तू नाम राया पचालाहिवई होत्था, तरसण जियसत्तस्स धारिणी पामोक्ख देविलहस्स ओरेहे होत्था, तत्थण मिहिलाए चोक्खा नामं परिव्वाइया रिउव्वेंद जाव परिणिडिया यावि होत्था, तएण साचोक्खा परिव्वाइयां मिहिलाए वहूण राईसर जाव सत्थवाह पभिइणं पुरओ दाणधम्मच सोयधम्मं च तित्थाभिसेय च आघवेमाणी पण्णवेहै | ( अक्षीणस पडिवजणियहासे दूय सद्दावेह, महावित्ता एवं वयासी तहेव जाव पहारेत्य गमणाए ) इस प्रकार चित्रकर के मुख से सुनकर राजा ने उसे अपने राज्य मे रहने के लिये खुशी से आज्ञा प्रदान कर दिया | चित्र के देखने से जिन्हें मल्लि विषयक अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे उन कुरूदेशाधिपति जदीन शत्रु राजा ने अपने दूत को बुलाया - और, बुलाकर जिस प्रकार काशीराजा शख ने अपने दूत से कहा था- उसी तरह इन्होने भी उससे कहा की आज्ञा प्राप्त कर वह दूत रथ पर आरुढ हो जहाँ मिथिला नगरी थी उस और चल दिया ।। सूत्र २९ ॥
aer अदीणसतृ पडिवजणियहासे दूय समावेइ सदानित्ता एव वयासी ata जाव पहारेत्थ गमणाए )
આ રીતે ચિત્રકારના મેાથી બધી વિગત સાભળીને રાજાએ તેને પેતાના ગજ્યમા રહેવાની આજ્ઞા આપી દીધી ચિત્રને ોઈને જ અદ્દીનશત્રુ રાજાના મનમા મત્વિકુમારી માટેને અનુરાગ ઉપન્ન થઇ ગયા રાજાએ તુરત એક ડૂતને એવાગ્યે અને જેમ કાશીરાજ શખે પેાતાના દૂતને કહ્યુ હતુ તે પ્રમાણે જ તેણે પણ પેાતાના તને કહ્યુ આજ્ઞા મેળવીને દતરફ ઉપર સવાર થયા અને જે તરફ્ મિથિલા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયા ॥ સૂત્ર १२५ ॥
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पानाlena भावापडोयारे' आकारभारमत्यवत्तारामाकृतिचेप्टयोराविर्भाव, निम्मतिर' निवर्तित , पादाङ्गलामात्रदर्शनानुमितत्वेन मकनचित्रेण पूर्णरूपेनाकति चेष्टपोराविर्भार मिनु मला ए माटोकृत इत्यर्थः नो खलु शक्य केनापि देवेन व यावत्-दानवेन वा गन्धर्वेग वा यक्षेग वा मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायास्तदनरूप रूप निर्वर्तयितुम्, तस्या मल्ल्या विदहरानसकन्याया. स्वरूप लोकोतर वर्णनातीत मस्ति, दर्शनादेव तत्स्वरूपस्य पूर्ण ज्ञान भरितु शास्यते, उति मात्रः | ततः खलु अदीनशत्रुः 'पडिरूपनणियहासे ' मतिरूप जनितहर्पः पतिरूप-चित्र तेन जनितस्तदर्शनसमुत्पन्ना, हर्पसुन कार्ये कारगोपचारादनुरागोऽपि हरे इत्युन्यते, मल्लीस्पियफानुराग इत्ययः, स यस्याम्ति स तथा, मल्लीचित्र दर्शन प्रकार योला-(एसण सामी' मल्लीए विदेहराजवरकन्याए तयाणुरुव स्स ख्वस्स केइ आगारभावपडियारे नियत्तिए,णो खलु सके केणइ देवे ण वा जाव मल्लीए विदेशरायवरकण्णाए तथाणुरूवे रुवे निव्वत्तिए) हे स्वामिन् ! मैंने विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी के इस पादागुष्ठा नुसार से अकित किये गये चित्र का थोड़ा साही-किश्चिन्मात्र-आकृ तिएव चेष्टाका आविर्भाव चित्रण किया है-मैंने यह चित्र मल्लीकुमारी का अकित किया है-वह उनके अगुष्ठ को देखकर अवशिष्ट अङ्गादि का अनुमान लगाकर बनाया है। - इसलिये इस चित्र में किञ्चिन्मात्रा में ही उनके आकारादिका अ कन हुआ है पूर्णरूप से नहीं। पूर्णरूप से उन विदेहराजवरकन्या मल्ली कुमारी के तदनुरूप चित्र बनाने मे न कोई देवता समर्थ है, न कोई दानव समर्थ है, न कोई गन्धर्व समर्थ है और न कोई यक्ष ही समर्थ (एसणंगामी! मल्लीए विदेह राजवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्म केइ आगार भाव पडोयारे निव्यत्तिए णो खलु सक्के केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवर कण्णाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए) * હે સ્વામીન! વિદેહરાજ વર કન્યા મલીકુમારીનું તેમના પગના અંગુ ઠાને જોઈને જ તેમની આકૃતિ અને ચેહરાઓને આછા ખ્યાલ આપતું ચિત્ર મે દેર્યું છે તેમના આ ગુઠાને જોઈને જ બાકીના બધા અંગેનું ચિત્રણ અનુમાનથી કરવામાં આવ્યું છે
એથી આ ચિત્રમાં તેમના આકાર વગેરેનું આ કન ઓછી માત્રામાં જ થયુ છે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીનું આબેહૂબ ચિત્ર બનાવવાનું સામર્થ્ય કે દેવતામાં નથી કે નથી કોઈ દાનવમા, નથી કોઈ ગાધર્વમા કે નથી કઈ યક્ષમ
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मनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम् मल्लीए णो सचाएइ किचि वि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसिणिया संचिट्ठइ, तएणं चोक्खं मल्लीए वहुओ दासचेडीओ हीलेंति निदति खिसति गरहति अप्पेगइया होरुयालति अप्पेगइया मुहमकडियाओ करेंति, अप्पेगइया वाघाडीओ करेति, अप्पेगइया तज्जमाणीओ निच्छभंति ।
तएण सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायकरकन्नाए दासचे. डियाहि जाव गरहिजमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावजइ, भिसिय गिण्हइ, गिणिहत्ता कणंतेउराओ पडिनिक्खमइ, परिनिक्खमित्ता मिहिलाओ निग्गच्छड, निग्गच्छित्ता परिवाइया सपरिवुडा जेणेव पचालजणवए, जेणेव कपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कपिलपुरे वहणं राईसर० जाव परूवेमाणी विहरइ ॥ सू० ३० ॥
टीका-अथ पप्ठस्य जितशत्रुनाम्नो राज्ञ सम्बन्धपस्तावमाइ-'तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पञ्चालः अगुना पजाननाम्ना
इस तरह यह पञ्चमराजा का सरध प्रकट किया है। अब छठेराजा का सम्बन्ध प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं:
तेण कालेण तेण समएण इत्यादि।
टीकार्य-(तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय में (पचाले जणवए कपिल्ले पुरे नयरे) पञ्चाल नामका देश (जो अभी पजाय
આ રીતે પચમરાજાને સબધ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે હવે છઠ્ઠા રાજાને સબ ધ સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે–
'तेण कालेणं तेण समएण' इत्यादि
Als4-(तेण कालेण तेण समएण) ते जे भने ते समये (पंचाले जणवए फपिल्ले पुरे नयर ) ५-यास नामे - सत्यारे ५-५ नामे प्रसिद्ध छ,
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પદ્
माताधर्मकथासूत्रे
माणी परुवेमाणी उवदसेमाणी विहरइ, तपण सा चोक्खा परिव्वाइया अन्नया कयाई तिदडं च कुडिय च जाव धाउरताओ य गिues, गिरिहत्ता परिव्वाइगावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पविरल परिव्वाइया सद्धि सपरिवुडा मिहिलं रायहाणि मज्झमज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव कण्णतेउरे जेणेव मल्ली विदेहरायवररुन्ना तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदय परिफासियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसियइ, निसियित्ता मलए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्मं बजाव विहरइ, तएण मल्ली विदेहरायवर कन्ना चोक्ख परिवाइय एव वयासी-तुम्भेण चोक्खे किंमूलए घम्मे पन्नत्ते । तएण सा चोक्खा परिव्वाइया महि विदेहरायवरकन्न एव वयासी - अम्हं णं देवापिए । सोयमूलए धम्मे, जपणं अहं किचि असुइ भवइ, तपण उदएण य महियाए जाव अविग्घेण सग्ग गच्छामो, तएण मल्ली विदेहरायवर कन्ना घोक्ख परिवाइय एव वयासी - चोक्खा । से जहानामए केई पुरिसे रुहिरकथं वत्थ रुहिरेण चैव धोवेजा अत्थिण चोक्खा । तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्त रुहिरेणं घोव्यमाणस्स काई सोही ?, नो इणट्टे समहे, एवामेव चोक्खा । तुब्भेण पाणाइवाएण जाव मिच्छादंसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहावतस्त रुहिरकयस्ल वत्थस्स रुहिरेण चैव धोवमाणस्स, तएण सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेहरायकन्नाए एव वृत्ता समाणा सकिया कखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यात्रि होत्था
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
४३७
मल्लीए जो सचाएइ किचि वि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसि णिया संचिgs, तणं चोक्ख मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलेंति निदति खिसति गरहति अप्पेगइया होरुयालति अप्पेगइया मुहमक्कडियाओ करेंति, अप्पेगइया वाघाडीओ करेति, अप्पेगइया तज्जमाणीओ निच्छुभंति ।
तणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायकरकन्नाए दासचे - डियाहि जाव गरहिजमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावज्जइ, भिसिय गिण्हइ, गिण्हित्ता कर्णतेउराओ पडिनिक्खमइ, परिनिक्खमित्ता मिहिलाओ निग्गच्छड, निग्गच्छित्ता परिव्वाइया सपरिवुडा जेणेव पचालजणवए, जेणेत्र कपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कपिलपुरे बहूणं राईसर० जाव परूवेमाणी विहरइ || सू० ३० ॥
टीका - अथ पष्ठस्य जितशत्रुनाम्नो राज्ञ' सम्बन्धस्तात्र माह- 'ते काले ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पञ्चाल अनुना पजाननाम्ना
इस तरह यह पञ्चमराजा का सनध प्रकट किया है । अब उठेराजा का सम्बन्ध प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं:
तेण कालेन तेण समरण इत्यादि ॥
टीकार्थ - (तेण कालेन तेण समण्ण) उस काल और उस समय में ( पचाले जणव कपिल्ले पुरे नयरे) पञ्चाल नामका देश (जो अभी पजाब આ રીતે પચમરાજાના સબધ પ્રકટ કરવામા આવ્યે છે. હવે છઠ્ઠા રાજાને મ બધે સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે—
'तेण कालेन तेण समएण ' इत्यादि
टी अर्थ - (तेन कालेन तेण समरण) ते जणे अने ते कपिल्ले पुरे नयरे ) पन्यास नाभे हेग - सत्यारे पन्
भये (पंचाले जनवर नाभे प्रसिद्ध छे,
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भाताधर्मकथा माणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ, तएण सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाई तिटडं च कुडिय च जाव धाउर. ताओ य गिण्हइ, गिण्हित्ता परिवाइगावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पविरल परिवाइया सद्धिं सपरिवुडा मिहिल रायहाणि मज्झमज्झेणं जेणेव कुंभगस्त रन्नो भवणे जेणेव कण्णतेउरे जेणेव मल्ली विदेहरायवरकन्ना तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए दभोवरिपञ्चत्थुयाए भिसियाए निसियइ, निसियित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्म धजाव विहरइ, तएण मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्ख परिवाइयं एव वयासो-तुन्भेण चोक्खे किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ' तएण सा चोक्खा परिवाइया मल्लि विदेहरायवरकन्न एव वयासी-अम्ह ण देवाणुप्पिए । सोयमूलए धम्मे, जपणं अम्ह किचि असुइ भवइ, तएणं उदएण य मट्टियाए जाव अविग्घेण सग्ग गच्छामो,तएणमल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिवाइय एव वयासी-चोक्खा । से जहानामए केई पुरिसे रुहिरकयं वत्थ रुहिरेण चेव धोवेज्जा अत्थिण चोक्खा । तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्ल रुहिरेणं धोव्वमाणस्त काई सोही', नो इणढे समहे, एवामेव चोक्खा! तुब्भेण पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणे नत्थिकाई सोही, जहावतस्त रुहिरकयस्त वत्थस्स रुहिरेण चेव धोवमाणस्स, तएण सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेहरायकन्नाए एव वुत्ता समाणा सकिया कखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था.
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
४३९
दान स्वशास्त्रानुसारेण शौचादि धर्माणा विधि नियमभेदादि प्ररूपणां कुर्वती उपदशयन्ती = साचरणेन साक्षात् कारयन्ती, विहरति = आस्तेस्म |
1
ततस्तदनन्तर सा चोक्षा परिनाजिना अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मि चित् समये त्रिदण्ड = दण्डत्रय च कुण्डिका= कमण्डलु च यावत् पातुरक्तानि वस्त्राणि गृहति, गृहीत्वा ' परिव्वाइगावसहायो' परिनाजिकावसथात् = परिवाजिकानां मठात् ' पडिनिक्खमइ प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति, प्रतिर्निष्क्रम्प 'पचिरल परिवाइया' प्रविरतपरिनाजिकाभिः = अल्पसख्या सन्यामिकाभिः सार्व= सह, सपरिवृता = युक्ता मिथिला राजधानीं मिथिलाया राजान्या इत्यर्थः स यम येन यत्रैव कुम्भकस्य राज्ञो भवन यचैत्र ' कण्णते उरे ' कन्यान्तः पुर, यौ मल्ली विदेवरावरकन्या, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' उदयपरिफासियाए ' उदकपरि
वह चोक्षा परिव्राजिका मिथिला नगरी में अनेक राजेश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माण्डविक, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदिकों के समक्ष दान धर्म शौच धर्म, और तीर्थाभिषेक का कथन करती थी, उन्हें अच्छी तरह समझाती थी उस शौचादि धर्मो की अपने शास्त्रानुसारविधि नियम आदि के भेद से प्ररूपणा करती थी और अपने आचरण से साक्षात उन का प्रदर्शन भी करती थी । (तएण सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाह तिदड च कुडिय च जाव धारतोओ य गिoes, गोहत्ता परिव्वाइगाव सहाओ पडिनिक्खमह पडनिमित्तो पविरलपरिव्वाइयास सपरिवुडा मिहिला रायोगि मज्झ मज्झेण जेणेव कु भगस्स रन्नो भवणे जेणेव कण्णतेउरे जेणेव मल्ली विदेह रायवरकन्ना- तेणेव उवागच्छ ) एक दिन वह चोक्षा परिव्राजि का अपने त्रिदड कमण्डलु, तथा गैरिक धातु से रक्त हुए वस्त्रों को लेकर મિથિલા નગરીમા ચેલા પશ્ત્રિાજિકા ઘણા રાજેશ્વર, તલવર, કૌટુબિક માલિક શ્રૃષ્ઠિ મા વાદ્ય વગેરેની સામે દાનધમ, ગૌચધમ અને તીર્થસ્થાન વિષે ધમ ચર્ચા કરતી હતી તેમને તે સારી પેઠે શૌચ વગેરે ધર્મો તેમજ શાનુસાર વિધિ નિયમ વગેરેના ભેદની બાબતમા સમાવતી હતી અને જાતે ખધા નૌચ વગેરે આચરણાને આચરીને પ્રત્યક્ષ રૂપમા તેના દેખાવ કરતી હતી (तएण सा चाक्खा परिवाइया जन्नया कयाड तिदड च कुडिय च जाव घाउर ताओ य गिors, गिण्डित्ता परिव्वा गावमहाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्ख मित्ता पविरलपरिव्वाइया सद्धिं सपरिबुडा मिहिला रायहाणि मज्ज्ञ मज्ज्ञण जेणेव कुभगस्स रनो भरणे जेणेव कण जेणेव मल्ली विदेहरायनर कनातेणे उपागच्छर ) એક દિવસ ચેક્ષા પરાજિફા પાતાના વિદડ, મડલુ તેમજ ગેરૂથી
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श्रोतामा
प्रसिद्ध जनपद: - देशः आसीत् तत्र= तस्मिन् देशे 'कपिल्लपुरे' काम्पिरपपुरे ' = काम्पिल्यपुरनामके, 'नगरे ' नगर, जितशत्रुर्नाम राजा पञ्चालाधिपतिररासीत्, तस्य खल जितशत्री राम्रो धारिणीममुखा देवसहस्रम् ' ओरोहे ' अवरो=अन्तः पुरे आसन् ।
=
इतश्च मिथिलाया नगयी खलु 'चोखा' चोक्षा=पोक्षानाम्नी परिवाजिका ऋग्वेद - यावत् - चतुर्वेद परिनिष्ठिता श्रुतिस्मृत्यादिसकलगाखामिजा चाप्यासीत् । ततस्तदन्तर साचोक्षा परिनाजिका मिथिलायां नगर्या पहना राजेश्वर - यावत् राजेश्वरतलबरकौडम्पिकमाण्ड निश्रेष्ठिसार्थवाहमभृतीनां पुरतः अग्रे, दानधर्मे च शौचधर्म च तीर्थाभिषेक तीर्थजलस्नानधर्मे च आख्यापयन्ती = आख्यानम् -आख्याता कुर्वती कथयन्तीत्यर्थः, मज्ञापयन्ती = सम्यग प्रोधयन्ती, प्ररूपयन्ती नामसे प्रसिद्ध है) था । उस देशमें कापित्यपुर नामका नगर था। उसमें पचाल देश के अधिपति जित शत्रु राजा रहते थे । (तस्मण जिस तुस्स धारिणी पामोक्ख देवीसहस्स ओरेहे संस्था ) उस जित शत्रु राजा के अन्तः पुर में धारिणी प्रमुख ? एक हजार देवियां थी । (तत्थ ण मिहिलाए चोखानाम परिव्वाहया रिजन्वेय जाव परिणिडिया यावि होत्था ) इम तरह मिथिला नगरी में ऋग्वेद आदि चारों वेदो की तथा स्मृति आदि समस्त शास्त्रों की परिज्ञाता चोक्षा नाम की परित्रा जिका भी रहती थी - (तरण सा चोक्पा परिवाइया मिहिलाए बहूण राइसर जान सत्यवाहपणि पुरओ दाणधम्मच सोयधम्मच तित्था भिसेच आघवेमाणी पण्णवेमाणी परुवेमाणी उवदसेमाणी, विहरह ) હતા તે દેશમા કાંપિયપુર નામે નગર હતુ તેમા પચાલ દેશના અધિપતિ જિતશત્રુ રાજા રહેતા હતા
نے کی
( तस्सण जियसत्तुस्स धारिणी पामोक्ख देविसहस्स ओहे होतथा ) જિતત્રુ રાન્તના ર૭વાસમા પાણિી પ્રમુખ એક હજાર રાણીઓ હતી ( तत्थण मिहिलाए चोक्खानाम परिव्याsया रिउन्नेय जान परिणिद्विया याविहोत्था )
મિથિલા નગરીમા ઋગ્વેદ વગેરે ચારે વેદો તેમજ સ્મૃતિ વગેરે ખા ગાઓને જાણનારી ચેક્ષા નામે એક પરિમાજિકા રહેતી હતી
(तएण सा चोक्खा परिव्वाइया मिहिलाए बहूण राई सरजाव सत्यवाह परिणं पुरओ दाणधम्ग च सोयधम्म च तित्थाभिसेय च अधवेमागी पण्णवे माणी परूवेमाणी उब सेमाणी विहरइ )
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अनगारधर्मामृतवर्षिणा टी० २०८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
t
चोक्षा परिव्राजका मल्ली विदेहराजवरकन्या मेवमवादीत् - हे देनानुमिये ! अस्माक खल शौचमूलको धर्म मज्ञप्त, यत् खलु अस्माक किंचिदशुचिभवति, तत् खलु उदकेन जलेन च मृत्तिस्या यावत् शुचिभवति, एन सलु वय जलाभिषेकपूता त्मान. अविघ्नेन स्वर्ग गच्छामः ।
तत = चोक्षापरिया जिकावचनश्रवणानन्तर खलु मल्ली विदेहराजनरकन्या चोक्षा परित्राजितमेव वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् हे चोक्षे तद् ययानामकइद दृष्टान्तोपन्यासे - दृष्टान्त प्रदर्शयामि तावदित्यर्थः यथा कोऽपि पुरुषो रुधिर
'
-
?
(तएण सा चाक्खा परिव्वाटया मरिल विदेहरायवरकन्न एव वयासी ) प्रत्युत्तर मे उस चोक्षा परिव्राजिका ने विदेह राजवर कन्यो उस मल्ली कुमारी से ऐसा कहा
( अम्हण देवाणुप्पिए । सोयमला धम्मे, जण्ण अम्ह किंचि असुड भवइ तएण उद्णय मट्टियाए जाय अविग्घेण सग्ग गच्छामो तएण मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्ख परिव्वाइय एव वयासी) हे देवानुप्रिये ! हमारा धर्म शौच मूलक प्रज्ञप्त हुआ है । इसीलिये हमारी कोई वस्तु जब अशुचि हो जाती है तब हम लोग उसे जल एव मृत्तिका से पवित्र कर लेते है । इस तरह हम लोग जल स्नान से पवित्रात्मा होकर विनो किसी विन के शीघ्र ही स्वर्ग पहुँच जाते है |
इस प्रकार चोक्षा का कथन सुनकर विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी ने उस चोक्षा परिव्राजिका से ऐसा कहा - ( चोक्खा - से (तएण सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लि विदेहरायवरकन्न एव वयामी ) જવાબમા ચેાક્ષા પરિાજિકાએ વિદેહ રાજવર કન્યાને આ પ્રમાણે હું કે...
( अम्हण देवाणुपिए | सोयमूलए धमे जण अम्ह किं चि असुर भवड, तएण उदएण य मट्टियाए जाव अविग्वेण सग्ग गच्छामो तरण मल्ली विदेहराय वररुन्ना चोक्ख परिव्वाइय एव वयासी )
હૈ દેવાનુપ્રિયે 1 અમારા ધમ ગૌચ મૂલક પ્રજ્ઞમ થયેા છે એટલા માટે અમારી ગમે તે વસ્તુ જ્યારે અશુચિ થ જાય છે ત્યારે અમે તે પાણી અને માટીથી પિવત્ર કરીએ છીએ. આ રીતે અમે પાણીમા સ્નાન કરીને પવિત્રામા થઈ જઈએ છીએ અને નિર્વિઘ્ન રૂપે જલદી સ્વર્ગમા પહેાચી જઈએ છીએ આ રીતે ચેાક્ષાતુ કથન સાભળીને વિદેહરાજાની ઉત્તમ કન્યા મલિ કુમારીએ ચેાક્ષા પત્રિાજિકાને કહ્યુ કે
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४०
माताधर्मकथाper
स्पृष्टायां = नलपक्षेपेण सिक्ता, दर्भोपरि 'पन्चुत्याए ' मत्यस्तताया=प्रसारिताया 'मिसियाया' वृषिकायाम् = भागने निषीदति = उपविशति, निषद्य मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायाः पुरतो दानधर्म च यावद् विहरति दान शौषधर्माद कमाख्यापयन्ती मज्ञापयन्ती सा चोक्ता परिनाजिका आस्ते स्म ।
ततः खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या चोक्षा परिनाजिकामेवमवादीत् है चोक्षे ! तत्र खलु किं मूळो धर्म' मक्षप्त ' ततः = मल्ली वचन, श्रवणानन्तर खलु सा परिव्राजकों के मठ से निकली और किननीक परिव्राजिकार्यों को साथ लेकर मिथिला राजधानी के बीचों बीच से होकर वह जहां कुभक रोजा का भवन था तथा उस में जहां कन्यान्तः पुर और उस में भी विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी थी वहा आई - ( उवागच्छित्ता उदय परि फासियाए दभोवरि पच्चत्युयाए भिसियाए निसियह वहा आकर वह जल से सिञ्चित हुए तथा दर्भ के ऊपर बिठाये गये आसन पर बैठ गई । (निसियित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दणिधम्म च जाव विरह ) बैठकर उसने विदेह रायवर कन्या के समक्ष दान, धर्म शौचधर्म आदि की कथा की - प्ररूपणा की (तएण मल्ली वि देहरायवर कन्ना - - चोक्ख परिव्वाइय एव वयासी ) बाद में विदेह राज की उत्तम कन्या मल्लीकुमारी ने उस चोक्षा परिव्राजिका से इस प्रकार कहा - (तुम्भेण चोक्खे किं मूल धम्मे पण्णत्ते ? ) हे चोक्षे । तुम्हारे यहा धर्म किं मूलक ( किस मूलक) प्रज्ञप्त हुआ है ।
રગેલા વસ્ત્રોને લઈને પરિવાજ કાના મઠથી બહાર નીકળી અને કેટલીક પરિ ત્રાજિકાએની સાથે મિથિલા રાજધાની વચ્ચે થઈને જ્યા કુંભકરાજાના મહેલ હતા તેમજ યા કન્યાન્ત પુર અને તેમા પણ વિદેહરાજાની ઉત્તમ કન્યા મલીકુમારી હતી ત્યા પહેાચી
(उवागच्छित्ता उदय परिफासियाए दन्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसिया) ત્યા આવીને તે પાણી છાટેલા દનના ઉપર પાથરવામા આવેલા આસન ઉપર બેસી ગઈ
( निमित्ता मल्लीए विदेह रायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्म च जाव विहरह ) એસીને તેણે વિદેહરાજવર કન્યાની સામે દાનધમ, શૌચધમ વગેરેની વ્યાખ્યા ४२ (चोम्स परिवाव्य एव वयासी) त्या२पछी विदेशमनी उत्तम उन्या भटसी डुंभारीभे योक्षा परित्रानिने मा प्रभाषे उछु — ! तुमेण चोक्लेकि धम्मे पण्णत्ते ? ) हे याक्षे ! तभाराभा धर्म भूख अरुपित ठरवामा
→
लए
છે
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अनगारधर्मामुनपिणी टोका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
४४३ किमन्यदुत्तर दास्यामी ' त्येवमुत्तरविषयक वाञ्छायुक्ता । 'विइगिच्छिया' विचिकित्सिता' अस्मिन्नुत्तरे दत्ते सति किं मल्ल्या अत्र श्रद्धोत्पत्यस्यते किंवा नोत्पत्स्यते ' इत्येव विचिकित्मा सशयः, सजाता यस्या सा पिचिकित्सिता, तथा-' भेयसमावण्णा' भेदसमापन्ना अन भेदो मतेभैग:-मयाऽधुना किं कर्तव्यमिति निर्णयाभवाद् व्याकुलतारूपम्त समापना समाप्ता, जाताचाप्यभवत् शङ्कितेत्यादि विशेषणचतुष्टयेन चोक्षा परित्राजिका मल्ल्या समुचित दृष्टान्तेन दृढीकृत प्रश्न समाधातु व्याकुलीनाता, इति भाव मल्ल्याः ‘णो सचाएइ' नो से धोने पर किसी भी प्रकार की शुद्धि नही होती है। (तएण सा चोक्खा परिवाइयो मल्लीए विदेह रायवर कन्नाए एव वुत्ता समाणा सकिया कखिया विइगिच्छिया भेय समावगा जाया यावि होत्या) इस प्रकार विदेश राज की वर कन्या मल्ली कुमारी के द्वारा समझाई गई वह चोला परिव्राजिका शका से युक्त बन गई, काक्षा से युक्त बन गई, विचिकित्सा (फलके प्रति सदेर और भेद ( अपने मतव्य का विच्छेद) से समापन्न हो गई । मनसे सोचकर यदि में मल्ली कुमारीको उत्तर दगी-तो न मालूम वह उत्तर मच्चा होगा कि नहीं होगा इस प्रकारका उसके हृदय में वैधी भाव आनेसे वह चोक्षाशकित बन गई।
यदि मेरा दिया हुआ उत्तर ठीक नहीं होगा-तो उस का उत्तर में क्या दूगी-इस प्रकार वह उत्तर विषयक वाञ्छा से युक्त बन गई। मल्ली कुमारी को उत्तर देने पर भी कौन जाने उस में उस की श्रद्धा होगी-या नहीं होगी इस तरह वह विचिकित्सा-से युक्त बन गई ।
(तरण सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एव वुत्ता सकिया करिखया विडगिन्छिया भेयममावण्णा जाया यावि होत्था) આ પ્રમાણે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી વડે સમજાવવામાં આવેલી ચેક્ષા પરિમાજિકા વાકાથી યુક્ત થઈ ગઈ, કાક્ષાથી યુક્ત વઈ ગઈ, વિચિકિત્સા (ફળ પ્રાપ્તિ વિશે સ દેહ યુક્ત) અને ભેદ (પિતાની માન્યતાને નાશ) સમાપન થઈ ગઈ મલકુમારીને જવાબમાં હું કોઈ પણ વસ્તુ રજૂ કરીશ તે તે સાચી હશે કે કેમ? આ જાતની મુ ઝવણથી ચક્ષાનુ મન શક્તિ થઈ ગયું
“જે મારો જવાબ બરોબર નહિ હોય તે બીને શો જવાબ હું આપીશ? આ પ્રમાણે તે જવાબના વિશે વાછાયુક્ત થઈ ગઈ “મલીકુમારીને જવાબ આપ્યા છતા પણ તેને મારા જવાબ ઉપર વિશ્વાસ બેસશે કે કેમ ?” આ રીતે તે વિચિકિત્સા યુક્ત થઈ ગઈ “આ પરિસ્થિતિમાં મારે શું કરવું
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आताधर्मकथ
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कृत = शोणितलिप्त नत्र धिरेन शोणितलिप्तस्य ननस्य रुचिरण धाव्यमानस्यप्रक्षाल्यमानस्य काsपि शोधिः ? नायमर्थः ममर्थःपिरस्परुधिरेण कापि शुद्धिर्न भवतीत्यर्थः । चोक्षे । एवमेव = रुधिरमष्टान्तेनेर युष्मा स्वच्छ माणातिपातेन यामि पादर्शनशल्पेन = अष्टादशपापस्थान सेवनेन नास्ति शुद्धि न भवति काचिदपि शुद्धि रात्मन इत्यथ, यथैव तस्य रुधिररुतस्य वज्रम्य रुधि रेणैव धाव्यमानस्य=प्रक्षाल्यमानस्य नाम्ति शुद्धिः । ततः खटतत्वात् सा चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्या विदेदराज रस्त्या एवमुक्ता सति 'सकिया' शक्ङ्किवा ' कखिया' काक्षिता = यदि मनसि निर्योत्तरन दास्यामि तत्समीचीन भवि यति नवा ? ' इति सशययुक्ता । 'यदि मद्विचारितमुत्तर सम्यग् न भवेच जहा नाम केई पुरिसे रुहिरकय वत्य कहिरेण चैव प्रोवेज्जा अस्थिण चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्म रुहिरेण धोन्यमाणस्म काई सोही ? नो इट्टे समट्टे एवामेव चोरवा ! तुभेण पाणाहवाएण जाव मिच्छाद सणसल्लेण नत्यि काई सोही, जहा तस्स रुहिरकपस्स वत्थस्स रुहिरेण चेव घोन्यमाणस्स ) चोक्षे ! जैसे कोई पुरुष रुधिर (खून) से लिप्स हुको रुधिर (खून) से ही धोवे - तो क्या चोसे | उस रुधिर टिप्स वस्त्र की रुधिर से धोये जाने पर कोई शुद्धि हो सकती है ? | for a far at रुधिर से धोने पर शुद्धि होती है यह बात तो कोई भी समझदार प्राणी नही मान सकता है । उसी तरह हे चोक्षे ! प्रोणातिपात यावत् मिथ्या दर्शन शल्य के सेवन से अष्टादश पापस्थानो के सेवन से आप लोगो की आत्मा की भी किसी तरह से शुद्धि नही हो सकती है । जैसे उस रुधिर से सने हुए वस्त्र की रुधिर ( चोक्खा ! से जहा नामए केई पुरिसे रूहिरकय वत्थ रूहिरेण चेत्र धोवे ज्जा, नत्थिण चोक्खा ! तस्स रूहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेण धोन्यमाणस्स काई सोही ? नो इण्डे, समट्ठे एवामेन चोक्खा ! तुब्भेण पाणावाएण जाव .मिच्छाद सणसल्लेण नत्थिकार्ड सोही, जहा तस्स रूहिरrयस्स वत्थस्स रुहिरेण daoमाणस्स )
હું આક્ષે જેમ કાઇ માણસ લેાહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રો લેાહીથી જ ધાવે તે! શુ લેાહીથી ખરડાએલા વઓ લાહીથી જ ધાવડાવવામા આવે તે તેની શુદ્ધિ થઈ ગઈ કહેવાય ? આ વાત તે ગમે તે વ્યક્તિ પણ સમજી શકે તેમ છે આ પ્રમાણે હે ચેક્ષે ! પ્રાણાતિપાત યાવત્ મિથ્યાદાન શયના સેવનથી તમારા જેવા લેાકેાની શુદ્ધિ કાઇપણ રીતે સભવી શકે તેમ નથી જેમ પેલા લાહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રની શુદ્ધિ લાહીથી થઇ શકતી જ નથી તેમજ મથ્યાદર્શન શત્યના સેવનથી પણ શુદ્ધિ થતી નથી
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अनगारधर्मामुयपिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
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किमन्यदुत्तर दास्यामी ' त्येवमुत्तरविषयक वाञ्छायुक्ता । ' विगिच्छिया ' विचिकित्सिता = ' अस्मिन्नुत्तरे दत्ते सति किं मल्ल्या अन श्रद्धोत्पत्यस्पते किंवा नोत्पत्स्यते ' इत्येव विचिकित्मा = सशयः, सजाता यस्या सा विचिकित्सिता, तथा - ' भेयसमावण्णा' भेदसमापन्ना भन भेदो मतेर्भद्र:- मयाऽधुना किं कर्तव्यमिति निर्णयाभवाद् व्याकुलतारूपस्त समापन्ना समाप्ता, जाताचाप्यभवत् शङ्कितेत्यादि विशेषणचतुष्टयेन चोक्षा परिनाजिका मल्ल्या समुचित दृष्टान्तेन
कृत प्रश्न समान व्याकुलीजावा, इति भावः मल्ल्या ' णो सचाएइ ' नो से धोने पर किसी भी प्रकार की शुद्धि नही होती है । (तएण सा चोखा परिवाइयो मल्लीए विदेह रायवर कन्नाए एव वृत्ता समाणा सकिया कखिया विगिच्छिया भेय समावण्णा जाया यावि होत्या ) इस प्रकार विदेह राज की वर कन्या मल्ली कुमारी के द्वारा समझाई गई वह चोक्षा परिव्राजिका शका से युक्त वन गई, कांक्षा से युक्त बन गई, विचिकित्सा ( फलके प्रति सदेह और भेद ( अपने मतव्य का विच्छेद) से समापन हो गई । मनसे सोचकर यदि मे मल्टी कुमारीको उत्तर दूगी तो न मालूम वह उत्तर मच्चा होगा कि नही होगा इस प्रकारका उसके हृदय में द्वैधी भाव आनेसे वह चोक्षाशक्ति बन गई ।
यदि मेरा दिया हुआ उत्तर ठीक नही होगा-तो उस का उत्तर में क्या दूंगी - इस प्रकार वह उत्तर विषयक वाञ्छा से युक्त बन गई । मल्ली कुमारी को उत्तर देने पर भी कौन जाने उस में उस की श्रद्धा होगी या नही होगी इस तरह वह विचिकित्सा - से युक्त बन गई ।
(तएण सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेहरायवर कन्नाए एव वृत्ता सकिया कखिया विsगिच्छिया भेयममावण्णा जाया यावि होत्या )
આ પ્રમાણે વિદ્વૈહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારી વડે સમજાવવામા આવેલી ચેાક્ષા પરિત્રાજિકા રાકાથી યુક્ત થઈ ગઈ, કાક્ષાથી યુક્ત થઈ ગઈ, વિચિકિત્સા ( ફળ પ્રાપ્તિ વિશેસ દેહયુક્ત) અને ભેદ ( પેાતાની માન્યતાના નાશ ) સમાપન્ન થઈ ગઇ મલીકુમારીને જવાખમા હું કોઈ પણ વસ્તુ રજૂ કરીશ તે તે સાચી હશે કે કેમ ? આ જાતની મુઝવણથી ચાલાનુ મન શક્તિ થઈ ગયુ
“જો મારે। જવાબ ખરેબર નહિ હાય તેા ખીલે શા જવાખ હૂ આપીશ ? આ પ્રમાણે તે જવાખના વિશે વાŌાયુક્ત થઈ ગઈ “ મત્લીકુમારીને જવાબ આપ્યા છતા પણ તેને મારા જવાબ ઉપર વિશ્વાસ એમશે કે કેમ ?,
આ રીતે તે વિચિકિત્સા યુક્ત થઈ ગઈ “ આ પરિસ્થિતિમા મારે શું કરવુ
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शांताधर्मकथा शकोति कचिदपि ' पामोक्ख' प्रमोक्षम्ममुन्यते प्रश्नपचनादने नेति-मोक्षः प्रश्नस्य परिहारम्, उत्तरमित्यर्थः ' आहक्सित्तए ' आर यातु-क्यापितम्, यदा चोक्खा परिबाजि मल्ल्याः प्रश्नस्योत्तर तुमसमर्था जाता, तदा मा 'दुसि णीया' तूष्णीका-मौनावलम्भिनी भूला 'सचिलुइ' सतिष्ठते सस्थिता । ततस्तदन्तर खलु तां चोक्षा मल्ल्यापहव्यो दासचेटिका दासपुत्र्यः ' होलेति' हिलन्ति-अवमानयन्ति, निन्दति-जात्यायुद्धाटनेन कुत्सन्ति, खिसन्ति-दोषकी तनेनोपइसन्ति, गर्दन्ते सर्वसमक्ष निद्रा कुन्ति, अप्येकिका एकाः काश्रितक्रोधयन्ति तस्याः कोपमुद्दापयन्ति, जप्येकिकाः-एकाः काश्वित्-'मुहमकडियो' मुखमर्कटिका मुखाना तिर्यकानि कुर्वन्ति, अप्येकिकाएकाः काचित् 'वग्या अब इस समय मुझे क्या करना चाहिये इस तरह का वर निर्णय नहीं कर सकने के कारण व्याकुल न जाने से भेद ममापन्न बन गई।
(मल्लीए णो सचाएड किं चिनि पामोरवा माइक्वित्ता तुसि णीया सचिट्टह, तएण चोरख मल्लीए पटुओ दास चेडीओ हीति, निंदति, खिसति गरहति) अतः वह मल्ली कुमारी को कुछ भी प्रमोक्षा प्रश्न का उत्तर-नहीं दे सकी, किन्तु चुपचाप बैठी रही। जब चोक्षा की ऐसी हालत मल्ली कुमारी की टास चेटियों ने देखी तो वे उसका अपमान रूप हीलना करने लग गई । जाती आदि के उद्घाटन से उस से घृणा रूप निंदा करने लगी। दोपो के कीर्तनसे उस का उपहास रूप खिसना करने लगीं । सरके समक्ष उसके अवर्ण वादरूप गहणा करने लगी (अप्पेगइया हेरूयालति, अप्पेगइया मुहमक्कडियाओ करेति अप्पे गइया बग्घाडीओ करेंति, अप्पेगड्या तज्जमाणीओ निच्छुभति ) इन જોઈએ ?” આ જાતના વિવેકની શક્તિ પણ તેની ના પામી હતી એવી તે વ્યાકુળ થઈને ભેદ સમાપન બની ગઈ હતી
(मल्लीए णो सचाएड मिचि विपामोकावामाइक्वित्तए तुसिणीया सचिह तएण चोक्ख मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीति, निंदति, खिसति गरहात ) એથી મટતીકુમારીને તે જવાબમાં કઈ પણ કહી શકી નહિ તે સાવ મગ થઈને બેસી જ રહી માલીકમારાની દાસ ચેટીઓએ ચક્ષાની આ પ્રમાણેની રિથતિ જોઈ ત્યારે તેઓ તેની અપમાનરૂપ હીલના કરવા લાગી જાતિ વગરનું ઉદ્દઘાટન કરીને તેની ઘણા ૩પ નિંદા કરવા લાગી તેના દેશે ને કહેતી ઉપહાસ રૂપ ખિસના કરવા લાગી બધાની સામે તેની અવર્ણવાદ રૂપ ગëણ કરવા લાગી
.(अप्पेगडया हेरुयालति, अप्पेगइय मुहमडियाओकरेति अप्पेगइया वग्धा. इओ करेंति, अप्पेगइया तज्जमाणोओ निन्छुभति)
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गोरधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
डीओ' व्याप्राटिका = उपहासार्थं शब्दविशेषान् कुर्वन्ति, अध्येक्का एकाः कात्ि 'तज्ञमाणीओ' तर्जयन्त्यः - दुर्वचनतः, 'मम प्रश्नम्योत्तरं देहि, नो चेत् पश्चाद् ज्ञास्यमि' इत्यादिना भोपयन्त्य इत्यर्थः । निच्छुभति निक्षिपन्ति = निस्सारयन्ति । ततस्तदन्तर सा चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्या विदेहराज रकन्याया दासचे - टिकाभि: ' यावत्-हिल्यमाना निन्द्यमाना गर्ह्यमाणा, आशुरुमा=शीन को पविष्टा यावत् 'मिममिसेमाणी' मिससमिन्ती क्रोधानलेन जाज्वल्यमाना मल्ल्या निवदेह राजवरकन्याया 'पओसमावज्जइ ' प्रद्वेपमापद्यते = परमद्वेषवती जावा । तत सा में से किसी एक ने उसे क्रोध उद्भावित किया, किसी एक ने उस के सामने अपना मुख मोड लिया, किसी एक ने उस की हँसी उड़ा ने के लिये विशेष शब्दों का प्रयोग किया, किसी एक ने दुर्वचनो से उसे तर्जित किया, किसी एक ने " मेरे प्रश्न का उत्तर दे, नही तो पीछे तुझे मालूम पडेगी " इस तरह कहकर उसे डराया और वहा से निकाल दिया । (तएण सा चोक्वा मल्लीग विदेहरायवर कन्नाए दासचेडियादि जाव गररिज्जमाणी हीलिनमाणी आसुम्ता जाव मिसि भिसे माणी मल्लीए विदेहायवर कन्नाए पओसमाजइ, भिसिय गिण्ट, गिटित्ता कण्णतेउराओ पडिनिक्खमड ) इस तरह विदेह राज कि वरकन्यामल्ली कुमारी की दास चेटियो से अपमानित घृणित, और निन्दित होती हुई वह चोक्षा परिव्राजिका, क्रोध से लाल हो गई, और मिसमसाती हुई क्रोध से जाज्वल्यमान होती हुई वह विदेह राज की उत्तम काया मल्ली कुमारी के ऊपर परम द्वेपवती वन गई ।
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તેમાથી કાઇકે તેને ક્રોધિત કરી, કેઇએ તેની સામેથી મેા ફેરવી લીધુ કેઇએ તેની મરકી કરવા વિશેષ શબ્દોના પ્રયાગ કર્યાં, કાઈ એ દુચનેાથી તેના તિરસ્કાર કર્યો, કાઇએ તેને “ મારા સવાલના જવાબ આપ નહિંતર તારી ખમર લઈ લઈશું આ રીતે ખીક બતાવી અને ત્યાથી બહાર કાઢી મૂકી (तरण सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायrरकन्नाए दासवेडियाहिं जात्र गरडिज्ज माणी ही लिज्जमाणी, आसुकता जान मिसि मिसे माणी मलए विदेह रायवरकनए पोसमावज्जड, भिसिय गिड, गिव्हित्ता णतेउराओ पडिनिक्खमइ ) આ રીતે વિદેહુરજવર કર્યા મલીકુમાીની દાસ ચેટીયાથી અપમાનિત, ધૃણિત અને નિતિ થતી ચેક્ષા પરિવ્રાજિકા ક્રોધમા લાલચેાળ થઈ ગઈ અને કોધમા મળતી તે વિદેષરાજવર કન્યા મલીકુમારી પ્રત્યે ખૂબ જ ઇર્ષાળુ-દ્વેષ કરનારી થઈ ગઈ
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জানাঘমকথা चोक्षा परिनानि का 'मिसिय' पिका= जामन स्वकीयमितिमात्र , गृह्णाति गृहीत्वा 'कण्यतेउराभो' कन्यान्तः पुरात् मल्ल्या भानाव, प्रतिनिष्कामति निः सरति, प्रतिनिष्क्रम्य मिथिलातो निर्गति, निर्गत्य परिचाजिश सपरिखता भविरलसन्यासिकाभिर्युक्ता, योर पञ्चालजनपदः पश्चालनामको देशोऽस्ति, यत्रैप-यस्मिन् देशे काम्पिल्यपुर नाम नगर, तर= तस्मिन् नगरे उपागच्छति, उपागत्यच काम्पिल्यपुरे नगरे हुना राजेश्वरादीना पुरन. स्वमत यावद्-आख्या पयन्ती प्रज्ञापयन्ती मरूपयन्ती विहरति आस्तेस्म ॥ सू० ३०॥
मूलम्-तएणं से जियसत्तू अन्नदा कयाई अंतेउरपरियाल सपरिवुडे एव जाव विहरइ, तएणं सा चोखा परिवाइया सप
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उस ने उसी समय वहा से अपना आमन उठाया-और उठाकर वह कन्यान्तः पुर से-मल्ली कुमारी के भवन से पाहिर निकल आई। (पडि निक्खमित्ता)चाहिर निकलकर (मिहिलामो निग्गच्छड, निग्ग च्छित्ता परिवाइया सपरिघुडा जेणेव पचाल जणवए, जेणेव कपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कपिल्लपुरे वहण राईमर जाव पख्वेमाणी विहरइ ) फिर वह मिथिला नगरी से चल दी।
चलकर परिव्राजिकाओं को साथ में लिये हुए जहा पाचाल देश और उसमें जहा कापिल्य नगर या वहां आई। वहा आकर वह अपने मत की अनेक राश्वजेर आदिको के समक्ष आख्यापना और प्ररूपणाक रती हुई रहने लगी। सू० ३०॥
તેણે તરત જ પિતાનુ આસન ત્યાથી ઉપાડી લીધુ અને કન્યાન્ત પુરથી सटले भरसी भारीना मावशी ते महा२ नीजी 5 (पडिनिक्समित्ता) બહાર નીકળીને
(महिलाओ निग्गन्छड निग्गच्छित्ता परिवाइया सपरिवुडा जेणेव पचाल जणवए, जेणेव कपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ उवागन्छित्ता कपिल्लपुरे बहूण राई सर० जाव परूवेमाणी विहरइ)
તે મિથિલા નગરીમાથી ચાલતી થઈ
પરિવાજિકાઓની સાથે તે ચાલતી ચાલતી છે ત્યા પાંચાલ દેશ અને તેમાં પણ જ્યા કોપિલ્યનગર હતું ત્યાં આવી ત્યા આવીને તે પિતાના ધર્મની ઘણું રાજેશ્વર વગેરેની સામે આખ્યાપના, પ્રજ્ઞાપના અને પ્રરૂપણ કરતા २२१। बाजी ॥ सूत्र "30" ॥
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अनगारामृतवपिणी टोका अ० ८ जितशत्रनृपवर्णनम् रिवुडा जेणेव जितसतस्स रण्णो भवणे जेणेव जितसत्त तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता जियसत्तु जएण विजएण वद्धावेइ । तएण से जियसत्त चोक्ख परिवाइय एज्जमाण पासइ पासित्ता सीहासणाओ अभुटूड, अव्भुठित्ता चोक्ख सकारेइ,सकारिता आसणेणं उवणिमतेइ, तएणं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निसीयड, जियसत्तुं राय रज्जे य जात्र अतेउरे य कुसलादत पुच्छइ, तएण सा चोक्खा जियसत्तस्स रन्नी दाणधम्म च जाव विहरइ, तएणं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहसि जाव विम्हिए चोक्ख एव वयासो-तुमंण देवाणुप्पिया। वहणि गामागार० जाव अडसि, वहणि य राईसर० गिहाई अणुपविससि, ते अस्थियाइ ते कस्सवि रन्नो वा जाव कहिचि एरिसए ओरोहे दिपुव्वे जारिसए णं इमे मह अवरोहे ? तएणं सा चोक्खा परिवाइया जियसत्न ईसिंअवहसिय करेइ, करित्ता एव क्यासी-एव च सरिसए णं तुम देवाणुप्पिया । तस्स अगडददुरस्त ', केण देवाणुप्पिए से अगडदद्दुरेजियस । से जहानामए अगडदद्दुरे सिया तथैव बुड्डे अण्णं अगड वा तलाग वासर वा सागर वा अपासमाणेचेवमण्णइ-अय चेव अगडे वाजाव सागरे वा। तएणत कूब अण्णे सामुद्दए ददुरे हव्वमागएँ, तएणं से कूवदद्दुरे त सामुद्ददददुर एव वयासी-से केसणं तुम देवाणुप्पिया । कत्तो वा इह हव्वमागए ? तएणं से सा. मुद्दए ददुरे त कूवदद्दुर एच वयासी-एव खल्लु देवाणुप्पिया।
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ज्ञानाधर्मकथासूत्रे
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अहं सामुद्दए दद्दुरे, तएण से कूददुरे तं सामुद्दय दर एव वयासी के महलए णं देवाणुप्रिया से समुद्दे ?, तएर्ण से सामुदए दद्दुरे त कूवदद्दुरं एव वयासी- महालए णं देवाणुप्पिया । समुद्दे । तएणं से दद्दुरे पाएण लीह कड्डेइ, कड्डित्ता एव वयासी -एमहालएणं देवाणुप्पिया । से समुद्दे १, जो इणट्टे समट्ठे, महालएणं से समुद्दे । तएणं से कूत्रददुरे पुरमत्थिमिलाओ तरिओ उल्फिडित्ता ण गच्छइ, गच्छित्ता एव वयासी - ए महालएणं देवाप्पिया । से समुद्दे १, णो इणट्टे समट्ठे, तहेव एवामंत्र तुमपि जियसतू अन्नेसि वहूण राईसर जाव सत्थवा हपभिईण भज वा भगिणीं वा धूय वा सुह वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेवणं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स, त एव खल जियस मिहिलाएं नयरीये कुंभगस्स घूया पभावतीये अत्तया मल्ली नामति रुवेण य जुव्वणेण जाव नो खल्लु अण्णा काई देयकन्ना या जारिसिया मल्ली, मल्लीए विदेह राययरकन्नाए छिण्णस्स वि पायगुट्टगस्स इमे तवोरोहे सयस हस्स तमपि कल न अग्घइ तिकट्टु जामेय दिस पाउवभृया तामेव दिस पडिगया, तएण से जियसत्तू परिव्याइयाजणियहासे दूयं सदायेइ, सद्दावित्ता जाव पहारेत्थ गमणाए । सू० ३१ ॥
टीका – 'तरण से ' इत्यादि । ततस्तदन्तर स जितशत्रु अन्यदा कदाचित्
'तरण से जियसत्तू अन्नया कयाइ ' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (से जियसत्तू, वह जिनशत्रु (अन्नया कयाइ)
(तरण से जियसत्तू अन्नया क्याइ । इत्यादि
दी अर्थ - (तएण ) त्यार माह (से जियसत्त) जितशत्रु (अन्नया कयाइ ) अर्थ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितश नृपवर्णनम्
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(
=अन्यस्मिन् कम्मिश्चित् समये ' अतेउरपरियालस खिडे ' अन्तः पुरपरिवार सपरि वृतः=अन्तः पुरस्य परिवारेण = स्त्रीजनैः सपरिवृत युक्त, एव यावद् विहरतितिष्ठति । ' तए ' ततः = तदा, ग्खलु सा चोरखा परिव्राजिका परिवृता=स्वशिष्यसन्यासिका सहित यनैव जितशत्रो राज्ञो भवन = प्रासादः, यत्रैन = यस्मिन्नेत्र स्थाने जितशत्रु', तत्रैवोपागच्छति, जितशत्रु जयेन - विजयेन=जय विजय शब्द कीर्तनेन बद्धावे ' वर्धयति । तत' खलु स जितशत्रुचोक्षा परिवाजिकाम् एजमानाम् = आगच्छती पश्यती, दृष्ट्वा सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय चोक्षा सत्करोति, सत्कृत्य आसनेन ' अणिमतेइ ' उपनिमन्त्रयति = उपवेशनार्थं पार्थकिसी एक दिन ( अ तेवर परियालमपरिवुडे ) अपने अन्तः पुर परिवार के साथ ( एवं जाव विहरह) बैठा हुआ था (तरण मा चोक्खा परिव्वाइया) इतने में यह घोक्षा परिव्राजिकाओंके साथर ( जेणेव जितसत्तस्स रण्णो भवणे जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जियसत्तु जएण विजण वद्भावे ) जहा जितशत्रु रोजा का महल था और जहाँ वे जितशत्रु राजा विराजमान थे वहा आई आकर उसने उन्हें जय विजय शब्दों से धन्यवाद दिया- (तरण से जियसत्तू चोक्ख परिव्वाइय एजमाण पासह, पासित्ता सीहामणाओ अन्भुदेह, अभुट्टित्ता चोक्ख सकारेह, सक्कारिता आसणेण उवणिमते ) जब चोक्षापरिव्राजिका को जितशत्रु राजाने आते हुए देखा था तो वह देखते ही अपने सिंहा सन से उठ बैठा था और उठकर उसने चोक्षा परिव्राजिका का आदर सत्कार किया था। आदर सत्कार करके उसने उसे आसन पर
हिवसे ( अतेउरपग्यिाल सपरि वुडे ) पोताना रघुवासना परिवारनी साथै ( एक जान विहरइ ) मेठो हतो (तएण सा चोक्सा परिवाइया) तेटलामा ચાક્ષા પરિજિકાની માથે
( जेणेव जितसत्तूस्सरण्गो भवणे जेणेत्र जितसत्तू तेणेव उवागछट उवागच्छित्ता जियसत्तू जएण विजएण वद्धावेइ )
જ્યા જિતશત્રુ રજાના મહેલ હતેા અને જ્યા જિતશત્રુ રાન્ત બેઠા હતા ત્યા ગઇ ત્યા પહોંચીને તેણે રાજાને જય વિજય શબ્દોથી વધાવ્યા
( तएण से जियसत्तू चोक्ख परिव्वाइय एज्जमान पासह, पासित्ता सीडा सणाओ अन्भु, अभुट्ठित्ता चोख सक्कारेइ, मक्कारिता आसणेण उवणिमते ३) જિતશત્રુ રજાએ જ્યારે ચેાક્ષા પત્રિાજિકાને આવતી જેઈ ત્યારે તેઓ પેાતાના સિહાસન ઉપરથી ઊભા થયા અને ઉભા થઈને ચેક્ષા પરિવાજિકાને તેઓએ આદર સત્કાર કર્યા આદર સત્કાર કરીને રાજાએ તેને આસન ઉપર એમવા માટે કહ્યુ
भ्रा ५७
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মাখা। यति। तएण चोक्षा 'उदगपरिफासियार, उपरिस्पृष्टायां जाल प्रक्षेपेग सिक्तायां यावत्-दर्भोपरि प्रत्यास्तृताया 'मिसियाए' पिकायां निमीयर' निपीदति-उपवि शति । जितशत्रु राजान राज्ये च यापदन्त पुरे च कुगलोदन्त कुशसमाचारं पृच्छति, ततः खलु सा चोक्षा जितशत्रो राश. पुरतो दानधर्म च यापद-शौचधर्मादिकमा ख्यापयन्ती प्रज्ञापयन्ती प्ररूपयन्ती विहरती आस्ते स्म । ततस्तदनन्तर खलु स जितशत्रुः, आत्मानः स्वस्य, 'ओरोहसि ' अपरोधे अन्तः पुरे यावद् विस्मित:आश्चर्ययुक्तः सन् चोक्षाम् एपक्ष्याणपकारेण, अवादीत-हे देवानुपिये ! त्व खलु-बहूनि, ग्रामाकरल्यायत्-ग्रामाकरखेटाटादीनि अटमि गच्छसि बहूनि पैठ जाने के लिये कहा- (तएण सा चोरसा उदगपरिफासियाए जावं भिसियाए निसीयह) अतः वह चोक्षा परिव्राजिका जलसे सिञ्चित हुए यावत् आसन पर बैठ गई।
(जियसत्तू राय रज्जे य जाव अतेउरेय कुसलोदत पुच्छइ, तएण सा चोक्खा जियसत्तुस्स रणो दाणधम्मच जाव विहरह) बैठने के बाद उसने जितशत्रु राजा से राज्य एव अत.पुर की कुशलवार्ता पूछी बाद में उसने जितशत्रु राजा के समक्ष दान धर्म शौच धर्म आदिका कथन किया, प्ररूपणा किया प्रज्ञापन किया, (तएण से जियसत्तू अप्पणो
ओरोहसि जाव विम्हि चोक्ख एव वयासी) इसके बाद उस जितशत्रू राजा ने अपने अन्तः पुर में विस्मित होकर उस चोक्षा परिव्राजिका से इस प्रकार कहा-(तुमण देवाणुप्पिया ! पद्दणि गामागर० जाव असि यहूणि य राईसर गिहाइ अणुपविससि) हे देवाणुप्रियों! तुम अनेक (तएण सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निसीयह )
ચક્ષા પરિવ્રાજક પાણી છાટેલા આસન ઉપર બેસી ગઈ
(जियसत्तराय रज्जे य जाच अते उरेय कुसलोदत पुच्छइ तएण चोक्वा जियसत्तूस्स रण्णो दागधम्म च जाव विहरइ)।
ત્યાર બાદ તેણે રાજાને રાજ્ય તેમજ રણવાસની કુશળ વાર્તા પછી અને પરિવ્રાજકાએ આ બધુ કરીને જિતશત્રુ રાજાની સામે દાનધર્મ, શૌચધર્મ વગેરેનું કથન કર્યું, પ્રરૂપણ કર્યું અને પ્રજ્ઞાપન કર્યું । (तएण से जियसत्तू अप्पणो ओरोहसि जाव विम्हिए चोक्ख एव वयासी)
રણવાસમાં બેઠેલા રાજા છતશત્રુએ તેની વાત સાંભળીને વિરમય પામતા પરિવ્રાજકાને કહ્યું કે–
(तुमण देवाणुप्पिया । वहूणि गामागर० जाव अडसि वहूणि य राईसर० गिहाई अणुपविसिस)
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मितशत्रुनृपवर्णनम् च 'राईसर गिहाइ' राजेश्वरादीना गृहाणि अनुप्रविशसि, तत्-तम्मात् कथयअस्ति चापि, 'ते ' त्वया कस्यापि राज्ञो वा यावत्- ईदृशोऽवरोधो दृष्टपूर्वः, यादृशः खलु अय ममावरोध ? अन्तःपुरम् ततस्तदनन्तर खलु सा चोक्षा परिवा जिका जितशत्रुमीपदपहसित करोति, कृत्वा एव यामी ।
हे देवानुभिय ! एव च सदृशः खलु व तस्य 'अगडदुरस्त' अवटदर्दुरस्य =कूपमण्डूकस्य । चोक्षाया वचन श्रुत्वा जितशत्रुश्चोक्षा पृच्छति-'केण' इत्यादि । कः खलु हे देवानुप्रिये ! सोऽवटदर्दु:-कूपमण्डकः १, चोक्षा परिव्राजिका कथ यति-तद् यथानामकम् = यथानाममितिपद दृष्टान्त प्रदर्शयामि तावदित्यर्थ. ग्राम, आकर, खेट कर्वट आदिस्थानो मे जाती रहती हो, तथा अनेक राजेश्वर आदि जनों के गृहों में प्रवेश भी करती रहती हो (त अस्थियाइते कस्स विरन्नो वा जाव करिं चिं एरिसए आरोहे दिहिपुग्वे जारिसए ण इमे मह अवगेहे ) तो कहो तुमनेकिसी राजा आदि का ऐसा अन्तः पुरपहिले कभी कहिं देखा है कि जैसा मेरा यह अन्त पुर हैं। (तएण सा चोक्खा परिव्वादया जियसत्तू ईसि अवहासेय करेइ, करित्ता एव वयासी) इस प्रकार सुनने के बाद उस चोक्षा परिव्राजिकाने पहिलेतो राजा को कुछ हसाया बाद में हंसाते हुए उनसे ऐसा कहा-एव च सरिसए ण तुम देवाणुप्पिया ' तस्स अगडदुरस्स) हे देवानुप्रिय! तुम तो उस कूपमडूक के समान हो ऐसी चोक्षा की बात सुनकर बीच मे ही राजा ने उससे कहा (केण देवाणुप्पिए से अगडदडुरे ? देवानु' હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ઘણુ ગ્રામ,આકર, ખેટકર્બટ વગેરે સ્થાનેમા અવર –જવર કરતા રહે છે તેમજ ઘણા રાજાઓ વગેરેના મહેમા પણ જાએ છે
त अत्यियाः ते कस्स वि र नो वा, जाव कहिं चिं एरिसए आरोहे दिट्ठपुव्वे जारिसए ण इमे मह अवरोहे )
તે બતાવે કે મારા જે રણવાસ કેઈપણ રાજા વગેરેને તમે જો છે (तएणसाचोक्खा परिन्चाइया नियसत्त ईसिं अवहासेय करेइ, एव करित्ता क्यासी)
આ રીતે સાભળને ચેક્ષા પરિવ્રાજકાએ પહેલા તે રાજાને થે હમા ત્યાર પછી હસાવતા તેમને કહ્યું કે(एव च सरिसए ण तुम देवाणुप्पिया तस्स अगडपद् दुरस्स)
હે દેવાનુપ્રિય ' તમે તે પેલા કૂવાના દેડકા જેવા છો ' ચેલાની આ पान समान २-वयेथी। तेन यु (के ण देवाणुप्पिा से अगर
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ર
माधर्मकथासू
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जातः,
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यथा-एकः कूपमण्डक. स्यात् = आसीत् स सल तत्थ ' तत्र तस्मिन् कुषे न कूपे एन 'बुड्ढे ' वृद्ध = टद्धिंगतः, अभ्यम् -' आगड ' अत्रुट= कृप वा, 'तलाग' तडाग = कमलयुक्तागाधजलाशय ना, ' दह' हूद= प्रसिद्ध, सर' सरःसरोवर वा, सागर वा, अपश्यन्नेव मन्यते-अयमेवापटो वा यावत् सागरो वा । एतस्मात् कृपान्महाजलस्थान मन्यन्नास्तीत्येन मनसि जानातीति भाव । ततस्तदनन्तर खलु व कृपपति, 'अण्णे ' अन्यः सामुद्रक: समुद्रे जातः 'दद्दुरे ' दर्दुरः = मण्डकः, हव्यमागतः - सहजगत्या समागतः । ततः खलु स कूपदर्दुर: = रूपमण्डूक त 'सामुददद्दूर' सामुद्रनिनामिन मण्डूकम् एव = त्रक्ष्यमाण प्रकारेण अनादीत् यथा के एप खलु त्व हे देवानुप्रिय ! ' कत्तो ' ' कुतः=कस्मात् प्रिय ! वह कूपमहक कैसा होता है ! (जियसा ! से जहानामए अगड दद्दुरे सिया से ण तत्थ जाए तथेव बुड्ढे अन्न अंगड वा तडाग वा दह व सर वा सागर वा अपासमाणे चेव मण्णह अय चेत्र अगडे वा जाव (सागरे वा ) इस प्रकार जितशत्रु राजा की बात सुनकर चोक्षा परिवा जिका ने उससे कहा- जितशत्रो सुनो में तुम्हें समझाती हूँ- जसे कोई एक कूपका मेंढक कि जो उसी मे उत्पन्न हुआ हो और उसी मे पलपुष कूर चढा हुआ हो वह जैसे अपने कुए के सिवाय और किसी कुए को, तडांग कमलयुक्त अगाध सरोवर को द्रह को जलाशय विशेष को, अथवा समुद्रको कभी नही देखता हुआ ऐसा ही मानता है कि यही मेरा कुआ और दूसरा कुआ है ? यावत् सागर है।
इस कुए के सिवाय और दुसरा कोई बड़ा भारी जलस्थान कहीं पर नही हैं (तएण त व अपणे सामुद्दए ददुरे हव्वमोगण-तण ददुरे ? ) हे हेवानुप्रिय । षाने हे वो होय छे ?
(जियसत्तू ! से जहानामए अगडदद्दुरे सिया सेण तत्थ जाए तथैव बुड्ढे अन्न अगडचा तडागं वा दह वा सर वा सागर वा अपासमाणे चेन मण्णइ अय चैव अगडेवा जाव सागरे वा )
આ પ્રમાણે જીતશત્રુ રાજાની વાત ઞામળીને ચેાક્ષા પરિવ્રાજીકાએ તેને કહ્યુ કે જીતશત્રુ સાભળે તમને હુ બધી વાત સમજાવુ છુ જેમ કેાઇ એક કૂવાના દેડકા કે જે કૂવામાતે જન્મ્યા છે અને તેજ ત્યાજ ઉછર્યાં છે તે જેમ પેાતાના કૂવા સિવાય બીજા કાઇપણ વા, તડાગ-કમળાવ છુ અગાધ સરાવર, નૃહે જલાય વિશેષ અને મસ / `ગુ વખત ન લેવાથી એમ જ માને છે કે આ મા
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רוור
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धर्मामृत
टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम
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स्थानाद् वा इह हव्यमागत १, ततः खलु स सामुद्रको दर्दुरः त कूपदर्दुरमे = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुमिय ! अह सामुद्रको दर्दुर:- समुद्रनिवासी मण्ड्रकोऽस्मि । तत. खजु स प दर्दुरस्त मामुद्र दर्दुरमेवमनादीत -' के महालए' कियन्महालयः =कियान विशालः खलु हे देवाणुमिय ! स समुद्र ? ततस्तदनन्तर खलु स सामुद्रो दर्दुररत कूपदर्दुरमेवमवादीत् महालयः = अति विस्तीर्ण',खलु देवासे कूदद्दुरे त सामुद्दददुर एव व्यासी) इस प्रकार की मान्यता वाले उस मेढ़क के कुण्पर उसी समय में कोई दूसरा समुद्र मे रहने वाला मेंढक ओगया- उसे आया हुआ देखकर कृप के मेढक ने उस समुद्र निवासी मेढक से कहा - ( से वेसण तुम देवाणुपिया ! कत्तो वा इह हव्यमागए १) हे देवानुप्रिय ! यह तुम कौन हो इस समय कहा से आरहे हो ? (तएण से सामुद्दे दद्दुरे त कूवदद्दूर एवं वयासी प्रत्युत्तर में उस समुद्र निवासी मेंढक ने उस कूप मेढक से ऐसा कहा ( एव खलु देवाणुपिया ! अह सामुद्दए दद्दुरे ) हे देवानुप्रिय ! मे समुद्र का रहने वाला मेढक हॅ (तएण से कूच ददुरे त सामुद्दय दद्दूर एव वयासी) उस के ऐसे वचन सुन कर कृप मेंढक ने उस समुद्र के निवासी दद्दुरे से इस प्रकार पूजा ( के महालए ण देवाणुपिया ! से समुद्दे ? ) हे देवानुप्रिय वह समुद्र कितना बड़ा हैं ? (तएण से सामुद्दए ददुरे त कृवदुर एव वनासी) प्रत्युत्तर मे उस समुद्र निवासी दर्दुर ने उस से ऐसा कहा - ( एव ग्वलु देवाणुपिया महालएण
સકુચિત વિચાર ધરાવતા કૂવાના દેડકાની પાસે બીજો કાઇ સમુદ્રમા રહેનારા દેડકા આવ્યા તેને આવેલા જોઇને કુવાના દેડકાએ સમુદ્રના દેડકાને કહ્યુ( से केसण तुम देवाणुप्पिया ! कतो वा इद हव्वमागए ? ) हे देवानुप्रिय ? तमे अयु हो ? मत्यारे तभे ज्याथी भावो । ? (तएण से सामुद्दे ददुरे त कूत्रददुर एन क्यासी ) वासभा ते समुद्रमा रहेनारा हेडअमे રવાના हेडछाने या प्रभाऐ ! जे ( एव सलु देवाणुनिया ! अह सामुद्दए ददुरे ) डे देवानुप्रिय | डु समुद्रमा रहेनारो हेड छु ( वरण से कूत्रदद्दुरे त सामुद्दय ददुर एव वयासी ) तेनी या प्रभावात भालजीने हवाना हेडा ते समुद्रभा रहेनाश हेडाने या प्रभा ( के महालपण देवाणुनिया ! से समुद्दे १ ) डे देवानुप्रिय ? ते समुद्र डेटा भोटो छ ? ( तएण से सामुद्दप ददुरे व धूषदद्दुर एन क्यासी ) वागभा समुद्रना हेउजथे तेने मा प्रभाये धु ( एव खलु देवाणुपिया, महालए णं देवाशुप्पिया 1 समुदे, वरण से दद्दुरे
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यथा - एकः कूपमण्डूकः स्यात् = आसीत्, स सलु
तत्थ तत्र= तस्मिन् कूपे जातः, तत्रैव कूपे एन 'बुड्ढे ' वृद्ध = टद्धिंगतः, अन्यम् -' आगड ' अट = कूप वा तलाग तडाग= कमलयुक्तागाधजलाशया, ' दह ' हूद = प्रसिद्ध)
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सर' सरःसरोवर वा, सागर ना, अपश्यन्नेव मन्यते-अयमेवानटो वा यावत् सागरो वा । एतस्मात् कृपान्महाजलस्यानमन्यन्नास्तीत्येन मनसि जानातीति भाव । ततस्तदनन्तर खलु त कृपपति, 'अण्णे ' अन्यः सामुद्ररुः = समुद्रे जातः 'दद्दुरे ' दर्दुर = मण्डकः, हव्यमागतः = सहजगत्या समागतः । ततः खलु स कूपदर्दुरः = कूपमण्डूक त 'सामुदददुर' सामुद्रनिनागिन मण्डूकम् एव त्रक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत् - यथा क एष खलु स हे देवानुप्रिय ! ' कत्तो ' कुतः = कस्मात् प्रिय ! वह कृपमडूक कैसा होता है ! (जियसत्तू ! से जहानामए अंड दरे सिया से तत्थ जाए तथेव बुड्ढे अन्नगड वा तडाग वा दहवां सर वा सागर वा अपासमाणे चेच मण्णः अय चेत्र अगडे वा जाव (सागरे वा ) इस प्रकार जितशत्रु राजा की बात सुनकर चोक्षा परिवा जिका ने उससे कहा- जितशत्रों सुनो में तुम्हें समझाती हूँ- जसे कोई एक कूपका मेंढक कि जो उसी मे उत्पन्न हुआ हो और उसी मे पलपुष कर वढा हुआ हो पर जैसे अपने कुए के सिवाय और किसी कुए को, तडाग कमलयुक्त अगाध - सरोवर को द्रह को जलाशय विशेष को, अथवा समुद्रको कभी नही देखता हुआ ऐसा ही मानता है कि यही मेरा कुआ और दूसरा कुआ हे ? यावत् सागर है।
इस कुएं के सिवाय और दुसरा कोई बड़ा भारी जलस्थान कहीं पर नही हैं (तएण त व अण्ण सामुद्दe दुरे होगए-तरण ददुरे ? ) हे देवानुप्रिय । वान हे देवी होय छे ?
( जियसत्तू ' से जहानामए अगडददुरे सिया से ण तत्थ जाए तथैव बुड्ढे अन्न अगड वा तडागं वा दह वा सर वा सागर वा अपासमाणे चेव मण्णइ अय चैत्र अगडेवा जाव सागरे वा )
આ પ્રમાણે જીતશત્રુ રાજાની વાત સામળીને ચેાક્ષા પરિવ્રાજીકાએ તેને કહ્યુ કે જીતશા સાભળેા તમને હુ બધી વાત સમજાવુ છુ જેમ કેઇ એક કૂવાનો દેડકા કે જે કૂવામા તે જન્મ્યા છે અને તેજ ત્યાજ ઉછર્યાં છે તે જેમ પેાતાના કૃવા સિવાય ખીજા કોઈપણુ કૂવા, તડાગ-કમળેવ છુ અગાધ સાવર, દ્રઢ જલાય વિશેષ અને સમુદ્રને કેઈપણુ વખત ન લેવાથી એમ જ માને છે કે આ મા હવે જ ખીજે કૂવા છે ચાવત સાગર છે
આ મારા કૂવા સિવાય ખીજુ કાઇ મેઢુ प्रगतभा नथी ( तर्पण व कूव अण्णे सामुद्दर ददुरे
સરેશવર કે જળસ્થાન हन्त्रमागए ) भ प्रभा
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अगरधर्मामृतपणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
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स्थानाद् वा इह हव्यमागत १, ततः खलु स सामुद्रको दर्दुरः त कूपदर्दुरमेव = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुप्रिय ! अह सामुद्रको दर्दुर:= समुद्रनिवासी मण्डूकोऽस्मि । ततः खजु स क्रूप दर्दुरस्त मामुद्र दर्दरमेवमनादीद के महालए' कियन्महालय = कियान विशालः खलु हे देवाणुमिय ! स समुद्र ? ततस्तदनन्तर खलु स सामुद्रो दर्दुररत कूपदर्दुरमेवमवादीत् महालयः =अति विस्तीर्ण, खलु देवा
से ददुरे त सामुद्दददुर एव वयासी) इस प्रकार की मान्यता वाले उस मेढक के कुण्पर उसी समय में कोई दूसरा समुद्र मे रहने वाला मेंढक ओगया - उसे आया हुआ देखकर कृप के मेढक ने उस समुद्र निवासी मेढक से कहा - ( से वेसण तुम देवाणुपिया ! कत्तो वा इह हव्यमाग १) हे देवानुप्रिय । यह तुम कौन हो इस समय कहां से आरहे हो ? (तएण से सामुद्दे ददुरे त कुवददुर एव वयांसी प्रत्युत्तर में उस समुद्र निवासी मेंढक ने उस कूप मेढक से ऐसा कहा ( एव खलु देवाणुप्पिया ! अह सामुद्दए ददुरे ) हे देवानुप्रिय ! मे समुद्र का रहने वाला मेंढक हॅू (तएण से क्रूव ददुरे त सामुद्दय ददुर एव वयासी) उस के ऐसे वचन सुन कर कूप मेंढक ने उस समुद्र के निवासी ददुरे से इस प्रकार पूछा ( के महालए ण देवाणुपिया 1 से समुद्दे ? ) हे देवानुप्रिय वह समुद्र कितना बड़ा है ? (तएण से सामुद्दए ददुरे त कृबददुर एव वासी ) प्रत्युत्तर मे उस समुद्र निवासी दर्दुर ने उस से ऐसा कहा - ( एव ग्वलु देवाणुपिया महालएण
સકુચિત વિચાર ધરાવતા ફૂવાના દેડકાની પાસે બીજે કાઇ સમુદ્રમા રહેનારા દેડકા આવ્યા તેને આવેલા જોઇને વાના દેડકાએ સમુદ્રના દેડકાને કહ્યુ— ( से केसण तुम देवाणुपिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ? ) हे देवानुप्रिय ? तमे अश्रु हो ? भत्यारे तमे ज्याथी भाव हो ? (तएण से सामुद्दे दद्दुरे त कूत्रददुदुर एव वयासी ) वामभा ते ममुद्रमा रहेनारा हेडामे वाना हे!ाने मा प्रभाऐ ह्युजे ( एव सलु देवाणुनिया ! अह सामुद्दए ददुरे ) डे देवानुप्रिय हुं समुद्रमा रहेनारो हेडडी छु ( तएण से कूत्रददुरे त सामुद्दय ददुर एक वयासी ) तेनी या प्रभावात भालजीने वाना हेामे ते समुद्रमा रहेनारा हेडाने या प्रमाणे ज्यु ( के महालत ण देवाणुनिया ! से समुद्दे १ ) डे देवानुप्रिय ? ते समुद्र डेटा भोटो छे ? ( तएण से सामुद्दए दद्दुरे व धूषर एन क्यासी) नवागभा समुद्रना हेडनतेने या प्रभाऐ उठे ( एव खलु देवाणुपिया, महालए णं देवाशुप्पिया । समुदे, तएण से दद्दुरे
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ભાર
शाताधर्मकथासूत्रे
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नुप्रिय ' समुद्रः, ततस्तदनन्तर खलु म दर्दुरः = कृपमण्डक पादेन रेखा कर्षति, कृष्ट्वा, एवमवादीत् - इयन्महालय: = एतावान निस्तीर्णः खलु हे देवानुप्रिय ! स समुद्रः ?, तदा समुद्रमक आह-' नायमर्थः समर्थः ' इति अय रेखया निर्दिष्टो विस्तारः समुद्रविस्तार बोधयितु न शक्तइत्यर्थः । उक्तार्थे हेतुमाह-' महालय खलु स समुद्र ' खलु निचेन स समुद्रो महालयोऽति विस्तीर्णः समुद्रस्य महत्त्व न केनापि निर्देष्टु शक्यत इतिभावः । ततस्तदनन्तर ख स कूपदर्दुर. पौरस्स्यात् =अग्रवर्तिनः, वीरादुत्पत्य= कूर्दयित्वा खलु गच्छति, = कृपस्य द्वितीयतीरमिति भावः । गवा एवमनादीत् - इयन्महालय = एतावान्विशाल खल हे देवानुमिय ! देवाणुपिया ! समुद्दे, तण्ण से दद्दुरे पाण्ण लीह कडेड, कड्डित्ता एव वयासी, ए महालगण देवाणुनिया से समुद्दे णो इणट्ठे ममट्ठे महालएण से समुद्दे ) हे देवानुप्रिय । वह समुद्र तो बहुत बड़ा है। इस पान को सुनकर उस कृप मेढक ने अपने पैर से एक रेखा खेची और खेचकर बोला हे देवानुप्रिय ! वह समुद्र इतना भारी विशा ल है । प्रत्युत्तर मे उस समुद्रवासी मेंढक ने उस कूप मेढक से कहानहीं वह इतना बड़ा नहीं है - वह तो इस से भी अधिक बड़ा है अर्थात् रेखा से निर्दिष्ट जो विस्तार है वह समुद्र के विस्तार को बतलाने में समर्थ नही हो सकना है उस का विस्तार तो क्या कहे- बहुत ही अधिक है । (तरण से कूवदुरे पुरथिमिलाओ तीराओ उष्फि डित्ता ण गच्छह, गच्छित्ता एव वयासी ए महालएण देवाणुपिया ! से समुद्दे णो इणट्टे समट्टे ) समुद्रवासी मेंढक की बात सुनकर वह कूप मेंढक अपने अग्रवर्ती तीर से कुए के दूसरे तौर पर उछल गया- वहा पाएण लीह कड्डे, रुड्डित्ता एन वयासी ए महालएण देवाणुपिया से समुद्दे णो समट्ठे महल से समुद्दे )
હૈ દેવાનુપ્રિય ! સમુદ્ર તેા બહુ વિશાળ છે
આ વાત સાભળીને કૂવાના દેડકાએ પેાતાના પગથી એક લીટી દોરી અને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુંપ્રિય । તે સમુદ્ર આટલા વિશાળ છે? ત્યારે જવાખમા સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યુ કે નહિ, તે આટલે મેટે નથી તે તે એના કરતા પણ વિશાળ છે એટલે કે લીટી દોરીને જે વિસ્તાર બતાવવામા આવ્યા છે તે સમુદ્રની વિશળતાને અકિત કરવામા અરાક્તિમાન છે તેને વિસ્તાર તે ખૂબ જ વિશાળ છે
(तरण से वददुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उल्फिड़िता ण गन्छ गच्छिता एव वयासी, ए महालए ण देवाणुप्पिया ! समुद्दे णो इसम
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अनगारधर्मामृतपिणो टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
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स समुद्रः ?, एव कूपमण्डस्य वचः श्रुत्वा समुद्रमण्डूक. पुनराह - ' नायमर्थ समर्थ, इति दर्शनादेव समुद्रस्य महत्त्व ज्ञात भवति नतु तत् कथमपि निर्देड वक्तु च शक्य केनापीति भावः । तथैव यथा स कूपमण्ड स्तद्वदेन, एवमेव = उक्त प्रकारेणैव, त्वमपि हे जितशत्रो । अन्येषा बहूना राजेश्वर - यावत् सार्थवाहमभृतीना भायी वा भगिनी वा दुहितर वास्तुपा वा अपश्यन् जानासि - यादृश ममेन खलु अवरोधः =अन्तःपुर, तादृश नो अन्यस्य ।
जाकर कहने लगा- हे देवानुप्रिय ! तुम्हारे द्वारा निर्दिष्ट वह समुद्र क्या इतना घडा है ? इस प्रकार कूप मेंढ़क के वचन सुन कर उस सामुद्रिक मेंढक ने कहा
भाई क्या बतलायें देखने से ही उस की महत्ता ज्ञात हो सकती है । यह कहने की और निर्दिष्ट करने की बात नहीं हैं । उस का निर्देश और कथन तो कोई कर ही नहीं सकता है । ( तहेव एवामेव तुमपि जियसत्तू ! अन्नेसिं यहण राईसर जाव सत्थवाह पभिईण भज्ज वा भगिणीं वा घूय वा सुण्ड वा अपासमाणे जाणेसि - जारिसए मम वेवण ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स ) इसी तरह हे जितशत्रो ! तुमने भी कभी और किसी राजेश्वर आदि सार्धंवार प्रभृतियो की भार्या को, भगिनी को, दुहिता को, स्नुषा को देखा नही है-इसीलिये ऐसा मान रहे हो कि जैसा अन्तः पुर हमारा हैं-वैसा और किसी का कही पर
સમુદ્રમા રહેનારા દેડકાની વાત સાભળીને તે કૂવાના દેડકા પાતે જ્યા બેઠા હતા તે ફ઼વાના કિનારા ઉપરથી ફૂવાના ખીજા કિનારા ઉપર કૃઢી ગયા અને ત્યા જઈને કહેવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિય । તમે જે સમુદ્રની વાત કા છે તે થ્રુ આટલે માટા છે ? આ રીતે ક઼વાના દેડકાની વાત સાભળીને સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યુ— ભાઇ શુ કહીએ ? સમુદ્રને લેવાથી જ તેની વિશળતાનુ જ્ઞાન થઈ શકે તેમ છે મુખેથી કહેવાની અને લીટીએ વગેરેથી નિર્દેષતા થઇ શકે તેમજ ણાતું નથી
( तहेव एत्रामेव तुमपि जियसत्तू ' अनेर्सि पण राई सरजान सत्यवाह पभिईण भज्जवा भगिणी वा धूय या अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेवण ओराहे तारिए णो अण्णस्स ) આ પ્રમાણે જ હું જિત ' તમે પણ કોઇ દિવસ ખીજા કાઈ રાજેશ્વર वगैरे तेभन सार्थवाह वगेरेनी स्त्रीओने, महेनने, हुडिताने, स्नुषा ( पुत्रनी વહુ ) ને જોઇ નથી એટલે જ તમે આમ માને છે કે મારા જેવે રણવાસ ખીજે ક્યાય હાય જ નહિં,
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माताधर्मकथा नुप्रिय ! समुद्रः, ततस्तदनन्तरं खलु स दर्दुरः कृपमण्डक , पादेन रेखा कर्षति, कृष्ट्वा, एवमयादीत-इयन्महालया एतासन विस्तीर्णः ग्वलु हे देवानुपिय ! स समुद्रः ?, तदा समुद्रमडूक आह-' नायमर्यः समर्थः । इति अय रेग्वया निर्दिष्टो विस्तारः समुद्रविस्तार गोधयितु न शक्तइत्यर्थः । उक्तार्थे हेतुमाह-' महालय खल स समुद्र ' खलु-निश्चेन स समुद्रो महालयोऽति विस्तीर्णः समुद्रस्य महत्व न केनापि निर्देष्टु शक्यत इतिभावः । ततस्तदनन्तर ख स कूपदर्दुरः पौरस्त्यात् =अग्रवर्तिनः, तीरादुत्पत्य कूर्दयित्वा खलु गच्छति, = कृपस्य द्वितीयतीरमिति भावः । गत्वा एवमयादीतू-इयन्महालय =एतागान्विशाल. ग्वलु हे देवानुप्रिय । देवाणुप्पिया! समुद्दे, तण्ण से ददुरे पाण्ण लीह कड्ने, कत्तिा एव वयासी, " महालएण देवाणुपिया ! से समुद्दे णो डणढे ममढे महालएण से समुद्दे ) हे देवानुप्रिय । वह समुद्र तो बहुत बड़ा है । इस धान को सुनकर उस कृप मेढक ने अपने पैर से एक रेवा खेंची और खेचकर बोला हे देवानुप्रिय ! वह समुद्र इतना भारी विशा ल है । प्रत्युत्तर मे उस समुद्रवासी मेंढक ने उस कूप मेढक से कहानहीं वह इतना बड़ा नहीं है-घर तो इस से भी अधिक बड़ा है अर्थात् रेखा से निर्दिष्ट जो विस्तार है वह समुद्र के विस्तार को बतलाने में समर्थ नहीं हो सकता है-उस का विस्तार तो क्या कहे-बहुत ही अधिक है । (तएण से कूवदद्दुरे पुरथिमिलाओ तीराओ उफ्फि डित्ता ण गच्छइ, गच्छित्ता एव वयासी ए महालएण देवाणुप्पिया ! से समुद्दे णो इणढे समहे ) समुद्रवासी मेंढक की बात सुनकर वह कूप मेंढक अपने अग्रवर्ती तोर से फूए के दूसरे तोर पर उछल गया-वहा पाएण लीह कड्रेइ, कट्टित्ता एव वयासी ए महालएण देवाणुप्पिया ' से समुद्दे णो इण समढे महालएण से समुद्दे)
હે દેવાનુપ્રિય ! સમુદ્ર તો બહુ વિશાળ છે
આ વાત સાંભળીને કૂવાના દેડકાએ પિતાના પગથી એક લીટી દેરી અને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય છે તે સમુદ્ર આટલે વિશાળ છે? ત્યારે જવાબમાં સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યું કે નહિ, તે આટલે માટે નથી તે તે એના કરતા પણ વિશાળ છે એટલે કે લીટી દોરીને જે વિસ્તાર બતાવવામાં આવ્યો છે તે સમુદ્રની વિશળતાને અકિત કરવામાં અશક્તિમાન છે તેને વિસ્તાર તે ખૂબ જ વિશાળ છે (तरण से कूवाददुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उफिडित्ता ण गच्छद गच्छिता एव वयासी, ए महालए ण देवाणुप्पिया! समुद्दे णो इण? ममहे)
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अनगारधर्मामृतपपिणी टीका अ० ८ पराजयुद्धनिरूपणम् जिका - जनितहप = चोला पहिब्राजिका वचनपणानन्तरसजातमलेली विषय कानुरागः, दूत शब्दयति, शब्दयित्या ' जार पद्वारेत्यगमणाए' यासत-मिथिलां गन्तुमादिष्टवान् ततः स दूतस्तदाज्ञानुसारेण प्राधारयद् गमनाय मिथिला गन्तु प्रवृत्तः। इति पण्णामपि राज्ञा सम्बन्धः पृथक् २ प्रोक्तः ॥ मू०३१ ॥ । मूलम्-तएण तेसि जियसत्तू पामोक्खाणं छाई 'राईण दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गर्मणाए, तएण छप्पियंदूया जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छिति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुजाणसि पत्तेयं२ खधावारनिवसं कति, करित्ता मिहिलं रायहाणि अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति, उवागंच्छित्ता पत्तय करयलपरिग्गहिय सिरसावत्त दसनह मत्थेए अंजलि क? साण२ राईण वयणाइ निवेदेति, तएण से कुंभए तेसि
याण अंतिए एयमट्ट सोच्चा आसुरुत्ते जीव तिवलियं थी उसी दिशा तरफ वापिस चली गई । चोक्षा परिनालिका के वचन सुनने के बाद जिसे मल्ली कुमारी के विषय में अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे इस जितशत्रु राजा ने दूत को बुलाया और उस से मिथिला जाने के लिये कहा-वह दृत भी अपने राजा की आजानुमार मिथिला नगरी तरफ जाने के लिये वहा रवाना हो गया। मूत्र " ३१ ""
--------- ---- - તરફ પાછી જતી રહી ચેક્ષા પત્રિકાના મેથી મલીકુમારીના સૌદર્ય વિશે પ્રશ સાજનક રાબ્દો સાંભળીને જેના મનમાં તેના માટે અનેરા હદ્ધિ થયે છે એવા તે જિતશત્રુ રાજાએ દૂતને બોલાવ્યું અને તેને મિથિલાવી માટે આના કરી દત પિતાના રાજાના હુકમ પ્રમાણે મિથિલા નગરી તરફ r41 64ही गयो ॥ सूत्र " ३१५ ॥
हा ५८
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मातsame ___ तदेव खलु हे नितशत्रो । मिथिलायां नगयों कुम्मकस्स गो दरिता पुगी, प्रभावत्या आत्मना-अनजाता मरली नाम इति, रूपेण-गन्दगत्या च यौवनेन च यावत् नो खलु या कापि देवकन्या वा ताटगी विद्यते, यारशी मल्ली। मल्ल्या विदेहराजपरकन्यायाच्छिन्नस्यापि पादा प्ठस्याय तवानरोध शतसासतमामपि कला लक्षाशमपि नाईति ' उतिकृत्वा प्रत्युत्या, सा चोक्षा परित्राधिका यस्या दिश प्रादुर्भूता, तामे दिश मतिगना । ततः ख स जितशत्रु पस्त्रिा भी नही है । (त एव खलु जियसत मिहिलाए नयरी कुभगस्स घृया पभावतीए अत्तया मल्ली नामति-स्वेण य जोवणेण जाव को खलु अण्णा काई देवकन्ना वा जारिमिया मल्ली) इसलिये हे जितशत्रो। सुनो- मिथिला नगरी में कुभक राजा की पुत्री जो प्रभावती की कुक्षि से उत्पन्न हुई है मल्ली कुमारी है । वह रूप और यौवन से इतनी अधि क सुन्दरी है कि उस के समक्ष ऐसी कोई देव कन्या आदि कोई भी कन्या सुन्दरी नहीं है-(महीए विदेहरायवरकन्नाए छिण्णस्स वि पायगुट्ठस्म इमे तवारोहे सयसहस्सतमपि कल न अग्धह, त्ति कटूड जामेव दिस पाउन्भृग्रा तामेव दिस पडिगया तएण से जियसत्तू परि च्वाइया जणियहासे दृय सदावेइ, सहावित्तो जाव पहारेत्थ गमणोए) उस विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी के कटे हुए पादांगुष्ठ के एक लाग्व चे अश बराबर २ भी यह आपका अवरोध अन्तपुर नहीं है। __इस प्रकार कहकर वह चोक्षा परिव्राजिका जिम दिशा से आई ( त एव खलु जियसत्तू मिहिलाए नयरीए कुभगस्स धूया पभावतीए अत्तया मल्ली नामति रूवेण य जोयणेण जावनो खलु अण्णा काई देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली) એટલા માટે હે જીતશત્રે ! સાભળે, મિથિલા નગરીમાં પ્રભાવતીના ગર્ભથી જન્મેલી કુભક રાજાની પુત્રી મલીકુમારી પિતાના રૂપ અને યૌવનથી એટલી બધી સુ કરી છે કે તેની સામે તે દેવકન્યા પણ કઈ જ નથી
(मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए छिण्णस्स वि पायगुहस्स इमे तोरोहे सय सहस्सतम पि कल न अग्धइ, त्ति कटु जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया तएण से जियसत्तू । परिवाइया जणियहासे दूय सद्दावेद सावित्ता जाव पहारेत्थ गमणाए)
વિદેહે રાજાની ઉત્તમ કન્યા મ લીકુમારીના કપાએલા અ ગૂઠાના એક લાખમાં ભાગ બરાબર પણ આ તમારો અવરોધજન (રણવાસ) નથી
આ પ્રમાણે કહીને ચક્ષા પરિવ્રાજકા જે દિશાથી આવી હતી તે દિશા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ पराजयुद्ध निरूपणम्
પ્રેશર
निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायति, मिलायित्ता जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्य गमनाए ॥ सू० ३२ ॥
टीका-'तरण तेर्सि' इत्यादि । ततस्तदन्तर तेषा जितशत्रुममुखाणा पण राज्ञा दूता यत्रैव मिथिला नगरी तत्रैव 'प्राधारयद् गमनाय ' गन्तुमुद्यताः । तत खलु पडपि दूता ta मिथिला तत्रैवोपागन्छति, उपागत्य मिथिलाया ' अग्गुज्जाणमि ' अग्रोद्याने = प्रधानोद्याने, प्रत्येक २ 'खधावारनिवेस ' स्कन्धावारनिवेश= शिविरस्य 'छावनी ' इति भाषा प्रसिद्धस्य निवेश स्थापन कुर्वन्ति कृत्वा, मिथिला राजधानीमनुप्रविशन्ति यत्रै कुम्भको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपाध्य
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तरण तेसिं जियसतू पामोत्खार्ण ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (ए) इसके बाद ( तेसिं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्ह राईण ) उन जितशत्रु प्रमुख छहो राजाओ के ( दूया) दूत ( जेणेव मिहिला ) जहा वह मिथिला नगरी थी ( तेणेन पहारेत्थ गमणाए ) उस ओर अपने २ स्थान से चल दिये (तएणं छप्पियद्या जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति ) चलते २ वे छहों ही दूत एक ही साथ जहा मिथिला नगरी थी वहा आये । ( उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणसि पत्तेय २ खधावारनिवेस करेंति, करिता मि हिल रायहाणि अणुपरिसति ) वहा आकर मिथिलानगरी प्रधान उद्यान में उन सबने अलग २ अपनी २ छावनी डाल दी। छावनी डालकर फिर वे मिथिला नगरी मे प्रवेश किया - ( अणुपविसित्ता जेणेव कुभए
तण वेसिं जियमत्तू पामोसाण इत्यादि ||
टीडार्थ - (तरण ) त्या२पछी ( तेसिं जियसत्तू पामोक्खा ण उन्ह राईण ) लितशत्रु प्रभु छमे रामसोना (दूया) हृतेो (जेणेत्र मिहिला) न मिथिला नगरी हती ( वेणेत्र पहारेत्य गमनाए ) ते तर पोतपोताना स्थानेथी उपडी गया (तएण छप्पिय दूया जेणेव मिहिला तेणेत्र उत्रागच्छति ) ते छमे इते। ચાલતા ચાલતા એકી સાથે જ જરા મિથિલા નગરી હતી ત્યા આવી પહેાચ્યા
( आगच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाण मि पत्तेय २ खधावार निवेस करेंति, करिता मिलि रायहाणि अणुपविसति )
ત્યા પડે ચીને બધા એ મિચવા નગરીના પ્રધાન ઉદ્યાનમા પાતપેાતાને पडाव नाभ्येो थडाव नाभीने तेथे। भिथिया नगरीमा गया ( अणुविखिता नेणेव कुभए तेणेव उपागच्छति ) भने क्या भराभ इना त्या योभ्या
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ટ
शाताधर्मकथा
भिउंड एव वयासी-न देमिण अहं तुब्भ मालं विदेहराय वरकण्णं तिकट्टु ते छप्पिए असक्कारिय असम्माणिय अवदारेण णिच्छुभावेइ । तपणं जियसत्तू पामोक्खाण छण्हं राईणं दूया कुभएण रन्ना असक्कारिया असम्माणिया अवदारेणं णिच्छुभाविया जेणेव सगार जाणवया जेणेव सयाई २ नगराइ जेणेव सगार रायाणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल परि० एव वयासी- एव खलु सामी । अम्हे जियसत्तू पामोक्खाणं छण्ह राईणं दूया जमगसमग चेव जेणेव मिहिला जाव अवहारेणं निच्छुभावेइ, तं ण देइर्ण सामी । कुभए मल्लि विदेहरायत्ररकन्न साणं २ राईर्ण एयमट्ठ निवेदेंति ।
तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो तेसि दूयाणं अतिए एयमहं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता अष्णमण्णस्स दूयसपेसणं करेंति, करित्ता एव वयासी एवं खलु देवाणप्पिया | अम्ह छण्ह राईण दूया जमगसमगं चेव जाव निच्छूडा, त सेय खलु देवाणुप्पिया । अम्ह कुभगस्स जत्त गेण्हित्तए तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयमट्ट पडिसुणेति, पडिसुणिता व्हाया सण्णद्वा हत्थिखधवरगया सकोरेट मल्लदा मेण छत्तेणं धरिजमाणेणं, उधुव्वमाणाहिं सेयवरचामराहिं महयाहयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरगिणीए सेणाए सद्धि सपरिवुडा सविडीए जाव रवेण सएहिं नगरेहिंतो जाव निग्गच्छति
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ८ पइराजयुद्धनिरूपणम् निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायंति, मिलायित्ताजणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ३२ ॥
टीका-'तएण तेसिं' इत्यादि । ततस्तदन्तर तेपा जितशत्रुममुखाणा पण्णा राज्ञा दता यत्रैव मिथिला नगरी तत्रैव 'प्राधारयद् गमनाय ' गन्तुमुद्यताः। तत खलु पडपि दूता यत्रैव मिथिला तत्रोपागन्छति, उपागत्य मिथिलाया 'अग्गुज्जाणसि' अप्रोद्याने प्रधानोद्याने, प्रत्येक २ 'खधावारनिवेस' स्कन्यागारनिवेश-शिविरस्य ' छावनी' इति भापा प्रसिद्धस्य निवेश स्थापन कुर्वन्ति, कृत्वा, मिथिला राजधानीमनुप्रविशन्ति, यत्रैय कुम्भको राना तत्रैवोपागच्छति, उपागस्य
'तण्ण तेसि जियसतू पामोक्खार्ण' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इस के बाद (तेसिं जियसत्तू पामोरखाणं छह राईण) उन जितशत्रु प्रमुख छो राजाओं के (यो ) दूत (जेणेव मिहिला ) जहा वह मिथिला नगरी थी ( तेणेष पहारेत्थ गमणाए) उस ओर अपने २ स्थान से चल दिये (तएण छप्पियदया जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति ) चलते २ वे छहों ही दूत एक ही साथ जहा मिथिला नगरी थी वहा आये। ( उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणसि पत्तेय २ खधावारनिवेस करेंति, करित्ता मि हिल रायहाणि अणुपविसति ) वहा आकर मिथिलानगरी प्रधान उद्यान में उन सबने अलग २ अपनी २ छावनी डाल दी। छाननी डालकर फिर वे मिथिला नगरी में प्रवेश किया-(अणुपविसित्ता जेणेव कुभए
तएण तेसि जियमत्तू पामोरसाण इत्यादि ।
साथ-(तएण) त्या२५छी (तेसिं जिय मत्तू पामोरपा ण ण्ह राईण ) लिश प्रभुण छये २२माना (दूया) इ. (जेणेव मिहिला) मिथिला नगरी ती (तेणे पहारेत्य गमणाए) ते त२५ पातपाताना स्थानथी 64 गया (तएण छप्पिय दूया जेणेष मिहिला तेणेव आगन्छ ति ) त छये तो ચાલતા ચાલતા એકી સાથે જ જવા મિથિલા નગરી હતી ત્યાં આવી પહોચ્યા
(उनागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुजाण मि पत्तेय २ खधावार निवेस करेंति, फरित्ता मिहिल रायहाणि अणुपविसति)।
ત્યા પડે ચીને બધાએ મિયિકા નગરીના પ્રધાન ઉ વાનમાં પિતપતાને पसल नाभ्यो ५५५ नाभी तमे मिथिन नगरीमा गया (अणुविसिता लेणेव कुभए तेणेव उवागच्छ ति ) भने ort 85 in इन या पहाच्या
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ज्ञाताधर्मकथा
भिउंडि एवं वयासी-न देमिणं अह तुम्भ मा विदेहरायवरकण्णं तिकट्टु ते छप्पिए असक्कारिय असम्माणिय अवहारेण णिच्छुभावेइ । तरणं जियसत्तू पामोक्खाण छण्हं राईणं दूया कुभएणं रन्ना असकारिया असम्माणिया अबदारेणं णिच्छुभाविया जेणेव सगार जाणवया जेणेव सयाइ २ नगराइ जेणेव सगार रायाणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल परि० एव वयासी एवं खलु सामी । अम्हे जियसत्तू पामोक्खाणं छण्ह राईणं दूया जमगसमग वेव जेणेव मिहिला जाव अवद्दारेणं निच्छुभावेइ, तण देइर्ण सामी । कुभए मल्लि विदेहरायवरकन्न साणं २ राईर्ण एयम निवेदेति ।
तणं ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो तेसि दूयाणं अंतिए एयभट्ट सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमपणस्स दूसपेसणं करेति, करिता एव क्यासी- एव खलु देवाणुप्पिया | अम्ह छण्ह राईण दूया जमगसमगं चेव जाव निच्छूडा, त सेय खलु देवाणुप्पिया । अम्ह कुंभगस्स जत्त गेण्हित्तए तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयमट्ट पडिसुणेति, पडिसुणिता पहाया सण्णा हत्थिखधवरगया सकोरट मल्लदा मेण छत्तेर्ण धरिमाणेणं, उधुव्वमाणाहिं सेयवरचामराहिं महयाहयगयरहपवरजोहक लियाए चाउरगिणीए सेणाए सद्धि सपरिवुडा सविट्टीए जाव वेणं सएहिं नगरेहिंतो जाय निग्गच्छति
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ पराजयुद्ध निरूपणम्
४६ रे
असमान्य, च 'अवदारेण ' अपद्वारेण भवनपश्चाद्भागस्थितलघुद्वारेण विच्छुमान वै निःसारयति ।
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ततस्तदनन्तर खलु ते जितशत्रुममुखाणा पण्णा राज्ञा दूताः कुम्भकेन राज्ञा असत्कारिताः असन्मानिता अपद्वारेण निःसारिता सन्त यत्रैव स्वकी आत्मीयाः २, ' जाणवया ' जानपदा = देशाः, यत्र स्वकानि २ नगराणि येचैव स्वर राजान आमन, तत्रैवोपागच्छति, उपायुगत्य करतलपरि गृहीत दशनख शिर आव मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, एवमादिषुः - हे स्वामिन्! रिंय अवद्दारेण णिच्छुभावेइ ) हे दूतों ! मैं अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी तुम्हारे राजाओ के लिये नहीं दूंगा " ऐसा कर कर उसने उन दूतो का न कोई सत्कार किया और न कोई सन्मान ही किया किन्तु उन्हें भवन के पीछे भाग के छोटे से दरवाजे से बाहिर निकाल दिया । (तएण जियसत्तू पामोक्खाण छण्ट राईण दूया कुभएण रन्ना असक्कारिया असम्माणिया अवहारेण णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगार जाणवया जेणेव सयाइ२ नगराइ जेणेव सगा २ रायाणो तेणेच वागच्छतिः) इस तरह उन जितशत्रु प्रमुख राजाओ के वे दूर्ति कुमक राजा से असत्कृत एव असमानित होते हुए जन महल के पिछले छोटे से द्वार से बाहिर निकाल दिये गये तन वे वहा से प्रस्थित होकर जहा अपना २ जनपद था, वहा अपने २ नगर थे और उन में भी जहा अपने २ राजा थे वहा आ गये ।
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असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेण णिच्छुभावेइ )
“ હે દૂતે મારી પુત્રી વિદેહરાજવ કન્યા મલ્ટીકુમારી તમારા રાજા મને આપીશ નહિ ” આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ તેના કોઈ પણ રૂપમા મત્કાર અને સન્માન ન કરતા તેઓને પેાતાના મહેલના પાછળનાં નાના માણેથી બહાર કાઢી મૂક્યા
(तरण नियमत्तू पामोखाण उन्ह राईण दुया कु भएण रन्ना असक्कारियो असम्माणिया अनदारेण णिच्छुभाविया समाणा जेणेन सगार जाणवया जेणेव साइ २ नगरा जेणेव सगार रायाणो तेणेव उवागच्छति )
આ પ્રમાણે છતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએના તે તે કુ લકરાજા વર્ડ સંસ્કૃત અને અસમાનિત થતા જ્યારે મહેલના પાછલા ખાણેથી બહાર કાઢી મૂક વીમા આવ્યા ત્યારે તે ત્યાવી રવાના વઈને જ્યાં તેમને જનપદ (દેશ) તે; જ્યા તેમનુ નગર હતુ અને તેમા પણ જરા તેમના રાજા! હતા ત્યા પહેામ્યા.
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प्रत्येक २ फरेनल, परिगृहीत शिर मारतं मन्नोऽजलि कता हाम्रो *वयणाइ' उपनानि-कथनानि निवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तर स कुम्भको सजा तेपा दूतानामन्तिके-समीपे, एतमय ' जितशत्रप्रमुग्या पडपि राजानो मल्ली
छन्ति इत्येतद्प इत्तान्त युवा आसुरुत्ते' आशुरु -शोर क्रोषाविष्टा, या निमलिका-रेखात्रययुता भृकुटि भ्रुप कौटिल्य ललाट कुर्वन् पय-बल्य मणिकारण, आदी हे दताः 'नो दास्यामि' खल्लु अह युस्मा राजपा मल्ली विदेहराजवरकन्याम्' इति कन्वा इत्युक्त्या तान् पडपि दूतान् असत्कृत्य तेणेव उवागच्छति ) प्रवेश फार, जहा कुभक,राजा थे-वहा,आये,(उवा गच्छित्ता पत्तेय रेकरयल परिग्गहियं सिरसावत्त दसनह मत्थए अजलि कटु साण २ राईण चेयणाणि निवेदेति) वरा आकरा उन सषोंने भिन्न २ रूप से, कुभक राजा को दोनों हाथो की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया-नमस्कार कर के फिर उन्होंने क्रमश अपनो २ राजा का करना उसे सुनाया-(तएण से कुमए तेलि दुर्याण अन्तिण, एयम? सोच्चा आसुरुत्ते जावातिवलिय भिहिं एक वयासी) जितशत्रु प्रमुख छहो ही नृपति मेरी पुत्री मल्लीकुमारी को चाह रही हैं। इस प्रकार का समाचार उन दतों के पासासे सुनकर घहं कुमक राजा, इकदम क्रोधित हो गया और उसी समय उसकी त्रिवलियुक्त भ्रकुटि मस्तक पर चढ गई। ।
। इसी आवेश में उसने उन दूतो से इस प्रकार कहा-(न देमि में अह तुम्भ मल्ली, विदेह रायवरकपण त्ति कटुते छप्पिाइए , असक्का]
(उवागच्छित्ता पत्तेय २ करयलपरिग्गहिय, सिरसावत्त, दसनह मत्थए अजलिं क्टु साण २ राईण, वयणाणि निवेदेति।), । ।
| ત્યાં જઈને તેઓ બધાએ જુદા જુદા રૂપમાં કુભક રાજાને બને હાથની અજલિ બતાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને નમસ્કાર કરીને તેઓએ વારાફરતી પિપિતાના રાજાનો સંદેશ તેમને કહી’ સંભળાવ્યું ....(तएणं से कु भए तेसिं याण अतिए, एयमट्ट सोच्चा आसुसत्तेनाव तिवं लिय भिडि एव वयासी) । 11) જીતશ પ્રમુખ છએ છ રજાઓ મારી પુત્ર મલીકુમારીને ચાહે છે આ જાતને સદેશ દતેના મોથી સાભળીને કુંભક રાજા એકદમ ગુસ્સે થઈ ગયો અને ત્રણે રેખાઓવાળી તેમની ભ્રકુટી ભમરો વક થઈ ગઈ છે If tथत मावेशमा रात त इतने ही समय 3- ।।। (नदेमि ण अह ! तुम्भ । मल्ली विदेहरण्यवर कण्णात्तिाका ते पिर
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मनगारधर्मातर्पिणी टीका अ० ८ पराजयुद्धनिरूपणम् असमान्य, च 'अवदारेण ' अपद्वारेण भवनपश्चाद्भागस्थितलघुद्वारेण णिच्छुमावेई निःसारयति।
ततस्तदनन्तर खलु ते जितशेत्रुममुखाणा पणा राज्ञा दूताः कुम्भकेन राज्ञा असत्कारिता' असन्मानिता अपद्वारेण नि.सारिता सन्त' यत्रैव स्वका २3 आत्मीयाः २, 'जाणवया' जानपदा = देशाः, यत्रैव स्वकानि २ नगराणि) यौत्र स्वकाः २ राजान आमन्ः, तत्रोपागन्छति, उपायुगत्य करतलपरिगृहीत दशनख शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, एवमवादिषु। - हे स्वामिन् ! रिय अवदारेण णिच्छुभावेइ), हे दूतों। मैं अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी तुम्हारे राजाओ के लिये नही .द्गा" ऐसा कहकर उसने उन दूतो को न कोई-सत्कार किया और न कोई सन्मानही किया-किन्तु उन्हें भवन के पीछे भाग के छोटे से दरवाजे से-याहिर निकालदिया। (तएण जियसत्तू पामोक्खाण छण्ह राईण दूया कुभएण रना असरकारिया असम्माणिया अवद्दारेण णिच्छुभाविया समाणा, जेणेव सगा२ जाणवया जेणेव सयाइ२ णगराइ जेणेव संगा २-रायाणो तेणेव उवागच्छति,) इस तरह उन जितशत्रु प्रमुख राजाओ के वे दत कुमक राजा से असत्कृत एव असमानित होते हा जय महलके पिछले छोटे से द्वार से बाहिर निकाल दिये गये तब वे वहा से प्रस्थित होकर जहा, अपना २ जनपद था, वहा अपने २ नगर थे, और उनमें भी जहा अपने २ राजा थे वहा आ गये। असक्कारिय असम्माणिय अवदारेण णिच्छुभावेइ)
હે તે મારી પુત્રો વિદેહરાજવર કન્યા મલતીકુમારી તમારા રાજા એને આપીશ નહિ ” આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ તેને કોઈ પણ રૂપમાં સત્કાર અને સન્માન ન કરતા તેઓને પિતાના મહેલની પાછળની નાની બારણેથી બહાર કાઢી મૂક્યા . (तएण नियमत्तू पामोखाण उव्ह राई या कु भएणं रन्ना असक्कारियों असम्माणिया अमदारेण णिच्छुभाविया समाणा जेणे सगा२ जाणवया जेणेव सयाइ २ णगरा जेणेव सगा२ रायाणो तेणेव उवागच्छति)
આ પ્રમાણે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓના તે તો કુંભકરા વડે અસત્કૃત અને અસમાનિત થતા જ્યારે મહેલના પાછલા બારણેથી બહાર કાઢી મૂક વામાં આવ્યા ત્યારે તેઓ ત્યાથી રવાના થઈને જ્યાં તેમને જનપદ (દેશ)હતે જ્યાં તેમનું નગર હતુ અને તેમાં પણ જવા તેમના રાજા હતા ત્યા પહેગ્યા.
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प्रत्येक २, फरेतल, परिगृहीत शिर भारत मम्त केलि कृत्वा सोरा स्वेता रोग 'वयणाइ ' परनानि कयनानि निवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तर स कुम्भको राजा तेपा दतानामन्तिके-समीपे, एतमय 'जितशत्रप्रमुसा पडपि राजानो मल्ली
छन्ति इत्येतद्प [त्तान्त श्रुत्वा ' आसुरुत्ते' आशुत शीत्र क्रोधाविष्टः, याद त्रिवलिकांपाययुता भृकुटि भ्रुः कौटिल्य ललाटे कुर्वन् ववल्प मणिकारण, आदी हे दताः 'नो दास्यामि सल अह युहमा राजम्यो मल्ली विदेहराजवरकन्याम' इति कृत्वा-इत्युक्त्वा तान् पडपि तान् असत्कृत्य, तेणेव उवागच्छति ) प्रवेशं पार जहा कुभा राजा थे-वहा आये (उवा गच्छित्ता पत्तेय ' करयल परिगरिय सिरसावत्त दसनह मधए अजलि कट्टु साण २ राईणं वेपणाणि निवेदेति) वरा आफरा उन सबोंने भिन्न २ रूप से, कुभक राजा को दोनों हाथो की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया-नमस्कार कर के फिर उन्होंने क्रमश अपनो २ राजा का कयना उसे सुनाया-(तएण से कुमए तेसि दूर्योण अन्तिए, एयम सोच्चा आलुरुत्ते जावातिवलिय भिहिं एवं वयासी);जितशतु प्रमुख छरों ही नृपति मेरी पुत्री मल्लीकुमारी को चाहा रही हैं। इस प्रकार का समाचार उन दूतों के पासासे सुनकर यह कुमक राजा. इकदम क्रोधित हो गयो-और उसी समय उसकी त्रिवलियुक्त भ्रकुटि मस्तक पर चढ गई। ।
। , इसी आवेश में उमने उन दतो से इस प्रकार कहा-(न देमिण अह. तुभ,मल्ली, विदेह रायवरकपण,त्ति कटूटुते छप्पिदुए असक्का
(उवागच्छित्ता पत्तेय २ करयलपरिग्गहिय सिरसावत्त, दसनह मत्थए अजलिं क्डु साण २ राईण, वयणाणि निवेदेति।)। । । । ।
છે, ત્યાં જઈને તેઓ બધાએ જુદા જુદા રૂપમાં કુભક રાજાને બને હાથની અજલિ બતાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યો અને નમસ્કાર કરીને તેઓએ વારાફરતી પિતતાના રાજાનો સદેશે તેમને કહી સંભળાવ્ય '
"(तएणं से कुभए तेसिं याण अतिए एयम सोच्चा आमुसत्तेनात्र तिव लिय भिउडि एव वयासी) f) જીતશકું પ્રમુખ છએ છે મારી પુત્ર! મલકુમારીને ચાહે છે. આ જાતનો સ દેશ હતના મોથી સાભળીને કુંભક રાજા ! એકદમ ગુસ્સે થઈ ગયuઅને ત્રણે રેખાઓવાળી તેમની ભ્રકુટી ભમરે વક્ર થઈyગઈ !
ક્રોધના આવેશમાં રાજાએ તે તેને કહી સંભળાવ્યું કે ! ! (नदेमि ण अह ! तुम्भ । मल्ली विदेहरायवर कण्णात्तिाका ते एप्पिए
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका भ० ८ पइरानयुद्धनिरूपणम् . ? असमान्य, च 'अबदारेण ' अपद्वारेण भवनपश्चाइागस्थितलघुद्वारेण ' गिच्छुमा वे निःसारयति ।
ततस्तदनन्तर खलु ते जिंतशत्रुममुखाणा पणा राज्ञा दूताः कुम्भकेन राज्ञा असत्कारिता' असन्मानिता अपद्वारेण निःसारिता सन्त' यत्रैव स्वका २० आत्मीयाः २, ' जाणवया' जानपदा = देशाः, यत्रैव स्वकानि.२ नगराणि यो स्वका २ राजान आसन् , तत्रोपागन्छति, उपायुगत्य करतलपरिगृहीत दशनख शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, एवमवादिघु.। - हे स्वामिन् । रिय अवदारेण णिच्छुभावेइ ) हे दूतों में अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी तुम्हारे राजाओ के लिये नही दगा" ऐसा कहकर उसने उन दूतो को न कोई-सत्कार किया और न कोई सन्मान-ही किया-किन्तु उन्हें भवन के पीछे भाग के छोटे से दरवाजे से पाहिर निकाल दिया ।, (तएण जियसत्तू पामोक्खाण छण्ड राईण या कुभएण रन्ना असरकारिया असम्माणिया अवदारेण णिच्छुभाविया समाणा, जेणेव सगा२ जाणक्या जेणेव सयाइ२ णगराइ जेणेव संगा २-रायाणो तेणेव उवागच्छतिः) इस तरह उन जितशत्रु प्रमुग्व राजाओ के वे दूत कुभक राजा से असत्कृत एव असमानित होते हए-जन महलके पिछले छोटे से द्वार से बाहिर निकाल दिये गये तब वे वहा से प्रस्थित होकर जहा, अपना २ जनपद था, वहा अपने २ नगर ये, और उनमें भी जहा अपने २ राजा थे वहा आ गये। असरकारिय असम्माणिय अबदारेण णिच्छुभावेइ )
હે તો મારી પુત્રી વિદેહરાજવર કન્યા મcતીકુમારી તમારા રાજા એને આપીશ નહિ ” આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ તેને કોઈ પણ રૂપમા સત્કાર અને સન્માન ન કરતા તેઓને પોતાના મહેલના પાછળના નાના બાણેથી બહાર કાઢી મૂક્યા . (तरण नियमत्तू पामोखाण छम्ह राईण या कु भएण रम्ना असक्कारियों असम्माणिया अपदारेण णिच्छुभाविया समाणा जेणेच सगार जाणवया जेणेव सयाइ २ णगराइ जेणेव सगार रायाणो तेणेव उवागच्छति )
આ પ્રમાણે છતરાત્રુ પ્રમુખ રાજાઓના તે દૂતે કુંભ રાજા વડે અસલ્કત અને અસમાનિત થતા જ્યારે મહેલના પાછલા બારણેથી બહાર કાઢી મૂક વામાં આવ્યા ત્યારે તેઓ ત્યાથી રવાના થઈને જ્યાં તેમને જનપદ (દેશ)હતે જ્યાં તેમનું નગર હતુ અને તેમા પણ જયા તેમના રાજા હતા ત્યા પહેગ્યા.
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पाताधMated प्रत्येक २.फरेवल, परिगृहीत शिर मारत.मम्न के क्षलिं कृत्वा संसा मेरोमा 'वयणाइ' पनानिकथनानि निवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तर स कुम्भको राजा तेपा दतानामन्तिके-समीपे, एतमय 'जितशत्रप्रमुग्ना पडपि राजानो मल्ली
छन्ति इत्येतद्रप 'त्तिान्त अत्या" ओसुरुत्ते' आशुरु शोन क्रोषाविष्टा, याद-विवालिका-रेखात्रययुता भृकुटि-भ्र कौटिल्य ललाटे कुन् पर्व-त्रस्य मणिकारण, अादी हे दूताः 'नो दास्यामि' सल अह युष्मा राजम्यो मेल्ली विदेहराजवरकन्याम्' इति कृत्वांइत्युक्त्या तान् पंडपि दूतान् असत्कृत्य, तेणेव उवागच्छति ) प्रवेश पार जहा कुभक राजा थे-वहा.आये,(उजा गच्छित्तो पत्तेय । करयल परिगरिय मिरसांवत्त दर्सन मत्थए अजलि कटु साण २ राईण क्षणाणि निवेदेति) वरा आफर उन सबोंने भिन्न २ रूपासे,कुभक राजा को दोनों हाथों की अजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया-नमस्कार कर के फिर उन्होंने क्रमश.अपनो २ राजा का करना उसे सुनाया-(तएण से कुमर तामा दुर्याण अन्तिए, एयम? सोच्चा आसुरुत्ते जावातिवलिय भिडिं पर वयासी) जितशत्रु प्रमुग्व छहो ही नृपति मेरी पुत्री मल्लीमारी को चाह रही हैं। इस प्रकार । का समाचार उन दूतों के पास से सुनकर घह कुमक राजा इकदम क्रोधित हो गया और उसी समय उसका त्रिवलियुक्त भ्रकुटि मस्तक पर चढ़ गई।
" , इसी आवेश में उसने उन दतो से इस प्रकार कहा-(न देमिण अह. तुम्भ मल्ली, विदेह, रायवरकपण, त्ति कटुते, छप्पिा दृए असक्का
(उवागच्छित्ता पत्तेय २ करयलपरिगहिय सिरसावत्त, दसनह मत्थए अजलिं कटु साण २ राईण वयणाणि, निवेदेति।), ।। । .
છે. ત્યાં જઈને તેઓ બવાએ જુદા જુદા રૂપમાં કુંભક, રાજાને બને હાથની અ જલિ બતાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને નમસ્કાર કરે, તેઓએ વારાફરતી પિતપોતાના રાજાનો સંદેશ તેમને કહી સંભળાવ્યો
"(तएण से कुंभएतेसिं याण अतिए एयमंट्ट सोच्चा आसुसत्तेजाव तिव लिये मिउडि एच वयासी') f?' છત છએ છે રાજા માળ પુત્ર મલ્લીકુમારીને ચાલે છે આ જાતનો સંદેશ તેના મોથી સાભળીને કુંભ રાજા' ! એકદમ ગુસ્સે થઈ ગયાં અને ત્રણે રેખાઓવાળી તેમની ભ્રકુટી ભમર વક થઈ ગઈ ,
यता मावशमा २० ते इतने ही समापु, --} } , (नादेमि णाअह : तुम्भ । मल्ली विदेहरायवर कण्णात्तिाका ते छप्पिए
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ पट्टानयुद्धनिरूपणम् . . _vat असमान्य, च 'अवदारेण ' अपद्वारेण भवनपश्चाद्भागस्थितलघुद्वारेण ' गिच्छुभान वेश निःसारयति ।
ततस्तदनन्तर खलु ते जिंतगप्रमुखाणा पण्णा राज्ञा दूताः कुम्भकेन राज्ञा असत्कारिताः अमन्मानिता अपद्वारेण नि.सारिता सन्त. यत्रैव स्वका २ आत्मीयाः २, 'जाणवया' जानपदा = देशाः, यत्रे स्वकानि२ नगराणि यजैव स्वकाः २ राजान आसना, तत्रोपागन्छति, उपायुगत्य करतलपरित गृहीत दशनख शिर आवर्त मस्तकेजलिं कृत्वा, एवमवादिघु. - हे स्वामिन् । रिय अवदारेण णिच्छुभावेह) हे दूतो ' मैं अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी तुम्हारे राजाओ के लिये नही दगा" ऐसा कहकर उसने उन दूतो को न कोई सत्कार किया और न कोई सन्मानही किया किन्तु उन्हें भवन के पीछे भाग के छोटे से दरवाजे से,बाहिरी निकाल दिया।, (तण्ण जियसत्तू पामोक्खाण छह राईण दूया कुभएण रना असरकारिया असम्माणिया अवद्दारेण णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगार जाणवया जेणेव सयाइ२ गगराइ जेणेव संगा २ रायाणो तेणेच उवागच्छतिः) इस तरह उन जितशत्रु प्रमुख राजाओ के वे दत कुभक राजा से असत्कृत एव असमानित होते हुए जर महल के पिछले छोटे से द्वार से बाहिर निकाल दिये गये तर वे वहा से प्रस्थित होकर जहा, अपना २ जनपद था, वहा अपने २ नगर थे, और उनमें भी जहा अपने २ राजा थे वहा आ गये। असक्कारिय असम्माणिय अवदारेण णिच्छुभावेइ) , હું તો મારી પુત્રી વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારી તમારા રાજા એને આપીશ નહિ ” આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ તેને કોઈ પણ રૂપમાં સત્કાર અને સન્માન ન કરતા તેઓને પિતાના મહેલના પાછળના નાને બારણેથી બહાર કાઢી મૂક્યા . (तएण जियमत्तू पामोक्खाण छह राईण या कु भएणरन्ना असकारियों असम्माणिया अवदारेण णिन्भाविया समाणा जेणेप सगार जाणवया जेणेव सयाइ २ णगराइ जेणेव सगार रायाणो तेणेव उवागन्छति)
આ પ્રમાણે છેતરાત્રુ પ્રમુખ રાજાઓના તે દૂતે કુંભ રાજા વડે અસલ્કત અને અસમાનિત થતા જ્યારે મહેલના પાછલા બારણેથી બહાર કાઢી મૂકી વિામાં આવ્યા ત્યારે તેઓ ત્યાંથી રવાના થઈને જ્યાં તેમને જનપદ (દેશ)હતે જ્યા તેમનુ નગર હતુ અને તેમાં પણ મા તેમના રાજા હતા ત્યાં પહોચ્યા,
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૪૨
statuteथाने
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एव खलु य जितशत्रु ममुखाणा पण्गा राज्ञा दूताः 'जमगसमर्ग ' युगपत् एकस्मिन् काल एव, नैन मिथिला यावत् तत्रैन गत्वा स्वेषां स्वेषां राज्ञा वचनानि निवेदितवन्तः, तदा स कुम्भः शीघ्र क्रोधाविष्टः सन 'न दास्या म्यह मल्ली ' मित्युक्तास्मान सत्कृत्यासमान्य, अपद्वारेण 'निच्छुमावेइ ' निःसा रयति - निष्कासयति स्मेत्यर्थ । तत=तम्माद् न ददाति हे स्वामिन् । कुम्भको मल्लीं विदेर राजनरकन्याम् इत्युत्या पडपि दूताः स्वेपा नेता राज्ञामेवमुक्तम निवेदयन्ति कथयन्तिस्म ।
-
(उवागच्छित्ता करयलपरि० एव वयासी) वहा आकर उन्होंने उन्हें दोनों हाथों की अजलि बनाकर नमस्कार किया (एव खलु सामी | अम्हें जियसत्तू पामोखाण छण्ट राईण या जमगसमग चेव जेणेव मिहिला जाव अवद्दारेण निच्छुभावेइ ) हे स्वामिन् । हम सब जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के दूत एक ही समय जहा मिथिला नगरी थी - वहां पहुँचे वहा पहुँचकर कुभक राजा के दर्शनार्थ उनके राजमहल में गये वहा जाकर हमलोगों ने सविनय अपने राजाओं के वक्तव्य उन्हें कहकर सुनाये सुनते ही वे कुभक राजा क्रोध से भर गये और कहने लगे हम अपनी पुत्री मल्ली कुमारी किसी को नही देगे ऐसा कहते हुए उन्हो ने बाद में हमलोगो को असत्कृत एवं असमानित कर अपने महल से उसके पिछले छोटे से दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया।
( उत्रागच्छिता करयल परि०" एव वयासी ) त्या भावाने तेभो मने હાથેાની અજલી બતાવીને નમન કર્યાં
( एव खलु सामी ' अम्हे जियसत्तू पामोक्खाण छह राईण दूया जमग समग चेत्र जेणेव मिहिला जाव अवहारेण निच्छुभावेइ )
અને હ્યુ હૈ સ્વામિન! અમે બધા જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ છ રાજાના દૂતે એક જ સમયમાં જ્યા મિથિલા નગરી હતી ત્યા પહેાગ્યા, ત્યા પહે ચીને કુ ભકરાજાના દર્શન માટે અમે રાજમહેલમા ગયા ત્યા પહેાચીને અમે લેાકેાએ વિનયની સાથે પાતપેાતાના રાજાને સદેશ તેમને કહી સ ભળાયૈ કુ ભકરાજા તે સદેશાએને સાભળતા જ ગુસ્સે થઈ ગયા અને કહેવા લાગ્યા કે కీ મારી પુત્રી મલ્ટીકુમારી કોઈને ય આપીશ નહિ. આમ કહેતા તેમણે અમને અસત્કૃત તેમજ અસ માનિત કરીને પેાતાના મહેલના પાછળના નાના મારાથી બહાર કાઢી મૂક્યા
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अमगारधर्मामृतवर्षिणा टी० अ० ८ पराजयुद्धनिरूपणम्
४३
ततः ग्वल ते जितपत्रप्रमुखाः पडपि राजानस्तेषां दूतानामन्ति के समीपे, एतमर्थ श्रुत्वा = कर्णगोचरीकृत्य, निशम्य = अर्थमनगम्य' आशुम्सा' = शीघ्र क्रोधा विष्टा ' अण्णमण्णस्स ' अन्योन्यस्य = परस्परस्य दूतसमेपण कुर्वन्ति कृत्वा एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादिपु -हे देवानुप्रिया ! एवं खलु अस्माक पण्णा राना दूताः युगपदेव यावदसत्कृत्यास मान्यापद्वारेण ' णिच्छूढा' निक्षिप्ताः = निः
"
( त ण देहण सामी । कुमए मल्लि विदेहरायवरकन्न साणं २ राहण एयम निवेदेति) अत हे स्वामिन् | आप निश्चय समझे - कुभ कराजा अपनी विदेह राजवरकन्या मल्लीकुमारी को नही देता है । ऐसा कहकर उन छहों दूतो ने इसी उक्त अर्थ की पुष्टी अपने राजा ओं के समक्ष की। (तएण से जियसत्तू पामोक्खा उप्परायाणो तेर्सि दूयाण अन्तिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म असुस्ता अण्णमण्णस्म दूय सपेसण करेति ) इसके बाद उन जितशत्रु प्रमुख हो राजाओं ने दूनों के मुखसे इस बात को सुनकर और उसे समझ कर क्रोधित हो अपने २ दूतों को एक दूसरे राजा के पास भेजा ( करिता एव व्यासी- एव खलु देवाणुप्पिया? अम्ह उष्ट राईण दूया जमगममग चेव जाव णिच्छूडा) भेज कर उन दूतों से यह समचार कहलवाये - हे देवानुप्रियों । देखो हम छहों राजाओ के दूत एक ही समय कुभक राजा के पास
( तण देइण सामी ! कु भए मल्लि त्रिदेहरायवरकन्न साग २ राईण एयम निवेदेति )
એથી હુ સ્વામિન્ ! તમે ચાક્કસપણે આ જાણીલેા કે કુ ભટ્ટ પેાતાની વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી આપશે નહિ આ પ્રમાણે કહીને છએ ાએ પાતપાતાના રાજાઓની સામે પેાતાના મતની પુષ્ટિ કરી
(तरण से जियसत्तू पामोक्खा उप्पि रायाणो तेसिं दूयाण अतिए एवमट्ठ सोच्चा निसम्म जासुखत्ता अण्ण मण्णस्स दूयसपेमण करेंति )
ત્યારબાદ જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ દ્વતાના મુખેથી આ પ્રમાણે વાત સાભળીને અને તેને માખર સમજીને ગુસ્સે વયા અને પાતપેાતાના તાને એક બીજા રાજાની પાસે માકલ્યા
1
( करिता एव वयामी एव ग्वल देवाणुपिया ! अम्ह राईण दुया जमग समगचैव जाव णिच्छूढा ) તેઆએ તે તેની સાથે આ જાતને નદેશ મૈથ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! આપણા એ રાજાએના તેા એકી વખતે કુંભકરાજાની પાસે ગયા ત્યા તેણે
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પ્રેક્ષ્
वाताधर्मकथासूत्रे
1
एव खलु वय जितशत्रुममुखाना पण्णा राज्ञा दूताः ' जमगसमग' युगपत् एकस्मिन काल एव यंत्रै मिथिला यावत् - तत्रैव गत्वा स्वेषा स्वेषां राज्ञा वचनानि निवेदितवन्तः, तदा स कुम्भरः शीघ्र क्रोधाविष्टः सन् 'न दास्या यह मल्ली ' मित्युक्तास्मान सत्कृत्यासमान्य, अपद्वारेग 'निन्छुभावे ' निःसा रयति - निष्कासयति स्मेत्यर्थ । तत=वस्मार न ददाति है सामिन्! कुम्भको मल्ली विदेर राजकन्याम् इत्युक्ा पडपि दूताः स्वेपा सेवा राज्ञामेवमुक्तम निवेदयन्ति कथयन्तिस्म ।
(चित्ता करयलपरि० एव वयासी) वहा आकर उन्होंने उन्हें दोनों हाथों की अजलि बनाकर नमस्कार किया (एव ग्वलु सामी ! अम्हें जियसत्तू पामोक्खाण छण्ट राईण या जमगसमग चेव जेणेव मिहिला जाव अवद्दारेण निच्छुभावेड ) हे स्वामिन्! हम सब जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के दूत एक ही समय जहा मिथिला नगरी थी- वहा पहुँचे वहा पहुँचकर कुभक राजा के दर्शनार्थ उनके राजमहल में गये वहा जाकर हमलोगों ने सविनय अपने २ राजाओं के वक्तव्य उन्हें कहकर सुनाये सुनते ही वे कुभक राजा क्रोध से भर गये और कहने लगे - हम अपनी पुत्री मल्ली कुमारी किसी को नही देगे ऐसा कहते हुए उन्हों ने बाद मे हमलोगों को असत्कृत एव असमानित कर अपने महल से उसके पिछले छोटे से दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया ।
( उवागच्छिता करयल परि०" एव वयासी ) त्या भावाने तेभोजने હાથેાની અ જલી ખત્તાવીને નમન કર્યાં
( एव खलु सामी ' अम्हे जियसत्तू पामोक्खाण छह राईण दूया जमग समग चेत्र जेणेव मिहिला जाव अवहारेण निच्छुभावेइ )
અને કહ્યુ હે સ્વામિન્ ! અમે બધા જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ છ રાજાઓના તે એક જ સમયમા જ્યા મિથિલા નગરી હતી ત્યા પહેાચ્યા, ત્યા પહા ચીને કુ લકરાજાના દર્શન માટે અમે રાજમહેલમા ગયા ત્યા પહેચીને અમે લાકાએ વિનયની સાથે પાતપેાતાના રાજાને સ દેશ તેમને કહી સભળાવ્યે કુંભકરાજા તે સદેશાઓને સાભળતા જ ગુસ્સે થઈ ગયા અને કહેવા લાગ્યા
శ్రీ મારી પુત્રી મલ્ટીકુમારીકાઈને ય આપીશ નહિ. આમ કહેતા તેમણે અમને અમદ્ભુત તેમજ અસ માનિત કરીને પોતાના મહેલના પાછળના નાના ખારણાથી બહાર કાઢી મૂક્યા
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লাঘমামূর্থিী o ০৫ অrডনিম ___ततः खलु ते जितएत्रुममुखाः पडपि राजानस्तेषां दतानामन्ति के समीपे,
एतमर्थ श्रुत्वाकर्णगोचरीकृत्य निशम्य अर्थमनगम्य' आशुरुता' शीध्र क्रोधा विष्टा 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य दूतसमेपग कुर्वन्ति, कृला एव वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादिपु -हे देवानुप्रिया ! एव खलु अस्माक पण्णा राना दताः युगपदेव यावदसत्कृत्यासमान्यापद्वारेण 'णिच्छूढा' निसिप्ता:= नि'
(त ण देहण सामी! कुमए मल्लि विदेहरायवरकन्न साण २ राइण एयमह नि वेदेति) अत हे स्वामिन् ! आप निश्चय समझे-कुभ कराजा अपनी विदेह राजवरकन्या मल्लीकुमारी को नहीं देता है। ऐसा कहकर उन छहों दूतो ने इसी उक्त अर्थ की पुष्टी अपने २ राजा
ओ के समक्ष की । (तएण से जियसत्तू पामेक्खिा छप्पिरायाणो तेसिं दृयाण अन्तिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म असुरुत्ता अण्णमण्णस्म द्वय सपेसण करेति) इसके बाद उन जितशत्रु प्रमुस हो राजाओं ने दनों के मुखसे इस बात को सुनकर और उसे समझ कर क्रोधित हो अपने २ दूतों को एक दूसरे राजा के पास भेजा (करित्ता एव बनामी-एव खलु देवाणुप्पिया? अम्ह उण्ड राईण दूया जमगसमगं चेव जाव णिच्छूडा) भेज कर उन दूतों से यह समचार कहलवाये-हे देवानुप्रियों। देखो हम छहों राजाओ के दूत एक ही समय कुभक राजा के पाम
(त ण देइण सामी । कु भए मल्लि विदेहरायपरकन्न साण २ राईण एयम निवेदेति)
એથી હે સ્વામિન્ ! તમે ચક્કસપણે આ જાણી લો કે કુભક પિતાની વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી આપશે નહિ આ પ્રમાણે કહીને છએ દૂતોએ પિતાપિતાના રાજાઓની સામે પિતાના મતની પુષ્ટિ કરી
(तएण से जियसत्तू पामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं याण अतिए एवमट्ट सोच्चा निसम्म आमुख्ता अण्ण मण्णस्स दूयसपेसण करेंति)
ત્યારબાદ જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ તેના મુખેથી આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને અને તેને બરોબર સમજીને ગુસ્સે થયા અને પોતપોતાના તેને એક બીજા રાજાની પાસે મોકલ્યા
(करित्ता एव वयामी एव ग्वल देवाणुप्पिया ! अम्ह राईण या जमग समगचेव जाव णिहा)
તેઓએ તે તેની સાથે આ જાતનો પ્રદેશ કર્યો કે હે દેવાનુપ્રિયે! આપણું છએ રાજાઓના તે એકી વખતે કુ ભરાજાની પાસે ગયા ત્યાં તેણે
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__ ...माताधर्ममा सारिताः । तत् तस्मात् श्रेयः खलु हे देशानुपियाः ! अस्माक कम्मकाय मक पराजयाय 'जत्त' यात्रा युद्धगावा ग्रहीतुम्भीरतु श्रेय इति पूर्वसम्बन्ध इति कृत्वा इति परामृश्य-विचार्य, परम्मरस्यैतगध प्रतिगणपन्ति, स्वीकृर्वन्ति, पति क्षुत्प, से जितशत्रुममुवाः पडपि राजानः स्नाताः सनद्वारा युट्ठोपकरण-कालगति धारणेन सज्जीकृतशरीराः, हस्तिस्कन्धरम्गता बानोपरिममारूढा, ' सकोरर पहुँचे-वहां उसने हमलोगों के दूतों का कोई भी सत्कार और सन्मान नही क्रिया-किन्तु उन्हे अपमानित कर अपने महल के पिछले शीट दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया-त) अत:-( सेयं खलु देवाणुलिया! अम्हें कुभगस्सजत्त गेत्तिा त्ति कटु अण्णमण्णस्स फ्धमट्ट पी सुणेति, पडिसुणित्ता, पहाया, मण्णद्धा धिवरगया सकोरेटमल दामेण उत्तण धरिजमाणेण उदधुर्यमाणाहिं सेयवरचामरहिमस्या हयगयरपर्चरजोहकलिया चाउरगिणी सेगारा सद्धि मपरिबुडा सब्धि ड्डीएजाब निगच्छति) हम लोगों का अब यही कर्तव्य श्रेयस्कर है कि हम लोग 'कुम्भक राजा को पराजित करने के लिये उन पर चढाई कर दें।
इस प्रकार का जर उन संघ की परामर्श से चुकी तब सब ने एक मत ही इस बात को मान लिया मन लेने के बाद वे जितशत्रु प्रमुखें सय ही राजा नहा धोकर युद्धोपकरणों से सुसज्जित हो गये । और हाथियों के स्कधो पर आल्ढ होकर महान २ यो से-गजों से रथों से આપણા તેને સાકાર કે સન્માન કઈજ કર્યું નથી, અને તેં મને અપમાતિ" કિરીને પોતાના મહેલને પાછલા નાના બારણેથી બહાર કાઢી મુકવ્યું છે () એથી
सेयं खलु देवाणुप्पिया । जम्ह कुमगस्स जत्न गेण्डित्तए तिकडे, अण्ण मण्णस्स एयगड पडिसणेति,परि सुणित्ता, व्हाया सणद्धा, हत्यिक वर्गयां सको स्टमल्लदामेण छत्तेणे धरिजमाणेणं उधुयमाणाईि सेयवरचामराहि महया हय गयरहपरजोहकलियाए चाउरगिणीए, सेणाए सद्धि सरिखुडा सविडीएं जांव रवेणं सदहि २ नगरेंहितो जाव निगच्छति ) ,
હવે અમારા માટે એક જ કર્તવ્ય, શ્રેયસ્કર લાગે છે કે અમે કન્નકુ AMD iqq! भाटे, तमना १५२ मा ४ीयो - - - )
જ્યારે આ પ્રમાણે બધાએ વિચાર કર્યો ત્યારે સહુએ એકમત થઈને - આ નિર્ણય-સ્વીકારી લીધે ત્યારપછી જીતશત્રુ પ્રમુખ -રાજાઓ સ્નાન કરીને યુદ્ધ માટેના, બધા સાધનોથી સુસજજ થઈ ગયા અને તેઓ મધા
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भनगारधर्मामृतषिणी टीका भ० ८ पद्राशयुद्धनिरूपणम् मल्लदामेण ' सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्ट पुष्पमालमदामयुक्तेन ' छत्तेण धरिज माणेण उधुन्यमाणाहिं सेयवरचामराहि' छत्रेण प्रियमाणेन स्वस्वभृत्येन उद्ध यमानैः श्वेतवरचामरैश्चयुक्ता', 'महयाहयगपरदपपरजोदकलियाए ' महाहयगजरथमवरयोधमलितया महान्तश्च इयगजस्यप्रवरयोधाश्चेति ममाहारद्वन्द्वः महाहयगजरथमवरयोध, सेनाङ्गत्वादेकवद्भान', तेन कलितया = युक्तया, अतएवचतुरङ्गिण्या सेनया सार्व सपरि कृता 'सचिड्डीए' सर्वद्वर्या = राजचिह्नादि रूपया युक्तः यावद्-रवेण = युद्धोत्साहवर्धकतुर्यादि शब्देन स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यो यावद् निर्गच्छन्ति, निगत्य, एकतः एकत्र-एकस्मिन् स्थाने मिलन्ति, मिलित्वा ते जितशत्रुप्रमुखा पडपि राजानो यौत्र मिथिलानगरी, तत्रैव प्राधारयन् गमनाय गन्तु प्रत्ता इत्यर्थः ॥ मू० ३२ ॥ प्रवर योधाओंसे कलित चतुरगिणी सेना को साथ लेकर अपने २ नगरों से बाहिर निकले । हाथी पर जर ये राजा जन बैठे हुए थे उस समय इन के ऊपर छत्र धारी भृत्यो ने कोरटक पुष्प माल्य दाम से युक्त छत्र ताना हुआ था। चामर ढोरने वाले भृत्यजन उस समय इन के ऊपर श्वेतवर चामर ढोर रहे थे। ये समस्त राजाजन राज्यार्थ आह्लाद जनक रूप सर्वद्धि से युक्त होकर ही उत्साह वर्धक तुर्यादि के शब्दों द्वारा सस्तुत होते हुए-अपने २ नगरो से निकले थे। (निग्गच्छित्ता एगया
ओ मिलायति-मिलायित्ता, जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्य गमणाए) निकल कर ये सब एक स्थान पर मिल गये। मिलनेके घाद येसर जितशत्रु प्रमुख-छहों राजा फिर वहासे मिथिला नगरीकी ओर चल दिये ।सू ३२॥ હાથીઓના ઉપર સવાર થઈને મોટા વેડાઓ, હાથીઓ, ર અને બહાર
દ્ધાઓની ચતુર ગિણી સેના સાથે લઈને પિતપોતાના નગરની બહાર નીકળ્યા હાથીઓ ઉપર જ્યારે બધા રાજાઓ બેઠા હતા તે વખતે ત્રધારી ભએ તેમના ઉપર કેર ટક પુષ્પમાલ્ય દામવાળું છત્ર ધર્યું હતુ ચામર ઢળનારા
ત્યજને તે સમયે તેમના ઉપર સફેદ ચામર ઢળતા હતા તે બધા રાજાઓ રાજ્યાથે આહુલાદિરૂપ સર્વદ્ધિયુક્ત થઈને ઉત્સાહ વધારનાર તુર્યાદિના શબ્દ વડે સસ્તુત થતા પોતપોતાના નગરથી બહાર નીકળ્યા હતા
(निग्गन्छित्ता एगयाभो मिलायति-मिलायित्ता, जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए) બહાર નીકળીને તેઓ બધા એક સ્થાને એકઠા થયા એકઠા થઈને તેઓ બધા જીતશત્રુ પ્રમુખ એ રાજાએ ત્યાથી મિથિલા નગરી તરફ રવાના થયા સૂ૩૨
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ज्ञाताधर्मकथा
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मूलम् - तपण से कुभए राया इमीसे कहाए लट्ठे समाणे चलवाउयं सदा सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव० हय जाव सेण्णं सन्नाहेह जाव पच्चप्पिणइ, नएर्ण कुंभप पहाए सण्णद्धे हत्थिखंध० सकोरट० सेयवरचामराहि० महया मिहिल मज्झमज्झेणं णिजाइ, णिजित्ता विदेहं जणवय मज्झमज्झेणं जेणेव देस अते तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता खधावरनिवेस करेइ, कृत्वा, जियसत्तूपामोक्खा छप्पियरायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिटूह तएण ते जियसत्तृपामोक्खा छप्पिय रायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कुभएण रन्ना संद्धि सपलग्गा यावि होत्था, तएण ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पि रायाणो कुभय राय हयमहियपवरवीरघाइयनिविडियचि - धद्धय पडाग किच्छप्पाणोवगय दिसो दिसि पडिसेहिंति, तएण से कुभए जियसत्तूपामोक्खेहि छहि राईहि हयमहित जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे अवले अवीरिए जाव अधारणिज्जमितिकट्टु सिग्धतुरिय जाव वेइय जेणेव मिहिलातेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिल अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवारा पिइ, पिहित्ता रोहसजे चिट्ठइ ॥ सू०३३॥ टीका - ' तएण ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स कुम्भको राजाऽस्या 'तरण से कुभए राया ' इत्यादि ।
टीकार्य - (aण इसके बाद (से कुभए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे बल
↓
तरण से कु भएराया इत्यादि ॥
टीअर्थ - ( त एण ) त्यार पछी (से कु भए इमीसे कहाए लद समाणे बल
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अनगारधर्मामुतवर्षिणी टीका अ०८ कुभकराजयुद्ध निरूपणम्
कथाया लब्धार्य: = ज्ञातार्थ. मन् 'चलाउ' बलन्यापृत- सैन्यव्यापारपरायण सैन्यनायकमित्यर्थः शब्दयति, शब्दयित्वा एव = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् भो देवाभिय | क्षिममेव ' हयजाव सेण्ण' इय०यावत् - सैन्य - इयगजरथमवरोधकलित चतुरङ्गयुक्त सैन्य 'सन्नाद्देह' सनाहय= सन्नद्ध कुरु-सज्जीकुर्वित्यर्थं । यावत् प्रत्यर्पयति, ततोऽसौ सेनापति सैन्य सज्जीकृत्य, कुम्मक राजान निवेदयति है. स्वामिन् ! सैन्यमस्माभिः सन्नद्धीकृतमिति । ततस्तदनन्तर स कुम्भको राजा स्नातः सन्नद्धः = युद्धोपकरणशस्त्रास्त्रकवचादि धारणेन सब्जीकृतशरीरः इस्तिस्कन्धवरगत कोरण्डमाल्यदाम्ना= कोरण्टपुष्परचितमालायुक्तेन कोण स्वभृत्येन वाउय सद्दावेइ ) कुभक राजा को जब यह पता चला तब उस ने अपने सेना नायकको बुलाया - ( मद्दावित्ता एव वयासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा - ( खिप्पामेव० य गय जाब सेण्ण सन्नाहेर जाव पच्चप्पिंणह ) भो देवानुप्रिय ' तुम जल्दी से जल्दी हम - गज- रथ एव प्रवर योधाओं से युक्त चनुरागिणी सेना को सजाओ। और इस की हमे पीछे आकर खबर दो - सेना नायक ने ऐसा ही किया सेना सजा कर राजा को खब र दी कि हे स्वामिन् ' हमने आप की आज्ञानुसार सैन्य सज्जित कर दिया है । (तरण कुभए पहाए सन्नद्ध हत्थि ख० सकोरट० सेयवर चामराहि मह्या मिहिल मज्झ मज्झेण पिज्जाह ) इस के बाद कुभक राजा ने स्नान कर अपने शरीर को युद्वोपकरणो से - शत्र अस्त्र एव कवचादि के चरण से सज्जित किया । बाद में हाथो के स्कध पर
वाउय सद्द।वेइ ) मुल राजने ल्यारे या वातनी लघु थहा त्याने तेथे पोताना सेनापतिने मान्यो ( सद्दाविचा एव वयासी ) मोसावीने तेने उधु
( सिप्पामेत्र० हय गय जात्र सेण्ण सन्नाहेर जाव पञ्चारिणह ) હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સત્વરે ઘેાડા, હાથી, રથ અને મહાર સૈદ્ધાએ વાળી ચતુર ગિણી સેના તૈયાર કરે અને અમને ખબર આપે। મેનાપતિએ પોતાનુ કામ પુરૂ કર્યું, અને રાજાને સૂચના આપી કે હે સ્વામિન! તમારી આજ્ઞા પ્રમાણે અમે સેન્ટ તૈયાર કરી દીધી છે
(तएण कुभए हाए सन्नन्द्र हत्यि खध० सकोरट० सेयवरचामराहि मध्या मिहिल, मज्झ मज्झेण गिज्नाड )
ત્યારબાદ કુ ભક રાજાએ સ્નાન કર્યું અને પછી પેાતાના શરીરને યુદ્ધના સાધનેથી સુસજ્જ કર્યું એટલે કે ગજાએ શસ્ત્ર, અસ્ત્ર, વચ વગેરે ધારણ કર્યો તે હાથીની ઉપર સવાર થયા, રાજ્યને હાથી ઉપર સવાર થયેલા
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मूलम् तपण से कुभए राया इमसे कहाए लट्टे समाणे वलवाउयं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव० हय जाव सेण्णं सन्नाहेह जाव पच्चप्पिणइ, तपर्ण कुंभए पहाए सण्णजे हत्थिग्वध० सकोरट० सेयर चामराहि महया मिहिल मज्झमज्झेणं णिजाइ, णिचित्ता विदेहं जणवय मज्झमज्झेणं जेणेव देस अते तेणेव उवागच्छा, उवागच्छितो खधावरनिवेस करेइ, कृत्वा, जियस तूपामोक्खा छप्पियरायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिट्ठ तण ते जियसत्तामोक्खा छप्पिय रायाणो जेणेत्र कुभए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कुभएण रन्ना सद्धि सुपलग्गा यावि होत्या, तएण ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पि रायाणो कुभय राय हयमहियपवरवीरघाइयनिविडियचि - धद्धयप्पडाग किच्छप्पाणोवगय दिसो दिसि पडिसेहिंति, तएण से कुभए जियसत्तूपामोक्खेहि छहि राईहि हयमहित जाव पडिसेहिए समाणे अस्थामे अबले अवीरिए जाव अधारणिजमितिकट्टु सिग्धतुरिय जाव वेइय जेणेव मिहिलातेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिल अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवाराइ पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ ॥ सू०३३॥ टीका- ' तएण ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु स कुम्भको राजाऽस्या 'तएण से कुभए राया ' इत्यादि ।
टीकार्य - (तरण इसके बाद (से कुभए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे बल
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वरण से कु भएराया इत्यादि ॥
टीडार्थ - ( त एण) त्यार पछी ( से कुमए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे मक
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अगारममृतपिणी टीका अॅ० ८ कुंभककराज युद्ध निरूपणम्
ઘઉં
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खलु ते जितशत्रुप्रमुखाः पडपि राजानो यत्रैव कुम्भकस्तौ नोपागच्छति उपागल्य कुम्भकेन राज्ञा साधें ' सपलग्गा ' समलग्नाः- युद्ध कर्तुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन् । तत स्तदनन्तर खल जितशत्रुप्रमुखाः पडपि राजान. कुम्भक राजान ' हयमहिय - पवरवीरघाइयनिविडियचिधद्धयछत्तपडाग ' हतमथितमचरवी ग्यातित - निपतित चिह्नध्वजच्छत्रपताक - हता. = मारिताः, मथिताः = विलोडिता' - ताडिता घातिता घातम् आघात व्यथा प्राप्ताः मवरवीराः = महाभटाः यस्य स हतमथित नरवीरघातित, आपसाद् घावितशब्दस्य परप्रयोगः, निपातिताचिह्न वज ताका यस्य स निपतितचिह्नध्वज छत्रपताकः, तत कर्मपारयः, तमेनभूत नष्टसैन्य ध्वजपतामित्यर्थ 'किच्छप्पाणोवराय ' कृच्छ्रमाणोपगत कृच्छ्रे कप्टे, प्राणा
तथा
उन छ राजाओ कीप्रतीक्षा करते हुए वे वहीं पर युद्ध के लिये कटिवद्व होकर ठहरगये । (तएण ते जियसन्त पामोक्खा छप्पियरायाणो जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति ) इतने में वे जितशत्रु प्रमुख उहों राजा जहा वे कुभक राजा पहुँचे हुए थे - वहा आ गये ।
( उवागच्छित्ता कुभएण रन्ना सद्धिं सपलग्गा यावि होत्था) आते ही उन लोगोंने कुकराजा के साथ युद्ध करना प्रारंभ कर दिया । ( तएण ते जियसन्त पमोक्खा उप्पि रायाणो कुभय राय यमहियपवरवीर घाइयनिवडियधिद्वयप्पडाग किच्छप्पाणोवराय दिसो दिमिं पडि से हिंति ) युद्ध में उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने कुभकराजा के कितनेक वीरो को जान से मार डाला, कितनेक वीरों को बूरी तरह पीटा, और कितनेक वीरों को घायल कर दिया । तथा राजचिह्न रूप ध्वज पताका एव छत्र उसके जमीन पर गिरादिये । इस तरह उसके (तएण ते जियसत्तू पामोक्खा उपियरायाणो जेणेव कु भए तेणेव उवागच्छति ) એટલામા તેઓ છએ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએ ત્યા કુલકરાજા હતા ત્યા પહેાચ્યા
( आगच्छित्ता कुमरण रन्ना सद्धि सपग्गा यानि होत्या ) अने तेथेोखे તરત જ યુદ્ધ શરૂ કરી દીધુ
(तएण ते जियसत्तू पामोक्खा उपिरायाणो कुभय राय हयमहिय परवीर धाइय निविडिय चिंधड्यपडाग किन्उप्पाणोवगय दिसोदिसि पडिसेर्हिति ) યુદ્ધમા તેએ જિતરાત્રુ પ્રમુખ એ રાજાઓએ કુંભક રાના કેટલાક વીરેશને જાનથી મારી નાખ્યા, કેટલાક વીરેશને ભય કર રીતે ટીપી નાખ્યા, અને કેટલાક વીરાને જખમી મનાવી દીધા તેમજ ગજ ચિહ્ન રૂપ ધ્વજ
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ताधर्मकथा घियमाणेन युक्तः, तधा-उद्ध्यमानः धीज्यमानः श्वतवरचामरैर्युका तथा-महा हयगजरथादियुक्तया चतुरगिण्या सेनया सपरित्रत , मद्वर्षा सपन्न तुरीमेयाँ दिवाघमहानादेन मिथिलानगर्या मध्यम येन 'णिज्माइ' निर्याति-निर्गन्छति । निर्याय विदेहजनपदस्य मध्यमध्येन योर देशान्तः स्वदेशस्य सीमा वर्तते, तौवोपागच्छति, उपागत्य 'खधागारनिवेस ' सन्धागारनिवेश-मन्धावारस्य शिविरस्य 'छावनी ' इति भापामसिद्धस्य निवेश-स्थापन, कुर्वन्ति । कृत्वा स कुम्भको राजा जितशत्रुममुग्यान पडपि राज्ञः 'पडिवाले माणे प्रतीक्षमाणः, युद्धसज्जा युद्धाय सज्ज शस्त्रास्त्रकाचरन्येन युद्धार्थमुद्यतः सन् प्रतितिष्ठति । ततस्तदनन्तर 'विराजमान हो गये । उन के पैठते हो। उन धारियों ने उन के ऊपर कोरट पुष्पो की माला से विराजित छत्र धारण किया चमर ढोर ने घालों ने उन के ऊपर श्वेत चमर ढोर ना प्रारभ कर दिया। इस प्रकार महागज, हय, रथादि से युक्त चतुरगिणी सेना से घिरे हुए अपनी पूर्ण तैयारीके साथ मिथिलो नगरी के बीचसे होकर निकले। (णिगच्छि त्ता विदेह जणवय मज्झ मज्झेण जेणेव देम अते तेणेव उवागच्छद) निकल कर विदेह जनपद के बीच से होकर जहा अपने देश की सीमा थी वहा पहुंचे।
(उवागच्छित्ता खधावारनिवेस करेइ ) वहाँ पहुँच कर उन्होंने वहीं अपनी छावनी स्थापित कर दो-(करित्ता जियसत्तू पामोक्खा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्झे पडिचिट्ठ) बादमें जितशत्रु प्रमुख જોઈને છત્રધારીઓએ કેરટ પુષ્પોની માળાથી શોભતુ છત્ર ધર્યું ચામર ઢાળનાર “એ ચામર ઢળવાનું શરૂ કર્યું આ રીતે મહાગજ હય રથ વગેરે તેમજ ચતુર ગિણી સેના યુક્ત થઈને પિતાનિ પુરી તૈયારી સાથે મિથિલા નગરીની વચ્ચેના રાજમાર્ગ ઉપરથી બહાર નીકળ્યા (णिगन्छित्ता विदेह जणपय मज्झ मझेण जेणेव देम अते तेणेव उवागच्छद) નીકળીને વિદેહ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યા પિતાના દેશની હદ હતી ત્યાં પહોંચ્યા स्वागच्छिता संघावारनिवेस करेइ) त्या पायीन तेमाणे त्या सेनानी naujl नाजी (करिता जियसत्त पामोक्खा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झमझे पडिचिट्ठइ)
ત્યારબાદ જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓની પ્રતીક્ષા કરતા તેઓ ત્યાજ યુદ્ધને માટે કમ્મર કસીને રેકાયા
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अनगारमामृतवाणी टीका ० ८ कुंभककराजयुद्धनिरूपणम् खलु ते जितशत्रुप्रमुखाः पडपि राजानो यत्रैव कुम्भास्तौगोपागच्छति उपागत्य कुम्भकेन राज्ञा साधं 'सपलग्गा' सपळग्नाः-युद्ध कर्तुं प्रवृत्ताश्चाप्यभनन् । तत स्तदनन्तर खलु जितशत्रुममुखाः पडपि राजानः कुम्भक राजान ' हयहियपवरवीरघाइयनिविडियचिंधद्धयछत्तपडाग ' हतमथितमवरवीग्घातित-निपतित चिहध्वजच्छत्रपताक-हताःमारिताः, मथिताम्-विलोडिता'-ताडिता.. तथा घातिता घातम् आयात व्यथा प्राप्ताः प्रवरवीरा महाभटा', यस्य स हतमथित प्रवरवीरपातितः, आपलाद् घावितशब्दस्य परप्रयोगः, निपातिताश्चित वजप ताका यस्य स निपतितचितध्वजछत्रपताकः, तत कर्मचारय', तमेवभूत नष्टसैन्यध्वजपताकमित्यर्थ 'किच्छप्पाणोरगय' कृच्छ्रमाणोपगत-कृच्छे-फप्टे, प्राणा उन छहों राजाओ कीप्रतीक्षा करते हुए वे वहीपर युद्धके लिये कटिबद्ध होकर ठहरगये । (तएण ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायोणो जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति ) इतने मे वे जितशत्रु प्रमुख उहों राजा जहा वे कुभक राजा पहुंचे हुए थे-वहा आ गये।।
(उवागच्छित्ता कुभएण रन्ना सद्धि सपलग्गा यावि होत्या) आते ही उन लोगोंने कुझ्कराजा के साथ युद्ध करना प्रारभ कर दिया । (तएण ते जियसत्तू पमोक्खा छप्पि रायाणो कुभय रोय यमहियपवरवीर घाइयनिवडियचिंधद्धयप्पडाग किच्छप्पाणोवगय दिसो दिसि पडि से हिंति ) युट्ठ में उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओ ने कुभकराजा के कितनेक वीरो को जान से मार डाला, कितनेक वीरों को बरी तरह पीटा, और कितनेक वीरों को घायल कर दिया । तथा राजचिह्न रूप ध्वज-पताका एव छत्र उसके जमीन पर गिरादिये। इस तरह उसके (तएण ते जियसत्त पामोक्खा छप्पियरायाणो जेणेव कु भए तेणेव उवागन्छति) એટલામા તેઓ છએ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓ જ્યાં કુભકરાજા હતા ત્યાં પહોંચ્યા
(उयागच्छित्ता कुभएण रन्ना सद्धि सप ठगा यानि होत्था ) भने तयारी તરત જ યુદ્ધ શરૂ કરી દીધુ
(तएण ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो कुभय राय हयमहिय पवस्वीर धाइय निपिडिय चिंधद्धयप्पडाग किच्छप्पाणोक्गय दिसोदिसि पडिसेहिति) આ યુદ્ધમાં તેઓ જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ કુભક ૨ જાના કેટલાક વીરને જાનથી મારી નાખ્યા, કેટલાક વીરાને ભયકર રીતે ટીપી નાખ્યા. અને કેટલાક વીરેને જખમી બનાવી દીધા તેમજ રાજ ચિહુ રૂપ વજ
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घियमाणेन युक्तः, तथा-उद्ध्यमाने = पीप्यमानैः श्वेतवरचा मरेर्युक्त तथा महा हयगजरथादियुक्तया चतुरद्गिण्या सेनया सपरिनत, मद्रर्था सपन्नः तुरीमे दिवाद्यमानादेन मिथिलानगर्या मध्यम येन ' णिज्नाद' निर्याति-निर्गच्छति । निर्याय विदेहजनपदस्य मध्यमध्येन यर देशान्तः स्वदेवस्य सीमा वर्तते, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'खधावारनिवेस ' सन्धावारनिवेश= स्कन्धावारस्य शिविरस्य 'छावनी ' इति भाषामसिद्धस्य निवेश-स्थापन, कुर्वन्ति । कृत्वा स कुम्भको राजा जितशत्रुमुग्वान पडपि राज्ञः 'पडिनाले माणे' प्रतीक्षमाणः, युद्धसज्जः युद्धाय सज्ज शस्त्रास्त्रकवचनन्येन युद्धार्थमुद्यतः सन् प्रतितिष्ठति । ततस्तदनन्तर 'विराजमान हो गये। उन के बैठते हो। उम्र धारियों ने उन के ऊपर कोरट पुष्पों की माला से विराजित छत्र धारण किया चमर ढोर ने वालों ने उन के ऊपर श्वेत चमर ढोर ना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार महागज, हय, रथादि से युक्त चतुरगिणी सेना से घिरे हुए अपनी पूर्ण तैयारीके साथ मिथिला नगरी के बीच से होकर निकले। (निगच्छि ता विदेह जणचय मज्झ मज्झेण जेणेव देम अते तेणेव उवागच्छ ) निकल कर विदेह जनपद के बीच से होकर जहा अपने देश की सीमा थी वहा पहुँचे ।
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( उवागच्छित्ता खधावारनिवेस करेइ ) वहा पहुँच कर उन्होंने वहीं अपनी छावनी स्थापित कर दो - ( करिता जियसत्तू पामोक्खा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्झे पडिचिड ) याद में जितशत्रु प्रमुख
જોઇને છત્રધારીએએ કાર ૮ પુષ્પોની માળાથી શાલતુ છત્ર ધર્યું ગ્રામર ઢોળનાર ભૃત્યુએ ચામરા ઢાળવાનુ શરૂ કર્યુ. આ રીતે મહાગજ હુય રથ વગેરે તેમજ ચતુર ગિણી સેના યુક્ત થઈને પેાતાનિ પૂરી તૈયારી સાથે મિથિલા નગરીની વચ્ચેના રાજમાર્ગ ઉપરથી ખહાર નીકળ્યા
( णिगच्छित्ता विदेह जणवय मज्झ मज्झेण जेणेव देम अते तेणेव उवागच्छ ) નીકળીને વિદેહ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યા પેાતાના દેશની હદ હતી ત્યા પહેાચ્યા वाच्छित्ता संवावारनिवेस करेइ) त्या पडोयीने तेथे त्या सेनानी छात्राओ नाणी (करिता जियसत्तू पामोक्खा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्झे पडिचिट्ठर )
ત્યારમાદ જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએની પ્રતીક્ષા કરતા તે ત્યાજ યુદ્ધને માટે કમ્મર કસીને રોકાયા
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अनंगारममृतवर्षिणी टीका अॅ० ८ कुंभककराजयुद्धनिरूपणम्
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खलु ते जितशत्रुप्रमुखाः पडपि राजानो यत्रैव कुम्भकस्तचैोपागच्छति उपागत्य कुम्भकेन राज्ञा सार्धं ' सपलग्गा ' समलग्ना' - युद्ध कर्तुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन् । तत स्तदनन्तर खल जितशत्रुप्रमुखाः पडपि राजान कुम्भक राजान ' हयमहियपवरवीरघाइयनिविडियचिधद्धयछत्तपडाग हवमथितमवरची ग्यातित - निपतित चिह्नध्वजच्छत्रपताक - इताः = मारिताः, मथिताः = विलोडिता . - ताडिता.. तथा घातिता घातम् आयात व्यथा प्राप्ताः प्रवरवीराः = महाभटाः, यस्य स इतमथित रवीरघातितः, आपलाद् धावितशब्दस्य परमयोगः, निपातिताहि बज ताका यस्य स निपतित चिध्वज छत्रपताकः, तत कर्मधारयः, तमेनभूत नष्टसैन्य ध्वजपताकमित्यर्थ 'किच्छप्पाणीनगय कृच्छ्रमाणोपगत कृच्छ्रे कप्टे, प्राणा
उन छहों राजाओ कीप्रतीक्षा करते हुए वे वहीं पर युद्ध के लिये कटिनद्व होकर ठहरगये । (तएण ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणो जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति ) इतने में वे जितशत्रु प्रमुख उहों राजा जहा वे कुभक राजा पहुँचे हुए थे - वहा आ गये ।
( उवागच्छित्ता कुभएण रन्ना सद्धि सपलग्गा यावि होत्था) आते ही उन लोगोंने कुम्भ्कराजा के साथ युद्ध करना प्रारंभ कर दिया । ( तएण ते जियसत्तू पमोक्खा छप्पि रायाणो कुभय राय हयमरियपवरवीर घाइयनिवडियचिधद्वयप्पडाग किकप्पाणोवराय दिसो दिसि पडि से हिंति ) युद्ध में उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने कुभकराजा के कितनेक वीरो को जान से मार डाला, कितनेक वीरों को बूरी तरह पीटा, और कितनेक वीरों को घायल कर दिया । तथा राजचिह्न रूप ध्वज पताका एव छत्र उसके जमीन पर गिरादिये। इस तरह उसके (तएण ते जियसत्त पामोक्खा उप्पियरायाणो जेणेव कु भए तेणेव उवागच्छति ) એટલામા તેઓ છએ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએ જ્યા કુભકરાજા હતા ત્યા પહેાચ્યા
( आगच्छित्ता कुमरण रन्ना सद्धि सपठगा यानि होत्या ) अने तेथे તરત જ યુદ્ધ શરૂ કરી દીધુ
(तएण ते जियसत्तू पामोक्खा उप्पिरायाणो कुभय राय हयमहिय परवीर धाइय निनिडिय चिंधद्धयपडाग किन्उप्पाणोवगय दिसोदिसिं पडिसेहिंति ) યુદ્ધમા તેએ જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએએ કુભક રજાના કેટલાક વીરેશને જાનથી મારી નાખ્યા, કેટલાક વીરાને ભયકર રીતે ટીપી નાખ્યા, અને કેટલાક વીાને જખમી બનાવી દીધા તેમજ ગજ ચિહ્ન રૂપ ધ્વજ
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उपगता यस्य स कृठमाणोपगतात माणसकटापन्नम् 'दिश दिशं'एकम्बा दिश:-अपरा दिश-पडिसेति' मतिषेधयति-निवारयन्ति ततस्तदनन्तर सह स कुम्भको राजा जितशनुप्रमुखैः पइभीराजभिहतमधित-पान प्रवरवीरचालित चिध्वजछत्रपताकः कृच्छप्राणोपगतः प्रतिपिद्ध सन् अस्थामा आत्मबलररिता, अबला सैन्यरहितः अत एर 'अपोरिए -भीर्यः-उत्साहरहितः । यावत् 'आधारणिज्ज' अधारणीयम्-आत्माधार्यते स्थाप्यते यत्र तद् धारणीय, न धारणी यमिति विग्रहः, अधारणीय परपलम्-अत्र शनुसैन्ये ममात्मधारणमशक्वामित्यर्थः। इविकृत्वा-एक विचार्य, शोध लरित यावत् चलित वेगित यर मिथिला तो प्राण पहुत अधिक सकट में पड़ गये । वह वहा से दूसरी तरफ भागना भी चाहता था-तो भी उन्हों ने उसे दूसरी ओर भागने नहीं दिया। (तण्ण से कुभए जियसत्तू पामारखेरि छहिं राहहिं त्यमहित० जान पडिसेहिए समाणे अत्यामे अग्लेअवीरिए जाव आधारणिजमित्तिक सिग्घ तुरिय जाव वेइय जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छद) इस तरह जितशत्रु आदि छहों राजाओ से हत मधित्त तथा धातित प्रवरवीरवाला
और निपातित चिह्न बज पताका घाला वह कुभक राजा जय संकट युक्त प्राणोवाला बन गया और युद्धभूमि से दूसरी और भागने के लिये असमर्थ हो गया तब आत्मबल और सैन्यबल से रहित बना हुआ वह उत्साह रहित हो गया। एव परयल को अजेय मान कर वहा से शीघ्र ही त्वरा युक्त, वेगयुक्त चाल से जग मिथिला नगर थी उस तरफ आया। પતાકા–અને છત્રને જમીન ઉપર નાખી દીધા આ રીતે તેના પ્રાણ આફતમાં ફસાઈ ગયા ત્યારથી તે બીજી તરફ નાસી જવાની તૈયારી કરતા હતા ત્યારે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓએ તેને નાસી જવા દીધું નહિ
(तएण से कु भए जियसत्तू पामोस्खेहि छहिं राईहिं हयमहित० जार पडि सेहिए समाणे अत्थामे अवले अबोरिए जाव आधारणिज्नमित्ति कटु सिध तुरिय जाब वेइय जेणेव महिला तेणेप उपागच्छइ)
આ રીતે જીતશત્રુ વગેરે છએ રાજાઓથી હત, મથિત તેમજ ઘતિત યોદ્ધાઓવાળા અને નિપાતિત ચિહ ધજા પતાકાવાળા તે કુભક રાજાના પ્રાણ પણ જ્યારે આફતમાં ફસાઈ ગગા અને રણભૂમિમાથી નાસી જવાની પણ તક ગુમાવી બેઠા ત્યારે આત્મબળ અને સબળ વગર બનેલા તેઓ સાત્ર નિરૂ ત્સાહી થઈ ગયા આખરે તેઓએ શત્રુપક્ષને અજેય સમજીને એકદમ જલ્દી
થયા ગયુક્ત ઝડપભેર ચાલથી જ્યા મિથિલા નગરી હતી તે તરફ ર
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मिथिला निरोधवर्णनम्
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पागच्छति उपागत्य मिथिलामनुप्रविशति, अनुप्रविश्य मिथिलाया द्वाराणि ' विहेइ' पिदधाति = आवृणोति । पिधाय 'रोहसज्जे ' रोधमज्ज =रोधेन शत्रुभयाद् गमनागमनमार्गमवरुध्य सज्ज रक्षा कुर्वन् तिष्ठति ॥ सृ० ३३ ॥
"
मूलम् तपण ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता मिहिल रायहाणि णिस्सचार णिरुच्चार सव्वओ समता ओरुभित्ताणं चिह्नंति, तण से कुभए राया मिहिल रायहाणि रुड जाणित्ता अभ तरियाए उवट्टाणसालाए सीहासणवरगए तेसि जियसत्तूपामोक्खाण छण्ह राईण अतराणिय छिद्दाणिय विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे बहूहि आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइया ए हिय कम्मयाहिय परिणामियाहिय बुद्धीहि परिणामेमाणेर किचि आय वा उवाय वा अलभमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ । इस च पणं मल्लीं विदेहरायवरकन्ना पहाया जाव बहूहि खुजाहि सपरिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुभगस्स पायग्गहण करेइ । तएण कुभए मछि विदेहरायवरकन्न णो आढाई नो परियाणाइ तुसिणीए सचिवइ । तएण
वहा आते ही वह मिथिला नगरी में प्रविष्ट हो गया । (अणुपविसित्ता मिहिलाए दुबाराड पिहेड, पिहिता रोहसज्जे चिट्ठह ) प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वारों को बंद करवा दिया और शत्रु के भय से आने जाने के मार्ग को रोक कर अपनी रक्षा करने में तल्लीन हो गया || सूत्र ३३ ॥
ત્યા આવતા જ મિથિલા નગરીમા તેએ પ્રવિષ્ટ થયા
( अणुपविसित्ता मिहिलाए दुबारा पिइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ट ) પ્રવેશીને તેમણે મિથિલાના દરવાજાઓને ખધ કરાવી દીધા અને શત્રુની ખીકથી આવવા જવાના માર્ગને પણ રાફીને પેાતાની રક્ષા માટે તે તત્પર થઈ ગયા " સૂત્ર
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" ३३
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उपगता यस्य स कृच्छ्रमाणोपगतन्त माणसकटापन्नम् ' दिन विश दिश:- अपरा दिश-' पडिसेति ' प्रतिषेधयति निवारयन्ति ततस्तदनन्तर सकुम्भको राजा जितशत्रुममुखै पमीराजभिर्हतमधित - यावत् परवीरघातित चिह्नध्वज छत्रपताकः कृच्छप्राणोपगत प्रतिषिद्ध सन् भस्थामा=आत्मबलरहितः, अवल: = सैन्यरहितः अत पर ' अवोरिए वीर्य उत्साहरहित । यावद'आधारणिज्ज' अधारणीयम् - आत्माधार्यते स्थाप्यते यत्र तद् धारणीय, न धारणी यमिति विग्रहः, अधारणीय पररलम् अत्र शत्रुसैन्ये ममात्मधारणमशक्त्रमित्यर्थः । इतिकृत्वा एव निवार्य, शीघ्र सति यावत् चलित गित यौन मिथिला तत्रैवो प्राण बहुत अधिक सकट में पड़ गये। वह वहा से दूसरी तरफ भागना भी चाहता था तो भी उन्हों ने उसे दूसरी ओर भागने नहीं दिया । (तरण से कुभए जियसत्तू पामा खेहिं छहिं राहहिं हयमहित० जन पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए जाव आधारणिज्जमित्तिकड्ड सिग्घ तुरिय जाव वेइय जेणेव मिहिला तेणेच उवागच्छद्द) इस तर जितशत्रु आदि छहों राजाओ से हत मधित तथा घातित प्रवरवीर वाला और निपातित चिह्न ध्वज पताका वाला यह कुंभक राजा जब संकट युक्त प्राणवाला बन गया और युद्धभूमि से दूसरी और भागने के लिये असमर्थ हो गया तब आत्मेनल और सैन्यनल से रहित बना हुआ वह उत्साह रहित हो गया । एव परवल को अजेय मान कर वहां से शीघ्र ही त्वरा युक्त, वेगयुक्त चाल से थी मिथिला नगर जश
उस तरफ आया ।
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પતાકા-અને છત્રને જમીન ઉપર નાખી દીધા. આ રીતે તેના પ્રાણ આફતમાં ફસાઈ ગયા ત્યાથી તે ખીજી તરફ નાસી જવાની તૈયારી કરતા હતા ત્યારે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએ તેને નાસી જવા દીધેા નહિ
(तरण से कुभए जियसत्तू पामोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित० जान पडि सेहि समाणे अत्थामे अवले अवीरिए जाव आवारणिज्जमित्ति कट्टु सिन्ध तुरिय जाब वेश्य जेणेव महिला तेणेन आगच्छर )
આ રીતે જીતશત્રુ વગેરે છએ રાજાએથી હત, મથિત તેમજ ઘાતિત ચેાહાએવાળા અને નિાતિત ચિહ્ન ધ્વજા પતાકાવાળા તે કુભક રાજાના પ્રાણુ પણ જ્યારે આતમા ફસાઈ ગયા અને રણભૂમિમાથી નાસી જવાની પણ તક ગુમાવી બેઠા ત્યારે આત્મબળ અને સૈĀગળ વગર અનેલા તેએ સાત્ર નિરૂ સાહી થઈ ગયા આખરે તેઓએ શત્રુપક્ષને અજેય સમજીને એકદમ જલ્દી વેગયુક્ત ઝડપભેર ચાલથી જ્યા મિથિલા નગરી હતી તે તર્ક રવાના થયા
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पागच्छति उपागत्य मिथिलामनुप्रविशति, अनुप्रविश्य मिथिलाया द्वाराणि ' विहेइ ' पिदवाति = आवृणोति । पिधाय ' रोहसज्जे ' रोधमज्ज =रोधेन शत्रुभयाद् गमनागमनमार्गमवरुध्य सज्ज रक्षा कुर्वन् तिष्ठति ॥ सृ० ३३ ॥
मूलम् तपणं ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता मिहिल रायहाणि णिस्सचारं णिरुच्चार सव्वओ समता ओरुभित्ताणं चिट्ठति, तएण से कुभए राया मिहिल रायहाणि रुद्ध जाणित्ता अभ तरिया उवट्टाणसालाए सीहासणवरगए तेसि जियसत्तूपामोक्खाण छण्हं राईणं अतराणिय छिद्दाणिय विरहाणिय मम्माणि य अलभमाणे वहूहि आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइया ए हिय कम्मयाहिय परिणामियाहिय बुद्धीहि परिणामेमाणेर किचि आय वा उवाय वा अलभमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ । इस चणं मल्ली विदेहरायवरकन्ना पहाया जाव वहूहि खुजाहि सपरिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुभगस्स पायग्गहण करेइ । तएण कुभए मल्लि विदेहरायवर - कन्न णो आढाई नो परियाणाइ तुसिणीए सचि । तएण
वहा आते ही वह मिथिला नगरी में प्रविष्ट हो गया । (अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवाराह पिछेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह ) प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वारों को वद करवा दिया और शत्रु के भय से आने जाने के मार्ग को रोक कर अपनी रक्षा करने में तल्लीन हो गया || सूत्र ३३ ॥
ત્યા આવતા ૪ મિથિલા નગરીમા તેઓ પ્રવિષ્ટ થયા
( अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवारा पिइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठs ) પ્રવેશીને તેમણે મિથિલાના દરવાજાએને ધ કરાવી દીધા અને શત્રુની ખીકથો આવવા જવાના માર્ગોને પણ રાફીને પેાતાની રક્ષા માટે તેએ તત્પુર થઈ ગયા ॥ સત્ર
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उपगता यस्य स कनमाणोपगतात माणसाटापनम् 'दिश विश'एका दिशः-अपरा दिश-'पडिसेति । मतिपंधयति-निवारयन्ति ततस्तदनन्तर साल सकुम्भको राजा जितनुप्रमुखैः पइभीरानभिहतमथित-पावत् प्रवरवीरयालित चिध्वजछत्रपताकः कच्छप्राणोपगत प्रतिषिद्ध सन् अस्थामा आत्मबलरहिता, अबला सैन्यरहितः अत एर 'ओरिए '-अपीय उत्माहरहित । याव'आधारणिज्ज' अधारणीयम्-आत्माधार्यते स्थाप्यते यत्र तद् पारणीय, न धारनी यमिति विग्रहः, अधारणीय परपलम्-अत्र शसेन्ये ममात्मधारणमशक्यमित्यथैः। इतिकृत्वा-एव निचार्य, शीध्र त्वरित यावत् चलित गित यौव मिथिला तत्रयो प्राण बहुत अधिक सकट में पड़ गये । वह यहा से दूसरी तरफ भागना भी चाहता था-तो भी उन्हों ने उसे दूसरी ओर भागने नहीं दिया। (तपण से कुभए जियसत्तू पामाखेहि नहिं राहहिं हयमहित० जाब पडिसेहिए समाणे अत्थामे अयलेभवीरिए जाय आधारणिजमित्तिका सिग्घ तुरिय जाव वेइय जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छद) इस तरह जितशत्रु आदि छहों राजाओ से हत मधित तथा धातित प्रवरवीरवाला
और निपातित चिह ध्वज पताका वाला वह कुभक राजा जब संकट युक्त प्राणोवाला बन गया और युद्धभूमि से दूसरी और भागने के लिये असमर्थ हो गया तब आत्मेरल और सैन्यबल से रहित बना हुआ वह उत्साह रहित हो गया। एव परपल को अजेय मान कर चहा से शीघ्र ही त्वरा युक्त, वेगयुक्त चाल से जग मिथिला नगर था उस तरफ आया। પતાકા-અને છત્રને જમીન ઉપર નાખી દીધા આ રીતે તેના પ્રાણ આફતમાં ફસાઈ ગયા ત્યારથી તે બીજી તરફ નાસી જવાની તૈયારી કરતા હતા ત્યારે છતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓએ તેને નાસી જવા દીધું નહિ
(तएण से कु भए नियसत्तू पामोस्खेहिं छहिं राईहि हयमहित० जार पडि सेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए जाव आधारणिज्ममिति कडु सिध तुरिय जाब वेइय जेणेव महिला तेणेव उपागच्छइ)
આ રીતે જીતશત્રુ વગેરે છએ રાજાઓથી હત, મથિત તેમજ ઘતિત દ્ધાઓવાળા અને નિપાતિત ચિહ્ન વજા પતાકાવાળા તે કુભક રજાના પ્રાણ પણ જ્યારે આફતમાં ફસાઈ ગયા અને રણભૂમિમાથી નાસી જવાની પણ તક ગુમાવી બેઠા ત્યારે આત્મબળ અને સબળ વગર બનેલા તેઓ માત્ર નિરૂ
સાહી થઈ ગયા આખરે તેઓએ શત્રુપક્ષને અજેય સમજીને એકદમ જલ્દી વિગયુક્ત ઝડપભેર ચાલથી જ્યા મિથિલા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયા
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मनगारधर्मामृतवपिणा टीका अ०८ मिथिलानिरोधवर्णनम्
४७३ ‘णिस्सचार' निः सचार-यथा जनाना मवेशनिर्गमरूप सचारस्तर न स्यात् तथा, 'णिरुच्चार ' निरचार-उन्-उई चरणमाकाग्स्योपरिभागेन गमनागमनरूप जनाना यथा न भवेत् तथा, द य क्रिया विशेषण यद्वा-निरच्चारम्-उन्चारः पुरीप तद्विसर्थ यज्जनाना बहिर्गमन तद्रहित यथा स्यात् तथा, सर्वत' सर्वदिक्षु-समन्तात् सनविदिक्षु 'ओरुभित्ताण ' अपरु य-वेष्टयित्वा तिष्ठन्तिस्म ।
ततस्तदन्तर खलु स कुम्भको राजा मिथिला राजधानीमवरद्धा ज्ञात्वा 'अब्भतरियाए ' आभ्यन्तरिकायाम् = अभ्यन्तरसर्तिन्याम् उपस्थानशालायामूआस्थानमण्डपे सभास्थान इत्यर्थ., सिंहासनवरगत:-राज्ञ प्रधानासनसमुपविष्टा, तेपा जितशत्रुप्रमुखाणा पण्णा राज्ञाम् अन्तराणि-अवसराणि, छिद्राणि-दूपणानि, विवरान्-एकान्तान्, मर्माणि-गुप्तदोपान् अन चकारो वाक्यालङ्कारपर , अलभमिहिला-तेणेव उवागच्छति ) जितश प्रमुव वे छहों राजा जिस तरफ मिथिला नगरी थी उस ओर बढे (उवागच्छित्ता मिहिल रायहाणि णिस्सचार णिसच्चार सन्चओं समता ओरभित्ताण चिति) वहा आकर उन्हों ने उस मिथिला राजधानीको सब ओरसे घेर लिया-इससे मनुष्योंका आना जाना रुक गया-यहा तक हो गया कि कोई भी व्यक्ति कारण सर भी बाहर नहीं निकल सका (तएण से कुमए राया मिहिल रायहाणि रूद्ध जाणित्ता अब्भतरिया उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए) इस के अनन्तर कुभक राजा ने अपनी राजधानी मिथिला नगरी को शत्रुओ द्वारा रुद्व जाना-तय किले की भीतर रहे हुए सभामडप मे स्थित सिंहामन पर बैठकर वह (तेसि जियसत्तू पामीक्स्वाण छण्ट राईण अतराणि छिद्दाणि य विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे) उन જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ મિથિલા નગરી તરફ વધા
(उवागच्छित्ता मिहिल रायहाणि जिम्मचार णिसन्चार सबओ समता ओसमित्ताण चिट्ठति)
ત્યા મિથિલા નગરીની પાસે આવીને ચેમે તેઓએ વેરે ના આ રીતે માણસેની અવર જવર સદતર બધ થઈ ગઈ
तएण से कुभए राया मिहिल रायहाणि रुद्ध जाणित्ता अन्भतरियाए उवद्वाणसालाण, मीहासणवरगए ) ત્યારબાદ જ્યારે કુભક રાજાએ પિતાની રાજધાની મિથિલા નગરાને શત્રુઓ ઉડે ઘેરાએલી જોઈ ત્યારે તેઓ લિાની અંદર સભામડમાં સિહાસન ઉપર બેસીને
( तेसि नियसत्तू पामोक्खाण छण्ह राईण अतराणि छिनाणि य विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे)
मा ६०
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५१२
जातामकथा मल्ली विदेहरायवरकन्नाकुभगे पववयासी-तुम्भेण ताओ अण्णदा मम एज्जमाण जाव निवसेह, फिण्णं तुभ अज्ज आहय मण सकप्पेजाव झियायह?, तएणं कुभए मल्लिं विदेहरायवरकन्न एवं वयासी-एव खल्ल पुत्ता तब कज्जे जियसत्तूप्पमुखेहि छहि राईहिं दूया सपेसिया, तेणं मए असकारिया जाव निच्छढा, तएणं ते जियसत्नपामोक्खा तेसि याण अतिए एयमह सोचा परिकुविया समाणा मिहिल रायहाणि निस्सचार जाव चिहति । तएणं अह पुत्ता तेसि जियसत्तपामोरखाण छह राईण अतराणि४ अलभमाणे जाव झियामि, तएण सा मल्ही विदेहरायवरकन्ना कुंभय राय एव वयासी-माण तुभ ताओ । ओहयमणसकप्पा जाब झियायह, तुम्भेणं ताओ तेसि जियसत्तूपामोक्खाण छण्ह राईण पत्तेय रहसिय दूयसपेसे करेह, एगमेग एव वदह -तव देमि मल्लिं विदेहरायवरकण्ण तिकह सझाकालसमयसि पविरलमणुसासि निसतसि पत्तेय २ मिहिल रायहाणिं अणुप्पवेसेह अणुप्पवेसित्ता गम्भघरएसु अणुप्पवसेह, मिहिलाए रायहाणाए दुवाराइ पिहेह, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह, तएणं कुभए एव० त चेव जाव पवेसेह, रोहसज्जे चिहइ ॥ सू० ३४ ॥
टोका--'तएण ते ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खल जियशत्रुप्रमुखाः षडपि राजानो यौव मिथिला नगरी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य मिथिला राजधानी
'तएण ते जियसत्तू पामोक्खा' इत्यादि ॥ टोकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव (तएण ते जियसत्तू पामोक्खा ) इत्यादि
टीकार्थ-(तएणं ) त्या२ मा (जियसत्त पामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति)
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मनगारधर्मामृतवपिणो टीका अ०८ मिथिलानिरोधवर्णनम्
४७३ 'णिरसचार' निः सचार-यथा जनाना प्रवेगनिर्गमरूप. सचारस्तर न स्यात् तथा, 'णिरुच्चार ' निरचार-उन्-उई चरण-माकारस्योपरिभागेन गमनागमनरूप जनाना यथा न भवेत् तथा, द य क्रिया विशेषण यद्वा-निरच्चारम्-उन्चारः पुरीप तद्विसर्थ यज्जनाना बहिर्गमन तद्रहित यथा म्यात् तथा, सर्वत' सर्वदिक्षु-समन्तात् सर्वविदिक्षु 'ओरुभित्ताण ' अबरु य-वेष्टयित्वा तिष्ठन्तिस्म ।
ततस्तदन्तर खलु स कुम्भको राना मिथिलां राजरानीमवरद्धा ज्ञात्वा 'अब्भतरियाए ' आभ्यन्तरिकायाम् = अभ्यन्तरवर्तिन्याम् उपस्थानशालायामूआस्थानमण्डपे सभास्थान इत्यर्थ , सिंहासनवरगत:-राज्ञ प्रधानासनसमुपविष्टः, तेपा जितशत्रुपमुखाणा पण्णा राज्ञाम् अन्तराणि-अवसराणि, छिद्राणि-दूपणानि, विवरान-एकान्तान्, मर्माणि गुप्तदोपान् अत्र चकारो वाक्यालङ्कारपर , अलभमिहिला-तेणेय उवागच्छति ) जितशत्रु प्रमुच वे छहों राजा जिस तरफ मिथिला नगरी थी उम ओर बढे (उवागच्छित्ता मिडिल रायहाणि णिस्सचार णिसच्चार सव्वओ समता ओरभित्ताण चिति) वहा आकर उन्हों ने उस मिथिला राजधानीको सब ओरसे घेर लिया-इससे मनुष्योंका आना जाना रुक गया-यहा तक हो गया कि कोई भी व्यक्ति कारण सर भी बाहर नही निकल सका (तएणं से कुमए राया मिहिल रायहाणि मद्ध जाणित्ता अम्भतरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए) इस के अनन्तर कुभक राजा ने अपनी राजधानी मिथिला नगरी को शत्रुओं द्वारा रुद्ध जाना-तत्र किले की भीतर रहे हए सभामडप मे स्थित सिंहासन पर बैठकर वह (तेसि जियसत्तू पामीक्वाण छपह राईण अतराणि छिद्दाणि य विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे) उन જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓ મિથિલા નગરી તરફ વધ્યા
(उबागच्छित्ता मिहिल रायहाणि णिस्मचार णिमच्चार सम्बओ समता ओसमित्ताण चिट्ठति)
ત્યા મિથિલા નગરીની પાસે આવીને ચોમેર તેઓએ વેરો ના આ રીતે માણસોની અવર જવર સદતર બ ધ થઈ ગઈ
तएण से कुभए राया मिहिल रायहाणिं रुद्व जाणित्ता अन्भतरियाए उव हाणसालाए, मीहासणसरगए) ત્યારબાદ જ્યારે કુભક રાજાએ પોતાની રાજધાની મિથિલા નગરાને શત્રુઓ વડે ઘેરાએલી જોઈ ત્યારે તેઓ કિલ્લાની અંદર સભામડમા સિહાસન ઉપર બેસીને
( तेसि जियसत्तू पामोक्खाण छण्ह राईण अतराणि छिगणि य विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे)
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४७२
जाताधर्मकथा
मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुभगं एव वयासी- तुभेण ताओ अण्णदा मम एज्जमाण जाव निवसेह, किण्णं तुव्भ अज्ज ओहय मण सकप्पे जाव झियायह?, तरणं कुभए महि विदेहरायवर कन्न एवं वयासी एवं खलु पुत्ता तप कज्जे जियसत्तूप्पमुखेहि छहि राईहिं दूया सपेसिया, तेणं मए असक्कारिया जाव निच्छूढा, तएण ते जि यस पामोक्खा तेसि ट्र्याण अतिए एयमह सोचा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणि निस्सचार जाव चिहति । तपर्ण अह पुत्ता तेसि जियसत्तूपामोखाण छण्ह राईण अंतराणि४ अलभमाणे जाव झियामि, तएण सा मही विदेहरायवरकन्ना कुंभय राय एव वयासी -माण तुम्भ ताओ । ओहयमणसकप्पा जाव झियायह, तुम्भेणं ताओ तेसिं जियसत्तूपामोक्खाण छण्ह राईणं पत्तेय रहसि दूसपेसे करेह, एगमेग एव वदह-तव देमि महिं विदेहरायवरकण्णं तिकट्ट सझाकालसमयसि पविर लमणुसारी निसतसि पत्तेय २ मिहिल रायहाणि अणुष्पवेसेह अणुष्पवेसित्ता गव्भघरएसु अणुष्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए दुवारा पिह, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह, तरणं कुभए एवं० त चेव जाव प्रवेसेह, रोहसज्जे चिहइ || सू० ३४ ॥
टीका - तएण ते ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खल जियशत्रुममुखा षडपि राजानो यत्र मिथिला नगरी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य मिथिला राजधान
'तएण ते जियसत्तू पामोक्खा ' इत्यादि ॥
टोकार्थ - (तएण ) इसके बाद (जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव
(तएण ते जियसत्तू पामोक्खा ) इत्यादि
टीकार्थ - (तएणं ) त्यार माह ( जियसत्त पामोक्स्खा छप्पिरायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति )
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अनगारधर्मामृतपणी टीका अ०८ मिथिलानिरोधवर्णनम्
४७५
(
इम चण' अस्मिन् काले खलु, अनार्यत्वात्मप्नम्यर्थे द्वितीया मल्ली त्रिदेहराजवरकन्या स्नाता यान नहीभिः ' खुज्जाहिं ' कुजाभिः = वक्रसस्थानाभि दसीभिः सपरिवृता यत्र कुम्भको राजा तत्रैनोपागच्छति, उपागत्य राज्ञ पादग्रहण - चरणस्पर्शपूर्वक नमन करोति । ततस्तदनन्तर खलु कुम्भको राजा मल्लीं विदेहराजवरकन्या ' णो आढाइ ' नो आद्रियते नो परिजानाति, ' मल्ली समागता ' इत्यपि न जानाति तूष्णीरुः मौनभावसहित सतिष्ठतेस्म । ततस्तदन्तर दुःखित होने लगा (इम चणं मल्ली विदेहरायवरकन्ना, पहाया जाव यहूहिं खुज्जाहि सपरिवुडा जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ ) इसी समय विदेह राजवरकन्या मल्ली कुमारी स्नान कर वस्त्राभरणो से अलकृत शरीर होकर अनेक वक्र संस्थान वाली दासियोंके साथ जहाँ कुभकराजा थे वहा आई । (उवागच्छित्ता कुभगस्स पायग्गहण करेह ) आकर उसने अपने पिता कुमक राजा के चरणों में नमे ( तरणं कुभए मल्लि विदेहरायवः रकन्न णो आढाइ णो परियाणाइ, तुसिणीए सचिह) परन्तु व्यग्रचित्त होने से विदेह राजनर कन्या मल्ली कुमारी का कुमक राजा ने कोई आदर नही किया और उसे इस जातका ही पता चला कि मल्लीकुमारी आई है । केवल वह मौन भाव धारण किये हुए चुपचाप बैठा रहा (तएणं मल्ली विदेहरायवर कन्ना कुभग एव वयासी ) पिता की इस परिस्थिति
( इम च ण मल्ली विदेवरायवरकन्ना पहाया जाववहिं खुज्नाहिं सपरि चुडा जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ )
આ અરસામા વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારીએ સ્નાન કર્યું અને ત્યાર પછી વસ્ત્રો, આભરણા તેમજ અલારાથી અલકૃત થઈને ઘણી વક્ર સંસ્થાન વાળી દામીએની સાથે કું ભક રાજાની પાસે ગઈ
( वागन्त्तिा कुमगास पायगहण करेइ ) अने त्या लाने तेथे येताना પિતા કુંભક રાન્તના ચરણૈામા નમન કર્યું
(तरण कुभए मल्टि निदेहरायवरसन्न णो आढाइ, तुसिणीए सचिव )
વ્યાકુળ ચિત્તવાળા કુંભક રાજાએ આદર કર્યો નહિ કે સત્કાર કર્યો નહિં થયુ કે મન્ત્રીકુમારી આવી છે
વિદેહગજવર કન્યા રાજાને તે માત્ર
રહ્યા
રાજા સાવ મૂગા થઈને બેસી જ कन्ना कुभग एव व्याप्ती ) पितानी यावी डास મલ્ટીકુમારીએ તેમને પૂછ્યુ કે—
णो परियाणा,
મલીકુમારીને આટલું જ ભાન
( तएण मल्ली विदेहरायबर लेने विदेशश्वर न्या
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re
sarasures
मान =अपाप्नुवन्, बहुभिः= आये'=इन्टसिद्धिउपाये - सानथ 'उप्पत्तिवाहि' औत्पत्तिकाभि स्वाभाविकीभि: शाखाभ्यासेन ने समुत्पन्ना मिरित्यर्थ, 'वेण इयादि ' वैनयिकीभिः = नियतः माताभिः, 'कम्मयादि ' कार्मिकाभिः = अम्यास लब्धाभिश्च अत्रापि चकारा वाक्याद्वार चोपकाः, वृद्धिभि' 'परिणामेमाणे २ ' परिणमयन परिणमनकुर्बन्- अमात्यैः सह विचारयन्नित्यर्थः, कमपि आय वा उपाय या अलभमानः 'ओहयमणसम्प्पे ' अपहतमन' सरल्यः =विध्वस्तमनोरथः सन् यावत् 'झियाय यायति=अर्तध्यान कुभास्तेस्म ।
जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के अवसरों को, दूपणों को बिवरों को
एव गुप्तदोषों को देखने की ताक में रहने लगा-परन्तु जब अपने इन शत्रुओं के उसे अवसर दूषण आदि देखने में नहीं आये तब उसने यहहिं आयेहिंग, उवाएहि य, उप्पत्तियाहि य, वेणइयाहि य, कम्म याहि य परिणामियाहि य बुद्धीहिं परिणामेमाणे २) अनेकविध इष्ट सिद्धिकारक उपायों से उन्हें परास्त करने की बात सोची तथा औप त्तिकी, चैनयिकी, कार्मिकी एव परिणामि की वृद्धियों से मंत्रियों के साथ बैठकर धार २ इस बात का विचार भी किया परन्तु इस स्थिति में उसे (कि चि आय वा उवाय वा अलभमाणे) जब इष्ट सिद्धिकारक कोई भी उपाय नजर नहीं आया तब वह ( ओश्यमणसकप्पे जाव झियायह) अपहृत मनः सकल्प होकर अर्तध्यान करने लग गया
જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએના અવસરાને, ઘેાને, વિવાને અને શુદ્ઘ દાષાને જોવા માટે લાગ જોતા બેસી રહ્યા પણ જ્યારે આ કામમા પણ તે સફળ થઈ શકયા નહિ એટલે કે શત્રુ પક્ષના દૂષણે વગેરે તે જાણી શકયા નહિ ત્યારે તેમણે
(बहूहिं, आएहिं य उवाएहिं य उप्पत्तियाहिय, वेणडयाहिय, कम्मयाहिय, परिणामियाहिय, बुद्धीहिं परिणामे मागे २ )
જાતજાતના ઈષ્ટ સિદ્ધિ કરનારા ઉપાયથી તેઓને હરાવવાની વાત ઉપર વિચાર કર્યો, તેમજ ઔત્પાતિકી, વૈનયિકી, કાર્મિકી અને પારિામિકી બુદ્ધિ એથી મત્રીઓની સાથે એસીને વાર વાર આ સમસ્યા ઉપર મત્રણા પણુ उपायु सेवी शभीर हासतमा तेगोने (किं चि आय वा उदाय वा अलभमाणे न्यारे ईष्ट सिद्धि भाटेने! अा पशु उपाय न्यायो नहि त्यारे (ओइयमण स कप्पे जाव झियायइ ) भी थमने साधान वा लास
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अनगारधर्मामृतार्पणो टोका अ०८ मिथिलानिरोधवर्णनम् ४७५
'इम च ण ' अस्मिन् काले खलु, आर्पत्वासप्तम्यर्थे द्वितीया मली विदे हराजवरकन्या स्नाता यानद् नहीभिः 'सुजाहिं ' कुञाभिः चक्रसस्थानाभि
सीभिः सपरिवृता यत्र कुम्भको राजा तगोपागच्छति, उपागत्य राज्ञ पादग्रहण - चरणस्पर्शपूर्वक नमन करोति । ततस्तदनन्तर खलु कुम्भको राजा मल्ली विदेहराजवरकन्या ' णो आढाइ ' नो आद्रियते नो परिजानाति, ' मल्ली समागता' इत्यपि न जानाति तूष्णीकः मौनभावसहितः सतिष्ठतेस्म । ततस्तदन्तर दुःखित होने लगा (इम च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना, पहाया जाव घहिं खुजाहिं सपरिवुडा जेणेव कुभ तेणेव उवागच्छह ) इसी समय विदेह राजवरकन्या मल्ली कुमारी स्नान कर वस्त्राभरणो से अलकृत शरीर होकर अनेक वक्र सस्थान वाली दासियोंके साथ जहां कुभकराजा थे वहा आई । (उवागच्छित्ता कुभगस्स पायग्गण करेइ) आकर उसने अपने पिता कुभक राजा के चरणों में नमे (तएणं कुभए मल्लि विदेहरायव. रकन्न णो आढाइ पो परियाणाड, तुसिीए सचिटइ) परन्तु व्यग्रचित्त होने से विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी का कुभक राजा ने कोई आदर नहीं किया और उसे इस यातका ही पता चला कि मल्लीकुमारी आई है । केवल वह मौन भाव धारण किये हुए चुपचाप बैठा रहा (तएणं मल्ली विदेहरापवरकन्ना कुभग एव क्यासी ) पिता की इस परिस्थिति
(इम च ण मल्ली विदेहरायवरकन्ना हाया जावबहहिं बुज्नाहिं सपरि बुडा जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ)
આ અરસામાં વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીએ સ્નાન કર્યું અને ત્યાર પછી વસે, આભરણે તેમજ અલ કારોથી અલંકૃત થઈને ઘણી વક્ર સ સ્થાન વાળી દાસીઓની સાથે કુભક રાજાની પાસે ગઈ
(उवागच्छित्ता कुनगरस पायगहण करेइ) मने त्या धन तेरे चाताना પિતા કુભક રાજાના ચરણેમાં નમન કર્યું
(तएण कुभए मल्लि विदेहरायवरसन्न णो आढाइ, णो परियाणाइ, तुसिणीए सचिट्ठइ)
વ્યાકુળ ચિત્તવાળા કુભક રાજાએ વિદેહરાજવર કન્યા મલકુમારીને આદર કર્યો નહિ કે સત્કાર કર્યો નહિં રાજાને તે માત્ર આટલું જ ભાન થયુ કે મલ્લીમારી આવી છે
२ सार भूसा नि मेसी र २धा (तएण मल्ली विहरायवर कन्ना कुभग एव वयाती) पितानी माती sea ने विश१२४ या મલ્લીકુમારીએ તેમને પૂછ્યું કે
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૪૭૬
माता कथासूत्रे मल्ली विदेहराजकन्या कुम्भकं राजानमेन=पमागम कारण, अवाद- हे वाह! यूय खलु अन्यदा = अन्यस्मिन् समये माम् ' एज्नमाण 'राजमानाम् आगच्छन्ती यावत्-ट्वा, आदि, परिजानीय उत्सङ्गे निवेसेह' निवेशयथ, कि= केन कारणेन खलु यूयमद्योपहतमनः सकल्पो यावत्-ध्याययार्त यान कृरुष ? तत =मल्लीवचनश्रवणानन्तर कुम्भको राजा मल्ली विदेहराजयसन्यामेवमवादीत्पुत्र ! एव खलु तत्र कार्ये निरूप कार्य निमित्तीकृत्येर्य, जितशत्रु प्रमुख. पद्मी राजभिर्दूताः समेपिताः, ते खलु मया 'असारिया ' अमत्कृताः अनाहता
को देखकर उस विदेश्वरराजकन्या मल्लिकुमारी ने उन से पूजा - (तुमे ण ताओ अण्णया मम एज्जमाण जात्र निवेसेह, किण्ण अज्जे तुभ ओहग्रमणसकप्पे जाच झियायर ) हे तात ! पहिले जब कभी आप मुझे आती हुई देखते थे तो उस समय मेरा आदर करते थे मुझे जान लेते थे, और अपनी गोद में बैठा लेते थे परन्तु आज क्या कारण है जो आप अपहृतमन. सकल्प होकर चिन्ताग्रस्त बैठे हुए है
-
(तएण कुमए मल्लि चिदेहरायपरकन्न एव वयासी ) इस प्रकार सुन कर राजाने अपनी विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी से कहा ( एव खलुपुक्ता । तब कज्जे जिय सत्तूप्यमुखहि उहि राई हिंदूया संपे सिया तेण मए असस्कारिया जाव निच्छूडा, तएण ते जियसत्तू पामो क्खा तेर्सि दूयाण अ लिए एयम सोच्चा परिकुविद्या- ममाणा मिहिल रायहाणि निस्सचार जाव चिट्ठति ) हे पुत्रि । तुम्हारे साथ वैवाहिक -
-
( तुब्भेण ताओ अण्णया मम एज्जमान जाव निवेसेह किष्ण तुन्भ अज्जे ओहमण कप्पे जाव झियायह
હૈ પિતા / પહેલા ગમે ત્યારે મને આવતી જોતા ત્યારે મારા તમે બાદર કરતા હતા, મને જાણી લેતા હતા અને મને પોતાના ખેાળામા એન્નાડતા હતા પણ આજે શુ કારણ છે કે તમે ઉદ્મસ થઈને આ ધ્યાનમા બેઠા છે ( तरण कुभएमल्लि विदेहiratara एवं घयासी ) या रीते रामो विद्वेड રાજવર કન્યાની વાત સાભળીને તેણે કહ્યું કે
(एव खलु पुता तव कज्जे जियसत्तूप्पमुखे हिं छर्हि राईहिं या सपेसिया, तेर्ण म असक्कारिया जाव निच्छुडा, तएण ते जियसत्तू पामोक्खा तेसिं दुयाण अतिए एयम सोच्चा परिकुत्रिया समाणा मिहिल रायहाणि निस्पचार जाव चिह्नति )
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० ८ मिथिलानिरोधवर्णनम् यावत्-असमानिता अपद्वारेण 'निच्छूढा' निक्षिप्ता:-निः सारिताः । तत खलु ते जितशत्रुममुखास्तेपा दतानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा 'परिकुपिया' परिकुपिताः =अतिशयेन क्रोधाविष्टाः 'समाणा' सन्त , मिथिला राजधानी नि.सचार यावत्-निरुच्चार सर्वतः समन्तादवरु य 'चिट्ठति' ति ठन्ति । ततस्तस्मात् कारणात् खल्बह हे पुत्रिी तेपा जितशत्रु प्रमुग्वाणा पण्णा राज्ञा अन्तराणि४ अलम मानो यापद् वहुभिरायैरुपायैरौत्पत्तिक्यादिशुद्धिभिश्च परिणमयन् कमप्यायमुपाय वा अलभमान अपहतमनः सकल्पः सन् 'झियामि' ध्यायामि आर्तध्यान करोमि । सबन्ध जोडने के लिये जितशत्रु प्रमुख छहो राजाओने अपने २ दत मेरे पास भेजे थे, ___ मैंने उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और उनके उन दूतोंको अनाहत एव असमानित कर महल के पीछे के दरवाजे से बाहिर निक लवा दिया उन दूतो से जब इन जितशत्रु प्रमुग्व छहों राजाओं ने इस परिस्थिति को सुना तो वे बहुत अधिक कुपित हुए। और इसी लीये उन्हों ने अब मिथिला राजधानी को सघ तरफ घेर लिया है । जिस का परिणाम यह हुआ कि लोगो का आना रुक गया और वह कारणवश बाहिर नहीं आनी जाती है । (तएण अह पुत्ता तेसिं जियसत्तू पामोक्खाण छण्ड राईण अतराणिं ४ अलभमाण जाव झियामि) इसलिये हे पुत्रि में अभी तक उन जित्तशत्रु प्रमुख छहों राजाओ के अन्तर आदि को-अवसर आदि को देग्वने की ताकमे रहा आया-परन्तु मुझे उसका
હે પુત્ર ! જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ તમારી સાથે લગ્ન કરવાના વિચારથી મારી પાસે દૂ નેલ્યા હતા
મે તેમના પ્રસ્તાવને સ્વીકાર્યો નહિ અને તેમના દૂતોને અનાદર અને અસમાન કરીને મહેલને પાછળના નાના બારણેથી તેઓને બહાર કઢાવી મૂક્યા પિતાના તેની પાસેથી આ બધી વિગત જાણીને જીતશત્રુ પ્રમુખ જીએ રાજાઓ ખૂબ જ ગુસ્સે થયા, અને હવે તેઓએ મિથિલા નગરીને ચારે બાજુથી ઘેરી લીધી છે તેને પરિણામે લોકોની અવર જવર બંધ થઈ ગઈ છે કેઈપણ કારણસર લાકે બહાર જઈ શક્તા નથી એવી ભયકર પરિસ્થિતિ all छ (तएण अह पुत्ता वेसिं जियसन पामोम्साण उण्ह राईण अतराणि अलभमाणे जाप झियामि)
એટલા માટે હે પુત્રિ ! હજી સુધી પણ હું જીતવાનું પ્રમુખ છએ રાજાઓના અન્તર વગેરેને એટલે કે અવસર વગેરેની લાગમાં રહ્યો પણ મને
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કર્દ
माताधर्मकथा
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मल्ली विदेहराजकन्या कुम्भक राजानमेव =पमागन हारेग, अनादीव-हे वात! यूय खलु अन्यदा-अन्यस्मिन् समये माम् ' एज्नमाण 'जमानाम् आगच्छन्तीं यावत् दृष्ट्वा, आहिने परिजानीय उत्सहे निरेसेह ' निवेशयव, कि = केन कारणेन खलु यूयमधोपहतमनः सकल्पो यावत्-ध्यायय= आर्त यान कृष्ण ? त =मल्लीवचनश्रवणानन्तर कुम्भको राजा मल्ली विदेहराज नरसन्यामेवमवादीत्हे पुत्र ! एवं खलु तर कार्ये हि कार्य निमित्तीकृत्येर्थ जितशत्रु प्रमुखैः पद्मराजभिर्दताः समेपिता ते खलु मया 'अमरारिया' अमत्कृताः अनाहता
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को देखकर उस विदेहवरराजकन्या मल्लिकुमारी ने उन से पूजा-(तु ताओ अण्णा मम राज्जमाण जान निवेसेट, किष्ण तुम्भ अज्जे ओहमण कप्पे जाव झियायर) हे तात । पहिले जब कभी आप मुझे आती हुई देखते थे तो उस समय मेरा आदर करते थे मुझे जानते थे, और अपनी गोद में बैठा लेते थे परन्तु आज क्या कारण है जो आप अपहतमनः सकल्प होकर चिन्ताग्रस्त बैठे हुए है
(तएण कुभए मल्लि विदेहरायनरकन्न एव वयासी ) इस प्रकार सुन कर राजाने अपनी विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी से कहा ( एव खलुपुत्ता । तत्र कज्जे जिय सत्तूपमुखेरि उहि राई हिंदूया संपे सिया तेण मए असक्कारिया जाय निच्छूडा, तएण ते जियसत्तू पामी क्खा तेर्सि दूयाण अतिए एयमट्ट सोच्चा परिकुविद्या- ममाणा मिहिल रायहाणि निस्वार जाव चिट्ठति ) हे पुत्र ! तुम्हारे साथ वैवाहिक
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( तुम्भेण ताओ अण्णया मम एज्जमान जान निवेसेह किष्ण तुम्भ अज्जे ओहमण कप्पे जाब झियायह
હે પિતા ! પહેલા ગમે ત્યારે મને આવતી જોતા ત્યારે મારી તમે આદર કરતા હતા, મને જાણી લેતા હતા અને મને પેાતાના ખેાળામા બેસા ડતા હતા પણ આજે શુ કારણ છે કે તમે ઉ૰ાસ થઈને આ ધ્યાનમા બેઠા છે ( तरण कुमएमल्लि विदेहयत्ररकन्न एव वयासी ) आ रीते रामसे विद्वेड રાજવર કંન્યાની વાત સાભળીને તેણે કહ્યું કે
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(एव खलु पुता तत्र कज्जे जियमत्तूप्पमुखे हिं छर्दि राईहिं दूया सर्पसिया, तेन म असक्कारिया जान निच्छुडा, तएण ते जियसत्तू पामोक्खा तेसि दुयाण अविए एयम सोन्चा परिकुविया समाणा मिहिल रायदाणिं निमवार जाव विद्वति )
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अनगारधर्मामृतपणी टी० अ० ८ मिथिलानिरोधवर्णनम्
४७७ यावत्-असमानिता अपद्वारेण 'निच्छूढा' निक्षिप्ताः-निः सारिताः । तत खलु ते जितशत्रुप्रमुखास्तेपा दूतानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा ' परिकुविया' परिकुपिताः =अतिशयेन क्रोधाविष्टाः 'समाणा' सन्त , मिथिला राजधानी नि सचार यावत्-निरुच्चार=सर्वतः समन्तादवरु य 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति । ततस्तस्माद कारणात् खल्बह हे पुनि! तेपा जितशत्रु प्रमुग्वाणा पण्णा राज्ञा अन्तराणि४ अलभ मानो यापद् वहुभिरायैरुपायैरौत्पत्तिक्यादिबुद्धिभिश्च परिणमयन् कमप्यायमुपाय वा अलभमान अपहतमनः सकल्पः सन् 'झियामि' ध्यायामि आर्तभ्यान करोमि । सब-ध जोडने के लिये जितशत्रु प्रमुख छहो राजाओने अपने २ दूत मेरे पास भेजे थे,
मैंने उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और उनके उन दूतोंको अनादृत एव असमानित कर महल के पीछे के दरवाजे से बाहिर निक लवा दिया उन दूतो से जब इन जितशत्रु प्रमुग्व छहों राजाओं ने इस परिस्थिति को सुना तो वे बहुत अधिक कुपित हुए। और इसी लीये उन्हों ने अब मिथिला राजधानी को सब तरफ घेर लिया है । जिस का परिणाम यह हुआ कि लोगो का आना रुक गया और वह कारणवश चाहिर नहीं आती जाती है । (तएण अह पुत्ता तेसिं जियसत्तू पामो.
खाण छण्ड राईण अतराणि ४ अलभमाण जाव झियामि ) इसलिये हे पुत्रि में अभी तक उन जितशत्र प्रमुख छहों राजाओ के अन्तर आदि को-अवसर आदि को देग्चने की ताकमे रहा आया-परन्तु मुझे उसका
હે મુનિ ! જિતશ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ તમારી સાથે લગ્ન કરવાના વિચારથી મારી પાસે તે નોકલ્યા હતા
મે તેમના પ્રસ્તાવને સ્વીકાર્યો નહિ અને તેમના તેને અનાદર અને અસમાન કરીને મહેલના પાછળના નાના બારણેથી તેઓને બહાર કઢાવી મૂક્યા પિતાના તેની પાસેથી આ બધી વિગત જાણીને જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓ ખૂબ જ ગુસ્સે થયા, અને હવે તેઓએ મિથિલા નગરીને ચારે બાજુથી ઘેરી લીધી છે તેના પરિણામે લેકેની અવર જવર બંધ થઈ ગઈ છે કેઈપણ કારણસર લાકા બહાર જઈ શકતા નથી એવી ભયકર પરિસ્થિતિ
भी 25 छे (तएणं अह पुत्ता देसि जियसनू पामोसाण उण्ह राईण अतराणि अलभमाणे जाय झियामि)
એટલા માટે હે પુત્ર! હજી સુધી પણ હુ જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓને અન્તર વગેરેને એટલે કે અવસર વગેરેની લાગમાં રહ્યો પણ મને
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ततस्तदनन्तरं ग्वलु सा गलरी विदहरा रिकन्या पक रानानम् एक वक्ष्यमाणप्रकारेण, अपादीत-हे तात ' यूप ग्बल मा अपहनमन साल्पो यावत् ध्यायथ, हे तात ! गुय ग्बल तेपां जितनुमामाणा पणा राजा प्रत्येक रासि दूतसप्रेपण कुरुत, एक प्रत्येक पदत-'ताभ्य दास्यामि मड़ी विदेहरामार कन्पाम् । इति कृत्वाइत्युक्त्या, सन्याफालसमये - सूर्येऽस्तगतेसति 'पविरस मण्ससि ' प्रविरलमनुष्ये-मार्गादौ काचिद् सविद् प्रपिरला अल्पा मनुष्या या स तथा तस्मिन्, रात्रिसदावे सतीत्यर्थ तथा निशान-ननकलाले पनि जिते, कोई भी छिद्र आदि नहीं मिल रहा है। मैंने अनेक विध उपायों से उन्हें परास्त करने का विचार भी किया-औत्पत्ति की आदि धुद्धियों से सचिवों के साथ उन्हें चश करने की मन्त्रणामी को परन्तु मुझे कछ भी उपाय इन्हें वश यो परास्त करने का नजर नहीं आ रहा है-अतः अपर तमनः सकल्प बाला घना हुआ में हम समय चिन्ताग्रस्त हो रहा हूँ। (तएपण सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुमय राय एव वयासी) ईम प्रकार अपने पिता कुभक राजा की बात सुनकर उस विदेहराज वर कन्या ने उन से कहा - (माण तुम्भे ताओ ! ओत्यमणसकप्पा जाच झियाय ) हे तात ! आप अपहत मनः सकल्प होकर यावत् चिन्तित न बने मै इस विषयमें आपको उपाय बतलाती है (तुम्मेण तोओ तेसिं जिय सत्तू पामक्खिाण छपहरायाग पत्तय रसिय दूय सेंपेसे करे ) हे पिताजी ! वह उपाय यह है कि आप उन जितशत्रु प्रमुख रोजाओ में से प्रत्येक राजा के पास एकान्त में अपना दूत અત્યાર સુધી તેમનું એક પણ છિદ્ર (ખામી) ની જાણ થઈ શકી નહિ ઘણા ઉપાથી તેમને હરાવવાના વિચારે પણ મે કર્યો છે, ત્યત્તિકી વગેરે બુદ્ધિઓથી મત્રીઓની સાથે વિચાર પણ કરી છે પણ મને તેઓને સ્વાધીન બનાવવા કે હરાવવા માટેનો કોઈ એક પણ ઉપાય જણાતું નથી એથી અપહતમન સ કલ્પવાળા હુ આર્તધ્યાનમાં તલ્લીન થઈને બેઠે છું (તes सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कु भय राय एवं वयासी ) पाताना પિતા કુભક રાજાની વાત સાંભળીને વિદેહરાજવર કન્યાએ તેમને કહ્યું કે(मा ण तुम्भे ताओ! ओहयमणस कप्पा जोर झियायह ) 3 तात ! सत्यारे તમે ચિંતામન છે એટલે તેને દૂર કરવા માટે હું એક ઉપાય બતાવું છું (तुभेण ताओ तेसिं जियसत्त पामोक्साण छह रायाण पत्तय रहसिय
याप्त पेसे करेह) के पिता शत्रु प्रभु यीमाथी ४२४ शनी પાસે એકાતમા પિતાને દૂત મોકલો
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मिथिलानिरोधवर्णनम् प्रति निशान्ते जनानां निद्रोपगतत्वेन सर्पशा जनध्वनिमचाररहिते यस्मिन् काले फोऽपि मार्गे दत न पश्येदिति भानः, प्रत्येक मिथिला राजधानीमनुप्रवेशयत, अनुप्रवेश्य गर्भगृहेषु अभ्यन्तरवर्ति भवनेषु अनुप्रवेशयत, तत्तो मिथिलाया राज घान्या द्वाराणि पित्त, नाच्छादयत पिधीय रोधसज्जा-रोन मतिरोनाऽऽत्मरक्षा कुर्वन् तिष्ठत्त । ततःमल्लीवाक्यप्रवणानन्तर सलु कुम्भको राजा मल्ल्या भेजिये (गमेग एव बदह-तव देमि मल्लिं विदेहरायवरकण्ण तिकट्ट सझाकालममयसि पविरलमणूससि निसतसि पडि निसतसि पत्तेय२ मिटिल रायहाणिं अणुप्पवेसेर ) वह दूत जाकर उन प्रत्येक से ऐसाकहे कि हम अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी तुम्ह देंगे। ऐसा कहकर ( दूतो से कहलवा कर) फिर उन राजाओं में से प्रत्येक राजा को आप ऐसे सध्याकाल के समय में-जर कि सूर्य बिलकुल अस्त हो गया हो-रात्रि का समय आ गया-हो मार्ग मे भी कहीं कही पर ही थोड़े से मनुष्य का सचार हो रहा हो-मकान भी मनुष्यो की कल कल ध्वनि से रहित हो चुके हो-सयो के निद्राधीन बन जाने से जिन में से जन ध्वनि रिलकुल ही नहीं प्रकट हो रही हो अपनी मिथिला नगरी में घुलवाई ये-उन्हें प्रवेश कराईये (अणुप्पवेसित्ता गम्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायाणीए दुवाराइ पिहेह पिहिता रोहसज्जे चिट्ठह तण्ण कुभए एचत चेव जाव पवे सेह, रोरसज्जे चिटइ ) प्रवेश करवा कर उन्हें आप गर्भ गृहों में-ठहरा दीजिये।
(एगमेग एच बदह तव देभि मल्लि विदेहरायवरवण्ण तिकटु सझाकाल समयसि पनिरलमणूससि निसतसिं पडिनिसतसि पत्तेय २ मिहिल रायहाणि अणुप्पवेसेह) તે દૂત તેમની પાસે જઈને દરેકને આ પ્રમાણે કહે કે અમારી કન્યા વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી તમને આપીશુ આ પ્રમાણે દૂત વડે દરેકની પાસે સ દેશ મેકલીને તે રાજાઓમાથી દરેકને તમે સ ધ્યાકાળના સમયે જ્યારે સુરજ ખબર અસ્ત થઈ ગયે હિય રાત્રિને વખત થઈ ગઈ હોય, માગમા બહુ જ ચેડા માણસેની અવર જવર થવા માંડી હેય, માણસના ઘોઘાટથી ઘરે પણ જ્યારે રાત થઈ ગયા હોય ત્યારે મિથિલા નગરીમા બોલાવે
(अणुप्पवेसित्ता गम्भघरपसु अणुपवेसेह, मिहिलाए रायहाणीप दुवाराइ पिहित्तारोहमज्जे चिट्ठह तण कुभए एव० त चेव जाव पवेसेह, रोहसज्जे चिट्ठा) બેલાવીને તેને તમે ગભ ગૃહમા રેકો
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पाताधर्ममा ___ततस्तदनन्तर ग्यलु सा मी दिहरा नारान्या म्मक राजानम् एषवक्ष्पमाणप्रकारेण, अमादीत-ह तात ! यूय बल मा अपहनमन सम्रपो यावदध्यायथ, हे तात ! युय खलु तेपा जितशत्रुमाग्वाणा पगा राजा प्रत्येक गति दूतसप्रेपण कुरुत, एक प्रत्येव दत-'ताम्भ्य दास्पामि महीं विदेहराजकर कन्याम् ' इति कृत्वा इत्युक्तमा, सन्याका समये - सूर्येऽस्तगतेसति 'पविरम मणससि ' मविरलमनुष्ये-मार्गादो काचिद् सविद् पिरला अल्पा मनुष्या यत्र स तथा तम्मिन्, रानिसद्भावे सतीत्यर्व तथा निशानजनकटकले अनिवजित कोई भी छिद्र आदि नहीं मिल रहता है। मैंने अनेक विध उपायों से उन्हें परास्त करने का विचार भी किया-औत्पत्ति की आदि धुद्धियों से सचिवों के साथ उन्हें वश करने की मत्रणा मी को परन्तु मुझे कछ भी उपाय इन्ह वश यो परास्त करने का नजर नहीं आ रहा है-अतः अपरतमनः सकल्प चाला घना हआ में इस समय चिन्ताग्रस्त हो रहा हूँ। (तएण सा मल्ली विदेहरायवराना कुमय राय एव वयासी) इस प्रकार अपने पिता कुमक राजा की बात सुनकर उस विदेहराज वर कन्या ने उन से कहा- (माण तन्मे ताओ ! ओत्यमणसकप्पा जाव'झियायह ) हे तात ! आप अपहत मनः सकल्प होकर यावत् चिन्तित न घने मै इस विषयमें आपको उपाय बतलाती है ( तुम्भेण ताओ तेसि जिय सत्तू पामक्खिाण छण्ट रायाग पत्तय रहसिय दूय सपेसे करेह ) हे पिताजी ! वर उपाय यह है कि आप उन जितशत्रु प्रमुख रोजाओ में से प्रत्येक राजा के पास एकान्त में अपना दूत અત્યાર સુધી તેમનું એક પણ છિદ્ર (ખામી) ની જાણ થઈ શકી નહિ ઘણા ઉપાથી તેમને હરાવવાના વિચારે પણ મે કર્યા છે, ત્પત્તિકી વગેરે બુદ્ધિઓથી માત્રીઓની સાથે વિચારણું પણ કરી છે પણ મને તેઓને સ્વાધીન બનાવવા કે હરાવવા માટે કઈ એક પણ ઉપાય જણાતું નથી એથી अपडतमन १४६५पाणे ई सात ध्यानमा तल्लीन थन मेही छु (तएणं सा मल्ली विदेहरायवरफन्ना कुमय राय एव पयासी) मा रात पाताना પિતા કુભક રાજાની વાત સાંભળીને વિદેહરાજવર કન્યાએ તેમને કહ્યું કે(मा ण तुझे ताओ । ओयमणस कप्पा जोव झियायह) तात! सत्यारे તમે ચિંતામગ્ન છે એટલે તેને દૂર કરવા માટે હું એક ઉપાય બતાવું છું (तुन्भेण ताओ सेसि जियसत्त पामोक्साण छहरायाण पत्तेय रहसिय दूयस पेसे करेह ) पिता ! तमे शत्रु प्रभु भाथी ४३६ २सनी પાસે એકાતમા પિતાને દૂત મોકલે
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अनगारधर्मामृतयषिण टी० अ० ८ पनकमयपुतलिस्वरूपनिरूपणम् ४८ भूषा समाणा सएहि २ उत्तरिजएहि णासाइ पिहति, पिहित्ता परम्मुहा चिटति, तएणंसा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसतूप्पामोक्खे एवं वयासी-किण्णं तुम्भ देवाणुप्पिया । सएहिर उत्चरिन्जेहि जाव परम्मुहा चिट्टह ?, तएणं ते जियसत्तूपामोक्खा मल्ली विदेहरायवरकन्न एवं वयति-एवं खलु देवाणु. पिए | अम्हे इमेणं असुभेण गंधेण अभिभूया समाणा सएहिर जाव चिट्ठामो। ___तएणं मल्ली विदेहरायकन्ना ते जियसत्तूपामोक्खे एवं वयासी-जइ ता देवाणुप्पिया । इमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्लाकल्लि ताओ मणुण्णाओ असण पाण खाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे२ इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे इम्मस्स पुण ओरालिय सरीरस्त खेलासवस्स वंतासव्वस्स पित्तासबस्तसुकसाणियपूयासवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुरूवमुत्तपूइयपुरिसपुण्णस्त सडणपडण विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणाने भविस्सइ १, तं मा प तुभे देवाणुप्पिया | माणुस्स एसु कामभोगेसु सज्जह रजह गिज्झह मुज्झह अज्झोववज्जह, एव खल्लु देवाणुप्पिया । तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्तवि य वालवयसया रायाणो होत्था, सहजाया जाव पव्वइया, तएण अह देवाणुप्पिया | इमेण कारणेण इत्थीनामगोय कम्म निव्वत्तेमि जइण तुम्भ चोत्थं उवसपज्जित्ताण विहरइ, तएण अंह छह उवसंपज्जित्ताणं विहरामि.
ज्ञा ६१
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माताधर्मकथा विदेहराज नरकन्याया एवम् = उक्तप्रकारेणोक्त सन् तदेवन्तथैव कला यातू जितशत्रुममुखान् पडपिरानः मनेशयति, प्रवेश रोघसज्जस्तिष्ठति ||०३४ ॥
मूलम् तपणं ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पियरायाणो क पाउप्पभायाए रयणीए जलते सूरिए जालंतरेहिं कणगमय मत्थयछिड पउमुप्पलपिहाण पडिमं पासइ, एसण मही विदेहरायवरकण्णत्तिक महीए विदेहरायवर कन्नाए रुवे य जोठवणे य लावण्णेय मुच्छिया गिन्डा गढिया अज्झोवत्रण्णा आणि मिसाए दिट्टीए पेहमाणा२ चिट्ठति ।
तएण सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना पहाया जाव सव्वालकारविभृमिया वहूहि खुजाहिं जाव परिक्खिता जेणेत्र जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ त पउम उवणेइ, तएण गंधे णिद्धावइ, से जहानामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए चेत्र । तएण ते जियसनूपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभि
बाद में मिथिला राजधानी के द्वारों को बन्द करवा दीजिये | इस प्रकार उन्हें यहा रोक कर आप अपनी आत्मरक्षा करिये । मल्ली कुमारी के इन वचनो को सुनने के बाद कुमक राजा ने विदेह राजवर कन्या उस अपनी पुत्री मल्लीकुमारी के कहे अनुसार वैसा ही किया । अर्थात् दुतों द्वारा उन सब को अपने यहाँ बुलवा लिया एव उन्हें तल घरों में ठहरा दिया । म्रत्र ३४
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ત્યાર પછી મિયિલા -રાજધાનીના દરવાજાએ ખધ કરાવડાવી દા, આ રીતે તેઓને અહી બધ કરીને તમે આત્મરક્ષા કરી. વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારીના વચને સાભળીને કુલક રાજાએ તેણીએ કહ્યુ તે મુજબ જ કર્યું એટલે કે તે વડે તેએ બધાને પેાતાને ત્યા ખેલાવી લીધા અને ગર્ભગૃહેામા तेखाने रोडी सीधा | सूत्र " ३४ " ॥
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अनगारधर्मामृतवर्षिण टी० अ० ८ फलकमयपुत्तश्विरूपनिरूपणम् भूषा समाणा सएहि २ उत्तरिजएहि णासाई पिहेंति, पिहित्ता परम्मुहा चिट्ठति, तएणंसा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियस - तप्पामोक्खे एवं वयासी - किण्णं तुब्भ देवाणुपिया । सएहिं२ उत्तरिजेहि जाव परम्मुहा चिट्ठह १, तरणं ते जियसत्तूपामोक्खा मल्ली विदेहरायवरकन्न एवं वयति - एव खलु देवाणु - पिए | अम्हे इमेणं असुभेणं गधेणं अभिभूया समाणा सरहिं जाव चिट्ठामो ।
तणं मल्ली विदेहरायकन्ना ते जियसत्तूपामोक्खे एवं वयासी - जइ ता देवाणुप्पिया । इमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्ला कल्लि ताओ मणुपणाओ असण पाण खाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे २ इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे इम्मस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासवस्स वंतासव्वस्त पित्तासवस्त सुक्क सोणिय प्रयासवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुरूवमुत्तपुरिसपुण्णस्स सडणपडण विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणाने भविस्सइ त मा धातुभे देवाप्पिया | माणुस्स एसु कामभोगेषु सज्जह रज्जह गिज्झह मुज्झह अज्झोववज्जह, एव खलु देवाप्पिया । तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महामोक्खा सत्तवि य वालवयस्या रायाणी होत्था, सहजाया जाव पव्वइया, तएण अह देवाणुप्पिया । इमेण कारणेण इत्थीना मगोय कम्म निव्वतेमि जइण तुम्भं चोत्थं उवसज्जित्ताण विहरद्र. तएण अह छह उवसपज्जित्ताण विहरामि,
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५४२
पासमा सेसं तहेव सब, तएण तुम्भे देवाणुप्पिया ! कालमासे कालं किचा जयंते विमाणे उववण्णा, तत्थं णं तुम्भे देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाई ठिई,तएणं तुम्भं ताओदेवलोयाओ अणंतर घयं चइत्ता इहेव जंबूद्दीवेरजाव साइं२ रजाइ उसपज्जित्तार्ण विहरइ, तएण अहं देवाणुप्पिया। ताओ देवलोयाओ आउ पखएणं जाव दारियत्ताए पञ्चायाया।
किं थ तयं पम्हट जं थ तया भो जयत पवरामि ।
उत्था समयं निवद्ध देवा ! तं संभरह जाइ ॥सू०३५॥ टीका-'तएण ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तर' खलु ते जितशत्रुप्रमुखाः घडपि राजान कल्ये-द्वितीयदिवसे पाउप्पभायाए' प्रादुः प्रमाताया-प्रादुर्भूतः सजातः, प्रभातः-प्रातः कालो यस्याः सा पादुः प्रभाता तस्याम् अवसान प्राप्ता यामित्यर्थः रजन्या रात्रौ, 'जलते सुरिए ' ज्वलति-उदिते सूर्य, सुवर्णनिर्मिता मस्तकछिद्रा-मस्तकोपरिभागे छिद्रयुक्तां 'पउमुप्पलपिहाण' पद्मोत्पलपिधानाछिद्रोपरि मलाच्छादनयुक्तां, प्रतिमा प्रतिकृति पश्यन्ति, दृष्ट्वा, 'एमा-रालु मल्ली विदेहराजवरकन्या वर्तते ' इति कृत्वा इतिज्ञाला, मल्ल्या विदेहरानवर
तएण ते जियसत्तू पामोक्खा इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणी कल्ल पाउप्पभायाए रयणीए जलते सूरिए) उन जितशत्रु प्रमुख उहाँ राजाओं ने दूसरे दिन जय रात्रि समाप्त हो चुकी और सूर्य का उदय अच्छी तरह हो चुका तय ( जाल तरेहिं ) खिड़कियों के रन्ध्रों से (कणगमय मत्थयछिड्रड पउमुप्पलपिहाण पडिम पासइ) कनक मय उस प्रतिकृति को कि जिस के मस्तक में छिद्र था और वह छिद्र जिस
(तएण जियसत्तू पामोक्सा इत्यादि ।।
साथ-(तएण ) त्यामा (ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणो कल्ल पाठप्पभयाए रयणीए जलते सुरिए) तश प्रभुम ७ मा मीन हिसे न्यारे शत ५२यमन सू य पाभ्यो त्यारे (जाल तरेहि) मारीमोना आयामोमाथी (फणगमय मत्थयछिड्ड् पण्मुष्पलपिहाण परिम पासइ) रेना मायामा सेतु तवी सोनानी प्रातति (भूति )२
(एसणं मल्ली विदेहरायवरकण्णत्तिकटु मल्लीए . रूवे य
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अनगारधर्मामृतपणी टी० भ०८ कनकमयपुत्तलिस्वरूपनिरूपणम्
પટે
कन्याया स्पे= मनोहाराकारे च यौवने वयसि लावण्ये - यौवनव योजनितकान्ति निशेषे च मूर्छिता- रूपयौवनलाण्यदर्शनेन मोहिताः, 'गिद्धा ' गृद्धाः = लोलुपाः, ' गढिया ' ग्रथिता:- निपद्धचित्ता, अभ्युपपन्ना = अत्यन्तासक्ताः अनिमेषया निमेषपातरहितया दृष्ट्या प्रेक्षमाणा २ अनुक्षण पुन, पुनर्विलोकयन्तस्तिष्ठन्ति स्म ।
ततस्तदनन्तर खलु सा मल्ली विदेहराजवर कन्या स्नाता यावत्- सर्वालकारविभूषिता वहीभिः कुब्जिकाभि र्यावत् - दासीभिः ' परिक्खित्ता' परिक्षिप्ता= परिवेष्ठिता यत्रैव जालगृह गनाक्षयुक्त गृह, यत्रैव कनकप्रतिमा स्वकीया सुवर्ण
का पद्मोत्पल से ढका हुआ था देखा (एमण मल्ली विदेह रायवर कृष्ण त्ति कट्टु मल्लीए विदेह रायवरकन्नाए रुवे य जोव्वणे य लावण्णेय मुचित्रा गिद्धा गढ़िया अज्झोचवण्ण अणिमिसाए दिए पेहमाना रचिट्ठति
देख कर अरे ! यह तो विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी हैं, ऐसा जान कर वे सब उस विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी के रूप यौवन एव लावण्य पर मूच्छित हो गये मोहित हो गये, लोलुप हो गये । उन में उनका चित्त बन गया । इस तरह अत्यत आसक्त होकर वे सब के सब अनिमेष दृष्टि से वार २ उस की तरफ देखते रहे । (तएण सा मल्ली विदेrरायवरकन्ना पटाया जाव सव्वालकारविभूसिया बहर्दि खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिम तेणेव उबागच्छइ ) इस के पश्चात् विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी स्नान आदि कर के समस्त अलकारो से विभूषित शरीर हो अनेक कुजक सस्थान वाली दासियो के साथ २ जहा वह जाल गृह और उस में भी जोoaणे य लावण् य मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोनवण्णा अणिमिसाए- दिट्ठीए पेहमाणा २ चिट्ठति )
જોઈને “ અરે આતે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી જ છે ” આમ જાણીને તેએ બધા વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારીના રૂપ યૌવન અને લાવ યના પ્રભાવથી મૃતિ થઇ ગયા મહિત થઈ ગયા લાલુપ થઈ ગયા તેમાં તેમનુ ચિત્ત ચાટી ગયુ આ રીતે ખૂખજ આસક્તથને તેઓ બધા વારવા તેની તરફ જોતા રહ્યા
( तएण सा मल्ली त्रिदेहरा यवरकन्ना व्हाया जाव सञ्चालकारविभूसिया - ज्जाहिं जा परिक्खित्ता जेणेव जालधरए जेणेव कणयपडिमं
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सेसं तहेव सव्व, तएण तुबमे देवाणुप्पिया ! कालमासे कालं किचा जयंते विमाणे उपवण्णा, तत्थं णं तुम्भे देसूणाईबत्तीसाई सागरोवमाई ठिई,तएणं तुभ ताओदेवलोयाओ अणंतर घयं चइत्ता इहेव जवूदीवेरजावसाइं२ रज्जाइ उवसपज्जित्ताणे विहरइ, तएण अहं देवाणुप्पिया। ताओ देवलोयाओ आउ. पखएणं जाव दारियत्ताए पञ्चायाया।
किं थ तयं पम्हु, ज थ तया भो जयत पवरामि ।
वुत्था समयं निबद्धं देवा । तं संभरह जाइ ॥सू०३५॥ टीका-'तएण ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु ते नितशत्रुप्रमुखाः पडपि राजान फल्ये-द्वितीयदिवसे 'पाउप्पभायाए' मादुः प्रभाताया-प्रादुभूतः सजातः, प्रभात:-प्रातः कालो यस्याः सा प्रादुः प्रभाता तस्याम् अवसान प्रामा यामित्यर्थः रजन्या रात्री, 'जलते सुरिए ' ज्वलति-उदिते सूर्य, सुवर्णनिर्मिता मस्तकछिद्रा-मस्तकोपरिभागे छिद्रयुक्तां 'पउमुप्पलपिहाण' पोत्पलपिधानाछिद्रोपरि मलाच्छादनयुक्तां, प्रतिमा प्रतिकृति पश्यन्ति, दृष्ट्वा, ' एपा-खछु मल्ली विदेहराजवरकन्या वर्तते ' इति कृत्वा इतिज्ञाला, मल्ल्या विदेहरावर
तएण ते जियसत्तू पामोरखा इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणा कल्ल पाउप्पभायाए रयणीए जलते सूरिए) उन जितशत्रु प्रमुख छहा राजाओं ने दूसरे दिन जब रात्रि समाप्त हो चुकी और सूर्य का उदय अच्छी तरह हो चुका तय ( जाल तरेहिं ) खिडकियों के रन्ध्रों से (कणगमय मत्थयछिड्रड पउमुप्पलपिहाण पडिम पासइ) कनक मय उस प्रतिकृति को कि जिस के मस्तक में छिद्र था और वह छिद्र जिस
(तएण जियसत्तू पामोक्सा इत्यादि ।।।
साथ-(तएण )त्यारमा (ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणो कल्ल पाउप्पभयाए रयणीए जलते सूरिए) ततशत्रु प्रभु५ छ समामे भान हिसे न्यारे रात ५ यमन सू२४ Gध्य पाभ्या त्यारे ( जाल तरेहि ) मारीमोना सामोभायी (कणगमय माथयछिद्दड पमुप्पलपिहाण पटिम पासइ) ना मायामा तु पी सनानी प्रातति (भूति )२ (एसणं मल्ली विदेहरायवरकण्णत्तिकदु मल्लीए :
स्वे य
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मेनगारधर्मामृतर्वापणी टी० १० ८ फनफमयपुतलिस्यरूपनिरूपणम् ४५
ततस्तदन्तर खलु सा मल्ली विदेहराजवरकन्या तान् जितशत्रुप्रमुग्वान् राक्ष एवम्वक्ष्यमाणप्रकारेणावादी हे देवानुमियाः ! किन कारणेन खलु यूय स्वकैरुत्तरीयै यावत्-नासिका पिधाय परामुग्वास्तिप्टथ ', ततः ग्वलु जितशत्रुप्रमुग्वाश मल्लों विदेहरानपरकन्याम्, एवचक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति-हे देवानुप्रिये ! एव खलु वयमनेनाशुभेन-अनिष्टतरेण दुरभिगा गन्धेन, अभिभूताः सन्तः स्वः २ यारत्-उत्तरीयैः स्व स्व नासिका पिदाय पराङ्मुखाः, 'विट्ठामो' तिष्ठाम:=स्थिताः स्मः।
(पिहिता परम्मुहा चिट्ठति' तएण सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तू पामोस्खे एव वयामी ) और दूमरी तरफ मुग्व करके बैठ गये । जय मल्ली कुमारी विदेह राजवर कन्या ने उन्हें इस प्रकार देखा तो वह पोली- (किण्ण तुम्भ देवाणुप्पिया! सऍहिं २ उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह तण ते जियसत्तू पामोरखा मल्ली विदेह रायवर कन्न एव वयति) हे देवानु प्रियो । आप लोग क्यों अपने अपने उत्त रीय वस्त्रों से अपनी २ नाक को ढक कर और पुतली की और से मुंह फेरकर बैठ गये हैं । मल्ली कुमारी विदेहराजवर कन्या की इस प्रकार वात सुन कर उन जितशत्रु प्रमुख छहाँ राजाओ ने उससे ऐसा कहा
(एव खलु देवाणुप्पिए अम्हे इमेण असुभेण गधेण अभिभूया समाणा सरहिं २ जाव चिट्ठामो) हे देवानुप्रिये ! हमलोगो से यह अशुभ गध सहन नहीं हो रही है अतः हम लोग अपने २ उत्तरीय
(पिहित्ता परम्मुहा चिट्ठति तएण सा मल्ली विदेहरायवरकना त जियसत्तू पामोक्खे एव पयासी)
અને તેઓ બવા એ ફેરીને બેસી ગયા જ્યારે વિદેહરાજવર કન્યા મલકુમારી તેઓને આ પ્રમાણે કરતા જોયા ત્યારે તેણે કહ્યું
(किण्ण तुभ देवाणुप्पिया ! सएहिं २ उत्तरिन्जेहिं जार परम्मुहा चिट्टह तएण ते जियसत्तू पामोरखा मल्लिं विदेहरायवरफन्न एन वयति)
હે દેવાનુપ્રિયે! તમે લેકે શા કારણથી પિતાનું ના ઉત્તરીયવાના છેડાથી દાખીને પ્રતિમાના તરફથી મેં ફેરવા બેસી ગયા છે?
વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીની આ વાત સ ભળીને જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ તેને કહ્યું
(एव खलु देवाणुप्पिए अम्हे इमेण अमुभेण गधेण अभिभूया समागा सहि २ जाव चिहामो)
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ताकया मयी प्रतिकतिः, तत्रोपागच्छति, उपागत्य तस्याः कनकपतिमाया मस्तकाद तत्-पिधानरूप पम् 'अबणेइ' अपनयतिद्रीकरोति, पापसारणेन कनकमय प्रतिकतेमस्तकोपरिस्थितन्त्रमुदाटयतीत्यर्थः । ततस्तदनन्तर सल गन्धादुर भिगन्धः, 'गिद्धापइ' निर्धापति शीध्र पहिनिःसरति, तद् यथा नामकम्तथाहि-यथा-'अहिमटेति या' अहिमृतक इति वा मृतमर्पस्य तीनदुर्गन्धः प्रस रति, तद्वदित्यर्थः, स यावत्-गोमृताडन, श्वमृतकडयेत्यादियोध्यम् ' एत्तोवि'एतस्मादपिदुर्गन्धात् अशुभवर एवं-नत्यन्तं मनो कितिननास्तीव्रतरो दुःसहश्चैव पर्त्तते । तत खलु ते जितशत्रुप्रमुखास्तेनाशुभेन गन्धेनाभिभूताः सन्त स्वर वकरुत्तरीयैः उत्तरीयाः, 'णासाह' नासिकाः पिदधति-आच्छादयति पिधाय 'परम्मुहा' पराङ्मुखाः परावर्तितमुखास्तिष्ठन्तिस्म । जहा वह सुवर्णमयी प्रतिमा थी वहा आई । (उचागच्छित्ता तीसे कणग पडिमाग मत्थयाओ त पत्रम अवणेह) यहा आकर के उस ने उस कनक मय पुतली के मस्तक से उस कमल को हटाया (तएण गधे णिद्धावइ ) ढक्कन के हटते ही उम में से बहुत भारी दुर्गन्ध निकली (से जहानामा अहिमडेति वा जाव असुमतराव चेव) वह दुर्गध ऐसी अशुभतर थी कि जैसी मरे हुए सर्प के सडे शरीर की होती है तथा गोमृतक एव श्वमृतक, की होती है । (तपण ते जियसत्त् पामोक्खा तेण असुभेण गधेण अभिभूया समाणा सएहिं २ उत्तरिज्जेहिं णासाइ पिहेंति ) उस दुर्गंध के निकलते ही उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने अपने २ उत्तरीय वस्त्राचलों से अपनी २ नाक को ढक लिया । (भूति) ती त्याग (उवागन्छिता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ त पउम )
अवणेइ) त्या भावाने तेरे ते सोनानी प्रतिभापर २७दु सेनाना भगवाणु ढ 6घायु (तएण गध णिद्धावइ ) २ था माथी मयत
माम हु न हामी से जहानामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए चेव) તે દુર્ગધ એટલી ખરાબ હતી કે મરેલા સાપના સડી ગયેલા શરીરની તેમજ ગેમૃતક અને શ્વમૃતકની હોય છે
(तएण ते जियसत्तू पामोक्खा तेण असुभेण गधेण अभिभूया समाणा सए हिं २ उत्तरिज्जेहिं णासाइ पिहति)
દુર્ગધ બહાર આવતાની સાથે જ છતશનું પ્રમુખ છએ રાજાઓએ
सामाननी ..
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भनगारधामृतषिणी टी० ० ८ कनकमयपुतलिस्वरूपनिरूपणम् .. ४७ बायोनिर्गमनं निः श्वासः तो दूरूपावनिष्टौ यस्य स तथा, तस्य दुरूपमूत्रपूतिकंपुरीप पूर्णस्य दूरूपेण पूतिकेन अनिष्टगन्धवता पुरीपेण पूर्णस्य, तथा तत्रशर्टनपटन विधंसनधर्मस्य शटनं-कुष्ठादिरोगानुल्यादेः पतनै ज्वरादिना शैथिल्य, विध्वसन-नाशः एते शटनादयो धर्माः स्वभावा यस्य स तस्य, कीदृश परिणामो भविष्यति? अशनाचाहारादुध्धृतस्यैकैम्यासस्य प्रतिदिवम प्रतिकृती प्रक्षिप्तस्य यदि पुरिस पुपणस मंडण पडण विद्धसण धम्मस्त केरिसए परिणामे भवि. रसा ) इस औदारिक शरीर का पुद्गल परिणमन उसकी अपेक्षा भी अधिकतर अनिष्ट दुर्गध वाला नहीं होगा क्या ? अवश्य होगा क्योंकी यह कफ का आश्रय भूत है । समय २ पर इससे वमन का निस्सरण होता रहता है। पित्त भी इस से निकलता रहता है। शुक्र, शोणित, एवं पीव इस में बाहिर रहता है । इसका जो श्वास और उच्छ्वास है वे महा दुरूप-अनिष्टता है। यह दुरूप मूत्र एव अनिष्ट गंध वाले मल से सदा भरा रहता है । यह शदन, पदन, तथा विश्वसन धर्म वाला हैं। कुष्टादि रोग द्वारा जो इस के अगुलि आदि अवयव गिर जाते हैं उस का नोम शटन है । ज्वरादि अवस्था से जो इसमें शिविरता आ जाती है उस का नाम पतन है। नाश होने का नाम विध्वर्सन है । कारण इस का इस प्रकार है कि अशनादि रूप चतुर्विध आहार से उत्पन्न हुए एक २ ग्रास का जो प्रतिदिन इस प्रतिकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है
(इमस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासवस्स बत्तासवस्स पित्तासबस्स मुक्क सोणिय पूयासवस्स दुरूव उसासनीसासरस दुरूवमुत पूइयपूरिस पुण्णस्स सडण पडण गिद्धसण धम्मस्स केरिसण परिणामे भविस्सइ)
આ દારિક શરીરનુ પુદ્ગવ પરિણમન તેના કરતા પણ વધુ અનિષ્ટ દુધવાળુ થશે નહિ? અરે! એકાસ થશે કેમકે આ કફનું આશ્રય છે આમાથી વાર વાર વમનનુ નિસ્સરણ થતું રહે છે પિત્ત પણ આમાથી નીકળતુ રહે છે શુક્ર, શેણિત (લેહી) અને પરૂ આમાથી બહાર વહેતુ રહે છેઆમ થી એના શ્વાસોચ્છવાસ મહા દુરૂપ અનિષ્ટતર છે આ શરીર દુરૂપ મૂત્ર અને અનિષ્ટ દુધવાળા મળથી હમેશા ભરાએલુ રહે છે આ શરીર પાટન, પતન, તેમજ વિધ્વસન ધર્મવાળુ છે ટાઢ વગેરે રોગ વડે જે શરીરના આગળ વગેરે અવયવે ખરી પડે છે તેનું નામ શટન છે ઘડપણને લીધે શરીરમાં જે શિથિલતા આવે છે તેને પતન કહેવાય છે નાર થવું તે વિશ્વ સન કહેવાય છે આનું કારણ બતાવવામાં આવેલ કેળિયો જે એક એક કરીને દરરોજ આ પૂતળીમાં નાખવામાં આવ્યું છે તે જ્યારે એવું તીવ્ર અનિષ્ટતર છે
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पाताया ततस्तदनन्तर तेपा राम वचन श्रुत्वा सलु मल्लो विदेडरानवरकन्या वान् जितशनुभमुखान् राज्ञः प्रत्येवमनादीद-हे देवानुमिया ! यदि तावत् अस्यां कनक मय्या यावत्-पतिमाया 'कल्लाफरिल 'क्ल्याकन्ये प्रतिदिवस तस्माद् मनोगाद अशनपानखाघस्सायाव-चतुर्विधाऽऽहाराद् एकैः पिण्डः-ग्रासः प्रतिप्यमाणः' अयमेतद्रूपा-मनोविकृतिकारकस्तीनतरो दु'सहो दुर्गन्धः, अशुमा अनिष्टतरः पुद्गलपरिणामो जात , तईि पुनरोदारिकशरीरस्य श्लेष्मासस्य यम्मात् कफमसाबो भवति तस्य, गान्तात्रवस्यवान्तम्-उद्गीण वस्यास्रः प्रसायो यस्माद् भवति तस्य, पित्तात्रवस्य-पित्तस्यास्रो नि' सरण यात तस्येत्यर्थ । तथा शुकशोणितपूयात्रस्य दुरुपोन्छ्यास निवासस्यपाबवायुमहणमुन्छ्वासः शरीरान्तर्गतस्य वनाचलों से नाम ढक और इस तरफ मुंह कर फेर कर पैट गये हैं। (तएण मल्लो विदेहरायवर फन्ना ते जियसत्तू पामोक्खे एव वयासो) ईस के अनन्तर विदेहराजवर कन्या मल्ली कुमारी ने उन जितशत्रु प्रमुख राजों से कहा-(जइता देवाणुपिया! इमीसे कणग • जाव पडिमाए कल्ला कल्लि ताओ माणुण्गाओ असणपाणखाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पश्खिप्पमाणे२ इमेयारुवे असुभे पोग्गलपरिणामे) हे देवा, नुप्रियो ! इस कनकमयी पुनली मे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य एव स्वाथ रूप चतुर्विध आहारका डाला गया एकर ग्रास जब इस प्रकारका मनोविकृति जनक अशुभ तर पुदल परिणामरूप दुर्गधवाला बन गया है तो।
(इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासवस्स बतासवस्स पित्ता सवस्म सुक्कसोणियपूयासबस्स. ऊमासनीसासस्स दुरूवमुत्तपुड्य
હે દેવાનુપ્રિયે ! આ ખરાબ ગ ધ અમારા માટે અસહ્ય થઈ પડી છે એથી અમે પતિપતાના ઉત્તરીયના છેડાથી નાક દબાવીને અને આ તરફથી भी श्वान सी अया, छीले (तएण मल्ली विदेहराजयर कन्ना ते जियसत्तू पामोक्खे एव वयासी) त्यारपछी विश५२ जुन्या भसीमारी सतशत्रु પ્રમુખ રાજાઓને કહ્યું કે,
(जइता देवाणुपिया! इमीसे कणग० जार पडिमाए कल्ला कल्लि ताओ मगुण्णाओ असणपाणखाइम साइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे २ इमेयावे भाभे पोग्गलपरिणामे)
હે દેવાનપ્રિયે! આ સોનાની પૂતળીમા મને અશન પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારને ન ખાએલે એક એક કોળીયો જરે આ પ્રમાણે મનોવિકૃતિજનક અશુભતર પુદ્ગલ પરિણામ રૂપ દુર્ગ ધવા થઈ ગયેલ છે ત્યારે
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मनगारधर्मामृतपिणी टी० ० ८ कनकमयपुत्तलिस्वरूपनिरूपणम् १८७ वायोनिर्गमनं निः श्वासः तो दूपारनिष्टौ यस्य स तथा, तस्य दूरूपमूत्रपूतिकंपुरीप पूर्णस्य दूरूपेण पूतिकेन अनिष्टगन्धवता पुरीपेण पूर्णस्य, ती तत्रशंटनपटनविध्वंसनधर्मस्य शटन-कुष्ठादिरोगा?ल्यादेः पतनं ज्वरादिना शैथिल्य, विध्वसन-नाशः एते शटनादयो धर्माः स्वभावा यस्य स तस्य, कीदृश परिणामो भविग्यति? अशनाद्याहारादुध्धृतस्यैकैकग्रासस्य प्रतिदिवम प्रतिकृती प्रक्षिप्तस्य यदि पुरिस पुपणस्स मंडण पडण विद्धसण धम्मस्स केरिसए परिणामे भवि. रसह) इस औदारिक शरीर का पुद्गल परिणमन उसकी अपेक्षा भी अधिकतर अनिष्ट दुर्गध वाला नहीं होगा क्या ? अवश्य होगा-क्योंकी यह कफ का आश्रय भूत है । समय २ पर इससे वमन का निस्सरण होता रहता है। पिस भी इस से निकलता रहता है । शुक्र, शोणित, एव पीव इस में बाहिर यहता है । इसका जो श्वास और उच्छ्वास है वे महा दुरूप-अनिष्टनर हैं । यह दुरूप मूत्र एव अनिष्ट गध वाले मल से सदा भरा रहता है । यह शदन, पटन, तथा विध्वंसन धर्म वाला हैं। कुष्ठादि रोग द्वारा जो इस के अगुलि आदि अवयव गिर जाते हैं उस का नोम शटन है। ज्वरादि अवस्था से जो इसमें शिथिलता आ जाती है उस का नाम पतन है । नाश शेने का नाम विध्वसन है । कारण इस का इस प्रकार है कि अशनादि रूप चतुर्विध आहार से उत्पन्न हुए एक २ ग्रास का जो प्रतिदिन इस प्रतिकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है
( इमस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासबस्स वत्तासवस्स पित्तासवस्स सुक्क सोणिय पूयासबस्स दुरूव उसासनीसासरस दुरूवमुन पूइयपूरिस पुण्णस्स सडण पडण विद्धसण धम्मस्स केरिस परिणाम भरिस्सइ)
આ ઔદારિક શરીરનું પુદ્ગલ પરિણમન તેના કરતા પણ વધુ અનિષ્ટ દુધવાળુ થશે નહિ? અરે! ચક્કસ થશે કેમકે આ કફનું આશ્રય છે આમાથી વાર વાર વમનનુ નિસરણ થતું રહે છે પિત્ત પણ આમાથી નીકળતું રહે છે શુક્ર, શેણિત (લેહી) અને પરૂ આમાથી બહાર વહેતુ રહે છે આમ થી એના શ્વાસેર છવાસ મહા દુરૂપ અનિષ્ટતર છે આ શરીર દુરૂપ મૂત્ર અને અનિઈ દુધવાળા મળથી હમેશા ભરાએલું રહે છે આ શરીર શટન, પતન, તેમજ વિધ્યસન ધર્મવાળુ છે ટાઢ વગેરે રોગ વડે જે શરીરના આગળ વગેરે અવય ખરી પડે છે તેનું નામ રાટન છે ઘડપણને લીધે શરીરમાં જે શિથિલતા આવે છે તેને પતન કહેવાય છે નાશ થવું તે વિશ્વ સન કહેવાય છે આનુ કારણ બતાવવામાં આવેલો કેળિયો જે એક એક કરીને દરરજે આ પૂતળીમાં નાખવામાં આવ્યું છે તે જ્યારે એવુ તીવ્ર અનિષ્ટતર હું
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पहलपरिणामस्तीनतरोऽनिष्टतरोदुर्गन्धः प्रसरति, तर्हि पुनरस्यौदारिकशरीरस्य भलेष्मादिनानाविषमलपूर्णस्य शटनपवनसिनस्वमारस्य पुद्गलपरिणामस्तस्माद प्यऽधिकतरोऽनिष्टदुर्गन्धो भविष्यतीत्यर्थः । तस्मात् हे देवानुप्रियाः। यूयं खलु मानुष्यकेपु कामभोगेषु मा 'सनह' मा सम्जत-सा नो कुरुत, 'मा' इत्यस्य प्रत्येकमपिसम्पन्न । 'रज्जह' रज्पत-राग मा कुरून, 'गिभर' गर्धध्वम् गृद्धि तृष्णा मा पुरुत, 'रुग्यह' मुगत मोह नो कुरुत विषयदोष मा विस्मरतेत्यर्थः, 'अझोनमज्जह ' अध्युपपद्यध्यम्-कामभोगाना ध्यान मा कुरुते. त्यर्थः । हे देवानुपियाः ! एप खलु यूय यमितस्तृतीये भरग्रहणे अपरविदेहवर्षे पश्चिमीयमहाविदहक्षेने सलिलावत्या सलिलावतीनामके विजये वीतशोकाय राजधान्या महापलपमुखाः सप्तापि च पालवयस्पा रानानारानकुलदहीवजन्मानः यदि इस प्रकार का तात्र अनिष्टतर दुर्गध रूप पुद्गल परिणाम है तो फिर इस औदारिक शरीर का कि जो श्लेष्मादि नाना विध मल से परिपूर्ण हो रहा है तथा शटन पटन एव विध्वसन जिस का स्वाभाविक धर्म है पुद्गल परिणाम इस से भी अधिक तर अनिष्ट दुर्गध वाला ही होगा
(त माण तुम्भे देवाणुप्पिया | माणुस्सएसु कामभोगेसु सजाहा रज्जद गिज्झद, मुज्झर, अज्झोववज्जर) इसलिये हे देवानुप्रियों । तुम लोग मनुष्य भव सरधो काम भोगो में मत फँसो, उन में राग भाव मत करो तृष्णा मत बढाओ, मुग्ध मत बनो और न इन का ध्यान ही करो। ( एव खलु देवाणुप्पिया 1 तुम्हे अम्हे हमाओ तवे भवग्गणे अवर विदेहवासे सलिलाग्इमि विजा वीयसोगाए रायहाणीए मह व्यल पामोक्खा सत्तविय घालवयसया रायाणो होत्था) हे देवानुप्रियो । રૂપ પુદ્ગલ પરિણામવાળું થાય ત્યારે આ ઔદારિક શરીરનુ કે જે શ્લેષ્મ વગેરે ઘણું મળેથી ભરાએલુ છે–અને શટન, પતન, અને વિદવ સન જેનુ સ્વાભાવિક ધર્મ છે–પુગવ પરિણામ એના કરતા પણ વધુ અનિષ્ટ દુર્ગધવાળું હશે જ
(त मा ण तुम्भे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएसु कामभोगेसु सज्जह, रज्जह गिज्झह, मुज्झह, अज्झोववज्जह )
એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે મનુષ્યભવના કામ માં ફસાશે નહિ, તેમાં રાગ ઉત્પન્ન કરો નહિ, તેના પ્રતિ તૃષ્ણાનું વદ્ધન કરે નહિ, મુગ્ધ થાઓ નહિ અને તેને કઈ દિવસ પણ વિચાર કરે જ નહિ
(एव खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्हे इमाओं तच्चे भवग्गहणे अपरविदेह वासे सलिलावइसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए मदबलपामोक्खा सचविय बालवयसया रायाणो होत्या )
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भगारधर्मामृतचर्पिणी टीका अ० ८ पनमयपुतलिस्वरूपनिरूपणम् ४८९ 'होत्या' समाता कीदृशाः ? इत्याह- सहजाया ' सहजाता=सहोत्पन्ना , यावत्-सहचर्षिताः सहक्रीडितकाः, 'पघइया' प्रजिताः सहैव दीक्षा गृहीतवन्त इत्यर्थः । ततः खलु हे देवानुप्रिया ! अह 'इमेण कारणेण' वक्ष्यमाणेन कारणेन स्त्रीनामगोत्र कर्म निव्वत्तेमि' निर्वतयामि अर्जयामि तस्मिन भवे मया स्त्रीनामगोत्र कर्ममित्यर्थः । येन पारणेन स्त्रीनामगोत्र वर्म निर्वर्तित तदाह-'जइण' इत्यादि। यदि खल यूय चतुर्थ चतुर्थभक्त तप', उपसपध विहरथ, 'तए' ततः तदा खलु अह पप्ठ-पठभक्त तप , उपसपद्य विहरामि-तिष्ठामि । शेप तथैव सर्वम् , हम तुम आज से तीसरे भव में पश्चिम महा विदेह क्षेत्र में सलिलावती नाम के विजय में वर्तमान वीतशोका नाम की राजधानी में "यालय यस्य " सात राजपुत्र थे। उस समय हम लोगों का नाम महायल आदि था ( सजाया जाव पव्वदया ) हम सब साथ ही उत्पन्न हुए थेऔर सोय ही बढे हा थे। साथ ही धूलि क्रीडा में रत रहा करते थे। निमित्त पाकर हम सातों ने ही उस समय दीक्षा धारण की थी। (तरण अह देवाणुप्पिया | इमेण तुम चोत्थ उवसपज्जित्ताण विहरई तण्ण अह उट्ट उक्सपजिताण विहरामिसेस तहेव सव्व) मैंने उस भव में इस कारण से स्त्री नाम गोत्रकर्म का बध किया कि तुम सय लोग यदि चतुर्थ भक्त करते तो हम भी तुम्हारे साथ चतुर्थ भक्त ही करते परन्तु कोई बहाना बनाकर पारणा के दिन भी छ? आदि तपस्या कर लिया करते । यह सर विषय इसी अध्ययन में पहिले स्पष्ट किया जा चुका है।
હે દેવાનુપ્રિયે ! હ અને તમે આજથી ત્રીજા ભવમાં પશ્ચિમ મહાવિદેડક્ષેત્રમાં સલિલાવતી નામના વિજયમાં વિવમાન વીતશેકા નામની રાજ ધાનીમા “બાલવરસ્ય’ સાત રાજપુત્ર હતા તે સમયે અમારા નામે મહાબલ गरे त (सहजाया जोर पव्वइया) सभे मधा साथे गाभ्या तो અને સાથે સાથે જ મોટા થયા હતા માટીમાં પણ આપણે બધા સાથે સાથે જ રમ્યા હતા સમય આવતા આપણે સાતે જણાએ દીક્ષા ધારણ કરી હતી
(तएण अह देवाणुप्पिया ! इमेण का योण इत्थीनामगोयम्म नियमि जइण तुभ चोत्थ उबसपज्जित्ताण विहरई तएण अह छह उसपज्जिचाण विहरामि सेस तहेव सध)
તે ભવમાં આ કારણથી સ્ત્રીનામ ગોત્ર કમને બે ધ કર્યો તમે બધા જ્યારે ચતુર્થભક્તિ કરતા ત્યારે હું પણ તમારી સાથે ચતુર્થ ભક્ત તો કરતાજ પ ગમે તે બહાના હેઠળ પારણના દિવસે પણ છઠ્ઠ વગેરે તપસ્યાઓ કરતે રહતે હતે (આ વિશેનુ બધુ કર્ણન આ અધ્યયનમાં પહેલાજ કરવામાં આવ્યું છે)
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mकणार पालपरिणामस्तीपतरोऽनिष्टवरोदुर्गन्धः प्रसरति, तर्हि पुनरस्यौदारिकशरीरस्प
छेमादिनानाविषमलपूर्णस्य शटनपचनधिसनावमारस्य पुदलपरिणामस्तस्माद प्यऽधिकतरोऽनिष्टदुर्गन्धो भविष्पतीत्यर्थः । तस्मान् है देवानुप्रियाः । यूयं खलु मानुष्यकेपु कामभोगेषु मा 'सनद' मा सम्मत-सा नो हरुव, 'मा' इत्यस्य प्रत्येकमपिसम्बन्ध । ' रज्नह' रज्यत-राग मा कुरुत, 'गिना' गध्वम् गृद्धि तृप्णा मा कुरुत, 'रुझह' मुद्यात मोह नो कुरुत विषयदोष मा विस्मरतेत्यर्थः, 'अझोयमज्जह ' अध्युपपद्यध्यम् कामभोगाना ध्यान मा कुरुतेत्यर्थः । हे देवानुपियाः! एप खलु यूय अपमितस्तृतीये भरग्रहणे अपरविदेश्वर्षे पश्चिमीयमहाविदेहक्षेने सलिलावत्यां सलिलातीनामके विजये वीतभोकायां राजधाया महायलममुखाः सप्तापि च चालवयस्पा राजाना रानकुलगृहीवजन्मानः यदि इस प्रकार का तोत्र अनिष्टनर दुर्गध रूप पुद्गल परिणाम है तो फिर इस औदारिक शरीर का कि जो श्लेष्मादि नाना विध मल से परिपूर्ण हो गरा है तथा शटन पटन एव विध्वसन जिस का स्वाभाविक धर्म है पुद्गल परिणाम इस से भी अधिक तर अनिष्ट दुर्गध वाराही होगा
(त माण तुम्भे देवाणुप्पिया! माणुस्सएसु कामभोगेसु साह, रज्जह गिझर, मुज्झर, अज्झोववज्जह) इसलिये हे देवानुप्रियो ! तुम लोग मनुष्य भव समधी काम भोगो में मत फँसो, उन में राग भाव मत करो तृष्णा मत बढाओ, मुग्ध मत यनो और न इन का ध्यान ही करो। ( एव खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्हे माओ तच्वे भवग्गहणे अवर विदेहवासे सलिलाइलि विजग वीयसोगाए रायहाणीए मह व्यल पामोक्खा सत्तविय घालवयमया रायाणो होत्था ) हे देवानुप्रियो। રૂપ પુદ્ગલ પરિણામવાળું થાય ત્યારે આ દારિક શરીર કે જે શ્લેષ્મ વગેરે ઘણુ મળેથી ભરાએલું છે-અને શટન, પતન, અને વિશ્વ સન જેનુ સવાભાવિક ધર્મ છે–પુગવ પરિણામ એના કરતા પણ વધુ અનિષ્ટ દુર્ગધવાળુ હશે જ
(त मा ण तुम्भे देवाणुपिया | माणुस्सएसु कामभोगेसु सज्जह, रज्जह गिज्झह, मुज्झह, अज्झोववज्जह)
એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે મનુષ્યભવના કામ ભાગોમાં ફસાશો નહિ, તેમા રાગ ઉત્પન્ન કરે નહિ, તેના પ્રતિ તૃષ્ણનું વદ્ધન કર નહિ, મુગ્ધ થાઓ નહિ અને તેને કઈ દિવસ પણ વિચાર કરો જ નહિ
(एव खलु देवाणुप्पिया । तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अपरविदेह वासे सलिलावइसि मिजए वीयसोगाए रायहाणीए महबलपामोक्खा सचविय बालवयसया रायाणो होत्था)
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__ भगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ८ पनमयपुतलिस्वरूपनिरूपणम् ४८९ 'होत्या' सजाता कीदृशाः । रत्याह-'सहजाया' सहजाता सहोत्पन्ना, यावत्-सहवर्धिताः सहक्रीडितकाः, 'पघइया' प्रजिता सहैव दीक्षां गृहीतवन्त इत्यर्थः । ततः खलु हे देवानुप्रिया ! अह 'इमेण कारणेण' वक्ष्यमाणेन कारणेन स्त्रीनामगोत्र कर्म निबतमि' निर्वतयामि अर्जयामि तस्मिन भवे मया स्त्रीनामगोत्र कर्ममित्यर्थः । येन पारणेन सीनामगोत्र वर्म निर्वर्तित तदाह-' जइण' इत्यादि। यदि खल यूय चतुर्थ चतुर्थभक्त तप', उपसपध विहरथ, 'तए' ततः तदा खलु अह पप्ठ-पप्ठभक्त तप, उपस पद्य विहरामि-तिष्ठामि । शेप तथैव सर्वम् , हम तुम आज से तीसरे भव में पश्चिम महा विदेह क्षेत्र में सलिलावती नाम के विजय में वर्तमान वीतशोका नाम की राजधानी में "यालय यस्य "सात राजपुत्र थे। उस समय हम लोगों का नाम महायल आदि था (सजाया जाव पव्वदया) हम सब साथ ही उत्पन्न हुए थे
और सोय ही बढे हुए थे। साथ ही धूलि क्रीडा में रत रहा करते थे। निमित्त पाकर हम सातों ने ही उस समय दीक्षा धारण की थी। (तएण अह देवाणुप्पिया । इमेण तुम चोत्थ उवसपज्जित्ताण विहरई तण्ण अह उट्ट उक्सपमित्ताण विहामि सेस तहेव सन्ध ) मैंने उस भव में इस कारण से स्त्री नाम गोत्रकर्म का वध किया कि तुम सब लोग यदि चतुर्थ भक्त करते तो हम भी तुम्हारे साथ चतुर्थ भक्त ही करते परन्तु कोई बहाना बनाकर पारणा के दिन भी छह आदि तपस्या कर लिया करते । यह सब विपय इसी अध्ययन में पहिले स्पष्ट किया जा चुका है।
હે દેવાનુપ્રિયે ! હું અને તમે આજથી ત્રીજા ભવમાં પશ્ચિમ મહાવિદેડક્ષેત્રમાં સલિલાવતી નામના વિજયમા વિવમાન વીતશેકા નામની રાજ ધાનીમાં “બાલવરસ્ય” સાત રાજપુત્રો હતા તે સમયે અમારા નામ મહાબલ गरे उता (सहजाया जाव पवइया) मभे मधा साथै भ्याता અને સાથે સાથે જ મેટા થયા હતા માટીમાં પણ આપણે બધા સાથે સાથે જ રમ્યા હતા સમય આવતા આપણે સાતે જણાએ દીક્ષા ધારણ કરી હતી
(तएण अह देवाणुप्पिया ! इमेण कारपोण इत्थीनामगोयक्म्म निबत्तेमि जइण तुम्भ चोत्थ उबसपज्जित्ताण विहरई तएण अह उह उसपज्जिताण विहरामि सेस तहेव सन्ध)
તે ભવમાં આ કારણથી સ્ત્રીનામ ગોત્ર કર્મને બધ કર્યો તમે બધા જ્યારે ચતુર્થભક્તિ કરતા ત્યારે હુ પણ તમારી સાથે ચતુર્થભક્ત તે કરતેજ પસ ગમે તે બહાના હેઠળ પારણાના દિવસે પણ છઠ્ઠ વગેરે તપસ્યા કરતો રહેતો હતો (આ વિનુ બધુ જણન આ અધ્યયનમાં પહેલાજ કરવામાં આવ્યું છે)
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वाताधर्मकथाह
रिम नेवाध्ययने मागुतव दोध्यम् । ततस्तदनन्तर खलु हे देवानुप्रियाः ! यू कालमासे काल कृखा जयते विमाने उत्पन्नाः = देवभव प्राप्ताः, सत्र सलु युष्माकं देशोनानि द्वात्रिंशत्सागरोपमानि स्थितिः, ततः खलु यूथ तरमादेवलोकादनन्तरं चय= देवशरीर, त्यत्वा अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे जन्मलब्धा यावत्स्वानि २ राज्या• युपसपथ विरथ, ततस्तदन तर खल्नह हे देवानुमिया । तस्मा देवलोकादायु क्षयेण च्युला यावत् - - ' दारियताए' दारिकतया पुत्रीभावेन पच्चायाया ' प्रत्यायाता=स जाता - अथ तान जितशनुममुखान् पडपिराज्ञः पुनः
"
(तएण तुम्भे देवाणुपिया ! काल्मासे काल किच्या जयते विमाणे उवण्णा - तत्थण तुम्भे देणाइ पत्तीसाह सागरोवमाह टिई, तरण तुन्भे ताओ देवलोयाओ अणतर चय चइता रहेव जबूद्दीवे २ जाव साइ२ रज्जाइ उवसपज्जित्ताण विरह ) हे देवानुप्रियो ! आप लोग काल मास में मृत्यु के अवसर में काल कर-जयन्त विमान में देव पर्याय से उत्पन्न हुए। वहां आप सब की कुछ कम ३२ बत्तीस सागर की स्थिति हुई । जब यह स्थिति समाप्त हो चुकी तो उसी समय आप लोग वहां से चवकर इसी जबूद्वीप में उत्पन्न हो गये और अपने २ राज्यों का भोग करने लगे । (तएण अह देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोयाओ आउक्ख एण जाच दारियत्ताए पच्चायाया ) तुम लोगो के च्युत होने के बाद हे देवानुप्रियो ! मैं भी उस देवलोक से आयुक्षय हो जाने के कारण च्युत हुआ और च्युत होकर कन्या रूप से उत्पन्न हो गया हूँ ।
( aण तुभे देवाणुपिया ! कालमासे काल विच्चा जयते विमाणे उववण्णा तत्थण तुभे देणाइ बत्तीसाइ सागरोवमाइ ठिई, तरण तुम्भे ताओ देवलोयाओ अणतरं वय चइत्ता इहेव जबूद्दीवे२ जाव साइ२ रज्जाइ उवसपज्जित्ताण विहरह ) હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે કાળ માસમા મૃત્યુના વખતે કાવ કરીને જય ત વિમાનમા દેવપર્યાંકથી જન્મ પામ્યા ત્યા તમારી બધાની ખત્રીસ (૩૨) સાગરની સ્થિતિ કરતા કઈક આછી એટલી સ્થિતિ થઇ જ્યારે આ સ્થિતિ પૂરી થઈ ત્યારે તરત જ તમે ત્યાથી ચવીને આ જ મૂદ્દીપમા ઉત્પન્ન થયા છે અને પાતપેાતાના રાજ્યાનુ શાસન ચલાવવા લાગ્યા છે
(तरण अह देवाणुप्पिया? ताओ देवलोयाओ आउक्खएण जाव दारियत्ताए पच्चायाया) ત્યારખાદ કે દેવાનુપ્રિયા ! હુ પણ દેવલેાકમાથી આયુક્ષમ હ।વા બદલ આવીને અહીં પછી ઉપમા જન્મ પામી છુ
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अनेगारधर्मामृतपिणी टी० अ० ८ पडूराजजातिस्मरणादिनिरूपणम् ४९१ पूर्वजन्मवृत्तान्त स्मारयन्ती मल्ली यदवोचत् तद् गाथया पाह-कि थ तय इत्यादि। भो राजानः किं तद् विस्मृत युष्माभिः तदा-तस्मिन् काले पूर्वभवे जय तमवरेजयन्तनामकेऽनुत्तरविमाने 'देवाः ' देवाभूत्वा 'वुत्था' यूयन् उपितः = निवास कृतवन्तः, 'थ' इति वाक्यालङ्कारे' समयनिरद्धा-वयं परस्परेण प्रतिनोधनीया' इत्येव सकेतेन निवद्धा = परिगृहीता, ता देवसम्बन्धिनी जाति जन्म ‘सभरह ' सस्मरतेति ।। सू० ३४॥
मूलम्-तएणं तेसि जियसत्तपामोक्खाण छण्हं रायाण मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अतिए एयम सोचा णिसम्म सुभेणं परिणामेण पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं० कम्मा खओवसमेण ईहाबोहमरगणगवेसणं करेमाणाण सणिज्जाइस्सरणे समुप्पन्ने एयमह सम्म अभिसमागच्छति, तएणं मल्लो अरहा जियसत्तूपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गम्भघराण दाराइ विहाडावेइ, तएणं ते जियसत्तपामांक्खा जेणेव मल्ली अरहा तेणेव . इसी पूर्वोक्त-पूर्व जन्मके वृत्तान्त को उन छह जितशतृ प्रमुख राजाओ को याद करातो हुई मल्ली कुमारीने जो कुछ कहा वही गाथा द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-वह गाथा " किं थ तय पम्हुतु ' इत्यादि यह है । इसका तात्पर्य यह है-हे रोजाओं! क्या आपलोग वह पूर्वभव भूल गये कि जिसमें हम सयलोग जयन्त नामके अनुत्तर विमान में देव होकर रहे हैं। सो "हम परस्पर में एक दसरे को प्रतियोधित करेगे ऐसी प्रतिज्ञासे प्रतिबद्ध उस देव भवसम्बन्धी जन्मको अय याद करो।सू०३५॥
આ પૂર્વજન્મની વિગત છએ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓને બતાવતી મલ્લીકુમારીએ જે કઈ કહ્યું છે તે અહીં સુત્રકાર ગાથા દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે(किंथ तय पम्हुह ) छत्यादि
એને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે કે, હે રાજાઓ શું તમે લેકે પૂર્વ ભવને ભૂલી ગયા છે કે જ્યારે અમે બધા જયન્ત નામના અનુત્તર વિમાનમાં ‘દેવ થઈને રહ્યા હતા તે “અમે એક બીજાને પ્રતિધિત કરીશું છે આ પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞાબ થઈને મેળવવા તે દેવભવના જન્મને તમે યાદ કરે છે પણ
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ताधर्मकथा
अस्मिन्नेवाध्ययने मागुक्तयन्दोग्यम् । ततस्तदनन्तर पल हे देवानुमियाः । पूर्व कालमासे काल कृत्वा जयन्ते विमाने उत्पन्ना = देवभव प्राप्ताः, तत्र रुलु युष्माक देशोनानि द्वात्रिंशत्सागरोपमानि स्थितिः ततः खछ यृय तरमादेवीवादनन्तरं चय= देवशरीर, त्यत्वा = अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे मलब्धा यावत्स्वानि २ राज्यान्युपपद्य विरथ, ततस्तदनन्तर खल्लाह हे देवानुमिया 1 तस्माइ देवलोकादायु क्षयेण च्युता यावत्--' दारियताए' दारिकतया पुत्रीभावेन पच्चायाया' प्रत्यायाता=स जाता - अथ तान जितशत्रुप्रमुखान् पडपिराङ्गः पुनः
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४१०
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(तरण तुम्भे देवाणुपिया 1 कालमासे काल किच्चा जयते विमाणे वण्णा - तत्थण तुन्भे देणाइ पत्तीसाइ सागरोवमाइ टिई, तरण तुन्भे ताओ देवलोपाओ अणतर चय चहता हहेव जबूद्दीवे २ जाव साइ२ रज्जाइ उवसपज्जित्ताण विहरइ ) हे देवानुप्रियो ! आप लोग काल मास में मृत्यु के अवसर काल कर - जयन्त विमान में देव पर्याय से उत्पन्न हुए। वहा आप सब की कुछ कम ३२ यतीस सागर की स्थिति हुई । जय यह स्थिति समाप्त हो चुकी तो उसी समय आप लोग वहां से चक्कर इसी जबूद्वीप में उत्पन्न हो गये और अपने २ राज्यों का भोग करने लगे । (तएण अह देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोयाओ आउक्ख एण जाव दायित्ताए पच्चायाया ) तुम लोगो के च्युत होने के बाद हे देवानुप्रियो । मैं भी उस देवलोक से आयुक्षय हो जाने के कारण च्युत हुआ और च्युत होकर कन्या रूप से उत्पन्न हो गया हूँ ।
(तरण तुभे देवाणुप्पिया ' कालमासे काल विच्चा जयते विमाणे उववण्णा तत्थणं तुभेदेभ्रूणाई बत्तीसाइ सागरोवमाइ ठिई, तरण तुब्भे ताओ देवलोयाओ अणतरं वय चइत्ता इहेव जबूद्दीवे २ जाव साइ२ रज्जाइ उवसपज्जिताण विहरइ ) હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે કાળ માસમા મૃત્યુના વખતે કાલ કરીને જય ત વિમાનમા ધ્રુવપર્યાયથી જન્મ પામ્યા ત્યા તમારી બધાની ખત્રીસ (૩૨) સાગરની સ્થિતિ કરતા કઈક આછી એટલી સ્થિતિ થઇ જ્યારે આ સ્થિતિ પૂરી થઈ ત્યારે તરત જ તમે ત્યાથી ચવીને આ જ મૂઠ્ઠીપમા ઉત્પન્ન થયા છે. અને પાતપેાતાના રાજ્યાનુ શાસન ચલાવવા લાગ્યા છે
(तएण अह देवाणुप्पिया? ताओ देवलोयाओ आउक्खपण जाव दारियत्ताए पच्चायाया) ત્યારમાદ હૈ દેવાનુપ્રિયા ! હું પણ દેવલાકમાથી આયુક્ષમ હોવા બદલ આવીને અહીં પુત્રી રૂપમા જન્મ પામી શ્રુ
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अनंगारधर्मामृतयपिणी टी० म० ८ पहूराजजातिस्मरणादिनिरूपणम्
४९१
पूर्वजन्मवृत्तान्त स्मारयन्ती मल्ली यदवोचत् तद् गाथया प्राह- किं थ तय इत्यादि । भो राजानः किं तद् विस्मृत युष्माभिः तदा तस्मिन् काले पूर्वभवे जय तमवरे = जयन्तनामकेऽनुत्तरविमाने 'देवा' ' देवाभूत्वा 'त्या' यूयन् उपितः = निवास कृतवन्तः, 'थ' इति वाक्यालङ्कारे ' समयनिनद्धा वयं परस्परेण प्रविनोधनीया' इत्येव सकेतेन निबद्धां = परिगृहीता, वा देवसम्बन्धिनी जाति जन्म 'सभरह ' सस्मरति ॥ सु० ३४ ॥
मूलम्-तएणं तेसि जियसत्तपामोक्खाण छण्हं रायाण मलए विदेहरायवरकन्नाए अतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म सुभेणं परिणामेण पसत्थेणं अज्झत्रसाणेणं लेसाहि विसुज्झमाणीहि तयावर णिज्जाण० कम्माणे खओवसमेण ईहावोहमग्गणगवेसणं करेमाणाण सणिज्जाइस्सरणे समुप्पन्ने एयमह सम्मं अभिसमागच्छति, तपणं मल्लो अरहा जियसत्तूपामोक्खे छप्पि रायाणी समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गव्भघराण दाराइ विहाडावे, तणं ते जियसत्तूपामाक्वा जेणेव मल्ली अरहा तेणेव
इसी पूर्वोक्त-पूर्व जन्म के वृत्तान्त को उन छह जितशतृ प्रमुख राजाओ को याद कराती हुई मल्ली कुमारीने जो कुछ कहा वही गाथा द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं - वह गाथा " किं थ तय पहुड' इत्यादि यह है । इसका तात्पर्य यह है- हे रोजाओं ! क्या आपलोग वह पूर्वभव भूल गये कि जिसमें हम सबलोग जयन्त नामके अनुत्तर विमान में देव होकर रहे हैं। सो हम परस्पर से एक दूसरे को प्रतिबोधित करेगे " ऐसी प्रतिज्ञा से प्रतिबद्ध उस देव भवसम्बन्धी जन्मको अत्र याद करो ।। सू० ३५॥
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આ પૂર્વજન્મની વિગત છએ જીતાશ્રુ પ્રમુખ રાજાઓને બતાવતી મલ્ટીકુમારીએ જે કઈ કહ્યુ છે તે અહીં સૂત્રકાર ગાથા દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે( किंथ तय पहुड) छत्याहि
એના અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે કે, હે રાજાએ શું તમે લેકે પૂવ ભવને ભૂલી ગયા છે કે જ્યારે અમે મધા જયન્ત નામના અનુત્તર વિમાનમા દેવ થઈને રહ્યા હતા તે “અમે એક ખીજાને પ્રતિમાધિત કરીશુ મમાણે પ્રતિજ્ઞાબદ્ધ થઈને મેળવવા તે દેવશવના જન્મને તમે યાદ કરી સ્ “૩૫”k
" મા
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पासावधान अरिमन्नेवाध्ययने मागुतवदो यम् । ततस्तदनन्तर रूलु हे देवानुपिया:! सूर्य कालमासे फाल इसा जयन्ते विमाने उत्पमाः देवभव प्राप्ताः, तत्र रूलु युष्माकं देशोनानि द्वात्रिंशरसागरोपमानि स्थितिः, ततः खलु यूय तस्मादेवलोकादनन्तर घय-देवशरीर, त्यतया र अस्मिन्नेर जम्बूद्वीपे द्वीपे जमलम्धा यावदस्पानि २ राज्या युपसपध विवरथ, ततस्तदन तर खल्वह हे देवानुपिया तिस्माद देवलोकादायु क्षयेण च्युत्वा यात्--'दारियताए' दारिश्तया पुत्रीमान पच्चायाया' प्रत्यायातास जाता-अथ तान् स्तिशत्रुममुखान् पडपिराशः पुनः
(तएण तुम्भे देवाणुप्पिया ! कालमासे काल किच्चा जयते विमाणे उववण्णा-तत्थण तुम्भे देसूणाइ पत्तीसाइ सागरोचमाइ टिई, तएण तुम्भे ताओ देवलोयाओ अणतर चय चइत्ता हेव जद्दीवे २ जाव साइ२ रजाइ उयसपजित्ताण विहरह) हे देवानुप्रियो ! आप लोग काल मास में मृत्यु के अवसर में काल कर-जयन्त विमान में देव पर्याय से उत्पन्न हुए । वहा आप सय की कुछ कम ३२ घसीस सागर की स्थिति हुई । जय यह स्थिति समाप्त हो चुकी-तो उसी समय आप लोग वहा से चवकर इसी जवृद्धीप में उत्पन्न हो गये और अपने २ राज्यों का भोग करने लगे । (तएणं अह देवाणुप्पिया ! ताओ देवरोयाओ आउक्ख एण जाव दारियत्ताए पच्चायाया) तुम लोगो के च्युत होने के बाद हे देवानुप्रियो ! मैं भी उस देवलोक से आयुक्षय हो जाने के कारण च्युत हुआ-और च्युत होकर कन्या रूप से उत्पन्न हो गया हूँ।
(तएण तुम्भे देवाणुप्पिया । कालमासे काल विच्चा जयते विमाणे उववण्णा तत्थण तुम्भे देसूणाइ बत्तीसाई सागरोवमाइ ठिई, तएण तुम्भे ताओ देवलोयाओ अणतर वय चइत्ता इहेव जबूद्दीवे२ जाव साइ२ रज्जाइ उवसपज्जित्ताण विहरइ)
હે દેવાનુપ્રિયે! તમે કાળ માસમાં મૃત્યુના વખતે કાલ કરીને જયત વિમાનમાં દેવપર્યાપથી જન્મ પામ્યા ત્યાં તમારી બધાની બત્રીસ (૩૨) સાગરની સ્થિતિ કરતા કઈક ઓછી એટલી સ્થિતિ થઈ જ્યારે આ સ્થિતિ પૂરી થઈ ત્યારે તરત જ તમે ત્યાથી ચવને આ જ બૂદ્વીપમાં ઉત્પન્ન થયા છે અને પોતપોતાના રાજ્યનું શાસન ચલાવવા લાગ્યા છે (तएणअह देवाणुप्पिया? ताओ देवलोयाओ आउक्खएण जावदारियत्ताए पञ्चायाया)
ત્યારબાદ હે દેવાનુપ્રિયે! હું પણ દેવલોકમાથી આયુક્ષમ હવા બદલ આવીને અહીં પુત્રી રૂપમાં જન્મ પામી છુ
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भगारधर्मामृतपणी टी० म०८ परातजातिस्मरणादिनिरूपणम्
પ્ર
सक्कारेइ जाव पडिविसज्जेइ, तएण ते जियसत्तपामोक्खा कुंभएण रण्णा विसज्जित्ता समाणा जेणेव साइ२ रजाइ जेणेव नगराई तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सगाइ रज्जाई उवसपजित्ता विहरति, तरणं मल्ली अरहा 'सवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि ' त्ति मणं पहारेइ || सू० ३६ ॥
टीका- 'एग तेर्सि' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु तेपा जितशत्रुममुखाणां पण्णा राज्ञा, मल्ल्या विदेहराजवरकन्याया अन्तिके = ममीपे ' एयमट्ठ' एतमर्थ = पूर्वमवृत्तान्तरूपमुक्तमर्थं श्रवा आकर्ण्य, निशम्य हृद्याधार्य शुभेन परिणामेन प्रशस्तेनाध्यवसायेन लेश्याभिः 'विमुज्झमाणीहि ' विशुध्यती: 'तयानरणिज्जाण ' तदावरणीयाना=ज्ञानावरणीयादीना, कर्मणा क्षयोपशमेन 'ईहावोहमग्गगगवेपण ' इहापोहमार्गगगवेगम् - ईहा अर्थ विशेष यसमालोचनाभिमु वो मते'तएण तेसिं जियसत्तू पामोखाण ' इत्यादि
(तएण ) इस के बाद ( तेसिं जियमत्तूपामोक्खाणं छह रायाण मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अतिए एयम सोच्चा णिसम्म, सुभेण परिणामेण पसत्थे अज्झवसाणेण साहिं विसुज्झमाणीहि तयावर पिज्जाणं० कम्माण खओवसमेण ईहावोयमग्गणगवेसण करेमाणार्ण सणि जइस्सरणे समुप्पन्ने ) उम जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को जब उन्हो ने विदेहराज वर कन्या मल्ली कुमारी से इस प्रकार सुना और उसका मन से अच्छी तरह विचार किया तो शुभ परिणाम से प्रशस्त अभ्यवसाय से लेश्याओं की विशुद्धि से, तथा तदावरणीयकर्मों के तएण तेर्सि जियसत्तू पामोक्खाण ' इत्यादि ।
"
टीकार्थ - (तेर्सि जियसत्तू पामोक्खाण छन्ह रायाण मल्लीए विदेह रायनरकन्नाए अतिए एयम सोच्चा णिसम्म, सुभेण परिणामेण पसत्थेण अज्झनसाणेण लेसाहि विसुज्झमागीहिं तयावर णिज्जाण० कम्माण खओवसमेण ईहानोयम गणगवेसण करेमाणार्ण सण्णिजाइस्सरणे समुत्पन्ने )
જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ જ્યારે વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લી કુમારીના મુખથી આ બધી પૂર્વભવની વિગત સાભળી અને મનમા તેના ઉપર સારી પેઠે વિચાર કર્યો ત્યારે શુભ પરિણામથી, પ્રરાસ્ત અધ્યવસાયથી લેશ્યા એની વિશુદ્ધિથી તેમજ તદાવરણીય કર્મોના ક્ષચેપશમથી, હા, અપહ
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ताधर्मक्या उवागच्छति, उवागच्छित्ता तएण महब्बलपामोक्खा सतविय वालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागयायावि होत्था तएणं मल्लो अरहा ते जियसत्तप्पामोक्खे छप्पियरायाणो एवं वयासीएव खलु देवाणुप्पिया । ससारभयउविग्गा जाव पन्वयामि,तं तुम्भे णं किं करेह किं च ववसह जाव किं भे हियसामत्थे ', तएणं जियसत्तूप्पामोक्खा मल्लि अरह एव वयासी - जइणं तुन्भे देवाणुप्पिए ससार जाव पव्वयह अम्हे णं देवाणुप्पिए! के अण्णे आलंवणे वा आहारे वा पडिवधे वा जह चेव णं देवाणुप्पिए । तुम्भे अम्हे इओ तच्चेभवग्गहणे वहुसु कज्जेसु य मेढी पमाण जाव धम्मधुरा होत्था, तहा चेव णं देवाणुपिये! इण्हिपि जाव भविस्सह, अम्हे वि य णं देवाणु ससार भयउन्विग्गा जाव भीया जम्मणमरणाण देवाणुप्पियाण सद्धिं मुडा भवित्ता जाव पव्वयामो। तएण मल्ली अरहा ते जियस. तपामोक्खे एव वयासी-जपण तुम्भे ससार जाव मए सद्धि पव्वयह, त गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया सएहिर रज्जेहि जे? पुत्ते रज्जे ठावेह, ठावित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह दुरूढा समाणा मम अतिय पाउन्भवह, तएण ते जियसत्तपामुक्खा मल्लिस्स अरहओ एयमढपडिसुत, तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्त० गहाय जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुभगस्त पाएसु पाडेइ, तएण कुभए ते जियसत्तूपामोक्खे विपुलेण असण४
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ममगारधर्मामृतयपिणी टी० ४०८ पड़राजजातिस्मरणादिनिरूपणम्
પ્રશ
सक्कारेइ जाव पडिविसज्जेइ, तरणं ते जियसत्तपामोक्खा कुंभएण रण्णा विसज्जित्ता समाणा जेणेव साइ२ रजाइ जेणेव नगराई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगाइ रजाई उवसपजित्ता विहरति, तएणं मल्ली अरहा 'सवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेइ ॥ सू० ३६ ॥
"
टीका- 'तएग तेमिं ' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु तेपा जितशत्रुप्रमुखाणा पणा राज्ञा, मल्ल्या विदेहराजवर कन्याया अन्तिके ममीपे 'एम' एतमर्थ = पूर्वमावृत्तान्तरूपमुक्तमर्थं श्रस्वा आकर्ण्य, निशम्य = हृद्य धार्य, शुभेन परिणामेन प्रशस्तेनाध्यवसायेन लेश्याभिः 'विसुज्झमाणीहिं' विशुध्यती 'तयारणिज्जाण ' तदावरणीयाना=ज्ञानावरणीयादीना, कर्मणा क्षयोपशमेन ' इहावोहमग्गगगवेषण' इहापोहमार्गगगगम् - ईहा अर्थ विशेष यिक्समालोचनाभिमु वो मते'तण्ण तेसिं जियसत्तू पामोखाण ' इत्यादि
(तएण ) इस के बाद ( तेसिं जियमत्त्वा मोक्खाण छन्ह रायाण मल्लीए विदेहरायवर कन्नाए अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म, सुभेण परिणामेण पसत्येणं अज्झवसाणेण लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावर णिज्जाणं० कम्माण खओवसमेणं ईहावोयमग्गणगवेसणक रेमाणार्णं सण्णि जइस्सरणे समुत्पन्ने ) उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को जब उन्होने विदेहराजवर कन्या मल्ली कुमारी से इस प्रकार सुना और उसका मन से अच्छी तरह विचार किया तो शुभ परिणाम से प्रशस्त अभ्यवसाय से लेश्याओं की विशुद्धि से, तथा तदावरणीयकर्मों के तएण तेसिं जियसत्तू पामोक्खाण ' इत्यादि ।
"
टीकार्थ- (तेर्सि जियसत्तू पामोक्खाण छम्ह रायाण मल्लीए विढेरायनरकन्नाए अति एयम सोचा णिसम्म, सुभेण परिणामेण पसत्येण अज्झरसाणेण लेसाहि विसुज्झमागीहिं तयावरणिज्जाण० कम्माण खओवसमेण ईहावोयम गणगवेसण करेमाणान सण्णिजाइस्सरणे समुत्पन्ने )
જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએએ જ્યારે વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લી કુમારીના મુખથી આ બધી પૂર્વભવની વિગત સાભળી અને મનમા તેના ઉપર સારી પેઠે વિચાર કર્યો ત્યારે શુભ પરિણામથી, પ્રાપ્ત અધ્યવસાયથી લેશ્યા એની વિશુદ્ધિથી તેમજ તદાવરણીય ક્રર્માના યેાપશમથી, ઇહા, આપેલું,
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चर्मकार पारः, विचार इत्यर्थं । स चात्र- " कि मल्ये कथित पूर्वभवान्तस्वथा संजातः अपिच देवमव माध्य जयन्तरिमाने किं जयमस्थिता आस्मे " त्येवरूपो बोध्य । अपोह - निश्चय, स चेत्यम्-उक्तविवारे निरन्तरसनाया बुद्धे. परिणाम खल्वेवमभवत् - ' मल्ल्युक्तरीत्या निश्चयेन जय सप्तानगाराः पूर्वभवे तपोऽनुष्ठानं क्रुतवन्तः, तत्प्रमानाच्च जयन्तविमाने देवत्वेन सजाता " इति । ईहापोहाभ्यां क्षयोपशम से ईटा, अपोह मार्गण एव गवेषण करने पर सजि जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । अर्ध विशेष को विषय करने वाली समालोचना की तरफ झुकना हुआ जो मति व्यापाररूप विचार होता है उसका नाम ईश हैं । यहा इसका समन्वय इस तरह से समझना चाहिये-मल्ली कुमारी ने जो पूर्वभवीय वृत्तान्त कहा है वह क्या उसी तरह से हुआ है
क्या देव भव को प्राप्तकर हम लोग जयन्त विमान में साथ रहे हैं ? ईहा के बाद जो निश्चम रूप रोध होता है उसका नाम अपोह हे- इसका सबध यहा इस प्रकार से जानना चाहिये-जब उक्त विचार में बुद्धि सलग्न हो गई तो उसका परिणाम इस प्रकार निकला -ठीक है-मल्ली 'कुमारी के कथनानुसार हम सातों अनगारों ने तपोअनुष्ठान नियमतः किया है - इससे उसके प्रभाव से हमलोग काल मास में कालकर जयन्त विमान में देव की पर्याय अवश्य उत्पन्न हुए है । इस प्रकार का ईहित अर्थ में जो निश्चयात्मक विचार होता है वही अपोह है ।
માણુ અને ગવેષણુ કરવાથી તેમને સત્તી-જાતિ સ્મરણ જ્ઞાન થયુ અથ વિશેષને વિષમ બનાવીને સમાલેાચના તરફ વળતા જે મતિવ્યાપાર રૂપ વિચાર હાય છે તે ‘ઈડા' છે અહીયા ઈંડા વિષેને! સબધ આ રીતે સમજવા જોઇએ કે મલીકુમારીના મુખેથી પૂ`ભવની વિગત સાંભળીને રાજાએના મનમા જે આ પ્રમાણેના વિચારે ઉત્પન્ન થયા કે મ લીકુમારીએ જે પૂર્વ ભવતુ મૃત્તાન્ત કહ્યુ છે તે શું ખરેખર તેમજ હશે !
દેવભવ મેળવીને શુ અમે બધા એકી સાથે યત વિમાનમા રહ્યા છીએ ? ઇહા પછી જે નિશ્ચય રૂપ મેધ થાય છે તેનુ નામ અપેાહ છે, તેના સબધ અહીં આ પ્રમાણે સમજવા ોઇએ કે જ્યારે પૂર્વભવના વિચારમા શુદ્ધિ સલગ્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના પરિણામમા તેઓના મનમા આ પ્રમાણેના નિશ્ચય થયેા કે ‘ઠીક છે ’ મલ્ટીકુમારીના કહેવા મુજબ અમે સાતે અન ગારાએ મળીને નિયમ પૂર્વક તપસ્યા કરી છે તેના પ્રભાવથી અમે લેાકો કાળ માસમા કાળ કરીને જયંતવિમાનમા દેવની પર્યાંયથી ચાક્કસપણે જન્મ પામ્યા હોઈશુ + અર્થમા જે નિશ્ચયાત્મક વિચાર ઉત્પન્ન હોય તે જ પે
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કરસ
अमगारधर्मामृत्यपिणी शे० ४०८ षडराजज्ञातिस्मरणादिनिरूपणम् निश्चितोय मार्ग गवेषणान्या दृढीभवतीत्यत आह ' मग्गणगवेसण ' इति, मार्गण - ईहापोहाभ्या निशितार्थेऽन्त्यधर्मालोचन अन्ययः- सद्भाव' - यथा - अस्मासु सप्त परस्पर सद्भावविपयदिग्दर्शनेन पूर्वभवे सहावस्थानपूर्वक तपश्चरण, तदनु जयन्तविमानावस्थान दृढ निश्चीयते, गवेषणम् - ईहा पोहाभ्या निश्चितेऽर्थे व्यतिरेकधर्मालोचनम् व्यतिरेको नाम अभाव:, यथा- अस्मासु सप्तसु यदि परस्परमुद्भावो न स्यात्, तथा यदि विषयविरागोन स्यात्, तर्हि पूर्वभवसम्बन्धि सहावस्थानपूर्वक तपश्चरण जयन्त विमानावस्थान च न स्यात् इत्येवमन्वयव्यतिरेकधर्मालोचनादुक्तार्थस्य श्रियो दृढतरो भवतीति तदेवमीहापोहमार्गणगवेषणं
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ईहा और अपोह से निश्चित किया गया पदार्थ मार्गण और गवेषण से दृढ हो जाता है । मार्गण शब्द का अर्थ है ईहा । और अपोह से निश्चित हुए अर्थ में अन्वय धर्म की पर्यालोचना करना । जैसे ऐसा वि चार आना कि इन सोतो में जय परस्पर में सुहृद्भाव ( मैत्री भाव ) और विषय विराग देवा जाता है तो इस से यह बात दृढरूप से निश्चित हो जाती है कि इन लोगो ने सहावस्थान पूर्वक तपश्वरण किया है और बाद में जयन्त विमान में ये उत्पन्न हुए हैं। गवेषण शब्द का अर्थ है ईहा और अपोह से निश्चित हुए पदार्थ में व्यतिरेक धर्म की आरोचना करना । जैसे इन सानों में यदि परस्पर में सुहृद्भाव तथा विषय विराग नहीं होता तो पूर्वभव में इन का साथ २ रहकर तपश्चरण करना, तथा जयन्त विमान में उत्पन्न शेना भी नहीं होता।
इस तरह अन्वय और व्यतिरेक धर्म की आलोचना से उक्तार्थ का निश्चय दृढतर हो जाता है। सभी जीवों के पूर्व भव का ही स्मरण इस
મહા અને અપેાથી િિશ્ચત કરાએલા પ ા માણુ તેમજ ગવેષથી દૃઢ થઈ જાય છે. માણુ શબ્દના અર્થ આ પ્રમાણે છે કે હા અને અપેા હથી નિશ્ચિત થયેવા અમા અન્વય ધમની પર્યાલેચના કરવી જેમકે અવારે સાતેમા પરસ્પર મિત્રભાવ અને વિષય વિરાગ (વિશેષ રાગ) જોવાય છે ત્યારે એનાથી આ વાત ચેામપણે પુષ્ટ થાય છે કે આ લેકે એ સહાવસ્થાનપૂર્વક પૂર્વભવમા તપશ્ચરણ કર્યું છે અને ત્યારબાદ તેઓ જયત વાનમા ઉત્પન્ન થયા છે. ‘ગદ્વેષણ' શબ્દને અથ છે, ઈહા અને અપેાહથી નિશ્ચિત થયેવા પદાર્થ મા વ્યતિરેક ધર્મની આવેાચના કરવી જેમકે આ માતેમા હમણા એક ખીજા માટે હ્રભાવ તેમજ વિષય વિરાગ હત નહિ તે પૂર્વભવમા તેમનુ સાથે રહીને તપ કરવું તેમજ જય ત વિમાનમા જન્મ પામવુ પણ થાત નહિ આ રીતે અન્વય અને વ્યતિરેક ધમની આલેચનાથી ઉપર વણવામા આવેલા અને નિશ્ચય દૃઢ રૂપે થઈ જાય છે. સન્ની છવેાના પૂર્વભવનું સ્મર
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पारः, विचार इत्यर्थ ।स चात्र-"किंमत्रो कथित भत्तान्तस्तथा सजावा, अपिच देवमव माप्य जयन्तरिमाने कि यमपस्थिता आस्मे " त्येवरूपो गोभ्य । अपोह'-निश्चयः, स चेत्यम्-उक्तग्विारे निरन्तरसग्नाया बुद्धेः परिणाम खल्वेवमभवत्-" मल्ल्युक्तरीत्या निश्चयेन पय सप्तानगाराः पूर्वभवे तपोऽनुष्ठान कृतवन्तः, तत्प्रमााच जयन्तरिमाने देवत्वेन सनाता" इति । ईहापोहाभ्यां क्षयोपशम से ईहा, अपोह मार्गण एव गवेपण करने पर सजि जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । अर्थ रिशेप को विषय करने वाली समालोचना की तरफ झुकना हुआ जो मति व्यापाररूप विचारोताहै उसका नाम ईश हैं। या इसका समन्वय इस तरह से समझना चारिये-मल्ला कुमारी ने जो पूर्वभवीय वृत्तान्त कहा है पर क्या उसी तरह से हुआ
क्या देव भय को प्राप्तकर हमलोग जयन्त विमान में साथ रहे है। ईहा के पाद जो निश्चय रूप योध रोता है उसका नाम अपोह है-इसका सवध यहा इस प्रकार से जानना चाहिये-जय उक्त विचार में धुद्धि सलग्न हो गई तो उसका परिणाम इस प्रकार निकला-ठीक है-मल्ला 'कुमारी के कथनानुसार हम सातों अनगारों ने तपोअनुष्ठान नियमतः किया है-इससे उसके प्रभाव से हमलोग काल मास में कालकर जयन्त विमान में देव की पर्याय अवश्य उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार का ईहित अर्थ में जो निश्चयात्मक विचार होता है वही अपोह है। માણ અને ગષણ કરવાથી તેમને સ ી-જાતિ સ્મરણ જ્ઞાન થયુ અર્થ વિશેષને વિષમ બનાવીને સમાજના તરફ વળતે જે મતિવ્યાપાર રૂપ વિચાર હોય છે તે “હા” છે અહીંયા ઈહા વિષેને સબધ આ રીતે સમજવે જોઈએ કે મલીકુમારીના મુખેથી પૂર્વભવની વિગત સાંભળીને રાજાના મનમાં જે આ પ્રમાણેના વિચારો ઉત્પન્ન થયા કે મલીકુમારીએ જે પૂર્વભવનું વૃત્તાન્ત કહ્યું છે તે શું ખરેખર તેમજ હશે !
દેવભવ મેળવીને શું અમે બધા એકી સાથે જયત વિમાનમાં રહ્યા છીએ ? ઈહા પછી જે નિશ્ચય ૩૫ બોધ થાય છે તેનું નામ અપહ છે, તેના સ બધ અહીં આ પ્રમાણે સમજવો જોઈએ કે જયારે પૂર્વભવના વિચારોમાં બુદ્ધિ સલગ્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના પરિણામમાં તેઓના મનમાં આ પ્રમાણે નિશ્ચય થયે કે “ઠીક છે ? મલીકુમારીના કહેવા મુજબ અમે સાતે અન ગારેએ મળીને નિયમ પૂર્વક તપસ્યા કરી છે તેના પ્રભાવથી અમે લોકો કાળ માસમા કાળ કરીને જયત વિમાનમાં દેવની પર્યાયથી ચક્કસપણે જન્મ પામ્યા હોઈશુ આ રીતે ઈહિત અર્થમાં જે નિશ્ચયાત્મક વિચાર ઉત્પન્ન થ છે તે જ અપહ છે ,
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अमगारधर्मामृतावणी री० अ०८ पराजजातिस्मरणादिनिरूपणम् ४१५ निश्चितीयों मार्गगवेपणा या ढीमातीत्यतआह - ' मागणगवेसणं ' इति, मार्गण-ईहापोहाभ्या निश्चितार्थेऽन्यधर्मारोचन अन्धयः-सद्भाव'-यथा-अस्मासु सप्तम पररपर सहझाव विषयविरारदर्शनेन पूर्वभवे सहावस्थानपूर्वक तपश्चरण, तदनु जयन्तविमानावस्थान दृढ निश्चीयते, गवेपणम्-ईहापोहाभ्या निश्चितेऽर्थे व्यतिरेफधर्मालोचनम् व्यतिरेको नाम-अभावः, यथा-अस्मासु सप्तसु यदि पर स्परसहदायो न स्यात् , तथा यदि विषयविरागो न स्यात् , तर्हि पूर्वभवसम्बन्धि सहावस्थानपूर्वक तपश्चरण जयन्त विमानावस्थान च न स्यात् , इत्येवमन्वयव्यतिरेकधर्मालोचनादुक्तार्थस्य निश्चयो दृढतरो भवतीति तदेवमीहाऽपोहमार्गणगवेषणं
ईहा और अपोह से निश्चित रियागया पदार्थ मार्गण और गवेषण से दृढ हो जाता है। मार्गण शब्द का अर्थ है ईहा। और अपोह से निश्चित हुए अर्थ में अन्वय धर्म की पर्यालोचना करना । जैसे ऐसा वि धार आता कि इन सोतोमें जर परस्पर में सुहृद्भाव (मैत्री भाव ) और विषय विराग देग्वा जाता है तो इस से यह बात दृढरूप से निश्चित हो जाती है कि इन लोगो ने सहावस्थान पूर्वक तपश्चरण किया है और पाद में जयन्त विमान में ये उत्पन्न हुए है । गवेषण शब्द का अर्थ है ईशा
और अपोह से निश्चिन ए पदार्थ में व्यतिरेक धर्म की आरोपना करना । जैसे इन सातों में यदि परस्पर में सुहृद्भाव तथा विषय विराग नहीं होता तो पूर्वभव में इन का साय २ रहकर तपश्चरग काना, तथा जयन्त पिमान में उत्पन्न होना भी नही होता। . इस तरह अन्वय और व्यतिरेक धर्म की आलोचना से उक्तार्थ का निश्चय दृढनर हो जाता है। सजी जीवों के पूर्व भव काही स्मरण इस
ઈહા અને અહિથી ટિશ્ચિત કરાએલે ૫ ઈ માર્ગણ તેમજ ગવાથી દૃઢ થઈ જાય છે માણ શબ્દનો અર્થ આ પ્રમાણે છે કે ઈહ અને અપ હથી નિશ્ચિત થયેલા અર્થમા અન્વય ધર્મની પર્યાચના કરવી જેમકે અત્યારે સાતેમાં પરસ્પર મિત્રભાવ અને વિથ વિગગ (વિશેષ રાગ) જેવાય છે ત્યારે એનાથી આ વાત ચોક્કસપણે પુષ્ટ થાય છે કે આ લેકેએ સહાવસ્થાનપૂર્વક પૂર્વભવમાં તપશ્ચરણ કર્યું છે અને ત્યારબાદ તેઓ જય ત વિવાનમાં ઉત્પન્ન થયા છે “ગપણ' શબ્દનો અર્થ છે, ઈહા અને અહિથી નિશ્ચિત થયેલા પદાર્થમાં તિરેક ધર્મની આચના કરવી જેમકે આ મામા હમણા એક બીજા માટે સુહભાવ તેમજ વિષય વિરાગ હેત નહિ તે પૂર્વભવમાં તેમનું સાથે રહીને તપ કરવું તેમજ જ્યત વિમાનમાં જન્મ પામવુ પણ થાત નહિ
આ રીતે અન્વય અને વ્યતિરેક ધર્મની આલોચનાથી ઉપર વર્ણવવામાં આવેલા અર્થને નિશ્ચય દૃઢ રૂપે થઈ જાય છે સની જીના પૂર્વભવનુ સ્મર
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यूय संसारभयोद्विग्ना यावत् मननय-अजित्यय, अम्माक खलु हे देवानुमिया ! फिमन्पदारम्बन वा सहायो वा फोऽन्य आधारो पा-आश्रयो वा का प्रतिबन्धो अकार्य करणे मतिरोधकः सन्मार्गे स्थापयितु धर्मोपदेशक इत्यर्थः वा, यथैव खस हे देवानुमियाः । यूयमस्मारुमितस्तृतीयमवग्रहणे बहुपु पार्येषु च मेधिः मेधिषदालम्बनम्-आधारो वा किं च यूय प्रमाण युप्माननुमृत्य ययमास्मेत्यर्थः, याबद्पार्भूता नेनाव समविपममार्गदर्शकाः, धर्मधुरा =धुर मधुरः धर्मस्य धुर बारका धर्मप्रनतरा इत्यर्थः । अस्मा धर्मरक्षका यूयमास्त, तथैव खलु हे देवानुप्रिया ! की ऐसी यात सुनकर उन जितश प्रमुग्य छरों राजाओं ने उन मल्ली अरिहत से इस प्रकार करा-(जइणं तुम्मे देवाणुप्पिए ससार जाव प्रत्रयह, अम्हे णं देवाणुप्पिए! के अण्णे आलयणे वा आहारे वा पडियधे वा तह चेवण देवाणुप्पिण! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भव गणे यहुसु कज्जेसु य मेढीपमाण जाव धम्मधुरा होत्या) हे देवा नुप्रिये ! जय तुम ससार के भय सेउद्विग्न होकर यावत् दीक्षा सयम अगीकार करना चाहती हो तो हे देवानुप्रिये ! कहो फिर हमे तुम्हारे सिवाय अब और कौन दूसरा सहाय करने वाला होगा-कौन हमारा आलबनभूत होगा कौन हमारा आधार होगा कौन हमें अकार्य करने से मना करने वाला होगा-कौन सन्मार्ग में स्थापित करने के लिये धर्म का उपदेश दाता होगा-। जिस प्रकार आप आज से तीसरे भव में हमारे लिये अनेक कार्यों में मेधि की तरह आटपन रूप हए आधार भूत हुए प्रमाणभूत हुए, सम विषम मार्ग का दर्शक होने से चक्षुर्भूत
મલ્લી અરિહતના આ પ્રમાણે વિચાર સાભળીને તે છતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ મતલી અરિહંતને કહ્યું કે
(जदण तुम्भे देवाणुप्पिए ससार जाव पव्ययह, अम्हे ण देवाणुप्पिए । के अण्णे आलवणे वा आहारे वा पडिवधे वा तह चेव ण देवाणुप्पिए ! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेढी पमाण जाव धम्मधुरा होत्था)
હે દેવાનુપ્રિય! સ સાર ભયથી વ્યાકુળ થઈને જ્યારે તમે પિને દીક્ષા સથમ સ્વીકારવા ઈચ્છો છો ત્યારે હે દેવાનુપ્રિયે ! બતાવો તમારા વગર અમારે સહાયક બીજો કોણ હશે ? અમારો આ બન કોણ હશે ? અમારો આધાર કોણ હશે ? ખોટા કામ કરતા અમને રોકનાર કોણ હશે? અમારા જેવા ને સમાર્ગ તરફ વાળનાર ધર્મને ઉપદેશક કોણ હશે ? જેમ આજથી પહેલાના ત્રીજા ભવમાં અમારા માટે ઘણા કામમાં તમે મેધિની જેમ આલ બન રૂપ થયા, આધાર ભૂત થયા પ્રમાણ ભૂત થયા, સમવિષમ માર્ગને તાવનાર હોવા બદલ ચક્ષુભૂત થયા, ધ૧, ૫ થયા, ધર્મના માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર
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अनगारधर्मामृतपण टी० अ० ८ पइराजजातिस्मरणादिनिरूपणम्
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'इण्डिपि ' इदानीमपि यावद् भविष्यथ । वयमपि खलु हे देवानुप्रिया ! ससार मयोद्विग्ना यावद् मीता 'जम्मणमरणाण ' जन्ममरणेभ्यः आर्पत्यात्पञ्चम्यर्थे पष्ठी, ' देवाणुपियाण' देवानुमिये युष्माभिः सार्द्ध मुण्डा भूत्वा यावत्-पत्र जाम = दीक्षा ग्रहीष्यामः, ततः - जितशत्रुग्रमुखाणा तेपा वचन श्रुला खलु मल्ली अर्हन् तान् जितशत्रुप्रमुखान् एवमवादीत् - यदि खलु यूय समारभयो द्विग्नाः यावद् मया सार्धं प्रजय, तत्तस्मात् गच्छत खलु यूय हे देवानुमियाः । स्वेषु स्त्रेषु राज्येषु ज्येष्ठान् पुत्रान् राज्ये स्थापयत, स्थापयित्वा पुरुषमहस्रवाहिनी शिविकाः दूरोद्दत = आरोहत, दुख्दाः सन्तो ममान्तिकमादुर्भवत आगच्छत । ततस्तदनन्तर हुए, धर्म का बुरा रूप हुए- धर्ममार्ग मे प्रवृत्ति कराने वाले हुए (तहा
पण देवापिए ? इहिपि जाव भविस्सह ) उसी प्रकार इम भव में भी आप ही होवे (अम्हे वियण देवाणु० ससारभयउन्चिग्गा जाव भीघा जम्ममरणाण देवाणुवियाण सद्वि मुडा भवित्ता जाव पन्धयामो ) इसलिये हम भी हे देवानुप्रिये । ससारभय से उद्विग्न बने हुए यावत् जन्म मरण से भीत हुए आप देवानुप्रिय ! के साथ ही मुडित होकर यावत् जिन दीक्षा ग्रहण करेंगे ।
(तपूर्ण मल्ली अरहा ते जियसत्तू पामोक्खे एव वयासी जपणं तुम्भे ससार जाव मए सद्वि पव्वयह, त गच्छह र्ण तुम्भे देवाणुप्पिया ! सएहिं २ रज्जेहिं जेहे पुत्ते रज्जे ठावेह ठाविसा पुरिससरस्स वाहिणीओ सीमाओ दुरूह ) इस के बाद मरली अरिहत ने उन जितशत्रु प्रमुख राजाओ से इस प्रकार कहा- यदि तुम सब ससारभय से उद्विग्न थया ( तहाचेण देवाणुनिए । इहिंपि जात्र भविस्सह ) ते प्रभा मा ભવમા પણુ તમે જ અમને ધમા પ્રવૃત્તિ કરાવનાર થાએ (अम्हे नियण देवाणु० ससारभयउन्चिग्गा जान भीया जम्ममरणानं देवापियाण सद्धि मुडा भविता जान पव्यामो )
એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! સ સાર ભયથી વ્યાકુળ તેમજ જન્મ મરણના ભયથી ત્રસ્ત થયેના અમે પણ હે દેવાનુપ્રિય તમારી સાથે જ મુડિત થઇને જિત દીક્ષા સ્વીકારીશુ
(तएण मल्ली जरहा ते जियसत्त पामोक्खे एव वयामी - जग तुम्भे ससार जान मए सद्धिं पञयह त गच्छूद्द तुम्भे देवरणुपिया ! सबहिं २ रज्जेहिं जेद्वेपुते रज्जे ठावे, ठानित्ता पुरिससहस्स वाहिणीओ सी ओ दुल्हइ )
ત્યાર પછી મતી અહિ તે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓને આ પ્રમાણે કહ્યુ હું જો તમે બધા સસાર ભયથી વ્યાકુળ થડને મારી સાથે જિન દીક્ષા ગ્રહણ
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euret यूय संसारभयोद्विग्ना यायद मननय-प्रमजिप्यय, अम्माफ सल हे देवानुपियाः ! किमन्यदारम्बन पा सहायो या कोऽन्य आरोपा=आश्रयो वा, कः प्रतिबन्यो अकार्यकरणे मतिरोधका सन्मार्गे स्थापयितु धर्मोपदेशक इत्यर्यः वा, यथैव खा हे देवानुभियाः ! यूयमस्माकमितस्तृतीयभवग्रहणे यहयु पार्येषु च मेधिः मेधिष दालम्बनम्-आधारो पा किं च यूय प्रमाण युप्माननुसत्य वयमास्मेत्यर्थः, यावद्चक्षुर्भूतानेनवत् समविपममार्गदर्शकाः, धर्मधुरा =धुर मधुरः धर्मस्य धुर' बाइका धर्ममगतका इत्यर्थः । अस्मा धर्मरसका यूयमास्त, तथैव सलु हे देवानुपिया ! की ऐसी यात सुनकर उन जितश प्रमुप छरों राजाओं ने उन मष्ठी अरिहत से इस प्रकार करा-(जइणं तुम्भे देवाणुप्पिए ससार जाव प्रवयह, अम्हे ण देवाणुपिए ! के अपणे आलपणे वा आहारे वा पडियधे वा तह चेवणं देवाणुप्पिए ! तुम्भे अम्हे हो तच्चे भव ग्गहणे पहुसु कज्जेसु य मेढीपमार्ण जाव धम्मधुरा शेत्या ) हे देवा नुप्रिये ! जब तुम ससार के भय सेउद्विग्न होकर यावत् दीक्षा संयम अगीकार करना चाहती हो तो हे देवानुप्रिये ! कहो फिर हमे तुम्हारे सिवाय अच और कौन दूसरा साय करने वाला रोगा-कौन हमारा आलबनभून शेगा कौन हमारा आधार होगा कौन हमें अकार्य करने से मना करने वाला होगा-कौन सन्मार्ग में स्थापित करने के लिये धर्म का उपदेश दाता होगा। जिस प्रकार आप आज से तीसरे भव में हमारे लिये अनेक कार्यों में मेधि की तरह आल्यन रूप हए आधार भूत हुए प्रमाणभूत हुए, सम विषम मार्ग का दर्शक होने से चक्षुभूत
મતલી અરિહતના આ પ્રમાણે વિચાર સાભળીને તે જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ મલી અરિહ તને કહ્યું કે
(जदण तुम्भे देवाणुप्पिए ससार जाव पव्ययह, अम्हे ण देवाणुप्पिए के अण्णे आलवणे वा आहारे वा पडिवधे वा तह चेव ॥ देवाणुप्पिए | तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेढी पमाण जाप धम्मधुरा होत्या)
હે દેવાનુપ્રિયા સસાર ભયથી વ્યાકુળ થઈને જ્યારે તમે પિને દીક્ષા સંધ્રમ સ્વીકારવા ઈચ્છો છો ત્યારે હે દેવાનુપ્રિયે ! બતાવો તમારા વગર અમારો સહાયક બીજે કેણ હશે? અમારે આવ બન કેવું હશે ? અમારો આધાર કૈણ હશે ? પેટા કામ કરતા અમને રોકનાર કોણ હશે ? અમારા જેવા ને સમાર્ગ તરફ વાળનાર ધર્મના ઉપદેશક કોણ હશે ? જેમ આજથી પહેલાના ત્રીજા ભવમાં અમારા માટે ઘણું કામમાં તમે મેધિની જેમ આલ બન રૂપ થયા, આધાર ભૂત થયા પ્રમાણ ભૂત થયા, સમવિષમ માર્ગને બ્લાવનાર હોવા બદલ ચકુભૂત થયા, ધર્મની ધરારૂપ થયા, ધર્મના માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર
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WATी टी ० ८ पदराममातिम्मरणादिनिरूपणम् 6t कारेण सत्करोति, यावत्-प्रतिनिसर्नयति । तत ग्य ते नितमनुप्रमुग्ना उम्मकेन रामा विनिताः मन्तः, यो सनि २ राज्यानि, यौव नगरागि तीयोपाग छन्ति, आगत्य यानि २ राज्या-पुसाय विहरन्ति । ततः खमएकी ईन् संपच्छारमाणे' मात्सरापसानी सत्या 'निक्समिस्यामि 'ति' निकमियामोति दीक्षा ग्रही पामोति मनमि प्रधाग्यतिनिधिनीति ग्म ।। स० ३६||
कुमक राजाने मी उन जितगत प्रमुख राजामो का विपुल अनादि रूप चतुर्बिध आहार से तधा पुगप; सत्र, गर माल्यादि से मत्कार किया । (जाय पहिपिताजे ) यात फिर उन्हे निमित कर दिया। (तपण ते जियसत्तू पामोरया माण रगा विमग्जित्ता समागा जेणेच माह माह रज्जाह जे गेव नगगह तेणे उपागच्छति उपागन्धि तामगाह रजाह उमपन्जित्ता वितरति ताण मही अरहा सवय रापमाणे णिमिमामि तिमण पहारेह) कुमक राजा के द्वारा वि सजित होते हुए जितगट प्रमुग्न राजा जाह अपने २ राज्य और उन में मी जहा अपने ५ मरल ये पटा आये । वहा आकर ये सब अपने २ राज्य कायों मेंमलग्न हो गये।
घर्ष ममाप्त होने पर दीक्षा पारण या गेमा महि, प्रभुने निश्चित विचार कर लिया। मून " ३६" આહારવા તેમજ પુષ, વસ્ત્ર, , મારથ વગેરેથી અત્યાર કી (કાર परियिमग्ने) त्या२०६ जान पाय र्या
(तपण ते नियम पामोरया उमप ण रण्गा विमज्जिता समाणा जेणय साइ माह रज्जाद जेणेनगराद तेणे आगति, उपागरिया मगाइ उजाड उपसपज्जित्ता विहरति, तपग मी मरहा माराप्रमाणे णियमिस्सामि ति मर्ण पदार)
કુમાર રાજને ત્યાથી વિથ થઇને 9તુ પ્રમુખ ગાએ જ્યાં પિત પિતાનું રાજ્ય અને તેમા પબુભા પિતાને મરવો હતા ત્યા નથી ત્યાં જઇને તેઓ બધા પિન નાના રાજકાજમાં પરોવાઈ ગાથા
એક વર્ષ પછી દીક્ષા પાસ કરીશ, મહવી પ્રભુએ આ જનને ચક્કસ वियार ४२॥ दीया ने ॥ "a " ॥
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বায়ায় खल वे जितशत्रुममुखा 'मल्लिस्स अरदनो' मल्ल्या ईतः, एतमर्थ-उक्त समय प्रतिशृणन्ति, स्वीकुर्वन्ति स्म ।
ततः खलु मल्ली भईन , वान् निसशत्रुममुग्यान पडपि राज्ञो गृहीत्वा सार्धनीत्या यर कुम्भको राजा तंत्रोपागन्उति, उपागत्य कुम्भास्य पादयोः 'पाढेइ ' पातयति-प्रणमयति, ततः खलु कुम्भको राना तान् जितशत्रुममुखान् विपुलेन-मचुरेण, अशनपानखापस्वान-चतुर्वियाऽऽहारेण, पुपरस्त्रामाल्याल होकर मेरे साथ जिन दीक्षाधारण करना चाहते हो तो हे देवाणुप्रियो । जाओ और अपने अपने राज्य में परिले अपने अपने ज्येष्ठ पुत्र का स्थापित करो-स्थापित करके फिर पुरुप सहस वाहिनी शिक्षिकाओं पर पेठो- (दुरुढा समाणा मम अतिय पामवर) उन पर घंटे हुए फिर हमारे पास आओ। (तएण ते जियसत्तू पामोक्खा मल्लिस्स अरही एयम पडिसुणेति) इस प्रकार उन जितशत्रु प्रमुख राजाओं ने मल्ली अरिहत की इस घात को स्वीकार कर लिया। (ताण मल्ली अरहा-ते जियसत्तू गहाय जेणे कुभए-तेणेव उवाच्छइ, उधागछि ताकुभगस्स पाएप्सु पाडेइ, तरणकुभएते जियस तू पोमोक्खे विपुलण असण ४ पुष्फवस्थगधमल्लालकारेण सरकारेइ ) इस के पश्चात् उन मल्ली अरिहत ने उन जितशत्रु प्रमुख राजाओ को अपने साथ लिया
और लेकर वे जहा कभक राजा थे वहा पहचे वहा पहंच कर उन्ही न कुभक राजा के चरणोमें झुका कर उन से वदना करवाई। કરવા ઈચ્છતા હે તે હે દેવાનપ્રિય પિત પિતાના રાજમાં તમે જાઓ અને ત્યા પહેલા રાજગાદીએ પોતપોતાના મોટા પુત્રને બેસાડો અને પછી પુરુષ सपालिनी पावजीभाभा मेसा (ढला समाणा मभ अतिय पाठ भनह। અને મારી પાસે આવે
(तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा मल्लिस्स अरहओ एयमह पडिसुति) મેલી અરિહંતની આ વાતને બધા જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓએ સ્વીકારી લીધી
तएण मल्ली अरहा ते जियसत्त० गहाय जेणेव कुभए तेणेन उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुभगस्स पाएसु, पाडेइ, तएण कुभए ते जियसत्तू पामोक्खे विउलेणं असण ४ पुप्फवत्थगधमल्लाहकारेण सरकारेड )
ત્યારબાદ મલ્લી અરહ તે જીતશત્ર પ્રમુખ રાજાઓને પિતાની સાથે લીધા અને લઈને તેઓ ક્યા ક ભક રાજા હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને કુભક રાજાના ચરણેમાં વદન કરાવ્યા
ઉભક રાજાએ પણુ જીતશ પ્રમુખ રાજાઓને વિપુલ અશન -રે ચાર
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नगी दी। ० ८ पइरानजातिस्मरणादिनिरूपणम् ५५ कारेण सत्करोति, यावत्-प्रतिनिसर्नयति । तत खलु ते नितशत्रुप्रमुखा कुम्भकेन राज्ञा विसनिताः मन्तः, यौन स्वनि २ राज्यानि, यव नगरागि तत्रोपाग च्छन्ति, आगत्य स्वानि २ राज्यान्युपसाय पिहरन्ति । ततः खलु मल्ली अईन् संबच्छरावसाणे 'सवत्सरावसानेपूतो सत्या — निरसमिस्सामि 'ति' निष्कमिष्यामीति दीक्षा ग्रहीयामीति मनसि प्रभारयतिनिश्चिनोति स्म ।। सू० ३६||
फुभक राजाने भी उन जितशत्रू प्रमुग्व राजाओ का विपुल अशनादि रूप चतुर्विध आहार से तथा पुष्प, वस्त्र, गर माल्यादि से सत्कार किया। (जाव पडिविसजेड ) यावत फिर उन्हे विसर्जित कर दिया। (तएण ते जियसत्तू पामोखा कुभरण रणगा विसज्जित्ता समाणा जेणेव साइ साइ रज्जाइ जेगेव नगराइ तेगेर उवागच्छति उवागच्छि त्ता सगाइ रज्जाइ उधमपज्जिता विहरति तरण मल्ली अरहा सवच्छ रावसाणे मिक्खमिस्सामि तिमण पहारेइ ) कुभक राजा के द्वारा वि सर्जित होते हुए जितशत्रु प्रमुग्व राजा जहाँ अपने २ राज्य और उन में भी जहा अपने ५ महल थे वहा आये । वहा आकर वे सब अपने २ राज्य कार्यो मेंसलग्न हो गये। - वर्ष समाप्त होने पर दीक्षा धारण करूँगा ऐसा महि प्रभुने निश्चित विचार कर लिया। सून्न " ३६"
मालाराथा तभा पुष्प, पत्र, राध, माय वगेरेथा सार यी (जाव पसिविसज्जेइ) त्यारा तेमान विहाय या
(तएण ते जियसत्तू पामोक्खा कुमए ण रण्णा सिज्जित्ता समागा जेणेव साइ साइ रज्जाइ जेणेरनगराइ तेणेव उवागच्छति, उपगच्छिता सगाइ रज्जाइ उबसपज्जित्ता विहरति, तएग मल्ली अरहा सवरावसाणे णिक्खमिस्सामि चि मणे पहारेइ)
કુસક રાજને ત્યાથી વિસાય થડને જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓ જ્યા પિત પિતાનું રાજ્ય અને તેમાં પણ જ્યા પિતપતાના મહેલે હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેઓ બધા પોતપોતાના રાજકાજમાં પરવાઈ ગયા
એક વર્ષ પછી દીક્ષા ધારણ કરીશ, મલી પ્રભુએ આ જાતને રોકકસ विवार ४श दी तो ॥ सूत्र "3" ॥
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५०३
धर्मा
मूलम् - तेणं कालेणं तेण समएण सक्कस्सासणं चलइ, तपर्ण सक्के देविदे३ आसण चलिय पासइ, पासित्ता ओहिं पउजड़, पउजित्ता मल्लि अरहं ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता इमेया रूवे अज्झत्थिए, जाव समुप्यजित्था - एवं खलु जबूद्दीने दोवे भार वासे मिहिलाए कुंभगस्स रन्नो भवणसि मल्ली अरहा निक्खमिस्साइ त्ति मणं पहारेइ, त जीयमेयं तीयपच्चुप्पन्नमनारायाण सक्काण३ अरहताण निक्खममाणाण इमेयारून अत्थ सपयाणं दलित्तए, त जहा
तिष्णेव य कोडिसया अट्टासीति च होंति कोडिओ । असिति च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाण ॥ १ ॥
'एवं संपेहेइ, संपेहित्ता वेसण देव सद्दावेइ सदावित्ता एव वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया। जबूद्दोवे दीवे भारहे वासे जात्र असीति च सयसहस्साइ दलइत्तए, त गच्छह णं देवाशुप्पिया | जबुदीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुभगभवणसि इमेयारूत्रे अत्थसपदाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेत्र मम एयमाणत्तिय पञ्चष्पिणाहि, तएण से वेसमाणे देवे सक्केण देविदेण देवराएण एव बुत्ते हट्टे करयल जान पडिसुणेइ, पडिणित्ता जभए देवे सदावे, सदावित्ता एव वयासी- गच्छह णतुभे देवाणुपिया । जबूदीव दीव भारहं वासं मिहिल रायहाणि कुभगस्स रन्नो भवसि तिनेव य कोडिसया अट्ठासीय च
A
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भनगारधर्मामृतपिणी टीका म० ८ मल्लीभगवाहीक्षापसरनिरूपणम् ५०५ आसिय च सयसहस्साइं अयमेयारूवं अस्थसपयाणं साहरेइ, साहरित्ता मम एयमाणत्तिय पच्चप्पिणेह, तएण ते जंभगा देवा वेसमणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव पडिसुणीत, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकमति, अवकमित्ता जाव उत्तरवेउब्बियाई रुवाई विउव्वति, विउवित्ता ताए उछिट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जबूडीवे दोवे जेणेव भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुभगस्स रपणो भवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुभगस्त रन्नो भवणसि तिन्नि कोडिसिया जाव साहति, साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल जाव पञ्चप्पिणंति, तएण से वेसमणे देवे जेणेव सके देविदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ, तएणं मल्ली अरहा क्ल्लाकल्लि जाव मागअहो पायरा सो त्ति वहूर्ण सणाहाण य अणाहाण य पथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडि अट्ठ य अणूणाइ सयसहस्साई इमेयास्व अस्थसपदाण दलयइ, तएणं से कुभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थर तहि२ देसे २ वहओ महाणससालाओ क्रेइ, तत्थ णं बहवे मणुया दिगभइभत्तवे यणा विपुल असणं पाणं खाइमसाइम उवक्खडति, उबक्खडित्ता जे जहा आगच्छति त जहा-पथिया वा पहिया वा क्रोडिया वा कप्पडिया वा पासडत्था वा गिदिन्था वा तेसिं य तहा
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५०३
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएण सक्कस्सासण चलइ, तपणे सक्के देविदे३ आसण चलिय पासइ, पासित्ता ओहिं पउजड़, पउजित्ता मल्लि अरहं ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता इमेया रूवे अज्झत्थिए, जाव समुप्यजित्था - एवं खलु जबूदीवे दोने भार वाले मिहिलाए कुंभगस्स रन्नो भवणास मल्ली अरहा निक्खमिस्साइ त्ति मणं पहारेइ, त जीयमेयं तीयपच्चुप्पन्नमणागयाण सक्काण३ अरहताण निक्खममाणाणं इमेयारून अत्थ सपयाणं दलित्तए, त जहा
तिण्णेव य कोडिसया अट्टासीति च होंति कोडिओ | असिति च सयसहस्सा इंदा दलयति अरहाण ॥ १ ॥
एवं संपेहेइ, संपेहित्ता वेसमणं देव सहावेइ सदावित्ता एव वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया। जंबूद्दोवे दीवे भारहे वासे जात्र असीति च सयसहस्साइ दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुपिया | जबदीवेदी भारहे वासे मिहिलाए कुभगभवणसि इमेयारूत्रे अत्थसंपदाणं साहराहि, साहरिता खिप्पामेव मम एयमाणत्तिय पञ्चपिणाहि, तएण से वेसमाणे देवे सक्केणं देविदेण देवराएण एव ते हट्ठे करयल जान पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जभए देवे सदावे, सदावित्ता एव वयासी-गच्छह णंतुभे देवाणुपिया । जबूदीव दीवं भारहं वास मिहिल रायहाणि कुभगस्त रन्नो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीय च
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका १० ८ मल्लीभगवहीवापसरनिरूपणम् ५०१ आसिय च सयसहस्साई अयमेयारूवं अस्थसपयाणं साहरेइ, साहरिता मम एयमाणत्तिय पच्चप्पिणेह, तएण ते जंभगा देवा वेसमणेणं एव वुत्ता समाणा हट्टतुट्टा जाव पडिसुति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग अवकमंति, अवकमित्ता जाव उत्तरउब्बियाई रुवाइ विउव्वति, विउब्धिता ताए उछिट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जीवे दोवे जेणेव भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुभगस्स रपणो भवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नि कोडिसिया जाव साहरंति, साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल जाव पञ्चप्पिणंति, तएण से वेसमणे देवे जेणेव सके देविदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ, तएणं मल्ली अरहा क्ल्लाकल्लि जाव मागअहो पायरा सो त्ति बहूर्ण सणाहाण य अणाहाण य पथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडि अट्ट य अणूणाइ सयसहस्साई इमेयारूप अत्थसपदाण दलयइ, तएणं से कुभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थर तहि२ देसे २ वहओ माणससालाओ करेइ, तत्थ णं बहवे मणुयादिगभइभत्तवे यणा विपुल अलणं पाणं खाइमसाइम उवक्खडति, उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छति त जहा-पथिया वा पहिया वा क्रोडिया वा कप्पडिया वा पासडत्था वा गिहित्था वा तेसिं य तहा
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ताधर्ममा मूलम्-तेणं कालेणं तेण समएण सकस्सासण चलइ, तएणं सके देविदे३ आसण चलिय पासइ, पासित्ता ओहिं पउजा, पउजित्ता मल्लि अरह ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता इमेया रूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था-एव खलु जबुद्दीवे दोवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभगस्त रन्नो भवणसि मल्ली अरहा निक्खमिस्लाइ ति मण पहारेइ, त जीयमेयं तीयपच्चुप्पन्नम णागयाण सकाण३ अरहंताण निखिममाणाण इमेयारूप अत्थ सपयाणं दलित्तए, त जहा
तिपणेव य कोडिसया अठ्ठासीति च हॉति कोडिओ। असिति च सयसहस्सा इंदा दलयति अरहाण ॥ १॥
एवं संपेहेइ, सैपेहित्ता वेसमण देव सदावेइ सदावित्ता एव वयासी
एवं खलु देवाणुप्पिया। जद्दोवे दीवे भारहे वासे जाव असीति च सयसहस्साइ दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया । जबुदीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुभगभवणंसि इमेयारूने अत्थसपदाण साहराहि, साहरिताखिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि, तएणं से वेसमाणे देवे सकेण देविदेण देवराएण एव वुत्ते हटे करयल जाच पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जभए देवे सदावेइ, सद्दावित्ता एव वयासो-गच्छह णतुम्भे देवाणुप्पिया! जबूढीव दीव भारहं वास मिहिल रायहाणि कुभगस्स रनो भवणंसि तिन्नेव व कोडिसया अटासीय च।
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका २० ८ मलीभगवद्दीक्षावसरनिरूपणम् आसिय च सय सहस्साइं अयमेयारूवं अत्थसपयाणं साहरेइ, साहरिता मम एयमाणत्तिय पच्चष्पिणेह, तएण ते जंभगा देवा वेसणेण एव वृत्ता समाणा हट्टतुट्टा जाव पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिम दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कभित्ता जाव उत्तरवेउन्वियाई रुवाइ विउव्वति, विउन्त्रिता ता उक्किट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जबूढवे दोवे जेणेव भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेत्र कुभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुभगस्स रन्नो भवसि तिन्नि कोडिसिया जाव साहरंति, साहरिता जेणेव वेमणे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल जाव पञ्चपिणंति, तण से वेसमणे देवे जेणेत्र सक्के देविदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चपिणइ, तणं मल्ली अरहा कल्ला कल्लि जाव मागअहो पायरा सो ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडि अट्ठ य अणूणाइ सय सहस्साइ इमेयारूव अत्यसपदाण दलयइ, तरणं से कुभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थर तहिर देसे२ बहूओ महाणस सालाओ करेइ, तत्थ णं वहवे मणुयादिपगभइभत्तवे यणा विपुल असणं पाणं खाइम साइम उवक्खडेति, उवक्खडिता जे जहा आगच्छति त जहा पथिया वा पहिया वा क्रोडिया वा कप्पाडिया वा पासडत्था वा गिहित्था वा तेसि य तहा
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sterendeemed
आसत्थस्स वीरात्थस्स सुहास नरगस्त तं विपुलं असणं४ परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरति, तष्णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणी अण्णमण्णस्स एवमाइनसइ एवं भासइ, एवं पनवेइ, एवं परूनेइ, एवं खलु देवाणु० । कुंभगस्स रण्णो भवति सवकामगुणिय किमिच्छय विपुलं असणं चहुणं समणाण य जात्र परिचिसज्जइ ।
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वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिजइ बहुविहीयं । सुरअसुरदेवदाणत्र नरिद महियाण निक्खमणे ॥१॥ तणं मल्ली अरहा सवच्छरणं तिन्निकोडिसया अट्ठासीति च होंति कोडिओ असिति च सयसहस्साई इमेयारूत्रं अत्थ संप्रयाणं दलइता निक्खमामित्ति मणं पहारेइ ॥ सू० ३७ ॥
टीका- ' तेण कालेन ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सौधर्म से शुक्रस्य इन्द्रस्य आसन चलनिस्म, तत' खलु शक्री देवेन्द्र = देशना मध्ये परमेश्व र्यवान् देवराज आसन चकित परति, दृष्ट्वा 'ओहिं' अवधि' पउनइ' प्रयुङ्क्ते, केन कारणेन ममामन चन्नीत्येतस्मिन् विषये स्त्रीयो नयति स्मेत्यर्थ । मयुज्य = अवधिज्ञानेन 'आभोए' आभोतयति=त्रिलोकयति, मल्लो अन् सप्रति
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' तेण कालेन तेष समएण ' इत्यादि ।
टीका- ( तेण कालेन तेण समएण) उस काल और उस समय में (सक्कस्ता सण चलइ ) इन्द्र का आसन चलायमान हुआ (तएण सके देविंदे देवराया आसण चात्रिय पासर, पासित्ता ओहि पज्जह, पउजि ता मल्लि अरह ओहिणा आभोएइ) देवों के बीच में परम ऐश्वर्यवान्
" तेण कालेन तेन समएण
इत्यादि ॥
टीअर्थ ( तेण कालेन वेण समरण ) ते अजे भने ते वपते ( सक्क स्वाण चल्इ ) Fन्द्रनु शासन रोजी यु
(तएण सक्के देविंद देवराया आसण चालिय पासर, पासित्ता ओहिं पर जई, पर जित्ता मल्लि अरह ओहिणा आभोएइ)
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भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० ८ मल्लीभगवदीक्षावसरनिरूपणम् ५०५ निष्क्रमण वर्तमुद्यक्तो तत इति विजानाति स्मेत्यर्थ । 'आभोइत्ता' आभोग कृस्वा 'इमेयाख्ये' अयमेनपाक्ष्यमाणस्वरूप', याध्यात्मिक =आत्मनिष्टः, यानत् सरस्प' समुदपयत सजात:-एव खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्य जम्बूद्वीपे भारते भरतक्षेत्र दक्षिणा भरते, वर्षे मिथिलाया राजधान्या कुम्भकस्य राज्ञो भवने मल्ली अर्हन् मनसि प्रधारयति-"निप्फ्रामिप्यामि-अह दीक्षा ग्रहीष्यामि" शक्र देवराज ने ज्यों ही अपने आसन को चलायमान देवा-तो देख कर उसने अपने अवधिज्ञान को जोडा-जोड कर मल्ली अरिहत को उसने अवधिज्ञान से देखा।
यहा अवधिज्ञान को जोडने का तात्पर्य यह है कि जय इन्द्रने अपने आसन को चलायमान देखा तो " किस कारण से मेरा आसन कपायमान हो रहा है" इस विषयमें अपने उपयोग को लगाया । इस प्रकार से अवधिज्ञान-उपयोग का लगाना ही अवधिज्ञान का जोडना है। (आभोहत्ता हमेयारवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्या-एव खलु जबू द्दीवे दीवे मारहे वासे मिहिलाए कुभगस्स रणो भवसि मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मण पहारेइ ) मल्ली अरिहत सप्रति निष्क्रमण करने के लिये उद्युक्त हो रहे है-ऐसा जान करके उसके मन में इस प्रकार का यह मनोगत सकरप उत्पन्न हुआ-इस जबूदीप नामके द्वीप में भारत वर्प क्षेत्र में मिथिला नामकी नगरी में कुभक राजा के भवन
બધા દેવામાં પરમ અશ્વર્યવાન દેવરાજ ઈન્દ્ર જ્યારે પિતાનુ આસન ડોલતુ જોયુ ત્યારે તેઓએ અવધિજ્ઞાનના સ બ ધથી મલી અરહતને જોયા
અહીં અવધિજ્ઞાનને જોડવાને અર્થ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે ઈન્દ્ર પિતાના આસનને ડગમગ થતુ જોયું ત્યારે શા કારણથી મારું આસન ડેલ, થયુ છે? આ વિશે પિતાને ઉપગ (ધ્યાન) ને લગાવ્યે આ રીતે અવધિજ્ઞાનને ઉપયોગમાં લગાવવું જ અવધિજ્ઞાનને જોડવુ તેમ કહેવાય છે
(आमोदत्ता, इमेयारूवे अज्यस्थिए जार समुपज्जित्था एव खलु जय दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुभगस्स रण्णो भवर्णसि मल्ली अरहा निक्खमिस्सामिति मण पहारड)
મહેલી અરિહત હવે નિષ્ક્રમણના માટે તૈયાર થઈ રહ્યા છે આમ જાણીને તેના મનમાં આ જાતને મગન મક૫ ઉદ્દ્ભવ્યું કે આ જ બૂઢીપ નામના દીપમા ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં, કિવિના નામની નગરીમા, કુલકરાજાના ભવનમાં મલલીનામના અરિહત પ્રભુ બહુ દીક્ષા ધારણ કરીશ ?” આ પ્રમાણે વિચાર કરી રહ્યા છે
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ज्ञाताधर्मचा
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इति । तत्तस्मात् 'जीयमेय' जीवमेतन् - जीत-मर्यादा- परम्परागत भावास एतत् एनमस्ति यद्- ' तीयप चुप्पनमगागया' अतीत प्रत्युत्पमा नागवान भूतवर्तमानभावना, कालयतिनामित्यर्थः शक्राण देवेन्द्राणां देवराजानाम् यद् - अईत भगवता निष्क्रामतामिमामेव पावभ्यमाणाम् ' अत्थ सपयार्ण' अर सपया' इति लुप्त द्वितीयान्तम्- अर्थसपद् खलु दातुम् यदा भईन्यो भगवन्तो निष्क्रमणाभिमुखा भवन्ति, तदा तेरा मातापिनगृहेऽपदमुपनयन्ति देवेन्द्रा इति मर्यादाऽस्तीत्यर्थः । इन्द्राः कियद्वस्य ददतीत्याकाङ्क्षायामाह व जहाइत्यादि तद्यथा ।
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तिष्णेन य कोडिमया अट्ठासीति च होति कोडीओ । असिति च सयसहस्सा इढा दलयति अरहाण || १ ॥ त्रीण्येव च कोटिशतान्यष्टाशीतिश्च भवन्ति कोटयः । अशीति तमस्राणि इन्द्रा ददति अर्दताम् ॥ १ ॥
श्रीणि कोटिशतात्रि, अष्टाशीति कोटयः, अशी विशतसहस्राणि स्वर्णदीनाराणि तीर्थंकराणां निष्क्रमणे वार्षिकदानाय दातव्यानि भवन्ति तानीन्द्रा अवां भवने ददति = अर्पयति ।
में मल्ली नाम के अरिहत प्रभु " में दीक्षा धारण करूँगा " ऐसा विचार कर रहें हैं ( त जीयमेय तीयपच्चुप्पन्नमणागयाण सक्काण ३ अरह ताणं भगवताण निःखममागानां इमेयारूव अत्य सपयाण दलित्तए) इस लिये कालत्रयवर्त्ती देवेन्द्रों का परम्परागत यह आचार है कि वे दीक्षा लेने के लिये तत्पर हुए तीर्थकर प्रभुओं के माता पिताओं के घर अर्थ सपत्ति प्रदान करें देवेन्द्र जो अर्थ सुपत् प्रदान करते हैं ( त जहा ) उसे का प्रमाण इस प्रकार है तीन सौ करोड, अट्ठासी करोड, और अस्सी लाग्य स्वर्ण दीनारें । वार्षिक दान में तीर्थकरों के निष्क्रमण के समय में इतना द्रव्य इन्द्र उन के भवन पर लाकर रखते हैं ।
( त जीयमेय तीय पच्चुपन्नमणा गयाण सक्कार्ण ३ अरहताणं भगव ताण निक्खमाणाना इमेयाख्व अत्यसपयाण दलित्तए)
એટલા માટે કાળત્રયવતી દેવેન્દ્રોના પર પરાથી ચાલતે આવેલે આ પ્રમાણેના આચાર છે કે તેઓ દીક્ષા લેવા માટે તૈયાર થયેલા તીથ કર પ્રભુએાના માતા-પિતાએને અર્થ સપત્તિ અર્પણુ કરે તે પ્રમાણે ઇન્દ્ર અ સંપત્તિ અપે छे ( त जहा) तेनु प्रमाणु या प्रमाणे " त्रयुसी रोड, धरनाशी 13 अने એશી લાખ સ્વણુ મુદ્રાએ વાર્ષિક દાનમા, તીર્થંકરના નિષ્ક્રમણુના વખતે આટલું દ્રવ્ય ઇન્દ્ર તેમને ઘેર પહોચાડે છે
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अमगारधर्मामृतर्वापणी टी० अ० ८ मल्लीभगवदोक्षावसरणनिरूपणम् ५०७
एव सपेक्षते-विचारयतिस्म । सपेक्ष्य वैश्रमण देव शब्दयति, शब्दयित्वा, एवम्वक्ष्यमाणमकारेण, अबादीत्-हे देवानुमिय ! एव खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे-भरतक्षेत्रे 'यावत्-अशीतिशतमहस्राणि दातुम् ' अर्हता भगवता निष्क मता त्रीणि कोटिशतानि अष्टाशीति कोटी अशीतिशतसहस्राणि दातु सउँपामिंद्राणा मर्यादाऽस्तीति भावः । तत्-तस्माद् गच्छ खलु देवा नुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मिथिलायो राजधान्या कुम्भरमाने इमामेतद्रूपामर्थसपद खलु साह राहि' सहर-मापय । सहत्य क्षिप्रमेव-शी प्रमेव मम 'एयमागत्तिय ' आज्ञप्तिकां प्रत्यर्पय-ममाज्ञायाः प्रत्यर्पण कुरु ।
ततस्तदनन्तर खलु स वैश्रमगो देवः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेनैवमुक्तो हष्टः करतलपरिगृहीत दशनख शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा यावत् 'पडिमुणेड' प्रतिशणोति एव " करिष्यामि ” इत्युक्त्या सीकरोति प्रतिश्रुत्य, जम्मका
(एव स पेहेइ, म पेहित्ता वेसमण देव सदावेह, सहावित्ता एवं घयासी) ऐसा विचार उस शक देवेन्द्र ने किया। कर के फिर उसने पैश्रमणदेव-कुवेर-को घुलाया-घुलाकर उसले ऐसा कहा-(एव खलु देवाणुप्पिया । जबूद्दीवे दीवे भारहे वासे जाव असीतिं च सयसहम्साइ दलहत्तए ) हे देवानुप्रिय ! इस जबूद्वीप नाम के द्वीप में भारत वर्ष क्षेत्र में मिथिला नाम की नगरी है । उस के राजा कुमक के महल में मल्ली नाम की तीर्थकर प्रभु हैं वे दीक्षा लेने का विचार कर रहे हैं। इसलिये इन्द्रो का यह परम्परागत नियम है कि वे उन के निष्क्रमण मरोत्सव के समय तीन सौ करोड़, अट्ठासी करोड, और अस्सी लाग्व स्वर्ण दीनारें वार्षिक दान में देने के लिये उन के माता पितो के भवन ( एव सपेहेइ, सपेहित्ता वेसमण देव सदावेइ, सदावित्ता एव चयासी)
તે શક દેવેન્દ્ર આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો અને ત્યારબાદ તેણે વૈશ્રમણદેવ કુબેરને બેલા, બેલાવીને તેને કહ્યું
( एव खलु देवाणुप्पिया ! जूबद्दीये दीवे भारहे वासे जाच असीनि च सय सहस्साइ दलइत्तए)
હે દેવાનુપ્રિય ! આ જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં મિથિલા નામની નગરી છે ત્યાના રાજા કુભકના મહેલમાં મડવી નામના તીર્થ કર પ્રભુ છે તેઓ દિક્ષા લેવાનો વિચાર કરી રહ્યા છે એટલા માટે ઈન્દ્રોને આ જાતને પર પરાથી ચાલતો આવતો નિયમ છે કે તેઓ તેમના નિષ્ક્રમણ મહાત્સવના વખતે ત્રણ કરોડ, ઈયાશી કરે અને એ શી લાખ સોના મહેર વાર્ષિક કાનના રૂપમાં તેમને ત્યાં ઘેર પહોંચાડે
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वाताधर्म
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इति । तत्तस्मात् 'जीयमेय' जीतमेतत्-जीत मर्यादा-परम्परागत भावास एतत् एनमस्ति यद्- 'तीयपच्पन्नमनागपाणं अतीत प्रत्युत्पचा नागवानी =भूतवर्तमान भाविनों, कालयवर्तिनामित्यर्थः शक्राण देवेन्द्रार्णा देवराजानार यद् - अर्हतां भगवता निष्कामतामिमामेवभूपा=वश्यमाणाम् ' अत्यसपयान' भरणसपया ' इति लुप्त द्वितीयान्तम्- अर्थसपद् खलु दातुम् या अर्हतो भगवन्तो निष्क्रमणाभिमुखा मरन्ति तदा तेरा मातापित्रो हेमपनयन्ति देवेन्द्रा इति मर्यादाऽस्तीत्यर्थः । इन्द्राः कियद्रव्य ददतीत्याकाङ्क्षायामाह जहाइत्यादि - तद्यथा ।
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तिष्णेन य कोडिंमया अट्ठासीति च होति कोडीओ । असिति च समसहस्सा इढा दलपति अरहाण ॥ १ ॥ श्रीप्येन च कोटिशतान्यष्टाशीतिश्च भवन्ति कोटथ' । अशीतिश्च शतपस्राणि इन्द्रा ददति अवाम् ॥ १ ॥
श्रीणि कोटिशतात्रि, अष्टाशीति कोटयः, अशी विशव सहस्त्राणि स्वर्णदीनाराणि तीर्थकराणा निष्क्रमणे वार्षिकदानाय दातव्यानि भवन्ति तानीन्द्रा अर्हतां भनने ददति - अर्पयति ।
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में मल्ली नाम के अरिहत प्रभु " में दीक्षा धारण करूँगा " ऐसा विचार कर रहे हैं ( त जीयमेय तीयपच्चुप्पन्नमणागयाण सक्काण ३ अर ताणं भगवताण निःखममा गानों इमेयारूव अस्य सपयाण दलितए) इस लिये कालत्रयवर्त्ती देवेन्द्रो का परम्परागत यह आचार है कि वे दीक्षा लेने के लिये तत्पर हुए तीर्थकर प्रभुओं के माता पिताओं के घर अर्थ सपत्ति प्रदान करें देवेन्द्र जो अर्थ सुपत् प्रदान करते हैं ( त जहा ) उसे का प्रमाण इस प्रकार है तीन सौ करोड, अट्ठासी करोड, और अस्सी लाख स्वर्ण दीनारें । वार्षिक दान में तीर्थकरों के निष्क्रमण के समय में इतना द्रव्य इन्द्र उन के भवन पर लाकर रखते हैं।
( त जीयमेय तीय पच्चुपन्नमणा गयाण सक्का ३ भरतानं भगवा निक्खमाणाना इमेयारूव अत्यसपयाण दलित्तए)
એટલા માટે કાળત્રયવર્તી દેવેન્દ્રોના પર પરાથી ચાલતા આવેલા આ પ્રમાણેના આચાર છે કે તેએ દીક્ષા લેવા માટે તૈયાર થયેલા તીર્થંકર પ્રભુમ્માના માતા-પિતાઓને અ સપત્તિ અર્પણ કરે તે પ્રમાણે ઈન્દ્ર અર્થ સપત્તિ અપે छे (त जहा) तेनु प्रमाणु भा प्रभारी हे " त्रास रोड, धरनाशी रोड ने એશી લાખ સ્વ મુદ્રા વાર્ષિક દાનમા, તીકરાના નિષ્ક્રમણુના વખતે આટલુ દ્રવ્ય ઇન્દ્ર તેમને ઘેર પહેાચારૂં છે
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ममगारधर्मामृतपिणी टी० अ० ८ मल्लोभगवदीक्षावसरणनिरूपणम् ५०७
एव सपेक्षते-विचारयतिस्म । सपेक्ष्य वैश्रमण देव शब्दयति, शब्दयित्वा, एवम्वक्ष्यमाणमकारेण, अवादीत्-हे देवानुप्रिय ! एव खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे-भरतक्षेत्रे 'यावत्-अशीतिशतमहस्राणि दातुम् ' अर्हता भगरता निष्क्रमता त्रीणि कोटिशतानि अष्टाशीति कोटी जशीतिशतसहस्राणि दातु सर्वेपामिंद्राणा मर्यादाऽस्तीति भावः । तत् तस्माद् गच्छ खलु देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मिथिलायो राजधान्यां कुम्भकमाने इमामेतद्रूपामर्थसपद खलु 'साहराहि' सहर-मापय । सहत्य क्षिप्रमेव शीघ्रमेव मम ' एयमागत्तिय ' आज्ञप्तिका प्रत्यर्पय=ममाज्ञायाः प्रत्यर्पण कुरु ।। ___ ततस्तदनन्तर खलु स वैश्रम गो देवः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजे नैरमुक्तो हष्टः करतलपरिगृहीन दशनख शिर आवर्त मस्तकेऽजलिं कृत्वा यावत् 'पडिमुणेड' प्रतिशृणोति एव " करिग्यामि” इत्युक्त्या सीकरोति प्रतिश्रुत्य, जुम्मकान्
(एव स पेहेइ, सपेहित्ता वेसमण देव सद्दावेह, सहावित्ता एवं षयासी) ऐसा विचार उस शक देवेन्द्र ने किया । कर के फिर उसने वैश्रमणदेव-कुवेर-को धुलाया-घुगकर उससे ऐसा कहा-(एव खलु देवाणुप्पिया । जबूद्दीवे दीवे भारहे वासे जाव असीतिं च सयसहम्साइ दलइत्तए) हे देवानुप्रिय ! इस जबूदीप नाम के द्वीप में भारत वर्षे क्षेत्र मे मिथिला नाम की नगरी है । उस के राजा कुभक के महल में मल्ली नाम की तीर्थकर प्रभु हैं वे दीक्षा लेने का विचार कर रहे हैं। इसलिये इन्द्रों का यह परम्परागत नियम है कि वे उन के निष्क्रमण महोत्सव के समय तीन सौ करोड़, अट्ठासी करोड, और अस्सी लाख स्वर्ण दीनारें वार्षिक दान में देने के लिये उन के माता पिता के भवन
(एव सपेहेइ, सपेहिता वेसमा देव सदावेइ, सहावित्ता एव वयासी)
તે શક દેવે આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો અને ત્યારબાદ તેણે વૈશ્રમણદેવ કુબેરને બોલાવ્ય, બેલાવીને તેને કહ્યું –
(एव खलु देवाणुप्पि या ! जूमदीये दीवे भारहे वामे नाव असीनि च सय सहस्साइ दलइत्तए)
હે દેવાનુપ્રિય ! આ જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં મિથિલા નામની નગરી છે ત્યાના રાજ કુંભકના મહેલમાં મતની નામના તીર્થ કર પ્રભુ છે તેઓ દીક્ષા લેવાનો વિચાર કરી રહ્યા છે એટલા માટે ઇન્દ્રોને આ જાતને પર પરાથી ચાલતે આવતે નિયમ છે કે તેઓ તેમના નિઝમણ મહેસવના વખતે ત્રણ કરોડ, ઈકન્યાશી કરોડ અને એ શી લાખ સોના મહેર વાર્ષિક કાનના રૂપમાં તેમને હા ઘેર પહોંચાડે
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५०६ इति । तत्-तस्मात् जीयमेय' जीवमेतत्-जीत-मर्यादा-परम्पराऽऽगमापार एतत्-एवमस्ति-यद्-'तीयप चुप्पन्नम गागपा' अतीन प्रत्युत्पमानामताने
भूतवर्तमानमाविना, फालयातिनामित्यर्थः शहाणे देवेन्द्राणां देरामानाम् यद्-अर्हता भगरता निझामनामिमामेतपा-यश्पमाणाम् 'अत्यसपयान' मत सपया ' इति लुप्त द्वितीयान्तम्-अर्थसपद् खलु दातुम् यहा-अईन्तो मगन्तो निष्क्रमणाभिमुखा भवन्ति, तदा तेषां मातापित्रोदेऽर्थमपदमुपनयन्ति देवेन्द्रा इति मर्यादास्तीत्यर्थः। इन्द्राः फियवन्य दढतीत्याराक्षायामाह-जाइत्यादि-तद् यथा ।
तिप्णेच य कोडिमया अट्ठासीति च होति कोडीओ। असितिं च सयसहस्सा इदा दलयति अरहाण ॥१॥ त्रीण्येव च कोटिशतान्पष्टाशीतिथ भवन्ति कोटयः । अशीतिश्च शतपइस्राणि इन्दा ददति अर्थताम् ॥१॥
प्रीणि कोटिशताति, अष्टाशीति कोटयः, अशीतिशतसहस्राणि स्वर्णदीनाराण तीर्थकराणां निष्क्रमणे वार्पिकदानाय दातव्यानि भवन्ति तानीन्द्रा आतां भवन ददति अपयति । में मल्ली नाम के अरिहत प्रभु "में दीक्षा धारण करूँगा" ऐसा विचार कर रहें हैं (त जीयमेय तीयपच्चुप्पन्नमणागयाण सक्काण ३ अर ताणं भगवताण निरखममा गाना इमेयारुव अत्य सपयाण दलितए। इस लिये कालत्रयवर्ती देवेन्द्रों का परम्परागत यह आचार है कि दीक्षा लेने के लिये तत्पर हुए तीर्थकर प्रभुओं के माता पिताओं के घर अर्थ सपत्ति प्रदान करें देवेन्द्र जो अर्थ सपत प्रदान करते हैं (त जहा) उस का प्रमाण इस प्रकार है तीन सौ करोड, अट्ठासी करोड, आर अस्सी लाग्व स्वर्ण दीनारें । वार्षिक दान में तीर्थकरों के निष्क्रमण के समय में इतना द्रव्य इन्द्र उन के भवन पर लाकर रखते हैं।
(तजीयमेय तीय पच्चुपन्नमणा गयाण सक्काणं ३ अरहतार्ण भगव ताण निक्खममाणाना इमेयारुव अत्थसपयाण दलित्तए)
એટલા માટે કાળવ્રયવર્તી દેવેન્દ્રોના પર પરાથી ચાલતે આવેલા આ પ્રમાણેને આચાર છે કે તેઓ દીક્ષા લેવા માટે તૈયાર થયેલા તીથ કર પ્રભુએના માતા-પિતાને અર્થ સપતિ અર્પણ કરે તે પ્રમાણે ઈન્દ્ર અર્થ સપત્તિ અપે' छ (त जहा) तनु प्रभार भाप्रमाणे छ । यसो ४२७, ४ा 33 मन એિશી લાખ સ્વર્ણચંદ્રાઓ વાર્ષિક દાનમા. તીર્થકરેના નિષ્ક્રમણના વખતે આટલુ દ્રવ્ય ઈન્દ્ર તેમને ઘેર પહેચાડે છે,
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भनगारधर्मामृतर्वापणी टी० म० ८ मल्लोभगवदीक्षावसरणनिरूपणम् ५०७ __ एव सप्रेक्षते-विचारयतिस्म । सपेक्ष्य वैश्रमण देव शब्दयति, शब्दयित्वा, एव वक्ष्यमाणपकारेण, अवादीत्-हे देवानुपिय ! एव ग्वलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मारते वर्षे भरतक्षेत्रे 'यावत्-अशीतिशतसहस्राणि दातुम् ' अर्हता भगवता निष्क्र मता त्रीणि कोटिशतानि अष्टाशीति कोटी अशीतिशतसहस्राणि दातु सर्वेषामिदाणा मर्यादाऽस्तीति भावः । तत् तस्माद् गच्छ खलु देव नुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मिथिलायां राजधान्या कुम्भकमाने इमामेतद्रूपामर्थसपद खलु 'साहराहि' सहर-मापय । सहत्य क्षिप्रमेवशीप्रमेव मम 'एयमागत्तिय ' आज्ञप्तिका प्रत्यर्पय-ममाज्ञायाः प्रत्यर्पण कुरु।।
ततस्तदनन्तर खलु स वैश्रमगो देवः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेनैवमुक्तो हष्टः करतलपरिगृहीन दशनख शिर आवर्त मस्तकेऽन्जलिं कृत्वा यावत् 'पडिसुणेड' प्रतिशृणोति-एव " करिष्यामि " इत्युक्त्या स्त्रीकरोति प्रतिश्रुत्य, जम्मकान __ (एव स पेहेइ, सपेदिता वेसमण देव सद्दावेड, सहावित्ता एवं षयासी) ऐसा विचार उस शक देवेन्द्र ने किया । कर के फिर उसने पैश्रमणदेव-कुवेर-को घुलाया-घुलाकर उससे ऐसा कहा-( एव खलु देवाणुप्पिया। जद्दीवे दीवे भारहे चासे जाव असीतिं च सयसहम्साइ दलइत्तए) हे देवानुप्रिय ! इस जबूद्वीप नाम के द्वीप में भारत वर्ष क्षेत्र में मिथिला नाम की नगरी है । उस के राजा कुभक के महल में मल्ली नाम की तीर्थकर प्रभु हैं वे दीक्षा लेने का विचार कर रहे हैं । इसलिये इन्द्रों का यह परम्परागत नियम है कि वे उन के निष्क्रमण मरोत्सव के समय तीन सौ करोड़, अद्यासी करोड, और अस्सी लाख स्वर्ण दीनारें वार्षिक दान में देने के लिये उन के माता पिता के भवन
( एव सपेहेइ, सपेहिता वेसमम देव सदावेइ, सदावित्ता एष वयासी)
તે રાક દેવેન્દ્ર આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો અને ત્યારબાદ તેણે વૈશ્રમણદેવ કુબેરને બેલા, બેલાવીને તેને કહ્યું
(एव खलु देवाणुप्पिया ! जगदीवे दीवे भारहे वासे जाव असीनि च सय सहस्साइ दलइत्तए)
હે દેવાનુપ્રિય ' આ જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં મિથિલા નામની નગરી છે ત્યાના રાજા કુભકના મહેલમાં મહુવી નામના તીર્થંકર પ્રભુ છે તેઓ દીક્ષા લેવાનો વિચાર કરી રહ્યા છે એટલા માટે ઇન્દ્રોને આ જાતને પણ પરાથી ચાલતે આવતે નિયમ છે કે તેઓ તેમના નિષ્ક્રમણ મહેસવના વખતે ત્રણ પરેડ, ઈયાશી કરોડ અને એ શી લાખ સોના મહેર વાર્ષિક દાનના રૂપમાં તેમને તમે ઘેર પહોંચાડે
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५०८
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देवान् शब्दयति, शन्नयित्या परमादी-हे देशानुप्रिया: 1 गत खर पूर्व जम्बूद्वीपे दीपे भारते य-भरतक्षेो मिथिलायां राजधान्यां इम्मकस्य राजो भवने-त्रीणि कौटिशतानि, अष्टाशीतिकोटी:, भगीतिदानसहस्राणि, इमामेवयूका मर्यसपद "साइरह " सहरत-पापयत सहत्य ममाप्ति प्रत्यर्पयत । ततः खलु तेज़म्भकादेवाः, ' वेसमणेण 'श्रमणेन एपमुक्ता सन्तों इतष्टा यावत् प्रति शृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य, 'उत्तरपुरत्यिम' उत्तर पौरस्त्यम्नईशानकोणरूप 'दिसोभाग' दिग्भागम् , ' अवयमति ' कामन्ति, गच्छन्ति, अवक्रम्यात्वा यावत्-'उत्तरयेउनियार रूपाइ ' उत्तरक्रियाणि रूपाणि विक न्ति विकुर्वगा कुर्वन्ति - वित्तिा ' विकस्सिा , 'चिकुर्व ' इति सौत्रो धातु , तेन ल्यव न भवति । तयोत्कृष्टया गत्या दिव्यगत्या देवसम्बन्धि 'चोइवयमाणा' व्यतिबजन्त. आगच्छन्तः यव जम्मृद्वीप द्वीपा, भारत वर्प, यगैव मिथिला राजधानी, यौव कुम्भस्य राज्ञो भवन, तगोपागरछति, उपागत्य कुम्मकस्य राशोभाने नीणि कोटिशतानि यावत्-अष्टाशीतिकोटी , अशीतिलमाणि इमामेतद्: रूपामर्थमम्पद 'साहरति' सहरन्ति-मापय । सहत्य-यत्रैव वैश्रमणो देवस्त वोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनख शिरआवत मसकेऽञ्जलि पर पहुंचा। (तं गच्छदण देवाणुप्पिया ! जहीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुभगभवणसि इमेयारूवे अत्थ सपदाण साहराहि ) अत हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जबद्रीप नाम के द्वीप में स्थित भारत वर्ष क्षेत्र में वर्तमान मिथिला नगरी के कुभक राजा के भवन पर इतनी पूर्वोक्त अर्थ सपत्ति को पहुँचाओ (साहरित्ता विप्पामेव मम एयमाण त्तिय पच्चप्पिणाहि ) पहुँचा कर पीछे हमें हस की ग्ववर दो। (तएण से वेसमणे देवे सक्केण देविदेण देवराएण एव वुत्ते के करयल जाव पडि सुणेइ ) शफ देवेन्द्र देव राज के द्वारा इस प्रकार आज्ञापित किये
(त गन्छहण देवाणुप्पिया' जयू दीवे दीवे मारहे चासे मिहिलाए कुभग भवणसि इमेयारवे अस्थसपदाण साहराहि)
એટલા માટે હે દેવીનુપ્રિય ! તમે જાઓ અને જ બૂદ્વિપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન મિથિલા નગરીના કુભક રાજાના ભવન ઉપર
ह्या भु४५ अर्थ सपत्ति सेटले द्रव्य तेमन त्या पाया ( साहरित्ता खिप्पामेव मम एयम गाल) पडायासन तमे सभने सुथित ४२। (तएण से वेर
देविदेण देवराएज एव वुते इहे करयल जाव पडिमुणे)
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अनंगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ०८ मल्लोभगद्दीक्षावसरणनिरूपणम्
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कृत्वा यावत् - प्रत्यर्पयन्ति, भवदीयाज्ञानुसारेण सर्वसाधितमस्माभिरिति निवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तर खलु स वैश्रमणो देवो योन को देवेन्द्रो देवराजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतनपरिगृहीत दशनग्व यात्रा प्रत्यर्पयन्ति ।
गये उस वैश्रवण देव ने हर्पित एव सतुष्ट होते हुए अपने दोनों हाथों की अजलि बना कर उसे मस्तक पर रक्खा और नमस्कार कर देवेन्द्र की बात स्वीकार कर ली । " मैं ऐसा ही करूँगा " इस प्रकार कह कर उस ने उन की आज्ञा मान ली ।
(पडि सुणित्ता जमए देवे सहावे सद्दावित्ता एव वयासी-गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया ! जबूद्दीच दीव भारह वांस मिलि रामाणि कुभ गस्स भवणसि तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीय च कोडीओ आसे पं च सयसहस्सा अयमेयारूव अस्थ सपयाण साहरेइ ) आज्ञा मानकर फिर उम ने नृभकदेवों को बुलाया और बुला कर उन से ऐसा कहा - हे देवानुप्रियो ' तुम जबूद्वीप नाम के इस द्वीप में स्थित भारत वर्ष क्षेत्रान्तर्गत मिथिला नाम की राजधानी मे जाओ और जाकर वहा के कुभक राजा के महल में तीन सौ अट्ठासी करोड ८०, अस्सी लाख सुवर्ण दीनारे पहुँचाओ ( साहरित्ता ) पहुंचा कर (मम एयमाणात्तिय पच्चपिणेह / फिर मुझे इस आज्ञा पूर्ति की पीछे खनर दो । (तएण
શક દેવેન્દ્ર દેવરાજ વડે આ પ્રમાણે આજ્ઞાપિત થયેલા વૈશ્રવણુ દેવ કુબેર હિત તેમજ સતુષ્ટ થઈને પેાતાના અને હાથેાની અજલી બનાવીને તેને મસ્તકે મૂડીને નમસ્કાર કર્યાં અને દેવેન્દ્રની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી આમ જ કરીશ ” આ પ્રમાણે કહીને તેમની તેઓ આજ્ઞા સ્વીકારી
( पडिणित्ता जभए देवे सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी गच्छह णतुभे 'देवाणुपिया ! जबूदीव दीव भारह वाम मिलि रायहाणि कुभगस्स भवणमि विशेष य कोडिसया अट्ठासीय च कोडीओ आसे यच सयसहस्साइ अयमेयारूव त्यसपयाण साह रे )
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આજ્ઞા સ્વીકારીને તેણે ગૃભક દેવેને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે તવાનુપ્રિયે ! તમે જ બૂટ્ટી નામના દ્વીપમા સ્થિત ભારતવા ક્ષેત્રમા વમાન મિથિલા નામની રાજધાનીમા ાએ અને જઈને ત્યાના કુભક રાજાના મહેલમા ત્રણસે કરાડ, ઇકયાળી કરાડ, એશી લાખ सोना भहोरो पड़ा था। ( मम एयमाणात्तिय पचविणेह ) सोन्याड्या भाड મારી આજ્ઞા પ્રમાણે સ પૂથ્રુ પણે કામ પૂરૂ થઈ ગયુ છે તેની મને ખબર આપે
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নায়কাথায় देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवममादी-हे देवानुमियाः ! गस्त सह पूर्व जम्वद्वीपे दीपे भारते व भरतक्षेो मिथिलायां राजधान्यां कुम्भकस्य राम भवने-त्रीणि कोटिशतानि, अष्टाशीतिकोटी , अशीतिशतसहस्राणि, इमामेवभूषामर्थसपद "साइरह " सहरत-मापयन सहत्य ममातियां प्रत्यर्पयत । ततः खलु तेज़म्भादेवाः, 'वेसमणेण 'श्रमणेन-एसमुक्ता. सन्तो हएतुष्टा यावत् प्रति शृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्यम्पीकृत्य, 'उत्तरपुरत्यिम' उत्तर पौरस्त्यम्-ईशानकोणरूप 'दिसोमाग' दिग्भागम् , 'आपमति' कामन्ति, गच्छन्ति, अवक्रम्प-गत्वा यार-'उत्तरवेउन्धियाउ रूपाइ' उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विक वन्ति विकुर्वगा कुर्वन्ति - विकुर्वित्ता' विकुम्सिा , 'विकु ' इति सौत्रो धातु , तेन ल्यव न भवति । तयोत्कृष्टया गत्या दिव्यगत्या देवसम्बन्धि 'वीइवयमाणा' व्यतिव्रजन्तः आगच्छन्तः यौव जम्मृद्वीप द्वीपा, भारत पर्प, यौव मिथिला राजधानी, यौव कुम्भकस्य राज्ञो भवन, तणयोपागच्छति, उपागत्य कुम्भकस्य राज्ञो भवने नीणि कोटिशतानियावत्-अष्टाशीतिकोटी, अशीतिलहाणि इमामेतद् रूपामर्थसम्पद 'साहरति । सहरन्तिन्मापय । सहत्य-यत्रैव वैश्रमणो देवस्त शैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनख शिरावते मस्तकेऽञ्जलि पर पहुँचायें (त गच्छहण देवाणुप्पिया ! जबूहीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुभगभवणसि इमेयारवे अत्य सपदाण साहराहि ) अत हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ-और जदीप नाम के द्वीप में स्थित भारत वर्ष क्षेत्र में वर्तमान मिथिला नगरी के कुभक राजा के भवन पर इतनी पूर्वोक्त अर्थ सपत्ति को पहचाओ (साहरित्ता ग्विष्पामेव मम एयमाण त्तिय पच्चप्पिणाहि ) पहुँचा कर पीछे हमें इस की खबर दो। (तएण से वेसमणे देवे सक्केण देविदेण देवराएण एव वुत्ते हे करयल जाव पडि सुणेइ ) शक्र देवेन्द्र देव राज के द्वारा इस प्रकार आज्ञापित किये
(त गच्छहण देवाणुप्पिया' जब दीवे दीवे मारहे वासे मिहिलाए कुभग भवणसि इमेयारूवे अस्थसपदाण साहराहि)
એટલા માટે હે દેવીનુપ્રિય! તમે જાઓ અને જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન મિથિલા નગરીના કુભક રાજાના ભવન ઉપર ४६भुम अर्थ सपत्ति शटले द्रव्य तभन त्या पाया! ( साहरिता खिप्पामेव मम एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणाहि) पडाया तमे अभने सुथित रे।
(तएण से वेसमणे देवे सक्के ण देविदेण देवराएण एव वुत्ते हवे करयल जाव पडिमुणेई)
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मतगारधर्मामृतवर्षिणी टी० १०८ मल्लीभगवहीक्षावसरणनिरूपणम ५१
ततस्तदनन्तर खलु मल्ली अर्हन् ' कडाफल्लि ' कल्याश्रये प्रतिदिवस 'जाव भागहओ पायरासोति' योनत्-मागधक प्रातराश, मगधदेशमम्बन्धिन प्रातराशें
माभातिक भोजनकाल यावत् आरभ्म प्रहरद्वयपर्यन्त बहुभ्यः 'सणाहाण य' सनाथेभ्य -सस्वामिकेभ्यश्च ' अणाहाण य ' अनायेभ्यश्चरकेभ्यश्च, ' पथियाग ये ' पान्यिकेभ्यः पन्थान नित्य गच्छन्तीति पान्थास्त एव पान्थिकास्तेभ्यश्व, 'पहियाण य' पथिकेभ्यः-पथि गच्छन्तीति पाथिकास्तेभ्यश्च, 'करोडियाण य' कारोडिकेभ्यः करोटया कपालेन चरन्तीति करोटिकास्तेभ्यश्र, 'खप्परधारी' इतिभापापसिद्धेभ्यश्च, 'कप्पडियाण य' कार्पटिकेभ्य -कर्पटेश्वरन्तीति कार्पटि कास्तेभ्यः, कन्याधारि-भिक्षुकेभ्य , एकमेकहिरण्यकोटिम् , तथा-'अष्ट च त्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चण्पिणति) रखकर फिर वे जहां चैश्रमण देव था वहां गये वहाजाकर उन्हो ने हाथ जोडकर " आपकी आज्ञानुसार हमने कुभक राजा के भवन अर्थ सपदा पहुंचा दी है, ऐसी खबर उसे पीछे कर दी । (तएणं मल्ली अरहा कल्लाकल्लि जाव मागहओ पायरासोत्तिवरण सणाहाण य अणाहाण य पथिया य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेग हिरणकोडिं अट्ठय अणूणाइ सयसहस्साइ इमेयारुव अस्थ संपदाण दलयइ ) इसके बाद मल्ली अरिहत प्रभु ने कल्याकल्य-प्रतिदिन मातः समय से लेकर दोपहर तक अपने सनाथों को, अनाथों को, पन्थिकों को, पथिकों, खप्पर धारियो को, कन्या धारियों को प्रतिदिवस १ वर्ष तक १ करोड ८० अस्मी लाख स्वर्ण दीनारें दी।
( साहरित्ता जेणेव वेममणे देवे तेणेव उवागच्छति, उबागच्छिना करयल जाव पञ्चप्पिण ति)
મૂક્યા પછી તેઓ જ્યાં વૈશ્રમણ દેવ હતા ત્યા ગયા, ત્યાં જઈને તેઓએ હાથ જોડીને તમારી આજ્ઞા મુજબ અમેએ કુભક રાજાના ભવનમાં અર્થસંપત્તિ પહોચાડી દીધી છે “આ પ્રમાણેની સૂરાના કરી
(तएण मल्ली अरहा। क्ल्लाकल्लि जाव मागहओ पायरासोत्ति बहण सणाहाणा य अणाहाण पथियाणय परियाग य करोडियाण य कप्पडियाणय एगमेग हिरण्णकोडि अट्ट य अणूणाइ सयसहस्साइ इमेयाङ्ब अत्यसादाण दलयड) ત્યારબાદ મલ્લી અરહત પ્રભુએ કત્યાક૮૧ દરરેજ મવારના વખતથી માડીને બપોર સુધી ઘણું સનાથને, અનાથને, પાને અને પથિકને, ખપ્પરપારીઓને, કળાધારીઓને એક વર્ષ સુધી એક કરોડ એશી લાખ ના મહેર આપો,
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ज्ञाताधर्मक
ते जभगा देवा वेसमणेण एव पुत्ता समाणा रड तुट्टा जाब पश्चिति, पडिणित्ता उत्तरपुर स्थिम दिसीनाग अवस्कमंति, अवक्कमिता जाय उत्तर वेउच्चियाइ, रुवाइ विउन्नति) इस के मात्र वैश्रमण देव के द्वारा इस तरह अज्ञापित हुए उन जभक देवो ने हर्षित एव सतुष्ट होकर उस की आज्ञा को मान लिया- स्वीकार कर लिया-1 स्वीकार कर दे ईशान कोण की ओर गये । वहा जाकर उन्हो ने उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की - (विचित्ता ताए उक्कट्टा जान वोहवयमाणा जेपद
बूद्दीवे दीवे भार हे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुभगस्स रनोभवणे तेणेव उचागच्छति ) चिकुर्वणा करके फिर वे उस देव कृति सन्धी उत्कृष्ट गति से यावत् चलते हुए जहा जीप नाम का द्वीप भारत वर्ष नाम का क्षेत्र, उस में भी जहा मिथिला नाम की राजधानी उसमें भी जहा कुमक राजा का राज प्रासाद था वहा आये ।
( उवागच्छित्ता कुभगस्स रण्णो भवणसि तिन्नि कोडिसया जाव साहरति ) वहा आकर उन्हों ने कुमक राजा के भवन में तीनसौ अट्ठासी करोड और ८० लाख सुवर्ण दीनार से भडार भर दिया। (साहरि
Jw
(तएण जभगा देवा वेसमणेग एव युत्ता समाणा हट्ट तुडा जाव पडिसुणे ति पडिणित्ता उत्तरपुर स्थिम दिसीभाग अनक्कमति अवक्कमित्ता जान उत्तरउनियाइ नाइ विउ ति )
ત્યારબાદ વૈશ્રવણુ દ્વારા આજ્ઞાપિત વધેલા ઝુભક દેવેએ તિ તેમજ સ તુષ્ટ થઈને તેની આજ્ઞાને માની લીધી એટલે કે તેની આજ્ઞા સ્વીકારી સ્વીકાર્યા બાદ તે ઈશાન કાણુ તરફ ગયા ત્યા જઈને તેઓએ ઉત્તર વૈક્રિય રૂપાની વિધ્રુણા કરી
(वित्ताता हाए जात्र वीइवयमाणा जेणेव जबूद्दीवे दीवे भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उपगच्छति ) વિકુણા કર્યાં પછી તેએ દેવગતિ સ ખ ધી ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી ચાલતા જ્યા જ ખૂદ્રીપ નામે દ્વીપ, ભારતવષઁ નામે ક્ષેત્ર અને તેમા પણ જ્યા મિથિલા નામની રાજધાનીમા કુભક રાજાના મહેવ હતા ત્યા ગા
( वागच्छित्ता कुभगस्त, रण्णो भवणसि तिन्नि कोडिसया जान साहर ति) ત્યા જઈને તેઓએ કુલ- રાજાના મહેલમા ત્રણસે ઈકચાશીકાય અને એથી લાખ સેાનામહારા બડ઼ાર-ખજાનામાં મૂકી દોષી
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ८ मल्लीमगद्दोक्षाघसरणनिरूपणम्
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पान्थिका वा, पथिका वा कारोटिका वा कार्यटिका वा 'पासडत्था वा' पाखण्डस्याः पाखण्डधर्मस्थिता, तथा गृहस्था या तेसिं च= तेषाम् = आगताना, चकारःसमुच्चयार्थः, तथा तत्र तत्र देगे देशेऽवस्थितस्य च - आश्वस्थस्य विश्वस्थस्य सुखासनवरगतस्य तद् विपुलमशन पान खाद्य खाद्य ' परिभाषमाणा ' परिभाजयन्त. =विभाग कुर्वन्त' ' परिवे सेमाणा ' परिवेषयन्तः = भोजनपात्रे स्थापयन्त विह रन्ति = ये खलु मिथिलानगयी तत्र तत्र देशे देशे बहवो मनुष्या विपुलस्याशनादि चतुर्विधाऽऽहारस्य निष्पादका आसन्, ते पान्थिकादिभ्यः तत्तद्देशारस्थितेभ्यश्च विपुलस्याशनाद्याहारस्य परिवेषण कुर्वन्तस्तिष्ठति स्मेत्यर्थ. ।
ततस्तदनन्तर खलु मिथिलाया शृङ्गाटकादौ देशे देशे यावत्-बहुजनोन्यस्य =परस्परमेनम् आख्याति=कथयतिस्म, एव 'भासइ ' भापत्ते, साश्रयै वक्ति, अपूर्व चतुर्विध आहार को पका कर वहाँ जो जैसे आते थे ( तजहा ) यथा - चाहे वे (पथियावा पहिया वा करोडिया वा, कप्पाडिया वा पासडत्था वा गिहत्था वा ) पाथिक जन हो चाहे पथिक जन हो, खर्पर वारी भिक्षुक हो चाहे कथाधारी भिक्षुक हो पाखडी धर्म में स्थित हो, चाहें गृह स्थजन हो, (तेसिय-ता आसत्थस्म, वीसत्थस्त सुहासणवरगयस्स
विपुल असण ४ परिभाएमाणा परिवेसे माणा विहरति ) उन सबको तथा अन्य और भी उस उस देश में रहें हुए मनुष्यों को, आश्वस्थों को, विश्वस्तों को, एव सुवासनवरगतो को उम विपुल अशनादिरूप आहार को पॉट देते थे तथा वही पर जिमा देते थे ।
(तएण मिहिलाए सिंघाडग जाय बहुजणी अण्णमण्णस्स एवमाइ क्खइ, एवं मामह एवं पनवेइ, एवं परुवेइ, - एव खलु देवाणु०
भाडारा तैयार उरीने त्या गमे तेरा भाषभेो भवता ( त जहा ) भ (पथिया वा पहिया वा क्रोडिया वा कप्पडिया वा पासडत्था वा गिहत्था वा ) પાથિક જન, ખપ્પરધારી ભિક્ષુક, ક થાધારી ભિક્ષુક, પાખડી ધર્મ'ને આચનારા અને ગૃહસ્થીએ ગમે તે શ્વેત પથના લેાકે ત્યા આવતા
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( तेसिंग वहा आसत्यरस, सुहासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाए माणा परिवेसेणा विहरति )
તેઓ ધાને તેમજ તે દેશમા રહેનારા બીજા ઘણા માણમેને, આવ સ્થાને, વિશ્વતેને અને સુખાસનવર ગતેને તે પુષ્કળ પ્રમાણુમા અાવવામા આવેલે આહાર વડેચવામા આવતા હતેા તેમજ તેઓને ત્યાજ જમાડવામા
પશુ આવતા હતા
(तएण मिहिलाए रिन डग जान पहु जणो अण्गमष्णस्स एवमाइक्खड़, एवं
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ܕܙܝ݂
ज्ञाताधर्मकथा
भन्यूनानि पूर्णानि शतसहस्राणि 'क्षाणि एककोटिमरक्षाणि च वर्णदीनारागि इमामे पार्थसम्पदं 'दलगइ ' ददाति ।
ततस्तदनन्तर सलु कुम्मको राजा मिथिलायां राजधान्या तत्र तत्र =अवशन्तर पुरादों, तथा तस्मिन् तस्मिन् देशेदेशे = शृङ्गाटकादी नीर्महानसशाला ओदनादीनां पाकगृहाणि कारयति । ततः खलु चढ्यो मनुष्याः ते कवभूता इत्याह- ' दिष्ण भइभत्तवेयणा' इति, दतभृतिभक्तवेतनाः = दत्त भृतिभक्तलक्षण द्रव्य भोजनस्वरूप वर्तन मूल्य येभ्यस्ते तथा यद्वा भृत्तिर्भरण पोष्यागर्थिमनादिक, भक्त-स्व भोजनार्थ, वेतन - अशनादि सस्कारकरणपारिश्रमिक च तानि दत्तानि भृतिभक्त वेतनानि येभ्यस्ते तथा विपुलमशनपानखानखाद्यम् -'उबक्खडेंति ' उपस्कृर्वन्ति चतुर्विधाहार निष्पादयन्ति, उपस्कृत्य, ये यथाऽगच्छन्ति ' तजहा ' तद् यथा
-
'
प्रतिदिन - नित्य-मार्ग चलने वाले व्यक्ति यहा पान्विक शब्द से, तथा जब कभी मार्ग चलने वाले व्यक्ति पथिक शब्द से गृहीत हुए है। (तरण से कुभव मिहिलाए रायहाणी तत्थ २ तहि २ देसे २ बहुओ माणसालाओ करेड, तत्थण घरवे मणुया, दिन्नभइ भत्तवेयणा विपुल असण पाण खइम साइम उवाखर्डेति उवाखडिता जे जहा आगच्छइ ) इस के अनन्तर उन कुभक राजा ने मिथिला राजधानी में जहाँ तहाँ अवान्तर पुर आदि में उस प्रदेश में शृंगाटक आदि रास्तों में अनेक रसोई घर स्थापित करना दिये, उनमें अनेक रसोइये अशन पान आदी रूप चतुर्विध आहार विपुल मात्रा में बनाते थे ।
इसके उपलक्ष्य मे उन्हे तथा उनके पोष्य वर्ग के लिये वहा से भो जन मिलना था और उन भोजन बनाने वालों के लिये वहां से वेतन भी मिलता था। वे विपुल मात्रा मे अशन पान, स्वाद्य, स्वाद्य तथा रूप
દરાજ નિત્ય રસ્તે ચાલતા રહેનારાએ અહીં ‘પાર્થિક’ શબ્દથી તેમજ કોઈક દિવસ રસ્તે ચાલનારાઓ ‘પથિક' શબ્દથી સમજવા જોઇએ
( तएण से कुमए मिहिलाए रायहाणीए तत्थ २ तर्हि २ देसे २ बहुओ महाणसमालाओ करे, तत्थण बहवे मणुया, दिन्नभइभत्तवेपणा विपुल असण पाण खाइम साइम उनक्खडे ति उनकपडित्ता जे जहा आगच्छर )
ત્યારખ ઃ કુલ્ક રાજાએ મિથિલા નગરીમા ખધે અન્ત્રાન્તરપુર વગેરેમા તે પ્રદેશેામા શ્રૃંગાટક વગેરે રસ્તાએમા ઘણા રસેાઈ ઘરા સ્થાપિત કરાવડાવ્યા તેઓમા ઘણા રસેઈયાએ અશન, પાન વગેરે રૂપમા પુષ્કળ પ્રમાણુમા ચારે જાતના આહાર તે ાર કરતા હતા
એના ખદલ તેઓને તથા તેમની સાથેના બીજા માણસાને ત્યાંથી ભેાજન મળતું હતું અને રસેઈ તૈયાર કરનાર માસેાને પગાર પણ મળતા હતા તેઓ પુષ્કળ પ્રમાણુમા અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાઘના રૂપમા
तना
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ८ मल्लीमगहीक्षाघसरणनिरूपणम् ५१३ पान्धिका वा, पथिका वा कारोटिका वा कार्पटिका या 'पासडत्या वा' पाखण्डस्याः पाखण्डधर्मस्थिता, तथा-गृहस्था ना, तेर्सि च-तेपाम् आगताना, चकार:समुच्चयाः, तथा तत्र तत्र देशे देशेऽस्थितस्य च-आश्वस्थस्य विश्वस्थस्थ सुखा. सनवरगतस्य तद् विपुलमशन पान खाद्य खाद्य 'परिभाएमाणा' परिभाजयन्तः
विभाग कुर्वन्त' 'परिवेसेमाणा' परिवेपयन्ता भोजनपात्रे स्थापयन्त. विह रन्ति ये खलु मिथिलानगया तत्र तन देशे देशे पहवो मनुष्या विपुलस्याशनादि चतुर्विधाऽऽहारस्य निष्पादका आमन् , ते पान्थिकादिभ्य' तत्तद्देशापस्थितेभ्यश्च विपुलस्याशनाद्याहारस्य परिवेषण कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति स्मेत्यर्थः ।।
ततस्तदनन्तर खलु मिथिलाया शृङ्गाटकादौ देशे देशे यावत्-बहुजनोन्यस्य =परस्परमेरम् आख्याति कथयतिस्म, एव 'भासइ ' भापत्ते, साश्चर्य वक्ति, अपूर्व चतुर्विध आहार को पका कर वहां जो जैसे आते थे (तजहा) यथा -चाहे वे ( पथियावा पहिया वा करोडिया वा, कप्पडिया वा पासडत्था घा गिहत्या वा ) पाथिक जन हो चाहे पधिक जन हो, खपर वारी भि. क्षुक हो चाहे कथाधारी भिक्षुकशे पाखडी धर्म में स्थित हो, चाहें गृह स्थजन हो, (तेसिंय-तहा आसस्थस्म, वीसत्यस्त सुहासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाएमाणा परिवेसे माणा विहरति) उन सबका तथा अन्य और भी उस उस देश में रहें हुए मनुष्यों को, आश्वस्थों को, विश्वस्तो को, एव सुग्वासनवरगतो को उम विपुल अशनादिरूप आहार को पॉट देते थे तथा वही पर जिमा देते थे।
(तएज मिहिलाए सिंघाडग जाव याजणो अण्णमपणस्स एवमाइ. क्वइ, एव मामइ एच पनवेइ, एच पख्वेह-एव खल देवाणु० ।
साडा तयार न त्या मे ते। भाथमा माता (त जहा ) रेभ (पथिया वा पहिया वा रोडिया वा कप्पडिया वा पासडत्था वा गिहत्था वा) પાથિક જન, ખપધારી ભિક્ષુક, કથાધારી ભિક્ષુક, પાખડી ધર્મને અચશ્નારા અને ગૃહસ્થીઓ ગમે તે જાત પથના લેકે ત્યા આવતા
(तेसिंय तहा आसत्यरस, मुहासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाए माणा परिवेसेणा विहरति)
તેઓ બધાને તેમજ તે દેશમાં રહેનારા બીજા ઘણા માણને, આશ્વ સ્થાને, વિશ્વ તેને અને મુખાસનવર તેને તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં અવેલે આહાર વડે ચવામાં આવતું હતું તેમજ તેઓને ત્યાજ જમાડવામાં પણ આવતા હતા
(तएण मिहिलाए रिन.डग जार बहु जणो अण्णमण्णसस एमाइक्खइएवं
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५१२
maradwang
भन्यूनानि पूर्णानि शतसहस्रागि ' =उक्षाणि एककोटिमक्षाणि च स्वर्णदीनारागि इमामे पार्थसम्पद 'दलगइ ' ददाति ।
,
'वत्तस्तदनन्तर सलु कुम्मको राजा मिथिलाय राजधान्या तत्र तत्र=अवान्तर पुरादौ तथा तस्मिन् तस्मिन् देशेदेशे = हाटकादी नदीमेहानसाला ओदनादीनां पाकगृहाणि = कारयति । ततः खलु चहयो मनुष्याः ते कथभूता इत्याह-' दिष्ण भरभत्तवेयणा' इति, दतभृतिभक्तवेतनाः = दत्त भृतिभक्तलक्षण द्रव्य भोजनस्वरूप वर्तन मूल्य येभ्यस्ते तथा यद्वा भृत्तिर्भरण पोष्यवर्गार्थमनादिक, भक्त-स्व भोजनार्थ, वेतन - अशनादि सहकारकरणपारिश्रमिक च तानि दत्तानि भृतिभक्त ये तथा विपुलमशनपानखानखाद्यम् -' उनखडेंति ' उपस्कुर्वन्ति चतुर्विधाहार निष्पादयन्ति, उपस्कृत्य, ये यथाऽऽगच्छन्ति ' तजहा ' तद् यथा
प्रतिदिन - नित्य-मार्ग चलने वाले व्यक्ति यहां पान्विक शब्द से, तथा जब कभी मार्ग चलने वाले व्यक्ति पथिक शब्द से गृहीत हुए हैं। (तएण से कुभए मिहिलाए रायहाणी नत्य २ तहि २ देसे २ बहुओ माणसालाओ करेह, तत्थण पहवे मणुया, दिन्नमहभत्तवेयणा विपुल असण पाण खइम साइम उवाखर्डेति उवाखडित्ता जे जहा आगच्छइ ) इस के अनन्तर उन कुभक राजा ने मिथिला राजधानी में जहाँ ता अवान्तर पुर आदि में उस प्रदेश में शृंगाटक आदि रास्तों में अनेक रसोई घर स्थापित करना दिये, उनमें अनेक रसोइये अशन पान आदी रूप चतुर्जिव आहार विपुल मात्रा में बनाते थे ।
इसके उपलक्ष्य मे उन्हे तथा उनके पोष्य वर्ग के लिये वहा से भो जन मिलना था और उन भोजन बनाने वालों के लिये वहा से वेतन भी मिलता था । वे चिपुल मात्रा मे अशन पान, स्वाद्य, स्वाद्य तथा रूप દરાજ નિત્ય રસ્તે ચાલતા રહેનારાએ અહીં પાર્થિક શબ્દથી તેમજ ટ્રાઈક દિવસ રસ્તે ચાલનારાએ પથિક' શબ્દથી સમજવા જોઇએ
C
( तएण से कुमए मिहिलाए रायहाणीए तत्थ २ तहिं २ देसे २ बहुओ महाणससालाओ करे, तत्थण बहवे मणुया, दिन्नभइभत्तवेयणा विपुल असण पाण साइम साइम उनक्खडे ति उवक्पडित्ता जे जहा आगच्छइ )
ત્યારબદ કુક રાજુએ મિથિલા નગરીમા મધે અત્રાન્તરપુર વગેરેમા તે પ્રદેશામા શ્રૃંગાટક વગેરે રસ્તાઓમા ઘણા રસેાઈ ઘરે સ્થાપિત કરાવડાવ્યા તેમા ઘણા રસેાઈયાએ અશન, પાન વગેરે રૂપમા પુષ્કળ પ્રમાણુમા ચારે જાતના માહારા તાર કરતા હતા
એના બદલ તેઓને તથા તેમની સાથેના ખીજા માણસેાને મળતું હતું અને રસઈ તૈયાર કરનાર માશુસેને પગાર પણ તે પુષ્કળ પ્રમાણમા અશન, પાન, ખાવ અને સ્ત્રાવના રૂપમા
ત્યાંથી ભેજન મળતા હતા
જતના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ८ मल्लीमगद्दोक्षाघसरणनिरूपणम्
पान्थिका वा, पथिका वा कारोटिका वा कार्पेटिका वा 'पासडत्था वा' पाखण्डस्याः पाखण्डधर्मस्थिता, तथा - गृहस्थाना, तेसिं च = तेपाम् = आगताना, चकारः - समुच्चयार्थः, तथा तत्र तत्र देशे देशेऽवस्थितस्य च - आश्वस्थस्य विश्वस्थस्य सुखासनव रगतस्य तद् विपुलमशन पान खाद्य खाद्य ' परिभाषमाणा ' परिभाजयन्तः =विभाग कुर्वन्त' ' परिवे सेमाणा ' परिवेपयन्तः = भोजनपात्रे स्थापयन्त विह रन्ति = ये खलु मिथिलानगयी तत्र तत्र देशे देशे वो मनुष्या विपुलस्याशनादि चतुर्विधाऽऽहारस्य निष्पादका आसन्, ते पान्थिकादिभ्य तत्तद्देशावस्थितेभ्यश्च विपुलस्याशनाद्याहारस्य परिवेषण कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति स्मेत्यर्थः ।
५१३
ततस्तदनन्तर खलु मिथिलाया शृङ्गाटकादौ देशे देशे यावत् - बहुजनोन्यस्य =परस्परमेवम् आख्याति=कथयतिस्म, एव 'भास' भापत्ते, साथर्य वक्ति, अपूर्व चतुर्विध आहार को पका कर वहां जो जैसे आते थे ( तजहा ) यथा - चाहे वे (पथियावा पहिया वा करोडिया वा, कप्पाडिया वा पासडत्था वागित्या वा ) पार्थिक जन हो चाहे पथिक जन हो, खर्पर वारी भि क्षुक हो चाहे कथाधारी भिक्षुक हो पाखडी धर्म में स्थित हो, चाहे गृह स्थजन हो, (तेसिय- तहा आसत्यस्म, वीसत्थस्त सुहासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाषमाणा परिवेसे माणा विहरति ) उन सबको तथा अन्य और भी उस उस देश में रहें हुए मनुष्यों को, आश्वस्थों को, विश्वस्तो को, एव सुवासनवरगतो को उम विपुल अशनादिरूप आहार को पॉट देते थे तथा वही पर जिमा देते थे ।
(तएण मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजनो अष्णमण्णस्स एवमाहवह एवं मामह एवं पनवेइ, एव परुवेइ, एव ग्वल देवाणु०
माहारा तैयार पुरीने त्या गमे तेरा भाथुमो भावता ( त जहा ) भ (पथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पाडिया वा पासडत्था वा गिहत्था वा ) પાર્થિક જન, ખપ્પરધારી ભિક્ષુક, - થાધારી ભિક્ષુક, પાખડી ધર્મને આચરનારા અને ગૃહસ્થીએ ગમે તે ન્તત પથના લેાકેા ત્યા આવતા
( तेसिंग वहा आसत्यम्स, मुद्दासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाए माणा परिवेसेणा विहरति )
તેએ બધાને તેમજ તે દેશમા રહેનારા ખીજા ઘણા માણુઞાને, આશ્વ સ્થાને, વિશ્વમ્તને અને મુખાસનવર ગતાને તે પુષ્કળ પ્રમાણમા બનાવવામા આવેલે આહાર વડે ચામા આવતા હતા તેમજ તેઓને ત્યાજ જમાડવામા પણ આવતા હતા
(तएण मिहिलाए रिंन डग जान उडु जणो अण्गमस्स एवमाइक्खर, एवं
था ६५
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५१२ भन्यूनानि पूर्णानि शतमहलागि 'लक्षाणि एककोटिमरक्षाणि चम्मर्णदीनारागि इमामेतद्रूपामर्थसम्पद 'दलयइ' ददाति । । ततस्तदनन्तर सल कुम्मको राजा मिथिलायर्या राजधान्या तत्र तत्रवान्तर पुरादौ, तथा तस्मिन् तस्मिन् देशेदेशे-शृगाटकादी वहीमहानसशाला ओदनादीनां पाकगृहागिकारयति । ततः पल बद्दयो मनुष्याः ते कयंभूना इत्याह-'दिन्न भइभत्तवेयणा' इति, दतभृतिभक्तवेतनाः दत्त भृतिभक्तलक्षण द्रव्य भोजनस्वरम वर्तन मूल्प येभ्यस्ते तया, यद्वा-भृत्तिभरण पोप्यर्थमन्नादिक, भक्त-व भोजनार्थ, वेतन -अशनादि सस्कारकरणपारिश्रमिक च तानि दत्तानि भृतिभक्त वेतनानि येभ्यस्ते तथा, विपुलमशनपानखायखाद्यम्-'उपरखडेति' उपस्कुर्वन्ति चतुर्विधाहार निष्पादयन्ति, उपस्कत्य, ये यथाऽऽगन्छन्ति ' तजहा' तद् यथा
प्रतिदिन-नित्य-मार्ग चलने वाले व्यक्ति यहां पान्धिक शन्द से, तथा जय कभी मार्ग चलने वाले व्यक्ति पधिक शब्द से गृहीत हुए हैं। (तएण से कुभा मिहिलाए रायहाणी तत्य २ तहि २ देसे २ बहूओ महाणसतालाओ करेड, तत्थण परवे मणुया, दिन्नभइभत्तवेयणा विपुल असण पाण खइम साहम उवाखति उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छइ ) इस के अनन्तर उन कुभक राजा ने मिथिला राजधानी में जही तश अवान्तर पुर आदि में-उस प्रदेश में शृगाटक आदि रास्ता में अनेक रसोई घर स्थापित करवा दिये, उनमें अनेक रसोइये अशन पान आदी रूप चतुर्विध आहार विपुल मात्रा में बनाते थे।
इसके उपलक्ष्य में उन्हे तथा उनके पोष्य वर्ग के लिये वहा से भी जन मिलता था और उन भोजन बनाने वालों के लिये वहां से वेतन भी मिलता था। वे विपुल मात्रा मे अशन पान, वाद्य, स्वाद्य तथा रूप
દરરોજ નિત્ય રતે ચાલતા રહેનારાઓ અહીં “પાષિક શબ્દથી તેમજ કેઈક દિવસ રસ્તે ચાલનારાઓ “પથિક' શબથી સમજવા જોઈએ
(तएण से कुभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थ २ तर्हि २ देसे २ बहूओ महाणसमालाओ करेइ, तत्थण बहवे मणुया, दिन्नभइभत्तवेयणा बिपुल असण पाण साइम साइम उववरवडे ति, उपकपडित्ता जे जहा आगच्छइ)
ત્યારબાદ કુષ્ક રાજાએ મિથિલા નગરીમા બધે અવાન્તરપુર વગેરેમાં તે પ્રદેશમાં શ્રગાટક વગેરે રસ્તાઓમાં ઘણા રસેઈ ઘરે સ્થાપિત કરાવડાવ્યા તેઓમા ઘણા રાઈયાઓ અશન, પાન વગેરે રૂપમાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં ચાર જાતના આહારે ત ાર કરતા હતા
એના બદલ તેઓને તથા તેમની સાથેના બીજા માણસને ત્યાંથી ભજન મળતું હતું અને રઈ તૈયાર કરનાર માણને પગાર પણું મળતા હતા
જાતના તેઓ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાઘના રૂપમાં
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भनगारधर्मामृतपिणी टीका म० ८ मल्लोमगहीक्षायसरणनिरूपणम् ५५३ पान्थिका वा, पथिका वाकारोटिका वा कार्पटिका या पासडत्या वा' पाखण्डस्थाः पाखण्डधर्मस्थिता, तथा-गृहस्था ना, तेसिं च-तेपाम् आगताना, चकार:समुच्चयार्थः, तथा तत्र तत्र देशे देशेऽवस्थितस्य च-आश्वस्थस्य विश्वस्थस्थ सुखासनवरगतस्य तद् विपुलमशन पान खाद्य खाद्य ' परिभाएमाणा' परिभाजयन्त. =विभाग कुर्वन्तः 'परिवेसेमाणा' परिवेषयन्तः भोजनपात्रे स्थापयन्त. विह रन्ति ये खलु मिथिलानगया तत्र तत्र देशे देशे वहयो मनुष्या विपुलस्याशनादि चतुर्विधाऽऽहारस्य निष्पादका आमन् , ते पान्थिकादिभ्यः तत्तद्देशापस्थितेभ्यश्च विपुलस्पाशनायाहारस्य परिक्षेपण कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति स्मेत्यर्थः । ____ ततस्तदनन्तर सलु मिथिलाया शृङ्गाटकादौ देशे देशे यावत्-बहुजनोन्यस्य =परस्परमेनम् आख्याति कथयतिस्म, एव 'भाइ' भापत्ते, माश्चर्य वक्ति, अपूर्व चतुर्विध आहार को पका कर वहां जो जैसे आते थे ( तजहा) यथा -चाहे वे ( पथियावा पहिया वा करोडिया वा, कप्पडिया वा पासडत्था वा गिहत्था वा ) पायिक जन हो चाहे पधिक जन हो, खपर धारी भिक्षुक हो चाहे कयाधारी भिक्षुक हो पाखडी धर्म में स्थित हो, चाहे गृह स्थजन हो, (तेसिंय-तहा आसत्यस्म, वीसत्वस्त सुहासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाएमाणा परिवेसे माणा विहरति) उन सरको तथा अन्य और भी उस उस देश में रहें हुए मनुष्यों को, आश्वस्थों को, विश्वस्तों को, एव सुवासनवरगतों को उम विपुल अशनादिरूप आहार को पॉट देते थे तथा वही पर जिमा देते थे।
(तएण लिहिलाए सिंघाडग जान पहजणो अण्णमण्णस्स एवमाइ. क्खइ, एव मामइ एव पनवेइ, एव पख्वेद,-एव खलु देवाणुः ।
साडा तयार 3शन त्या गमे ते। भाषमा माता (त जहा) २ (पथिया वा पहिया वा रोडिया वा कप्पडिया वा पासडत्था वा गिहत्था वा) પથિક જન, ખપધારી ભિક્ષુક, કથાધારી ભિક્ષુક, પાખડી ધર્મને આચરનારા અને ગૃહસ્થીઓ ગમે તે જાત પથના લેકે ત્યા આવતા
(तेसिंय तहा आमत्थरस, सुहासणवरगयस्स त विपुल असण ४ परिभाए माणा परिवेसेणा विहरति)
તેઓ બધાને તેમજ તે દેશમાં રહેનારા બીજા ઘણા માણને, આ સ્થાને, વિશ્વસ્તરને અને સુખાસનવર ગતેને તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલે આહાર વહેચવામાં આવતું હતું તેમજ તેઓને ત્યાજ જમાડવામાં પણ આવતા હતા
(तएण मिहिलाए रिन.डग भार बहु जणो अण्णमण्यस्स एपमाइक्खइ,एवं
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ज्ञाताधर्मवाद
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भोजनदान, न श्रुत नाविदृष्टमित्याथर्यपूर्वक वर्णयतीत्यर्थ । एत्र 'पलवे ' प्रज्ञापयति विस्तारेण नोधयति, ए ' पर ' रूपयति-मदृष्टान्त वर्णयति, किमाख्यातीत्याह - ' एवं ' इत्यादि ए खल हे देवानृमिया' ! कुम्मकस्य राज्ञो भने 'सन्यकामगुणिय सर्वकामगु गित=मन्द्रियमुखजनक 'किमिच्छये ' किमिच्छाम् = इच्छानुसार विमानपानाद्यस्याभ्य श्रमणेभ्यो ब्राह्मणे भ्यश्च, यावत् यथा समागतेभ्यः सनायानाथपान्यिकादिभ्य परिवेष्यते । " नरवरिया घोसिन किमिन्द्रय दिज्जीय | सुरअर देवदार नरिंदमहियाण निक्मणे ॥ १ ॥
"}
'वरवरिया' वरपरिका - वर या याच इति घोषणा, 'घोमिज्जर' कुभगस्स रण्णो भवणमि मन्न कामगुगिय किमिच्छय विपुल असण ४ बहण समणाण जाव परिवेसिज्जेह ) इस कारण मिथिलो नगरी में श्रृंगाटक आदि स्थानों पर अनेक जन मिल २ कर एक दूसरे से ऐसा कहने लगे, आश्चर्य युक्त होकर इस प्रकार बोलने लगेविस्तार पूर्वक इस प्रकार एक दूसरे को समझाने लगे, तथा देकर २ इस प्रकार वर्णन करने लगे- हे देवानुप्रियों ! कुमक राजा के भवन पर सर्वेन्द्रिय सुख जनक, अशन पान, खाद्य एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार अनेक श्रमणों के लिये, ब्राह्मणों के लिये यावत् समागतो के लिये, सनाधो अनाथों के लिये और पांथिकोदिकों के लिये इच्छानुसार दिया जाता है ( वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छय दिज्जए यह विहीय, सुर असुर देव दाणवनरिंद महियाण निक्खमणे ) सुर असुर, देव, दानव, एव नरेन्द्रों द्वारा पूज्य तीर्थकरों के निष्क्रमण के भास एव पन्नवे, एव परूवेइ, एव खलु देवाणु ? कुभगस्स रण्गो भवमि सव्वकामगुणिय किमिच्छय विपुल असण४ बहण समणाण य जोव परिवेसिज्जे ३)
એના લીધે મિથિલા નગરીના શ્રૃંગાટક વગેરે સ્થાનામા નારિકાના ટાળે ટોળા એકઠા થઈને આશ્ચય પામતા વિસ્તારપૂર્વક એક-બીજાને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા, સમજાવવા લાગ્યા તેમજ દૃષ્ટાન્તા આપીને આ પ્રમાણે વણુન કરવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિયા । કુંભક રાજાના મહેલમા સવેન્દ્રિય સુખજનક अशन, पान, मद्य भने स्वाधइप और जतनो आहार घेणा श्रभयो, प्राझारी, સમાગતા, સનાચૈા, અનાથે અને પાર્થિકા વગેરેને માટે ઈચ્છા મુજખ આપવામા આવે છે
वरवरिया धोसिज्ज, किमिच्छय दिज्जए बहुविहीय, सुर असुर देव, दाणवनरिद महियाण निक्खमणे )
{
સુર, અસુર, દેવ, દાનવ અને નરેન્દ્રોવડે પૂજ્ય તીથ કરાના નિષ્ક્રમણના સમયે “ માગે, માગે, ” આ જાતની ઘેાષણા કરવામા આવી છે.
ઘણી
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अनगारधर्माणी टीका अ० ८ मल्लीभगद्दीक्षोत्सयनिरूपणम्
५१५
घोष्यते किमिच्छय = किमिच्डकम् उच्छानुसार दीयने बहुविधिकम् । सुरासुरदेव ataraरेन्द्र महिताना=अर्हता तीर्थ राणा निष्क्रमणे ॥ १ ॥
तत. खलु मल्ली अर्हन् अस्य - ' मण पहारेड ' मनसि प्रधारयति, इत्यनेन सम्वन्ध । किं मारयतीत्याह- 'सवच्छरे' सवत्सरे सल त्रीणि कोटिशतानि अष्टा दश च भवन्ति कोटयः । अशीतिशतसहस्राणि स्वर्णदीनाराणि तीर्थंकर निष्क्रमणे दावव्यानि भवन्ति इमामेवपामर्थमपद खलु दला निष्क्रमामि दीक्षा ग्रहोप्यामि इति ॥ सू० ३७ ॥
मूळम् - तेण कालेणं तेण समरण लोगंतिया देवा वभलोए कप्पे रिट्टे विमाणे पत्थडे सहि२ विमाणेहि सहि२ पासायवडिसएहि पत्तेयर चउहि सामाणियसाहस्सीहि तिहि परिसाहिं सत्तहि अणिएहि सत्तहि अणियाहिवईहि सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि अन्नेहिय वहूहि लोगतिहि देवेहि सहि संप - वुिडा महया हयनदृगीयवाइय जाव रवेण दिव्वाइ भोग भोगाइ समय में " मागो मागो," ऐसी घोषणा कराई जाती है और अनेक प्रकार का किमिच्छक ( तुम्हारी क्या इच्छा है ) दान भी दिया जाता है । (तएण मली अरहा सवच्ठरेण तिन्नि कोडिसया अट्ठासीतिं च होति कोडीओ असिनि च सरसहस्साइ इमेयारूत्र अत्य सपयाण दलहन्ता निक्खममित्ति मण पहारेड ) अवमला अरिहत ने " एक साल में तीन सौ करोड-तीन अरब अट्ठासी करोड़ ८० लाख स्वर्ण दीनारें तीर्थकर निष्क्रमण ( दीक्षा अवसर पर ) में दातव्य होती ह सौ मैं इतनी अर्थ सपत्ति देकर दीक्षा ग्रहण करूँगा " ऐना मन में निश्चित विचार किया। सूत्र 16 ३७१
જાતનુ· કિમિચ્છક’ ( તમારી શુ ઈચ્છા છે ? ) દાન પણ આપવામા આવે છે. ( तएण मल्ली अरहा सवरेण तिन्नि कोडिसया अट्ठासीति च होंति कोडीओ असिति च सहस्माइ उमेयास्त्र जत्थसपयाण दलवत्ता निक्खमो मित्तिमण पहारेड)
હવે મલ્લી અરહતે “ એક વર્ષ મા ત્રણમા રેડ, ત્રણ અબજ, અચાની કરાડ એસી લાખ એના મહાન તીર્થંકર નિષ્ક્રમણ ( દીક્ષાના સમયે ) મા આપવામા આવે છે તે! હું આટલી અર્થ મપત્તિ આપીને જ દીક્ષા ગ્રહણુ કરીશ ” આ પ્રમાણે મનમા ચેĀપણે વિચાર કર્યો
66
॥ सूत्र ३७ "
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माताधर्मकथा भुजमाणा विहरति, त जहा-'सारस्सयमाइच्चा पहि-वरुणा य गदतोया य । तुसिया अव्वाबाहा अम्गिच्चा चेव रिट्ठाय ॥१॥" तएणं तेसि लोयतियाणं देवाणं पत्तेयं२ आसणाई चलति तहेव जाव अरहताणं निक्खममाणाण सबोहण करेत एत्ति त गच्छामो णअम्हेवि मल्लिस्ल अरहओ सयोहण करेमि त्तिकटु एव सपेहेंति, सपेहित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाय अव. कमति, अवकमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएण समोहणति, समो हणित्ता सखिज्जाई जोयणाइ एव जहा जभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अतलिक्खपडिवन्ना सखिखिणियाइ जाव वत्थाई पवरपरिहिया करयल० ताहिं इहाहि जाव वग्गूहि एवं वयासी-बुज्झाहि भयव। लोगनाहा। पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकर भविस्सइ त्तिकटु दोच्चपि तच्चपि एवं वयति, वयित्ता मल्लि अरह वदति नमसंति, वदित्ता नमसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया । तएण मल्ली अरहा तेहि लोगतिएहि देवेहि सबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवा० करयल० इच्छामि णं अम्मयाओ। तुभेहि अब्भणुष्णाए समाणे मुडे भवित्ता जाव पव्वइत्तए, अहासुह देवा० । मा पडिबध करेहि, तएणं कुभए कोडुबियपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव अट्रसहस्स सोवणियाणं जाव भोमे
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मनगारधर्मामृतपिणी टीका भ०८ मल्लीभगवद्दीक्षोत्सघनिरूपणम् ५१७ जाणंति, अण्णं च महत्थ जाव तित्थयराभिसेय उबटूवेह जाव उवद्ववेंति, तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया, तएणं सक्के३ आभिओ गए देवे सहावे सदावित्ता एव वयासी - खिप्पामेव अट्ठसहस्स सोवपिणयाणं जाव अण्णं च त विउल उवट्ठवेह जाव उबटूवेंति, तेवि कलसा ते चैव कलसे अणुपविट्टा, तएण से सके देविदे देवराया कुमराया य मल्लि अरह सीहासणं पुरत्थाभिमुह निवेसे असहस्से सोवणियाण जाव अभिसिचइ, तरण मलिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिल
सभितरवाहिरिय जाव सव्वओ समता परिधावति, तरणं कुभए राया दोच्चपि उत्तरावक्कमण जाव सव्वालकारविभूसिय करेइ, करिता कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एव वयासी - खिप्पामेव मणोरम सीयं उबडवेह, ते उबटूवेंति तएणं सक्के ३ आभिओगिए० खिप्पामेव अगखभ० जाव मणोरमं सीयं उवद्ववेह जावसावि सीया त चेवसीय अणुपविट्ठा ॥सू०३६ ॥
,
टीका- ' तेण कालेण ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये लोकश fast देवा ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टबिमानमतरे स्वकेषु स्वकेषु विमानेषु स्वकेषु
' तेण कालेन तेण समरण ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तेण कालेन तेण समएण) उम काल और उस समय में ( लोगतिना देवा नभलोए कप्पेरिहविमाण पत्थडे ) लोकान्तिक देवों के जो ब्रह्मलोक नाम के कल्प में स्थित रिष्ट विमान पावडे में वर्तमान
( तेण कालेन तेण समरण ) इत्यादि ।
टीअर्थ - (तेण कालेन तेण समरण) ते अणे अने ते समये (लोगतिया देवा लोए कप्पे रिविमाणपत्थडे ) सोति देवाने ओ નામના કલ્પમાસ્થિત ષ્ટિ પાથડામાં રહેલા
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ताधर्म स्वकेषु मासादायतसकेपु प्रत्येकर नथिः सामानिकमही , तिमभिः परिपडिः सप्तमिरनीकै =इस्त्यश्वस्थपदातिमहिपगन्नाटवरूपैः सप्तकटकैः सप्तमिरनीका धिपतिभिः, पोदशभिरात्मरक्षपदेवसासः, अयैत्र महभि शान्तिकैर्द वैः साध संपरिताः , 'महया' महता 'अहयनहगीययाइयरवेण ' अहत नृत्यगीतवादित्र रवेग-अहता अमतिहत , नृत्यगीतादिनाणा यो रवः = मधुरध्वनिम्तेन मोन भोगान-दिव्यमुखभोगान् भुताना विहरन्ति-भासते। तद्यथा तेपा नामान्याह
"सारस्सयमाइन्चा, वहि वस्णा य गहतोया य ।
सिया अन्यायाहा. अग्गिच्या चेवरिटा य॥१॥ " इति ॥ (१) सारस्वताः, (२) आदित्याः, (३) वह्नयः, (४) वरुणाच, (५) गांगो (सएहिं २ विमाणेहि, सरहिं २ पामायवडिसएहिं पत्तय २ चाहि सामाणियसाहस्सीहिं तिहि परिसाहिं सत्तहि अणिएहिं सत्तहिं अणि या हिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं पट्टहिं लोगत. एहि देहिं सहिं सपरिवुडा) अपने २ विमानों में रहे हुए अपने २ श्रेष्ठ प्रासादो में अलग २ चार २ हजार सामानिक देवों के साथ, तीन २ परिषदाओं के साथ, सात २ अनीको के साथ, सात २ अनीकाधिपतिया के साथ सोलह २ आत्म रक्षक देवों के साथ तथा और भी अन्य लोका न्तिक देवों के साथ रहते हैं (मया हयनदृगीयवाहय ,जाव रवेण दिव्वाइ भोगभोगाइ भुजमाणा विहरति ) एव जो नृत्य गीत, तथा बाजों की अप्रितिहत ध्वनि पूर्वक दिव्य भोगों भोगा करते हैं । (त जहा ) इन लौकान्तिक देवो के आठ भेद होते है वे आठ भेद ये हैं१ सारस्वत २ आदित्य, ३ घह्नि, ४ वरुण-५ गततोय, ६ तुषित
(सएहि, २ विमाणेहिं २ पासायवडिसएहिं पत्तेय २ चउहिं समाणिय साहस्सीहिं तिहि परिसाहिं सत्तहिं अणिएहि सत्तहिं अणियाहिबई हिं आयरक्ख देव साहस्सीहिं अन्नेहिं बर्हि लोगतएहि टेवे हि सहि स परिवुडा) ।
પિતપોતાના વિમાનમાના ઉત્તમ પ્રાસાદોમાં જુદા જુદા ચાર હજાર સામા નિક દેવાની સાથે, ત્રણ ત્રણ પરિષદાઓની સાથે, સાત સાત અનીકોની સાથે, સાત સાત અનીકાધિપતીઓની સાથે, સોળસેળ આત્મરક્ષક દેવેની સાથે તેમજ બીજા પણ લૌકાતિક દેવની સાથે રહે છે (महया हयनदृगीय वाइय जाव रवेण दियाइ भोगभोगाइ भुजमाणा विहर ति)
અને જેઓ નૃત્ય, ગીત તેમજ વાજા ઓની અપ્રહિત ખનિપૂર્વક દિવ્ય ભેગોને ઉપભેગ કરતા રહે છે (ના) આ લોકાતિક દવેના આઠ ભેદો હોય છે તે આ પ્રમાણે છે-૧ સારસ્વત. ૨ આદિત્ય, ૩ વણિ ૪ વરૂણ,
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका १० ८ मल्लीभगबहोक्षोरसपनिरूपणम् याथ, (६) तुपिताः, (७) अव्यावाधाः, (८) आग्नेयाश्च, एतेऽष्टौ कृष्णराज्य वकाशान्तरस्थायि-विमानाप्टकवासिनः, तथा (९) रिप्टाश्च = रिटाख्यविमानभवरवासिनः।
ततस्तदनन्तर खलु तेपा लोकान्तिकाना देवाना प्रत्येकर आसनानि चलन्ति तथैव यावत्-सौधर्मेन्द्रवदेवारधिं प्रयुञ्जते, प्रयुज्य मल्लीमहन्तमाभोगयति ततः खल्वे सकल्पः समुदपयत-मल्ली अर्ह निष्क्रमितुमिच्छति, एव मर्यादाऽस्ति ७ अव्यायाध ८ आग्नेय ये आठ लौकान्तिक देव कृष्ण राज्य भिन्न २ आठ विमानों में रहते है। तथा जो रिष्ट हैं वे रिष्ट नामक विमान प्रतर में रहते हैं । ( तएण ) सो (तेसिं लोयतियाण देवाण पत्तेय २ आसणाइ चलति) इन लौकान्तिक देवों के प्रत्येक के आसान करित हुए।
(तहेव जाव अर ताणं देवाण निक्खममाणाण सपोहणं करेत्तर त्ति त गच्छामोण अम्हे विमल्लिस्स अरओ सरोहण करेमि त्तिक? एव सपेहेंति ) अतः इन्हो ने सब ने अपने २ अरधिज्ञान से विचार किया कि हमारे आसन कपित क्यो हुए है सो जिस तरह से सौधमेन्द्र ने अपने आसन कपित होने का कारण जान लिया था उसी प्रकार इन्हों ने भी जोन लिया । इस तरह कारण जानकर इन्हों के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मल्ली अर्हन घर से निकल ने की-दीक्षा अगीकार करने की इच्छा कर रहे हैं सो हम लौकान्तिक देवों की ऐसी પ ગdય, ૬ તુષિત, છ અવ્યાબાધ, ૮ આગ્નેય એ આઠ કાતિક દેવ કૃષ્ણરાજ્ય જુદા જુદા આઠ વિમાનમાં રહે છે તેમજ જે રિન્ટ છે તેઓ रिट नाम विभान प्रतरमा २ छ (तएण ) तो भाप्रमाणे (तेसि लोयति याण देवाण पत्तेय २ आसणाइ चलति ) म ति: वामाथी हरेना આસને ડેલવા માડયા
(तहेब जाव अरहताण देवाण निक्खममाणाण सनोहण करेत्तए ति त गच्छा मोण अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ समोहण करेमि त्ति क? एन सपेहेति)
એટલા માટે આ બધા દેએ પિતપિતાના અવધિજ્ઞાન વડે વિચાર કર્યો કે અમારા આસને શા માટે છેલવા માડયા છે? તે જેમ ઈન્ડે પિતાના આસનને ટાલવાનુ કારણું જાણ્યું હતું તે પ્રમાણે આ બધાએ એ પણ જાણી લીધું
આ પ્રમાણે કારણની ખાત્રી કરીને તેમના મનમાં આ જાતને વિચાર ઉદ્દભવ્યું કે મલ્લી અર્ધન ઘેરથી નીકળી જવાની-દીક્ષા કરવાની ઈચ્છા કરી રહ્યા છે, તે આ સમયે અમારા જેવા બધા લેકાતિક દેવની એવી
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__ तापमेयर लोकान्तिकदेवानां, यद् अर्हता निष्कामता सयोधनं पर्तु मिति = दीक्षान्सर पोयितमित्यर्थः, तद्-तस्माद् गच्छाम सलु ययमपि मल या अईतो सगोपन कुर्म इति कृत्वा ५३ राप्रेक्षन्ते रिचारयन्ति समक्ष्य, उत्तरपौरम्त्य दिग्भागईशानकोणम् अक्कामन्ति, अवक्रम्य वैशियममुद्घातेन समवहति उत्तरक्रिय फुर्वन्ति । समपहत्य सरयातानि योजनानि यात्-दण्ड निःसारयन्ति, दम रत्नमय कुर्वन्ति-कृत्वा च एव यया जम्मका:-तम्भर देवद् देवलोकमम्बन्धि दिव्यगत्या यावत्-पौर मिथिला राजधानी यो कुम्भकस्य राज्ञो भवन यौव मल्ली अन् तत्रैवोपागच्छत्ति उपोगत्य अन्तरिक्षप्रतिपना' गगनस्थाः, सकि मर्यादा है कि वैराग्य की मन में भावना ज्यो ही तीर्थकरों को आवेतब उन्हें सबोधन करना-यह करना कि भगवान् । यर दीक्षा के लिये उचित अवसर है। इमलिये हम लोग भी चलें और मली अहेत को सपोधन करें। ऐसा विचार कर (उत्तरपुरत्यिम दिसीभाय अवक्क मति, अवस्कमित्ता उधियसमुग्यापणं समोहण ति, समोहणित्ता सखिज्जाइ जोयगाड एव जभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुभगस्स रपणो भवणे, जेणेच मल्ली अरता तेणेव उवागच्छति) वे सब के सब लोकान्तिक देव ईशान कोण में गये-वहा जाकर उहाँ ने वैक्रिय समुद्धात से उत्तर वैक्रिय की विकुर्वणाकी-विक्रर्वणो कर के उन्हीं ने अपने अत्मप्रदेशो को रत्नमय दण्डाकार रूप में बाहर निकाला। " याद में जभक देवों की तरह वे सब देव लोक सबन्धी उत्कृष्ट गति से जहा मिथिला राजधानी धी-उस में भी जहा कुभक राजा का भवन મર્યાદા (પ્રણાલિકા) હોય છે કે તીર્થ કરના મનમાં જ્યારે વૈરાગ્યની ભાવના ઉદ્દભવે કે તરત જ તેમને સ બેધન કરવુ–એટલે કે તેમને આ પ્રમાણે વિન તી કરવી કે હે ભગવન! દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને આ ઉચિત અવસર (સમય) છે એટલે અમે પણ ત્યા જઈએ અને તેઓને સ બેધન કરીએ આમ વિચાર કરીને
(उत्तर पुरथिम दिसीभाय अवक्कमति अवक्कमित्ता, वेउब्धिय समुग्धा एण समोहणति, समोहणित्ता, सखिज्जाड जोयणाइ एव जहा जभगा जाव जेणेव मिहिला जेणे कुभगस्स रण्णो भवणे, जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उबागच्छत्ति)
તેઓ બધા લૌકાતિક દે ઈશાન કેશુમા ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે વૈકીય સમુદ્રઘાતથી ઉત્તર વૈકિયની વિમુર્વણા કરી, વિબુર્વણા બાદ તેમણે પિતાના આત્મપ્રદેશને રત્નમય દાકાર રૂપમાં બહાર કાઢયા
ત્યારપછી જ ભક દેવોની જેમ તેઓ બધા દેવલેક સ બ ધી ઉત્કૃષ્ટગતિથી જ્યા મિથિલા રાજધાની હતી તેમાં પણ જ્યા કુભક રાજાને મહેલ અને અલી અહંત વિરાજમાન
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अनगारममृतवर्षिणी टीका अ० ८ मलीभगवद्दोक्षोत्सव निरूपणम्
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ङ्किणीकानि=क्षुद्रमण्टिर युक्तानि यावद् वस्त्राणि 'पनर परिडिया' मारेण विधिना परिहिताः दिव्यत्रधारिण इत्यर्थ, करतलपरिगृहीतदशनख शिर आवर्त मस्तकेsञ्जलिं कृत्वा ताभिरिष्टाभि कमनीयाभिर्वाग्भिरेवमवादीत् हे भगवन् । हे लोकनाथ ! ' बुज्झहि ' बोधय, भव्यजीवान् प्रवर्तय धर्मतीर्थचतुर्विसन्धरूप धर्म तीर्थप्रवर्तनस्य फरमाह- 'जीवाण' इत्यादि, जीवाना 'हीयसुहनिस्सेय सकर ' हितसुखनिश्रेयसकर, हितस्र - नरकनिगोदादि दुःखनिवारकत्वात्, था-उस में भी जहा मल्ली अर्हत विराजमान थे वहां आये । ( उवा गच्छित्ता अतलिक्स पडिवन्ना सखिखिणियाड जाव वत्थाइ पवरपरि हिया करयल० ताहिं इट्टाहिं जाव वग्गूहिं एव वयासी- गुज्झाहिं भयव । लोगनाहा पवन्ते हि धम्मतित्व जीवाण हियतुहनिस्सेयसकर भवि सह) वहां आकर भी वे नीचे नही उत्तरे किन्तु आकाशमें अधर खडेर बोले । उस समय उन्हों ने घडे सुन्दर वस्त्र जो कि क्षुद्र किंकिणियों से युक्त थे पहिर रखे थे । अवर रहे हुए ही उन्होंने दोनो रथकी अजुलि बना और उसे मस्तक पर रख वहीं से मल्लि अर्हत को नमस्कार किया बाद मे वडी मीठी मनोहर वाणियों द्वारा उन से इम प्रकार कहा- हे भगवान् हे लोक नाथ! भव्यजीवो को आप समझाओ चतुर्विध सरूप धर्मतीर्थ की आप प्रवृति करो। इससे जीवों नरक निगोद आदि के दुखो से छुटकर वह धर्मेतीर्थ हितकारी होगा | स्वर्ग आदि
1
( उवागच्छित्ता अत लिक्वपडिवन्ना सखिखिणियाड जान चत्थाइ पवर परिहिया करयल ताहिं हाहिं जाव वग्गूहिं एव वयासी युज्झाहिं भयव ' कोगनाहा पत्तेर्हि धम्मतित्थ जीवाण हिय सुय निस्सेयसकर' भविस्सर )
ત્યા પહેાચીને તે નીચે ઉતર્યાં નહિ પણુ આકાશમાં જ અદ્ભૂર ઊભા રહીને ખેલ્યા-દેવાએ તે વખતે સુદર વજ્રા પહેરેલા હન' તેમના વસ્ત્રો નાની નાની ઘૂઘરીઓથી રોાભતા હતા આકાશમા અદ્ધર રહીને જ તેએાએ પેાતાના અને હાથેાની અજલી મનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને ત્યાથી જ મલ્લી અહું તને નમસ્કાર કર્યો ત્યારપછી ખૂબ જ મીઠા અને મનેાહર વચના દ્વારા તેએ તેમને વિનતી કશ્તા હેવા લાગ્યા- હે ભગવન । હૈ લોકનાથ ! તમે ભવ્યજીવેાને જ્ઞાન આપે! ચતુર્વિધ સ૬ ૩૫ ધર્મતીર્થની તમે પ્રવૃત્તિ કરા એનાથી જીવેાને નરક નિગેા વગેરેના દુખેાથી મુક્ત કરાવીને હિતકારી ધમ તીર્થ' તરફ તેમને દન્મુખ કરી તે ધર્મતીર્થં તે લેના માટે સ્વગ વગેરેના અસદ ( અતીવ ) માનદ આપનાર હોવાથી સુખકર થશે તેમજ મુક્તિ
हा ६६
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सोकान्तिदेवानां, यद् अर्हता पोयितमित्यर्थः, तद्-तस्माद् गन फुर्म इति कृत्वा एर संप्रेक्षन्ते-पि ईशानकोणम् अवकाति, अवक्रम्य फुर्वन्ति । समनहत्य सरयातानि यो रत्नमय फुति-कृत्वा च एव यथा दिव्यगत्या यावत्-यौर मिथिला राज मल्लो अनि तत्रैकोपागच्छति आगर मर्यादा है कि वैराग्य की मन में - तय उन्हें सबोधन करना-यह कहन उनित अवसर है। इमलिये हम लं सपोधन करें। ऐसा विचार कर ( मति, अवस्कमित्ता चेउवियसम सखिज्जाइ जोयगाइ एव जमगा . कुभगस्स रण्णो भवणे, जेणे मर सब के सब लोकान्तिक देव ईशान वैक्रिय समुद्धात से उत्तर वैक्रिय की ने अपने अत्मप्रदेशो को रत्नमय * याद में ज़भक देवों की तरह से जहा मिथिला राजधानी थीभयो। ( प्रालित) डाय है। ઉદ્દભવે કે તરત જ તેમને સ બાધ કરવી કે હે ભગવન! દીક્ષા ગ્રહ એટલે અમે પણ ત્યા જઈએ અને
(उत्तर पुरथिम दिसीभाय पण समोणति, समोहणित्ता, सा मिहिला जेणेन कुभगस्स रण्णो
તેઓ બધા લૌકાતિક વૈકીય સમુદ્રઘાતથી ઉત્તર દે આત્મપ્રદેશોને રતનમય દડા
ત્યારપછી ઝલક દે યા મિથિલા રાજધાની મલ્લી અર્હત વિરાજમાન
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अनगारधर्मामृतवाणी टी० अ० ८ मल्लीमगरीक्षोत्मनिरूपणम् ५५३ केञ्जलिं कृत्वा, एवमवादीत-इच्छामि ग्बल हे अन्न ! हे तात ! युष्माभिरभ्य. नुज्ञातः सन् मुण्डो भूत्वा यावत् प्राजितुम् , मातापितरायचतु:-हे देवानुपिय ! यथासुख भवेत तथा कुरु, मा प्रतिनन्ध-विलम्म मा कुरु । ततः मल्लीमहन्त मेवमुक्त्वा, खलु स कुम्भकः कोटुम्पिकपुरुपान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमगादीव क्षिपगेवाप्टसहसम्-अष्टाधिकसहस्र(१००८) सौगनिशाना यावद० अत्र यावदित्य थे-वहां आये । वहा आकर उन्शे ने पहिले उन्हें दोनों हाथ जोड कर चरणों में नमस्कार किया। बाद में वे घोले-कि हे अम्ब हे तात ! मैं आप लोगो से आज्ञा लेकर मडित हो वायत् दीक्षा लेना चोरनी हुआ पकी आज्ञासे मुझे दीक्षा लेना है इस प्रकार भरली अरिहतकी बात सुन कर उन के माता पिता दोनो ने उन से " यथासुख दवानुपिय।" जैसे तुम्हें सुख हो-नुम वैसा करो-रेरी मत करो ऐसा कहा । (तएण कुभए कोविय पुरिसे दावेड, सद्दारिता एवं व्याप्ती खिप्पामेव अह सहस्स सोपणियाण जाय भोमेज्जाणति, अण्ण च महत्व जाव तित्ययराभिसेय उवट्ठवेह जाय उवोति ) इस के बाद कुमक राजाने अपने कौटुमित्रक पुरूपों को बुलाया और बुला कर उनसे ऐसा कहा-हे देवानु प्रियो ! तुम लेग शीघ्र ही १००८ सुवर्ण निमित कलशों को रूप्यम कलशोको मगिमय करशों को सुवर्ण रुप्य निर्मित कलशोंको, सुवर्ण मणि निर्मित कठशो को, रूप्यमगि निर्मित कलशों को, स्वर्ण, માતાપિતાના ચરણોમાં નમાર કર્યા ત્યારબાદ તેઓ કહેવા લાગ્યા કે હે માતાપિતા ! હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને મુડિત થઇને નીક્ષા ગ્રહણ કરવા ચાહુ છુ ” મતલી અહંતના મથી આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને તેમના માતા પિતાઓએ તેમને કહ્યુ “યથાસુખ દેવાનુપ્રિય ! ” એટલે કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમને જેમ સુખ પ્રાપ્ત થાય તેમ કરે અને મોડુ કરે નહિ
(तएण कुभए कोडुपिपपुरिसे सदावे, सावित्ता एव पयासी खिप्पामेव असहस्स मोवणियाण जाव भोमेज्जाणति, अण्ण च महत्व जाच तित्थयराभिसेय उवढह जाय उपाति)
ત્યારપછી કુભક જાએ પિતા કોટુંબિક પુરોને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે લેકે સત્વરે એક
१२ ० (१००८) सोनाना , या-14t , मणिमय 21, સોના અને ચાદીથી બનાવેલા કળશે, તેના અને મણિએથી મનાવવામાં
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আমাৰ मुखकर स्वर्गाधमन्दानन्दजनमत्त्वात् , निलयसार-मोक्षमापरत्वात् , मविप तीति कत्वा-उपत्या, द्वितीयवारमपि, तृतीमारमपि एक बदन्ति, उक्त्वा, मल्लीम् अन्त वन्दन्ते नमस्यन्ति, पन्दित्वा नत्ग यस्या पर दिश प्रादुर्भूतास्तामेव प्रतिगताः।
वतस्तदनन्तर ग्यलु मल्ली अहन तै कान्तिीः सबोधितः मन् योव मातापितरौ तत्रैवोपागच्छति, उपागस्य परत-परिग्रहीत दगनम शिरावर्त मस्त का अमन्द अत्यन्त अनन्द का प्रदाता होने से पर र्मितीर्थ उन्हें सुख कर होगा। तथा मुक्ति प्राप्ति का कारण रोने से वह धर्मतीर्थ उन भव्य जीवों को निःश्रेयसकर होगा (तिकदृद्ध दोच्चपि तच्चपि एव वयति, वयित्ता मल्लि अरह वदति, नमसति, वदित्ता नमित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पदिगया ) इस प्रकार कर कर उन लोकान्तिक देवों ने दुवारा तथा तिवारा भी ऐसा ही कहा-कर कर फिर उन्हों ने मल्ली अरिहत को वदना की-नमस्कार किया । वदना नमस्कार करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की तरफ चले गये।
(तएण मल्ली अरहा तेहिं लोगतिहिं देवे हिं सघोहिए समाणे जेणेव अम्मा पियरोतेणेय उवागच्छति-उवागच्छित्ता करयल इच्छामि ण अम्मयाओ। तुम्भेहिं अभYण्णाए ममाणे मुडे भवित्ता जाव पन्ना त्तए, अहातुर देवाणु०मा पडियध करेहि ) इस प्रकार उन लोकान्तिक देवों द्वारा सबोधित होते हुए वे मल्ली अरहत जहा अपने माता पिता મેળવવાનું કારણ હવા બદલ તે ધમતી તે ભવ્ય આના માટે નિ શ્રેયસ્કર થશે
(विक दोच्चपि । यति, चयिता मल्लि अरह ग्दति, नमसति, वदित्ता नमसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया)
આ રીતે કહીને તે લોકાતિક દેએ બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ પ્રમાણે જ વિનતી કરી વિનતી કરીને મલી અહં તને તે દેએ વદન અને નમસ્કાર કર્યા વદના અને નમસ્કાર કરીને તેઓ જે દિશા તરફથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ જ જતા રહ્યા
(तएण मल्ली अरहा तेहि लोगतिएहिं देवेहि सबोहिए समाणे जेणेत्र अम्मापियरो तेणेव उवागन्छति-उवागच्छित्ता करयल० इच्छामि ण अम्मयाओं तुम्भेहिं अभणुण्णाए समाणे मुडे भवित्ता जाव पव्वइत्तए, अहा मुह देवाणु० मा पडिबध करेदि)
આ પ્રમાણે લોકાતિક દે વડે સ બોધિત થતા મલિન અહત ન્યાત પિતાના માતાપિતા હતા ત્યા આવ્યા ત્યાં આવીને તેઓએ સૌ પહેલા પોતાના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० ८ मल्लीभगनीक्षोत्मनिरूपणम्
safe कृपा, एमवादीत् इच्छामि तु हे अम्ब ! हे तात ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् मुण्डो भूत्वा यावत् मनजितुम्, मातापितरावृचतु. - हे देवानुमिय! यथासुख भवेत् तथा कुरु मा प्रतिनन्ध= विलम्ब मा कुरु । ततः = मल्लीमहन्त मेवमुक्त्वा, खलु स कुम्भफ. कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयिला एवमनादीत् सिमवाट सह-अष्टाधित्सहस्र (२००८) सौपशिना यावद० अत्र यावदित्य
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थे वहा आये । वहा आकर उन्होने पहिले उन्हें दोनों हाथ जोड कर चरणों में नमस्कार किया। नाद में वे बोले कि हे अम्न हे तात ! मैं आप लोगो से आज्ञा लेकर मंडित हो यावत् दीक्षा लेना चाहती हूँ आ पकी आज्ञा से मुझे दीक्षा लेना है इस प्रकार मरली अरिहत की बात सुन कर उनके माता पिता दोनो ने उन से “ वासुख देवानुप्रिय | जैसे तुम्हें खुस हो तुम वैसा करो - देवरी मत करो ऐसा कहा । (तएण कुभएको नि पुरिसे नावे, सद्दावित्ता एव वयासी खिप्पामेव अह सहस्स सोवणियाण जाव भोमेज्जाणति, अण्ण च महत्य जाव - तित्ययराभिसेय उबट्टवेर जाब उबटूवेंति ) इस के बाद कुमक राजाने अपने कौटुम्बिक पुरूषों को बुलाया और बुला कर उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही १००८ सुवर्ण निमित कलशों को रूप्यमत्र कलशोको मणिमय कदशों का सुवर्ण रुप्य निर्मित कलशोंको, सुवर्ण मणि निर्मित कउशो को, स्यमगि निर्मित कलशों को, स्त्रर्ण,
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માતાપિતાના ચરણામા નમસ્કાર કર્યાં ત્યારબાદ તે કહેવા લાગ્યા કે હૈ માતાપિતા હુ તનારી આજ્ઞા મેળવીને મુક્તિ થઈને દીક્ષા ગ્રહણુ કરવા ચાહું છુ ” મલી અર્હતના ખેથી આ પ્રમાણે વાત સાભળીને તેમના માતા પિતાએ તેમને કહ્યુ યથાસુખ દેવાનુપ્રિય !” એટલે કે હે દેવાપ્રિયે ! તમને જેમ સુખ પ્રાપ્ત થાય તેમ કરી અને મેડુ કરે નહે
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( तएण कुमार मोहरियपुरिसे सदा समवित्त एव नामी खिप्पामेव अट्टसहस्स सोणियाण जात्र भोमेज्जाणति, अण्ण च महत्थ जाव तित्थय राभिसेय उववेह जाव उपहति )
ત્યારપછી કુભ રાજાએ પેાતા ! ખેાલાવીને તેમને આ પ્રમણે કહ્યુ કે હે उत्तर आ० (१००८) सोनाना जशी સેના અને ચાદીથી બનાવેલા કળશે,
કૌટુબિક પુરૂને લાવ્યા અને દેવાનુપ્રિયા ' તમે લેકે સત્વરે એક यानीना आशो, मणिमय जशी મેના અને મણિએથી માતાવામા
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साधकथा नेनेद योध्यम्-रूप्यमयाणा, मणिमयाना, सुवर्णरूप्यनिर्मिताना तर्णिमनिनिर्मि ताना, रूप्यमणिनिर्मिताना, स्वर्णरूप्यरत्नमयानामिति । भौमेयानाम् पार्थिवाना घटानामिति अन्यच्च महार्य यावत्-तीर्थकरामिषेयम् तीर्थकरनिष्क्रमणाभिषेक साधनम् ' उवट्ठवेह ' उपस्थापयत, प्रापयत, यारत्-उपस्थापयन्ति । __ तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरोऽमरेन्द्र यापद-अन्युत पर्यवसाना:चमरेन्द्रादारभ्याच्युतेन्द्रपर्यन्ताश्चतुः पष्टि सरयका इन्द्राः, आगताः । ततस्त दनन्तर खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराज मोधर्मन्द्र , आभियोगिकार देवान शब्दपति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-सिममेनाप्टसहस्र सौर्णिकानां यावत्-अन्यच्च तद् रूप्य, मणि निर्मित कलशों को मिट्टी के कलशों को तो और भी महा र्थ-महा प्रयोजन साधक भूत-तीर्थ कर-निष्क्रमणाभिषेक (दिक्षाके) साधनों को उपस्थित करो । राजा की इस प्रकार आजा प्राप्त कर उन लोगो ने आजानुसार सप साधनो को उपस्थित कर दिया।
(तेण कालेण तेण समएण चमरे असुरिंदे जाव भच्चुयपज्जव साणा आगयो, तएण सस्के ३ आभियोगिए देवे सदावेह, सहोवित्ता एव वयासी) उस काल में और उस समय में चरमेन्द्र से लेकर अच्यु तेन्द्र पर्यन्त ६४ इन्द्र आ गये। इस के अनन्तर शक देवेन्द्र देव राज ने-सौधर्मेन्द्र ने-आभियोगिक देवों को बुलाया-और बुलोकर उन से इस प्रकार कहा-(खिप्पामेवअट्टसरस्म सोपणियोण जाव अण्ण च त विउल उववेह, जाव उचट्ठति ) तुम लोग शीघ्र ही १००८, सुवर्ण आदि के निमित्त कलशो को तथा और भी विपुल मात्रा में तीर्थकर આવેલા તળશે, સેના ચાદી અને મણિએથી બનાવેલા કળશ, માટીના કળશે તેમજ બીજા પણ મહાઈ–મહાપ્રજને સાધડભૂત-તીર્થ કર નિષ્કમણુભિષેકના સાધન લાવે રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા મેળવીને તેઓએ આજ્ઞા મુજબ બધા સાધને લઈ આવ્યા
(तेण कालेण तेण समएण चमरे असुरिंदे जाव अच्चूयपज्जवसाणा आगया, तएण सक्के ३ अभियोगिए देवे सदावेड, सदावित्ता एव पयासी)
તે કાળે અને તે સમયે ચરમેન્દ્રથી માંડીને અશ્રુતેન્દ્ર સુધીના ચસકે ઈન્દ્રો આવી પહેચ્યા
ત્યારબાદ શક દેવેન્દ્ર અને દેવરાજે-ૌધ આભિયૌગિક દેવને બે લાગ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે(खिप्पामेव असहस्स सोवणियाण जाव अण्ण च त विउल उववेह जाव उवट्ठवेति) તમે લોકો સવારે એક હજાર આઠ (૧૦૦૮) સેના વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા કળશે તેમજ બીજા પણ તીર્થ કરના અભિષેક માટેના મા "
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अंनगारधर्मामृतवाणी टीका अ० ८ मल्लीभगयहीक्षोलवनिरूपणम् ५२६ विपुल तीर्थकराभिषेकमावनमुपस्थापयत, यावद्-उपस्थापयन्ति । तेऽपिदेवोपस्थापिताः सर्वेऽपि कलशास्तानेर-कुम्भकोपस्थापितानेव कलशान अनुप्रविष्टा', दिव्याः कलशा दिव्यानुभावेन कुम्भक कलशेष प्रविष्टास्तेन कुम्भकलशाना शोभतिशय सजात इति भावः।
ततस्तदन्तर खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः कुम्भको राजा च मल्लोमन्ति सिंहासने पौरस्त्याभिमुख-पर्पदिशाऽभिमुख निवेशयति-उपवेशयति । अष्टसा. रेणअष्टाधिकसहस्रण, सौवर्णिकाना यावत् अभिपिश्चति, अष्टाधिकसहस्रसख्यकैः प्रत्येक कलश सौवर्णिकादि स्नपयतीत्यर्थ ततस्तदनन्तर खलु मल्ल्या भगवतोके अभिषेक के साधनों को उपस्थित करो। उन सय ने वैसा ही किया। (ते वि कल सा तेचेव कलसे अणुपविट्ठा, ताण से सक्के देविंदे देवराया कुभराया घ मल्लि अरह मीहाप्तणं पुरत्याभिमुह निवेसेह) इस तरह कुमक राजा द्वारा उपस्थापित कलशों के साथ २ वे सब दिव्य कलशएक जगह मिलाकर रख दिये गये।
इससे कुभक राजा के कलशो की शोभा और अधिक बढ गई। बाद में शक देवेन्द्र देवराज ने और कुमक राजा ने मल्ली अर्हन्त को सिंहासनके उपर पूर्वाभिमुख करके बैठा दिया। (अट्टसरस्सेण सोवपिण याण जाव अभिसिंचा, तएण मल्लीस्स भगवओ अभिसेए वहमाणे अप्पेगइया, देवा मिहिल च समितरवाहिरिय जाव सचओ समता परिधावति ) बैठा ने के बाद फिर उन्हों ने उन१००८, सुवर्ण आदि केप्रत्येक कलशों से उनका अभिषेक किया। પ્રમાણમા લાવે તેઓ બધાએ તેમ જ કર્યું
(ते शिकलमा ते चेत्र कलसे अणुपविठ्ठा, तएण से सक्के देविंदे देवराया कुभराया य मल्लि अरह सीहासण पुरत्याभिमुह निवेसेह)
આ રીતે કુંભકરાજા વડે મૂકાએલા ળશેની સાથે જ તે દિવ્ય કળશે પણ એક જ સ્થાને ગોઠવી દીધા
એનાથી કુભક રાજના કળશેની શોભા ખૂબ જ વધી ગઈ ત્યાર પછી શક દેવેન્દ્ર દેવરાજ અને કુભક રાજાએ મલી અહં તને સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ મે રાખીને બેસાડી દીધા
( अट्ठ सहस्सेण सोवणियाण जाव अभिमिंचा, तएण मल्लिस्स भगवयो अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया, देवा मिहिल च सभितरवाहिरिय जाय सबओ समता परिधानति)
બેસાડીને તેઓએ એક હજાર આઠ નોન વગેરેના દરેકે દરેક કળશથી તેમને અભિષેક કર્યો
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ताधर्मकथा नेनेद योध्यम्-रूप्यमयाणा, मणिमयानां, सुपर्णम्प्यनिर्मिताना तुपर्णमनिनिमि ताना, रूप्यमणिनिर्मिताना, स्वर्णरूप्यरत्नमयानामिति । भामेयानाम् पार्षिवाना घटानामिति अन्यन्च महार्य यात्-तीर्थकराभिषेकम् तीयकरनिष्क्रमणाभिषेक साधनम् ' उवट्ठवेह ' उपस्थापयत, प्रापयत, यावत्-उपस्थापयन्ति ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरोऽमरेन्द्रः यापद्-अच्युत पर्यवसानाचमरेन्द्रादारभ्याच्यतेन्द्रपर्यन्तायतुः पष्टि सख्यका इन्द्राः, आगताः । ततस्त दनन्तर खलु शक्नो देवेन्द्रो देवराज'मोधर्मेन्द्र, आभियोगिकान् टेपान धन्दयति, शन्दयित्वा एवमवादीन-क्षिममेवाप्टसहस सौवर्णिकानां यात्-अन्यन्च तद् रूप्य, मणि निर्मित कलशों को मिट्टी के कलशों को तथा और भीमहा र्थ-महा प्रयोजन साधक भूत-तीर्थ कर-निष्क्रमणाभिषेक (दिक्षाके) साधनों को उपस्थित करो। राजा की इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर उन लोगो ने आज्ञानुसार सय साधनो को उपस्थित फर दिया।
(तेण कालेण तेण समएण चमरे असुरिदे जाव अच्चुयपज्जव साणा आगयो, तएण सरके ३ आभियोगिए देवे सदावेड, सदोवित्ता एव वयासी) उस काल में और उस समय में चरमेन्द्र से लेकर अच्यु तेन्द्र पर्यन्त ६४ इन्द्र आ गये। इस के अनन्तर शक देवेन्द्र देव राज ने-सौधर्मेन्द्र ने-आभियोगिक देवों को धुलाया-और वुलोकर उन से इस प्रकार कहा-(खिप्पामेवअसारस्त सोचणियोण जाव अण्ण च त विउल उववेह, जाव उवहति ) तुम लोग शीघ्र ही १००८, सुवर्ण आदि के निमित्त कलशो को तथा और भी विपुल मात्रा में तीर्थकर આવેલા કળશે, સોના ચાંદી અને મણિઓથી બનાવેલા કળશે, માટીના કળશ તેમજ બીજા પણ મહાઈ–મહાપ્રયજન સાધભૂત-તીર્થ કર નિષ્કમણાભિષેકના સાધને લાવે રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા મેળવીને તેઓએ આજ્ઞા મુજબજ બધા સાધને લઈ આવ્યા
(तेण कालेण तेण समएण चमरे सुरिंदे जाव अच्चूयपज्जवसाणा आगया, तएण सक्के ३ अभियोगिए देवे सदावेड, सदाचित्ता एव पयासी)
તે કાળે અને તે સમયે ચરમેન્દ્રથી માંડીને અમ્યુકેન્દ્ર સુધીના ચોસઠ ઈદ્રો આવી પહોંચ્યા
ત્યારબાદ શક્ર દેવેન્દ્ર અને દેવરાજે-સૌધર્મોન અભિયૌગિક દેને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (खिप्पामेव अट्टसहस्स सोवणियाण जाव अण्ण च त विउल उवटवेह जाव उपवेति) તમે લેકે સવારે એક હજાર આઠ ( ૧૦૦૮) સેના વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા કળશે તેમજ બીજા પણ તીથ કરોના અભિષેક માટેના માધ
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अनगारधर्मामुपपणी टीका थ० ८ मल्लीभगवोक्षोत्सवनिरूपणम्
न्द्रो देवराज - आभियोग्यान् देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा एनमवादीत् - हे देवा नुप्रिया | क्षिप्रमेव ' अणेगखभ० जान मणोरम सीय उपवेद ' अनेकस्तम्भशत सनिविष्टां यावद् - मनोरमा शिविकाम् उपस्थापयत, यानत् सापि शक्रो देवेन्द्रो पस्तापितापि शिविका तामेव कुम्भ कोपस्थापितामेवशिविकामनुप्रविष्टा दिव्यानुभावेनेति भावः । सू० ३८ ॥
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मूलम् - तएण मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुट्टेइ अभुद्विता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मणोरम सीय अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरम सीय दुरूहड, दुरुहित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाहिमुहे सन्निसन्ने, तएण कुभए अट्टारस सेणिप्पसेणीओ सहावे सदावित्ता एव वयासी - तुम्भे णं देवाणुप्पिया । पहाया जाव सव्चालकारविभूसिया मल्लिस सीय परिवहह जाव परिवहति तएण मक्के दाबदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्ल उवरिल वाह गण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्ल गेण्हइ, चमरे दाहिणिल्ल हेट्टिल्ल, वली उत्तरिल्लं हेट्ठिल्ल, अवसेसा देवा जहारिह मणोरम सीय परिवहति । ' पुठित्र उक्खित्ता माणुस्सेहि तो हहरोमकूवेहि । पच्छावहति सीय, असुरिदसुरिद नागिंदा ॥ १ ॥ चचवलकुडलधरा, देवराज ने भी अभियोगिक देवों को बुलाया और उनसे अनेक स्तम्भ शत युक्त शिक्षिका ( पालखी) ले आने को कहा - उन्होंने भी शीघ्र वैसी ही शिबिका (पालखी) लाकर वहाँ उपस्थित कर दी। वह शिबिका अपने दिव्य प्रभाव से कुभक राजाकी शिक्षिका के साथ मिल गई। सूत्र ३८
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"
શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે પણ આભિયેાનિક દેવેશને મેલાવ્યા અને તેમને સેકડા થાભલાએવાળી પાલખી લાવવાના હુકમ કર્યાં તે લેકે પણ સત્વરે પાર્લખી લઈ આવ્યા દેવરાજની તે પાલખી પેાતાની દિગ્ધ પ્રભાથી કુંભક રાજાની પાલખી સાથે ભળી ગઈ 11 24" / " I
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भिषेके वर्तमानेऽप्येकका अप्येके केचन देना. मिथिला राजधानी व साम न्तर चापअन्तर्गहिच यारद-सपर्तः समन्तान दिनु विदिक्षु परिधावनिक हातिशयेन कुर्दन्ति स्म । ततस्तदनन्तर कुम्भोगमा द्वितीयवारमपि उका पक्कमण' उत्तरावक्रमणम्-उत्तराभिमुख मल्ली निवेश्य यावत्-सलिङ्कारविभूषियों करोति । कृत्वा, कौटुम्बिापुरुषान् शन्दयति, शब्दयिरमा, पामरादीव-रे देवा नुभियाः। सिप्रमेव मनोरमा शिरिकामुपस्थापयत । ततस्तदनन्तर खलु शक्रो देखें
इस प्रकार जय मल्ही अहंत का अभिषेक होरराथा-तब कितनेक देव हातिशयके वशवर्ती होकर मिथिला नगरीमें भीतर और बहार सब ओर-इधर से उधर कृद रहे थे । (तरण कुभा राया दोच्चपि उसराव क्कमण जाच सवालकारविभूसिय करेइ करिता फोधिधारिसे सहावे सदायित्ता एव क्यासी)जन अभिपेरुमिायासमातरो चुकी-तब कुभक राजाने दूसरी पार फिर मल्ली अरिहन को पूर्व की ओर मुग्व करके सिंग सन पर बैठाया और उन्हें समस्त अलकारो से विभूषित किया बाद में कौटुम्यिक पुरुषों को बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(खिप्पामेवमनोरम सा य उवट्ठवेर, ते उचट्ठति तएण सक्के । आभियागिए • विप्पामेव अणेव खभ ० जाव मनोरम सीय उचढवेह जाव मा वि सीया ताबच सीय अणुपविठ्ठा) तुमलोग शीघ्रही अनेक स्तम्भ शत युक्त एक शिक्षिका को उपस्थिन करो- उन लोगों ने भी राजा की आज्ञानुसार शीघ्र वैसीही शिविका लाकर उपस्थित कर दी। इस के अनन्तर शक देवेन्द्र
આ પ્રમાણે જ્યારે આબાજુ મલ્લી અર્હતનો અભિષેક થઈ રહ્યો હતે ત્યારે મિથિલા નગરીની બહાર અને અ દર ચોમેર હર્ષાતિરેકથી કેટલાક દેવતાએ આમતેમ દૂર રહ્યા હતા
(तएण कुभए राग दोच्चपि उत्तरावकमण जार सन्यालकारविभूसिय करे। करिता कोडवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एस क्यासी)
જ્યારે અભિષેકની વિધિ પૂરી થઈ ત્યારે કુ ભક રાજાએ બીજી વખત મલી અહ તને પૂર્વની તરફ મો રાખીને બેસાડયા અને તેમને બધા ઘરે ણાઓથી શણગાર્યા ત્યારપછી કૌટુંબિક પુરૂને બેલાવીને તેને હુકમ કર્યો કે : (विप्पामेव मनोरम सीय उववेह, ते उपद्धति, तएण सक्के ३ आभियो (गिए० खिप्पामेव अग्रेग खभ० जाव मनोरम सीय उवट्टवेह नाव सावि सीया त चेव सीय अणुपचिट्ठा) તમે લોકો સેકડો થાભલાઓવાળી એક પાલખી સત્વરે લો મૈટુ બિક
પરબાદ પુરૂષે પણ જલદીથી રાજાની આજ્ઞા મુજબ પાલખી લઈ આ
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अनगारधर्मामृतपपिणी टीका २० ८ मल्लीभगबहोक्षोत्सवनिरूपणम् ५२७ न्द्रो देवरान -आभियोग्यान् देवान् शब्दयति, गदायित्वा, एमवादीत्-हे देवा नुप्रिया । सिममेव ' अणेगखभजाव मणोरम सीय उवहवेह ' अनेकस्तम्भशत सनिविप्टा यावद्-मनोरमा शिविकाम् उपस्थापयत, यावत् सापि शक्रो देवेन्द्रो पस्तापितापि शिविका तामेव-कुम्भकोपस्थापितामेवशिविकामनुपविष्टा दिव्यानुभावेनेति भावः । १.३८ ।
मलम्-तएण मल्ली अरहा सीहासणाओ अव्भुदेइ अभु. ट्रित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मणोरम सीय अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरमं सीय दुरूहह, दुरुहित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाहिमुहे सन्निसन्ने, तएण कुभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ सदावित्ता एव वयासीतुम्भे णं देवाणुप्पिया । पहाया जाव सव्वालकारविभूसिया मल्लिस्स सीय परिवहह जात्र परिवहति, तएण मकं दावदे देवराया मणा माए दक्खिणिल्ल उल्लि वाह गण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं गेण्हइ, चमरे दाहिणिल्ल हट्रिल्ल, वली उत्तरिल्ल हेटिल्ल, अवसेसा देवा जहारिह मणोरम सीय परिवहति । 'पुनि उक्खित्ता माणुस्सेहि तो हरोमकूवेहि । पच्छावहति सीयं, असुरिंदसुरिद नागिंदा ॥ १ ॥ चलववलकुडलधरा, देवराज ने भी आभियोगिक देवों को बुलाया और उनसे अनेक स्तम्भशत युक्त शियिका (पालखी)ले आने को करा-उन्होंने भी शीघ्र वैसी ही शिपिका(पालखी)लाकर वहां उपस्थित कर दी। वह शिविका अपने दिव्य प्रभाव से कुभक राजाकी शिपिका के साथ मिल गई। सूत्र" ३८" શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે પણ આભિનિક દેવેને બોલાવ્યા અને તેમને મેકડે થાભલાઓવાળી પાલખી લાવવાને હુકમ કર્યો તે લોકો પણ સત્વરે પાલખી લઈ આવ્યા દેવરાજની તે પાલખી પિતાની દિવ્ય પ્રભાથી કુભક રાજાની पातमी साथे सजी ७ ॥ सूत्र " ३८" ॥
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माताधर्मा सच्छदविउब्बियाभरणधारी । दोविंददाणविंदावहति सीय जिणिदस्स ॥ २॥" तएण मल्लिस्स अरहओ मणोरम सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्टमंगलगा पुरओ अहाणुपुबीए संपट्रिया एव निग्गमो जहा जमालिस्स, तरण मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पे०देवा मिहिल मभिः तरवाहिरियं आसियसमन्जिओवलितं जहा उववाईए जाव परिधावति, तएण मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उजाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता आभरणालकारं मुंचइ, त पभावई पडिच्छई । तएण मल्ली अरहा सयमेव पचमुट्रियं लोय करेइ । तएणंसके देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे पविखवइ । तएणं मल्लो अरहा 'णमोऽत्थुर्ण सिद्धाण तिकटु सामाइयचरितं पडिवजइ, जं समय व णं मल्ली अरहा चरित्त पडिबजइ तं समयं च णं देवाण माणुस्साण य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवाइयनिग्घोसे य सकस्स वेयण सदेसेण णिलके यावि होत्था। ज समय वर्ण मल्ली अरहा सामाइय चरित्त पडिवनंत समय च णं मल्लिस्स अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपजवनाणे समुप्पन्ने । मल्लीणं अरहा जे से हेमताणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे, तस्त गं पोससुद्धस्स एकारसीपक्खेणं पुवण्हकाल. समयसि अहमेणं भत्तेण अपाणएणं यस्मिणीहि नक्वत्तेणं
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भनगारधर्मामृतपिणी टोका अ० ८ मल्लीभगवदीक्षोस्तवनिरूपणम ५२९ जोगमुवागएणं तिहि इत्थीसएहि अभितरियाए परिसाए, तिहि पुरिससएहि वाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुडे भवित्ता पन्वइए । मल्लि अरहं इमे अट्ट रायकुमारा अणुपवइसु-तं जहा -" णंदेय णदिमित्ते सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य। अमरवइ, अमरसेणे, महसेणे, चेव अट्ठमए ॥१॥” तएणं से भवणवइ४ मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिम करेंति, करित्ता जेणेव नंदी सरवरे० अट्टाहिय करेंति करित्ता जाव पडिगया। तएण मल्ली अरहा जं चेव दिवस पव्वाइए तस्सेव दिवसस्स वरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासनसवरगयस्स हेण परिणामेणं पसत्थेहि अज्झवसाणेहि पसस्थाहि लेसाहि विसुज्झमाणीहि तयावरणकम्मरयविकरणकर अपुवकरणं अनुपविट्टरस अणंते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ॥ सू० ३९ ॥
टीमा-तएण मल्ली' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु मल्ली अहन सिंहासना दभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय यत्रैव मनोरमाशिपिका तत्रोपागच्छति, उपागत्य मनोरमा शिपिका 'अणुपयाहिणी परेमाणा' अणुप्रदक्षिणी कुर्वाणा-आनुल्येन
तएण मरली अरहा-इत्यादि ।' टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुट्टेइ) मल्ली अहंत सिंहासन से उठे (अन्भुद्वित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मणोरम मीय अणुपयादिणी करेमाणा मणो रम सीय दुरुरइ, दरहित्ता सोसणवरगये पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने)
" तएण मल्ली अरहा" इत्यादि _ -'तपण) त्या२६ (मल्ली अहा सीहासणाओ अव्भुट्टेइ) भी मत સિંહાસન ઉપરથી ઉભા થયા
( अन्भुट्टित्ता जेणेच मणोरमा सीया तेणेव उवागन्छ।, उवागच्छित्ता मणोरम सीय अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरम सीय दुरूहित्ता सीदासगवरगए पुरत्यामि मुहे सन्निसन्नेि)
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जाताजा
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सच्छदवि उव्वियाभरणधारी । देविददाणविंदावहति सीय जिणिदस्स ॥ २ ॥ " तएण मल्लिस्स अरहओ मणोरम सीय दुरूढस्स समाणस्स तपढमयाए इमे अट्टमंगलगा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया एवं निग्गमो जहा जमालिस, तपर्ण मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पे० देवा मिहिल मभितरबाहिरियं आसियसंमज्जिवलित्तं जहा उनवाईए जान परिधावनि, तएण मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता आभरणालकारं मुंबइ त पभावई पडिच्छई । लएण मल्ली अरहा सयमेव पञ्चमुट्टियं लोय करेइ । तएण सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता खीरोद्गसमुद्दे पक्खिवइ । तएणं मल्ली अरहा 'नमोऽत्थुर्ण सिद्धाणं त्तिकट्टु सामाइयचरितं पडिवज्जइ, जं समय व र्ण मल्ली अरहा चरित पडिवजइ तं समय च णं देवाण माणुस्साण -य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवाइयनिग्घोसे य सक्कस्स वेयणं सदेसेण णिलुक्के यावि होत्था । ज समयं च मल्ली अरहा सामाइय चरित पडिवन्नं त समय चणं महिस्स अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुत्पन्ने । मल्लीणं अरहा जे से हेमताणं दोच्चे मासे उत्थे पक्खे पोससुद्धे, तस्स णं पोससुद्धस्स एकारसीपक्खेणं पुन्वण्हकालसमयसि अट्टमेणं भन्तेण अपाणपण अस्सिणीहि नक्खत्तेणं
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अनगारधममृतपणी टीका म० ८ मल्लीभगवद्दक्षोत्सपनिरूपणम्
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तत खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजो मनोरमायाः शिविकाया दक्खिणिल्ल= दाक्षिणात्य - दक्षिणदिग्भागस्थम्:, 'उवरिल्ल ' उपरितन उपरिभागस्थ ' चाह वाहुदण्ड गृह्णाति ईशानः - ईशाने द्र. - ' उत्तरिल्ल ' उत्तर दिग्भास्थम् उपस्तिन बाहुदण्डगृहाति, चमर' =चमरेन्द्र: ' दाहिणिल्ल' दाक्षिणात्य = दक्षिण दिग्भागस्थ ' हेल्लि ' अधस्तन दण्ड गृह्णाति, लीवोन्द्रः 'उत्तरिल्ल ' उत्तरीयम् उत्तरभागस्थम् अधस्तन दण्ड गृह्णाति अशेषा देना. भवनपति - व्यन्तर-ज्योतिष्क वैमानिकेन्द्राः, 'जहारिह ' यथाऽई - यथायोग्य स्वस्त्र योग्यताऽनुसार मनोरमा शिपिका परिवहन्ति ।
" पुर्वित्र उक्खित्ता माणुस्सेहिं तो हट्टरोमकृवेद्दि | पच्छा वहति सीय असुरिंद-सुरिन्द-नार्गिदा ॥ १ ॥
चार गेण्ड, ईसाणे उत्तरिल्ल चार गेण्डड चमरे दारिणिल्ल हेटिल्ल, पली उत्तरिल्ल हेट्टिल्ल अवसेसा देवा जहारिह मनोरम सीय परिवहति) बाद से शक्र देवेन्द्र देव गजा ने उस मनोरमा शिविका के दक्षिणदिग्रभागवर्ती ऊपरके दण्डे को पकडा, ईशानेन्द्र ने उत्तर दिग्भा गस्थ ऊपर के दण्डे को पकड़ा चमरेन्द्र ने दक्षिणदिग्भोगवर्ती नीचे के दण्डे को पकड़ा।
अवशिष्ट भवन पति, व्यन्तर ज्योतिष्क एव वैमानिक इन्द्रो ने अपनी २ योग्यता के अनुसार उस शिक्षिका का परिवहन किया । (पुवि उता माणुस्सेरितो र रोमकूवेहिं । पच्छावहति सीय असुरिंद
रिंद नागदा ) सबसे प्रथम हर्षके वश से रोमाञ्च युक्त हुए मनुष्यों ने उस शिबिका को अपने स्कंधों पर रखा बाद में असुरेन्द्रों ने, सुरेन्द्रों
( aण सक्के देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्ल उवरिल्ल are hors, ईसाणे उत्तरिल्ल बाह गेहह चमरे दाहिfree gee alी० उत्तरिल्ल हल्लि अवसेसादेवा जहारिह मनोरम सीय परिवहति )
ત્યાર ખાદ રાક દેવેન્દ્ર દેવરાજે તે મનેારમ પાલખીના દક્ષિણ ખાનુના દડાને આલ્યા, ઇશાનેન્દ્રે ઉત્તર દિશા તરફના ઉપરના ઈંડાને ઝાલ્યા, ચમરેન્દ્રે દક્ષિણ દિશા તરફના નીચેના દડાને ઝાલ્યું, બનીન્દ્રે ઉત્તર દિશા તરફના દડાને ઝાલ્યા
ખાકીના અધા ભવનપતિ, વ્યતર, ચૈતિક અને વૈમાનિક ઈન્દ્રોએ પેાતપાતાની ચેાગ્યતા મુજઞ પાલખીનુ પરિવહન કર્યું
(पुत्र उकवत्ता माणुस्सेहिंतो हद्वरोम कुबेहिं पथा वहति सीय असुरिंदसुदिनागिंदा ) પુલકિત અને હર્ષઘેલા થયેલા માણુસાએ સૌથી પહેલા પાલખીને પાતાના
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माता स्वशुभवान्छया-स्वदक्षिणभागे फुर्वती, मनोरमां शिविका दुरुहर' दरोतिभारोहति, दस्य सिंहासनवरगतः पौरस्त्याभिमुसापूर्वदिङ्मुसः सन् समिषणा ततः खल कुम्भकोऽष्टादश 'सेणिप्पसेणीओ' श्रेणि-प्रवेणी शिविकावाहकान् -अवान्तरजातीयपुरुपान शब्दयति, शन्दयित्वा एवमवादीत हे देवानुप्रिया ! यूय खलु स्नाता यावत्-सालङ्कारविभूषिताः मल्ल्याः शिविका परिवहत, स्क: न्योपरिधारयत यावत्-परिवहन्ति ।। उठकर वे जहां वह मनोरम शिविकाथी वहां गये। वहां जाकर वे उस मनोरम शिपिका को अपने शुभ की वान्छा से अपने दक्षिण भाग में करते हुए उस शियिका पर आरूढ हो गये आरूढ हो कर फिर वे पूर्व दिशा की तरफ मुख कर के उस पर रखे हुए सिंहासन पर पेठ गये । (तएण कुंभर अट्ठारससेणिप्पसेणीओ सद्दावेह, सदावित्ता एवं वयासी) इस के बाद कुभक राजा ने १८, श्रेणी प्रश्रेणी जनो को-शि पिका वाहक १८ प्रकार के अन्तर जातीय पुरुषो को बुलाया और घुला कर उन से ऐसा कहा-(तुन्भेण देवाणु प्पियो ! पहाया जाव सबालकार विभूसिया मल्लीस्स सीय परिवहर, जाव परिवति ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग स्नान कर तथा समस्त अलकारों से विभूषित होकर मल्ली अत की पालखी को उठाओ राजा की इस प्रकार आज्ञा पाकर उन लोगो ने उस पालखी को अपने २ स्कंधो पर उठा कर रख लिया (तएण सक्के देविदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्ल उवरिल्ल
અને ઉભા થઈને જ્યા મને રમ પાલખી હતી ત્યા પહોંચ્યા ત્યા પહો ચીને તેઓ તે મનોરમ પાલખીને આત્મયની ઈચ્છાથી પિતાની જમણી બાજુએ રાખીને તે મને રમ પાલખી ઉપર ચઢીને તેઓ પૂર્વ દિશા તરફ મે કરીને તેના ઉપર મૂકેલા સિંહાસન ઉપર બેસી ગયા
(तएण कुभए अट्ठारससेणिप्पसेणीओ सदाड, सदावित्ता एव बयासी । ત્યાર પછી સુભક રાજાએ અઢાર શ્રેણી પ્રશ્રેણીજનોને પાલખી ઉચકનાશ અઢાર પ્રકારના અવાતર જાતિના પુરૂષને લાવ્યા અને બેલાવીને તેઓને આદેશ આપે કે. (तुम्भे ण देवाणुप्पिया ! हाया जाव सबालकारविभूसिया मल्लिस्स सोय परिवहह जाव परिहति)
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સ્નાન કરે અને ત્યારબાદ બધા અલ કારોથી અલ કૃત થઈને મદલી અહં તની પાલખીને ઉચકી રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ લકાએ તરત સ્નાન કરીને પાલખીને પોતપોતાના ખભા ઉપર ઉચકી લીધી
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मेरी टीका अ८ मीत्रीशी शत्वनिरूपणम्
अष्टसख्यकानि मङ्गलानि पुरतः = अ ' अहाणुपुन्त्रीए ' यथानुपूर्व्या=अनुक्रमेण स्थितानि वलितानि एव तेषां नामानि - (१) सोनत्थिय स्वस्तिकः, (२) मेसिन्छा' श्रीवत्सः, (३) गदियानत्त ' नन्द्यावर्तः, (४) माग वर्धमानः ५) भाग ' भद्रासनम् (६) कलप्स ' कचरा, (७) ' मच्छ' मत्सयुग्मम्, ८) दपग दर्पगवेति । एव निर्गमो यमराजमाले जमालिवन्निर्गमनं= निर्गमन वर्णन विज्ञेयम् ।
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ततः खलु मल्ल्या अईतो निष्क्रामतः = निष्क्रमण कुर्वनः, अप्येकका - केचनदेवा स्वस्वक्रियशक्त्या मिथिला राजधानीम् -' समितरनाहिरिय ' साम्यन्तरवाद्याम् = अन्तर्वेदिः 'आमितमभिओलित ' आसिक्कममार्जितोपलिप्ताम् आसिक्का = पूर्वे जलकणैरभिपिक्ताम् पश्चात् समार्जिताम् = कचवराद्यपनयनेन सशोधिताम्, ततः उपलिप्ता खटिका चूर्णादिना संलिप्ता कुर्वेति कृत्वा यानत्-परिधावन्ति = हर्षोत्कर्षेणेवस्ततः कुर्वन्ति ।
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आरू हुए मल्ली अहंत के आगे सब से पहिले क्रमानुसार आठ २ मगल द्रव्य उपस्थित हुए । उनके नाम ये हैं
(१) सोवस्थिय - स्वस्तिक (२) सिरिवच्छा-श्री वत्स ( ३ ) णदियावन्त - नन्दिकावर्त ( ४ ) बद्धमाणग - वर्धमान ( ५ ) भद्दासण - भद्दासन (६) कलस-कलश (७) मच्छ - मत्स्य युग्म ( ८ ) और दप्पण - दर्पण ( एव निग्गमो जहा जमालिस्स) मल्ली अहंत के निर्गम का वर्णन जमालिके निर्गम की तरह ही जानना चाहिये । ( तएण मल्लीस्स अरहओ निखममाणस्स अप्पे ● देवा मिहिल सभितर बाहिरिय आसि यस मज्जिवलित्त जहा उववाईए जाव परिधावति ) जब मल्लि अर्हत का निष्क्रमण हो रहा था उस समय कितनेक देवो ने अपनी वैकियश(१) सोवात्थिय, स्वस्ति, (२) सिविछा - श्रीवत्स, (3) हियावत्तनहिावत (४) वृद्धभाग - वर्धमान, (५) लद्दास-लद्रासन, (६) उसअजरा, (७) भग्छ-भत्स्ययुग्म, (८) भने हाय-हर्प ( मरीमो ) ( एव निगमो जहा जमालिस्स ) भटसी भई तना निर्गमनु वर्षान भाविना निर्ग. ની જેમ જ જાણવુ જોઈએ
(तएण मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पे० देवा मिलि सभितर चाहिरिय आसियसमज्जिवलित जहा उबवाईए जाव परिधावति )
જ્યારે મહી અહુ તની નિષ્કમણુવિધિ ચાલતી હતી ત્યારે કેટલાક દેવેાએ પેાતાની વૈષ્ક્રિય શક્તિ વડે મિથિલા રાજધાનીની અદર અને મહાર બધે જળ
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ज्ञाताधर्मकथा
चलचवलकुडलधरा सच्छद विउनियाभरणधारी । देविंद दाणविदा वहति सीय निर्मिदम् ॥ २ ॥
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'पुज्यि' पूर्व 'उविता' उत्क्षिप्ता स्कन्धोपरिनीता मनुः यैः, सा शिविका, मनुष्यै कथभूतैरित्याह- ' हडरोमकूपेहिं ' हप्टरोमकूपे हर्षवशेन रोमायुक्तः, पश्चात् असुरेन्द्र - सुरेन्द्र-नागेन्द्राः शिविका नहन्ति-स्कन्योपरिनयन्तिस्म ॥ १ ॥ देवेन्द्र - दानवेन्द्रा जिनेन्द्रस्य विनिकां हन्ति इत्यन्वयः । ते देवेन्द्रादयः कथ भूता इत्याह-चलेत्यादि चलच कुण्डलधरा चलाव ते चपल कुण्डलधराशेति विग्रह । पुनः किं भूता इत्याह-' सच्छदनिन्वियाभरणधारिणः " स्वच्छन्द विकुर्विताभरणधारिण. स्वच्छन्देन स्वेच्छया निकृर्तितानि चैक्रिय शक्तिसमुत्पा दिवानि आभरणानि भूषणानि धारथितु शील येषा ते तया भूताः ॥ २ ॥
ततः खलु मल्ल्या अर्हतो मनोरमा शिनिका दुरूढस्य =समारूढस्य सतः 'तप दमयाए ' तत्मथमतया = सर्वव पूर्वम् इमानि अटाटमहलकानि-अष्टगणितानि ने और नागेन्द्रों ने रखा । ( चलचवल कुलधरा सच्छदविउन्त्रिया भरणधारी, देविद दाण विंदा वहति सीय जिणिदस्म) इन देवेन्द्रा दिकों के कुडल उस समय इधर से उधर अत्यन्त चचल हो रहे थे। उन्हों ने जो आभरण धारण कर रखे थे वे अपनी इच्छानुसार वैक्रिय शक्ति से समुत्पादित किये हुए थे । इस तरह देवेन्द्रों और दानवेन्द्रो ने जिने न्द्र की शिपिका को अपने २ स्कधो पर रखा। (तएण मल्लीस्स अरहओ मनोरम सीय दुरूस्त समाणस्स तपढमयाए इमे अट्ट मगलगा पुरओ अहाणुपुत्रीए सपहिया ) इस के अनन्तर उस मनोरम शिबिका पर ખભા ઉપર ઉચકી, ત્યારપછી અસુન્દ્રોએ, સુરેન્દ્રોએ અને નાગેન્દ્રોએ ઉચકી ( चलचवळ कुडलपरा, सच्उदविउन्त्रियाभरणधारी, देविद दाणविंदा वहति सीय जिणिंदस्स )
તે વખતે દેવેન્દ્ર વગેરેના કુડા આમ તેમ ખૂબ હાલી રહ્યા હતા ધારણ કરેલા આભરોને દેવાએ પાતાની ઈચ્છા મુજખ વૈષ્ક્રિય શક્તિ વડે ઉત્પન્ન કરેલા હેના આ પ્રમાણે દેવેન્દ્રો અને દાનવેન્દ્રોએ જિનેન્દ્રની પાલખી પોતપાતાના ખભે ઉંચકી હતી
( तएण मल्लिस्स अरहाओ मनोरम सीय दुरूढस्म समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठ अमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्बीए सपट्टिया )
ત્યારબાદ મનારમ પાલખી ઉપર બેઠેના મલ્લી અર્હ તની સામે સૌ પ્રથમ અનુક્રમે આઠ આઠ મગળ દ્રવ્યે મૂકવામા આવ્યા તે દ્રુજ્યેાના નામે આ प्रभा छे,
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भनगारधर्मामृतषिणो टीका अ० ८ मल्लीभगद्दीक्षो.सनिरुपणनम ५.५ ततः रलु नो टेवे द्रो देवराजो ग्ल्या अर्हत. केशान प्रतीच्छति लुचितान् वेशान से धरति महिपाय, झरोखर मुद्र प्रदिपति । त्त स्ल मल्ली उहनणमोऽयण सिद्धाण मोऽन्त ख्लू रिद्धेश्य' ति कृत्वा सामारिचारित्र प्रतिपद्यते-माप्नोति । यस्मिन समये च खलु ग्ल्लो हन चारित्र प्रतिपन , तस्मिन्नेव समये स्लु देवाना मनुष्याणा च ‘णिग्योसे' निर्घोप' शब्द', 'तुरिय णिणाय गीयवाक्ष्य निधोसे य' तूर्यनिनादगीतवादित्र निर्योपश्च-याधगीतध्वनिश्च, शकवचनसदेशेन-श्वेन्द्राशया, 'णिल के 'निलीन =तिरोहितः निवृत्त चाप्यभवत् ।
(तएण सक्के दविंद देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ पडिच्छि ताखोरोदग समुद्दे पविखवइ ) उन मल्लिं प्रभुके लुचित देशोंको शक देवेन्द्र देवराज ने अपने बस मे रग्ब लिया और रखकर क्षीर सागर मे उन्हे प्रक्षिप्त कर दिया । (तएण मल्ली अरहा " णमोत्युण सिद्धाणत्ति कट्टु सामाइयचरित्त पड़िवज्जइ ) मल्ली अर्हतने" सिद्धों को नमस्कार हो " ऐसा पाठ घोल कर सामायिक चारित्र को धारण किया। (ज समय च ण मल्ली अरहा चरित्त पडिवज्जइ त समय च ण देवाण मा. णुस्साण य णिग्धोसे तुरिय निणाय गीयवाइयनिग्धोसे य सक्कस्स वयणसदेसण णिलुक्के यावि होत्था ) जिस समय मल्ली अर्हत ने चारित्र को अगीकार किया था उस समय देयो और मनुष्यो का निर्घोष हुआ था तथा याजों एव गीतों की जो ध्वनि हुई थी यह सब शक्रेन्द्र की आज्ञा से बन्द कर दी गई।
(तएण सक्के देविदे देवरायामल्लिस्स केसे पडिच्छा पडिच्छित्ता खीरोंदगसमुद्दे पक्खिवइ)
તે મતલી પ્રભુના લુચિત વાળને શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે પિતાના વસ્ત્રમાં લઈ લીધા અને લઈને ક્ષીર સાગમાં તેઓને નાખી દીધા (तएण मल्ली अरहा " णमोत्थुण त्ति कटु सामाइय चारित्त पडिविसज्जइ
મલી અહં તે “સિદ્ધોને મારા નમસ્કાર” આ પાઠનું વાચન કરતા સામાયિક ચારિત્ર ધારણ કર્યું
(ज समय च ण मल्ली अरहां चरित्त पडिवज्जइ, त समय च ण देवाण माणुस्साण य णिग्घोसे तुरिय निणाय गीयवाइयनिग्धोसे य सरकस्म वयण सदेसण णिलुक्के याविहोत्था)
જ્યારે મલ્લી અહં તે ચારિત્રને સ્વીકાર કર્યો ત્યારે દેવો અને માણ સોના થયેલા હર્ષ નિયને તેમજ વાજાઓ અને ગીતેના ધ્વનિને કેન્દ્ર પિતાના હુકમથી બધ કરાવી દીધા
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___ ततः खलु मल्ली अईन् यत्रैर सहसाम्रागमुपान योराशोमवरपादपः, नयो रागन्छति. उपागत्य शिविफात प्रत्यारोहति प्रत्यवायाभरणालकारं मुञ्चति तदाभरणालकार प्रमापती-मल्ल्या जननी प्रतिन्छिति यत्राश्चले धारयति तत खलु मल्ली अन् स्वयमेव-सहस्तेना पञ्चमु प्टिक लोच शिरः केशलबन करोति । क्ति से मिथिला राजधानी को भीतर पाहिर मे जल कणो से सिभित कर दिया था, कूडा करकट के अपनयन से उसे बिलकुल साफ सुथर कर दिया था और चूना आदी से उसे लीप पोत दिया था। यावत् हषोत्कर्ष सेवे इधर उधर उसमें इच्छानुसार खूय कदे और उछले थे।
औपपातिक सूत्र में निष्क्रमण का जैसा वर्णन यहा भी जानना चाहिये । (तएम मस्ती रहा जेगेर सहस्स यवणे उज्जाणे येणेव अ सोगवरपायवे तेणेय उवागच्छद, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहर, पच्चोरुहिता आमरणालकार मु चइ, त पभावई पडिच्चई ) ये मल्ली अहेत जहा सरसाम्रवन नामका उद्यान और उसमे जहा अशोक वृक्ष था वहा पहुँचे वहां पहुंच कर वे उस शिविका से नीचे उतरे उतर कर उन्होंने अपने आभरण और अलकारों को उतारा-उतारे हुए उन आ भरण और अलकारों को उनकी माता प्रभावतो ने अपने वनाञ्चल में रख लिया (तएण मल्ली अरहा सयमेव पचमुट्ठिय लोय करेड ) इसके बाद उन मल्ली अहंत ने अपने केशों का पचमुष्टि लोच किया। સિંચન કર્યું હતુ કચરે વગેરે વાળીને તેને સારી બનાવી અને ચુના વગેરેથી પેળી નાખ્યું હતુ ચાવત્ હર્ષઘેલા થઈને તેઓ ખૂબ ઈચ્છા મુજબ ઉછળ્યા અને ફૂડ્યા હતા
પપાતિક સૂત્રમાં નિષ્કમણનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, અહી પણ તે મુજબ જ સમજી લેવું જોઈએ
(तएणं मल्ली अरहा जेणेव सहस्सववणे उजाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागन्छड, उवागच्छित्ता सीयाओ . पच्चोरूहइ, पचोरुहित्ता आभरणालकार मुचा, त पभापई पडिच्छई)
- મહેલી અર્હત જ્યા સહુ સામ્રવન નામે ઉદ્યાન અને તેમાં પણ જ્યાં અશોક નામે વૃક્ષ હતું ત્યાં પહોચ્યા, ત્યા પહેચીને તેઓ પાલખીમાથી નીચે ઉતર્યા, નીચે ઉતરીને તેમણે પિતાના આમરણ અને ઘરેણાએ ઉતાર્યા મલી અર્વતના આભરણું અને ઘરેણુઓને તેમના માતા પ્રભાવતીએ પિતાનાં વસ્ત્રના છેડામાં
सीधा (तएण मल्ली अरहा सयमेव पचमुडिय लोय करे।) त्या२५छी मला અહં તે પિતાના વાળનુ પાચમુષ્ટિ સુચન કર્યું
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भनगारधर्मामृतषिणा टीका अ० ८ मालीभगवद्दीक्षोन्सवनिरुपणनम् ५५ ततः रलु नो टेवे द्रो देवराजो ग्ल्या अईत. केशान अतीन्छति लुधितान केशान रखे धरति परिच, क्षीरोदर मुद्र महिपति । तत रूल् म्ल्ली अहन'णमोऽयण सिद्धाण 'मोऽस्तु ख्ल रिद्धेश्य ति कृत्या सामारिकचारित्र प्रतिपद्यतेमाप्नोति । यस्मिन समये च खलु पल्लो उहन चारित्र प्रतिपन्न तस्मिन्नेव समये ख्लु देशना मनुष्यणा च णिग्योसे' निर्घोषः शब्दः, तुरिय णिणाय गीयवाइय निधोसे य पूर्यनिनादगीतबादित्र निपश्च माधगीतध्वनिश्च शकवचनसदेशेन क्रेन्द्राशया, "णिलके' निलीन' तिरोहितः निवृत्त चाप्यभवत् ।
(तपण सरके दविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ पडिच्छि ताखोरोदग समुद्दे पक्खिवह ) उन मल्लि प्रभुके लुचित के शोंको शक देवेन्द्र देवराज ने अपने वख मे रग्ब लिया और रखकर क्षीर मागर मे उन्हे प्रक्षिप्त कर दिया । (तण्ण मल्ली अरहा ' णमोत्युण सिद्धाणत्ति कट्टु सामाइयचरित्त पड़िवजह ) मल्ली अहंतने " सिद्धों को नमः स्कार हो " ऐसा पाठ चोल कर सामायिक चारित्र को धारण किया। (ज समय चण मल्ली अरहा चरित्त पडिवज्जइ त समय च ण देवाणमागुस्साण य णिग्धोसे तुरिय निणाय गीयवाइयनिग्धोसे य सक्करस क्यणसदेसण णिलुक्के याचि होत्या) जिस समय मल्ली अहंत ने चारित्र को अगीकार किया था उस समय देयो और मनुष्यो का निर्घोष हुआ था तथा बाजों एवं गीतों की जो ध्वनि हुई थी यह सब शकेन्द्र की आज्ञा से बन्द कर दी गई।
(तएण सक्के देविदे देवरायामलिस्स केसे पडिच्छइ पडिच्छित्ता खीरोदगे समुद्दे पक्खिबह)
તે મતલી પ્રભુના લુચિત વાળને શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે પિતાના વસ્ત્રમાં લઈ લીધા અને લઈને લીર સાગમાં તેઓને નાખી દીધા (तएण मल्ली अरहा ' णमोत्युण त्ति कटु सामाइय चारित्त पडिविसज्जइ)
મલ્લી અહં તે “સિદ્ધોને મારા નમસ્કાર” આ પાઠનું વાચન કરતા સામાયિક ચારિત્ર ધારણ કર્યું
(ज समय च ग मल्ली अरहा चरित्त पडिवज्जइ, त समय च ण देवाण माणुस्साण य णिग्घोसे तुरिय निणाय गीयवाइयनिग्योसे य सकस बयण सदेसण णिलुक्के याविहोत्था)
જ્યારે મલ્લી અર્હતે ચારિત્રને સ્વીકાર કર્યો ત્યારે દેવે અને માણ સોના થયેલા હર્ષ નિપને તેમજ વાજા ઓ અને ગીતના વિનિને શકે પિતાના હકમથી બંધ કરાવી દીધે
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शाताधर्मकथाह
यस्मिन् समये च खलु मल्ली अर्हन् सामायिक चारित्र प्रतिपद्मः = प्राप्तवान् तस्मिन् समये च मल्ल्या अर्हतो मानुष्यधर्मादुनारं प्रधान मन पर्यवज्ञान समु स्पनम् गृहस्थदशायां ज्ञानत्रयमासीत् चारित्रगृणानन्तर तु तदानीमेव चतुर्थज्ञानमभवदिति भागः । मल्ली खलु भईन् ' जेसे ' यः सः हेमन्ताना मार्गशीर्षादि मासचतुष्टयात्मकानां शीतकालानाम् द्वितीयो मासः चतुर्थ पक्षः - मार्गशीर्षस्या धपक्षततुर्थः पक्ष 'पोस सुध्धे' पौष शुद्धः, पौषमामस्य शुक्रः पक्षः, तस्य खलु पौषशुद्धस्य एकारसी पक्खेण ' एकादशीपक्षे खलु एकादशीतिथेः पक्ष -अर्धा
( ज समय च ण मल्ली अरहा चरित परिवज्जह तण मल्लिहस अराओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणवज्जयगाणे समुत्यन्ने) सामायिक चरित्र को अगीकार करते हो मल्ली अर्हतको चौथा मन पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया ! गृहस्थ अवस्था में मल्टी अर्हत के मनिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान जन्म जान थे। परन्तु ज्यो ही इन्होंने चारित्र ग्रहण किया उसी समय इनको मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। (मल्लीण अरहाजे से हेमताण दोच्चे मासे चउत्थे पक्खेपोस सुद्धे, तस्स ण पोससुद्धस्स एक्कारसीपरखेण पुग्वण्हकाल समयसि अट्टमेणं भत्ते अपाणएण अस्सिणीहिं नक्खन्तेण जोगमुवागएणं तिर्हि इत्थी साहिं अभितरियाए परिसाए तिहि पुरिससएहिं पाहिरियाए परिसाए सद्धि मुडे भविता पव्वइए) मल्ली अर्हत ने जिस समय सर्व विरतिरूप चारित्र अगीकार किया था उस समय हेमतकालका द्वितीय मास था, चौथा पक्ष था उसका नाम पौष मास था - पौष मासका शुक्र
( ज समय च णं मल्ली अरहा चरित्तं वडिवज्जइ त समय च ण मल्लिस्स अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुपन्ने )
સામાયિક ચારિત્રને સ્વીકારતાની સાથે જ મલી અહુ તને ચેાથુ મન પવજ્ઞાન “ઉત્પન્ન થઈ ગયુ ગૃહેથ અવસ્થામા મલી અર્હુતને મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન આ ત્રણે જ્ઞાન જન્મજાત હતા પણ જ્યારે તેઓએ ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યું ત્યારે તેમને મન પવજ્ઞાન થઈ ગયુ
(मल्लीण अरहा जेसे हेमताण दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे पोसमुद्धे तस्स ण पोसमृद्धस्स एक्कासी पवखेण पुव्वण्हकालसमयसि अट्टमेण भत्तेण अपाणएण अस्सिणी हिं नवखचणं जोगमुवागरण तिहिं इत्थीस एहिं बाहिरियाए परिसाए सर्द्धि मुडे भवित्ता पञ्चइए )
મલી અરહેતે જ્યારે સ્વવિકૃતિરૂપ ચાત્રિ સ્વીકાય, ત્યારે હેમત ઢાળના ખીજો મહીને હતેા ાથુ વાયુિ હતું તે મહિનાનુ નામ પાષ
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अनगारधर्मामृत टी अवका ८ मल्लीभगद्दीोत्सव निरूपणम् शकाले, पूर्वाह्नकालमये, अष्टमेन भक्तेन ' अपाणएण' अपानकेन जलरहितेन अश्विनीनक्षत्रेण 'जोग ! योग=चन्द्रयोगत् उपागतेन त्रिभि स्त्रीशतैः आभ्यन्तर कया परिषदा, सार्धं तथा-त्रिभि पुरुषशत, वाह्यया पस्पिदा सार्ध मुण्डो भूला मत्रजितः दीरा गृहीतवान् । मल्ल्या अर्हत् आभ्यन्तरका परिषत् स्त्रीभिः, अन्येषा तीर्थकरणात पुरुपैराभ्यन्यरिका परिपत सजाता । मल्लीमन्तमिमे वक्ष्यमाणा अस्ट राजकुमारा अनुननिताः, तद् यथा - तेपा नामान्ये वम्देय दिमिते, सुमित्त वलमित्त भाणुमित्ते य । अमर अमर सेणे, महसेणे चैत्र, अट्टमए ॥ १ ॥
पक्ष था एकादशी का दिन था, पूर्वाह्नकालका समय था । अपानक चौविहार अष्टम भक्त इन्हों ने धारण कर रखा था। अश्विनी नक्षत्रका चन्द्रमाके साथ शुभ योग वर्त रहा था ।
तीन सौ इनकी अभ्यन्तर परिषदकी आर्यिका थी और बाह्य परिषद के तीन सौ पुरुष थे । सो उन सबके साथ इन्होने दीक्षा धारण की थी । अन्यतीर्यकरो की आभ्यन्तर परिषद में स्त्रिया नहीं रहीं हैं ये तो इन्ही की आभ्यन्तर परिपद में कहीं गई हैं। वहां तो आभ्यन्तर परिपदा में पुरूष ही रहे है । ( मरिल अरह इमे अट्ठ रामकुमारा अणुपच्चइसु-त जहा - ण य णदिमिते सुमित बलमित्त भाणुमित्तेय, अमरवइ अमरसेणे महसेणे चेव अट्टमए) मल्ली अर्हत ने जिस समय दीक्षा धारण की उस समय इनके साथ जो आठ राजकुमार दीक्षित हुए थे उनके नाम ये हैं |
હતુ પાષ મહિનાના શુકલ પક્ષ હતેા, અગિયારસના દિવસ હતા, પૂર્વાન કાળને વખત હતા, અપાનક અષ્ટમ ભક્ત તેમણે ધારણ કરેલુ હતુ અશ્વિની નક્ષત્રના ચન્દ્રની સાથે શુભયાગ થઇ રહ્યો હતેા
તેમની આભ્ય તર પરિષદાની ત્રણુસા આયિકા હતી અને બાહ્ય પરિષદાના ત્રણસે પુરૂષ હતા તેએ બધાની માથે તેમણે દીક્ષા ધારણ કરી હતી બીજા તીર્થંકરાની આભ્યતર પરિષદામા સ્ત્રીએ ન હતી. એમની આભ્ય તર પરિષદામા સ્ત્રીએ વિષે વધુન કરેલ છે. બીજા તીર્થંકરાની પરિષદામા માત્ર પુરુષા જ રહ્યા છે
( मल्लि अरह हमे अट्ठरायकुमारा अणुपव्वसु च जहा णदेय णत्रिमित्ते सुमित्तल मित्तभाणुमित्तेय | अमरवर, अमरसेणे महसेणे चेत्र अहमए )
જે વખતે સલી અહં તે દીક્ષા ધારણ કરી હતી તે સમયે તેમની માથે જ દીક્ષિત થયેલા આ ગજકુમારીના નામે આ પ્રમાણે છે—(૧) નન્દકુમાર,
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ज्ञाताधर्मकथा
(१) नन्दः - नन्दकुमार (२) नन्दिमिन नन्दिमित्रकुमारः, (३) सुमित्रसुमित्रकुमारः, (४१ वलमिनः - वलमित्रकुमार, (५) भानु मित्रः- भानुमित्रकुमारः, (६) अमरपति, - अमरपतिकुमार:, (७) अमरसेन. - अमर सेनकुमार:, (८) महासेन :- महसेनकुमार इति ।
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ततस्तदनन्तर खलु ते भरनपत्यादयश्चतुविधा देवा मल्ल्या अर्हतो निष्क्रमणमहिमान कुर्वन्ति कृत्वा यचैव नन्दीश्वर नामाद्वीपस्तत्राष्टाहिकाम् = अष्टाहसाभ्य मुत्सव कुर्वन्ति कृत्वा च यावत्-यस्यादिश मदुर्भूतास्ता दिश प्रतिगताः, ततः खलु मल्ली अन् यस्मिन्नेव दिवसे मनजितः दीक्षा गृहीतवान् तस्यैव दिवसस्य पश्वाद्, पराकाल, समये - पश्चिमे महरे, अशोकवरपादपम्याधः पृथिवीशिलापट्ट के
(१) नन्दकुमार ( २ ) नन्दिमित्र कुमार ( ३ ) सुमित्र कुमार ( ४ ) वालमित्र कुमार (५) भानुमित्र कुमार (६) अमरपति कुमार (७) अमरसेन कुमार और (८) महासेन कुमार । (तरण से भवण "व ४ मल्लिस्स अरहओ निस्खमणमहिम करे ति, करिता जेणेव नंदी सरवरे० अट्ठाहिय करेंति, 'करिता जांव पडिगया ) भवनपति आदि चारों प्रकार के देवों ने मल्ली अत के निष्क्रमण महोत्सव की महिमा की और करके फिर वे आठवां जो नदीश्वर द्वीप है वहाँ गये वहा जाकर उन्हो ने अष्टान्हिक महोत्सव किया। यह महोत्सव आठ दिन तक लगातार होता है । अष्टादिक महोत्सव करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा तरफ वापिस चले गये । (तएण मल्ली अरहा ज चैव दिवस पव्वाइए तस्सेव दिवसस्स वरण्हकाल समयसि असोगवर पायवस्स अहे पुढविसिलापट्ट्यसि । सुहासणवर गे
खूब
3
'(२) नहि भित्रभार, (3) सुभित्रकुमार, (४) मालभित्र कुमार, '(4) लानुभित्र कुमार, (९) अमरपति कुमार, (७) अमरसेन कुमार, (८) भडासेन कुमार
} (तरण से भगवर 8 मल्लिस आरओ निःखमणमहिम करेति, करिता जेणेव नदीसरवरे० 'अट्ठाय करेति करिता जान पडिगया )
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ભવનપતિ વગેરે' ચાર જાતના દેવએ મલી અહતના નિષ્ક્રમણુ મહે 'ત્સવને! ખૂબ જ મહિમા ગાવે અને ત્યાપછી તેઓ આઠમા નદીશ્વર દ્વીપમા ગયા ત્યા પહેાચીને તેમણે અષ્ટાદ્ઘિક મહાત્સવ ઉજવ્યે આ મહે।ત્સવ આઠે 7 દિવસ”સુધી સતત ઉજવાય છે. આધાનિક મહાસંવૅ યારે પૂરા થયા ત્યારે તેએ જે દિશા તરફથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ જતા રહ્યા
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(तरणं मल्ली रहा'ज चैत्र दिवस पञ्चहिए, तस्सेव दिवसस्स वरण्डकाल समयसि असो वरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टसि सुहासणवरगयरस मुहेणं परिणा
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अनगारधर्मामृतपिणो टीका १० ८ मल्लीभगदीशोत्सवनिरूपणम् _____ ५३९ मुखासनवरगतस्य शुभेन परिणामेन 'पमत्येहि प्रशस्तै =श्रेष्ठ -शुभैः, 'अझवसाणे' अध्यवसाने = आत्मपरिणामै , प्रशस्ताभिः लेश्याभिः ' विमुज्झमाणीहि । विशुध्यन्तीभिः तयावरणकम्मरयविकरणकर' तदावरणकर्मरजोविकरणकर-ज्ञानावरणीयादिकमरजोविक्षेपंक 'अपुवकरण' अपूर्वकरणम् अष्टमगुणस्थानकम् अनुप्रविष्टस्यानन्त विपयानन्तत्वात् , यावत्-अनुत्तर-समस्तज्ञानयोन, निर्व्याघातम्अप्रतिहत, निरावरण क्षायिर्फ, कृत्स्न सर्वायग्राहकत्वात् , प्रतिपूर्ण-समलाशयुक्तत्वात् पूर्णचन्द्रवत् , 'केवलपर नागदसणे केवलवर ज्ञानदर्शन समुत्पन्नम्।।मू०३९।। -यस्स, सुहेण परिणामेण पसत्येहि अझवसाणेहिं पसत्याहि लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणकम्मस्त विकरणकर अपुन्यकरण, अणु पविडम्स अणते जाव केवलबरनाणदसणे समुप्प न्ने ) मल्ली अहंत ने जिस दिन दीक्षा धारण की उसी दिन पश्चिम प्रहर मे अशोक वृक्षने नोचे रहे हुए पृथिवी शिलापट्टक पर सुखासन सें विराजमान उन्हे शुभ परिणाम प्रशस्त अध्यवसान-आत्म परिणाम-एव विशुद्ध -प्रास्त-लेश्याओ के प्रभावले समस्त , ज्ञानावरणीय दर्शनावणीय मोहनीय और अन्तराय कर्मरूप रजके विक्षेपक अनन्त केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गये । अर्थात् दीक्षा लेते ही एक प्रहरके बाद केवलज्ञान पाए। क्षपाश्रेणी पर आरूढ हुई आत्माओं को ही 'ये दोनो केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होते हे अन्य को नहीं -तथा यह श्रेणी ८वे अपूर्वकरण गुणस्थान से ही प्रारभ होती है अन्य गुणस्थान से नही मल्ली अहंत ने भी इसी - श्रेणी-पर आरोहण मेण पसत्येहि अन्झवमाणेहिं पसत्याहिं लेसाहिं विसुज्झमाणी हिं तयावरणकम्मरयविकरणकर अपुवकरण अणुपविठ्ठस्स अणते जाव केवलचरनाणदसणे समुप्पन्ने)
- જે દિવસે મલી અહંતે દીક્ષા ધારણ કરી તે જ દિવસે છેલા પહેરમાઅશોક વૃક્ષની નીચે પૃથ્વી શિલાપટ્ટક ઉપર સુખાસન પૂર્વક બેઠેલા તેઓને શુભ પરિણામ પ્રશસ્ત અધ્યવસાન આત્મપરિણામ અને વિશુદ્ધ પ્રશસ્ત લેશ્યાઓના પ્રભાવથી સમસ્ત જ્ઞાનાવરણીય દર્શનાવરણીય મેહનીય અને આંતરાય કર્મરૂપ રજનું વિક્ષેપક અનત કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શન ઉત્પન્ન થયુ ક્ષેપક શ્રેણી ઉપર આરૂઢ થયેલા આત્માઓને જ આ કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શન મળે છે બીજાઓને નહીં, તેમ જ આ શ્રેણી આઠમાં અપૂર્વકરણ ગુણ સ્થાનથી જ આરસે છે, બીજા કોઈપણ ગુણસ્થાનથી નડી, મલી અહં તે પણ આ શ્રેણી
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मूलम्-तेण कालेणं तेण समएण सव्वदेवाणं आसणाई चलंति समोसढा केवलमहिमं करेंति करित्ता जेणेव नदीसर० अट्टाहिय महामहिमं करेंति करिता जामेव दिस पाउ० परिसा णिग्गया कुभएवि निग्गच्छइ । तएणं ते जियसन्तूपा० छप्पिजेहपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरुस सब्बिड्डीए जेणेव मल्ली अ. जाव पन्जुवासति । तएणं मल्ली अ० तीसे महइ महालयाए० कुभगस्स तेसि चे जियसत्तू पान क्खाणं धम्म कहेइ । परिसा जामेव दिसी पाउन्भूया सामेव दिसि पडिगया। कुंभए समणोवासए जाए। पभावईय । तएणं जियसत्तूप्पा० छप्पिराया धम्म सोच्चा एव वयासी-आलिनेण कर दिया था तभी जाकर उन्हें इनकीप्राप्ति हुई यही यात " अपुवकरन अणुपविट्ठस्स, इन पदोंद्वारा प्रदर्शित की गई है। "अणते जाव" यहा जो "जाव" पद रखा गया है उससे "अनुत्तर नियाधातम् निरावरण , कृत्स्न, प्रतिपूर्ण ' इन पदों का ग्रहण किया गया है । ये दोनों अनत विपयों को जानते हैं और देखते है इसलिये ये अनत हैं। समस्त ज्ञान और दर्शनों में ये प्रधान है इमलिये अनुत्तर है । अप्रतिहत होने से ये दोनों निर्याघात, क्षायिक होने से निरावरण सर्वार्थ ग्राहक शेने से कृत्स्न, सकलांश युक्त होने से पूर्ण चन्द्र की तरह प्रतिपूर्ण कह गये है ॥ सन्न ३९ ॥
““ઉપર આરહણ કરી દીધું હતું ત્યારે જ તેમને એમની પ્રાપ્તિ થઈ હતી એ જ पात-" अपुव्वकरण अणुपक्रिस " 20 पटोप विपामा मावी छ " अण ते
आव" मही रे जाव' ५६ छ तनाथी अनुत्तर निर्व्याघात निरावरण, 'कृरस्ने, प्रतिपूर्ण, सापही अड ४२वामा साध्या छ २मा मनत विष ‘ચાને જાણે છે અને જુએ છે એટલા માટે તેઓ અનત છે સમસ્ત જ્ઞાન અને દર્શનેમાં તેઓ પ્રધાન છે એટલા માટે અનુત્તર છે અપ્રતિહત હવા બદલ આ અને નિર્ચાઘાત, સાયિક હોવાથી નિરાવરણ, સર્વાર્થ ગ્રાહક હેવાથી કૃr, સકલાશયુકત હેવાથી પૂર્ણ ચન્દ્રની જેમ પ્રતિપૂર્ણ કહેવામાં આવ્યા છે ૩૯
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- अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ०८ जितशवादिराशादोक्षाग्रहणादिनिरूपणम् ५४१ भते । लोए पलितेणं भते लोए जाव पवइया, चोदसपुटिवणो अणते केवले. सिद्धा।
___तएण मल्ली अरहा सहसंबवणाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता वहिया जगवयविहार विहरह । मलिस्लणं भिसगपामो
क्खा अठ्ठावीस गणा, अट्ठावीसगणहरा होत्था। मलिस्लण ___ अरहओ चत्तालीस समणसाहस्सीओ उकासेण, वधुमइपामोक्खाओ पणपण्णं अजिया साहस्सीओ उको०, सावयाणं एगा सायसाहस्सी, चुलसीइ सहस्सा सावियाण तिन्नि सयसाहसीओ पण्णहि च सहस्ता, छस्तया चोहसपुवीण, वीससया ओहिनाणीण, बत्तीस सया केवलणाणीण,पणतीण सया वेउठिबयाणं, अहसयामणपज्जवणाणीणं, चोइससया वाईणं,बीस सयाअगुत्तरोववाइण । मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था त जहा -जुयंतकरभूमी, परियायतकरभूमी या जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुयतकरभूमी । दुवासपरियाए अतमकासी। मल्लीणं अरहा पणुवीस धणूइ मुड्ड उच्चत्तेणं । वपणेणं पियगुप्तमे समचउरससठाणे, वजारसभणारायसघयणे, मज्झदेसे सुह सुहणं विहरित्ता जेणेव सम्मए पवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समेयसेलसिहरे पाओवगमणुववण्ण । मल्लीण अरहा एग वाससय अगारवासमझे वसित्ता पगपण्ण वाससहस्साइ वासलयऊणाई केवलि परियाग पाउणित्ता पणपण्ण वाससहस्साइसव्वा उय पालइत्ता जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्तसुद्धे, तस्स णं
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वाताधर्मका
चेत्तसुद्धरस चउत्थए भरणीए णक्खत्तेणं अद्धरत्तकालसमयसि पचहि अजियासएहिं अभितरियाए परिसाए, पंचहि अणगार सहि वाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं घग्घारियपाणी सीणे वयणिजे आउए नामे गोए सिद्धे । एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्वा जहा जबुद्दीवे पण्णत्तीए नंदीसरे अट्टाहिया महिमा जाव पडिगया । एव खलु जबू । सम णं भगवया महावीरेण अट्टमस्स नामज्झेयणस्स अयमहे पण्णत्ते त्तिवेमि ॥ सू० ४० ॥
टीका' तेण कालेन ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सर्वदेवना= शक्रस्य देवेन्द्रस्य तथाऽन्येपा सर्वेषामिन्द्राणा च, आसनानि चलन्ति स्म । तदा safir प्रयुज्य मल्ल्या अर्हत' केवलोत्पतिं ज्ञाला यौन मल्ली अन् तत्रैन 'समो ' तेण कालेन तेन समएण ' इत्यादि ।
५
टीकार्थ - ( तेण कालेन तेण समर्ण ) उस काल और उस समय में (सव्वदेवाण आसणाइ चलति, समोसढा केवल महिम करेंति ) करिता जेणेव नदीसरे अट्टारिय महामहिम करेंति, करिता, जामेव दिसपाउ० परिसा णिग्गया कुभएवि निग्गच्छइ ) समस्त देवों के श देवेद्र के तथा अन्य समस्त इन्द्रों के आसन कपायमान हुए । आसनो के कपित होने का क्या कारण है इस प्रकार जब जानने को उन्हों ने इच्छा की तो उसी समय उन्हों ने अपने ३ अवधिज्ञान से देखा
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तेण कालेनं तेणं समएणं ' इत्यादि ॥
2
जे अने ते सभये
टीअर्थ - तेण कालेन तेण समरण ते
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(सव्वदेवाण आसणाइ चलति, समोसढा केवलमहिम करे ति करिता जेणेत्र नदी सरे० अट्टाहिय महामहिम करे ति करिता जामेव दिस पाउ०परिसाणिग्गया
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कुभए विनिग्गच्छर )
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બધા દેવતાઓના, શક દેવેન્દ્રના તેમજ બીજા બધા - ઇન્દ્રોના આસન ડાલવા માડયા. તેમના આસના શા કારણથી ડગમગવા માંડયા છે ? આ જાતની જ્યારે તેમના મનમા જિજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થઈ ત્યારે તરત જ તેમણે પોતપોતાનુ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०प्र०८ जितशनादिराक्षादीक्षाग्रहणादिनिरूपणम् ६४३ सदा' एमवसृताः = आगताः आगत्य ' केवलमहिम' के ज्ञानोत्सव कुर्वन्ति, कृत्वा यचैव नन्दीश्वरो द्वीपस्तत्रैवो पागच्छन्ति उपागत्य ' अड्डाहिम ' अष्टाह्निका
हिमान अष्टदिवस्साध्यमुत्सव कुर्वन्ति कृत्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव 'दिश प्रतिगताः । तदनन्तर परिषत् - मिथिला राजवान्या जनसमूहः मल्ल्या अर्हतो ? वन्दनार्थं निर्गता- मिथिष्यराजधानीतो निःसृता । कुम्भोऽपि निर्गच्छति स्म ।
ततः खलु ते जितजप्रमुखाः पिडप राजानः स्व स्व ज्येष्ठपुत्रं राज्ये स्था पयित्वा पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविकाः समास्दा सर्वऋद्ध्या सर्वेययेण सकलबलेन सहिता यत्रैव मल्ली अन तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् पर्युपासते ।
की मल्ली अहंत को केवल ज्ञान की उत्पत्ति हुई है । सो जहां मल्ली अर्हत थे वे सब वहा पर आये आकर उन्हो ने केवलज्ञान की महिमा की उत्सव किया उत्सव कर जहा नदीश्वर द्वीप था फिर वे वहां आये वहाँ आकर उन्हों ने लगातार आठ दिन तक उत्सव किया। उत्सव कर के फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की तरफ चले गये । इसके बाद मिथिला राजवानीसे जन समुदाय मल्ली अर्हत को बदना करने के लिये निकला । कुभक राजा भी निकले । (तएण ते जियसतूपा० छप्पि जेष्ठपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससरस्सवारिणीओ सीयाओ आरूढ़ा सन्विाडीए जेणेत्र मल्लीं अ०जाव पज्जुनासति ) इसके अन्तर वे जितशत्रु प्रमुख छों राजा अपने२ ज्येष्ठ पुत्रको राज्यपद में स्थापित कर पुरुष सहस्र वाहिनी शिचिकापर आरूढ हो सर्व ऋद्धि एव सकलवल
અવધિજ્ઞાન જોડ્યુ અવધિજ્ઞાનથી તેઓએ જાણ્યુ કે મલ્લી અર્હતમાં કેવળ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થઈ છે તેએ બધા ન્યા મલ્લી અર્હત હતા ત્યા આવ્યા ત્યા પહેાચીને તેઓએ કેવળજ્ઞાનના મહિમાને ઉત્સવ ઉજવ્યે ઉદ્ભવ ઉજવ્યા પછી તેઓ ન દીશ્વર દ્વીપમા ગયા, ત્યા જઈને તેએએ સતત આઠ દિવસ સુધી ઉત્સવેના ઉજ॰ । ઉત્સવની સમાપ્તિ પછી તેઓ જે દિશા તરફથી પ્રગ૰ યા હતા તે દિશા તરફ જતા રહ્યા ત્યારખાદ મિથિલા રાજધાનીથી મળેલી અ તના વન માટે જનસમુદાય નીકળ્યે કુ ભરાા પણ નીચે
( तएण ते जियसत्तूपा० छप्पि जेट्टे पुने ठावेचा पुरिससहस्यवाहिणीओ सीयाओ दुख्ढा सचिडीए जेणेव मल्ली अ० जात्र पज्जुत्रासति )
ત્યારપછી જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ પોતપેાતાના મા ગાદીએ બેસાડીને પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખી એમા બેસીને
પુત્રને રાજ સદ્ધિ અને
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ज्ञाताधर्मकथा
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ततः खलु मल्ली अर्द्धन तस्या महाति महालयाया' - अतिविस्तीर्णायाः पर्षदो कुम्भकस्य राज्ञस्तथा तेपां च जितशत्रुममुखागा राक्षां धर्म = कथयति, परिष यस्या एव दिशः प्रादुर्भूताः, तामेत्र दिश प्रतिगता । कुम्भक श्रमणोपासको जात, देशनिरतिरूप धर्म स्वीकृतवान् प्रतिगतः । ममारती च श्रमणो पासिका जाता प्रतिगता प्रभावती कुम्भको सस्थान गतरन्तौ । तत खलु जितशत्रवः पढपि राजानो धर्म खुला प्रतिबुद्धा एवमनादिषु 'आलित्तेण भते लोए पलितेण भते के साथ जहा मल्ली अर्हत विराजमान थे वहा आये वहां आकर उन सबने मल्ली अर्हत की अच्छी तरह उपासना की । ( तग्ण मल्ली तीसे मह इमहालयात ०००० धम्म कहइ ) इसके बाद मल्ली अर्हत ने उस अति विस्तीर्ण जनमेदिनी के समक्ष कुमक राजा तथा जितशत्रु प्रमुख उन दों राजाओं के समक्ष श्रुतचारित्र रूप धर्मका उपदेश दिया । ( पारिसा जामेव दिसिं पा०तामे दि०पडि० ) उपदेश सुनकर यह जनमे दिनीरूप परिपदा जिस दिशा से आई थी उसी दिशा तरफ वह वापिस चली गई । (कु भए समणोवास जोए) कुमक राजा श्रमणोपासक बन गये । अर्थात् देशपिरतिरूप धर्म उन्होंने स्वीकार कर लिया । (पभावईय) प्रभावती भी श्रमणोपासिका बन गई ।
(तरण जियसत्तप्पा० छप्पि राया धम्म सोच्चा एव वयासी ) इसके बाद उस जितशत्रु प्रमुख छहो राजाओं धर्म का उपदेश सुनकर प्रतिबुद्ध हो इस प्रकार कहा - ( अलित्तेण भते ! लोए पलिते ण સકળ બળની સાથે જ્યા લી અર્હત વિરાજમાન ર્હતા ત્યા પહેાગ્યા ત્યાં પહેાચીને તેઓ બધાએ મલી અહતની સારી પેઠે ઉપાસના કરી ( तएण मल्लो अन्तीसे महइ महालयाए० મલી અહુ તે તે વિશાળ જન સમુદાય, તેમજ પ્રમુખ તે છએ રાજાએની સામે શ્રુત ચારિત્ર રૂપ
धम्म कहइ ) त्यार पछी ભક રાજા અને જિતશત્રુ ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા
( परिमा जामेन दिसिं पा तामेव दिसिं पडि० ) उपदेश सालजीने जनसमुहाय ? दिशा तरथी भाव्यो हतो ते हिशा तर या समणोवासए जाए ) भ રાજાશ્રમણેાપાસક થઈ એટલે કે देश विरतिय धर्मना तेथेोगे स्वीर ये तो ( पभावईय ) अलावती પણ શ્રમણેાપાસિકા થઈ ગયા
तो रह्यो ( कु भए ગયા હતા
(तएण जियसत्तू पा छप्पिराया धम्म सोच्चा एव वयासी ) त्यार पछी कुनशत्रु પ્રમુખ છએ રાજાએએ ધર્મના ઉપદેશથી પ્રતિબુદ્ધ થઈને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે ( आलित्तेण भत ! लोए पलितेण भते । लोए जाव पव्वया पुत्रि
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी०अ०८ जितशवादिषइराक्षादीक्षाग्रहणादिनिरू० ५४५ लोए ' इति हे भदन्त । भगवन् ! 'अलीत्ते' आदीप्ता आ=समन्ताद् दीप्ता ज्यलितः खल्वय लोकः, तथा हे भदन्त ! 'पलिते' प्रदीमा अर्पण अलित:
खदिर का सकाष्ठाग्निज्वालयेव तीव्रज्वालया युक्तः खल्वय लोकः, जन्मजरा मरणादिदुःखानि वहस्तीत्रज्याला इवास्मिन् लोके जीवान् प्रदहन्तीत्यर्थः । यावत्-प्रवन्तिाम् यथा कश्चिदादीप्ते गृहे प्रमुप्त नर वोधयेत् तथा हे भगवन्आदीप्ते लोके मोहनिद्रावशगतानस्मान् भतिगोव्य युष्माभिः श्रेयस्करो मोक्षमार्ग प्रदर्शित तस्माद् भवतामन्तिके प्रत्रजिष्यामः' इत्युक्त्वा ते पडपि राजानः प्रत्रजितादीक्षा गृहीतवन्तः । ततश्चतुर्दशपूर्विणः चतुर्दशपूर्वधारिणो भूत्वाऽनुक्रभते लोए जाव पव्वइया चोइसपुग्विणो अणते केवले सिद्धी) हे भदत ! यह चतुर्गति रूप लोक आ- समन्तात् - ज्वलित हो रहा है। हे भदत । यह रोक अत्यत ज्वलित हो रहा है। कार्पास काष्ठ की अग्निज्वालाके समान तीव्र ज्वालासे यह लोक व्याप्त हो रहा है अग्नि की तीव्र ज्वाला जैसे जन्म, जरा एव मरण आदि के दुःख जीवोको सदा उस लोक में जलाते रहते हैं। हे भगवान । जैसे कोई व्यक्ति घर में आग लग जाने पर उसमें सुप्त हुए व्यक्ति को सचेत कर देता है-इसी तरह आदीप्त हुए इस लोक में मोह-निद्राधीन बने हुए हम लोगों को प्रतिरोधित कर ओपने श्रेयस्कर मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया है- इसलिये हम आपके पास दीक्षाअगीकार करेंगे। इस प्रकार कह कर उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने मल्ली अर्हत के समीप दीक्षा धारण करली। चौदह पूर्व के पाठी होकर उन्हो ने निरतिचार णो अणते केवले० मिद्धा)
હે ભદન્ત ! આસમ તાત્ (મેર) આ ચતુર્ગતિરૂપ લેક સળગી રહ્યો છે હે ભદન્ત ! આ લેક અત્યત જવલિત થઈ રહ્યો છે રૂ અને લાકડાની અગ્નિ જવાળાઓની પેઠે તીવ્ર જવાળાઓથી આ લોક વ્યામ થઈ રહ્યો છે અગ્નિની તીવ્ર વાળાએ ની જેમ હમેશા જન્મ, જરા (ઘડપણ) મરણ વગેરેના દુખે આ લેકને સળગાવતા રહે છે ભગવાન ! જેમ કઈ માણસના ઘરમાં અગ્નિ સળગી ઉઠે ત્યારે સૂતેલા માણસને બીજે કઈ જાગ્રત કરે છે તે પ્રમાણે જ પ્રજવલિત થતા આ લેકમ મેહ નિદ્રાવશ થયેલા અમારા જેવા લેકેને એક આપીને તમે શ્રેયકર મોક્ષ માર્ગ બતાવ્યું છે તેથી અમે હવે તમારી પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરીશુ આ પ્રમાણે વિનતિ કરીને જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજા એાએ મતલી અહંતની પાસેથી દીક્ષા સ્વીકારી લીધી ચૌદ પૂર્વના પાઠી થઈને તેમણે નિરતિચાર ચારિત્રનુ પાલન કર્યું અને આ પ્રમાણે ધીમે ધીમે અનુક્રમે
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शाताधर्मकथा
मेण निरतिचार चारित्र पाठािनन्न के केवल परशानदर्शन यावत्-सिद्धा सिद्धिस्थान गताः ।
ततस्तदनन्तर खलु मल्ली अन् सहस्राम्रवणात् निष्क्रामति निर्गच्छवि, निष्क्रम्म वहिर्जन पदनिहारं विहरति । मल्ल्या खलु भिपगममुखाः अष्टाविंशति र्गणाः, अष्टाविंशतिर्गणधरा अमनन् । मल्त्याः खलु अर्हतचत्वारिंशत् श्रमण सहस्राणि 'उकोसेण' उत्कर्षेण उत्कृष्टा श्रमणसपदभवत् । तथा-बन्धुमविप्रमुखाः पश् चारित्र का पालन किया । और इस तरह धीरेर क्रमशः वे छोंके छहों केवल ज्ञान और केवल दर्शनके अधिकारि वन गये और अन्तमें सिद्धस्थान पर पहुँच गये। - (तरण मल्ली अरहा सहसबवणाओ निक्खरह) मल्ली अर्हत उस सहस्राम्र वनसे बाहर निक्ले (निम्नमित्ता पहिया जणवयविहार विरह ) निकलकर उन्होंने बाहर के जनपदों में तीर्थकर परम्परा के अनुसार विहार करना प्रारभ कर दिया । (मल्लिस्सणं 'भिसगपामारखा अट्टानीस गणा, अट्ठावीस गणहरा, रोत्था मल्लिक्षण अरहओ 'चत्तालीस समणसारस्सीओ उक्कोसेण वधुमहामोक्खाओ पंणपन्न अज्जिया साहस्सीओ उक्कोसेण सावयाण एगासाय सारस्सी चुलसीह सहस्मो सावियाण तिन्निसयतायसीओ पण्णट्ठ च सहस्सा ) इन मेल्ली अर्हत के भिषग प्रमुख २८, गण ( गच्छ ) 'थे और २८, गणधर थे । उत्कृष्ट से इन मत्ली अरहत प्रभु की श्रमण सपत्ति ४० हजार की थी । तथा उत्कृष्ट की अपेक्षा बधुमती
તેઓ છએ છ રાજાએ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શીન માટે અધિકારી થઈ ગયા भने छेवटे सिद्धस्थाने पोथी गया (तएण मल्ली अरहा सहसबवणाओ निक्समइ ) भटसी अर्हत ते सहसाभवनथी महोर नीडव्या (निक्स मित्ता बहिया जणवय विहार विहारइ ) नीजीने महारना नहोभा तेभो तर्थ ५२ ५२ प વિહાર કરવા શરૂ કર્યાં
(मल्लिस ण भिसगपामोक्खा अट्ठावीस गणा, अट्ठावीस गणहरा, होत्था मल्लिस्सण अरहओ चचालीस समण साहस्तीओ० उकोसेण बधुमइ पामोक्खाओ पणपण्ण अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसेण सावयाण एगा साथ साहस्सी, चुल सीइ सहस्सा सावियोग एगा साय साहस्सी चुलसीइ सहस्सा साविया तिन्निसय सायसीओ पण च सहस्सा )
મલી અહું તને ભિષણ્ પ્રમુખ અઠ્ઠાવીશ ( ૨૮) ગણુ ( ગચ્છ ) હતા અને અઠ્ઠાવીશે (૨૮) ગણધર હતા ઉત્કૃષ્ટથી મલ્લી અર્હત પ્રભુની શ્રમણ સપત્તિ ચાળીસ હજાર હતી તેમજ ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ખમતી પ્રમુખ ૫૫
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अनगारधर्मामृतपणी टी०अ०८ जिनरायादिपराज्ञादीक्षाग्रहणादिनि६० ५४७ पञ्चाशत् अर्थिकासहस्राणि उत्कर्षेण, उत्कृष्टा साध्वीसम्पत् पञ्चपञ्चाशत्सहस्रपरिमिता जातेत्यर्थः, तथा-श्रावकाणामेकशतसहस्राणि = एक लक्षम्, 'चुलसीर्ति ' चतुरशीतिः सहस्राणि श्रमणोपासक संपदभूत् । तथा-श्राविकाणां त्रीणिशतसह स्राणि त्रीणि लक्षाणि पञ्चपप्टिसहस्राणि उत्कर्पेण, तथा-पट्शतानि चतुर्दश पूर्विणा - चतुर्दश पूर्वधारिणा, तथा विंशतिशतानि अवधिज्ञानिना, तथा पञ्चत्रिशत्-शतानि ' वेउन्त्रियाण' वेकुर्निकाणा=वेक्रियलव्धिधारिणा, तथा अष्टशतानि - मनः पर्ययज्ञानिना, तना - चतुर्दशशतानि वादिना, तथा-विंशतिशतानि अनुत्ततरोपपातिकानाम् । मल्ल्या अर्हतः ' अतगडभूमी ' अन्तकृद्भूमिः = अन्तकृत - आदि ५५ हजार आर्यिकाएँ थी । इनके श्रावको की सख्या १ लाख ८४ हजार थी । श्राविकाएँ इनकी ३ लाख ६५ हजार थी । (छस्सया चोहस पुवीण, वीमसया ओहिनाणीण बत्तीस लया केवलणाणीण पणतीण
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या वेउनियाण, अट्ठसया मणपज्जवणाणीण चोद्दस मयावाईण वीस सया अणुसरोववाइण (६००, चतुर्द्दश पूर्व के धारी मुनि गण थे । बीस सौ अर्थात् २०००, अवधिज्ञानी थे । ३२ सौ अर्थात् ३, हजार दो सौ केवल ज्ञानी थे ३५ सौ वैक्रिय लब्धि के वारी थे । ८००, सौ मन पर्यव ज्ञानी थे । चौदह सौ वादी थे । बीम सौ अनुत्तरोपपातिक थे । (मल्लिस्म अरहओ दुबिहा अतगडभूमी य जाब वीसहमाओ पुरिस जुगाओ जयतकर भूमी ) इन मल्लीअर्हन की अतः कृद्भूमि-उसी भव से मोक्ष जानेवलो का काल-दो प्रकारकी थी - ( १ ) युगान्तकर भूमि હજાર આયિકા હતી તેમના શ્રાવાની સખ્યા એક લાખ ચેારાશી હજાર હતી અને ત્રણ લાખ પાસઠ હજાર તેમની શ્રાવિકાઓ હતી
(छम्सया चोद्दस पुत्रीण वीससया ओहिनाणीण वत्तीस सया केवलणाणीण पणतीम सया वेउन्वियाण अट्ठ सया मण पज्जवणाणीण, चोदस सया वाई ण वीस सया अणुत्तरोवनाश्याण )
બે હજાર
છા ચતુર્દશ પૂનાધારી મુનિગા હતા ૨૦ સે એટલે અવધિજ્ઞાની હતા ૩૨ સા એટલે કે ત્રણ હજાર ખસેા કેવળજ્ઞાની હતા ૩૫ સે વૈક્રિયલબ્ધિનાધારી હના આઠસેા મન વજ્ઞાની હતા ૧૪ સા વાદી હતા ૨૦ સે। અનુત્તરાપાતિક હતા
( मल्लिक्स अरहओ दुविहा अतगडभूमी य जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुयतकरभूमी )
મલ્ટી અહુ તથી અતકૃભૂમિ-તે લવમા જ મેક્ષ મેળવનારાઓને કાળ-એ પ્રકારની હતી (૫) યુગાન્તર ભૂમિ (૨) પર્યાયાન્તકર ભૂમિ ભૂમિ
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ज्ञाताधर्मकथासू
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भवान्तकारिण तस्मिन्नेव जन्मनि मुक्तिगामिनः तेपा भूमिः कालः कालस्य चाधारत्वेन कारणत्वाद् भूमित्वेन व्यपदेश । द्विविधामिकारा, अभवत् तद् यथा - युगान्त कर भूमिः पर्यान्तकरभूमिश्र । यानद् विंशवितमात् पुरुषयुगाद् युगा न्तकरभूमिः - अन द्वितीयार्थे पञ्चमी यावद् विंशतितम पुरुषयुगं - विंशतितम शिष्य यादित्यर्थः । युगानि - काळमानविशेषाः, तानि क्रमानुसारिणि, युगानीत्र युगानि, युगसादृश्याद् गुरुशिष्यमशिष्यादिरूपाः पुरुषाअपि युगानि व्यवड़ियन्ते वैः ममितायाऽन्तकरभूमि स, युनान्तकरभूमिः । मठीजिादारभ्य तत्तीर्थ पट्टानुपट्ट क्रमेण विंशतितम पुरुष यान साधवः सिद्धा अभूवन् ततः पर सिद्धिगमन व्यवच्छेदोऽभूदितिभात्रः । पर्यायान्तकर भूमिमाह-' दुवास परियाए अन्तमकासी' इति द्विवर्षपर्यायेऽन्तमकार्षीत् इति अनेन वाक्येन पर्यायान्तकग्भूमिः प्रोच्यते । पर्यायस्तरस्य के वि कालस्तमाश्रित्य यान्तकभूमिः सा पर्यायान्तकर ( २ ) पर्यायान्तकर भूमि । भूमि शन्द से काल तथा युग शब्द से गुरू शिष्य प्रशिष्यादि रूप पुरुषों का ग्रहण हुआ है । अतः इन गुरु शिष्य प्रशिष्यादि रूप पुरुषों को आरंभ कर जिस में उसी भव से मोक्ष जाने वालों का प्रमाण प्रमित किया जावे वह युगान्तकर भूमि है ऐमा युगान्तकर भूमि शब्दका वाच्यार्थ निकलता है मल्ली जिनसे लगाकर इनके तीर्थ में पट्टा पह क्रम से विंशतितम पट्टपुरुष तक (वीसपेदि) साधु सिद्ध हो चुके हैं। उसके बाद सिद्धि में जानेका व्यवच्छेद हो गया । (दुवासपरियाए अतमकासी) इस वाक्यसे पर्यायान्तकर भूमि सूत्रकार ने प्रकट की है।
तीर्थकर की केवली अवस्था के पर्यायरूप समय को लेकर जो अन्त कर भूमि होती है उसका नाम पर्यायान्तकर भूमि है ऐसा इस शब्दका
શબ્દથી કાળ તેમજ યુગ શબ્દથી ગુરુ-શિષ્ય પ્રશિષ્ય વગેરે પુરૂષાનુ ગ્રહણ થયુ છે એથી આ બધા ગુરુ શિષ્ય પ્રશિષ્ય વગેરે પુરૂષોને આરભીને જેમા તે ભવથી જ મેાક્ષ મેળવનારાઓનુ પ્રમાણ પ્રમિત ( કેટલુ છે તેની ગણત્રી ) કરવામા આવે તે યુગાતકર ભૂમિ શબ્દને વાચ્યા થાય છે મઠ્ઠીછનથી માડીને એમના તીમા પટ્ટાનુપટ્ટ ક્રમથી વિશતિતમપટ્ટ પુરૂષ સુધી સાધુએ સિદ્ધપદ भाभी शुभ्या छे त्यारपछी सिद्धिमा वा भाटे व्यवच्छे थ गये। ( दुवास परियाए अतमकासी ) मा वायथी सूत्रारे पर्यायान्त१२ भूमि प्रभु छे
તીથ કરની કેવળી અવસ્થાના પર્યાયરૂપ સમયથી લઈને જે અન્તકર ભૂમિ હાય છે, તેનુ નામ પર્યાયાન્તર ભૂમિ છે આ શબ્દના વાચ્યા આ પ્રમાણે જ
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गारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०८ जितशध्यादिप इाशांवीक्षाग्रहणादिनिरू० ५४२ भूमिः । मरल्या अर्हतः केवलज्ञानस्य द्विवर्ष - पर्यायेसती तत्तीर्थे साधु अन्तमकापत् - भवान्तमकरोत् न ततः पूर्व कश्चिदपीत्यर्थ ।
मल्ल खलु अर्हन् पञ्चविंशतिर्धनृपि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन = मल्ल्या अर्हतः शरीरमुच्चत्वेन पञ्चविंशतिर्धनुः परिमितमासीदित्यर्थः । वर्णेन मियहुसमः नीलवर्णइत्यर्थः । समचतुरस्रसस्थानः, वज्रऋषभनाराचसदमन मध्यदेशे ग्रामानुग्राम सुखसुखेन विहत्य चैत्रसमेतः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, समेतशैलशिखरे पादपोपगमनोपपन्न पादपोपगमन सस्तारक स्वीकृतवान् । मल्ली खलु अन् एक वर्षशतम् अगारवासमध्ये वाचार्थ निकलता है। मल्ली अहंत को केवल ज्ञान उत्पन्न हुए जब दो वर्ष हो गये तब उसके बाद ही उनके तीर्थ में अपने भवको अन्त कर साधुजनों ने मुक्ति लाभ किया। इसके पहिले कोई साधु मुक्ति मे नही गया । यही पर्यायान्त करभूमि है । ( मल्ली ण अरहा पणुवीस धणू मुड्ढ उच्चतेण ) इन मल्ली अरहत के शरीरकी ऊँचाई २५ धनुष प्रमाण थी। ( वण्णे ण पियगुसमे, समचउरससठाणे, वज्जरिसभणा राय सघयणे ) शरीर का वर्ण प्रियगु के समान नील था। संस्थान सम चतुरस्र था । सहनन वज्र ऋषभ नाराच था ( मज्झ देसे सुह सुहेण विहरित्ता जेणेव सम्मेए पव्वए तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता समेय सेलसिहरे पाओबगमणुववण्णे ) मध्य देश में सुख शान्ति पूर्व के बिहार कर ये प्रभु जहाँ समेत पवर्त था वहां आये। आकर उसी समेत शैल शिखर पर पादपोपगमन सधारा उन्हों ने धारण किया । (मल्ली ण अ
થાય છે મલી અહુ તને કેવળજ્ઞાન ઉદ્ભવ્યુ, તી મા પેાતાના ભવમા અતકર માધુજનાએ भडेला ने साधुसे भुति भेजवी नथी, से अरहा पणुवीस घणूइ मुढ उच्चत्तेण ) भक्ती धनुष प्रभाणु हती ( वण्णेण पियगुसमे, स घयणे ) शरीरने! २१ प्रियगुना હતુ સહનન વ ષસ નારાચ હતુ
( मज्झदेसे सुह सुहेण विहरित्ता जेणेव सम्मेए पव्वए तेणेत्र उबागच्छा उवागच्छित्ता समेयसेल सिहरे पाओवगमणुववणे )
તેના બે વર્ષ પછી જ તેમના મુક્તિ લાલ મેળળ્યે એના पर्यायान्तर लुभि हे मलीन भई तना शरीरनी उयाई २५ समचउर ससठाणे, वज्जरिसभणाराय वो नीडो इतो सस्थान समयतुरन
સુખ શાતિપૂર્વક મધ્ય દેશમા વિહાર કરીને મલ્લી પ્રભુ સમેત પર્યંત ઉપર પહેામ્યા ત્યા પહેાચીને તેઓશ્રીએ સમેત ગૈલ શિખર ઉપર પાપાપ ગમનસ થાય. પ્રાણ કો
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उपित्ता=स्थित्वापनपञ्चाशदर्पमस्राणि पर्पसतोनानि यात्-केवलिपर्याय पाल यित्वा, पञ्चपञ्चाशदर्पसहस्राणि सर्वायुकपालयित्वा यः सः ग्रीप्माणा ग्रीष्मकालानां चैत्रादिमामचतुष्टयरूपाणा प्रथमो माग द्वितीय पक्ष चैत्रशुद्ध चैत्रशुलः, तस्य खलु चैत्रशुद्धस्य चतु. यां भरण्या नक्षो भरणीनामानसो खलु चन्द्रयोगमुपागतेचन्द्रे भरणी नक्षनस्थिते सतीत्यर्थः । अर्धरात्रकारसमये पत्रमिर्यिकाशतेराम्यन्तरिकया परिषदा, पञ्चभिरनगारशतैहिया परिपदा सह, मासिकेन भक्तन-मनरहा एग वाससय अगारवासमझे चसित्ता पग पग वास सहस्सोइ वाससय जगाइ केवलिपरियाग पाउणित्ता पगपण्णवासमरस्ताइ सन्या उय पालहत्ता) ये मल्ली अर्हत प्रभु १ सौ वर्ष घर में रहे-याद में दी क्षित होकर सौ वर्षकम ५५, एजार वर्पतक केवलि पर्याय में रहे। इस तरह ५५ हजार वर्ष तक समस्त आयु को भोग कर ( जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्सण चेत्तसुद्धस्त चरथीए भरणीए खत्ते ण अद्वरत्ता कालसमयसि पहिं अज्जिया साहिं अ भितरियाए परिसाए प पहिं अगगारसएहि वाहिरिए परिसाए मासि एण भत्तण अपाणएण बग्धारियपाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे ) उन्हो ने ग्रीष्म काल के प्रथम मास में द्वितीय पक्षमें अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष में उस में भी चतुर्थी तिथि के दिन जय कि भरणी नक्षत्र का चद्रमा के साथ योग हो रहा था - अर्द्ध रात्रि के समय में आभ्यन्तर परिषदा थी पाचप्सौ अनगारो के साथ १ महिने का पानर
(मल्लीण आहा एग वाससय अगारवासमज्झे वसित्ता पण पण्णवास सहस्साइ वासमयऊगाइ केवलि परियाग पाउणित्ता पणपण्गवाससहस्साइ सव्वा उय पोलइत्ता)
મલ્લી અહંત પ્રભુ ૧ સે વર્ષ, ઘરમાં રહ્યા ત્યારપછી દીક્ષા ગ્રહણ કરીને ૫૫ હજાર વર્ષમાં એક વર્ષ ઓછા એટલે કે ૪૯૦૦ વર્ષનું આયુષ્ય ભગવાને કેવલી પર્યાયમાં રહ્યા આ રીતે પ૫ પચાવન હજાર વર્ષનું આયુષ્ય ભોગવીને
(जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्स ॥ चेत्त सुद्धस्स घउत्थीए भरणीए गक्खत्ते णं अद्धरत्तकालसमयसि पहिं अज्जिया सएहि अभितरियाए परिसाए पर्हि अगगारसयेहि वाहिरियाए परिसाए मासिएण भत्तेण अपाणएण वग्धारि य पाणी खेणे. वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे) - તેમણે ગ્રીષ્મકાળના પહેલા મહિનાના બીજા પખવાડીયામા એટલે કે ચિત્ર શુકતા પક્ષમાં તેમાં પણ ચોથના દિવસે જ્યારે ભરણી નક્ષત્રને ચકની સાથે એગ થઈ રહ્યો હતો, અદ્ધ રાત્રિના વખતે આભ્ય તર પરિષદ હતી ત્યારે પાચસે આયિકાઓની સાથે ૧ મહિનાનુ પાન રહિત ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરીને
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अनगारधामृतषिणी टी० अ०८ जितशवादिष राक्षादीक्षाग्रहणादिनिरू० ५५१ प्रत्याख्यानेन, अपानकेन-पानरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थ , व्याधारित पाणि-मलम्बितभुजद्वयः, क्षीणे प्रणप्टे सति वेदनीये आयुष्के नाम्नि गोरे च कर्मणि-सिद्धा-सिद्धिं गतः । एव परिनिर्वाणमहिमाभणितव्या-यथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्त्याम् , यथा स्पभस्य निर्माणमहिमा मोक्तस्तथा मल्लिजिनस्यापि वोध्यइत्यर्थः । नन्दीश्वरे नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाहिका महिमा अप्टाहंसाध्यमहोत्सव देवे. कृतः । कृत्वा यावत्-प्रतिगताः यस्यादिशः प्रादुर्मूतास्ता दिश प्रतिगताः भतिनिवृत्ताः। रित भक्त प्रत्याख्यान करके दोनो हाथ फैलाये हुए अवशिष्ट वेदनीय
आयु नाम एव गोत्र कर्म के नष्ट होते ही सिद्धि अवस्था प्राप्त करली! (एव परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्या जहा जयूद्दीवपण्णत्ती ) जिस प्रकार जबूदीप प्रज्ञप्ति में अपभ देव के निर्वाण का महिमा प्रकट की गई है उसी तरह इन मल्ली भगवान के निर्वाण की भी महिमा जान नीचाहिये । ( नदीसरे अहादिया मरिमा जाव पडिगया) देवताओं ने मल्ली प्रभु के इस निर्वाण कल्याणक की महिमा नदीश्वर द्वीप में ८ दीन तक लगातार उत्सव कर के मनाई । यादमे वे वहासे जिस दिशासे प्रकट हुए थे उस दिशाको वापिस चले गये अब सुधर्मास्वामी जम्यूस्वामी से कहते हैं (एव खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण अट्ठमस्स ना. यज्झयणस्म अयमढे पपणत्ते त्तिमि ) हे जम्बू! श्रमण भगवान् मवीर ने कि जो सिद्धिस्थान के अधिपति बन चुके है इस आठवें जाताध्य બને હાથે ફેલાવતા અવશિષ્ટ વેદનીય, આયુ, નામ અને ગેત્ર કર્મને નાશ થતા જ સિદ્ધિ અવસ્થા મેળવી લીધી (एव परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्या जहा जद्दीवपण्णत्तीए)।
જે પ્રમાણે જ બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિમા ઝષભદેવને મહિમા આલેખવામાં આવ્યા છે તે પ્રમાણે જ મલી ભગવાનના નિર્વાણને મહિમા પણ જાણવો જોઈએ (नदीसरे अट्ठा हया महिमा जाव पडिया ) भी प्रभुना मा निर्वाणुना ४स्याए કારક મહિઝાને ઉત્સવ દેવતાઓએ નદીશ્વર દ્વીપમાં સતત આઠ દિવસ સુધી ઉજવ્યું ત્યારપછી તેઓ ત્યાથી જે દિશામાંથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ પાછા જતા રહ્યા હવે સુધર્માસ્વામી જ બૂસ્વામીને કહે છે –
(एव खलु जवू । समणेण भगवया महागीरेण अट्टमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णते तिबेमि)
હે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ સિદ્ધિસ્થાનના અધિપતિ
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प्राथ
उपित्वा = स्थित्वा पञ्चपञ्चाशदर्पमत्राणि वर्षशतोनानि यावत् केव पिर्याय पाल यित्वा, पञ्चपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि सर्वायुक पालयित्वा यः सः ग्रीष्माणा ग्रीष्मकाला चैत्रादिमा मचतुष्टयरूपाणा मयमो माम. द्वितीय पक्ष चैत्रशुद्धः, तस्य खलु चैत्रशुद्धस्य चतुभ्या भरण्या नक्षत्रे भरणीनाम सल चन्द्रयागते - चत्रे भरणी नक्षनस्थिते सतीत्यर्थः । जर्धरात्रकारसमये पञ्चमिरार्थिकाशतैराभ्य न्तरिकया परिषदा, पञ्चभिरनगारशतैर्नासिया परिषदा सह, मासिकेन भक्तेन-मकरहा एग वाससय अगारवास मज्झे वसित्ता पत्र पण्ग वोम सहरसाइ वाससय ऊगाइ केवलिपरियाग पाउभित्ता पणपण्णवाससहरमा सन्या उय पालहत्ता ) से मल्ली अर्हत प्रभु १ सौ वर्ष घर में रहे बाद में दी क्षित होकर सौ वर्ष कर्म ५५ हजार वर्षतक केवल पर्याय में रहे। इस तरह ५५ हजार वर्ष तक समस्त आयु को भोग कर ( जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्स चेत्तसुस्त वीए भरणीए खत्ते ण अद्वरत्ता कालसमयसि पचहि अज्जिया साहिं अ भितरिया परिसाए पहि अणगारसपरि बाहिरियाण परिसाए मासि एण भत्ते अपाणएण वग्धारियपाणी खेणे वैयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे ) उन्हो ने ग्रीष्म काल के प्रथम मास में द्वितीय पक्षमें अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष मे उस मे भी चतुर्थी तिथि के दिन जब कि भरणी नक्षत्र का' चद्रमा के साथ योग हो रहा था - अर्द्ध रात्रि के समय में आभ्यन्तर परिषदा थी पाचसौ अनगारो के साथ १ महिने का पानर
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( मल्ली ण अरहा एग वाससय अगारवा समज्झे वसित्ता पण पण्णनास सहस्साइ वाससयऊगाइ केवलि परियाग पाउणित्ता पणपण्णवाससहस्साड सव्वा उय पोलइत्ता )
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મલી અહું ત પ્રભુ ૧ સે। વર્ષ ઘરમા રહ્યા ત્યારપછી દીક્ષા ગ્રહણ કરીને ૫૫ હજાર વર્ષોંમા એકસેા વર્ષ આછા એટલે કે ૪૯૦૦ વર્ષોંનુ આયુષ્ય ભાગવીને કેવલી પર્યાયમા રહ્યા આ રીતે પય પચાવન હજાર વર્ષનું આયુષ્પભાગવીને
(जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत सुद्धे, तस्स ण चेत्त मुदस्स arrate भरणी णक्खत्ते णं अद्धरत्तकालसमयसि पचहि अज्जिया सरहिं अमित रियाए परिसाए पचहिँ अगगारसयेहिं बाहिरियाए परिसाए मासिएण भत्तेण अपाणएण वग्धारि य पाणी खेणे वेयणिज्जे आइए नामे गोए सिद्धे ) તેમણે ગ્રીષ્મકાળના પહેલા મહિનાના બીજા પખવાડીયામા એટલે કે ચૈત્ર શુકલ પક્ષમા તેમા પણ ચેાથના દિવસે જ્યારે ભરણી નક્ષત્રના ચદ્રની સાથે ચેાગ થઈ રહ્યો હતેા, અદ્ધ રાત્રિના વખતે આયતર પરિષદ હતી ત્યારે પાચસા આયિકાની સાથે ૧ મહિનાનુ પાન રહિત ભક્ત મત્યાખ્યાન કરીને
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अनगारधर्मामृतपणो टी०२०८ जितशत्रादिष राज्ञांदीक्षाग्रहणादिनिरू० ५५१ प्रत्याख्यानेन, अपानकेन=पानरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थ, व्याधारित पाणिः=मलम्बितभुजद्वयः, क्षीणे-प्रणाटे सति वेदनीये आयुष्के नाम्नि गोने च कर्म्मणि - सिद्ध: - सिद्धिं गतः । एवं परिनिर्वाणमहिमाभणितव्या यथा जम्बूद्वीप प्रज्ञयाम्, यथा रूपभस्य निर्वाणमहिमा प्रोक्तस्तथा मल्लिजिनस्यापि वोध्यइत्यर्थः । नन्दीश्वरे= नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाहिका महिमा - अष्टादसाध्य महोत्सव देवे. कृतः । कृत्वा यावत् प्रतिगताः = यस्यादिगः प्रादुर्भूतास्ता दिश प्रतिगता:= प्रतिनिवृत्ताः ।
हित भक्त प्रत्याख्यान करके दोनो हाथ फैलाये हुए अवशिष्ट वेदनीय आयु नाम एव गोत्र कर्म के नष्ट होते हीं सिद्धि अवस्था प्राप्त करली ! ( एव परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्या जरा जबूद्दीपण्णत्ती) जिस प्रकार जबूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऋषभ देव के निर्वाण का महिमा प्रकट की गई है उसी तरह इन मल्ली भगवान के निर्वाण की भी महिमा जान नी चाहिये । ( नदीसरे अट्ठाहिया महिमा जान पडिगया) देवताओं ने मल्ली प्रभु के इस निर्वाण कल्याणक की महिमा नदीश्वर द्वीप में ८ दीन तक लगातार उत्सव कर के मनाई। बादमे वे वहासे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उस दिशाको वापिस चले गये अथ सुधर्मास्वामी जम्मूस्वामी से कहते हैं (एव खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेण अट्टमस्स नायज्झयणस्म अयमडे पण्णत्ते त्तिवेभि ) हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महवीर ने कि जो मिद्धिस्थान के अधिपति बन चुके हैं इस आठवें ज्ञाता ध्य
અને હાથે ફેલાવતા અશિષ્ટ વેદનીય, આયુ, નામ અને ગાત્ર કમના નાગ થતા જ સિદ્ધિ અવસ્થા મેળવી લીધી
( एव परिनिव्वाणमहिमा भाणियन्त्रा जहा जहीवपण्णत्तीए )
જે પ્રમાણે જ ખૂદ્વીપ પ્રતિમા ઋષભદેવના મહિમા આલેખવામા આવ્યે છે તે પ્રમાણે જ મલી ભગવાનના નિર્વાણુના મહિમા પણ જાણવા જોઈએ ( न दीसरे अट्ठा हिया महिमा जात्र पडिया ) भली प्रभुना मा निर्वाणुना उदयालु કારક મહિમાના ઉત્સવ દેવતાઓએ નીશ્વર દ્વીપમા સતત આઠ દિવસેા સુધી ઉજન્મે ત્યારપછી તેઓ ત્યાથી જે દિશામાથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ પાછા જતા રહ્યા હવે સુધર્માસ્વામી જ ભૂસ્વામીને કહે છે—
( एव खलु जबू' समणेण भगवया महानीरेण अट्टमम्म नायज्झयणस्स अयम पण्णत्ते त्तित्रेमि )
હે જમ્મૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે - જેએ સિદ્ધિસ્થાનના અધિપતિ
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५५०
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ज्ञाताधर्मकथा
उपित्वा = स्थित्वा पञ्चपञ्चाशद्महस्राणि वर्षशतोनानि यावत् केव पिर्याय पाल यित्वा, पञ्चपञ्चाशद्वर्ष महस्राणि सर्वायुष्क पाठविलाय सः ग्रीष्माणा ग्रीष्मकालानी चैत्रादिमा मचतुष्टयरूपाणा प्रथमो मागः द्वितीय पक्ष चैत्रशुद्र = चैत्रशुक्रः, तस्य खल चैत्रशुद्धस्य चतुया भरण्या नक्षत्र भरणीनामकन सचन्द्रयोगमुपागतेचन्द्रे भरणी नक्षतस्थिते सतीत्यर्थः । अर्धरात्रकारसमये पञ्चमिरार्थिकाशते राम्पन्तरिकया परिपदा, पञ्चभिरनगारशतैर्नाशया परिषदा सह, मासिकेन भक्तेन भक्त रहा एग वाससय अगारवास मज्शे वसित्ता पग पग वोस सहरसाइ वाससय ऊगाइ केवलिपरियाग पाउभित्ता पगपण्णवाससरस्माइ सव्वा उय पालहत्ता ) ये मल्ली अर्हत प्रभु १ सौ वर्ष घर में रहे बाद में दी क्षित होकर सौ वर्ष कर्म ५० हजार वर्षतक केवल पर्याय में रहे। इस तरह ५५ हजार वर्ष तक समस्त आयु को भोग कर ( जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्सण चेत्तसुद्धस्त च उत्थीए भरणीए णक्खत्ते ण अदूरत्ता कालसमयसि पचहिं अज्जिया साहिं अ भितरिया परिसाए पर्हि अणगारसपरिवाहिरिगए परिसाए, मासि एण भत्ते अपाणएण वधारियपाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे ) उन्होने ग्रीष्म काल के प्रथम मास में द्वितीय पक्ष में अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष में उस मे भी चतुर्थी तिथि के दिन जब कि भरणी नक्षत्र का चद्रमा के साथ योग हो रहा था - अर्द्ध रात्रि के समय में आभ्यन्तर परिषदा थी पाचसौ अनगारो के साथ १ महिने का पानर
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( मल्ली ण अरहा एग वासस्य अगारवासमझे वसित्ता पण पण्णास सहस्सा वाससमजणार केवलि परियाग पाउणित्ता पणपण्णवाससहस्सा सन्ना उय पोलइत्ता )
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મલી અ`ત પ્રભુ ૧ સે વ ઘરમા રહ્યા ત્યારપછી દીક્ષા ગ્રડણુ કરીને ૫૫ હજાર વર્ષ માં એકસેસ વર્ષ આછા એટલે કે ૪૯૦૦ વર્ષોંનુ આયુષ્ય ભાગવીને કેવલી પર્યાયમા રહ્યા આ રીતે ૫૫ પંચાવન હજાર વર્ષનું આયુષ્ય લેાગવીને
(जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत सुद्धे, तस्स ण चेत मुदस्स are भरणी णक्खत्ते णं अद्धरतकालसमयसि पचहि अज्जिया सहि अभितरियाए परिसाए पचहिं, अणगारसयेहिं बाहिरियाए परिसाए मासिएण भत्तेण अपाणएण वग्वारि य पाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे ) તેમણે ગ્રીષ્મકાળના પહેલા મહિનાના બીજા પખવાડીયામા એટલે કે ચૈત્ર શુકલ પક્ષમા તેમા પણ ચાથના દિવસે જ્યારે ભરણી નક્ષત્રના ચંદ્રની સાથે ચાગ થઈ રહ્યો હતેા, અદ્ધ રાત્રિના વખતે આભ્યતર પરિષદ હતી ત્યારે પાંચસે આયિકાઆની સાથે ૧ મહિનાનુ
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अनगारधर्मामृतयपिणी टी०२०८ जिसराज्यादिप राहांदीक्षा ग्रहणादिनिरू० ५५१ प्रत्याख्यानेन, अपानकेन = पानरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थ, व्याधारितपाणि: = मलम्बितभुजद्वयः, क्षीणे= प्रणष्टे सति वेदनीये आयुष्के नाम्नि गोने च कर्म्मणि - सिद्धः सिद्धिं गतः । एवं परिनिर्वाणमहिमाभणितव्या यथा जम्बूद्वीप मज्ञयाम्, यथा अपभस्य निर्माणमहिमा प्रोक्तस्तथा मल्लिजिनस्यापि वोध्यइर्थ । नन्दीश्वरे= नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाहिका महिमा = अप्टाहसाध्यमहोत्सव देवे. कृतः । कृत्वा यावत् प्रतिगताः = यस्यादिशः प्रादुर्भूतास्ता दिश प्रतिगताः = प्रतिनिवृत्ताः ।
हित भक्त प्रत्याख्यान करके दोनो हाथ फैलाये हुए अवशिष्ट वेदनीय आयु नाम एव गोत्र कर्म के नष्ट होते हीं सिद्धि अवस्था प्राप्त करली ! (ण्व परिनिव्वाणमहिमा भाणियन्वा जहा जद्दीवपण्णत्ती ) जिस प्रकार जबूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऋषभ देव के निर्वाण का महिमा प्रकट की गई है उसी तरह इन मल्ली भगवान के निर्वाण की भी महिमा जान नी चाहिये । ( नदीसरे अठ्ठाहिया महिमा जाव पडिगया) देवताओं ने मल्ली प्रभु के इस निर्वाण कल्याणक की महिमा नदीश्वर द्वीप में ८ दीन तक लगातार उत्सव कर के मनाई। बादमे वे वहासे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उस दिशाको वापिस चले गये अब सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं (एव खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण अट्टमस्स ना यज्यणस्म अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिवेमि ) हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महवीर ने कि जो सिद्धिस्थान के अधिपति बन चुके है इस आठवें ज्ञाताध्य
અને હાથા ફેલાવતા અવશિષ્ટ વેદનીય, આયુ, નામ અને ગેાત્રકના નાશ થતા જ સિદ્ધિ અવસ્થા મેળવી લીધી
( ए परिनिव्वाणमहिमा भाणियन्त्रा जहा जब्दीवपण्णत्तीए )
જે પ્રમાણે જ ખૂદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિમા ઋષભદેવના મહિમા આલેખવામા આવ્યે છે તે પ્રમાણે જ મલી ભગવાનના નિર્વાણુના મહિમા પણ જાણવા જોઇએ ( न दीसरे अट्टा हया महिमा जात्र पडितया ) भली प्रभुना था निर्वाणुना स्या કારક મહિમાના ઉત્સવ દેવતાઓએ નદીશ્વર દ્વીપમા સતત આઠ દિવસા સુધી ઉજન્મ્યા ત્યારપછી તેઓ ત્યાથી જે દિશામાંથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ પાછા જતા રહ્યા હુવે સુધર્માંસ્વામી જ ભૂસ્વામીને કહે છે~~
( एव खलु जवू । समणेण भगवया महानीरेण अट्टमस्स नायज्झयणस्स मट्ठे पण तिवेमि )
હું જ ખૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જે સિદ્ધિસ્થાનના અધિપતિ
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___- ताप उपित्वा स्थित्वापञ्चपञ्चाशदर्पमस्राणि पश्तोनानि यावत्-केत्रलिपर्याय पाल यित्वा, पञ्चपञ्चाशदर्पमहस्राणि सर्वायुफ पातयित्वा यः स.ग्रीप्माणा ग्रीष्मकालाना चैत्रादिमामचतुष्टयरूपाणा प्रथमो माम द्वितीय पक्ष चैत्रशुद्ध चैत्रशुलः, तस्य खलु चैत्रशुद्धस्य चतुया भरण्या नक्षो भरणीनामकनक्षो खलु चन्द्रयोगमुपागतेचने भरणी नक्षतस्थिते सतीत्यर्थः । अर्थरात्रकारसमय पञ्चमिरार्यिकाशतेराम्यन्तरिकया परिपदा, पञ्चभिरनगारशताधया परिपदा सह, मासिकेन भक्तेन-मतरहा एग वाससय अगारवासमज्झे वसित्ता पग पग वाम सहस्साइ वाससय ऊगाइ केवलिपरियाग पाउणित्ता पगपण्गवाससासमाइ सन्या उय पालहत्ता) ग्रे मल्ली अर्थत प्रभु १ सौ वर्ष घर में रहे-याद में दी क्षित होकर सौ वर्ष कम ६५, एजार वर्पतक केवलि पर्याय में रहे। इस तरह ५५ हजार वर्षे तक समस्त आयु को भोग कर (जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्सण चेत्तसुद्धस्त चात्थीए भरणीए खत्ते ण अद्वरत्ता कालसमयसि पचर्हि अज्जिया साहिं अ भितरियारा परिसाए पर्हि अणगारसएहि चारिरियाए परिसाए मासि एण भत्तण अपाणण्ण वग्धारियपाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे) उन्हो ने ग्रीष्म काल के प्रथम माम में द्वितीय पक्षमें अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष में उस में भी चतुर्थी तिथि के दिन जय कि भरणी नक्षत्र का चद्रमा के साथ योग हो रहा था - अर्द्धरात्रि के समय में आभ्यन्तर परिपदा यी पाचसौ अनगारो के साथ १ महिने का पानर
मल्ली ण अरहा एग वाससय अगारवासमझे वसित्ता पण पण्णवास सहस्साइ वाससयऊणाइ केवलि परिचाग पाउणिता पणपण्गवाससहस्साइ सन्त्रा उय पोलइत्ता)
મલ્લી અર્હત પ્રભુ ૧ સે વર્ષ ઘરમાં રહ્યા ત્યારપછી દીક્ષા ગ્રહણ કરીને પપ હજાર વર્ષમાં એક વર્ષ ઓછા એટલે કે ૪૯૦૦ વર્ષનું આયુષ્ય ભોગવીને કેવલી પર્યાયમાં રહ્યા આ રીતે ૫૫ પચાવન હજાર વર્ષનું આયુષ્ય ભોગવીને
(जे से गिम्हाण पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्स ण चेत्त सुद्धस्स घउत्थीए भरणीए णक्खत्ते ण अद्धरत्तकालसमयसि पचहिं अज्जिया सएराह अभितरियाए परिसाए पहिं ,अणगारसयहिं वाहिरियाए परिसाए मासिएण भत्तेण अपाणएण वग्धारि य पाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे)
તેમણે ગ્રીષ્મકાળના પહેલા મહિનાના બીજા પખવાડીયામાં એટલે કે ચૈિત્ર શુકલ પક્ષમાં તેમાં પણ ચોથના દિવસે જ્યારે ભરણી નક્ષત્રને ચકની સાથે ગ થઈ રહ્યો હતો, અદ્ધ રાત્રિના વખતે આભ્યતર પરિષદ હતી ત્યારે પાસે આર્થિકાઓની સાથે ૧ મહિનાનું પાન રહિત ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરીને
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॥ अथ नवमम् अध्ययनम् ॥ गतमष्ट' मध्ययन, साम्प्रत नवम मारभ्यते, अस्य पूर्वेण सहाय सम्बन्धपूर्वस्मिन् मायावतोऽनर्थः मोक्तः, रह च भोगेप्वविरतिमतोऽनों विरतिमतश्वार्थः मोच्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-'जइण भते' इत्यादि ।
मूलम्-जइण भते। समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्सणायज्झयणस्स अयमट्रे पण्णत्ते नवमस्त णं भंते । नायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेण के अटे पण्णत्ते , एव खलु जबू । तेणं कालेण२ चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे चेइए तत्थणं माकदी नाम सत्थवाहे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स ण भदा
-नववा अध्ययन प्रारभ___ अष्टम अ ययन समाप्त हुआ। अब नौवां अध्ययन प्रारमें होता है इस अध्ययनका पूर्व अध्ययनके साथ इस तरहसे सबंध है पूर्व अध्ययन में कहा गया है कि जो साधु मायावी होते है वे अनर्थ के पात्र होते हैं अर्थात् यदि उसके महावतों में थोड़ा सा भी माया शल्य है तो वे उसे यथावत् फल जनक नही होते हैं-अब सूत्र कार इस अध्ययन द्वारा यह प्रकट करेंगे कि जो साधु भोगों से विरक्त नहीं होता है वह अनर्थका स्थान होता है और जो विरक्त होता है वह अपने प्रयोजनरूप अर्थको प्राप्त कर लेता है । इसी सरन्धको लेकर प्रारभ हुए इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है (जहण भते समणेण जाव सत्तण) इत्यादि ।
નવમું અધ્યયન પ્રારભ ! આઠમુ અધ્યયન પુરૂ થયું છે નવમુ અધ્યયન હવે આર ભ થાય છે આઠમાં અધ્યયનની સાથે આ અધ્યયનને સ બ ધ આ પ્રમાણે છે કે આઠમા અધ્યયનમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે જે સાધુઓ માયાવી હોય છે તેઓ અનર્થના પાત્ર હોય છે એટલે કે જે તેને મહાવ્રતમાં થોડું પણ માયાશલ્ય (માયા રૂપ કાટે) હેાય ત્યારે તેઓ તેમાં યોગ્ય ફળના અધિકારી થતા નથી હવે સૂત્ર પર આ અધ્યયનમાં એ વાત પણ કરવા ઈચ્છે છે કે જે સાધુ ભેગથી વિરકત થતો નથી તે અનર્થનું સ્થાન થઈ પડે છે અને જે વિરક્ત હોય છે તે પિતાના પ્રોજન રૂ૫ અર્થને મેળવી લે છે આ વિષયને લઈને પ્રારભ થતા નવમાં અધ્યયનનું આ પહેલું સૂત્ર છે—- -
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मुधर्मास्वामी प्राह-' एवं खल जनू' इत्यादि । एवं खलु जम् ! पर णेन भगवता महावीरेण-यात् सिदिगतिनामधेय स्थान समाप्तेन, अष्टमस्थ ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थ उक्तरूपो भावः प्राप्त कथितः इति प्रवीमि मस्त व्याख्यान पूर्ववत् ।। सू० ४० ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्गल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशमाषाकलितपलितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दा-श्रीशाहच्छ प्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशाखाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराज गुरु-पालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलावतिविरचिताया 'शाताधर्मकयार' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
पिण्याख्याया व्याख्याया अष्टममभ्ययन सपूर्णम् ।। ८॥ यन का यह पूर्वोक्त रूप अर्थ प्ररूपित किया है । अतःजेसा प्रभुने अप ने मुखारविन्द से कहो और जैसा उनसे मैंने सुना-वैसा ही यह तुम सें कहा है । सू० ॥ ४० श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथासूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का आठवा
___ अध्ययन समाप्त ॥ ८॥ થઈ ગયેલા છે–આઠમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ ઉ૫ર લખ્યા મુજબનો અર્થ નિરૂ પિત કર્યો છે એટલા માટે પ્રભુએ પિતાના મુખારવિંદથી જે પ્રમાણે મને ४ह्यो भने में सामन्यो त प्रभारी १ तभ में ही छे ॥ सूत्र ४० ॥
આઠમું અધ્યયન સમાપ્ત છે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ मारुन्दिदारकचरितनिरूपणम्
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तएण ते मागंदीदारए अम्मा पियरां जाहे नो सचाएंति वहूहिं आघवणाहि पण्णवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयम अणुजाणित्था । तएण तं मार्गदियदारगा अम्मापिऊहि अम्भणुष्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स जाव लवणसमुद्दे वहूइ जोअणसयाइ ओगाढा ॥ सू० १ ॥
टी-श्री जम्बूस्वामी पृच्छति - यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन - अष्टमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थ' प्रज्ञप्तः, नवमस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रवणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोर्थ. प्रज्ञप्त १ श्री सुर्मास्वामी माह एवं खलु जम्मू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पानामनगरी । पूर्ण भद्रं चैत्यम् । तत्र खलु माकन्दीनाम सार्थवाह परिवसति ' अड्डे ' आढ्य = प्रभूतधनधान्यसंपन्न, ' जाव परिभू' यानदपरिभूत केनाऽप्यपरिभवनीय - सर्वजनमान्य इत्यर्थ । तस्य खलु भद्रानाम भार्यां । तस्या व भार्याया आत्मजौ द्वौ सार्थवाहदारको
टीकार्थ - जवूस्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भते) भदन्त ! (जडण समणेण जाव सपत्तेण अडमस्स णायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते नवमस्तण के अहे पण्णत्ते) यदि श्रमण भगवान् महवीरने कि जो सिद्धि स्थान के भोक्ता बन चुके है अष्टम ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है तो हे भदत | उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिस्थान के अधिपति बन चुके है नौवें जाताध्ययन का क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? ( एनखतु जत्रू ! तेग कॉलेग २ चपा नम नयरी, पुण्णभद्दे चेहए, तत्वण माकदी नाम सत्यवाहे
1
टीअर्थ - ' जइण भते ! समणेण जाव स पत्तेण ' इत्यादि ॥
४णू स्वाभी सुधर्मास्वामीने प्रश्न उरे छेडे ( भते ! ) डे लद्दन्त ! अडमस्त अयमद्वे पण्णत्ते नत्रमहस ण भते ! के अड्डे पण्णत्ते १ )
જો શ્રમણ ભગવાન મહાવીર-કે જેઓ સિદ્ધસ્થાનના ઉપલેાક્તા થઈ ચૂકયા છે-માઠમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ ઉપર કહ્યા મુજમ નિરુપિત કર્યો છે તા નવમા જ્ઞાતાધ્યયનને અથ તેએએ કેવી રીતે પ્રગટ કયા છે ?
(एव खलु जवू ! तेण कालेन २ चपा नाम नयरी पुण्गभदे चेइए, तत्यम्
( जइण समणे ण जात्र सपत्तेण नायज्झयणस्स समणेण जाव सपत्ते
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ज्ञाताधर्मकथासू
नामं भारिया, तीसेनं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाहदारया होत्था, तं जहा - जिणपालिए य जिणरक्खिए य, ततेणं तसं मागंदियदारगाण अन्नया क्याई एगयओ साहियाणं इमेयारूवे मिहो कहा मुलावे समुप्पज्जित्था - एवं खलु अम्हे लवणसमुद्द पोयवहणेण एक्कारसवारा ओगाढा सव्वत्थ वि य णं लट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि निययघर हव्वमागया त सेयं खलु अम्हे देवाप्पिया | दुवालसमपि लवणसमुद्दं पोतवहणं ओगाहित्तए-त्तिकद्दु अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुर्णेति पडिसुणित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एव वयासी - एव खलु अम्हे अम्मयाओ । एक्कारस वारा तं चैव जाव निययं घरं हव्वमागया, तं इच्छामो णं अम्मयाओ । तुब्भेहि अब्भणुष्णाया समाणा दुवालसम लव समुद्दे पोयवहणेण ओगाहित्तए । तएण ते मागंदियदारप अम्मापियरो एव वयासी- इमे य ते जाया । अज्जग जाव परिभाएत त अणुहोह ताव जाया । विउले माणुस्सए इड्डी सक्कारसमुदए, कि भे सपच्चवाएण निरालबणेण लवणसमुहोतारेणं १, एव खलु पुत्ता | दुवालसमी जत्ता. सावसग्गा यावि भवइ, तं माणं तुभे, दुवे पुत्ता | दुवालसमपि लवण० जाव ओगाह, माहु तुम्भ सरीरस्स वावती भविस्सइ, तएर्ण मार्गदियदारगा अम्मापियरो दोच्चपि तच्चपि एव वयासी - एव खलु अम्हे अम्मयाओ । एक्कारसवारा लवण जाव ओगाहित्तए,
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अभंगारामृतवर्षिणी टीका म० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५७ 'ओगाढा' अवगाहितवन्तौ उत्तीणों, सर्वत्रापि च खलु सर्वयात्रामु आवा 'लठ्ठा' ल्यार्थी प्राप्तप्रचुरधनौ, ‘कयकज्जा' कृतकायो-साधितधनोपा. जनादिसकलकार्या, 'अणहसमग्गा' अनघसमग्रौ = तस्करादिहेतुकविघातरहितसर्वस्वौ सतौ पुनरपि निजगृह हव्यमागतौ सर्वथा सकुशल समायातौ, तत्तस्मात् 'सेय' श्रेयः उचित खलु आवयोः देवानुपियः ? 'दुवालसमपि ' द्वादशमपि वार लपणसमुद्र पोतरहनेनावमाहितुम् , 'त्तिक्हु' इति कृत्वा इति विचार्याऽन्योन्यस्यैतमर्थ प्रतिशृणुतः = स्वीकुरुतः मतिश्रुत्य यत्रै अम्बापितरौ भद्रा माकन्दी च स्तः, तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्यैवमनादिष्टाम्-एव खलु आवा लवणसमुद्ध पोयवहणेण एक्कारसवारो ओगाढा सव्वत्य विय ण लट्ठा कयकजा अणहसमग्गा पुणरवि निययघर हव्वमागया ) जहाज द्वारा हम लोग लवण समुद्र से होकर ११ यार परदेश जा चुके है-जर २ हम लोग बाहर परदेश गये-तब २ हमने वहां पर प्रचुर धन कमाया है और कृत कार्य होकर वहां से निर्विघ्न रूप में अपने घर पापिस सकु शल आये है-(त सेय खलु अम्ह देवाणुप्पिया । दुवाल समपि लवण समुद्द पोतवणेण ओगाहित्तए ) इसलिये हे देवाणुप्रिय अब १२वी बार भी हम लोग जहाज द्वारा लवण समुद्र से होकर बाहर व्यपार कर ने के लिये चले-तो अच्छा है । (त्तिक अण्णमण्णस्स एयम पडि सुणेनि ) इस प्रकार का विचार कर उन दोनो ने एक दूसरे की बात को मान लिया (पडिसुणित्ता जेणेव अम्मा पियरो तेणेव उवागच्छइ उवा गच्छित्ता एव वयासी एव खल अम्मयाओ एकारस वारा त चेव जाव
(एव खलु अम्हे लवणसमुद्द पोयवहणेण एक्कारसवारा ओगाढा सव्वत्थ वि य ण लहा कयकज्जा अणह-समग्गा पुणरवि निययघर हव्यमागया)
વહાણ વડે અમે લોકો ૧૧ વખત દેશાવર ખેડવા નીકળ્યા હતા અને આ પ્રમાણે ત્યાથી પુષ્કળ ધન મેળવ્યું છે અને પિતાના વેપારમાં પૂર્ણરૂપે સફળ થઈને સકુશળ પાછા ઘેર ફર્યા છીએ (त सेय खलु अम्ह देवाणुप्पिया! दुवालसमपि लवणसमुह पोतवहणेण ओगाहित्तए)
એટલા માટે હે દેવાણપ્રિય ! ૧૨મી વખત પણ આપણે વહાણ બેસીને લવણ સમુદ્રમાં થઈને વેપાર કરવા દેશાવર માટે નીકળી પડીએ તે સારૂ થાય, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमट्ट पडिसुर्णति)
આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેઓએ એક મત થઈને આ વાત સ્વીકારી લીધી (पडिसुणिचा जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एव चयासी
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गावामेव्या आस्ताम् , ' त जहा' वद्यधा-तयाहि-जिनपालिता जिनरक्षितश्च । ततः सह तयोर्माकन्दिकदारस्योरन्यदा यदाचित् एकन सहितानामयमेतदपा मियः कथा समुल्लापः समुदपयत-एव खलु आा स्पणसमुद्र पोतबानेन एकादशवारान् परिवसइ अड़े जाय अपरिभूए, तस्स भदा नाम मारिया ) इस प्रकार जबू स्वामी का प्रश्न सुन कर श्री सुधमी स्वामी उन्हे समझाते है कि जबू! सुनों-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस तरर से है, उस काल और उस समय मे चपा नामकी नगरी थी । उसमें पूर्णभद्र नामका उद्यान या। उस चपा नगरी में माकटी नामका सार्थवाह ररता था । यह धनधान्य से खूयपूर्ण धा।अतः अपरि भवनीय धा। कोई भी मनुष्य इसका तिरस्कार नही कर सकता था-सर्वजन मान्य था । इनकी भार्याका नाम भद्रा था। (तीसेण महाग अत्तया दुवै सत्यवाह दारया होत्या त जहाजिणपालिएय जिण रक्खिए व) उस भद्रा के दो पुत्र थे.१) जिन पालित (२)जिनरक्षित (तत्तण तेसि मागदिय दारगाण अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं इम याख्वे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्या ) एक दिन की बात है कि जय ये दोनो माकदी सार्थवाह के पुत्र एक जगह मिलकर बैठे हुए थेतब इनमें परस्पर में इस प्रकार की बातचीत चली-(एव खलु अम्हे माकदीनाम सत्यवाहे परिवसा अड़े जाव अपरिभूए, तस्सण भदा नाम भरिया)
- આ રીતે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રા સુધર્મા સ્વામી તેમને સમજાવતા કહે છે કે હે જ બૂ ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે ચ પા નામે નગરી હતી તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતુ માક દી નામે એક સાર્થવાહ તે ચ પા નગરીમાં રહેતા હતા તે ધનધાન્યથી પૂર્ણરૂપે સમૃદ્ધ હતો, એટલા માટે તે અપરિ ભવનીય હતા કઈ પણ માણસની શક્તિ નહોતી કે તેને તિરસ્કાર કરી શકે તે સર્વે જેને માન્ય હતે તેમના પત્નીનું નામ ભદ્રા હતુ
(तीसेण भदाए अत्तया दुवे सत्यवाह दारया होत्या त जहा जिणपालि एय जिणरक्खिए य)
તે ભદ્રાને બે પુત્રો હતા-જિનપાલિન અને જિન રક્ષિત (तत्तेण तेसि मागदियदारगाण अनया कयाई एगपओ साहियाण इमेया रूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था)
એક દિવસે માકદી સાર્થવાહના બને અને એક જગ્યાએ બેઠા હતા ત્યારે તેઓ પરસ્પર વાત ચીત કરવા લાગ્યા કે
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० ९ माशन्दिदारकचरितनिरूपणम् सङ्ग्रहः, अस्य छाया-"आर्यक्रमार्यफपितृमार्यशागत च बहु हिरण्य च सुवर्ण च कास्य च दृष्य' च विपुलधनकनारत्नमणिमौक्तिकासशिलामवालरक्तरत्नादिकं सत्सारस्वापतेयम् , अल यावत् आसप्तमात् कुल वश्या प्रकाम दातु, काम भोक्त, मकाम" इति । अज्जयपज्जयपिउपज्जयागए 'आर्यकमार्यफपितृप्रायफागतम् , आर्यफ.-पितामह , मार्यका-पितुः पितामहः, पितृप्रार्य = पितुः प्रपितामहः, तेभ्यः सकाशाद् आगत-यशपरम्परया प्राप्त, 'बहु' प्रमाणतो बहुल 'हिरण' हिरण्य-रजत, ' सुवण' सुवर्ण अतीत, 'स' कास्य-धातुविशेपः, उपलक्षण ताम्रादीनाम् , ' दूस' दृप्य-वस्त्र चीनाशुकादिक 'विउल ' विपुल प्रचुर धणकणग' धनगपादि, कणक-ध न्य, 'रयण' रत्नानि = कर्केतनादीनि, 'मणि' मणयः चन्द्रकान्ताद्याः, 'मोत्तिय ' मौक्तिकानि प्रतीतानि, 'सखा' शङ्का-दक्षिणावाः, प्रसिद्धाः, यत्मभागाद् विश्न निवृत्तिः कुशलप्रवृत्तिश्च भाति 'सिलप्प बाल ' शिलामवालानि-विद्रुमाणि, 'रत्तरयण' रक्तरत्नानि-पद्मरागाः, तान्यादौयस्य तत्तादृश 'सतसारसावएज्जे' सत्सारस्वापतेय, सत्-विद्यमान साधीन. मित्यर्थः, 'सार'-प्रधान नापतेय-द्रव्य, ' अलाहि ' अल-परिपूर्णम् अस्ति स्यिपरिमितम् ? इत्याह-' जाव' इत्यादिना, 'जाव' यावत्-यावत्परिमितम् '-आसत्तमाओ कुलबसाओ' आसप्तमात् कुलवश्यात अद्यतनादारभ्य भविष्यत्सनिरालयणेण लवणसमुद्दोत्तारेण ) इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों के वचन सुनकर उनसे माता पिता ने इस प्रकार कहा-हे पुत्रों अपने यहा आर्यक प्रार्यक एव पितपार्यकों से चला आया बहुत सा हिरण्य सुवर्ण, कासा तांगा आदि तथा चीन आदि के वस्त्र, गाय भैस आदि धुन, गेहूँ आदि धोन्य, कतनादि रत्न, चन्द्रकान्त आदि मणिगण, मौक्तिक, दक्षिणावर्त शख, मूगा, पद्मराग आदि उत्तम से उत्तम द्रव्य खूब भरा पड़ा है-इस पर अपने सिवाय किसी और दसरे का अधि. कार नहीं हैं। वह प्रमाण में इतना अधिक है कि आजकी पीढीसे लेकर समुदए कि भे सपञ्चवाएण निरालवणेण लवणसमुद्दोत्तारेण )
આ પ્રમ ણે પિતાના અને પુત્રની વાત સાંભળીને માત પિતાઓએ આ રીતે કહ્યું કે હે પુ! આપણે ઘેર આર્યક, પ્રાર્થ અને પિતૃ પ્રાર્થનાથી એલ્ડ કરેલું ખૂબ જ સેન, કાસુ, તાબુ વગેરે તેમજ ચીન વગેરે દેશના વસ્ત્રો, ગાય, ભેસ વગેરે ધન, ઘઉં વગેરે ધાન્ય, કેતન વગેરે ને, ચદ્રકાત વગેરે મણિઓ, તીઓ, દક્ષિણાવર્ત શખ, પરવાળા દ્વરાગ વગેરે ઉત્ત મોત્તમ દ્રવ્ય પુષ્કળ પ્રમાણમાં ભર્યું છે આ નપત્તિ ઉપર બીજા કોઈનો અધિકાર નથી અને તે પ્રમાણમા એટલી બધી છે કે તમારી આજની પેઢીથી
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ताधर्मक्या हे अम्बताती ! एकादशमारान् तदेव यावत् निजागृद हव्यमागतो, तद् इछावः खल हे अम्बताती ! युष्माभिरभ्यनुसाती सनी द्वारा पार समुद्र पोतबहनेनअवगाहितु-समुत्तर्नु समुद्रयात्रा कर्त्तमभिलपार इत्यर्थः ।
तत खलु तो मान्दिकदारको अपापितरो एउमनादिष्टाम्-उद च ते 'जाया' जातो हे पुत्रौ ! 'ते' युवयोः अन्नग जार' आर्यक यात्, अत्र यावन्छन्देन 'अज्जयपज्जय-पिउपज्जयागए य बहु हिरणे य मुण्णे य कसे य मे य विउलधगकणगरयणमणिमोतिय सससिलप्पयालरत्तरयणमाइए सतसारसावएज्ज अलाहि जाव आमत्तमाओ कुलममाओ पाम दाउ, पाम भोत्तु, पकाम " इति नियय धर हव्ध मागया-त इन्छामो ण अम्प्रयाओ तुम्भे हिं अभणु प्रणाया समाणा दुवालसम लवणसमुद्द पोयवरणेण ओगारित्तए) मान कर फिर वे दोनों जहां माता पिता थे वहा गये वहा जाकर उनसे इस प्रकार कहा-हे मात तात । हम लोग ११ वार पोतवन साराल वण समुद्र से होकर नाहर परदेश में व्यापार करने के लिये जा चुके हैं वहा हमने अच्छी तरह से प्रचुर धन कमाया है और विनो किमी विघ्न वाधा के वहा से वापिस घर सकुशल लौट आये हैं अब हमारा विचा र १२ वी बार भी पोतवहन द्वारा लवण समुह को पार कर बाहर पर देश में व्यापार करने के लिये जानेका हो रहा है सोहम आपकी इस विषय में आजा चाहते हैं-(तएण ते मागदियदार अम्मापियरो एवं वयासी-इमेय ते जाया । अज्जग जाच परिभाएत्तपत अणुहोह ताच जाया । विउले माणुस्सएइडीतकारसदए, कि भै सपच्चवाए एप खलु अम्मयाओ एकतारमवारा त चेत्र जार नियय धा हव्यमागया व - इच्छामोण अम्मयाओ तुम्भेहिं अनगुम्माया समाणा दुवालसन लपगममुह पाय वहणेग ओगाहित्तए)
એક મત થઈને તેઓ બને ત્યાથી માતા પિતાની પાસે ગયા અને તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે માતા પિતા ! અમે અ યાર સુધીમાં અગિયાર વખત વહાણ વડે લવણ સમદ્રમાં થઈને બહાર પરદેશમાં વેપાર કરવા ગયા છીએ ત્યાં જઈને અમોએ પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન મેળવ્યું છે અને ત્યાથી પાછા ક્ષેમકુશળ નિર્વિદત રૂપે ઘેર આવ્યા છે એ હમણા અમારો વિચાર વહાણ વડે જ ૧૨ મી વખત લવ સમુદ્રને પાર કરીને પરદેશમાં વેપાર કરવા માટે જવાન થઈ રહ્યો છે તે એ માટે અમે તમારો આજ્ઞા માંગીએ છીએ (तएग ते मागदियदारए पापियो ए। माना इमेर ते जाया ।
सरकार मज्जग जाव परिभाएत्तर त अणुहोद ताव जाया ! विउले माणुस्सए
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५६१ वस्तुवर्जितेन वा ' लदणसमुद्दोत्तारेण ' लवणसमुद्रोत्तारेण = लपणसमुद्रोत्तरणेन 'कि' किं प्रयोजनम् ? न किमपीत्यर्थः, युवाभ्यामवस्थातव्य न कुत्रापि गन्तव्यमिति भा. । पुनश्च-एव खलु 'पुत्ता' हे पुत्रौ । द्वादशी यात्रा 'सोवसग्गा' सोपसर्गा-सोपवा विन्नबहुला चापि भवति 'त' तत्-तस्मात् मा खलु हे पुनौ युवा द्वावपि द्वादश 'लवण जाव' लवण यावत्-लवणसमुद्र पोतवहनेन अब गाहेथाम् , युवाभ्या द्वादशवार समुद्रावगाहन न कर्त्तव्यमित्यर्थः, माहुन खलु युवयोः शरीरस्य 'वायत्ती' व्यापत्तिा विनाशः 'भविस्सई' भविष्यति, 'युवयो। शरीरे काऽपि व्यापत्तिन भवतु ' इत्यभिमायोऽस्माकमिति भावः । ..
ततः खलु माकन्दिकदारको अम्बापितरौ द्वितीयमपि तृतीयमपि वारमेवमवादिष्टाम्-एव खलु आवा हे अम्बतातौ ! एकादशवारान् ' लवण जाव' लवण र्य है। कारण इसका यही है कि तुम दोनों यही पर रहो कही भी मत जाओं। (एव खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ त माण तुम्भे दुवे पुत्ता दुवोलसमपि लवण० जाव ओगाहेर माहु तुभ सरोरस्स चावती भविस्सड ) दूसरी यात एक यह भी है कि हे पुत्रों। बारहवी यात्रा सोपसर्ग-विन्धवहुल-भी होती है। इसलिये हे पुत्रो तुम अब १२ वी चार लवणसमुद्र की पोत वहन से यात्रा मत करो। मत तुम्हारे शरीर पर किसी भी प्रकार की व्यापत्ति आओ। यही हमारी भावना है । (तपण मागदियदारगा अम्मापियरो दोच्चपि एव वयासी) ऐसा सुनकर उन माकदि दोरकों ने अपने उन माता पिता से दुवारा तिघारा भी ऐसा ही कहा-(एव खलु अम्हे अम्मयाओ ત્યારે તેમાથી રક્ષા મેળવી શકાય તેવા આધારેને પણ જ્યા સદ તર અભાવ છે એના લવણ સમુદ્રને એ ળગીને વેપાર કરવાથી શું લાભ છે? મતલબ એ છે કે તમે બને પુત્રે અહીં જ રહે, કયાએ જાઓ નહિ (एव खलु पुत्ता ! दुवालसमीजत्ता सोवसग्गा यानि भवइ त माण तुम्भे दुवे पुत्ता! दुवालसमपि लवण जाव ओगाहेह माहु तुम सरीरस्स वापत्ती भविस्सइ)
અને બીજુ એ કે હે પુત્રો ! ૧૨ મી યાત્રામાં વિદને પણ બહુજ નડતા રહે છે એથી હે પુત્રો! હવે તમે ૧૨મી વખત પોત વહનથી લવણું સમુદ્રની યાત્રાને વિચાર માંડી વાળે તમારા શરીર ઉપર કઈ પણ જાતની આફત આવે નહિ અમારી એજ ભાવના છે (तएण मागदियदारगा अम्मापियरो दोच्चपि तच्चपि एव पयासी)
આ પ્રમાણે સાભળીને માકદી દારકેએ બીજી અને ત્રીજી વાર પણ પિતાના માતા પિતાને એમ જ કહ્યું કે
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समपुरुषपर्यन्त ' पकामं दाउ' मकाम दातुम् = दीनदुःखिभ्योऽस्यर्थं वितरीतुम्, एव प्रकाम भोक्तुम् = अत्यर्थे स्वस्योपभोगार्थम्, प्रकामम् = अत्यर्थं ' परिमाणतर ' परिभाजयितु दायादादिभ्यो विमान वर्त्तम् पूर्वपरम्पराप्राप्तमिद द्रष्य हे पुत्रौ । युवयोर्भविष्यत्सप्तमपुरुप पर्यन्त मकामदानाद्यर्थे परिपूर्ण मस्तीति भाव । ' ' तत् - तस्माद् युवाम् ' अणुडोह ' अनुभवत ' ताब ' तावत् = प्रथम ' जाया जाती = हे पुत्रौ ! त्रिपुर=मचुर मानुष्क = मनुष्य सम्बन्धीक्म् ' डीसकारससुदर' ऋद्धिसत्वारसमुदयम् ऋद्धया वस्त्र सुवर्णादिना, सत्कारः = जनत बहुमानस्तस्य समुदयः - बाहुल्य तम् मनुष्यसम्बन्धिन ऋद्धिसत्कारसमुदायस्यानुभव कुरुत युवामिति भावः, अतः 'भे' युवयोः ' सपच्चवारण' समत्यपायेन = विघ्नत्र हुलेन 'निरालाणेण' निरालम्बनेन= निष्कारणेन, विघ्नबाधोपस्थितौ त्राणार्थ मालम्वनीय तुम्हारी सात पीढ़ी तक के लोग उसे दीन दुखियों को दान में देवें बैठे २ इच्छानुसार खावें पीछे हिस्सेदारों में उसका विभाग भी कर देवे तौभी वश परम्परा से चला आया हुआ यह द्रव्य कभी समाप्त नहीं हो सकता है - हे पुत्र ! तुम्हारी सात पीढ़ी तक के पुरुषों को यह दाना दिक में वितरण करने के लिये पर्याप्त हैं । पितामह दादा का नाम आर्यक है। पिता के पिता के पिता को नाम प्रार्थक है। पिता के प्रपि तामह का नाम पितृ प्रार्थक हैं यह सब पाठ " परिभाएतर " के पहिले का यावत् शब्द से यहा गृहीत हुआ है । इस लिये हे पुत्रों । तुम दोनों पहिले मनुष्य भवसम्बन्धी ऋद्धि सत्कार समुदाय का अनुभव करो । विघ्न बहुल तथा विघ्नबाबा के उपस्थित होने पर त्राण के लिये आलम्बनीयवस्तु से वर्जित ऐसे लवण समुद्र के उत्तरण से क्या तात्प
માડીને સાત પેઢી સુધીના લેકા ગરીબ તેમજ દુ ખી માણુસાને દાનમા આપે, એસીને ઈચ્છા મુજબ ખાય, પીવે લેગવે અને ભાગ પડાવનાશએમા પશુ તેની વહેચણી કરેછતાએ વશપર પરાથી સગ્રહાયેલી સપત્તિ સમાપ્ત થઈ જવાની નથી હે પુત્ર ! તમારી સાત સાત પેઢી સુધીના પુત્રને માટે આ સપત્તિ દાન વગેરેના રૂપમા વિતરણ કરવા માટે પણ પર્યાપ્ત છે પિતામહ એટલે કે દાદાને આયક કહે છે. પિતાના પિતા અને તેના પણ પિતાનુ નામ પ્રાક છે પિતાના પ્રપિતામહુનુ નામ પિતૃ પ્રાક છે આ પાઠ અહીં " परिभाएत्तए " ना पडेसाना ' यावत्' शब्द वडे हवामा आव्यो छे એટલા માટે હે પુત્ર!! તમે ખને પહેલા મનુષ્ય ભવના ઋદ્ધિ સતિર સમુ દાયને અનુભવ કરો હુ વિશે યુક્ત તેમજ વિશે બાધા આવી પડે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५६१ वस्तुवर्जितेन वा 'लवणसमुद्दोत्तारेण' लपणसमुद्रोत्तारेण = लपणसमुद्रोत्तरणेन 'कि' किं प्रयोजनम् ? न किमपीत्यर्थः, युवाभ्यामौवस्थातव्य न कुत्रापि गन्तव्यमिति भाः । पुनश्च-एव खलु ' पुत्ता' हे पुत्रौ ! द्वादशी यात्रा 'सोवसग्गा' सोपसर्गा-सोपवा विन्नवहुला चापि भवति 'त' तत्-तस्मात् मा खलु हे पुनी युवा द्वावपि द्वादश 'लवण जाव' लवण यावत्-लवणसमुद्र पोतवहनेन अब गाहेथाम् , युवाभ्या द्वादशवार समुद्रावगाहन न कर्त्तव्यमित्यर्थः, माहु' न खलु युवयोः शरीरस्य 'वावत्ती' व्यापत्तिः विनाशः 'भविस्सइ' भविष्यति, 'युवयोः शरीरे काऽपि व्यापत्तिन भवतु, ' इत्यभिप्रायोऽस्माकमिति भावः। .
ततः खलु मान्दिकदारको अम्बापितरौ द्वितीयमपि तृतीयमपि वारमेवमवादिष्टाम्-एव खलु आवा हे अम्बतातौ ! एकादशवारान् ' लवण जार' लवण र्य है। कारण इसका यही है कि तुम दोनों यही पर रहो कही भी मत जाओं। (एव खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ त माण तुम्भे दुवे पुत्ता दुवोलसमपि लवण० जाव ओगाहेर माहु तुम्भ सरीरस्स वावती भविस्मड) दूसरी यात एक यह भी है कि हे पुत्रों। यारहवी यात्रा सोपमर्ग-विन्धवहुल-भी होती है। इसलिये हे पुत्रो! तुम अब १२ वी बार लवणसमुद्र की पोत वहन से यात्रा मत करो। मत तुम्हारे शरीर पर किसी भी प्रकार की व्यापत्ति आओ। यही हमारी भावना है । (तपण मागदियदारगा अम्मापियरो दोच्चपि एव वयासी) ऐसा सुनकर उन माकदि दोरकों ने अपने उन माता पिता से दुवारा तिघारा भी ऐसा ही कहा-(एच ग्वलु अम्हे अम्मयाओ ત્યારે તેમાથી રક્ષા મેળવી શકાય તેવા આધારેને પણ જ્યા સદ તર અભાવ છે એના લવણું સમુદ્રને એ ળગીને વેપાર કરવાથી શું લાભ છે ? મતલબ
એ છે કે તમે બને પુત્રો અહીં જ રહે, કયાએ જાઓ નહિ (एव खलु पुत्ता ! दुवाल्समीजत्ता सोवसग्गा यारि भवइ त माण तुम्भे दुवे पुत्ता! दुवालसम पि लवण० जाव ओगाहेह माहु तुम्भ सरीरस्स वापत्ती भविस्सइ)
અને બીજુ એ કે હે પુત્રો ! ૧૨ મી યાત્રામાં વિને પણ બહુ જ નડતા રહે છે એવી હે પુત્રો! હવે તમે ૧૨મી વખત પોત વહનથી લવણું સમુદ્રની યાત્રાનો વિચાર માડી વાળો તમારા શરીર ઉપર કઈ પણ જાતની આફત આવે નહિ અમારી એજ ભાવના છે (तएण मागदियदारगा अम्मापियरो दोच्चापि तच्चपि एव पयासी)
આ પ્રમાણે સાભળીને માકદી દારકેએ બીજી અને ત્રીજી વાર પણ પિતાને મ તા પિતાને એમ જ કહ્યું કે
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माता समपुरुषपर्यन्त 'पकामं दाउ' प्रकाम दातम्-दीनदुःखिम्योऽत्यर्थ वितरीतुन, एव मकाम भोक्तुम् अत्यधै स्वस्पोपभोगार्थम् , प्रकामम् अत्यर्थ परिमाएतर' परिभाजयितुन्दायादादिभ्यो विमान वर्तम् , पूर्वपरम्पराप्राप्तमिद द्रव्य पुत्री! युवयोर्मविप्यत्सप्तमपुरुषपर्यन्त प्रकामदानार्थ परिपूर्णमस्तीति भाव । '' तत्-तस्माद् युवाम् ' अणुहोह ' अनुभवत ' ताव' हाव-प्रथमं 'माया' जातो हे पुत्रौ ! विपुर=मचुर मानुष्क-मनुष्यसम्बन्धीक्म् डीसकारसमदए' ऋद्धिसत्तारसमुदयम् , प्रदया-वस्त्र सुवर्णादिना, सत्कार-जनकतबमानस्तस्य समुदयः-पाहुल्य तम् , मनुष्यसम्बन्धिन ऋद्धिसत्कारसमुदायस्यानुभव हलत युवामिति भावः, अतः 'मे' युवयोः ' सपच्चवारण समत्यपायेन-विघ्नबहुलेन "निरालपणेण' निरालम्बनेन निष्कारणेन, विघ्नबाघोपस्थितौ त्राणार्थमालम्बनीपतुम्हारी सात पीढी तक के लोग उसे दीन दुखियों को दान में देखें बैठे २ इच्छानुसार खावें पीवे हिस्सेदारी में उसका विभाग भी कर देवे तौभी वश परम्परा से चला आया हुआ यह द्रव्य कभी समाप्त नहीं हो सकता है-हे पुत्र! तुम्हारी सात पीढी तक के पुरुषों को यह दाना दिक मे वितरण करने के लिये पर्याप्त है। पितामह-दादा का नाम आर्यक है। पिता के पिता के पिता को नाम प्रार्यक है। पिता के प्रपि तामह का नाम पितृ प्रार्यक हैं यह सय पाठ "परिभाएत्तर" के पहिल का यावत् शब्द से यहा गृहीत हुआ है। इस पिये हे पुत्रों ' तुम दोनों पहिले मनुष्य भवसम्बन्धी ऋद्धि सत्कार समुदाय का अनुभव करो। विघ्न बहुल तथो विघ्नबाधा के उपस्थित होने पर त्राण के लिये आलम्पनीयवस्तु से वर्जित ऐसे लवण समुद्र के उत्तरण से क्या तात्प માડીને સાત પેઢી સુધીના લોકો ગરીબ તેમજ દુખી માણસોને દાનમાં આપે, બેસીને ઈચ્છા મુજબ ખાય, પીવે ભગવે અને ભાગ પડાવનારાઓમાં પણ તેની વહેચણી કરે છતાએ વશપર પરાથી સંગ્રહાયેલી સ પત્તિ સમાપ્ત થઈ જવાની નથી કે પુત્ર! તમારી સાત સાત પેઢી સુધીના પુરૂષને માટે આ સપત્તિ દાન વગેરેના રૂપમાં વિતરણ કરવા માટે પણ પર્યાપ્ત છે પિતામહ એટલે કે દાદાને આયંક કહે છે. પિતાના પિતા અને તેના પણ પિતાનું નામ પ્રાર્યક છે પિતાના પ્રપિતામહનું નામ પિતૃ કાર્યક છે આ પાઠ અહીં "परिभाएत्तए " ना पडेबाना यावत्' श५४ 43 ४५ ४२वामा मा०ये छ એટલા માટે હે પુત્રા ! તમે બને પહેલા મનુષ્ય ભવના ઋદ્ધિ સત્કાર સમુ દાયને અનુભવ કરે બહુ વિધા યુક્ત તેમજ વિઘો બાધાઓ આવી પડે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ मान्दिवारकचरितनिरूपणम् ५६५ वस्तुवजितेन वा ' लवणसमुद्दोत्तारेण ' लवणसमुद्रोत्तारेण = लपणसमुद्रोत्तरणेन 'कि' किं प्रयोजनम् १ न विमपीत्यर्थः, युगाभ्यामचैवस्थातव्य न कुत्रापि गन्तव्यमिति भाः । पुनश्च-एव खलु 'पुत्ता' हे पुत्रौ ! द्वादशी यात्रा 'सोवसग्गा' सोपसर्गा-सोपवा चिन्नाहुला चापि भवति 'त' तत्=तस्मात् मा खलु हे पुनी युवा द्वावपि द्वादश ' लवण जाव' लवण यावत्-लवणसमुद्र पोतवहनेन अवगाहेथाम् , युवाभ्या द्वादशवार समुद्रावगाहन न कर्तव्यमित्यर्थः, माहु' न खलु युवयोः शरीरस्य ' वापत्ती' व्यापत्तिा विनाशः 'भविस्सई' भविष्यति, 'युवयो। शरीरे काऽपि व्यापत्तिन भवतु ' इत्यभिप्रायोऽस्माकमिति भावः। ।
ततः खलु मान्दिकदारको अम्बापितरौ द्वितीयमपि तृतीयमपि वारमेवमवादिष्टाम्-एव खलु आवा हे अम्बतातौ ! एकादशवारान् ' लवण जाव' लवण र्य है। कारण इसका यही है कि तुम दोनों यही पर रहो कही भी मत जाओं। (एव खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोयसग्गा यावि भवह त माण तुम्भे दुवे पुत्ता दुवोलसमपि लवण० जाव ओगाहेह माहु तुम्भ सरीरस्स वावती भविस्सइ) दूसरी यात एक यह भी है कि हे पुत्रों बारहवी यात्रा सोपमर्ग-विन्धवहुल-भी होती है। इसलिये हे पुत्रो तुम अर १२ वी पार लवणसमुद्र की पोत वहन से यात्रा मत करो। मत तुम्हारे शरीर पर किसी भी प्रकार की व्यापत्ति आओ। यही हमारी भावना है । (तरण मागदियदारगा अम्मापियरो दोच्च पि एव वयासी) ऐमा सुनकर उन माकदि दोरकों ने अपने उन माता पिता से दुचारा तिचारा भी ऐसा ही कहा-(एव खलु अम्हे अम्मयाओ ત્યારે તેમાથી રક્ષા મેળવી શકાય તેવા આધારેને પણ જ્યા સદ તર અભાવ છે એના લવણ સમુદ્રને એ ળગીને વેપાર કરવાથી શું લાભ છે ? મતલબ
એ છે કે તમે બને પુત્રે અહીં જ રહે, કયાએ જાઓ નહિ (एव खलु पुत्ता दुवाल्समीजत्ता सोवसग्गा यानि भवइ त माण तुम्भे दुवे पुत्ता दुवारसमपि लवण० जाव ओगाहेह माहु तुम्भ सरीरस्स वापत्ती भविस्सइ)
અને બીજુ એ કે હે પુત્રો ! ૧૨ મી યાત્રામાં વિદને પણ બહુજ નડતા રહે છે એવી હે પુત્રો! હવે તમે ૧૨મી વખત પિત વહનથી લવણ સમુદ્રની યાત્રાને વિચાર માંડી વાળે તમારા શરીર ઉપર કોઈ પણ જાતની આફત આવે નડિ અમારી એજ ભાવના છે (तरण मागदियदारगा अम्मापियरो दोच्चपि तच्चपि एव यासी)
આ પ્રમાણે સાભળીને માકદી દારકેએ બીજી અને ત્રીજી વાર પણ પિતાના માતા પિતાને એમ જ કહ્યું કે
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वाताधर्मकथा
यावत्-लवण समुद्रमगाहित पती यावत् तनयः सलु आवयोद्वदिर्श बार पोत बहनेन लवण समुद्रम गाधितुमिति ॥
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ततः खलु तौ मान्दियदारको अभ्यापितरौ यदा नो शक्तः बहीभिः ' आघवणादि ' आरयापनाभिः = सामान्योक्तिभि, पणवणादि य' प्रज्ञाप नाभिः विशेपोक्तिभिथ ' आघवित ना ' आग्यापयितु सामान्यत प्रतिषोधयितु वा 'पण्णतिर वा ' प्रमापयितु विशेषतः प्रतिबोधयितुं वा लवणसमुद्रो तरणतो निवर्त्तयितुं न शक्नुत इत्यर्थ', तदा 'अकामाचेव' अकामैत्र= इन्डारहितैव सती एतम् = उत्तमर्थम् ' अणुजाणित्था' अनुजानीत स्वीकृतवन्तौ । ततः खलु । एक्कारसवारा लवण जाव ओगाहित ) कि हे मात तात ! जय हम लोगों ने लवण समुद्र की ११ घार पोत वरन द्वारा यात्रा करली है-तो अब १२ वीं बार उसकी यात्रा करने मे क्या भय है। इसलिये १२ वीं पोर उसकी पोत बहन द्वारा यात्रा करना भी हम लोगों के लिये श्रेय स्कर ही है। आप हमारी कोइ चिन्ता न करे । (तएण ते मागदीदारए अम्मापियरो जाहे नो सघाए ति वहिं आघवणाहि पण्णवणाहि य आधवित्तए वा पन्नादित्तए वा ताहे अकामा चैव एयमट्ठ अणुजा णित्था) इस तरह जब अपने दोनों पुत्रो को वे माता पिता अनेक विध आख्यापनाओं से, सामान्य कथन से, प्रज्ञापनाओं से विशेष कथन से समझाने बुझाने में समर्थ नही हो सके लवण समुद्र की यात्राके उनके विचार को नही बदल सकें तब उन्हों ने उन्हें इच्छा नही होने पर भी इस अर्थ की - लवण समुद्र की पोत वहन द्वारा यात्रा करने की स्वीकृती
( एव खलु अम्हे अम्मयाओ ! एक्कारसवारालवण जाव ओगाहित्तए)
હૈ માતા પિતા ! અમે ૧૧ વખત લવણ સમુદ્રની યાત્રા કરી આવ્યા છીએ તા ૧૨ મી વખત યાત્રા કરવામા ભય શાના હોય ? ૧૨ મી વખતની વહાણુ વડે યાત્રા અમારા માટે તે મગળકારી જ થશે. અમારી તમે કાઈ પણ જાતની ચિંતા કરતા નહિ
( aण ते मगदीदारए अम्मापियरो जाहे नो सचाएति बहूहिं आध aणा पण्णवणाहि य आधवित्तए वा पन्नवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमह अणुजाणिस्था )
આ પ્રમાણે પેાતાના અને પુત્રોને તેએ અનેકવિધ આખ્યાનોથી સામાન્ય કથનથી~~અને પ્રજ્ઞાપનાએથી વિશેષ કથનથી સમજાવવામા અસમર્થ થઈ ગયા, લ ની યાના કરવાના તેમના નિશ્ચયને તેઓ ફેરવી શા
n
નહિ ત્યારે યાત્રા કરવા
ઈચ્છા ન હાલા છતા વહાણુ વડે લવણુસમુદ્રની
ધી
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ઉદ્દે
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ मार्का दयदारचरितनिरूपणम्
तौ मारुन्दिकदारकौ अम्नापित म्यामभ्यनुनातौ सन्तौ एकद्वित्रिचतुरादिसल्यान मेण गणपिला दीयमान प्रयाणा = नालिकेर पूगीफलादिकम् ' मेज्ज च ' मेरा चन्यत् पर-सेटिका - हस्तादिना मान कृत्वा दीयमान वस्तुजात दुग्धृततैलवस्त्रादिकम् 'पारिच्छेज्ज' परिच्छेच तो निम्पादि परीक्षया यद्दीयमान तत् - म्रुवर्णमणिमुक्तादि च एतत्सर्वं गरिमपरिमादिक वस्तुजात गृहीत्वा जहा रहण्णगम्स' यथा रहनस्य येन प्रकारेण अरहन्नवस्य = अस्यै वाष्टमा प्रयने वर्णितस्य श्रावक्स्प वर्णन पात्र विनेय, 'जाव' यावत् लवणस
"
"
देवी | (नएण ते मागदिय दारगा अम्मा विकहिं अभणुष्णाया समाणा गणिम च धरिम च मेज्ज च पारिच्छेज्ज च जहा अरण्णगस्स जाव लवणमनुद्द बहूड जोयणसयाट ओगाढा) इस तरह माना पिता से आज्ञापित हुए वे दोनों माकदी सार्थवाह के पुत्र, गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप नाणक वस्तुओं से पोतमें भरकर अररन्नक सार्थवाह की तरह अनेक नोजनों तक लवण समुद्रमे निकल गये । एक दो तीन चार इस रूप से गिनकर जो वस्तु दी जाती है वह गणिम है जैसे नारिकेल, सुपारी आदि । जो तौल कर दी जान वह धरिम है और नापकर दी जाती है वह मेय-जैसे दुग्ध, घृत, तैल, वस्त्र, आदि । जो प्रत्यक्ष से परीक्षित कर या कसौटी आदि पर कस कर दी जाती है वह परिच्छेय है-जैसे सुवर्ण मणि मुक्ता आदि । अरहनक भावकका वर्णन इसी ज्ञाता ययन के अष्टम अध्ययन में किया है ॥ १॥
( वरण ते मागदिपदारगा जम्मापिऊहिं जन्मगाया समाणा गणिम चरि च मेज्ज च पारिच्छेन्न च जहा नरहणगम्म जान लवणसमुद्द चहुद्द जोयणमया ओगाढा )
આ રીતે બને માદી સાર્વવાહના પુત્રો માતા તાની આજ્ઞા મેળવીને ગણિમ, ધરિમ, મેય અને પરિઅે ૩૫ વેચાણુ માટેની વસ્તુઓને વહાણમા લીને શ્મરહન્ન૰ સારવાહની જેમ ઘણા ચેજને સુધી લવણુ મમુદ્રમા પહેચી ગાગણુત્રી કરીને જે વસ્તુએ આપવામા આવે છે તે ‘ ગણિમ ' છે જેમ કે નાચેર, સેાપારી વગેરે જે તેલ ફરીને અને માર કરીને આપવામા આવે છે તે · પરિમ’ છે, માપ કરીને અપાય તે એય ટેબ્લેમ કે દૂધ, ઘી, તેલ, અને વસ્ત્ર વગેરે જે પ્રત્યક્ષ રૂપે પીક્ષા કર્મને માટી વગેરે ઉપર કસીને અપાય છે તે પરિàવ જેમ કે નાનુ, મØિ, મેની, વગેરે અરહાક શ્રાવકનુ વણુ ન જ્ઞાતાધ્યયનનાજ આઠમા અયનમાં કવામા આવ્યુ છે ! સૂત્ર ૧૫
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ज्ञाता धर्मत्र पाइने
यावत्-लवण समुद्रमादितवन्तो यावत् तस्यः सलु आवयोर्द्रादिर्श वार पोव वहनेन लवणसमुद्रमवगाहितुमिति ॥
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ततः खलु तौ मान्दियदारकौ अध्यापितरौ यदा नो शक्तः वहीभिः आघवणाहि ' आख्यापनाभिः सामान्योक्तिभि, ' पणवणादि य प्रज्ञाप नाभिः = विशेषोक्तिभिश्च ' आघवित्तए वा ' आरयापयितु सामान्यत प्रतिबोध - यितु या ' पण्णवित्तए वा ' प्रज्ञापयितु विशेषतः प्रतिबोधयितु वाणसमुद्रो तरणतो निवर्त्तयितु न शचनुत इत्यर्थ', तदा 'अकामाचेच' अकामैव = इन्डारहितैव सती एतम् = उत्तमर्थम् 'अणुजाणित्था' अनुजानीत स्वीकृतवन्तौ । ततः खलु एक्कारसवारा लवण जाव ओगाहितए) कि हे मात तात ! जय हम लोगो ने लवण समुद्र की ११ बार पोत बहन द्वारा यात्रा करली है-तो अब १२ वीं बार उसकी यात्रा करने मे क्या भय है। इसलिये १२ वीं पोर उसकी पोत चहन द्वारा यात्रा करना भी हम लोगों के लिये श्रेष स्कर ही है। आप हमारी कोइ चिन्ता न करे । (तएण ते मागदीदारए अम्मापियरो जाहे नो सघाए ति चहहिं आघवणाहि पण्णवणाहि य आधचित्त वा पन्नवित्तए वा ताहे अकाण चेव एयमट्ट अणुजा णित्था ) इस तरह जब अपने दोनों पुत्रो को वे माता पिता अनेक विध आख्यापनाओं से, सामान्य कथन से, प्रज्ञापनाओं से विशेष कवन से समझाने बुझाने में समर्थ नही हो सके लवण समुद्र की यात्रा के उनके विचार को नही बदल सकें तब उन्हों ने उन्हें इच्छा नही होने पर भी इस अर्थ की - लवण समुद्र की पोत वहन द्वारा यात्रा करने की स्वीकृती
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( एव खलु अम्हे अम्मयाओ ! एक्कारसवारालवण जाव ओगाहित्तए)
હું માતા પિતા ! અમે ૧૧ વખત લણુ સમુદ્રની યાત્રા કરી આવ્યા છીએ તા ૧૨ મી વખત યાત્રા કરવામા ભય શાના હાય ? ૧૨ મી વખતની વહાણુ વડે યાત્રા અમારા માટે તે મગળકારી જ થશે. અમારી તમે કઈ પણ જાતની ચિંતા કરતા નહિ
( तएण ते मगदीदारण अम्मापियरो जाहे नो सचाएति बहूहिं आप वा पण्णवणादि य आधवित्तए वा पत्रवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमह अणुजाणिस्था )
આ પ્રમાણે પોતાના ખન્ને પુત્રોને તેએ અનેકવિધ આખ્યાપનાથી સામાન્ય કથનથી અને પ્રજ્ઞાપનાઆથી-વિશેષકશનથી સમજાવવામાં અસમર્થ થઈ ગયા, લવણુ સમુદ્રની યાના કરવાના તેમના નિશ્ચયને તેએ ફેરવી શમ્યા નહિ ત્યારે તેઓએ પેાતાની ઈચ્છા ન દેવા છતા વહાણુ વડે લવણુસમુદ્રની યાત્રા કરવાની આજ્ઞા આપી દીધી.
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अनगारधर्मामृतर्षिणी टी० अ० ९ माक िदयदारक्चरितनिरूपणम् ५६३ तौ माफन्दिकदारको अम्यापितृभ्यामन्यनुज्ञातो सन्तौ एकद्वित्रिचतुरादिसख्यानमेण गणयित्वा दीयमानं कयाणाम्नालिकेर पूगीफलादिकम् , ' मेज्ज च' मेयं च यत् पल-सेटिका-हस्तादिना मान कृत्वा दीयमान वस्तुजात-दुग्धधृततैलवस्त्रादिकम् , 'पारिच्छेज्न' परिन्छे। चम्प्रत्यक्षतो निस्पादि परीक्षया यद्दीयमान तत्-सुवर्णमणिमुक्तादिर च, एतत्सर्व गरिम परिमादिक वस्तुजात गृहीत्वा 'जहा अरहण्णगस्स' यथा परहन्नकम्य यथा येन प्रकारेण अरहम्नकस्य अस्यै वाष्टमा ययने वर्णितस्य श्रावकस्य वर्णन तथैवान पिज्ञेय, 'जाव ' यावत् लवणस देदी। (तएण ते मागदिय दारगी अम्मा पिकहिं अभYण्णाया समाणा गणिम च धरिम च मेज्ज च पारिच्छेज्ज च जहा अरहाणगस्स जाव लवणममुद्द यह जोयणसयाड ओगाढा) इस तरह माता पिता से आजापित हुए वे दोनों माकदी सार्थवाह के पुत्र, गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाणक वस्तुओ को पोतमें भरकर अररन्नक सार्थवाह की तरह अनेक योजनों तक लवण समुद्रमे निकल गये। एक दो तीन चार इस रूप से गिन कर जो वस्तु दी जाती है वह गणिम है जसे नारिकेल, सुपारी आदि । जो तोल कर दी जाय वह धरिम है और नापकर दी जाती है वह मेय-जैसे दुग्य, घृत, तैल, वस्त्र, आदि । जो प्रत्यक्षसे परीक्षित कर या कसौटी आदि पर कस कर दी जाती है वह परिच्छेद्य है-जैसे सुवर्ण मणि मुक्ता आदि । अरहनक श्रावकका वर्णन इसी ज्ञाता ययन के अष्टम अध्ययनमे किया है ।सू १॥
(तएण ते मागदियदारगा अम्मापिऊहिं अभणुग्णाया समाणा गणिम च धरिम च मेज्ज च पारिच्छेज्ज च जहा अरहणगस्स जाव लवणसमुह बहुइ जोयणमयाइ ओगाढा)
આ રીતે બને માકદી સાર્થવાહના પુત્રો માતાપિતાની આજ્ઞા મેળવીને ગણિમ, ધરિમ, મેય અને પરિચય રૂ૫ વેચાણ માટેની વસ્તુઓને વહાણુમાં ભરીને અરહન સાર્થવાહની જેમ ઘણું જન સુધી લવણ સમુદ્રમાં પહેચી ગયા ગણત્રી કરીને જે વસ્તુઓ આપવામાં આવે છે તે “ગણિમ ” છે જેમ કે નારિયેર, સોપારી વગેરે જે રોલ કરીને અને માર કરીને આપવામાં આવે છે તે ધરિમ’ છે, માપ કરીને અપાય તે મેય છે-જેમ કે દૂધ, ઘી, તેલ, અને વસ્ત્ર વગેરે જે પ્રત્યક્ષ રૂપે પરીક્ષા કરીને કસોટી વગેરે ઉપર કસીને અપાય છે તે પરિઘ છે-જેમ કે તેનુ, મણિ, મેતી, વગેરે અપહક શ્રાવકનું
सालमा सामान
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माताधर्मकथासूले मुद्र वहनि योजनशतानि 'ओगाढा' अगाढी अगास्तियन्ती नौकाया तेन गतवन्तापित्यर्थः ॥ सू० १ ॥ “ मूलम्-तएण तेसि मागंदियदारगाणं अणेगाई जोयणस याइं ओगाढाणं समणाण अणेगाइ उप्पाइयसयाई पाउब्भूयाति, तं जहा-अकाले गजिय जाय थणियसद्दे कालियावाए तत्थ समुहिए, तएणं सा णावा तेणं कालियावाएणं आहुणिजमाणीर सचालिजमाणी२ सखोभिज्जमाणी२ सलिलतिक्ख. वेगेहि आयटिज्जमाणी२ कोहिमसि करयलाहए विव तेंदूसए, तत्थेवर ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणीविव धरणीयलाओ सिद्धविज्जाविज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणीविव गगणतलाओ भट्टविज्जाविज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणीविव महा गरुलवेगवित्तासिया भुयगवरकन्नगा, धावमाणीविवमहाजणरसियसदवित्तत्था ठाणभट्ठा आतकिसोरी, णिगुजमाणीविव गुरुजणदिहा वराहा सुयणकुलकन्नगा, घुम्ममाणीविव वीचोपहारसयतालिया गलियलवणाविव गगणतलाओ रोयमाणिविव सलिलगंट्ठिविप्पइरमाणघोरसुवाएहि णवाह उवरमयभत्तुया विलवमाणीविय परचकरायाभिरोहिया परममहन्भयाभिदुया महापुरवरी झायमाणाविव कवडच्छोभप्पओगजुत्ता जोगपरिव्वाइथा णिसासमाणीविव महाकतारविणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया सोयमाणाविव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववरवहसचुण्णियकटकूवरा भग्गमेढीमो. डियसहस्समाला सूलाइयवकपरिमासा फलहतरतडतडेंतफुतआलिवियतनोटीलिया
।
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अनगारपतिपिगी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५६५ तसव्वगत्ताआमगमल्लगभूया अकयपुण्णजणमणोरहोविव चितिजमाणगुरुई हाहाकयकपणधारणावियवाणियगजणकम्मगारविलविया णाणाविहरयणपणियसंपुण्णा वहहिं पुरिससएहिं रोयमाणेहि कंद. सोय० तिप्प० विलवमाणेहि एगं मह अतो जलगय गिरिसिहरमासायइत्ता सभग्गकूवतोरणा मोडियझय दंडा वलयसयखंडिया करकरकरस्त तत्थेव विद्दव उवगया, तएणं तीए णावाए भिज्जमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपणियं भडमायाए अंतोजलंमि णिमज्जावि य होत्था ॥ सू० २॥
टीका-ततः खलु तयोकिन्दिकदारकयोरनेकानि योजशतानि यावल्लवण समुद्रमवगाहितयोः सतो 'अणेगाइ' अनेकानिम्नानाविधानि ' उप्पाइयसयाइ' उत्पातशतानि-उपदशतानि प्रादुर्भूतानि, 'तनहा ' तद्यथा-'अकालेगज्जिए' अकाले गर्जितम् असमये मेघगर्जनम् १, 'जार' यावत्-' अकाले विज्जुए' अकाले विद्युत् असमये विद्युद्विद्योतनम् २, 'अकाले थगियसद्दे ' अकाले स्तनि
'तएण तेसिं मागदिय दारगाण' इत्यादि।
टीकार्य-(तपण) इसके बाद (तेसिं मागदियदारगाण) उन माकदीके पुत्रों को जब कि वे (अणेगाइ जोयणसयाइ ओगाढाण समगाण) लवण समुद्र में अनेक योजनो तक निकल चुके थे (अणेगाइ उप्पाइयसयाइ पाउन्भूयाइ) अनेक-सैकडों उत्पात प्रादुर्भून हुए (त जहा) जैसे (अकाले गजिय जाव थणियसद्देकालियावाए तत्थ समुट्ठिए ) असमय में मेघगर्जना हुई। यावत्-अकाल में विजली चमकने लगी। विना समय के (तएण तेमि मागदियदारगाण ' इत्यादि ।
टी-( तएण ) यारपछी ( तेसिं मागदियहारगाण ) मादी पुत्रोनेहै न्यारे ते। ( अणेगाई जोयणसयाइ ओगाढाण समणाण सरळ समुद्रमा
। योनी सुधा ६२ पाया गया तो ( अणेगाइ उप्पाइयसयाई पउ भूयाइ) घी मे 31नी सभामा यात! 24भाउया (त जहा) रेम है ( अकाले गजिय जाव थणियसदे कालियोवाए तत्थ समुद्विए ) सणे મેઘ ગર્જના થવા માંડી, ચાવત-અકાળે આકાશમાં વીજળી ઝબૂકવા માડી વર્ષાકાળ હતે નાહ છતાએ ભયકર ગર્જનાઓ થવા માડી અકાળે જ ભયંકર વાવાઝોડાથી વાતાવરણ આક્રાત થઈ ગયું
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माताधर्मकथा तशब्द: असमये निष्ठुरगर्जनम् ३, ' कालियानाए ' कालिकापात असमये महावातच ४, तत्र समुत्थितः । ततः खलु सा 'णावानीका यस्या माकन्दिकदारकौ स्थितो, तेन कालिकावातेन 'आहुणिज्जमागी २' आध्यमाना २ पुनः पुन कम्पमाना 'सचालिज्नमाणी २' सञ्चाल्यमाना २=स्थानातू-स्थानातर नयनेन मुहर्मुहुः प्रचाल्पमाना, 'सखोभिज्जमागी' मड्लोभ्यामाना अधोनिपत्यपुनरू-मुत्पवनेन पुनः पुनः क्षोभ प्राप्यमाणा 'सलिलतिकाव वेगेहि ' सलिलतीक्ष्णवेगैः-जलतीव्रतरङ्गवेगैः 'आयट्टिनमागी २ आवय॑माना २ इतस्ततो वार वार चक्राकारेण भ्राम्यमाणा ' कोट्टिमे' कुट्टिमे-पापाणनद्धम्मो 'करयलाइए' करतलाहता हस्ततलास्फालित. 'तेंदूमए विव' कन्दुकइव ' तत्थेव २' तत्रैवतत्रैव-'ओवयमाणीए' अवपतन्ती % अध: पतन्ती ' उप्पयमाणीय' उत्पतन्ती ही घनघोर गर्जना होने लगी। विना कालके ही भयकर आँधी आ गह। (तएण साणावा तेणकालियावारण आहुणिज्जमाणी २ सचालि ज्जामाणी सचालिज्जमाणी सखोभिज्जमाणी २ सलिलतिक्खवेगेहि आयट्टिज्जमाणी २ कोटिमसि करयलाहए विव ते दूसए तत्थेवर ओव यमाणीय उप्पयमागीय) इस कारण वह नौका उस अकालिक भयकर आंधी से बार बार कपित हो उठी घार २ एक स्थान से दसरे स्थान पर डगमगाती हुई आने जाने लगी। यार बार कभी वह नीचे आती तो कभी ऊपर उठती।।
जल के तीक्ष्णवेग से वह कभी २ बार २ चक्राकार से इधर उधर घूमने लग जाती। जिस प्रकार पाषाणवद्ध भूमि ऊपर गेद हाथसे आ हत होकर नीचे ऊँचे चार २ उछलती है उसी तरह वह नौका भी कभी
(तएण सा णावा तेण कालियावाएण आहूणिज्जामागी २ सचालिज्नमाणी सचालिज्नमाणी सखोमिज्जमाणो २ सलिलतिक्खवेगेहिं आयडिज्नमागी कोट्टिमसि करयलाहएविव तेंदूसए तत्थेर २ ओक्यमागीय उप्पयमागीय)
અસમયને વાવાઝોડાથી વહાણુ સતત ડગમગવા લાગ્યું, વાર વાર એક જગ્યાએથી ખસીને બીજા સ્થાને ડગમગતુ જવા લાગ્યું સતત રૂપમાં કઈ વખત તે નીચે તે કઈ વખત ઉપર આ રીતે નીચે ઉપર થવા માડયું
પાના તીવ્ર વેગથી કયારેક તે નાવ વાર વાર પૈડાની જેમ આમતેમ ફરવા મડી જેમ પથ્થરવાળી નક્કર જમીન ઉપર દડે હાથ વડે કેકાય અને તે વારવાર નીચે ઉપર થાય તેમજ નાવ પણ નીચે ઉપર ઉછળ,
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी ० १० ९ मादिदारचरितनिरूपणम् ५६७ ऊर्धगच्छन्तीच, तथा सिद्धविद्याविद्याधर कन्यकेच धरणीतलाद् उप्पयमाणी' उत्पन्ती-जमुच्चरन्ती, 'भट्टविज्जा' भ्राविद्या विस्मृतविद्यो चियापरकन्यकेव गगन तलाद 'ओवयमाणी' अवपतन्ती अधोनिपतन्ती, 'महागरुलवेगवित्तासिया! महापरुडवेगविनामिता महागरडवेगेन भयाक्रान्ता 'भुयगपरवानगावित्र' भुजगवरकन्यकेच नागान्येव विपलायमाणी ' विपलाय-यी, 'महाजणरसियसदारित्तत्था' महाजनरसितशब्दविनस्ता-जनसमूहकोलाहलशब्देनमीता — ठाणभट्ठा ' स्थानभ्रष्टा स्वस्थानच्युता 'आसकिसोरीचिव' अश्वरिशोरीव-अश्ववत्सावत् ' धावमाणी' धावमाना, गुरुजणदिट्ठावगहा' गुरुजनदृष्टापरापा-गुरुजना मातापित-श्वशुरा. २ वहीं २ पार २ नीचे ऊँचे उछलने लगती। (सिद्धविज्जाधरणीयला.
ओ उप्पयमाणी विज्जारकन्नगा इव) उस समय वह नौका ऐसी ज्ञात होती थी कि मानो सिद्ध विद्यावाली कोई विन्यावर कन्या ही धरणीतल से निकलकर ऊपरको उठ रही है (भट्ट विज्जाहरकनगागगणतलाओ ओवयमाणी विव) या जिसकी विद्याभ्रष्ट हो चुकी है जिसे विद्या विस्मृत हो गइ है-ऐसी कोड विद्यावर कन्या मानो आकाश से नीचे उतर रही है-(महागरुलवेगवित्तामिया विपलायमाणी भूयग वरकन्नगाइव ) या गरुड़ के भयोत्पादक वेगसे आक्रान्त हुइ मानों कोई नागकन्या ही इधर उधर भाग रही है (महाजणरसियमद्दवित्तत्या ठाणभट्टा धावमाणी आस किसोरी विव ) या जनसमूह के कोलाहल से भय भीत होकर मानों कोई घोडी की बछेरी ही अपने स्थान से भ्रष्ट होकर इधर उधर दौडती फिर रही है (गुरुजणदिछाबराहा णिगुज माणी
(सिद्धविजाधरणीयलाओ उपयमाणी विज्जाहरपन्नगा इर) मते , મજા એમાં ઉછળતી તે નાવ સિદ્ધ વિદ્યાવાળી કે વિદ્યાધર કન્યા પૃથ્વી ७५२यी नीजी. ५२ ती य तेम सागती उती ( भट्ट विज्जा विज्जाहर कन्नगा गगणतलाओ ओवयमाणीविव अथवता विधाभ्रष्ट थयेसी, विपिरभृत यसी मेवी विद्याधर न्या माशमाथी नीये तरती जाय, ( महागा
वेगवित्तासिया विपलायमाणी भूयगवरकन्नगा इव ) अथवा तो उन ભત્પાદક વેગથી આકાત થયેલી કેઈ નાગકન્યા જ આમતેમ નાસભાગ ७२ती त्य, ( महाजणरसियसद्दवित्तत्था ठाणभट्ठा धावमाणी आसकिसोरी विव ) अथवा तो भासाना बाधास्थी भयभीत s घाडीनु पछे३ तामे सामायी नामीन मामतेम तु Gemतु डाय, ( गुरुजणदिट्ठी वर हा णिगुज माणी सुयणकुलकन्नगा विव ) अथवा तो मना पाये। मातुन
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पाताधर्मकया दिभिर्टष्टा अवलोकितः अपराधा असत्यवचनादिरूपो यस्याः सा तथोक्ता 'सुयणकुलकन्नगाविव ' सुजनकुलकन्यफेवकुलवतीकन्येव 'णिगुजमाणी' विगुञ्जन्ती
अव्यक्तशब्दकुती, अघोनमन्ती पा, 'वीचीहारसयतालियावित्र' वीचीपहारशतताडितेव-अनेकशतजलतरङ्गमहारैस्ताडितेव 'घुम्ममाणी' घूर्णमाना-धरथरेति कम्पमाना, 'गगणतलाओ' गतनवलात् 'गलियव पणावित्र' गलितवन्ध नेव-त्रुटितवन्धनेव-आकाशात् टित्वा पतितेवदृश्यमानेत्यर्थः, रोयमाणीवित्र सलिलगठिविप्पइरमाणघोरसुवाए है णवह उवरयभत्तुया' रूदतीवसलिलप्रन्थि विपकिरद् घोराश्रुपातैनववधूरुपरतभर्तृका, ' उवरयभत्तुया' उपरतभका-मृतभ
का नववधूरिव-नवपरिणीता वनितेव-सलिलभिमाग्रन्थिय सलिलप्रन्थिय'= सलिलार्द्रप्रन्ययः, तेभ्योविपकिरन्तः क्षरन्तिः, जलविन्दवः तएव घोराश्रुपातास्तै सुयण कुलकन्नगाविव ) या गुरुजनो द्वारा जिसका असत्य वचनादिरूप अपराध देख लिया गया है ऐसी कोई कुलवती कन्या ही मानों लज्जावश नीचे की ओर झुकी जा रही है। (वीचीपहार सयतालीया विव घुम्ममाणी) हजारों जलतर गो के प्रहारों से ताडित होने की वजह से ही मानो थर थर कॅपती हुई वह नौका (गगणतलाओ गलियवधणा विव) ऐसी दिखलाई दे रही थी कि बन्धन टूट जाने से आकाश से गिर सी पड़ी हो।
अर्थात्-जिस प्रकार यधन टूट जाने से कोई वस्तु ऊपर से नीचे गिर पड़ती है-उसी तरह यह नौका भी अपना बधन ठूट जाने से मानों आकाश से-ऊपर से नीचे गिर पड़ी हैं। (रोयमागीविव सलिल गठि विप्पइरमाण धोरसुवाएहिं णववह उपर यभत्तुया) जिस प्रकार अपने पतिदेव के मरजाने पर नवोढा ऑसुओं को वहाती हुई रोती है બાલવું વગેરે અપરાધે જાણી ગયા છે તેવી કોઈ લાજથી મે નીચું ઘાલીને
अपती न्या ती खाय, (धीचीपहारसयतालिया वित्र घुम्ममाणो) । मायाना महाराथी मथने य२ २२ ती ते नाप (गगणातलाओ गलिय व धणा विव) की ती ती त री तूरी पाथी माथी નીચે પડી ગઈ હોય
એટલે કે જેમ બ ધન તૂટી જવાથી કોઈ વસ્તુ ઉપરથી નીચે આવી પડે છે તેવી જ રીતે જાણે કે આ નાવ પણ બ ધન તૂટી જવાથી આકાશમાંથી નીચે પડી ગઈ ન હોય? (रोयमाणीचिव सलिल गठिविप्पइरमाणा घोरसुवाएहि णवबहू उपरयभत्तुया)
પિતાના પતિના મૃત્યુ પામ્યા બાદ જેમ કોઈ નવોઢા-જુવાન પની
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अमगारधर्मामृत पिणी टी० अ० ९ माकन्धिकदारकचरितनिरूपणम ५६९ रुद्वतीय, 'पिलबमाणी विव परचकरायाभिरोहियापरममहब्भयाभिदुयामहापुरवरी' विलपन्तीव एरचक्रराजाभिरुद्धा परममहाभयाभिद्रुतामहापुरवरी-शत्रुभूतैः परचक राजैरभितः सर्वतो रद्धा परिवेप्टिता, अतएव परममहाभयादभिद्रुता तत्रत्यजनाना. भयार्ताना सर्वदिक्षु कोलाहलपूर्वक यद् अभिद्रवण पलायन तेनाभिद्रुत्ता अतएर विलपन्ती जनाना सभयकोलाहले. विलाप कुर्वतीय यथा महापुरवरी महानगरी उसी प्रकार उस नौका से भी सलिल से आई हुई सधियो से जल वि न्दु समूह टप टप बरस रहा था-अत मालूम पडता था कि मानों यह आसुओ को छोड़ती हुइ रोही रही है । (विलवमाणी विव परचचक्क रायाभिरोहिया परममन्मयाभिदुया महापुरवरी ) जिस प्रकार शत्रू
भूत परचक्र राजाओ से सर्व ओर से घिरी हुइ कोई महानगरी परत __ अधिक भयसे अभिद्रुन होती हुई विलाप करती है अर्थात् जब कोई म.
हानगरी शत्रु भून रानाओ के द्वारा चारों ओर से घेरली जाती है तब घहा का प्रत्येक जन भय से आर्त होकर जहा जिस से भागते बनता है वह वहां रोता पिलपना हुआ भाग जाता है-जनता मे इस से अधिक अधिक विक्षोभ उत्पन्न होकर हाय २ आदिका शब्द उसके मुख से स्वतः निकलने लगता है अतः वह नगरी जैसे उससे आकुल व्याकुल पनजाती है-उसी प्रकार इस नौका में बैठे हुए यात्रियो के मुख से भी इस आपत्ति के समय मे हाय २ आदि शब्दों के कोलाहल से वहां का वातावरण आकुल व्याकुल बन रहा था अत सूत्र कार ने इस नौका के આ બેમાંથી શ્રાવણ, ભાદરવાનો જેમ આસુઓની ધારા વહાવતી ઉભી હોય તેમજ તે વહાણ પણ પાણીથી ભીનુ થઈને સાધાઓમાથી સતત જળપ્રવાહ વહાવી રહ્યું હતું એટલે એમ જણાતુ હતુ કે તે રડતુ જ ન હોય! (विलवमाणीविध परचक्करायाभिरोहिया परममहन्भया भिया महापुरवरी)
રાત્રુ બની ગયેલા બીજા બહારના ઘણા રાજાઓથી ઘેરાયેલી કોઈ મહા નગરી અત્યત ભયગ્રસ્ત થઈને વિલાપ કરવા માંડે છે એટલે કે જ્યારે કોઈ મહાનગરી શત્રુ રાજાએથી મેર ઘેરાઈ જાય છે ત્યારે નગરીમાં રહેનારી દરેક વ્યક્તિ જેમ ભયભીત થઈને જગા જેને નાસી જવાનું સરળ પડે છે ત્યા તે રડતી વિલપની નામી જાય છે, પ્રજાજનોમા એનાથી ખૂબ જ ત્રાસ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે અને તેઓના માથી “હાય” “હાય” ના શબ્દ પિતાની મેળે નીકળવા માંડે છે આ પ્રમાણે તે નગરી જેમ વ્યાકુળ થઈ જાય છે તેમ જ નાવમાં બેઠેલા યાત્રીઓના માથી નીકળતા “હાય”, “હાય” ને કાબ્દોથી ત્યાનુ વાતાવરણ વ્યાકુળ થઈ રહ્યું હતું સૂત્રકારે આ નાવને અનેક દુશમન
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पाताधर्मकथास भनति, तद्वत्०, 'झायमाणीविच क्वडच्छोभप्पओगजुत्ता जोगपरिवाइया' कपट छद्मप्रयोगयुक्ता योगपरिव्राजकाध्यायन्तीय कपटध्यानकुन्तीय, अतएव परमकपटभयोगयुक्ता योगपरिवाजिकेव योगिनीवदृश्यमाना, 'णीसासमाणीविध महाक्तार विणिग्गयपरिस्सतापरिणयवयाअम्मया' निःश्वसतीन महाकान्तारविनिर्गतपरिश्रान्ता परिणतवयस्का अन्या यथा महाकान्तारविनिर्गतेन महापरिनिर्गमनेनापरिश्रता: खिन्ना परिणतवयस्का वृद्धावस्थापना अम्मेव-पुत्रवती मातेच निःश्वसती ऊर्धाधोविषय में ऐसी कल्पना की है कि मानों यह नौका परचक्र के राजाओं से सर्व ओर से रोकी हुई महानगरी के समान अत्यन्त भय से अभि द्रत बन कर विलाप ही कर रही है। (झायमाणी विव कवडच्छोभ पप्पओगजुत्ता जोगपरिधाइयो ) यह नौका यकवत् कपट ध्यानकरने वाली योग परिव्राजिकाके समान दिखलाई देती थी-जिस प्रकार कपट से ध्यान करने वाली परिव्राजिका क्षण भर के लिये कभी स्थिर हो जाती है और कभीअस्थिर-एक सी वृत्ति उसकी नही रहती इसी तरह तरोगों से चचल बनी हुई वह नौका भी क्षण भर के लिये स्थिर हो जाती थी और फिर अस्थिर बन जाती थी एक सी वृत्ति उसकी नहीं थी।
(णीसासमाणी विच महा कतार विणिग्गय परिस्सता परिणयवया अम्मया) महा भयकर जगल में ऊची नीची भूमि पर चलने से परि श्रान्त हुई जैसे वृद्धावस्थापन पुत्र वती माता दीर्ध निश्वासो को छोड़ રાજાએથી આક્રાત થયેલી તેમજ ભયગ્રસ્ત થયેલી મહાનગરીની સરખામણી એટલા માટે જ કરી છે (झायमाणी विव कवडच्छोभप्पओगजुत्ता जोगपरिवाइया)
આ નાવ બગલાની જેમ કપટ ધ્યાન કરનારી છે. પરિવાકાની જેમ લાગતી હતી એટલે કે જેમ કપટ ધ્યાન કરનારી પરિવ્રાજીકા ડી ક્ષણ માટે સ્થિર થઈ જાય છે અને પછી તરત જ અસ્થિર મનવાળી થઇ જાય છે તે સ્થિરતાપૂર્વક મનને સ્થિર રાખી શકતી નથી તેમ આ નાવ પણ મેજાએથી ચચળ થઈને ડી ક્ષણે સ્થિર બની જતી અને પાછી તરત જ અસ્થિર થઈ જતી હતી, એક સરખી સ્થિતિમાં રહી રાતી જ નહોતી (णीसासमाणी विव महाफतारविणिग्गयपरिम्सता परिणयच्या अम्मया)
મહા ભય કર વનવગડામાં ઉચી નીચી ધરતી પર ચાલનારી પશ્રિાન્ત થયેલી, ઘરડી થયેલી પુત્રવતી માતા જેમ દીર્ઘ નિશ્વાસ બહાર કાઢતી લથ
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अनगारपणी टी० अ० ९ माकन्दिदारक चरितनिरूपणम्
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गमती, 'सोमाणी तव चरणखीणपरिभोगा चयगकाले देववरचहू' शोचन्तीव तपश्चरणक्षीणपरिभोगा च्यवनकाले देववरख ः- वाचरणक्षीणपरिभोगा=मुक्ततप वरणफलान्यवनकाले=देवभवस्थितिक्षयसमये देववरवधूरिव शोचन्ती तद्यस्थि वजनविदादयोगात् शोक कुर्वतीच दृश्यते । पुनः सा नौका कीदृशी जाता इत्याह'सचुणियकारा' इत्यादि । ' सबुण्णियकटुक्कुबरा ' सचूर्णितकाष्टकारा सच् णितानि = अत्यर्थ चूर्णी भूतानि काष्ठानि कूपर चमुस यस्याः सा तथा, 'भग्ग मेढी ' भग्नमेधिः मग्न = टिव मेवि: =सक्लनीकाधारभूतः स्तम्भो यस्था सा तथा, 'मोडियमहस्समाला ' मोटितसहस्रमाला - मोटित: भग्नः सहस्रमाला = सहस्रसर यजना पारभृतो मालः = उपरितन भागो यस्या सा तथा 'सुलाइयत्र परिमासा' शूलाचितवक परिमासा शूलाजितइव = शूलारोपितइव वक्र. = कुब्जः परिमासः ती हुई लडखडाने लग जाती है-उसी प्रकार यह नौका भी तरगो से आहत होकर मानो थकावट की वजह से ही चलने में लडखडा रही थी । ( सोयमाणी विव तवचरण चीणपरि मोगा चयणकाले देवरवर ) तपश्चरणका जिसने फल भोग लिया है-और अब जिसके च्यवन का समय आ गया है ऐसी देवाङ्गना जिस प्रकार शोक से व्याकुल- चचल - जन जाती है उसी प्रकार यह नौका भी विलकुल चचल बन गई थी । ( सचुनि ककबरा) उस समय इस नौका के कष्ट और कूपर मुस - चूर्णी भूत बन चुके थे । ( भग्गमेढी) इसका अपना सकल आधार भूत स्तभट्ट चुका था । ( मोडिय सहस्स माला ) सहस्रसख्यजनो का आधार भूत उपरितन भाग इसका भग्न हो चुका था । (सलाह यवक परिमासा) शूल पर आरोपित किये हुए के समान इसका परि
ડીયા ખાવા માડે છે તેમજ તે નાવ પણુ મેાજાએથી અથડાઇને જાણે કે થાકીને લથડીયા ખાવા ન માડી હાય !
( सोयमाणी वितरणखीणपरिभोगा चयणकाले देवपर वहू )
તનુ ફળ જેણે ભેાગવી લીધુ છે અને હવે પતન થવાના સમય આવવાથી દેવાગના જેમ શેક વ્યાકુળ-ચચળ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે જ या नाव था। ये राज जनीती ( स चुण्णियकर्ते कुबरा ) भोलसोथी અથડાતા અથડાતા ત્યા સુધી નાવના કાષ્ટ અને કૃખર–મુખ નાન પામ્યા ता ( भग्गगमेढी) नावनो आधार भूत स्तल ( थालसेो ) तूटी पडयेो हतो ( मोडिय सहरसमाला ) हमरो भायुसो न्या यात्रय भेजनी राजे तथेो नावनो पन्ना लाग तूटी गया तो ( सूलाइयत्र कपरिमासा ) शूस ७५२ भूज्वाभा
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साताधर्मकथासूत्र =काष्ठविशेषो यस्याः सा तथा, 'फलहतरतडतडेतफुट्टतसपिविगलतळोदकीलिया' फलकान्तरेषु सयोजितफलफरिवरेपु 'तडतडे' ति शब्द कुर्वन्त्यः, स्फुटन्तो%3 विघटमाना सन्धयः, अतएव निगलन्त्यो निस्सरन्त्यो लोहकीलिका यम्या सा तथा, 'सजगवियभिया' सर्वाङ्ग विजृम्भिता सङ्गेि' सवियोः वि.म्भिता= विस्तमुखा जाता या सा तथा, 'पडिमडियरज्जू' परिशटितरज्जुः गलितरज्जुवती अतएर — विसरतसव्वगत्ता' त्रिसरत्मवंगाना=विशीयमागसवियया, आम गमल्लगभूया' आमकमलभूता-अपयशरावसदृशा, 'अफयपुण्णजणमणोरहो विव' अकृतपुण्यजनमनोरथ इच, अकृत पुण्या-हीनपुण्यो यो जनस्तस्य मनोरथ इन 'चिंतिज्जमाणगुम्इ ' चिन्त्यमानगुर्गी चिन्त्यमाना-'कथमेतामापद तरिप्यामी' तिविचार्यमाणेच गुर्वी-चिन्तामारणेव गुरुका, ' हाहाकयफणधारणावियवाणिय मास काष्टविशेप टेढा हो गया था। (परतरतडतडेंतफुटतसविविगलतलोत्कीलिया) काष्टके पटियोको परस्पर जोडनेके लिये जो सधियों में लोहे के बडे कीले लगे हुए थेवे सब जब उसकी सधिया-जाड,विघटित हो गई तर उनमे बाहर निकल आये थे (सधगवियभिया) अतः समस्त इसके जुडे हुए अवयव खुल गये थे । (परिसडियरज्जू ) जित नी भी इस में रस्सिया लगी हुई थी वे सब की सब गल चुकी थीं। (विसरतसव्वगत्ता ) इससे समस्त जोड खुल गये थे। ( आम गमल्लक भया) यह कच्चे मिट्टी के शरवाके समान हो गइ थी। (अकय पुण्ण जणमणोरहो विव) अकृत पुण्य वाले मनुष्य के मनोरथ के समान यह निष्फल बन गई थी । ( चिंतिज्जमाण गुरुई ) मै इस आप त्ति को अब कैसे पार करूँगी इस चिंता से ही मानो यर बहत भारी આવેલાની જેમ પરિમા નામનુ કાષ્ટ વિશેષ-વાસુ થઈ ગયુ હતુ ( हतर तडतडे त फुट त स धि विगल तलोहकीलियो ) सना पाटीयामाने मे બીજાની સાથે તેને સાધા મેળવવા જે લેખડના મોટા ખીલાઓ કામમાં લેવાય છે તે બધા પાટિયાઓ જયારે જુદ જુદા થઈ ગયા ત્યારે બહાર નીકળી આવ્યા हता (सव्व ग विय भिया) मा प्रमाणे नावना या मेसा साधा। गुहा थ; गया तो (परिसडियरज्जू ) तनी सधी हरीयो डापा यूटी ती (विसर तसव्वगत्ता) तेना मधा साधा। पी गया ता (आम गमल्लकभूया) ते भाटीना याठियानी भय सती (अकयपुण्ण जण मणोरहाविव ) ६ ५५ हिसे नशे गेय पुश्यनु आम यु नयी सेवा भाधुसना मना२यनी म त नि 45 ती (वितिज्जमाण गुरुई ) मापी ५सी मातनो सामना हुवी शत ४Na? मा
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अनगारधर्मामृतार्षिणी टी० अ० ९ मान्दिदारकवरितनिरूपणम् ___५७६ गजणकम्मगाररिलविआ । हाहाकृतपर्णधारनाविकवाणिजकननकर्मकरगिलपिता हाहाकृत -हाहाकारयुक्तैः कर्णधार =निर्यामकैः, नाविकै =पोतवाहकै , वाणिजकजन. व्यापारिजनैः, कर्मकरः भृत्यैः पिलपिता-विलापयुक्ता-कर्ण पारादीना हाहा कारेण विलाप कुर्वतीवेत्यर्थः 'णाणाविदरयणपणियसपुण्णा' नानाविधैः रत्नै.पण्यैश्चविक्रग्यवस्तुजातैः सम्पूणा-सम्भृता, बहुभिः पुरुषशतैः रुदद्भि कृन्दद्भिः शोचद्भिः, 'तिप्पमाणेहि तेपमान अश्रुणि मुञ्चदि विलपद्धिा, विलाप कुर्वदिः, एक महत् 'अतोजरगय' अन्तर्जन्गत जलमध्यस्थित गिरिशिखरमासाघम्सट्य 'सभग्ग कवतोरणा' सभग्नकृपतोरणा-सभग्नः त्रुटितः कृपा-कूपस्तम्भः-यत्र सितपटो बन गई थी (हा हा कयकण्णधारणा विव वाणियगजणकम्मगार विलविया) इस में जो कर्ण धार, नाविक, व्यापारिजन एव नौकरचाकर बैठे हुए थे वे सब के सब हाहाकार करते हुए विलाप कर रहे थे- अतः ऐसा मालूम होता था कि उनके हाहाकार विलापो से यह नौको स्वय विलाप कर रही है । (णाणा विदयणपणिय सपुण्णा) अ. नेक प्रकार के रत्नो से एव पण्य द्रव्यों से-विक्रेय्यवस्तुओं से-यह नौका भरी हुई थी। (रोयमाणेहिं कद० सोय तिप्प० विलयमाणेहि पट्टहिं पुरिसहिं एग मह अतोजलगय गिरिसिहरमासायइत्ता ) रुदन करनेवाले, आक्रन्दन करनेवाले, शोक करनेवाले, आसुओं को वहानेवाले ऐसे सैकडों पुरुषों से भरी हुई यह नौका एक बड़े भारी जलके भीतर रहे हुए गिरिके शिखर से टकरा गई-टकरोते ही (समग्गकृवजतनी तिथी ते नाव सारे ना२ ५sी ती ( हा हा फय कण्णधारण विव वाणियगजणकम्मगारविलविया )
તેમાં બેઠેલા કર્ણધાર, નાવિક, વેપારીઓ અને બીજા નેકર ચાકરો હાય, હાય, કરીને વિલાપ કરી રહ્યા હતા એથી એમ લાગતું હતું કે જાણે તેઓના विमाथी मा नाप चा विसा५ ४२ती नाय! (णाणाविहरयण पणिय सपुण्णा) uplladना २.ने। मने यानी पस्तुमाथी मा नाप पूरेपूरी नरी
ती (मेयमाणेहि कद० सोय० तिप्प० विलवमाणेहि पाहि पुरिसएहि एग मह अतोजल्गय गिरिसिहरमासायइत्ता )
રડનારા, કરુ, આકદ કરનારા શેકથી પીડાતા, ચોધાર આંસુઓ વહેવડાવનારા, વિલાપ કરનારા એવા સેકડે માણસેથી ચિડાર ભરેલી તે નાવ આખરે પાણીની અંદરના જ પર્વત શિખર (ખડક) સાથે અથડાઈ પડી અને मयतानी माथे ( सभागकूवतोरणा तना पन्तले भने । तटी
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............ पाताधमदाहा घध्यते सः, तथा तोरणानिच सुटितानि यस्याः सा तथा-'मोडियमयदडा' मोटि तध्वज दण्डा-त्रुटित बजकाष्ठा, 'वलयसयसडिया' वलकशतसण्डिता वलगाना= दीर्धदारूणां शतानि खण्डितानि यस्याः सा, 'करफस्स ' करकरेति शाद कुर्वाणा तौव समुद्रे 'विदव-विल्यम् उपगता प्राप्ता जले त्रुडितेत्यर्थः । ततः खलु तस्या नौकायाभियमानायाडिताया सत्या पहब' पुरुषा. 'विउलपाणिय' विषु लपणित-विपुल प्रचुर पणित-पण्यद्रव्य विक्रय द्रव्यम् यस्मिन तत् तादृश भाण्डमादाय ' अतोजलसि' अन्तर्जले जलम ये 'निमनाविय' निमग्नाः रिता अपि चाभूवन् ॥ सु०२॥
मूलम्-तएण ते मागदियदारगा छेया दक्खा पत्तट्ठाकुसला मेहावी णिउणसिप्पोवगया वहुसु पोतवहणतपराएसु कयकरणा लद्धविजयाअमूढा अमूढहत्था एगं मह फलगखड आसादेति, जंसि च ण पदेससि से पोयवहणे विवन्ने तति च णं पदेससि एगे मह रयणदीवे णाम दीवे होत्था अणेगाइ जोयणाइ आयामविक्खभेणं अणेगाइ जोअणाइ परिक्खेवेण तोरणा ) इसके कूपस्तभ और तोरण भग्न हो गये (मोडियमयदडा) ध्वजा दड टूट गया (वलयस खडिया) पडे २ लवे २ सैकडो काष्ठख डित हो गये (करकरस्सतत्येव विद्दव उवगया) और यह कर २ शब्द करती हुई वही पर डूब गई। (तपण तीए णावाए भिजमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपणिय भडमायाए अतोजलमि णिमज्जाविय होत्था) इस तरह उस नौका के डूब जाने पर अनेक पुरुष प्रचुरपण्य द्रव्यवाले भाण्ड को लेकर जलके बीच में निमग्न हो गये ॥ सूत्र २ ॥ गया (मोडियझयदडा) a तूटरी गयो ( वलयसयसडिया ) मोटा मारा विuman से 31 ४०४ तूटरी गया (करकररस तस्थेव विद्दव उरगया) અને તે નાવ “કર કર ” શબ કરતી ત્યાં પાણીમાં ડૂબી ગઈ
(तएण तीए णापाए भिज्जमागीए वहवे पुरिसा विपुलपणिय भडमायाए अतो जलमि णिमज्जाविय होत्था)
આ રીતે નાવ ડૂબી જવાથી ઘણા માણસે પુષ્કળ પ્રમાણમાં દ્રથી ભરેલા વાસણે સાથે પાણીમાં નિમગ્ન થઈ ગયા છે. સૂત્ર “ ૨ ” છે
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__ अनगारधर्मामृतषिणी सी भ० ८ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५ णाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाइए ४, तस्स णं वहुमज्झदेसभाए तत्थ णं एगे महं पासायवडेसए होत्था अन्भुगयमूसियए जाव सस्सिरीए सुरूवे पासाईए १, तत्थणं पासायवडेंसए रयणद्दीवे देवया नाम देवया परिवसति पावा चंडा रुद्दा साहसिया, तस्स णं पासायवडिसयस्स चउदिसि चत्तारि वणसंडा किण्हा किण्हाभासा, तएणं ते मार्गदियदारगा तण फलयखडेण उव्वुज्झमाणा२ रयणदीव तेणं सवूढा यावि होत्था, ताणं ते मागदियदारगा थाह लभंति लभित्ता मुहत्ततर आससंति आससित्ता फलखड विसज्जेति विसज्जित्ता रयणदावे उत्तरति उत्तरित्ता फलाण मग्गणगवेसणं करेति करित्ता फलाई गिण्हंति गिणिहत्ता आहारोतिआहारित्ता णालिएराण मगणगवेसणं करेति करित्ता नालिएराइं फोडोति फोडित्ता नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गत्ताइ अन्भगृति अब्भगित्ता पोक्खरणी ओगाहिति ओगाहित्ता जलमजण करेंति करिताजाव पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयसि निसीयति निसोइत्ता आसत्था वसित्था सुहासणवरगया चपानयरिं अम्मापिड आपुच्छण च लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थण च पोतवहणविवत्ति च फलयखडस्स आसायण च रयणदीवुत्तार च अणुचितेमाणा२ ओयमणसंकप्पा जाब झियायेन्ति, तएण सा रयणद्दीवदेवया ते मार्गदियदारए ओहिणा आभोएड आभोइत्ता असिफलगवग्गहत्था सत्तहतालप्पमाण उड्ड वेहास
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भाताधर्मकथा उप्पयइ२ ताते उक्किट्ठाए जावदेवगईए वीइवयमाणी२ जेणेव मागदियदारए तेणेव आगच्छइ आगच्छित्ता आसुरुत्ता ते मागदियदारए खरफरुसनिटरवयणेहि एवं वयासीह भो मागदियदारया । अप्पत्थियपत्थया जइ णं तुम्भे मए सद्धि विउलाइ भोगभोगाइं भुजमाणा विहरह तो भे अस्थि जीविअ, अहणण तुम्भे मए सद्धि विउलाइ भोगभोगाइ भुजमाणा नो विहरह तो भे इमेणं निलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमपगासेणं असिणा खुरधारेण असिणा रत्तगडमसुयाइ माउयाहि उक्सोहियाइ तालफलाणीव सीसाइं एगते एडमि, तएणं ते मागदियदारगा रयणदीव देवयाए अतिए सोच्चाभीया करयल० एव जपणं देवाणुप्पिया | वइस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिठिस्सामो, तएणं सा रयणद्दीवदेवया ते मागदियदारए गेण्हति२ जेणेव पासायवडिसए तेणेव उवागच्छइ२ असुभपोग्गलावहार करेइ २ सुभपोग्गलपक्खेव करेइ करित्ता पच्छा तेहि सद्धि विउलाइ भोगभोगाइ भुजमाणा विहरति कल्लाकल्लि च अमयफलाई उवणेइ ॥ सू०३ ॥
टीका-ततः खलु तौ मारुन्किदारको 'छेया' छकौ चतुरौ ' दक्खा' दक्षौनिपुणौ, 'पत्तट्ठा' प्राप्ताौँ-प्राप्त =ज्ञातः अर्थः भागो याभ्या तौ 'कुसला'
'तएण ते मागदिय दारगा' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (ते मागदियदोरगा ) उनदोनों माकदि यदारकों ने कि जो (छेया,दक्खा,पत्तट्टा, कुसला, मेहावी, निउणसिप्पो 'तएण ते मागदियदारगा' इत्यादि ।।
थ-(तएण) त्या२ मा ( ते मागदियदारगा ) ने भाग यि દારકોએ-કે જેઓ
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मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० ९ माफम्विधारकचरितनिरूपणम् ५७७' कुशलौ सक्लकलाविज्ञौ 'मेहावी' मेधाविनौ-सुधियो णिउणसिप्पोरगया' निपुणशिल्पोपगता-तरणादिविद्यानिपुणौ बहुपु-अनेकेषु 'पोयवहणसपरायेषु' पोतवहनसपरायेषु = पोतवहनस्य-नौकातरणस्य सपरायेपु = विघ्नेषु समुपस्थि. तेषु ' कयकरगा' कृतकरणौ-कृतकायौं बहुशोऽनुभूतसतरणकार्यो, 'लद्धनिजया' लमविनयौ ममुद्रपारगमनेन प्राप्तविजयो 'अमूहा' अमूढी-तरणादिक्रिया विवेकसम्पन्नौ ' अमृढहत्या' अमृढहस्तौ-तरणक्रियाकुशलहस्तौ एकमहत् फलफखण्ड काष्ठमयम् ' आमाति' आसादयत =आलम्मितान्तौ । यस्मिंश्च खलु प्रदेशे तत् पोतबहन-मवहण 'विवन्ने ' विपन्न भग्न तस्मिंश्च खलु तस्मिन्नेव प्रदेशे एको महान् रत्नद्वीपो नाम द्वीपः 'होत्या' आसीत् , स कीदृशः ? इत्याहयगया, बहुसु पोतवणसपराएसु कयकरणा, लद्धविजया अमूढा, अमू दहत्या एग मह फलगग्वड आसादेति) बडे चतुर थे, दक्ष थे, भावों को जानने वाले थे, सफल कलाओ के ज्ञाता थे, मेधावी थे, तरणादि विद्या में विशिष्ट योग्यता सन्न थे, पोत सचालन मे उपस्थित हुए विनो को पार करने वाले थे, अर्थात् ऐसी स्थितिमे जिन्होने सस्तरण कार्य अनेक बार अभ्यस्त कर रखा था, समुद्रपार करने में जिन्हे विजय मिली थी, तरणादि क्रिया का विवेक जिन्हें बहुत अच्छी तरह था, जि. नके हाथ तैरने मे कभी यकने नहीं थे-जो तरण क्रिया मे बडे कुशल थे, एक बडे भारी काष्टफनक खड को प्राप्त कर लिया। (जमिच ण पदेसमि से पोयवणे विवन्ने तसिंच ण पदेससि एगे मह रयणद्दीवे. णाम दीवे होत्या,अणेगाइ जीअणाति आयामविक्खभेण अणेगाइ जोअ
(छेया, दक्खा पत्तट्टा, कुसला मेगवी निउण सिप्पोवगया वहुमु पोतवण सपराएमु कयकरणा, लद्वविजया अमृढा अमूढहत्था एग मह फलग खडआमादेति
ખૂબ જ ચતુર હતા દક્ષ હતા, ભાવને જાણનારા હતા, બધી કળાઓમાં નિષ્ણુ ત હતા, મેઘાવી હતા તરવા વગેરેની કળાઓમાં નિપુણ હતા, પિત સ ચાલનમાં વચ્ચે આવી પડેલા વિદને દૂર કરી શકવાની શક્તિ ધરાવતા હતા એટલે કે એવી પરિસ્થિતિમાં પ હિંમત ન હારતાગમે તે રીતે તરીને પણ સમુદ્ર પાર કરવામાં શક્તિરાળી હતા તરવાની ક્રિયામાં જે વિશેષ કુશળ હતા, તરતી વખતે પણ જેમના હાથે કોઈ પણ સ્થિતિમાં થાકતા જ નહિ તરવામાં જેઓ ખૂબ જ કુરાળ હતા-એક મેટા લાકડાના પાટિયાને પકડી લીધુ
(जमि च ५ पदेससि से पोयवहणे विचन्ने त सि च ण पदेससि एगेमह रयणद्दीवे णाम दीवे होत्या, अणेगाइ जोअणाइ परिक्खेवेण णाणा दुमसडमडिउद्देसे सस्सिरीए पासाइए ४)
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५७
माताधर्मकथासू
'अणेगाइ ' इत्यादि - अनेकानि योजनानि आयामनिष्कम्भेण = देर्घ्यपरिणाहेन, अनेकानि योजनानि परिक्षेपेण = परिधिना, नानामपण्डमण्डितो देश = अनेकवन पण्डमण्डितमदेश' सश्रीक शोभासम्पन्न', मासादीय' - मनः ममन्नता देतुलात्, दर्शनीय = नेत्राहादकत्वात्, अभिरूपः = अपूर्व सौदर्यप्रचार, प्रतिरूपः = प्रशस्ताकृतिकत्वात् । तस्य खलु द्वीपस्य नहुमध्यदेश भागे = मध्यस्थले तन खलु [एको महान् मासादावतसकःश्रेष्ठमासादो आसीत्। स कीदृशः ? इत्याह- 'अभुगय ! इत्यादि -' अब्भुगय ' अभ्युद्गतः = विशाल 'ऊसियए ' उच्छ्रितकः = गगनतलस्पर्शी यात्रत् सश्रीक:- सुरूप ' = शोभनाकारः प्रासादीयः ४ । तन खलु मासादावतस के रत्न द्वीपदेवता नाम देवता ' रयणादेवी' इति प्रसिद्धा देवी परिवसति = निवास नाइ परिक्खेवेण णाणादुमसडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाइए ४ ) जिस प्रदेश मे वह पोतवहन भग्न हुआ था, उसी प्रदेश में एक बड़ा मारी रत्नद्वीप नाम का द्वीप था । इसका आयाम और विष्कभ अनेक योजन का था । परिधि भी इसकी अनेक योजन की थी। नोना प्रकार के वृक्षों के समृह से इस का भीतरी बाहिरी प्रदेश हरा भरा बना हुआ था । यह द्वीप बहुत ही शोभासपन था । मन को प्रसन्न करनेवाला था । दर्श नीय था । तथा अपूर्व सौन्दर्य से युक्त था । एव आकृति मे भी यह बडा अभिराम था । (तस्स ण बहुमज्झदेस भाए तत्थण एगे मह पासा यवडेस होत्था-अभुग्गयमूसियए जान सस्सिरीण सुरूवे पासाईए ४ ) इस द्वीप के ठीक मध्य भाग में एक विशाल श्रेष्ठ प्रासाद था ! यह बहुत अधिक ऊँचा था । अपनी ऊँचाई से यह आकाश तक को स्पर्श करता था । बहुत सुन्दर था । दर्शनीय आदि विशेषणों वाला था । (तत्थ ण
નાવ જ્યા ડૂબી હતી તેની આસપાસના પ્રદેશમા એક બહુ મેટો રત્નદ્વીપ નામે દ્વીપતા આ દ્વીપના આયામ અને વિષ્ણુ ભ ઘણા ચેાજના સુધી વિસ્તાર પામેલા હતા આ દ્વીપની પરિધિ પણ ઘણા ચેાજના સુધીની હતી ઘણી જાતના વૃક્ષેાના સમૂહેાથી તે દ્વીપના અદર અને મહારના ભાગ લીધેા છમ દેખાતા હતા તે દ્વીપ ખૂબ જ સુ રહતેા મનહર હતે, મનને પ્રસન્ન કરે તેવા હતા, દર્શનીય હતા અપૂર્વ સૌદર્યાંથી તે યુક્ત હતા તેમજ આકારમા પણ તે અત્યંત સુદર હતા
( तस्स ण बहुमज्झदेसभाए तत्थण एगे मह पासायवडे सर होत्था - अन्भुग्गय मूसियए जान सस्सिए मुख्वे पासाईए ४ )
તે દ્વીપની વચ્ચે એક વિરાળ ઉત્તમ મહેલ હતેા તે હતા પેાતાની ઊંચાઈથી તે આકાર ને પણ પતા હતા તે હતા, દર્શનીય વગેરે વિશેષતાઓથી યુક્ત હત
ખૂબ જ ઊંચા ખૂણ જ સુદર
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अनगान्धर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकच रितनिरूपणम्
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करोति । सा कीटशी ? इत्याह-' पाना ' इत्यादि - ' पाना ' पापा = पापकर्मकर्त्री स चण्डा=अत्यन्त कोषशीला, रौद्रा = हिंसादिकूरकर्मकारिणी, साहसिका = निचार्य कारिणी । तस्य खलु प्रामादानतमकस्य चतुर्दिषु चत्वारो वनपण्डा आसन्, कीगा: ? इत्याह- 'किडा' इत्यादि - कृष्णा = नूतनमे वर्णाः, कृष्णात्रभासाः= जतिहरितत्वेनावभासमान कृष्णकान्तय इत्यादि । तत खलु तौ मारुन्दिम्दारकौ तेन फलदण्डेन ' उब्युज्झमाणा २१ उदुद्यमानो २ उपरिजले दन्तो २ तरन्तौर, - रत्नद्वीपान्ते खलु - रत्नदीपनमीपे ' समुढा सम्यूढो= समागतौ चाप्यास्ताम् । ततः स तत्र तौ मारुन्दिकदारको 'वाह' रताय= समुद्रतल लभेते= पादाभ्या स्पृष्टवन्तोला मुहर्त्तान्तरम् = पन्तर्मुहर्त्तम् आश्वस्तः- विश्राम कुरुतः, आश्वस्य पासायवडेसए रमणदीवे देवया नाम देवया परिवसति, पावा, चडा रुद्दा, साहसिया तस्स ण पासायचहिंसयस्त चउदिसिं चत्तारिवणसडा किन्हा, किण्ाभासा, तपण ते नागदिवदारगा तेण फल्याखडेण उच्छु ज्झमाणा २ रयणदीवनेणं सचूहा यानि होत्या ) उस श्रेष्ठ मासाद में रत्न टीप देवता नाम की एक देवी कि जिम का प्रसिद्धनाम 'रत्नदेवी' "ऐसा था " रहती थी ॥
यह अत्यत पापकर्म करती थी, सदा गुस्से में मरी रहती थी, हिंसादिक्रूरकर्म करने मे बडी निपुणमति थी जो मन मे आता वही कर डालती थी । उस श्रेष्ठ प्रासाद की चारो दिशाओ मे चार चनखण्ड थे । वे नवीन मघ के वर्ण समान काले थे और सदा हरे भरे रहने के कारण उनकी काति भी काली ही निकलती थी। ये दोनों माकदी दारक उस फलक व ड की सहायता से जल पर तैरते हुए उम रत्नद्वीप के
( तत्थण पासावडेंसए रयणदीवे देवया नाम देवया परिवसति, पावा चडा रुदा साहसिया तम्सण पासायवडिसयस्स चउदिसिं चत्तारि वणसडा, किव्हा किन्दाभासा, एग ते मागदियदारगा तेण फलयखडेण उबुज्झमाणा २ रणदीप तेण सनूढा यात्रि होत्था )
તે શ્રેષ્ઠ મહેલમા રત્નદ્વીપ દેવતા ન મની એક દૈવી કે જે ‘ રયા દેવી ’ નામે પ્રતિદ્ધિ પામેલી હતી રહેતી હતી હમેશા તે ગુસ્સામા જ રહેતી હતી તે હિંમા વગેરે ક્રૂર કર્મો કરવામા ખૂબ જ ચતુર હતી તે ઈચ્છા મુજબ આચરણ કરતી હતી તે ઉત્તમ મહેલની ચારે દિશાએ તક્ ચાર વનખા હતા તમે નવા વાદળના રંગના જેવા શ્યામ હતા અને હંમેશા લીલા મ રહેવા બદલ તેમની કાતિ પણ શ્યામ ગની જ હતી અને માકદી દ્વારકા લાકડા ઉપર તરતા તરતા રત્ન દ્વીપની પાસે આવી પહાચ્ચા હતા
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माताधर्मकथा फलकखण्ड 'रिसज्जेति' लिसर्जयतः परित्यक्तान्ती, विसृज्य रत्नद्वीपम् उत्तरत:प्राप्तौ उत्तीर्यमाप्य फलाना मार्गणगोपण कुरुत इतस्तत फलानि गवेपितवन्तो, कृत्वा फलानि गृहीतः, गृहीत्वा आहारतः भुक्तान्तौ, तदनु नालिकेराणा मार्गणगवेपण कुरुतः, कृत्वा नालिकेराणि स्फोटयतः, तत नालिकेरनैलेन अन्योन्यस्य पास में आ पहुँचे। (तएण ते मागदिघदारगा धार लभति, लभित्ता मुहु तंतर आससति, आससित्ता फलगखड विसज्जेंति,विमज्जित्तारयणद्दीव उत्तरति, उत्तरित्ता फलाण मग्गगगवेसण करेति ) वहा आते ही उन्हें स्थल मिल गयो-थाह मिलते ही उन्होंने वहां एक मुहर्त तक विश्राम किया, विश्राम करके फिर उस काष्ठ ग्वड को छोड दिया। छोड करके फिर वे दोनों रत्नदीप में उतर-गये-वहा जाकर उन्हाने फलो की इधर उधर मार्गणागवेपणी की-(करित्ता फलाद गिह ति, गिण्डित्ता आहा रेति आहारिता णालिगराणमागणगवेसण करेति, करित्ता नालिपराह फोडेति, फोडित्ता नालिएरतेल्लेण-अण्णमाण्णस्स गत्ताइअमगेति, अ भगित्ता पोक्खरणी ओगाहिंति, ओगोहित्ता जलमज्जण करेति, करित्ता जाव पच्चुत्तरति,पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयसि निसीयति, निसीइत्ता आसत्था वीसत्या) मार्गणा गवेषणा करने से उन्हें फल मिल गये। मिलते ही उन्होंने उनका आहार किया। जब उनका पेट अच्छी तरह भर चुका तब फिर उन्होंने नारिकेल फलो की-नारियलों की तलाश
(तएण ते मागदियदारगा थाह लमति, लभित्ता मुहत्ततर आससति, आससित्ता फलगखड पिसज्जेति, विसज्जित्ता रयणद्दीव उत्तरति उत्तरित्ता फलाण मग्गणगवेसण करेंति)
ત્યા પહોચતા જ તેઓને સ્થળ મળી ગયુ, સ્થળ મળતા જ તેઓએ એક મુહુર્ત ત્યા વિસા લીધે અને ત્યાર પછી લાકડાને છોડી દીધુ પાણી માથી તેઓ બને રત્ન દ્વીપમા આવ્યા અને આમ તેમ ફળ શોધવા લાગ્યા
(करित्ता फलाइ गिण्हति, गिण्हित्ता आहारे नि आहारिता णालिएराण मग्गणगवेपण करेंति करिता नालिएराइ फोडेंति फोडिता नालिएरतेल्लेण अण्णमण्णस्स गत्ताइ अन्भगति अब्भगित्ता पोक्खरणी ओगाहिति, ओगाहित्ता जलमज्झण करेति, करिता जान पच्चुत्तरति, पच्चुत्तरित्ता पुररिसिलापट्टयसि नीसीपति, निसीदत्ता आसत्था वीमत्या)
શોધ કરતા કરતા તેમને ફળ મળી ગવા તેમણે ફળને આકાર કર્યો ક્યારેકળાના આહારથી તેઓ ધરાઈ ગ. ત્યારે નાળિયેરના ફળની શેધ કરવા લાગ્યા આખરે નાળિયેરના ફળે તેઓએ મેળગ્યા અને તેને ફેડીને અંદરથી
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अनगारधर्मामृतपंणी ठी० अ० ९ माकन्दियदारकच रितनिरूपणम् परस्परस्य ' गत्ताइ' गात्राणि भङ्गोपाङ्गानि अभ्यञ्जयतः मर्दयतः, तदनु पुष्करिणी=नापीं अवगाहेते = अतः प्रविशत, अवगाह्य जलमज्जन = स्नान कुरुन', क्रत्वा यावत् प्रत्युत्तरतः नापीतो वहिर्निस्टतौ प्रत्युत्तीर्य - पहिर्निस्सृत्य पृथिवीशिलापट्टे निपीतः = उपविष्टौ निपद्य ' आसत्या' आस्वस्थ = ईपत्स्यस्थौ ' बीसत्या ' विस्वस्थ रमणीय निर्भयस्थान मत्वा विशेषेग विश्राम प्राप्तौ सुखासनवरगत=सुग्वदासने समुपविष्टो सन्तौ चम्पानगरम् अम्बापित्रा पृच्छनम् = समुद्रोत्तरण विषये तनिषेधेऽपि द्वित्रिवार तदाज्ञायाचनच, लग्णसमुद्रोत्तार च कालिकावातसमुत्थान की - तलश करने पर वे भी उन्हें मिल गये। मिलते ही उन्होने उन्हें फोडा - फोड कर उनमें से तेल निकाला - तेलनिकाल कर परस्पर में उन्हेंने एक दूसरे के शरीर पर उससे मर्दन कीया मर्दन करने के बाद फिरवे पुष्करिणी में प्रविष्ट हुए प्रविष्ट होकर उसमें उन्हों ने स्नान किया स्नान करके फिर वे उससे ऊपर आये। ऊपर आकर पृथिवी शिलापटुक पर बैठ गये । बैठकर वे वहां अश्वस्त बने। बाद में (सुहासणवरगया) सुखद् आसन से बैठ कर उन दोनों ने ( चपानयरिं अम्मापिउ आपुच्छण लवणसमु दोत्तारण च कालियवायसमुत्थणं च पोत वहणविवर्त्तिच फलयखडस्स आसायण च रयणद्दीत्तार च अणुचिते माणा २ ओह्यमणसकप्पा जाव झियायेंति ) चपानगरी का माता पिता से पूछने का - लवण समुद्र कि यात्रा करने के विषय में पूछने पर और उनके निषेव करने पर पुनः दुबारा तिवारा उनसे आज्ञा प्राप्त करने का - लवण समुद्र में उतरने का कालिका वायु के उत्थान का पोतके डूब जानेका फलक खड की प्राप्ति
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તેલ કાઢીને ખૂમ જ સરસ રીતે એક બીજાના શરીરે તેલ ચાળવા લાગ્યા ખરેાખર તેલની માલિશ કરીને તેએ પુષ્કીિમા ઉતર્યા અને ઉતરીને તેઓએ સ્નાન કર્યું સ્નાન કરીને તેઓ બહાર આવ્યા અને એક શિલા ઉપર બેસી गया त्या मेसीने तेथे आश्वस्त विश्वस्त मन्या भने त्यार पछी ( सुहासण घर गया ) सुभासन पूर्व मेसीने तेथेो मने
(चपानगरिं अम्मापिउआपच्छण लग्णसमुद्दोत्तारण च कालिय वाय समुत्थण च पोहविवर्त्तिच फलयखडस्स आसायण च रयणद्दीवुत्तार च अणुचिंतेमाणा २ ओइयमणसकप्पा जाव झियार्येति
ચ પા નગરીને, લવણુ સમુદ્રની યાત્રા કરવા માટે માતાપિતાએ ચાકખી ના કહેવા છતા બે ત્રણ વખત તેની તેજ વાત તેમની સામે મુકીને આજ્ઞા મેળવવાના, લવણુ મમુદ્રમા યાત્રા કરવાના, અકાળે વાવાઝોડાથી નાવ થી
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५४२ . . . .. हाताधर्म कथागो च, पोतवहनविपत्तिव, फलकग्वण्डस्याऽऽपादन स्वीकरणच, र नद्वीपोनारच अणु चिंतेमागा' अनुचिन्तयन्तौ-पुनः पुनः स्मरन्ती ' ओहयमणसमप्पा' अपहतमनः सकल्पी आर्त यानसम्पन्नौ यावत् ‘झियापति' ध्यायत पूटतान्त स्मृतवन्तौ । तत. खलु तस्मिन् समये सा रत्नद्वीपदेवता तो माफन्दिकदारको 'ओदिणा' अवधिना=अवधिज्ञानेन 'आभोएइ' आभोगयति-पश्यति, आभोगयित्ता-दृष्टा 'असिफलगनग्गहत्या' असिफलफव्यग्रहस्ता-असिना तीक्ष्णसङ्गेन फलकेन= ढाल' इति प्रसिद्धन व्यग्रो = चञ्चलौ हस्तौ यस्याः सा तथा, सत्ततालप्पमाण' सप्ताष्टतालममाण, मप्ताप्रताडक्षपरिमितम् , ' उड़' ऊम् ऊर्वभाग 'वेहासं' वैहायस-गगनसम्बन्धिकम्-अत्युचैराकाशे 'उप्पयई' उत्पतति, उच्छलति, उत्पत्य तया-अमिद्वया उत्कृष्टया यावद् देवगत्या वीदवयमाणी' व्यतित्रजन्ती २ = का और उसके सहारे से रत्न द्वीपमे आकर उतर जानेका चार विचा र-स्मरण किया। स्मरण करते २ अपने मनोरथ की पूत्ति न रोनेके कारण वे दोनों आतं ध्यान मे पड गये । (तएण सा रयणद्दीवदेवया ते मागदिदारए ओहिणा आभोण्ड, आभोइत्ता असिफलगवग्गरत्या सत्ततालपमाण उड्ड वेहास उप्पयइ २ ताहे उक्किट्ठाए जाव देव गईए वीहवयमाणी २ जेणेव मागदियदारए तेणेव आगच्छइ, आग त्तिा आसुतो ते मागदियदारए खरफरुसनिडुरक्यणेहि एव वयासी) इतने मे उस रत्नद्वीप मी देवी ने उन दोनो मागदिदारकों को अपने अवधिज्ञान से देखा-देन कर वह तलवार और डाल को हाथो में लेकर आकाश में सात आठ ताल वृक्ष प्रमाण ऊपर तक उछली उउल कर फिर वह उस उत्कृष्ट देव सबधि गति से शीघ्रता पूर्वक चलनी २ જવાનો. લાડુ મેળવીને તેની સહાયથી તરતા તરતા રત્નાદ્વીપમાં આવીને ઉતરવા સુધીને વાર વાર તેઓ વિચાર કરવા લાગ્યા આ બધી ઘટનાઓનું તેઓ સ્મરણ કરવા લાગ્યા આમ સ્મરણ કરતા કરતા જ્યારે પિતાના મનોરથ સફળ થતા ન જોયા ત્યારે તેઓ આર્તધ્યાનમાં ડૂબી ગયા
(तएण सा रयणदीरदेवया ते मागदिदारए ओहिणा अभोए इ, अभोइत्ता असिफलगवग्गहत्था सत्तद्वतालपमाण उड़ वेहास उप्पयइ २ ताहे उकिट्ठाए जाव देवगईए वीक्ष्यमाणी २ जेणेव मागदियदारए तेणेष आगन्छइ, आग जिउत्ता आसुरूत्ता ते मागदियदारए खरफरुस निटुरवयणेहि एव वयासो)
એટલામાં તે રન દ્વીપની દેવીએ તે બને માકદી દારકોને પિતાના અવધિજ્ઞનથી જોઈ લીધા અને જોઈને તે તરવાર અને ઢલ હાથમાં લઈને ખાકાશમાં સાત આઠ તાલ વૃક્ષ પ્રમાણે ઉપર ઉછળી અને ત્યારબાદ તે
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भनगारधामृतयपिणी टी० अ० ९ मान्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५ शीध्रमभिगच्छन्ती यत्रैव माफन्दिकदारको तत्रयोपागच्छति, उपागत्य 'आस रुमा' आशुरुता शीध्र क्रुद्धा सती तो माफन्दिकदाको वरपर पनिष्ठुरबचनै = यशस्ठोररुक्षवचनैरेमवादीव-'हभो ' इति सगर्वमामन्त्रणम् , हमो मान्दिका दारको । युगम् 'अप्पत्थियपत्थया' अमाथिप्रार्थको मरणाको रतः, यदि खल युवा मया माई विपुलान् भोगभोगान्-शब्दादिविषयान् भूञ्जानौ विहरत 'तो' तदा 'भे' युवयोरुभयोरस्ति जीवितम्०, अथ खलु युवा मया साई विपुलान् भोगभोगान् भुजानौ नो विहरन्त 'तो' तदा 'भे' युवयोर्द्वयोरपि अनेन 'नीलुप्पलगवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेण' नीलोत्पलगवलगुलिका तसीकुसुमप्रकाशेन-नीलोत्पल-नीलकमल, गवल-महिपशृङ्ग, गुलिका-नीली 'गुली' इति प्रसिद्धा, अतसीकुसुमम् - 'अलसी' इति प्रसिद्ध धान्यवि जहा वे दोनो मकदी सार्थवाह के दारक थे वहा आई वर्ग आकर वह क्रोध से क्रोधित हुई और उन माकदीदारकों से कर्कश-कठोर एव रूक्ष बचन बोलती हुई इस प्रकार कहने लगी-(ह भो मागदिदारया ! अपस्थिय पत्थिया जईण तुम्भे मग सद्धिं विउलाइ भोगभोगाइ भुज माणा नो विहरह तो भे इमेण नीलुप्पलगवलगुलियअयमियकुसुम प्पभासेण असिणा खुरधारेण असिणा रत्तगडमसुयाइ माउयाहिं उवसोदियाइ ताल फलाणीवसी साइ एगते एडेमि ) अरे ओ मागदी के दारको ! मालूम पड़ता है कि तुम दोनो अप्रार्थित-मृत्यु-के प्रार्थकघान्छक बन रहे हो-। यदि तुम लोग मेरे साथ विपुल शब्दादि विषयों को भोगो तब ही तुम दोनों का जीवन सुरक्षित बच सकता है यदि मेरे साथ विपुल शब्दादि विपयोको नहीं भोग सकते हो तो देखो-नील ઉત્કૃષ્ટ દેવની ગતિથી ઝડપથી ચાલતી ચાલતી જ્યાં તેઓ બને માકદી સાથ વાહના પુત્ર હતા ત્યાં આવી પહોંચી અને કર્કશ-કઠેર તેમજ રુક્ષ વચને પ્રયોગ કરતી માટદી દારકેને આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે –
(ह भो मागदिदारया | अपत्थियपत्थिया जइण तुम्भे मए सद्धिं विउलाइ भोगभोगाइ भुजमाणा नो विहरह तो भे इमेण नीलुप्पलगवलगुलिय अयसिय कुसुमप्पगासे ण असिणा खुरधारेण आसिणा रत्तगड मसुयाइ माउयाहि उपसोहि याइ ताल फलाणीव सीसाइ एगते एडेमि)
અરે એ માકદી દારકો ! મને લાગે છે કે તમે અપ્રાર્થિત મૃત્યને ઈચ્છી રહ્યા છે. હવે જો તમે મારી સાથે રહીને પુષ્કળ પ્રમાણમાં રાખ્યાદિ વિષયને ભોગવવા માટે તૈયાર થાઓ તે જ તમારું જીવન બચી શકે તેમ छ, न त भारी साथै श६ वगैरे विषयाने लगाHI ami
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पाताधर्मकथा शेपपुष्पं, तद्वत् प्रकाश अतिश्यामवर्णो यस्य स तथा, तेन ' सुरधारेण ' शुर धारेण क्षुरवत्तीक्ष्णधारेण ' असिणा' असिना-बड़ेन 'रत्तगडमसुयाई' रक्तगण्डश्मश्रुके रक्तौ-तरुणावस्थत्वेन लालिमायुक्तौ गण्डौ-कपोलो, श्यामानि श्मश्रूणि च व्ययोस्ते, 'माउयाहि ' मातृकाभ्या स्वस्त्र मातम्या ' उपमोहियाइ ' उपशोभिते श्रृङ्गारार्थ समारचितकेशवेशत्वादपूर्वशोभासम्पन्ने 'सीसाइ' शीर्ष-उभयोमस्तको
तालफलाणीन' ताडफलेइव जित्वा एकान्ते 'एडेमि' प्रक्षिपापि । ततः खलु तौ माकन्दिकदारको रत्नद्वीपदेवतया अन्तिके एतद्वचन श्रुत्या भीती करतलपरि कमल, महिप शृग, नीली, अलमी पुष्प के समान अतिशय श्याम वर्ण चाली इस तलवार से कि जो छुरा की धार के समान तीक्ष्ण धार वाली है तुम दोनों के मस्तकों को कि जो तरूणाई से लाल हुए कपोलों से युक्त हैं, तथा अपनी २ जननियों-माताओं-द्वारा जिन पर शोभा निमित्त समारचित केशवेश से अपूर्व सौदर्य वाला है, ताड फल के समान काटकर एकान्त स्थान में फेकदगी (तएण ते मागदिय दारगा रयणदीव देवयाए अतिए सोच्चा भीया करयल ० एव जपण देवाणु पिया ! वहस्ससि तस्स आणा उववायवयणनिद्देसे चिहिस्सामो-त. एण सा रयणद्दीवदेवया ते माग दियदारए गेति, २ जेणेव पासायव डिसए तेणेव उवागच्छह २ असुभ पोग्गलावारकरेइ २ सुभपोग्गल पक्खेव करेइ करित्ता पच्छाते हिं विउलाइ भोगभोगइ भुजमाणि विरह कल्लाकल्लिं च अमय फलाइ उवणेइ ) इस प्रकार वे दोनों माकदो दारक જુઓ નીલકમળ, મહિષમૃગ, નીલી અળશીના પુષ્પની જેમ ખૂબજ શ્યામ ૨ગવાળી આ તરવારથી-કે જે છરાની ધારના જેવી તીક્ષણ ધારવ ળી છે–તમારા બનેના માથાઓ કે જેઓ જવાનીથી લાલ લાલ થયેલા કપેલોવાળા છે, કાળી દાઢી અને મૂછોથી શોભી રહ્યા છે તેમજ પિતાપિતાની માતાઓ વડે કેશ વિન્યાસ કરવાથી અપૂર્વ સૌ દર્યથી જેઓ દીપી રહ્યા છે તાડફળની જેમ કાપીને હું નિજન સ્થાન ફેકી દઈશ
(तएण ते मागदियदारगा रयणदीवदेवयाए अतिए सोचा भीया करयल. एव जण्ण देवाणुप्पिया ' वस्ससि तस्स आणा उपवायवयणनिदेसे चिटिम्सामो तएण सा रयणदीवदेवया ते मागदियदारए गेण्हति २ जेणेव पासायडिसए तेणेव उपागच्छइ २ असुभपोग्गलावहार करेइ २ सुभपोग्गलपक्खेव करेद करित्ता पच्छाएहिं विउलाइ भोग भोगाइ भुजमाणी विहरइ कल्लाकल्लि च अमयकलाइ उवणेइ)
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मनगारधर्मामृतपपिणी टी० म० ९ माकान्ददारचरितनिरूपणम् गृहीत शिरापर्त दशनख मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादिष्टाम्-एच य खल्ल कश्चित्प्रेयाणामपि प्रेष्य हे देवानुपिये | त्वमस्मदर्थ पदिष्यसि यदुत 'युवयोरय मारा र ' इति, तदा तस्स' तस्यापि ' आणाउवायत्रयणनिदेसे' आज्ञोपपा. तवचननिदेशे-नाज्ञानविधेयतयाऽऽदेशः, उपपातः सेवा, वचनम् अनियत आदेशएर निर्देशः= नियतार्थमुत्तरम् , एतेपा समाहारः, तर स्थास्यार उपस्थास्यावः किं पुनर्भवत्याः १ त्वदनुमत्या तव दामानुदासस्यापि दासत्व सीकरिप्याव इति भावः । ततः ग्यलु सा रत्नद्वीपदेवता तो माफन्दिकदारको गहाति, गृहीत्या यौव स्वस्य प्रासादावतसका प्रधानवासभवन तवोपागच्छति, उपागत्य तयो। शरीरे अशुभपुङ्गलापहार करोति, कृत्वा शुभ पुद्गलप्रक्षेप करोति कृत्वा पश्चात् ताभ्यां रयण देवी ( रत्नदीपदेवी) के वचन सुनकर भयभीत हो गये । पश्चात् उन्हो ने दोनों हाथोकी अजलि बनाकर और उसे अपने मस्तक पर रख. कर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये । आपका यदि कोई नौकर का भी नौकर तोगा और आप उनकी सेवा करने के लिये भी हमसे कहेंगी-तो हम उसकी भी आजा सेवा, आदेश और निर्देश करने के लिये कटि पद हे-तो फिर आपकी सेवा करने आदि की तो बात ही क्या है। ____ आपकी आज्ञा से तो हम आपके दासों के भी दामो की दासता स्वीकार करने के लिये तैयार है । तो फिर आपकी दासता के लिये तो करना ही क्या है। इस प्रकार माकदी-दारको की बात सुनकर उस रयणादेवी ( रत्न कोप देवी ) ने उन्हें अपने साथ लिया और लेकर वह अपने श्रेष्ठ प्रसाद में आगई । वहा आकर उसने उन दोनो के शरीर में से अशुभ पहले को दूर किया और शुभ पुद्गलों को डाल दिया।
રયણાદેવીને વચને સાભળીને બને માકદી દારકે ભયભીત થઈ ગયા તેઓ બંનેએ હાથોની આ જલી બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેશનુપ્રિયે ! તમારા નેકર ને પણ કોઈ નેર હોય અને તમે અમને તેની નેકરી પણ કરાવશે તો અમે તેની પણ આજ્ઞા, આદેશ અને હુકમ પ્રમાણે અનુસરવા તૈયાર છીએ તે તમારી સેવાની વાત જ શી કહેવી ?
તમારા હુકમથી તે અમે તમારા દાસના દાસોની દાબતા સ્વીકારવા તૈયાર છીએ તે તમારી દાસતા માટે હવે અમારે કહેવાનુજ શુ રહે? આ પ્રમાણે માદી દાકેની વાત સાંભળીને રાયણ દેવ ( રત્ન દીપ દેવી) એ તેઓને પોતાની સાથે લીધા અને લઈને તે પોતાના એક સૌથી સારા મહેલમાં ગઈ ત્યાં જઈને તેણે તેમના નારીરમાથી અશુભ પગલે દૂર કર્યા અને શુભ
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जाताधर्मका सार्द विपुलान-भोगमोगान्-शब्दादिविषयान् भुजाना विहरति आस्तेस्म, 'कल्लाकलिंच' कल्याकल्यि प्रतिदिनं च अमृतफलानि-अमृततुल्यफगनि 'उबणेइ' उपनयति भानीय ददाति, तौ च प्रतिदिन तानि फलानि मुजानौ तया सार्ध कामभोगान् सेवमानौ विष्ठतः इविमाः ॥ सू०३ ॥
मूलम्-तएणं सा रयणदीवदेवया सकवयणसंदेसणं सुटि- एणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टिय
व्वेत्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्त वा क; वा कयवर वा __ असुई पूतिय दुरभिगंधमचोक्खं तं सव्वं आहुणिय२ तिसत्त
खुत्तो एगते एडेयवंतिकटुणिउत्ता, तएण सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए एवं वयासी-एवं खल्लु अह देवाणुप्पिया । सक० सुट्रिएणं त चेव जाव णिउत्ता, तंजाव अह देवा० । लवणसमुद्दे जाव एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायवर्डिसए सुहसुहेण अभिरममाणा चिट्ठह, जइ णं तुब्भे एयसि अंतरंसि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुथा वा भवेज्जाह तो णं तुम्भे पुरच्छिमिल्ल वणसड गच्छेज्जाह, तत्थण दो ऊऊ सया साहीणा त जहा-पाउसे य वासारत्तेय,-(गाहा) तत्थ उ कदलसिलिधदंतो णिउरवरपुप्फपीवरकरो । कुडयज्जुणणीवसुरभिदाणो पाउसउपश्चात् उन दोनो के साथ विपुल भोग भोगों-शब्दादि विषयों को -भोगने लगी। प्रतिदिन वह उन्हें अमृत फलों को लाकर देती और वे दोनों उन्हें खाते । इस प्रकार वे दोनों सार्थवाह दारक उसके साथ वहा कामभोगों को भोगते हुए रहने लगे। "सू०३" પુદગલોને મૂકી દીધા ત્યાર પછી રયણ દેવી તેઓ બનેની સાથે વિપુલ કામ ભેગે શબ્દ વગેરે વિષયને ઉપભોગ કરતી રહેવા લાગી હમેશા તે તેઓ બનેને અમૃત ફળ લાવીને આપતી અને તેઓ પણ ફળો ખાતા આ રીતે બને સાર્થવાહ પુત્રો તેની સાથે કામ ભાગ ભોગવતા રહેવા લા ૩in
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ममगारममृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिद्वारकारितनिरूपणम् ऊगयवरो साहिणो ॥१॥ तत्थ य- सुरगोवमणिविचित्तो ददुर कुलरसियउज्झरवो । वरहिणविदपरिणद्ध सिहरो वासारतो उपव्वतो साहिणो ॥२॥ तत्थणं तुभे देवाणुप्पिया | बहुसु वावीसु य जात्र सरसरपतियासु बहुसु आलीघर एसु य माली - घरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुह सुहेणं अभिरममाणा विहरेजाह, जइणं तुम्भे एत्थवि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्तरिल्ल वणसड गच्छेनाह, तत्थ णं दो ऊऊ सया साहीणा तं० सरदो य हेमंतो य, तत्थ उ सणसत्तवण्णकउओ नीलुप्पलपउमनलिणसिगो । सारसचक्कवायरवितघोसो सरयऊऊगोवती साहीणो ||१|| तत्थ य सियकुदधवलजोहो कुसुमितलोद्भवणसडमडलतलो । तुसारदगाधारपीवरकरो हेमंतऊऊससी सया साहीणा ॥ २ ॥ तत्थणं तुभे देवाविया | बावीसु य ज्ञाव विहरेज्जाह, जइणं तुन्भे तत्थवि उविग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेजाह तो णं तुब्भे अवरिल वणसड गच्छेजाह, तत्थणं दो ऊऊ साहीणा, तं जहा वसतेय गिम्हे य, तत्थ उ सहकारचारुहारो किंसुयकण्णियारासोगमउडो । ऊसिततिलगवउलायवन्तो वसतउऊणरवती साहीणो ॥ १ ॥ तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मालियावासति. यधवलवेलो । सीयलसुरभि अनिलमगरचरिओ गिम्हऊऊसागरो साहीणो ॥ २ ॥ तत्थ पां बहुसु जाव विहरेज्जाह, जइ णं तुभे देवा० | तत्थ वि उव्विग्गा उस्सुया भवेज्जाह तओ तुम्भे जेणेव पासायवर्डिसए तेणेव उवागच्छेजाह, मम पडिवालेमा
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वाताधर्मकथा
"
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सार्द्ध विपुलान् = भोगभोगान् = शब्दादिविषयान् जाना विहरति आस्तेस्म, कल्लाकल्लिच ' कल्याकल्पि= प्रतिदिनं च अमृतफलानि=अमृततुल्यफलानि 'उबने उपनयति आनीय ददाति, तौ च प्रतिदिन तानि फलानि भुञ्जानौ तया सार्ध कामभोगान् सेवमानौ विद्युतः इतिभावः ॥ सु०३ ॥
·
मूलम् तपणं सा रयणदीवदेवया सक्कत्रयणसदेसणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टियव्वेत्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्त वा कटुं वा कयवर वा असुई प्रतियं दुरभिगंधमचोक्खं त सव्वं आहुणियर तिसत्तखुत्तो एगते एडेयव्वंतिकहुणिउत्ता, तरणं सा रयणदीवदेवया ते मार्गदियदारए एवं वयासी एवं खलु अहं देवापिया ! सक्क० सुट्टिएणं त चेव जाव णिउत्ता, तं जाव अह देवा० । लवणसमुद्दे जाव एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायवडिसए सुहसुण अभिरममाणा चिट्ठह, जइ णं तुन्भे एयसि अंतरंसि उग्विग्गा वा उस्या वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे पुरच्छिमिल्ल वणसड गच्छेजाह, तत्थण दो ऊऊ सया साहीणा त जहा- पाउसे य वासारतेय, - ( गाहा) तत्थ उ कदलसिलिधदंतो णिउरवरपुप्फपविरकरो । कुडयज्जुणणविसुरभिदाणो पाउसउ
पश्चात् उन दोनों के साथ विपुल भोग भोगों - शब्दादि विषयों को - भोगने लगी । प्रतिदिन वह उन्हें अमृत फलो को लाकर देती और वे दोनों उन्हें खाते। इस प्रकार वे दोनों सार्थवाह दारक उसके साथ वहा कामभोगों को भोगते हुए रहने लगे । “सू०३”
પુદ્ગલાને મૂકી દીધા ત્યાર પછી રયણા દેવી તેએ ખનેની સાથે વિપુલ કામ ભાગા શબ્દ વગેરે વિષયાને ઉપલેગ કરતી રહેવા લાગી હમેશા તે તે અનેને અમૃત ફળ લાવીને આપતી અને તેએ પણ ફળે ખાતા આ રીતે અને સાથ વાહ પુત્ર તેની સાથે કામ લેાગે ભાગવતા રહેવા
सूत्र उ ॥
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अनंगारधर्मामृतपणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकच रित निरूपणम्
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किमर्थ ? मित्याह - ' जकिंचि ' इत्यादि । यत्किञ्चित्तन तृण वा, पत्र वा काष्ठं वा, कचरा, अशुचि= निष्ठा, पूतिक = अर्धपक्कशोणित, दुरभिग= दुर्गन्धयुक्त वस्तुजातम् 'अवोक्ख' अचोक्षम् = अपवित्र तिष्ठति तत्सम् 'तिसत्तसुतो ' त्रिसमकृत्वः = एकविंशतिवारम् 'आहुणिय २ आधूय २ अपनीय २ एकान्ते 'एडेयन्त्र' त्यक्तव्यम् इति कृत्वा इत्यत्तुं ' णिउत्ता ' नियुक्ता = नधिकृताआज्ञप्तेत्यर्थः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तौ मारुन्दिस्वारको एनमवादीत्एव खलु देवानुमियो ! शक्रनचनसदेशेन सुस्थितेन तदेव यावद - अह नियुक्ता, तद्यावदह देवानुप्रियो ! लवणसमुद्रे 'जाब' पावत् - यावन्न्देन तत्र गत्वा चारों तरफ से चक्कर लगाओं ( ज किंचि तत्वतणचा पत्त वा कठ्ठ वा कयवर वा असुर पूतिय दुरभिगघमचोक्ख त सव्व आहुणिय आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगते एडेयन्वति कट्टु निउत्ता) उसमें जो कुछ भी तुम्हें वहा तृण, पत्र, काष्ठ, कूडा, विष्टा अर्वपक शोणित अथवा दुर्गधित वस्तु अदि अपवित्र पदार्थ नजर आवें उन सबको तुम एकवीस चार मे वहा से हटा २ कर एकान्त मे डाल देना " इस काम पर नियुक्त किया । (तएण सा रयणद्दीवदेवया ते मगदियदारण एव वयासीएव खलु अह देवाणुपिया ! सक्क० सुट्ठिएण त चैव जाव णिउत्तो) इसके बाद उस रत्न द्वीप देवता-रयणा देवीने उन माकदी दारकों से ऐसा कहा -देवानुप्रियों ! मैं सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से लवणाधिपति सुस्थित देवके द्वारा २१ बार लवण सुमुद्र के चारो ओर चक्कर लगाने के लिये आज्ञप्त की गई है अतः (त जाव अह देवाणु • लवणसमुद्दे
०
!
( ज किं चि तत्थ तणवा पत्तवा क्ट्ठ वा कयवर वा अमुइ पूतिय दुरभिगध मचोक्ख त सन्न आहुणिय आहुणिय ति खुत्तो एगते एडेयन्न ति म्टदु निउत्ता) અને તેમા ગમે ત્યા તૃણુ, પત્ર, કાઇ, કચરા, વિદ્યા અધ પકવ શેાણિત ( લેાહી ) અથવા તે દુર્ગંધિત વસ્તુ અપવિત્ર પાર્થ દેખાય તે તેને તમે એકવીશ વખત ફરતા ફરતા ત્યાથી લઇને એકાતમા દૂર ફેંકી દો સુસ્થિત દેવે દેવન્દ્રની આજ્ઞાકી આ કામ મયણાદેવીને સેાપ્યુ
(तएण सा रयणदीवदेवया ते मागदियदारए एव वयासी एव खलु अह देवाप्पिया सक्क० सुट्ठिए ण त चेत्र जाव णिउत्ता )
ત્યાર પછી તે રત્નદ્વીપ દેવા રયણા દેવીએ માક દીદ રફાને કહ્યુ કે દેવાનુપ્રિયે ! મને સૌધર્મેન્દ્રની આજ્ઞાથ' લવણાધિપતિ સુસ્થિત દેવ વડે લવણુ સમુદ્રની ચારે ખાજુએ એકવીશવાર ચક્કર મારવાની આજ્ઞા મળી છે એટલા માટે
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-...--- ... . - माताधर्मकथासूत्र णार चिट्रेज्जाह, माण तुम्भे दक्खिणिल्ल वणसंड गच्छेज्जाह, तत्थण महं एगे उग्गविसे चडविसे घोरविसे महाविस अइकाय महाकाए जहा तेयनिसम्गे मसिमहिसामूसाकालए नयणवि सरोसपुण्णे अजणपुजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयलचंचलचलतजीहे धरणियल वेणिभूए उक्कडफुडकुडिलजडिलकक्खडवि. यडफडाडोवकरणदच्छे लोगाहारधम्ममाणधमधतघोसे अणागलियचंडतिव्वरोसे समुहि तुरिय चवल धमधमतदिट्टीविसे सप्पे य परिवसति, माण तुम्भ सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ, ते मागदियदारए दोच्चपि तच्चपि एव बयइ वइत्ता वेउब्वियसमुग्याएण समोहइ समोहणित्ता ताए उकिटाए लवणसमुद्द तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेय पयत्ता यावि होत्था ॥ सू०४ ॥
टीका-'तएण सा' इत्यादि । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता-रत्नद्वीपदेवी ' सकवयणसदेसेण ' शक्रवचनसदेशेन-शक्रेन्द्राज्ञयो 'सुटिएण' सुस्थितेनसुस्थितनामकदेवेन, 'लवणाहिनइणा' लवणाधिपतिना-लवणसमुद्रस्वामिना नियु तत्यन्वय नियोजनप्रकारमाह-लपणसमुद्र ‘तिसतखुत्तो' त्रिसप्तकृत्य-एकविशतिवारम् 'अणुपरियट्टियव्वे ' अनुपर्यटितव्य समन्तात्परिभ्रमणीय. इति, ___"तएण सा रयण दीव देवया" इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सक्वयणसदेसेण) देवेन्द्रकी आज्ञासे (लवणाविष्णा) लवणाधिपति (सुद्विएण ) सुस्थित देवने ( सारयणद्दीवदेवया) उस रत्नदीप देवता-रयणा देवी को (लवणस मुद्दे तिसत्तक्खुत्तो अगुपरियट्ठिय व्वेत्ति ) लवणसमुद्र के तुम २१ बार - (तएण सा रयणदीव देवया 'इत्यादि ।
साथ-(तएण) त्यार माह (सकश्यसदेसेण) देवेन्द्रनी माज्ञाथा (लवणाहिवइणा) Aq] समुद्रमा मधिपति (सुट्रिएण) सुस्थित हेवे (सा रयणदीवदेवया) ते २न द्वीप-देवता-२या वीर लवणस मुद्दे ति सत्तबुतो अणुपरियट्टिप वेत्ति) કધુ કે લવણ સમુદ્રની ચારે બાજુએ તમે એક વખત ચક્કર લગાવે
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अनंगारधर्मामृतपणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकच रितनिरूपणम्
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किमर्थ ? मित्याह - ' जर्किचि ' इत्यादि । यत्किञ्चित्तन तृणवा, पत्र वा काठ वा, कचवरा, जशुचि-निष्ठा, पूतिक= अर्धपकशोणित, दुरभिगध = दुर्गन्धयुक्त वस्तुजातम् ' अचोक्ख' अचोक्षम् = अपवित्र तिष्ठति तत्सर्वम् 'तिसत्तसुतो ' त्रिसमकृत्व. = एकविंशतिवारम्० 'आहुणिय २ ' आय २ अपनीय २ एकान्ते ' एडेयन्न ' त्यक्तव्यम् इति कृत्वा इत्यतुं ' णिउत्ता ' नियुक्ता=जधिकृता = आज्ञप्तेत्यर्थः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तौ मारुन्दिकद्वारको एनमवादीत्एव खलु देवानुपियाँ | शकवचनसदेशेन सुस्थितेन तदेव यावद - अह नियुक्ता, तद्यावदह देवानुप्रियो ! लवणसमुद्रे ' जाव' यावत् यावदेन तत्र गत्वा चारों तरफ से चक्कर लगाओं ( ज किंचि तत्वतणचा पत्त वा कठ्ठ चा कयचर चा असूड पूतिय दुरभिगघमचोक्ख त सव्य आणिय आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगते एडेयन्वति कट्टु निउत्ता) उसमे जो कुछ भी तुम्हें वहा तृण, पत्र, काष्ठ, कृडा, विष्टा अर्वपक शोणित अथवा दुर्गंधित वस्तु अदि अपवित्र पदार्थ नजर आयें उन सबको तुम एकवीस वार मे वहा से हटा २ कर एकान्त में डाल देना " इस काम पर नियुक्त किया । (तएण सा रयणद्दीवदेवया ते मगदियदारण एव वयासीएव ग्लु अह देवाणुपिया ! सक्क० सुट्टिएण त चैव जाव णिउत्ता) इसके बाद उस रत्न द्वीप देवता-रयणा देवीने उन माकदी दारकों से ऐसा कहा -देवानुप्रियों ! मै सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से लवणाधिपति सुस्थित देवके द्वारा २१ बार लवण समुद्र के चारो ओर चक्कर लगाने के लिये आजप्त की गई है अतः ( त जाव अर देवाणु • लवणममुद्दे
०
( ज किं चि तत्थ वणवा पत्तवा क्ट्ठ वा कयवर वा अमुह पूतिय दुरभिगध मचोक्ख त सन्न आहुणिय आहुणिय ति खुत्तो एगते एडेयन्न ति स्टूड निउता) अने तेमा गर्भे त्या तृश, पत्र, १४, इयरो, विष्टा अवशोषित ( લેહી ) અથવા તે ફુધિત વસ્તુ અપવિત્ર પાર્થ દેખાય તે તેને તમે એકષીશ વખત કરતા કરતા ત્યાથી લઇને એકાતમા દૂર ફેકી દો સુસ્થિત દેવે દેવન્દ્રની આજ્ઞા ી આ કામયણાદેવીને સેાપ્યુ
(तएण सा रयणदीवदेवया ते मागदियदारए एवं बयासी एव खलु अह देवाशुपिया सक्क० सुट्टिए ण त चैव जाव णिउत्ता )
ત્યાર પછી તે રનદ્વીપ દેવતા રચણા દેવીએ માકદીદ કોને કહ્યુ કે હું દેવાનુપ્રિયે ! મને સૌધર્મેન્દ્રની આજ્ઞાથ લવશુાધિપતિ સુસ્થિત દેવ વડે લવણ સમુદ્રની ચારે ખાજુએ એકવીશવાર ચક્કર મારવાની આજ્ઞા મળી છે. એટલા માટે
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श्रोताधर्म कथा
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तृणादिकमपनीय चैकान्ते त्यजामि तावद् युवाम् इत्र प्रासादावतस के सुखसुखे नाभिरममाणौ तिष्ठतम्, यदि खलु युत्राम् एतस्मिमतरे 'उच्चिभ्गावा ' उडि ग्नौवा=भत्रावस्थानेन खिन्नौ, 'उस्या वा उत्कण्ठितौ मनोरञ्जनमनस्कावित्यर्थः, ' उप्पुया वा उत्प्लुतौ क्रीडोत्कण्ठितमानस वा 'भवेज्जाह' भवेतम् यद्यत्रास्थानेन युवयोर्मनस्युद्वेग उत्कण्ठ क्रीडनेच्छा वा भवेत् ' तो ' तदा खलु युत्रां ' पुरत्थिमिल्ल ' पौरस्त्य = पूर्वदिशास स्थित वनपण्डम् = उद्यान 'गच्छेत्लाह' गच्छव युवाभ्या रम्य पूर्व दिशोधान गन्तव्यमित्यर्थः, यतोहि तत्र सलु द्वौ ऋतू सदा 'साहीणा', स्वाधीन = वर्त्तमानौस्त तद्यथा-' पाउसेय वासारत्तेय ' मनुव वर्षारात्रथ । तत्र माह- अपाढ श्रावण वर्षारात्रः- भाद्रपदाश्विनौ, तस्मिन् वनपण्डे जाव एडेमि ताव तुन्भे इहेव पासा यव डिसए सुर सुहेण अभिरममाणा चिट्ठह जर्ण तुम्भे एयसि अतरसि उग्विग्गा वा उस्सुया वा उष्णुया वा भवेज्जाह तोण तुम्भे पुरच्छिमिम्ल वणसड गच्छेज्जाह ) में जबतक २१ मार चक्कर लगाकर वहाके तृण काष्ठ आदि दूर फेंकने के काममें लगी रहतब तक हे देवानुप्रियो ! तुम दोनों इसी श्रेष्ठ प्रासाद में आनन्द से रहना । यदि यहाँ रहते२ तुम्हारे चित्त उद्विग्न हो जावे अथवा मनोर जन के लिये उत्क ठित हो जावे अथवा क्रीडाकरने के लिये लालायित बन जावे तो दोनों पूर्व दिशा में सस्थित उद्यान में चले जाना ( तत्थण दो ऊ ऊ सया साहीणा त जहा पाउसेय वासारन्ते य) वहा सदा दो ऋतुएँ वर्तमान रहती हैं । एकतो प्रावृड् ऋतु दूसरी वर्षा रात- आषाढ श्रावण ये नो महिने प्रावृड ऋतु के हैं तथा भाद्रपद एव आश्विन ये दो मार्स
तुम
( त जाव अह देवाणु० लवणसमुद्दे जाव एडेमि ताव तुन्भे इहेव पसायसिए मुह मुण अभिरममाणा चिठ्ठह जण तुम्भे एयसि अतरसि उब्बिग्गावा अस्या वा उपयावा भचेज्जाद तो ण तुन्भे पुरच्छिमिल्ल वगसड गच्छेजाह ) હુ જ્યા સુધી સમુદ્રના એકવીશ ચકકર મારીત્યાના તૃણુ કાઇ વગેરેને દૂર ફેકવાના કામમા પરોવાઈ રહુ ત્યા સુધી હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે અને આજ શ્રેષ્ઠ મહેલમા સુખેથી રહેજો અહીં રહેતા જો તમને કટાળા આવવા લાગે, મન તમારૂ ઉદ્વિગ્ન થઈ જાય. મનેાર્જન કરવાની તમારી ઈચ્છા થાય કે ક્રીડા કરવાની ઉત્કટ અભિલાષા તમારામાં ઉત્પન્ન થાય તા મને પૂર્વ દિશાના उधानभाता रखेले ( तत्थ ण दो ऊ ऊ सया साहोणा वं जहा पाउसेय वासा रस्तेय) ते उद्यानभा रहे भेशा मे ऋतुयोहार रहे छे से आवृडू ऋतु અને બીજી વર્ષો અષાઢ શ્રાવણુ આ બે મહિના પ્રાવૃત્ઋતુના છે અને ભાદરવે અને માસે આ બે મહિના વર્ષા ઋતુના છે
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भनगारधामृतषिणी री० मा मान्दिदारचरितनिरूपणम् श्रावणादि मामचतुष्टयसदृशो रमणीयः समय सदा वर्तत इतिभावः । अत्र यनपण्डे माइकतर्गजस्पकेण वर्ण्यते-तत्रतु-तस्मिन् 'पाउसऊऊगयवरो' माइक्रतुगजवर 'साहीणो' स्वाधीनः अस्तिस्त्वेन स्वायत्त सदा वर्तते । स कीदृश ? इत्याह- कदलसिलिंघदतो' कदलसिलिन्ध्रदन्तः-कन्दला-नूतनलताः, तत्पधानाः सिलिन्त्रा' ये प्रापि पुष्यन्ति श्वेतकुसुमयुक्ताश्च भवन्ति तएव धवलस्व. साधात् दता यम्य स तयोक्ता, पुनः ‘णिउरवरपुप्फपीवरकरो' निकुरवरपुष्पपीवरकरः निकुर वृक्षविशेषस्तस्य वरपुष्पाणि-आयामत्वेन-एकैकोपरि निस्सतानि शुण्डाकारेण परिणतानि तान्येव पीवरः स्थूल कर:-शुण्डा यस्य स तथोक्तः। पुनः ' कुडयाजुणणीवसुरभिदाणो ' कुटलार्जुननीपसरभिदाना-फुटजार्जुननीपक्षपुष्पाणि, तेपा मुरभिः सुगन्धः स एवंदान-मदजल यस्य स तथोक्त । एतादृशो वर्षा ऋतु गजराजः सदैव तत्र वर्तत इतिभावः ॥ १॥ अथ वत्रिन्तुः पर्वत, वर्षा रात के हैं। (तत्यउ-कदला सिलिंघदतो णिउरवरपुष्फपीवर करो, कुडयज्जुणणीच सुरभिदाणो पाउस ऊऊ, गयवरो साहीणो" १" इन चार महिनो में जैसा समय रमणीय रहता है-वैसा समय वहां सदा रमणीय बना रहता है। सूत्रकार बनपड वर्तमान प्रावृड ऋतु का गज के रूपक से वर्णन करते हुए कहते हैं-कि कदल-नवीन लताएँ
और सिलिंध्र-जो वर्षा में फूलते हैं और फूल जिनका सफेद होता है -ये दोनो ही जिसके दात हैं । निकुर-वृक्ष विशेप-के उत्तम पुष्प ही जिसके पीयर शुण्डादड हैं तथा कुटज अर्जुन एव नीप वृक्षोंके पुष्पोंकी सुगधि ही जिसका मदजल है ऐसा वर्षाऋतुरूप गजराज उस वनमें सदा विचरण करतारहता है ! निकुरवृक्षके पुष्प एक एकके ऊपर निकलते हैं।
(तत्थ उ कदलसिलिंघदतो पिउरवरपुप्फपीवरकरो कुडयज्जणणीच मुरभिदाणो पाउस ऊ ऊ गयवरो साहीणो ॥१॥
એ ચાર મહિનામા વાતાવરણ જેવું સેહામણું રહે છે તેવું ત્યાં હરહમેશા હામણું રહે છેસૂત્રકાર વનખડમાં વર્તમાન પ્રવૃડુ ઋતુનુ હાથીના રૂપકથી વર્ણન કરતા કહે છે કે-કદલ—વી લતાઓ-અને સિલિંધ્ર-કે જે વષ કાળમાં કૂવે છે અને જેના ફૂલ સફેદ હોય છે.આ બને જ જેના દાતે છે નિરવૃક્ષ વિશેષના ઉત્તમ પુષિ જ જેની સુડેળ સૂઢ છે તેમજ કુટજ, અને અને નીપ વૃના પુષ્પની સુવાસ જ જેને મદ છે વર્ષા ઋતુ રૂપી એ ગજરાજ તે વમાં હમેશા વિચરણું કરતો જ રહે છે નિકુર વૃક્ષના પુ
કિનાઉ પર નીકળે છે
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होताधर्मकथा
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तृणादिकमपनीय चैकान्ते त्यजामि तावद् युवाम् इदैव प्रासादावतस के सुखसुखे नाभिरममाणौ तिष्ठतम्, यदि खलु युवाम् एतस्मिभतरे ' उच्विग्गाचा ' उद्वि ग्नौवा = अत्रावस्थानेन खिन्नौ, 'उस्या वा उत्कण्ठितो मनोरञ्जनमनस्कावित्यर्थः, 'उप्पुया वा' उत्प्लुतौ क्रीडोत्कण्ठितमानसौ वा 'भवेज्जाद ' भवेतम् यद्यत्रास्थानेन युवयोर्मनस्युद्वेग उत्कण्ठ क्रीडनेच्छा वा भवेत् ' तोण ' तदा सलु युत्रां ' पुरथिमिल्ल ' पौरस्त्य = पूर्वदिशासस्थित वनपण्डम् = उद्यान 'गच्छेज्वाद' गच्छव युवाभ्या रम्य पूर्वदिशोधान गन्तव्यमित्यर्थः यतोहि तत्र खलु द्वौ ऋतू सदा 'साहीणा', स्वाधीनौ = वर्तमानौस्त, तद्यथा - ' पाउसेय वासारतेय ' प्रवृड्व वर्षारात्रश्च । तत्र मातृ - अषाढ श्रावण वर्षारात्रः- भाद्रपदाश्विनौ, तस्मिन् वनपण्डे जाव एडेमि ताव तुम्भे इहेव पासापवर्डिसए सुह सुहेण अभिरममाणा चिट्ठह जइर्ण तुम्भे एयसि अतरसि उग्विग्गा वा उस्सुया वा उष्णुया वा भवेज्जाह तोण तुम्भे पुरच्छिमिम्ल वणसड गच्छेज्जाह ) में जबतक २१ बार चक्कर लगाकर वहाके तृण काष्ट आदि दूर फेंकने के काम में लगी रहतब तक हे देवानुप्रियो ! तुम दोनों इसी श्रेष्ठ प्रासाद में आनन्दसे रहना । यदि यहाँ रहते तुम्हारे चित्त उद्विग्न हो जावे अथवा मनोर जन के लिये उत्क ठित हो जावे अथवा क्रीडाकरने के लिये लालायित बन जावे तो तुम दोनों पूर्व दिशा मे सस्थित उद्यान में चले जाना ( तत्थण दो ऊ ऊ सया साहीणा त जहा पाउसेय वासारन्ते य ) वहा सदा दो ऋतुएँ वर्तमान रहती हैं । एकतो प्रावृड् ऋतु दूसरी वर्षा रात- आषाढ श्रावण ये नो महिने प्रावृड ऋतु के हैं तथा भाद्रपद एव आश्विन ये दो मास
( त जाव अह देवाणु० लवणसमुद्दे जान एडेमि-ताच तुम्भे इहेव पसाय सिए सुह सुहेण अभिरममाणा चिठ्ठह जइण तुम्भे एयसि अतरसि उन्त्रिग्गावा अस्या वा उपुयात्रा भचेज्जाह तो ण तुन्भे पुरच्छिमिल्ल वणसड गच्छेजाह )
હુ જ્યા સુધી સમુદ્રના એકવીશ ચકકર મારીત્યાના તૃણુ કાઇ વગેરેને દૂર ફેકવાના કામમા પરાવાઈ રહુ ત્યા સુધી હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે અને આજ શ્રેષ્ઠ મહેલમા સુખેથી રહેતે અહીં રહેતા જો તમને કટાળા આવવા લાગે, મન તમારૂ ઉદ્વિગ્ન થઈ જાય મારજન કરવાની તમારી ઈચ્છા થાય કે ક્રીડા કરવાની ઉત્કટ અભિલાષા તમારામા ઉત્પન્ન થાય તે અને પૂર્વ દિશાના उधानमा नता रहेने ( तत्थ ण दो ऊ ऊ सया साहीणा त जहा पाउसेय वासा रस्तेय) ते उद्यानभा रहे भेशा में ऋतुयो डाभर रहे छे मेड प्रावृडू ऋतु અને ખીજી વર્ષા અષાઢ શ્રાવણ આ બે મહિના પ્રાવૃત્ઋતુના છે અને ભાદરવા અને માસે આ બે મહિના વર્ષા ઋતુના
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गारधर्मामृतणी टो०अ०८ माकन्दिवारकचरितनिरूपणम्
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I
युवा देवानुमियाँ चढी शपीपु च यावद 'सरसरपतियास ' सरः सर पङ्क्ति का परस्पर सलग्नेषु पहुषु सरसु, यत्रैयस्मात्सरसोऽन्यस्मिन् तस्मादपरस्मिन्, एव चरणपरम्परयोदक सचरति, वासु बहुषु ' आलिधरपसु य' आरिगृहेषु आलि=रम्य वनस्पतिविशेषस्तस्य गृहेषु ' जाव' यावत् - यावच्छब्देन - कदलीगृहेषु च लतागृहेषु च अच्उणगृहेषु च प्रेक्षणगृहेषु च प्रसाधनगृहेषु च मोहनगृहेषु च शाला (शाखा) गृहेषु च जालगृहेषु च इति सग्रहः, वुसुमगृहेषु = पुष्प गृहेषु च सुखसुखेन सुख पूर्वम्' अभिरममाणा' अभिरममाणौ-क्रीडा कुर्वाणौ विह रत= तिष्ठतम् ।
पुत्रों को यह रयणादेवी समझा रही है । और साथ में यह भी कह रही है कि ( तत्थण तुम्भे देवाणुप्पिया । बहुसु वाची सुय जाव सरतरपनियासु सु आलीवरएसु य मालीघर एसु य जांव कुसुमघर सुह सुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जार) हे देवानुप्रियो । वहा तुम अनेक वापिकाओं में यावत् अनेक सर सर पक्तियों में अलघरों में कदली गृहों में लता गृहों में अच्छण गृहों में प्रक्षण गृहों में, प्रसाधन गृहों में, मोहन घरों में, शाखा गृहों में, जाल गृहों में, तथा पुष्प गृहों में, सुखपूर्वक क्रीडा करते हुए अपने सयम को व्यतीत करते रहना । अनेक तालाब जहा पक्ति बद्ध श्रेणीमें स्थित रहते हैं उस का नाम सरपक्ति है। इन पक्ति आकार स्थित तालाबों मे एक एक दूसरे ताला का जल आता जाता रहता है । रम्यवनस्पति विशेष के जो गृह होते है उनका नाम आलि गृह है। (जइण) यदि (तुन्भे પુત્રાને રયણા દેવી સમજાવી રહી હતી--અને આ પ્રમાણે આગળ કહેવા લાગી હતી કે (तत्थ तुभेदेराणुपिया । बहुसु वावीसु य जात्र सरसरपतियासु वहुसु आलीधरसु मालीघदrय जाव कुसुमधरएसुय सुद्द मुद्देण अभिरममाणा विहरेज्नाह) હૈ દેવાનુપ્રિયે ! ત્યા તમે ઘણી વાપિકાએ ( વાવે ) મા યાવત્ ઘણી सर भग्य तियो ( सरोवरो ) भा, मासिधरोभा, उदयीगृहेोभा, सतागृहेोभा, गृहोमा, प्रेक्षणुगृडोभा, प्रभाधनगृडेोभा, मोहनधराभा, शामागृहोमा, જલગૃહામા તેમજ પુષ્પગૃહેમા સુખેથી કીડા કરતા પોતાના સમયને પસાર કઅંતે જ્યા ઘણા તળાવેા એક પછી એક આમ અનુક્રમે ૫તિબદ્ધ હૈાય છે તેનુ નામ મર સરપતિ છે. આ ૫તિ આકારમા સ્થિત તળવામાં એક બીજાના તળાવનુ પાણી આવતું જતું રહે છે રમ્ય વનસ્પતિ વિશેષના જે ગૃહા હાય छे ते मासिगृडेवाय छे ( लइण ) ू
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ताधर्मकथाret रूपकेण वर्ण्यते-'तस्थय ' तत्रच-तप वनपण्डे वरात्रऋतुपर्वतः स्वाधीनो घर्तत इत्यगेण सम्पन्धः । सदृश १ इत्याह- सुरगोत्रमणिरित्तो ' सुगोपमणि विचित्र'-सुरगोपा इन्द्रगोपाः पाकाले समुत्पद्यमाना रक्तवर्णाजीर विशेपास्त. एवमणय' पद्मरागादयस्तैपिचित्र कर्युरो यः स तथा। 'दद्दरकुलसियडज्मररवो' ददुरकुलरसितोझरवान्ददुग्घुल-मण्डू कसमृहस्तस्य रसितम्-निरन्तर शब्द , तदेव उज्झररवानि रशब्दो यत्र स तथा ! ' वरहिणविंदपरिणद्धसिहरो' बहिन्दप रिणद्ध शिखर'- यनि -मयूसमूहेन परिणद्धा' युक्ताः वृक्षास्मएव शिखराणि यत्र स तथा । एतादृशो वीरानपर्वतस्तत्र सदैव वर्तत इतिभावः ॥२॥ तत्र खलु
इस लिये वे लयाई में शुण्डादड जैसे प्रतीत होते है। (तत्य य -सुरगोव मणिविचित्तो ददुर कुल रसिय उज्मररची। घररिणविंद परिणसिहरो वासारत्तो ॐऊ पन्यतो साहीणो) इस आर्या द्वारा सूत्रकार वर्षाऋतु का पर्वत के रूपक से वर्णन करते हैं-वे कहते हैं कि वर्षा काल में इन्द्रगोप नामक कीडा उत्पन्न होकर इधर उधर चमक ते हुए गनिमें दिग्वलाई पड़ते है। मोइन्द्रगोप कीड़े ही जिस वर्षा ऋतु रूप पर्वत में पद्मराग आदि मणियों के स्थानापन्न हैं । तथा पवत निझरों (झरना) के शब्दों वाला होता है सो इस वर्षा ऋतु रूप पर्वत मे दर्दुरी का जो निरन्तर शब्द होता रहता है वही मानो निझरों का शब्द है । वर्षा ऋतु में मयूरो से वृक्ष युक्त रहा करते हैं क्यों कि वृष्टि होने पर वे उन पर उड कर बैठ जाते है-सोये मयूर युक्त वृक्ष ही जिस वर्षा ऋतु रूप पर्वत की चीटिया है। ऐसा वी रात्र रूप पर्वत उस वन में सदा काल रहता है। यह बात उन दोनों सार्थवाह
એટલા માટે નિફરવૃક્ષના પુપ લબાઈની દૃષ્ટિએ સૂઢ જેવા લાગે છે (तत्थ य सुरगीव मणिविचित्तो दददरकुलरसियउज्झररवो । घरहिण विंदपरिणद्धमिहरो वासारत्तो ऊऊ परतो साहीणो)
આ આર્યા વડે સૂત્રકાર વર્ષ વતન પર્વતના રૂપકથી વર્ણન કરે છે તેઓ કહે છે કે વર્ષાકાળે ઈન્દ્રગેપ નામે કીડા ઉત્પન્ન થાય છે અને તે આમ તેમ ચમકતો રાતમાં દેખાય છે આ ઈદ્રગેપ કીડાઓ જ વર્ષાઋતુ રૂપ પર્વતમાં પઘરાગ વગેરે મણિના રૂપમાં છેપર્વતમ નિઝર ( ઝરણુઓ ) ની વિનિ થતું રહે છે તો આ વાત-રૂપ પર્વત ઉપર દેડકાઓને જ નિર તર શબ્દ થતું રહે છે તેજ ઝરણાઓના શાના રૂપમાં છે વર્ષાઋતુમાં વૃક્ષે ઉપર મેરે ઉડી ઉડીને બેસી જાય છે તે એ મોરા જેના ઉપર બેઠાલા છે એવા વૃો જ વાત ૩૫ પર્વતના શિખર છે એવો વર્ષાઋતુ રૂપી પર્વત તે વનમાં હમેશા નિવાસ કરતો રહેતો હતો આ વાત તેઓ બ ને ચા વાહ
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी०अ०८ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम युवा देवानुपियौ बहीषु शपीपु च यावत् 'सरसरपतियासु' सर: सर पङ्क्ति कामु पररपर सलग्नेषु बहुपु सरसु, यौकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन् तस्मादपरस्मिन् , एव रुचरणपरम्परयोदक सचरति, तासु । बहुपु ' आलिघरपसु य ' आलिगृहेषु आलिरम्यवनस्पतिविशेषस्तस्य गृहेषु 'जाव ' यावत्-यावच्छन्देन-कदलीयहेपु च लतागृहेषु च-अच्छणगृहेषु च प्रेक्षणगृहेषु च प्रसाधनगृहेषु च मोहनगृहेषु च शाला (शाखा ) गृहेषु च जारगृहेषु च इति संग्रहः, युसुमगृहे पु-पुष्पगृहेषु च सुखसुखेन-सुखपूर्वकम् ' अभिरममाणा' अभिरममाणौ-क्रीडा कुर्वाणौ विहरत-तिष्ठतम् । पुत्रों को बह रयणादेवी समझा रही है। और साथ में यह भी कर रही है कि (तस्थण तुम्भे देवाणुप्पिया ! बहुतु वावी सु य जाव सरलर पनियासु यहुस्सु आलीधरएसु य मालीघरएसु य जांव कुसुमधरण्लु च सुह सुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जार ) हे देवा. नुप्रियो ! वहा तुम अनेक वापिकाओं में यावत् अनेक सर सर पक्तियो में अलिघरों में कदली गृहों मे लता गृहों में अच्छण गृहो में प्रक्षण गृहो मे, प्रसाधन गृहों में, मोहन घरों मे, शाखा गृहो में, जाल गृहों में, तथा पुष्प गृहों में, सुखपूर्वक क्रीडा करते हुए अपने सयम को व्यतीत करते रहना। अनेक तालाब जहा पक्ति बद्ध श्रेणी में स्थित रहते है उस का नाम सरपक्ति है। इन पक्ति आकार स्थित तालावो में एक एक दुसरे तालाब का जल आता जाता रहता है । रम्यवनस्पति विशेष के जो गृह होते है उनका नाम आलि गृह है। (जइण) यदि (तुम्भे પુત્રને રયણ દેવી સમજાવી રહી હતી-અને આ પ્રમાણે આગળ કહેવા લાગી હતી કે (तस्थ तुम्भे देवाणुप्पिया! बहुसु चावीसु य जाच सरसरपतियासु बहुसु आली धरएसुय मारीघदण्सुय जाच कुसुमधरएसुग सुह सुहेण अभिरममाणा विहरेजाह)
હે દેવાનુપ્રિયે ! ત્યા તમે ઘણી વાપિકાઓ ( વ ) મા યાવત્ ઘણી स२ स२५तिया ( सोप। ) भा, मातिधरोमा, ४४वीगडामा, सताडामा, અને છણગ્રહેમા, પ્રક્ષણગૃહોમા, પ્રસાધનગૃહમા, મેહનઘરોમા, શાખાગૃહમા, જાવગ્રહમાં તેમજ પુષ્પગ્રહોમાં સુખેથી ક્રીડા કરતા પિતાના સમયને પસાર કરે જ્યાં ઘણા તળાવે એક પછી એક આમ અનુક્રમે પતિબદ્ધ હોય છે તેનું નામ સર સરપતિ છે આ પતિ આકારમાં સ્થિત તળમાં એક બીજાના તળાવનું પાણી આવતું જતું રહે છે રમ્ય વનસ્પતિ વિશેષના જે ગૃહે હોય छे ते मालिड उपाय छ ( जइण) ने
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माताधर्मकथासूत्रे
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यदि खल पुनर्युनम् । तस्यनि' तत्रापि = पूर्व दिशाननपण्डेऽपि उद्विग्नौ बा उत्सुकौवा, उत्प्लुतौ क्रीडार्थिनी या भरत तदा खलु युवा द्वापि ' उत्तरिल्ल ' _उत्तरीयम् = उत्तरद्विक्संस्थित वनपण्ड 'गच्छेज्जाद' गच्छतम् युवाभ्या तत्र गन्त व्यमित्यर्थं तत्र खलु द्वौ ऋतू सदा स्वाधीनां पते, तथा शरच्च हेमन्त तत्र शरदऋतुः = कार्तिकमार्गशीर्षरूपः, हेमन्तर्भुव = पौषमाघरूप इति । अथ शरदूऋतु ग्रुपभरूपकेण वर्णयति - तन तु वनपण्डे ' सरयउउ गोपई ' शरदऋतुगोपतिः शरवूऋतुरूपोपमः ' साहिणो ' स्वाधीनः स्वायतः सदा वर्त्तेते, इत्यग्रेण समन्त्रयः । स कीदृशः ? इत्याह--' सणसत्तवण्णकउओ' सनसप्तपर्णकुटु, सनः - वल्कलम धानो वनस्पतिविशेषः, सप्तपर्ण: सप्तच्छदाभिधवनस्पतिविशेषः तयो पुष्पाण्यपि
एत्थवि उच्चग्गा वा उस्सुया चा उष्या वा भवेज्जाह, तो तुम्भे उत्त रिल्ल 'वणसड़ गच्छेज्जा, तत्थ र्ण दो ऊऊसया साहीणा, त०सरदो य हेमतोय, तत्थ उ- सणसत्तवण्णकउओ नीलुप्पल पउमनलिणसिंगो । सारस चकवाधरवितघोसो सरय ऊऊ गोवती साहीणा) तुम दोनोंजनों का पूर्वदिशा के वनषड में मन न लगे, चित्त उद्विग्न वन जाय, मनोर 'जन न हो अथवा और अधिक क्रीडा करने के लिये मन उत्कठित बन जाय तो तुम वहा से उत्तर दिशा में रहे हुए वनखड में चले जाना । वह सदा दोऋतु वर्तमान रहती है -१ शरद ऋतु २० मत ऋतु, कातिक और मार्गशीर्ष ये दो महिने शरदऋतु के हैं, पौष और माग ये दो महिने हेमन्तऋतु के है । रयणादेवी शरदऋतु का वृषभ के रूपक से और हेमतऋतुका चन्द्रमाके रूपकसे वर्णन करती हुई उन्हें समझाती है
( तुम्भ एत्थपि उच्चग्गा वा उस्या वा उच्या वा भवेज्जाह तो ण तुन्भे उत्तरिल्ल वणसड गच्छेज्जाह, तत्थ ण दो ऊऊ सया साहीणा त० सरदो य हेमतो य तत्थ उ सणसत्तवण्गकउओ नीलुप्पलपउमन लिपसिंगो । सारस चकवायरवित घोसो सरय ऊऊ गोमती साहिणो )
પૂર્વ દિશા તરફના વનખંડમા તમને ગમતુ ન હાય, ચિત્ત ઉદ્વિગ્ન થઈ જતુ લાગતુ હાય, ત્યા તમારુ મનેાર જન થતુ ન હાય, કે વધારે કીડા કરવા માટે મન ઉત્કંઠિત થઈ જતુ હાય તે તમે ત્યાથી ઉત્તર દિશા તરફ આવેલા વનખ ડમા જતા રહે જો ત્યા હર હમેશ એ ઋતુએ હાજર રહે છે-(૧) શરદઋતુ અને (૨) હેમતઋતુ કાર્તિક અને માશીષ આ બે માસ શરદન્ન તુના છે તેમજ પાષ અને માઘ આ બે માસ હેમ તઋતુના દેવી તેઓને શરદઋતુ વૃષભના રૂપકથી અને હેમતઋતુ ચન્દ્રમાના રૂપકથી નિરૂપિત કરતા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ माकन्दिदारकच रितनिरूपणम्
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सनसप्तपर्णानि तान्येन गोलाकारोनतृत्वसाधर्म्यात् ककुत्-स्कन्धदेशो यस्य स तथोक्ता । पुन ' नीलुप्पलपउमन लिपसिंगो ' नीलोत्पलपद्मनलिनशृङ्गः-नीलो त्पलपद्म नलिनानि - नीलकमल विशेषास्तान्येव तीक्ष्णोन्नततया शृङ्गाकारपरिणतत्यात् श्रृद्वे यस्य स तथोक्तः । पुनः - 'सारसचक्वायरनियघोसो' सारसचक्रनारुतोपा - सारसचक्रवाकपक्षिणा रुतमेव शब्द एव उच्चैस्त्वगाम्भीर्यसादृश्याद् घोपो = ध्वनिर्यस्य स तथोक्त । एतादृग' शरदऋतु नृपभस्तत्र सदैव नियत इतिभावः ॥१॥
=
सम्प्रति हेमन्तऋतु राशिरूपकेण माह- 'तत्थउ' तन तु वनपण्डे ' हेमत ऊक ससी' हेमन्तऋतुशशी देगन्तरूपचन्द्र सदा स्वाधीन इत्युत्तरेण सम्बन्धः । स की ? इत्याह- ' मियकुद व जोहो ' सितकुन्दधवज्योत्स्नः - सित कुन्दानि = श्वेतपुष्पाणि तान्येव धाला = उज्ज्वल ज्योत्स्ना = चद्रिका यस्य स तथोक्तः । पुन - कुसुमियलोद्ध गणसड मंडळतलो कुसुमित लोधवनपण्डमण्डलतल - कुसुमितः पु प्पित पण्ड, स एव तत्साधर्म्यात् - मण्डलतल = बिम्म यस्य स _तथोक्तः । ' तुपारदगधारपीवरकरी ' तुपारदकधारा पीवरवरः - तत्र तुपारा= हिमरणा', 'दकधारा. = जलविन्दुमवादास्ता एक दैर्ध्य शैत्यसादृश्यात् पीवरा:= पुष्टा ऊराः = किरणा यस्य स तथोक्तः । एव भूतों हेमन्त रूपन्द्रस्तत्र सदैव वर्त्तत इत्यर्थ ॥ २ ॥
कहती है कि देखो को हमने वृषभका रूप इसलिये दिया है कि हम तुमे सन और सप्तपर्ण फूलते हैं इनके फूल गोल आकारके और ऊँचे होते है | सोये पुष्प ही जिस ऋनुरूा वृषभके ककुद (खदौला) है । नीलोत्पल आदि कमल ही जिस के श्रृंग हैं । सारस और चक्रवाकं पक्षियो के शब्द ही जिसकी ध्वनि हैं ऐसा शरदऋतु रूप वृषभ उस वन में सदा विचरण करता रहता है । (तत्थ य सिय कद ववलजोहो कुसुमिय लोद्रवणसडमडल तो साही) सितकुद - श्रेतपुष्प - ही जिस की धवलज्योत्स्ना (चांदनी) है, कुसुमित लोधनखहुडी जिसका मडल है, हिमकग और विन्दु प्रवाह ही जिस की पुष्ट किरणें हैं ऐसा સમજાવે છે કે જુએ ગરદઋતુને અમે વૃષભનુ રૂપ એટલા માટે આપ્યુ છે કે આ ઋતુમા રાઘુ અને સમપણુ ખીવે છે એમના પુષ્પા ગેળાકારના તેમજ ઊંચા હોય છે તે આ પુષ્પાજ શરદઋતુ રૂપ વૃષભની ખાધ ( કકુ ) છે નીલાvક વગેરે કમળે! જ જેના સિંગડા છે. સારસ અને ચક્રવાક પક્ષીએ ના શબ્દો જ જેના ધ્વનેિ છે એવા શરદઋતુ રૂપ વૃષભ તે વનમા હુ મેરા विवरतो " २७ छे ( तत्थ य सियकद घवल जोहो कुसुमित लोद्धव्रणसड मदल तसे साोणो ) सित - सपुष्योनी स्वच्छ शद्रिज ( थाहनी ) છે, ખીનેનુ લાધ વનજ જેના મડળ છે, હિમકણુ અને પાણીના વહેતા ટીપાઓ
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आताधर्मकथासूत्रे
तन स्वख युवा हे देवानुमियाँ । यद्दोषु वापीषु च यावर अमिरममाणौ विहरतम् = तत्र क्रीडा कुर्वन्तौ तिष्ठतम् ।
तद्यथा
यदि खलु युना तत्रापि = उत्तरीयत्रनपण्डेऽपि उद्विग्नौ वा यानद् उत्प्लुतौ वा भवेत तरा खलु युवाम् ' अवरिल्ल ' अपरीय = पश्चिम दिशासम्बन्धिक बनवण्ड गच्छतम्, न खलु द्वौ ऋतू स्वाधीन= स्वायत्तौ सदा वर्तमानौ स्त', वसन्तथ ग्रीष्मच, वसन्तः = फाल्गुन चैनलक्षण', ग्रीष्मः शाखज्येष्ठ रक्षणः । पूर्व वसन्त ऋतु नरपतिरूपकेण वर्णयति- 'तत्थउ' तत्र तु पश्चिमदितिवनपण्डे वसन्तर्तु हेमतऋतु रूप चन्द्रमा उसवन में सदा प्रकाशित रहता है । ( तत्थ ण तुभे देवाणुपिया ! वावीसु य जाव विररेज्जाह ) हे देवानुप्रियों ! वहा अनेक वापिकाएँ यावत् पुष्पधर भी हैं । सो तुम उनमें भी आनद से विहार करना । ( जण तुम्भे तत्थ उग्गिा वा जाव उस्या वा भवेज्जाह तो ण तुम्मे अविरिल्ल वणसड गच्छेज्जार-तत्थ ण दो ऊऊ साहीणा ) यदि तुम दोनों जनों का मन उत्तरीपवनपड में भी न लगेवहा वह उद्विग्न यावत् उत्प्लुत हो जावे तो तुम दोनों पश्चिम दिशा सम्बधी बनखडमें चले जाना। वहां दो ऋतुएँ सदा वर्तमान रहती है। (त जहा वस ते गिम्हे य, तत्थ उ-सहकार चारूहारो, किसुय कण्णिया रासोगमउडो, उसित तिलग बउलायवत्तो वसत उऊणरवह साहिणो ) वे दो ऋतुएँ ग्रीष्म और वसन्त हैं ।
फाल्गुन चैत्र ये दो महिने वसन्तऋतु के है । वैशाख और ज्येष्ठ ये दो मास ग्रीष्मऋतु के हैं । इस पश्चिमदिशा सबन्धी बनखंड में वस જેની પુષ્ટ કિરણા છે. એવા હેમતઋતુ રૂપ ચદ્ર તે વનમા હમેશા પ્રકાશતે २ छे ( तत्थ ण तुभे देवाणुप्पिया । वावीसु य जाव त्रिहरेज्जा छ डे देवानु પ્રિયે! ' ત્યા ઘણા વાવે યાવત્ પુષ્પગૃહે પણ છે તમે તેએમા પણ વિહાર કરજો
( जण तुम्भे तत्थ उच्चग्गा वा जान उस्सु या वा भवेज्जाह तो ण तुभे अविरल्ल वणसड गच्छेज्जाह-तस्थ ण दो ऊऊ साहिणा )
ઉત્તરના વનખંડમાં પણ જો તમને ખરેશમર ગમે નહિ, ઉદ્વિગ્ન થઈ ચાવત્ ઉદ્યુત થઈ જાય ત્યારે તમે ખને પશ્ચિમ દિશાના વનખંડમાં જતા રહેજો ત્યા એ ઋતુએ સદા મેાજુદ રહે છે
( त जहा सन्ते गिम्हे य, तत्थ उ सहकार चारूहारो, किंसुय कण्णिया रागमउडोउसित विलग बउलायनत्तो वसत ऊऊ णरवर साहीणो )
તે ઋતુએ ગ્રીષ્મ અને વસત છે ફાગણુ અને ચૈત્ર આ એ મામ સત ઋતુના છે જ્યારે વૈશાખ અને જે આ બે મામ્ર ગરમીની ઋતુના
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अनगारधर्मामृत्यपिंगी टी० म० ८ माकन्दितारकचरितनिराणम् ५९७ नरपतिः बसन्तऋतुरूपोराजा स्वाधीनो वर्तत इति सम्पन्धः। स कीगः ? इत्याह'सहकारचारुहारो' सहकारचारुहारः-सहकाराणि-सहकार पुप्पाणि-आम्रमञ्जयः, तान्येवबहुत्वसद्भावेन हाराफार परिणतत्वाचा=सुन्दरो हारो यस्य स तथा । पुनः -'क्सुियरणियारासोगमउडो' किंशुककर्णिकाराशोमुकुट:-किंशुकानिपला शकुमुमानि, कर्णिकाराणिकर्णिकारपुष्पाणि, अशोकानि-अशोकपुष्पाणि तान्येव मुकुटाकारपरिणतत्वान्मुकुटकिरीट यस्य स तथा । 'ऊसियतिलगरउलायवत्तो' उच्छ्रिवतिलकपकुलातपत्र:- उच्छूितानि-उन्नतानि तिलकाकुलानि-तिलकवकुलपुष्पाणि, तान्येन आतप छत्राकारपरिणतत्वेन उत्र यस्य स तथोक्तः । एतादृशो वसन्ततनरपतिस्तत्र साधीनः सदा वर्त्तते ॥ १ ॥ अथ ग्रीष्मऋतुः सागरस्पकेण वर्ण्यते-' तत्थय ' तत्र च पश्चिमदिग्वनपण्डे 'गिम्हउउसागरो' ग्रीष्मर्तुरूपः सागरः समुद्र स्वाधीनः स्वायत्तत्वेनानवरत वर्तमानोऽस्ति । स कीदृशः ? इत्याह-' पाडलसिरीससलिलो' पाटलशिरीपसलिलः-पाटलशिरीपाणि-पाटला शिरीपपुष्पाणि, तान्येव जल सादृश्यात्सलिल जलराशिरूप यस्य स तरा। 'मल्लि यसासतियधवल वेलो' मलिकावासन्ति का पालवेल:-मल्लिका वासन्तिका च लता. न्तस्तु नरपति के समान सदा विचरण करती रहती है-सहकार (आ भ्र) की मजरिया ही इस वसन्तमनु रूपी राजा के सुन्दर हार हैं। कि शुक-कर्णिकार एव अशोकके पुष्प ही इस राजा के मुकुट हैं । उन्नत तिलक वृक्ष एव यकुल वृक्ष के पुष्प ही इसके छत्र है । (तत्थ य-पाडल सिरीससलिलो मल्लियवासतिरधवलवेलो, सीयलसुरभिअनिल मग. रचरिओ गिम्हऊऊ सागरो साहीणा ) उस पश्चिमदिशा सम्बन्धी वनपड में ग्रीष्मऋतु समुद्र के सामान सदा पसरा रहता है-गुलार और शिरीप पुष्प ये इस ग्रीष्मऋतु रूप समुद्र के जल है । मल्लिका एव वास છે, આ પશ્ચિમ દિશાના વનમાં વસતકતુ નરપતિ રાજા) ની જેમ હમેશા વિચરણ કરતી રહે છે સહકાર ( બે ) ની મજરીએજ આ વમત ઋતુ રાજાના સુદર હારે છે શુક કર્ણિકાર ( કનેર) અને અશોકના પુણે જ આ રાજાના મુકુટ છે ઊંચા તિલક વૃક્ષ અને બકુલ વૃક્ષોના પુષ્પોજ એના છ છે
उत्थ य पाडलसिरीससलिलो मल्लिया वामति य धवल्वेलो सीयलसुरभि अनिल मगरचरिओ गिम्ह ऊ ऊ सागरो साहिणो)
તે પશ્ચિમ દિશાના વનખડમાં ગ્રીષ્મઋતુ સમુદ્રની જેમ હમેશા પ્રસરાયેલ રહે છે ગુલાબ અને શિરીષના પુજ આ ગરમીની ઋતુ રૂપ સમુદ્રના પાણી છે મહિલકા અને વાતિક લતા જ જેના કિનારાઓ છે ઠડો અને સુવાસિત
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जाताधर्मकथा तत्र स्खल युवा हे देवानुप्रियो ! वहोषु वापीपु च यावर अमिरममाणौ विहरतम् = तन क्रीडा कुर्वन्तौ तिष्ठतम् ।
यदि खलु युगा तत्रापि उत्तरीयवनपण्डेऽपि उद्विग्नी वा यावद् उत्प्लुतो वा भवेत ता खलु युगाम् ' अवरिलं ' अपरीय = पश्चिमदिशासम्बन्धिक बनपण्डं गच्छतम् , तत्र खलु द्वौ ऋतू स्वाधीनी स्वायत्तौ सर्वदा वर्तमानौ स्तः, तद्यथावसन्तश्च ग्रीष्मश्च, वसन्तः फाल्गुनचैनलक्षण', ग्रीष्मः वैशाखज्येप्ठलक्षणः । पूर्व वसन्त ऋतु नरपतिरूपकेण वर्णयति-तत्थउ' तत्र तु पश्चिमदिनर्तिवनपण्डे वसन्तर्तु हेमतरतु रूप चन्द्रमा उसवन में सदा प्रकाशित रहता है । (तस्य ण तुम्भे देवाणुप्पिया! वावीसु य जाव विररेज्जाह) हे देवानुप्रियों ! वहा अनेक वापिकाएँ यावत् पुष्पधर भी हैं। सो तुम उनमें भी आनद से विहार करना। (जहण तुन्भे तत्थ अधिग्गा वा जाव उस्लुया वा भवेज्जाह तो ण तुम्भे अविरिल्ल वणसड गच्छेज्जाह-तत्य ण दो ऊऊ साहीणा) यदि तुम दोनों जनों का मन उत्तरीयवनपड में भी न लगे. वहा वर उद्विग्न यावत् उत्प्लुत हो जावे-तो तुम दोनों पश्चिम दिशा सम्बन्धी वनखडमें चले जाना। वहां दो ऋतुऍ सदा वर्तमान रहती है (त जहा-बसते गिम्हे य, तत्थ उ-सहकार चारुहारो, किसुय कपिणया रासोगमउडो, उसित तिलग बउलायवत्तो वसत उऊणरवइ साहिणा) वे दो ऋतुएँ ग्रीष्म और वसन्त हैं।
फाल्गुन चैत्र ये दो महिने वसन्तऋतु के है। वैशाख और ज्येष्ठ ये दो मास ग्रीष्मऋतु के हैं । इस पश्चिमदिशा सबन्धी वनखड में वस જેની પુષ્ટ કિરણે છે એ હેમત, રૂપ ચદ્ર તે વનમાં હમેશા પ્રકાશિત २७ छ ( तत्थ ण तुभे देवाणुप्पिया । वावीसु य जाब विहरेज्जा ह ानु પ્રિયે ! ત્યા ઘણી વા યાવત પુષ્પગ્રહે પણ છે તમે તેમાં પણ વિહાર કરજે __ (जदण तुब्भे तत्य उद्विग्गा वा जार उस्म या वा भवेज्जाह तो ण तुम्भे अविरिल्ल वणसड गच्छेज्जाह-तत्थ ण दो ऊऊ साहिणा)
ઉત્તરના વનખડમાં પણ જે તમને બરોબર ગમે નહિ, ઉદ્વિગ્ન થઈ થાવત્ ઉહુત થઈ જાય ત્યારે તમે બંને પશ્ચિમ દિશાના વનખડમાં જતા રહે ત્યાં બે ઋતુઓ સદા મોજુદ રહે છે
( त जहा वसन्ते गिम्हे य, तत्थ उ सहकार चारुहारो, किंसुय कणिया रासोगमउडोउसित तिलग वउलायवत्तो वसत ऊऊ परवइ साहीणो) ।
તે ઋતુઓ ગ્રીષ્મ અને વસત છે ફાગશ અને રૌત્ર આ બે માસ વસ ત તુના છે જયારે વૈશાખ અને જેઠ આ બે મા ગરમીની ઋતુના
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अंगारधामृतयपिंगी टी० अ० ८ माकन्दिरकचौरनिराणम् ५९७ नरपतिम् बसन्तऋतुरूपो राजा स्वाधीनो वर्तत इति सम्बन्धः। स कीदृशः? इत्याह'सहकारचारुहारो' सहकारचारुहारः-सहकाराणि-सहकार पुष्पाणि-आम्रमञ्जयः, तान्येवपहुत्सद्भावेन हाराकार परिणतत्वाचाला सुन्दरो हारो यस्य स तथा । पुनः -'किसुरमणियारासोगमउडो' किंशुकार्णिकाराशोमुकुट:-विशुपानिपला शकुममानि, कर्णिकाराणिकर्णिकारपुष्पाणि, अशोकानि-अशोकपुष्पाणि तान्येव मुकुटाकारपरिणतत्वान्मुकुटकिरीट यस्य स तथा । 'ऊसियतिलगाउलायवत्तो' उच्छ्रिततिलकरकुलातपन:- उच्छूितानि-उन्नतानि तिलकपकुलानि-तिलस्वकुलपुष्पाणि, तान्येन आतप-उत्राकारपरिणतत्वेन छत्र यस्य स तथोक्तः । एतादृशो वसन्तत्तनरपतिस्तत्र स्वाधीनः सदा वर्तते ॥ १ ॥ अथ ग्रीष्मऋतुः सागररूपकेण वर्ण्यते-'तत्थय ' तत्र च पश्चिमदिग्वनपण्डे 'गिम्हउउसागरो' ग्रीष्मर्तुरूपः सागर समुद्र. स्वाधीनः स्वायत्तत्वेनानवरत वर्तमानोऽस्ति । स कौशः ? इत्याह-' पाडलसिरीससलिलो' पाटलशिरीपसलिल:-पाटलशिरीपाणिपाटला शिरीषपुष्पाणि, तान्येव जल सादृश्यात्सलिल-जलराशिरूप यस्य स तथा । 'मल्लि यवासतियधवल वेलो' मल्लिकावासन्तिकाधनलवेलः-मल्लिका वासन्तिका च लता न्तरतु नरपति के समान सदा विचरण करती रहती है-सहकार (आ न) की मजरियां ही इस वसन्तमनु रूपी राजा के सुन्दर हार हैं। कि शुक-कर्णिकार एव अशोकके पुष्प ही इस राजा के मुकुट हैं । उन्नत तिलक वृक्ष एव वकुल वृक्ष के पुष्प ही इसके छन है । (तत्थ य-पाडल सिरीससलिलो मल्लियवासतियधवलवेलो, सीयलसुरभिअनिल मग रचरिओ गिम्हऊऊ सागरी साहीणा) उस पश्चिमदिशा सम्बन्धी वनपड में ग्रीष्मऋतु समुद्र के सामान सदा पसरा रहता है-गुलान और शिरीष पुष्प ये इस ग्रीष्मऋतु रूप समुद्र के जल है । मल्लिका एव वास
છે, આ પશ્ચિમ દિશાના વનમાં વસતકતુ નરપતિ રાજા) ની જેમ હમેશા વિચરણ કરતી રહે છે સહકાર ( બે ) ની મજરીઓ જ આ વસત ઋતુ રાજાના સુદર હારે છે શિક કર્ણિકાર ( કનેર) અને અશોકના પુ જ આ ૨ાજાના મુકુટ છે જ ચા તિવડ વૃક્ષે અને બકુલ વૃક્ષના પુષ્પોજ એના છત્ર છે
वस्थ य पाडलसिरीससलिगे मल्लिया वासति य धवलवेलो सीयसुरभि अनिलमगरचरिभो गिम्ह ऊ ऊ सागरो सोहिणो)
તે પશ્ચિમ દિશાના વનખડમાં ગ્રીષ્મઋતુ સમુદ્રની જેમ હમેશા પ્રસરાયેલે રહે છે ગુલાબ અને શિરીષના પુષ્પ જ આ ગરમીની ઋતુ રૂપ સમુદ્રના પાણી છે મલ્લિકા અને વાસ તિકા લતા જ જેના કિનારાઓ છે ઠડે અને સુવાસિત
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कथा विशेषः, ता एव तरङ्गाकारपरिणतत्वाद्धाला-शुभ्रा पेरा यस्य स तथा । 'सीय लमुरभि अनिलमगरचरियो' शीतलसुरभ्यनिलमकरचरितः - भीतलः सरभिश्व योऽनिला वायुः स एव इतस्ततोन्नमणसादृश्यात् मकरचरित मकरसञ्चारो यत्र स तथोक्तः । एवविधो ग्रीष्मऋतुसागरस्तत्र सदैव विद्यत इति । तत्र खलु बद्दीपु वापीषु यावद् अभिरममाणी विहरतम्-क्रीडन्तौ तिष्ठतम् । रोके तु मार्गशीर्षादिक्रमेण द्वौ द्वौ मासौं हेमन्त शिशिर वसन्तप्रीम-वी-शरसज्ञकाः पइ ऋतयो गणपन्ते । यदि खलु युवा देवानुपियौ । तापि-पाश्चिमदिगवनपण्डेऽपि उद्विग्नौ उत्प्लुतो न्ति का लताये ही जिस की वेलाएँ ह-तट हैं-शीतल सुरभि पवन हरी जिसमें मगरों का सचार हैं। ऐसा ग्रीष्मऋतु रूप सागर उस वनखड में सदा वर्तमान रहता है। (तत्य ण यहुसु जाव विहरेज्जार) वहींपर अनेक वापिकाएँ आदि भी है । सो उन में भी तुम दोनों आनन्द के साथ विचरण करते रहना। (जईण तुम्भे देवो०-तत्य विउम्बिग्गा, उस्लुया भवेज्जाह, तओ तुम्भे जेणेव पासायडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, मम पडिवाले माणा २ चिट्ठज्जाह, माण तुम्भे दक्खिणिल्ल वनसड गच्छेज्जाह तत्थ ण मह एगे उग्गविसे चडविसे घोरविसे, महाविसे, अइकाय महाकाए जहा तेय निसग्गे मसिमाहि सामूसा कालए नयणविसरोसपुषणे अजणपुजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमरजुयरचचलचलनजीहे, धरणियलवेणिभूए, उक्कड युडकुडिल जडिलकक्खडविघडफणाडोवकरणदच्छे लोगाहारधम्ममाणधम धमेतमोसे अणागलियचडतिव्वरोसे समुहिं तुरिय चवल घम। પવન જ જેમા મગનુ સચરણ છે એ ગ્રીષ્મ ઋતુ રૂપ સાગર તે વનખમાં सहा १२ २९ छे ( तत्थ ण बहुसु जाव विहरेज्जाह ) त्यस घणी पाये। વગેરે છે. તમે અને તેમાં પણ સુખેથી વિહાર કરતા રહેજે
(जइण तुम्भे देवा० तत्थ वि उधिग्गा उस्सुया भवेज्जाह तो तुब्भे जेणेच पासाय' वडिसए तेणेव उपागच्छेज्जाद, मम पडिवाले माणा २ चिट्ठज्जाह माण तुम्भे दक्खिणिल्ल वनसड गच्छेज्जाह तत्थ ण मह एगे उग्गविसे चडविसे घोरविसे महाविसे अइकायमहाफाए जहा तेय निसग्गे मसि महिसामूसाकालए नगणविसरोसपुणे अजणपुननियरप्पगासे रत्चच्छे जमलजुयलचचलचलत जी है, धरणियलवेणि भूए उक्कड पुडकुडिल जडिलककखड वियडफ णाडोर करण दच्छे लोगाहार धममाणधम्मघतयोसे अनागलियचडतिगरोसे समुर्हि तुरिय चवल धमधमत दिधीविसे सप्पे य परिवसई) .
દેવાનુપ્રિયે! ત્યાં પણ તમને જે ગમે નહિ તમે આજ ઉત્તમ મહેલમાં
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भनगार धर्मामृतपिणी १० ८ माकन्विधारचरितनिरूपणम् ५९९ वा भवेत तदा सलु युवा यत्रैव प्रासादावतसक' स्वावासभवन तत्रैव उपागच्छत पुनः स्वमासादायतसके समागत्य स्थातव्यमित्यर्थः, 'मम' मा च 'पडिवालेमाणा २' प्रतिपालयन्तौ २=मतीक्षमाणौ २ तिष्ठत, किन्तु मा रुल युवा 'दग्विणि ल्ल ' दाक्षिणात्य दक्षिणदिशासम्बन्धिक बनपण्ड गच्छत-युवाभ्या दक्षिणदिग्पतिवनपण्डे न गन्तव्यमित्यर्थः । करमात् ? इत्याह-तत्र खलु महानेर:-- 'उग्गविसे' उग्र विप यस्य स तथोक्त ! विपस्य-उग्रत्वं दुर्जरत्वात् । एवमग्रेऽपि सयोज्यम् । एवं 'चडविसे ' चण्ट विपः, चण्डत्वं झटिति प्रतिपदेश व्यापरत्वात् । 'घोरविसे' घोरविप , घोरत्व परम्परातः पुरुपसहस्रस्यापि घातकत्वात् । 'महा विसे' महाविप, महत्व जम्बूद्वीप परिभितशरीरस्यापि विनाशरत्वात् । 'अइ काए' अतिकायः-अन्यसापेक्षया दीधशरीरत्वात् , महाकाय:-अ-यसापेक्षया स्थूल शरीरत्वात् । 'मसिमहिसमूसाकालए' मपीमहिपमपाकालका-मपी-कज्जल, महिप प्रमिद्धः, मूपा-सुवर्ण द्रावणपानविशेषः, एतेपो द्वद्वे मपीमहिपमूपा.. धमतदिट्टीविसे सप्पे य परिवसइ ) यदि हे देवानुप्रियो तुम्हारा वहा न लगे-उद्विग्न एव उत्सुक पन जावे तो फिर तुम अपने इसी श्रेष्ट प्रासोद में वापिस आ जाना और यही पर रहते हुए हमारी प्रतीक्षा करना । दक्षिण दिशा सबन्धी वनपड में मत जाना। कारण वहा एक ऐसा बडो भारी सर्प रहता है कि जिस का विप बहुत अधिक दुर्जर होने से उग्र है। बहुत शीघ्र प्रति प्रदेशमें फैल जाने से चण्ड है। परम्परा से पुरुप सहस्त्र का घातक होने से घोर है, जबूद्वीप के बराबर शरीर का भी विनाशक होने से महान हैं। अन्य सर्पो की अपेक्षा यह सर्प यहुत लया है । तथा यहुत स्थूल है । मपी-कज्जल-महिपभैंसा और मृपा-सुवर्ण के पिघलाने का पात्र विशेष के समान यह अत्यन्त श्यामवर्ण वाला है। इस की दोनों आँखो मे विप रहता है પાછા આવતા રહેજો અને અહીં જ રહીને મારી રહ જે જે દક્ષિણ દિશાના વનખડમાં તમે જતા નહિ કેમ કે ત્યા એક બહુ મોટે સાપ રહે છે તેનું ઝેર ખૂબ જ દુર્ધર હોવા બદલ ઉગ્ન છે પ્રતિ પ્રદેશમાં તે સવારે પ્રસરી જાય છે એટલા માટે તે ચડે છે પરંપરાથી જ તે પુરુષ સહઅને મારનારો હેવાથી ઘર છે જબૂદ્વીપ જેટલા પ્રમાણના શરીરને પણ તે નાન કરી શકે તેમ છે તેથી તે મહાન છે બીજા સાપ કરતા તે બહુ જ લા તેમજ ખૂબ જ મોટે છે મશી–કાજળ, મહિષ-સે , અને મૂવા–સેનાને ઓગળાવવા માટેનું પાત્ર વિશેષ-ની જેમ તે ખૂબ જ કાળા રંગ વાળે છે તેની બને આખોમા પણ
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६९८
शाताधर्मकथासू
विशेषः, ता एव तरङ्गाकारपरिणतत्वाद् धाला शुभ्रा चेला यस्य स तथा । 'सीय सुरभि अनिलमगरचरियो' शीतलसुरभ्यनिलमकरचरितः - शीतलः सुरभित्र योऽनिलः = वायुः स एव इतस्ततोभ्रमणसादृश्यात् मकरचरित= मकरमञ्चारो यत्र स तथोक्तः । ग्रीष्मऋतुसागरस्तत्र सदैव विद्यत इति। तत्र सलु बद्दीषु वापीषु यावद् अभिरममाणौ विहरतम् = क्रीडन्तौ तिष्ठतम् । लोके तु मार्गशीर्षादिक्रमेण द्वौ द्वौ मामौ हेमन्त शिशिर वसन्तग्रीष्म-वर्षा - शरत्सञ्ज्ञकाः परतनगण्यन्ते । यदि खलु युवा देवानुमियौ । तत्रापि = पाश्चिमदिग्वनपण्डेऽपि उद्विग्नौ उत्प्लुतौ न्ति का लताये ही जिस की वेलाएं है-तट है- शीतल सुरभि पवन ही जिसमें मगरों का सचार हैं । ऐसा ग्रीष्मऋतु रूप सागर उस वनखड में सदा वर्तमान रहता है। (तत्थ पण बहुसु जाव विहरेज्जार) नहींपर अनेक वापिकाएँ आदि भी है । सो उन में भी तुम दोनों जानन्द के साथ विचरण करते रहना । ( जण तुम्भे देवो० -तत्य विउन्चिग्गा, उस्सुया भवेज्जार, तओ तुम्भे जेणेव पासाग्रयडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, मम पडिवाले माणा २ चिट्ठेज्जाह, माण तुभे दक्खिणिल्ल वनसड गच्छेज्जाह तत्थ ण मह एगे उग्गविसे चडविसे घोरविसे, महाविसे, अइकाय महाकाए जहा तेय निसग्गे मसिमहिं सामूसा कालए नयणविसरोस पुण्णे अजणपुंजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमनजुगल चचलचलनजीहे, घरणियलवेणिभूए, उक्कडउडकुडिल जडिलकक्खडविपडफणाडोवकरणदच्छे, लोग हारधम्ममाणधम धमेत घोसे अणागलियचडतिरोसे समुहिं तुरिय चवल घम પવન જ જેમા મગરાતુ સચરણ છે. એવા ગ્રીષ્મ ઋતુ રૂપ સાગર તે વનખ ડમા सहा ४२ २ छे ( तत्थ ण बहुसु जात्र विहरेज्जाह ) त्या घणी वारे વગેરે છે તમે મને તેએમા પણ સુખેથી વિહાર કરતા રહે
( जइण तुभे देवा० तत्थ वि उव्जिग्गा उस्सुया भवेज्जाह तभो तुन्भे जेणेव पासा' वडिस तेणेत्र उत्रागच्छेज्जाह, मम पडिवाले माणा २ चिट्ठेज्जाह माण तुभे दक्खिल्लि वनसड गच्छेज्जाह तत्थ ण मह एगे उग्गविसे चडवि से घोरविसे महाविसे अइकायमहाकाए जहा तेय निसग्गे मसि महिसा मूसाकालए नगण विसरोस पुष्णे अजणपुजनियर पगासे रतच्छे जमलजुयलचचन्चलत जी है, धरणियलवेणि भूए उक्कड पुडकुडले जडिलककखड वियफ गाडोर करण दच्छे लोगाहार धममाणधम्मधर्मेतघोसे अनागलिपचडतिन्नरोसे समुद्दि तुरिय चल धमधमत दिवसे सप्पे य परिवसद्द )
હે દેવાનુપ્રિયા । ત્યા પણુ તમને જે ગમે નહિ તમે આજ ઉત્તમ મહેલમા
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मनगारधर्मामृतपिणी टी० ० ८ माकन्विक्षारक्चरितनिरूपणम् ५९९ या भवेत तदा सलु युवा यत्रैव प्रासादावतसक'-स्वावासभवन तत्रैव उपागच्छत पुनः स्वमासादारतसके समागत्य स्थातव्यमित्यर्थः, 'मम' मा च 'पडिवाले माणा २' प्रतिपाल्यन्तौ २=प्रतीक्षमाणौ २ तिष्ठत, किन्तु मा खलु युवा 'दग्विणिल्ल' दाक्षिणात्य दक्षिणदिशासम्बन्धिक वनपण्ड गच्छत-युवाभ्या दक्षिणदिग्पत्तिवनपण्डे न गन्तव्यमित्यर्थः । कस्मात् ? इत्याह-तत्र खलु महानेर:'उग्गविसे' उग्र विष यस्य स तथोक्त । विषस्य-उग्रत्व दुर्जरत्वात् । एवमग्रेऽपि सयोज्यम् । एव 'चडविसे' चण्ट विपः, चण्डत्वं झटिति प्रतिप्रदेश व्यापकत्वात् । 'घोर विसे ' घोरविप , घोरत्व परम्परातः पुरुपसहस्रस्यापि यातकत्वात् । 'महा विसे' महाविप , महत्व जम्बूद्वीप परिभितशरीरस्यापि विनाशरस्यात् । ' अइ काए ' अतिकाय:-अन्यसापेक्षया दीर्घशरीरत्वाद , महाकाय:-अ-यसापेक्षया स्थूल शरीरत्वात् । 'मसिमहिसमृसामालए 'मपीमहिपमपाकालक:-मपी-कज्जल, महिप प्रमिद्ध', मूपा-सुवर्ण द्रावणपानविशेपः, एतेपो द्वन्द्वे मपीमहिपमूषा.. घमतदिट्टीविसे सप्पे य परिवसइ ) यदि हे देवानुप्रियों तुम्हारा वहा न लगे-उद्विग्न एव उत्सुक पन जावे तो फिर तुम अपने इसी श्रेष्ट प्रासोद में वापिस आ जाना और यही पर रहते हुए हमारी प्रतीक्षा फरना । दक्षिण दिशा सबन्धी वनपड में मत जाना । कारण वहां एक ऐसा बडो भारी सपं रहता है कि जिस का विप बहुत अधिक दुर्जर होने से उन है। बहुत शीघ्र प्रति प्रदेशमें फैल जाने से चण्ड है। परम्परा से पुरुप सहस्र का घातक होने से घोर है, जबूद्वीप के बराबर शरीर का भी विनाशक होने से महान् हैं। अन्य सर्पो की अपेक्षा यह सर्प बहुत ला है । तथा बहुत स्थूल है। मषी-कज्जल-महिपभैसा और मृषा-सुवर्ण के पिघलाने का पात्र विशेष के समान यह अत्यन्त श्यामवर्ण वाला है । इस की दोनों आँखो में विप रहता है પાછા આવતા રહે છે અને અહીં જ રહીને મારી રાહ જે જે દક્ષિણ દિશાના વનખડમાં તમે જતા નહિ કેમ કે ત્યાં એક બહુ મોટો સાપ રહે છે તેનું ઝેર ખૂબ જ દુર્ધર હવા બદલ ઉગ્ન છે પ્રતિ પ્રદેશમાં તે સત્વરે પ્રસરી જાય છે એટલા માટે તે ચડ છે પર પરાથી જ તે પુરુષ સહસને મારનારો હોવાથી ઘર છે જ બૂદ્વીપ જેટલા પ્રમાણના શરીરને પણ તે નાશ કરી શકે તેમ છે તેથી તે મહાન છે બીજા સાપ કરતા તે બહુ જ લાબે તેમજ ખૂબ જ મોટો છે મી-કાજળ, મહિષ-ભેસો, અને મૂષા-સેનાને ઓગળાવવા માટેનું પાત્ર વિશેષની જેમ તે ખૂબ જ કાળા રંગ વાળો છે તેની બને આખોમા પણ
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বগম विशेषः, ता एव तरङ्गाकारपरिणतत्वाद्धाला शुभ्रा वेला यस्य स तया । 'सीय लसुरभि अनिलमगरचरियो' शीतलसुरभ्यनिलमकरचरितः - शीतलः सुरभिश्व योऽनिलम्चायुः स एव इतस्ततोन्नमणसादृश्यात् मकरचरित मकरमचारो यत्र स तथोक्तः । एषविधो ग्रीप्मानुसागरस्तत्र सदैव विद्यत इति तत्र सलु बद्दीपु वापीषु यावद् अभिरममाणौ विहरतम्-क्रीडन्ती तिष्ठतम् । लोके तुमार्गशीर्षादिक्रमेण द्वौ द्वौ मासौ हेमन्तशिशिर-वसन्तग्रीष्म-कर्पा-शरत्सज्ञका पड् ऋतमो गण्यन्ते । यदि खलु युवा देवानुपियौ । तत्रापि पाश्चिमदिग्वनपण्डेऽपि उद्विग्नौ उहप्लुतौ न्ति का लताये ही जिस की वेलाएँ हैं-तट है-शीतल सुरभि पवन री जिसमें मगरों का सचार हैं। ऐसा ग्रीष्मऋतु रूप सागर उस वनखड में सदा वर्तमान रहता है। (तत्य ण पटुसु जाव विररेज्जार) वहींपर अनेक वापिकाएँ आदि भी है । सो उन में भी तुम दोनों आनन्द के साथ विचरण करते रहना । (जहण तुम्भे देवो०-तत्य विउन्विग्गा, उस्लुया भवेज्जार, तओ तुम्भे जेणेव पासायडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, मम पडिवाले माणा २ चिट्ठज्जाह, माण तुम्भे दक्विणिल्ल वनसड गच्छेज्जाह तत्थ ण मह एगे उग्गविसे चडविसे घोरविसे, महाविसे, अइकाय महाकाए जहा तेय निसग्गे मसिमहि सामूसा कालए नयणविसरोसपुण्णे अजणपुजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयरचचलचलनजीहे, धरणियलवेणिभूए, उक्कड डकुडिल जडिलकक्खडवियडफणाडोवकरणदच्छे लोगाहारधम्ममाणधम धमेत पोसे अणागलियचडतिव्वरोसे समुहिं तुरिय चवल घम પવન જ જેમાં મગરોનુ સચરણ છે એવો ગ્રીષ્મ ઋતુ રૂપ સાગર તે વનખ ડમાં सहा ७४२ २७ छ ( तत्थ ण बहुसु जाव विहरेज्जाह ) त्या४ घणी पाया વગેરે છેતમે બને તેમાં પણ સુખેથી વિહાર કરતા રહેજો
(जइण तुम्मे देवा. तत्थ वि' उधिग्गा उस्सुया भवेज्जाह तभी तुम्भे जेणेव पासाय बडिसए तेणेव उवागच्छेन्माह, मम पडिवाले माणा २ चिट्ठज्जाह माण तुम्मे दक्खिणिल्ल वनसड गच्छेज्जाह तत्थ ण मह एगे उग्गविसे चडविसे घोरविसे महाविसे अइकायमहाफाए जहा तेय निसग्गे मसि महिसामूसाफालए नयणविसरोसपुणे अजणपुजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयलचचलचलत जी है, धरणियलवेणि भूए उक्कड पुडकुडिल जडिलककखड वियडफ णाडोर करण दच्छे लोगाहार धममाणधम्मधतघोसे अनागलियचडतिबरोसे समुहि तुरिय चवल धमधमत दिछीविसे सप्पे य परिवसई)
હે દેવાનુપ્રિયે! ત્યા પણ તમને જે ગમે નહિ તમે આજ ઉત્તમ મહેલમાં
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अमगारधर्मामृतषिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् करे-लोहतापनस्थाने 'भट्टी' इति भापाप्रमिद्धे धमायमानः परिताप्यमानो लोहः तद्वद् यद् धमधमायमानो-धम-धमेति कुर्वन् धोपः-शब्दो यस्य स तथा । 'अणागलियचडतिबरोसे , अनामलितचण्डतीनगेप', अनामलितः अपरिमितः चण्डतीना अत्यन्तोगो रोपो यस्य स तथा । 'समुहि' श्वमुखिकाश्वमुखस्येवाऽऽचरण शुन इव भपणम्, 'तुरिय' त्वरितम्, 'चवल ' चपल यया स्यात्तथा 'धमधमतदिद्विपिसे' धमधमायमानदृष्टिविपः-धमधमायमान जाज्व ल्यमानम् दप्टो विप यस्य स तथोक्तः, एतादृश सर्पश्च तत्र परिवसति, तस्माद् 'माण ' मा ग्यलु युवा तत्र ग उतमिति सम्बन्धः । अन्यथा-तत्र गमने-युवयो शरीरस्य व्यापत्ति भविष्यति । एव सा तो मामन्दिकदारको 'दोच्चपि तच्चपि' द्वितीयमपि वतीयमपि चार द्विविधारमित्यर्थः, एव वदति, एवमुक्त्ग वैक्रिय समुदातेन ' समोहणइ ' समवदन्ति वैक्रियसमुद्रात करोतीत्यर्थ , ' समोहणित्ता समनहत्य-समुद्धात कृत्वा तया देवप्रसिद्धया उत्कृष्टया गत्या लपणममुद्र त्रिससक-वा-एकविंशतिवारम् ' अणुपरियट्टेउ ' अनुपर्यटितु परितोऽटितु प्रवृत्ता चाप्यासीत् ।। सू० ४ ॥ उग्ररोप है वह अनाकलित-अपरिमित-है । कुत्ते के भोंकने के समान इस की आवाज निकलती है। यह त्वरा सपन्न और बहुत ही चपल है । इस की दृष्टि में विप सदा जाज्वल्यमान रहता है (माण तुम्भ सरीरगस्स वाचत्ती भविस्मह, ते मागदियदारए दोच्चपि तच्चपि एव वयह२ वेउव्वियसमुग्घाएण समोरणइ२ ताए उक्किट्ठाए लवणसमुह त्तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेय पयत्ता यावि होत्था) इस लिये तुम दोनों वहां मत जाना । नहीं तो तुम्हारे शरीरकी कुशलता नहीं रहेगी। इसी प्रकार उस रयणा देवी ने उन माफदि दारकों को दुवारा भी-तियारा भी-समझायो वुझाया फिर समझा बुझाकर उस ने वैक्रिय समुद्धात ઉગ્રરોષ અનાલિત-અપરિમિત છે કૂતરાની ભસવાની જેમ તેને અવાજ નીકળતે કહે છે આ ત્વરા સંપન્ન અને ખૂબ જ ચપળ છે એની આંખમાં ઝેર હમેશા જાજવલ્યમાન રહે છે
(माण तुम्भ मरीरगम वारत्ती भनिस्सइ ते मागदियदारए दोन्चपि तच्चपि एव चयइ २ वेउब्धियसमुग्धारण समोहणति २ ताए उपिठाए लवणममुद्दत्ति सत्त खुत्तो अणुपरियट्टेय पयत्ता यानि होत्या)
એટલા માટે તમે બને ત્યાં જતા નહિ નહિતર તમારા શરીરનુ કુશળ રહેશે નહિ આ પ્રમાણે જ તે રયણ દેવીઓ માક દારકોને બે વાર ત્રણ વાર સમજાવ્યા અને સમજાવવાનુ કામ પતાવીને તેણે વૈક્રિય સમુદુઘાત કર્યો
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तापकणा ता इव पालका-श्यामवर्णः । नयणविसरोसपुण्णे' नयनविपरोषपूर्णः -- नपनयो विप रोपश्च, ताभ्या पूर्ण: 'अजणपुजनियरप्पगासे' अञ्जनपुननिकरणकाश:पजलाना निकर:- राशिः तवरमवाश कान्तिर्यस्य स तथोक्तः-अत्यन्त श्याम इत्यर्थः । ' रत्तच्छे । रक्ताक्षः = रक्तने । 'जमलजुयल्चचलचलतजीहे' यमल्युगलचञ्चलचलज्जिद -यमले सहातिनौ युगटे-उभे चञ्चले चपले चलन्त्यौ पुन पुनर्वहिनिस्सरन्त्यो जिवे यस्य स तथा । 'धरणीयलवेणिभूए' धरणितलवेणी भूत अतिदै यश्यामत्वादिसादृश्यात् पृथिव्या केशपाशसहशः ' उक्डफड कुडिजटिलपचरखडवियडफडाडोवकरणदच्छे । उत्कटस्फुटकुटिलजटिल फर्कश विकटस्फटाटोपकरणदक्षः - उत्कट' = बलवताs पि धसयितुमशक्यः, स्फुटः व्यक्तः कुटिलाचक्र', जटिल:-सिंहवत् शटायुक्तः, कर्कश ठोरः, विकटच-- भयङ्करो यः फटाटोप'-फणाडम्बरः तस्य करणे विस्तारणे दक्षनिपुणः । लोहा गरधम्ममाण घमघमत घोसे ' लोहाफरमायमान धमधमायमान घोप - लोहा यह बड़ा गुस्से पाज है । कज्जल पुज की राशि के समान यह बिलकुल काला है। इस के दोनों नेत्र सदा लाल रहते हैं । इस की साथ २ रही हुई दोनों चचल जिह्वाण चार २ थाहर निकलनी रहती हैं । अत्यन्त दीर्घ एव श्याम होने के कारण यह देग्वने में ऐसा लगता है कि जैसे मानो पृथिवी रूप स्त्री की वेणी चोटी ही हो । बलवान पुरुष भी जिसे नष्ट नहीं कर सस्ता है जो व्यक्त है, कुटिल-चक्र-है,सिंह के समान शटो सपन्न है, कर्कश है, और विकट-भयकर है-ऐसी अपनी फणा के फैलाने में यह बड़ा भारी दक्ष है । भट्टी में तपते हुए लोहे का जैसे धम धम शब्द होता है उसी प्रकार इस से निकला हुआ शब्द भी धम धम ऐसी आवाज करता हुआ ही निकलता है। इस का अत्यन्त जो ઝેર રહે છે તે બહુ જ ક્રોધી છે કાજળના સમયની જેમ સાવ ક ળે છે તેના બને તે હમેશા રાતા રહે છે તેની સાથે રહેનારી બને છ ચ ચળ તેમજ વાર વાર બહાર નીકળતી રહે છે બહુ લાબો અને કાળે હોવાથી તે જેવામાં એ લાગે છે કે જાણે પૃથ્વી રૂક્ષી સ્ત્રીની વેણી ( ટી ) જ ન હેય બળવાન પુરુષ પણ જેને નષ્ટ કરી શકતા નથી, જે વ્યક્તિ છે, કુટિલ १४-छ, सिंहनी २ शटा सपन्न (शपाणी ) छ, 'श छ, मन विटભય ક૨-છે એવી પિતાની ફણાને ફેલાવવામા તે ભારે દક્ષ છે ભઠ્ઠીમાં તપા વવામાં આવેલા લેખો જેમ ધમ ધમ ” દવનિ થાય છે તે પ્રમાણે જ તેમાથી નીકળતે દવનિ પડ્યું છે ધમ ધમ ' અવાજ કરતે ૧ કે ૨ તેને
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मनगारधर्मामृतयरिणी टी० ५० ९ माऊन्दिदारकचरितनिरूपणम् ॥ करे लोहतापनस्थाने 'भट्टी' इति भाषाप्रमिद्धे ध्मायमानः परिताप्यमानो लोहः तद्वद् यद् धमधमायमानो धम-धमेति कुन् धोपः शब्दो यस्य स तथा । 'अणागलियचंड तिबरोसे ' अनाकलितचण्डतीनगेपः, अनाकलिता अपरिमितः चण्डतीत अत्यन्तोयो रोपो यस्य स तथा । ' समुह ' श्वमुखिकाश्वमुखस्येवाऽऽचरण शुन इव भपणम्, ' तुरिय ' त्वरितम्, 'चवल ' चपल यथा स्पात्तथा 'धमधमतदिद्विपिसे' धमधमायमानदृष्टिविष:-धमधमायमान जाज्व ल्यमानम् दप्दो पिप यस्य स तथोक्तः, एतादृश सर्पश्च तत्र परिवसति, तस्माद् 'माण ' मा खलु युवा तत्र गन्उतमिति सम्बन्धः । अन्यथा-तत्र गमने-युवयो शरीरस्य व्यापत्ति भविष्यति । एव सा तो मानन्दिकदारको 'दोच्चपि तच्चपि' द्वितीयमपि उतीयमपि पार द्विविवारमित्यर्थः, एव वदति, एनमुक्त्वा वैक्रिय समुदातेन ' समोदणइ ' समवहन्ति वैक्रियसमुद्वात करोतीत्यर्थ , ' समोहणिता समाहत्य=समुद्वात कृत्वा तया देवप्रसिद्धया उत्कृष्टया गत्या लवणममुद्र त्रिसमकवाएकविंशतिवारम् ' अणुपरियडेउ ' अनुपर्यटितु परितोऽटितु महत्ता चाप्यासीत् ।। सू०४॥ उग्ररोप है वह अनाकलिल-परिमित-है। कुत्ते के भोकने के समान इस की आवाज निकलती है। यह त्वरा सपन्न और घरत ही चपल है । इस की दृष्टि में विप सदा जाज्वल्यमान रहता है (माण तुम्भ सरीरगस्स वायत्ती भविस्सह, ते मागदियदारए दोच्चपि तच्चपि एव वयह२ वेउव्वियसमुग्घाएण समोहणइ२ ताए उक्किट्ठाए लवणसमुह त्तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेय पपत्ता यावि होत्था ) इस लिये तुम दोनों वहां मत जाना। नहीं तो तुम्हारे शरीरकी कुशलता नही रहेगी। इसी मकार उस रयणा देवी ने उन माफदि दारकों को दुवारा भी-तियारा भी-समझायो वुझाया फिर समझा बुझाकर उस ने वैक्रिय समुद्धात ઉગ્રરોષ અનાકલિત-અપરિમિત-છે કૂતરાની ભસવાની જેમ તેને અવાજ નીકળતો રહે છે આ ત્વરે મ પન્ન અને ખૂબ જ ચપળ છે એની આંખમાં ઝેર હમેશા જાજવલ્યમાન રહે છે
(माण तुम्भ मरीरगम वावत्ती भविस्सइ ते मागदियदारए दोन्चपि तच्चपि एव वयइ २ वेउनियसमुग्धारण समोहणति २ ताए उठिाए लवणममुद्दत्ति सत्त खुत्तो अणुपरियट्टेय पयत्ता यापि होत्या)
એટલા માટે તમે બને ત્યાં જતા નહિ નહિતર તમારા શરીરનું કુશળ રહેશે નહિ આ પ્રમાણે જ તે રણુ દેવીએ મા દારકોને બે વાર ત્રણ વાર સમજાગ્યા અને સમજાવવાનું કામ પતાવીને તેણે વૈક્રિય મમુદ્દઘાત કર્યો
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ताया ताइव कालका श्यामवर्णः । नयणविसरोसपुग्णे' नयनविपरोपपूर्णः - नयनयो विप रोपश्च, ताभ्या पूर्ण: 'अजणपुज नियरप्पगासे' अञ्जनपुस्खनिकरमश:बजलाना निकर- राशिः तमाश' यान्तिर्यस्य स तथोक्त'-अत्यन्त श्याम इत्यर्थः । ' रत्तच्छे ' रक्ताक्षः = रक्तनेत्र । ' जमलजुयलचचलचलतजीहे' यमल्युगलचञ्चलचलज्जिद-यमले सहात्तिनौ युगटे-उभे चश्चष्टे-चपले चलन्त्यों पुन'पुनर्वहिनिस्सरन्त्यौ जिहे यस्य स तथा । 'धरणीयलवेणिभूए' घरणितलवेणी भूत अत्तिदै यश्यामत्वादिसादृश्यात् पृथिव्या केशपाशसहशः ' उक्डफूड कुडिलजटिलप परखड वियडफडाडोवारणदच्छे । उस्कटस्फुटकुटिलजटिल फर्कशविकटस्फटाटोपकरणदक्षः - उत्कट = बलवताऽ पि धसयितुमशक्यः, स्फुटः व्यक्तः कुटिलावक्रा, जटिल:-सिंहवत् शटायुक्तः, करंश कठोरः, विकटश्च% भयचरो यः फटाटोप'फणाडगरः तस्य करणे विस्तारणे दक्ष निपुणः । लोहा गरधम्ममाण घमघमत घोसे ' लोहाफरमायमान धमधमायमान घोष - लोहा यह थड़ा गुस्से पाज है । बज्जल पुज की राशि के समान यह बिलकुल काला है । इम के दोनों नेत्र सदा लाल रहते हैं । इस की साथ २ रही हुई दोनों चचल जिह्वाण वार २ थाहर निकलनी रहती हैं । अत्यन्त दीर्घ एव श्याम होने के कारण यह देखने में ऐसा लगता है कि जैसे मानो पृथिवी रूप स्त्री की वेणी चोटी ही हो । बलवान् पुरुष भी जिसे नष्ट नहीं कर सकता है जो व्यक्त है, कुटिल-वक्र-है,सिंह के समान शटा सपन्न है, कर्कश है, और विकट-भयकर है-ऐसी अपनी फणा के फैलाने में यह बड़ा भारी दक्ष है । भट्टी में तपते हुए लोहे का जैसे धम धम शब्द होता है उसी प्रकार इस से निकला हुआ शब्द भी धम धम ऐसी आवाज करता हुआ ही निकलता है । इम का अत्यन्त जो એર રહે છે તે બહુ જ ક્રોધી છે કાજળના સમૂહની જેમ સાવ કાળો છે તેના બને નેત્રો હમેશા રાતા રહે છે તેની સાથે રહેનારી બને છ ચ ચળ તેમજ વાર વાર બહાર નીકળતી રહે છે બહુ લાબ અને કાળે હેવાથી તે જોવામાં એવો લાગે છે કે જાણે પૃથ્વી રૂપી સ્ત્રીની વેણી (ચેટી ) જ ન હેય બળવાન પુરુષ પણ જેને નષ્ટ કરી શકતા નથી, જે વ્યક્તિ છે, કુટિલ 43-, सिंडनी म श स पन (शपाणी ) छ, ५४ छ, भने ४िભય કર-છે એવી પિતાની ફણાને ફેલાવવામાં તે ભારે દક્ષ છે ભઠ્ઠીમાં તપવવામાં આવેલા લેખ ને જેમ ધમ ધમ ” વનિ થાય છે તે પ્રમાણે જ तभाथी नतो पनि प प ' मा ४२ • तना
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मनगारधर्मामृतयषिणी टी० ० ९ माफन्दिदारकचरितनिरूपणम् करे-लोहतापनस्थाने 'भट्टी' इति भापाप्रमिद्धे धमायमानः परिताप्यमानो लोहः तद्वद् यद् धमधमायमानो धम-धमेति कुर्वन् धोप. शब्दो यस्य स तथा । ' अणागलियचडतिबरोसे , अनाकरितचण्डतीनशेपः, अनाफलितः अपरिमितः चण्डतीतः= अत्यन्तोनो रोपो यस्य स तथा । ' समुह ' श्वमुखिकाश्वमुखस्येवाऽऽचरण शुन इव भपणम्, 'तुरिय ' त्वरितम्, 'चत्रल ' चपल यथा स्यात्तथा 'धमधमतदिद्विपिसे' धमधमायमानदृप्टिरिष:-धमधमायमान जाज्व त्यमानम् दप्टो पिप यस्य म तथोक्तः, एतादृश सर्पश्च तत्र परिवसति, तस्माद् 'माण' मा खलु युवा तत्र गन्उतमिति सम्बन्धः । अन्यथा-तत्र गमने-युक्यो शरीरस्य व्यापत्ति भविष्यति । एव सा तो मारन्दिकदारको 'दोच्चपि तच्चपि' द्वितीयमपि वतीयमपि चार द्वित्रिशारमित्यर्थ., एव वदति, एनमुक्त्त वैक्रिय समुद्रातेन ' समोहणइ ' समवहन्ति वैक्रियसमुद्रात करोतीत्यर्थ , ' समोहणिचा समाहत्यसमुद्धात कृत्वा तया देवप्रसिद्धया उत्कृष्टया गत्या लवणममुद्र त्रिसमक-का-एकविंशतिवारम् ' अणुपरियट्टेउ ' अनुपर्यटितु परितोऽटितु प्रवृत्ता चाप्यासीत ॥ सू० ४ ॥ उग्ररोप है वह अनाकलित-अपरिमित-है। कुत्ते के भोंकने के समान इस की आवाज निकलती है। यह त्वरा सपन्न और बहुत ही चपल है । इस की दृष्टि में विप सदा जाज्वत्यमान रहता है (माण तुम्भ सरीरगस्स वायत्ती भविस्सह, ते मागदियदारए दोच्चपि तच्चपि एव वयह२ वेउध्वियसमुग्घाएण समोरणइ२ ताए उक्किट्ठाए लवणसमुह त्तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेय पपत्ता यावि होत्था ) इस लिये तुम दोनों वहां मत जाना । नहीं तो तुम्हारे शरीरकी कुशलता नही रहेगी। इसी प्रकार उस रयणा देवी ने उन माफदि दारकों को दवारा भी-तियारा भी-समझायो वुझाया फिर समझा बुझाकर उस ने वैक्रिय समुद्रात ઉગ્રરોષ અનાલિત-અપરિમિત-છે કૂતરાની ભસવાની જેમ તેને અવાજ નીકળતે પહે છે આ ત્વરા સંપન્ન અને ખૂબ જ ચપળ છે એની આંખમાં ઝેર હમેશ જાજવલ્યમાન રહે છે __ (माण तुम्भ मरीरगम पावती भनिस्सइ ते मागदियदारए दोन्चपि तच्चपि एवं वयइ २ वेउब्धियसमुग्धारण समोहणति २ ताए उठिाए लवणममुद्दत्ति सत्त खुत्तो अणुपरियध्य पयत्ता यापि होत्या)
એટલા માટે તમે બને ત્યાં જતા નહિ નહિતર તમારા શરીરનુ કુશળ રહેશે નહિ આ પ્રમાણે જ તે રણુ દેવીચો માદા કેને બે વાર ત્રણ વાર સમજાવ્યા અને સમજાવવાનું કામ પતાવીને તેણે વૈક્રિય સમુદૃઘાત કર્યો
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ताधर्मकथा - मूलम्-~~तएणं ते मागंदियदारिया तओमुहत्तरस्स पांसायवडिसए सइ वा रई वा धिइ वा अलभमाणा अण्णममण्णं एवं वयासी -एवं सल्ल देवाणुप्पिया। रयणदीवदेवयाँ अम्हे एव वयासी-एव खलु अह सकवयणसदेसेणं सुट्रिएणं लवणाहिवइणा जाव वावती भविस्सइ, त सेयं खलु अम्ह देवाणुप्पिया | पुरच्छिमिलं वणसंड गमित्तए, अण्णमण्णसं एयमह पडिसुणेति२ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति२ तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाब विहरंति, ततेण ते मागदियदारया तत्थवि सई वा जाव आलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसडे तेणेव उवा०२ तत्थ णं वावीसु यजाव आलिघरएसु य जाव विहरंति, ततेणे ते मागंदियदारया तत्थवि सति वा जाव अलभ० जेणेव पच्चथिमिल्ले वणसडे तेणेव उवा०२ जाव विहरति, तएण ते मा गंदिय० तत्थवि सति वा जाव अलभ० अण्णमण्ण एव वयासी --एव खल्लु देवाणुप्पिया। अम्हे रयणदीवदेवया एव वयासी:एवं खल्लु अह देवाणुप्पिया । सक्कस्स वयणसदेसेण सुट्टिएणं लवणाहिवहिणा जाव माण तुम्भ सरीरगस्स वावत्ती भविस्सति तं भवियव एत्थकारणेणं, त सेय खलु अम्ह दक्खिणिलं
किया। समुद्धात करके फिर वह उस प्रसिद्व देवगति से २१ थार लवण समुद्र के चारों ओर पर्यटन करने में प्रवृत्त हो गई ।। सू० ४ ॥ સમુઘાત કરીને તે પોતાની પ્રસિદ્ધ દેવ ગતિથી એકવીશ વન લવણસમુદ્રની थारे माथे प्रभा ४२पामा प्रात्त गई ॥ सूत्र " " -
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अनगारधर्मामृतापण टी० १० • मान्दिदारफचरितनिरूपणम् ६०३ वणसडं गमित्तए त्तिक अण्णमण्णस्त एयम पडिसुणेति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं गंधे निद्धाति से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अणिहतराए चेव, तएणं ते मागंदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिर उत्तरिज्जेहिं आसातिं पिहेतिर जेणेव दक्खिजिल्ले वणसंडे तेणेव उवागया तत्थणं महं एग आघायणं पासति अहियरासिसयसकुल भीमदरिसणिज एगं च तत्थ सूलायतय पुरिस कलुगाइ कहाई विस्सराइ कुज्जमाण पासति, पासित्ता भीता जाव सजातभया जेणेव से सूलातियपुरिसे तेणेव उवागच्छति२ ते सूलाइय एव क्यासी-एसणं देवाणुपिया। कस्साघयणे तुमं च णं के कओ वा इहं हव्वमागए केण वा इमेयारूव आवत्ति पाविए ?, तएणं से सूलाइयए पुरिसे मागंदियदारए एव बयासी-एसणं देवाणुप्पिया । रयणदीवेदेवयाए आघयणे अहणे देवाणुप्पिया । जयदीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कागदीए आसवाणियए विपुल पणियभंडमायाए पोतवणेण लवणसमुद्द ओयाए, तएण अह पोय. वहणविवत्तीए निव्वुभंडसारे एगफलगखड आसाएमि,तएण अह उवुज्झमाणे२ रयणदीवतेणं सवूडे, तएण सा रयणदीवदेवया मम ओहिणा पासइ२ मम गेण्हइ२ मए सहिं विपुलाइ भोगभोगाइ भुजमाणी विहरति, तएण सा रयणदीवदेवया अण्णया कयाई अहालहुसगति अवराहसि परिकुविचा समाणी मम एयारूब आवति पावइ, त ण णजति णं देवाणुप्पिया ।
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जाताधर्मकथा मूरम्-~~-तएणं ते मागंदियदारिया तओमुहत्तंतरस्स पासायवडिसए सइ वा रई वा धिइ वा अलभमाणा अण्णम मण्ण एवं वयासी -एवं खल्ल देवाणुप्पिया। रयणदीवदेवयाँ अम्हे एव वयासी- एव खलु अह सकवयणसदेसेणं सुटिएणं लवणाहिवइणा जाव वाबत्ती भविस्सइ, तं सेय खलु अम्हं देवाणुप्पिया । पुरच्छिमिलं वणसड गमित्तए, अपणमण्णस्स एयमह पडिसुणेति२ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति२ तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरंति, ततेणं ते मागदियदारया तत्थवि सई वा जाव आलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवा०२ तत्थ गं वावीसु यजाव आलिघरएसु य जाव विहरंति, ततेणं ते मागंदियदारया तत्थवि सति वा जाव अलभ० जेणेव पञ्चस्थिमिल्ले वणसडे तेणेव उवा०२ जाव विहरति, तएणं ते मा गंदिय० तस्थवि सतिवा जाव अलभ० अण्णमण्ण एव वयासी --एव खल्लु देवाणुप्पिया। अम्हे रयणदीवदेवया एव वयासी-- एवं खल्लु अह देवाणुप्पिया । सक्कस्स वयणसंदेसेण सुट्टिएण लवणाहिवहिणा जाव माण तुम्भ सरीरगस्स वावत्ती भविस्सति तं भवियव एत्थकारणेणं, त सेय खलु अम्ह दक्खिणिलं किया । समुद्धात करके फिर वह उस प्रसिद्ध देवगति से २१ पार लवण समुद्र के चारों ओर पर्यटन करने में प्रवृत्त हो गई । सू० ४॥ સમુદૂઘાત કરીને તે પોતાની પ્રસિદ્ધ દેવ ગતિથી એકવીશ વખત લવણસમુદ્રની यारे माथे प्रभy ४२वामा प्रवृत्त 45 गई ॥ सूत्र " & " ॥
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मैनगारधर्मामृतापिणी टी० म० ९ माकन्दिदारकचरिननिऽपणम् ०५ पश्चात मुहूर्तान्तरात्-घटिकाद्वयरूपमुहर्तानन्तरमिय पासादामतमके 'सइवा' स्मृति अतिव्याकुलचित्ततया भविष्यत्कालिक वनाहुल्यरूपा वा, 'रइना , रति-मनोमुद वा 'धिहवा' धृति-चितस्वास्थ्य वा 'अलभमाणा' अलभमानौ सन्तो अन्योन्यमेवमादियाम्-एव खलु हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीपदेवता आगामेन मवादी-एव सलु अह शक्रवचनसदेशेन सुस्थितेन ल्वगाधिपतिना यावद् व्यापत्तिभविष्यति, 'त' तत्-तस्मात्कारणात् श्रयः खलु आवयो है देवानुप्रिय! पोरस्त्य-पूर्वस्या दिशिस्थित वनपण्ड गन्तुम् । अन्योन्यस्यैतमर्थ प्रतिश्रृणुता दारया ) उन दोनो माकदी के पुत्रो ने (तओ मुहत्ततरस्त पासाय घडिसए सइ या रइ वा धिइ वा अलभमाणा अण्णमण्ण एव वयासी) एक मूहर्त भी उस श्रेष्ठ प्रासाद में अति व्याकुलित चित्त होने के कारण भविष्यत्कालिक सुख बाहुल्य रूप स्मृति को मनोमुद (मन को प्रसन्न करने वाला ) रूप रति को और चित्तस्वास्थ्य रूप धृति को नहीं पाते हए परस्पर में ऐसा विचार किया- ( एव खलु देवाणुप्पिया! रयणद्दीवदेवया अम्हे एव वयासी ) हे देवानुप्रिय ! रयणा देवी ने हम लोगो से ऐसा कहा है कि ( एव खलु अह सक्कवयणसदेसेण सुटिएण लवणाहिवाणा जाव वायत्ती भविस्सइ-त सेय खलु अह देवाणुपिया! पुरच्छि मिल्ल वणसङ गमित्तए ) " मुझे शक्रेन्द्र की आज्ञानुसार लवण समुद्राधिपति सुस्थित देव ने ऐसा आदेश दिया है कि मैं २१ घार लवण समुद्र की प्रदक्षिणा करूँ" इत्यादि से लेकर
(तओ मुहत्ततरस्स पासायवर्डिसए सइ वा रइ वा धिइ वा अलभमाणा अण्णमण्ण एव वयासी)
તે મહેલમાં એક મુહુર્ત જેટલા પ્રમાણના સમયમાં પણ શાતિ મેળવી નહિ તેઓ વ્યાકુળ ચિત્ત હોવાથી ભવિષ્યમાં પ્રાપ્ત થનારા સુખરૂપ સ્મૃતિને મને મુદ (મનને આન દિત કરનાર ) રૂપ રતિને અને ચિત્ત સ્વાચ્ય રૂપ धति प्रास न ४२ता भीलनी साथ पियार पा साया ( एव सलु देवाणुप्पिया ! रयणदीव देवया अम्हे एप ययासी) आनुप्रिय! २या वीस અમને કહ્યું છે કે
(एर खलु अह सक्कवयण सदेसेणं सहिएण लपणाहि इणा जाव पावती भविस्सइ- त सेय खलु अह देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्ल वणस गमित्तए)
મને શક્રેન્દ્રની આજ્ઞાથી પ્રેરાઈને લવણમમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવે હુકમ કર્યો છે કે મારે એકવીશ વખત લવણ સમુદ્રની પ્રદક્ષિણા કરવી વગેરેથી
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
तुम्हंपि इमेसि सरीरगाण का मण्णे आवन्ती भविस्इ १, तपणं ते मागदियदारया तस्स सूलाइयगस्त अंतिए एयमत्थं सोच्चा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजायभया सूलाइतय पुरिस एवं वयासी - कहणं देवाणुप्पिया । अम्हे रयणदीवे देवयाए हत्थाओ साहत्थि णित्थरिजामो १, तएण से सूलाइयए पुरिसे ते मार्गदिय० एव वयासी-एसणं देवाणुपिया । पुरच्छिमिले वणसडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नाम आसुरू वधारी जक्खे परिवसति, तएण से सेलए जक्खे चोदसमुद्दिपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमये महयार सद्देण एव वदति कं तारयामि कं पालयामि ?, त गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया । पुरच्छिमिल वणसड सेलगस्स जक्खस्स महरिह पुष्पच्चणियं करेह करिता जाणुपायवडिया पजलिउडा विणएण पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहेण से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एव वदेज्जा - क तारयामि क पालयामि ?, ताहे तुब्भे वदह - अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि, सेलए भे जक्खे पर रयणदविदेवयाए हत्थाओ साहस्थि णित्थारेज्जा, अण्णहा भेन याणामि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ || सू०५ || टीका- ' तएण ते ' इत्यादि - ततः खलु तौ मारुन्दिकदारकौ ततः=
“ तएण ते मागदिय दारया ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तएण ) उस रयणा देवीके चले जाने के बाद (ते मागदिय
(तएण ते मागदिय दारया 'इत्यादि
टी अर्थ - (नरण) त्यार पछी त मागदियदारया) ने भाउद्दीन पुत्रो
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ममगारधर्मामृतवपिणी टी० अ०९ माफन्दिदारकचरितनिरूपणम् to वनपण्डस्तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य तर खलु वापीयु च यानद् आलिगृहेषु च यापद् विहरतः। ततः सल ती मान्दिकदारको तनापि स्मृति वा यापद् अलम मानो यौव पाश्चान्यो पनपण्डस्तौवोपागच्छतः, उपागत्य यावद् विहरतः । ततः खलु तौ माकन्दिकदारको तनापि स्मृति वा यावद् अलभमानी अन्योन्यमेवमवा दिष्टाम्-एव खलु हे देगनुप्रिय ! आवा रत्नद्वीपदेवता-एवमवदत्-एव खलु अह देवानुपियौ ! शनस्य वचनमन्देशेन सुस्थितेन लवणाधिपतिना यावत् मा खलु युवयोः सपन्धी वनपड था वहा आये। वहा आम्र उन्हो ने बावडिओं में स्नान किया-यावत् आलिघरों मे क्रीडा किया। (तपण ते मागदियदारगा तत्थ वि सइ वा जाव अलभ० जेणेव पच्चत्यिमिल्ले वणसडे तेणेव उवा०२ जाव विहरति ) परन्तु जब उन्हें वहा भी स्मृति आदि रूप कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ तो वे वहां से निकल कर पश्चिम दिशा सपन्धी वनपड या वहा आये। ___ वहा आकर उन्हो ने वावडिओ में रनान किया और आलिघरों आदि मे परिभ्रमण किया। (तपण ते मागदिय० तत्थ वि सइ वा जाय अलभ० अण्णमण्ण एव वयासी) फिर भी उन माकदी-के उन दोनो पुत्रों को वहा शाति आदि कुछ भी नही मिला जब इस प्रकार की परिस्थिति उन्हो ने देखी तो परस्पर मे ऐसा विचार किया (एव खलु देवाणुप्पिया | अम्हे रयणद्दीवदेवया एव वयोसी-एव खलु अह देवाणुप्पिया! सकस्स वयणसदेसेण सुट्टण्ण लवणाहिरहणा जाव माण વનખડમાં પહોંચ્યા ત્યાં પહોંચીને તેઓએ વામા સ્તન કર્યું યાવત આલિઘરોમાં કીડાઓ કરી
(तएण ते मागदियदारगा उत्थ सइ वा जाव अलभ० जेणेन पञ्चत्थिमिल्ले वणसडे तेणेव उना० २ जान विहरति)
પણ ત્યાં પણ તેમને જ્યારે સ્મૃતિ વગેરે રૂપ કઈ પણ સુખ મળ્યું નહિ ત્યારે તેઓ ત્યાથી નીકળીને પશ્ચિમ દિશાના વનખડમાં પહોચ્યા
પશ્ચિમ દિશાના વનખડમાં જઈને તેઓએ વાવમાં સ્નાન કર્યું અને આવિઘરે વગેરેમાં વિચરણ કર્યું (तएण ते मागदिय० ताव सइ वा जार अलभ० अण्णमण्ण एव वयासी)
ત્યા પણ પહેલાની જેમજ માકદી પુત્રોને કેાઈ ૫ જાતની શાતિ વળી નહિ આવી પરિસ્થિતિમાં તેઓ એ પરસ્પર મળીને વિચાર કર્યો કે
( एव खलु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवया एव वयासी- एव खल मह देवाणुपिया 1 सक्फस्स ययणसदेसेण सुदएण लपणादिवइणा जाय माण
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हाताधर्मक्या स्वीकुरुतः, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य यौव पौरत्यो वनपण्डस्तत्रयोपागच्छतः, उरागस्य तत्र खलु वापीषु च यावद् अभिरममाणी आलिगृहेषु च यावद् पिहरतः । तत: खलु तौ माकन्दिकदारको तनापि स्मृति वा यावद् अलभमानी यौवोसरीयो शरीर का विश्वस न हो यहा तक का रयणा देवी का सय कथन यहां इन दोनों की बात चीत में लगा लेना चाहिये । इसलिये हे देवानुप्रिय ! हम लोगो को यही अब उचित है कि हम लोग पूर्वदिशा सबन्धी वन खंड में चलें । ( अण्ण मण्णस्स एयम पडिसुणेति २ जेणेव पुरच्छि भिल्ले वनसड तेणेव उवागच्छति २ तत्थ ण चावी य जाव अभिर• ममाणा आलीघरएसु य जाव विहरति ) इस प्रकार परस्पर में किये इस विचार को उन दोनों ने मान लिया और मान कर जहां पूर्वदिशा सपन्धी वनपड था वहाँ गये-वहां जाकर उन्हों ने बावड़ी आदि में खूब मन चाहा क्रीडा की याद में वे रम्य वनस्पति विशेष के घरों आदि मे क्रीडा करने लगे। (तएण मगदियदारया तत्थ वि सति वा जाव अलभ० जेणेव उत्तरिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छति तत्थ ण वावीसु य जाव आलिघरएप्सु य जाब विहरति ) परन्तु उन माकड़ी दारकों को वश जर भविष्यत्कालीन सुग्व बाहुल्य रूप स्मृति आदि कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ तो वे वहा से निकल कर जहा उत्तर दिशा માડીને તમારું શરીર નઈ થાય નહિ ત્યા સુધીની ૨૧ણુ દેવીની ઉપર કહ્યા મુજબની બધી વિગત અહી સમજાવવી જોઇએ એવી હે દેવાનુપ્રિયા હવે અમને એજ યોગ્ય દેખાય છે કે અમે પૂર્વ દિતાના વનખડમા જઈએ
(अण्ण मण्णस्स एयम पडिसुणेति २ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वनसडे तेणे उवागच्छति २ तत्थ ण वागी य जाव अभिरममाणा आलिघरएसु य जात्र विहरति)
આ પ્રમાણે અને એક બીજાના વિચારોથી સમત થયા અને ત્યાર પછી જ્યા પૂર્વ દિશાનો વનખડ હસે ત્યા ગયા, તવા જઈને તેઓએ વા વગેરેમાં ખૂબ જ પ્રમામા કીડાઓ કરી અને પછી તેઓ ત્યાના જ રમ્ય વનસ્પતિ વિશેષના ગૃહે વગેરેમા ક્રીડા કરવા લાગ્યા
(तएण मागदियदारया तत्थ नि सतिं वा जाव अलम० जेणेव उतरिल्ले घणसडे तेणेव उवागच्छति तस्यण वावीसु य जान आलिधरए सु य जाब विहरति)
પણ માકદી દારકોને ત્યાં પણ જ્યારે ભવિષ્યનું સુખ બાહુલ્ય રૂપ હમતિ વગેરે કઈ મળ્યું નહિ ત્યારે તેને ત્યાથી નીકળીને ઉત્તર દિશાના
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मनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् तत्र-गमनमार्गे गन्धः 'गिद्धाइ ' निर्धापति-साग समायाति, कीडशो गन्ध ? इस्याइ-'से जहानामए' तद् यथनामकम्-तथाहि-' अहिमडेइ वा' अहिमृतक इति वा मृतसर्पकलेचरमिति वा यावत् ' एत्तो वि' तस्मादपि मृतसादिकलेव रादपि 'अणिद्वत्तराए चेर' अनिष्टतर एवन्यनामश्रपणेऽपि मनोऽतिविकृत जायते । ततः खलु तौ माहन्दिकदारको तेनाशुभेन गन्धेन 'अभिभूयसमाणा' अभिमृतौ-व्याकुलौ सन्तौ सकेन उत्तरीयेण=उत्तरासङ्गेन 'दुपट्टा' इति मसिद्धेन आस्य-मुखैकदेशरूप स्व स नामिकामित्यर्थः 'पिहेति' पिधत्त: समाच्छादयतः, पिधाय=नासिकामाच्छाद्य यौर दाक्षिणात्यो वनपण्टस्तत्रैवोपागतौ । तत्र ग्वलु उन्होंने आपस में निश्चित भी कर लिया। (पडिसुणित्ता जेणेव दक्खि पिल्ले चणसडे तेणेव पहारेत्य गमणाए-तएण गधे निद्धाति से जहा नामए अहिमडेइवा जाव अणिहतराए चेच, तएण ते मागदियदारया तेण असुभेण गधेणं अभिभूया समाणा मएहिं २ उत्तरिज्जेहि आसाति पिहेति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसडे तेणेव उवागया तत्वण मह एग आघायण पासति) विचार निश्चित कर फिर वे दोनों जहा दक्षिणदिशा सम्बन्धी वनपड था उस ओर चल दिया। चलते २ उन्हें मार्ग में बहुत घडी दुर्गन्ध आई। जैसो दुगंध मृत सर्प आदि सडे हुए कलेवर से आती है उससे भी अधिक अनिष्टतर वह दुर्गन्ध थी।
इस के अनन्तर उन दोनो माकदिके दारकों ने उस अशुभ गघसे व्याकुल होकर अपने अपने मुख के एक देशरूप भाग नासिका को दु. पट्टे के सयादेश से ढक लिया। ढक कर फिर वे दक्षिण दिशा सपन्धी (पडिमुणित्ता जेणेव दाक्खिणिल्ले पणसडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए-तएण गधे, निद्धाति से जहा नामए अहिमडेइवा जान अणिहतराए चेर तएण ते मागदिय दारया तेणं असुभेण गधेण अमिभूगा समाणा सएहिं२ उत्तरिज्जेहिं आसाति पिडेतिर जेणेव दाक्खिणिल्ले पण तेणेव उपागया तत्थण मह एग प्राधायण पासति) અને ત્યાર પછી તેઓ બને જે તરફ દક્ષિણ દિશા સ બ ધી વનખડ હતે તે તરફ રવાના થયા રસ્તામાં ચાલતા ચાલતા તેઓને એકદમ ખરાબ દુર્ગધ આવી મરીને સડી ગયેલા સાપના શરીરની જ જેવી અનિતા દળ હેય છે તેવી જ તે દુર્ગધ પણ હતી માદી દારએ તે અશુભ ગધથી વ્યાકુળ થઈને પિતાના મોના એક દેશ રૂપ ભાગ નાકને બેસના છેડાથી ઢાકી દીધું ઢાકીને તેઓ આગળ દક્ષિણ દિશાના વનખડમાં ગયા ત્યાં જતા જ તેઓએ એક શૂળી ચઢાવવાની જગ્યા જોઈ
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
शरीरस्य व्यापत्तिर्भविष्यति, ' त' तत् तस्मात् - रणाद् भवितव्यमत्र कारणेन, तच्छ्रेय खलु आयो दाक्षिणात्य वनपण्ड गन्तुम्, 'इतिकट्टु' इतिकृत्या इतिनिचार्य अन्योन्यस्यैतमथं प्रतिशृणुत, मतिश्रुत्य यौन दाक्षिणात्यो वनपण्डस्तत्रैव 'पहारेत्य गमणाए ' प्रधारयतो गमनाय गन्तु तौ प्रस्थितानित्यर्थः । ततः सलु = तदनु
तुम्भ सरीरगस्स वारन्ती भविस्सर त भवियन्न एत्थ वारणेण त सेय खलु अम्ह दक्खिणिल्ल वणमड गमित्त त्तिक्ट्टु अण्णमण्णस्स एयमह पडिसुर्णेति । हे देवानुप्रिय यह तो तुम्हें जान ही है कि रगणद्वीप देवता - रयणादेरी ने जो हमलोगों से ऐसा कहा था कि मुझे शक्रेन्द्र की आज्ञा से लवणाधिपति सुस्थित देवने लवणसमुद्र की २१ बार पर्यटन करने के लिये कहा है इत्यादि २ । सो तुम दक्षिणदिशा मम्य न्धी वनषड के सिवाय तीन दिशा सम्बन्धी वनपडों में ही चित्त के उनि आदि होने पर जाना वहा की वावड़िओं आदि में भी स्नान आदि कर अपने मन को आनंदित करना दक्षिणदिशा सम्बन्ध वनषड में नहीं जाना वहा एक महाकाय विकराल सर्प रहता है। कही ऐसा न हो कि वहा जाने पर उसके द्वारा तुम्हारी मृत्यु हो जाय-सो उसके इस कथन में कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये । अत इस का रण की जाच के लिये हमें दक्षिणदिशा सम्पन्नीवनखड में जाना श्रेष स्कर है। ऐसा उन्होंने परस्पर में विचार किया । और इस विचार को
तुम्भ सरीरगस्स वापती भविस्सर त भवियन्न एत्थ कारणेण त सेय अलु अम्ह दक्खिणिल्ल रणसड गमित्त त्ति कट्टु अण्गमण्णस्स एयमह पडिसुर्णेति ) હે દેવાનુપ્રિય ! એ વાત તમે જાણતા જ હશો કે રત્નદ્વીપના દેવતા રયલુા દેવીએ અમને આ પ્રમાણે કહ્યુ છે કે શક્રેન્દ્રની આજ્ઞાથી પ્રેરાઇને લવણુ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેને એકવીશ વાર સમુદ્રની ચારે બાજુ મારું પરિભ્રમણ કરવું છે વગેરે તે તમે દક્ષિણ દિશા તરફના વનખંડ સિવાય બાકીના ત્રણે દિશાના વનખ ડામા ચિત્ત ઉદ્વિગ્ન થાય ત્યારે જો ત્યાની વાવેા વગેરેમાં સ્નાન વગેરે કરીને પેતાના મનને પ્રમન્ન કરજો દક્ષિણ વિશા તરફના વનખંડમા તમારે જવું નહીં કેમ કે ત્યા એક માટે। મહાકાળ વિકરાળ સાપ રહે છે. કઈ એવું થાય ન§િ કે તમે ત્યા જાઓ અને તેની લપેટમા આવીને તમારુ મૃત્યુ થઈ જાય તે તેને આ વાનમા કઈક રહસ્ય ચે ક્કમ હાવું જોઇએ એટલ્લા માટે આ રહસ્ય વિશે ત્યાં જઈને આપણે કઈક જાણવું તેા જોઈએ જ પરસ્પર વિચાર કરીને તેઓએ ત્યા જવાના મક્કમ વિચાર પણ કરી જ લીધે
આમ
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भनगारधर्मामृतपिणी टी० ० ९ माकन्दिदारक्चरितनिरूपणम् मेवमवादिष्टाम् -एतत्खलु हे देवानुप्रिय । कस्यागरातनबधस्थानम् ? त्व च खलु - कोऽपि कुतो वा कस्मात्स्थानात् इह इव्यमागतः समागतः ? केन वा इमामेत, द्रपामापत्ति प्रापित ? । ततः खलु स गुलाचित्तक'शूलारोपितः पुरुपो मान्दिक दारकावेवमवदत्-एव खलु हे देवानुपियौ रत्नद्वीपदेवताया आघातन-रत्नद्वीप देवतया स्थापित वधस्थानम्-अह खलु हे देवानुपियौ ! जम्बुद्वीपात्-जम्बूद्वीपाभिधानाद् द्वीपाद् भारताद वाद-भरतक्षेत्रात् कान्दीनगर्या ' आसवाणियए' अवाणिजका अश्वव्यापारी विपुल 'पणियभाड' पणितभाण्ड =विक्रेय वस्तुभातम् , आदाय-गृहीत्वा पोतवहनेन लपणसमुद्रम् 'ओवाए ' अपयातः अगा प्रकार कहा-(एस ण देवाणुप्पिया! कस्साघयणे तुम च णं केकओवा इर हच्चमागए केण वा इमेयारूच आपत्ति पाविए ? तण्ण से सूलाइयए पुरिसे मागदियदारए एवषयासी-एसण देवाणुपिया! रयणदीव देवयाए आध यणे अरपण देवाणुप्पिया ! जबद्दीवाओदीवाओ भारहाओवासाओ काग दीए आसवाणियाए विपुल पणिय भडमायाए पोहवणेण लवणसमुद्द
ओवाए) ह देवानुप्रिय ! 'कस्साधयणे' यह शली स्थान किसका है। तुम कोन हो' यहा कहासे आये हो ? और किसने तुम्हें इस आपत्तिमे डाला है। उन की इस बात को सुनकर उस शलारोपित पुरुप ने उन दोनों मारुदी-दारकों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों ! यह शूली स्थान रयणादेवीका है,में हे देवानुप्रियो । जबुद्धीप नाम के द्वीपमे वर्तमान भरत क्षेत्रस्थ काकदी नाम की नगरी का निवासी अश्वचणिक-घोडों का व्यापारी हूँ। मैं वहा से ऋिग्यवस्तु समृह को लेकर नौकाद्वारा इस . (तएण देवाणुप्पिया! कस्साघयणे तुम च ण के कओवा इह हन्चमार्गए केणवा इमेयारूव आपत्ति पाविए ? तएण से मूलाइयए पुरिसे मागदियदारए एवं वयासी- एसण देवाणुप्पिया । रयणदीवदेवयाए आघयणे अहष्ण देशणु पिया ! जत्रू द्दीनामो दीवा-ओ मारहाओ पासाओ कागदीए आमराणि गए विपुल पाणिय भडमायाए पोयवहणेण लग्णसमुद ओयाए)
હે દેવાનુપ્રિય છે આ શૂળ સ્થાન કેન છે? તમે શું છે ? અહીં તમે કયાથી આવ્યા છે ? અને કારણે તમારી આવી હાલત કરી છે ? તેઓની વાત સાભળીને શૂળી ઉપર લટકતા મારા માક દીદારને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિ ! આ શાળા-સ્થાન રણ દેરીનું છે કે દેવાનુપ્રિયે ! હુ જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં વિદ્યમાન ભરતક્ષેત્રને કાકદી નામની નગરીના રહીશ છું હું અશ્વ વણિક-ઘેડાને વેપારી-૭, ત્યાથી હુ વેચાણની વસ્તુઓ સાથે લઈને -नावप3 मा समुद्रमा यात्रा ४२ते. मा० सते. (पण भा पोय
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महदेकम् ' आघायण ' आयातनम् = आघातस्थान नवस्थानमित्यर्थः पश्यतः, तत् स्थान कीदृशम् ? इत्याह--' अडियरासिसयसकुल ' अस्थिराशिशतमधुरम् - अस्टन राशिःपुञ्जः, तेपा शनि, वै. सहु= व्याप्तम् ' भीमदरिसणिल्ल' मीमदर्शनी यम् - दर्शनमात्रेऽपि भयजनकम् । पुनथ वनैक 'सुलाइतय ' शूलाचितक=शूलारोपित पुरुष ' कलुगाइ ' करुणानि कष्णाजनकानि 'कट्टाइ ' कष्टानि = हृदयदुःखो संपादकानि 'विस्मराइ 'विस्राणि निकृतध्वनिकानि वचनानि कुज्जमाण ' कूजन्तम् = अव्यक्तरूपेणोच्चरन्त पश्यत । दृष्ट्वा च भीती 'जाव' यावत्- यावच्छउदेन त्रस्तौ प्रसितौ=नासमाप्तौ उद्विग्नौ इति सजायभया' सञ्जातभयौ= प्राप्त भयौ तौ यस शूलाचि पुरुपनैनोपागच्छतः, उपागत्य त शूलावित पुरुष उस वनपड मे गये। वहां जाते ही उन्हों ने एक शूली चढानेका का स्थान देखा । (अपरासिसयस कुल भीमदरिसणिज्ज एगच तत्थ सूलाइत पुरिस कलुगाई कट्ठाइ विस्सराइ कुज्जमाण पासति पासित्ता भीया जाव सजातभया जेणेव से सूलातियपुरिसे तेणेव उवागच्छति) जिस में सैकडो हड्डियों के ढेर लगे हुए थे। एव जो देखने में बढ़ा भयप्रद था । वही पर उन्हों ने शूली पर चढे हुए एक पुरुष को देखा जो बहुत बुरी तरह चिल्ला चिल्ला रहा था। उसके इस चिल्लाने की आवाज को सुनकर हृदय में दया का प्रवाह वहने लग जातो था । साथ २ में चित्तमें दुःख भी होने लगता था । उसको देखकर ये दोनों भयभीत हो गये । श्रास एव उद्वेग से युक्त बन गये। इसी स्थिति में ये दोनों जहां वह शूली पर चढा हुआ पुरुष था, वहा पट्टचे ( उवागच्छित्ता) वहा पहुँच कर (त खुलाइय एव व्यासी) उहों ने उस शूलारोपित मनुष्य से इस
( अरासिसयसकुल भीमदरमणिज्ज एग च तत्थ सुलाइतय् पुरिस कलुणाई कट्ठाइ कुज्नमाण पामनि पासित्ता भीया जाव सजातभया जेणेत्र से सलातियपुरिसे तेणेत्र आगच्छति )
ત્યા સે કડા હાડકાઓના ઢગલા પડયા હતા ત્યાનું દૃશ્ય એકદમ ભયપ્રદ હતું . તેઓએ ત્યા શૂળી ઉપર ચઢતા એક માણુસને જોયે કે જે બહુજ ખરાખ રીતે કરુણ કદન કરી રહ્યો હતા . તેની કરુણા ભર્યાં અવાજને સાભળીને હૃદયમાં થાના પ્રવાહ વહેવા લાગને હતા અને સાથે સાથે તેની એવી દુદશા જોઇને મનમા દુખ પશુ થતુ હતુ. તેઓ અને તેને જોઇને ડરી ગયા ત્રાસ અને ઉદ્વેગ યુક્ત થઈ ગયા આ પ્રમાણે તેએ અને જરા તે માઝુમ શૂળી ઉપર લટકી રહ્યો હતેા ત્યા ગયા ( उगच्छता ) त्या धने ( त सूल इयं एव घयासी ) तेथे पर लटकता भासने या अभ
शुजी
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धरणी
अ० ८ मार्कादिदारकधरितनिरूपणम्
६१३
ता सती मामेत गमापत्ति प्रापयति तन्न ज्ञायते खउ हे दे गनुमियौ । युवयोरप्यनयोः शरीरयो का कीदृशी आपत्तिर्भाविष्यति ? इति 'मन्ने' मन्ये चिन्तयामि ।
ततः खउस शूलाचित पुरुरस्तो माकन्दिरुदारकौ एनमगदीत् - एष खलु हे देवानुपियाँ | पौरस्त्ये वनपण्डे शैलकस्य यक्षस्य यक्षायतने शैलको नाम अश्व समय मेरे द्वारा उसका थोड़ा सा अपराध बन गया सो उस धोडे से अपराध के धन जाने पर वह पहुन अधिक बुपित हो गई । कुपित होकर उसने मझे फिर इस विपत्ति में डाल दिया है । अतः है देवानुप्रियों । तुम दोनों के शरीर की भी कैसी दशा होगी यह कौन जान सकता है - मैं इसीका विचार कररहा हूँ । (तएण ते मार्गीय दारया तस्स सूलाइ स्स अति ण्यमट्ठ सोच्चा गिसम्म बलिय नरें भीया जाब सजायभया स्लाइसय पुरिस एव वयासी) इस तरह उस शूलारोपित पुरुष के मुख से इस बात को सुनकर और उसका अच्छी तरह हृदय से विचार कर वे दोनों माकड़ी-दारक बनिनर- अत्यनभयभीत हो गये यावत् भयत्रस्त होकर उन्हों ने फिर उस शूलारोपित पुरूष से इस प्रकार कहा ( कण्ण देवाणुपिया ! अम्हे रयणदीव देवार हत्याओ साहित्थि गित्वरिज्जामो ? ) हे देवानुप्रिय | हम लोग कैसे इस रयणा देवी के हाथ से शीन साक्षात् छूट सकते हैं- (तएण से सूलाइ पुरिसे ते मागदिय० एव वयासी एमणं देवाणु पिया | पुर તેણે ઈચ્છા મુજબ કામ લાગે લગબ્યા કોઈ એક વખતે મારાથી સહેજ ભૂલ થઈ ગઈ તે મારી સહેજ ભૂયી પણ અત્યધિક ગુસ્સે થઈ ગઈ અને તેણે ત્યાર પછી મારી આવી હાલત કરી છે. એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમારા શરીરની પણ શી દશા થશે ? તે કાળુ જાણી શકે તેમ છે હુ અત્યારે એજ વિચાર કરી રહ્યો છુ
(तएण ते मागदियदारया तस्न सूलाइयगरूप अतिए एयम सोच्चा णिसम्म वलिप्तर भीया जाब सजायभया मुलामय पुरिस एव वयामी ) આ શૂળી ઉપર લટકતા માણસના મેાથી આ મધી વિગત ાણીને તેના ઉપર ખૂબ જ ગભીરતાથી વિચાર કરીને તે મને માકઢી દાર ખૂમ જ–ભયભીત થઈ ગયા યાવત્ ભત્રમ્ત થઈને તેએ અનેએ શૂળી ઉપર લટકતા માણુમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે
(कण्ण देवाणुपिया ! अम्हे रयणदी देवयाए हत्याओ साहत्यि पित्थरिज्जामो) હૈ દેવાનુપ્રિય રયણા દેવીના હાથમાથી અમે જતી કેવી રીતે મુક્ત
शडीये १
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होताधर्मया हितवान् । ततः खलु अह 'पोत्यहणवितोए' पोतबहनविपत्ती, नौगया भग्नागी सत्यों 'निमुड मडसारे' निबुडितभाण्डसारः लनिमग्नमस्तु बारः, एक फलक खण्डमासादयामि । ततः खल्लह 'उन्मुझमाणे २ उद्युध्यमानः २ उतरन् २ रत्नद्वीपान्ते रत्नद्वीपसमीपे खलु 'सबूढे ' सव्यूहातीर माप्तः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता माम् 'ओहिणा' अवधिना अधिज्ञानेन पश्यति, दृष्ट्वा मा गृहवि, गृहीत्वा मया साई विपुलान् भोगमोगान् शमादिविषयान् ‘भुनमाणी' सुनाना * विहरइ ' विहरति-भास्तेस्म । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता, अन्यदा कदाचिद 'अहालहुसगसि' यथालघुस्वके यथाप्रकारके लघुस्वरूपे स्तोकमानेऽपराधे परिकृषि लवणसमुद्र में उत्तरा (तण्ण अह पोयवरणविवत्तीए) भाग्यवशात् मेरी नौका इस समुद्र में टकरा जाने से पगई । (नित्रुहुभहसारे एगे फलगखड आसाएमि) इस तरह जिसका समस्त रस्तुसार जलनिमग्न हो चुका है ऐसे मुझे वही पर एक काष्ठफलक प्राप्त हो गया । (तएण अह उघुज्झमाणे२ रयणदीच तेण सबुडे) उसकी महायतासे तैरताहुआमैं इस रत्नदीपके पास आपहुंचा। (नएण सारयणदीवदेवयाममओरिणापासह) इतने में उस रत्नदीपदेवी ने मुझे अपने अवधिज्ञान से देख लिया(पासित्ता मम गेण्हह, गेण्डित्ता मए सद्धि विपुलाइ भोगभोगाइ भुज माणी विहरइ तएणसारयणदीवदेवया अण्गया कयाइ अरालहुसगसि अवराहसि परिकुचिया समाणी मम एयारूव आवत्ति पावेइ त न
ज्जइण देवाणुप्पिया ! तुम्हपि इमेसि सरीर गाण का भण्णे आवत्ती भविस्सा') देखकर उसने मुझे अपने पास रख लिया। रखकर मेरे साथ उसने मन चाहे खूप कानभोगोंको भोगा। किसी एक वहण विवत्तोए ) यथी भारी नाप - समुद्रमा मथ ने दूमा गई (निब्युडभडसारे एग फलग-सड आसाएमि ) मा शत यानी मी વસ્તુઓ જ્યારે પાણીમાં ડૂબી ગઈ ત્યારે પાણીમાજ એક લાડુ મને મળી गयु ( तएण अह उबुज्झमाणे २ रयणदीव तेण सबूडे ) तेना २ तराई मा २त्नदीपनी पासे मानी पडायो (तएण सा रयणदोवदेवया मम ओहिणा पासइ) मेटामातेनीवास भने पोताना धिशानी Salil
(पासित्ता मम गेण्हइ, गेण्हित्ता मए सद्धिं विपुलाइ भोगभोगाइ भुजमाणी विहरइ तएण सा रयणदीवदेवया अण्णया क्याई अहालहुमगसि अबराहसि परि. कुविया समाणी मम एयाख्व आवत्ति पावेइ त न णज्जति ण देवाणुप्पिया! तुम्बपि इमेसि सरोरगाण कामण्णे आवत्ती भविस्सइ ?) • જોઈને તેણે મને પિતાની પાસે રાખી લીધું અને રાખીને,
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अनगारधर्मामृतवाणी टो अ० ८ माकन्दिदारक्चरितनिरूपणम् ता सती मामेतद् गमापत्ति प्रापयति तन्न ज्ञायते खछु हे देवानुपियौ । युवयोरप्य नयोः शरीरयो काकीदृशी आपत्ति षिष्यति ?, इति 'मन्ने' मन्ये-चिन्तयामि ।
ततः खलु स शूलाचितपुरुस्तौ मान्दिदारको एवमगादी-एष खलु हे देवानुपियौ ! पौरस्त्ये वनपण्डे शैलकस्य यक्षस्य यक्षायतने शैलको नाम अश्व समय मेरे द्वारा उसका थोडा सा अपराध बन गया सो उस थोडे से अपराध के घन जाने पर वह पहुन अधिक कुपित हो गई। कुपित होकर उसने म झे फिर इस विपत्ति में डाल दिया है। अतः है देवानुप्रियो । तुम दोनो के शरीर की भी कैसी दशा होगी यह कौन जान सकता है-मैं इसीका विचार कररहा है । (तएणं ते मागीय दारया तस्स सूलाइयास्स अति ण्यमट्ट सोच्चा णिसम्म बलियार भीया जाव संजायभया सूलाइसय पुरिस एव वयासी) इस तरह उस शूलारोपित पुरुप के मुख से इस बात को सुनकर और उसका अच्छी तरह हृदय से विचार कर वे दोनों माकदो-दारक यलिनतर- अत्यंतभयभीत हो गये यावत् भयत्रस्त होकर उन्हों ने फिर उस शलारोपित पुरूप से इस प्रकार का ( करणं देवाणुप्पिया ! अम्हे रयणदीव देवयाए हत्याओ साहत्यि गियरिज्जामो?) हे देवानुप्रिय ! हम लोग कैसे इस रयणा देवो के हाथ से शीत्र साक्षात् छूट सकते है- ( तएणं से सूलाइयए पुरिसे ते मागदिय० एव वयासी एमण देवाणु प्पिया ! पुर તેણે ઈચ્છા મુજબ કામ ભોગે ભગવ્યા કોઈ એક વખતે મારાથી સહેજ ભૂલ થઈ ગઈ તે મારી સહેજ ભૂલથી પણ અત્યધિક ગુસ્સે થઈ ગઈ અને તેણે ત્યાર પછી મારી આવી હાલત કરી છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમારા શરીરની પણ શી દશા થશે ? તે કોણ જાણી શકે તેમ છે હું અત્યારે એજ વિચાર કરી રહ્યો છુ
(तएण ते मागदियदारया तस्स मूलाइयगस्प अतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म वलिप्तर भीया जाव सजायभया सूलाइमय पुरिस एव पयामी)
આ થળી ઉપર લટકતા માણસના મેથી આ બધી વિગત જાણીને તેના ઉપર ખૂબ જ ગભીરતાથી વિચાર કરીને તેને અને માકદી દાર ખૂબ જ-ભયભીત થઈ ગયા યાવત ભયત્રસ્ત થઈને તેઓ બનેએ શૂળી ઉપર લટકતા માણસને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (कहष्ण देवाणुप्पिया ! अम्हे रयणदीपदेण्याए हत्याओ साहत्यि णित्यरिज्जामो)
હે દેવાનુપ્રિય! રયણ દેવીના હાથમાથી અમે જી કેવી રીતે મુક્ત शी?
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पाताध कथाको रूपधारी यक्षः परिवसति-वर्तते । ततः खलु स शेलको यक्षः 'चोदसहमदिष्ट पुण्गमासिणीमु' चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टपौर्णमासीपु-चतुर्दश्यामप्टम्याम् ' उद्दिष्ट । त्ति अमात्रास्पाया पूर्णिमाया च तिथी ' आगयममए' आगतसमये आसमीभूता वसरे 'पत्नसमए' मातसमये उपलब्धानसरे साक्षादेवायसरे, यथोचितसमय सम्माप्येत्यर्थ महता महता शब्देन उन्चैः स्वरेण एव वदति-'क तारयामि ? क पालयामि-रक्षयामि?, इति, 'त' तत् तस्मात् गन्त खलु युवा हे देवानुपियाँ! पौरस्त्य वनपण्ड, शैलस्य यक्षस्य 'महरिह' महाही महायोग्या 'पुफचणिय' च्छिमिल्ले वणसडे सेलगस्त जखस्स जपाययणे सेलए नाम आ सख्वधारी जस्खे परिवसइ) उन की इस प्रकार की यात सुनकर उस शुलारोपित पुरूष ने उन मारुदी दारकों से इस प्रकार का । हे देवानु प्रियो । पूर्व दिशा की वनपड में एक शैलकयक्ष का यक्षायतन है। उस में अश्वरूप धारी शैलक नामका यक्ष रहता है। (तग्ण से सेलए जक्खे चोद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमए मत्यार सद्देण एव वयइ, क तारयामि, कमलयामि' त गच्छह ण तुम्भे देवाणु प्पिया! पुरच्छिमिरल वणसड सेलगस्स जखस्स मरिह पुफच्चणिय करेह, करिता जाणुपायवडिया पजलि उडा विणएण पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहेण सेलए जस्खे आगतसमए पत्तपमए एव वदेज्जा क तारयामि क पालयामि ? ताहे तुम्भे वयह अन्हे तारयाहि अम्हे पाल याहि ) वह शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एव पूर्णमासी
(तएण से मूलाइयए पुरिसे ते मागदिय० एव वयासी एसग देवाणुप्पिया! पुराच्छिमिल्ले वणमडे सेलगस्स जस्खस्स जस्खाययणे सेलए नाम आसरून धारी जक्खे परिपमद)
તેઓની આ પ્રમાણેની વાત સાભળીને તે શૂળી ઉપર લટકતા પુરુષે માકદી દારકોને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! પૂર્વ દિશાના વનખડમાં એક લક યક્ષનું યક્ષાયતન છે ત્યાં અવરૂપધારી શેવક નામે યક્ષ રહે છે
(तएण से सेलए जक्खे चोदसामुद्दिपुण्णमासिणीसु आगयममए पत्त समए महया २ सहेण एव वनइ क तारयामि क पालयामि ? त गच्छह ण तुम्मे देवाणुपिया। पुरन्छिमिल्ल वण सड सेलास्स जक्खस्त महरिह पुप्फ च्चणिय करेह, करिता जाणुपायवडिया पनलिउडा विणरण पन्जुराममागा चिट्ठह, जाहेण सेलए अक्से आगतसमए पत्तसमए एव वदज्मा क तारयामि कपालयामि ? वाहे तुम्भे यह अम्हे वारयाहि अम्हे पालयाहि ) ..
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भनगारधर्मामृतापिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम ६१५ पुष्यानिका कुरुत, कृत्वा जानुपादपतितो जानुनीयादौच ममा निधार विनम्री भूतौ पनलिउडा' पाञ्जलिपुटौ सयोजितरपुटी, हस्तौ सयोज्यत्ययः 'विणएण' विनयेन=नम्रभावेन 'प-जुवासमाणा' पर्युपासीना-त सेवमानौ तिठतम् , यदा खलु स शैलको यक्ष आगतसमये अवमरे समागते प्राप्तममरे उपलभासवरे एव वदेत्-‘क तारयामि क पालयामि ? ' इति तदा युवा बदतम्-हे शैलक यक्ष ! आग तारय, आवा पालय । शैल को 'भे' युगाभ्यामाराधितो यक्षः 'पर' समर्थः, स युवा रत्नद्वीपदेवताया हस्तात् ' साहत्यि' साक्षात् णित्यारेजा' निस्तारयिष्यति-पार नेष्यति, सङ्कटान्मोचयिष्यतीत्यर्थः, अन्यथा एवमरणे 'भे' युवयोः न जानामि अनयोः शरीरयो. काकीदृशी आपत्तिर्भविष्यति ?, इति 'मन्ने ' मन्ये अह चिन्तयामि ॥ सू. ५ ।। के दिन उचित समय प्राप्त होने पर बडे जोर २ से ऐसा करता है कि मैं किसको तारू किसकी रक्षा करूँ ? इस लिये हे देवानुप्रियो! तुम दोनो पूर्वदिशा सन्धी वनपड में जाओ और वहा उस शलक यक्ष की आराधना करो । आराधन करके फिर उस के समक्ष दोनो घुटनों को और पैरो को टेककर- भूमिपर रखकर- अत्यन्तनमे हुए घडे विनय के साथ दोनो हाथो को जोड कर उसकी उपासना करने में लग जाओं । जब वह शैलक यक्ष अवसर आने पर वैसा कहे कि मैं किसे तारू किसे रक्षित करू? तो तुम दोनों कहना हे शैलक यक्ष ! हम दोनों को यहा से तारों हमारी रक्षा करो। ( सेलए भे जक्खे पर रयण दीव देवयाए हत्याओ साहत्यि णित्यारेज्जा अण्णहा मे न याणामि इमेमि सरोरगाण का मण्णे आवई भविस्सइ) इस तरह तुम
તે શિવક યક્ષ એ શ, આઠમ, અમાવસ્યા અને પૂનમના દિવસે ઉચિત સમય પ્રાપ્ત થતા બહુ મોટેથી આ પ્રમાણે કહે છે કે કોને હ પાર પહોચાડુ ? કેની હુ રક્ષા કરૂ ? એટલા માટે હે દેવાદુપ્રિયે ! તમે બને પૂર્વ દિશાના વનખંડમાં જાઓ અને ત્યા તે રીલક યક્ષની આરાધના કર આનાધના કરીને તેની સામે અને ઘૂંટણે અને પગ ટેકાને ઘણા જ નમ્ર રાબ્દમાં વિનયની ચાથે બને હાથ જોડીને તેની ઉપાસના કરવા લાગો જારે તે રીલક-ચક્ષ સમય આવતા આ પ્રમાણે કહેવા લાગે કે જેને હું પાર ઉતારૂ અનેરોની રક્ષા કરૂ? ત્યારે તમે બને વિનતી કરતા કહે કે-હે રૌલક યક્ષ ! અમો બનેને અહીંથી પાર ઉતારો અમ રી રક્ષા કરે
सेलए भे जस्खे पर रयणदीवदेवयाए हत्याओ साहत्थि णित्यारेज्जा अण्णाहा भे न याणामि इमेसिं सरीरगाण का मण्णे आई भविस्सइ)
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যায় रूपधारी यक्षः परिवसति-वर्त्तते । ततः खलु स शैलको यक्षः 'नोदसहमदिष्ट पुण्गमासिणीमु' चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टपौर्णमासीपु-चतुर्दश्यामप्टम्याम् 'उदिष्ट' त्ति अमावास्याया पूर्णिमाया च तिथी ' आगयममए' आगतप्तमये आसमीभूता चसरे ' पत्नसमए ' प्राप्तसमये उपलब्धावसरे साक्षादेवायसरे, यथोचितसमय सम्माप्येत्यर्थ महता महता शब्देन-उन्चैः स्वरेण एव वदति-क तारयामि ? क पालयामि-रक्षयामि?, इति, 'त' तव तस्मात् गन्त खल युग हे देवानुप्रियो ! पौरस्त्य वनपण्ड, शैलस्य यक्षस्य 'महरिह ' महाही महायोग्या 'पुष्पचणिय' छिमिल्ले चणसडे सेलगस्स जक्सस्स जस्ग्वामयणे सेलए नाम आ सरुवधारी जखे परिवसइ) उन की इस प्रकार की यात सुनकर उस शुलारोपित पुरुप ने उन माकदी दारकों से इस प्रकार करा । हे देवानु प्रियो । पूर्व दिशा की वनपड में एक शैलकयक्ष का यक्षायतन है। उस में अश्वरूप धारी शलक नामका यक्ष रहता है। (तगण से सेलए जक्खे चोद्दसट्टमुद्दिपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तममए मत्यार सद्देण एव वयह, क तारयामि, कमलयामि त गच्छह ण तुम्भे देवाणु पिया! पुरच्छिमिरल वणसड सेलगस्स जखस्स महरिह पुफ्फच्चणिय करेह, करित्ता जाणुपायवडिया पजलि उडा विणएण पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहेण सेलए जस्खे आगनसमा पत्तपमए एव वदेज्जा क तारयामि क पालयामि ? ताहे तुम्भे यह अन्हे तारयाहि अम्हे पाल याहि ) वह शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एव पूर्णमासी
(तएण से मूलाइयए पुरिसे ते मागदिय० एष वासी एसग देवाणुप्पिया! पुराच्छिमिल्ले वणमडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नाम आसरूप धारी जक्खे परिवमद)
તેઓની આ પ્રમાણેની વાત સાંભળીને તે શૂળી ઉપર લટકતા પુરુષે માકદી દારકેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! પૂર્વ દિશાના વનખડમાં એક શૈલક યક્ષનુ યક્ષાયતન છે ત્યાં અવરૂપધારી શૈનક નામે યક્ષ રહે છે -
(तएण से सेलए जरखे चोद्दसमुट्ठिपुण्णमासिणीसु आगयममए पत्त समए महया २ सदेण एव वयइ क वारयामि क पालयामि त गच्छद ण तुम्भे देवाणुपिया' पुरन्छिमिल्ल पण सड सेलास्स जस्खस्स महरिह पुप्फ च्चणिय क्रेट, करिता जाणुपायवडिया पनलिउडा विणरण पन्जुसममागा चिटह, जाहेण सेल ए जक्खे आगतसमए पत्चसमए एव पदमा क तारयामि कपालयामि ? वाहे तुम्भे यह अम्हे वारयाहि अम्हे पालयाहि ) ...
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भमगारधर्मामृतपरिणी टो० भ० ९ माकन्दिवारकरितनिरूपणम् १७ तो भे अहं पिट्ठातो विहुणामि, अहणं तुम्भे रयणदीवदेवयाए एयमढ णो आढाह णो परियाणह णो अवयक्खहतो भे रयणदीवेदेवया हत्थाओ साहत्थि णित्यारेमि, तएणं ते मामंदियदारया सेलगंजक्खं एवं वयासी जण्णं देवाणुप्पिया। वइस्सइ तस्स णं उववायवयणिद्देसे चिट्ठिस्सामो, तएणं से सेलए जक्खे उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग अवकमइ२ वेउव्वियसमुन्धाएणं समोहणइ समोहणित्ता सखेज्जाइ जोयणाई दंडं निस्सरेइ निरसरित्तादोच्चंपिवेउब्वियसमु०२एगे महं आसरूवं विउव्वइ ते मार्गदियदारए एव वयासी-हं भो मागेदिया। आरुह णं देवाणुप्पिया । मम पिट्ठसि, तएणं ते मागंदिय०, हट० सेलगस्स जक्खस्स पणाम करेंति२ सेलगस्त पिढ़ि । दुरूढा, तएण से सेलए ते मागंदिय० दुरूढे जाणित्ता सत्तटुतालप्पमाणमत्ताइ उड्नु वेहास उप्पयति, उप्पइत्ता य त्ताए उकिटाए तुरियाए देवगईए लवणसमुई मज्झमज्झेणं जेणेव जद्दीवे दोवे जेणेव भारहेवासे जेणेव चंपानयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू०६॥
टीका-'तरण ते ' इत्यादि । 'तएण' ततः खलु तौ माकन्दिकदारको तस्य सूलानितरस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य शीध्र, चण्ड-अवल, चपल,
'तएण ते मागदिय० ' इत्यादि। टीका-(लण्ण) इसके याद (ते माग दिय दारया) वे दोनों माकदी के दारक ( तस्स सूलाइयस्स अतिए एयमट्ट सोच्या ) उस शूलारोपित __ 'तएण ते मागदिय ' इत्यादि ।
टी-(तरण) त्या२५० (ते माग दियदारया) तसा बने भाही हासे (तस्स सूगइयस्म अतिए एयमट्ट सोच्चा) शूणी ७५२ वटता ५३पनी बात
मा ७८
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पातामन्यात मूलम्-तएण ते मागदिय० तस्स सूलाइयस्त अंतिए एयम सोच्चा निसम्म सिग्ध चंड चवलं तुरियं वेइयं जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसडे जेणेव पोक्खरिणि तेणेव उवा० पोक्खरिणि ओगाहतिर जलमज्जणं करेंतिर जाई तत्थ उप्पलाइं जाव गेण्हति२ जेणेव सेलगस्स जस्खस्स जक्खा. ययणे नेणेव उ०२ आलोए पणाम करेंति२ महरिह पुप्फच्चणियं करेंति२ जाणुपायवडियासुस्सूममाणा णमसमाणा पज्जुवासंति, तएणं से सेलए जक्खे आगतसमये पत्तसमए एव वयासी-क तारयामि क पालयामि १, तएण ते मागंदियदारया उठाए उट्टेति उहित्ता करयल० एव वयासी -एव खलु देवाणुप्पिया । तुभं मए सद्धिं लवणसमुद मज्झं२ वीइवयमणाण सा रयणदीवदेवया पावा चडा रुद्दा खुदा साहसिया बहहि खरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसर्ग करेहिह, त जइ णं तुभे देवाणुप्पिया। रयणदीवदेवयाए एयम? आढाह वा परियाणह वा अवयक्खह वा दोनों के द्वारा आराधित हुओं वह शैल यक्ष तुम दोनों के रयणादेवी के हाथ से साक्षात् निस्तारित करवा देगा-अर्थात् उस के सकट से तुम्हे छुउवा देगा-नीनो कौन कह सकता है कि तुम्हारे शरीर की क्या दशा हो। में इसी बात का विचार कर रहा है। मूत्र ""
આ પ્રમાણે તમારા વડે આરાધાયેલા તે વક યક્ષ ૨ ણા દેવીના લપેટ માથી સાક્ષાત્ ત ને બનેને મુક્ત કરશે એટલે કે તેના સંકટમાથી તમને તે છેડાવશે નહિતર તમારા શરીરની શી દશા થશે? તે કેણ જાણી શકે તેમ છે હુ એ જ વિચાર કરી રહ્યો છું સૂત્ર “પ” li
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भगारधर्मामृतवर्षिणी टी० भ० ९ माकन्दिदारक सरितनिरूपणम्
तो अहं पिद्वातो विहुणामि, अहणं तुभे रयणदीवदेवया एयमहं णो आढाह णो परियाणह णो अवयक्खह तो रणदीवेदेवया हत्थाओ साहत्थि णित्थारेमि, तपणं ते मार्गदियदारया सेलगं जक्खं एवं वयासी जपणं देवाणुप्पिया । वइस्सइ तस्स णं उववायवयणिद्दे से चिट्ठिस्सामो, तपणं से सेलए जाखे उत्तरपुरत्थिम दिसीभागं अवक्कमइ २ वेडव्वियस मुग्धापूर्ण समोहण समोहणित्ता सखेजाई जोयणाई दंड निस्सरेइ निरसरित्ता दोच्चपि वे उव्वियसमु०२एगं महं आसवं विउव्वर से मार्गदियदारए एवं वयासी-हं भो मार्गदिया । आरुह णं देवाणुप्पिया । मम पिट्ठसि, तरणं ते मागंदिय० हटु० सेलगस्स जक्खस्स पणाम करेंतिर सेलगस्स पिट्ठि ' दुरूढा, तएण से सेलए ते मार्गदिय० दुरूढे जाणित्ता सत्ततालप्पमाणमेत्ताइ उड्ड बेहास उप्पयति, उप्पइत्ता य ताए उबिहाए तुरियाए देवगईए लवणसमुद्द मज्झमज्झेणं जेणेव जवूदीवे दोवे जेणेव भारहेवासे जेणेव चंपानयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ६ ॥
·
$
टीका- ' तएण ते ' इत्यादि । 'तरण ' ततः खलु तौ माकन्दिकदारकौ तस्य शूलातिस्थान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य शीघ्र, चण्ड-प्रल, चपल, " तएण ते मागदिय० ' इत्यादि ।
६१७
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टीका - (ण) इसके बाद (ते माग दिय दारया) वे दोनों माकदी के दारक (तस्स सुलाइयस्स अतिए एयमट्ठ सोच्या ) उम सुलारोपित
6
तण ते मागदिय' इत्यादि ।
टीजर्थ - (तरण) त्यारपछी (ते माग दियदारया) तेथेो मने भाई ही हार आये
( तरस सूलाइयरस अतिए एयमट्ट सोच्चा ) शूजी उपर बटता पु३पनी वात
9A
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हातापर्मकथा त्वरित, 'वेइय' वेगित-सवेग यथाम्यात्तथा शीघ्रातिशीध्रमित्यर्थः यौव पौरस्त्य चनपण्ड, यौय पुष्करिणीमापी तगेनोपागच्छतः, उपागत्य पुष्करिणीमगा देते-अतः प्रविशतः, अगाध जलमज्जन-जरस्नान कुरुतः, कृत्वा यानि तत्र उत्पलाही या पद्यानि वा याद गृहीतः, गृहीत्वा यौन शलकस्य यक्षस्य यक्षाप तनं तौवोपागच्छति, उपागत्य 'आलोए' आलोके यक्षदर्शने सति प्रणाम कुरुतः, कृत्वा महाई-महायोग्या पुष्पार्च निका कुरत', कृता जानुपादपतितोविनम्रकायौ 'सुस्सूसमाणा' शुरूपमाणौम्यक्षसे गां कुर्वाणी ' णमसमाणा' नम स्यन्तौ नमस्कार कुर्वाणौ ' पज्जुवासति' पर्युपासातेस्म, सेगा कृतवन्तौ । ततः खलुः स शैलको यक्ष आगतसमये प्राप्तसमये एपमादीत-क तारयामि कपाला पुरुष के मुख से इस बात को सुनकर (निसम्म) और उसे अपने चित्त में निश्चित कर (सिग्ध चड चचल तुरिय वेइय जेणेव पुरच्छि. मिल्ले वणस डे जेणेच पोक्खरिणी तेणेय उवागच्छइ, उवागच्छित्सा पोखरिणी ओगारति, ओगारित्ता जलमज्जण करेंति, करित्ता जाइ तत्थ-उप्पलाइ जाव गेण्ह ति, गेण्डित्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता आलोए पणाम करेंति) शीघ्र ही वहा से बहुत जल्दी त्वरायुक्त धन जल्दी २ दौडते हुए से होकर जहा वह पूर्व दिशा सबन्धी वनषड-तथा पुष्करिणी ची वहाँ
आये । वहाँ आकर उन्होंने पुष्करिणी में अवगाहन किया फिर स्नान किया। फिर उस से कमल थे वहां से लिया और लेकर जहां शैलक यक्ष का यक्षायतन था उस ओर चल दिये । वहा पहुँचते ही उन्हो ने यक्ष के दिखलाइ पडते नमस्कार किया। (करित्ता महरिह सामजीन (निसम्म ) भने ते पाताना भनमा ४सापान
(सिग्ध चड चबल तुरिय वेदय जेणेव पुरच्छिमिल्लो वणसडे जेणेव पोक्ख रिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोक्खरिणी ओगाहति, ओगाडित्ता जल मज्जण करेंति, करित्ता जाइ तत्थं उप्पलाइजाव गेण्डति, गेण्डित्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता आलोए पणाम करेंति)
સત્વરે ત્યાથી શીઘ ચાવથી દેડતા દેડતા જ્યા તે પૂર્વ દિશા સબધી વનખડ તેમજ પુષ્કરિણી હતી ત્યાં પહોંચ્યા ત્યાં પહોંચીને તેઓ પુષ્કરિણીમાં ઉતર્યા અને સ્નાન કર્યું પુષ્કરિણીમાં જેટલા કમળ ખીલેલા હતા તેઓને લઈ લીધા અને ત્યાર પછી લિક યક્ષના યક્ષાયતન તરફ રવાના થયા હતા પહેચીને તેઓએ યક્ષની સામે જતા જ નમન કર્યું
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मनगारधर्मामृनयपिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारफचरितनिरूपणम् यामि ? ' इति । तत खलु ती माकन्दिकदारको ' उहाए ' उत्यया स्वकीयोंस्थानशक्त्या ' उठेति ' उत्तिष्ठतः, उत्थाय करतलपरिगृहीत शिरआवर्त दशनख मस्तकेऽअलिं कृत्वा एरमवादिष्टाम्-'आवा तारय, आवा पालय 'इपि । ततः खलु स शैलको यस्तो माफ़न्दिस्टारको एवमवादीत्-एव खलु हे देवानुप्रियो । युवयो र्मया साई लपणसमुद्र मध्यमध्येन-अन्तरामागेंग 'वीदवयमाणाण' व्यतिपुष्फचणिय करेति-करिता जाणु पायवडिया सुम्सूसमाणा णमसमाणा पज्जुवासति, तण्ण से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वयासी-क तारयामि क पालयामि तण्ण ते मागदियदारया उट्ठाए उठेति उहित्ता करयल० एव धयामी-अम्हे तारयाहिं अम्हें पालयाहि) नमस्कार कर फिर उन्हों ने उस की आराधना-की। आराधन कर के फिर वे दोनों अपने घुटने और पैर टेक कर उस के चरणो पर पड गये। इस प्रकार पार २ उस की सेवा करते हुए वे वहा रहने लगे-जब उचित अवसर प्राप्त हुआ और उस शैलकयक्ष ने ऐसा कहा-किमें किसको तारू, किस को पार उतारू-तो उसी समय उठकर इन दोनों माकदी दारकों ने उस से दोनो हाथ जोड़ कर ऐसा कहा-आप हमें तारिये हमें पार उतारिये-(तएण से सेलए जरखे ते मागदिय० एवं वयासी) उस दोना माकदी-दारकों को इस बात को सुनकर उसे शैलक यक्ष ने उन से ऐसा कहो- (एव खलु देवाणुप्पिया! तुन्भ मएसद्धि लबणसमुद्द मन्स २ वीइययमणाण सा रयणदीवदेवयाँ
(करित्ता महरिह पुरुचणिय करेंति-करिना जाशुपायवडिया सुस्मूममीणा णमसमाणा पज्जुगसति, तएण से सेलए जक्खे जागत समए पत्तसमए एक क्यासी क तारयामि क पालयामि तएण ते मागदिय दारया उठाए उठेंति उहिता करयल. एव वयामी- अम्हे तारयाहिं अम्हे पालयाहिं)
નમન કરીને તેઓએ તેની આરાધના કરી આરાધના કરીને તેઓ બને જમીન ઉપર છૂટ ટેકીને તેના ચરણેમા આળેટી ગયા આ રીતે વારવાર તેની ઉપાસના કરતા તેઓ બને ત્યાં જ રહેવા લાગ્યા જ્યારે ઉચિત સમય આવ્યો ત્યારે રીલા યક્ષે એમ કહ્યું કે કેને હું તારૂ અને કોને પાર ઉતારૂ તરત જ માકદી દારકે ઊભા થયા અને બંને હાથ જોડીને યક્ષને વિનતી ४२१॥ वाया तमे समन तारे। मने पार उतारे। (तर्ण से सेलए जक्खें ते मांगदिय० एव क्यासी) भने भाउ होनी' विनती सालीन शेख
યક્ષે તેઓને કહ્યું કે
(एव खल देशणुप्पिया तुम्भ मए सदि लवणसमुई मज्म २ बीईयवयमाणा
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ગર
interråmontert
मजतो: गच्छतो सतो सा रत्नद्वीपदेनता पापा=पापिष्टा चण्डा-कोपशीला, रुद्रा = क्रूरा क्षुद्रा = तुन्छस्त्रभावा सादसिका अविचारितकारिणी नहुभि 'खरए हिप' खरकैः=कठोरै, ' भउएहिय ' मृदुकै सुकोमलै', 'अणु योगेहिय' अनुलोमैः= 'मनोनुकूलै:, ' पडिलो मेहिन' मतिलोमै = मन मविकलभूतेंथ ' सिंगारेदिय ' शृङ्गारैः = कामरागजनके ः 'कलुणेहिय' करुणैः करणाजनयैव 'उमरगेदिय ' उप(सगै:-उपसर्गजनकञ्चनै,' उपसग्ग' उपगम्= उत्पात 'करेहि ' वग्ध्यति, तद् यदि खलु युग हे देवानुमियौ । रत्नद्वोपदेवताया एतमर्थम् ' आढावा' आदिपावा चडा कद्दा खुद्दा साहसिया, वहहिं सरहिय महिं य अणु लोमेहि य पडिलोमेरि य सिंगारेहि य कलुणेहिं य उवसग्गेहिं य उवसग्ग करेहिइ ) हे देवानुप्रियो । तुम लोग मेरे साथ लवण समुद्र में पीचों बीच के मार्ग से होकर चलो उस समय वह पापिठ, कोपशील, क्रूर, क्षुद्र एव अविचारित कारिणी रयणा देवी तुम्हारे ऊपर अनेक कठोर, सुकोमल, मनोऽनुकूल, मनः प्रतिकूल कानराग जनक एवं करु जोत्पादक ऐसे उपसर्ग वचनों द्वारा उवसर्ग-उत्पात - करेगी । ( त जइण तुभेदेवाणुपिया ! रयणादीव देवयाए एयमट्ठ आढार या परियार 'वा अवयक्खह वा तो भे अह पिद्वातो विहृणामि अहण तुम्भे रयण दीव देवयाए एयम णो आढार णो परियाणह णो अवयक्खह तो मे रयण दीच देवया हत्याओ - साहित्थि णित्थरेमि ) सो यदि हे देवानुप्रियो ! तुम लोग रथणा देवी के इस उपसर्ग रूप अर्थ को आदर को दृष्टि से ण सारयणदीवदेवया पात्रा चडा रुदा खुदा साहसिया, बहूहिं खरएहिं य उहि य अणुलोहि य पडिलोमे हि य सिगारेहि य कलुणेहिं य उवसग्गेहिं य उवसग्ग करेहिइ )
હે દેવાનુપ્રિયે ! મારી સાથે લવણુ સમુદ્રની વચ્ચેના માર્ગમા થઈને તમે ચાલશે તે વખતે તે પાપિ, કેપશીલ, ક્રૂ, ક્ષુદ્ર અને અવિચારિતકારિણી રયણાદેવી ઘણા કઠાર, સુકેામળ, મનગમત્તા, મનને પ્રતિકૂલ, કામરાગને ઉત્પન્ન કરનારા અને કરુણાાદક ઉપસગ વચના વડે ઉપસગ–ઉત્પાત કરશે
( त जइण तुभे देवाणुपिया ! रयणदीचदेवयाए एयमह आढावा परि पाणवा अवयवखवा तो भे अह पिद्वातो विहणामि अहण तुम्भे रयणदीव देवयाए एयम णो आदाह णो परियाणाह णो अवयक्खद तो भे रयणदीवदेवया इस्थाओ साहत्थिमित्थ रेमि )
5
જે હું દેવાનુપ્રિયા 1 તમે લેકે રયા દેવીના આ ઉસળ રૂપ અને સન્માનની દષિએ નશે એટલે કે તેના વચનાને તમે સત્કાર, સ્વીકારા
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अगारधर्मामृतपिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकवरित निरूपणम्
ફર
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'येथे तदादर करिष्यथ', वा=अथवा 'परियाणह वा परिजानीथः स्त्रीकरिष्यथः वा, अथवा 'अक्खद वा ' पश्यथ = अवलोकयिष्यथ 'तो' तदा 'भे' युवा' मह 'पिट्ठाओ' पृष्ठात्= मम पृष्ठभागात् ' विहुगामि' विधुनामि पातयिष्यामि । अथ खलु यदि युवा रत्नद्वीपदेवताया एतमर्थ नो आद्रियेथे, नो परिजानीथः, atra' ता प्रति नो पश्यतः, तदुपसर्गं सहिष्येये इत्यर्थः ' तो ' तदा 'भे' युवा रत्नद्वीप देवता हस्तात् 'साइत्थि' स्वहस्तेन 'णित्थारेमि ' निस्तारयामि=पार नेष्यामि । ततः खलु तौ माऊन्किदारकौ शैलक यक्षमेवमवादिटाम्य कञ्चन खलु हे देवानुप्रिय ! त्वमाराध्यत्वेन वदिष्यति, यत्खलु ' युवयोरयमाराध्यः' इति तस्य खलु तस्यैव उपपात निर्देशे = सेवावचनाज्ञाया 'चिहिस्सामो ' स्थास्याव किंपुनर्भवत: ' भवदाज्ञानुसारेणैन वर्तिष्यावहे इत्यर्थः । ततः खलु स शैलको यक्ष. 'उत्तरपुरत्थिम' उत्तरपौरस्त्यम् ईशान कोणसम्बन्धिन ' दिसीभाग ' दिग्भागम् ' अवकमइ ' अपक्रामति गच्छति अपक्रम्य वैक्रियसमुद्घातेनं समयइन्ति, समवहत्य = वैक्रियसमुद्यात कृपा सख्येयानि योजनानि यावत् सङ्ख्येय
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देखोगे - अर्थात् उन वचनों का आदर करोगे - उन्हें स्वीकार करोगे, उन पर ध्यान दोगे, तो मैं अपने पृष्ठ भागसे तुम लोगको उतार दूंगा-नीचे पटक दूँगा और यदि तुम लोग उस रयणादेवी के इस उपसर्ग रूप अर्थ का आदर नही करोगे, उन्हें स्वीकृत नही करोगे, उसकी तरफ नहीं देखोगे - उसके द्वारा कृन उपसर्गको सहन कर लोगे मैं तुम लोगों को रयणादेवी के हाथ से देखते २ छुडा दूगा । ( तण्ण ते मागदियदारया सेल्ग जक्ख एववयासी - जण्ण देवाणुपिया ! बहस्सइ तस्सण उववाद्यवयणणिदेसे चिहिस्सोमो, तएण से सेलए जक्खे उत्तरपुरस्थिम दिसीभाग अवकमइ, अवक्कमित्ता वेडव्वियसमुग्धाएणं समोरणइ २ सखे जाईं जोय
અને તેના ઉપર વિચાર કરશેા તે હું પોતાની પીઠ ઉપરથી તમને ઉતારી પાડીશ અને નીચે ફેકી દઈશ અને જો તમે અને રચણા દેવીના ઉપસર્ગ રૂપ તે વચનાને આદર કરશે! નહિ, સ્વીકારશે નહિ, તેની તરફ જોશે નહિ, તે જે કઈ પણ ઉપસ-ઉત્પાત-કરે તે તમે ખમી લેશે તે હુ તમને મૃણા દેવીના હાથમાથી જોતોતામા મુક્ત કરાવી દઈશ
( aण ते मागदियदारया सेलन जक्ख एत्र व्यासी जग देवाणुपिया ! इस्सर तस्सण उपचायवयणगिद्दे से चिट्ठिस्सामो, वरण से सेलए जक्खे उत्तर पुरस्थिम दिसीमाम अवक्कम अवकमित्ता घेवव्वियसमुस्धारण समोदणतिर
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1 माताधर्मकथा योजनपरिमितमित्यर्थः दण्ड 'निस्मरेइ ' निस्सारयति, निस्पार्य द्वितीयमपिवार वैक्रियसमुदातेन समयान्ति, समाहत्य-द्वितीयमार क्रियसमुद्घात वृत्ता एक महत्-अश्वरूप विकृति-अवरूपस्य विकर्षगा करोतीत्यर्थः, विपित्या अश्वरूप कृत्वा तो माफन्दिकदारको एमपदन्-'हमो' हे देशानुमियो मान्दिकदारको! णाह दंड निस्सरेइ, निस्सरित्ता, दोच्चपि वेउब्धियसमु ० २ ग मह आसख्व विजयद, २ ते मागदियदारण एव वयासी) शिलक यक्षकी इस प्रकार की बात सुनकर उन मारुदी दारकों ने उस शैलक यक्ष से फिर इस प्रकार से कहा-हे देवानुप्रिय ! आप जिसके लिये हमें आरा ध्यत्वेन कहेगें-हम लोग उसी की सेवा करने में उसी के वचन मान ने में और उसी की आजानुपार वर्तमान करने में लग जावेंगे तो फिर
आपकी तो बात ही क्या है । आप तो हम से जैसे कहेंगे हम लोग सर्व थो उसी के अनुसार चलेंगे। इस के बाद वह शैलक यक्ष ईशान कोण सबन्धी दिग्भाग की ओर गया। वहां जाकर उस ने वैक्रिय समुद्धान से उत्तर वैक्रिय की विकुर्वणा की-विकुर्वणा कर के फिर उस ने अपने आत्मप्रदेशों का सख्यात योजन पर्यंत दण्डाकोर रूप में बाहिर निकला-निकाल कर के फिर दुबारा भी वैक्रिय संमुद्धात किया और फिर एक बड़े भारी अश्वरूप की उस ने विकुर्वणा की। अश्वरूप बनाकर फिर वह उन माकदी दारकों से बोलासखे नाइ जोयणाइ दड निस्सरेइ, निस्सरिता दोच्चपि वेउन्धि समु० २ एंग मह आसरूव विउन्नइ २ ते मागदिय दारए एव वयासी)
શૈનક યક્ષની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને માથુ દી દારકોએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે અમને જે કંઈને આરાધવાને હુકમ કરશે, અમે લેકે તેની સેવા કરવામાં, તેની જ આજ્ઞા સ્વીકારવામાં અને તેની આજ્ઞા પ્રમાણે જ આચરણ કરવામા તત્પર થઈ જઈશું ત્યારે તમારી તે વાત જ શી કહેવી ? તમે અમને જેમ કહેશે તેમ અમે સંપૂર્ણ પણે અનુસરીશુ ત્યારબાદ શૈલક યક્ષ ઈશાન કેશુનાદિ ભાગ તરફ ગયે ત્યાં જઈને તેણે વૈક્રિય સમુદ્રવાતથી ઉત્તર ક્રિયાની વિકણ કરી અને વિકણવા કર્યા બાદ તેણે પિતાના આત્મપ્રદેશને સ ખ્યાત ચીજન સુધી દડાકાર રૂપે બહાર કાઢવા બહાર કાઢીને તેણે બીજી વાર પણ ક્રિય સમુદઘાત કર્યો અને ત્યાર પછી તેણે એક બહુ મોટા અશ્વરૂપ (ઘોડાના રૂપ) ની વિદુર્વણ કરી અધનુ રૂપ બનાવીને તેણે માદક साहाने -
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मनगारधर्मामृतवपिणी टी० ० ९ मान्दिदारफचरितनिरूपणम् . ६५५ आरोहत खलु युग मम पृष्टे । ततः खलु तौ माकन्दिग्दारको हृष्? सुप्टी शैलकस्य यक्षस्य प्रणाम कुरुतः, कृत्वा शैलकस्य पृष्ट दरूढौं पृष्ट प्रदेशे समारूढौ । ततः खलु स शैलकस्तो मान्दिकदारको दूरुढौ-स्वपृष्टारूढी ज्ञात्वा 'सत्तद्वतालप्पमाणमेत्ताइ' सप्ताप्टतालपाणमांगन सप्ताप्टतालक्षपरिमितान् गगनभागान् यावत् 'उडरेहास' ऊधविहायसि-उच्चैराकाशे 'उप्पथइ' उत्पतति, उम्पत्ता, उत्पत्य च तया ममिद्धया उत्कृष्टया लरितया देवगत्या लवणसमुद्र मभ्यमध्येन यौन जम्बूद्वीपो द्वीप , यत्रोत्र भारतो वर्ष. भरतक्षेत्र , यौवं चम्पानगरी तनैव प्रधारथतिगन्तु पत्त ।। सू०६॥ (ह भो मागदियो । आमह ण देवाणुप्पिया ! मम पिट्टमि-तएणं ते मागदिय० १४० सेलंगस्स जखस्त पणाम करेति करित्ता सेलगस्स पिट्टि दुख्ढा, नण्ण से सेलए ते मागदिय० दुरुढे जाणित्ता सत्ततालप्पमाणमेत्ताइ उड वेहास उप्पयइ, उप्पइत्ता ये ताएउकिट्ठाए तुरियोए देवगईए लवर्णसमुद्द मज्झ मज्झेण जेणेव जद्दीवे दीवे जेणेच भारहेवासे जेणेव चपा नयरी तेणेब पहारेत्थ गमणाए) अरे ओ देवानुप्रिय माकदी दारको ! तुम दोनों मेरी पीठ पर चढ जाओ। इस के बाद वे दोनो माकदी दारक घर्पित एव सतुष्ट होते हुए प्रणाम कर उस शैलक यक्ष की पीठ पर आरूढ हो गये । जय शैलंक यक्ष ने उन्हे अपनी पीठ पर चढा जाना तो जानकर वह सात आठ ताल वृक्ष प्रमाण घरोवर क्षेत्रमें ऊपर आकाश में उछला। उछलबार फिर वह अपनी प्रसिद्ध उत्कृष्ट त्वरायुक्त देवगति से लवणसमुद्र के ठीक बीचों
(ह भो मागदिया ! आरहण देवाणुप्पिया । मम पिट्ठसि-तएणं ते मागेदिय० द्रु० सेलगस्स जक्खस्स पणाम करे ति करित्ता सेलगस्स पिढेि दुख्दा, तएण से सेलए ते मागदिय दुरुढे जाणित्ता सत्तद्वतालापमाणत्ताइ उड़ वेहाम उप्पयइ, उप्पइत्ता य वाए उक्विटाए तुरियाए देवगईए लंबणसमुद्द मज्झमज्झे णजेणेव जवूदीवे दीवे जेणेप्रभारहेनासे जेणेव चपानयरी तेणेव पहारेत्यगमणाए)
અરે ઓ દેવનુપ્રિય માકદી દાર! તમે મારી પીઠ ઉપર બેસી જાઓ ત્યાર પછી માકદી દારક હતિ તેમજ સ તુષ્ટ થતા પ્રણામ કરીને શિક્ષક યક્ષની પીઠ ઉપર બેસી ગયા શૈલક યક્ષે તેઓને પોતાની પીઠ ઉપર સવાર થઈ ગયેલા જઈને તે સાત આઠ તાલવૃક્ષ પ્રમાણ જેટલા ક્ષેત્રમાં આકાશમાં ઉછળ્યો અને ઉછળીને તે પિતાની પ્રસિદ્ધ ઉત્કૃષ્ટ ત્વરાયુક્ત દેવગતિથી લવણસમુદ્રની નરેબર
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ताasant मूलम्-तएणं सा रयणदीवदेवया लवणसमुहं तिसत्तखुत्तो अणुपरियइ जं तत्थ तणं वा जाव एडेइ, एडित्ता जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागाच्छइ उवागच्छित्ता ते मार्ग दियदारया पासायवडिसए अपासमाणी जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेति२ तेसि मागदियदारगाणं कत्थइ सुई खुइं वा पति वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले एवं चेव पच्चस्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहि पउंजइ पउंजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धिं लवसमुद्द मज्झमज्झेण वीइवयमाणे पासइ पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडग गेण्हइ गेण्हित्ता सत्तह जाव उप्पयइ उप्पयित्ता ताए उकिटाए जेणेव मार्गदिय० तेणेव उवा० एवं क्यासी-हं भो मागदिया० अप्पत्थियपत्थया किण्ण तुब्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएण जखेण सद्धि लवणतमुद मझं मज्झेण वीहवयमाणा त एवमवि गए । जइण तुन्भे मम अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं, अहणं णावयक्खह तो भे इमेण नीलप्पलगवल जाव एडेमि, तएण ते मागदियदारया रयणदीव देवयाए अंतिए एयमट्ट सोणिस० अभीया अतत्था अणुविग्गा अक्खुभिया असभता रयणदीवदेवयाए एयम? नो पीच के मार्ग से चलता हुआ जहा जबूद्वीप नाम का दीप और उसमें जहा भरत क्षेत्र और उसमें भी जहा चपानगरी थी उस ओर चल दिया ।। सूत्र ६॥
MAHyguary
વચ્ચેના માર્ગમાથી પસાર થતા જ્યા જ બૂઢીપ નામે દ્વીપ તેમજ જ્યા ભરત ક્ષેત્ર અને તેમાં પણ જ્યાં ચપા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયે “દ
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भनगारधर्मामृतपिणी टी० अ०९ माकन्दिदारकरितनिरूपणम् आढति नो परि० णो अवयक्खति, आणाढायमाणा अपरि० अणवयक्षमाणा सेल एण जक्खेण सद्धि लवणसमुदं मज्झमऽझेणं वीइवयंति, ततेणं सा रयणदीवदेवया ते मागदिय. जाहे नो सचाएइ बहूहि पडिलोमेहि य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तए वाताहे महुरेहि सिगारेहि य क्लुणेहि य उवसग्गोहि य उवसग्गेउ पवत्ता यावि होत्था, हं भो मागंदियदारगा। जइणं तुन्भेहि देवाणुप्पिया! मए सद्धि हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलि याणि य हिडिगणि य मोह्यिाणि य ताहे णं तुम्भे सव्वाति अमणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धि लवणसमुई मज्झं. मझेणं वीइवयह, तएणं सा रयणदोवदेवया जिणरक्खियस्स मम ओहिणा आभोएइ आभोएत्ता एव वयासी-णिच्चपि यणं अहं जिणपालियस्त अणिहा५निच्च मम जिणपालिए अणिडे -५ निच्चपिय ण अह जिणरक्खियस्स इहा५ निच्चपिय णं मम जिणरविखए इ४५, जइणं मम जिणपालिए रोयमाणी कदमाणी सोयमाणी तिप्पमाणी विलवमार्णी णावयक्खइ किण्णं तुम जिणरक्खिया । मम रोयमाणि जाव णावयक्खसि , तएण
सा पवररयणदीपस्ल देवयाओहिणा उ जिणरक्खियस्स मणं। नाऊण वधनिमित्त उवरि मागंदियदारगाणं दोण्हपि ॥ १ ॥ दोसकलिया सलोलय णाणाविहचुण्णवासमीस दिव्व । घाण. मण निव्वुइकर सब्योउयसुरभिकुमुमवुटि पमुचमाणी ॥२॥ णाणामणिकणगरयणघटियखिखिणिणेऊरमेहलभूसणरवेण|दि
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__ मूल्म्-तएणं सा रयणदीवदेवया लवणसमुइं तिसत्तखुत्तो अणुपरियइ जं तत्थ तणं वा जाव एडेइ, पडित्ता जेणेव पासायवडेंसर तेणेव उवागाच्छइ उवागच्छित्ता ते मार्ग दियदारया पासायवडिसए अपासमाणी जेणेव पुरच्छिमिले वणसडे जाव सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेति२ तेसिं मागदियदारगाणं कत्थइ सुई खुइ वा पति वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहि पउंजइ पउंजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुद्द मज्झमझेण वीइवयमाणे पासइ पासित्ता आसुरूत्ता असिखेडग गेण्हइ गेपिहत्ता सत्तह जाव उप्पयइ उप्पयित्ता ताए उकिटाए जेणेव मार्गदिय० तेणेव उवा० एवं चयासी-हं भो मागदिया० अप्पत्थियपत्थया किणं तुब्भे जाणह मम विप्पजहाय सेलएण जखेणं सद्धि लवणसमुह मझं मझेण वीहवयमाणा त एवमवि गए । जइणं तुम्भे मम अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं, अहणं णावयक्खह तो भे इमेण नीलुप्पलगवल जाव एडेमि, तएणं ते मागदियदारया रयणदीव देवयाए अंतिए एयम सो० णिम० अभीया अतत्था अणुविग्गा अक्खुभिया असभता रयणदविदेवयाए एयम? 'नो धीच के मार्ग से चलता हआ जहा जबृद्धीप नाम का दीप और उसमें जहा भरत क्षेत्र और उसमें भी जहा चपानगरी थी उस ओर चल दिया ।। सूत्र ६॥
વચ્ચેના માર્ગમાથી પસાર થતે જ્યા જ બૂઢીપ નામે દ્વીપ તેમજ જ્યા ભરત ક્ષેત્ર અને તેમાં પણ જ્યાં ચપા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયે મસુત્ર “e”
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भनगारधामृतपिणी टी० अ० ९ माकदिवारकवरितनिरूपणम् कम्मदलगए अवयक्खति मग्गतो सविलिय, तएण जिणरक्खिय समुप्पन्नकलुणभावमच्चुगलस्थल्लणोल्लियमइं अबयक्खतं तहेवजक्खे य सेलए जाणिऊण सणियं२ उबिहति नियगपिठ्ठाहि विगयसद्धं, तएण सा रयणदीवदेवया निस्ससा कल्लुण जिणरक्खिय सकलसा सेलगपिट्टाहि ओवयंतदास । मओसित्ति जंपमाणी अप्पत्त सागरसलिलं गेण्हिय वाहाहि आरसंत उढें उबिहति अवरतले, ओवयमाण च मडलग्गेण पडिच्छित्तानीलुप्पलगवलअयसिप्पभासेण असिवरेणं खडाखडि करेति तत्थ विलवमाण तस्स य रारसवाहियस्त घेत्तूण अगमंगाई सरु हिराइं उक्खित्तवलि चउद्दिसि करेंति सा पंजली पहिडा।सू०७॥
टीका-'तएण सा' इत्यादि-तत. खलु सा रत्नद्वीपदेवता लषगसमुद्र' त्रिसप्तकत्त्या एकविंशतिवारम् अनुपर्यटति, अनुपर्यव्य यत्तत्र तृण वा यावत् सर्व पत्र काष्ठादिकमपनीय-एकान्ते 'एडेइ' एडति-प्रक्षिपति, प्रसिप्य यौन मासादावतसकस्तगैवोपागच्छति, उपागत्य ती माऊन्दिकदारको प्रासादावतसके-अपश्यन्ती
'तएणं सा रयणदीवदेवया' इत्यादि । टीकार्थ -(नएण) इसके याद (मा रयणदीवदेवया) उस रयणादेवी ने (लवण समुह तिसत्तखुसो अणुपरियति) लवण समुद्र की २१ घार प्रदक्षिणा को-(ज तत्य तण वा जाव एडेड एडित्ता जेणेव पासायवडे सए तेणेव उवागच्छति) इस समय में उसे वहा पर जो तृणकाष्ठ पत्र आदि मिला उस-सयको वहा से हटाके दूर जाकर एकान्त स्थान में डाल दिया। डालकर फिर वह जहा अपना श्रेष्ट प्रासाद था वहा आई
'तएण सा रणदीव देवया ' इत्यादि ।
साथ-(तएण) त्या२मा ( सा रयणदीव देवया) ते २यशवीग(सवण समुह ति सत्तसुचो अणुपरियदृति) aपा समुद्रनी मेयीश पा२ प्रक्षि। (ज तत्य तर्ण या जाव एडेइ एडित्ता जेणेव पासायवडेंसर तेणेव आगच्छ)
પ્રદક્ષિણા કરતી વખતે રયણા દેવીને ત્યા તૃણ, કાણ પત્ર વગેરે જે કઈ પણ જોવામાં આવ્યું તેને ત્યાથી દૂર એકાતમા ફેકી દીધુ ફેકીને તે પિતાના - મહેલમાં આવતી સહી
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जाताभमकथा साओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं वेति सा साकलुसा ॥३॥ होल-वसुल-गोल-णाह-दइत-रमण-कंत-सामिय-णिग्धिण णिच्छक । थिष्ण णिकिव अकयण्णुय सिढिल भाव निलज्ज लुक्ख अक्लुण जिणरक्खियं मज्झ हिययरक्खगा। ॥ ४॥णह जुज्जसि एकियं अणाहं अवधवं तुज्झचलणओबायकारियं उज्झिउ महण्णं । गुणसंकर ! अहं तुमं विहूणा ण समस्थावि जीविउ खणंपि ॥ ५ ॥ इमस्त उ अणेगझसमगरविविह सावयसयाउलघरस्स। रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुज्झ पुरओ एहि णियत्ताहि जइसिकुविओ खमाहि एकावराहं मे ॥ ६ ॥ तुज्झ य विगयघणविमलससिमडलागार सस्सिरीयं सारयनवकमलकुमुयकुवलयविमलदलनिकरसरिसनिभनयणं वयणं पिवासागथाए सद्धो मे पेच्छिउ जे अवलोएहि ताइओ मम णाह जो ते पच्छामि वयणकमलं ॥ ७ ॥ एव सप्पणय सरलमहुराइ पुणो२ कल्लुणाइ वयणाइ जंपमाणी सा पावा मग्गओ समण्णेइ पावहियया ॥८॥ तएणं से जिणरक्खिए 'चलमाणे तेणेव भूसणरवेण कण्णसुहमणोहरेणं तेहि य सप्प
णयसरलमहुरभणिएहिं सजायविणराए रयणदीवस्स देवयाए 'तीसे सुदरथणजहणवयणकरचरणनयणलावन्नरूवजोवणसिरिं च दिव्व सरभसउवाहियाइ विव्वोयविलसियाणि य विहसिय सकडक्खदिट्रिनिस्ससियमलियउवललियठियगमणपणयखिज्जियपासाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे
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भनगारधर्मामृतपिणी टी० म० ९ माफदिवारकचरितनिरूपणम् कम्मरसगए अवयक्खति मग्गतो सविलिय, तएण जिणरक्खिय समुप्पन्नकलुणभावंमच्चुगलथल्लणोल्लियमइं अबयक्खत तहेवजक्खे य सेलए जाणिऊण सणियं२ उबिहति नियगपिट्ठाहि विगयसद्धं, तएण सा रयणदीवदेवया निस्ससा कल्लुण जिणरक्खिय सकलसा सेलगपिट्टाहि ओवयंतदास ! मओसित्ति जंपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गेण्हिय वाहाहि आरसंत उड्डू उविहति अवरतले, ओवयमाण च मडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पलगवलअयसिप्पभासेण असिवरेण खंडाखडि करेति तत्थ विलबमाण तस्स य रारसवाहियस्त घेत्तूण अगमंगाई सरु हिराइ उक्खित्तवलि चउद्दिसि करेंति सा पंजली पहिट्टा ॥सू०७ ॥ _____टीका-'तएण सा' इत्यादि-तत' खलु सा रत्नद्वीपदेवता लवणसमुद्र' त्रिसप्तकत्या एकविंशतिवारम् अनुपर्यटति, अनुपर्यट्य यत्तत्र तृण वा यावत् सर्व पत्र काष्ठादिकमपनीय-एकान्ते 'एडेइ' एडति मक्षिपति, मक्षिप्य यौन प्रासादावतसकस्तौवोपागच्छति, उपागत्य तो माफन्दिरुदारको प्रासादावतसके-अपश्यन्ती __'तएणं सा रयणदीवदेवया' इत्यादि ।
टीकार्य -(नएण) इसके बाद (मा रयणदीवदेवया) उस रयणादेवी ने (लवण समुद्द तिसत्तखुत्सो अणुपरियति ) लवण समुद्र की २१ बार प्रदक्षिणा को-(ज तत्य तण वा जाव एडेड एडित्ता जेणेव पासायवडे सए तेणेव उवागच्छति ) इस समय में उसे वहां पर जो तृणकाष्ठ पत्र आदि मिला उस-सको वहा से हटाके दूर जाकर एकान्त स्थान में डाल दिया। डालकर फिर वह जहा अपना श्रेष्ट प्रासाद था वहा आई.
'तएण सा रणदीव देवया ' इत्यादि ।
2ीर्थ-(तएण) त्या२मा (सा रयणदीव देवया) ते २यावास (टवण समुद्द ति सतखुत्तो अणुपरियट्टति) any समुद्रनी पीय पा२ मक्षिा (ज तत्थ तणे वा जाव एडेइ एडित्ता जेणेव पासायवडेंसए तेणेव आगच्छ)
પ્રદક્ષિણા કરતી વખતે રાયણ દેવીને ત્યા તૃણુ, કાઈ પત્ર વગેરે જે કઈ પણ લેવામા આવ્યુ તેને ત્યાથી દૂર એકાતમા ફેકી દીધુ ફેકીને તે પિતાના નમ મહેલમાં આવતી રહી
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ज्ञात धर्मकथासूत्रे
साओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं वेति सा साकलुसा ॥३॥ होल - वसुल - गोल - णाह - दइत - रमण - कंत-सामिय-- णिग्विण णिच्छक्क | थिष्ण णिक्वित्र अकयण्णुय सिटिल भाव निलज लुक्ख अक्लुण जिणरक्खिय मज्झं हिययरक्खगा ॥ ४ ॥ हु जुज्जसि एक्कियं अणाहं अवधव तुज्झचलणओवाय कारिय उज्झिउ महणं । गुणसंकर | अहं तुमं विहूणा ण समत्थावि जीविउ खपि ॥ ५ ॥ इमस्त उ अणेगझसमगरविविह सावयसयाउलधरस्स । रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुज्झ पुरओ एहि णियत्ताहि जइसिकुविओ खमाहि एक्कावराहं मे ॥ ६ ॥ तुज्झ य विगयघणविमलस सिमडलागार सस्सिरीयं सारयनवकमलकुमुय कुवलयविमलद्लनिकर सरिसनिभनयणं वयणं पिवासागयाए सद्धा में पेच्छिउ जे अवलोएहि ताइओ मम णाह जो ते पच्छामि वयणकमलं ॥ ७ ॥ एव सध्पणय सरलमहुराइ पुणो२ कलुणाइ वयणाइ जपमाणी सा पावा मग्गओ समपणेइ पावहियया ॥ ८ ॥ तपणं से जिणरक्खिए 'चलमाणे तेणेव भूसणरवेण कण्णसुहमणोहरेणं तेहि य सत्पणय सरल महुरभणिएहि सजायविणराए रयणदीवस्स देवयाए 'तीसे
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सुदरथणजहणवयणकरचरणनयणलावन्नरूवगोठवण
सिरि च दिव्व सरभसउवगूहियाइ विव्वोयविलसियाणि य विहसिय सकडवखदिट्ठनिस्ससियमलियउवललियठियगमणपणयखिज्जियपासाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे
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भूगारधर्मामृतवर्षिणी दो० अ० ९ मा दिवारकघरितनिरूपणम्
ફરવું
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माकन्दिकदारकौ शैलकेन सार्द्ध लवणमुद्र मव्यमध्येन 'वीइत्रयमाणे ' व्यक्त्रि जन्तौ पन्छन्ती पश्यति दृष्ट्वा ' आसुरुत्ता' अशुभता = शीघ्रकुपिता ' असिखेडग ' असिखेटकम्, असिवखङ्ग खेटकथ फलकः ' ढाल ' इति सिद्धः एतयो समाहारेअसिखेटकम् गृह्णाति, गृहीत्वा ' सत्तट्ठजाव ' सप्ताष्ट यावत् सप्ताष्टतालममाणान् गगनभागान् यावद् ऊर्ध्व विहायसि उत्पतति, उत्पत्य तथा उत्कृष्टया देवगत्या यचैव मान्दिकदारकौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यैनमवादीत् - 'हमो' हे मानन्दिक दारकौ !' अप्पत्ययपत्यया ' अप्रार्थितमार्थ कौ= मरणाभिलापिणौ कि खल युना उपयुक्त किया । (पउजित्ता ते मागदियदारए सेलएण सद्धिं लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयमाणे पासइ, पासिना आसुरत्ता असिखेडगं गेइ, गेण्डित्ता सत्त अट्ठ जाव उप्पयइ उप्पहत्ता ताए उट्टिए जेणेव मागदिय० तेणेव उवा० २ एव वयासी हमो माकदिय० अप्पत्ययपत्थिया किरण तुभे जाणह मम विष्पनहाय सेलएण एमविए ) उपयुक्त करके उसने उन माकदीदारकों को शैलक के साथ लवणसमुद्र में होकर ठीक बीचो बीच के मार्ग से जाते हुए देखा। देखकर वहक्रोध सेक्रोधित हो गई । उसने उसी समय अपनी तलवार और ढाल उठा ई । उठाकर वह सात आठा ताल वृक्ष प्रमाण ऊपर की ओर आकाश में उछली । उछलकर फिर वह उत्कृष्टदेव सम्बन्धी गति से चल कर जहा वे माकदी - दारक थे वहां आई । वहा आकर उसने उनसे इस प्रकार कहा । अरे ओ माकदि- दारक' मालूम पडता है तुमलोग अप्राति प्रार्थक बन रहे हो - जिसे कोई भी नही चाहे वह अप्रार्थित मृत्यु
(पउजित्ता ते मागदियदारए सेलएण सद्धिं लवणसमुद्र मज्झ मज्झेण वीहयमाणो पास, पामत्ता, आसुरत्ता आसिखेडग गेण्डर, गेण्डित्ता, सत्तअट्ठ जाव उप्पयइ उप्पयित्ता ताए उक्किट्ठाए जेणेत्र मागदिय तेणेव उना० २ एव वगामी ६ भो मानदिय० अप्पत्थिय पत्थया किष्ण तुम्भे जागह मम निप्पनहाय सेलएण एमविए )
ઉપયાગ કરીને તેણે માકદી દારાને શૈત્રક યક્ષની સાથે લવ સમુદ્રની ઠીક વચ્ચેના માંથી પસાર થતા જોયા જોતાની સાથે જ તે ગુસ્સે થઈ ગઈ તેણે તરતજ પેાતાની ઢાલ અને તગ્વાર હાથમા લીધી લઈને તે સાત આઠ તાલવૃક્ષ જેટલુ આકાશમા ઊંચે ઉઠળી, ઉછળીને તે ઉત્કૃષ્ટ દેવસ ખ શ્રી ગતિથી સર જા માકદી દ્વારા હના ત્યા પહેાચી ગઈ, ત્યા પહેાચીને તેણે તેગ્માને એમ કહ્યુ કે અરે એ ! માકદી દારકા ! મને લાગે છે કે તમે અપ્રા ચિત પ્રાથક ખની રહ્યા છે એટલે કે મૃત્યુ જ એવી વસ્તુ છે કે તેને ઈ
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माताधकथाम यत्रैव पौरस्त्य पनपण्ड यावत्सतः समताद् मार्गगगवेपणां करोति सामान्य विशेषतयाऽन्वेपति, कृत्वा तयोर्माकन्दिकदारयोः कुनापि 'मुटवा' अति वा वाती, 'सुइ पा' क्षुति-तत्सम्बन्धिनी डिकम् , अव्यक्तभापण तचिह्न वा, 'पउत्तिं वा' प्रवृत्ति वृत्तान्त गा ' अलभमाणी ' अलभमाना-अपाप्नुवन्ती सती यौवोत्तरीये-उत्तरदिग्भवे यनपण्डे एवमेर-पूर्वरदेव पाश्चात्येऽपि यारद् अपश्यन्ती 'ओहिं' अवधिम्-अधिशान 'पउज' प्रयुनक्ति व्यापारयति, प्रयुज्य तौ (उवागच्छित्ता ते मागदियदारया, पासायडिसए अपासमाणी, जेणेव पुरच्छिमिल्ले घणसडे जाव सचओ समतामग्गणगवेसण करेइ करित्ता तेसिं मायदियदारगाण कत्या सुइ खुइ वा पत्ति वा अलभमाणी जेभव उत्तरिल्ले वणसडे एवमेव पच्चत्यिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउजइ)वहा आकर उसने उसमें माकदी दारकोंको नही देखा-सो इस कारण वह जहां पूर्व दिशा सन्धी वनपड था वहा आई वहाँ आकर उसने उनकी सघतरफ चारों ओर तपास की मार्गणा गवेषणा कीपरन्तु वहा कही पर भी माकडी दारकों की उसे न कोई बात सुनने में आई और न उनकी चिह्नरूप डीक या अव्यक्त भाषण या कोई विशेष चिह ही देख ने में आया। और न उनकी चहा उसे कोई खबर ही मिली-इस तरह इन सब बातोंको नही प्राप्त करती हुई वह जहा उत्तर दिशा सम्बन्धी वनपड या वही इसी तरह जहा पश्चिम दिशा सिम्बन्धी बनषड या वहा आई वहा कही पर भी उसे उनकी कोई बात वगैरह सुनने में देखने में जब नही आई-तय उसने अपने अवधिज्ञान को
(आगच्छिचा ते मागदियदारया पासायाडिसए अपासमाणी जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसडे जाव सधओ समता मग्गणगवेसण करेइ करिता तेसि मायदियदारगाण कत्थेइ सुइ खुइ वा पउत्ति वा अलभमाणी जेणे उत्तरिल्ले वणसंडे एवमेव पच्चथिमिल्ले नि जाव अपासमाणी ओहि पउजई)
ત્યા આવીને તેણે માક દી દારકોને જોયા નહિ ત્યારે તે પૂર્વ દિશા તરફ વનખડમાં પહોચી ત્યાં તેણે તેની ચોમેર તપાસ કરી, માગણ ગણું કરી પણ માકદી દારકોનો પત્તો મળ્યો નહિ રણુદેવીને માકદી દારકોની વાતચીત પણ સાભળવામાં આવી નહિ તેમજ તેઓની હયાતીના પણ કોઈ ચિલો જેમકે છીક અથવા તે ધીમેથી વાતચીત વગેરે દેખાયા નહિ આ રીતે તે ત્યાથી ઉત્તર દિશા તરફના વનખંડમાં ગઈ ત્યારપછી પશ્ચિમ દિશાના વન ખડમાં તે ગઈ ત્યા- પણ રય દેવીને તેની કોઈ પણ વાતચીત વગેરે સભળાઈ નહિ ત્યારે તેણે પિતાના અવધિજ્ઞાનનો ઉપયોગ કર્યો
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__ अमेगारधर्मामृतवपिणो टो० अ० ९ माकन्दिदारकरितनिरूपणम् ६९ मान्दिकदारको शैलकेन साढे लवणसमुद्र मध्यमध्येन 'वीइवयमाणे' व्यवित्र जन्तीगन्छन्तौ पश्यति, दृष्ट्वा ' आसुरुत्ता' अशुमता-शीघ्रकुपिता 'असिखेडग' असिखेटमम् , असिश्वखड्ग खेटस्श्व फलकः 'ढाल ' इतिपसिद्धः एतयो समाहारेअसिखेटकम् गृह्णाति, गृहीत्वा 'सत्तनाव ' सप्ताष्ट यावत् , सप्ताष्टतालप्रमाणान् गगनभागान् यावद् ऊर्ध्व विहायसि उत्पतति, उत्पत्य तया उत्कृष्टया देवगत्या यौव मान्दिकदारको तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यैरमवादीत्-'हमो' हे माकन्दिक दारको ! ' अप्पत्थियपत्थया' अप्रार्थितपार्यको-मरणाभिलापिणौ कि खल युग उपयुक्त किया। (पउजित्ता ते मागठियदारए सेलएण सदि लवणसमुद्द मझ मज्झेण वीइवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरत्तो असिखेडगं गेपहइ, गेण्डित्ता सत्त अट्ट जाव उप्पयइ उप्पहत्ता ताए उकिट्ठोए जेणेव मागदिय० तेणेव उवा० २ एय क्यासी-भो माकदिय० अप्पत्थियपस्थिया किण्ण तुम्भे जाणह मम विप्प नहाय सेलएण एवमविगए) उपयुक्त करके उसने उन माकदीदारको को शैलफ के साथ लवणलमुद्र में होकर ठीक बीचो बीच के मार्ग से जाते हुए देखा । देखकर वक्रोध से क्रोधित हो गई। उसने उसी समय अपनी तलवार और ढाल उठा ई। उठाकर वह सात आठा ताल वृक्ष प्रमाग ऊपर की ओर आकाश में उछली । उसलकर फिर वह उत्कृष्टदेव सम्बन्धी गति से चल कर जहा वे माकदी-दारक थे वहां आई। वहा आकर उसने उनसे इस प्रकार कहा। अरे ओ माकदि-दारक । मालूम पड़ता है तुमलोग अप्रा. थित प्रार्थक बन रहे हो-जिसे कोई भी नहीं चाहे वह अमोथित-मृत्यु __ (पउजित्ता ते मागदियदारए सेलएण सद्धि रयणसमुद मन्झ मझेण वीइषयमाणो पासद, पामित्ता, आसुरत्ता आसिखेडग गेण्डइ, गेण्डित्ता, सत्तअट्ट जात्र उप्पयइ उप्पयित्ता ताए उक्किट्ठाए जेणेव मागदिय तेणेव उवा० २ एव वयासी ह भो मादिय० अप्पत्थिय पत्थया किष्ण तुन्भे जाणह मम पिप्पनहाय सेलएण एवमपिगए)
ઉપયોગ કરીને તેણે માકદી દારોને શૈક યક્ષની સાથે લવણ સમુદ્રની ઠીક વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થતા જોયા જોતાની સાથે જ તે ગુસ્સે થઈ ગઈ તેણે તરતજ પિતાની ઢાલ અને તરવાર હાથમાં લીધી લઈને તે સાત આઠ તાલવૃક્ષ જેટલું આકાશમાં ઊચે ઉછળી, ઉછળીને તે ઉત્કૃષ્ટ દેવસ બધી ગતિથી સત્વરે જ્યા માકદી દાર હતા ત્યાં પહોંચી ગઈ ત્યાં પહોચીને તેણે તેઓને એમ કહ્યું કે અરે ! માકદી દાર! મને લાગે છે કે તમે અમાથિત પ્રાર્થક બની રહ્યા છે એટલે કે મૃત્યુ જ એવી વસ્તુ છે કે તેને કઈ
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शाताधर्म कथासू
जानीथः - यत् 'मम' मा ' विधजहाय ' निमहाय= परित्यज्य चैकेन यक्षेण सार्द्ध लवगसमुद्र मध्यमभ्येन 'बीईक्यमाणा ' व्यतिननन्तौ सः तद् एवमपि = अनेन पकारेण पक्षपृष्ठावलम्वनेन ' गए' आ गतौ गृह प्राप्तो, इति, युग जानीय तद् भ्रान्तौस्थः । यदि खलु युवा ' ममं ' माम् ' अवयववह' पश्यत ' तो ' तदा 'भे' युनयोरस्ति जीवितम् अथ खलु मा न पश्यत 'तो' तदा 'मे' युवयोः अनेन 'नीलुपलगबल जाव' नीलोत्पलमाल यावन् अतिश्याम सुतीक्ष्ण खड्गेन शिरसा एकान्ने एडेमि = पक्षियामि द्वयोरपि शिरश्छेत्स्यामीत्यर्थ । ततः खलु ता माकन्दिकारको रत्नद्वीपदेवताया अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य अभी तो अनुद्विग्नी, अक्षुधी असम्भ्रान्ती सन्तौ रत्नद्वीपदेवताया एतमर्थ है। उस के भी तुम चाहने वाले हो रहे हो। जो तुमलोग मुझे छोड़कर यक्ष शैलक के साथ लवण समुद्र के बीच से होकर जा रहे हो। तो क्या इस तरह के जाने से तुमलोग हम घर पहुँच गये ? यह मान रहे हो सो यह तुम्हारा भ्रम है । ( जइण तुम्भे मम अवयक्खह तो भे अत्थिजीविय अण णावरखह तो भे इमेग नीलुप्पलगवलजावएडेमि ) यदि तुम मेरी ओर देखो मुझे चाहो तो ही तुम्हरा जीवन बच सकता है-यदि तुम मुझे नहीं चाहते हो मेरी तरफ नही देखते हो तो देखो इस नील कमल तथा महिप के श्रृंगके जैसे वर्णवाली - अतिश्याम सुतीक्ष्ण तलवार से मैं अभी तुम दोनों के मस्तक को छेदकर उसे ऐसे स्थान में डाल दूंगी कि जहा उसका पता भी नही लगेगा। (तएण तें मागदियदारयो रणदीवदेवयाण अतिए एयम सो० णीस० अभीया
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ઈચ્છતુ નથી તેવી મૃ યુ ‘અપ્રાર્થિત’ થયુ અને તે માક દીદાર તને ઈચ્છ નાર થયા કેમકે તમે મને છેડીને યક્ષ શૈલકની સાથે લવણ સમુદ્રની 'વચ્ચે થઇને જઇ રહ્યા છે! તમે અત્યારે એમ સમજી રહ્યા હશે કે અમે હેમખેમ ( સકુરાળ ) પેાતાને ઘેર પહેાચી ગયા છીએ તે તમે ભ્રમમા છે.
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( जण तुभे मम अवयववह तो मे आत्थि जीविय अह णं णात्रयक्खद्द' तो भे इमेण नोलुप्पलगवल जान एडेमि )
જો તમે મને જ ચાહે મનેજ જુએ-તા તમારા છત્રનની સલામતી છે જો તમે મને ઇચ્છતા નથી, મારી તરફ જોતા નથી તેા જુઆ આ નિલંકમળ તેમજ ભેંસના શિંગડા જેવા રંગની ખૂબ જ શ્યામ રંગવાળી તેજ તરવારથી હુ તમારા બનેના માથા કાપીને એવી જગ્યાએ ફેંકી દઈશ કે તેની કોઈને ખબર પણ પડી શકે નહિ
( ते मानदिय दारया रयजदीबदेश्याए जतिए
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
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नो आद्रिये नो परिजानीतः 'नो अवयवखति ' नो पश्यत', 'अणाढायमाणा ' अनाद्रियमानौ = तमर्थं प्रति आदर न कुर्याणौ ' अपरियमाणा' अपरिजानानौ तमर्थमवीण अगवयकाचमाणा ' तत्समुखमप्यपश्यन्तौ शैलकेन यक्षेण सार्द्धं लवणसमुद्र मध्यमध्येन 'वीश्वयति ' व्यक्तिनजत = मुखपूर्वक गच्छतः । तत खलु सारस्नद्वीपदेवता तौ मारुन्दिकदारकौ यदा नो शक्नोति बहुभि पडिलोमे हिय' प्रतिलोमैश्च = प्रतिकूलै रुपसर्गैशालयितु चा क्षोभयितुवा 'विरिणामित्त वा विपरिणामयितु = मनोवृत्ति परावर्त्तयितु 'लोभित्तए वा लोभयितु-लुग्यो बा अतत्था अणुव्विग्गा अक्खुनिया असभता रयणदीवदेवयाए एयमह नो आढति, णो परिणो अवयक्खति अणादायमाणा अपरि० अणवयक्खमाणा सेलएण जक्खेण सद्धिं लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयनि ) इस प्रकार वे माकंदी-दारक रयणा देवा के मुख से इस बात को सुन कर और उसे हृदय में अवधृत कर भयभीत नही हुए त्रस्त नहीं हुए उग्न नहीं हुए क्षुभित नही हुए, सभ्रान्त नही हुए घबड़ाये नहींऔर न उन्हों ने रयणा देवी के इस अर्थ को आदर की दृष्टि से देखा न से स्वीकार किया, और न उस तरफ लक्ष्य ही दिया। इस तरह उस के वचनों का अनादर करते हुए उन्हें स्वीकार नही करते हुए तथा उनकी ओर लक्ष्य नहीं देते हुए वे दोनों उस शैलक पक्ष के साथ लवणसमुद्र के बीच में चलते ही गये ।
(तएण सा रयणदीवदेवया ते मागदिय० जाहे ने सचाएति, पहूहिं पडि लोमेहिं य उवसग्गेहिं य चालित्तए वा खोभित्तए वो विप
riter तथा अणुन्निगा अक्खुमिया असमता स्थणदीन देनपाए एयम नो आढति णो परि० णो अवयक्खति अणाढायमागा अपरि० अगवयक्खमाणा सेल्ए जक्खेण सद्धिं लवणममुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयति )
માકદી દારકાએ રયણા દેવીના મુખેથી આ પ્રમાણે સાભીને અને તેને હૃદયમા ધારણ કરીને ભય પામ્યા નહિ ત્રસ્ત થયા નચિ, ઉદ્વિગ્ન થયા નહુિ ક્ષુભિત થયા નહી સબ્રાત થયા નહિં, ગભરાયા નહિ અને તેઓએ રયણાદેવીના અને ન તે। સન્માનપૂર્વક ોચે અને ન તેના સ્વીકાર કર્યાં તે તરફ તેઓએ સહેજ પણ લક્ષ્ય આપ્યુ નહિ લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને તે બને શૈલક યક્ષની સાથે પેાતાના પથ કાપતા જ ગયા
(तएण सा रयणदीवदेवया ते मागदिय० जाहे णो सवारवि, हुईि पडिलोहि य उवमग्गेहि यचालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तएवा
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वाताधर्मकथा
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तदा मधुरे सिंगारेडिय 'भृङ्गारैः कामरागोत्पादके: ' करणेहिय' करणैः वरुणरसजनकै थोपसर्गेः ' उपसग्गेउ उपसर्गयितुम् = उत्सवथितु प्रवृत्ता चास्यासीत् - हभो देवानुप्रियो मान्दिरुदारकौ । यदि खलु युवाभ्या मया सार्द्ध ' हसियाणिय' हसितानी च ' रमिवाणिय ' रतानि = रमणानि अक्षादिभिद्यूता दिखेलनानि, 'ललिया जिय' ललितानि च ईप्सितानि लील्या भोजनादिरूपाणि 'कीलियाणिय' क्रोडिनानि =जलावगाहनादिरूप क्रीडनानि 'डिडियाणिय'
रिणामित्तए वा लोभित्तए वा ताहे महरेहिं सिंगारेहिं, कल्लुणेहि य उवसरगेर्हि य उवसग्गेड पवत्ता यावि होत्या) इस तरह जब वह रयणा देवी उन माकदी दारकों को प्रतिकूल अनेक उपसर्गों द्वारा चला यमान करने के लिये क्षुभित करने के लिये समर्थ नहीं हो सकी तब उसने काम रागोत्पादक, तथा करुणारस जनक उत्पातों द्वारा उपद्रव करना प्रारंभ कर दिया । ( ह् भो मागदिग्दारगा । जइण तुम्भे हिं देवाणुपिया | मए सद्धिं हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलियाणि य, हिंडियाणि य, मोहयाणि य ताहे ण तुम्भे सञ्चाति अगणेमाणा मम विष्पजहाय सेलएण 'सद्धिं लवणममुह मज्झ मज्झे ण चीवय तरण सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मन ओरिणा आभोए, आभोत्ता एव बधासी) वर करने लगी अरे ओ देवानुप्रिय ! माकीदारकों । यदि तुम दोनों ने मेरे माथ हँसी मजाक किया है, काम सुखों को भोगा है, अथवा अक्षादिकों द्वारा द्यूनादि क्रीडायेंकी है, साथ २ बैठकर इच्छानुसार विविध प्रकार की भोजनादि करने रूप ता नहुरहि सिंगारेहिं कलुणेहि य उवसग्गेर्हि य उवसग्गेउ पवता यानि होत्था ) રયા દેવી માકદી દાગ્યેને આ જાતના ઘન્નુા પ્રતિકૂળ ઉપમગેર્યાંથી વિચ લિત કરવામા કે ક્ષુભિત કરવામા સમથ થઇ શકી નહી ત્યારે તેÌ કામરાગા પાદક તેમજ કરુણારસ જનક ઉત્પાત્તે વડે ઉપદ્રવ શરૂ કર્યો
(ह भो मागदियदारगा ! जइण तुभे हि देवाणुपिया । मए सद्धिं हसियाणिय रमिया णिय ललियाणी कीलियाणि य हिंडयागिय मोहयाणि य ताहेण तु मे सव्वाति अगमाणा मम विप्पनहाय सेलएण सद्धिं स्वगसमुद्द मझ मज्झेण वीइत्रयह तएण सारयणदीव देवया जिणराक्खेयस्समम ओहिणा अभोएइ, आभोत्ता एव वयासी) તે કહેવા લાગી કે હૈ દેવાનુપ્રિયા ! માકદી દારકા ! જો તમે અને મારી સાથે હસી મજાક કરી છે, કામ સુખે ભેળવ્યા છે, અક્ષાદિ વગેરે ક્રીડાએ કરી છે, સાથે સાથે બેસીને મનગમતી અનેક
વડે જુગાર આહાર
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० ९ मान्दिदारकरितनिरूपणम् ६३३ हिण्डितानिच-उद्यानादिपु भ्रमणानि ' मोहियाणिय' मोहितानि च-मोहनानि कामरागजनमहावभावादीनि कृतानि 'ताहे' तदा-ताशे समये एतादृश सुखा नुभवावस्थाया खलु युवा सर्राणि-मया साद्ध हसितादीनि 'अणेगमाणा' अगणयो-अनाद्रियमाणौ 'मम' मा निरापारा 'विप्पजहाय' विप्रहाय-परित्यज्य शैलकेन सार्द्ध लवणसमुद्र मभ्यमध्येन व्यतिबजथः गच्छथ । ततः खलु पुनः सा रत्नद्वीपदेवता जिनरक्षितस्य लघुभ्रातुः 'मण' मना=अन्तः करगम् 'ओहिणा' अवधिना अवधिज्ञानेन ' आभोएह' आभोगपति-पश्यति आभोगयित्वा दृष्ट्वाएसमयदर-नित्यमपि च-पूर्वमपि सदैव च अह जिनपालितस्य-तवज्येष्ठभ्रातुः अनिष्टा, अक्रान्ता, अमिया अमनोज्ञा, अमनोमान्मनः पहिलाऽभवम् , नित्यं च मम जिनपालित:-अनिष्टः, अनान्त', अप्रिय , अमनोर', अमनोऽम =मनःखेदजनक आसीत् । नित्यमपि च खलु अह जिनरक्षितस्य तव इष्टा यावद् मनो ऽमा, नित्यमपि च खलु मम जिनरक्षितस्त्वम् इष्टो यावद् मनोऽम', यदि खलु यथा मा जिनपालितो रुदती, क्रन्दन्ती शोक कुर्वाणा, तिप्पमाणी' तेपमानाम्लीलाएँ ही हैं, जलावगाहनादि रूप नाना प्रकार की चेष्टा की हैं, उद्यान आदिकों में साथ २ भ्रमण किया है, तथा काम राग जनक हाव भाव आदि क्रिया की है तो फिर क्यों अब उन सब हसितादि चेष्टाओं की उपेक्षा करके तुम दोनों मुझे निराधार छोडकर शैलक के साथ लवण समुद्र के बीच से होकर चले जा रहे हो । इस प्रकार कह कर उस रयणा देवी ने जिन रक्षित के अन्तः करण को अपने अवधि ज्ञान के द्वारा देखा-देग्व कर वह फिर इस तरह कहने लगी-(णिच्चपि य ण अह जिणपानियस्त अणिवा ५, णिच्चमन जिगपालिए अणि-नियंपि यण अह जिणरश्वियस्स इट्ठा, निच्चपि ण अह जिगरग्विण इढे ५, जण मम जिणपालिए रोयमाणी, कदाणी सोयमाणी तिप्पमाणी विल वमाणी गोवयम्वद, किण्ग तुम जिणरक्खिपा मम रोयमाणि जाय વગેરે રૂપ લીલાઓ કરી છે, જલાવગાહન વગેરેની ઘણી જાતની ચે એ કરી છે સાથે સાથે ઉઘાન વગેરેમાં ફર્યા છે તેમજ કામરામજનક હાવભાવ વગેરેની કિયાએ કરી છે ત્યારે હવે શું કામ તે બધી હસિતાર ચેષ્ટાઓની ઉપેક્ષા કરીને તેને એકની નિરાધાર બનાવીને રૌલક થક્ષની સાથે લવણસમુદ્રની વચ્ચે થઈને જઈ રહ્યા છે. આ પ્રમાણે કહીને તે રણ દેવીએ છતરક્ષિતના મનને પિતાના અવવિજ્ઞાન વડે જોયું અને જોઈને તે ફરી કહેવા લાગી કે
(णिन्चपि य ण अह जिणपालियस्स अणिहा ५ णि च मम जिणपालिए अणिट्टे निन्चपि य ण अह निगरक्खियस्स इटा निश्च पि य ण मम निणरक्खिए
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marकथा विरहजनितान्यान कुर्मणा, विलपन्तीं पिलाप कुणा 'णावयासह' न पश्यति तथा कि खलु त्वमपि हे निनरक्षित ! मां रुदती यापद पिलपन्ती 'गावयाखति' न पश्यसि ' एप सा रत्नद्वीपदेवता सोपारम्भ वदति स्मेति ।
ततः खलु तदनन्तरम्-भय प्रररितमानस निनरक्षित विज्ञाय सा यद्वदति उद्गाथाष्टकेनाहणावयस्खसि ) यह तो निश्चित है कि में परिले से जिनपालित के लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनोम-मनः प्रतिकूलवा रही हू और जिनपालित भी मेरे लिये सदा अनिष्ट' अकान्त आदि रूप पना रहा है, मैं तो जिन रक्षित के लिये ही सदा इष्ट आदि रूप रही हूँ और जिनरक्षित मेरे लिये इष्ट आदि रूप सदा रहा है तो हे जिन रक्षित ! यदि मुझ रोती हुई आक्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई विरह जनित आर्तध्यान करती हुई और विलाप करती हुई की और जिन पालित नही देखता है तो क्या तुम भी मुझ रोती हुई यावत् विलाप करती हुई की ओर नहीं देखते हो (तएण सा पवररयणदीवस्स देवया ओरिणो जिणरक्खियस्स मण नाऊण वधनिमित्त उरिमागदिय दारगाण दोण्डपि ॥१॥) इस तरह उस रयणादेवी ने ताने मारते हुए जब कहा तर जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। इस स्थिति में जो कुछ उस ने कहा वह मूत्रकार आठ गाथाओं इठे ५, जइण मम जिणपालिए रोयमाणी, कदमाणी, सोयमाणी तिप्पमाणी, विलवमाणी,णावयक्खा,किण्ण तुम जिणराक्खिया! मम रोयमणि जाव णावयक्खसि)
એ વાત તો ચોકકસ પણે કહી શકાય કે હુ શરૂઆતથી જ જીનપાલિતને માટે હમેશા અનિષ્ટ, અકાત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનમ-મનને પ્રતિ કૂળ જ બની રહુ છુ અને જીનપાલિત પણ મારા માટે હમેશા અનિષ્ટ, અકાત વગેરે જ રહ્યા છે હુ તો જનરક્ષિતને માટે હમેશા ઈષ્ટ વગેરે રૂપમાં રહી છુ અને જીનરક્ષિત મારે માટે ઈષ્ટ વગેરે રૂપમાં સદા રહી છે ત્યારે હે જીનરક્ષિત ! મને જે રડતી, આફર કરતી, શેક કરતી, વિરહમાં આર્ત્તધ્યાન કરતી અને આ રીતે વિલાપ કરતી કે જીનપાલિત મારી સામે જોતા નથી તે શુ તમે પણ મને રડતી યાવત વિલાપ કરતી જોતા નથી
(तएण सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा ३ जिणरक्खियमण ना ऊण वधनिमित्त उवरिं मागदिय दारगण दोण्हपि "१"॥)
રયણ દેવીએ એ પ્રમાણે કટાક્ષ યુક્ત વચને કહ્યા ત્યારે જનરક્ષિતનું મન ડગમગવા લાગ્યું આવી પરિસ્થિતિમાં જે કઈ તેણે કહ્યું તે કર આઠ
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अनगारधर्मामतरपिणी टी० अ०९ माकदिवारकचरितनिरूपणम
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सा प्रवर रत्नद्वीपस्य देवताधिना तु जिनरक्खितस्य मनः । ज्ञात्वा वधनिमित्तम्-मारणार्थम् उपरि मान्दिकदारकयो वयोरपि ॥ १ ॥ ' दोसकलिया' द्वेपकलिता-द्वेषयुक्ता 'सलीलय ' सलील-समोड 'नानाविहचुग्गवासमीस' नानाविधचूर्णवासमिश्र नानाविधाः चूर्णवासा'-चूर्णगन्धाः-पिप्टगन्धद्रव्याणि, तैमिश्रा युक्ता दिव्याम् । धाणमनोनितिकरां = वागमनमोस्तृप्तिकरा तादगी सर्वर्त्तकसुरभिकुसुमष्टिं सर्वनस्तुममुत्पन्नमुगन्धितपुष्यदृष्टिं पमुत्रमाणी' प्रमुञ्चन्ती ॥ २ ॥ नानामणिकनकरत्नपाण्टिकाकिङ्किणीनूपुरमेखलाभूषणरण, तत्रनानाविधमणिग्नकरत्नाना घण्टिकाः, किङ्किण्या=युद्रघण्टिका । नूपुर-चरणभूपगम् , मेखलाभूपण-कटिभूपणम् , तेपा रवेण-शब्देन मञ्जुल बनिना दिशो विदिशश्च पूरयन्ती-सशब्द कुन्ती वचनमिद बस्यमाण ब्रवीति सा सकलुपा द्वारा करते हैं-वह प्रवर रत्न द्वीप की देवता अवधिज्ञान से जिन रक्षित के मन को जान कर मारने के लिये उन दोनों माकदी दारकों के ऊपर (दोस कलिया) विटेपवती बन गई (सली रय जाणाचिहचुण्णवास मीस दिव्य ! घाणमणनिव्वुहकर सब्योउयसुरभिकुसुमबुद्धिपमुच माणी २) फिर उस ने उन के ऊपर वडी भारी लीला के साथ नाना विधचुर्णवास मिश्रित एव प्राण और मन को तृप्ति कारक ऐसी दिव्य सर्वऋतु लवन्धी सुरभित कुसुमो की वृष्टि की। (णाणा मणिकणगरयण घटियखिखिणिगेऊर मेहलमूसणरवेण' दिसाओ विदिसाओ पूरयती वयणमिण वेति सा साकलुसाइ ) इस के बाद नाना प्रकार के मणियोंकी, सुवर्गकी एव रत्नोकी घटिकाओके क्षुन घटिकाओंके नूपुरों के कटिभूषण के शब्द से-म जुल आवाज से दिशाओ एव विदिशाओं ગાથાઓ વડે કહે છે-તે પ્રવર રત્નપની દેવતા અવવિજ્ઞાનથી જનરક્ષિતના મનની વાત સમજીને મારી નાખવાના વિચારથી તેઓ બને માત્ર દી દારકે ७५२ ( दोसकलिया) द्वेष रावती थई आई (सलील य णाणाविहचुण्गासदिव्य | घाणमण निव्वुइकर सम्योउय सुरभिकुसुमधुठ्ठि पमुचमाणी २) ५.२ ५७ તેણે તેના ઉપર ભારે લીલાઓની સાથે ઘણી જાતના સુગ ધિત ૨ોંઅને નાક તેમજ મનને તૃપ્ત કરે તેવા દ્રવ્યો અને બધી ઋતુઓના સુગ ધિત પુપિની વર્ષા કરી
(णाणामगिकणगरयणघटियखिखिणिणेऊरमेहलमृसणरवेण । दिमाश्रो विधिसाओ पूरयती वयणमिण वेति सा सास्लुसोइ)
ત્યાર બાદ ઘણી જાતના મણિઓની, સોનાની અને રત્નની ઘટડીઓના. પથરીઓના, સાઝરના, કરાના શબ્દથી માજુલા અવાજથી દિશાઓ તેમજ
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ताधर्मस्थाने सपापा ॥ ३ ॥ तयाहि-दोल! हे मुन्ध !, मुल हे सुकुमार! गोल हे कठोर! हे नाथ ! दयित! हे दयालो ! हे मिय । हे रमग ! हे कान्त ' हे सामिन् ! हे निघृण ! हे स्नेहरहित 1, निछक ! हे अमरज्ञानशून्य ! 'थिण!' हे स्त्यान= हे निर्दयहृदय ! 'णिकिर ' निका! हे निफरुग ! ' अायण्णुय ' अकृत ! हे कृतोपकागनभिज्ञ ! हे कृतः । इत्यर्थः 'सिदिळभार' शिथिलमाव ! हे मन्दभार ! निल्लज्ज ' हे निर्लज्ज ! ' लुक्ख' रूक्ष ! हे प्रेमबून्य ! ' अकलुण' अरुण ! हे निर्दछ ! जिनरक्षित ! मम 'हिययरक्खगा' हदयरक्षक ! हे प्राण रक्षक ! ॥४॥' नहु जुज्जसि' नर युज्यसे नैचाहसि न योग्योऽसि त्वम् एकि काम्-अनाया निराधाराम् , अवान्धवाम् अपहाया तर 'चलण ओबायकारिय' चरणावपातकारिफाणसेविका-माम् 'उज्झिउम्त्यक्तुम् , कयम्भूताम् ? 'अहण्ण' को वाचालित करती हुई उस पापिनी ने इस प्रकार कहा-(रोलवसुलगोलणाह, दहत, पिय, रमण, कत सामिय, णिग्यण णिच्छक, धिण्ण णिकिव अकयण्णुयसिढिलभाव निल्लज्ज-लुख, अकलुण जिणक्खिय मज्झ दिययरक्खगा ४) होल हे मुग्ध ! वस्तुल-हे सुकुमार । गोल-हे कठोर ! हे नाय! दयित-हे दयालों! हे प्रिय! हे रमण, हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निण-स्नेहरहित ! हे निछक-अवसरज्ञान शुन्य ! थिण्ण हे निर्दयह य! हे निष्कृप! हे अकृतज्ञ कृनोपकारानभिज्ञ कृतघ्न-हे शिथिल भाव ! हे निर्लज्ज ! हे रक्ष-प्रेमशन्य, हे अकरूण-निर्दय ! जिन रक्षित! तुम ही मेरे प्राण रक्षक हो अत.-(णहज्जसि एकिय अणाह अपंधव तुज्झ चलण ओवाय कारिय उज्झिा अण्ण गुणसकर! अह तुमे विणा ण समत्था वि जीविउ खण पि ५) तुम्हे मुझ चरण सेविका વિદિશાઓને મુખરિત કરતી તે પાપીણીએ આ પ્રમાણે કહ્યું(होलच पुलगोलणाहदइतपिय, रयत, कत,सामिय,णिग्धणणिच्छक्क ! थिण्णणिविश्व अक्रयण्णुय सिढिलभाव निलज्ज लुख अकलुण जिणरक्खिय मज्झ हिययरक्खगा४)
B-3 भुध!, सुख- सुभार!, स-3 हीर, नाथ ], દયિત-હે દયાલો! હે પ્રિય! હે રમણ ! હે કાન ! સ્વામીન્ ! હે નિઘેણું !
નેહરહિત! હે નિછક્ક-અવસર જ્ઞાન શુન્યશિરણ –હે નિર્દય હૃદય ! હે નિષ્કપ ! હે અકૃતજ્ઞ, કરેલા ઉપકારને નહિ માનનારા, કૃતન-હે શિથિલ ભાવ! હે નિર્લજ! હે રુક્ષ ! હે પ્રમશન, હે અકરુણ-નિય! જનરક્ષિત ! મારા પ્રાણ રક્ષક તમે જ છો એટલા માટે –
(ण हुजसि एक्किय अणाह अबधर तुज्झ चलणओवायगरिय उज्झित अहण गुणसर । अह तुभे विहणाण समत्या दि जीविउ खणपिय)
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १ मामदियदारकचरितनिरूपणम् ६३७ अपन्याम् अपूर्णमनोरथाम् । ' गुणसकर ' गुणसङ्कर-हे गुणसागर ! अह 'तुमे विहगा' त्वयाविहीनाम्वद्वियुक्ता न समर्थाऽपि जीवितु क्षणमपि-वा विना क्षगनपि न जीविष्यामोत्यर्थः ॥ ५ ॥ पश्य, अधुनैव अहम् ' इमस्त उ' अस्य तु ' अणेगझसमगरविहिसारपसयाकुलगिहस्स' अनेकझपमकरपिविपश्वापदशवा कुलगृहस्य अनेके झपाः मत्स्या', मकरा: ग्राहाः, रिधिश्वापदा =नानाविध. हिंसकजलचरजन्तम', तेपा शतानि, तैः आकुल-व्याप्त गृहम् अन्तर्भागो यस्य स तस्य रत्नाकरस्य लवणसमुद्रस्य म ये आत्मान 'वहेमि' हनिरा-नाशयामि तर पुरतः, अत हे जिनरक्षित ! त्यम् एहि-आगच्छ 'णियत्ताहि' निवर्तस्व पुरतोगमनात् , यद्यसि व केनापिकारणेन कुपित , तर्हि 'खमाहि ' क्षमस्व 'एक्का वराह ' एकापरायम्-अज्ञानवशासञ्जातमेकमपरध पे-मम ।। ६ ।। ' तुज्झय' तर को असहाय निराधार अकेली छोड़ना योग्य नहीं है । मेरे अभीतक कोई भी मनोरथ पूर्ण नहीं हुए हैं। हे गुणसागर! मैं तुम्हारे विना १ एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती है । (इमस्त ३ अणेगनसमगर विविद सोवय सयाउलघरम्स । रयणागरस्त मज्झे अप्पाण बहेमि तुज्झ पुरओहिं नियत्ताहि उइसि कुविओ खमाहि एकावराहमे ६ ) देखो मैं इसी समय अनेक प्रकार की-सैकडों मछलियों से मगरो से विविध हिंसक जलचर जन्तुओं से व्याप्त हुए अन्तर्भाग वाले इस समुद्र के बीच में तुम्हारे देखते २ अपने आपको डाल देती है-अतः हे जिनरक्षिततुम आओ-आगे मत घढो, तुम यदि किसी कारण वश मेरे ऊपर कुपित हो गये हो-तो मेरे अज्ञानवश हुए उस अपराधको क्षमा करो। (तुज्झ
મારા જેવી ચરણોની દાગીને અસહાય, નિરાધાર અને એકલી મૂકીને જતા રહેવુ તમારા જેવાને માટે એગ કહી શકાય નહિ હજી મારી એક પણ ઈચ્છા પૂરી થઈ નથી તે ગુણ સાગર ! તમારા વગર એક ક્ષણ પણ હુ જીવી શકુ તેમ નથી ( इमस्त उ अणेगझसमगरनिविहसावयमयाउलधरस्स । रयणागरस्स मञ्झे अपाग वहेमि तुझ पुरओएहिनियताहि जइसि कुविओ खमाहि एक्काबराहमे३)
જુઓ, હું અત્યારે જ ઘણી જાતની સેકડો માછલી, મગરે, ઘણી જાતના હિંસક જળચર પ્રાણીઓથી યુક્ત આ સમુદ્રની વચ્ચે તમારી સામે જ ડૂબી મરૂ છુ માટે હે જીનરક્ષિત તમે આવે, આગળ જશે નહિ ગમે તે કારણથી તમે મારા ઉપર નારાજ થઈ ગયા છે તે મારા અજ્ઞાનથી થયેલી ભૂતને તમે માફ કરો
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जाताधर्म स्थान
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}
सपापा || ३ || तथाहि क्षेत्र 1 = हे मुग्ध, ल= सुकुमार । गोल्= हे कठोर ! हे नाथ ! दयित != हे दयालो ! हे पिय ! हे रमग ! हे कान्त ! हे स्वामिन्! हे निर्घृण हे स्नेहरदिन, निक हे अवमरज्ञानशून्य ! 'थिग !' हे स्त्यान= हे निर्दयहृदय ! ' णिकिन नि का हे निष्करुन !' अरुपण्णुप ' अकृतज्ञ ! हे कृतोपकारानभित! हे कृतघ्न । इत्यर्थः ' सिढिळभान ' शिथिलमा | = हे मन्द भाव ! ' निलज्ज ' हे निर्लज्ज ! ' लुक्ख ' रूक्ष ! = हे प्रेमशून्य ! ' अकलुण अरुण ! - हे निर्दव ! जिनरक्षित | मम ' हिययरक्खगा ' हृदयरक्षक != हे प्राण रक्षक ! || ४ || 'नहु जुज्जसि नत्र युज्यसे नैवार्हसि न योग्योऽसि त्वम् एककाम् - अनाथा = निराधाराम्, अवान्धवाम् = अपढाया तर ' चलण ओवायवारिय ' चरणावपातकारिकारणसेविकानाम् 'उज्झिउत्यक्तुम् कथम्भूताम् ? 'अहष्ण'
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को वाचालित करती हुई उस पापिनी ने इस प्रकार कहा - (रोलवसुल गोलणार, दहत, पिय, रमण, कत सामिय, णिग्घण णिच्छक, धिष्ण निक्किच अकयष्णुयसिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख, अकलुण जिणक्खिय मज्झ हियरक्खगा ४ ) रोल हे मुग्ध ! वसुल - हे सुकुमार । गोल - हे कठोर ! हे नाथ ! दयित- हे दयालों ! हे प्रिय ! हे रमण, हे कान्त ! हे स्वामिन्! हे निर्घुण -स्नेहरहित । हे निछक्क - अवसरज्ञान शून्य | धिष्ण हे निर्दय ! हे निष्कृप! हे अकृतज्ञ कृतोपकारानभिज्ञ कृतघ्न - हे शिथिल नाव ! हे निर्लज्ज । हे रुक्ष-प्रेमशून्य, हे अकरुण-निर्दय ! जिन रक्षित | तुम ही मेरे प्राण रक्षक हो अतः - ( गहुज्जसि एक्किय अणाह अबधव तुज्झ चलण ओवाय कारिय उज्झिउ अण्ण गुणसकर ! अह तुमे विणण समत्था वि जीविउ खण पि ५) तुम्हें मुझ चरण सेविका
વિદિશાઓને મુખરિત કરતી તે પાપીણીએ આ પ્રમાણે કહ્યુ— (होलवपुल गोलणाहदत पिय, रयत, कत, सामिय, णिग्घण णिच्छक ! थिण्णणिविश्व अकण्णुय सिढिलभाव निलज्ज लुक्ख अक्लुण जिणरक्खिय मज्झ हिययरक्खगा ४) होस-डे मुग्ध !, वसुस-डे सुकुमार !, गोल-डे और ', हे नाथ દયિત-હૈ દયાલા ! હું પ્રિય ! હે રમણ ! હું કાત ! હું સ્વામીત્! હું નિર્દેણુ ! स्नेहरहित ! हे निछ- अवसर ज्ञान शून्य थिए-डे निर्दय हृदय ! નિષ્કુપ ! હે કૃતજ્ઞ, કરેલા ઉપકારીને નહિ માનનારા, કૃતઘ્ન-૩ શિથિલ ભાવ 1 ડે નિ`નજ ! હું રુક્ષ ! હું પ્રેમશુન્ય, હું અકરુણ-નિર્દય ! જીનરક્ષિત ! મારા પ્રાણ રક્ષક તમે જ છે! એટલા માટે—
( ण हुज्जसि एक्किय अणाद अवधव तुज्झ चलगओवाय कारिय उज्ज अहम्ण गुणसकर ! अहं तु विहूणा ण समस्या विजीवि खणविय )
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भनगारधामृतवपिणी ० ० ९ मान्दिदारफचरितनिरूपणम् एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'सप्पणयसरलमहुराइ' समणयसरमधुरागि-स्नेहसहित मुखार्थबोधकानि मधुरागि च पुनः पुनः 'क्लुगाइ' करुगानिकरुगरमजनानि 'वयणाइ ' वचनानि 'जपमापणी' जल्पती सा पाश 'मागो' मार्गतः मार्गे इत्यर्थ 'समण्णेड' समन्वेतिरथाद्गच्छति पावहियया' पाप हृदया-कुटिलात करणा का रत्नद्वीपदेवता ॥ ७ ॥
तत खलु स निनरक्षितवलमनास्त नैव भूपणरवेण कम मुखदेन मनोहरेण, तथा तश्चैव सप्रणयमरसमधुरभणितेः सञ्जाताद्विगुणरागा कामरागाकृष्ट सन् रत्नद्वोपस्या देवतायातम्याः सुन्दरस्तननधनवदनकरचरणनयनलावण्यस्पोरनश्यि च दिव्याम् , तया ' सरभसउहियाइ ' सरमसोरहितानि-ससम्भ्रमतारिङ्ग नानि, यानि च ' वियोयविलमियागिय' विमोफ रिलसितानि बोरा मुखकमल को देखलूगी (एव सप्पणयसरलमहराइ पुणो २ कलुणाइ वयणाइ जपमाणी सा पायमग्गओ समण्णेइ, पायरियया ८) इस प्रकार -कुदिलान्तकरणवाली वह रत्नदीपदेवता वार २ स्नेह सहित, सुग्वार्थ योधक, मधुर एव करणारसजनक वचनो को पोलती हुई मार्ग में उसके पीछे २ चलने लगी । (तएण से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूस णरवेण कणसुहमणोहरेण तेहि य सप्पणयसरलमहरभणिएहिं सजाय विणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुन्दरथण नणग्यण कर चरणनयणलावन्नरूपजोन्वणमिरिं च दिव्य सरभसउवगूनियाइ विन्यो य विलसियाणि य विसिय सरडक्रवदिहि निस्ससिय मरिय उवरलिय ठियगमण पणयखिन्जिय पामाइयाणि य, सरमाणे रागमोरियमई अवसे कम्मवसगए अवयस्खति मग्गतो सविलिय) इसके बाद कर्णेन्द्रिय को
(एस सप्पणयसरलमहुराइ पुगो २ क्लुगाइ वयणाइ जपमाणो सो पाव मग्गो स्मण्णेइ पावडियया ८)
આ રીતે કુટિલ હ યગાળી તે ૨ નીપ દેવતા વાર વાર એડમતિ, સુખાર્થે બેધક મધુર અને કરૂણુ-રસજનક વચને કહેતી માગ માં તેને અનું સરતી ચાલવા લાગી
(तएण से निणराक्खिए चलमणे तेणेव भूषणरवेग कममुहमणोहरेण तेहि य सप्पणयसरलमहुरभगिएहिं सतायविणराए रयगदीवस्स देवयाए तीसे सुदरथणजहण वयणकर-चरण-नयण-लावन्नरूप जाब णसिरिंच दिन्य सरभसउवगूडियाइ वियोय ग्लिसियाणि य निहसिय सक्डरख दिहि निस्ससिय मलिय उवल लिय ठियगमण पणयखिज्जिय पासायाणि य सरमाणे रागमोहियमई अरसे कम्मरसगए अवयकावत्ति मग्गवो सविलिय)
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মাথায় च 'विगपघगरिम समिमडलागार ' विगतघनरिमलशशिमण्डलाकारम्-विगत धनं मेघाहितम् अतएव विमल=निर्मल शशिमण्डलम्चन्द्रमण्डल, तस्येवाकारआकृतियत्य तत्तपातम्, सस्सिरीय' सश्रीफ-शोभासम्पन्नम् , ' सारयनवकमल कुमुय कुवलयविमलदलनिगरसरिमनिभनयण शारदनवकमर कुमुदकुवलय विमलदल निकरसदृशनिभनमनम् तत्र शारद-शरत्कालसमुत्पन्न यना नूतन कमल-मूर्यविकाशिपद्म कुवलय चन्द्रविकाशिपम, तेपा विमलदलनिकरः = निर्मल्दलसमूहा, वत्सदृशे-तत्तुल्ये निभे-नितरा दीप्तियुक्ते च नयनेन्नेो यस्मिन् तत् तथोक्तम् , एतादृशशोभासम्पन्न 'वयण' बदन-मुग्चम् , 'पिपासागयाए' पिपासागताया = दर्शनात्मुक्येन समागतायाः श्रद्वा बागा मेन्मम 'पेच्छिउ 'प्रेक्षितु-विलो कितु वर्तते 'जे' यस्मात् 'अलोहि । आगोकय पश्य 'ता' तावत् 'इओ मम' इतो ममम्ममाभिमुख 'णाह' हे नाथ ! 'जा' या यावत्काल ते-तव 'पेन्छामि' प्रेक्षे पश्यामि ‘चयगकमल' बदनकमल-मुख कमलम् , ॥७॥ य विगय घण-विमल-ससिमडरागार सस्सिरीय सारय नवकमल कुमु यकुवलय-विमलदल-निकरसरिस-निभनयण वयण पिवामागयाए सद्धा में पेच्छिउ जे अवरोएहि ताहो ममणाह जा ते पेच्छामि वयण कमल ७) दर्शन की उत्सुकता से आई हुई मेरीइच्छा तुम्हारे मुग्व को देवने के लिये हो रही है। तुम्हारा वह मुग्व मेघ रहित निर्मल चन्द्रमा डल के समान आकृति वाला एक विशिष्ट शोभा सपन है। इसके दोनो नेत्र शरदकालीन नवीन कमल, कुमुद,एव कुवलय के दलनिकर के समान अत्यन्त दीप्ति शाली हैं । सूर्यविकाशीपन का नाम कमल, चन्द्र विकाशी पद्म का नाम कुवलय है। इसलिये हे नाय! इस तरफ तुम मेरी ओर देवो जबतक तुम मेरी ओर देखते रहोगे-तपतक मै तुम्हारे
(तुझ य विगय घगविमलससिमडलागार सस्मिगेय सारय नर कमल कुमुय-कुचलय-विमलदल-निर-सरिस-निभनयण वयण पिवासा गयाए सद्धामे पेच्छिउ जे अवलोएहि ताइओ मम णाह ते पेच्छामि वयण कमल ७)
દનના ઉમળકાથી પ્રેરાઈને આવેલી મારી ઈચ્છા તમારા મુખને જોવાની થઈ રહી છે તમારૂ મુખ મેઘ સહિત નિમા ચ મ ડળની જેમ આકારવાળુ અને સવિશેષ સી દર્ય યુક્ત છે અને નેત્રે શરદ-તુના નવીન કમળ, કસુદ અને કુવલયના દલનિકરની જેમ ઘણુ શુતિમાન છે સૂર વિકાશી પદ્મનું નામ કમળ, ચન્દ્ર વિકાશી પદ્મનું નામ કુવલય છે એટલા માટે હે નાથ ! તમે મારી તરફ જુએ જ્યા સુધી તમે મારી તરફ જતા રહેશે ત્યાં સુધી હું પણ લયા મુખકમળ જોઈ લઈ
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मृतपिणी टी० भ० ९ माकन्दिदारकच रितनिरूपणम्
एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण ' सप्पणय सरलमहुराइ ' सपणय सरलमबुरागि-स्नेहसहित सुखार्थनोधकानि मधुराणि च पुनः पुनः ' कलुगाइ ' क्रुगानि = रुरुगरमजनकानि ' वयणाइ ' वचनानि ' जपमाणी ' जल्पन्ती सा पारा 'मागओ ' मार्गतः मार्गे इत्यर्थ ' समण्णेइ ' समन्वेति = श्वाद्गच्छति' पावहियया ' पाप हृदया=कुटिलान्त करणा का रत्नद्वीपदेवता ॥ ७ ॥
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चत खलु सजिनरक्षितश्चल मनास्तनैव भूषणरवेण कर्मसुसदेन मनोहरेण तथा तैश्चैव समणयसरसमधुरभणितै, सञ्जाताद्विगुणरागः कामरागाकृष्ट सन् रत्नद्वीप - स्या देवतायान्तस्या. सुन्दर स्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यरूपयौवननिय च दिव्याम् तथा ' सरभसाग्रहियाइ ' सरमसोपगूहितानि= ससम्भ्रनकतान्ि नानि यानि च ' विनोयविलमियागिय ' विकसित निबोस मुखकमल को देखलूगी ( एव सप्पणयसरलमहुराइ पुणो २ कलुगाइ चणाइ जपमाणी सा पावमगगओ समण्णेइ, पावहिपया ८) इस प्रकार - कुटिलान्तकरणवाली वह रत्नद्वीपदेवता वार २ स्नेह सहित, सुम्वार्थ वोधक, मधुर एव करणारसजनक वचनों को बोलती हुई मार्ग में उस के पीछे २ चलने लगी । (तण्ण से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूत णरवेण कृष्णसुहमणोहरेण तेहि य सप्पणय सरलनहुर भणिएहिं सजाय विगराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुन्दरथण महणण कर चरणनयणलावन्नरूपजोन्वणसिरिं च दिव्व सरभसज्वगूनियाइ विव्वो
=
विसियाणि० य विहसिय सकडक्खदिट्ठि निस्ससिय मल्पि उवललिय ठियगमण पणयखिज्जिय पामाइयाणि य, सरमाणे रागमोरियमई अबसे कम्म गए अवयक्ग्वति मग्गतो सविलिय) इसके बाद कर्णेन्द्रिय को
( एव सप्पणयसरमहराई पुगो २ कलुगाइ वयणाइ जपमाणी सो पाव मग्गओ समण्णे पात्र हियया ८ )
આ રીતે કુટિલ હું યત્રાળી તે રનદ્વીપ દેવતા વારવાર સ્નેહમતિ, સુખાર્થ બેધક મધુર અને કરૂણા રસજનક ચને કહેતી મામા તેને અનુ સરતી ચાલા લાગી
वरण से निणराखिए चलमणे तेणेव भूरणरवेण कणमुहमणोहरेग तेहि य सम्पणय सरलमहर भगिएहिं सनायनिणराए रयणदीवस देarre तीसे सुदरथणजहण वणकर-चरण- नयण - लागन्नरून जाव णसिरि च दिव्य सरभसउहियाइ विशेय पिलसियाणि० य निहसिय सडक्ख दिवि निस्ससिय मलिय उचलल्य ठियगमण पणयखिज्जिय पासाग्र्याणि य सरमाणे रागमोहियमई असे म्म सगए अवयवत्ति मग्गतो सविलिय )
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माताधर्मकथा स्त्रीचेटा विशेपाः, रिसितानि नेत्रविकारादि रक्षणानि च 'विहमिय मकडकाव दिद्विनिरससियमलिय उपर लियठियगमणपणयखिन्जियपासाइयाणि य' विकसित सस्टाक्षप्टिनिः श्वसितमन्ति पालितस्थितगमनप्रगयखिमित प्रसादितानि चविहसितानि-हास्यानि, सकटाक्षदृष्टया सपिश्लिोग्नानि, नि: श्वसित निः श्वासमोचनम् , मलितं पुरुषामिलपितमर्दनम् , उपललितानि-क्रीडाविशेष रूपाणि, स्थितम् भवननिवसनादिरम्, गमन-हसगत्यासश्चरणम् , प्रणय =स्नेह, वचनम् , खिंसनामफलहः, मसादित-प्रसन्नतारूपम् , एतानि सर्माणि च 'सरमाणे स्मरन्-पुनः पुनः स्मृतिपयमानयन् ‘रायमोहियमई ' रागमोहितमति.. कामरागमून्छित्तमति', 'असे' अवश =विवश कामपराधीन' 'म्मवसगए' फर्मवशगत अर्मगतिपरवशः सन् असौ निनरक्षितस्ता ' अवयक्खइ' पश्यति 'मग्गओ' मार्गत• पृष्टत 'सविलिय ' सनीड-सलज्न दृष्टवानिभ्यर्थ । सुस देने वाले और मन को हरण करने वाले उन्हीं भूषणो के शब्दों से तथा उन्ही सप्रणय सरल मधुर भापणो से जिसका रागभार दीगुणित हो गया है ऐमा वह जिनरक्षित चचल मनबोला बन गया। सो उस रयणादेवी के दोनों सुन्दरस्तनों की दोनों जधनो की, वदन को दोनों करों की दोनो चरणों की, लावण्य की, रूप एच गौरन की दिव्य श्री फा तथा उसके मसभ्रमकृत आलिङ्गने को, विव्योक तथा विलासे का, हास्य का, कटाक्षयुक्तदृष्टि विक्षेप का श्वासमोचन का, पुरुषाभिलषित मर्दन का, क्रीडा विशेषरूप उपललिता का भवनादिका में निवास करने आदि का उसकी इसकी चालके समान गति का, उसके प्रणयवचना का, काम कलह का, उसकी प्रसन्नता का बार २ स्मरण करता हुआ वह काम राग से मोहित मतिवाला बन गया। इस तरह काम से पराधीन
વાર પછી કાનને ગમતા અને મનને આકષનારા ઘરેણાઓના શબ્દોથી તેમજ પ્રણયના સરળ મધુર વચનથી જેને રાગ ભાવ બમણે વધી ગયો છે એ તે જનરક્ષિત ચચળ મનવાળે થઈ ગયે તે રણા દેવીના અને સુંદર સ્તનેનુ, જવનું, વદનનું ને હાથનું, ને ચ નુ, લાવણ્યનું રૂપ તેમજ યૌવનનું, પશ્રીનું, તેને સસ બ્રમકૃત આલિંગનનુ, વિશ્લોકનું વિલ સોનુ, હાસ્યનુ, કટાક્ષયુક્ત દૃષ્ટિ વિક્ષેપનું, શ્વાસ મેચનનુ, પુરૂવાભિલષિત મદનનું, ક્રીડા વિશેષ રૂપ ઉપલપિતાનું ભવને કગેરમા રહેવા કરવાનું તેની હસ જેવી ગતિનું, તેના પ્રણયપૂર્ણ વચનોનું કામકલહનું તેની પ્રસન્નતાનું વાર વાર મરણ કરતે કામરાગથી હિત મતીવાળો થઈ ગયે આ રીતે કામ થયેલ
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मनगारधर्मामृतापिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारफचरितनिरूपणम् ६४१
ततः खलु जिनरक्षित समुत्पन्नकरुणभार ता पति सनातदगाहदयम् , अत एव ' मच्चुगलस्थल्लणोल्लियमइ' मृत्युगलत्यल्लानोदितमति , मृत्युना मृत्युराक्ष सेन 'गल्त्यल्ला'चण्ठग्रहणरूपा, तया नोदिता-स्वदेशगमनवैमुरयतया मृत्यु मुसमवेगसमुग्वीकृता मतिर्यस्य स तपा तम् 'अयपखत ' ता रत्नद्वीपदेवतां पश्यन्त तयैव-तयारूपेणैव यक्षश्च शैठकः 'जाणिऊण ' ज्ञाला 'सणिय२ ' शन शनैः 'उधिहद' उद्विजहाति उच्छाल्यति-'नियगविवाहि' निज पृष्ठाद् निगयसद्ध ' विगतबद्ध विगता=नष्टा श्रद्वा विश्वासो यसवचने यस्य स तम् , स यक्षस्त स्वपृष्टात्पातयामासेत्यर्थः ।
ततः खलु सा रत्नहीपदेवता ' निस्ससा' नृशसा-निर्दया 'कलुण' करणयनीयं जिनरक्षित — सकुलसा ' सकलुपा=कलुपितहदया शैलकपृष्ठात् यना वह विचारा जिनरक्षित अशुभकर्म के चक्कर में पडकर मार्ग में चलते २ उसकी ओर चार २ लज्जा सहित देखने लग गया । (तएण जिणरक्खिय समुप्पन्नकलुणभाव मच्चुगलल्याणोल्लियमइ अवयक्ख त' तहेब जवखे य सेलए जाणिऊण सणि २ उन्विति नियग पिटाहि दिगर सद्ध ) उत्पन्न हुआ है रयगा देवी के प्रति दया भाव जिसको ऐसे उस जिनरक्षित को कि जिस की मति कठ पकड कर मृत्यु रूपी राक्षस ने अपने मुख में प्रवेश के सन्मुग्ध कर ली है रयणा देवी की ओर घार २ निहारता हुआ देग्यकर-जानकर धोरे २ अपनी पीठ पर से अपने वचनों में श्रद्धा वितरीन जान उछाल दिया। पटक दिया (तण्ण सा रयणदीवदेवया निस्ससा कलुण जिणरक्षिय सकलसा सेलगपिट्टाहि બિચારે જનરક્ષિત અશુભ કર્મની લપેટમાં આવીને માર્ગમાં ચલતે ચાલને તેની સામે વાર વાર લજજાયુક્ત થઈને જેવા લાગે (तरण जिगरक्खिय समुपन्नलुगभाव मन्चुगलस्थलणोल्लियमा अश्यक्खत तहेव जक्खे यसेलए जाणिऊण मणियर उबिहति नियग पिट्टाहि विगयसद्ध)
રયણ દેવીના માટે જેના મનમા દયા ભાવ જન્મે છે એવા ને જન રક્ષિતને-કે જેના પતિનું ગળું દબાવીને મૃત્યરૂપી રાક્ષસે ગળી જવા માટે પિતાના મની સામે કરી લીધી છે-૩ણુદેવીની તરફ વાર વાર જોતા જાણીને, તેને (યક્ષના) વચનેમા અશ્રદ્ધાળુ થઈ ગયેલે સમજીને ધીમે ધીમે જીન રક્ષિતને યક્ષે પિતાની પીઠ ઉપરથી ફેકી દીધે પટકી દીધે
(तएण सा रयणादीवदेवया निस्ससा कलुण निणरक्सिय सम्लुसा सेलगपिहाहि ओवयत दास ! मभोसिति जपमाणी अप्पत्त सागरसलिल गेव्हिय वाहादि
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वाताधर्मकथासूत्रे
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स्त्रीचेष्टा विशेषाः, विलसितानि=नेत्रविकारादि लक्षणानि च 'विहमियमरुडकाव दिट्टिनिस्ससियमलिय उवल लियटियगमणपण यखिज्जियपासाध्याणि य' त्रिसित स+टाक्षदृष्टिनिः श्वसितमन्ति पतिस्थितगमनप्रयखिमित प्रसादितानि चविहसितानि= हास्यानि सकटाक्षदृष्टयः सविकारविलोक्नानि निः श्वसित= निः श्वासमोचनम्, मलितं = पुरुषामिलपित्तमर्दनम् उपलन्तिानि = क्रीडाविशेष रूपाणि स्थितम् भवननिरसनादिग्मू, गमन - इस गत्यासञ्चरणम्, प्रणय = स्नेह, वचनम्, खिंसन= रामकलहः, मसादित = प्रसन्नतारूपम्, एतानि सर्वाणि च 'सरमाणे स्मरन = पुनः पुनः स्मृतिपथमानयन् ' रायमोहियमई ' रागमोहितमति. = कामरागमूर्च्छित्तमति', ' अब से ' अवश = विवश कामपराधीन ' ' चम्मच सगए धर्मवशगत =र्मगतिपरवशः सन् असौ जिनरक्षितस्ता ' अवयवखद पश्यति ' मग्गओ ' मार्गत पृष्टत 'सविलिय ' सनीड = सलज्ज हृष्टवानित्यर्थ | सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले उन्हीं भूषणो के शब्दों से तथा उन्ही सप्रणय सरल मधुर भाषणो से जिसका रागभाव द्वीगुणित हो गया है ऐसा वह जिनरक्षित चचल मनवोला बन गया। सो उस रयणादेवी के दोनों सुन्दरस्तनों की दोनों जघनो की, वदन की दोनों करों की दोनों चरणो की, लावण्य की, रूप एव गौवन की दिव्य श्री का तथा उसके ससभ्रमकृत आलिङ्गने का, विव्योक तथा विलासेा का, हास्य का, कटाक्षयुक्तदृष्टि विक्षेप का श्वासमोचन का, पुरुषाभिलषितमर्दन का, क्रीडा विशेषरूप उपललिता का भवनादिका में निवास करने आदि का उसकी इसकी चालके समान गति का, उसके प्रणयवचने। का, काम कलह का, उसकी प्रसन्नता का बार २ स्मरण करता हुआ वह काम राग से मोहित मतिवाला बन गया । इम तरह काम से पराधीन
ભાર પછી કાનાને ગમતા અને મનને આકષનારા ઘરેણાના શબ્દોથી તેમજ પ્રણયના સરળ મધુર વચનાથી જેને રાગ ભાવ ખમણે। વધી ગયા છે એવા તે જીનરક્ષિત ચચળ મનવાળે થઈ ગયા તે રણુ દેવીના અને સુદર શ્વનેનુ, જવનાનુ, વનતુ ને હાથેાનુ, તે ચ ોનુ, લાવણ્યનુ રૂપ તેમજ ચૌવનનુ, બ્યશ્રીનુ, તેના સમ ભ્રમમૃત આલિંગનાનુ, ખ્વાકનુ વિલ સેાનુ હાસ્યનુ, કટાક્ષયુક્ત દૃષ્ટિ વિક્ષેપનું, શ્વાસ મેચનનુ, પુષાભિતિ મંદનનુ, ક્રીડા વિશેષ રૂપ ઉપપિતાનુ ભવનેા વગેરેમા રહેવા કરવાનુ, તેની હાસ જેવી ગતિનુ, તેના પ્રભુ પૂ વચનેનુ કામકલહનુ તેની પ્રસન્નતાનુ વાર વાર મરણુ આ રીતે કામશ થયેલા કરતા કામરાગથી માહિત મતીવાળા થઈ ગયા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
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तत्र 'विन्यमाण' निपात= विलाप कुर्जन्तमित्यर्थ । तस्य च 'सरसवहियस्स' सरसवधितस्य साभिमान वध प्रापितस्य ' वेतूण ' गृहीत्या ' अगमगाउ' जगाङ्गानि अङ्गोपाङ्गानि = ग्चरणमस्तकादीनि समधिराणि= रुविरलिप्तानि ' उक्खित्तनलि ' उत्क्षिप्त लिम् = नामक्षेपणरूप बायसन मिलि ' चउद्दिसि' चतुर्दिक्षु करोति सा 'पजली' प्राञ्जलि' = सयोजित करपुटा 'पहिठ्ठा' प्रहष्टा=दर्पितमनस्का सतीघातरुप स्वाभिलपित कार्य कृतवतीत्यर्थ ॥ म्रु० ७ ॥
,
मूलम् - एवामेव समणाउसो । जो अम्ह निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाण अतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सर कामभोगे आसायइ पत्थयइ पीहेड़ अभिलस से ण इह भवे चेत्र बहूण समणाणं४ जान संसार० अणुपरियहिस्सति, जहा वा से जिणरक्खिए- 'छलिओ अखतो निरावयक्खो गओ अविग्घेण । तम्हा पवयसारे निरावयक्खेण भवियव्व ॥ १ ॥ भोगे अवयक्खता पडति ससारसायरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरति ससारकतार ॥ २ ॥ सू० ८ ॥
टीका- ' एनामेव ' एन=पूर्वोक्तान्तेनैव 'समणाउसो' हे श्रमणा अपने घातरूप अभिलपित कार्य को सपन्न करती हुई वह बहुत अधिक हर्षित हुई । उस रचणादेवी ने माभिमान वध को प्राप्त हुए उस जिन रक्षित के लिए अग उपोगो की चारो दिशाओ में वायस बलि के जैसी बलि की और दोनो हाथो को जोडकर फिर बडी आनन्द मग्न हुई | | ०७॥
'वामेव समणाउसो' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एवामेव ) इसी तरह (समगाउसो ) हे आयुष्मन्त श्रमणो ! કરી નાખ્યા. આ રીતે પેાતાનાં ઘાતકી ઇચ્છા પૂરી કરતા તે અત્યધિક પ્રસન્ન થઈ તે રયણા દેવીએ લેાહીથી ખરડાએલા કડે કકડા થયેલા જીનરક્ષિતના અગા, ઉપાગાને સગવ` ચાર દિશાઓમા કાગડા વગેરેને માટે બિલ રૂપમા ફેકી દીધા અને પછી અને હાથેાને જોડીને તે આન ક્રમગ્ન થઈ ગઈ ? સૂત્ર છા’
( एवा मेव समणाउसो " इत्यादि ॥
टीअर्थ - ( एवामेन ) या प्रमाये ( समणाउसो ) हे आयुष्भन्त श्रभो !
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आताधर्मकथासूत्रे
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' ओवयं त ' अपततम् = स्मृहे पतन्तम्, 'दास' हे दास ! हे नीच ! 'मओमि' सुनोऽसि त्वम् इति उत्पती सती ' अप्पत्त सागरसलिए ' अनाप्त सागरमल्लि समुनीरममाप्तमेन मध्य एन 'गेण्डिया' गृहीया हुभ्याम् | पारमन्त= सकरुण रुदन्त= चीत्कुर्वन्तमित्यर्थः ऊर्जम् ' उच्चि उटिजहाति = उच्चारयति अम्नरतले = गगनतले, ' ओश्यमाण च ' अपतत च पथादध' पतन्त च 'मडल रगेण 'मण्डलाग्रेण = खङ्गेन 'पडिच्छित्ता ' प्रतिच्छिा नीलोत्पल गगलासी प्रकाशेन = अतिशयामेन असिवरेण सुतीक्ष्णसङ्गेन सण्डाखण्डिखण्ड-खण्ड करोति
=
"
ओवयत दास ! मओसिति जपमाणी अप्पत्त सागरसलिल गेण्टिय महाहिं आरसत उड्ड उग्विनि अवरतले, ओवयमाण च मडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पलगवलअयसिप्पमासेण अभिचर्ण खडाख डिं करेइ तत्थ विलवाण तस्स य सरस वहियरम घेत्चूणअग मगाति सरूहिराइ उत्ति बलिं चउद्दिसि करेड मा पजली परिट्टा ) इसके याद नृशस हत्यारी - तथो कलुषित हृदयवाली उस रयणादेवीने शैलक यक्ष की पीठ से समुद्र मे गिरते हुए जिनरक्षित को जप तक वह समुद्र में नही गिर पाया तब तक बीचमें ही अपने दोनों हाथों से पकट लिया और करने लगी हे नीच अन तु मर गयो । इस प्रकार सुनकर सक रूण विलाप - चित्कार करते हुए उम जिनरक्षित को उसने ऊपर उछाल दिया पश्चात् निचे गिरते समय उसने अपनी तलवार से दो टुकडे कर दिये । दो टुकड़े करके फिर उसने नीलेात्पल, गवल एच अतसी के पुष्प के जैसी वर्ण चाली तीक्ष्ण तलवार से उसके ख २ कर दिये। इस तरह आरसत उड्डू उव्विहति अनरतले, ओवयमाण च मडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल गवल अयसिपगासेण असिवरेण खडाखडिं वरेइ हत्थ क्लिवमाण तस्सय सरसव हिस्स पेण अगमगतिं सरूहिराइ उक्खित्त नलिं चउद्दिर्सि करेइ पजली पहिठ्ठा )
ત્યા પછી નૃશ સ-હત્યારી-તેમજ કલુષિત હૃદયવાળી રયણા દેવીએ વેલક યક્ષની પીઠ ઉપરથી ખસીને સમુદ્રમા પડતા જોયે। ત્યારે તે સમુદ્રમા પડે નહિ તે પહેલા તેણે પેાતાના ખને હાથેાથી તેને પકડી લીધા, અને તે કહેવા લાગી કે હું નીચ ! હવે તુ મરાયે જ સમજ ગ્યણા દેવીની વાત સાભળીને જીન રક્ષિત કરૂણ વિલાપ કરવા લાગ્યા તે દેવીએ તે સ્થિતિમા જ તેને ઉપર ઉછાળ્યે અને ત્યારપછી નીચે પડતા જીનરક્ષિતના તેણે પાતાની તલવારથી એ કકડા કરી નાખ્યા એ કકડા કર્યા આ૰ પણ તેને નીનેપલ, ગાલ અને અતસીના પુણ્ય જેવી રગવાળી તીજી તલવારથી તેના શરીરના
કડી
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् तन 'माण' = विलाप कुन्तिमित्यर्थ । तस्य च 'सरसवहियस्म' सरसवधितस्य साभिमान वध प्रापितस्य 'तूण गृहीत्वा ' अगमगाइ' जगाद्वानि अङ्गोपाङ्गानि= स्रचरणमस्तकादीनि समधिराणिरुविरलिप्तानि उक्खित्तनलि ' उत्क्षिप्त लिम्=जागशप्रक्षेपणरूप नायमनलि-मिननलिं ' चउद्दिमिं चतुर्दिक्षु करोति सा 'पजली' प्राञ्जलि = सयोजित करपुटा 'पहिठ्ठा' प्रहष्टा= हर्षितमनस्का सती पातस्प स्वाभिलपित कार्यं कृतवतीत्यये ॥ मु० ७ ॥
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मूलम् - एवामेव समणाउसो । जो अम्ह निग्गंथो वा निग्गंधी वा आयरियउवज्झायाण अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सर कामभोगे आसायइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ से ण इह भवे चैत्र चहूण समणाण४ जाव ससार० अणुपग्विहिस्सति, जहा वा से जिणरक्खिए- 'छलिओ अवयखतो निरावयक्खो गओ अविग्घेण । तम्हा पवयसारे निरावयक्खेण भविय्व्व ॥ १ ॥ भोगे अवयक्खता पति ससारसायरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरंति ससारकत्तारं ॥ २ ॥ सू० ८ ॥
टीका- ' एनामेत्र' एवमेव पूर्वोक्तान्तेनैव 'समणाउसो' हे श्रमणा अपने घातरूप अभिलपिन कार्य को सपन्न करती हुई वह बहुत अधिक हर्षित हुई । उस रचणादेवी ने माभिमान वध को प्राप्त हुए उस जिन रक्षित के लिए अग उपोगो की चारों दिशाओ में वायस बलि के जैसी बलि की और दोनो हाथों को जोडकर फिर बडी आनन्द मग्न हुई || ||म्०७||
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एवामेव समणाउसो' इत्यादि ।
टीकार्य - ( एवामेव) इसी तरह (समणाउसो ) हे आयुष्मन्त श्रमणो ! કરી નાખ્યા. આ રીતે પોતાના ઘાતકી ઇચ્ડ પૂરી કરતા તે અત્યધિક પ્રસન્ન થઈ તે રયણા દેવીએ લેાહીથી ખરડાએલા કડે કકડા થયેલા જીનરક્ષિતના અગે, ઉપાગાને સગા ચાર દિશાએમા કાંગડા વગેરેને માટે લિ રૂપમા ફૂં કી દીધા અને પછી અને હાથેાને જોડીને તે આન ક્રમગ્ન થઇ ગઈ સૂત્ર “७॥” ( एवा मेव समणाउमो " इत्यादि ॥
गार्थ - ( एवामेन ) मा प्रभा] ( समणाउसो ) हे आयुष्भन्त श्रभये 1
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ફાર્મ
माताधर्मकथासूत्रे
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आयुष्मन्तः | योऽस्माक निर्ग्रन्थो या निर्तन्थी ना जाचायीपा पायानामन्तिके प्रव्रजितः सन् पुनरपि मानुष्यकान् कामभोगान=पूर्वत्यक्तान् ' आमायड' आसादयति स्वीकरोति, 'पत्थयह प्रार्थयते = अमाप्तान् याचते, ' पीछेह' स्पृहयतिअयाचित - एवाय मद्य भागान् ददाति तदा समीचीन स्यात् ' इत्यादि रूपां स्पृहा करोति ' अभिलसइ' अभिलपति = दृष्टादृष्टशब्दादि - विषयेषु वाञ्छा करोति, स खलु इह मंत्र एव बहूना श्रमणाना, वीना श्रमणीना, बहना श्रावकाणा बहीना श्रात्रिकाणामध्ये 'जान' यावत् - यान उदेनेद दृश्यम् - हीलनीय, निन्दनीय, विसनीयः = भर्त्सनीयः, गर्हणीय, परिभवनीय = तिरस्करणीयो भवति, परलोकेऽपि च खलु आगमिष्यति काले बहूनि दण्डानि कर्णनासाच्छेदनरूपाणि प्राप्नोति यावत्-अनादिकम् - अनवदग्रग्=अनन्त, दीर्घाधान = दीर्घमार्ग, दीर्घाद्ध वा दीर्घकालिक चातुरन्त ससार कान्तार = चातुर्गतिकससारात्रीम् अणुपरिपट्टि स्सइ ' अनुपर्यटिप्यति=पुनः पुनभ्रमिष्यति, यथा वा स जिनरक्षित' । अत्रार्थे दृष्टान्तयोजनागाथाद्वयेनाह -
( जो अम्ह निग्गथो वा निग्गथी वा आयरियउवज्झायाण अतिए पव्चइए ) जो हमारा निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी जन आचार्य तथा उपा ध्याय के पास प्रब्रजित होता हुआ (पुणरवि माणुस कामभोगे आसायह पत्थइ, पीहेर, अभिलसह ) पुन मनुष्य भव सबन्धी काम भोगों पूर्वत्यक्त वैषयिक सुखो को स्वीकार कर लेता है उनकी चाहना करता है " विना याचना किये ही यह मेरे लिये भोगों को देदेवे तो अच्छा है " इस प्रकार की जो स्पृहा इच्छा करता है, या दृष्टादृष्ट शब्दादि विषयो मे चाञ्छा करता है ( से ण इहभवे चेव बहूणं समणा of ४ जाव ससार • अणु परियहिस्सर जहान से जिणरक्खिए छलिओ
( जो अम्ह निग्गधो वा निग्गथी वा आयरिय उपज्झायाण अतिए पव्वइए ) જે અમારા નિ થ કે નિગ્ન થી જત આચાય તેમજ ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજીત થઇને ( पुणरवि माणुस कामभोगे आसायइ पत्थय, पीहेइ, अभिलसर )
ફરી તે મનુષ્યભવના કામણેગેા-પ્રત્રજીત થતી વખતે છેડેલા મનુષ્યભવના વિષમ સુખાને સ્વીકારે છે, તે સુખાની ઇચ્છા કરે છે. “ હું વિષય સુખની એની ૫ સેથી માગણી કરૂ નહિ ને એની મેળે તે મને વિષમ સુખા આપે તે કેટલુ સારુ થાય ’ આ રીતે જે સ્પૃહા કરે છે, અથવા તે દૃષ્ટાદેષ્ટ શબ્દ વગેરે વિષયેાની ઈચ્છા કરે છે
( सेण इह भवे चेव बहूण समणाण ४ जाव ससार० अणपरियद्विस्सह
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० ९ माफन्दिदारफचरितनिरूपणम् ६४५
"छलिओ अवयकखतो, निगवयकावो गनो अविग्ण । तम्हा पवयणसारे, निरावयस्खेण भपियव्य ॥ १ ॥ भोगे जवयवखता, पडति ससारमायरे घोरे ।
भोगेहिं निरवयक्खा, तरति ससारकतार ॥ २॥" इति ॥ अस्य व्यारया-उलितः पश्चितः, कः ? अवयस्वतो' पश्यन् रत्नद्वीप देनताम्-अवलोकयन् जिनरक्षितो विप्रतारित । य 'निराश्यक्खो ' अपश्यक:तस्या देवताया अदर्शक' ता न दृष्ट्वन्नित्यर्थ', स जिनपालित' गत'-गृह प्राप्त 'अनिग्येण ' अविघ्नेन-निविघ्नतया, सुससुखेन स्वस्थान प्राप्त बानित्यर्थः । अथोपदेशमाह-तस्मात् कारणात् प्रपचनमारे चारित्रे लये मती 'निरवयक्खेण' अवयक्खतो निरावयरखो गओ अविग्घे ण ! तम्हा पवयणसारे निरा वयक्षेण भवियन ) वह इस भर में ही अनेक श्रमणो अनेकअमणि यों अनेक श्रावकों एच अनेक श्राविकाओं के बीच में होलनीय होताहै, निंदनीय होता है, खिंसनीय होता है, तथा परमव में भी अनेक कर्णनासिकाच्छेदन ओदि रूप दडों को भोगता है ऐसा जीव अनादि अनन्त रूप इस दीर्घ मार्ग या काल वाले चतुर्गतिक स सोर कान्तार में पुनः पुन' भ्रमण करेगा । जिन रक्षित का जो इस विषय मे दष्टान्त दिया गया है उसकी योजना इस प्रकार हे-जैसे रयणा देवी की तरफ देसता हुआ जिनरक्षित ठगा गया और उसकी तरफ नहीं देखता जिनपालित शीघ्र अपने घर पहुँच गया-इभी तरह चारित्र के प्राप्त करलेने पर जो व्यक्ति शब्दोदि विपयो की वाञ्छा से रहित होता है जहाव से जिणरक्खिए छलिओ अश्यक्खतो निराश्यक्खो गओ अविग्वेण ! तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण भवियब )
તે આ ભવમાં જ ઘણા શ્રમ અને શ્રમણીઓ તેમજ ઘ| શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓની સામે હીલનીય હોય છે, નિદનીય હોય છે, ખિસનીય હોય છે (ભટ્સનીય હોય છે ) તિરસ્કાર કરવા ગ્ય હોય છે, તથા બીજા જન્મમાં પણ ઘણું કાન, નાક કપાવવા વગેરે રૂપ સજાને ભેગવતો રહે છે આ જાતને જીવ અનાદિ અન તરૂપ આ દીર્ઘ માર્ગ અથવા વાળવાળા ચતુર્ગતિક સંસાર કતારમાં વાર વાર ભ્રમણ કરશે અહી જનરક્ષિત વિશે જે દmત્ત આપવામાં આવ્યું છે તેને આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ જેમ ગ્યણ દેવીની તરફ જોતા જનરક્ષિત ઠગા અને તેની તરફ ન જોતા જીનપાલિત એકદમ પિતાને ઘેર પહોચી ગયે તેમજ ચારિત્ર મેળવવા બાદ જે માણસ શબ્દાદિ ભેગોની ઈરા
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હૃદ્
माताधर्मकथासूत्रे
अपश्य केन = माताप्राप्त - टादृष्टशब्दादि विषयाणामदर्शकेण मन्दादिविषयवाञ्छा रहितेनेत्यर्थ भक्तिव्यम्, चारित्र गृहोला विषयवासना देशतोऽपि मुनिना मूर्छा न विधातव्येति भार ॥ १ ॥ अवर भोगे' भोगान् = शन्दादिकान 'अश्यक्यता ' पश्यन्त तो जीवाः न्ति ससारसागरे घोरे । ये भोगेषु निanta: ' अपश्यायारहिताः सरिते तरन्ति पारयन्ति ससारकान्तार = भादवीम् || २ || मृ० ८ ॥
मूलम् - तएण सा रयणद्दविदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवा० वहूहि अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरमहुरसिगारेहि कल्लुणेहि च उसोहि य जाहे नो सचाएइ चालित्तए वा खोभि० विप्प० ताहे सता तता परितता निव्विण्णा समाणा जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिस पडिगया, तरण से सेलए जक्खे जिणपालिएण साद्ध लवणसमुद्द मज्झमज्झेण वीयवयइ२ जेणेव चपानयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गुजाणसि जिणपालिय पिट्टातो ओयारेइ ओयारिता एव वयासी - एसण देवानुपिया । चपानयरी दीसह त्तिकद्दु जिणपालिय आपुच्छर आपुच्छित्ता जामेव दिसि पाउब्भुए तामेव दिसि पडिगए | सू० ९ ॥
वह इस ससार रूप अटवी से पार हो जाता है और जो उस अवस्था शब्दादि विषय भोगोकी वाञ्छा करता है वह ससार रूप अटवी में डूबता रहता है- पडना रहता है । मूत्र
"
" ८
રાખતા નથી તે આ સસાર રૂપી અટવીની પાર પહોચી જાય છે અને જે શબ્દ વગેરે વિષય–ભેગાની છા કરે છે તે સસાર રૂપી અટવીમા સાઈને તેમા જ રૂમતા રહે છે. સૂત્ર ८ 11
(c 11
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६४७ -
अनगारधर्मामृतयपिणी टोका अ० ९ माफन्दिदारकरितनिरूपणम्
टीका-'तपण सा' इत्यादि । ततः खलु तदनन्तर जिनरवित्तवधानन्तर सा रत्नद्वीपदेवता यत्रैव जिनपालितस्तोवोपागच्छति, उपागत्य बहुभिः-अनुलोमै. अनुकूलैश्च, प्रतिलोमैः-प्रतिकूलेश्च 'खरमहरसिंगारेहि' सरम पुरशृङ्गारैः सरै अर्की , मधुरैः-मिप्टैः कर्णसुखदैरित्य , पृङ्गारैः शृङ्गाररसोत्पादकैः, करुणैश्चरस्णाननकै उपसगैरनुकलरूपैश्च यदा त नो शनोति 'चालित्तए वा' चालयितुम् अधीरतामुत्पादयितुम् , ' बोभित्तए वा सोभयितु सुन्ध कर्तुम् , विपरिणामित्लए' विपरिणमयितुम् मनः परिणाम परामर्तयितु न समर्धाऽभूत् तदा सा ' सता' शान्ता शिथिला हतोत्साहा, बान्ता वा-परिश्रमिता तान्ता=खिन्ना, परितान्ता-सर्वथा खेदमापन्ना 'नधिण्णा' निर्षिगा-रिमन का सती यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता समागता तामे दिश प्रतिगता प्रतिनिटत्ता। तएण सा रयणहीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवा वच्छड इत्यादि। ____टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सारयणदीवदेवया ) वह रयणा देवी (जेणेव जिणपालिए ) जहा जिन पालिन था ( तेणेव उवागच्छद) वहा आई (यहिं अणुलोमेहिं पडिलोमेहिं खरमहरसिंगारेहिं कलुहिं य उवमग्गेहि य जाहेनो मचाहिं चालित्त वा ग्वोभि ० विप्प ० ताहे सतातत्ता परितता निविणा ममाणा जामेव दिसि पाउ तामेव दिस पडिगया ) यहा आकर उन से अनेक अनुक्ल प्रतिकृल, कर्कश, मयुर-कर्ण सुग्बद-गार रसोत्पादक, एव करुणारस जनक उपसर्ग वचनो द्वारा उसे चलायमान करने का क्षुभित करने का और उमकी मोनवृत्ति को यदल ने का वरत प्रयत्न किया परन्तु जर वह उसे चलायमान करने के लिये, क्षुभित करने के लिये एव उस की मनोवृत्ति बदलने के लिये समर्थ नहीं हो सकी नर हतोत्साह परिश्रमित
तएण सा रयणदीपदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उनान्छ. इत्यादि । __ -(तएण) त्या२५छी (सा रयणदीवटेवया) ते २५ वी (जणेव जिणपलिए ) या नामित ना ( तेणेव आगच्छइ ) त्या मापी __(रहहि अणुलोमेहिं क्लुहिं य उवसग्गे हि य जाहे नो सचाएहिं चालित्तए पा सोभिः विप्प ताहे मतातत्ता परितता निविणा समाणा जामेव दिसि पाउ० तामय दिम पडिगया)।
ત્યાં આવીને ઘણા અનુકૂળ, પ્રતિળ, કર્ક, મધુર, કર્ણસુખદ & ગાર રત્પાદક, અને કરૂણું પ્રમજનક ઉપસર્ગ વચને વડે તેને પિતાના નિશ્ચયથી
- • --ના મુક્તિ કરવાના અને તેની મને વૃત્તિને ફેરવી નાખવાના ખૂબજ
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माताधर्मकपास्त्र तत ग्वलु स शैलको यक्षो जिनपोलितेन गई लपणसमुद्र मध्यमध्येन 'वीश्वयइ व्यतित्रमति गछति, व्यतित्रज्य योर चम्पानगगरी तीवोपाग उति, उपागत्य चम्पाया नगर्या ' गुज्माणसि' अग्रोधाने मुख्योद्याने जिनपालित पृष्ठात् अपनारयति, अपनाये-एवमरदत्-एपा-पुरोवर्तिनी खलु हे देवानुपिय ! चम्पानगरी दृश्यते, इनि कृत्वा-उत्युक्त्वा जिनपालिनम् जापुन्छ' नापति सदनुज्ञा हाति,आपउघ यस्याएपहिगः मादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगत सू०९॥ खिन्न, परितान्त एव विमनस्क होता हुई वह जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की तरफ चली गई । (ताण से सेलए जक्से जिणपालिण्ण सद्धि लवणसमुद्द मज्म माझेण वीइवयह २ जेणेव चपा नयरी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गुज्जाणसि जिगपालिय पिट्ठाओ ओयारेइ, ओयरित्ता एव वयासी-एसण देवाणुप्पिया ! दीसइ त्ति क्टूटु जिनपालिय आपुच्छह आपुच्छित्ता जामे दिसिं पाउम्भूए तामेव दिसिं पडिगए) इस के बाद वह शैलक यक्ष लवण समुद्र के बीच में चलने लगा और चल कर जहां चपा नगरी थी-वहा आ पहुंचा आकर के उमने चपा नगरी के प्रधान गीचे में जिन पालित को अपनी पीठ पर से उतार दिया । उतार करके फिर उमने उम से इस प्रकार करा-हे देवानुप्रिय! यह चपा नगरी दिखलाई देती है। ऐसा कह कर फिर उसने जिनपालिन से पूछा-और पूछ कर बर र्जित पिशा से प्रकट हुआ था-उसी दिशा की ओर वहा से चला गया। मूत्र ॥९॥ પ્રયત્નો કર્યા પણ તે ત્યાં ફાવી નહિ છેવટે તે હતાશ, થાકેલી, ખિન્ન, પરિ તાત અને વિમનસ્ક થઈને તે જે દિશા તરફથી આવી હતી તે જ દિશા તરફ પાછી જતી રહી
(तएण से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणमगुद्द मज्झ मज्झेण वीइ वयद२ जेणेव चपानयरी तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गु ज्नाणसि जिणपालिय पिहाओ ओयारेइ, ओयरित्ता एव वयासो एसण देवाणुपिया । चपानयरी दीमइ तिकह जिनपालिय आपुच्छह आपुच्छित्ता जामेव दिसिं पाउन्झए तामेव दिसि पडिगए)।
ત્યાર બાદ તે શૈલક યક્ષ લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને આગળ વધતે જ રહ્યો અને આ તે જ્યા ચ પા નગરી હતી ત્યાં પહો ના પહેચીને ચ પા નગરીના પ્રધાન ઉદ્યાનમા જીનપાલિતને પોતાની પીઠ ઉપરથી નીચે ઉતારી દીધો, ઉતારીને તેણે જીનપાવિતને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! આ સામે ચપા નગરી દેખાય છે ત્યારબાદ યક્ષે જીનપાલિતને જવા માટે પૂછયું અને પૂછીને તે જે દિશા તરફથી આ હને તે જ દિશા તરવું પાછો જતે ? - .
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मतगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
मूलम् - तपणं से जिणपालिए चप अणुपविसड, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे जाव विलवमाणे जिणरक्खियवावत्ति निवेदेइ, तरणं जिणपालिए अम्मापियरो मित्तणाइ जाव परियणेणं सद्धि रोयमाणा वह लोइयाइ मयकिच्चाइ करेति करिता कालेण विगय-. सोया जाया, तएण जिणपालिय अन्नया कयाइ सुहासण वरगत अम्मापियरो एव व्यासी कहण्ण पुत्ता । जिणर - क्खिए कालगए, तएण से जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तार च कालियवायसमुत्थणं पोतवणविवन्ति च,फलहखडआसायणं च रयणदीवत्तार व रयणदीवदेवया गिण्हणं च भोगविभूइ च रयणदीवदेवयाए आघायणं च सूलाइयपुरिसद रिसणं च सेलगजक्खआरुहण च रयणदी वदेवया उवसग्ग च जिणरक्खियविवृत्ति च लवणासमुद्दउ - त्तरणं च चपागमण च सेलगजक्खआपुच्छण च जहा भूयमवितहमसद्धि परिकहेइ, तरणं से जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विपुलाइ भोगभोगाइ भुजमाणे विहरइ । तेण कालेन तेण समएण समणे० समोमढे, धम्म सोच्चा पव्वइए एक्कारसगयी मासिकयाएण सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महानिदे सिज्जिहि । एवामेव समणाउसो । जाव माणुस्सर कामभोए णो पुणरवि आसायइ से ण जाव
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disaster जहा या से जिणपालिए । एव खलु जनू ।
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माताधर्मकथा तत खलु स शैलको यक्षो जिनपोलितेन साई लपणसमुद्र मध्यमध्येन 'वीश्वयइ व्यतित्रनति गछति, व्यतित्रज्य यौर चम्पानगगरी तीवोपागच्छति, उपागत्य चम्पाया नगर्या ' अगुजाणसि' अग्रोधाने-मुग्योद्याने जिनपालित पृष्ठात् अवतारयति, अबतार्य-एवमयदत्-एपा-पुरोपनिनी खलु हे देवानुपिय ! चम्पानगरी दृश्यते, इति कृत्वा उन्युस्त्वानिनपालितम् 'जापुन्छ।' आपृच्छति सदनुज्ञा गृह्णाति,आपृच्छय यस्याएर द्विशः मादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगत । सू०९॥ खिन्न, परितान्त एव विमनस्क होती हुई वह जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की तरफ चली गई । (तरण से सेलए जस्खे जिणपालिएण सद्धि लवणसमुद्द मज्झ मज्झेण वीइवयह २ जेणेव चपा नयरी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गुज्जाणसि जिगपालिय पिट्ठाओ ओयारेड, ओयरित्ता एव चयासी-एसण देवाणुपिया ! दीसइ त्ति क्हु जिनपालिय आपुच्छद आपुच्छित्ता जामेर दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए) इस के बाद वह शैलक यक्ष लवण समुद्र के घीच मे चलने लगा और चल कर जहा चपा नगरी थी-वहा आ पहुँचा आकर के उमने चपा नगरी के प्रधान बगीचे में जिन पालिन को अपनी पीठ पर से उतार दिया । उतार करके फिर उसने उम से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! यह चपा नगरी दिवलाई देती है। ऐसा कह कर फिर उसने जिनपालिन से पूछा-और पूछ कर घर जिस दिशा से प्रकट हुआ था-उसी दिशा की ओर बहा से चला गया। सूत्र ॥९॥ પ્રયત્ન કર્યા પણ તે ત્યા ફાવી નહિ છેવટે તે હતાશ, થાકેલી, ખિન્ન, પરિ તાત અને વિમનસ્ક થઈને તે જે દિશા તરફથી આવી હતી તે જ દિશા તરફ પાછી જતી રહી
(तएण से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुह मज्झ मज्झेण वीइ वयद२ जेणेव चपानयरी तेणे उपागच्छद, उचागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गु ज्जाणमि जिणपालिय पिट्ठाओ ओयारेइ, ओयरित्ता एव क्यासो एसण देवाणुप्पिया । चपानयरी दीमद तिकटु जिनपालिय आपुच्छह आपुच्छित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए)
- ત્યાર બાદ તે શૈલક યક્ષ લવણું સમુદ્રની વચ્ચે થઈને આગળ વધતે જ રહ્યો અને આ તે જ્યા ચ પા નગરી હતી ત્યાં પહો ત્યા પહોચીને ચ પા નગરીના પ્રધાન ઉદ્યાનને જીનપાલિતને પિતાની પીઠ ઉપરથી નીચે ઉતારી દીધે, ઉતારીને તેણે જીનપાવિતને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય આ સામે ચ પા નગરી દેખાય છે ત્યારબાદ યક્ષે જીનપાલિતને જવા માટે પૂછયું અને पूछीनतेरे हिश २५थी मायनी ते or EL त२५ पाrat . ॥
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मनगरघमृतर्पणी टी० म० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
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}
कुर्वन्ति कृत्वा कालेन = कतियय दिवसानन्तरेण विगतशोका. = शोकरहिता जाताः । तव खल जिनपालितम् अन्यदा कदाचित् सुखासन रगत = मुखोपविष्टम् अम्बा पितरौ एवमवादिष्टाम् - कथ = केन प्रकारेण खल हे पुत्र ! जिनरक्षितः फालगतः = मृतः, ततः खलु स जिनपालिताऽम्बापित्रोः - लवणसमुद्रोत्तार च कालिकवातसमुत्थान, पोतवहनव्यापत्ति- नौका मङ्गच, फलकखण्डासादन = फलकखण्डावलम्बन च, रत्नद्वीपोत्तार च, रत्नद्वीपदेवताग्रहण च, भोगविभूर्ति = भोगसम्पत्ति च रत्नद्वीपदेवतायाः ' आघायण आघातन = वधस्थान च, शूलाचित पुरुषदर्शन च शैलकयक्षारोहण च, रत्नद्वीप देवतोपसर्गे च जिनर क्षित विपत्ति= जिनरक्षितमरण लित, और उनके माता पिता ने मित्र जाति यावत् परिजनो के साथ समस्त अनेक लौकिक मृतक कृत्य किये । (करिता कालेण विगय सोया जाया ) याद में जैसे २ समय व्यतीत होता गया वैसे २ ये सब शोक रहित वन गये और फिर बिलकुल शोक शून्य भी हो गये । (तएण जिन पालिय अन्नया कयाह सुहासणवरगय अम्मा वियरो एव वनासी कण्ण पुत्ता जिणरखिए कालगए ) एक दिन की बात है कि जब जिन पालित आनन्द से बैठा हुआ था तन माता पिता ने उस से पूछा पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार से काल कवलित हुआ ? (तएण से जिन पालिए अम्मापिऊण लवणसमुद्दोत्तार च कालियवायसमुस्थण पोतवहणविवन्ति च फलहखडआसायण च रयणदीवुत्तार च रयणदीवदेवया गिण्हण च भोगविभृइ च रयण दोवदेवयाए आधापण च सूलाइय पुरिसदरिसण सेलगजक्ख आरुण च रयण
री ( करिता कालेर्ण विगय सोया-जाया) त्यारगाह प्रेम प्रेम समय पसार થતા ગયા તેમ તેમ તેઓ પેાતાનુ દુખ પણ ભૂલતા ગયા અને છેવટે જીન રક્ષિત વિશેનુ દુખ તેઓના હૃદય પટલ ઉપરથી સાવ ભુસાઈ ગયુ
(तएण जिनपालिय अन्नया क्याइ सुदासणवरगय अम्मापियरो एक वयासी कण्ण पुत्ता जिणरक्खिए कालगए )
જ્યારે એક દિવસે જનપાલિત આનદપૂર્વક બેઠા હતા ત્યારે માતા પિતાએએ તેને પૂછ્યુ કે હે પુત્ર! જીતરક્ષિત કઈ રીતે મરણ પામ્યા છે?
(तरण से जिनपालिए अम्मापिऊण लवणसमुद्दोत्तार च कालियवायसमु स्थण पोतवद्दणविवर्त्तिच फलहरखड आसायग च रयणदीवत्तार च रयणदी देवयागिण च भोगविभूः च रयणदीवदेवयाए आधायण चलाइय पुरिसदरिसण सेलगजक्ख आरुहग च रयणदीन देवया उपसर्ग च जिणरक्खिय
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वाताधर्म कथासूत्रे
समणं भगवया महावीरेणं नवमस्त नायज्झयणस्स अयमट्टे पत्ते तिमि ॥ सू० ९ ॥
॥ नवमं अज्झयण समत्त ॥
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टीका' तएण जिणपालिए ' इत्यादि । ततः खलु जिनपालितबम्पामनु त्रिशति, अनुप्रविश्य यौन as गृह व पितरी कोपागच्छति, उपागत्य अम्नापित्रोः समीपे रुदन् यावद् विपन्= विलाप कुर्वन् जिणरक्षितव्यापति- जिणरक्षितमरण निवेदयति कथयति, ततः खलु स जिनपालिताम्बा पितरौ च मित्रज्ञातियावत्परिजनेन सार्द्धं रुदन्तः सर्वे नहूनि लौकिकानि मतकृत्यानि तएण से जिन पलिए ' इत्यादि ।
"
टीकार्थ - (तण्ण) इसके बाद (से जिनपालिए चप अणुपविसर वह जिन पालित चरा नगरी में अनुप्रविष्ट हुआ । (अणुपविसिप्ता जेणेव सए गेहे जेणेव अम्मा पिय तेणेव उवागच्छ / प्रविष्ट होकर वह जहां अपना घर और उस में भी जहां अपने माता पिता थे वहाँ गया । ( उवागच्छित्ता अम्मापिऊण रोयमाणे जाव विलवमाणे जिणरक्खिय धावन्तिं निवेदेह, तएण जिणपालिए अम्मापि मिलणाइ जाव परियण सद्वि रोयमाणा बहहिं लोइयाइ मयकिचाइ करेंति ) वह जाकर उस ने रोते हुए यावत् विलाप करते हुए माता पिता से जिनरक्षित मृत्यु हो जाने के समाचार कहे । इस के बाद रोते हुए उस जिनपा
की
"
ari से जिनपालिए' इत्यादि
टीडार्थ - (तरण ) त्याश्णा ( से जिनपाढिए चप अणुपविसद्द ) પાલિત ચ પા નગરીમા ગયે
(अणुपविसित्ता जेणेव सए गेहे जेणेव अस्मापियरो तेणेव उपागच्छ ) ત્યા જઈને જ્યા તેનુ ઘર અને તેમાં પણ જ્યા તેના માતાપિતા હતા ત્યા પહેાગ્યે
( उवागच्छित्ता अम्मापिऊण रोयमाणे जाव विलनमाणे जिणरक्खियबावर्त्ति निवेदेश, वरण जिणपालिए अम्मापिउरो मित्तणाइ जात्र परियणेण सद्धिं रोयमाणा बहूहिं लोइयाइ मम किच्चाइ करे ति )
ત્યા તેણે રડતા યાવત્ વિલાપ કરતા પેાતાના માતાપિતાને અનરક્ષિતના મૃત્યુનાં સમાચાર કહ્યા ત્યારપછી જીનપાલિત અને માતાપિતાએએ રડતા મિત્રજ્ઞાતિ યાવત્ પરિજનાને ભેગા કરીને મરણ પછીની બધી `ધિઓ પૂરી
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भनगारधर्मामृतपिणी टी० अ०९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम --६५३ , तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणी भगवान् महावीरः समवसृतः चम्पाया समागतः । जिनपालितो धर्म श्रुत्वा पत्रजित एकादशाङ्गमित्-आवाराङ्गादि शस्त्री ज्ञाननिपुणो जात । मासिक्या सलेखनया काल कृत्वा सौधर्म कल्पे-प्रथमदवलोके ' दो सागरोवमे' द्विसागरोपमक -द्विमागरोपमस्थितिकः देवो जातः । महाविदेहे सेत्स्यति=सिद्धो भविष्यति । एश्मा-अनेनैव प्रकारेण हे अमणा आयुमन्त ! योऽस्माक निर्ग्रन्थो वा यावत् मुत्रजित' सन् मानुष्यकान् कामभोगान परित्यक्तान् नो पुनरपि 'आसायद ' आसादयति-माप्नोति नो सेवत इत्यर्थी, स खलु यावद् 'वीईवइस्सइ' व्यतिप्रजिष्यति व्यतिक्रमिष्यति ससारस्य पार गमिष्यतीत्यर्थः यथा वा स जिनपालितः । इत्थमन दृष्टान्तयोजना- .. को-कोम सुखो को भोगता हुआ अपने समय को व्यतीत करने लगा। (तेणं कालेण तेण समएण समणे० समोस, धर्म सोच्चा पन्चाइए, एक्कारसगवी मासिकयाण्ण सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महाविदेहे सिज्झिदिइ-एवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सए कामभोग णो पुणेरवि आसायह, सेण जाव वीइवइस्सइ, जहा वा से जिणपालिए। एव खलु जवू ! समणे ण भगवया महावीरेण नवमस्म नायज्झयणस्से अयमंटे पण्णत्ते तिमि ) उसी काल और उसी समय में श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में आये। जिन पालित धर्म का उपदेश सुन कर दीक्षित हो गया। ग्यारह अग का धीरे २ वह ज्ञाता भी यन गया। अन्त में एक मास की सलेखना की संलेखना से ६० साठ भक्ती का छेदन कर जर काळ किया-तो प्रथम देवलोक मे दो सागरोपम की स्थिति वालो देव में उत्पन्न हुआ। यह महा विदेह में सिद्धी गति को શમા ભોગવત સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરવા લાગે
(तेण नाटण तेण समएण समणे० समोसढे, धम्म सोच्चा पचाइए एक्कारसगवी मासिकयाएण सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे महानिदेहे सिज्झिहि एवामेव समणासो! जाव माणुस्सए कामभोए णो पुणरवि जासायद, से ण जाव बीदवइस्सइ, जहावा से जिणपालिए । एव खलु जयू | समणेण भगवया महावीरेण नमस्स नायझयणस्स अयम? पण्णत्ते तिमि )
તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ચ પાનગરીમાં આવ્યા જીનપાલિત તેમનો ઉપદેશ સાભળીને દીક્ષિત થઈ ગયે ધીમે ધીમે તેણે અગિયારે અગાનું જ્ઞાન મેળવી લીધુ છેવટે એક માસ થી તેણે સ લેખના કરી સલેખનાથી ૬૦ સાઠ ભક્તોનું છેદન કરીને કાળ કર્યો ત્યારે પ્રથમ દેવલોકમા
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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च, स्वस्य लाणसमुद्रोत्तरण च चम्पागमन पगटत्यचम्पानगरी समागन च कक्षापृच्छन = शैलकयक्षस्य जिनपालित प्रति स्वस्थानगमननिवेदन च एतत्सवै वृत्तान्त'' जहाभूय ' यथाभूत= यथाजातम्, 'अनिवह' अवितय= सत्यम्," अस दिद'' असद-सदेहरहित परिकथयति । ततः सतु स जिनपालितो यावदू ''अपसोए अल्पशोकः = विगतशोक. यावद् विपुलान् भोगभोगान् शब्दादि विषयान् भुञ्जानो विहरति ।
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दीवदेवपाउवसग्ग च जिणरक्खियविवन्ति च त्वणसमुद्द उत्तरण - चपागमण च सेलगजक्स भागच जाभूयमवित हमसद्धि परिक ) तब जिन पालित ने माता पिता से लवणसमुद्र में उतरने से लेकर अचानक कालिक चायुका उठना नौका का नष्ट होना काष्ट फलक का मिलना उसकी सहायता से रत्न द्वीप में उतरना वहा रयणा देवी के द्वारा अपना ग्रहण होना उसके साथ भोग रूप विभूति का भोगना, बाद मे रयणा देवी के वधस्थान का देखना वहा शेलारोपित पुरुष को देखना, शैलक यक्ष की पीठ पर चढना रयणा देवी का उपग करना, जिन रक्षित का मरण होना अपना लवणसमुद्र का पार करना चंपा नगरी में पीछे आना और शैलकयक्ष का पुछ कर अपने स्थान वापिस चले जाना यहा तक का सब वृत्तात जैसा हुआ था ठीक २ विना किसी सदेह के उस ने सुना दिया । ( तएण से जिणपालिएँ जावे अपसोगे जाव बिउलाइ भोग भोगाइ भुजमाणे विहरइ ) इसे के याद शोक रहित बना हुआ वह जिनपालित विपुल शब्दादि विषयों विवर्त्ति चं लवणसमु उत्तरण च चपागमण च सेलगंजक्खआपुच्छृणं च जहा भूमंत्रितमसद्धि परिहेर )
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ત્યારે જીનપાવિતે માતાપિતાને લવણુ સમુદ્રમા યાત્રા કરતી વખતે એચિતા પર્વનની અથડામણથી નાવ ડૂબી જવાના અકસ્માતથી માડીને લાક ડાની સહાયતાથી રત્નદ્વીપના કિનારા સુધી પહાચવુ રયણા દેવીની લપેટમા સાવવુ, તેની સાથે કામ ભોગે ભગવા, રયણા દેવીના વધથાનને તૈયુ, શૂળી ઉપર લટકતા માણસને જોવુ, એક યક્ષનાં પીઠ ઉપર બેસવુ, રયણા દેવીના ઉત્પાત કરવા, જીનરક્ષિતનુ મરણુ થવુ સકુળ પેાતાની લવણુ સમુદ્ર યાત્રા પૂરી કરવી, ચ પા નગરીમા આવુ અને કૌતક યક્ષનુ તેને પૂછીને ફ્રી રત્નદ્વીપ તરફ રવાના થવું અહીં સુધીની એકે એક વાત તેણે કહી સ ભળાવી (तएण से जिणपा लिए जान अप्पसोगे जाव चिउलाइ भोगभोगा, भुजमाणे विहर () ત્યારબાદ નિશ્ચિત થયેલા જીનપાલિત શખ્ત વગેરે વિષયાને
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ०९ माफन्दिदारकचरितनिरूपणम . .-६५३ । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अमणो भगवान् महावीरः समस्त चम्पाया समागतः । जिनपालितो धर्म श्रुत्वा मजित एकादशाङ्गमित्भाचाराङ्गादि शस्त्रा ज्ञाननिपुणो जात । मासिक्या सलेखनया काल कृत्वा सौधर्मे क्ल्पे-प्रथमंदलोके दो सागरोवमे' द्विसागरोपमक =द्विमागरोपमस्थितिकः देवो जातः। महाविदेहे सेत्स्यति=सिद्धो भविष्यति। एवमेा-अनेनेच प्रकारेण हे श्रमणा आयु मन्त ! योऽस्माक निर्ग्रन्थो वा यावत् मुत्रजितः सन् मानुष्यकान् कामभोगान् परित्यक्तान् नो पुनरपि 'आसायड ' आसादयति प्राप्नोति नो सेवत इत्यर्थः, स खलु यावद् 'चीईवइस्सइ' व्पतित्रजिष्यतिव्यतिक्रमिष्यति ससारस्य पार गमिष्यतीत्ययः यथा वा स जिनपालितः । इत्थमन दृष्टान्तयोजना- . को-काम सुखो को भोगता हुआ अपने समय को व्यतीत करने लगा। (तेण कालेण तेण समएण समणे० समोस, धर्म सोच्चा पम्वाइए, एक्कारसगवी मासिकयाएण सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महाविदेहे सिज्झिहिइ-एवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सए कामभोग जो पुणेरवि आसायइ, सेण जाव वीइवहस्सइ, जहा वा से जिणपालिए! एव खलु जबू! समणे ण भगवया महावीरेण नवमस्म नायज्झयणस्से अयमढे पण्णत्ते तिमि ) उसी काल और उसी समय में श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में आये। जिन पालित धर्म का उपदेश सुन कर दीक्षित हो गया। ग्यारह अग का धीरे २ वह ज्ञाता भी धन गया। अन्त में एक मास की सलेखना की सलेग्वना से ६० साठ भक्तो का छेदन कर जर काल किया-तो प्रथम देवलोक मे दो सागरोपम की स्थिति वालो देव में उत्पन्न हुआ। यह महा विदेह में सिद्धी गति को ણમા ભગવતે સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરવા લાગે
(तेण कालेण तेण समएण समणे० समोमढे, धम्म सोच्चा पब्वाइए एका रसगवी मासिकयाएण सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे महानिदेहे सियिहिंडएवामेव समणासो ! जाव माणुस्सए काममोए जो पुणरवि आसायद, से ण जाव चीदवइस्सइ, जहावा से जिणपालिए । एव खलु जयू ! समणेण भगवया महावीरेण नमस्म नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते तिमि )
તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ચ પાનગરીમાં આવ્યા ઇનપાલિત તેમનો ઉપદેશ સાભળીને દીક્ષિત થઈ ગયે ધીમે ધીમે તેણે અગિયારે અગેનું જ્ઞાન મેળવી લીધુ છેવટે એક માસની તેણે સ લેખના કરી સલેખનાથી ૬૦ સાઠ ભક્તોનું છેદન કરીને કાળ કર્યો ત્યારે પ્રથમ દેવલોકમાં
સાગરોપમની સ્થિતિવાળા દેવ તરીકે તે ઉત્પન્ન વયે ભવિષ્યમાં તે મહા
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श्राताधर्म कथासूत्रे
यथा लाभार्थिनी णिजी तथा शिवसुग्वार्थिनौ जीवौ । यथा समुद्रयात्रा तथा ससारयात्रा यथा रत्नद्वीपदेवता महापापा तथा अविरति रापातसुखा परिणामदुःखा । यथा आघात स्थानमय तथा जन्ममरणभयम् । यथा रत्नादेवी चरितानुभवी थूलारोपित पुरुषस्तथा अविरति परिणामबोधक भयम् । यथा देवीहस्ता निस्तारकः शैलकयक्षस्तथा धर्मोपदेशकोऽत्राविरतिपरिणामजनित को प्राप्त करेगा । इस तहर हे आयुष्मत श्रमणो । जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण अथवा निग्रन्थ श्रमणी जन यावत् प्रवजित होता हुआ परित्यक्त मनुष्य भव सबन्धी कामभोगों का पुनः सेवन नहीं करता है वह जिन पालित की तरह इस ससार के पार पहुँचेगा । दृष्टान्त की योजना यहा इस प्रकार से कर लेनी चाहिये जिस प्रकार लाभ के अर्धी वणिक् जन होते हैं उसी प्रकार शिव सुख के अर्थी जीव होते हैं । जिस प्रकार समुद्र यात्रा है उसी प्रकार ससार यात्रा है । समुद्र यात्रा में जैसे पापिनी रयणा देवी का मिलाप हुआ उसी प्रकार इस ससार यात्रा में आपात सुख दायक और परिणाम में दुखदायक अविरति का जीवों को समागम हो रहा है । वहाँ जैसे वध्यस्थान का मय जिन पालित एव जिन रक्षित को हुआ, उसी तरह इस ससार यात्रा में भी प्रत्येक जीव को जन्म मरण का भय लगा हुआ है। जिस प्रकार रयणा देवी के चरित का अनुभवी वह शूलारोपित पुरुष हमें यहा दिखाई देता है इसी प्रकार यहा भी अविरति के परिणाम का वोधक भय हमें सतत सचेत करता વિદેહમા સિદ્ધિ ગતિ મેળવશે. આ રીતે હૈ આયુષ્પત શ્રમણા ! જે અમાશ નિગ્રંથ શ્રમણ અથવા નિ થ શ્રમણીજને પ્રત્રજીત થઈને દીક્ષા વખતે ત્યજેલા મનુષ્ય ભવ સ બધી કામલેગેનુ ફ્રી સેવન કરતા નથી તે જીનપાલિતની જેમ આ સ સારને પાર થશે. આ દૃષ્ટાતને અહીં આ રીતે એમાડવુ જોઈ એ કે જેમ વણિકજના ( વેપારીઓ) લાભને ઈચ્છનારા હાય છે તેમ શિવસુખને ઈચ્છ નારા જીવા હાય છે સમુદ્ર પાત્રાની જેમ જ આ સસાર યાત્રા પણ છે સમુદ્ર યાત્રામા જેમ પાપણી રયણા દેવી મળી તેમ આ સ સાર યાત્રામા શરૂ આતમા સુખદાયક અને પરિણામમા દુખદાયક અવિરતિને સમાગમ જીવને થતા રહે છે. વધસ્થાનમા જેમ જીનપાલિત અને જીનરક્ષિત ભયંત્રસ્ત થયા તેમ આ સસાર યાત્રામા પણુ દરેકે દરેક જીવને જન્મ-મરણની ખીક રહે છે જેમ રયણા દેવીના ક્રૂર વ્યવહારને અનુભવનારા શુળી ઉપર લટકતે માણુસ તેમણે જોયે તેમ આ સ સારમા પણુ અવિરતિના પરિણામને બેધક ભય માપશુને સતત સાવધ કરતા રહે છે જેમ દેવીની લપેટમાથી મુક્ત કરનાર શૈલક પક્ષને
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माफन्दिदार कचरितनिरूपणम्
दुःख निस्तारको गुरुः । यथा देवीमोहिवर्जिनरक्षितस्तथा-अविरतिमोहितमतिनिः । यथा शैलकरूपाश्वपृष्टच्युतो जिनरक्षिवस्तथा गुरूपदिष्टज्ञानादिपश्चाचार भ्रष्टो मुनि । यथा रत्नादेव्या तीक्ष्णकरवालेन गगने खण्डशः कृत तदङ्ग परितः प्रक्षिप्त नानाविधमकरादि श्वापदसकुले समुद्रे पतति तथा अविरत्या विपमपरिणामेन नरकावा से खण्डशः कृत शरीरमनुभवन्नमौज मजरामरणाद्यनन्तदुःखसमाकुले ससारे निपतति । यथा देवी कृतोपसँगैरक्षुब्धो जिनपालितः स्वस्थान जीवितरहता है। जिस प्रकार देवी के हाथ से छुडाने वाला वहां शैलक यक्ष कहा गया है इसी प्रकार यहा भी धर्म के उपदेशक एव अविरति परिणाम जनित दुःखसे निस्तारक ये गुरुजन प्रकट किये गये हैं। जिस प्रकार जिन रक्षित देवी के द्वारा मोहित किया गया हमें कहो गया है उसी प्रकार यहा भी अविरति के द्वारा मोहित मुनिजन समझाये गये हैं । जिस प्रकार शैलक रूप अश्व की पीठ पर से जिन रक्षित च्युत हुआ प्रकट किया गया है उसी प्रकार गुरूपदिष्ट ज्ञानादिक पांच आचार से भ्रष्ट बना हुआ मुनि यहा हमे समझाया गया है । जिस प्रकार रत्ना देवी की तलवार से खड २ किये गये जिन रक्षित के अग उपाग इधर उधर प्रक्षिप्त होकर नाना विध मकरादिश्वापद से सकुल हुए समुद्र में गिरे हैं उसी प्रकार अविरति के विषम परिणाम से नरकावास में खड २ किये गये शरीरका अनुभव करतो हुआ भी यह जीव जन्म, जरा, और मरण, आदि अनन्त दुःखो से व्याप्त हुए ससार में पतित होता है । जिस प्रकार रयणा देवी कृत उपसर्गों से अक्षुब्ध
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આપણે જોયા તેમ અહીં પણ ધર્મના ઉપદેશક અને અવિરતિ પરિણામ જનિત હું ખમાથી મુક્ત કરનારા ગુરૂજને પ્રગટ કરવામા આવ્યા છે જેમ દેવીના મેહવાશની લપેટમા પટેલેા જીનરક્ષિત છે તેમજ અહીં પણ અવિરતિ વડે માહિત થયેલા મુનિએ જોવામા આવે છે જેમ રૌલક યક્ષ રૂપી ઘેાડાની પીઠ ઉપરથી ખસી પડેલા છતરક્ષિતનુ વણુ ન ઉપર પ્રગટ કરવામાં આવ્યુ છે તેમજ આ સસારમા પણુ ગુરૂપદિષ્ટ જ્ઞાન વગેરે પાચ આચારાથી ભ્રષ્ટ થયેલે મુનિ સમજવા જોઈએ. જેમ રત્નાદેવીની તલવારથી કકડા થયેલા જીનરક્ષિતના અ ગે ઉપાગા ઘણી જાતના મગર વગેરે જીનેાથી વ્યાપ્ત સમુદ્રમા આમતેમ ફેકવામા આવ્યા છે તેમ જ અવિનતિના વિષમ પરિણામથી નરકવાસમા શરીરના કકડાએ કરવામા આવે છે છતાએ તે દુઃ ખને અનુભવતા આ જીવ જન્મ, જરા (ઘડપણુ) મરણ વગેરે અનત દુખાથી વ્યાસ થયેલા આ સ સારમા ફરી આવી પડે છે જેમ રયણા દેવીના ઉપસર્ગાથી અક્ષુબ્ધ થઈને જીનપાલિત પાતાને ઘેર સકુશળ
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वाताधर्मकथा
यथा लाभार्थिनी वणिजी तथा शिवसुग्वार्थिनो जीवौ । यथा समुद्रयात्रा aur ससारयात्रा यथा रत्नद्वीपदेवता महापापा तथा अविरति रापावसुखा परिणामदुःखा । यथा आघातस्थानभय तथा जन्ममरणभयम् । यथा रत्नादेवी चरितानुभवी शूलारोपित पुरुपस्तथा अविरति परिणामनोधक भयम् । यथा देवीस्ता निस्तारकः शैलकयक्षस्तथा धर्मोपदेशकोऽत्राविरतिपरिणामजनित को प्राप्त करेगा । इस तहर हे आयुष्मत श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण अथवा निग्रन्थ श्रमणी जन यावत् प्रवजित होता हुआ परित्यक्त मनुष्य भव सबन्धी कामभोगों का पुनः सेवन नहीं करता है वह जिन पालित की तरह इस संसार के पार पहुँचेगा । दृष्टान्त की योजना यहा इस प्रकार से कर लेनी चाहिये जिस प्रकार लाभ के अर्थी वणिक् जन होते हैं उसी प्रकार शिव सुख के अर्थी जीव होते हैं। जिस प्रकार समुद्र यात्रा है उसी प्रकार ससार यात्रा है । समुद्र यात्रा में जैसे पापिनी रयणा देवी का मिलाप हुआ उसी प्रकार इस ससार यात्रा में आपात सुख दायक और परिणाम मे दुःखदायक अविरति का जीवों को समागम हो रहा है । वहाँ जैसे वध्यस्थान का मय जिन पालित एव जिन रक्षित को हुआ, उसी तरह इस ससार यात्रा में भी प्रत्येक जीव को जन्म मरण का भय लगा हुआ है। जिस प्रकार रयणा देवी के चरित का अनुभवी वह शूलारोपित पुरुष हमे वहा दिखाई देता है इसी प्रकार यहां भी अविरति के परिणाम का वोधक भय हमें सतत सचेत करता વિદેહમા સિદ્ધિ ગતિ મેળવશે. આ રીતે હું આયુષ્પ્રત શ્રમણે ! જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણ અથવા નિગ્રંથ શ્રમણીજનેા પ્રત્રજીત થઈને દીક્ષા વખતે ત્યજેલા મનુષ્ય ભવ સ મ ધી કામલેગાનુ ફ્રી સેવન કરતા નથી તે જીનપાલિતની જેમ આ સસારને પાર થશે આ છાતને અહી આ રીતે બેસાડવુ જોઈ એ કે જેમ વણિકજના ( વેપારીએ ) લાભને ઈચ્છનારા હૈાય છે તેમ શિવસુખને ઈચ્છ નારા જીવા હાય છે સમુદ્ર યાત્રાની જેમ જ આ સ સાર યાત્રા પણ છે સમુદ્ર યાત્રામા જેમ પાપણી રયણા દેવી મળી તેમ આ સ સાર યાત્રામા શરૂ આતમા સુખદાયક અને પિરણામાં દુખદાયક અવિરતિને સમાગમ જીવને થતા રહે છે. વધસ્થાનમા જેમ જીનપાલિત અને જીનરક્ષિત ભયંત્રસ્ત થયા તેમ આ સસાર યાત્રામા પણ દરેકે દરેક જીવને જન્મ-મરણની બીક રહે છે જેમ રયણા દેવીના ક્રૂર વ્યવહારને અનુભવનારા શૂળી ઉપર લટકતા માજીસ તેમણે જોયે તેમ આ સ સારમા પણુ અવિરતિના પરિણામને બેધક ભય આપણને તત સાવધ કરતે રહે છે. જેમ કેવીની લપેટમાથી મુક્ત કરનાર રોલક યક્ષને
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अथ दशममध्ययनम् प्रारभ्यते ।
गत नवमम - ययनम्, साम्प्रत दशममारभ्यते, तस्य पूर्वेण सहाय सम्बन्ध:पूर्वमविरति - विरतिमतोनिलाभो मोक्तौ, अनतु ममादाप्रमादवतोर्गुणहानि - तद् वृद्धिरूपावनर्थाथवर्णयति, तन जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिन पृच्छति - 'जण भते ' इत्यादि ।
मूलम् - जइण भते । समणेणं० णवमस्स णायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते दसमस्स के अट्टे० १, एव खलु जबू | तेणं कालेण तेण समएणं रायगिट्टे नगरे सामी समोसढे गोयमसामी एव वयासी - कहण भते । जीवा वढति वा हायंति वा ?, गो० । से जहा नामए बहुलपक्खस्स पाडिवयाचदे पुण्णिमा - चंद पणिहाय होणो वष्णेण हीणे सोम्मयए हीणे निद्धयाए
दशम अध्ययन प्रारंभ ।
नौवा अध्ययन समाप्त हो चुका अब दशमा अध्ययन प्रारंभ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार सबन्ध है - पहिले अविरति वाले को हानि एव विरति वाले को लाभ की प्राप्ति होना कहा गया है अब इस अध्ययन में यह कहते हैं कि जो प्रमादि होता है उसके गुणों हानि होती है, और जो अप्रमादी होता है उस के गुणों की वृद्धि होती है । इस तरह गुण हानि और तद् वृद्धि रूप अर्थ अनर्थ का वर्णन सूत्रकार इस अ ययन में कर रहे है । जबू स्वामी इसी बात को श्री सुधर्मा स्वामी से पूछ रहे हैं ।
દશમું અન્યયન પ્રારભ
નવસુ અધ્યયન પુરૂ થયુ છે અને હવે દશમું અ યયન પ્રારંભ કરીએ છીએ દશમા અધ્યયનનેા એના પહેલાના અયન સાથે આ પ્રમાણેને સબધ છે—પહેલાના અધ્યાનમા અવિરતિવાળાને નેિ ( નુકસાન ) અને વિરતિવાળાને લાભની પ્રાપ્તિ થાય છે તેમ દર્શાવવામા આવ્યુ હવે આ અધ્યયનમા એ વાત સ્પષ્ટ કરવામા આવશે કે જે પ્રમાદી હોય છે તેના શુષ્ણેાને હાનિ પહેાચે છે અને જે અપ્રમાદ હાય છે તેના ગુણે। વૃદ્ધિ પામે છે આ રીને સૂત્રકાર આ અયનમા શુષ્ણેાની હાની અને ગુણાની વૃદ્ધિરૂપ અર્થ અનનુ વણું ન કરી રહ્યા છે. જ સ્વામી સુધર્માસ્વામીને એ જ વાત પૂછી રહ્યા છે—
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हाताधर्मकथा सुख चै माप्तः सन् पश्चान्मोपदगाम्यमात् , तया-अविरति कृतोपसगैरक्षुधे संसदमी-मुनिर्मोक्षस्थान शिवसुख च प्राप्स्यतीति । . एव खलु हे जम्बू ! अमणेन भगवता महावीरेण नवमस्य ज्ञाता प्रयनस्य अय-पूर्वोक्त अर्थः भावः प्रजातापित । तिनेमि इतितीमि पूर्ववत् ।मू०१९।। इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूगलभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाफलितललितकलापागप-मविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-पादिमानमर्दर-श्रीशाहूच्छ पतिकोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराज गुरु-गालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिराकरपूज्यश्री-बासीलार
प्रतिविरचिताया · ज्ञाताचर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतवः । - - पिण्याख्याया व्यारयाया नवममभ्ययन ,सपूर्णम् ॥९॥ बनी जिन पालित अपने स्थान पर मऊशल लौट आया और वहा उस 'ने अपने जीवन का सुख भोगा-पश्चात् वही मोक्षपद गाभी भी हुआ उसी तरह अधिरति कृत उपप्तर्गों से अक्षुब्ध ना हुआ सुसयमी मुनि मोक्ष स्थान को प्राप्त कर शिव सुख को भोक्ता घनेगा । इस प्रकार हे जबू! श्रमण भगवान महावीर ने इस नवम ज्ञाता ययन का यहुपूर्वोक्त रूप से अब प्रतिपादित किया है । उसी के अनुसार यह मेने तुम्हें समझाया है । सूत्र.॥ १० ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का नववा
अध्ययन समाप्त.॥ ९॥
પાછા આવ્યું, ત્યાં તેણે સુખેથી પિતાના દિવસે પસાર કર્યો અને છેવટે મણ મેળવ્યું તેમજ અવિરતિકૃત ઉપસર્ગોથી નિભીક થયેલ સુસયમી મુનિ મોક્ષ સ્થાનને મેળવીને શિવમુખને 3 ભેગ કરશે આ રીતે હે જ બૂ! શ્રમણભગવાન મહાવીરે નવમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે ते भुरम में तने मी विरात समती है ॥ १० ॥ શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવાણી
व्याभ्यानु नपभु ५ पयन सभात ॥ ६ ॥
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अनगारधर्मामृतापणी टी० अ० १० जीवाना वृद्धिहानिनिरूपणम्
टीका-यदि खलु भदन्त ! अमणेन भगवता महागीरेण नवमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम् पूर्वोक्तमकारः अर्थ. भाव. प्रज्ञप्त' कथित , स मया श्रुतः, फिन्तु दशमस्य ज्ञाता ययनस्य कोऽर्थः-को भाव ? प्राप्त ? । सुपरिनामी पाह-एव खलु हे जम्मू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे 'सामी ' स्वामी श्रीमहावीरस्वामी समोमढे समरसृत समागतः, तदा गोतमम्बामी एनमवादीवकथ खलु-केन प्रकारेण हे भदन्त ! जोवा 'बति ना' बर्द्धन्ते वृद्धिमाप्नु वन्ति वा, ' हाय तिवा' हीयन्ते दानि प्रानुगति वा ' जीवा द्रव्यतोऽनन्तत्वेन, प्रदेशतश्चापि प्रत्येस्मसङ्ख्यात प्रदेशत्वेनानस्थितपरिमाणत्वाद् द्विहानी प्राप्त नाईन्ति, किन्तु क्षान्त्यादिगुणाना वृद्धया पद्धन्ते, हान्या तु हीयन्त इति ।
'जयण भते ! समणेण ' इत्यादि । दीकार्य-(जइण भते) यदि हे भदत । (समणेण० णवमरस णायमायणस्स अयम?) अमण भगवान् महावीर ने नवम ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से यह अर्थ प्ररूपित किया है तो (दसमस्न के अटे). ? दशवं ज्ञाताध्ययन का उन्हों ने क्या भाव अर्थ कहा है ? इम प्रकार जवू स्वामी के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मास्वामी उन्हें समझाने के अभिप्राय से कहते है कि ( एव खलु जबू! ) हे जत्रू सुनों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-(तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नयरे सामी समोसढे-गोयमसामी एव वयासी) उस काल मे और उस समय में राजगृह नाम के नगर मे श्री भगवान महावीर स्वामी पधारे उस समय गौतम स्वामी ने उन से ऐसा पूछा ( कहाण भते ! जीवा वड्मृति, वा हायति वा ? गो० से जहा नाम यहुलपश्खस्स पाडिवया
"जइण मते । समणेण " इत्यादि।
टी -(जइण भते 1) ने महन1 (समणेण० वमस्स णायज्मयणास अयमढे) श्रम समान भावा३ नवमा साताध्ययननी पूर्वात ३पे पथ
३पित ध्या छ तो (समस के अटे १) शमा ज्ञातायनन तेसोस । ભાવ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છેઆ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્માસ્વામાં તેમને બધી વાતની સ્પષ્ટતા કરવાના હેતુથી કહે છે કે (एव सलु जत) १ प्यू मामले। तभा प्रश्न ४ मा प्रभारी (तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नयरे सामी समोसढे गोरमसामी एप पयासी) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગરમાં શ્રી ભગવાન મહાવીર સ્વામીની પધરામણી થઈ તે સમયે ગૌતમ સ્વામીએ તેમને પ્રશ્ન કર્યો –
(कहण भते । जीवा वति, वा हायविवा ? गो० से जहानामए पहल.
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हाताधर्मक् थाहणे हीणे कंतीए एवं दित्तीए जुईए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए १.मंडलेण तयाणतर च णं वीयाचंदे पाडिवय चंद पणिहाय
हीणतराय वण्णेण जाव मंडलेण तयाणतरं च ण तइआचंदे विइयाचंद पणिहाय हीणतराए वपणेणं जाव मडलेणं, एवं 'खलु एएण कमेण परिहायमाणेर जाव अमावस्ताचदे चाउद्दसं
चंद पणिहाय नट्रेवण्णेणं जाव नढे मडलेण, एवामेव सम 'णाउसो । जो अम्ह निग्गयो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे हीणे खतीए एव मुत्तीए गुत्तीए अजवेण महवेणं लाघवेण सच्चेण तवेण चियाए अकिचयणयाए वभचेरवासेणं तयाणंतर च ण हीणतराए खतीए जाव हीणतराए बभचेर वासेणं, एव खलु एएण कमेण परिहायमाणे२ णट्रे खतीए जाव णटे बभचेरवासणं, जहा वा सुक्कपक्खस्त पाडिवयाचदे अमावासाए चद पणिहाय अहिए वण्णेण जाव अहिए मंडलेणं तयाणतर च णं विइयाचदे पडिवयाचद पणिहाय अहिययराए वण्णेणं जाव अहियतराए मडलेणं एव खल्ल एएण कमेणं परिवुड्डेमाणे २ जाव पुण्णिमाचदे चाउद्दसि चद पणिहाय पडिपुणे वण्णेण जाव पडिपुण्णे मडलेण एवामेव समणाउसो | जाव पव्वइए समाणे अहिए खताए जाव वभचेर वासेण, तयाणतर च णं अयियराए खतीए जाव बभचेरवासेण, एव खल्लु एएण क्मेणं परिवड्डेमाणे२ जाव पडिपुन्ने बभचेर वासेण, एव खलु जीवा बड्डति वा हायति वा, एव खलु जबू । समणेण भगवया महावीरेण दसमस्त णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिमि ॥ सू० १ ।।
॥ दसम णायज्झयण समत्त ॥
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १० जोधाना वृद्धिदानिनिरूपणम्
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टीका - यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण नवमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम्= पूर्वोक्तमकारः अर्थ. =भान. प्रज्ञप्त =थित, स मया श्रुतः, किन्तु दशमस्य ज्ञाता ययनस्य कोऽर्थः = को भाव ? प्रज्ञप्त ? | सुर्मासामी माह एव खलु हे जम्मू । तस्मिन् काले तम्मिन् समये राजगृहे नगरे ' सामी' स्वामी= श्रीमहावीरस्वामी 'समोसढे समस्त = समागत, तदा गौतमस्वामी एनमवादीत्कथ खलु=केन प्रकारेण हे मदत ! जीवाः ' बहुति वा 'नर्दन्ते= वृद्धिमाप्नु वन्ति वा 'हाय तिवा' हीयते = हानि प्रप्नुवन्ति वा? जीवा द्रव्यतोऽनन्तत्वेन, प्रदेशतचापि प्रत्येक्मसङ्ख्यात प्रदेशत्वेनानस्थितपरिमाणत्वाद् वृद्धिहानी प्राप्तु नार्हन्ति, किन्तु क्षान्त्यादिगुणाना वृद्धा पर्द्धन्ते हान्या तु हीयन्त इति० 'जहण भते ! समणेण ' इत्यादि ।
"
टीकार्य - ( जण भते) यदि हे भदत । ( समणेण णवमरम णाय ष्यणस्स अयमट्टे) श्रमण भगवान् महावीर ने नवम ज्ञाताभ्ययन का पूर्वोक्त रूप से यह अर्थ प्ररूपित किया है तो ( दसमस्त के अहे ) ० ? दशवे ज्ञाताध्ययन का उन्हों ने क्या भाव अर्थ कहा है ? इस प्रकार जबू स्वामी के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मास्वामी उन्हें समझाने के अभिप्राय से करते है कि ( एव खलु जबू 1 ) हे जब सुनों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है- ( तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नघरे सामी समोसढे - गोमसामी एव वयासी) उस काल मे और उस समय में राजगृह नाम के नगर में श्री भगवान् महावीर स्वामी पधारे उस समय गौतम स्वामी ने उन से ऐसा पूछा (कण भते ! जीवा वडूति, वा हायति वा ? गो० से जहा नामए पक्खस्स पाडिया
०
Si
जण भते ! समणेण " इत्यादि ।
टीअर्थ - (जइण भते 1 ) ले डे सह । ( समणेण ण्वमस्स णायज्झयणहस अयमट्ठे ) श्रमण भगवान भडावीरे नवभा ज्ञाताध्ययननो पूर्वोत ३ अर्थ निचित तो ( समस्म के अड्डे ? ) हराभा ज्ञाताध्धयनना तेथेोये शो ભાવ અર્થે નિરૂપિત કર્યાં છે આ પ્રમાણે જમ્મૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્માસ્વામી તેમને બધી વાતની સ્પષ્ટતા કરવાના હેતુથી કહે છે કે ( एव सलु जनू' ) हे न्यू भालजी तमारा प्रश्ननो वाण या प्रभाऐ } } (तेण कालेन तेग समएण रायगिहे नयरे सामी समोसढे गोयममामी एन यासी) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે ગરમા શ્રી ભગવાન મહાવીર સ્વામીની પધરામણી થઇ તે સમયે ગૌતમ સ્વામાએ તેમને પ્રશ્ન કર્યો ફે
( कण्ण भते । जीवा चटुति, वा दायवित्रा ? गो० से जहानामए हु
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माताधर्मस्थान अनार्ये भगनान पूर्वहानिदृष्टान्तमाह - हे गौतम ! जहानामए' तद्यथा-नामझम्-यथा च बहुलपक्षस्य = कृष्णपक्षस्य 'पाडिवयाचदे' प्रतिषपचन्द्रः पूर्णिमाचन्द्र मणिधाय-अपेक्ष्य, 'मणिधाये' ति 'अपेक्ष्ये' स्यामव्ययम् ' पूर्गिमाचन्द्रापेक्ष्येत्यर्थः दीन' = न्यूनः, वर्णनशुलतारूपेण, हीनः चदे पुषिणमा चद पणिहाय हीणो वण्णेण हीणे सोम्मयाए हीणे निद याए हीणे कतीए एव दित्ती जुई छाया पभाए ओयाए लेस्साए मुडलेण ) हे भदत ! जीव किस प्रकार से बढते हैं और किस प्रकार से घटते हैं ? जीव द्रव्य की अपेक्षा अनत गेने से और प्रदेश की अपेक्षा प्रत्येक जीव द्रव्य असख्यात प्रदेश वाला होने से सदो अवस्थित परिणाम वाला कहा गया है-अतः इस स्थिति में न तो उस की वृद्धि हो सकती है और न उस की हानी ही। किन्तु यहा जो इस प्रकार का प्रश्न किया गया है उस का मत इस प्रकार है, कि जय आत्मा में क्षात्यादि गुणो की वृद्धि हो जाती है तो उन की वृद्धि से " जीव बढ़ता है" ऐसा मान लिया जाता है और जब इन्ही आत्मिक गुणों की वृद्धि आत्मा मे नही होती है-किन्तु हानि रहती है तो इस से जीव में हानि हो रही है ऐसा मान लिया जाता है । इसी अपेक्षा को लेकर यह प्रश्न किया गया है । अब भगवान् हानि को स्पष्ट करने के लिये पहिले उसे ही दृष्टान्त द्वारा समझाते है-वे कहते हैं-हे गौतम ! जैसे पक्खस्स पाडिनया चदे पुण्णिमाचंद पाणिहाय हीणो वण्णेण हीणे सोम्मयाए हीणे निद्धयाए हीणे कतीए एव दित्तीए जुईए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मडलेण)
' હે ભદત ! જી કેવી રીતે વૃદ્ધિ પામે છે અને કેવી રીતે ઓછા થાય છે? જીવ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનત હોવાથી અને પ્રદેશની અપેક્ષાએ દરેક જીવ દ્રવ્ય પ્રમદાવાળો હોવાથી હમેશા અવસ્થિત પરિણામવાળો કહેવામાં આવ્યો છે એથી આવી સ્થિતિમાં તેની વૃદ્ધિ થઈ શકે નહિ અને હાનિ પણ થઈ શકે નહિ પણ અહીં જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યું છે તેને મતલબ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે આત્મામા ક્ષાતિ વગેરે ગુણે વૃદ્ધિ પામે છે ત્યારે તેમની વૃદ્ધિથી
જીવ વૃદ્ધિ પામે છે” આમ માનવામા આવે છે અને જ્યારે એ જ આત્મિક ગુણોની વૃદ્ધિ આત્મામા થતી નથી પણ વૃદ્ધિના સ્થાને હાનિ થવા માંડે છે ત્યારે “જીવમાં હાનિ થઈ રહી છે” એવુ માનવામાં આવે છે આ અપેક્ષાથી આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે ભગવાન હવે હાનિને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૌ પહેલા દાત વડે સમજાવતા કહે છે કે હે ગૌતમ! જેમ કૃષ્ણપક્ષની એકમને ચંદ્ર
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अनगारधर्मामुतवर्षिणी टो अ० १० जीवाना वृद्धिहानिनिरूपणम
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'सोम्मयाए ' सौम्यतया = नेत्राहाद कतया, हीनः निद्धयाए ' स्निग्वतया= स्नेहो त्पादकतया, हीन = न्यूनः 'क्तीए ' कान्त्या कमनीयतया । एवम् = अनेन मूरारेण हीनशब्दः सर्वत्र बोध्यः, यथा दीनो दीप्त्या=प्रकाशेन, दीन 'जुईए' त्या चारुचिक्येन हीनः छायया = शोभया, हीनः प्रमया= ज्योतिषा, दीन ' ओयाए ' ओजसा = दाहशमनरूपेण, हीनः लेश्यया = किरणरूपया हीनो = न्यूनो मण्डलेन [त्ताकातया, पूर्णिमाचन्द्राऽपेक्षया प्रतिपच्चन्द्रः सर्वथा न्यूनो भवतीत्यर्थः । तदनन्तर च खलु द्वितीयाचन्द्र' प्रतिपद = प्रतिपत्सम्बन्धिन चन्द्र 'पणिहाय' प्रणिधाय = अपेक्ष्य हीनतरो=न्यूनतरी वर्णेन यावद् मण्डलेन भनति० । तदनन्तर च खलु तृतीयाचन्द्रो द्वितीयाचन्द्र पणिधाय हीनतरो वर्णेन यावद् कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चहना पूर्णिमा के चन्द्रमाकी अपेक्षा शुक्लता रूप वर्ण से हीन होता है, सौम्यता - नेत्रा ह्लादकता से हीन होता है, स्निग्धता - स्नेहोत्पादकता से हीन-न्यून होता है, कातिकमनीयता से हीन होता है, इसी तरह दीप्ति से, युति से - ( चमक से ) - छाया - शोभा से) प्रभा से - ( ज्योति से) दाहशमन रूप ओजस से, किरण रूप लेश्या से, एव वृत्ताकाररूप अपने परिमंडल से हीन रहता है- (तयाणतर चण घीयाचदे पाडवय चद पणिहाय हीणतराय वण्णेणं जात्र मडलेण-तयातर चण तइआचदे बिडया चद पणिहाय हीणतराए वण्णेण जाव मडले ण एव खलु एएण कमेण परिहायमाणे २ जाव अमावस्सा चदे चाउट्स पणिहाय नट्टे वण्णेण जाव नट्टे मडलेण ) इसके बाद कृष्ण पक्ष के प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा द्वितीया चन्द्रमा वर्ण से लेकर यावत् परिमंडल तक और अधिक न्यून बन जाता है - इसके बाद द्वितीया के चन्द्रमा की अपेक्षा तृतीया का चन्द्रमा वर्ण से लेकर परि
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પૂનમના ચંદ્રની અપેક્ષા શુકલતા રૂપ વથી હીન હોય છે સૌમ્યતા- એટલે કે નેત્ર હાદ-તાના ગુણુથી હીન હૈય છે, સ્નિગ્ધતા-સ્નેહાપાદકતા-થી હીનन्यून - होय छे, अतिज्भनीयता थी हीन होय छे, म रीते ही तिथी - धुतिथी - (प्राराथी), छाया ( शोला ) प्रभाथी (ज्योतिथी) हाडुगमन३ । मोल्यो यु રૂપ લેફ્સાથી અને વૃત્તાકાર ( ગોળાકાર ) રૂપ પાતના પરિમડળથી હીન રહે છે
( तयाणतरच ण नीयाचदे पाडिनय चद पणिहाय हीणतराय वण्णे ण जात्र मडले पण तयाणवर च ण तइआचदेनियाचर परिवार हीणतराए वण्णेण जाव मडले एवं खलु एएण कमेण परिहाय माणे२ जाव अमावस्सा चदे चाउदस पणिहाय नठे उणे जार नट्ठे मडलेण )
ત્યાર પછી કૃષ્ણપક્ષની એકમના ચન્દ્ર કરતા બીજને ચન્દ્ર પણ પરિમ ડળ વગેરે બધી વિશેષતાઓમા વધારે ન્યૂન થઈ પડે છે એ પછી ખીજના ચન્દ્ર
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शाताधर्मकथा
अनार्थे भगवान् पूर्वानिष्टान्तमाह - हे गौतम !' से जहानामए ' तद्यथा - नामकम् - यथा च बहुलपक्षस्य = कृष्णपक्षस्य 'पाडित्रयाचदे ' मतिषपञ्चन्द्रः पूर्णिमाचन्द्र प्रणिधाय = अपेक्ष्य, ' मणिधाये ' ति ' अपेक्ष्ये ' स्पर्थकमव्ययम् ' पूर्णिमाचन्द्रापेक्ष्येत्यर्थः हीन. = न्यूनः वर्णेन शुक्रतारूपेण, दीनः
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चदे पुणिमा चद पणिहाय हीणो वण्णेण होणे सोम्मयाए हीणे निद्ध याए हीणे कतीए एव दित्तीए जुईए अघाए पभाव ओयाए लेस्साए मडलेण ) हे भदत ! जीव किस प्रकार से बढते है और किस प्रकार से घटते हैं ? जीव द्रव्य की अपेक्षा अनत होने से और प्रदेश की अपेक्षा प्रत्येक जीव द्रव्य असख्यात प्रदेश वाला होने से सदा अवस्थित परिणाम वाला कहा गया है-अतः इस स्थिति में न तो उस की वृद्धि हो सकती है और न उस की हानी ही । किन्तु यहा जो इस प्रकार का प्रश्न किया गया है उस का मन इस प्रकार है, कि जब आत्मा में क्षात्यादि गुणों की वृद्धि हो जाती है तो उन की वृद्धि से " जीव वहता है " ऐसा मान लिया जाता है और जब इन्ही आत्मिक गुणों की वृद्धि आत्मा मे नही होती है किन्तु रानि रहती है तो इस से जीव में हानि हो रही है ऐसा मान लिया जाता है । इसी अपेक्षा को लेकर यह प्रश्न किया गया है । अब भगवान हानि को स्पष्ट करने के लिये पहिले उसे ही दृष्टान्त द्वारा समझाते है - वे कहते हैं - हे गौतम! जैसे
प्रक्वस्स पाडिया चंदे पुण्णिमाचद पाणिहाय हीणो वण्णेण हीणे सोम्मयाए हीणे निदाए हीणे कतीए एव दित्तीए जुईए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मडलेण) હે ભદત ! જીવે કેવી રીતે વૃદ્ધિ પામે છે અને કેવી રીતે એછા થાય છે? જીવ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનત હાવાથી અને પ્રદેશની અપેક્ષાએ દરેક જીવ દ્રશ્ય પ્રમદાવાળા હોવાથી હુ મેશા અવસ્થિત પરિણામવાળા કહેવામા આવ્યા છે. એથી આવી સ્થિતિમા તેની વૃદ્ધિ થઈ રાકે નહિ અને હાનિ પણ થઈ શકે નહિ પણ અહીં જે પ્રશ્ન કરવામા આવ્યા છે તેના મતલમ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે આત્મામા ક્ષાતિ વગેરે ગુણા વૃદ્ધિ પામે છે ત્યારે તેમની વૃદ્ધિથી व वृद्धि पामे छे” આમ માનવામા આવે છે અને જ્યારે એજ આત્મિક ગુણાની વૃદ્ધિ આત્મામા થતી નથી પણ વૃદ્ધિના સ્થાને હાનિ થવા માટે છે ત્યારે જીવમા હાન થઈ રહી છે” એવુ માનવામા આવે છે આ અપેક્ષાથી આ પ્રશ્ન પૂછવામા આવ્યે છે ભગવાન હવે હાનિને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૌ પહેલા ધ્રાંત વર્ગ સમજાવતા કહે છે કે હે ગૌતમ ! જેમ કૃષ્ણપક્ષની એકમને ચદ્ર
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अनगारधर्मामुनर्षिणी टो अ० १० जी गाना वृद्धिद्वानिनिरूपणम 'सोम्मयाए ' सौम्यतया नेत्राहाद तया, हीनः निद्धयाए ' स्निग्यतया स्नेहो त्पादकतया, हीन न्यूनः 'क्तीए 'कान्त्या-कमनीयतया। एवम अनेन प्रकारेण हीनशब्दः सर्वत्र वोध्या, यथा-हीनो दीप्त्या प्रमाशेन, हीन 'जुईए' द्युत्या-चाकचिक्येन, हीनः छायया= शोभया, हीन. प्रभया ज्योतिपा, हीन 'ओयाए' ओजसान्दाहशमनस्पेग, हीनः लेश्यया-किरणरूपया, हीनो न्यूनो मण्डलेन भृत्ताऽऽमातया, पूर्णिमाचन्द्राऽपेक्षया, प्रतिपचन्द्रः सर्वथा न्यूनो भवतीत्यर्थः । तदन तर च खलु द्वितीयावन्द्र' प्रतिपद-प्रतिपत्सम्बन्धिन चन्द्र 'पणिहाय' प्रणिधाय-अपेक्ष्य होनतरोन्यूनतरो वर्णेन यावद् मण्डलेन भरतिः । तदनन्तर च खलु तृतीयाचन्द्रो द्वितीयाचन्द्र पणिधाय हीनतरो वर्णेन यावद् कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चद्रना पूर्णिमा के चन्द्रमाकी अपेक्षा शुक्लता रूप वर्ण से हीन होता है, सौम्यता-नेत्राह्लादकता-से हीन होता है, स्निग्धता-स्नेहोत्पादकता-से हीन-न्यून-होता है, कातिकमनीयता से हीन होता है, इसी तरह दीप्ति से,-द्युति से-(चमक से)-छाया-शोभा से ) प्रभा से-(ज्योति से) दाहशमन रूप ओजस से, किरण रूप लेश्या से, एव वृत्ताकाररूप अपने परिमडलसे हीन रहता है-(तयाणतर च ण पीयाचदे पाडिवय चद् पणिहाय हीणतराय वण्णेण जाव मडलेण-तया. णतर चण तडआचदे बिडया चद पणिहाय हीणतराए वण्णेण जाव मडले ण एव खल्ल एएण कमेण परिहायमाणे २ जाव अमावस्सा चदे चाउछस पणिहाय नटे चण्णेण जाव नढे मडटेण) इमके याद कृष्ण पक्ष के प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा द्वितीया चन्द्रमा वर्ण से लेकर यावत् परिमडल तक और अधिक न्यून बन जाता है-इसके बाद द्वितीयो के चन्द्रमा की अपेक्षा तृतीयो का चन्द्रमा वर्ण से लेकर परि પૂનમના ચંદ્રની અપેક્ષા શુકલતા રૂપ વર્ણથી હીન હોય છે સૌમ્યતા-એટલે કે નેત્ર હાદતાના ગુણથી હીન હોય છે, સ્નિગ્ધતા-નેહપાદકતા-થી હીનन्यून-डाय, अतिउभनीयता-थी ही हाय छ, माश हतिथी-पतिथी(राथी), छाया (1) प्रमाथी (न्यातिथी) हाशमन३। मायाँ રૂપલેશ્યાથી અને વૃત્તાકાર (ગોળાકાર) રૂપ પિતના પરિમડળથી હીન રહે છે
(तयाणतरच ण पीयाचदे पाडियय चद पणिहाय हीणतराय चण्णे गं जार मडले ण तयाणतर च ण तइआचदे विडयाचद पणिहार हीणतराए वण्णेण जाब मडलेण एव खलु एएण कमेण परिहायमाणे२ नार अमारस्सा चदे चाउदसे पणिहाय नठे चण्ोण जाउ नठे मडलेण)
ત્યાર પછી કૂણુપક્ષની એકમના ચ% કરતા બીજને ચન્દ્ર વણ પરિમ ડળ વગેરે બધી વિશેષતાઓમાં વધારે જૂન થઈ પડે છે એ પછી બીજના ચન્દ્ર
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যায়গা ___अवार्थे भगनान पूहानिदृष्टान्तमाह - हे गौतम ! ' से जहानामए' तद्यथा-नामकम्-यथा च बहुलपक्षस्य = गणपक्षस्य 'पाडिवयाचदे' मतिषपचन्द्रः पूर्णिमाचन्द्र प्रणिधायः अपेक्ष्य, 'मणिधाये' ति 'अपेक्ष्ये' त्यर्थकमव्ययम् ' पूर्णिमाचन्द्रापेक्ष्येत्यर्थः हीनः = न्यूनः, वर्षेन-शुक्रतारूपेण, हीन: चदे पुणिमा चद पणिहाय हीणो वण्णेण होणे सोम्मयाए हीणे निद याए हीणे कतीए एव दित्तीए जुई छाया पभाष ओयाए लेस्सा मुडलेणं ) हे भदत ! जीव किस प्रकार से बढते है और किस प्रकार से घटते हैं? जीव द्रव्य की अपेक्षा अनत ोने से और प्रदेश की अपेक्षा प्रत्येक जीव द्रव्य असख्यात प्रदेश वाला होने से सदा अवस्थित परिणाम वाला कहा गया है-अतः इस स्थिति में न तो उस की वृद्धि हो सकती है और न उस की हानी ही। किन्तु यहा जो इस प्रकार का प्रश्न किया गया है उस का मत इस प्रकार है, कि जय आत्मा में क्षात्यादि गुणो की वृद्धि हो जाती है तो उन की वृद्धि से " जीव बढ़ता है " ऐसा मान लिया जाता है और जब इन्ही आत्मिक गुणों की वृद्धि आत्मा मे नही होती है-किन्तु हानि रहती है तो इस से जीव में हानि हो रही है ऐसा मान लिया जाता है । इसी अपेक्षा को लेकर यह प्रश्न किया गया है। अय भगवान हानि को स्पष्ट करने के लिये पहिले उसे ही दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-वे कहते हैं-हे गौतम ! जैसे पक्खस्स पाडिया चदे पुण्णिमाचंद पाणिहाय हीणो वण्णेण हीणे सोम्मयाए हीणे निद्धयाए हीणे कतीए एव दित्तीए जुईए छायाए पमाए ओयाए लेस्साए मडलेपा)
હે ભદત ! જી કેવી રીતે વૃદ્ધિ પામે છે અને કેવી રીતે ઓછા થાય છે? જીવ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનત હોવાથી અને પ્રદેશની અપેક્ષાએ દરેક જીવ દ્રવ્ય પ્રમદાવાળે હેવાથી હમેશા અવસ્થિત પરિણામવાળે કહેવામાં આવ્યું છે એથી આવી સ્થિતિમાં તેની વૃદ્ધિ થઈ શકે નહિ અને હાનિ પણ થઈ શકે નહિ પણ અહીં જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યું છે તેને મતવમાં આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે આત્મામા ક્ષાતિ વગેરે ગુણે વૃદ્ધિ પામે છે ત્યારે તેમની વૃદ્ધિથી “જીવ વૃદ્ધિ પામે છે” આમ માનવામાં આવે છે અને જ્યારે એ જ આત્મિક ગુણેની વૃદ્ધિ આત્મામાં થતી નથી પણ વૃદ્ધિના સ્થાને હાનિ થવા માંડે છે ત્યારે “જીવમાં હાનિ થઈ રહી છે” એવુ માનવામા આવે છે આ અપેક્ષાથી આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે ભગવાન હવે હાનિને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૌ પહેલા દાત વડે સમજાવતા કહે છે કે હૈ ગૌતમજેમ કશુપક્ષની એકમને ચક્ર
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"मनगारधर्मामृतवर्षिण टी० अ० १० जीवानां वृद्धिानिनिरूपाम् द्वादशविन । चियाए ' त्यागेन मुनिवैयारत्यकरगलक्षणेन 'अकिंचणयाए' अविञ्चनतया निप्परिग्रहतया चमचेरयामेण' ब्रह्मचार्यवासेन-ब्रह्मणि-कामसेवन परित्यागरूपे चरण-विचरण चर्य ब्रह्मचर्य, तत्र वासस्तेन नववाटिका विशुद्धमैथुन विरमणरूपेग 'हीनः' इति सर्वत्र सम्पन्नः क्षान्त्यादिदविरश्रमण धर्मरहितो भवती त्यथ । । तदनन्तर च सलु स निर्ग्रन्थो वा० हीनतरः क्षान्त्या यावत् हीनतो ब्रह्म चर्यगासेन । एव खलु एतेन क्रमेण कमश परिहीयमानः २ सन् नाटामथा रहितः क्षान्त्या, यात नप्टो ब्रह्मचर्य वासेनापि भवति । सान्त्यादि सगुणरहितो भरतीत्यर्थः, यया चन्द्रा नित्यराससगेण कृष्णप्रतिपदमारभ्य प्रतिदिवम कलाभिः क्षीयमाणः सन् कृष्णचतुर्दश्यपेक्षयाऽमागास्याया वर्गादिना यावन्मण्डलेन नष्टो शनादि रूप १२ प्रकार के तप से, मुनिजनों की वैयावृत्ति करने रूप त्याग से निष्परिग्रह रूप अकिञ्चन्य धर्म से काम सेवन परित्याग रूप ब्रह्मचर्य मे वास कर ने से-नव कोटिसे विशुद्ध रने हुए ब्रह्मचर्य के पालन से-हीन है-अर्थात् क्षोन्ति आदि रूप दश प्रकार के यति धर्म से रहित हैं-(तयाण तर चण हीणतराए खतीए जाव हीणतराए पभचेरवासेण एव खलु एएण कमेण परिहायमाणे २ पट्टे खतीए जाव णढे यभचेरवासेण ) अथवा जो माया साची क्षान्ति से लेकर ब्रह्मचर्य व इस तरह क्रमशः हीनर होते हुए क्षान्ति आदि वामसे हीनतर हैं। से लेकर ब्रह्मचर्यवास पर्यंतके समस्त गुणोंसे रहित हो जाते हैं। जिस प्रकार नित्य राहु के ससर्ग से कृष्णपक्षकी प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन कलाओं से परिक्षीण होता हुआ चन्द्र कृष्णचतुर्दशी की अपेक्षा अमा માર્દવથી, અ૮૫ઉપાધિ રૂપ દ્રવ્ય લઘુતાથી, રાગદ્વેષરહિત રૂ૫ ભાવલઘુતાથી અમૃષા ભાષણ રૂપ સત્યથી, અનશન વગેરે રૂપ ૧૨ પ્રકારના તપથી મુનિજનેની વૈયાવૃત્તિ કરવા રૂપ - ગિથી નિપરીગ્રહ રૂપ અચિન ધર્મથી, કામસેવન પરિત્યાગ રૂપ બ્રહ્મચર્યનું રક્ષણ કરવાથી, નવ કેટિથી વિશુદ્ધ બનેલા બ્રહાચર્યના પાલનથી હીન છે, એટલે કે ક્ષાતિ વગેરે રૂપ દસ જાતના યતિધર્મથી હીન છે
(तया णतर चण होणतराए खतीए जाव हीगतराए वभवेवासेण एव खल्ल एएणं क्मेण परिहायमाणे २ जठे खत्तीए जाव पढे नभचेरवाण)
અથવા જે સાધુ કે સાબીઓ સાતિથી માંડીને બ્રહ્મચય વાર સુધીના ગુણેથી હીન છે તેઓ આ ચદ્રની પિછે જ અનુક્રમે લીન થના ક્ષતિ વગેરેથી માડીને બહાચર્યવાસ સુધીના સર્વે ગુણથી રહિત થઈ જાય છે જેમ હમેશા રાહુના સ સધી કૃષ્ણપક્ષની એકમથી માંડીને દરરોજ વળાઓની દષ્ટિએ ક્ષીણ ઘતે ચદ્ર કૃષ્ણપક્ષની ચૌદશની અપેલા અમાસના દિવસે વર્ણ પરિમડળ વગેરે
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जाताधर्मकया मण्डलेन । एव सलु एतेन कमेग परिदीयमान २ यापद् अमास्यास्न्दः 'चाउ पसि' चातुर्दश चतुर्दशीसम्पन्धिन चन्द्रपाणिधाय-अपेक्ष्य नहे' नष्टः-विलप्तः वर्णेन यावत् नष्टो मण्डलेन-वृत्ताकारस्पेग ।
'एवामेव '-एवमेव भनेनैव प्रकारेण हे अमगा आयुष्मन्तः ! योऽस्माक निग्रंन्यो वा निर्ग्रन्थो वा यावत् मननित' सन् हीनः 'खतीए' सान्त्या-समया, एव होनः ' मुत्तीए' मुस्त्या निर्लोभतया 'मुत्तीए' मुस्त्या मनोयोगादीना कुशलपत्तिलक्षणया, योगनिरोधलक्षणया पा, 'अज्जवेण ' आर्जवेन स्फटिकवद् बाह्याभ्यन्तरसरल भाररूपेण, 'मद्दवेण ' मार्दवेन-निरभिमानतालक्षणेन, 'लाप वेण' लाघवेन-द्रव्यभावलघुतासपन्नेन-तत्र-द्रव्यतोऽल्पोपधिकत्वेन भावतो राग. उपरहितत्वेन, ' सच्चेण' सत्येन अमृपाभापणरूपेग, 'तवण' तपसा अशनादि मडल तक और अधिक यून हो जाता है । इस तरह क्रमशः हीन ही होता हुआ अमावस्या का चन्द्रमा चतुर्दशी के चन्द्रमा की अपेक्षा बिलकुल वर्ण आदि से लगाकर अपने परिमडल तक विलुप्त बन जाता है। (एचामेव समणाउसो। जो अम्ह निग्गयो वा निग्गथी वा जाव पव्वइए समाणे हीणे खतिए एव मुत्तीए अज्जवेण, मद्दवेण, लाघवेण सच्चेण, तवेण, चियाए, अकिंचणयाण, चमचेरवासेण ) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्य अथवा निग्रन्थीजन यावत् प्रचजित होता हुआ यदि क्षमा से हीन है, मुक्ति-निर्लोभता अथवा मनोयोगदिकों की कुशल प्रवृत्ति रूप अथवा योगनिरोध रूप गुप्ति से स्फटित की तरह बाह्य एव आभ्यन्तर में सरल परिणाम रूप ओर्जव से, निरभिमानता रूप मार्दव से, अल्प उपधि रूप द्रव्यलधुना से राग द्वेषरहित रूप भाव ल बुता से, अमुषाभाषण रूप सत्य से, अनકરતા ત્રીજને ચન્દ્ર વર્ણ પરિમડળ બધી બાબતમાં વધારે ન્યૂન થઈ જાય છે આ રીતે ધીમે ધીમે અનુક્રમે હીન થતા અમાસના ચન્દ્ર ચૌદશના ચન્દ્ર કરતા વર્ણ પરિમડળ વગેરેની દ્રષ્ટિએ તદ્દન વિલુપ્ત (અદેય) થઈ જાય છે
( एवामेव समणाउसो ! जो अम्ह निग्गयो वा निग्गयी पा जाव पच्चइए समाणे होणे खतीए एव मुतीए गुत्तीए जन्मवेण, मदवेग, लाघवेण, सच्चेण तवेण, चियाए, अचिणयाए, बभवेपासेण)
આ રીતે જ હે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ અથવા નિ થી જન યાવત્ પ્રવછત થઈને જે ક્ષમારહિત છે, મુકિત-નિલભના અથવા મનોગ વગેરેની કુશળ પ્રવૃત્તિ રૂપ અથવા ચોગ નિરોધ રૂપસિથી, સ્ફટિકની જેમ
રૂપ બાહ્ય તેમજ આભ્યતરમાં સરલ પરિણામ રૂપ આજેથી નિ.
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'मनगारधर्मामृतवर्षिण टी० अ० १० जीवानां वृद्धिहानिनिरूपाम्
द्वादशविपेन ' चियाए त्यागेन = मुनिवैयात्यकरगलक्षणेन ' अचिणयाए अश्विनतया निष्परिग्रहतया वमचेरखामेण ' ब्रह्मचार्य वासेन ब्रह्मणि= कामसेनन परित्यागरूपे चरण = विचरण चर्य ब्रह्मायं तत्र नासस्तेन नवाटिका विशुद्धमैथुन विरमणरूपेग 'हीनः' इति सर्वत्र सम्पन्नः क्षान्त्यादिविश्रमण नर्मरहितो भवती त्यर्थ ।
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तदनन्तर च खलु स निर्ग्रन्थो वा० हीनतरः क्षान्त्या यात् हीनतो ब्रह्मचर्यासेन | एव खलु एतेन क्रमेण = क्रमश परिदीयमान २ सन् नष्टः = सर्वथा रहित क्षान्त्या यान नष्टो ब्रह्मचर्यवासेनापि भवति । क्षान्त्यादि सर्वगुणरहितो भरतीत्यर्थ यथा चन्द्रा नित्य राहुससर्गेण कृष्णमतिपदमारभ्य मतिदिवस क्लाभिः क्षीयमाणः सन् कृष्णचतुर्दश्यपेक्षयाऽमानास्याया वर्णादिना यावन्मण्डलेन नष्टो शनादि रूप (२ प्रकार के तप से, मुनिजनों की वैग्रावृत्ति करने रूप त्याग से निष्परिग्रह रूप अकिञ्चन्य धर्म से काम सेवन परित्याग रूप ब्रह्मचर्य मे वास करने से -नव कोटिसे विशुद्ध बने हुए ब्रह्मचर्य के पालन से हीन है- अर्थात् क्षान्ति आदि रूप दश प्रकार के यति धर्म से रहित हैं - ( तयाण तर च ण हीणतराए खतीए जाव हीणतराए बभचेरवासेण एव खलु एएण कमेण परिशायमाणे २ पट्टे खतीए जाव णट्टे
भचेरवासेण ) अथवा जो मावु या सावी क्षान्ति से लेकर ब्रह्मचर्य वे इस तरह क्रमश' होनर होते हुए क्षान्ति आदि वाससे हीनतर हैं । से लेकर ब्रह्मचर्यवास पर्यत के समस्त गुणोंसे रहित हो जाते हैं। जिस प्रकार नित्य राहु के ससर्ग से कृष्णपक्षकी प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन कलाओं से परिक्षीण होता हुआ चन्द्र कृष्णचतुर्दशी की अपेक्षा अमा માવથી, અપ ઉપાધિ રૂપ દ્રવ્ય લઘુતાથી, રાગદ્વેષરહિત રૂપ ભાવલઘુતાથી
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અમૃષા ભાષણ રૂપ સત્યથી, અનશન વગેરે રૂપ ૧૨ પ્રકારના તપથી મુનિજનાની વૈયાવૃત્તિ કરવા રૂપ રંગથી નિપરીગ્રહ રૂપ અચિન ધમ થી, કામસેવન પરિત્યાગ રૂપ બ્રહ્મચર્ય નું રક્ષણ કરવાથી, નવ કૅાટિથી વિશુદ્ધ ખનેલા પ્રાચરના પાલનથી હીન છે, એટલે - ક્ષાતિ વગેરે રૂપ દરા જાતના યતિધર્મથી હીન છે
( तया तर चण हीणतराए खतीए जाव हीगतराए वभवेवासेण एव खल्लु एए कमेण परिहायमाणे २ णट्ठे खत्तीए जात्र पठ्ठे नभचेरवामेण )
અથવા જે સાધુ કે સાધ્વીએ ક્ષાતિથી માડીને બ્રહ્મચયવામ સુધીના ગુણેાથી હીત છે. તે આ ચદ્રની પેઠે જ અનુક્રમે હ્રીત થના ક્ષાતિ વગેરેથી માડીને બ્રહ્મચવાસ સુધીના સર્વે ગુÈાથી રહિત થઈ જાય છે જેમ હુમેશા રાહુના સ સધી કૃષ્ણપક્ષની એકમથી માડીને દરરોજ ળાએની દૃષ્ટિએ ક્ષીણ થતે ચંદ્ર કૃષ્ણપક્ષની ચૌશની અપેક્ષા અમાસના દિવસે વધુ પરિમડળ વગેર
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माताधर्म कथा मण्डलेन । एव खलु एतेन क्रमे ग परिदीयमान २ यावद् अमागस्याचन्द्र 'चाउ इसि' चातुर्दश-चतुर्दशीसम्पन्धिन चन्द्रपाणिधाय-अपेक्ष्य 'नटे' नप्टा विलुप्त वर्णेन यावत् नष्टो मण्डलेन-वृताकाररूपेग ।
एवामेर '-एवमेव अनेनैव प्रकारेण हे अमणा आयुष्मन्तः । योऽस्माकं निग्रन्यो पा निर्ग्रन्थो वा यावत् प्रजितः सन् होनः 'सतीए' सान्त्या समया, एव होनः ' मुत्तीए' मुस्त्या-निर्लोभतया 'गुत्तीए' मुस्त्या मनोयोगादीना कुशलपतिरक्षणया, योगनिरोधलक्षणया घा, 'अग्नयेण ' आर्जवेन स्फटिकवद् बाह्याभ्यन्तरसरलभावरूपेण, 'मद्दवेण ' मार्दवेन-निरभिमानतालक्षणेन, 'लाप वेण' लाघवेनद्रव्यभावलघुतासपन्नेन-तत्र-द्रव्यतोऽल्पोपविकत्वेन भावतो राग. द्वेपरहितत्वेन, 'सच्चेण' सत्येन-अमृपाभापणरूपेग, 'तवेण' तपसा अशनादि मडल तक और अधिक यून हो जाता है । इस तरह क्रमशः हीन ही होता हुआ अमावस्या का चन्द्रमा चतुर्दशी के चन्द्रमा की अपेक्षा बिलकुल वर्ण आदि से लगाकर अपने परिमडल तक विलुप्त बन जाता है। (एवामेव समजाउसो। जो अम्ह निग्गंयो वा निग्गी वा जाव पन्वइए समाणे हीणे खतिए एव मुत्तीए अज्जवेण, मद्दवेग, लाघवेण सच्चेण, तवेण, चियाए, अकिंचणयाए, बभचेरवालेण ) इसी तरह हे आयुप्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्य अथवा निम्रन्थीजन यावत् प्रवजित होता हुआ यदि क्षमा से हीन है. मुक्ति-निलोभता अथवा मनोयोगदिकों की कुशल प्रवृत्ति रूप अथवा योगनिरोध रूप गुप्ति से स्फटित की तरह याह्य एव आभ्यन्तर में सरल परिणाम रूप ऑर्जव से, निरभिमानता रूप मार्दव से, अल्प उपधि रूप द्रव्यलयुना से राग द्वेपरहित रूप भाव लधुना से, अमृषाभाषण रूप सत्य से, अनકરતા ત્રીજને ચન્દ્ર વર્ણ પરિમડળ બધી બાબતમાં વધારે ન્યૂન થઈ જાય છે આ રીતે ધીમે ધીમે અનુક્રમે હીન થતા અમાસનો ચન્દ્ર ચૌદશના ચન્દ્ર કરતા વર્ણ પરિમડળ વગેરેની દષ્ટિએ તદ્દન વિલુપ્ત (અદશ્ય) થઈ જાય છે
(एबामेर समणाउसो! जो अम्ह निग्गथो वा निग्गथी वा जाव पचइए समाणे होणे खतीए एव मुत्तीए गुत्तीए जज वेण, महवेग, लाघवे ण, सच्चेण तवेण, चियाए, अचिणयाए, बभवेरमासेण)
આ રીતે જ હે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ અથવા નિઝ થી જન યાવત પ્રવછત થઈને જે ક્ષમારહિત છે, મુક્તિ-નિર્લોભતા અથવા મને વગેરેની કુશળ પ્રવૃત્તિ રૂપ અથવા પેગ નિરોધ રૂપ તિથી, સ્ફટિકની જેમ
: નતા ૩૫ ખાદ્ય તેમજ આલ્પતરમાં સરલ પરિણામ રૂપ આજ વથા
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मनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका थ० १० जीवाना वृद्धिहानिनिरूपणनम्
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मण्डलेन = वृत्ताकारतया भरति । तदन्न्नर च खट्ट द्वितीयाचन्द्रः प्रतिपच्चन्द्र मणिधाय अधिकतरः पूर्वदिनापेक्षा वर्णनात्यधिको भाति यावद अधिकतसे मण्डलेन भर्त्रात । क्रमशो वृद्धिं मामोति एव खलु एतेन क्रमेण 'पखिमाणे २१ परिवर्धमान २ प्रतिदिन वृद्धिं लभमानो २ यावत् पूर्णिमाचन्द्र' 'चाउद्दर्सि ' चातुर्दशं चतुर्दशी सम्बन्धिन चन्द्र प्रणिधाय ' पडिपुण्णे ' प्रतिपूर्ण' = सम्पूर्णो वर्णेन यावत् प्रतिपूर्णो मण्डलेन - वृत्ताकाररूपेण भवति, पूर्णिमाचन्द्र कलकलाकलाप कलिततया परिपूर्ण मण्डल्वान भवतीत्यर्थः ।
,
(
एवमेव ' एवमेनेन प्रकारेण हे श्रमणा आयुष्मन्त' ! ' जान यावत् - योऽस्माक निर्ग्रन्थो वा २ जाचार्योपाध्यायानामन्तिके मनजितः सन् अधिक वृद्धि सम्पन्नः सान्त्या यावद् अधिको ब्रह्मचार्य पासेन । तदनन्तर च खलु की प्रतिपदा का चन्द्रमा अमावास्या के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से ले कर मंडल तक बर्द्धमान होता हुआ अधिक होता है, और उसके बाद द्वितीया का चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से लेकर मटल तक अधिकतर हो जाता है - इस तरह के क्रम से जैसे प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त करता हुआ वह चन्द्रमा जन पूर्णिमा तिथि तक पहुँच जाता है तो चतुर्दशी तिथि के चन्द्रमा की अपेक्षा उस दिन वर्ण से लेकर अपने मंडल से परिपूर्ण पन जाता है । उसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधु अथवा निर्ग्रन्थी साध्वी आचार्य उपाध्याय से दीक्षित यनकर क्षान्ति गुण से लेकर ब्रह्मचर्यवास तक के गुणों से वृद्धिसपन्न होता है ।
और इस तरह इन सब से धीरे धीरे वह पहिले की अपेक्षा और अधिकतर सम्पन्न बन जाता है। इस प्रकार क्रमशः सम्पन्न बनता हुआ
જેમ શુકલ પક્ષની એકમને ચંદ્ર અમાસના ચંદ્ર કરતા વર્ણ મડળ વગેરેની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિ પામે છે અને ખીજના ચંદ્ર જેમ એકમના ચક્ર કરતા વધુ પરિમ ડલ વિગેરેની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિ પામે છે આ રીતેજ અનુક્રમથી દરરાજ વૃદ્ધિ પામતે ચક્ર જ્યારે પૂનમની તિથિ સુધી પહેાચી જાય છે ત્યારે ચૌદશના ચદ્રની અપેક્ષાએ તે દિવસ વધુ પરિમ ડળ વગેરેથી પરિપૂર્ણુતા મેળવે છે આમ જ હે આયુમન્ત શ્રમણે ! જે અમારા નિવ્ર થ ના કે નિથી સાધ્વી આચાય ઉપાધ્યાયની પાસેથી દીક્ષા મેળવીને ક્ષાતિ ગુણુથી માડીને બ્રહ્મચવાસ સુધીના ધા ગુણેથી વૃદ્ધિસપન્ન થઈ જાય છે
અને આ રીતે આ ખધા ગુણાથી ધીમે ધીમે તે પહેલા કરતા વધુ સપન્ન થઈ જાય છે આ માણે અનુક્રમે ગુણુ મપન્ન ધતા તે ક્ષાનિ બ્રહ્મ
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ताधर्मकथा भाति, तथैव मुनिः कुगुस्ससर्गात् आसन्नपार्श्वस्थारि सङ्गात् , वान्तसम्यक्रम सम्बन्धात् , प्रमादानसे वनात् , चारित्रापरणार्मोदयाच क्रमशः साम्यादि गुणहानि माप्त: सन् नष्टो भवतीति भार ।
अथ द्धिदृष्टान्तमाह
यथा या शुक्लपक्षस्य गतिपन्चन्द्रोऽमावास्यायाश्चन्द्र मणिधाय अपेक्ष्यअमावास्या च द्रापेक्षयेत्यर्थ 'अहिए ' अधिको वर्णेन यापद् अधिको बर्द्धमानो वस्या के दिन वर्णादि से लेकर परिमडल तक के अपने समस्त गुणों से नष्ट हो जाता है। उसी तरह मुनि कुगुरुके ससर्ग से अथवा अव सन्न पार्श्वस्थादिकी सगति से सम्यक्त्व के छुट जाने के कारण और प्रमादस्थानों के सेवन करने के कारण उदित हुए चारित्र मोहनीय कर्म के प्रभाव से क्रमशः क्षान्त्यादिगुणो की हानि को प्राप्त करता हुआ नष्ट हो जाता है। अब सूत्रकार वृद्धि को स्पष्ट करने के लिये उसे दृष्टान्त से समझाते हैं-(जहावा सुकपरस्म पडिवयाचदे अमावासाए चंद पणिहाय अहिए वपणेण जार अहिए मडलेण तयाण तर च ण विइया चदे पडिवयाचद पणिहाय अरिययराए वण्णेणं जाव अहिययराए मंडलेणं-एव खल एएण कमेण पडिबुड़माणे२ जाच पुण्णिमा चदे चाउ धसि चद पणिहाय पडिपुण्णे चण्णेण जोव पडिपुण्णे मडलेण, एवामेव समाणाउसो ! जाव पव्यहए समाणे अहिए खती जार बभचेरवासेण तयाणतर च ण अहिपश्यमा खतिए जाच चमचेरवासेण एव खलु एण्ण कमेण परिवड़े माणे २ । बभचेरवासेण ) जैसे शुक्ल पक्ष પિતાના બધા ગુણેથી રહિત બની જાય છે તેમજ મુનિ પણ કુગુરૂના સ સર્ગથી અથવા અવસન્ન પાર્શ્વસ્થ વગેરેની સગતિથી સમ્યકત્વ રહિત થઈને પ્રમાદ સ્થાનોના સેવનથી ઉદય પામેલા ચારિત્ર મેહનીય કર્મના પ્રભાવથી અનુક્રમે ક્ષાતિ વગેરે ગુણોથી રહિત થઈને નાર પામે છે હવે સૂત્રકાર વૃદ્ધિને સ્પષ્ટ કરવાની ઈચ્છાથી દષ્ટાત પૂર્વક સમજાવતા કહે છે__ (जाहावा सुक्रुपवस्त पडियाचदे अमावासाए चद पणिहाय अहिए वण्णेण जाव अहिए मडलेण नयाणतर च ज विदयाचदे पडिवया चद पणिहाय अहियय राए वण्णेण जाव अहिययराए मडवेण एव खलु एएण कमेण पडिवुड़े माणे २ जीव पुगिमाचदे चाउर्मि चद पणिहाय पडिपुगेण वण्णेग जाव पदिपुणे पडलेण, एवामेव समणाउसो ! जाव पयतिए समाणे अहिए खतीए जार बभचेखासेण तयाणतर च ण अहिययराए खतीए जार वभचेरवासे ण एवं खलु एण्ण कमेण परिवडेमाणे २ वभचेरवासेण )
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मनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका थ० १० जीवाना वृद्धिहानिनिरूपणनम्
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मण्डलेन = वृत्ताकारतया भवति । तदन्तर च स द्वितीया चन्द्रः प्रतिपच्चन्द्र प्रणिधाय अधिकतरः पूर्वदिनापेक्षया वर्णनात्यधिक भरत याद अधिकतरों मण्डलेन भवति । क्रमशो वृद्धिं प्राप्नोति एव खल एतेन क्रमेण परिमाणे २१ परिवर्धमान २ प्रतिदिन वृद्धिं लभमानो २ यावत् पूर्णिमाचन्द्रः 'चाउदसिं चातुर्दशं चतुर्दशी सम्बन्धिन चन्द्र मणिधान 'पडिपुणे ' प्रतिपूर्ण सम्पूर्णो वर्णेन यावत् प्रतिपूणो मण्डलेन - वृत्ताकाररूपेण भवति, पूर्णिमाचन्द्रः सकलकलाकलापकलिततया परिपूर्ण मण्डल्वान भवतीत्यर्थः ।
'
एवमेव ' एवमेव = अनेनैव प्रकारेण हे श्रमणा जायुष्मन्तः ! ' जान ? यावत्-योsस्माक निर्ग्रन्थो वा २ जाचार्योपाध्यायानामन्ति के मनजितः सन् अधिक: = वृद्धि सम्पन्न. क्षान्त्या यावद् अधिको ब्रह्मचार्य नासेन । तदनन्तर च खलु की प्रतिपदा का चद्रमा अमावास्या के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से ले कर मंडल तक बर्द्धमान होता हुआ अधिक होता है, और उसके बाद द्वितीया का चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से लेकर मंडल तक अधिकतर हो जाता है-इस तरह के क्रम से जैसे प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त करता हुआ वह चन्द्रमा जन पूर्णिमा तिथि तक पहुँच जाता है तो चतुर्दशी तिथि
चन्द्रमा की अपेक्षा उस दिन वर्ण से लेकर अपने मडल से परिपूर्ण पन जाता है । उसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो । जो हमारा निर्ग्रन्थ साधु अथवा निर्ग्रन्थी साध्वी आचार्य उपाध्याय से दीक्षित बनकर क्षान्ति गुण से लेrर ब्रह्मचर्यवास तक के गुणों से वृद्धिसपन्न होता है। और इस तरह इन मन से धीरे धीरे वह पहिले की अपेक्षा और अधिकतर सम्पन्न बन जाता है। इस प्रकार क्रमशः सम्पन्न बनता हुआ
જેમ શુકલ પક્ષની એકમના ચદ્ર અમાસના ચંદ્ર કરતા વણુ મડળ વગેરેની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિ પામે છે અને ખીને! ચદ્ર જેમ એકમના ચદ્ર કરતા વર્ણ પરિમ ડલ વિગેરેની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિ પામે છે આ રીતેજ અનુક્રમથી દરરાજ વૃદ્ધિ પામતે ચદ્ર જ્યારે પૂનમની તિથિ સુધી પહેાચી જાય છે ત્યારે ચૌદશના ચદ્રની અપેક્ષાએ તે દિવસ વણુ પરિમડળ વગેરેથી પરિપૂર્ણતા મેળવે છે આમ જ હું આયુષ્મન્ત શ્રમણે ! જે અમારા નિથ સાધુ કે નિથી સાધ્વી આચાય ઉપાધ્યાયની પાસેથી દીક્ષા મેળવીને ક્ષાતિ ગુણથી માડીને પ્રાચવાસ સુધીના ખધા ગુણેાથી વૃદ્ધિસપન્ન થઈ જાય છે
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અને આ રીતે આ બધા ગુણાથી ધીમે ધીમે તે પહેલા કરતા વધુ સ પન્ન થઈ ાય છે. આ પ્રમાણે અનુક્રમે ગુણુ ઞપન્ન ધતે તે ક્ષાનિ બ્રહ્મ
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हाताधर्मकथा अधिकतरः अत्यविकः क्षान्त्या याद् अधिस्तरो ब्रह्मवर्षासेन । एष खल एतेन क्रमेण 'परियडमाणे २' परिवर्धमानः २ क्रमशो रद्विसम्पमो भूत्वा यावत् 'पडिपुन्ने' प्रतिपूर्ण सम्मको ब्रह्मचर्यवासेन, क्षान्त्यादिसर्वगुणसम्पन्नो भवतीत्यर्थः।
यथा च द्रो नित्यराहुससर्गापगमेन शुक्ल प्रतिपदमारभ्य मतिदिवसे कलामि वर्धमानः सन् क्रमेण शुक्लचतुर्दश्यपेक्षा पूर्णिमाया वर्णादिना यावन्मण्डलेन परि पूर्णों भवति तथैन मुनि बुगुरससर्गादिपरित्यागेन चरित्रावरणामक्षयोपशमादिना क्रमशः क्षान्त्यादि गुगदि मानुजन् केवलज्ञान केवलदर्शनादिगुणैः परिपूर्णो भवतीति।
एव खलु-जीवा अनेन प्रकारेण क्षान्त्यादि गुणद्धथा गर्द्धन्ते वा तेपा हान्या वह क्षान्ति गुण से लेकर ब्रह्मचर्यवास तक के समस्त गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। जिस प्रकार राहु के स सर्ग के अपनयन से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन अपनी कलाओं से अभिवर्धमान होता हुआ चन्द्रमा क्रमशः शुलचतुर्दशी कि अपेक्षा पूर्णिमासी के दिन वर्णादि से लगाकर मण्डल तक की अपनी समस्त कलाओ से परिपूर्ण हो जाती है
इसी तरह मुनि भी कुगुरु आदि के ससर्ग आदि के परित्यागसे तथा चारित्रावरण कर्म के क्षयोपशम आदि से क्रमशः क्षान्त्यादि गुणों की वृद्धि करता हुआ केवलज्ञान, केवल दर्शन आदि गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। (एव खलु जीवा बड़ा ति, वा रायति वा, एव खलु जबू समणेण भगवता महावीरेण दसमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते ચયવાસ વગેરે બધા ગુણેથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે જેમ રાહુના સ સર્ગરહિત થઈને શુકલ પક્ષની એકમથી માડીને દરરોજ પિતાની કળાઓની વૃદ્ધિ કરતો ચદ્ર અનુક્રમે શુકલ પક્ષની ચૌદશ કરતા પૂનમના દિવસે વર્ણ પરિમડળ વગે રેની પિતાની સંપૂર્ણ કળાઓથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે
તેમજ મુનિ પણ કુગુરુ વગેરેની સોબત વગેરેને ત્યજીને તેમજ ચારિત્ર વરણ કર્મના ક્ષયોપશમ વગેરેશી અનુક્રમે પોતાના ક્ષાતિ વગેરે ગુણોની વૃદ્ધિ કરતે કેવળજ્ઞાન, કેવળ દર્શન વગેરે ગુણોથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે.
(एव खलु जीका वति, वा हायति वा एवं खलु जबू! समणेण भगवता महावीरेणं दसमस्स णायज्झयणस्स जयमद्धे पण्णते विमि '
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नगरपणी टीका अ० १० जीवानांवृद्धिहानिनिरूपणम्
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हीयन्ते वा । एव खलु हे जम्मूः । श्रमणेन भगवता महानीरेण दशमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अय = पूर्वोक्तः अर्थ = भाव प्रज्ञप्त । 'त्तिनेमि' इति ब्रवीमि पूर्ववत् ॥०१॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाफलितललितकलापालापक - मरिशुद्ध गद्यपद्यनै+ग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिनाकरपूज्यश्री घासीलालव्रतिविरचिताया श्री ज्ञाताधर्मकथासूत्रस्यानगारधर्मामृdaण्याख्याया व्याख्यायां दशममध्ययन समाप्त ॥ १० ॥
तिमि ) इस प्रकार क्षात्यादि गुणों की वृद्धि से जीव बढ़ते हैं और उ नकी हानि से जीव घटते हैं यह कथन घन जाता है इस तरह हे जबू ! श्रमण भगवान् महावीरने दशवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रज्ञप्त किया है । मैंने उन्ही के मुख से जैसा सुना है उसी के अनुसार यह कहा है || सू० १ ॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी मशराजगृत धर्मकथासूत्र "की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका दशवा अध्ययन समाप्त ॥ १०॥
ક્ષાતિ વગેરે ગુણેની વૃદ્ધિથી જીવે વૃદ્ધિ પામે છે અને ક્ષાતિ વગેરે ગુણાની હાનિથી જીવે ઘટે છે. આમ આ કથનની સાકતા સિદ્ધ થઈ જાવ છે આ પ્રમાણે હું જ ભૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમા જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત અ` નિરુષિત કર્યાં છે આ અમે તેમના મુખેથી જે પ્રમાણે सामज्यो छे ते ? प्रमाणे तभारी सामे रभू ये छे ॥ सूत्र "१”॥
જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીયાજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાધ્યયન સૂત્રની અનગારધાંમૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યાનું દરામુ અધ્યન સમાપ્ત ॥૧૦॥
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हाताधर्मकथा अधिकतर: अत्यधिकः क्षान्त्या याद् अपितरो ब्रह्मवर्षासेन । एवं खल एतेन क्रमेण 'परिवद्रमाणे २परिवर्धमानः २ प्रमशो रद्विसम्पमो भूखा यावत् 'पडिपुन्ने ' प्रतिपूर्ण =सम्मको ब्रह्मचर्यवासेन, क्षान्त्यादिसर्वगुणसम्पन्नो भवतीत्यर्थः।
यथा च द्रो नित्यराहुससर्गापगमेन शुक्ल प्रतिपदमारभ्य प्रतिदिवसे क्लामि वर्धमानः सन् क्रमेण शुक्लचतुर्दश्यपेक्षा पूर्णिमाया रणादिना यावन्मण्डलेन परि पूर्णों भवति तथैव मुनि गुरससर्गादिपरित्यागेन चरित्रावरण मक्षयोपशमादिना क्रमशः क्षात्यादि गुगदि पाउनुगन् केवलज्ञान केवनदर्शनादिगुणैः परिपूर्णों भवतीति।
एव खलुम्जीया अनेन प्रकारेण क्षान्त्यादि गुणद्धया पढन्ते वा तेपा हान्या वह क्षान्ति गुण से लेकर ब्रह्मचर्यवास तक के समस्त गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। जिस प्रकार राहु के ससर्ग के अपनयन से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन अपनी कलाओं से अभिवर्धमान होता हुआ चन्द्रमा क्रमशः शुक्लचतुर्दशो कि अपेक्षा पूर्णिमामी के दिन वर्गादि से लगाकर मण्डल तक की अपनी समस्त कलाओ से परिपूर्ण हो जाती है
इसी तरह मुनि भी कुगुरु आदि के ससर्ग आदि के परित्यागसे तथा चारित्रावरण कर्म के क्षयोपशम आदि से क्रमशः क्षान्त्यादि गुणों की वृद्धि करता हुआ केवलज्ञान, केवल दर्शन आदि गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। (एव खलु जीया बड़ाति, वा रायति वा, एव खलु जबू समणेण भगवता महावीरेण दसमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्त
ચર્યવાસ વગેરે બધા ગુણેથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે જેમ રાહુના સ સગરહિત થઈને શુકલ પક્ષની એકમથી માડીને દરરોજ પિતાની કળાઓની વૃદ્ધિ કરતા ચદ્ર અનુક્રમે શુકલ પક્ષની ચૌદશ કરતા પૂનમના દિવસે વ પરિમડળ વગે રેની પિતાની સંપૂર્ણ કળાએથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે
તેમજ મુનિ પણ કગુરુ વગેરેની સેબત વગેરેને ત્યજીને તેમજ ચારિત્ર વરણ કમના ઉપશમ વગેરેથી અનુક્રમે પિતાના ક્ષાતિ વગેરે ગુણોની વૃદ્ધિ કરતે કેવળજ્ઞાન, કેવળ દર્શન વગેરે ગુણેથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે
(एव खलु जीवा वति, वा हायति वा एवं खलु अबू । समणेण भगवता महावीरेणं दसमस्स णायज्झयणस्स जयमद्दे पण्णते विबेमि ।
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीकाम०११ जीशनामाराधनिराधकबनिरूपणम् ६६९ पुंफिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अतीवर उवसो. भेमाणा चिति, जयाणं दीविच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावारी मदावाया महावाया वायति तयाणं वहवे दावदवा रुक्खा पत्तियां जाव चिट्ठति अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्तपुप्फफला सुकरुक्खओ विव मिलायमाणा२ चिट्ठति, ऎवामेव समणोउसो ! जो अम्ह निग्गंथो वो निग्गंथी वा जाव पव्वइये समाणे वहणं समणाणं ४ सम्म संहति जावं अहियासे वहूण अण्णउत्थियाणं वहणं गिहाण नो संम्मे सहइ नो खमइ नो तितिक्खइ नो अहियासेइ एस ण मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते । समणाउसो । जया णं सामुद्दगाईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महाबाता वायति तदाणं वहवे दावद्दवा स्वखा जुण्णा झोडाजाव मिलायमाणार चिहति, अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभे. माणार चिटुति, एवामेव समणाउसो । जो अम्हे निग्गंथो वा निग्गंथी वा पवइए समाणे वरुणं अण्णउत्थियाण वहणं गिहत्थाण सम्म सहइ बहूण समणाणं ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्ते । समणाउसो | जयाण नो दीविच्चगा जो सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव महा. वाया वायति तयाण सव्वे दावदवा स्वखा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा चिट्टति, अप्पेगइया जाव उबसोभेमाणार चिति, एवामेव समणाउसो | जाव पवइए समाणे वहूण समणाणं ४ हर अन्नउस्थियगिहत्थाण नो सम्म सहइ एसणं मए
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अथ एकादशमध्ययनं प्रारभ्यतेगत दशममभ्ययन, साम्पतमेकादशमारभ्यते । पूर्वस्मिअध्ययने कृष्णा पक्षचन्द्रदृष्टान्तेन प्रमादाममादरतो क्षान्त्यादिगुणहानिटदिभ्यामनर्थानों पति पादिती, इह तु मार्गाराधनविराधनाभ्यामर्थायी पदश्यते, अथ जम्बूस्वामी पृच्छति-'जइण भते ' इत्यादि ।
मूलम्-जइण भते । समणेण जान सपत्तेण दसमस्स नायज्झणस्स अयमझे पप्णत्ते एकारसमस्स णं भते गायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते , एवं खल्लु जवू । तण कालेणर रायगिहे गोयमे एवं वयासों-कहण भते । जीवा आराहगावा विराहगा वा भवंति ?, गो० । से जहा णामए एगसि समुद्दकुलसि दावदवा नाम रुक्खा पण्णत्ता किण्हा जाव निउरुवभूया पत्तिया
दाव द्रव (वृक्ष) नामक ग्यारहर्वा अध्ययन प्रारम दशवा अध्ययन समाप्त हो चुका-अब ग्यारहवा अध्ययन प्रारभ होता है । इस अध्ययनका पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकारसे सबन्ध है कि पूर्व अध्ययन में कृष्ण और शुक्ल पक्षके चन्द्रमा के दृष्टान्त से पमादी और अप्रमादी सयमी के क्षान्त्यादि गुणों की हानि एव वृद्धि रूप अनर्थ एव अर्थ की प्राप्ति होनी प्रतिपादित की गई है। अब इस अध्ययन द्वारा यह कहा जा रहा है कि जो सयम मार्ग की आराधना तथा विराधना करते है वे अर्थ ओर अनर्थ की प्राप्ति के पात्र होते हैं। जबू स्वामी श्री सुधर्मासे पूछते है कि 'जइण भते ! समणेण' इत्यादि।
દાવદ્રવ (વૃક્ષ) નામે અગિયારમું અધ્યયન પ્રારંભ દશમું અધ્યયન પુરૂ થઈ ચૂક્યું છે અને હવે અગિયારમું અધ્યયન આર ભ થાય છે આ અધ્યયનને પહેલાના અધ્યયનની સાથે આ પ્રમાણેને સ બ ધ છે પહેલાના અધ્યયનમા કૃષ્ણ અને શુકલ પક્ષને ચન્દ્રમાના દષ્ટાતથી પ્રમાદી અને અપ્રમાદી સાયમીને ક્ષાતિ વગેરે ગુણેની પ્રાપ્તિ થવી, આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છેહવે આ અધ્યયનમા જે સયમ માર્ગની આરાધના તેમજ વિરાધના કરે છે તેઓ અર્થ તેમજ અનર્થના પાત્ર ગણાય છે આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે જ બૂસ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પ્રશ્ન કરે છે કે
(जइण भते । समणेण " इत्यादि ।
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নাঘমামুনমুখিতা কাগ সীত্বালাকার এবংৰনিক্য বং पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अतीव२ उवैसोभैमाणा चिटुंति, जयाणं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाय मदावाया महावाया वायति तयाण बहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति अप्पेगइया दावदवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्तपुप्फफला सुक्करुनखओ विव मिलायमाणारं चिट्ठति, ऎवामेव समणोउसो । जो अम्ह निम्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइये समाणे वहण समणाणं ४ सम्म संहति जावे अहियासे बहूण अण्णउत्थियाणं वहणं गिहाणं नो सम्में सहइ नो खमइ नो तितिक्खइ नो अहियासेइ एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते । समणाउसो । जया णं सामुदगाईतिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाता वायति तदाणं वहवे दावद्दवा स्वखा जुण्णा झोडाजाव मिलायमाणार चिहति, अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभे. माणा२ चिटुति, एवामेव समजाउसो । जो अम्हे निग्गंथो वा निगंधी वा पवइए समाणे वहणं अण्णउत्थियाण वहूर्ण गिहत्थाणं सम्म सहइ बहूण समणाणं ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्ते । समणाउसो । जयाणं नो दीविच्चगा जो सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव महावाया वायति तयाण सव्वे दावदवा स्वखा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा चिटुति, अप्पेगइया जाव उवसोभेमाणारचिट्ठति, एवामेव समणाउसो | जाव पवइए समाणे बहूण समणाणं ४ र अन्नउत्थियनिहत्थाणं नो सम्म सहइ एसणे मए
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अथ एकादशमध्ययनं प्रारभ्यते
गत दशममभ्ययन, साम्पतमेकादशमारभ्यते । पूर्वस्मिक्रध्ययने कृष्णशुलपक्षचन्द्रदृष्टान्तेन ममादाममाद तो क्षान्त्यादिगुणहानिद्धिभ्यामनयनय प्रति पादितौ इह तु मार्गाराधनविराधनाभ्यामर्थाय मदश्येते अथ जम्बूस्वामी पृच्छति' जइण भते ' इत्यादि ।
मूलम् - जइण भंते । समणेण जाव सपत्तेण दसमस्त नायज्झणस्स अयमट्टे पण्णत्ते एक्कारसमस्स ण भते णायज्झयणरूस के अंट्ठे पण्णत्ते ?, एवं खलु जबू । तेण कालेण२ रायगिहे गोयमे एवं वयासी - कहण भते । जीवा आराहगावा विराहगी वा भवति १, गो० ' से जहा णांमए एगंसि समुद्दकुलसि दावदेवा नाम रुक्खा पण्णत्ता किव्हा जाव निउरुवभूया पत्तिया
दाव द्रव ( वृक्ष ) नामक ग्यारहव अध्ययन प्रारंभ
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दशवा अध्ययन समाप्त हो चुका-अ ग्यारहवा अध्ययन प्रारंभ होता है । इस अध्ययनका पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध है कि पूर्व अध्ययन में कृष्ण और शुक्ल पक्षके चन्द्रमा के दृष्टान्त से प्रमादी और अप्रमादी सयमी के क्षान्त्यादि गुणो की हानि एव वृद्धि रूप अनर्थ एव अर्थ की प्राप्ति होनी प्रतिपादित की गई है। अब इस अध्ययन द्वारा यह कहा जा रहा है कि जो सयम मार्ग की आराधना तथा विराधना करते है वे अर्थ ओर अनर्थ की प्राप्ति के पात्र होते हैं। जबू स्वामी श्री सुधर्मासे पूछते है कि 'जइण भते ! समणेण' इत्यादि ।
દાવદ્રવ (વૃક્ષ) નામે અગિયારમુ અધ્યયન પ્રાર ભ
દશમું અધ્યયન પુરૂ થઈ ચૂકયુ છે અને હવે અગિયારમુ અધ્યયન આર ભ થાય છે. આ અધ્યયનના પહેલાના અધ્યયનની સાથે આ પ્રમાણેના સ મ ધ છે પહેલાના અધ્યયનમા કૃષ્ણ અને શુકલ પક્ષના ચન્દ્રમાના દૃષ્ટાતથી પ્રમાદી અને અપ્રમાદી સયમીને ક્ષાતિ વગેરે ગુણેાની પ્રાપ્તિ થવી, આ વાતનુ સ્પષ્ટીકરણ કરવામા આવ્યુ છે. હવે આ અઘ્યયનમા જે સયમ માની આરાધના તેમજ વિરાધના કરે છે તેએ અથ તેમજ અનથ ના પાત્ર ગણાય કરવામા આવે છે. જમ્મૂસ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પ્રશ્ન કરે છે કે--- ( जइण भते । समणेण " इत्यादि ॥
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આ વાત સ્પષ્ટ
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अनगारधर्मामृतापिणी टीकाH०११ जीवानामाराधकपिराधकत्वनिरूपणम् ६६९ पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अतीवर उवसो. भेमाणा चिटुंति, जयाणं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तयाण वहवे दावद्दवारुम्खा पत्तियों जाव चिट्ठति अप्पेगइया दावदवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्तपुप्फफला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा चिंति, एवामेव समणोउसो। जो अम्ह निगंथो वा निग्गंधी वा जाव पव्वइये समाणे वहण समणाणं ४ सम्म संहति जावे अहियासे वहूण अण्णउत्थियाणं वहूर्ण गिहाणं नो सम्म सहइ नो खमइ नो तितिक्खइ नो अहियासेइ एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते । समणाउसो । जया णं सामुद्दगाईसि पुरवाया पच्छावाया मंदावाया महाबाता वायति तदा वहवे दावदवा स्वखा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणार चिट्ठति, अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभे. माणार चिति, एवामेव समणाउसो। जो अम्हे निग्गंथो वा निग्गंथी वा पवइए समाणे वहणं अण्णउत्थियाण वहूर्ण गिहत्थाणं सम्म सहड बहूर्ण समणाण ४ नो सम्म सहइ एसणं मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्ते । समणाउसो । जयाणं नो दीविच्चगा णो सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव महा. वाया वायति तयाणं सब्वे दावद्दवा स्वखा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा चिट्ठति, अप्पेगइया जाव उवसोभेमाणारचिट्ठति, एवामेव समणाउसो । जाव पवइए समाणे वहूर्ण सेमणाणं व अन्नउत्थियगिहत्थाण नो सम्म सहइ एसणं भए
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এমঘকথা सव्वविराहए पण्णचे । समणाउसो! जयाण दीविच्चगाविसामु
गावि ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव वायंति तया ण सब्वे दावद्दव्वा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्टति, एवामेव समणाउसो
जो अम्ह जाव पव्वइए समाणे चहूण समणाण४ बहूण अन्नउथियनिहत्थाण सम्म सहइ एसण मए पुरिसे सब्बाराहए पण्णते। एव खलु गोयमा । जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवति, एवं खलु जब । समणेण भगवया० एकारसस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिवेमि ॥ सू० १ ॥
॥ एकारसम नायज्झयणं समत्त ।। ११ ।। टीका-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगाता महावीरेण यावत् सिद्धिगति सम्माप्तेन दशमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अपम् पूर्वोक्त प्रकारो गुगहानिरद्धिरूप अर्थ: भावः प्रज्ञात कथितः, अथ एकादशस्या' ययमस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽथे को भावः प्रज्ञप्तः १ । सुधर्मास्वामी कथयति-एव खलु हे जम्बू । तस्मिन् काले
टीकार्थ-(जइण भते !) मदि हे भदत ! (समणेण जाव सपत्तेण दस मस्स नायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते एक्कारसमस ण भत्ते । णायज्झयणस्सके अटे पण्णत्ते) श्रमण भगवान महावीर प्रभुने कि जो मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं, दशवे ज्ञाता ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है- उहो श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ने ग्यारहवें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? इस प्रकार जब स्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामी उनसे कहते है कि ( एव खलु जब!) सुनो जो उन्हो ने ग्यारहवे
AN-(जइण भते ! ) 3 wed! (समणेण जाव सपत्तेण दसमस्त नायज्झयणस्स अयमहे पण्णते एक्कारसमस्स ण भते ! णायज्झयणस्स के अटे पण्यत्ते)
મુક્તિ મેળવેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે તેઓશ્રીએ અગિયારમો જ્ઞાતાયયનને છે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે? આ રીતે જ સ્વામીના પ્રશ્નને સુઘમાં
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धर्मामृतवर्षिणी टीका २०११ जीवानामाराधक विराधकत्वनिरूपणम् ६७१
तस्मिन् समये राजगृहे नगरे गौतम एकमनादीत् - एवमपृ छत्-कथ खलु भदन्त ! हे भगवान् ! जीवा राजका=ज्ञानादि रत्ननगरूपमोक्षमार्ग नाका', विराधका = तद्विपरीता भवन्ति । एतमर्थ भगवान् दृष्टान्तेन वर्णयति - हे गौतम! तद्यथा नामक=यथा दृष्टान्तम् - एकस्मिन् समुद्रकुले = सागरतटे ' दावद्दवा ' दावद्रवा नाम = एतान्नामधेया वृक्षाः प्रज्ञप्ताः । कीदृशा. ' इत्याह-' विण्हा ' कृष्णा कृष्णवर्णा यावत् महामेघनिकुरम्प्रभूता' =नलमम्भृतमेवन्दमदशा पत्तिया '
"
ज्ञाताध्ययन का अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है- ( तेण कालेण तेण समएण रायगिहे गोयमे एव वयासी) उस काल और उस समय में राजगृहनगर मे श्रमण भगवान् महावीर प्रभु पधारे - उनसे गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा- ( कण्ण भते ! जीवा आराहगा वा विराह गा वा भवति ? ) हे भदत ' जीव ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग के आराधक साधक- और विरापक कैसे - किस कारण से होते है ? ( गोयमा । से जहानाम० एमसि समुहकुलसि दावा नोम रुक्खा पण्णत्ता) प्रभु ने उनकी इम बात का उत्तर इस तरह के दृष्टान्त से दिया हे गौतम 1 के समुद्र तटपर दावद्रव " इस नामके बहुत से वृक्ष खडे हुए थे ( किव्हा जाब निऊरनभूया पत्तिया पुष्क्रिया फलिया हरियगरेरिज्जमाना, सिरीए अतीव २ उबसोभेमाणाविति ) ये सब जल से भरे हुए मेघों के समूह जैसे कृष्ण वर्ण के थे स्वामी तेने है ( एवं सलु जनू 1 ) हे ज्यू ! सालजो, प्रभुसे अगि ચારમા જ્ઞાતાધ્યયનના અર્થ આ પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યાં છે
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( तेण कालेन तेण समएण रायगिदे० गोयमे एव वयासी )
તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર पधार्थ गौतम स्वाभीओ तेभने माप्रमाणे प्रश्न ये-- ( कण्ण भते ! जीवा आराहगावा विराहगावा भवति ? हे लहत ! लव ज्ञान वगेरे रत्नत्रय ३५ મેક્ષ માર્ગના આરાધક-સાધક અને વિરાધક કેવી રીતે-શા કારણથી થાય છે ?
( गो० 1 से जहानामए एगसि समुद्दकूलसि दानवा नाम रुक्खा पण्णत्ता) પ્રભુએ તેમના તે પ્રશ્નના જવાબ દૃષ્ટાન્તના આધારે આપતા કહ્યુ હૈ ગૌતમ ! સમુદ્રને દ્વદ્રવ જતિના ઘણાં વૃધ્યેા હતા
( विण्हा जाव निकरन भूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरे रिज्जमाणा, सिरीए अतीव २ उनसोभेमाणा चिद्वति )
એ બધા વૃક્ષા જળપૂણૅ મેઘ સમૃહેાની જેમ કાળા ૨ગના હતા અંધા વૃક્ષા, પત્રા, પુષ્પા અને ફળાવી સમૃદ્ધ હતા લીલા ૨૫થી એ વૃક્ષ શેલતા
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६७०
छाता का
सव्वविराहए पण्णत्ते । समणाउसो ! जयाण दीविच्वगावि सामुगावि ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव वायति तया णं सव्वे दावद्दव्वा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणाउसो जो अम्ही जाव पव्वइए समाणे बहूणं समणाण४ बहूणं अनउत्थियगिहत्थाणं सम्म सहइ एसण मए पुरिसे सव्वा राहए पण्णत्ते । एव खलु गोयमा । जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवति, एव खलु जंबू । समणेण भगवया० एक्कारसस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिमि ॥ सू० १ ॥
|| एक्कारसम नायज्झयणं समन्त ॥ ११ ॥
टीका - यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्विगति सम्प्राप्तेन दशमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयम् = पूर्वोक्त प्रकारो गुगहानिरृद्धिरूप अर्थः भावः प्रज्ञप्त = कथित', अथ एकादशस्या ययमस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः = को भावः प्रज्ञप्तः ९ । सुधर्मास्वामी कथयति - एन खलु हे जम्बूः । तस्मिन् काले
टीकार्थ - ( जइण भते !) मदि हे भदत । (समणेण जाव सपतेण दस मस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते एक्कारसमस्सण भत्ते । णायज्झय सके अट्ठे पण्णत्ते) श्रमण भगवान् महावीर प्रभुने कि जो मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं, दशवे ज्ञाता ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है- उही श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ने ग्यारहवें ज्ञानाध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? इस प्रकार जनू स्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि ( एव खलु अबू ! ) सुनो जो उन्हो ने ग्यारहवें
अर्थ -- ( जइण भते 1 ) हे लढत !
(समणेण जात्र सपत्तेण दसमस्त नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते एक्कारसमस्स भते ! णायणस्स के अपगते )
મુક્તિ મેળવેલા શ્રમણ્ ભગવાન મહાવીરે દશમા જ્ઞાતાયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપ અથ નિરૂપિત કર્યાં છે તે તેઓશ્રીએ અગિયારમે જ્ઞાતાધ્યયનને शो अर्थ भ३चित यो छे ? भा रीते पू स्वामीनाथने
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ममगारधर्मामृतवपिणी टी० अ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् ६७३ इत्ययः दावद्रया वृक्षा ' जुना' जीर्णाः चिरकालीना. 'झोडा' झोड: शटन, तद् योगाद् वृक्षा अपि झोडा शटितमूलस्क्न्या इत्यर्थः, 'परिसडियपद्धपत्तपुप्फ फला' परिशटितपाण्डु पत्रपुष्यफला'-परिशटितानि जीर्णानि-अतएर पाण्डूनिईपत्पीतानि पत्राणि पुष्पाणि फलानि च येपा ते तथोक्ता , ' सुक्कालावओविव निलायमाणा'शुपमा विम्लायन्तः शोभारहितास्तिष्ठन्ति । भगनानाह'एवामेव ' एवमेव अनेनैव मझारेण 'समणाउसो' हे अमणा आयुष्मन्तः । योऽस्माकनिमन्यो वा निर्ग्रन्थी पायावत्पाजितः सन् वहूना श्रमणाना पहीनां श्रम गीना नहुनाकागा वहीना श्राविकाना कर्कश कठोर वचनाद्युपमान् ‘सम्म' सम्यक् पश्चिम दिशा समन्धी मद सुगध शीतल समीर चलने लगता तो उस समय जो पत्र पुष्प आदि से युक्त हुए दावद्रव वृक्ष थे वे ज्यो के त्यो अधिक शोभा सपन्न बने रहकर हरे भरे ही दिखलाई देते रहते। परन्तु उनमे जो दाव द्रव वृक्ष जीर्ण थे पुराने थे, शीर्ण-सडे हुए ये जिनका मूल और स्स्थ दोनो वोखले हो गये थे और जिनके पीला सफेद होकर पत्र पुष्प एव फल परिशस्ति रो झड-चुके थे वे शुष्क वृक्षो के समान म्लान-शोभा रहित ही बने रहते ( एवामेव समणा उसो ! जो अम्म निग्गयो वा निग्गथी वा पव्वाइए समाणे पण अण्णाउत्थियाण यडूण गिहत्याण सम्म सदइ यहण -समणाण ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देमाराहार पन्नत्ते ) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों । जोहमारा निर्गन्ध साधु जन अपना सा वी जन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमग जनों के अनेक श्रमणियों के, श्रावको के और श्रा विकाओं के कर्कश, कठोर ववचनादि रूप उपसगों को मध्यस्थ भाव થયેલા દાવદ્રવ વૃકે જે સ્થિતિમાં જ સવિશેષ શોભા યક્ત થઈને લીલાછમ દેખાતા હતા ૫. તેઓમાં જે દાવદ્રવ વૃક્ષો જીર્ણો હતા-જૂના હતા–શીણું– સડી ગયેલા હતા, જેના મૂળ અને થડને ભાગ ખોખલ થઈ ગયું હતું અને જેઓને પીળા અને સફેદ થઇને પાદડાઓ, પુષ્પ અને ફળે પરિશટિત થઈને ખરી પડયા હતા તે તે સુકાઈ ગયેલા વૃની જેમ પ્લાન-ભા રહિત થઈને ઊભા હતા
( एवामेव समजाउमो ! जो अम्ह निम्गयो पा निग्गथी ना पचाइए समाणे बहुग अण्णउत्थियाण बहण गित्याण सम्म सहइ ग्रहण समणाण ४ नो सम्म सहइ एसण मए रिसे देमाराहग पन्नत्ते )
આ પ્રમાણે જ છે આયુષ્મત શ્રમણે! જે અમારા નિ થ સાધુજન અથવા સાધ્વીજન દીક્ષિત થઈને ઘણું શમણે અને ઘણી શ્રમણીઓ, ઘણુ શ્રાવકે અને ઘણું શ્રાવિડ બોના કર્કશ ઠેર વચને વગેરે ઉપસીને મધ્યસ્થ
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ताधर्मवाद्रमु
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पत्रिता=पत्रयुक्ता पुफिया पुष्पितायुपयुक्ता', 'फलिया ' फलिता फल समुद्राः, 'दरिगोरिमाणा' हरितकराराज्यमानाः = हरितकेन = हरितवर्णेनातिशयशोभमाना. मिरीए त्रिया = पत्रपुष्पादि शोभया अवी बातीय अत्यन्तम् उपशोभमानाः शोभासमन्नः, विष्ठन्ति । यदा खट्ट= यस्मिन् काले ' दीविच्चगा ' द्वेष्याः = द्वीपमम्भना 'ईसिपुरेनाया' ईपत्पुरो नाताः स्वल्पा पूर्वदिखाया, ' पच्छानया' पश्चाद्वाता. = पश्चिम दियायवः ' मदानाया ' मन्द वाताः शनैः शनैः सञ्चारिणो नरायन,' महानाया ' महानरावा. =मण्टवायवः वायति' वान्ति=चलन्ति तदा खलु न दाना वृक्षा पत्रिका यावत् त्रिया. त्वाती पोपशोभमानास्तिष्ठन्ति । 'अप्पेगइया ' अप्येकका कतिपया स्तोका पन्न युक्त थे, पुष्प युक्त थे फलों से समृद्ध थे । हरित वर्ण से ये सब अतिशय शोभायमान रो रहे थे। इस तरह पत्र पुष्पादि की शोभा से इनकी शोभा अत्यंत निराली पनी हुई थी। इस कारण ये विशिष्ट शोभा सपन्न बने हुए थे | ( जयाण दीविच्चमा ईसि पुरेवया पंच्छा वाया मदावाया मावाया वायति, तया ण घहवे दावद्दवा रुक्वा पत्तिया जाव चिट्ठति, अपेगइया दावद्दवा स्वसा जुन्ना झोडा परिमडिय प्रडुक्त्त पुष्कफलासुरखाओ चित्र मिलायमाणा २ चिट्ठति ) जिम समय द्वीप से उत्पन्न हुई पूर्व दिशा संबन्धी स्वल्प हवाएँ, पश्चिम दिशा सवन्धी स्वर हवाएं, घीरे २ चलने वाली वायु तथा प्रचण्ड वायुए चलने लगती तो उस समय अनेक दीवद्रव वृक्ष पत्र पुष्पादि की शोभा से निगले, बने हुए ज्यो के त्यों खड़े रहते थे उनमें कुछ भी विकार नही होता था | तात्पर्य इसका यह है कि जय टापू से पूर्व दिशा
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હતા પત્રા અને પુષ્પાથી એમની શોભા અનેરી થઈ પડી હતી એથી એએ મૅવિશેષ શાભાસ પન્ન લાગતા હતા
(जयाण दीविच्चगा ईर्सि पुरेनाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तया हवे दादा रुक्खा पत्तिया जाव चिह्नति, अध्पेगझ्या दानवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडिय पडुपतपुप्फफला सुरुवखाओ विन मिलायमाणा २ चिट्ठति ) જ્યારે દ્વાપા ઉપર વહેતા પૂર્વ દિશાના આછા પવન, પશ્ચિમ દિશાના આછા પવના, ધીમે ધીમે જહેનારા પવને તેમજ પ્રચર્ડ પત્રના કાવા લાગતા ત્યારે પત્ર-પુષ્પ વગેરેની શાભાથી અનેરા લાગતા દાત્રદ્રવ વૃક્ષે જે સ્થિતિમા ઊભા હતા તે જ સ્થિતિમા વિકાર વગરના થઈને સ્થિર થઈને ઊસા જ રહેતા હતા કહેવાની મતલબ એ છે કે જ્યારે દ્વીપના પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશાના મદ, સુગંધ અને શીતળ પવના વહેતા હતા ત્યારે પત્રા-પુષ્પ વગેરેથી સ પક્ષ
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मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् ६७३ इत्यर्थः दाबद्रवा वृक्षा ' जुन्ना' जीर्णाः-चिरकालीना. 'झोडा' झोड: शटन, तद् योगाद् वृक्षा अपि झोडाः शटितमूलस्त्रन्या इत्यर्थः, 'परिसडियपडुपत्तपुप्फ फला' परिशटितपाण्डु पत्रपुष्यफला:-परिशटितानि जीर्णानि-अतएर पाण्डूनिईपत्पीतानि पत्राणि पुष्पाणि फलानि च येपा ते तथोक्ता , ' सुकारुक्खओविव निलायमाणा' शुषक्षा उच म्लायन्तः २-शोभारहितास्तिष्ठन्ति । भगनानाह'एवामेव ' एवमेन भनेनैव प्रकारेण ' समणाउसो' हे अमणा आयुष्मन्तः ! योऽस्माक निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी पायावत्पाजितः सन् वहना भमणाना वहीनां श्रम णीना बहुनावकागा बहीना भाविकाना कर्कशकठोर वचनाद्युपसर्गान सम्म' सम्यक पश्चिम दिशा समन्धी मद सुगध शीतल समीर चलने लगता तो उस समय जो पत्र पुष्प आदि से युक्त हुए दावद्रय वृक्ष ये वे ज्यो के त्यो अधिक शोभा सपन्न बने रहकर हरे भरे ही दिखलाई देते रहते। परन्तु उनमे जो दाव द्रव वृक्ष जीर्ण थे पुराने थे, शीर्ण-सडे हुए ये जिनका मूल और सघ दोनो खोखले हो गये थे और जिनके पीला सफेद रोकर पत्र पुष्प एव फल परिशटित रो झड-चुके थे वे शुष्क वृक्षो के समान म्लान-शोभा रहित ही बने रहते ( एवामेव समणा उसो ! जो अम्म निग्गयो वा निग्गथी वा पव्वाइए समाणे यहण अण्ण उत्थियाण यडूण गिहत्याण सम्म सहइ बहण -समणाण ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देमारोहए पन्नत्ते ) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों । जो हमारा निर्ग्रन्थ साधु जन अयना सा-वी जन दीक्षित होता हुआ अनेक अमग जनों के अनेक श्रमणियों के, श्रावको के और श्रा विकाओं के कर्कश, कठोर वचनादि रूप उपसगों को मध्यस्थ भाव થયેલા દાવદ્રવ વૃક્ષે જે સ્થિતિમાં જ સવિશેષ શોભા યુક્ત થઈને લીલાછમ દેખાતા હતા પણ તેમાં જે દાવદ્રવ વૃક્ષો જીણ હતા-જૂના હતા-શીર્ણસડી ગયેલા હતા, જેના મૂળ અને થડને ભાગ ખોખલ થઈ ગયો હતો અને જેના પીળા અને સફેદ થઈને પાદડા, પુપ અને ફળે પરિશકિત થઈને ખરી પડયા હતા તે તે સુકાઈ ગયેલા વૃક્ષેની જેમ પ્લાન-શોભા રહિત થઈને ઊભા હતા
(एमामेत्र समणाउमो! जो अम्ह निग्गयो पा निग्गथी ना पन्नाइए समाणे बहूग अण्णउत्थियाण बहण गिहत्थाण सम्म सहद रहण समणाण ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देमाराहए पन्नत्ते)
આ પ્રમાણે જ છે આયુર્ભત શ્રમણ ! જે અમારા નિર્ચ થ માધુજન અથવા સાધ્વીજન દીક્ષિત થઈને ઘણા શ્રમ અને ઘણું શમણીઓ, ઘણુ શ્રાવકો અને ઘણું થાવાને કર્કશ કહેર વચને વગેરે ઉપસીને મધ્યસ્થ
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प्रत्रिता = पत्रयुक्ता पुफिया पुष्पिताः=उपयुक्ता', 'फलिया' फलिता फल समृद्वाः, ' हरियगरे रि नमाणा' हरितकराराज्यमानाः = हरितक्रेन : हरितवर्णेनातिशयशोभमाना मिरीए त्रिया = पत्रपुत्पादि शोभया अवी बावीर अत्य तम् उपशोभमानाः श्रोभासमन्नः तिष्ठन्ति । यदा खट्ट=यस्मिन् काले ' दीविच्चगा ' द्वेप्या' द्वीपसम्मनाः । ईसिपुरेवाया 'ईपत्पुरोपाताः स्वल्पा पूर्वदिग्वा पच्छानामा पश्राद्वाताः = पश्चिम दिग्गायत्रः ' महानाया ' मन्द बाँठा =शनैः शनैः सञ्चारिणो वायन', ' महावाया ' महावाता. =मचण्डवायवः वायति' वान्ति = चलन्ति तदा खलु महो दाना वृक्षा पत्रिता यावत् श्रिया ती पोपशोभमानास्तिष्ठन्ति । ' अप्पेगइया ' अप्येकका कतिपया स्तोका पन्न युक्त थे, पुष्प युक्त थे फलो से समृद्ध थे । हरित वर्ण से ये सब अतिशय शोभायमान रो रहे थे । इस तरह पत्र पुष्पादि की शोभा से इनकी शोभा अत्यंत निराली घनी हुई थी। इस कारण ये विशिष्ट शोभा सपन्न बने हुए थे। (जयाण दीपिच्चगा ईसि पुरेवया पच्छा वाया मदावाया मानाया वायति, तथा ण बहवे दानवा रुक्वा पत्तिया ज्ञाय चिट्ठति, अपेगइया दावद्दवा एक्सा जुन्ना झोडा परिसडिय पडुक्त्त पुष्कफलासुररूपखाओ विव मिलायमाणा २ चिट्ठति ) जिस समय द्वीप से उत्पन्न हुई पूर्व दिशा संबन्धी स्वल्प हवाएँ, पश्चिम दिशा सवन्धी स्वल्प हवाएं, घीरे २ चलने वाली वायु तथा प्रचण्ड वायुए चलने लगती तो उस समय अनेक दीवद्रव वृक्ष पत्र पुष्पादि की शोभा से निगले, बने हुए ज्यो के त्यों खड़े रहते थे उनमें कुछ भी विकार नही होता था | तात्पर्य इसका यह है कि जय टापू से पूर्व दिशा હતા પત્રા અને પુષ્પાથી એમની શાલા અનેરી થઈ પડી હતી એથી એએ ઞવિશેષ ઊભા–સ પન્ન લાગતા હતાં
(जयाण दीविच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तया बहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, अप्पेगड्या दानवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडिय पडुपतपुप्फफल सुक्करुवखाओ चिन मिलायमाणा२चिट्ठति) જ્યારે દ્વાપા ઉપર વહેતા પૂર્વ દિશાના આછા પત્ર, પશ્ચિમ દિશાના આછા પવના, ધીમે ધીમે વહેનારા પત્રને તેમજ પ્રચ ડ પક્ષના કાવા લાગતા ત્યારે પુત્ર-પુષ્પ વગેરેની શાભાથી અનેરા લાગતા દાત્રદ્રવ વૃક્ષે જે સ્થિતિમા ઊભા હતા તે જ સ્થિતિમા વિકાર વગરના થઈને સ્થિર થઈને ઊમા જ રહેતા હતા કહેવાની મતલબ એ છે કે જ્યારે દ્વીપના પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશાના મદ, સુગંધ અને શીતળ પવના વહેતા હતા ત્યારે પત્ર-પુપે! વગેરેથી સ પન્ન
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ११ जीवानामाराधक विराधक्त्वनिरूपणम् ६७५ दिक् सभवा वायवः मन्दाता महावाना वान्ति प्रचलन्ति तदा खलु बहवे दावद्रवा वृक्षा जीर्णा झोडा गटिमूलरूपा यावत् म्लायत स्तिष्ठन्ति । तत्र ' अप्पेगइया ' अप्येककाः = कतिपयाः दाना वृक्षा पनिता यावत् उपशोभमाना २ स्तिष्ठन्ति । एवमेव हे श्रमणा आयुष्मन्तः योऽस्माक निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा मत्रजितः सन् बहूनाम् अन्यतीथिंगना बहूना गृहस्थाना प्रतिकूलवचनानि सम्यक् सहते, बहूना श्रमणाना - श्रमणादीना = चतुर्विधसङ्घस्येत्यर्थः वचनानि नो सम्यक सहते एप खल्ल पुरुषो 'मए' मया देशाराघत्रः प्रज्ञप्त । हे आयुष्मन्तः श्रमणाः । यदा खलु नो 'दीविचगा' द्वैप्या. द्वीपसम्बन्धिन नो 'सामुद्दगा' सामुद्राः समुद्रसम्बन्धिन ईपरपुरोवाता पश्चाद्वाता यावत् महानता वान्ति तदा खलु सर्वे द्रवद्रववृक्षा जीर्णाः
मत श्रमणों | जिस समय समुद्र से उचित पूर्व दिशा समन्धी वायु स्वल्प पश्चिम दिशा मनधी वायु मन्द वायु एव महा वायु चलती है उस समय कितनेक जीर्ण पुराने शीर्णदाब द्रव वृक्ष झोडा- पत्र पुष्पादि वर्जित वृक्ष तो म्लान के म्लान ही शोभा रहित ही बडे रहते हैं और कितनेक दाब द्रव वृक्ष जो पत्र पुष्पों से युक्त होते है वे हरे भरे सुन्दर ही प्रतीत होते रहते हैं । इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्ध सानु एव सावी जन प्रब्रजित होता हुआ अनेक अन्यतीर्थिको के अनेक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को तो अच्छी तरह से सहन कर लेता है परन्तु अनेक श्रमण आदिको के चतुर्विधसन के वचनों को सहन नहीं करता है - वह मेरे द्वारा देशारा प्रज्ञप्त हुआ है । (समणा उसो ! जया ण नो दीविच्चगा णो सानुगा ईसि पुरे वाघा पच्छा
અને હું આયુષ્મત્ત શ્રમણેા ! જ્યારે મમુદ્ર ઉપર થઈને વહેતે આછે પૂર્વ દિશાના પવન, મર્દ પવન અને પ્રચર્ડ પત્રન ફૂંકાય છે ત્યારે કેટલાક જ-જૂના, શીશુ પાદડા અને પુષ્પા રહિત થયેલા દાવદ્રવ વૃક્ષે સ્નાન થઇને શેલાહીન ચર્તને જ ઊભા રહે છે અને કેટલાક દાવદ્રવ વૃો જે પાદડાશે. પુષ્પાવાળા છે–લીલાછમ અને સુ જ લાગે છે આ પ્રમાણે હું આયુષ્મત શ્રમણેા ! જે અમારા નિ થ સાધુ અને સારીજત પ્રનજીત થઈને ઘણા અન્યતીર્થંકના ઘણા ગૃહન્થાના પ્રતિળ વચનેાને સારી રીતે સમજી લઈને સહન કરી લે છે પણ તેએમાથી શ્રમણુ વગેરેના ચતુર્વિધ સઘના વચનેને જે સહન કરતા નથી તે મારા વડે દેવારાધક તરીકે પ્રાપ્ત થયેા છે
(समणाउसो ! जायाण नो दीविच्चगाणो सामुद्दा ईसि पुरे वाया पच्छात्राया जाब मह वाया वायति ध्याण सच्चे दादा रुकना जुगा झाडा जाव
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माताधर्मपाल मध्यस्थमायेन 'सहइ ' सहते-मुग्वायरिफारसरणेन मर्पति, 'खमर' समते मोधाभावेन, तितिक्खा, तितिक्षते-मदीनाभागेन, 'अहियासेड' मध्यास्ते निर्जराभारनयाऽन्त रणेन सहत । आच पहनाम् अ पतीथिकाना बना गृहस्थानाम् प्रतिकूल पचनानि नो सम्पकसम्यम्मान सहते यावत् नो अध्यास्ते, एप खलु-एयम्भूत• पुरुपः 'मए' मया ' देशपिरावर ' देशपिराधक. पास ।
पुनश्च हे श्रमणा:-आयुष्मन्त ! यदा सलु 'सामुद्दगा' सामुद्रका-समुद्र सम्बन्धिनः ईपत्पुरोगाता. स्वल्पदिपाया. 'पच्छापाया' पत्राद्वाता -पश्चिमसे सहन करता है उन वचनो को सुनार जिनके मुख आदि में कोई विकार नही झलकता है क्रोध नहीं उत्पन्न होता है, अदीन भावसे जो उन्हें सहन करता है, निर्जरा की भावना से जो उन्हें अपने अन्तः करण से सहलेता है-तथा फुतीर्थिकों के गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को जो सहन नहीं करता है-यारत् उन्हें अध्यासित नहीं करता है ऐसा व्यक्ति मैने देश विधक प्रज्ञप्त किया है। (समणाउमो ! जया ण सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मदाबाया महावाया वायनि तयाण पहवे दावद्दया रक्खा जुण्णा शोडा जाय मिरापमाणा २ चिट्ठति, अप्पे गइया दावचा रुसवा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति एवामेव समणाउसो जो अम्द निग्गयो वा निग्गयी वा पच्वइए समाणे पहण अण्णउत्थियाण बहण गिहाण मम्म सरह ब्रहण समणाण ४ नो सम्म महद एसण मा पुरिसे देसाराहए तृण्णत्त) पुनश्च-हे आयु ભાવથી સહન કરે છે, તે વચનોને સાંભળીને જેના મે વગેરે અગો ઉપર કોઈ પણ વિકાર સરખેએ થતો નથી, ક્રોધ ઉત્પન્ન થતું નથી, અદીન ભાવથી જે તેને ખમતો રહે છે–સહન કરતો રહે છે, નિર્જરાની ભાવનાથી જે તેઓને પિતાના અતરથી સહન કરી લે છે તેમજ કુતીર્થિ કોના ગૃહસ્થાને પ્રતિકૂળ વચનને જે સહન કરી શકતો નથી યાવત તેઓને અધ્યાસિત કરતે નથી એવા માણસને મે દેશ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે
(समणाउसो ! जयाण सामुद्दगा ईसिं पुरे वाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तयाण वडवे दावदवा रूस्खा जुग्णा झोडा जान मिलायमाणा २ चिट्ठति, अप्पेगइया दावदना रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उपसोभेमाणार चिट्ठति एवामेर समणासो जो अम्ह निग्गयो वा निग्गयी वा पन्चाए समाणे बहूग अण्णउत्थियाण रहण गिहत्याण सम्म सहइ बहूण समणाण ४ नो सम्म सइइ एसर्ण मए पुरिते देमाराहए पण्णत्ते )
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मनगारधर्मामृनपणी टी० य० ११ जीवानामाराधकविराघवनिरूपणम् ६७५ दिक् सभवा वायत्रः मन्दवाता महावाता बान्ति-प्रचलन्ति तदा खलु वह दावा वृक्षा जीर्णा झोडा गटिमूलस्कन्या' यावत् म्लायत स्तिष्ठन्ति । तत्र 'अप्पेगइया' अप्येकका कतिपयाः दानद्रया वृक्षा पनिता यावत् उपशो ममोना २ स्तिष्ठन्ति । एवमेव हे श्रमणा आयुष्मन्तः योऽस्माक निर्ग्रन्यो वा निर्ग्रन्यी वा प्रबजितः सन् बहूनाम् अन्यतीथिराना बहूना गृहस्थाना पतिकूलवचनानि सम्यक् सहते, बहूनां श्रमणाना ४-श्रमणादीना-चतुर्विधसङ्घस्येत्यर्थः बचनानि नो सम्यक सहते एप खल्ल पुरुषो 'मए' मया देशाराधकः प्रज्ञप्तः । हे आयुष्मन्त श्रमणाः ! यदा खल नो 'दीविचगा' द्वैप्या:-द्वीपसम्बन्धिन' नो 'सामुदगा' सामुद्रशासमुद्रसम्बन्धिन ईप-पुरोवाता पश्चाद्वाता यावत् महापाता वान्ति तदा खलु मर्वे द्रोपद्रवरक्षा जीर्णाः
मत श्रमणों ! जिस समय समुद्र से उत्थित पूर्व दिशा समन्धी वायु स्वल्प पश्चिम दिशा सरधी पायु मन्द वायु एव महा वायु चलती है उस समय कितनेक जीर्ण -पुराने-शीर्णदाव द्रव वृक्ष मोडा-पत्र पुष्पादि वर्जित वृक्ष तो म्लान के म्लान ही-शोभा रहित ही खडे रहते हैं और कितनेक दाव द्रव वृक्ष जो पत्र पुष्पो से युक्त होते है वे हरेभरे सुन्दर
ही प्रतीत होते रहते हैं। इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निन्ध साधु एव सा वी जन प्रबजित होता हुआ अनेक अन्यतीथिको के अनेक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को तो अच्छी तरह से सहन कर लेता है परन्तु अनेक श्रमण आदिको के चतुर्विध सर के-बचनों को सहन नही करता है-वह मेरे द्वारा देशारापक प्रजप्त हुआ है । (समणा उसो ! जया ण नो दीविच्चगा णो सानुद्दगा ईसिं पुरे बाया पंच्छा
અને તે આયુષ્મત શ્રમણ ! જ્યારે સમુદ્ર ઉપર થઈને વહે આ પૂર્વ દિશાને પવન, મદ પવન અને પ્રચંડ પવન ફૂંકાય છે ત્યારે કેટલાક જીર્ણ—જૂના, શીર્ણ પાદડા અને પુ િરહિત થયેલા દાવદ્રવ વૃક્ષ જ્ઞાન થઈને શોભાહીન થઈને જ ઊભા રહે છે અને કેટલાક દાવદ્રવ વૃછે જે પાદડાએ પુવાળા છે-લીલાછમ અને સુદર જ લાગે છે આ પ્રમાણે હે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિર્ચ થ સાધુ અને વીજન પ્રમજીત થઈને ઘણા અન્યતીથિકના ઘણે ગૃહોના પ્રતિકૂળ વચનેને સારી રીતે સમજી લઈને સહન કરી લે છે પણ તેઓમાથી શ્રમણ વગેરેના ચતુર્વિધ સંઘના વચનને જે સહન કરતું નથી તે મારા વડે દેરારાધક તરીકે પ્રાપ્ત થયું છે
(समणाउसो ! जायाण नो दीविच्चगा णो सामुद्दगा ईसिं पुरे वाया पच्चावाया जाव मह वाया वायति तयाण सव्वे दादा रकमा जुण्गा झोडा नाव
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६७४
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ज्ञानाधर्मकथा मध्यस्थभावेन ' सदर ' सहते मुग्वायविकारवरणेन सर्पति, ' खमइ' क्षमते क्रोधाभावेन, तितिक्खा, तितिक्षते - अदीनाभावेन, 'अहियासेड' अध्यास्ते निर्जराभावनयान्त करणेन सहत अ च पहूनाम् जपतीर्थिकानां बहूनां गृहस्थानाम् प्रतिकृवचनानि नो सम्यक् सम्यग्भावेन सहते यावत् नी अभ्यास्ते, एष खलु = एवम्भूतः पुरुषः ' मए ' मया ' देशनिराहए ' देशविराधक. मझप्स | पुनश्च हे श्रमणाः - आयुष्मन्त यदा खलु सामुदगा ' सामुद्रकाः समुद्र सम्वन्धिनः ईपत्पुरोयाताः स्वल्पपूर्व दिसायाः 'पन्छायो पथाद्वाता=पश्चिमसे सहन करता है उन वचनों को सुनकर जिनके मुग्व आदि में कोई विकार नहीं झलकता है क्रोध नहीं उत्पन्न होता है, अदीन भावसे जो उन्हें सहन करता है, निर्जरा की भावना से जो उन्हें अपने अन्तः करण से सरलेता है तथा कुतीर्थिकों के गृहस्थों के प्रतिकूल वचन को जो सहन नही करता है - यावत् उन्हें अध्यासित नहीं करता है ऐसा व्यक्ति मने देश कि प्रज्ञप्त किया है। (समगाउमो | जयाण सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायनि तयाण बहवे दावद्दवा रक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलापमाणा २ चिट्ठति, अप्पे गइया दावदवा रुग्वा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति एवामेव समणाउसो जो अम्ह निग्गयो वा निग्गधी ना पव्वइए समाणे बहूण अण्णउत्थियाण पण गित्याण मम्म सह ऋण समणाण ४ नो सम्म नहह एसण मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते) पुनश्च हे आयु ભાવથી સહન કરે છે, તે વચનાને સાભળીને જેના મે વગેરે અગા ઉપર કાઇ પણ વિકાર સરખાએ થતા નથી, ક્રેપ ઉત્પન્ન થતા નથી, અદીન ભાવથી જે તેને ખમતા રહે છે–સહન કરતા રહે છે. નિર્જરાની ભાવનાથી જે તેને પાતાના અતરથી સહન કરી લે છે તેમજ કુંતીર્થિ કાના ગૃહસ્થાને પ્રતિકૂળ વચનાને જે સહન કરી શકતા નથી ચાવત તેઓને અધ્યાસિત કરતા નથી એવા માણુસને મે દેશ-વિરાધક તરીકે પ્રાપ્ત કર્યાં છે
( समणाउसो ! Gयाण सामुदगा ईर्मि पुरे वाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तयाण बदवे दावदत्रा रूक्खा जुग्गा झोडा जान मिलायमाणा २ चिट्ठति अप्पेगइया दावदवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा२ चिति एवमेव समणाउसो जो अम्द निग्गथो वा निग्गयी वा पत्रइए समाणे बहू अण्णउत्थियाण ग्रहण गिहस्थाण सम्म सदर बहूण समणाण ४ नो सम्म सदर एस मए पुरिसे देसाराहए, पण्णचे )
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मनगारधर्मामृत पेणी टी० स० ११ जीवानामाराधविराधक्त्वनिरूपणम् ६७५ दिक सभा वायवः मन्दबाता महाबाता वान्ति-प्रचलन्ति तदा खलु वहवे दावद्रवा वृक्षा जीर्णा झोडा गटिमूलस्कन्धा यावत् म्लायत स्तिष्ठन्ति । तत्र 'अप्पेगइया' अप्येकका कतिपयाः दानद्रया वृक्षा पनिता यावत् उपशोममाना २ स्तिष्ठन्ति । एवमेव हे श्रमणा आयुष्मन्तः योऽस्माक निर्ग्रन्यो वा निम्र न्यी वा प्रव्रजितः सन् बहूनाम् अन्यतीथिरानां वहूना गृहस्थाना प्रतिकूलवचनानि सम्यक् सहते, बहूना श्रमणाना ४-श्रमणादीना-वधिमद्यस्येत्यर्थः वचनानि नो सम्यरु सहते एप खल पुरुषो 'मए' मया देशारामः प्रज्ञप्तः । हे आयुष्मन्त. श्रमणाः । यदा खल नो 'दीविचगा' द्वैप्या. द्वीपसम्पन्धिन नो 'सामुद्दगा' सामुद्रकाः समुद्रसम्बन्धिन ईपरपुरोवाता पश्चाद्वाता यावन् महागता वान्ति तदा खलु मर्वे द्रोपद्रवक्षा जीर्णाः मत श्रमणों ! जिस समय समुद्र से उत्थित पूर्व दिशा समन्धी वायु स्वल्प पश्चिम दिशा मधी घायु मन्द वायु एव महा वायु चलती है उस समय कितनेक जीर्ण -पुराने-शीर्णदाव र वृक्ष झोडा-पत्र पुष्पादि वर्जित वृक्ष तो म्लान के म्लान ही-शोमा रहित ही बडे रहते हैं और कितनेक दाब द्रव वृक्ष जो पत्र पुष्पो से युक्त होते है वे हरे भरे सुन्दर ही प्रतीत होते रहते हैं । इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधु एव मा वी जन प्रवजित होता हुआ अनेक अन्यतीथिको के अनेक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनो को तो अच्छी तरह से सहन कर लेता है परन्तु अनेक श्रमण आदिको के चतुर्विध लपके-बचनों को सहन नहीं करता है-वह मेरे द्वारा देशारापक प्रजप्त हुआ है । (समणा उसो 'जया ण नो दीविच्चगा णो सानुद्दगा ईसि पुरे वाया पच्छा
અને હે આયુમ 1 શ્રમણ ! જ્યારે સમુદ્ર ઉપર થીને વહે આછે પૂર્વ દિશાને પવન, મદ પવન અને પ્રચંડ પવન ફૂંકાય છે ત્યારે કેટલાક જણું–જૂના, શીણ પાદડા અને પુ િરહિત થયેલા દાવદ્રવ વૃક્ષે મતાન થઇને શેભાહીન થઈને જ ઊભા રહે છે અને કેટલાક દાવદ્રવ વૃછે જે પાદડાએ પુવાળા છે-લીલાછમ અને સુર જ લાગે છે આ પ્રમાણે છે આયુષ્મત શ્રમણો! જે અમારા નિગ્ન થ સાધુ અને પ્રજા પ્રવ્રજીત થઇને ઘણા અન્યતીથિં કેના ઘગ્રહના પ્રતિકૂળ વચનેને સારી રીતે સમજી લઈને સહન કરી લે છે પણ તેઓમાથી મણ વગેરેના ચતુર્વિધ સંઘના વચનોને જે સહન કરતું નથી તે મારા વડે દેવારાધક તરીકે પ્રજ્ઞપ્ત થયો છે
(समणाउसो ! जायाण नो दीविच्चगा णो सामुदगा ईसि पुरे वाया पच्छावाया जाय मह.वाया वायति तयाण सव्वे दादा स्वा जुण्या झाडा नाव
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माताधर्मपाल मध्यस्थमावेन 'सहइ' सहते-मुवाद्यविकारारणेन मर्पति, 'खमा क्षमते क्रोधाभावेन, तितिरखड, तितिक्षते-मदीनाभान, जहियासेड' अध्यास्ते निर्जराभाननयाऽन्त रणेन सहत । आच पहनाम् जपतीयिकानां पहूनां गृहस्थानाम् प्रतिहलपचनानि नो सम्पर-सम्यम्मान सहते यावत् नो अ यास्ते, एप खलु-एयम्भूत• पुरुषः 'मए ' मया ' देशपिराहर' देशपिराधकः प्राप्त ।
पुनश्च हे श्रमणा'-आयुष्मन्त ! यदा खलु 'सामुद्दगा ' सामुद्रकान्समुद्र सम्बन्धिनः ईपत्पुरोगाताः स्वल्पपूर्वदिग्यायवः 'पन्छापाया' पत्राद्वाता-पश्चिम से सहन करता है उन वचनो को सुनकर जिनके मुख आदि में कोई विकार नही झलकता है क्रोध नही उत्पन्न होता है, अदीन भावसे जो उन्हें सहन करता है, निर्जरा की भावना से जो उन्हें अपने अन्तः करण से सरलेता है-तया कुतीर्थिकों के गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को जो सहन नहीं करता है-यावत् उन्हें अध्यासित नहीं करता है ऐसा व्यक्ति मेने देश विराधक प्रज्ञप्त किया है । ( समगाउमो ! जयाण सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायनि तयाण पहवे दावद्दया रखा जुण्णा झोडा जार मिलापमाणा २ चिट्ठति, अप्पे गड्या दावदवा रुवा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति एवामेव समणाउसो जो अम्ह निग्गयो वा निग्गयी वा पव्वइए समाणे यहण अण्णउत्थियाण वरण गित्थाण मम्म सह यहाण सभणाण ४ नो सम्म सह एसण मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्त) पुनश्च-हे आयु ભાવથી સહન કરે છે, તે વચનોને સાંભળીને જેના મો વગેરે અગો ઉપર કોઈ પણ વિકાર સરખેએ થતો નથી, ક્રોધ ઉત્પન્ન થતું નથી, અદીન ભાવથી જે તેને ખમ રહે છે-સહન કરતે રહે છે, નિર્જવાની ભાવનાથી જે તેઓને પિતાના અતરથી સહન કરી લે છે તેમજ કુતીર્થિ કેના ગૃહોને પ્રતિકૂળ વચનેને જે સહન કરી શકતો નથી થાવત તેઓને અધ્યાસિત કરતે નથી એવા માણસને મે દેશ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞાસ કર્યો છે
(समणाउसो ! जयाण सामुद्दगा ईमिं पुरे वाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तयाण पदवे दावदवा रूखा जुग्णा झोडा जान मिलायमाणा २ चिट्ट ति, अप्पेगइया दावदवा रुस्खा पत्तिया पुफिया जाव उपसोभेमाणार चिट्ठति एवामेर समणासो जो अम्ह निग्गयो पा निग्गयी वा पचाए समाणे बहूग अण्णउत्थियाण बहूण गिहत्याण सम्म सहइ बहूण समणाण ४ नो सम्म सहह एसणं मए पुरिले देमाराहए पण्णते)
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भनगारधर्मामृतवपिणो टीका २०११ जोवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् ६७७ सम्यक् सहते एप खलु एवम्भूतः पुरुप 'मए' मया सर्वाराधकः प्राप्तः, एव खलु अनेन प्रकारेण हे गौतम ! जीवा आरारका वा विराधका भवन्ति । सुधर्मा अन्यतीर्थिक गृहस्थों के वचनों को अच्छी तरह सहन आदि नहीं करता है ऐसा यर साध्वादिजन मेरे द्वारा सर्व विराधक प्रजप्त किया गया है । ( ममणा उसो ! जयाण दीविच्चगावि सामुद्दगावि ईसि पुरे वाया पच्छा वाया जाव वायति, तया ण सब्वे दावद्दया रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणा उसो ! जो अम्द जाव पञ्चत्तिए समाणे यहण ममणाण ४ बहण अन्नउत्थिय गिहत्याण सम्म सहइ एसण मए पुरिसे सम्धाराहए पण्णत्त । एव खलु गोयमा । जीवा आराहणावा विराहगा वा भवति, एव खलु जत्रू ! समणेण भगवया महावीरेण एक्कारसमस अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते तियेमि ) हे आयमन्त श्रमणो! जिस समय दीपोत्थ भी तथा समुद्रोत्थ भी ईपत्पुरोवात पश्चाठात यावत् चहते हैं उस समय पुष्पित पत्रित आदि समस्त दाव. द्रव वृक्ष शोभो सपन्न ही बने रहते हैं । इसी तरह हे आयुष्मत श्रमणो! जो हमारा सायु साध्वीजन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमणादिकों के चतुर्विध सघ के-तथा अन्यतीर्थिक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को अच्छी तरह सहन कर लेना है ऐसा मायु आदि जन मेरे द्वारा सर्वाराधक પણ ચતુર્વિધ મ ઘન અને બીજા તીર્થિક ગ્રહ ના વચનેને સારી પેઠે સહન કરી લે છે એવા સાધુ વગેરે જેને મારા વડે સર્વ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞ કરવામાં આવ્યા છે
(समणाउसो जयाण दीविचगावि सामुदगा वि ईसिं पुरे वाया पच्छावाया जार वायति, तया ॥ सव्वे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाय चिट्ट ति, एवामेव समणाउमो जो अम्ह जाव पवत्तिए समाणे रहण समगाणे ४ वहण अन्नउत्थियगिहत्याण सम्म सहइ एसण मए पुरिसे सब्बाराहए पग्णत्ते ! एवं खल गोयमा । जीवा आराहगा वा विरागा वा भवति, एव खलु जवू ! समणेण भगवया महावीरेण एक्कारसमस्म अग्झयणस्म अयम? पण्णचे तिमि)
' છે આ યુગ્મત શ્રમણે જ્યારે દીવ અને સમુદ્ર ઉપરના પૂર્વ પશ્ચિમના ધીમા અને પ્રચડ પવન ફૂંકાય છે ત્યારે પાદડા અને પુષ્પવાળા બધા દાવદ્રવ વૃક્ષે ભા ન પન્ન થઈને જ ઊભા રહે છે આ પ્રમાણે તે આયુષ્મત શમણે ' જે અમારા સાધુ અને સાધ્વીજન દીક્ષિત થઈને ઘણા શ્રમણ વગે દેના, ચતુર્વિધ સંઘના તેમજ બીજા તીર્થિવ ગ્રહોના પ્રતિકૂળ વચને સાભળીને
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દંડ
वाताधर्मकथा
झोडा यापद् म्लान्तस्तिष्ठन्ति, अप्येकका कतिपयाः यावद उपगोममाना स्ति ष्ठन्ति । एवमेत्र हे श्रमणा आयुष्मन्त' ! गायन मनजित सन बहूना श्रमणानां ४ चतुर्विधसङ्घस्य, बहूनाम् अन्यतीर्थिकगृहस्थाना वचनानि नो सम्यक सहते, एष खलु पुरुषः ' मए ' भया सर्वविराधक' प्राप्त । श्रमणा आयुष्मन्त । यदा खलु 'दीविचगाव ' द्वैय्या अपि 'सामुद्दगावि' सामुद्रा अपि उपत्पुरोवाता पश्वाद्वाता यावद् वान्ति तदा खलु सर्वे द्वान्द्रा वृक्षा पत्रिता यानतु श्रिया उपशोभमानाः २ तिष्ठति । एवमेव हे श्रमणा आयुमन्तः ! योऽस्माकं यावत् मनजित सन् बहूना श्रमणाना ४= चतुर्विधसद्धस्य बहूनाम् अन्यतीर्थिकगृहस्थाना प्रतिकूल वचनानि वाया जाव महावाया वायति-तयाण सव्वे दावदवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा चिट्ठति, अप्पेगइया जाव उवसोभे माणा चिट्ठति, एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वहए ममाणे ऋण समणाण ४ बहूण अन्न उत्थियगित्याण नो सम्म सहद्द एसण मए पुरिसे सव्य विराहिए पण्णत्ते ) हे आयुष्मन श्रमणो जिस समय न तो दीपोत्य पूर्व दिशा सबधी स्वल्प वायुएँ, पश्चिम दिशा समन्धी स्वल्प वायुएँ, धीरे २ चलने वाली वायुएँ एव प्रचण्ड वेग शाली वायुएँ चलते हैं और न समुद्रोत्थ पूर्व दिशा सन्धी स्वल्प वायुएँ, पश्चिम दिशा समधी स्वल्प वायुएँ धीरे २ चलने वाली वायुएँ एव प्रचड वेग शाली वायुएँ चलते हैं उम समय भी जीर्ण शीर्ण दावद्रव वृक्ष म्यान ही रहते है-और जो पत्र पुष्पादिको से युक्त होते हैं वे भी जैसे होते हैं वैसे ही बने रहते हैं इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन एव निर्ग्रन्थ साध्वी जन दीक्षित होता हुआ भी चतुर्विध सघ के और
मिलायमाणा चिट्ठति, अप्पेगइया जात्र उवमोभेमाणा चिट्ठति, एवामेव समणाउसो ' जाव पव्यइए समाणे बहूण समाणाण ४ बहूण अन्न उत्थियगिहत्याण नो सम्म सहइ एस ण मए पुरिसे सब निराहिए पण्णत्ते )
હું આયુષ્મત શ્રમણા ! જ્યારે દ્વીપાના પૂર્વ દિશાના આછા પવના, પશ્ચિમ દિશાના પવના ધીમે, ધીમે વહેતા પવને, અને પ્રચ ડ વેગથી ફૂં કાતા પવના વહેતા નથી અને સમુદ્ર પર થઈને વહેતા પૂદિશાના આછા પવના, ધીમે ધીમે વહે નારા પવન, અને પ્રચર્ડ વેગે ફૂંકાતા પવને વહેતા નથી ત્યારે પણ જીગ્, શીષુ દાવદ્રવ વૃક્ષે તેા મ્લાન ( કરમાયેલા) રહે છે અને પત્રપુષ્પ વગેરેથી સપન્ન દાવદ્રવ વૃક્ષો પશુ જેવા છે તેવા જ રહે છે, આ પ્રમાણે હું આયુષ્મત શ્રમા ! જે અમારા નિર્દેથ સાધુએ અને નિગ્રંથ સાધ્વીએ ૧
થઇને
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गधर्मामृत
टीका थ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् ६७७
सम्यक् सहते एष खलु =एवम्भूतः पुरुष ' मए' मया सर्वाधिकः प्रज्ञप्तः, एव खलु=अनेन प्रकारेण हे गौतम ! जीवा आरानका वा विराधका भवन्ति । सुधर्मा
अन्यतीर्थिक गृहस्थों के वचनो को अच्छी तरह सहन आदि नहीं करता है ऐसा यर साध्वादिजन मेरे द्वारा सर्व विराधक प्रज्ञप्त किया गया है । (समणा उसो ! जयाण दीविच्चगावि सामुद्दगावि ईसि पुरे वाया पच्छा वाया जाव वायति, तया ण सव्वे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणा उसो ! जो अम्ह जाव पवत्तिए समाणे चहूण समणाण ४ चट्टण अन्नउत्थिय गिह्वाण सम्म सहह एसण मए पुरिसे सव्वारा पण्णत्ते । एव खलु गोयमा । जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवति, एवं खलु जबू ! समणेण भगवया महावीरेण एक्कारसमस्म अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिवेमि ) हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जिस समय द्वीपोत्य भी तथा समुद्रोत्य भी ईषत्पुरोवात पश्चाद्वात यावत् वहते है उस समय पुष्पित पत्रित आदि समस्त दावद्रव वृक्ष शोभा सपन्न ही बने रहते हैं । इसी तरह हे आयुष्मत श्रमणो ! जो हमारा साधु साध्वीजन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमणादिकों के चतुर्विध सघ के तथा अन्यतीर्थिक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को अच्छी तरह सहन कर लेना है ऐसा माधु आदि जन मेरे द्वारा सर्वाराधक
પણ ચતુર્વિધ સઘના અને ખીજા તીથિંક ગૃહસ્થે ના વચનેને સારી પેઠે સહન કરી લે છે એવા સાધુ વગેરે જને મારા વડે સર્વ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞસ
કરવામા આવ્યા છે
( समणाउसो | जयाण दीविचगावि सामुदगाव ईसि पुरे वाया पच्छावाया जान वायति, तथा ण सव्वे दावदवा रुक्खा पत्तिया जात्र चिद्वति, एवामेव समणाउसो' जो अम्ह जाव पव्वत्तिए समाणे हूण समगा ४ बहूण अन्नउत्थिमित्थान सम्म सदर एसण मए पुरिसे सच्चा राहए पण्णत्ते ! एवं खलु गोमा ! जीवा आराहगा वा विरागा न भवति, एव खलु जवू ! समणेण भगवया महावीरेण एक्कारसमस्स अज्झयणस्म अयम पत्ते तिमि )
હું અ યુધ્મત શ્રમણે! ! જ્યારે દ્વીર અને સમુદ્ર ઉપરના પૂર્વ પશ્ચિમના ધીમા અને પ્રચર્ડ પત્રના ફૂંકાય ત્યારે પાદડા અને પુષ્પાવાળા ગધા દાવ દ્રવ વૃક્ષાશે।ભાસ પન્ન થઈને જ ઊભા રહે છે આ પ્રમાણે હે આયુષ્મ ત શ્રમણા ! જે અમારા સાધુ અને સાધ્વીન દીક્ષિત થઇને ઘણા શ્રમણેા વગે રૈના, ચતુવિધ સઘના તેમજ બીજા તીથિંક ગૃહસ્થાના પ્રતિકૂળ વચને સાભળીને
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पाताधर्मकणा स्वामी माह-ए। खल-क्तिप्रकारेण हे जम्मूः ! श्रमणेन भगवता महावीरण यावमिद्धिगति सप्राप्तेन एकादशस्य अयोक्तप्रकार अब: भारः प्राप्ता। 'तिमि' इति ब्रवीमि, इति पूर्ववत् ॥ सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्गम-प्रसिद्धवापपञ्चदशभापालितललितक लापालापक-प्रविशुद्धगयायनैकग्रन्यनिर्मापक-गादिमानमर्दक श्रीशाहून्छ त्रपतिकोल्हापुरराजपदत्त- जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोलापुरराजगुरु-पालनह्मवारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालअतिविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकयाग ' सूनस्यानगारधर्मामृतव
पिण्यारयाया व्याख्याया एकादशम ययन समाप्त ॥११॥ रूप से प्रजप्त हुआ है। इस प्रकार हे गौतम ! जीव आराधक और विराधक होते हैं । सुधर्मा स्वामी जवू स्वामी से करते है कि हे जबू! इस पूर्वोक्त रूप से श्रमण भगवान महावीर ने जो कि सिद्वि गति को प्राप्त कर चुके हैं ग्यारहवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ऐसा मैंने तुम से जैसा सुना है वैसा यह कहा है । इस में निज की कुछ भी कल्पना नहीं है। सूत्र ॥ १॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता धर्मकथाङ्गमत्र " की अनगार धर्मान्तवर्षिणी व्यारया का ग्यारहवा
अध्ययन समाप्त ॥ ११ ॥
સારી પેઠે સહન કરી લે છે એવા સાધુ જન વગેરે મારા વડે સર્વાધિક રૂપે પ્રજ્ઞપ્ત થાય છે આ પ્રમાણે છે ગૌતમ! જ આરાધકે અને વિરાધકે હેાય છે સુધર્મા સ્વામી જ બૂ સ્વામીને કહે છે કે હે જ બૂ! સિદ્ધિગતિ પામેલા ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ અગિયાર જ્ઞાતાયનને આ ઉપર મુજબને અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે કે જે રીતે સામાવ્યો છે તે જ રીતે આ અર્થ તમારી સામે સ્પષ્ટ કર્યો છે એમા મે મારી તરફથી કઈ જ ઉમેર્યું નથી સૂત્ર ” w
જૈનાચાર્ય શ્રી દાગીનાથજી મહારાજ કૃતજ્ઞાતામ્બયન સૂવની અનગાર ધર્મામૃતવર્ષિણું વ્યાખ્યાનુ અગિયારમુ અપ્પયન સમાપ્ત 11
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अथ द्वादशमध्ययनं प्रारभ्यतेगतमेकाशन यान, सापत द्वादशनारभ्यते, पूर्वस्मिन्नध्ययने चारित्रस्याराधकत्व तद् विरापक्व च मोक्तम् इह तु उदादृष्टान्तेन मलोममपरिणामपरिणमितान्तः करणानामपि भव्याना सुगुरुपरिकर्म तनानिराधमत्व भवतीति पदयेते. अत्रेदमादिसूत्रम्-'जइण भते' इत्यादि ।
मूलम् -जइण भते । समणेण जाव संपत्तेणं एकारसमस नायज्झयणस्स अयम० बारसमस णं नायज्झयणस्त के अहे पण्णत्ते , एवं खलु जबू । तेणं कालेणर चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे चेइए जितसत्त राया धारिणीदेवी, अदीण
घारहवा अ ययन प्रारभ"
जितशत्रु राजा सुबुद्धि प्रधान का वर्णन ग्यारहवा अध्ययन समाप्त हो चुका अब बारहवा अध्ययन प्रारभ होता है। इसका पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध है-पूर्व अध्ययन में जो जीव चारित्र का पालन करता है वह आराधक और जो इससे विपरीत भाव वाला होता है वह विराधक है यह प्रकट किया गया है। अब इस अध्ययन में उदक के दृष्टान्त से यह प्रकट किया जायगा कि जिन भव्य जीवों का अन्त. करण मलीन परिणामों से परिणत हो रहा है-परन्तु उनमें यदि सुगुर परिकर्मता-गुण विशेष का ग्रहण करना है तो उससे वहाँ चारित्राराधकता ओ जाती है 'जहण मते !' इत्यादि ।
છતરાવુ રાજા અને સુબુદ્ધિ પ્રધાનનું બારમુ અધ્યયન અગિયારમું અધ્યયન સમાપ્ત થઈ ચૂકયું છે અને હવે બારમુ અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે અને પહેલા અધ્યયનની સાથે આ પ્રમાણે સ બ ધ છે કે પહેલાના અધ્યયનમાં જે જીવ ચારિત્રનું પાલન કરે છે તે આરાધક અને જે એના વિપરીત ભાવવાળો હોય છે તે વિરાધક છે એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે આ અદયનમાં ઉદકના દૃષ્ટાતથી આ વાતનુ પછી શુ થશે કે જે ભવ્ય જીનુ અન્તકરણ (અ તર) ખરાબ પરિણામોથી પરિણત થઈ રહ્યું છે, પણ તેમનામાં જે સુગુરુ પરિકમેતા ગુણ વિશેષનું ગ્રહણ કરવું છે તે ત્યા ચારિત્રા राधाता मावी तय छ ज इण भत्रे इत्यादि
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ताधर्मकणार सामी माह-एव खलु-पूर्वोक्तमकारण जम्यू. ! श्रमणेन भगाता महावीरेष यावामिद्विगति सप्राप्तेन एकादशस्य अयोक्तप्रकार अर्थ:भार' प्राया। 'तिमि' इति ब्रवीमि, इति पूर्ववत् ॥ सू० १॥ इति श्री-विश्वविरयात-जगद्गम-प्रसिद्धवावपञ्चदशभाषाफलितललितकलापालापक-प्रविशुद्गद्यपद्यनैकग्रन्यनिर्मापक-मादिमानमर्दक-श्रीशाहून्छ त्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य 'पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-पालनमचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री धासोलालप्रतिविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथा ' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
पिण्यारयाया व्याख्यायां एकादशमध्ययन समाप्त ॥११॥ रूप से प्रज्ञाप्त हुआ है। इस प्रकार हे गौतम ! जीव आराधक और विराधक होते हैं । सुधर्मा स्वामी जवू स्वामी से करते है कि हे जबू! इस पूर्वोक्त रूप से श्रमण भगवान महावीर ने जो कि सिद्वि गति को प्राप्त कर चुके हैं ग्यारहवें ज्ञानाध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ऐसा मैंने तुम से जैसा सुना है वैसा यह कहा है । इस में निज की कुछ भी करना नही है। सूत्र ॥ १ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता धर्मकयागमूत्र " की अनगार धर्मात्तवर्पिणी व्याख्या का ग्यारहवा
अध्ययन समाप्त ॥ ११ ॥
સારી પેઠે સહન કરી લે છે એવા સાધુ જન વગેરે મારા વડે સર્વાધિક રૂપે પ્રાપ્ત થાય છે આ પ્રમાણે હે ગૌતમ! જી આરાધક અને વિરાધકો હેય છે સુધમાં સલામી જ બૂ વામીને કહે છે કે હે જ બૂ! સિદ્ધિતિ પામેલા ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ અગિયારમા જ્ઞાતાયનનો આ ઉપર મુજબનો અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે કે જે રીતે સામવ્યો છે તે જ રીતે આ અર્થ તમારી સામે સ્પષ્ટ કર્યો છે એમા મે મારી તરફથી કઈ જ ઉમેર્યું નથી D સુત્ર “\”
જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીપાવજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતામ્બયન સૂવની અનગાર ધમાં મૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યાનુ અગિયારમુ અબયન સમાસ ૧a
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१२ खातोटकविषयेसुबुद्धिद्रष्टान्त ६८१ धारिणीदेवी, जढीनशत्रु म कुमार' जितशत्रुराजपुत्र 'जुवराया' युवराजःयुवराजत्वेऽभिषिक्तचाप्यानीत् । सुमुद्धिनीमाऽमात्य ओत्पातिश्यादिशुद्धि चतुष्ट ययुक्त. यावद् ‘रज्जधुराचितए' राज्य पुराचिन्तकाराज्यभारचिन्तक 'समणो वामए' श्रमणोपासक आरोऽभिगतजीवोजीवनासीत् । तस्याश्चम्पाया नगर्या वहिरुत्तरपौरम्त्ये एक 'परिहोदए ' परिखोटक परिखा-दुर्गम्य चतुर्दिक्षु रिपुप्र भृतीना प्रवेष्टुमशक्या गर्तरूपावेष्टनाकारभूमिः, तन्न सम्भृतमुदक परिवोदक । खाईजल ' इतिभाषाप्रमिद्व चाप्यासीत् । तत्कीदृशम् ' इत्याह-'मेयरसा' प्ररूपित किया है । हे जबू! सुनो-जो उन्होने १२वें अध्ययनका अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है- (तेण कालेण तेण समण चपा नाम नथरी पुण्ण भद्दे चेहए जियसत्तू राया धारिणी देवी, अदीणसत्तू नाम कुमारे जुराया यात्रि होत्या) उस काल और उस समय में चपा नाम की नगरी थी। उसमे पूर्णभद्र नाम का उद्यान था। उस नगरी के राजा का नाम जितशनु था। इसी बारिणी देवी नाम की रानी थी। अदीन शत्रु नाम का इस का पुत्र या । यह युवराज या। (सुबुद्धी अमच्चे जाव रज्न पुराचितए समणोवास ) सुवुद्धि नाम का इम का अमात्य था। यह औत्पत्तिकी आदि चारो प्रकार की वृद्धि से सपन या। पावत् यही राज्यभार का चिनक था। जीब अजीव आदि तत्वो का यह ज्ञाता था और अमणोपासक पा। (तीसे ण चपाए णयरी रिया उत्तरपुरच्छिमेण एगे परिहोदए यावि होत्या) उस चपा नगरी के बाहर उत्तरपौरस्त्यदिग्भाग मे-ईशानकोण मे-परि खोदक-खाईमें जल भरा था। दुर्ग (किल्ला)के चारो और बाहरकी तरफ
(तेण रालेण तेण समएण चपा नाम नयरी पुण्णभद्दे चेइए जियसत्तू राया धारिणी देवी अटीणमत्त नाम कुमारे जुबराया यावि होत्या)
તે કાળે અને તે સમયે ચ પ નામે નગરી હતી તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ઉવાન હતું તે નગરના રાજાનું નામ જીતશત્રુ હતુ ધારિણીદેવી નામે તેની पत्नी तो तेना पुत्रनु नाम महीनशत्रु तु भने ते युवा ते! (सुबुद्धि अमन्चे जार रजधुरा वितए समणोनामए) सुमुद्धिनामे तना अमात्य (મત્રિી) હને તે સ્પિત્તિ વગેરે ચારે પ્રકારની બુદ્ધિસ પન્ન હતો અને ગજ્યનું શાસન તેના હાથમાં જ હતુ જીવ અજીવ વગેરે તનું તેને જ્ઞાન હતુ અને તે શ્રમણોપાસક હતો (तीसेण चपापणीए पहिया उत्तरपुरन्टिमेण एगे परिनोदए यावि होत्या)
ચપા ગરીની બહાર ઉત્તર પૌત્ય ાિમા- ઈશાન કેણુમા-પરિબંદર ખાઈમાં પાછું ભર્યું હતુ દુગની ચેમેર બહારની બાજુએ કેટની પાસે
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हाताधर्मकथासूत्रे
सत्तू नाम कुमारं जुवराया यात्रि होत्था, सुबुद्धी अमच्चे , जाव रज्जधुराचितए समणोवासए, तीसेण चपाए णयरीए वहिया उत्तरपुरच्छिमेण एगे परिहोदर यानि होत्या, मेयवसामंसरुहिरपूय पडलपोचडे मयगकलेवरसछपणे अमणुण्णे वण्णेण जाव फासेण, से जहा नामए अहिमडेड वा जाव मयकुहियविणकिमिणत्रावण्णदुरभिगधे किमिजालाउले संसत्ते असुइ विगयवीभत्थद रिसणिज्जे, भवेयारूवे सिया ?, जो इट्टे समट्टे, एन्तो अणिट्टतराए चेव फासेण पण्णत्ते ॥ सू० १॥
टीका - जम्बूस्वामीप्राह-यदि खलु भदन्त । हे भगवन् । श्रमणेन यावत्सम्माप्तेन एकादशस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः द्वादमस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य कोsर्थ मतप्त १ श्री सुर्मासामी कथयति - एव खलु हे जम्बू तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी, पूर्णभद्र चैत्य, जितशत्रू राजा,
1
जबू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते है कि ( जइ ण भते ! समणेण जाव सपत्ते ण एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयम० बारस मस्स ण णायज्ञ्जयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? एव खलु जबू ? ) हे भदन यदि श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं ग्यारहवें ज्ञानाध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से भाव अर्थ निरूपित किया है तो कहिये उन्हो ने बारहवें ज्ञाताध्ययनका क्या अर्थ
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ટીકાર્યું-જમ્મૂ સ્વામી શ્રીસુધર્મા સ્વામીને પ્રશ્ન કરે છે કે—
( जइण भते ! समणेग जान सपत्तेण एक्कारममस्स नायज्झयणस्स अयम० बारसमस्स ण णायज्झयणस्म के अहे पण्णत्ते ? ए खल जब्रू ! )
હું ભકત 1 સિદ્ધગતિ પામેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર અગિયારમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપે ભાવ-અથ નિર્પિત કર્યાં છે તેા તેઓશ્રીએ બારમા અઘ્યયનના શેા ભાવ અથ નિરુપિત કર્યા છે કે જમ્મૂ સાભળે તે શ્રીએ ખારમા અધ્યયનના જે રીતે અર્થ સ્પષ્ટ કર્યો છે તે આ પ્રમાણે છે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१२ खातोदकविषये सुबुद्धिष्टान्त
૬
धारिणीदेवी, अदीनशत्रुर्नाम कुमारः = जितशत्रुराजपुत्र 'जुवराया' युवराजः = युवराजत्वेऽभिषिक्तचाप्यासीत् । सुबुद्धिर्नामामात्य औत्पातित्यादिबुद्धि चतुष्ट ययुक्त. यावद्' रज्जधुराचितए' राज्य पुराचिन्तक = राज्यभारचिन्तक 'समणों वासए' श्रमणोपासक = श्रावनोऽभिगतजीवाजीव आसीत् । तस्याथम्पाया नगर्या वहिरुत्तरपौरस्त्ये एक 'परिहोइए ' परिलोक परिखा = दुर्गस्य चतुर्दिक्षु रिपुप्र भृतीना प्रवेष्टुमशक्या गर्त्तरूपावेष्टना कारभूमि, तन्न सम्भृतमुदक परिखोदक ' खाईजल ' इतिभाषामिद्ध चाप्यासीत् । तत्कीदृशम् ? इत्याह-' मेयनसा ' प्ररूपित किया हे ? | हे जन् ! सुनो-जो उन्होने १खें अध्ययनका अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है- ( तेण कालेन तेण समएण चपा नाम नपरी पुण्ण मद्दे चेहए जियसत्तू राया धारिणी देवी, अदीणसत्तू नाम कुमारे जुवराया यावि होत्या ) उस काल और उस समय में चपा नाम की नगरी थी। उसमे पूर्णभद्र नाम का उद्यान था । उस नगरी के राजा का नाम नितनु था । उस की वारिणी देवी नाम की रानी थी । अदीन शत्रु नाम का इस का पुत्र था । यह युबराज था । ( सुबुद्धी अमच्चे जाब रज्जधुराचितण समणोवास ) सुबुद्धि नाम का इस का अमात्य था । यह औत्पत्तिकी आदि चारो प्रकार की बुद्धि से संपन्न था। यावत् यही राज्यभार का चितक था । जीव अजीव आदि तच्चो का यह जाता था और श्रमणोपासका । (तीसे ण चपाए णय नहिया उत्तरपुरच्छिमेण ण्गे परिहोद यावि होत्या ) उस चपा नगरी के बाहर उत्तरपौरस्त्यदिग्भाग मे - ईशानकोण में - परि खोदक - खाई मे जल भरा था । दुर्ग (किल्ला) के चारो और बाहर की तरफ
( तेण कालेन तेण समएण चपा नाम नगरी पुष्णभद्दे चेइ" जियसत्तू राया धारिणी देवी अदीणसत्तू नाम कुमारे जुवराया याच होत्या )
તે કાળે અને તે સમયે ચા નામે નગરી હતી. તેમા પૂર્ણભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતેા તે નગીના રાજાનું નામ જીતશત્રુ હતુ ધારિણીદેવી નામે તેની पत्नी हुती तेना पुत्रनु नाम महीनगनु हेतु मने ते युवरान तो ( सुबुद्धि अमच्चे जाव रज्जधुरा चितए समणोपासए ) सुयुद्ध नाभे तेना सभात्य ( મત્રી ) હતા તે ઔત્પિત્તિકી વગેરે ચારે પ્રનની બુદ્ધિસ પક્ષ હતા અને ગત્યનુ રાામન તેના હાથમાં જ હતુ જીવ અજીવ વગેરે તત્ત્વાનુ તેને જ્ઞાન હતુ અને તે શ્રમણે પાસક હતા
(ती सेणचाणीए नहिया उत्तरपुर्रा उमेण एगे परिहोइए यात्रि होत्या) ચપાગરોની બહાર ઉત્તર પૌન્ય સામા−ઇશાન કાણુમા-પરિખોદક ખાઇમાં પાણી ભર્યું હતું. દુ ની ચામેર બહારની માત્રુએ કેટની પાસે
शी ८५
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जाताधर्मकथा
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इत्यादि, सामरियपडपो मेदो नसामा मरुधिरपृयपटलपो वड मेदः = शरीरस्थधातुविशेषः, मा=स्थिगतस्निग्धातुविशेषः 'च' इति प्रसिद्धः मांस-मसिद्ध रुपिर= शोणित, पू=विकृतरुधिरम् तेपा पटलेन = सप्हेन पोन्ड मिश्रित समुदबुदमित्यर्थः । ' मगरले रसपणे मृतककलेवर सछन्न =श्वमार्जारादिमृतकले परसभृतम् । 'अणुणा ' अमनो- अरुचिकरं वर्णेन 'जाव' या न्येन रसेन स्पर्धेन च मनोविकृति ननकमित्यर्थः । तदेव सदृष्टान्तं मश्नोत्तरेण वर्णयति' रा जहानाम' तद् यथा नामकम् यथा दृष्टान्तम् - यथा' अहिमडेइवा ' अहिमृतकमिति गतम् । गोमडेड वा ' गोमृतकमिति चा 'जान' यावत् - एन यावच्छदेक-श्वमृतक, मार्जारमृतक मनुष्यमृतरु, महिष उस से लगा हुआ एक गोलाकार बडी भारी ग्वाई थी। इस की वजह से शत्रु उस दुर्ग - किले में सहसा एका एक प्रविष्ट नही हो सकते। इस में पानी भरा रहता है । इस का नाम खातिकोदक भी है। ( मेयवसामसरिर - पूप-पडल-पोच्चडे मयगकलेवरमन्ने अमणुन्ने वण्णेण जाव फासेण-से जहा नामए अरिमडेह वा गोमडेह वा जान मयकुहियचिणदृकिमिणवावण्ण दुरभिगधे, क्रिमिजालाउले ससत्ते असुविगयपीभत्सद रिसणिज्जे भवेयारूवे सिया ? गोइण समट्टे एतो अणित्तराए चेव जाव फासेण पण्णत्ते यह परिखा का पानी, मेदावसा - चर्वी - मास, रुधिर, पृय-पीय, के समूहसे मिश्रित था । कुत्ते, माजर आदि के मृत शरीरों से युक्त था ! अरुचिकारक था गन्ध, रस एवं स्पर्श से यह मनो विकृति जनक बना ) हुआ था। इसी बात को दृष्टान्त द्वारा प्रकट किया जाता है-जिस प्रकार मर जाने के बाद श्वमृतक मरे हुए कुत्ते का कलेवर बिल्ली का
ગાળાકાર એક માટી ખાઈ હતી તેથી શત્રુ એકાએક સરળતાથી દુગમાં પ્રવે શવાની હિંમત કરી શકતા નહેાતા, તેમા પાણી ભરેલુ હતું આનુ ીનુ નામ · પ્રાતિકાક’ પણ છે
6
(मेयचसा मसरूहिरपूयपडलपोच्चडे भयगकलेवरसछन्ने अमणुन्ने वण्णेण जात्र फासे से जहानामए अहिमडेइ वा गोमडेर वा जाव मय कुहिय नि किमिणनावदुरभिगधे, किमिजालाउले ससते असुरगियबीभत्सद रिसणिज्जे भवेयारूते सिया ? णो इणट्ठे समद्धे, एतो अणिट्टत्तराए चैव जाव फासेण पण्णत्ते )
या परिणामानु पाणी पुष्ण प्रभाशुभा भेा, वसा, भरणी, भास, રુધિર, લેાહી, પૂય, પરુથી મિશ્રીત હતુ કૂતરા, બિલાડા વગેરેના મરી ગયેલા શખાથી તે યુક્ત હતું તે અરુચિકારક હતું અને ગંધ, ગ્સ તથા પથી મનેાવિકૃતિજનક હતુ એ જ વાત દૃષ્ટાંત વડે અહીં રજુ કરવામા આવે છે જેમ મરી ગયા પછી ધમૃતક મરી ગયેલા કૂતરાનુ ક્લેવર (શરોર) બિલાડીનુ લેશર,
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गरणी टी० अ० १२ खातोदकविपये सुयुद्धिष्टान्त ६८३
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मृतक, मृपकमृतकम्, अश्वमृतक, हस्तिमृतक, सिंहमृतक, व्यामृत, वृकमृतक = घृक: 'भेडिया ' इति प्रसिद्ध: - श्वापदविशेषस्तस्य मृतकलेवरम्, द्वीपिकमृतक= द्वीपिक' - चित्रकः 'चीता' इतिप्रसिद्धः श्वापदविशेषस्तस्य मृतशरीरम् इति सग्रामम् कीदृशावस्थापन तदद्दिमृतादिकम् ' इत्याह--' मयकुरियर्विण किमिणवावभ्णदुरभिगघे ' मृतकुथितविनिष्टकृमिमद् व्यापन्नदुरभिगन्धम् =मृत = जीवविमतमात्रमेव कुथित शटित, विनष्ट=स्त्राकारतो नष्ट वायुजलभरणेन इतिवत्स्थूलतामुपगतमित्यर्थः, कृमित्रत् = चिरकालिकत्वात्कृमिमकुलम्, अतएव व्यापन्न = सर्वदिक मसृत दुरभिगन्धम् = अतिशय दुर्गन्धयुक्तम् । 'किमिजालाउले ' कमिजाला
,
कलेवर, मनुष्य का कलेवर महिप मैसे का कलेवर, चुहा का कलेवर, घोडे का कलेवर, हाथी का कलेवर, सिंह का कलेयर, व्याघ्र का कलेवर, घृक का कलेवर, द्वीपिक को कलेवर कुथित, चिनप्ट, क्कुमिमत, व्यापन्न एव दुरभिगध युक्त कृमिजालाकुल- कीडो से व्याप्त तन्मय, अशुचि, विकृत एव वीभत्स दृश्य रूप हो जाते हैं-सो इन सब से भी अधिक अनिष्टतर- अत्यत घृणा जनक - वह खाई का जल था । मरने के बाद शरीर जो सड़ने लग जाता है इस का नाम कुथित है । वायु और जल के भर जाने से जिम प्रकार मशक फूल जाती है उसी प्रकार जीव रहित होने के बाद जो शरीर फूल जाता है इस का नाम निष्ट है । इस स्थिति में वह पदार्थ अपने पूर्वाकार से भिन्नाकार वाला हो जाता है । जो शरीर बहुत दिनो तक जीव रहित पड़ा रहता है उस मे सड़ जाने की वजह से कीडे पड जाते हैं-इम का नाम कृमिमत् है । जिस में से
માણસનુ કલેશ્વર, પાડાનુ લેવર, ઉદરનુ કલેવર, વેાડાનુ કલેવર, હાથીનુ લેવર, સિંહનુ ફ્લેવર, વાઘનુ કલેવર, વરુનુ કલેવર અને દીપડાનુ ફ્લેવર, કુથિત, વિનષ્ટ, કીડાઓવાળુ, વ્યાપન્ન અને દુરભિ-ગ ધયુક્ત કૃમિએથી આકાત કીડાઓથી ન્યાસ-તન્મય, અશુચિ વિકૃત અને બીભત્સ દૃયવાળુ ચઈ જાય છે તેમ એના કરતા પણ વધુ અનિષ્ટતર અત્યંત ઘણુાજનક તે ખાઇનુ પાણી હતું મરણુ પછી રારી મડવા માડે છે તેને ‘કુથિત' કહે છે જેમ પવન અને પાણીથી ભાખેલી મરાક ફૂલીને માટી થઈ જાય છે તેમજ નિર્જીવ થયેલુ શરીર પણ ફુલાઈને માઢુ થઈ જાય છે તેનુ નામ · વિનષ્ટ ' જે પદાર્થની જ્યારે આવી સ્થિતિ થાય કે ત્યારે તે પહેલાના આકાર પ્રકારથી સાવ ભિન્ન આકાર વાળાથઈ જાય છે. શરીર ખડુ દવા નિર્જી વેઇને મડદાના રૂપમાં પડી રહે છે ત્યારે તે સડી જવાથી તેમા પડી જાય છે, અને કૃમિમત કહે છે,
કીઢ
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নাগাথা कुल = कृमिपुञ्जयुक्त यन तनावयरे पुनीभृतकृमिव्याप्तम् , पात्र 'ससत्त' ससक्त तन्मयमित्यर्थः, 'असुइ विगययीभत्यदरिमणिज्ज' अशुचिविकृतवीभत्स दर्शनीयम् अशुचि-अस्पृश्यत्वादपवित्र, विस्त=पिकाग्युक्त , गीभत्सम्धृणित दर्शनीय-दृश्य यस्य तत्तथोक्तम् 'एयारूपेसिया एतद्रूप स्यात्-पिम् अहिमृतादि सदृश स्यात्-अस्ति ?, इति प्रश्नो भवेत् भगाना-'नो इणहे समटे' नायमर्थ समर्थः-नैतादृश किन्तु- एत्तो' एतस्मादपि अणिठ्ठतराए चा' अनिष्टतरमेव अत्यन्तघृणाजनक यावत् स्पर्शन प्राप्तम् ।। मृ. १॥
मूलम्-तएण से जियसत्त राया अण्णया कयाइ पहाए कायवलिकम्मे जाव अप्पमहग्याभरणालकियसरीरे बहूहिं राईसर जाव सत्थवाहपभिईहि सद्धि भोयणवेलाए भोयणमडवसि सुहासणवरगए विपुल असण? जाव विहरति, जिमियभुत्तुत्तरागए आयते चोक्खे परमसुइभूये तसि विपुलसि असण ४ जाव जायविम्हए ते वहवे ईसर जाव पभिइए एव वयासीअहो ण देवाणुप्पिया। इमे मणुण्णे असण४ वण्णेण उववेए जाव फासेण उववेए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीयणिज्जे दीवणिजे दप्पणिज्ने मयणिजे विहणिजे सव्विदियगायपल्हाय"णिज्जे, तएण ते वहवे ईसर जाव पभिइओ जियसत्तू एव
वयासी-तहेव ण सामी । जपण तुम्भे वयइ अहो ण इमे 'मणुण्णे असण४ वण्णेण उववेए जाव पल्हाणिज्जे, तएणं चारों ओर दुर्गध फैल रही हो उस का नाम दुरभिगप है । सड जाने के बाद जिस के अग उपाग सब तरफ विग्वरे हुए पडे हो उस का नाम व्यापन्न है। यहा मृतक शब्द से जीव रहित शरीर लिया गया है। सूत्र ॥१॥ ‘જેમાથી મેર દુર્ગધ પ્રસરી રહે છે તેને “દુરભિગ ધ” કહે છે મડદુ સડી જાય છે અને તેના બધા અંગે ઉપાગે ચોમેર વિખેરાઈ જાય તેને વ્યાપ
के सही भृतशपथी नि७१ शरीर सभा ME . ""॥
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अनगारधर्मामृतार्पणो टी० अ० ११ खातोदकविपये सुबुद्धिष्टान्न ६८५ 'जितसत्तू सुबुद्धिअमच्च एव वयासी-जहा ण सुबुद्वी । इमे मणुण्णे असण४ जाव पल्हायणिज्जे, तएण सुबुद्धी जितसत. स्सेयम नो आढाइ जाव तुसिणीए सचिटइ, तएण जियसत्त सुवुद्धि दोच्चंपि तच्चपि एव वयासी-अहो ण सुबुद्धी! . इमे मणुन्ने त चेवजार पल्हायणिज्जे, तएण से सुबुद्धी अमच्चे जितसत्तणा दोच्चपि तच्चपि एववुत्ते समाणे जितसत्तू राय - एव वयासी-नो खल्लु सामी । अम्ह एयसि मणुण्णसि असणं ४ केइ विम्हए, एव खलु सामी। सुभिसदावि पुग्गला दुभि - सदत्ताए परिणमति दुभिसदावि पोग्गला सुभिसद्दत्ताए परिणमति, सुरूवावि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमति दुरूवावि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमति सुन्भिगधावि पोग्गला दुन्भिगंधत्ताए परिणमति दुन्भिगधावि पोग्गला सुन्भिगधत्ताए परिणमति सुरसावि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमति दुरसावि पोग्गला. सुरसत्ताए परिणमति सुहफासावि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमति दुहफासावि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमति पओगवीससापरिणयावि य ण सामी | पोग्गला पण्णत्ता, तएण से जितसत्त सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स४ एयमट्ट नो अटाइ नो परियाणई तुसिणीए सचिट्टह, तएण से जियसत्तू अण्णया कयाई व्हाए आसखधवरगए महया भडचरगर आसवाहणियाए निजायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदरसामतेण वोइवयइ । तएण जितसत्तु तस्स फरिहोदगस्स असुभेण
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६८६
हातापा गधेणं आभिभूए समाणे सपण उत्तरिजगणं आसग पिहेइ, एगतं अवक्कमइ, अवकमित्ता ते वहवे इंसर जाव पभिइओ एव 'वयासी-अहो णं देवाणुप्पिया इमे फरिहोदए । अमणुण्णे वणेण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेव तएणं ते वहवे राईसरपभिइओ जाव एवं वयासी-तहेव
ण त सामी । जं गं तुम्भे एव वयह, अहो ण इमे फरिहोदए __ अमणुपणे वण्णेण ४ से जहा णामए अहिमडेइवा जाव
अमणामतराए चेव, तएण ते वहवेराईसर पभिइओ जाव एव वयासी-तहेव ण त सामी । ज ण तुम्भे एव वयह, अहो णं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेण४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेव, तएण से जियसत्तसुबुद्धिं अमचं एव वयासी - अहो णं सुबुद्धि । इमे फरिहोदए अमणुण्णे वणेणं, से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए, चेव, तएण सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए सचिहइ, तएण से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्च दोच्चपि तच्चपि एव वयासी --अहो ण त चेव, तएण से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तूणा रन्ना दोच्चपि तच्चपि एव वुत्ते समाणे एव वयासी-नो खल्ल सामी | अम्ह एयसि फरिहोदगसि केइ विम्हए, एव खलु सामी । सुन्भिसदावि पोग्गला दुन्भिसदत्ताए परिणमति, त घेव जाव पओगवीससापरिणयावि य ण सामी । पोग्गला पण्णत्ता, तएण जियसत्तू सुबुद्धि एवं वयासी मा ण तुमं
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मनगारधर्मामतवर्षिणी गेका २०१२ मातोदकविषये सुषुधियान्त ६८७ देवाणुप्पिया ! अप्पाण च परं च तदुभय वा बहहि य असभावुन्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे चुप्पाए. माणे विहराहि, तएण सुवुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झथिए- अहो ण जियसत्तू सते तच्चे ताहिए अवितहे सन्भूए जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभति, सेय खलु मम जियसत्तुस्स रपणो सताणं ताण तहियाण अवितहाण सम्भूताण जिणपण्णत्ताण भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमह उवाइणावेत्तए, एव सपेहेइ, संपेहित्ता पच्चतिएहि पुरिसेहि सद्धि अंतरावणाओ नवए घडएय गेण्हइ, गेण्हित्ता सझाकालसमयसि पविरलमणुस्संसि णिसंतपडिनिसंतसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता त फरिहोदगं गेण्हावेइ गेण्हावित्ता नवएसु घडएसु गालावेइ गालावित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ पक्खिवावित्ता लछियमुहिते करावेइ करावित्ता सत्तरत्त परिवसावेह दोच्चपि नवएसु घडएसु, गालवेइ गालवित्ता नवरसु घड. एसु पक्खिवावेइ पक्खिवावित्ता सजक्खार पक्खिवावेइ लछियमुदिते करावेइ करावित्ता सत्तरत्त परिवसावेइ तच्चपि णवएसु घडएसु जाव सवसावेई एव खलु एएणं उवाएणं अतरा गलावमाणे अतरा पक्खिवावमाणे अतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्त२ राईदिया विपरिवसावेइ, तएणं से फरिहोदए सत्तमसत्तयसि परिणममाणसि उद्गरयणे जाए यावि होत्था अच्छे पत्ये जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वपणेण उववेए
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ચૂંટફ
माताधर्मका
गंधेणं अभिभू समाणे सएण उत्तरिक्षगेणं आसग पिछेइ, एगंत अवक्कमइ, अवक्कमित्ता ते वहवे इंसर जाव पभिइओ एव वयासी - अहो णं देवाणुप्पिया इमे फरिहोदए । अमणुण्णे वण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चैव तणं ते बहवे राईसरपभिइओ जाव एव वयासी - तहेव णत सामी । ज णं तुभे एव वयह, अहो पण इमे फरिहोदए अमणुष्णे वण्णेण ४ से जहा णामए अहिमडेइवा जाव अमणामतराए चेव, तएण ते वहवे राईसर पभिइओ जाव एव वयासी - तहेव णं त सामी । ज ण तुब्भे एव वयह, अहो णं इमे फरिहोदर अमणुणे वण्णेण४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए वेव, तएण से जियसत्तू सुबुद्धि अमच्च एव वयासी - अहोणं सुबुद्धि । इमे फरिहोदए अमणुपणे वणेणं, से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए, चेव, तएण सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए सचिहड़, तरण से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्च दोच्चपि तच्चपि एव वयासी - अहो ण त चेव, तएण से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तूणा रन्ना दोच्चपि तच्चपि एव बुत्ते समाणे एव वयासी - नो खल्लु सामी । अम्ह एयसि फरिहोदगसि केइ विम्हए, एव खलु सामी । सुब्भिसद्दावि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमति, त वे जाव पओगवीससापरिणयावि य ण सामी । पोग्गला पण्णत्ता, तएण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी -मा ण तुमं
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अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १२ सातोदकविपये सुवुद्धिान्त
६८९ भोयणवेलाए इम उदगरयण न उवटुवेसि ? त एसण तुमे देवाणुप्पिया ! उदगरयणं कओ उवलद्धे, तएणं सुबुद्धी जियसत्त एष वयासी-- एसण सामी। से फरिहोदए, तएण से जियसत्तू सुवुद्धिं एव वयासी--कणं कारणेणं सुबुद्धी । एस से फरिहोदए', तएणसुबुद्धी जियसत्तु एव बयासी-एव खलु सामी। तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स४ एयम नो सदहह तएणं मम इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पजिस्था, अहोणं जियसत्त सते जाव भावे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ त सेय खल मम जियसत्तस्स रन्नो सताण जाव सब्भूयाण जिणपन्नत्ताणं भावाण अभिगमणट्टयाए एयम उवाइणावेत्तए, एवं सपेहेमिर त चेव जाव पाणियपरिय सद्दावेमि सदावित्ता एवं वयासी-तुम ण देवाणुप्पिया । उदगरयण जियसत्तस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि, त एएण कारणेणं सामी । एस से फरिहोदए । तएण जियसत्तू राया सुवुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्त४ एयमट्ट नो सदहइ३ असद्दहमाणे३ अभितरदृणिज्जे पुरिसे सद्दावइ२ एव वयासी-गच्छहण तुब्भे देवाणुप्पिया । अतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाव उदगसभारणिज्जेहि दव्बेहि सभारेह तेऽवि तहेव सभारंति सभारित्ता जियमत्तस्स उवणेति, उवाणित्ता तएण जियसत्तू राया त उदगरयण करयलसि आसाएइ आसायणिज्ज जाव सबिदियगायपल्हायणिज्ज जाणिता सुबुद्धि अमच्च सद्दावेड सहाविताएव
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६/८
जाताधम कथासूत्रे ४ आसायणिज्जे जाव सव्निदियगाय पल्हायणिज्जे, तपणं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरपणे तेणेव उवा०२ करयलसि आसादेइ आसादित्ता त उदगरयण वण्णेण उववेय? आसायणिज्जे जाव सव्विदियगायपल्हायणिइज जाणित्ता हहतुट्टे वहूहि उदगसभारणिजेहि सभारेइ सभारिता जितसनूस्स रण्णो पाणिघरिय सदावेइ मद्दावित्ता एव वयासी तुम च ण देवाप्पिया । इम उद्गरपणं गेण्हाहिर जियसत्तस्स रनो भोयणवेलाए उवणेजासि, तएण से पाणियधरिय सुबुद्धियस्स एयमट्ट पडिसुणेइ पडिणित्तात उदगरयण गिण्हाइ गिव्हित्ता जियसत्तस्स रण्णो भोयणवेलाए उबट्टवेइ, तएण से जियसत् राया त विपुल असण४ आसाएमाणे जाव विहरइ, जिमियभुतत्तरागए यात्रि य णं जाव परमसुइभूए तसि उद्गरयणे जायविर ते बहने राईसर जाव एव व्यापी-अहो ण देवा
विया । इमे उद्गश्यणे अच्छे जाव सव्विदियगाय पल्हायणिजे तणं बहवे राईसर जाव एव वयासी - तहेव ण सामी । जपण तुब्भे वदह जाव एव चेव पल्हाणिज्जे, तएण जियसंतू राया पाणियघरिय सदावेइ सदावित्ता एव वयासी - एस णं तुब्भे देवाणुपिया | उदगरयणे कओ आसादिते १, तएण से पाणियधरिए जियमत्त एव वयामी - एम णं सामी । मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अतियाओ आसाइए तएण जियसत्तू सुबुद्धि अमच्च सदावेइ सद्दाविना एव वयासी - अहो ण सुबुद्धी केण कारणेण अह् तव अणिट्टे५ जेण तुम मम कल्ला कल्लि
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १२ सातोदकविपये सुनुद्धिान्त भोयणवेलाए इम उदगरयण न उबटुवेसि ? त एसण तुमे देवाणुप्पिया । उदगरयणं कओ उबलद्धे ?, तएण सुबुद्धी जियसत्त एम वयासी-- एसण सामी । से फरिहोदए, तएण से जियसत्त सुबुद्धि एव वयासी--कणं कारणेणं सुबुद्धी । एस से फरिहोदए', तएणं सुबुद्धी जियसत्तू एव वयासी-एव खलु सामी। तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स४ एयम? नो सहहह तएणं मम इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पजिस्था, अहोण जियसत्त संते जाव भावे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ त सेय खलु मम जियसत्तस्स रन्नो सताणं जाव सम्भृयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाण अभिगमणट्टयाए एयम उवाइणावेत्तए, एव सपेहेमिर त चेव जाव पाणियपरिय सदावेमि सदावित्ता एवं वयासी-तुम ण देवाणुप्पिया । उदगरयण जियसत्तूस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि, त एएण कारणेणं सामी। एस से फरिहोदए । तएण जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्त४ एयमट्ट नो सदहइ३ असद्दहमाणे३ अभितरदृणिज्जे पुरिसे सदावइ २ एव वयासी-गच्छहण तुम्भे देवाणुपिया | अतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाव उद्गसभारणिज्जेहि दबेहि सभारेह तेऽवि तहेव सभारंति सभारित्ता जियमत्तस्स उवणेति, उवणित्ता तएण जियसत्तू राया त
उदगरयण करयलसि आसाएड आसायणिज्ज जाव सव्विदियगा___ यपल्हायणिज्ज जाणिता सुबुद्धि अमच्च सद्दावेद सद्दावित्ता एव
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MIताया वयासी-सुबुद्धी । एएणं तुमं सता जार सम्मृया भावा कओ उवलद्धा?, तएण सुबुद्धी जियसत्त एवं वयानी-एएण सामो। मए सता जाव सम्भूया भावा जिणवयणाओ उवलडा, तएणं जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी-त इच्छामि ण देवाणुप्पिया । तव अतिए जिणवयणं निसामेत्तए, तएणं सुबुद्धी जियसत्तस्स विचित्तं केवलिपन्नत्त चाउजाम धम्म परिकहेइ, तमाइक्खइ जहा जीवा वज्झति जाव पच अणुव्वयाइ,तएण जियसत्तू सुबुद्धिस्त अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हटु०सुबुद्धिं अमच्चं एव वयासी -सदहामि ण देवाणुप्पिया। निग्गंथ पाववण३ जाव से जहेव जं तुम्भे वयह, त इच्छामि णं तव अंतिए पचाणुबइयं सत्तसिक्खावइय जाव उव सपज्जित्ताण विहरित्तए, अहासुह देवाणुप्पिया | मा पडिवध० तएणं से जियसत्तू सुवुद्धिस्स अमञ्चस्स अतिए पचाणुव्वइय जाव दुवालसविह सावयधम्म पडिबजइ, तएण जियसत्त समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएर्ण थेरागमण जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ, सुबुद्धी धम्म सोच्चा ज नवर जियसत्तू आपुच्छामि जाव पव्वयामि,अहासुह देवाणुप्पिया! तएणं सुबुद्धी जेणेव जियसत्त तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एव वयासी-एवं खलु सामी मए थेराण अतिए धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तएण अहं सामी संसारभउविग्गे भीए जाव इच्छामिण तुम्भेहि अब्भणुन्नाए स० जाव पवइत्तए, तएणं जियसत्त सुबुद्धि एव वयाली-अच्छासु ताव देवाणु
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ०१२ खातोदकविपये सुवुद्धिद्रष्टान्त ६९१ प्पिया । कइवयाइति वासाइ उरालाइ जाव भुजमाणा तओ पच्छा एगयओ अतिए मुडे भवित्ता जाव पवइस्सामो, तएण सुबुद्धी जियसत्तस्स एयम पडिसुणेइ, तएण तस्स जियसत्तूस्स सुबुद्धीणा सद्धि विपुलाइ माणुस्स० पच्चणुभवमाणस्स दुवालसवासाइ वीइकताइ तेणं कालेण२ थेरागमणं तएण जिय सत्त धम्म सोच्चा एव ज नवरं देवाणुप्पिया । सुबुद्धि आमंतेमि, अहासुह, तएण जियसत्त जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुबुद्धि सदावेइ सहावित्ता एव वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया । मए थेराणं जाव पव्वजामि, तुम णं किं करेसि ?, तएण सुबुद्धी जियसत्तू एव वयासी-जाव के अन्ने आहारे वा जाव पव्ययामि, त जइणं देवाणुप्पिया जाव पत्रयहि त गच्छह णं देवाणुप्पिया | जेट्टपुत्त च कुडुवे ठावेहि ठावित्ता सीय दुरुहिताण मम अतिए पाउभवइ, तएण जिय. सत्त कोडुबियपुरिमे सदावेइ सदावित्ता एव वयासो--गच्छह ण तुभे देवाणुप्पिया । अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेय उवद्ववेह जाव अभिसिचति जाव पव्वइए। तएणं जियसत्तू एकारस अगाइ अहिज्जइ बहूणि वासाणि परियाओमासियाए सिद्धे तएणं सुवुद्वी एकारसअगाइ अहिजइ बहूणि वासाणि जाव सिद्धे । एव खलु जवू । समणेणं भगदया महावीरेण वारसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्तिवमि ॥ सू० ५ ॥
॥ वारसम नाअज्झयण समत्त ॥ टीका-'तएण से' इत्यादि । तत खलु स जितशत्रु राना=चम्पाधिपति अन्यदा
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૬૨
प्रताधर्मकथासूत्रे
कदाचित् = एकदा स्नात. 'क्यालिस्म्मे ' कृतकर्मात नासाद्यर्थमनादि विभागः यावद् अल्पमार्थाभरणामृतशरीरः हुमिः राजेश्वर यावत् सार्यवाह प्रभृतिभिः सार्द्ध भोजनवेलायां भोजनगण्डये सुखासनगतो विपुलम् अशनम् = अन्नादिक, पान=पानीयमपाणादिन, खाद्य =द्रासारादामादिक स्वाय =लवग पूगीफलादिक चतुर्विधमप्याहारमारसायन 'जात्र निरड यात् विस्वादयन् परिभोगयन् परिभाज्यमान, परिभुञ्जानो विहरति । ' जिमियभुक्षुत्तरामए '
"
ܕ
6
तण से जियसत्तू रामा 'हत्या |
टीकार्य - (ण) इसके बाद (से जियसत्त गया) वे जितशत्रु राजा ( अन्नया कयाड ) किसी एक समय ( पहाए यनलिकम्मे जाव अप्प महग्घा भरणालकियसरीरे वहहिं राइसर जाव सत्यवाहपभिर्हि सद्वि भोयणवेला भोयण मडवसि सुहामणवरगए विउल असण४ जात्र विरह ) स्नान करके तथा बलिकर्म-वायस आदि के लिये अन्नादि का विभाग-देन करके अल्प भारवाले बहुमूल्य अलकरोको पहिने हुए भोजन करने के समय में भोजन शाला में सुन्दर आसन पर आकर बैठ गये । उस समय उनके साथ में और भी अनेक राजेश्वर आदि सार्थवाह पर्यन्त समस्त जन थे । वहा इन सनके साथ वे वहाँ आशनपान आदि चारों प्रकार का आहार करने लगे । अनादिक अशन पीने योग्य पदार्थ पान, द्राक्षा बादाम आदि खाद्य एव लवग सुपारी आदि स्वाद्य है ।
"
तएण से जियसत्तू राया' इत्यादि
elsię"—( ago) cuizul (à faraz mımı) à Mangum (eraar कयाइ ) अर्ध मते
(urre arवलिकम्मे जाव अप्पमहग्धामरणालकियसरीरे बहूर्हि राइसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणवेलाए भोयणमटवसि सुहासणचरगए विउल अमण ४ जाब विरह )
સ્નાન કરીને તેમજ ખલિકમ એટલે કે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને માટે અન્ન વગેરેના ભાગ અપીને વજનમા હલકા પણ કિંમતમાં બહુ ભારે એવા અલકારા ધારણ કરીને જમવાના સમયે રસાઈ ઘરમા આવીને સુદર આસન ઉપર બેસી ગયા. તે વખતે તેમની સાથે ખીજા કેટલા રાજેશ્વર અને સાર્થ વાહા વગેરે હતા રાજા તેએ બધાની સાથે બેસીને અશન પાન વગેરે ચાર જાતના આહાર જમવા લાગ્યા અન્ન વગેરે અશન, પીવા ચેાગ્ય પદાર્થ પાન, ક્રાખ, ખદામ વગેરે ખાદ્ય અને વિગ–સેાપારી વગેરે સ્વાદ્ય છે
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भनगारधर्मामृसवर्षिणी टी० अ०१२ खातोदकविपयेसुबुद्धिद्रप्टान्त ६९३ जिमितभुक्तोत्तरागत -निमित. भुक्तवान् , मुक्तोत्तर- भोजनानन्तरम् आगत = उपवेशनस्थान प्राप्त', किम्भूतः सन् ? इत्याह- आयते 'जाचान्त शुद्धोदकेन कृतचुलुक , 'चोक्खे' चोक्ष-सिक्यादिलेपरहित , अतएन ‘परमसुइभए । परमशुचिभूतः = परमशुद्धः तस्मिन् विपुलेऽशनपानखायम्बाये यारद् ‘जाय विम्हए' जातविस्मयः समुत्पन्नपरमाश्चयो जितशत्रू राना तान् रहून् ईश्वर यावत्-प्रभृतीन-ईश्वर-तलवर-माडम्बिा-कौटुम्पिक-अप्ठि सेनापति सार्थवाह प्रभृतीन् एवमवदत्-अहो ! खलु हे देवानुप्रिया ' दद ‘मणुण्णे' मनोज्ञ=मर्वथा (जिमियभुत्त्तरागए आयते चोक्खे परमसुइभूए तसि विउलसि असण ४ जाव जायविम्हण ते बहवे ईसर जाव पभिहए एव वयासी) जय अच्छी तरह भोजन हो चुका-वे सरके सब बैठक में आये । बैठक में आने के परिले ये हाथ मुंह धोकर बिलकुल साफ हो चुके थे। अन्ना दिकके सीत जो इनके हाथ पैरों मे कहीं २ पड़ गये ये-उन्हें जल से इन्होंने साफ कर दिया था-वो दिया था। इस तरह परम शुचीभूत होकर राजाने उस विपुल आशन, पान, स्वाद्य एव स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार में विस्मित आश्चर्ययुक्त बन कर उन ईश्वर, तलवर, माडयिक, कौटुम्बिक,श्रेष्ठी, सेनापति एव सार्थवाह आदिको से इस प्रकार कहा(अहोण देवाणुप्पिया इमे मणुण्णे असण४वण्णेण उववेए जाव फासे ण उववेए अस्सायणिज्जे विस्सापणिज्जे पीयणिज्जे, दीवणिज्जे, दप्प. णिज्जे मयणिज्जे, विंहणिज्जे, सन्धिदियगाय परहायणिज्जे ) देवानु
(जिमियमुत्तत्तरागए जायते चोक्खे परमसुइभूए तसि विउलसि असण४ जाव जायपिम्हए ते पहवे ईसरजाव पभिइए एव वयासि )
જ્યારે તેઓ સરસ રીતે તૃપ્ત થઈને જમી રહ્યા ત્યારે તેઓ સર્વ બેઠ કમાં આવ્યા બેઠકમાં આવતા પહેલા તેઓ હાથ મો ધોઈને સ્વચ્છ થઈ ચૂકયા હતા અન્ન વગેરેના દાણા તેમના શરીર ઉપર જમતી વખતે પડી ગયા હતા તેઓને પાણીથી ધોઈને સાફ કર્યા આ રીતે એકદમ પવિત્ર થઈને પુષ્કળ પ્રમાણમાં તિયાર કરવામાં આવેલા અશન, પાન, ખાદ્ય અને રવાદરૂપ ચાર જાતના આહારથી નવાઈ પામેલા રાજાએ બીજા સાથે રહેલા ઈશ્વર, તલવર, માડ લિક કૌટુંબિક, શ્રેષ્ઠ તેના પતિ અને કાર્યવાહ વગેરેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(अहो ण देवाणुप्पिया । इमे मणुण्णे असण ४ पण्णेण उपवेए जार फासेण उपए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीयणिज्जे, दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मय णिज्जे विहगिज्जे सधिदियगाय पल्हायणिज्जे )
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माताधर्मकथा कदाचित् एकदा स्नात. ' कयरलिफ्म्मे' मतपलिकर्माकत वायमाद्यर्थममादि विभागः यावद् अल्पमहामरणावृतगरीरः बहुमि राजेवर यावत् सार्यवाह प्रभृतिभिः साई भोजनवेलायां भोजनगण्डपे मुखासनबरगतो विपुलम् अशनम् = अन्नादिक, पान-पानीयमपाणमादिक, खाद्य द्राक्षाराटामादिक स्वाय-लवग पूगीफलादिक चतुर्विधमप्याहारमाम्पादयन 'जाब विहरइ ' यावत् विस्वादयन, परिभोगयन् , परिभाध्यमानः, परिभुक्षानो विहरति । ' निमियभुसुत्तरामए'
'तण्ण से जियमत्तू राया' इत्यादि टीकार्य-तण्ण) इसके बाद (से जियसत्त गया) वे जितशत्रु राजा ( अन्नया कयाड ) किमी एक समय (हाय कायलिकम्मे जाव अप्प महग्घा भरणालकियसरीरे यहहिं राइसर जान मत्यवाहपभिईहि सद्धिं भोयणवेलाए भोयण मडवसि सुहासणवरगए विउल असण४ जात्र विहरइ) स्नान करके तथा पलिकम-वायस आदि के लिये अन्नादि का विभाग-देन करके अल्प भारवाले बहुमूल्य अलकरोको परिने हुए भोजन करने के समय में भोजन शाला में सुन्दर आसन पर आकर बैठ गये। उस समय उनके साथ में और भी अनेक राजेश्वर आदि सार्थवाह पर्यन्त समस्त जन थे। वहा इन सबके साथ वे वहाँ आशनपान आदि चारों प्रकार का आहार करने लगे। अनादिक अशन पीने योग्य पदार्थ पान, द्राक्षा पादाम आदि खाद्य एव लवग सुपारी आदि स्वाद्य है ।
'तएण से जियसत्तू राया' इत्यादि टी--(तएण) त्या२५छी (से जियसत्तू राया) ते शत्रु २० (अन्नया फयाइ) मते
(हाए कयपलिकम्मे जाय अप्पमहग्धामरणालकियसरीरे बहूहिं राइसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणवेलाए भोयणमडवसि सुहासणवरगए विउल अपण ४ जाब विहरह)
નાન કરીને તેમજ બલિકમ એટલે કે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને માટે અન્ન વગેરેને ભાગ અપને વજનમાં હલકા પણ કિમતમાં બહુ ભારે એવા અલ કારો ધારણ કરીને જમવાના સમયે રઈ ઘરમાં આવીને સુદર આસન ઉપર બેસી ગયા તે વખતે તેમની સાથે બીજા કેટલાક રાજેશ્વર અને સાથે વાહ વગેરે હતા રાજા તેઓ બધાની સાથે બેસીને અશન પાન વગેરે ચાર જાતના આહારે જમવા લાગ્યા અને વગેરે અશન, પીવા યોગ્ય પદાર્થ પાન. દાખ, બદામ વગેરે ખાદ્ય અને લવિ ગ-પારી વગેરે વાઘ છે
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अनगारधर्मामृनवपिणी टो० अ० १० खातोदकविषये सुवुद्धिदष्टान्न ६९५ यानत् सर्वेन्द्रियगात्रमहादनीयमस्ति । ततः खलु सुद्धिरमात्यो जितशत्रोरेत मर्थ नो आद्रियते यावत् तूष्णीक =सन्मौनः सतिष्ठते । ततः सलु जितशत्रुः सुवुदिममात्य द्वितीयमपि तृतीयमपिवारमेवमनादीत्-अहो ! खलु हे सुबुद्धे । इद मनोज्ञ तदेव यावत्सर्वेन्द्रियगानमहादनीयम् , ततः खलु स सुद्धिरमात्यः जित शत्रुणा द्वितीयमपि तृतीयमपि वारमेवमुक्तः सन् निनशत्रु रामानमेवमवादीत्-नो उववेए जाव पल्टायणिज्जे) हा स्वामिन् । जैसा आप कहते है आहार वैसा ही था। वह बडो ही मनोज एवं शुभवर्ण से युक्त था। यावत् समस्त शरीर एव इन्द्रियों को आनन्द पहुँचाने वाला था ! (तएण जितसत्तू सुधुद्धि अमच्च एव वयासी) अपनी बात का इ-वर आदि समस्त जनों द्वारा समर्थन प्राप्त कर राजा ने अपने अमात्य सुवुद्धि से भी यही बात कही कि (अहो ण सुशुद्धी-इमे मणुण्णे असण ४ जाव पल्हायणिज्जे) हे सुबुद्धे कहो, मनोज्ञ चतुर्विध अशनादि रूप यह आहार कितना अच्छा शुभ वर्णोपेत यावत् प्रह्लादनीय यो। (तण्ण सुबुद्धी जियसत्तूस्से यमट्ठ णो आढाइ, जाव तुसिणी सचिई ) इस प्रकार राजा द्वारा आहार की प्रशना सुनकर उस सुबुद्धि अमात्य ने राजा की इस बातकी अनुमोदना नही की-प्रत्युत वह सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा-(तएण जियसत्तू सुवुद्धिं दोच्च पि तच्च पि एवं वयासी उपवेए जाव पल्हायाणिज्जे)
હા સ્વામિન ! ખરેખર જેમ તમે કહે છે તેમ આહાર પણ એ જ હતે તે ખૂબ જ અનેરૂ અને શુભવણું વાળ હતો યાવત્ સ પૂર્ણ શરીર અને धन्द्रियान मान ५माना२ ते ( तएण जितमत्तू सुनुद्धि अमच्च एव षयासी ) पाताना प्रथन विशेश्वर वगैरे मामाथी समर्थन प्रास ४शन રાજાએ પિતાના અમાત્ય (મત્રી ) સુબુદ્ધિને પણ એક વાત કહી કે (अहोण मुबुद्धी इमे मणुण्णे असण ४ जाव पल्हायणिज्जे)
હે સુબુદ્ધિ ' બતાવે, મનેસ ૨૨ જાતને અશન વગેરે રૂપ આ આહાર કેટલો બધો ગુમવર્ણ યુક્ત યાવત્ આનદ આપનાર હિતે (तएण सुजुद्धी जियमत्तूस्सेयमणो आढाइ जाव तुसिणीए सचिट्ठ)
આ રીતે રાજાના મુખેથી આહાર વિશેના વખાણ સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તે તેમની વાત ને ટેકો આપે નહિ પણ તે માત્ર મૂગ થઈને બેસી જ રહો
तण नियमत्तू गुसुविंदाच पि तब पि एन श्यामी-हो ण सुयुद्धी ! इमे
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દે
माताधर्म का
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मनस्तृप्तिकरम् अशन पान खाद्य साद्य वर्णेन=शुभवर्णेन उपवेत यावत् स्पर्शेनोप तम्, " आसायणिज्जे ' आस्वादनीयम् - आस्वादनयोग्यम्, 'निश्मायणिज्जे ' विवादनीय = विशेषत आस्वादनयोग्यम्, 'पीणणिजे ' मीणनीय= समस्तेन्द्रिय प्रीतिजनकम् ' दीवणिजे ' दीपनीय = जठराग्निदीपनक शरीरमोन्दर्यजनक वा 'दप्पणिज्जे ' दर्पनीय = लजनकम् मयणिज्जे ' मदनीय कामोदीपकम् ' सिंह णिज्जे ' वृहणीय = सकलधातुपचयजनकम् सर्वेन्द्रियगानमादनीय= सकलेन्द्रियशरीरसुखजनक वर्त्तते । ततः खलु ते वह ईश्वर यात् सार्वभृतयो जित शत्रु मत्येवमवदन् 'तप' तथेन तादृशमेन खलु हे स्वामिन् ! यत्सल यूयं वदथ, अहो ! खलु इद मनोज्ञमशन पान खाद्य स्वाद्य चतुर्विधमप्याहार वर्णन उपपेत प्रियो । मनको तृप्ति करने वाला यह अशनादि रूप चतुर्विध आहार कितने अच्छे शुभवर्ण से युक्त था, कितने अच्छे शुभ स्पर्श से युक्त था कितना अच्छा आस्वादनीय एवं विशेषरूप से स्वादनीय या इसे खाकर समस्त इन्द्रिया तृप्त हो गई है । यह जठराग्नि का दीपक है, अ थवा शारीरिक सौन्दर्य का जनक है । चलचर्वक है। कामोद्दीपक है । इसे खाने वाले की समस्त धातुए उपचित हो जाती हैं। समस्त इन्द्रि यो एव शरीर को इसके खाने से आनन्द पहुँच रहा है । तालर्य यह चतुर्विध आहार बड़ा ही आश्चर्यकारक है (तएण ते बहवे इसर जाव पभिओ जियसत्तू एव वयासी) और अधिक क्या कहूँ पर तो बहुत ही अधिक उत्तम था। राजा की इस प्रकार बात सुनकर उन ईश्वर आदि अनेक सार्थवाहोंने उन जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा (तहे वणं सामी ! जण तुम्भे वदर-अहो ण इमे मणुष्णे असण ४ वण्ण
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હું દેવાનુપ્રિયે ! મનને તૃપ્ત કરનારે આ અાન વગેરેના ચાર જાતના આહાર કેટલે! શુભ વઘુ વાળા હતા, કેટલે ખધે! શુભસ્પવાળા હતા, કેટલેા સરસ આસ્વાદનીય અને વિશેષરૂપથી સ્વાદનીય હતેા આ આહારને જમીને ઇન્દ્રિયા બધી તૃપ્ત થઈ ગઈ છે આ જઠરાગ્નિના ઉદ્દીપક છે તેમજ શારીરિક સૌદમા વૃદ્ધિ કરનાર છે બળવક અને કામેદ્દીપક છે એને જમવાથી બધી ધાતુએ ઉપચિત ( વૃદ્ધિ પામવુ ) થઈ જ છે આ આહારથી ખધી ઇન્દ્રિયા તેમજ શરીરને આનદની પ્રાપ્તિ થાય છે મતલમ એ છે કે આ थार भतना भडारी जहुन नवार्ध पभाडे तेवा छे ( तण ते ईसर जाव पभिइओ जिसस्तृ एव वयासी ) सने पधारे शु अही शडीयो ते बहुभ ઉત્તમ હતા એમા તા જરાએ શકા નથી રાજાની આ વાત સાભળીને તે ઈશ્વર વગેરે ઘણા સાવાડેાએ તે જિતશત્રુ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે
( तदेव णसामी ! जण तुम्भे वदह-अहोण इमे मणुण्णे असण ४ चणेण
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिष्टान्न यत् सर्वेन्द्रियगात्रमहादनीयमस्ति । ततः खलु सुबुद्धिरमात्यो जितशत्रोरेत मर्थनो आद्रियते यावत् तूष्णीक = सन्मानः सतिष्ठते । ततः रुलु जितशत्रुः सुवुमिमात्य द्वितीयमपि तृतीयमपिवारमेवमवादीत् - अहो ! खलु दे सुबुद्धे । उद मनोन तदेव यावत्सर्वेन्द्रियगात्रमहादनीयम्, ततः खलु स सुबुद्धिरमात्यः जित
द्वितीयमपि सतीयमपि वारमेवमुक्तः सन् जिनशत्रु राजानमेवमवादीत्-नो उववेए जाव परहाय णिज्जे) हा स्वामिन् । जैसा आप कहते हैं आहार वैसा ही था । वह वडा ही मनोज्ञ एव शुभवर्ण से युक्त था । यावत् समस्त शरीर एव इन्द्रियों को आनन्द पहुँचाने वाला था । (तरण जितसन्तू सुबुद्धि अमन्च एव वयासी) अपनी बात का इश्वर आदि समस्त जनों द्वारा समर्थन प्राप्त कर राजा ने अपने अमात्य सुबुद्धि से भी यही बात कही कि ( अहो ण सुबुद्धी - इमे मणुण्णे असण ४ जाव पल्हाणिज्जे) हे सुबुद्धे करो, मनोज्ञ चतुर्विध अशनादि रुप यह आहार कितना अच्छा शुभ वर्णोपेत यावत् प्रह्लादनीय था । (तण्ण सुबुद्वी जियसत्तूस्सेयमट्ठ णो आढाइ, जाव तुसिणीए सचिट्टई ) इस प्रकार राजा द्वारा आहार की प्रशंसा सुनकर उस सुबुद्धि अमात्य ने राजा की इस बात की अनुमोदना नही की प्रत्युत वह सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा - (तएण जियसत्तू सुबुद्धिं दोच्च पि तच्च पि एवं वयासी उबवेए जाव पल्हावाणिज्जे )
હા સ્વામિન્ ! ખરેખર જેમ તમે કહેા છે! તેમ આહાર પણ એવા જ હતા તે ખૂબ જ મનેાજ્ઞ અને શુભવણુ વાળેા હતેા યાવત્ સ પૂરું શરીર અને ઇન્દ્રિયાને આનદ भाडनार देतो ( तएण जितबत्तू सुबुद्धि अमन्च एव वयासी ) पोताना उथन विशे ईश्वर वगेरे धायेोथी समर्थन प्राप्त अने રાજાએ પેાતાના અમાત્ય ( મત્રી ) સુષુદ્ધિને પણ એજ વાત કહી કે ( अहोण सुबुद्धी इमे मणुण्णे असण ४ जाव पल्हायणिज्जे )
ૐ સુમુદ્ધિ ' ખતાવે, મનેાજ્ઞ ચાર જાતને અશન વગેરે રૂપ આ આહાર કેટલેા બધે શુભવર્ણ યુક્ત યાવત્ આનદ આપનાર હતા
(तरण सुबुद्धी जियमत्तस्सेयमट्टणो आढाइ जात्र तुसिणीए सचिव )
આ રીતે રાજાના મુખેથી આહાર વિશેના વખાણુ સાભળી સુબુદ્ધિ અમાત્યે તે તેમની વાત ને ટેકે આપ્યું નહુ પણ તે માત્ર મૂગા થઈને બેસી જ રહ્યો
तृणजियमत्तू गुरुदिचपि तचपि एक नयामी होण सुबुद्धी | इमे
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भाताधर्मकथा मनस्तृप्तिकरम् अशन पान खाद्य स्वाध वर्णेन-शुभवर्णेन उपपेत यावत् म्पर्टेनोपणे. तम् , ' आसायणिज्जे ' आस्वादनीयम् आस्वादनयोग्यम् , 'रिस्सायणिज्जे' विस्वादनीय विशेपत आस्वादनयोग्यम् , 'पीणगिजे' प्रीणनीय समस्तेन्द्रिय प्रीतिजनकम् , ' दीपणिजे ' दीपनीय = नटराग्निदीपनक शरीरसौन्दर्यजनक का 'दप्पणिज्जे ' दर्पनीय लजनकम् , मयगिज्जे ' मदनीय कामोदीपकम् ‘विह गिज्जे ' वृहणीय-सफलधातूपचयजनाम् , सन्द्रियगात्रमहादनीय-सकलेन्द्रियशरीरसुखजनक वर्तते । ततः खलु ते वहन. ईश्वर यावत् सार्थहमभृतयो जितशत्रु मत्येवमवदन् 'तहेर' तये वादृशमेव सलु हे स्वामिन ! यत्खलु यूय पदय, अहो ! खलु इद मनोज्ञमशन पान खाध स्वाध चतुर्विधमप्याहार वर्णन उपपेत प्रियो ! मनको तृप्ति करने वाला यह अशनादि रूप चतुर्विध आहार कितने अच्छे शुभवर्ण से युक्त था, कितने अच्छे शुभ स्पर्श से युक्त था कितना अच्छा आस्वादनीय एव विशेपरूप से स्वादनीय या इसे खाकर समस्त इन्द्रिया तृप्त हो गई हैं। यह जठराग्नि का दीपक है, अ थवा शारीरिक सौन्दर्य का जनक है। पलवर्वक है। कामोद्दीपक है। इसे खाने वाले की समस्त धातुए उपचित हो जाती हैं। समस्त इन्द्रि यो एव शरीर को इसके खाने से आनन्द पहुंच रहा है । तात्पर्य यह चतुर्विध आहार बड़ा ही आश्चर्यकारक है (तएण ते यहवे इसर जाव पभिइओ जियसत्तू एव वयासी) और अधिक क्या कहूँ यह तो बहुत ही अधिक उत्तम था। राजा की इस प्रकार बात सुनकर उन ईश्वर आदि अनेक सार्यवाहोंने उन जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा (तह व ण सामी ! जण्ण तुन्भे बदह-अहो ण इमे मणुण्णे असण ४ वण्णेण
હે દેવાનુપ્રિયે! મનને તૃપ્ત કરનારે આ અગાન વગેરેને ચાર જાતને આહાર કેટલો શુભ વર્ણવાળે હતા, એટલે બધે શુભસ્પર્શવાળ હતું, કેટલો સરસ આસ્વાદનીય અને સવિશેષરૂપથી સ્વાદનીય હતે આ આહારને જમીને ઇન્દ્રિયે બધી તૃપ્ત થઈ ગઈ છે આ જઠરાગ્નિને ઉદ્દીપક છે તેમજ શારીરિક સૌદર્યમાં વૃદ્ધિ કરનાર છે બળવર્ધક અને કામોદ્દીપક છે એને જમવાથી બધી ધાતુઓ ઉપચિત ( વૃદ્ધિ પામવું ) થઈ જાય છે આ આહારથી બધી ઈન્દ્રિય તેમજ શરીરને આન દની પ્રાપ્તિ થાય છે મતલબ એ છે કે આ या२ तन माडा। महु ना ५मा त छ ( तएण ते ईसर जाव पभिइओ नियसत्तू एव ययासी) मने पधारे Y ४ी पीये ते मर्डर ઉત્તમ હતો એમાં તે જરાએ શકી નથી રાજાની આ વાત સાંભળીને તે ઈશ્વર વગેરે ઘણું સાર્થવાહએ તે જિતશત્રુ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(तहेव ण सामी ! जण्ण तुम्भे वदह-अहोण इमे मणुण्णे असण ४ वण्णेण
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भनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १२ सातोदकविपये सुधुद्धिदृष्टान्त ६९७ मुरूपा अपि पुद्गला. दुरूपतया कुत्सितरूपतया परिणमन्ति दुरूपा अपि पुद्गलाः सुरूपतया परिणमन्ति । सुगभिगधा अपि पुद्गला शुभगन्यवन्तः पुद्गला अपि दुरभिगन्धतया परिणमन्ति दुरभिगन्धा अपि पुद्गला सुरभिगन्यतया सुगन्धरूपेण परिणमन्ति। सुरसा अपि-शुभरसब तोऽपि पुद्गला दुरसतया अशुभरसतया परिण मन्ति, दूरसाअपि पुद्गला सुरसतया शुभरसरूपेण परिणमन्ति। शुभस्पर्शा अपि पुद्गलाः दुस्पर्शतया परिणमन्ति, दुम्स्पर्शा अपि पुद्गठा शुभस्पर्शतया परिणमन्ति । 'पभोगइसी तरह (सुरूवा दिपोग्गला दुख्वत्ता परिणमति परिणमति) जो अशुभ रूप वाले पुलल होते हैं वे शुभरूप से परिणम जाते हैं और जो शुभरूप से परिणमे हुए पुद्गल होते है वेअशुभ रूप से परिणम जाते है । ( सुन्भिगधावि पोग्गला दुम्मिगधत्ताए परिणमति, सुरसावि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमति, दुरसावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमति, दुरफासाचि पोगला हफासत्ताए परिणमति, पओगवीस सा परिणया वि य ण सामी पोग्गला पण्णत्ता ) जो पुद्गल सुरभि गध रूप से परिणमे हुए होते है वे ही पुदल दुरभि गध रूप से परिणम जाते हैं। इसी तरह जो पुदल शुभरलरूप से परिणमे हुए होते है वे ही पुद्गल कुत्सितरूप से परिणम जाते है और जो कुत्सित रूप वाले पुद्गल होते हैं वे ही शुभरस रूपवाले पुद्गल बन जाते है। जो उद्दल शुभ स्पर्श रूप से परिणमे हए होते है वे ही पुल अशुभ स्पर्श रूप में परिणम
तय छ २॥ प्रभा (सुरूवा वि पोग्गला दुरुवत्ताप परिणमति परिणमति ) જે અશુભ રૂપ વા પુદ્ગલો હોય છે તેઓ શુભ રૂપમાં પરિણનિત થઈ જાય છે અને જે શુભ રૂપમાં પરિણત થયેલા પુદ્ગો હોય છે તેઓ અશુભ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે
(सुन्भिगधा वि पोग्गला दुन्भिगधत्ताए परिणमति, सुरसावि पोग्गला दुरसत्ताए परिणभति, दुरमापि पोगला सुरसत्ताए परिणमति दुइफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमति, पगोगवीसमा परिणया वि य ण मामी पोग्गला पण्णता)
જે પુગલે મુરભિ ધ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પગલે જ દુરભિગ ધ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે આ રીતે જે પુદ્ગલો સરસ રૂપમાં પરિણત થયેલા છે તે પુદ્ગલે જ કુત્રિત (ખરાબ) રૂપમાં પણિત થઈ જાય છે અને જે કુરત રૂ વાળા પુદ્ગલે હોય છે તે પગલે જ સરસ ૩પ વાળા પુદ્ગલો લઈ જાય છે જે પુદ્ગલો શુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થયેલા હેય છે તે મુદ્દે લ જ અરુભ સ્પર્શ રૂપમ પરિત થઈ જાય છે અને જે
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থমথমে खलु हे स्वामिन् ! अस्माकमेतम्मिन मना-भगनपानग्यायस्वाये कोऽपि विस्मय, एव खलु हे स्वामिन् ! मुभिसदा सरभिशब्दाप्रशस्तगन्दा अपि पुद्गग शुमाः शब्दपुद्गल अपीयर्य. 'दुभिसष्ठत्ताप' दुरभिशन्दतया परिणमन्ति, दुरभिशब्दा अपि पुद्गला-अशुभाः शब्दपुद्गला अपि सुरभिशब्दतया शुभशन्दतया परिणमन्ति । -अहो ण सुबुद्धी । इमे मणुण्णे त चेत्र जार परायणिज्जे तण्ण से सुबुद्धी अमच्चे जितमत्तूणा दोन्चपि तच्चपि ण्व युत्ते ममाणे जितसत्तू राय एव वयासी) अमात्य सुबुद्धि को चुप चाप बैठा देवकर जितशत्रु राजाने दुगराण्व तिवारा भी इसी तरह से कहा-हे सुघुद्धे । यह मनोज्ञ चतुर्विध आहार कितना अच्छी शुभवर्णोपेत यावत् समस्त शरीर एवं इन्द्रियो को आनन्द पहुँचा ने वाला था। इस प्रकार दुयारा तिवारा जितशत्रु रोजा द्वारा कहे गये सुबुद्धि अमात्य ने उन जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा-(नो ग्वलु मामी अम्ह एयमि मणुष्णसि असण ४ केइ विम्हए-ए-सल मामी सुभिसदावि पुग्गला दुन्भिसहसाण परिणमति, दुन्भिसदावि पोग्गला सुन्भिसत्ताए परिणमति) स्वामि न ! मुझे इस मनोज्ञ अशनादिरूप चतुर्विध आहार में कोई आश्चर्य नही हो रहा है। कोरण कि जो जो शुभ शब्द रूप पुद्गल होते हैं वे अशुभ शब्द पुद्गल रूप से परिणम जाते हैं और जो अशुभ शब्द रूप पुद्गल होते है वे शुभ शब्द पुद्गल रूप से परिणम जाते हैं। मणुग्णे त चेव जाव पल्हायणिज्जे-तएण से सुबुद्धी अमच्चे जित्तसत्तूणा दोच पि तच्चपि एच वुत्ते समाणे जितसत्तू राय एव क्यासी)
અમાત્ય સુબુદ્ધિને ચૂપચ બેઠે જઈને જિતશત્રુ ગજાએ બીજી ત્રીજી વાર પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યું કે હે મુબુદ્ધ' આ મને ન ચાર જાતને આહાર કેટલે બધે સરસ શુભવë પિત યાવત આખા શરીર અને ઈન્દ્રિયોને આનંદ આપનાર છે. આ રીતે બે ત્રણ વાર જિતશત્રુ ર ા વડે પૂછાયેલા સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાને કહ્યું કે
(नो खलु सामी अम्ह एयसि मणुण्ण सि असणे ४ केइ बिम्हए एवं खलु सामी मुभि सदा वि पुग्गला दमि सदत्ताए परिणमति दुभि सदावि पोग्गला मुभि सदत्ताए परिणमति)
હે સ્વામિન' આ મનેઝ અશન વગેરે ચાર જાતના આહાર વિશે મને કઈ નવાઈ જેવી વાત જણાતી નથી કેમ કે જે શુભ શરૂપ પુદ્ગલ હોય છે તે અશુભ રાષ્ટ્ર યુગલ રૂપમાં પરિમિત થઈ જાય છે અને જે અશભ શબ્દ રૂપ પુદ્ગલે હોય છે તે શુભ વાદ :
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भनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १२ सातोदकविषये सुवुद्धिदृष्टान्त १९७ मुरूपा अपि पुद्गलादुरूपतया कुत्सितरूपतया परिणमन्ति दुरूपा अपि पुद्गलाः सुरूपतया परिणमन्ति । सुरभिगधा अपि पुद्गला शुभगन्यवन्तः पुद्गला अपि दुर भिगन्यतया परिणमन्ति, दुरभिगन्धा अपि पुद्गलाः सुरभिगन्धतया सुगन्धरूपेण परिणमन्ति। सुरसा अपि-शुभरसर तोऽपि पुद्गलाः दूरसतया अशुभरसतया परिण मन्ति, दूरसाअपि पुद्गला मुरसतया शुभरसरूपेग परिणमन्ति। शुभस्पर्शा अपि पुद्गलाः दुस्पर्शतया परिणमन्ति, दुम्स्पर्शा अपि पुद्गला शुभस्पर्शतया परिणमन्ति । 'पभोगइसी तरह (सुरुवा वि पोग्गला दुख्यत्तारा परिणमति परिणमति) जो अशुभ रूप वाले पुल होते है वे शुभरूप से परिणम जाते हैं और जो शुभरूप से परिणमे हुए पुद्गल होते है वेअशुभ रूप से परिणम जाते है । ( सुभिगधावि पोग्गला दुनिभगवत्ताए परिणमति, सुरसावि पोग्गला दुरसत्ता परिणमति, दुरमावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमति, दुरफासावि पोग्गला सुहफासत्ता परिणमति, पओगवीस सा परिणया वि य ग सामी पोरगला पण्णत्ता) जो पुठ्ठल सुरभि गध रूप से परिणमे हुए होते है वे ही पुद्गल दुरभि गध रूप से परिणम जाते हैं। इसी तरह जो पुदल शुभरलरूप से परिणमे हुए होते हैं वे ही पुद्गल कुत्सितरूप से परिणम जाते है और जो कुत्सित रूप वाले पुद्गल होते हैं वे ही शुभरस रूपवाले पुद्गल यन जाते है। जो पुद्गल शुभ स्पर्श रूप से परिणमे नए होते हे वे ही पुतुल अशुभ स्पर्श रूप में परिणम
५ छे या प्रभारी (सुरुवा वि पोग्गला दुरुपत्ताए परिणमति परिणमति ) જે અશુભ રૂપ વો યુગ હોય છે તેઓ શુભ રૂપમાં પરિણનિત થઈ જાય છે અને જે શુભ રૂપમાં પરિણત થયેલા પુદ્ગ હોય છે તેઓ અશુભ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે
(सुभिगधा वि पोग्गला दुन्भिगधत्ताए परिणमति, सुरसारि पोग्गला दुरसत्ताए परिणभति, दुरमापि पोगला सुरसत्ताए परिणमति दुहफासा वि पोग्गला मुहफासत्ताए परिणमति, पोगवीससा परिणया वि य ण मामी पोग्गला पण्णत्ता)
જે પુદગલે સુરભિ ધ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પુદ્ગલે જ દુરભિગ ધ રૂપમાં પરિણુત થઈ જાય છે. આ રીતે જે પુદ્ગલે સરસ રૂપમાં પરિણત થયેલા છે તે પુદગલે જ કુત્સિત ( ખરાબ ) રૂપમાં પરિભ્રત થઈ જાય છે અને જે કુમિત રૂ૫ વાળા પુગ હેય છે તે પુગ જ સરસ રૂપ વાળા પુદ્ગલ લઈ જાય છે જે પુદ્ગ શુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પુદ્ગલે જ અશુભ સ્પર્શરૂપમાં પરિણુત થઈ જાય છે અને જે
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নামাগমকাথায় खलु हे स्वामिन् ! अस्माकमेनम्मिन् मना-भगनपानग्यायम्माये कोऽपि विस्मय, एव खलु हे स्वामिन ! मुगिसहा सरभिशब्दाप्रशम्तगन्दा अपि पुद्गला भुमाः शब्दपुद्गल अपीयर्थः 'दुन्भिसहत्ताप' दुरभिशब्दतया परिणमन्ति, दरभिशन्दा अपि पुद्गलाः अशुभाः गन्दपुद्गला अपि सुरभिशन्दतयाशुभशदतया परिणमन्ति । -अहो ण सुबुद्धी । इमे मणुपणे त चेत्र जार पहायणिज्जे तण से सुबुद्धीअमच्चे जितमत्तूणा दोन्चपि तच्चपि एच युत्ते समाणे जितसासू राय एव वयासी) अमात्य सुद्धि को चुप चाप यैठा देवकर जितशत्रु राजाने दुगराण्य तियारा भी इसी तरह से कहा-हे सुद्धे । यह मनोज्ञ चतुर्विध आहार कितना अच्छो शुभवर्णोपेत यावत् समस्त शरीर एवं इन्द्रियों को आनन्द पहुँचा ने वाला था। इस प्रकार दुारा तिधारा जितशत्रु रोजा द्वारा कहे गये सुयुद्धि अमात्य ने उन जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा-(नो खलु मामी अम्ह ण्यमि मणुण्णसि असण ४ केइ विम्हए-एव-खल मामी सुभिसद्दावि पुग्गला दुन्भिसहसाए परिणमति, दुम्भिसमावि पोग्गला सुभिसत्तारा परिणमति) स्वामि न् ! मुझे इस मनोज अशनादिरूप चतुर्विध आहार में कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। कोरण कि जो जो शुभ शब्द रूप पुद्गल होते हैं वे अशुभ शब्द पुद्गल रूप से परिणम जाते हैं और जो अशुभ शब्द रूप पुद्गल होते है वे शुभ शब्द पुद्गल रूप से परिणम जाते हैं। मणुग्णे त चेव जाव पन्दापणिज्जे-तएण से सुबुद्धी अमच्चे जित्तसत्तूणा दोच्च पि तच्चपि एव वुत्ते समाणे जितसत्तू राय एस बयासी)
અમાત્ય સુબુદ્ધિને ચૂપચ બેઠેલો જોઈને જિતશત્રુ રાજાએ બીજી ત્રીજી વાર પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યું કે હે સુબુદ્ધ! આ મનેઝ ચાર જાતને આહાર કેટલે બધો સરસ શુભવર્ણો પિત યાવત આખા શરીર અને ઈન્દ્રિયોને આનંદ આપનાર છેઆ રીતે બે ત્ર) વાર જિતશત્રુ ૨ જા વડે પૂછાયેલા સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાને કહ્યું કે
(नो खलु सामी अम्ह एयसि मणुण्ण सि असणे ४ केइ बिम्हए एव खलु मामी सुभि सदा वि पुग्गला दुभि मदत्ताए परिणमति दुभि सदावि पोग्गला मुभि सत्ताए परिणमति)
હે સ્વામિન! આ મનોજ્ઞ અશન વગેરે ચાર જાતના આહાર વિશે મને કઈ નવાઈ જેવી વાત જણાતી નથી કેમ કે જે શુભ શરૂપ પુદ્ગલો હોય છે તે અશુભ શબ્દ પગલા રૂપમાં પરિણનિત થઈ જાય છે અને જે અભ શબ્દ રૂપ મુદ્દગલે હોય છે તે શુભ પાદ યુગલ ૩૫માં ૧ મત થઈ
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०१२ चातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्त ६९९ नाति-नाङ्गीकरोति तूप्णीकः सतिष्ठते-मोनमालम्ब्यस्थित इत्यर्थः । ततः खलु सजितशत्रुरन्यदा कदाचित एकस्मिन् प्रस्ताव स्नाता=कृतस्नातः अश्वरकन्धवरगत.
जात्याश्वष्टपृष्ठारूढ 'महया भडचडगर०' महाभटचड करपहकरबन्दपरिक्षिप्तः 'आसवाहणियाए ' अश्वपाहनिकायाम् अश्ववाहनक्रीडाया 'निनायमाणे 'नि
र्यान्-निर्गच्छन् तस्य-पूर्वोक्तस्य परिखोदयस्य-परिखाजलस्य अदर सामन्तेनपार्श्वभागेन व्यतिनजति । तत तदा खलु जितशत्रु राजा परिखोदकस्य-पूर्वोक्तविशेपणविशिष्टस्य अशुभेन गन्येन 'अभिभूए समाणे' अभिभूत व्याकुलित चित्त सन् स्वकेनस्वकीयेन उत्तरीयकेण-उत्तरीयास्त्रेण 'दुपट्टा' इतिप्रसिद्धेन आस्य-सामीप्यसयोगान्नासिका पिदधाति, एकान्तमपक्रामति-दरतो भूत्वा ग च्छति अपक्राम्य तान् वहून राजेश्वर यावत् मनृतीन राजेश्वर-तलवर-माटम्बिक सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा । एकदिन जितशत्रु राजा स्नान ले निश्चित होकर घोडे पर बैठकर अश्चक्रीडा करने के निमित्त घर से बाहर निकला । उन के साथ२ महामों का समुदाय भी चल रहा था। चलते २ वे उसी परिखोदक (खाई)के पाससे होकर निकले । (तएण जियसत्तू तस्स फरिहोदगम्स जस्सुभेण गधेण अभिभूए समाणेसएण उत्तरिज्जेण आसग पिई, एगत अवकमइ, अवस्कमित्ता, ते यत्वे ईमर जाव पभिहओ एव क्यासी-अहोण देवाणुप्पिया! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वणेण ४ से जहानामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतरा चेव तएण ते यवे राईसर पमिडओ एव चयासी ) इतने में उन जितशत्रु राजाने उस पनिखोदक की अशुभ गय से अभिभ्रत होकर अपने दुपट्टे से अ पनी नासिका को ढक लिया। और फिर वे ढककर वहा से दूर होकर જીતશત્રુ રાજ સ્નાન કરીને ઘોડા ઉપર સવાર થયા અને અશ્વક્રીડા કરવા માટે ઘેરથી બહાર નીકળ્યા તેમની સાથે સાથે મહાન ભટેને સમુદાય પણ ચાલતો હતે ચાલતા ચાલતા તેઓ તે જ પરિખેદક-ખાઈ-ની પાસે થઈને નીકળ્યા
(तएण जितमत्तू तस्स फरिहोगम्स असुभेण गण अभिभूए समाणे सएण उत्तरिज्जेण आसग पिई एगत अवामद चाक्कमित्ता ते बहवे ईमर जान पभिइओ एव वयासी-अहोण देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेर तएण ते वह राई सर पभिइओ एव वयासी)
જીતશત્રુ રાજાએ પરિબાદ-ખાઈ-ની ખરાબ ગધથી વ્યાકુળ થઈને તાના ખેસથી નાકને ઢાકી લીધું અને ત્યાર બાદ તેઓ ખાઈની પાસેથી
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जाताधर्ममा चीससापरिणयानि' प्रयोगविखसा परिणता अपि, मयोगेगप्रयोगपरिणापेन जीव कृतव्यापारेण विस्रसया-विसमापरिणामेन स्वभावेनेवर परिणताः-एकारस्वाया अवस्थान्तर प्राप्ताः सुगन्दादय पुदग' दुशदादित्वेन दुःशदादयत्र सुन ब्दादिरूपेण परिणता इत्यर्थ पुद्गलाः खलु भान्तीति हे यामिन् । प्रनता मग वता कथिता । तत' खलु स जितनुः सुनुढ़ेरमात्याय एवम् उक्तरूपेण 'आइक्खमाणस्म' आचक्षाणस्य कथयत', एतम्-पूक्तिम् अर्थम् शन्दादिपुद्गलानां शुभाशुभपरिणामस्प भार नो आद्रियते तदात्यस्याऽऽदर न करोति, नो परिजा जाते हैं और जो पुद्गल अशुभ म्पर्श रूप में परिणमे हुए होते हैं वे ही पुद्गल शुभस्पर्शरूप में परिणम जाते है। इस प्रकार का परिणमन पुद्गलों में जीवन व्यापाररूप परिणाम से और स्वाभाविक रूप से होता रहता है । एक अवस्था से अवस्थान्तर की प्राप्ति प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य में होती रहती है । इस परिणमन से कोई भी द्रव्य अछूता नही है। इसी परिणाम का नाम स्वाभाविक परिणमन है । यह यात प्रभुने स्वय प्रतिपादित की है । ( तएण से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमट्ट नो अढाइ, नो परियाणई, तुसिणीए सचिट्ठइ, तण्ण से जियसत्तू अण्ण या कयाई पहाए आसखधवरगए मया भडचडगर आसवाहिणीयाए निज्जायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरमामते ण चीइवयड ) अमात्य सुबुद्धि की इस बाद को सुनकर जिनशत्रु राजा ने उसकी इस बात का आदर नहीं किया-उसकी बातको स्वीकार नहीं किया । केवल પગલે અશુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પુદ્ગલે જ શુભ સ્પર્શરૂપમાં પરિણુત થઈ જાય છે. આ જાતનુ પુદ્ગમાં પરિણમન જીવકૃત વ્યાપાર રૂપ પરિણામથી અને રવાભાવિક રૂપમાં થતું રહે છે એક અવસ્થા માથી અવસ્થાન્તરની પ્રાપ્તિ દરેક સમયે દરેક દ્રવ્યમા થતી રહે છે આ પરિણમન એકે એક દ્રવ્ય માટે ચોક્કસ પણે સમજવું જોઈએ દરેકે દરેક કપમાં આ જાતનુ પરિણમન થતુ જ રહે છે પ્રભુએ સ્વય આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે
(तएण से जितसत्तू सुपुद्धिस्म अमन्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमट्ट नो आहाइ नो परियाणई, तुसिणीए सचिटइ, तएण से जियसत्त अण्णया कयाई पहाए आसखधवरगए महया भडचडगरआसवाहिणीयाए निज्जोयमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदरसामतेण वीइवयइ)
અમાત્ય સુબુદ્ધિની આ વાત સાંભળીને જીતશત્રુ રાજા એ તેના કથનનો આદર કર્યો નહિ, ફક્ત મ ભળીને તે ચુપચાપ બેસી જ રહ્યો એક દિવસે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म०१२ चातोदकषिपये सुबुद्धिदृष्टान्त
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नाति = नाङ्गीकरोति तूष्णीकः सतिष्ठते = मोनमालयस्थित इत्यर्थः । ततः खल्लुसजितशत्रुरन्यदा कदाचित = एकस्मिन् प्रस्तावे स्नातः = कृतस्नातः अश्वररुन्ववरगतः =जात्याश्वष्टपृष्ठारूढ मध्या भडचडगर० महाभटचड करपह करवृन्दपरिक्षिप्तः आस पाहणियाए ' अश्वाहनिकायाम् = अश्ववाहनक्रीडाया ' निज्जायमाणे ' निर्यान्= निर्गच्छन् तस्य=पूर्वोक्तस्य परिखोदकस्य = परिखाजलस्य अदुर सामन्तेन= पार्श्वभागेन व्यतिजति । तत तदा खलु जिनशत्रु राजा परिसोदकस्य = पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टस्य अशुभेन गन्धेन ' अभिभूए समाणे' अभिभूत = व्याकुलित चित्त सन् स्वकेन= स्वकीयेन उत्तरीय केण= उत्तरीयास्त्रेण ' दुपट्टा ' इतिप्रसिद्धेन आस्य - सामीप्यसयोगान्नासिका पिदाति, एकान्तमपक्रामति= दूरतो भूत्वा ग च्छति अपक्राम्य तान् वहून राजेश्वर यात् मभृतीन् = राजेश्वर - तलवर-माटम्विक सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा । एकदिन जितशत्रु राजा स्नान से निश्चित होकर घोडे पर बैठकर अश्वक्रीडा करने के निमित्त घर से बाहर निकला। उनके साथ महामटों का समुदाय भी चल रहा था । चलते २ वे उसी परिखोदक (खाई) के पास से होकर निकले । (तएण जियसत्तू तस्स फरिहोद्गस्स असुभेण गघेण अभिभूए समाणे सएण उत्तरिज्जेण आसग पिहई, एगत अवकमर, अवक्कमित्ता, ते बहवे ईमर जाव पभिओ एव वयासी- अहोण देवाणुपिया ! हमे फरिहोदए अमणुण्णे वणेण ४ से जहानामए अहिमडेढ़ वा जोब अमणामतराण चेव तएण ते बहवे राईसर पहिओ एव वयासी ) इतने में उन जितशत्रु राजाने उस पनिखोदक की अशुभ गध से अभिभूत होकर अपने दुपट्टे से अ पनी नासिका को ढक लिया । और फिर वे ढककर वहा से दूर होकर
જીતશત્રુ રાજા સ્નાન કરીને વાડા ઉપર સવાર થયા અને અશ્વફ્રીડા કરવા માટે ઘેરથી બહાર નીકળ્યા તેમની માથે સાથે મહાન ભટને સમુદાય પણુ ચાલતા હતેા ચાલતા ચાલતા તેઓ તે જ પરિખેાદક-ખાઇ- ની પાસે થઇને નીકળ્યા
(तएण जितसत्तू तस्स फरिहोगस्स असुभेण गवेण अभिभूए समाणे सएण उत्तरिज्जेण आसग पिहई एगत अवकम्मर नाकामित्ता ते वहवे ईसर जान पभिइओ एव वयासी - अहोण देनाणुपिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वणेण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेन तएण ते हवे राई सर पभिइओ एव वयासी )
જીતશત્રુ રાન્તએ પરિખેાદક-ખાઇ-ની ખરાબ ગંધથી વ્યાકુળ થઈને પાતાના પ્રેસથી નાકને ઢાકી લીધુ અને ત્યાર બાદ તે ખાઇની પાસેથી
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ताधर्म यसो वीससापरिणयापि' प्रयोगविस्रसा परिगता अपि, प्रयोगेण-प्रयोगपरिणामेन जीव कत्तव्यापारेण निससयानपिसमापरिणामेन स्वभावेन च परिणताः एकावस्थाया अवस्थान्तर प्राप्ताः सुगदादय पुद्गग दुशदादित्वेन दुशदादया मुश ब्दादिरूपेण परिणता इत्यर्थ पुनलाः खलु भान्तीति हे स्वामिन् । प्रनता =मग वता कथिता । ततः खलु स जिनशनु. सुयुद्धेरमात्यस्य एवम् उक्तरूपेण 'आइक्खमाणस्म ' आचक्षाणस्य कथयत , एतम् पूर्वोक्तम् अर्थम-शब्दादिपुद्गलाना शुभाशुभपरिणामस्प भाव नो आद्रियते तद्वारपस्याऽऽदर न करोति, नो परिजा जाते हैं और जो पुद्गल अशुभ म्पर्श रूप में परिणमे शुए होते है वे ही पुगल शुभस्पर्शरूप में परिणम जाते है। इस प्रकार का परिणमन पुद्गलों में जीवकृत व्यापाररूप परिणाम से और स्वाभाविक रूप से होता रहता है । एक अवस्था से अवस्थान्तर की प्राप्ति प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य में होती रहती है । इस परिणमन से कोई भी द्रव्य अछूता नही है। इसी परिणाम का नाम स्वाभाविक परिणमन है । यह बात प्रभुने स्वय प्रतिपादित की है । ( तएण से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइस्यमाणस्स ४ एयमट्ट नो अढाइ, नो परियाणई, तुसिणीए सचिट्ठा, तरण से जियसत्तू अण्ण या कयाई पहाए आसखघवरगए मया भडचडगर आसबाहिणीयाए निज्जायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरमामते ण वीइवयइ ) अमात्य सुबुद्धि की इस बाद को सुनकर जिनशत्रु राजा ने उमकी इस बात का आदर नहीं किया-उसकी बानको स्वीकार नहीं किया। केवल પગલે અશુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પગલે જ શુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. આ જાતનું પુગમા પરિણમન જીવકૃત વ્યાપાર રૂપ પરિણામથી અને સ્વાભાવિક રૂપમાં થતું રહે છે એક અવસ્થા માથી અવસ્થાન્તરની પ્રાપ્તિ દરેક સમયે દરેક દ્રવ્યમાં થતી રહે છે આ પરિણુમન એકે એક દ્રવ્ય માટે ચક્કસ પણે સમજવું જોઈએ દરેકે દરેક દ્રવ્યમાં આ જાતનુ પરિણમન થતુ જ રહે છે પ્રભુએ સ્વય આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે __ (तएण से जितसत्तू सुवुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमट्ट
नो आढाइ नो परियाणई, तुसिणीए सचिटइ, तएण से नियसत्त अपणया कयाई ___ण्हाए आसखधवरगए महया भडचडगरआसवाहिणीयाए निज्जोयमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदरसामतेण वीइवयइ)
અમાત્ય સુબુદ્ધિની આ વાત સાંભળીને જીતશત્રુ રાજા એ તેના કથનને આદર કર્યો નહિ, ફક્ત સભળીને તે ચૂપચાપ બેસી જ રહ્યો એક દિવસે
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०१२ चातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्त ६९९ नाति-नाङ्गीकरोति तूप्णी कः सतिष्ठते=मोनमालम्यस्थित इत्यर्थः । ततः खलु सजितशत्रुरन्यदा कदाचित् एकस्मिन् प्रस्तावे स्नातः कृतस्नातः अश्वरकन्धवरगतः -जात्याश्वष्टपृष्ठारूढ 'महया भडचडगर० ' महाभटचड करपहकरन्दपरिक्षिप्तः 'आसवाहणियाए ' अश्वगाहनिकायाम् अश्ववाहनक्रीडाया ' निजायमाणे ' नि
र्यान्-निर्गन्छन् तस्य-पूर्वोक्तस्य परिखोदवस्य-परिखाज त्रस्य अदूर सामन्तेन= पार्श्वभागेन व्यतित्रनति । तत. तदा खलु जितशत्रु राजा परिखोदकस्य-पूवोक्तविशेषणविशिष्टस्य शुभेन गन्धेन ' अभिभूए समाणे' अभिभूत =व्याकुलितचित्त सन् स्वकेन स्वकीयेन उत्तरीयकेण-उत्तरीयवस्त्रेण 'दुपट्टा' इतिप्रसिद्धन आस्य-सामीप्यसयोगानासि पिदधाति, एकान्तमपक्रामति-दरतो भूत्वा ग च्छति अपक्राम्य तान् वहून राजेश्वर यावत् प्रभृतीन राजेश्वर-तलवर-माडम्विक सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा । एकदिन जितशत्रु राजा स्नान से निश्चित होकर घोडे पर बैठकर अश्वनीडा करने के निमित्त घर से बाहर निकला । उन के साथ२ महामयों का समुदाय भी चल रहा था । चलते २ वे उसी परिखोदक (खाई)के पाससे होकर निकले । (तएण जियसत्तू तस्स फरिहोदगस्स असुभेण गधेण अभिभूए समाणेसएण उत्तरिज्जेण आसग पिहई, एगत अवकमइ, अवक्कमित्तो, ते बहवे ईमर जाव पभिइओ एव वयासी-अहोण देवाणुप्पिया! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेण ४ से जहानामए अहिमडेइ वा जोत्र अमणामतराए चेय तएण ते ववे राईसर पभिडओ ण्व क्यासी ) इतने मे उन जितशत्रु राजाने उस पनिखोदक की अशुभ गध से अभिभूत होकर अपने दुपट्टे से अ पनी नासिका को ढक लिया। और फिर वे ढककर वहा से दूर होकर જીતશત્રુ રાજા રનાન કરીને ઘોડા ઉપર સવાર થયા અને અશ્વક્રીડા કરવા માટે ઘેરથી બહાર નીકળ્યા તેમની સાથે સાથે મહાન ભટને સમુદાય પણ ચાલતો હતો. ચાલતા ચાલતા તેઓ તે જ પરિદક-ખાઈ-ની પાસે થઈને નીકળ્યા
(तएण जितसत्तू तस्स फरिहोगस्त असुभेण गवेण अभिभूए समाणे सएण उत्तरिज्जेण आसग पिई एगत अवकामइ अवामित्ता ते वहवे ईसर जान पभिइओ एव वयासी-अहोण देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेत्र तएण ते वह राई सर पभिइओ एव वयासी)
જીતશત્રુ રાજાએ પરિદક-ખાઈની ખરાબ ગધથી વ્યાકુળ થઈને –ાના ખેસથી નાકને ઢાકી લીધું અને ત્યાર બાદ તેઓ ખાઈની પાસેથી
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७००
जाताधर्म कथाहा कौटुम्मिा-प्रेष्ठि-सेनापति सार्थवाहादीन एमादीत-अहो ! र टु हे देवानुमिया ! कीडर इद परिसोदकममनोज वर्णेन गन्न रसेन पर्सेन, तद् यथाना माम् । तथाहि-महिमृतकमिति का यारद् एतस्मादपि अनिष्टतरअमनोगतरमनआमतरकमेपास्ति । ततः खलु ते घडयो राजेश्वरमभृतयो यावदेशमवादिपु:-तथैव खलु तत् हे स्वामिन् ! यत्खलु यूयमेव नदथ-अहो । बलु इद परिखोदकममनोज वर्णेन रसेन गन्येन स्पर्शेन, तद् यथा नामकम् नयाहि-अदिमुनकमिति वा यावद्
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चलने लगे । चलते २ उन्होंने अपने साथ रहे एए राजे वर २, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सेनापति, एव सार्थवाह आदिसे करा हे देवानुप्रियो देपो-यह परिग्वोदक(पाईका जल)वर्णसे गघसे, रससे एव स्पर्शसे कितना अधिक अमनोज्ञ यन रहा है । जैसे मरे हुए सर्प आदिके सडे विनष्ट आदि अबस्थापन्न कलेवर की दुगंध आती है-उस से भी अधिक तर अनिष्ट दुर्गध इस जल की आ रही है। राजा की इस प्रकार बात सुनकर उन राजेश्वर आदि समस्त जनों ने इस प्रकार कहा-(तहेव ण सामी ! ज ण तुम्भे एव वयह, अहो ण इमे फरिहो। दए, अमणुण्णे वण्णेण ४ से जहा नामरा अरिमडेइ वा जाव अमणाम तराए चेव, तएण से जियसत्तू सुबुद्धि अमच्च एव वासी-तएण सुवुद्री अमच्चे जाव तुसिणीए सचिट्ठ) हे स्वामिन् ! आप जैसा कहते है यह परिखोदक वैसा ही वर्ण, रस, गप, और स्पर्श से अम દૂર ખસીને ચાલવા લાગ્યા ચાલતા ચાલતા તેમણે પોતાની સાથેના રાજેશ્વર, તલવર, માડ બિક, કૌટુંબિક, શ્રેણી સેનાપતિ અને સાથે વાહ વગેરેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! જુઓ આ પરિદક–ખાઈ–વર્ણથી, ગધથી, રસથી, અને સ્પશથી કેટલી બધી અમનેz-ખરાબ–લાગે છે મરેલા સાપ વગેરેના સડી ગયેલા વિનષ્ટ વગેરે અવરથાપન્ન કલેવર ( શરીર ) ની જેવી દુર્ગધ હોય છે તેના કરતા પણ વધારે ખરાબ ગ ઘ આ પાણમાથી આવી રહી છે રાજાની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને રાજેશ્વર વગેરે બઘાઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું –
(तहेव, ण सामी ! ज ण तुम्भे एव चयह अहोण इमे फरिहोदए अमण्णुण्णे वण्णण ४ से जहानामए अहिनडेइ वा जार अमणामतराए चेव, तएण से जिय सत्तू सुबुद्धि अमच्च एव वयासी-तएण सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए सचिटइ)
હે સ્વામિન' તમે કહે છે તેવી જ વણ, રસ, ગ ધ અને સ્વરથી અમને આ ખાઇ છે મરીને સડી ગયેલા સાપ વગેરેના જેવી
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अनगारधामृतषिणी टोका १०१२ सातोदकविषये सुचुनिटष्टान्त ७०१ अमनामतरकमेवास्ति । तत खलु स जितशत्रु' सुबुद्धिममात्यमेवमवादीत्-अहो । वल हे सुउद्धे ! इद परिखोदकममनोज्ञ वर्णेन ४, कीदृशम् ? इत्याह-' से जहा नामए ' तद् यथा नाममा=यथादृष्टान्त निरूप्यते-अहिमृतकमिति वा यारद् एत स्मादपि अहिमृतकादिभ्योऽपि अनिष्टतरम् अमनोज्ञतरम् अमनआमतरमेव वर्तते । ततः खलु सुबुद्धिरमात्यो यावत् तूप्णीक सतिष्ठते । तत खलु स जितशत्रू राजा सुबुद्धिरमात्य द्वितीयमपि तृतीयमपि पारमेवमवादी-जहो ! खलु त चेव' तदेव पूर्वनदेव राजा वदति । ततः तदनन्तर खलु स सुबुद्धिरमात्यो नितशत्रुणा नोज्ञ है । जैसे मरे हुए सर्पादिक के सडे आदि अवस्थापन कलेवर से दुर्गध आती है उसी तरह की इस से भी अधिक अनिष्टतर असह्य दुगंध इस से आ रही है । इस प्रकार अपनी बात का समर्थन प्राप्तकर जितशत्रु रोजा ने अपने सुघुद्धि अमात्य प्रधान से कहा-हे सुवुद्ध ! यह परिखोदक वर्ण, रस, गध, और स्पर्श से बिलकुल अमनोज्ञ बन रहा है। जिस प्रकार मरे हुए सर्प आदि के मडे गले आदि अवस्था पन्न कलेवर से अधिक अनिष्ट तर दुर्गध निकलती है उससे भी अ धिक अनिष्टतर दुर्गध इससे निकल रही है । इस प्रकार अपने राजाकी यांत सुनकर सुबुद्धि अमात्य ने उसका आदर नहीं किया-उसे स्वीकार नही किया केवल चुपचाप ही रहा । ( एण से जियसत्तूराया सुवुद्धि अमच्च दोच्चपि तच्चपि एचयोसी-अहोण तचेव, तएण से सुवुद्धी अमच्चे जियसत्तू रण्णा दोच्चपि तच्च पि एववुत्ते समाणे एव वयासी नो खलु सामी ! अम्ह एयसि फरिहोदगसि केड विम्हए, एवं
અનિષ્ટતર, અસહ્ય દુર્ગધ આવે છે તેના કરતા પણ વધારે ખરાબ આ દુર્ગ ધ છે આ રીતે પિતાની વાતનું સમર્થન પ્રાપ્ત કરીને જીતશત્રુ રાજાએ પિતાના સુબુદ્ધિ અમાત્ય પ્રધાને કહ્યું કે હે સુબુદ્ધ ! આ પરિખેદક–ખાઈવ, રસ ગ ઘ અને પરમા એકદમ અમનોજ્ઞ–ખરાબ થઈ ગઈ છે મરીને સડી ગયેલા સાપ વગેરેના અવસ્થાપન્ન કલેવરેશરીરે-થી જેવી અનિષ્ટતર દુર્ગધ આવે છે તેના કરતા પણ વધુ અનિષ્ટતર–ખરાબ-દુર્ગધ આ ખાઈ મેથી આવી રહી છે આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેને આદર કર્યો નહિ, તેને સ્વીકાર કર્યો નહિ પણ ચૂપચાપ થઈને જ ચાલતો રહ્યો
(तएण से जियमत्तू राया गुबुद्धि अमच्च दोच्चपि तच्चपि एव वयासी __ अहोण त चेन तएण से मुयुद्धी अमन्चे जियसत्तूणा रण्णा दोच्चपि तच्चपि एव
बजे समाणे एन चयासी नो खलु सामी । अम्ह एयसि फरिहोदगसि केइ विम्हए,
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ចំoo
भाताधमकथा कौटुम्मिा-श्रेष्ठि-सेनापति सार्थवाहादीन एमादीच-अहो ! र टु हे देवानुमिया । कीडर इद परिसोदकममनोर वर्णेन गन्येन रसेन स्पर्शन, तद् ययाना मकम् । तथाहि-महिमृतकमिति ा याद् एतस्मादपि अनिष्टतरअमनोहतरमनआमतरकमेपास्ति । ततः खलु ते यहयो राजेश्वरमभृतयों यावदेवमवादिपु'-तथैव खल तत् है स्वामिन् ! यत्खलु यूयमेव नदथ-महो। म द परिखोदकममनोज वर्णेन रसेन गन्येन स्पर्शन, तद् यथा नामरम्नयाहि-अदिमृतमिति वा यावद्
चलने लगे। चलते २ उन्होने अपने साथ रहे एए राजेश्वर २, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्निक, श्रेष्ठी, सेनापति, एव सार्थवार आदिसे कहा है देनानुप्रियो। देगो-यह परिग्बोदक(पाईका जल)वर्णसे गघसे, रससे एव स्पर्शसे कितना अधिक अमनोज यन रहा है। जैसे मरे हुए सर्प आदिके सड़े विनष्ट आदि अबस्थापन्न कलेवर की दुर्गंध आती है-उस से भी अधिक तर अनिष्ट दुर्गध इस जल की आ रही है। राजा की इस प्रकार बात सुनकर उन राजेश्वर आदि समस्त जनों ने इस प्रकार का-(तहेव ण सामी | ज ण तुम्भे एव चयह, अहो ण इमे फरिहो. दए, अमणुण्णे वण्णेण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणाम तराए चेव, तएण से जियसत्तू सुबुद्धि अमच्च एघ क्याप्ती-तण्ण सुवुदी अमच्चे जाव तुसिणीए सचिट्ठा) हे स्वामिन् ! आप जैसा कहते है यह परिखोदक वैसा ही वर्ण, रस, गध, और स्पर्श से अम દૂર ખસીને ચાલવા લાગ્યા ચાલતા ચાલતા તેમણે પિતાની સાથેના રાજેશ્વર, તલવર, માડ બિક, કૌટુંબિક, શ્રેણી સેનાપતિ અને સાથે વાહ વગેરેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! જુઓ આ પરિક-ખાઈ–વર્ણથી, ગધથી, રસથી, અને સ્પશથી કેટલી બધી અમનેz-ખરાબ-લાગે છે મરેલા સાપ વગેરેના સડી ગયેલા વિનષ્ટ વગેરે અવરથાપન્ન કલેવર ( શરીર ) ની જેવી દુર્ગધ હોય છે તેના કરતા પણ વધારે ખરાબ ગ ધ આ પાણીમાથી આવી રહી છે રાજાની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને રાજેશ્વર વગેરે બધાઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું –
(तहेव, ण सामी ! ज ण तुम्भे एव वयह अहोण इमे फरिहोदए अमण्णुण्णे वण्णेण ४ से जहानामए अहिमडेइ वा जान अमणामतराए चे, तएण से जिय सत्तू सुवुद्धिं अमच्च एव क्यासी-तएण सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए सचिटइ)
હે સ્વામિન' તમે કહો છે તેવી જ વ, રસ, ગ ધ અને સ્પરથી અમને આ ખાઇ છે મરીને સડી ગયેલા સાપ વગેરેના ,' જેવી
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१२ खातोदक विषये सुबुद्धिदृष्टान्त
७०३
तत खलु जितशत्रु मुद्धिम् एवमवादीत् मा सलत्व हे देनानुमिय ! आत्मान= स्वक च परम्=अन्य च तदुभय= स्वपररूप सममेव वहीमिथ ' असम्भावुभावगाहिं ' असद्भावोद्भावनाभि असताम् = अविद्यमानाना भावाना=वस्तुधर्माणा या उद्भावनाः=प्रतिपादनास्ताभि' = वस्तुस्वरूपान्यथा प्रतिपादनरूपाभिः 'मिच्छ ताभिणिवेसेण य' मिथ्यात्वाभिनिवेशेन विपर्यासारशेन च अज्ञानावेशेनेत्यर्थः ' बुग्गाहेमाणे ' व्युद्ग्राहयन्- निविधमका रेणोत्कृष्टतया चान्य ग्राहयन् 'बुप्पाएमाणे' व्युत्पादयन् = व्युत्पत्तिं जनयन् विहर= अशुद्धप्ररूपणा कुर्वन् मा तिष्ठेत्यर्थ । मन अपनी देशना द्वारा प्ररूपित किया है । (तरण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी - माण तुम देवोणुप्पिया । अप्पाण च पर च तदुभय वा यह हिय असम्भावुभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे प्पामाणे विहराहि, तरण सुबुद्धिस्स इमेयात्वे अज्झथिए - अहो ण जियसत्तू सते तच्चे तहिए अवितहे सम्भूत जिणपण ते भावे णो उवलमति ) इस प्रकार सुनकर जितशत्रु राजा ने सुबुद्वि प्रधान से इस तरह कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम इस तरह की असद्भावनोद्भावक वचनो से - अविद्यमान वस्तु धर्मों की प्रतिपादनाओं से वस्तु का जो स्वरूप विद्यमान नही है उस स्वरूप को उस वस्तु मे विद्यमानता का प्रतिपादन करने वाली वाणियों से एव मिथ्यात्वाभिनिवेश आग्रह से इस तरह की प्ररूपणा मत करो, न स्वय को इस प्रकार की प्ररूपणा से वासित करो और न दूसरो को इम तरह की झूठी २ प्ररूपणाओं से अपने फड़े में फसाओ और न अपने को और न दूसरों को एक ही
( तण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी-माण तुम देवाणुपिया ! अप्पाण च पर च तदुभय वा बहहिं य असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गामाणे तुप्पाएमाणे विहराहि तएण सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए अहो पण जियसत्तू सते तच्चे तहिए अवित सम्भू जिणपण्णत्ते भावे जो उवलभति) છતશત્રુ રાજાએ આ પ્રમાણે સાભળીને અમાત્ય બુદ્ધિને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ' તમે આ રીતે અસદ્ભાવના ભાવક વચનેાથી-અવિ દ્યમાન વસ્તુધર્માંથી પ્રતિપાદનાએથી વસ્તુનુ જે સ્વરૂપ વસ્તુમા હાજર નથી તે સ્વરૂપને વસ્તુમા બતાવનારી વાણીએથી અને મિથ્યાત્વાભિનિવેના આશ્ર હથી આ જાતનું નિરૂપણ કરે નહિ આવી પ્રરૂપણાથી પોતાની જાતને બચાવતા રહેા અને ખીજાઓને પણ આવી કી પ્રરૂપણમાં ફસાવવાની ચેષ્ટા કરે નહિ, તમે એકી સાથે પેાતાની જાતને કે બીજા માણસને આવી પ્રરૂપણાની લપેટમા લેવાની શિરા ફરા નહિ ગાની આ પ્રમાણે વાત સાભળીને મૃત્યુદ્ધિ પ્રધા
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নাথা राज्ञा द्वितीयमपि तृतीयमपि वारम् एरमुक्तः सन एवमदत्-नीखल हे स्वामिन् । मम एतस्मिन् परिग्बोदके कोऽपि विस्मय , क्यम् ? इत्याह-एव स्खल ई स्या मिन् ! सुरभिश दाशुभशब्दा अपि पुदला. शुभा अपि गददला त्यर्थः 'दुभिसहत्ताए' दुरभिशदतया-अशुभशब्दतया परिणमन्ति एव ' त चेव' तदेव सर्व रूपरसगन्धस्पर्शसम्बन्धिनः शुमाः अपि पुदला अशुभस्पादित या परि णमन्तीत्यर्थ यारत् प्रयोगरिखसा परिणता जीवकृतमयोगेग रममावत एव वा परिवर्तनशीला. अपि च खलु हे स्वामिन् ! पुद्गला प्रशाः भगवदि कथिता । खलु सामी! मुभि सदाचि पोग्गला दुभि सहत्तोल परिणमति, तचेव जाव पओगवीससा परिणयावि य ण सामी ! पोग्गला पपणत्ता) अमाल को चुपचाप पठा शुता देखकर जितशत्रु राजा ने उस अमात्य सुबुद्धि से दुबारा और तिवारा भी परिले ही जैसा कहा इस तरह दुबारा तिघारा जितशत्रु राजा द्वारा कहे गये उस सुबुद्धि अमात्य ने ऐसा कहा कि स्वामिन् । हमे इस परिखा के उदक में कोई आश्चर्य नही हो रहा है कारण कि जो पुद्गल पहिले शुभ शब्द रूप से परिणमे हुए होते है वे ही कालान्तर में प्रयोग और विस्त्रसा परिणाम से अशुअ शब्द रूप परिणम जाते है। इस तरह जैसा उसने मनोज्ञ चतुर्विध आहार के विषय में पहिले प्रतिपादन किया है वैसा ही यहां पर भी उसने प्रतिपादित किया । पुलों का यह इस तरह को परिणमन मैं अपनी निज कल्पना से नहीं कह रहा है प्रत्युत इस में वीतराग प्रभु की आज्ञा है । उन्हो ने इसी तरह का पौद्गलिक परिण एव खल सामी ! सुभि सदावि पोग्गला दुब्भिसदत्ताए परिणमति त चेव जाव पओगवीससा परिणयाषि य ण सामी ! पोग्गला पणत्ता)
અમાત્ય સુબુદ્ધિને ચુપચાપ જોઈને રાજા છતશત્રુએ બીજી અને ત્રીજી વાર પહેલાની જેમ જ હુ પૂછાયેલા સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન ! આ ખાઈના પાણીમાં મને કઈ નવાઈ જેવું લાગતું નથી કેમકે જે પગલે પહેલા શુભ શબ્દ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે મુદ્દે ગલો જ કાલાન્તરમાં પ્રયોગ અને વિસસા (સ્વાભાવિક રીતના પરિણામથી અશુદ્ધ શબ્દ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છેઆ રીતે અમાત્યે મને જ્ઞ ચાર જાતના આહાર વિશે જે જાતના વિચારો રજૂ કર્યા હતા તે જ જાતના વિચારો આ અશુભ રૂપ ખાઈ જોઈને પU પ્રકટ કર્યો અમાત્ય રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે પુદ્ગલોના આ રીતે પરિણમનની વાત મારી પોતાની કલ્પનાથી પણ વાત રાગ પ્રભુની જ એ આજ્ઞા છે તેઓશ્રીએ પૌદ્ગલિક પરિણમન આ રીતે જ પિતાની દેશના વડે નિરૂપિત કર્યા છે
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अनगारधर्मामृतवपिणी टीका अ०१२ खातोदक विषये सुबुद्धिष्टान्त ७०३ तत खलु जितशत्रु मुबुद्धिम् एवगवादीन्-मा सलु व हे देवानुप्रिय ! आत्मान स्वा च परम् अन्य च तदुभय-स्वपररूप समकमेव या बहीभिश्च 'भसम्भावुभावगाहिं ' जसद्भावोद्भारनाभि. असताम् अविद्यमानाना भावाना-वस्तुधर्माणा या उद्भावना प्रतिपादनास्ताभिः वस्तुम्बस्पान्यया प्रतिपादनरूपाभिः ‘मिच्छ. त्ताभिणिवेसेण य' मिथ्यात्वाभिनिवेशेन विपर्यासारशेन च अज्ञानावेशेनेत्यर्थः 'बुग्गाहेमाणे ' व्युद्ग्राहयन्-विविधप्रकारेगोत्कृष्टतया चान्य ग्राहयन् 'वुप्पाए. माणे' व्युत्पादयन् व्युत्पत्तिजनयन् विहर अशुद्धमरूपणा कुर्वन् मा तिष्ठेत्यर्थ । मन अपनी देशना द्वारा प्ररूपित किया है । ( तण्ण जियसत्तू सुवुद्धि एव वयासी-माण तुम देवोणुप्पिया । अप्पाण च पर च तदु भय वा यह हिं य असल्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे चुप्पाहेमाणे विहराहि, तण्ण सुबुद्धिस्स इमेयाख्वे अज्झत्यि-अहो ण जियसत्तू सते तच्चे तहिए अवितहे समूए जिणपण्णत्ते भावे णो उवल भति) इम प्रकार सुनकर जितशत्रु राजा ने सुबुद्वि प्रधान से इस तरह कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम इस तरह की असद्भावनोद्भावक वचनो से अविद्यमान वस्तु धर्मों की प्रतिपादनाओं से-वस्तु का जो स्वरूप विद्यमान नही है-उस स्वरूप को उस वस्तु मे विद्यमानता का प्रतिपादन करने वाली वाणियों से एव मिथ्यात्वाभिनिवेश आग्रह से इस तरह की प्ररूपणा मत करो, न स्वय को इस प्रकार को प्ररूपणा से वासित करो और न दूसरो को इस तरह की झूठी २ प्ररूपगाओं से अपने फदे में फसाओ और न अपने को और न दूसरों को एक ही
(तएण जियसत्तू सुद्धिं एव वयासी-मा ण तुम देवाणुप्पिया ! अप्पाण च पर च तदुभय वा बहुहि य असम्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवे सेण य बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे पिहराहि तएण सुवुद्धिस्स इमेयारू वे अज्झथिए अहो ण जियसत्तू सते तच्चे तहिए अवितहे सम्भूग जिणपण्णत्ते भावे णो उबलभति)
જીતશત્રુ રાજાએ આ પ્રમાણે સાભળીને અમાત્ય સુબુદ્ધિને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ રીતે અસદભાવના ભાવક વચનથી-અવિ ઘમાન વસ્તુધર્મોથી પ્રતિપાદનાઓથી વસ્તુનું જે વરૂપ વસ્તુમાં હાજર નથી તે સ્વરૂપને વસ્તુમાં બતાવનારી વાણીઓથી અને મિથ્યાત્વાભિનિવેરાના આ હથી આ જાતનું નિરૂપણ કરો નહિ આવી પ્રરૂપણાથી પિતાની જાતને બચાવતા રહો અને બીજાઓને પણ આવી જુઠી પ્રરૂપમાં ફસાવવાની ચેષ્ટા કરે નહિ, તમે એકી સાથે પોતાની જાતને કે બીજા માણસને આવી પ્રરૂપણની લપેટમાં લેવાની કોશિશ કરો નહિ ગજાની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ પ્રધા A
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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ततः तदनन्तर राजा सहवार्त्तालापानन्तर सद मुमुद्धे = सुबुद्धिनामामात्यस्य अ यमेतदूव = पक्ष्यमाणप्रकार आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित मनोग तमकल्पय नानारूप विचारः समुद्रपयत अहो !=प्रथमेतद् यत्खलु जितशत्रु राजा ' सते' सत = विद्यमाना 'तचे' तचानि = तत्यरूपान् तत्रवतो वा स्वयपरत्वयुक्तान् ' तट्टिए ' तथ्यान् = सत्यान् यद्वा--' तहिए ' तथाच विच्छाया, तथेति चिनोतीति, अभ्ययमिदम् - मानयाऽप्यन्यूनाधिकान् ' अवितहे ' अवितथान् = अविद्यमानासत्यान् 'सम्भूए ' सद्भूतान् = मत्तायुक्तान् ' जिणपण्णत्ते ' जिनमज्ञतान् = जिनभापितान् भागान्' नो अभय' नोप लभते, तत्= तस्मात् कारणात् श्रेय = समीधीत खलु मम यत्-जितशत्रो राज्ञसवा तत्वाना तथ्यानाम् अवितथाना सभूताना जिनमज्ञताना भावनाम् 'अभिगमणट्टयाए ' अभिगमनार्थतायै सम्यगनरोधाय एतमर्थम् = पुतलानामपरासाथ इस प्रकार की प्ररूपणा के जाल में न डालो। रोजा की इस प्रकार वाणी सुनकर सुबुद्धि प्रधान के मन में ऐसा विविध प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ यहाँ विचार के इन और विशेषणों का ग्रहण कर लेना चाहिये - " चिन्तित प्रार्थित कत्पित " । यह बडे आश्चर्य की बात है जो जितशत्रु राजा विद्यमान, तत्त्वरूप अथवा विविध प्रकार कीविक्षा से स्वत्व परत्व रूप से युक्त, तथ्य-सत्य, न न्यून और न अधिक, अवितथ, सत्ता युक्त ऐसे जिन प्रज्ञप्त, भावो को नही समझ रहा है- अर्थात् जितशत्रु राजा के ध्यान में यह बात नही आ रही है कि जिन प्रज्ञप्त (प्ररूपित ) भाव सत्य होते है, अवितथ होते हैं अन्यून अनतिरिक्त होते हैं, अनेक विपक्षाओं को लेकर उन में नानो धर्म विशिष्टता होती है - (त) इस लिये (सेय खलु मम, जियसत्तुस्त रण्णो सताण तच्चाण तरियाण अवितरण सम्भूताण जिणपण्णत्ताण भावा
નના મનમા અનેક વિચાર ઉદ્ભવ્યા અહીં વિચાર ઞબધી આ વિશેષણેનુ श्रयु पशु पुरीषु लेएयो “चिन्तित प्रार्थित कल्पित " सोहम नवार्ध જેવુ લાગે છે કે જીતશત્રુ રાજા વિદ્યમાન તત્ત્વ રૂપ-અથવા તે વિવિધ પ્રકા રની વિવક્ષાથી સ્વત્વ પરવ રૂપથી યુક્ત, તથ્ય સત્ય, ઘણુ આપ્યુ પણ નહિ અને ઘણુ વધારે પણ નહિ, અવિતથ સત્તા યુક્ત એવા જીનપ્રજ્ઞના ભાવેને સમજી રહ્યા નથી એટલે કે જીતશત્રુ રાજા આ વાતને સમજી શકયા નથી કે જીન પ્રજ્ઞસ વડે નિરૂપિત થયેલા ભાવે સત્ય હૈાય છે, અવિતથ હોય છે, અન્યૂન અનતિરિક્ત ાય છે, અનેક વિવક્ષાઓને લઈને તેમનામા નાના ધ વિશિષ્ટતા હૈ।। એ (R)માટે
( सेय सल मम जियसत्तूस्स रण्गो सताण तच्चाण
अवितहाण
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अमनारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ सातोदकविषये सुद्धिदृष्टान्त
७०५
परपरिणमनरूप मानम् ' उवाणापित्तए ' उपादापयितु = ग्राहयितु मम श्रेय, इति पूर्वेण सम्बन्ध सहरमा भने प्राण सप्रेते विचारयति, सप्रेक्ष्य ' पञ्च तिएहिं ' प्रत्यन्तिकैः समीपस्यै प्रतिक्षणनिदावर्त्तिभि: पुरुपैः सार्द्धम् 'अतगवणाजी ' अन्तरापणात हहमार्गीत 'बाजार' इति भाषा प्रमिद्धान्, यद्वा-ग्रामान्तरापर्तिकुम्भकारात् नरकान्तनान् घटाव गृह्णाति टहीला सन्ध्याकालसम वस्नकाले 'पविरलमणुरमसि ' प्रविरलमनुष्ये मनिरा स्तोका. मनुष्या यस्मिन् समये न प्रविरलमनुष्यस्तम्मिन् = सन्ध्याकाले हि मनुष्याणा गमनागमन स्वल्प भवति तादृशे समय व्यर्थ, पुन 'णिसतपडिणिसतसि ' निशान्त प्रतिनिशा ते मनुष्यचागभावसमये यौव परिवोदर तत्रैवो पागच्छति, उपागत्य तत् परिखोदक ग्राहयति, ग्रामयित्वा नवकेपु = नूतनेषु पटेषु ' गालवेट' गालयति, वस्त्रादिपूत कारयति, गालयित्वा पुनरपरेषु नवकेषु वटेषु प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य तान् 'यमुनि तिमुद्रितान् -लातिान लाक्षादिलेपयुक्तान् ण अभियमणयाए एनड उदाहणाविन्त एव सपेहेह ) मुझे यह उचित है कि में जितशत्रु राजा को मत्स्वरूप, भाव युक्त तथ्यरूप, अति, और सद्भृतरूप ऐसे जिन प्राप्त भावों का अच्छी तरह बोध कराने के लिये और इस पुइलो के अपर पर परिणमन रूप भाव को ये ऐसे ही है, इस तरह मनवाने के लिये उन्हें समयाऊँ । इस प्रकार उस ने विचार किया- ( मपेहित्ता पच्चतिपहिं पुरिसेहिं सद्धिं अतरावणाओ नवण, पय गेण्ट, गेष्टित्ता सझाका समयसि पविरलमपुरसि निशनपडिनिमतसि जेणेव फरिहोदय तेणेच उवागच्छट, उवागच्छितात फरिहोदग गेण्हावेड गेण्टा चित्ता नवण्सु घडण्सु गाला सम्भूताण जिणपण्णत्ताण भावाण अभिगमणट्टयाए एयगड उनाडणावित्तए एव स पेहेइ) હવે મારે જીતશત્રુ રાજાને મત સ્વરૂપ, ભાવયુક્ત ત૨ ૩૫, અતિથ અને ભૃત ૩૨ એવા જીનપ્રજ્ઞના ભાવેાને સારી પેઠે સમજાવવા જોઇએ તેમજ પુદ્ગલાના અપનાપર પણિમન રૂપ ભાવ વિશે પણ તેઓ તે એવા જ ડે” આ તે સમાવવાની કાશિત કરવી જેઈએ . અમાત્યે આ પ્રમાણુ વિચારનાં
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(सपेहिता पञ्चति पुरिसेहि सद्वि जतरावणाजी नवए पडए य dore, गेण्डित्ता सान्समयसि पविरल मणुम्समि निसत पटिनिसतमि जेणेत्र फरिहोटए आप, उनागच्छित्ता त फरिनोदग गेण्हावेड गेण्डारित्ता नवरासु घडएम गालावेड. पिता नव पडएट पनिखनावे, परिवावित्ता
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ताधर्मकथा मुद्रितान् मुद्राकितान कारयति, कारयित्वा 'सनरत्तं ' सप्तरात्र=सप्तरात्रिन्दिर पर्यन्त परिवसावेइ' परिवासयति स्यापति, तदनु 'दोच पि' द्वितीयमपि वारपुनरपरेपु नरकेपु घटेपु गालगति, गालयिया पुनरपरेपु नरकेषु घटेषु प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य तेषु घटेपु ' सज्जखार सक्षार- मन्जीगार' उति प्रसिद्धम् , सद्यो भस्म का प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य लाग्छिनमुदिता सारयति, कारयित्वा सप्तरात्र यावत् परिवासगति, स्थापयति । एत्र 'तय पि' ततीयमपि चार पुनरपरेषु नवकेषु घटेपु यावत् सवासयति-सम्यरम्यापयति । एर खलु पतेन उपायेन अनेनैव क्रमेण अन्तरामभ्येमध्ये गालयन , नन्तरामध्येम ये प्रक्षेपयन् अन्तरा च विपरिवसावेमाणे' पिपरिवासयन् • स्थापयन २ सप्त सप्त रानिन्दिवानिअहोरात्रिणि विपरिनासयति । ततः खलु तत्परिमोदक ' सत्तमसत्तयमि' सप्तम वेइ, गलावित्ता, लछियमुदिते करावेह, करावित्ता सत्तरत्त परिवसावेइ, दोच्चपि नवएस्तु घडासु गालावेह गालावित्ता नवएसु घडण्तु पक्खि वावेद, परिखगवित्ता लठियमुपिते करावेइ, करावित्ता सत्तरत्त परिवसावेह दाच्चपि नवएतु घडएस गालावेइ, गालाविता नवएप्सु घडएप्लु पक्खिवावेइ ) विचार करके फिर उसने अपने समीपस्थ रहे हुए पुरुषो से-सेवको से पाजार से अथवा ग्रामान्तरवर्ती कुभकार के हाट से नवीन घडों को मनवाया। उन्हें लेकर वह सूर्यास्त काल के समय जब कि मनुष्यों का आना जाना स्वल्प हो गया और धीरे २ वह जब बिलकुल बद हो गया जहा परिखोदक था वहा पहुँचा। वहीं पहुँच कर उसने उन घडों में पानी छान कर भरवायो। भरवा कर फिर उसे और दूसरे घडों में भरवाया। भरवा कर फिर उन पर उसने लाक्षादिक की मुहर लगवाई । लगवा कर उन्हें सात दिनरात तक एक लछियमुदिते, करावेड क्रावित्ता सत्तरत्त परिवसावेड़, दोच्चपि नवएसु घटएसु पक्खिवावेइ, पविखवा पित्ता लछियमुदिते करावेइ, करावित्ता सत्तरत्त परिवसावेइ, दोच्चपि नवएसु घडएसु गालावेइ, गालावित्ता नवएसु घडएसु पक्खिनावेइ )
વિચાર કરીને તેણે પિતાના સેવક પાસેથી બજાર અથવા ગામના નજીક કુભારની દુકાનમાથી નવા માટલાઓ મગાવડાવ્યા માટલાઓને લઈને તે જ્યારે સૂર્ય અસ્ત પામ્યો અને માણસોની અવરજવર એકદમ બંધ થઈ ગઈ ત્યારે તે ખાઈની પાસે પહો ત્યાં પહોંચીને તેને માટલાઓ પાણી ગાળીને ભરાવ્યુ ભરાવીને તેણે બીજા ઘડાઓમાં પણ પાણી ગાળીને માથું પાણી ભરાવ્યા પછી તેણે માટવાઓને બરાબર ધ ધ ડરાવડાવીને સાત દિવસ સુધી
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १२ सातोदकविपये सुवुद्धिदृष्टान्त ७०७ सप्तके परिणम्यमानेसति एकोनपञ्चाशदहोराोपु व्यतीतेपु मत्सु तत्परिखोद• कम्-उदकरत्न जात चाप्यभवत् । कीदृश जातम् ? इत्याह-'अच्छे' अच्छ-स्वच्छ जगह रखवा दिया। फिर दुबारा भी उसने और दूसरे नवीन बडों में पानी छान तर मरवाया। भरवा कर फिर उस जल को उसने और दूसरे घडो मे भरवाया। (परिग्ववावित्ता) भरवा कर (सज्जखार पक्खिवावेड लछिय मुदिते कारवेइ) उन में उसने सज्जीखार डलवा दिया । डलवा कर उन पर लाक्षादिक के छेप की मुहर लगवा दी। (कारवित्ता सत्तरत्त परिवसावेड) लगवा कर उन्ह एक ओर रखवा दिया (तच्चपि नवएसु घडपसु जाव सवलोवेइ, एव ग्वलु एण्ण उवाएण अतरा गलावेमाणे अतरा पक्विधावेमाणे अतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्त २ राई दिया विरिवसावेह) तीसरी बार भी उसने उपर नवीन घडों में छानकर पानी भरवाया-भरवाकर पहिले की तरह ही उसने सब काम करवाया-फिर उन्हे अच्छी तरह एक ओर रखवा दिया। इस तरह के उपाय से उसने बीच २ मे उस जल को पुन. २ छानकर उनमें भरवाया और भरवा २ कर सात २ दिन तक उन घडों को एक २ ओर रखवा दिया। (तएण से फरिहोदा मत्तमसत्तयसि परिणम माणसि उदगरयणे जाये) डम प्रकार करते • जब ४९ दिन समाप्त हो
એક જગ્યાએ માટલાઓને મૂકાવડાવ્યા બીજી વખત તેણે બીજા નવા ઘડાઓમા પાણી ગાળીને ભગવડાવ્યું ભરાવડાવીને તે પાણીને ગાળીને બીજા માટલાઓમાં सरावयु (पस्सिपावित्ता ) मरा५वीने
(सज्जग्वार पक्खिवावेड लछियमुदिते कारवेद)
તેણે માટલાઓમાં સાજીખાર નખાવડા માજી પાર ન ખાવડાવીને तेरे मामासाने ३१२१५२ ५५ ७२११वी (कारचित्ता सत्तरत्त परिवसावेइ) સીલ કરાવડાવીને માટલાઓને એકબાજુ મૂકી દીધા
(तच्चपि नरएर घडएमु जार सवसावेई, एव ग्वलु एएण उवाएण अतरा पक्खिवावेमाणे अतराय विपरिवसावेमाणे सत्ता राई दिया विपरिवसावेह)
- ત્રીજી વખત પણ તેણે બીજા નવા માટલામાં પાણી ભરાવડાવ્યું ભરાવીને પહેલાની જેમજ બધી વિધિ કરી અને માટલાઓને એક તરફ મૂકાવી દીધા આ પ્રમાણે કરતા તેણે વચ્ચે વચ્ચે કેટલી વખત વાર વાર ગાળીને માટલાઓમાં પાણી ભરાવ્યું અને ત્યારપછી સાત દિવસ માટે મારલાઓને એક બાજુ મૂકાવી દીધા (तएण से फरिदोहए सत्तमसत्तयमि परिणममाणमि उदगरयणे जाये)
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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मुद्रितान् मुद्राहितान् कारयति, कारयित्वा 'सतरत ' सप्तरात्र=सप्तरात्रिन्दिव पर्यन्त परिवसावेह परिवासयति=स्थापयति, तदनु ' दोच पि द्वितीयमपि धारपुनरपरेषु नरकेषु घटेषु गालयति, गालयित्वा पुनरपरेषु नरकेषु घटेषु प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य तेषु घटेषु सज्जखार मर्जक्षार= सन्जीबार' इति प्रसिद्धम्, सद्यो भस्म या प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य गतिमुद्रितान् सरयति, कारयित्वा सप्तरात्र यावत् परिवासयति, स्थापयति । एप 'तच पि ' तृतीयमपि नार पुनरपरेषु नवकेषु घटेषु यावत् सनामयति=सम्यापयति । एवं खलु एतेन उपायेन = अनेनैव क्रमेण अन्तरा=मध्येमध्ये गालयन, जन्तरा=मध्येम ने प्रक्षेपयन् अन्तरा च विपरिवसावेमाणे ' निपरिवासयन् २ स्थापयन् २ सप्त सप्त शनिन्दिवानि= अहोरात्रणि विपरिवासयति । ततः खलु तत्परिमोदक 'सत्तमसत्तयमि ' सप्तम वेइ, गलाचित्ता, लडियमुद्दिते करावे, करवित्ता सत्तरत्त परिवसावे, दोच्चपि नवसु घडण्सु गालावेह गालावित्ता नवसु घडण् पक्खि वावेह, परिखवावित्ता लजियमुद्दिते करावे, करावित्ता सत्तरत परिवसावे दाच्चपि नवएसु घडएस गालावेड, गालावित्ता नवएलु घडए पक्खिचावे ) विचार करके फिर उसने अपने समीपस्थ रहे हुए पुरुषो से सेवको से बाजार से अथवा ग्रामात्तरवर्ती कुभकार के हाट से नवीन घडों को मनवाया। उन्हें लेकर वह सूर्यास्त काल के समय जब कि मनुष्यों का आना जाना स्वल्प हो गया और धीरे २ वह जब बिलकुल बद हो गया जहा परिखोदक था वहां पहुँचा । वहाँ पहुँच कर उसने न घडों में पानी छान कर भरवाया। भरवा कर फिर उसे और दूसरे घडों में भरवाया । भरवा कर फिर उन पर उसने लाक्षादिक की मुहर लगवाई । लगवा कर उन्हें सात दिनरात तक एक लजियमुदिते, करावेइ क्रावित्ता सत्तरत परिवसावेइ, दोच्चपि नासु घटएस पक्खिवावे, पक्खिवावित्ता लछियमुद्दिते करावे, कराविता मत्तरत्त परिवसावेश, दोच्चपि नवसु घडएसु गालावेइ, गालावित्ता नवएम घडएस पक्खिनावे ) વિચાર કરીને તેણે પેાતાના સેવકા પાસેથી ખજાર અથવા ગામના નજીક માટલાઓને લઈને તે કુંભારની દુકાનમાથી નવા માટલા મગાવડાવ્યા જ્યારે સૂર્ય અસ્ત પામ્યા અને માણસાની અવરજવર એકદમ અધ થઈ ગઈ ત્યારે તે ખાઈની પાસે પહેાગ્યે ત્યા પહેાચીને તેણે માટલાએ। પાણી ગાળીને ભરાવ્યુ ભરાવીને તેણે બીજા ઘડાએમા પણ પણી ગાળીને ભરાવ્યુ પાણી ભરાવ્યા પછી તેણે માતાએને બરાબર બધ કરાવડાવીને માત દિવમ સુધી
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १० सातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्त
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प्रसादनीय ज्ञात्याहट तुट हुभिः । उद्गमभारणिज्जेहिं ' उदकसभारणीयै = जगकरणयोग्ये केतकीपाटलादिद्रव्यैः ' समारे ' सभारयति = सस्कार यति भारयिला जितनो राज्ञः 'पाणियारय ' पानीयहारक यस्य हस्ताद्वारा पानीय पितत शब्दयति, शब्दयिला एवमादीत्व च खलु हे देवानुप्रिय ! उदमुदकरन्न गृहाण, गृहीत्वा जितशत्रो रातो भोजनवेलायाम् उपनय । ततः खलु पानीयहारक. सुबुद्धिकस्य = सुबुद्विनामकामात्यस्य एतमर्थ = रान. पानीय उदगसभारणिज्जेरि समारेड सभारिता जियसत्तस्स रण्गो पाणिय घरिय सहावे, सदावित्ता एव क्यासी - तुमच ण देवाणुप्पिया इम उदरगण गणाहि २ जियसत्तूस्त रण्णो भोयणवेला उवणेज्जासि ) इसके बाद वह सुबुद्धि अमात्य जहाँ वह उदक रत्न था वहा गया । वहा जाकर उसने उस उदकरत्न को हाथ में लेकर चखा । चख कर जन उसे यह नात हो चुका कि यह उदक रत्न वर्णादि से युक्त यावत् सर्वेन्द्रिय गान प्ररहादनीय वन गया है तो वह बहुत ही आनन्दित एक सतुष्ट हुआ बाद में उसने उस जल को सुगवित करने वाले केतकी पाटल (गुलाब) आदि द्रव्य से सस्कारित किया-सस्कारित करके फिर उसने जितशत्रु राजा को जो पानी पिलाने वाला भृत्य या उसे बुलाया बुलाकर उससे ऐसा कहा - हे देवाणुप्रिय ! तुम इस उदक रत्न को लो और लेकर जब जिनशत्रु राजा के भोजन करने का समय होवे तन उसे उनके पास ले जाना । (तरण से पणियधरिय सुबुद्धियमभारे: समारिया जियसत्तस्स रण्णो पाणियघरिय सदावे, सदाविना एव वयासी - तुम चण देनाणुप्पिया इम उदगरयण गेव्हाहिर जियमत्तस्म रणो भोला वज्जासि )
ત્યારપછી અમાત્ય સુબુદ્ધિ જ્યા ઉદકરત્ન ( પાણી ) હતુ ત્યા ગયે ત્યા જઈને તેણે ઉદરત્ન ( પાણી )ને હથેળી ઉપર લને ચાખ્યુ ચાખ્યા ખાદ તેને એમ લાગ્યુ કે ખરેખર આ ઉદરત્ન (પાણી) વર્ણ વગેરે ગુણેાથી યુક્ત યાવત્ ખંધી ઇન્દ્રિયે! અને શરીરને આનદ પમાડે તેવુ થઈ ગયું છે ત્યારે તે બ જ પ્રસન્ન અને સતુષ્ટ થયે ત્યાર પછી તેણે પાણીને સુવાસિત કર નાગ કેતકી પાટલ ( ગુલાખ ) વગેરે દ્રવ્યાયી પાણીને સારિત કર્યું. પાણીને રિત કર્યાં બાદ અમાત્યે જીતનુ રાજને પાણી પીવડાવનાર નાકરને આલા ચે। અને ખેલાવીને તેને હ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય 1 રાજાને જમવાને વખત થાય ત્યારે તુ આ ઉદકરન (પાણી) તેમની પાને લઈ જશે
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(तरण से परियमुद्वियस्स एयम पडणे, पडिणित्ता त
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भाताधर्मकथा निर्मलत्वात् , ' पत्गे' पत्यम् आरोग्यजनकन्नात् , 'जन्चे' जा-यम् उत्तमगुणयत्वात् , ' तणु ' तनु-भारेण शुफ पारस्यात् , ' फलिट गाभे' स्फटिकपर्णाभ-स्फटिकमणिपर्णतत्य वर्णन-उपेनम् ५ = प्रशस्तपर्णगन्धरसम्पगैर्युक्तम् 'आसायणिज्जे ' आस्वाहनीयम् आम्बादयोग्य यापन् मद्रिय गात्रमहादनीय जातम् । तत' खलु मुद्रिरमात्यो यार तद् उदकरत्न नयोपागन्छति, उपागत्य करतले इस्ततले गृहीत्वा तद ' जागाण्ड' आम्नान्यति आम्याय वद् उदकरत्न वर्णेनोपपेतम् ४ वर्णादपपेतम् - आम्मानीय यावत् सन्द्रियगान चुके तर वह परियोदक उदकरत्न श्रेष्ठल रूप परिणमित हो गया। (अच्छे पत्ये जच्चे तणुए फलिण्णाभ वण्णेण उचवेय४आमायणिज्जे जाव सञ्चिदियगायपल्टायणिज्जे) वर उढकरत्न निर्मल होने से पिल कुल स्वच्छ हो गया आरोग्य जनक होने से पथ्य रूप बन गया उत्तम गुणवाला होने से श्रेष्ठ दिग्गनेलगा शीघ्र पचने के योग्य हो जाने के कारण भार मे वह पटत हलका हो गया, और स्फटिकमणि के वर्ण समान वर्ण से युक्त हो गया। इसके वर्ण, गंध, रम और स्पर्श सब प्रशस्त-श्रेष्ठ बन गये । यह आम्वादनीय हो गया यावत् समस्त इन्द्रियों को एव शरीर को तृप्ति करने बाला न गया । (तरण सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरयणे तेणेत्र उपागच्छड, उवागच्छित्ता करय लसि आसादेह, आमादित्तात उदगरयण वण्णे ण उववेय ४ आसाय णिज्जे जाव सविदियगाय पल्हायणिज्ज जाणित्ता हह तुढे बहि
આ રીતે જ્યારે ૪૯ દિવસ પૂરા થયા ત્યારે તે ખાઈનુ ઉન્ડરત્ન (પાણ) ઉત્તમ પાણીના રૂપમાં પરિણત થઈ ગયું
(अच्छे पत्ये जच्चे तणुए फलिहण्णाभे वण्णेण उववेय४ आसायणिज्जे जाव सबिदियगायपल्हायणिज्जे)
તે ઉદકરત્ન (પાણી) નિર્મળ હોવા બદલ એકદમ સ્વરછ થઈ ગયુ હતું આરોગ્યજનક હોવાથી પથ્ય રૂપ થઈ ગયુ હતુ, ઉત્તમ ગુણ-સ પન્ન હોવાથી શ્રેષ્ઠ દેખાતુ હતુ, શીધ્ર પાચન થાય તેવુ હોવાથી વજનમાં તે ખૂબ જ હલકુ થઈ ગયુ હતુ પાણીના વર્ણ ગધ, રસ અને સ્પશ આ બધા ગુણે પ્રશસ્ત શ્રેષ્ઠ રૂપમાં પરિણત થઈ ગયા હતા તે આસ્વાદની ય થઈ ગયુ હતુ યાવત બધી ઈન્દ્રિયોને તેમજ શરીર તૃપ્ત કરનાર બની ગયું હતુ
(तएण सुवुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागन्छइ, उपागन्छिता करयलसि आसादेड, आसादित्ता त उदगरयण वण्ण उववेय ४ आसायणिज्जे जाव सबिंदियगाय पल्हायणिज्ज जाणित्ता हत्ढे वर्हि उदगसभारणिज्जेहि
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अनगारधर्मामृत पिणी टी० अ० १२ खातोदकविपये सुवुद्धिष्टान्त ७११ भूत. परमपवित्र स राजा तस्मिन् उदकरत्नभातपिम्मयः सजातजलस्वादको तुमः तान् रहून् राजेश्वर यात्-राजेश्वर-तलवर - माडम्पिककौटुम्बिकेश्यश्रेष्ठि सेनापतिसार्थवाहप्रभृतीन् एवमवदत्-अहो ! आश्चर्यमेतत् खलु हे देवानु प्रियाः ! उदमुदकरत्नम् अच्छ यावत्-सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयमस्ति । तत, खलु बहवो राजेश्वर यावत्सार्थवह-प्रभृतय एमवादिपुः-तथैव खलु हे मामिन् ! यत् खल यूय वदथ यापद् एवमेव सर्वेन्द्रिगात्रमहादनीय वर्त्तते । ततः खलु जितशत्रु लिये थे। इस परम शुचिभूत बनकर अपनी बैठक पर बैठे हुए उन जितशत्रु राजा को उम उदकरत्न के आस्वादन मे बडा ही जाश्चर्य हो रहा था। उसी आश्चर्य मे डूबे हुए उन राजा ने अपने पास बैठे हुए राजेश्वर तलवर, माडरिक, कौटुम्गिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाहक आदि जनो से इस प्रकार का (अहोण देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणे अच्छे जाच सविदियगाय पल्हायणिज्जे तएण नवे राईसर जाव एव वयासी-तहेव ण सामी । जपण तुम्भे वदह जाव एव चेव पल्हायणिज्जे तएण जियसत्तूराया पाणियपरिय सद्दावेइ, सदावित्ता एव क्यासी-एसण तुम्भे देवाणुपिया' उदगरयणे को आसाइए?) देवानुप्रियो ! देखो यह उदकरत्न (श्रेष्ठ जल) कितना अच्छा निर्मल यावत् समस्त इन्द्रियो एव शरीर को आनन्द देनेवाला है। इस प्रकार राजा का कथन सुनकर उन राजेश्वर आदि समस्त जनों ने उस राजा से ऐसा कहा-स्वामिन् आप जैसा कहते है, यह जल દીધા હતા આ પ્રમાણે એકદમ પવિત્ર થઈને પિતાની બેઠકમાં બેઠેલા રાજા જીતશત્રુને જમતી વખતે પીધેલા ઉદકરાના આવાદન વિશે ખૂબ જ નવાઈ જેવુ લાગતુ હતુ ઉદારત્ન (પાણી) વિશેના નવાઈના વિચારો કરતા રાજાએ પિતાની પાસે બેઠેલા રાજેશ્વર, તલવર, માલિક, કૌટુંબિક, ઈય, શ્રેણી, સેના પતિ અને સાર્થવાહ વગેરે જનેને આ પ્રમાણે કહ્યું
(अहोण देवाणुप्पिया। इमे उदगरयण अच्छे जाच सबिटियगाय पल्हाणिज्जे तएण रहवे राईसर जाव एव ययासी तहेब ण सामी जण तुम्मे वदह जाय एव चेन पल्हायणिज्जे तएण जियसत्तू राया पाणियधरिय सदावेड,सदापित्ता एव वयासी एमण तुम्मे देवाणुप्पिया! उदगरयणे को आसाइए)
હે દેવાનુપ્રિયે! જમતી વખતે પીધેલુ ઉદકર (પાણી) કેટલુ બધુ નિર્મળ અને બધી ઇન્દ્રિય તેમજ શરીરને આનદ પમાડનાર છેઆ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને રાજેશ્વર વગેરે બધા ઉપસ્થિત લોકોએ ગજાને આ પ્રમાણે કર્યું કે- સ્વામિન ! તમારી વાત એદમ યથાર્થ છે પાણી ખરેખર
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शाताधर्मकथा
पानरूप भाव प्रतिशृणोति=स्वीकरोति, मतिश्रुत्य तदुदकग्रन गृह, गृहीत्वा जितशत्रोः राज्ञो भोजनवेलायाम् उपस्थापयति । सत सजिता राजा वद् विपुलम् अशनपान-खाद्य-स्वयाम् आस्वादयन् यावद् विहरति । 'जिमियभुतु तरागए वि' जिमितभुक्तोत्तरागतोऽपि च खलु निमितम् = आस्वादित इतम् उदरपूरणपूर्वकम्, तदुत्तरम् आगत = स्वोपवेशनस्थाने प्राप्त, कीटश सन् ? इत्याह-यावत्-भाचान्तः = कृतचुलु+, अतएव चोक्षः = निर्लेप गच्छ परमशुचि स्स एयम पडिणेह, पडिणित्ता त उदगरयण गिव्हार, गिव्हित्ता जिनसत्तस्स रण्णो भोयणवेलाए उबट्टवेड तरण से जियसत्त गया त विपुल असण ४ आसाण्माणे जाव विहरह ) इस प्रकार उम पानीय हारक ने सुबुद्धि अमात्य की इस यानको मान लिया और मानकर उस उदरत्न को - श्रेष्ठ निर्मलजल को ले लिया-लेकर उसने उसे जितशत्रु राजा के भोजन करने के समय उपस्थापित कर दिया ताकि वे इम जल को पीवें । इसके बाद जितशत्रु राजो का जन भोजन करने का समय आया तब उसने अशनादि रूप ४ चारो प्रकार का आहार खूब इच्छानुसार किया और उस उदकरत्न को पिया । (जिमिय भुत्तत्तरा गए याविण जान परमसुइभ्रूण तसि उद्गरयणे जाव विम्हए ते बहवे राईसर जाव एव वयासी) जब जितशत्रु राजा अच्छी तरह खा पी चुके तब वे अपने उपवेशन के स्थान में बैठक में आये। बैठक में आने के पहिले उन्होंने कुल्ला आदि करके अपने मुख को अच्छी तरह धो लिया था और हाथ वगैरह भी अच्छी तरह प्रक्षालित कर (धोकर ) उदगरयण गिण्ठाह गिण्डित्ता, जियसत्तस्स रण्णो भोयणवेलाए उबवे, तएण से जियसत्तू राया त विपुल असण ४ आसाएमाणे जाव विहरइ )
આ રીતે પાણીવાળા નાકરે સુબુદ્ધિ અમાત્યની વાત સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તે ઉદકરનને-શ્રેષ્ઠ નિર્માળ પાણીને–ત્યાથી લઈને જમવાની વખતે જીતરાત્રુ રાજાની સામે તેમને પીવા માટે પડેચાડી દીધુ . ત્યાર પછી જ્યારે જીતશત્રુ રાજાના જમવાના વખત થયે! ત્યારે રાજા અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આધારે ખૂખ તૃપ્ત થઈને ઇચ્છા મુજબ જમ્યા અને તે ઉદકરત્ન ( પાણી ) ને પીધુ ( जिमियत्तत्तरागए यावि य ण जाव परमसुडभूए तसि उदगरयणे जाव विम् ते हवे राईसर जात्र एव वयासी )
રાજા જીતશત્રુએ આમ સારી રીતે જમવાનું પતાવી દીધુ ત્યારે તે ત્યાથી પેાતાના ઉપવેશનના સ્થાનમા એટલે કે બેઠકમા આવ્યા. એકના આવતા પહેલા તેઓએ કાગળા વગેરે કરીને મે અને હામેાને એઇને
બનાવી
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १२ खातोदकविपये सुबुद्धिष्टान्त ७११ भूतः परमपवित्र स राजा तस्मिन् उनकरत्नजातविम्मयः सजातजलस्वादको तुकः तान् हुन् राजेश्वर यावत्-राजेश्वर-तलवर - माडम्बिककौटुम्बिकेश्यश्रेष्ठि सेनापतिसार्थवाहप्रभृतीन् एवमवदत्-अहो ' आश्चर्यमेतत् खलु हे देवानुप्रियाः । इदमुदकरत्नम् अन्छ यावत्-सर्वेन्द्रियगात्रमहादनीयमस्ति । तत, खलु वहयो राजेश्वर यावत्सार्थबह-प्रभृतय एनमवादिषुः-तथैव खलु हे सामिन् ! यत् खलु यूय वदध यावद् एवमेव सर्वेन्द्रिगात्रमहादनीय वर्त्तते । ततः खलु जितशत्रु लिये थे। इम परम शुचिर्भूत बनकर अपनी बैठक पर बैठे हुए उन जितशत्रु राजा को उम उदकरत्न के आस्वादन मे बडा ही आश्चर्य हो रहा था। उसी आश्चर्य मे डूबे हुए उन राजा ने अपने पास बैठे हुए राजेश्वर तलवर, माडपिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाहक आदि जनो से इस प्रकार का (अहोण देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सविदियगाय पल्हायणिज्जे तएण यहवे राईसर जाव एव वयासी-तहेव ण सामी' जण्ण तुम्भे बदह जाव एव चेव पल्हायणिज्जे तएण जियसत्तूराया पाणियपरिय सद्दावेइ, सहावित्ता एव वयासी-एसण तुम्भे देवाणुप्पिया' उद्गरयणे कओ आसाइए?) देवानुप्रियो । देखो यह उदकरत्न (श्रेष्ठ जल) कितना अच्छा निर्मल यावत् समस्त इन्द्रियो एव शरीर को आनन्द देनेवाला है । इस प्रकार राजा का कथन सुनकर उन राजेश्वर आदि समस्त जनों ने उस राजा से ऐसा कहा-स्वामिन् आप जैसा कहते है, यह जल દીધા હતા આ પ્રમાણે એકદમ પવિત્ર થઈને પોતાની બેઠકમાં બેઠેલા રાજા જીતશત્રુને જમતી વખતે પીધેલા ઉદકરેનના આસ્વાદન વિશે ખૂબ જ નવાઈ જેવુ લાગતુ હતુ ઉદરન (પાણી) વિશેના નવાઈના વિચારો કરતા રાજાએ પિતાની પાસે બેઠેલા રાજેશ્વર, તલવર, માલિક, કૌટુંબિક, ઈય, શ્રેણી, સેના પતિ અને સાર્થવાહ વગેરે જનેને આ પ્રમાણે કહ્યું
(अहोण देवाणुप्पिया! इमे उदगरयण अच्छे जाव सबिटियगाय पल्हाणिज्जे तएण हवे राईसर जाव एव वयासी तहेव ण सामी ' जण तुम्मे वदह जान एव चेन पल्हायणिज्जे तएण जियसत्तू राया पाणियधरिय सदावेड,सावित्ता एव वयासी एमण तुम्भे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे को आसाइए)
- હે દેવાનુપ્રિયે! જમતી વખતે પીધેલુ ઉદકરન (પાણી) કેટલું બધુ નિર્મળ અને બધી ઈન્દ્રિય તેમજ શરીરને આનદ પમાડનાર છે. આ રીતે
જાની વાત સાંભળીને રાજેશ્વર વગેરે બધા ઉપસ્થિત લોકોએ રાજાને આ પ્રમાણે કે-૯ સ્વામિન્ તમારી વાત એકદમ યથાર્થ છે પાણી ખરેખર
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माताधर्मकथासत्रे राजा पानीहारक शब्दयति, श दायित्या एमपदव-एनन् गलु च हे देवगनुप्रिय! उदकरत्न प्रधानमुद कुतः परमास्थानात् ' आमाए ' नामादित-प्राप्रम् ? | ततः खलु म पानीयहारक' जितनगरपाठी-एनन् ग्यलु हे शामिा ! मया उदकरत्न सुबुद्धरन्तिकादासादितम् । ततः खलु जितशतू मुबुद्विरमात्य शठयति, शब्दयित्वा एनमदत्-अनो! खलु हे गुयुद्ध । केन कारणेनाह तपानिष्ट'
वैसा हो है-सहन अधिक स्वच्छ र समस्त इन्द्रियों को, शरीर को आनद दायक है इसके बाद जिनगनु राजाने पानी हारक को बुलाया और युगकर उससे ऐसा कहा-हे देवानु प्रिय ! यर उदक रत्न ( श्रेष्ठ जल )- तुमने कहा से प्राप्त किया है । (तपण से पाणियघरए जियमत्तू एव वयासी-एसण सामी ! मग उदगरयणे सुवुद्विस्त
अनियाओ आमाइए ताण जियमत्तू तुधुद्धि अमच्च नदावेद सद्दा विता यासी, अहोण सुयुद्धी ! केण कारणेण अर तव अगिट्टे पजेण तुम मम कल्ला करिल भोयणवेलाए इम उदगरयण न उवठ्ठवेसि १ त एसण तुमे देवाणुप्पिा । उदगरयणे को उबलद्धे १ ) राजाकी इम बान को सुनकर उस पानीयहारक ने उनसे कहा-हे स्वामिन् ! मैंने यह उदक रत्न सुबुद्वि प्रधान के पास से पाया है । इसके बाद जितशत्रु राजा ने सुबुद्वि प्रधान को चुलाचा-चुलाकर उससे इस प्रकार कहा-हे सुबुद्धे ! मैं किस कारण से तुम्हारे लिये अनिष्ट, अकान्त, તેવુ જ હતુ તે બહુ જ નિર્મળ અને બધી ઈન્દ્રિયોને તથા શારીરને આનંદ આપનાર હતુ ત્યારપછી જીતશત્રુ રાજાએ પાણીવાળાને બોલાવ્યો અને બેલા વીને તેને કહ્યુ-કે હે દેવાનુપ્રિય ! આ ઉદકરન (શ્રેષ્ઠ પાણ) તમે કયાથી મેળવ્યું છે ?
(तएण से पाणियधरए जियसत्तू एव सुबुद्धिस्स अतियाओ असाइए तण्ण जियसत्तू सुबुद्धि अमच्च सद्दावेइ, सदापित्ता एव वयासी, अहोण मुबुद्धी । केण कारणेण अह तव अणिटे पजेण तुम मम पल्लाकलि भोयणवेलाए इम उदगरण न उववेसि! त एसण तुमे देवाणुप्पिया ' उदगरयणे कओ उपलट ?)
૨ જાની આ વાત સાંભળીને પાણીવાળાએ જવાબમાં રાજાને કહ્યું કે હે સ્વામિન' આ ઉદક રત્ન ( પાણું ) હુ સુબુદ્ધિ અમાત્યની પાસેથી લાવ્યા હુ રાજાએ ત્યાર બાદ સુબુદ્ધિ અમાતાને બાવા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે સુબુદ્ધિ' શા કારથી હુ તમારા માટે, અકાત,
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अनुगारधर्मामृतपणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृशन्त
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अकान्त, अभियः, अमनोज्ञ, अमनआमोऽस्मि येन त्वम 'कल्लाकल' कल्याकल्यि-प्रतिदिन भोजनवेलायामिदमुदकरत्न नोपस्थापयामि, तदेतत् खलु त्वया हे देवानुमिय । उदकरन कुत उपलब्धम् । तत खलु सुबुद्धि जितशत्रुमेत्रमचादीत - एतत्खलु हे स्वामिन् | तत् = यद् भवद्भिः पूर्वदृप्ट मेदोपसादिदुर्ग-धयुक्त तदेव परिखोदक= परिखानल वर्त्तते । तत: खलु स जितशत्रुः सुबुद्धिमेनमवदत् - केन कारणेन हे सुबुद्धे । एतत्तत् परिखोदकम् ' । तव खलु हे स्वामिन् ! यूय तदा मम एवमाचक्षाणस्य प्रज्ञापयतः, सज्ञापयतः विज्ञापयत' = वारवार प्रतिपादयत अप्रिय, अमनोज्ञ एव अमन आम बन रहा हूँ कि जिससे तुम प्रति दिन मेरे लिये भोजन बेला मे इस उदक रत्न को उपस्थापित नही करते हो? तो कहो हे देवानुप्रिय । यह उदक रत्न तुमने कहा से पाया १ (एग सुबुद्धी जियसत्तू एव वयासी एसण सामी । से फरि होदए, तरण से जियमत्तू सुबुद्धि एव वयासी-केण कारणेण सुबुद्धी ! एससे फरिद एण सुबुद्धी जियसत्तू एव वमासीएव खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमाक्खमाणस्स ४ एयमट्ठ नो सहहह, तएण मम इमेारूवे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था ) तय सुबुद्धि प्रधानने जितशत्रु रजा से कहा- हे स्वामिन्! यह उदक रत्न वही परिखोदक है । जितशत्रु ने कहा यह परिखोदक किस कारण से ऐगा उदक रत्न बन गया है। सुबुद्धि अमात्य ने तब ऐसा कहा- हे स्वामिन् । जब मैंने आपसे इस प्रकार कहा था इस प्रकार प्ररूपित किया था, इस प्रकार सज्ञापित किया था, विज्ञापित किया था - बार बार आपसे प्रतिपादित किया था કેમ કે હું મેશા જમવાના પાણી ) તમે ઉપસ્થાપિત બેલે, આવુ ઉદક રત્ન
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અપ્રિય, અમનેાજ્ઞ અને અમત આમ થઈ પડયો છુ વખતે મારા માટે આજના જેવુ ઉર્દક રત્ન ( સારૂ કરતા નથી—મૂકાવડાવતા નથી ? હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમેાએ કથાથી મેળવ્યુ છે ?
(तएण सुबुद्धी जियसत एव बयासी एसण सामी' से फरिहोदए, तपूर्ण से जियसत्तू सुबुद्धि एव बयासी-केण कारणेण सुबुद्धी एस मे फरिहोटए ? एण बुद्धी जियसत्तू एव वयासी- एव खलु सामी ' तुम्हे तथा मम एवमाइक्खमाणस्स ४ एयभट्ट नो स६हद्द, तएण मम इमेयारूवे अज्झत्थिए समुपज्जित्था )
ત્યારે સુબુદ્ધિ પ્રધાને જીતશત્રુ રાજાને કહ્યુ કે હે સ્વામી ! આ ઉદ્યરત્ન ( સારૂ પાણી ) તે જ ખાઈનુ પાણી છે રાજાએ અમાત્યને ફરી પૂછ્યુ કે ખઈનું પાણી આવુ સન્સ કેવી રાતે થઇ ગયુ ? જવાબમા સુબુદ્ધિ અમાત્યે કહ્યુ કે હે સ્વામિન 1 પહેલા મે તમારી સામે આ પ્રમાણે પ્રરૂપિત કર્યું હતું, આ પ્રમાણે મ જ્ઞાપિત કર્યુ હતુ, વિજ્ઞાપિત કર્યું હતુ, વારવાર પ્રતિપાદિત
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राजा पानीधारक शब्दयति, शन्दयिला एमत्-एतत् खलु व हेनुमय ! उदरत्नमुकुत करमात्म्यानात् ' जमाइए' यापादित=प्राणम् ? 1 तेन खलु पानीहारको दिन-वत्सल हे सामि मया उदरत्न सुयुद्धेरन्तिदासादितम् । तत लु जितशत्रू खदिरमात्य गव्ययति, शब्दयिला मदद - अहो ! सलु हे गुरुछे । केन करणेनाह वरानिष्टः TI हो हैन अधिक स्वच्छ समस्त इन्द्रियों को शरीर को आनद दायक है इसके बाद जितशत्रु राजाने पानी हारक को बुलाया और बुनाकर उससे ऐसा कहा हे देवानुयहद रत्न ( श्रेष्ट जल ) - तुमने कहा से प्राप्त किया है । (तरण से पाणियघर जियमत्तू एव वयासी-एसण सामी ! म० उद्गरयणे सुबुद्धिस्म अनियाओ आमाइ तरण जियनत्तू सुबुद्धि अमच्च सदावेद सहा वित्ता एव वामी, अहोण सुबुद्धी ' केण कारणेण अट तव अणिट्ठे पजेण तुम मम कल्ला कति मोयणवेलाए हम उदगरयणन उबट्टवेसि १ त एसण तुमे देवाणुपिया | उदगरयणे कओ उवल 2 ) राजाकी इस बात को सुनकर उस पानीयहारक ने उनसे करा - हे स्वामिन् ' मैंने यह उदक रत्न सुबुद्धि प्रधान के पास से पाया है । इसके बाद जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि प्रधान को बुलाया - बुलाकर उससे इस प्रकार कहा- हे सुबुद्धे ! मैं किस कारण से तुम्हारे लिये अनिष्ट, अकान्त,
તેવુ જ હતુ તે બહુ જ નિર્માંળ અને બધી ઇન્દ્રિયાને તથા રારીરને આનદ આપનાર હતુ ત્યારપછી છતશત્રુ રાજાએ પાણીવાળાને ખેલાયે અને ખેલા વીને તેને હ્યુ-કે હે દેવા ડુપ્રિય ! આ ઉદકરત્ન ( શ્રેષ્ઠ પાણી) તમે કયાથી મેળવ્યુ છે ?
( तएण से पाणियधरए जियसत्तू एव सुबुद्धिस्स अतियाओ असाइए तएण जियसत्तू सुबुद्धि अमच्च सदावेह, सद्दानित्ता एव वयासी, अहो मुबुद्धी ' केण कारणेण अह तत्र अणिट्ठे पजेण तुम मम कल्ला कल्लि भोयणवेलाए इम उद्गरण न उबवेसि ! त सण तुमे देराणुपिया | उदगरयणे क्ओ उबलद्वट् १)
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રજાની આ વાત સાભળીને પાણીવાળાએ જવાબમા રાજાને કહ્યુ કે હું સ્વામિન્! આ ઉદક રત્ન ( પાણી ) હું સુબુદ્ધિ અમાત્યની પાસેથી લાન્ચે છુ રાજાએ ત્યાર બાદ સુબુદ્ધિ અમાત્યને ખેાલા ત્ચા અને ખેલાવીને તેમને મા પ્રમાણે કહ્યુ કે હે સુબુદ્ધિ ! શા કારપુથી હુ તમારા માટે અ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १२ खातोदकविषये सुन्त
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हारक शब्दयति, शब्दयित्वा एन पदामित्व खलु हे देवानुप्रिय । उदकरत्न जित शत्रो राज्ञो भोजनवेलायामुपनय तदेतेन कारणेन हे स्वामिन् ' एतत्तत् = तदेव यद्भ वद्भि दृष्टपूर्वं परिखोदकम् । ततः खलु जितशत्रू राजा सुबुद्धेरमात्यस्य एवमाच क्षाणस्य : एतमर्थम् -' इदमेतदेव परिखोदकम् ' इत्येव रूप भाव नो श्रद्दधाति, राजा को सद्भून विद्यमान - यावत् जिन प्रज्ञप्त भावो का बोध कराने के लिये और उनसे इन्हे ये ऐसे ही है, इस रूप से मनवाने के लिये ऐसा प्रयत्न करूँ कि जिससे उनकी श्रद्धा आदि उन पर जम जावे और वे इस बात को मानने लग जावे | एव सपेहेमि २ नचैव जाव पाणिय घरिय सदावेमि सद्दावित्ता एव वयासी तुमण देवाणुप्पिया । उद्गरयण जियसत्तुस्स रण्णा भोघणवेलाए उवणेहि त एण्ण कारणेण सामी ' एस से फरिहोद । तएण जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमह नो सदहइ ३ ) ऐसा मैंने विचार किया विचार करके फिर मैंने पानीयहारक को बुलाया - बुलाकर उस से ऐसा कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम इस उदक रत्न को जितशत्रु राजा के भोजन के समय पर ले जाना । इस कारण से हे स्वामिन् । जो आपने पहिले परिखोदक देखा था वही यह परिखोदक है और इस रूप में परिणत हो गया है । जितशत्रु राजा ने इस प्रकार कहने वाले ४ सुबुद्धि अमात्य के इस अर्थ को कि यह वही परिखोदक है अपनी श्रद्धा का विषय नही बनाया प्रतीति का विषय नही बनाया, अपनी માટે અને એ ભાવે ખરેખર એવા છે, એવુ માવવા માટે પ્રયત્ન કરવા જોઈએ જેથી તેઓને આ ભાવે ઉપર સપૂર્ણપણે વિશ્વાસ બેસી જાય અને તેઓ આ વાતને સ્ત્રીકાર પણુ ક
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( एव सपेहेम २ त चैव जाव पाणियघरिय सदावेमि सदावित्ता एव वयासी तुमण देवाणुपिया | उदगरयण जियमत्तस्स रण्गो भोयणवेलाए उवणेहि त एएण कारणेण सामी ' एस से फरिहोदए । तएण जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अ मच्चस एवम इक्खमाणम्म ४ एवमह नो सद्दह ३ )
આ પ્રમાણે મે વિચાર કર્યાં વિચ ર કરીને મે પાણી લાવનારને ખેાલાવ્યે અને ખેલાવીને કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ ઉત્તરત્ન (સારા પાણી । ને જીતશત્રુ રાજા જ્યારે જમવા માટે બેસે ત્યારે લઇ જજે એટલા માટે હું સ્વામી! તમે પહેલા ખાઈનુ જે પાણી બ્લેયુ છે તે જ આ પાણી છે અને આ તા તે પાણીનુ જ ૩૫ાતર છે સુષુદ્ધિ અમાત્યની આ વાત પર-કે આ પાણી તેજ ખાઇનુ છે રાજા છતશત્રુને વિશ્વાસ વધે નહિ રાજાએ અમાત્યની વાત
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हातापमंकणा इत्यर्थः एतम्-पुद्गलाना शुभाशुभम्रपेण परिवर्तनलक्षणम् अर्थम् माव नो अद्धत्यस्म-मद्वाफ्योपरिश्रद्धा नो फतवन्त , तत तसा ग्यलु मम अयमेतद्रूपा वक्ष्यमाणः-आध्यात्मिरः, चिन्तित., कल्पिन', मार्थितः, मनोगतः सकल्पः नानाविधो मानसिको विकल्प. इत्यर्थः समुद्रपद्यन-अहो ! खलु जितशत्रू राजा सतो यावद् भावान् नो अद्धाति नो प्रत्येति नो रोचयति तत् श्रेय खलु मम जितशको राज्ञ सता यावत् मद्भूताना जिनपनप्तानां भागनाम् अभिगम नार्थाय अयोधाय एतमर्थम् ' उपाइणात्तए '-उपादाययितु ग्राहयितुं श्रेयइति पूर्वेण सम्बन्धः, एव सप्रेक्षे-अह पालोनितवान् , समेत्य तदेव यावत् पानीयकि पुद्गलों का शुभाशुभ रूपसे परिणमन होता ररना है- नाना रूप से उनका परिवर्तन होता रहता है यह परिवर्तन रोना उनका स्वाभा विक लक्षण है परन्तु जय आपने उस भाव को श्रद्धा में परिणत नहीं किया-मेरे वचनों पर आपको विश्वास नहीं जमा तय मुझे इम प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, करिपत, प्रार्थित, मनोगत नाना प्रकार को विचार उत्पन्न हुआ (अहोण जियमत्तू सते जाव भावे नो सहहह, न पत्तियाइ, रोएइ, त से य सलु मम जियसत्तुस्स रपणो सताण जोव सम्भूयाण जिणपन्नत्ताण भावाण अभिगमणट्टयाए एयमट्ट उवाइ णावेत्तए ) देखो यह कितने आश्चर्य की पात है कि जो जितशत्रु राजा सद्भूत विद्यमान यावत् जिन प्रज्ञप्त भावो को अपनी श्रद्धा का विषय भूत नहीं बना रहे है उन पर प्रतीति नही कर रहे हैं, उन पर अपनी रूचि नहीं जमा रहे है । इसलिये मुझे यह उचित है कि मैं जितशत्रु કર્યું હતુ કે શુભાશુભ રૂપમાં પ્રદૂગલનુ પરિણમન થતું જ રહે છે અનેક રૂપમાં તેઓમાં પરિવર્તન થતું જ રહે છે આવું પરિવર્તન તેઓનુ એક સ્વાભાવિક લક્ષણ છે પણ જ્યારે તમે મારી આ વાત શ્રદ્ધાપૂર્વક સાંભળી નહિ, મારા કથન ઉપર વિશ્વાસ કર્યો નહિ, ત્યારે મારા મનમાં આ જાતના આધ્યા ત્મિક, ચિતિત, કલ્પિત, પ્રાથિત મને ગત ઘણા વિચારે ઉન્ન થયા કે—
(अहोण जियसत्तू सते जाव भावे नो सद्दहड, नो पत्तियाइ, नो रोएइ, त सेय खलु मम जियसत्तूरस रण्णो सताण जाव सम्भूयाण जिणपन्नत्ताण भावाण अभिगमणट्ठयाए एयमह उपाइणावेत्तए)
જુઓ આ કેવી આશ્ચર્યની વાત છે કે જીતશત્રુ રાજા સદભૂત વિદ્યમાન થાવત જીનપ્રજ્ઞસના ભાવો ઉપર શ્રદ્ધા ધરાવતા નથી, તેમના ઉપર વિશ્વાસ મૂક્તા નથી અને પિતાની રૂચિ પણ તેમના પ્રત્યે જમાવતા નથી એટલે મારે હવે જીતશત્રુ રાજાને સદભૂત વિદ્યમાન યાવત જનપ્રભાવોને બોધ આપવા
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुपुद्धिष्टा त ७ संस्कुरुत । तेऽपि तथैव समारयति, सभार्य जितशत्रो• 'उवणेति ' उपनयन्ति= समीपमानयन्ति । ततः खल्ल शितशत्रू राजा तदुदकरत्न करतले आस्वादयति, आस्वादनीय यावत् सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीय तदुदक ज्ञात्वा सुबुद्धिममात्य शब्द यति, शब्दयित्वा एवमवदत्-हे सुबुद्धे ! एते खल त्वया सन्तः विद्यमानाः 'जीव' यावत् सद्भूताः भावाः कुत उपलब्धाः १ ततः खलु सुबुद्धिजितश मेवमवर्देवएते खलु हे स्वामिन् ! मया सन्त. यावत् सद्भूता भावा जिनवचनत उपलब्धाः फिर उसे सस्कारित करो। इस पाठ को समुचित रूप से समन्वित करने के लिये जैसा पीछे लिखा गया है वैसा ही संबन्ध यहां जान लेना चाहिये । राजा की आज्ञानुसार उन लोगो ने वैसा ही किया। संस्कारित करके फिर वे लोग उसे जितशत्रु राजा के पास ले गये। जितशत्रु राजा ने उस सस्कारित उदक को अपनी हथेली पर रक्खाऔर उसे चखा-जब चख कर उसे यह विश्वास हो गया कि यह जल आस्वादनीय एव सर्वेन्द्रिय-गात्र प्रह्लादनीय बन गया है तब उस ने सुघुद्धि अमात्य को बुलवाया। बुलवा कर उस से ऐसा कहा- (सुबुद्धी'! एएण तुमे सता जाव सन्भूया भावाकओ उवलद्धा तएण सुवुद्धी जिय 'सत्तू एव वयासी-एएण सामी मए सता जाव सन्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा, एएण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी-त इच्छामिणे देवाणुप्पिया ! तव अतिए जिणवयण निसामेत्तए) सुबुद्धे ! ये विद्यमान यावत् सद्भूत भाव तुमने कहा से उपलब्ध किये है ' तब सुबुद्धि ने માટેના બધા ઉપાયો તેમજ દ્રવ્યોથી પાણીને નિર્મળ બન્યો પહેલાની જેમજ અહી પણ આગળની બધી વિગત જાણી લેવી જોઈએ તે લોકોએ રાજની આજ્ઞા પ્રમાણે જ બધું કામ પૂરું કયું પાણી જ્યારે નિર્મળ થઈ ગયું ત્યારે તે લોકે પાણીના માટલાઓને રાજાની સામે લઈ આવ્યા રાજાએ અનેક સ સ્કાર વડે નિર્મળ બનાવેલા પાણીને હથેળી ઉપર લીધું અને તેને ચાખ્ય ચાખ્યા બાદ રાજાને આ પ્રમાણે વિશ્વાસ થઈ ગયે કે ખરેખર આ પાણી આસ્વાદનીય અને સન્દ્રિય ગાત્ર–પ્રહાદનીય થઈ ગયું છે ત્યારે તેણે સુખતિ અમાત્યને બેલા અને બેલાવીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યુ
सुबुद्धी 'एएण तुमे सता जार सम्भूया भावा कओ उबलद्धा तएण सबद्धी जियसत्तू एव क्यासी एएण सामी मए सता जाव सम्भृया भावा जिणवयणाओ उवलदा एएण जियसत्तू सुद्धि एव वयासी त इन्छामि ण देवाणुप्पिया। तब अतिए जिणवयण निसामेत्तए)
હે સુબુધે! એ વિશ્વમાન યાવત્ અદભૂત લાવો તમે કયાથી મેળવ્યા
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ताधर्मकथा नो मत्येति, नो रोचयति, अबधान', अमतियन् , आरोचमान , 'अम्मतरता णिज्जे' अभ्यन्तर स्थानीयान स्पसमीपस्थितान पुरुषान् शन्दयति, शन्दयित्वा एवमवदव-गच्छत खल यूय हे देशानुपिय 'अतरारणाओ' अन्तरापणाग्राममध्यस्थित कुम्भकारहहात् नघटकान् पडए य' पटवि-जलगालनवख खण्डान् गृहीत यावद् उदकसमारणीयः उदफमस्कारयोग्यैः द्रव्यै सभारपतन रूचिका विषय नहीं बनाया (असदहमाणे ३) इस प्रकार श्रद्वा रहित रुचि रहित, प्रतीति रहित बने हुए राजा जितशत्रुने (अभितरठाणिज्जे पुरिसे सदावेड ) अपने पास में सदा रहने वाले पुरुषों को बुलाया (स हावित्ता एव वयासी) बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-( गच्छहण तुम्भे देवाणुप्पिया । अतरावणाओ नवघड पडए य गेपहर, जाव उदगसभारणिज्जेहिं दहिं सभारेह ते वि तहेव समारेंति, सभारित्ता जियसत्तूस्स उवणेति, उबणित्ता तरण जियसत्तू राया त उदकरयण करयलसि आसाण्ड, आसायणिज्ज जाव सबिदियगाय पल्टायणिज्ज जाणित्ता सुवुद्धि अमच्च सद्दावेह, सहावित्ता एव वयासी ) हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और बाजार से नवीन घडों को एव जल छान ने के लिये वस्त्रो के खडों को छन्नो को-ले आओ। यहा अन्तरापण का अर्थ " ग्राम के मध्य में स्थित कुम्हारो का हाट या सामान्य बाजार है। ऐसा ही अर्थ इस शब्द का पहिले किया गया है। यावत् उदक सस्कार योग्य द्रव्यों से ઉપર ન તે પ્રતીતિ પણ થઈ અને જે તે પ્રત્યે પિતાની અભિરુચિ બતાવી ( असहमाणे ३) ते श्रद्धा, यि मन प्रतीति जित थये! २160
शत्रुओं (अभि तरठाणिज्जे पुरिसे सदा वेइ) मेशा यावीस SAT पातानी पासे रहना। भाणुसार मासा या (सदावित्ता एव वयासी) मालावीन તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું
(गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया' अतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हइ जाच उदंग सभारणिज्जेहिं दव्वेहि सभारेह ते वि तहेव सभारति, सभारित्ता जियसत्तस्स उवणे ति, उवाणिता तए जियसत्तराया त उदकरयण करयलसी आसाएइ आसायणिज्ज जाव सबिदियगायपल्हायणिज्ज जाणित्ता सुबुद्धि अपच्च सद्दावेड, सदावित्ता एव प्रयासी)
- હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે બારમા જાઓ અને ત્યાથી નવા માટલાએ તેમજ પાણી ગાળવા માટે વસ્ત્રોના કકડા ખરીદી લા “અખ્તરાયણ”ને અર્થ ગામની વચ્ચેનું કુભાનું બજાર કે સામાન્ય બજાર છે પહેલા પU આ શબ્દનો અર્થ આ પ્રમાણે જ કરવામા આવ્યું છે ત્યારબાદ પાણીને
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भनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १२ सातोदकविपये सुबुद्धिदृष्टान्त . . ७१९ न्दितः हर्पवशविसर्पद् हृदय' सुबुद्धिममात्यमेवमवादीत्-श्रदयामि खलं हे देवानु प्रिय ! नैन्थ्य प्रवचन ' त यमेतत् ' इत्यादि यारत् तद् यथैव यद् यूयं वदय, तत्तस्मात्कारणात् इच्छामि खलु तत्राप्तिके पञ्चाणुप्रतिक सप्तशिक्षाप्रतिक यावद् एव द्वादशविध श्रावधर्मम् 'उपमपज्जित्ता' उपसम्पधस्वीकृत्य विहर्तुम् । यथा सुख हे देवानुप्रिय ! हे राजन् । यदि रोचते तदा एवमेव कुरु तत्र मामसुनकर और उसे हृदय मे अवधारित कर बहुत ही अधिक प्रसन्न एव तुष्ट हुए। हर्प से गदगद होकर उन्होंने सुवुद्धि अमात्य से इसे प्रकार काहा-(सहामि ण देवाणुप्पिया निग्गय पावयण ३ जाव से जहेव ज तुम्भे वयह, त इच्छामि ण तव अतिए पचाणुव्वध्य सत्तसि
खावइय जीव उवसपजित्ताण वितरित्तए, अहामुह देवाणुप्पिया! मा पडियध० तएण से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अतिए पाणुब्बइय जाव दुवालसचिह सावयधम्म पडिवज्जइ, तण्ण जियसत्तू समणो वासए अभिगयजीवाजीचे जाच पडिलामे माणे विहरइ ) हे देवानु प्रिय ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता है इस पर रुचि करता हूँ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वथा सत्य है इत्यादि यावत् जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है। इस लिये मैं तुम्हारे पास पञ्च अणुव्रत सात शि. क्षोव्रत रूप द्वादश विध श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहताहूँ। इस प्रकार राजा की बात सुनकर सुवुद्धि अमात्य ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जिस प्रकार सुग्व ह-वैसा करो प्रमाद न करो शुभ कर्म में સાભળીને એને તેને શરીરમાં અવધારિત કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ તુ થયે હર્ષથી ગળગળો થઈને તેણે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(सदहामिण देवाणुप्पिया! निग्गय पावयण ३ जाव से जहेब ज तुम्भे वयह त इच्छामि ण तव अतिए पचाणुव्यदय सत्तसिक्खापइय जाय उसपज्जित्ताण विहरित्तए अहासुह देवाणुप्पिया! मा पडिबध० तएण से जियसत्तू सुयुद्धिस्स अमच्चस्स अतिए पचाणुब्वइय जाव दुवालमनिह सावयवम्म पडिवज्जइ तरण जियसत्त समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाब पडिलाभेमाणे विहरइ)
હે દેવાનુપ્રિય! આ નિર્ચ થ પ્રવચનમાં હુ શ્રદ્ધા રાખું છું, આમાં હું રુચિ રાખુ છુ આ નિગ્રંથ પ્રવચન ખરેખર સત્ય છે વગેરે જેવું તમે કહે છે તેવું જ આ નિગ્રંથ પ્રવચન છે એથી હું તમારી પાસેથી પુચ અવ્રત અને સાત શિક્ષા વ્રત રૂપ બાર (૧૨) પ્રકારને શ્રાવક ધર્મ પીકારવા ચાહુ છુ. આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! તમને જેમ ગમે તેમ કર પ્રમાદ કરે નહિ, સારા કામમાં મોડુ કરવુ યેગ્ય
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माताधर्मकथा ततः खलु जितशत्रुः सुद्धिमे उमयदत्-तद इन्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! तबान्तिके जिनवचन 'निसामेत्तए ' निशामयितु-श्रोतम् । तत' खलु मुबुदिनित शत्रोविचित्र अद्भुत पूर्वमश्रुत कालिप्रज्ञात-जिनभापित धर्म-श्रुतचारित्रलक्षण परिकथयति, 'माइक्खइ ' तमारय ति-तदेव मनिपादयति-'जहा' यया:
येन-कर्मसयोगेन जीवा भ्यन्ते येन च मुच्यन्ते यावत् पश्चाणुरतानि । तत __ खलु जितनु मुयुद्धेरन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य-इदिसमवधार्य हृष्टतुष्टचित्तानजितशत्रु राजो से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! ये विद्यमान यावत् सद्भुत भाव मने जिन प्रवचन से उपलब्ध किये है । जितशत्रु ने तब सुघुद्धि अमात्य से कहा हे देवानुप्रिय ! म तुम्हारे पास जिन प्रवचन को सुनना चाहता है। (तएण सुयुद्धी जियसत्तूस्स विचित्त केवलीपन्नत्त चाउज्जाम धम्म परिकहेह, तमाइक्खइ, जहा जीवा वजन ति जाव पच अणुव्वयाइ,तण्ण जियसत्तू सुबुद्धिस्स अतिर धम्म सोचा णिसम्म हट० सुवुद्धि अमच्च एव वयामी) सुबुद्धि प्रधान ने तष जितशत्रु राजा को पूर्व में कभी नहीं सुना गया ऐसा केवलि प्रज्ञप्तसर्वज्ञ जिनेन्द्रद्वारा प्रतिपादित चातुर्याम वाला श्रुतचारित्र रूप धर्म सुना. या। उसे ही विस्तार रूप से उन्हें समझाया। जीव जिस प्रकार कर्मों से बधते हैं, और जिस प्रकार कर्मो से मुक्त होते है-छूटते हैं यह सुनाया समझाया यावत् श्रावक धर्मरूप पचम अणुव्रतों को समझाया इस तरह जितशत्रु राजा सुबुद्वि अमात्य के मुग्व से धर्म का व्याख्यान છે? જવાબમાં સુબુદ્ધિએ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સવામી એ વિદ્યમાન થાવત્ અદભૂત ભાવ એ જિન પ્રવચન માથી મેળવ્યા છે ત્યારે જીતશત્રુએ સુબુદ્ધિ અમાત્યને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય છે તમારી પાસે હુ જીનપ્રવચન સાભળવાની ઈચ્છા રાખુ છુ.
(तएण सुबुद्धी जियसत्तस्स विचित्त केवलिपन्नत्त चाउज्जाम धम्म परिकहेइ तमाइक्खइ, जहा जीवा वज्झति जाव पच अणुव्ययाइ, तएण जियसत्तू मुबुद्धिस्स अतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट० सुबुद्धि अमच्च एव वयासी)
સુબુદ્ધિ પ્રધાને જીતશત્રુ રાજાને પહેલા કેઈપણ વખતે સાભળેલો નહિ એ કેવળી પ્રજ્ઞક્ષ-સર્વજ્ઞ જીનેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત થતુર્યામવાળે શ્રત-ચારિત્ર રૂપ ધર્મ સંભળાવ્યો અને સવિસ્તર તેને સમજાવ્યો જે પ્રમાણે ઇવ કર્મો વડે બધાય છે અને જે પ્રમાણે કર્મોથી મુક્ત થાય છે તે વિશેની બધી વિગત કહી સંભળાવી અને સમજાવી યાવત્ શ્રાવક ધર્મ રૂપ પાચ અણુવતેને સમ જાખ્યા આ રીતે જીતશત્રુ રાજા સુબુદ્ધિ અમાત્યના મુખેથી :
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मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १२ सातोदकपिपये सुवुद्धिदृष्टान्त , ७१९ न्दितः हर्षवशविसर्पद् हृदयः मुबुद्धिममात्यमेवमवादीत्-श्रदयामि खलं हे देवानु प्रिय ! नैन्थ्य प्रवचन ' त यमेतत् ' इत्यादि यावत् तद् यथैव यद् यूयं वदर्थ, तत्-तस्मात्कारणात् इच्छामि खलु तवान्ति के पश्चाणुव्रतिक सप्तशिक्षावतिक यावद् एर द्वादशविध श्रावधर्मम् 'उपसपज्जित्ता' उपसम्पध-स्वीकृत्य विहर्तुम् । यथा मुख हे देवानुप्रिय ! हे राजन् । यदि रोचते तदा एवमेव कुरु तत्र मात्र सुनकर और उसे हृदय मे अवधारित कर बहुत ही अधिक प्रसन्न एव तुष्ट हुए। हर्प से गद्गद होकर उन्होंने सुवुद्धि अमात्य से इस प्रकार काहा-(सदहामि ण देवाणुप्पिया निग्गथ पावयण ३ जाव से जहेव ज तुम्भे वयर, त इच्छामि ण तव अतिए पचाणुव्वय सत्तसिक्खावय जीव उसपजित्ताण विरित्तए, अहापुर देवाणुप्पिया । मा पडियध० तएण से जियसत्तू सुवुद्धिस्स अमच्चस्स अतिए पाणुव्वइय जाव दुवालसविह साधयधम्म पडिवज्जइ, तरण जियसत्तू समणो वासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभे माणे विहरह) हे देवानुप्रिय ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता है इस पर रुचि करता हूँ यह निश्रन्थ प्रवचन सर्वथा सत्य है इत्यादि यावत् जैसा तुम करते हो वह वैसा ही है। इस लिये मैं तुम्हारे पास पञ्च अणुव्रत सात शिक्षोव्रत रूप द्वादश विध श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहताहूँ | इस प्रकार राजा की बात सुनकर सुवुद्धि अमात्य ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जिस प्रकार सुख ह-वैसा करो प्रमाद न करो शुभ कर्म में સાભળીને એને તે શરીરમાં અવધારિત કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ તુષ્ટ થયે હવેથી ગળગળો થઈને તેણે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે--
(सद्दहामिण देवाणुप्पिया! निग्गथ पारयण ३ जाव से जहेव ज तुम्भे वयह त इच्छामि ण तव अतिए पचाणुव्यइय सत्तसिक्खापदय जाव उपसपज्जित्ताण विहरित्तए अहासुह देवाणुप्पिया! मा पडिवध० तएण से जियसत्तू सुयुद्धिस्स अमच्चस्स अतिए पचाणुचइय जाव दुवालमनिह सावयधम्म पडिबज्जइ तएण जियसत्त समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ)
હે દેવાનુપ્રિય ! આ નિગ્રંથ પ્રવચનમાં હુ શ્રદ્ધા રાખુ છુ, આમાં હું રુચિ રાખુ છુ આ નિગ્રંથ પ્રવચન ખરેખર સત્ય છે વગેરે જેવુ તમે કહે છે તેવું જ આ નિર્ચ થ પ્રવચન છે એથી હું તમારી પાસેથી પ ચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષા વ્રત રૂપ બાર (૧૨) પ્રકારને શ્રાવક ધર્મ પીકારવા ચાહ છે આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેને કહ્યું- હે દેવાનપ્રિયા તમને જેમ ગમે તેમ કરો પ્રમાદ કરો નહિ, સારા કામમા મેડુ કરવુ યેગ્ય
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રેલ
शाताधर्मकथासूत्रे
ततः खलु जितशत्रुः सुबुद्धिमत् तद् इन्छामि खलु दे देवानुप्रिय । तवान्तिके जिनवचन 'निसामेत्तए ' निशामयितु श्रोतुम् । ततः खलु सुबुद्धिजित शत्रोर्विचित्र=अद्भुत पूर्वमश्रुत के ल्प्रिज्ञप्त = जिनभाषित धर्म = श्रुतचारित्रलक्षण परिकथयति, ' तमाडक्खड़ ' तमारयति - तढे पतिपादयति- ' जहा " यथा= येन - कर्मयोगेन जीना वभ्यन्ते येन च मुच्यन्ते यावत् पञ्चाशुतानि । तत खलु जितशत्रुः सुबुद्धेरन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य = हृदिसमवधार्य हृष्टतुष्टचित्तानजितशत्रु राजो से इस प्रकार कहा हे स्वामिन् । ये विद्यमान यावत् सद्भूत भाव मैंने जिन प्रवचन से उपलब्ध किये है । जितशत्रु ने तब
बुद्धि अमात्य से कहा - हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे पास जिन प्रवचन को सुनना चाहता हूँ। (तएण सुबुद्धी जियसत्तूस्स विचित्स केचलीपन्नत्त चाउज्जाम धम्म परिकहेह, तमाइवड, जहां जीवा वज़न ति जाव पच अणुव्वयाइ, तण्ण जियसत्तू सुबुद्धिस्स अति धम्म सोचा णिसम्म हट्ठ० सुबुद्धि अमच्च एव वयामी) सुबुद्धि प्रधान ने तब जितशत्रु राजा को पूर्व में कभी नही सुना गया ऐसा केवल प्रज्ञप्तसर्वज्ञ जिनेन्द्रद्वारा प्रतिपादित चातुर्याम वाला श्रुतचारित्र रूप धर्म सुना या । उसे ही विस्तार रूप से उन्हें समझाया । जीव जिस प्रकार कर्मो से बघते हैं, और जिस प्रकार कर्मों से मुक्त होते हैं-छूटते हैं यह सुनाया समझाया यावत् श्रावक धर्मरूप पंचम अणुव्रतों को समझाया इस तरह जितशत्रु राजा सुबुद्धि अमात्य के मुख से धर्म का व्याख्यान છે? જવાળમા સુબુદ્ધિએ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે સ્વામી! એ વિદ્યમાન યાવત્ અદ્ભૂત ભાવ મેજિન પ્રવચન માથી મેળવ્યા છે ત્યારે જીતશત્રુએ સુબુદ્ધિ અમાત્યને કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ' તમારી પાસે હુ જીનપ્રવચન સાભળવાની ઈચ્છા રાખુ છુ
(तएण सुबुद्धी जियसत्तस्स विचित्त केवल्पिन्नत्त चाज्जाम धम्म परिकहे antras, जहा जीवा वज्झति जाव पच अणुव्वयाइ, तएण जियसत्तू सुबुद्धि स्स अति धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट० सुबुद्धिं अमच्च एव वयासी )
સુબુદ્ધિ પ્રધાને જીતશત્રુ રાજાને પહેલા કેઈપણુ વખતે સાભળેલા નહિ એવા કેવળી પ્રજ્ઞા-સજ્ઞ જીનેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત થતુમવાળા શ્રુત–ચારિત્ર રૂપ ધ સભળાવ્યે અને સવિસ્તર તેને સમજાવ્યે જે પ્રમાણે જીવ ક વડે બધાય છે અને જે પ્રમાણે કર્માંથી મુક્ત થાય છે તે વિશેની બધી વિગત કહી સ ભળાવી અને સમજાવી યાવત્ શ્રાવક ધર્મ રૂપ પાચ અણુત્રતાને સમ જાગ્યા આ રીતે જીતશત્રુ રાજા સુબુદ્ધિ અમાત્યન
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अमगारधर्मामृतवत्रंगी टीका अ० १२ बानोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्त
७२१
नीना समवसरण जातम् । जितशत्रु राजा सुबुद्धिरमात्यथ निर्गच्छति = वमश्रवणार्थ ग्रामादहिर्निस्सरति सुबुद्धि: वर्मंश्रुत्वा ' अन्यत्सर्वं पूर्ववत्, नवर= विशेषस्व यम् यत् जितशत्रु राजानमापृच्छामि यावत्-युष्याक समीपे मनजामि दीक्षा ग्रहिष्यामीत्यर्थ | स्थनिराउ - यथासुख हे देवानुमिय ! मा प्रतिनन्ध कुरु । ततः खलु सुबुद्धि नेत्र जितशत्रुप्त वो पागच्छति, उपागत्य एनमवादीत् एव खलु दे स्वामिन् ! जितशत्रो ' मया स्थविराणामन्तिके धर्म निशान्त = श्रुतः सोऽपिच धर्मो मे ' इच्छिए ' इट' = वाञ्छितः, 'पडिन्छिए ' प्रतीष्ट = विशेषतो वाञ्छित, ' अभिरुइए ' अभिरुचित = आसेवनरूपेण सर्वथा वाञ्छित । ततः खलु तस्मात् कारणात् अह हे स्वामिन् । ससारभउग्निग्गे ' ससारभयोद्विग्नः ससारभयत्रस्तः मय मे - और उनके श्रावक धर्म के पालन करने के समय में स्थविर मुनियो का वहा आगमन हुआ । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि अमात्य धर्म श्रवण के लिये अपने अपने २ स्थान से निकल कर उनके समीप आये । सुबुद्धि ने धर्म का उपदेश सुनकर सरवर मुनियो से निवेदन किया - मदन ! मे जितशत्रु राजा से पूछकर यावत् आपके पास ओकर मुनि दीक्षा धारण करना चाहता है । स्थविरों ने सुबुद्धि अमात्य का अभिप्राय जानकर उससे कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जिससे सुख हो वैसा करो - श्रेयस्कर कार्य में विलम्न करना हितावह नहीं है । इस तरह सुबुद्धि वहां से आकर जहा जितशत्रु राजा थे वहां आया वर्श आकर कहा - स्वामिन् । मेने रविर मुनिजनों के मुख से धर्म का उपदेश सुना है । वह मुझे बहुत ही रचा है, मेरी इच्छा का विषय भूत बन गया है, मेरी चाहना उस तरफ विशेष रूप से बढ गई है। में चाहता कि में હતા તે કાળે અને તેએ જ્યારે શ્રાવક ધર્મનુ પાલન કરતા હતા તે સમયે– ત્યા સ્થવિર નિએ આવા છતરાત્રુ રાજા અને સુબુદ્ધિ અમાત્ય ધર્મ શ્રવણુ માટે તપે તાને ત્યાથી નીકળીને તેમની પાસે પહાચ્યા ધર્મને ઉપદેશ સાભ ળીને સુબુદ્ધિએ મુનિએ ને વિનતી કરી કે હે ભદત જીતશત્રુ રાજાની આજ્ઞા મેળવીને તેમજ પીજી પણ ઘણા વ્યવસ્થાએ વગેરે કરીને તમારી પાસે આવીને મુનિ દીક્ષા ધારણુ કરવા ચાહુ છુ વિરાએ સુબુદ્ધિ અમાત્યના વિચારા જાણીને કહ્યુ કે હે દેવ પ્રિય । તમને જેમા સુખ મળતું હાય તેમ કરી સારા કામોમા મેડુ કરવુ ચે। ય કહેવાય નહિ જ્ન્મ રીતે આજ્ઞા મેળવીને સુબુદ્ધિ ત્યાથી આવાને છતર ત્રુ રાજાની ને પામ્યા અને તેણે રાન્તને વિનતી કરતા કહ્યુ કે હે સ્વામી! સ્થવિર મુનિએના માથી મે . ધર્મના ઉપદેશ માન્ય તે મને ખૂબ જ ગમી ગયા છે. મારી ઈચ્છા તે ત‹ આકર્ષાઈ છે. ત્રિષ ૩૫મા ઝુ તેને ચાહવા લાગ્યા છુ મારી ઈચ્છા છે કે સયમ ધાળુ કરીને પેાતાનુ જીવન
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७२०
तापमंक प्रा
तिबन्ध कुरु कार्ये विम्वो न करणीयइत्यर्थः । ततः स जितशत्रुः बुबेस्माध्यस्यान्तिके पञ्चाणुवविक यावद् द्वादशनि श्रावकधर्मे प्रतिपद्यते । ततः खलु निवशत्रु श्रमगोपासक 'अभिगयजी राजीने ' अभिगतजी नाजीर परिज्ञाव जीवाजी स्वप' यात् मुकेपणी यैरशनादिभिः श्रमण निर्ग्रन्धान् प्रतिलाभपन् =आहारादि ददन विहरति = तिष्ठनिम्म । तस्मिन् काले जितशत्रुराज्यशासनकाले तस्मिन् समये श्रावकधर्मप्रतिपालनसमये ' धेरागमण ' स्थविरागमन = स्थविरमुलिम्प करना योग्य नही है-इस तरह सुपुद्धि अमात्य के मुख से सुनकर जिनशत्रु राजा ने उस सुबुद्धि अमात्य से पाच अणुव्रत एव सात शिक्षाव्रत रूप द्वादश प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया । इस तरह वे जितशत्रु राजा श्रमणोपासक बन गये । और जीव एव अजीव तत्व के स्वरूप ज्ञाता भी हो गये । प्रक चणीय आहरादि श्रमण निर्ग्रन्थ साधुओं के लिये प्रदान करने लगे । ( तण कालेन तेण सुमरण थेरागमण जियसत्तू राया सुबुद्धी य् निग्गच्छह, सुबुद्धी धम्म सोच्चा जनवर जियसत्तृ आपुच्छामि जाय पन्चयामि, आरासह देवाणुम्पिया । तएण सुबुद्धी जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छह, उवागच्छि त्ता, एव व्यासी- एव खलु सामी ! मए थेराण अतिए धम्मे निसते, सेविय, धम्मे इच्छिए पडिच्छिए, अभिरुइए, तएण अह सामी । सः सारगे भी जाव इच्छामिण तुम्भेहिं अन्भणुनाए स० जाव पवईत्तए) उस काल जितशत्रु राजा के राज्यशासन काल में - उस स લેખાય નહિ આ રીતે સુબુદ્ધિ અમાત્યના મુખેથી વાત સાભળીને જીતશત્રુ રાજાએ તે સુમુદ્ધિ અમાત્ય પાસેથી પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત રૂપ ખાર પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મ સ્વીકારી લીધે આ પ્રમાણે તે જીતશત્રુ રાજા શ્રમÌપાસક થઈ ગયા અને જીવ તેમજ અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને સમજનારા પશુ થઈ ગયા પ્રાસુક એષણીય આહાર વગેરે શ્રમણ નિષ્ર થ સાધુઓને
આપવા લાગ્યા
'
( तेण कालेन तेण समरण येरागमण जियसत्तराया सुबुद्धी य निगच्छर, सुबुद्धी धम्म सोच्चा ज नगर जियसत्तू आपुच्छामि जाव पव्वयामि महासुह देवा गुप्पिया तपण सुबुद्धी जेणेव जिगसत्तू तेणेन उनागच्छर उवागच्छित्ता एव amrit एव खल, सामी मए थेराण अतिए धम्मे निसते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छए, अभिरुइए, तएण अह सामी ! ससारभउच्विग्गे भीए जाव इच्छामि ण अम्भणुनाए स० जाव पनइत्तए)
તે કાળે અને તે સમયે એટલે કે જીતનુ રાજા જ્યારે સાસન કરતા
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिहन्त ७२१ नीना समवसरण जातम् । जितशत्रू राजा सुबुद्धिरमात्यथ निर्गच्छति मश्रवणार्थ ग्रामान्वहिर्निस्सरति सुबुद्धि' धर्मश्रुत्वा 'अन्यत्सर्वं पूर्ववत् नवर=विशेषस्त्व यम् यत् जितशत्रु राजानमाच्छामि यावत्-युग्माक समीपे मनजामि दीक्षा ग्रहिष्यामीत्यर्थ । स्थनिराज्चु - यथासुख हे देवानुमिय 1 मा प्रतिबन्ध कुरु । ततः खलु सुबुद्धि नेत्र जिम्वो पागच्छति, उपागत्य एवमवादीत् एव खलु हे स्वामिन् । जितशत्रो' गया स्यविराणामन्तिके धर्म निशान्त =श्रुतः सोऽपिच धर्मो मे ' इच्छिए ' ' = चाञ्छितः, 'पडिच्चिए ' प्रतीष्ट = विशेषतो वाञ्छित, ' अभिore' अभिरुचित' = आसेवनरूपेण सर्वथा वि । ततः खलु तस्मात् कारणात् अह स्वामिन् । ससारभउग्नि' समारभयोद्विग्न' = ससारभयनस्तः मय में और उनके श्रावक धर्म के पालन करने के समय में स्थविर मुनियों का वहा आगमन हुआ । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि अमात्य धर्म श्रवण के लिये अपने अपने २ स्थान से निकल कर उनके समीप आये । सुबुद्धि ने धर्म का उपदेश सुनकर स्थविर सुनियो से निवेदन किया - भदन ! मैं जितशत्रु राजा से पूछकर यावत् आपके पास ओकर मुनिदीक्षा धारण करना चाहता है । स्थविरों ने सुबुद्धि अमात्य का अभिप्राय जानकर उससे कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जिससे सुख हो वैसा करो - श्रेयस्कर कार्य में विलम्ब करना हितावह नहीं है । इस तरह सुबुद्धि वहाँ से आकर जहा जितशत्रु राजा थे वहां आया वहां आकर कहा - स्वामिन् | मेने रथविर मुनिजनों के सुख से धर्म का उपदेश सुना है । वह मुझे बहुत से रचा है, मेरी इच्छा का विषय भूत बन गया है, मेरी चाहना उस तरफ विशेष रूप से बढ गई है । में चाहता कि में હતા તે કાળે અને તેઓ જ્યારે શ્રાવ ધર્મનુ પાલન કરતા હતા તે સમયે– ત્યા સ્થવિર નિએ આવ્યા. છતરપુ રાજા અને સુબુદ્ધિ અમાત્ય ધર્મ શ્રવણુ માટે પોતપે તાને સાથી નીકળીને તેમની પાસે પહેાચ્યા ધર્મના ઉપદેશ સાભ ળીને સુબુદ્ધિએ મુનિએ ને વિન તી કરી કે હે ભદત! જીતશત્રુ ગાની આજ્ઞા મેળવીને તેમજ ીજી પણ ઘણી વ્યવસ્યાએ વગેરે કરીને તમારી પાસે આવીને સુનિ દીક્ષા ધારપુ કરવા ચાહુ છુ વિરાએ સુબુદ્ધિ અમાત્યના વિચારે જાણીને કહ્યુ કે હે દેવ તુપ્રિય ! તમને જેમા સુખ મળતું હાય તેમ કરી સારા કામેમાં મેડ઼ કરવુ ચેાન્ય કહેવાય નહિ આ રીતે આજ્ઞા મેળવીને મુમુદ્ધિ ત્યાથી આવાને ઉતર ત્રુ રાજાની ાને પહેાન્યા અને તેણે રાજાને વન તી કશ્તા કહ્યુ કે હે સ્વામી ! સ્થવિર મુનિએના માથી મે ધર્મના ઉપદેશ સાભળ્યે છે તે મને ખૂળ જ ગમી ગયેા છે મારી ઈચ્છા તે ત‹ આકર્ષાઈ છે વિશેષ રૂપમા હુ તેને ચાહવા લાગ્યા છુ મારી ઇચ્છા છે કે સયમ ધારણ કરીને પાતાનુ જીવન
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पाताधर्ममा 'भीए'भीतः जन्ममरणादि दुःखेभ्यो भय माप्तः, अतएर यावद् इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् यावत् स्थविराणामन्ति के प्रजितम् । ततः खल जितशः मुबुद्धिमेवमयादीत्-' अच्छामु' तिष्ठेम पय तापद् गृहे हे देवानुमिय! कतिपयानि वर्षाणि, उदारान् यावत्-मानुप्यकान कामभोगान् भुआनाः सन्तः, ततः पश्चात् तदनन्तर शन्दादिमियोयमोगानन्तरम् ' एगयओ' एकता सार्दम् स्थरिराणामन्ति के मुण्डो भूचा यावत् प्रामिष्यामः । ततः खलु सुद्धिजितशत्रो. रेतमर्यपश्चादीक्षाग्रहणरूप भार मतिभृणोति-स्त्रीकरोति । ततः खलु तस्य जित शत्रोः सुबुद्धिना साद विपुलान् मानुप्यकान् भोगभोगान् मत्यनुभवतो द्वादश सयम धारण फर अपने जीवन को सफल पनाऊँ । इस लिये हे स्वा मिन् ! ससार भय से उद्विग्न बना हुआ में जन्म मरण के दुखो से भय भीत होकर चाहता हूँ कि आपसे आज्ञापित हो स्थविरो के पास दीक्षा धारण करलू (तएर्ण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी अच्छानु ताव देवाणु कइवयाइति वासाइ उरालाइ जाव भुजमाणातओ पच्छा एगयओ थेराण अतिए मुडे भवित्ता जाव पन्चहस्सामो) अमात्य कि इस बात को सुनकर जितशत्रु राजाने उस सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहाँ। देवानुप्रिय ! हम लोग कुछ वर्षों तक मनुष्य भव सन्धी प्रचुर काम भोगों को भोगते हुए अभी घर पर ही रहें । इस के बाद एक साथ स्थविरों के पास मुण्डित होकर यावा फिर दीक्षित हो जायेगे। (एण सुघुदी ज्यिसत्तूस, एयमह पडिसुणेइ, तरण तस्स जियसत्तू स्स, सुबुदिणा सद्धि विपुलाइ, माणुस्स० पच्चणुन्भुवमाणस्स दुवाल સફળ બનાવવું માટે છે સ્વામી ! સ સાર ભથથી ઉદ્વિગ્ન તેમજ જન્મ મરણના દુખેથી ભય પામેલે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને સ્થવિરેની પાસેથી દીક્ષા મેળવવાની ઈચ્છા રાખું છું
(तरण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी-अच्छास तार, देवाणुप्पिया कश्वया इति वासाइ उरालाइ जाव भुजमाणा तो पच्छा एगयो थेराण अतिए मुडे भविता जाव पवारसामो)
અમાત્યની એ વાત સાભળીને જીતશત્રુ રાજાએ તે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! મનુષ્યભવના કામસુખની મજા માણવા માટે અમે થોડા વર્ષો હજી પણ ગૃહસ્થના જ રૂપમાં રહીએ તે સારૂ ત્યારપછી એકી સાથે આપણે બને સ્થવિરોની પાસે મુ ડિત થઈને દીક્ષા ધારણ કરી લઈશ
(तरण मघुदी जियसत्तूरस एयम पडिमुणेइ, तएणं तस्स जियसत्तूस्स सुनु द्धीणा सदि विपुलाइ माणस्तपच्चभुवमाणस्स इन
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मनगारधर्मामृतवपिणी री० अ० १२ सातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्त' ७२६ वर्षाणि व्यतिक्रान्तानि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वादश वर्षव्यतिक्रान्ते सतीत्यर्थः स्थविरागमन सजात, तएण-तदा खलु परिपनिर्गत । नितशत्रुरपि स्थविरान्तिके धर्म श्रुत्वा 'एव' एवमेव पूर्वोक्त सुबुद्धि वदेव सर्व नपर-विशेषस्त्व यम्-यत् है देवानुप्रिया । सुबुदिम् आमन्त्रयामि, ज्येष्ठपुन राज्ये स्थापयामि, ततः खल-तत्पश्चात् युष्माकमन्तिके यावत्-मुण्डो भूत्वा आगारात् अगारभावात अनगारिता साधुता प्रव्रजामि । स्थविरा ऊचु - हे देवानुपिय ! यथासुख-यथा सर्वासाइ वीइक्कनाइ ताइ तेण कालेण २ थेरागमण तएण जियसत्तू धम्म सोच्चा एव ज नवर देवाणुप्पिया ! सुबुद्धि आमतेमि, जेट्टपुत्त रज्जे ठावेमि, तएण तुम्भ अतिए जाव पव्ययासि ) इस प्रकार सुपुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा की इस बात को स्वीकार कर लिया । इस तरह सुघुद्धि अमात्य के साथ विपुल मनुष्य भव सन्धी काम भोगो का अनुभव करते हुए जितशत राजाके १२ वर्ष निकल गये । उसकाल
और उस समय में-अर्थात् १२ वर्ष व्यतीत हो जाने के समय में स्थविरोफा वहां आगमन हुआ। नगर की परिपद स्थविरों का आग. मन सुनकर धर्म सुनने की भावना से उन स्थविरों के पास आई। जितशत्रु राजा भी आये उनसे धर्म का उपदेश सुनकर जितशत्रु राजा सचेत हो गये । उन्हों ने कहा हे देवानुप्रियो । मैं आपसे दीक्षा लेना चाहता हूँ अतः पहिले सुबुद्धि अपने अमात्य से पूउलू-और अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य में स्थापित कर-चाद में आप के पास मुडित होकर अगार भाव से अनगार अवस्था स्वीकार करलूगो। ( अहामुह, तेणं कालेण २ थेरागमण तएण जियसत्तू धम्म सोचा एव ज नवर देवाणुप्पिया मुवुद्धि आमतेमि जेट्टपुत्त रज्जे ठावेमि तरण तुभ अतिए जाव पचयामि)
આ રીતે સુબુદ્ધિ અમાત્યે જીતશત્રુ રાજાની વાતને માની લીધી સુબુદ્ધિ અમાત્યની સાથે કામગ ભેગવતા જીતશત્રુ રાજાને આમને આમ જ બાર વર્ષ પસાર થઈ ગયા તે કાળે અને તે સમયે એટલે કે કામસુખ જોગવતા જીતશત્રુ રાજાને જ્યારે બાર વર્ષો પસાર થઈ ગયા ત્યારે ત્યા સ્થવિરો આવ્યા નગરની પરિષદે રવિરેનું આગમન સાભળીને ધર્મને ઉપદેશ સાંભળવા માટે સ્થવિરેની પાસે પહોંચી જીતશત્રુ રાજા પણ ત્યાં ગયા અને ધર્મને ઉપદેશ સાભળીને રાજા સાવધાન થઈ ગયા તેઓએ સ્થવિરેને વિનતી કરી કે હે દેવાનુપ્રિયે ! હું તમારી પાસેથી દીક્ષા લેવા ચાહુ છુ હુ પહેલા સુબુદ્ધિ અમાત્યને પૂછી લઉ અને પછી મારા પુત્રને રાજ્યભાર સોપી દઉ ત્યારબાદ તમારી પાસે આવીને મુડિત થઈશ ને અગારભાવથી અનગાર અવસ્થા સ્વીકારીશ,
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माताधर्मस्या 'भीए 'भीत: जन्ममरणादि दुःखेभ्यो भय माप्तः, आएव यावद् इच्यामि खल युष्माभिरभ्यनुज्ञात' सन् यावत् स्थविराणामन्तिके प्रजितम् । ततः खल जित शत्रु: मुबुद्धिमेवमयादीत्-' अच्छामु' तिप्ठेम पय तापद् गृहे हे देवानुप्रिय ! कतिपयानि वर्षाणि, उदारान् यावत्-मानुप्यकान् कामभोगान् भुञ्जानाः सन्तः, ततः पश्चात् तदनन्तर शन्दादिवियोयभोगानन्तरम् 'एगयओ' एकतासाम् स्थपिराणामन्ति के मुण्डो भूत्वा यावत् प्रानिष्यामः । ततः खलु मुद्धिजितशत्रोरेतमर्थ पश्चादीक्षाग्रहणरूप भार प्रतिशृणोति-स्पीकरोति । ततः खलु तस्य जित शत्रोः सुबुद्धिना साई विपुलान् मानुप्यकान् भोगभोगान् मत्यनुभवतो द्वादश सयम धारण कर अपने जीवन को सफल पनाऊ ! इस लिये हे स्वामिन् ! ससार भय से उद्विग्न बना हुआ में जन्म मरण के दुखो से भय भीत होकर चाहता हूँ कि आपसे आज्ञापित हो स्थविरो के पास दीक्षा धारण करलू (तएर्ण जियसत्तू सुबुद्धि एव वयासी अच्छानु ताव देवाणु कावयाइति वासाइ उरालाइ जाघ भुजमाणातओ पच्छा एगयो थेराण अतिए मुडे भवित्ता जाव पव्वहस्सामो) अमात्य कि इस बात को सुनकर जितशत्रु राजाने उस सुवुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहो। देवानुप्रिय ! हम लोग कुछ वर्षों तक मनुष्य भव सन्धी प्रचुर काम भोगों को भोगते हुए अभी घर पर ही रहें। इस के बाद एक साथ स्थविरों के पास मुण्डित होकर यावा फिर दीक्षित हो जायेगे । (एण सुधुदी ज्यिसत्तूस्स, एयमट्ठ पडिसुणेह, तरण तस्स जियसत्तू स्स, सुघुद्धिणा सद्धिं विपुलाइ, माणुस्स० पच्चणुन्भुवमाणस्स दुवाल સફળ બનાવવું માટે તે સ્વામી ! સ સાર ભથથી ઉદ્વિગ્ન તેમજ જન્મ મરણના દુખેથી ભય પામેલે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને સ્થવિરની પાસેથી દીક્ષા મેળવવાની ઈચ્છા રાખું છુ __ (तएण नियसत्तू मुबुद्धि एव क्यासी-अच्छामु तार, देवाणुप्पिया ' कइवया इति वासाइ उरालाइ जाव भुनमाणातओ पच्छा एगयोथेराण अतिए मुडे भविता जाव पव्वइस्सामो)
અમાત્યની એ વાત સાંભળીને જીતશત્રુ રાજાએ તે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! મનુષ્યભવના કામસુખની મજા માણવા માટે અમે થોડા વર્ષો હજી પણ ગૃહસ્થના જ રૂપમાં રહીએ તો સારૂ ત્યારપછી એકી સાથે આપણે બને સ્થવિરાની પાસે મુ ડિત થઈને દીક્ષા ધારણ કરી લઈશું
(तरण मुदी जियसत्तरस एयमह पडिमुणेइ, तएणं तस्स जियसत्तस्स सुनुद्धीणा सदि विपुलाइ माणुस्स०पवणुन्भुवमाणस्स वालमवासाइ वीइक्कताइ,
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भनेगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १२ खातोदकविषये सुवुद्धिदृष्टान्त __ ७२५ यदि भवान् प्रत्रजति तदा मे कोऽन्य आधारो वा यावत्-अहमपि ज्येष्ठपुत्र कुटुम्बे स्थापयित्वा भवता साद्धं प्रजामि । नितशत्रु पाह- तद् यदि खलु हे देवानुप्रिय ! यावत् प्राजेः तद् गच्छ खलु हे देवानुपिय ! ज्येष्ठपुत्र च कुटुम्मे स्थापय, स्थापयित्वा शिविका दूह्य ममानिके प्रादुर्भव, इति श्रुत्वा स सुबुद्धिरमात्यः राजाज्ञानुसारेण सर्व कृत्वा यावत् प्रादुर्भपति । ततः खल जितशत्रः कौटुम्पिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छत खलु यूय हे देनानुप्रिया ! अदीनशनोः कुमारस्य राज्याभिषेकमुपस्थापयन यारत् ते राजाज्ञा प्राप्यादीनशत्रु कर जिन दीश धारण करना चाहता है। कहो तुम्हारी क्या राय है ? जितशत्रु राजा की इस बात को सुनकर अमात्य सुवुद्धि ने उनसे कहा-यदि ओप दीक्षा धारण करना चाहते है, तो अब मेरे लिये आपके सिवाय और कौन दूसरा आधार हो सकता है । अतः मैं भी अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुप में अपने स्थान पर स्थापित कर आपके साथ ही दीक्षित होना चाहता हूँ । अमात्य सुबुद्धि की इस भावना को सुन कर जितशत्रु ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! यदि तुम मेरे साथ ही दीक्षित होना चाहते हो तो जाओ-और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्य में स्थापित करो-स्थापित कर फिर शिचिका पर आरूढ हो मेरे पास आ जाओ। (जाय पाउन्भवइ, तएण जियसत्तू कोटुचियपुरिसे सदावेह, सदावित्ता एव वयासी - गच्छरणं तुम्भे देवाणुपिया अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेय उचट्ठवेद, जाव अभिसिंचति, जाव पचहए, तएणे जियसत्त एक्कारसअगाइ अहिज्जइ ) सुबुद्धि अमात्य ने राजा દીક્ષા ધારણ કરવા ઈચ્છું છું બેલે તમારે વિચાર છે ? જીતશત્રુ રાજાની આ વાત સાંભળીને અમાત્ય સુબુધિએ તેને કહ્યું કે જો તમે દીક્ષિત થવા ઈચ્છો છે ત્યારે તમારા સિવાય બીજે મારે કોણ આધાર છે અથવા થઈ શકે છે? એટલા માટે હું પણ મોટા પુત્રને કુટુંબના વડા તરીકે નીમીને તમારી સાથે જ દીલા સ્વીકારી લઉ છુ અમાવ સુમુધ્ધિની આ વાત સાંભળીને જીત શત્રુએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ' જે મારી સાથે જ દીક્ષિત થવાની તમારી ઈછા હોય તે તમે મોટા પુત્રને કુટુંબના વડા તરીકે નીમે અને ત્યારપછી પાલખી ઉપર સવાર થઈને મારી પાસે આવી જાવ
(जाय पाउन्भवइ, तएण जीवसत्तू कोडुपियपुरिसे सदावेइ, सदायित्ता एव वयासी गच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया अदीणसत्तूस्स कुमारस्स रायाभिसेय उवट वेह जान अभिसिंचति जाव पव्यइए, तएण जियसत्तू एकारसअगाइ अहिज्जा)
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ઉરહ
शताधर्मकथासू
ते मनसि सुख स्यात्तथा कुरु वेत्यर्थः । ततः सलु जितशत्रुर्यत्रैव स्वगृहं तव पागच्छति उपागत्य सुबुद्धि शब्दयति, शब्दयित्वा एवमादत्-एव खलु हे देवानुप्रिय 1 मया स्थविराणामन्तिके धर्मोनिशान्तः सोऽपि च धर्मे इष्टः, प्रतीष्टः, अभिरुचितः तस्मादः मुण्डो भूला अगाराद् अनगारिता मनजामि, त्र च खलु किं करोपित यावा वर्त्तते इत्यर्थः । तव खलु सुनुद्धिर्जितशत्रु मेमवादीत्तएण जियसत्तू जेणेव सगिहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता, सुबुद्धिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एव वयासी- एव ग्वलु देवाणुपिया ! मए थेराण जाव पवज्जामि, तुम ण किं करेसि, तरण सुबुद्धी जियसत्तू एव वयासी - जाव के अन्ने आहारे वा जान पव्वज्जामि, त जडण देवाणुपिया ! जाव पवयहि त गच्छह ण देवाणुपिया ! जे पुरा च कुटुंबे ठावेहि ठावत्ता सी दुरुहिता मम जति पाउन्भवइ ) स्थविरों ने कहा- हे देवानुप्रिय । यथा सुख-तुम्हें जैसे सुख हो वैसा करो - हितावह कार्य मे विलन करना उचित नही है । इसके अनतर वे जितशत्रु राजा वहाँ से अपने घर पर आये । वह आकर उन्होंने अपने अमात्य सुबुद्धि को बुलाया बुलाकर उससे इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय | मैंने स्थविरों से श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश सुना है । वह धर्म मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रतीच्छित हुआ है । मेरे अन्तः करण में वह समा गया है । इसलिये में अब मुडित होकर इस अगार अवस्था का परित्याग
(अहा सुह, तएण जियसत्तू जेणेत्र सएगिदे तेणेत्र आगच्छ, उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सदावे सहा वित्ता एव वयासी एव खलु देवाणुपिया ! मए येराण जाव पवज्जामि तुम किंकरेसि, तएण सुबुद्धी जियसत्तू एव वयासी, जाव के अने आहारे वा जाव वज्जामित जइण देवाणुप्पिया ! जाव पव्त्रयहिं त गच्छहण देवाणु पिया ! जेठ पुत्त च कुडुने ठावेहि ठावित्ता सीय दुरुहित्ता ण मम अतिए पाउन्भवः) સ્થવિરાએ રાજાને કહ્યુ કે હૈ દેવાતુપ્રિય ! યથા સુખ ? એટલે કે તમને જેમા સુખ મળતુ હાય તેમ કરી સારા મામા મેઢુ કરવું ચેાગ્ય નથી ત્યારપછી જીતશત્રુ રાજા પોતાને ઘેર આવ્યા ત્યા આવીને તેઓએ પેાતાના અમાત્ય સુબુદ્ધિને મેલાવ્યે અને ખેાલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય 1 મે સ્થવિરેશની પાનેથી શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મના ઉપદેશ સાભળ્યો છે તે ધ મારા અતરમા તે મારા માટે ખૂ જ ઈષ્ટ અને પ્રતિચ્છિત થઈ ગયા છે ખૂબ જ ઊંડે પહાચી ગયા છે એટલે કૈં આત્માના પ્રતિ પ્રદેશમા તે વ્યાસ થઈ ગયેા છે માટે હુવે મુતિ થઈને આ અગર અવસ્થાને ત્યજીને જીન
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अगरधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्त'
७२६
यदि भवान् मनजति तदा मे कोऽन्य आधारो वा यावत् अहमपि ज्येष्ठपुत्र कुटुम्बे स्थापयित्वा भवता सार्द्ध मनजामि । जितशत्रु प्राह- तद् यदि खलु हे देवानुप्रिय ! यावत् मनजेः तद् गच्छ खलु हे देनानुमिय ! ज्येष्ठपुत्र च कुटुम्बे स्थापय, स्थापयित्वा शिविका दुरुझ ममान्तिके प्रादुर्भव, इति श्रुत्वा स सुबुद्धिरमात्यः राजाज्ञानुसारेण सर्वं कृत्वा याद प्रादुर्भवति । तत' खल जितशत्रः कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत् - गच्छत खलु यूय हे देवानुप्रिया ! अदीनशत्रोः कुमारस्य राज्याभिषेकमुनस्थापयत यावत् ते राजाज्ञा प्राप्यादीनशत्रु
कर जिन दीश धारण करना चाहता हूँ। कहो तुम्हारी क्या राय है ? जितशत्रु राजा की इस बात को सुनकर अमात्य सुबुद्धि ने उनसे कहा - यदि आप दीक्षा धारण करना चाहते है, तो अन मेरे लिये आपके सिवाय और कौन दूसरा आधार हो सकता है । अतः मैं भी अपने ज्येष्ट पुत्र को कुटुब मे अपने स्थान पर स्थापित कर आपके साथ ही दीक्षित होना चाहता हूँ । अमात्य सुबुद्धि की इस भावना को सुन कर जितशत्रु ने उससे कहा- हे देवानुप्रिय । यदि तुम मेरे साथ ही दीक्षित होना चाहते हो तो जाओ और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो - स्थापित कर फिर शिचिका पर आरूढ हो मेरे पास आ जाओ । (जाव पाउन्भवइ, तएण जियसत्तू को चियपुरिसे सहावे, सदावित्सा एव वयासी - गच्छरण तुम्भे देवाणुपिया अदीणसत्तूस्स कुमारस्स रायाभिसेय उववेह जाव अभिसिंचति, जाव पव्वहुए, तए जियसत्तू एक्कारसअगाइ अहिज्जइ ) सुबुद्धि अमात्य ने राजा
દીક્ષા ધારણ કરવા ઈચ્છુ છુ. મેલે તમારા શે! વિચાર છે ? છતશત્રુ રાજાની આ વાત સાભળીને અમાત્ય સુબુધ્ધિએ તેને કહ્યુ કે જે તમે દીક્ષિત થવા ઇચ્છે છે ત્યારે તમારા સિવાય ખીલે મારા કાણુ આધાર છે અથવા થઈ શકે છે? એટલા માટે હું પણ મેાટા પુત્રને કુટુબના વડા તરીકે નીમીને તમારી સાથે જ દીક્ષા સ્વીકારી લઉ છુ અમાત્ય મુધ્ધિની આ વાત સામળીને જીત શત્રુએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! જે મારી સાથે જ દીક્ષિત થવાની તમારી ઇચ્છા હાય તા તમે મેટા પુત્રને કુટુના વડા તરીકે નીમા અને ત્યારપછી પાલખી ઉપર સવાર થઈને મારી પાસે આવી જાવ
(जान पाउव्भव, तएण जीनसत्तू कोडबियपुरिसे सदावे, सदावित्ता एव वयासी गच्छद ण तुभे देवाणुपिया अदीणसत्तूस्स कुमारस्स रायाभिसेय उबवेह जान अभिसिंचति ज्ञाव पव्त्रइए, तएण जियसत्तू एकारसअगाह अहिज्जइ )
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७२
शोताधर्मकथासूत्रे
ते मनसि सुख स्यात्तथा कुरुवेत्यर्थः । ततः सछ जितशत्रुर्यत्रेव स्त्रक गृहं वषो पागच्छति, उपागत्य सुबुद्धि शव्दयति, अन्दयित्वा एवमादत्-ए खलु है देवानुप्रिय ! मया स्थविराणामन्तिके धमोनिशान्तः सोऽपि च धर्मे इष्टः प्रतीष्टः, अभिरुचितः, तस्मादह मुण्डो भूत्या अगाराद् अनगारिता मनजामि, स्व च खलु किं करोपित या वाडा वर्त्तते इत्यर्थः । तत खलु मुद्धिर्जितशत्रु मेत्रमत्रादीत्तएण जियसत्तू जेणेव सरगिद्दे तेणेत्र उद्योगच्छ, उवागच्छिता, सुबुद्धि सदावेह, सद्दावित्ता एव वयासी- ए खलु देवाणुपिया | मए थेराण जाय पवज्जामि, तुम णं किं करेसि, तरण सुरुद्वी जियसत्तू एव वयासी- जाव के अन्ने आहारे वा जान पव्वज्जामि, त जण देवाणुपिया ! जाव पव्वति गच्छह ण देवाणुपिया ! जेह पुत च कुडुंबे ठावेहि ठावत्ता सीय दुहिता ण मम अतिए पाउन्भवइ ) स्थविरों ने कहा- हे देवानुप्रिय ! यथा सुख-तुम्हें जैसे सुख हो वैसा करो - हितावह कार्य में विलन करना उचित नही है । इसके अनतर वे जितशत्रु राजा वहाँ से अपने घर पर आये । वह आकर उन्होने अपने अमात्य सुबुद्धि को बुलाया बुलाकर उससे इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय | मैंने स्थविरों से श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश सुना है । वह धर्म मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रतीच्छित हुआ है। मेरे अन्तः करण में यह समा गया है । इस लिये मे अब मुडित होकर इस अगार अवस्था का परित्याग
(अहा सुह, तएण जियसत्तू जेणेव सएगिहे तेणेत्र आगच्छ, उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सहावे सद्दावित्ता एव वयासी एवं खलु देवाणुपिया ' मए येराण जाव पवज्जामि तुम ण किं करेसि, तएण सुमुद्धी जियस एव वयासी, जात्र के अने आहारे वा जाव वज्जामि त जण देवाणुप्पिया ! जाव पव्जयहिं त गच्छण देवाणु पिया ! जे पुत्त च कुडुने ठावेहि ठाविता सीय दुरुहिता ण मम अतिए पाउब्भवइ) સ્થવિરાએ રાજાને કહ્યુ કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! ‘યથા સુખ' એટલે કે તમને જેમા સુખ મળતુ હોય તેમ કરે! સારા કામામા મેહુ કરવું ચેગ્ય નથી ત્યારપછી જીતશત્રુ રાજા પેાતાને ઘેર આવ્યા ત્યા આવીને તેઓએ પેાતાના અમાત્ય સુબુદ્ધિને એટલાન્ચે અને ખેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે હું દેશાનુપ્રિય ! મૈં વિરાની પાસેથી શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્માંના ઉપદેશ સાભળ્યો છે તે ધર્મ મારા અતરમા તે મારા માટે ખૂબ જ ઈષ્ટ અને પ્રતિચ્છિત થઈ ગયા છે ખૂબ જ ઊંડે પહેાચી ગયા છે એટલે કે આત્માના પ્રતિ પ્રદેશમા તે વ્યાસ થઇ ગયા છે માટે હુ હુવે મુક્તિ થઈને આ અગાર અવસ્થાને ત્યજીને છન
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मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १२ खातोदयविषये सुबुद्धिष्टात
७२७
पूर्वोक्तप्रकारेण खलु हे जम्बू: ' श्रमणेन भगवता श्रीमहावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेव स्थान सम्प्राप्तेन द्वादशस्य उदकाख्यस्य ज्ञाताध्ययनस्य अय = पूर्वोक्तप्रकारः अर्थः=भाव मज्ञप्त 'त्तिवेमि ' इति ब्रवीमि यथा भगवान्मुखाच्छूत तथैव तुभ्य प्रतिपादयामि || सू० २ ॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगदूरलभ-मसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक- प्रविशुद्वगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त - जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु- बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री - घासीलालप्रतिविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथा ' सूत्रस्यानगारधर्मामृतवपिण्याख्याया व्याख्याया द्वादशमभ्ययन सपूर्णम् ॥१२ ॥
को प्राप्त कर लिया । सुधर्मा स्वामी जवू स्वामी से कहते हैं - हे जबू ! श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस द्वादश उदकाख्य ज्ञाताभ्ययन का इस प्रकार से यह पूर्वोक्त रूप अर्थ निरूपित किया है । सो जैसा मैंने उन भगवान् के मुख से सुना है वैसा ही यह तुम से कहा है । अपनी तरफ से इस में कुछ भी मिलावट नहीं की है। सूत्र ॥ २ ॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथासूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका बारहवां अध्ययन समाप्त ॥ १२ ॥
અને છેવટે સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરી લીધી સુધર્મા સ્વામી જ વ્યૂ સ્વામીને કહે છે કે હું જ ખૂ ! સિદ્ધગતિ મેળવેલા શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે આ દ્વાદશ-ઉદકામ્ય ગાતા-યનના ઉપર કહ્યા પ્રમાણે અથ નિરૂપિત કર્યાં છે મે ભગવાનના શ્રીમુખથી જેવા અથ સાભળ્યે છે તેવા જ તમારી સામે સ્પષ્ટ કર્યો છે. મે આમા પેાતાની મેળે કૈાઈ પણ વાત ઉમેરી નથી | સૂત્ર << ૨ શ્રી જૈનાચાય ઘાસીાલજી મહારાજ કૃતજ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવિષેણી
व्याभ्यानु नारभु अध्ययन समाप्त ॥ १२ ॥
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वाताधर्मकया
राज्येऽभिषिश्चति यावत् - जितशत्रू राजा सुबुद्धिनाऽमात्येन सह प्रमजितः । ततः खलु जितशत्रुरेकादशाङ्गनि अपीते । वहनि वर्षाणि पर्याय = श्रामण्यपर्यायः । मासिक्या सलेखनया सिद्धः । ततः खलु सुबुद्धि रेकादशाङ्गानि - अधीते, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा यानत्सिद्धः । सुधर्मास्वामी कथयति - एवम् =
३
के कहे अनुसार सब कार्य वैसा ही किया । बाद में वह जितशत्रुराजा के पास आ गया । जितशत्रु राजा ने इस के अनतर कौटुंबिक पुरुषो को बुलाया - बुलाकर उनसे ऐसा कहा -देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और युवराज अदीन शत्रु कुमारका राज्याभिषेक करो । राजाकी आज्ञानुसार उन लोगोने वैसा ही किया -अदीन शत्रु राजा सुबुद्धि अमात्य के साथ दीक्षित हो गये । राजर्षी जितशत्रुने ११ ग्यारह अ गोंका अध्ययन किया। (बहणि वासाणि परियाओ मासियाए सिद्धे, तएण सुबुद्धी एमा रस अगाइ अहिज्जह, पहूणि घासाइ जाव सिद्धे | एव खलु जबू ! सम
णं भगवया महावीरेण बारमस्स णायज्क्षयणस्स एयमट्ठे पण्णत्ते सि बेमि) अनेक वर्षो तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया । बादमें एक मोस की सोखना से ६० भक्तोका अनशन द्वाराछेदन कर वे सिद्धावस्थापन्न हो गये । सुबुद्धि मुनिराज ने ११ ग्यारह अंगों का अच्छी तरह अध्ययन किया - और बहुत 'वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर सिद्ध अवस्था ૧૪+ ૩ સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાની આજ્ઞા મુજખ જ બધુ કામ પતાવી દીધુ ત્યાર પછી તે રાજાની પાસે આવ્યે છતશત્રુ રાજાએ પોતાના કૌટુબિક પુરૂષોને ખાલાવ્યા અને ખેલાવીને તેને કહ્યુ કે હે દેવાતુપ્રિયે ! તમે લેકે જા અને યુવરાજ અદીનશત્રુ કુમારના રાજ્યાભિષેક કરી રાની આજ્ઞા સાભળીને તે લેાકાએ ખુધી વિધિ પૂરી કરી દીધી આ પ્રમાણે અદીનશત્રુકુમારને રાજ્યા સને બેસાડીને જીતશત્રુ રાજા સુબુધ્ધિ અમાત્યની સાથે દાક્ષિત થઈ ગયા રાજઋષિ જીતશત્રુએ અગિયાર અગાનુ અધ્યયન કર્યુ
( बहूणि वासाणि परियाओ मामियाए सिद्धे, तएण सुद्धी एगारसअगाइ अहिज्जर, बहुणि वासाइ जान सिद्धे । एव खलु जबू ' समणेण भगवया महावीरे ण बारमस्स णायञ्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तित्रेमि )
ત્યારપછી એક અને ત્યારબાદ પેઠે અગિયાર પાલન કર્યુ
તેઓએ ઘણા વર્ષો સુધી શ્રામય પર્યાયનું પાલન કર્યુ માસની સલેખનાથી ૬૦ ભક્તોનુ અનશન દ્વારા છેદન કર્યું તેમે સિદ્ધ થઈ ગયા મુનિરાજ મુમુદ્ધિએ પણુ સારી મગનુ અધ્યયન કર્યું અને ઘણુા વર્ષો સુધી શ્રામય પર્યાયનું
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मनगारधर्मामृतपिणी री० अ० १२ सातोदयविषये सुबुद्धिष्यात ७२७ पूर्वोक्तप्रकारेण खलु हे जम्बूः । श्रमणेन भगाता श्रीमहावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान सम्माप्तेन द्वादशस्य उदकाख्यस्य झानाध्ययनस्य अय-पूर्वोक्तप्रकारः अर्थः भाव मज्ञप्त 'निवेमि' इति ब्रवीमि यथा भगवान्मुखाच्छूत तथैन तुभ्य प्रतिपादयामि ॥ सू० २ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूबल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितक
लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छप्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराज गुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालग्रतिविरचिताया ' ज्ञाताधर्मकथान' सूत्रस्थानगारधर्मामृतव
पिण्याख्याया व्याख्याया द्वादशमभ्ययन सपूर्णम् ॥१२॥ को प्राप्त कर लिया। सुधर्मा स्वामी जवू स्वामी से कहते हैं-हे जब ! श्रमण भगवान महावीर ने फि जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस बादश उदकाख्य ज्ञाताध्ययन का इस प्रकार से यह पूर्वोक्त रूप अर्थ निरूपित किया है । सो जैसा मैंने उन भगवान् के मुख से सुना है वैसा ही यह तुम से कहा है। अपनी तरफ से इस में कुछ भी मिलावट नहीं की है । सूत्र ॥२॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाताधर्मकथाजसून" की अनगारधर्मामृतवर्पिणी व्याख्याका बारहवां
अ ययन समाप्त ॥ १२॥
અને છેવટે સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરી લીધી સુધમાં સ્વામી જ બૂ સ્વામીને કહે છે કે હે જ બૂ! સિદ્ધગતિ મેળવેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ દ્વાદશ-ઉદકાખ્ય જ્ઞાતા-પયનને ઉપર કહ્યા પ્રમાણે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે કે ભગવાનના શ્રીમુખથી જે અર્થ સાભળે છે તે જ તમારી સામે સ્પષ્ટ કર્યો છે કે भाभा पातानी भणे ४५] पात भरी नथी ॥ सूत्र “२"॥ શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસવાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી
याभ्यानु मारभु मध्ययन समास ॥ १२ ॥
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अथ त्रयोदशममध्ययनम् प्रारभ्यते । गत द्वादशमध्ययनम् , सम्पति त्रयोदशमारभ्यते-अस्या ययनस्य पूर्वेण सहाऽय सम्म धः-पूर्वस्मिन् अध्ययने ससर्गविशेषरशाद् गुणद्धिरक्ता, इह तु प्रयोदशेऽभ्ययने तद्भावात् गुणहानिरुध्यते इत्येव पूर्वाध्ययनेन सह अयमेव सबद्ध तस्येदमादि सूत्रमाह- जइ ण भते ' इत्यादि । __ मूलम्-जइण भते । समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेण वारसमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, तेरस मस्स ण भंते । णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेण के अढे पण्णत्ते ' एवं खलु जवू । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे णाम नयरे होत्था, गुणसिलए चेइए, समोसरण, परिसा निग्गया । तेण कालेण तेणं समएण सोम्मे कप्पे दद्दरवडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए, दुद्दु रसि सीहाप्तणसि दद्दरे देवे, चउहि समाणियसाहस्तीहि चउहि अग्गमहिसीहि सपरिसाहिं एव जहा सूरियाभो जाव दिव्वाइ भोगभोगाइ भुजमाणो विहरइ ।। सू०१॥
- णद मणियार नाम का तेरहवा अध्ययन प्रारभा१२चारवा अध्ययन समाप्त हो चुका । अब तेरहवा अध्ययन प्रारभ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध है कि पूर्व अध्ययन में ससर्ग (सत्सग) विशेष के वश से० गुण वृद्धि कही गई है-यहा इस तेरहवें अध्ययन में उस के अभाव से गुण हानि कही जावेगी । 'जइण भते । समणेण' इत्यादि । सूत्र ॥ १ ॥
યુદ મણિયાર નામે તેરમુ અધ્યયન પ્રારંભ બારમું અધ્યયન પૂરૂ થઈ ચૂકયું છેહવે તેરમુ અધ્યયન પ્રારભ થાય છે આ અધ્યયનની સાથે આ જાતને સ બ ધ છે કે પહેલાના અધ્યયનમાં સ સર્ગ (સખત) વિશેષથી ગુણ વૃદ્ધિ બતાવવામાં આવી છે આ તેરમા અધ્યયનમા સ સ વિશેષના અભાવથી ગુણહાનિ નિરૂપવામાં આવશે
जइण भते ! समणेण इत्यादि
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७२९
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अनगारधर्मामृतवपिणो टी० अ० १३ अध्ययनसम्मन्धनिरूपणम्
टीका-जम्मू म्वामी पृच्छनि-यदि ख्लु भदन्त ! अमणेन भगवता महा. वीरेण यावत समाप्तेन, मिद्विगतिनामधेय स्थान गतेन, द्वादशस्य ज्ञाताध्ययनस्य 'अयम? ' अपमर्थ. = ससर्गविशेषवशाद् गुणद्विरूपोऽर्थ. 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः= प्ररूपित, तर्हि तदनन्तरम् त्रयोदशस्य व भदन्त । ज्ञाताऽध्ययनस्य, श्रमणेन भगवता महावीरेण मोडी प्रज्ञप्तः । मुधर्मा म्वामी कथयति-एव खलु हे जम्यू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नाम नगरमासीत् ।
टीकार्य-(जइण भते) हे भदत यदि (ममणेण भगवया महावीरेण) श्रमण भगवान महावीर ने (जाव सम्पत्तेण पारमस्स णायज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते तेरमस्स ण भते । णायज्य णस्स ममणेण भगवया महावीरेण के अटे पण्गत्ते ) कि जो मिद्धि गति नामक स्थान के भागी पन चुके है बारवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ निर्दिष्ट किया है-तो हे मदत उन्ही श्रमण भगवान् महावीर ने उस तेरहवें ज्ञाताध्ययन का क्या माव-अर्थ प्ररूपित किया है ? (एव खलु जत्रू ! तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नाम नयरे होत्या, गुणसिलए चेइए, समोसरण, परिसा निग्गया ) इस प्रकार जवू स्वामी को प्रश्न सुनकर श्री सुधर्म स्वामी उन्हें समझा ने के निमित्त कहते हैं कि जबू ! सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था । उस नगर के पहिर्भाग में गुणशिलक नाम का चैत्य था । उस में भगवान् महावीर प्रभु आये। प्रभु के
Astथ-( जइण भते 1 ) 3 महन्त । ( समणेण भगाया महावीरेण) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે—
(जार सम्पत्तेण पारमस्त णायज्झयणस्म अयमहे पण्णत्ते तेरसमस्स ण भते । णायज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण के अटे पण्णत्ते)
કે જેઓ સિધગતિ મેળવેલા છે–બારમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ ઉપર કહ્યા મુજબ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તમારે હે ભદન્ત ! તેઓ શ્રમણ ભગવાન મહા વીરે આ તેરમા જ્ઞાતા બને છે ભાવ-અર્થ નિરુપિત કર્યો છે ?
(एक खलु जन । तेग कारेण तेण समए रायगिहे नाम नयरे होत्या, गुणसि ठए चे.ए, ममोमण परिसा निग्गया)
આ પ્રમાણે જ બૂ -નામીને પ્રશ્ન નાભળીને સુવર્મા સ્વામી તેમને સમ જાવવા માટે કહેવા લાગ્યા કે હે જ બૂ! સાભળે, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તે નગરની
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अथ त्रयोदशममध्ययनम् प्रारभ्यते । गत द्वादशमध्ययनम् , सम्पति त्रयोदशमारभ्यते-अस्या ययनस्य पूर्वेण सहाऽय सम्पन्धा-पूर्वस्मिन् अध्ययने ससर्गविशेपरमाद् गुणद्धिरुक्ता, इह तु प्रयोदशेऽध्ययने तद्भावात् गुणानिरुच्यते इत्येव पूर्वाध्ययनेन सह अयमेव सबद्ध तम्येदमादि सूत्रमाह-'जइ ण भते' इत्यादि ।
मूलम्-जइण भते । समणेण भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण वारसमस णायज्झगणस्त अयम? पण्णते, तेरस मस्स ण भंते । णायज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण के अटे पण्णत्ते ? एव खलु जवू । तेण कालेण तेण समएण रायगिहे गाम नयरे होत्था, गुणसिलए चेइए, समोसरण, परिसा निग्गया। तेण कालेण तेण समएण सोहम्मे कप्पे ददरवडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए, दद्द रंसि सीहासणसि ददरे देवे, चउहि समाणियसाहस्सीहि चउहि अग्गमहिसीहि सपरिसाहिं एव जहा सूरियाभो जाव दिव्वाइ भोगभोगाइ भुजमाणो विहरइ ।। सू०१॥
- जद मणियार नाम का तेरहवा अध्ययन प्रारभ'१२वारवा अध्ययन समाप्त हो चुका । अब तेरहवा अध्ययन प्रारभ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से सबन्ध है कि पूर्व अध्ययन में ससर्ग ( सत्सग ) विशेप के वश से० गुण वृद्धि कही गई है-यहा इस तेरहवें अ ययन में उस के अभाव से गुण हानि कही जावेगी। 'जण भते ! समणेण' इत्यादि। सूत्र ॥१॥
દ મણિયાર નામે તેરમુ અધ્યયન પ્રારભ બારમું અધ્યયન પૂરૂ થઈ ચૂકયું છેહવે તેરમુ અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે આ અધ્યયનની સાથે આ જાતને સ બ ધ છે કે પહેલાના અધ્યયનમાં સ સર્ગ (સોબત) વિશેષથી ગુણ વૃદ્ધિ બતાવવામાં આવી છે આ તેરમા અધ્યયનમા સસગ વિશેષના અભાવથી ગુણ-હાનિ નિરૂપવામાં આવશે
जइण भते ! समणेण इत्यादि
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अनंगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १३ द१रदेववक्तध्यता
७३१ मूलम्-इमं च ण क्वलकप्प जवूदीव दीव विउलेणं ओ. हिणा आभोएमाणे२ जाव नट्टविहि उवदसित्ता पडिगए। जहा सूरियाभे । भतेति भगव गोयमे समणे भगव महावीरं वदइ णमसइ वदित्ता णमसित्ता एव वयासी-अहो णं भते । दद्दरे देवे महड्डिए महज्जुइए महावले महाजसे महासोक्खे महाणुभावे दडुरस्सण भते । देवस्स सा दिव्वा देवड्डी देवज्जुई कहिगयाकहि पविट्ठा गोयमा । सरीर गया सरीर अणुप्पविठ्ठा, कूडागारदिट्टतो। दरेणंभते । देवेणंसा दिव्वा देवड्डी देवज्जुई, किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता किण्णा अभिसमन्नागया? एव खलु गोयमा । इहेब जबूद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। तत्थ णं रायगिहे णयरे णंदे णाम मणियारसेट्टी उड्डे दित्तेः । तेणं कालेणं तेण समएण अह गोयमा । समोसढे, परिसा णिग्गया। सेणिए राया णिग्गए तएण से णदेमणियारसेट्री इ. मोसे कहाए लछट्टेलमाणेण्हाए० पायचारेण जाव पज्जुवासइ। णदे धम्म सोच्चा णिसम्म समणोवासए जाए। तएणं अह रायगिहाओपडिनिक्खते बहिया जणवयविहार विहरामि, तए णसे णदे मणियारसेट्ठी अन्नया कयाइ असाहुदसणेण य अपज्जुवासणाए य अण्णुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपजवेहि परिहायमाणेहि २ मिच्छत्तपजवेहि परिवमाणेहिरमिच्छत्त विप्पडिवन्ने जाए यावि होत्था तएणं नदे
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७३०
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माताधर्मकाज तस्य नगरस्य पहिर्भागे गुणगिलक नाम चैत्यमासीन् । तत्र भगवतो महावीररय समवसरण सजातम् । गगवर्शनार्थं परिपग्निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'सोहम्मेकप्पे ' सौधर्मे कल्पे सौधर्मनाम्नि देवलोके दर्द रावतसके विमाने, सभाया सुधर्माया दर्दुरे सिंहामने दर्दुरो दर्दरनामको देव 'चउहि सामा णियसाहस्सीहि' चतसृमि सामानिकमाइसीमि चतुस्सहस्रसरयकैः-सामोनिक देवै., तथा 'चउहि अग्गग हसीहिं मपरिमादि चतरभिरग्रमहिपीमि सपरिपनि स्वस्व परिपत्साहितामिवतुः सरयकामिः पट्टदेवीमि. सपरित 'एव जहा मूरि पाभो जाब दियाइ भोगभोगाइ' भुजमाणो विहरह' एप यथा सूर्याभो राज प्रश्नीयमूत्र-सूर्याभदेवस्य वर्णन मोक्त तद्वदत्रापि गोद्धयम् , यावत्-दिव्यान् भोगभोगान् भुआनो विहरति ॥ मृ० १॥ वदना करने के लिये परिपद आयी और देशना सुनकर वापिस चली आयी (तेण कालेण तेण समएण सोहम्मे कप्पे ददुरवर्टिसप विमाणे सभाए सुहम्माए, दद्दुरसि सीहासणसि, ददुरे देवे चाहिं सामाणिय साहस्सीहिँ चाहिं अग्गमरिसीहिं सपरिसाहिं एव जरा सूरियाभो जाव दिव्वाइ भोगभोगाइ भुजमाणो विहरइ) उसी काल और उसी समय में सौधर्म नाम के देव लोक में दर्दरावतसक विमान में सुधर्मा सभा में दर्दुर सिंहासन पर दर्दुर नाम का देश चार हजार सामानिक देवो के एव अपनी २ परिपद सहित चार पट्ट देवियों के साथ सूर्याभदेव की तरह दिव्य काम भोगो का अनुभवन करता हआ बैठा था। राज प्रश्नीय सूत्र मे सूर्याभ देव का वर्णन यहा पर भी जानना चाहिये । सूत्र ॥१॥ બહાર ગુણશીવક નામે ચૈત્ય (જૈન દેરાસર) હતુ તેમાં ભગવાન મહાવીર આવ્યા પ્રભુને વદન કરવા માટે નગગ્ની પરિષદ આવી અને દેશના સાભળીને પાછી જતી રહી
(तेण कालेण तेण समएणं सोहम्मे कप्पे दरवर्डिसए निमाणे समाए सुहम्माए, ददुरसि सीहासणसि, दद्दुरे देवे चउहि सामाणियसाहस्सीहि चाहिं अग्गम हिसीहि सपरिसार्हि एव जहा सूरियाभो जाव दिव्याइ भोगभोगाइ भुज माणो विहरइ)
તે કાળે અને તે સમયે સૌધર્મ નામના દેવલોકમાં દદુર સિંહાસન ઉપર દર નામે દેવ ચાર હજાર સામાનિક દેવોની અને પિતા પોતાની પરિષદ સહિત ચાર ૫ટ્ટ દેવીઓ (પટરાણીઓ) ની સાથે સૂર્યામ દેવની જેમ દિવ્ય કામ સુખેને અનુભવને બેઠા હતા “રાજ પ્રશ્રીય સૂત્ર” મા સૂર્યાભ દેવનું વન કરવામાં આવ્યું છે અહીં પણ તે પ્રમાણે જ વણ ન જાણી લેવું જોઈએ | સૂ “\”
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गारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १३ नन्दमणिकार भववर्णनम्
चाउकोणासमतीरा अणुपुव्वसुजायवप्पगभीरसीयलजला संछपणपत्तविसमुणाला वहुप्पलपउम कुमुयनलिणसुभगसो गंधियपुरिय महापुडरीय सयपत्तसहस्सपत्तपफुलके सरोववेया परिहत्थभमतमत्तछप्पय अणेगसउणगणमिहुणवियरियस दुन्नइयमहुरसरनाइया पासाईया || सू० २ ॥
(
टीका -' इम चण' इत्यादि । स ददुरको देवः हम च खलु ' केवलकप्प ' केवलकल्प - सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप विपुलेन 'ओहिणा' अधिना -- अवधिज्ञानेन आभोएमाणे २ ' आभोगयन आभोगयन् = वारवारमव लोकयन् ' जाव ' ' नट्टविहि उवदभित्ता पडिगए ' यानन्नाट्यविधिमुपद प्रतिगत. 'जहा सुरियामे' यथा सूर्याभ, सूर्याभदेववत् । तद् गमना नन्तर भदन्त । इति सोध्य भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्त महावीर बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यत्वा एवमवदत् - अहो ! खलु भदन्त ? दर्बुरो
७३३
'इम च ण केवलकप्प ' इत्यादि ।
टीकार्य - वह दर्दुरकदेव (इम च ण केवलकप्प जब्दीव २) इस केवल कल्प - सपूर्ण - जबूद्वीप नाम के द्वीप को (बिउलेणं ओहिणा ) अपने विपुल अवधिज्ञान से ( आभोए माणे २) वार २ देखता हुआ ( जाव
विहिं वदसित्ता पडिगए) यावत् नाट्य विधि को दिखला कर चला गया ( जहा सूरिया मे ) सूर्याभदेव की तरह ( भतेति भगव गोयमे समण भगव महावीर वदइ णमसइ, वदित्ता णमसित्ता एव बयासी ) उस के चले जाने के बाद हे भदत ! इस प्रकार से सबोधित करके भगवति गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर प्रभु से इस प्रकार पूछा (अहो पण भते ! ददुरे देवे महड्डिए महज्जुहए महानछे, महाजसे
"
इम चण केवलकप्प ' इत्यादि
२४ देव ( इम च ण केवलकप्प जबूद्दीव २ ) आा जेवल उपस पूर्ण - यूद्वीप नामना दीपने ( बिउलेण ओहिणा ) पोताना अवधिज्ञानथी ( आमोपमाण ) વાર વાર જોત जाव नट्ठविहिं उवदसित्ता पडिगए) यावत् नाटय विधिनु प्रदर्शन जतावीने तो रह्यो ( जहा सूरियाभे ) सूर्याल हेवनी प्रेम (भतेति भगव गोधमे समण भगव महावीर व दइ, णमसइ, व दित्ता णमसिता एय वयासी ) तेना वा पछी श्रमण लगवान महावीर अनुना ચરણુામા ભગવાન ગૌતમે ‘હે ભદત !' એવી રીતે સાધીને તેએએ પ્રભુને
म
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माताधर्मकथाजसो मणियारसेट्टी अन्नया गिम्हकालसमयांस जेट्टामूलंसि मासंसि अट्टमभत्तं परिगेण्हइ परिगेण्हित्ता पोसहसालाए जाव विहरइ, तएणं णदस्स अट्टमभत्तसि परिणममाणसि तण्हाए छुहाए य अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारूचे अज्झथिए समुप्पज्जित्या-धन्नाणं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभियओ जेसि णं रायगिहस्स वहिया वहओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपतियाओ जत्थ ण बहुजणो पहाइ य पियइ य पाणिय च सवहइ, त सेय खल्ल मम कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता रायगिहस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइयसि भूमिभागसि जाव णंद पोक्खरणि खणावेत्तए तिकट्ठ एव सपेहेइ कल्ल पाउ० जाव पोसह पारेइ पारित्ता पहाए कयवलिकम्मे मित्तणाइ जाव सपरिवुडे महत्थ जाव रायारिह पाहुड गेण्हइ गेणिहत्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव पाहुड उवटवेइ उवठ्ठवित्ता एव वयासी-इच्छामि ण सामी। तुब्भेहि अब्भणुनाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए, अहासुह देवाणुप्पिया, तएण णदे सेणिएण रन्ना अभणुण्णाए समाणे हट्ट० रायगिह मज्झ मज्झेणे निग्गच्छइ २ वत्थुपाढयरोइसि भूमिभागसि जद पोक्खरणि खणाविउ पयत्ते यावि होत्था, तएण सा गंदा पोक्खरणी अणुपुत्वेणं खणमाणा २ पोक्खरणी जाया यावि .
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भनगारधर्मामृत पिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम्
एव खलु हे गौतम ! इहैर जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगृह नगर, गुणशिलक चैत्य, श्रेणिको राजाऽऽसीत् । तत्र खलु रामगृहे नगरे नन्दनामा मणि कारश्रेष्ठी आढयो दीप्तोऽपरिभूतः परिवसति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये हे गौतम ! अह तर राजगृहे समवसृतः परिपन्निर्गता श्रेणिको राजा निर्गतः । ततः खलु स नन्दो मणिकार श्रेष्ठी अस्याः कथाया लव्यार्थः सन् स्नात. पादचारेण= पादाभ्यामेव न तु स्थाश्वादि यानेन · जाव पज्जुवासइ ' मम वन्दनार्थमागतो वन्दित्वा नमस्यित्वा च यथास्थानमुपविश्य पर्युपास्तेरम । नन्दः नन्दमणिकारश्रेष्ठी में = श्रुतचारित्रलक्षण श्रुत्वा श्रमणोपासक = श्रावको जातः । ततः खलु अह ( महावीरस्वामी ) राजगृहात् प्रतिनिष्क्रान्तो वहिर्जनपद पत्ता किण्णा अभिसमन्नागया? एव खलु गोयमा । इहेव ज बूद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुण सिलए चेइए सेणिए राया तत्थणं रायगिहे नयरे णदे णाम मणियारसेही अड्डे दित्ते०) गौतम स्वामी प्रभु से पूछते हैं भदत ! दर्दुर देव ने वह दिव्य देवद्धि और दिव्य देव शुति किस प्रकार से उपार्जितकी, किस प्रकार से अपने आधीन की
और किस प्रकार उसे अपने भोग के विषय भूत बनाई ? प्रभु ने कहा गौतम ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-इसी ज बूद्वीप नाम के द्वीप मे, भरत क्षेत्र में, रोजगृह नाम के नगर में गुण शिलक नाम का चैत्य यानगर के राजा का नाम श्रेणिक था । उस राजगृह नगर मे नन्द नामका मणिकार श्रेष्ठी रहता था। यह बहुत ही अढय-धन सपन्न-एव अपरि भूत-जनमान्य-या ( तेण कालेण तेण समएण अह गोयमा ! समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिए, राधा णिग्गए, तण्ण से पदे मणि किण्णा अभिसमन्नागया ? एव खलु गोयमा ! इहेर जद्दीवे दोवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया तत्थण रायगिहे नयरे णदे णाम मणियारसेठी अड्रे दित्ते०) ।
ગૌતમ દવામાં પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદત! દર્દર દેવે તે દિવ્ય દેવર્ષિ અને દિ૫તિ કેવી રીતે મેળવી, કેવી રીતે પિતાને આધીન બનાવી અને કેવી રીતે તેને પિતાના ઉપગ ચગ્ય બનાવી? પ્રભુએ કહ્યું કે હે ગૌતમ ! તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે એ જ જ બુદ્વીપ નામના દ્વીપમા ભરત ક્ષેત્રમાં રાજગૃહ નામના નગરમાં ગુણશીલક નામે ચત્ય હતુ તે નગરના રાજાનું નામ શ્રેણિક હતુ તે રાજગૃહ નગરમાં નન્દ નામે મણિકાર શ્રેષ્ટિ હેત a माय-धनान-मपरिभूत-नभान्य (नगरमा पूछाता) |
तेण कालेण तेण समएण बह गोयमा ' समोसढे, परिसा निगया, सेणिए
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जाताधर्मकपागले देवो महर्दिको महाद्युतिकः, आचर्यकारि महद्धादियुक्तोऽय वर्तते द१रस्य खलु भदन्त ! देवस्य सा दिव्या देवविद्युतिः कुन गता कुत्र प्रविष्टा ? या पूर्व दृप्टेति भावः । भगवानाइ-हे गातम ! सा हिन्पा देवद्धिः देवधुतिश्च तस्य शरीर गता शरीरमनुप्रविष्टा । अत्र 'फूडागारदिवो' कटागारदृष्टान्तो वो यः । कूटागारदृष्टान्तसमन्वयाय गौतमस्य भगरतो महावीरस्य च उक्तिःप्रयुक्तिरधोनिर्दिष्टप्रकारेण ज्ञेया-गौतमस्वामी पृच्छति हे भदन्त ! हे भगवन् ! दर्दुरेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः देवधुतिः कथम् केन प्रकारेण लधा-समुपार्जिता प्राप्ताआयत्तीभूता अभिसमन्वागता=सम्यक्स्वमोगविषयीकता ? भगवानाहमहासोक्खे, महाणुभावे, दगुरस्स ण मते ! देवस्स सो दिवा देविड्डी देवजुई कहिं गया, कहिं पविट्ठा) हे भदत!अभीरयर दर्दुर देव आश्चर्यकारी महद्धर्यादि से युक्त था, सो इस समय उस दर्दुर देव की हे भदत ! वह पूर्वदृष्ट दिव्य देवद्धि, देवधुति कहा गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ? (गोयमा! सरीर गया, सरीर अणुप्पविठ्ठा) इस प्रकार गौतम का प्रश्न सुनकर प्रभु ने उन से कहा-हे गौतम ! वह दिव्यदेवद्धि और दिव्य देवधुति उस ददुर देव के शरीर में चली गई है, शरीर में प्रविष्ट हो गई है। (कूडागार दिहतो) इस विपय में कृटागार दृष्टान्त प्रयुक्त हुआ है। इसी कूटागारदृष्टान्त के समन्वय के लिये भगवान् गौतम और महावीर प्रभु की यह उक्ति प्रयुक्ति अधोनिर्दिष्ट प्रकार से जाननी चाहिये (दर्दुरे ण भते देवेण सा दिव्या देविड्डी देवज्जुई किण्णा लद्धा किण्णा
(अहोण भते ! दद्दुरे देवे महडिए महज्जुइए, महावले, महाजसे, महा सौक्खे, महाणुभावे ददुरस्स ण भते । देवस्स सा दिव्या देविड्री देवज्जुई कहि गया, कहि पविठ्ठा)
હે ભકત હમણા તે આ દર દેવ આશ્ચકારી મહદ્ધિ વગેરેથી સપન્ન હતો આ સમયે દરક દેવની હે ભદત ! તે પૂર્વ દઈ દિવ્ય દેવદ્ધિ, विधुति ४ ती ही छ ? या प्रविष्ट थ 5 छ? (गोयमा ! सरीर गया, सरीर अणुप्पविद्वा) ॥ श गीतभनी प्रश्न सामजीन प्रभु तेभने કહ્યું કે હે ગૌતમ! તે દિવ્ય દેવદ્ધિ અને દિવ્ય દેવઘુતિ તે દેવ દર્દકના शरीरमा प्रविष्ट छ शरीरमा ती २ढी छ (कूडागारदिद्वतो) । વિશેક ટાગાર દષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યુ છે આ કૂટાગાર દષ્ટાન્તના સમન્વય માટે ભગવાન ગૌતમ અને મહાવીર પ્રભુની ચર્ચા નીચે લખ્યા મુજબ જાણવી
(ददुरेण भते ! देवेण सा दिव्या देविडी देवज्जुई किण्णा लद्धा ।
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मनगारधर्मामृतवपिणी टोका अ० १३ नन्दमणिकारमयवर्णनम् . ७३७ अन्यदा-एपस्मिन् काले ग्रीमकालसमये-ग्रीष्मऋतौ 'जेहामूलमि माससि' ज्येष्ठामुले मासे-ज्येष्ठायामूलस्य पा च द्रेण सह योगो भाति पौर्णमास्या यस्मिन् मासे स ज्येष्ठामूलन्तस्मिन् ज्येष्ठामूले मासे ज्येष्ठमासे इत्यर्थः, ' अट्ठममत्त' अष्टमभक्तम्-उपासनारूप तप परिगृहाति-स्वीकरोति, परिगृह्य पौषधशालाया 'जाब विहरइ ' यावत् पौपति समाश्रितपौपर विहरति । तत' ख नन्दस्य नन्दाभिधमणिकारश्रेष्ठिनः अष्टमभक्ते परिणम्यमाने सम्पूर्ण माये सति तृष्णया क्षुधया च अभिभूतस्य-व्याकुलस्य सत अयम् वक्ष्यमाणपकारः आयात्मिक % लगा ( तणं से णदे मणियारसेट्ठी, अन्नया कयाड असाहु दसणेण य अपज्जुबामणाण्य, अण्णुसासणाप य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २ मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवडमाणेहिं २ मिच्छत्त विप्पडिवन्ने जाए याचि होत्था) मेरे वहा से विहार करने के बाद वह मणिकार श्रेष्ठी नद किसी एक समय असाधु के दर्शन से कुगुरू के ससर्ग से-मद्गुरूओ की अनासेवना से, सुगुरु के उपदेश की प्राप्ति नहीं होने से सुगुर के पास धर्म के श्रवण का अभाव होने से, तधा सम्यक्तवरूप पर्यव-परिणाम प्रशः क्षीरमाण होने से एव मिथ्यात्वरूप पर्यव-परिणाम क्रमश वृद्धिंगत होते रहने से मिथ्या त्व दगापन्न बन गया= मिथ्यात्वी हो गया । (तएणं पदे मणियारसेही अन्नया गिम्हवान्समयसि, जेहा सूलसि, मास स अहमभत्तं परिगेण्हइ, २ पोसहसाला जाव विहरइ, तण्ण नदस्स अट्ठमभत्तसि, परिणममाणमि, तण्डाए छुहाए, य अभिभूपस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झत्यिए समुप्पज्जिया) किसी एकदिन ग्रोप्म काल के समय में __(तएण से पदे मणियार सेट्ठी अन्ना कयाइ अमाहुदसणेण य अपज्जु वासणाए य अण्शुसासणाए य अमुस्मसणाए य सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहिं २ मिन्उत्तपज्जवेटि परिवडमाणेहिं २ मिन्उत्त पिप्पडिवन्ने जाए पावि होत्था)
ત્યાથી મારા વિહાર કર્યા પછી કોઈ વખતે અસાધુના દશ નથી, કુગુરૂના સ સર્ગ ( સાબત) થી ગુરૂઓની અનાવનાથી, સુગરૂના ઉપદે ને સાભળ વાની તક નહિ મળવાયો ગુરૂની પાસેથી ધર્મ નહિ સાભલવાથી તેમજ સમ્યક વ ૩૫ પર્યવ-પરિણામ અનુક્રમે ક્ષીયમાણ (નષ્ટ) હોવાથી અને મિથ્યાત્વરૂપ પર્યવ પJિામ અનુક્રમે વૃદ્ધિ પામવાથી મિથ્યાત્વ દશાપન થઈ ગયેमिथ्यानी 5 गयो ( ताण दे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हकारसमय सि, जे मूलसि, माससि अट्टमभत्त परिरोण्हइ २ वोमहसालाए जार विहरइ तएण नदास अद्वनमत्तमि परिणम नाणसि, तण्हाण उहाण य अभिमूयस्स ममाणस्म इमे यारुवे अज्झत्यिए समुपसिनत्था) 35हिवसे Gunाना २४ महिनामा
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तापमा विहार विहारामि । ततः खलु स नन्दो मगिकारश्रेष्ठी अन्पदा रदाचित् 'असाहु दसणेणय ' असाधुदर्शनेन-गुरुमसर्गेग ' अपज्जुवासणा ' अपर्युपासनया पमुगुरोरनासेपनेन ' अणणुसासणार य' जननुशासनया च-मुगुरोरुपदेशाभावेन ' असुस्म्सणाए य' अशुश्रूपणया च-मुगुरोरन्तिके धर्मयपणाभावेन च, तथा 'सम्मत्तपज्जवेहि' सम्यक्त्तपर्यो 'परिहायमाणेहि परिहीयमाने २ क्रमशः क्षीयमाणै 'मिन्उत्तपज्जवेहि मियात्वपर्यौ 'परिमाणेहि ' परिवर्दमानैःपुनः पुनः क्रमशो रद्धिमुपगते सः नन्दमणिकारश्रेष्ठी मिथ्यात्व मिथ्यास्वभाव प्रतिपा-माप्त =मिथ्यावी जातथाप्यभूत् । ततः सलु नन्दोमाणिकारश्रेष्ठी यारसेट्ठी इमीसे का लट्ठ समाणे पहा०० पायचारेण जाव पज्जुवासइ, ण दे धम्म सोच्चा, णिसम्म समणोवास जाए ) उसी काल में और उसी समय में हे गौतम 1 में उस राजगृह नगर में विहार करता हा परचा । वहाँ का समस्त परिपदा वदना नमस्कार करने के लिये गुणशिरक चैत्य मे आई । श्रेणिक राजा भी आया । जय उस मणि कार श्रेष्ठी नद को मेरे आने का समाचार मिला तो वह भी स्नान आदि से निश्चिन्त होकर पैदल ही मेरी वदना करने के लिये आया । घहा आकर वह बदना, नमस्कार कर यथा स्थान पर बैठ गया। उसने श्रुन चारित्र रूप धर्म का व्याख्यान सुनकर गृहस्थधर्म धारण कर लिया । अर्थात् वह श्रमणोपासक बन गया । (तएण अह रायगिराओ पडि निक्खते रहिया जणवयविहार विहरामि) इसके बाद में वश से राजगृह से निकला और निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने राया णिग्गए, तएण से णद मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लढे समाणे पहाए. पायचारेणं जान पज्जुवासइ, णदे धम्म सोचा, णिसम्म समणोवासए जाए)
તે કાળે અને તે સમયે હે ગૌતમ! હું વિહાર કરતે કરતે રાજગૃહ નગરમાં પહેમ્યા નગરની પરિષદા ગુણશીલક શૈત્યમાં વેદના અને નમસ્કાર કરવા માટે આવી શ્રેણિક રાજા પણ વદન તેમજ નમન કરવા માટે આવ્યા હતા મણિ ચાર શ્રેષ્ટિ ન દને જ્યારે મારા આવવાના સમાચારો મળ્યા ત્યારે તે સ્નાન વગેરેથી પરવારીને પગપાળા જ મને વદન કરવા માટે આવ્યો ત્યાં આવીને વદન તેમજ નમન કરીને તે ઉચિત સ્થાને બેસી ગયે કૃતચારિત્રરૂપ ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાભળીને તે ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કરી લીધો એટલે કે તે પ્રમાણે पास 25 गये (तएण अह रायगिहाओ पडिनिक्सते वहिया जणषयविहार विहरामि) सारपछी त्याथी-सड नारथानीय मने नीजी पहार જનપદોમાં વિહાર કરવા લાગ્યો
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अनगारधर्मामृतवर्षिणो टोका अ० १३ नन्दमणिकारमवर्णनम्
CO
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अन्यदा = एकस्मिन् काले ग्री'मकालसमये = ग्रीष्मऋतौ ' जेहामूलमि माससि ' ज्येष्ठामृले मासे-ज्येष्ठायामूलस्य या च द्रेण सह योगो भवति पौर्णमास्या यस्मिन् मासे स ज्येष्ठामूलन्तस्मिन् = ज्येष्ठामृले मासे ज्येष्ठमासे इत्यर्थः । अट्टममत्त ' अष्टम मक्तम्-उपासनारूप तप परिगृहाति = स्वीकरोति, परिगृद्य पौपधशालाया 'जाव विहर' या पोपरित = समाश्रितपौपः विहरति । ततः ख नन्द्रस्य = नन्दाभित्रमणिकारश्रेष्ठिनः पदमभक्ते परिणम्यमाने = सम्पूर्णमाये सति तृष्णया क्षुधया च अभिभूतस्य= व्याकुलस्य सन. अयम् = वक्ष्यमाणप्रकारः आध्यात्मिक लगा ( तरण से पदे मणियारसेट्ठी, अन्नया कघाड असाहु दसणेण य अपज्जुवासणाण्य, अण्णुसामनाए य असुस्साए य सम्मत्तपज्जवेहिं परियमाणेहिं २ मिच्छन्तपज्जवेहिं परिवढमाणेहिं २ मिच्छत्त विडिवन्ने जाए याचि होत्था ) मेरे वहा से विहार करने के बाद वह मणिकार श्रेष्ठी नद किसी एक समय असाधु के दर्शन से कुगुरू के ससर्ग से - सद्गुरूओ की अनासेवना से, सुगुरु के उपदेश की प्राप्ति नही होने से सुगुरु के पास धर्म के श्रवण का अभाव होने से, सम्यक्त्वरूप पर्यव - परिणाम क्रमशः क्षीरमाण होने से एव मिथ्यात्वरूप पर्यव - परिणाम क्रमश वृद्धिंगत होते रहने से मिथ्या त्व दशापन्न वन गया= मिनात्वी हो गया । (तरण पदे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हवान्ममयसि, जेवा सूलसि, मासस अहमभत्त परिगेण्ट, २ पोसहसालार जाव विहरड़, तण्ण नदस्स अट्ठमभत्तसि, परिणममाणमि, तहा छुए, य अभिभूत्रस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थि समुपज्जित्था ) किसी एकदिन ग्रीष्म काल के समय में
( वरण से पदे मणियार मेट्ठी अन्नया कयाइ अमाहुदसणेण य अपज्जु वासना य अण्णुसारणाए य अमुस्त्रसणाए य सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २ मित्र उत्तपन परिमाणेहिं २ मिच्छत विष्पडिवन्ने जाए नाव होत्था ) ત્યાથી મારા વિહાર કર્યાં પછી કાઇ વખતે અસાધુના દનવી, કુગુરુના સ સ ( સેામત ) થી સદ્ગુરૂએની અનાસેવનાથી, ભૃગુરૂના ઉપદેગને સાભળ વાની તક નહિ મળવાવી, સુગુરૂની પારેવી ધન નહિ મામલવથી તેમજ સમ્યકવ રૂપ પવ-પરિણામ અનુક્રમે ક્ષીયમાણ ( નષ્ટ) હેાવાથી અને મિથ્યા સ્વરૂપ પત્ર પિત્રકામ અનુક્રમે વૃદ્ધિ પામવાથી મિથ્યાત્વ દશાપન થઇ ગયે– भिभ्याली गई गये। ( तण ण दे मणियारमेट्ठी अन्नया हिका समय सि जे मूलसि, मासमि अट्ठगभत्त परिगेन्हइ २ शेमसालाए जान विहरइ तएण नदास अनमत्तमि परिणम गणसि, तहाए हाय अभिमूयास ममाणहम इमे Trader समुप्यनित्या ) अर्थ थे! हिवसे उनाजाना भेठ महिनामा
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ज्ञाताधर्मकथा
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विहार विहारामि । ततः खलु स नन्दो मगिकारश्रेटी अन्यदा कदाचित् 'असाहु दसणेणय' असाधुदर्शनेन= कुगुरुमसर्गेग 'अपज्जुवासणात ' अपर्युपासनया चन् सुगुगेरनासेवनेन 'अणणुसा सगा य' जननुशारानया च= सुगुरोरुपदेशाभावेन • अनुस्मृसणाए य' अशुश्रूषणया च = मुगुरोरन्तिके धर्मणाभावेन च, तथा 'सम्मत्तपज्जयेहिं सम्यक्त्तापर्यं परिहायमाणेहिं परिहीयमाने २ क्रमशः क्षीयमाणै 'मित्त पज्जवेहिं मिथ्यात्वपर्यये 'परिमाणेहिं परिवर्द्धमाने. = पुनः पुन क्रमशो रद्विमुपगते सः नन्दमणिकारश्रेष्ठी मिथ्यात्व मिथ्यास्वभाव प्रतिपा=माप्त = मिथ्यात्वी जातश्चाप्यभूत् । ततः सलु नन्दोमाणिकार श्रेष्ठी यारसेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठे समाणे पहाण्० पापचारेण जाय पज्जुवास, ण दे धम्म सोच्चा, णिसम्म समणोचासन जाए ) उसी काल में और उसी समय मे हे गौनम । में उस राजगृह नगर में विहार करता हुआ पहुँचा। वहां का समस्त परिषदा बदन। नमस्कार करने के लिये गुगशिक चैत्य से आई । श्रेणिक राजा भी आया । जय उस मणि कार श्रेष्ठी नद को मेरे आने का समाचार मिला तो वह भी स्नान आदि से निश्चित होकर पैदल ही मेरी चदना करने के लिये आया । वहा आकर वह वदना, नमस्कार कर यथा स्थान पर बैठ गया । उसने श्रुत चारित्र रूप धर्म का व्याख्यान सुनकर गृहस्थ धर्म धारण कर लिया अर्थात् वह श्रमणोपासक बन गया । (तएणं अह रायगिहाओ पडि निक्खते रहिया जणवयविहार विरामि ) इसके बाद मैं वश से राजगृह से निकला और निकल कर बाहर जनपदो में विहार करने
या ग्गिए, तपण से पद मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठे समाणे व्हाए० पायचारेणं जान पज्जुनासर, पदे धम्म सोचा, णिसम्म समणोवासए जाए )
તે કાળે અને તે સમયે કે ગૌતમ ! હું વિહાર કરતા કરતા રાજગૃહ નગરમા પહેાગ્યે. નગરની પરિષદા ગુણુશીલક ચૈત્યમા વદના અને નમસ્કાર કરવા માટે આવી શ્રેણિક રાજા પશુ વદન તેમજ નમન કરવા માટે આવ્યા હતા મણિ ચાર શ્રેષ્ઠિનને જ્યારે મારા આવવાના સમાચાર મળ્યા ત્યારે તે સ્નાન વગેરેથી પરવારીને પગપાળા જ મને વદન કરવા માટે આવ્યા ત્યા આવીને વદન તેમજ નમન કરીને તે ઉચિત સ્થાને બેસી ગયા શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મોનુ વ્યાખ્યાન સાભળીને તેણે ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કરી લીધે એટલે કે તે શ્રમણા पास गये। ( तपण अह रायगिदाओ पडिनिक्सले बहिया जणत्रयविहार विहरामि ) त्यस्पछी हु त्यथी - रामगृह नगरथो नीज्यो भने नीडजीने महार જનદેમા વિહાર કરવા લાગ્યા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम्
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परुित्तरपौरस्त्ये दिग्भागे वैभारपर्वतस्य अदूरसामन्ते= नातिदूरे नातिसमीपे पार्श्व भागे इत्यर्थ. ' चत्युपाढग रोइयसि वस्तुपाठकरूचिते वस्तुपाठकाना = गृहादिनिर्माणशास्त्र निपुणाना=भूगर्भविद्याविशारदाना रुचित' =रुचिविषयीभूतस्तस्मिन् तादृशे भूमिभागे= भूमदेशे यावत् नन्दा = नन्दाभिधा पुष्करिणी-वापी खनयितुम् । इति कृत्वा = इति मनसिनिवाय एव वक्ष्यमाणप्रकारेण ममेक्षते, विचारयति, सप्रेक्ष्य कल्पे दुष्प्रभावाया यावत्- रजन्या तेजसा ज्वलतिसूर्ये= सूर्योदये सति पौषधं पारयति, पारयित्वा स्नात. कृतनलिकर्मा मित्रज्ञाति यावत्सारितः महार्थ 'जाव रायारिह ' महार्थं महार्ह विपुल राजार्हमाभृत गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रत्र श्रेणिको
}
अब यही उचित है कि मे भी दूसरे दिन प्रातः काल होते ही श्रेणिक राजा से पूछकर राजगृह नगर के बाहिर ईशान कोण की ओर वैभार पर्वत की तलहटी - पार्श्वभाग में जिस स्थान को वास्तुशास्त्र के वेत्ता पास करे उस स्थान पर एक नदा नामकी बावडी को खुदवाऊ । इस प्रकार उस ने अपने मन मे विचार किया । (सपेहित्ता कल्ल पा० जाव पोसह पारेद्द पारेता पहाए कपबलिकम्मे मित्तणार जाव सपरिबुडे महत्व जाव रायारिह पाहुड गेण्टइ, गेष्टित्ता, जेगेव सेणिए राया तेणेव उवा० उवागच्छित्ता जाव पाहुड उबडवे, उबटूवेत्ता एव वयासीइच्छामिण सामी 'तुम्भेहिं अम्भणुन्नाए समाणे रायगिहस्सा बहिया जाव खणावेत्त, अहार देनाणुप्पिया ) विचार करके उसने प्रात. काल सूर्योदय होने पर पौपन को पारा (पाला) | ( पार कर ) पाल कर पौपध को समाप्त कर फिर उसने स्नान किया । स्नान से निवट कर काक आदि पक्षियों को अन्नादि का भाग रूप बलिकर्म किया । बाद में
મને એજ ચેાગ્ય લાગે છે કે હુ પણ આવતી કાલે સવાર થતા જ · ઊક રાજાની આજ્ઞા મેળવીને રાજગૃહ નગરની મહાર ઇશાન ાણમા વૈભાર પર્વતની તળેટીમા વાસ્તુશાસ્ત્રને જાણનારા જે સ્થાનને પમદ કરે તે સ્થાન ઉપર એક नही नामे वाव चोहावु या रीते तेथे भनभा विचार ज्यों (सपेक्षित्ता कल पा० जोव पोसह पारेइ पारेता व्हाए कथनलिकम्म मित्तलाइ जाव सपरिबुडे महत्य जाव रायरिह पाहुड गव्हइ गेव्हित्ता, जेणेन सेणिए राया तेणेव उवा० उवागच्छिता जाव पाहुड उत्रटूवेई उपटूवेत्ता एव वयासी इन्चमि ण सोमी ! तुभेहि अन्भणुन्नाए समाणे रायगिहस्सा बहिया जाव सणावे तर, अहामुह देवाणुपिया 1) विचार उरीने तेथे मीन हिवसे सवारे सूर्योदय थता पौषध પાન્ચે અને પૌષધ પાળાને તેણે સ્નાન કર્યું અને ત્યારપછી કાગડા વગેરે
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
आत्मगतोविचार समुदपद्यत । तदेवाह-' धमाणव ' इत्यादि-धन्याः खलु ते राजेश्ववरात्सार्थवादप्रभृतय, येषा खल राजगृहस्य दि. वहयो वाप्यः = सामान्यः पुष्करिण्यः = मल्युक्ता यावत् सरःसर पक्तिका = यौ कस्मात्मरसो ऽस्मिन् सरसि जल वहति, एन सरसा जलाशयाना परक्तपः पतिभूता जला शया इत्यर्थः निद्यन्ते यत्र सलु बहुजनः = जनसमुदायः स्नाति च पिवति च तथापानीय च समहति ततो जल नगति । तत्तस्मात्प उचित सलु मम करये= मादुष्प्रभाताया रजन्या सूर्योदये सतीत्यर्थ, श्रेणिक राजानमापृच्ज्य राजगृहस्य
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जेठ मास मे मणिकार श्रेष्ठी नद ने अष्टम भक्त किया तीन उपवास किये- और पोपध शाला में रहा । जब उसकी यह तपस्या पूर्ण प्राय हो रही थी तब उसे तृष्णा पिपासा और क्षुधा ने व्याकुल कर दिया। उस समय उसे इस प्रकार का विचार आया- ( धन्नाण ते राईसर जाव सत्थवाहपभियओ जेसिणं रामगिहस्स यहिया बहओ बावीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपतियाओ जत्थण चजणो पहाड़ य, पियड य, पाणियच सवहहत सेय मम कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता राय गिहस्स पहिया उत्तरपुरत्विमे दिसिभाए वैभारपव्त्रयस्स अदूर सामते वस्तुपाढरोइयसि भ्रमिभागसि जाव णद पोक्खरणिं खणा
एक एव सपेहेइ ) राजेश्वर से लेकर सार्थवाह प्रभृति वे जन यवाद के पात्र है कि जिनकी राजगृह नगर के बाहर अनेक वावडिया है, - पक्ति भूत जलाशय हैं कि जिन में अनेक मनुष्य स्नान करते हैं, अनेक जन पानी पीते है अनेक उन में से पानी ले जाते हैं। तो मुझे भी
મણિકાર શ્રેષ્ઠિ નદે અષ્ટન ભક્ત કર્યાં-ત્રણ ઉપવાસ કર્યો-અને પૌષધશાળામા રહ્યો જ્યારે તેની આ તપસ્યા પૂરી થવાની અણી ઉપર જ હતી ત્યારે તેને તરસ અને ભૂખે વ્યાકુળ બનાવી દીધા તે સમયે તેણે વિચાર કર્યાં કે—— ( धन्ना ण ते राई सर जाव सत्थवोह रभियओ जेसिण रायगिहस्सा बहिया बहूओ बावीओ पोक्सरणोओ जाव सरसरप तियाओ जत्थ ण बहुजणो दाइ य, पियइ य, पाणियच सहइ त सेय कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता रायगिहस्स दहिया उत्तरपुरत्थि मे रिसभाए वैभारपव्ययस्स अदूरसामते वस्तुपाढरोट्र्यसि भूमिभाग सि जाव ण्द पोक्खरणि सणावेत्तर तिकटु एव स पेहेइ ) शनेश्वरथी માડીને સાવાર્હ વગેરે તે લેાકેાને ધન્ય છે કે રાજગૃહ નગરની બહાર એમની ઘણી વાવે છે, પક્તિભૂત જળાશયેા છે-કે જેમા ઘણા માણુસા સ્નાન કરે છે, ઘણા માણસે પાણી પીએ છે, ઘણા તેએમાથી પાણી લઇ જાય છે તે હવે
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नगारधर्मामृतवपिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम् पहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे वैभारपर्वतस्य अदूरसामन्ते-नातिदरे नातिसमीपे पार्श्व भागे इत्यर्थ. 'वत्युपाढगरोदयसि ' वस्तुपाठकलचिते-वस्तुपाठकानागृहादिनिर्माणशास्त्रनिपुणाना-भूगर्भविद्याविशारदाना रुचितः रुचिविषयीभृतस्तस्मिन् ताशे भूमिभागे-भूप्रदेशे यावर नन्दा-नन्दाभिधा पुष्करिणीवापी खनयितुम् । इति कृत्वा इति मनसिनिपाय एप-वक्ष्यमाणपकारेण समेक्षते,-विचारयति, सप्रेक्ष्य कल्पे मादुष्प्रभाताया यावत्-रजन्या तेजसा ज्वलतिमूर्ये-सूर्योदये सति पौपधं पारयति, पारयित्वा स्नातः कृतवलिकर्मा मित्रज्ञाति यावत्सरितः महार्थ 'जावरायारिद्द ' महाध महाहं विपुल राजाहमाभृत गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैर श्रेणिको अब यही उचित है कि मे भी दूसरे दिन प्रातः काल होते ही श्रेणिक राजा से पूछकर राजगृह नगर के वाहिर ईशान कोण की ओर वैभार पर्वत की तलहटी- पार्श्वभाग- में जिस स्थान को वास्तुशास्त्र के वेत्ता पास करे उस स्थान पर एक नदा नामको वावडी को खुदवाऊ । इस प्रकार उस ने अपने मन में विचार किया । (सपेहिता कल्ल पा० जाव पोसह पारेइ पारेत्ता हाए कयरलिकम्मे मित्तणाइ जाव सपरिवुडे महत्थ जाव रायारिह पाहुड गेण्ड, गेण्डित्ता, जेगेव सेणिए राया तेणेव उवा० उवागच्छित्ता जाव पाहुड उवटवेह, उपहवेत्ता एव वयासीइच्छामिण सामी ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत, अहासुर देनाणुप्पिया ' ) विचार करके उसने प्रात. काल सूर्योदय होने पर पौषध को पारा (पाला)। (पार कर ) पाल कर पोपध को समाप्त कर-फिर उसने स्नान किया। स्नान से निपट कर काक आदि पक्षियों को अन्नादि का भाग रूप बलिकर्म किया। बाद में મને એજ ચગ્ય લાગે છે કે હું પણ આવતી કાલે સવાર થતા જ કેણિક રાજાની આજ્ઞા મેળવીને રાજગૃહ નગરની બહાર ઈશાન તેણમાં વભાર પર્વતની તળેટીમાં વાસ્તુશાસ્ત્રને જાણનારા જે સ્થાનને પમ દ કરે તે સ્થાન ઉપર એક नही नामे वा पोहावु मा ते तेथे मनमा विया२ इयो (सपेहिता कल्ल पा० जोव पोसह पारेइ पारे तो 'हाए कयनलिकामे मित्तणाइ जाव सपरिखुडे महत्थ जाव रायारह पाहुड गव्हइ गेण्हित्ता, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवा० उवागच्छिवा जाव पाहुड उबट्टवेइ उट्टवेत्ता व क्यासी इच्छामि ण सोमी! तु भेहिं अभणुनाए समाणे रायगिहस्स पहिया जाव सणावे वए, अहासह देवाणुपिया !) पियार शन तो भी- हसे अवारे सूर्याय यता पौषध પાળે અને પવધ પાળીને તેણે ન્માન કર્યું અને ત્યારપછી કાગડા વગેરે
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ताधर्मकथा आत्मगतीविचार समुदपद्यत । तदेवाह-'धमागत' इत्पादि-धन्याः खलु ते राजेश्ववरयारत्साहवाहप्रभृतय , येपा खल्ल राजगृहस्य बादिः वहयो वाप्या सामान्यः पुष्करिण्य' अमल युक्ताः यावत्-सर: सर पक्तिका यकस्मात्सरसो ऽस्मिन् सरसि जल प्रवति, एघ सरसा जलाशयाना पड़ता पड़क्तिभूता जला शया इत्यर्थः निधन्ते, यत्र खलु पहुगना जनसमुदायः स्नाति च पिवति च तथापानीय च सरहति-ततो जल नाति । ततस्मादय -उचित खल्लु मम कल्ये प्रादुष्प्रभाताया रगन्या सूर्योदये सतीत्यर्थ , श्रेणिक राजानमापूच्च्च राजगृहस्य जेठ मास मे मणिकार श्रेष्ठी नद ने अष्टम भक्त किया तीन उपवास किये- और पौपध शाला में रहा- जब उसको यह तपस्या पूर्णप्राय हो रही थी तब उसे तृष्णा पिपासा और क्षुधा ने व्याकुल कर दिया। उस समय उसे इस प्रकार का विचार आया- ( धानाण ते राईप्सर जाव सत्यवाहपभियओ जेसिणं रायगिहस्स पहिया बहओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपतियाओ जत्यण बहुजणो हाइ य, पियड य, पाणिय च सवह त सेय मम कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता राय गिहस्स पहिया उत्तरपुरत्यिमे दिसिभाए वेभारपत्रयस्स अदूर सामते वस्तुपाढगरोदयसि भूमिभागसि जाय णद पोक्रवरणिं खणा वेत्तए त्तिक एव सपेहेह) राजेश्वर से लेकर सार्थवाह प्रभृति वे जन धन्यवाद के पात्र है कि जिनकी राजगृह नगर के बाहर अनेक वावडिया है,-पक्ति भूत जलाशय है कि जिन में अनेक मनुष्य स्नान करते हैं, अनेक जन पानी पीते है अनेक उन में से पानी ले जाते हैं। तो मुझे भी
મણિકાર શ્રેષ્ટિ ન દે અષ્ટમ ભક્ત કર્યો-ત્રણ ઉપવાસ કર્યા–અને પૌષધશાળામાં રહ્યો જ્યારે તેની આ તપસ્યા પૂરી થવાની અણી ઉપર જ હતી ત્યારે તેને તરસ અને ભૂખે વ્યાકુળ બનાવી દીધા તે સમયે તેણે વિચાર કર્યો કે(धन्ना ण ते राई सर जाव सत्थरोहरभियओ जेसिण रायगिहस्स बहिया बहूओ वावोओ पोक्सरणोओ जार सरसरप तियाओ जत्थ ण बहुजणो हाइ य, पियइ य, पाणिय च स वहइ त सेय कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता गयगिहास यहिया उत्तरपुरस्थिमे बिसीभाए वेभारपव्ययरस अदूरसामते वस्तुपाढगरोइयसि भूमिभाग सि जाव पद पोक्खरणिं खणावेत्तए तिकटु एव स पेहेइ) रा२श्वरथी માડીને સાર્થવાહ વગેરે તે લોકોને ધન્ય છે કે રાજગૃહ નગરની બહાર જેમની ઘણું વાવે છે, પક્તિભૂત જળાશ છે-કે જેમા ઘણુ માણસે સ્નાન કરે છે, ઘણુ માણસે પાણી પીએ છે, ઘણુ તેમાથી પાણી લઈ જાય છે તે હવે
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tantraणी टीका २०१३ नन्दमणिकारभववर्णनम्
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नन्दा पुष्करिणी अनुपूर्वेण= क्रमेण सन्यमाना खन्यमाना पुष्करिणी जाता चाप्यासीत्, सा कीदृशी जाता ? इत्याह-' चाउकोणा ' इत्यादि-' चाउकोणा ' चतुष्कोणा = समतीरा समम् = उन्नतत्वापनतत्वरहित तीर-तटमदेशो यस्या' सा तथोक्ता, 'अणुपुन्नसृजायचपगभीरसीपलजला' अनुपूर्वे सुजानमगम्भीर शीतलनलाअनुपूर्वेण = क्रमेण नीचैर्नी चैस्तरादिभानरूपेण सु-सुष्ठु अतिशयेन यो जातः चम = केदाराकार जलस्थान तत्र गम्भीरम् = अगाध शीतल च जल यस्था सा तथा, सउणपतत्रिसमुणाला ' संन्नपन पिसमृणाल = सन्नानि जलेना तरितानि जलमग्नानोत्यर्थः पत्राणि = कमलदलानि विसानि= कमलकन्दा मृगालानि=कमल
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,
होकर निकला । निकलकर फिर वह वास्तु शास्त्र के बेत्ताओं द्वारा निदिष्ट स्थान पर पहुँचा वहाँ पहुँचकर उसने नदा नाम की बावडी खुदवानी प्रारंभ कर दी । (तएण सा नदा पोक्खरणी अणुपुव्वेण खणमाणा २ पोखरणी जाया याचि होत्था चाउकोणा, समतीरा, अणुपुञ्च सुजयाच पगभिरसीयलजला, सछण्णत्तनिसमुणाला, बहुप्पलपडमकुमुय नलिणसुभगसोगधियपुडरीय सयपत्तसहस्स पत्तय फुल के सरोववेया परिह त्थभमन्तमत्त उप्पयअणेगसउणगणमिणविहरियस दुन्नइयमहुरसुरनाइया पसाईया) क्रमशः खुदती २ वह नदा पुष्करिणी एक दिन वास्तविक पुष्करिणी के रूप में तैयार हो गई। इसके चारकोने थे । तट प्रदेश इसका समान था । ऊँचाई नीचाई से रहित था । इस वावडी का अगाव शीतल जल से भरा हुआ नीचेका जल स्थान बहुत नीचा बहुत गहरा था और क्रम क्रम से निष्पन्न करने मे आया था। इस में
આવીને તે રાજગૃહ નગરની વચ્ચે થઈને નીકળ્યે નીકળીને તે વાસ્તુાસ્રના નિષ્ણાતે વડે બતાવવામા આવેલા સ્થાન ઉપર પહોચ્યા અને ત્યા જઈને તેણે નદા નામની વાવ ખેાદવવી શરૂ કરી દીધી तएण सा नदा पोक्सरणी अणु पुवेण सणमाणा २ पोक्सरणी जाया यावी होत्था चाउक्कोणा, समतीरा, अणुपु व्वसुजायवप्पग भीरसीयलजला स छष्णपत्तविस मुणाला, बहुप्पलपउमकुमुयन लिणसुभ सोग धियपु डरी यमापु डरीयसयपत्तसहस्स पत्तयफुल्ल केमरोनवेया परिइत्ययम तमत्त छप्पय अणेगस उणगणमिहुणविचरियस दुन्नइयम हुरसुरनाइया पासाईया) साम हर ખાદતા ખેાદતા છેવટે એક દિવસે ના પુષ્કરિણી વાવ) સ પૂર્ણ પણે ખોદાઇ ગઇ તેને ચાર ખુણા હતા કિનારાના ભાગ તેના એક સરખાહને એટલે કે ઊંચા નીચા નહોતા આ વાવનું અગાધઠડા પાણીથી ભરેલું નીચેનુ જળ સ્થાન ખૂબ જ ઊંડુ
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माताधकपा राजा तोपागाउति, उपागत्य यारत्मामृतम् उपस्थापयति उपस्थाप्या एवमया दीव-इन्ठामि खलु हे सामिन् ! युप्माभिरभ्यनुज्ञात' सन राजगृहस्य बहिः
जार खणावेत्तए । यान्-उत्तापौरस्त्ये दिग्मागे मारपर्वतस्यादरसामन्ते वास्तु पाठकरुचिते भूमि मागे यापन् नन्दा पुष्करिणी खनयितुम् । श्रेणिको पारपथासुख हे देशानुपिय । इच्छानुसार कुरु । ततः खलु नन्द श्रेष्ठी श्रेणि केन राज्ञाऽभ्यनुज्ञात. सन् हतुष्टः रामगृहस्य म यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य वस्तु पाठक्रुचिते भूमिभागे नन्दा पुर फरिणी बनयितु प्रत्तत्राप्यभवत् । ततः खलु सा मित्रादिजनो से परिवृत होकर उसने महार्थ साधक यावत् बहुत कीमती राजा को भेट करने योग्य पदार्थ लिया । लेकर वह जहाँ श्रेणिक राजा था वहा गया । वहा जाकर उसने राजा को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और फिर वह भेट उनके समक्ष रखी। बाद में राजा से उसने इस प्रकार कहा हे स्वामिन् मे आपसे आजा प्राप्तकर राजगृह नगर के बाहर ईशान कोण में चैनार गिरि के पार्श्वभाग में एक पुष्करिणी बन वाना चाहताहै । राजा ने उस की बात सुनकर उससे का हे देवानु प्रिय ! यथासुखम्- तुम्हारी जैसी इच्छा हो उस के अनुसार वैसा ही करो । (तएण णदे सेणिएण रन्ना अभयुन्नाए समाणे हट्ट रायगिह मज्झ मज्झेण निग्गच्छद २ वत्युपाढयरोइसि भूमिभागसि णद पोक्खरणिं खणाविउ पयत्ते यावि होत्या) उस प्रकार श्रेणिक राजा से आज्ञा प्राप्त कर वह मणिकार श्रेष्ठी नद बहुत ही अधिक आनदित एव सतुष्ट हुआ। बाद में वहा से आकर वह राजगृह नगर के बीच से પક્ષીઓને અન્નભાગ અપને બલિકર્મ કર્યું ત્યારબાદ પિતાની મિત્ર–મડળીને સાથે લઈને હાર્થ સાધક યાવત બહુ કિંમતી રાજાને ભેટ કરવા યોગ્ય પદાર્થો લીધા લઈને તે જ્યા શ્રેણિક રાજા હતા ત્યા ગયે ત્યા પહેચીને તેણે બને હાથ જોડીને રાજાને નમસ્કાર કર્યા અને પછી ભેટ તેમની સામે અર્પણ કરી ત્યારબાદ રાજાને વિનતી કરતા તેણે કહ્યું કે હે સ્વામી! તમારી આજ્ઞા મેળ વીને હું જિગૃહ નગરની બહાર ઇશાન કોણમા વૈભાર પર્વતની તળેટીમાં એક પુષ્કરિણી (વાવ) ખોદાવવાની મારે ઈરછા છે રાજાએ તેની વાત સાંભળીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! “યથા સુખમ ” તમારી જેવી ઈચ્છા હોય ખુશીથી तमे ते प्रभारी ४२। (तएण ण दे सेणिएण रन्ना अन्भुणुनाए समाणे हट्ठ० रायगिह मज्झ मझेण निगच्छइ २ व.थुपाढयरोइसि भूमिमाग सि णद पोक्सरणिं खणाविउ पयत्ते यावि होत्या) 20 शते अणि रात पाथी माशा भगवान
* તે મણિકાર શ્રેષ્ટિ નદ ખૂબજ આન તિ તેમજ સંતુષ્ટ થયે ત્યાર *
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०६३ नन्दमणिकारभवर्णनम् नन्दा पुष्करिणी अनुपूर्वेण-क्रमेण खन्यमाना खन्यमाना पुष्करिणो जाता चाप्यासीत् , सा कीदृशी जाता ' इत्याह-' चाउकोणा' इत्यादि-' चाउकोणा ' चतुष्कोणासमतीरा समम् = उन्नतत्वाचनतत्वरहित तीर-तटमदेशो यस्याः सा तथोक्ता, 'अणुपुष्यसुजायव पगभीरसीयलजला ' अनुपूर्वे सुजातवमगम्भीरशीतलजलाअनुपूर्वेण-क्रमेण नीचैनी चैस्तरादिभावरूपेण सुम्सुष्टु अतिशयेन यो जातः वम = केदाराकार जलस्थान तत्र गम्भीरम् अगाध शीतल च जल यस्था सा तथा, ' सणापत्तविसमुणाला ' संछन्नपरपिसमृणालग-सछन्नानि जलेनान्तरितानि जलमग्नानीत्यर्थः पत्राणि-कमलदलानि पिसानि-कमलकन्दा मृणालानिमलहोकर निकला। निकलकर फिर वह वास्तु शास्त्र के वेत्ताओं द्वारा निदिष्ट स्थान पर पहुँचा-वहाँ पहुँचकर उसने नदा नाम की चावडी खुदवानी प्रारभ कर दी। (तएण सा नदा पोक्खरणी अणुपुम्वेण खणमाणां २ पोक्ग्वर णी जाया याचि होत्था चाउकोणा, समतीरा, अणुपुव्व सुजयावप्पगभिरसीयलजला, सछण्णपत्तरिसमुणाला, बहुप्पलपउमकुमुय. नलिणसुभगसोगधियपुडरीयसयपत्तसहस्मपत्तयफुल्ल केसरोववेयापरिह त्थभमन्तमत्तछप्पयअणेगसउणगणमिणविहरियसदुन्नइयमहुरसुरनाइया पोसाईया) क्रमशः खुदती २ वह नदा पुष्करिणी एक दिन वास्तविक पुष्करिणी के रूप में तैयार हो गई। इसके चारकोने थे। तर प्रदेश इसका समान या । ऊँचाई नीचाई से रहित था। इस वावडी का अगार शीतल जल से भरा हुआ नीचेका जल स्थान बहुत नीचा बहत गहराया और कम क्रम से निष्पन्न करने मे आया था। इस में
આવીને તે રાજગૃહ નગરની વચ્ચે થઈને નીકળે નીકળીને તે વાસ્તુશાસ્ત્રના નિષ્ણાત વડે બતાવવામાં આવેલા સ્થાન ઉપર પહેચ્ચે અને ના જઈને તેણે नह नभनी पाप माह की श३ धा (तएण सा न दा पोक्सरणी अण पुव्वेण सणमाणा २ पोक्सरणी जाया यावी होत्था चाउकोणा, समतीरा, अणुपु ध्यसुजायवप्पग भीरसीयलजला स छण्णपत्तविसमुणाला, बहुप्पलपउमकुमुयनलिणसभ गसोग धियपु डरीयमहापु डरीयसयपत्तसहस्सपत्तयफुल्लकेमरोपवेया परिहत्ययम तमत्त उप्पयअणेगसउणगणमिहुणविचरियसदुन्नइयमहुरसुरनाइया पासाईया) माम १२२९०
દતા દતા છેવટે એક દિવસે ન દા પુષ્કરિણું વાવ) ય પૂર્ણપણે ખેદાઈ ગઈ તેને ચાર ખુણ હતા કિનારાનો ભાગ તેને એક સરખા હતું એટલેકે નીચે નહિ આ વાવનુ અગાધઠડા પાણીથી ભરેલુ નીચેનું જળ સ્થાન ખૂબ જ ઊડુ
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माताधकथा नालानि यस्या सा तथा । 'बहुप्पल्पउमकुमुपनलिणसुभगसोगधियपुडरीय महापुडरीयसयपत्तमहस्सपत्तपफुटकेसरोववेया' बहुत्पलप कुमुदनलिनसुभगसौग धिक्रपुण्डरीफमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपनमफुटकेशरोपपेता-पहनि = वहविधानी उत्पलानि पद्मानि च-सामान्यक्रमलानि कुमुदानि-चन्द्रविकासिमलानि नलि नानि-विशिष्टगन्धयुक्तकमलानि सुभगानि-मुन्दराणि सौगन्धिकानिस भ्यावि कासिकमलानि, पुण्डरीकाणिश्चतकालानि, महापुण्डरीकाणि-महाश्वेतरुमलानि, शतपत्राणि शतदलकमलानि सहस्रदलकमलानि, कीरशानि एतानि ? इत्याहमफुल्लकेशराणि-विकसितकेशराणि, तैरुपपेता-व्याप्ता । 'परिहत्यममतमतच्छ प्पयअणेगमउणगणमिहुणनियरियसछुनइय महुरसरनाइया' परिहत्थनमन्मत्तपट पदानेकशनगणमिथुनश-दोन्नतिकमधुरस्वरनादिता- 'परिहत्य' इतिदेशीशब्दो ऽयम् , परिहत्था 'अचुराः, भ्रमन्तः=इतस्ततो विचरन्तः मत्तामकरन्दपानो न्मत्ताः पडूपदा -भ्रमरास्तेपाम् , तथा-अनेकेपास्ननाविधानां शकुनगणानाहससारसादिपक्षिसमूहानां मिथुनाना-युगलरूपाणां शब्दोन्नतिका उत्कृष्टयुक्ता ये मधुरस्वरःतै नादिताशब्दायमानेत्यर्थ मासादीया, दर्शनीया, अभिरूपामतिरूपा-अत्यन्तरमणीयेत्यर्थः ॥ सू०२ ॥ कमल दल कमल कद और कमल नाल सदा जल से अन्तरित हो रहे थे। यह अनेक प्रकार के विकसित केशरों वाले उत्पलों से, कमलों से, चन्द्रविकाशी कुमुदो से, विशिष्ट गध वाले कमलों से सन्या विकाशी सुन्दर सौगधिको से श्वेतकमलो से, महा पुण्डरीको से, शतपत्र वाले कमलों से और सरस्न पत्र वाले कमलो से आच्छादित हो रही थी। इधर भ्रमण करते हुए अनेक भ्रमरो के कि जो मकरद पोन से उन्म त्त बन रहे थे, तथा नाना प्रकार के पक्षिगणों के-हस, सारस आदि पक्षि समूह के-युगलों के उत्कृष्ट शब्द युक्त मधुर स्वरों से वाचालित
હતુ, ગભીરહતું અને અનુક્રમે નિષ્પન્ન કરવામા આવ્યુ હતુ આમાં કમળદલ, કમળ કદ, અને કમળનાળ હમેશા પાણીથી ઢંકાયેલા (અતરિત) રહેતા હતા આ વાવ ઘણી જાતના વિકસિત કેશવાળા ઉ૫લોચી, કમળોથી, ચ દ્રવિકાસી કુમુદેથી વિશિષ્ટ સુગધવાળા કમળાથી, સધ્યા વિકાસી સુદર સૌગ પિકેથી સફેદ કમ ળેથી, મહા પુડરીકેથી, શતપત્રવાળા કમળાથી અને સહસ ( હજાર) પત્ર વાળા કમળથી ઢંકાયેલી હતીઆ વાવ મકર દ (પુષ્પરસ)ને સ્વાદ લઈને ઉન્મત્ત થઈ ગયેલા આમતેમ ઉડતા ઘણા ભમરાઓના તેમજ ઘણી જાતના પક્ષીઓના હસ, સારસ વગેરે પક્ષી સમૂહને પક્ષીયુગના ઉન
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अनगारधर्मामृतयपिणी टीका ५० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम्
म्लम्-तएणं से गंदे मणियारसेही णदाए पोक्खरणीए घउद्दिसिं चत्तारि वणलडे रोवावेइ । तएणं ते वणसडा अणुपुव्वेण सारविखज्जमाणा संगोविन्जमाणा सवडिजमाणाय वणसडा जाया किण्हा जाव निकुरवभूया पत्तिया पुफिया जाव उबसोभेमाणा२ चिट्ठति । तएणं नदे मणियासेट्री पुरच्छिमि. ल्ले वणसडे एगं मह चित्तसम करावेइ अणेगखभसयसनिविट्ठ पासाइय दरिसणिज्ज अभिरुव पडिरूव तत्थणं वहणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कहकम्माणि य पोत्थकम्माणि चित्तकम्माणि लेप्पकम्माणि गथिमवेढिमपूरिमसघाइमाइं उवदसिजमाणाइ २ चिट्टसि, तत्थ थे वहणि आसणाणि य सयणाणि ये अत्थुयपच्चत्थुयाइ चिटुति, तत्थणं बहवे णडा य णट्टा य जाव दिनभइभत्तवेयणा तालायरकम्म करेमाणा विहरति, रायगिहर्विणिग्गओ य जत्थ बहूजणो तेसु पुवन्नत्थेसु आसणसयणेसु सन्निसन्नो य सतुयद्यो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहमाणो य सुहसुहेण विहरइ ।। सू० ३ ।।
टीका-'तएण' इत्यादि । तत खलु म नन्दो मणिकारश्रेष्ठी नन्दाया पुष्करिण्याश्चतुर्दिक्षु चतुरो वनपण्डान् रोपयति कारयतीत्यर्थः । ततः खलु पनी हुई थी। यह बहुत प्रामादीय, दर्शनीय, अभिरूप एव प्रतिरूप थी-तात्पर्य अत्यत रमणीय थी। सूत्र २ ॥
'तएण से पदे मणियार सेट्टी'-इत्यादि। टीकार्थ-(तएण)इसके बाद(से णदे मणियार सेट्ठी) उस मणिझार श्रेष्ठी સ્વરથી મુખરિત (શબ્દન) થઈ રહી હતી આ વાવ ખૂબ જ પ્રાસાદીય, દનીય, અભિ૩૫ અને પ્રતિરૂપ હતી એટલે કે તે અત્યંત રમણીય હતી સૂત્ર ૨
(तएण से पदे मणियार सेट्रो-इत्यादि टी-(एण) त्या (से ण दे मणियारमेट्टी) ते मशिन ही न
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भाताधर्म थाहस ते वनपण्डाः 'अणुपुत्रेण ' अनुपूर्वेग = अनुक्रमेण 'सारखिज्नमाणा' सरक्ष्यमाणाः = पशुपक्ष्याद्युपद्रातः 'सगोविग्जमाणा ' सगोप्यमानाः हिमवनदनादिभ्य , 'समडिजमाणा य' सवय॑मानाथ-जलसेकादिना वृद्धि माप्ता सन्त' उनपण्डाः पूर्णरूपेण परिणता जाताः । कीदृशास्ते जाताः ? इस्याह -'रिण्टा' इत्यादि 'विणा' काणा'हरितत्वातिशयेन कृष्णवर्णा 'जाव' यावत्-'निकुरूपभूया' महामेपनिारम्भूताः सजलजलधरनिकरसदृशाः पत्रिताः पुप्पिताः 'जाव उरसोभेमाणा २' यावत्-श्रियान्चनपण्डश्रिया अतीव उपशोभ माना २ तिष्ठन्ति । ततः खलु नन्दः मणिकार श्रेष्ठी पौरस्त्ये वनपण्डे एका महनी चित्रसभा पारयति । कीदृशाम् ? इत्याह-'अणेगे' त्यादि-'अणेगखभ
नदने (णदोए पोरसरणीए चउद्दिसिं) नदा पुष्करिणी की चारों दिशा
ओं में (चत्तारिवणसडे रोवावेह) चार वनपड आरोपित करवाये (तपण ते वणसडा अणुपुत्वेण साररिखज्जमाणा सगोविजमाणा सङ्किन माणा य वणसडा जाया किहा जाय निकरभूया पत्तिया पुफिया जाव उसोभेमाणा २ चिति) आरोपित किये गये वे चारो वनषड क्रमशः सरक्षित होते हुए-पशु पक्षी आदि के उपद्रव से बचते हुए-एव हिम वर्षा-दवाग्नि आदि से रहित होते हुए खूब वृद्धिंगत हो गये। इन में चोरों ओर हरियाली २ छा गई-इस से ये काले काले दिखलाई देने लगे-ऐसे मालूम देते थे मानो जल से भरे हुए मेघहों। पत्र और पुष्पों से युक्त होने के कारण इन की शोभा कुछ निराली ही वन गई थी। (तरण णदे मणियार सेट्ठी पुरच्छिमिल्ले वणसडे एग मर चित्त
(णदाए पोक्रसरणीए पउदिसि ) 11 पुरिणी (414) नी सारे मा (चत्तारि वणस डे रोवावेइ ) यार बन५. ३।५।१०। (तएण ते वनम्न डा अणुपुव्वेण सारक्सिज्जमाणा स गोविजमाणास वढिजमाणा य वणस डा जाया किण्हा जाव निकुर व-भूया पत्तिया पुफिया जाव उसोभेमाणा • चिटुति ) पायेा ते ચારેચાર વનડે અનુક્રમે સ રક્ષિત તા-પશુપક્ષી વગેરેના ઉપદ્રવ ની સ રક્ષા ચેલા અને હિમ વનને અગ્નિ ( દાવાનવ) વગેરેથી સરક્ષિત થઈને ખૂબ જ વૃદ્ધિ પામ્યા તેઓમાં ચોમેર હરીયાળી પ્રસરી ગઈ તેથી તેઓ શ્યામ દેખાવા લાગ્યા હતા જાણે કે પાણીથી ભરેલા મેઘ હોય પાદડા અને પુષ્પોથી યુક્ત
समस तानी शामा म निRun ती (तएर्ण ण दे मणियारसेट्ठी पुरच्छिसि डे एग मह चित्तसभ करावेद, . म
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भनगारधर्मामृतयरिंणी टी० अ० १३ न दमणिकारमयनिरूपणम् सयसनिविह' अनेस्तम्भशतसनिविष्टा नानाविधमणिमाणिक्यादि निर्मितस्तम्भशतसनिबद्धा मासादीया दर्शनीयाम् , अभिरूपा, प्रतिरूपाम् । तत्र खलु चित्र समाया चहूनिम्न विधानि कृष्णानि च 'जाव' यारत्-नीलानि च, पीतानि च, रक्तानि च, शुलानि च, 'कम्पणिय' काष्टकर्माणि च-काष्ठशिल्पानि ' पोत्यकम्माणि ' पुस्तकमगि-पुस्तेषु वस्त्र ताडपनर्गलादिषु कर्माणि-लेखन कर्माणि, चित्रकर्माणि-भित्तादिपु चित्ररूपाणि, लेप्यकर्माणि मृत्तिकासेटिकादिना वल्ल्याधाशररचनारिशेपस्पाणि 'गविमवेढिमपूरिमसपाइमाद' ग्रन्थिमवेप्टिमपूरिंग-सघातिमानि, तर ग्रन्थिमानि-कौशलातिशपेन ग्रन्थिसमुदापनिप्पा दितानि, वैप्टिमानि यानि लतादिवेप्टनतो निष्पादितानि तानि पूरिमाणि यानि छिद्रादिपूरणेन निप्पायन्ते कनकादि पुतलिकावत् तानि, मघातिमानिन्यानि सभ करावेड, अणेगग्व मसयमन्निविट्ठ पासाईय दरिसणिज्ज अभिरुवपडिख्य तत्व ण उणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कटकम्माणि य पोस्थकम्माणि चित्तकम्माणि, लेप्परुम्माणि गंथिमवेढिम पूरिम सघाइमाइ उबदमित्रमाणाइ २ निद्वति) उस मणिकार श्रेष्ठी नद ने पूर्व दिशा सबन्धी वनपड मे एक वडी भारी चित्रसभा ननवाई । यह चित्रमभा नाना प्रकार के मणिक्यादि निर्मित हुए सेकडो स्त भों से युक्त थी । प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एर प्रतिरूप थी। उस चित्र मभा मे उसने अनेकविध कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और लाल रगों से कोष्ठ के ऊपर शिल्प कार्य करवाये, एस्त कर्म करवाये वस्त्र, ताड पत्र, कागज आदिकों में लेग्य लिम्बवाये, चित्र कर्म करगये-भित्ति आदिकों के ऊपर नाना प्रकार के चित्र अकित पारवाये, लेप्य कर्म करवायेसयस निवि पासाइय दरिसणिज्ज अभिरूप पडिरून तत्थण बणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कह रम्माणिय पोत्थ इम्माणि चित्तकम्माणि लेप्पकम्माणि ग थिम-वेदिम-परिमम धाइमाइ उपद सिम्जमाणाइ २ चिट्ठति) मणि २ શ્રેષ્ઠિી ન દે તે પૂર્વ દિન તરના વનષડમાં એક બહુ ભારે ચિત્રભા બનાવડાવી તે ચિત્રભા ઘણી જાતના મણિએ માઈક વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા એવા સે કડે થાભલાવાળી હતી તે પ્રાસાદીર દર્શનીય અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતી તે ચિત્રભામાં તેણે ઘણી જાતને કૃષ્ણ નીલ પીત (पी), त ( २ ) 47 साल गोथी ४ ( 1 ) ना GP Cary કામ કરાવડાગ્યા પુસ્તકમાં કરાવડાવ્યા, વસ્ત્ર, તાડપત્ર કાગળ વગેરે ઉપર લેખો લખાવડાવ્યા-ત્રેિ દેરાવાવા, ભીતિ વગેરે ઉપર અનેક જાતના ચિત્રો દોરાવડાવ્યા, લેપ્ય કર્મ કરાવડાવ્યા, માટી લાલ માટી વડે વલી વગેરેની તેમાં
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७४६.
भाताधर्मकथा वस्तुममहेन निष्पायन्ते लोहा ठादिभीदयादित , तानि, एतानि पशुपंक्ष्योंदिरूपाणि ' उपदसिज्जमाणाइ २' उपरश्यमानानि २ लोकरन्योन्य पुनः पुनर पर्यमानानि तिष्ठन्ति-सन्ति । ता खलु यहनि 'आसगाणिय ' आसनानि घेत्रकाप्ठादिनिर्मितानि चतुकोणादिम्पाणि शयनानि-शयनयोग्यानि साईतृतीयहस्तपरिमितानि फलकारीनि, पीसानीत्याह- अत्युय' रत्यादि-' अत्यप
चरयुयाइ ' आस्तनप्रत्यास्ततानि, आरततानि मृदुलरवादिनाऽऽच्छादितानि, में त्यास्वतानि = तदुपरि पुनःपुनर्दुकलादिनाऽऽच्छारितानि तिष्ठन्ति वर्तन्ते । पुनश्च-तत्र खलु रहयो नटाच-गाननृत्याचार. 'गट्ठा य' नृत्ता. केवलमावि क्षेपमात्रेण नर्तनशीलगश्च यावत् 'दिनभइभत्तवेयणा' दत्तभृतिभक्तवेतना. दत्ता मिट्टी, खरियामिट्टी से वल्ही आदि की उममें रचना कावाई । अन्थिम, वेष्टिम, पूरिम, एव सधातिम आदि अनेक खेल भी उस में दिखलाए (तत्यण यदृणि आसणाणि य, सयणाणि य, अत्यु य पञ्चत्युयाइ चिट्ठति तत्थण बरवे णडायणट्टा य, जाव दिनभहभत्तवेयणा तालायकम फेरेमाणा विहरति) अनेक आसन, शयन, जो आस्तृत प्रत्यास्तृत में चे भी उसमें रखवाये, वेत्र अथवा काष्ठ आदि से निर्मित चतुष्किकादि रूप-कुर्सी आदिरूप जो होते हैं वे ओमन है एव माढे तीन हाध के जो काष्ठ फलक-लखता आदिरूप होते हैं कि जिन पर अच्छी तरह सोया जा सकता है वे शयन हैं। इन आसन शयनो के ऊपर मृदुले वस्त्रादि, विछा हुआ था इसलिये ये स्तृित थे, और उन मृदुल वस्त्रा दिको के ऊपर और भी दूसरा पलग पोस निछा हुआ था इस लिये वे प्रत्यस्तृत थे। नद सेठ ने उस चित्र सभा में नदो को नत्तों को-नृत्य રચના કરાવડાવી ગ્રથિમ, વેદિમ, પૂરિમ અને રાઘતિમ વગેરે ઘણ જાતની २मत ५ तेमा २१वी ( तत्थण बहूणि आसणाणि य, सयणाणि, य, अत्युय पञ्चत्थुयाइ चिट्ट ति, तत्थण बहवे गडाय गट्ठा य, जाव दिनभइभत्तवेयणा तालायकम्म करेमाणा विहर ति) ! सामना, घशी पथारी भास्तृत પ્રત્યાસ્તૃત હતા-પણ તેમાં મુકાવડાવી વેત્ર કે લાકડા વગેરેથી બનાવવામાં આવેલી ચેપ્લિકા વગેરે રૂપ ખુરશી રૂપ જે હોય છે તે આસન છે અને સાડા ત્રણ હાથના જે લાકડાના તખતા વગેરે હોય છે કે જેના ઉપર સારી રીતે સઈ શકાય-તે શયન છે આ આસને તેમજ શયનેની ઉપર કમળ વો વગેરે પાથરેલા ? | યા માટે જ તેઓ આતૃત હતા તે કમળ ઉો વગેરે ઉપર છે * * * પાથરેવુ હતુ એટલા માટે એઓ પ્રત્યા સ્તુત હતા નઇ કે -
नी, नायना२। भासा-मात,
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मनगारधर्मामृतापिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिस्पणम् ७४७ भृतिः पान्यादिरूप पारिश्रमिकम् , मक्तम्-मोदनादिरूप वेतन-प्यकादिरूप परिश्रमिकम् , एतेपा द्वन्द्वे भृतिभक्तवेतनानि, दत्तानि भृतिमभक्तवेतनानि येभ्यस्ते तथोक्ता पुरुषाः 'तालायरसम्म ' तानाचकमन्नादि सम्बन्धिक गीतवादिवादिकर्म कुर्वाणा विहरन्ति तिष्ठन्ति स्म ! अब च-राजहरिनिर्गतः वायुसेवनार्य राजगृनगराद् वहिनिम्मत व बहुजनो-जनसमुदायः 'जस्य ' यत्र चित्रसभायामागत्य तेषु पूर्वन्यस्तेपु-पूर्वम्यापितेषु नासनशयनेषु कश्चित् ' सनिसनाय ' सनिपण्णः उपविष्टः, कश्चित् — सत्यद्यो य ' सत्यत्तश्च शयितः, कश्चिद कारकों को यारत भृति, भक्त एव वेतन देकर तालचर कर्म करने घालों को भी नियुक्त कर रखा था। जो गान नृत्य कर्म करते हैं वे नट हैं । जो केवल अग विक्षेप मात्र से ही नृत्य क्रिया प्रदर्शित करते हैं वे नृत्त हैं । धान्यादि रूप पारिश्रमिकका नाम भृति, ओदनादिरूप पारिश्रमिक का नाम मक्त एवं नगढी पैसा रूप्प आदि रूप परिश्रमिक का नाम वेतन हैं। नदादि सम्बन्धी गीतनृत्य बादिव आदि कर्म को जो करते हैं उनका नाम तालचर है। तरले आदि जाने वाले व्यक्ति तालाचरो में हैं। (रायागिविणिग्गओ य जत्य यजणो तेसु पुन्चन्नत्ये सु आसणसयणेलु सनिसनो य सतुयट्टो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य माहेमाणो य सुह सुहेण विदरड) राजगृह नगर से वायु सेवनघूमने के लिये निकले हुए अनेक जन उस चित्र सना में आते उनमें कितनेक जन वहा पूर्वन्यस्त उन आसन शयनों पर बैठ जाते, और कितनेक जन सो जाते, कितनेक जन गीतवादित्रों को सुनते, कितनेक ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને તેમજ બીજા પણ તાલચર કર્મ કર નારાઓની નીમણુંક કરી હતી જેઓ ગાન-નૃત્ય કર્મ કરે છે તેઓ નટ છે જેઓ ફક્ત આગ વિક્ષેપ માથી જ નૃત્ય કરે છે તેઓ નૃત્ત છે મહેનતાણાના રૂપમાં ધાન્ય વગેરે આપે તે ભૂતિ મહેનતાણાના રૂપમાં ઓદન (રાધેવા ચોખા) વગેરે આપે તે ભક્ત અને રોકડા નાણું ચાદી વગેરેના નિકડા મહેનતાણા બદલ આપે તેને વેતન કહે છે નટ વગેરેની ગીત, નૃત્ય, વાછત્ર વગેર કર્મ કરનારાઓ “ તાલચર’ છે તબલા (નરઘા) વગેરે વગાડનારા માણસો તાલय। छे (रायगिह विणिग्गआ य जत्य रहनणो तमु पुटान्नावसु आक्षणसय णेसु सनिसनो य स तुयट्टो य सुणनाणा य पे-माणो य साहेमाणो य सह सुहेण विहरइ ) Armys नगरना ।। ३२१ा भाट नासा ! भारसा ચિત્રસભામાં આવતા અને તેમાથી કેટલાક માણો તે પૂર્વે મનાવડાવેલા આસને શયને ઉપર બેસી જતા અને કેટલાક સૂઈ જતા, કેટલાક ગીત,
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মাথা वस्तुमम्हेन निष्पायन्ते लोहकाष्ठादिभीदयादिवत् , तानि, एतानि पशुपक्ष्या दिरूपाणि ' उरदसिज्जमाणाइ २' परश्यमानानि २ लौरेन्योन्य पुनः पुनर पैदृश्यमानानि विष्ठन्ति-सन्ति । ता सल बहनि 'पासणाणिय' आसनानि घेत्रकाप्ठादिनिर्मितानि चतुकोणादित्पाणि शयनानि-शयनयोग्यानि सार्द्धवतीयहस्तपरिमितानि फल काढीनि, पीदृशानीत्याह-अत्युय' इत्यादि-' अत्युयपं
चरयुयाइ ' नास्तनप्रत्यारततानि, आरततानि मृदुल रखादिनाऽऽच्छादितानि, में त्यास्ततानि = तदुपरि पुन पुनर्दुकलादिनाऽऽच्छादितानि तिष्ठन्ति वर्तन्ते । पुनश्च-तत्र खलु बहवो नटायगाननृत्यातरः 'हाय' नृत्ता. केरलमाथि क्षेपमात्रेण नर्तनशीलगश्च यावत् 'दिनभदभत्तवेयणा' दत्तभृतिभक्तवेतना:-दत्ता मिट्टी, खरियामिट्टी से नही आदि की उसमें रचना करवाई। ग्रन्धिम, वेष्टिम, परिम, एव सधातिम आदि अनेक खेल भी उस में दिखलाए (तत्यण वणि आसणाणि य, सयणाणि य, अत्यु य पचत्युयाइ चिट्ठति तत्यण बहरे णडार पट्टा य, जाव दिनमा मत्तवेयणा तालायकर्म फेरेमाणा विहरति) अनेक आसन, शयन, जो आस्तृत प्रत्यास्तन थे वे भी उसमें रसवाये, वेत्र अथवा काष्ठ आदि से निर्मित चतुष्किकादि रूप-कुर्सी आदिरूप जो होते हैं वे ओमन है एव साढे तीन हाथ के जो काप्ठ फलक-नखता ऑदिरूप होते हैं कि जिन पर अच्छी तरह सोया जा सकता है वे शयन हैं। इन आसन शयनों के ऊपर मृदुल धन्नादि, विछा हुआ था इसलिये ये आस्तृत थे, और उन मृदुल वस्त्रा दिको के ऊपर और भी दूसरा पलग पोस पिछा हुआ था इस लिये वे प्रत्यस्तृत थे। नद सेठ ने उस चित्र सभा में नटो को नत्तों को-नृत्य રચના કરાવડાવા ગ્રથિમ, વેષ્ટિમ, પૂરિમ અને રાઘાતિમ વગેરે ઘણી જાતની २भतेपशु तमा हारा१वी (तत्थण बहूणि आसणाणि य, सयणाणि, य, अत्थुय पञ्च थुयाइ चिटू ति, तथण बहवे णडाय णट्टा य, जाव दिनभइभत्तवेयणा तालायकम्म करेमाणा विहर ति) ! सामनी, घणी पथारामा १२ भास्तृत પ્રત્યાસ્તૃત હતા–પણ તેમાં મૂકાવડાવી વત્ર કે લાકડા વગેરેથી બનાવવામાં આવેલી ચતુખિના વગેરે રૂપ ખુરશી રૂપ જે હોય છે તે આસન છે અને સાડા ત્રણ હાથા જે લાકડાના તખતા વગેરે હોય છે કે જેના ઉપર સારી રીતે સૂઈ શકાય–તે શયન છે આ આસને તેમજ શયની ઉપર કમળ વસ્ત્રો વગેરે પાથરેલા હતા એટલા માટે જ તેઓ આસ્તૃત હતા તે કોમળ વસ્ત્રો વગેરે ઉપર એક બીજ વસ્ત્ર પાથરેવુ હતુ એટલા માટે એઓ પ્રત્યા
હતા નદ શેઠે તે ચિનસભામાં નટે, નૃત્તનાચનારા માણસો-ભતિ.
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मनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् भृति. धान्यादिस्प पारिश्रमिकम् , भक्तम् ओदनादिरूप चेतन हप्यकादिरूप परिश्रमिकम् , एनेपा द्वन्द्वे भृतिभक्तवेतनानि, दत्तानि भृतिमभक्तवेतनानि येभ्यस्ते तथोक्ता पुरुषाः 'तालायरसम्म ' तालाचकर्म-नटादि सम्बन्धिा गीतवादिवादिकर्म कुर्वाणा विहरन्ति-तिष्ठन्ति स्म । अथ च-राजनिनिर्गत: वायुसेवनार्थ राजगृहनगराद् पहिनिम्मृतब बहुजनो जनसमुदाय. 'जत्थ' यत्र चित्रसभायामागत्य तेषु पूर्वन्यस्तेषु-पूर्वम्यापितेपु आसनशयनेषु कश्चित् ' सनिसनाय ' सनिषण्णः उपविष्टः, कश्चित् — सतुयट्टो य ' सत्वगृत्तथ शयितः, कश्चिद कारकों को यावत् भृति, भक्त एच वेतन देकर तालचर कर्म करने वालों को भी नियुक्त कर रखा था। जो गान नृत्य कर्म करते है वे नद हैं। जो केवल अग विक्षेप मात्र से ही नृत्य क्रिया प्रदर्शित करते हैं वे नृत्त हैं । धान्यादि रूप पारिश्रमिकका नाम भृति, ओदनादिरूप पारिश्रमिक का नाम मक्त एव नगदी पैसा रूप्प आदि रूप परिश्रमिक का नाम वेतन हैं। नटादि सम्बन्धी गीतनृत्य चादित्र आदि कर्म को जो करते ह उनका नाम तालचर है। तरले आदि पजाने वाले व्यक्ति ता. लाचरो में है। (रायागिहविणिगओ य जत्य यहुजणो तेल पुव्वन्नत्थे सु आसणसयणेसु सनिसनो य सतुयहो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुह सुहेण विवरइ) राजगृह नगर से वायु सेवनघूमने के लिये निकले हुए अनेक जन उस चित्र सभा में आते उनमें कितनेक जन चहा पूर्वन्यस्त उन आसन शयनों पर बैठ जाते, और कितनेक जन सो जाते, कितनेक जन गीतवादित्रों को सुनते, कितनेक ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને તેમજ બીજા પણ તાલચર કર્મ કર નારાઓની નીમણુક કરી હતી જેઓ ગાન-નૃત્ય કર્મ કરે છે તેઓ નટ છે જેઓ ફક્ત અને વિક્ષેપ માત્રથી જ નૃત્ય કરે છે તેઓ નૃત્ત છે મહેનતાણાના રૂપમાં ધાન્ય વગેરે આપે તે ભૂતિ મહેનતાણાના રૂપમાં એદન (રાધેવા ખા) વગેરે આપે તે ભક્ત અને રોકડા નાણા ચાદી વગેરેના નિકા મહેનતાણું બદલ આપે તેને વેતન કહે છે નટ વગેરેની ગીત, નૃત્ય, વાછત્ર વગેર કર્મ કરનારાએ “તાલચર ” છે તબલા (નરઘા) વગેરે વગાડનારા માણસે તાલय३॥ छ ( रायगिह मिणिग्गआ य जत्य बहूजणो उसु पुजन्नत्येसु आणय णेसु स निसन्नो य स तुयट्टो य सुणमाणा य पेन्माणो य साहेमाणो य सुह सुहेण विहरइ) 01 नगरना ७२३॥ ५२वा माटे ना-घg! भाएस ચિત્રસભામાં આવતા અને તેમાથી કેટલાક માને તે પૂર્વે મૃડાવડાવેલા આસને શયને ઉપર બેસી જતા અને કેટલાક સૂઈ જતા, કેટલાક ગીત,
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एउट
वाताधर्मकथासूत्रे
'सुणमाणो य' शृण्नतथ गीतनादिनादिक कर्णनिपयी कुर्वन् चित् 'पेच्छपाणो य' प्रेक्षमाणश्च = नृत्यादिक पश्यन् 'साहेमाणो य' कथयच परस्पर कथा कुर्वनश्लाघयन् वा सुखसुखेन= सुखपूर्वक सानन्द विहरति क्रीडविस्म ॥ मृ० ३ ॥
मूलम्-तएण गंदे दाहिणिलेवणसडे एगं मह महाणससाल करावे अणेगखभसय संनिविट्ट जाव पडिरूवं तत्थ ण बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा विपुल असणं४ उवक्खडेंति बहूणं समणमाहणअतिहि किवणवणीमगाण परिभाषमाणा परिवेसेमाणा विहरति, तएण पदे मणियारसेट्टी पच्चत्थिमिले वणसंडे एग मह तेगिच्छियसाल करावेइ, अणेगखंभस यसनिविट्ट जाव पडिरूव, तत्थण चहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ताय जाणुयाय जाणुयपुत्ता य कुसलाय कुसलपुत्ता यदिन्नभइभत्तवेयणा वहूण बाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुब्बलाण य तेइच्छ करेमाणा २ विहरति, अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा तेसि बहूणं वाहियाण य रोगियाणय गिलाणाणय दुब्बलाणय ओसह सज्जभन्तपाणेण पडियारकम्म करेमाणा२ विहरति, तएण दे उत्तरिल्ले वणसडे एग मह अलकारियसभ करावेइ अणेगखभसयसनिविट्ट जाव पडिरूव, तत्थ ण बहवे अलकारियपुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा बहूण समणाण य माहणाणय अणाहाण य गिलाणाण य रोगियाणय दुब्बलाणय अलंकारियकम्म करेमाणार विहरति । तएण तीए दाए पोक्खजन नृत्यादिकों को देखते और कितनेक जन परस्पर, , बैठकर बातचीत करते हुए बडे आनद के माथ अपना समय व्यतीत किया करते || ३ ||
વાછત્રાને સાભળતા, કેટલાક નૃત્યે વગેરે જોતા અને કેટલાક પાસે પાસે એસીને ગપસપ કરતા સુખેથી પોતાના વખત પસાર કરતા હતા -
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अगरधर्मामृतपणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
GA
रिणीए वहवे सुणाहा य अणाहा य पथिया य करोडिया य कृप्पडिया य तणहारा य पत्तहारा य कट्ठहाराय अप्पेगइया पहायंति अप्पेगइया पाणिय पियति, अप्पेगइया पाणिय सबहति अप्पेगइया विसज्जिय सेय जलमल परिस्समनिदखुष्पिवासा सुह सुहेणं विहरति । रायगिहविणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो किं ते जलरमणविविहमजणकय लिलयाघरय कुसुमसत्थरय अणेग सउणगणरूयरिभियसकुलेसु सुहसुहेणं अभिरममाणो २ विहरड़ ॥ सू० ४ ॥
टीका- 'तरण गदे ' इत्यादि । तत खलु नन्दः श्रेठी दाक्षिणात्ये वनपण्डे एका महतीं महानसशाला - पाकशाला कारयति । कीदृशीम् १ इत्याह' अणेग' इत्यादि - अने व सम्भगतसनिविष्टा यावत्पतिरूपाम् । तत्र खलु बहवः पुरुषा दत्तभृतिभक्तवेतना' = पारिश्रमिकदानेन नियुक्ता पाककर्मकराः विपुलम्
'तपण दे दाहिणिल्ले ' - इत्यादि ॥
टीकार्य - (तएण ) इसके बाद (णदे) नद श्रेष्ठी ने (दाहिणिल्ले) दक्षि दिशा सबन्धी ( वणसडे) वनषड मे (एग मह्) एक बडा भोरी (म हाणससाल) रसोईघर - मोजन शाला ( करावे ) बनवाया । (अणेग खभसयसनिवि जाव पडिव, तत्यण बहवे पुरिमा दिन्नभइभत्त वेयणा विपुल असण४ उचक्खडेंति बहूण समण-माहण-अतिहि-किरणवणीपगाण परिभाएमाणा परिवेसेमाणाविहरति यह रसोहघर सैकडों खभो के ऊपर खडा किया गया था। बडा ही रमणीय था । इस में अनेक पुरुष रसोई बनाने का काम करने के लिये नियुक्त किये गये थे । उन्हें
'तरण दे दाहिणिल्ले' इत्यादि
टीडार्थ - (तएण ) त्यार पी (नदे) नह शेठे (दाहिणिल्ले) दृक्षिषु हिशाना ( वणसडे ) पनष उभा (एग मह ) मे बहु विशाण ( महाणससाल ) २सोध घर-लान्नराणा-(करावेइ ) मनावडावी ( अणेतय भसयस निषिट्ठ जाब पढि रूप तत्थण हवे पुरिसा दिन्नभइभतवेयणा विपुल असर्ण ४ उक्क्सडे ति बहूण समण - माइण- अतिहि-कित्रण वणिगाण परिपाएमाणा परिवेसेमाणा विहरति ) આ ભેાજનગાળા સેકટા થાભલાઓની હતી તે ખૂમ જ રમણીય હતી તેમા કોઈ તૈયાર કરવા માટે ઘણુા માણુસા નિયુક્ત કરવામા આવ્યા હતા. તેઓને
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খায়াখায় 'मुणमाणो य' शृण्वतश्च गीतादित्रादिक कर्णपियी कुर्वन् कथित् 'पेन्छपाणो य' प्रेक्षमाणश्च-नृत्यादिक पश्यन् ‘साहेमाणो य ' कथयथारस्पर कथा कुर्वन्श्लाघयन् पा सुखसुखेन-सुखपूर्वक सानन्द विहरति-क्रीडतिस्म ।। मू० ३ ।।
मूलम्-तएण गंदे दाहिणिल्लेवणसडे एगं मह महाणससाल करावेइ अणेगखभसयसनिविट्ट जार पडिरूव तत्थ ण बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा विपुलं असणंट उवक्खडेंति बहूणं समणमाहणअतिहि किवणवणीमगाण परिभाएमाणा परिवेसे. माणा विहरति, तएण णंदे मणियारसेही पच्चस्थिमिल्ले वणसडे एगंमहं तेगिच्छियसाल करावेइ,अणेगखंभसयसंनिविटजाव पडिरूव, तत्थणं वह वेज्जा य वेज्जपुत्ताय जाणुयाय जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता यदिनभइभत्तवेयणा वहणं बाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुबलाण य तेइच्छं करेमाणा २ विहरति, अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा तेसि बहूणं वाहियाण य रोगियाणय गिलाणाणय दुब्बलाणय
ओसहभेसज्जभत्तपाणेणं पडियारकम्म करेमाणार विहरंति, तएण णदे उत्तरिल्ले वणसडे एग मह अलकारियसभ करावेइ अणेगखभसयसनिविट जाव पडिरूव, तत्थ ण बहवे अलकारियपुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा वहूर्ण समणाण य माहणाणय अणाहाण य गिलाणाण या रोगियाणय दुबलाणय अलकारियकम्म करेमाणा२ विहरति । तएण तीए णदाए पोक्खजन नृत्यादिकों को देखते और कितनेक जन परस्पर, बैठकर बातचीत करते हुए बड़े आनद के माय अपना समय व्यतीत किया करते ॥३॥ વાજી ત્રોને સાભળતા, કેટલાક નૃત્ય વગેરે જોતા અને કેટલાક પાસે પાસે બેસીને ગપસપ કરતા સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરતા હતા,
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अनगारधर्मामृतापिणी टी० म० १३ न दमणिफारभयनिरूपणम् ७५१ चिरित्साशालाया, खलु यो चिकित्साय वैद्या: वैद्यपुत्राश्य, 'जाणुया य' दायका चिरित्सागास्त्रमनधीचापि वैयत्तिदर्शनेन घ्याधिधारणविधिज्ञाश्च, शायकपुत्राश्च - चिरित्सादिना सुताच, तवाकुशल -सकीयत तश्चिकित्सादौ ममीणाव, कुगल पुना:-तेपा पुत्राश्च दत्तभृतिभक्तरेतनाः रहूना ' वाहियाण' व्यापिताना विशिष्ट सजन कठादिरोगाना, 'गिलाणाग य ' ग्लानाना 'रोगि याण य' रोगिफाणा दलाना-शक्तिहीनाना च तेइन्छ कारेमाणा' चिकित्सा व्याधिपतीकार, कुर्वन्त , विहरन्ति । तस्या शालाया अन्ये चार यमः पुरुषाः दरभृतिभक्त चेतनास्तेपा बहना व्याधिताना च ग्लानाना च रोगिझाना च दुर्वन्दर थी। इस में अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र जायक ज्ञायरुपुत्र, कुशल, कुशल पुत्र, श्रुति, भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए थे। ये व्हा अनेक व्यषियुक्त मनुष्यो की ग्लान मनुष्यो की, रोगी मनुष्यो की, दुल मनु प्यों की, चिकित्सा करते थे। वहा और भी परिचारक मनुष्य भृति भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हए ये-जो इन व्याधित ग्लान, रोगी और दुल मनुष्यों की औपध, भैपज्य, भक्त और पान से सेवा किया करते थे। चिरित्सा शास्त्र का अध्ययन किये बिना ही जो वैयों की प्रवृत्ति देस २ कर व्याधि को दूर करने का अनुभव प्राप्त कर लेते हैं ऐसे व्यक्ति यहा "ज्ञायक" शब्द से गृहीत हुए है । जो अपनी तर्कणा के बलपर चिकित्मा आदि में निपुण होते हैं वे यहा " कुशल" शब्द से गृहीत ए हैं। विशिष्ट दुखोत्पादक कुष्ठादिरोग से जो पीडित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य या व्यापित शब्द के वाच्य हुए है । एक હતી તેમાં ઘણા વૈ, વૈદ્ય પુત્ર, જ્ઞાયક, જ્ઞાયકપુ, કુશલ કુશલ પુત્રે, કૃતિ, ભક્ત અને વેતન આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તે બધા ત્યાં ઘણા માદા માણસોની, વાન માણની, રેગીઓની, કમર માણસોની ચિકિત્સા (ઇલાજ) કરતા હતા ત્યા બીજા પણ ઘણા ૫રિચારકજને ભૂતિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તેઓ મદા, ગ્લાન, રેગી અને કમજોર માણસેની બૌધ ભેષજ્ય, ભક્ત અને પાનથી સેવા કરતા હતા ચિકિત્સાશાસ્ત્રના અભ્યાસ કર્યા વગર જ જે વૈદ્યોની પ્રવૃત્તિ-રો કેવી રીતે બીમારની ચિકિત્યા કરે છે ? આ બધું જોઈને બીમાં રોને મટાડવાનો અનુભવ મેળવે છે તે માત્ર અહીં 3 યક” ના રૂપમા પ્રયુક્ત થયા છે જે પોતાની શક્તિના આધારે ઈલાજ વગેરેમાં નિપુણ હોય છે તેઓ અહીં ફરાળાના રૂપમાં ગૃહીત થયા છે વિશિષ્ટ દુખેપાદક કુક વગેરે રોગથી જે પીડાતા રહે છે એવા માણજો અહીં વ્યાષિત
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ताधर्मका अशनम् ४ चतुर्विधमाहारम् उपस्कुर्वन्ति । पहना अमणवाक्षणातिथिकृपणवनीप काना-परिभाजयन्तः २=विभाग तिः, परिवेषयन्तश्च विहरन्ति ।
ततः खल्लु नदो गणिकारश्रेष्ठी 'पन्चािमले पाश्चात्य पथिमदिग्भागस्थे वनपण्डे एका महती 'तेगिच्छियसाल' चिकित्साशा रांगापनयनशाला' करा वेइ ' कारयति, किंभूताम्-ननेक्स्तम्भगतसनिलिष्टा यावत्-प्रतिरूपा, तत्र-तस्या पारिश्रमिक रूप में भृति, भक्त और वेतन दिया जाता था। ये ४ चारों प्रकार का आशनादि रूप आहार उसमें घनाया करते थे। अनेक श्रमण ब्राह्मण, अतिथि एव चनीपकोंको-याचकोको यहासे भोजन दिया जाता था। कोई २ वही खाते थे और कोई कोई अपने विभागको लेजाते थे। (ताण णदे मणियारसेट्ठी पच्चधिमिरले वगसडे एग मर तेणिच्छियसाल करावेइ, अणेगखभसयसनिवि जाब पडिरूव, तत्थ ण बत्वे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणु य पुत्ता य कुसला य कुसल पुत्ता य दिनभादमत्तवेयणा पण हिचानाण य गिलोणाण य रोगियाण य दुब्वलाण य तेइच्छ करेमाणा २ विरति, अण्णे य एत्य यहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा तेसि यदृग वाहियोण य रोगियाग य गिला णोण य दुमलाण य ओसहभेसज्जभत्तपाणेण पडियारकम्म करेमाणा २ विहरति ) इस के बाद उस नद माणिकार श्रेष्ठी ने पश्चिम दिशा सम्बन्धी वनषड में एक बडी भारी चिकित्साशाला-औषधालय-बन वाई । यह भी सेकडों ख मों के ऊपर ग्वडी की गई थी। बहुत ही सु પિતાના મહેનતાણા બદલ તિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપવામાં આવતું • હતુ ચારે જાતના અશન વગેરે આહાર તેમાં બનાવતા હતા ઘણુ શ્રમ બ્રાહ્મણો, અતિથિઓ અને વની પકે-વાચનારાઓ-ને ત્યાથી ભેજન આપવામાં આવતુ હતુ તેઓમાથી કેટલાક તો ત્યા જ જમી લેતા હતા અને કેટલાક पोतानु ला as oral &ता (तएण पदे मणियार सेट्ठी पञ्चयिमिल्ले वणसडे एग मह तेणिच्छियसाल करावेह, अणेगसमसयस निविट्ठ जार पटिरूव, तत्थण घहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ताय जाणुयाय जाणुयपुत्ताय कुसुलाय कुसलपुत्ताय दिन्न भइ भत्तवेयणा बहूण बाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुलाण य तेइ करे माणा २ विहर ति, अण्णे य एत्य बहवे पुरिसा दिन्न भइभत्तयणा तेसि बहूण घाहियाण योगियाण य गिलणाणा य दुकारण य ओसहभेमजनमत्तपाणेण पडियार कम्म करेमाणा२ विहर ति) त्यारमा त ४२ शे: पश्चिम दिशा पनप उभा એક બહુ વિશાળ પાયા ઉપર ચિકિત્સા શાળા ( દવાખાનું) બનાવડાવી એ પણ સે કડા થાભલાઓથી ઊભી કરવામાં આવી હતી તેમજ ખ
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मनगारधर्मामृतरषिणी टी० १० १३ न दमणिकारभवनिरूपणम् ५१ चिकित्सागालाया, खलु पयो चिरित्सराच वैद्याम् वैद्यपुत्राश्च, 'जाणुया य' ज्ञायका चिकित्साशास्त्रमनधीचापि वैद्यप्रष्टनिदर्शनेन व्याधिधारणविधिज्ञाश्च, धायकपुत्राश्च - चिकित्सादिना मुता-ब, तथाकुशलः-स्वकीयततश्चिरित्सादौ मीणाश्च, मुगलपुत्राः तेपा पुत्रार्थ दत्तभृतिभक्तरेतना. बहूना ' वाहियाण' व्यापिताना विशिष्ट सजनकठादिरोगाना, 'गिलाणाग य ' ग्लानाना 'रोगि याण य' रोगिकाणा दुलाना-शक्तिहीनाना च तेइछारेमाणा' चिकित्सा व्याधिपतीर, फुन्ति , विहरन्ति । तस्या शालाया जन्ये चात्र बद्दन' पुरुषा: दत्तभृतिभक्तवेतनास्तेपा बहूना व्याधिताना च ग्लानाना च रोगिझाना च दुर्वन्दर थी। इस में अनेक वैद्य, वचपुत्रा जाय जायकपुत्र, कुशल, कुशल पुत्र, धृति, भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए थे। ये दहा अनेक व्यधियुक्त मनुष्यो की ग्लान मनुप्यो की, रोगी मनुष्यो की, दुल मनुष्यों की, चिकित्मा करते थे। वहा और भी परिचारक मनुष्य भृति भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए ये-जो इन व्याधित ग्लान, रोगी और दुल मनुष्यों की औषध, भैपज्य, मक्त और पान से सेवा किया करते थे। चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन किये बिना ही जो वैचों की प्रवृत्ति देव २ कर व्याधि को दूर करने का अनुभव प्राप्त कर लेते है ऐसे व्यक्ति यहा "जायक" शब्द से गृहीत हुए हे | जो अपनी तर्कणा के पलपर चिकित्सा आदि में निपुण होते हैं वे यहा " कुशल" शब्द से गृहीत हुए हैं। विशिष्ट दुखोत्पादक कुष्ठादिरोग से जो पीडित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य या व्यापित शब्द के वाच्य हुए है । एक
ती तमा पा वैधी, वय धुनी, शायs, शाय:पुत्री, उराव, पुश पुत्री, કૃતિ, ભક્ત અને વેતન આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તે બધા ત્યા ઘણું મારા માણસોની, લાન માણસોની, રેગીઓની, કમર માણસની ચિત્મા (અવાજ) કરતા હતા ત્યા બીજા પણ ઘણા પરિચારજને ભૂતિ, ભકત અને વેતન (પગાર) આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તેઓ મા, ગ્લાન, રોગી અને કમજોર માણસોની ઔધ ભૈષજ્ય, ભાત અને પાનથી સેવા કરતા હતા વિસ્મિાસ્ત્રના અભ્યાસ કર્યા વગર જ જે વૈદ્યોની પ્રવૃત્તિ–વૈવા કેવી રીતે બીમારની ગિરિમા કરે છે?—આ બધુ જોઈને બીમાં રોને મટાડવાનો અનુભવ મેળવે છે તે માત્ર અહીં “જ્ઞ યક” ના રૂપમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે જે પોતાની તણાવાદિનના આધારે ઈલાજ વગેરેમાં નિપુણ હે છે તે અહીં “કુરાળ' ના રૂપમાં ગૃતિ થયા છે વિશિષ્ટ - ત્પાદવ કુછ વગેરે રોગથી જે પીડાતા રહે છે એવા માણો અહીં વ્યાવિત
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भाताधर्मकथा अशनम् ४ चतुर्विधमाहारम् उपस्कुर्वन्ति । पहना अमणब्राह्मणातिथिकृपणनीपकाना-परिभाजयन्तः २=विभाग सुर्य , परिवेषयन्तश्च विहरन्ति ।
ततः खल्लु नन्दो गणिकारश्रेष्ठी 'पच्चयिमिहे' पाश्चात्ये पश्चिमदिग्भागस्थे, वनपण्डे एका महती 'तेगिच्छिपसाल' चित्सिाशाग-रांगापनयनशाला ' फरा वेइ ' कारयति, किंभूताम्-अनेकस्तम्भशतसनिविष्टा यावत्-प्रतिरूपा, तत्र-तस्या पारिश्रमिक रूप में भृति, भक्त और वेतन दिया जाता था। ये ४ चारों प्रकार का आशनादि रूप आहार उसमें बनाया करते थे। अनेक श्रमण ब्राह्मण, अतिथि एवं वनीपकोंको-याचकोको यहासे भोजन दिया जाता था । कोई २ वही खाते थे और कोई कोई अपने विभाग को लेजाते थे। (तपण णदे मणियारसेट्ठी पच्चत्धिमिरले वगसडे एग मर तेणिच्छियसाल करावेइ, अणेगखभसयसनिविद्व जाब पडिरूव, तत्थ ण यहवे वेजा य वेज्जपुत्तो य जाणुया य जाणु य पुत्ता य कुसला य कुसल पुत्ता य दिनभइमत्तवेयणा पहण हिवावाण य गिलागाण य रोगियाण यि दुबलाण य तेइच्छ करेमागा २ विहरति, अण्णे य एत्य यहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा तेसि यदृण वाहियोण य रोगियाग य गिला णोण य दुचलाण य ओसरभेसज्जभत्तपाणेण पडियारकम्म करेमाणा २ विहरति ) इस के बाद उस नद माणिकार श्रेष्ठी ने पश्चिम दिशा सम्बन्धी वनपड मे एक बडी भारी चिकित्साशाला-औषधालय-बन वाई। यह भी सेकडो ख मों के ऊपर ग्वडी की गई थी। बहुत ही सु પિતાના મહેનતાણા બદલ તિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપવામાં આવતું - હતુ ચારે જાતના અશન વગેરે આહારો તેમા બનાવતા હતા ઘણું શમણે બ્રાહ્મણ, અતિથિઓ અને વનપકો-વાચનારાઓને ત્યાથી ભેજન આપવામાં આવતુ હતુ તેઓમાથી કેટલાક તે ત્યાં જ જમી લેતા હતા અને કેટલાક चातानु माY as ord ता (तएण पदे मणियार सेट्ठी पञ्चत्यिमिल्ले वणसडे एग मह तेणिच्छियसाल करावेह, अणेसभसयस निविट्ठ जार पहिरून, तत्यण घहवे वेज्जा य वेज्जपुताय जाणुयाय जाणुयपुत्ताय कुसुराय कुसलपुताय दिन्न भइ भतवेयणा बहूण वाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुव्लाण य तेइन्छ करे माणा २ विहर ति, अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तयणा तेर्सि बहूण घाहियाण य रोगियाण य गिलणाणा च दुरण य ओसहभेमज्जभत्तपाणेण पडियार कम्म करेमाणा२ विहर ति) त्या२मा त भरि 08 पाश्रमान वनमा એક બહુ વિશાળ પાયા ઉપર ચિકિત્સા શાળા ( દવાખાનુ) બનાવડાવી એ પણ સે કડા થાભલાઓથી ઊભી કરવામાં આવી હતી તેમજ ખૂબ
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मनगारधर्मामृतापिणी टी० १० १३ न दमणिकाग्भनिरूपणम् ५१ चिरित्सागालाया, सलु वयो चिस्सिाथ वैद्याम् वैद्यपुत्राच, 'जाणुया य' ज्ञायका चिकितमाशास्त्रमनधीत्यापि वैवानिदर्शनेन च्याधिधारणविधिज्ञाथ, सायकपुत्राश्वः चिरित्सावे दिना सुताच, तथाकुशलः-स्पकीयत तश्चिरित्सादौ मवीणाश्च, कुल पुत्राः तेपा पुनाथ दत्तभृतिभक्तरेतना. बहूना ' वाहियाण' च्यारिताना विशिष्ट सजनककुठादिरोगरता 'गिलाणाग य ' ग्लानाना 'रोगि याण य ' रोगिफाणा दुर्वलाना शक्तिहीनाना च तेइ उकरेमाणा' चिकित्साव्यापिमतीकार, कुर्वन्त , चिरन्ति । तस्या शालाया जन्ये चार पव' पुरुषाः दत्तभूतिभक्तवेतनास्तेपा पहना बाधिताना च ग्लानाना च रोगिकाना च दुर्वन्दर यौ। इस मे अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र ज्ञायक ज्ञायपुत्र, कुशल, कुशल पुत्र, धृति, भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए थे। ये दहा अनेक व्याधयुक्त मनुष्यो की ग्लान मनुष्यो की, रोगी मनुष्यो की, दुर्यल मनु प्या को, चिकित्सा करते थे। वहा और भी परिचारक मनुष्य भृति भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए थे-जो इन व्याधित ग्लान, रागी और दुल मनुष्यों की औषय, भैषज्य, भक्त और पान से सेवा किया करते थे। चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन किये बिना ही जो वैचों की प्रवृत्ति देय २ कर व्याधि को दूर करने का अनुभव प्राप्त कर लेते है ऐसे व्यक्ति यहा "ज्ञायक" शब्द से गृहीत हरा है। जो अपनी तणा के बलपर चिकित्सा आदि मे निपुण होते है वे यहा " कुशल" शब्द से गृहीत हुए हैं। विशिष्ट दु खोत्पादक कुष्ठादिरोग से जो पीडित हो रहेहै ऐसे मनुष्य यहा व्यापित शब्द के बाच्य हुए है । एक
ती तमा ध। धो, वैद्य पुत्री, शायर, शाय धुत्री, शन, मुशल पुत्री, ભૂતિ, ભક્ત અને વેતન આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તે બધા ત્યા ઘણા માદા માણસોની, ગલાન માણસોની, રેગીઓની, કમર માણસની ચા (ઇલાજ ) કરતા હતા ત્યા બીજા પણ ઘણા પરિચારજને ભૂતિ, ક્ષત અને વેતન (પગાર) આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તેઓ મ દા, ગ્લાન, રોગી અને કમજો. માણસોની ઔધ ભેષજ્ય, ભક્ત અને પાનવી સેવા કરતા હતા ચિકિત્સાનાસ્ત્રના અભ્યાસ યા વગર જ જે વૈદ્યોની પ્રવૃત્તિવિવો કેવી રીતે બીમારની ચિકિત્સા કરે છે ?-આ બધુ જોઈને બીમાં રને મટાડવાનો અનુભવ મેળવે છે તે માણસ અહી “જ્ઞ યક' ના રૂપમાં પ્રયુક્ત થયા છે જે પોતાની તર્કણારાતિના આધારે વેલાજ વગેમાં નિપુણ હોય છે તેઓ અહીં કરાળ' તાબ્દના રૂપમાં ગૃહીત થયા છે વિશિષ્ટ દુ ખોપાદક કુછ વગેરે રોગથી જે પીડાતા રહે છે એવા માણસે અહીં વ્યાવિત
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છપર
हाताधर्मकथा लाना च 'भोसभेमज्जभत्तपाणेण' औषध भैषज्यभक्तपानेनौपधमेन्द्रव्य साध्य, भेषन भनेकद्रव्यसयोगनिप्पन्न भक्तपानम्-आहारः, पानम् पानीय, तेन, 'पडिपारकम्मं ' प्रतिचारकर्म-सेवारूप म कुर्वन्तो विहरन्ति ।
ततस्तदनन्तर खलु नन्दः नन्दनामामणि कारश्रेष्ठी, ' उत्तग्रिले ' उत्तरीये वनपण्डे एकां महतीं ' अल कारियसभ ' अलकारिफसमानापितर्मशाला कार यति, कीदृशीम् ? अनेकस्तम्भशतसनिविष्ठा यावत्-प्रतिरूपाम् , तर तस्या नापितर्मशागा बहवोऽलङ्कारिक पुरुषा'नापिताः, दत्तभृतिभक्तवेतनाः बहूना द्रव्य माय दवाका नाम औपप है और जो अनेक दवाओंके सयोगसे दवाई तैयार की जाती है वह भैपज्य है (तग्ण ण दे उत्तरिल्ले वणसडे एग मह अलकारियसभ करावेह अणेगखममयस निविट्ट जार पडिरूव, तत्य यहवे अलकारियपुरिसा दिनभइभत्तवेयणा यहण समणाण य मारणाण य अगाताण य गिलाणाण य रोगियाण य दुबलाण य अलकारिय कम्म करेमाणार विहरति तरण तीए नदाए पोस्खकिणीए बहवे सणाहा य अणाहा य पथिया य परियाय करोडिया य कप्पडिया य तणहारा य पत्तहारा य कहाराय अप्पेगइया व्हायति, अप्पेगइया पाणिय पियति, अप्पेगइचा पाणिय सवति, अप्पेगहया विसज्जिय से य जल्लमल परिस्समनिद्द खुप्पिवासा सुह सुहेण विहरति ) इस के बाद उस मणिकार श्रेष्ठी नद ने उत्तर दिशा सबन्धी वनषड मे एक घड़ी भारी नापित कर्म शाला बनवाई । यह भी सैकडों खभो से निर्मित्त की गई શબ્દથી ગૃહીત થયેલા છે એક દ્રવ્ય-સાધ્ય દવાનું નામ ઔષધ” છે અને જે અનેક (ઘણી) દવાઓના મિશ્રણથી તૈયાર કરવામા આવે છે તે ભૈષજ્ય છે (तएण दे उत्तरिले वणसडे एग मह अल कारियसभ करावेइ अणेगसमसय स निविट्ठ जाव पडिरूव, तत्यण बहवे अलकारियपुरिसा दिनभइभत्तवेयणा वहूण समणाण य, माहणाण य, अणाहाण य, गिराणाण य, रोगियाण य, दुध लाण य, अल कारियकम्म करेमाणा २ विहर ति तएण तीए नदार पोक्खरिणीए बहवे सणाहा य अणाहा य प थिया य, वहिया य करोडीया य कप्पडिया य तण हारा य, पत्तहारा य कटुहारा य अप्पेगइया पहाय ति, अप्पेगइया पाणिय पियति अप्पेगइय। पाणिय सबह ति, अप्पेगइया विसज्निय से य जल्लमलपरिसमनिद सुपिवासा सुह सुहेण विहर ति) त्यारपछी ते मणि२ श्रेष्ठी न त२ हशाना વનષડમાં એક વિશાળ નાપિત કર્મશાળા ( હજામ શાળા ) બનાવડાવી તે પણ સેકડે થાભલાઓ ઉપર બાધવામાં આવી હતી જોવામાં તે ખૂબ જ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभननिरूपणम
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श्रमणाना च ब्राह्मणाना च मनायाना च ग्लानाना च रोगाणा च दुर्वलाना चालङ्गारिककर्म कुर्वन्त. २ विहरन्ति ।
"
ततस्तदनन्तर सलु तग्या नदाया पुष्करिण्या नमः सनायाथ जनायाश्च पान्थिकाथ पथिका करोदिका कार्पटिव तृणहारकाय पहाराच काष्ठहारकाच 'अप्पेगडया ' पेक्त = प्येके केवन, 'व्हायति स्नान्ति = स्नान कुर्वन्ति, अप्येककाः - पानी पियन्ति काः पानीय सहन्ति, भरन्ति, अप्येककाः = केचन ' विसज्जिय सेयजलमलपरिस्तम निःसुप्पिवासा' विर्जितस्वेदजल मलपरिश्रमनिद्राक्षुत्पिपासा विसर्जिता अपनीता दूरीकृता वेदजलमलरूपा शरीर मलास्तचापरिश्रमनिद्रावुभुक्षापिपासाथ यैस्ते तयाविधा मनुष्याः 'गृह सुहेण ' सुख सुखेन अतिसुखेन विहरन्ति । 'विते ' किमनि तद्वर्ण्यते - राजगृहविनि
थी । देखने में बडी सुहावनी थी । इस मे अनेक नापित ( नाई ) भृति भक्त एव वेतन देकर नियुक्त किये गये थे । ये वहा अनेक श्रमणों के ब्राह्मणों के, सनाय अनाव जनो के, ग्लानो के, रोगियों के एक दुर्बलों के बाल नोया करते थे । उस नदा पुष्करिणी में कितनेक सनाथ कितनेक पान्धिक, कितनेक पथिक, कितने करोटिक, कितनेक कार्प टिक, कितनेक तृण हारक- घास ढोने वाले किननेक पत्र हारक कितनेक कष्ठ हारक- लकडहारे - स्नान करते पानी पिया करते और कितनेक उस में से पानी भरा करते । क्तिनेक स्वेद, जल मल रूप शरीर के मैल को उस के जल से दूर करते और कितनेक परिश्रम, निद्रा बुभुक्षा एव पिपासा को उस वापिका के सहारे से ज्ञात किया करते । इस तरह अनेक जन उस पुष्करिणी से बहुत आनंदित रहते । ( रायगि विणि મનેામ લાગતી હતી તેમા ઘણા નાાપતા (હજામે!) ભૃતિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને નિયુક્ત કરવામા આવ્યા હતા તેએ ત્યા ઘણા શ્રમણેાના, બ્રાહ્મણેાના, સનાથ તેમજ અનાથજનાના, ગ્લાનેાના, રાગીએના અને દુબળ માણુનાના વાળ કાપતા હતા તેના પુષ્કિરિણી ( વાવ ) મા કેટલાક અનાથ, કેટલાક પાર્થિક, કેટલાક પથિક, ટેટલાક કાટિટ, કેટલાક કાર્પેટિક, કેટલાક તૃણુહારક ( ચારના ભાગએ ઉંચનારા) કેટલાક પત્રહારક કેટલાક કાષ્ઠહાગ્યું, ( લાડા વગેરે વેચવાના વા નારા) સ્નાન કશ્તા હતા, પાણી પીતા હતા અને કેટલાક તે તેમાથી પાણી ભરતા રહેતા હતા કેટલાક માણુમે તા નૈદ, જળમા ઉપર તરી આવત શરીરના મેલ ને પાણીમાથી બહાર કાઢતા હતા અને બીજા જેટલાક માણુને પરિશ્રમ, નિદ્રા ભૂખ અને તરસ તે પાણી પીને મટાડતા હતા. આ રીતે ઘણુા માણુને તે પુષ્કરણીમા આનદ
क्षा ९५
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
लानाच 'ओसहभेमज्जभत्तपाणेण ' औषध भैषज्यमक्तपानेन = औषधमेवद्रव्य साध्य, भेषज = भने द्रव्यसयोगनिष्पन्न भक्तपानम् - आहारः, पानम् = पानीय, तेन, 'पड़ियारकम्मं ' प्रतिचारकर्म= सेवारून कर्म कुर्वन्तो विहरन्ति ।
ततस्तदनन्तरं खलु नन्दः नन्दनामामणिकार श्रेष्ठी, ' उत्तरिल्ले ' उत्तरीये वनपण्डे एका महतों ' अल्कारिवसम ' अलकारिकसमा = नापितकर्मशाला वार यति, कीदृशीम् ? अनेकस्तम्भणतसनिविष्टा यावत् प्रतिरूपाम्, तत्र तस्या नापितरशाला बहरोऽलङ्कारिक पुरुषाः =नापिताः, दत्तभृतिभक्तवेतनाः बहूनां
द्रव्य साम्य दवाका नाम औषव है और जो अनेक दवाओंके मयोगसे दवाई तैयार की जाती है वह भैषज्य है (तरण णदे उत्तरिल्ले वणसढे एग मह अलकारियसभ करावेह अणेगख ममयस निविट्ठ जान पडिरूष, तत्थ बहवे अलमारियपुरिसा दिनभइभत्तवेयणा चट्टण समणाण य माहनाग य अगााण य गिलाणाण य रोगियाण य दुब्लाग य अलकारिय कम्म करेमाणार विहरति तएण तीए नदाए पोस्त्रकिणीए बहवे सणाहा य अणाहा य पथिया य पहियाय करोडिया य कप्पडिया य तणहारा य पत्तहारा य कट्ठहाराय अप्पेगइया व्हायति, अप्पेगइया पाणिय पियति, अप्पेगइना पाणिय सवति अप्पेगइया विसज्जिय से य जल्लमल परिस्समनिद्द खुष्पिवासा सुह सुहेण विहरति ) इस के बाद उस मणिकार श्रेष्टी नद ने उत्तर दिशा सचन्वी वनपड मे एक बडी भारी नापित कर्मशाला बनवाई। यह भी सैकड़ों खभो से निर्मित्त की गई
શબ્દથી ગૃહીત થયેલા છે. એક દ્રવ્ય–સાધ્ય દેવાનુ નામ ઔષધ ' છે અને જે અનેક (ઘણી) દાના મિશ્રણથી તૈયાર કરવામા આવે છે તે ભૈષજ્ય છે ( तएण गंदे उत्तरिल्ले वणसडे एग मह अल कारिसभ करावेइ अणेगसभसय सनिविट्ठ जाव पडिव, तत्यण बहवे अलकारियपुरिसा दिन्न भइभत्तवेयणा वहूण समणाण य, माद्दणाण य, अणाहाण य, गिठाणाण य, रोगियाण य, दुब्बलाण य, अलकारियकम्म करेमाणा २ विहरति तएण तीए नदाए पोक्सरिणीए बहत्रे साहाय अणाहा य पथिया य, वहिया य करोडीया य कप्पडिया य तण हारा य, पत्तद्दारा य कट्ठद्वारा य अप्पेगइया व्हायति, अप्पेगइया पाणिय पियति अप्पे | पाणिय सवहति अप्पेगइया विसज्जिय से य जलमल परिसमनिद्द सुप्पिवासा सुह सुद्देण विहरति ) त्यारपछी ते भजिअर श्रेष्ठी न हे उत्तर दिशाना વનપડમા એક વિશાળ નાપિત કશાળા ( જામ શાળા) બનાવડાવી તે જોવામાં તે ખૂબ જ પશુસેક થાલવાએ ઉપર ખાધવામા આવી હતી
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अनगारधर्मामृतयषिणी टी० अ० १३ न दमणिकारभवनिरूपणम् ७५ य सयणेसु य सन्निसन्नो य सतुयहो य पेच्छमाणो य साहे. माणो य सुहसुहेणं विहरइ, त धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयाणंदे लोए। सुलद्धे माणुस्लए जम्म-जीवियफले नदस्त मणियारस्स, तएणं रायगिहे सिघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४ धन्ने णं देवाणुपिया | णदे मणियारे सो चेवः गमओ जाव सुहसुहेणं विहरइ । तएण से गंदे मणियारे बहुजणस्स अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म हहतुढे धाराहयकलवगंपिव समूसियरोमकूवे पर सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ ।। सू०५॥
टीका-'तएण णदाए' इत्यादि । ततरतदनन्तर खलु नन्दाया पुष्करिण्या बहुजनः 'हायमाणो य ' स्नान कुर्वन् 'पीयमाणोय' पियन् पानीय च संवह;
'तएण णदाए पोखरिणीए' इत्यादि । टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (णदाग पोक्खरिणीए डायमाणा य प्रियमाणो य पाणियच सवमाणो य बहुजणो अण्गमण्ण एव वयासीधण्णे ण देवाणुप्पिया! णदे मणियारसेट्ठी कयत्थे जाव जम्मजीवियफले जस्सण इमेया रूवा णदा पोक्खरणी चाउकोणा जाव पडि रूचा, जि स्साणं पुरथिमिल्ले त चेव सव्य चउस्तु वि वणसडेसु जाव रायगिह विणिग्गओ जत्य बहुजणो आसणेलु य सयणेसु य सन्निसन्नो य सतुयहो य पेच्छमाणा य सोहेमाणो य सुह सुहेण विहरह) उस नदा पुष्करिणी में स्नान करने वाला पानी पीनेवाला और उस में से पानी 'तएणं णाए पोरसरिणीए' इत्यादि
थ-(तएण ) त्यामाह (णदाए पोक्सरिणीए हायमाणो य, पियमाणो य पाणिय च स वहमाणो य बहुग्नणो अण्णमण्ण एव वयासी धण्गे ण देवानुपिया ! ण मणियारसेट्टी कयस्य जार जम्मजीवि फले जस्मण इमेयारूप णदा पोस रणी चाउकोणा जाव पडिरूवा, जिस्साण पुरथिमिल्ले त चेत्र सन्न चउसु वि वण स डेसु जाव रायगिह विणिग्गओ जत्थ हुनणो आसणेसु य सयणेसु य सन्निसन्नो य स तुयट्टो य पे छमाणो य सोहेमाणो य सुह सुहेण विहरइ) न पुरिया (વાલ) માં સ્નાન કરનાર, પાણી પીનાર, અને તેમાંથી પાણી ભરનાર, દરેકે દરેક માણસ પરસ્પર આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા કે હે ભાઈ! મણિયાર
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माताधर्मकथा 'गतोऽपि यत्र बहुजनः जलरमणनिधिहमज्जणपयलियाघरयकुसुमसत्थरयणेग सउणगणम्यरिभितसकलेमु' जलरमणविविधमज्जन रदलीलतागृहरकुसुमशस्तरजोऽनेकशकुनगणस्तरिभितसकुलेपु-तत्र जलरमणैः-- जकीडादिभिः, विविधम'जन -बहुविधैः स्नान', रदलीना स्ताना च गृहकैः कुसुमशस्तरजोभिः कुसुमाना पुप्पाणा, शस्तै सुगधयुक्तः, रजोभिः परागैश्च, अनेरुशकुनगणरुतेःबहुविधपक्षिगणाना रतै -शब्देश्व, स्तै कीदृशैरित्यार-रिभितै स्वरयुक्त मधुरैरित्यर्थः, सकुलेपु-युक्तपु वनपण्डेपु. मुस मुसेनाभिरममाण २ विहरति । मू०४|| - मूलम्-तएणं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो 'य पियमाणो य पाणिय च संवहमाणो य अन्नमन्न एव वयासी-धणे'ण देवाणुप्पिया। णदे मणियारसेट्टी कयत्थे जाव
जम्मजीवियफले जस्सणं इमेयारूवा गंदा पोक्खरणी चाउकोमा 'जाव पडिरूवा, जिस्सा णं पुरस्थिमिल्ले त चेव सव्व चउसु वि -वणसडेसु जाव रायगिहे विणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु
गो वि जत्य जगो किं ते जलरमण विविरमजणकलिलया घरर्य कुसुम सत्थरय अणेगअभिरममाणो २ विहरड) और अधिक क्या कहें-राजगृह नगर से बाहिर निकले हुए प्राय सभी जन विविध प्रकार की जल क्रीडाओं से नाना प्रकार के भजनो 'से, कदली और -लताओं के घरों से, पुष्पो की सुगधित रज से, और अनेक विधपक्षी गणों के मधुर शब्दो से युक्त इन वनपडों मे आनद से इठलाते हुए विचरण किया करते थे। सूत्र॥ ४ ॥ पूर्व पाताना qua on उता ( रायगिह विणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो किं से जलरमणविविहमज्जेणकयल्लिया घरय कुसुम सत्यरयअणेगस उणणयरिमिय 'स कुलेसु सुह सुहेण अभिरममाणोर विहरइ) मने भी तो १yारे शु sी) રાજગૃહ નગરની બહાર આવનારા ઘણું માણસે ઘણી જાતની જળ-કીઓ અને ઘણી જાતના મને (સ્નાન કરીને તેમજ કરવી અને લતાગૃહેથી, પની સુગ ધિત રજથી અને ઘણા પક્ષીઓના મધુર કલરવથી યુક્ત આ વનષડામાં આને દથી શરૂ થઈને લહેર કરતા હતા-વિચરણ કરતા હતા ?
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मनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १३ न दमणिकारभवनिरूपणम् ७५५ य सयणेसु य सन्निसन्नो य सतुयहो य पेच्छमाणो य साहे. माणो य सुहसुहेण विहरइ, त धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयाणंदेलोए। सुलढे माणुस्सए जम्म-जीवियफले नदस्त मणियारस्त, तएणं रायगिहे सिघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४ धन्ने णं देवाणुप्पिया । णदे मणियारे सो चेत्र गमओ जाव सुहसुहेर्ण विहरइ । तएण से गंदे मणियारे. बहुजणस्स अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे धाराहयकलवगंपिव समृसियरोमवूवे पर सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ ॥ सू०५॥ ___टीका-'तएण णदाए' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु नन्दाया पुष्करिण्या वहुजनः 'हायमाणो य' स्नान कुर्वन् 'पीयमाणोय' पिवन् पानीय च संवह
तएण पदाए पोक्खरिणीए ' इत्यादि । टीकार्य-तिएण) इसके बाद (णदार पोक्खरिणीए पहायमाणो य प्रियमाणो य पाणियच सबमाणो य बहुजणो अपगमपण एव चयासीधपणे ण देवाणुप्पिया! णदे मणियोरसेट्ठी कयत्थे जाव जम्मजीवियफले जस्सण इमेया रूवा णदा पोखरणी चाउकोणा जाव पडिब्बा, जि; स्साण पुरथिमिल्ले त चेव सव्य चउस्सु वि वणसडेसु जाव रायगिह विणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सपणेतु य सन्निसन्नो य सतुयहो य पेच्छमाणा य सोहेमाणो य सुह सुहेण विहरड) उम नदा पुष्करिणी में स्नान करने वाला पानी पीनेवाला और उस मे से पानी
'तएणं णदाए पोक्सरिणीए' इत्यादि
At-(एण ) त्या२016 (णदाए पोक्सरिणीए हायमाणो य, पियमाणो य पाणिय च सवाहमाणो य बहु नणो अण्णमण्ण एव पयासी धण्णे ण देवानुपिया। णरे मणियारसेट्टी कयत्य जार जम्मजीवि फळे जस्सण इमेयारूप ण दा ओत्स रणी चाउकोणा जाव परिरूवा, जिरसाण पुरस्थिमिल्ले त चेत्र सन घउसु वि वण स डेसु जाव रायगिह विणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेमु य सन्निसन्नो य स तुयट्टो य पेन्छमाणो य सोहेमाणो य सुह सुहेण विहरइ) तेन युरिया ('વાવ) મા નાન કરનાર, પાણી પીનાર, અને તેમાંથી પાણી ભરનાર, દરેકે દરેક માણસ પરસ્પર આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા કે હે ભાઈ ! મણિયાર
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माताधर्मकथा माना घटादिभिर्नयन् चान्योन्यमेवमवाढीव-धन्यः खलु हे देवानुमियाः नन्दो मणिकारश्रेष्ठी कृताथो यावत्-मुलब्धजन्मीरितफल, यस्य सलु इयमेतद्रूपा नन्दा-नन्दानाम्नी, पुष्फरिणी चतुष्कोणा यावत् प्रतिस्पा वर्तते 'जिस्साण' यस्या खलु पुष्करिण्याः पौरस्त्ये तदेव सर्व चतुर्वपि वनपण्डेपु यावत्-राजगृहविनिर्गतो यत्र बहूजन आसनेषु च शयनेषु च सनिष-सम्यमकारेणोपविष्टश्च 'सतुयहो' सत्वग्टत्ता-शयित• कृतपार्थपरिवर्तनश्च, ' पेच्छमाण ' प्रेक्षमाणः वनपण्डश्रिय पश्यन् 'साहेमाणो' कथयन्-तद्विपयककथा कुर्वन् श्लाघयन् वा मुख मुखेन अतिसुखेन विहरति । तत्-तस्माद् धन्यः कृतार्थ कृतपुण्यः कृतानन्दो नन्दमणिकारश्रेष्ठीलोके सुलव्य मानुप्याजन्मजीवितफल यस्य नन्दस्य मणिका भरने वाला प्रत्येक जन आपस में इस प्रकार से बात चीत किया करता कि हे भाई 1 मणिकार श्रेष्ठी नद को धन्यवाद है । वह कृतार्थ हो गया। उसने अपने जन्म और जीवन का फल अच्छी तर से पा लिया कि जिसमे यह चारकोनों वाली यावत् प्रतिरूप नदा नाम की सुन्दर वापिका बनवाई है । और उसके चारों ओर चार वनखड बनवाये हैं। पूर्व दिशो सबन्धी वनपड में एक विशाल चित्रसभा पनवाई है इत्यादि रूप से पहिले का कहा गया सब सबन्ध यहाँ समझ लेना चाहिये। इन चार वनपडीमें यावत् राजगृह नगरसे निर्गत प्रत्येक जन बिछे हुए आसनो पर शयनो पर बैठ कर, लेट कर, वनपड की शोभा का निरीक्षण करता हुआ, तद्विपयक कथा-वार्ता-करता हुआ बड़े आनद के साथ विचरण करता है। (त धन्ने कयत्थेकयपुन्ने कयाणदे लोए ! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नदस्स मणियारस्स तएण શ્રેણી નદને ધન્યવાદ છે તે કૃતાર્થ થઈ ગયો છે તેણે પિતાના જન્મ જીવ નનુ ફળ સારી રીતે મેળવી લીધુ છે કેમકે તેણે આ ચાર ખૂણાઓવાળી પ્રતિરૂપ વગેરે ગુણોથી યુક્ત એવી ન દા નામે રમ્ય વાવ બનાવડાવી છે અને વાવને ચારે બાજુએ ચાર વનષ ડે બનાવડાવ્યા છેપૂર્વ દિશા તરફના વન ષડમાં એક વિશાળ ચિત્રસભા બનાવડાવી છે, વગેરે પહેલાની જેમજ અહીં સમજી લેવું જોઈએ એ ચારે વનડેમાં રાજગૃહ નગરથી આવીને માણસો આસને તેમજ શયને ઉપર બેસીને, સૂઈને અને વનષડની શોભાને જોતાં, તવિષયક કથા-વાર્તા-(વનપડ સ બધી વખાણો) એટલે કે ચર્ચાઓ કરતા सुमेथी वियर ४२॥ २ छ (त धने कयाथे कयपु ने कयादे लोए । सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफळे नदस्स मणियाररस तएण रायगिहे सिधा
- Im डग जाव बहुजणो अन्नमन्नरल एवमाइक्सद्द ४ धन्नेण मेला
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५७
अनेगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् रस्य श्रेष्ठिनः, अत्र सम्बन्धमामान्ये पप्ठी । ए राजगृहविनिर्गतोबहुजनरतत्रस्थितो वदतीत्यर्थ । ततस्तदनन्तर खलु राजटहे नगरे 'सिंघाडग जाव नहुनणो' शृङ्गाटकादियावन्महापथपयेषु बहुजन', अन्योन्यस्य परस्पर, एवमाख्याति, भापते, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति । किमारयातीत्याह-हे देवानुपिय ! धन्य. खलु नन्दी मणिकारः 'सो चेव गमओ' स एव गमक =अन पूर्वोक्त एव पाठो वाच्य , कृतार्थ कृतपुण्य , यावत्-सुलब्ध जन्मजीवितफल, यस्य खलु इयमेतदूपा नन्दा पुष्करिणी चतुष्कोणा यावत् प्रतिरूपा वर्तते, यात्-बहुजना-सुग्वसुखेन विहरति । ततः रायगिहे सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्त एवमाइस्खइ ४ धन्ने ण देवाणुप्पिया ! णदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुह सुहेणं विहरइ, तएण से णदे मणियारे घजणस्स अतिए एयमह सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्टे धाराहयकल ग पिर समृमिय रोमकूवे पर साया सोक्खमणुभवमाणे विहरह) इस लिये नद मणिकार श्रेष्ठी विशेष रूप से धन्य वादाई है । विशिष्ट पुष्पशाली है। और विशिष्ट आनद का भोक्ता है। इस लोक में मनुष्य जन्म और जीवन का फल इस ने प्राप्त कर लिया है। इसी तरह की राजगृह नगर के शृगाटक आदि महा मोगों पर खड़े होकर अनेक जन परस्पर में बात चीत किया करते, परस्पर में सभापण करते, प्रज्ञापना करते और मरूपणा करते रहते-वे कहते-हे भाई! नद मणिकार प्ठी को धन्यवाद हैं, यह कृतार्थ है, कृत पुण्य है । उसी ने अपने मनुष्य भव सबधी जन्म और जीवन को पा लिया है-जिस ने यह इतनी सुन्दर चार कोन वाली नदा पुष्करिणी बनवाई है । जहा अनेक जन सुख पूर्वक विचरण करता है । इत्यादि पहिले का मणियारे सोचेव गमओ जाव सुह सुहेण विहरइ, तएण से णदे मणियारे बहुजणस्स अतिए एयम सोचा णिमम्म हट्टतुदठे धाराहयकलमग पिथ समूसिय रोमाचे पर साया सोक्समणुभनमाणे विहरइ ) मेथी नह મણિયાર ખરેખર વિશેષ ધન્યવાદને ચગ્ય છે તે વિશિષ્ટ પુણ્યશાળી છે અને વિષ્ટિ આનદને પભોગ કરનાર છે આ લોકમા મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ તેણે સંપૂર્ણપણે મેળવી લીધુ છે આ રીતે જ રાજગૃહ નગરના મૃગાટક વગેરે રાજમાર્ગો ઉપર ઊભા રહીને ઘણા માણને પરસ્પર વાત કરતા હતા આ ભાષણ કરતા હતા, પ્રજ્ઞાપના કરતા હતા અને પ્રરૂપણ કર્યા કરતા હતા તેઓ કહેતા કે હે ભાઈ ! નદ મણિકાર શેઠને ધન્ય છે, તે ખરેખર કૃતાર્થ મનુષ્યભવ બધી જન્મ અને જીવનને સફળ બનાવ્યા છે તેણે કેટલી સરસ ન દા નામે ચાર ખૂણાવાળી વાવ બ ધાવી છે ત્યાં ઘણા માણુને સુખેથી
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शताधर्मकथा
मानः घटादिभिर्नयन् चान्योन्यमेवमवादीत् - धन्यः खलु हे देवानुमियाः नन्दो मणिकारश्रेष्ठी कृताथो यावत् - सुलन्धजन्मजनितफल यस्य सल इयमेतवू पा नन्दा - नन्दानाम्नी, पुष्करिणी चतुष्कोणा यावत् प्रतिरूपा पर्वते ' जिस्साण ' यस्या खलु पुष्करिण्याः पौरस्त्ये तदेव सर्वं चतुर्ध्वपि वनपण्डेषु यावत् - राजगृह विनिर्गतो यत्र बहुजन आसनेषु च शयनेषु च सनिवण्णः सम्यक्रमकारेणोपविष्टष ' सतुयहो ' सत्वगृत्तः = शयितः कृतपार्थपरिवर्तन, ' पेच्छमाण ' प्रेक्षमाणः वनपण्डत्रिय पश्यन् 'साहेमाणो' कथयन् = तद्विषयककथा कुर्वन् श्लापयन् वा सुख सुखेन = अतिसुखेन विहरति । तत् तस्माद् धन्य' कृतार्थ कृतपुण्यः कृतानन्दो नन्दमणिकार श्रेष्ठ लोके सुब्ध मानुष्यक जन्मजीवितफल यस्य नन्दस्य मणिका
भरने वाला प्रत्येक जन आपस में इस प्रकार से बात चीत किया करता कि हे भाई । मणिकार श्रेष्ठी नद को धन्यवाद है। वह कृतार्थ हो गया। उसने अपने जन्म और जीवन का फल अच्छी तहर से पा लिया कि जिसमे यह चारकोनों वाली यावत् प्रतिरूप नदा नाम की सुन्दर वापिका बनवाई है । और उसके चारों ओर चार वनखड बनवाये हैं । पूर्व दिशो सबन्धी चनपड मे एक विशाल चित्रसभा बनवाई है इत्यादि रूप से पहिले का कहा गया सब सबन्ध यहाँ समझ लेना चाहिये । इन चार वनपडोमें यावत् राजगृह नगरसे निर्गत प्रत्येक जन बिछे हुए आसनो पर शपनो पर बैठ कर, लेट कर, वनपड की शोभा का निरीक्षण करता हुआ, तद्विषयक कथा-वार्ता करता हुआ बड़े आनद के साथ विचरण करता है । ( त धन्ने कयत्येकयपुन्ने कयाणंदे लोए ! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नदस्स मणियारस्स तएण
શ્રેણી નદને ધન્યવાદ છે તે કૃતાર્થ થઈ ગયા છે તેણે પેાતાના જન્મ જીવ નનુ ફળ સારી રીતે મેળવી લીધુ છે કેમકે તેણે આ ચાર ખૂણાઓવાળી પ્રતિરૂપ વગેરે ગુણાથી યુક્ત એવી ના નામે રમ્ય વાવ અનાવડાવી છે અને વાવને ચારે બાજુએ ચાર વનષા અનાવડાવ્યા છે પૂર્વ દિશા તરફના વન પડમા એક વિશાળ ચિત્રસભા અનાવડાવી છે, વગેરે પહેલાની જેમજ અહીં સમજી લેવુ જોઈએ. એ ચારે વનડામા રાજગૃહ નગરથી આવીને માણસા આસને તેમજ શયના ઉપર બેસીને, સૂઈ ને અને વનષડની ઘેાલાને લેતાં, તદ્નવિષયક કથા-વાર્તો-( વનષૐ સબધી વખાણે!) એટલે કે ચર્ચા કરતા सुमेथी वियर उरता रहे छे ( त धने कत्थे कयपुन्ने कयाणंदे लोए । सुद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नदस्स मणियाररस तएण रायगि सिघा बग जाव बहुजणो अन्नमन्नर एवमाइक्स ४ धन्नेण देवाण
1 गंदे
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अनेगारधर्मामृतवाणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७५७ रस्य श्रेष्ठिन., अत्र सम्बन्धमामान्ये पष्ठी । एप राजगृहविनिर्गतोवरजनरतस्थितो वदतीत्यर्थ । ततस्तदनन्तर खलु राजटहे नगरे 'सिंघाडग जाव नहुनणो' शृगाटकादियावन्महापथपयेषु बहुजन', अन्योन्यस्य परस्पर, एवमाख्याति, भापते, मज्ञापयति, प्ररूपयति । किमारयातीत्याह-हे देवानुप्रिय ! धन्य. खलु नन्दी मणिकार. 'सो चेव गमओ' स एव गमक =अत्र पूर्वोक्त एव पाठो वाच्य , कृतार्थ कृतपुण्यः, यावत्-सुलब्य जन्मजीवितफल, यस्य खलु इयमेतद्रूपा नन्दा पुष्करिणी चतुष्कोणा यावत् प्रतिरूपा वर्तने, यानत्-बहुजन -सुखमुखेन विहरति । ततः रायगिहे सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्त एवमाइक्खइ ४ धन्ने ण देवाणुप्पिया! णदे मणियारे सो चेच गमओ जाव सुह सुहेणं विहरइ, तएण से णदे मणियारे घहुजणस्स अतिए एयम सोच्चा णिसम्म हतुट्टे धाराहयकल पग पिर समृमिर रोमकूवे पर साया सोक्खमणुभवमाणे विहरह) इस लिये नद मणिकार श्रेष्टी विशेप रूप से धन्य वादाई है । विशिष्ट पुण्यशाली है। और विशिष्ट आनद का भोक्ता है। इस लोक मे मनुष्य जन्म और जीवन का फल इस ने प्राप्त कर लिया है। इसी तरह की राजगृह नगर के शृगाटक आदि महा मोगों पर खड़े होकर अनेक जन परस्पर में बात चीत किया करते, परस्पर में सभापण करते, प्रज्ञापना करते और प्ररूपणा करते रहते-वे करते-हे भाई! नद मणिकार सेप्टी को धन्यवाद हैं, यह कृतार्थ है, कृत पुण्य है । उसी ने अपने मनुष्य भव सरधी जन्म और जीवन को पा लिया है-जिस ने यह इतनी सुन्दर चार कोन वाली नदा पुष्करिणी बनवाई है । जहा अनेक जन सुख पूर्वक विचरण करता है । इत्यादि पहिले का मणियारे सोचेव गमओ जाव सुह सुहेण विहरइ, तएण से णदे मणियारे बहुजणस्स अतिए एयम सोचा णिसम्म हतुठे धाराहयकलवंग पिव समूसिय रोमकूवे पर साया सोक्समणुभनमाणे विहरइ ) मेथी न મણિયાર ખરેખર સવિશેષ ધન્યવાદને ચગ્ય છે તે વિશિષ્ટ પુણ્યશાળી છે અને વિશિષ્ટ આનદને પગ કરનાર છે આ લોકમાં મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ તેણે સંપૂર્ણ પણે મેળવી લીધુ છે આ રીતે જ રાજગૃહ નગરના શૃંગાટક વગેરે રાજમાર્ગો ઉપર ઊભા રહીને ઘણુ માણને પરસ્પર વાત કરતા હતા સ ભાષણ કરતા હતા, પ્રજ્ઞાપના કરતા હતા અને પ્રરૂપણ કર્યા કરતા હતા તેઓ કહેતા કે હે ભાઈ! નદ મણિકાર શેઠને ધન્ય છે, તે ખરેખર કૃતાર્થ મનુષ્યભવ સ બ ધી જન્મ અને જીવનને સફળ બનાવ્યા છે તેણે કેટલી સરસ ના નામે ચાર ખૂણાવાળી વાવ બંધાવી છે ત્યા ઘણુ માણને સુખેથી
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ज्ञाताधर्म [कथा]
खलु स नन्दो मणिकारश्रेष्ठी बहुजनस्यान्तिके एनमश्रुत्वा हृष्टतुष्टः ' धाराहयवलनगपिन ' धाराहत कदम्न कमि=मेघ वाराभिराहत यत् कदम्बकुसुम तत् ' समूसियरोग कूवे ' समुच्छ्रितरोमकूपः समुल्लमिवरोमरन्त्रः सजातरोमाञ्च इत्यर्थः, परम उत्कृष्ट 'सायामो समणुभवमाणे 'शात सौरयमनुभवन् = बहुमत स्वात्मप्रसारणजनित शावगौरवोदयेनामन्दमानानन्दोह सितचित्तः सन् वि रति आस्तेस्म || सू० ५ ॥
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मूलम् - तएणं तस्स नदस्त मणियारसेहिस्स अन्नयाकयाई' सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया त जहा - " सासे १, कासे २, जरे३, दाहे४, कुच्छिसूले५, भगदरे - ६ । अरिसा ७, अजीरए८, दिट्टिमुद्धसूले' ९-१० अरोअए ११ ॥१॥ अच्छिवेयणा' १२, कन्नवेयणा १३, कडू १४, दउदरे१५, कोढे ? १६ । तएर्ण से दे मणियारसेट्टी सोलसहि रोगायकेहि अभिभूए समाणे कोटुंबिय पुरिसे सहावेइ सदावित्ता एव वयासी - गच्छह र्ण तुम्भे देवाणुपिया | रायगिहे सिघाडग जाब पहेसु महयार संदेणं' उग्घोसेमाणा एव वदह - एव खलु देवाणुपिया । णंदस्स
सत वक्तव्य यहां लगा लेना चाहिये। मणिकार श्रेष्ठी नद अनेक जनों के मुख से इस अपनी प्रशसा का अर्थ को सुनतो तो सुन कर बहुत अधिक आनंदित एव सतुष्ट बन जाता । मेन की धारा से आहत कदव, पुष्प के समान उस के शरीर भर में रोमांच हो आते। इस तरह अनेक जन कृत अपनी प्रशसा के श्रवण से जनित शातगौरवोदय से अनन्द आनंद उल्लमित बना रहता । सूत्र ॥ ५ ॥
વિચરણ કરે છે-વગેરે અહીં પણ પૂર્વવત્ વન સમજી લેવુ જોઈએ મણિકાર શ્રેષ્ઠિ નદ ઘણા માણસાના મેાવી પોતાના વખાણુ સાભળતા ત્યારે ખહુ જ માન ત્તિ અને સ તુષ્ટ થઈ જતા હતા મેઘની ધારાઓથી બાહત કદ ખ પુષ્પની જેમ તેનુ શરીર શમાચિત થઈ જતુ હતુ આ રીતે ઘણુા માણસાના મુખેથી પેાતાના વખાણુ સાભળીને તે શત ગૌરવાદયથી ખૂબ જ આનદમા મસ્ત હેતેા હતેા ।। સૂત્ર 4" 11
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् मणियार से हिस्स सरीरगसि सोलसरोगायका पाउन्भूया तं जहा'सासे जाव कोढे' त जो ण इच्छइ देवाणुप्पिया | वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणओ वार कुसलो बा२ नदस्स मणियारस्स तेसि चणं सोलसह रोगायकाण एगमवि रोगायक उवसाभेत्तए तस्स णं देवाप्पिया | मणियारे विउल अत्थसपयणं दलयइ त्तिकहु दोच्चपि तच्चपि घोसणं घोसेह घोसित्ता एयमाणत्तिय 'पञ्चपिणह, तेहि तहेव पञ्चष्पिणति, तएण रायगिहे इमेयारूव घोसण सोच्चा जिसम्म बहवे वेज्जाय वेज्जपुत्ता य जाव कुसलपुत्ताय सत्यको सहत्थगया य कोसगपायहत्थगया य सिलियाहत्थगया च गुलियाहत्थगया य ओसहभेसज्ज हत्थगया य ( सहि २ गिहितो निक्खमति निक्खमित्ता रायगिहं नयरं मज्झ मज्झेण जेणेव णदस्त मणियारसेट्टिस्स गिहे तेणेव उवा'गच्छति उवागच्छित्ता णदस्स सरीर पासति, तेसि रोगायकाण 'णियाणं पुच्छति णदस्स मणियारसेट्ठिस्स बहूहि उव्वलणेहि य उवट्टणेहि य सिणेहपाणेहि यवमणेहिय विरेयणेहि य सेयणेहिय अवदहहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि यत्किम्मे हि यः निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छृणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि यतपणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कदेहि य पत्तेहि य पुष्पंहि य फलेहि य वीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहिय भेसज्जेहि य इच्छति तसि सोलसह रोगायकाण एगमवि रोगायक उवसामित्तए, नो चेवणं सचाएति उमामेत्तए, तएण ते वहवे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएति तेसि सोलसण्ह रोगायकाण एवमवि रोगायक उव
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ताधर्मकथा सामित्तए ताहे सता तता जाव पडिगया । तएण नदे तेहि सोलसहि रोगायंकेहि अभिभूए समाणे णदा पोखरणीए मुच्छीए गिद्धे गढिए अज्जोववणे तिरिक्खजोणिएहिं निवद्वाउए बद्धपएसिए अदृदुहवसट्टे कालमासेकाल किच्चा नदाए पोखरिणीए ददरीए कुच्छिसि ददरत्ताए उववन्ने सू०६॥
टीका-'तपण तस्म' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु नन्दस्य मणिकारश्रेष्ठिनः, अन्यदा कदाचित्-प्रदरतरणातगौरवजनितकर्मादय। शरीरे पोडश रोगाताङ्का. तत्र ोगा. स्वल्पकालस्थायिनो ज्वरादय , आतङ्काः चिरस्थायिनः कुष्टादय., मादुर्भूताः, तद् यथा
सासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४ कुच्छिमूले ५ भगदरे ६। अस्सिा ७ अजीरए ८ दिद्विमुद्र ९-१० मुले अरोभए ११ ॥ १॥ अच्छिवेयणा १२ रनवेयणा १३ कडू १४ दउदरे १५ कोढे १६ १॥ (१) श्वास -ऊ वैश्वास', (२ कास = लेप्मविकार', (३) ज्यास्ताप , (४) 'तए तस्स नदस्स' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण ) इसके बाद (तस्स नदस्स मणियारसेहिस्स अन्नया कयाई सरीरगसि सोलसोगायका पाउन्भूया तजहा- उस मणिकार श्रेष्ठी के शरीर में किसी एक समय ये प्रबलतर शात गौरव जनित कर्म के उदय से १६ रोग और आतङ्क प्रकट हुए-स्वरप कालतक जो बिमारी शरीर में रहती है-जैसे ज्वर आदि-वे रोग, और जो बीमारी शरीर में चिरस्थायी होकर रहती है जैसे कुष्टादि-वे आतक कहलाते है। वे सोलह ये हैं-१ श्वास -उर्ध्वश्वास, २ कास-खासी, ३ ज्वर-ताप, ४ दाह-दाहज्वर, ५ कुक्षि
'तएण तरस न दस्स ' इ यादि
सार्थ-(तएण)त्यार५७ (तस्स नस्स मणियार से द्विस्स अन्नया कयाई सरी रगसि सोलस रोगायका पाउभया-त जहा ते भर २ श्रेटिना शरीर मे : વખતે પ્રબળતરશાત વજનિત કર્મના ઉદયથી ૧૬રોગો અને આતકે પ્રગટયા થોડા વખત સુધી શરીરમા જે માદગી રહે છે જેમ કે તાવ વગેરે તે રોગ અને જે મ દગી શરીરમાં કાયમ માટે રહે છે જેમકે કેટ વગેરે તે આતક કહેવાય છે તે सोना नाम मा प्रभारी छ-(१)यास-64 वास,(२)A-SURA 270४५२
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम
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दाहः, = दाहज्वरः, (५) कुक्षिशुन, ३) भगदर', (७) अ = गुदाङ्कुररोग, (८) अजीर्ण = आहारस्यापरिणति', (९) दृष्टिमूर्धशूलम् दृष्टिगल - नेत्रशूलम् (१०) मूर्धशूल = मस्तरशून्म्, (११) " अरोअए " अरोचक =भोजनादावरुचि:, (१२) अक्षिवेदना (१३) वेदना (१४) अण्ड = दर्ज, (१५) दकोदर - जलोदर (१६)कुष्ठ 1 ततः खलु स नन्दो मणिकार पोडगभीरोगातङ्केरमिभूतः सन् कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता, एवमवादीत् हे देवानुप्रियः । गच्छत खलु यूय राजगृहे शङ्गाटक यावद्- महापथेषु महता महता शब्देनोद्धोपयन्त एव - हे देवानुप्रिया एन खलु नन्दस्य मणियारश्रेष्ठिन, शरीर के पोडशरोगा तङ्काः प्रादुर्भूता तद् यथा श्वामो यावत् कुष्ठ । तत् तस्माद् य खलु इच्छति देवप्रियाः ! द्या, पैयपुत्रो वा, ज्ञायको बा, ज्ञायकपुनो वा कुलो वा, कुशपुत्रो वा नन्द्रस्य मणिकारस्य तेषा च खलु पोडशाना रोगातङ्कानामेकमपि शूल ६ भगंदर, ७ अर्श-चवासीर ८ अजीर्ण, ९ दृष्टिशल, १० मस्तक शूल ११ अरोचक - भोजनादि मे रुचि का अभाव, १२ अक्षिवेदना १३ कर्णवेदना १४ खाज १५ जलोदर १६ कुष्ठ (तगण मणियारसेट्ठी णदे सोलसहिं रोयायकेहि अभिभृण समाणे काडुवियपुरिसे मद्दोवेड, सदावित्ता एव वयासी गच्छ ण तुम्भे देवाणुपिया ! रोगिहे सिंघाडग जाब पहेतु मया २ सद्देण उग्घोसेमोणो २ एवं वयह - एव खलु देवाणुप्पिया । णदस्म मणियारसेट्ठिस्स सरीग्गंसि मोलसरोगायका पाउन्भूयात जा-सासे जाव कोढे ' त जो ण देवाप्पिया ! वेज्जो वा वेजपुतो जाणओ वा २ कुमलो वा २ नदस्स मणियारस्स तेर्सिचा सोल्सण्ट रोगायकाण एगम वि रोगायक उवसामेत्तण
ताव, (४) हाई-हाड०१२ ( 4 ) क्षिशूल, (९) अगर, (७) अर्श- २२, (८) अल-अथयो (6) दृष्टिशूल ( 10 ) भन्तःशूल ( 11 ) भशय लोभन वगेरे तरई आगुगना थवु, (१२) अक्षिपेहना ( 13 ) वेदना, (१४) भाग-२४९, (१५) बोहर (१६) ओढ ( तएण मणियारसेट्ठी मे णदे सोल्सहि रोयायकेहि अभिभू समणे कोड बियपुरिमे सहावेइ, सहावित्ता, एव वयासी, गच्छ न तुभे देवाणुपिया | रायगहे सिघाडा ज्ञान पहेसु महा २ संदेश उग्नोसेमाणा २ एव वय एन खलु देषाणुप्पिया ! णस्स मणियारसेडिम्स सरीरंग मि सोल्स रोग का पाउ भूयात जा-मासे जान कोढे त जोग इन्द्र देवाणुपिया ! वेज्जोवा वेज्जपुतो वा जाणवा २ कुमलोना २ नदस मणियाग्रस तेसिं चण सोलसह रोगाय वाण एगमयिरोगायक उवसामेत्तए तरस ण देवाणुप्पिया !
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বাঘমখা सामित्तए ताहे सता तता जाव पडिगया । तएण नदे तेहि सोलसेहि रोगायकेहिं अभिभूए समाणे णदा पोखरणीए मुच्छीए गिद्धे गढिए अज्जोववण्णे तिरिक्खजोणिएहिं निवद्धाउए वद्धपएसिप अदृदुहवसट्टे कालमासे काल किच्चा नदाए पोक्खरिणीए ददरीए कुच्छिसि ददरत्ताए उववन्ने ॥सू०६॥
टीका-'तएण तस्म' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु नन्दस्य मणिकारश्रेष्ठिनः, अयदा कदाचित्-प्रबलतरणातगौरवजनितकर्मादयो शरीरे पोडश रोगाताङ्काः तत्र रोगा स्वल्पकालस्थायिनो चरादय , आतदाः चिरस्थायिनः कुष्टादय., मादुर्भूताः, तद् यथा
सासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४ कुच्छिमूले ५ भगरे । अरिसा ७ अजीरए ८ दिद्विमुद्ध ९-१० सूले अरोअर ११ ॥१॥ अच्छिवेयणा १२ रनवेयणा १३ कडू १४ दउदरे १५ कोढे १६ १ ।। (१) श्वास =ऊ श्वासः, (२ कास = लेप्मविकारः, (३) ज्वरस्ताप , (४) 'तएण तस्स नदस्स' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण ) इमके पाद (तस्स नदस्स मणियारसेहिस्स अन्नया कयाई सरीरगसि सोलस गायका पाउन्भूया तजहा~ उस मणिकार श्रेठी के शरीर में किसी एक समय ये प्रपलतर शात गौरव जनित कर्म के उदय से १६ रोग और आतङ्क प्रकट हुए-स्वल्प कालतक जो बिमारी शरीर में रहती है-जैसे ज्वर आदि-वे रोग, और जो बीमारी शरीर में चिरस्थायी होकर रहती है जैसे कुष्टादि-वे आतक कहलाते है। वे सोलह ये हैं-१ श्वास -उर्वश्वास, २ कास-खासी, ३ ज्वर-ताप, ४ दाह-दाहज्वर, ५ कुक्षि
'तएण तरस न दस्स ' इ यादि
साथ-(नएण)त्यारपछी(तस्स नस मणियार सेद्विरस अन्नया कयाई सरी रगसि सोलस रोगायका पाउ भूया-त जहा ते मला श्रेष्ठिना शरीर मे . વખતે પ્રબળતર શાત ગૌ વજનિત કર્મના ઉદયથી ૧૬રોગે અને આતક પ્રગટયા થોડા વખત સુધી શરીરમાં જે માદગી રહે છે જેમ કે તાવ વગેરે તે રોગ અને જે મદગી શરીરમાં કાયમ માટે રહે છે જેમકે કેઢ વગેરે તે આતક કહેવાય છે તે सोना नाम प्रमाणे छ-(१)यास-6-4 वाम,(२)स-GU२५ (3)२४५२
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अनुगारधर्मामृतषिणी सीका अ० १३ नदमणीकारभवनिरूपणम् ६३
ततस्तदनन्तर सलु राजरहे नगरे इमामेन्दूपा घोषणा श्रुत्वा निशम्य बहवो वैद्या यावत् कुशल पुत्रा 'सत्यकोमहत्थगया य' शस्त्रकोशहस्तगताश्च हस्ते सुरादिशस्त्रभाजनधारकाः, 'कोसगपायहत्थगया य ' कोगकपात्रहस्तगताः चर्ममयोपकरणधारिणः, 'सिलियाहत्थगया ' शिलिकाहस्तगता: किरातविक्ताद्यौपधधारिण 'गुलियाहत्थगया य' गुलिकाहस्तगताश्च हस्ते द्रव्यसयोगनिर्मितवाटिका धारिणः, औपचभैपज्यहस्तगताश्च स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो निष्कामन्ति-निर्गन्छन्ति, निष्क्रम्य राजगृह मध्यम-येन योव नन्दस्य मणिकारश्रप्ठिनो गृह तत्रोपागच्छन्ति, कौटुम्यिक लोगो ने उसी के अनुसार वैसी ही घोपणा कर दी और याद में आकर नद को इसकी खबर दे दी । (तएण रायगिहे इमेयाल्व घोसण सोच्चा णिसम्म यत्वे वेज्जा य वेजपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सत्यको महत्व गया य कोमगपायहत्य गया यि सलियाहत्य गया य गुलिया हत्य गया य ओसह भेसन हत्य गया य महिंगिहेहिं तो निक्खमति, निक्समिता रायगिर नपर मज्झ मज्झे ण जेणेव नदस्स मणियारसेहिस्स गिहे तेणेव उवागच्छति ) इस प्रकार की घोपणा सुन कर
और उसको विचार कर राजगृह नगर में अनेक वैद्य, वैन्य पुत्र यावत् कुशल कुशल पुत्र, अपने २ हायो मे क्षुरादिशस्त्र एव भाजनो को, चर्ममय उपकरणों को किरात तिक्त औषध को गोलियों को, औषध भैषज्य को ले लेकर अपने २ घरो से निकले । और निकल कर राजगृह नगर के बीच से चल कर जहाँ मणिकार श्रेष्ठी नद का घर था वहा કૌટુંબિક લોકોએ શેઠની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘેષણ () કરી અને ત્યાર पछी नहुने तेनी ५५२ मापी (तएण रायगिहे इमेयारून घोसण सोचा णिसम्म बहवे वेज्जाय, वेज्जपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता च सत्यकोसहत्य गया य कोसगपायहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्थगया य ओसह भेसज्जहधगया य सरहिं २ गिहेहितो निक्सम ति, नियमिता गयगिह नयर मज्झ मझेण जेणेव न दस्स मणियार सद्विस्स गिहे तेणेव उनागच्छ ति ) આ રીતે ઘણું સાભળીને અને તેના વિશે વિચાર કરીને રાજગૃહ નગરમાથી ઘણુ વિદ્ય, વૈદ્યપુત્ર, યાવત્ કુરાલ અને કુરાલપુત્રે પોતપોતાના હાથમાં સુરા વગેરે શસ્ત્રો અને ભાજ, ચર્મમય ઉપકરણ એટલે કે ચામડાના સાધન, કિરાતક (કરિયાતુ) ને, ગાળીને, ઔષધ ભષયને લઈને પિતાપિતાના ઘરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને રાજગૃહ નગરની વચ્ચે यन गया भा२ अष्टिननु ५२ हेतु त्या पक्षाच्या (उत्रागन्ठित्ता न दास
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माताधर्मकथाजी रोगातरमुपागयितुम् इच्छनीतिःण सम्पन्ध., तस्य सलु हे देशानुप्रियाः नन्दी मणिकारश्रेष्ठी पिपुलालाम् , “ अत्यमस्य " अर्थसपद खलु ददातिदास्यति, इतिहत्ता एवमुक्त्या द्वितीयवारमपि तृतीयवारमपि धोपगा घोपयत । धोपयित्वा एताममाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत, तथैव मत्वर्पयन्ति यया नन्दमणिकार अप्ठिना कौटुम्बिापुरपा आदिष्टास्तथैव ते त्या निवेदयन्ति स्मेत्यर्थ । तसणे देवाणुप्पिया ! मणियारे पिउल अत्यसपय दलयड तिकट्टु दोच्चपि तच्चपि घोसण घोसेर ) इन १६ प्रकार के रोगांतकों से व्यथित हुंए उस मणिकार श्रेष्ठी नंद ने कौटुयिक पुरुषों को बुलाया धुलाकर उसने उनसे ऐमा करा हे देवोनुप्रियो ! तुम जाओ-और राजगृह नगर के शृगाटक आदि पडे २ मार्गों में जोड़ जोड़ से इस प्रकार की घोषणा करते हुए कहो-कि हे देवानुप्रियों! मणिकार श्रेष्ठी नद के शरीर मे सोलह रोगातक उत्पन्न हुए हैं-वे वाम से लेंगी कर कुप्ठे तक है-इस लिये है देवानुप्रियो ! सुनो-चाहे वैद्य हो या वैद्य पुत्रे हो जायक हो या ज्ञार्यक पुत्र हो कुशल हो चाहे कुशल पुत्र हों कोई भी क्यों न हो-जो इन १६ प्रकार के रोगातको में से एक भी रोगातक उपशमित कर देगा-हे देवानुप्रियों उसके लिये मणिकार श्रेष्ठी नद विपुल मात्रा मे अर्थ सपदा प्रदान करेगा। इस प्रकार की घोषणा को तुम लोग २-३ बार घोपित करना। (घोसित्ता एयमो. णत्तिर्य पच्चप्पिणह, ते विलहेव पच्चप्पिणति) घोषित कर फिर हमें इस की खबर देना। इस प्रकार नद की आज्ञो प्राप्त कर उन 'मणियारे विउल अत्थस पय दलयइ ति कटु दोच्च पितच रि घोसण घोसे) મેળ જાતના રોગ અને આતકોથી પીડાએલા મણિકાર શ્રેષ્ઠી નદે કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેણે તેમને કહ્યું કે હે દેવ નુપ્રિયે તમે સએ અને રાજગૃહ નગરના મૃગાટક વગેરે રાજમાર્ગો ઉપર આ પ્રમાણે મોટેથી ઘોષણા કરીને કહો કે હે દેવાનુપ્રિયે ! મણિકાર શ્રેષ્ટિ નદના શરીરમાં સોળ ગાત કો ઉત્પન્ન થાય છે તેઓ શ્વાસથી માંડીને કુછ સુધી સોળ રોગ અને આતપર્યન્ત છે માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાભળે, વેદ્ય હોય કે વિદ્યપુત્ર હોય, જ્ઞયિક હોય કે સાયકપુત્ર હોય, કુશલ હોય કે કુરાલપુત્ર હોય, ગમે તે હોય, જે આ મણિકાર શ્રેષ્ઠિના સેળ રેગ અને આત માથી એક રોગ અથવા તે એક આતક પણ મટાડી શકશે હદેવાનુપ્રિયે ! મણિકાર છિનદ તેને પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન સ પત્તિ આપશે આ પ્રમાણેની તમે વાર વાર બે ત્રણ
मत घोषित । (घोसित्ता एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणह, ते हि तहेव पचपिणति) છેષણ કરીને તમે અમને ખબર આપ આ રીતે ન દની આ
તે,
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १३ नदमणीकारभवनिरूपणम्
ततस्तदनन्तर खलु राजगृहे नगरे इमामेतद्रूपा घोषणा श्रुत्वा निशम्य वहयो वैद्या यावत् कुशलपुत्रा 'सत्यकोमहत्वगया य' शस्त्रकोशहस्तगताश्च हस्ते धुरादिशस्त्रभाजनधारकाः, 'कोसगपायहत्थगया य ' कोशकपात्रहस्तगताः चर्ममयोपकरणधारिणः, 'सिलियाहस्थगया य' गिलिकाहस्तगता:-किराततिक्ताद्यौपधुधारिण 'गुलियाहत्थगया य' गुलिकाहस्तगताश्च हस्ते द्रव्यसयोगनिर्मितवटिका धारिण', औपचभैषज्यहस्तगताश्च स्वकेभ्यः सकेभ्यो निष्कामन्ति-निर्गन्छन्ति, निष्क्रम्य राजगृह मध्यम येन यौव नन्दम्य मणिकारअप्ठिनो गृह तत्रैवोपागच्छन्ति, कौटुम्निक लोगो ने उसी के अनुसार वैसी ही घोपणा कर दी और बाद में आकर नद को इसकी खबर दे दी । (तरण रायगिहे इमेयाल्व घोसण सोच्चा णिसम्म यो वेज्जा य वेजपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सत्यको सहत्य गया य कोमगपायहत्थ गया यि सलियाहत्व गया य गुलिया हयगयाय ओसह भेसज्ज हत्य गयाय महिंगिहेहिं तो निक्खमति, निक्समिता रायगिह नपर मज्झ मज्झे ण जेणेव नदस्स मणियारसेट्ठिस्स गिहे तेणेव उवागच्छति ) इस प्रकार की घोषणा सुन कर और उसको विचार कर राजगृह नगर में अनेक वैद्य, वैद्य पुत्र यावत् कुशल कुशल पुत्र, अपने २ हाथों में क्षुरादिशस्त्र एव भाजनो को, चर्ममय उपकरणों को किरात तिक्त औषध को गोलियों को, औषध भैषज्य को ले लेकर अपने २ घरों से निकले । और निकल कर राजगृह नगर के बीच से चल कर जहाँ मणिकार श्रेष्ठी नद का घर था वहा કૌટુંબિક લોકોએ શેઠની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘોષણા (ઢરો) કરી અને ત્યાર ५छी नहन तेनी २ आषा (तएण रायगिहे इमेयारून घोसण सोचा णिसम्म पहवे वेज्जाय, वेज्जपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता च सत्यकोसहत्य गया य कोसगपायहत्यगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्यगया य ओसह भेसज्जहत्यगया य सएहिं २ गिहेहितो निक्सम ति, निस्वमित्ता गयगिह नयर मना मझेण जेणे न दम्स मणियार सद्विस्स गिहे तेणेष उपागच्छ ति) આ રીતે ઘેષણ સાભળીને અને તેના વિશે વિચાર કરીને રાજગૃહ નગરમાથી ઘણા વૈદ્યો, વિદ્યપુત્ર, યાવત્ કુશલે અને કુરાલ, પોતપોતાના હાથમાં શુરા વગેરે શસ્ત્રો અને ભાજ, ચર્મમય ઉપકરણ એટલે કે ચામડાના સાધન, કિરાતક (કરિયાતુ) ને, ગેળીઓને, ઔવધ ભાષાને લઈને પિતપોતાના ઘરથી બહાર ની વ્યા અને નીકળીને રાજગૃહ નગરની વચ્ચે यने या मथिता अधिनहुनु घर हेतु त्या पसाया (उवागठित्ता न दास
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Marधर्म का सूत्रे उपागस्य नन्दस्य शरीर पश्यन्ति दृष्ट्वाते तेपा रोगातङ्काना 'णियाण' निदानम् - उत्पत्तिकारण पृच्छन्ति, नन्दस्य मणिकार श्रेष्ठिनस्ते पैद्या बहुभि = बहुविषै ' उचलणेहि य' उद्वलनैश= देहोपलेपनविशेषैश्थ, 'उच्चणेत्रिय ' उद्वर्त नैव = मलापकर्षकद्रव्यसयोगविशेषेण शरीरोपमर्दनैश्र, 'मिणेद्रपाणेदिय ' स्नेहपानैश्च = ओपधपरिपकघृतादिपानैथ, मनैन, विरेचनैव सेचनै = उष्णजलाभिषेकै: ' अत्र
"
पहुँचे । ( उचागच्छित्ता नदस्म मरीर पासति तेसिं रोयायकाण णिया पण पुच्छति पादस्स मणियारसे हिस्स जिव्वलणेहिं य उव्वहणेहिं य, सिणेहपाणेरि य वमणेहि य, विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदसणेहि अवहाणेहि य अणुवासणेहि किम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहिय तच्छणाहि य, पच्छणाहि य, सिरावेढेरि य तप्पणाहि य, पुढपागेहि य, छल्लीहि य वत्लीहि य नूलेहि य, कदेहि य पत्तेहि य पुष्फेहि य, फलेहि य, बीएहि य, सिलियाहि य, गुलियाहि य, ओसहेहि य, भेसज्जेहि य, इच्छति तेर्सि सोलसण्ट रोगायकांण एगमवि रोगायक उवसामित्तए नो चेव ण सचाएनि उवसामेत्तए) वहा पहुँच कर उन्होने नद सेठ के शरीर को देखा देख कर उन रोगातकों के निदान को मूल कारण को पूछा। बाद में उस मणिकोर श्रेष्ठी नद का उन वैद्य ने अनेकविध उरलनो से देहोपलेपन विशेष से, स्नेहपानों से औषधियों में पकाये गये घृतादिके पिलाने से, वमन कराने से,
सरीर वासति तेसिं रोयायकाण णियाण पुच्छति, णदस्स मणियारसेट्ठिस्स बहूईि उव्व णेहि य, वमणेहि य, विरेयणेहि य, सेयणेहि य, अवदमणेहि य, अवण्हाणेहि य, अणुवासहि यत्किम्मे हि य निरूहेहि य, सिरावेहे हि य, तच्छणाहि य, पच्छणाहि य, सिरावेढेहि य, तपणाहि य, पुढपागेहि य, छल्ली हि य, वल्लीहि य, मूलेहि य, क्र देहि य, पत्तेहि य, पुकेहि य, फळेहिय, बीएहि य, सिलिमाहि य, गुलियाहि य, भोसहि य, भेसज्जेहि य, इच्छति तेसिं सोल्सण्ड रोगाय काण एगमवि रोगायक उपसा मितए, नो चेव ण सचाएति उपसामेत्तए) त्याने तेथे नह श्रेष्ठिना શરીરને તપાસ્યુ, તપાસીને રાગ અને આતકાના નિદાન ( રાગનું મૂળ કારણ) વિશે પૂછપરછ કરી ત્યારબાદ વૈવોએ મણિકાર શ્રેષ્ઠિની ઘણી જાતના ઉત્ખલનાયી–શરીરના લેપ વિશેષાથી, ઉનાથી-મલાપકક દ્રવ્ય સમેગ વિશેષને શરીર ઉપર ચાળવાથી, સ્નેહપાનેાથી-ઔષધીઓમા પરિપકવ થયેલા ઘી વગેરે તે પીવડાવવાથી, વમન ( ઊલટી ) કરાવાથી વિરેચન
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अनगारधर्मामृतवपिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् दहणेहि य' असदहनै दम्भनः-तप्तलोहकोशादिना शरीरावयाविशेपे दाहकर णैश्च 'अण्डाणेहि य' अवस्नाने शरीरे कण्डूयनादिवारणार्थ तदनुकूलद्रव्यमिश्रितजलस्नानैश्च, ' अणुवासणेहि य ' अनुवासने विरेचनविशेपै.-यन्त्रद्वारेणापानमार्गेण तैलादीनामुदरे प्रवेशनरूपेश्च ‘वत्यिकम्मेहि य' पस्तिकमि =मलनिर्गमार्थ गुदे वादिप्रक्षेपः, 'निरूहेहि य' 'निरूह 'द्रव्यपक्कलमयोगेण विरेचन. विशेपैश्च 'सिरावेहिहेहि य ' शिरावधै -विकृतरूधिरनिस्सारणार्थ नाड़ीवेधैश्व, 'तच्छणाहि ' तक्षणैः क्षुरप्रादिना त्वक् छेदनैश्च, 'पच्छणाहि य' प्रतक्षणःक्षुरमादिनाहस्तलाघवेन त्वचः प्रतनूकरणैश्च, 'सिरावेढेहि य' शिरावेप्टै. नाडीवेष्टनेश्व, तप्पणाहि य ' तर्पणैश्च-स्निग्धद्रव्येण शरीरसवाहनैश्च, पुडपागेहि य' पुटपाकै.-पाकविशेषनिष्पन्नौपधविशेपैश्च, उल्लीहि य' छल्लीभिश्व-निंबादित्वग्भिः, विरेचन कराने से, उष्णजल से स्नान कराने से तकुआ आदि को अग्नि मे तपा कर उसका शरीर के किसी अवयव विशेष मे डाम देने से अवस्नानों से-खाज-आदि मिटाने के लिये शरीर पर तदनु कूल द्रव्य मिश्रित जल से वार २ स्नान कराने से अनुवासनो से-यत्र नारा अपान मार्ग से उदर में तैलादिकों के पहुँचाने से, वस्ति कर्मो से-मल को निकालने के लिये गुदा मे वादि के प्रवेश कराने से, निरूहों से द्रव्य पकतैल के प्रयोग से विरेचन करवाने से, शिरावेध से-विकृत खून को निकालने के लिये शिरा-नस के काट देने से-नाडीवेध सेतक्षण से क्षुरा आदि द्वारा चमड़ी के काट देने से, प्रतक्षण से क्षुरा आदि द्वारा हस्तलाघव पूर्वक चमड़ी के छील देने से, शिरावेष्ट-नाडी वेष्टन से, स्निग्य द्वारा शरीर की मालिश कराने से, पुट पाक सेपाक विठोप से तैयार की गई औषधियों से, छालो से-निम्य आदि की ગરમ પાણીએ નાન કરાવવાથી, લેખડ વગેરેને અગ્નિમાં તપાવીને શરીરના કેઈ વિશેષ અવયવને ડામવાથી અવસ્નાનથી–ખરજવુ વગેરે મટાડવા માટે શરીર ઉપર તદનુકૂલ દ્રવ્યમિશ્રિત પાણીમાં વારંવાર સ્નાન કરાવવાથી, અન વાસનાથી-ય ત્ર વડે ગુદા-માગથી પેટમાં તેલ વગેરે પહોચાડવાથી, વસ્તિ કર્મોથી–મળને બહાર કાઢવા માટે ગુદામા વર્યાદિને પ્રવિણ કરાવવાથી નિરુ હેથી-દ્રવ્યમાં પરિપકવ થયેલા તેલને પ્રગથી, વિરેચન કરાવવાથી, શિરાથી ખરાબ લેહીને બહાર કાઢવા માટે શિરા-નને કાપવાથીનાડીરેધવી, પ્રતિક્ષણથી છરા વગેરેથી બહુ જ કુશળતાથી ચામડીને છેતવાથી, શિરાવેટથી-નાડી વેઇનથી, સ્નિગ્ધ પદાર્થ વડે શરીરના ઉપર માલીશ કરવાથી, પુટપાકથી-પાક વિશેષથી તૈયાર કરવામાં આવેલી ઔષધીઓથી, છાલે (છેડા) ઘી-નિબ
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ताधर्मकथासूत्र 'बल्लीहि य' वल्लीभीच गहन्यारि-तामिश्र, तथा- मूलै २, कन्देश्व फौश्व, पुपैश्च फलैश्च, पीजैश्च, शिलिकाभिश्च पिरानतिस्तैःचिरायता इतिप्रसिद्धैरोषत्रि विशेष गुलिकाभिश्च औपधैश्च भैपज्यश्च इच्छन्ति तेपा पोडशाना रोगातका नामेकमपि रोगातङ्कमुपशमयितु, किन्तु नो चैत्र शक्नुवन्त्युपशमयितुम् । ततः
खलु ते वयो वैद्याथ 'जाहे' यदा नो शमनुवति तेपा पोडशाना रोगात पानामेकमुपिरोगातङ्कमुपशमयितुम् , तदा आन्ता अमातरा , तान्नाग्विमा:'परितान्ताः सर्वथाखिन्नाः रोगातहमपनेतुमसमर्थों इत्यर्थ यात्-प्रतिगताःस्वस्व स्थान गतव तः। , ततः ग्वलु नन्दस्तै पोडशमीरोगतकैश्वामिभूतः सन् नदा पुष्करिण्या 'मुच्छिए ' मूछितः मूर्छा प्राप्तः आसक्तः ग्रथितःबद्धात्मपरिणाम , ' अजोत्र 'चन्ने' अध्युपपन्नः सर्वथा निरन्तर तगारतया तन्मयात्मपरिणामवान् तिर्यग्
अन्त २ छाल से, गुड़ ज्यादि-गिलोय आदि लताओं से, तथा मूल, 'कन्द, पत्र, पुष्प, फल, बीज, शिलिका-चिरायता, गोलियों, औषध,
भैषज्य से उन सोलह रोगातकों में से एक भी रोग को शात करने की 'चिकित्सा की । परन्तु वे उसके एक भी रोगातकको उपशमित नहीं
कर सके । (तएण ते यहवे वेजा य ६ जाहे नो सचाऐंति ते सिं सोल'सण्ट रोगायकाण एगमवि रोगायक उवसामित्तए, ताहे सता ततो जाव पडि गया) जब वे समस्त वैद्यादिजन ६, उन १६ सोलह रोगातको में से एक भी गेगातक को शमित कर ने में (शक्य नहीं) समर्थ नही हो सके तब श्रान्त एव तान्त होकर अपने २ पर चले आये । (तएण नंदे तेहिं सोलसेहिं रोगायकेहिं अभिभूए समाणे नदा पोक्खरणिए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोपवण्णे तिरिक्ख जोणिहिं निपाउण बद्ध વગેરેની છાલથી, ગુડુ જ્યાદિ–ગળો વગેરે લતાઓથી તેમજ મૂળ, કદ, પત્ર, Y७५, ३०, भी, शिक्षिा -विरायता, गाणी, औषध, लैपन्यथा ते सोग
ગ અને આત કેમાથી એક રેગ અને એક આતકને મટાડવા માટે ચિકિત્સા (ઈલાજ ) કરી પણ તે લેકે તેના એકે ય ગ અને એક ય આતકને પણ भावामा शतिमान २६ २४॥ नडि, (तएण ते बहवे वेज्जा न ६ जाहे नो सवाए ति वेसि सोलसह रोगायकाण एगमवि रोगायक उपसामित्ता, ताहे सता जाव पडिगया) ल्यारे मधा वैधो ६, सण माथी यशस અને આતકને પણ મટાડવામાં સમર્થ થઈ શક્યા નહિ ત્યારે શ્રાત અને તાત
ने पातपाताने ३२ पाran (तएण न दे तेहिं सोल्सेहिं रोगाय केहि अभिभूए समाणे न दा पोक्खरणिए मुछिए गिद्वे गढिर अज्ज्ञोपवण्णे तिरिक्खजोणि
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T
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभननिरूपणम्
प्रदेशिक प्रदेशयन्यापेक्षया
N
योनिषु निवायु अट्टदुहट्टवसट्टे ' आर्तदुःखविशार्च == मनमा दुःखित', दु.या देहेन, बशा = पुष्करिणीसमा सक्तेन्द्रिवशेन तत्सुखनियोगसम्भावना पीडित. = एतेपा कर्मधारये आर्चदुःखाविशतिः=आर्त्त यानोपगतदत्यर्थ' काल्मासे काल कुत्वा नन्दाया पुष्करिण्यां 'ददुरी कुन्डिस' दर्दर्याः कुक्षो = मण्डकीगर्भे 'दद्दूरत्ताए' दर्दुग्तया मण्डकतया, उपपन्न' सजातः ॥ मु० ६ ॥
मूलम् - तणं गंदे दद्दरे गव्भाओ विणिम्मुक्के समानें उम्मुकबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते नदाए पोक्सरणीए अभिरममाणे२ विहरइ, तऍणणंदाए पोक्खरणीए बहूजेणे पहायमाणो च पियइय पाणिय च सवहमाणो अन्न
परसिए अँठ्ठठुर यसट्टे काल मामे काल किच्चा नदाए पोखरिणीए दरी कुनि दददुरत्ताए उवबन्ने) उन सोलर, रोगातको से अत्यन्त व्यथित हुआ वह नद नदा पुष्करिणी मे मूर्च्छितमति एव अत्यन्त आसक्त मन होता हुआ तन्मय आत्मपरिणामवाला बन गया सो इस कारण उसने प्रदेश यध की अपेक्षा से तिर्यञ्च आयु का यन कर लिया। मन से दुःखित देह से, व्यथित एवं पुष्करिणी में समा सक्त अन्त. करण से उसके सुखके वियोग की सभावना करके अत्यन्त पीडित बने हुए अर्थात आर्तम्यान के वशवर्ती हुए उसने मृत्यु के समय देह का परित्याग किया सो मर कर वह उस नदा पुष्करिणी में एक मेंढकी के गर्भ में मेढक की पर्याय से उत्पन्न हो गया | सूत्र || ६ ||
, निबद्धा बद्ध एसिए अठ्ठठु हट्ट सट्टे कालम से काल किन्वा नदाए पोक्सरिणीए दुरी कुच्छसि दद्दुरत्ताए उअश्न्ने ) भोज रोग भने भातકાથી ખૂબ જ ક ટાળેલા તે નદ શ્રેષ્ઠિના વાવમા સ્મૃતિ મતિ એટલે ક અત્યત આસક્ત મનની તન્મય આત્મપશ્થિામ યુક્ત થઈ ગયે એધી તેનું પ્રદેશળ ધની અપેક્ષાએ તિય ચ આયુના ખધ કરી લીધે મનથી દુખી, શરીરથી વ્યથિત અને પુર્ખાણી ( વાવ ) મા આસક્ત અન્ત કરણથી એટલે કે તેના સુખના વિયાગની સભાવના કરીને ખૂબ જ પીતિ થઇને આ ધ્યાન કરતા તેણે મૃત્યુના મમયે દેહ યે દેહ છોડીને નઇ શ્રેષ્ઠિ તે ન દા પુ ક ણિીમા જ એક દેડકીના ગર્ભ મા દેડકાના પર્યાયથી ઉત્પન થJ ગયે, સૂત્ર ૬
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ताधर्मकथासूत्र 'बल्लीहि य ' वल्लीभीश्च-गहन्यारि-ताभित्र, तथा-मूलैश्च, कन्देश्च फौच, पुप्पैश्च फलैश्च, पीजैश्च, शिलिकाभिश्च-पिराततिस्तैःचिरायता इतिप्रसिद्वैरोषधि विशेपै गुलिकाभिश्च औपधैश्च भैपज्यश्च इच्छन्ति तेपा पोडशाना रोगातला नामेकमपि रोगातकमुपशमयितु, किन्तु नो चैत्र शक्नुवन्त्युपशमयितुम् । ततः खलु ते वहयो वैद्याच 'जाहे ' यदा नो शक्नुवति तेपा पोडशाना रोगात कानामेकमपि रोगातङ्कमुपशमयितुम् , तदा वान्ता =अमातुरा , तान्ना खिमा'= 'परितान्ताः सर्वथाखिन्नाः रोगातङ्कमपनेतुमसमर्थों इत्यर्थ यात्-प्रतिगताः=
स्वस्त्र स्थान गतरतः। । ततः ग्वलु नन्दस्तैः पोडशमीरोगतवैश्वामिभूत' सन् नदा पुष्करिण्या 'मुच्छिए ' मूतिः मूर्छ प्राप्त. आसक्त ग्रथिताबद्धात्मपरिणाम , ' अङ्गोव 'वन्ने ' अध्युपपन्नः सर्वथा निरन्तर तगारवया तन्मयात्मपरिणामवान् तिर्यग्
अन्त २ छाल से, गुड़ ज्यादि-गिलोय आदि लताओं से, तथा भूल, 'कन्द, पत्र, पुष्प, फल, वीज, शिलिका-चिरायता, गोलियों, औषध,
भैषज्य से उन सोलह रोगातकों में से एक भी रोग को शांत करने की 'चिकित्सा की । परन्तु वे उसके एक भी रोगातकको उपशमित नहीं
कर सके। (तएण ते यत्वे वेजा य६ जाहे नो सचाऐंति ते सिं सोल'सण्ह रोगायकाण एगमवि रोगायक उसामित्तए, ताहे सता तता जाव पडि गया ) जब वे समस्त वैद्यादिजन ६, उन १६ सोलह रोगातको में से एक भी गेगातक को शमित कर ने में (शक्य नहीं) समर्थ नहीं 'हो सके तब प्रान्त एव तान्त होकर अपने २ पर चले आये । (तएण नंदे तेहिं सोलसेहिं रोगायकेहिं अभिभूए समाणे नदा पोक्खरणिए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे तिरिक्ख जोणिहिँ नियद्धाउए बुद्ध વિગેરેની છાલેથી, ગુડ જ્યાદિ-ગળ વગેરે લતાએથી તેમજ મૂળ, કદ, પત્ર, પુષ્પ, ફળ, બી, શિલિકા-ચિરાયતા, ગોળીઓ, ઔષધ, ભૈષજ્યથી તે સેળ રેગ અને આત કમાથી એક રોગ અને એક આતને મટાડવા માટે ચિકિત્સા (ઈંલાજ ) કરી પણ તે લેકે તેના એકે ય રોગ અને એક ય આત કને પણ भावाम शतिमान थ६ २४५ नड, (तएण ते बहवे वेज्जा य ६ जाहे नो सवाएं ति देसि सोल्सह रोगायकीण एगमवि रोगायक असामित्तए, ताहे सता जाव पडिगया) यारे ४ा वैचो ६, ते सण माथी सय शस અને આતકને પણ મટાડવામાં સમર્થ થઈ શકયા નહિ ત્યારે શ્રત અને તાત या पातपाताने घर पात PAL (तएण न दे तेहिं सोलसेहि रोगायो अमिभूए समाणे न दा पोक्सरणिए मुछिए गिद्धे गढिर अझोववपणे तिरिक्सजोल
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभननिरूपणम्
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अभिगिण्हइ - कप्पड़ से जावजीव छट्टैछट्टेण अणिक्खि तेणं तवोकम्मेण अपाण भाषेमाणस्त विहरितए, छट्टुस्स वियणं पारणगंसि कप्पड़ मे दाए पोखरणीए परिपेरतेसु फामुष्णं पहाणोदराणं उम्मद्दणहोलिचाहि य विति कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारून अभिग्गह अभिगेण्हइ, जावज्जीवाए छटूछट्टेणं जाव विहरइ || सू० ७ ॥
टीका – 'तरण नदे' इत्यादि, ततः खलु नन्दो दर्दुरी गर्भाद्-गर्मवासाद् विनिर्मुक्त. = निर्गत सन् उन्मुक्तवालमानः व्यतीत वाल्पवयस्क', 'विनाय परिणयमित्ते ' वितात परिणतमान दर्द रजातीयकूर्दनादिविज्ञानसम्पन्नः, नन्दायापुष्करिण्याम् अभिरममाण २= क्रीडन् २ सुखमुखेन विहरति-काल यापयतिस्म
ततस्तदनन्तर खलु नन्दाया पुष्किरिण्या राजगृहविनिर्गतो बहुजन' स्नान कुर्वन्, जल पिवन्, पानीय च सहमान, अन्योन्य = परस्परम् आग्यावितएण णढे ददुरे गन्भाओ ' इत्यादि ।
6
टीकार्य - (तरण) इसके बाद (णढे दद्द्दुरे) वह नद सेठका जीव दर्दुर (गन्भाओ विणिमुक्के समाणे उम्मुक्कनालभावे विज्ञायपरिणयमित्ते जोन्वणगमणुपत्ते नदार पोखरणीए अभिरममाणे २ विहरह ) गर्भावास से बाहर निकल कर जन वान्भीव से रहित हो गया और उसे दर्दुर जाति को कूदना आदि आ गया-तन वह यौवन अवस्था सपन्न होकर नढा पुष्करिणी में नगर २ क्रीडा करता हुआ सुख पूर्वक अपने समय को व्यतीत करने लगा । (तएण णदाए पोखरणीए हुजणे
"
तएण दे ददुर गभाओ' इत्यादि
अर्थ - (तएण ) यारपछी (दे ददुरे) 1 ६ शेडने र हेडजना (गन्भाओ विणिम्+ समाणे उम्मुक्कालभावे विनायपरिणयत्ते जोन्गणगमणुपत्ते नदाए पोक्सरणीए अभिरममाणे २ विहरइ ) गर्भमाथी महारभानीने જ્યારે માટે થઈ ગયે એટલે કે બચપણુ વટાવીને જુવાન થઈ ગયા અને ખીન્ત દેડકાની જેમ કૂવાનુ, વગેરે આવડી ગયુ ત્યારે તે જુવાન થઇને નદા પુષ્ક રિણીમા જ વારવાર ક્રીડા કરતા સુખેતી પેાતાને વખત પમાર કરવા લાગ્યા (व णदाए पोम्सरणीत बहुजणे व्हायमाणो य पियइव पाणियच सवद्द
९७
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मन्नस्स एवमाइक्खइ४ धन्नेण देवाप्पिया | पांदे मणियारे जस्स पदे मणियार जस्स ण इमेयारूवे नंदा पुक्खरणी चाउकोणा जाव पडिरुवा | जस्म णं पुरत्थिमिले वणसडे चित्तसभा' अणेगखभ० तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्पजीवियफले, तरणं तस्स दद्दरस्स त अभिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्स अतिए एयमह सोचा णिसम्म इमेयारूचे अज्झथिए५ - से कहिं मन्ने मए इमेया सद्दे णिमतपुत्रे तिकट्टु सुभेण परिणामेण जाव जाइसरणे समुपपन्ने, पुव्वजाइ सम्मं समागच्छइ, तएण तस्स दद्दुरस्त इमेयारूवे अज्झत्थिए ५ - एव खलु अह इहेव रायगिहे नयरे पादे णाम मणियारे अड्डे० जाव अपरिभूए । तेण कालेन तेण समएण समणे भगव महावीरे समोसढे, तपर्ण समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए पचाणुव्वइय सत्तसिक्खावइय जाव पडिवन्ने, तएण अह अन्नया कयाइ असाहुदसणेण य जाव मिच्छन्त विपडिवन्ने, तएण अह, अन्नया कयाई गिम्हकालसमयसि जाव उपसपजित्ताणं विहरामि एव जहेव चिता आपुच्छणा नदा पुक्खरिणी वणसडा सहाओ त चेव सव्व जाव नदाए पुक्खरिणीए ददुरत्ताए उत्रवन्ने त अहो ण अह अहन्ने अपुन्ने अकयपुन्ने निम्गंथाओ पावयणाओ नट्टे भट्ठे परिब्भट्टे त सेय खलु मम सयमेव पुव्व पडिवन्नाइ पचाणुव्वयाइ सत्तसिक्खात्रयाइ उवसपजित्ताण विहरित, एव सपेहेइ सहित्ता पुन्नपन्नाइ पचाणुव्वयाइ सत्तसिक्खावयाइ आरुहेइ आरुहित्ता इमेयारूत्र अभिग्गह
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभननिरूपणम् ७६९ अभिगिण्हइ-कप्पड मे जावजीव छदैछ?ण अणिरिखत्तेण तवोकम्मेणं अप्पाण भाषेमाणस्त विहरित्तए, छटस्स वि र णं पारणगति कप्पइ मे णदाए पोखरणीए परिपेरतेमु फामुएणं पहाणोदएण उम्मदणालोलियाहि य विति कप्पेमाणस्ल विहरित्तए, इमेयारून अभिग्गह अभिगेण्हइ, जावज्जीवाए छ;छटेणं जाव विहरइ ॥ सू० ७ ॥
टीका-'तएण नदे' इत्यादि, तत. खलु नन्दो दर्दुरी गर्मा-गर्मवासाद् विनिर्मुक्तः निर्गत सन् उन्मुक्तबालभार व्यतीत वाल्पवयस्क , 'विनाय. परिणयमित्ते' वितातपरिणतमान ददु रजातीयकृर्दनादिविज्ञानसमम्पन्नः, नन्दायापुष्करिण्याम् अभिरममाण २=कीडन् २ सुखमुखेन विहरतिकाल यापयतिस्म । ___ ततस्तदनन्तर खलु नन्दाया पुटिकरिया राजगृहविनिर्गवो बहुजन' स्नान कुर्वन् , जल पिपन् , पानीय च सरहमान', अन्योन्य=परस्परम् जाग्याति
'तएण णदे ददुरे गम्भाओ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (णदे ददुरे) वह नद सेठका जीव दर्दुर (गम्भाओ विणिम्मुम्के समाणे उम्मुक्कालभावे विज्ञायपरिणयमित्त जोवणगमणुपत्ते नदार पोरखरपीरा अभिरममाणे २ विहर ) गर्भावास से वाहिर निकल कर जर बालभोव से रहित हो गया और उसे दर्दुर जाति को कूदना आदि आ गया-तय वह यौग्न अवस्था सपन्न होकर नदा पुष्करिणी में चार २ क्रीडा करता हुआ सुम्ब पूर्वक अपने समय को व्यतीत करने लगा। (तएण णदाए पोरग्वरणीए बहुजणे
'तएण णदे ददुर गम्भाओ' इत्यादि
12--(तएण) त्या२५ (णदे दद्दुरे) नशेडना जाना (गभाओ विणिम्मुम्के समाणे उम्मुकिचालभावे पिन्नायपरिण र ते जोयणगमणुपत्ते नदाए पोम्सरणी अभिरममाणे २ विहरइ) सलमाथी मडा२ सामान रे માટે થઈ ગયો એટલે કે બચપણ વટાવીને જુવાન થJ ગયે અને બીજા દેડકાની જેમ કરવાનું, વગેરે આવડી ગયુ ત્યારે તે જુવાન થઈને ન દા પુષ્ક રિમા જ વારવાર કીડા કરતા મુખેથી પિતાને વખત પસાર કરવા લાગે (तए णदाए पोक्सरणीठ पटुजणे हायमाणो य पियइ र पाणिय च स वह
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बाता कथासूत्रे
सापते मज्ञापयति प्ररूपयति-वन्य. सल हे देवानुप्रिय ! नन्दो मणिकाररश्रेष्ठी यस्य खलु इयमेतदूपानन्दापुर करिणी चतुः कोणा समतीरा यात्र प्रतिरूपा वर्तते, यस्याः खलु नन्दायाः पुष्करिण्या पौरस्त्ये नपण्टे चिनमभाने स्तम्भगतसनि विष्टा तथैव चतुर्षु चनपण्डेषु चतस्रः सभा जनेकस्तम्भशतसनिविष्टाः सन्ति, यावत् तस्य नन्दमणिरष्टिनः खुलब्ध मानुष्यक जन्मजीवितफलम् ।
हायमाणो य पिग्रह य पाणिय च मत्रह्माणो अन्नमनस्एवमाहखइ ४ ) उस नदा पुष्करिणी में जन राजगृह नगर के लोग आकर स्नान करते, पानी पीते, उसमे से पानी भरते तो उस समय वे परस्पर में इस प्रकार से बात चीत करते, भाषण करते प्रज्ञापना एव प्ररूपणा करते कि ( धन्नेण देवाणुपिया ! णदे मणियारे जस्स ण इमेपासना गदा पुत्रवरणी चाउरकोणा जाय पडिरुवा ) हे देवानुप्रिय | मणिकार श्रेष्ठी नद को धन्यवाद है कि जिस की यह चतुष्कोण वाली तथा समतीर वाली नदा पुष्करिणी बहुत ही सुरम्य मनी है। ( जस्स ण पुरथिमिल्ले वणसढे चित्तसभा अणेगख भ० तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजी विथ फले-तएण तस्स दद्दूरस्स त अभिक्खण २ बहुजणस्स अतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म इमेयारूबे अन्भथिए ६ ) जिस के पूर्व दिशा सवन्धी वनपड मे अनेक सैकड खुभो से विराजित चित्र सभा बनी हुई है । उसी तरह की चारों arusों में चारों सभाएँ है । यावत् उस मणिकार नद श्रेष्ठी के मनुष्य
माणो अन्नमन्नरस एवमाइक्सइ ४ ) नहा વાવમા જ્યારે રાજગૃહ નગરના લાકે આવીને સ્નાન કરતા, પાણી પીતા, તેમાથી પાણી ભરતા ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે વાતચીત કરવા માડતા, સભાષણે કરવા માડતા, પ્રજ્ઞાપના मने अइया ४२वा भाडता है ( धन्नेर्ण देवालिया । णदे मणियारे जस्सण इमेयारुवा नदी पुक्सरणी चाउकोणा जाव पडिरूत्रा ) हे देवानुप्रिय ! भशिअर શ્રેષ્ઠિ નન્દને ધન્યવાદ છે કારણ કે આ ચાર ખૂણાવાળી તેમજ સરખા કિનારા बाजी नहीं वाव हुन रभ्य जधावी छे ( जस्सण पुरथिमिल्के वणव डे चित्तसभाअणेग सभ० तहेव चित्तारि सहाओ जात्र जम्मजीवियफले - तरण तस्स ददुररस त अभिक्खण २ बहुजणस्स अतिए एयमट्ठ सोचा णिसम्म इमेयावे अज्झथिए ६ ) वावना पूत्र हिशाना वनष उभा से अ थालसाओथी શેલતી ચિત્રસભા બનાવી છે આ પ્રમાણે ચારે ચાર વનડામા ચાર સભાએ તૈયાર કરાવડાવી છે. ખરેખર તે રણિકાર નદ શેઠને મનુષ્ય જન્મ અને જીવન
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०६३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् १
ततः तलु तस्य दर्दुरस्य तदभीक्ष्ण-पौनः पुन्येन, बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य, अयमेतद्रूप प्रक्ष्यमाणम्वरूप. आध्यात्मिक आत्मगतोविचोरः, योरन्मनोगतः सकल्पः समुद्रपद्यत । किं स्वरूप १ इत्याह-' से कहिंमन्ने' इत्यादि । ननूह मन्ये-कुत्रापि मया अयमेतद्रूप शब्द. 'णिसतपुचे' निशान्तपूर्व श्रुतपूर्व पूर्वकाले श्रुतआसीत् , इति कृत्या शुभेन परिणामेन=विशुद्धा-यवसायेन यारत्-जातिस्मरण समुत्पन्नम् , स दर्दुर' ' पूधजाइ'-पूर्वजन्मवृत्तान्त सम्यक समागच्छति = स्मरति । तत खल्लु तस्य दईरस्यायमेतद्रूपवक्ष्यमाणस्वरूप. 'अज्झथिए' आध्यात्मिक यावन्मनोगत सकल्प = स्मरणरूप. 'समुप्प ज्जिया' समुदपद्यत-सजात., तद् यथा-एव खलु अह इहैव राजगृहे नगरे नन्दो जन्म और जीवन दोनों ही सफल है । उम ने अपने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पा लिया है । इस प्रकार अनेक जनों के मुख से वार २ अपनी प्रशसा सूचक शब्दो को सुनकर और उन्हें हृदय में अववृत कर उस दर्दुर को यह इस प्रकार का आ-योत्मिक विचार यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ-( से कहिं मन्ने मए इमें याख्वे सद्दे णिसत पुव्वे त्ति कटु सुभेण परिणामेण जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुब्वजाइ सम्म समागच्छइ तण्ण तस्स दद्दुरस्स इमेयाख्वे अज्मथिए ५ ) मैं मानता हूँ कि मैंने इस प्रकार का यह शब्द पहिले सुना है-इस प्रकार के विचार से उसे विशुद्ध अभ्यवसाय के वश से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे उसने अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त को अच्छी तरह जान लिया। इस के बाद उस दर्दुर को इस प्रकार-वक्ष्यमाण रूप सकरप उत्पन्न हुआ। (एव खलु अह इहेव અને સફળ થઈ ગયા છે તેણે પોતાના મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ સારી પિઠે મેળવી લીધુ છે આ રીતે ઘણુ માણસોના મુખેથી વાર વાર પિતાના વખાણ સાંભળીને અને હૃદયમાં અવધુત કરીને દેડકાને આ પ્રમાણેનો આધ્યાभिड विया यावत भनागत स४८५ सय 3-( से कहिं म ने मए इमेया रूवे सद्दे णिस तपुव्वे तिकटु सुभेण परिणामेण जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुग्वजाइ सम्म ममागच्छइ तण्ण तस्स दद दुरस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए ) भने એમ થાય છે કે આ રાબ્દો પહેલા મે સાભળવા કે આ જીતના વિચારોથી તેને વિશુદ્ધ અધ્યવસાયને લીધે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ ગયુ એથી તેણે પિતાના પૂર્વ જન્મની બધી વિગત જાણી લીધી ત્યારબાદ તે દેડકાને આ રીતે વક્ષ્યમોણ રૂપથી આધ્યાત્મિક કાવત્ મગન મરણરૂપ સ૮૫ ઉત્પન્ન થયે કે
एवं सलु अह इहेव रायगिद्दे नयरे पदे णाम मणियारे अड्ढे जाव अपरि
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बाता [] कथासू
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भापते मज्ञापयति रूपयति- धन्य खल हे देवानुमिय ! नन्दो मणिकाररश्रेष्ठी यस्य खलु इयमेतद्रूपा नन्दापुर करिणी चतुः कोणा समतीरा यावत् प्रतिरूपा वर्तते, यस्याः खलु नन्दाया. पुष्करिण्या पौरस्त्ये नपण्डे चिनभाने कस्तम्भगतसनि विष्टा तथैव चतुर्षु चनपण्डेषु चतस्रः सभा जनेकस्तम्भशतसनिविष्टा. सन्ति, यावत् तस्य नन्दमणिकारनेष्टितः सुलब्ध मानुष्यक जन्मजीवितम् ।
हायमाणो य पियइ य पाणिय च सत्रह्माणो अन्नमनस्स एवमाहक्खड़ 8 ) उस नदा पुष्करिणी में जन राजगृह नगर के लोग आकर स्नान करते, पानी पीते, उसमे से पानी भरते तो उस समय वे परस्पर में इस प्रकार से बात चीत करते, भाषण करते प्रज्ञापना एव प्ररूपणा करते कि ( धन्नेण देवाग्विया । णदे मणियारे जस्स ण इमेयाना गदा पुग्वरणी चाउनकोणा जाव पडिरुवा ) हे देवानुप्रिय | मणिकार श्रेष्ठी नद को धन्यवाद है कि जिस की यह चतुष्कोण वाली तथा समतीर वाली नदा पुष्करिणी बहुत ही सुरम्य बनी है । ( जस्स ण पुरथिमिल्ले वणसडे चित्तसभा अणेगखभ० तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजी विध फले-तएण तस्स दद्दूरस्स त अभिक्खण २ बहुजणस्स अतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म इमेयारूबे अन्भथिए ६ ) जिस के पूर्व दिशा सबन्धी वनपड मे अनेक सैकडों खभो से विराजित चित्र सभा बनी हुई है । इसी तरह की चारों arusों में चारों सभाएँ है । यावत् उस मणिकार नद श्रेष्ठी के मनुष्य
माणो अन्नमन्नस्त एवमाइक्सर ४ ) नही વાવમા જ્યારે રાજગૃહ નગરના લેકે આવીને સ્નાન કરતા, પાણી પીતા, તેમાથી પાણી ભરતા ત્યારે તે પરસ્પર આ પ્રમાણે વાતચીત કરવા માડતા, સભાષા કરવા માડતા, પ્રજ્ઞાપના थाने अ३पा ४२वा भाडता है ( धन्नेणं देवालिया ! णदे मणियारे जस्सण इमेयावा नदी gक्सरणी चाउकोणा जाव पडिरूवा ) हे हेवानुप्रिय । भशिअर શ્રેષ્ઠિ નન્દને ધન્યવાદ છે કારણ કે આ ચાર ખૂણાવાળી તેમજ સરખા કિનારા વાળી નદા વાવ બહુ જ રમ્ય धावी छे ( जरसण पुरथिमिल्ले वणस डे चित्तसभाअणेग सभ० तहेव चित्तारि सहाओ जात्र जम्मजी वियफळे - तण तस्स ददुररस त अभि+ २ बहुजणरस अतिए ण्यमट्ठ सोचा णिचम्म इमेयारूवे अज्झथिए ६ ) पावना पूर्व हिशाना वनष उभा से अ थालसागोथी શેાલતી ચિત્રસભા મનાની છે આ પ્રમાણે ચારે ચાર વનયઝમા ચાર સભાએ તૈયાર કરાવડાવી છે. ખરેખર તે મણિકાર નદ શેઠને મનુષ્ય જન્મ અને જીવન
कि
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ०६३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
ततः तलु तस्य द१रस्य तदभीक्ष्णपोन. पुन्येन, बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य, अयमेतद्रूप वक्ष्यमाणम्वरूपः आध्यात्मिक आत्मगतोविचारः, योपन्मनोगतः सकल्प' समुदपयत । किं स्वरूप ? इत्याह-' से कहिंमन्ने' इत्यादि । ननूह मन्ये-कुनापि मया अयमेतद्रूप शब्द. 'णिसतपुव्वे ' निशान्तपूर्व श्रुतपूर्व पूर्वकाले श्रुतआसीत् , इति कृत्या शुभेन परिणामेन-विशुद्धा-यवसायेन यावत्-जातिस्मरण समुत्पन्नम् , स दर्दुरः 'पूचनाइ 'पूर्वजन्मवृत्तान्त सम्यक् समागच्छति = स्मरति । तत खलु तस्य ददुंरस्यायमेतद्रूप वक्ष्यमाणस्वरूप. 'अज्झथिए' आध्यात्मिक यावन्मनोगत सकल्प = स्मरणरूप' 'समुप्प ज्जिया' समुदपद्यत-सजात', तद् यथा-एव खलु अह इहैव राजगृहे नगरे नन्दो जन्म और जीवन दोनो ही सफल है । उम ने अपने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पा लिया है । इस प्रकार अनेक जनो के मुख से पार २ अपनी प्रशसा सूचक शब्दो को सुनकर और उन्हें हृदय में अवधृत कर उस दर्दुर को यह इस प्रकार का आध्योत्मिक विचार यावत् मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ-(से कहिं मन्ने मैए हमें याख्वे सद्दे णिसत पुव्वे त्ति कहद सुभेण परिणामेण जाव जाइसरणे संमुप्पन्ने, पुव्यजाड सम्म समागच्छइ तरण तस्स दद्दुरस्स इमेयाख्वे अज्झथिए ५) में मानता हूँ कि मैंने इस प्रकार का यह शब्द पहिले सुना है-इस प्रकार के विचार से उसे विशुद्ध अभ्यवसाय के वश से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे उसने अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त को अच्छी तरह जान लिया। इस के बाद उस दर्दूर को इस प्रकार-वक्ष्यमाण रूप सकल्प उत्पन्न हुआ। ( एव खलु अर इहेव ખને સફળ થઈ ગયા છે તેણે પિતાના મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનુ ફળ સારી પેઠે મેળવી લીધુ છે આ રીતે ઘણા માણસોના મુખેથી વાર વાર પિતાના વખાણ સાંભળીને અને હૃદયમાં અવધૂત કરીને દેડકાને આ પ્રમાણેને આધ્યાभि: विया२ यावत मनोगत म४८५ मध्ये 3-(से कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे णिस तपुवे तिकटु सुभेण परिणामेण जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुचजाइ सम्म समागन्छइ तरण तस्स दद्दुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए ) भने એમ થાય છે કે આ રો પહેલા મે સાભ છે આ જાતના વિચારોથી તેને વિશુદ્ધ અધ્યવસાયને લીધે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ ગયુ એથી તેણે પિતાના પૂર્વ જન્મની બધી વિગત જાણી લીધી ત્યારબાદ તે ડકાને આ રીતે વક્ષ્યમાં રૂપથી આધ્યાત્મિક ચાવત્ મનોગત સમરણરૂપ સક૯૫ ઉત્પન્ન થયે કે (एवं खलु अह इहेव रायगिहे नैयरे पदे णाम मणियारे अइढे जाव अपरि
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पाताधर्मयात्रे नाम मणिकार. भाढयो यापदपरिभूत आसम् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीर समरसत , ततः खलु श्रमणस्यभगावो महागीरम्यान्तिके पञ्चाणुप्रतिक सप्तशिक्षानतिक द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपन्न, तत• ग्वत्वहमन्यदा पदाचिद् असाधुदर्शनेन च यावत्-मिथ्यात्व विप्रतिपन्ना,ततः खल्वहमन्यदा कदा. चिद् ग्रीष्मकालसमये यावत्-पीपरशालाया पौषधमुपापय खलु विहरामि, ‘एवं ययैवचिन्ता, आपृच्छना, नन्दापुष्करिणी, पनपण्टा, सभाः तदेव सर्वम् ' तथैवचिन्तादिक दर्दुरेण पूर्वभूवे कृत तथैव तत् सर्व स्मृत, तद् यथा-मम तत्राष्टमभक्ते रायगिहे नपरे णदे णाम मणियारे अड़े जाव अपरिभूए । तेण कालेण तेण समएण समणे भगव महागीरे समोसढे, तण्ण समणस्स भग वओ महावीरस्स अति पाणुव्वय सत्तसिखायय जोव पडिवन्ने) मैं इसी राजगृह नगरमें नद नाम का मणिकार श्रेष्ठी था । विशेष रूपसे धन धान्यादि सपत्ति शाली एव जनमान्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर वहा आये-सो मैंने उनसे पाच अणुव्रत एवं सात शिक्षाप्रत रूप श्रावक धर्म अगीकार कर लिया था। (तण्ण अह अन्नया कयाई असाहुदमणेणय जार मिच्उत्त विपडियन्ने) किसी एक समय असाधु के दर्शन से तथा और भी कई निमित्तो से मैं मिथ्यात्व भाव रूप से परिणत हो गया-(तएण अह अन्नयाकयाई गिम्ह कालसमयसि जाव उचसपज्जित्ताण विरामि, एव जव चिंता आपुच्छणा नदापुरखरिणी वनसडा, सहाओ त चेव सव्व जाव नदाए पुक्खरिणी दद्दुरत्ताए उववन्ने, त अहोण अह अहन्ने, अपुन्ने, अकभूए । तेण कोलेण तेण समएण समणे भगव महावीरे समोसढे, तएण समणस्स भगवओ महावीररस अतिए पचाणुव्वइय सत्तसिम्सारइय जाव पडिवन्ने ) પહેલા આ રાજગૃહ નગરમાં જ નદ નામે મણિકાર શ્રેષ્ટિ હતે હું વિશેષ રૂપથી ધન-ધાન્ય વગેરેથી સમૃદ્ધ તેમજ જનમાન્ય (લોકોમાં પૂછાત) હતું તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ત્યાં પધાર્યા હતા કે તેઓશ્રી પાસેથી પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાત્ર રૂપ શ્રાવક ધર્મ स्वीरी सीधा तो (तएण अह अन्नया कयाई असाहु द सणेण य जाव मिच्छत्त विपडि ने) मे १मते असाधुना शनी or lon पशु था थी हु मिथ्यात्वमा ३५मा परिणत गयो (तएण अह अन्नया कयाई गिम्हकालसमयसि जाव उबसपजित्ता ण विहरामि, एव जहेव चिता आपुच्छण नदा पुक्खरिणां वनस डा, सहाओ त चेव सन्ध जाव न दाए पुक्खरिणीए दद्दुरत्ताए उवव ने, त अहोण, अह अइन्ने, "
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अनगारधर्मामृतपणी टीका २०१३ नन्दमणिरभवनिरूपणमम्
ভ७३
परिणम्यमाने पिपासया क्षुधया चाभिभूतस्येत्य चिन्ता सजाता “धन्याः खलु ते लोका येषा जलाशयाविद्यन्ते, तस्मात् क्ल्ये श्रेणिक राजानमापृन्ॐय राजगृहस्य वहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे नन्दानाम्नी पु करिणी खनयितु श्रेय इति " । अथैव विचिन्त्य श्रेणिक मत्यापृच्छना कृत्वा तदाज्ञया मया नन्दापुष्करिणी कारिता,
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yet froधाओ पावयणाओ नट्टे भट्ठे परिभट्ठे त सेय खलु ममं सयमेव पुत्रवपडियन्नाइ पचाणुत्र्याइ सत्तसिखावयाइ उवमपज्जित्ता ण विहरित ) किसी समय में ग्रीष्मकाल में यावत् पौषधशाला में पौषध वारण कर बैठा हुआ था इस प्रकार मुझे वहा ऐसी चिन्ता हुई आपृच्छना हुई, नदा पुष्करिणी कराने का विचार हुआ, बनपडों, सभाओ के बनाने का विचार हुआ यह सब विषय पूर्वभव का उसे स्मृत हो आया-अर्थात् उसे यह बात याद आई कि जब मैं अष्टमभक्त की तपस्या का नियम धारण कर पौषध शाला में बैठा हुआ था तब मेरी वह तपस्या पूर्णप्राय हो रही थी उस समय मुझे पिपासा और क्षुधा की बाधा ने आकुलित परिणाम वाला बना दिया । सो मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि वे लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि जिन्हों के बनवाये हुए जलाशय विद्यमान हैं । इसलिये मे भी प्रात काल होते ही श्रेणिक राजा से पूछकर राजगृह के बाहिर ईशान कोण में नदा नाम की एक वावडी खुदवाऊँगा । इस प्रकार विचार कर फिर मेने श्रेणिक राजा से पूछा तो उन्हों ने मुझे इस की आज्ञा देदी मैंने निग्गथाओ पावयणोओ नट्ठे भट्ठे परिव्भट्ठे त सेय सलु मम सयमेव पुत्र पन्ना पचाणुत्र्याइ सत्तसिक्सानयाइ उवस पनित्ताण विहरत्तिए ) अध मे વખતે Cનાળામા યાવત્ પૌષધશાળામા પૌષધ ધારણ કરીને બેઠા હતા ત્યારે મારા મનના એવે વિચાર ઉભબ્યા એવી આપૃચ્છના થઇ, નદા પુષ્કરિણી તૈયાર કરાવવાના વિચાર થયા, વનથડા તેમજ સભાઓને મનાવવ ના વિચાર થયેા, એ રીતે પહેલાના જન્મની બધી વાત યાદ આવી એટલે કે તેને આ જાતનુ સ્મરણુ વયુ કે જ્યારે હું અષ્ટમ ભક્તની તપસ્યાનુ વ્રત લઈને પૌષધશાળામા બેઠા હતેા મારી અષ્ટમ ભક્તની તપસ્યા પૂરી થવાની હતી તે વખતે તરસ અને ભૂખની પીડ એ મને વ્યાકુળ અન વી દીધા ત્યારે મને વિચાર આવ્યે કે તે લે! ધન્યવાદને લાયક છે કે જેમના વડે મધાયેલા જળાશયે અત્યારે પણ હયાત છે એથી હું પણ સવાર થતા જ શ્રેણિક રાજાની આજ્ઞા મેળવીને રાજગૃહ નગરની મહાર ઇશાન કેણુમા ન દા નામે વાવ અ ધાવડાવુ આ રીતે વિચાર કરીને મે શ્રેણિક રાજાને જ્યારે પૂછ્યું ત્યારે તેમણે મને તેની આજ્ઞા
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माताधर्मयागपत्रे नाम मणिकार. आढयो यापदपरिभूत आसम् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरः समनमृत , ततः खलु अमणस्यमगरतो महागीरम्यान्तिके पञ्चाणुप्रतिक समशिक्षाप्रतिक द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपन्नः, ततः खल्वहमन्यदा कदाचिद् असाधुदर्शनेन च यारत्-मिथ्यात्व विमतिपन्नः ततः सत्वहमन्यदा कदा. चिद् ग्रीष्मकालसमये यावत्-पोप यशालाया पौपधमुपापय खलु बिहरामि, 'एव यथैवचिन्ता, आपृच्छना, नन्दापुष्करिणी, चनपण्डा, सभाः तदेव सर्वम् ' तथैवचिन्तादिक दर्दुरेण पूर्वभूवे कृत तथैव तत् सर्व स्मृत, तद् यथा-मम तत्राप्टममक्ते रायगिहे नयरे णदे णाम मणियारे अड़े जाव अपरिभूण । तेण कालेण तेण समण्ण समणे भगव महावीरे समोसढे, ताण समणस्स भग वओ महावीरस्स अतिए पचाणुव्यय सत्तसिक्खायय जोव पडिवन्ने) मैं इसी राजगृह नगरमें नद नाम का मणिकार श्रेष्ठी था । विशेष रूपसे धन धान्यादि सपत्ति शाली एव जनमान्य था। उस काल और उस समय में अमण भगवान महावीर वहा आये-सो मैंने उनसे पाच अणुव्रत एवं सात शिक्षाबत रूप श्रावक धर्म अगीकार करलिया गया। (तण्ण अह अन्नया कयाई असाहुदमणेणय जाय मिच्छत्त विपडियन्ने) किसी एक समय असाधु के दर्शन से तथा और भी कई निमित्तो से मैं मिध्यात्व भाव रूप से परिणत हो गया-(तण्ण अह अन्नयाकयाई गिम्ह कालसमयसि जाव उवसपज्जित्ताण विरामि, एव जहेव चिंता आपुच्छणा नदापुरखरिणी वनसडा, सहाओ त चेव सव्व जाव नदाए पुक्खरिणीए ददुरत्ताए उववन्ने, त अहोण अह अहन्ने, अपुन्ने, अकभूए । तेण कोलेण तेण समएण समणे भगव महावीरे समोसढे, तएण समणस्स भगयो महावीररस अतिए पचाणुव्वइय सत्तसिन्सावइय जाव पडिवन्ने ) પહેલા આ રાજગૃહ નગરમાં જ નદ નામે મણિકાર શ્રેણિ હતે હુ વિશેષ રૂપથી ધન-ધાન્ય વગેરેથી સમૃદ્ધ તેમજ જનમાન્ય (લકોમા પૂછાત) હતું તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ત્યા પધાર્યા હતા એ તેઓશ્રી પાસેથી પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાત રૂપ શ્રાવક ધર્મ स्वीरी सीधे तो (तरण अह अन्नया कयाई असाह द सणेण य जाव मिच्छत्त विपडियने) 35 मते असाधुना ६निया भर मीन ५७ घ। रणथी हु मिथ्यात्वमा ३५मा परिणत गयो (तएण अह अन्नया कयाई गिम्हकालसमयसि जाव उत्रसपमित्ता ण विहरामि, एव जहेव चिता आपुच्छण नदा पुक्खरिणी वनस डा, सहाओ त चेव सब जाव नदाए पुक्खरिणीए ददुरत्ताए उववन्ने, त अहोण, अह अहन्ने, अपुन्ने, अकयपुग्ने
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ मन्दमणिकार भवनिरूपणम्
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यदा कदाचित् - पोडशरोगातङ्का' प्रादुर्भृताः । बहवो वैद्यास्तत्रागता' परत्वेकमपि रोगामुपशमयितुमसमर्था सन्त प्रतिगता । ततस्तैरोगात रभिभूत' खलु नन्दापुष्करिण्या मूर्च्छितोऽह तत्सुखवियोगसभावनयात पानोपगतः सन् काल मासे का कृत्वा व नन्दापुष्करिण्या दर्दुरतया सजातोऽस्मि । इत्थ जातिस्मरण माय सदर स्वात्मनि विचारयति - ' त अहोणजह अहन्ने' इत्यादि, तद= तस्माद अहो ! इति खेदे खलु अहमधन्य', अपुण्यः, अकृतपुण्यः, नैर्यन्य्यात् प्रवचनाद नष्टो भ्रष्टचास्मि तत्तस्मात् श्रेयः खलु मम स्वयमेव पूर्वमतिपन्नानि पूर्व भङ्गीकृतानि पञ्चाणुतानि सप्तशिक्षात्रतान्युपसपद्य विहर्तुम् इत्येव मपेक्षते= उदय से अतिशय आनंद का अनुभव करने लग जाता । किसी एक समय मुझे मणिकार श्रेष्ठी के भव में उस प्रबलतर शात गौरवजनित कर्म के उदय से १६ रोगातक शरीर में प्रकट हुए। अनेक वैद्य आये, परन्तु वे मेरे एक भी रोगातक को शमित करने में समर्थ नही हो मके । सो वापिस चले गये । इस तरह उन रोगातकों से अभिभूत हुआ मै नदा पुष्करिणी में मृच्छित होकर उसके सुख के वियोग की संभावना से आर्तभ्यान में पडकर मृत्यु के अवसर मे मरा सो इसी नदा पुष्करिणी में इस दर्दुर की पर्याय से उत्पन्न हुआ हैं । इस तरह जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कर उस दर्दुर ने अपने मन में विचार किया देखो यह कितने खेद की बात है - मै कितना अवन्य है कितना पापी ह कितना अकृत पुण्य हूँ जो मे निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट पृष्ट हुआ इसलिये मुझे यही कल्याणास्पद है कि में स्वय अव पूर्व भव में अगीकृत किये गये पाच अणुव्रनोको सात शिक्षावतों को स्वीकार-धारण कर लूं । આનદમા મગ્ન થઈ જતે હતા. કોઈ એક સમયે મણિકાર શેઠના ભવમા મારા શરીરમા પ્રમળતર શાત ગૌરવ નિત કમના ઉડ્ડયથી મેાળ રાગ અને આતક પ્રકટ થયા ઘણા વૈદ્યો આવ્યા પણ તેએ મારેશ એક રાગ પશુ મટાડી શકયા નહિ વૈદ્યો પણ નિરાશ થઈને પાછા જતા રહ્યા હતા આ રીતે રંગ અને માત થી પીડિત થઈને હું નદા વાવમા એભાન થઈને સુખના વિયાગની સ ભાવનાથી જ આ ધ્યાન કરતા છેવટે મૃત્યુના સમયે મરણ પામ્યા મૃત્યુ ખાદ હું એ નદા વાવમાં જ દેડકાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયે છુ આ રીતે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થતા તે દેડકાએ પેાતાના મનમા વિચાર કર્યાં ડે-અરે ! અરે ! હું કેટલા બધા અધન્ય છુ પાપી છુ અને અમૃતપુ છુ નિગ્રન્થ પ્રવચનથી ભ્રષ્ટ થઈને જ મારી આવી દશા થઈ છે, એથી હવે હું પૂભમાં असा पाय आता, ने शिक्षावाने वीझरी स ( एव सपेद्देइ सपे
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ॐॐ
ताधर्म क
'
ततस्तस्याः पुष्करिण्याचतुर्दिक्षु पनपण्डा आरोपिताः सरक्षिता' सवर्धिताः, तत स्तेषु वनपण्डेषु पौरस्त्ये चित्रसभा, दाक्षिणात्ये महानसशाला, पाचात्ये चिकित्सा शाला, औदीच्ये चनपण्डेऽलकारिकसभा मया कारिता, उति । यावत्-नन्दायाँ पुष्करिण्या दर्दुरखयोपपन्नः' ततो राजगृहविनिर्गतो नहुजनस्तत्र पुष्करिण्यां स्नान कुर्वन् जल पिउन पानीय घटादिभिर्नयन परस्परमेत्रमादीत् भो देवानुमियाः ! धन्यः कृतार्थ खलु नन्दो मणिकारश्रेष्ठी यस्य सलु इयमेतदूपा नन्दापुष्करिणी त्यादि, तत् प्रशंसावचनमद पहुजनस्यान्तिके श्रुत्वा दष्टतुष्टः सातगौरव सुखमनुभवन आसम् । तत खलु मम मणिकारथेष्ठिभने मालवरशातगौरवजनित कर्मोदयेना
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नंदा नाम की पुष्करिणी उन्ही की आज्ञा से यन वाई । उस की चारों दिशाओं में चार वनपड लगवाये वे सरक्षित होकर खूब अच्छी वृद्धि गेत हुए उन चनपंडो में से जो पूर्व दिशो सबन्धी वनपड था उसमें मैंने एक चित्र सभा घनवाई दक्षिण दिशा सर्वांनी वनड मे एक मै नैस शाला, पश्चिमदिशा सबन्धी वनपड में चिकित्सा शाला और उत्तर दिशो सबन्धी वेनपड में अलकारिक सभा बनवाई। राजगृहनगर से निर्गत अनेक जन उस पुष्करिणी में स्नान करते- पानी पीते और उस मैं से पानी भी भरते तथ परस्पर मिलकर वे इस प्रकार से बात चीत करते कि भो देवानुप्रिय | मणिकार नंद श्रेष्ठी धन्यवाद का पोत्र है, कृतार्थ है - जिसने इतनी अच्छी इस नदा पुष्करिणी को बन वाया है। इस तरह के प्रशंसात्मक वचन सुनकर मैं हर्षोत्फुल्ल गां हो जाता, मेरा चिंत्तं संतुष्ट हो जाता। में उस समय शात गौरव के
આપી દીધી તેમની આજ્ઞાથી જ મે ના નામે પુષ્કરિણી ખધાવી છે. તેની ચારે દિશાએમા ચાર વનષડી રીપાવ્યા સુરક્ષિત થયેલા વનપડે! ખૂબ જ વૃદ્ધિ પામ્યા પૂર્વ દિશા તરફના વનષડમા મે એક ચિત્રસભા નાવડાવી હતી દક્ષિણ દિશાના વનપડમા એક વિરાાળ મહાનસ શાળા ( રસેાઇ ઘર ), પશ્ચિમ દિશાના નિષ ડમા ચિકિત્સાલય ( દવાખાનુ) અને ઉત્તર દિશાના વનષડમા અલ કારિક સભા અનાવડાવી રાજગૃહ નગરના ઘણા માણસા પુષ્કરિણીમા સ્નાન કરતા, પાણી પીતા અને તેમાથી પાણી ભરતા હતા ત્યારે તેએ પરસ્પર વાત ચીત શરૂ કરવા માડતા કે હૈ દેવાનુપ્રિય 1 મણિકાર શ્રેષ્ઠિ ધન્યવાદને લાયક છે આ રીતે કુંતાથ છે, કેમકે તેણે કેવી સરમ નદા પુષ્કરિણી અનાવડાવી છે પોતાના જ વખાણુ સાભળીને હું ખુશ ખુશ ( હર્ષાભુત ) થઈ જતે અને મારૂં હૈયું સે તુષ્ટ થઈ જતુ હતુ હું તે વખતે શાત ગૌરવના ઉદયથી ખૂબજ
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अनगारधर्मामृतवषिणी टो० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७७५ न्यदा कदाचित्-पोडशरोगातका प्रादुर्भूता। बहवो वैद्यास्तत्रागता' परत्वेकमपि रोगातङ्कमुपशमयितुमसमा सन्त प्रनिगताः । ततस्तैरोगातडैरभिभूतः खलु नन्दापुष्करिण्या मूछितोऽह तत्मुग्ववियोगसभावनयाऽऽत यानोपगतः सन् कालमासे काल कृत्वा औव नन्दापुष्करिण्या द१रतया सनातोऽस्मि । इत्य जातिस्मरण प्राप्य स दर्दुर स्वात्मनि पिचारयति-'त अहोण जह अहन्ने' इत्यादि, त= तस्माद अहो ! इति खेदे सलु अहमवन्य , अपुण्य., अकृतपुण्यः, नम्रन्ध्यात् प्रवचनाद् नष्टो भ्रष्टश्चास्मि, तत्-तस्मात्-श्रेयः खलु मम स्वयमेव पूर्वप्रतिपन्नानि पूर्व भवाङ्गीकृतानि, पञ्चाणुव्रतानि सप्तशिक्षारतान्युपसपद्य विर्तुम् इत्येव मप्रेक्षते= उदय से अतिशय आनद का अनुभव करने लग जाता । किसी एक समय मुझे मणिकार श्रेष्ठी के भव में उस प्रबलतर शात गौग्वजनित कर्म के उदय से १० रोगातक शरीर में प्रकट हुए । अनेक वैद्य आये परन्तु वे मेरे एक भी रोगातक को शमित करने में समर्थ नहीं हो मके । सो वापिस चले गये। इस तरह उन रोगातकों से अभिभूत हुआ में नदा पुष्करिणी में मूञ्चित होकर उसके सुख के वियोग की संभावना से आर्त यान में पडकर मृत्यु के अवसर मे मरा सो इसी नदा पुष्करिणी में इस दर्दुर की पर्याय से उत्पन्न हुआ है। इस तरह जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कर उस दर्दुर ने अपने मन में विचार किया देखो यह कितने खेद की बात है-मै कितना अवन्य है कितना पापी है कितना अकृत पुण्य हूँ जो म निर्घन्य प्रवचन से नष्ट भृष्ट हुआ इसलिये मुझे यही कल्याणास्पद है कि मे स्वय अय पूर्व भव में अगीकृत किये गये पाच अणुव्रतोको सात शिक्षावतोंको स्वीकार-धारण-कर लें। આનદમાં મગ્ન થઈ જતો હતે કોઈ એક સમયે મણિનાર શેડના ભાવમાં મારા શરીરમાં પ્રબળતર શાત ગગ્ય જનિત કર્મના ઉદયથી ભેળ ગ અને આતક પ્રકટ થયા ઘણુ વાવો આવ્યા પણ તેઓ મારો એક રોગ પણ મટાડી શકયા નહિ વૈદ્યો પણ નિરાશ થઈને પાછા જતા રહ્યા હતા આ રીતે રોગ અને આતોથી પીડિત થઇને હુ ના વાવમાં બેભાન થઈને સુખના વિયોગની સ ભાવનાથી જ આર્તધ્યાન કર્તે છેવટે મૃત્યુના સમયે મણ પાપે મૃત્યુ ખા હુ એ નદા વાવમા જ દેડકાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયો છું આ રીતે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થતા તે દેડકાએ પિતાના મનમાં વિચાર કર્યો કે–અરે ! અરે ! હું કેટલો બધો અધન્ય હુ પાપી છું અને અતપુણ્ય હુ નિગ્રંથ પ્રવચનથી ભ્રષ્ટ થઈને જ મારી આવી દશા થઈ છે, એવી હરે હુ પૂર્વભવમાં Altसा पाय मानतो, भने शिक्षामान
(एष सपेहेइ सपे
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মাগম विचारयति, सप्रेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चाणुगतानि सप्तशिक्षारतानि आरोहतिधारयति स्त्रीकरोतीत्यर्थः । आरधद्वादशनमान्यङ्गीकृत्य, इममेतपक्ष्यमाण स्वरूपम् , अभिग्रहमभियहाति-कल्पने मे यारज्जी उठेग ' पपष्टभक्तेन, 'अणिरिखतेण ' अनिक्षिप्तेन-अन्तररहितेन अविश्रान्ते नेत्यर्थ तपः कर्मणाऽऽ स्मान भावयत. आत्मनःशुभपरिणाम वर्धयतः, विहाँ कल्लते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अपिच-पष्ठम्यापि--पप्ठभक्तस्यापि च पारणके कल्पते मे नन्दाया. पुष्करिण्या' 'परिपेरतेसु' परिपर्यन्तेपु-तटेप मासकेन अचित्तेन, स्नानोदकेन ' उम्मदणोल्लोलियाहि य' उ-मर्दनोलोलिताभिा-उद्वर्तनादुर्वरिताभिः लोकदोहोद्वर्तने कृते सति शेपभूता इतस्तत: पतिता या यार्णादिनिर्मितपिटिकास्ताभिरित्यर्थ , वृत्ति कल्पयन शरीरयानानिदि कुर्वत. विहर्जु कल्पते इति पूर्वेणान्वयः । इममेत (एव सपेवेइ, सपेहिता पुरपटिचन्नाइ पचाणुव्वयाइ सत्त सि
वावयाइ आरहेइ, आरुहिता इमेयास्व अभिग्गह अभिगिण्इ-कप्प में जाच जीव छ? छटेण अणिरिखतेण तवो कम्मेण अप्पाण भावमा णस्स विद्भित्तए) इस प्रकार उसने विचार किया। विचार करके पूर्व प्रतिपन पच अणुचनों को सात शिक्षाव्रतों को उमने स्वय धोरण कर लिया। धारण करके फिर उसने इस प्रकार का नियम ले लिया कि मैं अब जीवन पर्यत अन्तर रहित पष्ट पष्ठ भक्त की तपस्या से अपने आत्मपरिणामोंको बढाता रहूँगा । (छठुस्स वि य ण पारणगसि कप्पड़ मे णदाए पोक्खरणीए परिपेरतेसु 'फासुएण हाणोदण्ण उम्महणोल्लोलियाहि य चित्ति कप्पेमाणस्म वितरित्तण, इमेयास्व अभिग्गह अ भिगेण्इ, जारज्जीवाए छह छ?ण जाव विहरइ) और छह भक्त की हिता पुन्य पडियन्नाइ पचाणुब्धयाइ सत्तसिम्यावयाइ आरुहेइ, आरुहिता इमेयारव अगिह अभिगिण्हइ, कप्प मे जाव जीव छ? टेण अणिसित्तण तवोकम्मेण अपाण भावेमाणस्स विहरित्तए) 1 ते विचार या पियार કરીને પૂર્વ ભવમા સ્વીકારેલા પાચ અણુ અને સાત શિક્ષાવતને તેણે પિતે જ ધારણ કરી લીધા ધારણ કરીને તેણે એ જાતને નિયમ લીધે કે હવે જીવનની છેલ્લી પળ સુધી અન્ડર રહિત પણ લઇ ભક્તની તપસ્યા વડે भा२। मारम ५६२९मानी वृद्धि ४२ ४ २४ीश ( छट्टरम वि य ण पारणगसि कप्पद में णदाए पोखरणीए, परिपेर तेसु फ मुण्ण छह णोदएण उम्महणोल्लो लियाहिय वित्ति कटपेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारूप अभिग्गह अभिगेण्हइ, जाव
! जीवाए उछ छटेण जाब विहरइ ) म२ ७४ मतनी भारथानान
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मनगारधर्मामृत पिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारमयनिरूपणम् द्रपममिगृह्णाति, अभिगृह्य यावज्जीव पठपप्टेन-पाठपष्ठभवतेन यारत्-स दर्द रोड भिग्रहग्रहणपूर्वक स्वीकृतेन तप कर्मणाऽऽत्मान भाव सन् विहरति आस्तेस्मा मृ०७॥
मूलम्-तेणं कालेण तेणं लमएणं अह गोयमा । गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएणं नंदाए पुक्खरिणीए वहजणो ण्ह यमाणो य ३ अन्नसन्न एव वयासीदेवाणप्पिया। समणे३ इहेव गुणसिलए चेइए समोमढे, त गच्छामो णं देवाणुप्पिया । समण भगव महावीर वदामो जाव पज्जुवासामा एय मे इहभवे परभवे य हियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सद्ध तएणं तस्स ददरस्त वहुजणस्स अतिए एयम सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अझथिए ५ समुप्पज्जित्था-एव खल्लु समणे भगवं महावीरे इहेव गुणसि लए चेइए समोसढे, त गच्छामि गं समणं३ वदामि जाव पज्जुवासामि एव सपेहेड सपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ सणिय २ उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ
उक्किट्टाए दद्दरगईए वोइवयमाणे जेणेन मम
रेत्थ गमणाए, इम च ण सेणिए ,राया पारणाके दिन में नदा पुष्करिणी के तट पर के अचित्त स्नानोदक से तथा लोको के द्वारा दोहोर्तन करने पर ओपभूत इधर उधर पतित यव चूर्णादि निर्मिन पिष्टिका से अपने शरीर की यात्रा का निर्वाह करूँगा, इस प्रकर का अमिग्रह उसने ग्रहण कर लिया।। इम करह अभिग्रह ग्रहण पूर्वक वह दर्दुर घृत पष्ठ पष्ठ भक्त की तपस्या से आत्मशुद्वि करने में लग गया ॥ मृत्र ७॥ વાવના કિન રાની ચારે બાજુના અચિત્ત સ્નાનેદથી તેમજ લોકો વડે દેવાદ વર્તન કર્યા પછી વધે અને આ મતેમ વેરાઈને પડેલા જવના લેટ વગેરેથી પિતાના પિંડને શરીરને નિર્વાહ કરી. આ રીતે તેણે અભિગ્રહ લઈ લીધે આમ અભિવ્ર ધારણ કરીને દેડ વર્ડ ભક્તની તપસ્યા તે આમથક ४२वामा तीन ई गयो भूत्र “७"
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे विचारयति, सप्रेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चाणुतानि सप्तगिक्षानवानि आरोहति = धारयति स्वीकरोतीत्यर्य । आरा=द्वादशतान्यङ्गीकृत्य, उममेतद्रूप = त्रक्ष्यमाण स्वरूपम्, अभिग्रहमभिगृहाति-कलाने मे यावज्जीव 'उठउद्वेग 'पठपट्टभक्तेन, 'अणिक्खित्ते ' अनिक्षिप्तेन - अन्तररहितेन अविश्रान्तेनेत्पर्थ तप कर्मणाss त्मान भावयत'आत्मनः शुभपरिणाम वर्धयतः, वितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अपि च- पष्ठस्यापि पृष्ठभक्तस्यापि च पारण के कल्पते मे नन्दायाः पुष्करिण्याः ' परिपेरतेसु' परिपर्यन्तेषु = तटेषु = मासुकेन भचितेन, स्नानोदकेन 'उम्मदणो होलि पाहि य' उमर्दनो होलिताभिः = उद्वर्तनादुरिताभिः लोकेंदहोद्वर्तने कृते सति शेषभूता इतस्ततः पतिता या पाचूर्णादिनिर्मितपिष्टिकास्ताभिरित्यर्थ, कल्पयत शरीरयानानि कुर्वत हि कल्पते इति पूर्वेणान्वयः । इममेत
,
( एव सपेवेइ, सपेरित्ता पुनडियन्नाह पचाणुव्वया सत्त सि क्वावयाह आरहेट, आरुहिता इमेयान्व अभिगह अभिगिष्टइ-कप्प मे जाव जीव छट्ठ छट्ठेण अणिक्खित्तेण तवो कम्मेण अप्पाण भावेमा णस्स वित्तिए) इस प्रकार उसने विचार किया । विचार करके पूर्व प्रतिपन पच अणुवनों को मात शिक्षाव्रतों को उसने स्वय धोरण कर लिया । धारण करके फिर उसने इस प्रकार का नियम ले लिया कि मैं अब जीवन पर्यत अन्तर रहित पष्ठ षष्ठ भक्त की तपस्या से अपने आत्मपरिणामों को बढाता रहूँगा । (छट्टस्म वियण पारणगसि कप्पइ मे दाए पोखरणीए परिपेरते कारण पहाणोदण्ण उम्मदणोहोलियाहि य विति कप्पेमाणस्म विहरित्ता, इमेयात्व अभिग्गह अ भिगेort, जारज्जीवाए छट्ठ छद्वेण जाव विहरइ ) और छह भक्त की
हित्ता पुव्व पडिवन्नाइ पचाणुव्वयाइ सत्तसित्खावयाइ आरुहेइ, आरुहित्ता इमेयारूव अहि अभिगिन्हइ, कप्प मे जाव जीत्र छड उद्वेण अणिसित्तेन तवोकम्मेण अप्पाण भावेमाणस्स विद्दरित्तए) मा रीते तेथे विचार ज्यों विचार કરીને પૂર્વ ભવમા સ્વીકારેલા પાચ અણુતા અને સાત શિક્ષાવ્રતાને તેણે પેાતે જ ધારણ કરી લીધે ધારણ કરીને તેણે એ જાતના નિયમ લીધા કે હવે જીવનની છેલી પળ સુધી અન્તર રહિત ષ ષષ્ઠ ભક્તની તપસ્યા વડે भारा आत्म परिणाभोनी वृद्धि उरतो रहीश ( छट्टस्म वियण पारणगवि कप्पड़ मे पोक्सरणीए, परिपेर तेसु फमुण्ण ण्हाणोदएण उम्मद्दणोल्लो ण दाए लियाहिय वित्ति कल्पेमाणरस विहस्तिए, इमेयारून अभिग्गह अभिगेण्हइ, जाव जीवाए ठु छटुण जाव विहरइ ) भने छ लातनी पारगाना
नही
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मनगारधर्मामृतधर्पिणी टोका अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७७ दूपमभिगृह्णाति, अभिगृह्य यावज्जीव पष्ठपप्टेन-पाठपष्ठभक्तेन यावत्-स दर्दुरोऽभिग्रहग्रहणपूर्वक स्वीकृतेन तप कर्मणाऽऽत्मान भावयन् विहरति-आस्तेस्मा मु०७॥
मूलम्-तेणं कालेण तेणं समएणं अह गोयमा । गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएणं नंदाए पुक्खरिणीए वहजणो एह यमाणो य ३ अन्नमन्नं एव वयासीदेवाणुप्पिया ! समणे३ इहेव गुणसिलए चेइए समोसडे, त गच्छामो णं देवाणुप्पिया । समण भगव महावीर बदामो जाव पज्जुवासामो एय मे इहभबे परभवे य हियाए जान अणुगामियत्ताए भविस्सइ तएणं तस्स दहस्त बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पज्जित्था-एव खलु समणे भगवं महावीरे इहेव गुणसि लए चेइए समोसढे, त गच्छामि णं समणं३ वदामि जाव पज्जुवासामि एव सपेहेड सपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ सणिय २ उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ
उकिट्टाए ददरगईए वीइवयमाणे जेणेव मम --- ---_ रेत्थ गमणाए, इम च णं सेणिए ,राया पारणाके दिन में नदा पुष्करिणी के तट पर के अचित्त स्नानोदक से तथा लोको के द्वारा दोहोद्वर्तन करने पर शेपभूत इधर उधर पतित यव चूर्णादि निर्मित पिष्टिका से अपने शरीर की यात्रा का निर्वाह करूँगा, इस प्रकर का अभिग्रह उसने ग्रहण कर लिया।। म फरह अभिग्रह ग्रहण पूर्वक वह दर्दुर धृन पष्ठ पष्ठ भक्त की तपस्या से आत्मशुद्धि करने में लग गया ॥ मृत्र ७ ॥ વાવના કિન રાની ચારે બાજુના અચિત્ત ખાનેદકથી તેમજ લોક વડે દેહાદુ વર્તન કર્યા પછી વધેલા અને આ મતેમ વેરાઈને પડેવા જવના લોટ વગેરેથી પિતાના પિંડનો શરીરનો નિર્વાહ કરી. આ રીતે તેણે અભિગ્રહ લઈ લીધે આમ અભિગ્ર ધારણ કરીને દેડકે બ5 ભક્તની તપસ્યા કરને આત્મશુદ્ધિ अपामा तीन थई गयो सूत्र “७"
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माताधर्मकथासूत्रे
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विचारयति, सप्रेक्ष्य पूर्वमतिपन्नानि पञ्चाणुनतानि सप्तशिक्षानवानि आरोहति= धारयति स्वीकरोतीत्यर्थः । आर = द्वादशतान्यीकृत्य, इममेतद्रूप = वक्ष्यमाण स्वरूपम्, अभिग्रहमभिगृहाति करने में यानी 'उद्वेग 'पठषष्ठभक्तेन, 'अणिक्खित्तेण ' अनिक्षिप्तेन - अन्तररहितेन अविश्रान्तेनेत्पर्थं तप कर्मणाss त्मान भावयत =आत्मनः शुभपरिणाम वर्धयतः, नितु कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्ध' । अपिच - पष्ठस्यापि -- पृष्ठभक्तस्यापि च पारणके कल्पते मे नन्द्रायाः पुष्करिण्या' ' परिपेरतेसु ' परिपर्यन्तेषु = तटेषु मामु केन = मचित्तेन, स्नानोदकेन 'उम्मेद्दणो लोलियाहि य ' उ मर्दनोलोलिताभिः = उद्वर्तनादुर्वरिताभिः लोकैर्दोहोद्वर्तने कृते सति शेषभूता इतस्ततः पतिता या परचूर्णादिनिर्मितपिष्टिकास्ताभिरित्यर्थ, वृद्धि कल्पयत शरीरयानानि कुर्वत रिहत्ते इति पूर्वेणान्वयः । इममेत ( एव सपेवेड, सपेरित्ता पडिवन्नाह पचाणुव्वया सत्रा सि ऋग्वावग्राह आम्हेड, आहहित्ता इमेयात्व अभिग्गह अभिगिण्टड - कप्प मे जाव जीव छट्ठ छट्ठेण अणिक्खित्तेण तवो कम्मेण अप्पाण भावेमा णस्स वित्तिए) इस प्रकार उसने विचार किया । विचार करके पूर्व प्रतिपन पच अणुवनों को सात शिक्षाव्रतो को उसने स्वय धोरण कर लिया | धारण करके फिर उसने इस प्रकार का नियम ले लिया कि मैं अब जीवन पर्यत अन्तर रहित पष्ट पष्ठ भक्त की तपस्या से अपने आत्मपरिणामों को बढाना रहूँगा । (छहस्स वियण पारणगंसि कप्पइ मे णदाए पोखरणीए परिपेरतेसु कासुरण पहाणोदण्ण उम्मद्दणोलोलियाहि य विति कप्पेमाणस्म विहरित इमेयात्व अभिग्गह अ भिण्हइ, जावज्जीवाए छट्ठ छट्ठेण जाव विहरइ ) और छट्ठ भक्त की
हित्ता पुत्र पडिवन्नाइ पचाणुञ्वयाइ सत्तसिखावयाइ आरुहेइ, आरुहित्ता इमेयारूव अभिगाह अभिगिन्हइ, कप्प मे जाव जीव छट्ठ उद्वेण अणिसित्तेण तवोकम्मेण अपाण भावेमाणस्स विरित्तए) या रीते तेथे विचार ज्यों विचार કરીને પૂર્વ ભવમા સ્વીકારેલા પાચ અણુનતે અને સાત શિક્ષાત્રતાને તેણે પેાતે જ ધારણ કરી લીધે ધારણ કરીને તેણે એ જાતને નિયમ લીધે કે હવે જીવનની છેલ્લી પળ સુધી અન્તર રહિત ષઇ જઇ ભક્તની તપસ્યા વડે भारा आत्म परिलाभोनी वृद्धि उरतो न रहीश (छट्टस्म वियण पारणगवि कप्पड़ मे णदाए पोखरणी, परिपेर तेसु फसुरण ण्हाणोष्ण उम्मद्दनोलो लियाहिय वित्ति कeपेमाणरस विहम्तिए, इमेयारून अभिग्गह अभिगेण्हइ, जाव ब्जीवाए उठ्ठ छट्टेण जाव विहरइ ) भने
उनी
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् दूपमभिगृह्णाति, अभिगृह्य यावज्जीव पष्टपप्ठेन-पाठपष्ठमातेन यानत्-स दर्दुरो भिग्रहग्रहणपूर्वक स्वीकृतेन तप मणाऽऽत्मान भावयन् रिहरति-स्तेस्मा स०७॥
__ मूलम्-तेणं कालेण तेणं लम एणं अह गोयमा । गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएणं नंदाए पुक्खरिणीए बहजणो यह यमाणो य ३ अन्नसन्नं एव वयासीदेवाणुप्पिया। समणे३ इहेव गुणसिलए चेइए समोमढे, त गच्छामो णं देवाणुप्पिया । समण भगव महावीर वदामो जाव पज्जुवासामा एय मे इहभवे परभवे य हियाए जान अणुगामियत्ताए भविस्सइ तएणं तस्स ददग्रस्त वहुजणस्त अतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पज्जित्था-एव खलु समणे भगवं महावीरे इहेव गुणसि लए चेइए समोसढे, त गच्छामि णं समणं३ वदामि जाव पज्जुवासामि एव सपेहेड सपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ सणिय २ उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ
। उकिटाए ददरगईए वीइवयमाणे जेणेव मम ......... रेत्थ गमणाए, इम च णं सेणिए ,राया पारणाके दिन में नदा पुष्करिणी के तट पर के अचित्त स्नानोदक से तथा लोको के द्वारा दोहोर्तन करने पर शेषभूत इधर उधर पतित यव चूर्णादि निर्मिन पिष्टिका से अपने शरीर की यात्रा का निर्वाह करूँगा, इस प्रकर का अभिप्रर उसने ग्रहण कर लिया।। हम करह अभिग्रह ग्रहण पूर्वक वह दर्दुर धृत पष्ठ पष्ठ भक्त की तपस्या से आत्मशुद्वि करने में लग गया ॥ मृत्र ७ ॥ વાવના કિનારાની ચારે બાજુના અચિત્ત સનાનેદકથી તેમજ લોકો વડે દેહ વર્તન કર્યા પછી વધેલા અને આ મતેમ વેરાઈને પડેવા જવના લોટ વગેરેથી પિતાના પિંડને શરીરને નિર્વાહ કરીશ આ રીતે તેણે અભિગ્રહ લઈ લીધે આમ અભિગ્રહ ધારણ કરીને દેડકે વૃષ્ઠ ભક્તની તપસ્યા કરીને આત્મશુદ્ધિ ४२पामा तल्लीन थई भय सूत्र “७"
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माताधर्मकथा भभसारे पहाए कयकोउयमगलपायच्छित्ते सव्वालकारविभूसिए हस्थिखंधवरगए सकोरटमल्लदामेण छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहि उधुबमाणाहि हयगयरहमया भडचडगर कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सहि संपरिबुडे मम पायवदए हवमागच्छइ, तएण ददरे सेणियस्स रन्नो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाएणं अवकंते समाणे अंतनिग्याइए कए याविहोत्था, तएणं से दद्दरे अत्थामे अवले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे अधारणिज्जमित्तिकटु एगंतमवक्कमइ अवक्कमित्ता करयलपरिग्गहिय मत्थए अजलि कटु एव वयासी-नमोऽत्थु णं मम धम्मायरियस्स जाव सपाविउकामस्स पुवि पि य णं मए । समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए थूलए पाणाइए पच्चक्खाए, जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए, त इयाणि पि तस्सेव अतिए सव्व पाणाइवाय पञ्चक्खामि जाव सव्व परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीव, सव्व असणं ४ पच्चक्खामि जावजीव जंपि य णं इम सरीर इठ्ठ कत जाव मा फुसतु एयपि णं चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामित्तिकद्द, वोसिरइ तएणददरेकालमासे काल किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे दद्दरवडिसए विमाणे उववायसभाए ददरेदेवत्ताए उववन्ने, एव खलु गोयमा । दद्दरेणं सा दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया। ददुरस्त णं भते । देवस्स केवइयकाल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा | चत्तारि पलि ओवमाइ ठिई पण्णत्ता, से ण भंते । दद्दुरे देवे ताप
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अनगारधर्मामृतवापणी टी० अ० १३ नन्दमाणकारभवानरूपणम् cus गाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएण चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ कहि उववजिहिड गोयमा । महाविदेहेवासे सिज्झिहिइ वुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिवाहिइ सव्वदुक्खाण 'अंत करोहिइ य। एव खलु जबू । समणेण भगवया महावीरेणं तेरसमस नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्तिवेमि॥ सू०८ ॥
॥ तेरसम णायज्झयणं समत्तं ॥१३॥ ____टीका-भगवान् महावीरः सामी कथयति-'तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये-यदा म ददुः पष्ठभक्त तपः कर्मणाऽऽत्मान भावयन् विहरतिस्म, तस्मिन् काले तस्मिन् समये हे गौतम । अहगुणशिलके चैत्येगुणशिलफनामकोयाने ममयस्ता प्राप्त । परिसद-राजटहनगरनिवामिना जनानां समूहः, निर्गतामा द्रष्टु वन्दितु नगरान्दहिनिःसृता । ततः खलु नन्दाया पुष्करिण्या बहुजन स्नान कुर्वन् जल पिवन् पनीर च सपहन् अन्योन्यमेवमवा दीत्-भो देवानुप्रियाः ! श्रमणो भगवान महावीर स्वामी इहैव गुणशिल के चैत्ये समवसृत , तत्तस्माद् गच्छाम खलु हे देनानुपियाः ! श्रमण भगवन्त महावीरस्वामिन बन्दामहे नमस्यामः वन्दित्वा नत्वा यावन्-पर्युपास्महे सेवा कुर्म, अस्माकमेतद् इहभवे परभवे च हिताय यावत्-सुग्गाय, क्षेमाय, निःश्रेयसे, 'अणु
'तेण काले ण तेण समएण' इत्यादि । टीकाय-(तेण काले ण तेण समएण) उस काल और उस समयमें (अह गोयमा गुणसिलए चेहए समोसढे परिसा निग्गया, तएण नदाए पुक्खरिणीए पहुजणो पहायमाणो य ३ अन्नमन्न एव वयासी-देवाणुप्पिया ! समणे ३ इहेव गुणसिलए चेइए समोसढे, त गच्छामो ण देवाणुप्पिया ! समण भगव महावीर बदामो जाव पज्जुवासामो, एय मे इहभवे परभवे य दियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सइ ) हे
'वेण कालेण तेण समएण ' इत्यादि
साय-तेण कालेण तेण समएण) ते आणे भने तेममये (अह गोयमा । गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तरण न दाए पुक्परिणीए पडुजणो पहायमाणो य ३ अन्नमन्न एव क्यासी-देवाणुप्पिया । समणे ३ इहेव गुणसिलए चेहा समोसदे, त गच्छामो ण देवाणुपिया । समण भाव महार्वर यामो जाय पज्जुवासामो, एय मे इहमवे परभवे य हियाए जाव अणुगमियत्ताए भविस्सह)
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जाताधर्मस्थान भंभसारे पहाए कयकोउयमगलपायच्छित्ते सव्वालकारविभूसिए हस्थिखधवरगए सकोरंटमल्लदामेण छत्तेण धरिजमाणेणं सेयवरचामराहि उद्धव्वमाणाहि हयगयरहमहया भडचडगर कलियाए चाउरगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे मम पायवदए हव्वमागच्छइ, तएण ददरे सेणियस्स रन्नो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाएणं अक्कंते समाणे अतनिग्याइएकए यावि होत्था, तएणं से दद्दरे अत्थामे अवले अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधारणिज्जमित्तिकटु एगंतमवकमइ अवकमित्ता करयल. परिग्गहिय मस्थए अजलि कटु एव वयासी-नमोऽत्थु णं मम धम्मायरियस्स जाव सपाविउकामस्स पुवि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए थूलए पाणाइए पच्चक्खाए, जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए, त इयाणि पि तस्सेव अतिए सव्व पाणाइवाय पञ्चक्खामि जाव सव्व परिग्गहें पच्चक्खामि जावजीव, सव्वं असणं ४ पच्चक्खामि जावजीव जपि य णं इम सरीर इ कत जाव मा फुसतु एयपि णं चरिमेहि ऊसासेहि वोसिरामि त्तिकडु, वोसिरइ तएणं दद्दरेकालमासे काल किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे ददरवडिसए विमाणे उववायसभाए दहरेदेवत्ताए उववन्ने, एव खलु गोयमा । दद्दरेणं सो दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया। ददुरस्त ण भते । देवस्स केवइयकाल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा । चत्तारि पलि ओवमाइ ठिई पण्णत्ता, से णं भते । दद्दुरे देवे ता. ५ ।
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
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गाओ आउक्खएणं भवक्खणं ठिइक्खएण चयं चइत्ता कहिं गच्छिहि कहि उववज्जिहिड गोयमा | महाविदेहेवासे सिझहि बुझिहि मुच्चिहि परिनिव्वाहि सव्वदुक्खाणं 'अंत करोहिइ य । एव खलु जबू । समणेण भगवया महावीरेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिवेमि ॥ सू०८ ॥ ॥ तेरसम णायज्झयण समत्तं ॥ १३ ॥
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टीका - भगवान् महावीर. सामी कथयति - तेण कालेन ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये यदा म ददुरः पष्ठभक्त तपः कर्मणाऽऽत्मान भावयन् विहरतिस्म, तस्मिन् काले तस्मिन् समये हे गौतम ! अहगुणशिलके चैत्ये= गुणशिल्कनामकोयाने समासृतः =माप्त | परिद्= राजगृहनगरनिवामिना जनाना समूहः, निर्गता=मा द्रष्टु वन्दितु नगरादहिर्निःसृता । ततः खलु नन्दाया पुष्करिण्या बहुजन' स्नान कुर्वन् जल पिवन् पनीय च सन् अन्योन्यमेवमघा दीत् भो देवानुप्रियाः ! श्रमणो भगवान् महावीर स्वामी इहैव गुणशिलके चैत्ये समवसृत, तत् = तस्माद् गच्छाम खलु दे देनानुमियाः ! श्रमण भगवन्त महावीरस्वामिन वन्दाम नमस्याम' बन्दित्या नत्वा यावन् पर्युपास्महे = सेवा कुर्म, अस्माकमेतद् इहभवे परभवे च हिताय यावत्-सुग्वाय, क्षेमाय, निःश्रेयसे, 'अणु
' तेण काले ण तेण समएण ' इत्यादि ।
टीकाय - (तेण काले ण तेण समएण) उस काल और उस समय में (अह गोयमा । गुणसिलए चेडए समोमढे परिसा निग्गया, तएण नदाए पुक्खरिणीए बहुजणो व्हायमाणो य ३ अन्नमन्न एव वयासी - देवाणुपिया | समणे ३ इहेव गुणसिलए चेहए समोसढे, त गच्छामो ण देवाणुपिया | समण भगव महावीर वदामो जाव पज्जुवासामो, एय मे भवे परभवेय हियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सह ) हे
'वेण कालेन तेण समएण ' इत्यादि -
टीडाथ-वेण कालेन तेण समरण) ते अणे अने ते समये (अह गोयमा । गुणसिलए चेइए समोसढे परिखा निग्गया, तरण नदाए पुक्सरिणीए बडुजणो हायमाणो य ३ अन्नमन्न एव वयासी - देवाणुपिया १ समणे ३ इद्देव गुणसिलए चेहर समोसढे, व गच्छामो ण देवाणुप्पिया । समण भान महार्वर व मोजाव पज्जुत्रासामो, एय मे इहभवे परभवे य हियाए जाव अणुगमियत्ताए भविस्सद्द )
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নাঘঘামে गामियत्ताए ' अनुगामिकतायै परभवेऽनुगमनार्य भविष्यति, इति परस्परमत्रवत् । __ ततः खलु तस्य दईरस्य रहुननस्यान्तिकाद् एवमर्थ शुत्वा निशम्य अपमेतद्रूप आध्यात्मिको पिचारः समुदपद्यत-एर सलु अमणो भगवान् महावीर. गौतम ! में मे विहार करता हुआ गुणशिलफ नाम के उद्यान आया । राजगृह नगर निवासी मनुष्यों का समूह मेरी बदना करने के लिये तथा मेरे दर्शन के लिये अपने २ स्थान से आये-उस समय नदा पुष्करिणी में अनेक मनुष्य स्नान करते हुए जल पीते हुए और पानी भरते हुए परस्पर में इस प्रकार से पात-चीत कर रहे थे-मो देवानु मियो । श्रमण भगवान महावीर यही पर गुण शिलक चेत्य में पधारे हुए हैं इसलिये हे देवानुप्रियो ! चलो-आमओ चलें श्रमण भगवान महावीर को वदना करें नमस्कार करे । यदनो नमस्कार कर फिर उन की पर्युपासना-सेवा करें । यही बात इस भव में, परभव में हमारे लिये हितकारक होगी, यावत् सुसविधायक होगी, क्षेमकारक, निश्रेयसकारक एव अन्यमय में साब जाने वाली होगी। (तएण तस्स दुरस्स यहुजणस्स अतिए एयम सोच्चा, निसम्म अयमेयोख्वे अज्झथिए ५ समुपज्जित्था ) तो इस प्रकार की बात चीत जब उस ददुर ने उन अनेक मनुष्यों के मुख से सुनी-तो सुनकर और उसे हृदय में धारण कर उसके मन मे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-( एव खलु समणे હે ગૌતમ ! ગુણબિલક નામના ઉદ્યાનમા હુ વિહાર કરતો કરતે આવ્યો રાજગૃહ નગરના નાગરિકોના સમૂહે મને વદન કરવા તેમજ દર્શન કરવા માટે પિતાપિતાને ઘેરથી મારી પાસે આજે તે સમયે નદી વાવમાં ઘણું મણિસે સ્નાન કરતા, પાણી પીતા અને પાણી ભરતા આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા કે હે દેવીનુપ્રિયે ! અહીં ગુણલિક ચૈત્યમાં જ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પધારેલા છે, એટલા માટે હે દેવાનપ્રિય ! ચાલે આપણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પ પાસના-સેવા-કરીએ આ ભવ તેમજ પરભવમાં એ વાત જ અમારા માટે શ્રેયરૂપ થશે યાવત સુખ વિધાયક થશે ખરેખર એ વાત જ ક્ષેમકારક નિયસકર અને બીજા ભવમાં पशु साथै २३री (तएण तस्स दुरस्त बहुजणस अतिए एयमट्ठ सोध्चा, निसम्म, अयमे यारूचे अज्झथिए ५ समुप्पजिस्था) ते भासानी से पता દેડકાએ પણ સાંભળી અને તેને ધારણ કરી લીધી ત્યારપછી તેના મનમાં આ जतना विशा२ २ (एर खलु'समणे भगव महावीरे इहेर गुणसिलए वेइए समोसढे त गच्छामि ण समणे ३ पदामि, जाव पज्जुवासामि '
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अगरधर्मर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
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स्वामी व गुणशिलके चैत्ये समवसृतोऽस्ति । तत्तस्माद् अहमपि गच्छामि खलु श्रमण भगवन्त महावीर उन्दे नमस्यामि एव सपेक्षते विचारयति, संप्रेक्ष्य नन्दायाः पुष्करिणीत शनै शनैरुत्तरति = पहिर्निं' संरती, उत्तीर्य यत्रैव राजमार्गस्वत्रैत्रोपगच्छति, उपागत्य तथा (१) ' उकिंट्ठाए ' उत्कृष्टया, अद बोध्यम्(२) " तुरियाए (३) चलाए, (४) चडाए, (४) मिग्याए, (६) उद्घयाएँ, (७) जगाए, (८) याए, " इति । तत्र - उत्कृष्टया - ददु राणा गतौ य उत्कर्षस्तेनंयुक्तागतिरुत्कृष्टा तयेत्यर्थ' । त्वरितया - मनस औत्सुक्येन युक्ता त्वरिता तया
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भगव महावीरे इहेव गुणसिलए चेहएं समोसढे, त गच्छामि णं संम पण ३ वदामि जाव पज्जुवांसामि एव सपेहेर, सपेरित्ता गदाओ पुक्खरणीओ सणियं २ उत्तरड ) श्रमण भगवान् महावीर प्रभु यहा गुण शिलक उद्यान में आये हुए है तो चलूँ श्रमण भगवान् महावीर को वंदना करूँ यावत् उनकी पर्युपासना करूँ। ऐसा उसने विचार कियाविचार कर के फिर वह उस नंदा पुष्करिणी से धीरें २ बाहिर निकला( उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छंइ, उवागच्छित्ता ताए feng ददुर गंइए वीइवयमाणे जेणेवं मम अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) बाहिर निकल कर फिर वह जहा राजमार्ग था, उस 'ओर चल दिया । वहा पहुँच कर फिर वह उस उत्कृष्ट दर्दुर गति से चलता हुआ मेरी ओर घढा । यहा " तुरियाए, चवलाए, चडाए, सिग्धाए, उद्ध्याए, जयणाए, छेयाए " इन पदों का भी संग्रह कर लेना चाहिये उस दर्दुर की गति को उत्कृष्ट इसलिये कहा है कि दर्दुरो की गति में
सपेहित्ता गदाओ पु+सरणीओ सणिय २ उत्तर ३) श्रभशु लगवान महावीर अलु અહીં ગુણનિલક ઉદ્યાનમા પધારેલા છે ત્યારે હું પણ શ્રમણ ભગવાન મહા વીરને વદન ચાવતુ તેમની પયુ પામના–સેવા કરૂ આ જાતને તેણે વિચાર કર્યાં, વિચાર કર્યાં પછી તે નદા વાવમાી ધીમે ધીમે બહાર નીકળ્યે ( उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेत्र उवागन्छइ, उवागच्छित्ता ताए उक्ट्ठिाए दुर गइए वीइवयमाणे जेणेव मम अतिए वेणेव पहारेत्थ गमणाए ) महार नीडजीने તે જે તરફ રાજમા હતા તે તર્ફે ચાલવા માડયે ત્યારપછી તે પેાતાની ઉત્કૃષ્ટ ( શીઘ્ર ) દેડકાની ગતિથી ચાલતા ચાલતા મારી તરફ આવ્યે અહીં ( तुरियाए, चवलाए, चडाए, सिग्धार, उध्दुयाए, जयणाए छेयाए ) मा होने પણ સગ્રહ કવે! જોઈએ તે દેડકાની ગતિ Cત્કૃષ્ટ એટલા માટે વર્ણવવામા આવી છે કે દેડકાઓની ગતિમા જે ઉત્કર્ષ હાય છે તે ગતિ તેનાર્થી યુક્ત
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भाताधर्मकथा गामियत्ताए ' अनुगामिकताये परभवेऽनुगमनाथ भपियति, इति परस्परमववद ।
ततः खलु तस्य द१रस्य यदुननस्यान्तिकाद् एवमर्थ श्रुत्वा निशम्य अपमेतद्रूप आध्यात्मिको पिचारः समुदपद्यत-एर सलु अमणो भगवान् महावीर गौतम ! में मे विहार करता हुआ गुणशिलक नाम के उद्यान आया । राजगृह नगर निवासी मनुष्यो का समूह मेरी वदना करने के लिये तथा मेरे दर्शन के लिये अपने २ स्थान से ओये-उस समय नदा पुष्करिणी में अनेक मनुष्य स्नान करते हुए जल पीते हुए और पानी भरते हुए परस्पर में इस प्रकार से यात-चीत कर रहे थे-मो देवानु मियो ! श्रमण भगवान महावीर यही पर गुण शिलक चैत्य में पधारे हुए हैं-इसलिये हे देवानुप्रियो ! चलो-आओ चलें श्रमण भगवान महावीर को वदना करें नमस्कार करे । वदनो नमस्कार कर फिर उन की पर्युपासना-सेवा करें । यही यात इस भव में, परभव में हमारे लिये हितकारक होगी, यावत् सुखविधायक रोगी, क्षेमकारक, निश्रेय. सकारक एव अन्यभव में साथ जाने वाली होगी। (तएण तस्स दद्दुरस्स यहुजणस्स अतिए एयमह सोच्चा, निसम्म अयमेयोल्वे अज्झस्थिए ५ समुप्पंज्जित्था ) तो इस प्रकार की योत चीत जव उस ददुर ने उन अनेक मनुष्यों के मुख से सुनी-तो सुनकर और उसे हृदय में धारण कर उसके मन मे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-( एव खलु समणे છે ગૌતમ ગુણબિલક નામના ઉદ્યાનમા હુ વિહાર કરતા કરતે આજે રાજગૃહ નગરના નાગરિકોના સમૂહ મને વદન કરવા તેમજ દર્શન કરવા માટે પિતપિતાને ઘેરથી મારી પાસે આવ્યા તે સમયે નદી વાવમાં ઘણા મણિસે સનાન કરતા, પાણી પીતા અને પાણી ભરતા આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા કે હે દેવનુપ્રિયે ! અહી ગુણશિલક મૈત્યમાં જ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પધારેલા છે, એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! ચાલે આપણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પર્યું પાસન-સેવા-કરીએ આ ભવ તેમજ પરભવમાં એ વાત જ અમારા માટે શ્રેયરૂપ થશે યાવત સુખ વિધાયક થશે ખરેખર એ વાત જ ક્ષેમકારક નિયસકર અને બીજા ભવમાં ५ साक२री (तरण तस्स ददुरस्त बहुजणास अतिए एयम? सोच्चा, निसम्म, अयमेयालवे अज्झथिए ५ समुप्पजित्था) ते माणसानी से पता દકાએ પણ સાંભળી અને તેને ધારણ કરી લીધી ત્યારપછી તેના મનમાં આ जसा विशार २ ( एव खलु समणे भगव महावीरे इहेव गुणसिलए चेहए समोसढे, त गच्छामि ण समणे ३ वदामि, जाव ' पग्जुवासामि
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अनगारधर्मामृतपिंगी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम
७८३ हस्तिस्कन्धवरगतः गजोपरिसमारूढ', समोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टकुसुममालया, छोण घ्रियमाणेन स्वभृत्यहस्तधृतेन, श्वेतपरचामरेरुद्ध्यमानः स्वभृत्यैर्वी जिते , हयगजरथमहाभटचटकरसलितया अश्वगजरथमहाभटाना चटकर समूहस्तेन कलितया-युक्तया, चतुरङ्गिण्या सेनया साध सपरिटतो मम पादव दको हव्य-शीव्रम् , आगच्छति, ततः खलु स ददुरः श्रेणिकस्य राज्ञ एकेन 'आसस्सिोरएण' अश्वकिशोरकेन वामपादेन ' अकते समाणे ' आक्रान्त' अभिभूत देहोपरिपादनिपाताऽऽघात प्राप्त सन् 'अतनिग्याइए' अन्ननिर्घातिता अन्त्रस्य 'ऑत' करने के लिये तैयार हुआ स्नान से निपट कर और कौतुक, मगल एव प्रायश्चित विधि समाप्त कर गज पर चढे हुए जल्दी आ रहे थे। उस समय वे समस्त अलकारों से विभूषित थे। उन के ऊपर कोरट पुष्पों की माला से शोभित छत्र छत्रधारी ने लगा रखा था। चमर ढोरने वाले भृत्य जन उन पर शुभ्र उत्तम चमर ढोल रहे थे, हय, गज, रथ, एव महाभटों के समूह से युक्त चतुरगिणी सेना से वे घिरे हुए थे । (तएण से दद्र्रे सेणियस्स रणो एगेण आस किसोरएण वाम पाएण अक्कते समाणे अत निग्गाइएकए यावि होत्या ताण से दर्दरे अत्थोमे अबले अकीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधोरणिज्ज मित्ति कटु एगतमवरकमइ, अवस्कमित्ता करयलपरिग्गदिय मत्थए अजलि कट्टु एव क्योसि ) फुदक २ अपनी चाल से चलना-हुआ वह मेढक श्रेणिक राजा के किसी एक घोडे के बच्चे के वाम पैर से आक्रान्त हो गया-अर्थात् उस का वाम चरण उस के करर पड गया। सो उसी શ્રેણિક રાજા મને વદન કરવા માટે તૈયાર થયા તેઓ સ્નાનથી પરવારીને કૌતુક, મ ગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિ પૂરી કરી અને હાથી ઉપર સવાર થઈને ઝડપથી આવી રહ્યા હતા તે વખતે તેઓ બધી જાતના અલકાથી વિભૂષિત હતા તેમના ઉપર કોર ટ પુષ્પની માળાથી શોભતું છત્ર છત્રધારીઓએ તાણેલ હતુ અમર ળનાર નોકરો તેમના ઉપર શુભ્ર ઉત્તમ ચમો ઢળી રહ્યા હતા હય (ઘેડા) ગજ, રથ અને મહાભટના સ હથી યુત ચતુર ગિણી એનાથી तेसादारणायता उता (तएण से दुरे सेणियस्स रण्णो ण आसकिमो रपण वामपाएण अफ ते ममाणे अत निग्याइपर याविहोत्था तरण से दद्दुरे अत्थामे अबले अकीरिए अपुरिसकारपरकमे आधारणिजमित्ति कट्ट एगतमवकामह, अवक्कमित्ता कारल्परिगहिय मत्थए अलि कटु एव वयोसी) કૂદકા મારતે તે દેડકે બણિક રજાના કોઈ એક ઘેડાના ટેટૂના ડાબા પગથી અકાત થઈ ગયે એટલે કે તેને ડાબે પગ તેના ઉપર પડી ગયે તેથી
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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चपलया - शरीरचापल्येन युक्तया, चण्डया - तीनया, अतएन शीघ्रया, उद्युतयाअशेष शरीरावयवम्पत्या, जयिन्या अन्यददु रंगतिजेच्या, छेकया- अपायपरिहारे निपुणया, दर्दुरगत्या मण्डस्गत्या 'वीरयमाणे व्यतिव्रजन् २ मद्दा वेगेन गच्छन् २, यौन ममान्तिक तौर माधारयद् गमनाय गन्तु प्रवृत्त | अस्मिन्नेव समये उद्यानरक्षकमुखान्ममागमन श्रुत्वा श्रेणिको राजा भभसारः = भभसारापरनामक स्नातः कृतकातुमङ्गलपायश्चित. सर्वाल कारविभूषित', जो उत्कर्ष होता है वह उस उत्कर्ष से युक्त थी । उस मेंढक के मन में घड़ी भारी उत्सुकता थी- सो उस उत्सुकता से वह गति भरी हुई थी - इस कारण वह उस की गति त्वरित थी । शरीर की चपलता से युक्त होने के कारण, तीव्र होने के कारण, शीघ्रता से युक्त होने के कारण, समस्त शारीरिक अवयवों के रूपन से युक्त होने के कारण अन्य साधारण दर्दुरों की गति की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण, और अपायों को बचा २ कर चलने के कारण वह गति क्रमशः चपल चण्ड, शोध उधुन, जयनी, और छेक इन विशेषणों वाली थी । इम चण सेणिए राया भभसारे पहाए कयकोउयमगलपायच्तेि सव्बालकारविभूसिए, हत्थि खधवरगए सकोरटमल्लदामेण छतेण धरिज्ज माणेण सेयवरचामरारिं उदधुन्वमाणाहिं हयगयरमया भडवडगरकलियाए चाउरगिणीए सेणाए सद्वि सपडिवुडे मम पायवदए हव्वमागच्छइ ) इसी समय उद्यान रक्षक के मुग्व से मेरा आगमन मुनकर भभसार " इस अपर नाम वाले श्रेणिक राजा मेरी बदना
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હતી તે દેડકાના મનમા ભારે ઉત્સુકતા હતી તેની ગતિમા ઉત્સુકતાને લીધેજ ત્વરા આવી ગઈ હતી શરીરની ચપળતાથી યુક્ત હોવા બદલ, તીવ્ર હાવા બદલ, શીવ્રતા યુક્ત હાવા બદલ, શરીરના બધા અયવાના કપનથી યુક્ત હાવા બદલ, ખીજા સાધારણ દેડકાએ ગતિ કરતા વિનિષ્ટતા યુક્ત હોવા બદલ અને અપાયા ( આફ્તા) થી સાવધ થઈને ચાલવા ખદલ તે ગતિ ક્રમશ रायण, राड, शीघ्र, उच्धुत, भयनी भने छेउ मा विशेषशवाजी हती ( इम चण सेणिपराया भभसारे व्हाए कयकौउयभगलपायच्छते सव्वा लकारविभूसिए, हत्यिसघनरगए सकोरटमलदामेणं छत्तेण धरिजमाणेण सेयवर घामराहि उधुवमाणाहि हयगयरहमहया भडचडगरका लियाए चाउर गिणीप सेणा सद्धि संपsिaडे मम पाय हव्वमागच्छा) ते वसते उधान रक्षना ભભસાર ’એ ખીજા નામાળા મુખથી મારા આગમનની વાત સાભળીને
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अनगारधर्मामृतमपिंगी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम ७८३ हस्तिस्कन्धवरगताम्गजोपरिसमास्ट', सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टकुसुममालया, छोण घ्रियमाणेन स्वभृत्यहस्तधृतेन, श्वेतवरचामरैरुद्धूयमानः स्वभृत्यैर्वी जिते , हयगजरथमहाभटचटकरमलितया अश्वगजरथमहाभटाना चटकर समूहस्तेन कलितया-युक्तया, चतुरङ्गिण्या सेनया साध सपरितो मम पादवादको हव्य-शीघ्रम् , आगच्छति, तत' खलु स दर्दुर श्रेणिकस्य राज्ञ एकेन 'आसरिसोरएण' अश्वकिशोरकेन वामपादेन ' अकते समाणे ' आक्रान्त' अभिभूत. देहोपरिपादनिपाताऽऽघात प्राप्तः सन् 'अतनिग्याइए' अन्त्रनिर्घातित =अन्त्रस्य ' ऑत' करने के लिये तैयार हुआ स्नान से निपट कर और कौतुक, मगल एव प्रायश्चित विधि सम्मत कर गज पर चढे ए जरदी २ आ रहे थे। उस समय वे समस्त अलकारों से विभूषित थे। उन के ऊपर कोरट पुष्पों की माला से शोभित छत्र छत्रधारी ने लगा रग्वा या । चमर ढोरने वाले भृत्य जन उन पर शुभ्र उत्तम चमर ढोल रहे थे, हय, गज, रथ, एव महाभटो के समूह से युक्त चतुरगिणी सेना से वे गिरे हुए थे । (तएण से ददुरे सेणियस्स रपणो ण्गेण आस किमोरएण वाम पाएण अक्कते ममाणे अत निग्गाइएकए यावि होत्या तण्ण से दर्दुरे अत्थामे अयले अकीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधोरणिज्ज मित्ति कटु एगतमवक्कमह, अवक्कमित्ता करयलपरिग्गयि मत्थर अजलि कट्ट एव वयोसि ) फुदक २ अपनी चाल से चलता-हुआ वह मेढक श्रेणिक राजा के किसी एक घोडे के सच्चे के वाम पैर से आक्रान्त हो गया-अर्थात् उस का वाम चरण उस के ऊपर पड गया। सो उसी શ્રેણિક રાજા અને વદન કરવા માટે તૈયાર થયા તેઓ સ્નાનથી પવારાને કૌતુક, મગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિ પૂરી કરી અને હાથી ઉપર સવાર થઈને ઝડપથી આવી રહ્યા હતા તે વખતે તેઓ બધી જાતના અવકારોથી વિભૂષિત હતા તેમના ઉપર કેરટ પુષ્પોની માળાથી શોભતુ છત્ર છત્રધારીઓએ તાલ હતુ અમર ઢળનાર નોકર તેમના ઉપર શુભ્ર ઉત્તમ ચમરે હેળી રહ્યા હતા હય (ઘેડા ) ગજ, રથ અને મહાભટોન સ હથી યુક્ત ચતુર ગિણી એનાથી तेसो वारणायेगा ता (तएण से ददुरे सेणियस्स रण्णो एगेण आसकिमो रएण वामपाएण अफ ते समाणे अतनिग्धाइएक याविहोत्या तरुण से दद्दुरे अत्थामे अगले अकीरिश अपुरिसकारपरक्मे आधारणिजमित्ति कटु एगठमवकमह, अवकामित्ता कारगरपरिगहिय मत्थए अजलि कटु एव वयोसी) કુદકા મારતે તે દેડકો બણિક રાજાના કેઈ એ ઘેડાના ના ડાબા પગથી ટકાત થઈ ગયો એટલે કે તેને ડાબો પગ તેના ઉપર પડી ગયે તેથી
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বাঘমকথা चपलया-शरीरचापल्येन युक्तया, चण्डया-तीया, अतएर शीध्रया, उद्यतयाअशेष शरीरावयनकम्पपत्या, जयिन्या अन्यदर्दु रंगतिजेन्या, छकया-अपायपरिहारे निपुणया, दर्दु रंगत्या-मण्डरगत्या "वीश्वयमाणे' व्यतिव्रजन २-महा वेगेन गच्छन् २, योर ममान्तिक तगैव प्राधारयद् गमनाय-गन्तु प्रवृत्त । अस्मिन्नेव समये उद्यानरक्षरमुखान्ममागमन श्रुत्वा श्रेणिको राजा भभसारः = भमसारापरनामा, स्नातः कृतकौतुस्मगलपायश्चितः सर्वालकारविभूषितः, जो उत्कर्ष होता है वह उस उत्कर्ष से युक्त थी । उस मेंढक के मन में पड़ी भारी उत्सुकता थी-सो उस उत्सुकता से वह गति भरी हुई थी-इस कारण वह उस की गति त्वरित थी। शरीर की चपरता से युक्त होने के कारण, तीव्र होने के कारण, शीघ्रता से युक्त होने के कारण, समस्त शारीरिक अवयवों के कपन से युक्त होने के कारण अन्य साधारण दर्दुरों की गति की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण, और अपायों को बचा २ कर चलने के कारण वह गति क्रमशः वपल चण्ड, शोघ्र उधुन, जयनी, और छेक इन विशेषणों वाली थी । इम चण सेणिए राया भभसारे पहाए कयकोउयमगलपायरिउत्ते सन्बा. लकारविभूसिए, हथि खधवरगए सकोरटमल्लदामेण छत्तेण धरिज्ज माणेण सेयवरचामरारिं उधुव्वमाणाहिं ह्यगयरहमत्या भडचडगरकलियाए चाउरगिणीए सेणाए सद्धि सपडिबुडे मम पायवदए हव्वमागच्छइ ) इसी समय उद्यान रक्षक के मुग्व से मेरा आगमन सुनकर" भभसार" इस अपर नाम वाले श्रेणिक राजा मेरी वदना હતી તે દેડકાના મનમાં ભારે ઉત્સુક્તા હતી તેની ગતિમા ઉત્સુક્તાને લીધે જ વરા આવી ગઈ હતી શારીરની ચપળતાથી યુક્ત લેવા બદલ, તીવ્ર હેવા બદલ, શીદતા યુક્ત હવા બદલ, શરીરના બધા અવયવોના પનથી યુક્ત હેવા બદલ, બીજા સાધારણ દેડકાઓ ગતિ કરતા વિશિષ્ટતા યુક્ત લેવા બદલ અને અપાયે (આફતો) થી સાવધ થઈને ચાલવા બદલ તે ગતિ કમશ ચપળ, ચડ, શીવ્ર, ઉધુત, જયની અને છે. આ વિશેષણોવાળી હતી (इम चण सेणिएराया भभसारे पहाए कयकोउयभागलपायच्छित्ते सव्वा लकारविभूसिए, हत्यिसधयरगए सकोरटमल्लदाणे छतेण धरिजमाणेण सेयवर चामराहिं उधुव्यमाणाहि हयगयरहमया भड़चडगरकालियाए चाउर गिणीय सेणाए सद्धिं संपडिवुडे मम पायदए हव्यमागच्छइ) a qw Gधान २क्षना મુખથી મારા આગમનની વાત સાંભળીને “ભ ભસાર ” એ બીજા નામવાળા
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अनगारधर्मामृतपिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
हस्तिस्कन्धवरगतः=गजोपरिसमारून', सकोरण्टमाल्यदाम्ना - कोरण्टकुसुममालया, छत्रेण त्रियमाणेन = स्वभृत्य हस्तष्टतेन, श्वेतवरचामरैरुध्यमानेः = स्वभृत्यैव जिते, हयगजरथ महाभटचटकरकलितया=अश्वगजरथमहाभटाना चटकर समूहस्तेन कलितया युक्तया, चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं सपरिवृतो मम पादवादको हव्य - शीतम्, आगच्छति, तत' खलु स दर्दुर' श्रेणिकस्य राज्ञ एकेन ' आसक्सिोरएण अव किशोरकेन वामपादेन ' अकते समाणे ' आकान्त = अभिभूत देहोपरिपादनिपाaissघात प्राप्तः सन् ' अतनिग्याइए ' अन्त्रनिर्यातित = अन्त्रस्य ' आँत '
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करने के लिये तैयार हुआ स्नान से निनय कर और कौतुक, मगल एव प्रायश्चित विधि समाप्त कर गज पर चढे हुए जल्दी २ आ रहे थे । उस समय वे समस्त अलकारों से विभूषित थे । उन के ऊपर कोरट पुष्पों की माला से शोभित छत्र छत्रधारी ने लगा रखा था । चमर ढोरने वाले भृत्य जन उन पर शुभ्र उत्तम चमर ढोल रहे थे, हय, गज, स्व एव महाभटो के समूह से युक्त चतुरगिणी सेना से वे घिरे हुए थे । (तरण से ददुरे सेणियस्स रण्णो एगेण आस किमोरएण वाम पाएण अक्कते ममाणे अत निग्गाइएकए याचि होत्या तण से दर्दुरे अत्थामे अपले अकीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधोरणिज्ज मित्ति कट्टु एगतमवक्कमद, अवक्कमित्ता करयलपरिग्गहिय मत्यए अजलिं कट्टु एव क्योसि ) फुदक २ अपनी चाल से चलना हुआ वह मेढक श्रेणिक राजा के किसी एक घोडे के बच्चे के वाम पैर से आक्रान्त हो गया-अर्थात् उस का वाम चरण उस के ऊपर पड गया । सो उसी શ્રણિક રાજા મને વદન કરવા માટે તૈયાર થયા તેએ સ્નાનથી પશ્વારને કૌતુક, મગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિ પૂરી કરી અને હાથી ઉપર સવાર થઈને ઝડપથી આવી રહ્યા હતા તે વખતે તેએ ધી જાતના અલ કારાથી વિભૂષિત હતા તેમના ઉપર કાર ટ પુષ્પાની માળાથી ગેાભતુ છત્ર છત્રધારીએએ તાણેલુ હતુ. ચમર ઢાળનાર નેકરા તેમના ઉપર શુભ ઉત્તમ ચમ ઢાળી રહ્યા હતા હુય ( ઘેાડા ) ગજ, રથ અને મહાભટાના સહુથી યુક્ત ચતુર ગિણી મેનાથી तेथे। वींटजायेसा इता (तरण से दुरे सेणियस्स रण्णो गेण आसकिमो रण वामपाएग अक ते ममाणे अत निग्पाइकर याविहोत्या तQण से दद्दुरे अत्थामे अग्ले अकीरिए अपुरिंसकारपरकमे आधारणिजमित्ति कट्ट एगanaकमद, अवकमित्ता कारयपरिगहिय मत्थए अजलि कट्टु एव ययोसी ) કૂદકા મારતા તે દેડકા ત્રણક રાજાના કોઈ એક ઘેાડાના ટટ્ટના ડાળા પગથી આકાત થઇ ગયે. એટલે કે તેના ડ્રામે પગ તેના ઉપર પડી ગયા તેથી
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माताधर्मकणाने चपलया-शरीरचापल्येन युक्तया, चण्डया-तीत्रया, अतएव शीध्रया, उद्यतयाअशेष शरीरावयनकम्पनत्या, जयिन्या अन्यद१रगतिजेच्या, छकया-अपायपरिहारे निपुणया, द१रंगत्या-मण्डकगत्या 'वीहवयमाणे' व्यतिव्रजन २-महावेगेन गच्छन् २, यौर ममान्तिक तर माधारयद् गमनायगन्तु प्रवृत्त । अस्मिन्नेव समये उद्यानरक्षकमुखान्ममागमन श्रुत्वा श्रेणिको राजा भभसारः = भभसारापरनामक, स्नातः कृतकोतुस्मद्गलपायश्चित सलिंकारविभूषितः, जो उत्कर्ष होता है वह उस उत्कर्ष से युक्त थी। उस मेंढक के मन में पड़ी भारी उत्सुकता थी-सो उस उत्सुकता से वह गति भरी हुई थी-इस कारण वह उस की गति त्वरित थी। शरीर की चपरता से युक्त होने के कारण, तीव्र होने के कारण, शीघ्रता से युक्त होने के कारण, समस्त शारीरिक अवयनों के कपन से युक्त होने के कारण अन्य साधारण दर्दुरों की गति की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण, और अपायों को बचा २ कर चलने के कारण वह गति क्रमशः चपल चण्ड, शोघ्र उर्धन, जयनी, और छेक इन विशेषणों वाली थी। इम च ण सेणिए राया भभसारे पहाए कयकोउयमगलपायरित्त सम्बा. लकारविभूसिए, हत्यि खधवरगए सकोरटमल्लदामेण उत्तेण धरिज्ज माणेण सेयवरचामराहिं उधुव्वमाणाहिं हयगयरहमया भडचडगरकलियाए चाउरगिणी सेणाए सहि सपडिबुडे मम पायवदए हत्वमागच्छद) इसी समय उद्यान रक्षक के मुग्व से मेरा आगमन सुनकर "भभसार" इस अपर नाम वाले श्रेणिक राजा मेरी वदना હતી તે દેડકાના મનમાં ભારે ઉત્સુક્તા હતી તેની ગતિમાં ઉત્સુકતાને લીધે જ વરા આવી ગઈ હતી શરીરની ચપળતાથી યુક્ત લેવા બદલ, તીવ્ર હોવા બદલ, શીઘતા યુક્ત હવા બદલ, શરીરના બધા અવયના ક પનથી યુક્ત હોવા બદલ, બીજા સાધારણ દેડકાએ ગતિ કરતા વિશિષ્ટતા યુક્ત હવા બદલ અને અપાયે (આફ) થી સાવધ થઈને ચાલવા બદલ તે ગતિ ક્રમશ ચપળ, ચડ, શીઘ, ઉદધુત, જ્યની અને છે. આ વિશેષણવાળી હતી (इम चण सेणिएराया भभसारे पहाए कयकोउयभगलपायच्छित्ते सव्वा लकारविभूसिए, हत्यिसघरगए सकोरटमल्लदा मेंग छत्तेण धरिजमाणेण सेयवर चामराहिं उद्धव्यमाणाहि हयगयरहमहया भड़चडगरकालियाए चाउर गिणी सेणाए सद्धिं संपडिवुडे मम पायदए हव्वमागच्छइ) ते १५ते धान २६ना સુખથી મારા આગમનની વાત સાંભળીને “ ભ ભસાર ” એ બીજા નામવાળા
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arraft टी० अ० १३ नन्दमणिकार भवनिरूपणम्
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खलु मम धर्माचाय श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तुकामाय, पूर्वमपि = पूर्वभवेऽपि च खलु मया श्रमणस्य भगवतो महावीर स्यान्ति स्थूलः प्राणातिपातः त्यातः यावत्-स्थूलः परिग्रहः प्रत्याख्यातः यावत्करणात्-स्थूलः मृपापात्रम्लादत्तादान - वृल-मैथुन- प्रत्याख्यान वोध्यम्, तद् इदानीमपि अस्मिन् भद्रेऽपि तस्यैवान्तिके सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि या सर्व परिग्रह प्रत्ययामि यावज्जीवम्, यदपि च खलु इद शरीरमिष्ट कान्त यावत् मा स्पृशन्तु रोगातङ्का, एतदपि शरीर खलु ' चरिमेहिं ' चरमै := अन्तिमै: 'सा'छवासः =माण निर्गमै ' 'वोमिरामितिकष्टु' व्युत्सृजामिति पाणादवाय पच्चखामि जाव सव्य परिग्गह पच्चक्खामि जाव जीव सव्वं असण ४ पच्चस्वासि जाव जीव जपि य ण उम सरीरं इट्ठ कत जाव मा फुसतु एयपिण चरिमेहिं ऊसासेहि वोसिरामि ति कटु वो सिरइ ) यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए अर्हत भगवलों को मेरा नमस्कार हो, यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामना वाले मेरे धर्माचार्य, श्रमण भगवान् महावीर को मेरा नमस्कार हो । पूर्वभव में भी मैंने स्थूल रूप से प्राणातिपात का परित्याग श्रमण भगवान् महावीर के समीप किया था । इसी तरह स्थूल मृपावाद का स्थूल अदत्तादान का स्थूल मैथुन को, एव स्थूल परिग्रह को भी प्रत्याख्यान किया था । ये स्थूल मृपावाद आदि यावत् शब्द से यहाँ गृहीत हुए हैं तो अब इस भव में भी उन्ही के समीप सर्व प्राणितिपात यावत् सर्व परिग्रह का यावज्जीव प्रत्याख्यान करता हूँ | तथा अशन, पान, खाद्य एव स्वाद्य रूप से चतुर्विध आहार का भी जीवन पर्यन्त परित्याग करता हूँ। तथा जो इष्ट, कान्त यह मेरा शरीर
पच्चकखामि जावजीव जपि य ण इममरीर इटुं कत जान मा फुसतु एयपि चरिमेहिं बोसिरामि त्ति कटु वोमिग्ड ) यावत् सिद्धिगति नाभा स्थानने आस કુરેલા અર્હત ભગવતને મ રા નમસ્કાર છે, યાવત્ સિદ્ધિ ગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની ઇચ્છા કરનારા મારા ધર્માંચાય શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને મારા નમસ્કાર છે. પહેલાના ભત્રમા પણ શ્રૃવ રૂપથી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની નજીક પ્રાણાતિપાતના પરિત્યાગ કર્યા હતા આ રીતે જ સ્થૂળ મૃષાવાદનુ, સ્થૂલ અદત્તાદાનનું, સ્થૂલ મૈથુનનુ, અને શ્ર્વ પશ્રિહનુ પણ મે પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હેતુ સ્થૂલ મૃષાવાદ વગેરે અહીં ‘યાવત્' રાખ્ત વર્તે મગૃહીત થયા છે ત્યારે હવે હુ આ ભવમા પણ તેમની નજીક સર્વ પ્રાણાતિપાત યાવત સવ પરિ ગ્રહનુ મૃત્યુ સુધી પદ્મખ્યાન કરૂ છુ તેમજ ईष्ट, अत मा भाइ शरीर છે-કે જેના માટે મારા મનમા આ જાતના વિચારશ હતા કે એને કાઇ પણુ
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पाताया इति प्रसिदस्य, निर्यात मन्त्रनिर्गत., स सनाओऽस्येति अन्ननिर्घातित:- त्रुटितान्या कृतश्चाप्यभवत् ।
ताः खलु स दर्दुरः । अत्यामे' अस्थामा हीनपराक्रमः गमनशक्तिरहित इत्यर्थः अवल' मनोवल्रहितः-खिन इत्यर्थ. अबीर्य:-हतोत्साहा, 'अपुरिसकारपरकमे' अपुरुषकारपराक्रम:=पुरुपकारः पराक्रम न विद्यते यस्य मोऽपुरुषकार पराक्रमः । पुरुपार्थहीनइत्यर्थ । अपारगिज्जमिनिसह' अधारणीयमिति कृत्वास अधारणीयमिद शरीरमिति विचार्य, एकान्तमवझामति एकान्त-जनसचाररहित स्थान मार्गस्य प्रान्तभाग कयचिद् गन्छति, अाम्य करतलपरिगृहीत मस्तकेs. जालिंकवा, एमादीत्-एव वक्ष्यमाणरूपेण मनस्युक्तरान् 'नमोऽत्थुण जान सपत्ताण' नमोऽस्तु खलु अद्भयो भगाइयो यात्-सिदिगतिनामवेय स्थान सप्राप्तेभ्या, "नमोऽत्पुण मम धम्मापरियस्स जार सपाविउकामस्स ' नमोऽस्तु समय उन की आते हट गई । आंतों के टूटते ही वह दर्दर गमन शक्ति से रहित हो गया, मानसिक पल उस का जाता ररा-उत्साह उम का इकदम छिन्न भिन्न हो गया, पुरुषार्थ और पराक्रम मानों उस में हैं ही नहीं ऐसा वर हो गया। जब उसने घर देखा कि यह शरीर अय टिक नही सकना तय यह घड़ी कठिनताइसे जन सघार रहित एकान्त स्थान में चला गण । वहा जाकर उसने अपने दोनों हाथों की असलि बनाकर
और उसे मस्तक पर रखकर इस प्रकार मन ही मन में कहा (नमो. त्थुण जाव सपत्ता णमोत्थुर्ण मम धम्मायरियस्स जाब सपाविउ. कामस्स पुन्धि पियण मए समणस्म भगवओ महावीरस्स अतिए सव्वं દેડકાના આતરડા તૂટી ગયા આતરડા તરતા જ તે દેડ હાલવા ચાલવામાં અમર્થ થઈ ગયો તેનું આત્મબળ નષ્ટ થઈ ગયું તેને ઉત્સાહ મદ થઈ ગમે તે પુરુષાર્થ તેમજ પરાક્રમ રહિત થઈ ગયે જયારે તેને એમ લાગ્યું કે હવે એ શરીર ટકવું મુશ્કેલ છે, ત્યારે તે બહુ જ પ્રયત્નથી એક તરફ જ્યાં માણોની અવર જવર હતી નહિ ત્યા જતો રહ્યો ત્યાં જઈને તેણે પિતાના બને હાથની અ જળિ બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને મનમાં જ તેણે આ प्रमाणे धु-'नमोत्थुग जाव सपताण णमोत्यु। मम धम्मायरियम्स जाव सपा विउकामरस पुदिव पियण मा समणस्त भगवओ महावीरस्स अ तेण पाणा शाय पचक्सामि जाव सव्व परिग्गह पञ्चक्खामि जाव जोन,,
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arraigadfort टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
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स्वल मम धर्माचार्याय श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थान समाप्तुकामाय, पूर्वमपि = पूर्वभवेऽपि च खलु मया श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके रथूलः प्राणातिपातः त्यारयात यावत्-स्थूलः परिग्रहः प्रत्याख्यातः यावत्करणात्-स्थूल' मृपानादग्धूलादत्तादान - वृल-मैथुन - प्रत्याख्यान बोध्यम्, तद्इदानीमपि=अस्मिन् भनेऽपि तस्यैवान्तिके सर्व प्राणातिपात प्रत्याख्यामि यात् सर्व परिग्रह प्रत्याख्यामि यावज्जीवम्, यदपि च खलु इद शरीरमिष्टं कान्त यावत् मा स्पृशन्तु रोगातङ्का, एतदपि शरीर खलु ' चरिमेहिं ' चरमै := अन्तिमैः 'उसासे' ऊन्छवासैः प्राण निर्गमै 'पोमिरामितिकष्टु' व्युत्सृजामिति पाणावाय पच्चाखामि जाव सन परिग्गह पच्चक्खामि जाव जीव सव्व असण ४ पच्चम्ग्वामि जाव जीव ज पि य ण हम सरीर इट्ठ कत जाव मा फुसतु एयपिण चरिमेहिं ऊसासेहिं चोसिरामि ति कड वोसिरइ ) यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए अर्हत भगवतों को मेरा नमस्कार हो, यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामना वाले मेरे धर्माचार्य, श्रमण भगवान् महावीर को मेरा नमस्कार हो । पूर्वभव में भी मैंने स्थूल रूप से प्राणातिपात कां परित्याग श्रमण भगवान् महावीर के समीप किया था । इसी तरह स्थूल मृषावाद का स्थूल अदत्तादान का स्थूल मैथुन को, एव स्थूल परिग्रह का भी प्रत्याख्यान किया था । ये स्थूल मृपावाद आदि यावत् शब्द से यह गृहीत हुए हैं तो अब इस भव में भी उन्ही के समीप सर्व प्राणितिपात यावत् सर्व परिग्रह का यावज्जीव प्रत्याख्यान करता हूँ | तथा अशन, पान, स्वाद्य एव स्वाद्य रूप से चतुर्विध आहार का भी जीवन पर्यन्त परित्याग करता हूँ। तथा जो इष्ट, कान्त यह मेरा शरीर
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पञ्चकखामि जानजीव जपि य ण इममीर इटुं कल जाव मा फुसतु एयपि घरिमेहि वोसिरामि त्ति कट्टु वोसिइ ) यावत् सिद्धिगति नाम स्थानने आत કરેલા અત ભગવતને મેં રા નમસ્કાર છે, યાવત્ સિદ્ધિ ગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની ઇચ્છા કરનાર મારા ધર્મોચાય શ્રમણ ભગવાન મહારને મારા નમસ્કાર છે. પહેલાના ભત્રમા પણ મે સ્થૂલ રૂપથી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની નજીક પ્રાણાતિપાતના પરિત્યાગ કર્યાં હતા આ રીતે જ સ્થૂળ મૃષાવાદનુ, સ્થૂલ અદત્તાદાનનું, સ્થૂલ મૈથુનનુ, અને સ્થૂલ પરિગ્રહનુ પણ મે પ્રત્યાખ્યાન કર્યુ હેતુ સ્થૂલ મૃગવાદ વગેરે અહી યાવત્' રાખ્યું વર્ઝ સગૃહીત થયા ત્યારે હવે હું આ ભવમાં પણ તેમની નજીક સર્વ પ્રાણાતિપાત યાવત સર્વ પિર ગ્રહનુ મૃત્યુ સુધી પાખ્યાન કરૂ છુ તેમજ જે ઈષ્ટ, કાત આ મારૂ શરીર છે કે જેના માટે મારા મનમા આ જાતના વિચાર। હતા કે એને કાઇ પણ
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जाताधर्मकथासस कृत्वा शरीरं व्युत्सृजति-परित्यजति, भगवानाह-हे गौतम ! ततस्तदनन्तर खल स दई कालमासे काल कृत्वा यार-सौधर्म कल्पे 'दद्दूर वडिसए विमाणे दर्दुरा यतसके विमाने-दईरदेवतया 'उपान्ने' उपपन्नः-उपपात-जन्म प्राप्त इत्यर्थ ।
दर्दुरचरितमुक्त्वा भगवान् महावीरः सामी पाह-' एव खलु गोयमा !' इत्यादि । हे गौतम ! एव खलु दर्दुरेण सा दिव्या देवर्द्धि लब्या उपार्जिता माता स्वयत्तीकृताऽभिसमन्यागता-सम्यक सेविता । गौतमः पृच्छति-'दरस्स' इत्यादि । दर्दुरस्य खलु देवस्य हे भदन्त ! फियत् कालपर्यन्त स्थितिः प्रज्ञप्ता ? है कि जिस के प्रति मेरी यह धारणा रहती थी, कि इसे कोई भी रोगा तक स्पर्श न करें उसको भी में अन्तिम श्वासों तक ममत्व भावसे रहित होकर छोडता है। इस प्रकार करके उसने सय का परित्याग कर दिया । (तएण से ददुरे कालमासे काल किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे दगुरवर्डिसए विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए उववन्ने-एव खलु गोयमा ! ददुरेण सा दिव्या, देविड्डी, लदा, पत्ताअभिसममा गया ) इसके पाद वह दर्दुर काल अवसर काल करके यावत् सौधर्म कल्प में दर्दुरावतसक विमान में उपपोत सभा में दर्दुर देवता की पर्याय से उत्पन्न हो गया। इस प्रकार दर्दुर का चरित्र कहकर भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम से कहा-कि हे गौतम! इस प्रकार से उस दर्दुर देव ने वह दिव्य देवर्द्धि उपार्जित की है, अपने आधीन की है और उसे अपने भोगके योग्य पनाई है। अब गौतम अमण भगवान महावीर स्वामी से पुनः पूछते हैं कि- ददुरस्स ण भते ! देव स्स केवइयकाल ठिईपपणत्ता ? गोयमा! चत्तारि पलिओवमाइ ठिई રેગ અને આતક સ્પર્શ કરે નહિ-તેને પણ હું મમત વગર થઈને છેલી પળ સુધી ત્યજ છુ આ રીતે વિચાર કરીને તેણે બધી વસ્તુઓને ત્યજી દીધી (तरण से दद्दुरे कालमासे काल किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे ददुरबडि सए विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए, उबवन्ने एव खलु गोयमा! दद्दुरेण सा दिव्वा, देविड़ी, लद्धा, पत्ता अभिसमन्नागया ) त्या२मा
नसमये आण કરીને યાવતું સૌધર્મક-૫માં દરાવત સક વિમાનમા ઉપપાત સભામાં દર દેવતાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયો આ રીતે દેડકાના ચરિત્ર વિશે વર્ણન કરીને ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ ગૌતમને કહ્યું કે હે ગૌતમ ! આ રીતે તે દર દેવે તે દિવ્યદેવધિ મેળવી છે, તેને સ્વાધીન બનાવી છે અને તેને પોતે ભોગ વવાને લાયક બનાવી છે હવે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમ ફરી પૂછે छे है (ददुरस्स ण भते ! देवरस फेवइयकाल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा / पत्तारि
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मनगारधर्मामृतयषिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारमवनिरूपणम् ७७ भगानाह-हे गौतम ! ददुरस्य खलु देवस्य चत्वारि पल्योयमानि स्थिति मनमा। पुनगौतमःपुन्छति-'सेण' इत्यादि स खलु हे भदन्त , दर्युगे देवन्तस्माद् देवलोकाद् आयु. क्षयेण भवक्षयेण स्थिति क्षयेण चय त्यक्त्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उत्पत्स्यते-उपपात-जन्म प्राप्स्यति । भगवान् कथयति- गोयमा' इत्यादि । हे गौमत । स खलु दईरोदेवः आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण देवगेका च्युतः सन् महाविदेहे वर्षे जन्म प्राप्य सेत्स्यति भोत्स्यति मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदु'खानामन्त करिष्यति च । पण्णत्ता, से ण भते । दद्दुरे देवे ताओ देवलोगाओ आउखएण भवक्खएण ठिहरखण्ण चय चहत्ता कहिं गच्छिहिह' ) हे भदत ! दर्दुरदेव की वहा कितनी स्थिति हुई है ? प्रभु करते हैं कि हे गौतम । चार पल्यापम की स्थिति उसकी वहा हुई है । पुनः गौतम उनसे पूछते हैं कि हे भदन्त ! वह दर्दुर ठेव वहा से-उस देवलोक से-आयु के क्षय भवके क्षय एव स्थिति के क्षय हो जाने पर शरीर का-देव सन्धी श. रीर का परित्याग कर कहा जावेगा (कहिं उववज्जिदिइ) कहा पर जन्म धारण करेगा? इस प्रश्न का उत्तर भगवान ने उन्हें इस प्रकार दिया-(गोयमा ! महाविदेहे चासे सिज्झिटिइ, बुज्झिहिह, मुच्चिरिह, परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाण अत करेहिय ) गौतम ! वह दर्दुर देव आयु के क्षय से, भव के क्षय से एव स्थिति के क्षय से देवलोक से चवकर मशविदेह क्षेत्र में जन्म प्राप्तकर वहीं से सिद्ध होगा, विमल केवल लोक से सकल लोकालोक का ज्ञान होगा, समस्त कर्मों से मुक्त पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता से ण भते ! ददुरे देवे ताओ देव लोगाओ आउक्सएण भवक्सएण ठिइक्सएण चय च त्ता कहिं गच्छिहिइ ? ) 3 महन्त ! त्या २ દેવની કેટલી સ્થિતિ થઈ છે ? પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! તેની ચારપયોપમ જેટલી સ્થિતિ થઈ છે ગૌતમ ફરી તેઓશ્રીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત તે દદુર દેવ ત્યાથી-તે દેવલેકમાથી-આયુષ્યના ક્ષય, ભવના લય, તેમજ સ્થિતિને ક્ષય च्या मा शरीरने-हेसमधी शारने त्याने या भो ? (कहिं असज्जिदिइ) કયા જન્મ પ્રાપ્ત કરશે? ભગવાને આ પ્રશ્નને જવાબ આ પ્રમાણે આપ્યો કે (गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्ज्ञिहिइ, उज्झिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्य दुक्साण अत करेहिह य) गौतम ! ते ६२ ३५ मायु-पनी क्षय यया माह, ભવને ક્ષય થયા બાદ, અને સ્થિતિને ક્ષય થયા બાદ દેવલોકથી આવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ પ્રાપ્ત કરીને ત્યાથી જ સિદ્ધ થશે વિમલ-કેવલ લાકથી
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हाताधर्मकथास
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कृत्वा शरीरं व्युत्सृजति परित्यजति, भगवानाह दे गौतम ! ततस्तदनन्तर खलु स दर्दुरः कालमासे काल कृत्वा यावत् - सौधर्म कल्पे 'दद्दूर डिसए विमाणे' दर्दुरा यस विमाने दुरदेवतया 'उपपन्ने' उपपन्नः - उपपात - जन्म प्राप्त इत्यथ ।
दर्दुरेचरितमुक्तवा - भगवान् महावीरः सामी माह - ' एव खलु गोयमा ! ' इत्यादि । हे गौतम | एव सल दर्दुरेण सा दिव्या देवद्वि या उपार्जिता प्राप्ता स्वीकृताऽभिसम वागता - सम्यक् सेविता । गौतमः पृच्छति - ' दहरस्स ' इत्यादि | दर्दुरस्य खलु देrम्य हे भदन्त ! कियत्कालपर्यन्त स्थितिः मज्ञप्ता १ है कि जिस के प्रति मेरी यह धारणा रहती थी, कि इसे कोई भी रोगा तक स्पर्श न करें उसको भी मैं अन्तिम श्वामों तक ममत्व भावसे रहित होकर छोड़ता हूँ । इस प्रकार करके उसने सब का परित्याग कर दिया । ( तण से ददुरे कालमासे काल किच्चा जान सोहम्मे कप्पे दरवर्डिस विमाणे उपवासभाए ददुरदेवत्ताए उबवन्ने - एव ग्लु गोयमा ! दद्दुरेण सा दिव्या, देविड्डी, लद्रा, पत्ता अभिमना गया ) इसके बाद वह दर्दर काल अवसर काल करके यावत् सौधर्म कल्प मे दर्दुरात विमान मे उपपोत सभा में दर्दुर देवता की पर्याय से उत्पन्न हो गया । इस प्रकार दर्दुर का चरित्र कहकर भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम से कहा कि हे गौतम | इस प्रकार से उस दर्दुर देव ने वह दिव्य देवद्धि उपार्जित की है, अपने आधीन की है और उसे अपने भोगके योग्य बनाई है। अब गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पुनः पूछते हैं कि - ( ददुरस्स पण भते । देव स्स केवइयकाल टिपण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाइ ठिई રાગ અને આતક સ્પર્શ કરે નહિ-તેને પણ હું મમત્વ વગર થઇને છેલ્લી પળ સુધી ત્યનુ છુ આ રીતે વિચાર કરીને તેણે બધી વસ્તુઓને ત્યજી દીધી (तरण से ददुरे कालमासे काल किच्चा जाय सोहम्मे कप्पे ददुरवडि सए विमाणे उबवायसभाए ददुरदेवत्ताप, अवन्ने एवं खलु गोयमा ! ददुरेण सा दिव्वा, देविट्टी, लढा, पत्ता अभिसमन्नागया ) त्यारणा ते हेडओओ भजना समये अज કરીને ચાવત્ સૌધ કલ્પમા કરાવત સક વિમાનમાં ઉપપાત સભામા દુર દેવતાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયે આ રીતે દેડકાના ચરિત્ર વિશે વર્ણન કરીને ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ ગૌતમને કહ્યુ કે હૈ ગૌતમ ' આ રીતે તે દદુર દેવે તે દિવ્યદેવધિ મેળવી છે, તેને સ્વાધીન બનાવી છે અને તેને પાતે ભાગ વવાને લાયક બનાવી છે. હવે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગોતમ ફરી પૂછે छे है ( ददुररस ण भते ! देवरस फेवइयकाल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा । चत्तारि
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मनगारधर्मामृतघर्पिणी टोका अ० १३ नन्दमणिकारमयनिरूपणम् ७७ भगवानाह-हे गौतम ! ददुरस्य खलु देवस्य चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः पनप्ता । पुनगौतम पृन्छति-'सेण' इत्यादि स खलु हे भदन्त । दर्दुगे देवस्तस्माद् देवलोकाद आयु. क्षयेण भवक्षयेण स्थिति क्षयेण चय त्यक्त्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उत्पत्स्यते-उपपात-जन्म प्राप्स्यति ? । भगवान् कथयति-'गोयमा ' इत्यादि । हे गौमत । स खलु दर्दुरोदेवः आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण देवगेका च्च्युतः सन् महाविदेहे वर्षे जन्म प्राप्य सेत्स्यति भोत्स्यति मोख्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्त करिष्यति च । पण्णत्ता, से ण भते ! दददुरे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएण भवक्खएण ठिइनखरण चय चहत्ता कहिं गच्छिदिइ' ) हे भदत ! दर्दुरदेव की बता कितनी स्थिति हुई है ? प्रभु करते हैं कि हे गौतम । चार पल्योपम की स्थिति उसकी वहा हुई है । पुनः गौतम उनसे पूछते हैं कि हे भदन्त ! वह दर देव वहा से-उस देवलोक से-आयु के क्षय भवके क्षय एव स्थिति के क्षय हो जाने पर शरीर का-देव सबन्धी श रीर का परित्याग कर कहा जावेगा (कहिं उववजिदिइ) कहां पर जन्म धारण करेगा? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने उन्हें इस प्रकार दिया-(गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिड, बुज्झिदिइ, मुच्चिरिइ, परिनिव्वाहिह सव्वदुक्खाण अत करेहिइय) गौतम ! वह ददर देव आयु के क्षय से, भव के क्षय से एब स्थिति के क्षय से देवलोक से चवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म प्राप्तकर वहो से सिद्ध होगा, विमल केवल लोक से सकल लोकालोक का ज्ञान होगा, समस्त कर्मों से मुक्त पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता से ण भते ! दद्दुरे देवे ताओ देव लोगाओ आउक्सएण भवक्सएण ठिइक्सएण चय चत्ता कहिं गच्छिहिइ ?) महन्त । त्या र દેવની કેટલી સ્થિતિ થઈ છે ? પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! તેની ચારપાપમ જેટલી સ્થિતિ થઈ છે ગૌતમ ફરી તેઓશ્રીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત !તે દદુર દેવ ત્યાથી-તે દેવવેકમાથી-આયુષ્યના ક્ષય, ભવના લય, તેમજ સ્થિતિને ક્ષય च्या माह शरीरने-४१समधी शरने त्यने ४या ? (कहिं उपजिहिद) કયા જન્મ પ્રાપ્ત કરશે? ભગવાને આ પ્રશ્નને જવાબ આ પ્રમાણે આ કે (गोयमा ! महाविदेहे वासे सिझिदिइ बुझिहेइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्य दुक्खाण अत करेहिह य) गौतम ! १६६२ हे मायुकना क्षय यया माह, ભવને ક્ષય થયા બાદ, અને સ્થિતિને ક્ષય થયા બાદ દેવલોકથી આવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ પ્રાપ્ત કરીને ત્યાથી સિદ્ધ થશે વિમલ-કેવલ લેકશી
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________________ 788 मालाधर्मक सुधर्मास्वामी जम्यूस्वामीन पाह-एयरल समणणं ' इत्यादि, हे जमः। एवं खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण त्रयोदशस्य नाताध्ययनस्य, अयम् उत्त स्वरूपः, अर्थ परातः, ' इति ब्रवीमि '-अस्य व्यापा पूर्वपत् / / 90 // 8 // इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्गल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितक- / लापालापा-मविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्यनिर्मापक-पादिमानमर्द-श्रीशाहच्छ प्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराज गुरु-पालनमचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिनारपूज्यश्री-पासीलारेचतिविरचिताया 'ज्ञाताधर्मकथान' सूनस्यानगारधर्मामृतव. पिण्याख्याया व्याख्याया प्रयोदशम ययन सपूर्णम् // 13 // रोगा, समस्त कर्मकृत विकार से रहित होने के कारण स्वस्थ रोगा और इस प्रकार समस्त दुःश्वों का वर अन्त करने वाला रो जावेगा। (एवं ग्बलु जबू! समणेण भगवयामहावीरेण तेरसमस्स नायजायण स्स अयमढे पण्णत्त तिवेमि) इस प्रकार जब स्वामी को समझाकर अय गौतम उन से करते हैं हे जवू / श्रमण भगवान् महावीरने इस तेरहवें ज्ञाताध्ययन का उक्त रूप मे अर्थ प्ररूपित किया है / मैंने जैसा उनके मुग्व से इसे सुना वैमा ही यह तुमसे कहा है। अपनी ओरसे मिलाकर इसमे कुछ नहीं कहा है // सूत्र 8 // श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी मराराज कृत "ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवषिणी व्याख्याका तेरहवा अध्ययन समाप्त // 12 // તે સકલ લેકાલકને જાણનાર થશે, સમસ્ત (બધા) કર્મોથી મુક્ત થશે, સમસ્ત કર્મકૃત વિકાર વગર થયા બદલ તે સ્વસ્થ થશે અને આ રીતે બધા દુખે. ते मन्नार थ री (एव खलु जनू ! समणेण भगवंया महावीरेण तेरमस्स नायज्झयणस अयमटे पण्णत्ते ति चेमि) मा शत 4 5 स्वाभान समनवाने ગૌતમ તેમને કહે છે કે હે જ બૂ' શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ તેરમાં સાતાધ્વર્યનને પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે કે જે તેમના મુખથી સાભળે છે તે જ તમને કહ્યું છે કે આમાં પિતાની મેળે ઉમેરીને કઈજ” नथी // सूत्र "8" // શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવણિી ધ્યાખ્યાનુ તે