________________
माताधर्मकथा नुप्रिय ! समुद्रः, ततस्तदनन्तरं खलु स दर्दुरः कृपमण्डक , पादेन रेखा कर्षति, कृष्ट्वा, एवमयादीत-इयन्महालया एतासन विस्तीर्णः ग्वलु हे देवानुपिय ! स समुद्रः ?, तदा समुद्रमडूक आह-' नायमर्यः समर्थः । इति अय रेग्वया निर्दिष्टो विस्तारः समुद्रविस्तार गोधयितु न शक्तइत्यर्थः । उक्तार्थे हेतुमाह-' महालय खल स समुद्र ' खलु-निश्चेन स समुद्रो महालयोऽति विस्तीर्णः समुद्रस्य महत्व न केनापि निर्देष्टु शक्यत इतिभावः । ततस्तदनन्तर ख स कूपदर्दुरः पौरस्त्यात् =अग्रवर्तिनः, तीरादुत्पत्य कूर्दयित्वा खलु गच्छति, = कृपस्य द्वितीयतीरमिति भावः । गत्वा एवमयादीतू-इयन्महालय =एतागान्विशाल. ग्वलु हे देवानुप्रिय । देवाणुप्पिया! समुद्दे, तण्ण से ददुरे पाण्ण लीह कड्ने, कत्तिा एव वयासी, " महालएण देवाणुपिया ! से समुद्दे णो डणढे ममढे महालएण से समुद्दे ) हे देवानुप्रिय । वह समुद्र तो बहुत बड़ा है । इस धान को सुनकर उस कृप मेढक ने अपने पैर से एक रेवा खेंची और खेचकर बोला हे देवानुप्रिय ! वह समुद्र इतना भारी विशा ल है । प्रत्युत्तर मे उस समुद्रवासी मेंढक ने उस कूप मेढक से कहानहीं वह इतना बड़ा नहीं है-घर तो इस से भी अधिक बड़ा है अर्थात् रेखा से निर्दिष्ट जो विस्तार है वह समुद्र के विस्तार को बतलाने में समर्थ नहीं हो सकता है-उस का विस्तार तो क्या कहे-बहुत ही अधिक है । (तएण से कूवदद्दुरे पुरथिमिलाओ तीराओ उफ्फि डित्ता ण गच्छइ, गच्छित्ता एव वयासी ए महालएण देवाणुप्पिया ! से समुद्दे णो इणढे समहे ) समुद्रवासी मेंढक की बात सुनकर वह कूप मेंढक अपने अग्रवर्ती तोर से फूए के दूसरे तोर पर उछल गया-वहा पाएण लीह कड्रेइ, कट्टित्ता एव वयासी ए महालएण देवाणुप्पिया ' से समुद्दे णो इण समढे महालएण से समुद्दे)
હે દેવાનુપ્રિય ! સમુદ્ર તો બહુ વિશાળ છે
આ વાત સાંભળીને કૂવાના દેડકાએ પિતાના પગથી એક લીટી દેરી અને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય છે તે સમુદ્ર આટલે વિશાળ છે? ત્યારે જવાબમાં સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યું કે નહિ, તે આટલે માટે નથી તે તે એના કરતા પણ વિશાળ છે એટલે કે લીટી દોરીને જે વિસ્તાર બતાવવામાં આવ્યો છે તે સમુદ્રની વિશળતાને અકિત કરવામાં અશક્તિમાન છે તેને વિસ્તાર તે ખૂબ જ વિશાળ છે (तरण से कूवाददुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उफिडित्ता ण गच्छद गच्छिता एव वयासी, ए महालए ण देवाणुप्पिया! समुद्दे णो इण? ममहे)