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हाताधर्म यासो हीलनीयः निन्दनीय खिंसनीयः गईणीयः परिभानीयः, भाति । परलोकेऽपिच खलु आगच्छति, माप्नोति यहूनि दण्डानानि 'ससारो भाणियगो' ससारो मणि सव्यः । ससारे स परिभ्राम्यति अत्र ससारपरिभ्रमणपाठो मान्य -यथा- 'अ णाइय अणपदग्ग दीहमद चाउरत ससारक तार अणुपरियष्टइ ' अनादिकम् अनवदनम् अनन्त दीर्धाद्ध दीर्धकाल, दोर्धावान वा दीर्धमार्ग, चातुरन्त चतुर्तिमाग, चतुर्गतिक, ससारएव कान्तार दुर्गममार्ग तत्, तथा अनुपर्यटति पुनःपुन म्यतीत्यर्थः ॥३३॥
मूलम्-तएणं ते पथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्टा समाणा अन्नमन्न सदावति, सदावित्ता एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेण सद्धिं वाहिया जाव विहरइ, त सेयं खलु देवाणुप्पिया । अम्ह सेलयं उबसपज्जिताणं विहरित्तए, एव संपेहेंति, सपेहिता सेलय रायं उपसपजि. ताणं विहरंति ॥ सू० ३४ ॥ है, निंदनीय होता है, खिंसनीय होता है, गर्हणीय होता है, परिभ चनीय होता है तथा परलोक में भी अनेक दण्डो को पाता है । ससार में वह परिभ्रमण करता है।
ससार परिभ्रमण सबन्धी पाठ यहाइस प्रकार से लगा लेना चाहिये। "अणाइय अणवदग्ग दीहमद्ध चाउरतसमारकतार अणुपरियहा" इसका भाव इस प्रकार है-ऐसा जीव अनादि अनतरूप ससार कान्तार में कि जो चतुर्गतिरूप विभाग वाला है और जिसका मार्ग या काल बहुत दी है उसमें पुनः पुनः भ्रमण करता रहता है। सूत्र ॥ ३३ ॥ હિલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે, ખિ સનીય હોય છે, ગર્હણીય હોય છે, પરિભવનીય હોય છે તેમજ પરેલેકમાં પણ ઘણી જાતની શિક્ષાને પાત્ર અય છે તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતો જ રહે છે
ससार परिसभ विच पाठ मही मा प्रभारी नयी नये (अणाइय अणवदग्ग दीहमद चाउरतसमारकतार अणुपरियट्टई ) मानो माया प्रभारी છે કે–ચતુર્ગતિ રૂપ વિભાગવાળા અનાદિ અન તરૂપ સ સાર કાતારમાં કે જેને માર્ગ ખૂબજ દીધું છે વાર વાર જીવ પરિભ્રમણ કરતા રહે છે સૂત્ર ૩૩