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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शुकपरियाजकदीक्षानिरूपणम् ११३
'तएणसे इत्यादि।
टीका-ततस्तदनन्तर खलु स शुरुः परित्राजक स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य एव वक्ष्यमाण प्राकारेणावादीत्-इच्छामि खलु भ-न्त ! परित्राजकसहस्रेण साधं सपरिटतो देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डो भूत्वा पत्रजितम् । भरता समीपेऽह परिवानसहा सह केशोरलुचनेन मुण्डो भूत्वा दीक्षा ग्रहीतुमिच्छा मीत्यर्थः । ततः स्थापत्यापुत्रोऽवादीन-हे देवानुप्रिय यथासुख यावत्= ईप्सित कार्य दीक्षाग्रहणरूपे विलम्व मा कुरू, इत्येवमुक्त' सन् शुकः परित्रानका यावत्
तएण से सुए परिवाया इत्यादि
टीकार्थ-(तण्ण) इसके बाद (से सुए) उस शुक (परिव्यायप) परिब्राजकने (थायच्चापुत्तस्स अतिए धम्म सोच्चा ) स्थापत्यापुत्र अनगार के मुखसे श्रुत चारित्र रूप धर्मका श्रवण कर (णिसम्म ) उसे हृदय मे अवधारित कर (एव वयानी) उन से इस प्रकार कहा- ( इच्छामिण भते । परिव्वायगसरस्से ण सद्धि सपरिवुडे देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भवित्ता पन्वइत्त ) हे भदन । मैं आप देवानुप्रिय के पास इन १ एक हजार परिव्रज्को के साथ २ मुडित रोकर दीक्षित होना चाहता हूँ (अहासु जाव उत्तरपुरत्यिमे दिसीभा तिव्य जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिंह उप्पाडेइ उप्पाडित्ता जेणेव थाव च्चापुत्ते तेणेव उवागच्छद) शुक्र परित्राजक की इस भावना को जान कर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उससे कहा हे देवाणुप्रिय । तुम्हे जैसे मुग्व हो वैसा करो-इच्छित कार्य जो दीक्षा ग्रहण है उसमें तुम
(तएण से सुा परिख्यायए इत्यादि ) टी--(तपण) त्या२ मा६ (से सुए) शु (परिव्यायए) परिन (यावच्चा पुत्तम्स अतिए धम्म सोचा ) स्थापत्यापुत्र अनाना श्री भुम थी श्रुत्र त्यारित्र ३५ मनु श्र१९ शेने (णिसम्म ) तेने सारी पेठे यमा अ५ धारित प्रशन ( एप वासी) तमन २ गते घु- (इन्छामिण भते ! परिव्वायगसाहरसेण सद्धिं सपरिपुडे देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भवित्ता पव्व इत्तए ) महत भारी पाथी से 8२ ५R-
नानी साथै भुलित यधन हीक्षित थवा न्याहू छु ( अहासुह जाव उत्तर पुरथिमे दिसीमाए तिड टय जार धाउरत्ताओ च एग ते एडेइ एडिता सयमेव सिह उपाडेइ उत्पाहिता जेणे थावच्चापुत्ते तेणेर उवागन्सइ) शु परिननी दीक्षित यवानी ४२छ। સાભળીને સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારે તેમને કહ્યુ “હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમ ગમે તેમ કરો ઈરિત કાર્યોમા એટલે કે દીક્ષાગ્રહણ કરવામાં મોડુ કરે નહિ આ રીતે
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