________________
५३६ युष्माक यथामत्तैः यथायोग्य रोगोपशमनममयः चिकित्सक वैयः यथाहतेन न्यथायोग्येन प्रासुकेन औपधभैषज्येन औषधम् -एकद्रव्यनिर्मित, भैपज्य-द्रव्य समुदायनिर्मित तेन, भक्तपानेन निराधागपानेन, चिरित्सामार्तयामि कारयामि । हे भदन्त ! यूय खलु मम यानशालामु रयादिशाला समवसरत-आगच्छत तर मुखेन तिष्ठता प्रामुकमेपणीय पीठफटकशग्यासस्तारकमवगृह्य विहरति । ततः सलु स शैलकोऽनगारो मण्डूकस्य राज्ञ-एतमथै तथेति मतिशगोति रस्स सरीरय सुक्क भुक्क जाव सन्चावाह सरोग पासड) इस के पाद ज्यों ही महक राजा ने शैलक राजमपि के शरीर को शुष्क क्ष यावत् पीडित एव रोगाकान्त देखा तो (पासित्ता एव वयामी) देख कर उन से इस प्रकार कहा-(अहं ण भते ! तुम्भ अहा पवत्तेरितिगि च्छाहिं अहापवत्तण ओसभेसज्जेण भत्तपाणेण तिगिच्छ आउहावेमि) हे भदत ! मैं आपकी यथा योग्य-रोगो पशमन करने में समर्थ-वैद्यों द्वारा-उचित प्रामुक (निर्दोप) औषध और भैषज्य से तथा निरवच अन्नपान से चिकित्सा करवाना चाहता है-इसलिये (तुन्भे णं भते । मम जाणसालासु समोसरह, फासु एसणिज्ज पीठफलगसेज्जासथारग
ओगिण्डित्तो गं विहरइ) आप मेरी रथशाला में पधारे और वहा विराजे सुख शाता से वहा ठहरे, प्रास्लुक एपणीय, पीठफलक शग्या सस्तारक को मुनि के कल्पानुसार याचित कर टेले । (तएण से सेलए अणगारे म यस्स रपणो ण्यम तह त्ति पडिसुणे ) इस प्रकार मडूक राजा के प्रार्थना करने पर उन शैलक अनगार ने उसकी " तरत्ति"ऐसा सवाव ह सरोग पासइ) त्या२ मा मडू२०१, बिना शरने शुण ३६ याक्तू पाहत तम तयुत (पासित्ता ५५ क्यासी)नधन तभने । प्रभारी यु-( अह ण भवे ! तुब्भ अहापवत्तेहि तिगिच्छपहि अहापवत्ते ण ओसह सज्ज ण भत्तपाणे त तिगिच्छ आउढावेमि) मत મારી ઈચ્છા છે કે હું રાગોને મટાડનાર એગ્ય વરની ઉચિત પ્રાસુક ઔષધ અને ભ્રષદ્વારા તેમજ નિરવદ્ય અન્નપાન થી તમારી ચિકિત્સા ( ઈલાજ) ३२१ मेटसा भाट (तुब्भेण भते ! मम जाणसालासु समोसरह फासुअ एपणिज्ज पीढफलासेज्जासथारग ओगिमिहत्ताण विहरइ) , तमे सभार २५ શાળામાં પધારે અને સુખ શાંતિ પૂવક ના રહે મુનિ જનચિત પ્રાસુક मेषीय,
पासच्या सस्तार त्यायो भने (तएण सेलए अग गारे मडुयस्मरणो एयमठ्ठ वह त्ति पउिसुणेइ) म २२४ी 24। प्रभारी