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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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पक्खालिज माणस्स सोही भवइ ? हंता भवइ, एवामेव सुदंसणा ! अम्हपि पाणाइवायवेरमणेणं अस्थि सोही, जहा वा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्वेणं वारिणा पखालिजमा णस्स अस्थि सोही तएण से सुदंसणे सबुद्धे थावच्चापुत्त वदइ, नमसइ, वदित्ता नर्मसित्ता एवं क्यासी ~ इच्छामिणं भंते । धम्म सोच्चा जाणित्तए जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ ॥ सू० २१ ॥
( aण थावच्चा० ) इत्यादि ।
टीका - ततः खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनमेवमवादीत्-तत्र ग्लु सुदर्शनः किं मूलको धर्मः प्रज्ञप्तः ? एत्र स्थापत्यापुत्रेण पृष्टः सन् सुदर्शनो वदति - ' अम्हाण' इत्यादि । हे देवानुप्रिय ! अस्माक शौचमूलो धर्मः मझरा, यावत् स्वर्ग गच्छन्ति अत्र यावच्छदेन - ' सेऽपि य सोए दुनिहे पन्नत्ते त जहा दव्त्रसोए य भार
तएण थावच्चा पुत्ते इत्यादि ।
टीकार्थ - (तपर्ण धावच्यापुत्ते) इस प्रकार कहने के बाद स्थापत्यापुत्र अनगार ने पुन: (सुदसण एव) सुदर्शन से इस प्रकार कहा - (तुम्भेण सुदसणा कि मूलए धन हे सुदर्शन ! तुम्हारा धर्म कि मूलक प्रज्ञप्त हुआ है ( अम्हाण देवाणुप्पिया ' सोयमूले धम्मे पनन्ते ) तत्र सुदर्शन ने कहा हे देवनुप्रिय ' हमारा धर्म शौचमूलक प्रज्ञप्त हुआ है । ( जाव सग्ग गच्छति ) इस सुदर्शन के कथन " में स्वर्ग जाते हैं " यहा तक का पाठ लगा लेना चाहिये - जैसे- "सोविय सोए दुविहे पन्नत्ते तजहा तएण थावच्चा पुत्ते ' इत्यादि ।
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टीडार्थ - (तरण थावचापुत्ते) (सुद सण एव ) या शेते उपदेश भावता स्था पत्यापुत्र अनगारे दूरी, (सुदसण एव) सुहरानने भोषता ज्छु - (तुन्भेण सुद सणा । किं मूल धम्भे पन्नत्ते) हे सुद्दर्शन तमारा धर्मनु भूण शु अज्ञप्त थ्यु छे ? ( अम्हाण देवाणुपिया ! सोयमूले धम्मे पन्नत्ते) वाण न्यायता सुहराने धु " हेवानुप्रिय । भारा धर्मनु भूग शौय (पवित्रता) छे” भेटले भारी धर्म सग्ग गच्छति) 'यावत्' सर्गभा होये छे " सुदर्शनना भ" सोविय सोए दुविहे पन्नतेत जहाँ
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શૌચ મૂલક કથનમા
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