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________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे आत्मगतोविचार समुदपद्यत । तदेवाह-' धमाणव ' इत्यादि-धन्याः खलु ते राजेश्ववरात्सार्थवादप्रभृतय, येषा खल राजगृहस्य दि. वहयो वाप्यः = सामान्यः पुष्करिण्यः = मल्युक्ता यावत् सरःसर पक्तिका = यौ कस्मात्मरसो ऽस्मिन् सरसि जल वहति, एन सरसा जलाशयाना परक्तपः पतिभूता जला शया इत्यर्थः निद्यन्ते यत्र सलु बहुजनः = जनसमुदायः स्नाति च पिवति च तथापानीय च समहति ततो जल नगति । तत्तस्मात्प उचित सलु मम करये= मादुष्प्रभाताया रजन्या सूर्योदये सतीत्यर्थ, श्रेणिक राजानमापृच्ज्य राजगृहस्य , ७३८ जेठ मास मे मणिकार श्रेष्ठी नद ने अष्टम भक्त किया तीन उपवास किये- और पोपध शाला में रहा । जब उसकी यह तपस्या पूर्ण प्राय हो रही थी तब उसे तृष्णा पिपासा और क्षुधा ने व्याकुल कर दिया। उस समय उसे इस प्रकार का विचार आया- ( धन्नाण ते राईसर जाव सत्थवाहपभियओ जेसिणं रामगिहस्स यहिया बहओ बावीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपतियाओ जत्थण चजणो पहाड़ य, पियड य, पाणियच सवहहत सेय मम कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता राय गिहस्स पहिया उत्तरपुरत्विमे दिसिभाए वैभारपव्त्रयस्स अदूर सामते वस्तुपाढरोइयसि भ्रमिभागसि जाव णद पोक्खरणिं खणा एक एव सपेहेइ ) राजेश्वर से लेकर सार्थवाह प्रभृति वे जन यवाद के पात्र है कि जिनकी राजगृह नगर के बाहर अनेक वावडिया है, - पक्ति भूत जलाशय हैं कि जिन में अनेक मनुष्य स्नान करते हैं, अनेक जन पानी पीते है अनेक उन में से पानी ले जाते हैं। तो मुझे भी મણિકાર શ્રેષ્ઠિ નદે અષ્ટન ભક્ત કર્યાં-ત્રણ ઉપવાસ કર્યો-અને પૌષધશાળામા રહ્યો જ્યારે તેની આ તપસ્યા પૂરી થવાની અણી ઉપર જ હતી ત્યારે તેને તરસ અને ભૂખે વ્યાકુળ બનાવી દીધા તે સમયે તેણે વિચાર કર્યાં કે—— ( धन्ना ण ते राई सर जाव सत्थवोह रभियओ जेसिण रायगिहस्सा बहिया बहूओ बावीओ पोक्सरणोओ जाव सरसरप तियाओ जत्थ ण बहुजणो दाइ य, पियइ य, पाणियच सहइ त सेय कल्ल पाउ० सेणिय आपुच्छित्ता रायगिहस्स दहिया उत्तरपुरत्थि मे रिसभाए वैभारपव्ययस्स अदूरसामते वस्तुपाढरोट्र्यसि भूमिभाग सि जाव ण्द पोक्खरणि सणावेत्तर तिकटु एव स पेहेइ ) शनेश्वरथी માડીને સાવાર્હ વગેરે તે લેાકેાને ધન્ય છે કે રાજગૃહ નગરની બહાર એમની ઘણી વાવે છે, પક્તિભૂત જળાશયેા છે-કે જેમા ઘણા માણુસા સ્નાન કરે છે, ઘણા માણસે પાણી પીએ છે, ઘણા તેએમાથી પાણી લઇ જાય છે તે હવે
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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