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जिनका
सर्वोदय तीथा
सर्वाऽन्तवत्तद्ग-मुख्य-कल्प सर्वाऽन्त-शून्यच मियोऽनपेक्षम मर्वा पदामन्तकर निरन्त सर्वोदयं तीर्यमिदं तवैव।
श्रीवार जिनालय।
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मम । नित्याच
पुण्याला/स्वभाव बक्य सामान्य असत्अनेकअनित्यजाबामामा पाप परलोक विभाटा पर्याय विगाथ
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मयपति पुतचाधाममाण अगम/अति/परमात्मा
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Vधन/मि/समिति/आता
प्रमारपरण्यात
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्थाद्वाद-पुण्योदधे--
व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कली। येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं
-कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिवीरं प्रणामिस्फुटम् ॥
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विषय-सूची
मिड-गुल-स्नोग्रम-[पंडित अाशाधर , ७ कुछ नई बाजें-4. परमानन्द जैन २ मम्माहिल्पक प्रचाग मुन्दर उपहागंकी योजना . ८ अध्यात्मतरंगिणी टीका -[पं. परमानन्द जैन ३ समन्तभवचनामृन-[ 'युगीर'
शास्त्री ३० कमौका गमायनिक मम्मिश्रण- अनन्नप्रमाद- त्रामा-[श्री. पूज्य चुल्लक गांशप्रमानजी जैन बी. एम. मी. १२
वर्णी ३. . बंगीय जैन पुरावृत्त- [पा. छोटेलाल जैन ११. हमारी तीर्थ यात्रा सम्मरण-परमानन्न जैन ३६ ६ १७वीं शताब्दी की एक हिन्दो रचना-
"माहित्य परिचय र समालोचन [. कम्तूरचन्द्र काशलीवाल एम.ग. २३
- परमानन्द जैन -
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
()अनेकान्तके 'मंग्सक' नथा 'महायक' बनना और बनाना। (२) स्वयं अनेकान्नक ग्राहक बनना नया दमरीकी बनाना। (३) विशाह-शादी भानिदान नाम पर अनेकनको अच्छी महायता भंजना नया मिजनामा (१) अपनी और में दमगंको अनकान्त भट म्वमा अथवा फ्री भिजवाना. जैम विद्या मंग्यायो लाम रियां
समा-मामारियां और जैन-अर्जन विद्वानोंका। (५) विद्यार्थियों आदिको अनकान्त अर्थ मध्यम दनक वि .) याटिकी महायना भेजना। की
महायनामें. की अनकान्न अभृज्यमें भेजा जा सकेगा। (१)अमेगन्तके ग्राहकांको अच्छे अन्य उपहार देना नया रिलाना। ()लोकहितकी साधनाम महायक अई मन्ना लेख लिम्बका भंजना नया चित्रादि मामग्रीको
प्रकाशनार्थ जुटाना।
महायनादि भेजने तथा पत्रव्ययहारका पता:
नोट-दस ग्राहक बनानेवान महायकोंको
'अनेकान्त' एक वर्ष तक भंटस्वरुप भेजा जायगा।
मैनेजर-'अनेकान्त' वीरमेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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ओं अहम्
अनेकान्त सत्य, शान्ति और लोक हितके संदेशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास साहित्यकला और समाज-शास्त्रके प्रौढ़ विचारोंसे परिपूर्ण
सचित्रमासिक
सम्पादक
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जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम)
१ दरियागंज, देहली
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बारहवाँ वर्ष
[जूनसे वैशाख, वीर नि० सं०२४७१-०]
प्रकाशक
परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
मई
पाठ माने
HOME
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पृष्ठ
अनेकान्तके बारहवें वर्षकी विषय-सूची विषय और लेखक
पृष्ठ विषय और लेग्वक अत्यावश्यक वर्णी सन्देश
गरीवी क्यों ? -[स्वामी सत्यभक्त -[शिखरचन्द जैन ३८१ गोम्मटसार जीवकाण्डका हिन्दी पद्यानुवादअध्यात्म तरंगिणी टीका
[पं० परमानन्द जैन शास्त्री २५४ [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ३० ४२५) रु० के दो नये पुरस्कारभाषाके अप्रकाशित कुछ प्रन्थ
[जुगलकिशोर मुख्नार ४७ [पं० परमानन्द जैन शास्त्री २६३ १४ वीं शताब्दीकी एक हिन्दी रचनाभनेकान्तका द्वितीय वर्पिक हिसाब
३८७
[पं. कस्तूरचन्द काशलीवाल एम. ए. २३ अहिंसा और जैन संस्कृतिका प्रसार
चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन (कविता)-- [बा० अनन्त प्रसाद जैन B.Sc. Eng. २३३
[सोमसेन ३२९ आकिंचन्य धर्म-[पं० परमानन्द जैन शास्त्री १४० जन्म-जाति गर्वापहार--[ 'युगवीर' मार्जव-[पं० अजितकुमार जैन शास्त्री १३० जिनशासन (प्रवचन)-[श्री कानजी स्वामी २११ भाठशंकाओंका समाधान
जैनधर्म और जैनदर्शन-श्री अम्बुजाक्ष [तुल्लक सिद्धिसागर २७२
___ सरकार एम. ए. बी. एल. ३२२ मात्म-सम्बोधक अध्यात्म पद
जैनसाहित्यका दोपपूर्ण विहंगावलोकनकविवर दौलतराम ३६१
[पं० परमानन्द जैन शास्त्री २५६ प्रात्मा-[श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक गणेश- ज्ञानीका विचार :कविता)-[ कविवर द्यानतराय १०७
___ प्रसादजी वर्णी ३३ तत्त्वार्थ मूत्रका महत्व-[पं० बंशीधर मात्म, चेतना या जीवन-[बा० अनन्त प्रसाद जो ।
व्याकरणाचार्य १३५ B.Sc. Eng.०, १४३
१४३ तामिल प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी- श्री प्रो.
तामि पाये और द्रविड़ संस्कृतिक सम्मेलनका उपक्रम
एम. एस. रामस्वामी आयंगर एम. ए.२९६ [बा जयभगवान जैन एडवोकेट ३३५ दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध-- उज्जैनके निकट प्राचीन दि. जैन मूर्तिया
[पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य ११५ [वा. छोटेलाल जी जैन ३२७ दशलक्षण धर्म पर्व-[ श्री दौलतराम मित्र १२ उत्तम क्षमा-[६० परमानन्द जैन शास्त्री ११६ दशलाक्षणिक धर्म-स्वरूप-[कविवर रइधू १०८ उत्तम मादव- श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक गणेश- दुःसहभ्रातृवियोगप्रसादजी वर्णी १२३
[जुगलकिशोर मुख्तार टाइटिल २ पेज उत्तम तप-[पी. एन. (परमानन्द) शास्त्री ११ ।दोहागुपेहा-लक्ष्मीचन्द्र ( अपभ्रंश रचना) ३०२ उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास
धर्म और राष्ट्रनिर्माण-(एकप्रवचन) .. [पं० के. भुजबली जैन शास्त्री ७६
, [आचार्य तुलसी ३४८ ऋषभदेव और शिवजी-बाबू कामताप्रसाद जैन २५ धवलादि ग्रन्थोंके फोटो और हमारा कर्तव्यकाँका रासायनिक सम्मिश्रण
1 [राजकृष्ण जैन '३६६ . [पा० अनन्त प्रसाद जैन B. Sc. Eng. १२, ५८ धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों का उद्धार कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा
-[सम्पादक विवेकादय ३८३ - [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ३०५ प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक रिचयकुछ नई खोजें-[पं० परमानन्द जैन शास्त्री २८ करलकाव्य और जैन कर्तृत्व-[विद्याभूषण बंकापुर-[५० के० भुजबली शास्त्रा २४३
पं० गोविन्दराय शास्त्री १६८, २०० बंगीय जैन पुरावृत्त-बाबू छोटेलालर्ज जैन १६,४२,६६
रचय
[एन. सी
बंकापुर-
वेन्दराय शास्त्री
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[२] विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक
पृष्ठ ब्रह्मचर्य पर श्रीकानजी स्वामीके विचार- १४२ श्रीजिज्ञासा पर मेरा विचारभारतके अजायबघरों और कलाभवनोंकी सूचो- [क्षुल्लक सिद्धिसागर टाइटिल ३ पे० ३३०
[बा० पन्नालाल अग्रवाल ६८ श्री पार्श्वनाथस्तोत्रम्-श्रुतसागरसूरि २३६ भारतदेश योगियोंका देश है
श्रीबाहुबली जिनपूजाका अभिनन्दन टाइटिल पेज ३ बा. जयभगवान जैन एडवोकेट ६६,६३
२ श्रीबाहुबलीकी आश्चर्यमयो प्रतिमामथुराक जैन स्तूपादि यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख
. [आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि [अगरचन्द नाहटा २८८
श्रीमहावोजीमें वीरशासन जयन्तीमूलाचारकी कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंके साथ समता
[पं. हीरालाल सिद्धान्त शस्त्री ३६२ - [राजकृष्णाजेन मूलाचारको मौलिकता और उसके रचयिता
श्रीतराग स्तवनम्-अमरकवि । [पं. होरालाल मिद्धान्न शास्त्री ३३० श्री शारदा स्तवनम-[भ० पद्मनन्दि शिष्य . मूलाचारके कर्ता-[तुल्लक सिद्धिसागर ३७२
भट्टारक शुभचन्द्र ३०३
संग्रहकी वृत्ति और त्यागधर्ममूलाचार संग्रह ग्रंथ न होकर आचाराङ्गके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है-[६० परमानन्द जैन शास्त्री ३५५
[चैनसुखदास न्यायतीर्थ १३३
संयम धर्म-ला. राजकृष्ण जैन युगपरिवर्तन (कविता मनु ज्ञानार्थी 'साहित्यरत्न' ३४२
संस्कृत माहित्यके विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोगराजस्थानके जैन भण्डारों में उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ[कस्तूरचन्द्र जैन काशलीवाल एम.ए. १५५
[डा. मंगलदेव शास्त्री एम. ए. पी.एच.डी.२५ राष्ट्रकूदकालमें जैनधर्म
मंशोधन डा० अ० स० अल्तेकर एम० ए. डी. लिद ८३ सत्य धर्मश्री १०५ पज्य क्षुल्लक गणेश प्रसादलघुद्रव्य संग्रह-सम्पादक
जी वर्णी १२६ वामनावतार और जनमुनि विपणुकुमार
सतसाहित्यके प्रचारार्थ सुन्दर उपहारोंकी योजना-- [श्री अगरचन्द्र नाहटा
[मैनेजर वोरसेवामन्दिर २ वसुनन्दिश्रावकाचारका संशोधन
सम-आराम बिहारी (कविता -[पं० भागचन्द्र ४१ [.पं. दोपचन्द पाण्ड्या और रतनलालजी समन्तभद्र वचनामृत-[ 'युगवीर' , १५१ कटारिया केकड़ो २०१
समयगारकी १५ वी गाथा और श्री कानजी स्वामीविविध विषय-[महावीर जयन्तो आदि ३६०
[सम्पादक १७७, २६५ वीनरागस्तवनके रचयिता-अगरचन्द नाहटा ११३ ममयमारके टीकाकार विद्वदर रूपचन्द जीवैभवकी शृंखला (कहानी)
[अगरचन्द नाहटा २२० मनुज्ञानार्थी 'साहित्यरत्न' ३४३ सल्लेखनामरण-[ श्री १०५ पूज्य तुल्लक शान्तिनक स्तुतिश्रुतसागरसूरि २५१
गणेशप्रसादवर्णी ४६ शोचधर्म-पं० दरवारीलाल कोठिया न्यायाचार्य १२६ साधु कौन ? एक प्रवचन-[श्री १०५ पूज्य श्रमणबलिदान-[श्री अखिल
३६६
तुल्लक गणेशप्रसादवर्णी १७३ श्रमणका उत्तर लेख न छापना
३२८ साधु स्तुति (कविता)-[कविवर बनारसी दास २१५
२२१
१४६
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विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक
पृष्ठ सिद्ध गुणस्त्रोतम्-[पं० आशाधर
१ हिन्दी जैन साहित्यमें अहिंसा-कुमारी साहित्य परिचय और समालोचन-[पं.
किरणबाला जैन २५४ परमानन्द जैन शास्त्री ४०, १७१, २५८, २७०, २४ साहित्य पुरस्कार और सरकार सत्यभक्त ३७४ हिन्दी जैन साहित्यमें तत्त्वज्ञान-[ कुमारी स्तरके नीचे (कहानी)मनुज्ञानार्थी साहित्यरत्न :७३
___किरणबाला जैन १६४, २२३, हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण-पं० परमानन्द
हिन्दी जैन साहित्यकी विशेषता-श्री कुमारी । जैन शास्त्री ३६, ८८, १६३, १८८, २३५, २४, २७६, ३१६
किरणबाला जैन १५६ --
नवीन वर्षसे कुछ उपयोगी योजनाएँ अनेकान्त प्रतिमास ऐतिहासिक, अनुसन्धानात्मक आदिको जिसे वे भिजवाना चाहेंगे। एवं स्वाध्यायोपयोगी सामग्री पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत
समक्ष प्रस्तुत (२) जो विद्वान स्थानीय किसी संस्था और मंदिर करता है। परन्तु प्रतिवर्ष घाटा रहनेसे वह जैसी और का माहक बनाकर १२) मनीआर्डरसे पेशगी भेजगे जितनी उत्तम सामग्रो प्रस्तुत करना चाहता है, उसे उन्हें अनेकान्त एक वर्ष तक मेंटस्वरूप भेजा जायगा। नहीं कर पाता । इस घाटेकी पूर्ति तभी हो सकती है, शायना -आगामी वर्षसे स्वाध्यायोपजब कि इसकी ग्राहक संख्या बढ़े। इसके लिए आगामी योगी सामग्री एवं शंका-समाधानका स्तम्भ रखनेको वर्ष से निम्नलिखित योजनाएं की गई हैं:
स्वास व्यवस्था की जारही है। अतः लोगोंको नवीन मनीआर्डरसे १०) पेशगी भेजने वालोंका वर्षके प्रारम्भसे ही ग्राहक बनने तथा बनानेकी शीघ्रता प्रत्येक किरणकी दो कापी दी जायेंगी, एक उनके लिए करना चाहिए । और दूसरी उनके किसी इष्ट मित्र, रिश्तेदार या संस्था
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
'अनेकान्त की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और भनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी माषा संपत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही शेष रह गई हैं। प्रता मंगानेमें शीघ्रता करें। प्रचारकीरष्टिसे फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा । पोस्टेज खर्च अलग होगा।
मैनेजर-'अनेकान्त' बीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली ।
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अतिशय क्षेत्र श्री चाँदनपुरके महावीर स्वामी
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में अहम
तत्त्व-मघातक
विश्व तत्त्व-प्रकागक
पार्षिक मुल्य ५)
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एक किरण का मूल्य ॥)
FFICIनीतिविरामीलोकव्यवहारवर्तकः सम्पद ।
रामस्य वीज भुक्नेकगुर्जयत्यनेकान्त ॥
मम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष २ वीर मेवामन्दिर, १ दरियागंज, पहली
जून किरा १ ज्येष्ठ वीरनि० संवन-४७६, वि. संवत २०१०
१६५३ श्रीमत्पण्डिनाऽऽशाधर-विरचित सिद्ध-गुण-स्तोत्रम्
- - यस्याऽनुग्रहतो दुगाह परित्यक्तापगत्मनः, सद्व्य चिचिन्त्रिकालविषयं स्वैः स्वैरभीक्ष्णं गुणैः। मार्थ-व्यंजन-र्ययः नमवयजानानि बारः ममं, तत्मम्यक्त्यमशेषकर्मभिदुरं सिद्धाः ! परं नौमि वः ॥१॥ यत्मामान्यविशेषयोः मह-पृथक-स्वाऽन्यथयोदीपयश्चित्तं. यातकमुद्विान्मुदमरं ना रज्यति द्वेष्टि न। धाराबाद्यपि तत्प्रतिश्ना-नवीभावोद्धराऽथोपित-प्रामाण्यं प्रणमामि वः फलितहग-शप्त्यक्ति-मुक्ति-श्रिये ॥२॥ मत्तालोचनमात्रमित्याप निराकर मतं दर्शन, साकारं च विशेषगोचमिति ज्ञानं प्रवादीच्छया । ने नेत्रे क्रमपर्तिनी मरजसा प्रादेशिक सर्वतः, स्फुर्जती युगपत्पुनर्विरजमा यष्माकमंगोतिगाः! ॥३॥ शक्ति व्यक्ति-विभक्त-विश्व-विविधाकारोघ-किम्मीरिताऽनन्तानन्त-भवस्थ-मुक्त-पुरुपोत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवत् । स्वं स्वं नत्वमसकर-व्यनिकर कत न भणं प्रत्ययो, मोक्तनन्वयतः स्मरामि परमाश्चर्यस्य वीर्यस्य वः ॥४॥ यं व्याहन्ति न जातु किंचिप न व्याहन्यने केनचिचन्निप्पीत-समस्त-वम्त्वपि सदा केनापि न स्पृश्यते । यत्सर्वज्ञ-समक्षमप्यविषयस्तस्यापि चाादिरां, तद्वः सूक्ष्मतम मतत्वमभवा ! भाव्यं भवोच्छित्तये || गत्वा लोक-शिरस्यधर्मवशतश्चन्द्रोपमे सन्मुम्ब-प्राग्भाराख्य-शिलातोपरिमनागूनैकगव्यूतिके । योगो मांगदरो मत्यपि मिथोऽसंबाधमेकत्र यल्लम्च्याऽनतमितोऽपि निष्ठथ सवः पुण्यावगाहो गणः ||६|| सिद्धाश्चेदगरवो निराश्रयतया भृश्यंत्यवःपिंडवत्तेऽधश्चेल्लघवोऽर्कनूलबदितस्ततश्च चंडेन सत् । क्षिप्यते तनुवात-वातवलये नेत्युक्ति-युक्त्युद्धतैनाऽऽप्तोपजमीप्यतगुरुलघु तुद्रा कथं बो गुणः ।।७।। यत्तापत्रयहेति भैरव-भवोदर्चिः शमाय श्रमा, युष्माभिर्विदधे व्यपच्यन तदव्यायाधमेतदुध वम । येनोद्वेल-सुखामृतार्णव-निरातकाभिषेकोल्लसचित्कायान कलयाऽपि वः कलयितु श्रयात यागीश्वराः ।।
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२]
'अनेकान्त
[ किरण १
एतेऽनंतगुणाद्गुणाः स्फुटमपोद्धृत्याष्ट दिष्टाभवत्तस्वाद्भावयितु ं सतां व्यवहृति प्राधान्यतस्तात्विकैः । एतद्भावनया निरंतर गलद्वीकल्पनालस्य मेस्तादत्यन्तलय: सनातन चिदानंदात्मनि स्वात्मनि । ॥ उत्कीर्णामिव वर्तितामिव हृदि न्यस्तामिवालोकयन्न तां सिद्धगुणस्तुतिं पठति यः शश्वच्छिवाशाधरः । रूपातीत-समाधि-साधित-वपुःपातः पतद्दुष्कृत - व्रातः सोऽभ्युदयोपभुक्तसुकृतः सिद्धयेत् तृतीयं भवे ||१०|| इत्याशाधरकृत-सिद्धगुणस्तोत्र ं समाप्तम् ।
नोट :- इस गम्भीर स्तोत्रकी एक सुन्दर संस्कृतटीका भी जयपुरके शास्त्र - भगडारसे उपलब्ध हुई हैं, जो बादीन्द्र विशालकीर्तिके प्रियसूनु (शिष्य) यति विद्यानन्दकी रचना है। टीका प्रति फालगुन सुदि ४ संवत् १६२० की लिखी हुई है। इस टीकाको फिर किसी समय प्रकाशित किया जायगा ।
सत्साहित्य के प्रचारार्थ सुन्दर उपहारों की योजना
जो सज्जन, चाहे वे अनेकान्तके ग्राहक हों या न हों. अनेकान्तके तीन ग्राहक बनाकर उनका वार्षिक चन्दा १५) रुपये मनीआर्डर आदिके द्वारा भिजवायंगे उन्हें स्तुतिविद्या, अनित्यभावना और अनेकान्त-रस-लहरी नामकी तीन पुस्तकें उपहार में दी जायेंगी। जो सज्जन दो ग्राहक बनाकर उनका चन्दा १०) रुपये भिजवायेंगे उन्हें श्रीपुरपाश्र्श्वनाथस्तोत्र, अनित्यभावना और अनेकान्त-रस-लहरी नामकी ये तीन पुस्तकें उपहार में दी जायेंगी और जो सज्जन केवल एक ही ग्राहक बनाकर ५) रुपया मनीआर्डर से भिजवायेंगे उन्हें अनित्य-भावना और अनेकान्तर सलहरी ये दो पुस्तकें उपहार में दी जायेंगी । पुस्तकोंका पोस्टेल खर्च किसीको भी नहीं देना पड़ेगा। ये सब पुस्तकें कितनी उपयोगी हैं उन्हें नीचे लिम्बे संक्षिप्त परिचयसे जाना जा सकता है।
·
(१) स्तुतिविद्या -- स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंका जीतने की कला, सटीक, साहित्याचार्य ५० पन्नालालजी के हिन्दी अनुवाद सहित और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकां प्रस्तावना से अलंकृत, जिसमें यह खष्ट किया गया है कि स्तुति आदिके द्वारा पापको कैसे जीता जाता है । सारा मूल ग्रन्थ चित्रकारों से अलंकृत है। सुन्दर जिल्दसहित, पृष्ठसंख्या २०२, मूल्य डेढ़ रुपया ।. (२) श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र - यह आचार्य विद्यानन्द - रचित महत्वका तत्वज्ञानपूर्ण स्तोत्र हिन्दी अनुवादादि सहित है । मूल्य बारह आने ।
(३) अनित्यभावना आचार्य पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकं हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित, जिसे पढ़कर कैसा भी शोक सन्तप्त हृदय क्यों न हो शान्ति प्राप्त करता है । पृष्ठसंख्या ४८, मूल्य चार आने ।
(४) अनेकान्त रस - लहरी - अनेकान्त-जैसे गूढ़ - गम्भीर विषयको अतीव सरलतास समझने समझाने की कुंजी, मुरूवार श्रीजुगलकिशोर - लिखित, बालगोपाल सभीके पढ़ने योग्य । पृष्ठ संख्या ४८; मूल्य चार आने ।
विशेष सुविधा- इनमें से कोई पुस्तकें यदि किसीके पास पहले से मौजूद हों तो वह उनके स्थान पर उतने मूल्य की दूसरा पुस्तकें ले सकता है, जो वोर सेवामन्दिर से प्रकाशित हों । वीरसेवामन्दिर के प्रकाशनोंकी सूची अन्यत्र दी हुई है। इस तरह अनेकान्तके अधिक प्राइक बनाकर बड़े बड़े ग्रन्थोंको भी उपहार में प्राप्त किया जा सकता है।
मैनेजर वीर सेवामन्दिर १ दरियागंज, देहली.
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समन्तभद्र-वचनामृत
[१०]
(श्रावक-पद) श्रावक-पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु। । यहाँ पर एक बात खासतौरसे ध्यानमें रखने योग्य है स्वगणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविद्धाः।।१३६ विवृद्धिको लिये हुए है अर्थात् एक पद अपने उस पदके
और वह यह कि ये पद अथवा गुणस्थान गुणोंको कम'श्रीतीर्थकरदेवने-भगवानवर्तुमानने-श्रावकोंके गुणोंके साथमें अपने पूर्ववर्ती पद या पदोंके सभी गुणोंको पद-प्रतिमारूप गुणस्थान--ग्यारह बतलाए हैं, जिनमें साथमें लिए रहता है-ऐसा नहीं कि 'भागे दौड़ पीने अपने-अपने गुणस्थानके गुण पूर्वके सम्पूर्ण गुणोंके चौड़' की नीतिको अपनाते हुए पूर्ववर्ती पद या पदोंके साथ क्रम-विशुद्ध होकर तिष्ठते हैं-उत्तरवर्ती गुण- गुणोंमें उपेश धारण की जाय, वे सब उत्तरवर्ती पदके स्थानों में पूर्ववर्ती गुणास्थानोंके सभी गुणोंका होना अनि- अंगभूत होते हैं-उनके विना उत्तरवर्ती पद अपूर्ण होता वार्य लाजिमी) है, तभी उस पद गुणस्थान अथवा है और इसलिये पदवृद्धिके साथ भागे कदम बढ़ाते हुए प्रतिमाके स्वरूपकी पूर्ति होती है।'
वे पूर्वगुण किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं होते-उनके
विषयमें जो सावधानी पूर्ववर्ती पद या पदोंमें रक्खी जाती व्याख्या--जो श्रावक-श्रेणियाँ आमतौर पर 'प्रतिमा' थी वही उत्तरवर्ती पद या पदोंमें भी रक्खी जानी के नामसे उल्लखित मिलती हैं उन्हें यहाँ 'श्रावकपदानि । पदके प्रयोग-द्वारा खासतौरसे 'श्रावकपद' के नामसे उल्लेखित किया गया है और यह पद-प्रयोग अपने विषयकी सुप्पष्टताका द्योतक है। श्रावकके इन पदोंकी भागमविहित मूल संख्या ग्यारह है-सारे श्रावक ग्यारह व में पंचगुरु चरण-शरणः दर्शनिकस्तत्वपथगृपः॥१३७ विभक्त है। ये दर्जे गुणोंकी अपेक्षा लिये हुए है और इस जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है अथवा निरतिचार लिये इन्हें श्रावकीय-गुणस्थान भी कहते हैं। दूसरे शब्दोंमें सम्यग्दर्शनका धारक है, संसारसे शरीरसे तथा भोगों यांकहना चाहिये कि चौदह सुप्रसिद्ध गुणस्थानोंमें श्रावकों से विरक्त है-उनमे प्रातक्ति नहीं रखता, पंचगुरुओंक से सम्बन्ध रखनेवाला 'देशसंयत' नामका जो पाचवां गुण- चरणोंकी शरणमं प्राप्त है-अर्हन्तादि पंचपरमेष्ठियाँके स्थान है उसीके ये सब उपभेद हैं। और इसलिये ये एक- पदों पद-वाक्यों अथवा प्राचारोंको अपाय-परिरक्षकके रूपम मात्र सल्लेखनाके भनुष्ठातासे सम्बन्ध नहीं रखते। अपना आश्रयभूत समझता हुआ उनका भक्त बना हुमा सरनेम्वनाका अनुष्ठाव तो प्रत्येक पदमें स्थित श्रावकके लिए है और जो तत्त्वपथकी ओर आकर्षित है-सम्यग्दविहित है, जैसा कि चारित्रसार के निम्नवाक्यसे भी जाना नादिरूप सम्माकी अथवा तस्वरूप अनेकान्त और जाता है
मार्गरूप अहिंसा' दोनोंकी पक्षको लिए हुए है-वह "उक्त रुपासकारणान्ति की सस्नेखना प्रीत्या सेव्या" 'दशनिक' नामका (प्रथमपद या प्रतिमा-धारक) -- - - - -
श्रावक है।' इस सम्बन्धकी बातको टीकाकार प्रमाचन्द्रने अपने निम्न प्रस्तावना-वाक्यके द्वारा व्यक्त किया है
+ "तत्वं वनेकान्तमशेषरूपं" (युक्स्पनुशासन) ___ “साम्प्रतं योऽसौ सालेखनाऽनुष्ठाता तस्य कतिप्रतिमा "एकान्तदृष्टिप्रतिधितस्वं" (स्वयम्भूस्तोत्र) भवन्तीपाशंक्याह-"
-इति समन्तभद्रः
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अनेकान्त
[किरण १
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व्याख्या-जिस सम्यग्दर्शनकी शुद्धिका यहाँ उल्लेख इसी ग्रन्थके तृतीय अध्ययनमें प्रयुक्त हुए 'रागद्वेषनिवृत्य है वह प्रायः उसी रूपमें यहाँ विक्षित है जिस रूपमें उसका चरणं प्रतिपद्यते साधुः' 'सकलं विकलं चरणं' और वर्णन इस प्रन्यके प्रथम अध्ययनमें किया गया है और 'अणु-गुण-शिक्षा-वनात्मकं चरण इन वाक्योंके प्रयोगसे इसलिए उसकी पुनरावृत्ति करने की जरूरत नहीं है। पूर्व- जाना जाता है। प्राचार दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और कारिकामें यह कहा गया है कि प्रत्येक पदके गुरु अपने वीर्य ऐसे पांच प्रकारका प्राचार शामिल है अपने अपने पूर्वगुणोंको साथमें लिये तिष्ठते हैं। इस पदसे पूर्व श्रावक- प्राचार-विशेषांके कारण ही ये पंचगुरु हमारे पूज्य और का कोई पद है नहीं, तब इस पदसे पूर्वके गुण कौनसे ? शरण्य है अतः इन पंचगुरुओंके प्राचारको अपनानावे गुण चतुर्थ-गुरुस्थानवर्ती 'अव्रतसम्यग्दृष्टि' के गुण हैं, उसे यथाशक्ति अपने जीवनका लक्ष्य बनाना ही वस्तुतः उन्हींका चोतन करनेके लिये प्रारम्भमें ही 'सम्यग्दर्शन- पंच गुरुत्रांकी शरण में प्राप्त होना है। पदोका आश्रय तो शुद्धः' इस पदका प्रयोग किया गया है। जो मनुष्य मम्य- सदा और सर्वत्र मिलता भी नहीं, प्राचारका अाश्रय, शरण्यग्दर्शनसे युक्त होता है उसकी रष्टिमे विकार न रहनेसे के सम्मुख मौजून न होते हुए भी, मदा और सर्वत्र लिया वह संसारको, शरीरको और भोगोंको उनके यथार्थ रूपमें जा सकता है। अतः चरणके दूसरे अर्थकी दृष्टिसं पंच देखता है और जो उन्हें यथार्थ रूपमें देखता है वही उनमें गुरुओंकी शरणमें प्राप्त होना अधिक महत्व रखता भासकिन रखनेके भावको अपना सकता है। उसी भाव है। जो जिन-चरणकी शरणमें प्राप्त होता है उसके लिये को अपनानेका यहाँ इस प्रथम पदधारी श्रावकके लिये मद्य-मांसादिक वर्जनीय हो जाते हैं; जैसा कि इसी ग्रन्थम विधान है। उसका यह अर्थ नहीं है कि वह एक दम अन्यत्र (का०५४) ............ मयंच वर्जनीयं जिनसंसार देह तथा भोगोंसे विरक्ति धारण करके वैरागी बन चरणो शरणमुपयातैः' इस वाक्यके द्वारा व्यक्त किया जाय, बक्कि यह अर्थ है कि वह उनसे सब प्रकारका सम्पर्क गया है। रखता और उन्हें सेवन करता हुश्रा भी उनमें आसक्त न
इस पदधारीक लिये प्रयुक्त हुआ 'तत्त्वपथगृह्यः' होवे-सदा ही अनासक्त रहनेका प्रयत्न तथा अभ्यास
विशेषण और भी महत्वपूर्ण है और वह इस बातको करता रहे। इसके लिये वह समय समय पर अनेक नियमों
सूचित करता है कि यह श्रावक सन्मार्गकी अथवा को ग्रहण कर लेता है, उन बारह व्रतामे से भी किसी
अनेकान्त और अहिंसा दोनोंकी पक्षको लिये हुए होता किसीका अथवा सबका खण्डशः अभ्यास करना है जिनका है। ये दोनों ही सन्मार्गके अथवा जिनशासनके दो निरतिचार पालन उसे अगले पदम करता है और इसतरह वह अपनी प्रात्मशक्तिको विकसित तथा स्थिर करनेका कुछ उपाय इस पदमें प्रारम्भ कर देता है। दूसरे शब्दामें निरतिक्रमणमणुव्रत-पंचकमपि शीलसप्तकः चाऽपि यो कहिये कि वह नियमित रूपसे मांसादिके त्यागरूपमें धारयते निःशल्योयोऽसौ वतिनां मतो व्रतिकः॥१३८ मसगुणांका धारण-पालन शुरू कर देता है जिनका कथन 'जो श्रावक निःशल्य मिथ्या, माया, और निदान इस ग्रन्थमें पहले किया जा चुका है और यह सब 'संमार
नगर नामकी तीनों शल्योंसे रहित) हुश्रा विना अतीचारके शरीर-भोग-निविण्णः' और 'पंच गुरु चरण-शरणः' इन पांचों अणवतो आर साथ ही सात! शीलव्रतांका दोनों पदोंके प्रयोगसे साफ ध्यानत होता है। पंच गुरुग्राम
भा धारण करता है यह व्रतियों-गणधरादिक देवों के महंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच
द्वारा व्रतीक पदका धारक (द्वितीय भावक) माना भागमविहित परमेष्ठियांका अर्थात् धर्म गुरुमका समा
गया है।' वेश है-माता-पितादिक लौकिक गुरुवांका नहीं। चरण'
व्याख्या-यहां 'शोलसप्तक' पदके द्वारा तीन गुणशब्द पामतौर पर पदों-पैरोका वाचक है, पद शरीरके निम्न (नीचेके) भंग होते हैं, उनकी शरणमें प्रास होना
प्रतों और चार शिक्षाप्रतोंका प्रहण है-दोनों प्रकारके शरण्यके प्रति प्रति विनय तथा विनम्रताके भावका घोतक दसण-णाण-चरिते तम्वे विरियाचारम्हि पंचविहे । है। चरणका दूसरा प्रसिद्ध अर्थ 'माचार' भीद, जैसा कि
-मूलाचार५-२
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समन्तभद्र-वचनामृत
व्रतोंके लिए मंयुक्त एक संज्ञा 'शोल' है और सप्तक शब्द तीनों योगोंको शुद्धि पूर्वक तीनों सध्याओं (पूर्वान्ह, उन व्रतोंकी मिली हुई संख्याका सूचक है। तस्वार्थसूत्र में मध्यान्ह, अपरान्ह) के समय वन्दना-क्रिया करता है वह भी 'व्रत-शीलेषु पंच पंच ययाक्रम' इस सूत्रके द्वारा इन 'सायिक' नामका--ततोयप्रतिमाधारी-श्रावक है।' सातों वतीको 'शोल' संज्ञा दी गई है। इन सप्तशील व्रता व्याख्या-यहाँ भागम-विहित कुछ समयाचारका और पंच अणुवताको जिनका अतीचार-सहित वर्णन इस सांकेतिक रूपले उल्लेख है, जो प्रावता, प्रणामों, कायोअन्यमें है पहले किया जा चुका है,यह द्वितीय श्रावक निरति- मर्गों तथा उपवेशना श्रादिल संबद्ध है, जिनकी ठीक विधि चाररूपसे धारण-पालन करता है। इन बारह व्रतो और व्यवस्था विशेषज्ञोके द्वारा हो जानी जा सकती है। श्रीउनके साठ भतीचाराका विशेष वर्णन इस प्रन्धमे पहले प्रभाचन्द्राचार्यने टीकामे जो कुछ मूचित किया है उसका किया जा चुका है, उसको फिरम यहां देनेकी जरूरत मार इतना ही है कि एक एक कार्योत्सर्गके विधानमें जो नहीं है। यहां पर इतना ही समझ लेना चाहिये कि इस 'णमा अरहन्तागणं' इत्यादि सामायिक • दण्डक और पद (प्रतिमा) के पूर्व में जिन बारह बनोका सातिचार- 'थाम्सामि' इत्यादि स्नव-दराडककी व्यवस्था है उन दोनांके निरतिचारादिके यथेच्छ रूपम खण्डशः अनुष्ठान या आदि और शन्तमें तीन तीन श्रावके साथ एक एक अभ्यास चना करता है वे इस परम पूर्णताको प्राप्त होकर प्रणाम किया जाता है, इस तरह बारह श्रावर्त और चार सुव्यवस्थित होते हैं।
प्रणाम करने होते हैं। माथ ही, देववन्दनाके भादि तथा ___यहां 'निःशल्यो' पद खास तौरस ध्यान में लेने योग्य
अन्त में जो दो उपपेशन क्रियाएँ की जाती है उनमें एक है और इस बातको सूचित करता है कि प्रतिककेलिये नमस्कार प्रारम्भ की क्रियाम और दूसरा अन्तकी क्रियाम निःशक्य होना अत्यन्त आवश्यक है । जो शल्परहित नही
बैठकर किया जाता है। इस २० श्राशाधरजीने मतभेदके वह व्रती नहीं-व्रतोंके वास्तविक फलका उपभोक्ता नहीं हो रूपम उल्लाखत करन हुए यह प्रकट किया कि स्वामी सकता । तत्वार्थसत्र में भी निःशल्यो व्रती सनद्वारा समन्तभद्रादिके मतसे वन्दनाकी आदि और समाप्तिके इन ऐसा ही भाव व्यक्त किया गया है। शल्य तीन हैं-माया, दो अवसरों पर दो प्रणाम बैठ कर किये जाते हैं और इसके मिथ्या और निदान । 'माया' बंचना एवं कपटाचारको लिये प्रभाचन्द्रकी टीकाका प्राधार व्यक्त किया है. इस कहते हैं, 'मिथ्या' रष्टिविकार अथवा तत्तविषयक तत्व
मरह यह जाना जाता है कि चारी दिशाग्रीमें तीन तीन श्रद्धाके अभावका नाम है और 'निदान' भावी भागांकी भावोंके माय एक एक प्रणामकी जो प्रथा भाजकल श्राकांक्षाका चानक ये तीनों शल्यकी तरह चभने वाली प्रचलित है वह स्वामि समभद्र-सम्मत नहीं है। तथा बाधा करने वाली चीज है, इसीये इनकी 'शल्य दोनों हाथोंगे मुकलिन करके-कमल कलिकादिके कहा गया है। बतानुष्ठान करने वालंकी इन तीनोम ही- रूपम स्थापन करक-जा उन्त प्रदक्षिणाक रूपम तान रहित होना चाहिए। तभो उसका बतानुष्ठान मार्थक ही बार घुमाना है उसे श्रावनेत्रितय (तीन बार प्रावते सकता है। केवल हिमादिकके त्यागसे ही कोई व्रती नहीं करना) कहते हैं। यह प्रावर्तप्रितयकर्म, जो वन्दनाबन सकता, यदि उपके साथ मायादि शक्य लगी हुई हैं। मुद्रामे कुहनियाको उदर पर रख कर किया जाता है, मन चतुरावर्त-त्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः। 'मतान्तर माह-मत इष्ट, के हुनती। के कैश्चित
स्वामिसमन्तभद्रादिभिः। कस्मात्रमनात् प्रणमनात् । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी किं कृत्वा ? निवश्य उपविश्य । कयोः । बन्दना
जो श्रावक (पागम विहित समयाचारके अनुसार) चन्तयांवन्दनायाः प्रारम्भे समाती च । यथास्तत्र तीन तीन श्रावतोंके चार बार किये जानकी, चार भगवन्तः श्रीमह भेन्दुदेवपादा रस्नकरयशक-टीकार्या प्रणामांकी. उर्व कायोत्सर्गी तथा दो निपद्याश्री (उप- 'चतुरावतंग्रिनय' इत्यादिसूत्रे द्विनिषय इत्यस्य वेशनों) की व्यवस्थासे व्यवस्थित और यथाजातरूपमें व्याख्याने 'देववन्दनां कुर्वना हि प्रारम्भे समाप्तौ चोप-दिगम्बरवेषमें अथवा बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहकी चिन्तासे विश्य प्रणामः कर्तब्य इनि'। विनिवृत्तिको अवस्थामें स्थित हुआ मन-वचन-क यरूप
-नगारधर्मामृत टीका पु.५००।
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भनेकान्त
[किरण
वक्षन-कायरूप तीनो योगोंके परावर्तनका सूचक है। और प्रत्येक मासके चारों ही पर्व-दिनोंमें प्रत्येक परावर्तन योगोंकी संयतावस्थाका घोतक शुभ व्यापार मष्टमी-चतुर्दशीको-जो श्रावक अपनी शक्तिको न कहलाता है, ऐसा पं० श्राशाधरजीने प्रकट किया है। द्विपाकर, शुभ ध्यानमें रत हा एकापताके साथ ऐसी हालत में 'मावर्तत्रिनय' पदका प्रयोग वन्दनीयके प्रोषधके नियमका विधान करता अथवा नियमसे प्रति भक्तिभावक चिन्हरूपमें तीन प्रदक्षिणामोंका प्रोषधोपवास धारण करता है वह 'ग्राषधोपवास' पदपोतक न होकर त्रियोगशुद्धिका घोतक है ऐसा फलित का धारक (चतुर्थ श्रावक) होता है। होता है। परन्तु 'त्रियोगशुद्धः' पद तो इस कारिकामे व्याख्या-द्वितीय 'प्रतिक' पदमें प्रोषधोपवासका अजगमे पड़ा हुआ है, फिर दोबारा त्रियोगशुद्धिका द्योतन निरतिचार विधान पा गया है तब उसीको पुनः एक अलग वैसा? इस प्रश्नके समाधान रूपमें कुछ विद्वानोंका कहना पद (प्रतिमा) के रूप में यहाँ रखना क्या अर्थ रखता है? है कि "प्रावतंत्रितय में निहित मन-वचन काय-शुद्धि यह एक प्रश्न है। इसका समाधान इतना ही है कि प्रथम कृतिकर्मकी अपेक्षा है और यहाँ जो त्रियोग-शुद्धः पदसे तो व्रत-प्रतिमामें ऐसा कोई नियम नहीं है कि प्रत्येक मासमन-वचन-कायको शुद्धिका उल्लेख किया है वह सामायिक की अष्टमी-चतुर्दशीको यह उपवास किया ही आवे-वह की अपेक्षासे है। परन्तु कृतिकर्म (कर्मवेदनांपाय) तो वहाँ किसी महीने में अथवा किसी महीनेके किसी पर्व दिनसामायिकका अंग है और उस अंगमें द्वादशावतसे भित्र में स्वेच्छासे नहीं भी किया जा सकता है। परन्तु इस पदत्रियोगशुद्धिको अलगसे गिनाया गया है। तब 'नियोग- में स्थित होने पर, शक्तिके रहते, प्रत्येक महीनेके चारों ही शुद्धः पदके वाथ्यको उसमे अलग कम किया जा सकता पर्वदिनों में नियमसे उसे करना होता है-केवल शक्तिका है? यह एक समस्या खड़ी होती है। अम्नु ।
वास्तविक प्रभाव ही उसके न करने अथवा अधूरे रूपसे 'यथाजातः' पद भी यहां विचारणीय है । श्राम तौर करनेमे यहाँ एकमात्र कारण हो सकता है। दूसरे वहाँ पर जैन परिभाषाके अनुसार इसका अर्थ जम्म-समयको (दूसरी प्रतिमामें) वह शीलके रूपमें-अणुवतोंकी रषिका अवस्था-जैसा नग्न-दिगम्बर होता है। परन्तु श्राचार्य परिधि (बाड़) की अवस्थामें-स्थितऔर यहाँ एक प्रभाचन्द्रने टीकामें 'बाद्याभ्यन्तरपरिप्रहचिन्ताव्यावृत्तः स्वतन्त्र व्रतके रूपमें ( स्वयं शस्य के समान रमणीयपदके द्वारा इसका 'बाह्य तथा अभ्यंतर दोनों प्रकार स्थितिमें) परिगणित है । यही दोनों स्थानोंका अन्तर है। के परिग्रहोंकी चिन्तासे विमुक्त' बतलाया है और पाजकल .. कवि राजमालजीने 'लाटीसंहिता' में अन्तरकी प्रायः इसीके अनुसार व्यवहार चल रहा है। परिस्थिति- जो एक बात यह कही है कि दूसरी प्रतिमामें यह व्रत साति वश पं० श्राशाधरजीने भी इसी अर्थको प्रहण किया है। चार है और यहाँ निरतिचार है ('सातिचारं च तत्र
इस सामायिक पदमें, सामायिक शिक्षाप्रतका वह सब स्यादत्राऽतीचार वर्मितं) वह स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिसे श्राचार शामिल है जो पहले इस ग्रन्थमे बतलाया गया कुछ संगत मालूम नहीं होती; क्योंकि उन्होंने दूसरी प्रतिहै। वहां वह शीलके रूप में है तो यहाँ उसे स्वतन्त्र प्रतके मामें निरांतक्रमणं' पदको अलगसे 'अणुवतपयक' और रूपमं व्यवस्थित समझना चाहिए।
'शोलसप्तक' इन दोनों पदोंके विशेषण रूपमें रक्खा है पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुष ।
और उसके द्वारा अणुव्रतोंकी तरह सप्तशीलोंको भी निरति
चार बतलाया है। यदि व्रतप्रतिमामें शीलवत निरतिचार प्रोषध-नियम-विधायीप्रणधिपर:प्रोषधाऽनशनः१४०
नहीं है तो फिर देशावकाशिक, बैय्यावृत्य और गुणवतों 1. कथिता दावशावर्ता वपुर्वचनचेतसा ।
की भी निरविचारता कहाँ जाकर सिद्ध होगी? कोई भी स्तव-सामायिकान्तपरावर्तनजक्षणा -अमितगतिः पद (प्रतिमा) उनके विधानको लिए हुए नहीं है। शुभयोग-परावर्तानावान् दावशाधन्ते।
प्राशाधरजीने भी प्रतिमामें बारह व्रतोंको निरतिचार साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोजगीः संवतं परावय॑म ॥ प्रतिपादन किया है। ३. द्विनिषण्णं यथाजा द्वादशावर्तमित्यपि ।
१. यथा-'धारयन्नुत्तरगुणावणान्प्रतिको भवेत् ।' चतुर्नति विश्वं कृतिकम प्रयोजयेत् ॥-चारित्रसारः टीमणान् निरतिचारान् ।
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किरण १]
समन्तभद्र-वचनामृत
[७
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उपवासके दिन जिन कार्योंके न करनेका तथा जिन खाद्य २ अन्नभिन दूसरे खानेके पदार्थ जैसे पेदा, बर्फी, कार्याक करनेका विधान इस ग्रन्थमें शिक्षावतोंका वर्णन लौजात, पाक, मेवा, फल, मुरब्बा इलायची, पान, सुपारी करते हुए किया गया है उनका वह विधि-निषेध यहाँ आदि और लेह्य चटनी, शर्बत, रबड़ी भादि (इन चार भी प्रोषध-नियम-विधायी' पदके अंतर्गत समझना चाहिये। प्रकारके भोज्य पदार्थों ) को नहीं खाता है वह प्राणियों मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि। में दयाभाव रखने वाला 'रात्रिभुक्तिविरत' नामके कुठे
पदका धारक श्रावक होता है।' नामानि योऽचिसोऽयं सचिनविरतो दयामूर्तिः१४१
व्याख्या-यहां 'सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः' पदका जो 'जो दयालु ( गृहस्थ) मून, फल, शाक, शाखा प्रयोग किया गया है वह इस व्रतके अनुष्ठानमें जीवों (कोपब) करीर गांठ-कैरों), कन्द, फूल और बीज, पर दयारष्टिका निर्देशक है; और 'सस्वेषु' पद विधिमा इनको कच्चे (अनग्नि पक्व भादि अमाशुक दशामें) किसी विशेषसके प्रयुक्त हुना है इसलिए उसमें अपने नहीं खाता वह 'सचित्तविरत' पदका-पांचवीं प्रतिमाका
जीवका भी समावेश होता है । रात्रिभोजनके स्वागसे धारक श्रावक होता है।
जहां दूसरे जीवोंकी अनुकम्पा बनती है वहां अपनी भी व्याख्या-यहाँ 'प्रामानि' और 'न पत्ति' ये दो पद अनुकम्पा सधनी है-रात्रिको भोजनकी तलाश में निकले खास तौरसे ध्यान में लेने योग्य हैं। 'प्रामानि पद हुए. अनेका विषले जन्तुओंके भोजनके माथ पेटमें चले अपक्य एवं अप्रामुक अर्थका योतक है और न अति जानेसे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होकर शरीर तथा पद भक्षणके निषेधका वाचक है, और इसलिये वह मनकी शुद्धिको जो हानि पहुंचाते है उससे अपनी निषेध उन अप्रासुक (सचित्त) पदार्थोके एकमात्र भक्षण- रा होनी है। शेप इन्द्रियोका जो संयम बन पाता है से सम्बन्ध रखता है-स्पर्शनादिकसे नहीं -जिनका इस और उमसे श्राग्माका जो विकास सधता है उसकी तो बात कारिकामें उल्लेख है। वे पदार्थ वानस्पतिक है, जलादिक ही अलग है। इसीसे इस पदके पूर्व में बहुधा लोग प्रमादिनहीं और उनमें कन्द-मूल भी शामिल है। इससे यह स्पष्ट के त्यागरूपमें ग्बगडशः इस व्रतका अभ्यास करते है। जाना जाता है कि ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रकी मलबीजं मलयोनि गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम् । दृष्टिमें यह भावकपद (प्रतिमा) अप्रासुक वनस्पतिक भक्षण-त्याग तक सीमित है, उसमें अप्रासुकको प्रासक पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥१४३ करने और प्रासुक बनस्पतिके भक्षणका निषेध नहीं है। जो श्रावक शरीरको मलबीज-शुक्र शोणितादि'प्रातकस्य भक्षणे नो पाप:' इस उक्तिके अनुसार प्रासुक मलमय कारणोंमे उत्पन हुश्रा-मल योनि--मलका (अचित्त) के भक्षण में कोई पाप भी नहीं होता । अप्रा- उत्पत्तिस्थान-गलन्मल मलका झरना-दुर्गम्भ-युक्त सुक कैसे प्रासुक बनता अथवा किया जाता है इसका कुछ और बीभत्म-घृणास्मक-देवता हुआ कामसे-मथुन विशेष वर्णन ८५ वी कारिकाकी व्याख्यामें किया जा कर्मसे-विरक्ति धारण करता है वह ब्रह्मचारी पद (मात
वी प्रतिमा)का धारक होता है।' अन्नं पानं खाद्य लेद्य नाश्नाति यो विभावर्याम्। व्याख्या-यहाँ कामके जिस अंगके साथ रमणस च रात्रिभुक्तविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः।१४२
करके मंसारी जीव प्रारम-विस्मरण किये रहते है उसके
स्वरूपका अच्छा विश्लेषण करते हुए यह दर्शाया गया। 'जो श्रावक रात्रिके समय अन्नं-प्रम तथा प्रमा- कि वह अंग विवेकी पुरुषों के लिए रमने योग्य कोई वस्तु दिनिर्मित या विमिश्रित भोजन-पान-जल-दुग्ध-सादिक, -
२ खायके स्थान पर कहीं कहीं 'स्वाथ' पाठ मिलता भयेन सचित्तस्य नियमो न तु स्पर्शने ।
है जो समुचित प्रतीत नहीं होता । टीकाकार प्रभाषयने तत्स्वहस्वादिना कृत्वा प्रासुकं चाऽत्र भोजयेत् ॥
मी 'माय' पदका ग्रहण करके उसका अर्थ मोदकादि -लाटीसंहिता 0-10 किया है जिन्हें श्रमिक समझना चाहिए।
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]
भनेकान्त
[किरण १
वापत रहा है, यह एक
. उस दृष्टिको मात्माम
जागृत और तदन
नहीं-बहनो घृणाकी चीज है, और इमलिये उसे इस लाटीसंहिताके का कवि राजमरज भारम्भके प्रकार-विषयघृणामक प्टिमे दंग्यता मा जो मैथुन कर्मसे अरुचि- में मौन हैं और प्राचार्य वसुनन्दीने एकमात्र 'गृहारम्भ' धारण करके उस विषयमं सदा विरत रहता है यह कह कर ही छुट्टी पानी है। ऐसी हालतमें 'प्रमुख' शब्दके 'प्रहाचारी' नामका सप्तम-प्रतिमा धारक श्रावक होता है। द्वारा नोमिक
द्वारा दूसरे किन पारम्भीका प्रहण यहाँ अन्धकार महोदय
i mm वस्तुनः कामांगको जिस टिम दंग्वनेका यहाँ उल्लेख को विचित रहा. यह एक विचारणीय विषय है।हो
वहबदा ही महत्वपूर्ण है । उस दृष्टिकी भास्माम सकता है कि उनमें शिल्प और पशुपालन जैसे प्रारम्भोंका जागृत और तदनुकल भावनात्रांमे भावित एवं पुष्ट करके भी समावेश हो; क्योंकि कथनक्रमको देखते हुए प्रायः जो प्राचारी बनता है वह बहाचर्य पदमें स्थिर रहना है, आजीविका-सम्बन्धी प्रारम्भ ही यहाँ विवचित जान पड़ते अन्यथा उस पर होनेकी संभावना बनी रहती है। मिलांके महारम्भका तो उनमें सहज ही समावेश हो सपा पारी स्व-परादिरूपमें किमी भी स्त्री का कभी जाता है और इसलिये वे हम प्रतधारीके लिए सर्वथा मेवन नहीं करता है । प्रन्युन इसके, महामें-शुद्धाश्मामें- त्याज्य ठहरते हैं। अपनी चर्याको बढ़ाकर अपने नामको सार्थक करता है। रही अब पंचमूनायोकी बात, जो कि गृहस्थ जीवनके सेवा-कृषि-वाणिज्य-प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । अंग है, सूक्ष्मदृष्टिसे यद्यपि उनका समावेश भारम्भौम प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भ-विनिवृत्तः॥१४४ हो जाता है परन्तु इमी प्रन्यमें वैयावृत्यका वर्णन करते
'जो श्रावक एसी संवा और वाणिज्यादरूप हुए अप-मूनाऽऽरम्भाणामायाणामिप्यत दान' वाक्यम भारम्भ-प्रतिसे विरक्त होता है जो प्राणपीडकी प्रयुक्त हुए 'अपमूनारम्भारणां' पदमें मूनायोंको प्रारम्भोंसे हेतुभूत है घह 'आरम्भ-त्यागी' (८ पदका अधि
पृथक रूपमें ग्रहण किया है और इससे यह बात स्पष्ट कारी ।
जानी जानी है कि स्थूल दृष्टिम मूनाांका प्रारम्भोंमें ममाव्याख्या-यहाँ जिस पारम्भ विरकि धारण करने वेश नहीं है । तब यहां विवक्षित प्रारम्भोंमें उनका समाकी बात कही गई है उसके लिये दो विशेषण पदोंका प्रयोग वेश विवक्षित देया कि नहीं, यह बात भी विचारणीय हो किया गया है-क वा-कृषि-वाणिज्य प्रमुखा' और जाती है और इसका विचार विद्वानोंको समन्तभद्रकी दृष्टिदुसरा प्राणतिपात हवी। पहले विशेषणमें प्रारम्भके सही करना चाहिये । कपि राजमरनजीने इस प्रतिमाम कुछ प्रकारोंका उल्लेख है, जिनमें मंबा, कृषि और वाणिज्य
अपने तथा परके लिये की जाने वाली उप क्रियाका निषेध ये तीन प्रकार तां स्पष्ट रूपये उल्लेखित हैं. दूसरे और
किया। जिसमें लेगमात्र भी प्रारम्भ हो, परन्तु स्वयं कौनसे प्रकार हैं जिनका सं+न 'प्रमुम्ब' शटनके प्रयोग द्वारा
ये ही यह भी लिखने है कि वह अपने वस्त्रोंको स्वयं किया गया है, यह स्पष्ट है । टीकाकार प्रभाचन्द्रन भी
अपने हाथामे सुक जलानिके द्वारा धो सकता है क्या उसको स्पष्ट नहीं किया। चामुण्डरायने अपन चारिग्रसारम
किसी साधर्मासे धुला सकता हैx; ब क्या गुन्द्र अग्नि
जलसं कूकर मादिके द्वारा बह अपना भोजन भी स्वयं जहाँ इस ग्रन्थका बदुन कुछ शब्दशः अनुसत्या किया है वहाँ वे भी इसके स्पष्टीकरणकी छांट गए हैं। पंडित मन
प्रस्तुत नहीं कर सकता! पायाधरजीका भी अपने मागारबर्मामृतकी टीकामें ऐसा ही
दूसरा विशेषण प्रारम्भीके त्यागकी टिको लिए हाल 'अनुप्रेक्षा' पता स्वामी कार्तिकेय और हर
हुए है और इस बातको बतलाता है कि संवा-कृषि-वाणि
- ज्यादिक रूपमे जो प्रारम्भ यहाँ विवचित है उनमें ही . उन्होंने इतना ही जिम्बाई कि-"भारम्भविनिवृत्तिोंड
भारम्भ त्याश्य है जो प्राणघातके कारण है जो किसीके सिमसि-कृषि वाणिज्य प्रमुखादारम्भात् प्राणानिपातहेवोर्विरवो भवति ।" यहाँ सेवाको जगह असि, मसि ® "बहुप्रज्ञपितेनानमारमा बा परामने।
काँकी सूचना की गई है। शेष सबज्योंकायों। पत्रारम्भस्य शोजस्तनकुन्तामपि नियाम् ॥" x वे अपने 'कण्यादीन पदकी व्याख्या करते हुए लिखते : "प्रक्षालच वस्त्राणां प्रासुकेन जबादिना । है-'कृषि-मेवा-वाणिज्यारिण्यापारम्'
कुर्याद्वा स्वस्यहस्ताम्यां कारयेदा सर्मिना।"
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फिर ११
प्राणघात कारण नहीं पढ़ते वे सेवादिक धारम्भ स्याज्य नहीं हैं। और इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि इन सेवादिक आरम्भोंके दो भेद हैं- एक वे जो प्राणघातले कारव्य होते हैं और दूसरे वे जो प्रायघात में कारण नहीं होते | wतः विवचित चारम्भों में विवेक करके उन्हीं आरम्भको यहाँ त्यागना चाहिए जो प्राणातिपातके हेतु होते हैं—शेष भारम्भ जो विवक्षित नहीं है तथा जो प्राणघातके हेतु नहीं उनके त्यागकी यहाँ कोई बात नहीं है। इस विशेषसके द्वारा प्रतीके विवेकको भारी चुनौती दी गई है।
बाह्य ेषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः संतोषपरः परिचित्त परिग्रहाद्विरतः || १४५||
समन्तभद्र-वचनामृत
'जो दस प्रकारकी बाह्य वस्तुओं में धन-धान्यादि परिग्रहोंमें - ममत्वको छोड़कर निर्ममभावमें रत रहता हे, स्वात्मस्थ है-पास पदार्थोंको अपने मानकर भटकता नहीं - और परिग्रहकी आकांक्षा से निवृ हुआ संतोष धारणमें तत्पर है वह 'परिचिप्तपरिग्रहविरत' - सब ओरसे में बसे हुए परिप्रशंसे विरक्त - ६ वें पदका अधिकारी श्रावक है।"
[ε
अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा । नास्ति खत्रु यस्य समधीरनुमतिविरतः समन्तव्यः-६
व्याख्या - यहां जिन दस प्रकारको बाह्य वस्तुओंका सांकेतिक रूपमें उल्लेख है वे वही बाह्य परिग्रह है जिनका परिग्रहात ग्रहण के अवसर पर अपने लिये परिमाण किया गया था और जो अपने ममत्वका विषय बने हुए थे। उन्हींको यहां 'परिचितपरिग्रह' कहा गया है और उन्हींसे विरक्ति धारणका इस नवम पदमें स्थित श्रावकके लिए विधान है। उसके लिए इतना ही करना होता है कि उन चित्त में बसी हुई परिग्रहरूप वस्तुसे ममरत्रको - मेरापन के भावको हटाकर निर्ममत्वके अभ्यासमें लीन हुआ जाय। इसके लिए 'स्वस्थ' और 'सन्तोषतत्पर होना बहुत ही आवश्यक है । जब तक मनुष्य अपने आत्माको पहचान कर उसमें स्थित नहीं होता तब
तक पर-पदार्थोंमें उसका भटकाव बना रहता है । वह
उन्हें अपने समझकर उनके ग्रहयकी आकांक्षाको बनाए रखता है। इसी तरह जब तक सन्तोष नहीं होता तब तक परिग्रहका त्याग करके उसे सुख नहीं मिलता और सुख न मिलनेले वह त्याग एक प्रकारसे व्यर्थ हो जाता है।
'जिसकी निश्चयसे आरम्भ में कृष्यादि सावधकमोंमें, परिग्रह में धन धान्यादिरूप दम प्रकारके बाझ पदार्थोंके महयादिक में और लौकिक कार्योंमेंविवाहादि तथा पंचसूनादि जैसे दुनियादारीके कामों में-अनुमति करने-कराने की सलाह, अनुशा, पाहा - नहीं होती वह रागादि-रहित- बुद्धिका धारक 'अनुमतिविरत' नामका - दशम पदस्थित - श्रावक माना गया है ।"
व्याख्या- यहां 'आरम्भे' पदके द्वारा उन्हीं आरंभीका ग्रहण है जो प्राथातिपातके हेतु हैं और जिनके स्वयं न करनेका प्रत नवमपदको ग्रहण करते हुए लिया गया था। इस पदमें दूसरोंको उनके करने-कराने की अनुमति आशा अथवा सलाह देनेका भी निषेध है । 'परिग्रहे' पदमें दसों प्रकारके सभी बाह्य परिग्रह शामिल हैं और 'ऐहिकेषु कर्मसु' इन दो पदोंमें आरम्भ तथा परिग्रहले भिन दूसरे ( विवाहादि जैसे ) लौकिक कार्योंका समावेश हैपारलौकिक अथवा धार्मिक कार्योंका नहीं । इन लौकिक कार्योंके करने-कराने में इस पदका धारी श्रावक जब अपनी कोई अनुमति या सलाह नहीं देता तब कहकर या आदेश देकर कराने की तो बात ही दूर है। परन्तु पारलौकिक अथवा धार्मिक कार्योंके विषयमें उसके लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है उनमें वह अनुमति दे सकता है और दूसरोंसे कहकर करा भी सकता है।
यहां इस पदधारीके लिए 'समधी:' पदका प्रयोग अपना खास महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि वह दूसरोंके द्वारा इन प्रारम्भ-परिग्रह तथा ऐहिक कम होने न होनेमें अपना समभाव रखता । यदि वह समभाव न रक्खे तो उसे रागद्वेषमें पढ़ना पड़े और तब अनुमतिका न देना उसके लिए कठिन हो जाय । अतः समभाव उसके इस व्रतका बहुत बड़ा रक्षक है। गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृक्ष । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेल ख एडधरः || १४७||
'जो श्रावक घरसे मुनिवनको जाकर और गुरुके निकट व्रतोंको प्रहण करके तपस्या करता हुआ
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अनेकान्त
किरण १]
जान पड़ता है। क्योंकि स्वामा समम्मको बदमा समूह अर्थ अभिमत न होना तो वे सोबा 'भिकाशन' पद ही रख कर सन्तुष्ट हो जाने-उतने से ही उनका काम चल जाता । उसके स्थान पर 'भैच्याशनः' जैजा क्लिष्ट और भारी पद रखने को उन जैसे सूत्रात्मक लेखकोंको जरूरत न होती -खास कर ऐसी हालत में जबकि छन्दादिकी दृष्टिसे भी वैसा करने की जरूरत नहीं थी। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने अपने सुपा उत्कृष्ट आवकके जिंगका निर्देश करते हुए जो उसे भिक्वं ममे पत्तो' जैसे वाक्यकेद्वारा पात्र हाथमें लेकर मिक्षाके लिये भ्रमण करने वाला लिखा है उससे भी प्राचीन समय अनेक घरोंसे मिला लेनेकी प्रथाका पता चलता है । भ्रामरी वृत्ति द्वारा अनेक घरोंसे भिक्षा लेनेके कारण किसीको कष्ट नहीं पहुँचता, व्यर्थके आडम्बरको अवसर नहीं मिलना और भोजन भी प्रायः अनुद्दिष्ट मिल जाता है। 'तपस्थन्' पद उस बाह्याभ्यन्तर पर पराका योतक है जो कमीका निमूलन करके आत्मविकासको सिद्ध करनेके लिये यथाशक्ति किया जाता है और जिसमें अनशनादि बाह्य तपश्चरोंकी अपेक्षा स्वाध्याय तथा ध्यानादिक श्रभ्यन्तर तपको अधिक महत्व प्राप्त है। बाह्य तपमा अभ्यन्तर तपकी वृद्धि के लिए किये जाते हैं । यहाँ इस व्रतधारीके लिये उद्दिष्टविरत या मुलक जैसा कोई नाम न देकर जो 'उत्कृष्ट' पदका प्रयोग किया गया है वह भी अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातको सूचित करता है कि स्वामी समन्तभद्र अपने इस व्रतीको तुल्लकादि न कह कर 'उत्कृष्ट श्रावक' कहना अधिक उचित और उपयुक्त समझते थे । धावकका यह पद जो पहलेसे एक रूपमें था समन्तभइसे बहुत समय बाद दो भागों में विभक्त हुआ पाया जाता है, जिनमेंसे एकको अाजकल 'पुल्लक' और दूसरे को 'ऐलक' कहते हैं । ऐलक पदकी कल्पना बहुत पीछे की है ।
पापमरातिर्धर्मो बन्धुजीवस्य चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्रयोज्ञाता ध्रुवं भवति ॥१४८
१०]
मैक्ष्य-भोजन करता है-मिचाद्वारा ग्रहीत भोजन लेता अथवा अनेक घरोंसे भिक्षा-भोजन लेकर अन्तके घर या एक स्थान पर बैठकर उसे खाता हूं और वस्त्र खण्डका धारक होता है-अधूरी छोटी चादर ( शाटक ) अथवा कोपीन मात्र धारण करता है-वह 'उत्कृष्ट' नामका व्यारहवें पद (प्रतिमा) का धारक सबसे ऊंचे दर्जेकाआवक होता ६"
व्याख्या- यहां मुनियनको जानेकी जो बात कही गई है वह इस तथ्य को सूचित करती है कि जिस समय यह ग्रन्थ बना है उस प्राचीनकाल में जैन मुनिजन वनमें रहा करते थे चैत्यवासादिकी कोई प्रथा प्रारम्भ नहीं हुई थी । घरसे निकल कर तथा मुनिवनमें जाकर ही इस पदके योग्य सभी बाँको ग्रहण किया जाता था जो बत पहलेसे ग्रहण किए होते थे उन्हें फिरसे दोहराया अथवा नवीनीकृत किया जाता था। बहकी यह सब किया गुरुसमीपमें- किसीको गुरु बनाकर उसके निकट श्रथवा गुरुजनोंको साथी करके उनके सानिध्य में की जाती थी। आजकल सुनिजन अनगारित्व धर्मको छोड़ कर प्रायः मन्दिरा मठों तथा गृहोंमें रहने लगे हैं अतः उनके पास वहाँ जाकर उनकी साचो अथवा अर्हतको प्रतीकभूत किसी विशिष्ट जनप्रतिमा के सम्मुख जाकर उसकी साक्षी से इस पदके योग्य व्रतोंको ग्रहण करना चाहिये ।
इस पदधारीके लिए 'भैश्वाशन:'- 'तपस्यन्' और 'लधरः' ये तीन विशेष खास तीरसे ध्यान में लेने योग्य हैं। पहला विशेषण उसके भोजनकी स्थितिका, दूसरा साधनाके रूपका और तीसर बाह्य वेष का सूचक है। वेधकी दृष्टिसे वह एक वस्त्रखण्डका धारक होता है, जिसका रूप या तो एक ऐसी छोटी चादर जैसा होता है जिससे पूरा शरीर ढका न जा सके-सिर ठका तो पैरो यादिनांचे भाग सुख गया और नीचेका भाग ढका
सिर आदिका ऊपरका भाग खुल गया और या वह एक संगोटीके रूपमें होता है जो कि उस वस्त्रखडकी चरम स्थिति है | 'भैer' शब्द भिक्षा और 'भिक्षा समूह' इन दोनों ही अर्थोंमें प्रयुक्त होता है प्रभाचन्द्र ने अपनी टीका 'भिक्षायां समूहो भैच्यं' इस निकके द्वारा 'मिक्षासमूह' अर्थका ही महय किया है और वह ठीक * "भिचैव तत्समूहो या भए वामन शिवराम - एप्टेकी संस्कृत इंगलिश डिक्शनरी ।
x देखो, 'देशक पदकश्पना' नामका वह विस्तृत निबन्ध जो अनेकान्त बर्ष १० वें की संयुक्त किरण ११-१२ में प्रकाशित हुआ है और जिसमें इस ११ वीं प्रतिमाका बहुत कुछ इतिहास आगया है।
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किरण १] समन्तभद्र-वचनामृत
[१
- - - ___ 'जीवका शत्रु पाप-मिथ्यादर्शनादिक-और बन्धु सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव । (मित्र) धर्म-सम्यग्दर्शनादिक-है, यह निश्चय करता
सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्त ।। हुआ जो समयको-पागम शास्त्रको-जानता है वह निश्चयसे श्रेष्ठ ज्ञाता अथवा श्रेय-कल्याणका जाता कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीताजहोता है-श्रामहितको ठीक पहचानता है।'
जिन-पति-पद-पद्म प्रेषिणी दृष्टि-लक्ष्मीः ।।१५० व्याख्या-यहां अन्यका उपसंहार करते हुए उत्तम
"जिनेन्द्र के पद-वाक्यरूपी-कमलोंको देखने वाली ज्ञाता अथवा प्रात्महितका ज्ञाता उसीको पतलाया है
दृष्टिलक्ष्मी (सम्यग्दर्शनसम्पत्ति ) सखभमिकरूपमें जिमका शास्त्रज्ञान इस निश्चयमें परिणत होता है कि
मुझे उसी प्रकार सुखी करो जिस प्रकार कि सुखभूमिमिथ्यादर्शनादिरूप पापकर्म ही इस जीवका शत्र और
कामिनी कामीको सुखी करता है, शुद्ध शीलाके रूपसम्यग्दर्शनादिरूप धर्मकर्म ही इस जीवका मित्र है।
में उसी प्रकार मेरी रक्षा-पालना करो जिस प्रकार फलतः जिमका शास्त्र अध्ययन इस निश्चयमें परिणत
विशुद्धशीला माता पुत्रकी रक्षा-पालना करती है और नहीं होता वह 'श्रेयो ज्ञाता' पदके योग्य नहीं है। और
गुणभूषाके रूप में उसी प्रकार मुझे पवित्र करो जिस इस तरह प्रस्तुन धर्मग्रन्य अध्ययनकी दृष्टिको स्पष्ट किया गया है।
प्रकार कि गुणभूषा कन्या कुलको पवित्र करती है
उसे ऊँचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठाको बढ़ाती है। येन स्वयं वीत-कलंक-विद्या
व्याख्या-यह पथ अन्य मंगलके रूपमें है। इसमें
ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रने जिस लक्ष्मीके लिए दृष्टि-क्रियारत्नकरण्ड-भावम् ।
अपनेको सुखी करने आदिकी भावना की है वह कोई नीतस्तमायाति पतीच्छयेव
मामारिक धन-दौलत नहीं है, बल्कि वह सदृष्टि है जो सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु-विष्टपेषु ॥१४॥
ग्रन्थमें वर्णित धर्मका मूल प्राण तथा प्रारमोग्थानकी अनु
पम जान है और जो सदा जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंका-उनके 'जिम भव्य जीवन अपने आत्माको निर्दोपविद्या, आगमगत पद--वाक्यांकी शोभाका-निरीक्षण करते रहनेसे निविष्टि तथा निदोपक्रियारूप रत्नोंक पिटारेक पनपती, प्रसन्नता धारण करती और विशुदि एवं वृद्धिको भावमें परिणत किया है-अपने प्रास्मा सम्य- प्राप्त होती है । स्वयं शांभा-सम्पस होवेसे उमं यहां ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप ररनत्रयधर्मका लक्ष्मीकी उपमा दी गई है । उस दृष्टि-लचमीके तीन
आविर्भाव किया है-उसे तीनों लोकोंमें सर्वार्थसिद्धि- रूप है-एक कामिनीका दूसरा जननीका और तीसरा धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप सभी प्रयोजनोंकी सिद्धि-स्वयं- कन्याका, और वे क्रमशः सुखभूमि, शुद्धशीला तथा गुणवग कन्याकी तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है-उक्त भूषा विशेषणसे विशिष्ट है। कामिनीके रूप में स्वामीजीपर्वार्थमिन्द्रि उमं अपना पनि बनाती है अर्थात् वह चारों ने यहां अपनी उस दृष्टि-सम्पत्तिका उल्लेख किया है जो पुरुषार्थों का स्वामी होता है. उसका प्रायः कोई भी प्रयो- उन्हें प्राप्त है, उनकी इच्छायोंकी पूति करती रहती और जन मिद्ध हुप बिना नहीं रहता।'
उन्हें मुखी बनाये रखती है। उसका सम्पर्क बराबर बना व्याख्या-यहां सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक रहे यह उनकी पहली भावना है। जननीके रूपमें उन्होंने चारित्रम्प स्नत्रयधर्मके धारीको संक्षेपमै सर्वार्थसिद्धिका अपनी उस मूलष्टिका उल्लेख किया है जिससे उनका म्वामी मृश्चित किया है जो बिना किसी विशेष प्रयासके रक्षण-पालन शुरूसे ही होता रहा है और उनकी शुद्धस्वयं ही उसे प्राप्त हो जाती है और इस तरह धर्मके सारे शीलता वृद्धिको प्राप्त हुई है । वह मूलष्टि प्रागे भी फलका उपसंहार करते हुए उसे चतुराईसे एक ही सूत्र में उनका रक्षण-पालन करती रहे, यह उनकी दूसरी भावना गय दिया है। साथही. ग्रन्धका दूसरा नाम 'सनकरण्ड' है। कन्याके रूपमें स्वामीजीने अपनी उस उत्तरवर्तिनी है यह भी श्लंपालंकारके द्वारा सूचित कर दिया है। दृष्टिका उल्लेख किया है जो उनके विचारोंये उत्पन हुई
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१२]
अनेकान्त
[किरण १
-
हैं, तत्वोंका गहरा मन्थन करके जिसे उन्होंने निकाला है किया है। अपने एक दूसर ग्रन्थ 'युक्त्यनुशासन' के अन्तऔर इसखिये जिसके वे स्वयं जनक है। वह निःशंकितादि में भी उन्होंने वीर-स्तुतिको समाप्त करते हुए उस भक्तिगुणोंसे विभूषित ईरष्टि उन्हें पवित्र करे और उनके का स्मरण किया है और 'विधेयामे भक्ति पथि भवत गुरुकुखको ऊँचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठाको बढ़ानेमें समर्थ एवाऽप्रतिनिधी' इस वाक्यके द्वारा वीरजिनेन्द्रसे यह होवे, यह उनकी तीसरी भावना है ।ष्टि-लमी अपने प्रार्थना अथवा भावना की है कि आप अपने ही मामें इन तीनों ही रूपोंमें जिनेन्य भगवानके चरण-कमली जिसको जोइका दूसरा कोई निर्वाध मार्ग नहो, मेरी भक्ति अथवा उनके पद-वाक्ष्योंकी ओर बराबर देखा करती है को सविशेषरूपसे चरितार्थ करो-मापके मार्गकी प्रमोऔर उनसे अनुप्राणित होकर सदा प्रसन्न एवं विकसित बता और उससे अभिमत फलकी सिदिको देखकर मेरा हमा करती है। अतः यह रष्टि-तमी सच्ची भक्तिका ही अनुराग (भक्तिभाव) उसके प्रति उत्तरोत्तर बड़े, जिससे सुन्दर रूप है। सुबद्धामूलक इस सच्ची सविवेक भक्तिसे मैं भी उसी मार्गकी पूर्णतः पाराधना-साधना करता हुमा सुखकी प्राप्ति होती है, शुद्धशीलतादि सद्गुणोंका संर- कर्मशत्र ओंकी सेनाको जीतनेमें समर्थ होऊँ और निःश्रेपण-संवर्धन होता है और प्रात्मामें उत्तरोत्तर पवित्रता यस (मा) पदको प्राप्त करके सफल मनोरथ हो पाती है। इसीसे स्वामी समन्तभदने अन्य अन्तमें उस सक 10 भकिदेवीका बदेही संकारिक रूपमें गौरवके साथ स्म
-युगवीर रण करते हुए उसके प्रति अपनी मनोभावनाको ज्यश्न ममी चीनधर्म शास्त्रके अप्रकाशित हिन्दी भाष्यसे।
काँका रासायनिक सम्मिश्रण (माधव बंधादि तत्वोंकी एक संचित वैज्ञानिक विवेचना) लेखक-अनन्तप्रसाद जैन, 'खोकपाल' B. S... (Eng.)
प्रास्ताविक विश्व में कुखवह मूलद्रव्य हैं और वे हैं:-1जीव पंयुक्त रूपमें निर्मित हैं और अजीव, अचेतन या जड़ (पाल्मा, Soul), अजीव (पुद्रन, Matter), वस्तुएँ प्रायः पुद्गल (Matter) निर्मित हैं। धर्म( other), अधर्म (Conterether) इन मूब ग्योंके अतिरिक जीव और पुद्गलके भाकाश (Space) और (Tinme)। जिनमें सम्बन्धको स्थापित, नियमित, नियन्त्रित और प्रगतिप्रथम दो तो मूब उपादान कारण है और बाकी सहायक। शीलता पूर्वक सक्रियरूपमें संचालित करने वाले पाँच मानवों और सभी जीवधारियोंका निर्माण प्रास्मा और तत्व नसिद्धान्तमें माने गए हैं जिनमें जीव, मजीवको पुद्गल दो प्रयोक संयोगसे ही होता है। बाकी जितनी जोड़ देनेसे इनकी संख्या सात हो जाती है। इन्हें हम भी रस्य या महरच वस्तुएँ संसारमें है वे प्रायः सभी पुद्गल सस तस्व कहते हैं। वे हैं ।जीव, एमजीव, पानव, निर्मित है। धर्म और अधर्म ग्य पुरखों तथा जीवोंकी बंध ५ संवर, निर्जरा और मोच। बादके पांच क्रमशः गति और स्थिति में सहायक है। माकाशमें सभी तत्व यह व्यक्त करते हैं कि पहले दो तत्त्वों या द्रव्योंका वस्तुएं, जीव तथा प्रह-उपग्रहादि अवस्थित है। कान प्रापसी मेल, संयोग, समन्वय, वियोग इत्यादि कैसे होते बस्तुओं और जीवादिके परिवर्तनों में सहायक कारण है। रहते हैं, जीवधारियोंमें ये संयोगादि कितने काल (समय) विश्व में जो हम देखते हैं या तो सजीव हैं या तक क्यों कैसे रहते है। इनका पारस्परिक प्रभाव, क्रिया बालीव। सजीव (जीवधारी) जीव और पुदल द्वारा प्रक्रिया असर इत्यादि से कैसे और किस प्रकार होते है।
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कमोंका रासायनिक सम्मिश्रण
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बे सम्बन्धादि कब तारहते है। ये सम्बन्धादि कैसे सुख सभी बातोंको नहीं समझ सकते, स्वयं अनुमवारपातका होते या घटते बढ़ते हैं और इनका यह संयुक्त मेज क्यों, प्राप्त करना तो असम्भवसा ही है। संसारमें जानने कसे, कबस्ट सकता है, इत्यादि । इन सबका विधिवत्, योग्य बातों और विषयों की संख्या अनंतानंत, अपरंपार म्यवस्थित, सुनियन्त्रित, सांगोपांग, खलाबद्ध ज्ञान और असीम या असंख्य है। जिन जिन व्यक्तियोंने जिन होना ही शनका परम आदर्श-'सम्यक ज्ञान'-है। जिन बातों और विषयोंकी जानकारी प्राप्त करखी उन्होंने पन्चे सम्यकज्ञानकी वह पूर्णता है जहाँ इन द्रव्यों और उसे दूसरोंका जबानी बतलाया या पुस्तकों में विपिबद्ध तस्वोंके कार्य-कारण, उत्पाद-व्यय-प्रीव्य, संयोग-वियोग, कर दिया उससे होने वाले शानको ही 'श्रुतज्ञाम' कहते क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रकृति स्वभाव गुण प्रारिक विषयमें एक है जिसे पढ़ने और सुनने वाले पढ़कर और सुनकर प्राप्त ऐसी 'स्वात्मापनब्ध अन्तष्टि ' (सम्यकदर्शन) हो करते हैं। सुनने-पढ़ने वालोंमें भी समीकी समझदारी, माय जहाँ हम इनकी प्रगति या क्रियादिको 'ज्ञानदृष्टि' बुद्धि विकाश अथवा मस्तिष्क भित्र-भित योग्यता होते द्वारा प्रत्यक्ष होता हुआ अनुभव करने लगे और फिर कोई हैं उसीके अनुसार खोग विभिन्न धारणाएं बनाते हैं। अाशंकादि इस विषयमें - रह जाय । यही ज्ञान सचमुच बहुतसे व्यक्तियोंकी शिक्षा-दीक्षा ऐसी नहीं कि हन 'सम्बरज्ञान' है और ऐसी अनटि ही सचमुच सम्यक विषयोंकी ओर ध्यान दे सकें। कुछको समयका प्रभाव दर्शन है। जहाँ स्वारमोपलब्ध अन्तप्टिमय ज्ञान तोन है, कुछ दूसरी ही बातों में बंधे हुए है, कुछ इन्हें जल्दी हो पर विषयका ज्ञान हो वह ज्ञान तज्ञान या किताबी नहीं समझते, कुछको यह सब कुछ समझमें ही नहीं शान है जो सुनी सुनाई या पढ़ी पढ़ाई बातों द्वारा अपने माता और अधिकतर तो प्रशिक्षित है अथवाभा-मताम्बरों मनमें कोई विश्वास या श्रद्धान बना लेनेसे हो जाता है. और धर्मसम्प्रदायोंके भेद-भावोंमें बुरी तरह उसमे हुए यह न ती 'स्वोपज्ञ' हैन प्रत्यक्ष अनुभूति करने वाला भ्रमात्मक बातों और धारणामोके चक्कर में पड़े हुए, डीक 'प्रत्यक्षदर्शी है-और इसलिए अधूरा है प्राकृत स्वाभा- मार्ग या दिशामें नहीं चलनेके कारण अथवा जोरदार विक या असली नहीं है । जैसे किसी मनुष्यने अंगूरन प्रचार और प्रभावशाली लेग्व ब्याख्यानके प्रभाव गलत साए हों या हंस पती न देखे हों लेकिन पुस्तकांमें सही, भ्रमपूर्ण जो धारणा बना लेते हैं उन्हीं पर चलने पढ़कर या लोगोंसे सुन कर अंगूरके स्वादकी और हंस जाते हैं। मानवकी प्रायु भी सीमित है। ऐसी हालत में पक्षीकी रूपरेखा रंगादिकी एक धारणा अपने मनमें स्वयं पूर्णज्ञानकी प्राप्ति प्रायः संभव नहीं । हमें सो शीघ्राति बना ली हो और भी इस तरह के बहुतसे हटान्त दिए जा शीघ्र ज्ञानके विकाशके लिए उन सभी लिखित अलिखित सकते हैं जिनमें धारणाका आधार अपना 'स्वानुभव' न बातों और विषयोंके वर्णन और प्रतिपादनसे मदद लेनी है। होकर सुनी सुनाई या पढ़ी पढ़ाई बातों और वर्णनोंके जिसे हम प्राप्त कर सकेंया जिसे हम जरूरी समझे। ही ऊपर हो। हो सकता है कि ऐसी कोई धारणा या ज्ञानका विकाश संसारमें अबतक इसी प्रकार होता आया धारणाए असलियतसे बहुत मेल खाती हों या एकदम है और होता रहेगा। जिन्हें समयका प्रभाव है या जो असलीके अनुरूप ही हों, फिर भी कोई ऐसी धारणा स्वयं स्वानुभव नहीं प्राप्त कर सकते या जिन्हें नीचेसे पा उस व्यक्तिका अंगूर और हंसविषयकज्ञान अधूरा, प्रारम्भ कर उपर चढ़ना है उनके लिए तो 'भतज्ञान' की अपूर्ण और अधकचरा है-असली नहीं है। सच्चा ज्ञान सहायता लेनी ही होगी और जो कुछ पहले के अनुभवी नो उसे तमी होना कहा जायगा जब वह स्वयं विभिन्न ज्ञानी कह गए हैं उसे ही सत्यमानकर चलना होगाप्रकारके अंगूर चखने और हंस पती देखले और तब और ऐसा करके ही कोई व्यक्ति ठीक बोरसे प्रागे भागे अपनी धारणा उनके विषयमें पढ़ी पढ़ाई और सुनी उमति कर सकता है। जिन्हें स्वयं भी कुछ करना है उन्हें सुनाई बातोंके साथ मेल बैठाकर (तुननाकर) जो करे वो भी अपने अनुसंधानों और प्रयोगोंकी सफलता, शुद्धि वहीं धारणा या ज्ञान सच्चा और अधिक पूर्व कहा और समर्थनके लिए पहले किए गए प्रयोगों, अनुभवों आयगा। परन्तु कठिनाई एक यह है कि सभीकी मानसिक और प्राविष्कारों की मदद एवं जानकारी जरूरी है। भाज शक्तियाँ और परिस्थितियाँ एकसी नहीं है। समी कोई संसारमें आधुनिक भौतिक-विज्ञानकी पारपर्यजनक
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१४]
अनेकान्त
[किरण १
उम्नति इसी तरह हुई है, हो रही है और होगी। इस और उत्तर हो सकते हैं उन्हें कुल सात भागों में विभक विज्ञानके ज्ञानोंमें पारस्परिक मतभेद, विरोध या पूर्वार्ध कर दिया गया ई-इसलिए इसे 'सप्तभंगी' भी कहते उत्तरार्धमें विरोधाभाव नहीं होनेसे एक अंखलाकी हैं। यह एक (System of reasoning तरह प्राविष्कार होते जाते हैं और ज्ञानकी वृद्धि उत्तरोत्तर and analysing) दर्शन न्याय, तर्क और होती जाती है। इस तरहके भौतिक-विज्ञानको भौतिक- विवेचना अथवा अन्वेषणकी पद्धति है और 'स्याद्वाद' विषयोंका 'सम्यक ज्ञान हम कह सकते हैं। जिसका सब वाद" एक महान "मथनी" है जिसके द्वारा "ज्ञान महोकुछ प्रत्यक्षरूपसे प्रमाणित और सिद्ध है।
दधि" का मंथन करनेसे ग्यारह महान् रत्न निकले हैं। यही बात दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और जीव-अजीव महाभारतकी कथामें जैसे देवताओं और राक्षसोंने श्रादिके ज्ञान-विज्ञानके बारेमें हम नहीं पाते हैं। यहां तो तीरमहासागरका मंथन करके चौदह रत्न प्राप्त किए जितनी शाखाए या भिन्न-भिन्न दर्शन-पद्धतियाँ हैं उनके उसी तरह स्याद्वाद मथानीकी सहायतासे जैन तीर्थकरोंने भिन्न २ मत और एक दूसरेके कमवेश विरोधी सिद्धान्त ज्ञान-महासागरका मंथन करके संसार और मानवताके हर जगह मिलते हैं। इन विरोधोने एक भारी घपला, कल्याणके लिए इन महान रत्नोंको प्रकाशित किया। गरबड़ी या गोलमाल उत्पन्न कर लोगोंको इस विषयके पट इन्य और पाँच तत्व-ये ही वे ग्यारह महा दिव्य-मपूर्वसन्यवस्थित विज्ञानसे प्रायः वंचित कर रखा है। यह इस अनुपम रत्न हैं। इनके बिना संसारके बाकी सारे ज्ञान संसारका दुर्भाग्य अबतक रहा है और जबतक ये विरोध खोखले, अपूर्ण, अधकचरे या किसी हद तक भ्रमपूर्ण और भित्रयाएं रचनामक रूपस (in a Constructive अथवा अंशतः या पूर्णतः मिथ्या हैं। अनेकान्त अथवा way) दूर न की जायगी संसारकी अव्यवस्था, लड़ाई, स्याद्वादकी इस अहीय (Without any paraझगडे, हिसादि, शोषण और दुःख दारिद्रय दूर नहीं हो llel) पद्धतिको दूसरे लोग धर्मद्वेष, स्वार्थ, प्रमाद अथवा मकते।
विभिन्न राजाओं या गुट्टाके प्रभावमें नहीं अपना पाए। वस्तके अनेकों गुण और परिवर्तनानुसार अनंको रूप और तब मतमतान्तरांका समन्वय या एकता कभी भी तथा एक दुसरेके साथ भिन्न भिन्न वस्तुओंकी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकी। हर धर्म, दर्शन और मत एक दूसरेका क्रिया प्रक्रियाएं होती हैं। सबके असर प्रभाव अलग- कम बेश विरोध करते रहे। लोग मानव मानवको एक और अलग स्थानों, परिस्थितियों एवं संयोग अथवा मेबमें मान या एक कुटुम्बके व्यक्ति न समझकर अलग अलग विभिन्न या अलग अलग होते हैं। ऐसी हालत में किसी धर्मों, सम्प्रदायां और जातियों श्रादिके रूप में ही देखते, एक वस्तुके विषयको पूर्ण जानकारी तो तभी प्राप्त हो समझतं और व्यवहार करते रहे । इतना ही नहीं तत्वोंके सकती है जब उसको हर क्रिया प्रक्रियाकी हर अवस्थाकी, अज्ञानमें लोगांने तरह तरहके नीति, नियम और शृंखहर दूसरे बस्तुके साथकी और विभिन्न संयोगोंके साथकी लाएं समय समय पर बना कर राज्यादेशके जोरसे जांच, प्रयोग, अनुसंधान और अन्वेपण अकेला भी और उन्हें प्र_लत करा दिया और वे ही समयके साथ रूढ़ियों सामूहिक रूपसे भी करके ही कुछ विवेचनारमक एवं और "सत्य" में परिणत हो गए और स्वयं सत्यका लोप सम्मिलित फल (Results) या सिद्धान्त या अंतिम होते होते या अपभ्रंश होते होते वह विकृत हो गया। निर्णय (Final conclusion) निकालें और तब कोई जैनगुरुत्रांने भी लोक या संसारमें प्रचलित रीति नीतिधारणा उस विषय या वस्तुके गुण क्रिया प्रादिके बारेमें के प्रभावमें पड़कर पदव्य और पाँच तत्वोंके साथ दो बनाई जाय । यही धारणा या ज्ञान सही ठीक और और तत्व निर्माण करके जोड़ दिये । वे दोनों हैं 'पुण्य" विधिवत् (सम्यक् - Systematte, selentific and और "पाप । इस तरह प्रास्त्रव बंध, संवर, निर्जरा और Mational) होगा। इस प्रकार किसी वस्तु या विषय- मोक्षके साथ पुण्य और पाप मिलाकर तथा मूलद्रव्य की जांच करने को ही "अनेकान्त" पद्धति कहते है। जीव और अजीव मिलाकर कुल नौ तस्व या पदार्थ मान अनेकान्तका ही दूसरा नाम जैनदर्शनमें "स्याद्वाद" लिए गए। सच पूछिए तो पुण्य और पाप तो सांसारिक रखा गया है। इसमें किसी भी विषयके जितने भी प्रश्न या लोक-व्यवहारकी दृष्टिसे प्रचलित नियमों, व्यवस्थाओं
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[किरण १
कर्मीका रासायनिक सम्मिश्रण
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सामाजिक या राजनैतिक आदेशों और किसी भी समय- ऐसी व्याख्या दे सकते हैं जो हर समय हर हालतमें ठीक, के व्यवहत रीति-नीतिके अनुसार बदलते भी रहते हैं। सही और लागू हो और कभी न बदले । फिर भी ये दोनों भिन्न भिन्न देशों, लोगों और धर्मों में इनकी व्याख्या या (पाप श्रीर पुण्य)बाकी पाँच तत्वोंमें समिहित हैं या विवरण काफी भिन्नता लिए हुए हैं। जो एकके यहां उन्हींक कोई विशेष भाग है और यदि कोई व्यक्ति उन पाप है हो सकता है कि दूसरेके यहां "वही हलाल" हो पाँच तत्वों और षद् द्रव्यांको अरछी तरह जान और समझ Virtue (वर्च) हो और जो दूसरे के यहाँ "हराम" जाय तो उपके लिए इनकी अलग व्याख्याकी जरूरत नहीं
रह जाती। या Sin (सिन) हो वह एकके यहां पुण्यमय माना ।
विभिन दर्शन पद्धतियों या धमावलम्बियाने संसारकी जाता हो। ऐसे उदाहरण संसारके भिन्न धर्मावलम्बियो
उत्पत्ति और जीवधारियांकी जीवनी इत्यादिक बारेम और जातियोंके रीति-रिवाजों या इतिहासाका अध्ययन,
विभिन्न मत दिए हैं जो अाजक आधुनिक विज्ञानके खोजों, मनन, अवलोकन करनेसे बहुतेरे मिलेंगे। एक ही रीति
प्रयोगों और आविष्कार-द्वारा बहुत कुछ या एकदम ग़लत जो किसी समय पुण्यमय मानी जाती रही हो वही दूसरे
और भ्रमपूर्ण सिद्ध हो जाते है। फिर भी लोग दूसरा ठीक समय पापमय या ग़लत समझी जान लगती है अथवा
कुछ नही जाननेके कारण या प्राचीन समयसे अब तक जो रीति कभी बुरी समझी जाती हो वह कुछ समयके
पुश्त दर पुश्तम उसी प्रकारकी याताको मानने और उन्हींम बाद अच्छी सराहनीय समझी जाने लगती है। दोनोंके
विश्वास करते रहनेके कारण ऐसे बन गये हैं कि गलती दो उदाहरण हमारे सामने हैं। सती-प्रथा और विदेश
जान कर भी उसमे सुधार नहीं कर पाते और भ्रम, यात्रा । सती प्रथा पहले अच्छी बात थी अब वर्जित है।
मिथ्यात्व नथा अव्यवस्था ज्या-की त्यो चलती जाती हैं। विदेश-यात्रा पहले वर्जिन थी अब वही श्रादरणीय हा गई
एक भारी कठिनाई, दिक्कत या कमी पीर भी है वह यह है। लोक व्यवहार अच्छे काम जिन्हें समाज और देशक
है कि हमार याधुनिक भौतिक विज्ञानवेत्ता भी विज्ञानका लोग या सरकार अच्छा ठीक समझे उन्हें पुण्यमय और
बहुमुखी विकास होने पर भी अब तक इस बातकी निश्चित जो इनके द्वारा बुरे समझ जाय वै पापमय है। इनके
व्यवस्था या निर्णय नहीं दे सके हैं कि मानबकी 'संजान अतिरिक्त कुछ ऐसे भी कर्म है जो सर्वदा ही मभी देशम
चेतना' का क्या कारण है और मानव या दृमरे जीवबुरे समझे जाते हैं उन्हें हम पाप कह सकत है। पर जी
धरियांक या स्वभाविक वृनि, जीवनी, चर्या, आदि नरह काम मानवक लिये पाप है वही एक पशु के लिये स्वाभा
तरहकी विभिन्नताएं हम देखते या पाते हैं उनका मूल विक हो सकता है। अादिम लाग या जातियां मनुष्य-भक्षी
कारण क्या है। अाजका ससार उम्हीं बानांको ठीक बी-मनुष्य भक्षण उ.में पाप नहीं गिना जाता था-पर
मानता है जिनके विषय में वैज्ञानिक लोग अपने प्रयोग, जैसे-जैसे सभ्यता, संस्कृति और शिक्षाका विकास होता
अन्वेषण, अनुसंधान, ग्वाज, हूँढ़, जांच-पड़ताल इत्यादि गया, वे रीतियों या मान्यताएँ भी बदलनी गई । श्राज
द्वारा देवकर, परीक्षाकर, विवेचना करके ठीक निश्चित मनुष्य-भक्षण सबसे महान् पाप गिना जाता है। फिर भी
परिणाम या निर्णय निकालकर संसारके सामने रख देते जैनदर्शन या जैनधर्म और दूसरे कुछ धर्म हिंसा या मायाका प्रत्यक्ष दर्शन करके ही उनकी मांस-भक्षयको एक बड़ा हानिकारक पाप समझते हैं। स्वीकृति देता है। परन्तु आधुनिक विज्ञान भी अबतक संसारके निन्यानवे फीसदी लोग मांस-भक्षी हैं। इस तरह शरीरका रूप और उसके कर्मसे शरीरकी बनावटके साथ लोक-व्यवहारकी दृष्टिसे पाप-पुण्यके कोई स्थायी नियम कोई आन्तरिक गहरा सम्बन्ध खुले शब्दोंमें स्थापित नहीं नहीं हो पाते । और भी यह कि मनुष्य परिस्थितियों और कर सका है। मानवके शरीरका या किसी भी जीवधारीके
और आवश्यकताका गुलाम है और उसमें बढ़ी भारी शरीरका अान्तरिक निर्माण, बाघ गठन या रूप-रेखा ही कमियां या कमजोरियों हैं जिनपर विजय न पा सकनेके उसके कर्मों या हलन चलनको निर्मित, नियन्त्रित परिचाकारण वह ऐसे-ऐसे काम करता ही रहता है जो वर्जित है लित और परिवर्तित करती रहती है इसकी स्थापना, या जो उसके लिए स्वयं हानिकारक हैं। लेकिन यदि तत्वों- व्यवस्था और सम्यक् (विधिवत वैज्ञानिक Systemoकी दृष्टिसे देखा जाय तो हम पाप और पुण्यकी भी एक tic & Rational) वर्णन अभी भी वैज्ञानिकोंने पूरा
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भनेकान्त
[किरण
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नहीं किया है। कहीं कहीं कुछ लोगोंने कुछ टाइधर मानसिक और शारीरिक गंदगीका होना स्वाभाविक है। दिखखाई है पर उनके विचार उपयुक्त आधार पर नहीं अतः इसलिए कि हम सचमुच अपने स्वस्थ, शुद्ध जीवन होनेसे अपूर्ण, दोषपूर्ण अथवा हालत रह गए हैं। विभित पा सकें, अपने चारों तरफके वातावणको शुद्ध करना परम धर्मावलम्बियोंने भी स्यावाद या अनेकान्तकी सहायता न आवश्यक है-जो केवल स्यावाद अथवा अनेकान्तका बी इससे उनके पनि या विचार भी एकांगी, दोषपूर्ण, उपयुक्त प्रयोग करके 'श्रतज्ञान' द्वारा जरूरी जानकारी अपूर्ण या एकदम गलत रह गए। मूलतत्वोंके मूल तक प्राप्त करके अपने शाप द्रव्यों और तत्वोंका पूरा ज्ञान पहुँचना तो केवल स्थाबाद द्वारा ही संभव था जिसका उपबन्ध करने और उस मुताविक प्राचरण करनेसे ही प्रयोग करके जैन गुरुषों या तीर्थकरोंने इन तत्वोंका विकास हो सकता है। अनेकान्तको अपनाए विना किसीकी गति किया । वगैर इन तत्वोंके जानकारीके मानव या जीवधा- नहीं। आज जो हर तरफ हर एककी दुर्गति नजर मा रियोंकी पूरी जानकारी संभव नहीं है। इन तत्वोंके ज्ञान रही वह अनेकान्तके प्रभावके ही कारण है। विना सारा ज्ञान ही अपरा रह जाता है । इसी अधूरे शान- अनेकान्तके समर्थक जैन विद्वान भी अनेकान्त और के आधार पर संसारकी व्यवस्थाओंका निर्माण हुआ है स्याहादकी चर्चा प्रायः शास्त्र-चर्चा तक ही सीमित रखत जिसका फब कि संसारमें हर जगह रक्तपात, लबाई- हैं. उसे जीवन में या राज रोजके पाचरण-व्यवहार में उताझगडे, दुख-दारिद्रय फैले हुए है। जब तक तत्वोंकी ठीक- रनेको चेप्या नहीं करते । यही विडम्बना है। जैनियोंने ठीक जानकारी या ज्ञान लोगोंमें, संसारमें नहीं फैलता या अपने तत्वोंकी जानकारी और अपने शुद्ध ज्ञानकी वार्ताको पूर्ण रूपसे इसका व्यापक विस्तार था विकास नहीं होता पोथियामें इस प्रकार सात सात येप्टनोंके भीतर बन्द रखा संसारसे अव्यवस्था, आंधली, लूट-मार, अपहरण छल, था कि बाहर वाले कुछ जान ही नहीं पाए । बाहर वाले पर झूठ, हिंसा इत्यादि दूर नहीं हो सकते।
तो अलग ही रहे स्वयं जैन लोग भोर जैन विद्वान सच्चे माधर्य तो यह है कि विज्ञानके इस तर्क-बुद्धि-सत्यके ज्ञानसे दूर होते गए और ज्ञान दर्शनका सादा मार्ग को युगमें भी स्यावाद जैसी महान् महत्वपूर्ण तर्कशैली, कर कोरे क्रियाकार और अधिकतर पाखंडमें लीन होते पद्धति, रीति या सिद्धान्तका प्रचार नहीं हुश्रा । आधुनिक चले गए । धर्मका अपभ्रंश तथा सच ज्ञानका प्रभाव विज्ञान तो स्वयं ही अनेकान्तमय, या अनेकान्तसे परिपूर्ण सब जगह हो गया। और तस्वकी गहरी जानकारी लुप्त है अथवा अनेकान्तकी देन है-पर इसी अनेकान्तका प्राय हो गई। जिन्होंने पोथियोंको पढ़ कर या किसीसे सुन प्रयोग अबतक संसारके विद्वान मानवके साथ और मानव- कर कुछ जाना भी तो उनका ज्ञान थोडा या उपरी होकर जीवन तत्वकी जानकारीके लिए ठीक तौरसे नहीं कर ही रह गया और द्रव्यों तथा तत्वोंका इस तरह केवल पाए हैं, जिसके कारण ही सारा रगड़ा-मगदा या दुर्य- उपरी ज्ञान प्राप्त करके ही उन्होंने अपनेको 'सम्यक्' वस्था है। रोज-रोजके साधारण नित्य नैमित्तिक कार्यों में समझ लिया, जो उनके दोहरे पतनका कारण हुआ। भी बनेकान्त रूपसे जानकारी रखकर प्रवर्तन करनेवाला व्यक्तिके पतनसे समाजका भी पतन हुना और अवांछअधिक सफल रहता है। और उच्च विज्ञान, ज्ञान और कता हर जगह हर बातमें आवश्यकता मान कर घुसती गई। दर्शन इत्यादिमें तो यह अनिवार्य हो जाता है। दुःख तो जैनदर्शन सिद्धान्त और धर्म किसी भी बात या विषयको यह है कि अनेकान्त पा स्याद्वादको जैनियोंने संसारकी निर्शय या परीक्षा किये बगैर स्वीकार करनेको मना करता संपदा न होने देकर अपनी बनाकर रख ली। अपने है, पर आज लोग दूसरोंकी देखा देखी यही अधिकतर करने कल्याणके लिए तथा संसारके कल्याणके लिए भी इसके लगे हैं, जो विद्वान नहीं है उन्हें तो विद्वानांके आदेश सर्वत्र व्यापक प्रचारकी बढ़ी भारी अनिवार्य आवश्यकता और मार्गसे चलना ही है, वे तो परीक्षा लेने या परीक्षा है । संसारका कल्याण होनेसे हो अपना भी वास्तविक करनेकी योग्यता नहीं रखते। पर विद्वानोंको तो तर्ककल्याण हो सकता है। अपने चारों तरफका वातावरण म्याय और बुदिपूर्वक परीक्षा लेकर ही स्वयं कोई मान्यता शुद्ध होनेसे कोई व्यक्ति शुद्ध वायु पा सकता है और माननी और धारणा बनानी चाहिए एवं दूसरोंको भी ऐसी स्वस्थ रह सकता है। गंदे वातावरण या परिस्थितियों में ही सीव या सलाह देनी चाहिए। पर भाजके अधिकांश
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प
किरण १] काँका रासायनिक सम्मिश्रण
[१७ विद्वान प्रायः प्रमाद और अपनी विद्वत्ता या पांडित्यके बनाए या लिखे गए थे। मांजके विकशित ज्ञान-विज्ञानके अभिमानमें इतना भूल जाते हैं कि अप्सल-नकलमें विभेद युगमें अब इन्हें एक नई वैज्ञानिक शैली या पद्धतिसे पुनः नहीं कर पाते । फिर सबके उपर वर्तमान कालम धनकी निर्माण करने, रचने, बनाने, लिखने, प्रतिपादित वा सत्ता और प्रभुता सबसे महान हो गई है। धनिक जो प्ररूपित करनेकी परम पावश्यकता है। हमारे विद्वान योग चाहता है वही पण्डित अच्छा, सही, और उत्तम सावित जो टीकाएँ करते या टिप्पणियां देते या विवेचना, समाकर देता है। इसका नतीजा हुआ कि ममाजमें ज्ञानका बोचना इत्यादि करते कराते हैं वे सब भी पुरानी रूदिमाई सच्चा विकास एकदम रुक गया और ज्ञान विकास जैसे पद्धतिको लिए हुए ही होते हैं-उनमें समयकी जरूरत और महाननम पुण्य-कार्यको छोड़ कर लोग केवल दूसरे निम्न मांगके अनुसार सुधार होना जरूरी है। और तो और जैन धामिक साधनांकी वृद्धिका ही महत्ता देने लगे और वे ही पंडितों की शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही है कि पंडित बोग महत्तम पुण्यकार्य गिने जाने लगे। जबकि “जैन" शब्द विद्वान बन जाने पर भी संकुचितता नहीं बोल पाते और और जैनतीर्थकरोंके उपदशाका सर्वप्रमुख ध्येय शुद्ध ज्ञान
अनेकान्त' का उनका अपनाना ठीक वैसा ही होता है जैसे का विकास स्वयं करना और दमरीम कराना यही मानव हाथीक दति खानेके और दिखलानेके और.सेपर कल्याण और स्वकल्याणकी कुन्जी समझी या मानी गई
करना होगा, तभी हम उपयुक्त सुधार लोगोंको मनोवृत्ति, है। मन्दिर, मूर्ति पूजन इन्यादि तो ज्ञानलाभको भार विचार और भावनाओम लाकर वह ठीक वातावरणहर
काम और बातक लिए पैदा कर सकते हैं जिसे स्वस्थ कहा भावांकी शुद्धता तो या एक दो फीसदी इन क्रियाकलापों- जा सकता ह पार जा समाज पार व्याचका ठाक सहा महोती है पर बाकी निन्यानवे फीसदी शुद्धि तो शुद्ध सच्ची उन्नति करने में प्राधार, कारण और सहायक होगा। ज्ञानकी वृद्धि द्वारा ही उत्तरोत्तर हो सकती है। मुनि, तभी सच्च जैन सिद्धान्तका प्रकाश व्यापकरूपमें हर ओर त्यागी, ब्रह्मचारी और विद्वानका समागम भी इसी निमिन- फेले भोर विखरेगा जो सचमुच मानव कल्याणकी वृद्धि में महत्वपूर्ण माना गया है, नहीं तो ये सब भी स्वयं और विस्तार करेगा। इसके लिए बच्चों और तत्वोंका शुद्ध केवल एक फीसदी ही लाभ देने वाले हैं। बाकी निन्यानवं अनेकान्तात्मक और व्यावहारिक ज्ञान परम जरूरी है। फीसदी लाभ तो स्वयं ज्ञान उपलब्ध करने से ही हो सकता हमारे विद्वानोंको एक बड़ी भारी कठिनाई भी है। है। आज हम यही पाने है कि लोग इस एक फीमदीमें वह यह है कि उनका माधुनिक विज्ञानसे सम्बन्ध नहीं ही इतने लीन हांगए हैं कि बाकी निन्यानवे फीसदी उनके रहा है। द्रव्यों और तत्वोंकी पूरी महत्ता प्रकृति और लिए या तो गौण हो गया है या उसे वे भूल ही बैठे हैं। प्रभाव समझनेके लिए अथवा उनकी क्रिया प्रक्रियादिमें यह नो विद्वानों और जानकार गुरुत्रोंका काम है कि लोगों- एक अन्तरष्टि होने अथवा एक प्रत्यक्ष दर्शन-सा अनुभव का ध्यान पुनः इधर आकर्षित करें-तभी उनका भी सच्चा प्राप्त करनेके लिए प्राधुनिक भौतिक या रासायनिक विज्ञानकल्याण हो सकता है और जोग भी 'भव्यजन' कहे जाने के कुछ प्रारम्भिक एवं मौखिक तथ्यों या सिद्धान्तोंकी जानलायक सचमुच धीरे-धीरे होते-होते हो जायगे । इतना ही कारी आवश्यक है। आज कल तो विज्ञान इतनी अधिक नहीं जैनधर्म तो सब जीवोंको समान समझने और समान उन्नति कर गया है कि अब यह सम्भव हो सका है कि दर्जा देने वाला 'समतामय' धर्म है पर इसमें भी लोगोंने हम अपने द्रव्यों और तत्त्वों या पदार्थोंकी सत्यता, समीप्रमाद और प्रज्ञानवश या अपनेको गलनीसे सम्यष्टि चीनता और शुद्धताका प्रमाण जोगोंको ठीक ठीक दे समझर ऊँच नीच, छुन अछुत, सवर्ण अवर्ण इत्यादिके सकें। पहले तो लोग समझते थे कि यों ही संसारकी भेद भाव खड़े कर दिये हैं-यह जैन तत्त्वा. सम्यक दर्शन उलझी समस्यायोंका समाधान करनेके लिए ही किसी शब्द और तीर्थकरोंकी शिक्षाका सबसे बड़ा अपमान है। तरह जैन गुरुयोंने ये बातें तर्कके जोर पर मन गदत निकाल इसका परिमार्जन होना सबसे पहले जरूरी है।
जी हांगी-पर अब विज्ञानमे यह पूर्ण-रूपसे सावित हो - हमारे शास्त्रोंमें वर्णित बाने एक ऐसी पद्धति या शैली- गया है कि ये सिद्धान्त मनगदंत या ग़लत न होकर में जिम्बी गई है कि उसे हम बहुत पुरानी कह सकते हैं ये ही केवल मात्र सही, ठीक और सत्य है। जो उम ममयके लिए ठीक थीं जब ये शास्त्र प्रारम्भमें अब जरूरत है कि हम अपने सिद्धान्तोंको और दूसरी
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१८ ]
अनेकान्त
[किरण १
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बातोंको जो प्राचीन पद्धतिसे लिखी गई थीं या कही गई है, जीवधारीके सारे क्रिया कलाप किस प्रकार पुद्गलके थीं उन्हें नई वैज्ञानिक पद्धति, शैली और भ्याख्याके साथ रूपी शरीरमें परिवर्तनादि द्वारा ही संचालित होते हैं, पुनः प्रतिपादन करें और तब लोगोंका ध्यान उनकी और अथवा पाश्रव, संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष इत्यादि सचमुच इतना आकर्षित होगा जैसा पहले कभी नहीं । मैंने किस प्रकार घटित होते रहते हैं एवं उनका आधुनिक संक्षेपमें इस बातको चेष्टा की है कि ऐसा दृष्टिकोण हमारे वैज्ञानिक प्राधार क्या, क्यों, कैसे है; क्या सचमुच 'कर्म' विद्वानों में उत्पन्न हो जाय । मैंने एक लेख 'जीवन और पुद्गल जनित ही है ? आत्माका और कर्मोंका सम्बन्ध विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य' शीर्षकसे लिखा जो 'अनेकान्त किस प्रकारका है और उसे हम अाधुनिक विज्ञान द्वारा वर्ष १०, किरण ४-५ (अक्टूबर नवम्बर ६ )किस प्रकार साबित कर सकते हैं या किस तरहसे स्वयं प्रकाशित हुआ । मेरा विश्वास था कि इस नए दृष्टिकोण अनुभृत कर सकते हैं; जैनियोंके ये तत्व आज कलके को या प्रतिपादन-शैलीको जैन विद्वान ध्यानपूर्वक अप- विज्ञान द्वारा प्रतिपादित और निश्चित सिद्धान्तास कितना नावेंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कारण सोचने पर साम्य रखते हैं और यदि हम उनका वर्णन, व्याख्या वर्तयही नतीजा निकलता था कि ये विद्वान अधिकतर आधु- मान वैज्ञानिक पद्धति शैली दृष्टिकोण या आधारसे करें तो निक विज्ञानके ज्ञानसे परिचित नहीं होनेके कारण ऐसी मानवताका कितना बड़ा कल्याण कर सकते हैं ? इत्यादि । बातों पर ध्यान नहीं देते अथवा पुरानी पद्धतियोंमें पैदा शुद्ध सच्चा सही ज्ञान ही मानवताका कल्याण सञ्च रूपमै हुए, पले, पढ़े और बढ़े ये लोग कुछ नयापन या नई कर सकता है और यह ज्ञान जैनियोंके आत्मविज्ञान, कर्म रीतियाँ स्वीकार नहीं करते अथवा ऐसी बातोंका मनन सिद्धान्त और आधुनिक भौतिक विज्ञानके मेल समन्वय करने और समझनेके बजाय उलटे शशंक दृष्टिसे देखते हैं और सहयोग द्वारा ही ठीक प्राप्त हो सकता है और इस मैंने और भी कुछ छोटे छोटे बेख हिन्दी और अंग्रेजीके पूर्ण समन्वयान्वित और सच ज्ञानका बहु व्यापक विकास इसी प्रकारके लिखे ताकि विद्वानोंका ध्यान वर्तमान समयकी और संसारमें आधुनिकतम उपायों द्वारा अधिकसं अधिक इस आवश्यकता या मांगकी ओर जाय । वे लेख केवल प्रचार और विस्तार करना हमारा कर्तव्य है-अपने कल्याण इस वैज्ञानिक दृष्टिकोणकी तरफ खोगांका ध्यान आकषित के लिए भी और मानवताके कल्याणके लिए भी। पाशा करनेके लिए ही लिखे गए थे वे पूर्ण नहीं थे न हो ही है कि जिज्ञासु विद्वान इधर ध्यान दंगे। (क्रमशः) सकते हैं। मानव व्यक्तिरूपसे पूर्ण नहीं है न उसकी जीवन और विश्वके परिवर्तनांका रहस्य' - लेख शपियां हो पूर्ण हैं इससं अकेला किसी का किया कुछ भी 'अनेकान्त' वर्ष १०-किरण ४-५ अक्टूबर नवम्बर १९४६ पूर्ण नहीं हो सकता, पूर्णता तो तब आती है जब अनेक में प्रकाशित हो चुका है - पुस्तक रूपमें भी छपा था। लोग मिल कर विभिन्न रप्टिकोणोंसे अपने अपने विचार पत्रिका तथा पुस्तक दोनों-संपादक अनेकान्त, दरियाव्यक्त करते है और तब हम किसी बात, विषय, मसला, गंज दिल्लीसे मिल सकते हैं। 'विश्व एकता और शान्ति'समस्या या प्रश्नका 'भनेकान्त रम' या बहुमुखी समा- 'अनेकान्त' वर्ष किरण ७-८, सितम्बर, अक्टूवर १९१२ धान पाते हैं और तभी हम उस विषयके ज्ञानमें अधिका- में प्रकाशित हो चुका है। शरीरका रूप और कर्म-'जैन धिक पूर्णवाको पहुँचते जाते हैं। वे मेरे लेख हैं- सिद्धान्त भास्कर' के जून १९५० के अंकमें प्रकाशित हुआ (1) 'जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य', (२) है।'The Three Jewels' SoulConsciouविश्व एकता और शान्ति, (१) शरीरका रूप और कर्म, sness and Life' at Bhagwan Rishahba, () The Three Jewels (रत्नत्रय) २) Soul, His Atomic Theory and Eternal VibiConscious, Life,(6) Rhagwan Bishabh ations' नामक लेख क्रमशः Voice of Ahisa. His Atomic theory and Eternal Vibra- नामक अंग्रेजी पत्रिकाके सितम्बर अक्टूबर १९५१ और tions | 'यह वर्तमान लेख कोंका रासायनिक सम्मि- जनवरी फरवरी १९५२ के अंकोंमें प्रकाशित हो चुके हैं। श्रण' भी उसी वैज्ञानिक विचारधाराका ही एक और छोटा २,३,४और ५ ट्रैक्ट रूपमें भी छपे हैं और संचालक, प्रयास है। इसमें यह दिखलाया गया है कि पुद्गल किस अखिल विश्व जैन मिशन, पो. अलीगंज, जि० एटा, प्रकार भारमाके गुणोको नियन्त्रित या सीमित कर देता उतर प्रदेश से पत्र भेजकर अमूल्य मँगाए जा सकते हैं।
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बंगीय जैन पुरावृत्त
(श्री बा. छोटेलाल जैन-कलकत्ता बंगदेशमें मेरा निवास हानेके कारण इच्छा हुई कि शंकर-विजय नामक पुस्तककी निम्नलिखित कथा पढ़नेसे प्रागैतिहासिक युगमे प्रारम्भकर वर्तमान कालतक जैनोंका भली प्रकार जाना जा सकता है:सम्बन्ध इस बंगदेशसे क्या रहा है, इसका अनुसन्धान "दुष्ट-मतावलम्बिनःबौद्धान जैनान असंख्यकरूं। किन्तु सन् १९३७ में इसके उपादान-संग्रहमें प्रयत्न किया तो हतोत्साह ही होना पड़ा। कारण इस सम्बन्धकी जितनी सामग्री उपलब्ध है वह अत्यल्प है। तेषां , शिरांसि परशु-भित्विा बहुषु उदखलेषु
नूनन अाविष्कारके प्रकाशमे प्राचीन इतिहासका अंध- निक्षिप्य-भ्रमणैश्चूर्णीकृत्य वं दुष्टमतध्वंसकार दिनोंदिन दूर होता जाता है। यह अल्प उपादान भी माचरन निर्भयो वर्तते ।" किसी न किसी दिन इतिहास निर्माणमे सहायक अवश्य
इन कहर पंथियोंने वेदबाह्य सभी धर्मावलंबियोंको होगा, यही विचारकर इस लेखको लिख रहा हूँ।
अम्पृश्य लिख दिया । पराशर स्मृतिकी टीकामें माधवातिहासिक युगमें गौड, मगध, अंग और बंगका चार्यने "चनुविंशतिमतसंग्रह" का निम्न लिखित श्लोक इतिहास स्वतन्त्र नहीं है और ग्वृष्टाब्द (ईस्वी सन्) के उद्धृत किया है उससे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है। प्रथम छः सौ वर्षमे मगधकी ही प्रधानता थी। गौड़ और बंगके कभी कभी स्वतन्त्र हो जाने पर भी यह स्वतन्त्रता
तनिकर्म स्थान-द्विजान स्पृष्ट्वा सचेलो जलमाविशेषण अधिक समयाक स्थायी नहीं हुई । इलिये यह (कहना) अनुचित नहीं होगा कि बंग देशका इतिहास भारतवर्षक श्रीमान् वा. दिनेशचन्द्रसेनने अपने 'वृहत्बंग' में इतिहासका एक क्षुद्र अंश है।
लिग्बा है कि "भारत युद्ध के प्राक्कालमें पूर्व भारत अनेक
परिमाणों में नवप्रवर्तित ब्राह्मण्य धर्मका विरोधी हो गया भूमिका
था। इस विरुद्धताने उत्तरकालमें बौद्ध और जैन प्राधान्य विशाल साम्राज्यांके ध्वंसके साथ-साथ बड़े बड़े प्रासाद, युगमें पूर्व भारतको कई एक शताब्दीकाल पर्यन्त नवयुगके मन्दिर, मठ, शास्त्रभण्डार आदि भी नष्ट हो गये। जन- हिन्दगणके निकट वर्जनीय कर दिया था। हिन्दू विपके विहीन ग्रामादि-मृत्तिकादिसे आच्छादित होनेके कारण कारण ही हम इस देशके प्रकृत इतिहास सम्बन्धमें इतने विलुप्त हो गये । इस प्रकार इतिहास नमसाछन होगया। अज्ञ थे। कृष्णकी प्रबल सहायतासे जो पाहण्य धर्मका दमरे, जैन और बौद्ध इतिहासको ब्राह्मणांने जान बूमकर पुनरुत्थान हुआ था, उसी पुनरुस्थित हिन्दूधर्मने जैन
और घोर शत्रुता धारणकर इस तरह लुप्त कर दिया कि बौद्धगणके उज्जवल अध्यायको इस देशके इतिहासके इनके राज्यमे किस समय में इन दो प्रधान धर्मावलम्बी पृष्ठोंसे बिल्कुल मिटा दिया।" सम्प्रदायांकी कैसी पाश्चर्यजनक लीला हुई थी उसका प्रथम तो बंगदेश नदी मात्रिक है। इसलिये यहां चिन्हमात्र किसी प्रकार रहने न दिया। इसीलिये हमारे मनुष्यकी कीर्ति अधिक दिन रह नहीं सकती; दूसरे इस प्राचीन इतिहासोद्धारका पथ अन्धकारमय है। तीसरे भूमिमें पत्थरके गृप और विग्रह प्रस्तुत करना सहज नहीं। मुसलमानोंने भी जैन, बौद्ध और हिन्द धर्मायतनाके यहां बहुत दूरसे और बहुत खर्चसे पत्थर जाना पड़ता विलोप-माधनमें कुछ उठा न रक्खा था।
था। इसीलिये जब बहुत कष्ट और व्यय निर्मित मन्दिर किस भीषण अत्याचारके साथ ब्राह्मणांने जैन और .
और मूर्तियाँ अत्याचारों द्वारा खरिडत होने जगी तबसे बौद्ध धर्मको भारतसे निमल करनेकी चेष्टा की थी वह • Bib. Ind. Vol. I p. 259.
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२०]
बंगदेशका प्रस्तर - शिश्प विज्ञोन हो गया मुसलमानों के अमानुषिक अत्याचारसे अनेक जैनमन्दिर और मूर्तियां नष्ट हो गई है। काला पहावने मन्दिरों और मूर्तियॉपर कितना गजब ढाया था, यह सभी जानते हैं। मुसलमानोने कमागत हिन्दुयोंकी प्राचीन कीर्तिको ध्वंसकर निःशेष कर दिया है। अस्तु, जैनधर्मकी इस वंगभूमिपर किस-किस समय कैसी-कैसी अवस्था थी यह ऐतिहासिक समस्या है। इस प्रश्नको हल करनेकी क्षमता वर्तमानयुगके ऐतिहासिकों की नहीं है और वह भूगर्भ में अथवा भविष्य के गर्भ मे निहित है ।
अनेकान्त
बहुचायासलब्ध उद्र घुडखण्डप्रमाण योजना कर समसादन] इतिहास प्रस्तुत होता है। वनुसार मे भी उपलब्ध सामग्रीको पाठकोंके समक्ष उपस्थित करता हूँ ।
यहां यह भी बात ध्यानमें रखनेकी है कि एक समय मगध ही समस्त पूर्व भारतका एकमात्र आदर्श था और मगधेश्वरगया समस्त भारतके अद्वितीय सम्राट थे। मगध की शिक्षा-शिल्पकला आदि सभीने गोडमें प्रतिष्ठा प्राप्तकी थी, क्योंकि मगधकी अवनतिके बाद गौड ही उस देशके विनष्ट गौरवका उत्तराधिकारी हुआ था। भार्यावर्त में विशेषकर मगध में जो रीति-नीति प्रचलित थीं उनमें अनेक अभी तक बंगाल में प्रचलित हैं और वर्तमान बंगाली जाति मागधियांकी वंशधर है। पाटलीपुत्रके मानसिक और आध्यात्मिक वैभव सर्वापेक्षा अष्ठ उत्तराधिकारी बंगाली हैं। अस्तु, मगधको बाद देकर बंगालका इतिहास रचा नहीं जा सकता ।
इस प्रकार उड़ीसाका सम्बन्ध भी बंगालसे घनिष्ट था, यहाँतक कि चतुर्दश शताब्दी पर्यन्त बंगला चौर उडिया अक्षरोंमें x विशेष अन्तर नहीं था । एक समय उदियाका समसुक (ताम्रलिप्त) ही बंग वासियोकी समुद्रयात्राका प्रधान बन्दर था। उड़ीसा पंच गौरमण्ड लका अन्तर्वर्ती था । किन्तु इस लेखमें मगधका केवल प्रासंगिक विवरण ही जिला जायगा और उड़ीसाका विप रण पीछे मैं एक स्वतन्त्र लेख में लिखूँगा ।
[ किरण १
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द्वारा शस्त्रादि निर्माण करनेके पूर्व जिस समय ती धार पाषाण खण्ड ही एक मात्र अस्त्र-शस्त्रादि थे उस समयको इतिहासकाराने प्रस्तरयुग ( Stone Age ) कहा है । इस प्रस्तरयुगको दो भागों में विभक्त किया गया है प्रस्तरयुग के प्रथम भागकी प्रत्नप्रस्तरयुग (Palacevithic Age) और दूसरे भागको मध्यप्रस्तरयुग ( Neolithic Age) कहते हैं। प्रग्नप्रस्तरयुग के श्रस्त्रांम मनुष्यके शिल्पचानुर्यका विशेष परिचय नहीं मिलता है और नयस्तरयुग के अस्त्र नानाविध सुदृश्य और सयान निर्मित हैं । जब धातुव्यवहार में आने लगी उस कालकी अर्थात् मध्यम स्तर के परवल कीलको ताम्रयुग (Copper Ag) कहते है । ताम्रयुग के शेष भागको मिश्रधातुव्यवहारकाल (Bronze Age) कहते हैं तथा इसके बाद कालको लोहयुग (Iron Age) कहते हैं।
1
प्रागैतिहासिक युग
इतिहासके एक युगका नाम है प्रस्तरयुग । धातु x Origin of Bengali Script P. P. 5-6
इस बंगदेशकी मिट्टीके निम्नस्तरसे प्रस्तरयुग के अस्त्रशस्त्र कई जगह प्राप्त हुए हैं। मिन्मेन्ट बाल साहबको सन् १८७८ में बंगाल के प्रसिद पार्श्वनाथ पर्वत ( ( श्री सम्मेदशिखर) के पासून एक छेदनास्त्र मिला था। सन् 1830 में हजारीबाग के भीतीच लींको पारनाथ पर्वतके निकट और हजारीबाग के अभ्या न्य स्थानोंमें पाँच नव्य प्रस्तर युगक अस्त्र मिले थे ।
१९१०
नवविक मत है कि आधुनिक भारतवर्षका उत्तरांशीय श्रावर्त प्रदेश यहाँ तक कि हिमालयका भी एक समय अस्तित्व नहीं था। विन्ध्यपर्वतके उत्तर में एक प्रकांड समुद्र था। पीछे किसी सुदूर अतीतकाल में हिमाजब समुद्र गर्भसे उत्थित हुआ और हिमालय निश्रित नदी वाहितमृतिका द्वारा आर्यावर्त प्रदेशकी सृष्टि हुई। जैन शास्त्रोंमें लिखा है कि पहले यहाँ कोई नगराद नहीं थे और सर्व प्रथम भगवान आदिनाथने नगरादिकी रचना इन्द्र से करवाई ( आ. पु.) ।
श्री जिनसेनाचार्य के आदि पुराण पर्व १६ श्लोक १२२-१२६ से मालूम होता है कि भगवान आदिनाथ Proceedings of the Asiatic Society of Bengal 1878 p. 125.
* Catalogue Raisonne of the Prchistoric Antiquities in the Indian Musium p. 160.
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किर १
बंगीय जैन पुरावृत्त
[२१
(प्रथम तीर्थकरकी भाज्ञासे इन्दने ५२ देशोंकी रचना वर्तमान उडीसा और उदोसाके दक्षिण भोर अवस्थित की। उनमें पुण्डू, उपद, कलिंग भंग, बंग, सुहा, मगध गोदावरी-पर्यन्त विस्तृत भूभागको प्राचीन कालमें कलिंग भी थे। भगवान आदिनाथने इन देशोंमें अर्थात् मुला, कहते थे । परवर्तिकालमें जब उडीसाका 'उर' या 'उत्कल' पुण्डू, अंग, बंग, मगध, कलिगमें भी विहार कर धमोपदेश नाम प्रचलित हुभा और प्राचीन कलिंगका दक्षिण भाग दिया था। (प्रादि पु. पर्व २. श्लोक २८७)। और ही केवल कलिंग नामसे अभिहित होने लगा तब भी इस पुराणके पर्व २६ श्लोक से मालूम होता है कि उत्कल 'सकल कलिंग या कलिंग' एक कलिंगको लेकर
आदिनाथके पुत्र महाराज 'भरत' के थाधान पुगडू और गण्य होता था। प्लीनो ( मेगस्थिनिसका अनुसरण कर ) गौड देश भी थे। इन प्रमाणोंसे बंग देशकी प्राचीनता और लिख गया है कि गंगा नदीका शेष भाग गंगारिड़ी. उनके साथ जैन धर्मका सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। कलिंग राज्यके भीतर होकर प्रवाहित हुभा है इस राज्यकी
जैन हरिवंशपुराण (रचना काल सन् ७८३) में भारत- राजधानी पलिस है। पलीनी द्वारा गंगारिदिौर कलिंग वर्षके पूर्वके देशोंमें निम्नलिखित देशांको गिनाया गया को एकत्र उक्लिखित देख यह धारणा होती है कि कलिंग है (सर्ग ११, श्लाक ६४-७६)
उस समय गंगारिकी राज्यके ही अन्तर्भूत था। डिउडो___ खाग, प्रांगारक. पौण्ड, मल्लप्रवक, मस्तक, प्रायोनिय, रसने भी मेगस्थिनिमका अनुसरन कर लिखा है कि गगा बंग, मगध, मानवतिक. मलद और भार्गव । हरिवंश पु. नदी गंगारिको देशकी पूर्व सीमासे प्रवाहित होकर मागरके सर्ग १७ श्लोक २०-२१ में लिखा है कि राजा ऐलयने में गिरती है। टालेमी के समय भार्यावर्त में कुषाण साम्राज्य ताम्रलिप्ति नामक नगर बसाया था।
प्रतिष्ठित था। उस समय वारगोसा (भगु कच्छ या भरोंच)
और गंगारिडीका प्रधान नगर 'गंगे' भारतवर्ष के प्रधान भारतवर्षके पूर्वभागमे बंग दश अवस्थित है। आज- बन्दर थे और इन दोनों बन्दरोंसे भारतका बहिर्वाणिज्य कल बंग दशकी जो सामा है पहले वह नही थी। प्राचीन सम्पादित होता था। काल में कितनी ही बार इस बंगदंशकी राष्ट्रीय सीमाका एक बात यह भी विचारणीय है कि गिरीक लोगोंने परिवर्तन हुआ है इसलिए इसकी सीमा निर्देश करनी पहज जिम गंगारिदी राज्यका उल्लेग्व दिया है उसकी उत्पति नहीं है। गौड साम्राज्य, पंचगौड़, द्वादश बंग आदिक 'गंगा और राढ' इन शब्दोंके योगसे 'गंगाराद' बन जाता अन्तर्गत समस्त पार्यावर्त ही गर्भित होता रहा है। है और गंगारादी शब्द एक ग्रीकगणों द्वारा विकृत भावसे ऐतिहासिक युगके प्रारम्भमें बंगदेशका बहभाग तमलुक उच्चारित होकर 'गंगारीबी हो मकनेकी सम्भावना है। (ताम्रलिप्ति) के अन्तर्गन था। बंगालका जो अंश भागी- अतः प्राचीन राढ़ देश हो प्रीक गणोका गंगारीड़ी हो रथी पश्चिमकी ओर अवस्थित है उसका नाम राढ है। सकता है। यहांका ताम्रलिप्ति बन्दर भी उस समय लोक
आचारांग सूत्र में लान या राढ देशका उल्लेख हश्रा है। प्रसिद्ध था । प्राचीन सुम्ह ही पीछे राठ देश एवं काशिक-कच्छ बंग गंगा और ब्रह्मपुत्रके कछार प्रदेशके अधिवासियों तथा और पुड्ने वरेन्द्रदेश नाममं प्रसिद्धि लाभ की थी उससे निम्नतर नदी मुग्वस्थ प्रदेश अर्थात् बंगाल, विहार
प्राचीन बंगदेश मगध, मिथला, पौंड गौड, अंग, सुम्ह, के प्रधान भागके निवासियों में सदेवसे न्यूनाधिक घनिष्ठ कौशिक, कच्छ, बंग एवं त्रिपुरा राज्यको लेकर गठिन सम्बन्ध चला आता है। प्राचीनकालमें बंगाल और हुया था। त्रिपुरा-व्यतीत इन सब देशोंकी मम्मिलित- विहारका राजनैतिक सम्बन्ध भी धनिष्ट था। इनका भावसे गंगारिती राज्य कहते थे ऐसा कई विद्वानोंका मत विभिन्न राजनैतिक और भौगोलिक विभाग जैसे मगध है। वृष्ट्रीय (ईमाकी) द्वितीय । शताब्दीमें प्रादुर्भू प्रसिद्ध विदेह, अंग, बंग, समतट, पुण्डू गौर, राह, सुझा श्रादिभौगोलिक टालेमि लिख गया है कि गंगाके मुहानासमूहके के इतिहासका अनुसन्धान करें तो ज्ञात होगा कि ईस्वी समीपवर्ती प्रदेशमें गंगारिडिगण वास करते है । सन पूर्व चतुर्थ और पंचम शताब्दीमें साम्राज्यवाद (Im
XMcCrandle's Ancient Indiaasperialism) के प्रारम्भ कालसे ये प्रदेश प्रायः एक described by Ptolemy p. 172.
राज्य शासनाधीन रहे है मौर्योंने इन प्रदेशों पर शासन
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२२]
अनेकान्त
किरण १]
अवश्य किया था और यहाँ गुप्तोंका भी शासनाधिकार इसी प्रकारका चारुदत्तको कथामें लिखा है
गृहीत्वा तत्र कर्पास बहुं बहुधनेन सः बंगालकी वर्तमान सीमा अकित करनेके लिए इसके सार्थन सह सार्थन स ययो ताम्रलिप्तिकाम् ॥५॥ उत्तरमें हिमालय दक्षिणमें तमलुक-प्रान्तसमाश्रित वारिधि- आराधना कथाकोषकी १०वीं कथा जिनेन्द्रभक्त सेठमें वन (बंगोपसागर) पूर्वमें ब्रह्मदेश पाराकनका अरण्य और लिखा हैप्रासाम विभाग (आसामसे होकर ही ब्रह्मपुत्र नद बंगालमें
गालमें यथास्ति गौड़देशे च ताम्रलिप्ति भिधापुरी। आया है) और पश्चिम में विहार और उड़ीसा प्रदेश। यत्र संतिष्ठते लक्ष्मी दान पूजायशःकारी ॥६॥
सन् ७८३ में रचित जैन हरिवंशपुराणके सर्ग २१ इस चतुःसीमाके मध्यवर्ती विपुल समतल क्षेत्रको
श्लोक ७६-७१ से पता लगता है कि उसीरावतसे कपास बंग कहते हैं। वर्तमानमें बंगाल के तीन हि से हैं। पूर्व बंगाल,
खरीद कर उसे लोग ताम्रलिप्तिमें बेचने जाते थे । पश्चिम बंगाल और उत्तर बंगाल । दक्षिणमें प्रायः ६००
इसी प्रकार ६८ वीं विद्य रचर मुनिकी कथामें लिखा है कि मील समुद्रका किनारा है। बंगाल प्रायः ४०० मील लम्बा
उन्होंने ताम्रलिप्तिमें केवल ज्ञान प्राप्त कियाऔर प्रायः इतना ही चौड़ा है पर तिकोनासा देश है। मुनिश्चशतं युक्त' विरक्तो मदनादिष । बंगालमें गंगाकी मुख्य धाराका नाम पद्मा तथा ब्रह्मपुत्रकी ताम्रलिप्तिपुरा प्राप्तो न लिप्तो मोहकहेमः॥३॥ मुख्य धाराका नाम जमुना है और इन दोनोंकी सम्मि- शुक्लध्यानप्रभावेन हत्वा कर्मारि सञ्चयम लित धाराओंको मुहानेके पास मेघना माम दिया गया केवलज्ञानमुत्पाद्य संप्राप्तो मोहमक्षयम् ॥४४॥ है। उत्तरपुराणके पर्व २६ श्लोक १२४-१५० पर्व २७ इससे ताम्रलिप्त सिद्ध स्थान प्रमाणित होता है। श्लोक-१६और पर्व ४५-श्लोक १४८-१५२ और हुगली जिलेमें चिनसुरा है, जहाँ दिगम्बर जैन मन्दिर श्लोक ११०-१६६ में गंगा नदीके सम्बन्धमें बहुत कुछ है। यहीं प्रसिद्ध सप्तग्राम त्रिवेणी है, जहांसे एक जैन लिखा गया है। बंगालके वर्तमान पांचों विभागोंकी सीमा मूर्ति मिली है। और उनके जिले निम्न प्रकार हैं:
२ प्रेसीडेन्सी विभाग १ वर्दवान विभाग
पूर्व में हरिनघाटा नदी, पूर्व और उत्तर में मधुमती और पूर्व में भागीरथी (हगली) नदी और प्रसीटेन्सी पना नदियां या ढाका और राजशाही विभाग, पश्चिममें विभाग दक्षिणमें बंगालकी खादी, पश्चिममें उड़ीसा और भागीरथी (हुगली) नदी या संथाल परगना और वर्दछोटा नागपुर, उत्तरमें संथल पर्गना और मुर्शिदाबाद वान विभाग, दक्षिणमें बंगालको खाड़ी। इस विभागमें जिला है। यह विभाग सबसे छोटा है। इसके जिले हैं समुद्रके किनारे नदियों के मुहाने बहुत अधिक है। इसके वर्दवान, वीरभूमि, पाकुडा, मेदिनीपुर, हुगली और जिले हैं चौबीस परगना कलकत्ता, बदिया, मुर्शिदाबाद. हवडा । मेदिनीपुर जिलेमें हीतमलुक है, जो प्राचीन काल- जसौर और खुलना । खुलना जिलेके दक्षिण में सुन्दर वनका में ताम्रलिप्ति नामका प्रसिद्ध बन्दर था, किन्तु अब समुद्र
अधिकांश भाग है। समुद्र के पास सुन्दर वन नामका यहीं से ४५ मील दूर है। हरिषेणके तहत कथाकोषमें जांगल प्रदेश है । कई स्थलों पर ताम्रलिप्ति नगरका वर्णन किया गया है।
३ राजशाही विभाग यह कथाकोष सन् ६३१ की रचना है। करकण्डु महाराज- उत्तरमें सिकिम और भूटान राज्य, पूर्व में प्रासाम की कथामें लिखा है
और ब्रह्मपुत्र ( जमुना) या ढाका विभाग, दक्षिणमें गंगा ताम्रलिप्तौ पुरे श्रेष्ठी वसुमित्रो महाधनः । (पद्या) पश्चिममें बिहार प्रान्त और नेपाल राज्य । तस्य भार्याऽभवन् तन्वी नागदत्ता प्रियंवदा ॥११६॥ बंगाल में यह सबसे बड़ा विभाग है।
XDynastic History of Northern In- यह पूर्व पश्चिम प्रायः २०० मील लम्बा और उत्तरdin by H.C. Roy p.271-72
दक्षिण ६०... मीन चौड़ा है।
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किरण १] बंगीय जैन पुरावृत्त
[२३ मालदा, राजशाही, दीनाजपुर और बोगदा जिबीका
५ चटगांव विभाग एक भाग वरेन्द्र भूमि कहलाता है। हरिषेणके वृहतकथा
उत्तरमें प्रासाम, पूर्व में भासाम और वर्मा, दक्षिणमें कोषमें भी शोमशर्माकी कथामें प्रथम श्लोकमें भी 'वरेन्द्र शब्द इस प्रदेशके लिए भाया है
वर्मा और बंगालकी खादी और ढाका विभाग । इसके पूर्वदेशे वरेन्द्रस्य विषये धनभूपिणे ।
जिले है-चटर्गाव, त्रिपुरा (टिपरा) और नोपाखाली। देवकोटपुरं म्यं बभूव भुवि विश्रुतम ||
त्रिपुराके निकट कोमिला है जो जैमशास्त्रोंमें कोमलाके इसके जिले है-राजशाही, दीनाजपुर, जलपाई गोडी. '
नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ से ६ मील पर मैनामती नामक दार्जिलिंग, रंगपुर, बोगडा, पबना और मालदा । बोगडा स्थान
- स्थानसे दो जैन मूर्तियां उपलब्ध हुई थीं। जिलेके महास्थानगढ़में ही पौण्ड्रवर्द्धन राजधानी थी, स्वामी विश्वभूषणकृत संस्कृत भकामर कथाका हिन्दी यहीं पहादपुर है जहाँ बड़ा प्राचीन मन्दिर निकला है अनुवाद (पद्य)पं विनोदीलालजीने सं० १७४७ में जिसमें जैन ताम्रलेख भी प्राप्त हुआ है। पुराने मालदासे किया था उसमें श्रीरन वैश्यकी कथामें पूर्वबंगालमें सभद्रा १०/११ मील दक्षिण-पश्चिममें गौर नामक ऐतिहासिक नगरीका उल्लेग्व है, जहाँ जैनमुनि भी थे। अब सन स्थान है।
१९४७ से बंगालके दो भाग हो गए है-पर्व बंगाल ४ डाका विभाग
(पाकिस्तान) और पश्चिमी बंगाल (हिन्दुस्तान)। अस्तु, उत्तर पूर्व में प्रासाम प्रान्त, पूर्वमें मेघना नदी और पूर्व पाकिस्तानमें अब है-२ प्रेसीडेन्सी विभागके नदियाचटगाँव विभाग, दक्षिणम बंगालकी ग्वाड़ी, दक्षिण-पश्चिम का बहुभाग, जैसोर और खुलना । । राजशाही विभागके में मधुमती (हरिनघाटा) नदी और प्रेसीडेन्सी विभाग, पूर्व दीनाजपुर, रंगपुर, बोगडा, पवना और मालदाका उत्तर-पश्चिममें जमुना नदी और राजशाही विभाग । इसके कुछ भाग। ४ ढाकाविभाग सम्पूर्ण और ५ चटगाँव जिल्ले हैं-ढाका, मैमनसिह, फरीदपुर और बाकरगंज। विभाग सम्पूर्ण ।
(क्रमशः)
१४वीं शताब्दीकी एक हिन्दीरचना
(६० कस्तूरचन्दकाशलीकाल एम०ए०) जैन शास्त्रभण्डारोंमें कितने प्रमूल्य रत्न छिपे हुये हैं समय पर उपलब्ध होने वाली हिन्दी रचनाओंके माधार यह हमें समय समय पर उपलब्ध रचनाओंके आधार पर पर और भी हद हो जाती है। ज्ञात होता है। इन ज्ञानभण्डारोंको यदि भाजले २० वर्ष अभी कुछ समय पूर्व राजस्थानके ज्ञान भण्डारीकी सूची पूर्व भी देख लिया जाता तो अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी बनाते समय श्री दि. जैन वदा मन्दिर तेरपंथियोंक साहित्यके इतिहास लेखनमें पाशातीत सफलता मिलती शास्त्र भंडार में संवत् ११३४ का लिखा हुमा एक प्राचीन
और जैन विद्वानों द्वारा लिखित माहित्यका अत्यधिक गुटका मिला है। इसी गुटकेमें संवत् १७१ की एक महत्वके साथ उस्लेम्व किया जाता। देशकी बोल-चाल- हिन्दी रचनाका भी संग्रह किया हुआ है। यद्यपि रचना की भाषा साहित्य निर्माणका सदा ही जैन विद्वानोंका शुद्ध हिन्दीमें नहीं है किन्तु रचनाकी दिन्दी, हिन्दीके ध्येय रहा है इसीलिये जैन भण्डारोंमें देशकी प्रायः सभी प्रादिकालकी अन्य रचनाओंके समान है। रचनाकी भाषा भाषाओं में महत्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध होता है। पर अपभ्रशका स्पष्ट प्रभाव मसकता है। हिन्दी भाषाकी
अपभ्रंश भाषाके साहित्यमें तो जैनाचार्यों का एकाधिपत्य इसी प्राचीन रचनाका परिचय प्राज पाठकोंके समक्ष हिन्दीके प्रायः सभी विद्वानों द्वारा स्वीकार कर लिया गया उपस्थित कर रहा हूँ। है किन्तु हिन्दीभाषामें भी प्रारम्भसे ही जैनविद्वानोंकी रचनाका नाम 'चउवीसी' है इसमें जैनोंके वर्तमान साहित्य-निर्माणमें प्रतिरुचि रही है और यह धारणा समय २४ तीर्थकरोंका अति संचित परिचय दिया गया है।
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२४]
अनेकान्त
[किरण १
यह चावीसी 'देह' कवि द्वारा लिखी गयी है जिसमें रचनाकी भाषा जैसा कि उपर कहा जा चुका है शुद्ध कुना सन्द है। उनमें २५ छन्दोंमें २४ वीथैकरोंका हिन्दी नहीं है। किन्तु इसकी भाषाको पुराना हिन्दी कहा परिचय और शेष दो छन्दोंमें कविने अपना और बंधके जा सकता है। जिसपर अपनशका पूरा प्रभाव झलकता रचनाकाल मादिका परिचय दिया है।
है। अथवा यों कहा जा सकता है कि जिस क्रमसे अपभ्रंश कविका उदेश्य कोई साहित्यक रचनाका अथवा रसा
हिन्दी भाषामें परिवर्तित हो गयी थी. उस परिवर्तनके लंकार पूर्ण रचनाके निर्माण करनेका नहीं था। उसे तो भा हम इसमें स्पष्ट दर्शन मिलते हैं। सोधी-सादी उस समयकी बोलचालको भाषामें २४ तीर्थ- दृष्टिसे रचना अपूर्ण क्योंकि इसमें किसी एक अथवा करोंका परिचय लिखना था। यही कारण है कि कविने अधिक पन्दोका निश्चित एवं उचित रूपमें प्रयोग नहीं रचनामें उस समयकी बोलचालकी भाषाके शब्दोंका ही हुमा किन्तु कविको एक सीर्थकरके परिचय लिखने में जिला प्रयोग किया है। क्योंकि उस समयकी अपभ्रशके शब्दोंका पक्तियांकी अावश्यकता जानपड़ी उतनीही पंक्तियांका एक बोलचालमें काफी प्रयोग या इसलिये कविकी रचनामें भी छन्द बना दिया गया है।
फिर भी हिन्दीके मादिकालकी दृष्टिसे यह उत्तम वे शब्द बहुलवासे प्रवेश पा गये है। कविने रचना निर्माण करनेका निम्न उदेश्य बतलाया है :
रचना है । यद्यपि रचना पूर्ण धार्मिक है। किन्तु उसमें
काम्यत्वकी मलक होने के कारण हिन्दी साहित्य के इतिहासमें दुममु कालु पंचमर धम्मको दिन दिन हाणी।
उल्लेखनीय है तथा प्रादिकालकी हिन्दी • चनाओंमें इसे बोधि करहु फलु लेहु कहहु चवीस बखाणी ॥
उचित स्थान मिलना चाहिये। निम्न दो छन्दोंसे पाठक इसी प्रकार जिसके भाग्रहसं यह स्तवन लिखा गया है
जान सकेंगे कि रचना कितनी सरल एवं बोल चालकी उसने कविसे निम्न शब्दोंमें स्पष्ट प्रार्थनाकी है:
भाषामें लिखी हुई है एवं कितनी अर्थगम्य है। कविने मक्खय कारण हिमित देल्ह तुम्हि रचहु कवित्त' भगवान महावीरका परिचय निम्न प्रकार दिया है :
अर्थात् कर्मोंके जयके कारण हे देह तुमही कोई कुडिलपुर सुर बलाउ सिद्धारथ तहि राउ । रचना बिखो।
फ्यिकारिणी तसु राणी एय देह पभणेह।
वीर जिणेसर नन्दणु जिहि कंपायउ मेरू । स्वयं कविने भी अपना परिचय लिखा है। वे परवाह (परवार) जातिमें पैदा हुये थे। उनके धर्ममाह, पैतूमाह
सात हाथ काया पमाण लंधणु सीह सुणेहु । और उदेसाह ये तीन भाई थे। वे टिहढा नगरीके रहने
वरिस वहत्तरि जासु आउ सो कहिउ णिरूत्तु । वाले थे। इस परिचयको कविके शब्दोंमें भी पढ़िये:
पावापुरी उजाणमाहि णिव्वाणु पहंन्तु ॥
इसी प्रकार प्रत्येक छन्दमें तीर्थंकरके माता पिताका कहां जाणि कुलु श्रापणउ परवाडु भणा।
नाम, जन्मस्थान, आयु, शरीर, चिन्ह एवं जिस स्थानम्मे धमेसाहु हि पातउ आदिहि पैतू नाई। मोक्ष गये थे उसका नाम दिया गया है। पद्य कुछ अशुद्ध उदैसाह दिन माय ए तीनिउ लघु भाई । रूप में लिखे गए हैं और संशोधन के लिये दूसरी प्रति की टिहढा यार वसंतु देल्ह चवीसी गाई ।।
अपेक्षा रखते हैं। पथगत यक्ष यक्षणियोंके नाम त्रिलोयकविने रचनाको संवत् १३७॥ वैशाम्ब सुदी ३ गुरुवार
परणती आदि ग्रन्थोंसे मित्र प्रतीत होते हैं। पूर्ण रचना रोहिणी नक्षत्र एवं ब्रह्मयोगमें समाक्ष की थी जैसा कि
इस प्रकार है:
चउचीसी गीत निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:
आदि रिसहु पणवेघिणु अन्त वीरू जिणणाहु । तेरहसइ इकहत्तरे संवच्छर [मुभ होइ ।
अरूहु सिद्ध आचार्य अरु अज्झापति साहू ।। मामु वसंतु प्रतीत उ अक्खड तिज दिन हो।
गणहर देउ नपिणु सारद करइ पसाउ। गुम्बासम पणिज्जइ रोहिरिण रिषु सणेह। हउं चउवीसी गाउं करि ति-सुद्ध समभाउ । ब्रह्मायोग पसिद्धउ जोइस एम कहेइ ।। सा तन सहजा नन्दणु बोलाइवच्छे निरुत्त ।
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किरण ]
१४वीं शताब्दीकी एक हिन्दीरचना
[२५
कम्मक्खय कारण णिमित देल्ह तुम्हि रचहु कवित्त विजसु जाखिणी तिहि कहियउ नाउँ । दुसमु कालु पंचमढं धम्मकी दिन दिन हाणा।
जक्खेसुरु सो जक्खु भणि सासण रखवाल। बोधि करहु फलु लेहु कहहु चउवीस बखाणी॥ धनुसर खेटकु' पाणिहि किकिणि सा हुवा मालू । गौरउ पभणइंणिसुणि णाह हउ दासि तुम्हारी। पुव्व लक्ख पंचास कहिउ पास परिमाणु । जिण चउवीस कर्थतरूसो मुहिकहह विचारी॥ सम्मेदागिरिवर चदेवि लद्धउ णिबाणु ॥४॥ वर्णनीय विषय ।
(५ सुमतिनाथ) बापु माय तित्थंकरू जनमु नयरू अरू पाउ।
मेघराउ अवधापुरि सुभ मंगल जसु नारी। जक्खु जक्खिणी लंछणु अरु जिहि जेतउ काउ।
सुमतिनाथ तसुनंदण सामी कहहु विचारी। (१ आदिनाथ )
धनुष तीनि सइ काया लेखण चकहा जोल । णाभिनरिंदु नरेसरु मरुदेवी सु-कलत्ता।
तुबरु जक्खु भणिज्जा संसारिणि ? जसु देवि । तसु उरि रिसहु उवएणो अवध वंदाहिकत्ता ।।
पुव्वलक्ख चालीस भाऊ सो कहिउ निरुत्त । पुणि कहि हउ आउस पमाणु जिहि जेती सखा ।
सम्मेदह गिरिवर चढेवि णिव्वाण पहुंतु ॥४॥ आदिनाथ जिण कहिय आउ पुव्व चउरासी लक्खा
(६ पद्मप्रम) वृषभ तासु तल लंछणु अति सरूपु सुरतारू। पद्मपहु कउसंवी सामीलाइसु वंदाऊ । गोमुख जक्खु चक्केसरू, धरणुसह ५'च शरीरु॥ गुहसीमादे जसु माता धरणेसरू जसुताऊ । बड पयाग तलै रिक्षा बोल वच्छ निरुत्त । पुप्फा शुवि सो जक्खु कहिउ, मोहिणि क्खिणि जासु कैलासह गिरिवर चडे वि निव्वाण पहुंतु ॥१॥ सयइ अढाइ घणु तणु लंछणु कमलु पमाणु । (२ अजित नाथ )
तीस लक्ख पूरव प्रमाणु जिणघर निमुणिज्जइ।
कम्मक्खय कारण णिमितु जिन पूज रइज्जइ। पुणि पिय अजिउ बन्दाबहु अवध नयरि निह ठाऊ
सम्मेदह गिरिवर चडेवि कम्मक्खउ कीज्जा।६ विजयादे उर धरियउ जितसनु जिणेसर ताऊ ।।
(७ सुपाश्वं नाथ) पुत्व वहंतरि लक्ख श्राऊ वियह णिसणेह।
सुपट वाणारसी पृथिवीदे सु-कलत्ता। तासु चलण कमल हलवि, कुसुमंजलि देहू ।।
दुइसइ धनुप शरीरू जासु वन्दाबहु कंठा। चउड सइ धणु काया महाजक्खु तहि आही।।
बीस लक्ख पूरव निबद्ध जसु श्राउ पमाणु । अजिते जकारण सूमइ लंबणु गय वरु ताही
संमेदह गिरिवर चडेवि लद्धउ णिन्वाणु । सम्मेदद गिरिवरह जासु भइयउणिव्वाणु ॥२॥
मातंगवि सो जक्खु कहिउ जक्खिणि मोहि णिवि (३ संभवनाथ)
जिण सुपास लंछण सुस्तिकुतसु हई पूजइ बिम्बु ।।। शंभउ सामि बन्दाबहु साइति पुरह मझारी।
(८ चन्द्रप्रभ ) सेनादे जसु माता पिता नरिंदु जितारी।
महासेण चन्द्रापुरि लक्खुमादे जसु नारी। साठि लक्ख पूरव पमाणु संभव जिए आऊ ।
चन्द्रापहु तस नन्द लेछण ससिहरु वारी ॥ संमेदह गिरिवर चडे वि गउ शिवपुरि ठाउ॥ पुव्वलक्ख दस आहि आउ सो कहिउ निरुत्त । तिरिमुक्खु मक्खु णिज्जइ नम्मेदे जसु नारी।। संमेदह गिरिवर चडे वि णिव्वाण पतु ॥ लंछणु तुरिउ पासिउ कया घणु खसइ वारी १॥३ स्यामा जक्खु जसु कहियउ ज्यालामालिणि देवी। . (४ अभिनन्दननाथ)
धनुष डिउड्दु सउकाय अक्खइ दन्हु नवेवि ॥ ८॥ तासु संवरणु राजा सिद्धारथदे नारी।
(६ पुष्प दन्त) वंदरू लंछणु तल लसइ अहठधणु काया दुरितारी। किंकिंधी पुरियार राया सुग्रीव महंतु ।
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अनेकान्त
२६ ]
रामादेवी नंदणु पुष्पदन्तु जिपुत ॥ लंकरण मगरू सुहाउ आऊ सड धनुष वखाएउ । श्रजितु जक्खु तसु लुकुटिदेवि दुहुँ कहियउ नाउं सम्मेदद्द गिरि वससि रंमि साधिउ निव्वा ||६|| ( १० शीतल नाथ )
रथुरा नन्दादे भादिलपुर सउथान् । धम्मु तासु घर नंद सीयलु निगु एविं आन || एक लक्खु पुरव पमाणु दसमउं जिण होइ । संमेदह गिरिवर चडेवि गड मोक्खुहि सोइ || बंभ नक्खु राकारू जक्खिणी चाचढ देवी । सिविच्छु छ लंड व धनुष तर ही ||१० ( ११ यांसनाथ )
विबहुरात वेणुसिरिदेवि सिंहपुर वि वरथान । गेंडर जीउ लक्षण वित्थंकरू सिरियंसु ॥ वरिस लक्ख चौरासी आउसु कहिउ निरुत्तु । सम्मेदह गिरिवर चडेवि शिव्त्राण पहुंतु ।। ईसरू अक्खु प्रसिद्ध मोमेधकि जसु देवी असी धनुष छह काया अक्खइ देवह नवेवि || ( १२ वासुपूज्य )
[ किरण १
( १४ अनन्तनाथ )
सिंघसेनु जस राजा सुजसादे जसु नारी । जिणु भरणंतु पसिद्धउ धनुष पंचास सरीरू | अक्खु पतलु कहिज्जइ विजृ भिण तसु देवी । सेही लंड तसुतला सो जिगु लहरगाह चंदाउ । श्रवधड पंाउं वलमहंतु रोरुहरु भरमिज्जइ । तीस लक्ख वरिसह पाणु जसु आउ कहिज्जइ । सम्मेदह गिरिवर सिमि शिव्वाणु भणिज्जइ । ( १५ धर्मनाथ )
चंपापुर वासपुज्न राड विजयदेवी धरासारी। वसुपूजु जिए वंदि हउ इम पभणइ नारी । समउसरण रचियत कुबेर -- *********** भयउ सई इंदूवरिस वहत्तर लक्ख भाउ । वारहउं जिणंदु महिसु तासु जाउ लंछणु । सतरि धनुष सरीरु जक्खु मुमारु पसिद्धउ विद्यन्मालिणि देवि चंपापुरि गयर पसिद्ध तव्बिा पहुं तु || १२ || ( १३ विमलनाथ )
कित्तिर्वसु वसु राजा सामादे जसु माइ । सो जिणवरु पिय वंदि हउ लंगु सुयराहू ! विमलुनाथु सो कहियड कंपिलपुरि नसु थानु । साठि धनुष काया पमाणु कहियउ निरजासु । च मुक्खु अक्खु पयडु वीरू सासरण रखवालू । जक्खिण विद्यादेवी कas देल्हु खिसुणेहू । साठि लक्ख वरिसरु प्रमाणु कहियउ जिभाऊ ।
सम्मेदह गिरिवर चढे वि गउ सिवपुरि ठाऊ ||१३|| पुहमि सुदरिसनु राजा मित्रादे तरी ।
भानुराउ सुव्रतादेवि रतनपुरु सउथानु । धम्मुनाथु तहि ऊपजड लंछणु वन्ज पहाणु । किलरू जक्खु परिभृता देवि जक्खि सुतासु । पंचऊण पंचास धनुष तसु काय कहिज्जइ । धम्मनाथ दहलक्ख वरिस आऊ पभणिज्जइ । न्हवण पूज उच्छव कवि कुसुमंजल दिज्जइ । सम्मेदह गिरिवर सिरंमि गिव्वा थुपिज्जइ || ( १६ शान्तिनाथ ) हस्तिनापुर पाटणु विश्वसे तर्हि राउ । इरादे उर धारियउ संतिजिणेसरु नाउं । गरडु जक्खु कंइपे १ देवि तिहुवरिण सुपसिद्ध | चैतमास वंदि हउं सतिवर गयर सिरंभि । धनुष चालीस सरीरू चक्रर्वाह सो पंचम । कामु वारहउं भणिज्जइ सोलह तिथंकरु नहि जगि पइडिउ संति । जमि जमि वंदिहउँ साहई सुपभाई कति । सम्मेदह गिरिवर चढे वि शिव्या पहुंतु ॥१७॥ ( १७ कुंथुनाथ )
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सूरसेणु सिरियाम तिह थिणु पुरुवर था । छलउ लंडर जसु तल कुथु जिणेसर नाउं ॥ छट चक्र बल्लि कहियउ दम तमउ जिणंदु | कुंथुनाथु पिय वह मुहि ममह श्रदु ॥ पंच साहस ऊ उं लक्खु परि आउस पभणिज्जइ । ivate y काय खइ देल्हु खिरुत्तु ।। सम्मेदह गिरिवर चढे विव्विाण पहुंरंतु ॥ ( १८ अरनाथ )
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किरण १] १४वीं शताब्दीकी एक हिन्दीरचना
[२७ गजपुर नयरि उपनउ पियमुहि अरुह दिखाली ॥ अंमादेवि जक्षिणी जक्खु वि गोमेदू, जखेद्र जतहि कालिका देवि जिणसासण तीणो। जीवदयाके कारणे जिहि परिहरियउ राजु । मीनु जुगलु तसु लंछनु तीस धनुष तणु होइ ।। सहसु वरिस आउसु णिवद्ध नेमीसर सामी चक्रवहि सत्तम णाह वन्दाहि भोहो । मोलि राजु सवु परियणु पंच महव्यय पारू । अरु जिण पाऊसु कहिउ परिसचउरासी सहस शिरुत्त नव नवेवि उज्जंतगिरि भउ पंचम गय-गामी ।। सम्मेदह गिरिवर चडे वि णिवाणु पहुंत ।।
( २३ पार्श्वनाथ ) (१६ मन्लिनाथ )
जग पसिद्ध वाणारसि अस्ससेणु तहिं राउ । कलसु जास छ। लछण कुंभ नरिंदह पुत्तु । वंमा देवी र्णदणु पासणाहु जिणु देहु । पहावतीदे उरधरियउ, मिथला नयरि निरुत्त ।
सप्त फणामणि मंडिउ लछणु जासु फणिंदु । पंचावण सहस बरिस छइ जिणवर आऊ। फणपति जक्खु मतंग जसु पद्मावनि देवि। जक्खु कुबेरु पसिद्धउ अनजातवि तमुदेवि
अतिसय वन्तु जिणेसरू कह देल्हु णिसुणेहु । पंचवोस धनुकाया तुम्हि सरिसी पिय वंदिह।
वरिस एक सउ पाहिभाऊ भवियहु णिसणेहु॥ करिणि मलचित्त सम्मेदह गिरिवर चडे विणिम्वाणपहंतु णव कक्खाया णिम्मल हरित वरण सुणिरुत्त
सम्मेदह गिरिवर चढे वि णिव्वाणु पहुँत । (२० मुनिसुव्रत) राय सुमित्तु पसिद्धउ पदमारे जगु नारी ।
(२४ वीरजिनेश्वर) मुणियबउ जिणु णंदणु लंबणु करमु जाणी।।
कुण्डलपुर सुर वंदर सिद्धारथ तहि राउ । कोस ग्राम वरपाहणु कहइ देल्ह सु-वरवाणी ।
पियकारिणो तसुराणी एम देल्हु पभणेइ। वीसधणु तणु काया वरुणजक्खु तसु जाणी॥
वीर जिणेसरू नन्दणु जिहि कंपायउ मेरू। देवि सुगंधिर्धाण कहिए जिणसासण रखवाली। सात हाथ काया पमाणु लछणु सीहु सुणेहु । तोस सहस वरिम मुबाउ जाणिहुं परमाणु॥ मातुगाव सो जक्खु कीउ सिद्धवणि तसु देवि । साम वरणु गुणणिम्मलु हरिवंसु पसिद्ध ।
रिस वहरिभाऊ जासु सो कहियउ णिहत्तु॥ गुण गहीरू रयणयरू पर अइसयं संजुत्तु ।। पावापुरी उज्जाण महि णिव्वाणु पहंतु । सम्मेदह गिरिवर चढे वि रिणव्वाणु पहंतु ।।
गोरउ पभणइणिसुपिणाह तुम्हि फुरई आसा।
वीरणाहुं जिणु वैदि वंदे जिण चउवीसा। (२१ नमिनाथ) मिथिला णयरि खन्नी विजय नाम हि राउ ।
(२५) वामादे तस राणी नमि जिणवरू जसु पूच ॥ हउं तुम्हि गोरउ पुच्छिउ मुहि पुणि बुद्धिय भाणी। लंछण कमल पयासि पन्द्रह धनुष सरीरू । सरसइ देवि पसाई जिण चउवीसी वखाणी । भकुटि जक्ख जसु कहिए कुसुमार्माण तस देवि अक्खर मात पद हीणु जो कहिउ णिरूस । नाम जिणवरके नमउ पाइ इम पभणइ णारी । सरसइ माइ खिमिज्जहु हउं पुणि बुद्धि विहीच। वरिस सहस दस कहिउ भाउ सो भणिणिरूत्त ।
भवियण विणड पयासमि उ जिण सासण लीगु । सम्मेदह गिरिवर चडे वि णिव्वाण पहुंतु ||
दुरिमन कहिल मणि सुबहु पढ़हुं सुभाउ धगेव।
जिणगुण वंतणु णिसुणे मऊ संतारू अरेहू । (२२ नेमिनाथ)
दुक्खह भुक्खह दालिदह परिण मंजुलि देह ।। सूरिपुर नयरि समुदविजय तहि राउ । णेमिणाथ तसुनंदणु दस धणु हर रसु काऊ ।
(२६) सिवदे माता जसु माणो तमु लण्णु शंखु ।
कहां जाणि कुलु आपण परवाडु भणार्ड।
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२८]
धम्मे साहुहि पणतिउं आजिहि पैत् नाउं । उदैसाहि दिउ भीयाँ ए तीनिउ लघु भाई। टिहढा यार वसन्त देल्ह चउवीसी गाई ।। हउं तुम्हि गोरउ पुंछिउ बुद्धि कहा मइपाइ। तेरहसइ इकहत्तरे संवच्छरु होड ।
अनेकान्त
[किरण १ मासु वसन्तु अतीतउ अलखइ तिज दिनु होइ। गुरवासरू पभणिज्जइ राहिणि रिसु गुणेहु । ब्रह्मा जोग पसिद्धउ जोइसु एम कहेइ । पढइ पढावइ णिसुगइ लिहि लिहा जो देह । भव-समुदु सो उत्तरइ मोक्व पुरह सो जाइ ।।
(श्री दि. जैन अतिशयक्षेत्र श्रीमहावीरजीक अनुसंधान विभागकी ओरसे )
कुछ नई खोजें
(पं० परमानन्द जैन )
१-भहारक धर्मकीर्ति मृलसंघ मरम्बनि गच्छ और यशोधर चरित्र । इनमें से प्रथम ग्रन्थ इन्होंने वि.
बलात्कारगणके विद्वान ललितकीतिके शिष्य थे। मं०१५२६ के माघ महीनेकी सोमवारके दिन दो हज़ार यह सत्रहवीं शताब्दीक विद्वान थे। इनकी इस समय सरसठ (२०६७) श्लोकामे पूर्ण किया है। प्रत्य म्नदो कृतियाँ मेरे देखने में आई है । पद्मपुराण चरित्रको कविने संवत् १५३, में भ० लक्ष्मीनिके
और हरिवंशपुराण । इनमें से प्रथम कृति पद्मपुराण पट्टधर भ० भीमसनके चरण प्रसादसे बनाकर समाप्त इन्होंने प्राचार्य रविषेणके पद्मचरितको देखकर उस- किया है । और तीसरा ग्रन्थ यशोधरारन है जिसकी रचना वि० सं० १६६८ में श्रावण महीनेकी की रचना कविने गोढिल्ल (गोंडवाना) देशके मंदपाट तृतिया शनिवारके दिन मालवदेशमें पूर्ण की थी। और (मेवाड़) के भगवान शीतलनाथके सुरम्य भवनमे सं० हरिवंशपुराण भी मालवामें संवत् १६७१ के आश्विन १९३६ पौष कृष्णा पंचमीके दिन एक हजार अठारह कृष्णा पंचमी रविवारके दिन पूर्ण किया था। ग्रन्थमें श्लोकोंमें पूर्ण किया है। इनकी अन्य क्या कृतियां हैं? कर्ताने अपनी गुरु परम्पराका तो उल्लेख किया है यह ज्ञात नहीं हो सका। यह विक्रमकी १६वीं शताकिन्तु अपने किसी शिष्यादिका कोई समुल्लख नहीं ब्दीके विद्वान थे। किया। और न यही बतलाया है कि वे कहांके भट्टा- ३-पंडित जिनदास वैद्य विद्यामं निष्णात विद्वान थे। रक थे। उनकी गुरु परम्पर क्रमशः इस प्रकार है:- ६० जिनदासके पूर्वज 'हरपति' नामके वणिक थे। देवेद्रकीर्ति, त्रिलोककीर्ति, सहस्त्रकीर्ति,
जिन्हें पद्मावती देवीका वर प्राप्त था, और जो पेरोसाहि पभनन्दी, यश कीर्ति, ललितकीर्ति और
नरेन्द्रसे सम्मानित थे। उन्हींके वंशमें 'पद्म' नामक श्रेष्ठी धर्मकीति
हुए, जिन्होंने अनेक दान दिये और ग्यासशाह नामक २ भट्टारक सोमकीति काष्ठासंघ स्थित नन्दी तट- राजासे बहुमान्यता प्राप्तकी। इन्होंने साकुम्भरी नगरीमें
गच्छके रममेनान्वयी भट्टारक भीमसेनके शिष्य विशाल जिनमन्दिर बनवाया था, वे इतने प्रभावशाली और नमीसेनके शिष्य थे। जो भ. रत्नकोर्तिके थे कि उनकी आज्ञाका किसी राजाने उल्लंघन नहीं किया। पट्टधर थे। इनकी तीन रचनाएं मेरे अवलोकनमें पाई मिथ्यात्व घातक तथा जिनगुणोंके नित्य पूषक थे। है, सप्त व्यसन कथा समुच्चय, प्रद्युम्न, चरित्र, और इनके पुत्र का नाम 'बिझ' था, जो वैचराट् थे । विमने
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अनेकान्त
विदेशके लिये प्रस्थान
श्रवण बेलगोलमें वीरसेवा-मन्दिरके नैमित्तिक अधिवेशनके सभापति
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मसर्म प्रार. मेकदिल पगड कंपनी लिमिटेड एवं मिश्रीलाल धर्मचन्द लि.. के मालिक श्री मिश्रीलालजी जैनके ज्येष्ठ पुत्र श्री धर्मचन्दजी जैनने एयरफोर्म द्वारा विश्व-भ्रमणके लिए गत २६ मईको प्रस्थान किया । आप लोग विभिन्न म्बानांक मालिक एव मंगनिज पोर, मेठ मिश्रीलालजी काला, कलकत्ता आयरन ओर, क्रोमाइट और, एवं श्राप कलकत्ता दि. जैन समाजके प्रतिष्ठित व्यक्ति केनाइट विश्व बाजारोको निर्यात करते है। हैं। धर्मनिष्ट और समाज हिनपी नया पाप श्रीधर्मचन्दजीकी अवस्था इस समय १० आत्मप्रशंमाटिम सदा दूर रहने है समाजको वर्षकी है और आपके भ्रमणका प्रोग्राम अापमं बड़ी अाशा है । श्रापने कलकत्ता स्थित दो महीनेका ठहरा है। आप लोग 'अने. बलहियाक मन्दिर जाम बहुनमा रपया खर्च कान्त पत्र नथा 'वीरसेवान्दिर के परम किया है। आप अनेकान्तक संरक्षक और वीरमहायक है, और इम मन्दिरका जो नया
पवा-मन्दिरके विशेष महाया है। प्रापसे संस्थाभवन दहलीम निर्माण होने जा रहा है के ननन भवन निर्माणमें भारी महयोग प्राप्त उममें आपका भारी सहयोग प्राप्त होने- होने वाला है । आप दीर्वजीवी होकर लोक में वाला है। हार्दिक भावना है कि आपका यशम्बी बनें ग्रही भावना है।
यह देशाटन सानन्द मफल हो। FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEeceCEEEEEEEEE
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अनेकान्त श्री १०५ पूज्य हुन्लक गणेशप्रसादजी वर्णी
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आप भारत के अहिंसक आध्यात्मिक मन्त हैं। और मागर से ६०० मील की पैदल यात्रा कर अभी गया में पधारे हैं। तथा ईमरी (पार्श्वनाथ हिल) में चातुर्मास करेंगे। आपकी प्रान्तरिक भावना है कि मंरा समाधिमरण पार्श्व प्रभुके चरणाम हो। आपने ज्येष्ठ बैसाम्बकी गर्मोकी लूश्री की भी कोई परवा नहीं की । आपका प्रारमा सम्बन्धमे दिया हुया महत्वपूर्ण प्रवचन पृष्ठ ३३ पर पढिए ।
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श्री महावीरजीके मन्दिरके मामने बना हुआ विशाल
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किरण १]
कुछ नई खोजें
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शाह नसीरसे उस्कर्ष प्राप्त किया था। इनके दूसरे पुत्रका नो निष्ठीवेन्न शेते वदविचन परं हतियाहीति यातु, नाम 'सुहजन' था, जो विवेकी और वादिरूपी गजोके लिये नो कपडूयेत गात्र ब्रजतिन निशि नोटयेहा न दो। सिंहके समान था। सबका उपकारक और जिनधर्मका ना विष्ट प्राति किंचिद्गुणनिधिरिति यो पर्वयोगः, भाचरण करने वाला था। यह भट्टारक जिनचन्द्र के पद कृत्वा सम्नयास मन्ते शुभ गतिरभवत्सर्वसाधुः सापूज्यः ॥२ पर प्रतिष्ठित हुआ था और उसका नाम 'प्रभाचन्द्र' रक्खा तस्यासीसुविशुद्धरष्टिविभवः सिद्धान्त पारं गतः। गया था। उक्त विमका पुत्र धर्मदास हुश्रा, जिसे महमूद- शिष्यः श्री जिनचन्द्र नाम कलितश्चारित्रभूषान्वितः । शाहने बहुमान्यता प्रदान की थी । यह भी वैद्यशिरोमणी शिष्यो भास्करनन्दि नाम विवुधस्तस्याऽभवत्तत्वविद, और विख्यातकीर्ति थे । इन्हें भी पनावतीका वर प्राप्त तेनाऽकारि सुखादिबोध विषया तत्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥३॥ था । इसकी पत्नीका नाम 'धर्मश्री' था, जो अद्वितीय
नाम 'धमश्रा' था, जो अद्वितीय भास्कर नम्दीकी इस समय दो कृनियां सामने हैंदानी, सदृष्ट, रूपसे मन्मथ विजयी और प्रफुल्ल बदना
| विजपा पार प्रफुल्ल बदना एक 'ध्यानस्तव और दूसरी 'तत्वार्थवृत्ति', जिसे 'सुख थी। इसका 'रेखा' नामका एक पुत्र था जो वेद्यकलामें बोध वृत्ति' भी कहा जाता है। इनमें तस्वार्थ वृत्ति प्राचार्य दक्ष, वैयोंका स्वामी और लोकमे प्रसिद्ध था। यह वैद्य- उमा स्वानिके तत्वार्थ सबकी संक्षिप्त एवं सरल व्याख्या कला अथवा विद्या श्रापकी कुल परम्परासे चली रही है। इसकी रचना कब और कहां हुई यह प्रम प्रति पर थी और उमसे आपके वंशकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। रेखा से कुछ भी मालूम नहीं होता। अपनी वैद्य विद्याके कारण रणस्तम्भ (रणथंभौर) नामक
रणस्तम्भ ( रणथभार ) नामक जिनचन्द्र नामके भनेक विद्वान भी हो गए हैं, उनमें दुर्ग में बादशाह शेरशाहक द्वारा सम्मानित हुए थे। प्रस्तत जिनचन्द्र कौन है और उनका समय क्या है।
आपकी माताका नाम 'रिग्वधी' और धर्मपत्नीका नाम यह सब सामग्रीके अभावमें बतलाना कठिन जान पड़ता जिनदामी था, जिनदासी रूप लावण्यादि गुणाम अलं- है। एक जिनचन्द्र चन्द्रनन्दीके शिष्य थे, जिसका कृत थी। जिनदासके माता : पितादिके नामांमे यह उल्लेख कन्नड कवि पने अपने शान्तिनाथपुराणमें स्पष्ट जाना जाता है कि उस समय कतिपय प्रान्तोंमें किया है। जो नाम पतिका होता था वही प्रायः पत्नीका भी ब्रह्म रायमल-हमवंशके भूषण थे। इनके पिता हुआ करता था। पं. जिनदास नवलपुरके निवासी
। ५० जनदास नवलपुरके निवासी का नाम 'मम' और माताका नाम चम्पादेवी था। यह थे। इनके एक पुत्र भी था और उसका नाम नारायण- जिन चरणकमलोंके उपासक थे। इन्होंने महासागरके तट दाय था।
भागमें समाश्रित 'ग्रीवापुर' के चन्द्रप्रभ जिनालयमें वर्णी पंडिन जिनदाम शेरपुरके शांतिनाथ चैत्यालय- कर्ममीके पचनासे 'भक्तामरम्मांत्र' की वृत्ति की रचना वि. में पर्चा वाली 'होली रेणुका चरित्र' की तिका संवत् १६६७ में अषाढ़ शुक्ला पंचमी बुधवारके दिन को अवलोकनकर संवत् १६० के ज्येष्ठ शुक्ला दशमो है। सेटके कृचान्दिर दिक्लीक शास्त्रभंडारकी प्रतिमें उस शुक्रवारके दिन इस ग्रन्थका ८४३ श्लोकांम समाप्त मनिरतनचन्द्रकी वृत्ति बतलाया गया है । अतएष दोनों है । ग्रन्यकर्ताने ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमं अपने वृत्तियांको मिलाकर जांचने की आवश्यकता है कि दोनों पूर्वजांफा भी कुछ परिचय दिया है जिसे उक्त प्रशस्ति- वृत्तियाँ जुदी जुदी हैं या कि एक ही वृत्तिको अपनी २ परस सहज ही जाना जा सकता। पंडित जिनदामजी- बनाने का प्रयत्न किया गया है। ने यह प्रन्थ भ. धर्मचन्द्रजीक शिष्य भ. ललित- अझ रायमल मुनि अनन्तकोनिके जो भ. रत्नकीर्तिके कीतिके नामांकित किया है, जिससे यह ज्ञान पदृश्वर एवं शिष्य थे। यह जयपुर और उसके पास-पास होता है कि यह संभवतः उन्हींके शिष्य जान के प्रदेशके रहने वाले थे। यह हिन्दी भाषाके विद्वान थे।
पर उममें गुजराती भाषाकी पुट अंकित है दोनों भाषामा ४-भास्करनन्दी मुनि जिनचन्द्रके शिष्य थे, जिनचन्द्र के शब्द व बहुत कुछ रखे मिले से पाए जाते हैं। इनकी
सर्वसाधु मुनिके शिष्य थे । जैसा कि उनकी 'तत्त्वार्थ- हिन्दी भाषाकी रचनाएँ और भी पाई जाती हैं। वृत्ति' के निम्न पोंसे प्रकट है:
नेमीश्वररास, हनुवंतकथा, प्रद्युम्नचरित सुदर्शनरास,
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अनेकान्त श्री १०५ पूज्य सुन्लक गणेशप्रसादजी वर्णी
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श्राप भारत के अहिंसक आध्यात्मिक सन्त हैं। और सागर से ६०० मील की पैदल यात्रा कर अभी गया में पधारे हैं। नथा ईपरी (पार्श्वनाथ हिल) में चातुर्मास करेंगे। आपकी आन्तरिक भावना है कि मेरा ममाधिमरण पार्श्व प्रभुके चरणाम हो । अापने ज्येष्ट बैमाग्वकी गर्मोकी लूश्री की भी कोई परवा नहीं की । आपका पारमार्क सम्बन्धमे दिया हुआ महत्वपूर्ण प्रवचन पृष्ठ ३३ पर पटिए ।
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श्री महावीरजीके मन्दिरके मामने बना हुआ विशाल
मानस्तम्भ।
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किरण १]
कुछ नई खोजें
शाह नसीरसे उत्कर्ष प्राप्त किया था। इनके दूसरे पुत्रका नो निष्ठीवेन्न शेते वदति च न परं झति याहीति यातु, नाम 'सुहजन' था, जो विवेकी और वादिरूपी गजोके लिये नोकगइयेत गात्र ब्रजतिन निशि नोडरयेद्वा न दत्त । सिंहके समान था। सबका उपकारक और जिनधर्मका ना विष्ट प्राति किंचिद्गुणनिधिरिति यो बजपर्ययोगः, भाचरण करने वाला था। यह भट्टारक जिनचन्द्र के पद कृत्वा सम्नयास मन्ते शुभ गतिरभवत्सर्वसाधुः सापूज्यः ॥२ पर प्रतिष्ठित हुअा था और उसका नाम 'प्रभाचन्द्र' रक्खा तस्यासीसुविशुष्टिविभवः सिद्धान्त पारं गतः। गया था। उक्त विकका पुत्र धर्मदास हुभा, जिसे महमूद- शिष्यः श्री जिमचन्द्र नाम कलितरचारित्रभूषान्वितः। शाहने बहुमान्यता प्रदान की थी। यह भी वैयशिरोमणी शिष्यो भास्कर नन्दि नाम विबुधस्तस्याऽभवत्तत्वविद, और विख्यातकीर्ति थे । इन्हें भी पद्मावती का वर प्राप्त नाकारि सखादि बोध विषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥३॥ था। इसकी पत्नीका नाम 'धर्मश्री' था, जो अद्वितीय
भास्कर नन्दीकी इस समय दो कृतियां सामने हैंदानी, सदृष्ट, रूपसे मन्मथ विजयी और प्रफुल्ल बदना
एक 'ध्यानस्तव और दूसरी 'तत्वार्थवृत्ति', जिसे 'सुग्ध थी। इसका रेखा' नामका एक पुत्र था जो वैद्यकलामें
नामका एक पुत्र था जा वचकलाम योष वृत्ति' भी कहा जाता है। इनमें तस्वार्थ वृत्ति प्राचार्य दव, वैद्योंका स्वामी और खोकमे प्रसिद्ध था । यह वैद्य- उमा स्थानिके तत्वार्थ सूत्रकी संक्षिप्त एवं सरल व्याख्या कला अथवा विद्या आपकी कुल परम्परासे चली आरही है। इसकी रचना कब और कहां हुई यह प्रम प्रति पर थी और उसमे आपके वंशकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। रेखा से कुछ भी मालूम नहीं होता। अपनी वैद्य विद्याके कारण रणस्तम्भ (रणथंभौर) नामक जिनचन्द्र नामके अनेक विद्वान भी हो गए हैं, उनमें दुर्ग में बादशाह शेरशाहक द्वारा सम्मानित हुए थे। प्रस्तुत जिनचन्द्र कौन है और उनका समय क्या है ? श्रापकी माताका नाम 'रिखश्री' और धर्मपरनीका नाम यह सब मामग्रीके प्रभावमें बतलाना कठिन जान पड़ता जिनदामी था, लिनदासी रूप लावण्यादि गुणाम अलं- है। एक जिनचन्द्र चन्द्रनन्दीके शिष्य थे, जिसका कृत पी । जिनदासके माता : पितादिके नामांमे यह उस्लेख कन्नड कवि पने अपने शान्तिनाथपुराणमें स्पष्ट जाना जाता है कि उस समय कतिपय प्रान्तोंमें किया है। जी नाम पनिका होता था वही प्रायः पत्नीका भी
मा रायमज-हुमरवंशके भूषण थे। इनके पिता हुआ करता था। पं. जिनदाम नवलपुरके निवासी
का नाम 'मा' और माताका नाम चम्पादेवी था। यह थे । इनके पफ पुत्र भी था और उसका नाम नारायण- जिन चरणकमलोंके उपासक थे। इन्होंने महासागरके तट दान था।
भागमें समाधित 'ग्रीवापुर' के चन्द्रप्रभ जिनालयमें वर्णी पंडित जिनदाम शेरपुरके शांतिनाथ चेन्पालय- कर्मपीके बचनांसे 'भक्तामरम्तोत्र' की वृत्ति की रचना वि. में ११ पद्यों वाली 'होली रेणुका चरित्र' की-तिका संवत् १६६७ में अषाढ शुक्ला पचमी बुधवार के दिन का अवलोकनकर संवत् १६०८ के ज्येष्ठ शुक्ला दशमो है। संठके कृचामन्दिर दिल्ली शाम्नभंढारकी प्रतिमें उसे शुक्रवारके दिन इस ग्रन्थको ८५३ श्लोकामे समाप्त मनिरतनचन्द्रकी वृत्ति बनलाया गया है । अतएव दाना है । अन्यकर्ताने ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें अपने नियोको मिलाकर जांचने की आवश्यकता है कि दोनो पूर्वजांका भी कुछ परिचय दिया है जिसे उक्त प्रशस्ति- वृत्तियाँ जुदी जुदी हैं या कि एक ही वृत्तिको अपनी २ परसे सहज ही जाना जा सकता। पंडिन जिनदामजी- बनाने का प्रयत्न किया गया है। में यह ग्रन्थ भ. धर्मचन्द्रजीके शिष्य भ. ललित- ब्रह्म रायमल मुनि अनन्तकोषिके जो भ० रनकीर्तिके कीतिक नामांकित किया है. जिससे यह ज्ञात पट्टधर एवं शिष्य थे। यह जयपुर और उसके पास-पास होता है कि यह संभवतः उन्हींके शिष्य जान के प्रदेशके रहने वाले थे। यह हिन्दी भाषाके विद्वान थे। पड़ते हैं।
पर उममें गुजराती भाषाकी पुट अंकित है दोनों भाषामा ४-भास्करनन्दी मुनि जिनचन्द्र के शिष्य थे, जिनचन्द्र के शब्द व बहुन कुक रखे मिले से पाए जाते हैं। इनकी
सर्वसाधु मुनिके शिष्य थे। जैसा कि उनकी 'तस्वार्थ- हिन्दी भाषाकी रचनाएँ और भी पाई जाती हैं। वृत्ति' के निम्न पद्योंसे प्रकट हैं:
नेमीरवररास, हनुवंतकथा, प्रद्युम्नचरित सुदर्शनरास,
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२०]
निर्दोशसप्तषीव्रतकथा, श्रीपालरास, और भविष्यदत्तकथा । इन्होंने नेमीश्वररात सं० १६२२ में हनुवंत कथा सं० १९१६ में, प्रथमचरित सं० १६२८ में सुदर्शनरास, सं० १६२६ में और श्री पालरास सं० १६३० में, तथा भवियसकथा सं० १६५३ में बनाकर समाप्त की है। निदोंसप्तमी कथाकी प्रतिमें सुझे रचनाकाल नहीं मिला, संभव है अन्य किसी प्रतिमें मिल जाय। इनके अतिरिक्त इनकी और भी रचनाओंका होना संभव है।
अनेकान्त
किरण १]
तक पाया जाता है। अतएव श्री भूषणके शिष्य ज्ञानसागरका समय भी विक्रमको १०वीं शताब्दीका उत्तराद सुनिश्चित है। ज्ञानसागरकी इस समय १० रचनाओंका पता चला है, जिनमें ६ बतोंकी कथाएँ और एक पूजन है। ये सब रचनाएँ हिन्दी पथोंमें रची गई है जिनकी कविता साधारण हैं। ये नौ कथाएँ धर्मपुरा देहलीके नया मन्दिर शास्त्र भण्डारके गुटका नम्बर 1 में हुरचित हैं, उनके नाम इस प्रकार है:- १ यादित्यवार लघु कथा, २ श्रष्टान्हिक व्रत कथा ३ सोलह कारकारण व्रत कथा, ४ आकाशपञ्चमी कथा, ५ रत्नत्रयव्रतकथा, ६ शीतकथा, ७ धनन्तचतुर्दशीका ८ निःशल्पाष्टमी कथा और सुगन्धदशमी कया इन कपायोंके अतिरिक मकामरस्तवन पूजन नामकी कृति भी अन्य पाई जाती है। अन्य रचनाएँ हैं।
६ ब्रह्म ज्ञानसागर - काष्ठासन्ध नन्दीतट गच्छ और ferries भट्टाra faद्याभूषणके शिष्य श्रीभूषणके शिष्य थे, जो सम्भवतः सौजित्राकी गद्दोके भट्टारक थे। इन्हीं भ० श्रीभूषण के शिष्य प्रस्तुत मह्मज्ञानसागर है। भ० श्रीभूषण विक्रमको १०वी शताब्दी के विज्ञान है क्योंकि उनका रचनाकाल सम्बत् १६५६ से सम्बत् १६६७
अध्यात्म तरङ्गिणी टीका
(ले० परमानन्द जैन शास्त्री )
हारिथी थी। इन्हीं सब कारणोंसे उस समयके विद्वानोंमें श्राचार्य सोमदेवका उल्लेखनीय स्थान था ।
प्राचार्य सोमदेव 'गोडसंघ के विद्वान आचार्य यशोदेवके प्रशिष्य और नेमिदेवके शिष्य थे। सोमदेवने अपना यशस्तिलक चम्पू नामका काव्य-प्रन्थ बनाकर उस समय समाप्त किया था, जब संवत् (वि० सं० १०१६) में सिद्धार्थ संवत्सरान्तर्गत चैत्र शुक्खा प्रयोदशीके दिन, श्री कृष्णदेव (तृतीय), जो राष्ट्रकूट वंशके राजा श्रमोधवर्षके तृतीय पुत्र थे, जिनका दूसरा नाम 'अकालवर्ष था, पाया सिंहल, चोख और चेर आदि राजाचोंको जीतकर मेहपाटी (मेलादि नामक गाँव) के सेना शिविर में विद्यमान थे। उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त वगिकी जो चालुक्यवंशीय राजा अरिकेसरी प्रथमके पुत्र गंग बारा नगरी में उक्त ग्रन्थ समाप्त हुआ था ।
'अध्यात्मतरंगिणी' नामक संस्कृत भाषाका एक छोटा सा ग्रन्थ है जिसकी श्लोक संख्या चालीस है। इस ग्रन्थका नाम बम्बईके ऐ० पचाखाल दि० जैन सरस्वति भवनकी प्रतिमें 'योगा' दिया हुआ है। चूंकि प्रथमं 'योगमार्ग' और योगीका स्वरूप बतलाते हुए श्रात्मविकासकी चर्चा की गई है। इस कारण यह नाम भी सार्थक जान पड़ता है। इस प्रथके कर्ता है आचार्य सोमदेव । यद्यपि सोमदेव नामके अनेक विद्वान हो गए हैं; परन्तु प्रस्तुत सोमदेव उन सबसे प्राचीन, प्रधान और लोकप्रसिद्ध विद्वान थे। सोमदेवकी उपलब्ध कृतियाँ उनके पावित्यो निदर्शक है। संस्कृतभाषा पर उनका असाधारण अधिकार था, वे केवल काव्य ममेश ही न थे; वं केवल काव्य मर्मज्ञ ही न थे; किन्तु राजनीतिके प्रकाण्ड पण्डित थे। वे भारतीय काव्यप्रम्योंके विशिष्ट अध्येता थे। दर्शनशास्त्रोंके समंश और व्याकरण शास्त्र के अच्छे विद्वान थे । उनको वाणी में प्रोज, भाषामे सोडवता और काम्प-कक्षायें दक्षता तथा रचनायें
प्रासाद और गाम्भीर्य है। सोमदेवकी सूक्तियाँ हृदयोदय पावल्य सिंहल, चोल, चेरमप्रतीन्महीपती
* शकन्टपकालातीत संवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु (८८) सिद्धान्तचेत्रमास मदन
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किरण १]
अध्यात्म तरंगिणो टीका
शक संवत् ८८८ (वि० सं० १०२३) के अरिकेशरी प्राचार्य सोमदेवके इस अध्यात्मतरंगिणी प्रन्य पर वाले दानपत्रसे, जो उनके पिता बचगदेवके बनवाए हुए एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है, जिसके कर्ता मुनि गबशुभधाम जिनालायके लिये प्राचार्य सोमदेवको दिया गया धरकीति है। टीकामें पच गत वाक्यों एवं शब्दोंके प्रर्थक था। उससे यह स्पष्ट है कि यशस्तिलकसम्पूकी रचना इस साथ-साथ कहीं-कहीं उसके विषयको भी स्पष्ट किया गया ताम्रपत्रसे सात वर्ष पूर्व हुई है ।
है. विषयको स्पष्ट करते हुए भी कहीं-कहीं प्रमाणरूपमें यहाँ पर यह जान बेनामावश्यक है कि जैन समाजके समन्तभद्र, अकलंक, और विद्यानन्द प्रादि प्राचार्योक दिगम्बर श्वेताम्बर विभागोंमेंसे श्वेताम्बर समाजमें राज- नामों तथा अन्योंका उल्लेख किया गया है, टीका नीति पर सोमदेवके 'नीतिवाक्यामृत' जैसा राजनीतिका अपने विषयको स्पष्ट करने में समर्थ है। इस टीकाकी कोई महत्वपूर्ण प्रन्थ लिखा गया हो यह ज्ञात नहीं होता, इस समय दो प्रतियां उपलब्ध हैं, एक ऐबक पक्षालाब पर दिगम्बरसमाजमें राजनीति पर सोमदेवाचार्यका दिगम्बर जैन सरस्वति भवन झालरापाटनमें और दूसरी 'नीतिवाक्यामृत' तो प्रसिद्ध ही है। परन्तु यशस्तिलक- पाटनके श्वेताम्बरीय शास्त्रभंगारमें, परन्तु वहां वह खंडित चम्पमें राजा यशोधरका चरित्र चित्रण करते हुए कविने रूपमें पाई जाती है -उसकी प्रादि अन्त प्रशस्तिो उक ग्रन्थके तीसरे पाश्वासमें राजनीतिका विशद विवेचन खण्डित है हो । परन्तु ऐ० पन्नालाल दि. जैन सरस्वतिकिया है। परन्तु राजनीतिकी वह कठोर नीरसता, कविस्व. भवन झालरापाटनकी प्रति अपने में परिपूर्ण है। यह प्रति की कमनीयता और सरसताके कारण अन्यमें कहीं प्रतीत संवत् ११३० आश्विन शुक्ला के दिन हिसारमें नहीं होती और उससे प्राचार्य सोमदेवकी विशाल प्रज्ञा (परोजापत्तन) में कुतुबखानके राज्यकालमें सुवाच्य अधरोंएवं प्रांजल प्रतिभाका सहज ही पता चल जाता है। में लिखी गई है, जो सुनामपुरके वासी खंडेलवाल शो
सोमदेवाचार्यके इस समय तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते संघाधिपति श्रावक 'कन्हू' के चार पुत्रोंमेंसे प्रथम पुत्र हैं, नीतिवाक्यामृत, यशस्तिलकचम्पू और अध्यात्मतरं- धीराकी पत्नी धनधीके द्वारा जो श्रावक धर्मका अनुष्ठान गिणी। इनके अतिरिक्त नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्विसे तीन करती थी, अपने ज्ञानावरणीय कर्मके यार्थ लिखाकर प्रन्योंके रचे जानेका और भी पता चलता है-युक्ति- तात्कालिक भट्टारक जिनचन्द्रके शिष्य पंडित मेधावीको चिंतामणी, २ त्रिवर्ग महेन्दमातलिसंजप और ३ षण- प्रदानकी गई है। इससे यह प्रति १०० वर्षकै बगभग वति प्रकरण । इसके सिवाय, शकसंवत् ८८८ के दानपत्र- पुरानी है। में प्राचार्य सोमदेवके दो ग्रन्थोंका उल्लेख और भी है टीकाकार मुनि गणधरकीर्ति गुजरात देशके रहने वाले 'जिसमें उन्हें 'स्याद्वादोपनिषन्' और अनेक सुभाषितोंका थे। गणधरकीर्तिने अपनी यह टीका किसी सोमदेव नामभी कर्ता बतलाया है। परन्तु स्वेद है कि ये पांचों ही के सज्जनके अनुरोधसे बनाई है, टीका संक्षिप्त और ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है । संभव है अन्वेषण करने ग्रन्थार्थको अवबोधक है। टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिमें पर इनमें से कोई ग्रन्थ उपलब्ध हो जाय । ऊपर उल्लिखित टीकाकारने अपनी गुरुपरम्पराके साथ टीकाका रचनाकाल उन पाठ प्रन्योंके अतिरिक्त उन्होंने और किन ग्रन्यांकी भी दिया है। गुरु परम्परा निम्न प्रकार है:रचना की है यह कुछ ज्ञात नहीं होता।
सागरनन्दी, स्वर्णनन्दी, पदमनन्दी, पुष्पदन्त, प्रसाध्य मेलपाटी प्रवर्धमानराज्यप्रभावे मति तत्पाद- कुत्रलचन्द्र और गणधरकीर्ति । पद्मोपजीविनः समधिगत पञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधि--- पतेखालुक्यकुलजन्मनः सामन्तचुदामणेः श्री मदरि
सम्बत् ११३५ वर्षे भासोज सुदि २ दिने हिसार केसरियः प्रथम पुत्रस्य श्री मदचगराजस्य लक्ष्मी प्रवर्धमान
पेरोजापत्तने लिखितमिति ।। वसुधारायाँ गाधारायाँ विनिर्मापित मिदं काम्यमिति ।"
श्रियं क्रियान्नरामर्त्य नागयाच्य पदाम्बुजः ।
देवोध्यात्मतरंगिण्याः शास्त्रदात जिनोऽनघां। - देखो, एपि ग्राफिक इंडिका पृष्ठ २८१ में प्रकाशित त्रयस्त्रिंशाधिक वर्षे शत पंच दश प्रमो। करहार ताम्रपत्र।
शुक्ल पक्षश्वने मासे द्वितीयायां सुबासरे ॥२॥
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३२1
अनेकान्त
[किरण १
गणधरकीतिंने अपनी यह रीका विक्रम संवत् ११८९ तदाम्नाये सदाचार क्षेत्रपालीयगोत्रके। में चैत्र शक्ला पंचमी रविवारके दिन गुजरातके चालुक्य- मुनामपुर वास्तव्ये खंडेलान्वयके जनि ॥६॥ वंशीय राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंहके राज्य- मंधाधिपति कल्हूकः श्रावको व्रतपालकः । कालमें बनाकर समाप्तकी ६-जैसाकि उसके निम्न पयोंसे । राणी संज्ञा भवत्पुण्यो तज्जनी शीलशालिनी '७॥
चत्वारो नंदना जातास्तयोनंदित मज्जनाः। एकादशशताकीर्णे नवाशीत्युत्तरे परे।
तेष्वाद्यः संघनाथो भूतहवा नामा महामनाः॥८॥ संवत्सरे शुभे योगे पुप्पनक्षत्रसंज्ञके ॥१७॥
धीरोभिधो द्वितीयोतः संघवात्सल्य कारकः। चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवौ दिने।
सर्वज्ञचराणम्भोज चंचरीको पमोऽसमः ॥ सिद्धा मिद्धप्रदाटीका गणभृत्कोर्तिविपश्चितः ॥८॥ निस्त्रंशतजितागति विजयश्री विराजनि ।
कामा नामा तृतीयोभूयाविव्रतधारकः । जबसिंहदेव सौराज्ये सज्जनानन्दायनि ॥१६॥ माधुः सुरपति म चतुर्थस्तु प्रियंवदः ॥१०॥
जयसिंहदेवका राज्य सं० १९१० से ११६ तक वहां तत्र संघेश धीराख्य भार्याजाता मनोरमा । रहा है। अतः संवत् १११ में वहां गणधरकीर्ति द्वारा
धनश्रीः कान्ति सम्पन्ना शीलनीरतरंगिणी ॥११॥ टीकाके रचे जानेमें कोई बाधा नहीं पाती।
लध्वो बहुकनि ख्याता साध्वीरूपगुणाश्रिता। नोट:-यह अन्य संस्कृत टीका और हिन्दी अनु
एतयोः परमा प्रीती रति प्रीत्यो रिवाभवत् ॥१२॥ वादके साथ वीरसेवामन्दिरसं जल्द ही
एतन्मध्ये धनश्रीर्या श्राविका परमा तया । प्रकाशित होगा। देहली, २५-५.५३.
लिखापितमिद शास्त्रं निजाज्ञान-तमो हतौ ॥१३॥
पूर्जायत्वा पुनर्भक्तथा पठनाय समर्पितं । श्रीहिसागभिधे रम्ये नगरे ऊन संकुजे ।
मेहाख्याय सुशास्त्रज्ञ पंडिताय सुमेधसे ॥१४॥ राज्ये कुतुबखानस्य वर्तमानेन पावने ॥६॥
ज्ञानी स्याद् ज्ञानदानेन निर्धारभयतो जनः । अथ श्री मूलमंधेरिमन्ननघे मुनिकुंजरः।
आहारदानतस्तृप्तो नियाधिर्मेषजात्सदा ॥१५॥ सूरिः श्री शुभमन्द्राख्यः पदमनंदि पदस्थितः ॥४॥ यावद्वयोम्नि शशांक नौ भूतो मेरु वारिधी। सत्पजिनचन्द्राभूत्स्याद्वादांबुधि चन्द्रमाः।
तावत्पुस्तकमेतद्धि नंदताज्जिनशासने ।।१६॥ तदन्तेवासि मेहाख्यः पंडितो गुणमंडितः ।।५।।
अध्यात्मतरंगिणी लेखक प्रशस्ति
सूचना अनेकान्त जैन समाजका साहित्य और ऐतिहा- लायेंगी । पोस्टेज रजिस्ट्री खर्च अलग देना होगा। सिक पत्र है । उसका एक एक अंक संग्रह की वस्तु दो करनेसे फिर फाइलें प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न है। उसके खोजपूर्ण लेख पढ़ने की वस्तु है । अने. होंगी। अतः तुरन्त आर्डर दो जये। कान्त वष ४ से ११ वें वर्ष तक की कुछ फाइलें अवशिष्ट हैं, जो प्रचारकी दृष्टिसे लागत मूल्यमें दी मैनेजर-'अनेकान्त'१ दरियागंज, देहली।
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प्रात्मा
(श्री १०५ पूज्य तुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी)
भान स्वभाव पास्माका बावरे। लषण वही जो लिया तो स्वर्गमें जाधो और वेष कर लिया तो नरकमें बषयमें पाया जावे। पास्माका बाबज्ञान ही है जिससे पड़ी। इससे मध्यस्थ रहो । उनमें देखो, और जानो। जैसे बषय बास्माकी सिद्धि होती है। वैसे तो पास्मामें अनंत प्रदर्शनीमें वस्तुएं केवल देखने और जानने के लिये होती गुण है जैसे दर्शन, चारित्र, बीर्य, सुख इत्यादि, पर इन है वैसे ही संसारके पदार्थ भी केवल देखने और जानने मब गुणों को बतलानेवाला कौन है ? एक हान ही है। के लिये हैं। प्रदर्शनीमें यदि एक भी वस्तुकी चोरी करोतो धनी, निर्धन, रंक, राव, मनुष्य, स्त्री इनको कीन जानता बंधना पड़ता है उसी प्रकार संसार पदार्थोके ग्रहस है? केवल एक शान । ज्ञानही पास्माका असाधारण नषण करनेकी अभिलाषा करो तोपंधन, अन्यथा देखो और है। दोनों (भारमा और ज्ञान) के प्रदेशोंमें अमेदपना है। जानो। कभी स्त्री बीमार पड़ी तो उसके मोहमें ध्यान जानीजन ज्ञानमें ही लीन रहते और परमानन्दका अनुभव हो गये। वाई लानेकी चिन्ता हो गई; क्योंकि उसे अपना करते है।वह अन्यत्र नहीं भटकते और परमार्थसे विचारो मान लिया, नहीं तो देखो और जानो । निजत्वकीपमा नो केवल ज्ञानके सिवाय अपना है क्या? हम पदार्थोंका करना ही दुःखका कारक है। भोग करते है, बंजनारिके स्वार लेते हैं, उसमें ज्ञानका 'समयसार' में एक शिष्यने प्राचार्यसे प्रश्न कियाही तो परिणमन होता है। यदि ज्ञानोपयोग हमारा
महाराज! यदि भारमा ज्ञानी है तो उपदेश देनेकी पावदूसरी ओर हो जाय तो सुन्दरसे सुन्दर विषय-सामग्री भी
श्यकता नहीं । और अज्ञानी है तो उसे उपदेशको हमको नहीं सुहाये। उस ज्ञानकी अद्भुत महिमा है।
आवश्यकता नहीं । प्राचार्य ने कहा कि जबतक कर्म और वह कैसा है? दर्पणवत् निर्मल है। जैसे दर्पण में पदार्थ नोकर्मको अपनाते रहोगे अर्थात् पराक्षित बुद्धि रहेगी प्रतिविम्बित होते है वैसे ही शानमें ज्ञेय स्वयंमेव मसकते
तबतक तुम अज्ञानी हो और जब स्वाभित बुद्धिही है। तो मी ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता। अब
जायगी नभी नुम ज्ञानी बनोगे। देखो, दर्पगाके सामने शेर गुजार करता है तो क्या शेर
एक मनुष्यके यहाँ दामाद और उसकारका माता पंयम चला जाता है? नहीं। केवल दर्पणमें शेरके
है। बड़का तो स्वेच्छाले इपर-उधर पर्यटन करता है। श्राकाररूप परिणमन अवश्य हो जाता है। वर्षय अपनी
परन्तु दामादका अद्यपि अभ्यधिक भादर होतास भी जगह पर है, शेर अपने स्थानपर है। उसी तरह ज्ञानमें
वह सिकुला-सिकुदासा घूमता है। अतएव स्वाचित बुद्धिही शेय मसकते हैं तो मलको उसका स्वभावही देखना और
कल्याणप्रद है। आचार्य ने वही एक शान-स्वरूप में जानमा इसका कोई क्या करे? हाँ, रागादिक करना
बीन रहनेका उपदेश दिया है। जैसाकि नाटक समयसारमें यही बन्धका जनक है। हम हमको देखते हैं, उनको देखते
लिग:है और सबको देखते हैं, तो देखो, पर अमुझसे रूचि हुई
'पूर्णकाच्युतशुद्धबाध महिमा बोद्धा न बोम्यादयं । उससे राग और अमुकसे अचि हुई उससे द्वेष कर लिया,
यायात्कापि विक्रिया तत इतो दोपः प्रकाश्यादिव ।। यह कहांका न्याय है ? बतायो। अरे उस ज्ञानका काम
तवस्तुस्थितिबांधवन्धधिषणा एते किमहानिनो। केबल देखना और जानना मात्र था, सो देख लिया और जान लिया। चलो बुट्टी पाई। ज्ञानको ज्ञान रहने देनेका '
रागद्वेषमया भवन्ति सहजा मुंचन्त्युदासीनताम ।२६।' ही उपदेश है, उसमें कोई प्रकारको इप्टानिष्ट कल्पना
यह ज्ञानी पूर्ण एक अच्युत राड (विकारसे रहित) करनेको नहीं कहा। पर हम बोग ज्ञानको शान कहां
ऐसे ज्ञानस्वरूप जिसकी महिमा है ऐसा है। ऐसा हानी रहने देते हैं? कठिनता तो यही है।
ज्ञेच पदार्थो कुछ भी विकार को नहीं प्राप्त होता । जम भगवानको देखो और जायो । यदि उनसे राग कर दीपक प्रकाराने योग्य बट पदादि पदायोमे विकारको प्राप्त
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३४]
अनेकान्त
किरण १]
नहीं होता उस तरह। ऐसी बस्तुकी मर्यादाके ज्ञानसे भर प्रयास करते हैं। पर, सिद्धान्त यही कहता है कि रहित जिनकी बुद्धि है ऐसे अज्ञानी जाव अपनी स्वाभा रागादिक छोड़ना ही सर्वस्व है। जिसने इन्हें दुःस्व-दायी विक उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं और राग-द्वेषमय समम कर त्याग दिया, वही हमतो कहते हैं 'धन्य है।' क्या होते हैं ?
कहने सुननेसे क्या होता है? इतने जनाने शास्त्र श्रवण कुछ लोग ज्ञानावरण कर्मके उदयको अपना घातक
किया तो क्या सबके रागादिकांकी निवृति हो गई? अब मान दु:खी होते हैं। तो कहते हैं कि कर्मके उदयमें दुखी
देखो पाल्हा उदलकी कथा बांचते है तो वहां कहते हैं होनेकी आवश्यकता नहीं है। अरे जितमा योपशम है
'थों मारा, यों काटा' पर यहां किसीके एक तमाचा तक उसी में पानन्द मानो । पर हम मानते कहां है। सर्वज्ञता नहीं लगा। तो केवल कहनेसे कुछ नहीं होता। जिसने लानेका प्रयास जो करते हैं। अब हम आपसे पूछते रागादिक त्याग दिए बस उसोका मजा है। जैसे हलवाई सर्वज्ञतामें क्या है। हमने इतना देख लिया और जान मिठाई तो बनाता है पर उनके स्वादको नहीं जानता। लिया तो हमें कौनसा सुख हो गया? तो देखने और वैसे ही शास्त्र वाचना तो मिठाई बनाना है पर जिमने जानने में सुख नहीं है। सुबका कारण उनमें रागादिक न चख लिया बस उसीको ही मजा है। होने देना है। सर्वज्ञ भी देखो अनंत पदार्थोंको देखते और आत्माका श्रावृत स्वरूप जानते हैं पर रागादिक नहीं करते, इसलिये पूर्ण सुखी हैं।
भारमा अनन्त शक्ति तिरोभूत है । जैसे सूर्यका अतः देखवे और जाननेकी महिमा नहीं है। महिमा तो
प्रकाश मेघपटलोंसे अच्छादित होने पर अप्रकट रहता है रागादिकके प्रभावमें ही है।
वैसे ही कर्मोंके प्रावरणसे आत्माको अनन्त शक्तियां प्रकट लेकिन हम चाहते हैं कि रागादिक छोड़ना न पड़े
जिस समय प्राव हट जाते है उसी समय और उस सुखका अनुभव भी हो जावे तो यह कैसे बने ? :
वे शक्तियां पूर्णरूपेण विकसित हो जाती है । देखो निगोदमूखी खात्रो और केशरका स्वाद भी पाजाय; यह कैसे हो से लेकर मनुष्य पर्याय धारणकर मुक्तिके पात्र बने, इससे सकता है? रागादिक तो दुखके ही कारण हैं। उनमें यदि प्रास्माकी अचिस्य शक्ति ही तो विदित होती है अतः सुख चाहा ता कस मिल सकता हा रागता सवथा इय हा हमें उस (आत्मा) को जाननेका अवश्यमेव प्रयत्न करना है। अनादिकालसे हमने भारमाके उस स्वाभाविक सुखका चाहिये । जसे बालक मिट्टी के खिलौने बनाते फिर बिगाड स्वाद नहीं जाना, इसलिये रागके द्वारा उत्पन्न किंचित् देते है वैसे ही हम ही ने संसार बनाया और हम ही यदि सुखको वास्तविक सुख समझ लिया। प्राचार्य कहते हैं तो मार सक्त हो सकते हैं। कि परे उस सुम्बका कुछ तो अनुभव करो। अब देखो,
हम नाना प्रकारके मनोरथ करते हैं। उनमें एक मनोकड़वी दवाको मां कहती है कि 'बेटा इसे प्रांख मीच कर
रथ मुक्तिका भी सही । वास्तवमे हमारे सब मनोरथ पी जाओ। अरे, आँख मीचनेसे कहीं कड़वापन तो नहीं
बालूकी भीतिकी भाँति ढह जाते हैं, यह सब मोहोदयकी मिट जायगा ? पर कहती है कि बेटा पी जामो। वैसे ही
विचित्रता है । जहाँ मोह गला कोई मनोरथ नहीं रह उम सुखका किचित् भी तो अनुभव करो। पर हम चाहते
जाता । हम रात्रि दिन पापाचार करते हैं और भगवानसे हैं कि बच्चोंसे मोद छोड़ना न पड़े और उस सुखका
प्रार्थना करते हैं कि भगवान हमारे पाप क्षमा करें-यह अनुभव भी हो जाय।
भी कहींका न्याय है? कोई पाप करे और कोई समा 'हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा आ जाय।' करे । उसका फल उसहीको भुगतना पड़ेगा । भगवान
अच्छा, बच्चोंसे मोह मत छोड़ो तो उस स्वामीक तुम्हें कोई मुक्ति नहीं पहुँचा देंगे । मुक्ति पानोगे तुम सुम्बका तो घात मत करो। पर क्या है ? उधर रष्टि नहीं अपने पुरुषार्थ द्वारा । यदि विचार किया जाय तो मनुष्य देवे इसीलिये दुःखके पात्र हैं।
__ स्वयं ही कल्याण कर सकता है। ऐसी बात नहीं है किसीके रागादिक घटते न हों। एक पुरुष था । उसकी स्त्रीका अकस्मात् देहान्त हो सभी संसारमें ऐसे प्राणी है जो रागादिक छोदनेका शकि गया । वह बना दुखी हुमा । एक मादमीने उससे कहा
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किर १) मात्मा
[३५ परेबहतोकी स्त्रियों मरती है, तू इतना बेचेन क्यों होता मान दसरेकी चीजको अपनी मानकर कबतक सुखी रह है? वहांला तुम समझते नहीं हो। उसमें मेरी मम बुद्धि सकता है? जो चीज तुम्हारी है उसी में सुख मानो। लगी है इसीलिये मैं दुखी हूँ। दुनियांकी स्त्रियां मरती हैं
महादेवजीके कार्तिकेय और गणेश नामक दो पुत्र थे। तो उनसे मेरा ममत्व नहीं इसही में मेरा ममत्व था। एक दिन महादेवजीने उनसे कहा, 'जामो, बसुन्धराकी उसी समय दूसरा बोला 'अरे, तुझमे जब महंबुद्धि हे परिक्रमा कर भाभो. तब कातिकेय और गणेश दोनों हाथ तभी तो ममबुद्धि करता है । यदि तेरेमें महंबुद्धि न हो
पकड़कर दौदे । गणेशजी तो पीछे रह गए और कार्तिकेय तो ममद्धि किससे करे ? तो महबुद्धि और ममबुद्धिको बहुत भागे चले गये । गणेशजीमे वहीं पर महादेवजीकी मिटामो, पर महबुद्धि और ममबुद्धि जिसमें होती है, उसे ही परिक्रमा करनी। जब कार्तिकेय लौटे और महादेवजीने जानो । देखो लोकमें वह मनुष्य मूर्ख माना जाता है जो गणेशजीकी भोर संकेत कर कहा, 'यह पहले भाए' तो अपना नाम, अपने गांवका नाम, अपने व्यवसायका नाम कार्तिकेयने पूछा 'यह पहले भाये? बताइये। उसी समय
ता हो उसी तरह परमार्थसे वह मनुष्य मूख इजा उन्होंने अपना मुंह फार दिया जिसमें तीनों लोक दीखने अपने पापको न जानता हो । इसलिये अपनेको जानो। वोहली नुम हो जभी तो सारा ससार है। श्राख माचला ता कुछ कमा करली।' तो केवलज्ञानीकी इतनी बड़ी महिमा है नहीं। एक प्रादमी मर जाता तो केवल शरीर ही तो किजिसमें तीनो लोकोंकी चराचर वस्तुए भासमान होने पदा रह जाता है बार फिर पञ्चन्द्रियां अपने अपने
लगती हैं। हाथी के पैरमें बतानो किसका पैर नहीं समाताविषयों में क्यों नहीं प्रवर्ततीं ? इससे मालूम पड़ता है कि
ऊंटका, घोडेका, सबोंका पैर समा जाता है। अतः उस उस प्रारमा एक चेतनाका ही चमत्कार है । उस जानकी बडी शक्ति है । और वह ज्ञान तब ही पैदा होता चंतनाका जाने बिना तुम्हारे सारे कार्य व्यर्थ है। है जब हम अपनेको जानें । पर पदार्थोसे अपनी चित्तवृत्ति
माह में ही इन सबको हम अपना ही मानते हैं। एक को हटाकर अपने में संयोजित करें । देखो समुद्रसे मानसून मनुष्यने अपनी स्त्रीसे कहा कि अच्छा बढ़िया भोजन उठते हैं और बादल बनकर पानीके रूपमें बरस पड़ते हैं। बनानो हम अभी खानेको भाते हैं । जरा बजार हो पाएँ। तो पानीका यह स्वभाव होता है कि वह नीचेकी भोर अब मार्गमे चले तो वहां मुनिरामका समागम हो गया। ढलता है। जब बरसा तो देखो रावी चिनाव झेलम सतउपदंश पातं ही वह भी मुन हो गया। और वहीं मुनि लज होता हुआ फिर उसी समुद्र में जा गिरता है। उसी बनकर आहारके लिये वहां मा गये। तो देखो उस समय प्रकार पारमा मोहमें जो यत्र तत्र चतुर्दिक भ्रमण कर रहा कैमा अभिप्राय था अब कैसे भाव हो गये । चक्रवर्ती ने हो था ज्योही वह माह मिटा तो यही प्रात्मा अपन में सिकुद दखा । वह छः खण्डका मोहमे ही तो पकड़े है । जब चराग्य कर अपने में ही समा जाता है । या ही केवलज्ञान उदय होता है तो सारी विभूतिको छोड़ बनवासी बन जाता होता है । ज्ञानको सय पर पदार्थोंसे हटाकर अपने में है। तो देखा वह उस इच्छाको ही तो मिटा देता है कि ही संयोजित कर दिया-बस केवलज्ञान हो गया । 'इदम् मम' यह मेरी है। वह इच्छा मिट गई अबका और क्या है? ग्वयको बताओ कौन संभाले ? जब महल हो न रहा तब हम पर पदार्थों में सुख मानते हैं। पर उसमें सवा उसका क्या करे इच्छाको घटाना ही सर्वस्व है। दानभी सुख नहीं है। मरावदाकी बात है। वहांसे ललितपुर २६ यदि इच्छा करके दिया जाय तो बेवकूफी है। समझो मीसकी दूरी पर पड़ता है। वहाँ सर्दी बहुत पड़ती है। यह हमारी चीज ही नहीं है। तुम कदाचित् यह जानते हो एक समय कुछ यात्री जा रहे थे । जब बीच में उन्हें अधिक कि यदि हम दान न देखें तो उसे कौन दे १ अरे उसे सर्दी मालूम हुई तो उन लोगोंने जंगलसं घासफूस एक्ट्रा सिलना होगा तो दूसरा दान दे देगा फिर ममत्व बुद्धि किया और उसमें दियासलाई लगा आँचसे तापने लगे। रखके क्यों दान देता है ? वास्तवमें तो कोई किसीकी चीज उपर वृत्ती पर बन्दर बेठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। जब नहीं है । म्यर्थ ही अभिमान करता है। अभिमानको मिटा वे यात्री वांग चले गये तो बन्दर ऊपरसे उतरे और उन्होंने करके अपनी चीज मानना महाबुद्धिमत्ता है। कौन बुद्धि वैसा ही घासफूस इकट्ठा कर लिया। अब कुछ घिसनेक
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अनेकान्त
[ किरण १
तुम्हारे वीतराग भाव होंगे तत्क्षय तुम्हें सुखकी प्राप्ति होगी : आमाकी विलक्षण महिमा है । कहना तो सरल है पर जिसने प्राप्त कर लिया वही धन्य है और जितना पढ़ना लिखना है उसी श्रात्माको पहचानेके अर्थ हैं ! पुस्तकोंका निमत्त पाकर वह विकसित हो जाता है वैराग्य कहीं नहीं वहा ? तुम्हारी आत्मामें ही विमान है। अतः जैसे बने वैसे उस आत्माको पहचानो ।
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चाहिए तो दिवासबाईकी जगह वे जुगनूको पकड़कर लाए और घिसकर डालदी पर भाँच नहीं सुलगे । बार बार वे उन्हें पकड़ कर जाए और घिस बिस कर डाल दें पर पाँच सुखगे तो कैसे सुलगे । इसी तरह पर पदार्थोंमें सुख मिले तो कैसे मिले ? वहाँ तो आकुलता ही मिलेगी और आकुलतामें सुख कहाँ ? तुम्हें प्राकुलता हुई कि चलो मन्दिर में पूजा करें और फिर शास्त्र श्रवण करें। तो जब तक तुम पूजा करके शास्त्र नहीं सुन लोगे तब तक तुम्हें सुख नहीं है; क्योंकि प्राकुलता लगी है। उसी श्राकुलताको मिटाने के लिए तुम्हारा साग परिश्रम है। तुम्हें दुकान खोलने की आकुलता हुई। दुकान खोल ली चलो आकुलता मिंट गई। तुम्हारे जितने भी कार्य है सब श्राकुलताका मेटनेके लिए हैं। तो श्राकुलतामें सुख नहीं । आत्मा का सुख निराकुल है वह कहीं नहीं है, अपनी श्रात्मामें ही विद्यमान है; एक चय पर पदार्थोंसे राग द्वेष हटा कर देखो तो तुम्हें आत्मामें निराकुल सुख प्रकट होगा। यह नहीं, अब कार्य करें और फल बादको मिले। जिस क्षण
एक कोरी था। उसे कहींसे एक पाजामा मिल गया । उसने पाजामा कभी पहिना तो था नहीं। वह कभी मिरसे इसे पहिनता तो ठीक नहीं बैठता। कभी कमरमे लपेट लेता तो भी ठीक नहीं बैठता। एक दिन उसने ज्योही एक पैर एक पाजामामें और दूसरा पैर दूसरेमें डाला तो ठीक बैठ गया । वह बड़ा खुश हुआ। इसी तरह हम भी इतस्तत: भ्रमण कर दुखी हो रहे हैं। पर जिस काल हमे अपने स्वरूपका ज्ञान होता है तभी हमें सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है । इसलिये उसकी प्राप्तिका निरन्तर प्रयाम करना चाहिये ।
( मुरार में दिए हुए प्रब बनोसे)
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
efers गोम्मटेश्वर बाहुबलीकी उस लोक प्रसिद्ध प्रशान्तमूर्तिका दर्शन, महामस्तिकाभिषेक, जो बारह वर्ष में सम्पन्न होता है, उसे देखने तथा अन्य तीर्थ क्षेत्रो की यात्रा करने एवं उनके सम्बन्धमें कुछ ऐतिहासिक बातें मालूम करनेकी आकांक्षा मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा रही थी। और तीर्थयात्रा के लिए अनेक संघ भी जा रहे थे तथा देहलीके प्रतिष्ठित सज्जन और वीरसेवामन्दिर के व्यवस्थापक ला• रामकृष्णजीजैनने अपनी मोटर द्वारा सपरिवार यात्रा करना निश्चित कर लिया था, उन्हें यात्राका अनुभव भी था, कार्य : कुसलता उनके कर्मठ व्यक्ति होनेकी ओर संकेत भी कर रही थी। बालाजीने वीर सेवामन्दिरके अधिष्ठाता साहित्य तपस्वी प्राचार्य शगुन किशोरजी मुख्तार से प्रेरणा की कि तीर्थयात्रा के सम्बन्ध में ऐसी कोई पुस्तक नहीं है, जिसमें तीर्थक्षेत्रोंका ऐतिहासिक परिचय निहित हो और तीर्थयात्राके मार्गों तथा मात्रियोंके ठहरने प्रादिके
स्थानोंका भी निर्देश हो, जिससे यात्री अपनी यात्रा सुविधापूर्वक कर सकें। इसके सिवाय, श्रवणबेसगोल जैसे पवित्र स्थान पर वीरसेवामन्दिरका नैमित्तिक अधिवेशन करने, मार्ग में पड़ने वाले तीर्थक्षेत्रों का इतिहास मालूम करने एवं वहाँकी ऐतिहासिक सामग्री के संकलित करने और उनके चित्रादि लेनेकी योजनाको सम्पन्न करनेकी भावना व्यक्तकी उक्त भावनाको साकार रूप देने तथा उन सब सद् उद्देश्यांको लेकर मुस्तार लाहबने भी वीरसेवामन्दिर संघ लं चलने की अपनी स्वीकृति प्रदान की फलस्वरूप किरायेकी एक लारीमें बीरसेवा मन्दिर परिवार, जिसमें एक फोटोग्राफर भी शामिल है, तथा अन्य कुछ सज्जन जिनमें बा पन्नालालजी अग्रवाल, देहली भी थे ।
हम सब बागोने गणतंत्र दिवस मनानेके उपरान्त वा० २६ जनवरीको लाला राजकृष्णजीकी अपनी स्टेशन बैंगनके साथ चार बजे के करीब देहलीसे प्रस्थान किया ! और
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अनेकान्त
नीर्थयात्रा की प्रस्थान करते समय लिया गया चित्र |
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श्री महावीरजी की उतरी. जहासे भगवान महावीरकी मुर्ति प्राप्त हुई थी।
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अनेकान्त WITTARIANTRA
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श्रीगोम्मटेश्वरकी ५७ फुट ऊँची विशाल प्रतिमा
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किरण १] हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
[३७ हम लोग देहतीस १. मोल बजकर चौरासो मधुराने पांडे राजमलके जम्बस्वामीचरितमें मिलता है। और पहुँचकर रात्रिको नौ बजेके करीब पंच भवनमें ठहरे । वहां जिनका जीगोंदार साधु टोडरने, जो मठानियाकोवा (पनीफिरोजाबाद निवासी मेठ बदामीलालजी भी अपने परिवार- गढ़) का रहने वाला अपवास बंशी भावक था, चतुविध के साथ संघमें मिल गए प्रातःकाल उठकर दैनिक क्रियानों- संघको बुलाकर उत्सबके साथ संवत् १ की ज्येष्ठ से निवृत्त होकर मन्दिरजीम पहुंचे और वहाँ दर्शन पूजन शुक्ला द्वादशी बुधवारके दिन घदीके अपर पूजन तथा किया। मंदिरजीकी मूलवेदी कुछ अधिक ऊँचाईको लिये सूरिमंत्र पूर्वक प्रतिष्ठा कराई थी। हुये है जिस पर मूलनायक भगवान अजितनायकी भव्य इस समय मथुरामें जैनियोंके शिखर बन्द मन्दिर है मूर्ति विराजमान है, उसके सामने ही किसी मजनने दूसरी
और दो चैत्यालय है। यहाँ अनेक धर्मशाखाएं हैं परन्तु एक मूर्ति और भी विराजमान कर दी है. जिमसं दर्शकको उन सबमें जैनियोंके ठहरनेके लिए बियामंडीमें मन्दिरजीके दर्शन पूजन करने में असुविधाका अनुभव होता है और सामने वाली धर्मशाला उपयुक्त है । परन्तु शहरको दर्शकके चित्तमें ठेस पहुंचती है। उसके चित्रादि लेनेमे अपेक्षा चौरामीमें ठहरने में सुविधा अधिक है। भी बाधा पड़ती है। और यह कार्य ठीक भी नहीं भोजनादिके पश्चात् हम सब लोग मधुरा शहरके है । यहाँ मन्वादि चारण ऋद्धिधारी सम ऋषियोंकी मन्दिर के दर्शन करने गए। और मधुरा शहरसे बाबर मूर्तियाँ नई प्रतिष्ठित हैं। मूलवेदी की मूर्तिभी वृन्दावन पर विरखा मन्दिरके इस पोर एक पुराने मन्दिरके अधिक प्राचीन नहीं है, वह विक्रमकी १५ वीं शता- भी दर्शन किये, जिसका जीर्णोद्धा मंवत् १६०८ में न्दीकी प्रतिष्ठित जान पड़ती है, क्योकि उस पर किया गया था। यह मन्दिर वास्तवमें प्राचीन रहा है। अंकित लेस्बसे ज्ञात होता है कि वह ग्वालियर के तोमरवंशी वेदीमें कुल चार मूर्तिर्या विराजमान हैं, जिनमें पार्श्वनाथराजा गणपतीके पुत्र राजा इंगरसिंहक राज्यमें प्रतिष्ठित की एक मूर्ति सबसे अधिक प्राचीन है और वह विक्रम दई है। चूंकि राजा डूंगरसिहका राज्यकाल विक्रम संवत १५५ की प्रतिष्ठिन है। और नी मतियों पमप्रभु १४८1 मे 11.नक सुनिश्चित है । अतः यह मनि भी और पार्श्वनाथकी संवत् ११४८ की प्रतिष्ठित हैं चौथी विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके उत्तरार्धकी जान पड़ती है। मूर्ति सोलहवं तीर्थकर शान्तिनाथकी है जो वीर नि. मनि लेम्बमे प्रतिष्ठाका सवत् अंकित नहीं है। चौरामीमें संवत् २४६६ में प्रतिष्ठित हुई है। मन्दिरके सामने नमार दि. जैन संघ कार्यालय और ऋषभप्रह्मचर्याश्रम दोनो ही दीवारीके अन्दर एक छोटा सा बाग है और बागमें कुवा मम्मा अपना अपना कार्य रही हैं।
भी स्थित है। मथुरा एक प्राचीन नगर है हिन्द और जनियाका
मधुरस मील चलकर भरतपुर तथा महुमा होने एक पवित्र स्थान है। किसी समय मथुरा जन संस्कृतिका हु" हमलांग र
हुए हमलांग रात्रिको १ बजेक करीब भी महावीरजीमें केन्द्र था। यहांके कंकालो टीलेस जैनियों और बौदाने
पहुँचे, और धर्मशालाम ठहर गए थोड़ी देर बाद गनिम अनेक मूर्तियाँ षाण कालकी प्राप्त हुई है। श्रीकृष्णका
मन्दिाजीमे दर्शन करने गए. उस समय मन्दिर में सर्वत्र जन्म भी यहीं हुआ था। कंकाली टीलंस जो सामग्री
शान्तिका साम्राज्य था। भगवान महावीपकी उस भूमिका उपलब्ध हुई है। उससं जैन संस्कृतिकी महत्ताका अरछा
दर्शन किया साथमे अगल बगसकी अन्य मूर्तियांका भी आभास मिल जाता है।
दर्शन कर अपूर्व प्रानन्द प्राप्त हुअा। रात्रि विश्राम
करने के बाद प्रातः काल नैमित्तिक क्रियाओंसे मुक्त होकर यहाँकी पुरातन बहुमूल्य सामग्रीका विनाश विदेशियोक भगवान महावीरका दर्शन पूजनादि किया महावीरजीका इम और मुसलमानी बादशाहोके समयमे हुआई मथुरा- स्थान बड़ा ही सुन्दर और शान्तिप्रद है। * आस पासके टीलोम जैन इतिहासकी प्रचुर मामग्री दी महावीरजी से 110 मील चलकर जयपुर पहुंचे। पदी है जो खुदाई करने पर प्राप्त हो सकती है । पर जेन अयपरम कोई ३-४ मीब पहले की हमलांग 'खानियां' समाजकी इस दिशामें भारी उपेक्षा है। अस्तु,
स्थान पर रुक गए और वहाँ मन्दिरीक बाहर ठहर कर मथुरामें दि. जैनियां स्तूपांके हानेका उल्लम्ब शामका भोजन किया, तथा मन्दिरोंके दर्शन किये । वह
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अनेकान्द
[किरण मन्दिर विक्रमकी 18 वीं शताब्दीका प्रतिष्ठित किया तत्वांका जगतमें प्रचार किया है। गुमानपंथका जन्म भी
था-संवत् १९६१ में वैशाख शुक्ल पंचमीकै दिन जयपुरसे ही हुआ है। तेरह पंथियोंके बढ़े मन्दिरमें बाबा भट्टारक सुखेन्द्रकीर्तिक उपदेशसे संगही रायचन्द्र बावड़ा- दुलीचन्दजीका एक बहुत बड़ा शास्त्र भण्डार है, बाबाजी ने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी इस मन्दिरके कुएँका पानी हमडवंशी श्रावक थे और जैनधर्मके दृढ़ श्रद्धालु । उन्होंने मोठा और अच्छा है, वैसा पानी जयपुर शहरमें नहीं बड़े भारी परिश्रमसे शास्त्रभण्डारकी योजना की थी। मिला। यहाँसे चलकर 5 बजे के करीब जयपुर पहुँचे सेठ उनकी श्रायु सौ वर्षसे अधिक थी। उन्होंने अनेक प्रन्योगोपीचन्दजी डोक्याकी धर्मशालामें ठहरनेका विचार किया, को स्वयं अपने हाथसे लिखा है। वे बहुत बारीक एवं
और वहाँ देखा तो धर्मशाला में अत्यन्त बदबू और गंदगी सुन्दर अक्षर लिखते थे। एक बार भोजन करते थे और थी जिससे ठहरनेके लिये जी नहीं चाहा। तब कलकत्ता सातवें दिन नीहार (मलमोचन) करने जाते थे। प्रकृतिसे निवासी संठ वैजनाथजी सरावगीके मकान पर ठहरे। याज उच्च और निर्भय थे। जो कुछ कहना होता था उसं स्पष्ट कल जयपुर शहरमें गंदापन बहुत अधिक रहने लगा है. कह देते थे। सफाईकी ओर जनताका ध्यान कम है।
____ जयपुरके प्राचीन मन्दिरांका तो कोई पता नहीं चलता ___जयपुर राजपुतानेका एक प्रसिद्ध, शहर है। इसकी क्योंकि वहाँ कितने ही मन्दिर शिवालय आदिके रूप बसासत बड़े परछे हुँग्स की गई है। यह साहबके अनु- परिणत कर दिये गए हैं। अतः विद्यमान मन्दिर दो-तीन सार विद्याधरने, जो जैन या इसके बसानेमें अपना पूरा सौ वर्ष पुराने प्रतीत होते हैं। निगोतियोंके मन्दिरमें सबसे योग दिया था । जयपुरकी राजधानी पहले आमेर थी। प्राचीन मूर्ति भगवान पार्वनाथ की है, जो विक्रमकी १२ किन्तु सवाई जयसिंहने सन १७२८ वि० संवत् १७८५ में वीं शताब्दीके उत्तरार्धकी अर्थात् सं० १९७१ की प्रति
आमेरसे राजधानी जयपुर में स्थापित की। जयसिंह प्ठित है। अठारह महाराज वाले मन्दिर में भी एक मूर्ति (द्वितीय) बड़े बुद्धिवान थे। उन्होंने ज्योतिषविद्याके विक्रम की १४ वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध-वि. संवत १३२० भी कई स्थानों पर यन्त्र बनवाये । जयपुर जैन संस्कृतिका की प्रतिष्ठित है जिसे जमीनमें से निकली हुई बतलाया अच्छा केन्द्र रहा है। यहाँ खण्डेलवाल दि. जैनियांका जाता है । सांगोके मन्दिर मे भी सं० १९.को प्रतिष्ठित अच्छा प्रभुत्व था। अनेक खण्डेलवाल श्रावक राज्यके मूर्ति विराजमान है। इसके सिवाय सं० ११३८, १९४८, ऊँचे-मे-ऊँचे पद पर आसीन रहे हैं। उन्होंने जयपुर राज्य- १६६१ और १८२६ आदि की भी मूर्तियां पाई जाती हैं। का संरक्षण और संवर्धन किया है। दीवान रामचन्द्र हम सब लोगोंने सानन्द यात्रा की । कई मन्दिर कलापूर्ण छावकाने तो भामेर राजधानीको मुसलमानोंके पंजेसे छुदा- और दर्शनीय हैं। जयपुरकी कला प्रसिद्ध है। कर स्वतन्त्र किया था। राज्यमें अनेक दीवान (प्रधानमंत्री महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटीके प्रधानमंत्री सेठ वधीचन्दनी जैसे पद पर अपना कार्य कर चुके हैं। यहाँ जैनियोंके ५० गंगवालने सभी संघको भोजन पानादिसे सम्मानित किया। मन्दिर शिखर बन्द है धार ७६ चैत्यालय हैं। कितने ही यहाँ पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ बड़े मिलनसार विद्वान मन्दिराम हस्तलिखित ग्रन्थोके वृहद् शास्त्र भण्डार है। हैं। वह वहां की समाजमें जैनधर्म व संस्कृतिका प्रचार जयपुर शहरके बाहर भी अनेक मन्दिर निशि वा नशियाँ है। करते हुए अपना समय अध्ययन अध्यापनमें व्यतीत कर यहाँ भहारकांकी दो गहियों थी। जयपुरमें प्राकृत संस्कृतके रहे हैं। वे प्रकृतितः भद्र है। जानकार अनेक विद्वान हुए हैं जिन्होंने प्राकृत संस्कृतके ता. २६ जनवरी सन् ५३ को हम लोग तीन बजेके अनेक महत्वपूर्ण प्रधांकी हिन्दी टीकाएं बनाकर जैन करीब जयपुरसे ८० मील चल कर अजमेर पहुँचे
बजे के करीब किशनगढ़में हम लोगोंने शामका भोजन * संवत १९६१ बर्षे वैशाख शुक्ल पंचम्यां भी सवाई किया । और फिर वहांसे चलकर ॥ बजे अजमेर में सरसेट
जयसिंह नगरे भहारक श्री सुखेन्द्रकीर्ति गुरुवायु पयो- भागचन्दजी सोनीकी धर्मशालामें ठहरे। रात्रि विश्राम देशात छावहा गोत्रे संग (ही)दी वाण] रायचन्द्रण करनेके बाद प्रातःकाल मित्तिक क्रियामासे निपट कर प्रतिष्ठा कारिता।
शहरमें यात्राके लिये गये।
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हमारी तीथ-त्रा संस्मरण
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अजमेर एक पुराना शहर है, जिसे अजययपार कर उन पर भली भांति विचार किया जाय । इस मन्दिरचौहाने बसाया था। अजयपाखके पुत्र बाणा'ने अजमेरों में महारकीय.गही है, जिसका पहले कभी मम्बन्ध देहली 'पानासागर' नामक एक कोल बनवाई थी, जो१०० गज की गद्दीसे था। यहाँ अनेक प्रभावशाली भहारक हुए हैं, सम्बो और ... गज चौदी है। वर्षातके दिनों में इस जो मन्त्र तन्त्र विद्याम भी निपुण थे। ऐसो एक ग्वाम मोनका घेरा कई मीलका हो जाता है। झीलके निकट घटना अजमेर में घट चुकी है जिसे अजमेरके प्रायः सभी जहांगीरका बनवाया हुमा 'दौलतबाग' है कहा जाता है व्यक्ति जानते हैं। मजमेर के भट्टारक विशालकीकि शिष्य किमानासागरके किनारे पर संगमरमरका चबूतराशाहजहाँ पंडित अम्खयराजने सं० १९१० मे उपदेश रत्नमाला ने बनवाया था। उस परसे पानासागरका प्राकृतिक दृश्य (महापुराण कालिका)नामका ग्रन्थ बनाया था। इस बड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है।
अन्यकी अन्तिम प्रशस्तिम कविने अन्य नगरीके नामांके अजमेर प्राचीन समयसे ही जैन संस्कृतिका केन्द्र साथ अजमेरका भी उल्लेख किया है। यहाँके भहारकीय रहा है-यहां जैन संस्कृतिके पुरातन अवशेष समय-समय
मन्दिरमें संस्कृत प्राकृत प्रन्यांका एक ना शास्त्र भंडार पर निकलते रहे हैं। जिनसे ज्ञात होता है कि अजमेर जो भ० हर्षकीर्तिक नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त है। किसी समय जैनसंस्कृतिका केन्द्र बना हुआ था।
वर्तमानमें भी अजमरमें जैनियांका गौरवपूर्ण स्थान सन १६ ई० में या । जैन मतियां, जो संग- है। जैनियोंकी संख्या भी अच्छी है-और वे विमित्र मरमरके पापांणको निर्मित हैं ममनमानी कमरिस्तानसे मुहल्लोमे भाषाद है उनके मन्दिर मी अनेक मुहल्लोंमें निकली थी । अजमेरमें यह कबरिस्तान स्वाजा साहबकी बने हुए हैं जिनकी कुल संख्या 12 जिनमें ५ मसियां दरगाहसे परे एक प्राचीन जैन मन्दिरके पास अवस्थित और दो चैत्यालय भी शामिल हैं। उनके नामादि इस ६. जहांस तारागढको रास्ता गया है। उनमें से छह प्रकार है:मूर्तियोंके नीचे पट्टी पर मूर्तिलेख उत्तीर्ण हैं, जिन पर नसियां स्व-सेठ नेमीचन्द्र टीकमचन्द्रजी-इसका सं० १२३६, १२४३,१२३४, १२४७,१२३६ और ११९५ दूसरा नाम 'सिद्धकूट चैन्यालय है। इसमें नन्दीश्वरद्वीप अंकित है
और समयसरणकी रचना अपूर्व है, पौराणिक कथाओंके इनके सिवाय, सन् १९२१ में चार मूर्तियांका एक
अनेक ऐतिहासिक चित्र भी अंकित हैं अयोध्या नगरीका स्तम्भ सं० १९७का पमप्रभुका पाषाणखा स्वैडमेमो- सुवणमय चित्र दर्शनीय है। भूगोल सम्बन्धी जैन सिद्धांतों रियज हाई स्कूल के पास एक कुएँ मसे निकला था।
ना का मूर्ति चित्रण किया गया है. इसो स्थान पर ढाई द्वीपों अजमेरका भनाई दिनका झोपदा तो प्रसि ही है
और अनेक समुद्राम घिरे हुये कनकगिरि सुमेरू, जहाँ वह एक जैन मन्दिर था जो डाई दिनमें मस्जिदके रूपमें
पर भगवान ऋषभदेवका अभिषेक हुआ था । भगवान परिणित कर लिया गया था माज भी उसमें १६ स्वस्तिक
ऋषभदेवकी तपस्या और निम्रन्थ दीक्षा, केवलज्ञान और बने हुये हैं और उसकी छतोंके चौक और बेखवूटे भावूके
निर्माण की प्राप्ति प्रादिके चित्र दिये हुए हैं। भरत और मन्दिरोंसे मिजते जुलते देशो पस्थरके बने हुए हैं। उसका
बाहुबली तीनों युद्धके चित्र भी अच्छे हैं जो दर्शकोंकी
अपनी भोर माकृष्ट लिये बिना नहीं रहते । नसियाकी तमाम ढांचा ही जैन मन्दिरका मालूम होता है उसमें अनेक वेदियों पर जैन मूर्तियाँ विराजमान होंगी। कहा
इस रचनाके उद्गम का मूलस्रोत जबपुरके प्रमिड विद्वान
पं० सदासुख कासलीवालकी प्रेरणामे हुआ था और रचना जाता है कि अजमेरके भट्टारकीय मन्दिर में प्रवाई दिनके
भगवान जिनसेनके प्रादि पुराणके अनुसार सम्पत की गई झोपड़की कई मूर्तियाँ मौजूद हैं परन्तु इस बातका विश्चय
है। नसियां जीके सामने संगमरमरका ८५ फुट उंचा एक उसी समय हो सकता है जब वहांके मूर्तिलेखांको नोद,
विशाल मानस्तम भी बनाया है, जो उस समय तक * See Journal of the Asiatic Society. प्रतिष्ठित था और अब उसकी प्रनियत हो रही है। सेठ
of the Bengal. Vol. VII Part 1, भागचन्द जी सोनीके मौजन्यमे वीर मेवा-मन्दिरने हमके January to June 1838, P. 51 सब चित्रादि लिये हैं।
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साहित्य परिचय और समालोचन
१ तत्त्व समुच्चय--सम्पादकहा हीरालालजी जैन बड़े गम्भीर विषयको बालकोंके ग महल ही उतारना एम. ए.डी.लिट् । प्रकाशक भारत जैन महामंडनवर्धा चाहते हैं। पुस्तक उपयोगी है। इसका समाजमें पर्यट पृह संख्या २००, मूल्य ३) रूपया।
प्रचार होनेकी जरूरत है। साधारण कागजके संरक्षणका प्रस्तुत पुस्तकमें जैनतत्वज्ञान और प्राचार-सम्बन्धी र
तत्वज्ञान और प्राचार-पसी मूल्य पाठ श्राने है। प्राकृत गाथाओंका संकलन किया गया है। मूल गाथाओंके ३महावीर वर्धमान-संग्बक डा. जगदीशचन्द्र जी यथा कम संकलन के बाद उनका क्रममं अनुवाद भी दिया एम.ए. प्रकाशक, भारत जैन महामण्डल वर्धा | पृष्ट हमा है और अन्तमें शब्दकोष भी दे दिया गया है। संख्या १० मुख्य बारह पाना। म साहबने इस ग्रन्थका निर्माण छात्रोंको प्राकृतका
प्रस्तुत पुस्तकम डा. साहबने भगवान पारर्वनाथ अध्ययन कराते समय जो प्रेरणा मिली उसीसे प्रेरित
और उनकी परम्पराका समुल्लेख करते हुए भगवान वर्धहोकर उस ग्रन्थका निर्माण किया है। ग्रन्थकी संकलित
मानका जीवन-परिचय श्वेताम्बर साहित्यके आधार पर गाथा दिगम्बर-श्वेताम्बर साहित्य परसे उदत की गई है
कि उस
वलाजिनकी संख्या ६..के करीब है। यह प्रन्थ नागपुर महा- भर परम्पराकी तरह दिगम्बर परम्परामें भी दो मान्यताएं विद्यालयके बी.ए. और एम.ए. कोर्ष में दाखिल हो
होनेकी कल्पना की है। जबकि दिगम्बर परम्परामें मर्वत्र
। गया है, यह प्रसनताकी बात है। इस ग्रन्थको १४ पेजकी
एक मान्यताका ही उल्लेख पाया जाता है। डा० साहबने प्रस्तावनामें जैनधर्म, साहित्य और सिद्धान्तक सम्बन्धम
दिगम्बर हरिवंश पुराणके ६६ पर्वके 5वें पचसे पूर्वके अच्छा प्रकाश डाला गया है और विषयको बड़े ही रांचक
पच तथा उक पचसे भागे पचको छोड़ कर 'यशोदयायां रंगसे रखनेका प्रयत्न किया गया है। प्रधका हिन्दी अनुवाद
सुतबा यशोदया पवित्रया वीर-विवाह मगलं' नामक मूलानुगामी है और बाब्दकोष जिज्ञासु विद्यार्थियों के लिये
नवचमे निहित 'वीर विवाहमंगलं' वाक्यमे भगवान बदा ही उपयोगी है। पुस्तक पठनीय है। इसके लिए सम्पादक महोदय धम्यवादके पात्र है। प्राशा है डाक्टर
किया है। जबकि ग्रन्थमें राजा जिनात्रका परिचय देते साहब इसी प्रकारमं प्रम्य पठनक्रमकी नूतन सामग्री प्रस्तुत
हुए भगवान महावीरके विवाह सम्बन्धमें चलने वाली इस
चर्चाका उल्लेख मात्र किया गया है, और निम्न में २सलोना मच-खम्बक महात्मा भगवानदीन जी, पचमें भगवान महावीरके तपमें स्थित होने तथा केवल प्रकाशक भारत मेंन महामण्डल वर्धा, पृष्ठ संख्या ४२ ज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई हैं वह पूरा पच इस मुख्य इस पाने इस पुस्तकमे बालकांक मनोवैज्ञानिक दिलों पर किमी
स्थितेऽथनार्थ तपसि स्वयं भुविप्रजातकैवल्पविशाबांचने। प्रकारका बोझ न लादते हुए मायके सम्बन्धमें 10 कहानियाँ रोचक रंगसं लिखी गई है। उन्हें पढ़कर बालक- जग
जर्गाद्वभूत्यै विहरयपि हिति तिति विहायस्थितांस्तपस्वयं । बालिकाएं सबकं स्वरूपको समयनेमे बहुत कुछ सान अतः प्रन्यका पूर्वापर सम्बन्ध देखते हुए हा. हो सकेंगे। कहानी बड़ी सुन्दर है, उनकी भाषा, भाव साहबका उक नतीजा निकालना किसी तरह भी सय नया विवाद हैं। महात्माजी स्वभावतः बाब- संगत नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लिखनेका रंग शिक, उबालकोंकी शिक्षासे प्रेम है। बड़े से रोचक है।
परमानन्द जैन
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरानन-जैनवाक्य-मृची-प्राकृतिक प्राचीन ६४ मृल-प्रन्योंकी पद्यानुक्रमणी. जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोंमें
उद्धत दुसरे पोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पच-चाक्यांकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुग्नार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महावकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनामे अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए.डी. लिट् के प्राथन (Foremond) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम.ए डी.लिट की भूमिका (Inunluction) में भूषित है, शांध-ग्यांजके विद्वानों के लिये अनीव उपयोगी, बना माइज,
मजिल्द (जिमकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगमे पांच रुपये है) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायकी म्बोपज मटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सन्दर
मरम और मजीव विवेचनको लिए हुप. न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिम
युक्त. जिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी मुन्दर पार्थी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक संस्कृतटिप्पणा, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृन प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांग्य अलकृत, जिल्द । (४) स्वयम्भग्नात्र-ममन्नमदभाग्नीका अपर्व अन्य मुम्नार श्रीजुगलकिशोरजीक विशिष्ट हिम्दी अनुवाद वन्दपार ___ चय, समन्तभद्र-पग्निय और भनियांग, जानयांग तथा कर्मयोगका विश्लं पण करनी हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण
प्रम्नाननाम मुगामिन । (५) म्नुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनाम्या कृनि. पापांक जीननकी कला मटोक, मानबाट और श्रीजुगलकिशार
मुम्नारकी महत्वको प्रम्नावनाम अलंकृत मुन्दर जिन्द-पहिन । (३) अयान्मकमलमानण्ड-पंचा पायाकार कवि गजमलकी मुन्दर श्राध्याम्मिन रचना, हिन्दीअनुवान-महिन
पार मुग्नार श्रीजुगलकिशोरकी बाजपूर्ण विस्तृत प्रम्नावनाम भपिन । .. (१) युक्त्यनुशासन-नत्वज्ञानमं परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृनि जिमका अभी नक हिन्दी अनुवाद नही
दया था । मुन्नारधीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रानावनानिम अलंकृत. जिल्द । .. .) (८। श्रीपुरपाश्वनाथम्नोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दचन. महन्यकी नि. हिन्दी अनुवादादि महिन। ... ॥ (शामनचशिका-(नार्थपरिचय )-मुनि मदन कौनिकी १३ वी शताब्दी की मुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवाहादि-हिन । (१७. मन्माच-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवार बर्षमान पर उनके बाद के महान चाचायाँ १७ पुग्य-स्मरणांका
महन्वपर्ण संग्रह मुग्नारधीक हिन्दी अनवादादि-महिन । (११) विवाह-ममुहंश्य मुग्नारधीका लिया हया विवाहका मप्रमागा मामिक र नाविक विवंचन .. .) । अनमान्न-ग्यालरी-अनकान में गा गम्भीर विषयका अनाव पग्लनाम समझने-समझानका कुजी,
मुग्नार श्रीजुगनकिशोर-निम्विन ।। (१३) अनिन्यभावना-प्रा. पदमनन्दी की महत्वकी रचना. मुम्भारश्रीक हिन्दी पद्यानुवाद पीर भावार्थहिन ) (१४) तत्वार्थमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय )-मुग्नारधीक हिन्दी अनुवाद नया व्यायाम युन। ... ) (१५ श्रवणबल्गाल और दक्षिण अन्य जैननाथ क्षेत्र-ना. गजकृष्ण जनकी मुन्ना रचना भारतीय पुरातन्त्र
विभाग डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा. टी. एन. गमचन्दनका महन्ध पर्ण प्रग्नावनाम अलंकृन .) नोट- सब ग्रन्थ एकमाथ लनवालाकी 3८1) की जगह ३) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवान्दिर-ग्रन्थमाला'
वारसवामन्दिर, ५. दरयागन. दहली
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१५००) बानन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा.छोटेलालजी जैन सरावगी , २५१) बा• सोहनलालजो जैन लमेचू , २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी , २५१) वा० ऋषभचन्द (B.R.'. जैन २११) बा०दीनानाथजी सरावगी
२५१) वा० रतनलालजी झांमरी १२५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , *२५१) सेठ गजराजजी गंगवान
२५१) सेठ मुआलालजी जैन २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी , २५१) मेठ मांगीलालजी २५१) सेठ शान्तिप्रमादजी जेन २५१) वा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जोहरी,देहली २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
२५१) वा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली F२५१) ला० त्रिलोकचन्दजी सहारनपुर
२५१) सेठ छटामीलालजी जैन फीरोजाबाद २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १०१) बा० केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सरावगी, १०१) बा० काशीनाथजी, ... १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी १०१) बा० धनंजयकुमारजी १०१) बा• जीतमल जो जैन १०१) बा०चिरंजीलालजी मरावगी , १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रांची १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता १०.) गुणसहायक सदर बाजार मेग्ठ १०१) श्रीमती श्रीमालादेवी धर्मपत्नी डा. श्रीचन्द्रजी
जैन 'सगल' एटा १०१) ला० मक्खनलालजी मोतीलालजी ठेकेदार, देहलीk १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जेन, कलकत्ता १०१) बा०वंशीधर जुगलकिशारजी जैन, कलकत्ता १०१) बा. बद्रीदासजी सरावगा, कलकत्ता १८१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवाकट हिसार २०१) ला० बलवन्तसिंहजी हांसी १०१ १ १०१) कुँवर यशवन्तासहजी दासी
८०२२-२२४
सहायक
१०१) या. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू दहली १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बा०लालचन्दजी बो० मेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी ,
४ ४२५४१५
अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर'
सरमावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली । मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊस २३. दरियागंज, देहली
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MENT.
HTTARA
भा
Home
श्री वीर-जिनका
सर्वोदय ती
सर्वाऽन्तवत्तद्गुरा-मुख्य-कल्प के सर्वाऽन्त-शून्यच मियोऽनऐक्षम। सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥
श्रीवीर जिनालय
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-
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काक
सत असन्
नित्या जीवा अनेक अनित्य अजीव मोक्ष
नन्ध
जण्या
लोक स्वभाब जक्य/सामान्य पापपरलोक/ विभाव। पयोया विमोष
KAIMA/N2/
हिसासुम्या बियाामापेज अहिंसा मिथ्या अविनिर १ पुरुषार्थ प्रमाण
नयायुक्ति
अहित
TARI अगम असुम्स/परमात्मा
प्रमारा
2
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RAHAMASEE/BASS
नियनिहतालिम
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तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे4 व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कलौ। येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं
-कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपति वीरं प्रणोमि स्फुटम् ॥
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विषय-सूची
१ यम-धाराम-विहारी (पद्य)- भागचन्द जी । २ अंगीय जैन पुरावृत्त-[बा छोटेलाल जैन ४२ ३ ४२५) २० के दो नये पुरस्कार-[जुगलकिशार ४७ ४ पल्लेखना मरण-[श्री १०४ पूज्य चुलनक
गणेशप्रसादजी वर्णी
काँका गमानिक सम्मिश्रण (बाबू अनम्न
प्रसादजी B St. Eng. ६ भारत देश यागियोंका देश है-बाव जयभगवान
जैन एडवोकेट , श्रीमहावीरजी में वीरशामन जयन्ती
७४
साहित्यके प्रचारार्थ सुन्दर उपहारोंकी योजना
जो मन्जन, चाहे व अनेकान्तके ग्राहक हो या न हो. अनेकान्तके तीन ग्राहक बनाकर उनका वाषिक चन्दा १५) रुपये मनीआर्डर आदिवं द्वारा भिजवायेंगे उन्हें स्तुतिविद्या, अनिन्यभावना और अनकान्त-स-लहरी नामकी नीन पुम्न उपहारमं दी जायेगी । जा सजन दो ग्राहक बनाकर उनका चन्दा १.) रुपये भिजवायेंगे उन्हे श्रीपुरपाश्वनाथम्तात्र, अनिन्यभावना और अनकान्त-रमलहरी नामकी ये तान पुस्तकें उपहारमं दी जायगी ओर जा सज्जन केवल एक ही ग्राहक बनाकर रूपया मनीआर्डरसे भिजवायेंग उन्हें अानन्य-भावना और अनकान्त-रस-लहरी यदा पुग्नक उपहार में दी जायेगो । पुस्तकांका पोटज खर्च किसी को भी नहीं दना पड़ेगा। ये सब पुस्तकें कितनी उपयोगी हैं उन्हें नाच लिग्वे मंभिप्र परिचयसे जाना जा सकता है।
(१) स्तुतिविद्या-वामी समन्तभद्रकी अन खी कृति, पापांको जीतनकी कला, सटीक माहित्याचार्य पं. पन्नालालजीक हिन्दी अनुवाद • महित और श्रीजुगलकिशोर मुम्नारकी महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत, जिमम यह स्पष्ट किया गया है कि स्तुति आदिक द्वारा पापांका कंग जाना जाता है। मारा मूल ग्रन्थ चित्रकारांम अलंकृत है। सुन्दर जिल्द सहित, पृष्ठसंख्या ८२. मृल्य डेढ़ रुपया।
(२) श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र-यह प्राचार्य विद्यानन्द-चित महत्वका तत्वज्ञानपूगी म्नात्र हिन्दी अनुवाहादि-महित है। मूल्य बारह आने ।
(३) अनित्यभावना---आचार्य पदमनन्दीकी महन्यकी रचना श्रीजुगलकिशार मुख्तारक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-महिन. जिम पढ़कर कैमा भी शोक सन्तप्त हृदय क्यों न हो शान्ति प्राप्त करता है । पृष्ठमस्या ४८. मूल्य चार आने।
(४) अनेकान्त-रम-लहरी-अनकान्त-जैम गूढ-गम्भीर विषयको अतीव सरलतासे ममझनेसमझानकी कुजा, मुन्नार श्रीजुगलकिशोर-लिखिन, बालगोपाल सभीक पढ़न योग्य । पृष्ठ मंग्या ४८ः मूल्य चार आने। .
विशेष सुविधा- इनममे कोई पुस्तकं यदि किसी के पास पहलस मौः द हा ना वह उनक स्थान पर उतने मूल्यकी दमरी हुस्तकें ले सकता है, जो वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशित हो। वीरमेवामन्दिरके प्रकाशनांकी सूची अन्यत्र दी हुई है। इस तरह अनेकान्नकं अधिक ग्राहक बनाकर बड़े बड़े ग्रन्थों को भी उपहारम प्राप्त किया जा सकता है।
मैनेजर वीरमेवामन्दिर
१ दरियागंज, देहली,
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अहम
वस्वतत्व-सर
विश्वतत्व-प्रकार
ESHHHHHHHHHHHHHHRESISABIRHIMS
वार्षिक मूल्य ५)
एक किरण का मूल्य ॥)
नीतिक्रोिषवसीयोकम्यवहारवर्तकसम्पा। परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेमान्तः।
H
वर्ष १२ किरण २
।
जुलाई
१९५३
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली अपाद वीर नि० संवन २४७E, वि० संवत् २०१०
सम-आराम-विहारी सम भाराम विहारी, साधुजन सम आराम विहारी ।। टेक ॥ एक कल्पतरु पुष्पन सेती, जजत भक्ति विस्तारी। एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध-दर्प जुत मारी । राखत एक वृत्ति दोउनमें, सबही के उपगारो ॥१॥ सारंगी हरिबाल चुखाबै, पुनि मराल मंजारी । व्याघ्रबालकरि सहित नन्दिनी, बाल नकुलकी नारी। तिनके चरन कमल माश्रयतें, भरिता सकल निवारी ॥२॥ अक्षय अतुल प्रमोद विधायक, नाकौ धाम अपारी । कामधरा विवगडी सो चिरतें, भातम-निधि अविकारी। खनत वाहि लेकर करमें जे, तीक्षण बुद्धि-कुदारी॥३॥ निज शुद्धोपयोगरस चाखत, पर ममता न लगारी। निज सरधान ज्ञान चरनात्मक, निश्चय शिव-मग-चारी। 'भागचन्द' ऐसे श्रीपति प्रति फिर फिर ढोक हमारी ॥४॥
पं० मागचन्द
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वंगीय जैन पुरावृत्त
(श्री बा० छोटेलाल जैन, कलकत्ता)
_[गत किरणसे आगे] उपयुक उक्लेखोंसे ज्ञात होता है कि वर्तमान वर्द- जातिके साथ मज्जागत पार्थक्य नहीं है। जाति-गत वान विभागमें प्राचीन काखकी वर्द्धमानमुक्ति थी और पार्थक्य स्वाभाविक और अपरिवर्तनीय नहीं है । यह इसीका बहुमाग समृद्धिशाली और प्राचीन राढ़ था। पार्थक्य कृत्रिम और अनेक स्थल पर काल्पनिक है। जो प्रेसीडेन्सी विभाग और ढाका विभागका बहु भाग प्रदेश पार्थक्य आज दृष्टिगत हो रहा है वह शिक्षा-दीक्षा और ही प्राचीन बंग था और वर्तमान राजशाही विभागमें ही परिपार्श्विक अवस्थाकी विभिन्नतासे संगठित हुआ है। प्राचीन पुरवईन था, जिसका एक मंडल सुविख्यात सुसभ्य और सुकृष्टि-सम्पन्न जातियां जिस परिपालिक बरेन्द्र था, कई विद्वानोंका मत है कि भौगोलिक टालेमी अवस्थामें पड़कर उन्नत हुई है, अति निम्नस्तरकी कोई
और प्लीनी कथित गङ्गारिदि प्रदेश यही है । चटगांव भी जाति बैसी पारिपाश्विक अवस्था और शिक्षा दीक्षाका विभागमें प्राचीन समतट था । दिनाजपुरका बानगढ़ ही सुयोग पाकर उन्हींकी तरह उन्नत अवस्थामें उपनीत हो प्राचीन कोटीवर्ष था।
सकती थी । मानव यदि अभिमान शून्य होकर उदार यहाँ नदियोंके गमनमार्गमें निरन्तर परिवर्तन होनेके दृष्टिसे विचार कर देखें तो उन्हें मालूम हो जायगा कि कारण, अनेक प्राचीन स्थानोंका जलप्लावनसे, स्थानोंके जातियों में मज्जागत प्रभेद नहीं है । जैन शास्त्रोंके अनुदुर्गम और भस्वास्थ्यकर हो जानेके कारण ध्वंस हो चुका सार भोगभूमि कालमे मानव मात्र एक ही जातिके थे। है। कोसी नदीक तलदशम पारवतनक कारण दलदल भारतीय जातिसमूहकै विषयमें नृतत्वविद्गोंका और बाढ़ोंका प्रादुर्भाव हुमा, जिससे गौदनगरका विध्वंस
यह अभिमत है कि मध्य एशियाकी 'पाल्पीय" नामक हो गया। अस्थिर पद्मानदी अनेक ग्राम और नगरोंको
जातिने प्रागैतिहासिक युगम महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, कर्ण और बहा ले गई। इसी प्रकार अन्य नदियोंका विध्वंसकारी
कुर्ग इन सब प्रदेशों में वास किया था और तव्रत्य आदिम प्रभाव बंगदेश पर कैसा हुमा है, इसका अनुमान सहज
अधिवासी निषाद, द्राविड़ एवं आर्यजातिके संमिश्रणसे ही किया जा सकता है। सुन्दर वन एक समय जनाकीर्ण
इन सब देशोंकी प्रार्य हिन्दु समाजकी सृष्टि हुई है। फिर प्रदेश था किंतु प्रकृतिके प्रकोपने उसे जनशून्य बना दिया।
उन्हींकी एक शाखाने बंगाल, बिहार और उड़ीषामें उपदक्षिण में बंगोपसागरके प्रत्यापणक कारण दाक्षण जिलाके निवेश स्थापित कर एक ही रूपसे तनत्य हिन्दुसमाजकुछ भागोंका अंचल प्रसारित हो रहा है इसीसे अब ताम्र
का गठन किया है। वर्ण और प्राकृति, शरीरकी उच्चता लिप्त (तामलुक) से समुद्र ४५ मील दूर है।
करोटी और मस्तक, नासिकाका गठन, अखि, केशका रंग, यहाँ यह भी बता देना आवश्यक है कि विहार प्रांतके
मुखमण्डलकी श्मश्रु-गुम्फादिका न्यूनाधिक प्रभृतिके साहवर्तमान सीमान्तर्गत मानभूम, सन्थल परगना और
श्य और पार्थक्य द्वारा पंडितगण जाति-प्रभेद अर्थात् वंश पुर्णियाके आदिवासियोंकी भाषा बंगला है।
निर्णय करते हैं। इसी प्रमाणके बलसे यह सिद्ध हुआ है बंगालकी जनसंख्या करोड़से अधिक है। पश्चिम किगाली हिन्दसमाजकी ब्राह्मण और ब्राह्मण सभी बंगमें हिन्दोंकी संख्या अधिक है और पूर्व बंग (पाकि- जातियां मलतः अभिन्न हैं। और इसका समर्थन पुराणास्तान) में मुसलमानोंकी।
से होता है ‘एकोवर्ण आसीत् पुरा' । बंगाली हिन्दु मानव-जाति
समाजान्तर्गत अधिकांश जातियाँ मूलतः एक जातिसे समु. माधुनिक नृतत्वविद्गणोंने प्रमाणों द्वारा यह सिद्धांत स्थिर किया है कि "पृथ्वीको कोई भी जातिका किसी भी * बंगेत्रिय पुगडू जाति-मुरारी मोहन सरकार ।
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बंगीय जैन पुरावृत
किरण २]
जैनोंके आदिपुराण आदिमें जिला है कि भोगभूमि कालमें स्त्री और पुरुष साथमें हो उत्पन्न होते थे और सभी मनुष्य एक समान वैभव वाले थे और कोई किसीके
मत नहीं था। इसके बाद कर्म-भूमिके समय आदि नाथ ऋषभदेवने पत्रिय, वैश्य और यह इन तीन वर्षों की कल्पना कर लोगोंको उनके योग्य आजीविकाके उपाय बताये । और प्रजाके पालन और शम्सनके लिए राजा नियुक्त किये । जिस जिस राजाका जो नाम रखा गया उन्हीं नामोंसे विभिन्न वंश जैसे- कुरुवंश, हरिवंश नाथवंश, उपवंश बन गये आदिनाथने इ (ख) के रसका संग्रह करनेका उपदेश दिया था इसलिए लोग उन्हें इत्रा । कहने लगे ये कारण अर्थात् वेज के अधिपति थे इसलिये लोग उन्हें काश्यप कहते थे आदिनाथ के पुत्र महाराज भरतने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी । आदिय अधिवासी और आर्यजाति ।
।
जैनशास्त्र अनुसार भारतवर्ष ही बायकाम निवास स्थान है । पर पाश्चात्य इतिहासकारोंका मत है किष्टि (ईसा) जन्मके १२०० या २००० वर्ष पूर्व प्राचीन आर्यजाति एशिया खडके मध्य भागमें अवस्थित थी, जो मरुमय पुरातन आवासभूमिका परित्याग कर दक्षिणकी ओर बने गोष्टि जम्मसे पंच शताब्दी पूर्व समय में इन आगयोंके ग्रामों ( Babylon ) और सिर ( Bgypt) देशके प्राचीन साम्राज्य ध्वंस हो गये। वृिष्ठ पूर्व षोडश शताब्दी में आर्य वंशजात काशीष जाति (Kassites, Cassita, Kash — shee ) ने बाविरूष पर अधिकार कर नूतन राज्य स्थापित किया था। वे काशीयगण कार्य जातीय थे प्राचीन भार्यजालिने बोहनिर्मित अस्त्रोंकी सहायतासेटि जन्म से २००० से १२०० वर्ष पूर्व कालमें प्राचीन बाविरुष और बासूर ( Assyria ) राज्योंको जय किया था ।
1
इसी आर्य जातिकी एक शाखाने भारतके उत्तरपश्चिम सीमान्तकी पर्वत श्रेणीको भविक्रम कर पंचनद प्रदेशमें उपनिवेश स्थापित किया था। इन लोगोंने क्रमशः पूर्वकी ओर अपना अधिकार विस्तार किया और दो तीन शताब्दी के मध्य ही उत्तरापथके अधिकांश भागको हस्तगत कर लिया और जब भायंगण अपनी बस्ती विस्तार करते
[ ४३
करते हुए इलाहाबाद पर्यन्त उपस्थित हुए तब बंग, बगध (मगध) और चेर देशवासियोंकी सम्पतासे ईर्ष्यावश उन्हें धर्मज्ञानहीन और भाषा शून्य पक्षी कह कर इनकी वर्णना वेदोंमें की है। वर्तमान युग पहिलो स्थिर किया है कि आगयोंके बंगाल अधिकार के पूर्व इसमें दाि नामकी एक जाति वास करती थी वह सम्बतामें इन प्रायसे न्यून न थी ।
प्रत्नविद्या विशारद हाल साहबका मत है कि द्राविदगण अति प्राचीनकाल से भारतवर्ष के निवासी है और प्रागैतिहासिक युगमें इन्हीं लोगोंने सृष्ट जम्मले तीन सहल वर्ष पूर्व विरूप चीर पेशन पर अधिकार कर बाँकी बाविरूप और मासूर आदिकी प्राचीन सभ्यताकी भित्ति स्थापित की थी ।
नृतत्वविद्ोंने आधुनिक बंग यासियोंकी नासिका और मस्तककी परीक्षा कर यह निश्चय किया है कि ये योग द्रविड़ और मोंगोलियन जातिके सम्मिश्रणसे उत्पन्न मालूम होते है।
मेजर जनरल फरलांगने प्रमाणित किया है कि चायके आगमन के पूर्व भारतवर्ष के प्राचीन अधिवासी विद गण थे और इनमें जैनधर्मको मानने वाले सूटसे सहखाँ वर्ष पूर्व यहाँ वास करते थे । जैनधर्म एक प्राचीन सुसंगठित दार्शनिक, नैतिक और कठोर तपस्या- परायच धर्म या । यह बात सिधदेशके मोहेंजोदरोकी खुदाईसे और मा अधिक पुष्ट हो गई है। वहाँ जैन प्रभावके प्रति प्राचीन चिन्ह उपलब्ध हुए हैं +
9
ऋग्वेदमें जिनको दस्यू कहा है वह सम्भवतः यही द्राविष जाति है। मोदापन धर्मसूत्र (१/१/२) मं खिला है कि बंग, कलिंग, सौवीर प्रभृति देशांमें गमन करनेसे शुद्धिके लिए यज्ञादि अनुष्ठान करना चाहिए। ● HR. Hall's The Ancient History of
the Near East p. 171-174
x Short studies in the Science of Comparative Religion p. 243-14
+ Twenty-First Indian Science Congress Bombay 1934 section of Anthr opology-Sramanism by Rai Bhadur Rama Prasad Chanda.
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४४]
अनेकान्त
किरण
-
-
-
आर्य
इसका कारण यही था कि यहाँ जैनधर्मका विशेष भारतवर्षके अन्यान्य देशों में जिस प्रकार मार्योंकी रीति प्रभाव था।
नीति, भाषा और धर्म प्रचलित हुए थे उसी प्रकार मगध प्राचीनकालमें इविध जातिका राज्य बंगोपसागरसे
और बंगदेशमें भी इनका प्रवर्तन भारम्भ हुमा था। लेकर भूमध्यसागर पर्यन्त विस्तृत था । वर्तमानमें
किन्तु दाक्षिणात्य वासी द्वाविंडोंने सम्पूर्णरूपसे प्रार्यदविबजाति मध्यभारत और दक्षिणात्यमें वास करती है।
भाषा ग्रहण नहीं की; परन्तु उनके अनेक आचार-व्यवदक्षिशके प्राचीन राज्य चेर, चोल और पायब्ध हैं
हारोंका अनुकरण अवश्य किया। इन तीनों राज्योंका अस्तित्व अशोकके समयमें भी पाया खुष्ट पूर्व प्रथम सहस्राब्दीमें उत्तरापथके पूर्व सीमान्त जाता है। दक्षिण भारतके इतिहाससे यह भली प्रकार स्थित प्रदेश भार्यगणोंके आधीन हो गए थे पर इसके प्रगट हो चुका है कि पायव्य नृपतिगण जैनधर्मावलम्बी तीनचार शताब्दी बाद समग्र पर्यावर्त मगध राजगणोंकी थे। चेर नृपति (सन् १९७के लगभग) के लघु भ्राता प्राधीनतापाशमें बद्ध हो गया था। उन मगधके राज्यगणोंद्वारा लिखित 'शिलप्परिकारम्' नामक शामिल अन्धसे को हिन्दू-लेखकोंने शूद्र जातीय या अनार्यवंश संभूत प्रगट होता है कि प्राचीन चेर नृपतिगण भी जैन थे। जिस्खा है। चोल नृपतिगण भी बीच बीचमें जैनधर्मके प्रतिपोषक थे, पर पश्चात् कालमें वे शैव हो गए थे। खुष्टीय
प्रार्योंका देशान्तगेंसे भारतवर्ष में प्रागमन हुआ, इस (ईसाकी) प्रथम शताब्दीमें पल्लववंशी राजा भी जैन
सिद्धांतको स्वीकार कर या न करें पर यह बात निश्चित धर्मावलम्बी या जैनधर्मके पोषक थे। इन पल्लवोंकी
है कि उन प्राचीन भारतीय पार्यों में भी जैनधर्मका प्रचार उत्पत्ति कुरुम्बादि प्रादिम निवासियोंसे बतायी जाती है।
था । उपनिषदों से ज्ञात होता है कि एक बार नारद कुरुम्ब जातिके लोग भी जैनी थे, इसके प्रमाण भी
मुनि राजा सनत्कुमारको राजसभामें श्रात्मविद्याके परिउपलब्ध हैं।
ज्ञान में दीक्षित होने के लिये गये । वहाँ नारदमुनि कहते प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी जो दक्षिण कियपि मैं वैदिक विद्याको भले प्रकार जानता हूँ देशमें प्रथम शताब्दीमें हुए हैं और जिन्होंने प्राचार्यपद
तथापि (Eastern Arya) प्राच्य पार्योंकी पात्मविद्या सृष्टपूर्व = में ग्रहण किया था, वे द्राविड़ थे ।
या परविद्यासे अनभिज्ञ हूँ जो कुरु पंचाल पार्योंकी सन् ४७० में प्राचार्य वज्रनन्दीने 'द्राविसंघ' की अपरविद्या या वदिकज्ञानके प्रतिकूल है । भार
अपरविद्या या वैदिकज्ञानके प्रतिकूल है । प्रात्मविद्यामें ही स्थापना की थी।
वैदिक यज्ञों (बलिदान) को निरर्थक और प्रारमाके विकास इस प्रकार परवर्तीकालके द्रविड लोगों में भी क्रमा
(Evolution of the soul) के लिए हानिकारक नुगत जैनधर्मका अस्तित्व पाया जाता है।
बताकर उनकी घोर निन्दा की है। यहां यह भी विचार
णीय है कि गांगेय उपत्यकाके अधिवासियों या प्राच्यार्यों इस समय द्राविड़ या गमिल भाषा तामिल, तेलगू,
Eastern Aryans जो काशी, कोशल, विदेह और कनदी और मलयालम ऐसे चार प्रधान भागोंमें भिक
मगध वास करने वाले थे उनको याज्ञवरुक्यने भ्रष्ट और हैं। हिन्दू ग्रन्थोंमें दाविद भाषाको भी अनार्य कह दिया
मिन्नमतावलम्बी कहा है। इसका कारण यही था कि है। उपलब्ध तामिल और कनड़ी भाषाका प्राचीन और
पूर्व देशीय प्रायवेदिक हिंसामय यज्ञोंकी केवल निन्दा उच्च साहित्य जैनों-द्वारा लिखा हुआ है।
ही नहीं करते थे वरन् साथ साथ यह भी कहते थे कि इन ___ आर्य सभ्यता जब यहां विस्तृत हुई. तब भी शादिम यज्ञोंको करना पाप है और इनका परित्याग करना धर्म दाविद अधिवासीगणोंने बंगालका परित्याग नहीं किया। है। बाजस्नेहो संहिता भी यही सूचना है। अतः इसमें
ॐ देवसेनकृत दर्शनसार (वि. सं. ११. का)
रखोक २४, २८
x prof A. chakravurty-Jain gazette
vol.XIX No.3p.91.
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अनकान्त
-
समय
Carosa
CRIMARIA
100
firihine
Fish
ATESTRATIMES
बागा मनामह राजशाही
..
TAMAN
पवना नदियोबाका
BAMMEL
पर।
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नर्दवान
जैसोर (कीदार
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5nd.
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गली
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बाकरगन)
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* परगना उतना
बंगोपसागर
Page #65
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अनेकान्त
भूटान
सिक्किम
हानिया
जलपाइगुडीnp
पाडा... प्राग्ज्योति
...-
कुचबिहार,
जालपाड़ा : कामरूप .
ब्रह्मपुतAR
मुजफ्फरपर
1
.
पूर्णिया ।
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दिनाजपुर कोटीवर्षे
गापुर
- पटना
Line
गोरापहाड़ी सिलग
मी -..:
मंगेर भागलपुर
पलामा
राजशाही हजारीबाग
उत्तररादा.
त्रिणराहाका रांची मागणी माना
पुर
६
असार फादपुर
जानाली
'मगांव
'ॐ , फलफना, खुलना बाकरगंन
पेदिनीपुर वीस-परगना पर वन ' मौरभंज तामनुका ..
नामति
"
जीनाथ
सुन्दर वन
नामसकिनम
शिवाल
बडोपसागर
"
बालासार
मील ५०.३५
" बङ्देश ___५o100_२५० मील
देशप
· महन्दी
बंगाल का मानचित्र
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किरण २
वंगीय जैन पुरावृत्त
[४५
-
संदेह नहीं है कि ये मामाकी श्रेष्ठताके प्रचारक आर्य समर्थ हुए थे । २४ वें तीर्थंकर बर्द्धमान महावीरके पाविजैनधर्मावलम्बी थे।
र्भावके पूर्व मगध और अंग छोटे छोटे सगड राज्यों में मार्य राजगणोंके अधःपतनके पूर्व उत्तरापथके पूर्वा विभक्त थे । गौतमबुद्ध और महावीर वईमानकी निर्वाणअजमें आर्यधर्मके विरुद्ध देशव्यापी प्रबल भान्दोलन प्राप्तिके प्रति अपकाल बाद ही शिशुनाग वंशीय महानन्दउपस्थित हुया था और उसके फलस्वरूप अनधर्मका के पुत्र महापानन्द भारतके समस्त त्रिय कुलको निमूख विस्तार और प्रभाव बढ़ गया तथा बौदधर्मका जन्म कर एकड़न सम्राट् हुए थे। इस समयसे लेकर गुप्तराज हुमा । उस समय मगध + के राजगण जैन और बौजू- बंशके अधःपतन पर्यन्त मगध राज्य उत्तरापथमें एकछत्र धर्मावलम्बी थे। इसीसे उनको भी शुद्ध जातीय और सम्राट रूपसे पूजित होते रहे और पाटलीपुत्राही सम्राट अनार्य कहा है तथा उस समय इन दोनों धर्मोंका प्राबल्य की एक मात्र राजधानी थी." आर्यावर्त्तके पूर्वाश में जोरोंसे था इसीसे 'विन्धस्योत्तरे भागे श्रीमान डाक्टर भण्डारकर x ने लिखा है कि यह प्रादि श्लोकोंकी रचना कर उन प्रदेशोंकी यात्रा वर्जित सत्य है कि ब्राह्मण-धर्मको बंगालमें फैलनेके लिए बहुत करदी गई थी।
समय लगा था। अभी तक ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध प्रसिद्ध पुरातत्त्व विद् बा. राखालदास वन्द्योपाध्याय- नहीं हुआ जिससे यह सिद्ध किया जासके कि ब्राह्मण धर्मने अपने बंगालके इतिहास में ४ २८/२६ पर लिखा है का आधिपत्य गुप्तकालके पूर्व इस प्रान्तमें था। प्राचीन कि-"जैनधर्मके २४ तीर्थकरां में १४ तीर्थंकरोंने बंगालमें आर्य सभ्यताका विस्तार प्रथम जैनों द्वारा हुया मगध और बंगालसे निर्वाण लाभ किया था।२४ तीर्थंकरों था। प्राचीन जैनग्रन्थोंमें गालके ताम्रलिसि. कोटिवर्ष में ११ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ और २१वें तीर्थकर नमिनाथ- और पुण्ड्रबद्धन ऐसे तीन स्थानोंके नामसे जैन संघोंका ने मिथिलामें और २०वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथने राजगृह नाम प्रचलित हुधा मिलता है। इनमें "तालिप्स" में और २४ वें तीर्थंकर महावीर वर्द्धमानने वैशाली x वर्तमान मेदिनीपुर जिलेका तामलुक है, 'कोटिवर्ष" नगरमें जन्म लिया था। २४ तीर्थंकरोंमे द्वादश + दीनाजपुर जिलेका वाणगढ़ है और 'पुण्यवाई न बोगड़ा तीर्थंकरोंने सम्मेशिखर तथा पार्श्वनाथ पर्वत पर निर्वाण जिलेका महास्थान है। यह एक विचित्र बात है कि अपने लाभ किया था । द्वितीय - तीर्थकर वासुपूज्यने चम्पा धर्ममें दीक्षित करनेका कार्य क्षेत्र विहार और कोशजको नगरसे और २४ वें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीरने आपापा बुद्ध और उनके अनुयायियोंने बनाया था और महावीर पुरीसे, निर्वाणलाभ किया था। ये दोनों नगर अंग और उनके अनुयायियोंने इस कार्यके लिए बंगालको
और मगध देशमें अवस्थित है। जैन और बौद्धधर्मके मनोनीत किया था। यह सत्य है कि इस मूल जैनधर्मके इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे स्पष्ट बोध होता है कि चिन्ह अब बङ्गालमें नहीं बचे हैं किन्तु सृष्टीय (ईसाकी) दीर्घकाल-व्यापी विवादके बाद सनातन आर्यधर्मके विरुद्ध सप्तम शताब्दीके मध्यभाग तक पुण्ड्रबर्द्धनमें अनेक वादी यह नूतन धर्मद्वय भारतवर्ष में प्रतिष्ठा लाभ करनेमें निम्रन्थ जैनांका अस्तिस्वस हय मेनसांग नामक चीनी + सभी पूर्वकालीन और परवर्ती वैदिक मन्याम मागधी- यात्रीके विवरणसे प्रमाणित होता । पाहायपुर
के प्रति विद्वेष प्रदर्शन किया गया है। स्मृति साहित्य (बंगाल ) में जो म्वृष्टीय पंचम शताब्दीका ताम्रशासन में भी मगधकी गणना उन देशों की है जिनमे प्राप्त हुया है उनमें एक विहारकं अहम्तोंकी पूजाके लिए जाना निषेध किया गया है तथा वहाँ जाने पर निग्रन्थाचार्य गुहनन्दिके शिष्योंको एक दानकी वार्ता है। प्रायश्चित करना निर्देश किया गया है J.N. Sam
___xFp. ind. Volxxvi,p५0 and J. A. addar, The Glories of magadh p.6.)
S. B. Xx 111 [N.SP, 125 * की जगह २२ होने चाहिए। x फुडग्राम या कुंडपुरमें ।
#S. Ba's-Buddhist Recordr of thee +विंशत। = २३ पावापुरी।
Western World-london 1906.
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अनेकान्त
[किरण २
४६
चार किया
नमें जनसमा
..
.
खष्ट्रीय सक्षम शताब्दी तक बंगालमें जैनधर्म प्रचलित था पुद, राढ़ और ताम्रलिप्ति प्रदेशों में चातुर्याम धर्मके प्रचारइसमें कोई भी सन्देह नहीं है। और इन्हीं जैनोंने ही पूर्वक कल्पसूत्रकी शिक्षा दे यज्ञ और कर्मकाण्डमय ब्राह्मण प्राचीन बंगालमें सर्व प्रथम और मौर्यकाल में भार्यसभ्यता- धर्मकी विद्रोह घोषणा की। इसीलिये हिन्दुओं द्वारा यह का प्रचार किया था।
देश निषिद्ध हुा । जो मगध और कलिंग प्रभृति देश मौर्यकाल में पुण्ड्व नमें जैनधर्म अतिप्रबल था; यह भारतके इतिहासके सर्वश्रेष्ठ गौरव हैं उनको भनार्य बात दिव्यावदानकी कथासे अवगत होती है। इसमें लिखा घोषणा करना घोर असूयाका फल है।" है कि यह जानकर कि जैनोंने निम्रन्थके पॉय पढ़ती हुई 'हिन्दुओंने बौद्धधर्म और जैनधर्मको केवल नष्ट बुद्धकी एक प्रति मूर्ति चित्रितको है. राजा अशोकने सर्व कर ही छोड़ नहीं दिया, वे दोनों हाथोंमे बौद्ध और जैनश्राजीवकों (जैनों) की हत्या कर देनेका आदेश दे भण्डारीको लूट कर समस्त लुठित व्यके ऊपर निज निज दिया और 10. प्राजीवक एक दिनमें वध कर दिये नामांकरकी छाप देकर उसको सर्वतोभावसे निजस्व कर गये ।
लिया । हिन्दुओंके परवर्ति न्यायदर्शन, धर्मशास्त्र प्रभृति रंगालके प्रसिद्ध साहित्यक वा. दिनेशचन्द्रसेनने समस्त विषयाम इस लूटका परिचय है-कहीं भीत्र
स्वीकार नहीं है। इस प्रकार हिन्दुओंने बौद्ध और जैन) अपने "वृहत बंग" [पृष्ठ ६-११] में लिखा है कि कृष्णाके
धर्मके इतिहासका विलोप साधन किया है। आगे चल ज्ञाति २२वें तीर्थकर नेमिनाथने + अंग बंग प्रभृति देशमें
कर दिनेश बाबूने (पृष्ट ३१६ ) पर लिखा है कि हमारा भाकर ब्राह्मणधर्मके प्रति विद्रोहके भावकी शिक्षा दी। उन्होंने इन सब देशांमें जैनधर्मका विशेषकर प्रचार किया
देश (बंग) एक हजार या बारहसौ वर्ष पूर्व बौद्ध और एक समय जैन और बौद्ध धर्मके बान [बाण ] से पूर्व
जैनधर्म की बदस्तूर श्राढ़त थी; किन्तु उस सम्बन्धमें हम भारत वह गया था। सुतरां ब्राह्मणोंने इन दोनों धर्मों- लोग बिल्कुल अज्ञ और उदासीन हैं। जैन और बौद्ध को इस देशमे निकाल देनेके लिए अनेक चेष्टाएँ की। देवताकि विग्रह बंगालके गाँव-गाँवमें पाई जाती हैं कितु अस्तु, माह्मणोंने अपने प्राचीन शास्त्रोंमें अनेक श्लोक
वे बौद्ध व जैनधर्मके अन्तर्गत हैं यह कब किसने विचार प्रक्षिप्तकर समस्त पूर्व भारतको अत्यन्त लांच्छित कर किया है । किम्मी स्थान पर दिगम्बर तीर्थंकर शिवरूपसे
पूजित हो रहे हैं। केवल बौद्ध धर्मके प्रति ही नहीं जैनोंके दिया था। अंग, बंग, कलिंग, मगध और यहाँ तक।
के ली . प्रति भी ब्राह्मण विद्वष प्रचलित था। हस्तिनापीड्य कि सौराष्ट्र पर्यन्त वृहत् जनपदको इन्होंने आर्यमण्डलीके बहिभूत कहकर निर्देश किया और यह व्यवस्था दी मानोप न गच्छेज्जैन मन्दिरम् ॥' इस एक ही वाक्यसे
नजान वह विद्वष विशेष भावसे व्यक्त हो जाता है। दक्षिणात्य प्रायश्चित्त कर स्वदेशमें लौट सकेंगे। ययाः
शैवाने बौद्ध और जैनोंके मस्तक छेदन कर किस रूप निष्ठुर "अंग-बंग-कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधेषु च।
भावसे उनके मतका ध्वंस किया था यह स्थानान्तर पर तीर्थयात्रा धिना गच्छनः पुन.सस्कारमहति ॥" लिखा जावेगा। एक समय जिन सर्व स्थानों पर ऋषियोंने तीर्थस्थान किया 'जेन और बौद्धोंके अधिकार काल में प्राणीहिंसा मुलक था, परवति युगमें वे निषिद्ध राज्य परिगणित और परि- यज्ञादि बहु परिमाणमें मुक्त होगये थे । हमारा यह वृहत् स्यक्त क्यों हुए इसका उत्तर यह है कि "जैन और बौद- बंग पहिलेसे हो नव ब्राह्मण नेता कृष्णका विद्वषी था। धर्मकी हवाने बह कर हिन्दुओंकी दृष्टिमें इस देशको यहाँ कृष्ण विरोधी दलकी चेष्टासे यज्ञाग्नि बहुकालके लिये दूषित कर दिया था। तीर्थंकर चुवामणि पार्श्वनाथने निर्वापित होगई थीx x Divyavadana Ed. by Co well and
"एक समय स्वयं पारवनाथने इस देशमें बहुवरसर
धर्म प्रचार किया था । एवं इस देशमें विशेष कर सुन्दरNeill p427. + नेमिनाथ कृष्णके संपर्क भ्राता (ताडके लड़के थे) ले.
वन विक्रमपुर और मानभूमके अंचल पर अनेक लोगोंने 8 पारवनाथ भगवान महावीरसे २५० वर्ष पूर्व हुए थे। x महत् बंग पृष्ट ४४ ।
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किरण २]
४१४)6. के दो नये पुरस्कार
[४७
इस धर्मका अवलम्बन किया था। अनेक बंग-पविलयोंमे • बंगला रामायणोंमें उन अतिरिक्त कथानोंका समावेश तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई है। यह धर्म उस समय हुमा है। कितना व्यापक हो गया था यह इससे भली प्रकार जाना बंगाल में ब्राह्मण धर्मके पुनरुत्थानके पूर्वका जो भी जाता है। हमारे देश में त्याग और दयाधर्मका जो अपूर्व साहित्य यहाँ उपलब्ध है उससे यह भली भाँति सिख हो अभिनय हुमा है उससे इतिहास पाठक मात्र अवगत जाता है कि उसमें भक्ति पर नहीं पाकर्म पर ही अधिक हैं। अभी भी बंगाली वैष्णवोंके घरोंमें रसका नाम लेनेसे जोर दिया गया है अर्थात् जैसा करोगे वैसा पायोगे, ही नहीं 'काटा' शब्द ही उनके अभिधानमें नहीं है? मनुष्य अपना उद्धार स्वयं ही कर सकता है। सत्य, तरकारी 'काटने' को ये लोग 'बनायो' कहते हैं। जीव- शौच, संयम, दान, तप, बत, ब्रह्मचर्य, प्रतिज्ञापालन दयाकी नीति क्या उस श्रादि कालसे ही इस देश में इसी आदिको उस समयकी जनता धर्म' मानती थी। प्रकार चली आई है।"
ये सब धार्मिक विश्वास जैनधर्मका पूर्वानुगत बाबू दिनेशचन्द सेनने लिखा है न कि जैन कवियों- प्रभावका घोतक है। परवर्ती कालीन साहित्यमें भक्तिको ने रामायणकी जिन कथाओंका वर्णन किया है वे एक प्रधानता और ब्राह्मणों का प्रभाव पाया जाता है कारण उसं समय बंगाल में अवश्य प्रचलित थीं, अतः इसीलिए समय जैनधर्म यहाँसे लुप्तप्रायः हो चला और ईश्वरभक्ति - - -..- . . - - -
और ब्राह्मणोंमे ईश्वर तुख्य शक्तिके मानने वालोंकी + The Bengali Ramayanas p. 207 संख्या बढ़ गई थी।
क्रमशः
४२५ रु० के दो नये पुरस्कार जो कोई विद्वान्, चाहे वे जैन हो या जैनेतर, जो सज्जन किसी भी विषयके पुरस्कारको रकममें निम्न विषयों में से किसी भी विषयपर अपना उत्तम अपनी ओर से कुछ वृद्धि करना चाहेगे तो वह वृद्धि निबन्धाहन्दी में लिखकर था दसरी भापामें लिखे
यदि २५) से कमकी नहीं होगी तो स्वीकारकी जायगी जाने पर उसे हिन्दीमें अनुवादित कराकर भेजनेकी और वह बढ़ी हुई रकमभी पुरस्कृत व्यक्तिको उनकी कृपा करेंगे उनमें से प्रथम विषयके सर्वश्रेष्ठ लेखकको भोरसे भेंटकी जायगी। पुरस्कृत लेखोंको छपाकर १२५) रुपये और दूसरे विषयके सर्वश्रेष्ठ लेखकको प्रकाशित करनेका वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टको पूर्ण अधि३००) रुपये बतौर पुरस्कारके वोरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी कार होगा। जो विद्वान किसी भी निबन्धको लिखना माफत सादर भेंट किये जाएंगे। जो सज्जन पुरस्कार चाहर अपन नाम
चाहें वे अपने नाम तथा पतेकी सूचना काफी समय लेनेकी स्थितिमें न हों अथवा उसे लेना नहीं चाहेंगे पहलेसे कर देनकी कृपा करें, जिससे आवश्यकता उनके प्रति दूसरे प्रकारसे सम्मान व्यक्त किया होनेपर निबन्ध-सम्बन्धी काई विशेष सूचना उन्हें दो जायगा। उन्हें अपने इष्ट एवं अधिकृत विपयपर जा सके। विषयों के नाम और तत्सम्बन्धी कुछ लोकहितकी दृष्टिसे निवन्ध लिखनेका प्रयत्न जरूर सूचनाएं इस प्रकार हैं:करना चाहिये । प्रथम विपयका निबन्ध फुलस्केप
१. सर्वज्ञका संभाव्यरूप साइजके २५ पृष्ठों अथवा ८०० पंक्तियोंसे कमका इस निबन्धमें सर्वज्ञकी सिद्धिपूर्वक सर्वज्ञके उस नहीं होना चाहिये और उसे ३१ दिसम्बर सन् १६५३ रूपको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत है जो सब तक विज्ञापकके पास निम्न पतेपर रजिस्ट्रीसे भेज प्रकारसे संभाव्य हो। सर्वज्ञकी सिद्धिमें उन सब देना चाहिये । यदि सब लेखक चाहेंगे तो इस समया- शंकाओं तथा युत्तियोंका पूरा समाधान होना चाहिये वधि में कुछ वृद्धि भी की जा सकेगी।
जिन्हें सर्वज्ञाऽभाववादी सर्वज्ञताके विरोधमें प्रस्तुत
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४८]
अनेकान्त
[किरण करते हैं । सर्वझके संभाव्यरूपको बतलाने में पहले उन (६) 'सवे-द्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य' इस सूत्रके सब रूपोंकी चर्चा श्रा जानी चाहिये जिन्हें विभिन्न अनुसार केवलज्ञानका विषय सर्व द्रव्यों और उनकी सरवादी अपने-अपने मतानुसार अपनाए हुए हैं, सर्व पर्यायों तक सीमित बतलाया है, तब जो न तो फिर उनमें से कौन रूप कितने अंशोंमें संभाव्य है और द्रव्य है और न किसी व्यकी कोई पर्याय है उन कितने अंशों में संभाव्य नहीं है इसे अच्छे युक्ति- बहुतसी कल्पित आरोपित बातों तथा आपेक्षिक धर्मों बलके साथ प्रदर्शित करना चाहिये और अन्त में जैसे छोटा बड़ापन नाप-ताल आदि और रिश्ते-नातेकी स्पष्टीकरणाके साथ सर्वशके उस रूपको सामने रखना बातको केवली जानता है या कि नहीं? यदि नहीं चाहिये जो सब प्रकारसे संभाव्य एवं प्रबाध्य हो। नानता तो उसका सर्वज्ञान सीमिव हवा,और जानता स्पष्टीकरणमें निम्न विपयोंका स्पष्ट होना आव- है तो किस रूपमें जानता है और उस रूपमें जाननेसे श्यक है :
भी वह ज्ञान सीमित होता है या कि नहीं? . (१) 'सर्व जानातीति सर्वजः' इस मामान्य (७) जो इन्द्रियज्ञान, स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान निरुक्तिके अनुसार क्या सर्वज्ञ किसी एक ही द्रव्य और नय-निक्षेपाढिके रूपमें श्र तज्ञानके विषय अर्थात् या पदाथ को-जैसे जीवात्मा को-पूर्णरूपसे जानता ज्ञय हैं वे क्या सब केवली सर्वज्ञके ज्ञानके भी विषय है और इमी दृष्टिसे वह सर्वज्ञ है अथवासव द्रव्यो- एवं क्षय हैं ? यदि नहीं हैं तो ज्ञान-ज्ञानकेयोंकी पदार्थोंको वह जानता है, इस दृष्टि से सर्वज्ञ है ? विभिन्नता हुई तब सर्वज्ञ सम्पूर्ण शेयोंको जानने
(२) सर्व द्रव्य-पदार्थोंको वह जातिके रूपमें वाला कैसे कहा जा सकता है ? उसका महान ज्ञान जानता है या व्यक्तिके रूपमें यदि व्यक्तिके रूपमें अनन्तविषयोंको अपना साक्षात् विषय करने वाला जानता है तो क्या अलोक-सहित त्रिलोकवर्ती और होते हुए भी मर्यादित ठहरता है । इस विषयका विकालवर्ती सम्पर्ण जड-चेतन व्यक्तियां उसके ज्ञानमें निवन्धमें अच्छा ऊहापोह होना चाहिये। साथही. मलकती हैं ?
निबन्धको लिखनसे पहले स्वामी समन्तभद्रके देवागम, भत और भविष्यकालकी व्यक्तियां ज्ञान
युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र तथा श्री कुन्दकुन्दके दर्पणमें कैसे झलकती है, जबकि वर्तमानमें उनका
समयसारपर भी एक नजर डाल लेनी चाहिये। अस्तित्व ही नहीं?
२. समन्तभद्रके एक वाक्यकी विशद-व्याख्या (४) वह सर्व द्रव्य-पदार्थों को उनकी सम्पूर्ण
_ 'तत्व-नय-विलास पर्यायोंके साथ जानता है या उन सबको कुछ पर्यायोंको स्वामी समन्तभद्रका स्वयंभू स्तोत्र-गत एक पद्यजान लेनेसे भी सर्वज्ञता बन जाती है।
बाक्य निम्न प्रकार है___ (५ वह सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंकों "विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तद्युगपत् जानता है या कमशः जानता है ? यदि क्रमशः विशेषः प्रत्येक नियम-विषयैश्चाऽपरिमितैः । जानता है तो प्रथमादि समयोन जबतक जानकारी पूरी नहीं होती वह सर्वज्ञ कैसे कहा जा सकता है ? सदाऽन्योऽन्यापेक्षैः सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरुणा
और जानकारीके पूरा होनेपर यदि वह स्थिर रहती त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-विवक्षेतर-वशात् ॥" है और ज्ञान फिर सबको युगपत् जानने में प्रवृत्त होना इस पद्यमें सूत्ररूपसे जिनोपदिष्ट तश्व-विषयक है तो फिर शुरूसे ही उसकी युगपत् प्रतिमें कौन तथा नय-विषयक जो भारी प्रमेय भरा हुआ अथवा बाधक है, जबकि जैन-मान्यताके अनुसार मोह, संसूचित है उसे विस्तृत व्याख्याके द्वारा ऐसे सर्वाज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय नामक चार गीणरूपसे व्यक्त एवं स्पष्ट करके बतलाने की जरूरत घातिया कोंके अत्यन्त क्षयसे केवलज्ञानके रूपमें है जिससे संक्षेपमें जिन-शासनका सारा तत्त्व-नयसर्वज्ञता प्रकट होती है। ऐसी हालतमें सर्वशका विलास प्रामाणिकरूप सामने भाजाए और उस क्रमशः जानना कैसे बन सकता है।
(शेष पृष्ठ ७४ पर)
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सल्लेखना मरण (श्री १०५ १ज्य क्षुल्लक गणेशप्रमादजी वर्णी)
श्री १०५ पूज्य महामना वर्णीजी का वह लेख सुदीर्घ कालके अनुभव जनित पल्लेखना विषयक-विचारोंका दोहन रूप एक महत्वपूर्ण मंकलन है, जो समाधि-मरणके अवसर पर दीपचन्द्रजी वर्णी, प्र. मांजीलालजी मागर, और बाबा भागीरथजीके पन्नामें लिये गये थे। लेख में उल्लिम्बित भावना एवं विचार प्रत्येक मुमुधुके लिये उपयोगी, पावश्यक और अनुकरणीय है। भाशा है पाठक महानुभाव उनसे यथेष्ट लाभ उठानेका यत्न करेंगे।
-सम्पादक सन्लेखना
जीवन है। जैसे जिस मन्दिरमें हम निवास करते हैं उसके काय और कषायके कृश करको ही मल्लेबना मदभाव असदभाव, हमको किसी प्रकारका हानियाम (समाधिकहत है। उसमें भी कायकी कृशताकी कोई नहीं। तब क्या हर्ष-विवाद कर अपने पवित्र भावोंको आवश्यकता नहीं, यह पर वस्तु सको न कृश ही कलुपित किया जावे । जैसा कि प्राचार्य अमृतचन्ने नाठक करना और न पुष्ट ही करना, अपने प्राधीन नहीं . समयसारम कहा हैयह स्वाधीन वस्नु है, जो अपनी कपाय को कृश करना; 'पाएमेच्छेनमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो, क्योंकि उसका उदय प्रास्मा में होता है। और उसीके ज्ञान नस्वयमेव शाश्वततगनोच्छियते जातुचित् ।। करण हम कृश हो जाते हैं। अर्थात् हमारे ज्ञान दर्शन तस्यातो मरणं न किचन भवेत्तीः कुतो शानिनो, घाते जाते हैं। और उसके वातसे शान दर्शनका जो निश्शंक मननं स्वयं स सहज ज्ञानं मदाविन्दति ॥' दखना जानना कार्य है वह न होकर इष्टानिष्ट कल्पना अर्थ- प्राणोंके नाशको मरण कहते हैं। और प्राण महित दयना जानना होना है। यही ना दुखका मूल है। इस प्रास्माका ज्ञान है । वह ज्ञान सवरूप स्वयं ही निस्य अतः आप त्यागकी मुख्यता कर शरीरकी कृशतामें उद्यम होने के कारण कभी नहीं नष्ट होता है। अतः इस धात्मान कीजिये रही कपाय कृशकी कथा, सो उसके अर्थ का कुछ भी मरण नहीं है तो फिर ज्ञानीको मरणका भय निरन्तर चिपमें नन्मयता ही उसका प्रयोजन है। प्रौद- कहांसे हो सकता है? वह ज्ञानी स्वयं निःश होकर यिक भावांका सकना तो हाथ की बात नहीं. किन्तु श्रौढ- निरन्तर स्वाभाविक ज्ञानको सदा ग्रास करता है। यिक भावांको अनास्मीय जान उनमें हर्ष-विषाद न करना
इस प्रकार पाप सानन्द ऐसे मरणका प्रयास करना श्री पुरुषार्थ है । जहाँ अनूकृत माधन ही उन्हें त्यागकर
जो परम्परा मानस्तन्यपानसे बच जाओ। इतना सुन्दर अनुकूल साधन बनानेमें उपयोगका दुरुपयोग है। कल्याण
अवमर हस्नगत हुमा, अवश्य इससे लाभ लेना। का पथ प्रान्मा है, न कि बाघ संत्र। यह बाह्य क्षेत्र नो अनारमशांकी टिम महत्व रखते हैं। चिरकालसे हमारे
आत्मा कल्याणकाम जैसे जोवाको प्रवृत्ति बाह साधनांकी ओर ही मुम्प रही,
भारमा ही कल्याणका मन्दिर है अतः पदार्योंकी फल उसका यह हुमा जो पायावधि स्वात्म-सुबम
किबत् मात्र भी आप अपेक्षा न करें। अब पुस्तकद्वारा बञ्चित रहे।
ज्ञानाभ्याम करनेकी आवश्यकता नहीं। अब पर्यायमें
धोर परिश्रम कर स्वरूपके अर्थ मोक्षमार्गका अभ्यास मरण
करना उचित है। अब उसी शान शस्त्रको रागद्वेष शनीपायुके निपेक पूर्ण होने पर मनुष्य पर्यायका वियांग के ऊपर निपात करनेकी पाचश्यकता है। यह कार्य उपमरण है। तथा श्रायुके सजावम पर्यायका सम्बन्ध सोही देशका है और न ममाधिकरणमें सहायक परिखतोंका है।
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५०]
अनेकान्त
[किरण १
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अब तो अन्य कथाओंके श्रवण करने में समय को न देकर वह उपादेय है। इसही को समयसारमें श्री महर्षि उस शत्र सेनाके पराजय करने में सावधान हो कर प्रयत्न कुन्दकुन्दाचार्यने निर्जराधिकारमें लिखा है। करना चाहिये।
छिज्जदु वा भिज्जदु वाणिज्जदुवा अहव जादु विप्पलयं । ___यद्यपि निमित्तको प्रधान मानने वाले तर्क द्वारा बहुत- जम्हा तम्हा गच्छदुतह विहु ण परिगही मज्म ।। २०६ सी भापत्ति इस विषयमें ला सकते हैं। फिर भी कार्य अर्थ-यह शरीर छिद जाश्रो अथवा भिद जाश्रो करना अन्तमें तो आप ही का कर्तव्य होगा। अतः जब
अथवा ले जायो अथवा नाश हो जावे, जैसे तैसे हो जाओ तक आपकी चेतना सावधान है, निरन्तर स्वात्मस्वरूपके तो भी यह मेरा परिग्रह नहीं है। चिन्तवनमें लगा दो।
इसीसे सम्यग्दृष्टिके परद्रव्यके नाना प्रकारके परिणश्री परमेष्ठीका भी स्मरण करो, किन्तु ज्ञायककी मन होते हए भी हर्ष-विषाद नहीं होता। अतः आपको ओर लक्ष्य रखना; क्योंकि मैं 'ज्ञाता दृष्टा' हूँ, ज्ञेय भिक्ष भी हम समय शरीरकी क्षीण अवस्था होते हुए कोई भी हैं, उसमें निष्टानिष्ट विकल्प न हो, यही पुरुषार्थ करना
विकल्प न कर तटस्थ ही रहना हितकर है। और अन्तरगमें मूळ ( ममता) न करना । तथा रागा
चरणानुयोगमें, जो परद्रव्योंका शुभाशुभमें निमितत्वदिक भावोंको तथा उसके वक्ताओंको दूर ही से त्यागना।
की अपेक्षा हेयोपादेयकी व्यवस्था की है, वह अल्पप्रज्ञक मुझे अानन्द इस बातका है कि श्राप निःशल्य हैं । यही श्रापक कल्याणकी परमौषधि है।
अर्थ है । आप तो विज्ञ है। अध्यवसानको ही बन्धका जनक
समझ उसीके त्यागको भावना करना और निरन्तर ऐसा शरीर नश्वर है
विचार करना कि ज्ञान दर्शनात्मक जो प्रात्मा है वही उपा
देय है। शेष जो बाह्य पदार्थ हैं वे मेरे नहीं है। __ जहाँ तक हो सके इस समय शारीरिक अवस्थाकी
आपके शरीर की अवस्था प्रतिदिन क्षीण हो रही है और दृष्टि न देकर निजात्माकी ओर लचय देकर उसीक
इसका ह्रास होना स्वाभाविक है । इसके द्वास और वृद्धिसं स्वास्थ्य लाभकी औषधिका प्रयत्न करना । शरीर पर द्रव्य
हमारा कोई घात नहीं, ज्ञानाभ्यासी स्वयं जानते है। है उसकी कोई भी अवस्था हो उसका ज्ञाता दृष्टा ही
अथवा मान लीजिये कि शरीरके शैथिस्यसे तद अवयवभूत रहना । सो ही समयसारमें कहा है
इन्द्रियादिक भी शिथिल हो जाती है तथा द्रव्येन्द्रियके 'कोणाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हदि दव्वं।
विकृत भावस भावेन्द्रिय स्वकीय कार्य करने में समर्थ नहीं अप्पामप्पणो परिगाहं तु णियदं वियागतो ।।२०७ होती है किन्तु मोहनीय उपशम जन्य सम्यक्त्वकी इममें
भावार्थ-यह पर द्रव्य मेरा है ऐसा ज्ञानी पण्डित क्या विराधना हुई ? मनुष्य जिसकाल शयन करता है उस नहीं कह सकता, क्योकि ज्ञानी जीव तो आत्माको ही काल जाग्रत अवस्थाके सदृश ज्ञान नहीं रहता किन्तु जो स्वकीय परिग्रह मानता या समझता है।
सम्यग्दर्शन गुण संसारका अन्तक है उसका आंशिक भी यद्यपि विजातीय दो द्रव्योंसे मनुष्य पर्यायकी उत्पत्ति घात नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्थामे भी सम्यग्दहुई है किन्तु विजातीय दो द्रव्य मिलकर सुधा हरिद्रावत् र्शन माना है जहाँ केवल तेजस कार्माण शरीर हैं। उत्तरएक रूप नही परिणमें हैं। वहाँ तो वर्ण गुण दोनोंका कालीन शरीरकी पूर्णता भी नहीं। तथा आहारादि वर्गणाएक रूप परिणमना कोई आपत्तिजनक नहीं है किन्तु यहां के अभावमें भी सम्यग्दर्शनका सद्भाव रहता है। अतः पर एक चेदन और अन्य अचेतन द्रव्य हैं। इनका एक आप इस बातकी रचमात्र आकुलता न करें कि हमारा रूप परिणमना न्याय प्रतिकूल है। पुद्गलके निमित्तको शरीर क्षीण हो रहा है, क्योंकि शरीर पर इग्य है; उसके प्राप्त होकर श्रारमा रागादिकरूप परिणम जाता है फिर सम्बन्धसे जो कोई कार्य होने वाला है वह हो अथवा भी रागादिकभाव औदयिक हैं। अतः बन्धजनक है, न हो, परन्तु जो वस्तु प्रारमा ही से समन्वित है उसकी श्रात्माको दुःखजनक है, अतः हेय हैं। परन्तु शरीरका सति करने वाला कोई नहीं, उसकी रक्षा है तो संसार तट परिणमन आत्मासे भिन्न है, अतः न वह हेय है और न समीप ही है। विशेष बात यह है कि चरणानुयोगकी
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किरण १]
सल्लखना मरण
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पद्धतिमे ममाधिके बाह्य संयोग अच्छे होना विधेय है किन्तु आश्रय लिया है वे अवश्य एक दिन पार होंगे। परन्तु परमार्थ दृष्टिसे निज प्रबलनम श्रद्धानही कार्यकर है आप क्या करें, निरन्तर इसी चितामें रहते हैं कि कब ऐसा शुभ जानते हैं कि कितने ही प्रबल ज्ञानियोंका समागम रहे समय श्रावे जो वास्तव में हम इसके पात्र हों, अभी हम किन्तु समाधिकर्ताको उनके उपदेश श्रवण कर विचार तो इसके पात्र नहीं हुए, अन्यथा तुच्छ-सी तुच्छ बातोंमें स्वयं ही करना पडेगा। जो में एक हैं, रागादिक शून्य नाना कल्पनायें करते हुए दुःखी न होते । हूँ, यह जो सामग्री देख रहा हूँ परजन्य है , हेय है, उपा
जिये दय निज ही है। परमात्माके गुणगानसे परमात्मा द्वारा परमात्मपदकी प्राप्ति नहीं किन्तु परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट
हमारा और आपका मुग्य कर्तव्य रागादिकके दर पथ पर चलनेसे ही उस पदका लाम निश्चित है अतः करनेका ही निरन्तर रहना चाहिए, भागमज्ञान और छासर्व प्रकारके झंझटोंको छोड़कर अय तो केवल वीतराग के विना सयतत्त्व भावके मोर
के विना संयतत्व भावके मोक्षमार्गकी सिद्धि नहीं. अतः निर्दिष्ट पथ पर ही प्राभ्यन्तर परिणामसे प्रारूद हो जायो मब प्रयत्नका यही सार होना चाहिये जो रागादिक भावोंबाबा त्यागको बीतकमा निभाव का अस्तित्त्व प्रात्मामें न रहे । ज्ञान वस्तुका परिचय करा बाधा न पहंचं । अपने परिणामांक परिणमनको देखकर ही देता है अर्थात अजाननिवृत्ति ज्ञानका फल है किन्त ज्ञानत्याग करना; क्योंकि जैन सिद्धान्तम सत्य-पथ मूर्छा त्याग
का फल उपेक्षा नहीं, उपेक्षा फल चारित्रका है। ज्ञानमें बालेके ही होता है। अतः जो जन्मभर मोक्षमार्गका अध्य.
भारोपसे वह फल कहा जाता है। जन्म भर मोक्ष मार्ग यन किया उसके फलका समय है उसे सावधानतया उप
विषयका ज्ञान सम्पादन किया अब एक बार उपयोग योगमें लाना । यदि कोई महानुभाव अन्नमें दिगम्बर पद
लाकर उसका अाम्वाद लो। आजकल चरणानुयोगका की सम्मति देवं तब अपनी अभ्यन्तर विचारधारामं कार्य
अभिप्राय लोगोंने परवस्तुके न्याग और ग्रहणमें ही समझ लेना । वास्तवमे अन्तरङ्ग बुद्धिपूर्वक मूर्छा न हो तभी उस
रखा है सो नहीं। चरणानुयोगका मुख्य प्रयोजन तो पदके पात्र बनना। इसका भी बेद न करना कि हम
स्वकीय रागादिकके मंटनेका है परन्तु वह पर वस्तुके शक्तिहीन हो गये अन्यथा अच्छी तरह यह कार्य सम्पन्न
सम्बन्धमे होने हैं अर्थात् पर वस्तु उसका नोकर्म होती है करते, हीन शक्ति शरीरको दुर्बलता है। ग्राभ्यन्तर श्रद्धाम
अतः उमको त्याग करते हैं। सबसे ममत्व हटानेकी चेष्टा दुर्बलता न हो। अतः निरन्तर यही भावना रखना।
करो; यही पार होनेकी नौका है। जब परमें ममत्व भाव
घटेगा नव स्वयमंत्र निराश्रय अहंबुन्द्रि घट जावेगी, क्योंकि 'एगो मे सामढो आदाणाण दसमलम्वगा।
ममन्व और अहङ्कारका अविनाभावी सम्बन्ध है; एकके मेसा मे बहिरा भावा मव्वे संजोगलक्खरणा ॥ बिना अन्य नहीं रहता । सर्वत्याग कर दिया परन्तु कुछ __अर्थ-एक मेरा शाश्वत धान्माज्ञान-दर्शन लक्षणमयी भी शान्तिका अंश न पाया। उपवासादिक करके शान्ति है शेष जो बाहिरी भाव हैं वे मर नहीं है सर्वसंयोगी न मिली, परकी निन्दा और आत्मप्रशंसाले भी श्रानन्दभाव हैं।
का अंकुर न उगा, भोजनादिकी प्रक्रियासे भी लेशमात्र
शान्तिको न पाया। अतः यही निश्चय किया कि रागादिक अतः जहाँ तक बने स्वयं श्राप समाधान पूर्वक अन्य
गय पिना शान्तिकी उदभृति नहीं। अतः पर्व व्यापार को ममाधिका उपदेश करना कि समाधिस्थ प्रान्मा अनन्त शक्तिशाली है तब यह कोनमा विशिष्ट कार्य है। वह तो
उसीके निवारणमें लगा देना ही शान्तिका उपाय है। उन शत्रमाको चूर्ण कर देता है जो अनन्त संसारके
वाग्जालके लिम्बनेसे कुछ भी मार नहीं। कारण ।
वास्तबमें आमाके शत्रु नो राग-द्वेप और मोह है।
जो हम निरन्तर इस दुश्वमय संसारमें भ्रमण करा रहे जिनागमकी नौका पर चढ़ चलिये
है। अतः अावश्यकता इसकी है कि जो राग-द्वेपके प्राधीन इस संसार समुद्र में गोते खाने वाले जीवोंको केवल न होकर म्पास्मोस्थ परमानन्दकी ओर ही हमारा प्रयत्न जिनागम ही नौका है। उसका जिन भव्य प्राणियोंने सनत रहना श्रेयस्कर है।
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अनेकान्त
[किरण १
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प्रौदयिक रागादि होवें इसका कुछ भी रंज नहीं करना अर्थ-एक तरफसे कषाय कालिमा स्पर्श करती है चाहिये । रागादिकोका होना रुचिकर नहीं होना चाहिये। और एक तरफसे शान्ति स्पर्श करती है। एक तरफ बड़े-बड़े ज्ञानीजनोंके राग होता है। परन्तु उस रागमें संसारका प्राघात है और एक तरफ मुक्ति है। एक तरफ रंजकताके प्रभावसे आगे उसकी परिपाटी रोधका (रोकने- तीनो लोक प्रकाशमान हैं और एक तरफ चेतन अात्मा का) प्रास्माको अनायाम अवसर मिल जाता है । इस प्रकार प्रकाश कर रहा है । यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि श्रात्माऔदयिक रागादिकोंकी सन्तानका अपचय बिनाश) होत- की स्वभाव महिमा अद्भुतसे अद्भुत विजयको प्राप्त होती होते एक दिन समूल तलसे उसका प्रभाव हा जाता है है । इत्यादि अनेक पद्यमय भावोस यही अन्तिम करन
और तब पारमा स्वच्छस्वरूप होकर इन संसारकी वाम- प्रतिभाका विषय होता है जो आरमद्रव्य ही की विचित्र नाओंका पात्र नहीं होता । मैं आपको क्या लिवू ? यही महिमा है। चाहे नाना दुःखाकीर्ण जगतमें नाना वेष धारण मेरी सम्पत्ति है-जो अब विशेष विकल्पोंको त्यागकर कर नटरूप बहुरूपिया बनें और चाहे स्वनिमित सम्पूर्ण जिस उपायसे राग-द्वेषका प्राशयमें अभाव हो वही श्रापका लीलाको सम्वरण करके गगनवत् पारमार्थिक निर्मल स्वभाव व मेरा कर्तव्य है, क्योंकि पर्यायका अवसान है। यद्यपि धारण कर निश्चल तिष्ट । यही कारण है। "सवे पर्यायका अवसान तो होगा ही किन्तु फिर भी सम्बोधनके खल्विदं ब्रह्म" अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मस्वरूप है। लिये कहा जाता है तथा मूद्रोंको वास्तविक पदार्थका परि- इसमे कोई सन्दह नहीं, यदि वेदान्ती एकान्त दुराग्रहको चय न होनेसे बड़ा आश्चर्य मालूम पड़ता है।
छोड़ देवं तब जो कुछ कथन है अक्षरशः सत्य भासमान बारसे देखिये तब आश्चर्यको स्थान नही
होने लगे । एकान्तप्टि ही अन्धष्टि है आप भी पदार्थोकी परिणति देखकर बहुतसे जन सुब्ध हो जाते है। अल्प परिश्रमसे कुछ इस ओर भाइये । भला यह जो पंच भला जब पदार्थ मात्र अनन्त शक्तियोंके पुंज है तब क्या
स्थार और उसका समुदाय जगत् दृश्य हो रहा है, क्या पुद्गलमें वह बात न हो, यह कहांका न्याय है। आजकल
है? क्या ब्रह्मका विकार नहीं ? अथवा स्वमतकी और कुछ विज्ञानके प्रभावको देख लोगोंकी श्रद्धा पुद्गल द्रव्यमे ही
दृष्टिका प्रसार कीजिये । तब निमित्त कथनकी मुख्यतासे जाग्रत हो गई है। भला यह तो विचारिये, उसका उपयोग
यं जो रागादिक परिणाम हो रहे है, क्या उन्हें पौद्गलिक किसने किया? जिसने किया उसको न मानना यही तो
नहीं कहा है ? अथवा इन्हं छोड़िये । जहाँ अवविज्ञानका जड़ भाव है।
विषय निरूपण किया है, वहाँ पक्षांपशमभावको भी अवधिबिना रागादिकक कार्माणवर्गणा क्या कर्मादिरूप
ज्ञानका विषय कहा है अर्थात्-पुद्गलद्रव्यके सम्बन्धसं परिणमन कराने में समर्थ हो सकती है? तब यो कहिये ।
जायमान होनेसे क्षायोपशिक भार भी कर्थावत् रूपी है। अपनी अमन्त शक्तिके विकासका बाधक आप ही मोह
केवल ज्ञान-भाव अवधिज्ञानका विपय नहीं; क्योंकि उसमें
रूपी द्रव्यका सम्बन्ध नहीं । अतएव यह सिद्ध हुआ कि कर्म द्वारा हो रहे हैं। फिर भी हम ऐसे अन्धे हैं जो मोह
औयिक भाववत् क्षायांपर्शामक भाव भी कञ्चित् पुद्गलकी महिमा अलाप रहे हैं। मोहम बलवत्ता देनेवाली
के सम्बन्धसं जायमान हानेस मूर्तिमान हे न कि रूपशक्तिमान वस्तुको ओर दृष्टि प्रसार कर देखा तो धन्य
रसादिमत्ता इनमें है ।तद्वत् अशुद्धताके सम्बन्धसे जायमान उस अचिन्त्य प्रभाव वाले पदार्थको कि जिसकी वक्रदृष्टि
होनेसे यह भौतिक जगत् भी कथञ्चित् ब्रह्मका विकार है। को संकोच कर एक समय मात्र सुदृष्टिका अवलम्बन किया
कञ्चित्का यह अर्थ है कि जीवके रागादिक भावाके ही कि इस संसारका अस्तित्व ही नहीं रहता। सोही समय
निमित्तको पाकर पुद्गल द्रव्य एकेन्द्रियादि रूप परिणमनसारमें कहा है
को प्राप्त हैं। अतः जो मनुष्यादि पर्याय हैं वे दो असमान कपायकलिरकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकता।
जातीय द्रव्यके सम्बन्धस निष्पन्न है। न केवल जीवकी भवोपतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः।। है और न केवल पुद्गलकी है। किन्तु जीव और पुद्गलजगस्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकारत्येकतः। के सम्बन्धसे जायमान हैं। तथा यह जो रागादि परिणाम स्वभावमहिमाऽऽत्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भतः।। है सां न तो केवल जीवके ही हैं और न केयन पुद्गलके
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किरण १]
सञ्जखना मरण
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डिये
हैं किन्तु उपादानकी अपेक्षा जीवके हैं और निमित्त कारण साम्राज्यलचमीका भोक्ता होना हुअा लोक शिखरमें की अपेक्षा पुदगलके है।और द्रव्यदृषिटकर देखें तो न पुद् विराजमान होकर तीर्थङ्कर प्रभुके ज्ञानका विषय होकर गलके हैं और न जीवके हैं, शुद्धदम्यके कथनमें पर्यायकी हमारे कन्यागामें सहायक होता है। मुख्यता नहीं रहती। अतः ये गौण हो जाते है । जैसे पुत्र पर पर्याय स्त्री पुरुष दोनोंके द्वारा सम्पन्न होती है। अस्तु इससे श्रेयोमार्गको सन्निकटता जहाँ जहाँ होती है वह वस्तु यह निष्कर्ष निकला यह जो पर्याय है, वह केवल जीवकी पूज्य है, अतः हम और आपको बाह्य वस्तुजातमें नहीं किन्तु पौगलिक मोहके उदयसे श्रात्मा चारित्रगुण- मूर्खाकी कृशना कर ग्रामतखका उत्कर्ष करना में विकार होता है अतः हमें यह न समझना चाहिये कि चाहिये। ग्रन्याभ्यासका प्रयोजन केवल ज्ञानार्जन तक हमारी इसमें क्या क्षति है ? क्षति तो यह हुई, जो अान्मा- ही नही है, साथ ही में पर पदार्थोंसे उपेक्षा होनी की वास्तविक परिणति थी वह विकृत भावको प्राप्त हो चाहिए । प्रात्मज्ञानकी प्राप्ति और है किन्तु उसकी गई । यही तो क्षति है । परमार्थसे क्षतिका यह श्राशय है उपयोगिताका फल और है। मिश्रीकी प्राप्ति और स्वादमें कि प्रात्मामें रागादिक दोष हो जाते हैं वह न हो । तब महान् अन्तर है । यदि स्वादका अनुभव न हुअा तब जो उन दोषांके निमित्तसे यह जीव किसी पदार्थमे अनुक- मिश्री पदार्थ मिलना केवल अन्धेकी लालटेनके सदृश लता और किसीमे प्रतिकूलताकी कल्पना करता था और है, अतः अब यावानपुरुषार्थ है वह इसी में कटिबद्ध होकर उनके परिणमन द्वारा हर्ष-विपाद कर बास्तविक निराकु- लगा देना ही श्रेयस्कर है । जो आगमज्ञान के साथ साथ लता (सुख) के अभावमें श्राकुलित रहता था। शान्तिकं उपेक्षारूप स्वादका लाभ हो जावे । स्वादकी कणिकाको भी नही पाना था ! अब उन रागा विपाद इस पातका है जो वास्तविक प्रारमतत्वका दिक दोषोंके अमभावम प्रारमगुण चारित्रकी स्थिति अकम्प द्योतक है उसकी उपक्षीणता नहीं होती । उसके अर्थ
और निर्मल हो जाती है । उसके निर्मल निमित्तको अव. निरन्तर प्रयास हैं । बाह्यपदार्थका छोड़ना कोई कठिन लम्बन कर यास्माका चेनन नामक गुण है वह स्वयमेव नहीं । किन्तु यह नियम नहीं कि अध्यवसानके कारण दृश्य और शंय पदार्थों को तट्टप हो दृष्टा और ज्ञाता शक्ति- छूटकर भी अध्यवमानकी उत्पत्ति अन्तस्थलमें नहीं शाली होकर आगामी अनन्न काल स्वाभाविक परिणमन- होगी। उप वामनाके विरुद्ध शम्ब चलाकर उसका शाली अाकाशादिवत् अकम्प रहता है । इसीका नाम भाव- निपान करना, यर्याप उपाय निदिष्ट किया है, परन्तु फिर मुक्ति है । अब प्रात्माम मोह-निमित्तक जो कलुषता थी भी वह क्या है ? केवल शब्दोकी मुन्दरताको छोड़कर वह सर्वथा निर्मूल हो गई, किन्तु अभी जो योग निमित्तक गम्य नही दृष्टान्त तो स्पष्ट है, अग्नि-जन्य उष्णता जो परिस्पन्दन है वह प्रदेश प्रकम्पनको करता ही रहता है। जलमें हैं उसकी भिन्नता नीष्टि विषय है। यहां तो क्रोधतथा तन्निमित्तक ईर्यापशास्रव भी माता वेदनीयका हुश्रा से जो क्षमाकी अप्रादुभूति है वह यावत् क्रोध न जावे करता है । यद्यपि इसमें थान्मांक स्वाभाविक भावकी क्षति तब तक कैसे व्यक्त हो । उपरमे क्रोध न करना क्षमाका नहीं। फिर भी निरपवयं श्रायुके सदभावमं यावत् ग्रायके माधक नहीं: श्राशयमें वह न रहे यही नो कटिन बात। निषेक हैं तावत भव-स्थितिको मेंटनेको कोई भी क्षम नहीं। रहा उपाय तत्वज्ञान, सो तो हम श्राप सर्व जानते ही हैं तब अन्तमुहूर्त श्रायुका अवसान रहता है। तथा शेष जो किन्तु फिर भी कुछ गृढ़ रहस्य है जो महानुभावोंके ममानामादिक कर्मकी स्थिति अधिक रहती है, उसकालमें गमकी अपेक्षा रखता है, यदि वह न मिले तय प्रात्मा ही तृतीयशुक्लध्यानक प्रसादसं दण्डकपाटादि द्वारा शेष कर्मों- अात्मा है, उसकी सेवा करना ही उत्तम है। उसकी सेवा की स्थितिको श्रायु सम कर चतुर्दश गुणस्थानका ग्रारोहण क्या है "जाना इप्टा" और जो कुछ अतिरिक्त है वह कर नामको प्राप्त करता हुआ लघुपञ्चाक्षरके काल मम गुण- विकृत जानना स्थानका काल पूर्ण कर चतुर्थ ध्यानक प्रसाद शेष प्रकृति- परतन्त्रताके बन्धन तोड़िये योंका नाशकर परम यथाख्यात चारित्रका लाभ करता हुश्रा, वचन चतुरतासे किसीको माहित कर लेना पाण्डित्य एक समय में द्रव्य मुक्ति व्यपदेशताको लाभकर, मुक्ति- का परिचायक नहीं : श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने कहा है:
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अनेकान्त
किरण १] 'कि काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्त उववासो। रामवाण औपधिका सेवन कीजिये अमायण मौरण-पहुदी समदारहियस्स समणस्स ॥' अतः अब इन परनिमित्तक श्रेयोमार्गकी प्राप्तिके
अर्थ-समताके बिना वननिवास और कायक्लेश प्रयल में समयका उपयोग न करके स्वावलम्बनकी ओर तथा नाना उपवास तथा अध्ययन मौन प्रादि कोई दृष्टि ही इस जर्जरावस्थामें महती उपयोगिनी रामबाण उपयोगी नहीं। अतः इन बाझ साधनोंका मोह व्यर्थ तुल्य अचुक औषधि है । तदुक्तम्ही है । दीनता और स्व कार्य में प्रतत्परता ही
'इतो न किञ्चित् परतो न किञ्चित् , मोहमार्गका घातक है । जहाँ तक हो इस पराधीनताके
यतो यतो यामि तता न किञ्चित् । भावांका उच्छेद करना ही हमारा ध्येय होना चाहिये । हा प्रात्मन् ! तूने यह मानव पर्यायको पाकर भी
विचार्य पश्यामि जगन्न किश्चित्, निजतत्वकी ओर लक्ष्य नहीं दिया। केवल इन बाह्य
स्वात्माव वोधादधिकं न किश्चित् ।।' पञ्चेन्द्रिय विषयोंकी प्रवृत्तिमें ही सन्तोष मानकर अपने अर्थ-इस तरफ कुछ नहीं है और दूसरी तरफ भी स्वरूपका अपहरण करके भी लज्जित न हुवा। कुछ नहीं है तथा जहाँ जहाँ मैं जाता हूँ वहाँ वहाँ भी
तद्विषयक अभिलाषाकी अनुत्पत्ति ही चारित्र है। कुछ नहीं है। विचार करके देखता हूँ तो यह संसार भी मोक्षमार्गमें सर्वरतत्त्वही मुख्य है। निर्जरा तत्वकी महिमा कुछ नहीं है। ग्वकीय पात्मज्ञानसे बढ़कर कोई नहीं है। इसके बिना स्याद्वादशून्य आगम अथवा जीवनमून्य शरीर
इसका भाव विचार स्वावलम्बनका शरण ही संसार अथवा नेत्रहीन मुखकी तरह है। अतः जिन जीवोंको बन्धनके मोचनका मुख्य उपाय है। मेरी तो यह श्रद्धा है मोक्ष रुचता है उनका यही मुख्यध्येय होना चाहिए कि जो जो सर्वर ही सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका मुल है। अभिलाषाओके उत्पादक चरणानुयोगोकी पद्धति प्रतिपा मिथ्यात्वकी अनुत्पत्तिका नाम ही ता सम्यग्दर्शन है। दित साधनोंकी और लक्ष्य स्थिर कर निरन्तर स्वान्मात्य और श्रज्ञानकी अनुत्पत्तिका नाम सम्यग्ज्ञान नथा रागादिसुखामृतके अभिलाषी होकर रागादि शत्र योंकी प्रबल ककी अनुम्पत्ति याख्यात चारित्र और योगानुम्पत्ति ही सेनाका विध्वंस करनेमे भगीरथ प्रयत्न कर जन्म सार्थक परमययाख्यातचारित्र है। श्राः संवर ही दशन ज्ञान किया जावे किन्तु व्यर्थ न जावे, इसमें यस्नपर होना चारित्राधनाके व्यपदेशको प्राप्त करता है तथा इसका नाम चाहिये । कहाँ तक प्रयत्न करना उचित है? जहाँ तक तप है, क्योंकि इच्छानुरोधका नाम ही तप है। पूर्णज्ञानकी प्राप्ति न हो।
मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि इच्छाका न होना ही तप "भावयेद् भवज्ञ नमिदमच्छिन्नवारया। है। अतः तप पाराधना भी यही है । इस प्रकार सर्वर ही यावत्तावत्सरान्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिनम" चार धाराधना है, अतः जहाँ परमं श्रेयोमार्गको आकाअर्थ-यह भेदविज्ञान अखण्डधारासे भावो, जब
क्षाका त्याग है वहां श्रेयोमार्ग है। तक कि परद्रव्यसे रहित होकर ज्ञान ज्ञानमें (अपने स्व
प्रभु बननेका पुरुषार्थ कीजिये रूपमें ) न ठहर जाय। क्योकि सिद्धिका मूलमन्त्र भेद- हमें आवश्यकता इस बातकी है कि प्रभुके उपदेशके विज्ञान ही है। वही श्री पारम-तत्त्वरसास्वादी अमृतचन्द्र- अनुकूल प्रभृकी पूर्वावस्थावत आचरण द्वारा प्रभु इवसूरिने कहा है:
प्रभुताके पात्र हो जावें । यद्यपि अध्यवसानभाव परनिमि'भेदविज्ञानतःसिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तक है। यथातस्यैवाभावतो बद्धा बनाये किल केचन।'
न जातु रागादिनिमित्तभावअर्थ-जो कोई भी सिद्ध हुए है वे भेद-विज्ञानसे
मात्माऽऽत्मनो याति यथार्ककान्तः। ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई बन्धे है वे भेद विज्ञानके
तस्मिन निमिनं परसंग एव, न होनेसे ही बन्धको प्राप्त हुए हैं।
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत ॥
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किरण ]
सलखना मरण
अर्थ-प्रात्मा, प्रात्म-सम्बन्धी रागादिककी उत्प- उपयोग सरल रीतिसे इसमें संलग्न हो जाता है। उपतिमें स्वयं कदाचित् निमित्तताको प्राप्त नहीं होता है। पीण कायमें विशेष परिश्रम करना स्वास्थ्यका बाधक होता अर्थात् मात्मा स्वकीय रागादिकके उत्पन्न होनेमें अपने है, अतः पाप सानन्द निराकुलता पूर्वक धर्मध्यानमें अपना आप निमित्त कारण नहीं है, किन्तु उनके होने पर वस्नु अपना समय यापन कीजिये। शरीरकी दशा तो अब ही निमित्त है। जैसे प्रकारसमणि स्वयं अग्निरूप नहीं जीण सन्मुख डीरही है। जो दशा यापकी है वही प्रायः परिणमता है किंतु सूर्य किरण उस परिणमनमे कारण है। सबकी है। परन्तु कोई भीतरसे दुयो है तो कोई बामसे तथापि परमार्थ तत्वकी गावेषणामें वे निमित्त क्या बला- दुःखी है। आपको शारीरिक व्याधि है जो वास्तवमें कार अध्यवसान भावके उत्पादक हो जाते हैं? नही, अधातिकर्म साताकर्म जन्य है वह पारमगृणघातक किन्तु हम स्वयं अध्यवसान द्वारा उन्हें विषय करते हैं। नहीं प्राभ्यन्तर व्याधि मोह जन्य होती है। जोकि जब ऐसी वस्तु मर्यादा ई तब पुरुषार्थ कर उस संसार श्रारमगुण घातक ई। जनक भावाक नाशका उद्यम करना ही हम लोगोंका इष्ट
म्वाध्याय करिय। और विशेष त्यागके विकल्पमें न होना चाहिये । चरणानुयोगकी पद्धतिम निमित्तको मुख्य- पढिये। केवल शमादिक परिणामों द्वारा ही वास्तविक तासे व्याख्यान होता है। और अध्यात्म शास्त्रमे पुरुषार्थ
पाल्माका हित होता है । क्या कोई वस्तु नहीं वह भाप की मुग्यता और उपादानकी मुख्यतामे व्याख्यान पद्धति
ही स्वयं कृश हो रही है। उसका क्या विकल्प ? भोजन है। और प्रायः हमे इसी परिपाटीका अनुसरण करना ही स्वयमेव न्यून हो गया है। जो कारण बाधक है उसे विशेष फलप्रद होगा। शरीरकी क्षीणत यद्यपि नवज्ञान
यद्याप नवज्ञान प्राप बुद्धि पूर्वक स्वयं त्याग रहे हैं। मेरी तो यही भावना में बाह्य दृष्टिसं कुछ बाधक है तथापि मम्यग्जानियोंकी
यम्जानियाका है-"प्रभु पाश्वनाथ स्वरूप परमात्माके ध्यानसे, आपप्रवृत्तिमें उतना पाधक नहीं हो सकती। यदि वेदनाकी की आत्माको इम बन्धन तोड़नेमें अपूर्व सामध्ये अनुभूनिमें विपरीतताकी कणिका न हो तब मेरी समझमे मिले।" हमारी ज्ञानचेतनाकी कोई क्षति नही है।
कहने और लिम्बने और वाक् चातुर्य में मोतमा कल्याणके मूल मन्त्रको मत भूलिये नहीं । मांधमार्गका कुर तो अताकरणम निज पदार्थ में स्वतन्त्र भाव ही श्राम कल्याणका मूल मन्त्र है। ही उदय होता है। उसे यह पर जन्य मन, बच्चन, काय क्योंकि पान्मा वास्तविक दृष्टिमं नी सदा शुद्ध ज्ञानानन्द क्या जानं । यह नो पुदगल दुग्यके विलास है। जहाँ पर स्वभाववाला है कर्म-कलमही मलिन हो रहा है। उन पुद्गलोंकी पर्यायाने ही नाना प्रकारक नाटक निग्या कर सो इसके पृथक करनेकी जो विधि है उस पर भाप रूट उस ज्ञाता दृष्टाको इस संसार में चक्करका पात्र बना रखा है। बाहय क्रियाकी त्रटिश्रामपरिणामकी बाधक नहीं है । अतः अब दीपमे तमोराशिको भंदकर और चन्द्रमे और न मानना ही चाहिये । सम्यग्दृष्टि जो निन्दा नया परपदार्थ जन्य भानपको शमन कर सुधा समुद्र में अवगा- गर्दा करना है. यह प्रशुद्धोपयोगकी है न कि मन, वचन. हन कर, वास्तविक सरिचढानन्द होनकी योग्यताके पात्र कायके व्यापार की। बनिये | वह पात्रता प्रापमें है। केवल साहस करनेका देहकी दशा जेमी शाम्त्रमें प्रतिपादित है तदनुरूप ही बिलम्ब है। अब इस अनादि संसार जननी कायरताको है. परन्तु इसम हमारा क्या घात हुवा। यह हमारी दग्ध करनेसे ही कार्य पिद्धि होगी। निरन्तर चिन्ता कर- दिगांबर नहीं हुवा । घटके पानसे दीपकका घात नहीं नेसे क्या नाम ? लाभ तो श्राभ्यन्तर विशुदिमे है। हाला। पदाका परिचायक ज्ञान है। उत्तर ज्ञानमें ऐसी विशुद्धिका प्रयोजन भदज्ञान है।
अवस्था शरीर प्रतिभासिन होती है एतावत् क्या ज्ञान शास्त्र-स्वाध्याय कीजिये
तद्प होगया। भेदज्ञानका कारण निरन्तर अध्यात्म प्रन्योंकी चिन्त- पूर्णकाच्युत शुद्धवाधमहिमा बोद्धा न बोध्यादयम् । ना है। अतः इस दशामें प्रन्याध्ययन उपयोगी होगा। यायाशाप विक्रयां तत इतो दोषः प्रकाश्यादपि।
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अनेकान्त
[किरण १
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तद्वस्तुस्थितिवोधवन्ध्यधिपणा ते किमज्ञानिनो। दृष्टि में केवल साता ही नहीं निकल रही, साथ ही मोहरागदपमयी भवन्ति सहजा मुचत्युदामीनताम ।।
चियासीनता की अरति आदि प्रकृतियां भी निकल रहीं हैं। क्योंकि
भाप इस असाताको सुखपूर्वक भोग रहे हैं। शान्तिपूर्वक __अर्थपूर्ण अद्वितीय नहीं च्युत है शुद्धबोधकी।
कर्मोके रसको भोगना आगामी दुःखकर नहीं। महिमा जिमकी ऐमा जो बोद्धा है वह कभी भी बोध्य
जितने लिखने वाले और कथन करने वाले तथा पदार्थक निमित्त से प्रकाश्य (घटादि) पदार्थसे प्रदीपकी तरह किसी भी प्रकारकी विकियाको नहीं प्राप्त होता है।
कथन कर बाह्य चरणानुयोगक अनुकूल प्रवृत्ति करने इस मर्यादा विषयक बोधर्म जिसकी बुद्धि बन्ध्या है वे
वाले तथा पार्षवाक्या पर श्रद्धालु व्यक्ति हुए हैं, अथवा अज्ञानी है। वे हो रागद्वेषादिकके पात्र होते हैं और
है तथा होंगे, क्या मर्व ही मोक्षमार्गी है ? मेरी श्रद्धा स्वाभाविक जो उदासीदता है उसे त्याग देते हैं। श्राप
नहीं । अन्यथा श्री कुन्दकुन्दस्वामीने लिखा है-हे
प्रभो! हमारे शत्रको भी द्रव्यलिंग न हो' इस वाक्य विज्ञ है, कभी भी इस असाय भावका आलम्बन न।
को चरितार्थता न होती तो काहे को लिखते । अतः परकी मृत्युसे मत डरिये
प्रवृत्ति देव रञ्चमात्र भी विकम्पको श्राश्रय न देना ही अनेकानेक मर चुके तथा मरते हैं। इससे क्या प्राया हमारे लिये हितकर है। आपके ऊपर कुछ भी आपत्ति एक दिन हमारी भी पर्याय चली जावेगी इसमें कौनसी नहीं, जो अात्महित करने वाले हैं वह शिर पर भाग पाश्चर्यकी घटना है। इसको तो आपसे विज्ञ पुरुपोंको लगाने पर तथा सर्वाङ्ग अग्निमय आभूषण धारण कराने विचार कोटिसे पृथक रखना ही श्रेयस्कर है।
पर तथा मन्त्रादि द्वारा उपदित होने पर मोक्ष-लक्ष्मीके वेदनासे भयभीत मत होइये
पात्र होते हैं। मुझे तो आपकी असाता और श्रद्धा दोनों
का साथ देखकर इतनी प्रसन्नता होती हैं कि हे प्रभो ! ___ जो वेदना असाताके उदय आदि कारण कूट होने पर यह अवसर मबको दे। आपकी केवल श्रद्धा ही नहीं उत्पन्न हुई और हमारे ज्ञान प्रायी वह क्या वस्नु है ?
किन्तु आचरण भी अन्यथा नहीं। क्या मुनिको जब परमार्थसे विचारा जाय तो यह एक तरहसे सुग्व गुणम
तीव व्याधिका उदय होता है, तब बाह्य चरणानुयोग विकृति हुई, वह हमारे ध्यानम अायो । उसे हम नहीं
आचरणके असदभावमें क्या उनके छठवां गुण-स्थान चाहते । इसमें कोनमी विपरीतना हुई ? विपरीता तो
चला जाता है ? यदि ऐसा है नब उसे समाधिमरणक तब होती है जब हम उम निज मान लेते । विकारज
समय है मुने ! इत्यादि सम्बोधन करके जो उपदेश दिया परिगतिको पृथा करना अप्रशस्त नही; अप्रशरतता तो
है वह किस प्रकार संगत होगा। पीड़ा श्रादि चित्त यदि हम उसीका निरन्तर चिन्तवन करते रहे और निजत्व
चंचल रहता है इसका क्या यह श्राशय है कि पीडाका का विस्मरण होजावें तब है।
बारम्बार स्मरण हो जाता है। हो जाओ, स्मरण ज्ञान है अतः जितनी भी अनिष्ट सामग्री मिलने दी। उसके और जिसकी धारणा होती है उसका बाह्य निमित्त मिलने प्रति आदरभावसे व्यवहार कर ऋणमोचन पुरुपकी पर स्मरण होना अनिवार्य है। किन्तु साथमें यह भाव तरह प्रानन्दमे साधुकी तरह प्रवृत्ति करना त्ताहिये। तो रहता है कि यह चंचलता सम्यक नहीं । परन्तु मेरी निदानको छोड़कर भात्रिय पष्ठम गुणस्थान तक होते समझमें इस पर भी गम्भीर दृष्टि दीजिये। चंचलता तो हैं। थोड़े समय तक अर्जित कर्म आया, फल कुछ बाधक नहीं । साथमें उसके अतिका उदय और देकर चला गया। अच्छा हुश्रा, श्राकर हलका कर गया। अमाताकी भावना रहती है। इसीसे इसकी महर्षियोंने रोगका निकलना ही अच्छा । मेरी सम्मतिमें निकलना प्रार्तध्यानकी कांटिमें गणना की है। क्या इस भावके रहनेकी अपेक्षा प्रशस्त है। इसी प्रकार आपकी असाता होनेसे पंचम गुणस्थान मिट जाता है ? यदि इस ध्यानयदि शरीरकी जीर्ण शीर्ण अवस्था द्वारा निकल रही है के होने पर देशवतके विरुद्ध भावका उदय श्रद्धामें नहीं तब आपको बहुतही आनन्द मानना चाहिए । अन्यथा यदि तब मुझे तो दृढतम विश्वास है कि गुणस्थानकी कोईभी वह अभी न निकलती तब क्या स्वर्गमे निकलती ? मेरी क्षति नही. तरतमता ही होती है वह भी उसी गुणस्थानमें।
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किरण २]
सल्लखना मरण
1५७
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ये विचारे जिन्होंने कुछ नहीं जाना कहां जावेंगे, क्या करें सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितमामाथिभिः सेन्यतां । इत्यादि विकल्पोंके पात्र होते हैं-कहीं जामो हमें इसकी शुद्धं चिन्मयमेकमेव पाम ज्योतिस्सदैवास्म्यहम् ॥ मीमांसासे क्या लाभ ? हम विचारे इस भावसे कहां एते येतु समुल्लसन्ति विविधा भावा-पृथलक्षणाजावेंगे इस पर ही विचार करना चाहिये।
स्तेऽहं नाऽस्मि यतोऽत्र. ते मम परद्रव्यं सममा अपि । आपका सरिचदानन्द जैसा आपकी निर्मल दृष्टिने अर्थ-यह सिद्धान्त उदारचित्त और उदार चरित्र निर्णीत किया है द्रव्यदृष्टि से वैसा ही है । परन्तु द्रव्य तो वाले मोक्षार्थियोंको सेवन करना चाहिये कि मैं एक ही योग्य नहीं, योग्य तो पर्याय २, अतः उसके तात्त्विक शुद्ध (कर्म रहित ) चैतन्य स्वरूप परम ज्योति वाला स्वरूपके जो बाधक हैं उन्हें पृथक् करनेकी चेष्टा करना सदैव हूँ। तथा ये जो भिन्न लक्षण वाले नाना प्रकारके हो हमारा पुरुपार्थ है।
भाव प्रगट होते हैं, वे मैं नहीं हैं, क्योंकि वे संपूर्ण ___चोरकी सजा देखकर साधुको भय होना मेरे ज्ञानमें परद्रव्य हैं। नहीं आता। अतः मिथ्यावादि क्रिया मयुक्त प्राणियोंका इस श्लोकका भाव इतना सुन्दर और रुचिकर है पतन देख हमें भयभीत होने की कोई भी बात नहीं। हमारे जो हृदयमें पाते ही संसारका प्राताप कहां जाता है तो जब सम्यकस्नत्रयकी तलवार हाथमें आगई है और पता नहीं लगता। वह यद्यपि वर्तमानमें मौथरी धारवाली हैं परन्तु है तो अमि। कर्मेन्धनको धीरे धीरे छेदेगी; परन्तु छेदेगी ही।
सन्लेखनाके ऊपर ही दृष्टि दीजिये। बड़े भानन्दसे जीवनोन्सर्ग करना। अंशमात्र भी माकुलता आपके स्वास्थ्यमें पाभ्यंतर तो पति है नहीं, जो है श्रद्धामें न लाना । प्रभुने अच्छा ही देखा है। अन्यथा सो बाह्य हे। उसे पाप प्रायः वेदन नहीं करते, यही उसके मार्ग पर हम लोग न पाते । समाधिमरणके सराहनीय है। धन्य है आपको-जो इस रुग्णावस्थामें योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव क्या पर निमित्त भी सावधान हैं । होना ही श्रेयस्कर है। शरीरकी ही है? नहीं।
अवस्था अपस्मार वेगवत् वर्धमान हीयमान होनेसे मध्र व जहां अपने परिणामों में शान्ति पाई वहीं सभी
और शीतदाह ज्वरावेश द्वारा अनित्य है। ज्ञानीजनको सामग्री है। उपद्रवहारिणी कल्याण - पथानुसारिणा जो
ऐसा जानना ही मोक्षमार्गका साधक है। कब ऐसा समय आपकी हर श्रद्धा है वही कर्म-शत्र वाहिनीको जयनशीला
पावेगा जो इसमें वेदनाका अवसर ही न पावे | माशा है तीषण प्रसिधारा है। उसे संभालिये समाधिमरणकी
एक दिन मावेगा । जब आप निखिंतावृत्तिके पात्र
होगे । अब अन्य कार्योंसे गौणभाव धारणकर सल्लेमहिमा अपने ही द्वारा होती है?
खनाके उपर ही राष्ट दीजिये। सत्य दान दीजिये।
अब यह जो शरीर पर है शायद इससे अल्प ही ___ मरण समय लाग दान करते हैं। वह दाम तो ठीक कालमें आपकी पवित्र भावनापूर्ण प्रास्माका सम्बन्ध छटही है परन्तु सस्य दान तो लोभका त्याग है और उसको कर क्रियक शरीरसे सम्बन्ध हो जावे। मुझे यह मैं चारित्रका अंश मानता हूँ । मूर्खाकी निवृत्ति ही श्रद्धान हैं कि भापकी असावधानी शरीरमें होगी.न चारित है। हमको इग्य त्यागमें पुण्यबन्धकी ओर दृष्टि धात्म चिन्तवनमें । असातोदयमें यद्यपि मोहके सदभावसे न देनी चाहिये; किन्तु इस द्रव्यसे ममत्व निवृत्ति द्वारा विकलताकी सम्भावना है। तथापि प्रांशिक भी प्रबल शुद्धोपयोगका वर्धकदान समझना चाहिये । वास्तविक मोहके प्रभाव में चिन्तवनका बाधक नहीं हो सकती। मेरी तत्व ही निवृत्तिरूप है। जहां उभय पदार्थका बन्ध है हन श्रद्धा है कि पाप अवश्य इसी पथ पर होंगे। और वही संसार है। और जहां दोनों वस्तु स्वकीय २ गुण- अन्त तक रदतम परिणामों द्वारा इन मुद्र पाधामोंकी पर्यायों में परिणमन करते हैं वही निवृत्ति है यही सिद्धान्त ओर ध्यान भी न देंगे। यही अवसर संसार-जतिका है। नाटक समयसारमें कहा भी है
घातका।
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अनेकान्त
[किरण २
देखिये जिस असावादि कोंकी उदीरणाके अर्थ' इस समय आपके हो रहे । अब केवल स्वास्मानुभव ही महर्षि लोग उग्रोऽग्र तप धारण करते करते शरीरको इतना रसायन पर महोषधि है। कोई कोई तो क्रम-क्रमसे प्रसाकृश बना देते हैं, जो पूर्व नावण्यका अनुमान भी नहीं दिका त्यागकर समाधिमरणका यत्न करते हैं। आपके होता, परन्तु वे पाश्म दिव्य-शक्तिसे भूषित ही रमते हैं। पुण्योदयसे स्वयगेव वह छूटा। वही न छूटा, साथ-साथ पापका भाग्य है जो बिना ही निर्ग्रन्थ पद धारण किये असातोदय द्वारा दु.खजनक सामग्रीका भी प्रभाव हो काँका ऐसा जाधव हो रहा है, स्वयमेव उदयमें श्राकर रहा है। पृथक् हो रहे हैं।
अतः हे भाई! आप रंचमात्र क्लेश न करना, वस्तु
पूर्व अर्जित है। यदि वह रस देकर स्वयमेव प्रात्माको आपके ऊपरसे मार पृथक हो रहा फिर आपके सुख
लघु बना देती है तो इसमे विशेष और प्रानन्दका क्या की अनुभूति तो श्राप ही जानें । शान्तिका मूल कारण । जाना का
कारण अवसर होगा? न साता है और न असाता, किन्तु साम्यभाव है। जो कि
-(वर्णी वाणीस)
काँका रासायनिक सम्मिश्रण
( आश्रव बंधादि तत्वोंकी एक संक्षिप्त वैज्ञानिक विवेचना) (ले०-अनन्तप्रसाद जैन, 'लोकपाल' B. Sc. Eng.)
(गत किरणसे आगे)
किसी भी जीवधारीका शरीर पुद्गल परमाणुओंका सकता है न अन्य इन्द्रियाँ ही उसे अनुभूत कर सकती एक संगठित पुज है । शरीरकर्म और हलन चलनका हैं। इन्द्रियां उन्हीं बातों, विषयों या वस्तुओंकी अनुआधार है जबकि शरीरके भीतरका अदृश्य प्रारमा 'ज्ञान भूति प्राप्त कर सकती हैं । जो पुद्गलमय या पुद्गल चेतना' का कारण है। प्रारमा अरूपी होते हुए भी सारे निर्मित हैं। चेतनामय या जीवनमय संज्ञान वस्तुओं (जीव शरीर में व्याप्त होनेके कारण जिस शरीरमें विद्यमान रहता धारिया) को छोड़कर संसारका बाकी सारी ही वस्तुएं या
उस शरीरकी रूपाकृतिको धारण किए रहता है शरीर शक्तियां पुदगल निर्मित है। पुद्गलको ही अंगरेजी में मैटर तो स्वयं अचेतन-पुद्गल-निमित्त होनेसे संज्ञान या चेतना- (Matter) कहते हैं। श्रात्मा (जीव-Soul) और पूर्ण कुछ भी कार्य स्वयं नहीं कर सकता यदि उसके भीतर पुदगल ( Matter) का संयोग किस प्रकार रहता है, चेतन-मात्मा नहीं रहता, जैसा कि हम दूसरो बेजान कैसे परिवर्तित होता रहता है, कैसे छट सकता है, या कैसे वस्तुमाके बारेमें देखते या पाते हैं। प्रारमा भी अकेला छूट जाता है इन्हीं क्रियाओंका विधिवत् ज्ञान प्रास्त्रव, नहीं रहता जब तक उसे अन्तिम रूपसे 'मोक्ष' न मिल संवर बंध, निर्जरा, मोसकी विधियोंको ठीक ठीक जाननेसे जाय। सर्वदासे पुद्गलके आधार या संयोग द्वाराही ही हो सकता है। पुदगल क्या है और पुद्गलका रूप संसारमें आत्माकी अवस्थिति संभव रही है।
क्या है । यह भी जानना सबसे पहले जरूरी है। इसका भास्मा अकेला कुछ नहीं कर सकता-संसारमें हम ठीक ज्ञान हमे प्राधुनिक विज्ञानमें वर्णित ऐटम मौलेजो कुछ जीवन मुक्त और चेतनामय हलन चलन, क्रिया- क्यूल और इलेक्ट्रन इत्यादिकी जानकारी द्वारा ही संभव कलाप आदि देखते हैं वे सब मारमा और पुद्गलके संयुक्त है। जबकि श्रत अथवा शास्त्रों में वर्णित और भाचार्यों कर्म ही है। प्रात्मा कर्मही हैं। प्रात्मा तो शुद्ध, अदृश्य, द्वारा प्रस्थापित सिद्धान्तोंका विधिवत मनन करके, तर्क और प्ररूपी और पुद्गल रहित होनेसे न तो आँखांसे देखा जा बुद्धिपूर्वक विवेचना द्वारा जीवधारियोंके कार्य कलापका
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किरण २1
कोका रासायनिक सम्मिश्रण
[५६
सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए एक समन्वयात्मक विश्लेषण जैसे किसी में एक प्रोटन और एक इलेक्ट्रन मिलकर एक अनेकान्तकी पद्धतिसे करके ही हम यह सही जानकारी एटम बना तो किसी दूसरे में एक प्रोटन और दो या दो से प्राप्त कर सकते हैं कि प्रान्मा (जीव) क्या है। अधिक कई कई इलेक्ट्रन मिलकर एक एटमका निर्माण संसारमें हम पुद्गलकी अवस्थिति विभिन्न रूपोंमे
हुमा । इलेक्टूनोंकी विभिन्न संख्याओं और उनके विमित पाते है। बड़े-बड़े पदार्थ जिन्हें हम प्रत्यक्ष देखते है।
रूपोंमें प्रोटनसे सम्बन्धित होनेके कारण विभित्र धातुएँ जैसे पृथ्वी पहाव. पेब, मानवशरीर और पशु पक्षी कीट
अजग अलग गुणरूप लिए हुए बन गई । अथवा एक एक
एटममें एक से अधिक प्रोटन हों और उसी-सरह इलेक्ट्रनोंपतंग वगैरह । इसके अतिरिक्त जल (तरल) और वायु (गैस) रूपी वस्तुएं भो हम देखते हैं। हवा पारदर्शक
की संख्या भी कमवेश हो तो उनकी संख्यामांकी कमीवेशी वस्तु हैं जिसे हम देखते तो नहीं पर जिसका स्पर्श अनु
और उनके अतिरिक्त संगठनके ऊपर ही मणुषों (Atoms) भव करते हैं। फिर उष्णता प्रकाश, शब्द, बिजली और
की विभिनता और तदनुरूप मूलधातुओं (elements) विभिन्न प्रकारके रश्य या अदृश्य किरणें (Bays) और
के गुण, रूप, प्रकृति इत्यादिकी विभिन्नता निर्भर करती
है। ये ही एटम जब एक दूसरेसे मिलते हैं तो विभिन्न धाराएं (Waves) भी पुद्गलके ही रूप हैं। इस तरह
प.तुओंकी वर्गणाओंका सृजन करते हैं। हम वर्गणाओं अनंतानंत रूपो और संगठनामे हम पुदगलको देखने और
या वस्तुओंके गुण, रूप, प्रकृति प्रादि भी वर्गणाभाको पाते हैं।
बनाने वाले एटमों ( अणुओं Atoms) को विभिन्न पुदगलका मंविभाग गुरु के अनुसारभी हुआ है। सख्यानों और गुणांकी संयुक्त क्रिया प्रक्रियासे उत्पन्न किसी भी वस्तुका विभाजन करते-करते अन्नमें हम उम होनेसे भिन्न-भिल होते हैं और तब हम उन वस्तुमोका सबसे छोटे छोटे कण' को पाते हैं जिसमें उस वस्तु
anाने । संसारमें जितने प्रकारकी के सभी गुण इकट्टा वर्तमान रहते हैं, ऐसे कणोंको आज
भी हैं। प्राति रेजीमें 'मौल क्यूल (Molecule) और शास्त्रोंमे 'वर्गणा' और अनन्त हैं। और तदनुसार इनके रूप गुणादि भी नाम दिया गया है । वैज्ञानिकाने पुद्गलकी कुछ ऐसी
नकान पुद्गलको कुछ ऐसा अगणित और अनन्न हैं। इन वस्तुओंको रसायन शास्त्रमें किस्मोकी स्वतन्त्र अवस्थिति स्वीकार की है जिनमें मिश्रण
(Chemicals) या रासायनिक वस्तुएं और रासायनहीं और उनके गुण सर्वदा उनमें एक ममान मिलते हैं।
निक धातुएं कहा गया है और उनकी वर्गणाओंको इन्हें ही मूलधातु ( Elements) कहते हैं। इनक वे
रासायनिक वर्गणा या रासायनिक वस्तुओंकी बर्गमा परम सूचम विभाग जिनमें उस मूल धातुके सारे गुण (M.lecules of chamical substances) विद्यमान हो-ऐटम (Atom) या अणु कहे जाते हैं। दो कहा जाता है। इस लेख में (Chemical Subsया दो से अधिक मूल धातुओं (Elements) के ये ऐटम tances & elements) रामायनिक वस्तुओं और या अणु मिलकर किसी "वर्गणा" (Molecule)का धातुओंको केवल रसायन या रासायनिक लिखेंगे । निर्माण करते हैं। गुणके विचारसे ये ऐटम भी प्रारम्भिक भिन्न-भिन्न वर्गणाओं या रसायनों (वस्तुप्री-Chemiप्रकारकी वर्गणाएं ही हैं। अब अाधुनिक वैज्ञानिकोंने यह cals ) का एक दूसरेके साथ मिलने या संयुक्त होनेके पूर्णरोतिम सिद्ध कर दिया है कि हर धातुके हर ऐटम परिमाण और क्रियान्मक प्रभाव भी (Chemical भी परम सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं द्वारा ही निमित reactions) भिन्न भिन्न-कमवेश होते हैं। किन्हींकी हुए रहते हैं। इन पुद्गल परमाणुओं में मुख्य हैं आपमी क्रिया-प्रक्रियाएँ (Actions & Reactions) (Electron) इलेक्ट्रन और प्रांटनर (Proton) और बड़ी तीव्र होती हैं और किन्हीं की मध्यम या बहुत कम दूसरे हैं न्यूटन, पोज़ीदन, इस्मादि और इन्हींके संयुक्त रूप या किन्हीमें मिलकर संयुक्त रूपसे एक वस्तु हो जाने की हैं श्रायन (Jons) और प्राइसोटोप (Isotopes) हर शनि एकदम ही नहीं होती दो या दो से अधिक विभिन्न हर धातु विशेषके हर एटम, अणु या मूलसंघ (Atom) धातुओं अथवा रसायको जब इकट्ठा करते हैं तो उनमें में इन परमाणुओंकी संख्या कमवेश-विभिन्न होती है। भिन्न भिन्न परिस्थितियों अथवा सहायक रसायनोंकी
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६.]
अनेकान्त
[किरण २
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उपस्थितिमें विभिन्न हरकतें, क्रियाएँ होती है और अंतमें वर्गणाओंका विभिन्न रूपों और संगठनोंमें होता ही रहता तरह तरहको मिश्रित या संयुक्त वस्तुएँ (Mixtures & है। एक ग्रह उपग्रह या वस्तुकी ये धाराएं या किरण Coupounds) तैयार होती हैं जिनके गुणादि भी दूसरे ग्रह उपग्रह या वस्तुओं पर लगकर, उनमें प्रवेश अपने अपने अलग अलग होते हैं।
करके क्रिया प्रक्रियादि द्वारा अपना प्रभाव डालती था मानव या किसी भी जीवधारीके शरीरका निर्माण
उत्पन्न करती रहती हैं जिनके कारण भी हर वस्तुमें करने वाली वस्तुएँ या रसायनोंकी संख्या और वर्गणाएँ
सतत परिवर्तन होते ही रहते हैं ।मानव या किसी जीवअनगिनत प्रकारकी हैं। एक एक वस्तुकी वर्गणानांकी
धारीका शरीर भी इस पृथ्वीका प्राय होने से इसके साथही संख्या अलग अलग अगणित अनन्त है । एक बालकी
गतिशील और सर्वदा कम्पन-प्रकापनसे युक रहता है। नोकमें असंख्य वर्गणाओं और अणुओंका समूह रहता है
जो गतियाँ और कम्पन प्रकम्पमादिगाहरी प्रभावों के कारण
होते हैं उनके अतिरिक्त मानव शरीर स्वयं चलता फिरता तो फिर तो एक बड़े दृश्य शरीरमें उनकी संख्या अगणित, असीम अनन्त होगी ही। इन वर्गणाओंमें सर्वदा क्रिया,
है, हलन चलन करता है, हिलता हुजता है, हर क्रियाप्रक्रिया, एवं अणुओं और परमाणुनोंका भादान-प्रदान
कलापमें शरीरका या किसी न किसी अंग अथवा इन्हीं
का संचालन होता रहता है, जिन्हें हम शारीरिक कम्पन या अदला बदली होकर स्वतः परिवर्तन होते ही रहते हैं। फिर हम भोजन पान करते हैं, श्वास निश्वासको छोड़ते
और गतियाँ कह सकते हैं । पुनः मानवका मन जब भी रहते है, प्रकाश किरणे और वायु हमारे शरीरको हर ओर
एक विषयसे दूसरे विषयको बदलता है तब मनोप्रदेशमे से बेधित करते रहते हैं इनके अतिरिक्त भी अनन्त प्रकारकी
कम्पन प्रकम्पन होते हैं और चूकि मन भी शरीरका ही वे किरण और धाराएँ जो हमारे शरीरसे टकराती है,
एक भाग है इससे उसके साथ ही बाकी सारा शरीर भी कुछ भीतर घुसती हैं. कुछ घुसकर निकल जाती है
दृश्य या अदृश्य, अनुभूत था अननुभृत रूपस कम्पित
प्रकम्पित होता है। इत्यादि। ये सभी कुछ पुद्गल निर्मित ही है । शरीरमें
इन सभी गतियों और कम्पन प्रकम्पनादि द्वारा स्वतः इनका प्रवेश होना नए पुद्गलका प्रवेश होना ही है। इस तरह इनकी भी क्रिया-प्रक्रियाग भीतरके रसायनों और
सर्वदा पुद्गलपरमाणुओं. अणुओं और गणात्रोंका
निस्सरण हर वस्तुसे, हर शरीरसे. हर वस्नुका हर वर्गणाओंके साथ हो होकर नई वर्गणाएँ या नए नए रसा
वर्गणा से भिन्न भिन्न संगठनों, धाराश्री, किरणांके रूपमें यन उत्पन्न कर परिवर्तन दिलानी ही रहती हैं।
होता ही रहता है। हर वस्तु और हर शरीरसं पुद्गलोंइनके अतिरिक्त भी विश्वमें जितनी भी वस्तुण हैं वे की इस अवाध धाराका प्रवाह हर दूसरे वस्तु और शरीर सर्वदा विभिन्न गतियों और कम्पन-प्रकम्पनादिस मुक्त से लगकर, घुमकर कमवेश क्रिया-प्रक्रिया द्वारा अपना हैं बड़े बड़े ग्रह सूर्य, पृथ्वी इत्यादि, और इन ग्रहों पर पणिक अस्थायी और स्थायः प्रभाव करता ही रहता है। अवस्थित सभी वस्तुएं अलग अलग कम्पन-प्रकम्पनसे सभी जीवधारियों और मानवोंके साथ भी ये ही बातें होती युक्त है। अपनी अपनी विभिन्न गतियों और अवस्थितिके रहती हैं। बेजान वस्तुओंमें केवल स्वाभाविक या प्राकृतिक अनुसार समी ग्रह-उपग्रह और सभी वस्तुएं एक दूसरे पर कम्पन ही होते हैं पर जीवधारियोंके शरीरोमें उनके कर्मों अपना विभिन्न प्रभाव डालती रहती हैं, जिनके कारण ये और सचेतन हलन चलनके द्वारा भी क्रियात्मक कम्पन गतियाँ भी स्वतः होती रहती हैं और कम्पन-प्रकम्पन भी प्रकम्नादि होते हैं। जिन जीवोंके मन ('Thinking होते रहते हैं और ये सर्वदा ही होते रहेंगे। इनमें कमी faculty ) रहता है उनकी मानसिक हलचलोले अलग बेशी फेर बदल-परिर्वतन हो सकते हैं पर ये गतियां और कम्पन-प्रकम्पन होते हैं। मानवके मन, बुद्धि और हृदयका कम्पन-प्रकम्पनादि बन्द नहीं हो सकते, ये तो-शास्वत और संयोग होनेसे भावनारमक कम्पनादि भी होते रहते हैं। अवाधरूप से होते ही रहेंगे । इन गतियों, कम्पन प्रकम्प- वचन या बोलना भी द्रव्यकर्म ही है। मनोप्रदेशके हलन मादिके कारण हर प्रह-उपग्रह और हर वस्तुसे निर्वाध चलन या मानसिक विचारोमें परिर्वतन होने अथवा भावअविराम शास्वत धारा प्रवाह अणुओं, परमाणुओं और नास्मक प्रवृत्तियोंको "भावकर्म" कहते हैं।
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किरण २]
कोका रासानिक सम्मिश्रण
[६१
सभी कोका भाधार शरीर और मन है, जो दोनों इस पर स्थित सभी बेजान वस्तुओंसे निःमृत होने वाली ही पुद्गल निर्मित है। पारमा स्वयं स्वेच्छासे कर्म नहीं धाराएँ इस पृथ्वीके वायु मंडल में हलन पबन अथवा करता | उसकी स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे किसी बिजली विभिन्न वस्तुओंकी गतियोंसे उत्पन्न होने वाली धाराएँ, के यन्त्रमें बिजली या विद्यत-प्रवाह की। बिजली स्वयं (४) पृथ्वी पर स्थित जीवधारियोंके द्रव्यकर्म द्वारा उनके कुछ नहीं करती केवल उसका प्रवाह यन्त्रों में होते रहनेसे शरीरोंसे निःसृत होने वाली धाराएँ; (३) जीवधारियों के यन्त्रोंकी पनावटके अनुमार वे यन्त्र काम करते हैं। भावकमके कारण उनके मनोप्रदेश और शरीरसे निकलने विद्युत-शक्तिका प्रवाह यन्त्रमें नहानेस वे भी कुछ वानी धाराएँ, (६) स्वयं अपने शरीर के पौलिक भाककाम स्वतः नहीं कर सकते न बगैर माध्यम, साधन और पण-द्वारा खिंच कर पाने वाली धाराएँ (७) जीवधारीके प्राधारके विद्युत प्रवाह ही हो सकता है। इसी तरह भोजन पान द्वारा उसके शरीरमें जाने वाले पुद्गल पदार्थ पारमाका प्राधार साधन और कर्मका माध्यम शरीर है एवं वहाँ शरीरके भीतर उनसे पैदा होने वाली पौद्धिक और शरीरमें चेतनामय कर्म होते रहनेका मूल कारण धाराएँ । इत्यादि। ये सभी प्रकारकी धाराएँ किसी भी शरीरमें भास्माकी विद्यमानता है। जैसे कार्य तो विद्यत- जीवधारीके शरीरमें प्रवेश करती रहती हैं और जीवधारीयन्त्रों द्वारा ही सम्पन होते हैं पर लोकमें कहा जाता है के शरीरके भीतर दण्यकर्म या भावकमसे होने वाले तीन कि बिजलीसे ये काम हो रहे हैं अथवा बिजलीकी शक्ति मध्यम या क्षीण कम्पन-प्रकम्पन शरीरके अन्दरकी वर्गयह काम कर रही है। उसी तरह कर्म तो शरीर ही करता यात्रोंमें और विभिन्न वर्गणात्मक लामों में हलचल है पर आत्माको ही कर्ता कहा जाता है कि प्रात्मा पैदा करते रहते हैं और तब इस पान्तरिक वर्गणात्मक चेतनामय है इसलिए दुख सुखका अनुभव भी शरीर स्थित उद्वलनमें बाहरी वर्गणाओंका मेल मिलाप, संगठन, आत्माको होता है इसीसे उसे 'भोका' भी कहते हैं। पर
तीव, मध्यम या क्षीण-जैसा हो सकता है तथा होता है। होता सभी कुछ है शरीरके सम्बन्धसे ही और पुद्गल
जिस तरह कई रामायनिक द्रव्य मिल कर कोई नये रसाद्वारा ही । इस तरह मात्मा कोका पचमुच कर्ता नहीं
यन नए गुणादि वाले पदार्थ उत्पा करते हैं उसी तरह है। कर्म तो अपने आप म्वाभाविक रूपसे शरीरकी बना.
इन शरीरान्तर्गत वर्गणा पुझोंमें भी इसी तरहके स्थाई वट और योग्यताके अनुसार स्वतः ही हर ओरके बाह्य
या अस्थाई फेर बदल, तबदीजियों और कई रचनाएं हो और अान्तरिक प्रभावोंके अन्तर्गत होते रहते हैं और
जाती हैं। इस प्रकारके रामायनिक सम्मिश्रण या संगठनतज्जन्य अच्छे-बुरे फल भी होते या मिलते रहते हैं जैमा
को ही जैन शास्त्रोंमें 'बन्ध' नाम दिया गया है। जैसे
हाईड्रोजन और प्रौक्सिजन मिल कर जल बन जाता है कर्म होगा उसी अनुमार उसका फल या प्रभाव भी
अथवा गंधक और पाक्सिजन मिलकर गंधकका तेजाब होगा-दूसरेका दुसरा नहीं हो सकता । हाँ, किसी व्यक्ति
या सल्फर डार्क औक्साइड गैम बन जाता है, इत्यादि । के किए कर्मों (इम्यकर्म और भावकर्म) द्वारा उत्पन्न
'बन्ध' को हम अंगरेजीमें या रसायन-शास्त्रकी परिभाषामें हुए पौदगजिक कम्पन-प्रकम्पन, जो उसके शरीरके अन्न
केमिकल कम्पाउन्द । Choomcal compowind) गत वर्गणा निर्मित अन्तः प्रदेशमें होते रहते हैं उनमें
कह सकते हैं। यदि बाहरसे पौलिक प्रायव तो होता बाहरसे आने वाली पौद्गलिक धाराएं मिल मिलाकर
रहे पर श्रान्तरिक पौगलिक रचनाके माथ उसके मेल या या मिल विक्षुहकर प्रापमी क्रिया-प्रक्रियाओं द्वारा क्षणिक,
सम्मिश्रण द्वारा कोई परिवर्तन न हो जाय तो ऐसा मानव अस्थायी या स्थाई परिवर्तनादि उत्पन्न करती है।
बन्धन करने वाला कहा जाता है। बन्धकी तीवता और जैन दर्शन में वर्णित 'प्रास्रब इन बाद्य पौगलिक स्थायित्व ये दोनों हमारे द्रव्य और भावकाँसे उत्पन्न धाराका शरीर प्रदेशमें भाना ही है। प्रावके प्रधान तीव्र या हल्के कम्पन-प्रकम्पनो पर निर्भर करते हैं। इसका मूल कारणों या श्रोतांका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। वएन विशदरूपसे जैन शास्त्रांम मिलेगा। पासबकी पौद्गलिक धाराएँ कई हैं; जैसे (१) दूसरे मानव शरीरको बनाने वाली वर्गणाओंको जैन ज्ञानिग्रहों उपग्रहोंसे पाने वाली धारा (२) इस पृथ्वी और योंने कई भागों में विभक्त किया है। जैसे औदारिक वर्गणा
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अनेकान्त
[किरण २
जस वर्गणा और कर्मायवर्गणा । मौदारिक शरीर तो जलमें पड़ने वाले प्रतिबिम्ब धुधले या विकृत हो जायगे, रकमांसादिमय प्रत्यक्ष शरीर है जिसे हम देखते हैं और उसी तरह मारमाके प्रदेशों में पुद्गलकी विद्यमानताके जिसके द्वारा कर्म होते हैं। तेजसशरीर तेजपूर्ण-प्रभामय कारण उसका ज्ञान सीमित या विकृत हो जाता है। शुभ्र शरीर है जो सूचम-पारदर्शक है और पूर्ण शरीरमें पास्माकी शक्तियों या ज्ञान गुणको कम कर देने अथवा व्याप्त है पर उसे हम देख नहीं सकते । तीसरा 'कार्माण' आच्छादित रखनेके कारण ही कर्मपुद्गलोको या कर्माण शरीर जो तेजससे भी अधिक सूचम या महीन वर्गणामोंको पाठ भागोंमें विभक किया गया है। वे हैं प्रास्य पदल वर्गणनासे बना है। यही मानव द्रव्य -ज्ञानावरणी वर्गणाएँ जो पारमाके अनम्तज्ञानको (वचन और शरीर द्वारा किए जाने वाले कर्म) और सीमित करती है;-दर्शनावरणी वर्गणाएँ जो दर्शन भाव (मन द्वारा होने वाले) कोका प्ररक, संचालक बोध या अनुभव शक्तिको सीमित करती है;-वेदनीय
और नियंता है। औदारिक शरीर तो मृत्युके समय यहीं वर्गणाएँ जो सुख दुखका अनुभव कराती हैं;-मोहनीय रह जाता है जबकि तैजस और कार्माण शरीर संसारा- वर्गणाएँ जिससे मनुष्य मोह तथा चरित्रको प्राप्त होता है। वस्थामें बराबर मात्माके साथ साथ रहते हैं। कार्माण- ५-प्रायुष्क, जिससे किसी शरीरमें रहनेको अवधि स मय और नई नई योनियों में नया जम्म लेने सीमित हो जाती है;६-गौत्र कर्म-वर्गणाएं, जिनसे नया शरीर धारण करने करानेका मूल कारण है
अच्छे परिवार और लोगों एवं परिस्थितियों में जन्म होता इन तीनों ही शरीरामें सर्वदा परिवर्तन होता रहता है-नामकर्म वर्गणाएं, जिनसे शरीरकी बनावट ऐसो
स नी होती है कि अच्छे या खराब काम होते हैं,८-अन्तराय माँ के पेट में ही हो जाता है। कार्माण शरीर धारी पारमा
कर्म वर्गणाएँ हैं जिनके कारण कार्य संचालन और जिस समय किसी रजवीर्यके संयोगसे रजकण और वीर्य
तज्जन्य उपयुक्त फलके लाभमें विघ्न-बाधा या रुकावट कणके सम्मिलनसे उत्पन सूक्ष्म शरीरमें प्राता है तो
पड़ती है। इनके भी अलग अलग विभेदोंका विस्तृत वर्णन उसका वही एक निश्चित रूप रहता है। पर बाहरी
शास्त्रोंमें दिया हुआ है।
शराब पीकर कोई व्यक्ति मतवाला हो जाता है या औदारिक शरीरके परिवर्तनसे इस भीतरी कार्माण शरीर
क्लोरोफार्म सूंघकर बेहोश हो जाता है क्लोरोफार्म और का परिवर्तन भावानुकूल बहुत भिन्न होता है । दश प्राणी
शराब दोनों पुद्गल है, इनका असर मनुष्यकी बुद्धि, द्वारा मनुष्य जीवित रहता है. जिसका अर्थ यह है कि
मस्तिष्क और मन पर जोरदार पड़ता है-अधिक शराबजब तक इन प्राणोंके द्वारा दोनों शरीरोके परिवर्तनों में ऐसा साम्य बना रहता है कि एक दूसरेके साथ रह सकें अथवा
के नशेमें मनुष्य बहुतसे नए-नए कर्म या बातें करने लगता कर्माण शरीरकी प्रेरणानुसार बाहरी शरीर कर्म कर सके
है उसी तरह ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म भी या संचालित हो सके तब तक तो दोनों साथ साथ रहते हैं
प्रारमाके चेतनामय ज्ञानको भथवा अनुभूति करनेकी अन्यथा कर्माणशरीर प्रात्माको लेकर निकल जाता है
शक्तिको इस तरह संचालित करते रहते हैं कि मानव वैसा
ही व्यवहार करता है जैसा ज्ञानावणीय वर्गणाओं और और दूसरी योनिमे नया जन्म लेकर ऐसा शरीर धारण
दर्शनावरणीय वर्गणाओं द्वारा निर्मित अन्तर-शरीरका वह करता है जो उसकी प्रकृतिके अनुकूल हो।
भाग संचालित होता है जो इन गुणोंको क्रियात्मक रूप मानवके कर्माण शरीरके पाठ भाग किए गए हैं।
देता है। जैसे बिजलीका कोई यन्त्र जो किसी विशेष कामपास्माका गुण है अनन्त शुद्ध ज्ञान । पर जिस तरह शुन्
के लिए बना है वह वही काम कर सकेगा जिसके लिए जलमें यदि मिट्टीके कण या कोई रंग डाल दिए जाय तो
वह यन्त्र बना है और जिसकी बनावटके ब्यौरे (details) & 'जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य' नामक उसी विशेष कामका ध्यान रखकर निर्माण किए गए है।
अपने लेखमें मैं इस विषय पर संक्षेपमें प्रकाश डाल बिजलीकी शक्ति तो सभी यन्त्रों में एक समान या एक ही चुका हूँ। देखो, 'अनेकान्त'-वर्ष १०, किरण ४.५ होती है पर यन्त्रोंकी बनावोंकी विभिपताके कारण ही (अक्टूबर नवम्बर १९४६)।
उनसे होने वाले कार्य भिन्न होते हैं। विभिन्न मनुष्योंक
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किरण २]
कर्मोंका रासायनिक सम्मिश्रण
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मस्तिष्कोंकी प्रान्तरिक बनावटमे विभिनता होनेके कारण है। जिन वर्गणाओंकी प्रेरणाके अन्तर्गत कोई कर्म हो ही उनके सोचने-विचारने आदिकी शक्तियाँ भिन्न-भिन्न जाता है उन वर्गणाओंका संगठन बिखर जाता है इसीको होती है। मस्तिष्क या मन वगैरह भी पुद्गल निर्मित हो 'निरा' कहते है। एक कर्म होने पर उस कर्मकी प्रेरक है । मानवका शरीर मानवोचित काम करता है जब कि वर्गणाओं में या उनके पूजीभूत संगठनमें परिवर्तन होकर किसी पक्षीका शरीर, किसी पशुका शरीर, किसी कीट- नए कर्म द्वारा नए कम्पनोंके कारण नई वर्गणाएं हिर पतंगोंका शरीर या किसी पेड़ पौधेका शरीर वही काम बनती भी जाती हैं वर्गणात्मक निर्माणोंका असर या प्रभाव कर सकता है जिस कामके योग्य उस शरीरकी योग्यता, भी उनकी रचनाके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकारका होता बनावट या निर्माण है। हर एक अंग उपांगांके काम भी है-जैसे कोई वर्गणाएं एक बार कर्म कराकर बातम हो उनको बनावटके अनुसार ही होते हैं। इसी तरह ये ज्ञाना- हो जाती है कोई गेज रोज वर्षों तक वही कर्म वरणीय प्रादि वर्गणाएँ भी पुद्गल पुंज हैं जो कार्माण कराती रहती हैं कोई कभी खास अम्तर पर शरीरको या तदनुसार बने औदारिक शरीरकी बनावटांको एक ही तरहके कम कराती हैं। कोई एक एकरणमें ऐसा उत्पन्न करने में या निर्मित करने में कारण हैं जिनसे वे बनती विनसती हैं कोई बहुत बहुत वर्षों तक रहती हैं ही या उसी तरहके काम हो सकते हैं, जैसी उनकी बना- कुछ कई जन्मों जन्माम्मरों तक रहती हैं इत्यादि । परिवट हैं। अथवा यो समझिये कि ज्ञानावरणीय वर्गणाओं वर्तन हर एकमें कमवेश होते रहते हैं। मानव शरीर का जीभूत असर या प्रभाव ही ऐसा होता है कि मनुष्य और मन कुछ न कुछ हरकत या कर्म तो हर दम करते ही वैसा ही व्यवहार करे जैसा उन वर्गणाओंसे बने वर्गणा- रहते हैं। मानवके अन्तः शरीरमें अलग-अलग कोको स्मक शरीरके उस भागका निर्माण दुपा है जो मानवके कराने वाली या अलग अलग इन्द्रियोंको सञ्चालित करने ज्ञानका स्रोत और नियन्त्रण एवं संचालन करने वाला है। बाली वर्गणाओंकी बनावट या पुज या संघ या संगठन स्वयं श्रात्माको छोरकर यह सब शारीरिक निर्माण पौद्ग- भी अलग-अलग है। एकही समय हो सकता है कि कई. लिक है-पुद्गल वर्गणाओंसे विभिन्न रूपोंमें बना विभिन कई पुज समठन एक साथ ही कार्य शील या प्रभावशील प्रभावों वाला है।
हो जाय पर मानवके शरीर इन्द्रियों और मनका निर्माण पुद्गल धाराओंका श्रास्रव हर समय होता ही रहता ऐसा है कि कर्म एक समयमें एक हो प्रकारकी वर्गणाम्रो है और मन, वचन, कर्म द्वारा मानव शरीर में और शरीर के प्रभावमें होता है जिधर मानवका मन भी लगा रहता स्थित प्रात्माम भी कम्पन-प्रकम्पन होते ही रहते हैं और है-बाकी दूसरी वर्गणाएं या उनके पुज उस समयमें इनके कारण इन ज्ञानवरणी, दर्शनावरणी श्रादि वर्गणा- बिखरकर बेकार और निष्फल हो जाते हैं। वर्गणात्रोके स्मक पुजीभून पोद्ल क अंतः कार्माणशरीरमें भी तब- पूजीभृत सगठनोंका इस प्रकार कर्म कराकर बिस्वा जाना दोलियाँ या परिवर्तन भी होते रहते हैं। मानवका कोई या किसी एक प्रकारको वर्गणाओंके प्रभावमें एक कर्ममें भी कर्म उसके अंतः शरीरके किसी विशेष कर्माण वर्ग लगे रहने कारण दूसरी वर्गणाओंके पुम्जोंके प्रभावका णाओंके पूजीभूत संघ या संगठनके प्रभ यमें ही होता है उदय' यदि उसी समयमें हुआ तो उनका अपने श्राप अथवा कितनी ही प्रकारकी वर्गणाओंका सम्मिलित प्रभाव बिम्बरकर निष्फल हो जाना दोना हालतोंमें ही कर्मोकी किसी समय किसी एक कर्मको प्रेरित करता है। अनादि- 'निर्जरा होती है। यह बात ठीक उसी तरह होती है जब कालसे अब तक न जाने कब या वबसे कब तक-कसं भिन्न-भिन्न रासायनिक दृग्य इकट्ठा किए जाने पर मिल इकत्रित एवं पूजीभूत किमी विशेष कर्माण वर्गणा विम्बरकर नए-नए द्रव्योंमें परिणत हो जाते हैं। एक प्रभावमें ही मनुष्य कोई काम किसी समय करता है। उदाहरण मै यही दंगा। यदिगंधककी तेजाब (Hison) मनुष्य प्रायः कोई भी कर्म इन पौद्गलिक (कर्माण वर्ग और तांबाको इकट्ठा करें तो तांबेके माथ तेजाबको एक णाओंके प्रभाव या प्रेरणाके वशीभूत ही करता है। मनो- प्रकारका भाग मिलकर तूतिया (Cuson) बन जायगा देशमें हलचल या मनको प्रेरित कर भाषकर्म होते है और और कुछ जल (Gison) और कुछ हाइड्रोजन गैस इन्द्रियों या शरीरके अंगोंको संचालित कर द्रव्यकर्म होते (H) अलग होकर निकल जायगा -इत्यादि । इसी तरह
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६४1
भनेकान्त
[किरण २
इन पुद्गल रचित कर्माण वर्गणाओं में भी प्रापसो क्रिया- जिस तरह इलेक्ट्रन और प्रीटम (पुद्गल परमाणुप्रक्रिया द्वारा परिवर्तन होकर एक प्रकारकी प्रेरक वर्गणाएँ स्निग्ध और (रुक्ष) ये ही दोनों कमवेश संख्याभोंमें मिलदूसरे प्रकारकी प्रेरक वर्गणानामें अपने आप बदल जाती कर विभिन्न धातुओं और वस्तुओंको विभिन्न स्वभाव और है। इन पौद्गनिक वर्गणाओं या कर्मवर्गमाओंका गुणों वाले बनाते हैं ठीक उसी तरह कर्मवर्गणा नामके पुदमिलन सम्मिश्रण द्वारा एक सुदृढ़ संगठन बना लेना और गलपुजोंमें भी विभिन्न प्रकृति, स्थिति भादि करनेवाली पुनः समय पाने पर विखर जाना और फिर विखरे हुए वर्गणाांकी बनावट विभिन्न होती है पर उनको बनाने वाले परमाणुषों अणुओं और वर्गणामोंका दूसरे परमाणुओं, पुद्गल परमाणु तो वे ही दो प्रकारक स्निग्ध और रुक्ष अणुओं, और वर्गणाओंके साथ मिलकर नए संघ या संग- (Electron और Proton) ही होते हैं। अतः जब ठन बना लेना-यह चक्रमई (Cvcle) क्रिया अपने श्राप भी कोई एक बनावट टूटती या बिखरती है तो दूसरी मानव और कल्पनादिके फल स्वरूप होती ही रहती है। बनावटें तुरन्त बन या तैयार हो जाती हैं-जिनमें बाहरसे इसे हम 'कों का रसायनिक सम्मिश्रण' कह सकते है। आने वाले पुद्गलोंका भी भाग रहता है। इसके अतिरिक्त यह कर्मोंका रासायनिक सम्मिश्रण (Chemicale बनावटें बनने और टूटनेके कारण तथा कम्पनोंके कारण Componding ) होकर नए नए पुरज सङ्गठन बन पुद्गल विमित रूपों में शरीरसे निकलता भी रहता है। जाना ही "बंध" है। धाश्रवके कारण मैं लिख चुका हूँ। भावार्थ यह कि एक या कई पुद्गल पुस्जोंकी बनावटें बंधके लिए शास्त्रोंमें पांच कारण बतलाए गए हैं- टूटकर कुछ नई भी बन सकती हैं। बन्ध' का टूटना ही मिथ्यात्व. अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । बंधके निर्जरा' है । लेकिन एक कर्मकी निर्जरा' होकर दूसरे चार प्रकार भी कहे गए हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग बन्ध भी हो सकते हैं या होते रहते हैं। और प्रदेश । तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व विरति आदि यदि अनन्तकाल तक ये निर्जराएं और बन्ध अथवा द्वारा मानवके अन्तः प्रदेश में इस प्रकारके कम्पन होकर और निर्जरा, एकके साथ एक या एकके बाद एक होते ही
कालिक अथवा वर्गणात्मक सह सङ्गठनों और पुजामें रहना फिर तो श्रात्मा कभी भी मुक्त नहीं हो सकता(जो पर्तके उपर पर्तकी तरह बैठे रहते हैं)ऐसी हलचल 'मोक्ष' नहीं पा सकता। ऐसी बात नहीं है। मोक्ष होने में पैदा होती है कि प्रास्रव-द्वारा रासायनिक सम्मिश्रण आत्माका चेतन गुण और स्वाभाविक उद्ध्वगति सहायक अथवा 'बन्ध हो जाता है। बंधका रूप या प्रकार कैसा है होनी है। इसमें 'काललब्धि' और 'निमित्त' को भी या होता है? उसको यहां प्रकृति स्थिति प्रादि भेदों द्वारा प्रास्माका पौगलिक शारीरिक संयोग होनेसे आवश्यकता बतलाया गया है। मानवकी जिस प्रकृति या स्वभावको होती है फिर भी मूल कारण प्रात्माकी चेतना ही है। जो 'कर्माणु (पुद्गल कर्मवर्गणाएं) एक खास तरहका निमित्तका अर्थ है कि व्यक्तिके चारों तरफके वातावरण बनाते हैं उन कीटाणुनाके बन्धको 'प्रकृतिबंध' कहते हैं। और उसकी परिस्थितियां अनुकूल हों और कालजन्धिका ये भाचार, व्यवहार, अथवा किस प्रकारके कर्म हो- अर्थ है कि मानव शरीरके अन्दर कर्माणवर्गणाओंका इनको स्थापित या निर्मित या निश्चित कर देते हैं। परिवर्तन होते होते जिस समय ऐसा निर्माण हो जाय कि स्थिति बंधका अर्थ है कि किस कर्माणुपुज्जका असर कब- वह मोक्षके उपयुक्त कर्म करनेके लायक बन जाय । पारमाका होगा और कब तक रहेगा । इत्यादि अनुभाग बंध- की शुद्धि या कोंकी शुद्धि गुणस्थानानुसार धीरे-धीरे का अर्थ है तीन या मम्द फलदानकी शक्ति । प्रदेश बंधका उत्तरोत्तर होतो ही रहती है। पर इसके लिए भी जरूपी अर्थ है किन किन प्रकृतियोंके कौन कौन कर्मपुब्ज कितनी यह है कि ऐसे "कर्मपुज्जों" का निर्माण न हो जो सम्यक संख्याओंमें मिले । इनके अतिरिक्त भी बंधके दस भेद दर्शन ज्ञान और चरित्रमें अनन्त कालीनरूपसे बाधक हों।
और है बंध, उदय, उदीरणा. सना; उत्कर्षण, अपकर्षण, यहीं "संवर" की आवश्यकता पड़ती है। पांछित कर्मसंक्रमण, उपशम, निधत्त और निकाचित । इनके विस्तृत पुजा (पौगलिक वर्गवारमक निर्माण या संघ या सगभेद विमेद और विधिवत् सुव्यवस्थित विशद विवरण ठन)का रासायनिक सम्मिश्रण द्वारा सुद्ध बन्ध होनेसे शास्त्रोंसे जाना जा सकता है।
रोकना ही "संवर" है । संघरके लिये द्रव्य और भावको
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किरण २)
कोंका रासायनिक सम्मिश्रण
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पर नियन्त्रण रखनेकी जरूरत है। यह नियन्त्रण बतों फल या सज्जन्य कर्म भी शुभ्र होते हैं। ध्यानका जैसा द्वारा या आचार-व्यवहारकी शुद्धि एवं परिमार्जनद्वारा विषय होगा वैसा ही बंध भी होगा। भात्मा परम शुद्ध, संभव हो सकता है । तीन बन्धको उत्पन्न करने वाले निर्मल, ज्ञानमय है इसलिए प्रास्माका अपने ही भीतर मिथ्यास्व अधिरति,प्रमाद, कषायादिको हम जितना अधि- ध्यान करनेसे बाहरी दम्या, वस्तुओं और पुनलोंका संबन्ध काधिक दूर या कम या कमजोर करते जायगे बन्ध-योग्य एकदम छूट जाता है और तब बन्ध होता ही नहीं. संवरके मन्तिरिक कम्पन-प्रकम्पन उतने ही कमजोर हंगे और साथ निर्जरा पूर्ण होती है। प्रात्मामें ध्यान लगाने पर तब बन्धकी स्थिति अनुभाग आदिमें कमी पड़ेगी और इसीलिए सबसे अधिक जोर हर दर्शनशास्त्र और उपदेशप्रकृति शुभ्र होती जायगी। बन्धका मुख्य कारण अन्त में दिया गया है । शारीरिक द्रव्यकर्मोको एकदम कमसे प्रदेशका कम्पन-प्रकम्पन ही है । ये कम्पन प्रकम्पन कम करके भावको सर्वथा प्रारमाने युक्त कर देना ही तप जितने कम हो सकें जिस तरह कम हो सकें वही करना है, जिससे निर्जरा अधिकसे अधिक होती है। जब पुद्गल"संवर" करने वाला कहा जायगा या होगा। कम्पन नहीं कर्म पुंज अपनो प्रकृति स्थिति मादिके अनुसार कर्म करा होनेसे सुसंगठित, सुदरूपसे स्थित अथवा पर्त पर पर्त- कर बिखर जाते या मर जाते हैं तब उस क्रियाको हम की तहकी तरह जमे हुए पुदगल कर्मपुजामें हलचल और सकाम निर्जरा कहते हैं। पर जब प्रास्मामें ध्यान लगाए उद्वेलन नहीं होंगे और तब उनमें बाहरसे आनेवाली रखनेके कारण नए प्रास्त्रवोंका संवर हो जाता है और पुद्गल वर्गणाएँ नही प्रवेश कर सकेंगी-या कम्पनी पुराने कपुज वर्गर फल दिये ही बिखर या झड़ जाते हैं कम-बेशी तीव्रताके अनुसार कमबेश प्रवेश करेगी और तो उस क्रियाको 'अकामनिर्जरा' कहते है। सम्मिश्रण (Compouncong) भी कमबेश होगा, अान्मध्यान या शुक्लध्यान-द्वारा प्रायः मंबर और इत्यादि । इसीलिये संयम, बत, ममिति, गुप्ति, ब्रह्मचर्य निर्जरा ही होते हों। गृहस्थ तो गार्हस्थ्य कर्ममें लीन प्राणायामादिका विधान किया गया है। इनका विशेष विव- होनेके कारण प्रायः कषायादि कमों में लगा ही रहता है रण यहाँ देना संभव नहीं एकबार यह समझ लेनेके बाद इसलिए उसे देवदर्शन, तीर्थंकरकी शान्तमई ध्यानमुद्राकि कर्म किस प्रकार पुद्गलवर्गणाओं या पुदगलरचित से युक्त मूर्तिका दर्शन ध्यानादि करनेकी व्यवस्था रखी संगठनों द्वारा मंपादित या प्रेरित होते हैं तथा उनका रामा- गई है। शास्त्र-पठन-पाठनस जानकारी बढ़ती है और यनिक सम्मिश्रण किम तरह होकर उनमें परिवर्तनादि होने ज्ञान ताजा होता रहता है-शुद्ध चेष्टाएँ बढ़ती है। हैं उसी सिद्धान्तको इन बाकी बातों में भी युक्त करके गृहस्थ भी प्रात्मध्यान थोड़ा बहुत कर सकता है और उनकी क्रियाओं, प्रकृतियों और प्रभावको समझने में कोई जब भी जितना भी वह पारमा ध्यान लगा सकेगा उतना दिक्कत नहीं रह जायगी।
उसके कर्मोंका भी संवर और निर्जरा होगी, उसके कर्म सबसे अधिक संवर तब होता है जब ध्यानकी एका- शुभ्र या शुल्क होंगे और साथ ही साथ उसकी मानसिक ग्रता होती है। ऐसे ही समय निर्जरा भी अधिक होती। योग्यता और कार्यक्षमता भी बढ़ेगी। सारा जैनशास्त्र ध्यानकी एकाग्रता किसी एक विषयमें होनेसे केवल एक इन विषयोंके विशद वर्णनसे भरा हुमा है। संयम, नियम, प्रकारके ही कम्पन होंगे अन्यथा एक प्रकारके कर्मपुद्गल- प्राणायाम, व्रत, उपवास इत्यादि सब इसीलिए हैं कि पुजमें ही उद्वेलन पैदा होगा और फिर उसी अनुरूप एक मानव शुद्धताकी एक श्रेयीसे चढ़कर अधिक शुद्धताकी प्रकारका ही बंध होगा बाकी कर्मास्रवोंका संवर, और दूसरी श्रेणीसे तीसरी में और फिर अपने पारमशुद्धि उदय पाए हुप दूसरे कर्मपुओंकी निर्जरा हो जायगी। यदि करता हुआ एक समय कोसे-पुनलके संयोग या संबन्ध. ध्यानका विषय कषाय है तो कषायोंमे पुनः तीवबंध से-एकदम छुटकारा पाकर मोष पा जाय-अपना स्वरूप, भी होगा। शारीरिक वाचनिक और मानसिक हलन-चलन शुद्ध परमज्ञानमय रूप प्राप्त करले और उसीमें लीन (द्रव्य और भावकर्म) भी उस समय सबसे कम होते हैं हो जाय-तभी उसे सर्वदाके लिए दुखॉमे छुटकारा मिल जब मानव किसी एकान ध्यानमें लीन स्थिर-स्थित हो। कर शाश्वन परमानन्दकी प्राप्ति हो जाती है। शुभ्र ध्यान करनेसे शुभ्र बंध होते है जिनका परिपाक- शुभ्र या अच्छे कर्म या कर्मबन्ध के होते हैं जिनसे मानत्र
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अनेकान्त
किरण २]
ऐसे कर्म करनेको प्रेरित हो या को जो अधिकाधिक प्रारमा- नहीं लेते संवर और अकामनिर्जराको सुविधा उन्हें प्रायःनहीं को शुद्ध बनानेमें आगे आगे सहायक हों। पाप और मिलती, न वे मोक्ष हो पा सकते हैं। इसीलिए मोक्ष पानेपुण्यकी व्याख्या भी हम प्रायः इसी अर्थ में करते हैं। के लिए मानव-शरीरका होना और उपयुक्त शिक्षा, दीक्षा, पापकर्म वे कर्म हैं जिनसे प्रारमाको बांधने वाले पुद्गलों संस्कार और परिस्थितियोंका होना भी आवश्यक है। की प्रकृति, अनुभाग इत्यादिमें वृद्धि हो उनका फल दुख गंदे वातावरणमें जहाँ बाहरी आस्रव गंदे ही होंगे दायक और प्रारमशुद्धि एवं पारम-विकासका हनन करने वहाँ मनकी विशेष शुद्धि होते हुए भी कोंके बंध उतने वाला हो। और पुण्य कर्म वे हैं जिन्हें ऊपर शुभ्र और शुद्ध नहीं हो सकते; क्याकि शुद्ध या शुभ्र बंध योग्य, अच्छे कर्मकी संज्ञा दी गई है-जिनसे प्रारमशुद्धि बढ़े, प्रास्रव (भाने वाले पुद्गल वर्गणात्मक पुज) की कमी पारमविकास बढ़े और पाप्मा मोक्षके अधिकाधिक निकट होगी। प्रारम-शनिमें अ धिक समय लगेगाहोता जाय । पर संसारमें रहने वाला प्राणी कषायोंसे देर होगी। इसलिए स्वयंकी सच्ची शुद्धि और पुण्यकर्म इतना बंधा और मोहमायासे (मोहनीय कर्मोमे) इतना या शुभ्र बंधांके लिए अपने चारों तरफके वातावरण और घिरा हना है कि पहले वह सब कुछ सांसारिक लाभ एवं व्यक्तियोंके आचरणोंकी शुद्धता भी आवश्यक है। सुख और सांसारिक हानि एवं दुखके रूपमें ही समझता
व्यक्ति मिलकर कुटुम्बका, कुटुम्ब मिलकर समाजका, और मानता है। इसीलिए इन संसारी गृहस्थ प्राणियोंके
समाज मिलकर किसी प्रान्तका, प्रान्त मिलकर किसी समाधान के लिए कर्मोके दो भाग कर दिए गए हैं शुभ्र
देशका, देश मिलकर किसी महादेशका और महादेश या पुण्यकर्म और अशुभ्र या पापकर्म और कर्मानुसार'उनके
मिलकर इस संसारका निर्माण करते हैं। अतः व्यक्ति फलोंको भी अनुभव द्वारा बतला दिया गया है कि कैसे
सारे संसारसे सम्बन्धित है। सारे संसारका वातावरण शुद्ध पुण्य कमौकाफल अच्छा, बांछित फलवाला, सुखदाई और
होनेसे ही व्यक्तिक भीतर आने वाले प्रास्त्रव भी शुद्ध भागे परिणामोंको अच्छा बनाने वाला होता है तथा पाप
होंगे और उसके भाव और कर्म भी अधिक शुद्ध होगे, कोका फल खुरा, दुखदाई, अवांछित फलोंको देनेवाला
जिनसे अान्तरिक कम्पनादि भी शुभबन्ध करने वाले ही और मागेके परिणामोंको बुरा बनानेवाला होता है।
होगे जिनका उत्तम फल होगा और तभी वह सच्ची उन्नति ___ मानव जैसे कर्म (द्रग्य और भाव) करता है वैसे
करेगा। व्यक्ति पर कुटुम्बका और कुटुम्ब पर व्यक्तिका वैसे उसके कार्माणशरीरमें परिवर्तन होकर उसका निर्माण
प्रभाव अक्षुण्ण रूपसे पड़ता है । इसी तरह समाज और ऐसा हो जाता है कि जैसी प्रकृति उसमें सुदृढ़ हो जाय
व्यक्तिका सम्बन्ध है। व्यक्ति जैसा कर्म करता है वैसा वैसी ही योनिमें वह आगे जाकर जन्म लेता है। एक
ही उसके भविष्य कर्मका स्रांत या श्रान्तरिक वर्गणाओंके मानवकी प्रकृति यदि लकी समानता करेगी तो वह
निर्माण में परिवर्तन होकर नए वर्गणात्मक संगठन बन मरनेके बाद नए जन्ममें बैलका हो शरीर धारण करेगा।
जाते हैं, जो भविष्यमें उससे अपनी प्रकृति आदिके अनुमानवमें अच्छा बुरा सोचने-विचारमेकी शक्ति है-- उसके
सार कर्म कराकर वैसे ही फल भी दंत है जिसे हम 'भाग्य' भारमाकी संज्ञान चेतना शक्ति अधिक है, इससे वह किसी
या भाग्यके ही अर्थ में कर्म' कहते है। यक्तिक कर्म मिलहद तक अपने कर्मोका कुछ नियंत्रण एवं सुधार कर सकने
कर दशक कर्म और भाग्यका निर्माण होता है तथा देशके में समर्थ है और तब उसके कर्मों और भावोंके अनुमार
कर्म मिलकर संसारके कर्म और भाग्य बनाते हैं । संस रके ही कार्माण शरीरकी प्रकृति और अगले जन्मको योनि
भाग्य या कर्माका प्रतिफल और प्रभाव भी देशोंके भाग्य बनती है। पर जानवरों और कोड़ों आदिके शरीरमें मन.
या कर्मों पर और देशा द्वारा व्यक्यिोंके भाग्यों और कर्मों या बुद्धिका विकास या सोचने-विचारनेकी शक्ति अथवा
.. पर अतुण्ण रूपसे होता या पड़ता है । मानव अकेला कममें सुधार करनेकी जरा भी क्षमता नहीं होनेसे उनकेकर्म अपने आप मास्त्रव और कम्पनों द्वारा बिखरते बनते हैं इस विषयमें संतपमें मैंने अपने लेग्व-'विश्व एकता और रहते हैं और योनियों एक श्रृङ्खलामें एकमे दूसरी बदलती शान्ति' में कुछ विवरण दिया है उसे देखें । 'शरीरके जाती है; पर जब तक वे मन-बुद्धिधारी मानवका जन्म रूप और कर्म' नामक लेख भी देंखे । ये दोनों लेख ट्रैक्टके
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किरण २
कर्माका रास्थयनिक सम्मिश्रण
नहीं है-वह अपने चारों तरफ एक भरे पूरे विश्वमे घिरा या सिद्धान्तोंको जानना जरूरी है। ऐसा सम्यकदर्शनही हुआ है और सारे विश्वका असर उसके ऊपर और उसके मोक्षमार्गमें सीधा ले जाने वाला है। कर्मोपर प्रवाध रूपसे पड़ता है और वह भी विश्वका इस सदीके प्रारम्भमें कुछ विद्वानोंने सम्यकदर्शनका प्राणी होनेसे विश्व वातावरण और भाग्यको अच्छा बुरा अंग्रेजी अनुवाद Right faith या Right Belief बनाने में अपने कर्मानुसार भाग लेता है। अपने अच्छे पुरे किवा जो प्रचलित हो गये । इनका पुनः भाषामें अनुवाद कर्माका फल तो व्यक्ति स्वयं भोगता ही है देश और करनेसे Faith का अर्थ श्रद्धान होता है और Belief का संसारके अच्छे बुरे काँका फल भी उसे भोगना पड़ता अर्थ विश्वास होता है। इन अनुवादोंका असर अनजानमें है,टीक उसी तरह जैसे कुटुम्बके प्राणीको कुटुम्बके ही दूसरे सभी-जोगों पर ऐसा पड़ा कि समझ लिया सुख दुखका । संसारमें जो एक देश या एक व्यक्ति दूसरे कि जैसा शास्त्रोंमें वर्णित है वैसा ही तत्वों पर देश या दूसरे व्यक्तिको दुखिन रम्बकर भी अपनेको सुखी केवल विश्वास और श्रद्धान बना लेना ही सम्यकदर्शन समझता है वह भारी गलनीमें है। सच्चा सुख शान्ति हो जाता है। पर यह बात या धारणा भ्रमात्मक अकेले-अकेले होना संभव नहीं है। व्यक्ति और समष्टि है। तत्वों पर ऐमी निःशकित समाधानपूर्वक नष्ट अंग और शरीरके समान हैं।
स्वयं हो जाय कि उनकी प्रान्तरिक कार्यवाही, क्रियाविश्वमें जो कुछ रगड़ा झगड़ा, स्वार्थोके टक्कर, रक्त
शीलता सम्बन्धादि हम स्वयं प्रत्यक्ष देखने या अनुभव पात, युद्ध, लूट, अपहरणादि होते रहते हैं वे केवल शुद्ध
करने लग जाय वही सच्चा सम्यकदर्शन है और ऐसे सच्चे ज्ञानकी कमीके ही कारण हैं। यह ज्ञान अनकान्ता
ही दर्शनका धारी सचमुच सम्यकदर्शी या सम्यवर कहा स्मक स्याद्वादके द्वारा ही प्राप्त होना संभव है। जैन- जा सकता है। बाकी तो भ्रमपूर्ण सांसारिक व्यवहार है दर्शनमें वर्णित द्रव्या, तत्वों या पदार्थोंका शुद्ध ज्ञान ही
जो झूठा प्रमाद उत्पन्न करने वाला है। सम्यकदर्शनका सरचा ज्ञान है। परन्तु शुद्ध ज्ञान केवल पढ़कर या दूसरों- अग्र जा
- अंग्रेजी अनुवाद होना चाहिये-Scientific Conceसे सुनकर ही पूरी तरह नहीं हो सकता जब तक स्वयं ption or hijit onception| कुछ लोग समझते उसमे अंतष्टि न प्राप्त करें। वस्तुओं, दन्या, और
हैं कि मम्यकज्ञान और सम्यकदर्शन अलग अलग लिखे या पदार्थोकी क्रियाओंका जब तक अनुर्भावत रूपसे प्रत्यक्ष
व्याच्या किए जानेसं दा चीजें हैं। यह भी एक प्रकारस दर्शन करने वाला ज्ञानमय अनुभूति स्वयं न हो जाय
भ्रमात्मक धारणा है। किसी वस्तुको कहीं दूरसे या सम्यक् दर्शन पूर्ण नहीं है, अधूरा है। सम्यकदर्शनके
नजदीकम देखने पर पहले पहल जो बात धारणा पाती है शास्त्रोमें भी दश भेद कहे गए हैं।
कि-कोई वस्तु है' यही 'दर्शन' है उसके बाद तो तुरन्त ही
'ज्ञान' की मदद की जरूरत पड़ती है, यह जाननेके लिये अतः केवल तत्वांको सुन या पढ़ कर जैसाका तैसा
कि यह वस्तु क्या है अथवा लोकर्म उसे क्या कहते हैं मान लेना मात्र सम्यक्दर्शन नहीं है, वह तो सम्यकदर्शन
इत्यादि । और तब वह प्राथमिक दर्शन भी अधिक साफ का क ख ग घ'-प्रथम वर्णमालाके परिचय स्वरूप है।
होता है। कंवल इसीलिए कि इस तरह किसी नई वस्तुका सम्यक् दर्शन तो सचमुच तभी सम्यक् दर्शन कहा जानेके
प्रथम दर्शन होता है 'दर्शन' का पहला स्थान मिला और योग्य ह जब हम एक रसायनशास्त्री ( Professor of
सम्यकदर्शनकी भी 'मम्यक ज्ञान' से पहले गिनती की गई। Chemistry ) की तरह यह जान जांय कि तत्व या
पर 'सम्यक जान' के बिना 'सम्यक्दर्शन' होना संभव नही पदार्थ सचमुच हैं, क्या चीज और इनका सम्बन्ध प्रारमा
न इन दोनोका एक दूसरे से अलग ही किया जा सकता है और शरीरमे किस प्रकारका है तथा इनका श्रापसी सम्बन्ध
दोनों एकमें एक हैं। केवल शास्त्रचर्चा और व्यवहार और विभेद कहाँ, कब, कैसे. क्यों है। इसके लिए भी
एवं निश्चय दृष्टिकोणों द्वारा समझानेके लिए या अनेकांत आधुनिक रसायनशास्त्रके कुछ प्रारम्भिक नियमों सूत्रों
रूपसे व्यवहार करके किसी बात मसले या प्रश्नका विशेष रूपमें-संचालक, अखिलविश्वजैन मिशन, पो अलीगंज, विधिवत् समाधान या हल करनेके लिए ही दोनीको अलग जिला एटा, से अमूल्य मिल सकते हैं।
रखा गया है इसके अतिरिक्त भी व्यवहारिक रूपमें ज्ञान
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६.]
अनेकान्त
[किरण २
जब मस्तिष्कका विषय माना गया है दर्शन इन्द्रियोंका विश्वास है कि आधुनिक प्रचार-युगमें उपयुक्त प्रचारके विषय माना गया है। पर शुद्ध दृष्टिसे तो ज्ञान-दर्शन-मय साधनों द्वारा जैन सिद्धान्तोंमें वर्णित मानत्र मात्रके सच्चे ही प्रारमा है। पास्माकी चेतना ही ज्ञान-दर्शन मय है कल्याणकारी तत्वोंकी वैज्ञानिक व्याख्या संसारमें शुद्ध और दोनों एक दूसरेसे अलग नहीं किए जा सकते। ज्ञानकी वृद्धि और विकासके लिए करना परमावश्यक है। शरीर और पुद्गल प्रात्माके अनन्त ज्ञान दर्शनको ढकने अाजका वैज्ञानिक समाज जो विश्व-विचारका जनक या या सीमित करने वाले हैं परन्तु शरीरके द्वारा ही उचित नेता है-श्रात्मा और दर्शनमें उसका झुकाव दिलचस्प साधना द्वारा तत्त्वोंकी पूरी जानकारी प्राप्त कर इस पुद्- या अनुराग, इन सिद्धान्तोंको उसीकी भाषा और शब्दोंमें गलरचित शरीरसे और इसके ज्ञानावरणादि व्यवधानों या समझाकर उत्पन्न किया जा सकता है। संपार विज्ञानकी बंधनोंसे छुटकारा पाया जा सकता है। शास्त्र और तत्व- बातोंको मानता और उन पर विश्वास करता है । ज्ञान उसमें सहकारी हैं। पर शास्त्रों-द्वारा या गुरुत्रा-द्वारा धर्मको पाखंडने इतना बदनाम कर दिया है कि उसके ज्ञान प्राप्त कर उसे अपना स्वयं अनुभूति विषय बनाना नाममें कोई अक्छी से अच्छी और सच्चीमे सच्ची बात प्रत्यक्ष बनाना ही कार्यकारी है और मोक्ष कराने वाला है। वैसा विश्वास नहीं उत्पन्न करती। इसीलिए जैनसिद्धान्तों प्रात्मा क्या है अथवा आत्मा और पुद्गलके रूप में वर्णित इन सत्यतत्त्वोको संसारको बतलानेके लिए उन्हें और सम्बन्ध भी प्रारम्भमें शास्त्रों द्वारा ही जाने जा अाधुनिक विज्ञानकी भाषामें रखना होगा । इसी ध्येयको सकते हैं-उन पर विश्वास करके ही कोई आगे बढ़ लेकर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोगा या पहलूकी तरफ विद्वानीसकता है। फिर पारमा तो केवल प्रान्माद्वारा ही जाना का ध्यान आकर्षित करनेके लिए ही मैंने यह लेख लिखा जा सकता है। जो एक अन्तिम बात है-प्रारम्भमे तो है। इसमें कुछ संकेत रूपसं ही थोड़ीमी बातें बतलाई गई
आत्माकी स्थिति और गुणादिकी धारणा हम शास्त्रांमे हैं। विषय बहुत ही विशाल है और शास्त्रों में हर जगह वर्णित रीतिसे ही पठन, पाठन, मनन तर्क, विवेचनादि विशद विवरण या वर्णन वर्तमान है ही। अतः जो विद्वान द्वारा कर सकते हैं। यही सम्यक्दर्शनकी सीढ़ी है।
जैन सिद्धान्तोंकी श्रेता और पूर्व सस्यतामें परम
विश्वास रखते है तथा यह मानते है कि उनका प्रचार, सच्चे सम्यकज्ञान और सम्यकदर्शनके बिना सम्यक्
संसारमें सत्यकी स्थापना, सच्चे ज्ञानकी वृद्धि और चारित्र पूर्ण रूपसे सम्भव नहीं है। चारित्रका ऊँचास
विकास एवं मानवका सच्चा कल्याण करने वाला है वे ऊँचा विकास भी बगैर सम्यकदर्शन ज्ञानके मोक्षकी ओर
तत्वोंकी विवेचनात्मक टीका इस वैज्ञानिक पद्धतिसे नए नहीं ले जाता। पुण्यकर्म और शुभ बंध हो सकते हैं पर
रूपमें पुनः करें यदि उन्हें समय शक्ति और सुविधाएँ कर्मोंसे या पुद्गलोंसे पूर्ण छुटकारा नहीं मिल सकता।
सुलभ हो। यों भी जैन शब्द जैन संस्कृति और जैन मात्मज्ञान और भारमध्यान भी शुद्ध तभी सम्भव हैं जब
मंस्थाओंकी सुरक्षाके लिए भी वर्तमान प्रचार-युगमें यह प्रत्यक्षदर्शी सा अनुभवमें आने वाला तत्वज्ञान या तत्व
प्रचार करना परम आवश्यक और हर जैनका कर्तव्य है। दर्शन होजाय।
सुरक्षा, विश्वसुरक्षा, विश्वशान्ति और अहिंसा एवं सत्यपरिशिष्ट:- यह लेख मेरे अपने स्वतन्त्र विचारोंको के व्यापक विस्तारके लिए भी तत्त्वोंके इस सम्यच्ज्ञान व्यक्त करता है किसी दूसरोके विचारोंको खण्डन मण्डन का नए रूपमें विकास, प्रतिपादन और विस्तार करना करनेके लिए या उस ध्येयसे नहीं लिखा गया है । मेरा हमारा परम पावन कर्तव्य है।]
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भारत देश योगियोंका देश है
(बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) तपमार्गकी परम्परा
जन स्वयं अपने इन नग्न दिगम्बर साधुनोंको शिश्नदेवके वदिक साहित्य की अनुश्रतियां इस पक्षमें भली भांति नामसे न पुकारते थे, किन्तु वे उन्हें व्रात्य (बतधारी) सुरक्षित हैं कि मनुष्यका प्रादिधर्म तप था, जमके पश्चात् यति (संयमी), श्रमण (तपस्वी), निम्रन्थ (निर्मल), जिन. ज्ञानका युग पाया और फिर द्वापरमें याज्ञिक सस्कृतिने जिनेश आदि शब्दोंसे ही पुकारते थे। जन्म पाया । इसी अनुश्र तिक पापक बाह्मण प्रथाक वैदिक आर्यजनको प्रारम्भिक कालसे उनके तत्वदर्शन, वे तमाम उपाख्यान हैं, जिनमें प्रजापतिकी तपस्या और उनके उच्च प्रादर्श. उनकी निर्मल विश्वव्यापिनी भावनातपस्या-द्वारा बिसृष्टि उपक्रमका वर्णन किया गया है। ओंका कुछ पता न था-वे केवल उनके नग्न शरीरको या
इन उपाख्यानोंमें प्रजापति शब्द निर्गुणब्रह्ममें शिरकी जटामांको और उनके प्रति लोगोंकी देवता समान उपयुक्त नहीं हुआ है, बल्कि जीवहितैषी, लोककल्याणक, भक्तिको देखते थे, और इस प्रकारके ममुष्य उनके लिये जननायक धर्मानुशासकके अर्थ में व्यवहृत हुआ है। इस बहुत ही अनोम्वे मनुष्य थे। उनके लिए एक कौतुहलकी अनुश्रतिके अनुसार प्रजापतिने हम भावनासे 'एकमस्मि वस्त थे । इसलिये उन्होंने उस प्रारम्भिककालमें उन्हें बहुस्याम् भवतः ।' 'कि मैं एक हूँ-बहुत हो जाऊँ शिश्नदेव (नग्न साधु) केशोदेव, (जटाधारीदेव) श्रादि शब्दा तप किया, इस भावनाका प्राध्यात्मिक अर्थ तो बही है
द्वारा सम्बोधित किया है। पीछेके वैदिक साहित्यमें जब जो ईपावास्य उपनिषद्के मन्त्रमें किया गया है:- प्रार्य ऋषि इन ग्यागी तपस्वी साधुनांके उच्च आदर्श
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि, श्रात्मैवाभूद्विजानतः। और निर्मल पति-जीवनसे परिचित हुए और उनके प्रति तत्र को मोहकः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।। ७॥ उनमें भी भक्तिका उर्ग प्रस्फुटित हुआ तो उन्होंने शिश्न
परन्तु इन आध्यात्मिक भूतियोंके समीचीन अर्थ दव, केशीदेव कहनेकी बजाय उन्हें भारतीय लोगोंकी तरह विलुप्त हो जानेके कारण इसका जो आधिदैविक अर्थ किया उनकी महत्ता सूचक व्रात्य (बती) यति (संयमी) मादि जाता था उसके अनुसार यह माना जाने लगा कि प्रजापनि नामांमे पुकारना शुरू कर दिया। आर्यजनकी इस अनभिएक था उसका चित्त अकेलेपन घबराया इसलिये उसने जताकी ओर ही संकेत करते हुए ऋग्वेदके केशी सूक्तम ये लोकांकी मृष्टि कर ली। इस अध्यात्म मतकी पुष्टि इस मुनिजन उन्हें कहते है:--- अनुश्र तिमे भी होती है कि 'प्रजापति एक वर्ष गर्भ सन्मादिता मोलेयेन वाताँ तस्थिमा वयम । में रहा। श्रमण शब्दकी व्याख्या
शरीरास्माकं यूयं यतीसो (शो) अभिपश्यथ ।। (शिश्नदेव और कंशीका वर्णन )
-ऋग्वेद म० १०, १३६, ३ शिश्नका अर्थ पुरुष-सम्बन्धी जननेन्द्रिय है। शिक्ष- हम समस्त लौकिक व्यवहारांके विसर्जनसे उम्मत्त दवका अर्थ है नग्न दिगम्बर साधु । जो लोगोंमें देवसमान (श्रानन्द रसलीन) हो गए है। हम वायु पर चढ़ गए हैं, उपास्य है । इस अर्थमें यह शब्द ऋगवेदमें दो बार उप- नुम लोग केवल हमारा शरीर देखते हो। हमारी पाश्मा युक्त हुआ है।
वायु समान निलेप है। (1) ऋग.७,२३,५ में इन्द्रसे प्रार्थनाकी गई है कि समय-यह शब्द श्रम धानुसे बना है जिसका अर्थ वह शिभदेवको यज्ञके समीप न श्राने दे।
है परिश्रम करना। चूंकि ये तपस्या-द्वारा अपने में समस्त (ii) ऋगवेद १०,११,३ में कहा गया है कि इन्दने प्रकारकी शारीरिक और यौगिक वेदनाओंको समता पूर्वक शिभ देवोका वध किया।
सहन करनेकी शक्तिको जगानेका परिश्रम करते है इसलिये यह शब्द वैदिक विद्वानांकी ही सृष्टि है। भारतीय ये श्रमण कहलाते हैं।
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अनेकान्त
[किरण
परित्यज्य नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् ।
पीछे से इनका संस्कृतरूप श्रमण बन गया है, इनका तपसा प्राप्य सम्बन्धं तपो हि श्रम उच्यते ।।5-२१२ अर्थ है निग्रन्थ, निष्पाप, निर्विकार, साधु अथवा मुनि ।
रविषेणकृतपदमचरित प्राकृत साहित्यमें जगह जगह जैन और बौद्ध साधुओंके
लिये 'समण' शब्दका प्रयोग हुआ है । यूनानी यात्रियों ईसाकी पहली सदीके बाद सृजन होने वाले भारतीय
और इतिहास लेखकोंने जैन और बौद्ध साधुनोंको 'सरमिसाहित्यमें जगह जगह यह शब्द दिगम्बर जैन साधुओंके ।
नीस, सरमीनिया और सिमूनी प्रादि लिखा है ) लिये प्रयुक्त हुभा मिलता है।।
भारतमें अरब देशके जो यात्री समय समय पर माते वैदिक साहित्यमें जगह जगह कथन पाता है कि प्रजा
रहे है उन्होंने हिन्दुओंके सभी सम्प्रदायोंको दो भागों में पति 'प्रमभ्यतः-अर्थात् प्रजापतिने तप किया।
बांटा है ब्रह्मनिय और समनिय । इन अरव लेखकोंने यह प्राकृतभाषामें इन्हें शिम्यु व सयुन कहा जाता था।
भी लिखा है कि संसारमें पहले दो ही धर्म या सम्प्रदाय पीछे से यह शब्द ( Sanskritised) होकर श्रमण
थे-एक समनियन दृसरे कैल्खियन। (Chaldean) होगया।
समनियन लोग पूरबके देशोंमें थे । खुरासान वाले ०,१००-17 में कथन है कि इन्द्रने अनेक आर्य
इनको बहुवचनमें शमनान और एक वचनमें शमन गण-वारा पाहत होकर पृथ्वी-निवासी दस्युओं और
कहते हैं । सिम्युओंको मार डाला।
०२, १३-६ में कथन है कि इन्द्रने दमितके लिए १००० दस्यु और सयुन पकड़कर बन्दी बनाये थे। ये महात्मा लोग मिट्टी और मोनेको बराबर समझते
प्राकृतभाषामें श्रमणको सवण, समन, समण, सम- है। धर्म, अर्थ और काममे वे प्रासक्त नहीं होते, शत्रु, निय मी कहा जाता है।
मित्र और उदासीन सभीको समान भावसे देखते हैं और दर्शन पाहुर २६, सूत्रपाहर पंचास्तिकाय ३ मन, वचन तथा शरीरसे किमीका अपकार नहीं करते.
उनके रहनेका कोई निश्चित स्थान नहीं है। अरबके लोग समनिया कहते थे । ग्रीक लोग इन्हें मोफिस्ट (Sophish) कहते थे।
ये प्रायः बस्तियोंसे दूर अकृत्रिम अथवा प्राकृतिक स्थानों
में, गिरि शिखरों पर, पहाड़ी गुफाओंमें, नदियोंके तटों पर पञ्चास्तिकाय ममयसार २. नीतिसार २६-३५, वन-उद्यानोंमें. श्मशान भूमि और तर कोटरोंमें, देव-मंदिरों त्रिलोकसार ८४८, दर्शनपाहुड २७, सूत्रपाहुर १ अथवा किसी सूनी जगहमे ग्हा करते थे। ये प्राकृतिक
(क) दीर्घनिकाय वस्तुजातसुत्त १,३२; उदान ६ १० परिषहोंको सहन करते हुये निर्जन देशों में रहते थे। ये (ख ब्रह्मणा भुज्जते नित्यं नाथवन्तश्च मुज्जते। हरितकाय जीवाकी विराधनासे बचते हुये पासुक स्थानों में
बैठते और विचरते थे। ये वर्षानुके सिवाय अधिक तापसा भुजते चापि श्रमणाश्चापि भुज्जते ।
दिन तक एक स्थान पर टिक कर न रहते थे. परन्तु वर्षा -वाल्मीकिरामायण १४-२२
ऋतुके चतुर्मास (असादका शुक्ल पक्ष, सावन, भाद्रपद, अर्थ-महाराज दशरथके यहाँ नित्य हीब्राह्मण लोग, मौज और कात्तिकका कृष्णपक्ष ) में यह हिमाके भयमे नाथवन्त लोग तापस लोग और श्रमय लोग भोजन कि कहीं उनके चलने फिरनेसे बरसातके कारण पैदा हो पाते हैं।
जाने वाले अनेक प्रकारके घास, वनस्पति,गुल्म, लता तथा (ग) कौटिल्य अर्थ शास्त्र अध्याय ११व अध्याय १२ में कहा गया है कि राज गुप्तचरोंको श्रमणरूप धारण
ईलियटकृत इन्डिया, पहला खण्ड-पृ० १०६ करके अपने व्यक्तित्वको छिपाना चाहिये ।
x मौलाना सुलेमान नदवी-परय और भारतके (घ) तत्तरीय प्रारण्यक २,७,१
सम्बन्ध १० १७६-१८७
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किरण २7
भारत देश योगियोंका देश है
उन्होंने राऔर धनी ला
उपाश्रय बना
अन्य छोटे बड़े प्राणि समुदायोंका विघात न हो जावे, गिरि गुफाओं और वनों में रहते हुए ये यद्यपि भेदिया, ये एक ही स्थान पर रहकर जीवन निर्वाह किया रीछ, बाघ, चीता अथवा मृग, भैंस, बराह शेर और करते थे।
जंगली हाथी श्रादि कर जन्तुओंसे घिरे रहते, उनकी __ ये वर्षाऋतुकी समाप्ति पर जगह जगह प्रस्थान
भयानक आवाजोंको भी सुनते, परन्तु ये निर्भय बने कमी करते और सब प्रकारकी जनताको धर्मोपदेश देते हुए
अपने स्वरूपसे चलायमान नहीं होते थे । ३ विचरते । वर्षाऋतके अतिरिक्त यदि ये अधिक दिन तक ये ममताविरक्त, भोग-इच्छाओंसे निवृत्त स्त्री व एक ही स्थान पर ठहरते तो लोग उनकी बहुत टीका- • बालबच्चोंसे रहित, एकाकी, निस्संग, निरारम्भ विचरते टिप्पणी करते । पीछेसे जैसा कि हम ऐतिहासिक युगमें थे, भिक्षा लेकर ही ये अपनी अनुजा विका करते थे। देखते हैं. ज्यों, ज्यों भारत में साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ा इस भिक्षा द्वारा यह सदा अनुदिष्ट भोजन ही स्वीकार
और उन्होंने राज्याश्रय पानेका प्रयत्न किया त्यों, त्यों उनके करते थे। यह न तो किमीसे कह कर अपने लिये भोजम अनुयायी राजाओं और धनी लागोंने इनके विश्रामके लिए तैयार कराते न दूसरोंके निमन्त्रण पर किसीके घर पाहासुरक्षित स्थानोंमें अनेक विहार और उपाश्रय बना कर रार्थ जाते; बल्कि बिना किसीको बाधा पहुँचाये मधुकरके खड़े कर दिये और ये वनवास छोड़, श्राश्रमवासी, मठ- समान विचरते हुए दूसरोके अर्थ तैयार किये हुए भोजनमे वासी और मन्दिरवासी बन गये।
से ही ४६ दोष राल कर प्रासुक भोजन ग्रहण करते। ये सब प्रकारक परिग्रह से रहित, अचेलक, यथाजात
ये शरीर-पोषण श्रायुवृद्धि व स्वादके लिये भोजन ग्रहण दिगम्बररूप रहते थे। ये निरायुध, उद्वेग-रहित, शान्त
न करते बल्कि प्राणरक्षा, संयमपालन, ज्ञानवृद्धि के लिए और निर्भय होते थे। ये वायुको तरह स्वतन्त्र और निलेप
ही कई कई दिन कई कई पखवाड़े और कई कई मास हो विचरते । सभी जानकारी तक अनशन व्रत धारण करते हुए दिन में एक बार भोजन भाव रखते थे। ये अपने किमी व्यवहारसे किमी जीवको
ग्रहण करते । भोजन-समय यदि उन्हें दातारके द्वार पर भी पीढ़ा न देते थे। जैसे माता अपने बच्चोंका हित
कोई कुत्ता, बिल्ली अथवा कोई याचक खड़ा हुआ दिखाई चाहती है वैसे ही वात्सल्यभावसे ये सबका हित
स्कन्धपुराण-काशीखण्ड-अध्याय ४३, चाहते थे।
नागरखण्ड, अध्याय १८
() विष्णुपुराण-तृतीयांश-अध्याय 1-२८, २९ १-(अ) श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत-बांधप्रामृत, ४२-१६
(i) नपः श्रद्धेय ह्यपवसन्यरण्य शान्ता (श्रा) " भावपामृत ८७
विद्वान्सो भैपर्याचरन्तः (इ) उत्तराध्ययन मूत्र ३५-६, ७
सूर्यद्वारेण से बिरजाः प्रयान्ति (ई) मूलाचार १४-१५२
पत्रामृता स पुरुषो ह्यव्ययाएमा । मुगडउप. (उ) विनयपिटक-वर्षायनायिका स्कन्धक-पहिला
और दूसरा खण्ड । (श्री) महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ११२ (3) मनुस्मृति--६, ३६-४६ (ए)वार्षिकाश्चतुरो मामान्विहरेनर्यातः क्वचित्'
२-मूलाचार-७१७-७१८ मज्किम निकाय-१२वो
महासीहनाद सुत्त । बोधप्राभूत ११ दशकाबीजांकुराणां जन्तूनां हिंमा तत्र यतो भवेत् ॥२१॥
लिक सूत्र -३, ३, १,१० सूत्रकृतात १, ३, १, गच्छेत् परिहरन् जंतून पिवेत्कवस्त्रशोधितम् ।
उत्तराध्ययन सूत्र ८-३४ ३५ । वाचं वईनुद्वगं न क्रुद्धय स्केचित् क्वचित् ॥२२॥ ३-ऋग्वेद १० १३६ महा शान्तिपर्व के खण्ड में स्कन्धपुराण-काशी खंड अध्याय ४१
अध्याय १९२ मूलाचार ७१.
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७२]
अनेकान्त
[किरण २
पता तो उन्हें चोभ-रहित करने के लिए वे बिना पाहार यज्ञोपवीत और कषाय वस्त्र धारण करने वाले ब्रह्मर्षिके लिये सम्तोष भावसे वनको वापिस हो जाते थे। घरमें मधु मांसको छोड़कर पाठ ग्रासका भोजन करके योग
ये सब जीव जन्तुयों पर दया करते हुये कभी रात्रिके मागसे मोक्षकी प्रार्थना (साधना ) करते हैं। भोजन न करते.न बिना देखे और शोधे भूमि पर ३-हंस नामक संन्यासी एक स्थानमें नहीं रहते: वे चलन अनछने पानीको पीते, न किसीको कठोर और विभिन्न प्राम-नगरोंमें घूमते रहते हैं. वे गोमत्र और गोबरहानिकारक शब्द बोलते।
का पाहार करते हैं और योगमार्गसे मोजकी प्रार्थना
करते हैं। थे मुनिजन सभी सांसारिक कामनाओंसे विरक्त हुए तत्त्वबोध जीवनशोध, प्रात्मचिन्तन और सदुपयोग आदि ४-परमहंस यति संसारमें बहुत विरले हैं वे दण्ड, विश्वकल्यायकारी प्रवृत्तियामें ही अपना समग्र जीवन कमण्डलु शिखा, यज्ञोपवीत प्राविधिक
रहित होते हैं, उनके पास किसी प्रकारकी वस्तु भी नहीं व्यतीत करते थे।
होती। आकाश ही उनका वस्त्र हैं। वे यथाजात रूप इनकी जीवन-चा सम्बन्धी यही वर्णन वेदों-और
निम्रन्थ निष्परिग्रहरूप विचरते हैं, वे नमस्कार स्वाहाकार उपनिषदोंमें दिया हुआ है।
प्रादि सभी लोक-व्यवहारोंको छोड़कर प्रात्माकी खोजमें लगे उपनिषदोंमें वर्णित परमहंसोंकी जीवनचर्या हैं। वे राग-द्वेष, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद सभी खोटे परि
वैदिक साहित्यमें इन योगियोंको श्राचार-सम्बन्धी णामाको छोड़कर सम्यक्त्व सम्पन्न, शुद्धभावरूप वर्तते विभिशताके आधार पर चार श्रेणियाम विभक्त किया हुए यात्म-शोधमें लगे हैं। वे पारि गया है-१ कटीचर, २ बहदक, ३ हंस, और ४ बने हुए प्राणांकी रक्षार्थ औषधि समाम यथा म
मांगकर थोडासा प्रासुक भोजन ग्रहण करते हैं। उनके रहनेके परमहंस ।
कोई विशेष स्थान नहीं हैं। वे निन्दा स्तुति, लाभ-अलाभमें १-कुटीचर पाठ ग्रासका भोजन करके योग
समता धारण किये जगह-जगह विचरते रहते हैं। परन्तु मार्गसे मोरकी प्रार्थना (साधना) करते हैं, जैसे-गौतम,
वर्षाऋतुके चतुर्मासमें वे एक स्थान पर ही ठहरते हैं। भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, वशिष्ट आदि।
वे बस्तियांसे दूर निर्जनस्थानोंमें गिरि, गुहा, कन्दर, तरु२-बहुदक संन्यासी, विदण्ड. कमण्डलु, शिवा कोटर, वृक्षमूल, श्मशानभूमि, शून्यागार, देवगृह, तृण१-बहकेर प्राचार्य कृत मूलाचार श्लो. १३४-१०००। र, कुलालशाल, अग्निहोत्र-गृह, नदी तट आदि स्थानों में
ही रहते हैं। वे पूर्ण ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अहिसा अचौर्य कुन्दकुन्द प्रा०-बोधप्राभृत ४उत्तराध्ययन सूत्र-३५ वा अध्याय । मनुस्मृति ६, ३९-४६ ।
और सत्य धर्मोंका अनुशीलन करते हैं। वे सदा निर्मम पुण्डक उप. १,२, १३
निरहंकार शुभाशुभ कर्मोंके उन्मूलनमें तत्पर अध्यात्मनिष्ठ
शुक्लध्यान-परायण रहते हैं और मृत्यु के समय सन्याससे २-सूत्रकृताङ्ग १,१, ४-४३,२-२-७२, ७३%, दश
दह त्याग कर देते हैं।" वैकालिक सत्र १-४ । निग्रन्थ प्रवचन १-१५ मूलाचार ४७६-४८१, मनुस्मृति ६, १५-२८ । महा.
___ इन परमहंसोमें अंसबर्तक, पारुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, शान्ति पर्व अध्याय है।
भृगु, निदाघ, जद, भरत, दत्तात्रेय, रैवतक, शुकदेव और
बामदेव बहुत प्रसिद्ध हुये हैं। ३-मनुस्मृति-अध्याय ६. ३६-४६
परमहंसोंका उक्त वर्णन दिगम्बरजैन साधुमाके स्कन्ध पुराण-काशी खण्ड-अध्याय ४१-८१
जीवनसे बहुत ही मिलता जुलता है। ऋग्वेदके केशी सूक्त विष्णुधर्मोत्तर-द्वितीय भाग-अध्याय ११ ४-कुन्दकुन्द आचार्यकृत भावप्राभृत, शील प्राभृत,
1-(अ) जाबालोपनिषद् ॥६॥ (प्रा) परमहंसोपनिषद् । मोक्ष प्राभृत ग्रन्थ । सूत्रकृता श्रुतस्कन्ध है वो
(इ) भिक्षुकोपनिषद। पारुणिक उपनिषद् । अध्याय। उत्तराध्ययन सूत्र ३५ वां अध्याय ।
२-जाबालोपनिषद् ॥६॥ भिक्षुकोपनिषद् ।
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किरण २
भारत देश योगियोंका देश है
[७३
(१०-१३६) वामदेव सूक्त (४-२६-२७) अथवा 'यदि वानप्रस्थीमें ब्रह्म-विचारकी सामर्थ्य हो तो अथर्ववेदके वास्य सूक्त काण्ड ११ तथा महाभारतमें शरीरके अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह सन्यास लेवे। दिये हुए कृष्ण द्वीपायण व्यासके पुत्र शुकदेवके वर्णनसे तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु स्थान और समयकी अपेक्षा सिद्ध है कि भारतमें यतिचर्याकी जो अचेलक परम्परा न रखकर एक गाँव में एकही रात ठहरनेका नियम लेकर पृथ्वी शूग्वेदिक कालके पूर्वसे चली आ रही थी बही परम्परा पर विचरण करे । यदि कोई वस्त्र पहिने तो केवल कोपोन,
एखलाबद्ध रीतिसे महाभारत कालमेंसे होती हुई भग- गुप्त अंगोंको ढंकनेके लिये । जब तक कोई आपत्ति न पाये, वान महावीर और महाप्मा बुद्ध तक प्रचलित रही। तब तक दण्ड प्रयवा अपने प्राश्रमके चिह्नोंके सिवा अपनी मज्झिमनिकायके महासीहनाद सुत्तसे प्रकट है कि निष्क- त्यागी हुई कोई वस्तु भी ग्रहण न करे । उसे समस्त मणके बाद शुरू शुरूमें भगवान बुद्ध परमहंस अचेलक प्राणियोंका हितैषी होना चाहिये । शान्त और भगवत् वर्गके यति थे। वह नग्न रहा करते थे। वह उहिष्ट अर्थात् परायण रहे । किसीका प्राश्रय म लेकर अपने पापमें ही उनके उद्देश्यसे बनाये हुए भोजनक त्यागी थे। वह भांज- रमे एवं अकेला ही विचर । वह न नी मृत्युका ही अभिनार्थ किसीका निमन्त्रण भी स्वीकार न करते थे, वह नन्दन करे, न अनिश्चिः जीवनका । वह अपने निर्याह के भिक्षा भोजन सब दोषों को टालकर ग्रहण करते थे। बीचमे लिये किसी भाजीविकाको न करे। केवल वाद-विवादके कई कई दिनके उपवास भी रखते थे। वे शिर और दादी लिये किसीसे तर्क न करे । संसारमें किसीका पक्ष न ले। के बाल बढ़ने पर उन्हें नोंचकर अलग करते थे। वे मान शिष्य-मण्डली न जुटावे।बहुनसे प्रयांका अभ्याम न करे । द्वारा शरीरको मनसे भी न छाते थे। सभी जीवों पर व्याख्यान न दे । बड़े-बड़े कामोंको प्रारम्भ न करे । ऐसे दया पालते थे, एकान्त वन व श्मशान में विचरते, गर्मी- शान्त समदर्शी सन्यासीके लिये किसी पाश्रमके चिम्हांकी सर्दी अादिकी परिषहोंको सहन करते थे।
भी जरूरत नहीं है। वह सदा श्रान्म अनुसन्धानमें निमग्न ___महावीर निर्वाणके बाद भी, जैसा कि ईस्वी सन्की ।
रहे । हो तो अत्यन्त विचार शील, परन्तु जान पड़े पागल दशवीं सदी तकके भारतीय धामिक साहित्यसे विदित है श्री
और बालककी तरह । प्रतिभाशाली होते भी गूंगा सा दिगम्बर जैन यतिचर्या ही भारतीय योगियोंके लिये सदा
जान पड़े। एक श्रादर्श बनी रही है।
(३) छठी से नवीं शताब्दी तकके तान्त्रिक साहित्यमें शिवपुराण व्यविय ?) संहिता २१ । २०, २१ में
अवधूत जीवनका जो विवरण दिया हुआ है वह उपकहा है:
रोक्त परमहंस जीवनम ही मिन्दता जुलता है । इस माहि
स्यके प्रसिद्ध ग्रन्थ महानिर्वाण नन्त्र : ४. १४१-11 में नतस्तु जटिलो मुशिखैर: जट एव वा।
कहा गया हैभूत्वा स्नात्वा पुनवर्ति लज्जह चेत स्यादिगम्बः॥ अन्यकापायवसनश्चर्मवीराम्बरोऽथचा।
कलियुगमें दो ही पाश्रम होते हैं. गृहस्थ और एकाम्बरो बल्कली वा भवेद्दण्डी च मेखली।। भिक्षुक अथवा अवधत । ये अवधन चार प्रकारके होते है।
परन्तु इसी प्रकरणमें भागे चलकर कहा है कि वास्तव. पूर्णताको अपेक्षा य दाही प्रकारक हान ह-पूर्ण प्रार में वही महात्मा और तपस्वी है जिसने दण्ड, कौपीन अपूर्ण । पूर्ण अवधूत परमहम
अपूर्ण। पूर्ण अवधूत परमहंम कहलाने हैं, और अपूर्ण आदिका भी त्याग कर दिया है
अवधूत परिवाजक कहलाते हैं। इनमें परमहंसका स्वरूप ततो दण्डजटाचरिमे बलाद्यपि चोत्सृजेत् ।
निम्न प्रकार दिया गया है:सोऽत्थाश्रमी च विज्ञेयो महापशुपतस्तथा ।
(४) भारतके प्रसिद्ध राजषि भनु महाराजने भी स एव तपतः श्रेष्ठः स एव च महाव्रती।
वैराग्यशतकमें अपने हृदयकी अन्तर भावना इन शब्दों में (२) भागवत पुराण-स्कन्ध , अध्याय १३ में अव
प्रगट की हैधूत प्रह्लाद संवादके प्रकरणमें यतिधर्मका निरूपण इस
एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः। प्रकार किया है
कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिमूननक्षमः ॥७२॥
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७४]
अनेकान्त
[ किरण १
अर्थ-हे शम्भो ! मैं कब एकाकी, निःस्पृह, अर्थात्-चौथा, अवधूत जो परमहंस है वह अपने शान्त, पाणिपात्री (कर पात्रमें भोजन करने वाला) और जाति चिन्होंको और गृहस्थके कर्मोको छोड कर पृथ्वी पर दिगम्बर हुमा कर्मों का निर्मूलन करने में समर्थ हंगा। निःसंकल्प तथा निरुद्यम हुमा विचरता है, सदा प्रात्मत्यजेत्स्वजानिचिन्हानि कर्माणि गृहमेधिनाम । भावमें सन्तुष्ट रहता है, शोक तथा मोहसे रहित होता है, तुरीयो विचरेशोणी निःसङ्कल्पो निमद्यमः ॥१४.१६६ संसारसे पार उतरनेकी इच्छाको लिये रहता है, निर्भय सदात्मभावसन्तुष्टः शोक-मोह-विवर्जितः ।
और निरुपद्रव होता है। वह भक्ष्य तथा पेयांका अर्पण निनिकेतस्तितित. स्यानिःशको निरुपद्रवः ॥१४-१७०, नहीं करता, न उसके ध्यान तथा धारणाएं होती नापणं भक्ष्यपेयानां न तस्य ध्यान-धारणाः। मुक्क, विरक्त और निर्द्वन्द्व होता है। ऐसा यति इंसाचार मुक्तो विरक्तो निर्द्वन्दो हसाचारपरो तिः॥१४-१७१ परायण कहलाता है।
क्रमश:
-
(४८ वें पेज का शेष मेटर) परसे सारे तत्त्व समूह और नयसमूहको आसानीसे विषयमें अन्यत्र अपने प्रन्थों में जो कुछ कहा है उस समझा जा सके । इसके लिये जीव, अजोव, आस्रव सबका युक्ति के साथ इस व्याख्यामें समावेश हो जान बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष , पुण्य और पाप इन तत्त्वोंको चाहिये और सारी व्याख्या सप्रमाण एवं 'तत्व नयलेकर उन्हें विधेयादि सप्तभंगांके साथ सुघटित करके विलास' के रूपमें व्यवस्थित होनी चाहिये। भी बतलाना चाहिये और इस बातको युक्ति-पुरस्सर ढंगसे खुलाशा करके समझाना चाहिये कि कैसे कोई
पुरस्कार-दानेच्छुक तत्त्व या विशेप (धर्म) इन सप्त भंगोंके नियममे
जुगलकिशोर मुख्तार बहिर्मत नहीं हो सकता-जो बहिभूत होगा वह
वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) तत्त्व या धर्म-विशेपके रूपमें प्रतिष्ठित ही नहीं हो सकेगा। इसके दो एक उदाहरण भी दिये जाने नोट :-इस विज्ञप्तिको दसरे पत्र-सम्पादकभी चाहिये । साथही स्वामी समन्तभद्रने तत्त्व तथा नयके अपने-अपने पत्रों में देनेकी कृपा करें, ऐसी प्रार्थना है।
श्रीमहावीरजी में वीरशासन जयन्ती सर्व साधारणको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मुख्तार श्री जुगककिशोरजीका विचार इस बार कुछ विशेष व्रत-नियम ग्रहण करनेका है अर्थात् वे अपने आराध्य गुरुदेव स्वामि समन्तभद्रके सप्तम भावक बनना चाहते हैं । इस पदके योग्य व्रत नियमोंको वे वीरशासन जयन्तीके दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा (ता. २७ जुलाई सोमवारको, तीर्थावतरणको बेलामें, श्रीवीर भगवानकी विशिष्ट प्रनिमाके सम्मुख महावीरजी ( चांदन पुर) में ग्रहण करेंगे। और वहीं वीरशासन जयन्ती मनाएंगे। ऐसी स्थितिमें वीरसेवामन्दिर परिवार वीरशासन जयन्तीका उत्सब इस बार श्रीमहावीरजीमें आषाढ़ी पूर्णिमाओं और श्रावण कृष्ण प्रतिपदा ता. २६ २७ जुलाई को मनाएगा । सूचनार्थ निवेदन है ।
-राज कृष्ण जैन
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वीरसेवामन्दिरके मुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-सी-प्राकृनक प्राचीन ६४ मृल-प्रन्याको पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ४८ टीकानिप्रन्याम
उद्धृत दसरे पद्यांकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । मब मिलाकर ०५३५३ पद्य-नायाको भूची । मंजक और मम्पादक मुन्नार श्रीजुगलकिशारती की गपणापूर्ण महन्बकी १७० पृष्ठकी प्रम्नायनास अलंकृन, डा. कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट् के प्राकथन (
I mold और डा. एन. उपायाय एम. ए. डी.लिट की भूमिका (Intuolution) में पित है. शोध-यांजके विद्वानों के लिये अनीय उपयोगी, बटा माइज,
मजिन्द ( जिम्मकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग पांच रुपये है) (२) आप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी म्यांपज्ञ मटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके मदर
माम और सजीव विवंचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबागलान जी के हिन्दी अनुवाद नथा प्रस्तावनादिमे
युक्त, जिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक. संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रम्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टाम अलंकन, जिल्द । १४) म्वयम्भूम्तात्र-समन्तभदभारनीका अपूर्व ग्रन्थ, मुम्नार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपार
चय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियांग, ज्ञानयांग तथा कर्मयोगका विश्लपण करनी हई मान्यकी गपणापर्ण
प्रम्नावनाम मुशाभिन । (५) स्तुनिविद्या-म्वामी समन्तभद्रकी अनाग्बी कृनि, पापांक जीतनको कला, मटीक, मानुवाद र श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महन्त्रको प्रस्तावनाम अलंकृत मुन्दर जिल्द-हिन । (६. अध्यात्मकमलमानगड-पंचा-यायीकार कवि गजमलकी मुन्दर श्राध्यात्मिक ग्चना, हिन्दीअनुवाद-हिन
पार मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी ग्वांजपूर्ण विम्नृन प्रम्तायनाम पिन । " (७) युक्न्यनुशामन-तत्वज्ञान परिपूर्ण ममन्नभनकी अमाधारण कृति, जिसका अभी नक हिन्दी अनुवाद नही
हुश्रा था । मुग्नारधीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनाहिसे अलंकृत, जिल्द । ... ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथम्नांत्र-श्राचार्य विद्यानन्दर्गचत, महन्यकी म्नुनि, हिन्दी अनुवादादि महिन । ... ) ( शामनचत्रिशिका-(नीपरिचय)-मुनि मदन कौनिकी १३ वी गादीकी मुन्दर रचना, हिन्दी अनगादि हिन। ..
.. .) (१० मन्साघ-म्मग्ण-मगलपाठ-धावीर बद्धमान बार उनके बाद के महान आचायों का १३७ पुग्य-म्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह. मुग्नारधीक हिन्दी अनुवादादि-हिन ।
" ) . (११) विवाह-ममहश्य मुम्नागश्रीका निम्बा हुआ विवाहका मप्रमाण मामिक और नाविक विवंचन ... ) ५. अनवान्नन्म लहरी-अनकान्न म गृट गम्भीर विषयका अनीव मरलनामं समझने-समझानकी कु जी,
मुम्नार श्रीजुगलकिशोर-निम्पिन । ११३ अनिन्यभायना-ग्रा. पदमनन्दी की महत्वकी रचना, मुम्नारीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महिन । ११.)नवार्थमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुग्लारश्रीक हिन्दी अनुवाद नथा व्यायाम युन। (१५, श्रवणवल्गाल आर दाक्षणक अन्य जननाथ तंत्र-ला. गजकृष्ण जनको सुन्दर रचना भारतीय पुरातत्व
विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा.टी.एन. रामचन्दनकी महत्व पूर्ण प्रम्नावनाम अलंकृत नोट-मब पन्ध एकपाथ लनवालाकी ) की जगह ३१) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसंवामन्दिर, १, दरियागंज, दहला
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके सरक्षक और सहायक
संरक्षक
१५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , २५१) बा. मोहनलालजी जैन लमेचू , २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदामजी , २५) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
२५१) वा० रतनलालजी झांझरी १२५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी .,
२५१) सेठ गजराजजी गंगवाल २५१) सेठ मुआलालजी जैन २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी २५१) मेठ मांगीलालजी २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन २५१) वा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हंमल जी, दहली
२५१) ला० त्रिलोकचन्दजी महारनपुर *२५१) सेठ छदामीलालजी जैन फीरोजाबाद
२५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १०१) बा० केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सरावगी, १०१) बा० काशीनाथजी, ... १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी ०१) बा० धनंजयकुमारजी १०१) बा. जीतमलजी जैन १०१) बाचिरंजीलालजी सरावगी १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता १०१) गुमसहायक सदर बाजार मेरठ १०१) श्रीमती श्रीमालादेवी धर्मपत्नी डा० श्रीचन्द्रजी
__ जैन 'संगल' एटा १०१) ला०मक्खनलालजी मोतीलालजी ठेकेदार, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीदासजी सरावगा, कलकत्ता १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकट हिसार
०१) ला० बलवन्तासहजा हास १०१) कुँवर यशवन्तसिहजी हांसी
सहायक
१०१) वा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी
नसरावगा ,
अधिष्ठाता वीर सेवामन्दिर'
सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली । मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाउस २३, दरियागंज, देहती
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सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
श्रीवीतराग-स्ववनम् -[धमाकषि कृतम् . उत्तर कन्नाका मेरा प्रवास-[पं० के० भुजबली शास्त्री " ०६
आश्मा, चेतमा या जीवन-बा० अमनप्रसादजी B.Sc. Eng... ४ प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय
-एम. सी. याकजीवाम ... ५ हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण-पं० परमानन्द शास्त्री
... . ६ भारत देश योगियोंका देश है-गा. जयभगवानजी जैन
पडवोकेट पानीपत ... ५] • भारतके अजायबघरों और कमा-भवनोंकी सूची
[पा. एमालाबजी अप्रवास... १८ म बंगीय जैन पुरावृत्त- छोटेखाबजी जैन कलकत्ता
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श्रीमहावीरजीमें मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीका सातवीं प्रतिमा ग्रहण
और ५१२५) रु० का दान तथा वीरशासन जयन्ती समाज को यह जानकर अत्यन्त खुशी होगी कि गंगवाल और सोहनलालजी उत्सवमें उपस्थित थे। समाजके वयोवृद्ध साहित्य तपस्वी आचार्य जगुल- उत्सवमें विभिन्न स्थानांसे अनेक व्यक्ति पधारे थ किशोर मुख्तार भगवान महावीरकी उम विशिष्ट मूर्ति जिनमें कुछ स्थानोंके नाम नीचे दिये जाते हैं :के सन्मुख स्वामी समन्तभद्रके स्त्नकरण्डश्रावकचारमें जयपुर, रेवाड़ी जिला गुड़गांव, व्यावर, देहली, प्रदर्शित सम्म प्रतिमाके व्रतोंको धारण कर नैष्ठिक सरसावा, सहारनपुर, नानौता, एटा, फिरोजाबाद, आवक हुए हैं । यद्यपि वे पहले से ही ब्रह्मचर्य व्रतका आगरा, ललितपुर (झांसी) गुना. खेमारी जि० उदय पालन करते थे परन्तु यह उस समय प्रतिमा रूपमें पुर और मेनपुरी जि. एटा आदि स्थानांक सज्जन नहीं था । व्रत ग्रहण करने के पश्चात मुख्तार साहबने सकुटुम्ब पधारे थे । इसके अतिरिक्त स्थानीय मुमुक्षु परिग्रह परिमाणवतकी अपनी सीमाको और भी जैन महिलाश्रमकी सचालिका श्रीमती बु. कृष्णावाई मीमित करनेके लिए वीरसेवामन्दिर ट्रस्टको दिये जी सपरिवार और कमलाबाई आझमकी छात्राएं और गये दानके अतिरिक्त अपने निजी खर्च के लिए रक्ख पाठिकाएँ उसमें शरीक थी । मुमुक्षु महिलाश्रमकी हुग धनमें में भी पाँच हजार एक सौ पच्चीस रूपयां छात्राओंने ता०२७की रात्रिको वीर शासन जयन्तीका के दानको घोषणा की। जिसमें से पाँच हजार एक का उत्सव मनाया था और मुख्तार सा० का अभिनरुपया कन्याओंको छात्रवृत्ति लिए, १०१) वीरसेवा दन भी किया था उत्सव ता. २६ और २७ को मन्दिर विल्डिंग फंडम, ११) तीर्थक्षेत्र कमेटी,२) मुख्तार सा. और मेठ छदामोलालजीकी अध्यक्षतामे
ओषधालय महावीरजीको और पांच पाच रुपया दोनों दोनों दिन मनाया गया था, ता०२७ को प्रातःकाल महिला आश्रर्माको प्रदान किये । इस तरह यह प्रभातफेरी और झंडाभिवादनकं वाद भगवान महाउत्सव सानन्द मम्मन्न हुआ।
बीरकी पूजनकी गई थी। दोपहरको दोनों ही दिन मुख्तार साहबका कार्य आत्मकल्याणकी दृष्टि- सभाएं हुई जिनमें विद्वानोंके अनेक सारगर्भित से समयापयोगी और मरांके द्वारा अनुकरणीय है। भापण हुए जिनमें भगवान महावीरक शासन और
उसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उम पर स्वयं ____वोर शासन जयन्ती
आचरण करनेकी ओर संकेत किया गया। रात्रिमें इस वर्षकी वारशामन जयन्तीका उत्सव श्री महा- लाराजकृष्णजी जैनन शास्त्र मभाकी, और उसमें वीरजी (चांदनगाव) में सानन्द मनाया गया। तीथ व्रत नियम ग्रहण करने तथा दीक्षा लेने की आवश्यक्षेत्र कमेटीकी ओरसे लाउडस्पीकर वगैरहका सब कता, उमका स्वरूप तथा महत्ताका विवेचन किया। सब प्रबन्ध था और कमेटीकं मंत्री सेठ वधीचन्दजी
परमानन्द जैन अनेकान्तका पयूषणांक अनेकान्तके प्रेमी पाठकों और ग्राहकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस वर्ष अनेकान्तका ‘पयूषणांक' निकालनेकी योजना हुई है । इस अङ्कमें दशलक्षणधर्म पर अनेक विद्वानोंके महत्वपूर्ण लेख रहेंगे । अतः लेखक विद्वानों और कवियोंसे सादर अनुरोध है कि वे अपनी अपनी महत्वपूर्ण रचनायें शीघ्र भेज कर अनुगृहीत करें । क्योंकि इस अङ्कको १२ सितम्बर तक प्रकाशित करनेका विचार है। साथ ही विज्ञापन दाता यदि अपने विज्ञापन शोघ्र ही भेज सके तो उन्हें भी स्थान दिया जा सकेगा विज्ञापनके रेट पत्र व्यवहारसे तय करें। निवेदक-परमानन्द जैन
प्रकाशक 'अनकान्त'
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ॐ महम
सन्स
तत्वप्रकाशक
वार्षिक मूल्य )
एक किरण का मूल्य )
IMPEDIARRIEEEEEEEEEEEE
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-
-
IA नीतिक्रोिषसीलोकव्यवहारवर्तक सम्परा
परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जपत्पनेतर
।
वर्ष १२ किरण ३
सम्पादक-जुगलकिशार मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली श्रावण वीरनि० संवत ४७६, वि. संवत २०१०
जुलाई
११५३
श्रोवीतराग-स्तवनम्
(अमरकवि-कृतम्) जिनपते इतमिन्द्रिय-विप्लवं दमवतामवतामवतारणम । वितनुपे भव-वारिधितोऽन्वह सकलया कलया कलयाह्वया ।।.१॥ तव सनातन-सिद्धि-समागर्म विनययतो नयतो नयतो जन । जिनपते सविवेक मुदित्वराधिकमला कमलाकमलामया ॥२॥ भव-विद्धिकृते कमलागमो जिनमतो नमतो न मतो मम । न रतिदामरभूरुह कामना सुरमणी रमणीरमणीयता ॥३॥ किल यशः शशनि प्रसृते शशी नरकतारक तारकतामितः । व्रजति शोपमतोऽपि महामतो विभवतो भवतो भव-तोयधिः ॥४॥ न मनसो मन येन जिनेश ते रसमयः समयः समयत्यसौ। जगदभेदि विभाव्य ततः क्षणादपरता परता परतापकृत ॥५॥ त्वयि बभूव जिनेश्वर शाश्वती शमवता ममता मम तादृशी। यतिपते तदपि क्रियते न किं शुभवता भवता भवतारणम ॥6॥ भवति यो जिननाथ मनःशमां वितनुते तनुतेऽतनुतेजसि । कमिव ना भविनस्तमसां सुखप्रसविना सविता स विधारयेत ॥ ७॥ परमया रमयामया-त्तयांऽहिकमल कमलं कमलं भर्य। न नतमानतमो न तमां नमनवरविभा विभा रविभासुर ॥॥
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भनेकान्त
[किरण अमरसामरसाऽमर-निर्मिता जिननुतिर्ननु तिग्मरुचेयथा । रुचिरसौ चिरसौख्यपदप्रदा निहत-मोह-तमो रियुवीरते ॥ ६ ॥
इति वेणीकृपाण-अमरकवि-कृतं श्रीवीनरागस्तवनम् । नोट-गत वीर-शासन-जयन्तीके अवसर पर श्रीमहावीरजी अतिशय मंत्र (चांदनपुर ) के शास्त्रभण्डारका अवलोकन करते हुए कई नये स्तुति-स्तवन वीरसेवामंदिरको प्राप्त हुए है जिनम यह भी एक जो भावपर्व एवं अलंकारमय स्तोत्र है। इसके कर्ता प्रमर कवि, जिनके लिये पष्पिकामें 'वेणीकपाण' विशेष:
और उनकी हसरी रचनाएँ कौन कौन है यह अभी अज्ञात है। ग्रन्थ प्रति सं०१E२७ की लिखी हुई है। अतः या स्तवन इससे पूर्वकी रचमा है इतना तो स्पष्ट ही है, परन्तु कितने पूर्वकी है यह अन्वेषणीय है।
-सम्पादक
उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास
(लेखक-विगाभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडविद्री) उत्तर काडकी चौहद्दी इस प्रकार है उत्तरमें बेल वर्माका ग्रामदान सम्बन्धी एक दूसरा दानपत्र भी मिलता। गामः पूर्वमें धारवाड एवं मैसूर, दक्षिणमें मद्रास प्रांतीय है। इसीके समान इसका पुत्र रविवर्मा भी पिता मोशदक्षिण कार, पश्चिममें अरब समुद्र और उत्तर पश्चिम- वर्माकी तरह जैनधर्मका भक्त रहा इसका एक महत्त्वपूर्ण में गोवा । यह प्रान्त दीर्घकालसे विश्रत है। ई० पू० दानपत्र पलासिका (बेलगाम ) में प्राप्त हुआ है। जो तीसरी शताब्दीमें मौर्य-सम्राट अशोकने इस प्रान्तान्तर्गत कि जैनधर्म में इपके दृढ़ सिद्धान्तको प्रकट करता है। वनवासिमें अपना दूत भेजा था। यहांके प्राप्त अन्यान्य रविवर्माका उत्तराधिकारी हरिवर्मा भी अपने प्रारम्भिक शिलालेखासे प्रकट है कि यहाँपर क्रमशः कदंबाने, रहाने, जीवनमें जैनधर्मका श्रद्धालु था। हां, वह अपने अन्तिम पश्चिम चालुक्योंने और यादवाने राज्य किया है। साथ ही जीवन में शैव हो गया था। इसने भी जैनमन्दिर आदिक साथ पुष्ट प्रमाणोंसे यह भी सिद्ध है कि यह प्रदेश सुदीर्घ लिये दान दिया है। सारांशतः कदंबवंशी राजायांके काल तक जैनधर्मका केन्द्र रहा है। एम. गणपतिरावके शासनकाल में जैनधर्म विशेष अभ्युदयको प्राप्त हश्रा मतसे कदंबाने ई०पू० २०० से ई. सन् ६.. तक राज्य था। श्री बी. एस. रावके शब्दोंमे कदंबांके राजकवि जैन किया था। हां, बाद में भी इस वंशके राजाघोंने शासन थे। उनके सचिव और अमात्य जैन थे, उनके दानपत्रांक किया है अवश्य । पर, चालुक्य, राष्ट्रकूट और विजयनगर लेखक जैन थे और उनके व्यक्तिगत नाम भी जैन थे। के शासकोंकी प्राधीनतामें । दक्षिणके प्राचीन चोल, चेर साथ-ही-साथ कदयोंके साहित्यकी रूप-रखा भी जैन काम्यपायख्य और पल्लव राजाओंकी तरह कब राजामोने भी शैलीकी थी । इस प्रांतके बादके राष्ट्रकूट और चालुक्य ग्वास कर मृगेशवर्मासे हरिवर्मा तकके शासकोंने जैनधर्म- अादि शासकोंका सम्बन्ध भी जैनधर्मसे कितना घनिष्ट को विशिष्ट प्राश्रय प्रदान किया था ४ ।
रहा, इस बातको इतिहासके अभ्यासी स्वयं भली प्रकार
यायी था। उसने अपने जानते हैं। इसलिए उस बातको फिर दुहराकर इस लेम्वराज्यके तीसरे वर्षमें जिनेन्द्र के अभिषेक, उपलेपन, पूजन, के कलेवरको बढ़ाना मुझे इष्ट नहीं है। भन्न संस्कार (मरम्मत) और महिमा (प्रभावना , वहांके उल्लेखनीय स्थानांमे ( बनवासि (२) मौदे कायोंके लिए भूमिदान किया था। उस भूमिमें एक विव- (३) गेरुसोप्पे (४) हालि भटकल और (६) तन भूमि न्यास कर पुष्पांके लिए निर्दिष्ट थी। मृगेश- - जैनीज्म इन माउथ इंडिया' * दक्षिण कार जिल्लेय प्राचीन इतिहास पृष्ठ १६ + 'जैन हितेषी' भा०१५, पृ० १२६. + 'नैन हितैषी x 'जर्नल भाव दी मीथिक सोसाइटी' भा० २२, पृ०६१ मा० १४, पृ. २२..
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किरण ३]
उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास
[..
बिलेगि प्रमुख हैं पाठकों के समक्ष इन प्राचीन स्थानोंका सर्वत्र हिन्दू चिन्ह ही नजर आते हैं। पर इसमें सन्देह संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार दिया जाता है-1) वन- नहीं है कि ये सब चिन्ह वादके हैं। खेद इस बावका है वासि-सिरसीसे वनवासि १५ मील पर है। नोंके कि यह स्थान जैनोंका एक प्राचीन पवित्र क्षेत्र होने पर परम पुनीत ग्रन्थ षट् खण्डागमके प्रारम्भिक सूत्र, प्राचार्य भी इस समय यहाँ पर इनके कोई भी उल्लेखनीय चिन्ह पुष्पदन्तके द्वारा इसी पवित्र भूमिमें रचे गये थे। इस दृष्टिगोचर नहीं होते। भाजकल यहाँ पर जैनौके पर भी इप्टिसे यह क्षेत्र जैनोंके लिये एक पवित्र तीर्थ सा है। इस दो चार ही रह गये हैं। इनकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं प्रसगमें यह भी बतला देना आवश्यक है कि दिगम्बर है। सुना है कि बनवासिमें किलेके अन्दर और बाहर सम्प्रदायके उपलब्ध साहित्यमे षटखरडागम ही आदिम- मिला कर इस समय लगभग .. घर हैं और जनसंख्या ग्रन्थ है। इससे पूर्व जैनाके सभी पवित्र आगम ग्रंथ लगभग ६००० की है । यहाँके जैनमन्दिरमे दूसरीसे (अंग और पूर्व) पूज्य प्राचार्योंके द्वारा कण्ठस्थ ही सत्रहवीं शताब्दी तकके १२ शिलालेख प्राप्त हुए है। सुरक्षित रखे गये थे । जैन आगमको सर्वप्रथम लिपिबद्ध ई० पू० तीसरी शताब्दीके बौद्ध ग्रन्थों में भी बनवासिका करनेका परम श्रेय प्रातः स्मरणीय प्राचार्य पुष्पदन्तको उल्लेख मिलता है। टोलमीने भी इसका वर्णन किया है। ही प्राप्त है । साथ ही माथ, लिपिबद्ध करनेका पुनीत वस्तुत: प्राचीन काल में यह बड़े ही महत्वका स्थान रहा है स्थान वही वनवामि है । कन्नड भाषाका श्रादि कवि महा- इसका प्राचीन नाम सुधापुर है। सोदे भी सिरसी से ही कवि पंप भी हम स्थान पर विशेष मुग्ध था। इसने अपने जाना पड़ा है। सिरसीसे सोदे १२ मील पर है। यह भारत या "विक्रमार्जुन विजय' मे इस प्रदराकी बढ़ी पल्लापुर जाने वाली मोटरसं जाना होता है। हाँ, मोटरसे तारीफ की है। महाकवि कहता है कि 'प्रकृति प्रदत्त उतर कर २३ मील पैदल चलना होगा । सादे भी जैनोंका असीम सौंदर्य शोभायमान त्याग भांग एवं विद्याका एक प्राचीन स्थान है। यहां पर जैन मठ है। यह मूलमें केन्द्र इम वनवासिमें जन्म लेने वाला वस्तुतः महा अकलंकके द्वारा स्थापित कहा जाता है। यहाँ पर भी भाग्यशाली है।'
अठारह समाधियोंको छोड़ कर कोई उल्लेखनीय जैन बड़े खेदकी बात है कि वनवासि हम समय एक
स्मारक दृष्टिगत नहीं होता । समाधियोंमें भी दो-चारोंको सामान्य गांव है। उत्तर दिशाको छोड़ कर यह तीनों
छोर कर शेष नाममात्र के हैं। इन समाधियोंमें एक दिशायाम वरदा नदीसे घिरा हुआ है । साथ ही साथ का लेख पढ़ा जाता है । लेख सोलहवीं शताब्दीका है। भग्नावशिष्ट एक मृगमय किलेसे - गाँव तेरुबीदि, कंचु- मठक पास हा लकड़ाका बना हुआ एक जैन-मन्दिर गारबीदि और हाल मठबादि धादि कतिपय मार्गौम इसकी खद्गासन मूर्ति दर्शनीय है। मामने मुत्तिनकरेके विभक्त है । इस समय स्थित जैनोंका मन्दिर कंचुगार नाममे भग्नावशिष्ट एक तालाब है। उक्त मन्दिर और रास्ते में है। मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है। साथ ही यह तालाब एक रानीके द्वारा बनवाये गये कहे जाते है। साय लकड़ीकी बनी हुई एक सामान्य इमारत है । मन्दिरTeam
वह भी अपने नामिका भूषण (नथिया, को बेचकर । मे विगजमान मूर्तियाँ भी माधारण हैं। हाँ, तेरुबीदिमें
इमकी कथा बड़ी रोचक है। कथाका सारांश इस प्रकार विशाल शिलामय मधुकेश्वर देवालयके नाममे वैष्णवांका है-मोदेका जैन राजा अनजानमें गुन्धि (पतिविशेष) नो मन्दिर विद्यमान है. वह अवश्य दर्शनीया का माम ग्वा गया। मांस बाजीकरण सम्बन्धी औषधि मूल में जैन मन्दिर रहा होगा। इस समय इसके लिए
वैद्यके द्वारा विलाया गया था । यह बात राजाको बाद में सिर्फ दो प्रमाण दिये जाते हैं। एक तो मन्दिरके साम
मानम हुई। राजाने नम्कालीन मोदेके भट्टारकजीसे इसका दीप-स्तम्भके अतिरि क एक और स्तम्भ है जो कि जैन प्रायश्चित मांगा। प्रदरदर्शी भट्टारकजीने प्रायश्चित नहीं देवालयोंके सामने मानम्तम्भक नामसं अधिकांश पाये जाते दिया । फलस्वरूप राजा रुष्ट होकर लिंगायत अर्थात शैव हैं। दूसरा प्रमाण मन्दिरके मुख्य द्वार पर गजलक्ष्मी
हो गया । मतान्तरित होने पर राजाने जैनांपर बहा प्रत्याअंकित है। यह भी जैन देवालयाम प्रचुर परिमाणमें पाई
चार किया बक्किबहुत जनाको शव बनाया। बहनसे जाती है। यह बात ठीक ही है कि इस समय तो यहाँ पर 'बम्ब प्रान्तकं प्राचीन जैन स्मारक' ८४१३१
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अनकान्त
[किरण ३
जैन राज्य छोकर अन्यत्र भाग गये । भट्टारकजीको राज किया था। इस लदाई में वह हार गई। स्थानीय समापानीसे प्रजग कर दिया। यही कारण है कि उन्हें दूसरे चारके अनुसार भैरादेवी १६०८में मरी। ई० सन् १९२३ स्थान पर मठ बनवाना पड़ा। वही वर्तमान मठ कहा में इटलीका यात्री डेलाबेले (Denavalle) इस नगरको जाता है। थोड़े समय बाद एक दिन राजा सख्त वीमार एक प्रसिद्ध नगर लिखता है। हाँ, उस समय नगर और हो गया। चमेकी भाशा कम दिखाई दी। उसकी रानीने राजमहल नए हो गये थे। यह नगर काली मिर्च के लिए जो कहर जैन धर्मानुयायी रही, यह प्रतिज्ञा की कि इस इतना प्रसिद्ध था कि पुर्तगालियोंने गेरुसोप्पेकी रानीको कष्ट साध्य बीमारीसे अगर राजा बच गया तो मैं अपने Pepper queen लिखा है । वर्तमान गाँवसे प्राचीन सौभाग्य-चिन्ह नासिका-भूषणको बेचकर एक जैन मन्दिर नगरका ध्वंशावशेष डेढ़ मील पर हैं। इस समय यहाँ पर बनवा दूंगी। राजा स्वस्थ हो गया। सुना है कि बादमें सिर्फ पाँच जैन मन्दिर है। वे भी सघन जंगलके बीचमें। रानीने प्रतिज्ञानुसार इस मन्दिरका निर्माण कराया था। उपयुक्त पाँच मन्दिर पार्श्वनाथ, वर्धमान, नेमिनाथ, साथ-ही-साथ सामनेका तालाब भी । इसलिये इस सरो- पानाथ पद्मावती और चतुमुख। इनमें चतुर्मुख बड़ा बरका नाम मुतिनकेरे प्रसिद्ध हुमा। क्योंकि नासिका-भूषण सन्दर है। पद्मावती मन्दिरमे पद्मावती तया अम्बिकामोतियोंका बना हुआ था।
की मूर्तियाँ और नेमिनाथ मन्दिरमें नेमिनाथकी मूर्ति पूर्वोक्त मन्दिरके बगल में एक विशाल शिलामय दूसरा सर्वथा दर्शनीय है। शेष मूर्तियाँ भी कलाकी दृष्टिसे कम मन्दिर है। इस समय पह वैष्णवोंके वशमें है। यह मूल- सुन्दर नहीं हैं। चतुर्मुख मन्दिर बाहरके द्वारशे भीतरके में जैन मन्दिर ही रहा होगा। इसके सामने मानस्तम्भ द्वार तक १३ फुट खम्बा है। मन्दिर २२ वर्ग फुट है। मौजूद है। मन्दिरके उपर सामने कीर्तिमुख भी। मठके बाहर २४ फुट है। मण्डप और मन्दिरके दारों पर हर पास-पास इमारतके बहुतसे पत्थर पड़े हुए हैं। ये सब तरफ द्वारपाल मुकुट सहित वर्तमान है। मन्दिर भूरे प्राचीन स्मारकोंके ही मालूम होते हैं। वर्तमान भट्टारक पाषाणका है। इसके चार बड़े, मोटे, गोल खम्भे देखने जी भापरिणामी अध्ययनशील, व्यवहारकुशल त्यागी नाबक यहाँ है। के शिलालेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। है। यहाँ पर ताबपत्रके प्रबोंका संग्रह भी है। पर इसमें इसमें सन्देह नहीं है कि 'गेरुसोप्पे एक प्राचीन दर्शनीय कोई अप्रकाशित महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं मिला। अन्यान्य स्थान है। स्थानोंके शिलालेखोंकी तरह सोदेके शिलालेख भी बम्बई
(४)हादुहलि-इसका प्राचीन नाम संगतपुर है। सरकारकी चोरसे प्रकाशित हो चुके हैं।
हाडहल्लि भटकलसे उत्तर पूर्व मील पर है. यहाँ पर (३ गेरुसोप्ये-इसका प्राचीन नाम भल्लातकीपुर भी नीनों मन्दिरोंके सिवा दर्शनीय वस्तु और कुछ नहीं है। होनावरसे पूर्व अठारह मील पर शरावतीक किनारे है। हाँ, जहाँ-तहाँ भग्नावशेष अवश्य दृष्टिगत होते हैं। यह गाँव है। प्रसिब जाग जलपातसे भी इतनी ही दूर इन सबोंसे सिद्ध हाता है कि एक जमाने में यह एक है। सन् 1901 से १६१० तक यह गेरुसाप्पेक जन वैभवशाली नगर रहा है भग्नावशेषों में मन्दिर, मकान राजाओंकी राजधानी थी। स्थानीय जागोंका विश्वास और किला मादि है। पर अब अवशिष्ट ये चीजें भी कि अपने महस्वके दिनों में यहाँ पर एक लाख घर और जंगल में विबीन होती जा रही हैं। इस समय यहाँ पर चौरासी मन्दिर विद्यमान थे। जन श्रुति है कि विजय- चारों ओर सघन जंगलका ही एकाधिपत्य है तीन नगरके राजामों (ई.सन् १९३६-११५५) ने ही गेह- मन्दिरोंमे शिलामब एक मन्दिर अधिक सुन्दर है परन्तु सोप्पेके जैन राजवंशका उमत बनाया था। वीं शत.ब्दी साथ ही साथ जीर्ण भी। दूस । एक मन्दिर भो शिलाके प्रारम्भसे यहाँका राजस्व प्रायः स्त्रियोंके हाथमें ही रहा मय अवश्य है, पर कलाकी दृष्टिसे यह सामान्य है। क्योंकि वीं और १७वों शताब्दीके प्रथम भागके प्रायः तीसरा मंदिर मामूली मृण्मय है हा इसमें विराजमान सभी लेखक गेहसोप्पे या भटकलकी महारानीका नाम २४ तीर्थंकरोंकी शिजामय मूर्तियाँ अवश्य अवलोकनीय है। लेते है। ७वीं शताब्दीके प्रारम्भमें गेरुसोप्पेकी अन्तिम इसमें यक्षी पद्मावतीकं मूर्ति भी है, जिसे जैन जैनेतर महारानी भैरादेवी पर विदनूरके बैंकटय नायकने हमला बड़ी भक्तिसे पूजते हैं। शेष दो मंदिरोकी मूर्तियाँ भी
मंदिर मामूलीय मूर्तिों अवश्य
जैन जे
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किरण ३]
उत्तर कन्नाका मेरा प्रवास
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कलाकी रष्टिसे बुरी नहीं है। हाँ ये दोनों मंदिर अनंत- लेख, सुन्दर मूर्तियाँ भादि अब 'कार संशोधन मंदिर' माथ मंदिरके नामसे प्रसिद्ध है। इन मंदिरोंके जीर्णोद्धार- धारवादमें बम्बई सरकारकी भोरसे रक्षित है। की भावश्यकता है। यहाँ पर इस समय पुजारीके मकानके (6) बिलगि-सका प्राचीन नाम श्वेतपुर है वह अलावा जैनोंका रिफ एक महान और है यहाँ पर भी सिद्धापुरसे पश्चिम पांच मील पर है । यहांके महत्वपूर्ण कई शिलालेख मिले हैं। ये बम्बई सरकारकी पोरसे प्राचीन जैनस्मारकोंमें पार्श्वनाथमंदिर ही प्रमुख है। प्रकट हो चुके हैं।
यह मंदिर कलाको दृष्टिसे विशेष उल्लेखनीय है। द्राविक (१)भद्रकला-सका प्राचीन माम मणिपुर । ढंगका यह 'दिर पश्चिम मैसरके द्वार समुद्र (हल्लेबीदु) यह नगर होचावर तालुकमें होनावरसे २४ मोल दक्षिण स्थित विष्णु मंदिरसे मिलता है। इसकी नकाशीका काम अरब समुद्र में गिरने वाली एक नदीके मुहाने पर बसा वस्ततः दर्शनीय है। कहा जाता है कि विििग नगरको हुना है। चौदहवीं और मालहवीं शताब्दोसे यह व्यापार- जैन राजा नरसिंहके पुत्र बनाया था महाराजा नरसिंह का केन्द्र रहा है। कप्तान मिलटनने इम नगरका विलिगिसे पूर्व चारमीन पर होसूरमें लगभग ई. सन् उक्लेख गौरवके साथ किया है। १८वीं शताब्दीके प्रारंभ- में रज्य करता था। कहते हैं कि उपयुक्त पवमें यहाँ पर जैन और ब्राह्मणाके बहुतसे मंदिर थे। जैन- नाथ मंदिग्को इस नगरको बसाने वाले राजाने ही बनवाग मंदरोंकी रचना अधिक प्राचीन कालका वहाँक जैम- था। यहां पर भी महत्वपूर्ण कई शिलालेख हैं। ये शिखा मंदिरों में चंद्रनाथ मंदिर विशेष उल्लेखनीय है यह सबसे लेख भी बम्बई सरकारकी भोरसे प्रकट हो चुके हैं। श्रीयुत् बड़ा है, साथ ही साथ सुन्दर भी। मंदिर एक खुले मैदान- एम. गणपतिरावके मतसे शा.श.१४०० से १५८) में स्थित है और उसके चारों तरफ एक पुराना कोट है तबिलिगिमें जैनोंका ही राज्य था। यहांके शिलालेखाइसकी लम्बाई १२ फुट तथा चौदाई ४० फुट है। से सिद्ध होता है कि ऐलर प्राममें पार्श्वनाथ देवालयको
इसमें अग्रशाला, भोग मण्डप तथा खास मंदिर है। बनवाने वाला राजा कल्बाप्प (चतुर्थ), विखिगि में पार्वमंदिरमें दो खन हैं। प्रत्येक खनमें तीन तीन कमर है। देव जिनालयको निर्माण कराने वाला अभिनव हिरिय इनमें पहत्वे भर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि और भैरव मोडेय (अष्टम) और इमी विजिगिमें शांतिनाथ पार्श्वनाथकी मूर्तियां विराजमान थीं। परन्तु अब वे मूर्तियां देवालयको स्थापित करने वाला राजा तिम्मरण ये तीनों यहां पर नहीं है। भोग मण्डप की दीवालोंमें सुन्दर बिलिगिके जैन शासक थे । साथ ही साथ यहांके राजा खिड़कियां लगी है। अप्रशाला का मंदिर भी दो वनका रंग (त्रयोदश), राजा इम्महि धंद्र (चतुर्दश) और राजा है। प्रत्येकी दो कमरे हैं, जिनमें ऋषभ, अजिन, शंभव, रंगप्प पंचदश) भी जैन धर्मानुयायी थे और इनके द्वारा अभिनन्दन नथा चन्द्रनाथ को 'तिमाएं विराजमान थीं। जैन देवालय, मठ आदि निर्माण कराय गये थे। उपयुक्त वे भी अब वहाँ पर नहीं है। सामने १४ वर्गफुट चबूतरे सभी शासकों इन जिनायतनाको यथेष्ट दानभी दिया पर २१ फुट ऊँचा चौकोर गुपज वाला पाषाणमय सुंदर था। विलिगिके शासकोंके राजगुरु संगीतपुरके महाकलंक मानस्तंभ खड़ा है। मंदिरक पीछे १६ फुट लंबा ब्रह्मयक्ष- थे । यद्यपि उत्तर कसदमें मंकि, होशावर, कुमटा भोर का खंभा भी है। इस मंदिरको जहप्प नायकने बनवाया मरडेश्वर प्रादि और भी कई स्थान है जिनमें जेन म्मारक था। इसकी रताके लिये निर्माताके द्वारा उस समय बहुतसी पाये जाते हैं और जिनका उल्लेख भावश्यक है। पर जमीन दी गई थीं, जिनकी टीपू सुलताननं ले लिया है। लेख वृद्धिके भयमे इस समय उन स्थानोंके सम्बन्धमें शांतिश्वर मंदिर भी लगभग इस मंदिरके समान था। कुछ भो न लिख कर, यह लेख यहाँ पर समाप्त किया पर भब वह मुमलमानोंके हाथ में है । पार्श्वनाथ मंदिरमें जाता है। अन्तमें मैं भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभाके इस समय मूनियां अवश्य हैं। यह मंदिर १८ फुट लंबा महामन्त्री श्रीमान् परसादीलालजी पाटनी दिल्लीको और १८ फुट चौड़ा है। यह शा० श० १४६५ में बना धन्यवाद देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ जिनकी था। यहां बहुतसे शिलालेख मिले है। इन्हें बम्बई कृपामे गत '५२ के पक्ष मासमें इन स्थानोंका दर्शन सरकारने प्रकाशित कराया है। इस प्रांत के अनेक शिला- कर सका।
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आत्मा, चेतना या जीवन
(ले० अनंत प्रसादजी B. Se. Eng. 'लोकपाल') संसारमें हम दो प्रकार की वस्तुएँ देखते है । एक जैसे निर्जीव वस्तुओंकी किस्में रूप गुणादिकी विभिनिर्जीव और दूसरी सजीव | सजीवोंका भी बाहरी शरीर न्नताको लिए हुए अगणित, असंख्य और अनंत है उसी या रूपाकार निर्जीव वस्तुणों, धातुओं या रमायनोंका तरह जीवधारियोंको संख्या और किस्में भी रूप, गुणादि ही बना हुवा होता है। सजीवोंमें चेतना, ज्ञान और एवं चेतनाको कमीवेशी प्रादिकी विभिन्नताको लिए अनुभूति रहती है जबकि निर्जीव वस्तुएँ एकदम अचेतन, हुए अगणित, असंख्य और अनंत हैं । जीवधारियोंका मज्ञान और जब होती हैं। मानव, पशु, पक्षी, कृमि कीट विभाग उनकी चेतनाकी कमीवेशी अनुसार जैन शास्त्रोंमें पतंग, मछली, पेड़ पौधे इत्यादि जानदार, समीव या बढी सूक्ष्म रीतिसे किया हुआ मिलता है। एक इन्द्रिय वाले, जीवधारी है पहाड, मदी, पृथ्वी, पत्थर, सूखी लकडी दी इन्द्रियो वाले, तीन इन्द्रियों वाले, चार इन्नियों वाले, शीशा. धातुएं, जहाज, रेल, टेलीफोन, रेडियो, बजली, पाँच इन्द्रियां वान तथा पाँच इन्द्रियोंमे मन वाले और प्रकाश, हवा, बादल, मकान, इत्यादि निर्जीव बस्तुएँ। बेमन वाले करके कई मुख्य विभाग किए गए हैं। एक दोगों की विभिन्नताएं हम स्वयं देखते पाते और अनुभव इन्द्री वाले जीव वे हैं जिनमें चेतना ज्ञान या अनुभूति करते हैं। एक टेलीफोनके स्वभेक पास यदि कोई गाना कममे कम रहती है- ये प्रायः जड़ तुल्य ही है-फिरभी बजाना करे तो खंभेको कोई अनुभूति नहीं होगी-वह इनमें जीवन और मृत्यु है और शरीरके साथ चेतना भी जड़ है। टेलीफोनके यन्त्रो और तारों द्वारा कितने संवाद है-भलेही वह चेनना सूचमानिसूक्ष्म अथवा कममे कम जाते भाते हैं पर वे यन्त्र या तार उन्हें नहीं जान सकते हो पर रहती अवश्य है। यही चेतना जड़ या निर्जीव न समझ सकते हैं-उनमें यह शक्ति ही नहीं है । पर यदि और सजीव या जानदारके भेदको बनाती तथा प्रदर्शित मनुष्यसे कोई बात कही जाय तो वह तुरन्त उस पर करती है । चेतनाही जीवका लक्षण या पहिचान है। विचार करने लगता है और उसके अनुसार उसके शारीरिक
अब प्रश्न यह उठता है कि निर्जीवोमे यह ज्ञान-अनुऔर मानसिक कार्य-कलाप अपने आप होने लगते हैं।
भूतिमई चेतना क्यों नहीं रहती है और सजीवामे कहांसे एक पशु कोई चीज या रोशनी देवकर या आवाज सुनकर
कैसे क्यों हो जाती या रहती है ? विभिन्न दर्शनो और
ही बहुनमी बातें जान जाता है जबकि कोई निर्जीव वस्तु
मतावलम्बियोंने इस समस्याको हल करनेके लिए विभिन्न ऐसा कुछ नहीं करनी न कर सकती है। एक आईने में
विचारोंका आविष्कार कर रखा है। धर्मों और संप्रदायोंका प्रतिविम्ब कितनेभी पढ़ते रहें पाईना स्वयं उनके बारे में
मतभेन प्रथमतः यहींसे प्रारम्भ होता है और संसारके को अनमति नहीं करता पर एक मानवको पाखामे चेही सारे भेदभावों एवं झगहोकी जडभी हम इसे ही कह सकते प्रतिविम्ब तरह तरहके विचार उत्पन्न करते हैं । जीव- है। मनुष्यने अनादिकालसे अबतक ज्ञान विज्ञानमे कितनी धारियांक मारने, पीटने, दबाने, बेधने, जलाने आदिसे वृद्धि की पर यह प्रश्न अबभी ज्यांका त्यो जटिलका पीड़ा या दुग्धका अनुभव होता है जबकि निर्जीवोंको वैसा जटिलही बना रहा। आधुनिक विज्ञानभी अबतक इसका कुछ भी नहीं होता। लोहे या चान्दीक लम्बे लम्बे तार समाधानात्मक एवं निर्णयात्मक कोई निश्चित उत्तर या खींच दिए जाते है या चदरें तैयार कर दिए जाते है, हल नहीं दे सका है । जितना जितना विद्वानोंने इसे सुलशीशेके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते है धातुश्रीको भागकी माने और समझने-समझानेकी चेष्टाकी यह उतनाही तापमें गला दिया जाता है पर उन्हे जराभी पीड़ा कष्ट अधिकाधिक उलझता और गृढ होता गया। भादि होते नजर नहीं पाते क्योंकि उनमें ज्ञान या चेतना जैनदर्शनने इस समस्याका बड़ाही विधिवत, व्यवएकदमही नहीं है
स्थित बैज्ञानिक, परस्पर विरोधी बुद्धिपूर्ण, मुतर्कयुक्त
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किरण ३] मात्मा, चेतना या जीवन
[ १ और श्रृंखलाबद्ध समाधान संसारके सामने बड़े प्राचीन रहनावदाही हानिकारक है। सुशान या सही ज्ञानसे
व्यक्तिकी और मानवताकी सरची उत्तिो काबसे रखा है-परन्त धार्मिक कट्टरता द्वेष विद्वेषही छोटे बड़ेकी भावना तथा सुज्ञानशी कमी और तरह तरहके सकती है। दूसरे कारणोंसे वह शुद्ध ज्ञान कुछही लोगों तक सीमित जो कुछ हम इस विश्व या संसारमें देखते या पाते रह गया तथा संसारमें फैल नहीं सका। अब इस तर्क- हैं उस सबका अस्तित्व (Existance) है। यह अस्तित्व
वह प्रत्यक्ष मत्य है जिसका निराकरण करना था जिसे बुद्धि-मयके युगमें इस शुद्ध, मही सुज्ञानको स्वकल्याण
नहीं मानना श्रम तथा गलती है। कुछ नहीं (शूम्ब, और मानव कल्याण के लिए विशद रूपसे विश्व में फैलाना हमारा कर्तव्य है।
Vacum) से कोई वस्तु (Matter)न उत्पन्न हो सकती
है न बन या बनाई जा सकती है। मिहीसे ही बड़ा विविध स्थानों, समयां, वातावरणों में पैदा होने
बनाया जा सकता है या बन सकता है बिना बस्तुके पलने और रहमेके कारण मनुष्यकी प्रवृत्तियों में महान्
आधारके वस्तु या वास्तविक कुछ नहीं हो सकता । संसार विभेद और अन्तर तथा विभिन्नता रहती हैं। योग्यता
में जो कुछ है वह सर्वदासे था और सर्वदा रहेगा-यही शिक्षा और ज्ञानकी कमी-बशीभी सभी जगह सभी न
वैज्ञानिक, सुतर्कपूर्ण और बुद्धि युक्त सत्य है । इसके विपव्यक्तियों में रहतो ही हैं। इन विविध कारणाम विचार धर्म
रीत कांईभी दूसरी धारणा गलत है। वस्तुओके रूप और दर्शनकी विविधता होना भी स्वाभाविक ही है । यदि
परिवतित होते या अदलते बदलते रहते हैं । मिट्टीके ये स्वयं स्वाभाविकरूपमें ही विकसित होते तो कोई हर्ज
कणोंको इकट्ठा कर पानीकी सहायतासे निर्माण योग्य नहीं था-अंतमें विकासक चरमोत्कर्षपर सब जाकर एक
बनाकर घड़े का उत्पादन होता है और पुन:घदा टूट फूट जगह अवश्य मिल जाते, पर सांसारिक निम्न स्वार्थ और
कर ठिकरों या कणों इत्यादिमें बदल जाता है। हो सकता अहंकारने ऐमा होने नहीं दिया-यही विडम्बना है।
है कि यह हमारा संसार (पृथ्वी) किसी समय वर्तमान करीब करीब सभी अपनेको मही और दूसरेको कमवेश
जलते सूर्यकी तरह ही कोई जलता गोला रहा हो या धूलग़लत कहते हैं। एक मरेकी बात समझ कर एक दूसरेसे
कणां और गैमों का 'लॉन्दा' सा हो और बादमें इनमें मिलजुल कर एक निश्चित अंतिम मार्ग निकालना लांग
शक्लें बनती गई हो, तरह तरहके रूप होते गए हो। पसन्द नहीं करते-संसारकी दुर्दशाओंका जनक और
शकलों और रूपांका बनना बिगड़ना तो अबभी लगा हो मुख्य स्रोत विरोधाभास रहा है। मारा संसार एक बहुत
हा है। उम 'गोले' या 'लोन्ने' में जीव और अजीव बड़े परिवारकी तरह एक है और मानवमात्र एक दृमरेम
दोनांही सूक्ष्म या स्थूल रूपमें रहे ही होंगे । वस्तुयोंके संबन्धित निकटतम रूपसे उस परिवारक मनस्य हैं। प्रय
सूक्ष्म और स्थूल रूप एक दूसरेके संगठनीर विधानमं तो विज्ञानके बहुव्यापी विकास और यातायातके साधनोंकी
बनते बिगड़ते रहते हैं। पर्वथा नया कुछभी पैदा नहीं उन्नतिके कारण मानवमात्र और अधिक एक दूसंरके
हो सकता न पुरानेका सर्वथा नाश हो सकता है मयांग, निकट आ गये हैं और पाते जाते हैं। हर एकका कल्याण
वियाग, संघठन निघठन और परिवर्तन इम्यादि द्वारा ही हर एक दूसरे और सबके कल्याणमें ही मग्निहित है।
हम कुछ नया उत्पन्न हुअा देग्वने या पाने है और पुरानका अब तो मानवमात्रके कल्याण द्वाराही अपना कल्याण
पिनाश हुमा मा दीखता है । पर वास्तव में उसका होना समझकर सबका विरोधी और अज्ञान तथा कुज्ञानको
विनाश नहीं होता, वह अपनी सत्ताको सदा कायम रखता जहांतक भी संभव हो सके दूर करना ही पहला कर्तव्य
है इसी वह ध्र व भी कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ बाह्य होना चाहिए
परिण मनसे अपने स्वाभाविक गुणको नहीं छोडता, किंतु तर्क और बुद्धिकी कसौटी पर कमकर जो सिद्धांत वह ज्यों का त्यों बना रहता है । यदि उसके अस्तित्वसे ठीक, सही और सत्य जंचे उसेही स्वीकार करना और इन्कार भी किया जाय तो फिर पदार्थों की इयत्ता बाकीको भ्रमपूर्ण या मिथ्या घोषित करके छोडनाही बुद्धि- (मर्यादा) कायम नहीं रहती। चेतन, अचेतन पदार्थ अपने मानी कहा जा सकता है अन्यथा केवल रूढ़ियोंको पकडे अपने अस्तिस्वसे मदाकाल रहे हैं और रहेंगे ।
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२]
अनेकान्त
[किरण ३
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अचेतन जब पदार्थोंसे कुर्सी, मेज, तस्त, किवाद, सत्ता' का नहीं रहना ही है और चेतना रहने या पाए बदी, खवाऊँ, क्स, सम्बक धादि विविध वस्तएं बनाये जाने का अर्थ उस 'सत्ता' का रहना ही है। इसी 'सत्ता जाने पर भी उनकी जपता और पुदगलपने (Matter) को-जिसका गुण चेतना है या जिसके विद्यमान रहनेसे का प्रभाव नहीं होता, प्रत्यत वह सदाकाल ज्योंका त्यों किसी शरीरमे चेतना रहती है भारतीय पार्शनिकोंने बना रहता है। इससे ही उसके सदाकाल अस्तित्वका
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'भारमा' या 'जीव' कहा है भारमाका ही अपना गुण पता चलता है। चेतना जब वस्तुओंका गुण नहीं
चेतना है। जहाँ मारमा होगा वहाँ चेतना होगी जहाँ है किन्तु वह तो जीवका असाधारण धर्म जो उसे भारमा नहीं रहेगा वहाँ चेतना नहीं होगी। पर यह चेतना बोरकर अन्यत्र नहीं पाया जाता फिर भी दोनोंका भी किसी शरीर या किसी रूपी वस्तुमें (जिसे हम शरीर अस्तित्व शुदा शुदा है। अतः अचेतनके अस्तित्व कहते हैं) ही पाई जाती है कि बिना शरीरके कहीं भी (existance) के समान उसका भी 'अम्तिव चेतना यों ही अपने पाप परिलक्षित नहीं होती। इसका है और सर्वदासे था या सर्वदा रहेगा। अचेतन वस्तुओं
अर्थ यह होता है कि संसारमें बिना किसी प्रकारके शरीरके और चेतन देहधारियों (वस्तुभी) में इतना बड़ा विभेद
प्राधारके प्रास्मा या चेतनाका होना या पाया जाना सिद्ध इत्या रूपसे हम पाते हैं कि यह मानना ही पड़ता कि नहीं होता । चेतना और वस्तु शरीरका संयुक्तरूपही हम 'चेतना' कोई ऐसा गुण है जो जब-वस्तुओंका अपना
जीवधारीके रूपमें पाते हैं। परन्तु चुकि चेतना निकस गुवनहीं हो सकता-पयोंकि यदि जब वस्तुओंमें चेतना
जाने पर भी शरीर ज्योंका स्या बना रहता है उसका का गुण स्वयं रहता तो हर एक सूक्ष्म या स्थून जड़ वि
विघटन नहीं होता है इससे हम मानते हैं कि चेतनाका बस्तुमें चेतवा और अनुभूति,शाम थोड़ा या अधिक अवश्य आधार कोई अवग 'सत्ता' है जो वस्तुके साथ रहते हुए रहता पा पाया जाता । पर ऐसी बात नहीं है। इससे भी उससे अलग होती है या हो सकती है। इस तरह हमको मानना पलता है कि चेतनाका माधार या कारण जड़ वस्तुकी और पाल्माकी अलग अलग अवस्थिति जोबनी हो उसका एक अपना अस्तित्व है और चेतना (existencil) और 'सत्ताएँ' मानी गई। उसका स्वाभाविक गण है-जो केवल मात्र जदमें सर्वश हर एक वस्तुके गुण उस वस्तुके साथ सर्वदा उसमें भरण्य या अनुपरियत (AbHent) है। किसी भी रहते हैं-गुण वस्तुको कभी भी छोडते नही। दो वस्तुयें जीवधारीको लीजिये-उसका जन्म होता है और मृत्यु मिलकर कोई सीसरी वस्तु जब बनती है तब उस तीसरी होती है। मृत्युके समय हम यह पाते हैं कि जीवधारीका बस्तुके गुणभी उन दोनों वस्तुओंके गुणोंके संयोग और शर या बाह्य रूप तो ज्यों का स्यों रहता है पर चेतना सम्मिमणके फलस्वरूपही होते हैं-बाहरसं उसमें नये लुप्त हो गई होती है। शरीरके चेतना रहित हो जानेको गुण नहीं पाते। इतनाही नहीं पुनः जब वह तीसरी ही लोकभाषामे मृत्यु कहते हैं। जब तक किसी शरीरमें वस्तु विघटित होकर दोनो मुख वस्तुनी या धातुचाम चेनमा रहती है उसे जीवित या जीवनमुक्त कहते हैं। परिणत हो जाती है तो उन मुख वन्नुभांके गुणभी शरीर तो वस्तुओं या विभिन्न धातुओंसे बना रहता है अलग अलग उन वस्तुनोंमें ज्याके त्यो संयोगसे पहले
और यदि चेतना शरीरको बनाने वाले धातुओंका गुण जैसे थे वैसेही पाए जाते है-न उनमें जरासी भी कमी रहता तो शरीरसे चेतना कभी भी लुप्त नहीं होती-पर होनी है न किसी प्रकारको वृद्धि ही। यही वस्तुका स्वभाव किम यह बात प्रत्यक्ष रूपसे देखते या पाते हैं इससे या धर्म है और सृष्टिका स्वतःस्वाभाविक नियम । इसमें हमें मानना पड़ता है कि चेतना शरीरका निर्माण करने विपरीतता न कभी पाई गई न कभी पाई जायगी। वाली वस्तुओं या धातुनोंका अपना गुण नहीं हो सकता। दो एक रसायनिक पदार्थोका उदारहण इस शाश्वत हसचेतनाका बाधार या पोत क्या है या वह कौनसी 'सत्य' को अधिक खुलासा करने में सहायक होगा । तूतिया 'सत्ता' जो जब तक शरीरमें विद्यमान रहती है तब तक (नीला थोथा Copper Sulphate या Cuson) उसमें चेतना रहती है और वह सत्ता हट जाने पर में तांग, गंधक और प्राक्सिजन निश्चित परिणामों में चेतना नहीं रहती-अथवा चेतना नहीं रहनेका अर्थ उस मिले रहते हैं। दतियाके गुण इन मिश्रणवानी मूल
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किरण )
मात्मा, चेतना या जोवन
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धातुओं या रसायनोंके गुणोंके मिश्रित फलस्वरूप अपने भी उनके अपने गुणही उनमेंभलग अलग रहेंगे। अथवा विशेष होते है पर पुनः जब किसी प्रक्रिया या प्रक्रियामों ६-७ धातुओंके किसी सम्मिश्रित वस्तुसे दो दो तीन तीन द्वारा इन विभिख मूल धातुपोंको अलग अलग कर दिया धातुओंकी सम्मिश्रित वस्तुएँ मग मलग निकलें तब भी जाता है तो उनके अपने गुण हर धातुके अलग अलग उन अलग अलग हुए छोटे सम्मिश्रणों में भी वे ही गुण उन धातुओंमें पूर्णतः पाए जाते हैं या स्वभावतः ही रहते पाये जायंगे जो उनके बनाने वाली धातुओंको यदि भजगहैं। अब दूसरा उदाहरण लीजिए-गंधकका तेजाब से उन्हीं अनुपातोंमें अलग मिलाकर वैसाही कोई सम्मि(Sulphuric acid, H2 So 4) इसमें हाइड्रोजन, श्रण कभी बनाया जाता। इत्यादि। सारांश यह कि गंधक और प्राक्सिजनका संमिश्रण (Compounding) किसी भी वस्तुका गुण, शुद्ध दशामें सर्वदा वही रहता है। रहता है, हमके भी अपने विशेष गुण होते हैं पर इसको जो उसका गुण है। मिश्रणकी दशामेंभी मिश्रित वस्तुका बनाने वाली मूल धातुएँ या रसायने अलग अलग कर दो गुण सर्वदा वही रहता है जो उस मिश्रणका होता है; जानेपर पुनः अपने मूल गुणोंके साथही पाई जाती है जब भी मिश्रणसे वह वस्तु पुनः मूलरूपमें निकलती है तो न जरा कम न जरा अधिक, सब कुछ ज्योंका स्यों। गंधक वह अपने मूलगुणांके साथही होती है और एक मिश्रणसे और प्राक्सिजन दोनों ही ( उपरोक्त) दोनों सम्मिश्रणों निकलकर दूमरा मिश्रण बनाने पर अथवा विमिन (Compounds) में शामिल थे। दोनों सम्मिश्रणोके मिश्रणोंके संघटन या विघटनोंकी संख्या चाहे कितनी भी गुण अलग अलग विभिन्न थे। पर जब गंधक और क्यों न हो मूल वस्तुनो या धातुओंके मूलगुण मर्वदा पाक्सिजन पुनः सम्मिश्रणामें से निकल गए या अलग ज्योंके स्यों उनमें सम्मिलित रहते है और विभिन्न कर लिए गए तो उनमें गंधक और भाक्सिजनके अपने मित्रणोंके गुण भी सर्वदा वे ही गण होते है जो विशेष अपने गुण ही रहे। एक तीसरा उदाहरण लीजिए:- धातुश्री, वस्तुभो या रसायनों के विशेष परिमाणोंमें मिलाए जल (H2O)। इसमें हाइदोजन और पाक्सिजनका जाने पर कभी भी हो या होते हैं। ये स्वयं सिद्ध प्रकृति मिलाप होता है। जलके गुण हम बहुत कुछ देखतं, पाते या सृष्टि (Nature or Creation) के स्वाभाविक या जानते हैं। जल एक तरल या द्रव ( Liquid) (Fundamental) नियम हैं। ये शास्वत, सत्य पदार्थ है, जबकि इसके बनाने वाले दोनों अंश ( Cons- ओर ध्रुव हैं। इनमें विश्वास न करना या कुछ दूसरी tituents) गैस या वायुरूपी पदार्थ हैं । सबके गुण तरहकी बातें मोचना समझना भ्रम, प्रज्ञान, ग़लती अलग २ निश्चित हैं। शुद्ध अवस्था में इनके अपने गुणाम या ज्ञानको कमीके कारण ही हो सकता है। माधुनिक जरा भी फर्क कभी भी कहीं भी किसी प्रकार भी नहीं विज्ञानने इन तथ्यों या सत्योंका प्रतिपादन व या पढ़ सकता। इतनाही नहीं सम्मिश्रण होने के पहले, निश्चित और मर्वथा संशय रहित रूपसे कर दिया सम्मिश्रणकालमें एवं सम्मिश्रण विघटित होने पर हर है-इसमें कोई शंका या प्राशंका या अविश्वासकी जगह मूलधातुके गुण सर्वदा ज्यांके त्यों उन धातुओके कणोंमें ही नहीं रह गई है। वस्तुका अपना गुण या अपने गुण रहते हैं उनसे अलग नहीं होते न कमवेश होते है। हां, हजारों लाग्वों वर्षों में भी नहीं बदलते सर्वदा-शास्वत रूपसम्मिश्रणकी अवस्थामें उन्हीं गुणांके मापसमें संयुक्त रूप में वस्तु और गुण एकमेक रहते हैं। खनिज पदार्थों को से संघबद्ध हो जानेके कारण सम्मिश्रित वस्तुके गुणांका हो लीजिए लोहे वाले पत्थर (Iron pyrites) और निर्माण अपने पाप गुणोंके सम्मिश्रण या संघबद्धताके पालुमीनियम वाले पत्थर (बौक्साइट Bauxite)न फलस्वरूप ( As a resultant) हो जाता है। पर जाने सृष्टिके प्रारम्भमें जब पृथ्वी जमकर ठोस पदार्थक पुनः संघबद्धता टूटने या विघटन होने अथवा मिश्रित रूपमें पृथ्वी हुई नबसे कब बने थे पर अब भी उनके गुण धातुओंके अलग अलग हो जानेपर वे मूलगुण भी पुनः ज्या के त्यों है। सभी धातुओं और पदार्थोके साथ यही ज्याके स्योंही अलग अलग हो जाते हैं या पाए जाते हैं। बात है । गन्धक या पाक्सिजन या हाइड्रोजन या तांबामम्मिश्रित या संघबजू वस्तुकं आंशिक विघटन स्वरूप के सम्मिश्रणके दो उदाहरण ऊपर दिये गये हैं । गन्धक कोई एक या दो मुलधातुएं ही अलग अलग निकलें तब इत्यादिक जो गुण पाजसे हजारों वर्ष पहले थे वे ही
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अनेकान्त
[किरण
अब भी हैं और वे ही भागे भी सर्वदा रहेंगे । गुण भी एक पशु शरीरसे नहीं हो सकते । एक पशु-शरीरके कार्य बस्तुके परिवर्तनके साथ ही बदल सकते हैं अन्यथा नहीं। एक पक्षी-शरीरसे नहीं हो सकते । एक पक्षीके कार्य कृमिवस्तुकी शुद्ध अवस्थाके गुण वस्तुकी शुद्ध अवस्थामें कीट शरीर धारियांसे नहीं हो सकते इत्यादि । जीवात्मा सर्वदा एक समान ही पाए जायेंगे कभी भी कमवेश नहीं। शरीरके साथ एक मेक रहकर शरीरको चेतना मात्र प्रदान जब वस्तुचोंका सम्मिश्रण होता है तब उनके गुणांका करता है पर उसकी शरीरकी कार्य क्षमताको बदल नहीं समन्वय होकर नए गुण परिलक्षित होते हैं पर मूल वस्तु. सकता । के मूलगुण सर्वदा मूलवस्तुमें पूर्ण रूपसे सन्निहित "जीव" (धारमा) को चेतना भी शरीरकी बनावट रहते है-न अलग हो सकते हैं न कमवेश ।
एवं सूक्ष्मता स्थूलताके अनुसार कमवेश रहती है। सूक्ष्म प्रास्माका गुण चेतना और जद वस्तुओंका गुण जड़त्व एकेन्द्रिय जीवोंमे ज्ञानचेतना इतनी कम रहती है कि हम (भचेतना) भी अनादिकालसे उनके साथ है और रहेंगे। उन्हें जड़तुल्य ही मान लेते हैं। जैसे जैसे शारीरिक दोनोंमें संयोग होनेके कारण उनके गुणोंका समन्वय होकर क्रमाम्नति रूपमें (Evolution by stages) होता जीवधारियोंके गुण विभिन्न रूपोंमें हम पाते हैं पर हर जाता है पास्माकी चेतनाका बाह्य विकास भी उसी अनुसमय प्रात्माके गुण प्रात्मामें ही रहते हैं और शरीरको रूप बढ़ता जाता है। एकेन्द्रियमें भी कितनी ही किस्में हैं बनाने वाली जड़ वस्तुओं और रसायनोंके गुण जद वस्तुओं जिनमें एक शरीरसे दूसरे शरीरमें ज्ञान चेतनाको उत्तरोत्तर
और रसायनांके कारणों और संघोमें ही रहते हैं। संयोगके वृद्धि पाई जाती है। एकेन्द्रियसे द्वीइन्द्रिय इत्यादि करके कारण न तो आत्माका चेतनगुण बढ़ वस्तुओंमें चला उत्तरोत्तर पंचेन्द्रियोमें सबसे अधिक प्रात्मचेतना बाह्य जाता है न जद वस्तुका गुण (जड़त्व) यात्मामें और रूपमें परिलक्षित होती है। उनमें भी मन वाले जीवा में और जब भी दोनों अलग अलग होते हैं अपना अपना पूराका सर्वोपरि मानवामे चेतना अधिकसे अधिक उमत अवस्था में पूरा गुण लिए हुए ही अलग होते हैं।
मिलती है इसे अंग्रेजी में विकाशवाद (Evolution) विभिन्न जीवधारियोंके कार्य कलाप उनके शरीरको कहते हैं जिसकी हम अपने जैनशास्त्रों में वर्णित 'उद्ध बनावटके अनुसार ही होते हैं और हो सकते हैं । एक गति' से तुलना लगा सकते हैं। (अगले अंकमें समाप्त ।) गाय गायके ही काम कर सकती है, एक चींटी चीरीके इस विषयकी थोड़ी अधिक जानकारीके लिए मेरा ही काम कर सकती है-एक सिह सिहके ही काम कर लेख "शरीरका रूप और कर्म" देखें जो ट्रैक्टरूपमें सकता है-अन्यथा होना कठिन और असंभव एवं अम्वा- अमूल्य अखिल विश्व जैनमिशन, पो. अलीगंज, जि. भाविक है। एक मानव-शरीरसं जो कार्य हो सकते हैं वे एटा, उत्तर प्रदेशसे मिल सकता है।
सूचना अनेकान्त जैन समाजका साहित्य और ऐतिहासिक पत्र है उसका एक एक अंक संग्रहकी वस्तु है। उसके खोजपूर्ण लेख पढ़नेकी वस्तु है। अनेकान्त वर्ष ५ से ११वें वर्ष तककी कुछ फाइलें अवशिष्ट है. जो प्रचार की दृष्टिसे लागत मूल्यमें दी जायेंगी। पोस्टेज रजिस्ट्री खर्च अलग देना होगा। देर करनेसे फिर फाइलें प्रयत्न करने पर भी प्रास न होंगी। अतः तुरन्त प्राडर दीजिये।
मैनेजर-'अनेकान्त'
१ दरियागंज, देहली जैनसमाजका ५० वर्षका इतिहास पाबू दीपचन्द्रजी जैन संपादक वर्धमान १६०१ से १९५० तकका तैयार कर रहे है। जिन भाइयोंके पास इस सम्बन्धमें जो सामग्री हो वह कृपया उनके पास निम्न पते पर तुरन्त भेजनेकी कृपा करें।
बाबू दीपचन्द जैन, सम्पादक वर्धमान, तेलीवाड़ा, देहली.
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प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय
(एन.सी० वाकली वाल) साहित्य और कबामें जैन समाजकी हजारों वर्ष अधिकाधिक मिलती चली गई और पाज अनेक स्थानों प्राचीनकालकी संस्कृति भरी पड़ी है। जैनधर्मका पर देखा जा सकता है कि दक्षिणके कई स्थानों में जैन प्रचार बौद्धधर्मकी भांति विदेशों में नहीं हुआ था किन्तु संस्कृतिका ही एक प्रकाशसे लोप हो गया है। उधरके वह भारतवर्ष में ही सीमित रहा। इस देशमें धार्मिकता, अनेक मन्दिरोकी अवस्था अतिशय शोचनीय हो गई है। विद्वेष और विदेशी आक्रमणांके कारणांके कारण जैन- उन मंदिराम जो ग्रंथ रहे होंगे या है उनकी अवस्थाका साहित्य और जैनकलाका रोमांचकारी हनन हुअा वह तो अनुमान, सहज ही किया जा सकता है। उत्तर व मध्य एक प्रोर, किन्तु स्वयं जैन धर्मावलम्बियाकी अमावधानी भारतमें कागज पर लिखने की प्रथा प्रचलित होने के बाद और स्वामित्वजालमार्य भी विशेष कर साहित्यका विनाश भी दक्षिण भारतमे तापत्र और भोजपत्रका उपयोग और प्रतिबंध हुश्रा। फलतः अनेक महत्वपूर्ण प्राचीन बहुत समय तक होता रहा था और उन ताइपत्रों पर रचनाका अभी तक पता नहीं लग पाया है और अनेक लगातार तेल प्रश न करनके कारण उनकी प्रायु कृतियों परसे जैनत्वकी छाप मिट चुकी है।
असमय में क्षीण हो जाना अनिवार्य है; चूहों, कीदो और फिर भी जैन माहित्य इतना विशाल और समृद्ध है
सो पानीस भी यहांके ग्रंथोंका विनाश काफी मात्रामें कि ज्या ज्या उमको बंधनमुक्त किया जा रहा है या प्राप्त हागया होगा, जबकि वे असावधानी और अवहेलनासे करनेका प्रयत्न किय जाता रहा है त्या त्या अनेक महन्व
प्रसित हुये होंगे । फिर भी भट्टारकोंके अधिकारमें व कुछ पूर्ण रचनायें उपलब्धती प्रारही है परन्तु यह कार्य अभी मंदिरों और व्यक्तियांक संग्रहालयामें एक बड़ी राशिमें अब तक बहुत मंदगतिसे ही चल रहा है। उत्तर भारत और भी प्रथ मौजूद हैं परंतु उनको प्राप्त करने में या वहीं पर मध्य भारतमें. जहाँ कि विद्वानोंने विरोधके बावजद प्रन्थ उनकी सुरक्षाका समुचित प्रबंध करनेमें शीघ्रता नहीं की प्रकाशनमें प्रगति जारी रखी और जैनप्रन्यांको बधंनमत जायगी ना भय है कि जनसमाजस अमूल्य निधिसे कराने, संग्रहालय स्थापित कराने एवम् जिनवाणीके सदाके लिये हाथ धो बैठेगी। उद्वारके प्रति समाजमें चेतना लानेका कार्य अनवरत किया, जिम किसी वस्तु पर जैनधर्म और जैनपुरातत्ववहां भी अब तक सभी भण्डारॉकी सूचियाँ एकत्र नहीं सम्बन्धी कोई लेम्व उपलब्ध हो वही साहित्य है। अतएव हो सकीं। कहां कहां किन किनक अधिकारमें कुल मिला- ग्रन्यांके साथ माथ शिलालेख, ताम्रपत्र, पहावलियां, कर कितने हस्तलिखित ग्रन्थ हैं इसका मोटा ज्ञान भी गुर्वावलियां, मूनिके नीचेका उत्कीर्ण भाग, चरणपादुकाअभी तक प्राप्त नही हुया । और दक्षिण प्रान्तका हाल तो के लेख, ऐनिहामिक पत्र आदि सभी सामग्री साहित्यक और भी अधिक चिन्तनीय है। दक्षिण की कनड़ी, तेलगू इम व्यापक अर्थ में ममावेशित है। समय निर्णय, तत्व श्रादि लिपियों में बड़ी संख्यामें दिगम्बर जैन साहित्य हे विचार प्रादिकी दृष्टिमे यह सभी सामग्री अत्यन्त महन्व
और वह उत्तर व मध्य भारतकी अपेक्षा प्राचीन भी है रखती है और भारतीय इतिहासका प्रत्येक अध्याय इस परन्तु उसमेंमे थोड़े ही साहित्यकी प्रतिलिप देवनागरी में पुरातत्व को प्रकाशमें न लानेसे अपूर्ण रहता है। हो पाई है। दक्षिण भारतकी भाषा और लिपि शेष अतएव माहित्यका मूल्यांकन उस पर लगी हुई भारतकी भाषा और बिपिसे अत्यन्त क्लिष्ट और अमम्बद्ध लागत परमे नहीं किया जा सकता है। यदि लेखकांका होने के कारण हधरको प्रगतिका प्रभाव उधर बहुत ही कागज कलम स्याहीका मुलपतिका और स्थानका साधन कम मात्रामें पढ़ा, उधरके जैनबंधुश्रीस इधरके जैन- जुटाकर आज एक ग्रंथकी प्रतिलिपि १०.) के खर्चसे ही बंधुप्रोका सम्पर्क भी कम पढ़ता गया उनके सामाजिक सकती है सो उसमें सालभरका समय, उसको मूल प्रतिके रीति रिवाज और पूजा विधानको क्रियाये उधरके माथ मिलाकर शुद्ध करने में विद्वानके कार्य और देखरेखा अन्य धर्मावलम्बियोंके रीति-रिवाज और क्रियाकाण्डसे का मूल्य मिलाकर उसका जो मूल्यांकन हो सकता है उससे
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अनेकान्त
[किरण ३
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सौ गुवा मूल्य भी उसकी प्राचीनतर प्रतिके लिये ऐति- उन सभी व्यक्तियोंने स्वीकारकी है जिनने छपे प्रथको हासिक रहिसे यथेष्ट नहीं है। यह अगाध सम्पत्ति जो स्वाध्याय करते करते कारणवश उसी प्रथकी प्राचीन पूर्वाचार्यों मुनियों, महारका, विद्वानों और अन्य पूर्वजोंने प्रतिसे स्वाध्याय करना शुरू किया है। हस्तलिखित ग्रंथ संसारके प्राणियोंके कल्याणकी भावनासे अपने ध्यान परसे स्वाध्याय करने में प्राचीनताको छाप बनी रहती है स्वाध्याय और भात्म चिन्तवनको गौण करके समाजके और इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि ग्रंथोंकी देख रेख हाथों में सोपी है उसकी रक्षाका उपाय न करना वास्तवमें बराबर रहनेसे चूहे, दीमक, कीड़ और सर्दी आदि उपद्रवोंमे अपने पूर्वजोंकी, धर्मकी और भगवान केवलीकी अवहेलना मंथ बचे रहते हैं। प्रतएव जिनवाणी को हमेशा उपयोगकी करना है क्योंकि शुतज्ञानको तीर्थकर भगवानके समान वस्तु समझकर हस्तलिखित ग्रंथी परसे पठन पाठन करनेकी ही पूजनीय माना गया है । साहित्यकी किसी भी प्रथाको प्रोत्साहन देना आवश्यक है। एक तो प्रतिलिपि मजोर बस्तुका विनाश होनेके कारण धर्मसे लेकर देश कराने में खर्च बहुत आता है, दूसरे लेखकोंका और मूल शुद्ध तकका और कभी कमी संसार तकका अहित हो सकता प्रतिका मिलना कठिन होनेसे हस्तलिखित प्रयोंकी कहींस है। यदि कुन्दकुन्द स्वामीको कुछ अनुपलब्ध कृतियोंकी मांग पाती है तो वह सहजही ठीक रीतिसे और ठोक भाँति समयसारादि कृतियां भी विनष्ट होगई होती तो समय पर पूरी नहीं हो पाती है इस कारण दिन दिन अनेक सैद्धान्तिक शंकायें जो विद्वानोंके मनमें उठा करती छापेके प्रथोपरसे पठन पाठनका रिवाज बढ़ता जा रहा है। हैं वे था तो उठती ही नहीं, या उनका समाधान प्रमाण परन्तु अनेक कारणोंसे ऐसा होना ठीक नहीं है । यदि पूर्वक तुरन्त हो जाता।
इसी प्रकार होता रहा तो हस्तलिखित ग्रंथोंकी लिपिका अन्य रचना किन्हीं खास व्यकि, समुदाय या फिरके पढ़ना भी कुछ वर्षों बाद कठिन हो जायेगा । आज भी के लिये नहीं किन्तु प्राणीमात्रके हितके लिये की गई है, बहुतसे पंडित प्राचीन प्रतियोकी लिपि पढ़नेमें असमर्थ ज्ञानोपार्जन द्वारा प्रारमस्वरूपको पहचानने और प्रारम रहते हैं कारण उनको अभ्यास नहीं है। अतएव जहां कल्यासके विमित्त तत्पर होनेसे ही शास्त्रोकी सच्ची भक्ति तक संभव हो, मंदिराम, शास्त्रसभाओंमें, उदासीनाश्रमोमे होती है और वह ज्ञानोपार्जन शास्त्रांकी आलमारीके और मुनिसंघोंमें शास्त्र स्वाध्याय हस्तलिखित प्रति परसे सामने अब बढ़ाने और स्तुति पढ़नेसे नहीं, उनके पठन होना चाहिये । पाठनसे होती है। अतएव उनके पठन पाठनकी सुविधाका इस सुरक्षात्मक दृष्टिसे थोकी किसी एक स्थान पर अधिकसे अधिक प्रसार करना ही जिनवाणीके प्रति भनेकानेक प्रतियोंका जमाव करनेकी अपेक्षा जहां जहां सच्ची श्रद्धा और भकि है। इसके प्रतिकूल उनके पठन जिन प्रथोंकी भावश्यकता हो वहां वहां प्रावश्यकतानुसार पाठन पर रोक लगाने और उनको तालो में बंद कर उन पर प्रतियोंका विकेन्द्रीकरण होना चाहिये। स्वामित्व स्थापित करनके परिणाम स्वरूपमें जो अवस्था यह तभी हो सकता है जबकि छोटे बड़े सभी स्थानोंके उत्पा हुई, वह वर्यातीत है।
मंदिरी, भंडारों व व्यक्तियोंके आधीन हस्तलिखित ग्रंथोंकी रोकथाम और तालाबन्दीके कारण पठन पाठनकी सूची प्राप्तकी जाय और उन पृथक् पृथक सूचियों परसे प्रबानीमें हास हुमा उसके साथही अब मुद्रणकलाके एक सम्मिलित सूची प्रन्थ कमसे कम तैयार हो जिससे पता बुगमें बहुतसे अन्य छप जानेके कारण हस्तलिखित ग्रन्थी लगे कि किस प्रस्थकी कुल मिलाकर कितनी प्रतियाँ हैं, परसे पठन पाठनकी प्रथा उठती जा रही है। परन्तु यह वे कहां कहां हैं किस अवस्थामें है, वे जहां हैं वहां उनका न भूलना चाहिये कि हस्तलिखित ग्रंथ परसे स्वाध्याय पठन पाठनके लिये उपयोग होता है या नहीं, यदि नहीं करनेमे प्राचीन समयके कागजकी बनावट, स्याहीकी तो अन्य स्थान पर उनकी आवश्यकता है या नहीं। यदि चमक, अक्षरकी सुंदरता व सुषमता तत्कालीन लेखन- अन्य स्थान पर उनकी पावश्यकता हो तो या तो अन्यकसा और परिपाटीके प्रत्यक्ष दर्शनसे हृदयमें जो श्रद्धा, स्थानके अनावश्यक ग्रंथोंके द्वारा या उसका उचित मूल्य भक्ति और भावशुद्धिका उदय और संचार होता है वह निर्धारण द्वारा या वापसीके करारपर थको एक स्थानसे मुद्रित प्रयपरसे नहीं हो सकता है। इस कथनकी सत्यता दूसरे स्थान भिजवानेकी व्यवस्था होनी चाहिये । प्राचीनतर
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किरण ३1
प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय
प्रतिका शानभी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूची प्राप्त होने पर ही विवेक बुद्धि (6) वीरता (10) शिष्ट सभ्य रहन सहन हो सकता है। एक स्थानकी आवश्यकता अनावश्यकताका (11) धर्म प्रभावना (१२ ज्ञान प्रचार (१३) उप सहवास ज्ञान भी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूचीके बिना प्राप्त नहीं किया (10) राजनीतिज्ञता (१९) वाणिज्य चतुरता (१६. जा सकता है तथा जीर्ण ग्रंथोंका उद्धारभी तब तक असंभव अधिकार रक्षण (१७) परम्परा पालन, आदि लोकोत्तर बना रहता है । अपूर्ण ग्रन्थों की पूर्तिभी सम्पूर्ण स्थानोंकी गुण साहित्य और कलाकी ही देन हैं। बड़े भारचर्यको सूची प्राप्त होने पर अनायास और सहज हो हो सकती बात है कि जैन समाजको अभीतक सब स्थानोंके विषयमें है। अतएव सभी दृष्टियोंसे सूचीका कार्य पूरा करना इस कलाके प्रतीक मंदिर मूति आदिका सम्पूर्ण परिचय सबसे अधिक महत्वपूर्ण है तथा प्राथमिक आवश्यकताका नहीं है। इस परिचयके अभाव में ही भाये दिन पवित्र विषय है। इसी प्रकार कलाभी अत्यन्त चिन्तनीय स्थिति- मंदिर, मृति आदिके विषयमें अनेक दुर्घटनायें सुननेमे में है। कलाके कई भेद हैं, यथा
पाती हैं, जब वे किसी अन्य धर्मावलम्बी या सरकारके कला
अधिकारमें चली जाती हैं तब दौडधूप, मुकदमाबाजी, खनन, वास्तु, शिल्प, लेखन, चित्र, सूची, नृत्य,
प्रार्थनायें आदिमें बहुत कुछ समय, शक्ति और द्रव्य अनुष्ठान ध्यान प्रादि। इसके प्रतीक :
लग कर भी पूरी सफलतामुश्किल से मिलती है परिचयके अभावमें ऐतिहासिक प्रमाण उपस्थित करने में भी कठिनता
पाती है। इसलिये साहित्य और कलाकी सभी वस्तुओंका तीर्थ मंदिर गुफा स्तंभ स्तूप वेदी सिहासन द्वार तोरण सभी स्थानोंसे पूरा पूरा परिचय प्राप्त करना तत्सम्बन्धी । । । ।
___वर्तमान अवस्थाका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये प्रथमावश्यक मंण्डल हम्यं शिखर कलश इन्द्र व यक्ष मूति ध्वजा देवमूर्ति और अनिवार्य है। इसमें किसी दूसरे प्रभावकी अपेक्षा
समाजकी उदासीनता ही देरी के लिये जिम्मेदार है। यदि तपोमूर्ति चरण यंत्र शिलालेख ताम्रपत्र पट्ट रथ पालकी समाज लगनसे काम ले, व्यवस्थित रीतिसं कार्य सम्पा
दन करना प्रारम्भ करे तो बरसोका काम दिनांमे पूरा हो कृत्रिम पशु पालन चंदोवा वेप्टन उपकरण, आदि । '
सकता है अन्यथा माटी मोटी रकम खर्च करके भी दिमां
का काम बरसीमें पूरा नहीं हो सकेगा जेया कि पाज तक नक्काशी, पच्चीकारी सुघड़ना, निर्माण, दृढ़ता, का इतिहास बतलाता है। सुन्दरता, भव्यता आदि अनेक दृष्टियाम जैन समाजको बगैर योजनाके, वगैर क्रमिक उन्नतिशील व्यवस्था ये वस्तुये अपना सानी नहीं रखनी और प्राचीन सभ्यता के, कोई भी महान कार्य सम्पादित नहीं हो सकता है। स्मारक म्वरूप इन वस्तुओंकी गणना संमारकी अलभ्य और कहना नहीं होगा कि हमारी समाजका माहित्य और कलाका अद्वितीय वस्तुओंमें है। इनमेंसे अगणित वस्तुयें अब तंत्र लगभग अखण्ड भारनक क्षेत्र जितना ही विस्तीर्ण तक भी भूगर्भ में छिपी हुई हैं जिनका उद्धार अवश्यमेव । प्रत्येक स्थानसे इन विषयोंका वास्तविक परिचय करना चाहिये । इन वस्तुओंके निर्माणम जैन समाजको प्राप्त करनेका कार्य कहने में जितना मरल है. करने में असंख्य धनराशि लगी है, व अबभी लगती आ रही है। उतना सरल नहीं है । परन्तु कार्यकी महानता भय न जाने कितने बंधुनोंका इसके निर्माण और रक्षाम समय खार उदासीन और निश्चेष्ट होना कोई बुद्धिमानी नहीं।
और शक्तिका ही नहीं किन्तु जीवन तकका,बलिदान हुआ अाज जो रेगिस्तानोंको मरमज किया जा रहा है. दुर्गम है। साहित्य और कलाके आधार पर ही समाजकी पहाद और बीहा जंगलाका आवागमन और खंताक याग्य सस्कृतिका निर्माण होता है।।
बनाया जा रहा है, वह क्या कोई साधारण काम है? (१) नित्य व नमित्तिक धामिक कर्म (२) धार्मिक परन्तु निरन्तरके प्रयास. हदना, स्वावलंबन सहयोग प्रादिअनुष्ठान (३) प्रामाचितन (४) तस्व विचार (१) अहिसा के सहारे इन महान कार्यों में सफलता मिलती पा रही है। धान जीवन (६) सत्यता (७) नैतिक दृढ़ता (5) सदसद् भारत भरका बालिग मताधिकार निर्वाचन क्षेत्रांक द्वारा
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८]
अनेकान्त
[किरण ३ प्रदान किया जा चुका है यह देखते हुए यह कार्य कोई शिलालेखादि पुरातत्व सामग्रीका संक्षिप्त परिचय । कटिन नहीं है यदि सुव्यवस्थित रीतिसे किया जाय। मंदिरकी वार्षिक स्थायी प्राय और खर्चके अंक । मन्दिर
वह रीति यह है कि प्रथम प्रारम्भिक परिचय प्राप्त सम्बन्धी स्थायी जायदादका संक्षिप्त परिचय | मन्दिरकी कर लिया जाय । प्रारम्भिक परिचय प्राप्त करने के बाद अस्थायी सम्पत्तिका अनुमानिक मूल्यांकन । पूजन प्रक्षाल विस्तृत परिचयके लिये सभी सुविधामोंका मार्ग उन्मुक्त नियमित रूपसे करने वालोंकी संख्या । मन्दिर सम्बन्धी और प्रशस्त हो जायगा।
पंचायतीकी घर संख्या व जन संख्या । पंचायती मुखिया स प्रारम्भिक परिचय प्राप्तिका कार्य एक निर्दिष्ट
नाम व पता । जोमदार प्रातिमी प्राय फॉर्म पर होना चाहिये कि जिससे अपने माप इन दोना श्यकता क्या है और उसमें कितना व्यय होनेका अनुमान विषयकी डिरेक्टरी तैयार हो जाय, आगामी पत्रव्यवहारके
है। ग्रादि । पुरातत्व सम्बन्धी संस्थाओं तीर्थक्षेत्र कमेटियो लिये सब स्थानों के नाम पते प्राप्त हो जाय,वीरमेवा मंदिर
और सरस्वती भवनाके अतिरिक्त अन्य सदाशयी महानुकी श्रीरसे प्रचारक भेजकर शास्त्रभंडारांके निरीक्षणका
भावांका भी उपरोक्त दोनों फार्मीका ढांचा विचार पूर्वक कार्य प्रारम्भ हुआ है उसके लिये प्रत्येक स्थानका प्रोग्राम
निश्चित कर लेना चाहिये और फार्म छपवाकर उसकी पहलेसे ही इस प्रकारका निश्चित कर लिया जाय कि
खानापूर्ति के लिए यह कार्य व्यवस्थित रूपमें तत्काल चालू उस दिशा में और उस लाइनमें कोई महत्वका स्थान छूटने
होकर शीघ्रतया सम्पादित हो जाना चाहिए। न पावे और जिन स्थानांकी शास्त्र सूची किसी सरस्वती
हालको मदुमशुमारीक विग्तृत अांकड़े प्रकाशित भवनमें या किसी अन्य स्थान पर पहलेसे आई हुई हो होने पर इस अनुमानकी पुष्टि ही होगी कि छोटे गाँवकी तो उमे प्रचारक साथ में लेते जावें कि जिमको मिलान करके जनता बड़े गाँव और नगरकी और श्राकृष्ट होती भा रही पूरी करनेका कार्य सहज और शीघ्र हो जाय ।
है जिसके कारण छोटे गांवाकी आबादी में इतनी तेजीसे फॉर्म प्रत्येक शास्त्र भंडार और प्रत्येक धर्मस्थानके
कमी हो रही है कि वहाँ के मन्दिरी व अन्य सार्वजनिक लिये अलग अलग हो, छोटे आकारके पुष्ट कागज पर
स्थानाके साथ वहाँके शास्त्रभंडारोंकी दशा भी चिन्तनीय छपाये जावें और Loose leaf फाइलिंगके लिये पहले
हो उठी है। धर्मादक द्रव्य और धर्मादा जायदादके विषय में से ही छेद (Punch) करा दिये जावें । इनमे पूछताछके
राजनीतिक हलचलसे समाज परिचित है। पंचवर्षीय विषय इस प्रकारके रखे जायें:
योजनामें आर्थिक समस्या सुलझानेके लिए धर्मादकी साहित्य सम्बन्धी फाम-भंडार किसके अधिकार
सम्पत्ति प्राप्त करनेका प्रस्ताव नेताओं द्वारा रखा जा में है। किस स्थान पर है । सुरक्षाको दृष्टिसं वह स्थान
चुका है। देखभाल और जीर्णोद्वार श्रादिकी त्रुटि के कारण ठीक है या नहीं । हस्तलिखित ग्रन्थोंकी कुल संख्या।
उनके महत्वपूर्ण स्थानों पर सरकारके पुरातत्व विभागने तापपत्रादि प्रन्थोंकी संख्या । वर्षौ , २ बार वेष्टन ग्वाल
कब्जा कर लिया है। प्रमाणाभावमें अनेक अनिष्ट घटकर ग्रन्थ देखे जाते है या नहीं । ग्रन्थोंकी सूची तैयार है
नायें अब नक मंदिरों,तीर्थक्षेत्रो प्रादिके सम्बन्धमें घटित हो या नहीं । अतिशय प्राचीन ग्रन्थोंका नाम व संख्या। चकी है अतएव मात्र साहित्य, कला और पुरातत्वको दृष्टि मरम्मत योग्य ग्रन्थाका नाम व संख्या । ग्रंथाके देन लेनका से ही नहीं किन्तु आर्थिक दृष्टि व अन्य बहुसंख्यक कारणों लेखा रखा जाता है या नहीं। भंडारके कार्यकर्ताका नाम से भी वर्तमान में यह अत्यन्त आवश्यक है कि सब स्थानों व पता वहाँकी जनता किस विषयों के ग्रन्यांका पठन पाठन से प्रस्तावित फार्म भरकर पा जावें और उनसे बिना किसी करती है और किस विषयके प्रन्याका वहाँ उपयोग नहीं अतिरिक्त श्रमके डायरेक्टरी तैयार होकर भविष्यके लिये हो रहा है किन विषयांके या कौन कौन ग्रन्थ मंगवाने भलीभाँति सोच समझकर रक्षात्मक व्यवस्थाकी जाय । की वहाँ अावश्यकता है। आदि।
किसी अनिष्ट घटनाके पश्चात् की गई प्रार्थना, मुकधर्मस्थान सम्बन्धी फार्म:-मन्दिर या धर्मस्थान दमेबाजी और पश्चातापकी अपेक्षा वर्तमान परिस्थितका किस पंचायत या व्यत्ति के अधिकारमें है। किस स्थान पर
समुचित ज्ञान प्राप्त कर संभावित अनिष्टसे बचनेका स
प्रयत्न करना विशेष प्रयोजनीय है। है। मंदिर में मूर्तियोंकी संख्या, प्राचीन मूतियोंकी संख्या
प्राशा है कि समाज इस प्राथमिक पावश्यकनांक और उन पर अंकित हो तो सम्बत् । प्राचीन यन्त्र और प्रति उदासीन न रहकर कार्यक्षेत्रमे अग्रसर होगी।
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हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(गत किरण 1 से आगे) सोनिजी का परिवार एक धार्मिक परिवार है उन्होंने हैं। यहांके युवकॉकी रणासे मुख्तार साहब को मुझे समय समय पर अपनी कमाईका सदुपयोग किया और पं. बाबूलालजी जमादार को उतरना पड़ा। है विद्वानाका समावर करते है संयम और त्याग शामको चार बजेके करीब हम लोग किरायेकी एक मार्गका अनुसरण करते रहते हैं। सोनिजी स्वयं एक टैक्सी यहाँमे हिन्दुनांके तीर्थस्थान पुष्कर देखने गए धर्मनिष्ट व्यक्ति है। और गृहस्थांचित षट्कर्मोंका जो अजमेरसे. मीलकी दूरी पर अवस्थित है। राता ययेष्टरीत्या पालन करते है।
पहाड़ी और सावधानीसे चनेका है; चलते समय रश्य २नमिया गोधाजीकी. ३ नमिया बड़ा धडाकी.. बड़ा ही सुहावना प्रतीत होता है। जहाँ जहाजीका मंदिर नसिया छोटा धड़ाका. ५ नमिया नया भडाकी । इन पांचों मुम्नर है। वहां भगवान महावीर स्वामीकी विशाल मूनिनसियांमें दो व्यक्तिगत हैं और तीन नमिया तीन विभिन्न का दर्शनकर चित्तमें बड़ी प्रसन्नता हुई। पुष्करम मन् धडांकी है जो उनके नामोंमे प्रसिद्ध है। जिनसे स्पष्ट प्रतीत १२. में मस्तक रहित एक दिगम्बर जैन मृतिका अवशेष होता है कि अजमेरके जैमियाम किमी ममय फिरकावन्दी मिला था जिसके लेखसं रूट है कि वह सं.1 में रही है। शान्तिपुरा मान्दरजी, दौलतबागम क्रश्चिय- प्राचार्य गोनानन्दीके शिष्य पंडित गुणचन्द्र द्वारा प्रतिनगंजमें है। ये सब धार्मिक स्थान मेठजीकी धर्मशाला से ठित हुई थी। कार्तिक महीने में यहाँ मेला भरता है। दो फलांगकी दूरी पर है। धर्मशाला मुहल्ला सरावगी ३ पुस्करकी मीमाके भीतर कोई जीव हिंसा नहीं कर सकता। फल गकी दूरी पर है और शान्तिपुराका नह मन्दिर इन पुष्करसं वापिस आकर हम लोगाने हीराच-द्रजी बोहराके धर्मशालाधाम न मील दूर है। नरहपंथी बड़ा मंदिर यहां भांजन किया। रात्रिको संठजीकी ममिया मंठ जी, सरावगी मुहल्ले में, बत्रांचीकी गनीमें है
भागचंद्रजी की अध्यक्षताम एक सभा हुई जिसमें मुख्तार संठजीका नया चैन्यालय -मन्दिरके सामने ।
साहब बाबूलाल जमादार और मेरा भाषण था। इसका चैत्यालय पिंकरियांका, .. मन्दिरजी नयाधडा, बाद केशरगंज होते हुए हमलांग कार द्वारा रातको ११ भन्दिर गोधाजीका, 10 पद्मावती मन्दिर, १ बड़ा । बजे न्यावर पहुंचे। मन्दिरजी, ५ छोटा घड़ा मन्दिरजी मरावगी मुसनमें व्यावरमै हम लांग ना. वसन्तलाबजीके मकानम घीपडीकी ओर जाते हुये मामने । १५ गोधा गुवाड़ा ठहरे, उन्होंने पहलम की म नागोंके ठहरनेकी म्बवस्था मन्दिर लाल बाजार में है, जिसमें मरावगी मुहल्लम कर रक्ग्बी थी। ला बसन्तलालजीजा. फिरोजीलालजी अजमेरी धड़ागली होकर जाना होता है दो फलांगकी और लाला राजकृष्णजीके दहली भतीजे है।वंबई ही दूरी पर अवस्थित है। १६ उतार धमेटी मन्दिरजी, मिलनसार और सम्न है। उन्होंने सबका मानिथ्य किया १. डिम्गीका मन्दिर, इसमें उक्त घसेटा मुहल्ले में जाना और भोजनादिकी सब व्यवस्था की । ब्यावरका स्थान होता है।
याब हवाकी हाष्टम अच्छा है। परन्तु गर्भाक दिनाम यहां केयरगंज-धर्मशालामे ४-५ फलोंगकी दूरी पर
पानीको दिक्कत रहती है। नशियांजीक शान्त वातावरण में स्टेशन रोड पर मटिमल पुलके मामने गली में अवस्थिन व्रती त्यागियोंके ठहरनेका अच्छा मुभीता। प्रतःकाल है। १८ पब्जी वालोंका मन्दिर केसरगंजके मंदिर होते ही नैमित्तिक क्रियायाम निवृत होकर स्वर्गीय मंड समीप तीनमंजिले मकान पर स्थित है।
चम्पालाल जी रानी वालोंकी नशियांजी में दर्शन किया और वीरसेवामन्दिरके अधिष्ठाता प्राचार्य जुगलकिशोरजी संवत् ११६ पागण (अगहन)मुदी । प्राचार्य से स्थानीय प्रायः सभी सजन मिलने के लिए पाए । यहाँ गोतानन्दी शिष्य पंडित गुणचन्द्रण शान्तिनाथ प्रगिमा प्रमुख कार्यकर्ता हीराचन्द्रजी बोहरा सेठ मा.केसटरी कारिता ।
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अनेकान्त
[किरण ३
वहीं ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवनको दिगम्बर जैन मन्दिर, चित्रकूटका जैन कीर्तिस्तम्भ, और देखा। पं पनालालजी सोनी उसके सुयोग्य व्यवस्थापक चित्तौड़के पुरातन मन्दिर एवं मूर्तियाँ, और महारकीय हैं। उन्होंने भवनकी सब व्यवस्थासे अवगत कराया। गद्दीका इतिवृत्त इस समय सामने नहीं है। धुलेव (केश
कि यहांसे जल्दी ही उदयपुरको प्रस्थान करना था, रिया जी) का आदिनाथका पुरातन दि. जैन मन्दिर इसीसे समयकी कमीके कारण भवनके जिन हस्तलिखित जैनधर्मकी उज्वल कीर्तिके पुज हैं, परन्तु यह सब उपलब्ध प्रन्योंको देख कर नोट लेना चाहते थे वह कार्य शीघ्रतामें पुरातन सामग्री विक्रमकी १० वीं शताब्दीके बादकी मम्पर नहीं हो सका । व्यावरसे हम लोग ठीक है बजे देन है। संबरेसे ११० मीलका पहादी रास्ता तय कर रात्रिको . उदयपुरमें इस समय ८ शिखरवन्द मन्दिर और ५ १०॥ बजेके करीब उदयपुर पहुंचे। रास्ते में हिन्दुओके
स्यालय हैं। हम सब लोगोंने सानन्द बन्दना की। प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारेको भी देखा और शामका वहीं भोज
उदयपुरके पार्श्वनाथके एक मन्दिरमें मूलनायककी मृति नादि कर सड़कके पहाड़ी विषम रास्ते को तय कर, तथा
सुमतिनाथकी है, किन्तु उसके पीछे भगवान पार्श्वनाथकी प्राकृतिक श्योंका अवलोकन करते हुए उदयपुर के प्रसिद्ध
सं० १९४८ वैशाख सुदी १३ की भट्टारक जिनचन्द द्वारा 'फतेसिंह मेमोरियल' में ठहरे। यह स्थान बड़ा सुन्दर
प्रतिष्ठित मूर्ति भी विराजमान है। समय कम होनेसे और माफ रहता है, सभी शिक्षित और श्रीमानोंके ठहरने
मूर्तिलेख नहीं लिये जा सके, पर वहाँ १२ वी १३वीं की इसमें व्यवस्था है। मैनेजर योग्य आदमी हैं। यद्यपि
शताब्दीकी भी मूर्तियां विराजमान हैं। वसवा निवासी यहाँ ठहरनेका विचार नहीं था, परन्तु मोटरके कुछ खराब
प्रानन्दरामके पुत्र पं. दौलतरामजी काशलीवाल, जो हो जानेके कारण ठहरना पड़ा।
जयपुरके राजा जयसिंहके मन्त्री थे वहाँ कई वर्ष रहे हैं
और वहाँ रह कर उन्होंने जैनधर्मका प्रचार किया, वसुउदयपुर एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। राजपूताने
नन्दि श्रावकाचारकी सं०1८०८ में टवा टीका वहांके (राजस्थान ) में उसकी अधिक प्रसिद्धि रही है। उदयपुर गज्यका प्राचीन नाम 'शिविदेश' था, जिसकी राजधानी
सेठ वेलजीके अनुरोधसे बनाई। इतना ही नहीं, किन्तु.
संवत् १७६५ में क्रियाकोषको रचना की। और संवत् महिमा या मध्यमिका नगरी थी, जिसके खण्डहर इम
१७६८ में अध्यात्म बारहवड़ी बना कर समाप्त की x। समय उक्त नगरीके नामसे प्रसिद्ध है और जो चित्तौड़मे
इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिम वहांके अनेक साधर्मी ७ मोल उत्तरमें अवस्थित हैं । उदयपुर मेवाबका ही
सज्जनोंका नामोल्लेख किया गया है जिनकी प्रेरणासे उक्त भूषण नहीं है किन्तु भारतीय गौरवका प्रतीक है। यह राजपूतानेकी वह वीर भूमि है जिसमें भारतकी दासता
ग्रन्थकी रचना की गई है, उनके नाम इस प्रकार हैं
पृथ्वीराज, चतुर्भुज, मनोहरदास, हरिदास, बखतावरदास, अथवा गुलामीको कोई स्थान नहीं है। महाराणा प्रतापने
कर्णदास और पण्डित चीमा। मुसलमानोंकी दासता स्वीकार न कर अपनी भानकी रक्षामें - सर्वस्व अर्पण कर दिया, और अनेक विपत्तियोंका सामना x संवत् सत्रहसो भट्ठाणच, फागुन मास प्रसिद्धा। करके भारतीय गौरवको अक्षुण्ण बनाये रखनेका यस्न शुकलपक्ष पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा ॥३० किया। उदयपुरको महाराणा दयसिंहने सन् १९५४
जब उसरा भाद्र नखत्ता, शुकल जोग शुभ कारी। में बसाया था, जब मुगल सम्राट अकबरने चित्तौड़गढ़ बालव नाम करण तब वरते, गायो ज्ञान विहारी ॥३॥ फतह किया। उस समय उदयसिहने अपनी रक्षाके एक महूरत दिन जब चढ़ियो, मीन लगन तब सिद्धा। निमित्त इस नगरको बसानेका यत्न किया था। उदयपुर भगतिमाल त्रिभुवन राजाकी, भेंट करी परसिद्धा । ३२ स्टेटमें जैन पुरातत्वकी कमी नहीं है। उदयपुर और भास- ® उदियापुरमें रूचिधरा, कैयक जीव सुजीव । पासके स्थानों में, तथा भूगर्भ में कितनी ही महत्वकी पुरा- पृथ्वीराज चतुर्भुजा, श्रद्धा धरहिं अतीव ॥५ तन सामग्री दो पड़ी है। विजोखियाका पार्श्वनाथका
दास मनोहर पर हरी, द्वै वखतावर कर्ण ।
केवल केवल रूपकों, राखें एकहि सणं ॥६ ®देखो, नागरी प्रचारिणो पत्रिका भाग २१०२२७
चीमा पंडित आदि ले, मनमें धरिउ विचार ।
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किरण ३]
हमारी वीर्थयात्रा संस्मरण यहाँ अनेक प्रन्थ लिखे गए है, शास्त्रमण्बार भी मण्डपमें लगे हुए शिलालेखसे सिर्फ इतना ही ध्वनित होता अच्छा है। संवत् १७० और १७०२ में भहारक साल- है कि इस मन्दिरका संवत् ११३में वैशाख सुदिपाव कीर्तिके कनिष्ट प्राता ब्रह्मजिनदासके हरिवंशपुराणकी तृतीया बुधवारके दिन खडवावा नगरमें बागद प्रान्त में प्रतिलिपि की गई, तथा सं० १७१८ में त्रिलोक दर्पण' स्थित काष्ठासंघके भट्टारक धर्मकीर्तिगुरुके उपदेशसे शाह नामका ग्रन्थ लिखा गया है। ज्ञान भण्डारमें अनेक ग्रन्थ बीजाके पुत्र हरदातकी पत्नी हारू और उसके पुत्रों-पुजा इससे भी पूर्वके लिखे हुये हैं, परन्तु अवकाशाभावसे
वा और कोता द्वारा-आदिनाथके इस मन्दिरका जीखोदार उनका अवलोकन नहीं किया जा सका। मन्दिरोंके दर्शन कराया गया था। प्रस्तुत धर्मकीति काष्ठासंघ और लाल करने के बाद हम सब लोग उदयपुरके राजमहल देखने
बागद संघके भट्टारक त्रिभुवनकीर्तिके शिष्य और म. गए और महागणा भूपालसिंहजीमे दीवान वासभाममें
पद्मसेनके प्रशिघ्य थे भ.धर्मकीर्तिके शिष्य मलयकीर्तिने मिले । महाराणाने बाहुवलीको परोक्ष नमस्कार किया।
संवत् १४६३में भ०सकलकीनिके मूलाचारप्रदीपकी प्रशस्ति उदयसागर भी देखा, यहाँ एक जैन विद्यालय है, .
लिखी थी। इस मन्दिरमं विराजमान भगवान मादिमायकी चांदमलजी उसके प्राण हैं . उनके वहाँ न होने से मिलना
यह सातिशव मूर्ति बदौदा बटपाक के दिगम्बर जैनमन्दिर नहीं हो सका। विद्यालयके प्रधानाध्यापकजीने २ छात्र
से लाकर विराजमान की गई है। मूर्ति कलापूर्ण और काले दिये जिससे हम लोगोंको मन्दिरोके दर्शन करने में सुविधा
पाषाणकी है वह अपनी मधुण्य शान्तिके द्वारा जगतके रही, इसके लिए हम उनके प्राभारी हैं। उदयपुरमे हम
जीवोंकी अशान्तिका दूर करनेमें समर्थ है। मूर्ति मनोग्य लोग ३॥ बजेके करीब ४० मील चलकर ६॥ बजे केश
और स्थापत्यकलाको दृष्टिसे भी महत्वपूर्ण है। ऐसी • रियाजी पहुंचे। मार्ग में भीलोंकी चौकियों पड़ी, उन्हें
कलापूर्ण मूर्तियाँ कम ही पाई जाती है। खेद इस बातका
है कि जैन दर्शनार्थी. उनके दर्शन करने के लिये चातककी एक पाना सवारीके हिसाबसे टैक्स दिया गया। यह भील अपने उस एरियामें यात्रियोंके जानमालके रक्षक होते
भांति तरसता रहता है पर उसे समय पर मूर्तिका दर्शन हैं। यदि कोई दुर्घटना हो जाय तो उसका सब भार उन्हीं
नहीं मिल पाता। केवल सुबह 9 बजे से 5 बजे तक
दिगम्बर जैनोंको १ घंटेके लिये दर्शन पूजनकी सुविधा लोगों पर रहता है । साधु त्यागियोंसे वे कोई टैक्स नहीं
मिलती है। शेष समयमें वह मूर्ति श्वेताम्बर तथा सारे लेते । यह लोग बड़े ईमानदार जान पड़ते थे। केशरिया अतिशयक्षेत्रके दर्शनीकी बहुत दिनों से
दिन व रातमें हिन्दुधर्मकी बनाकर पूजी जाती है और अभिलाषा थी क्योंकि इस अतिराय क्षेत्रको प्रसिद्धि एवं ा.
W१ ........ |येन स्वयं बोध मयेन] महत्ता दि. जैन महावीर अतिशय क्षेत्रके समान ही लोक
२ लोका आश्वासिता केचन वित्त कार्ये [प्रबोधिता कैच-] में विश्रुत है । यह भगवान श्रादिनाथका मन्दिर है, इस
नमोक्षमा प्रे (गें तमादिनाथं प्रणामामि नि [त्यम
श्री विक्रमन्दिरमें केशर अधिक चढ़ाई जाती है यहां तक कि बच्चाके
दिस्य संवत् 1४३१ वर्षे वैशाख सुदि प्राय [वृतिया] तोलकी केशर चढ़ाने और बोलकबूल करनेका रिवाज प्रच
तिथौ बुध दिना गुरुवयोहा वापी कूप प्र" .लित है इसीसे इसका नाम केशरियाजी या केशरियानाथ
६ सरि सरोवरालंकृति खडवाला पत्तने । राजश्री . ... प्रसिदिको प्राप्त हुआ है। यह मन्दिर मूलत: दिगम्बर विजयराज्य पालयंति सति उदयराज सेल पा..... सम्प्रदायका है, कब बना यह अभी अज्ञात है, परन्तु खेला श्री मस्जिनकाय धन तत्पर पंचूली बागडप्रतिपात्राश्री
बारहखड़ी हो भक्तिमय, ज्ञानरूप अविकार ॥. [का) ष्ठा संघे भहारक श्री धर्मकोति गुरोपदेशेनावा भाषा छन्दनि मांहि जो, भयर मात्रा लेय । १. ये साध रहा बीजासुत हरदात भार्या हारूतदपस्योः प्रभुके नाम बम्बानिये, समुझे बहुत सुनेय ॥
"पुजा कोताभ्यां श्री [ना] मे (मे) श्वर पासादस्य यह विचारकर सब जना, उर घर प्रभुकी भक्ति ।
जीणोद्धार [कृत]
१२ श्री नाभिराज बरवसकता वतरि कल्पद्र.... बोले दौलतरामसी, करि सनेह रस व्यक्ति ॥६
१३ महासंवनेसुः यस्भिन सुरगणाः कि बारहखड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अनूप । ५. ...."भोज स यूगादि जिनश्वरीवः ॥१॥...... अध्यातमरसकी भरी, चर्चारूप सुरूप ॥१.
(इस लेखका यह पद्य अशुद्ध एवं स्खलित है)
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१२]
अनेकान्त
[किरण ३ प्रात:काल होते ही उसके सिंदूर भाविको पण्डे बुहारियोंसे कभी प्रकाश डाला जावेगा। नागौरीजीकी कल्पनामोंका साफ करते हैं, यह मूतिंकी घोर अवज्ञा है साथही उससे खण्डन श्री लक्ष्मीसहाय माथुर विशाराने किया है। मूर्विके कितने ही प्रत्ययोंके घिस जानेका भी डर है। पाठक उसे अवश्य पढ़ें। राजस्थान इतिहासके प्रसिद्ध मन्दिरमें यह दिमूर्ति जब अपने स्वकीय दि०रूपमें आई विद्वान महामना स्वर्गीय गौरीशंकर हीराचंदजी भोमा तो उसी समय सब लोगोंके हृदय भक्तिभावसे भर गए, भी अपने राजपूतानेके इतिहासमें इस मन्दिरको दिगम्बरोंऔर मूर्तिको निर्निमेष दृष्टिसे देखने लगे। मन्दिर भगवान का बतलाते हैं और शिलालेखोंसे यह बात स्वतः सिन्द्व पादिनाथकी जय ध्वनिसे गूंज उठा, उस समय जो पान- है। फिरभी श्वेतांबर समाज इसे बलात् अपने अधिकार में दातिरेक हुमा वह कल्पनाका विषय नहीं है। मन्दिरके लेना चाहती है यह नैतिक पतनकी पराकाष्ठा है चारों तरफ दिगम्बर मूर्तियां विराजमान हैं। मन्दिर बड़ा श्वेताम्बर समाजने इसी तरह कितने ही दिगम्बर हीकखापूर्ण है। प्राजके समय में ऐसे मन्दिरका निर्माण तीर्थ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, यह बात उसके लिये होना कठिन है।
शोभनीक नहीं कही जा सकती। ___मन्दिर का सभी मंडप और नौचौकी सं० १५७२ में
पिछले ध्वजादण्डके समय साम्प्रदायिकताके नंगे काष्ठा संधके अनुयायी काछलू गोत्रीय कड़िया पोइया
नाचने कितना अनर्थ ढाया, यह कल्पना की वस्तु नहीं, और उसकी पत्नी भरमीके पुत्र हासाने धुलेवमें ऋषवदेवको
यहाँ तक कि कई दिगम्बरियोंकी अपनी वली चढ़ानी पड़ा। प्रथामकर भव्यशः कीर्तिके समय बनवाया। इससे स्पष्ट है
और अब मूर्तियां व लंख तोड़े गए जिसके सम्बन्धमें कि मन्दिरका गर्भगृह निज मन्दिर उसके भागेका खेला
राजस्थान सरकारसे जांच करनेकी प्राथना की गई। मंडप तथा एक अन्य मंडप १४३१ और १५७२ में
प्रातु। बनें । अन्यदेव कुलकाएं पीछे बनी है। जैन होते हुए भी वहां सारे दिन हिन्दुत्वका ही प्रदर्शन रहता है।
__भगवान महावीरके अनुयायियोंमे यह कैसा दुर्भाव, यद्यपि मूर्तिकी पूजा करनेका हम विरोध नहीं करते,
जो दूसरेकी वस्तुको बलात् अपना बनाने का प्रयत्न किया उस प्रान्तक प्रायःसभी लोग पूजन करते हैं। और उन पर
जाता है। ऐसी विषमनाम एकना और प्रेमका अभि संचार श्रद्धा रखते हैं परन्तु उपके प्राकृतिक स्वरूपको छोड़कर
कैसे हो जा सकता है? दिगम्बर श्वेताम्बर समाजका अन्य अप्राकृतिक रूपोंको बनाकर उसकी पूजा करना कोई
कर्तव्य है कि वे दोनों समयकी निको पहचान, और श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता। यहां इस बातका उल्लेख
अपनी साम्पदायिक मनोवृत्तिका दूर रखते हुए परस्परम कर देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि श्रीचन्दनलालजी
एकता और प्रेमकी अभिवृद्धि करनेका प्रयत्न करें । एक नागौरीने 'केसरियाजी का जो इतिहास लिखा है और
ही धर्मक अनुयायियोंकी यह विषमना अधिक खरकती जिसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उममें साम्प्र- ह । आशा है
TIM है । आशा है उभय समाजके नेतागण इस पर दायिक व्यामोहवश कितनी ही काल्पनिक बातें, पट्टएवं विचार करग। शिलालेख दिये हैं जो जाली हैं और जिनकी भाषा उस इसमें कोई सन्देह नहीं है कि केशरियाजीका मन्दिर समयके पट्ट परवानांस जरा भी मेल नहीं खाती। उसमें दि. सम्प्रदायका है । इससे इंकार नहीं किया जा. कुछ ऐसी कल्पनाएं भी की गई हैं जो ग़लत फहमीका सकता। परन्तु वहां जैन संस्कृति के विरुद्ध जो कुछ हो फैलाने वाली हैं जैसे मरुदेवीके पास सिद्धिचन्द्र के चरण रहा है उसे देखते हुए दुःख और आश्चर्य जरूर होता चिन्होको, तथा सं० १६८८ के लेखका बतलाया जाना है। मन्दिरका समरत वातावरण हिन्दुधर्मकी क्रियाओंने जकि वहा हाथींके होदेपर वि० सं० का दिगम्बर श्रोत-प्रांत है। अशिक्षित पण्डे वहां पर पुजारी है, वे ही सम्पदायका लेग्य है और भी अनेक बात है जिन पर फिर वहाका चढ़ावा लेते हैं। आशा है उभय समाज अपने संवत् १७११ वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमे श्री मूलसंधे प्रयत्न
प्रयत्न द्वारा अपन अधिकारोंका यथेष्ट संरक्षण करते हुए सरस्वती गच्छे बलात्कार मणे श्रीमहारक...."मललेख मन्दिरका असली रूप अव्यक न होने दंगे। क्रमश:(यह लेख मरुदेवीके हाथी पर वाई ओर है।
-परमानन्द जैन,
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भारत देश योगियोंका देश है
(ले०-बा. जयभगवान जी एडवोकेट)
(गत किरणसे भागे ) भारतीय योगियोंके अनेक मंघ और सम्प्रदाय पहिन ली और किसीने दण्ड धारण कर लिया। ये लोग __इन इतिवृत्त से पता लगता है, कि यह श्रमणगण वनमें ही छोटे छोटे पत्तोंके मॉप बनाकर रहने लगे और प्राचीनतम समय से काल, यंत्रकी विभिन्न परिस्थितिसे
बनमें उत्पन हाने वाले फलफूल, कन्दमूल मादि लाकर उत्पन्न होने वाले तत्वज्ञानवाचार व्यवहार सम्बन्धी भेद
जीवनका निर्वाह करने लगे। इन विचलित माधुग्राम प्रभेदोके कारण-अनेक संघ और सम्प्रदायोंमें बटे हुए थे। मारीच ऋषि भी शामिल था जो जैनअनुश्रति धनसार इन्हीं में शैव, पाशुपत और जैन श्रमण भी शामिल थे। स्वयं भगवान ऋषभका पौत्र था। इस अनतिका परा यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महावीरकालमें थोड़े थोडे विवग्य जैन पौराणिक साहित्यमें मौजूद है।। में नत्व और प्राचार सम्बन्धी मंदांके कारण श्रमसंघ
पीछेमे बढ़ते बढते यह सम्प्रदाय भगवान महावीर काल कई भेदोंमें बटा हुआ था-- पारसनाथ सन्तानीय माधुओंका में ३६३ की संख्या तक पहुंच गये इस गणनामें पाशपत. हकेश मम्प्रदाय वाला मचेलकमंघ, मम्फरी गोशालक शेष, शाक, नापस चावांक, बौद्ध, भाजीवक, वाला याजीवक संघ जामानि वाला बहातमंध, अपने
तथा कपिल पान-जन, वादरायण जैमिनी कणाद, का नीद्वार कहने वाले मजय, अजितकेश कम्बली,
गौतम श्रादि भारतीय षड् दर्शनकार भी शामिल है। जैन प्रकुद्ध कान्यायन पूर्ण कश्यप आदि प्राचार्योक श्रमण शास्त्रकाराने इन विभिन्न मताकी तात्विक मान्यताओंका सघ भगवान बुद्धका बौद्ध संघ । महागीर उपरान्त
उल्लेख करते हुए इन्हें चार मुग्थ्य श्रेणियों में विभक काल में स्वयं उन द्वारा स्थापित संघभी दिगम्बर श्वेताम्बर किया है-क्रियावादी, क्रियावादी, अज्ञानवादी और संघीम और उसके पीछे ये संघभी गोपिच्छक, काष्ठा, विनयवादी २ । बौद्धमतके पिटक प्रन्यों में भी इन विभिन द्राविड़ यापनीय, माथुर श्रादि पचासों उत्तर गण गच्छाम धर्मों की मान्यताओंका उल्लेख मिलता हैदिक साहित्यविभन हो गया था। मीशा भारतको विशालता में भी इन विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तोके अंकुर मौजूद हैं
और समयकी प्राचीननाका देखन हये महावीर पूर्व कालीन इन सभी दार्शनिकोका ज्ञातव्य विषय प्रारमा वह्म भारतम अनेक प्रकारक श्रमणमंघांका रहना स्वाभाविक था । इन सभीकी समस्या यह थी कि इस प्रारमाका ही है, परन्तु श्राज इन सब संघोंक इतिहास और दार्शनिक 1. (अ) आदि पुराण 15-1-६१. (ईमाको ८वीं मदी) सिद्वान्नांका पता लगाना बहुत कठिन है ।
(था हरिवंश पुगगा .. १०.-11४. , , ___ इस सम्बन्धमे जो जन अनुश्रु नि हम नक पहुंची है (इ) पदमचरित ३. २८६-३०५. (ईमाकी ७वीं सदी) उमर्म तो ऐसा ज्ञात होता है कि इस युगके आदि धर्म- २ (भ) पट खपढागम धवला टीका-पुस्तक-यमगवती, प्रवर्तक ऋषभ भगवानके जमानमे ही बहुतये श्रमण १७३१. १०७-19. 'इंसाकी ८वीं सदीके जिन्होंने उनके पास जाकर दीक्षा ली थी, इन्दिय संयम प्रारम्भमे धरला टीका लिया गया) वन उपवास नपस्या और परिषहजयके कठोर नियमांम. (आ) भावप्रामृत-१३५, (१४० ईमाकी पहिली सदी) घबराकर शिथिलाचारी हो गये । इन्होंने भगवान ऋषभ- (इ) गोम्मटमार-कर्मकाण्ड ८७६-८७१. के मार्गको छोडकर अपने स्वतन्त्र योग साधनाकै सम्प्रदाय
(ईसाको नवीं सदी) स्थापितकर लिये । इनमम्मे कितनाने दिगम्बरस्वको भी , (अ) सुत्त पिटक-दीर्घनिकाय ब्रह्मजाल सुत्त. पहला, छार दिया, किमीने अपनी नग्नताको छुपानेके लिए पेड़ोंकी दुसरा तीसरा, चौथा और ७६ वा सुत्त, छाल धारण करली. किमीने मृगछाल ढकजी, किसीने (आ) मज्झिम निकाय ३० at, .५ वां और ७६वां सुत्त । भस्मसे ही शरीरका विलेपन कर लिया किसीने कौपीन श्वे. उप. १-१-
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अनेकान्त
किरण ३
मूल कारण क्या है-हम कहाँ से पैदा होते हैं, किसके मनुष्य भव, सद्धर्म उपदेश, मनद्धा और मोच सहारे जीते हैं। हमारा संचालन कौन करता है। कौम पुरुषार्थ, यह बात सोचकर मनुष्यको चाहिये कि संयमहमारे सुख दुखोंकी व्यवस्था करता है।
का पालन करे, ताकि वह कर्मों का नाश कर सिद्ध अवस्थाइन अनेक प्रकारके दार्शनिक योगियोंका बाह्यरूप को पा सके।। विभिन्न परिस्थिति और प्रभावोंके कारण कुछ भी रहा हो, काल बराबर बीत रहा है, शरीर प्रतिषण सीण हो परन्तु यह निर्विवाद है कि इन सबको प्रात्मा एक ही थी रहा है इसलिए प्रमाइको छोड़ और जाग, यह मत सोच जो श्रमणसंस्कृतिसे मोत-प्रोत थी। यह सभी श्रमण प्रायः कि जो भाज करना है यह कल हो जायगा । चूंकि सांसाअध्यात्मवादी थे। ये अपने त्यागबन, तपोबल, ज्ञानवल रिक जीवन अनित्य है न मान्दूम इसका कब अन्त हो जाय,
और प्राचारवबके कारण सभी भारतीय जनता द्वारा इसलिए शरीर दिन भिन्न होनेसे पहले इसे प्रारमसाधना विमय और पूजाके योग्य माने जाते थे और तो और में लगाना चाहिये । देवलोग भी सदा उन जैसा ही बननेकी उत्कृट अभिलाषा शरीरसे विदा होनेके दो मार्ग हैं, एक अपनी इच्छाके रखते थे।
विरुद्ध और दूसरा अपनी इच्छाके अनुकूल । पहला मार्ग इस प्रकारके परिव्राजक मुनि इस देशकी स्थायी मूढ मनुष्योंका है और इसका बार बार अनुभव करना सम्पत्ति थे। यवन यात्री मैगस्थनीजसे लेकर--जो ई. पड़ता है। दुसरा मार्ग पण्डित लोगोंका है जो शीघ्र ही पूर्वकी चौथी सदीमें यहाँ माया था और जिमने जि..नो- मृत्युका अन्त कर देता है३ । सोफिस्ट (Gymno Sophist) अर्थात जैन फिला- जो आदमी विषम वासनामों में लिप्त हैं. जो वर्तमान सफरके नामसे इनको इंगित किया है-जितने भी विदेशी जीवनको ही जीवन मानते हैं. जो मोहग्रस्ताए पाप पुण्य पात्री और अभ्यागत यहाँ भाये सभीने इन योगियोंके के फलोंको नहीं निहारते जो स्वार्थसिदि, विषयपूर्ति, वियत और चमत्कारिक जीवन तथा इनके उदार धनोपार्जन, सुख शीखताके लिए हिंसा, अनीति पापका सिद्धान्तोंका उल्लेख किया है। भाजभी यह देश इस व्यवहार करते हैं, वे मृत्युके समय दुख शोकको प्राप्त होते प्रकारके पोगियोंसे सर्वथा खाली नहीं है और प्राजभी हैं, उन्हें मृत्यु भयानक दिखाई देती है। वे उससे कांपते अनेक विदेशी उनकी खोज में यहां पाते रहते है।महर्षि हैं। उनकी मृत्यु उनके इच्छाके विरुद्ध है। रमन और महर्षि अरविन्दघोष अभी हाल में ही भारतके जो प्रारमनिष्ठ है, आत्म संयमी है, प्रमाद रहित है, महायोगी हो गुजरे है।
भास्म साधनामें पुरुषार्थी हैं जो मासके दोनों पक्षोंके पर्वभारतीय योगियोंकी शिक्षाएं
दिनोमें प्रोषधोपवास करते हैं, वे मृत्यु के समय शोक विषाद
को प्राप्त नहीं होते, वे उसका स्वागत करते हुए सहर्ष ये योगिजन गाँव गाँव और नगर नगरमें विचरते हुए शरीरका त्याग कर देते हैं. यह पण्डित मरण है । जिन शिक्षाओं द्वारा लोक जीवनको उन्नत, स्वतन्त्र, और जब सिंह मृगको पा पड़ता है तो कोई उसका सुख सम्पन्न बनाते थे, उनका अनुमान निम्न उदाहरणोंसे सहायक नहीं होता, वैसे ही जब मृत्यु अचानक थाकर किया जा सकता है।
मनुष्यको पकड़ लेती है तब कोई किसीका सहायक नहीं जीव अजर अमर है, ज्ञान धन है, आनन्दमय है, होता । माता, पिता, स्वजन, परिजन, पुत्र कलत्र बन्धुजन अमृत मय है और यह लोक परिवर्तनशील और अवित्य सब हाहाकार करते ही रह जाते हैं। संसारमें ये चार पदार्थ पाना बहुत दुर्लभ है
१. उत्तराध्ययन सूत्र
३.२० दश वैकालिक सूत्र ... भरव और भारतके सम्बन्ध, हिन्दुस्तानी ऐकैडमी प्रयाग पृ. १७८-1८८ डा. पालबटन-गुप्त भारतकी खोज, अनुवादक-श्री
२.१७-२२ बैंकटेश्वर शर्मा शास्त्री वि. सम्बत् १६६६.
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किरण ३]
भारतदेश योगियोंका देश है
इन्द्रिय सुख निस्य नहीं है, वे मनुष्यके पास आते हैं मिथ्यात्व, प्रज्ञान, प्रमाद. कषाय, अविरवि, राग-द्वेष, पुरष व्यतीत होने पर वे उसे छोड़ कर ऐसे चले जाते हैं मोह-माया. अहंकार मादि जितने भी विपरीत भाव है,, जैसे पक्षी फल विहीन वृक्षको छोड़ कर चले जाते हैं ये सभी प्रात्माके सुख-शान्ति सौन्दर्य रूप स्वभावके सुख दुखकी खान हैं।
घातक है। इसलिये ये सभी हिंसा है और इनका प्रभाव जो निर्ममत्व हैं वे वायुके समान, पक्षीके समान,
अहिंसा है। अविछिन्न गतिसे गमन करते हैं।
__ प्राणियोंका घात होनेसे भास्माका ही घात होता है। सुग्बी वही है जो किसी वस्तुको अपनी नहीं समझता, आत्मघात हित नहीं है इसलिए बुद्धिमान योगोंको प्राणिजब किसी वस्तुका हरण बनाश हो जाता है तो वह यह योंका घात महीं करना चाहिये। समझकर कि उसकी किसी वस्तुका नाश व हरण नहीं भन्यजीवोंको चाहिये कि वह प्रमाद छोड़ कर दूसरे हुमा, सम भाव बना रहता है।
प्राणियोंके साथ बन्धु समान व्यवहार करें। ___ यदि धन धान्यके ढेर लाश पर्वतके समान उंचे अहिंसा ही जगतकी रक्षा करने वाली माता। मिल जावें तो भी तृप्ति नहीं होती, जोम आकाश समान अहिंसा हो मानन्दको बढ़ाने वाली पद्धति है, अहिंसा अनन्त है और धन परमित है, अत सन्तोष धन हो ही उत्तम गति है, महिमा ही सदा रहने वाली महान धन है।।
बचमी है। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता इसीलिए साधु जन कभी किसी प्राणीका पात नहीं करते. श्रमण संस्कृतिक पर्व भोर धर्मकी प्रभावना 'प्राणोंका घात महापाप है।
ये योगीजन प्रत्येक दिन सम्ध्या समय अर्थात-पातप्राणियोंका धात चाहे देवी देवताओंके लिये किया मध्यान्ह और सायंकालमें सामायिक करते थे। प्रत्येक जावे, चाहे अतिथि सेवा व गुरु भक्षिके लिये किया जावे पपके पर्वके दिनों में पर्थात पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, चाहे उदरपूर्ति अथवा मनोविनोदके लिये किया जावे पर्णमासी एवं प्रमावास्याको ये पोसह (उपवास) करते थे, उसका फल सदा अशुभ है, इसीलिये हिंसाको पाप और तथाान व अज्ञान वश किये हये दोषोंकी निवृत्तिके अर्थ दयाको धर्म माना गया है१२।
प्रायश्चित करनेके लिये प्रतिक्रमण पाठ अथवा प्रतिमोफ धर्मका मूल दया है, दयाका मूल अहिंसा है और पाठ पढ़ते थे और एक स्थानमें एकत्र हो सर्वसाधारणअहिंसाका मूल जीवन - साम्यता है, इसलिये जो सभी को धर्मोपदेश देते थे। इन पारिकपोंके अतिरिक हर जीवोंको अपने समान प्रिय समझता है, श्रेय समझता है मास वर्षाऋतुके चतुर्मासमें भषाद सुदि एकमसे कार्तिक वही धर्मात्मा है।
बदी पम्दरम तक माधु सन्तोंके एकजगह ठहरनेके कारण समझानेके लिये तो पापको पाँच प्रकारका बतलाया लोगोंमें खूब मस्मंग रहता था इन चनुमासमें धर्म-साधना जाता है-हिंसा, मूठ, चोरी. कुशीन और परिग्रह, परन्तु प्रोषध-उपवास, बन्दना-स्तवन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक वास्तवमे ये सब हिंसा रूप ही है क्योंकि ये सब पाएमाकी माधनायें सविशेष करनेके लिये उपासक जन साधुओंके साम्यदृष्टि और साम्यवृत्तिका घात करने वाले हैं। समागममें एक स्थानमें एकत्र होते थे। इन मेलोंकी एक उत्तराध्ययन सूत्र
विशेषता यह होती थी कि इस अवसर पर एकत्रित हुए जन एक दूसरेसे अपने दोषोंकी पमा मांगा करते थे।
इनके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष एक साम्बस्सरिक सम्मेलन E-18
१४ प्राचार्य अमृतचन्द्र-पुरुषार्थसिक्युपाय ॥४॥
१५ वट्टकेर प्राचार्य कृत मूलाधार ॥२१॥ १२ कार्तिकेयानुमेशा
" शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव", १३ प्राचार्य अमृतचन्द्र-पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥२॥ . " " ॥१२॥
६-१४
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अनेकान्त
[किरण ३
भी होता था, इस अवसर पर कई देशोंक साधु संघ एक किया है। आयुर्वेदिक ग्रन्थोंमें 'अपान' का अर्थ है वह स्थान पर एकत्र होकर प्रतिक्रमणके अतिरिक तत्व सम्बंधी गन्दी वायु, जो श्वास श्रादि द्वारा शरीरसे बाहर भाती तथा प्राचार - विचार-सम्बन्धी तथा लोक कल्याणकी है। इन सात अपानांमें पहले तीन अपान कालसूचक हैं समस्याओं पर विचार किया करते थे।
और शेष अन्तिम चार अपान चर्या सूचक है। इस सूक्तइस तथ्यकी ओर संकेत करते हुए विनयपिटकमें
। का बुद्धिगम्य अर्थ यही है कि-पौर्णमासी, अष्टमी और
का लिखा है, कि एक समय बुद्ध भगवान राजगृहके गृद्ध कूट
अमावाश्या वाले दिन व्रात्य लोगों में पर्व: दिन माने जाते पर्वत पर रहते थे उस समय दूसरे मतवाले परिवाजक
थे और वे इन दिनोंमें श्रद्धा (धर्मोपदेश) दीक्षा (धर्मदीक्षा) चतुर्दशी, पूर्णमासी, और अष्टमीको इकट्ठा होकर धर्मो.
यज्ञ (वत, उपवास, प्रतिक्रमण वन्दना-स्तवन) और पदेश किया करते थे। इन अवसरों पर नगर और प्रामाके
(दक्षिणादान दक्षिणा) द्वारा धर्मकी विशेष माधना कर स्त्री पुरुष धर्म सुननेके लिए उनके पास जाया करते थे।
पात्म शुद्धि किया करते थे। बृह उप 1.५.१४मे अमाजिससे कि वे दूसरे मतवाले परिवाजोंके प्रति प्रेम और
वस्याके दिन सब प्रकारका हिंसा कर्म वर्जित बनलाया श्रद्धा करने लग जाते थे और दूसर मतवाले परिवाजक गया है। अपने लिये अनुयायी पाते थे। यह देख बुद्ध भगवानने इसी प्रकार महाभारत अनुशासन पर्व अभ्याय १०६ भी अपने भिन्तु मांकां अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासीको और १०७ में पर्वक दिनाम साधुग्री व गृहस्थीजन द्वारा एकत्र होने, धर्मोपदेश देने, उपोमह करने और प्रतिमोक्ष- किये जाने वाले व्रत उपवामांकी महिमा भीष्म युधिष्ठिर प्रतिक्रमणपाठ-करनेकी अनुमति दे दी थी ।
संवाद द्वारा यो वर्णन की गई है-भीम युधिष्टिरको इन प्रात्य लोगोंकी (व्रतधारी श्रमण लोग) कहते हैं कि-उपवायांकी जो विधि मैने तपस्वी अंगिरासं' उपर्यत जीवनचर्या को ही दृप्टिमें रख कर ब्राह्मण सुनी है वही में तुझे बताता हूँ-जो मनुष्य जितेन्द्रय भूषियोंने अथर्ववेद-वास्यकाण्ड १५ सूक्त १६ में।
होकर पंचमी अष्टमी और पूर्णिमाका केवल एक बार बायोंके निम्न सात अपानांका वर्णन किया है
भोजन करता है वह समायुक्त, रूपवान और शास्त्रज्ञ हो १. पूर्णमासी, २. अष्टमी, ३. श्रमावश्या, ४ श्रद्धा, ५.
जाता है। जो मनुष्य अष्टमी और कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको दीक्षा, ६..यज्ञ... दक्षिणा इस सक्तमें ऋषिवरको उपवास करता है वह निरोग और बलवान होता है। वास्योंके उन साधनांका वर्णन करना अभीष्ट मालूम होता
अध्याय १०६ श्लोक ४-२०) है जिनके द्वारा वे अपने भीतरी दोषोंकी निवृति किया करते पुनः अध्याय १०६ श्लोक १६ से लेकर श्लोक ३० थे। इसीलिये ऋषिवरने इन दोष निवृत्तिमूलक साधनोको तक अगहन, पौष माघ फागुन,चैत्र श्रादि द्वादश महीनोंसर्वसाधारणकी परिभाषामें 'भपान' संज्ञाय उद्बाधित के क्रममे उपवापांका फल वर्णन किया गया है इन - - - ----
उपयुक्त उपवामांमे लोक सुरव और स्वर्ग सुम्ब मिलने १ व्याख्या प्रज्ञप्ति १२.१.१३.६॥ उत्तराध्ययन सूत्र
हैं। पुनः अध्याय १०६ श्लोक १०से अध्यायके अन्त तक ५.६७. २२
तथा अध्याय १०७ में विविध प्रकारके उपवामोंका फल अंगपत्ति -प्रकीर्णक श्लोक २८
बतलाते हुए कहा है कि इन उपवासोंको यदि मांस, इन्द्रनन्दी कृत-श्रुतावनार ॥ ८७
मदिरा, मधु त्याग कर ब्रह्मचर्य अहिंमा सत्यवादिता जिनसेन कृत-श्रादिपुराण पर्व ३८ श्लोक २५-३४ अोर सर्वभूत हितकी भावनामे किया जावे तो मनुप्यको त्रिलोकमार-॥७६ ॥
अग्निष्टोम, वाजपेय, अश्वमेध गोमेध, विश्वजित अति
रात्र, द्वादशार, बहुसुवर्ण, सर्वमेध, देवसत्र, राजसूय पाशाधर कृत-सागार धर्मामृत २.२६
- ---- - ------- ---- - जयसेनकृत-प्रतिष्ठापाठ ॥५५-५८॥
२. विनय पिटक-उपोसथ स्कन्धक ।
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किरण २]
भारत देश योगियोंका देश है
सोमपदा आदि विविध यज्ञोंके सम्पादन द्वारा जो ऐहिक सब प्रकार के कर्मोंमें बिरत होकर विश्राम किया था, और स्वर्गिक सुख मिलते हैं, उनसे भी सैकड़ों और हजारों ईसाई लोग इस सातव दिन (रविवार ) को Sabbath गुण सुम्ब इन उपवासोंके करनेसे मिलता है । जैसे वेदम दिन मानते है और सांसारिक कार्योंसे विरुद्ध होकर धर्म श्रेष्ठ काई शास्त्र नहीं हैं, मातामे श्रेष्ठ कोई गुरु नहीं है, साधना में लगाते है। सब्बतु और उपोमय के शब्द साम्प धर्ममे श्रेष्ठ काई लाभ नहीं है वैसे ही उपवामास श्रेष्ठ और भावसाम्पको देखकर अनुमानित होता है कि कोई तप नहीं है। उपवासके प्रभावसं ही देवता स्वर्गक किसी दूर कालमें भारतीय संस्कृतिके हो मध्य ऐशिया में अधिकारी हुए हैं और उपवासके प्रभावसे ही ऋषयोंने फैलकर वहांक भगवानका उद्धार किया था। पिद्धि हासिल की है। महर्षि विश्वामित्र ने सहस्र ब्रह्मवर्षों तक एक बार भोजन किया था इपीके प्रभावसे वह
उपसंहार ब्राह्मण हुए हैं। महषि च्यवन जमदग्नि, वसिष्ठ गौतम
इस तरह प्राचीन भारतमें ये पर्व (त्यौहार ) भोग और भृगु इन क्षमाशील महात्माश्राने उपवायके ही प्रभाव
उपभोगकी वृद्धि के लिए नहीं बल्कि जनताके सदाचार से स्वर्गलोक प्राप्त किया है । जो मनुष्य दृमगेको उप
और संयमको उनके ज्ञान और त्याग बलको बढ़ाने के वास बनकी शिक्षा देता है उसे कभी कोई दुग्य नही लिये काम पाते थे। पात्मज्ञान, अहिंसा संयम, मिलता है। हे युधिष्ठिर! जो मनुष्य अंगिराकी बतलायी नप, त्याग, मूलक भारतीय संस्कृतिको कायम रखने हुई इस उपवाम विधिको पड़ता या मुनता है उसके मब और देश विदेशांमें जगह जगह भ्रमण कर उसका पाप नष्ट हो जाते हैं।
प्रसार करनेका एकमात्र श्रेय इन्हीं स्यागी तपस्वी ___उपरोक्त पर्वके दिनों में व्रत उपवास रखने, दान दीक्षा प्रमण लोगोंका है यह उन्हींकी भूत अनुकम्पा, सभादेने और क्षमा व प्रायश्चित करनेकी प्रथा आजतक भी वना, सहनशीलता. धर्मदेशना और खोक कल्याणार्थ जैन साधुओं और गृहस्थोंमें तो प्रचलित है ही, परन्तु सतत् परिभ्रमणका फल है कि भारत इतने राष्ट्र विस्तवोंसर्वसाधारण हिन्दू जनतामे भी किसी न किसी रूपमे मस गुजरने के बाद भी, इतने विजातीय और सांस्कृतिक जारी है। ये पर्व और इनसे किये जाने वाले सघषों के बाद भी. भाषा भूषा, प्राचार-व्यवहारकी रहो. धार्मिक अनुष्ठान निस्सन्देह भारतीय संस्कृति के बहुमूल्य बदलके बावजूद भी, अध्यात्मवादी और धर्मपरायण बना अंग हैं।
हुश्रा है। ये महात्मा जन ही सदा यहाँ राजशासकोंके भी उपरोक्न पर्वके दिनों में उपांमथ रखनेको प्रशा प्राचीन शाशक रहे हैं। समय समय पर धर्म अनुरूप उनके राजबेबीलोनिया (ईराक दशक लागों में भी प्रचलित थी। काम कर्तव्यांका निर्देश करते रहे हैं। ये सदा उन्हें विम्बाबुलके सम्राट अमुरवनीपाल (६५१ से ६२६ ई. हना, निष्क्रियता, विषयलालसा और स्वार्थताक अधम पूर्व) के पुस्तकालयम एक लेग्य मिला है, जिसमें लिया मागोंये हटा कर धर्ममार्ग पर लगाते रहे हैं। भारतका है कि हर चन्द्रमासकी मानवीं चौदहवी, इक्कीसवीं और कोई मफल राजवंश ऐसा नहीं है जिसके ऊपर किमी अट्ठाईसवीं तिथियांक दिन बावलक लो। सामारिक कामा- महान् योगीका वरद हाथ न रहा हो-जिसने उनकी मंत्रणा से हट कर, देव आराधनामें लगे रहते थे । इन दिनांको ओर विचारणाम प्रान्मबल न पाया हो । प्राजक स्वतन्त्र वे सब्बतु (Sabbath) दिवस कहते थे। 'सम्बनु का भारतका ननृत्य भी हम युगके महायोगी मह"मागांधांके अर्थ बाबली भाषामे हृदय विश्रामका दिन है। हाथ में रहा है. तभी हनने वर्षकी खोई हुई स्वतन्त्रता
ईसाई धर्मकी अनुति अनुसार जो बाईबल-जेनेपिम पुनः वापिस पानम भारन मफल हो पाया है। वास्तव में अध्याय 1 में सुरक्षित है, प्रजापति परमेश्वरने अपलोक भारतीय संस्कृतिको बमाने वाले और अपने तप, त्याग (संस्तर ) की तम अवस्था ( अज्ञान दशा ) में मह तथा महन बल उन्म कायम रखने वाले ये योगी जन दिन तक विसृष्टि विज्ञान का उद्धार करके सातवें दिन ही है।
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कोर)
भारतके अजायबघरों और कला-भवनोंकी सूची भारत सरकारने हाल में 'इण्डिया टूरिस्ट इन्फार्मेशन १६. प्रायोलाजिकल म्युजियम ग्वालियर । नामकी एक पुस्तिका प्रकाशित की है जो भारतका दूर ७. हैदराबाद म्युजियम, हैदराबाद । (परिश्रमण) करने वालोंको कितनी ही मावश्यक सूचनाएँ १८. इन्दौर म्युजियम, इन्दौर । देती है। उसमें यह सूचित करते हुए कि भारतवर्ष म्यू- १६. अलबर्ट म्युजियम, जयपुर। जिमों (अजायबघरों-अद्भुतालयों) और पार्टगेलेरीज (कला- २०. सरदार म्युजियम, जोधपुर भवनों भादि) की दृष्टिसे समृद्ध है, उन सबकी एक सूची २१. जरडाईन म्युजियम, खजराहो, छतरपुर (विंध्यदी है, जिसे अनेकान्तके पाठकॉकी जानकारीके लिये यहाँ
प्रदेश) प्रकाशित किया जाता है :
२२. पदुकोहाइ म्युजियम पददुकोट्टाइ (मदरास) (क) भारत सरकार द्वारा पलित पोषित (Maint- २३. बैटसन म्युजियम प्रोफ एण्टीक्युटीज राजकोट ained)
(काठियावाड़) १. नेशनल पारचिज प्रोफ इण्डिया, न्यू देहली।
२४. म्युजियम प्रोफ प्रायोलाजी, सांची भोपाल, २.देहली फोर्ट म्युजियम प्रोफ पाक्योलाजी, देहली।
२५. •टेट म्युजियम त्रिचुर (कोचीन) ३. सेन्ट्रल एशियन एन्टीक्युटीज म्युजियम न्यू देहली
२६. गवर्नमेंट (नेपियर्स) म्युजियम, त्रिवेन्द्रम् (दावन १. प्रायोलाजिकल म्युजियम, नालन्दा । १. प्रायोलाजिकल म्युजियम, सारनाथ ।
२७. विक्टोरिया हॉल म्युजियम, उदयपुर राजपूताना) १. बायोलाजिकल म्युजियम, नगरजूनी कोबडा
८. जूनागढ़ म्युजियम जूनागढ़ सौराट) .. फोर्ट सेंट जार्ज म्युजियम, मदरास ।
२६. नवानगर म्युजियम, नवानगर (सौराष्ठ) ८. राजपूताना म्युजियम, अजमेर ।
(ग) ट्रस्टों द्वारा पालित-पोषित। १. इन्डियन म्युजियम, कलकत्ता ।
१. प्रिस मॉफ वेल्स म्युजियम श्रॉफ स्टर्न इण्डिया, १०. विक्टोरिया मेमोरियलहॉल, कलकत्ता ।
बम्बई । (ख) रियासती सरकारों द्वारा पालित पोषित
२. बार्डरिए महाराष्ट इन्डस्ट्रीयल म्युजियम, पूना। १. स्टेट म्युजियम, भुवनेश्वर (उड़ीसा)
(घ) प्राइवेट रूपसे पालित पोषित । २. स्टेट म्युजियम, लखनऊ।
१. भारतकला-भवन, बनारस यू०पी०) ३. गवर्नमेंट म्युजियम मदरास ।
२. सैन्ट ब्रेवीयर्स कालेल म्युजियम, बम्बई । ४. कर्जन म्युजियम प्रोफ प्रायोलाजी मथुरा ।
३. म्युजियम प्रोफ वंगीय साहित्यपरिषद, कलकत्ता। ५. सेन्ट्रय म्युजियम, नागपुर ।
४. आशुतोष म्युजियम, कलक्शा यूनिवर्सिटी, ६. पटना म्युजियम, पटना।
कलकत्ता। ७. स्टेट म्युजियम गोहाटी श्रासाम)
१. भारत इतिहास संशोधक मंडल पूना । ८. पैलेस कोलेक्सन, चौंध ।
__(6) म्युनिस्पिलटी द्वारा पालित पोषित । 1. मैसूर गवर्नमेंट म्युजियम, बैंगलोर ।
1. इलाहाबाद म्युनिसिपल म्युजियम, इलाहाबाद । १०. बड़ीपाद म्युजियम, मयूरगंज (उड़ीसा)
२. विक्टोरिया जुबिली म्युजियम बेजवाहा । ११. खिविग म्युजियम, मयूरगंज रियासत
३. प्रायोलाजिकल म्युजियम, बीजापुर (बम्बई) १२. बड़ौदा रटेट म्युजियम, एण्ड पिक्चर गैलेरी
४. विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्युजियम, बम्बई बड़ौदा ।
५. रायपुर म्युजियम, रायपुर (मध्यप्रदेश) १६. बर्टन म्युजियम, भावनगर (काठिया)
माशा है पुरातत्व तथा इतहासादिके विद्वान इस ११. भूरीसिंह म्युजियम. चम्बा (हिमाचल प्रदेश) सूची से लाभ उठाएंगे। १५. प्रायोलाजिकल म्युजियम हिम्मतनगर (ईडर)
पखालालजन अग्रवाल
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वंगीय जैन पुरावृत्त
(श्री बाबू छोटेखालजी जैन कलकत्ता)
(गत किरणसे आगे) विभिन्न जातियाँ
रचना इसी समय हुई थी। ब्राह्मणोंने वेदविरोधी जातियोंकी महाभारत, मनुस्मृति देवमस्मृति, ब्रह्मवैवर्तपुराण,
उत्पत्तिके सम्बन्ध में कल्पनासम्मन नाना कथाएँ रचकर विष्णुपुराण आदि थामें प्रक्षिप्त श्लोक लगाकर या उन्हें
ग्रन्थों में प्रक्षिप्त कर दी । गुप्त नृपति बौद्ध और जैनधर्मके परिवनित या परिवदित कर ब्राह्मणांने जै..और बोडोंके विद्वेषी नहीं थे। इसी समय वज्रयान, महजयान, मन्त्रयान प्रति अपना विद्वेष खूब साधन किया है और जो जो प्रभृति तांत्रिक बौद्धधर्मका प्रवर्तन हुआ और वंगदेशके जातियों जैन और बौद्धधर्मकी अनुयायी थीं उनको वृषत्व
जनमाधारणमें इनका विशेष प्रचार हुश्रा। यह तांत्रिक और शूदभावापन्न घोषित कर दिया है इस सभी इतिहास
बौद्धधर्मका अभ्युदय, बौद् और हिन्दूधर्मके समन्वयका लेखक स्वीकार कर चुके हैं। भारतवर्ष में कितनी ही
फल मालुम होता है। जातियां ऐसी है जिनका अतीत मौरवान्वित है और हीन
महामहोपाध्याय हरप्रमाद शाम्बीने लिखा है कि न होते हुए भी वे अपने को हीन समझने लगी हैं किन्तु भारतवर्ष पूर्वाङ्गामें ही बोधर्मने सापेक्षा अधिक ज्यों २ पुरानन्य प्रकाश में प्राता जाता है ये जानियाँ अपनी
प्राधान्य लाभ किया था। हुयेनत्मांगने सप्तम शताब्दीके महाननाको ज्ञानकर अपने विलुप्त उच्च स्थानको प्राप्त
प्रथमार्द्ध में वंगदेशमें ८-७ संघारामों में .१५०.. भिक्षु
देम्बे थे। एतद्भिन जैनधर्मके भिक्षु भी थे। भिनुप्रांके ___ + महामा बुद्धके बहुत पहले बंगाल में वेदविरोधी
लिये नियम था कि तीन घरों में जानेके बाद चतुर्थगृह में जैनधर्म का प्रभाव बहुत बढ़ चुका था। २३वें तीर्थकर
नहीं जा सकते हैं। और एक बार जिम घरमें भिक्षा पा पाश्वनाथ ई. पू. ५७. अब्दमें जन्मे थे । इन्होंने वैदिक चुक ह उसम फिर एक माम तक नहीं जा सकते है। कर्मकारा और पंचाग्नि-साधन प्रभृति की निन्दा की थी। सुतरा एक
सुतरां एक बतिका प्रतिपालन करनेके लिये अन्ततः १०. काशीम मानभूम पर्यत सुविस्तृत प्रदेशमें अनेक लोग घर गृहस्थाक हाना चाहिये । इस हिमाचम नन्कालीन उनके धर्मोपदेशमं विमुग्ध हो उनके वशीभूत हो गये थे।
पंग देशवः । नगरी में ही एक कोटि बौद्ध मंग्या हो पाव नाथी पूर्ववर्ती २२ तीर्थकरांने राजगृह, चम्पा रानकी जान
जाती है नब मारे कंगदेशमें ना और भी अधिक होगे राजधानी बिहपुर और सम्मेदशिम्बरम याज्ञकोके विरुद्ध इमम मन्द
हममें मन्देह नहीं है। अन इनकी प्रधानता इससे म्पर जैनधर्म का प्रचार किया था। अंतिम तीर्थ र श्रीमहावीर- हो जाती है। म्वामी युद्धदवकं प्रायः मममार्मायक या अल्प पूर्ववर्ती बंगलार पुरावृत्त (पृष्ठ १६ में लिम्बा है कि थे। इन्होंने १२ वर्ष राददशमें रहकर असभ्य जङ्गली 'ईस्वी चतुदंश शताब्दीमें भी रंगदेशमै बौद्ध और जैनोंका जानियामें धर्मोपदेश प्रदान किया था। उस समय वेद अत्यन्त प्रभाव था।' विरोधी जैन और बौद्धमताने पौंडदशमें और तरपाव वर्ती यही कारण है कि अंग बंग, कलिग सौराष्ट्र और देशामें विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। सम्राट विम्बरमारके मगर्दिशमं तीर्थयात्रा व्यतीन अन्य उद्देश्यसे गमन करने ममयमे मौर्यवंशक शेष राजा बृहदथके समय पर्यंत साढ़े पर पुनः संम्कार अर्थात् प्राश्चित्त कर्तव्य मनुसंहिता + तीनमौ वर्षों तक मगध पौडबंगादि जनपद समूह बौद्ध में लिग्वा गया। इसी प्रकार शूलपाणि और देवजम्मृतियों
जैन प्रभावान्वि हो रहे थे। तत्पश्चात् गुप्ताक DINonery ol Living Buldhi-in m प्रभाव-कालमें हिन्दू धर्मका पुनरभ्युदय हुमा । ऐतिहासिक Bengal. गणोंने थिर किया है कि अष्टादश पुगणोंमें अनेकोंकी
___ + अंग वंगलिगेपु सौर ष्ट्र मगधेपु च
. +वंगे क्षत्रिय पुण्डजाति-श्री मुरारीमोहन सरकार पृ०॥ तीर्थयात्रा विना गच्छन्-पुनः संस्कारमहति ॥
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१००]
अनेकान्त
[किरण
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में भी यही माशा दी है। इन स्मृतियोंके उद्धरणोंसे पुलिद गणोंको राज्यमे स्थापित करेगा (वि. पु. ४ र्थ स्पष्ट हो जाता है कि अन्यान्य देशों में हिन्दुगण दीर्घकाल- अंश, २४ अध्याय) बाह्मणधर्म विरोधी या भिन्नधर्मी- . से जैन बौद्ध प्लावित देश समृहके संस्पर्शमें पानेका मुयोग जनममूहको ब्राह्मण शास्त्रोंमे दस्यु, म्लेच्छ, इत्यादि पाकर कहीं उन धर्मोको ग्रहण न कर लें। पाठक देखें कि विशेषणोंसे अभिहित किया है। बौद्ध और जैनगण हिन्दुओंकी आंग्यों में किस प्रकार हेय अतएव ब्राह्मणोंने जिन प्राचीन नातियोंको भ्रष्ट, दस्यु, हो गए । यहाँ तक कि जैन और बौद्ध धर्मानुगग प्रदर्शनके
अनार्य वगैरह सम्बोधन करके घृणा प्रकट की है, उनका अपराधसे बंगालको ब्राह्मणेतर तावत्-हिन्दु जाति मात्र
पता लगाया जाय तो उनमे सर्व नहीं ता अनेक अवश्य शतपर्यायान्तर्गत घोषित हो गई थी। यह उशनसंहिताके जैनधर्मावलम्बी थीं ऐसा प्रगट होना। निम्नलिखित श्लोकसे स्पष्ट प्रतीयमान होता है:
बङ्गाल में इस समय कई जातियाँ ऐसी है जो एक बुद्धश्रावनिगूढाः पञ्चगवाविदोजनाः
समय ज्ञानगुण शिक्षा और कर्मसे सभ्यताक उच्चतम कापालिकाः पाशुपताः पापंडाश्चव-तद्विधा सोपानपर अधिरुद थीं किन्तु आज वे ही ब्राह्मणोंके यश्चश्नन्ति हविष्येते दुरात्मानन्न तामसाः १.४२५ विद्वेषके कारण अपने अतीत गौरवमे विम्मृन हो दीन
अर्थात्-बौद्ध श्रावक, निगूढ़ (दिगम्बर जैन) पंचरा- हीन अवस्थामें हैं। इन जातियाममे अब यहाँ पुरुडू, त्रिवित, कापालिक, पाशुपत इत्यादि जितने पाखण्ड हैं पुलिन्द, सातशती सराफ यादि कतिपय जातियों पर वे सब दुरात्मा नामम व्यकि. जिसके श्राद्धमें भोजन विचार करना है। करते हैं उनका श्रार प्रसिद्ध है।
बङ्गाल में तीन प्रकारके जैनो है-एक तो वे जो यहाँके पह विद्वेष और स्वार्थ यहीं तक बढ़ा कि बंगाली श्रादि अधिवासी हैं और जिनमें कितनांका तो ब्राह्मण ब्राह्मण समाज, ब्राह्मण भिन्न क्षत्रिय, और वैश्य द्विजा- विद्वेषके कारण अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा, कितने तिव्यका आस्तित्व बंगाल में स्वाकार ही नहीं करते ही दधर्मी शूद-संज्ञा-भुक्त हुए और कितने ही अत्याहैं-सभीको शूद्ध पर्यायम ढकल दिया है और उनका चारासे पिसते हुए अन्तम मुसलमान हो गए । दूसर वे जो उत्पत्ति भी नानारूप शंकरास कल्पितरली है और न- प्राचीन-प्रवासी-पश्चात् निवासी है जैसे सराक। और तीसरे प्राधान्यकालम यह सब निधारमा श्लोकारली प्रसिद्ध की वजो नृतन प्रवासी प्रथात् जि का यहीं गत तीन चारसौ गई है।
बाँसे प्रवास है। वेद में लिखा है-अन्नान वः प्रजा भाम्यति । त
सप्तशती (ब्राह्मण) एत अन्ध्रामुण्डाः शवरा: पुलिन्दाःगुनिवा' इन्युदन्ता प्राच्यविद्या-महार्णव, विश्वकोषरणेना, श्री नगेन्द्रनाथ बहवो भवन्ति । ये वैश्वामित्रा दस्युना भृचिष्ठाः रतोय
त्रा दस्युना माचष्ठा रतस्य वसुने अपने बंगेर जानीय इतिहास (प्रथम भागमें लिया ७।१८-अर्थात्-अन्ध्र, पुण्ड, शबर, पुलिन्द, मुघि किप्रभृति जातियाँ विश्वामित्रकी सन्तान है एवं यं दम्यु
न्तान है एव य दम्यु 'बंगालके नाना म्यानाम सप्तशती नामक एक श्रेणी अर्थात् म्लेच्छ है। मनुने दम्यु शब्दकी यह संज्ञा निर्देश
ब्राह्मण वास करते है। उनमें अधिकांश वंगवासी श्रादि की है-प्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यादि जो जातियाँ बाह्य जातिके
ब्रह्मणांके वंशधर हैं। जिस प्रकार मानवका शैशव यौवन भावको प्राप्त हो गई है, वे म्लेच्छभाषी वा श्रआर्यभाषी जो
और वार्द्धक्य यथाक्रममं पाकर स्वस्थान अधिकार करता हैं भी हो सब दस्यु है (मनु-१०-४५) इसी प्रकार विष्णु- उस्थान, पतन, विकाश अथवा विनाश जिस प्रकार प्रत्येक पुराण में 'भविष्य-मगधराजवंश प्रसङ्ग में लिखा है कि
जीवनका अवश्यम्भावी फल ई, प्रत्येक समाजका भी उसी विश्वम्फाटिक नामक एक राजा होगा, वह अन्य वर्ण
प्रकार क्रमिक परिणाम परिदृष्ट होता है । सप्तशती समाज प्रवर्तित करेगा और ब्राह्मण धर्मके विरोधी कैवर्त कह और
भी कालचके भावर्तनमें यथाक्रमसे शैशव, यौवन, सिन्धु-सौवीर-सौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यान्तिवासिनः अतिक्रम कर जराजीर्ण वाक्यमे उपनीत हुआ है इसीसे अंग वंग-कलिगौडान् गत्वा संस्कारमर्हति ॥ यह प्राचीन समाज पाज निस्तब्ध निश्चल और मुह्यमान
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किरण
वंगीय जैन पुरावृत्त
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है अनेकों धर्मसंभषम कितीही विभिन्न मादायक प्रबल इन सब महास्मानांके प्रयाससे सहनों लोग जैनधर्ममे
आक्रमणांमे बहसमाज धानांन हमा है, और कितने दीक्षित हुए थे। और इन्हींके प्रभावमे यहाँक ग्राह्मणांके विषम शेखासं इसका वलस्थल घायल हुआ है। आज हृदयमे कर्मकांडोंके प्रति भास्था कम होनी गई । कर्मकांडों यह कौन जानता है।
का पादर कम होने पर माहाणेतर विधर्मागम कर्मकांडका वनमान ऐतहामिागण घोषणा करेंगे कि इस समाज
अनादर और निदा करने लगे। उत्साहके प्रभावमें और
निर्वातस्थानमें अग्निकी तरह साग्निक ब्राह्मणगण निरा: का जो अध: ताहु उसका भूल है बौद्ध विप्लव । सिन्तु बम गिक केवल बौडॉय इम समाजका विशेष
ग्निक हो गये । इमी ममय उन बाक्षणांकी रय-सामाजिक अनिष्ट माधिन मा हाना है। जिस प्रकार बहु सहमवों
और धर्मनैतिक भवतिका सूत्रपात हुमा । उसके बाद पूर्व : इस समाजका अभ्युग्थान उमा था उसी प्रकार सम्राट अशोककी अनुशामन लिपिम 'अहिंसाका माहा-म्य बावधर्म प्रचारक पहल ही इनका पतनारम्भ हुमा ।।
या सर्वत्र प्रचारित हुश्रा और जनसाधारणका मन उसमे पहले ये ब्रह्मण वेदमार्ग पग्भ्रिष्ट नहीं थे और वेदविद्
. विलिन हुआ । यहाँके अधिकांश ब्राह्मणोंने वैदिकाचारका और याग्निक माहाण कहे जाते थे। किन्तु यहाँ (बंग)
परित्याग किया। जिन्होंने पहले ब्राह्मणधर्म परित्याग की जलवायुका ऐसा गुण है कि मय काई नित्यनूतनके
नहीं किया वे वैदिकी पूजा विसर्जन कर पौराणिक देवपक्षप नी है यौर पुगतनके साथ नननको मिलाने के लिए
पूजामें अनुरक्त हो गये । पौराणिक देव पूजाका प्रभाव तस्पर रहते है । इस आवहवामे पुरातन वैदिक मार्गके
बंग वामियों पर हुआ। जिस समय बंगालमें पौराणिक ऊपर भी अभिनय माम्मदःयिकाफी भीषण मटिका प्रवाहित
देवपूजाका प्रसार हो रहा था उस समय धीरे धीरे उसके हुई थी । उनीक फन गौड (वंग) देशमें जैनधर्मादिका
अभ्यन्तरमे बौद्धमान प्रवेश कर रहा था। पौराणिक और
बौद्धगणांके संघर्ष में बौधर्मने जय लाभ किया। जैन अभ्युदय हुअा। जब भगवान् शाक्य बुद्धने जम्म ग्रहण नहीं किया था उसके पहले ही गौवंशमै शव, कोमार, और
प्रभृति अन्य प्रबल मत भी क्रममे उसके अनुवर्ती होने जैनमन प्रवर्तित थे। जैनांके धर्म-नतिक इतिहासमं पता
लगे। इसी समय गौड मंडल में तांत्रिकताकी सूचना प्रारम्भ चलना है कि शावयबुद्धम बहुत पहल बंगालमें जैन प्रभाव
हुई। वैदिकोंका प्रभाव ती पहिली तिरोहित हो चुका
था। अब पौराणिक भी नतमस्तक हो गये। विस्तत हो गपा था। जैनांक चौबीसा तीर्थंकर शाक्ययुद्धके पूर्व पीं हैं और इनमें २१ तीर्थकरांक माथ गालका स्वृष्टीय ( इसबी) अष्टम शताब्दिमें गोडमें फिर संवाय इ. १२वनी र वमुपजाने भागलपुरक बाटाणधर्म पुनरभ्युदग हुा । इमी समय गौश्वरनं निटी मार्गमा किया और मांच लाभ कान्यकुब्ज पंच साग्निक ब्राह्मणांका आमन्त्रण कर किया और द्वितीय व २१ और २१वें बुलाय । इसी समय गांडीय ब्राह्मणांन 'सप्तशती' प्राख्या श्री पाण्वनाब हुन २० नागने मानभूम जिलास्थ मम्मंद- प्राप्तकी। उस समय गौतम ७.. घर उन प्राचीन शिवगतमान पवनाथ पर्वत र मुक्त हुए ' पार्श्वनाथका पाहाणांक थे जिनका वंदाधिकार नहीं था । कम्नांजागन पंच नि.ग ७७७ पूर्वालने हया था । इन्होंने दैदिक ब्राह्मणांस ७.. ग्राहकांके. पार्थक्य या भिवता रखनके कर्मकाहार पंचनिमापन निकी विशेष निदा की लिये सप्तशती' प्राण्याकी मुष्टि हुई दूसरा अभिमत थी। उस समय म बार भार पंचाग्निमाधनादि अनेक यह है कि मरम्यती नदीक नीरवासी सारस्वत ब्राह्मण ही कमकाण्ड प्रचलन । पाश्वनाथकी जीवनीसं इनका सर्वप्रथम गोडदेशमें पाये थे और राढ़ दशके पूर्वाशमें अनेक प्राभार मिलना है । नीर्थकरगण कर्मकाण्ड सप्तशतिका ( वर्तमान सातसइका ) नामक जनपदमें वास विपी होने पर भी ग्राह्मण विपी कोई न थे। सभी करके कारण सप्तशती या माताती नाम कई जान ब्राह्मणांका यांचा 6. श्रद्धा करतेय अब भी जैन लगे। इस मप्तशतिका जनपदका कितना ही अंश अब बर्द्धसमाजम उसका पालन ।
मान जिलमं मातशतकाया सातमहका परगनामें परिणत ही
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अनेकान्त
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गया है। इसकी वर्तमान सीमा उत्तरमें ब्राह्मणी नदी, क्षत्रिय कहकर उल्लेख किया है | इस जातिमें अभी दक्षिण-पूर्व सीमा भागीरथी ( मंगा) और पश्चिममे तक जैनधर्मके संस्कारके फलस्वरूप मद्यमांसादिकका शाहबाद परगना है।
प्रचलन बिल्कुल नहीं है और प्राचारविचार न्हुत शुद्ध हैं। उपरोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन यदि ये लोग बौद्ध मतावलम्बी होते तो इनम भी मांसका कालमें ये सप्तशती ब्राह्मण भी जैनधर्मानुयायी थे। प्रचलन अवश्य रहना, फर मर-यान्न भनी प्रधान गदेशपहाइपुरके गुप्तकालीन ताम्रशासनमें भी नाथशर्मा और में और खासकर तांत्रिक युगमेंसे निकलकर भी अबतक उनकी भार्या रामीका उल्लेख हुआ है जिससे यह निरामिष-भोजी रहना इनके जैनत्व को और भी पुष्ट सिद्ध हो जाता है कि पंचम शताब्दि तक बंगालन करता है। किन्तु अब ये लोग वैष्णवधर्मावलम्बी हैं। जैन ब्राह्मण थे।
यवसाय वाणिज्य प्रादि करने से अब इनकी वैश्यवृत्ति हो
गई है। उपरोक्त चारों जिलोंमें इस पुण्डो ( पुण्डू। पुण्डोजाति
जातिके अधिकांश जन रहते हैं। मध्य बंगके नदिया, बंगालके उत्तर पश्चिमांशमें मालदा, राजशाही, वीर- दक्षिण वंगके यशोहर और पूर्व बंगके पवना जिलोंमें भी भूम, मुर्शिदाबाद, जिलाम पुडा-पुण्डा पाडा-पुयडरी, अल्प संख्यामें ये पाये जाते हैं। बिहार जिलेके सथान पुण्डरीक, नामसे परिचित एक जाति वास करती है। ये
परमनके पाकूर अंचल में भी इनका वास है उड़ीसाके अपनेको पत्रिय पुण्ड्रगणोंके वंशधर बताते हैं। शास्त्रामें बाउद स्टेटमें भी इस जातिके लोग पाये जाते हैं और (पुण्डू) शब्द देश और जातिवाचक रूपसे व्यवहृत हुमा है। वहीं पुण्डरी नामसे सत् शूद्र श्रेणीक अन्तर्गत है। पुण्ड्रदेशमें रहने के कारण ये लोग पुण्डू कहे जाने लगे
राज्याधिकारच्युत हो जानेके कारण पुण्ड्रा जातिके और पुएर या पौण्डू शब्दके अपभ्रष्ट उच्चारणसे पुण्डो, लोग कृषि और शिल्प कौशलसे जीविकार्जन करते आ रहे पुण्डरी भादि शब्द बन गये हैं। प्रसिद्ध मालदह नगरसे हैं। इनमें सगोत्र विवाह निषिद्ध है । पुण्ड जातिमें विश्वा दो कोश उत्तरपूर्व और गौड नगरसे ८ कोश उत्तरमें
विवाह भी प्रचलित नहीं है । इनमें ३. गोत्र हैं जैसे फिरोजाबाद नामक एक अति प्राचीन स्थान है। स्थानीय काश्यप, अग्नि वैश्व, कन्च कणं, अवट विद चान्द्रमास, लोग इस स्थानको पांडोवा या पुडावा कहते हैं। इस मामायन, मौदगल्य, माधूय ताण्डि मुदगल, वैयाघ्रपद स्थानसे । कोश उत्तर-पश्चिममें और मालदहसे २३ कोस तौडि, शालिमन, चिकित, कुशिक, वेणु, श्रालम्पायन उत्तरमें वारदावारी-पुरखोव के भग्नावशेष है। शालाक्ष, लोक, बारक्य, मोम्य, भलन्दन कांसलायन इस पुण्ड्रजातिने कमसे कम छः हजार वर्ष
शाण्डिल्य, मोजायन, पराशर लोहायन, और शंग्न इनमें पहले वर्तमान बंगदशके उत्तर पश्चिम भाग अर्थात्-
कच्ची (सिद्धाम) और पक्की (पक्वान्न ) प्रथाफी कट्टरता
. पौएड्रदेश या पुराइदेश में अपने नामानुसार उपनिवेश
और जाति-पांतिका प्रचलन है पौगदशम पहले जैनोंका स्थापनकर गज्य किया और ये मोम जैन धर्मानुयायी
ही प्रभाव था । अतः विद्वपके कारण इस जैनपुण्डजातिथे। अत एवं इस क्षत्रिय पुण्ड्रजातिको भी बाह्मणोंने
को बाह्मणोंने शूद्ध संज्ञा दे दी है। वैष्णवधर्मको अपना क्रोधके कारण शास्त्रों में प्रवेपण दारा वधन या अष्ट लेनेके कारण इन पर इतनी कृपा कर दी कि इन्हें
------- सत्-शुद्धीमें गर्भित कर लिया है। ® जैन धर्मप्रवर्तक पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी एवं
xमोकला, द्राविडा, लाटा, पौण्ड्रा कोराव शिरस्तथा, 'अहिंसा परमो धर्म' मन्त्रके ऋषि और धर्मके संस्थापक
शॉडिका दरदा दर्वा-श्चोराःशवरा वर्गरा। भगवान बुद्धने एक समय अपनी पदजिसं पौरडू. किराता पवना श्वस्तथा क्षत्रिय जातयः बर्डनको पवित्र किया था।
वृषलस्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानामर्षणात् ॥
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ३५ (देखा बंगे त्रिय पुण्ड्रजाति-श्री मुरारी मोहन ।
यह ऊपर लिखा जा चुका है कि बंगाल में मात्र दो ही सरकार )
गति या वर्ण हैं। ब्राह्मण और शुद्ध।
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वंगीय जैन पुरावृत्त
पोदजानि
लित हैं। इनमें विधवा विवाह वर्जित है और तलाक भो
नहीं है। इनके गोत्र है-आंगिरस, पालव्याल, धानेधी, बंगालके उत्तर पश्चिमांश जिलों में पुराडोनातिके
सांडिल्य, काश्यप, भरद्वाज कौशिक, मौदगल्य, मधुकूल सम्बन्धमें ऊपर लिखा जा चुका है। उन्हीं जिला में से ।
और हमन इत्यादि । वैवाहिक नियम भी इनमें उच्चजामालदा, राजशाही. मुर्शिदाबाद और वीर ममें एक पोद
तियों की तरह के हैं। कुशरिका, व्यतीत विवादके पब नामक जाति भो निवास करती है पाद और पुण्डो
अंग ये पालन करते है पर सम्प्रदानको विवादका प्रधान (पुनरोसे ) दोनों ही की मूल जाति एक है। किन्तु
अंग ये मानते हैं। अब इनकी गणना सत् शुदामें की निवास स्थानकी दूरोके कारण उनका परस्पर सम्बन्ध भंग हो नही हो गया किन्तु ने एक दूपरेको अपनसे हीन
जाती है। पोद जाती खांटी कृषक जाति है। सम्झने लगे हैं।
प्रोफेसर पंचा सन मित्र, एम. ए. पी. आर. कुलतंत्र विश्वकोष और मर्दुम सुमारी Censur
एस में लिखा है कि "यह सम्भव है कि बंगाल के liepint से पता लगता है कि पौंड क्षत्रियोंके चार
पाद मूलतः जैनी होनेके कारण ति प्रस्त हुए हैं। विभाग है-जिनमें पुनरां तो उत्तर राढीय अंर दक्षिण
पोद (पुनरो) जाति पक्षा और परागकी मानोंसे राढोय इस प्रकार दो राढा विभागांको और पोद बंगज
धन संचय कर चुके हैं। दक्खनका 'पदिर' नामक स्थान और पोइज (उडिया विभागांका प्रदर्शित करते हैं।
इन्हीं पांदगणोंक नामसे प्रसिद्ध हुमा मालुम होता है।
पन्ना पमराज खनिज रनोंके नामांसे भो इस जाति के नाम पश्चिम बंग अधिकांश भागमें और खासकर चौबीस
मिलते जुलते हैं। प्राचीन काल में पह शब्दस सनके वस्त्र परगना, खुला और मिदनापुर जिला में इनका निवास है।
समझे जाते थे। विश्वकोश में पुण्ड और पट्ट वस्त्र के समाना. और हवडा, हुगली, नदिया और जेमार (यशाहर) जिलों में भी ये अल्पसंख्यामे पाये जाते है। बंगापसागरके
थवाची शब्द है। इससे मालूम होता है कि पुडो और सन्निहित प्रदेश समूहमें इस जातिके अधिकांश लोग वास
पांद जाति भी वस्त्र व्यवसायी थो। एक भार पौंहादि
जातियांके ऊपर ब्राह्मणांका अत्याचार बढ़ा और दूसरी करते हैं। ये पांद, पादराज, पद्मराज पद्यराज इन सब नामांमे परिचित हैं। ये लोग अपनेकां प्राचीन पुराग के
और मुसलमानांने भी इन्हें ता करना प्रारम्भ किया
इसमें इन जातियांक लाखा मनुष्य इसलाम धर्मानुयायी वंशधर बनाने है।
बन गय। पांद जानिक कुछ लोग हुगली जिले के महामहोपाध्याय पं. हरप्रमाद शास्त्रीके मतानुसार ४
पाण्डाके पास पाम भी पाये जाते हैं और वे मधुप महाभारत पुराण और वेद प्रभृति शाम्ब्रोम जिप पुलिद
धावर, है किन्तु अन्य पाद गणांस इनका किमी प्रकारका नामक अनार्य अनिका उल्लेग्व हुआ है उसीम समुत्पत
सम्बन्ध नहीं है। यह पाद जाति है । अमरकाशम पुलिंदाको म्लेच्छ संज्ञा दी गई है। कवि कंकण ने अपने चंडी काग्यमे । सन् १५७७)
कायस्थजाति तदानीन्तन वंगदेशवासी जानियोंके साथ पुलिदगोका गौइचंगके सामाजिक, राजनैतिक, धर्ममाम्प्रादायिक किरात, काजादि म्लेच्छाम रखा है "पुलिन्द किरात, इतिहास में कायस्थ जानिने सर्वप्रधान स्थान प्राधिकार कोलादि हाटेने वाजा चढीन ।'
किया था। ज्ञान-गुण दया दाक्षिण्य,शक्ति-यामध्य धर्म कर्म किन्तु पुलिद शब्दका अपभ्रंश पाद किसी भी सभी विषयांना यहाँका कायस्थ समाज एक दिन उतिकी नियमके अनुसार बन नहीं सकता है ।
पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था इसोसे गौर - वगका वर्तमानमें इनकी हीनावस्था है और प्राचार यवहार प्रकृत इतिहासका प्रधान अंश ही कायस्थ समाजका भी निकृष्ट है । तो भी इनमें कर्णवेध, अन्नप्राशन, + The Cultuvating Pods by Mahendi शोचाचार आदि उच्च मातियाके धार्मिक अनुष्ठान प्रच- Nath Karan x History of Indian by H.P. Shastri WHistory of Grour by t.K. Chakrap. 32.
varty.
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अनेकान्त
[१०४
इतिहास है। अकवरके प्रधान सभासद् और एनहासिक ही मनमें मांचता है कि धात्री मेरे शिशुको भली प्रकार अबुलफज़लने लिखा है कि मुसलमान श्रागमनये पूर्व रखेगी, मैं भी उसी प्रकार जानपदगणके मंगल और सुखके १९३३ वर्षोंसे यह वनभूमि भिन्न २ स्वाधीन राजवंशोके लिये राजकास कार्य करवाता हैं। निर्मलतामे एवं शान्तिशासनाधीन थी। अर्थात् एक दिन गौड़ बङ्ग कायस्थ बांध कर विमन न होकर वे अपने कामको कर सकेंगे। प्रधान स्थान था ।
इसी लिए मैने पुरस्कार और दण्डविधान में राजूकगणोंको राजकीय लेख्यविभागमें जो पुरुषानुक्रमसे नियोजित
सम्पूर्ण स्वाधीनता प्रदान की है। मेरा अभिप्राय क्या है? होते रहे हैं. समय पाकर उन्होंने ही 'कायस्थाख्या'
वह यह है कि राजकीय कार्य में वे समता दिखावंगे, दण्डप्राप्त की यी । सामान्य नालनबीसी किगनी : Clerk)
विधान में भी समता दिखावेगे।" के कार्य से लगाकर राजाधिकरणका राज मभाके संबि
राजूकगणांका किस प्रकार प्रभाव था, अशोक लिपिमे विग्रहमादिका कार्य पुरुषानुक्रममें जिनको एकान वृत्ति
उमका स्पष्ट पाभास मिलजाता है । चूल्हर माहबने राजहो गई थी वे ही कायस्थ कहलाने लगे
गणांको "कायस्थ" माना है। मेदिनीपुर यामी एक श्रेणीके प्राचीन लेखमालामें यह जाति लाजू कया राजूक, श्री
कायस्थ पाज भी "राजू" नामसे कहे जाते हैं। करण, कणिक, कायस्थ ठकुर और श्री करीण ठकुर
प्रोफेसर जकोबीके जैन प्राकृतमें लाजूक या राजूरू इत्यादि मंज्ञापे अभिहित हुई । मौर्यसम्राट अशोककी
सूचक रज्जू शब्द कल्पसूक्षमे मिला है जिसका अर्थ है दिन्जी अलाहाबाद रधिया, मथिया, और रामपुर इत्यादि
लेखक किराणी (Clerk)| राजूक भौर कायस्थ दोनों ह। स्थानासे प्राप्त प्रशोकम्तम्लीमे उत्कीर्ण धर्म लिपिम
शब्द प्राचीन शास्त्रामें एकार्थवाची हैं। मुभांसद्ध चूल्हर राजूकॉका परिचय है-उपका अनुवाद निम्नलिखित है:
साहबने लिखा है कि अशोकको उपरोक्त स्तम्भ लिपि " देवगणोंके प्रिय प्रियदशिराजा इस प्रकार कहते
जब प्रचारित हुई थी उस समय प्रियदर्शीने बौद्ध-धर्म है-मेरे अभिषेकके षड्विंशति वर्ष पश्चात् यह धर्मलिपी
ग्रहण नहीं किया था। और तब वे ब्राह्मण, बौद्ध, और (मेरे आदेशसे) लिपिबद्ध हुई। मेरे राजूकगण बहु
जैनांका समभावसे देखते थे। ऐसी अवस्थामें राजूकलोगोंके मध्यमें शतमहन्त्र गाणगणोंके मध्यमें शासन
___ गणाको जो सम्मान और अधिकार प्रदान किया था वह कर्तृरूपसे प्रतिष्ठित हुए हैं। उनको पुरस्कार और दड
पूर्व प्रथाका ही अनुवर्तन था। विधान करनेकी पूर्ण स्वाधीनता मैंने दी है। क्यों? जिसमें
पर्वत पर खोदित अशोकके तृतीय अनुश सनसे जाना राजूकगण निविघ्नता और निर्भयतासे अपना कार्य कर ।
जाता है कि राजूकगण केवल शासन वा राजस्व विभागमें मके, जनपदके प्रजा साधारणाके हित और सुख विधान
हो मर्वेसर्वा नहीं थे किन्तु धर्मविभागमें भी उनका विशेष कर सकें एवं अनुग्रह कर सकें। किस प्रकार प्रजागण
हाथ पा गया था (जब अशोक बौद्ध धर्मानुयायी हो गया सुग्बी एवं दुम्बी होगी यह वे जानते है। वजन और
था) और वे सम्राट अशोकवारा धर्म महामात्यपदमे जनपदकी धर्मानुसार उपदेश करेंगे क्यों ? इस कार्यमे
अधिष्ठित हो गये थे। अधिक सम्भव है कि जिस दिनसे वे इस लोक और परलोक परन सुग्ब लाम कर सकेंगे।
राजकगण कराध्यक्ष धर्माध्यक्ष हुए उसी दिनसे ब्राह्मण राजूकसर्वदा ही मरी सेवा करनेके अभिलाषी है मेरे अपर
शाम्बकारगणांकी विषष्टि में पड़ गये और इसी कारण (अन्य) कर्मचारीगण भी. जो मेरे अभिप्रायको जानते
सारे पुराणमें (अध्याय १९) राजोपसंयक धर्माचार्य है. मेरे कार्य करेंगे और वे भी प्रजागको इस प्रकार
कायस्थगण अपात य बना दिये गये (अध्याय १६ प्रादश दंगे कि जिसमें राजूकमण मेरे अनुग्रह लाभमें
विद्वानांके मतम मौर्यसम्राट अशोक वृद्धावस्थामें समर्थ हो सके। जिस प्रकार कोई व्यक्ति उपयुक्त धात्तीके
आत्ताक यद्यपि कहर धर्मानुयायी थे तो भी सब धर्मकि प्रति हाथमें शिशुको न्यरत कर शान्ति बोध करता है और मन
समभावसं सम्मान प्रदर्शन करते थे और प्रजाको धर्मसम्ब* बंगेर जातीय इतिहाम-श्री नगेन्द्रनाथ वसु धमे पूर्ण स्वाधीनता थी। साधारण प्रजावर्ग अशोकके (विश्वकोष संकलयिता प्राच्य विद्या महार्णव-सिद्धान्त म्यवहारसं सन्तुष्ट होने पर भी ब्राह्मण धर्मके नेता ब्राह्मणवारिधि प्रणीत-राजन्यकाण्ड, कायस्थकापड. प्रथमांश । गण कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकते थे। कारण स्मरणातीत
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गीय जैन पुरावृत्त
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कालसे जो अविसम्यादित श्रेष्ठता व भोग करते मारहे पुनः समाजके, थर्मके, एवं पापार-व्यवहारके नेता हो गये थे, उसके मूल में कुठाराघात हया-सब जातियां समान और राज्यको उपदेश देकर चलाने लगे। स्वाधीनता पाकर कौन अब उन ब्राह्मणोंको पहलेकी तरह जब शुगवंश वैदिक क्रिया-काण्ड प्रचार द्वारा सन्मान और भद्धा करेंगे। इस प्रकारको धारणात उनके अहिंसाधर्मका मूलोच्छेद करने में अग्रेसर हुश्रा सब अहिंसामनमें दारुण विद्वेषका संचार हो गया। इसके बाद मौर्य- धर्म पृष्ठगषक बौद्व और जैनाचार्यगण भी निश्चिन्त, सम्राट ने नव दण्ड-समता और व्यवहार समताकी रक्षाके और निश्चेष्ट महीं थे। बौद्धधर्मानुरक्त यवन नरपति लिए विधि-व्यवस्था चारित करने लगे तब उस विद्वेषा- मिलिंदने शुगाधिकार पर आक्रमण किया पर वे सफल ग्निमें उपयुक अनिल मंचार हा गया । ब्रह्मण वर्मके न हो सके । जैनधर्मी कलिंगाधिपति खारवेलने (ई पूर्व०. प्राधान्य कालमें अपराधके सम्बन्ध में ब्राह्मणोको एक प्रकार १७१) मगर पर आक्रमण किया और पुष्यमित्रको स्वतन्त्रता थी-ब्राह्मया चाहे जितना गर्हित अपराध कर पराजित कर पुनः जनधर्मकी प्रतिष्ठा की। तो भी उनको कभी प्राण दण्ड नहीं मिलता था, न उनक प्रायः २३५ ई०पू० से ७८ ईम्वी पूर्वान्द पर्यंत प्रार्यालिये किसी प्रकारका शारीरिक दण्ड था। माक्षी (गवाही) वर्तमें शुग और कान्व वश के अधिकार काल में ब्राह्मणोंका देनेके लिए उनको धर्माधिकरणमे उपस्थित होनेके लिये प्राधान्य प्रतिहत था। इसके पहले चौद और जनाधिकारक बाध्य नहीं किया जा सकता था। साक्षं। देने पर उनको समय जो प्रबल थे,इस समय उसको पूर्व प्रति-पत्तिका बहुत जिरह नहीं कर सकते थे। किन्तु व्यवहार समताकी कुछ हास हा गया था। उसीके साथ मानूम होता है कि प्रतिष्ठा कर अशांकने उनको इन सब चिरन्तन अधिक- राजूकगण (कायस्थ) भी पूर्व सन्मानच्युत और ब्राह्मणोंके रॉसे वंचित कर दिया। अब तो उनको भी घृणित, अस्पृ. विद्वेष भाजन हो गये। श्य, अनार्य एवं शूद्र प्रभृतोके साथ समान भावसं शूला- यह पहले लिखा जा चुका है कि जैनोंके प्राचीन रोहण और कारावासादि क्लेश सह्य करने पड़गे। बम प्रन्यांसे यह मालूम होता है कि खुष्ट जन्मके ६०० वर्ष इन सब बागमे अशांकडा वंश ब्राह्मणांका चतु यूल हो पूर्व २१ वे तीर्थकर पार्श्वनाथ स्वामीने पुण्ड, रात, और गया । और उपके धंसके लिए वे बद्धपरिका हा गये। ताम्रलिप्त प्रदेशमें वैदिक-कर्मकाण्डके प्रतिकूल "चातुर्याम अशोककी मृत्यु के बाद भार्यराजाके प्रधान मंगापनि पुष्य- धर्मका" प्रचार किया था और उनके पहले श्री कृष्णके मित्र को राजस्वका लाभ दिलाकर गजाके विरुद्ध ब्राह्मणानं कुटुम्बी ०२ तीर्थकर नेमिनाथने अंम बंगमें भिधर्म उत्तेजित कर दिया । पुलमित्र परम ब्राह्मण भक्त था । एक प्रचार किया था। बुर और श्रीतम नीर्थंकर महावीरबार ग्रीक जागान जब पश्चिम प्रान्त पर श्राक्रममा किया स्वामीने भी यथाक्रम अंग और राद देश में अपने २ धमन था तब पुष्यमित्र उनको पराजित कर जब पाटक्षीपुत्र प्रचार किये थे। ये सभी वैदिक आर्यधर्म विरोधी थे लौटा, तय मौर्याधिप वृहद्रथने उसके अभ्यर्थनार्थ और इनके प्रभावमारभारतका अनेक अंश चैदिका. नगरके बाहर एक विराट सैन्य-प्रदर्शनी की व्यवस्था की। चारविहीन था- इस कारणसं यहाँ अति-पूर्वकाल में ब्राह्मण उत्सवक बीचमें ही किस प्रकार किसीका एक तीर प्रभाव नहीं था। यह कहना अग्युकि नहीं होगा कि महाराजके ललाटमें लगा और उसी जगह उनका विधगण अंग बंगके प्रति अति घृणामे दृष्टिपात कर चुके देहान्त हो गया।
है। इसी कारणसं ग्राह्मणांक ग्रन्या में अंग बंगको सुप्राचीन ब्राह्मणधर्मके भक्त - संवक पुष्यमित्रने इस प्रकार वार्ताको स्थान नहीं मिला और जो जैन बौद्धादिकान मौर्य वंशका ध्यंम साधन कर भारतके सिंहासन पर उपविष्ट लिखा था यह मब सम्भवतः ब्राह्मणाभ्युदकं ममा प्रयत्नाहुए और तत्काल ही पूर्वब्राह्मण-धर्मको प्रतिक्रिया प्रारम्भ भावकै कारण विलुप्त हो गया है। उसी अतीतकालकी दुई जहाँसे अहियाधर्म घोषित हुआ था उसी पाटली- वीणम्मृति प्रचलिन एक दो बौद्ध और जैन प्रथों में पुत्रके वक्षस्थल पर बैठकर पुष्यमित्रने एक विराट अश्वमेध उपलब्ध होती है। उनमें मालूम होता है कियज्ञका अनुष्ठान कर अहिसाधर्मके विरुद्ध घोषणा की महावीर स्वामीने अंग देशके चम्पा नगरी में एक कायस्थके और पुष्यमित्रके आधिपत्य विस्तारके साथ २ ब्राह्मणगण गृहमें एक बार पारणा किया था। बिम्बमारके पुत्र
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१०६]
भनेकान्त
[किरण ३
"राजकाना
अजातशत्रुमे जब चम्पाको राजधानी बनाया था उस मादित्य, चन्द्र, देव, दत्त, मित्र, घोष, सेन, कुण्ड, समय वहाँ बौद्ध प्रभाव था किन्तु अलदिनों बाद पालित, भोग, भुजि नन्दी, नाग प्रभृति उपाधि प्राचीन गणधर सुधर्मस्वामीने जम्बूस्वामीके साथ चम्पामें पाकर कानसे बंगालके कायस्थ समाजमें प्रचलित हैं। इनके जैनधर्म प्रचार किया था । इसके बाद जम्बूम्बामीके पूर्व पुरुष पश्चिम भारतसे उपरांत जिस १ पदवीयुक्त होकर शिष्य वरसगोत्र सम्भूत स्वयंभव यहाँ पाये और उनके पाये थे. उनके वंशधर भी उसी उसी पदवीको व्यवहार निकट जैनधर्मका उपदेश श्रवण कर अनेक लोग जैनधर्ममें करते रहे हैं और आज भी वे उपाधि यहां प्रचलित हैं। दीपित हुए थे। इसके बाद अंनिम श्रुतकेवल्ली भद्रबाहुका अंतमें वसु महाशयने लिखा है कि अति-पूर्वागत कायस्थअभ्युदय हुमा। समस्त भारतमें इसके शिष्य प्रशिष्य थे। गया इस देशकी जलवायु और साम्प्रदायिक धर्मप्रभाबके इनके काश्यप गोत्रीय चार प्रधान शिष्य थे उनमें प्रधान गुरसे अधिकांश जैन, बौद्ध वा शैवसमाज मुक हो गए शिष्य गोदास वे इन गोदाससे चार शाखाओंकी सृष्टि थे। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि वर्तमान कायस्थों में हुई, इनका माम था ताम्रलिप्तिका कोटीवर्षीया पुण्ड- अनेक प्राचीन प्राचीन जैन धर्मावलम्बी है। वर्द्धनीवा और दासीकटीया। अतिप्राचीन काल में इन
चीन काल में इन धर्मशर्माभ्युदयके कर्ता महाकवि हरिश्चन्द्र न चार शाखाांके नामसे यह प्रतिपक्ष होता है कि दक्षिण, ...
दोषण, कायस्थ थे। उन्होंने अपने वंशपरिचयमें अपनेको" उत्तर, पूर्व और पश्चिम समस्त वंगमें जैनांकी शास्त्रा प्रशाखा विस्तृत हुई थी। इससे स्पष्ट होता है कि प्रति जागर
नोमकोंके वंशमें कायस्थकुल का लिखा है । "नोमकानां प्राचीनकाल राद, बंगमें विशेषतासे जैन प्रभाव और
वंशः" पाठ अशुद्ध मालूम होता है इसकी जगह उसके साथ बौद्ध संभव था। .
"राजकानां वंशः" पाठ होना चाहिए। उत्तर और पश्चिम बंगमें गुप्ताधिकार विस्तारके
हरिश्चन्द्रने काव्यकी प्रशंसा करते हुए.."लिखा साथ वैदिक और पौराणिक मत प्रचलित होने पर भी
है कि "महाहरिश्चन्द्रस्य गद्य बन्यो नृपावने" इनकी पूर्व और दक्षिण बंगमें बहुत समय तक जैन निम्रन्थ
दूसरी कृति 'जीव'धर चम्पू" है। जो गद्य पद्यमें लिखा और बौद्ध श्रमणोंकी लीलास्थली कही जाती थी।
हुमा सुन्दर काव्य ग्रन्थ है। जैन और बौद्ध प्रन्थों में ब्रह्मदत्त नृपतिका नाम मिलता
यशोधाचरित अथवा 'दयासुन्दर विधान काव्य' हैं। अबुल फजलकी कथाका विश्वास करनेसे उनको
नामक ग्रन्धके कर्ता कवि पद्मनाम कायस्थ भी जैनधर्मके कायस्थ नृपति मानना पड़ेगा। अंग और पश्चिम बंग
प्रतिपालक थे। इन्होंने ग्वालियरके तंबरवंशी राजा वीरमउनके अधिकारसे निकलकर श्रेणिक राजाके माधीन हो
देवके राज्यकालमें (सन् १४०१ से १४२५ के मध्यवर्ती जाने पर ब्रह्मदत्तने पूर्व वंग और दक्षिण राढ़को प्राधित
समय) भट्टारक - गुणकीनिके उपदंशसे वीरमदेवके किया। उम सुप्राचीनकालसे लगाकर गुप्तशासनके पूर्व
मन्त्री कुशराज जैसवालके अनुरोधसे "यशोधरचरित्रकी" पर्यन्त यहाँ के कायस्थगण या तो जैन या बौद-धर्मके
रचना की थी। पक्षपाती थे। बहशत वर्षोंमे जिस धर्मका प्रभाव जिस समाजपर प्राधिपत्य विस्तार कर चुका था, वह मूलधर्म
विजयनाथ माथुर रोडे (तक्षकपुर के निवासी थे। विलुप्त होनेपर भी समाजके स्तर स्तरम प्रस्तररेखावत- उन्हान जयपुरक दावान श्री जयचन्दजीक सुपुत्र कृपार उसका अपना चिन्ह अवश्य रह जायेगा। इमो कारबसे अंर श्री ज्ञानजीकी इच्छानुसार सं. १६६१ में म. यहाँकी उस पूर्वतन कायस्थ समाजके अनन्तर जाल सकलकीतिक "वर मानपुराण' का दिन्दीमें पचानवाद वर्तमान समाजमें भी उसकी क्षीण स्मृतिका अत्यन्ता- किया था। भाव नहीं हुआ।
मशः
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन .
(१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-प्रन्यांकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में
उडत दूसरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्योंकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महस्वकी ७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा०कालीदास ' नाग एम. ए., डी.लिट के प्राक्थन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए.डी.लिट की । भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-मोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
सजिल्द (जिसकी प्रस्तावनादिका मुख्य अलगसे पांच रुपये है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायकी स्वांपज्ञ सटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा, ईश्वर-विषयके सुन्दर
सरस और मजीव विवेचनका लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरयारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावमादिसे
युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी. न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोसे अलंकृत, मजिल। . (४) स्वयम्भूतात्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद कन्दपार
चय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियांग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण
प्रस्तावनामे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनावी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, मानुवादं और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनामे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर प्राध्यात्मिक रचमा, हिन्दीअनुवाद-महित
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाम भूपित । " (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञान परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुश्रा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिम अलंकृत, मजिन्द। ... ) (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दचित, महत्वकी स्नुनि, हिन्दी अनुवादादि महित। ... ) (E) शासनचनुत्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीनिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-महित। ... (१०) सत्साध-स्मरण-मगलपाठ-श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणांका
महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवादादि-महित । (११) विवाह-समुद्देश्य मुख्तारधीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन ... ) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गद गम्भीर विषयको अतीव मरलतासं समझने-समझानेकी कुजी.
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिम्वित । (१३) अनित्यभावना-प्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसृत्र-(प्रभाबन्द्रीय) मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्याम युक्त। " ) (१५, श्रवणबेलगोल और दक्षिण अन्य जैनतीर्थ क्षेत्रला . राजकृष्ण जैनकी सुन्दर रचना भारतीय पुरातत्व
विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा. टी. एन. रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ) नोट-थे सब ग्रन्थ एकमाथ लेनेवालोंको ३८॥) की जगह ३१) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' बीरसेवामन्दिर, ५. दरियागंज, देहली
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Regd. No.D. 211
__ अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक १५००)पा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता * २५१) या० छोटेलालजी जैन सरावगी ,
२५१) वा० सोहनलालजी जन लमेचू ,
२५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , - २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन ,
२५१) वा०दीनानाथजी सरावगी २५१) मा० रतनलालजी झांझरी
२५१) वा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १.२५१) सेठ गजराजजी गंगवान
२५१) सेठ सुश्रालालजी जैन २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी ,
) सेठ मांगोलालजी
) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन २५१) वा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द्र धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी,देहलो २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहजी २५१) वा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली २५१) ना०त्रिलोकचन्दजी सहारनपुर
२५१) सेठ छदामीशालजो जैन फोरोजाबाद V२५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली
२५१) राययहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन रांची २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवान जयपुर
सहायक १०१) वा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१)ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बा० सामचन्दजी बो० सेठी, उम्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) वा० लालचन्दजी जैन सरावगी ,
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १०१) बा० केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सरावगी,, १०१) बा० काशीनाथजी, १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी १०१) बा० धनंजय कुमारजो १०१) बा. जीतमलजी जैन १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता १०१) गुप्तसहायक सदर बाजार मेरठ १०१) श्रीमती श्रीमालादेवी धर्मपत्नी डा. श्रीचन्द्रजी
जैन 'संगल' एटा १०१) ला० मक्खनलालजी मोतीलालजी ठेकेदार, देहलीk १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथनी जैन, कलकत्ता १०१) बा०वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीदासजी श्रआत्मारामजी सरावगी,
मारूफगज पटना सिटी १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट हिसार १०१) ला० बलवन्तसिंहजो हांसी १०१) कुँवर यशवन्तसिहजी हांसी
अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर'
सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंजहबी मनक-कम-धावी प्रिटिंग हाऊस २५, दरियागंज, देवकी
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नका
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
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विषय-सूची ज्ञानीका विचार-[कविवर द्यानतराय २ दशलामाणिक धर्मस्वरूप-[कयिवर रइधू ...
...१०८ ३ 'वीतराग-स्तवन' के रचयिता अमर कवि-[श्री अगरचन्द नाहटा १३ ४ दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध
|पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य... ११ ५ उत्तम क्षमा-[पं० परमानन्द जैन शास्त्री ...
११ ६ दस लक्षण धर्म-पर्व-[श्री दौलतराम 'मित्र'... ... १२२ ७ उत्तम मार्दव-[श्री १०५ पूज्य मुलक गणेशप्रसादजी वर्णी... १२३ = सत्य धर्म-[
... १२६ है शौच धर्म-[ल० पं० दरबारीलाल कीठिया, न्यायाचार्य ... २६ . आर्जव-[अजितकुमार जैन ...
... . उत्तम तप-[पी. एन. शास्त्री
..... १३. १२ मंग्रहकी वृत्ति और त्याग धर्म
[ले. श्री पं० चैनमुग्बदामजी न्यायतीर्थ .... १३ नवां-मूत्रका महस्व-[५७ वंशीधरजी व्याकरणाचार्य १४ संयम धर्म-श्री राजकृष्ण जी जैन १५ किचन्य धर्म-[परमानन्द शास्त्री १६ ब्रह्मचय' पर श्रीकानजी स्वामीके कुछ विचार
... १४२ १७ मामा, चंदना या जीवन-बा०अनन्तप्रसादजी B.S.Eng. १४३
मितम्बर
यर ११
... १४०
बहन
अनकान्तक प्रार, बनना यार बनाना प्रत्यक माधमा माईका कर्तव्य है
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माता और पुत्रका दुःसह-वियोग !! अनेकान्त-पाठकोंको यह जानकर दुःम्व तथा अफसोस हए बिना नहीं रहेगा कि उनके चिरपिरिचित एवं सेवक पं. परमानन्द जी शास्त्रीको हाल में दो दुःसह वियोगोंका सामना करना पड़ा है ! उनकी पूज्य माताजी का ता. २८ अगम्तको शाहगद (सागर) में स्वर्गवास हो गया और उसके तीन दिन बाद (ता. ३१ अगस्तको)। उनका मझला पुत्र राजकुमारभी चल बसा !! दानांकी मृत्युक समय पंडितजी पहुंच भी नहीं पाए। इस प्राकस्मिक वियोगमे पंडितजीको जो कष्ट पहुँचा है उसे कौन कह सकता है ? उनकी पत्नी के वियोगको अभी दो वर्ष ही हो पाए थे कि इतने में ये दो नये आघात उनको और पहुंच गये ! विधिकी गनि बही विचित्र है, उसे कोई भी जान नहीं पाता। एक सम्यग्ज्ञान अथवा सद्विवेकक बिना दुसरा कोई भी से कठिन अवसरों पर अपना सहायक और संरक्षक नहीं होता : पंडितजीके इस दुःखमें वीरमेवामन्दिर परिवारकी पूरी सहानुभूति है और हादिक भावना है कि दोनों प्राणियोंको परलोकमें सदर्गातकी प्राप्ति होवे । माथही पंडितजीका विवेक सविशेष रूपसे जागृत होकर उन्हें पूर्ण धैर्य एवं दिलासा दिलाने में समर्थ होवे ।
श्रोबाहबलि-जिनपूजा छपकर तय्यार !!
श्री गोम्मटेश्वर बाहुबलिजी की जिस पूजाको उत्तमताके साथ छपानेका विचार गत मई मासकी किरणमें प्रकट किया गया था वह अब संशोधनादिके माथ उत्तम आर्टपेपर पर मोटे टोइपमें फोटो ब्राउन रङ्गीन स्याहीसे छपकर तैयार हो गई है । साथमें श्रीबाहुबली जीका फोटो चित्र भो अपूर्व शोभा दे रहा है । प्रचार की दृष्टिसे मूल्य लागत से भी कम रखा गया है। जिन्हें अपने तथा प्रचारके लिये आवश्यकता हो वे शीघ्र ही मंगालेवें; क्यों कि कापियाँ थोड़ी ही छपी हैं, १०० कापी एक साथ लेने पर १२) रु. में मिलेंगी । दो कापी तक एक आना पोष्टेज लगता है। १० से कम किसीको वी. पी. से नहीं भेजी जाएंगी।
मैनेजर-वीरसेवामन्दिर'
दरियागंज, दिल्ली। अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (.)अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना। (२) स्वयं अनेकान्तक ग्राहक बनना तथा दृसको बनाना। (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी महायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओर से दूसराको अनेकान्त भंट-स्वर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाना लायन रिया,
सभा-सोसाइटियां और जैन-अजैन विद्वानोको। (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमे देनके लिये २५),५०) श्रादिकी सहायता भेजना। २५ की
सहायतामें १० को अनेकान्त अ"भृक्यमे भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमे दना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें महायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको
प्रकाशनार्थ जुटाना। नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंकी
। सहायनादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पताः'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेट
मैनेजर 'अनेकान्त' स्वरूप भेजा जायगा।
! वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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ॐ अहम
स्वतत्वप्रा
वार्षिक मूल्य ५)
एक किरण का मूल्य ।)
PAR नीतिविरोधणसालोकव्यवहारवर्तक सम्पदा
मागमस्य बीज भुवनेगुरुर्जयत्यनेमान्तः ।
।
वर्ष १२ किरण
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली भाद्रपद वीरनि० संवत २४७६, वि. संवत २०१०
सितम्बर
ज्ञानी का विचार
(कविवर पानतराय) ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचार। राज सम्पदा भोग भोगके, बंदी खाना धार ॥१॥ धन यौवन परिवार आपते, प्रोछो और निहारे। दान शील तपभाव आपते, ऊँचे माहि चितारै ॥२॥ दुख आए पै धीर धरै मन, सुख वैराग सम्हारे । आतम-दोष देख नित भूरै, गुन लखि गरब विडारै ।। ३ ।। आप बड़ाई परकी निन्दा, मुख नाहि उचारै। आप दोष परगुन मुख भाष, मनत शल्य निवार॥४॥ परमारथ विधि तीन योगसौं, हिरदे हरष विथा।
और काम न करै जु करे तो, योग एक दोहारै ॥५॥ गई वस्तु को सोचे नाही. आगम चिन्ता जार। वर्तमान वर्ते विवेकसौं, ममता-बुद्धि विसारै ॥६॥ बालपने विद्या अभ्यास, जावन तप विस्तार । वृद्धपने संन्यास लेयक, प्रातम काज संभार ॥७॥ छहों दरब नव तश्व माहिते, चेतन सार निहार। 'धानत' मगन सदा निज मानी. श्राप तर पर तार ॥॥
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दशलाक्षणिक धर्मस्वरूप
(कविवर रह) [तेरहवीं शताब्दीके विद्वान कविवर रहने जिनकी संजादा अइविसमा इय मणिविणो खमा चत्ता॥१० बनाई हुई दशबषय पूजाकी जममाल दशलक्षण पर्वमें जइजि परोमह-संगार-कसाय-सुहडेण ताहमाणेण । प्रायः सर्वत्र पढ़ी और व्याख्यान की जाती है, 'वृत्तसार' जइ खमदुग्ग छंडसि ता खयजामीह कयणिच्छ ११॥ (चारित्रसार) नामका एक सुन्दर अन्य प्रायःप्राकृत भाषामें मिच्छाइट्ठी मूढा जइ सो पीडेइ ता जि णवि दासो। गाथावर रचा है. जिसके रचने में हाल साहू अग्रवालके पुत्र जहां विवेय-जुत्तो कोहं गच्छमि तंपिणो णाओ॥१२॥ माद साह खास तौरसे प्रेरक हुए हैं और इसलिये जो जइ दुव्वयणं जापवि मज्झ सुही हाइ दुज्जणो दोसी। उन्हींके नामानित किया गया है। यह ग्रन्थ अभी तक ता महु जीविययत्व सहलं भवदोह लोर्याम्म ॥१३॥ प्रकाशमें नहीं पाया है। इसमें दशलक्षण धर्मके स्वरूप- कम्मोदए पवरणे भव्वु वियारइ एम णिचित्ते । वर्णन-विषयका एक सर्ग अंक) ही अलग है, जो प्रकृत एहु विणो अण्णाश्रो कियकम्म ज फलं देइ ॥१४॥ विषय पर अच्छा प्रकाश डालता है और काफी सरल ज मई चिरवि विहिद सुहासुहं कम्म तजि सुहदक्खं । तथा सुबोध है । अतः इस शुभ अवमर पर इसे यहाँ उद्धत देइजि णियमादो इह णिमित्तमत्त पुणो अपणो ||१४|| किया जाता है। पूरे ग्रन्थको वीरसेवामन्दिरसे सानुवाद महु उतमखम णिसुरिणांव वइरियणा छेय-भेयणाईहिं। प्रकाशनका भी विचार चल रहा है।
त पेक्खु रणत्थि आया खणु विम छंडेहि सा धीरा ॥१६
-सम्पादक] हउं महवय-भर-कुस न विक्य-जुत्तो वि पावणा संता । उत्तम-क्षमा
णिम्ममा वि णियकाए कोहं गच्छंतु लज्जेमि ॥१७॥ असमत्थेण जि विहिद उवसग्गजइ सहेइस समथो।
जह जह कुवि उवसग्गी करेइ सवणस्स तह तह चव । ता होइ उत्तमा सा खमा जि सग्गालारणस्पेणि॥१॥
उत्तमखमा सुवरण अहिययरं गिम्मलं होइ॥१८॥ चिकियकम्में सुहु-दुह लम्भइ चित्तम्मि एवमएणंतो।
जं पुणकारणजादे खमागुणं होइ त ज कयासंसं । णो रजदि णो कुद्धाद उत्तमखम भावदे णिच्चं ॥२
णिक्कारणेण काई अत्थि खमा-ग्जिदो लोगो ॥१६॥ णीयजहिं अवगणिदो उत्त मुसाहूवि माण सामथ ।
तव-सजम-सीलाणं जगणी कोहग्गि-नाव-घण-चिठ्ठी। यो कुद्धदि तम्सोवरि सकम्म-विलयं वियाणतो ।।३।।
सिवगइ बहुहि सहिल्ली उत्तम खम पावणा किच्चा।२० तव-संजम-आराम चिरकालेणावि पालिदं फलद।
ना गुरुयणाणदासं लज्जा-भय-गारव-वसादो छ। तं कोहग्गिउदिएणा पजालयद्दीह लीलेव ।।४।।
सहइण मा उत्तमखमा तीज खमाणाममत्त य ॥२१॥ कोहंधु डहा पढमं अप्पाणं एत्थु मंजमावारं।
हउ कोसिदो ण णिहदा णिहदोवि या मारिदो य दयचत्त अण्णस्स डहदि णो वा इदि मणिवि तंण कायव्वं ॥५ मरण पत्तु व तहवि हुण काहयामीदि मे बुद्धी ॥२२॥ उक्तंच-दसणणाणचरित्तहिं अणग्घरयणेहि पूरियं सददं
उत्तम-मादव मणकास लटिजज कसायचोहि काणच्छ ॥६॥ मारपकसाएं छडिविकिज्जा परिणाम कोमलं जत्थ। विह लायस्स विरुद्धं दुग्गइ गमणस्स सहयर विच्च। सम्वहं हिउ चितिज्जइ मद्दवगुणभासिदो तत्स्थ ॥२॥ तं कोई मुणिणाहे उत्तम खमयाए जेयब्बं ॥७॥
संजम-व-सव-मूल पसत्थ-धम्मस्स कारणं पढमं । जो उवसग्गु विभिवि कम्म-गदं मझ फेडई विविह। चित्तविसुद्धाहेदा महवंभगो य कायब्वो ॥२४॥ सो णिक्कारणमित्तो तस्स रुसंतो ण लज्जेमि ॥
काइय वाइय तह पुणु माणसिय होइ विणउ तिहुभेए। महु कय-कम्मंणासइ अप्पाण विणासएदि परलोयं ।
मद्दवजुत्तरणराणं तंचेव जि पायर्ड होदि २५ जोसई दुग्गइ णिवडा तहु रूसंताण साहेइ ॥६॥ उक्त'च-कित्ती मित्ती माणस्स भंजणं गुरुयणे यबहुमारणं सिवर्माग्ग गम्ममाणे मज्भु परिक्खा कारण विग्या। तित्थयराणं माणा गुण-गहणं महवं होइ॥२६॥
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किरण ४]
दशलाक्षणिक धर्मस्वरूप
उत्तम-आर्जव
उत्तम-शौच अज्जवणामेण गुण मायासल्लस्स होइणिरणासे।
परवत्थुलोहरहिदो चित्तो भव्वस्स होइ पुण जाया।
परवत्युलाहराहदा मण-परिणाम-विसुद्धी तेण विरणाणेव संभव ॥२७
तइया सोच णेयं एः तिस्थजल-खालणे साचं ॥४॥ जं किचिजि रिणयमाणसि चिंतदिभव्वोय तंनि वयण
मिच्छत्तमलविलित्तो विसयकसाएहि मुभिदो जीवो। लोयहं अग्गइ अक्वा तमज्जवणाम धम्मंगं ॥८॥
तिस्थजलेण विरहाणे कह सोचो होदि भो श्रादू॥५ रिजु परिणाम अज्जव सुहगइ गमणम्स कारणं तं नि।
परधापरबहुसंगे जं जिच्छिहा ताहि चाए त धम्मो । मणकूर पावं दुग्गइ-पह संबलं त च ॥२६॥
पावस्स मूलुलोहो तम्हा लोहो ण कायव्यो ॥४६॥ जिह सिसु रिणयघरवत्थू पुच्छताणं-णराण महियाणं ।
जो पुणु वय-नव-सुद्धो दहाइय दव्य-णिम्ममा सतो। घरमम्मु सच्चु अक्खड तिह अजव धम्मसंजुत्तो ॥३०
सो रय-मलिगु वि देहे परमसुई णिम्मलो सिट्टा ॥३॥ इह पर लोहि यर माया च हि अज्जवं धम्म ।
दहो बहुमलाकण्णो जनभारे हाविदा ण सुज्मेइ । तं पालिज्जइ भव्वे सिव पय-गमणाउरेणेव ॥३१॥
मज्जपओरिउ कुभो बाहिरपक्खालिदोपि साअसुह॥. अज्जव धम्महु मूलं सज्माणसिद्धीयरं हि नवमारं।
केस गह-दंत आई चेयणसंगेण ते व सुपवित्ता । तण विणा गुणवंतु वि समाइउ बुच्चदे लाए ॥३॥
कप्पूराइवि दव्या भवि मालिणाय देहस्स ॥४॥ चेयणरूवमग्वंडं विगवियप्पं सहावसंसिद्ध।
उत्तम-सयम णाणमउ अप्पाणं अज्जवभावण विप्फुरदि ।। ३॥ तस-थावर-ज वाणं मणवयकारण रक्खणं जत्थ ।
पाणासंजमणामं हवइ धुश्रा पावणा तत्स्थ ॥५०॥ उत्तम-सत्य
पचिदियमणुछट्ठउ सग सग-विसामु णिच धावतो। अलियाला वयणीह अदंतुरा मम्मछेयणे णिच्च। विविजहि धारिजहि-इदियसंजम होइ ॥५१॥ लोहेण कलुसिदा जा ण हवदि जीहाय सा छरिण॥४ समायिकच्छेदोपस्थापनापरिहार विशुद्धि जसु वयणादा वयणं अलियं णिग्गमइ त जिउ वयण सूक्ष्मसांपराययथाऽस्यासभेदन संयम: पंचविधोभवति विवरसमाण णेयं जीहा अहिणी णिवासत्थे ॥ २५ सावज करियर्यावरमणलखणपरिणामशुद्धियरणं हिं। ही हो अलियपभासी परसंतावीय पिदयागय। चारित्त भारधरण सामाइय णाम तं गय ॥५२॥ सविहाणे तस्सेव जिणामग्गहणं ण कायव्वं ॥३६॥ आप्पसझवि चिता जंठाविज्जइ खणे खणे खलिदो। जो पुण भणदि सच्चणादि तरसेव संजमं संलं। छेदोवट्टवायं चरण तंबणायब्वं ॥५३॥ परमअहिंसाधम्म हवइ ण तं भव्य मोत्सव्वं ॥3॥ पडि दिण गाा मत्तं विहरदि मोहक्खएण सीलदो। गउ भासिज्जइ अलिय भासा विज्जइण अण्णु णरुमडि कारणु किंचि लहेप्पिणु तिट्रई छम्मास एक्कपारण भासिज्ज तु सचित्ते अणुमणणं णेव कायव्वं ॥३८॥ परिणाम सुद्धिहदा णिवसंतो अयणु माणु सो सवणो। जइ हुइ पुतविप्रोवो भामिरिण घर लाँच्छ जज विहइ पार्वाद कंवलणाणं पहचारणरिद्धिवासा हु॥॥ णियपाणवि जई गच्छहि तहावि णो भासदेसचं ॥३६॥ इदि परिहारविशुद्धी च रयं सुहमति संपरायहिं । सच्चण गरो लाहि देवसमाणो वि मरवादे एस्थु। उवसमियकसायखएण दुदहमे गुणठाणितुरियहि ॥ माणाझयणं तं तं मतं सुत्तं पविप्फुरदे ॥४०॥ त्तिमोहपयडी खीयांत मुणीसरस्स सज्माणे । परदासं जो पयडहरिणयगुण अणहांत लोएस्थिरते। जहिं रिद्धि लद्धि ताज जहखायं संजम हादि ॥२४॥ गिदइ समिरिणयरं तपि असच्चं महादासं ४शा छठ्ठम गुणसु पढमं छह सग बसु पर्वाम विदिय पुतिदियं जं परसवणई सुलं हिसामूलं हि अंजि पावडढं। दहम गुणठाण तुरिय संसठाणे जहाखायं ॥५॥ परमम्माच्चेडणयं सच्चमवीदं असच्चं तं ॥४२॥
उत्तम-तप सच्च तं बाक्लिज्जइ उवासज्जेह तजि फुडु सच्च। परभउ पाविवि दुलह कुलं विशुद्ध लहेवि वरबुद्धी। प्रायणिज्जं सच्च तेण जुदं सम्वु सक्रिय ॥४॥ घरमाई मेल्लेप्पिणु तवं पांव हि कायव्व ॥
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११०]
अनेकान्त
[किरण'४
बन्मळभतरभेए तवं तवंतीह भव्य गिम्मोहा। तिह कम्मदेहमिलिदो अप्पा मलिणो ण कइया वि॥३॥ अप्पाणं मातिय लहति णिरु सासर्य सुक्ख || चेयण अचेयणं गणु मुवि वि उवादेय हेय जो भव्वो। वरिसाले तरुमले सिसरे चहाट गिम्हि गिरिसिहरे। भावदि हायसरुवं तमकिंचण भासियं धम्मं ॥४॥ माणे ठंता भव्या तवं तवंतीह सत्तीए ॥६१॥
उत्तम-ब्रह्मचर्य वेण जि देसणु सोहहणाणं सोहे। तेण सुयसयल। जिह कणय कडय लगो रथण अणग्यो य साहेह॥६॥ परमा बभा जावा सरारावसाह वाज्जदा यच्च । उत्तम-त्याग
तस्मायरणं पुणु पुणु तं धम्म दंभचेरक्खं ||७५॥
जुवई संग जत्थ जि मणवयकारण णिच्च चयणिज्जं । धम्मतरुस्स जिबीयं गुणगणधामंजस्सस्स वित्थरणं।
तत्त्थेव बंभवज भांति सूरी जुदा तेण ॥७६|| चायं कायव्वं इह भब्वेण जि जम्मभीदेण ।।।।
तब-णियम-संजमाणि य कालकिलेसाणि भूरिभेयाणि । दुल्लहयरे जिणरवि सिविणसभाणेचि जीविदेवित्ते।
बभंवएण विहूणा वीलियराणीह सव्वाणि ॥७॥ जो ण वि करेइ चाएं सो मुढो बंचिो विहिणा ॥६॥
सिद्धंतसत्थाणिणाईयमंदा हवेह कामिरस । जं भायणेण पाद्रपुत्तकलत्ताइ पोसणात्थेण ।।
विषयायारादिय तह णासंति अबभचारिस्स ॥८॥ जं विषं तंण थक्क थिरु पत्तकयदाणं ॥४॥
जइ बंभवयस्स कहावि सिविणे मते वि एइ अइयारो। असम किलेसहि जंधणु सज्जियं रक्खिये पि जयणेण
पण पार्याच्छत भव्वा तावदु सोहंति अप्पाणं ll तस्स फलं मुणिचाएं होइ फुडं तेण विणु विहलं ६शा
जे तव-वय-मज्जायं उल्लंधि वि सेवदीह तिय-सुक्खं । मोक्वस्म हेदुभूदं तवं पवित्तं समापणाणंच ।
लाह समाणा अहमा णो अण्णा भत्थि तिल्लोए ॥ सिजमा काए हाँति तस्स ठिदी अएए दो सिट्टा ॥६॥
मणसंभूदं मयणं मणविक्खेवेण तस्स विथारो। गेहत्य भन्व सावय पत्तत्ति भेएसु चारवरदाणं ।
तं ठाविदं सरुवे जइबर विदेहि केम वयभंगो in जच्छति णिकच सुहदं तं चाएं' भासिवंसुते ॥६७||
जेहिवसीकउ चित्तो मित्तो वेरग्गु तच्च भासो। धम्मक्खाणं भव्वहं सिरसाणं पाठणं च उवएस ।
ताह चिह बंभव्य उ कयाइ वियलेइ णो लाए ।२॥ मग्गपवट्टण करणं अणयाराणं हितं चाएं ॥६॥
मणविक्खेवणयारी महिला तहि संगि केम वयसुद्धी। अहवा दुट्ट वियप उपज ताण जं जि परिचाओ।
वयभंगेण वरात्री भमदि भवे चउगई दुग्गे ॥३॥ तं पुण परमं चाएं कायव्वं अप्पसिद्धीए ॥६॥
उक्त'च-जूकाधामकचाः कपालमजिनाच्छादमुखयोषिताँ उत्तम-श्राकिंचन्य
तच्छिन्द्रनयने कुचौ पलभरी बाह तते कीकसे।'८४ सयलाणं संगाणं जत्थ महावो हवेइ विहाणं
तुदं मूत्रमलादिसमजघनं प्रस्पंदिवों गृह। णियदग्वे सुविरत्तो आकिंचणु धम्मु तंणेश्रो॥७॥ पादस्थूणमिदं किमत्र महतां रागाय संभाव्यते ॥५॥ सयल-वियप्प-विरहिदो अर्णतणाणाधम्मसंपुषणो। रायंधो जणणियरो महिलामुहलालपान आसत्तो । सद्धो चेयणरूवो जीवो आईचणो ण्डऽणो ||१॥ चंदमही इदि मरिणवि पयासए ताहि गुणवं ॥६॥ दव्वाण पयस्थाणं तच्चाणं भेयलक्खणं जाओ।
ते ण कई यो सवणा व बुहाणाणमाणघराणो। चेयणरूपं गिण्हदि तमकिंचण धम्ममवि सिट्ठ॥७॥ जे पुण सराय भावें महिलारुवं पवण्णंति ॥८॥ जिह किट्रियम्मि मिलिदो कणउ असुद्धो ण होइ- साहीण-सुह छडिविपरासिदसुक्खे करइ जोरायो।
पिच्छयदो। अमियरस मेल्लिषि सो पिदि विसं पाणखययारो॥
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भक्तियोग-रहस्य
जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अविकसिन, अपविकसित, बहुविकसित और पूर्णअथवा शुद्धनिश्चयनयकी अपेला परस्पर समान है- विकसित ऐसे चार भागोंमें भी उन्हें बांटा जा सकता कोई भेद नहीं-मबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक
है। और इमलिए जो अधिकाधिक विकसित हैं वे ही है। प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्त दर्शन, अनंत
स्वरूपसे ही उनके पूज्य एवं आराध्य हैं जो अविकज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीयादि अनन्त सित या अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्मगुणोंका शक्तियोंका प्राधा-पिण्ड हो
विकाम मबके लिये इष्ट है। कालसे जीवों के साथ कममल लगा हुआ है, जिसकी ऐसी स्थिति होते हुए यह स्पष्ट है कि संसारी मूल प्रकृतियां पाठ, उत्तर प्रकृतियां एकसौ अड़तालीस जीवोंका हित इसीमें है कि वे अपनी विभाव परिण
और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्य है । इस कर्म मलके तिको छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने अर्थात सिद्धिको कारण जीवोंका असली स्वभाव आच्छदित है, उनकी प्राप्त करने का यत्न करें। इसके लिए आन-गुणोंका वे शक्तियाँ आवकसित हैं और वे परतन्त्र हुए नाना परिचय चाहिये, गुणोंमें बर्द्धमान अनुराग चाहिये प्रकारकी पर्याय धारण करते हुए नजर आते है। और विकास-मार्गकी दृढ श्रद्धा चाहिये। विना अनुअनेक अवस्थाओंको लिये हुए संसारका जितना भी गगके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अननुरागी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कर्ममलका परिणाम है- अथवा अभक्त हृदय गुणग्रहयका पात्र ही नहीं, विना उसीके भेदसे यह सब जीव-जगत भेदरूप है; और परिचयके अनुराग बढ़ा नहीं जा सकता और विना जीवकी इस अवस्थाको विभाव-परिणति' कहते हैं। विकास-मार्गको दृढ श्रद्धाके गुणोंके विकासकी ओर जब तक किसी जाव की यह विभव परिणति बनी रहत। यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती। और इम लिये है, तब तक वह 'संसारी' कहलाता है और तभी तक अपना हिन एवं विकार चाहनेवालोंको उन पूज्य महा उसे संसारमें कमांनुसार नाना प्रकारक रूप धारण पुरुपों अथवा सिद्धात्माओंकी शरण में जाना चाहियेकरके परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है; उनकी उपासना करनी चाहिये, उनके गुणों में अनुराग जब योग्य साधनोंके बलपर यह विभा०-परिणति बढ़ाना चाहिये और उन्हें अपना माग-प्रदर्शक मानमिट जाती है-आत्मामें कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं कर उनके नक्शे कदम पर चलना चाहिये अथवा रहता-और उसका निज स्वभाव सर्वाडगरूपसे उनकी शिक्षाओं पर अमल करना चाहिये, जिनमें अथवा पर्णतया विकसित हो जाता है, तब वह आत्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें अथवा जीवात्मा संसारपरिभ्रमणसे कूटकर मुक्तिको प्राप्त हो पूर्णरूपसे विकाम हुआ हो; ही उनके लिये कल्याजाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, एका सुमम माग है । वास्तवमें ऐसे महान् आत्माओं के जिसकी दो अवस्थाएँ हैं-एक जीवन्मुक्त और दूसरी विकसित प्रान्मस्वरूपका भजन और कीतेन ही हम विदेहमुक्त । इस प्रकार पर्यायदृष्टिसे जीयोंके 'संसारी' संसारी जीवोंके लिए आत्माका अनुभवन और मनन और 'सिद्ध' ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं, अथवा है, हम 'सोऽहं ' की भावनाद्वारा उसे अपने जीवनमें
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११२]
अनेकान्त
[किरण ४ उतार सकते हैं और उन्होंके-अथवा परमात्मस्व- काष्ठ भस्म हो जाता है। इधर संचित कर्मोंके नाशसे रूपके- आदर्शको सामने रखकर अपने चरित्रका अथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुणावरोधक कोंकी गठन करते हुए अपने आत्मीय गुणका विकास सिद्ध निजरा हाती या उनका बल क्षय होता है तो उधर करके तद्रूप हो सकते हैं । इस सब अनुष्ठानमें उनकी उन अभिलषित गुणांका उदय होता है, जिससे आत्माकुछ भी गरज नहीं होती और न इसपर उनकी कोई का विकास सधता है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र जैसे प्रसन्नता ही निर्भर है-यह सव साधना अपने ही महान् आचार्यों ने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिउत्थानके लिए की जाती है। इसीसे मिद्धिके साध- को कुशल परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा नोंमें 'भक्ति-योग' को एक मुख्य स्थान प्राप्त है. जसे श्रेयोमार्गको गुलभ और स्वाधीन बतलाया है और 'भारत-मार्ग' भी कहते है।
अपन तजम्वी तथा सुकृती आदि होने का कारण भी सिद्धिका प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्तिद्वारा इसीका निदिप्ट किया है और इसी लिये स्तुति आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा वन्दनादिके रूपमं यह भक्ति अनक नमित्तिक क्रिया'भक्ति मार्ग' है और भक्ति' उनके गुणोंमें अनु- ओंमें ही नहीं, किन्तु नित्यकी षट आवश्यक कियारागको, तदनुकूल वत्तंनको अथवा उनके प्रति गुणा- श्राम भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक नुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्र.त्तिको कहते हैं, जो क्रियाएं है और अन्तहट पुरुषों (मुनियों तथा कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पति एवं रक्षाका साधन है। श्रावको , के द्वारा आत्मगुणक विकासको लक्ष्यमें स्तुति, प्राथना, वन्दना. पा. ना, पूजा, सेवा, श्रद्धा रखकर ही नित्य की जाती हैं श्रार तभी वे आत्मा
और आराधना ये मब भक्ति के ही रूप अथवा नामा- स्कर्षकी साधक होती हैं। अन्यथा, लौकिक लाभ, न्तर हैं स्तुति-पूजा-वन्दनादि रूपसे इम भक्तिक्रि- पूजा प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढ़ि आदिकं वश होकर याको 'सम्यक्त्ववर्द्धिनी क्रिया' बतलाया है. शुभोप- करनसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नहीं बन सकता योगि चारित्र' लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म' भी और न प्रशस्त अध्यवसायके विना संचित पापों (खा है जिसका अभिप्राय है • पापकम-छेदनका थवा कर्मों का नाश हाकर आत्मीय गुणोंका विकास अनुष्ठान'। सद्भक्तिके द्वारा श्रोद्धत्य तथा अहंकारके ही सिद्ध किया जा सकता है । अतः इस विषयमें त्याग पूर्वक गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त अध्यवसायका लक्ष्वद्धि एव भावद्धि पर दृष्टि रखनेकी खास कुशल परिणमकी- उपलब्धि होती है और प्रशस्त जरूरत है, जिसका सम्लन्ध विवेकसे है। विना अध्यवसाय अथवा परिणामोंकी विशुद्धिसे संचित विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नही होती, कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है जिस तरह और न विना विवेककी भाक्त सद्भक्ति ही कह काष्ठक एक सिरेमें अग्निके लगनेसे यह सारा ही लाती है।
श्री पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार
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'वोतराग-स्तवन' के रचयिता अमर कवि
(श्री अगरचन्द नाहटा) अनेकान्त वर्ष १२ किरण ३ के प्रथम पृष्ट पर अमर- कवि अमरचन्द्रका समकालीन प्रन्धकारों में सबसे कवि-रचित 'वीतराग-स्तवनम् प्रकाशित हुआ है । महावीर- पहला उल्लेख सं. ११३५ में रचित प्रभाचवसरिके जी अतिशय क्षेत्र के शास्त्र-भंडारकी सं० १८२७ की लिखित प्रभावकचरित्रमें पाया जाता है। इस प्रन्यके जीवदेवसहिप्रतिसे नकल करके इसे प्रकाशित किया गया है । सम्पाद- प्रबन्धके अन्त में कहा गया है जिनके वंशमें भाज भी कीय नोट में इसके रचयिताके सम्बन्धमें लिखा है कि- अमर से तेजस्वी प्रभावक है" श्लोक इस प्रकार है'इसके कर्ता अमरकवि, जिनके लिये पुष्पिकामें 'वेशी "अद्यापि तस्त्रभावेण तस्य वंशे कलानिधिः भवे प्रभावका कृपाण' विशेषण लगाया गया है, कब हुए है और उनकी सूरिरमराभ स्वतेबसा ॥२००॥'इस उल्लेखसे मुनि कल्यादूमरो रचनायें कौन-कौन हैं यह अभी अज्ञात है। प्रन्य विजयजीने प्रात्मानन्द जैनसभा भावनगरस प्रकाशित प्रति सं० १८२७ की लिखी हुई है अतः यह स्तवन इसके इस ग्रन्थकी गुजराती भनुवादके पर्यालोचनमें यह सूचित पूर्वकी रचना है इतना तो स्पष्ट ही है, परन्तु कितने किया है कि सं० १३३४ तक जबकि यह प्रभावकचरित्र पूर्वकी है यह अन्वेषणीय है।"
बना कवि अमरचन्द विद्यमान थे। इसीलिये 'मचापि' इस सम्पादकीय टिप्पणीको पढ़ते ही 'वेणीकृपाण' शब्द व्यवहृत हुमा है। इस उल्लेखसे इस कविकीविशेषण वाले श्वेताम्बर बायड़गच्छीय जिनदत्तसूरिके शिष्य प्रसिद्धि व महत्वका भली भांति पता लग जाता है। समकवि चक्रवर्ती अमरचन्दका स्मरण हो पाया। यह स्त्रोत्र कालीन विद्वान उस वंशके महत्वको बतलानेके लिये उस भी सम्भव है किसी श्वेताम्बर जैनस्तोत्रसंग्रहमें प्रकाशित वंशके तेजस्वी नक्षत्रके रूपमें कवि अमरचन्द्रका नामोल्लेख हो चुका हो-इस विचारसे 'जैनस्तोत्रमंदाह' प्रथम भागके करता है यह उनके लिये कम गौरवकी बात नहीं। अंतमे प्रकाशिन जैनस्तात्रोंकी सूची छपी है उसे देखने सं०1४०५ में रचित प्रबन्धकोश' अपरनाम 'चतुपर विदित हुआ कि यह स्तोत्र भ्रातृ चन्द्र ग्रन्थमाला विंशतिप्रबन्ध' में तो इस कविका परिचायक स्वतंत्र प्रबंध अहमदाबादसे प्रकाशिन जिनेन्द्रनमस्कारादि संग्रहमें प्रका- (१३) ही पाया जाता है । उस प्रबन्धके अनुसार वायबशिन होने के साथ-साथ प्रस्तुत जैनस्तोत्रसंदोह प्रथम भाग- गच्छके परकायप्रवेश विद्यासम्पन्न जीवदेवसूरि (जिनका में भी छपा है। इन दोनों ग्रन्थोंमें यह 'सर्वजिनस्तव' के प्रबन्ध भी इसो ग्रंथमे है ) के सतांनीय जिनदरारिके नामसे अज्ञात रचयिता (निर्माणकार) के उल्लेखसह छपा बुद्धिमानाम चूडामणि आप सुशिष्य थे । कविराज परिसिहहै। परन्तु इस जैनस्तांत्रसंदोह ग्रन्थम प्रकाशित स्तानाकी से इन्हें सिसारस्वत' मंत्र मिला, जिसको भाराधना २१ अनुक्रर्माण काका दखने पर वहाँ रचयिताका नाम 'अमर- दिन तक प्राचाम्न तपके साथ निद्राजय,प्रासनजय, कषायचन्द्रसूरि' लिखा हुआ मिला। इससे विदित होता है कि जय करते हुए एकाग्र चित्तसे की थी। स्वगच्छके महाइस ग्रन्थके पृ० २६ में जब इस स्तोत्रका मुद्रण हुभा तब भक्त विवेकके भंडार रूप कोष्टागारिक पद्मश्रावक भवनइसके रचयिताका नाम ज्ञात न हो सका था, परन्तु इसके के एकान्त भागमें साधना करते हुए भाप पर सरस्वतीदेवी सम्पादक चतुविजयजीको इस प्रथकी अनुक्रमणिका प्रसन्न हुई और २१वें दिन प्रत्यक्ष प्रगट होकर अपने तैयार होनेके समय इसके रचयिताके नामका माधार मिल कमंडलुका जल पिलाते हुए इन्हें वरदान दिया कि 'तू गया। इसीलिये प्रस्तावनामें स्तोत्रकारोका परिचय देते हुए सिद्ध कवि और राजमान्य होगा। हुमा भी वैसा ही। अमरचन्द्रसूरिका परिचय भी दिया गया है । अनेकान्तके आपने कास्यकल्पलता (कविशिषा), चंदोरत्नावली, सम्पादक और पाठकोंकी जानकारीके लिये इस स्तोत्रके सूक्तावली, कलाकलाप एवं बालभारत नामक ग्रन्थोंकी रचयिता अमरचन्द्र कविका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रकाशित रचना की । बालभारतके सर्ग" लोक में प्रभात कर रहा हूँ। विशेष जाननेके लिये आपके जो तीन अन्य समयका वर्णन करते हुए आपने इस भावको दर्शाया है प्रकाशित हो चुके है उनकी प्रस्तावना देखना चाहिये। महादेवकी तपःसाधनासे कामदेव हतप्रभाव हो चुका
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भनेकान्त
[किरण ४ था, पर दक्षी विलोती हुई स्त्रियांकी वेणीका इधर उधर श्री अमरचन्द्रमूर्तिः पण्डितमहेन्द्र शिष्य-मदनचन्द्राख्येन घूमती हुई देखकर मालूम होता है कि मदन पुनः अपना कारिता शिवमस्तु ।' प्रभाव विस्तार करता हुमा मानो तलवार चला रहा है। (प्राचीन जैन लेख संग्रह द्वितीय विभागे घेखांक ५२३) वेणी कृपाणके दृष्टान्त रूप अनोखी सूझको देखकर प्रस्तुत मूर्तिसे पापका स्वर्गवास सं. १३४७ के पूर्व ही कवियों ने इनका विरुद्ध 'वेणीकृपाण' के नामसे प्रसिद्ध हो चुका, सिड होता है। कर दिया।
आपके रचित प्रन्थोंमेंसे 'बालभारत' प्रसिद्ध प्रन्थ है, महाराष्ट्र में भाप राजाओंसे पूजित हुए और महा- जिसे निर्णयसागर प्रेससे प्रकाशित काग्यमानामें प्रकाशित कविरूपमें ख्याति प्राप्त की, जिसे सुनकर विद्याप्रेमी किया जा चुका है। पद्मानंद काग्य आपकी कविप्रतिमागूर्जरेश्वर बीसलदेवने अपने प्रधान जलाको भेजकर का अनुपम परिचय देता है। यह काम्य गायकवाद अपनी राजधानी धवलक में बुलाया। जिस दिन आप पीरियन्टल सिरीजसे प्रकाशित हो चुका है। 'काव्यसभामें उपस्थित हुप राजकवियोंने विविध विचित्र समस्यायें कल्पलता' नामक काव्यशिक्षाका महत्वपूर्ण प्रभ चौखम्बा देकर आपकी कविप्रतिमाकी परीक्षा ली । प्रबंधकोषमें सिरीज, बनारससं प्रकाशित हो चुका है। इनके अतिरिक्त कहा गया है कि इस विद्याबिनोदमे राजसभा के लोग 'स्यादिशब्दसमुरचय' नामक चौथं ग्रंथका पण्डित जालइतना काव्य-रसानुभव करने लगे कि सभासदो और राजा. चन्द भगवानदास गांधाने बहुत वर्षपूर्व प्रकाशित किया है। ने उसदिनका भोजन भी नहीं किया। कवि अमरके काव्य- आपका 'छंदोरत्नावली प्रन्य कई श्वेताम्बर ज्ञानभंडारोंमें रसके प्रास्वादसे मानों उनका उदर लबालब भर गया। प्राप्त है, परन्तु अभीतक प्रकाशित नहीं हुआ है । प्रबंध. १०८ समस्यामोंकी पूर्ति करके आपने मंडली और राजा- कोषमे उल्लेखित आपके कलाकलाप और सूक्कावली ग्रंथों को चमत्कृत कर दिया। फिर तो राजसभामें आपका बड़ा की प्रतिका अभी किसी ज्ञानभंडारोंमें पता नहीं चला। सम्मान होने लगा और इनके विशेष प्रभाव एवं समागम अतः अन्वेषणीय है। सूक्तावली नामक ग्रंथों की कई प्रतियें संवीसलदेव जैनधर्मका प्रेमी बन गया । प्रबन्धकोशके ज्ञान भंडारसे प्राप्त होती है । संभव है, भली भांति जांच अनुसार नृपति जैन मंदिरोंमें नित्य पूजा करने लगा था करने पर उनमेसे कोई प्रति आपके रचित सूक्तावलीकी
एक बार राजा ने आपसे इनके कलागुण सम्बन्ध भी मिल जाय । प्रबन्धकोशमें आपकी की हुई १०८ सममें पूछा तो आपने परिसिह का नाम लिया। नृपतिने स्यानांकी पूर्तिका निर्देश करते हुए एक दो समस्यापूति उसे बड़े सरकारके साथ बुलाया और उसकी काव्यप्रतिभा वाले श्लोक उद्धत किये हैं। राजसभामें विद्याविनोद से प्रसन्न होकर ग्राम आदि भेंट किये । वीस देवका समय करते हुए समय-समयपर आपने ऐसे प्रासांगिक फुटकर सं० १३.० से १३२० तक का है। कई प्रबंधोंमें सं० श्लोक और भी रचे हांगे जो प्राप्त होने पर प्रापकी कवि १२९५ से १३१८ तक का भी लिखा है। इसलिये कवि प्रतिभा का अच्छा परिचय उपस्थित कर सकते हैं। सूक्ताअमरचन्दका समय भी यही सिद्ध होता है। जिस पम- वली में सम्भव है कि आपके समस्यापूर्ति और फुटकर श्राव के यहाँ रहकर अपने 'सिद्धसारस्वत' मंत्रकी श्लोकोका संग्रह हुआ हो इसलिये इस ग्रन्थका महत्व पाराधनाकी उसके कथनसे आपने 'पद्मानंद महाकाव्य' और भी बढ़ जाता है। विद्वानों का ध्यान कवि अमरचन्दबनाया। उपदेशतरंगिणीके अनुसार महामंत्रो वस्तुपाल के इन दोनों अनुपलब्ध ग्रंथोंकी शोधके लिये प्राकृष्ट कोअस्मिन्नसार संसार सारं सारंगलोचना । यस्कुषि- किया जाता है। प्रभवा एते वस्तुपाला भवारशः।' इस श्लोकको सुनाकर इस प्रकार 'वीतरागस्तवनम्' के रचयिता 'वेशीकृपाण' चमत्कृत करने वाले कवि अमरचन्द ही थे । पाटणके विशेषण विभूषित महाकवि अमरचन्द्रसूरिका संक्षिप्त रोगदियावादाके जैन मंदिरमें भापकी मूर्ति अब भी विद्य- परिचय यहाँ उपस्थित किया गया है। कविका 'पद्मानंद मान है। जिसका लेख इस प्रकार है -"संवत् १३४६ चैत्र काव्य' इस समय मेरे सम्मुख नहीं है। संभव है उसकी वदी ६ शनी वायटीय गच्छे श्री जिनदत्तसूरि शिष्य पण्डित प्रस्तावनासे और भी कुछ विशेष ज्ञातम्यका पता चले ।
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दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध
(पं.वंशीवरजी म्बाकरवाचार्य) धर्मकी सामान्य परिभाषा (४) सत्य-किसीके साथ कभी अप्रामाणिक और धर्मके बारेमें यह बतलाया गया है कि वह जीवों को
अहितकर वर्ताव नहीं करना। सुखी बनानेका अचूक साधन है और यह बात ठीक भी है
(१) शौच भोगसंग्रह और भोगविलासकी बाखअतः धर्म और सुखके बीच अविनाभावी सम्बन्ध स्था
साभोंका वशवर्ती नहीं होना। पित होता है अर्थात् जो जीव धर्मात्मा होगा, यह सुखी (6) संयम - जीवन निर्वाहक परिरिक्त भोगसामग्रीअवश्य होगा और यदि कोई जीव सुखी नहीं है या का संग्रह और उपभोग नहीं करना। दुःखी तो इसका सीधा मतलब यही है कि वह धर्मारमा (७) तप-जीवन निर्वाहकी आवश्यकताओंको कम
करने के लिए भास्माकी स्वावलम्बन शक्तिको विकसित बहुतसे लोगोंको यह कहते सुना जाता है कि 'अमुक करनेका प्रयत्न करना। व्यक्तिबड़ा धर्मात्मा है फिर भी वह दुरन्वी है' इस विषय- (E) त्याग-मात्माकी स्वालम्बन शक्तिके अनुरूप में दो ही विकल्प हो सकते हैं कि यदि वह व्यक्ति वास्तव- जीवन निर्वाहकी आवश्यकतामोंको कम करके जीवन में धर्मात्मा है तो भले ही उसे हम दुखी समझ रहे हो निर्वाह के लिए उपयोगमें भाने वाली भोग सामग्रीके संग्रह परन्तु वह वास्तवमें दुखी नहीं होगा और यदि यह रोग की माता। वास्तवमें दुःखी हो रहा है तो भले ही वह अपनेको धर्मा
(6) पाकिञ्चन्य-प्रात्माकी स्वावलम्बन शक्तिका स्मा मान रहा हो या दूसरे लोग उसे धर्मात्मा समझ रहे
अधिक विकास हो जाने पर जीवन निर्वाह के लिये उपयोगहो, परन्तु वास्तवमें वह धर्मात्मा नहीं है।
में आने वाली भोग सामग्रीके संग्रहको समाप्त करके तृप इस सचाईको ध्यानमें रखकर यदि धर्मका लक्षण मात्रका भी परिग्रह अपने पास न रखते हुए नग्न दिगम्बर स्थिर किया जाय, तो यही होगा कि जीवकी उन भाव- मद्राको धारण करना और म.स्म कल्याणके गश्यसे नाओं और उन प्रवृत्तियोंका नाम धर्म है जिनसं वह सुखी केवल अयाचित भोजनके द्वारा ही शरीरकी रक्षा करनेका हो सकता है शेष जीवकी वे सब भावनायें और प्रवृत्तियां प्रयत्न करना तथा विधिपूर्वक भोजन न मिलने पर शरीरअधर्म मानी जायगी, जिनसे वह दुखी हो रहा है।
का उत्सर्ग करनेके लिये भी उत्साहपूर्वक तैयार रहना। दशधर्मो के नाम और उनके लक्षण
(१. प्राचर्य-पारमाकी पूर्ण स्वालम्बन शक्तिका
विकास हो जाने पर अपनेको पूर्ण पात्मनिर्भर बना लेना, जीवकी धार्मिक भावनाओं एवं प्रवृत्तियों को जैन
जहाँ पर भूम्ब, प्यास भादिकी बाधाका सर्वथा नाश हो संस्कृतिके अनुसार निम्नलिखित दवा भेदों में संकलित कर
जाने के कारण शरीर रक्षाके लिये भोजनादिकी पावश्यदिया गया है
कता ही नहीं रह जाती है। समा, मार्दव, मार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप. त्याग पाकिम्चन्य और ब्रह्मचर्य ।।
चमा आदि छह धर्म और मानव जीवन ()मा- किसी भी अवस्थामें किसी भी जीवको
इन दस धर्मों में से प्रादिक नमा, माईक, भाग, कष्ट पहुँचानेकी दुर्भावना मनमें नहीं लाना।
सत्य, शौच और संयम इन धोकी मानव जीवनके (२) मार्दव-किसी भी जीवको कभी भी अपमानित लिये अनिवार्य आवश्यकता है इसका कारण यह है कि करनेको दुर्भावना मनमें नहीं लाना।
विश्व में जीवोंकी संख्या इतनी प्रचुर मात्रा है कि उनकी (३) भाव-कभी भी किसी जीवको धोखा देनेकी गणना नहीं की जा सकती है इसलिये जैन संसतिक दुर्भावना मनमें नहीं लाना ।
अनुसार जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त बतला दी गई है।
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११६ ]
अनेकान्त
किरण ३
ये सब जीव एक दूसरे जीवके यथायोग्य उपकारी माने गये अनिवार्य आवश्यकता है । प्रामाणिक वर्तावका अर्थ यह हैं। यही कारण है कि जैन-प्रन्थों में सबसे पहले हमें है कि हम कभी भी किसीको धोखेमें न डालें और हित"सत्वेषु मैत्रीम्" अर्थात् विश्वके समस्त जीवोंके प्रति कारी वर्तावका अर्थ यह है कि हम कभी भी किसीको मित्रता रखनेका उपदेश मिलता है । वास्तव में जो जीव कष्ट न पहुंचा और न किसी प्रकारसे कभी उसे अप हमारा उपकारक है उसकी रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य मानित ही करें। इस प्रामाणिक और हितकारी वर्ताव करने हो जाता है। यदि हम उसकी रक्षा नहीं करते हैं तो का नाम ही सत्यधर्म बतलाया गया है। हम दूसरांके साथ इससे हमारे ही अहित होनेकी संभावना बढ़ जाती है ऐसा वर्ताव तभी कर सकते हैं जबकि हमारा अन्त:करमा इसलिये यदि हम अपना ही अहित नहीं करना चाहते हैं पवित्र हो अर्थात् हमारा अन्तःकरण सर्वदा दूसरोंको धोखा - तो हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि हम अपने उप- देने, कष्ट पहुँचाने और अपमानित करनेकी दुर्भावनाओं कारक दूसरे जीवोंकी रक्षाका पूरा पूरा ध्यान रखें, उन्हें से अलिप्त रहे और हम पहले बतला पाये हैं कि अपने अपना मित्र सममें।
अन्तःकरण में दूसरोको कष्ट पहुँचानेकी दुर्भावना उत्पन्न थोड़ी देरके लिए हम एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,
न होने देनका नाम घमा धर्म, किसी भी प्रकारसे अपचतुरिन्द्रिय और पहन्द्रिय पशु मादिकी बात छोड़ भी
मानित करने की दुर्भावना उत्पन्न न होने देनेका नाम दें केवल मनुष्योंको ही लें, तो भी यह मानी हुई बात है मादव धर्म तथा किसी भी प्रकारस धोखेमें न डालनेकी कि सामान्य तौर पर किसी भी मनुष्यका जीवन दसरे दुर्भावना उत्पन्न न होने देनेका नाम आर्जव धर्म है। anी महायता जिला निभ नहीं सकता है। प्राय: इन चारों समा, मादव, आर्जव और सत्य धोंक
र सभी विद्वान यह कहते आये हैं कि मनुष्य एक सामाजिक
अभावमें हम पुरातन कालसे चले आ रहे कुटुम्ब, ग्राम प्राणी है अर्थात् संगठित समाज ही मनुष्यके सुखपूर्वक आदि मगठनाका सुराक्षत नही रख पा रहे हैं इसलिये न जिन्दा रहनेका उत्तम साधन है अतः सुखपूर्वक जिन्दा तो हमारे जीवनमे सुख ही नजर आ रहा है और न हम स
मोना ही होगा fiगति अपनेको सभ्य नागरिक कहलानेके ही अधिकारी हो समाज कैसे कायम रह सकता है।
सकते हैं। इतना ही नहीं, ऐसा कहना भी अनुचित नहीं हमारे पूर्वज बहुत अनुभवी थे, उन्होंने कुटुम्बके रूपमें,
होगा, कि जिसमे उक्त चारों बात नहीं पायी जाती हैं,
वह मनुष्य अपनेका मनुष्य कहलानेका भी अधिकारी प्रामके रूप में, देशके रूप में और नाना देशामें सन्धि आदि के रूप में, मानव जातिके संगठन कायम किये, जो अब तक
नहीं माना जा सकता है। अतः कहना चाहिये कि दूसरोंके
प्रति दूषित भावना और दूषित वाव न करके हम अपनी चले भा रहे हैं परन्तु हमारे अन्तःकरणमं संगठनकी
मनुप्यताको ही रक्षा करते हैं। भावना नहीं रह जाने और एक मनुष्यका दूसरे मनुब्यके
प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन दीर्घायु, स्वस्थ और प्रति अप्रामाणिक और अहितकर व्यवहार चालू हो जाने
सुखी बनानेके लिये यह भी सोचना है कि वह अन्तःकरणके कारण ये सब संगठन मृतप्राय हो चुके हैं इसलिये
में उत्पस अगणित लालसा के वशीभूत होकर नाना प्रत्येक मनुष्यको यदि असमयमें ही जीवन समाप्त हो जाने का भय बना रहे या जिन्दा रहते हुए भी उसका जीवन
प्रकारके प्रकृति विरुद्ध असीमित भौगोपभागोंका जो संग्रह
और उपभोग किया करता है इसमें से पहले तो वह दुःखी बना रहे तो इसमें आश्चर्यकी बात ही क्या है।
भोगीपभोगोंके लिए ही काफी परेशान होता है और बादसमा, मार्दव, प्रार्जव और सत्य ये चार धर्म हमे इन
में उनका अनर्गल उपभोग करके अपने शरीरको ही रुग्या संगठनोंको कायम रखने में मदद पहुँचाते हैं अर्थात् जिन्दा
बना लेता है जिसके कारण या तो उसका जीवन अपरहने और अपने जीवनको सुखी बनानेके लिये हमें दूसरे
कालमें ही समाप्त हो जाता है अथवा औषधियोंके चकरमनुष्योंके साथ प्रामाणिक और हितकारी धाव करनेकी
में पड़कर कष्टपूर्ण जिन्दगी व्यतीत करनेके लिए उसे -परस्परोपग्रहो जीवानाम् । (तस्वार्थ सूत्र अ५ बाध्य हो जाना पड़ता है अतः जीवनसे इन बुराइयोंको सु.२०)
दूर करने और उसे दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी बनानेके
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किरण २]
दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध
[११७
लिए प्रत्येक मनुष्यका यह भावश्यक कर्तव्य है कि अन- करने पर जैसे जैसे उसकी स्वावलम्बन शक्तिका धीरेगेल उपभोगमें कारणभूत अन्तःकरण में विद्यमान भोगी- धीरे विकास होता जाता है वैसे वैसे ही वह अपने जीवन पभोग सम्बन्धी लालसाओंको समूल नष्ट कर दें और निर्वाहके साधनों में भी कमी करता जाता है जिसे त्याग ऐसे भोगोपभोगांका संग्रह और उपभोग जरूरतके मानिक धर्म बतलाया गया है। इस तरह वह सम्यगाष्टि मनुष्य करने लग जाय जो भोगोपभोग जितनी मात्रामें उसकी अपने जीवन निर्वाहकी भावश्यकताओंको कम करके प्रकृतिके विरुद्ध न होकर उसके जीवनको दीर्घायु, स्वस्थ पास्माकी स्वावलम्बन शक्तिका अधिकाधिक विकास करता और सुखी बनाने में समर्थ हो।
हुमा और उसीके अनुमार जीवन निर्वाहकी सामग्रीका हम यह भी पहले कह पाये हैं कि उपयुक्त लाल
त्याग करता हुश्रा अन्तमें ऐसी अवस्थाको प्राप्त कर लेता
है जिस अवस्थामें उपके तृणमान भी परिप्रप्त नहीं रह सामोंको समूल नष्ट कर देने का नाम शौचधर्म और जरूरतके माफिक प्रकृतिके अनुकूल भोग सामग्रीका संग्रह
- जाता है तथा बरसातमें, शीमें और गर्मि सर्वदा अपनी और उपभोग करने का नाम संयम धर्म है। इस प्रकार जो
नग्न दिगम्बर मुद्रा में ही वह बिना किसी ठौरके सर्वत्र मनुष्य पूर्वोक चार धर्मोके साथ साथ शौच और संयम
विचरण करता रहता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्यका इस स्थिति इन दोनों धर्मों को अपने जीवनका अंग बना लेता है वह जैन संस्कृतिके अनुसार सम्यग्दृष्टि अर्थान् विवेकी कहा पम्यग्दृष्टि मनुष्यको पूर्वोक्त प्रकारसे तप और त्याग जाने लगता है।
धोके अंगीकार कर लेने पर, जैन संस्कृतिके अनुसार सम्यग्दृष्टि मनुष्यका सर्वदा यही खयाल रहता है
लोग श्रावक, देशविरत या अणुव्रती कहने लगते हैं और कि कौन वस्तु कहाँ तक उसके जीवन के लिए उपयोगी है प्रयन्न करते करते अन्तम उक्त प्रकारका प्राकिजन्य धर्म और केवल इस खयालके आधार पर ही वह अपने जीवन
स्वीकार कर लेने पर उसे साधु, मुनि, ऋषि या महाव्रती निर्वाहके साधनोंको जुटाता एवं उनका उपभोग क्रिया कहने लगते है। करता है। वह जानता है कि भोजन, वस्त्र, मकान मादि पाकिञ्चन्य धर्मका दृढ़ताके साथ पालन करने वाला पदार्थों की उसके जीवन के लिये क्या उपयोगिता है? कहने वही सम्यग्दृष्टि मनुष्य विविध प्रकार के घोर तपश्चरणों का मतलब यह है कि सम्यग्दृष्टि मनुप्यके अन्तःकरणमें द्वारा अपनी स्वावलम्बन शक्तिका विकास करते हुए उस भोग विलासकी भावना समाप्त हो जाती है केवल जीवन स्थिति तक पहुंच जाता है जहाँ उसे न कभी भूख जगती निर्वाहकी भोर ही उसका लक्ष्य रह जाता है।
है और न प्यास लगनेकी ही जहाँ पर गुंजाइश है। वह
पूर्ण रूपमे प्रात्म-निर्भर हो जाता है। मनुष्य द्वारा इस तप आदि धर्मचतुष्क और मुक्ति
प्रकारको स्थितिको प्राप्त कर लेनेका नाम ही ब्रह्मचयधर्म इस प्रकार सम्यग्दृष्टि मनुष्य हमा, मार्दव, सत्य, हैप्रमचर्य शब्दका अर्थ पूर्ण रूपसे प्रात्म-निर्भर हो जाना शौच और संयम द्वारा अपने जीवनको दीर्घायु, स्वस्थ है और जो मनुष्य पूर्णतः श्रान्म निर्भर हो जाता है उसे और सुग्बी बनाता हुश्रा जब यह सोचता है कि उसके जैन संस्कृति के अनुसार, 'अहम्न' या 'जिन'कहा जाता जीवनका उद्देश्य प्रामाको पराधीनतासे छुड़ाकर निर्विकार है और इसे ही पुरुषोत्तम अर्थात् संपूर्ण मनुष्यों में श्रेष्ठ और शुद्ध बनाना ही है तो वह इसके लिये साधनभूत माना गया है कारण कि मनुष्यका सर्वोत्कृष्ट जीवन यही तप, स्याग, भकिजन्य और ब्रह्मचर्य इन चार धर्मों की ओर है कि भोजनादि पर वस्तुओंके अवलम्बनके बिना ही वह अपना ध्यान दौड़ाता है वह जानता है कि प्रापमा परा- जिन्दा रहने लग जाय । जैन भागम प्रन्यों में यह भी धीनतासे छुटकारा तभी पा सकता है जबकि उसकी बतलाया गया है कि जो मनुष्य पूर्णरूपसे प्रारम-निर्भर स्वावलम्बन शक्तिका पूर्ण विकास हो जावे, अतः वह इसके होकर अहन्त और पुरुषोत्तम बन जाता है वह पूर्ण वीत. लिये अपने जीवन निर्वाहकी आवश्यकतामाको क्रमशः रागी और सर्वज्ञ होता है और यही कारण है कि उसमें कम करनेका प्रयत्न करने लगता है उसके इस प्रयत्नका विश्व-कल्याणमार्गक सही उपदेश देनेकी सामर्थ्य उदित नाम ही तपधर्म है तथा अपने उस प्रयत्नमें सफलता प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार विश्वको कल्याण मर्गका उपदेश
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अनेकान्त
[किरण
देते हुए अन्तमें जब वह अपना शरीर छोड़ता है तो वह अपने जीवन निर्वाहके साधनांको कम करनेकी शक्ति पुनः शरीर धारण नहीं करता है, केवल एकाकी प्रारमरूप प्रगट हो जावे। अपनी शत्तिको न तौल कर और अपनी होकर सर्वदाके लिए अजर और अमर हो जाता है ऐसे कमजोरियोंको छुपा कर जो भी व्यक्ति श्रावक या साधु भास्माको ही जैन मान्यताके अनुसार मुक्त, सिद्ध या बननेका प्रयत्न करता है वह अपमेको पतनके गर्भ में ही परमब्रह्म कहा जाता है।
गिराता है। इसलिये श्रावक और साधु बननेका प्रश्न मनुष्यका कर्तव्य
हमारे लिये महत्वका नहीं है हमारे लिए सबसे अधिक
महत्वका यदि कोई प्रश्न है तो यह सम्यग्दृष्टि (विवेकी) ये दश धर्म किसी सम्प्रदाय विशेषकी बपौती नहीं
बननेका ही है जिससे कि हम अपनी जीवन प्रावश्यहै। धर्मका रूप ही ऐसा होता है कि वह सम्प्रदाय
कतामोको ठीक ठीक तरहसे समझ सकें और उनकी पूर्ति विशेषके बन्धनसे अलिप्त रहता है जीवनको सुखी
सही तरीकेसे कर सकें। कारण कि हमारे जीवन निर्वाहबनानेकी अभिलाषा रखने वाले तथा प्रात्मकल्याणक
को जितनी समस्यायें हैं उनको ही यदि हमने अपनी दधिइच्छुक प्रत्येक मनुष्यका यह अधिकार है कि वह अपनी
से मोमल कर दिया तो फिर हमारा जीवन ही खतरेमें शक्ति और साधनोंके अनुसार उक प्रकारसं धर्म पालनमें
पद सकता है इसलिये भले ही हम अपनी जीवन निर्वाहअग्रसर हो ।
की आवश्यकताओंको कम न कर सके, तो चिन्ताकी बात इस प्रकार क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य ये चार नहीं है परन्तु असीमित बालसाओंके वशीभूत होकर हम धर्म यदि हमारे जीवन में उतर जाय तो हम सभ्य नागरिक
अनर्गल रूपसे अनावश्यक प्रवृत्तियाँ करते रहें, तो यह रूपमें चमक सकते हैं और इन चारों धर्मोके साथ साथ अवश्य ही चिन्तनीय समस्या मानी जायगी। गौच एवं संयम धर्म भी हमारे जीवनमें यदि पा जाते हैं
माजकल प्रत्येक मनुष्य जब चारों ओर घेभवके तो हमारा जीवन अनायास ही दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी
नमस्कारोंको देखता है तो उनकी चकाचौंधमें उसका मन बन सकता है। नवीन नवीन और जटिल रोगांकी वृद्धि
गावांडोल हो जाता है और तब वह उनके आकर्षणसे बच जो आजकल देखने में पा रही है उसका कारण हमारी
नहीं सकता है और उसकी लालसायें वैभवके उन चमअनर्गल और हानिकर माहार-विहार-सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ
स्कारांका उपभोग करने के लिए उमड़ पड़ती हैं और तब ही तो हैं। सब दुष्प्रवृत्तियोंके शिकार होते हुए भी हम वह सोचता है कि जीवनका सब कुछ अानन्द इन्हींके अपनेको सभ्य नागरिक तथा विवेकी और सम्यग्दृष्टि मानते
उपभोगमें समाया हुआ है। आजकल प्रत्येक व्यक्ति
ग या , हैं यह प्रात्मवंचना नहीं है तो फिर क्या है?
चाहता है कि उसके पाप ऐसा आलीशान मकान हो हमार शास्त्र हमे बतलाते हैं कि आजकल मनुष्य जिममें वैभवकी सभी कलायें छिटक रही हों, उसका भोजन इतना पीय शक्ति हो गया है कि उसका मुक्ति का या और उसके वस्त्र अश्रत पूर्व और अभूतपूर्व, बढ़ियासे पूर्ण भास्मनिर्भर बननेका स्वप्न पूरा नहीं हो सकता है बढ़िया मोटरकार हो, रेडियो हो और न मालूम क्या क्या परन्तु श्रावक और माधु बनने के लिये भी तप, त्याग और हो, विश्वमें छायी हुई विषमताने मनुष्यकी लालसाओंको भाकिमन्य धर्म सम्बन्धी जो मर्यादायें निश्चित की ई उभाड़ने में कितनी अधिक सहायता की है यह बात जान है उनके दायरेमें रह कर ही हम श्रावकों और साधुओंकी कार लोगोंसे छिपी हुई नहीं है। जिनके पास ये सब श्रेणीम पहुंच सकते हैं। वस्त्रका त्याग करके नग्न दिग- साधन मौजूद है वे तो उनके भोगमें ही अलमस्त हैं लेकिन म्बर वेशका धारक साधु ठंड भादिकी बचतके लिये यदि जिनके पास इन सब साधनोंकी कमी है या विस्कुल नहीं पयाल मादिका उपयोग करता है तो उसमें साधुता कहाँ है भी केवल ईर्षा और बाहकी हो जिन्दगी व्यतीत रह जाती है अतः साधुका वेश हमें तभी स्वीकार करना कर रहे हैं वे भी नहीं सोच पाते कि भला इन वैभवके चाहिये जबकि वस्त्रादिके अभाव में शीतादिकी बाधा सहन चमकारोंसे हमारे जीवन-निर्वाहका क्या सम्बन्ध है? करमेकी सामर्थ्य हमारे अन्दर उदित हो जावे इसी तरह . हम मानते है कि जिनके पास समयकी कमी है और भाषक भी हमें तभी बनना चाहिए जबकि हमारे अन्दर काम अधिक है उन्हें मोटरकी जरूरत है परन्तु सैर सपाटे
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वंगीय जन पुरावृत्त
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के लिये उस मोटरका क्या उपयोग हो सकता है? यह तरह लोग रुपया पैसाके दानको तथा भारमाकी स्वारभी हम मानते हैं कि देश और विदेशोंको परिस्थितियोंकी जम्बन शक्तिके विकासको अवहेलना करके प्रक्रम और जानकारी के लिये रेडियोका उपयोग आवश्यक है परन्तु अव्यवस्थित ढंगसे किये गये भोगादिके त्यागको त्याग अनुपयोगी और अश्लील गानों द्वारा कानीका तर्पण धर्ममें गर्मित कर लेते है। परन्तु वे यह नहीं सोचते कि
और मनोरंजनके लिए उसका क्या उपयोग हो सकता रुपया पैसाका दान मादिके चार धमों में ही यथा योग्य है? यही बात वैभवकी चकाचौंधसे परिपूर्ण महलों, चम- गभित होता है और जिसमें प्रारमशक्तिके विकासको कीले भदकीले वस्त्रों और दुष्पाच्य गरिष्ठ भोजनोंके बारेमें अवहेलना की गयी है ऐसे अक्रम और अम्यवस्थित हगसे भी समझना चाहिये।
किया गया त्याग तो धर्मकी मर्यादामें ही नहीं पा सकता अन्तिम निवेदन
है अतः प्रत्येक मनुष्य और कमसे कम विचारक विद्वानोंका ऐसे अन्धकारपूर्ण वातावरणमें उक्त दश धोका तो यह कर्तव्य है कि वे दश धर्मोके स्वरूप और उनके अर्थप्रकाश ही मानवको सद्बुद्धि प्रदान कर सकता है परन्त पूर्ण क्रमको समझनेका प्रयत्न करें तथा स्वयं उसी तंगसे इन धमकि स्वरूप और मर्यादाओंके विषय में भी लोग उनके पालन करने का प्रयत्न करें और साधारण जनको अनभिज्ञ हो रहे हैं। प्रायः लोगोका यह खयाल है कि भी समझानेका प्रयत्न करें ताकि मनुष्यमात्र में मानवताका वीयकी रा करना ही ब्रह्मचर्य है परन्तु वीर्य रक्षाकी संचार हो और समस्तजन अपने जीवनको सुखी बनानेका मर्यादा संयम और त्याग धर्म में ही पूर्ण हो जाती है इसी मार्ग प्राप्त कर सकें।
ता.१७-८-२०
उत्तम क्षमा
(परमानन्द जैन शास्त्री) येन केनापि दुष्टेन पीड़ितेनापि कुत्रचित् । चित्तको प्रशान्त नहीं होने देता, उन विभाष भावोंको क्षमा त्याज्यान भव्येन स्वगंमोक्षाभिलापिण। ॥ अनात्मभाव अथवा प्रामगुणोंका घातक समझकर उन
जिस किसी दुष्ट व्यक्तिके द्वारा पीवित होने पर भी पचा देता है-उनके उभरनेकी मामयको अक्रोध गुणकी स्वर्ग और म.क्षकी अभिलाषा वाले व्यक्तिको मा नहीं निर्मल अग्निमें जना देता है और अपनेको बह निर्मल छोड़ना चाहिये। क्योकि समा यात्माका धर्म है, स्वभाव गुणांकी उम विमल सरितामें सराबोर रखता है जहाँ तथा गुण है, वह पारमा ही रहता है। बाघ विकृतिक असाधुपनकी उस दुर्भावनाका पहुँचना भी संभव नहीं कारण प्रारमाका वह गुण भले ही तिरोहित या माच्छा होता । मोह क्षोभसे होने वाले रागद्वेष रूप विकारात्मक दित हो जाय, अथवा धात्मा उस विकारके कारण अपने परिणाम जहां ठहर ही नहीं सकते; किन्तु पारमाकी स्थिति स्वभावसे च्युत होकर राम-द्वेषादि रूप विभावभावोंम शान्त और समता रससे मोत-प्रान रहती है। कंचन, परिणत हो जाय, परन्तु उसके क्षमा गुणरूप निज स्वभावका कांच निन्दा स्तुति पूजा, अनादर, मणि-बोष्ट सुख दुख, प्रभाव नहीं हो सकता। अन्यथा वह आमाका स्वभाव जीवन मरण, संपत् विपत् भादि कार्यों में समता बनी नहीं बन सकता। क्षमा वीरस्य भूषणम्' वाक्य के अनुसार रहती है, वही व्यक्ति वीर तथा धीर और प्रारम क्षमाको वीर व्यक्तिका आभूषण माना गया है। बाम्नवमं म्वातध्यताका अधिकारी होता है। उसे ही स्वास्मोपबन्धि चमा उस वीर व्यक्तिमें ही होती है जो प्रतिकारकी सामर्थ्य अपना स्वामी बनाती है। रखता हुमा भी किसी असमर्थ व्यक्ति द्वारा होने वाले अप- किन्तु जो व्यक्ति सरष्टि नहीं, कायर और महानी है राधको क्षमा कर देता है-उसे दगह नहीं देता, और न वस्तुतत्वको ठीक रूपसे नहीं समझता, वह जरासे उसके प्रति किसी भी प्रकारका असंतोष अथवा बदखा निमित्त मिलने पर कोधकी भागमें जलने लगता है, लेनेकी भावनाको हृदयमें स्थान ही देता है। किन्तु मन प्रतीकारकी सामर्थक अभाव में भी पाई हुई मापदाका स्थिनिके विकृत होनेके कारण समुपस्थित होने पर भी प्रतिकार करना चाहता है किन्तु उसका प्रतीकार न
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१२.]
अनेकान्त
[किरण
होनेसे खेद खिश रहता है। दूसरोंको बुरा भला बचन बोलना, गाली देना, किसीकी सम्पत्तिका परहरण कहता है। अपने स्वार्थकी लिप्सामें दूसरेके हित करना, किसीको मानसिक पीड़ा पहुँचाना अथवा ऐसा अहित होनेकी परवाह नहीं करता, और न खुद उपाय करना जिसमे दूसरेको नुकसान उठाना पड़े, तथा अपना ही हित साधन कर सकता है, ऐसे व्यक्ति- लोकमे निन्दा वा अपयशका पात्र बनना पड़े, भादि में क्षमा रूप धास्मगुणका विकास नहीं हो पाता, और कोई मनुष्य किसी मनुष्यको अपशब्द कहता है गाली न उसकी महत्ताका उसे प्राभास ही हो पाता है। देता है जिससे दूसरा मनुष्य उत्पीड़ित होता है अपने क्रोधाग्नि जिस व्यक्किमें उदिन होती है वह सबसे पहले अहंकारकी भावना पर प्राघात हुअा अनुभव करता है, उस व्यक्तिके धैर्यादि गुणोंका विनाश करती है-उन्हें अपने अपमानको महसूस करता हुश्रा क्रोधाग्निसे उद्दीपित जखाती है-और उसे प्राण रहित निश्चेष्ट बना देती है। हो जाना है. और उमसे अपने अपमानका बदला लेनेके क्रोधी व्यक्ति पहले अपना अपकार करता है, बादमें लिये उतारू हो जाता है। उन दोनों में परस्पर इतना अधिक दूसरेका अपकार हो या नहीं, यह उसके भवितव्यकी झगड़ा बढ़ जाता है कि दोनोंको एक दूसरेके जीवनसे बात है। जैसे किसी व्यक्किने क्रोध वश अपराधीको भी हाथ धोना पड़ता है, क्रोधसे होने वाली यह सब सजा देने के लिये भागका अंगारा उठाकर फेंकने की क्रियाएं कितना अनर्थ करती हैं यह अज्ञानी नहीं समझता कोशिश की। पागका अंगारा उठाते ही उस व्यक्तिका और न कार्य कार्यका कुछ विचार ही करता है।
पहले स्वयं जल जाता है। बादमें जिस व्यक्तिको परन्तु ज्ञानी (सहिष्ट) क्रोध और उससे होने वाले अवअपराधी समझकर उसे जलाने के लिये अग्नि फेंकी गई है श्यम्भावी विनाश परिणामसे परिचित है. वह 'क्रोधो मूलवह उससे जले या न जलं यह उसके भवितव्यके प्राधीन मननां' की उक्तिमं भी अनभिज्ञ नहीं है। वह सोचता है। परन्तु भाग फेंकने वाला व्यक्ति तो पहले स्वयं जल है कि जिस गाली या अपशब्दके उच्चारणसे क्रोधका यह ही जाता है। इसी तरह क्रोधी पहले अपना अपकार ताण्डव नत्य होता है या शान र करता है, बाद में दसरेके अपकारमें निमित्त बने अथवा
जी
, न बनें इसका कोई नियम नहीं है।
पौदगलिक है,-पुद्गल ( Matter) से निष्पन्न हुश्रा क्रोध पारमाका स्वाभाविक परिणाम नहीं, वह परके है, वह मेरे प्रारमगुणोंको हानी नहीं पहुँचा सकता। निमित्त से होने वाला विभाव है। उसके होने पर विवेक गाली देने वालेने यदि तुझे गाली दी है-अपशब्द कहा चला जाता है और अविवेक अपना प्रभाव जमाने लगता है, तो तुझे उसका उत्तर गालीमें नहीं देना चाहिये, है। इसीसे उसका विनाश होता है। क्रोध उत्पन्न होते ही किन्तु चुप हो जाना चाहिये। क्योंकिउस व्यक्तिकी शारीरिक प्राकृतिमें विवृति या जाती है, 'गाली आवत एक है जावत होत अनेक । मांखें लाल हो जाती हैं, शरीर कांपने लगता है, मुम्बकी जो गालीके फेरे नहीं तो रहे एकको एक ।। प्राकृति विगह जाती है, मुंहसे यद्वा तद्वा शब्द
कदाचित् यदि गालीका जबाब गाली में दिया जाता निकलने लगते हैं, जिस कार्यको पहने बुरा समझना
हैं तो झगड़ा और भी बढ़ जाता है-उससे शान्ति नहीं था क्रोध आने पर उसे ही वह अच्छ। समझने लगता
मिलती और न ऐसा करना बुद्धिमत्ता ही है। है। उस समय क्रोधी पुरुषकी दशा पिशाचसे अभिभूत व्यक्तिके समान होती है-जिस तरह पिशाच मनुष्यके
किसी कवि ने कहा है :शरीरमें प्रवेश करने पर वह व्यक्ति प्रापेसे बाहर होकर
ददतु ददतु गालों गालिमन्तो भवन्ता, प्रकार्यों को करता है कभी उचित किया भी कर देता है,
वयमाप तदभावात् गालिदानेऽसमर्थाः । पर वह उस अवस्थामें अपना थोड़ा सा भी हित साधन नहीं
जगद् विदित मेतद् दीयते विद्यमानं, कर सकता। इसी तरह क्रोधी मनुष्य भी अपना अहित नहि शशक विपारणं कोऽपि कस्मै ददाति ।। साधन करता हुमा लोकमें निन्दाका पात्र होता है। क्रोधो- दूसरे यदि गाली देने वालेके पास अनेक गालियां त्पत्ति के अनेक निमित्त है, झूठ बोलना, चोरी करना, कटुक है, तो वह गालियां देगा ही, क्योंकि यह लोक में विदित
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किरण ३]
उत्चम क्षमा
[१२१
है कि जिसके पास जो चीज होती है वह वही चीज उसे स्वार्थसिद्धि किया करता था, परन्तु विकके जागृत होते ही देता है। मेरे पास गालियां नहीं हैं प्रत. मैं उन्हें नहीं दे वह मेरी मिथ्या दृष्टि विलीन हो गई और मुझे अपनी उस सकता, लोक में खरगोशके सींग नहीं होते तो उन्हें कोई पालतीका भान हो गया। अब मेरा निश्चय कि किसीको देता भी नहीं है।
पर पदार्थ मेरा कुछ भी बिगार-सुधार नहीं कर सकता। फिर भी ज्ञानी सोचता है कि गाली देने वालेने जो
विगाव-सुधार स्वयं मेरे परणामों पर ही निर्भर है। मेरी गालियां दी है उसका कोई न कोई कारण अवश्य होना
अन्तर्बाह्य परिणतिही मेरे कार्यको साधक-बाधक है। अतः चाहिये। यदि मेरे किसी भी व्यवहारसे उसे का पहुंचा
मुझे प्रात्म-शोधन द्वारा अपनी परिणतिको ही सुधारनेका हो अथवा दुख हुआ हो तो उसने उसका दला गाली
यस्न करना चाहिये। ज्ञानी और अज्ञानीकी विचार-धारामें
बदा भारी भेद है। जहां ज्ञानी वस्तुतत्वका मर्म और देकर दिया है, सो ठीक है, मेरा असद् म्यवहार ही उम गालीका कारण है। फिर विचारता है, कि यदि मैंने
विवेकी होता है वहां अज्ञानी अविवेकी और हिताहितके
विचारसे शून्य होता है। इसके साथ कोई जानबूझ कर बुरा व्यवहार नहीं किया, उसने गलतीसे ही ऐसा किया है। तो उसने असद्
यदि वस्तुतत्वका गहरा विचार किया जाय, और उससे व्यवहार करके मेरा उपकार ही किया है, मेरी परीक्षा
समुत्पन विवेक पर रष्टि दी जाय तो यह स्पष्ट हो जाता हो गई, मेरा प्रारमा विभावरूप नहीं परिणमा,
है कि क्रोधादिक परिणाम विभाव है पनिमित्तसे होने यही मेरे लिये हितकर है। और उस बेचारे व्यक्किने
वाले श्रीदयिक परिणाम है। यही मेरे जीवनके शत्र है, तो अपना अपकार ही किया है, वह बेचारा दीन
इनको मुझे प्रक्रोधभावसे जीतना चाहिये और अहंकार है; मेरे द्वारा समाका पात्र ही है । उसने मुझे गाली
ममकारके कारण होने वाले अनिष्ट परिणामसे सदा बचने
का यस्न करना चाहिये । मनुष्यका प्रारमा जितना नियन देकर जो मेरे अशुभ कर्मकी निर्जरा कराई ई श्रतः
होगा, हित अहितके विचारकी शक्ति उतनी ही मन्द होगी वह मेरा बन्धु ही है, शत् नहीं । क्यों कि शत्रुताका
और वह क्रोधादि विभावोंके प्रभाव में प्राकर अपने स्वरूपसे व्यवहार अपकार करने वालेके प्रति होता है, मो वह तो
प्युन हो जाता है, उसकी बुद्धि अच्छे कार्यों में न जाकर मेरा उपकारी ही है, अतः वह मेरा शत्रू नहीं हो सकता।
बुराईकी ओर ही जाती है, वह धास्मनिरीक्षण करने में मेरा शव तो मेर में उदित होने वाला क्रोधादिरूप विभाव
भी असमर्थ होता है, इसीमे उसे अपनी मिर्षलताका परिणाम है जो मेरी आत्म निधिक विकासमें बाधक है।
भान नहीं हो पाता, यही उसके पुरुषार्थकी कमी है जिससे अतः मुझे उम क्रोधरूपी वैरीका विनाश करना चाहिये
वह प्रारमहित बंचित रहता है। महापुरुषांने अज्ञानीकी जिससे मेरी प्रात्म निधिका संरक्षण हो सके।
इस पुरुपार्थ कमीको दूर करनेका उपदेश दिया है जिससे मेरा क्रोध उस अपराधी पर ही है,जो मेरा शन्न है, यदि वह अपनी निर्बलताको दूर करके अपनी शक्निका यथार्थ ऐसा है तो भाग्माका अपराधी तो कांध है; क्योंकि क्रोधने अनुभव कर मके और क्रोधादि शापर विजय प्राप्त ही मेरा अपराध किया है-मेरे श्रात्म-गुणोंको नष्ट करनेका करनेका उपक्रम कर सके, तथा क्षमा नामक गुणकी महत्ताप्रयत्न किया है, इसलिये क्रोधही मेरा शत्र है। अतएव सभी परिचित हो सके। कायरता और मनोबलकी कममुझे उसी पर क्रोध करना चाहिये। अन्य व्यकियों पर जारी दूर होते ही उसमें सहनशीलता आने लगती है और क्रोध करनेसे क्या लाभ; दूसरे व्यकि तो अपने अपने फिर उममें वचन महिष्णुना भी उदित होने लगती है। उपार्जित कर्मों के श्राधीन हैं। वे मेरा कोई बिगाइ-सुधार उसकी वृद्धि होने पर वह बचन सम्बन्धि असहिष्णुताके नहीं कर सकते, किन्तु विगाह सुधार होने पर वे निमित्त परिणाम वच जाता है। अवश्य बन जाते हैं। अतः मैं अपनेको कर्म बन्धनमें एक साधु कहीं जंगल में से गुजर रहा था, अचानक डालकर दूसरोंके उपकार अपकारमें निमित्त क्यों बनूं। साकया गए उनमें से एक हाकूने साधूको एक चांटा मारा
मैं मोहवश अज्ञानसे परको कर्ता माने हुए था। इसी और उसका कमंडलु छीन लिया, साधु विवेकी और कारण दूसरेमें शव मित्रकी कल्पना कर अपनी ऐहिक सहिष्णु था, उसने डाकसे कहा कि आपके इस हाथमें चोट
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१२२]
अनेकान्त
[किरण ३
जान गई लाइये मैं इसे दवा जिससे उसकी पीड़ा गृहस्थ अपनी मर्यादाके अनुसार माका अपने कम हो जाय । यह कह कर साधु कूके हाथको दवाने जीवन में प्राचरण कर लोकमें सुखी हो सकता है-जो लगा। बाकू साधुके शान्त स्वभाव और उसके सहनशील सरष्टी पुरुष, विवेकी और कर्तव्यनिक वह संसारके व्यवहारको देखकर उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला किसी भी प्राणीका बुरा न चाहते हुए अपने दयालु स्वभावमहाराज! मैने पापका बड़ा अपराध किया है, जो मैंने से भास्मरक्षा करता हुमा सरेको प्रयत्न पूर्वक कष्ट न बिना कुछ कहे पापको चांटा मारा और कमंडलु छीना। पहुँचा कर मांसारिक व्यवहार करते हुए भी धमाका भाप मेरा अपराधमा कीजिये और अपना यह कमंडलु पात्र बन सकता है। बीजिये । इतना कह कर डावहांसे चले गए किन्तु उन साधु च कि प्रात्म-साधनामें निष्ठ है सांसारिक संघर्षसे पर साधुकी उस सहिष्णुताका अमिट प्रभाव पड़ा। दूर रहता है क्योंकि वह संघर्षके कारण परिग्रहका मोह ___यदि आमाको प्रारमाका स्वभाव या धर्म न माना जाय छोड़ चुका है । यहां तक कि वह अपने शरारसे भी निस्पृह तो जो क्रोधी व्यक्ति है उसका क्रोध सदा बना रहना हो चुका है। अतएव वह दूसरोंको पीदा देने या पहुंचाने चाहिये । पर ऐसा नहीं होता, क्रोध उदित होता और की भावनासे कोसों दूर है, अतः उसका किसीसे वैर-विरोध चला जाता है, इससे यह स्पष्ट समझमें भा जाता है कि भी नहीं है, वह सदष्टि और विवेकी तपस्वी है। अतएव क्रोध बारमाका स्वभाव नहीं है पुद्गलकमके निमित्तसे होने वह उत्तम क्षमाका धारक है। उसके यदि पूर्व कर्मकृत वाला औदायिक परिणाम है । क्रोधीका संसारमें कोई मित्र अशुभका उदय श्रा जाता है और मनुष्य तिर्यंचादिके द्वारा नहीं बनता और समाशील व्यक्तिका कोई शत्रु नहीं बनता; कोई उपसर्ग परीषह भी सहना पड़े तो उन्हें खुशीसे सह क्योंकि वह स्वप्नमें भी किसीका बुरा चिन्तवन नहीं करवा लेता है-वह कभी दिलगीर नहीं होता और शरीरके विनष्ट और न किसीका पुरा करनेकी चेष्टा ही करता है। उसका हो जानेपर भी विकृतिको कोई स्थान नहीं देता। वह तो संसारके समस्त जीवास मैत्री भाव रहता है। तपस्वी क्षमाका पूर्ण अधिकारी है। पमा शीलही अहिंसक
समाधर्मके दो स्वामी है गृहस्थ और साधु । ये दोनों है, जो क्रोधी है वह हिंसक है। अतः हमें क्रोधरूप विभावही प्राणी अपने २ पदानुसार कषायोके उपशम, लय और भावका परित्याग करने, उसे दबाने या क्षय कर क्षमा शील हयोपशमके अनुसार समा गुणके अधिकारी होते हैं। बननेका प्रयत्न करना चाहिये।
दस लक्षण धर्म-पर्व
(श्री दौलतराम 'मित्र') संवर निर्जरा कारक प्रात्माकी बीतराग परतिको ये आत्माकी अहित (पाश्रव बन्ध ) कारक सराग परधर्म कहते है, जो कि मुक्तिका मार्ग है।
णति है। अतएव सदा सावधान रहकर इससे बचते रहना उत्तम मादि दस लक्षण धर्म, रत्नमय धर्म । सम्यक है। स्व. पं० दौलतरामजीने यही बात क्या ही अच्छे दर्शन ज्ञान चारित्र) से भिन्न नहीं है, किन्तु एक है! शब्दोंमें कही है
उत्तम मा, मादव प्रार्जव, शौच, सत्य ये पांच "आतमके अहित विपय कपाय । समय सम्यक् दर्शन शान स्वरूप है, तथा संयम, तप, इनमें मेरी परणति न जाय ॥" स्याग भाकिंचन प्रक्षचर्य ये पांच लक्षण सम्यक्-चारित्र परन्तु आश्चर्य है कि आजकल हम लोगोंने विषय स्वरूप है।
कपाय शोधक दस लक्षण धर्म पर्वको अधिकांश में विषय एक मिथ्यात्व और चार अनन्तानुयन्धी कषाय इनके कषाय पोषक त्यौहार सरीखा बना रखा है। इसमें संशो. अनुदयसे पूर्वार्धके पाँच लक्षण (अथवा स. दर्शन ज्ञान) धन होना आवश्यक है, अन्यथा हम मुक्ति मार्गसे हट वैदा होते है, तथा शेष कषायोंक अनुदयसे उत्तरार्धके जायेंगे। किसीने सच कहा हैपांच लक्षण अथवा-सम्यक् चारित्र) पैदा होते हैं। "पर्व (पोर ) खाने (भोगनेकी) बरतु नहीं, किंतु
मिथ्यात्व (=विषयेषु सुख प्रान्ति और कषाय बोने (त्यागनेकी) वस्तु है "
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उत्तम मार्दव
(श्री. पूज्य पुलक गणेशप्रसादजी वर्णी) मात्र मार्दव धर्म है, समाधर्म विदा हो रहा है, विदा गुरुका इतमा पाकर्षण रहता है कि वह उसे एक साथ तो होता ही है उसका एक दृष्टांत भापको सुनाता हूँ। मैं सब कुछ बतलानेको तैयार रहता है। एक स्थान पर एक मदियामें दुलारमाके पास न्याय पढ़ता था, वे न्याय पण्डितजी रहते थे पहले गुरुभोंके घर पर स्नेह अधिक शास्त्रके बड़े भारी विद्वान थे। उन्होंने अपने जीवन में २५ था। पपिडतानी उनको बार कहतीं कि सभी सबके तो वर्ष न्याय ही न्याय पढ़ा था । वे व्याकरण प्रायः नहीं मापकी विग्य करते हैं पापको मानते है फिर भाप इसी जानते थे, एक दिन उन्होंने किसी प्रकरण में अपने गुरूजी- एक की क्यों प्रशंसा करते हैं ? पण्डितजीने कहा कि इस से कहा कि जैसा "बाकी" होता है वैसा "वीति" क्यों जैसा कोई मुझे नहीं चाहता। यदि तुम इसकी परीक्षा ही नहीं होता? उनके गुरू उनकी मूर्खता पर बहुत ऋद्ध हुए करनी चाहती हो तो मेरे पास बैठ जामो मामका सीज़न
और बोले बैल भाग जा यहाँ से दुलाकाको था, गुरुने अपने हाथ पर एक पट्टीके भीतर पाम बाँध बहुत बुरा लगा उसका एक साथी था, जो व्याकरण लिया और दुःवी जैसी मूरत बनाकर कराहने लगे। अच्छा जानता था और न्याय पढ़ता था। दुलारझाने कहा तमाम छात्र गुरूजीके पास दौदे पाये, गुरूने कहा दुर्भाकि यहाँ क्या पढ़ते हो चलां घर पर हम तुम्हें न्याय बढ़िया ग्यवश भारी फोड़ा हो गया है। कानोंने कहा मैं अभी से बढ़िया पढ़ा देंगे, साथी इनके साथ गाँवको चला गया- वैद्य जाता हूँ । ठीक हो जायगा । गुरूने कहा बेटो! यह वहाँ उन्होंने उससे एक सालमें तमाम व्याकरण पढ़ डाला वेचसे अच्छा नहीं होता-एक बार पहले भी मुझे हुमा और एक साल बाद अपने गुरूके पास जाकर क्रोधमे कहा था तब मेरे पिताने इसे चूमकर अच्छा किया था यह कि तुम्हारे पापको धूल दी, पूछ ले व्याकरण, कहाँ पूछता चूसनेसे ही अच्छा हो सकता है। मवादसे भरा फोका कौन है। गुरूने हंसकर कहा पात्रो बेटा मैं यही तो चाहता चूसे ? सब ठिठककर रह गये । इतने में वह यात्रा गया था कि तुम इसी तरह निर्भीक बनो । मैं तुम्हारी निर्भी. जिमकी कि गुरू बहुत प्रशंसा किया करते थे। भाकर
पर मेरी बात याद रक्खी- बोला गुरूजी क्या कष्ट है ? बेटा फोदा है, चूमनेसे अच्छा अपगधिनि चेत्क्रोधः क्रोधे क्रांधः कथं नहि ।
होगा। गुरूके कहनेकी दर थी कि उस छात्रने उसे अपने धर्मार्थ-काम-मोक्षायां चतुर्या परिपन्थिनि ॥
मुंह में ले लिया। फोरा तो था ही नहीं पाम था पगिडदुलारझा अपने गुरुकी समाको देखकर नतमस्तक रह तानीको अपने पतिके वचनों पर विश्वास हुआ। गये । क्षमाम क्या नहीं होता । श्रच्छ अच्छे मनुष्यांका क्या कहें प्राजकी बात ! मात्र तो विनय रह ही नही मान नष्ट हो जाता है। .
गया। सभी अपने आपको बड़े से बड़ा अनुभव करते हैं। ___ मार्दवका नाम कोमलना है, कोमलतामें अनेक गुण मेरा मन नहीं चला जाय इसकी फिकर में सब पड़े है पर वृद्धि पाते हैं। यदि कठोर जमीनमें बीज डाला जाय तो इस तरह किंमका मान रहा है। आप किसीको हाथ जोर व्यर्थ चला जायेगा । पानीकी बारिशम जी जमीन काम न कर या सिर झुकाकर उसका उपकार नहीं करते यक्षिक हो जाती है उसमें बीज जमना है। बच्चे को प्रारम्भमें अपने हृदयमे मानरूपी शत्रको हटाकर अपने पापका उपपढ़ाया जाता है
कार करते हैं। किमीने किसीकी बात मानक्षी, उसे हाय "विद्या पदाति विनयं विनयाद्याति पात्रनाम् । जोड लिये मिर मुका दिया, इतनेसे ही वह खुश हो जाता पात्रत्वादनमाप्नोति धनाद्धमैं नतः मुम्बम् ॥" है और कहना है इसने हमारा मान रख लिया-मान
विद्या विनयको देनी, विनय पात्रता आती है। रग्ब क्या लिया. मान खो दिया। अपने हृदय में जो महंपात्रतासे धन मिलताई धनसे धर्म और धर्म सुख प्राप्त कार था उसने उसे आपके शरीरको क्रियासे दूर कर दिया। होता है। जिसने अपने हृदयमे विनय धारण नहीं किया केल आपने मम्यग्दर्शनका प्रकरण सुना था। जिस प्रकार वह धर्मका अधिकारी कैसे हो सकता है। विनयी छात्र पर अन्य लोगोंक यहाँ ईश्वर या खुदाका महात्म्य है वैसा ही
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१२४]
अनेकान्त
[किरण ४
जैनधर्ममें सम्प्रदर्शनका माहात्म्य है, सम्यग्दर्शनका बर्थ- सम्यग्दर्शनके अद्धान गुणका फल है। प्राचार्योंने सबसे भारम लब्धि है, पारमाके स्वरूपका ठीक ठीक बोध हो पहले यही कहा हैजाना प्रारमलब्धि कहलाती है। प्रारमजन्धिके सामने सब "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" सम्यसुख भूल हैं। सम्यग्दर्शनसे प्रारमाका महानगुण जागृत ग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र मोपका मार्ग है। होता है, विवेकशक्ति जागृत होती है आज कल लोग हर आचार्यकी करुणा बुद्धिको तो देखो-मोक्ष तब हो जबकि एक बातमें क्यों? क्यों करने लगते हैं, इसका अभिप्राय पहले बन्ध हो यहाँ पहले बन्धका मार्ग बतलाना था फिर यही है कि उनमें श्रद्धा नहीं है। श्रद्धाके न होनेसे हर मोक्षका परन्तु उन्होंने मोघमार्गका पहले वर्णन इसलिये एक बात में कुतर्क उठा करते हैं।
किया है कि ये प्राणी अनादिकालसे बन्धजनित दुःखका एक भादमीको क्योंका रोग हो गया, उससे बेचारा अनुभव करते करते घबड़ा गये है, अतः पहले इन्हें मोक्षबदा परेशान हुमा, पूछने पर सलाह दी कि तू इसे किसी- का मार्ग बतलाना चाहिए । जैसे कोई कारागारमें पड़कर को बेच डाल, भले ही सौ पचास लग जाय । बीमार दुखी होता है वह यह नहीं जानना चाहता कि मैं काराभादमी इस विचारमें पड़ा कि यह रोग किसे बेचा जाय, गारमें क्यों पड़ा? वह तो यह जानना चाहता है कि मैं किसीने सलाह दी स्कूलके लड़के बड़े चालाक होते हैं। इस कारागार से छुटू कैसे । यही सोचकर प्राचार्यने पहले १०) रुपये देकर किसी लड़केको बेच दे. उसने ऐसा ही मोक्षका मागं बतलाया है । सम्यग्दर्शनके रहनेसे विवेक किया-एक बड़केने १०) लेकर उसका वह रोग ले लिया कि सदा जागृत रहती है वह विपत्ति में पड़ने पर भी सब लड़काने मिलकर ५०, की मिठाई खाई, जब लबका कभी अन्यायको न्याय नहीं समझता । रामचन्द्रजी सीतामास्टरके सामने गया और मास्टरने पूछा कि कलका को छुड़ाने के लिए लंका गये थे, खंकाके चारों भोर उनका सबक दिखलाओ, लड़का बोला क्यों? मास्टरने कान पकड़ कटक पढ़ा था, हनुमान आदिने रामचन्द्रजीको खबर दी कर लड़केको बाहर निकाल दिया । लड़का समझा कि कि रावण जिन मंदिरमें बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा क्योंका रोग तो बड़ा खराब है-वह उसको वापिस कर है यदि उसे यह विद्या सिद्ध हो गई तो फिर वह अजेय पाया। अबकी बार उसने सोचा चलो अस्पतालके किसी जागाशा दीजिये जिससे कि लोग इसकी मरीजको बेच दिया जाय तो अच्छा है, ये लोग तो पलंग
विद्यासि में विघ्न करें, रामचन्द्रजीने कहा कि हम क्षत्रिय पर पड़े पड़े भानन्द करते ही हैं । ऐसा ही किया, एक
है कोई धर्म करे और हम उसमें विघ्न डालें यह हमारा मरीजको बेच पाया दूसरे दिन डाक्टर पाये पूछा तुम्हारा
कर्तव्य नहीं है। सीता फिर दुर्लभ हो जायगी."हनुमानक्या हाल है? मरीजने कहा क्या ? शक्टरने उसे अस्प
ने कहा । रामचन्द्रजीने जोरदार शब्दोंमें उत्तर दिया, हो तानसे बाहर कर दिया। उसने भी समझा दरअसल में
जाय एक सौता नहीं दशों सीताएँ दुर्लभ हो जावें पर मैं यह रोग तो बड़ा खराब है, वह भी वापस कर पाया, अबकी बार उसने सोचा अदालती आदमी बड़े रंच होते
अन्याय करनेको श्राज्ञा नहीं दे सकता। हैं उन्हींको बेचा जाय, निदान उसने एक भादमीको बेच रामचन्द्रजीमे इतना विवेक था उसका कारण क्या दिया, वह मजिस्ट्रेट के साममे गया मजिस्ट्रेटने कहा तुम्हारी था ? कारण था उनका विशुद्ध पायक सम्य. नालिशका ठीक ठीक मतलब क्या है, पादमीने कहा क्यों? ग्दर्शन । सीताको तीर्थयात्राके बहाने कृतांतवक सेनापति मजिस्ट्रेटने मुकदमा खारिजकर कहा कि घरकी राह लो, जंगल में छोड़ने गया-उसका हृदय वैसा करना चाहता था विचारकर देखा जाय तो इन हर एक बातोंमें कुतर्कसे क्या? वह स्वामीकी परतन्त्रतासे गया था । उस वक्त काम नहीं चलता। युक्तिके बलसे सभी बातोंका निर्णय कृतांतवकको अपनी पराधीनता काक्री खली थी। जब वह नहीं किया जा सकता। यदि पापको धर्ममें श्रद्धा न होती निर्दोष सीताको जंगलमे को अपने अपराधकी क्षमा मांगतो यहां हजारको संख्यामें क्यों आते ! यह कांतिलाल कर वापिस आने लगता है तब सीता उससे कहती हैजी जो एक माहका उपवास किये हुये हैं क्यों करते? सेनापति ! मेरा एक संदेश उनसे कह देना, वह यह कि भापका यहाँ माना और इनका उपवास करना यह सब जिस प्रकार लोकापवादके भयसे मापने मुझे त्यागा इस
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किरण ४]
उ.म मार्दव
[ १२५
प्रकार लोकापवादके भवसे जिनधर्मको नहीं छोड़ देना। समयकी भोर देखो, यदि वह भी अपराधी हो तो अपने उस निराश्रित अपमानित स्त्रीको इतना विवेक बना रहा। बच्चों लव-कुशकी भोर देखो और एक बार पुनः घरमें इसका कारण क्या था उसका सम्यग्दर्शन । आज कबकी प्रवेश करो, पर सीता अपनी दतासे व्युत नहीं हुई, उसने स्त्री होती तो पचास गालियाँ पुनाती और अपने समानता- उसी वक्त केश उखाड़कर रामचन्द्रजीके सामने फेंक दिये के अधिकार बतलाती । इतना ही नहीं सीता जब नारद और जाल में जाकर प्रार्या हो गई। यह सब काम सम्बजीके प्रायोजन-द्वारा लव-कुशके साथ अयोध्या वापिस ग्दर्शका है। यदि उसे अपने कर्म पर भाग्य पर विश्वास न पाती हैं एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद पिता पुत्रका मिलाप होता तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती थी। होता है, सीताजी लज्जासे भरी हई राजदरबारमें पहुँचती अब रामचन्द्रजीका विवेक देखिये, जो रामचन्म हैं उसे देखकर रामचन्द्र कह उठने हैं-'दुष्टा! तू बिना सीताके पीछे पागल हो रहे थे वृक्षोंसे पूछते थे कि क्या तुमने शपथ दिये-बिना परीक्षा दिये यहाँ कहाँ ? तुझे लज्जा मेरी सीता देखी है। वही जब तपश्चर्या में लीन थे सीवनहीं पाई ।' सीताने विक और धैर्य के साथ उत्तर दिया के जीव प्रतीन्द्रने कितने उपसर्ग किये पर वह अपने ध्यानकि मैं समझो धी मापका हृदय कोमल है, पर क्या से विचलित नहीं हुए । शुक्लध्यान धारणकर केवलिकहूँ? आप मेरी जिस प्रकार चाहें शपथ लें । रामचन्द्रजी अवस्थाको प्राप्त हुए । ने उत्तेजनात्मक शब्दोंमें कह दिया कि अग्निमें कृदकर सम्यग्दर्शनसे पारमा प्रशम संवेग अनुकम्पा और अपनी सच्चाईकी परीक्षा दो। बड़े भारी जलते हुए अग्नि- आस्तिक्य गुण प्रगट होते है जो सम्यग्दर्शनके अविनाभावी कुण्ड में सीता कृदनेको तैयार हुई । रामचन्द्रजी लघमणमे हैं। यदि आपमें यह गुण प्रकट हुए हैं तो समझ लो कि कहते हैं कि सीता जल न जाय । लचमणने कुछ रोषपूर्ण हम सम्यग्दृष्टि है। कोई क्या बतलायेगा कि तुम सम्यशब्दों में उत्तर दिया, यह आज्ञा देते समय नहीं सोचा। दष्टि हो या मिथ्यादृष्टि । अनन्सानुबन्धीकी कषाय कः वह सती है. निर्दोष है, भाजपाप उसके अवरडशीलकी माहसे ज्यादा नहीं चलती, यदि थापकी किसीसे सफाई महिमा देखिये उसी समय दो देव केवलीको वन्दनास लौट होने पर छः माह तक बदला लेनेकी भावना रहती है तो रहे थे, उनका ध्यान सीताके उपसर्ग दूर करनेकी भोर समझ लो अभी हम मिथ्यावादी हैं। पायके असंख्यात गया, सीता अग्निकुण्ड में कूद पड़ी और कृढ़ते ही साथ लोकप्रमाण स्थान है उनमें मनका स्वरूप यों ही शिथिल जो अतिशय हुमा सो सब जानते हो । सीताके चित्तमें हो जाना प्रशमगुण है। मिथ्यादृष्टि अवस्थाके समय इस रामचन्द्र जीके कठोर वचन मुनकर संसारसे वैराग्य हो जीवकी विषय कषायमें जैमी स्वछद प्रवृत्ति होती है चुका था। पर "निःशल्यो व्रती" व्रतीको निःशक्ष्य होना वैसी सम्यग्दर्शन होने पर नहीं होती है। यह दूसरी बात चाहिए, यदि बिना परीक्षा दिए मैं व्रत लेती हूँ तो यह है कि चारित्रमोहके उदयसे वह उसे छोड़ नहीं सकता शल्य निरन्तर बनी रहेगी, इसलिये उसने दीक्षा लेनेसे हो, पर प्रवृत्तिमें शैथिल्य अवश्य आजाता है। शमका पहिले परीक्षा देना आवश्यक समझा था । परीक्षामें वह एक अर्थ यह भी है जो पूर्वकी अपेक्षा अधिक ग्राम हैपास हो गई, रामचन्द्रजी उससे कहने हैं देवी ! घर चलो सद्यः कृतापराधी जीवों पर भी रोष उत्पन्न नहीं होना अब तक हमारा म्नेह हृदयमें था पर लोकलाजके कारण प्रशम कहलाता है । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय आंखों में आगया है। सीताने नीरस स्वरमें कहा- रामचन्द्रजीने रावण पर जो रोष नहीं किया था वह इसका "कहि सीता सुन रामचन्द्र, संसार महादुःख वृक्ष कंद"
उत्तम उदाहरण है। प्रशमगुण तब तक नहीं हो सकता
जब तक अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी क्रोध विद्यमान है, उसके तुम जानत पर कछु करत नाहि.........."
छटते ही प्रशमगुण प्रगट हो जाता है। क्रोध ही क्यों रामचन्द्रजी! यह संसार दुःखरूपी वृक्ष की मदहै अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी मान माया-लोभ सभी कषाय अब मैं इसमें न रहूँगी । सच्चा सुख इसके त्यागमें ही है। प्रशम गुणके घातक है। रामचन्द्र जीने बहुत कुछ कहा, यदि मैं अपराधी हैं तो
(सागर भाद्रपद )
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सत्य धर्म
(श्री १०१ पूज्य उक्षक गणेशप्रमादजी वर्णी) माज सत्यधर्म है सत्यसे आत्माका कल्याण होता है। दसरेके मर्मको छेदने वाले हो जाते है। परे, ऐसी हसी इसका स्वरूप अमृतचन्द्राचार्यने इस प्रकार कहा है कि- क्या कामकी जिसमें तुम्हारा तो विनोद हो और दूसरा यदिदं प्रमादयोगाइसमिधान विधीयते किमपि। ममातक पीड़ा पावे। कोई कोई लोग इतने कठोर वचन तदनृतमपि विज्ञेयं तदु-भेदाः सन्ति चत्वारः ॥ ११ बोजते है-इतना रूखापन दिखलाते है जिससे कि
प्रमादके वश जो कुछ अन्यथा कहा जाता है उसे समभावीका धैर्य भो टूटने लग जाता है कितने ही असत्य जानना चाहिये । उसके चार भेद हैं यहाँ प्राचार्यने असम्बद्ध और अमावश्यक बोते हैं। उनका यह चतुर्थ प्रमादयोग विशेषण दिया है, प्रमादका अर्थ होता है प्रकारका असत्य है। ये चारों ही असत्य प्राणीमात्रके कषायका तीव उदय, कषायसे जो झूठ बोला जाता है वह दुःखके कारण हैं। यदि सत्य बोला जाय तो उससे अपनी अत्यन्त बुरा है। असत्यका पहला भेद 'सदपलाप' है जो हानि ही कौनसी होती है सो समझ में नहीं पाता । सत्य वस्तु अपने द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे विद्यमान वचनसे दूसरे के प्राणोंकी रक्षा होती है, अपने आपको है उसे कह देना कि नहीं है, जैसे प्रास्मा है पर कोई कह सुखका अनुभव होता है। हमारे गाँवकी बात है। मडावरेमें
कि मारमा नहीं है वह 'सदपलाप' कहलाता है। दूसरा मैं रहता था मेरा एक मित्र था हरिसिंह । हम दोनों साथभेद 'असावन' है जिसका अर्थ होता है अमद् अवि- पढ़ते थे बड़ी मित्रता थी। इसके पिताका नाम मौजीलाल चमाम पदार्थका सद्भाव बतलाना । जैसे घट न होने पर था और काकाका नाम कुंजीलाल। दोनोंमें न्यारपन भी कह देना कि यहाँ घट है। तीसरा भेद वह है जहाँ हुआ तो कुजीलानको कुछ कम हिस्सा मिला जिससे वस्तुको दूसरे रूप कह दिया जाता है जैसे गायको वह निरन्तर लाता रहता था। एक दिन मौजीलालने घोदा कह देना । गहित पापसंयुक्त और अप्रय जो वचन कुंजीलालको खूब मारा और अन्तमें अपना अंगूठा अपने है वह चौथे प्रकारका श्रमस्य है। चुगलखोरी तथा हास्यसे ही दाँतामे काट कर पुलिसमें रिपोर्ट कर दी, उल्टा कुजीमिश्रित जो कठोर वचन है वह गर्हित कहलाते हैं। बाजे लाल पर मुकदमा चला दिया। हमारा मित्र हरिसिंह बाजे भादमी अपनी पिशुम वृत्तिसं संसारमै कलह उत्पन हमसे बोला कि तुम अदालतमै कह देना कि मै लुहर्रा करा देते हैं। कहो, मूल में बात कुछ भी न हो परन्तु गाँव में अपने चाचा यहाँ जा रहा था बीचमे मैने देखा चुगलखोर इधर उधरकी लगाकर बातको इतना बढ़ा देते कि कुंजीलाल और मोजीलालने खूब झगड़ा हो रहा था है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। पं. बलदेवदापजामें तथा कुंजीलाल मौजीलालका अंगूठा दातासे दबाए हुए एक बड़ी अच्छी बात थी।वह श्राप सबका भी मान्य था। मैंने बहुत मना किया पर वह न माना। मित्रका होगी। उनके समक्ष कोई जाकर यदि कहता कि अमुक अाग्रह देखकर मुझे अदालतमें जाना पड़ा, जब मेरा प्रादमी मापकी इस तरह निन्दा करता था वे फौरन नम्बर अाया और अदालतने मुझसे पूछा कि क्या जानते टोक देते थे भाई वह पुराई करता हो इसका तो विश्वास हो मैने कह दिया कि मैं अपने चाचाके यहाँ लहरी नहीं, पर श्राप हमारे ही मुंह पर बुराई कर रहे हों- जा रहा था रास्तेमें इनका घर पड़ता था मैंने देखा कि गालियाँ दे रहे हों। मुझे सुननके लिये अवकाश नहीं। कुंजीलाल और मौजीलालमें खूब जड़ाई हो रही थी और मैं तो तब मानूंगा जब वह स्वयं श्राकर हमारे सामने कुंजीलाल मौजीलालका अंगूठा दाँतोंसे दबाये हुए था। ऐसी बात करेगा और तभी देखा सुना जायेगा । यदि अदालतने पूछा और क्या जानते हो? मैंने कहा और यह ऐसा अभिप्राय सब लोग करलें तो तमाम दुनियाके टेटे जानता हूँ कि हारसिंहने कहा था कि ऐसा कह देना। टूट जाय । ये चुगल जिस प्रकार आपकी बुराई सुनाने अदालतको बात जम गई कि यह मौजीनाजने मूठा माते है वैसी आपकी प्रशंसा नहीं सुनाते।
मामला खड़ा किया है इसलिये उसी वक्त खारिज कर कितने ही भादमी हंसी में ऐसे शब्द कह देते हैं जो दिया और मौजीलालको जो हिस्सा उसने ज्यादा रख
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किरण ४]
सत्य धम
[१२७
लिया था वह भी देना पदा। यदि मैं वहाँ सत्य न बोलता एक गाँव में एक सेठ सेठानी रहते थे उनके पास एक हो व्यर्थ ही निरपराधी कुंजीलानको कष्ट होता। अब मादमी कामकी तलाशमें पहुँचा संठने पूछा, क्या क्या एक असत्य बोलनेका उदाररण सुनो-मैं तो अपनो बीती कर सकते हों। उसने कहा जो भी माप बतलायो सब बात ही अधिकतर सुनाता हूँ
कर सकता है। तन क्या लांगे । कुछ नहीं सिर्फ साबमें मैं मथुरामें पढ़ता था मेरा मन कुछ उचाट हुश्रा सो एक बार आपसे और एक बार सेठानीसे झूठ बोलूगा। सोचा कि बाईजीके पास हो पाऊं। विद्यालयके मन्त्री संठने सोचा ऐसा बेवकूफ का फंसेगा, मुफ्तका मौकर 4. गोपालदासजी बरैया थे। मैंने एक झूठा कार्ड लिखा मिलता है लगा लेना अच्छा है. यह सोच कर उन्होंने उसे कि भैया! मेरी तबीयत खराब है तुम १५ दिनकी छुट्टी रख लिया। साल भर काम कर चुकनेके बाद जब वह लेकर चले पायो । नीचे दस्तखत बना दिये बाईजीके जाने लगा तब बोला सेठजी अब मैं जाऊँगा कल मूल
और मथुराक ही लेटर वक्समें छोड़ दिया। जब वह बोलूगा, सेठने कुछ ध्यान नहीं दिया। शामके वक हमारे पास पाया तब मैंने करांदीलाल मुनीमको छुट्टीकी जाकर सेठजी से बोला कि मुझे आपका घर अच्छा लगा अर्जी लिखी और साथम वह कार्ड भी नत्थी कर दिया। पर क्या बताऊंभापकी सेठानी यदि बदचलन न होतो मुनीमने वह दोनों पं० गोपालदास जीके पास प्रागरा भेजे तो दुनिया में पापका घर एक ही होता। आज वह अपने दिवे । पं० जीने लिख दिया कि छुट्टी दे दो और उससे
न लिख दिया कि छुट्टी दे दो और उससे जारके कहनेसे रातको पापका काम तमाल करेगी इसलिए कह दो जब वापिस श्रावें तब हमसे मिलता जाय । मैं पाप सतर्क रहें। नौकरने यह बात इस ढंगसे कही कि
पार ॥ दिन बाद नोट कर पाया संठको बिलकुल सच जम गई । भय वह सेठानीके पास तो पण्डितजीके लिखे अनुसार उनसे मिलने के लिये गया। पहुँचा और बोला कि तुम्हारीसी देवी तो दुनियामें नहीं उन्होंने पूछा कि कहो बाईजीको तबीयत ठीक हो है यदि सेठजी वैश्याओंके यहाँ न जाते तो तुम्हारे क्या गई ? मैन कहा 'हाँ', उन्होंने भोजन कराया जब मथुराको सन्तान न होती । संठानीको बात जम गई, उसने उपाय जाने लगा तब बोले यह श्लोक याद कर लो
पूछा तब कहने लगा आज रातको जब सेठजी सो जाय उपाध्याय नटं धून कुहिन्या च तथैव च।
नब उस्तराम उनके एक तरेफको दाढ़ी मूकनाडालना माया तत्र न कर्तव्या माया तैरेव निमिता| जिससे उनकी सरत शकज खराब दिखने लगेमी और
श्लोक तो बिल्कुल सीधा साधा था याद हो गया। तब वश्यायें उन्हें अपने पास नहीं आने देंगी। सेठानीने मेरा विचार हुथा कि मैंने जो पत्र बाईजीके नाम लिखा ऐसा ही किया। सेठजी पाज नौ बजेसे ही कृत्रिम खुर्राटे था-वह मथुराम ही तो छोडा था उस पर मुंहर मथुरा लेने लगे. संठानीने देखा कि संठजी गादी निद्रामें मस्त की ही थी टीकमगढ़की नहीं थी, संभव है पण्डितजीको है. अब इनकी शादी मूछ बनाना ठीक होगा। उस्तरा यही हमारी गलत चालाकी पकड़में आगई है। मैंने माफ निकाला उस सिल्ली पर घिस कर खूब ना किया बालों कह दिया पण्डितजी ! मैं पहत असत्य बोला बाईजीकी पर पानी जगाया और बनाने को तैय र हुई कि सेठजी तबीयत खराब नहीं थी मैंने वैसे ही मूठ चिट्टी उठ खड़े हुए और बोले दुले ! यदि आज वह नौकर मुझे लिख दी थी। उन्होंने कहा बस हो गया, कुछ बात नहीं सचेत न कर देता तो तू जान ही ले लेती: वह भी बोली
और मुनीमको चिट्ठी लिख दी कि यह कुछ कमजोर है बिलकुल ठीक है नुम भाज तक वेश्याओंके यहाँ जा जा अतः इसे ३) तीन रुपया माह दूध लिये दे दिया करां। कर हमको दुःखी करते रहे उमन ठीक कहा था मुझसे । मुझे अपनी असत्यता पर बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा। दोनोंमे खूब मदी. इतने में नौकर पाया और बोला सेठजी पर यह भी लगा कि मैंने अन्तमें उनसे सच सच बात मात करो अब मैं जाता है, जो मैंने कहा था कि एक एक कह दी इसीलिये ही वे प्रसन्न हुए है.
बार में मूठ बोलूगा सी बोल जिया। खासी दिल्लगी जीवन भर सत्य बोला और एक बार प्रसस्य वो रहो । अरे! जरा मोचो तो एक बारकी मूलने कितना तमाम जीवन की प्रतिष्ठा पर पानी फिर जाता है। उपद्रव मचा दिया पर जो जिदगी भर झूठ बोलते हैं एकबारका झूठ भी लोगोंको बड़े संकट में डाल देता है। उनका ठिकाना ही क्या। यह पांचौं सत्यधर्म है।
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१२८1
अनेकान्त
[किरण ४ यदि इसकी रक्षा चाहते हो तो क्रोध, लोभ, भय पण्डितजो धर्मके प्रभावका अनुभव करते हुए चले और और हास्यको छोयो । यही मूठ बोबनेके कारण है। इन उन चोरोने इनके उन साथियोंको जो आगे चले गये थे पर विजय प्राप्त करो और साथ में इस बातका भी खयाल बुरी तरह पीटा तथा सब सामान छुड़ा लिया । समता रखो कि कभी मेरे मुंहसे उत्सूत्र-आगमके विरुद्ध वचन न परिणाम कभी व्यर्थ नहीं जाते । तत्वार्थ जप, तप और निकलें। अपने वचनोंकी कीमत अपने माप बनाई जा उसके फलमें विश्वास होना भास्तिक्य कहलाता है यदि सकती है।
इन कार्यों में विश्वास न हो तो फोकटमें कष्ट सहन कौन अब यह 'पंचाध्यायी' है इसमें सम्यग्दर्शनका प्रकरण करे? दान करनेसे पुण्य होता है। भागामी पर्यायमें उसका चल रहा है। वास्तव में पूछो तो सम्यग्दर्शन ही संसारकी अच्छा फल मिलता है। इसी विश्वास पर ही दान करते जद काटनेवाला है, जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया हो नहीं तो ५) दान कर देने पर १००)के ) तो अभी उसका संमार नष्ट हुधा ही समझो आज सम्यग्दर्मनके ही रह जाते हैं। दान भादिसे ही प्रभावना होती है। अनुकम्पा और भास्तिक्य गुणका वर्णन है । पर दुःख अमृतचन्द्र स्वामीने लिखा है किप्रहाणेच्छाको (दूसरोके दुःख नाश करनेकी अभिलाषाको)
आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । अमुकम्पा कहते हैं। सम्यग्दृष्टि अपने सामने किसीको
दाननपारजनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।। दुःखी नहीं देख सकता। उसके हृदयमै सच्ची समता पा जाती है, कंचन और काँचमें उनकी समता हो जाती है,
इन दिनोंमें सम्यग्दर्शनादि आपके हृदयमें उत्पन्न हुए समताका अर्थ यह नहीं कि उसे इन दोनोंका ज्ञान नहीं
ही होंगे, तप कर हो रहे हो, पूजा खूब करते हो, यदि कुछ
दान करने लगी तो उसमे जैनधर्मकी क्या प्रभावना नहीं रहता यदि ज्ञान न रहे तो हम लोगोंसे भी अधिक प्रज्ञानी
होगी। आप चतुर्दशीके दिन उपवास करोगे यदि उस हो जाय, पर ज्ञान रहते हुए भी वह हर्ष-विषादका कारण
दिनका बचा हुश्रा अन्न गरीबोंको खिला दोगे तो तुम्हारी नहीं होता । सच्ची समता जिसे प्राप्त हो गई उसे कोई
क्या हानि हो जायेगी। सब तुम्हारा यश गायेंगे और कष्ट नहीं दे सकता। ५. देवीदासजीके जीवनको एक
कहेंगे कि जैनियोंके व्रत लगे हुए हैं इनमें यह गरीबोंका घटना है। उनके सामायिकका नियम था ये राम्ता चल
भी ध्यान रखते हैं। आप लोग चुप रह गये इससे मालूम रहे हों जंगल हो चाहे पहाड़, यदि सामायिकका समय हो
होता है कि प्रापको हमारी बात इष्ट है। जाय तो वे वहीं बैठ जाते थे। एक बार वे कुछ साथियोंके साथ घोदापर सामान लादे हुए जा रहे थे भयंकर जंगल एक बार एक राजाने अपनी सभाके लोगोंसे कहा था, शामका समय हो गया, वे वहीं ठहर गये सब गठरी कि दो शब्दाम मोक्षका मार्ग बतलाश्री, नहीं तो कठोर उतारकर रख दी और घोड़ेको पास ही छोड़ दिया। दण्ड पावोगे । सब चुप रह गये किसीके मुखसे एक भी साथियोंने बहुत रोका कि यहाँ चोरोंका डर है भागे चल- शब्द नहीं निकल सका । एक वृद्ध बोला, महाराज आपके कर रुकेंगे पर यह नहीं माने । इन्होंने साफ कह दिया चोर
प्रश्नका उत्तर हो चुका । राजाने कहा कोई बोला है ही सब कुछ ले जायें. पर सामायिकका वख्त नहीं टाल
नहीं उत्तर कैसे हो गया ? बुढने कहा पाप प्रश्न करना सकते । ये सामायिकमें निश्चल हांगये, चोर आये और
जानते हैं पर उत्तर समझना नहीं जानते । देखो, सब इनकी गडरियां ले गये। वे अपनी सामायिकमें ही मस्त शान्त हैं और शान्ति ही मोक्षका मार्ग है। यह सब लोग रहे। कुछ दूर जाने पर चोराके मनमें पाया कि हमने अपनी चेप्टासे बता रहे हैं। उसकी चोरी व्यर्थ की, वह बड़ा शांत आदमी हैं उसने इसी प्रकार आप लोग भी चुप बैठे हैं मालूम होता एक शब्द भी नहीं कहा। सब लौटे और उनकी गठरियाँ है भाप अवश्य इस बात का खयाल रक्खेंगे। यहाँ पाँच वापिस दे गये, अब तक इनका सामायिक पूरा हो चुका सौ सात सौ घर जैनियों के हैं यदि प्रतिदिन आधा आधा था, चोरों ने कहा कि आपकी शांतवृत्ति देखकर हम लोग की सेर अब हर एकके घरसे निकले तो एक हजार प्रादमियोंहिम्मत भापकी गठरियां ले जानेकी नहीं हुई । आप का पालन अनायास होजाय । पर उस ओर ध्यान नाय खुशीसे जामो कहकर उन्होंने उनका घोड़ा लाद दिया। तब न । एक-एक औरत अपने पास पचासों कपड़े आना
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किरण ४]
शौच-धर्म
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श्यक रोके हुए हैं यदि में अपनी आवश्यकताके कपड़े लोग कहते हैं जियो और जीने दो, पर जैनधर्म बचाकर दूसरोंको दे देंगे वस्त्रका अकाल आज ही दूर कहता है कि न जिभो और न जीने दो। संसारमें न स्वयं होजाय । अरे तुम दो सौ की साड़ी पहिनकर निकलो और जन्म धारण करी और न दूसरेको करने दो । दोनोंको दूसरेके पास साधारणसा वस्त्र भी न हो तब देखकर उन्हें मोर हो जाय ऐसी इच्छा करो। डाह न हो तो क्या हो?
(सागर चातुर्मासमें दिये हुए प्रवचन से)
शौच-धर्म
(ले० पं० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य) शौचका सामान्य और सीधा अर्थ पवित्रता है। अपने विशाल पाण्डित्यकाभी विचार किया था। वेश्यायह पवित्रता प्रात्मामें लोभ-कपायके अभावमें प्रकट के लोभमें फंसकर अपना सर्वनाश किया था। एक होती है। यों तो आत्माकी पवित्रताक रोधक सभी पात् साधु साधु होकर भी लोभ-पिशाचके वशीभूत कपाय और कम है, किन्तु लोभ-कपाय आत्माकी उस होकर जीवनकी तपोमय साधनाको भी खो बैठा था। पवित्रताको रोकती है जो आत्माको मुक्तितक पहुँचाती अतः आत्माको शौच-धर्मके पालन द्वारा ही ऊँचे है और मुक्ति में अनन्त काल तक विद्यमान रहती है। उठाया जा सकता है।। यही कारण है कि यथाख्यातचारित्र भी, जो प्रायः आज संमारके व्यक्तियों में सन्तोष श्रा जाय, उक्त पवित्रतारूप ही है, लोभक अभाव में ही आवि- लोभकी मात्रा कम हो जाय,न्यूनाधिकरूपमें यह शौच. भत होता है। इसलिये पवित्रताविशेपको शौचधर्म गुण समा जाय तो संसार तणाकी भट्टीमें जलनेकहना उचित ही है। बात यह है कि लोभ आत्माके से बच सकता है और सुख शांतिको प्राप्त कर अन्य तमाम गुणां पर अपना दुष्प्रभाव डाल कर उन्हें सकता है। मलिन बना दता है। सब पापा और दुगुणाका भी विचारनेकी बात है कि लोक पदार्थ तो सीमित वह जनक है। लोभसे मन, वाणी तथा काय तीनों
। हैं परन्तु लोगोंकी इच्छाएँ असीमित है। यदि पदार्थोंदषित हो जाते हैं और उन तीनों का सम्बन्ध प्रात्मा
का बटवारा किया जाय तो मबको उनकी इच्छानुसार के साथ हान से आत्मा भी दूपित बन जाता है।
मिलना सम्भव नहीं है। इसलिये सन्तोप अथवा शौच स्पतः मन वाणी और कायको दषित न होने देनेके
गुणही एक ऐस. वस्तु है जो आत्माको सुख व शांति लिये यह आवश्यक है कि लोभ कपायसे बचा जाय।
प्रदान कर मकती है। इसी प्राशयसे एक विद्वानने अर्थात् शौच-धर्म का पालन किया जाय । शौच धर्म
कहा हैआत्माका एक स्वाभाविक गुण है जो प्रकट होते
माशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । ही आत्माके अन्य गुणों पर भी अपना चमत्कारपूर्ण
कम्य किं कियदायाति वृष्य वो विषयेषिता॥ असर डालता है। मन, वाणी और शरीर तीनों उसके सद्भावमें शुद्ध हो जाते हैं। कितना ही ज्ञान
अर्थात प्रत्येक प्राणाकी इच्छाओंका गड़ा इतना और कितना ही चारित्र क्यों न हो, इस गुणके अभाव है कि इसमें समप्र विश्व परमाणुके बराबर है। ऐसी में वे मलिन बने रहते है ।।
स्थिति में किसको क्या और किसना मिल सकता है। पाठकोंकी उस ब्राह्मण विद्वानकी कहानीजात अतः विषयोंकी इच्छा करना व्यर्थ है। होगी, जिसने लोभमें आकर अपना पतन किया था। जीवनको स्थिर और स्वस्थ रखने के लिये जितनी न उसने अपने जाति-कुलका ख्याल रखा था और न भावश्यकता हो उतनी वस्तुओंको रखो। शेषको दसरों
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१३०]
अनेकान्त
[किरण ४ के उपभोगके लिये छोड़ दो। इस मनोवृत्तिसे न जन सन्तोष बनाम शौच गुणको अपना लें वो भ्रष्टा केवल मनुष्य सुखी ही होगा, अपितु यशस्वी भी बनेगा चार, प्रसन्तोप, वस्तुओंकी दुलभता आदि दोष, बो शौचगणक अभिव्यक्त करने में भी वह अग्रसर होगा। भाजदेखने में आ रहे हैं, देशमें नहीं रहेंगे और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति भी प्राप्त हो सकती है, जब जनता मुसीबतों, कष्टों, परेशानियों और दुःखोंमें अन्तर और बाह्य दोनों प्रकारके परिप्रहको छोड़ने में नहीं फंसेगी । समर्थ हो सकता है और 'परमेको मुनिः सुखी इस निर्लोभवृत्तिसे जो अच्छे आचार तथा विचारोंका अवस्थाको प्राप्तकर सकता है। अएव इस शौच धर्म- अंकर उगेगा वह समयपर इतने प्रचुर फलों एवं का पालन गृहस्थ और मुनि दोनों ही अपने २परिणामों विपल छाबामे सम्पन्न वृक्ष होगा, जिसके नीचे बैठ एवं परिस्थितियोंके अनुसार कर सकते हैं। कर प्रत्येक मानव-जन आनन्द और परम शास्तिका __ जनधर्ममें शौचधर्मको बहुत ऊँचा स्थान दिया अनुभव कर सकता है। गया है। गंगा यमुना आदि नदियों या समुद्रादिमें स्नान करनसे यह धर्म प्राप्त नहीं होता। यह तो
श्री समन्तभद्रविद्यालय, देहली निर्लोभ वृत्तिसे प्राप्त होता है। यदि हमारे भारतीय
२६ अगस्त, १६५३
आर्जव
[अजितकुमार जैन दयविचारों के अनुसार वाणी और शारीरिक कोकिलकण्ठ वाणीसे अन्य व्यक्तिको अपने पंजेमे व्यापारको यदि एक शब्द-द्वारा कहना हो तो वह शब्द फंसाकर वह नर-भेड़िया अपने उस हृदयमें भरे विप"आर्जव" है, ऋजुता या सरलता भी उसी के अपर- की बौछार करके उस व्यक्तिका अचेत-क्रियाशून्य कर नाम हैं।
देता है। अपने स्वार्थ साधनके लिये वह अन्य व्यक्तिका चरित्रबलसे हीन व्यक्ति जिस तरह अपनी निब- सर्वनाश करते भी नहीं चूकता। लता पर आवरण डालने के लिये हिसा, असत्य-भाषण, अपने कपटाचारसे वह अपने आपको मुलम्मेसे सयभिचार आदि पापाचरण को अपनाता है उसी तरह भी अधिक चमकीला बनाता है, जिससे जनसाधारण वह प्रात्म-निबलताके कारण ही छल, फरेब, धोखा- उसे खरा सोना समझकर सोनेका मुख्य उसे देडालता धड़ीको काममें लेता है। कपटाचार मनुष्यको बना है, किन्तु उसको उस मूल्यकी हार्दिक वस्तु उस कपटीवटी रूपमें बदल देता है। वह जनताके लिये भयानक से नहीं मिल पाती, इस तरह वह जनताको बहत क्षति वन्य पशसे भी अधिक भयानक बन जाता है। पहुँचाता है। उस कपटीकी आदत यहाँ तक बिगड़ भेडिया यदि बाहर मे भेड़िया हे तो अन्तरङ्गासे भी जाती है कि साँप यदि बाहर टेढ़ा चलता है तो कम भेडिया ही है। उसको देखकर प्रत्येक अन्तु उसके से कम अपने बिल में घुसते समय तो सीधा ही चलता भयानक आक्रमणसे सुरक्षित रहनेका यत्न कर सकता है। अपने परिवारके व्यक्तियोंको भी धोखा देते हुए है. परन्तु कपटी मनुष्य ऐसा भयानक भेड़िया है कि नहीं चला। उसके आक्रमणसे कोई भी जन्तु अपने बापको नहीं किन्तु मुलम्मा अपनी चमक आखिर कब तक बचा सकता। .
स्थिर रख सकता है, साधारणसा वातावरण हा बह दीखने में बहुत साधु नजर आता है, वाणी उसकी चमकको काला कर दता है, उस दशामें समस्त उसकी मिनासे भी अधिक मीठी होता है परन्तुहुल्य जगत उसका जघन्य मूल्य तुरन्त बांकलेता है और भयानक विषसे भरा हुमा घड़ा होता है। अपनी फिर उसकी भोर भाँख पठाकर भी नहीं देखता ।
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D
किरण ४ ] उत्तम तप
। ११ ठक ऐसा ही हाल कपटी मनुष्यका होता है, कपटी मदसे उन्हें घृणा होती है, वे किसाको प्रसन्न करने के मनुष्यका कृत्रिम मायाजाल जब छिन्न भिन्न हो जाता लिये कुछ कार्य नहीं करते बल्कि आत्म-संतोषके लिए है नब उसका भयानक नंगा रूप जनताके सामने आते ही सब कुछ करते हैं। हुए देर नहीं लगती। उस समय जनताकी दृष्टि से भय नो इनके हृदयमें कभी उत्पन्न ही नहीं वह एक दम गिर जाता है और उसकी प्रतिष्ठा तथा होता। उन्हें अपने बचन पर पूर्ण विश्वास और अचल विश्वास सदाके लिये समाप्त हो जाते हैं। परमें तो रदता रहती है, संसर उसके वचनको प्रामाणिक उस पर किसीका विश्वास रहता ही नहीं। समझता है । धार्मिक आचरणसें उनका सौन्दर्य नहीं
जिस मनुष्यका विश्वास संसारसे उठ गया, एक बढ़ता बल्कि उनके कारण उम धर्माचरणका स्वच्छतरहसे वह मनुष्य ही मंगारसे उठ गया । क्योंकि
रूप हो जाता है । जनतामें उसका सम्मान स्वयं बढ़ता विश्वासपात्रता ही जीवनका प्रधान चिन्ह है।।
चला जाता है। कपटीका हृदय तो निभीक हो ही नहीं सकता, निश्छल व्यक्ति संसारको निर्भयता और मूलभूत क्योंकि सदा उसको अपनी बनावट-कलई खुल जाने
धार्मिकताका पाठ पढ़ाता है। उसका प्रत्येक शब्द का भय बना रहता है।
उसका धर्माचरण भी नि:सार, निस्तेज एवं उप- उसके हृदयसे निकलता है अतः दूसरे व्यक्तिके हृदयहामजनक होता है जनता उसके धार्मिक भाचरण- को तुरन्त प्रभावित करता है, इसी कारण उसका को 'बगलाभक्ति' का रूप देकर अन्य धार्मिक व्यक्तियों वचन तेजस्वी, प्रभावशाली होता है । उसकी करनी
लिये भी अपनी बंसी ही धारणा बना लेती है। अन्य सज्जन व्यक्तियोक लये अनुकरणीय बन इस प्रकार छली-कपटी मनुष्य धार्मिक जगतमं महल जाबी है। तभी तो कहा गया हैपापाचारी माना गया है।
मनम्यन्यद् बचस्यन्यत कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम् । जो मनुष्य कपटाचार से दूर रहते हैं अपने मनो- मनस्येकं वचस्येक कमेण्यंकं महात्मनाम् ॥ विचारोंके अनुसार ही बोलते हैं तथा करते हैं, वे अर्थात्-कपटी मनुष्य पापी होते है और सरलव्यक्ति सदा बनावटसे दूर रहते हैं, चापलूसी, खुशा- चित्त व्यक्ति महात्मा हाते हैं।
उत्तम तप
(पी. एन. शात्री) इच्छामका रोकना तप है। तप जीवन-शुदिके यह मानव अनादि कालसे मोही होनेके कारण अमित लिये अत्यन्त आवश्यक है। बिना किसी तपश्चरणकं इजात्राका केन्द्र बन रहा है। एक अभिलाषा अथवा
आम्म-शुद्धिका हाना निनान्त कठिन ही नहीं किन्नु अम- इच्छा पूरी नहीं हो पाती, तब तक दूसरी आ धमकती है। म्भव है। जिस तरह खानसे निकलने वाले सुवर्ण पाषाण- इस तरह जीवनके साथ इनका प्रतिसमय तांता लगा से प्राप्त सोनेको शुद्ध बनानेके लिये अग्निमंनापनादि रहना है एक समयको भी इनसे छुट्टी नहीं हो पाती। प्रयोगों द्वारा सुवर्णकार उसे शुद्ध बनाता है। उक्त प्रक्रियाके इच्छाएँ अनन्त है और मानव जीवन सीमित अवस्थाको विना मोनेका वह शुद्ध रूप प्राप्त नहीं हो सका, जिसे लिये हए है अतः उन अनन्त इच्छानोंकी पूर्ति से हो 'कंचन' या मौटंचका मांगा कहा जाता है। ठीक उमो सकती है? यदि कदाचित् किमी अभिलषित इच्छाकी प्रकार अनादि कालसे मिथ्यात्व, विरति, प्रमाद, कपाय पूर्ति भी हो जाय तो तत्काल अन्य अनेक इमाप उत्पन
और योग रूप परिवतिसे होनेवाले कर्मबन्धनसे भारमा हो जाती है, ऐसी स्थितिमें इच्छाओंकी आपूर्ति सदा बनी मलिन हो रहा है-उसकी अशुद्धताको दूर करनेके लिए ही रहती है, इच्छाका नाम ही दुःख है। जिसकी जितनी तपश्चरण करना अत्यन्त जरूरी है। बिना उस प्रयत्नके इच्छाएँ परी हो जाती है वह उतना ही अधिक लोकमें प्रारम-शुद्धि करना सम्भव नहीं जंचता
सुखी माना जाता है। पर वान्तवमें इच्छा पूर्तिसे सुख 'इच्छानिरोधस्तपः'-तस्वार्थसूत्रे गृपिच्छाचार्यः। नहीं मिलता, वह कोरा सुखाभास है-मूठा सुख है।
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१३२]
अनकान्त
[किरण ४
क्योंकि इच्छा ही दुःख है, इच्छा ही परिग्रह है, मोह और क्लेश, मायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग अज्ञानका परिणाम है। जिसके जितनी अधिक इच्छाएं और ध्यान । इनमेंसे श्रादिके छह तप बाह्य हैं, इनका हैं वह उतना ही अधिक परिग्रही अथवा मोही है, और आचरण बाह्य जीवन में दिखता है इसीसे इन्हें बाह्य कोटि अनन्त दुखोंका पात्र है। यह अज्ञ प्राणी बाह्य इच्छापूर्ति में रखा गया है। इनका माधन अन्तस्तपकी वृद्धि के लिये मात्रको सुख समझता है इसीसे रातदिन उन्हीं की पूर्तिमें किया जाता है। परन्तु अन्तस्तप प्रारमासाधनामें विशेष लगा रहता है, और उसके लिए अनेक प्रयत्न करता है। उपयोगी हैं। उन्हींसे कर्मबलाका जाल करता है। चोरी, दगाबाजी, विश्वासघात,और छल-कपट आदि अनेक इन अन्तरंग तपोंमें स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों ही तप दूषित वृत्तियोंके द्वारा इच्छाकी पूर्ति के लिये दौड़ धूप करता मुमुच योगीके लिये विशेष महत्व है। योगीको ध्यान रहता है। उसीके लिये समुद्री और पर्वत तथा कन्दरा एवं स्वाध्यायसे उस पारमबलकी प्राप्ति होती है जो कर्मकी सैर करता है.अनेक कष्ट भोगता है और कार्य सिद्धिके की क्षपणा अथवा क्षय करनेकी सामर्थ्यको लिये हुए है। अभाव में विकन हुमा मानसिक सन्तापसे उत्पादित रहता है यही कारण है कि जब योगी आत्म-समाधिमें स्थित हो हजारपतिसे लेकर लखपति या करोड़ पति अथवा अरबपति जाता है तब उसके बाह्म और पाभ्यन्तर इच्छाओंका बन जाने पर भी सुखी नहीं देखा जाता वह दुःखी ही पूर्णतया निरोध हो जाता है। इच्छाअंकि निगेध होनेसे पाया जाता है। प्राचार्य गुणभद्र ने कहा है कि- तजन्य संकल्प विकल्पोंका भी प्रभाव हो जाता है। और
आशागतःप्रतिवाणि यस्मिन्विश्वमणूपमम । धारमा अपने सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रादि गुणोंमें एकनिष्ठ किकदा कियदायाति वृथा या विषयापना। होते ही मोहकमकी उस सुदृढ़ सांकलको खंडित कर देता 'इस जीवका माशारूपी खादा इतना गहरा है कि उसमें है जिसके टूटते ही कोंके सभी बन्धन अशक्त बन जाते विश्वकी समस्त सम्पदा मणुके समान है। तब किसके हिस्समें हैं-फलदान की सामर्थ्यस रिक्त हो जाते हैं। और प्रात्मा कितनी भावेगी! अतः इस विषयेषणाको धिक्कार है।' क्षणमात्रमें उनके भारसे मुक्त होकर अपनी अक्षय सम्पदा
जिस तरह सहस्त्रों नदियोंके जलसे समुद्रकी तृप्ति का स्वामी बन जाता है । तपकी अपूर्व सामर्थ्य है जो नहीं होती उसी तरह पंचेन्द्रियोंके विषयोंका अनादिकालसे जीवको दुःखपरम्परासे छुड़ाकर त्रैलोक्यक जीवोंके द्वारा सेवन करते हुए भी जीवकी तृप्ति नहीं होती। भोग उप- अभिवंद्य एवं उपास्य बना देती है। भोगकी पाकांचाएँ संसारवृद्धिकी कारण हैं उनसे तापकी अतः हम सबका कर्तव्य है कि हम भी अपने जीवनशान्ति नहीं हो सकती। उनसे उल्टी तृष्णाकी अभि- को संयत बनान्का यत्न करें। अपनी इच्छाको सीमित वृद्धि ही होती है। अतएव हमें चाहिये कि कर्मोदयसे कर स्वस्थ, सुखी बनें और भारमयलको उन्नत करें, तथा प्राप्त भोग उपभोगकी सामग्री में सन्तोष रखते हुए अपनी दुःखासे छूटनेका प्यन्न करे । श्राज हम लोग असीमित इच्छाभोंकी प्रवृत्तिको सीमित बनानेका यत्न करें । यम इक्छाओंके कारण अर्थसंचय और विविध भोगांके
और नियमका सावधानीसे पालन करें, क्योंकि ये दोनों उपभोगकी लालमामें लगे हुए हैं। अपनी स्वार्थपरतासे ही गुण इच्छाके निरोधमें कारण है। जीवनमे यम और एक दूसरेका बुरा सोचते हैं, दूसरोंकी सम्पत्ति और उनके नियम रूप प्रवृत्तिसे संयमका वह छिपा हुआ रूप सामने भोगोंकी प्रवृत्तिसे असन्ताष एवं डाह करते है। स्वयं पापाता है. और फिर लोकमें प्रशान्तिकी वह भीषण परिग्रहका संचय करते हैं, असत्य बोलते हैं, दूसरेकी बाधा भी दूर होने लगती है।
चुगली करते हैं, और अपने असहिष्णु व्यवहारसे अपनी उपर बतलाया गया है कि इच्छायांका निरोध तपसे प्रात्मवंचना करते हुए जगतको ठगने अथवा धोखा देनेका होता है। वह तप दो प्रकारका है। बाहा और अन्तरंग। यत्न करते हैं, यह कितनी अज्ञानता है। अतः हमें चाहिए दोनीही तप अपने छह छह भेदोको लिये हुए हैं-इस कि हम भी अपनी इच्छामों पर नियन्त्रण कर तपकी तरह तपके कुल बारह भेद हैं, अनशन, उनोदर, वृत्ति- महत्ताका मूल्यांकन करते हुए सन्तोषी, सुखी बनें, तथा परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक शय्यासन और काय- एक देश तपरवी बन कर अपना हित साधन करें।
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संग्रहकी वृत्ति और त्याग धर्म
(ले. श्री पं० चैनसुखदासजी, न्यायतीर्थ) धर्म मामाकी उस वृत्ति अथवा प्रवृत्तिका नाम है लिये वह उचित अनुचित सब प्रकारके प्रयत्न करता है। जो मनुष्यके प्राध्यास्मिक एवं वौयक्तिक अभ्युदयका कारण न्याय और अन्यायका भेद वह उस समय भूल जाता है हो । धर्मका यह लक्षण मनुः परक है । सारे संसारके जब धन संग्रहका अवसर होता है । स्यागके प्रकरण में पाणियामें मनुष्याको संख्या रहुत कम है। पशु-पक्षी और संग्रहका अर्थ यपि केवल धनसंग्रह ही नहीं है, किन्तु देव-नारकामं भी धर्मवृत्ति जागृत होती है और वे भी संसारके सारे संग्रह धनसे खरीदे जा सकते है इसलिये अपने प्राध्याम्मिक उत्थानकी ओर प्रवृत्त हो सकते है- संग्रह शब्दसे मुख्यतः धनसंग्रह ही किया जाता है। इसलिए धर्मका लक्षण ऐसा भी है जो मनुष्यातिरिक्त- दुनियांके प्रतिशत निन्यानवें पापोंका कारण संग्रह ही है। प्राणियों में भी मिल संक। जो श्रा'माको दुःबसे उन्मुक्त जब से मनुष्यमें संग्रहकी भावना उत्पन्न हुई है तभीसे करे वही धर्म है, और वह धर्म मच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान मानव समाजमें दुग्यों और पापोंकी सृष्टि भी देखी जाती
और सच्चे चरित्रके रूपमे प्रस्फुटिन होना है। इसके है। मंग्रह पाप और दुःख इन सबकी एक परम्परा है। विपरीत जो कुछ है वह अधर्म है। यह धर्मका सामान्य संग्रहम पाप पैदा होते हैं और वे ही दुः९.का कारण है। लक्षण है।
जैनशास्त्रोंकी भोगभूमि में कोई मनुष्य दुःखी नहीं था, चरित्रके रूपमे जो धर्म प्रस्फुटित होता है उसकी नाना
इसका कारण केवल यही था कि उस समय के मनुष्यमें
संग्रहकी प्रवृत्ति नहीं थी। तब मनुष्यकी इच्छाएँ भी कम शावाग हैं। स्याग भी उसका एक रूप है। स्याग धर्म भी
थीं । अाज तो मनुष्यकी अपरिमित इच्छाएँ हैं और इनका मनुष्य-परक है, क्योंकि मनुष्यक अतिरिक्त दूसरे गणियों
सारा उत्तरदायित्व संग्रह पर है। कविने ठीक ही कहा है में संग्रहकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । मनुष्य संमारका
कि-'मनुष्यकी तृष्णाका गहा इतना गहरा हो गया है सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इसलिए कोई भी विवेचन उसीको मुख्यताम किया जाता है । संग्रह और त्याग, पात्र और
कि उसे. भरने के लिए यह समूचा विश्व भी एक अणुके
समान है ।' तब एक एक मनुष्य के इतने गहरे गडको कैसे अपात्र, संसार और मुकि, पुण्य और पापके मारे विवेचन
भरा जाय ! यह एक भयंका समस्या है, और यह समस्या मनुष्यका लक्ष्य करके किये गये है। सम्भव है किमी किमी
वल वैयक्तिक नहीं अपितु राष्ट्रामें भी यह रोग पशु अथवा पक्षोमे भी संग्रहकी भावना हा, पर ऐसे अप
फैल गया है। मारे छोटे और बड़े युद्ध, प्राक्रमण, वाद नगण्य समझ जाते है मनुष्यने ता संग्रहकी प्रवृत्ति
अत्याचार और पानताविपन इसी समस्या भयंकर जन्मजात है। बच्चा भी और नहीं तो अपने खेलोका
परिणाम है। संग्रह तो करने ही लगता है। ज्या ज्या मनुष्य बडा होता
इस संग्रहतृष्णाकी समस्याका एक मात्र हल त्याग जाता है उसके संग्रहको भावनामें वृद्धि हं.नी जानी है।
धर्म की है । जबसे दुनिया संग्रहका पाप माया भीसे वह जीवनके अन्त तक भी इस संग्रहके अभ्याससे विरक्त
त्याग धर्मकी भी उत्पत्ति हुई । अन्धकार और प्रकाश, होना नहीं चाहता । दुख की बात तो यह है कि इस मंग्रह
बन्धन और मुक्ति, ज्ञान और प्रज्ञानकी तरह धर्म और की प्रवृत्ति में जो जिनना अधिक सफल होना है इस संसार
पाप माथ माथ जन्मते है । संग्रहकं पापके साथ अगर में वह उतना ही आदरणीय सत्कृत और पुरस्कृत माना
स्यागधर्म न पाता तो दुनियाकी जो अवस्था होती जाता है। राजाभों, सम्राटी और धनिकांके सारे यशोगानका
उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । स्यागधर्म कारण उनका अपार संग्रह ही है।
संघहक पापको धो डालता है । फिर भी हमें यह समजय मनुष्य देवता है कि संग्रहशील अर्थात् धनसंच मना है कि प्रत्येक स्याग धर्म नहीं होता। त्यागको यकारियोंका हर जगह सम्मान होता है तो वह भी उनका धर्म बनानके लिए हमें विवेककी जरूरत होती है। अनुकरण करता है और अपने हम मनोरथम सफल होनेके जिस स्यागमें अहंकार हो, जोकैपणकी भावना हो या
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१३४]
अनेकान्त
[किरण ४
अन्य कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो, देश-कालका विचार के रूपमें परिवर्तित करने के लिए दान-संस्थाका जन्म हुआ न हो वह लाग धर्मकी कोटिमें नहीं पाता। हमारा प्रत्येक है और यह सच है कि इस संस्थाने दानार्थी और दानी स्याय धर्म की कोटिमें समाविष्ट हो इसके लिए हमें अपने सबका समाम रूपसे उपकार किया है। अब तक दान पूरे विवेक का उपयोग करना चाहिए।
धनिक समाजकं लिए वरदान स्वरूप सिद्ध हुभा है। त्यामधर्म जैनाचार अथवा सदाचारकी एक बड़ी शाखा दानाथियामें तब तक उत्पानको भावना पैदा नहीं होती है। व्याम का अर्थ छोड़ना है। कोबनके भी दो रूप है। जब तक धनियोंके द्वारा दिये गये दानसे किसी न किसी कोई चीज किसी को देकर भी छोड़ी जा सकती है और रूपमें उनकी श्रावश्यकताएं पूरी होती जाती हैं। दानी को विना दिये भी, किसीको कोई चीज देनेके लिए जब हम
अपने मनमें कभी यह थहंकार लानेकी जरूरत नहीं है कि छोड़ते हैं तो वह त्याग दानबहलाता है से पाहारदान,
मैं दान देकर दुखी, दरिद्र और गरीबोंका भला करता हूँ औषधदान भादि । किन्तु दान शब्दका प्रयोग ज्ञान और
बल्कि उसको यह सोचना चाहिए कि इनको दान देना ही जीवनके साथ भी होता है ज्ञानदान, जीवनदान । कोई
। मेरी रक्षाका कवच हैं। किसीको ज्ञान देता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि विश्व-प्रकृति स्वयं संग्रह अथवा अतिसंग्रहके विरुद्ध वह ज्ञान को इस तरह छोड़ देता है जैसे माहारदानके है। समुद्र, मेष, वृक्ष और स्वयं पृथ्वी संग्रहके विरुद्ध समय माहारको कोष दिया जाता है। ज्ञानको तो किसी क्रान्ति पैदा कर देते हैं और दानकी महत्ता को प्रकट करते भी तरह कोदना सम्भव नहीं है। जैसे एक दीपसे दूसरा है। दानके विषयमें एक कविने कितना अच्छा कहा हैदीपक जला दिया जाता है इसी तरह एक भास्माके ज्ञान- ऋतु वसन्त जाचक भयो, हप दिये दुम पात । से दूसरे भास्माम शान उत्पन्न किया जाता है। अभय
तामें नव पल्लव भये, दियो दूर नहीं नात ।। दानमें तो अपने पाससे सचमुच कुछ भी नहीं दिया जाता।
वसन्त ऋतु आई, उसने पाकर वृक्षों से कहा-मैं उसमें तो वह प्रापिरचाका प्रपरन ही किया जाता है।
तुम्हारी याचक है. मुझे दान दो, वृक्ष यह सुनकर बड़े उस प्रयत्नकी सफलता ही अभयदान है।।
खुश हुए और अपने सारे पत्ते ऋतुको दान स्वरूप दे ___ जो चीज किसीको किमी रूपमें बिना दिये छोड़ी जाती दिये । वृत्तोंका यह दान निष्फल नहीं गया; क्योकि है वह भी त्यागका एक रूप है । जब मनुष्य कषाय सत्काल ही उन पत्तोंके स्थानमें नये पत्ते पा गए । यह अथवा बासनाओंका परित्याग करता है तो वह उस्कृष्ट सच है कि दिया हुश्रा कभी व्यर्थ नहीं होता। काटिका त्यागी कहलाता है। इस त्यागका दानके प्रकरण किन्तु यह बात भी भूलनको नहीं है कि कोई भी से कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्पूर्ण बाह्य परिग्रहको बोरकर मनुष्य कुछ न कुछ तो दान दनको क्षमता रखता ही है। जब कोई संसार-विरक होता है तब उसका वह बाह्य परि- एक करोड़ रुपयेका दान और एक पैसेका दान दोनों ही ग्रह-स्याग किसीको देने के लिए नही होता. वह ता उसे दानकी कोटि में आते हैं और क्षमताकी दृष्टिसे दोनोंका हेय समझकर छोड़ता है। इस सारे विवेचनका यह अर्थ बराबर महत्व है। यदि भावामें विषमता न हो तो दोनों है कि त्याग शब्दका प्रयोग दानार्थमे भी होता है और का समानफल भी हो सकता है। जब यह बात है तब इससे भिन्न मर्थमें भी।
स्पष्ट है कि दानी केवल धनी ही नहीं बन सकता निर्धन ___ संग्रहसे दोष पैदा होते हैं इसलिए सबसे अच्छी बात भी बन सकता है। इसलिए धनियोंकी तरह निर्धन भी यह है कि संग्रह न किया जाय; पर मनुष्यकी यह प्रवृत्ति अपनी शक्तिका विना छिपाय और शक्तिका अतिक्रमण यों ही छूटनेवाली नहीं है इसलिए विवेक-पूर्वक संग्रहके किये विना त्याग धर्मकी भोर अच्छी तरह प्रवृत हो सकते वितरबकी व्यवस्था करना मनुष्यका अनिवार्य कर्तव्य है । जब मनुष्यके मनमें ठीक अर्थ में-सहानुभूतिके भाव इस कर्तब्यका जो पावन नहीं करता वह मानव-समाजमें उत्पन्न होते हैं तब उसमे दयाकी वृत्ति जागृत होती है अशान्ति उत्पन्न करनेके दोषका हिस्सेदार है। अतिसंग्रह- और तभी वह देने की प्रेरणा भी पाता है। महान् विचासे जो विषमता आती है उस विषमताको भोशिक समता- रक श्री विनोबा भावे के शब्दोंमें देनेकी प्रेरणाको ही दया
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तत्वार्थ सूत्रका महत्व
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और करनेकी प्रेरणाको ही करुणा कहते हैं। अगर हृदयमें त्याग धर्म हमारे पास्माको पवित्र बनाता है। वह हमारी देने और करनेकी वास्तविक प्रेरणव न हो तब तो दया जीवन शुद्धिका कारण है। जो जितना त्यानी है वह उतना अथवा करुणाका पाखण्ड हो सामये ।
ही महान और बन्दनीय है। महासंग्रहशील चक्रवर्ती त्याग धर्म अथवा कोई भी धर्म केवल व्याख्याकी सम्राट महास्यामी तीर्थकरकी चरणरजको पाकर अपने वस्तु नहीं है. हमें स्वतः सिद्ध तत्वको उतना समझाने की मापको धन्य समझता है। सचमुच जीवनकी सफलता जरूरत नहीं है जितनी जीवन में उतारनकी है। सचमुच त्यागसे ही है।
। महत्व
(पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य) महत्व और उसका कारण
सही उत्तर यही है कि इस सूत्र ग्रन्थके अन्दर समूची इसमें संदह नहीं, कि तत्वार्थ मूत्रके महत्वको श्वेताम्बर जैनसंस्कृतिका अत्यन्त कुशलताके साथ समावेश कर और दिगम्बर दोनों मम्प्रदायोंने समानरूपसे स्वीकार दिया गया है। किया है, यही सबर है कि दाना सम्प्रदायांक विद्वान संस्कृति-निर्माणका उद्देश्य प्राचार्योंने इस पर टीकायें लिखकर अपनको सांभाग्यशानो
संस्कृति निर्माणका उद्देश्य लोक-जीवनको सुखी माना है। सर्वसाधारणके मन पर भ तत्वार्थसूत्रके
बनाना तो सभी संस्कृति निर्माताओंने माना है। कारण कि महत्वकी अमिट छाप जमी हुई है।
उद्देश्यके विना किसी भी संस्कृतिके निर्माबका कुछ भी दशा-याये परिच्छिन्ने तत्व थें पठित सति ।
महत्व नहीं रह जाता है परन्तु बहुत सी संस्कृतियाँ इससे फलं स्यादपचासम्य भापितं मुनिपुङ्गवः॥ . भी भाये अपना कुछ उद्देश्य रखती हैं और उनका वह
इस पद्यने सर्वसाधारणको हमें इसका महत्व बढ़ाने- उद्देश्य प्रारमकल्याणका बाभ माना गया है। जैसंस्कृति में मदद दी है। यही कारण ६ कि कमसे कम दिगम्बर एसो सस्कृतियाम से एक है । तापर्य यह है कि जन समाजको अपड महिलायें भी दूसरोके द्वारा सूत्र पाठ सुन संस्कृतिका निर्माण जोकजीवनको सुखो बनाने के साथ-साथ कर अपनेको धन्य समझने लगती है। दिगम्बर ममा नमें आत्मकल्याणकी प्राप्ति (मुक्ति) का ध्यान में रखकरके ही यह प्रथा प्रर्चालन है कि पप्पणपर्वके दिनों में तत्वार्थ- किया जाता। सूत्रको ग्वामतोम्स मामूहिक पूजा की जाती है और स्त्री संस्कृतियोंके आध्यात्मिक और भौतिक एवं पुरुष दोनों वर्ग बड़ी भक्तिपूर्वक इसका पाठ किया या सुना करते हैं। नित्यपूजाम भी तत्वार्थसूत्रके नामस पूजा पहलुकि प्रकार करने वाले लोग प्रति दिन अर्घ चढ़ाया करते है और विश्वकी सभी संस्कृतियोंको थाध्यास्मिक संस्कृतियाँ वर्तमानमें जब दिगम्बर समाजमें विद्वान दृष्टिगोचर होने माननमें किसीकी भी विवाद नहीं होना चाहिए, क्योंकि बगे, तबसे पपणपर्वमें इसके अर्थका प्रवचन भी होने प्राविर प्रत्येक संस्कृतिका उद्देश्य लोकजीवन में सुखम्यलगा है। अर्थप्रवचनके लिए तो विविध स्थानोंकी दि. जैन वस्थापन तो है ही. भले ही कोई संस्कृति मारमतत्वको जनता पषण पर्वमे बाहर भी विद्वानोंका वुलानका स्वीकार करती हो या नहीं करनी हो । जैसे चार्वाककी प्रबन्ध किया करती है। तत्वार्थसूत्रकी महत्ताक कारण ही संस्कृतिम बाग्मतम्बको नहीं स्वीकार किया गया है फिर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो सम्प्रदायाँके बीच कर्ता-विष- भी बाकजीवनका सुग्बी बनाने के लिए 'महाजनो येन गतः यक मतभेद पैदा हुया जान पड़ता है।
स पन्था" हम वाक्यके द्वारा उपने लोकके लिये सुखकी यहाँ पर प्रश्न यह पैदा होता है कि तत्वार्थसूत्रका साधनाभूत एक जीवन व्यवस्थाका निर्देश तो किया ही इतना महत्व क्यों है? मेरे विचारसे इसका सीधा एवं है। सुखका व्यवस्थापन और दुःखका विमोचन ही
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अनेकान्त
[किरण ४
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संस्कृतिको प्राध्यात्मिक मान के लिये प्राधार है। यहाँ है जिसमें प्रात्मा या जोकके लाभालाभका कुछ भी सक कि जितना भी भौतिक विकास है उसके अन्दर भी ध्यान नहीं रखकर केवल वस्तुस्थिति पर ही ध्यान रखा विकासकर्ताका उद्देश्य लोकजीवनको लाभ पहुंचाना ही जाता है। इस विकल्पमें जहाँ तक वस्तुस्थितिका ताल्लुक रहता है अथवा रहना चाहिये अतः समस्त भौतिक है उसमें विज्ञानका सहारा तो अपेक्षणीय है ही. परन्तु विकास भी आध्यात्मिकनाके दायरेसे पृथक् नहीं है। लेकिन विज्ञान केवल वस्तुस्थिति पर तो प्रकाश डालता है उसका ऐसी स्थितिमें माध्यात्मिकता और भौतिक्ताके भेदको आत्मा या लोकके लाभालाभसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता समझनेका एक ही भाधार हो सकता है कि जिस कार्यके है-तात्पर्य यह है कि विज्ञान केवल वस्तुके स्वरूप और अन्दर भारमाके लोकके लाभकी दृष्टि अपनायी जाती है विकाश पर ही नजर रखता है, भले ही उससे प्रास्माको वह कार्य प्राध्यात्मिक और जिस कार्य में इस तरहके लाभ- या लोकको लाभ पहुँचे या हानि पहुँचे । लेकिन भारमकी दृष्टि नहीं अपनायी जाती है. या जो कार्य निरुद्दिष्ट कल्याण या लोककल्याणकी दृष्टिसे किया गया प्रतिपादन किया जाता है वह भौतिक माना जायगा।
या कार्य वारविक ही होगा, यह नियम नहीं है वह यद्यपि यह संभव है कि ग्रामा या लोकके जाभकी कदाचित् अवास्तविक भी हो सकता है, कारण कि अवारष्टि रहते हुए भी कामें ज्ञानकी कमीके कारण उसके स्तविक प्रतिपादन भी कदाचित् किसी किसीके लिये लाभद्वारा किया गया कार्य उन्हें अलाभकर भी हो सकता है कर भी हो सकता है । जैसे सिनेमायाक चित्रण, उपन्यास परन्तु इस तरहसे उसकी लाभ सम्बन्धी दृष्टिमें कोई अंतर या गल्प वगैरह अवास्तविक होते हुए भी लोगोंकी चित्तनहीं होने के कारण उमके उस कार्यकी श्राध्यात्मिकता वृत्ति पर असर तो डालते ही हैं। तात्पर्य यह है कि चित्रण मधुण्ण बनी रहती है अतः प्रारमतत्वको नहीं स्वीकार प्रादि वास्तविक न होते हुए यदि उनसे अच्छा शिक्षण प्राप्त करने वाली चार्वाक जैसी संस्कृतियोंको प्राध्यात्मिक संस्कृ- किया जा सकता है तो फिर उनकी वास्तविकताका कोई तियाँ मानना अयुक्त नहीं है।
महत्व नहीं रह जाता है। जैन संस्कृतिक स्तुतिग्रन्थोंमे यह कथन तो मैंने एक प्टिसे किया है, इस विषयमें जो कहीं कहीं ईश्वरक स्वकी झलक दिखाई देती है इसरी दृष्टि यह है कि कुछ लोग श्राध्यामिकता और वह इसी दृष्टिका परिणाम है जबकि विज्ञानकी कसौटी भौतिकता इन दोनोंके अन्तरका इस तरह प्रतिपादन करते पर खरा न उतर सकने के कारण ईश्वरकतृ'स्ववादका जैम हे कि जो संस्कृति प्रारमतत्यकी स्वीकार करके उसके द.शनिक प्रन्योमे जोरदार स्वण्डन मिलता है और इसी कल्याणका मार्ग बतलाती है वह आध्यात्मिक संस्कृति है दृष्टि से ही जैन संस्कृतिम अज्ञानी और 'अल्पज्ञानी रहते और जिम संस्कृति प्राग्मतन्यको ही नहीं स्वीकार किया हुए भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी माना गया है। जबकि वास्तगया है वह भौतिक संस्कृति है। इस तरह आत्मतत्वको विकताके नाते जाव बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानी या मानकर उसके कल्याण का मार्ग बतलान वाली जितनी अल्पज्ञानी बना रहता है। संस्कृतियां वे सब श्राध्यात्मिक और वात्मतत्वको नहीं इस विकल्पके अाधार पर जैन संस्कृतिको दो भागों. मानने वाली जितनी संस्कृतियाँ है वे सब भौतिक संकृ में विभक्त किया जा सकता है । एक प्राध्यास्मिक और तियाँ ठहरती है। इस विचारधारास भी मेरा कोई मतभेद दूसरा भैतिक । नहीं है, कारण कि यह कथन केवल दृष्टिभेदका ही सूचक न संस्कृतिके उक्त प्रकारसे श्राध्य त्मिक और भौतिक है आध्यात्मिकता और भौतिकताके मूल अाधारमे इससे ये दो भाग तो हैं ही परन्तु सभी संस्कृतियों के समान कोई फर्क नहीं पड़ता है।
इसका एक तीसरा भाग प्राचार या कत्तभ्य सम्बन्धी भी प्राध्यात्मिकता और भौतिकताके अन्तरको बतलाने हैं इस तरह समूची जैन संस्कृतिको यदि विभक्त करना वाला एक तीसरा विकल्प इस प्रकार है-एक ही संस्कृति- चाहं तो वह उक्त तीन भागोंम विभक्त की जा सकती है। के आध्यात्मिक और भौनिक दोनों पहलू हो सकते हैं। इनमेमे प्राध्यामिक विषयका प्रतिपादक करणानुयांग, संस्कृतिका माध्यात्मिक पहलू वह है जो मात्मा या जोकके भौतिक विषयका प्रतिपादक म्यानुयांग और माचार या लाभालाभसे सम्बन्ध रखता है और भौतिक पहलू वह कर्तव्य विषयका प्रतिपादक चरणानुयोग इस तरह तीनों
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किरण ३]
तत्वाथसूत्रका महत्व
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भागोंका अलग अलग प्रतिपादन करनेवाले तीन अनुयोगा- और काल इ. इयों के रूपमें हमारी जानकारीमें में जैन भागमको भी विभक्त कर दिया गया है।
थायगा और जब हम आध्यात्मिक दृपिटसे अर्थात् प्रात्मतस्वार्थ सूत्र मुख्यतः प्राध्यामिक विषयका प्रतिपादन कल्याण की भावनास वस्तुतत्वकी जानकारी प्रान करना करने वाला प्रन्थ है, कारण कि इसमें जो कुछ लिखा गया चाहेंगे तो उस समय वस्तु तस्व जीव, अजीव, पाश्रय, है वह सब प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे ही लिखा गया है वन्ध, स्वर. निर्जरा और मांस इन सात तत्वोंके रूपमें अथवा वही लिखा गया है जो प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे हमारी जानकारी प्रायगा। अर्थात जब हम "विश्व क्या प्रयोजन भन है. फिर भी यदि विभाजित करना चाह तो है? इस प्रश्नका समाधान करना चाहेगे तो उस समय कहा जा सकता है कि इस प्रयके पहिले, दूसरे, तीसरे, हम इस निष्कर्ष पर पहचगे कि जीव पुदगल, धर्म, अधर्म चौथे, छठे, माठवें और दशवें अध्यायाम मुख्यतः थाध्या श्राकाश और काल इन छ. द्रव्यांका समुदाय ही विश्व है सिक दृष्टि ही अपनायी गयी है इसी तरह पांच अध्याय और जब म अपने कल्याण अर्थात् मुक्तिकी भार अग्रसर में मौतिक दृष्टिका उपयोग किया गया है और सातवें होना चाहेगे तो उस समय हमारे सामने ये सात प्रश्न खड़े तथा नवम अध्यायों में विशेषकर प्राचार या कर्तव्य सम्बन्धी हो जावेंगे-(१) मैं कान है?, (२) क्या मैं बद्ध हैं, उपदेश दिया गया है।
(३) यदि छ हूँ ताकिममे बद्ध है ?.(४)किन कारणोंसे तन्वार्थमन्त्र श्राध्यात्मिक दृष्टिले ही लिखा गया है या में उससे बन्द हो रहा हूँ ?, (५) बम्धके के कारण कैसे
याय दूर किये जा सकते है ? (क) वर्तमान बन्धाको कैसे दूर यह निष्कर्ष इस प्रन्धकी लग्बनपदतिसं जाना जा सकता किया जा सकता है। और (७) मुक्ति क्या है? और तब है। इस ग्रन्थका 'सभ्यरदशनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:इन प्रश्नाके समाधानक रूपमें जीव. जिससे जीवधा
मन मा हुश्रा है ऐसा कर्म नोकरूप पुद्गल, जीवका उक्त दोनों सम्यक्चरित्रको मोक्षका मार्ग बतलाया गया है । तदनन्तर प्रकारके पुद्गलके साथ संयोगरूपबन्ध, इस बन्धके 'तत्वार्थ- श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इम सूत्रद्वारा तयाथोंके कारणीभून मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, पाय और योग श्रद्धानको सम्यकदर्शनका स्वरूप बतलाते हुए 'जीवाजीवा- रूप प्राश्रव इन मिथ्यान्व भादिकी समाप्तिरूप संवर श्रवबन्धसंवरनिर्जरामाक्षास्तत्वम्'इस मूत्रद्वारा जीव,अजीव,
तपश्चरणादिके द्वारा वर्तमान बन्धनको ढीला करनेरूप श्राश्रव, यन्त्र, संघर, निर्जरा और मोक्ष स्पमं उन तत्वायों
निर्जरा और उक्त कर्म नोकर्मरूप पुद्गलके साथ सर्वथा की सात संख्या निर्धारित करदी गयी है और फिर विनाय
सम्बन्ध विच्छेन करने म्प मुकि ये मानताव हमारे
निष्कर्ष में ग्रावेंगे। तृतीय चतुर्थ-अध्यामि जीवनावका, पच्चम अध्यायम अजीवनस्वका इंटे और मातव अध्यायांने श्राश्रय तम्ब का. भौतिक दृरिम वस्नुतन्य व्यापमें ग्रहीत होता है पाठवें अध्यायमे बन्धतत्वका नवम अध्याय में संवर और और श्राध्यामिक गिं वह तन्वरूप में ग्रहीत हाता है। निर्जरा इन दोनो तस्वीका और दश अध्याय में मानव- इसका कारण यह है कि भौनिक दृष्टि वस्तुके अस्तित्व, का इस तरह क्रमशः विवेचन करक ग्रन्थका समाप्त कर स्वरूप और भेदाभेदक कथन सम्बन्ध रम्बती है और दिया गया है।
माध्यात्मिक दृष्टि श्रान्माके पतन और उसके कारणोंका
प्रतिपादन करते हुए उसके स्थान और उत्थानके कारणोंजैन आगममें वस्तुविवेचन के प्रकार
का ही मनिपालन करती। तात्पर्य यह है कि जब हम जैन भागममें वस्तुनवका विवेचन हमें दो प्रकारले देवनेको मिलता है-कह। तो द्रव्योंके रूप में और कहीं
1.अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुदगलादण्याणि, जीवारच, तत्वांके रूप में। वस्तु-तस्व विवेचनके इन दो प्रकारका
काजश्च । (तस्वार्थ सूत्र अध्याय १ सूत्र नंबर प्राशय यह है कि जब हम भौतिक दृष्टिम अर्थात् सिर्फ वस्तु
क्रमशः 1, २ ३३।। स्थितिके रूप में वस्तुतस्वकी जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे २. जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिरामोक्षातत्वम् । तो उस समय वस्तुतत्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
(तस्वार्थ मूत्रअध्याय 1, स्त्र)
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भनेकान्त
[किरण ४
वस्तुके अस्तित्वकी ओर दृष्टि डालते हैं तो उसका वह करणानुयोग और भौतिकवादको व्यानुयोग नामोंसे अस्तित्व किसी न किमी प्राकृतिके रूपमें ही हमें देखनेको पुकाग गया है। मिलता है। जैन संस्कृतिमें वस्तुकी यह प्राकृति ही द्रष्य- इस प्रकार समूचा तत्वार्थसूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे पद-वाच्य है इस तरहसे विश्व में जितनी अलग अलग लिखा जानेके कारण आध्यात्मिक या करणानुयोगका न्य प्राकृतियां हैं उतने ही द्रव्य समझना चाहिये, जैन होते हुए भी उसके भिन्न भिन्न अध्याय या प्रकरण संस्कृतिके अनुसार विश्व अनन्तानन्त श्राकृतियां विद्यमान मौतिक अर्थात् द्रव्यानुयोग और चारित्रिक अर्थात् चरणाहैं अत द्रव्य भी अनन्तानन्त ही सिद्ध हो जाते है परन्तु नुयोगकी छाप अपने ऊपर लगाये हुए हैं, जैसे पांचवे इन सभी द्रव्योंको अपनी अपनी प्रकृतियों अर्थात् गुणों अध्याय पर द्रव्यानुयोगकी और सातवें तया नवम और परिणमनों अर्थान् पर्यायोंकी समानता और अध्यायों पर चरणानुयोग की छाप लगी हुई है। विषमताके आधार पर छह वर्गों में सकलित कर दिया
तत्त्वार्थसूत्रके प्रतिपाद्य विषय गया है अर्थात् 'चेतनागुणविशिष्ट अनन्तानन्त आकृतियों को जीवमामक वर्गमें, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण "तत्वार्थ सूत्र में जिन महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश विशिष्ट अणु और स्कम्धके भेदरूप अनन्तानन्त प्राक- डाला गया है वे निम्बलिखित हो सकते हैंतियोंको पुद्गल-नामक वर्गमें, वर्तना लक्षण विशिष्ट , 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा असंख्यात पाकृतियों को काल-नामक वर्गमें, जीवों और इनकी मोक्ष मार्गना, तत्वोंका स्वरूप, वे जोधादि सात पुदलोंकी क्रियामें सहायक होने वाली एक प्राकृतिको धर्म ही क्यो ? प्रमाण और नय तथा इनके भेद, नाम, नामक वर्गमे, उन्हीं जीवों और पुद्गलाके ठहरने में सहायक स्थापना, द्रव्य और भाव तथा द्रव्य, क्षेत्र, काम और होगे वाली एक प्राकृति को अधर्म-नामक वर्ग में तथा भाव, जीवकी स्वाधीन और पराधीन अवस्थायें, विश्वके समस्त द्रव्योंके अवगाहनमें सहायक होने वाली एक समस्त पदार्थोंका छह हम्योंमें समावेश, द्वन्योंकी संख्या प्राकृति को प्राकाश-मामक वर्गमें संकलित किया गया है। इह ही क्यों. प्रत्येक व्यका वैज्ञानिक स्वरूप, धर्म यही सबब है कि द्रव्योंकी संख्या जैन संस्कृतिमें छह और अधर्म द्रव्योंकी मान्यता, धर्म और अधर्म ये दोनों ही निर्धारिन करदी गई है।
द्रव्य एक एक क्यों ? तथा लोकाशके बराबर इनका इसी प्रकार पात्मकल्याणके लिये हमें उम्हीं बातों विस्तार क्यों प्रकाश द्रव्यका एकत्व और व्यापकत्व, की ओर ध्यान देनेको मावश्यकता है जो कि इसमें काल दम्य की अणुरूपता और नानारूपत्ता, जीवकी प्रयोजनभूत हो सकती हैं। जैन संस्कृति में इसी प्रयोजन- पराधीन और स्वाधीन अवस्थाओंके कारण, कर्म और भून वातको ही तत्व नामसे पुकारा गया है, ये तत्व भी मोकर्म, मोर मादि। पूर्वोक प्रकारसे सात ही होते हैं।।
इन सब विषयों पर यदि इस लेखमें प्रकाश डाला इस कथनले एक निष्कर्ष यह भी निकल पाता है जाय तो यह लेख एक महान ग्रन्थका आकार धारण कर कि जो लोग मारमतत्वके विवेचन को अध्यात्मवाद और लेगा और तब वह अन्य तत्वार्थसूत्रके महत्त्वका प्रतिपादक प्रास्मासे भिन दूसरे अन्य तत्वोंके विवेचन को भौतिक न होकर जैन संस्कृतिके ही महत्त्वका प्रतिपादकहो जायगा, वाद मान लेते हैं उनकी यह मान्यता गलत है क्योंकि इसलिए तत्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट उक विषयों तथा साधारण उक्त प्रकारसे, जहां पर प्रात्माके केवल अरितस्व, स्वरूप दूसरे विषयों पर इस लेख में प्रकास नहीं डालते हुए इतना या भेद प्रभेदोंका ही विवेचन किया जाता है वहां पर उसे ही कहना प्रर्याप्त है कि इस सूत्र प्रथमें सम्पूर्ण जैन भी मौतिकवादमें ही गर्भित करना चाहिये और जहां पर संस्कृतिको सूत्रोके रूपमे बहुत ही म्यवस्थित बंगसे गूध अनात्मतत्वोंका भी विवेचन प्रात्मकल्याणकी दृधिसे दिया गया है। सूत्र अन्य लिखनेका काम बड़ा ही कठिन किया जाता है वहां पर उसे भी अध्यात्मवादकी काटिमें क्योंकि उसमें एक तो संक्षेपसे सभी विषयोंका व्यवस्थित ही समझना चाहिये । यह बात तो हम पहिले गसे समावेश हो जाना चाहिए, बमरे उसमें पुनरुक्तिका ही लिख पाये है कि जैन संस्कृतिमें अध्यात्मवाद को छोटेसे छोटा दोष नहीं होना चाहिये । अन्धकार तत्वार्यसूत्र
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किरण ४]
संगम धर्म
को इसी संगसे खिन्बने में समरबह बात निमित्वन्त भावपक, बा विकराल सारव किये बाद कही जा सकती है।
हुए। इन सब समस्याबोंको पुरका जैन सति
पूर्णरूपसे सचमत्वासा-से महान अन्योंका योग उपसंहार
सौभाग्यसे हमें मिला हुमा है और इन अन्योंका पठनबड़े बड़े विद्वानोंके सामने विश्व स्वयं एक पहेली बन कर पाठन भी हम बोग सतत किया करते है, परन्तु हमारी खड़ा हुआ है। संसारकी दुःखपूर्ण अजीब मजीव घटना- शामवृद्धि और हमारा जीवनविकास नहीं हो रहा है यह ओंसे उद्विग्न प्रास्मोन्निीषु लोगोंके सामने प्रात्मकल्याणकी बात हमारे खिबे गम्भीरतापूर्वक सोचनेकी पदि हमारे भी एक समस्या है। इसके अतिरिक मानवमात्र- विद्वानोंका ध्यान इस मोर जाये तो इन सब समस्यामा की जीवन-समस्या तो, जिसका हल होना पहले और हल हो जाना असम्भव बात नहीं है
संयम धर्म
(श्री राजकृष्ण जन) दश धर्मों में संयमका बठा स्थान है। इसलिए जप करता है। गृहस्थ के लिये देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय मनुष्य उत्तमममा, मादव, मार्जव, शौच और सत्य गुणों संयम, तप और दान ये कापावश्यक बतलाये है, इनमें सं विभूषित होता है, तब वह ठीक अर्थ में संयम ग्रहण संयमको इपलिए गर्भित किया गया है कि संयम मर्याद करनेका पात्र होता है। सं-सम्यक् प्रकारसे यम (जीवन इन्द्रियनिग्रहके बिना उसका जीवन व्यवस्थित या Conपर्यंत चारित्र) ग्रहण करनेको संयम कहते है। इससे कोरे trolled life नहीं होती । यहाँसे वह अपने सम्ब द्रव्य-चारित्रका निराकरण हो जाता है।
अदा और ज्ञानको प्रावरणाके रूपमें उपयोग करता पूज्यपादाचायने 'समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणेन्द्रिय भोर पहीसे वह दशा प्रारम्भ होती है जो संसारकी परिहारः' यह संयमका लक्षण बतलाया है। यही बात निवृत्ति अर्थात् मोचके लिए मावश्यक है। पग्रनन्दि प्राचार्यके निम्न श्लोकसे विदित है:
तत्वार्थसूत्र में 'प्रमत्तयोगात्माणम्यरोपणं' यह हिंसाका जन्तु-कृपार्दित-मनसः समितषु साधोः पवर्तमानस्य । आपण बतलाया है । जब मनुष्य पांच इन्द्रिय, चार कपाय
चार विकथा, राग-द्वेष और निद्रा, ५ प्रकारके प्रमाद इन प्राणेन्द्रिपरिहारः संयममाहु महामुनयः ॥
पर नियंत्रण करके प्रवृत्ति करता है, तब वह हिसाका त्यागी इसमें पूर्ण हिसाका त्याग है, क्योंकि पूर्ण दयालुता
होता है। प्रमादकी उपस्थितिमें सर्वप्रथम भावहिंसाके वीतराग दशाम ७३ अप्रमत्त गुणस्थानमें ही होती है।
द्वारा अपने भास्मपरिणामोंका घात करता है और अपने किन्तु जब सम्पूर्ण वीतरागता न हो तब रागकी वृत्तिके
समत्व (Equilibrium) को खो बैठता है। इसमें लिए पांच व्रतोंका धारण करना, पांच समितियोंका
यह भावश्यक नहीं कि अन्य प्राणी म या जीवे, पाजन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मन
वह हिंसक कहलायेगा । पुरुषार्थसिद्बुपावके निम्न दो वचन-कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पांच
रखोक इस विषयमें बड़े महत्व के है:इन्द्रियोंके विषयोंको जीतना संयम है। यह दो प्रकारका
भ्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृक्षायां । है प्राणसंयम और इन्द्रिय संयम । साधु (मुनि) दानों प्रकारके संयमको पूर्ण पाखता है, वह अपने
नियतां जोवो मारवा धावत्यमे ध्र हिंसा। भाबमें प्रयत्न करता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, यस्मात्कषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानं । बायु और बनस्पतिकाय जैसे स्थावर जीवोंकी भी
पश्चात्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणांतु॥ हो । गृहस्थ, प्राण संयममें, स जीवोंके विधातको हिंसक और अहिंसकको व्याख्या निम्म उदाहरबसे स्वागतान और स्थावर जीवोंकी भी यथासाध्य र स्पा हो जाती है। कभी कभी देखा जाता है कि मारने
साका स्याग ६,
होती है। द्वारा अपन
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की भावनासे दिया गया विष भी किसी मनुष्यको अमृतका वचनकी शुद्धता भाषासमिति है, भोजनकी शुद्धता कायरता और शाबर किसी मनुन्यकी जान बचानक एषणासमिति है, देखकर उठाने और धरनेकी सुद्धता लिये बापरेशनसा है और मनुष्य मर जाता है। चाहे भादान-निक्षेपणासमिति है, स्वच्छ निर्जन्तु स्थान पर मृत्यु हो याम हो मारनेकी भावनासे विष देने पाखा मलमूत्र विसर्जन करना प्रतिष्ठापनासमिति है। हिंसक है और प्रापरेशन करनेवाला साक्टर अहिंसक।
संयमकी महत्ता पर श्रीपमनन्दिनाचार्यका निम्न मग, त्वचा, जिल्हा मासिका, नेत्र और कान इन पर कंट्रोल भरमा यही इन्द्रि-संवम है। कौन नहीं जानता कि श्लोक महत्वपूर्ण हैइन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए सुख सुखाभास है, विनाशक है मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यावयः, और कौके पाधीन है। स्पर्शन इनिपका विषय कामांच
तेष्वेवाप्तवचः श्रतिः स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने । हाथीको फंसा देता है, जिहा इन्द्रियके कारण मछली कांटे
प्राप्ते ते अपि निर्मले अपि पर स्यातां न येनामिते, में फंसकर अपने प्राण गंवा देती है। मासिका इन्द्रियके कारण कमलके परागमें उसकी सुगन्ध सूंघता संपता
स्वर्मो कफलप्रदः स च कथं नश्लाध्यने संयमः ॥ भंवरा अपनी जान देता है। नेत्र इन्द्रियके वशीभूत इसमें बतलाया है कि संसाररूपी गहन बनमें होकर पतंग दीपक या विजनीकी बौमें स्वाहा हो भ्रमण करते हुए जीवको मनुष्यजन्म महादुर्लभ है । आता है। क्योंन्द्रिय के वशीभूत चपल मृग भी राग मनुष्य पर्यायमें भी उत्तम जातिका मिलना कठिन सुननेके कारण शिकारीके द्वारा दारुण कारको भोगता है। है। यदि उत्सम जाति भी मिले तो भगवानके वचन जब एक एक इन्द्रियके विषयके कारण जीव नानाप्रकारके सुननेका सुयोग दुर्लभ है। यदि भगवद्-वचन भी इस्खोंको भोगता है तो मनुष्य पांचों इन्द्रियके विषयमें सुना तो उन वचनोंमें श्रद्धा साना और ज्ञानसे उसका फंसकर क्या क्या कष्ट सहन नहीं करता । इन्द्रियोंकी निर्णय करना कठिन है। यदि ये सब बातं हों तो भी इस अनर्गल प्रवृत्तिको रोकना ही संयम है। गृहस्थके संयमके बिना न स्वर्ग मिल सकता है और न मोच । बिए भी यथासाध्य समितियोंका पालन नित्यके व्यवहारके यह जानकर मनुष्यको यथाशक्ति संयम अवश्य धारण लिए पावश्यक है। गमनकी शुद्धता ईर्या समिति है, करना चाहिए ।
प्राचिन्य धर्म
(परमानन्द शास्त्री) ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् । भावनासे ओत प्रोत है, यदि उसमें से धनको ममताका अभिसन्धिनिवृत्तियों सदाकिंचन्यमुच्यते । सर्वथा प्रभाव हो जाता है तब उसे भी पाकिचन्य
धर्मका धारी माना जा सकता है अन्यथा नहीं। पाकिसंसारमें ऐहिक पदार्थों में और अपने शरीरादिकमें भी
चम्य धर्मका धारी धनी, निर्धनी, दुखी, सुखी मादि ममताका अभाव होना भाकिंचय है। अचिन्यका
सभी व्यक्तियों पर समानभाव रहता है । वह बोकमें मर्थ होता हैनग्नता। केवल पाम मग्नता भाकिंचम्य
किसोको भी दुखी नहीं देखना चाहता नहीं है, किन्तु अंतर्वास परिग्रहसे ममत्वका प्रभाव होना माकिंचाय;बोकमें जिसके पास कुछ भी नहीं है, भाजखोको परिप्रहकी भासधि, पर्थसंचयकी खोलुजिसका वन मंगा है और मन भी मंगा है, जिसे पता और विविधि भोगोंके मोगनेकी पावसाने मानवअपये शरीरका मी लेशमात्र मोहनहीं है, वही वास्तवमें जीवमके नैतिक स्वरको भी नीचे गिरा दिया है। परिग्रहप्राचिन है। केवल निधन होना अकिंचन नहीं कहा की अनन्ततृया मानवताके रहस्यको खोखला कर रही जा सकता, क्योंकि पनामाव, धनागमकी बाकांचाप है। लोग परिग्रहको ही भाज सब कुछ अपना माने ?
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किरण ४]
[४१ है। उसीकी भीड़ में अपनेको सुखी बबुभव करते है। साखता है, वही सन्चा मानव परिवह-संचय उसके संचयसे ही अपनी मान प्रतिष्ठाको ऊँचा उठा दुधा बालसा नहीं रखता, और न पाहा प्रतिसे से समझ रहे हैं। जो जितना अधिक परिग्रही है वह लोकमें बढ़ाना ही चाहता है जिसे मोगोंकी अनुवविध चिन्ता उतना ही अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है और पैसेके नहीं होती, और इसी दिन बाहही होती है। कारण लोग उसकी इज्जत करते हैं। मानो धनागम उसकी जिसकी परमें भात्मकल्पवाका अमावबहसदा संतोषी मानप्रतिहाका माज केन्द्रसा बना दुपा है।
और अपने बालुस्वभावसे माांकारी सहाणसे कनी जो निधन है, गरीब है, बेचारा खानेके लिये नहीं टकराता जो मानव जीवनके पतबमें कारण है। मुहताज रहता है, तन ढकनेको भी जिसके पास जिनकी धनादि बैभवमें ममता वहीं उसे अपना नहीं वस्त्र नहीं है, भरपेट मनका भी प्रबन्ध नहीं है, मानता, किन्तु कोदवका फल समझकर उसमें और मांगकर उदरपूर्ति करना जिसे संतापका कारण है. विषाद नहीं करता, साता परिवतिमें एली और असावा जो मांगकर खानेसे भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझ दुःखी अथवा दिवगीर नहीं होता कि विवेकी और रहा है, ऐसे व्यक्तिका बोकमें कोई भादर नहीं है। जिसे माध्यस्थ भावनामें तत्पर रहता है।हाकिचन धर्मा संसारका वैभव दुःखद प्रतीत होता है, जो पास फूसकी एक एक देश अधिकारी है। छोटीसी झोपड़ी में सुखपूर्वक रह रहा है, पर दरिद्रता जो साधु है पास्म-साधनाके दुर्गममार्म में विचरण उसके लिये अभिशाप बन रही है जो अपने पूर्ववत कर रहा, जिसने साधुवत्ति अंगीकार करवेसे पहले ही कोका फल भोगता हुमा भी कभी दिलगीर नहीं होता, संसारके वैभवसे होने वाली विषमताका मनम किया। मानवताका उभार जिसके रोम रोममें भिद रहा है, जो और अपने विवेक बलसे उसमें होने वाली प्रावरिकममता अपमेसे भी असहाय एवं दुःखी प्राणियोंके दुःख में सहानु- पवना मोहका सर्वथा त्याग किया है। जिसने मोगोंगे भूति रखता है, उन्हें सान्त्वना और बल प्रदान करता है- निस्सार समझ कर बोला है और अपये खरूपमें निक भले ही वह निधन हो, बड़े बड़े महलों में न रहकर फूसकी होनेका प्रयत्न किया है। जो पार भीतर एक सा नम्न, मोपड़ी में रहता हो, तो भी खोकमें बड़ा होनेके योग्य है। जिसके पास संयम और ज्ञानार्जनके उपकरणके सिवाय क्योंकि उसकी पारमा निर्मल है. विचारोंमें उच्चता है कोई अन्य परमाणुमात्र भी पदार्थ नहीं है, जो परमाणुवह कर्तव्य पथ पर प्रारूक है, इसीसे वास्तवमं वह मात्रको भी अपना नहीं मानता बह वास्तवमें साधु मानव है।
और प्राचिन्य धर्मका सर्वथा अधिकारी है। इस प्राचिन्य धर्मके दो अधिकारी होते हैं, एक क्योंकि पर पदार्थकी माकांक्षा हीरान है, परिग्रह परिग्रहकी भीदमें रहने वाला विवेकी गृहस्थ, और दूसरा है। जहाँ पदार्यका संग्रह नहीं है और न बाबोंबोपोंकी भारमसाधना करने वाला तपस्त्री साधु ।
सम्पदा ही है किन्तु एक ममता, उनमें अपनेपनकी जो गृहस्य सांसारिक कार्यों में लग रहा है, न्याय और भावना है, वहाँ भाकिचम्बधा प्रभाव इससे नीतिसे धनार्जन करता हुमा मानवताके नैतिक स्तरसे स्पष्ट हो जाता कि पर पदार्थ आहे हे मान रहे उसमें नहीं गिरा है, जो सदा इस बातका ध्यान रखता है कि मैं ममता अथवा का अभाव हुए बिना प्राचिन्यका मानव हूँ और दूसरे भी लोकमें मानव भी मेरे ही सजाव नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें विल्पाहाबो समान हैं, मुझे उनके प्रति घृणा अथवा तिरस्कारकी रष्टि नहीं है। अतएव जो साधु रत्नापका साधनादेश रखना भयुक्त है। हो, यदि उनमें कुछ कमी है अथवा भोगांसे सर्वथा निस्पृह है, संबम और हायक उपकरण पुरुषार्थकी कमजोरी है, तो वे उसे दूर करनेका यत्व करें। पीछी, कमण्डलु, शास्त्रादिमें भी ममता नहीं जो भान परन्तु धनादिकके मदमें अपनेकोन मुलावें, विवेकसे काम स्वातन्त्र्यका अमितापीकर्मबन्धनमालेमें डालक में विवेक ही मानव जीवनको ऊँचा उठाने वाला है, है, वास्तव में बहीबाकिंचम्मचर्मका स्वामी। साहस और धैर्य उसके सहायक है । वह सदष्टि है- उत्तम पाकिंचन गुण जानो, परिमहर्षिता दुखी मानो वस्तुतत्वमें अडोल भद्धा रखता है, हृदयमें कोमलता और फाँस तनिकसी तनमें साले,वाह मंगोटीकी दुख भाल ।
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भनेकान्त
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भाकिंचम पारमाका धर्म है,गुष है, उसकी सबसे समतारससे सराबोर उस मुनिमुद्राको धारण करना बढी महत्ता दुखाका अभाव है। दुस्ससे छूटनेके लिये हमें भावश्यक है जिसमें भाशा, तृष्णाको कोई स्थान ही उस पाकिंचम्म धर्मकी शरण में जाना पड़ता है। विना नहीं है। किसी कविने ठीक कहा हैउसकी शरण खिये वास्तविक सुख मिना नितान्त कठिन भालैन ममत
त काठन भाले न समता-सुख कभी नर, विना मुनिमुद्रा धरे। हैप्चोंकि जिस तरह शरीर में जरासी फांस लग जाती है ।
है धन नगन पर तन नगन ठाड़े, सुर असुर पानि परे। तो वह बना दुख देती है, मनुष्य उससे बेचैन हो जाता
अतः हमारा कर्तव्य है कि हम वस्तुतत्वका यथार्थ उसी तरह धन, सम्पदा, महल, और विविध भोगोंके
स्वरूप समझनेका प्रयत्न करें और अपने प्रात्मकतम्मको संग्रहकी बात जाने दीजिये यदि एक लंगोटीकी चाह है, भले. सजग और विवेकी बने रहें, घरमें रहते हुए घरबब तक वह नहीं मिल जाती है तब तक तद्विषयक काम उन्मक रहनेका यत्न करें. सांसारिक भोगोंकी भाइखताबनी ही रहती है। उसकी चाह में वह मानव
मानव अभिलाषाको कम करें । और इस लालसाका भी परित्याग अनन्त पुलोंका पात्र होता है । तत्त्वरष्टिसे विचार किया
या करें कि बहुत धन संचय करके हम उसे परोपकारमें लगा
में बाय दो लंगोटी कोई महत्वपूर्ण पदार्थ नहीं है और न देंगे। ऐसा करनेसे पारमा अपने कर्तव्यसे व्युत हो जाता वह किसीको दुख ही करती है। वह सुखदुखकी जनक है और उससे वह अपने तथा परके उपकारसे भी वंचित भी नहीं है। किन्तु उस लंगोटीमें जो ममता है, राग है, रह जाता है। क्योंकि लोभसे लोभकी वृद्धि होती है। बह राग ही जीवको बेचैन कर रहा है दुखी और संसारी अन्ततोगत्वा पारमा अपार तृष्णाकी कीचड़ में फंस जाता बनाये हुए है। अतः उससे छूटनेके लिये उस लंगोटीसे है। दूसरे, धनसंचयसे अपना और दूसरेका उपकार हो भी मोहबोरना पड़ता है, बिना जंगोटीसे मोह छोड़े ही नहीं सकता। उपकार अपकार तो अपनी भावना और वास्तविक नग्नता नहीं पा सकती। खंगोटी कोर कर कर्तब्यसे हो सकता है। अतः पहले सरष्टि बन कर एक साधु बन जाने पर भी यदि उससे ममता नहीं छूटती है देश आकिंचन्य धर्मका अधिकारी बनना चाहिये । और तो बह नग्नता भी अर्थसाधक नहीं हो सकती । अतः घरमें रहते हुए तृष्णाको घटाने तथा देह-भोगोंसे अधि लंगोटीसे भी ममता कोबना अत्यन्त आवश्यक है और बढ़ानेका यत्न करना ही श्रेयस्कर है।
ब्रह्मचर्य पर श्रीकानजी स्वामीके कुछ विचार
"का मर्थ है भास्माका स्वभाव; उसमें विचरना, बुद्धि है उसके वास्तवमें विषयोंकी रुचि दूर नहीं हुई। परिणमन करना, लीन होना सो ब्रह्मचर्य है विकार और शुभ अथवा अशुभ विकार परिणामों में एकता बुद्धि ही परके संगसे रहित प्रात्मस्वभाव कैसा है-यह जाने बिना अब्रह्मपरिणति है, और विकार-रहित शरमात्मामें परिउत्तम महाचर्य नहीं होता। बौकिक ब्रह्मचर्य शुभ राग है, णामकी एकता ही ब्रह्म परिणति है। यही परमार्थ धर्म नहीं है और उत्तम प्रमचर्य धर्म है राग नहीं है। ब्रह्मचर्य धर्म है।" परमात्मस्वभावकी रुबिके बिना विषयोंकी रुचि दूर नहीं "मास्म स्वभावको प्रतीतिके बिना स्त्रीको छोड़ कर होती। मेरी सुखदशा मेरे ही स्वभावमेंसे प्रगट होती हैं, यदि ब्रह्मचर्य पाये तो वह पुण्यका कारण है, किन्तु, वह उसके प्रगट होने में मुझे किसीकी अपेक्षा नहीं है-ऐसी उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म नहीं है, और उससे कल्याण नहीं परसे भिड स्वभावकी लिए बिना विषयोंकी रुचि नहीं होता । विषयोंमें सुखबुद्धि अथवा निमित्तकी अपेक्षाका घटतीबाबमें विषयोंका त्याग करदे, किन्तु अंतरंगसे उत्साह संसारका कारण है। यहाँ पर जिस प्रकार विषयोंकी रुचिरनकरे तो वह महाचर्य नहीं है। स्त्री, पुरुषके लिए स्त्रीको संसारका कारण रूप कहा है, घरबार बोरकर स्वागी हो जाये, पशुम भाव कोष कर उसी प्रकार स्त्रियोंको भी पुरुषकी रुचि सो संसारका धमाकरे, किन्तु उस एम भावमें जिसे इचि एवं धर्म- कारण"
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आत्मा, चेतना या जीवन
(ले. अनन्तप्रसादजी B. Sc. Eng. 'लोजपाल')
(गव करणसे मागे) कुछ पश्चिमीय विद्वान यह मानते है कि मानव या वहाँ होती है जहाँ वह पारमाकी कोई रूपरेखा विर्धारित जीवधारियोंकी चेतना और जीवनीका प्राधार 'भारमा' म करके मरूपी और पुद्गल-रहित (Matterlles) जैसी कोई वस्तु नहीं है, ये तो यों ही स्वाभाविक रूपसे बतलाता है। बौद्धोंने इमीलिये 'शून्य' कह दिया है। जन्म लेते और मर जाते हैं। मरने पर कुछ नहीं रहना ऐसी बातों या विचारोंकी धारणा बनाना मनुण्यके लिए सब कुछ खतम हो जाता है। जैसा प्राचीनकाल में चार्वाक कठिन हो जाता है और यहीं से शङ्का, विरोध, अमाम्यता ने भी कहा था। कुछ लोग कुछ खास तौरका Spirit वगैरह उत्पन्न होती और बढ़ती है। पर सचमुच तर्कमानते है। कुछ ईश्वरकी सृष्टिमें विश्वास करते हैं कि द्वारा प्रास्माका गुणके अनुरूप कोई पुद्गल रूपी शरीर ईश्वर ऐसा बनाता बिगावता है इत्यादि । इस विषय पर सम्भव ही नहीं होता। कुछ लोगोंने भास्माके रूप और बड़े प्राचीनकालसे वाद-विवाद और खण्डन-मण्डन होते प्राकारको निर्धारित करनेको चेष्टा को है पर तर्कसे उनका चले पा रहे हैं जो हर धर्मों के शास्त्रोंमें भरे पड़े हैं, मुझे पूर्णरूपेण खण्डन हो जाता है। माता-पिताके रज-वीर्यसे उनको यहाँ दुहराना नहीं है।
उत्पन्न 'बीज' तो बड़ा छोटा या सूक्ष्म होता है, वही बढ़ते चेतनामय वस्तुओं (जीवधारियो) का जन्म एक खास बढ़ते मानवाकृति हो जाता है। पारमा भारम्भसे ही प्रकारसे ही होता है। प्रायः नर-मादाके संयोगसे बीज बीजमें रहता।बीर्य और रजका संयोग होम जो होकर जन्म होता है और जिमका बीज होता है 'बीजाणु' (Spermetazoon) बनता है उनमें उसी रूपाकारमें उस बीजसे जन्म लेने वालेका रूपा- भान्मा या जीवका संचार होता है। जीवका संचार होने के कार होता है। कुछ समय तक जीवन रहने के बाद बाद ही उस 'बीजाणु' की वृद्धि होना प्रारम्भ होती है जीवन जब लुस हो जाता है तब केवल बाह्य शरीर अन्यथा जो 'बीजाणु' सजीव नहीं हो पाते वे नष्ट हो जाते मात्र ज्या का त्यो रह जाता है। यह बात सभी सजीव पीजाय भी माया प्राप्त होते हैं पा जीवधारियोंके साथ है चाहे वे मानव हो, पशु पक्षी दोनाम भेद है। जैन दर्शनने भारमाको भाकाशके समान हां, मगरमच्छ हो, कीट पतंगे हों या पेड़ पौधे हों।
मरूपी मानते हुए उसे उमी भाकारका होना स्वीकार ऐसी बात निर्जीव वस्तुग्रामे नही पाई जाती। इससे किया है जिस पाकारके शरीर में वह हो । शरीरकी वृद्धि के भी मिज होता किनिर्जीव वस्तुओंकी तुलनामें और मसाला भी गति :
साथ उस प्राकार या फैजावको भी वृद्धि स्वयं होती सजीवोंमें कोई खास विशेषता' है।
जाती है। केंचुर्वक मस्तिष्क नहीं होता पर यदि उसके कुछ पश्चिमीय विद्वानांने कहा है कि सजीवता या शरीरके किसी भागमें भी बेदन भेदन हो तो उसका सारा सचेतनता केवल मस्तिष्कके कारण है। पर ऐसे भी जीव है का सारा शरीर पीड़ामे मेंटने अगता है स्पर्श-समा जिनके मस्तिष्क होता ही नहीं । जैसे-मिट्टी के बर्माती उसके सारे शरीरमें है। मारमा यदि एक जगह रहता तो कीड़े (केंचुमा Earth Ho ms) फिर भी उनमें यह चेतना मारे शरीरमें नहीं होती। पारमा सारे शरीरमें जीवन होता है और थोदी चेतना भी होती है। चेतनाका व्यापक है और चेतना भी सारे शरोरमें है, किसी एक प्रधान बरण पीयाका अनुभव कहा जा सकता है। जब जगह सीमित नहीं इस विषयकी जैन शास्त्रों में विशव इन बाती रेंगने वाले खम्बे पतले कीड़ों केंचुभोंको किसी विवेचनात्मक समीक्षाएँ मिलंगी। चीबसे खोदा या बेधा जाता है तो उन्हें पीया होती है भारमा सांसारिक अवस्था में पुद्गव matter) जिसे हम प्रत्यक्ष देखते हैं।
वा जदवस्तु के साथ ही संयुक्त रूपसे पाया जाता सांसारिक रप्टिसे जैन दर्शनकी सबसे बड़ी कमजोरी और तब तक उसका माप.. हवाईजातक मारमा
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अनेकान्त
[किरण ४
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पूर्व ज्ञान प्राप्त करके पुगवाजा शरोरले एकदम अपनी जातिकी विशेषता बार बिना सिखखाए अपने मुटकारा पा मुक्ति (मोच)न पा जाय । एक बार आप अपने कर्म करने लगता है। यह बात केवल कार्माण परमविशुद्ध रूप प्राप्त कर लेने पर पारमा का सम्बन्ध शरीरको अवस्थिति-द्वारा ही सम्भव है। इस विषयकी या साथ पुनः जडके साथ नहीं हो सकता। प्रज्ञान विशद व्याख्या जैन शास्त्रोंमें मिलेगी। जीवधारियोंके मताके कारण है और जड़का संयोग मज्ञानके कारण है। अपने भाप अपना कर्म करनेकी विचित्रताको सममानेके शानकी वृद्धि पुद्गलके बन्धन या चापको टीला बनाती लिए औरोंने भी अपने सुझाव दिए है-पर वे जरा भी है। ज्ञानकी कमी या अज्ञानकी वृद्धि जस्ताको रद करती सन्तोषजनक नहीं। पास्मासे युक्त कार्माण शरीर-जैसा है या पुद्गलके संयोगको अधिक सुद्ध बनाती है। ज्ञान जैन शास्त्रोंमें प्रतिपादित है वैसा ही स्वीकार करनेसे प्रास्माका अपना गुण है। जब छारमा पूर्णपने अपने गुण इस समस्याका समाधान ठीक ठीक होता है। को विकसित कर लेता है तो उसका सम्बन्ध पुद्गलसे इस विषयमें मैं एक लेख अनेकान्तके गत अंकों अपने भाप ट जाता है। पर जब तक यह पूर्णता नहीं "कौंका रसायनिक सम्मिश्रण" शर्षकसे, बिख पुका होती भारमा तो किसी न किसी शरीरके साथ ही रह है। मेरे "जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य" तथा सकता है-तबतक बगैर शरीरके अकेला हो ही नहीं "शरीरका रूप और का" नामक दो खेखोंमें भी इन सकता । मन और बुदि-युक्त मानव शरीरके द्वारा ही विषयों पर बहुत कुछ प्रकाश डाला गया है-उन्हें पढ़ने से प्रास्माका पूर्ण ज्ञान विकसित हो सकता है, अन्यथा तो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और काफी जानकारी प्राप्त हो यह सम्भव ही नहीं है। इसीलिए मानव अम्मकी इतनी सकती है। बड़ी महत्ता मानी गई है। इस शरीरके भी कई भाग ह प्रास्माकी चेतना रहने ही कारण जीवनी शकिभी रहती जिनमें कार्माण शरीर और तेजस शरीर तो सर्वदा मारमा
शरार ता सबदा भात्मा है और जीवनी शकि द्वारा शरीरके आधारसं ही कर्म होने के साथ हते हैं और हाइमांसमय घरय औदारिक शरीर
र हैं और फलस्वरूप दुख सुख इत्यादि भी चेतना द्वारा ही मृत्युके बाद यहीं रह जाता है, जबकि कार्माण और तेजस ।
अनुभूत किये जाते हैं इसीलिए प्रात्माको कर्ता और मोक्का शरीर मृत्युके बाद भास्माके साथ साथ दूसरे शरीरोंमें
भी कहा गया है। शरीर का तो कर्मोंका आधार माना भारमाको ले जाते हैं। यह कर्माण शरीर ही किसी भी
है। अनुभूति या अनुभव करने वाला तो प्रात्मा है । मन जीवधारीके जन्म, जीवन और मरणका आधार या कारण
मस्तिष्क और हृदय इत्यादि भी शरीरके ही भाग है और है। दश प्राणों के द्वारा यह शरीरमें स्थिर रहता है। जब
पुद्गलकृत (Made of Matter) हैं तथा अनुभूतियोंइन प्राणोंका घात या च्य होता है तो कर्माण शरीर प्रारमा
को अधिक साफ और उनका विधिवत् ग्योरेवार विशेष के साथ निकल जाता है, जिसे मृत्यु कहा जाता है।
ज्ञान कराने में सहायक कारण है । ये मस्तिष्क वगरा भी बाहरी शरीरमें भी और कार्माण शरीरमें भी सर्वदा भात्मा या प्रास्माकी चेतनाकी मौजूदगीमें ही कार्यशील परिवर्तन हुभा करता है। यह परिवर्तन ही जीवनको चालू रहते हैं-अन्यथा नहीं । बीजाणु (Spermetazoon) रखता है या यों भी कह सकते हैं कि जीवन जब तक में पहले जीव (भारमा) का बागमन होता है फिर धोरे २ रहता है परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन होते रहना शरीर, मस्तिष्क, मन इत्यादिका निर्माण होता है । इससे ही जीवन है। जबतक बाहरी शरीर और कार्माण शरीरों यह निश्चित है कि जीवधारीकी चेतना या ज्ञानके मूल का परिवर्तन सह-समान एक दूसरेके अनुकूल और साथ कारण या स्रोत मस्तिष्क, मन इत्यादि नहीं है-ये केवल साथ होता है जीवन रहता है। जब दोनोंमें भेद होता है माधार या सहायक मात्र हैं। बहुतसे जीवोंको मन और तो बीमारी और मृत्यु हो जाती है। हमारे कर्मों और मस्तिस्क इत्यादि होते ही नहीं, फिर भी उनमें जीवन और भावनाओंके अनुसार ही हमारे कार्माण शरीरमें तबदी चेतना रहती है। जीवन और चेतना भास्माके ही बच्न लियाँ होती रहती है। कर्माय शरीर ही हमारे कर्मोको है और हो सकते हैं। कराने और भाम्मको निश्चित करने वाला है। हम पाते हैं मास्माका होना केवल तर्कद्वारा ही सिद्ध होता है, किस पड पसी, कीपा मकोका जन्म होगके बाद ही प्योंकि इसे हम देख नहीं सकते महात्रियों द्वारा अनुभव
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मात्मा, चेतना या जीवन
[१४५ ही कर सकते है। पास्माको केवल भास्मा-द्वारा ही की एकाग्रता जिस विषबकी भी हो उस विषयमें समताको अनुभूत किया जा सकता है। प्रारम्भमें मनकी एकाग्रता बढ़ाती है। यदि ध्यानका विषय राधमात्मा ही स्वयं इसमें सहायक होती है। मनको भात्माके वध निर्मल हो तब तो पूचना ही क्या । ज्वानके वरीकोंका और स्वरूपके ध्यानमें जगानेसे साधना और ध्यानकी शुद्धताके अभ्यास बढ़ानेके दंगोंका विशद-वर्णन जैन शास्त्रोसे मात्र अनुसार धीरे धीरे ध्यान स्वयं अधिकाधिक गंभीर होगा । जैसा हम ध्यान करेंगे वैसा ही हम हो जायंगेऔर राख होता जाता है। शास्त्रोंके मननसे ज्ञानको यह बिलकुल सही बात है। तीर्थकर भगवानकी राध वृद्धि और शुद्धि होती है। इन दोनोंकी मदवसे स्वयं ध्यानस्थ-मूर्तिका वर्शन और ध्यान करनेसे हमारे अन्दर तर्क और बुद्धिका उपयोग करके पारमाके शरीरस्थिा भी वैसी ही भावनाएं उत्पन और पुष्ट होती हैं। भयंकर स्वरूपकी धारणा और उसके गुणोंका विशुद्ध ज्ञान मतियोंके या रूपोंके दर्शन और ध्यानसे हमारी भावनाएं प्राप्त होता है। यही ज्ञान और धारणा सुद्ध हो भी तदनुरूप ही हो जाती है । पद्ध, प्रकाशमब जाने पर ध्यानकी गहराई स्वयं प्रास्माको प्रारमा मामाका ध्यान हमें उत्तरोत्तर उपत्त और शुद्ध बनाता जीन करने बगती है और तब कभी न कभी स्वयं है। पात्माकी अर्चगति इसी प्रकार संभव है। मात्मप्रकाश उदय हो जाता है। यही वह अवस्था है जहाँ पूर्णज्ञानकी उपलब्धि होकर प्रात्मा निराबाध, निर्विकल्प
संसारमें भी हम पाते है कि जो चास्मामें विश्वास निर्द्वन्द, निर्बन्ध हो जाता है और तब पुद्गलसे छूटकर
करते हैं वे अधिक गंभीर और भाचरण पक्के होते है। अपनी परमशुद्ध पूर्णज्ञानमय अवस्थामें स्थिर हो जाता
जो प्रामामें विश्वास नहीं करते वे नदी ही विभिन है। इसे ही मोष कहते हैं।
व्यसनोंके शिकार होकर अम्स में अपना सब कुछ गंवाकर
निराश और दुम्बी ही होते हैं। जबकि भारमा विश्वास मोक्ष ज्ञानको वृद्धि द्वारा ही संभव है। ज्ञान भी शुद्ध,
करने वाला दुखमें भी धीर गंभीर रहता है और ठीक, सही ज्ञान हाना चाहिए । गलत ज्ञानकी वृद्धिसे
उमका दुख भी सुबमें परिणत होजाता है। प्रात्मामें मोच नहीं हो सकता है उलटा जड़-पुद्गल (Matter)
विश्वास करनेसे मनुष्यको अपने जीवनके स्थायित्व में का सम्बन्ध या बन्धन और अधिक कड़ा होगा। पारमा
विश्वास होता है। वह इस जन्म में जो कुछ करता को पुद्गलसे सर्वथा भित्र सममना और ज्ञान चेतनामय
उसका चच्छा फल उसे अगले जन्म में अच्छे वातावरण शुद्ध देखना ही सच्चा ज्ञान है । भारमाके गुण अलग हैं
और परिस्थितियों में ले जाता और रखता है या पैदा और पुद्गलके गुण अलग । दोनोंका जब तक संयोग रहता है दोनोंके गुणोंके सम्मिलनके फलस्वरूप हम जीवधारियामे विभिन्न गुणोंको पाते हैं। शरीरका हलन चलन
पाप्मामें तो अनंतगुण, शक्ति और मानन्द है।
इनका विकाश करनेके लिए शुद्ध-ज्ञान-पूर्वक, ध्यान, पुद्गलका गुण है और चेतना प्रारमाके कारण है। चेतना
अभ्याम, अध्यवसाय और चटाका सतत होना भावश्यक ही चेतनाके विकाशका कारण, आधार और जरिया है।
हैं। ऐसे हट लगन युक्त बल द्वारा भी यदि सफलता जर तो चेतनाको कम ही करने वाला है। जितना जितना
न मिले तो उसमें कहीं दोष या कभोका होना ही कारण चेतना (ज्ञान) का विकास होता जाता है उसे ही सांसारिक
हो सकता है। दोष या कमीको ईद कर उसे दूर करना भाषामें प्रात्मविकाश कहते हैं। प्रारमविकाशके लिये
चाहिए । बार बार लगातार कोशिश और अभ्यासमेअच्छा स्वस्थ शरीर उपयुक्त वातावरण में जम्म, समुचित
से ही कुछ उचित फलकी उपलब्धि हो सकती हैं। परिस्थितियोंका होना और पावश्यक शिक्षा संस्कृति
शरीरिक अवस्थामे या गाईमध्यमें मन ही ध्यानका जरूरी है। ध्यानके लिए भी इनकी जरूरत है। ज्ञान शुद्ध प्राधार है। मन बना ही चंचल है। इसका स्थिर होना होने से ही ध्येय भी राख हो सकता है। ध्येय जब तक - - राब न हो तो ध्यान भी बेकार ही है।
देखो, मेरा लेख "शरीर का रूप और कर्म, जो साधारण गृहस्थ मानव भी शुद्ध मारमाका ध्यान अखिब विश्व जैन मिशनसे ट्रैक्टरूपमें अमूल्य प्राप्त करके अपने गुणो और पमतानों को बढ़ा सकता है । ध्यान हो सकता है।
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अनेकान्त
[किरण ४
ना करना मासान काम नहीं। यदि भारम्भमें सफलता न अनुसार ही हो सकती हैं। शारीरिक शक्तियोंका विकाश मिले हो उससे निराश होनेकी जरूरत नहीं। पेटा अभ्यास और उपयुक्त पाचार-व्यवहारादिसे पड़ता है। सतत जारी रखना ही बाबमीय है। यही सारी सफलताओं- रोग शक्तियोंका हासमीकरता है। जप, तप, ध्यान, कोजी पक्षाचर्य मादि गुण भी साधना की पूर्णता भर्म ज्ञानकी वृद्धि इत्यादि सभी कुछ शरीर द्वारा ही होते
और पूर्व सफलमके लिए चावश्यक है। वर्तमान कालमें हैं। बगेर उपयुक्त और सुयोग्य शरीरके कुछ भी ब्राह्मचर्य और संयम आदि की बड़ी कमी है इस कारण सम्भव नहीं है। पारम-साधन भी शरीरके माध्यमसे बब बोम सफल नहीं होते तो अपना दोष न देखते हुए ही सम्भव है, इसलिए शरीरको स्वस्थ और साधनके
और उस कमीको दूर करते हुए पारमा और मारम- योग्य बनाए रखना हमारा कर्तव्य है । शरीरको नष्ट गलियों में ही विश्वास करने लगते है। यह गलती है। करने या कमजोर करने वा अंग-भंग करनेसे सिवा इसका सुधार आवश्यक है। बारमा की शक्तियों में हानिके लाभ नहीं है। विश्वास होनेसे ही व्याक अपमर्म विश्वास रखता से तरह तरहके विजनीके यन्त्र और मशीन तरह और तासे कार्य करते हुए सफल भार उजत मी हो कार्य केवल बनावटों की विभिषमाके कारण ही
करते है-यद्यपि विद्यु ताकि उनमें एक ही या एक एक व्यक्ति जो अपनेको किसी पर्वतकी ऊँची चोटी
समान ही होती है। उसी तरह पारमा सभी शरीरोंमें पर पड़ सकने योग्य नहीं समझता वह बहनेकी चेहरा ही
समान गुण वाला होता हुआ भी विभिन्न शरीरों या शरीर नहीं करेगा, चढ़ना तो दूर ही रहा। दूसरा जो अपनेको
धारिबोंके कर्म या कार्य उन शरीरोंकी बनावटोंके अनुसार इस योग्य समझता है प्रयत्न करेगा और वह जायगा।x
ही होते हैं। पर ये कार्य भी जब तक भात्मा उन शरीरोंइसी तरह भारमा की बनव शकियोंमें विश्वास करने
वास करना में (विजनीके यन्त्रोंमें बिजलीकी शक्तिके समान) वर्तमान बाबा अपनी शक्तियोंको उचरोत्तर बढ़ाने में प्रयत्नशीब,
रहता है तभी तक होते हैं-बास्माके निकलते ही सारे भी होगा और बढ़ा भी सकेगा। मारमा को परमथर
कार्य बन्द हो जाते हैं। किसी जीवधारीके शरीरमें और समझकर ही पूर्ण विश्वासके साथ उपयुक्त चेष्टा और
किसी वियत यन्त्रमें यह भेद है कि यन्त्र जर है और कोशिशसे परमगुडता भी प्राप्त हो सकती है। जिस
जीवधारी चेतनामय है, विद्युत शक्ति भी स्वयं पुनल यतिका ध्येय दसमीन कही जानेका होगा वह आगे
( Matter या अर) निर्मित है जब कि प्रारमशक्ति नहीं जायगा पर जिसका ध्येय सौ मील जानेका होगा
ज्ञान चेतना-मय है। यन्त्रों में बिजली यन्त्रोंका निर्माण यह दसमीज तो जायगा ही और भागे भी जायगा। उस
होने पर बाहरमे प्रवाह की जाती है जब कि शरीरधारियों ध्येय रखना ही उषताको पहुँचा सकता है। हां, पारमा
का शरीर प्रात्माके साथ ही उत्पन्न होता और बढ़ता हैकी अनन्त शक्तियां शरीरकी सीमित शकियोके कारण
इसीसे विजनीको हम देखते और मानते है पर मामाही सीमित है इससे पूर्णता एकाएक नहीं प्राप्त हो
को नहीं देख पाते-केवल ज्ञान-चेतना होनेसे ही ऐसा सकती । केवल यही समझकर कि माल्मा अनन्त शक्ति
मानते है कि प्रात्मा है। बिजलीका प्रवाह यन्त्रोमें विद्यमाम है इसीखिए यह समझना और मान बेना कि मनुष्य
मान रहने पर जैसे यन्त्र अपने पाप कार्य करते हैं पर भी अनन्त शक्ति वाला है और वैसा व्यवहार करने
कहा जाता है कि विद्युत-शकि सारे काम कर रही है बगना मूर्खता, श्रम और पागलपन कहा जायगा। मनुष्य
उसी तरह भारमाके शरीरमें विद्यमान रहने पर आमाको की पाक्तियों ( या किसी भी जीवधारी शरीर-चारीकी
कर्ता कहते है। पर विजलीको मशीन ही कार्य करती है, शकिपा) उसके शरीरको बनावट, गठन और योग्यताके
बगैर यन्त्रोंके बिजलीसे स्वयं कोई कार्य होना संभव हाममें ही संसारकी सबसे ऊंची पर्वत चोटी इव नहीं था-सी तरह जीवधारियोंके शरीर ही कार्य करते रेस पर पड़ने पाडोंके विवरण अखबारों में निकल रहे हैं बगैर शरीरके बारमासे भी कुछ होना संभव नहीं हैं-अपने को उस कार्य योग्य सममकर बेटा करनेसे ही था। मानवका शरीर मानवोचित कर्म करतात.देका बेखोग पन्त समाए है।
शरीर चोदेके कर्म, किसी पडीका शरीर उस पलीके
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आत्मा, चेतना या जीवन
कर्म या किसी कीदेका शरीर उस कीदेके कर्म करता या इन्द्रियों को बनावटों और योग्यतामों पर निर्भर है । इत्यादि ।
__ करती है। कर्मोके अनुसार कार्माण शरीरमें परिवर्तन होता रहता
___सब कुछ होते हुए और पुद्गत शरीरके साथ रहकर है। अनादिकालसं अबतक परिवर्तन होते होते ही किसी
अनादि कालसं कम करते हुए भी प्रापमा पारमा ही जावधारीका कार्माण शरीर उस विशेष प्रारमाको लिए
रहना है और जड जड ही रहना है, एवं भारमाके गुण हुए उस जीवधारीक उस शरीरके विशेष रूपम संगठित
ज्ञान-चेनना प्रात्मामें ही रहते हैं और ज्योंके स्यों रहते हैं और निर्मित हुए रहनेका मूल कारण है । विभिन्न
तथा पुद्गलके गुण-जडत्व अथवा हलन-चान इत्यादिकी व्यक्कियाकी विभिन्न प्रवृत्तियो और योग्यतामांकी विभि
योग्यता पुगलमे हो रहते हैं और ज्योके त्यों रहते हैं । म न्नतामाका भी यही मूल कारण है। अनादिकालय अब
धारमाके गुण पुद्गल में जाते हैं न पुद्गलके गुण श्राग्मामें । तक संगठित न जान किम कर्मपुजके प्रभाव में काई कि
भारमा सर्वदा शुद्ध ज्ञान चेतना-मय ही रहता है। कोई कर्म करता है। विभिन्न कर्म पुगौंका सम्मिलित संगठित शरीर ही कार्माण शरीर है। कार्माण शरीर भी
यदि पारमा पुद्गलके साथ अनादिकालसे नहीं रहता पुद्गल-निमित ही है । (कार्माण शरीरको बनावट और
तो उसे अलग करने या होनेकी जरूरत नहीं होती। उसमें परिवर्तनादिकी जानकारीके लिये जैन शास्त्रीका दानाक गुण भार स्वभाव भित्र भितह इसस दाना अलग मनन करें और मरा लेख 'कर्मोंका रामायनिक सम्मिश्रण' अलग हो सकत ह ार ।
अलग हो सकते है और हाते हैं। प्रारमाका पुद्गलसे दखें जो 'अनकारत" को गत किरणमें प्रकाशित हो
छुटकारा या मुक्ति या मोक्ष हो जाना ही या पा जाना ही चुका है।)
मात्माका 'स्व भाव' और किसी जीवधारीका परम लय ___ कहनेका तात्पर्य यह कि कर्म जो भी होते है वे
या एक मात्र अन्तिम ॥ है। मांसपा जाने पर पारमापुदगल-द्वारा ही होते हैं। प्रारमा स्वयं कर्म नहीं करता। को क्या दशा हाती है या वह क्या अनुभव करता है इस प्रास्माका गुण कर्म करना नहीं है। प्राप्माका गुए तो
पर शास्त्रांम बहुत कुछ कहा गया है यहाँ उसे दुहराना 'ज्ञान' है । ज्ञानका अर्थ है जानना । प्रारमाका यह गुण
इस छोट लेग्वमें सम्भव नहीं है। प्रान्मा पुद्गलसे छुट सर्वदा श्रात्मामें ही रहता है और इसी कारण ही जीव
कारा पाकर ही अपने शुद्ध स्व-भावमं स्थिर होता है; यही धारियों में ज्ञान या चेतना रहती या होती है । जलवस्तु
वह अवस्था है जिसे पूर्णज्ञानमय-निर्विकार-परमानन्द 'जड' है और यह जरत्व ज्ञान शून्यता, या चेतना
अवस्था कहते है। यहाँ कुछ भी दुम्ब क्लेशादि रूप सामा हितता गुण सर्वदा जड या पुदगल (Matter )
रिक अनुभव नहीं रह जातं । पारमा म्वयं अपने में लीन म्वामें ही रहता है। हलन चलन या कर्मोका प्राधार भी जड
धीन स्व सुम्बका शाश्वत अनुभव करता है । यह वा पूर्णता ही है। संज्ञान कर्म या सज्ञान हजन चलन या सचेतन
है जहाँ कोई कमी, कोई बाधा, कोई इच्छा, कोई चिन्ता, क्रियाकलाप मास्मा और जडके संयुक्त होनेके कारण ही
कोई संशय, काई शंका, काई भय, काई बन्धनादि एकदम
नही रह जाते । मारमा पर्ण निर्विकल्प मत-चिन् प्रानन्द होते हैं। अन्यथा केवल मात्र जड वस्तुओके कर्म या
परमात्मा हो जाता है। हलन-चलन इत्यादि चेतनना-रहित ही हो सकते है या होते हैं। टेलीफोन या रेडियो यन्त्रमे शब्द निकलते हैं मात्माको पुद्गलसे छुटकारा दिला कर इसी परमात्मा पर वे स्वयं कुछ समझ नहीं सकते-उनमें यह शक्ति या पदकी प्राप्ति के लिए हो विश्व या संसारको सारी सृष्टि है गुण ही नहीं है। इसी तरह फोटो इलेक्ट्रिक मेल या और इस सृष्टिका सब कुछ होता या चलता रहता है। टेली विजन तरह तरहको रूपाकृतियोंका साक्षात दृश्य सृष्टिका एक मात्र ध्येय ही यही है, अन्यथा सृष्टिका कोई उपस्थित करते है पर स्वयं कुछ भी नही जान, समझ अर्थ ही नहीं होता । सृष्टि या विश्व या विश्व में विद्यमान देख, या अनुभव कर सकते । अनुभव तो वही कर सकता सब कुछका होना मत्य, शाश्वत और साधार है और इसी है जिसमें चेतना हो। अनुभव या ज्ञानकी कमी वेशी लिए मार्थक है। इसे असत्य, क्षणभंगुर या कोरा नाटक चेतना कराने वाले आधारों या माध्यम स्वरूप शरीरों समझना गलतो. मिथ्या, और भ्रम है।
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१४८]
अनेकान्त
[किरण ४.
पारमा और पुद्गल स्वयंभू. स्वयं अवस्थित हैं।न से बुद्धिपूर्ण सुतर्क द्वारा 'मात्मा' के अस्तित्व और उसकी इन्हें किसीने उत्पन्न किया न कोई उन्हें नष्ट कर सकता महानताका प्रतिपादन करें और लोगोंमे इस धारणाका है। ये सर्वदासे है और सर्वदा रहेंगे । न कभी इनकी पूरा विश्वास बैठादें कि हर एक व्यक्तिम अनन्त शक्तियोंसंख्या कमी होगी न बढ़ती। पारमा-पुद्रलके अनादि- का धारी पूर्ण ज्ञान वाला शुद्ध पारमा अन्तर्हित है। सम्बन्धसे जब छुटकारा पाता है तो अपने स्व-स्वभावमें व्यक्तियोंके भेद या भिन्नताएं कंवल शरीरॉकी विभिन्नतास्थिर होता है, अन्यथा पात्मा सर्वदा पुगलके साथ ही के ही कारण हैं। सबमें समान चेतना है। सबके दुखरहता है। भारमाका-पुगलसे छुटकारा केवल 'पूर्णता' होने सुख समान हैं इत्यादि । एवं सभी इस अखिल विश्वक पर ही हो सकता है । ज्ञानकी पूर्णता ही वह पूर्णता है प्राणी और एक ही पृथ्वी पर पैदा होने तथा रहने के कारण जहां कुछ जाननेको बाकी नहीं रह जाता।
एक दूसरेस घनिष्ट रूपसे सम्बन्धित एक ही बड़े कुटुम्बके हम संसारमें रह कर सारी सृष्टिकी मददसे ही सम्यक् सदस्य है। सबका हित सबके हितमें सन्निहित है। दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के द्वारा पूर्णताको आत्माएं तो अलग अलग हैं पर पुद्गल शरीरों या प्राप्त कर सकते हैं और वह पूर्णता हो मोत है। यही पुद्गतका सम्बन्ध परमाणु रूपमे भी और संघ रूपमें भी मानव-जन्म लेने या पानेका भी एकमात्र प्रादर्श ध्येय सारे संसार और सार विश्वसे अक्षुण्ण, अटूट और अविचल और चरम लक्ष्य है। जो व्यक्ति इस ध्धेयको या लच्यको है। संसार में स्थायी शान्ति, सर्व साधारणकी समृद्धि और सम्मुख रख कर संसारमें 'संचरण' करता है वही सतत सच्चे सुम्बकी स्थापना सार्वभौमरूपमे ही हो सकती प्रयरन-द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर उठता उठता एक दिन इस है। व्यक्तिगत या अलग अलग देश भौतिक ( Mite'पूर्णता' को प्राप्त कर मोर पा जाता है।
mal) उमति भले ही करलें पर वह न सच्ची उन्नति संसारकी सारी विडम्बनाएं, दुःख शोक, रगड़े झगड़े हैन उनका सुख ही सच्चा सुख है। सच्चा सुग्व, सच्ची उगहाई, युद्ध, रत्तपात, हिसादि केवल इसी कारण होते हैं उन्नति और सच्ची एवं स्थायी शान्ति तो तभी होगी जब कि मनुष्य अब तक 'पारमा' की महत्ता या महानताको सभी मानवारे समान प्रास्माकी अवस्थिति समझ कर ठीक ठीक नहीं जान या समझ सका। आधुनिक विज्ञानने सबको उचित एवं समान सुविधाएं दी जाये और मामाइतनी बड़ी उन्नति की पर वैज्ञानिक स्वयं नहीं जिक, राजनैतिक तथा प्राधिक समानताएं अधिकसे अधिक जानते कि:-वे क्या है? कौन है? उनके जीवनका सभी जगह सभी देशामे सभी भेदभावके विचार दूर करके अन्तिम लक्ष्य क्या है ? इत्यादि । विभिन्न धर्मों और संस्थापित, प्रवर्तित और प्रबंधित को जाय । यही मानव दर्शन-पद्धतियोंने एक दूसरेके विरोधी विचार संसारमें धर्म है. यही जैन धर्म है, यही वैष्णव धर्म है, यही हिंदू प्रचारित करके बड़ा ही गोलमाल और गड़बड़ फैला धर्म ई, यहो ईसाई धर्म है--यहो सरुवा है, चाहे इसे रखा है। इन विभेदोंके कारण लोग एक सीधा सच्चा जिस नामसे सम्बोधित किया जाय या पुकारा जाय । मार्ग निर्दिष्ट नहीं कर पाते और भ्रममें भटकते ही रह धर्मगुरुओं और संरके विद्वानांका यह कर्तव्य है जाते हैं। अब आवश्यकता है कि विचारक लोग अाधु-किस विज्ञान सत्य-बुद्धिऔर तर्कक युगमें रूढ़िगत निक विज्ञानके आविष्कारों और प्राप्त फलोंकी सहायता
गलत मान्यतामोको छोड़कर आपसी विरोधाको हटाबें और संक्षेपमें यही जैन शासन' है। यही जैन शासन मानव मात्र को सच्चे हितकारी भविरोधी प्रारमधर्मकी का ध्येय, या सारांश है और यही 'जैन शासन' के प्रति- शिक्षा देकर संसारको आगे बढ़ायें और अखिल मानवपादन या प्रवर्तनका अर्थ है।
ताका सचमुच सच्चा कल्याण करें।
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वीरसंवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरानन-जैनवाक्य-सची-प्राकृनके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थाको पद्यानुक्रमणी. जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्यामे
उद्धन दसर पद्यांकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योको मूची । संयोजक और सम्पादक मुम्नार श्रीजुगलकिशोरजी की गवंषणापूर्ण महत्वको ७० पृष्ठकी प्रस्तावनाम अलंकृन, डा० कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट के प्राक्कथन (Fortwol) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Intuinduction) मे भपित है. शोध-बांजक विद्वानों के लिये अनाव उपयोगी, बडा माइज,
मजिन्द ( जिमकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगये पांच रुपये है ) (•• आप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायकी म्यापज मटीक अपर्वकृति याप्ताको परीक्षा द्वारा ईश्वर विषयक सुन्दर
परम और मजीव विवंचनको लिए हुए न्यायाचार्य पं. दरबागलान जो के हिन्दी अनुवाद नशा प्रम्तावनादिम
युन, जिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी मुन्दर पांगी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी पर्गिशष्ट्रीय अलकन, जिल्द । ... ४) स्वयम्भुम्नात्र-ममन्नभद्रभारनाका अपूर्व ग्रन्थ, मुम्तार श्रीजुगलकिशोरजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद तुन्दपार
चय. समन्तभद्र-परिचय और नियांग ज्ञानयोग नथा कर्मयोगका विश्लपण करती हुई महत्वको गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ठकी प्रम्नावनाम मुशाभिन । (७) म्नुतिविद्या-ग्वामी समन्तभद्रका अनाग्यी कृति, पापांक जीननकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुग्नारकी महत्वका प्रस्तावनादिग् अलंकन सुन्दर जिल्द-हिन । (६) अध्यात्मकमलमानगढ़-पंचाध्यायांकार कवि गजमलकी मुन्दर प्राध्यामिक गिना. हिन्दीअनुवाद-हित ____ और मुम्नार श्रीजुगलकिशोरकी ग्वाजपूर्ण पृष्ठकी विम्न्न प्रम्नायनाम पित।
" आ) (७) युकन्यनुशासन-तत्वज्ञान परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारगा कृति. जिसका प्रती नक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुया था । मुख्तारश्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिस अलंकृत, जिल्ट । ... ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथम्तोत्र-ग्राचार्य विद्यानन्दर्गचन, महत्वका म्नुनि, हिन्दी अनुवादादि हिन। .. ॥) (E शामनचन्त्रिांगका-( नापरिचय )-मुनि मदनकीनिकी १३ वी शताब्दीको गुन्दर ग्चना, हिन्दी
___ अनुपादादि-हिन । (१: मन्मान-मरण मगलपाट-श्रावीर बर्द्धमान और उनक बाद के २० महान श्राचायों के १३७ पुग्य-म्मरणांका
महन्वा मग्रा. मुग्लारधीक हिन्दी अनुवादादि-हित । (११) विवाह-समश्य मुग्नाग्धीका लिम्बा हुआ विवाहका सप्रमाण मामिक और नाविक. विवेचन ... ॥ ११. ' अनकान्न-ग्म लहरी-अनकान्त जंगं ग गम्भीर विषयको अतीव मरलनाम समझने-समझानकी जी,
मुख्नार श्रीजुगलकिशोर-लिग्विन । (१३) अनिन्यभावना-ग्रा. पदमनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारधीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावा महिन ।) (१.) तत्त्वाथमत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुग्नाग्धीक हिन्दी अनुवाद नथा व्यायाम युन। .. ) (१५ श्रवणवल्गाल और दक्षिण अन्य जैननोर्थ क्षत्र-ना. राजकृष्ण जनकी सुन्दर मचित्र रचना भारतीय
पुगतन्य विभाग डिप्टी डायरेक्टर जनरल डान्टी०एन० गमचन्द्रनकी महन्त्र पूर्ण प्रम्नावनाम्य अलंकृत 1) नोट- मय प्रन्य एकसाथ लनवालाका ३८॥) की जगह ३.) में मिलंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसवामन्दिर, १ दरियागंज, दहली
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Regd. No.D. 211
__ अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१८१) बाल मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बढी सादजी सरावगी, २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी. २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) ला गुलजारीमल ऋपभदासजी ,
१०१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन
१०१) बाजीतमलजी जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रांचा २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , ५०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मुआलालजी जैन
१०१) श्री फतहपुर जैन समान, कलकत्ता २५१) बा मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०.) गुणसहायक, सदर बाजार, मठ २५१) सेठ मांगोलालजी
१०१) श्री शोलमालादेवी पत्नी डा० श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) सेठ शान्तिप्रसादी जन
१०१) ला मक्खनलाल मार्न लालजी ठकदार, देहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलत्ता २५१) ला० कपुरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जेन, कलकत्ता २५१) बा जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जेन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
५०१) बा. बद्रीदाम आत्मारानजी मरावगो, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हमलजी, देहली
१८५) ला. उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकट, हि पार २५.) सेठ छटामीलालजी जैन, फीरोजाबाद
२०१) ला बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली
ना, दहला १८१) कुवर यशवन्तसिहज', हासी जिः हिमार २५१) रामवहादुर सेठ हरवचन्दजी जैन, रांची
१८१) मेठ जोखाराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ वर्षी पन्दजी गंगवाल, जयपुर
महायक * १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, दहली
१०१) बा लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन * १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा लालचन्दजी जैन सरावगी ,
सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली। मुद्रक-रूप-वाणी मिटिग हाऊस २३, दरियागंज, देहली
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मनकान्त
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
HT
अक्टवर
मन ५३
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भरतक अस्मिक मन्न महामना पूज्य गणेशप्रमादजी वर्णी की ८०वी जन्म जयन्ती गयाम प्रानन्द सम्पन्न होगई। पूज्य वर्गीजीने ०वे वर्ष में प्रवेश किया है। हमारी हादिक कामना है कि पाप शन वर्ष जीवी हो। पूज्य वर्गीजीक महनीय जीवनमे समाजको यथेष्ट साभ उठाना चाहिये। आपका पाभ्यात्मिक महत्वपूर्ण प्रवचन पेज १७३ पर पदिए।
अनकान्तकः प्राहक बनना और बनाना
प्रत्येक माधमी माईका कर्तव्य है
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विषय-सूची लबद्रव्यसंग्रह - सम्पादक . ... १४. . हमारी नीर्थयात्रांक मम्मरण२ ममन्ननद-वचनामृत-[युगवीर ... 19 [परमानन्द जैन शाम्या ३ राजस्थान के गैन शास्त्र भगडागम उपलब्ध
६ कुरलका महत्व और जैनाव श्रीविद्याभूपण महत्वपूर्ण ग्रन्थ -[ले. कम्तर चन्द
. गोविन्दराय जैन शास्त्री ... १६८ जन कापलीवान एम० ए० ... १५५ ७ याहिन्य परिचय और समालोचन [परमानन्दजन १७१ ५ हिन्दी जन-माहित्यको विशेषता
८ माधु कौन है ? (एक प्रवचन)-[श्री १०५ पूज्य श्रीकुमारी किरण वाला जैन ... ११ घुलक गणेशप्रसाद जी वणी .. १७३
श्रीवाहुबलि-जिनपूजा छपकर तय्यार !! श्री गोम्टेश्वर बाहुबलिनी की जिस पूजाको उत्तमताके माथ छपानेका विचार गत मई मामकी किरण में प्रकट किया गया था वह अब संशोधनादिके माथ उत्तम प्राट पेपर पर मोटे टाइपमें फोटो ब्राउन रङ्गीन म्याहीसे छपकर तयार हो गई है। माथमें श्रीबाहुबलीजीका फाटी चित्र भी अपूर्व शोभा दे रहा है। प्रचारकी दृष्टिसे मूल्य लागतसे मी कम रखा गया है। जिन्हें पूजा तथा प्रचारके लिये आवश्यकता हो वे शान हो मंगानेवें; कांकि कापियाँ थोड़ी ही छपी है, १०० कापी एक साथ लेने पर १२, रु. में मिलेगी। दो कापा तक एक आना पाप्टेज लगता है १० से कम किसीको वो पी० से नहीं भेजी जाएंगी।
मैनेजा- वाग् संवामन्दिर'
दरियागंज, दिल्ली।
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(1) अनेकान्तक मरतक'-;. 11' बनना यार बनाना । (२) भ्वयं अनेकान्तक ग्राहक बनना नशा दपराको बनाना । (३) विवाह-शादी आदि दानके श्राय पर अनेकान्नको अच्छी यहायता भेजना नया भिजाना । (४) अपनी पार मे दमगंको अनेकान्त भेट-म्बर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विमा संम्याश्री, लायरिया,
मभा-मांसाइटियां और जैन-अजैन विद्वानाको । (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मल्यम देने के लिये २५), ..) आदिकी सहायता भंजन।। की
महायनामें १० को अनेकान्त अमृत्यमे भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहार दना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी माधनाम सहायक अच्छे मुन्दर लब लिखकर भेजना नया चित्रादि मामग्रीको
प्रकाशनार्थ जुटाना। नोट-दम ग्राहक बनानेवाले महासकांको
महायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पना:'अनकान्न' एक वर्ष नक भेट.
मैनेजर 'अनेकान्त' स्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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ॐमहम
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
बाषिक मुल्य ५)
एक किरण का मूल्म ॥)
नीतिविरोषवसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । | परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त
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सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष १२
वीरमेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली किरण ५
आश्विन वीरनि० संवत २४७६, वि. संवत २०१०
श्रीनेमिचन्द्राचार्य-विरचित
लघु द्रव्यसंग्रह व्यसंग्रह नामका एक प्राकृत ग्रन्ध जैन समाज में प्रसिद्ध और प्रचलित है. जिसके अनेक अनवाबाँके माथ कितने हीकरण एवं प्रकाशन हो चुके हैं। वह वृहद् द्रव्यसंग्रह' कहलाता है। क्योंकि उसकी संस्कृत टीकामें टीकाकार ब्रह्मदेवने यह मूचित किया है कि 'इस व्यसंग्रहके पूर्व प्रधकार श्रीनेमिचन्द्र सिदान्तिदेवने एक दूसराब व्यसंग्रह मोमष्ठिके निमित्त रचा था, जिसकी गाथा संध्या २६ थी; पश्चात् विशेषतत्त्वके परिज्ञानार्थ इस वृहद द्रव्य संग्रहकी रचना की गई है, जिसकी गाथा संख्या ५८ है। वह मधु द्रव्यसंग्रह प्रभी तक उपलब्ध नहीं हो रहा था और इसलिये आम तौर पर यह समझा जाता था कि उस लघु द्रव्यसंग्रहमें कुछ गाथाकी वृद्धि करके प्राचार्य महादयने उस ही बड़ा रूप दे दिया है- वह अलगसे प्रचारमें नहीं पाया है। परन्तु गत बीर-शासनयन्तीके अवसरपर श्रीमहावीरजीम, बाँके शास्त्रभवहारका निरीक्षण करते हुए, वह मघु संग्रह एक संग्रह प्रग्यमें मिल गया है, जिसे मकान्त पाठकोकी जानकारीके लिये यहाँ प्रकाशित किया जाता है। इसकी गाथा-संख्या संग्रह प्रतिय २५ दो हैं और उन गाथाओंको साफ तौर पर 'सामच्छलेण रया' पदांक द्वारा 'सोम मामके किसी व्यक्तिक निमित्त रची गई सूचित किया है। साथ ही रचयिताका नाम भी अन्तिम गाथामें नेमिचन्द्रगयी' दिया है। हो सकता है एक गाथा इस प्रस्थप्रतिमें जुट गई हो और वह संभवतः१.वी.वी गाथाचोंके मध्यकी वह गाथा जान पानी जो बृहद इम्यसंग्रहमें 'धम्माश्रममा कालो' इत्यादिरूपसे नं०२० पर दी हुई है और जिसमें बोकाकाय या मनोकाकाशका स्वरूप ववित है। क्योंकि धर्म, अधर्म और प्राकाश द्रव्योंकी सरपरक तीन गाथाएँ .,.,.और काख-लसण-प्रतिपादिका गाथा नं. "का पूर्वाध, जो व्यवहारकास सम्बन्ध रखता है. इसमयसंग्रहमें ही है जो कि बृहद् द्रग्यसंग्रह में नं० १., 15, बा २० (पर्म) पर पाई जाती है। इनके अतिरिकवी और
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भनेकान्त
किरण
१४वी गाथाए भी वे ही जो वृ. द्रव्यसंग्रहमे नं० २२, २७ पर पाई जाती हैं। शेष सब गाथाएँ पू ग्य संग्रहमे भिन्न हैं और इसमें यह कलित होता है कि लघुग्यसंग्रहम कुछ गाथाओंकी वृद्धि करके उसे ही वृहद रूप नहीं दिया गया है कि दोनों को स्वतन्त्र रूपसे ही रचा गया है और इसोसे दोनों मंगल पच तण उपसंहारात्मक पचभा भित्र भित्र है यहां एक बात नाट किये जानेके योग्य है और वह यह कि लघु वन्यसंग्रहके मूल में ग्रंथका नाम 'दव्यसंग्रह' नहीं दिया, पक्कि 'पयायनकरणकराम्रो गाहामो पदांके द्वार उसे पदार्थोका लक्षण करने वाली गामाओंका एक समूह सूचित किया है। जबकि बृहद् द्रव्यसंग्रहमें 'दब्यसंगहामणं' वाक्यके द्वारा प्रयका नाम स्पष्ट रूपसे 'दब्यसंह' दिया है। और इससे ऐमा मालूम होना है कि 'दन्यसंग्रह' नामकी कल्पना ग्रन्थकारको अपनी पूर्वरचना के बाद उत्पन्न हुई है और उस अन्य संग्रह के बाद ही इस पूर्वरचनाको अन्धकार अथवा दूपरीक द्वारा लबुद्र व्यसंग्रह कहा गया है चनांचे इस प्रन्यकी अन्तिम पुष्पिकामें भी 'लघुद्रग्यसंग्रह' इस नामका उल्लेख पाया जाता है। सारा ग्रंथ अच्छा सरल और महजबोध-गम्य है। यदि कोई सज्जन चाहेंगे तो इसका सुन्दर अनुवाद प्रस्तुत कराकर वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित कर दिया जायगा।
_ -सम्पादक]
(मूल ग्रन्थ) बब्व पंच भत्थी सत्त वि तच्चाणि णव पयत्था य। सखादासंखादा मुत्ति पदेसाउ संति णो काले ॥१३॥ भंगप्पाय-धुवशाणिवा जेण सो जिणा जयउ॥१॥ जावादियं श्रायासं विभागी पुग्गलागुवट्टद्ध। जीयो पुग्गल धम्माऽयम्मागासो तहेव कालो य। तंबु पदस जाणे सव्वाणुहाणदाण रहं ।। ।। दवाणि कालरहिया पदेश-हुल्लदोश्र (tथकाया य. जीवा पाणी पुगाल-धम्माऽधम्मायासा तहेव कालो य । जीवाजीवासवबंध संवर्ग णिज्जगतहा माम्खो। अज्जीवा जिणगि ओण हुमण्णइ जो हुसो मिच्छा। तच्चाणि सच एदे पुण्ण-पावा पयत्त्था य ।।३।।
मिच्छ हिसाई कसाय-जोगा य आसवो बंधी। जीचो हाइ अमुत्तो मदहमित्तो सचेयणा कत्ता। सकसाई जं जीवी परिगिराहा पोग्गलं विविह ॥१६॥ भोत्ता मो पुण दुषिहो सिद्धो संसारिओ गाणा ॥४|| मिच्छचाईचाओ संवर जिण भणइ णिज्जरादसे। अरममरूवमगधं श्रवत्त चेयणागुणममदं।
कम्माण खो सो पुण अहिलसिओपहिलसिओ य॥ जाण अतिगग्गहणं जीव दिट्ठ-संहाणं ॥२॥
कम्म बधण-बद्धस्स सम्भूदस्संतरप्पणो। वरुण रस गध-फामा विज्जते जस्स जिवहिवा।
सम्वकम्म-विणिम्मुक्को मोक्खो होइ जिणेडिदो ॥१८॥ मुत्ता पुग्गलकाओढवी पहुंदा हु सो साढा॥६॥ सादाऽऽउ-णामगोदाणं पयहीओ सुहा हव। पढवी जल च छाया चरिदियविसय कम्म परमाणू।
पुण्ण तित्ययरादी एणं पाव तु भागमे ॥६॥ विभेयं भणिय पुग्गलदग्वं जिणिदक्षिणा
णासहर पकजाश्री उप्पज्जइ दवपज्जो तस्य । मह परिण]याण धम्मी पुग्गल जीवाणगमण-सहयारी
जावो स एव सव्वस्सभंगुष्पाय धुवा एवं ॥२०॥ तोयं जहमकहाणं अच्छता व सोणेई ।।।।
उप्पादपद्धंसा वत्थूणं हांति पज्जय-णागण । ठाणजुय ण ब्रहम्मो पुग्गलजावाण ठाण-सहयारो।
दहिएण णिच्चा बोधव्वा सजिवुत्ता ॥२१॥ छाया जह पहियाणं गच्छता व सो धरई ।।
एव अगियसुत्तो सट्ठाणजुदा मणो णिमित्ता। भवगासदाणजोग जीवादाणं वियाण बायासं।
छंडउ राय रोसं जइ इच्छह कम्मणो णास । २। जेण्डं लोगागासं मलो (लो) गागासामोद विहं १०|| विसएसु पवदतं चित्त धारेत्तु अप्पयो अप्पा । इश्वपारयट्टजादो जो सो कालो हवइ ववहारो। झायइ अप्पाणेण जा सो पावेइ खलु सेयं ॥३॥ कोगागसपएसो एक्केकाणू य परमठ्ठा ॥११॥ सम्म जीवादीयाणच्चा सम्म सुकित्तिदा जेहिं । मोयायासपदेसे एकके जेट्ठिया हु एक का।
मोहगयकेमरीण एमो णमोठण साहूणं ॥२॥ रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदम्पाणि ॥१॥ सोमच्छलेण रइया पयस्य-लक्खणकराउ गाहारो। संखातीदा जावे धम्माऽधम्मे प्रणत पायासे। भन्नुवयाणिमित्तं गाणणा सिरिणेमिचंदेण शा
इति नेमिचंद्रसरिकृत लघुद्रव्यसंग्रहमिदं पूर्णम् ।
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समन्तभद्र-वचनामृत
[११] म्वामी समन्तभद्र ने अपने समोवीन धमशास्त्र में मम्यदर्शनके विषयभूत परमार्थ, प्राप्त, मागम और तपस्वीके लक्षगादिका निर्देश करते हए जिस अमृतकी वर्षा की है जमका कुछ रसास्वादन माज अनेकान्त. पाठकोंको उक्त धर्मशास्त्रके अप्रकाशित हिन्दी भाष्यसे कराया जाता है। -सम्पादक । परमार्थ प्राप्त-लक्षण)
भाचार्य ने अपनी प्राप्तपरीक्षा और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें आप्तेनोत्सन्न-दोषेण मर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना। किया है. जिसम ईश्वर-विषयकी भी पूरी जानकारी सामने
आ जाती है और जिसका हिन्दी अनुवाद वीरसेवाभवितव्यं नियोगेन नाऽन्यथा ह्याप्तता भवेत॥५। मन्दिरसे प्रकाशित हो चुका है। अतः प्राप्तकं इन लपणा_ 'जो उत्सन्न दोप है-राग-द्वष मोह और काम-क्रो- मक गुणोंका पूरा परिचय उक्त प्रन्यसे प्राप्त करना धादि दोषोंको नष्ट कर चुका है-, मवेज्ञ है-समस्त चाहिए। साथ ही, स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा' दव्य क्षेत्र-काल-भावका जाता है- और बागमेशी है.. को भी देखना चाहिये. जिस पर अकलंकदेवने 'अष्टशती' हेयोपादेयरूप अनेकान्त नव विवेकपूर्वक श्रामहितमें और विद्यानन्दाचार्यने 'अष्टमहना' नामको महत्वपूर्ण प्रवृत्ति करनवाल अबाधित सिद्धान्त-शास्त्रका स्वामी सम्कृत टीका लिखी है। अथवा मोक्षमार्गका प्रणेता है-वह नियममे परमाणु यहाँ पर इतनी बान और भी जान लेने की है कि इन प्राप्त होता है. अन्यथा पारमार्थिक प्राप्तता बनती तीन गुणोमे भिन्न और जो गुण प्राप्तके हैं वे सब स्वरूपही नहीं-इन तीन गुणाममे एकके भी न होने पर कोई विषयक है-लक्षणात्मक नहीं । लक्षणका समावेश इन्हीं परमार्थ प्राप्त नहीं हो सकता ऐसा नियम है।' तीन गुणों में होता है। इनमसे जो एक भी गुणसे हीन है
व्याख्या-पूर्वकारिकामं जिस परमार्थ प्राप्तके श्रद्धानको वह प्राप्तके रूपमें लक्षित नहीं होता। मुख्यतासे सम्यग्दर्शन में परिगणित किया है उसके लक्षण . (उत्सन्नदोष प्राप्तस्वरूप) का निर्देश करते हुए यहां तीन खास गुणों का उल्लेख किया
क्षुत्पिपासा-जरातङ्क-जन्माऽन्तक-भय-म्मया: गया है, जिनके एकत्र अस्तित्व प्राप्तको पहचाना जा सकता है और वे हैनिर्दोपता, २ सर्वज्ञता, ३ भागमे न रागद्वपमाहाश्च यम्याप्तः सपकात्यत(पदोपमुक) शिता । इन तीनों विशिष्ट गुणगेका यहाँ ठीक क्रमसे 'जिमके सुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म, मरण, निर्देश हुआ है-निर्दोशताके बिना सर्वज्ञता नहीं बनती भय, मद, राग, द्वेप, मांह नथा ('च' शब्दमे) चिन्ना,
और सर्वज्ञताके बिना पागमेशिता असम्भव है । निर्दोषता अति, निद्रा. विस्मय, विपाद, स्वंद और म्बद ये तभी बनती है जब दोषोंके कारणीभूत ज्ञानावरण, दर्शना. दोष नहीं होने है वह (दोषमुक्त) आप्न रूपमें वरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चारों घातिया कर्म प्रकीर्तित होता है। समूल नष्ट हो जाते हैं। ये कम बड़े बड़े भूभृता (पर्वतों)- व्याख्या-यहां दोपहित भाप्तका अथवा उसकी की उपमाको लिये हुए हैं, उन्हें भेदन करके ही कोई इस निर्दोषताका स्वरूप बतलान हुए जिन दोषाका नामोल्लेख निर्दोषताको प्राप्त होता है। इसीसे तत्वार्थसूत्रके मंगला- किया गया है वे उस वगके हैं जो अष्टादश दोपका वर्ग चरणम इस गुणविशिष्ट प्राप्तको भेत्तर कर्मभभृतां कहलाता है और दिगम्बर मान्यताके अनुरूप है। उन जैसे पदके द्वारा उखखित किया है। साथ ही, सर्वज्ञको दोषांमसे यहां ग्यारहके तो स्पष्ट नाम दिये है, शेष सात विश्वतत्त्वानां ज्ञाता' और भागमेशीको 'मोक्षमार्गस्य दोषी चिन्ता, अति निद्रा, विस्मय, रिषाद, स्वेद और नेता' पदोंके द्वारा उल्लेखित किया है। प्राक्षके इन तीनों खेदका 'च' शब्दमें समुच्चय अथवा संग्रह किया गया है। गुणांकाबदाही युकि पुरस्सर एवं रोचक वर्णन श्रीविद्यानंद इन दोषाकी मौजूदगी (उपस्थिति में कोई भी मनुष्य
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१५२]
अनेकान्त
किरण ५
परमार्थ मायके रूपमें ख्यातिको प्राप्त नहीं होणा-विशेष निलिमार्थ-सालास्कारी), अनादिमध्यान्त (आदि मध्य ख्याति अथवा प्रकीर्तनके योग्य वहीं होता है जो इन और अन्तसे शून्य), मार्य (सर्वके हितरूप), और शास्ता दोषोंसे रहित होता है। सम्भवतः इसी दृष्टिको लेकर (यथार्थ तत्वोपदेशक) इन नामों से उपलक्षित होता है। यहाँ 'प्रकीर्वते' पदका प्रयोग हुमा जान पड़ता है। प्रथात् ये नाम उक्त स्वरूप प्राप्तके बोधक हैं.' अन्यथा इसके स्थान पर 'प्रदोषमुक' पद ज्यादह ममा व्याख्या-प्राप्तदेवके गुणोंकी अपेक्षा बहुत नाम मालूम देवा।
है-अनेक सहस्रनामों द्वारा उनके हजारों नामोंका कीर्तन श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार अष्टावश दोषोके नाम किया जाता है। यहाँ ग्रंथकारमहोदयने अतिसक्षेपसे अपनी इस प्रकार है
रुचि तथा प्रावश्यकताके अनुसार पाठ नामोंका उल्लेख वीर्यान्सराय, २ भोगासराय, ३ उपभोगाम्तराय, किया है, जिनमें प्राप्तके उक्त तीनों बक्षवारमक गुणोंका दानान्तराप, लाभान्तराब निद्रा, . भय, ८ समावेश है-किसी नाममें गुणकी कोई टि प्रधान है, प्रज्ञान, गुप्ता १.हास्व. रति, २ भरति, ३ किमी में दूसरी और कोई सयुक्त रष्टिको खिये हुए हैं। राग, १४ द्वेष, १ अविरति, काम, " शोक, १८ जैसे 'परमेष्ठी' और 'कृती' ये संयुक्त इष्टिको निर हुए मिथ्यात्व।
नाम हैं, 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' ये नाम सर्वज्ञस्वकी इनमेंसे कोई भी दोष ऐसा नहीं है जिसका दिगम्बर दृष्टिको प्रधान किर हुए हैं। इसी तरह 'विराग' और समाज प्राप्तमें सद्भाव मानता हो। समान दोषों को छोड़- 'निमल' ये नाम उत्सन्नदोषत्वकी दृष्टिको और 'सार्व' नथा कर शेषका प्रभाव उसके दूसरे वर्गों में शामिल है जैसे अंत- शास्ता' ये नाम भागमेशित्वकी दृष्टिको मुख्य किए हुए राब कर्मक प्रभाव पाँची पतराय दोषोंका, ज्ञानावरण हैं। इस प्रकारको नाममाला देनेकी प्राचीन कालमे कुछ कर्मक प्रभावमें अज्ञान दोषका और दर्शनमोह तथा चारित्र पद्धति रही जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण प्रन्थकारमोहके अभाव में शेष मिथ्यात्व, शोक, काम अविरति रति, महोदयसे पूर्ववर्ती प्राचार्य कुन्दकुन्दके मोक्खपाहुद' में हास्य,और शुगुप्सा दोषोंका प्रभाव शामिल है। श्वेतांबर और दूसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के मान्य दोषोंमें पुषा तृषा, तथा रोगादिक कितने ही दिगंबर 'समाधितंत्र' में पाया जाता है। इन दोनों प्रन्यांमें परमा. मान्य दोषोंका समावेश नहीं होता-श्वेतांबर भाई भाप्तमें माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसको नाममालाका उल्लेख उन दोषोंका सदभाव मानते है और यह सब अन्तर उनके किया गया हैx । टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'आप्तस्यप्रापा सिदान्त-मेदोंपर अवलम्बित है। सम्भव इस भेद- वाचिका नाममाला प्ररूपयन्नाह इस वायके द्वारा इसे दृष्टि तथा उत्सन्नदोष प्राप्तके विषयमें अपनी मान्यता प्राप्तको नाममाला तो लिखा है परन्तु साथ ही प्राप्तका को स्मथ करने के लिए ही इस कारिकाका अवतार हुमा एक विशेषण 'उक्तदोपैर्विवर्जितस्य' भी दिया है, जिसका हो। इस कारिकाके सम्बन्ध में विशेषविचार के लिय ग्रन्थकी कारख पूर्वमें उत्सन्नदोषकी दृष्टिसे प्राप्तके लक्षणात्मक प्रस्तावनाको देखना चाहिए।
पद्यका होना कहा जासकता है; अन्यथा यह नाममाला एक (माप्त-नामावली)
मात्र उत्सम्नदोष प्राप्तकी दृसि.को खिए हुए नहीं कही परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। जा सकती, जैसा कि ऊपर रष्टिके कुछ स्पष्टीकरणसे जाना सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते !!७॥ जाता है ।
_ 'छक स्वरूपको लिये हुए जो प्राप्त है वह परमेष्ठी x उल्लेख क्रमशः इस प्रकार है:(परम पदमें स्थित ), परंज्योति (परमातिशय- "मरहिमो कलचत्तो पाणिदिनो केवलो विसुदप्पा। प्राप्त ज्ञाणधारी), विराग (रागादि भावकमरहित), परमेट्ठी परजियो सिवंकरो सासमो सिद्धो ॥६॥" विमल (ज्ञानावरणादि ब्यकर्मवर्जित), कृती (हेयोपादेय
(मोक्सपाहु) सम्व-विवेक-सम्पन्न अथवा कृतकृत्य), सर्वज्ञ (यथावत् '
निखः केवल एडो विविक्तः प्रभुम्यः । देखो, विवेकविलास और जैनतत्वादर्श मादि। परमेकी परास्मेति परमात्मेश्वरो जिनः। (समाधितंत्र)
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किरण]
समन्तभद्र-वचनामृत
[१५३
यहाँ 'अनादिमध्यान्तः पदमें उसकी रप्टिके स्पष्ट 'जा प्राप्तापज्ञ हो-मानके द्वारा प्रथमतः ज्ञात होनेकी जरूरत है। सिरसेनाचार्यने अपनी स्वयंभूस्तुति होकर उपदिष्ट मा हो, अनुल्लंघ्य हो-उल्लंघनीय नामकी द्वात्रिशिकानें भी भातके लिये इस विशेषणका अथवा स्वयहनीय न होकर ग्राम हो, दृष्ट (प्रस्वर) प्रयोग किया है और अन्यत्र भी शुद्धामाके लिये इसका और इष्ट (भनुमानादि-विषयक स्वसम्मत सिद्धान्त) प्रयोग पाया जाता है। उक्त टीकाकारने 'प्रवाहापेक्षा' का विरोधक न हा, प्रत्यज्ञादि प्रमाबोंसे जिसमें कोई भातको अनादिमध्यान्त बतलाया है परन्तु प्रवाहकी अपेक्षा- बाधा न पाती हो और न पूर्वापरका विरोध ही पाया जाता से तो और भी कितनी हो वस्तुएं मादि मध्य तथा अन्तसे हो, तत्त्वोपदेशका कर्ता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपा रहित है तब इस विशेषणसे पास कैसे उपलक्षित होता है प्रतिपादक हो, सबके लिये हितरूप हो और कुमागका यह भले प्रकार स्पष्ट किये जानेके योग्य है। निराकरण करनेवाला हा, उमे शास्त्र-परमार्थ भागम
वीतराग होते हुए प्राप्त भागमेशी (हितोपदेशी) कहते हैं। कैसे हो सकता है अथवा उसके हितोपदेशका क्या कोई व्याख्या-यहाँ पागम-शास्त्रके यह विशेषण दिये म.म-प्रयोजन होता है ? इसका स्पष्टीकरण - गये है, जिनमें प्राप्तीपज्ञ' विशेषण सोपरि मुरुष । अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतोहितम् ।
और इमपातको सूचित करता है कि नागम बामपुरुषले
द्वारा प्रथमतः जात होकर उपदिष्ट होता है। पाप्तपुरुष ध्वनन शिल्पि-कर-स्पान्मुरजः किमपेचते ||८॥ सर्वज्ञ होनेमे पागम विषयका पूर्ण प्रामाणिक ज्ञान रखता ___ 'शास्ता-आप्त विना रागोंके-मोहके परिणाम- है और राग-दूंपादिमापर्ण दोषोंसे रहित होनेके कारण स्वरूप स्नेहादिके वशवर्ती हुए विना अथवा ख्याति-लाभ- उसके द्वारा सत्यता एवं यथार्थताके विरुद्ध कोई प्रबयन पूनादिकी इच्छा मोंके बिना ही-और विना प्रात्मप्रयो- नहीं बन सकता । साथ ही प्रणयनकी शक्तिसे वा मम्पा ज के भव्य-जावोंको हित की शिक्षा देता है। (इसमें होता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर पूर्वकारिका (१)में भापत्ति वा विप्रतिपत्तिकी कोई बात नहीं .) शिल्पीके उसे पागमेशी' कहा गया है-पही अर्थतः भागमक कर- शको णकर शब्द करता हुश्रा मृदंग क्या राग- प्रणयनका अधिकारी होता है। ऐसी स्थिति में यह प्रथम भावोंकी तथा प्रात्मप्रयोजनकी कुछ अपक्षा रखता है। विशेषण ही पर्याप्त हो सकता था और इसी (टिको लेकर नहीं रखता।
अन्यत्र 'भागमा बाप्नवचनम' जैसे वाक्योंकि मा व्याख्या-जिस प्रकार मृदंग शिल्पीके हाथके स्पर्श भागमक स्वरूपका निर्देश किया भी गया है तब यहां पांच रूप बाह्य निमित्तको पाकर शब्द करता है और उस श- विशेषण और साथमें क्या जोदे गए है? यह एकम के करनेमे उसका कोई रागभाव नहीं होना और मअपना पैदा होता है। इसके उत्ताने में इस समय सिर्फ इतना कोई निजी प्रयोजन ही होता है-उसकी वह सब प्रवृत्ति ही कहना चाहता है कि लोक में अनेकोंने अपनेको स्वयं स्वभावतः परोपकारार्थ होनी ई-उसी प्रकार वीतराग अथवा उनके भोंने उन्हें 'प्राप्त' घोषित किया और प्राप्तके हित.पदेश एवं पागम प्रणयनका रहस्य है- उनके भागमगमें परम्पर विरोध पाया जाता है, जक उसमें वैसे किसी रागभाव या प्रारमप्रयोजनकी भावश्य- मत्यार्थ प्राप्ती अथवा निर्दोष मर्वज्ञ के प्रागमा विरोध कता नहीं, वह 'तीर्थंकरप्रकृति' नामकर्मके उदयरूप निमित्त- लिये कोई स्थान नहीं है, अन्यथावादी नहीं होते। इसके को पाकर तथा भव्य जीवोंके पुण्योदय एवं प्रश्नानुरोधके सिवा कितने ही शास्त्र वनको मस्यार्थ प्राप्तोंके नाम पर वश स्वतः प्रवृत्त होता है।
रचे गये हैं और किनने ही सत्य शास्त्रों में बादको ज्ञाताभागे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ 'भागम' का ज्ञानभावमे मिलावरें भी हुई हैं। ऐसी हालतमें किस बरण प्रतिपादन करते हैं
शास्त्र अथवा कथनको प्राप्तीपज्ञ समझा जाय और किमको (भागम-शास्त्र-बचर)
नहीं, यह समस्या खड़ी होती है। उसी समस्याको हल
करने के लिए यहां उत्तरवर्ती पांच विशेषणोंकी योजना हई प्राप्तोपज्ञमनुन्लंध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् ।।
जान पड़ती है। भलोपज्ञकी जाँच साधन है अथवा तत्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।६। यो कहिए कि प्राप्तीपश-विषयको स्पष्ट करनेवाले है
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१५४]
भनेकान्त
[किरण
यह बतलाते हैं कि प्राप्तोपज्ञ वही होता है जो इन विशे- की वह सारी दृष्टि सामने आ जाती है जो उसे श्रद्धाका पोसे विशिष्ट होता है जो शास्त्र इन विशेषणांसे विशिष्ट विषय बनाती है। इन विशेषणोंका क्रम भी महत्वपूर्ण है। नहीं हैं वे प्राप्तोप अथवा भागम कहे जानेके योग्य नहीं सबसे पहले तपस्वी के लिये विषय तृष्णाकी वशवर्तितासे हैं। उदाहरण के लिये शास्त्रका कोई कयन यदि प्रत्यक्षादि- रहित होना परमावश्यक है। जो इन्द्रिय-विषयोंकी तृष्णाके के विरुद्ध जाता है तो समझना चाहिये कि वह प्राप्तापज्ञ जाल : में रहते हैं वे निरारम्भो नहीं हो पाते, जो (निर्दोष एवं सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट ) नहीं है और प्रारम्भोंसे मुम्ब न मोद कर उनमें सदा संलग्न रहते हैं इसलिये आगमके रूपमें मान्य किये जानेके योग्य नहीं। वे अपरिग्रही नहीं बन पाते, और जो अपरिग्रही न बनकर (तपस्वि-लक्षण)
सदा परिग्रहोंकी चिन्ता एवं ममतासे घिरे रहते हैं वे रत्न विषयाशावशातीतो निगरम्भोऽपरिग्रहः।
कहलाने योग्य उत्तम ज्ञान ध्यान एवं तपके स्वामी नहीं
बन सकते अथवा उनकी साधनामें लीन नहीं हो सकते, ज्ञान-ध्यान-तपोरत्न (क्त) स्तपस्वी स प्रशस्यते ।१० और इसतरह वे मत्श्रद्धाके पात्र ही नहीं रहते - उन पर __'जा विषयाशाकी अधीनतासे रहित है-इन्द्रियों- विश्वास करके धर्मका कोई भी अनुष्ठान समीचीनरीतिसे के विषयों में मासक्त नहीं और न पाशा-तृष्णाके चक्करमें अथवा भले प्रकार नहीं किया जा सकता । इन गुणोंसे हो पड़ा हुआ है अथवा विषयोंकी वांछा तकके वशवर्ती नहीं विहीन जो तपस्वी कहलाते हैं वे पत्थरकी उस नौकाके है-निरारम्भ है-कृषि वाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मके समान है जो आप बती हैं और साथमे आश्रितोंको भी व्यापार में प्रवृत्त नहीं होता- अपरिग्रही है-धन-धान्यादि ले डूबती है। बाघ परिग्रह नहीं रखता और न मिथ्यादर्शन, राग-द्वेष,
ध्यान यद्यपि अन्तरंग तपका ही एक भेद है फिर भी मोह तथा काम-क्रोधादिरूप अन्तरंग परिग्रहसे अभिभूत ही
उस अलगसं जो यहां ग्रहण किया गया है वह उसकी होता है-और ज्ञानरत्न-ध्यानरत्न तथा तपरत्नका
प्रधानताको बतलानेके लिये है। इसी तरह स्वाध्याय नामके धारक है अथवा ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहता है
अन्तरंग तपमें ज्ञानका समावेश हो जाता है, उसकी भी सम्यक ज्ञानका पाराधन, प्रशस्त ध्यानका साधन और
प्रधानताको बतलानेके लिये उसका अलगसे निर्देश किया अनशनादि समीचीन तपोंका अनुष्ठान बड़े भनुरागके
गया है। इन दोनोंकी अच्छी साधनाके बिना कोई सस्साधु साथ करता है-वह ( परमार्थ) तपस्वी प्रशंसनीय
श्रमण या परमार्थ तपस्वी बनता ही नहीं-सारी तपहोता है।
स्याका चरम बचय प्रशस्त ध्यान और ज्ञानको साधना व्याख्या-यहां तपम्वीके 'विषयाशावशातीत' आदि
ही होता है। जो चार विशेषण दिये गये हैं वे बड़े ही महत्वको जिये रहै और उनसे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ तपस्वी
-युगवीर
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राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ
लालेख प्राप्त हुलासे जैनियोंका सहा है। साहित्य प्रका
(ले० कस्तरचन्द कासलीवाल एम. ए. जयपुर) भारतके अन्य प्रान्तोंकी तरह राजस्था-की महत्ता करने एवं उसे शीघ्र प्रकाशित करनेका प्रयत्न भी किया जा लोकमें प्रसिद्ध है। वहाँ भारतीय पुरातत्वके साथ जैन- रहा है। साहित्य प्रकाशनकी महती भावश्यकताको समझते पुरातस्त्रकी कमी नहीं है। बदालीसे जैनियोंका सबसे हुये श्री दिगम्बर जैन प्रक्षेत्र के प्रबन्धकांने साहिल्यांद्वारप्राचीन लिनालेख प्राप्त हमा है जो वी. नि. संवत् ८४ का कुछ कार्य अपने हाथमें लिया और इसके अन्तर्गत का है टोंक स्टेटमें अभी हाल ही मे ६ जैन मूर्तियाँ प्राप्त प्राचीन साहित्यके प्रकाशनका कार्य भी प्रारम्भ किया, जो हुई है। जो संवत् १४७०की है अजमेर और जयपुरादिमें ४-५ वर्षोंसे चल रहा है। श्री भामेर शास्त्रभण्डार प्रचुर सामग्री प्राज भी उपलब्धही है राजपूतानेके कलापूर्ण एवं श्री महावीरजीके शास्त्र भण्डारकी प्रन्य-सूची प्रकामन्दिर भी प्रसिद्ध है। उनमें सांगा नेरके संगहोके मंदिरकी शित हो चुकी है तथा अब राजस्थानके प्रायः सभी प्रन्य कल्ला खास तौर से दर्शनीय है। इन सब उल्लेखोंसे राज- भयहारोंकी सूची प्रकाशित करवानेका कार्य चाल है। स्थानका गौरव जैन साहित्यमें उद्दीपित है। राजस्थानके प्रारम्भमे जयपुरके शास्त्रभराडारोंकी सूची प्रकाशनका दि० श्वेताम्बर शास्त्र भण्डार अक्षुण्ण ज्ञानकी निधि है। कार्य हाथमे लिया गया है। अभी तक जयपुरके तीन राजस्थानके उन जैन मन्दिरो एवं उपाश्रयों में स्थित शास्त्र
मन्दिरों में स्थित शास्त्रभण्डारीकी सूची तैयार हुई है तथा भण्डारोमें हजारोंकी तादाद में हस्तलिखित ग्रन्थ विद्यमान
उसे प्रकाशनार्थ प्रेस में भी दे दिया गया है। प्राशा है कि हैं। जैनांके इन ज्ञान भण्डारोमें जैन एवं जनेतर साहित्यके
वह सूची २-३ महिनाके बाद प्रकाशित हो जावेगी। सभी अंगों पर प्रन्यांका संग्रह मिलता है, क्योंकि जैनाचार्यों
___ ग्रन्थ सूची बनानेके अवसर पर मुझे कितने ही ऐसे में साम्प्रदायिकतासे दूर रह कर उत्तम साहित्यके संग्रह
प्रन्थ मिले हैं जिनके विषय में अन्यत्र कहीं भी उल्लेख करनेकी अभिरुचि थी और इसीके फलस्वरूप हमें भाज
तक नहीं मिला, तथा कितने ही ग्रन्थ लेम्बक प्रशस्तियों प्रायः सभी नगरों एवं ग्रामोम शास्त्रभण्डार एवं इनमें
पादिके कारण बहुत ही महत्वपूर्ण जान पड़े हैं इसलिये सभी विषयों पर शास्त्र मिलते हैं। द. जैन साहित्यकी
उन सभी उपलब्ध ग्रन्थाका परिचय देनेके लिये एक छोटी
सी लेग्बमाला प्रारम्भ की जारही है जिसमें उन सभी प्रचुर रचना राजस्थानमें हुई है। जिसके सम्बन्ध में स्वतंत्र
महत्वपूर्ण ग्रन्थोंका सक्षिप्त परिचय दिया जावेगा। भाशा लेख द्वारा परिचय करानेकी आवश्यकता है। राजस्थानके इन भण्डारीमें उपलब्ध ग्रन्याकी कोई ऐमी सूची या
ई पाठक इसम लाभ उठायेंगे । सबसे पहिले अपनश तालिका, जो अपने विषयमे पृण ही अभी तक प्रकाशित
साहित्यको ही लिया जाता है :हुई ही ऐसा देखने में नहीं पाया, जिसमें यह पता चल पउमचरिय ( रामायण ) टिप्पण सके कि अमुक अमुक स्थान पर किम किस विषयका महाकवि स्वयम्भू त्रिभुवनम्वयम्भू कृत पढमचरिय कितना और कैसा साहित्य उपलब्ध है ? जिससे पावश्य- (पचरित्र) अपभ्रंश भाषाकी उपलब्ध रचनाओं में कता होने पर उसका यथेष्ट उपयोग किया जा सके मेरे सबसे प्राचीन एवं उत्तम रचना है। यह एक महाकाव्य है अनुमानसे राजस्थानक केवल दिगम्बर जैन शास्त्रभंडाराम जिसे जैन रामायण कहा जाता है। अपभ्रंश भाषासे ही ५.६०हजारसे अधिक हस्तलिखित गन्य होगे। जिसके संस्कृतमे टिप्पण अथवा टीका इसी महाकाव्य पर बड़े विषयमे अभी तक कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। मन्दिरके शास्त्रभण्डामें उपलब्ध हुई है। पउमचरिय पर श्वेताम्बरीय ज्ञान भण्डारीको सूचियां बन गई है राज- मिलने वाले इस टिप्पण ग्रन्थका अभी किमी भी विद्वान्ने स्थानीय पत्रिका , उनमेंसे अधिकांशका परिचय भी निकल शायद ही कहीं उन्लेख किया हो, इसलिए यह टीका चुका है राजस्थानके इन भएड रामे स्थित ग्रन्थों की सूची, सर्वथा एक नवीन खोज है। बढ़ी आवश्यक है जिसकी कमीका बहुत वर्षोंसे अनुभव पउमचरिय पर यह टिप्पण किस विद्वान अथवा किया जा रहा है। दिगम्बर विद्वानों द्वारा सूची तैयार प्राचार्यने लिखा है इसके सम्बन्धमें इस टिप्पणमें कहीं
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१५६ ]
अनेकान्त
[किरण कोई उल्लेख नहीं मिलता। किन्त यह प्रति बहुत प्राचीन पादा पर्वते । वरसत्तर उत्तमच । मेरउ कारनाम। है इसलिये इसका टीकाकार भी कोई प्राचीन भावार्य इति रामायणे नवति संधिः समासः। एवं विद्वान् होना चाहिए ऐसा अनुमाव किया जा सकता
गेमिणाह चरिउ (कवि दामोदर) है टीकाकारने पउमचरिवमेंसे अपशके कठिन शब्दोंको
यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रचा गया है इसके कर्ता लेकर उनकी संस्कृत भाषामें टीका अथवा पर्यायवाची
महाकवि दामोदर है। यह ग्रंथ प्राप्ति भी जयपुरके बड़े शम्म लिख दिये हैं। टीका विशेष विस्तृन नहीं। उम
मन्दिरजीके शास्त्रभंडार में उपलब्ध हुई है। इसकी चरियकी १० सम्धियोंकी टीका देव पत्रोंमें ही समान
रचना महामुनि कमल भद्रके सम्मुख एवं पंडित रामचंद्रके कर दी गई है।
पाशीर्वादसे समाप्त हुई थी ऐसा प्रन्थ प्रतिक पुष्पिका प्रति बहुत प्राचीन है तथा वर अत्यधिक जीर्ण हो वाक्यसे स्पष्ट है । प्रति अपूर्ण है था जीर्ण अवस्थामें है। चुकी है इसलिए इसकी प्रतिलिपि होना आवश्यक है। रचनाकानके विषयमें इससे कोई सहायता नहीं मिलती। इसके बीचके कितने हो पत्र फट गये हैं तथा शेष पत्र भी यद्यपि यह थ कमसे कम ४-५संधियाम विभक्त होगा उसी अवस्थामें होते जा रहे हैं। यह प्रति शास्त्रभरद्वार- लेकिन उपलब्ध प्रतिके कडवकोंकी संख्या संधिके अनुसार न की बोरियों में बंधे हुये तथा बेकार समझे जाने वाले स्फुट चलकर एक साथ चलती है। ४५ पर११७कडधक हैं। ऋटित एवं जीर्ण-शीर्थ पत्रों में बिखरी हुई थी। तथा इन इस प्रतिमें तीन संधियां प्राप्त है चूंकि ग्रंथ प्रति अपूर्ण है पत्रोंको देखनेके समय यह प्रति मिली थी। यह टीका इसलिए ग्रंथ में अन्य संधियाँ भी होनी चाहिए । प्रथम संधिमें पउमचरियके सम्पादनके समय बहुत उपयोगी सिद्ध होगी मुख्यतानेमिनाथ स्वामीकी जन्मोपत्ति, द्वितीय संधिमें जरासंध ऐसा मेरा अनुमान है।
और कृष्णका संग्राम तथा तृतीय संधिमें भगवान् नेमिनाथटिप्पणकारने टीका प्रारम्भ करनेके पूर्व निम्न प्रकार के विवाहका वर्णन दिया हुना है। इस प्रकार ग्रंथमें दो मंगलाचरण किया है
संधियों और होंगी जिनमें नेमिनाथ स्वामीके वैराग्य एवं स्वयंभुवं महावीरं प्रणिपत्य जगद्गुरूं।
मोर गमन भादिका वर्णन होगा। प्रथम संधिकी समाप्ति रामायणस्य वयामि टिप्पणं मातशक्तितः ॥
पुष्पिका इस प्रकार है-इह मिशाहचरिए महामुण
कम्बनमा परक्खे महाकइ कणिट्ट दामोयर विरहए पौडय इस संस्कृत टिप्पणका एक उदाहरण देखिये
रामचंद्राएसिए महसु अवगाएउ आयंरिणए बम्मुपत्ति नृतीय मंबिका प्रथम कहवक
णामा पढमो संधि परिच्छेनो सम्मत्तो। गयसंतो-गतश्रमो अथवा गते ज्ञाने खांतमनो यस्य स ग्रंथतिका शेष भाग अन्वेषणीय है। यह संभवतः गत खांतः । महु मधूकः । माहवी अति मुक्तकलता । कुर- पत्र टूट जाने या दीमक प्राधिके द्वारा खण्डित हुआ है। गेहिं केदारैः। प्रसस्थो पिप्पलः। खजूरि-
पिखजूरी।मालूर। अतः इसकी दूसरी प्रतिके लिये अन्वेषण करनेकी बड़ी कपित्या सिरि विल्व । भूय विभीतकः । अवरहिमि जाईहि- जरूरत है। अपर पुष्प जाति । वणवणियहिं वनस्त्रियः । मोरर
बारहखड़ी दोहा पिच्छ छत्रं ॥॥
अपभ्रंश भाषामें बारहखडीके रूपमें प्राध्यात्मिक एवं अन्तिम सन्धि
सुभाषित दोहोकी रचना है। दोहे अच्छे एवं पठनीय जान जए जगति । मेहलियए भार्यया। गिरणासिय सिय पाते हैं। इस ग्रंथके कर्ता महाचंद कवि हैं। पाप कब और बचमी नि शितः । दुइमुणिपतिनामा मुनि बिवहालय कहाँ हुये, इसका रचनामें कोई उल्लेख नहीं मिलता समूहस्थानः । पब मेषसिंहः। हरिमांइक । महलह महत् लेकिन इतना अवश्य है कि कवि संवत् के पूर्ववर्ती पुषा । सटिसयतणु क्रोशत्रय-शरीर प्रमाणं। हरि- हैं क्योंकि बड़े मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें उपलब्ध प्रति खिसे भोगभूमि सुरपुरिहि हो संति इन्द्र भविष्यति। इसी समयकी है। प्रति पूर्ण है एवं दोहोंकी संख्या बामें इन्दराभोजरथ नामनी । सुमणु देवः पायमोहय ३३५ है।
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किरण ५
राजस्थानके जेन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध महत्वपूर्ण प्रन्थ
[ १५७
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यह प्रति संवत १५६१ पौष सुदी १३ हस्पतवारकी जो प्रन्य-सूची भाजकल तैयार की जा रही है उसके लिखी हुई है। श्री चाहड सौगाणीने कर्मक्षय निमित्त सम्बन्धमे मुझे नागौर जाकर ग्रन्थ भण्डार एवं सूचीके इसकी प्रतिलिपि की थी। महारक परम्परामें लिपिकारने कार्य को देखनका सुअवसर मिला था। उसी समय यह महाक जनधन्द्र एवं उनके शिष्य रत्नकोनिका उल्लेख रचना भी देखने में प्रायी। किया है।
शातिनाथचरित्रके रचयिता श्री शुभकीर्ति देव हैं। कविने निम्न दोइसे बारहवडी प्रारम्भ की ई
कविने अपने नामके पूर्व उभय भाषा चक्काटि भर्थात्
उभयभाषा चकवति यह विशेषण लगाया है इसलिये सम्भव बारह विउया जिण यावम्मि किय वारहम्बरकाकु ।
है कि शुभकीति संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषाके विद्वान महियंदण भविययण ही णिसुण हु थिरु मणु लक्कु ॥
हो। इन्होने अपनी रचनाको महाकाव्य लिखा है। और भव दुबह निविषणएण 'वीरचन्द' सिस्संण ।
बहुत कुछ अंशामें यह सत्य भी जानपड़ता है। शांतिनाथभवियह पडिबोहण कथा दोहा कक्कमिसंण ॥
चरित्र की रचना रूपचन्दके अनुरोध पर की गयी है जैसा एकजु श्राखरूसार दुइज जगा तिगिण वि मिक्लि ।
कि कविके निम्न उल्लेख स्पष्ट है।। चउवीसग्गल तिरिणसय विरहए दोहा विल्लि ॥
इस महाकाव्यमे १६ संधियां हैं जिनमें शांतिनाथके सो दोहउ अप्पाणयहु दाहा जाण मुणेइ ।
जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रथम और मगि महयंदिण भामियउ सुणि णिय चित्त धरेइ ॥
अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार हैअब बारहम्पटीके कुछ दोहे पाठकोके अलोकनार्थ प्रथम संधिउपस्थित किये जाते है जिसम्म व रचनाकी भाषा. शनीय उभयभासा चक्कट सिरि सुकित्तिदेव विरहए एवं उसमे वर्णित विषयके सम्बन्ध में कुछ अधिक जान- महाभब्य मिरिरुवचंद्र मारणए महाकम्वे सिरि विजय कारी प्राप्त कर सकें
बंभणी णाम पढमा संधि सम्मत्तो कायहो सारउ पुय जिय पंचमहाणु वयाइ ।
अन्तिम संधि
इाय उभयभाषा चक्कट सिरि सुहकित्तिदेव विरहए अलिउ कलेवर भार तहुर्जाह ण रियइ ताइ॥
महाभ द सिरिरुवचंद मरियाग महाकवे सिरि सांतिणाहखणि म्बणि खिज्जइ श्रावतसु णियडउ हाई कयंतु ।
चचक्काउह कुमार शिवाण गमणं णाम इगुणीसमो
संधि समतो। तहि वण थक्का माहियउ मे मे जीउ भणंतु ॥
नागौर शास्त्र भण्डारकी यह प्रति सम्बत् १५५॥ गीलइ गुडि जिम माछाह पासि पडि वि मरंति ।
ज्येष्ठ सुदी १० बुधवारकी लिग्बी हुई है। इसकी प्रति निम भुवि महदिण कहिय जे तिय संगु करीत ॥
विपि महरक जिनचन्द्र देवके शिष्य ब. धीरु तथा प्रम लालाने अपने पढ़ने के लिये करवायी थी प्रतिपूर्ण
और मामान्य अवस्था में है। तं कि दे कि गुरूणा धम्मण य कि तेण । अप्पाए चिर हरिणम्मलउ पंचर होहण जण ॥
यागसार ( श्रनकीर्ति)
मे परियणु मे धण्णु धणु मे सुव मे दाराई।
___ भ० श्रुतकनिकी नीन रचनायोका-धर्मपरीक्षा, हरि
वंशपुराण और परम प्ठप्राशसार का-दाहारला जी इउ चितंतह जीव तुहु गय भव-कोडिमयाई ॥
जन श्री. नागपुर विश्वविद्यालयन अनेकान्त वर्ष " सांतिणाहचारउ (शुभकार्ति) किरण • में उलिब किया था। यंगसार' के सम्बन्धमें
डाक्टर माहबने कोई उल्लेख नहीं किया, इसलिए यह उक्त रचना नागौर (राजस्थान) के प्रसिद्ध भट्टारकीय श्रुतकति की चौथी रचना है जिसका हम अभी अभी शास्त्र भंडारमें उपलब्ध हुई है। नागौर शाम्ब भंडारकी पोरचय मिला ह यह रचना नई है।
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अनेकान्त
[किरण
- रचनाका नाम योगशास्त्र है। इसमें दो सन्धियाँ है। कविने अपनी तीन अन्य रचनाओंका उल्लेख किया है। प्रथम सन्धि ६१ कडवक और द्वितीय सन्धिमें ७२ का- अन्ध प्रशस्तिसे हमें निम्न बातोंकाशन होता हैवक है इस प्रकार यह काम्य १३६ करवकमें समाप्त होता (1) श्रतकीर्ति भ. देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य एवं त्रिभुहै। रचनाकी केवल एक ही प्रति बड़े मन्दिरमें मिली है। वन कीर्तिके शिष्य थे। इसके १७ पत्र हैं। प्रतिका अन्तिम पत्र जिस पर ग्रंथ (२)शतकीतिक योगशास्त्रकी रचना जेरहट नगग्में प्रशस्ति वाला भाग जीर्ण होकर फट गया है इससे सबसे
नेमिनाथ स्वामीके मन्दिरमें सं० १५...."मंगसिर सुदी बड़ी हानि तो यह हुई कि रचनाकाल वाजा अंश भी कहीं। फटकर गिर गया है।
के दिन समाप्त हुई थी।
शास्त्र भण्डारमें प्राप्त योगशास्त्रकी प्रतिलिपि सं. अन्यमें योगधर्मका वर्णन किया गया है मंगलाचरणके १५५२ माघ सुदो १ सोमवारकी लिखी हुई है। लेखक पश्चात् ही कविने योगकी प्रशंसा खिखा है। कि योग प्रशस्तिके माधार पर यह शंका उत्पन्न होती है कि जब ही भव्य जीवोंको भवोदधिसे पार करने के लिए एक मात्र हरिवंशपुराणकी रचना संवत् १९५२ माघ कृष्णा ५ एनं सहारा है।
परमेष्ठिप्रकाशमारकी संवत् १९५३ श्रावण सुदी के सम्वह धम्म-जोउ जगिसारउ, जो भन्वयण भवोवहितारउ दिन समाप्त की थी तो योगशास्त्रकी रचना इससे पूर्व कैसे प्राणायाम भादि क्रियाका वर्णन करनेके पश्चात् समाप्त हो सकती है, क्योंकि प्रशस्तिमें दोनों रचनामोंका कविने योगावस्थामें लोकका चिन्तन करनेके लिये कहा है नामोल्लेख मिलता है जिससे यह झ कता है कि दोनों
और अपनी इस रचनाके ५० से अधिक कडवकोंमे वीन रचनायें इस रचनासे पूर्व ही हो गयी थी। यह प्रश्न लोकोंके स्वरूपका वर्णन किया है।
अवश्य विचारणीय है। मेरी दृष्टि से तो यह सम्भव है कि दूसरी सन्धिमें धर्मका वर्णन किया गया है। इसमें श्रुतकीनिने योगशास्त्रको प्रारम्भ करनेसे पूर्व हरिवंश षोडशकारणभावना, दस धर्म, चौदह मार्गणा तथा १४ पुराण तथा परमेष्ठिप्रकाशसारकी रचना प्रारम्भ कर दी गुणस्थानोंका वर्णन है। ६०वें करवकसे आगे कविने ही और वह योगशास्त्रके समाप्त होनेके पश्चात समाप्त भगवान महावीरके पश्चात् होने वाले केवली श्रुतकवली हुई हो । योगशास्त्रम तो केवल इसी आधार पर दोनों भादिके नामोंका उल्लेख किया है इसके पश्चात् भगवाह रचनाओंका उल्लेख कर दिया गया हो; क्योंकि ये रचनायें स्वामीका दक्षिण विहार श्वेताम्बर सम्पदायकी उत्पत्ति योगशास्रके प्रारम्भ होने के पूर्व प्रारम्भ कर दी गई थीं।
आदि पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। कुन्दकुन्द- इस प्रकार अब तक प्राप्त ग्रंथ के प्राचार पर यह कहा जा भूतबनि पुष्पदंत, मिचन्द्र उमास्वामि,-वसुनन्दि, सकता है कि श्रुतिकीर्तिने अपने जीवनकाल में धर्मपरीक्षा, जिनसेन, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र आदि प्राचार्योंका नाम हरिवंशपुराण, परमेष्ठिप्रकाशसार तथा योगशास्त्र हुन उनकी रचनाओंके नामों सहित उल्लेखित किया है। यही चारों प्रन्योंकी रचना की थी। नहीं किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायक उत्पन्न होनेके पश्चात् दिगम्बर प्राचार्याने किस प्रकार दिन रात परिश्रम करके योगसारके साठसे प्रागेके वे सब कडवक, जो सिद्धान्त प्रन्योंकी रचना की तथा किस प्रकार विग बर
ऐतिहासिक बातोंसे सम्बन्धित हैं उन्हें शीघ्र प्रकट समाज चार संघोंमें विभाजित हुया आदिका भी करिने
होना चाहिए। उल्लेख किया है। इस प्रकार ६० से प्रागेके कडवक
सम्पादकऐतहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।।।
श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्रीमहावीरजीके अनुसन्धान योगशास्त्रकी अन्य प्रशस्ति भी महत्वपूर्ण है । इसमें विभागकी और से ।
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हिन्दी-जैन-साहित्यकी विशेषता
[ श्रीकुमारी किरणबाला जैन ] साहित्य मानव जातिके स्थूल और सूक्ष्म विचारो प्रन्यों पर टीकाएँ लिखी और प्रमाण संग्रह-सिद्धिविनिश्चय, और अनुभवोंका सुरम्य शाब्दिक रूप है। वह जीवित न्यायविनिश्चर्यावरण और लघीयस्त्रय जैसे कर्कश तर्क और चिर उपयोगी है। वह मानव-जातिके प्रारम-विकास- प्रन्योको उनक स्वोपक्ष भाष्योंके साथ बनाया । जो भाज में सहायक है।
भी उनकी प्रकाण्ड प्रतिभाके संघोतक हैं । मध्ययुगमें यद्यपि साहित्यमें कोई सासदायिक सीमायें नहीं हैं न्याय शास्त्र पर विशेष रूपसे कार्य किया गया है, जो तथापि विभिल जातियाँ और साम्प्रदायोंने साहित्यका जो 'मध्यकालीन न्यायदर्शनके नामसे प्रासद है। यह केवल रूप अपनाया है उसीके माधार पर साहित्योंको जैन, जैन और कौर नैयायिकों' का ही कर्तव्य था। बौद्ध अथवा वैष्णव साहित्यके नामसे पुकारा गया है। वेदियन और कर्नाटक भाषामें ही जैन साहित्य पर्याप्त प्रत्येक साहित्यकी कुछ अपनी विशेषतायें हैं और जैन- मात्रा में उपलब्ध होता है। कर्नाटक भाषाके 'चामुण्डराय' साहित्यकी भी अपनी विशेषता है।
पुराण नामक गद्य प्रन्यके लेखक वीर चामुण्डराय जैन-साहित्य व्यक्तिको स्वयं उसके भाग्यका निर्णय जैन ही थे जो राचमल्ल तृतीयके मन्त्री और प्रधान करने में सहायक है। उसका सन्देश स्वतन्त्र रहनेका ई सेनापति थे । प्रादिपंप, कवि चक्रवर्ती रन्न, अभिनव पंप परमुखापेक्षी और परावलम्बी बननेका नहीं है। मैन- भादि उच्च कोटि के जैनाचार्य होगये है। कनादी भाषासाहित्यके अनुसार प्राणी कार्य करने और उसका फल का जैन साहित्य प्रायः सभी विषयों पर लिखा गया है। भोगने में भी स्वतन्त्र है। जैनधर्मका मुख्य सिद्धान्त है- इसी तरह तामिल और तेलगू भाषामें जैनाचार्योंने अनेक स्वयं जिनो और दूसरोंको जीने दो।
महत्वपूर्ण प्रन्थ लिखे हैं। तामिल भाषाके जन्मदाता जैन प्रारम्भमें जैन-साहित्यमे धामिक प्रवृत्तिको प्रधानता ही कहे जाते हैं। थी। परन्तु समयके परिवर्तनसे उसने न केवल धार्मिक जेन-साहित्य में ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित्र वर्णनकी विभागमें ही उन्नति की वरन प्रम्य विभागोंमें भी पाश्चर्य- भी विशेष पद्धति रही है। 'रिडणेमिचरिउ' 'पउमचरिय' जनक उमति की । न्याय और अध्यात्मविद्याके विभागमें आदि ग्रन्याके नाम उल्लेखनीय हैं। रिटमिचरित' में इस साहित्यने बड़े ही ऊँचे विकास-क्रमको धारण किया। कौरव पाडवोंका वर्णन है और पउमचरियमें श्रीरामचन्द्रविक्रमकी प्रथम शताब्दीके प्रकाण्ड विद्धन प्राचार्य कुन्द- जीका वर्णन है। इस प्रकार यह दोनों प्रन्थ क्रमशः 'जैन कुन्द जो अध्यात्मशास्त्रके महाविद्वान थे और द्वितीय महाभारत' और 'जैन रामायब' कहे जा सकते हैं। चरित्र. शताब्दीके दर्शनाचार्य भारतीय गगन मण्डलके यशस्वी ग्रन्थों में जटासिंहनन्दि वरचित 'परांग चरित्र' एक सुन्दर चन्द्र प्राचार्य समन्तभदने भनेक दार्शनिक स्तुति-प्रन्यांकी काम्य ग्रन्थ है। 'वसुदेवहिण्डी' भी प्राकृत भाषाका एक रचना की, जो रचनाएँ संस्कृत साहित्य में बेजोड़ और दार्श- सुन्दर पुराण है। वादीभसिंह प्रणीत 'पत्रचूड़ामणि' -निक साहित्यमें मुख्य रस्नके रूप में ख्यातिको प्राप्त हुई। नामका ग्रन्थ भी अपना विशेष महत्व रखता है। लेखकने इसके बाद अनुमसे अनेक प्राचार्य महान ग्रन्थकारके इसमें जिस पात्रका वर्णन किया है वह महावीर कालीन रूपमें प्रसिद्धिको प्राप्त होते गए अनेक सूत्रकार, वादी है। मनुष्टुप् छन्दोंमें अर्ध भागमें चरित्र और शेष अर्ध
और अध्यात्म विद्याके मर्मज्ञ विद्वानोंने भारतमें जन्म भागमें विशद नीतिका वर्णन है। लिया, ईसाकी छठी और विक्रमकी वीं शताब्दी व्याकरण-साहित्य में देवनन्दि कृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' अकलंकदेव जैसे मैयायिक इस भारत भूमि पर अधिक नहीं 'मिद्ध हेमशब्दानुशासन' अत्यन्त उच्च कोटिके प्रन्य है। हुये । अकलंकदेव बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिके समान ही पाखिनीयकी 'अष्टाध्यायी' में जिस प्रकार सास अध्याय प्रतिभा सम्पन ग्रन्थकार और रीकाकार थे। इन्होंने केवल संस्कृत भाषाके और एक अध्याय वैविक प्रक्रियाका है जैन साहित्य में ही नहीं, परन्तु भारतीय साहित्यमें न्याय उसी प्रकार हेमचन्द्राचार्यजी ने सात अध्याय संस्कृत
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भनेकान्त
[किरण ५
भाषामें और एक प्राकृत भाषामे रचा था। जैमेन्द्र महा- लाक्षणक-ग्रंथों में हेमचन्द्राचार्यकृत 'काम्यानुशासन' वृत्ति 'जेनेन्द्र प्रक्रिया', 'कातन्त्र रूपमाला' और 'शाकटा- उल्लेखनीय है। कथा साहित्यमे प्राचार्य हरिषेणविरचित पन व्याकरण' मादि सुन्दर व्याकरण ग्रन्थ है। शाकटायन 'कथाकोष' अत्यन्त प्राचीन है। 'भाराधनाकथाकोष' म्याकरण पाणिनीसे पूर्वका है। पाणिनीनं अपने व्याकरण- 'पुण्याश्रव कथाकोष' उद्योतन सूरि विरचित 'कुवलयमाला' में शकटायनके सूत्रका स्वयं उल्लेख किया है।
हरिभद्र कृत, समराच्य कहा, और पादलिप्तसूरिकृत अलंकारमे 'अलंकार चिन्तामणि' और वागभट्ट कृत 'तरंगवती कहा' आदि सुन्दर कथा प्रन्य हैं। कुवलय. 'बागमहालंकार' है। कोषों में 'अभिधान चिन्तामणि', माला, प्राकृत भाषाका उच्च कोटिका ग्रन्थ है। प्रस्तुत 'भनेकार्थ संग्रह', नाममाजा', 'निघंटशेष', 'अभिधान प्रन्थका जैन-स हिस्य में वही स्थान है. जो स्थान भारराजेन्द्र', 'पाइयसहमहराणव' तथा 'विश्वलोचन-कोष' तीय साहित्यमें उपमितिभवप्रपंच कथा' का है। मादिनुपम प्रन्य है। पाद-पति काव्योंकी रचना भी
प्रबन्धोंमें चन्द्रप्रभसूरिकृत प्रभावकारित, मेरुतुंगजैन-साहित्यकी प्रमुख विशेषता है।
कृत, प्रबन्ध चिन्तामणी, राजशेग्वकृत, प्रवन्धकोष, तथा
जिनप्रभ सूरिकृत विविधतीर्थकल्ल, दष्टव्य है। जैन-साहित्यमें स्तोत्रोंकी भी रचना की गई । महाकवि धनंजय विरचित 'विषापहारस्तोत्र और कुमुदचद्रप्रणीत'
विशेषत. जैन-साहित्य दो भागोंमें विभक्त किया जा
सकता है-लौकिक और धार्मिक साहित्य । लौकिकसे कल्याणमन्दिरस्तोत्र आदि ग्रन्थ साहित्यकी दृष्टि से उच्च
सात्पर्य उस साहित्यसे है जिसमें साम्प्रदायिकता बन्धनोंसे कोटिके हैं।
स्वतंत्र होकर ग्रन्थ रचना की जाती है । धार्मिक साहित्य जैन-साहित्यमें चम्पू कायोंकी भी प्रधानता रही।
वह है जिसमें इस लोकके अतिरिक्त परलोककी और भी यह जैन साहित्यकी एक प्रमुख विशेषता है । जेना- संकेत रहता है। चार्योंने इस क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया है। सोमदेवकृत
जैन साहित्यमें ऐसे अनेक ग्रन्थ है जिन्हें देखकर 'पस्तिलकचम्पू', 'हरिचन्द विरचित', 'जावधंरचम्पू'
सरलतापूर्वक कोई जैनाचार्योंकी कृति नहीं कह सकता है। 'अहहास प्रणोत' 'पुरुदेवचम्पू' आदि ग्रन्थ संस्कृत भाषा
सोमदेव-कृत 'नीतिवाक्यामृत' इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सुन्दर ग्रन्थ हैं।
यह एक 'नीतिविषयक ग्रन्थ' है। इसमें एक अध्याय अर्थसैद्धान्तिक तथा नीतिविषयक अन्धा निम्नांकित शास्त्रका भी है। दूसरा ग्रन्थ है 'दोहापाहुब'। यह रहग्रन्थोंकी प्रधानता रही
म्यवादका एक सुन-र अपभ्रशभाषाका ग्रन्थ है। पटखण्डागम, कषायपाहुब, 'तत्वार्थमूत्र , 'सर्वार्थ- गणित ज्योतिपमें भी जैन साहित्य पर्याप्त मात्रामें सिद्धि', 'राजवार्तिक , 'गोम्मटसार' 'प्रवचनसार' उपलब्ध होता है। उसमें जैनाचार्योन अनेक अनोखे 'पंचास्तिकाय',यादि सैद्धान्तिक प्रन्य हैं, तथा अमितगांत नियमों द्वारा ज्योतिष विभागका सम्पन्न किया है। कृत 'सुभाषित रस्नदोह', पानन्दिप्राचार्य कृत 'पद्मनन्दि इसके लिये 'तिलोयपरगती', 'त्रिलोकमार', 'जंबूदीव पंचविशीतका' और महाराज अमोघवर्षकृत 'प्रश्नोत्तर पणत्ती', 'मूर्यपण्णत्ती', आदि उच्च को टके ग्रंथ रत्नमाला' आदि नीतिविषयक ग्रन्थ है।
है। महावीराचार्य द्वारा रचित 'गणिनमारसंग्रह' भी अपने पच प्रन्योंके साथ साथ जैन साहित्यमें गद्य ग्रन्थोंकी समयकी एक अपूर्व कृति है। यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है। भो प्रधानता रही। बादामसिंहकृत 'गचितामण' और गणित विषय की १-२ उपयोगिता पर दृष्टि डालते हुए धनपालकत 'तिलकमंजरी' जैसे उच्च काटिके गय ग्रन्थ जैन गणत साहित्य पर प्रोफेसर दत्तमहाशयके संस्कृत भाषामें रचे गये।
विचार निम्नलिखित है। नाटकों में 'मदनपराजय', 'ज्ञानसूर्योदय' विक्रान्त- "What is more important for the कौरव, मैथली कल्याण. अंजनापवनंजय. नजोवलाय, general history of mathematics certain राघवाम्युदय, निर्भयन्यायोग, और हरिमर्दन मादि methods of findingsolutions of raitional इस्लेख योग्य है।
triangles, the credit for the discovery
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किरण ५]
हिन्दी-जैन-साहित्यकी विशेषता
[१६१
श्री महावीराचायने अपने 'गणितसार' संग्रहम बतलाया और कल्प इन दस भेदो द्वारा समस्त व्यवहारिक प्राव
श्यकताओंकी पूर्ति के लिये जैनाचार्योंने प्रयत्न किया है। 'लौकिकै दिकै श्चापि तथा सामायिकऽपि यः। जैन गणितमें नदीका विस्तार, पहाड़की ऊंचाई त्रिकाण, व्यापास्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपजायते ।। चौकोन क्षेत्रोंके परिमाण इत्यादि भनेक व्यवहारिक बातोंका कामतन्त्रर्थशास्त्रे च गांधर्वे नाटकऽपि वा।
गणित और त्रिकोणमितिके सिद्धान्तों द्वारा पता चलता सूपशास्त्र तथा वैद्य वास्तुविद्यादिवस्तुषु ।। है। इस प्रकार समस्त जैन ज्योतिष व्यवहारिकतासे परिसूयादिग्रहचारेषु ग्रहणे प्रहसंयुते । त्रिप्रश्ने चन्द्रवृत्तौ च मर्वत्रांगा कृतं हि नत (?)॥ जैनाचार्योने फलित ज्योतिष ग्रन्थकी भी रचना बहु भर्विलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे । की। "रिष्टसमुच्यय', 'केवलज्ञानप्रश्नचुदाण' ज्योतिष यात्कञ्चिद्वस्तु तत्सर्व गणितेन विना नहि ॥ शास्त्रके अपूर्व ग्रन्थ है। जैन ज्योतिषकी व्यवहारिकता
इससे स्पष्ट है कि गणितका व्यवहारिक रूप प्रायः वणित करते हुये श्रीनेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्यजी कहते है समस्त भारतीय वाङमयमें व्याप्त है। एसा कोई भी कि 'इतिहास एवं विकासक्रमको दृष्टिस जैनज्योतिषकाशास्त्र नहीं जिसकी उपयोगिता गणित, राशि-गणित, जितना महत्व है उससे कहीं अधिक महत्व व्यवहारिक कलासर्वगणित, जाव-ताव गणित, वर्ग धन, वर्ग-वर्ग दृष्टिसे भी है। जैन ज्योतिषके रचियता प्राचार्योंने
भारतीय ज्योतिषको अनेक समस्याओंको बड़ी ही of which should very nightly go to Ma
सरलतासे सुलझाया ई२ । havir are attubuted by modern hustorians, by inistake to writers posterious
प्राकृत भाषा अपने सम्पूर्ण मधुमय सौंदर्यको निये to him".
हुये जैन-साहित्य में प्रयुक्त हुई। यदि कहा जाय कि प्राकृत
का मागधीरूप और उसके पश्चात् अपभ्रंश प्रारम्भसं ही Bullition Cal. Math. Sec. XXI P. 116.
जैनाचार्यों की भाषा रहो तो प्रत्युक्ति न होगी। २ इसी प्रकार डाक्टर हीरालाल कापडियाने भार
बैन कवियान केवल एक ही भाषाका श्राश्रय न लेकर तीय गणितशास्त्र पर विचार करते हुए 'गणितिलक' की
विभिन्न भाषाभांम भी माहिन्य रवनायकी। तामिल भाषाभूमिका में लिखा है
का 'कुरल-काव्य' और 'नालदियर' जैन साहित्यके दो "In this connection it may be added स्वपूण ग्रन्थ है । इनमें साम्प्रदायिकताका निकभी अंश that the Indians in general and the नहीं है। हम प्रथका देखकर कोई इमं जन कविकी कृति Jains in particular havo not been beh- नहीं कह सकता। तामिल भापाके उच्च कोटि के तान und any nation in paimng due attention महाकाव्य नाचार्यों द्वारा ही रचे गये-चिन्तामणि' tos subject. This is beine out by सिलप्याडकारम' और 'वलं तापति'। Ganita Sara Sangrah V.1.15) of Mahavi
कन्नड साहित्य भी जैनाचायों द्वारा रचित उपलब्ध racharya (650 A.D.) ol the Southern
हाता है। वीं शनाब्दी तक कन्नड़ भाषामे जितना School of Mathematics. There in the
साहित्य उपलब्ध होता है वह अधिकांश मात्रामे जैनाचार्यो points out the usr-fulness of Mathe
द्वारा रचित ही है 'पंप भारत' और 'शब्दमणिदर्पण' आदि matics or 'the Science of Cal-culation'
उच्च कोटिके ग्रंथ है। regarding the study of various subjects like music, logie,drama, medicine, • श्रीमहावीरस्मृति ग्रन्थ
पृ. २०२ architecture, cookery, prosody, Gram- २ श्रीमहावीरस्मृति ग्रन्थ पृ. १८६ mare poetics, economics, erotics etc.". ३ तामिन और कन्नड साहित्यकी विशेषता र
प्रमी अभिनन्दन ग्रंथ पृ.१७३. करते हुये श्री रमास्वामी प्रायंगर कहते है।
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१६२]
अनेकान्त
किरण ५
'कर्नाटक कविचरित' के मूल लेखक भार नरसिंघा भले ही पड़ गई हो लेकिन अभी तक अपेक्षाकृत निर्दोष चार्य जैन कवियोंके सम्बन्धमें अपने उद्गार प्रकट करते पाई जाती है। निर्दिष्ट समयके हमारे हिन्दी जैन लेखका हए कहते हैं-'जैनी ही कन्नड भाषाके आदि कवि हैं। तथा कवियों ने भी उक्त धारणाका पूर्णरूपसे अपनाया है अाज तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियां जैन और कुछ भी लिखते समय उन्होंने इस बातका पूरा कवियोंकी ही है। प्राचीन जैन कवि हो कम्नड भाषाके ध्यान रखा है कि परम्परागत सिद्धांतोंका कहीं विरोध न सौन्दर्य एवं कान्तिके विशेषतया कारण हैं। पंप, रस, और
हो जाय । लिखा सबवे उन सिद्धांतोंको अपनी भाषा पोन्नको महा कवियोंमें गणना करना उचित ही है। अन्य
शैली में ही है। उनकी भाषामें उक्ति वैचित्र्य भले ही हो, कवियोंने भी १४वीं शताब्दीके अन्त तक सर्वश्लाध्य
बात करनेका ढंग निराला भले ही हो लेकिन सिद्धांत वही । चंपू काव्योंकी रचना की है। कानद भाषाके सहायक छंद, रहेगा। अलंकार, व्याकरण, कोष मादि अन्य अधिकतया जैनियांके
हिन्दी जैन-साहित्यमें पारमचरित्रको रचनाकी गई जो द्वारा ही रचित हैं।।
इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है। आजस लगभग ३०० वर्ष निबन्धके पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अन्य जैन-साहित्य- पूर्व जब कि प्रात्मचरित्र लिखनेकी परिपाटी प्रचलित नहीं का इतना परिचय देनेकी आवश्यकता केवल इसीलिये भी
थी ऐसे समयमें ६७५ दोहे और चौपाइयोन कविवर बनापदी कि जैनाचार्यों और लेखकोंकी यह बदतर भावना रही
रमीदासजीने अपने ५५ वर्षका प्रात्मचरित्र लिखा। इसमें कि प्राचीन प्राचार्योक सिद्धांतोंसे बिल्कुल विचलित न वह संजीवनी शक्ति विद्यमान हैं जो इसकी सदेव जीवित हमा जाय । जैनाचार्य और जैन लेखक परम्परागत
रख सकती है। यह अपने समयकी अनेक ऐतहासिक सिद्धांतोंको पूर्ण प्रामाणिक और समादरकी शिसे देखते घटनामोंसे प्रोत-प्रोत है। मुसलमानी राज्यके कठोर प्राये हैं। यही कारण है कि जैन-साहित्यकी धारा छोटी व्यवहारोंका इसमें यथातथ्य चित्रण है। सत्यप्रियता और
"The Jain contribution to Tamil स्पष्टवादिताके इसमें सुन्दर दृष्टान्त मिलते हैं। literature form the must precious pos- हिन्दी जैन साहित्यमे पंचतंत्राख्यानटीका और सिंघाSessions of the Tamilians. The largest सन बत्तीसी आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। नारक ग्रन्थों में portion of Sanskrit deraiviations found कविवर बनारसीदासजीका रचा हुमा नाटक समयसार in the 'Tamil language was introclu- अपने समयको एक अपूर्व रचना है । यह प्राध्यात्मिकताced by the Jains they altered the Sans- से ओत-प्रोत एक सुन्दर कृति है। निम्नांकित दोहेमें उनकी kirt, which they berrowed in order 10 आध्यात्मिकताका स्पष्ट परिचय मिलता है। bung it in accordance with Tamil
भेदज्ञान साबू भयो, समरस निमल नीर । euphonic rules. 'The Kanalese Imera
धोबी अन्तर पारमा, धोवे निजगुण चीर ॥ tuie also owes a great deap to the प्रस्तुत ग्रन्थ परम भट्टारक श्रीमदमृतचन्द्रायजीके Jains. Infact they were the origina- संस्कृतकलशांका पद्यानुवाद है । अनुवाद अत्यन्त सरल
और सुन्दर है। अर्थात तामिल साहित्य, जो कि जैन विद्वानोकी देन हिन्दी जैन-माहित्यमें टोडरमल, जयचन्द, दीपचन्द, है। तामिल भाषाांके लिये अत्यन्त मूल्यवान है तामिल- टेकचन्द, दौलतराम, तथा सदासुखदास आदि उच्चकोटिभाषाके जो बहुत शब्द पाये जाते हैं। यह कार्य जैनियों के गय लेखक और टीकाकार हो गये है। द्वारा सम्पन्न किया गया था उनके द्वारा ग्रहण किए गए चरित्र ग्रंथों में 'वरांग चरित्र 'जीवन्धरचरित्र' संस्कृत भाषाके शब्दोंमें एसा परिवर्तन किया गया है कि 'पापुराण' और 'बमान पुराया' मादि हैं। बेतामिन भाषाकी ध्वनिके अनुरूप हो जावें।
इंद-शास्त्रकी उन्नतिमें भी हिन्दी जैन-साहित्यके -जैन शासन-१५६-३६० कवियोंने विशेष सहयोग प्रदान किया। कविवर वृन्दावन१५० कैवाशचन्द्र शास्त्री कृत जैनधर्म पृ० २६१-२६३ दास कृत 'छंद शास्त्र' पिंगलकी एक सुन्दर रचना है।
turs of it.”
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किरण]
हिन्दी-जैन-साहित्यकी विशेषता
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हिन्दी जैन-सा हत्यमें शुभाषित अन्योंका भी परिचय मिलता है कविवर भूधरदास विरचित जैनशतक, बुधजन कृत, बुधजन सतसई और छत्रपति विरचित, मदनमाहन- पंचशती आदि महत्वपूर्ण काम्य-प्रन्थ है।
जैन साहित्यकी महत्ता वणित करते हुए श्री पुरनचंद नाहर और श्रीकृष्णाचन्द्र घोष अपनी कृति 'On Epitone of Jainism' में इस प्रकार लिखते हैं।
ber of other works both in prakrit and Sanskrit, on plulosophy, Logic, Astronomy, Grammar, Rhetone, Lives o] Saints etc. Both in prose and poetry ....................................Inshort the Jain literature c mprising as it does all the branches of ancient Indin literature holds no Dsignificant a niche in the gallary of that literature, and as it truly said by Prof. Her to.
Vith respect to its narrature part, it holds it prominent position not only in the Indian literature but in the literature of mankind."
-Pp. 694-95.
"It is bevond doubt that the Jain writers hold a prominent position in the literary activity of the country. Besides the Jain Sudhanta and its commentaries there are a great num
हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(गत किरण तीनसे भागे) केशरियाजीसे सबेरे दश बजे चलकर हम लोग ४ वाम्बरे वाम्बरे देशे वाग्वरैर्विदिते तितौ । बजे के करीब डूंगरपुर आये। इस नगरका पुरातन नाम चन्दनाचरितं चक्रे शुभचन्द्रो गिरौपुरे ॥२०. 'गिरिपुर' ग्रन्थों में उल्लिखित मिलता है । उस समय गिरि- इन ममुख्लेखोंसे गिरिपुरकी महत्ताका स्पष्ट पाभास पुर दिगम्बर समाजके विद्वानोंको ध रचना स्थान मिलता है। परन्तु इम गिरिपुर नगरका 'हंगरपुर' नाम रहा है जिसके दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं। यर्याप कब पड़ा, यह कुछ ज्ञात नहीं होता, सभव है किसी इनके अतिरिक्त तलाश करने पर अनेक उदाहरण मिल 'इगर' नामके व्यक्तिके कारण इम नगरका नाम सकते हैं। माथुरसंघीय भट्टारक उदयचन्द्र के प्रशिष्य और इंगरपुर लोकमें विश्व तिको प्राप्त हुआ हो अथवा भ० बालचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्रने, जिनका समय विक्रम इंगर या इगर' शब्द पर्वतके अर्थमे प्रयुक्त होता की ११ वीं शताब्दी है, अपना अपभ्रंशभाषाका 'चून्दी' है। अत. सम्भव है कि पहाडी प्रदेश होनेके कारणा नामका प्रन्थ जो ३३ पद्योंकी संख्याके लिये हुए हैं, गिरि- उसका नाम डूंगरपुर पड़ा हो । डूगरपुर राज्यका पुरके अजय नरेशके राजविहार में बैठकर बनाया है। प्राचीन नाम बागड़' है, जो गुजराती भाषाके 'बगहा'
विक्रमकी 14वीं और 10वीं शताब्दीके पूर्वाधके शब्दसे बहुत कुछ साहश्य रखता है माज कल विद्वान भट्टारक शुभचन्द्र ने अपना 'चन्दनाचरित्र' वारवर लगभी इस 'वागढ़िया' कह देते हैं। वागद' शब्दका देशक 'गिरिपुर' नामके नगरमें बनाकर समाप्त किया है। संस्कृत रूपान्तर भी वाग्वर, वागर और वेयागढ़ अनेक जैसा कि 'चन्दना चरित्र' के निम्न पद्यसे स्पष्ट है:- जिखालेखा, प्रशस्तियों और मूर्तिलेखोंमें अंकित मिलता x तिहुयशि गिरिपुरु जगि विक्खायड
है। इससे स्पष्ट है किहूंगरपुरका सम्बन्ध वागडसे रहा सम्ग खण्ड रियनि प्रायड
है वागड देशमें दंगरपुर, बांसवाहा और उदयपुरके कुछ तहिं णिवसंतें मुशिवरेण
दक्षिणी भागका समावेश किया जाता था अर्थात् वागढ अजय परिवहां राय-विहारहिं ।
.देखो, रंगरपुरका इतिहास पृ०२
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अनेकान्त
[किरण
देशमें छप्पन देशोंका समावेश निहित था। किन्तु जबसे ५-६ घर में नियोके हैं जिनकी आर्थिक स्थिति साधारण है, उमं पूर्वी र पश्चिमी दो विभागांम विभाजित कर दंग रहन सहन भी उच्च नहीं है । शाह कचरूलाल एक पुर राज्य और बांसवाडा राज्यकी अलग अलग स्थापनाकी साधर्मी सज्जन हैं. जो प्रकृतिसे भर जान पड़ते हैं। उन्होंने गई । उसी समयसे डूंगरपुर राज्य भी बागड़ कहा ही रात्रिमें हम लोगोंके ठहरनेकी व्यवस्था कराई। जाने लगा है।
यहां एक जैन मन्दिर अधवना पड़ा है-कहा जाता
है कि कई दि. जैन सेठ इस मन्दिरका निर्माण हूंगरपुर राज्यमें जैनियोकी अच्छी संख्या पाई जाती
करा रहा था । परन्तु कारणवश किसी नवाबने उसे है जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दो भागोंमें विभाजित है,
गोलीसे मरवा दिया जिससे यह मदिर उस समयसे उनमे दूंगरपुर स्टेटमें दिगम्बर सम्प्रदायके जैनियोंकी
अधूरा ही पड़ा है। संख्या अधिक है जो दशा हुमड़, वीसाहूमह, नरसिंहपुरा वीमा, तथा नागदाबीसा आदि उपजातियांमे विभाजित
शालाथानासे ४ बजे सबेरे चलकर हम लोग रतनपुर
होते हुए 'सांवला' जी पहुँचे । रास्ता बीहड़ और हैं । इन जानियोंके लोग राजपूताना, बागढ़ प्रान्त और गुजरात प्रान्तमें ही पाये जाते हैं । यह हमड़
भयानक है बड़ी सावधानी से जाना होता है, जरा चूके
कि जीवनकी आशा निराशामें बदल जानेकी शका रहती जाति किमी समय बड़ी समृद्ध और वैभवशाली रही है,
है। शालाथानामें डूंगरपुरके एक सैय्यद ड्राइवर ने हमारे यह जैन धर्मके श्रद्धालु रहे हैं, इनका राज्यकार्यके संचालनमें भी हाथ रहा है। खास डूंगरपुर में दिगम्बर
ड्राइवरको रास्ते की उस विषमताको बतला दिया था, साथ जैनियोंकी संख्या सौ घरसे ऊपर है। एक भट्टारतीय
ही गादीकी रफ्तार भादिके सम्बन्ध में भी स्पष्ट सूचना गद्दी भी है और उस गद्दी पर वर्तमान भट्टारक भी
कर दी थी, हम कारण हमें रास्तेमें कोई विशेष परेशानी मौजूद है, पर वे विद्वान नहीं है ।कन्तु साधारण
नहीं उठानी पड़ी । श्यामलाजी मन्दिर नहीं था
धर्मशाला थी, अतः त्यागियोंको सामायिक कराकर पढ़े लिखे है । परन्तु मुझे इस समय उनका नाम विस्मरण हो गया है। डूगरपुरमें ४ शिखरवन्द म.न्दर हैं
संघ 'मुहासा' पहुँचा। मन्दिगेमे मूर्तियोंका मग्रह अधिक है। भट्टारकीय मन्दिरमें
मुहासामे हम लोग 'पटेल' बोडिंग हाऊसमें ठहरे, अनेक हलिम्वित प्रन्य मौजूद हैं। जिनमें कई तापपत्रों
स्नानादिसं निवृत्त होकर भोजन किया। यह नगर भी पर भी अंकित है। दूंगरपुरके आस पासके गांवों में भी
नदीके किनारे वसा हुआ है । यह किसी समय अच्छा भनेक जैन मन्दिर हैं, जहां पहले उनमें दिगम्बर जनियों
शहर रहा है आज भी यह सम्पन्न है, और व्यापारका की आबादी थी किन्तु बंद है कि अब वहां एक भी घर
स्थल बनने जा रहा है । यह वही स्थान है जहां पर भट्टा
रक जिनचन्द्रने संवत् १९४८ में सहस्त्रों मूतियां शाह जनियांका नहीं है, केवल मन्दिर ही अवस्थित है।
जोवराज पापडीवाल द्वारा प्रतिष्ठित कराई थी, उस सागवाडा भी डूगरपुरराज्यमें स्थित है। विक्रमकी
समय मुवामा किसी रावलका राज्य शासन चला रहा १५वी, १६वीं और १७वीं शताब्दी में जैनधर्मका महत्वपूर्ण
था, जिसका नाम अब मूति लेखोंमें अस्पष्ट हो जानेसे स्थान रहा है। सागवाडेकी भट्टारकीय गद्दी भी प्रासद्ध रही
पढ़ा नहीं जाता है। खेद है कि आज वहां कोई भी है। इस गद्दी पर अनेक भट्ट रक हो चुके हैं जिनमे कई
दिगम्बर जैन मन्दिर नहीं है। हां श्वेताम्बर मन्दिर भधारक बड़े भारी विद्वान और अन्धकार हुए हैं। मौजत है। यहां से हम लोग अहमदाबादकी की
हूंगरपुरसे थोड़ी दूर ५.६ मील चलकर एक छोटी पोर चले । १०-१५ मीन तक हो सबक अच्छी नदी पारकर हम लोग 'शालाथाना' पहुँचे । यह एक छोटा मिली. बादमें सड़क अत्यन्त खराब ऊबड़ खाबड़ थी, सा गांव है और हूंगरपुरमें ही शामिल है। यहां सेठ मरम्मतकी जा रही थी राधिका समय होनेसे हम लोगोंको बदामोबाजजीको कारकी कीमें छिद्र हो जानेके कारण बड़ी परेशानी उठानी पड़ी । फिर भी हम नाग धैर्य रात भर ठहरना पड़ा । शालाथानामें एक दिगम्बर जैन धारणकर कन्टोको परवाह न करते हुए रात्रिको १२॥ बजे मन्दिर है, मन्दिरमें एक शिलालेख भी अंकित है। इस गाँवमें अहमदाबादमें सलापस रोड पर सेठ प्रेमचन्द्र मोतीचन्द्र
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किरण]
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
दिगम्बर जैन बोडिंग हाउसमें जा पहुँचे। वहाँ वेदी प्रतिहा साबमें यह भी विचार माया कि प्रत्येक मन्दिर में इसी महोत्सवका कार्य सम्पन्न होनेसे स्थान खाली न वा पं० प्रकारकी चिताकर्षक मतियाँ होनी चाहिये और मन्दिर सिद्धसागरजीका ५..मादमियोंका एक संघ पहलेसे ठहरा इसी तरह सादा तथा धर्मसाधनकी अब मुविधाको हुमा था। फिर भी योषा सा स्थान मल गया उसीमें लिये होने चाहिये। राजकोटका यह मन्दिर दो गई बास रात विताई। और काब उठकर सामयिक क्रियामोंसे रुपया खर्च करके गुजरातके संत श्रीकानजीस्वामी प. निवृत्त होकर दर्शन किये । यहाँकी जनताने 'प्रीति भोज' देशसे अभी बनकर तैयार हुभा है। मन्दिर सादा, स्वा. मी दिया और मुख्तार साहमके दीर्घायु होने की कामना हवादार और धर्मसाधनके लिये उपयुक्त, श्रीमम्बर भी की। भहारक यशकीर्ति और पं. रामचन्द्रजी शर्मासे स्वामीको उक्त मूर्तिका चित्र भी लिया गया।मचारी भी परिचय हुआ।
. मूलशंकरजीके यहां हम लोगोंने भोजन किया। उस समय सबेरे अहमदाबादसे हम लोग राजकोटके लिये रवाना ब्रह्मचारीजोके कुटुम्बका परिचय पाकर दी प्रसनताई हुए और वीरमगाँव पहुँच गए । वीरमगांवसे वडमानकी मूलशंकरजीने अपने हरे-भरे एवं सुख समर परिवारोंको भोर चले, परन्तु बीच में ही रास्ता भूल गए जिससे बा. बोपकर पात्मकल्याणकी रहिसे अपनेको प्रोसेसर राजकृष्णाजी और सेठ छदामीबाखाजीसे हमारा सम्बन्ध किया। उनके दोनों लपके पोते और पोती साधर्मपल्ली विच्छेद हो गया, वे पीछे रह गए और हम मागे निकल सभा शान्त और धर्मश्रदालु आन पड़े। उनके समस्त पाये । रास्ता पगलियोंके रूपमें था, पंचने पर लोग परिवारका संयुक्त चित्रभी लिया गया है। वामानको दो गऊ या चार गो बतलाते थे, परन्तु कई राजकोट गुजरातका एक अच्छा शहर है, यहाँसमो प्रकारमोल चखनेके बाद भी वहमानका कहीं पता नहीं चलता की चीजें मिलती हैं नगर समृद्ध है, अहमदाबादकी अपेक्षा था। इस कारण बड़ी परेशानी उठाई । जब ५-६ मील अधिक साफ-सुथरा है। यहां जैनियों पर कानजीस्वामीचलकर खोगोंसे रास्ता पूछते तो वे उपर वाला ही उत्तर के उपदेशोंका अच्छा प्रसर है। दुपहर बाद हम लोग देते। आखिर कई मीलका चक्कर काटते हुए हम बोग राजकोटसे रवाना होकर गोधरा होते हुए सूनागढ़ पहुंचे
बजेके करीब वडमान पहुँचे । परन्तु वहाँका पानी और वहांसे गिरनारजीकी तलहटीमें स्थित धर्मशाखामें अत्यन्त खारी था । माखिर एक श्वेताम्बर मन्दिरमें पहुँचे, गए। वहां देखा तो दिगम्बर धर्मशाला यात्रियोंसे उसाठस उनसे पूछा, ठहरनेकी अनुमति मिल गई, हम लोगोंने भरी हुई थी। उसमें स्थान न मिलने पर हम लोग खेता नहा धोकर दर्शन सामायिकादिसे निवृत्त होकर साथ में रखे मार धर्मशान में ठहरे। प्रातःकासबजेके करीब दैनिक हुए भोजनसे अपनी छुधा शान्त की। वहांके संघने मीठे कृत्योंसे निपटकर हम लोग यात्राको गए और हम खोगोंने पानीकी सब व्यवस्था को। चे साधर्मी सज्जन बड़े भद्र पहाव पर चढ़कर सामन्द यात्राएं की।पात्रामें बदाही प्रकृतिके जान पड़ते थे। वहाँसे हम लोग चलकर रानिमें मानन्द भावा। मार्गजन्य कष्टका किंचिद भी अनुभव
बजेके करीब'राजकोट' पहुँचे और कानजी स्वामीके नहीं हुचा । गिरिनगर या गिरिनारका प्राचीन नाम उपदेशसे निर्मित नवन मंदिरके बहावे में स्थित कमरों में 'उज्जयंत' 'जंयन्त' गिरि है। रैवतकगिरि और गिरिउहरे।
नगर नामोंका का प्रचलन हुमा इसका ठीक निर्देश प्रमी राजकोट निवासी मूलशंकरजीके साथ होनेसे तक नहीं मिला, किन्तु इतना किविक्रमकीवी हम लोगोंको ठहरने में किसी प्रकारकी असुविधा नहीं शताब्दीक भाषायें वीरसेनने अपनी पवाटीकामें 'सोरटप्रात:काल देनिक क्रियानोंसे निवृत्त होकर मंदिरजीमें भी विषय-गिरिचयर-पट्टण-बंदगुहा-ठिएव' वाक्यके द्वारा मंधरस्वामोको भव्य मूर्तिके दर्शन किये । मृतिपदीही सौराष्ट्र देशमें स्थित गिरिनगर का उल्लेख किया है जिससे मनोज और चित्ताकर्षक है, मूर्तिका अवलोकन कर हम पर ध्वनित होता है कि उस समय तथा उससे पूर्व खोग मार्गजन्य खेदको भूल गये, दयकम लिख गये. "गिरिनगर' शब्दका प्रचार हो चुका था। उक्त मूर्तियों के दर्शनसे भभूत पूर्व भामद हुमा । वास्तवमें गिरिनगर सौराष्ट्रदेशकी बह पवित्र भूमि जिस मूर्ति कलाकार मनोभावोंका मूर्तिमान विजय। पर बैनियोंके २९ वीर्यकर भगवान नेमिनाथने वपर्या
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भनेकान्त
द्वारा कर्मशत्रुओंको विनष्ट कर केवलज्ञान द्वारा जगतके इस क्षेत्रका यात्रासे सातिशय पुण्यका संचय होता है। जीवोंको संसारके दुःखोंसे छूटनेका सरल उपाय बतलाया प्राचीनकालमें अनेक तीर्थ यात्रा संघ इस पर्वत पर था, साथ ही लोक में दयाकी वह मन्दाकिनो बहाई जिमसे अपूर्व उत्साहके साथ पाते और पूजा वंदनाकर लौट अनन्त जीवोंका उद्धार हुमा था, मांसभक्षणकी लोलुपता. जाते थे। माज यह केवल जैनियोंका ही तीर्थ नहीं रहा के लिये बंदी किये गये उन पशुओंको रिहाई मिलो थी है किन्तु हिन्दुओं और मुसलमानोंका भी तीर्थ बना हुमा जो भगवान नेमिनायके विवाह में सम्मिखित यदुवंशी राजाओं है । हिन्दु लाग पांचवी टोंक पर नेमिनाथके चरणोंको की धापूर्तिक लिये एक बाडे में इकट्ठ किये गये थे। इस दत्तात्रयके चरण बतलाकर पूजते हैं और दूसरी तीसरी पर्वत पर सहस्त्रों व्यक्तियोंने तृष्णाके अपरिमित ताराको टोंक पर उन्होंने अपने तीर्थस्थानकी भी कल्पना की खोपकर और देहसे भी नेह कोषकर भारमसाधना कर हुई है। अतः हिन्दू समाज भी इस क्षेत्रका समादर करता परमात्मपद प्राप्त किया था। अतएव यह निर्वाण भूमि है। मुसलमान भी मदारसा नामक पीरकी का बतलाकर अत्यन्त पवित्र है। यहांके भूमण्डलके कण कण में साधना इबादत करने आते हैं। कीबह पवित्र भावना तपश्रर्याकी महता, तथा स्वपर-दया- जैनियोंके मन्दिर प्रथम टॉक पर ही पाये जाते हैं। का उत्कर्ष सर्वत्र व्याप्त है। भगवान नेमिनाथको जयके भागेकी टोंकों पर केवल चरण-चिन्ह ही अंकित हैं। यह नारे असमर्थ वृद्धामों एवं अन्य दुबेल व्यक्तियाक जोवनम मन्दिर दो भागों विभाजित ३ दिगम्बर और श्वेताम्बर । मी उत्साह और धैर्यकी लहर उत्पन्न कर देते हैं।
दिगम्बर मन्दिरोंकी संख्या सिर्फ तीन हे और श्वेताम्बराके नेमिनाथ भगवानके गणधर वरदत्तकी और अगणित मंदिरोंको संख्या २२ है। मुझे तो ऐसा लगता है कि प्राचीन मुनियोंकी यह निर्वाणभूमि रहा है । अतः इसको महत्ताका काल में इस क्षेत्रपर दिगम्बर श्वेताम्बरका कोई भेद नहीं कथन हम से अल्पज्ञोंसे नहीं हो सकता ।
था, सभी यात्री समान भावसे भाते और यात्रा करके चले इसी सौराष्ट्र देशके उक्त गिरिनगरकी 'चन्दगफ जाते थे। परन्तु १०वीं 11वीं सदीके बादसे साम्प्रदायिक में पाजसे दो हजार वर्ष पहले अष्टांग महानिमित्त ज्ञानी
व्यामोहको मात्रा अधिक बढ़ी तभीस उक्त कल्पना रूढ़ हुई प्रवचन वत्सल, महातपस्वी शीशकाययोगी अंगपूर्वके एक
है । इसमे सन्दह नहीं कि उभय समाज के श्रीमानो और देशपाठी धरसेनाचार्य ने दक्षिण देशवासी महिमा नगरीक
विद्वानी तथा साधु समय समय पर यात्रा संघ पाते उत्सवसे भागत पुष्पदन्त भूतबजिनामक साधुनोंको सिद्धांत
रहे हैं। आज हम वहां गिरिनगरमें विक्रमकी १२वीं १३वीं प्रन्थ पढ़ाया था।
शताब्दाके बन हुए श्वेताम्बर मन्दिर देखते है किन्तु पुरा इसके सिवाय, विक्रमकी द्वितीय शताब्दीके प्राचार्य
तन दिगम्बर मन्दिराका कोई अवशेष देखने में नहीं पाता। समन्तभद्र स्वामीके स्वयम्भू स्तानके अनुसार उस समय
वर्तमानमें जो दिगम्बर मन्दिर विद्यमान हैं वे १७ वीं
शताब्दी के जान पड़ते हैं. य प ये उसी जगह बने हुए यह पहाब भक्तिसे उल्लसितचित्त ऋषियों द्वारा निरन्तर अभिसेवित था और पहारकी शिखरें विद्याधरोंकी स्त्रियांसे
कहे जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गिरनगरमें दिगम्बर समलंकृत थीं। इससे स्पष्ट है कि आजसे १६०० वर्ष
पुरातन मदिर न बने हो, क्योंकि पुरातन मन्दिर और पूर्व यह पावन तार्थभूमि जैन साधुओके द्वारा अभिवंद
चरणवन्दनाके उल्लेख भी उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट जान नीय तथा तपश्चरण भूमि बनी हुई थी। उसके बाद अब
पड़ता है कि गिरिनगर पर .ि. मन्दिर विद्यमान थे। सकतक यह भूमि बराबर तीर्थभूमिके रूपमे जगत में मानी
कमसे कम १२ वी १३ वीं शताब्दीके मन्दिर तो अवश्यही एवं पूजी जाती रही है। अनेक साधु, श्रावक, प्राविकाओं
बने हुए थे। पर उनका क्या हुश्रा यह कुछ समझमें नहीं और विद्वानों द्वारा समय॑नीय है। इसी कारण जैन
पाता, हो सकता है कि कुछ पुरातन मन्दिर के मूर्तियां समाजमें इस क्षेत्रकी निर्वाणक्षेत्रांमें गणनाकी गई है।
जी हो गई हों, या उपद्रवादिके कारण विनष्ट कर
दी गई कुछ भी हुमा हो पर उ.के अस्तित्वसे इंकार गिरिनगरकी यह गुफा आजकल 'बाबा प्यारा के नहीं किया जा सकता। परन्नु खेद है कि सम्प्रदायके व्यामह' के पास वाली जान पड़ती है।
मोहसे दिगम्बरोंकोचपनी प्राचीन सम्पत्तिसे भी हाथ धोना
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किरण 1
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
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पड़ा है। यह पहाड़ पहले दिगम्बर सम्प्रदायके कब्जे में ही तीमरी टोकसे आगे चलनेपर एक बम उतार पाना है। था और वही इसका प्रबन्ध करते थे। इनकी अस्त व्यस्तता नीचे पहुँचने पर जहाँ कुछ समभाग भाजाता है, वहांसे
और असावधानीही उसमें निमित्त कारण है। इनकी बाई भोर चौथी टोंक पर जानेका पगडंडी मार्ग पाता है। प्राचीन सामग्री विद्वेशवश नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई हैं। इस टोकपर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ नहीं है. इस कारण गिरनारजीके तीर्थयात्रा स्थल
चढ़ने में बड़ी कठिनाई होती है, बदी सतर्कता एवं सावधानी
से चढ़ना होता है जरा चुके कि जीवनका अन्त सममिए। तलहटीसे दो मीलकी दूरी पर एक बड़ा दरवाजा
इसीस किननेही लोग गैथो रोकी नीचेसे पंदना करते भाता है उससे कहीं ४० कदम पर दाहिनी ओर एक
हैं। टोंकके उपर काले पाषाण पर नेमिमायकी प्रतिमा सरकारी बगला है, हममें एक दुकानदार रहता है इसके
तथा दूसरी शिवापर चरण अंकित हैं, जिस पर संवत् वाजमें दिगम्बर जैन धर्मशाला । जिसमें एक पुजारी
१२४४ का एक लेखभी उत्कीर्ण किया हुआ है। पर्वतकी और एक सफाई करने वाला रहता है पासमें श्वेताम्बर
यह शिखर अत्यन्त ऊँची है, इस परसे चारों भोरका धर्मशाला है। यहां से सीधी सड़क चलने
दृश्य बड़ाही सुन्दर प्रतीत होता है। परन्तु जब पर दाहिनी ओर एक छोटा सा दरवाजा मिलना है
नीचेकी ओर अवलोकन करते हैं तब भयसे शरीर उसमे करीब १२० पीढ़ी चढ़ने पर दाहिनी ओर एक
कांप जाता है। कम्पाबन्दके अन्दर तीन दिगम्बर मान्दर हैं बाई पार नीचे श्वेताम्बर मंदिर है और इन्हीं दिगम्बर मन्दिराके उस सम भूभागसे भागे चलने पर कुछ पढ़ाई नीचे राजुनकी गुफा है। अस्तु, मन्दिरोंसे १०५ सीढ़ी पाती है उसे तय कर यात्री पांचवीं टोंक पर पहुँचता चढ़ने पर 'गोमुग्वीकुरा मिलता है। यहां कम्पाउन्डके है। इस टोंक पर भगवान नेमिनाथके चरण हैं, एक अन्दा नर कुण्डके उपर ताकमें चौबीम तीर्थंकर भगवानके पाषाणकी मृति भी है जो कुछ धिस गई है। यहीं पर चरण हैं। यह कुण्ड हिन्दू भाइयोंका है। इस कम्पाउन्डमें नेमिनाथ के गणधर वरदत्तका निर्वाण हुमा है। हिन्द महादेव मन्दिर हैं। यह मम स्थान पहलो टोक कहा भाई नेमिनाथके चरणोंको दत्तात्रयके चरया कह कर पूजा जाता है। इस गोमुखीकुण्डके पाससं उत्तरको ओर हैं और मुसलमान मदारशा पीरको तकिया कहते हैं। सहसाम्रवनके जानेका मार्ग भी पाना है।
पचवीं टोकपे ५-७ सीदी नीचे उतरने पर संवत् 1100 प्रथम टाफसे आगे चलने पर गिरनार पर्वतकी चोटी का एक लेख मिलता है जैनी यात्री इसी टोंकसे नीचे पर बाई भोरको अम्बादेवीका एक बड़ा मन्दिर बना हुया उतर कर वापिस दूसरा टोंक पर जाते हैं और वहां से वे है। इसके पीछ चबूतरा पर अनिरुद्ध कुमारके चरण हैं। सहसाम्रवन होते हुए तलहटीकी धर्मशाला मा जाते हैं। हिन्दु भाई इसे अम्बामाताको रोक कहते हैं।
हम लोग यहां पर दिन ठहरे, तीन यात्रएं की। एक यहांसे भागे चलने पर एक तीसरी पाती है।
दिन मध्यमें मूनागढ़ शहर भी देखा और मन्दिरोंके दर्शन इस पर शम्भूकुमारके चरण हैं। हिन्द लोग इसंग रख. किए, अजायब घर भी देखा। नाथको टोंक बतलाते हैं।
यहांस हम लोग पुनः राजकोट होते हुए सोनगढ़ पहुंचे।
अनेकान्त समाजका लोकप्रिय ऐतिहासिक और साहित्यिक पत्र है उसका प्रत्येक साधर्मीको ग्राहक बनना ओर बनाना परम कर्तव्य है।
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कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व
[श्रीविद्याभूषण पं. गोविन्दराय जैन शास्त्री] [इस लेख मेखक जैन समाजले एक प्रसिद्ध प्रज्ञाच विद्वान है जिन्होंने कुरल काव्यका गहरा अध्ययम ही नहीं किया बल्कि उसे संस्कृत, हिन्दी गद्य तथा हिन्दी पों में अनुवादित भी किया है, जिन सबके स्वतंत्र प्रकाशनका प्रायोजन हो रहा है। पाप कितने परिश्रमशील लेखक और विचारक हैं यह बात पाठकोंको इस लेख परसे सहज ही जान पड़ेगा। आपने अब भनेकान्तमें लिखनेका संकल्प किया है यह बड़ी ही प्रसनताका विषय है और इसलिये अब आपके कितने ही महत्वके लेख पाठकको पढ़ने को मिलेंगे, ऐसी
-सम्पादक परिचय और महत्व
इसे अधिक महत्व इस कारण देते हैं कि इसकी विषय'रस' वामिल भाषाका एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति- विवेचन-शजी बड़ी ही सुन्दर, सूपम और प्रभावोत्पादक प्राप्त काव्य ग्रन्थ है । यह इतना मोहक और कलापूर्ण है । विषय-निर्वाचन भी इसका बड़ा पांडित्यपूर्ण है। कि संसार दो हजार वर्षसे इसपर मुग्ध है यूरोपकी प्रायः मानवजीवनको शुद्ध और सुन्दर बनानेके लिए जितनी सब भाषामोंमें इसके अनुवाद हो चुके हैं। अंग्रेजी में इसके विशालमात्रामें इसमें उपदेश दिया गया है उतना अन्यत्र देवरेण्ड जी. यू. पोपकवि, पो. वी. एस. अय्यर मिलना दुर्लभ है। इसके अध्ययनसे सन्तप्त-हदयको बहुत
और माननीय राजगोणताचार्य-द्वारा लिखित तन मनु- शांति और बल मिलता है, यह हमारा निजका भी अनुबाद विद्यमान है।
भव है। एक ही गनिमें दोनों नेत्र चले जानेके पश्चात् तामिख भाषा-भाषी से शामिल वेद' 'पंचम वेद हमारे हृदयको प्रफुल्लित रखनेका श्रेय करजको ही प्राप्त 'ईश्वरीष प्रन्य' 'महान सस्य सर्वदेशीय बेद' जैसे नामां
है। हमारी रायमे यह काम्य संसारके लिए वरदान स्वरूप से पुकारते हैं। इससे हम यह बात सहजमें ही जान सकते
जो भी इसका अध्ययन करेगा वही इसपर निछावर हो है कि उनकी प्टिमें कुरलका कितना पादर और महत्व जावगा। हम अपनी इस धारणाके समा
जावेगा । हम अपनी इस धारणाके समर्थनमे तीन अनुवाहै। 'नादियार' और 'कुरब' वे दोनों जैन काव्य तामिल कांके अभिमत यहां उद्धत करते हैं:भाषाके 'कौस्तुभ' और 'सीमन्तक मणि हैं। तामिन १.डा. पोपका अभिमत-'मुझे प्रतीत होता है कि भाषाका एक स्वतंत्र साहित्य है, जो मौलिकता नया इन पद्योंमें नैतिक कृतज्ञताका प्रबनभाव, सत्यकी लीवशोध, विशाखतामें विश्वविख्यात् संस्कृत साहित्यसे किसी भी __ स्वार्थरहित तथा हार्दिक दानशीलता एवं साधारणतया भांति अपनेको कम नहीं समझता ।
उज्जवल उद्देश्य अधिक प्रभावक हैं। मुझे कभी कभी रखका नामकरण प्रन्थमे प्रयुक्त कुरलगवा'
ऐसा अनुभव हुआ है कि माना इसमें ऐसे मनुष्यों के नामक बन्दविशेषके कारण हुमा है जिसका अर्थ दोहा
लिए भण्डाररूपमें पाशीर्वाद भरा हुआ है जो इस विशेष है। इस नीति काम्बमें १३३ अध्याय है, जो कि
प्रकारकी रचनाओंसे अधिक प्रानन्दित होते हैं और हम धर्म(परम) अर्थ (पोरन) और काम इनवम, इन तीन
तरह सत्यके प्रति पुधा और विपासाकी विशेषताको विभागों में विभक्त है और ये तीनों विषय विस्तारके साथ
घोषित करते है, वे लोग भारत-वर्षके लोगोंमे श्रेष्ठ है इस प्रकार समझाये गये है जिससे ये मूलभूत अहिंसा
तथा कुरत एवं नालदीने उन्हें इस प्रकार बनाने में
सहायता दी है। सिद्धान्तके साथ सम्बद्ध रहें। पारखी तथा धार्मिक विद्वान
२. श्री वी.वी. एस. अय्यरका अभिमत-'कुरज. पह यह काव्य है जिसे अतकेवली भद्रबाहुके संघमें काने भाचार-धर्मकी महत्ता और शक्तिका जो वर्णन किया दषिण देशमें गये हुये पाठ हजार मुनियोंने मिलकर है उससे संसारके किसी भी धर्म संस्थापकका उपदेश बनाया था।
अधिक प्रभावयुक्त या शक्तिप्रद नहीं है। जो वासने
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किरण ५]
कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व
बतलाये है उनसे अधिक सूचमवात भीष्म या कौटिल्य कि 'इसमें संदेह नहीं कि ईसाई धर्मका कुरखकर्ता पर सबसे कामन्दक या रामदास विष्णुशर्मा या माई.के. वेलीने अधिक प्रभाव पाया।कुरखकी रचना इतनी उस्कृट नहीं भी नहीं कही है। व्यवहारका जो चातुर्य इसने बतलाया हो सकती थी पदि उन्होंने सेन्टटामससे मलयपुरमें ईसाके है और प्रेमीका हृदय और उसकी नानाविधिनियों पर उपदेशोंको न सुना होता।' इस प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रजो प्रकाश इसने डाला है उससे अधिक पवा कालिदास दाय वाले कुरनको अपना अपना बनानेके लिए परस्पर या शेक्सपियरको भी नहीं था।'
होब लगा रहे हैं। श्रीराजगोपालाचार्यका अ.भमत-'तामिल जाति
इन सबके बीच जैन कहते है कि 'यह तो जैन ग्रन्थ की अन्तरात्मा और उसके संस्कारोंक' ठीक तरहसे सम
है, सारा अन्य "अहिंसा परमोधर्मः"को व्याख्या और कनेके लिये 'निक्कुरल का पढ़ना आवश्यक है। इतना
इसके कर्ता श्री एनाचार्य हैं, जिनका कि अपरनाम कुन्। ही नहीं यदि कोई चाहे क भारतके समस्त साहित्यका
कुन्दाचार्य है। मुझे पूर्णरू.से ज्ञान हो जाय तो त्रिकुरनको बिना पढ़े
शैव और वैष्यवधर्मकी साधारण जनतामें यह भी हुए उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता।
लोकमत प्रचलित है कि करलके कर्ता अछूत जातिके एक विक्कुरल, विवेक शुभसंस्कार और मानव प्रकृतिके
जुलाहे थे। जैन खोग इस पर आपत्ति करते है कि नहीं, व्यवहारिक ज्ञानकी खान है। इस अद्भुत ग्रन्थकी सबसे
वे क्षत्री और राजवंशज है। जैनांके इस कथनसे वर्तमान बड़ी विशेषता और चमत्कार यह है कि इसमें मानवचरित्र
युगके निष्पक्ष तथा अधिकारी शामिल-भाषा विशेषज्ञ सहऔर उसको दुर्बलताओंकी तह तक विचार करके उच्च
मत है। श्रीयुत् राजाजी राजगोपालाचार्य तामिक्षवेदकी प्राध्यात्मिकताका प्रतिपादन किया गया है । विचारके
प्रस्तावनामें बिखते है कि कुछ लोगोंका कथन है कि सचेत और संयत भौदार्यके लिए त्रिकरलका भाव एक
कुरलके कर्मा अछूत थे, पर प्रन्यके किसी भी मंशसे या ऐसा उदाहरण है कि जो बहुत काल तक अबुपम बना
उसके उदाहरण देने वाले अन्य अन्य लेखकोंके सेखोंसे रहेगा । कलाकी दृष्टिसे भी संसारक साहित्यमे इसका
इसका कुछ भी प्राभास नहीं मिलता। और हमारी राय.
में बुद्धि कहती हैं किसी स्थान ऊँचा है, क्योंकि यह ध्वनि काम्य है, उपमाएँ और
एक वामिल भाषाका ज्ञाता
मकृत कुरजको नहीं बना सकता, कारण कुरखमें वामिन दृष्टान्त बहुत ही समुचित रक्खे गए है और इसकी शैली
प्रांतीय विचारोंका ही समावेश नहीं है किन्तु सारे भारतीय
विचारांका दोहन है। इसका अर्थशास्त्र-सम्बन्धी ज्ञानकुरलका कत्त्व
कौटिलीय अर्थशास्त्रकी कोटिका है। इस प्रन्यका रचयिता भारतीय प्राचीनतम पदतिके अनुसार यहाँ प्रस्थ
निःसन्दह बहुश्रत और बहुभाषा-विज्ञ होना चाहिए. का प्रन्थमें कहीं भी अपना नाम नहीं लिखते थे । कारण,
जैसे एलाचार्य थे। उनके हृदय में कीतिलालसा नहीं थी किन्तु लोकहितको
तामिल भाषांक कुछ समर्थ मजैन खेलकोंकी यह भी भावना ही काम करती थी। इस पद्धति के अनुसार लिखे
राय है कि 'कुरलके कर्ताका वास्तविक परिचय अब तक लाये ग्रंथोंके कर्तृत्व-विषयम कभी कभी कितना ही मतभेद
हम लोगोंको अज्ञात है, उसके कर्ता विवरजवरका यह विमा हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष एक उदाहरण
कल्पित नाम भी संदिग्ध है। उनको जीवन घडना ऐतिकुरलकाम्य है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके कर्ता हासिक तथा वैज्ञानिक तथ्योंसे अपरिपूर्ण है। "तिमवल्लवर' थे और कुछ लोग यह कहते है किसके अन्त:साचीका एलाचार्य थे।
अतः हम इन कल्पित दन्तकथाओंका माधार बोरकर इसी प्रकार कुरजकर्ताक धर्म सम्बन्धमे भी मतभेद अन्धकी अतः साक्षी और प्रास ऐतिहासिक उदाहरणोंको है शैव लोग कहते है कि यह शैवधर्मका ग्रन्थ है और लेकर विचार करेंगे, जिससे यथार्थसत्यकी खोज हो सके। वैष्णव लोग हम वैसवधर्मका ग्रन्थ बतलाते हैं। इसके जो भी निष्पा विद्वान इस मंथका ममताके साथ परीअंग्रेजी अनुवादक डा. पोपने तो यहाँ तक लिख दिया है पण करेगा उसे यह बात पूर्णत: स्पट हुए बिना नहीं
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अनेकान्त
किरण.
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रहेगी कि यह प्रम्ब शुख अहिंसाधर्मसे परिपूर्ण है और ईश्वरस्तुति नामक प्रथम अध्यायके प्रथम पचमें इसलिये यह जैन मस्तिष्ककी उपज होना चाहिए । श्रीयुत् 'आदिपकवन' शब्द पाया है जिसका अर्थ होता है'आदि सुब्रह्मण प्रग्यर अपने अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनामें भगवान'. जो कि इस युगके प्रथम प्ररहम्त भगवान लिखते हैं कि 'कुरलकाव्यका मंगलाचरण वाला प्रथम आदीश्वर ऋषभदेवका नाम है। दूसरे पद्यमें उनकी सर्वज्ञता अध्याय जैनधर्मसे अधिक मिलता है।'
का वर्णन कर पूजाके लिए उपदेश दिया गया है। तीसरे फल भले ही यह न कहे कि मैं प्रमक वनका है. फिर पद्य में 'मलिमिशे' अर्थात् कमलगामी कहकर उनको मी उसकी सुगन्धि उसके उत्पादक वृक्षको कहे बिना नहीं अरहन्न अवस्थाके एक अतिशयका वर्णन है। चौथे पद्य में रहती ठीक इसी प्रकार किसी भी ग्रंथके कर्ताका धर्म हमें उनकी वीतरागनाका व्याख्यान कर, पांचवें पद्यमें गुणगान भले ही ज्ञात न हो पर उसके भीतरी विचार उसे धर्म करनेमे पापकर्मोका क्षय कहा गया है, छठे पद्यमें उनसे विशेषका घोषित किये बिना न रहेंगे। लेकिन इन विचारों उपदिष्ट धर्म तथा उसके पालनका उपदेश दिया गया है का पारखी होना चाहिए । यदि अजैन विद्वान् जैनवाड़ और सातवेंमें उपयुक्त देवकी शरण में मानसे ही मनुष्यको मयके ज्ञाता होते तो उन्हें कुरलको जैनाचार्यकृत मानने में सुख शांति मिल सकती है ऐसा कहा है। जैनधर्म सिद्ध , कभी देरीम लगती । ग्रन्थकर्त्ताने जैन भाव इम काव्यमें परमेोके पाठगुण माने गये हैं इसलिए सिद्धस्तुति कलापूर्ण ढंगसे लिखे हैं उनको वे लोग जैनधर्मसे ठीक करते हुए पाठवें पद्य उनके पाठ गुणोंका निर्देश परिचित न होने के कारण नहीं समझ सके है करलकी किया गया है । सारी रचना जैन-मान्यताओंसे परिपूर्ण है। इतना ही नहीं जैनधर्म में पृथ्वी वातवलयसे वेष्टित बतलाई किन्तु उसका निर्माण भी जैनपद्धतिको लिये हए है। इसका गई है कुरन्नमें भी पच्चीसवें अध्यायके पांचवें पथमें कुछ दिग्दर्शन हम यहां कराते हैं
दयाके प्रकरण में कहा गया है-क्लेश दयालु पुरुषके इसमें किसी वैदिक देवताको स्तमिन कर जैन के लिए नहीं है, भरी पूरी वायु वेष्टित पृथ्वी हस पातकी अनुसार मंगलकामना की गई है। जैनिया में मंगल कामना साधा है। करनेकी एक प्राचीन पद्धति है, जिसका मूल यह सूत्र हैं कि
सत्यका लक्षण कुरलमें वही कहा गया है जा जैनधर्म 'चत्तारि मंगलं, परहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, गह मंगलं,
को मान्य है-ज्याको त्यों बात कहना साय नहीं है किंतु केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।" अर्थात् चार हमारे लिये
समीचीन अर्थात् लोकहितकारी बातका कहनाही सत्य है, मंगलमय हैं-अरहन्त सिद्ध, साधु और सर्वज्ञणीत
भले ही वह ज्यो की त्यो न हो -
भल हो वा धर्म । देखिए 'ईश्वरस्तुति' नामक प्रथम अध्यायमे प्रथम नहीं किसी भी जीवको जिससे पीड़ा कार्य। पद्यसे लेकर सातवें तक अरहन्त स्तुति है और प्राव में सत्य बचन उसको कहें, पूज्य ऋषीश्वर आर्य ॥१॥ सिद्धस्तुति है। नवमें और दश में साधुके विशेष भेद वैदिक पद्धति में जब वर्णव्यवस्था जन्ममूलक है तब प्राचार्य और उपाध्यायकी स्तुति है।
जैन पद्धतिमे वह गुणमूलक है। कुरल। भी गुणमूलक सम्राट मौर्य चन्द्रगुप्तके समय उत्तर भारतमें १२ वर्णव्यवस्थाका वर्णन है-'साधु प्रकृति-पुरुषोंको ही ब्राह्मण वर्षका एक बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसके कारण साधुचर्या कहना चाहिए, कारण वे ही लोग सब प्राणियों पर दया कठिन हो गई थी। अतः श्रुतकेवी भद्रबाहके नेतृत्व में रखते हैं। पाठ हजार मुनियोंका संघ उत्तर भारतसे दक्षिण भारत वैदिक वर्णव्यवस्थामें कृषि शूद्रका हो कर्म है तब चला गया था। मेघवर्षाके बिना साधुचर्या नहीं रह सकती कुरल अपने कृष अध्याय में उसे सबसे उत्तम पाजीविका यह भाव उस समय सारी जनतामें छाया था, इसलिए बताता है क्योकि अन्य लोग पराश्रित तथा परपिण्डोपजीवी कुरनके कर्ताने उसी भावसे प्रभावित होकर 'मुनि स्तुति' हैं। जेन शास्त्रानुसार प्रत्येक वर्ष वाला व्यक्ति कृषि कर नामक तृतीय अध्यायके पहले 'मेघ महिमा' नामक द्वितीय सकता है। अध्यायको लिखा है। साधुस्तुतिके पश्चात् चौथे अध्यायमें उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग। मंगलमय धर्मकी स्तुति की गई।
और कमाई अन्यकी, खाते बाकी लोग ॥
नता
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किरण ५]
[ १७१
कुरलका महत्व और जैनकतृत्व
जैन शास्त्रों में नरकोंको 'विवर' अर्थात बितरूपमें पच उद्धणमेंमें देकर उसे पादरणीय जनग्रन्थ माना है। तथा मोष स्थानको स्वर्गलोकके ऊपर माना है। कुरनमें
२. नीलकेशी-यह तामिलभाषामें जनदर्शनका ऐसा ही वर्णन है; जैसाकि उसके पद्योंके निम्न अनुवादसे
प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र है। इसके जैन टीकाकार अपने प्रकट है
पक्षके समर्थन में अनेक उद्धरण बड़े भादरके साथ देते है, जीवनमें ही पूर्वसे कहे स्वयं अज्ञान। जैसे कि 'हम्माट्टू' अर्थात् हमारे पवित्र धर्मग्रन्थ कुरजमें भहो नरकका छविल, मेरा अगला स्थान ॥ कहा है। 'मेरा' मैं ? के भाव तो, स्वार्थ गर्वके थोक ।
३. प्रबोधचन्द्रोदय-यह तामिलभाषामें एक न टक जाता त्यागी है वहाँ, स्वगोपरि जो लोक ॥
है, जो कि सस्कृत प्रबोधचन्द्रोदयके माधार पर शंकाच र्यमामृतक एक पद्यम प०अाशाधाजान प्राचीन के एक शिष्य द्वारा लिखा गया है। इसमें प्रत्येक धर्मके जैन परम्परासे प्राप्त ऐसे चौदह गुणोंका उल्लेख किया है प्रतिनिधि अपने अपने धर्मग्रन्थका पाठ करते हुए रंगमंच जो गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने वाले नर-नारियोंमें परिलक्षित पर लाये गये है। जब एक निग्रंथ जैन मुन स्टेज पर होने चाहिये, वह पद्य इस प्रकार है
पाते हैं तब वह कुरलके उस विशिष्ट पद्यको पढ़ते हुए न्यायोपात्तधनो यजन गुणगुरुन सद्गस्त्रिवर्ग भजन, प्रविष्ट होते हैं जिनमें अहिंसा सिद्धान्तका गुणगान इस अन्योऽन्यानुगुणं तदहगृहिणी स्थानालयो ह्रीमयः। रूपमें किया गया है:युक्ताहारविहारआर्यसमितिःप्राक्षः कृतज्ञो वशी,
सुनते हैं बलिदानसे, मिलतीं कई विभूति । शृण्वन् धर्मावधि दयालु रघभीः सागरधर्म चरेत् ।। वे भव्योंकी दृष्टि में, तुच्छघृणा की मूर्ति ॥ हम देखते हैं कि इन चौदह गुणांको व्याख्याही सारा
यहाँ यह सूचित करना अनुचित नहीं है कि नाटिककुरल काव्य है।
कारकी दृष्टिमे कुरल विशेषतया जैमग्रन्थ था, अन्यथा वह ऐतिहासिक बाहरी साक्षी
इस पद्यको जैन संभ्यामीके मुखम नहीं कहलाता। १. शिलप्पदिकरम-यह एक तामिल भाषाका इस अन्तरंग और बहिरङ्ग साक्षीसे इस विषयमें अति सुन्दर प्राचीन जनकव्य है। इसकी रचना ईसाकी सन्दहक लिए प्रयः कोई स्थान नहीं रहना कि यह अन्य द्वितीय शताब्दीमे हुई थी । यह काव्य, काव्यकला- एक जैन कृति है । निःसन्देह इस नीतिके प्रन्यकी की दृष्टिस तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही तामिल जाति रचना महान् जैन विद्वान के द्वारा विक्रमकी प्रथम की समृद्धि, सामाजिक व्यवस्थाओं श्रादिके परिज्ञानके शताब्द के लगभग इस ध्येयको लेकर हुई है कि लिए भी बढा उपयोगी है; और प्रचलित भी पर्याप्त है अहिंसा सिद्धान्तका उसक सम्पूर्ण विवधरूपों में प्रतिपादन इसके रचयिता चेश्वशके लघु युवराज राजर्षि कहलाने किया जाये। लगे थे। इन्होंने अपन शिलप्पदिकरम्ने कुरलके अनेक
(अपूर्ण)
साहित्य परिचय और समालोचन
पुरुषाथमिद्धयपायटीका भूनकर्ता घाचार्य सम्पज्ञान औः सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रयके स्वरूपादिका अमृतचन्द्र टीकाकार, पं. गाथूरामजी प्रेमी, बम्बई विवेचन किया है इस प्रन्थपर एक प्रशाद कर्तृक प्रकाशक परमश्रत प्रभावक मण्डल जौहरी बाजार, बम्बई संस्कृत टीका जयपुरके शास्त्र भण्डारमैं पाई जाती है और नं.२ । पृष्ठ संख्या १२० । मूल्य दो रुपया। दो तीन हिन्दी टीकाएं भी हो चुकी है परन्तु प्रेमीजीने इस
प्रस्तुत ग्रन्थमें प्राचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थ सिद्धि के टीका को बालकोपयोगी बनानेका प्रयत्न किया है। टीकामें उपाय स्वरूप भावक धर्मका कथन करते हुए सम्यग्दर्शन अन्वयार्थ और भावार्य दिया गया है और यथास्थान
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१२]
अनेकान्त
किरण
फुटनोटोंमें उसके विषय के स्पष्टी करबकी सूचना भी दूसरे सिंह कविने अपनी रचना, भयवाड (सिरोही) दी गई। इस कारण टीका सरल और विद्याथियोंके में वहांके गुहिल वंशीय राजा मुलणके राज्यक बमें,' लिये सुगम होगई है-उसकी सहायतासे के प्रयके जो मालव नरेश बल्लालका मोडलिक सामन्त था और विषयको सहज ही समझ सकते है। यह संस्काय अपने जिसका राज्यकाल विक्रम संवत १२..के पास पास पिछले संस्करणों की अपेक्षा संशोधन दिके कारण खास पाया जाता है। अपनी विशेषता रखता है।
बास्नालकी मृत्युका उल्लेख अनेक प्रशस्तियों में प्रस्तावनामें प्राचार्य अमृतचन्द्रका परिचय देते हुए
मिलता है। बड़नगरसे प्राप्त कुमारपाल प्रशस्तिके १५ उन्हें विक्रमकी १२वीं शताब्दीका विद्वान सूचित किया
रखोकोंमें बल्लाल और कुमारपालकी विजयका उल्लेख गया है, जो ऐतिहानिक दृष्टिसे विचारणीय है ।
किया मया है और लिखा है कि कुमारपालने लालका जबकि पहावली में प्राचार्य अमृतचन्द्रको विक्रमकी 10वीं
मस्तक महलके द्वार पर लटका दिया था। चुकि शताब्दीका विद्वान बतलाया गया है। साथ ही, प्रेमीजीने
कुमारपालका राज्यकाल वि.सं. 1 से वि.सं. अन्य कति सम्बन्ध नरा प्रकाश डालते हुए, पशुण्ण
१२२६ तक पाया जाता है और इस बड़नगर प्रशस्तिका चरितके कर्ता सिंहकषिके गुरु मनधारी माधवचन्द्रके
काल मन् ॥ (वि.सं. १२०८) है । अंतः शिष्य भमि या अमृतचन्द्रको पुरुषार्थसिखयुपायके कर्ता
बरनाल की मृत्यु A. D. (वि० सं० २०८) होने की संभावना भी व्यक्त की है।
से पूर्व हुई है। परन्तु ऐतिहासिक रष्टिसे प्रेमीजीकी उक धारणा
___ कुमारपाल, यशोधवल. बल्लाल और चौहान राजा
पर्योराज ये सब राजा समकालान हैं । अतः प्रन्थअथवा कल्पना संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि प्रथम तो
प्रशस्तिगत कथनको दृष्टिमें रखते हुए यह प्रतीत होता अमृतचनका समय विक्रम संवत् १०१५ से बादका नहीं
है कि उक प्रद्युम्नचरित की रचना वि.सं. १२.८ से होमलता । कारण कि 'धर्मरत्नाकर' के कर्ता जयसेनने जो पाल बारसंघ विद्वान भावसेनके शिष्य थे। जयसनने
पूर्व हो चुकी थी।
अन्य प्रशस्तिमें उल्लिखित अमृतचन्द्र. माधवचन्द्र के अपना उमंग वि.संवत् १०१५ में बनाकर समाप्त किया
शिष्य थे जो 'मलधारी' उपाधिसे अलंकृत थे। भट्टारक है। उस प्रथमें प्राचार्य अमृतचन्नके पुरुषार्थसिद्धयुपाय के पच पाये जाते हैं। साथ ही, सोमदेवाचार्यके
अमृतचन्द्र तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शीलके यशस्तिलकचम्पूके भी... से उपर पद्य उद्धत हैं।
रत्नाकर (ममुद्र) थे। तर्क रूपी लहरोंसे जिन्होने परमतको
मंकोलित कर दिया था-डगमगा दिया था जो उत्तम अतः अमृतचन्द्रका समय वि० सं० १०५५ संवादका
व्याकरणरूप पदोंके प्रसारक थे । और जिनके ब्रह्मचर्य के नहीं हो सकता x।
तेजके पागे कामदेव दूरसे ही वंकित (खंडित) होनेकी अब रही, 'पशुपणचरितके कर्ता सिंहकविके गुरु
प्राशंकासे मानों छिप गया था-कामदेव उक्त मुनिके अमृतचन्द्र के साथ एकत्वका बात । सा दाना अमृतचन प्रचण्डजके अमृतचन्द्र भागे या नहीं सकता था। भिव्यक्ति है । पुरुषार्थसिद्धयुपायके कर्ताको पं०
अर्थात् मुनि पूर्ण ब्रह्मचारी थे। भाशाधर जीने 'उपकुरोप्याह' वाक्यके साथ उल्लेखित
प्राचार्य अमृतचंद्रके गुरुका अभी तक कोई नाम ज्ञात लिया जिससे वे ठाकुर-पत्रिय राजपूत ज्ञात होते हैं।
नहीं हुआ। वे अध्यात्मवादके अच्छे ज्ञाता और प्राचार्य जब कि 'पञ्चवक्षचरिउको प्रशस्तिमे ऐसी कोई बात
कुन्दकुन्दके प्रभृतत्रयके अच्छे मर्मज्ञ थे। न्यायशास्त्र
भी विद्वान थे। परन्तु वे प्रद्युम्न परितके कर्तासे बहुत देखो, अनेकान्त वर्ष - किरण में 'धर्मरत्नाकर पहले हो गए हैं। उनका समम विक्रमकी १.वी
और जयसेन नामके प्राचार्य नामका लेख। शताब्दीसे बाद नहीं हो सकता। x देखो भनेकान्त वर्ष ८ कि....11 में प्रकाशित
परमानन्द जैन शास्त्री 'महाकविसिंह और प्रयुम्नचरित' नामकाल
.देखो, सन् कीदनगर प्रशस्ति ।
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महत्वपूर्ण प्रवचन
(श्री 108 पूज्य पुस्तक गणेशप्रसादजी वर्णी) साधु कौन है ?
तब साधुने पाशीर्वाद दिया 'मार्जारो भव' इससे बह रही
विसाव हो गया। एक दिन पड़ा कुत्ता प्राया, वह विवाद जिन्होंने बामाम्यन्तर "परिग्रहका त्याग कर दिया
हर गया और साधुसे बोखा प्रभो! 'सुनो विभेमि' पर्वाद वह साधुहै। सचमुच में देखा जाय ती शांतिका स्त्रोत
मैं इसे बरता हूँ । साधु महारामने भाशीर्वाद दिया केवल एक निन्य अवस्थामें ही है। यदि त्यागी वर्ग
'श्वा भव', अब वह मार्जार कुत्ता हो गया। एक दिन हों तो भाप बोगीको ठीक राह पर कौन जगावे ।
बनमें महाराजके साथ कुलाबा रहा था अचामक मार्गमे
ब्यान मिल गया । कुत्ता महाराजसे पाखा-'प्यावाद अज्ञानतिमिरीन्धानां ज्ञानाम्जन शलाकया।
विभेमि' अर्थात् मैं ध्यानसे डरता हूँ तर महाराजने चतुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवेनमः॥
भाशीर्वाद दिया. कि'यानो भव अब वह ज्यान हो गया। समस्त संसारी प्राणी अज्ञानरूपी तिमिर (अंधकार) जब म्यान उस तपोवनके सब हरिण माद पशुओंको खा से व्यास है। ज्ञानरूपी अंजनकी शखाकासे जिन्होंने हमारे पुका तब एक दिन साधु महाराजके हो ऊपर मपटने लगा। नेत्रोंको खोल दिया है ऐसे श्री गुरुवरको नमस्कार है। साधु महाराजने पुनः पाशीर्वाद दे दिया कि 'पुनरपि मूषको
जो प्रास्माका साधन करता है, स्वरूप में मग्न हो कर्म- भव' अर्थात् फिरसे चहा हो जा। तात्पर्य यह कि हमारे मलको जन.नेकी चेष्टा करता है वह साधु है। समन्तभद्र पुण्योदयसे यह मानव पर्याय प्राप्त हो गई, उत्तम कुल स्वामीने बतलाया कि वही तपस्वी प्रशंसाके योग्य है और उत्तम धर्म भी मिल गया अब चाहिये पहया कि जो विषयाशासे रहित है, निराम्भी है अपरिग्रही है, कि किसी निर्जन स्थानमें जाकर अपना प्रात्मकल्याण करते, और ज्ञान-ध्यान-तपमें पासक हैं। वह स्व समय परन्तु यहां कुछ विचार नहीं है । तनिक संसारकी हवा मौर पर समयकी महत्तासे परिचित है। प्राचार्य कुन्द- लगी कि फिरसे विषय-वासनामोंको कीचबमें जा फंसे। कुन्दने स्वसमय और पर समयका स्वरूप इस प्रकार अब तो इन वासनामोंसे मनको मुक्त करके प्रात्महितकी बतलाया है :
मोर जगायो। 'गुणपर्ययवद्न्य म्' पास्माकी गुण जीवो चरित दंपण णाणितं हि ससमय जाण।
पर्यायको जानो स्याहाद द्वारा पदार्थोके स्वरूपको जान पुग्गल सम्मपदेसढियंच जाण परसमयम् ॥
लेना प्रत्येक प्राणि-मात्रका कर्तव्य है। जो प्रात्मा दर्शन, ज्ञान, तया चारित्रमें स्थित है वही संसारका सापेक्षव्यवहार 'स्व समय है और जो पुद्गक्षादि पर पदार्थो स्थित अब देखो, वक्तृत्व व्यवहार भी श्रोतृत्वकी अपेवास है उनको 'पर समय' कहते है । तथा 'पद्वारमाश्रितः होता है। हम वक्ता हैं माप सब श्रोतामों की अपेक्षासे इसी रखसमयो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणामाश्रितः परसमय तरह मोतापन भी वक्तापनेकी अपेक्षा व्यवहारमें जाता। इति । अर्थात् जो शुद्धामाके माश्रित है वह स्वसमय है इन्य अनंत धर्मारमक है। एक पदार्थ स्वसत्तासे प्रस्ति और और जो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणार्मोके माश्रित परसत्ताकी अपेक्षा मास्ति है। देखा जाय तो उस पदार्यने है उसे ही परसमय कहते हैं। परसमयसे हटकर अस्ति नास्ति दोनों धर्म उसी समय विद्यमान है। स्वसमयमें स्थिर होना चाहिये । परन्तु हम क्या कहें माप "स्थपरोपादानापोहनव्यवस्था मात्र हि बबु वस्तुनो लोगोंकी बात।
बस्तुरवं" बस्तुका वस्तुत्व भी यही है कि स्वल्पा मा एक साधुके पास एक चूहा था। एक दिन एक पिल्ली दान और परस्पका अपोहन हो। यह पतित पावन आई और वह चूहा डरकर साधु महाराजसे वोला-भग- शब्द है। पावन व्यवहार भी होगा जब कोई पतितके बन् ! 'मार्जाराद विभेमि' अर्यात मै बिस्सीसे बरवा। पतिवदीन होता पावन कौन कहलायेगा!
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१७४]
अनेकान्त
[किरण
इस भाँति वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामन्या- पर विरुताको मामास नहीं होता किन्तु विरोध एकान्तपेचासे वस्तुमें अभेद और विशेषापेक्षासे उसमें भेद सिद्ध टिके अपनानेसे ही होता है। एकान्तता ही प्रसाधुता है होता है। सर्वेषां जीवनां समाः" अर्थात् सब जीव उससे भास्मा संसारका ही पात्र बना रहता है। समान में यह कहनेका तात्पर्य जीवस्वगुणकी अपेक्षासे है। जीव और पुद्गल के संसर्गसे यह संसारावस्था हुई है। पही जीवस्व सिद्धावस्थामें भी है और संसारीजीवीके जीव अपने विभावरूप परिणमन कर रागी-द्वेषी हुआ है संसारावस्था में भी है परन्तु जहाँ सब सिद्ध अनंतसुखके और पुद्गल, अपने विभावरूप और इस तरह इन दोनों पारी हैं वहाँ हम संसारी जीव तो नहीं हैं। हम दुःखी है। का बन्ध एक क्षेत्रावगाही हो गया है। इस अवस्थामें यह सब नय विभागका कथन है।
जब हम विचार करते हैं मालूम पड़ता है कि यह एकमाताको पाप जिस प्टिसे देखते हैं तो क्या प्रारमा बद्धस्पृष्ट भी है और अब स्पृष्ट भी । कर्मसम्बन्ध अपनी स्त्रीको मी उसी रष्टिसे देखेंगे और कदा की ष्टिसे विचार करते है तो यह बदस्पृष्ट भूतार्थ हे, चित् भाष मुनि हो जाये तो क्या फिर भी पाप उसी तरह इसमें सन्देह नहीं. और जब केवल स्वभावकी ष्टिसे देखते से कटारा करेंगे महाराज हैं (प्राचार्य सूर्यसागर जी है तो यह अभूतार्थ भी है। सरोवरमें कमलिनीका जिसको की ओर संकेत कर) किसी गृास्थी के यहाँ जब ये पर्या- जलस्पर्श हो गया है इस दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह के निमित्त जाते हैं तो श्रावक किस बुद्धिसे इन्हें माहार पत्र जनमें लिप्त है यह भूतार्थ है परन्तु जलस्पर्श छू नहीं दान देता है। और वहा श्रावक किसी दुल्लक ( एकादश मकता है जिसको ऐसे कमलिनीके पत्रको स्वभावकी दृष्टिसे प्रतिमा-पारी भावक) को किम बुद्धिसे देता है और अवलोकन करते हैं तो यह प्रभूतार्थ है क्योंकि वह जलसे कदाचित-वह श्रावक किसी कालको आहार देवे तो अलिप्त है। अतः अनेकांतको अपनाए बिना वस्तु-स्वरूपबह किस खिसे देगा। मुनिका वह श्रावक पूज्य बुद्धिसे को समझना दुश्वार है। नानापेक्षासे प्रात्म-ज्ञान करना माहारदानदेयेगा और उसकालेको बह करुणाखिसे, या बदी बात है 'समावितन्त्र' में श्रीपूज्यपादस्वामी काला यदि उससे यह कहे कि मैं इस तरहसे थाहार नहीं लिखते हैंलेता । मै तो उसी तरह नवधा भक्तिपूर्वक लूगा, जिस
यन्मया दश्यते रूपं तन्न जानाति मर्वथा । - तरह तुमने मुनिको निया है तो अब हम आपसे पूछते है जानम्न दृश्यत रूप ततः केन अवाभ्यम्।। क्या हम उसी तरह पाहार दे देवेंगे? नहीं। उससे यहीं
अर्थात् इन्द्रियांके द्वारा जो यह शरीरादिक पदार्थ करेंगे कि भाई! अगर तू भी-मुनि बन जाय भोर दिखाई देते हैं वह अचेतन होनेसे जानते नहीं है । और जो पथ शोधर चलने लगे तो तुझे भी दे सकते हैं। पदार्थोको जानने वाला चैतन्यरूप प्रारमा है वह इन्द्रियोंके,
तिजकने गीता-रहस्य" में लिखा है कि 'गौ-वाक्षण- द्वारा दिखाई नहीं देता, इसलिए मैं किसके साथ बात की रक्षा करनी चाहिये। गौ और ब्राह्मण दोनों जीव हैं करूं । यह पण्डितजी हैं, इनसे हम बात करते हैं तो तोक्या इसका मतलब यह हुआ कि गौका चारा ब्राह्मणको जिसमे हम बात कर रहे हैं वह तो दिखना नहीं है और
देखें और ब्राह्मणका हलुमा गायको डाल देवेंद्रन्यका जिससे हम बात कर रहे हैं वह अचेतन होनेसे समझता सदेव अपेक्षासे कथन किया जाता है। कोई वस्तु किस नहीं है। इसलिए सब झंझटोंसे छूटकार विभावभावोंका प्रपेचासे कही गई है यह हम सममलेवें तो संसारमें कभी परित्यागन कर स्वभाव में स्थिर रहनेका यह क्या ही उत्तम विसंवाद ही पैदा न हो।
उपाय है। वही स्वामीजी भागे लिखते हैंयह बदका किसका है। क्या यह अकेली स्त्री का ही यत्परः प्रतिपायोऽहं यत्परान् प्रतिपादये।
नहीं तो क्या केवल पुरुष का है नहीं! दोनों (म्बी उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदह निर्विकल्पकः ।। पक्ष) के सयोगावस्थासे बड़का उत्पन्न हुमा है। जिस । जो प्रतिपादन करता है वह तो प्रतिपादक कहलाता है वरह यह सब कथन सापेक्ष है उसी तरह साधुता और और जिसको प्रतिपादन करना चाहते हैं वह प्रतिपाय कहप्रसाधुताका कथन भी सापेक्ष है। क्योंकि वस्तुका स्वभाव लाता है। वो कहते है कि यह सब मोही मनुष्योंकी अनन्त धर्मात्मक है उनका सापेपरष्टिसे व्यवहार करने पागलों जैसी चेष्टा है। यदि ऐसा ही है तो हम इन्हींस
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किरण ५] महत्वपूण प्रवचन
[ १७५ पढ़ते-महाराज! फिर पाप ही यह उपदेश, रचना रागद्वेषादिमय बतलाते हैं किन्तु ये तो पुद्गलके सम्बन्धसे चातुरी भादि कार्य क्यों करते है तो इससे मालुम परता उत्पन विभावमाव है। भवःजो जो भाव परके सम्बन्धसे है कि मोहके सद्भावमें सब व्यवहार खलते है यह असत्य होंगे वे कदापि जीवके नहीं कहलाये जा सकते क्योंकि यहाँ नहीं, सत्य है।
तो जीवके शुख स्वरूपको बतलानान । माथे पर तेल यह लोक पद्धव्यत्मक है जिसमें सब दम्य परस्पर पोतलो तो वह चिकनाई तेलको ही कहलाई जायेगी। मिले हुए एक दूसरे का चुम्बन करते रहते हैं। इतना होने इसी तरह समस्त राग-द्वेष मोहाविककी कल्लोलमालाएँ पर भी सब अपने अपने स्वरूप में समय है। कोई द्रव्य पुद्गल प्रकृतियों से उत्पन हुए विभाव भाव हैं। इससे यह किसी द्रव्यसे मिलता जुलता नहीं है पर फिर भी एक सिद्ध हुआ कि वह (जीव) चित्स्वरूप चिक्तिमात्र धारण पर्यायसे दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है और संसारका व्यव. करता हुमा शुद्ध टंकोत्कीर्ण एक विज्ञानघनस्वभाव प.ला है हार चलता रहता है।
सब प्राणियों में एक समान पाई जाने वाली चीज है। यहाँ जैनधर्ममें त्यागका क्रम
किसी का भेद-भाव नहीं है। वस्तुस्थितिका ज्ञान सबके
लिये परमावश्यक है। जैनधर्ममें सहव क्रम-प्रमसे ही कथन किया गया है।
सोही थी। वहाँ दो अच्छे धना-मना पहले उपदेश दिया जाता है कि अशुभोपयोगको छोरो और शुभोपयोगमे वर्तन करो और जो प्राणी शुभोपयोगमें
आदमी पास-पास अगल-बगल में बैठे हुए थे और बीच में
एक साधारण स्थितिका मनुष्य मा बैठा था अब वह परो स्थिर है उससे कहते हैं, भाई यह भाव भी संपार बंधन
सने वाला व्यक्ति इधर-उधर पूदियोंको दिखाकर उन सेठीमें डालने वाला है। अतएव इसको भी त्यागकर शुद्धो
से बोला-देखो! क्या बढ़िया पूड़ी है। बड़ी कोमल और पयोगमें वर्तन कर । कुन्दकुन्दाचार्य एक जगह कहते हैं कि
मुलायम है। एक तो पापको अवश्य खेनी चाहिये। परंतु प्रतिक्रमण भी विष है। अतः जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष
उस बीचवाले मनुष्यसे कुछ कहा। भनिन्छासे वह रूप कह दिया वहाँ अप्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण नहीं करनेको - अमृतरूप केसे कहा जा सकता है। शुद्धोपयोग प्राप्त
कहता भी तो तुरन्त ही वहाँसे हटकर उनको फिर दिखाने करना प्राणी मानाका ध्येय होना चाहिये । यह अवस्था
लगता । वह मनुष्य देखता ही रह जाता इस तरह दो जब तक प्राप्त नहीं हुई तब तक शुभोपयांगमें प्रवर्तन
बार हुना, तीन बार हुमा। जब चौथी बार पाया तो
उसने उठकर एक चाँटा रसीव किया और बोला-बेवकूफ, करना उत्तम है। अतएव कम क्रममे चढ़नेका उपदंश है। सोनोपजोधार बार इनको दिखाकर परोसता तात्पर्य यही है कि यदि मनुष्य अपने भावों पर दृष्टिपात
योडीको आताक्या मैं यहाँ खाने नहीं करे तो संसार बन्धनसे छुटना कोई बड़ी बात नहीं है।
।। माया मुझे क्यों नहीं परोसता इतना जब उससे कहा एक बार भी यह प्राणी अपनो अज्ञानताको मेट नवे तो उसकी अक्ल ठिकाने पर आई। तो कहनेका वह परम सुखी हो सकता है।- प्रज्ञान क्या है? ज्ञाना- पायही कि वह वस्तु-स्वरूप सबका है। अपने वरणी कर्मके योपशममें जहाँ मिथ्यात्व लगा हुया है सपना बोध सबको हो सकता है उसमें किसी वही अज्ञान है। उस प्रज्ञ नका शरीर मोहमं पुष्ट होना प्रकारका भेद-भाव नहीं है। है। और उसके प्रसादमे ही यह विचित्र लीला देखने में
अब यहाँ जीव और अजीवका मेद दिखताते हैं 1परपा रही हैं। अतः प्रारम-ज्ञानकी बड़ी मावश्यकता है।
को ही प्रात्मा मानने वाले कोई मूढ कहते है 'मध्यवसान जिमने प्राप्त कर लिया वही मनुष्य धन्य है और उसीका
ही जीव है।' अन्य कोई नो कर्मको जीप मानते हैं। कोई जीवन सार्थक एवं सफल है।
कहते है कि साता और अमाताके उदयसे जो सुख दुख जीव और अजीवका भेद-विज्ञान
होता है वह जीव है। कोईका मत है कि जो संसारमें ___ यह जीवाजीवाधिकार है। इस अधिकार में जीव और भ्रमण करता है उसके अतिरिक और कोई जीव नहीं है। मजीव दोनांके अलग अलग लक्षणों को कहकर जीवके शुद्ध- कोई कहते हैं कि पाठ काठीकी जैसे खाट होती इसके स्वरूपको दिखाना कर्ताको अभीष्ट है। कोई जीवको केवल अलावा और खाट कोई चीज नहीं है उसी तेरामा
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१७४]
अनेकान्त
[किरण
काँका संयोग ही जीव और जीव कोई जीव तिस पर भी यह अत्यंत बढ़ा हुमा महामोह मज्ञानियोंको नहीं है। इस प्रकारके तथा अन्य प्रकारके बससे व्यर्थ ही अनेक प्रकारसे नाच नचाता हुमा उन्हें यजामामत जीवको मान्यता विषयमें है परन्तु इनमेंसे नुभूविसे वंचित रखता है। भाचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! कोई भी मत सत्य नहीं है। सब भ्रममें हैं क्योंकि दूव्यर्थ कोलाहलासे विरक्त होकर चैतन्यमान वस्तुको देख, ये सब जीव नहीं है। जो अभ्यवसानादि भावोंको दय-सरोवरमें निरंतर विहार करनेवाला ऐसा वह भगही जीव बनाते है उनके प्रांताचार्षकहते हैं कि सभी वान् मारमा उसका यदि षण्मास पर्यंत भी अनुभव करे भाव पौद्गलिक हैं। ये कदापि स्वभावमय जीव द्रव्य नहीं तो मुझे पारम-तस्वकी अवश्य उपलब्धि हुए बिना न रहे। हो सकते,इन रागादि भावोको जो जीव भागममें बतलाया सुखके लिए तू अनन्तकालसे निरन्तर भटक रहा है पर है वह व्यवहारनयसे है किन्तु वे वस्तुतः जीव नहीं है। सच्चा वास्तविक) सुख तुझे अभी तक प्राप्त नहीं था। इसी प्रकार जो यह प्रलाप करते हैं किसाता और असमतासे इसका कारण क्या है? यह खोजनेका प्रयास भी नहीं किया। उत्पन्न सुख दुःखादि हैं वह जीव है उनको कहते है, काम कैसे बने किसीने कहा मरे, वेरा कान कौमा लेगया भाई ! सुख दुखादिका जिसको अनुभव होता है वह जीव किंतु मूरखने अपना हाथ उठाकर काम पर नहीं देखा। . है। जो संसारमें भ्रमण करता है वह जीव हैं ऐसी जिसकी कान कहाँ चला गया। इसी तरह कोई यह कहे कि हमारे मान्यता है उनके लिए कहते हैं कि इस भ्रमणके अतिरिक्त तो पीठ ही नहीं है परन्तु तनिक हाथ पीछे मोड़कर देखा जो सदा शाबता रहने वाला है वह जीव है। जैसे पाठ होता। कहीं नहीं गई है। अपने ही पास है। केवल उस काठीके संबोगसे जो खाट कहलाती है वैसे कि पाठ कौके तरफ लक्ष्य करने की भावश्यकता है। संयोगसे उत्पन्न जीव नहीं है किन्तु जिस प्रकार पाठ- प्रात्माका प्रशान्त स्वभाव काठीसे बनी हुई खाट उस पर शयन करनेवाला व्यक्ति एक 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक है--उसमें लिखा है, भैया जिन उसी तरह पाठकोंके अतिरिक्त जो कई वस्तु एक सभाभवन में नट और नटी पाये। नटने नटीसे कहा कि है वह जीव है।
आज इन श्रोताश्रीको कोई एक अपूर्व नाटक सुनायो। जब यह सिद्ध हो चुका कि वोदिक या रागादिक अपूर्व ऐसा जो कभी उन्होंने सना नहीनटी बोली प्रार्थ! भाव जीव नहीं है तब सहज ही यह प्रश्न होता है कि ये संसारी प्राणी रात्रि-दिवस विषयों में लीन परिग्रहोकी जीव कौन है? ऐसा प्रश्न होने पर प्राचार्य कहते है--
चिताम्मे भाराम.त तथा चाहकी दाहसे दग्ध इनको ऐसी अनाथनंतमचलं स्वसवेद्यमिदं स्फुटम् । अवस्थामें सुख कहाँ ? तब नर कहने लगा प्रिये। ऐसी जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैक चकायते ॥
बात नहीं है। 'मामास्वभावोऽस्तु शांत: केनापि कर्ममता बहजीव बानायत है और स्वसंवेथ है केवल अपने
कलकारयोन प्रांतो जाता' अर्थात् आत्मा स्वभावसे से ही अपने द्वारा जानने योग्य है। जिसमें चैत यका शान्त किन्तु किन्हीं कर्ममन कलङ्ककारयोंसे बह प्रशांत बिबासाहो रहा ऐसा स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन रूप हो जाता है। बताइन उपद्रवोंको हटाकर शांत बनजामो जीव है जो स्वयं प्रकाशमय बोधरूप है।
क्योंकि शांतता (सुख) उमक सहज स्वभाव है। प्रत्येक अतः जीवमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं है। शरीर म्य अपने स्वभावमें रहकर ही शोभा पाता है। किंतु हम 'सं थान' संहनन भादि भी नहीं है। राग,ष, मोह, एवं लोगोंकी प्रवृत्ति होबाझ विषयों में लीन हो रही है। उन्हीं कर्म मोकर्म भाव भी नहीं है।
सुखकी प्राप्तिमें सारी शक्ति नगा रहे है।क्या हममें सहा योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान ही है और न सुख है। यही मोहकी महिमा है। पर वस्तुओं में सुखकी माययाण, स्थितिबन्धास्थान, संक्लेशस्थान ही क्योकि कल्पनाका मृगतृष्णासे अपनी पिपासा शांत करना चाहते ये सभी पुगनित क्रियाएँ हैं अतः वे कदापि जीवके हैं। सचमुचमें देखा जाय तो सुख प्रात्माकी एक निर्मच नहीं होगा।
पर्याय है। वह कहीं परमेंसे नहीं पाती, क्योंकि ऐसा इस प्रकार यह जीव और अजीवका भेद सर्वमा भित्र सिद्धांत है कि जिसकी जो बीज होती है वह उसीके पास इनकोशानीज स्वयं स्पष्टतया अनुभव करते है किन्तु रहती है। (फिरोजाबाद मेले में किया गया एक प्रवचन)
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुगतन-जैनवाक्य-मी-प्राकृतके प्राचीन ६४ मृल-प्रन्यांकी पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ४८ टीकादिनाम
उद्धत दृमरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्म-वाक्योको सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवंपणापूर्ण महन्यकी १७० पृष्ठको प्रस्तावनाये अलंकृत, डा. कालीदास नाग एम. ए, डी. लिट् के प्राक्थन (Firmword) और डा. ए एन. उपाध्याय एम. ए. डी लिट की भूमिका (Inuoduction) मे भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा माइज,
जिल्द (जिमकी प्रस्तावनादिका मृत्य अलगमे पांच रुपये है) (२) आप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज सीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुदर
मम्स और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युक, मजिल्द। (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्मृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टाने अलंकृत, मजिन्द। " (५) स्वयम्भूस्तांत्र-ममन्नभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय. समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण 1.६ पृष्ठकी प्रस्तावनाम सुशोभिा।
... (५) स्तुतिविद्या-म्वामी ममन्तभद्रकी अनोग्बो कृति, पापांक जीतनेकी कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुग्नारकी महत्वकी प्रस्तावनादिस अलंकृत सुन्दर जिल्द-पहित । (६. अध्यात्मकमलमार्तण्टु-पंचाध्यायीकार कवि राजमलकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-हित
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी बाजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित। (५) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसं परिपूर्ण ममन्तभद्रकी अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुअा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिस अलंकृत, मजिल्द । " ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " u) (E) शासनचतुस्त्रिशिका-(नीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-महित । ... (१०) मत्साध-स्मरगण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महानू प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणोंका
महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारीक हिन्दी अनुवादादि-सहित। (११) विवाह-समुहश्य-मुख्तारश्रीका लिम्बा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक और नाविक विवंचन ... .) । ५०) अनेकान्त-रस लहरी-अनेकान्त जसे गृढ गम्भीर विषयको अतीव सरलतासे समझने-समझानेकी कुजी,
मुग्नार श्रीजुगलकिशोर-निम्वित । (१३) अनित्यभावना~प्रा. पदमनन्दी की महन्धकी रचना, मुख्तार श्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्य सहित ।) (१.) तत्त्वार्थमृत्र-(प्रभाबन्द्रीय)-मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यास युक्त। " ) (१५, श्रवणबेल्गोल और दक्षिणक अन्य जैनतीर्थ क्षेत्रला . राजकृष्ण जैनको सुन्दर मचित्र रचना भारतीय
पुरानव विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टीनरामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनामे अलंकृत १) नं.ट-थे सब ग्रन्थ एकमाथ लेनेवालोंको ३८1) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, १दरियागंज, देहली
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
य
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००)बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१)बालोटेलालजी जैन सरावगी,
१०१) बा० काशीनाथजी, ... २५१)बा सोहनलालजी जन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी *२५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , १०१) बा० धनंजयकुमारजी ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन
१०१) बा. जीतमल जो जैन | २. १) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा० चिरंजीलालजो सरावगी , २५१) वा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली . २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरया. देहली ) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) श्री फतहपुर जन समाज. कलकत्ता ५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१००) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ ) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री सालमालादेवी पत्नी डा० श्रीचन्द्रजी, एटा १) सेठ शान्तिप्रसादजी जन
१०१) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकंदार, देहली २५१) बा०विशनदयाल रामजीवनजी, परलिया
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जेन, कलकत्ता २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहलो
१०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता ) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी डैन, देहली
१०१) बा० बद्रीदास श्रआत्मारामजी सरावगा, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हमलजी, देहली
१०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवाकट, हिसार ५ २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद
१०१) ला० बलवन्तसिंहजो, हांसी जि. हिसार २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१)कुँवर यशवन्तसिहजी, हांसी जिः हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची
१०१) सेठ जोखाराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
सहायक * १०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली *१०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली
१०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा लालचन्दजी जैन सरावगी
सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली । मुद्रक-रूप-चाणी प्रिटिंग हाऊस २३, दरियागंज, देहली
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मनकान्त
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
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योगेश्वर शिव
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विषय-सूची १ समप्रसारकी ची गाथा और श्रीकानजी स्वामी- ५ कुरलका महत्व और जैनकत्त स्व-[श्रीविद्याभूषण [सम्पादक ...
१७७ ५ ० गोविन्दराय जैन शास्त्री " २०० २ ऋषबदेव और शिबजी
६ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' का संशोधन[ले. बाबू कामताप्रसाद जैन .. १८५ [पं. दीपचन्द पाण्ड्या और रतनलाल ३ हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
कटारिया, केकड़ी .. २.. [ परमानन्द जैन शास्त्री ." १८८ . जिनशासन (प्रवचन) [कानजी स्वामी ... " ४ हिन्दी-जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान
दुःसह भातृ-वियोग-जुगलकिशोर मुख्तार टाइ.२ पेज [श्रीकुमारी किरणवाला जैन ... १९ श्री बाहुबलिजिन पूजाका अभिनन्दन टाइटिल ३ पेज
दुसह भ्रात-वियोग !! श्रीमान् बाबू छोटेलालजी और काबु नन्दलालजी कलकत्ताके पत्रोंसे यह मालूम करके कि उनके सबसे छोटे भाई लालचन्दजीका गत २२ अक्टूबर को देहान्त होगया है, बड़ा ही दुःख तथा अफसोस हुआ !! भादों की अनन्तचतुर्दशी तक लालचन्दजी अच्छे राजी खुशी थे और उस दिन उन्होंने सब मन्दिरों के दर्शन भी किये थे! पूर्णिमासे उन्हें कुछ ज्वर हा जो बढ़ता गया और आठ दिन उसीकी चिकित्सा होती रहो; बादको पेटमें जोरसे ददे प्रारम्भ हुआ जो किसी उपायसे शान्त न होनेके कारण पेटको चीरनेकी नौबत आई और कलकत्तेके छह सबसे बड़े नामी डाक्टरों तथा सिविन मर्जनोंकी देख रेखमें पेटका आपरेशन कार्य सम्पन्न हुआ और उससे यह जान पड़ा कि अग्निकी थेली में छिद्र होगये है जिनका होना एक बहुत ही खतरनाक वस्तु है । सब डाक्टरोंने मिलकर बड़ी सावधानीके साथ जो कुछ चिकित्सा की जा सकती थी वह की और जैसे तैसे १६ दिन तक उसे मृत्यु मुग्वमें जानेसे रोके रक्खा परन्तु अन्तको कालकी भयङ्कर झपेटसे वह न बच सका और सब साक्टरादि देखतेके देखते रह गये !!! इस दुःसह भ्रातृ वियोगसे दोनों भाइयों को जो सदमा पहुँचा है उमे कौन कह सकता है! अभी आपके बड़े भाई बाबू दीनानाथजीके वियोगको एक ही वर्ष होने पाया था और उससे पहले उनकी माताजी तथा दूसरे बड़े भाई गुलजारीलालजीका भी वियोग होगया था। इस तरह दो तीन वर्षके भीतर आपको तीन भाइयों
और एक माताजीका वियोग सहन करनेके लिये बाध्य होना पड़ा है, यह वड़ा ही कष्टकर है ! लालचन्दजीके पहली स्त्रीसे एक लड़का और एक लड़की (दोनों विवाहित) और दूसरी स्त्रीसे आठ बच्चे हैं. जिनकी बड़ी समस्या एवं चिन्ता दोनों भाइयोंके सामने खड़ी होगई है। इधर बाबू छोटेलालजी कई वर्षोंसे बीमार चले जाते हैं, ये सदमे और चिन्ताएँ उनके स्वास्थ्यको और भी उभरने नहीं देतीदस दिनको खड़े होते है तो फिर गिर जाते है और महीनोंके लिये रोगशय्या पर सवार हो जाते हैं। इसीसे जैन साहित्य और इतिहासकी सेवाके जो उनके बड़े मन्सूबे हैं वे यों ही टलते जाते हैं और कुछ भी कार्य हो नहीं पाता, यह उनके ही नहीं किन्तु समाजके भी दुर्भाग्यका विपय है जो ऐसे सेवाभावी सज्जनों पर संकट पर संकट उपस्थित होते चले जाते हैं। आपके इस ताजा संकटमें वीरसेवामन्दिर-परिवार अपनी संवेदना व्यक्त करता हुआ मृतात्माके लिये परलोकमें सुख-शान्तिकी भावना करता है और हृदयसे कामना करता है कि दोनों भाइयों और उनके तथा मृतात्माके सारे कुटुम्ब-परिवारको धैर्यकी प्राप्ति होवे ।
जुगलकिशोर, मुख्तार
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त्ति
पवतत्व-प्रकर
वाषिक मूल्य ५)
एक किरण का मूल्य )
नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्पा। परमागमस्यबीज भुवनेकरारुर्जयत्यनेकान्तः।
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
नवम्बर किरण ६ कार्तिक वीरनि० संवत् २४००, वि. संवत २०१०
१९५३ समयसारकी १५वीं गाया और श्रीकानजी स्वामी
[सम्पादकीय] प्रास्ताविक--
प्रत्यक्ष भी चर्चा चलाई गई पर सफल मनोरथ नहीं हो श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी कृतियों में 'समयसार' एक सका। और इसलिये मैंने इस गाथाकी म्यास्याके लिये
नपानका १००) रुपएके पुरस्कारकी एक योजना की और उसे अपने विषय बना हुआ है। इसकी १५वीं गाथा अपने प्र लत
१००).के पुरस्कारोंकी उस विज्ञप्तिमें मप्रस्थान दिया
जो गतवर्षके अनेकान्तकी संयुक किरण नं.-में रूपमें इस प्रकार है
प्रकाशित हुई है। गाथाकी व्याख्यामें जिन पाठोंका स्पष्टीजो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं।
करण चाहा गया वे इस प्रकार है:अपदेससंतमझ पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥१५॥
() मारमाको अबस्पृष्ट, अनम्य और अविशेषरूपसे इसमें बतलाया गया है कि 'जोपास्माको प्रबद्धस्पृष्ट देखने पर साजिनशासनको सेरेला . अनन्य और अविशेष जैसे रूपमें देखता है वह सारे जिन- (8) उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस द्रष्टाकेद्वारा शासनको देखता है। इस सामान्य कथन पर मुझे कुछ पूर्णतः देखा जाता है? शंकाएं उत्पन्न हुई और मैंने उन्हें कुछ प्राध्यात्मिक (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वाति विद्वानों एवं समयसार-रसिकोंक पास भेजकर ग्नका समा- और प्रकलंक जैसे महान् प्राचार्या द्वारा प्रतिपादित धान चाहा अथवा इस गाथाका टीकादिके रूपमें ऐसा अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या मित्र है। स्पष्टीकरण मांगा जिससे उन शंकाचोंका पूरा समाधान (७) यदि मित्र नहीं है वो इन सबके द्वारा प्रतिपादित एवं होकर गाथाका विषय स्पष्ट और विशद हो जाए । परन्तु
संसूचित जिनशासनके साथ उसकी संगति में कहींसे कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुमा। दो एक विद्वानोंसे बैठती है?
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भनेकान्त
किरण ६
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(२) इस गाथामें 'पदेससंतमज्म' नामक जो पर पाया पूर्वाधको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष दो विशे
जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेससुत्तमज्झ' पणोंको उपखपणके द्वारा प्रहण किया जा सकता रूपसे भी उस्लेखित करते हैं.जसे जिणशास पदका था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया; सब क्या इसमें विशेष बतलाया जाता है और उससे द्रष्यत तया कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट हुनेकी जरूरत है। भावनवका भी अर्थ लगाया जाता है, यह सब कहाँ अथवा इस गाथाके अर्थ में उन दो विशेषणोंको ग्रहण तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ और
काना युक्त नहीं है। सम्बन्ध क्या होना चाहिए?
विज्ञप्लिके अनुसार किसी भी बिहानने उकगाथाकी () श्रीमतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थ विषयमें मौन है ज्याझ्याके रूपमें अपना निबन्ध भेजनेकी कृपा नहीं की,
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें यह खेदका विषय है। हालांकि विज्ञप्तिमें यह भी निवेदन प्रयुक हुए शब्दोंको देखते हुए कब खटकता हुआ किया गया था कि 'जो सज्जन पुरस्कार लेनेकी स्थिति में भान पड़ता है, यह क्या डीकं है अथवा उस अर्थ में न हों अथवा उसे लेना चाहेंगे उनके प्रति दूसरे प्रकारसे खटकने जैसी कोई बात नहीं है।
सम्मान व्यक्त किया जायगा। उन्हें अपने अपने इष्ट एवं . (6) एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंत- अधिकृत विषय पर खोकहितकी रष्टिसे बेख लिखनेका
मम' (अप्रवेशसान्तमध्यं है, जिसका अर्थ अनादि- प्रयत्न जरूर करना चाहिये। इस निवेदनका प्रधान संकेत मध्यान्त होता है और यह 'अप्पाणं (मात्मानं, उन त्यागी महानुभावों-रुलकों, ऐलकों, मुनियों, पदका विशेषण है, न कि "जिणसासणं' पदका। पारमार्थिजनों तथा निःस्वार्थ-सेवापरायोंकी भोर था जो शुद्धामाके लिये स्वामी समन्तभदने रहनकरण्ड (0) अध्यात्मविषयके रसिक हैं और सदा समयसारके अनुमें और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिं- चिन्तन एवं पठन पाठनमें लगे रहते हैं। परन्तु किसी भी शिका 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया महानभावको उक्त निवेदनसे कोई प्रेरणा नहीं मिली है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्यने भी अथवा मिनी हो तो उनकी जोकहितकी दृष्टि इस विषय में 'मध्यान्तविभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका चरितार्य नहीं हो सकी और इस तरह प्रायः छह महीनेका उल्लेख किया है। इन सब बातोंको भी ध्यानमें समय यों ही बीत गया। इसे मेरा तथा समाजका एक लेना चाहिये और तब यह निर्णय करना चाहिये कि प्रकारसे दुर्भाग्य ही समझना चाहिये।
या उक्त सुझाव ठीक है। यदि ठीक नहीं हैं तो गत माघ मास (जनवरी सन् १९५३ में मेरा विचार क्यों।
वीरसेवामन्दिरके विद्वानों सहित श्री गोम्मटेश्वर बाहु(८) १४वी गाथामें शुद्धनयके विषयभूत प्रात्माके लिए बनीजीके मस्तकाभिषेकके अवसर पर दक्षिणकी यात्राका
पाँच विशेषणोंका प्रयोग किया गया है, जिनमेंसे हया और उसके प्रोग्राममें खासतौरसे जाते वक्त सोनगढ़कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १५ वी गाथामें का नाम रक्खा गया और वहाँ कई दिन ठहरनेका विचार हमा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणों- स्थिर किया गया क्योंकि सोनगढ़ श्रीकानजीस्वामीमहा'नियत' और 'असंयुक्त'को भी उपलक्षणके रूपमें राजकी कृपासे प्राध्यात्मिक प्रवृत्तियोंका गढ़ बना हुमा ग्रहण किया जाता है, तब यह प्रश्न पैदा होता है और समयसारके अध्ययन-अध्यापनका विद्यापीठ सममा कि यदि मूलकारका ऐसा ही प्राशय था तो फिर जाता है। वहाँ स्वामीजीसे मिलने तथा अनेक विषयोंके इस१२ वी गावामें उन विशेषणोंको क भंग करके शंका-समाधानकी इच्छा बहुत दिनोंसे चली जाती थी,
रखनेको क्या करत थी। वी गाथा *के जिनमें समयसारका उक्त विषय भी था, और इसीलिये ..क वी गाथा इस प्रकार है-
कई दिन ठहरनेका विचार किया गया था। जो पस्सदि अप्पा अवरपुटुमणण्णय लिबदं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई जबकि ११ फरीको पुण्ड अविसे संमसंजु मुरणयं वियाणीहि
स्वामीजीका अपने लोगोंके सम्मुल प्रथम प्रवचन प्रारम्भ
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समयसारकी १.वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी
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होनेसे पहले ही सभामवनमें यह सूचना मिली कि अभीष्ट व्याख्यात्मक निबन्ध बिखने के लिए अपनी भामा'भाजका प्रवचन समयसारकी की गाथा पर मुख्तार दगी १५ जून तक बाहिर करेंगे तो उस विषय पुरस्कारकी साहबकी शंकामों को लेकर उनके समाधान रूपम होगा।' पुनरावृत्ति करदी जाएगी अर्थात् निबन्धके लिये बथोचित
और इसलिये मैने उस प्रवचनको बड़ी उत्सुकता के साथ समय निर्धारित करके पत्रोंमें उसके पुरस्कारकी पमः गौरसे सुना जो घंटा भरसे कुछ अपर समय तक होता घोषणा निकाल दी जाएगी। इतने पर भी किसी विद्वानने रहा है। सुनने पर मुझे तथा मेरे साथियोंको ऐसा जगा उक्त गाथाकी व्याख्या लिखनेके लिए अपनी मामादगी कि इसमें मेरी शंकाओंका तो स्पर्श भी नहीं किया गया जाहिर नहीं की और न सोनगढ़से ही कोई पाबाज पाई। है-यों ही इधर-उधरकी बहुवसी बातें गाथा तथा गाथे- और इसलिये मुझे प्रवशिष्ट विषयोंके पुरस्कारोंकी योजना तर-सम्बन्धी कही गई है। चुनाव सभाको समाप्तिके को रह करके दूसरे नये पुरस्कारोंकी ही पोजना करनी बाद मैने उसकी स्पष्ट विज्ञप्ति भी कर दी और कह दिया पड़ी, जो इसी वर्ष भनेकान्त किरण.२ में प्रकाशित कि भाजके प्रवचनसे मेरी शंकामोंका तो कोई समाधान हो चुकी है। और इस तरह उक्त गायाकी चर्चाको समास
मा नहीं। इसके बाद एक दिन मैंने अलहदगीमें श्री कर देना पड़ा था। कानजीस्वामीसे कहा कि भाप मेरी शंकाओंका समाधान हालमें कानजीस्वामीके 'पारमधर्म पत्रका नया सिखा दीजिए-और नहीं तो अपने किसी शिष्यको ही भारिवनका अंक नं..देवयोगसे . मेरे हस्तगत इमा, बोलकर लिखा दीजिए। इसके उत्तरमें स्वामीजीने कहा जिसमें 'जिनशासन' शीर्षकके साथ कानजोस्वामीका एक कि 'न तो मैं स्वयं लिखता हूँ और न किसीको बोलकर प्रवचन दिया हुआ है और उसके अन्त में लिखा है-"मी लिखाता हूँ, जो कुछ कहना होता है उसे प्रवचनमें ही कह समयसार गाथा १५पर पूज्य स्वामीजीके प्रवचनसे इस देता है। इस उत्तरसे मुझे बहुत बड़ी निराशा हुई, और प्रवचनकी कोई तिथि-तारीख साथ सूचित नहीं की गई, इसीलिये यात्रासे वापिस पानेके बाद, भनेकान्तकी १२वीं जिससे यह मालूम होता कि क्या यह प्रवचन वही जो किरयके सम्पादकीयमें, 'समयसारका अध्ययन और अपने खोगोंके सामने ता. फरवरीको दिया गया था प्रवचन' नामसे मुझे एक नोट लिखने के लिये बाध्य होना
देवयोगसे लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि पड़ा, जो इस विषयके अपने पूर्व तथा वर्तमान अनुभवों
'मात्मधर्म अपने पास या वीरसेवामन्दिर में माता नहीं को लेकर लिखा गया है और जिसके अन्तमें यह भी
है, पहले वह 'अनेकान्त' के परिवर्तनमें पाता था, अबसे प्रकट किया गया है कि
न्यायचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी जैसोंके कुछ बेख स्वामीजी'निःसन्देह समयसार-जैसा प्रन्थ बहुत गहरे अध्ययन के मातम्योंके विरुव अनेकान्तमें प्रकाशित हुए तबसे तथा मननकी अपेक्षा रखता है और तभी भारम-विकास प्रात्मधर्म भनेकाम्तसे रुष्ट हो गया और उसने दर्शन देना जैसे यथेष्ट फलको फल सकता है। हर एकका वह विषय ही बन्द कर दिया। पीछे किसी सज्जनने एक वर्षके लिये नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननके अभावमें कोरी उसे अपनी बोरसे बीरसेवामन्दिर में भिजवाया था, उसकी भावुकतामें बहने वालोंकी गति बहुधा 'नइधरके रहे म अवधि समाप्त होते ही पाकिर उसका दर्शन देना बन्द उधरके रहे' वाली कहावतका चरितार्थ करती है अथवा ३ है। जबकि अपना 'भनेकान्त' पत्र कई वर्षसे बराबर उस एकान्तकी भोर ढल जाते हैं जिसे माध्यात्मिक एकांत
जिस पाण्यात्मिक एकात कानजीस्वामीको सेवामें भेंटस्वरूप जा रहा है और सकहते है और जो मिथ्यात्वमें परिगणित किया गया है। लिए यह अंक अपने पास सोनगढ़के पास्मधर्म-माफिससे इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित भेजा नहीं गया है जबकि १५वीं गायाका विषय होनेकिया जायगा।'
से भेजा जाना चाहिए था कि दिल्ली में एक सज्जनके साथ ही रक किरणके उसी सम्पादकीय में एक नोट- यहाँसे इचक्राकिया देखनेको मिखा गया है यदि यह अंक द्वारा, 'पुरस्कारोंकी योजनाका नवोजा' व्यक्त करते हुए, न मिलता तो इस लेखके बिये जानेका अवसर ही प्राय यह इच्छा भी व्यक्त कर दी गई थी कि यदि कमसे दो न होता । इस अंकका मिलना ही प्रस्तुत लेख लिखने में विद्वान अब भी समयसारकी १५वी गाथाके सम्बन्ध में प्रधान निमित्त कारण।
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१०]
भनेकान्त
[किरण ६
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अथवा उसके बाद दिया गया कोई दूसरा ही प्रवचन है। किया गया है। भाया है सहृदय विदरजन दोनों लेखों पर यदि यह प्रवचन वही है जो १२ फरवरीको दिया गया था, गंभीरताके साथ विचार करनेकी कृपा करेंगे और जहाँ जिसकी सर्वाधिक संभावना है, तो कहना होगा कि वह कहीं मेरी भूत होगी उसे प्रेमके साथ मुझे सुझानेका भी उस प्रवचनका बहुत ऊंचसंस्कारित रूप है। संस्कारका कष्ट उठाएंगे, जिससे मैं उसको सुधारनेके लिये समर्थ कार्य स्वयं स्वामीजीके द्वारा हुआ है या उनके किसी हो सकू। शिष्य अथवा प्रधान शिष्य श्रीरामजी मानिकचन्दजी दोशी
गाथाके एक पदका ठीक रूप, अर्थ और संबंध
MT वैकोलके द्वारा, जोकि मास्मधर्मके सम्पादक भी है; परन्तु बह कार्य चाहे किसीके भी द्वारा सम्पन्न क्यों न हुआ हो,
उक्त गापाका एक पद 'पदेससंतमझ' इस रूप में इतना तो सुनिश्चित है कि यह बेखबद्ध हुआ प्रवचन
प्रचलित है। प्रवचनलेख में गाथाको संस्कृतानुवादके रूपस्वामीजीको दिखला-सुनाकर और उनकी अनुमति प्राप्त
में प्रस्तुत करते हुए इस पदका संस्कृत रूप'अपदेशसान्तकरके ही छापा गया है और इसलिए इसकी सारी जिम्मे
मध्यं दिया है, जिससे यह जाना जाता है कि श्रीकानजी दारी उन्हींके उपर है। अस्तु ।
स्वामीको पदका यह प्रचलित रूप ही इष्ट तथा मान्य है,
जयसेनाचार्यने संत (सान्त) के स्थान पर जो 'सुस' (स्त्र) इस लेखबद्ध संस्कारित प्रवचनसे भी मेरी शंकामों
शब्द रक्खा है वह पापको स्वीकार नहीं है। प्रस्तु, इस का कोई समाधान नहीं होता। भाठमेंसे सात शंकामोंको
पदके रूप अर्थ और सम्बन्धके विषय में जो विवाद है उसे तो इसमें प्रायः क्षुधा तक भी नहीं गया है सिर्फ दूसरी
शंका नं.१ में निबद किया गया है। बठी शंका इस पदके शंकाका अपरा-ऊपरी स्पर्श करते हुए जिनशासनके रूप
उस अर्थसे सम्बन्ध रखती है जिसे जयसेनाचार्यने 'भपदेसविषयमें जो कुछ कहा गया है वह बड़ा ही विचित्र तया
सुत्तमम्' पद मानकर अपनी टीकामें प्रस्तुत किया। अविचारितरम्य जान पड़ता है। सारा प्रवचन माध्यास्मिक
और जो इस प्रकार हैएकान्तकी भोर बना दुभा है, प्रायः एकान्त मिथ्यात्वको पुष्ट करता है और जिनशासनके स्वरूप-विषयमें लोगोंको
"अपदेमसुत्तममं अपदेशसूत्रमध्यं, अपदिश्यतेऽर्थो येन गुमराह करने वाला है। इसके सिवा जिनशासनके कुछ
स भवस्यपदेशशब्दे द्रव्यश्चतंमिति यावत् सूत्रपरिच्छित्तिमहान् स्तंभोंको भी इसमें "लौकिकजन" तथा अन्यमती"
रूपं भावतं ज्ञानसमय इति, तेन शम्दसमबेन बाध्य जैसे शब्दोंसे याद किया है और प्रकारान्तरसे यहाँ तक साल
.. ज्ञानसमयेन परिच्छेदमपदेशसूत्रमय भएयते इति ।' कह डाला है कि उन्होंने जिनशासनको ठीक समझा नहीं;
इसमें 'अपदेस' का अर्थ जो ग्यश्रत' और 'सुतं' यह सब सत्य जान पाता। ऐसी स्थितिमें समयाभाव- का अर्थ 'भावभुत' किया गया है वह शब्द-मर्थकी दृष्टिके होते हुए भी मेरे लिए यह आवश्यक हो गया है कि से एक खटकने वाली वस्तु है, जिसकी वह खटकन ओर मैं इस प्रवचनलेख पर अपने विचार व्यक्त करूं, जिससे
भी बढ़ जाती है जब यह देखने में माता है कि 'मध्य' सर्वसाधारण पर यह स्पष्ट हो जाय कि प्रस्तुत प्रवचन शब्दका कोई अर्थ नहीं किया गया-उसे वैसे ही अर्थ समयसारकी १५ वी गाथा पर की जाने वाली उक्त समुच्चयके साथमें लपेट दिया गया है। संकायों का समाधान करने में कहाँ तक समर्थ है और जिन- कानजी स्वामीने यद्यपि 'सुत्त' शब्दकी जगह 'संत शासनका जो रूप इसमें निर्धारित किया गया हैयह (सान्त) शब्द स्वीकार किया है फिर भी इस पदका अर्थ कितना संगत अथवा सारवान् है। उसके लिये प्रस्तुत वही द्रव्यश्रत-भाश्रतके रूपमें अपनाया है जिसे जयसेनालेखका यह सब प्रयत्न है और इसोसे कानजीस्वामीका चायने प्रस्तुत किया है, चुनांचे भापके यहसि समयसारका उक्त प्रवचनबेख भी अनेकान्तकी इस किरण मन्यत्र जो गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुचा है उसमें 'सान्त' का ज्योंकायों उद्धत किया जाता है जिससे सब सामग्री प्रय'ज्ञानरूपीभावत' दिया है, जो और भी खटकने विचार के लिये पाठकोंके सामने रहे और इतना तो प्रवचन- वाली वस्तु बन गया है।
ख पर र खते ही सहज अनुभव में पा जाए कि सातवीं शंका इस प्रबत पदके स्थान पर जो दूसरा उसमें उक्त मा शंकायोंमेंसे किनके समाधानकाच्या प्रयत्न पद सुझाया गया है उससे सम्बन्ध रखती है। वह पदई
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किरण ६] समयासारकी १ वी गाथा और बीकानजोस्वामी
[११ 'अपवेससंतमझ' । इस संस्चित तथा दूसरे प्रचलित पद- गाथाके अर्थमें अतिरिक्त विशेषणमें परस्पर बहुत ही थोपा सिर्फ एक अवरका अन्तर है
प्रस्तुत गाथाका अर्थ करते हुए उसमें चाल्माके खिबे इसमें ''भर है तो उसमें दे', शेष सब ज्योंका त्यों है।
पूर्व गाथा-प्रयुक्त नियत' और 'मसंयुक्त विशेषणोंको लेखकोंकी कृपासे 'बे का देखिखा जाना अथवा पन्नोंके
उपलक्षण ग्रहण किया जाता है, जो कि इस गापामें चिपक जाने भादिके कारण 'वे' का कुछ प्रश बकर
प्रयुक्त नहीं हुए हैं। इन्हीं प्रयुक्त एवं अतिरिक विशेउसका दे' बन जाना तथा पड़ा जाना बहुत कुछ स्वाभा.
पोंके ग्रहणसे शंका नं.८ का सम्बन्ध है और उसमें यह विक है। इस संसूचित पदका अर्थ 'अनादिमध्या-त' होता
जिज्ञासा प्रकट की गई है कि इन विशेषणोंका ग्रहण क्या है और यह विशेषण शुदामाके लिये मक स्थानों पर
मूलकारके भाशयामुसार है। यदि है तो फिर वीं प्रयुक्त हुचा है, जिसके कुछ उदाहरण शंका नोट किये
गाथामें प्रयुक्त हुए पाँच विशेषणोंको इस गाथामें क्रमभंग गये हैं और फिर पूछा गया है कि यदि पदका यह सुझाव
करके क्यों रखा गया है जबकिवी गाथाके पूर्वार्धको ठीक नहीं है वो क्यों? ऐसी स्थितिमें चलित पद और
ज्योंका स्यों रख देने पर भी काम चल सकता था अर्थात् तद्विषयक यह सुझाव विचारणीय जरूर हो जाता है। इस शेष दो विशेषणों 'भविशेष' और 'मसंयुक्त' को उपलक्षण तरहतीन शंकाएं प्रचलित पदके रूपादि-विषयसे सम्बन्ध द्वारा प्रहण किया जा सकता था और यदि नहीं है तो रखती हैं, जिन्हें प्रवचनलेखमें विचारके लिये छुमा तक भी फिर अर्थ में इनका ग्रहण करना ही प्रयुक्त है। इस शंकानहीं गया-समाधानकी तो बात ही दूर है यह उस को भी स्वामीजीने अपने प्रवचन में शुमा तक नहीं है, और लेखको पढ़कर पाठक स्वयं जान सकते हैं। हो सकता है इसलिए इसके विषयमें भी वही बात कही जा सकती है, कि स्वामीजीके पास इन शंकामोंके समाधान-विषयमें कुछ जो पिछली तीन शंका विषयमें कही गई है अर्थात् कहनेको न हो और इसीसे उन्होंने अपने उस वाक्य इस शंकाके विषयमें भी उन्हें कुछ कहने के लिए नहीं होगा ('जो कुछ कहना होता हैं उसे प्रवचनमें ही कह देता और इसीसे कुछ नहीं कहा गया । हूँ')के अनुसार कुछ न कहा हो । कुछ भी हो, वहाँ पर एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह पर इससे समयसारके अध्ययनकी गहराईको ठेप जरूर यह
किसाइमा मके एक पत्र रोहतक (पंजाब) पहुँचती है।
से डाक-द्वारा प्राप्त हुआ था जिस पर स्थान के साथ पत्र यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता लिखने की तारीख तो है परन्तु बाहर भीतर कहींसे भी कि गत वर्ष सागरमें वर्णीजयन्तीके अवसर पर और पत्र भेजने वाले सजनका कोई नाम उपलब्ध नहीं होता। इस वर्ष खास इन्दोरमें वात्राके अवसर पर मेरी इस पद संभवता वे सज्जन बाबू नानकचन्दजी एडवोकेट जान के रूपादि-विषयमें पं.वंशीधरजी न्यायसंकारसे भी' पड़ते है, जो कि समयसारकी स्वाध्यायके प्रेमी हैं और जो कि जैनसिद्धान्तके एक बहुत बड़े ज्ञाता है, चर्चा उस प्रेमी होनेके नाते ही पत्र में कुछ लिखनेके प्रयासका भाई थी, उन्होंने उक्त सुझावको ठीक बतलाते हुए कहा उल्लेख भी किया जाता है। इस पत्र पाठवीं शंकाके कि हम पहलेसे इस पदको 'अप्पाणं' पदका विशेषण विषयमें जो लिखा है उसे उपयोगी समझ कर यहाँ मानते भाए हैं, और तब इसके 'भपदेससुत्तमज्म' (भप्र- उधत किया जाता हैदेशसूत्रमध्यं ) रूपको लेकर एक दूसरे ही ढंगसे इसके "गाथा मं० 1 के पहले चरण में जो कम भंग है वह 'अनादिमध्यान्त' अर्थकी कल्पना करते थे (जो कि एक बहत ही रहस्यमय है। यदि गाया मं. १५ में गाथा नं. विसष्ट कल्पना थी। अब इसके प्रस्गवित रूपसे अर्थ बहुत का पूर्वाध दे दिया जाता तो दो विशेष अविशेष ही स्पार तथा सरख (सहज बोधगम्य) हो गया है। साथ ही और 'मसंकट जाते। ये विशेष किसी दूसरे विशे. यह भी बताया कि श्री जयसेनजीने इस पदका जो पबके उपलबमहीं हो सकते। क्रमभंग करने पर दो अर्थ किया और उसके द्वारा इसे 'विखसासा' पदका विशेषण 'मिवन' और 'संयुक' रहे हैं सो इनमेंसे विशेषन बनाया है वह डीक या संगत नहीं है। 'नियत' विशेषण तो 'अनन्य उपखावहै। जो वस्तु
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२] भनेकान्त
किरण ६ अनन्य होती है वह "नियत' अवश्य होती है इस कारण था वह कहा गया है। अब मागे उसीपर विचार अनन्य कह देनेसे निवसपना मा ही गया। इस ही तरह किया जाता है। भविशेष कहमेसे असंयुक्तपमा पा ही गया ! संयोग विशे- श्रीकानजी स्वामी महाराजका कहना है कि 'जो राष पों में ही हो सकता है सामान्यमें नहीं-सामान्य तो दो मामा वह जिनशासन है। यह आपके प्रवचनका मूल द्रव्योंका सदा ही शुदा जुदा रहता है। संयुक्तपना किसी सूत्र है जिसे प्रवचनल्लेख में अग्रस्थान दिया गया है और द्रव्य. एक विशेषका दूसरे द्रव्य विशेषसे एकत्व हो इसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि शुद्धारमा नाना है। श्रीकुन्दकुन्दने कम भंग करके अपनी (निर्माण) और जिन शासनमें अभेद है-अर्थात् शुद्ध प्रात्मा कहो
साका प्रदर्शन किया है और गाथा नं. १५ में भी शुद्ध- या जिनशासन दोनों एक ही है, नामका अन्तर है, जिनमयके पूर्णस्वरूपको सुरक्षित रखा है। विशेष और
शासन एखास्माका दूसरा नाम है। परन्तु शुवामा ती असंयुक्तका इस प्रकारका सम्बन्ध अन्य तीन विशेषणोंसे
जिनशासनका एक विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन नहीं है जिस प्रकारका नियतका अनम्यसे असंयुक्तका
अथवा समम जिनशासन से हो सकता है जिनशासनके अविशेषसे है।
और भी अनेकानेक विषय है, अशुद्धामा भी उसका शुद्धात्मदर्शी भौर जिनशासन
विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म प्रकाश और काख मामके
शेष पाँच द्रव्य भी उसके विषय है. कालचके अवसर्पिणी • प्रस्तुत गाथामें मात्माको प्रबदस्पृष्टादि रूपसे देखने पाले दास्मदीको सम्पूर्ण जिनशासनका देखनेवाला
उत्सर्पिणी भादि भेद-प्रभेदोंका तथा तीन लोककी रचना बतलाया है। इसीसे प्रथमादि चार शंकाभोंका सम्बन्ध
का विस्तृत वर्णन भी उसके अन्तर्गत है। वह सप्ततत्वों है।पहनी शंका सारे जिनशासनको देखनेके प्रकार तरीके
नवपदार्थो, चौदह गुणास्थानों, चतुर्दशादि जीवसमासों, अथवा रंग (पति)मादिसे सम्बन्ध रखती है, दूसरीमें
पट्पक्षियों, दस प्राणों, चार संज्ञानों, चौदह मार्गणामों उस इटाद्वारा देखे जानेवाले जिनशासनका रूप पूछा गया
विविध चतुर्विध्यादि उपयोगों और नयों तथा प्रमाणोंकी है, तोसरीमें उस रूपविशिष्ट शासनका कुछ महान् मा
मारी चर्चामों एवं प्ररूपणाओंको प्रात्मसात् किये अथवा भाचाया-द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनके
अपने अंक (गोद) में लिए हुर स्थित है। साथ ही साय भेद-अभेदका प्रश्न है, और चौथीमे भेद न होनेकी मोधमार्गकी देशना करता हुमा रत्नत्रयादि धर्म-विधानों, हालवमें यह सवाल किया गया है कि तब इन प्रचार्यो- कुमागमय
कमार्गमयनों और कर्मप्रकृतियोंके कथनोपकथनसे भरपूर द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी है। सपम .
है। संक्षेपमें जिनशासन जिनवायीका रूप है. जिसके शंगति कैसे बैठती है। इनमें से पहली, तीसरी और चौथी
MAA द्वादश भंग और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिए हुए इन तीन शंकानोंके विषयमें प्रवचन प्राय: मौन है। उसमें प्रसिद्ध हैं। ऐसी हालत में जब कि बाल्मा जिनशासनका बार-बार इस बावको तो अनेक प्रकारसे दोहराया गया है एकमात्र विषय भी नहीं है तब उसका जिनशासनके साथ
एकत्व कैसे स्थापित किया जा सकता। उसमें हो जिनशासनको देखता-जानता है अथवा उसने उसे देख गुणस्थानों तथा मार्गणामों मादिके स्थान तक भी नहीं है जान लिया; परन्तु उन विषेषणोंके रूपमें एदामाको जैसा कि स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें प्रतिपादन देखने जानने मात्रसे सारे जिनशासनको कैसे देखता किया है। यहाँ विषयको टीकादयाम करने के लिए जानता है या देखने-जानने में समर्थ होता है अथवा इसमा और भी जान लेना चाहिए कि जिनशासनको जिनकिस प्रकारसे उसने उसे देख-आन बिया है, इसका बाबी की परह जिनप्रवचन जिनागम शास्त्र, जिनमत. की भी कोई स्पीकरण नहीं है और न भेदाभेदकी जिनदब, जिनतीर्थ, बिमधर्म और जिनोपदेश भी कहा नगरको उठाकर उसके विषयमें ही कुछ कहा गया जाता है-जैनशासन, बैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके है सिई दूसरी शंकाके विषयभूत निमशासनके रूप- नामान्तर है, जिनका प्रयोग भी स्वामीजीने अपने प्रवचन विषयको लेकर उसके सम्बन्धमें जो कुछ ना देखो, समयसार गाथा १३ से ५५।
शासनका रूप पूछा गया भारी चर्चामा एक
स्थित है। साथ
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[किरण ६
समयसारकी श्वी गाथा और श्रीकामजी स्वामी
[१३
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3
में जिनणसनके स्थान पर उसी तरह किया है जिस तरह पाऊदयेव जीविद जीवो एवं भवंति सव्वएह २५१ विजिनवादी' और 'भगवानकी वाणी' जैसे शब्दोंका अमरसिदेवपो सो मारेड मा व मारे। किया है। इससे जिन भगवानने अपनी दिव्य वाणी में जो एसो बंधसमासो जीवाणं शिवणयस्स २१२ कुछ कहा है और जो तमनुकूल बने हुये सूत्रों शास्त्रों में बद समिदी गुत्तीमो सीखतवं जिणवरेहि पएपतं । निबद्ध है वह सब जिनशासनका अंग है इसे खूब ध्यान में कुवंतो वि अमनो भण्णाणी मिछविट्ठी दु॥२०॥ रखना चाहिये।
एवं ववहारम्स दु वत्तश्च दरिमर्ण समामेण । अब मैं श्री कन्दकन्दाचार्य प्रणीत समयपारके शब्दों सुण मिच्छाम्स बयणं परिणामध्यं तुजं होई ॥॥ में ही यह बतला देना चाहता है कि श्रीजिनभगवानने ववहारिमो पुणणो दोपियवि लिंगामि भणहमोक्सपह अपनी वाणी में उन सब विषयोंकी देशना (शास्ति) की णिच्छयणो व इच्छह मोक्खपहे सम्वलिंगाणि ॥४॥ है जिनकी उपर कुछ सूचना दी गई है। वे शब्द गाथाके
इन सब उदरणोंसे तथा श्री कुन्दकुन्दाचार्यने अपने मम्बर सहित इस प्रकार हैं:
प्रवचनसारमें जिनशासनके साररूपमें जिन जिन बातोंका ववहारस्म दरीसणमुवएसो वण्णदो जिणवरेहि। उल्लेख अथवा संसूचन किया है उन सबको देखने जीवा एरे सच्चे अमवसाणादो मावा ॥४६॥ से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि एकमात्र गुदाएमेव य ववहारोपपत्रसाणादिपरणभावाणं । स्मा जिन शासन नहीं है. जिनशामन मिरचय और व्यव. जीवो त्ति कदो सुत्ते....................."||5| हार दोनों नयों तथा उपनयोंके कथनको साथ साथ लिये ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वएणमादीया । हुए ज्ञान, ज्ञेय और चरितरूप सारे अर्थ समूहको उसकी गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणपस्स ॥१६॥ सब अवस्थाओं सहित अपना विषय किये हुए हैं। तह जीवे कम्माणं गोकम्माणं च पस्सिद्वगएणं।
यदि शुभारमाको ही जिनशासन कहा जाय तो जीवस्स एसवण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥ २६ ॥
शुद्धास्माके जो पाँच विशेषण-प्रबद्ध स्पृष्ट. अनन्य, नियत, एवं गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य ।
अविशेष और असंयुक्त-कहे जाते है वे जिनशामनको भी सम्वे बबहारस्स व णिच्छयदएहू ववदिसन्ति ॥६॥ प्राप्त होंगे। परन्तु जिनशासनको प्रबदम्पृष्टाविक रूपमें पज्जत्ताऽपजता जे सुहमा बादरा य जे चेव ।
कैसे कहा जा सकता है। जिनशासन जिनका शासन देहस्स जीवसरणा सुतं ववहारदो उत्ता।। ६७॥ अथवा जिनसे समुद्धत शामन होने के कारण जिसके माथ जीवस्मेवं बंबो मणिदो खलुसचदरमीहिं ।। ७० ॥ मम्बन्ध है जिस पर्थ समूहकी प्ररूपणाको बह लिये उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गियदि य । हुए है उपके साथ भी वह सम्बन्ध है, जिन शनों द्वारा मादा पुग्गलदग्वं ववहारण्यस्म वत्तव्यं ॥१७॥ अर्थ ममूहको प्ररूपणा की जाती है उनके साथ भी उसका जावे कम्मं बद्धं पुट्ट चेदि ववहारणयमणिदं। सम्बन्ध है। इस तरह शब्द समय, अर्थसमय और ज्ञान सुदणयस दु जीवे अपद्धपुटुंहवह जीवो ..॥ समय तीनोंके साथ जब जिनशासनका सम्बन्ध तब उसे सम्मत्तपडिमिन मिच्छतं जिथपरेहि परिहिये। अपदस्पृष्ट कैसे कहा जा सकता है। नहीं कहा जा तस्सोदयेण ज बो मिच्छादिट्टि ति णायन्वो ॥११॥ सकता । और कौके बन्धनादि की तं' उनके साथ कोई यास्स पडिणिबद्ध भयणायं जिणवरेहिं परिकहिय। करपना ही नहीं बनती जिससे उस दृष्टिके द्वारा उसे अबद्धतस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि पायग्वो ॥१२॥ स्पष्ट कहा जाय । 'अनन्य' विशेषण भी उसके साथ वाटत चास्ति पडिणिबद्धरणाणं जिणवरेहि परिकड़िय। नहीं होता क्योंकि वह शुद्वात्माको बोपकर शवामानों सस्सोदएण जीवो अपणाणी होदि णायवो ॥१३॥ तथा अनारमाओंको भी अपना विषय किये हुए है अथवा तेसिं हेऊ मणिदा मज्भवसाणाणि सम्बदरसीहिं। यो कहिए कि वह अन्यशासनों मिथ्यादर्शनों को भी अपने में मिण भयवाणं भविश्यमावो व जोगोथ ॥१७॥ स्थान दिये हुए हैं। श्री सिरसेनाचार्षक शम्दोंमें तोह उदविवागो विविहो कम्माणं वरिणमोजिणवरेहि। जिन प्रवचन 'मिथ्यादर्शनीका समूबमब, इतने पर भी पारखयेव मरण जीवाणं जिणवरेहि परणसं ॥२४८।। भगवत्परको प्राप्त है, अमृतका सार और विलाधि
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१४]
अनेकान्त
[किरण
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गम्य है. जैसाकि सम्मतिसूत्रके अन्त में उसकी मंगलकामना तीसरे, विविध नयभंगोंको पाश्रय देने और स्यावादके लिये प्रयुक्त किये गये निम्न वाक्यसे प्रकट है- न्यायके अपनाने के कारण जिनशासन सर्वथा एक रूपमें भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमियसारस्स।
स्थिर नहीं रहवा-वह एक ही बातको कहीं कभी निश्चय जियावयणस्स भवनो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥३०॥
भयकी रष्टिसे कथन करता है तो उसीको अन्यत्र व्यवहार
नयकी दृष्टिसे कथन करने में प्रवृत्त होता है और एक ही इस तरह जिनशासनका 'अनन्य' विशेषण नहीं बनता । 'निपत' विशेषण भी उसके साथ घटित नहीं होता,
विषयको कहीं गौण रखता है तो दूसरी जगह उसीको
मुख्य बमाकर भागे ले आता है। एक ही वस्तु जो एक क्योंकि प्रथम तो सब जिनों-तीर्थंकरोंका शासन फोनोग्राफ
नयदृष्टिसे विधिरूप है वही उसमें दूसरी नयदृष्टिसे निषेध के रिकार्डकी तरह एक ही अथवा एक ही प्रकारका नहीं
रूप भी है, इसी तरह जो नित्यरूप है वही अंनत्यरूप है अर्थात् ऐसा नहीं कि जो बचनवर्गणा एक तीर्थकरके
भी है और जो एक रूप है वही अनेकरूप भी हैं इसी असे खिरी वही जंची-तुली दूसरे तीर्थकरके मुंहसे निकली * हो-पक्कि अपने अपने समयकी परिस्थिति मावश्यकता
सापेक्ष नयवादमें उसकी समीचीनता संनिहित और सुर
पित रहती हैं। क्योंकि वस्तुतव अनेकान्तात्मक हैं। इसीसे और प्रतिपायोंके अनुरोधवश कथनशेतीको विमित्रताके
उसका व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ या असत्यार्थ नहीं साथ रहा कुब कुछ दूसरे भेदको भी वह लिये हुए रहा है
होता यदि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्य होता तो श्री जिसका एक उदा. रण मूलाचारको निम्न गापासे जाना
जिनेन्द्रदेव उसे अपनाकर उसके द्वारा मिथ्या उपदेश क्यों जावा -.
देते? जिस व्यवहारनयके उपदेश अथवा वक्तव्यसे सारे वावीस तित्थयरा सामाइयं संजम उवदिसति ।
जैनशास्त्र अथवा जिनागमके अंग भरे पड़े हैं। वह तो दोवद्यावणिय पुण भयव उसहो य वीरो य 11७-३२॥ निश्वनयकी दृष्टि में अभूतार्थ है, ज कि व्यवहारनयको
बतलाया है कि 'मजिससे लेकर पार्श्वनाथ दृष्टिमें वह शुबनय या निश्चय भी अभूतार्थ-असत्यार्थ पताबाईस तीर्थकरोंने 'सामायिक' समयका और ऋषभ- ६ जोकि वर्तमानमें अनेक प्रकारके सुख कर्म बन्धनोंसे देव तथा वीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' संयमका उपदेश पंधे हुए, नाना प्रकारकी परतन्त्रताओं को धारण किये हुये, दिया है। अगली गाथाओं में उपदेशकी इस विभिन्नताके भवभ्रमण करते और दुरव उठाते हुए संपारी जीवात्माओंको कारवको तात्कालिक परिस्थितियोंका कुछ उल्लेख करते सर्वथा कर्मबन्धनसे रहित प्रबदष्टाहिलेपमें से
विमित्रतामों करता है और उन्हें पूर्णज्ञान तथा प्रानन्दमय बतलाता है, का सकारण सूचन किया गया है। इस विषयका विशेष जो कि प्रत्यक्ष के विरुद्ध ही नहीं किन्त भागमभीवित परिचय प्राप्त करनेके लिये 'जैनतीर्थंकरोंका शासनभेद'
पागममें चास्माके साथ कर्मबन्धनका बहुत विस्तारके साथ मामक वह लेख देखना चाहिए जो प्रथमतः अगस्त सन्
वर्णन है। जिसका कुछ सूचन कुन्दकुन्दके समयसारके के 'जैन हितैषी' पत्रमें और बादको 'जेनाचार्योंका
प्रन्यों में भी पाया जाता है। यहाँ प्रसंगवश इतना और शासन नामक ग्रन्थके परिशिष्टमें 'कख' में परिवर्ध- प्रकट किया जाता है कि शुद्ध या निश्चयनयको द्रव्यार्थिक मादिके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसमे दिगम्बर तथा
और व्यवहारनयको पर्यार्षिकनय कहते है। ये दोनों
मूखमय पृथक रह कर एक दूसरेके वक्तव्यको किस श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अनेक प्रमाणोंका सकलन है
रप्टिसे देखते हैं और उसष्टिसे देखते हुए सम्यग्दृधि है या साथ ही, यह भी प्रदर्शित किया गया है कि उन भेदोंके
मिथ्यरष्टि, इसका अच्छा विवेचन श्री सिद्धसेनाचार्थने कारणा मुनियोंके मूलगुणोंमें भी अन्तर रहा है।
अपने सन्मतिसूत्रकी निम्न गाथाचा में किया हैदूसरे जिनवाणीके जो द्वादश अंग है उनमें बता करण, अनुत्तरोपपादिकदय, प्रश्न व्याकरण और रष्टिवाद
दवविय वत्तन्वं भवत्थु णियमेण पज्जवण्यस्स। मे कुन अंग ऐसे है जो सब तीर्थंकरोंकी बाथीमें एक
वह पज्जवत्थ अपत्थुमेव दम्बटियणयस्स ॥१०॥ ही रूपको सिबे हुए नहीं हो सकते।
सज्जति वितिय भाषा पन्जवणयस्स ।
समयपधारमा
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ऋषभदेव और शिवजी
(ले० श्रीयुत वा कामताप्रसाद जैन एम मार०ए०डी० एल) इत्यं प्रभाव ऋषभोऽवतार रा करस्य मे।
अतः उनके चरित्रमें ऐसी बात तो नहीं पा सकती जिसे सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितस्तवनः ॥ ७॥ साधारणतः मानव समाजमें दुराचार माना जाता है।
-शिवपुराण
शिव देव हैं-भाराध्य हैं, तो वह एक सामान्य लम्पटी 'शिवपुराण के रचियता कहते है कि इस प्रकार ऋषमा
पुरुषकी तरह कामी नहीं हो सकते; इतने उप्र कामरत कि वतार होगा, जो मेरे लिए शंकर शिव हैं। वह सत्पुरुषोंके।
। उनके शिश्नको उत्तेजनाको शान्त रखनेके लिये पूर्ण कुम्भलिये सत्यपथ रूप नवमें अवतार और दीनबन्धु होंगे।
, से शोतल जल विन्दु हर समय टपकती रहे। इसके साथ इस उल्लेबसे स्पष्ट है कि शिवजीका अलंकृतरूप मूलतः
कोई भी समझदार पुरुष यह नहीं मान सकता कि शिव ऋषभदेवजीके तेज और तपस्याका काम्यमयी वर्णन है।
मथपायी और भंगडी थे। वह इतने क्रोधी थे कि उन्होंने वैदिक ऋषियोंने ऋषभदेवकी उग्र तपस्याको मूर्तिमयी
भस्मासुरको नगरों सहित भस्म कर दिया और पार्वतीजीबनानेके लिए एवं उस ही.अमृतत्व पा का कारण जताने
को संग लिये फिरे । न वह इतने भयंकर थे कि विष खा के लिये उसे 'शिव' के नामसे पुकारा है। वेदोंमें 'शिव' ।
जाते ! उनके देवत्वके समक्ष ये बातें अशोभन दिखती है। नामके देवताका पता नहीं। यह प्रभाव इसीलिये कि
फिर एक अचम्मकी बात है कि रेणुका मरकर जीवित ऋषभ अवादक भमण परम्पराके अग्रणी थे। जबदिक हुई भी उनके प्रसंगन कही गई है! इस बुद्धिवादीयगमें
अन्धनद्धाके लिये कोई स्थान नहीं है। अतएव शिवजीके वैदिक परम्परामें नये नये देवता भी लिये गये । शिव,
विषयमं उक्त बातें जो कही गई हैं उनको शब्दार्थ में ग्रहण ब्रह्मा और विष्णु प्रतीकवादके द्योतक हैं। उपरान्त सत्रियों
नहीं किया जा सकता। उनसे शिवजीकी महत्ता बहा के प्रभावमें अवतारवादको वैदिकपुरोहितोंने अपनाया
- भाता है। वे अलङ्कार हैं और अलकारका घट उठाकर जिससे राम और कृष्णकी पूजा प्रचलित हुई । प्रतीकवादमें हम उनक
हमें उनके मूल स्वरूपका दर्शन करना उचित है। ऋषभको शिवका रूप दिया गया। यहाँ हमें यही देखना लगभग दो हजार वर्ष पहलेका लिखा हुमा एक अभीष्ट है।
पत्रक Letter of Aristias) विद्वानोंको मिला है। . भ. ऋषभने कैलाशपर्वत पर उग्र तप तपा था। उसमें लिखा है प्राचीनकालमें एक चित्र शैली (Symएक बार देव पानामोंने उनकी तपस्या भंग करनेके लिए bolic) की भाषा और लिपि ( Pictographicकामदेवके बाणोका प्रयोग किया था; किन्तु ऋषभदेव language and script) का प्रचलन था । विद्वान अचल रहे और अन्त में उन्होंने कामको ही नष्ट कर लिया। ऋषि लोग उस शैलीका प्राश्रय लेकर अध्यात्मवादका उसके साथ ही मन-वचन काय नपड द्वारा उन्होंने त्रिग्र- निरूपण किया करते थे, जिसे वह अपने शिष्योंको बता थियोंका पूर्णनाश कर दिया कि वह 'निर्ग्रन्थ' हो गये। देते थे। गुरु शिष्य परम्परासे यह रहस्पवाद मौखिकपूर्व संचित का जो शेष रहे थे, उनको भी उन्होंने भस्म प्रणाली द्वारा धारावाही चलता रहा। किन्तु एक समय कर दिया था। परिणाम स्वरूप वह कैवल्यपति सच्चि- आया जब इस रहस्यको लोग भूल गये ! 'मनका हि दानन्द, जीवन्मुक्त परमात्मा शिव होकर चमके । उन्होंने मन्त्रः' की बात वैदिक टीकाकारोंको बरवस कहनी पदी! धर्मतीर्थ की स्थापना की-इसलिए 'वृष' (बैल) उनका बाइबिल में विद्वानोंको इसलिये चिक्कारा गया कि उन्होंने चिन्ह माना गया। संक्षेपमें ऋषभदेवजाकी तपस्याकी ज्ञानकी कुंजीको खो दिया। (Woe into ye laयह वालिका है।
wyers ye have lost the 'key of knowअब पाठक, भाइये शिवजीके चरित्र चित्रण पर leodge) इस सारीसे शिवजीका अलंकृत रूप स्पष्ट रष्टिपात कीजिये। वह देव है-प्राप्त है और हैं पूज्य। भाषता है और "शिवपुराण' के रचयिता उन्हें अषमा
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अनेकान्त
[किरण:
बतार कहते हैं। वह इसलिये कि ऋषभ प्रादिकानसे डा. वासुदेवशरणजी अप्रवालने पार्वती' का प्रतीक मानएक महान तपस्वी रहे और वैदिक षयोंको उनकी कर उपके रहस्यको स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा कि तपस्थाका बम्बान अलंकृतभाषामें करना अभीष्ट रहा। मानवशरीरमें मेरुदण्डकी रचना तैतीस पर्वो के संयोगसे किन्तु उनके इस रहस्यपूर्ण स्वरूपको जानने वाले लोगोंका हुई है। 'पर्व' जिसमें हो उम्मीको 'पर्वत' कहते हैं। 'पर्वाप्रभाव एक बहुत पहले जमानेसे हो गया । महा-कवि णि संति अस्मिमिति पर्वतः । इसीलिये मेरुदण्ड पर्वत कालीदासजी इस सत्यसे परिचित थे। इसलिये ही उन्होने हुना और इसके भीतर रहने वाली शक्तिको उपचारसे कहा कि 'शिवको यथार्थ रूपसं जानने वाले और अनुभव 'पर्वत राजपुत्री' या 'पार्वती' कहा जाता है। इस पार्वतीकरने वाले मनुष्य कम है। (न संति याथार्थविदः पिना- की स्वाभाविक गति शिवको और है। पार्वती शिवको किनः ) कुमारसम्भव ५/७७) प्रतीकवादको समझ लेना छोड़कर और किसीका वरण कर ही नहीं सकती। परन्तु हर एकका काम नहीं । प्रतीक अथवा अलंकारका सहारा पार्वतीको शिवकी सम्प्राप्ति तपके द्वारा ही हो सकती है, इसलिये लिया गया प्रतीत होता है कि अध्यात्मिक सस्य भोगके मार्गस नहीं । अर्थात् छद्मस्थावस्थामें जब की ओर हर किसीकी रुचि नहीं होती। वैदिक क्रियाकांड- शिवस्व' पानेके लिए उन्मुख थे उस समय काययोगकी में व्यस्त लोगोंमे जिनको पात्र पाया उन्हींको यह रहस्य साधनाके लिए उन्होंने तपका आश्रय लिया था । कायबताया गया।
गुप्तिका पालन करके कायाजनित कमजोरीको जीतकर जैन शास्त्रकारोंने स्पष्ट लिखा है कि ऋषभदेवने उन्होंने पर्वतीय (मेरुदण्ड में सुप्त) शक्ति को जागृत किया कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की थी। जिस समय वह था। इसीलिये अलंकृत भाषामें कहा जाता है कि शिवतपस्यारत हो मारमध्याममें मग्न थे उस समय सुरांग. पार्वतीका विवाह हुआ था! वस्तुतः वह उक्त प्रकारका नामोंने उनके शीलकी परीक्षा ली थी; परन्तु ऋषभ तो एक रहस्यपूर्ण प्रतीक हो है। वासनाको जीत चुके थे और समाधिमें लीन थे। कामदेवके शिवका मुख्य कर्म संहार माना है। निस्सन्देश सांसा. बेधक वाण उन्हें समाधिसे च्युत न कर सक-उल्टे उन्हें रिक प्रवृत्तिका संहार किये बिना निवृत्तिमार्गका पर्यटक शरीर मन्दिरमें स्थित परमात्मतस्वके दर्शन करानमे वह नहीं बनाया जा सकता । ऋषभदेवने प्रवृत्तिका मार्ग साधक बने। वैदिक परम्परामें स्पष्ट कहा गया है कि स्यागा था और योगचर्याको अपनाया था। कर्म-प्रकृतियोंशिवने कामदेवको भस्म कर दिया था । पावतीने जब रति का सम्पूर्ण संहार करके ही वह शिवस्वको प्राप्त हुए थे। वाल्लभको यों नष्ट होते देखा तो उन्होंने माना कि शिवका इसलिये उन्हें शिव कहन. ठीक है। पानेके लिये सुन्दरता पर्याप्त नहीं है। अतएव उन्होंने शिवलि M IRI सप द्वारा आत्मसमाधि लगाना निश्चित किया, क्य कि लेना.किन्तु आज कोई भी इस गूढार्थको नहीं समझता प्रमाधिकी पूर्णता ही शिवतरवको प्राप्त कराती १२ । विषयी जाग उसमें वापनाको छाया देखते हैं। वस्तुतः चित्रं किमत्र यदि ते विदशाङ्गनाभि
वह अमृत धानन्दका बोधक है। प्राचीन भारतीय मान्यतानीतं मनाईप मनो न विकारमार्गम् ।
में मस्तिष्कको कलश या कुम्भ कहा गया है। मस्तिष्कसे कल्पांतका जमरुता जिताचजेन,
निरन्तर अमृतका चरण होता रहता है, जिसे योगीजन कि मंदरादिशिखर चलितं कदाचित् ॥६॥ पीकर अध्यात्मिकतामें निमग्न हो जाते हैं और विष पी -भकामरस्तोत्र
अवाप्यते वा कथमन्यथाद्वयं २ तया सम वहता मनोभवं, पिनाकिना भग्नमनोरथा सति ।
तथाविध प्रेम पतिश्च तादृशः॥ निनिंद रूपं हत्येन पार्वती,
३रा.सा. ने कल्याणमें "शिवका स्वरूप' शीर्षक लेख प्रियेषु सौभाग्यफलादि चारुता ।
प्रकट करके शिव-प्रतीकका रहस्योद्घाटन किया है। इयेष सा कमवन्ध्यरूपता,
उनके इस लेख माधारसे ही यह विवेचन किया जा पोभिरास्थाय समाधिमात्मनः ।
रहा है, एतदर्थ हम उनके भाभारी हैं।
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किरण ६ ।
ऋषभदेव और शिवजी
१८७
D
पुरुष वामनामें फंसकर उसका दुरुपयोग कर डालते हैं। जिनमूर्तियोंके भासनमें त्रिशूल पर ही धर्मचक्रका चित्राइस उल्लेखसे ब्रह्मचर्यमय योगनिष्ठाको पुष्टि होती है। प्रण किया गया है। पतः त्रिशूल सम्यग्दर्शन. ऋषभ पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर अमृस्वको पान करके ही ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय धर्मका प्रतीक है, जिसके द्वारा शिवरूप बने थे। रेणु-वीर्य के दुरवस्थित होने पर उसको संसार-ध्यानको छेद दिया जाता है। शिवके रूप में सपा ब्रह्मचर्य द्वारा ही उर्जस्वरेत करके जोवित बना दिया जाता का प्रयोग मिलता है। जैन परम्परामें सरका विशिष है। ऋषभ मनन्तवीर्यके भोक्ता इसी प्रकार हुये थे। स्थान है। प्राचीनकाल में कुछ लोग उसे ज्ञानका प्रतीक शुकाके पुनर्जीवन पानेका रहस्य यही है।
मानते थे, जो अज्ञानके लिये कालरूप था। ऋषभदेव शिवके विषपानका रहस्य भी ऋषभकी योगचर्या में अनम्तज्ञानके भोक्ता थे जिसके फलस्वरूप ज्ञानगंगा छिपा हया है। निघण्ट में जलके ११नाम दिए गए प्रवाहित हुई थी। शिवजीकी जटामें गंगाका वास माना हैं। उनमें विष और अमृत भी जलके पर्यायवाची शब्द ही जाता है। ऋषभमूतियों की यह एक विलक्षणता हे है एवं वीर्य या रेत भी जलका ही रूप है। अतः वीर्यसे कि उनके कन्धों पर जटायें उत्कीर्ण की जाती हैं। शिवदेवी और पासुरी अर्थात् अमृत रूप और विषरूप कि वाहन वृष (पैन) ही ऋषभका भी चिद्ध है। इस प्रकार प्रकट होती है। आत्मविनाशकी प्रवृत्ति प्रासरशक्ति विष- शिवपुराण' के उक्त लोकमें जो ऋषभको शिव कहकर रूपकी च तक है शिवने उसे जीत लिया था। पुण्य उल्लेखित किया है वह सार्थक है। भारतीय परम्परामें भोर पाप रति और परति सब पर ऋषभने विजय पायी यह विश्वास एक समय प्रर्चालत रहा प्रतीत होता है कि थी। अतः शिवका विषपानप्रसंग उनकी समवृत्तिका ऋषभ ही शिव हैं. क्योंकि साहित्यके साथ साथ शिवकी योतक है, जिसमें प्रासुरी वृत्ति पछा दी गई थी। ऐपी मूर्तियाँ भी बनाई गई, जो विष्कुल अषभ मूर्तिसे भम्मासुरके निपर शरीरके बाहर नहीं थे। वह मानव
मिलती-जुलती हैं। इन्दौर सग्रहालय में इस प्रकारकी एक की मनवचन कायिक योगक्रियाएँ थी, जिन पर अधिकार
मति है। उसका चित्र यहाँ मध्यभारत पुरातत्व विभागके पाये बिना कोई भी योगी जीवन्मुक्त परमात्मदशाको
सौजन्यसे उपस्थित किया जाता है। पाठक उसे देखकर नहीं पा सकता। ऋषभदेवने मनदण्ड, वचनदण्ड और
यह भ्रम न कर कि वह जैन मूर्ति है। यह शिवकी मूर्ति कायदण्ड द्वारा इन विपरियोंको जीत लिया था उनकी है, परन्तु उसका परिवेष जिनमूर्तिके अनुरूप है। यह
याया। इसीलिये उन्हें शिव होना कुछ विचित्र नहीं है क्योंकि ऋषभको ही वाहायोंकहकर याद किया गया है।
शिव और जैनोंने पहला तीर्थकर माना था। ऋषभकी तरह ही शिव दिगम्बर कहे गये हैं। शिव
शुद्धलेश्यारूपी त्रिशूलसे मोहरिपुको नष्ट कर दिया है त्रिशूलधारी थे । भारतीय पुरातत्वमें त्रिशूल चिह्नका प्रयोग
'खलेश्यात्रिशूलेन मोहनीयरिपुतिः । पहले पहले जैनोंने किया था। ईस्वी पूर्व दूसरे शतादिके हाथीगुफा लेखम वह मिलता है और कुशाणकालीन २ बंगाल, बिहार, उड़ीसाके जैन स्मारक' और श्री रविषेशाचार्यने जिनेन्द्र के लिए लिखा था कि
श्रीमहावीरस्मृतिग्रन्थ पृष्ट १२७-२२६ में देखें।
__ अनेकान्तको २५१) रुपया प्रदान करने वाले संरक्षकों और १०१) रुपया देने वाले स्थायी सहायकों को सदा भनेकान्त भेट स्वरूप दिया जाता है।
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हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(गत किरण पाँच से भागे)
सोनगढ़ गुजरातमें एक छोटासा कस्वा है पहले किन्तु हिन्दी भाषियोंके माने पर प्रवचन हिन्दीभाषामें सोनगदको कोई नहीं जानता था । परन्तु अब सोनगढ़के भी होने लगता है। प्रवचन सरल और वस्तुतस्यके नामसे भारतका प्रायः प्रत्येक जैन परिचित है। प्रस्तुत विवेचनको लिये हुए होता है हम लोगान प्रवचन सुने, और सोनगढ़ गुजरातके संत कानजी स्वामीके कारण जैनधर्मका यह अनुभव भी किया कि सोनगढ़में भुमुनुका समय व्यर्थ एक केन्द्रसा बन गया है। कानजी स्वामीके उपदेशोंसे नहीं जाता समयकी उपयोगिता साथ अध्यात्मप्रन्योंके प्रभावित होकर काठियाबाद गुजरातके ५ हजार व्यक्ति- अध्ययन और तत्वचर्चाके सुननका भो यथेष्ट अवसर योने दिगम्बर धर्मको अपनाया है। इस प्रान्तमें जो कार्य मिलता है। मुख्तार बीजुगलकिशोरजीके साथ उपादान कानजी स्वामीने किया ऐसा कार्य भन्यने नहीं किया। और निमित्त-सम्बन्धी चर्चा भी चली, तत्सम्बन्धी अनेक सोनगढ़में दिगम्बर जैनियोंके ११० घर विद्यमान है जिनको प्रश्नोत्तर भी हुए। परन्तु अन्तिम निश्चयात्मक कोई संख्या लगभग ४०० के करीब है। ये सभी कुटुम्ब यहाँ निष्कर्ष नहीं निकला। केवल इतना कहने मात्रसे कि मूलपर अपना संयमी जोवन विता कर कानजी स्वामीके उप- में भूल है' काम नहीं चल सकता, क्योंकि वस्तुतत्त्वकी देशोंसे लाभ उठा रहे हैं। उनका रहन-सहन सादा और उत्पत्तिमे उपादान पार निमित्त दोनों ही कारण हैं। पाहारादि साविक है। सामायिक, स्वाध्याय प्रवचन, भक्ति इनके विना किसी वस्तुको निष्पत्ति नहीं होती। प्राचार्थ और शंकासमाधान जैसे सत्कार्यों में समय व्यतीत होता समन्तभद्ने 'निमित्तमभ्यन्तरमूलेहेतोः' वाक्यमें वस्तुकी है। उक्त स्वामीजीके उपदेशोंमे वहाँकी जनता प्ररित उत्पतिमें दोनोंको मूलहेतु माना है। इतना ही नहीं है। इस कारण उनके हृदयमें जैनधर्मके प्रचारकी बलवती किन्तु उपादान और निमित्तको दण्यगत स्वभाव भी भावना जाग्रत है। वहाँसे अनेक प्राध्यात्मिक ग्रन्थोंका बतलाया है। यह सब होते हुए भी सोनगढ़गुजराती और हिन्दीमें प्रकाशन हुआ है। उन्हींकी में अध्यात्मचर्चाका प्रवाह बराबर चल रहा है। प्ररणाके फलस्वरूप सोनगढ़ जैसे स्थानमें निम्न उपादान निमित्त के सम्बन्ध में जिज्ञासुभावसे वस्तुका निर्णय ८ संस्थाएँ चल रही हैं। १ सीमंधरस्वामोका मन्दिर । कर तद्विषयक गुस्थीका सुलझा लेना चाहिए । कानजी २ श्रीसीमंधरस्वामीका समोसरण, समांसरणमें कुन्द- स्वामी भी दोनोंकी सत्ताको स्वीकार तो करते ही हैं। कुम्दाचार्य हाथ जोदे खड़े हुए हैं। स्वाध्यायान्दर, ४ अतः इस सम्बन्ध विशेष ऊहापोहके द्वारा विषयका कुंदकुन्दमयप,-जिसमें अलमारियोंमें जैनसाहित्य निर्णय करनेमें दो बुद्धिमत्ता है। क्योकि एकान्त ही भरा पड़ा है। श्राविकाशाला। अतिथिग्रह, जिस- वस्तुतत्त्वकी सिद्धि में बाधक है, अतः एकान्त .टको छोड़ में बाहरके भागन्तुक व्यक्तियोंके लिए भोजनादिकी व्यव- कर अनेकान्तको अपनाना ही श्रेयस्कर है। यहां हम लोग स्था है। .गोग्गीदेवी दि. जैन श्राविका ब्रह्मचर्याश्रम, दो-तीन दिन ठहरे, समयबदा ही प्रानन्दसे व्यतीत हुमा। जिस सेठ तुलाराम बच्छराजजी कलकत्ताने डेढलाख रु. सोनगढ़से हम लोग पालीताना (शत्रजय)की यात्राबगा कर बनवाया है। इसमें ब्रह्मचारिणी शान्ताहिन को गये। अध्यापनादि कार्य कराती हैं। संगमर्मरका एक सुन्दर शत्रजयका दूसरा नाम पुण्डरीक कहा जाता है। मानस्तम्भ,-जिसकी प्रतिष्ठा अभी हालम सम्पन हुई है। यह पेन दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें मान्य स्वाध्याय मन्दिरमें कानजी स्वामीका दो बार प्रवचन एक बारोपाधि समग्नतेयं एक घंटे होता है। प्रवचनके समय प्रवचन में निर्दिष्ट ग्रन्थ कार्येषु ते इण्यगतः स्वभावः । मोतामोंके सामने होते है जिससे विषयको समझने में नेवाऽन्यथा मोक्ष विधिश्च पसां मुविधा होती है। प्रवचनकी प्रामभाषा गुजराती होती हे तेनाऽभिवन्यस्त्वमृषिधानाम् ॥६०॥ स्वयंभूस्तोत्र
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किरा
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
[१८
है। युधिष्ठिर भीम और अर्जुन न तीन पाडवोंने तथा लोग सोनगढ़ पाए। और वहाँसे पुनः अहमदाबाद भनेक ऋषियोंने शत्र जयसे मुक्तिनाभ किया है। गुजरा- भाकर पूर्गक प्रेमचन्द्र मोवोचददि जैन बोजि हाउसतके राजा कुमारपालके समपमें इस क्षेत्र पर लाखों रुपए में ठहरे। अगले दिन संघ रेलवेसे तारगाके लिये रवाना लगाकर मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया गया था, तथा नूतन
एमा। क्योंकि तारंगाका रास्ता रेतीला अधिक होनेसे मन्दिरोंका निमाय भी हमा है। कुछ मन्दिर विक्रमकी बारीके फंस जानेका खतरा था। जयपुर वालोंको खारियों 11-12 वीं शताब्दीके बने हुए है और शेष मन्दिर १५
धंस गई थीं, इस कारण उन्हें परेशानी उठानी पड़ी थी। वों शताब्दीके गदमें बनाए गए हैं। यहाँ श्वेताम्बर सम्प्र- अत परेशानीसे बचने के लिये रेलसे जाना ही अयस्कर दायके सहस्र मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में कई मन्दिर समझा गया । कलापूर्ण हैं। इनमें जो मूर्तियाँ विराजमान हैं उनकी उस इस क्षेत्रका तारंगा नाम का और कैसे पड़ा यह कुछ प्रशान्त मूर्ति कलामें सरागता एवं गृही जीवन जैसा रूप ज्ञात नहीं होता । इसको प्राचीनताके योतक ऐतिहासिक नजर पाने लगा है-वे चांदो-सोने आदिके प्रलं प्रमाण भो मेरे देखने में नहीं पाए । मूर्तियाँ भी विशेष कारों और वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं-नेत्रों में कांच पुरानो नहीं है। निर्वाणकायहकी निम्न प्राकृत गाथामें जड़ा हुआ है। जिससं दर्शकके हृदयमें वह 'तारप्रणयरे' पाठ पाया जाता है जिसका अर्थ 'साराविकृत एवं अलंकृतरूप भयंकर और पास्म दर्शनमें पुर' नामका नगर होना चाहिये । परन्तु उसका वारंगारूप बाधक तो है ही, साथही, मूतिकलाके उस प्राचीन उद्द. कैसे बन गया? यह अवश्य विचारणीय है। श्यके प्रतिकूल भी है जिसमें वीतरागताके पूजन का उपदेश वरदत्तोयवरगोसायररत्तो य तारवरणयरे [णियडे] । प्रन्थोंमें निहित है। जैन मूर्तिकलाका यह विकृत रूप किसी
पाहुट्ट य कोड आ णिव्वाणगया णमो तेसि ।। तरह भी उपादेय नहीं हो सकता, यह सब सम्प्रदायके ज्यामोहका परिणाम जान पड़ता है।
इस गाथामें तारापुरके निकटवर्ती स्थानसे वरांग,
सागरदत्त, वरदत्तादि साढ़े तोन करोष मुनियों का निर्वाण उक्त श्वेताम्बर मन्दिरोके मध्य में एक छोटासा दिग
होना बताया गया है। इसमें जो यहाँ बरांग वरदत्त और म्बर मन्दिर विद्यमान है. जो पुगतन होते हुए भी उसमें
सागरदत्तका निर्वाण बतलाया, वह ठीक नहीं है क्योंकि नूतन संस्कार किया गया प्रतीत होता है। परन्तु मूर्तियाँ
वरांग मोर नहीं गया और वरदत्तका निर्वाण अवश्य १७वीं शताब्दोके मध्यवर्ती समय की प्रतिष्ठित हुई विरा.
हुमा है पर वह प्रानर्तपुर ® देशके मणिमान पर्वत पर जमान है। मूलनायककी मूर्ति सं० १६, की है। एक
हुभा है तारापुर या तारपुरमें नहीं। तथा सागरदत्तके मम्ति सं० १६६१की भी है और प्रवशिष्ट मूनियाँ सं० 10
निर्वाणका कोई उक्लेख अन्यत्र मेरे देखने में नहीं पाया। ६५ की विद्यमान हैं। मूल नायककी मूर्ति विशाल और
वरांगके स्वर्गमें जानेका जो उस्लेख है-वह उसी मणिमान चित्ताकर्षक है। ये सब मूर्तियाँ हमवंशी दिगम्बर जैनों
पर्वतसे शरीर छोड़कर सर्वार्थ सिदि गए । जैसाकि जटासिंह के द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं। मन्दिरका स्थान अच्छा है।
नन्दीके ३१वें सर्गके वरांगचरितके निम्न पचसे प्रकट हैं। पूजनादिकी भी व्यवस्था है। पहाड़ पर चढ़नेके लिए नूतन सीढ़ियोंका निर्माण हो गया है जिससे यात्री विना
कृत्वा कषायापशम क्षणेन किसी कटके यात्रा कर सकता है।
ध्यानं, तथाद्य समवाप्य शुक्लम् । पहारके नीचे भी दर्शनीय श्वेताम्बर मन्दिर हैं उन
यथापशान्तिप्रभवं महात्मा सबमें सागरानन्द सूरि द्वारा निर्मित मागम मन्दिर है.
स्थान समं प्राप वियोगकाले ॥१०५ जिसमें श्वेताम्बरोय भागम-सूत्र संगमर्मरके पाषाण . महाभारत और भागवतमें भामत देशका उल्लेख पर उत्कीर्ण किए गये हैं। उनमें अंग उपांग भी खोदे गए किया गया है और वहाँ द्वारकाको भानत देशमें है। पाखीवानामें ठहरनेके लिए धर्मशाला बनी हुई बतलाया है। है। जिसमें यात्रियोंको ठहरनेकी सुविधा है। द्वारका पासवर्वी देशको भी मानतदेश कहा गया है। शहरमें भी दिगम्बर मन्दिर है। पालीतानासे हम
देखो पद्मचन्द्र कोष १.८०
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१६.]
अनेकान्त
कर्मावशेषप्रतिबद्धहेनो,
सन् १.३० में कृष्ण जीने उसे अपने अधिकारमे ले लिया। सनि ति नापदनो महात्मा।
तथा सन् १.६१ अथवा १७७० में सिंधियाने कब्जा कर विमुच्य देहं मुनि (सुचि) शुद्धलेश्यः
लिया। उसके बाद सन् १८७ [वि.सं.१80.] में प्रारधियन्त (नान्त) भगवाजगाम ।
अंग्रेज सरकारने उसे अपने प्राधीनकर लिया । इस यथैव वीर प्रविहाय राज्यं,
पहायके नीचे उत्तर पूर्वकी ओर राजशू चापानेरके ताश्च मसंयम माचचार ।
खण्डहर देखने योग्य हैं और दक्षिणको भोर भनक तथैव निर्वाण फलावसानां, (नं)
गुफा हैं जिनमें कुछ समय पूर्व हिन्दु साधु रहा करते लोक (क) प्रतिष्ठां (प्रतस्थौ) सुरलोकमनि ॥ थे। पहाए पर तीन मीलकी चढ़ाई और उतनी हो
विक्रमकी ५वीं शताब्दीके विद्वान भट्टारक उाय उतराई है। कीर्तिने अपनी 'निर्वाणभक्तिमें निर्वाण स्थानोंका वर्णन पावागढ़के नीचे चांपानेर नामका नगर बसा हुआ था काते हुए उक्त निर्वाणभूमिको तारापुर ही बतलाया जिसे अनहिल बाड़ाके वनराज के राज्य में (०४६-८०६ सारंगा नहीं, जैसा कि उसके निम्न पचसे स्पष्ट है:- में एक चंपा बनियेने बसाया था। सन् ५३६ तक 'तारापुर बंदउ जिरणवरेंदु, आहूठ कोडिकिउ सिद्ध मंगु। यह गुजरातकी राजधानी रहा है।
इन सब समुल्लेखों परसे भी मेरे उस अभिमनकी' पहारके ऊपर कुछ मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं। पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में उक्त 'तार उर' या तारापुर छटवे फाटकके बाहरकी भीतमें डेढ़ फीटके करोष ऊंचाईतारंगा नहीं कहा जा सकता । निर्वाणकाण्डकी उस गाथा- को लिये हुए एक पदमासन दिगम्बर जैन प्रतिमा उत्कीर्ण का क्या माधार है और उसको पुष्टिमें क्या कुछ ऐति है जिसके नीचे पं० ११ अंकित है। ऊपर चढ़ने पर हासिक तथ्य है यह कुछ समझमें नहीं आया। यहां दो रास्तेसे बगजमें नीचेको उतरके दो कमरे बने हुए हैं। दिगम्बर मन्दिर है. जिनमें से एक सम्बत् १६११का बनाया उसके बाद ८३ सीढ़ी नीचे जाकर मांचीका दरवाजा पाता हुना है और दूसरा सं० ११२३ का। इससे पूर्व वहां है वहाँ एक छोटा सा मकान पहरे वालोंके ठहरनेके लिए कितने मन्दिर थे, यह वृत्त अभी अज्ञात है।
बना हुआ प्रतीत होता है। अपर जीर्ण मन्दिरोंके जो सारंगासे अहमदाबाद वापिस पाकर हम लोग 'पावा- भग्नावशेष पड़े हैं उन्हींमेसे ३-४ मन्दिरोंका जीर्णोद्धार गद' के लिए रवाना हुए । यहाँ पाकर धर्मशालामें ठहरने- किया गया है। मन्दिरों में विशेष प्राचीन मूतियों मेरे प्रवको थोदी सी जगह मिल गई। पावागढ़की अन्य धर्म- जोकनमें नहीं आई। विक्रमकी १६ वी १७वीं शताब्दीसे शालामा ललितपुर श्रादि स्थानोंके यात्री ठहरे हुए थे। पूर्वकी कोई मूर्ति उनमें नहीं हैं। एक मूर्ति भगवान
पावागढ़ एक पहादी स्थान है। यहाँ एक विशाल किला पार्श्वनाथकी सं० १५४८ की भट्टारक जिनचन्द और जीवहै। और यह ऐतिहासिक स्थान भी रहा है। धर्मशालाके राज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान हैं उपलब्ध पास ही नीचे मन्दिर है । शिलालेखोंमें इसका 'पावकगढ़' मूर्तियों में प्रायः सभी मूर्तियाँ मूलसंघ बलात्कारगणके मामसे उक्लेख मिलता है। चन्दकविने पृथ्वीराजरासे में महारक गुणकीर्तिके पट्टधर लिप्य भ० बदिभूषण द्वारा पावकगढ़के राजा रामगोड तुभार या तोमरका उल्लेख प्रतिष्ठित स. १६४३, १६५ और की है। किया है । सन् ११.. में उस पर चौहानराजपूतोंका अधि भगवान महावीरकी एक मूर्ति सं० १६६६ की भ. कार हो गया था, जो मेवारके रणथंभोरसे सन् १२ या सुमतिकीतिके द्वारा प्रतिष्ठित मौजूद है। १३०. में भाग कर पाये थे। सन् १९८४ में सुलतान
ऊपरके इस सब विवेचन परसे यह स्थान विक्रमकी महमूद बेगहने चढ़ाई की, तब जयसिंहने वीरता दिखाई,
1वीं शताब्दीसे पुराना प्रतीत नहीं होता। हो मम्तमें सम्धि हो गई। उसके बाद सन् १९५५ में मुगल
मुगल सकता है कि वह इससे भी पुरातन रहा हो । यहाँ संभवतः बादशाह हुमायूने पावकगढ़ पर कब्जा कर लिया फिर
फिर डेढ़ सौ वर्षके करीबका बना हुआ कालीका एक मन्दिर देको अकबर नामा।
भी है। सीदियोंके दोनों भोर कुछ जैन मूर्तियां लगी हुई
जाता हो
भी पुरातन रहा
डेढ़ सौ वर्ष
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किरण ६] हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
[१६१ हैं, जो जैनियोंके प्रमाद और धार्मिक शिथिलताकी घातक के करीब किराया देना पगा। वहांसे सामान मोटर पर हैं। क्या जैन समाज अपनी गाढ़ निन्द्राको भंग कर पुरा- चढ़वा कर हम लोग ३ बजेके करीबगडवानी बडिंगहाउसमें तत्वके संरक्षणकी ओर ध्यान देगा।
ठहरे। वहाँ पं. मंकरजी न्यायतीर्थ योग्य विधान तमा निर्वाणका - इस पावागदक्षेत्रसे रामचन्द्र
मिलनसार व्यक्ति हैं। उन्होंने हम लोगोंके ठहरनेकी डयसीके दोनों पुष वश तथा लादेशके राजा और पाँच वस्था की तथ। गेहूँ और अच्छे बोको मी व्यवस्था करा करोष मुनियों के निर्वाणका पवित्र स्थान बतलाया गया दी। बोडिंगहाउसमें छात्र अंग्रेजो और सस्कृतको शिक्षा है इस सम्बन्ध भी अन्वेषणको मावश्यकता है। मात करते हैं। हम लोगोंने वहाँ २.३ घण्टे में कुछ खाने
पीनेका सामान बरोदा और विद्यार्थी ज्ञानचन्द्रादिको साथ पावागढ़से चल कर हम लाग तरोड होते हुए दाहोद
में लेकर चूल गरिकी यात्रार्थ चल दिए। वहा धर्मपहुँचे, और दि. जैन पोडिंग हाउसमें ठहरे । वहीं परिडत
शालाके पास बारीको स्वदाकर हम लोग पहारको यात्रा हरिश्चन्दजीने हम लोगीक ठहरनेकी व्यवस्था की ।
करने के लिए चले। और हमने ता. २० फरवरी सन् नशियांजीका स्थान सुन्दर है वहां भगवान महावीर
१९१३ को शामको सात बजे यात्रा प्रारम्भ की। और दो स्वामीकी एक मनोग्य एवं विशाल मूर्तिक दर्शन कर चित्तमें
तीन घरटेमें सानन्द यात्रा सम्पन्न की। यात्रामें जितना बढ़ी नसबता हुई और सफरके उन सभी कष्टोको भूल
भानन्द पाया, वहाँ ठहरनेके लिये समय कम मिलनेसे गए जो सफर करते हुए उठाने पड़े।
कष्टभी पहुंचा; क्योंकि वहाँ अनेक पुरानी मूर्तियाँ मौजूद दाहोद सन् १४१९ (वि. स. १४७६) तक बाह- है। जो १०वी ११ वीं शताब्दीकी जान पाती हैं। रिया राजपूतोंके प्राधीन रहा। किन्तु सुलतान अहमदने कितनी ही ऐतिहासिक सामग्री विभिन्न पदी है परन्तु राजा इंगरको परास्त कर दाहोद पर अधिकार कर क्षेत्रक प्रबन्धोंने उसे संगृहीत करनेका प्रयत्न ही नहीं लिया । सन् १९७३ में अकबर बादशाहके प्राधीन रहा। किया, केवल पैसा संचित करने और धर्मशाला वा मानस्तसन् १६१६ में शाहजहाँने औरङ्गजेबके जन्मके सम्मानमें म्भादिक निर्माण में उसे खर्च कर देनेका ही प्रयत्न किया कारवा सराय बनवाई थी। बादमें सन् १७५० वि० स० गया है। परन्तु क्षेत्रके इतिहासको खोज निकालने और १८०७ म सिधियाक कब्जेम पाया और सन् १८०३ में पुरानी मूर्तियाँ तथा अवशेषोंका सग्रह कर उनके संरक्षण अंग्रेज सरकारने उसपर कब्जा कर लिया यह पहले अच्छा करनेकी ओर ध्यान ही नहीं दिया गया, जिसकी पोर बदा नगर रहा है। दाहादसे सुबह चार बजेसे हमलोग क्षेत्रके मनीमका ध्यान प्राकर्षित किया गया। बड़वानी बावनगजा को यात्राके लिए चले । और " चूजगिरिमें सबसे पधानमूर्ति मादिनाथजी को है बजेके करीष हमलोग मरवदा नदीक घाट पर पहुंच गए। जिसं बावनगजाजीके नामसे भी पुकारा जाता है। अब यहाँस लारीको पार करनेमे ५५ घन्टेका विलम्ब हुआ, इस मूर्तिके उपर छतरी होनेके कारण मधुमक्खियांका बायलालजी जमादारको शहरमें इजाजत लेनेके लिए कुत्ता लगा हुआ है। यह मूति ८४ कीटकी ऊँची बतलाई भेजा गया। उनके सरकारी भाज्ञालेनेसे पूर्व हम सब जाती है मूर्ति सुन्दर है, कलापूर्ण भी है परन्तु वह उतनी बोगांने नहा धोकर भोजन बनाना प्रारम्भ किया। बाला- पाकर्षक नहीं है जितनी श्रवणबेलगोजकी मूर्ति है। राजकृष्णजी और मेड बदामीलालजीकी कारे नदीके चलगिरि गावानीसे दक्षिण दिशामें है। बडवानी उस पार पहुँच गई और वे बसवानीमें दि.जैन बोटिंग
छोटीसी रियासतको राजधानी रही है। चूगिरिमें अपर हाउसमें ठहरे। बाबूलाल जीके माने पर बारीका सामान
Ma २ मशिनियाका उतार कर पहले नावद्वारा सामान उस पार भेजा गया, ॥ गया, बडवानीसे दक्षिण दिशामें चूखगिरि-शिखरसे इन्द्रजीत
जियाये . बाद में बारीका नाव पर चढ़ा कर उसपार भेजा। और
और कुम्भकर्णादि मुनियोंके मुक होनेका उक्लेख है। एक नाबमें हम सब लोग पार उतरे। इसके लिए हमें १०)
जिससे इस क्षेत्रको भी निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है। • रामसुमा विरिण जया बादरिदाण भट्टकोसोभो। दिगम्बर जैन नायरेक्टरी में लिखा है-किपरवानी'पुराना पावाए गिरि तिहरे सिवाय गया समो वेसि ॥२॥ नाम नहीं है बगभग १०० वर्ष पूर्व इसका नाम 'सिक
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१२ ]
अनेकान्त
[किरण ६
पा
नगर' था, पीछे किसी समय पडवानी हुना होगा । वहा ३-संवत् १३८० वर्षे माघसुदि सनी श्रीनांदरंगाराकी बावडीके लेखसे ऐसाही मालूम होता है। परन्तु संधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे मूलसंधे कुन्दकुन्दा यह कल्पना ठीक नहीं है। बडवानी यह नाम कमसे कम चार्यान्वये भट्टारक श्रीशुभ कोर्तिदेवतशिष्य सनीति बह-सातसौ वर्षसे कम पुराना प्रतीत नहीं होता, क्योकि " "
एक मूर्ति पर वि० सं० १२१२ का भी लेख अंकित वक्रमकी ९वीं शताब्दीके भट्टारक उदयकीर्तिने अपनी
है उसमें शिल्पकारका नाम कुमारसिंह दिया हुआ है। निर्वाणभक्तिमें इसका उल्लेख किया है, और निर्वाण
सम्बत् १९१६ में काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके काण्डकी वह गाथा भी उक्त भक्सेि पुरानी जान पड़ती
महारक श्रीकमलकीर्तिके शिष्य मंडलाचार्य रस्नकीर्तिने है। भत्तिका का उल्लेख वाक्य इस प्रकार है:
मन्दिरका जीर्णोद्धार किया, और बड़े चैत्यालयक पाश्चमें 'वडवाणीरावणतण उपुत्त हउवदामि इन्दोज मुणि पवित्तु
दश जिनवतिकाओंकी भारोपणा की। तथा इन्द्रजीतकी
विनिमकी मे चूलगिरिके शिखरस्थित मन्दिरोंका जीर्णोद्धार विक्रम- प्रतिमाकी प्रतिष्ठा भी श्रीमंधके लिये की गई। इस तरह की १३ वी १४ वीं और १६ वीं शताब्दीमें किया गया यह चूलगिरिक्षेत्रका पुरातन इतिवृत्त १०वीं शताब्दीके है। जिनमें दो. शिलालेख वि० सं० १२२३ के हैं और आस पास तक जा सकता है। पर यदि वहाँकी पुरातन एक मूर्ति लेख संवत् १३८० का है। शेष लेख समयकी सामग्रीका संचय कर समस्त शिलालेख और मूर्तिलेखोंका कमीसे नोट करनेसे रह गए । दुसरे लेखसे मुनि रामचन्द्र- संकलन कर प्रकाशन कार्य किया जाय। तब उसके की गुरुपरम्पराका उल्लेख मिल जाता है जो बोकनन्दी- इतिहासका ठीक पता चल सकता है। मुनिके प्रशिष्य और देवनन्दीमुनिके शिष्य थे। मुनि बडवानीसे उसी दिन रात्रिको १० बजे चलकर हम रामचन्द्र के शिष्य शुभकीतिका भी उल्लेख अन्यत्र पाया लोग १२ बजेके करीब ऊन (पावागिरि) पहुँचे। जाता है। वे लेख पूर्व और दक्षिण दिशाके निम्न यह क्षेत्र कुछ समय पहले प्रकाशमें आया है। इसे ऊन प्रकार है:
अथवा 'पावागिरि' कहा जाता है। इस क्षेत्रके 'पावागिरि' 'यस्य स्वकुब्जतुषारकुन्द विशदाकीर्तिगणानां निधिः
होनेका कोई पुरातन उल्लेख मेरे देखने में नहीं पाया। श्रीमान भूपतिन्दवन्दितपदः पारामचन्द्रो मुनिः।
यहाँ एक पुराना जैन मन्दिर वी १२वीं शताब्दीका
बना हुमा है, जो इस समय खण्डित है, परन्तु उसमें विश्वमाद् खबशेखर शिखा सञ्चारिणी हारिणी,
एक दो पुरानी मूर्तियाँ भी पड़ी हुई हैं। जिनकी तरफ इस उव्यांशत्रु जितो जिनस्य भवनव्याजेन विस्फूति ।।
क्षेत्र कमेटीका कोई ध्यान नहीं है। यहाँ दो तीन नूतन रामचन्द्रमुनेः कीर्ति सङ्कीर्ण भुवनं किल ।
मन्दिरोंका निर्माण अवश्य हुआ है, जिनमें ३ भूतियां अनेकलोक सङ्घर्षाद् गता सवितुरन्तिकं ॥
परानी हैं। वे तीनों मूतियाँ एक ही तरहके पाषाणकी सम्बत् १२२३ वर्ष भाद्रपददि १४ शुक्रबार । बनी हुई है। उनमेंसे दोनों भोरकी मूर्तियोंके लेख मैंने भोंनमो वीतरागाय ॥
उतार लिये थे, परन्तु तीसरी मूर्तिका अभिलेख कुछ आसीद्यःकलिकालकल्मषकरिध्वंसैककंठीरवो, अंधेरा होनेसे स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता था इस कारण तावनेमापतिमौलिचुम्बितपदः यो लोकनन्दो मुनिः।। रनेसे रह गया था। वे दोनों मूर्तियाँ संभवनाथ और शिष्यस्तस्य स सर्वसङ्घतिलक श्रीदेवनन्दो मुनिः।
कुधनाथकी है उनके मूर्ति लेख निम्नप्रकार है:धर्मज्ञानतपोनिधियतिगुणप्रामः सुवाचां निधिः ॥
"सम्पन् १२५८ श्रीवलाकारगणपण्डित श्रीदेश
नन्दी गुरुवर्यवरान्वये साधु धणपण्डित तरिशष्य साधुसवंशे तस्मिन् विपुलतपसां सम्मतः सत्वनिष्ठो।
लेण तस्य भार्या हर्षिणी तयोः सुत साधुगासून सांतेण वृत्तिपापां विमलमनसा त्यज्यविद्याविवेकः।
प्रणमति नित्यम्" रम्यां हये सुरपतिजित: कारितं येन विद्या।
२ श्री सम्बत् १२६३ वर्षे ज्येष्ठमासे १३ गुरी साधु शेषां कीर्तिभोति भुवने रामचन्द्रः स एषः॥२॥ पंडित स नित सुतसीखहारेण प्रणमति नित्यम्" संवत् १२५ वर्षे ।
तीसही मूर्ति अजितनाथकी है।
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हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
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विद्वानोंको चाहिये कि इस क्षेत्रके सम्बन्ध अन्वेषण 'ममा हिमवत्यपि प्रतिष्ठे, किया जाय, जिससे यह मालूम हो सके कि यह स्थान दण्डात्मक गजपथे पृथुसारयो। कितना पुराना है और नाम क्या था, इसे पावागिरि ये साधवो हतमाः सुगति प्रयावा: नाम कब और क्यों दिया गया। यह एक विचारतीय स्थानानि वाणि जगति प्रथिवाग्मभूवन् ॥१०॥ विषय है जिस पर मम्वेषक विद्वानोंक विचार करना
पूज्यपादके कई सौ वर्ष बाद होने वाले प्रसग कविने मावश्यक है।
जो नागनदी प्राचार्य के शिष्य थे। उन्होंने अपना 'महाउनसे चलकर हम लोगधनिया पाए । यहाँ से ला. वीर चरित' शक संवत् 1. (वि.सं .१)में राजकुण्याजी और सेठ बदामोलालजी 'मांगीतुगी' की बना कर समाप्त किया था। असगने अपने शान्तिनाथ याबाके लिये चले गए। हम लोग नियासे सीधे गज- पुराणके मातवें सर्गके निम्न पछमें गजपम्प वा 'गजवन पंथा भाये। और रात्रिमें एक बजेके करीब धर्मशालामें पर्वतका उक्लेख किया है। पहुँचे। वहाँ जाकर देखा तो धर्मशाला दिल्ली और अपश्यन्नावरं किंचिदझोपायमधात्मनः । बलितपुर भाविके यात्रियोंसे ठसाठस भरी हुई थी। किसी शैलं गजवर्ज प्रापन्नासिक्यनगराबहिः॥१८॥ तरहसे दहलानमें बाहर सामान रख कर दो घंटे भाराम
विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान ब्रह्माभवसागरने, किया । और प्रात:काल नैमित्तिक क्रियाओंसे फारिग होकर
जो भ०विद्यानन्दके शिष्य थे। अपने बोधपाहुबकी टीकामें पात्राको चले।
२७ नम्बरकी गाथाकी टीका करते हुए-उर्जयन्त-शत्रु यह गमपन्य तीर्थ नूतन संस्कारित है। सम्भव है जय-बाटदेश पावागिरि, भाभीरदेश तुंगीगिरि, नासिक्यपुराना गजपन्ध नासिकके बिलकुल पास ही रहा हो, नगरसमीपवर्तिगजध्वज-भाजपन्य सिद्धकूट....."गबध्वज जहाँ वह वर्तमानमें है वहाँ न हो। पर इसमें सन्देह नहीं या गजपन्धका उल्लेख किया है। इतनाही नहीं किन्तु कि गजपन्य क्षेत्र पुराना है।
माम तसागरमे 'पञ्चविधानकथा' की अन्तिम प्रशस्तिमें गजपन्य नामका एक पुराना वीर्य क्षेत्र नासिक जिसे ईडरके राजा भानुभूपति, जो 'रावमापजी' नामसे के समीप था । जिसका उल्लेख साकीवी और विक- प्रसिद्ध थे, यह राठौर राजा रावजाजीके प्रथम पुत्र और मकी छठी शताब्दीके विज्ञान प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) रामनारायणदासजीके भाई थे। सं०११०२ में गुजरायके ने अपनी निर्वाणभक्तिके निम्न पथमें किया है।- बादशाह मुहम्मदशाह द्वितीयने इंटर पर चढ़ाई की थी,
तब उन्होंने पहादोंमें भागकर अपनी रचाकी, और बादमें * नासिक पुराना शहर है। यहाँ रामचन्द्रजीने बहुत
सुबह कर ली थी। इन्होंने सं० १५०२ से १९५२ तक सा काल व्यतीत किया था, कहा जाता है कि इसी
राज्य किया है। इनके मंत्री भोजराज हुमडबंशी थे, उनकी स्थान पर रावणकी बहिन सूर्पणखाकी नासिका काटी
पस्नी विनयदेवी थीं। उनके चार पुत्र ये और एक पुत्री। गई थी इसीसे इसे नासिक कहा गया है। नासिकमें
ब्रह्माश्रुतसागरने संघ सहित इनके साथ गजपंयकी यात्रा की ईस्वी सन्के दो सौ वर्ष बाद अंधभृत्य, बौद्ध,
थी और सकलसंघको दान भी दिया था यथाचालुक्य, राष्ट्रकूट चंडोर यादववंश और उसके
यात्रा चकार गजपन्थगिरौ स संधाबाद मुसलमानों, महाराष्ट्रों और अंग्रेजोंका राज्य
घन्तपो विदधती सुरव्रता सा शासन रहा है। यह हिन्दुओंका पुरातन तीर्थ है।
सम्छान्तिकं गवसमर्थनमहंदीश बह गोदावरी नदीके बायें किनारे पर बसा हुमा है
नित्यानं सकलसंघसदत्वदा ॥४॥ पंचवटीका मन्दिर भारतमें प्रसिद्ध ही है। दिगम्बर
इससे स्पष्ट पता चलता किविक्रमकी वी जैमग्रंथों में भी नासिकका उल्लेख निहित है।
शताब्दीमें 'गजपन्य क्षेत्र विद्यमान था और उसकी बाबा . प्राचार्य शिवार्यकी भगवती चाराधनाको ११५ की स गाथामें नासिक्य या नासिक नगरका उस्लेख मिलता x देखो, अनेकान्त वर्ष-किरण में माताहै। भगवती भाराधना अन्य बहुत प्राचीन है। जी प्रेमीका खेल।
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१९४]
अनेकान्त
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संघ जाते थे। अन्वेषण करने पर गजपम्य यात्राके अभ्य- श्रदेय पं. माथूरामजी 'मी' मालिक हिन्दी अन्य भी समुलेख प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु विचारना तो यह रत्नाकर हीराबाग बम्बईसे भी मिले। उनसे चर्चा करके है कि वर्तमान गजपन्थ ही क्या परातन गजपन्थ है या बड़ी प्रसन्नता हुई। मुख्तार साहब कुछ अस्वस्थसे चल अब पं. नाथूरामजी प्रेमीके लिखे अनुसार वि.सं. रहे थे, वे प्रेमीजीके यहाँही ठहरे । वहीं उन्हें सर्व १६३६ में नागौरके महारक क्षेमेन्द्रकीर्ति द्वारा मसरून प्रकारकी सुविधा प्राप्त हुई। पूर्ण पाराम मिलनेसे तबि. गाँव पाटीलसे जमीन लेकर नूतन संस्कारित गजपन्थ है। यत ठीक हो गई। हम सब लोगाने हैजेके टीके यहाँही हो सकता है कि गजपन्य विशाल पहाबन रहा हो, पर वह लगवा लिये। क्योंकि श्रवण बेल्गोलमें हैजेके टीकेके इसी स्थान पर था, यह अन्वेषणकी वस्तु है। इन सब उस्ले- विना प्रवेश निषिद्ध था। खोसे गमपन्थकी प्राचीनता और नासिकनगरके बाहिर उसकी
बम्बईसे हम लोग ता. २१ की शामको बजे अवस्थिति निश्चित थी। पर वह यही वर्तमान स्थान है।
पूनाके लिये रवाना हुए । बम्बईसे पूना जानेका मार्ग इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सम्बन्धमें
बड़ा ही सुहावना प्रतीत होता है। पहावकी पढ़ाई और भन्य प्रमाकि अन्वेषण करनेकी भावश्यकता है ।
पहाइको काटकर बनाई हुई गुफाएं देखकर चित्तमें गजपन्यकी वर्तमान पहाड़ी पर जो गुफाएं और मूतियाँ थीं
पदी प्रसन्नता हुई। यह प्रदेश इतना सुन्दर और मनउनका नूतन संस्कार कर देनेके कारण वहाँकी प्राचीनताका
मोहक है कि उसके देखनेके लिये चित्तमें बड़ी उत्कंठा स्पष्ट भान नहीं होता। वहाँकी प्राचीनताको कायम रखते
बनी रहती है। हम लोग रातको १ बजे पूना पहुंचे हुए जीर्णोद्धार होना चाहिये था। पहाड़ पर मूर्तिका दर्शन .
और स्टेशनके पासकी धर्मशालामें ठहरे । यद्यपि भीदमें करना बड़ा कठिन होता है। और पहार पर भी
पूनामें भनेक स्थल देखनेकी अभिलाषा थी । खासकर सावधानीसे चढ़ना होता है, क्योंकि कितनी ही सीदियाँ
"भयहाकर रिसर्चइन्स्टिव्य द" तो देखना ही था, अधिक ऊँचाईको निये हुये बनाई गई है। हम लोगोंने
परन्तु समय की कमोके कारण उसका भी अवलोकन सानन्द यात्रा की।
नहीं कर सके। गजपन्यसे नासिक होते हुए पहादी प्रदेशकी वह
पूनासे हम लोग रात्रिके ५ बजे कोल्हापुरके लिये मनोरम बटा देखते हुए हम लोग रात्रिको बजे ता. २२
रवाना हुए। और सतारा होते हुए हम लोग रात्रि में फर्बरीको बम्बई पहुँचे और सेठ सुखानन्दजीकी धर्म
कुंभोज (बाहुबली) पहुँचे। - शानामें चोथी मंजिल पर ठहरे।।
कुम्भोज बढ़ा ही रमणीक स्थान है। यहाँ अच्छी बम्बई एक अच्छा बन्दरगाह है और शहर देखने धर्मशाला बनी हुई है। साथ ही पासमें एक गुरुकुल है। योग्य बम्बईको भावादी धनी है । सम्भवतः बम्बईकी गुरुकुल में स्वयं एक सुन्दर मन्दिर और भव्य रथ मौजूद भाबादी इस समय पञ्चीस तीस लाखके करीब होगी। है। बाहुबलीकी सुन्दर मूर्ति विराजमान है दर्शन पूजन बम्बई व्यापारका प्रसिद्ध केन्द्र है। यहाँसे ही प्राय सब कर दर्शकका चित्त माल्हादित हुए बिना नहीं रहता। वस्तुएँ भारतके प्रदेशों तथा अन्य देशोंमें भेजी जाती हैं। उपर पहाड़ पर भी अनेक मन्दिर है जिनमें पार्श्वनाथ हम लोगोंने बम्बई शहरके मन्दिरोंके दर्शन किये चौपाटीमें और महावीरकी मूर्तियाँ विराजमान हैं और सामने एक बने हुए सेठ माणिकचन्द्रजी और सबपति सेठ पूनमचन्द बढ़ा भारी मानस्तम्भ है। बाहुबली स्वामीकी मूर्ति बड़ी बासीलाबजीके चैत्यालयके दर्शन किये। ये दोनों ही ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है। दर्शन करके हृदयमें जो चंत्यालय सुन्दर है। भूलेश्वरके चन्द्रप्रभु चैत्यालयके भानन्द प्राप्त हुआ वह वचनातीत है। दर्शन पूजनादिसे दर्शन किये । रानिमें वहाँ मेरा और बाबूलालजी जमादारका निपट कर मुनि श्रीसमन्तभद्रजीके दर्शन किये, उन्होंने भाषण हुमा । एक टैक्सी किरायेकी लेकर बन्दरगाह भी अभी कुछ समय हुए मुनि अवस्था धारण की थी। देखा। समयाभावके कारण अन्य जो स्थान देखना चाहते उन्होंने कहा कि मेरा यह नियम था कि ६० वर्षकी नहीं देख पाये।
अवस्था हो जाने पर मुनिमुद्रा धारण करूंगा। मुनि
ब जे कोदापार
हुए। और सत
धर्म
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[ কিযে ৪
हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान
[१६५
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समन्तभद्र प्रकृतितः भा और शाम्ब कर्तव्य कर्ममें साहबसे कहा मापने समाजकी ब सेवा की है। और बदेही सावधान है।
उच्च कोटिका साहित्य भी निर्माण किया है। उसके साथ इन्होंने अपनी पुस्मक अवस्थामें चैनसमाजमें गुरुकुल
संस्थाको अपना धम भी दे शाखा है। अब पाप अपनी पद्धति पर शिक्षाका प्रचार किया और कितने ही बी०ए०
मोर भी देखिये और कुछ बात्म साधनको घोर अग्रसर एम. ए.शास्त्री, न्यायती योग्य कार्यकर्ता तैयार किये होनेका प्रयत्न कीजिये । मुख्तार साहबने मुनिजीसे कहा हैं। कारंजाका प्रसिद्ध ब्रह्मचर्याश्रम मापकी बदौलत ही कि मेरा पाश्मसाधमकी भोर खगनेका स्वयं विचार इतनी तरक्की करनेमें समर्थ हो सका है। अब भी यहाँ रहा है और उसमें यथाशक्ति प्रयत्न भी करूंगा। मुनिजी दो घण्टा स्वयं पढ़ाते हैं। गुरुकुलका स्थान सुन्दर गुरुकुलके एक सज्जनने मुख्तार साहबका चित्र भी है। व्यवस्था भी अच्छी है। प्राशा है गुरुकुल अपने को लिया और दूधका माहार भी दिया हम लोग यहांसे बोर भी समुचत बनाने में समर्थ होगा। उनसे प्रारम- २० मील चल कर कोल्हापुरमें दि. जैन बोकि कल्याण सम्बन्धि चर्चा हुई। मुनिजीने श्रीमुख्तार हाउस में, ठहरे।
क्रमशः परमानन्द जैन शास्त्री
हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान
(मीकुमारी किरणवाला जैन)
किसी पदार्थके यथार्थ स्वरूपको अथवा सारको वस्व पोदित होने पर जब वह बचके समीप जाता है सब पैच कहते है। उनकी संख्या सात है। उनमें जीव और जीव रोगीको परीक्षा करनेके पश्चात् बताता है कि वास्तव में जा और चेतन ये दो तत्व प्रधान है। इन्हीं दो तत्वोंके तो रोगी नहीं है, परन्तु निम्नकारयोंसे रे यह रोग उत्पा सम्मिश्रणसे अन्य तत्वोंकी सृष्टि होती है। संसारका सारा हुआ है। तेरा रोग ठीक हो सकता है परन्तु तुझे मेरे कडे परिणाम अथवा परिणमन इन्हीं दो तत्वोंका विस्तृत रूप अनुसार प्रयत्न करना पडेगा, तो इस रोगसे वेरा छुटकारा हो है। इन तत्वोंको जैन सिद्धान्तमें मास्माका हितकारी बताया सकेगा अन्यथा नीं। वैध रोगीको रोगका निदान बतखानेगया है और उन्हीं को जैनसिद्धान्तमें 'तस्व संज्ञा प्रदान की गई के बाद उससे छुटकारा पानेका उपाय बनाता है, उसके है। प्रात्माका वास्तविक स्वभाव शुद है। परन्तु वर्तमान बाद रोगकी वृद्धि न होनेके लिये उपचार करता है। संसार अवस्था पाप पुण्य रूपी काँसे मलिन हो रही है। जिससे रोगी रोगसे मुक्त हो सके। जैनतीर्थकरोंके कथनानुसार अस्माका पूर्ण हित, स्वाधीनता- इसी प्रकार मलिन बस्त्रको स्वच्छ करनेके पूर्व वस्त्र का बाम है जिसमें पारमाके स्वाभाविक सर्वगुण और उसकी मलिनताके कारणों को जानना मावश्यक है। विकसित हो जायें, तथा वह सर्व कर्मकी मलिनतासे मुक वस्त्र मलिन कैसे हुमा और किस प्रकार वस्त्रकी मकिहो जाय-छूट जाय । उस मन्तिम अवस्थाको प्राप्त होनाही नताको दूर किया जा सकता है जो व्यक्ति भनेक प्रयोगों मुकि है। पास्माके पूर्ण मुक्त हो जाने पर उसे परमात्मा द्वारा उसकी मलिनताको दूर करनेका प्रयत्न करता है वही कहा जाता है। उसीको सिद्ध भी कहते हैं। मुक्त अवस्था- मलिन बस्त्रको धोकर स्वच्छ कर लेता है। वस्तुकी मधिमें परमात्मा सदा अपने स्वभावमें मग्न होकर चिदानन्दका नताको दूर करनेका यही क्रम है अनेक प्रयोगोंके द्वारा उसे भोग करता है । जैनाचार्योंके अनुसार इसी मुख्य गश्य- गुद एवं स्वच्छ बनाया जासकता है। इसी प्रकार जेगाका निष्पक्षभावसे विचार ही तत्वज्ञान है। इन तत्वों द्वारा चार्योने भात्माको शुद्ध करनेकी प्रक्रिया, जानसे निकाले बताया गया है कि यह मामा वास्तव में तो राव है, परन्तु गए सुवर्णपाषाणको घर्षण वन वान-वापनादि प्रयोगों के वह समस्त कर्मकालिमाके सर्वथा वियोगसे होता है इसका द्वारा अन्तर्वासमवसे राव करनेके समान बनाई है। जैमग्रन्थों में विस्तृत विवेचन किया गया है जैसे रोगी रोगसे उसी तरह मामाको भी मन्तबधिमबसे मुक करने
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अनेकान्त
बिये विविध तपों और ध्यानादिके अभ्यास द्वारा शुब प्रकृतिवन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबनानेका उपाय बतलाया गया है। प्रस्तु मामाको बंध । बन्धके कारणोंको भावबन्ध कहते हैं। कोक बंधनसद करने के लिए इन तत्वोंका ज्ञान प्राप्त करना भी को इम्यबन्ध कहते है। जब कर्म बंधता है तब जैसी मन अत्यन्त पावरवक है। इनके जान बेमेसे प्रास्मादि का पचन कायकी प्रवृत्ति होती है उसके अनुसार कर्मपिण्डों ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
के बंधनका स्वभाव पर जाता है। इसीको प्रकृतिबंध कहते मसिद्धान्तमें सात तस्वोंके नाम इस प्रकार बतलाये
हैं। कर्मपिण्डोंकी नियत संख्याको प्रदेशबंध कहते है। गये :-, जीव, २. अजीब, ३. मानव.. बंधयह दोनों प्रकृति और प्रदेशबंध योगोंसे होते है, कर्मपिंक १. संवर, ६. निर्जरा और • मोर । इनमें पाप और जब बंधता है तब उसमें कालकी मर्यादा पड़ती है इसी पुरखको जोर देनेसे । पदार्थ हो जाते है।
कानकी मर्यादाको स्थितिबंध कहते है। कषायोंकी तीव्रता जीव-जो अपने चैतन्य लक्षण रखते हुये शाश्वत रहे
या मन्दताके कारण काँको स्थिति वीव या मन्द होती उसे जीवकी संज्ञा दी जाती है। अथवा ज्ञान, दर्शन
है। इसी समय उन कर्मपिंडोंमें तीन या मन्द फल दान
की शक्ति पड़ती है उसे अनुभामबंध कहते हैं। यह बंध और चेतनामय पदार्थको मात्मा या जीव कहते है, जो
भी कषायके अनुसार तीव या मन्द होता है। स्थितिबंध प्रत्येक प्राणीमें विद्यमान है वह सुख दुखका अनुभव
अनुमत्र और अनुभागबंध कषायोंके कारण होते है। करता है।
अजीव-विसमें जीवका बह चैतन्य लपवनो संबर-मानवका विरोधी संवर है। कर्मपिडोंके उसे अजीव या जब कहते हैं। अजीव पांच प्रकार के होते
पानेका रुक जाना संवर है। जिन मार्गोंसे कर्म रुकते है-1.पुद्गल, २. भाकाश, ३. काल, १.धर्मास्तिकाय
है उन्हें भावसंबर और कर्मोके हक जानेको दन्यसंवर और १. अधर्मास्तिकाव।
मानव-शुभ या अशुभ कर्म बंधने योग्य कर्म ___ जीवोंके भाव तीन प्रकारके होते है-अशुभउपयोग, वर्गणाओंके मानके द्वार या कारणको तथा उन कर्म- शुभउपयोग, भरि शुद्धउपयोग । भएभरपयोगसे पापकर्म पिण्डोंके मास्माकै निकट मानेको पाश्रव कहते हैं।
बंधता है,और शुभ उपयोगसे पुण्यकर्म बन्धता है, बपजो कमपिंडके पानेके द्वार या कारण हैं उनको भावा
योगके लाभ होने पर कर्मों का आवागमन रुक जाता सव कहते है और कर्मपिंडके भनेको अन्य मानव
है। पात्माको मव कर्मबंधनसे बचानेका उपाय शुद्ध कहते हैं। जैसे नौकामें विख, जबके प्रविष्ट होनेका उपयोग है।
निर्जरा-कर्म अपने समय पर फल देकर मरते हैं। सोनी
इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं। प्रात्मध्यानको लिए साहु ये तप करने व इच्छाओंके निरोधसे जब भावोंमें बीताकरते है, बचनसे वार्तालाप करते है और कायासे क्रियादि गता पाती है तब कर्म अपने पकनेके समयसे पूर्व ही करते हैं। जीवके प्रति दया, सत्यवचन, संतोषभावमादि
फल देकर मर जाते है। इसको भविपाक निर्जरा शुभ कर्म हैं। मिथ्याज्ञान, असत्यवचन, चौर्य, विषयोंकी कहते है। सम्परता आदि अशुभकर्म है। सारांश यह है कि स्वयं मोच-बामाके सर्व काँसे छट जानेकीव मागे नवीन अपने ही भावोंसे कर्मपिंडको आकर्षित करना मानव कर्म बंध होनेके धारयोंके मिट जामेको मोल तप तत्व कहलाता है।
कहते हैं। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर मारमा शुद्ध हो बंध-कर्मपिंडोंको प्रात्माके साथ दूध और पानीकी जाती है। इसी शुद्ध मास्माको सिद्धकी संज्ञा प्रदान हमिलकर एक हो जानेको बन्धकहते हैं। यहबंध की गई है। वास्तवमें कोष, मान, माया, लोभ, मोहपादि कषायोंका पुण्य कर्मको पुण्य और पाप कर्मको पाप कहते हैं। कार । बंधको चारभागों में विभक्त किया गया है- इन्ही सात तस्वोंके अन्दर इनका स्वरूप गर्मित है।
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हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान
[१६७
मा
जीवात्मा अनादि और चनन्त पदार्थ है। इसकी सकती है, जो कि सभी विद्वानोंकी अभिवृद्धि करता अवस्थायें तो परिवर्तित होती ही हैं और गुण भी तिरोहित है। प्राचार्य अमृतचन्दने उसे, 'परमागमस्थ बीजम्'और विकसित होते रहते है। जब तक इसकी यह अवस्था परमागमका प्राण प्रतिपादन करके उसके महत्वको चरम रहती है तब तक वह संसारी कहलाता है। गुणों के इस सीमा तक पहुंचा दिया है। 'भनेकान्तवाद' एक मनोहर, क्रमिक वृद्धि हास-का अन्त होकर जब यह जीव अपने सरल एवं कल्याणकारो शैली है। जिससे एकान्त रूपसे गुणोंका पूर्ण विकास कर लेता है तब यह मुक्त कहे गये सिद्धान्तोंका विरोध दूर कर उसमें अभूतपूर्व कहलाता है।
मैत्रीका प्रादुर्भाव होता है। गुणोंकी वृद्धि और हास कुछ कारणोंसे होती है। वे
'एकनाकर्षन्ती श्लथयन्तो वस्तुतत्त्वमितरेण। कारण क्रोध, मान माया लोभ भादि कषायें हैं। इन
'अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी। कारणोंसे जीव अपने स्वरूपको भूलजाता है। दूसरे शब्दों में यों कहिये कि मोहके कारण अपने स्वरूपको भूल जाना
-पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २२५ ही बन्धका कारण है और जब यह अपने स्वरूपकी ओर अर्थात् जिस प्रकार दधि मंधनके समय ग्वालिम जब मुकता है-उसको पानेके प्रयत्नमें लगता है तब इसके बाह्य मथानीके एक छोरको खींचती है तब दूसरे छोरको छोड़ पदार्थोंसे मोह मन्द हो जाता है और मंद होते होते जब नहीं देती परन् टोखा कर देती है और इस प्रकार दूध दहीवह बिलकुल नष्ट हो जाता है तब वह मुक्त या सिद्ध हो के सार मक्खनको निकालती है। उसी प्रकार जैनी नीति जाता है।
भी वस्तुके स्वरूपका प्रतिपादन करती है, अर्थात् प्रत्येक श्रद्धा, विज्ञान और सुप्रवृत्ति पारमाके स्वाभाविक वस्तुमें चमेक धर्म रहते हैं उनके सब गुणोंका एक साथ गुण है। यह गुण किसी दूसरे द्रव्यमें नहीं होते । मुख प्रतिपादन करना भवसनीय है। इसी लिए किसी गुणका अवस्थामें यह गुण पूर्ण विकसित हो जाते हैं। संसारी एक समय मुख्य प्रतिपादन किया जाता है कि किसी दूसरे अवस्थामें यह गुण या तो विकृत रहते हैं या इनकी ज्योति समय उसके दूसरे दूसरे गुणोंका प्रतिपादन किया जाता मन्द रहती है। इन गुणोंके अतिरिक्त किसी भी पदार्थसे ऐसी हालतमें किसी एक गुणका प्रतिपादन करते अनुराग रखना यही बंधका कारण है। किसीसे अनुराग समय उस वस्तुमें दूसरे गुण रहते ही नहीं या नहीं, होगा तो किसी दूसरेसे द्वेष उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ऐसा नहीं समझना चाहिये । 'इसीका नाम 'अनेकान्तवाद'
है। इन राग और द्वेषोंका किस प्रकार प्रभाव हो और जैसे एक ही पदार्थमें बहुतसे प्रापेक्षिक स्वभाव पाये . मात्माके स्वाभाविक गुणोंमें किस प्रकार वृद्धि हो, इन जाते हैं जिनमें एक दूसरेका विरोध दीखता है स्वादाद
परनोंका हल करना ही जैन शासन या इन सात तत्वोंका उनको भिन्न अपेचासे ठीक ठीक बता देता है। सर्वविप्रयोजन है।
रोध मिट जाता है। स्याद्वादका अर्थ है स्यात्-किसी अपे'स्थावाद' जैन-तस्व ज्ञानका एक मुख्य साधन है। से वाद कहना । किप्ती अपेवासे किसी बातको जो बताये अनेकान्तवाद, सप्तमंगी नय मादि स्याद्वादके पर्याय- वह 'स्याद्वाद। एकात्म पदार्थको ही ले लिया जाय वाची शब्द है यह स्याहाद ही हमें पूर्ण सत्य तक वह द्रव्यकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है-उसका न ले जाता है।
नाश होता है न उत्पाद । किन्तु पर्यायोंकी अपेक्षा वह ___ 'अनेकान्तवाद' का अर्थ है-बाबा धर्मात्मक वस्तुका परिवर्तनशील है। जिसे हम डाक्टर या वकील कहते हैं कथन । अनेकका अर्थ है नाना, अन्तका अर्थ है धर्म। उसका पुत्र उसे 'पिता', उसका पिता, 'पुत्र' मतीजा
और बादका अर्थ कहना, यह भनेकान्तवाद' ही सत्यको 'चाचा', चाचा भतीजा', भानजा 'मामा', 'मामा', 'भानस्पष्ट कर सकता है, क्योंकि सत्य एक मापेक वस्तु जा' कहते हैं। यह सब धर्म एक ही व्यक्तिमें एक ही है, सापेक्ष सत्य द्वारा ही असत्यका अंश निकाला समय विद्यमान रहते हैं। जब हम एक सम्बन्धको कहते जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुँचा हुए स्यात् शब्द पहिले लगा देंगे तो सममाने वाला यह जा सकता है। इसी रीतिसे शान-कोषकी श्रीवृद्धि हो ज्ञानप्राप्त कर लेगा कि इसमें और भी सम्बन्ध है।
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१९७]
भनेकान्त
[किरण जैन-दर्शनकी एटिसे प्रत्येक वस्तु मन्यकी अपेक्षा नित्य भारतीय साहित्यके मध्ययुगमें तर्क-जाव-सगुफित और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य होती है। म्यरष्टिकोणके घनघोर शास्त्रार्थ रूप संघर्षकै समयमें जैन साहित्यकारोंने बश्व बिन्दुको रष्टिमें रखकर उसे नित्य बनाती है। इन्य इसी सिद्धान्तके स्थात् अस्ति, स्यामास्ति और स्थादअनाशात्मक हैं। पर्यायष्टि पर्यावाको अनित्य बनाती हैं। वत्कण्य इन तीन शब्दसमहकि साधारपर सप्तभंगीके पर्याय उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली होती हैं। साथ रूपमें स्थापित किया है। वह इस प्रकार हैही उत्पाद व्ययसे वस्तुमें उसकी स्थितिरूप अवताका भी १. उपभ्ने वा विगये वा धुवे वा नामक परिहंत प्रत्या अनुभव होता है। यही स्थिरता वस्तुमें नित्य धर्म- प्रवचन । का अस्तित्व सिद्ध करती है। अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद. २. सिया अस्थि, सिवा स्थि, सिया भवितव्य व्यय और प्रौव्य युक्त हुआ करती है। जैसा कि प्राचार्य नामक भागम् वाक्य । उमास्वामि ने कहा है-उत्पादव्ययधौम्ययुक्तं सत् ।' ३. 'उत्पादध्ययधौम्ययुक्तं सत्' नामक सूत्र ।
श्रीरतनलालजी संघवी अपने, 'स्याद्वाद' नामक १. स्यादस्ति, स्याचास्ति, स्यादवक्तव्यं नामक लेखमें 'ममेकान्तबाद' का स्वरूप बताते हुए कहते है:- संस्कृत काव्य, यह सब स्याद्वाद सिद्धांतके मूर्तवाचक रूप
'दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीरने इस सिदान्तको, हैं। शब्द रूप कथानक है और भाषा रूप शरीर है। सिया अस्थि, सिया सस्थि, सिया अवत्तम्य' के रूप में स्याद्वादका यही बाझ रूप है। ज्ञानोदय पृ. ४५६-४६. बताया है। जिसका यह तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु. सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें नित्य और अनित्य तस्वकिसी अपेक्षा वर्तमानरूप होता है और किसी दसरी रूप स्वभावोंका होना आवश्यक है। यदि यह दोनों अपेचासे बही नाश रूप भी हो जाता है इसी प्रकार किसी स्वाभाव एक ही समयमें द्रव्यमें न पाये जावे तो द्रव्य तीसरी अपेक्षा विशेषसे वही तत्त्व त्रिकाल सत्ता रूप होता निरर्थक हो जाता है। इसके लिए सुवर्णका दृष्टान्त लेना हुमा भी शब्दों द्वारा प्रवाच्य प्रयवा अकथनीय रूपवाना उपयुक्त होगा। यदि सुवर्ण नित्य हो तो उसमें भवस्थाभी हो सकता है।
परिवर्तन नहीं हो सकता। वह सदैव एकसी स्थितिमें जैन तीर्थकरोने और पूज्य भगवान अरिहन्तोंने इसी
रहेगा। उसे कोई भी व्यक्ति मोल न लेगा। क्योंकि उससे सिदान्तको उत्पन्ने वा, विनष्टे वा, घुवे वा, इन तीनों शब्द
प्राभूषणोंकी अवस्था तो बनेगी नहीं। यदि सुवर्यको द्वारा, त्रिपदीके रूपमें संग्रथित कर दिया है। इस त्रिपदी
अनित्य मान लिया जाय तब भी उसका कोई मूल्य नहीं का जैन भागों में इतना अधिक महत्व और सर्वोच्च
क्योंकि वह पणभरमें नष्ट हो जायगा। परन्तु सुवर्ण- . शीलता पतलाई है कि इनके अपवमानसे ही गणधरोंको
का स्वभाव ऐसा नहीं। सुवर्ण रूप रहता हुआ अपनी चौदहपूर्वोका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है।
अवस्थाओंमें परिवर्तित होता रहता है। सुवर्णके एक डेले : द्वादशांगी रूप वीतराग-वाणीका यह हृदय स्थान कहा
मानसे वाली बन सकती है। वाजीको तोड़कर अंगूठी जाता है।
और अंगूठीसे अन्य किसी भी प्रकार प्राभूषय बन सकता
है। इसी प्रकार जीवमें भी नित्य और अनित्य दोनों : भारतीय साहित्यके सूत्रयोगमें निर्मित महान अन्य स्वभाव है. तथा वह संसारीसे सिद्ध हो सकेगा। अब तत्वार्यसूत्रमें इसी सिद्धान्तका 'उत्पादन्ययाधौम्पयुक्त सद' स्थानों में परिवर्तन होता है जो संसारी था वही सिद्ध हो इस सूत्रके रूपमें उल्लेख किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो सत् पानी द्रव्य रूप प्रयवा भावरूप है, उसमें
वस्तुमें अनित्य धर्मका प्रतिपादन निम्न साव प्रकारोंसे प्रत्येक बमवीन पर्यायोंकी उत्पत्ति होती रहती है, एवं
होता है। पूर्ण पर्यायोंका नाश होता रहता है परन्तु फिर भी मूल अन्यकी द्रव्यता, मूल सत्की सत्ता पर्यायोंके परिवर्तन
..स्वादस्ति-पचित है। होगहने पर भी प्रौव्य रूपसे बराबर कायम रहती है। ..स्यावास्ति-कथंचित् नहीं है। विश्वका कोई भी पदार्थ इस स्थितिसे वंचित नहीं है। ३. स्यादस्तिनास्ति -कथंचित है और नहीं है।
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किरण ६]
हिन्दी जैन साहित्य मेंतत्वा
[१६L
१. स्यादवक्तग्य-किसी अपेक्षासे पदार्थ वचनसे एक 'जबसे मैने शंकराचार्य द्वारा जैन-सिदान्तका खंडन साथ नहीं कहने योग्य है।
पड़ा है तबसे मुझे विश्वास हुमा कि इस सिद्धान्तमें बहुत १. स्थादस्ति प्रवक्तव्यं च-किसी अपेक्षाले दम्य नहीं है, जिसे वेदान्तके प्राचार्योने नहीं समझा और जो है और भवाच्य है।
कुछ मैं अब तक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा स्थादस्ति नस्ति प्रवक्तव्यं च-कथंचित् नहीं विश्वास हुभा है कि यदि वे ( शंकराचार्य ) जैनधमके है और भवक्तव्य भी है।
असली प्रन्थों को देखनेका कष्ट उठाते तो जैनधर्मके विरोध .. स्यादस्ति नास्ति वक्तव्यं च-कथंचित है. नहीं करनेकी कोई बात नहीं मिलती।' है और प्रवक्तव्य भी है।
पूनाके प्रसिद्ध डा. भंडारकर सप्तमंगो प्रक्रियाके इन सात प्रकारके समूहों को 'सप्तभंगी नय' कहते।
विषयमें लिखते हैहै। कविवर बनारसीदासजीने नाटक समयसारमें स्थावा
इन मंगोंके कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रश्नमें बकी महत्ता वर्णित की है।
निश्चयपना नहीं है या एक मात्र सम्भव रूप कल्पनायें जथा जोग करम करे ममता न धरै,
करते हैं जैसा कुछ विद्वानोंने समझा है इन सबसे यह
भाव है कि जो कुछ कहा जाता है वह सब किसी म्य, रहे सावधान ज्ञान-ध्यानकी टहलमें।
क्षेत्र, कालादिको अपेक्षासे सत्य है। तेई भवसागरके उपर है तरे जीव,
विश्वबंध महात्मा गांधीजीने इस सम्बन्धमें निम्न जिन्हको निवास स्यादवादके महल में ।
विचार व्यक्त किये हैनाटक समयसार पृ०॥५॥
यह सत्य है कि मैं अपनेको अद्वैतवादी मानता है, 'तस्वार्थराजवार्तिक' में प्राचार्य अकलंकदेवने बताया परन्तु मैं अपनेको द्वैतवादीका भी समर्थन करता हूँ। है कि वस्तुका वस्तुस्व इसी में है कि वह अपने स्वरूपका सृष्टिमें प्रतिपय परिवर्तन होते है, इसलिये सृष्टि अस्तित्व ग्रहण करे और परकी अपेक्षा प्रभाव रूप हो। इसे विधि रहित कही जाती है, लेकिन परिवर्तन होने पर भी उसका
और विविध रूप अस्ति और नास्ति नामक भिम धर्मों एक रूप ऐसा है जिसे स्वरूप कह सकते हैं। उस रूपसे द्वारा बताया है।
वह है' यह भी हम देख सकते हैं, इसलिये वह सत्य भी । देश और विदेशके विभिन्न दार्शनिकोंने स्थाद्वादको
है। उसे सस्थासत्म कहो तो मुझे कोई उग्र नहीं। इसलिए
यदि मुझे अनेकान्तवादी या स्थावादी माना जाय तो मौलिकता और उपादेयताकी मुक कंठसे प्रशंसा की
इसमें मेरी कोई हानि नहीं होगी । जिस प्रकार स्वादद्वाद' है। डा.बी. एन. पात्रेय काशी विश्वविद्यालयके
को जानता हूँ उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ."मुझे यह कथनानुसार
अनेकान्त बदा प्रिय है। 'जैनियोंका अनेकान्तवाद और नयवाद एक ऐसा
सारांश यह है कि स्यावाद न्याय पदार्थको जानने मित कि सत्यको खाजम पक्षपात राहत कान लिये एक निमित्त साधन है। इसका महत्व केवल जेम की प्रेरणा करता है, जिसकी आवश्यकता सब
सम्प्रदायके हेतु ही नहीं वरन् जैनेतर सम्प्रदायके लिये भी धर्मोको है।
प्रयोगमें बानेका सिद्धान्त है। स्वामी समन्तभवने इस महामहोपाध्याय 1. गंगानाथ झा भूतपूर्व वाहचांस- सत्यका अधिक प्रयोग किया। स्याद्वाद एक वह यस्तो पर प्रयाग विश्वविधालयने इस सिद्धान्तकी महत्ता निम्न जिसके प्रयोग द्वारा साम्राज्यमें किसी प्रकारका उपद्रव रूपसे वर्णित की है
और विरोध नहीं उपस्थित हो सकता।
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कुरलका महत्व और जैनधर्म
(श्री विद्याभूषण पं० गोविन्दराय जैन शास्त्री)
(गत किरणले मागे)
(8) तामिल जनतामें प्राचीन परम्परासे प्राप्त जन- एलेनाशनि हो गया है । यह एखेलाशिकन और कोई अति चली माती है कि कुरनका सबसे प्रथम पारायण नहीं एबचार्य ही हैं। कुंदकंदाचार्य ऐलसत्रियोंके वंशधर पांघराज 'उग्रवेरुवादि' के दरबारमें मदुराके १६ कवि थे, इसलिए इनका नाम एलाचार्य था। योंके समक्ष हुमा था । इस राजाका राज्यकाब श्रीयुत एम इन पर्याप्त प्रमाणोंके प्राधार पर हमने कुरनकाव्यका श्रीनिवास अय्यारने १२५ ईस्वीके बगभग सिद्ध रचनाकाल ईसासे पूर्व प्रथम शताग्दी निश्चित किया है। किया है।
और यही समय अन्य ऐतिहासिक शोधोंसे श्रीऐलाचार्य (२) जैन प्रन्योंसे पता लगता है कि ईस्वीसनसे
का ठोक बैठता है। मूलसंघकी उपलब्ध दो पहिवालयों . पूर्व प्रथम शताब्दीमें दक्षिण पाटलिपुत्र में विदसंघके
में तस्वार्थसत्रके कर्ता उमास्वातिके पहिले श्रीएखाचार्यका प्रमुख श्रीकुन्दकुन्दाचार्य अपर नाम एनाचार्य थे। इसके
नाम पाता है और यह भी प्रसिद कि उनास्वातिके अतिरिक्त जिन प्राचीन पुस्तकोंमें कुरलका उल्लेख पाया
गुरु श्री एलाचार्य थे। अतः कुरखकी रचना तवार्थसूत्रके है उनमें सबसे प्रथम अधिक प्राचीन 'शिवप्पदिकरम्' .
पहले की है। यह बात स्वता सिद्ध हो जाती है। नामका जैनकाम्य और 'मणिमेखले' नामक बौद्धकान्य है। कुरलका कुन्दकुन्द (एलाचार्य) रोनोंका कथा विषय एक ही है तथा दोनोंक कर्वा भापसमें विक्रम सं०११. में विद्यमान श्री देवसेनाचर्य अपने मित्र थे। बता दोनों ही काम्य सम-सामयिक हैं और दर्शनसार नामक ग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्य नामके साथ उनके दोनों में रख काग्यके बठे अन्यायका पांचवां पच उडत अन्य चार नामोंका उल्लेख करते हैं:किया गया है । इसके अतिरिक्त दोनोंमें कुरक्षके नामके पद्मनन्दि, वक्रमीवाचाय, एलाचार्य, गृद्धपिमारलोक और उत। "शिवप्पदिकरम्" च्छाचार्य।
वामिल भाषाके विद्वानोंका इतिहासकाल जानने के लिए श्री कुन्दकुन्दके गुरू द्वितीय भगवाह थे ऐसा बोधसीमा निर्णायकका काम करता है और इसका रचना- प्रामृतकी निम्न लिखित गायासे ज्ञात होता है। कार ऐतिहासिक विद्वानोंने इंसाकी द्वितीय शताब्दी
सहवियारो हो मासामुत्तेसु जं जिणे कहियं । माना है।
सो तह कहियं णाणं सीसेण य महवाहुस्स ॥ (१) यह भी जनधति है कि तिरुवल्लुवरका एक मित्र एलेलाशिान नामका एक व्यापारी कप्तान था । कहा
ये भद्रबाहु द्वितीय नान्दसंघकी प्राकृत पहावलीके जावा है कि यह इसी नामक चोलवंशके राजाका छठा अनुसार वीर निर्वाणसे ४६९ बाद हुए हैं। वंशज था, जो लगभग २०६० वर्ष पूर्व राज्य करता था कुरलकतोके अन्य ग्रन्थ तथा उनका प्रभाव और सिहलद्वीपके महावंशसे मालूम होता है कि ईसासे कुरजका प्रत्येक अध्याय अध्यात्म भावनासे प्रोत१. वर्ष पूर्व उसने सिंहलद्वीप पर पढ़ाई कर उसे प्रोत है, इसलिए विज्ञपाठकके मनमें यह कल्पना सहज विजय किया और वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। हो उठती है कि इसके कर्ता बने अध्यात्मरसिक महाइस शिान और उक्त पूर्वजके बीच में पांच पीरियाँ स्मा होंगे। और जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि इसके भाती हैं और प्रत्येक पीढ़ी ५० वर्षकी माने तो हम इस रचयिता वे एनाचार्य हैं जो कि मण्यात्मचक्रवर्ती थे जो नियंब पर पहुंचते हैं कि एलेखाशिान ईसासे पूर्व प्रथम यह कल्पना यथार्थताका रूप धारण कर लेती है। कारण शताब्दी में थे।
एखाचार्य जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्द है ऐसे ही बाव असलम यह है कि एखाचार्यका अपभ्रंश अद्वितीय अन्योंकि प्रणेता है।
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किरण कुरमका महत्व और चैनधर्म
(२०२ उनके समयसारादि प्रन्योंको पदे बिना कोई यह बन्यो विभुम्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः नहीं कह सकता कि मैंने पूरा जैन तत्वज्ञान प्रयापच्या- कुन्द-प्रमा-प्रणयिकीर्ति-विभूषिताशः। स्म वचा जान खी। जिस सूक्ष्म तस्वकी विवेचनाशैलीका यश्वास-चार -कराम्बुजचरीक- , प्राभास उनके मुनि जीवनसे पहले रचे हुए कुरखकाव्यसे अक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतप्रतिष्ठाम् ॥३॥ होता है वह शैनी इन ग्रन्थों में बहुत ही अधिक परिस्फुट तपस्याके प्रमावसे श्रीकृन्दकन्दाचार्यको 'चार होगा।येथ ज्ञानरत्नाकर है, जिनमे प्रभावित हो- अदि प्राप्त हो गई थी जिसका किउल्लेख अवयवेखगोखले कर विविध विद्वानोंने यह उति निश्चत की है-हुए अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता है। तीनका ग्वाब होयेंगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्दसे ।'
हम यहाँ देते हैं:पीछेके अन्धकार्गने वा शिलालेख लिखनेवाओंने कुन्द- तस्यान्वये विदिते बभूव यापयनन्दि प्रथमामिधानः कुमको मूजसंयोमेन्दु' 'मुनीद्र''मुनिचक्रवर्ती 'पदोंसे
श्रीकुण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमाद्द्तचारणदिर भूषित किया है। इससे हम सहजमें ही यह जान सकते
श्रीपद्मनन्दीत्यनवधनामायाचाय्यशब्दोचरकोयनकुनः है कि उनका व्यक्तित्व कितना गौरवपूर्ण है। दिगम्बर द्वितीयमासीदभिधानमुद्यरित्रसंजातसुचारणद्धिः ॥ जैमसंघके साधुजन अपनेको कुन्दकुन्द भाम्नायका घोषित
'रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त- पिसव्ययितु यतीशा। करने में सन्मान समझते है। वे शास्त्र-विवेचन करते समय ,
रज पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरसंगुलं सः। प्रारम्भमें अवश्य पढ़ते हैं कि:
इन सब विवरणोंको पढ़कर हक्यको पूर्ण विश्वास 'मगल भगवान वीरो मंगलं गौतमोऽप्रणी।
होता है कि ऐसे ही महान् प्रन्यकारकी कलमसे रखाकी मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
रचना होनी चाहिए। इनके रचे हुए च रासी प्रामृत (शास्त्र सुने जाते हैं पर अब वे पूरे नहीं मिलते, प्रायः नीचे लिखे प्रन्थ ही कुरलकताका स्थान :मिलते हैं:-(.)समयसार, (२) प्रवचनसार, (.) इस वक्तव्यको पढ़कर पाठकोंके मन में यह विचार पंचास्तिकाय, (.) अष्टपाहुक, () नियमसार (६) उत्पन्न अवश्य होगा कि कुरव भादि मन्धोंके रचियता (.) द्वादशानुप्रेचा (८) रयणसार, ये सब ग्रन्थ प्राकृत श्रीएलाचार्यका दक्षिण में बह कौनसा स्थान जहां भाषामें है और प्रायः सबही जैन शास्त्र भयडारांमे पर बैठकर उन्होंने इन अन्धोका अधिकतर प्रवचन किया मिलते हैं।
भाः इस जिज्ञासाकी शान्तिके लिए हमें नीचे लिखा ऐया भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने कोह- माप देखना चाहिए। कुन्दपुरमें रहकर षट् खण्डागम पर बारह हजार श्लोक
दक्षिणशे मलये हेमनामे मुनिमहात्मासीत् । परिमित एक टीका लिखा थी जो अब दुधाप्य है। समय
एलाचार्यों नाम्ना द्रविडगणाधीश्वरो घोमान् । सार प्रन्यपर विविध भाषाओं में अनेक टीकाएं उपलब्ध है। हिन्दोके प्राचीन महाकवि पं. बनारसीदासजीने यह श्लोक एक हस्तलिखित 'मन्त्रलपण' नाम इसके विषयमें लिखा है कि "नाटक पढ़त हिय फाटक प्रन्यमें मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा खुजत है" समयसार 'प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ये एजाचार्य दक्षिण देशके मलयप्रान्तमें हेमग्राम निवासी तीनों ग्रन्थ विज्ञसमाजमें नाटकवायो नामसे प्रसिद्ध है और थे, और विदसंबके अधिपति थे। यह ईममाम को तीनों ही अन्य निःसन्देह भात्मज्ञानके पाकर है। है इसकी खोज करते हुए श्रीयुत मक्खिनाथ पावती
इन सब प्रन्योंके पठन पाठनका बह प्रभाव जमा कि एम.ए.एस..ने अपनी प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें दक्षिणापथसे उत्तरापथ तक प्राचार्यकी उज्वल कीर्ति लिखा है कि-'मद्रास प्रेसीडेन्सीके मजाया प्रदेश कागई और भारतवर्ष में वे एक महान भास्मविद्या प्रसा- 'पोन्नूरगाँव' को ही प्राचीन समयमें हेमनामकरदे रक माने जाने बगे, जैसा कि अषणबेलगोलके चन्द्र थे और सम्भवतः यही पडकुन्दपुर , इसीके पास गिरिस्थ निम्नलिखित शिलालेखसे प्रकट होता है:- नीलगिरि पहाब पर बीएखाचार्यको चरणपादुकापनी
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२०२
अनेकान्त
[किरण ६
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और बरसात के दिनों में मातम संलग्न थे। इतिहास
उनकी पूजाके लिए वहाँ
है.जहा पर बैठकर तपस्या करते थे। पास पासकी रसकी प्राप्तिमें संलग्न थे। इतिहाससे ज्ञात होता है कि उस जनता आज भी ऐसा ही मानती है और बरसात के दिनों में समय जैनधर्म कलिङ्गकी तरह तामिल देश में भी राष्ट्रधर्म था उनकी पूजाके लिए वहाँ एक मेला भी प्रतिवर्ष भरता है, उसके प्रभावसे राजघरानों में भी शिक्षा और सदाचार श्रीयुत स्व. जैनधर्मभूषण प. शोतमप्रसादजीने भी पूर्णरूपेण विद्यमान था। अध्यात्मविद्याके पारगामी पत्री इसके दर्शन कर जैनमित्रमें ऐसा ही लिखा था।
राजा बनने में उतनी प्रतिष्ठा व सुख नहीं मानते थे जितना देशकी तात्कालिक स्थिति
कि राजषि बनने में, जिसके उदाहरण प्राचार्य समन्तभन जब हम कुरलको रचनाके समय देशको तात्कालिक
(पाण्ड्यराजाकी राजधानी उरगपुरके राजपुत्र) शिलपस्थिति पर रष्टि डालते है तो ज्ञात होता है कि सारा दिकरके कर्ता युवराज राजर्षि (चेर राजपुत्र) और ५लादेश उस समय ऋद्धि सिदिसे भरपूर था। विदेशियोंका प्रवेश का
चार्य हैं। उस समय क्षत्रीयगण शासक और शास्ता दोनों बहोनेसे वैभव अपनी पराकाष्ठाको पहुँचा हुमा था।
थे। स्वतन्त्र व धार्मिक भारत उस समय कैसे दिव्य विचार बौकिक सुख सहज ही प्राप्त होनेस लोग उनकी लालसा
रखता था इसकी बानगाँके लिए कुरन अच्छा काम में नहीं फसे थे। किन्तु इस लोकमें मप्राप्त निजानन्द
देता है।
'वसुनन्दि-श्रावकाचार' का संशोधन
(पं0 दीपचन्द पाण्ड्या और रतनलाल कटारिया, केकड़ी) हमारा विशाल जैन वाङ्मय प्राकृत संस्कृत एवं रहे हैं। दानी महानुभाव यह नहीं सोचते कि हम इन अपभ्रंश भादि विविध भाषाओं में लिखा गया है। अशुद्ध, पाठोंको छपाकर और प्रचार में जाकर कितना अनर्थ दुर्भाग्यवश उसमेंसे बहुत-सा साहित्य तो हमारे अज्ञान करते हैं ? क्या पुस्तक विक्रेता और दानो महानुभाव व प्रमादसे मन्दिरोंमें, शास्त्र भण्ड रामें पड़ा पड़ा इस बुराईको दूर करनेका यत्न करेंगे ? और तो पष्ट हो गया तथा बहुत सा नष्ट होने को है और और, बहुश्रत विद्वानों द्वारा सम्पादित हुए ग्रन्थोंकीर बोड़ा बहुत जो मुद्रित होकर प्रकाश में था पाया है, भी दशा अच्छी नहीं है। वे भी अनेक अशुद्धियोसे सखेद लिखना पड़ता है कि वह भी अनेकानेक परिपूर्ण हैं। प्रशदियों से भरा पड़ा है। उदाहरण के तौर पर 'यशस्ति- वद्यपि मूल ग्रंथकर्ता तो अपनी कृतियांको शुद्धरूपमें लक चम्पू' ग्रन्थको ही लीजिये, जिसके विना टीका वाले ही प्रस्तुत करते है परन्तु अद्ध विदग्ध प्रतिलिपिकर्तामोभागमें परी एक हजारके करीब अशुद्धियाँ हैं। यही दशा की कपासे उनमें कई प्रशादियां बन जाती हैं। लिखित नित्यपूना, दशभक्ति और भावक प्रतिक्रमण पाठ आदिकी प्रतियों में तो वे अशुद्धियां एक प्रति तक ही सोमित रहती सी है। पूजा पाठ, जिनवाणी संग्रह और बृहजिनवाणी हैं पर मुद्रित प्रतियों में यह बात नहीं है वहीं तो जो एक संग्रह तथा गुटकानों पादिमें छपे हुए अशुद्ध पाठोंकी ओर प्रतिमं अशुद्धि हो गई वही सब प्रतियों में हो गई समझिर। जब हमारी दृष्टि जाती है तब हमें बहुत ही दुःख हाता इस तरह मुद्रित प्रतियों के सहारे इन अशुद्धियोंकी परम्परा
। पढ़नेवाले अशुद्धियाकी तरफ काई लषय महा दत, प्रचारमें श्राकर बद्धमूल हो जाती हैं जो आगे चलकर किन्तु उन्हें उसी रूप में पढ़ते जाते हैं। प्रकाशक और पुस्तक अनेक प्रान्त धारणामाको जन्म देती रहती है। जिसके विक्रता इस बातका ध्यान रखना उचित हो नहीं समझते, तीन बड़े मजेदार उदाहरण यहाँ दिये जाते हैंइसी कारण हमारे पूजा पाठ भी अशुद्धियोंके पुजबन - ---
- २ ऐसे प्रन्यों में माणिकचन्द्र प्रन्यमानासे प्रकाशित देखो 'भनेकान्त' वर्ष किरण १२ पृष्ट ७७ पर
'वरांगचरित' और कारंजासे प्रकाशित साधय धम्म हमारा देख यस्तिक का संशोधन'।
दोबा भादि हैं।
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किरण ६]
'वसुनन्दि-श्रावकाचार'का संशोधन
। २०३
जात यौनादयः सर्वास्तक्रिया हिवविधाः जातयोनादयः सर्वास्तस्क्रियापि तथाविधाः
श्रुति. शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं काऽनं नः पतिः । श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः शितिः । -अर्थात् जातकर्म और यौन (विवाह) आदि सारी
यह श्लोक मुद्रित प्रति में ठीक इसी रूप में पाया जाता तास्क्रिया-लौकिक क्रियाएतथाविधा-मोकामय है है। बादको पं० नाथूरामजी प्रेमीने और पं० श्रीलालजो विषयमें श्रुति या शास्त्रान्तर प्रमाण हो तो हमारी क्या पाटनीने इस श्लोकमें थोड़ासा पाठभेद और कर डाला है हानि है। जो इस प्रकार हैजातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियाऽपि तथा विधा
धवला टीका 'मक्खवराडयादयो असम्भावटुवश्रुतिः शास्त्र न्तरं वास्तु प्रमाणं कान न क्षतिः । णा मंगलं' यह वाक्य है जिसका अर्थ पाले और कौडी
और इस पचका अर्थ पं० श्रीलालजीने इन शब्दों में शतरंजकी गोटे' भ.दिदयोको असदभावस्थापना मंगल किया जातिय
किया कहते हैं-किया गया है सो संगत नहीं है। क्योंकि वहाँ भी अनादि है। अंग शास्त्र या अंग बाह्य शास्त्र याद
असद्भावस्थापना मंगलका कथन है। केवल यदि प्रसउसके शास्त्र में मिलें तो हमारी क्या क्षति है।"
भावस्थापनाका ही कथन होता तो फिर भी कोडी 'पासे
परक अर्थ किमी तरह ठीक हो सकता सो तो है नहीं यहाँ विचारणीय बात यह है कि 'सब जातियाँ
असद्भावस्थापना मंगल' में कोडी पासोंको मांगलिक अनादि हैं, तो वे कौन २ सी हैं और उनकी क्रिया भी
द्रव्यरूपमें ग्रहण करना जैन परम्पराके ही नहीं वैदिक अनादि है तो वे कौन २ सी हैं। इसका उत्तर दिगम्बर
परम्पराके भी विरुद्ध है। प्रतिलिपिकारोंके द्वारा 'य' अक्षर साहित्यसे तो क्या समन भारतीय साहित्य-श्वेताम्बर,
छोड देनेसे यह सब घोटाला हुआ है। अतएव 'मखयवराबौद्ध, एवं वैदिक साहित्यसे भी नहीं मिल सकता। तथा
हयादयां' ऐमा पाठ होना चाहिए जिसका अर्थ अक्षत 'अंग शास्त्र और अंग बाह्यशास्त्र यदि उसके प्रमाण में
कमलगट्टे आदि पदसे सुपारी प्रभृति मांगलिक द्रव्य ऐमा मिले तो हमारी जैनियोंकी) क्या ति है'-ऐमा उल्लेख
होना प्रकरण संगत होता है हमारे इस कयनको पुष्टि करना भी समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि द्वारशाङ्गका
वसुनंदि प्रावकाचारकी ३८४ वीं गाथासे भी होती है। ज्ञान तो कभीका लुप्त हो चुका, अंगवाझशास्त्र जैनोंको
गाश इस प्रकार है:प्रमाण हैं ही ऐसी दशामें सोमदेवसूरि जैसे विद्वान जैनियों के लिये उन्हें प्रमाण माननेको के लिखें कि इसमें
'अक्षयवराडो वा अमुगो एसोत्ति णिययबुद्धीए जनाकी क्या इति है। कुछ बुद्धिको लगता नहीं अनएर
संकप्पऊण बयणं एसा विइया असम्भावा।' पं. श्रीलालजीबाला उक्त अर्थ चम्पू यशस्तिलकके पूर्वापर प्रसंगको देखते हुए संगत नहीं हो सकता। अतः हम पथके वसुनन्दि x श्रावकाचारमें सम्पादकने जो एक पाठ पाठ और अर्थके विषय में तो 'भ्रमन्ति पण्डिता सर्वे' वाली 'मिरबहाणुघटण"मादि (गाथा २९३ को देखो) बना उक्ति हो रही है।
दिया है और अर्थमें शिरःस्नानके अतिरिक्त अन्य स्नानांका हमने इस ग्लोकका पाठ और अर्थ ग्रन्थके सन्दर्भानु- प्र.पापवास बालके लिये विवान कर दिया है साया कूल यह स्थिर किया है।
समा जैन परम्पराके विरुद्ध है इसलिये मिरगहाणु' की
जगह सिरहाण (स्नानार्थक पाठ होना चाहिये। ® देखो निर्णप्रसार प्रेसमें मुद्रित यशस्तिलकचम्पू उत्तराई पृष्ठ ३७३
* बुद्धीए समारोविद मंगलपज्जयपरिणाद जीवगुण सरूर x देखो माणिकचन्द्र प्रन्थमालामें प्रकाशित नीति वाक्या
खवराडयादयो असम्भाव टुवया मंगलं ।" यह पूरा मृत (ग्रंथांक २२) की प्रस्तावना १३. और विजा- वाक्य है। (देखो षट् खंडागम धवलारीका पुस्तका- . तीय विवाह भागम और पुक्ति दोनोंके विरुद्ध है कार संतपरूपणा पृष्ठ २० पंक्ति) नामका ट्रेक्ट पृष्ठ ७७
x यह मंथ काशी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हुआ है।
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x
२०४]
बनेकान्त इस तरह अशुद्ध पाठोंके प्रचारमें मानेसे प्रन्योंका श्रीने अपने इस ग्रंथका नाम 'सावय चम्म (गाथा रमे) महत्वथा मल खेलककी कोर्ति तोमर होती ही कई और उवासयज्मायण-उपासकाच्यवन (गाथा में) महापापकी कारणीभूत अन्यान्य विरुव परम्पराएं भी प्रकट किया है। प्रचलित हो जाती है।
इस संस्करणके सम्पादक पं.हीरालालजी सिद्धान्त
शास्त्री दि.जैन समाजके एक मान हुए विद्वान् है। जैनाचार्योने शब्दादि, अर्थशुदिप शब्दार्थ गुदिन
जिन्होंने भवसा टीकाके सम्पादन कार्य में भी अपना योग पूर्वक प्रयाध्ययनको 'ज्ञानाचारके पाठ अंगों में समाविष्ट किया है और ऐसा अध्ययन भारतीय संस्कृतिमें। सदासेट रहा है। यह तभी बन सकता है जबकि पाठ्य हमने उक्त संस्करणका अध्ययन किया तो रस अन्य पूर्व रूपेण शुद्ध हों। अभी अभी भारतीय ज्ञानपीठ बातसे बना दुस्ख हुमा कि सम्पादकने मूलपाठके चय-में फाशी द्वारा प्रावकाचारका एक नया संस्करण प्रकाशित 'काफी लापरवाहीसे काम लिया है जिससे मुलगाथाचों में हा है। जिसका संपादन माधुनिक शैलीसे कलात्मक प्रयाप्त भयावया रह गह। प्रस्तुत लेखमें हम उनकी हुवा है साथमें प्रस्तावना परिशिष्ट प्रादिक खगा नेसे संशोधित तालिका नीचे दे रहे है:प्रन्थकी उपादेयता काफी बढ़ गई है पर प्रन्थमें यदिपत्र वसुनन्दि श्रावकाचारका पाठ संशोधन कान होना काफी खटकता है।
गाथा संख्या प्रतिका पाठ शुद्ध पाठ इस ग्रन्थके मुखकर्ता प्राचार्य वसुनन्दि हैं जो कुश- क णायारो
भणयारो (१) बकवि थे और मुलाचार, भगवती माराधना मावि सिद्धान्तप्रायोंके मर्मज्ञ थे, अतएव वे सैद्धान्तिक कहलाते थे।
अत्ता
अत्तो मूलाचारकी वृत्ति+ इन्हीकी बनाई हुई प्रतीत होती है।
ग्गाहण है। बायकतिक्रमण' 'ग्रन्थ' की पानाचना भक्तिके २२ ख
मह
मई अन्तर्गत पाई जानेवाली गायामोंसे और प्रतिक्रमणभक्तिके २१
सन्द गद सब ग अन्तर्गत पाई जानेवाली ग्यारह प्रतिमाओंके 'मिच्छा मे २६
पाहब
पाहाण एप पाठ: परसे स्पष्ट है कि श्रावकप्रतिक्रमण पाठका ..
माउं
गोपी नूतन प्रतिसंस्कार शायद इन्हींका किया हुमा हो । ३३ क
मोत्त इनका समय विक्रमकी १२ वीं शताब है। प्राचार्य ,, ख नं परिणयंतष्परिएई + दुखमा कोजिए बसुनन्दि भावकाचारको गाथा २१ से १४
१४ख सत्ताभूमो सो ताणं संततभूमो मो ताण (२) १८ तक मूलाचार परवश्यकाधिकारकी ४८ वी २१क फजभोयो फलपभोयत्रो (३) गावाकी वृत्तिसे।
ख मोया भोया भोया भावा.) गांधी हरिभाई देवकरच जैन ग्रन्थमाला पुष्प में ३.. ताण पवेसो वाणुपवेसो (1)
से ३५ तक की तब वायाोयमावासव... ४६ लवणवं""सम्मत्ते पूया भवरणं मादि गाथाके अलावा शेष २७ गाथाए और वासुनाद
(पाठान्तर) (१) देखो श्रावकाचारकी गाथा ७, २०० से २१, ४ अपनशभाषाका 'सावयधम्मदोहा' ग्रंथका २.१,२७२, २०१, २०० और २६१ से १०॥ नामकरण भी इसी नाम परसे किया गया प्रतीत को देखिये।
होता है। उसी भावक प्रतिक्रमब पृ० ॥ से ६. पर शिक्षा , अमगारः, स्वतंत्रभूता, देखो, मूलाचारवृत्ति बतोंके 'मिच्छा मे टुकाई' से बसुनंदि भावकाचार की पृ. १२५ आवश्यकाधिकार की ५८वीं गाथा ३ फलगाथा २१. से २१ और २०१-२०२ से तुलना प्रभोगतः। वफलभोगाभावात् ५ न अनुप्रवेशः ।
प्रधकारने भगवती माराधनामें,.कर्षित गुपोंका भी
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वसुनन्दिभावपचारका पाठ संशोधन
बणिगसुदा
तुम
मिट्टो
एसु सम्मा एएसु सम्म
१४ किंचिगणं किंव (10) खिस्संकाह पिस्संकाई
1000 अहरहने पशिधूया
40 बारं तुझर (१७) ५३ कहावर रउतए
सूत्रा वा रोहवं स्वावशेषवं (1) ५५क तामलित तामखित्ति
१६क कुख मज्जावं विसगाई बसणाई
पच्छियायो परिश्कायो संसिद्धाई संसिट्ठाई (.) १२.. हिंद हिंडप
१२.क मज्मम्मि मज्ययासम्म मायरं मायरंण १२१ ख चोरस्स
चोरूब वुजजाई पुरजाई ()
१२१ख पुषितो मोहित ་་ ན भक्खेहि अच्छीहि (6) ६.ख हिहह
व (11) ६८क दिरणं ति दियह पि
१३७क मही बीटे मही पि? प्राथह पच्चर
१५३ रस्थाय यंगणे रवाए.पंगणेश (10) १४७ख पज्जनयम्मि पज्जनियम्मि मिट्ठा (11)
१४८क अमासरेहि ज्मसेहिं (२०० हिप्या पिया
१११क मंमा भवराई प्रवराई वि
१०. कह दिय माएब कहपमायण. २६ख तंपि वणिए तम्हि विणि ९ (१२) 115क
उसिब जहा"विप्पा गयणगामिणो वि भुवि विप्पा
१५२ ख बीह भुवि x
छुहिति पारसियाण पारस्सियाय དད ཙ
छुईति ८८ख भक्खेद भक्खा
किकवाय किकबाट १.क सामी मोत्तख माथि साम मोत्तण तंण (१३)
पुण्यो पुण्णी पुरणा पुरणी एक पसायमाणो शिरवराहो पलायमाणे "शिरावराहे*
११८ छयण " ख. हणिज्जा हणिज्जा
१६८ ख बंतत्तो संतटोल (11)
100स सुमरा विकण सुमरा पेलय
विष्ठ विड भय विटो अय-बत्यो
खल-विष्ट (1) १ख पबलेख पन्चेबिक (१५)
१८५
कोई
१८. विस भोषि विलमोद संग्रह दिया है जो भागेकी गाथाके 'इच्चाइगुणा' शब्दसे " पूर्ववत्स कृावंतस्स संबर है। संसृष्टानि मांखोंसे .रोहक मगरे । स से देह सदहर सुरजाईपारचर्यकराणि । देखो, पाइपसमायण
क सम्बहियाड वाहियानो (११) बोडोश।
न्य १० नेत्रोदारमा फोडी जामा, 15 सूली पर 1. गलियों में या चौकमें मीठी मय १२ मांस बढ़ाना उसी को-बोदेके गोलेको । २.अस्त्र माय में ये दोनों दोष पवा मुस्वा मम मन्यास्वामी विशेषः। सव विश्व व्यापसे। २१ बाधिकाम संबस्वा १५ प्रत्युव ।
बधामोंको।
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२०६ 1
भनेकान्त.
[किरण
२३५
११३ख जवि कयं देवाग्गयं कयं देव दुग्गई ३०२ क
कह गिलोए कहणिखोए , ख कस्स साहामि
कस्स व साहेमि ३०४ क जाइज्जा जाएज
३०६ क पाविज्जा
पाविज्जा ३.७ ख जीवो
परिहरेह इय जो इय जो परिहरह २१.क. पत्त्त र
पसंतह (१) २२१ क पणाम
ময
३१५ क २२५ पडिगह मुचट्ठाणं पडिगहण मुच्चठाणं ३१ ख २२. हिरवजाणु तह उच्च हिरवज्जाणु वह ३२१ खं
दुइच (२) ३२४ क २२८ ख ऐवज्ज
यिावेज्ज २३. क खाइम
खाइय
३२७ क रोडाणं
रोईणं (३) २३६. परिपीडयं
परिपीडियं ३३३ ख २४२ क किपि
किंचि वि
३३७ क जायह""जहरणसु जाइ"जहण्णासु ३३८ क २४६ क सुदिट्टी
सुदिट्टी मणुया २६.क सहस्सुत्तुगा सहस्म तुंगा १६. क सक्कर समसाय सक्करासाय
३४१ क २६१ ख २६२ क जोवणं तेहि जोवणतेहिं (७)
३११ का २६६ क तस्थाणु
तत्थणु विगइभया विगइसमयाइछ (१) ३५३ व २६६ क बहिण बहि
३६२ ख २८. स. चउस्सु
चउसु
३६६ क २६. ख गवर
वरि
, ख णिन्वयडी शिब्बियडी ३७२ ख २१३ क सिरगहाणु सिराहा २६५ क तुय
तय.
३८४ क २६१ ख
३८६ क
चय
वपणं (६) उवयरणेण मिड उवयरणेण (७) चरियाय चरियाए पत्थे
एस्थेव (6) जाएज्ज
जाएज्जा (6) काउंरिस गिहम्मि काउंरिसि गोहण
म्मि * (१०) शियमणं णियमेण
दर ® (1) परभवम्मि परभवम्मि य दंसमो दंसणे वन्जिऊण तवसीणं वजउं तव
स्सीणं 8 अफरस
अफरुम वहिजए
वहिज्जइ जणाणं
जणाश्रो (१२) किलेस
संकिलेस सिरसाशं मद्दण अभंगसेव, सिस्साण
मद्दणभंगसेय उच्चरा
उच्चारा संवेगाइय संवेगाइ पूर्वाध आयंबिल थिचियडेय ठाण
बट्ट माइ खवणेहिं पजा दिव्यभाए दिव्यभोए भट्टम्मि प्रो अट्टमीयो तहा एपारम तयारस सुहम्स वि सुहं च वि णायब्या णायचो बराड भो वा वराडयाइसु (१३)
उण विहि
विही
केई
पुज्जा
देखो, वरांगचरित जरिनकृत मार्ग लोक २७॥ ६ 'मुण्डनं वपनं त्रिषु' इत्यमरः। मृदु उपकरण पिंकी देखो, सागारधर्मामृत टीका अध्याय का ४५ वां पद्य मादिसे ८ वहां ही-मेरे घर पर ही ।। मांगे (याचयेत्) ३ रोगी पुरुपाका । यौवनं भंते येषां ते, तेः। ५ विग- १० ऋषि समुदाये कतुं मशक्येत् ।" मेढक (बदुर) अनकादि, बादलोंका नष्ट होना आदि । १ स्नान १२गुरुजनांसे १३ अक्षत कमलामादिमें,देखो धवला
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[किरण६
वसुनन्दि भावकाचारका पाठ संशोधन
[२८७
-
४१२ क
काले
सज्म
३६१ क मंगंगीजा अंगगिज्मा (१) ४२६ ख जंणिय जिगरूप (8) डिलिय पडलिय (२)
तिरियम्म तिरियए वीए तिरियम्मिय दिरहे दियहे
सिरिययं सो ४०१ ख
कंदुर ४६१ ख संघ
खंध
विज्जमया गीवं गेविज गीवाए ४०८ ख कराविए करावए
१६६ ख विविसिऊद पिसिउण गिविसिऊण शिवेमिण
४६६ ख तविजेहिं तिविलेह (३)
४७२. णिग्वुडतं णिबुडतो विविहेहि च विविहेहि ४७२ ख किरण
कर उच्चाह उच्चार ४७३ क परिग्छो
परिउडो गेहस्स गिहस्स
४८१ ख तिस्थयर
तिब्वयर (10) ४२. क
४५३ क शियम
णियमा ४२२ क तिसहि तेसटि.
४५ क वयणुतरूणी वयण-तरुणि खिवेज्ज
४१४ ख कावं
५.०० ४२६ ख
अच्छर सयाउ अदरसामो पट्टय ४३.क
सुच्छडिय (७) ५.१ ख वुड्ण
बुहय () ४३१-सारीकी सारी गाथा-.
१०८क पंचसु
पंचसुय
अट्टगुणे अट्टगुणी कणवीर-मल्लियाकंचणारमचकुन्दकिंकिरापहि । व सुरवष्णजूहिया पारिजाय-जासवण-बारहिं ॥ १२७ क
बोरिए व ४३५ क थालि
णामा थान
गाम ४३६ क पहोहामिय पहोहुबमिय (२)
कवाड दणियतणुपमाणंच, कपडदंड
तणुमाए तुरुक्क (६) २३४ के
मायए ४३८ ख परिमलायत्ति परिमलापत्त (७)
तिसु
तीसु ४४१क
५४१ ख
कोई ४५२ ख भूयाणाईवि ()
लीला व तिरणोलीलार तिरको ४५४ ख जागरणं जागरं
तरण
तर्राण अहव
परणसु
परपासु सत्तीए भत्तीए
परिशिष्ट-संशोधन! टीका पुस्तकाकार संतपरुपमा पृष्ठ १४ अंगैः ग्राह्या ज्यावर भवनकी प्राचीनतम ग्रन्थ प्रतियों परसे स्पष्ट देखो धवला संत. पृष्ठ ६। २ पटलितः आच्छादित ।
है कि ग्रंथकारको द्वितीय तृतीय आदि संस्कृत शब्दोंके त्रिविल-तबला वादिन । ४ सुप्रमार्जित भूसा साफ विडय तइय आदि प्राकृतरूप-जो प्राकृत व्याकरण किया हुआ। प्रभापुजके द्वारा सूर्य तेजकी उपमाको नियमानुसार वर्गके प्रथम तृतीय व्यंजनको लोपरके प्रात । ६ गाथामें तंद पद हैं जिसका अर्थ कपूर अश्रुति और पश्रुतिपरक होते हैं-इष्ट थे और सम्पादक होता है अतः तुझक-जोबाण पद संगत है। सन्धिके जीने ऐसे शब्दोको जो मूल पाठमें स्थान न देकर उन्हें कारण चारों ओर प्राप्त हुए हैं भ्रमर जिनके ऐसी। देखो गुणभूषण पा. का वाक्य टिप्पणीमें । म पूजाके खर्चके लिए खेत जमीनका दान आदि।
१. तीबतर । (नकि तीर्थकर) " मज्जन ।
सिज्मा वीरिए
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टिप्पणी में दिया है वह डीक नहीं है। हमने ऐसे भेजे जाने के कारण सम्पति हमारे पास नहीं हैं सो सक शब्द पर्य मेद न होने से इस विस्तृत तालिका पण्डितजी प्रकट करें।
. इस लेखके संकेत:- (संशोधन तालिका) अशुदिप '' और 'ब'को तथा 'प' और 'य' का जीकसे नहीं पड़ने के कारण हो गई है जिनमें इजा ऐ चिन्ह वाले सन्शोधन गाथानों पर रिपबयणं, रस्त्यावर्षगयो, द्विवादि और उनका शुरूप णमें भी दखिए क, ख से मवनब गायोके पूर्व और पुजाई वपर्ण, रत्यारापंग चिणं आदि होता है जो उत्तरार्धमे है। तालिका दे दिया गया है।
उपसंहार प्रम्बकारको व्यसन और निवृत्ति शब्दोंक प्राकृतरूप समाजमें न्योंका एड प्रचार हो इस हेतु यह बसण और वियत्ती इष्ट थे नकि विसण, शिबुत्ती। इतने संशोधात्मक लेख लिखा गया है, किसी दुरभिसंधिवश पर भी कुछ स्थल हमें अब भी अस्पष्ट जंचते हैं और नहीं । यदि स्वाध्याय जन इस लेखका समुचित उपयोग स्थल निर्देश पूर्वक नीचे दिये जाते है
करके जाम उठायेंगे और हमारा उत्साह बढ़ावेंगे तो. १३. पम्जत्तयो बत्ति,"१२ क लिइज्ज", भविष्य में ऐसे ही लेख फिर प्रस्तुत किये जायेंगे। १.की सारी गाथा । ३४३ अयतो वि.१९ख भारतीय ज्ञानपीठ काशीक' चाहिये कि वह वसुनन्दि गरेहि तथा सुरक्षणज" ३. मेहिय"२६ ख श्रावकाचार' की अशुद्धियोंकी ओर ध्यान है और उनका
सशोधन ग्रन्थमें लगा कर पाठकोंके लिए सुविधा प्रदान हमके स्पट पाठ पहले हमारे संग्रहमें थे जो पं. करे, तथा भविष्यमें इस पोर और भी अधिक सावधानी परमानन्द बीके पास उनके उपयोग के लिए बहुत पहले रखनेका यत्न करेगी।
अनेक यात्राभोंका सुगम अवमर ?
गुजरनेको गुजर जाती हैं उमरे शादमानीमें,
मगर यह कम मिला करते हैं, मौके जिदगानी ॥ पाल इण्डिया चन्द्रकीर्ति जैन यात्रा संघ देहली
(गवर्नमेन्ट प्राफ इण्डियासे रजिस्टर ) । सुविधा पूर्वक, कम खर्चमें, कम समय। भाराममे धार्मिक साधनों के साथ प्रथम
श्री सम्मेदशिखरजीकी ओरभूमा, तीर्थयात्रा, अवकाश पुण्य संचय. इस चतुमुखी ध्येयको लेकर ही अन्य वर्षोंकी भांति इस वर्ष भी अनेक स्नेही बन्धुगयोंके अतीव भाप्रसे मंगशिर मास में नवम्बर सन् ११३ के आखिरी सप्ताहमें जानेका निश्चय किया है। पुम्देलखण्ड तथा उत्तर पूर्वीय जैन तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा जिसमें मुख्तया पूज्य वीजीके दर्शन व उपदेश बाम, चम्पापुर, पावापुर, कुण्डलपुर, श्री सम्मेद शिखरजी माद उस प्रान्तके सभी प्रमुख तीर्थ पेन व कानपुर, बखनक, बनारस, इलाहाबाद मादि विशाल शहरोंका सुन्दर भापोजन है। समय लगभग 1 माह होगा। विशेष विवरणव | जानकारीको निम्न पते पर लिखें-प्रस्थान २० दिसम्बर सन् १९५६ सीट सार्च-1) सीट बुक • दिसम्बर तक। हेड आफिम-भाल इण्डिया चन्द्रकीति जैन यात्रा संघ,
( रजिस्टर्ड ) २२६३ घरमपुरा, देहली। नोट-मारा दूसरा संघ गिरनार बाहुबली मादि विशाल यात्रामोंको समय २ मासके लिए इस वर्ष भी जनवरी
सन् १९५० के सप्ताहमें जाना निश्चित है। इस वर्ष यात्री संख्या बहुत थोड़ी ले जाना है। अतः सीटें शीघ्र ही रिजर्वरा लेवें। प्रोग्रामको बिखें।
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समयसारकी १५वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी
[२॥
बवादियस्म सम्वं सवा अगुवयश्चमविपद से ही यह भी प्रतिपादन किया है कि जिनका स्वाद बच्वं-पज्जव विडय दन्व-विजुत्ता चपज्जवा बस्थि । शब्द पुरस्सर कथनको खिये ये जो स्याहावी-बोकाप्याय-द्वि-भंगा होदि पवियबसणं एवं 10 लास्मक प्रवचन (शासन) है-पत्र (प्रत्यार) और १५ पुष संगहयो पविक्कमलाल दुवेयर
पिइ ए (भागमादिक) का अविरोधक होनेसे अमवय (निदोष) बम्हा मिच्छविट्ठी पत्तेयं दो वि मूलया
है, जबकि दूसरा 'स्या शब्दपूर्वक कथनसे रहिसको इन गाथानों में बताया कि पर्यावानियकी सर्वथा एकान्तवाद है यह निदोष प्रवचन (शासन) नहीं रधिमें प्याथिकनयका पकव्य (सामान्य) नियमसे
है, क्योंकि त्ट और इष्ट दोनोंक बोधको विष अवस्तासी याचिंकनयी भि
(१२८) भकर्षकदेवने वो स्याद्वादको विषयासका पकम्य विशेष अवसरोपर्यायाति प्रमोघलपय बतलाया है जैसाकि उनके निम्न सुप्रसिद सब पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते है और नाशको प्राप्त होते हैं। वापस दम्यार्थिकमयकी रप्टिमें कोई पदार्थ कमी उत्पन होता।
श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोधनांछनम्। है और मनाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्यायके (पाव
त्रीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। व्ययके बिना और पर्याय द्वग्यके (धौम्यके) बिना नहीं
स्वामी समन्तभाने अपने 'पुस्त्यनुशासन में श्रीषीरहोते; क्योंकि उत्पादण्यय और धौम्य में तीनों व्य-सतका जिनके शासनको एकाधिपतित्वरूप बग्मीका स्वामी हो अविवीय बरण है। (उत्पादादि) वीनों एक दूसरेके की शकिसे सम्पत्र बताते हुए, जिन विशेषोंकी विशिरता साथ मिलकर ही रहते है, अलग अवग रूपमें एक से अद्वितीय प्रतिपादित किया निम्न कारिकासे मजे दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुए-मिबारष्टि है। अर्थात प्रकार जाने जाते हैंदोनों मयों में से जब कोई भीनय एक सरेकी अपेक्षा न दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठ नय-प्रमाण-प्रक्रतासार्य। रखता हुभा अपने ही विषयको सत् रूप प्रतिपादन करने- अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादर्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् । का पात्रहरता है तब वह अपने द्वारा प्राधवम्तके एक इसमें बताया है कि वीरजिनका शासन पवा, पम, अंशमें पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब त्याग और समाधिकी निहा-सत्परताको लिये हुए है,गयों वह अपने प्रतिपक्षीनयकी अपेक्षा रखता हा प्रवर्तता- क्या प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतस्वको विष्कुन स्पष्ट (सुनिखित) उसके विषयका निरसन न करता हमा तटस्थ रूपसे करने वाला है और अनेकान्तवादसे मिन्न सरे समी अपने विषय (वक्तव्य)का प्रतिपादन करता है-तब वह प्रवादों (प्रकल्पित एकान्तवादों) से प्रवाण्य है, (पही अपने द्वारा प्राश वस्तुके एक अंशको अंशरूप में ही (पूर्व- सब उसकी विशेषता है) और इसीबिये परमशिवीवी रूपमें नहीं) माननेके कारण सम्यक् व्यपदेशको प्राप्त होता सर्वाधिनायक होनेकी छमता रखता है। है-सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
और मीसिद्धसेनाचार्यने जिन-प्रवचन (शासन). ऐसी हालतमें जिनशासनका सर्वथा नियत' विशेषय लिए 'मिथ्यादर्शन समूहमय' 'अमृतसार' जैसे जिन विशेनहीं बनता। चौथा 'विशेष' विरोषण भी उसके साथ पोंका प्रयोग सन्मतिसूत्रकी अन्तिम गाथामें किया संगत नहीं बैठता क्योंकि जिनशासन अनेक विषयोंके उनका उक्लेख ऊपर पा चुका है, यहाँ उक सूत्रकी पहली प्ररूपवादि सम्बन्धी भारी विशेषतामोंको बियेहए है, गाथाको और ग्धत किया जाता है जिसमें जिनशासनले इतना ही नहीं बल्कि अनेकान्तारमा स्थाबाद उसकी दूसरे कई महत्व विशेषयोंका उक्लेखसवोपरि विशेषता है जो अन्य शासनोंमें नहीं पाई जाती। सिद्ध सिद्धत्या गणमणोवमसुह उवगया। इसीसे स्वामी समन्तभदने स्वयंभूस्तोत्रमें लिखा है कि कुसमय-विमासणं सासणं जिणाणं भवजिणार्थ, 'स्याच्छब्दस्तावके न्याये मान्येषामात्मविद्विषाम(१०२) इसमें भावको जीतने वाले जिलों-महन्तोंकासी बर्षात् 'स्पा' शब्दका प्रयोग भापके हीन्यायमें है, दूसरों चार विरोषयोंसे विशिन बतलाया है-सिद दिपक के न्यायमें नहीं, जो कि अपने कार (धन) के पूर्व उसे एवं प्रतिष्ठित सिखायो स्थान (प्रमावसिद पदावोंका म अपनानेके कारण अपने रात्रभाप बने हुए हैं। साव विपावक शिरबागोंके बिबबुपम सुखस्वरूप मोर
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२१.]
सुन सककी प्राति करा पासी समयोंके शासनका बाकि कोई भी सम्मान ऐसा नहीं जो नियम यद्ध निवारक (सर्वथा एकान्तवादका मामब बेकर शासनस जातीच हो-अपने ही परके साथ प्रतिबद हो । जैसा बने हुए सब मियादर्शनोंके गर्वको चूर पर भनेकी कि खिडसेनाचार्य के निम्न बावचसे प्रकट शक्तिले सम्पा)।
. दम्वहिश्रोतिसम्हाणात्मिणभो शियम युद्ध जातीयो। स्वामी समन्तभद्र, शिवसेक और मकरसंकदेव जैसे ण य पज्जबहिनो णाम कोई भयण विसेसो Holl महान् चाचायक उपयुक्त वादोंसे जिनशासनकी विशे- जोमय अपने ही पक्षके साथ प्रतिबर दो बह स्वामों का उसके सविशेषरूपका ही पता नहीं चलता
सम्यानय न होकर मिथ्यामय है. प्राचार्य सिद्धसेनने किस शासनका बहुत कुछ मूलस्वरूप मूर्तिमान
से दुनिक्षिप्त एव (अपरिशुद्धनय) बतलाया है होकर सामने या जाता है। परन्तु इस स्वरूप कानमें
और लिखा है कि वह स्व पर दोनों पक्षोंका विधायक कहीं भी शुहारमाको जिनशासन नहीं बनाया गया, बहन देखकर यदि कोई सम्जन उक्त महान् बाचाबों, जो
रहा पांचवां 'भसंयुक्त विशेषया, वह भी जिनशासन कि जिनशासपो स्तम्मस्वरूप माने जाते हैं, 'बौकिकजन'
के साथ लागू नहीं होता, क्योंकि जो शासन अनेक प्रकारके या'मण्यमनी' कहने मे और यह भी कहने लगे कि
कि विशेषोंसे युक्त है.अभेद भेदात्मक अर्थतत्वोंकी विविध
- 'उदोंने जिनशासनको जाना या समझा तक नहीं तो
पनीसे संगठित है, और अंगों मादिके अनेक सम्बन्धोंको विपाक से क्या कहेंगे, किन मन्दोंसे पुकारेंगे और
अपने साथ जोदे हुए है उसे सर्वथा प्रसंयुककैसे कहा जा उसके शावकी कितनी सराहना करेंगे यह मैं नहीं जानता,
सकता है नहीं कहा जा सकता। विज्ञपाठक इस विषयके स्वतन्त्र अधिकारी हैं और इस
इस तरह शुदामा और जिनशासनको एक बतलानेसे लिये इसका निर्णय मैं उन्हीं मकोड़ता। हाँ तो मुझे
सुदामा पाँच विशेषण जिनशासनको प्राप्त होते है जिवासन सम्बन्धी इन उस्लेखों द्वारा सिर्फ इतना ही
उसके साथ संगत नहीं बैठते । इसके सिवा शुद्धात्मा केवलबनाना पा दिखबाना इष्ट है कि सर्वथा 'विशेष'
ज्ञानस्वरूप है, जब कि जिनशासनके इम्यश्रत और भावविषय इसके साथ संगत नहीं हो सकता। और
श्रुत ऐसे दो मुख्य भेद किये जाते है, जिसमें भावात उसीके साथ क्या किसीके मी साय वह पूर्णरूपेव संमत नहीं
श्रतज्ञानके सपमें है, जिसका केवलज्ञानके साथ और नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा कोई भी वन्य, पदार्थ या वस्तु
वो प्रत्वा परोक्षका भेद तो है ही। रहा द्रव्यश्चत, वह विशेष नहीं है जो किसी भी अवस्थामें पर्वाय भेद विकल्प
सम्पात्मक होबा भयरात्मक दोनों ही अवस्थानों में अब या पुषको लिये हुए न हो। इन अवस्थावया पर्यायादिका
रूप है-ज्ञानरूप नहीं। चुनाचे श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी नाम ही 'विशेष' है और इसलिये जो इन विशेषोंसे
सत्यं णाणं ण हवह जम्हा सत्थं ण जाए किचि। सर्वथा शून्य है वह प्रवस्त है। पर्याय बिना सम्म और
तम्हा भए ‘णाणं अएण सत्यं जिगाविति ।' इत्यादि इपके बिना पर्याय होते ही नहीं, दोनोंमें परस्पर विना
मायामों में ऐसा ही प्रतिपादन किया है और शास्त्र तथा भाव सम्बन्ध है। इस सिद्धान्तको स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने
शम्बको हानसे भिड बनाया है। ऐसी हालत में रायामी अपने पंचास्तिकाय प्रन्यकी निम्न गाथामें स्वीकार
स्माके साथ ब्रम्बचतका एकत्व स्थापित नहीं किया जा किया है और इसे प्रमोंका सिद्धान्त बनाया है। सकता और यह भी शुद्धामा तथा जिनशासनको एक पज्जव विजुदं दवदन्यविजुत्ताय पस्यवाणत्थि। बनाने में बाधक दोण्ह भरणभूदं भावं समय पहविति ॥ १२॥ अब मैं इतमा और पतबा देना चाहता कि स्वामी
ऐसी हाव रामा भी सम-सिद्धान्तसे जीके प्रवचन लेखममा परेग्राफमें जो यह लिखा है किपवित्र नहीं हो सकता, उसे जो विशेष कहा गया है "द मारमा जिवासन है इसलिये जो जीव हसि चिको बिबे हुए इसे सगाईमें स्तर परमेशवमात्माको देखता है वह समस्त जिनशासनको परमाणीव है। मानबह कह देने काम देता है। यह बात भी बाचार्षदेव समयसारकी की बालिखनपळी दिसे पैसा कहा गया है, पहली माया को है।"
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किरण 1
जिनशासन
[२११
वह सर्वाश में ठीक नहीं, क्योंकि उक्त गाथामें है। किस रष्टिसे या किम साधनोंसे देखता है, और भारमाश्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने ऐसा कहीं भी नहीं कहा कि जो शुद्ध के इन विशेषणोंका जिनशासनको पूर्ण रूपमें देखने के साथ मात्मा वह जिनशासन है' और न 'इसलिये' अर्थका क्या सम्बन्ध है और वह किस रीति-नीतसे कार्य में परिणत वाचक कोई शब्द ही गावामें प्रयुक्त हुधा है। यह सब किया जाता है यह सब उसमें कुछ बतलाया नहीं। इन्हीं स्वामीजीकी निजी कल्पना है। गाथामें जो कुछ कहा सब बातोंको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत थी और गया है उसका फालतार्य इतना ही है कि 'जो आत्माको इन्हीसे पहली शंकाका सम्बन्ध था, जिन्हें न तो स्पर अबदस्मृष्टादि विशेषणोंके रूप में देखता है वह समस्त किया गया है और न शंकाका कोई दूसरा समाधान ही जिनशासनको भी देखता है। परन्तु कैसे देखता है। प्रस्तुत किया गया है-दूसरी बहुत सी फालतू बातोंगे यद्धारमा होकर देखता है या अशुद्धामा रह कर देखता प्रश्रय देकर प्रवचनको खम्बा किया गया। क्रमशः
न
....न....शा....स जिनशासनको कब यथार्थ जाना कहा जाता है ?
[श्री कानजीस्वामी सोनगढ़का वह प्रवचन लेख जो आत्मधर्मके गत भाश्विन मास अङ्क ७ के शुरूमें प्रकाशित हुआ है, जिस पर 'अनेकान्त' की इसी किरणक शुरूमें विचार किया गया है।)
शुद्ध पारमा वह जिनशासन है; इसलिये जो जीव जिनशासनसे बाहर है। जो जीव मामाको कर्मके सम्ब अपने शुद्ध आत्माको देखता है वह समस्त जिनशासन- न्धयुक्त ही देखता है उसके वीतरागभावरूप जैनधर्म को देखता है। यह बात श्री भावार्यदेव समयसमरकी नहीं होता । अन्तरम्वभावकी रष्टि करके जो अपने पन्द्रहवीं गाथामें कहते हैं:
मात्माको शवरूप जानता है उसीके वीतरागभाव प्रकट यः पश्यति श्रास्मानं, अबदस्पृष्टमनन्यमविशेषम् । होता है और वही जैनधर्म । इमखिये प्राचार्यदेव कहते है अपदेशसान्तमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥१॥ कि जो जीव अपने मात्माको कर्मक सम्बन्धरहित एकाकार
इस गाथामें प्राचार्यदेवने जैनदर्शनका मर्म खोलकर विज्ञानधर्म स्वभावरूप देखता है वह समस्त जैनशासनको रक्खा है। जो इन प्रबद्धस्पष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष देखता है । मोर प्रसंयुक-ऐसे पाँच भावोंकप पास्माकी अनुभूति देखो यह जैन शासन ! खोग बाझमें जैनशासन मान है वह निश्चयसे समस्त जियशासनको अनुभूति है। है है परन्तु जैनशासन तो मारमाके शुद्धस्वभावमें जिसने ऐसे शुद्ध पारमाको जाना उसने समस्त जिनशासन है। कई लोगों को ऐसी भ्रमणा है कि जैनधर्म तो कमको जान लिया । समस्त जिनशासनका सार क्या ! प्रधान धर्म है। लेकिन यहाँ तो प्राचार्यदेव स्पष्ट कहते हैं -अपने घर पास्माका अनुभव करना। शुद्ध प्रास्माके कि मात्माको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तवमें अनभवसे वीतरागता होती है और वही जैन धर्म है जैनशासन नहीं है परन्तु कर्म के सम्बन्धसे रहित राख जिससे रागकी उत्पत्ति हो वह जनधर्म नहीं है। 'मैं देखना वह नशासन है। जैनशासन कर्मप्रधान वो बंधनवाना अशुद्ध हुँ'-इस प्रकार जो पर्यायष्टिसे नहीं है, परन्तु कर्मके निमित्तसे जीवकी पर्वायमें जो अपने भात्माको प्रशुद्ध ही देखता है उसके रागकी पुण्यपापरूप विकार होता है उस विकारको प्रधानता भी उत्पत्ति होती है और राग है वह जैनशासन नहीं है, जैनशासनमें नहीं है। जैनधर्म में तो प्रब-हायक पवित्र इसखिये जो अपने पास्माको अशुद्धरूपही देखता है परन्तु आत्मस्वभावकी ही प्रधानता है; उसकी प्रधानतामें ही राख मामाको नहीं देखता उसे जिनशासनकी खबर नहीं वीतरागता होती है। विकारकी पा परकी प्रधानतामें है। भारभाका कर्मके सम्बन्धयुक्त ही देखने वाला जीव नहीं होती इसलिये उसकी प्रधानता पर जैनधर्म नहीं है।
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२१२]
अनेकान्त
[किरण ६ -- - जो जीव स्वोन्मुख होकर अपने ज्ञायक परमात्मततको समावेश शुद्ध प्रात्माके अनुभव हो जाता है, इसलिये न सममे उस जीवने जैनधर्म प्राप्त नहीं किया है और शुद्ध प्रारमाकी अनुभूति वह समस्त जिनशासनकी जिसने अपने शायक परमात्मतत्त्रको जाना है वह समस्त अनुभूति है।
नशासनके रहस्यको प्राप्त कर चुका है। अपने शुद्ध . अहो ! इस एक गाथामें श्रीकुवाचार्यदेवने शायक परमात्मतत्त्वकी अनुभूति वह निश्चयसे समग्र जैनदर्शनका अलौकिक रहस्य भर दिवा है; औनशासन जिनशासनकी अनुभूति है। कोई जीव भले ही जैनधर्म का मर्म क्या है-वह इस गाथामें बतलाया है। में कथित नवतत्वोंको व्यवहारसे मानता हो, भले ही
आत्मा ज्ञामधनस्वभाषी है। वह कम्के सम्बन्धसे ग्यारह अंगोंका ज्ञाता हो और भले ही जैनधर्ममें रहित है । ऐसे प्रारमस्वभावको दृष्टि में न लेकर कर्मक कथित व्रतादिकी क्रिया करता हो; परन्तु यदि वह अंत- सम्बन्धवाली एष्टिसे भास्माको लस में खेना सो रागवृद्धि रंगमें परदन्य और परभावोंसे रहित शुद्ध प्रास्माको
है, उसमें रागकी-प्रशुद्धताकी उत्पत्ति होती है इसलिये म जानता हो ना बह जैनशासनसे बाहर है, उसने वह जनशासन नहीं है। भले ही शुभ विकल्प हो और वास्तवमें जैन-शासनको नहीं जाना है।
पुण्य बँधे, परन्तु वह जैनशासन नहीं है। प्रात्माको . ___ 'भावप्रासत में शिष्य पूछना है कि-जिनधर्मको उत्तम असयोगी शुद्ध ज्ञानघनस्वभावरूपसे दृष्टिमें लेना सो कहा, तो उस धर्मका स्वरूप क्या है। उसके उत्तरमें
वीतरागष्टि है और उस ष्टि में वीतरागताकी ही उत्पत्ति प्राचार्यदेव धर्मका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि:
होती है इसलिये वही जैनशासन है। जिससे रागकी
उत्पत्ति हो और संसार परिभमण हो वह जैनशासन नहीं पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ।
हैं, परन्तु जिसके अवलम्बनसे वीतरागताकी उत्पत्ति हो मोहमखोहविहीणी परिणामी पप्पणो धम्मो ॥३॥
और भवभ्रमण मिटे वह जैनशापन है। जिनशासनके सम्बन्धमें जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा
भास्माकी वर्तमान पर्वायमें अशुद्धता तथा कर्मका है कि-पूजादिकमें तथा जो व्रतसहित हो उसमें तो
सम्बन्ध है; परन्तु उसके त्रिकाली सहजस्वभावमें अशुपुण्य है और मोह-पोम रहित आत्माके परिणाम
द्वता या कर्मका सम्बन्ध नहीं है. निकाली सहज-स्वभाव तो वह धर्म है।
एकरूप विज्ञानघन है। इस प्रकार प्रात्माके दोनों पक्षोंको कोई-कोई लौकिकजन तथा अन्यमती कहते है कि
जानकर, त्रिकाली स्वभावकी महिमाकी ओर उन्मुख पजादिक तथा व्रत-क्रियासहित हो वह जैनधर्म है: होकर प्रास्माका शवरूपसे अनभव काना , परन्तु ऐसा नहीं है। देखो, जो जीव-व्रत-पूजादिके अमरागको धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिकजन' और प्रास्माकी अनुभूति ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हैं। 'अन्यमती' कहा है । जनमतमें निमेश्वर भगवानने में विकारी और कर्मक सम्बन्धवाला हूँ -इस प्रकार बत-पूजादिक शभभावको धर्म नहीं कहा है, परन्तु पर्यायष्टिसे लक्षमें लेना वह तो रागकी उत्पत्तिका कारण मात्माके वीतरागभावको ही धर्म कहा है। वह वीतराग- है और यदि उसके प्राश्रयसे लाभ माने तो मिथ्यात्वकी भाव कैसे होता1-शुद्ध प्रात्मस्वभावके अवलम्बन उत्पत्ति होती है। इसलिये प्रात्माको कर्मके सम्बन्धवाला से ही वीतरागभाव होता है; इसलिये जो जीव शुद्ध और विकारी देखना वह जैनशासन नहीं है। दूसरे प्रकार मात्माको देखता है वही जिनशासनको देखता है। से कहा जाये तो पास्माको पर्यायबुद्धिसे ही देखनेवाला सम्यग्दर्शनशान-चारित्र भी शुद्ध पारमाके अवलम्बनमे ही जीव मिथ्याष्टि है। पर्यायमें विकार होने पर भी उसे प्रगट होते है, इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-परिवरूप मोक्ष- महत्व न देकर द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना मार्गका समावेश भी शद पारमाके सेवनमें हो जाता वह सम्यग्दर्शन और जैनशासन है। अन्तरमें ज्ञानरूप है और शुद्ध पात्माके अनुभव जो वीतरागभाव मावश्रत और बाझमें भगवानकी वाणीरूप ग्यश्रतप्रगट हुमा उसमें अहिंसाधर्म भी भा गया तथा उत्तम उन सबका सार यह है कि ज्ञानको अन्तरस्वभावीन्मुख अनादि दस प्रहारके धर्म भी उसमें ना गये। इसप्रकार करके आत्माकी शेख अवहम्पृष्ट देखना चाहिए। जो जिन-जिन प्रकारों जैनधर्मका कथन ई उन सर्व प्रकारोंका ऐसे पारमाको देखे उसीने जैनशासनको जाना है और
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जिनशासन
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उसीने सर्व भावभतज्ञानतावण्यवतहानको जाना है। वहीं है। पारमा शव विज्ञानयम है,बहबाला में शरीराविकी भिन्न भिन्न अनेक शास्त्रांम अनेकप्रकारकी शैलीमे कथन क्रिया नहीं करता; पारीरकी क्रियासे उसे धर्म नहीं होता। किया हो; परन्तु उन सर्व शास्त्रोंका मूल तात्पर्य तो पर्याय कर्म उसे विकार नहीं करता और म शुभ-अशुभ विकारी इदि छुपाकर ऐसा शुद्ध प्रारमाही बतलानेका है। भगवान भावोंसे उसे धर्म होता है। अपने शुख विज्ञामवन स्वभावके की वाणीके जितने कथन है उन सबका सार यही है कि भाश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है। जो जीव शुद्ध आमाको जानकर उसका पाश्रय करो। जो जीव ऐसे शुद्ध प्रारमाको अन्तरमें नहीं देखता और कर्मक ऐस शुद्ध प्रास्माको न जाने वह अन्य चाहे जितने शास्त्र निमित्त प्रास्माकी अवस्था में होनेवाले शिक विकार जानता हो और बादिका पालन करता हो, तथापि उसने जितना ही भारमाको देखता है वह भी जैनशासनको नहीं जैनशासनको नहीं जाना है।
देखता; कमके साथ निमित्त मैमित्तिक सम्बन्ध रहित जो जैनशासनमें कथित प्रात्मा जब विकाररहित और सहज एकरूप शुद्ध ज्ञानस्वभावी धास्मा है उसे जीव कर्मके सम्बन्ध रहित है, तब फिर इस स्थूल शरीरके शुद्धनयसे देखता है उसीने सर्व शास्त्रोंके सारको समझा है। भाकारवाला तो वह कहाँसे हो सकता है? जो ऐसे (१) जैनशासनमें कर्मके साथ निमित्त-मितिक मात्माको नही जानता और जड़-शरीरके प्राकारसे श्रात्मा
सम्बन्धका ज्ञान कराते है। परन्तु जीवको वहीं रोक रखनेको पहिचानता है उसने जैनशासन के प्रारमाको नहीं जाना
का उसका प्रयोजन नहीं है वह तो उस निमित्त नैमित्तिक है। वास्तवमें भगवानकी वाणी कैसा मारमा बतलाने में
सम्बन्धकी रष्टि छुड़ाकर असंयोगी प्रात्मस्वमाकी एक्टि निमित्त है ?-प्रबदम्पृष्ट एकरूप राख भास्माको भगवान
कराता है। इसलिये कहा है कि जो जीव कके सम्बन्ध की वाणी बतलाती है और जो ऐसे मामाको समझता
रहित मामाको देखता है वह सर्व जिनशासनको देखता है। है वही जिनवाणीको यथार्थतवा समझा है । जो ऐसे (२) मनुष्य, देव, नारकी इत्यादि पर्यायोंसे देखने पर अबस्कृष्ट भूतार्थ प्रारमस्वभावको न समझे वह जिनवणी अन्य अन्यपना होने पर भी मारमाको उसके ज्ञापक स्वमाको नहीं समझा है। कोई ऐसा कहे कि मैंने भगवानकी वसे एकाकार स्वरूप देखना ही जैनशासनका सार है। वाणीको समझ लिया है परन्तु उसमें कथितभावको पर्यायटिसे प्रारमा भित्र भिन्नपना होता अवश्य है और (-अब-स्पृष्ट शुद्ध प्रात्मस्वभावको) नहीं समझ पाया, शास्त्रों में उसका ज्ञान कराते हैं परन्तु उस पर्याय जितना -तो प्राचार्यदेव कहते हैं कि वास्तवमें वह जीव ही प्रात्मा बतलानेका जनशासनका भाशय नहीं है। किन्तु भगवानकी वाणीको भी नहीं समझा है और भगवानकी एकरूप झायक विम्ब प्रात्माको बतलाना ही शास्त्रोंका वाणीके साथ धर्मका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध उसके सार है; तथा ऐसे भारमाके अनुभवसे ही सम्यग्ज्ञान होता प्रगट नहीं हुआ है। स्वयं अपने पारमामें शुद्ध प्रात्माके है। जिसने ऐसे प्रारमाका अनुभव किया उसने द्रव्यश्चत अनुभवरूप कैमित्तिकभाव प्रगट नहीं किया उसको भगवान और भावभुतरूप जैनशासनको जाना है। की वाणी धर्मका निमित्त भी नहीं हुई; इसलिये वह (8) मामाकी अवस्थामें ज्ञान-दर्शन-वीर्य इत्यादि वास्तवमें भगवानको वाणीको समझा ही नहीं है। की न्यूनाधिकता होती है, परन्तु ध्रुवस्वभावसे देखने पर भगवानकी वाणीको समझ लिया-ऐमा कब कहा जाता मारमा हीनाविकतारहित सदा एकरूप निश्चल है। पर्याहै-कि जैसा भगवानकी वाणीमें कहा है वैसा भाव यकी हीनाधिकताके प्रकारोंका शास्त्रने ज्ञान कराया है। अपने में प्रगट करे तभी वह भागवानकी वाणीको सममा परन्तु उसी में रोक रखनेका शास्त्रका भाशय नहीं है। है और वही जिनशासनमें बा गया है। जो जीव ऐसे क्योकि पर्यायको अनेकताके आश्रयमें हमनेसे एकरूप शुद्ध मात्माको न जाने यह जैनशामनसे बाहर है।
मारमाका स्वरूप अनुभवमें नहीं भाता । शास्त्रोंका भाशय बाद में जब शरीरकी क्रियाको प्रात्मा करता है और तो पर्यायका- व्यवहारका मात्रय छुड़वाकर नियत-एकउसकी क्रियासे प्रारमाको धर्म होता है-ऐसा जो देखता रूप ध्रुव प्रारमस्वभावका अवलम्बन करानेका है, उसीके है (मामता)उसे ता जैनशासनकी गंध भी नहीं है। अवलम्बनले मोक्ष मार्गकी साधना होती है। ऐसे चारमतथा कर्मके कारण प्रात्माको विकार होता है या विकार- भावका अवलम्बन का अनुभव करना सो जैनशासनका भावसे आत्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमें अनुभव है। पर्यायके अनेक भेदोंको रष्टि बोरकर अमेद
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२१४॥
अनेकान्त
[किरण
-
रटिसे राख पाल्माका अनुभव करना-बह शास्त्रोंका
देखो, यह अपूर्व कल्याणकी बात है! यह कोई साधाअभिप्राय है।
रणबात नहीं है। यह तो ऐसी बात है कि जिसे समझने (७) भगवान शास्त्रों में शान-पर्शन-चारित्र इत्यादि से अनादिकालीन भवभ्रमणका पन्त मा जाता है गुण भेदसे पाल्माका कथन किया है। परन्तु वहाँ उन भेदों- मारमाकी दरकार करके यह बात समझने योग्य है प्राक्ष के विकल्पमें जीवको रोक रखनेका शास्त्रोंका भाशय नहीं कियासे और पुण्यभावसे पात्माको लाभ होता है-ऐसा है; भेदका अवलम्बन खुदा कर अभेद मात्मस्वभावको मानने की बात तो दूर रही; यहाँ तो कहते हैं कि हे जीव ! बतलाना ही शस्त्रोंका माशय है। भेदके प्राश्रयसे तो उस बाह्यक्रियाको मत देख, पुण्यको मत देख, किन्तु रागकी उत्पति होती है और राग वह जैनशासन नहीं है। अपने अन्तरमें ज्ञानमूर्ति प्रास्माको देख । 'पुण्य सो मैं इसलिए जो जीव भेदके लासे होने वाले विकल्पोंसे नाम हूँ।'-ऐसी रष्टि छोड़कर 'मैं शायकभाव -ऐसी मानकर उनके माधयमें रुके और प्रारमाके अभेद-स्वभावका दृष्टि कर । देहादिकी बाह्यक्रियासे और पुण्यसे भी पार प्राश्रय न करे वह जेनशासनको नहीं जानता है। अनन्त ऐसे अपने शायक-स्वभावी पास्माका अन्तरमें अवलोकन गुणोंसें अभेदमात्मामें भेदका विकल्प छोड़कर, उसे अभे- करना ही जैनदर्शन है। इसके प्रोतरिक्त बोग व्रत-पूजादस्वरूपसे बच में लेकर उसमें एकाग्र होनेसे निर्विकल्पता दिकको जैनदर्शन कहते हैं, परन्तु वास्तव में वह जैनदर्शन होती है। यही समस्त तीर्थ'करोंकी वाणीका सार है और नहीं है प्रत-पूजादिकमें तो मात्र शुभराग है और जैनधर्म यही जैनशासन है।
तो वीतरागमा स्वरूप है। ५. भात्मा चणिक विकारसे प्रसंयुक्त है; उसकी प्रश्न-कितनोंने ऐसा जैनधर्म किया है। अवस्थामें पणिक रागादिभाव होते हैं। उन रागादिभावों उत्तर-अरे भाई ! तुझे अपना करना है दूसरोंका ? का अनुभव करना वह जैनशासन नहीं है। स्वभाव दृष्टिसे पहले तू स्वयं तो अपने मात्माको समझकर जैन हो; फिर देखने पर प्रास्मामें विकार है ही नहीं। क्षणिक विकारसे तुझे दूसरोकी खबर पढ़ेगी ! स्वयं अपने प्रास्माको समझअसंयुक ऐसे शुद्ध चैतन्यधन स्वरूपसे प्रात्माका अनुभव कर अपने प्रास्माका हित कर लेनेको यह बात है। ऐसे करना ही अनन्त सर्वज्ञ-अरिहन्त परमात्माभोंका हाई और वीतरागी जैनधर्मका सेवन कर-करके ही पूर्वकालमें अनंत संतोंका हृदय हैबारह अंग और चौदह पूर्वकी रचनामें जीवोंने मुक्ति प्राप्त की है, वर्तमानमें भी दुनिया में जो कुछ कहा है उसका सार यही है। निमित्त, राग या असंख्य जीव इस धर्मका सेवन कर रहे हैं। महाभेदके कथन भले हों, उनका ज्ञान भी भले हो, परन्तु विदेह क्षेत्र में तो ऐसे धर्मकी पेढ़ी जोर-शोरसे चल रही उन्हें जामकर क्या किया जाये तो कहते हैं कि अपने
है। वहाँ साहात् तीर्थंकर विचर रहे हैं। उनकी दिल्यवान मात्माका परद्रव्यों और परभावोंसे भिष अभेद ज्ञानस्व
१ में ऐसे धर्मका स्रोत वहता है, गणधर उसे भेजते हैं, भावरूपसे अनुभव करो; ऐसे भास्माके अनुभवसे ही पर्याय
इन्द्र उसका भादर करते है, चक्रवर्ती उसका सेवन करते में शुद्धता होती है। जो जीव इस प्रकार शुद्ध प्रास्माको
हैं और भविष्य में भी अनंत जीव ऐसा धर्म प्रगट करके रष्टि में लेकर उसका अनुभव करे वही सर्व सम्तों और
मुक्ति प्राप्त करेंगे। लेकिन उससे अपनेको क्या! अपनेशास्त्रोंक रहस्यको समझा है।
को तो अपने पास्मामे देखना चाहिए। दूसरे जीव मुक्ति देखो यह शुद्ध प्रास्माके अनुभवको वीतरागी कथा
प्राप्त करें उससे कहीं इस मारमाका हित नहीं हो जाता है! वीतरागी देव-गुरु-शास्त्रके अतिरिक्त ऐसी कथा
और दूसरे जीव संसारमें भटकते फिरें उसमे इस मामाकौन सुना सकता है। जो जीव वीतरागी अनुभवकी ऐसी
के कल्यायमें बाधा नहीं पाती। जब स्वयं अपने पारमाको कथा सुनानेके लिये प्रेमसे खड़ा है उसे जैन शासनके देव
सममे तब अपना हित होता है। इस प्रकार अपने मात्माके गुरु शास्त्र पर श्रद्धा है और उनकी विनय तथा बहुमानका
लिये यह बात है. यह तत्व तो तीनों काल दुर्लभ है और शुभराग भी है; परन्तु वह कहीं जैनदर्शनका सार नहीं
इसे समझने वाले जीव भी विरले ही होते हैं। इसलिये है-बहनो बहिमुख रागभाव है।अन्तरमें स्वसम्मुख
स्वयं समझकर अपना कल्याण कर लेना चाहिए होकर, देव-गुरु शास्त्रने जैसा कहा है वैसे मास्माका राग
(-श्री समयसार गाथा ५ पर पूज्य स्वामीजीके रवि पदुमब करना ही जैन-शासनका सार है।
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श्रीबाहुबलि-जिनपूजाका अभिनन्दन
मुख्तार जुगलकिशोर द्वारा नवनिर्मित यह पूजा, जो कि पूजा साहित्यमें एक नई चीज है, जबसे पहली बार गत मई मासकी अनेकान्त किरण नम्बर १२ में सामान्य रूपसे प्रकाशित हुई है तभीसे इसको अच्छा अभिनन्दन प्राप्त हो रहा है। यही कारण है कि पुस्तकके रूपमें छपनेसे पहले ही इसकी प्रायः दो हजार प्रतियोंके ग्राहक दर्ज रजिस्टर हो गये थे, जिनमेंसे १५०० के लगभग प्रतियोंका श्रेय श्री जयवन्ती देवी और उसकी बुना गुणमालादेवीको प्राप्त है, जिन्होंने कुछ स्त्रियोंके परिचयमें इस पूजाको लाकर उनसे इतनी प्रतियोंकी बिना मूल्य वितरणके लिये ग्वरीदारीकी स्वीकृति प्राप्त की। अब तो कुछ संशोधनके साथ अच्छे सुन्दर आर्ट पेपर पर मोटे अक्षरों में पुस्तकाकार छप जाने और माथमें श्री गोम्मटेश्वर बाहुबली फोटोचित्र रहनेसे इसका प्राकर्षण और भी बढ़ गया है और इसलिये जो भी इसे देख मुन पाता है वही इसकी ओर आकर्षित हो जाता है। पं. श्रीकैलाशचन्दजी शास्त्री बनारसने तो थिम बार सुनकर ही कहा था कि यदि जैन पूजाको इस प्रकारके संस्कारोंसे संस्कारित कर दिया जाय तो कितना अच्छा हो।' अस्तु, अभिनन्दनक कुछ नमूने नोचे दिये जाते हैं:
१. आचार्य नमिसागरजोको 'यह पूजा अत्यन्त प्रिय लगी है। और उन्होंने हिसारसे ६० सूर्यपालजीके पत्र द्वारा अपना आशीर्वाद भी भेजा है।
२. मुनि श्री समन्तभद्रजीने इसे मायन्त पढ़कर अपना भारी मानन्द व्यक्त करते हुए मुख्तारजीके लिये कुछ मंगल भावना भी भेजी है, जैसा कि बाहुबलि ब्रह्मचर्याश्रमके मन्त्रीकी भोरसे लिखे गये पत्रके निम्न अंशसे प्रकट है
'वह पूज्य श्रीने आद्योपांत पढ़ी । आपका रचा हुश्रा सुन्दर सरस कान्य, भक्तिरससे भरा हुआ पढ़कर उनको बहुत अानंद हुअा। इस कवित्व शनिकी दन आपको प्रकृतिने प्रदान की है। ऐसे ही जिन भक्ति बढानेके कार्य में ही उसका अधिकाधिक विकास व उपयोग होता रहे यह मंगल भावना साथ भेजी है।'
३. '६० अमृतलाल जी दर्शन-साहित्याचार्य बनारमसे लिखते हैं-'यह पुस्तक लिखकर पूजासाहित्यमें आपने एक नई चीज उपस्थित की, इसमें कोई सन्देह नहीं। पुस्तक बहुत ही मम्स और मरल है। पुस्तक प्रारम्भ करने पर बन्द करनेकी इच्छा नहीं होती। यह पुस्तक प्रत्येक जैनको अपने संग्रहमें रखनी चाहिये । पुम्नककी छपाई सफाई बहुत ही सुन्दर ई और ( दो पाने ) मृल्य भी बहुत कम है । इसके लिये हम भापका अभिनन्दन करते हैं।
४. सम्पादक 'जन सन्देश' पुस्तककी समालोचना करते हए लिम्वत हैं-'निश्चय ही इस नये रूपमें पूजनको समाजके सामने रखनेमे माननीय मुख्तार साहबको बहुत सफलता मिली है। पाठकांसे यह पुस्तक मंगाकर पानेका और यह पूजन करनेका अनुरोध करेंगे।'
५. डा. श्रीचन्दजी जैन संगल एटा, जिन्होंने पहिले ही इस पूजाको पसन्द करके फ्री वितरणके लिये ५०० कापीका बार्डर दिया था, लिम्वते हैं कि-'पुस्तक बहुत अच्छी छपी है और सुन्दर है । भव भाप महावीर स्वामीकी भी ऐसी एक पूजा बनाकर छपवाइये ,
..या० प्रद्य म्नकुमारजी संगलने जब इस पूजाको पढ़ा तो उन्हें वह बहुत ही रुचिकर प्रतीत हुई और '- इसलिये उन्होंने अपने इष्ट मित्रादिको वितरण करनेके लिये उमकी १०. कापी बरीदी परंतु इतनेसे ही उनकी तृप्ति नहीं हुई और इमलिये श्री महावीरजीकी यात्राको जाते हुए वे १०० कापी वितरणको ले गये और यात्रासे पार्टी सहित वापिसी पर लिम्बा कि-'श्री बाहुबलि जिन पूजाको निस्य हम लोग करते थे, उसमें मुझे सबसे अधिक भानन्द मिलता था। सौ प्रतियाँ इस पूजाकी हम लोगांने मथुरा और महावीरजीमें बाँट दी थी । श्रीमहावीरजीको पूजा आपकी कब पूरी होगी इसकी मुझे बहुत प्रतीक्षा है । प्रथम अंश उसका बहुत उत्तम लगा।'
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Regd. No.D.211
__ अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००) बा. नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बाट बद्रीप्रसादजी सरावगी, म २५१) बा. छोटेलालजी जैन सरावगी ,
१८१) बाल काशीनाथजी, 4 २५१) बा० सोहनलालजी जन लमेच , १०१) बाल गोपीचन्द रूपचन्दजी २२५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी ..
१०१) बाल धनंजयकुमारजी ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C'. जैन , १०१) बाजीतमल जी जैन २५१) बा०दीनानाथजी मरावगी
१०१) बा०चिरंजीलालजी मरावगी २५१) वा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन. रांची २५१) बा. बल्देवदामजी जैन सरावगी
१०.) ला८ महावीरप्रसादजी ठेकेदार. दहली 1. २५५) मेठ गजराजजी गंगवाल
१२१) लाल रतनलालजी माठीपुरिया हली २५१) मेठ मुबालालजी जैन
१०१) श्री फतहपुर जैन ममाज कलकता २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०.) गुमसहायक, मदर बाजार, मंग्स २५१) मेठ मांगीलालजी
११) श्री शीलमालादी धमपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटार ११) सेठ शान्तिप्रसादजी जन
१०१) ला मक्खनलाल मानीलालजी ठेकेदार, दहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी. पुलिया १०१) बाफलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०५) बा० मुरेन्द्रनाथ नगेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्त। * २५१) बाल जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १८१) बाल वंशीधर जुगलकिशोरजी जेन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली
१०१) बा. बद्रीदाम आत्मारामजी मर्गवगा, पटना २५१) बा. मनोहरलाल नन्हमलजी, देहली १०१) ला. उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, महारनपुर
१०) बा. महावीरप्रमाद जी एटवाकर, हिमार * २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १८५) ला बलवन्तसिंहजा, हांसी जि- हिसार
२५१) ला० रघुवीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली ०१) कुंवर यशवन्नसिहजी, हामी जि० हिमार •५१) रायबहादुर सेट हरखचन्दजी जैन, रांची
१८१) मेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २०५१) सेठ वीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धमपन्नी सहायक
'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली * ११) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
___१०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहला १०१) बा लालचन्दी बोल सेठी, उज्जैन १०२) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर' १०१) बाट लालचन्दजी जैन सरावी
सरमावा. जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली । मुद्रक कप चायी प्रिटिंग हाउस २३, दरियागंज, देहली
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09.
मनकान्त
मम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
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श्री १०८ प्राचार्य श्री नमिसागरजी का दीया महोत्सव ता. २० दिसम्बर रविवारके दिन डा. कालीदासजी नाग एम. ए. डी. लिट मेम्बर कौंसिल आफ स्टेट की
मध्यपतामें सानन्द संम्पक्ष हुमा । 80ROOPROOPROOFROCHROOO
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विषय-सूची
साधु-स्तुति ( कविता )-बनारसीदास पृष्ठ २१५ अहिंसा और जैन संस्कृतिका प्रसारवामिल प्रदेशों न धर्मावलम्बी
[अनन्त प्रसाद जैन श्री प्रो. एम. एस. रामस्वामो आयंगर, एम०ए० २१६ संशोधन
हमारी तीर्थ यात्रा संस्मरणहिन्दी अन-साहित्यमें तत्त्वज्ञान
[परमानन्द जैन शास्त्री [ कुमारी किरणवाला जैन
साहित्य परिचय और समालोचन-- समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दनी[ अगरचन्दजी नाहटा
२२० [परमानन्द जैन शास्त्री
२२३
दीक्षा-समारोह ता २० दिसम्बर शनिवारके दिन वीरसेवा मन्दिर भाषण अत्यन्त प्रभावक हना और उन्होंने बौद्धधर्म और के तत्वावधान में आचार्य श्री १०८ नमिसागरजीका वैदिकधर्मके साथ जैनधर्मकी तुलना करते हुए उसकी दोषा समारोह कलकत्ता विश्वविद्यालयके इतिहासज्ञ श्री महचा पर प्रकाश डाला । अध्यक्ष महोदयने भी अपने ना. कालीदास जी नाग एम. ए. डी. लिट मेम्बर कौन्सि- भाषणमें जैनधर्मकी हिमाको विश्व शान्तिका ल आफ स्टेट की अध्यक्षता में अहिंसा मंदिर • उपाय बतलाते हुए विश्वका प्रिय धर्म बतलाया । डाक्टर दरियागंज देहली में सम्पन हुआ। देहलीकी स्थानीय साहबने जनताका ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि जनता के प्रतिक्ति हांसी, मेरठ, मवाना, रोहतक, पानीपत, इसी प्रसिद्ध स्थान पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधीने स्वतंत्रता
आदि स्थानोस भी बहुत बड़ी संख्या में साधर्मीजन दिलाई। और मैं श्राशा करता हूँ कि जैनधा के सिद्धांत पधारे थे।
व प्राचार्य श्री का उपदेश आत्म-स्वतंत्रताका प्रतीक श्री मोहन लाल जी कठोतिबा पं. जुगलकिशोरजी होगा। प्राचार्य महाराजने भी अपने भाषण में जैन मुख्तार, पं० दरबारीलाल जी न्या. सुकमालचन्द जी संस्कृतिकी रक्षा और जैनइतिहासकी आवश्यकता पर मेरठ, पं. शीलचन्द जी मवाना आदिने स्वयं उपस्थित प्रकाश डाला । और उन्होंने कहा कि सच्चा दीक्षा समारोह होकर अपनी श्रद्धांजलियाँ अपित की। ला. राजकृष्ण- साहित्यावार से ही सार्थक हो सकता है। जी ने महाराज श्री के जीवनका व अध्यक्ष डा कालीदासनागका परिचय कराया। पं. धर्मदेवजी जैतलीका
जय कुमार जैन
पुरस्करणीय लेखोंकी समय वद्धि
अनेकान्त वर्ष १२ किरण २ के पृष्ठ १७ में प्रकाशित उसकी पूर्ति करते हुए तदनुकून अपने निवन्धको लिखनको ४२५) रुपयेके दो नये पुरस्कार नामक विज्ञप्तिको १५ वीं कृपा करें। इन निबन्धोंको भेजनेकी अन्तिम अवधि ३१ पंक्तिमें 'और' के भागे-'दूसरा लेख ६० पृष्ठा या दो दिसम्बर तक रक्खी गई थी। विन्तु अब उममें दो महीने हजार पंक्तियोंसे कमका नहीं होना चाहिये', ये वाक्य छपने की वृद्धि करदी गई है । अतः फरवरी सन् १९५४ के अन्त से छूट गया था, जिसका अभी हाल में पता चला है। तक निबन्ध भा जाना चाहिये। अतः विद्वान लेखक उक्त वाक्य छूटा हुमा समम कर
-प्रकाशक 'भनेकान्त'
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ॐ अहम
तस्व-सघातक
तित्व-प्रकाराका
वाषिक मूल्य ५)
एक किरण का मूल्य )
BHIBITICISHMAHESHBHAmmmmmm
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UA नीतिक्रोिधवसीलोकव्यवहारवर्तक-सम्पा।
परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त
वर्ष १२
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली मार्गशिर वीरनि० संवत ०४.०, वि. संवत २०१०
दिसम्बर
किरण .
* श्री साधु-स्तुति * ज्ञानको उजागर सहज-सुख सागर, सुगुन-रत्नाकर विराग-रस भरयो है। सरनकी रीति हरै मरनको भै न करे, करनसों पीठि दे चरन अनुसरयो है । धरमको मंडन भरमको विहंडन है, परम नरम है के करमसौ लरयो है। । ऐसो मुनिराज भुविलोकमें विराजमान, निरखि बनारसी नमसकार करयो है॥ .
-बनारसीदास
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तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी
(श्री प्रो. एम. एस. रामस्वामी भायंगर, एम० ए०) श्रीमत्परमगम्भीर। स्याद्वादामोधनाच्छनम् । केवली) ने यह देखकरकि इन्जेनमें बारहवर्षका एकभयंका जीयात्-त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। दुर्भित होने वाला है, अपने १२... शियोंके साथ
भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुभोसे मिलकर दक्षियकी ओर प्रयाण किया । मार्गमें श्रतकेवीको ऐसा बनी है। वैदिकोंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी जान पड़ा कि उनका अन्तसमय निकट है और इसलिए सर्व पापी मनुष्यवा. एखका ज्ञानप्रकाश, अरबके पैगम्बर उन्होंने कटवपु नामक देशके पहाड़ पर विश्राम करनेकी (मुहम्मद साहब) का विकट धार्मिक जोश और संगठन माज्ञा दी। यह देश जन, धन, सुवर्ण, मन, गाय, भैस, शक्तिका विरोधी व्यापारिक प्रतिभा और समयानुसार बकरी, आदिसे सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाख मुनिको परिवर्तन शीलता, इनका सबका भारतीय जीवन पर अनु- उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौप दिया और उन्हें पम प्रभाव पवा है और भाजतक भी सारातयोंके विचारों, चोल और पारव्यदेशोंमें उसके माधीन भेजा 'राजावानकार्यों और प्राकांतामोंपर उनका प्रहश्य प्रभाव मौजूद है। कये में लिखा है कि विशाखमुनि तामिल प्रदेश में गये, नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है, राजे महाराजे बहाँ पर अन चैत्यालयों में उपासना की और वहांके निवासी विजय प्राप्त करते हैं और पदजित होते हैं; राजनैतिक जैनियोको उपदेश दिया। इसका तात्पर्य यह है कि भगवा
और सामाजिक मान्दोलनों तथा संस्थामांकी उन्नतिके दिन हुके मरण (अर्थात् २९७ ई०पू०) के पूर्वभी जैनी सुदूर माते हैं और बीत जाते हैं। धार्मिक साम्प्रदायों और दक्षिणमें विद्यमान थे। यद्यपि इस बातका उल्लेख 'राजाविधानोंकी कुछ कालतक अनुयायियोंके हृदयामें विस्फूर्ति पालथे के अतिरिक और कहीं नहीं मिलता और न कोई रहती है । परन्तु इस सतत परिवर्तनकी कियाके अन्तर्गत अन्य प्रमाणही इसके निर्णय करनेक खिये उपलब्ध होता कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान है, जो हमारे और हैं, परन्तु जब हम इस बातपर विचार करते हैं कि प्रत्येक हमारी सन्तानोंकी सर्वदा के लिए पैतृक सम्पत्ति है। प्रस्तुत धार्मिक सम्प्रदायमें विशेषतः उनके जन्म कालमें प्रचारका लेखमें एक ऐसी जातिके इतिहासको एकत्र करनेका प्रयत्न भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनु किया जायेगा, जो अपने समयमे उच्चपद पर विराजमान चित न होगाक जैनधर्मके पूर्वतर प्रचारक पार्श्वनाथके थी, और इस बात पर भी विचार किया जायेगा कि उस संघ दक्षिणकी और अवश्य गये होंगे । इसके अतिरिक्त जातिने महती दक्षिण भारतीय सभ्यताकी उन्नतिम कितना जैनियोंके हृदयोंमें ऐसे एकांत वास करनेका भाव सर्वदासे भाग खिया है।
चला पाया है। जहाँ वे संसारके मंझटोंमे दर प्रकृतिकी जैन धर्मकी दक्षिण यात्रा
गोदमें परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । अतएव ऐसे स्थाना यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जासकता कि वामिन
सानामित की खोज में जैनीलांग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये प्रदेशोंमें कब जैनधर्मका प्रचार प्रारम्भ हुमा। सुदरमें होंगे । महास प्रतिम जो अभी जैनमन्दिरों, गुफाओं और दक्षिण भारत में जैन धर्मका इतिहास लिखने के लिये यथेष्ट वस्तियांके भग्नावशेष और घुस्स पाये जाते हैं वहीं उनके सामग्रीका प्रभाव परंतु दिगम्बकि दक्षिण कानसे इस स्थान से होमे । यह कहाजाता है कि किसी देशका साहित्य इतिहासका प्रारम्भ होता है। अवय बेलगोलाके शिलालेख उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारोंका चित्र है। इसी अब प्रमाणकोटीमें परिणित हो चुके हैं और वीं शती में सिद्धान्तके अनुसार तामिल-साहित्यकी प्रन्थावलीसे हमें देवचन्द्र विरचित 'राजापलिजथे में वर्षिय हैन-इतिहास- इस बातका पता लगता है कि जैनियोंने दक्षिण भारतकी को अब इतिहासज्ञ विद्वान अंसस्य नहीं ठहराते । उपयुसामाजिक एवं धार्मिक संस्थानोंपर कितना प्रभाव दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता किसिब भववाह (भूत- खाहै।
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[किरख. तामिल प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी
[२१७
कुरत है, जिसका रचनाकार ईसाकी प्रथम शती निश्चय साहित्य प्रमाण
हो चुका है। 'कुरख' के रचयिताके धार्मिक विचारों पर समम्त तामिल साहित्यको हम तीन युगोंमें विभक
एक प्रसिद सिद्धान्तका जन्म हुमा है। कतिपय विद्वानोश कर सकते है
मह है कि रचयिता जैन धर्मावलम्बी था । अन्धकमाने (6) संघ काज।
प्रभारम्भमें किसीभी वैदिक देवकी वंदना नहीं की है कि (२) शेवनयनार और वैष्णव अलवार काल। '
उसमें 'कमलगामी' और मर गुण पुक्त' मादि मोका (३) अर्वाचीन काल ।
प्रयोग किया है। इन दोनों उक्लेखोंसे यह पता लगता है इन तीन युगामें रचित ग्रंथोंये तामिल-देशमें जैनियों
ग्रन्थ कर्ता जैन धर्मका अनुयायी था। जैनियोंके मतसे डक जीवन और कार्यका अच्छा पता लगता है।
ग्रन्थ 'एल चरियार' नामक एक जैनाचार्य की रचना है। संघ-काल
और तामिल काव्य 'नीलकेशी' को जैनी भाष्यकार समयतामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुये हैं। दिवाकर मुनि' 'कुरखे को अपना पूज्य अन्य कहता है। प्रथम संघ, मध्यमसंघ, और अन्तिम संघ । वर्तमान ऐति- यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसका यही परिणाम मिकहासिक अनुसन्धानसे यह ज्ञात हो गया है किन किन मम- लता कि यदि पहले नही तो कमसे कम साकी पहली यांके अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके १६ शतीमें जैनी लोग सदर दक्षिणमैं पहुँचे थे और वहाँकी कवियोमेंसे 'बल्लिकरार' ने संघका वर्णन किया है। उसके देश भाषामें उन्होंने अपने धर्मका प्रचार प्रारम्भ कर दिया अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण बोलकपिपर प्रथम और द्वितीय
था। इस प्रकार ईसाके अनन्तर प्रथम दो शतियांस तामिव संघोंका सदस्य था । आन्तरिक और भाषा सम्बन्धी प्रदेशोमे एक नये मनका प्रचार हुआ, जो बाद्याडम्बरोंसे प्रमाणोके आधार पर अनुमान किया जाता है कि उक रहित और नैतिक सिद्धान्त होने के कारण द्राविडियोके बाह्यण पंद्याकरण ईसास ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान होगा। लिये मनो मुग्धकारी हेमा । भागे चलकर इस धर्मने विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शही निश्चय
दक्षिण भारत पर बहुत प्रभाव डाला । देशी भाषाओंकी किया है। अन्तिम संघके समयको भाजका इतिहास उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्यो धार्य विचारों लोग ५वीं, ही शतीमें निश्चय करते है। इस प्रकार सब
और आर्य-विद्याका पूर्व प्रचार किया, जिसका परिणाम मतभेदोपर ध्यान रखते हुए ईसाकी ५वीं शतीके पूर्वसे
यह हुमा किवाविढी साहित्यने उत्तर भारतसे प्रासमधीम लेकर ईसाके अनन्तर रवीं शती तकके कालको हम संघ
संदेशकी घोषणा की। मिस्टर फ्रेजरमे अपने "भारतके काल कह सकते हैं। प्रथ हमें इस बात पर विचार करना
साहित्यिक इतिहास" ("A intenare History of है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और
Intu")नामक पुस्तकमें लिखा कि 'यह नियोंही कार्यों पर प्रकाश डालते हैं।
के प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिणमें नये प्रादणे नए साहिसबसे प्रथम 'बोलकपियर' संघ-कालका आदि लेखक माच
ल और वैयाकरण है। यदि उसके समयमें जेनीलोग कुछ भी की उपासना विधानों पर विचार कामे यह अच्छी तरहप्रसिद्ध होते तो वह अवश्य उनका उक्लेख करता, परन्तु समझमें भाजायगा कि जैनधर्मने उस देशमें से उसके ग्रंथोंमें जैनियोका कोई वर्णन नहीं है। शायद उस
जमाई। द्वाविशेने अनोखी सम्यवाकी उत्पत्तिकी थी। समय तक जैनी उस देशमें स्थाई रूपसे न बसे होंगे
स्वर्गीय श्री कनक सवाई पिल्लेके अनुसार, उनके धर्ममै अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न होगा। उसी कालमें रचे
बलिदान, भविष्यवाणी और अनन्दोत्पादक वृत्य प्रधान गये 'पथु पाह' और 'पहुथोगाई' नामक काव्योमें भी
कार्य थे । जब माझयोंके प्रथमवलने दषियमें प्रवेश किया उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपयुक ग्रन्थों में प्रामीण
और मदुग या अन्य नगरोंम वास किया तो सम्होंने इन जीवनका वर्णन है।
भाचारोका विरोध किया और अपनी वर्णव्यवस्था और
संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहाँके निवां. दूसरा प्रसिद प्रन्थ महात्मा "त्रिहवल्लुवर' रचिव सियोंने इसका कार विरोध किया। उस समय वर्णव्यव
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२१८
अनेकान्त स्था पूर्णरूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पाई थी। निम्नलिखित विवरण तामिव देश स्थित जैवियोंका परन्तु जैनियोंकी उपासना, भादिके विधान प्राह्मणोंकी मिलता है। अपेक्षा सीदे साधे लंगके थे और उनके कतिपय सिद्धान्त (१) थोसपियरके समय में जो ईसाके १५० वर्ष पूर्व 'सर्वोच्च और सास्कृष्ट थे। इस लिये द्राविडोंने उन्हें पसंद विधमान था, कदाचित् जना सुदूर दास
विद्यमान था, कदाचित् जैनो सुदूर दक्षिण देशोंमें न पर किया और उनको अपने मण्यमें स्थान दिया यहाँ तक कि पार्य अपने धार्मिक जीवन में उन्हें अत्यन्त भादर और विश्वास
(२) जैनियोंने सुदूर दक्षिणमें ईसाके अनन्तर प्रथम का स्थान प्रदान किया।
शती में प्रवेश किया हो।
(३) ईसाकी दूसरी और तीसरी शतियोंमें, जिसे करलोचरकाल
तामिन-साहित्यका सर्वोत्तमकान कहते हैं, जैनियोंने भी करके अनन्तर युगमें प्रधानतः जैमियोंकी संरचनामें
अनुपम समति की थी। वामिन-साहित्य अपने विकासको चरमसीमा तक पहुंचा। ईसाकी पांचवीं और छटीं शतियों में जैन धर्म वामिल साहित्यकी उमतिका समय वह सर्वश्रेष्ठ काल
इतना उसत और प्रभावयुक हो चुका था कि वह पायया। बह जैनियोंकी भी विद्या तथा प्रतिभाका समय था, राज्यका राजधर्म हो गया था। पर्याप राजनैतिक-सामयंका समय अभी नहीं पाया था।
शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार कालइसी समय (द्वितीय शती) चिर-स्मरणीय शिक्षादकारम्' नामक काम्यकी रचना हुई। इसका कर्त्ताचेर राजा इस कालमें वैदिकधर्मको विशिष्ट उति होनेके कारण सेंगुत्तवनका भाई 'इलंगोबदिगाल' था । इस ग्रन्थमें बौद्ध और जैनधर्मों का पासन डगमगा गया था। सम्भव जैन सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाजके विद्यालयो है कि जैनधर्मके सिद्धान्तोंका दाविती विचारों के साथ और भाचारों भादिका विस्तृत वर्णन है। इससे यह निःस- मिश्रण हानस एक एसा विचित्र दुरगा मत बन । देह सिद्ध कि उस समय तक अनेक द्वाविहांने जैन
जिसपर चतुर ब्राह्मण प्राचार्योंने अपनी बाण-वर्षा की होगी। धर्मको स्वीकार कर लिया था।
कट्टर अजैन राजाओंके आदेशानुसार, सम्भव है राजकर्मसाकी तीसरी और चौथी शतियों में तामिलदेशमें जैन
चारियोंने धार्मिक अत्याचार भी किये हों। भर्मकी दया जामनेके जिवे हमारे पास काफी सामग्री नहीं
किसी मतका प्रचार और उसकी उमति विशेषतः है। परन्तु इस बातके ययेष्ठ प्रमाण प्रस्तुत हैं कि रवीं
शासकोंकी सहायता पर निर्भर है। जब उनकी सहायता रातीके प्रारम्भमें जैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिये बड़ाही
द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष उस मतसे अपना उत्साहपूर्ण कार्य किया।
सम्बन्ध तोर लेते हैं। पल्लव और पाण्ड्य-सम्राज्यों में जेन'दिगम्बर दर्शन' (दर्शन सार) नामक एक जैन थमें
है धर्मकी भी ठीक यही दशा हुई थी। इस विषयका एक उपयोगी प्रमाण मिलता है। उक्त प्रन्य
इस काल (श्वों शतोके उपरान्त के जैनियोंका वृत्तांत में लिखा है कि सम्बत् १२ विक्रमी (४७० ईसवीं में
सेक्किनलार नामक लेखकके ग्रन्थ 'पेरिय पुराणम्' में पूज्यपादक एक शिष्य बज्रनन्दी द्वारा दक्षिण मधुरामें एक
मिलता है। उक्त पुस्तकमें शैवनयनार और अन्दारनम्बीके प्रविष-संघकी रचना हुई और यह भी लिखा है कि उक- जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रांकी संघ दिगम्बर जैनियोंका मा जो दक्षिण में अपना धर्मप्रचार रचना की है। करने भाये थे।
विज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पड़ते हुए एक उपयोगी यह निश्चय कि पायल राजावोंने उन्हें सब प्रकार ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मावलम्बी से अपनाया। लगभग इसी समय प्रसिद्ध 'बदियार' कुन् पायडको शैवमतानुयायी किया। यह बात ध्यान देने बामक ग्रन्थकी रचना हुई और ठीक इसी समय में बामणों योग्य है। क्योंकि इस घटनाके प्रनम्तर पापड्य नृपति और नियोंमें प्रतिस्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। जैनधर्म अनुयायी नहीं रहे। इसके अतिरिक जैनी
इस प्रकार इस संघकालमें रचित प्रन्यों मापार पर लोगोंके प्रति ऐसी निष्पुरता और निर्दयताका व्यवहार
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हिन्दी जैन-साहित्यम तत्वज्ञान
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किया गया, जैसा कि दक्षिण भारतके इतिहासमें और कभी की शरण ली, जिन्होंने उनकार तथा पालन किया नहीं हुमा । सभाण्डके घृणाजनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक यद्यपि प्रब जैनियोंका राजनीतिक प्रभाव नहीं रहा, और दश पथमें जैनधर्मकी भर्सना थी. यह स्पष्ट हो जाता उन्हें सब पोरसे पल्लव पापा और चोल राज्यवाले तंग है कि बमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी।
करते थे, तथापि विधामें उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई। प्रतएव कुन-पाययका समय ऐतिहासिक रष्टिने चिन्तार्माण' नामक प्रसिद्ध महाकायकी रचना तिच्या ध्यान रखने योग्य है, क्योंकि उसी समयस दक्षिण भारतमें कोबर द्वारा नवीं शती में हुई थी। प्रसिद्ध तामिल-बैया जैनधर्मकी अवनति प्रारम्भ होती है। मि० टेलरके अनु- करण पविनान्दजैनने अपने नन्नन' की रचना ११२५ । सार कुन-पारख्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, ई. में की। इन प्रन्यांके अध्ययनसे पता लगता है कि परन्तु डा. काल्डवेल १२९२ ईसवी बताते हैं। परन्तु जैनी लोग विशेषतः मैलापुर, निदुम्बई ( विपंगुदी शिवालेखांसे इस प्रश्नका निरय हो गया है। स्वर्गीय (तिरुवलुरके निकट एक ग्राम ) और टिबडीवनममें निवाश्री वेंकटयाने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६२४ ई. स करते थे में पल्लवराज नरसिंह वर्मा प्रथमने 'वातापी' का विनाश
अन्तिम प्राचार्य श्री माधवाचार्यके जीवनकालमें किया
मुसलमानाने दक्षिण पर विजय प्राप्त को, जिसका परिणाम शतीके मध्यम निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि
यह हुआ कि दक्षिण में साहित्यिक, मानसिक और धार्मिक संभाण्ड एक दूसरे जैनाचार्य तिरुननकरमार' अथवा लोक
उन्नतिका बड़ा धक्का पहुंचा और मूतिविध्यसकोंके प्रत्याप्रसिद्ध अय्यारका समकालीन था परन्तु संभाण्ड 'अय्यर'
चारों में अन्य मतालम्बियोंके साय जानियोंको भी पर
मिना । उस समय जैनियोंकी दशाका वर्णन करते हुये से कुछ छोटा था। और अय्यरने नरसिहवर्माके पुत्रका
श्रीयुत वार्थ सा.लिखते हैं कि 'मुसलमान साम्राज्य तक जैनीस शैव बनाया था। स्वय अय्यर पहले जैनधर्मकी शरणमें पाया था और उसने अपने जीवनका पूर्वभाग
जनमतका कुछ का प्रचार रहा । किन्तु मुसजिम साम्राज्य
__का प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दू-धर्मका प्रचार रुक गया, प्रसिद्ध जनविद्याके तिरुपदिरियुनियारके विहारांमें ज्य
और यद्यपि उसके कारण समस्त राष्ट्रको शर्मिक, राजतीत किया था इस प्रकार प्रसिद्ध बाह्मण प्राचार्य संमाएर और अय्यारके प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय पश्चात् -
मैतिक और सामाजिक अवस्था अम्तम्यस्त हो गयी।
तथापि माधारण अल्प संस्थानों. समाजों और मतोंकी अपने स्वामी तिनकायको प्रसन्न करनेके हेतु शैवमतकी दीपा ले ली थी पाण्ड्य और पल्लव राज्योंमें जैनधर्मकी
दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी उम्नति और अवनतिक उमतिको बड़ा धक्का पहुंचा। इस धार्मिक संग्राममें शेवा
इस साधारण वर्णनका यह उहेश र दक्षिण भारतमें को वैष्णव अलवारांस विशेषकर 'तिकमजिसप्पिरन'-और
सांप्परन'-और प्रसिद्ध जैनधर्मके इतिहासका वर्णन नहीं है। ऐसे हति
न तिरूमंगई' अलवारमं बहुत सहायता मिली जिनके
जिनक हाल लिखनेके लिए यथेष्ट सामग्रीका अभाव है। उत्तरकी भजनी और गीतों में जैनमत पर घोर कटाक्ष है। इस प्रतिनिया भारत के भी साहित्य में राजनैतिक तिहासका प्रबार तामिल देशों में नम्मलवारके समय (१०वीं शती
बहुत कम उल्लेख है। ई.) जैनधर्मका मास्तित्व सङ्कटमय रहा।
हमे जो कुछ ज्ञान उस समयके जैन इतिहासका है प्राचीन काल
वह अधिकतर पुरातत्ववेत्तामों और यात्रियाके लेखोंसे नम्मलवारके अनन्तर हिन्दू-धर्मके उन्नायक प्रसिद्ध प्राप्त हना है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके अतिरिक्त प्राचार्योंका समय है। सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए जिन- वैदिक ग्रन्थोंसे भी जैन इतिहासका कुछ पता लगता है. का उत्तरकी ओर ध्यान गया। इससे यह प्रगट है कि परन्तु वे जैनियोंका दर्शन सम्भवतः पक्षपानके माथ दक्षिण-भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति हो हो चुकी थी। तथा जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध इस लेखका यह देश नहीं है कि जैन समाजके माजैनस्थानों प्रवणबेलगोल (मैसूर ) टिरिडवनम्- चार विचारों और प्रयामोंका वर्णन किया जाय और न (दक्षिण अरकाट) माविमें जा बसे । कुछने गंग राजामों- एक लेख में जैन गृह-निगण-कसा, मादिका ही वर्णन हो
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२२. ]
अनेकान्त
[किरण.
सकता है परन्तु इस लेखमें इस प्रश्न पर विचार करनेका एक दो शब्द कहना उचित होगा । गत मनुष्य-गणना प्रयत्न किया गया है कि जैन धर्मके चिर सम्पर्कसे हिन्द अनुसार सब मिलाकर २०००. गैनी इस प्रान्तमें थे, समाज पर क्या प्रभाव पड़ा।
, जिनमेंसे दक्षिण कनारा, उत्तर और दक्षिण कर्नाटक नीबोगरविन और ग्रंथोंक रचयिता थे।वे जिलोंमें २३...हैं। इनमेंसे अधिकतर इधर-उधर फेजे साहित्य और कलाके प्रेमी थे। जैनियोंकी तामिल हुए हैं और गरीब किसान और प्रशिक्षित हैं। उन्हें अपने सेवा तामिल देश वासियोंके लिये अमूल्य है । तामिल- पूर्वजोके अनुपम इतिहासका निकभी बोध नहीं है। उनके 'भापामें संस्कृत के शब्दोंका उपयोग. पहले पहल सबसे उत्तर भारत वाले भाई जो मादिम जैनधर्मके अवशिष्ट अधिक जैनियांने ही किया। उन्होंने संस्कृत शब्दोंको चिन्ह हैं उनसे अपेक्षाकृत अच्छा जीवन व्यतीत करते है वामि भाषामें उच्चारणकी सुगमताको इष्टिसे उनमेंसे अधिकांश धनवान् व्यापारी और महाजन हैं। यथेष्ट रूपमें बदल डाला । कम्नर साहित्यकी उत्पतिमें दक्षिण भारतमें जैनियाको विनष्ट प्रतिमाएं', परित्यक्त जैनियोंका उत्तम योग है। वास्तव में ही इसके जन्मदाता गुफाएं और भग्न मन्दिर इस पातके स्मारक है कि प्राचीन थे । 'बारहवीं शतीके मध्य तक उसमें जैनियों दीकी संपत्ति काल में जैनसमाजका वहां कितना विशाल विस्तार था थी और उसके अनंतर बहुत समय तक जैनियों ही की और किस प्रकार ब्राह्मणोंको स्पर्धाने उनको मृत प्राय कर प्रधानता रही। सर्व प्राचीन और बहुतसे प्रसिद्ध कर दिया। जैन समाज विस्मृतिके अंचल में लुप्त हो गया, ग्रन्थीमियाही के रचे हैं। (लुइस राइस) श्रीमाम् पादरी उसके सिद्धान्तो पर गहरी चोट लगी, परंतु दक्षिणमें जैनएफ-किटेल कहते हैं कि जैनियोंने केवल धामिक भाव- धर्म और वैदिकधर्मके मध्य जो कराल संग्राम और रक्तनामोंसे नहीं किन्तु साहित्य-प्रमके विचारसे भी कबर पात हुघा वह मथुरामें मीनाक्षो मंदिरके स्वर्ण कुमुद सरोभाषाकी बहुत सेवा की है और उक भाषा में अनेक संस्कृत वरके मण्डपकी दीवारों पर अङ्कित है तथा चित्रोंके देखनेसे शब्दोका अनुवाद किया है।
अबभी स्मरण हा आता है। अहिंसाके उच्च प्रादर्शका वैदिक संस्कारों पर प्रभाव
इन चित्रोंमें जैनियोंके विकराल-शत्रु निरुज्ञान संभायड पड़ा है जैन उपदेशोंके कारण ब्राह्मणोंने जीव-बलि-प्रदान- के द्वारा जैनियोंके प्रति अत्याचारों और रोमांचकारी यातको विक्कुल बन्द कर दिया और यज्ञोंमें जीवित पशुओंके
नाओंका चित्रण है। इस रौद्र काण्डका यहीं अंत नहीं है।
मयूरा मंदिरके बारह वार्षिक त्यौहारों से पांच में यह हृदय दक्षिण भारतमें मूर्तिपूजा और देवमन्दिर निर्माणको
विदारक दृश्य प्रतिवर्ष दिखलाया जाता है। यह मोचकर प्रचुरताका भी कारण जैन धर्मका प्रभाव है। शैव-मंदिरों में
शोक होता है कि एकांत और जनशून्य स्थानों में कतिपय महामाभोंकी पूजाका विधान जैनियों ही का अनुकरण जैन महात्मात्री और जैनधर्मकी वेदियों पर बलिदान हुए है। द्वाविदोको नैतिक एवं मानसिक उन्नतिका मुख्य
महापुरुषोंकी मूर्तियों और जन प्रतियोंके अतिरिक्त. दक्षिण
मार.. कारण पाठशालाभोंका स्थापन था, जिनका उद्देश्य जैन
भारतमें अब जैनमतावलम्बियोंके उच्च उद्देश्यो, सर्वाङ्गविद्यालयोंके प्रचारक मण्डलोंको रोकना था।
ग्यापी उत्साही और राजनैतिक प्रभावके प्रमाण स्वरूप उपसंहार
कोई अन्य चिन्ह विद्यमान नहीं है। मद्रास प्रान्तमें जैन समाजकी वर्तमान दशा पर भी
(वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ से)
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संशोधन
मुख्तार श्री जुगजकिशोर जी को अनुपस्थिति में उनका ... प्रौप्यमें धौव्य ये "समयसारकी' १५वी गाथा श्रीकानजी स्वामी" नामक , १६ रहते हैं रहते हैं, अलग अलग रूपमें खेख गत किरणमें प्रेसादिको असावधानीके कारण कुछ
येण्य (सत्-'के कोई खपण मण्ड छप गया है 'जिपका भारी खेद है। अतः विराम
नहीं होते और इसखिये दोनों चिन्हों, हाइफनों तथा विन्दु विसर्गादिको ऐसी साधारण
मूलनय अशुद्धियोंको छोड़कर पिाठक महजमें अवगत कर , का० ३. बोधको बिरोधको सकते हैं। दूसरी कुल मर्यालय का संशोधन नीचे दिया ।, २५ महितीस है पवितीय हैजाता है। पाठकजन अपनी-अपनी अनेकान्त' प्रतियोंमे .., ३६,३७ अकल्पित एवं प्रतिष्ठित (अकस्पित एवं उन्हें ठीक कर लेनेकी कृपा करें । साथ ही, पृष्ठ १८४के
प्रतिष्ठित) अन्त में 'शेष पृष्ठ २०६ पर' और पृष्ठ २०६के प्रारम्भमें , ३ मांस (मंच'पृष्ठ १८४ से भागे' ऐसा किटके भीतर बना लेव:
वाली
वाला पृष्ठ, पंक्ति
... . शासन सह शासनारूढ अशुद्ध शुद्ध १७८, ३३ क्रभंग
,
अवस्था क्रमभंग
२४ अवस्थामें कमसे कमसे कम
२१०.का०२.१८ पांच जो पांच १८० २५ असत्य असह्य
इसी वरह श्रीकानजी स्वामी 'जिनशासन नामक १८१ ३३ कल्पना भी कल्पना थी)
प्रवचन लेखके छपनेमें भी कुछ अशुद्धियों हो गई है जिनमें १८५ २८ . १ १४१
से बिन्दु विसर्गादिकी बैसी साधारण अशुद्धियोंको भी
कब कर शेष प्रदियोंका संशोधन नीचे दिया जाता है। १८३ ३७ जिएवरेहिं जियवरेहिं ११८
उम अशुद्धियोंको भी पाठक अपनी अपनी प्रतियों में ठोक ,का.२, जीविद जीवदि
कर लेनकी कृपा करें:,,, २३ जिसके जिनक ,,२५.२५ सम्बन्ध
जिमझासन जनशासन १८५४ भवत्री भगवश्रो
" का. २, ४ जिनशासन हो जैनशासन हो
जैनधर्म! जैनधर्म है १३ साथ रहा साथ
विज्ञावधर्म विज्ञानधन १६ समयका संयमका
विकारको विकारकी २८ परिशिष्टमें परिशिष्ठों
प्रधावतामें प्रधानतामें , ३३ अन्तः अन्त
वीतरागता का.२,२ न्यायके न्यायको
२१२का०२,
निमित्त निमित्तसे " निश्चय निश्चयनय
उसीने उसीने जैन . अनुवयपण अनुप्पण
शासनको देखा ४ पडिक्क पाढिक्क
है और वही , । विशेष
(विशेष)
पंक्ति
,, १८
जकि
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अतिशय क्षेत्र हलेविड के
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23.
श्रीपाश्वनाथजिन इस मन्दिरमें कसौटीके बहुमूल्य खम्भे लगे हुए हैं। यह मन्दिर बना ही सुन्दर बना हुआ है। इसका विशेष परिचय हमारी तीर्थ यात्रा
संस्मरण नामक लेखमें दिया जावेगा।
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हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान
(लेखिका-कुमारी किरणवाला जैन) प्रत्येक प्राणीके शरीरके साथ प्रात्मा नामको निस्य कर्म-परमाणुभोंमेंसे प्रति समय कर्मवर्गबामोंकी निर्जरा वस्तका सम्बन्ध है। परन्त फिर भी मामा और शरीर होती रहती है अर्थात पुराने कर्म अपना फल देकर मार दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। पारमा अनन्त गुणोंका पुज, जाते हैं और नवीन कर्म रागादि भाकि कारण बन्धनप्रकाशमान है, तथा चैतन्य ज्योतिर्मय है, अविनाशी है रूप होते हैं।
और अजर, अमर है शरीर अचेतन एवं जब पदार्थ है। नामनाशवान है और वह पौदलिक कर्म-परमाणुषोंसे
मनमाड भेद बताये गये है-1.ज्ञानावरबीय, २. निर्मित हुआ है । गलना और पूर्ण होजाना इसका
दर्शनावरणोब. ३. वेदनीय, .. मोहनीय, १. पाहु, स्वभाव है।
६. नाम, .. गोत्र और 5. भवराव । विश्व में जो सुग्व-दुख, सम्पत्ति-विपत्ति मादि अव ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञान भास्माका निजगुण है। स्थायें आती हैं उनका कारण कर्म है। शुभकर्मोंका फल प्रास्मा और ज्ञानका अभेद सम्बन्ध है। ज्ञानावरणीयकर्म शुभ और अशुभकर्मों का परिणाम अशुभ होता है। प्रारमाके ज्ञानगुखको मन्द करता है उसे आच्छादित या जीवास्मा जैसे-जैसे कर्म करता है उसका वैमा वैसा ही फल विकृत बनाता है। इस कमके योपशमसे मानव में ज्ञानका मुगतना पड़ता है । जोवारमाके साथ कर्म-पुद्गलोका क्रमिक विकास होनाधिक रूपमें होता रहता है। जीवात्मा. सम्बन्ध अनादिकाबसे है । जीव-प्रदेशांके साथ कर्म-प्रदेशो में ज्ञानशक्तिका जो तरतम रूप देखने में आता है वह सब का एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है। उसके योपरामका ही फल है। इस कर्मके योपशम में यह कर्मबन्ध ही सुख-दुख रूप परम्पराका जनक है। ज्यों-ज्यों निर्मलता बढ़ती जाती हैत्यों-स्यों ज्ञानका विकास बन्धन ही परतन्त्रता है। और परतन्त्र या पराधीन होना भी निर्मल रूप में होता रहता है और जब उस भावरण ही दुःख है। श्राज विश्वमें हम जो कुछ भी परिवर्तन या कर्मका सर्वथा अभाव या पय हो जाता है तब मात्मा सुख दुखाद रूप अवस्थामोको देखते हैं या उन विविध पूर्ण ज्ञानी बन जाता है। और उस ज्ञानको अनन्तज्ञान अवस्थाओंमें समुत्पन्न जीवोंको उन दुःखपूर्ण अवस्थाओंका या केवलज्ञान कहा जाता है। इस कर्मसे मुक होने पर अवलोकन करते हैं। तब हमें यह स्पष्ट अनुभबमें प्राता आत्मा अनन्त ज्ञानसे युक्त होता है। है कि यह संसारके सभी प्राणी स्वकीयोपार्जित कर्मबन्धन- दर्शनावरणीयकर्म-दर्शन भी पास्माका गुण है। से ही परतन्त्र होकर दुखके पात्र बने हैं।
दर्शनगुणका भाच्छादन करनेवाला कर्म दर्शनावरणीय विश्वमें अनन्त कर्म-परमाणु भरे हुए है। जब कहलाता है। इस कर्मका उदय भास्मदर्शनमें रुकावट मात्माकी सकषाय मय मन-वचन-काय रूप योग प्रवृत्तियांसे डालता है, अथवा दर्शन नहीं होने देता, जैसे ब्यौदी पर मात्मप्रदेश सकम्प एवं चंचल होते हैं तब मारमा अपनी बैठा हुमा दरवान राजाके दर्शन नहीं करने देता। इसी सराग परिणतिसं कर्मबन्ध करता है यह कर्मबन्ध नवीन कर्मके सर्वथा प्रभावसे पारमा अनन्त दर्शनका पात्र नहीं हुमा किन्तु अनादिकालसे है। जिस तरह खानसे बनता है। निकले हुए सुवर्ण पाषाणमें सोना किसीने भाजतक नहीं वेदनीयकर्म-जो सुख-दुखकी सामग्री मिलाकर सुखरस्खा, किन्तु जबसे खानमें पाषाण तभीसे उसमें सोना दुख रूप फल भोगनेमें अथवा बेदन (अनुभव) में निमित्त भी विद्यमान है। इसपे सुवर्ण पाषाणकी अनादिता स्वयं होता है । अनुकूल सामग्रीकी प्राप्तिसे सुख और प्रतिरक्षा सिद्ध है। इसी तरह पात्मा और कर्म हरे-गुदे थे, बादमें सामग्रीकी प्राप्तिसे दुलहोता है। किसोने प्रयत्न करके इन्हें मिलाया नहीं, किन्तु अनादिसे मोहनीयकर्म-पहकर्मभदा और पारित गुणकापातक जीवास्माके साथ कर्मका सम्बन्ध बन रहा है बम्पन युक है।यह जीवको मदिराके समान उम्मच करवा अवमा मम
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२२४ ]
अनेकान्त
[किरण.
डालता है। राग, द्वेष क्रोध और मानादि विभाव उत्पल चक्री ऊँच नीच धरे, भूप दियो मने कर, करता है। शान्त भाव व सच्चे विश्वाससे भ्रष्ट करता है। एई पाठ कर्म हरै सोई हमें तारे है। मोह मास्माका प्रबल शत्रु है। परपदार्थों में ममताका होना यह कर्मबन्ध चार भेदोंमे विभक्त है प्रकृतिवन्ध, मोह है। इसका जीतना सहज नहीं है । जो इसे जीत स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभागबन्ध । क्योंकि इन लेता है वही संसारमें महान एवं पूज्य बनता है। चारों भेदोंका मूल कारण कषाय और योग है। प्रकृति
मायुकर्म-कर्म जीवोंको सरीरके अन्दर रोक और प्रदेश रूप भागोंका निर्माण योग प्रवृत्तिसे होता है कर रखता है। जैसे अवधि समाप्त होने तकबन्दीको और स्थिति तथा अनुभाग रूप अंशोंका निर्माण कषायसे कारागृहमें रक्खा जाता है और अवधि समाप्त होनेके होता है। प्रकृतिबन्ध-कर्म पुद्गलोंमें ज्ञानको भावृत पश्चात् उसे मुक्त कर दिया जाता है।
करने अथवा ढकने, दर्शनको रोकने, सुख दुखका वेदन मामकर्म-यह कर्म जीवोंके शरीरकी चित्रकारकी
कराने,मात्मस्वभावको विपरीत एवं अज्ञानी बनाने आदिवरह अनेक तरहकी अच्छी बुरी रचना करता है। और
का जो स्वभाव बनता है वह सब प्रकृतिसे निष्पन्न होनेके मात्माके अमूर्तस्व गुणका घात करता है।
कारण प्रकृतिबन्ध कहलाता है। स्थितिबन्ध -बनने
वाले उप स्वाभावमें अमुक समय तक विनष्ट न होनेकी गोत्रक-यह कर्म प्रास्माका माननीय व निन्दनीय
जो मर्यादा पुद्गल परमाणुओंमें उत्पन्न होती है उसे कुल में जन्म कराता है, तथा उसके प्रभावमे हम जगत में
कालकी मर्यादा अथवा स्थितिबन्ध कहा जाता है। अनुऊंच व नीच कहे जाते हैं। वास्तवमें हमारा अच्छा बुरा
भावबन्ध-जिस समय उन पुद्गल परमाणुभोंमें उक्त पाचारण ही ऊँचता नीचताका कारण है। हम अपने
स्वभाव निर्माण होता है उसके साथ ही उनमें हीनाधिक भावोंसे जैसा आचरण करेंगे, उसीके परिपाक स्त्ररूप
रूपमें फल दान देनेकी विशेषताओंका भी बन्ध होता है ऊँचा नीचा कुल प्राप्त करते हैं।
उनका होना ही अनुभागबन्ध कहलाता है। प्रदेशबंधअन्तरायकर्म-चाहे हुए किसी भी कार्य में विघ्न कर्मरूप ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणुनामें भिन्न भिन उपस्थित हो जाता है, इस कर्मके उदयसे हमारे कामों में- नाना स्वभाव रूप परिणत होने वाली उम कर्मराशिका दान, बाम, भोग, उपभोग और वीर्य बादि कार्योय
अपने अपने स्वभावानुसार अमुक अमुक परि बाधा पहुँचाता है। इसके उदयसे जीवात्मा अपने अभि-
माणमें अथवा प्रदेश रूप में बंट जाना प्रदेशबन्ध
पो तषित कार्यों को समय पर करने में समर्थ नहीं होता है। कमाता है। इन कोंके द्वारा प्रारमा सदा परतन्त्र और बंधन
कोंकी इन आठमुल प्रकृतियोंको दो भागों अथवा युत रहता है। और इन कर्मों के सर्वथा क्षय हा भेदों में बांटा जाता है-१. घातिया २. अवातिया । जाने पर पारमा भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है-परब्रह्म जानावरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय, और अन्तराय परमात्मा हो जाता है। और अनन्तकाल तक वह अपने कामको धातियाकर्म कहते हैं, क्योंकि ये चारों ही कर्म
कि मुखमें मग्न रहता है और वहांस कभी भी फिर प्रारमा निज स्वभावको विगाड़ते है-उमे प्रगट नहीं वापिस नहीं पाता। कविवर द्यानतरायजीने प्रष्ट कमौके
होने देते। वेदनीय, नाम, गोत्र, और प्रायु इन चार स्वरूपका कथन करते हुए उनके रहस्यको पाठ प्रान्तों
कर्मीको अधातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये जीवके निज द्वारा व्यक्त किया है
स्वभावको घातियाकी तरह बिगाइते तो नहीं हैं किन्तु देवप परयो है पट रूपको न ज्ञान होग
उनमें विकृति होनेके वाघ माधनोंको मिलाने में निमित्त जैसे बरवान भूप देखनो निवार है।
होते हैं। इन मष्टकों में मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है बहद बपेटी असि धारा सुख दुक्खकार,
और भास्माका शत्रु है। इसके द्वारा अन्य धातिया काम मदिराज्यों जीवनको मोहनी विथार है।
शक्तिका संचार होता है। इन्द्रियाँ विषयोंकी और विशेष काठमें दियो है पांव करे थिति को सुभाव,
रूपसे प्रवृत्त होती हैं। यह जीव इन विषयोंसे निरत रह चित्रकार नाना भांति चीतके सम्हार है।
कर भ्रमवश दुखको भी सुख मानता है। कविवर बनारसी
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करण
हिन्दी जैन-साहित्य में तत्वज्ञान
[२२५
दापजोने अपन नाटसमयसारमें ऐसे व्यक्तिकी अवस्था- कबहूँ फारै, कबहूँ जोये, कबहूँ खोसे. कबहूँ नया पहिरावे का वर्णन करते हुए कहा है
इत्यादि चरित्र करे । बहबाढला तिसकों अपने बाधीन 'जैसे कोर कुकर शुधित सूके हाद चावे, मान वाकी पराधीन क्रिया हो खाते महा खेद खिल होष हानिकी कोर चहुँ ओर चुभै मुखमें। तैसें इस जीवकों कर्मोदय- शरीर सम्बन्ध कराया । यह गाव तालु रसना मसूदनिको मांस फाटे,
जीव तिस शरीरकों एक मा, सौ शरीर कर्मक बाधीन, चाटै निज रूधिर मगन स्वाद-सुखमें । कबहूँ कृश होय कबहूँ स्थूल होय, कबहूँ नष्ट होय, कई तेसैं मूढ़ विषयी पुरुष रति रीति ठाने, नवीन निपजै इत्यादि चरित्र होव। यह जीव तिसकों तामै चित्त साने हित मानै खेद दुःखमें । अपने प्राधीन जाने वाकी पराधीन क्रिया होय ताते महा देखे परतच्छ बल-हानि मल-मूत खानि, खंद खिन्न होय है।' गहे न गिनानि रहे राग रंग रुखमें ॥३०॥
इस माह के फन्देमें फंसा हुमा प्रभागा जीव अपने पंडित दोपचन्दजो शाहने भी अपने 'अनुभवप्रकाश
। भविष्यका कुछ भी ध्यान न रख इन्द्रियोंके आदेशानुसार
प्रवंतन करता हैमें ऐसे व्यक्किके लिये इसीसे समता रखते हुए भाव प्रकट
'कायासे विचारि प्रीति मायाहीमें हार जीत ___"जैसे स्वान हादको चावै, अपन गाल, तालु मसूढेका लिये हठ, रीति जैसे हारिलकी लकरी। रक्त उतरे, ताकौं जानै भला स्वाद है। ऐसे मूढ़ भाप चंगुलके जारि जैसे गोह गहि रहे भूमि, दुःखमें सुख कर है । परफंदमें सुखकन्द सुखमाने । स्यों ही पाय गाडे पै न छांडे टेक पकरी ॥ अग्निकी माल शरीरमें लागै, तब कहै हमारी ज्योतिका
मोहकी मरोरसों भरमको न और पावै, प्रवेश होय है। जो कोई अग्नि मालक बुकावे तामों धावै चहुँ ओर ज्यों बढ़ावै जान मकरी। जरै । ऐसें परमैं दुःख संयोग, परका बुझावै, तासौ शत्रकी
ऐसी दुरबुद्धि भूलि झूठके झरोखे मूलि, सी रष्टि देखै । कोप करें। इस पर-गोगमें भोगु मानि
फूली फिरै ममता जंजीरनसों जकरी ॥३७॥। भूल्या, भावना स्वरसकी याद न करै । चौरासीमें परवस्तु
विशेषतः बंधके पांच कारण हैं-1. मिथ्यात्व, कौ पापा माने, ताते चोर चिरकाबका भया। जन्मादि २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय, तथा ५. योग । दुख-दबह पाये तोहू, चोरो परवस्तुकी न छूट है। देखो!
मिथ्यात्व-अपनो पास्माका और उससे सम्बन्धित देखा भूखि तिहुँ लोकका नाथ नीच परकै भाधीन भया ।
अन्य पदार्थों का भी यथार्थ रूपसे प्रदान न करने, या अपनी भूलिते अपनी निधि न पिलाने । भिखारी भया विपरीत श्रदान करनेको मिथ्यात्व कहते हैं। उसमें फंसे डाले है निधि चेतना है सो पाप है।दरि नाही. देखना हुये प्राणीको वस्तुक यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती। दुर्लभ है। देखें सुलभ है ॥४०,४॥
अविरति-दोष रूप प्रवृत्तिको अविरति कहते हैं। 'मोक्षमार्गप्रकाशमें' पण्डित टोडरमल्लजीने मोहमे अथवा
हो अथवा षट् कायक जीवोंकी रक्षा करनेका नाम अविरति
है। अविरतिके १२ भेद है। उत्पन्न दुःखका निम्नलिखित रूपसे वर्णन किया है
प्रमाद अपनी अनवधानता या असावधानीको कहते 'बहुरि मोहका उदय है सो दुःख रूप ही है। कैसैं ,
है। उत्तमक्षमा, मार्दव, मार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, सोकहिये है:
त्याग, पाकिंचन, और ब्रह्मचर्य पालनमें चारित्र, गलियां, 'प्रथम तो दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है
समितियां इत्यादि पाध्यात्मिक प्रवृत्तियोंके समाचरण ताकरि जैसे या महान है तैसे तो पदार्थ है नाहीं जैसे
करने में जो वस्तुयें बाधायें उपस्थित करती है वे प्रमाद पदार्थ है तैसे यह मान नाही, वाते याके पाकुलता ही रहे।
कहलाती है। प्रमादके साढ़े तीस हजार भेद है, पर मूत जैसे बाउलाको काहूने वस्त्र पहिराया, वह पाउला तिस।
१५ भेद हैं, और चार कषाव, चार विकथा, पांच वस्त्रको अपना अंग जानि प्रापई पर शरीरकों एक
इंद्रियां, निद्रा और स्नेहमाने। वह वस्त्र पहिरावने बालेके प्राचीन , सो वह कवाय-जो मामा को कषे अथवा दुख देउसे • अनुभव प्रकाश पू.१०-11 .
ना. समयसार पू. xमोच. प्रकाशका ६५-७.
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२२६
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अनेकान्त
[किरण
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कषाय कहते है यह कषाय ही पन्ध परिणतिका मूल भिनवेश रक्षित जीवादि तत्वार्थका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका कारबाहै।
लक्षण है। जीव, भजीव, माधव, बंध, संवर, निर्जरा, योग-योगके अनेक दार्शनिकोंने मित-मित्र अर्थ
मोक्ष यह सात तस्वार्थ है इनका जो श्रद्धान 'ऐसे ही है स्वीकार किये हैं। जैन-दर्शन उनमेंसे एकसे भी सहमत
अन्यथा नाहीं ऐसा प्रतीत भाव सा तवार्यश्रद्धान है नहीं है। वह मानता है कि मन, वचन, कायक, निमित्रसे
बहुरि विपरीताभिनवेशका निराकरणके अर्थि 'सम्यक होने वाली पात्म-प्रदेशोंकी चंचलताको योग कहते हैं।
पद कहा है । जाते सम्यक्' ऐसा शब्द प्रशंसा वाचक इस रष्टिसे जैन दर्शनमें योग शब्द अपनी एक पृथक परि
है। सो श्रद्धान विषय विपरीताभिनवेशका प्रभाव भये भाषा रखता है, बोगके ।। मेद है-चार मनोयोग, चार
ही प्रशंसा संभव है। ऐसा जानना"," बचनयोग और सास काययोग।
सम्यग्ज्ञान-पदार्थके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान इन कौके बन्धनसे सर्वथा मुक होना ही मोष है।
है अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानना इन कर्मोसे मुक्त होनेके तीन प्रमोघ उपाय है-1. सम्य
सम्यग्ज्ञान कहलाता है। दर्शन, सम्मज्ञान और सम्यग्चारित्र । अचार्य श्री उमा
सम्यग्दर्शनके पश्चात् जीवको सम्यग्ज्ञान-की उत्पत्ति स्वामीने इन कोंकी परतन्त्रतासे छूटनेका सरल उपाय
होती है। अर्थात् जीवात्मा उपादेय है और और उससे बतलाते हुए लिखा है कि-'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारि
भित समस्त पदार्थ हेय है। इस भेद-विज्ञानकी भावना प्राणि मोचमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी
उत्पन्न हो जाने पर ही प्रास्माको जो सामान्य या विशेष
- एकताही मोजका मार्ग है। अथवा इन तीनोंकी एकताही ज्ञान होता है वह यथार्थ होता है उसीको सम्यग्ज्ञान मोषमार्गकी नियामक है। इन तीनोंमेंसे एकका प्रभाव हो कहते हैं। जाने पर मोचके मार्ग में बाधा पड़ती है। श्रीयोगीचन्द्रदेव सम्यग्चारित्र पापकी कारणभूत क्रियानोंसे विरक्त लिखते है
होना सम्यग्चारित्र है। सम्यग्ज्ञानके साथ विवेक पूर्वक 'सब भूमि बाहिरा जिय वयरुक्खण होति' अर्थात् विमाव परिणतिसे विरक्त होनेके लिए सम्यग्चारित्रकी सम्यग्दर्शन रूपी भूमिके बिना हे जीव व्रत रूपी वृक्ष माती HIT गनवयकी पाणि नहीं होता। सम्बग्दर्शन-तत्वोंके श्रद्धानको अथवा जीवादि
मोपका मार्ग है-मांतको प्राप्तिका उपाय है उसीकी प्राप्तिपदार्थोक विश्वासको कहते हैं। प्रज्ञान अंधकारमें बीन का हमें निरन्तर उपाय करना चाहिए । सम्यग्दर्शन और
का सम्यग्ज्ञानके साथ जीवात्मा बम्बनसे मुक्त होनेके लिये है उन्हें अपने मानता है। और उनसे अपना सम्बन्ध
यथार्थप्रवृत्तियाँ करने में समर्थ और प्रयत्नशील होता है। जोड़ता है परन्तु विवेक उत्पन होने पर वह उनको हेय उसका वहा प्रवृत्तिया सम
उसकी वही प्रवृत्तियाँ सम्यग्चारित्र कहलाती है। पारमाअर्थात् अपनेसे पृथक समझने लगता है।सी भेद-विज्ञान की निर्विकार, निलेप, अजर, अमर, चिदानन्दघन, कैवरूप प्रवृचिको सम्यग्दर्शन कहते हैं। समीचीनष्टि या
ज्यमय, सर्वथानिदोष और पवित्र बनानेके लिए उपयुक सम्यग्दर्शन हो जानेके बाद जीवकी विचारधारामें खासा तान तस्व रस्नके समान है। इसलिये जनशासना परिवर्तन हो जाता है। उसकी संकुचित एकान्तिक रष्टिका 'रत्नत्रय' के मामसे स्थान-स्थान पर निर्दिष्ट किये गये है। प्रभाव हो जाता है विचारोंमें सरखता समुदारताबा दर्शन
इसीका पल्लवित रूप यह है-तीन गुप्ति, पांच समिति, होने लगता है .विपरीत अभिनिवेश अथवा मले अभि-पश धर्म, बारह अनुमचा बाइस परीषहोंका जय, पांच प्रायकेम होनेसे उसकी रष्टि सम्बक हो जाती है, वह चारत्र, या बाबत
चारित्र, छह बाबतप और छह माभ्याम्तर तप, धर्मध्यान सहिष्ण और दयालु होता है। उसकी प्रवृत्ति में प्रशम.
और शुक्लस्यान, इनसे बंधे हुए कर्म शनैः। निजी होकर संवेग, भास्तिक्य और अनुकम्पा रूप चार भावनामोंका जब बारमासे सर्वथा सम्बन्ध छोड़ देते हैं उसी अवस्थाको समाकेश रहता है। पंडित टोडरमलजी अपने 'मोडमार्ग मोक्ष कहते हैं। मुक्त जीव फिर बंधन में कभी नहीं पता। प्रकाशक' नामक ग्रन्थमें सम्यग्दर्शनका बल तथा इतके क्योंकि बन्धनके कारणोंका उसके सर्वथा जय हो गया है। मेव पताते हुपे बिखते है--
अतः शसके कर्मबन्धनका कोई कारणही नहीं रहता। अब सम्यग्दर्शनका साचा बायकहिये है-विपरीता- मोच. प्रकाशक पु.५१.
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समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी
(ले० श्री अगरचन्द नाहटा) कविवर बनारसीदासजीके समयसार माटकके भाषा समाजके रूपचन्द नामके दोकवि एवं विद्वान हो भी गये टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजीके सम्बन्धमें कई वर्षोसे हैं। अतः नाम साम्पसे उन्हींकी भोर ध्यान जाना सहज नाम साम्यके कारण श्रम चखता भा रहा है, इसका प्रधान था। मान्यवर नाथूरामजी प्रेमीने भर्धकथानकके पृष्ठ । कारण यह है कि इस भाषाटीकाको संवत् ११३३ मे में लिखा था कि समवसारकी यह रूपचन्दकी टोका अभी भीमसी माणिकने प्रकरण रत्नाकरके द्वितीय भागमें प्रका- तक हमने नहीं देखी। परन्तु हमारा अनुमान है कि शित किया । पर मूल रूपमें नहीं, अतएव टीकाकारने बनारसीदासके साथी रूपचन्दकी होगी। गुरु रूपचन्दकी अन्त में अपनी गुरु परम्परा, टीकाका रचानाकाब व स्थान नहीं। पता नहीं, यहाँ स्मृतिदोषसे प्रेमीजीने यह लिख मादिका उक्लेख किया है, वह अप्रकाशित ही रहा। दिया है या कामताप्रसादजीका उल्लेख परवर्ती है क्योंकि भीमसी माणिकके सामने तो जनता सुगमतासे समझ सके कामताप्रसादजीके हिन्दी जैन साहित्यके संक्षिप्त इतिहासऐसे ढंगसे अन्योंको प्रकाशित किया जाय, यही एकमात्र पृष्ठ (१८०) के उल्लेखानुसार प्रेमीजी इससे पूर्व अपने उच्य था । मूल ग्रन्थकी भाषाको सुरक्षा एवं प्रन्यकारके हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास पृष्ठ १८-1 में इस भावोंको उन्हींके शब्दों में प्रकट करनेकी मोर उनका ध्यान अन्यके जिखनेके समय इस टीकाको देखी हुई बताते है। नहीं था। इसीलिए उन्होंने प्राचीन भाषा ग्रन्थोंमें विशेषतः कामताप्रसादजीने लिखा है कि रूपचन्द पांडे (प्रस्तुत) गत भाषा टोकामोंमें मनमाना परिवर्तन करके विस्तृत रूपचन्दजीसे भिन्न है। इनकी रची हुई बनारसीदास कृत टीकाका सार (अपने समयकी प्रचलित सुगम भाषामें) समयसार टीका प्रेमीजीने एक सज्जनके पास देखी थी। ही प्रकाशित किया । उदाहरणार्थ श्रीमद् भानन्दधनजी- वह बहुत सुन्दर व विशद टीका संवत् १७६८ में बनी को चौवीसी पर मस्तयोगी,ज्ञानसारजीका बहुत ही सुन्दर हुई है। कामताप्रसादजीके उल्लेख में टीकाका रचनाकार एवं विस्तृत विवेचन है । उसे भी मापने संक्षिप्त एवं संवत् १७६८ लिखा गया है पर वह सही नहीं है। टीका अपनी भाषामें परिवर्तन करके प्रकासित किया है। इससे के अन्तके प्रशस्ति पत्रमें 'सतरह से बीते पग्बिाणवां वर्ष ग्रन्धकी मौलिक विशेषतायें प्रकाशित हो सकी। टीका- में ऐसा पाठ। अतः रचनाकाल संवत् १७१२ निश्चित कारकी परिचायक प्रशस्तियाँ भी उन्होंने देना आवश्यक होता है। सम्भव है इस टीकाकी प्रतिलिपी करने वाखेनं नहीं समझा, केवल टीकाकारका नाम अवश्य दे दिया है। या उस पाठको पढ़ने बायेने भ्रमसे बगगुवांके स्थानमें यही बात समयसार नाटककी रूपचन्दजी रचित भाषा ठाणां रख पढ़ लिया हो। मैंने इस टोकाकी प्रति करीब टीकाके लिये परिवार्य है।
२३ वर्ष पूर्व बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारों में देखी थी। पर ___ बनारसीदासजी मूलतः श्वेताम्बर खरतर गच्छोय उस पर विशेष प्रकाश डालनेका संयोग भभी तक नहीं श्रीमालवंशीय भावकथे। प्रागरेमें माने पर दिगम्बर मिखा । मुनि कांतिसागरजीने 'विशाखभारतके' मार्च सम्पदायकी भार उनका मुकाब हो गया। माध्यात्म १५७ अंकमें 'कविवर बनारसीदास व उनके हस्तउनका प्रिय विषय बना । यावत् उसमें सराबोर हो गये। विखित ग्रन्थोंकी प्रतियो' शीर्षक लेख में इस टीकाकी एक कवित्व प्रतिमा उनमें नैसर्गिक थी। जिसका चमत्कार हम प्रति मुनिजीके पास थी उसका परिचय इस लेख में दिया उनके नाटक समयसारमें भली भांति पा जाते हैं। मूलतः है। इससे पूर्व मैंने सन् १९५३ में जब प्रेमीजीने मुके यह रचना पाचार्य कुम्दकुन्दके प्राकृत ग्रन्थ अमृतचन्द्र अपने सम्पादित अधकथानककी प्रति भेजी, भाषा टीकाकार कृत कलशकि हिन्दी पद्यानुवादके रूपमें हैं पर कविको रूपचन्दजीके खरतर गच्छीय होने भाविकी सूचना दे दी प्रतिभाने उसे मौखिक कृतिकी तरह प्रसिद कर दी । इस थी ऐसा स्मरण। प्रन्थ पर भाषा टीका करने वाले भी कोई दिगम्बर विद्वाब अभी कुछ समय पूर्व प्रेमीबीका पत्र मिला किमर्थभी होंगे ऐसा मनुमान करना स्वाभाविक हीथा। दिगम्बर कथानकका नया संस्करण निकल रहा हैमता समयसारके
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२८]
अनेकान्त
[किरण.
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टीकाकार रूपचन्दजीका विशेष परिचय कराना मावश्यक रूपचदका जन्म समय वंशवस्थानसमका गया। गत कार्तिकमें राजस्थान विश्व विद्यापीठ
लश्कर मंदिरके इस संग्रहमें महोपाध्याय रूपचन्दजीके उदयपुरके महाकवि सूर्यमल भासनके 'राजस्थानी जैन
मष्टकको एक पत्रको प्रतियें प्राप्त हुई। इस मष्टकसे माहित्य' पर भाषण देनेके लिये उदयपुर जामेका प्रसंग
रूपचन्दजी सम्बन्धित कुछ ज्ञातम्य ऐतिहासिक बातें मिला, तब चित्तौब भी जाना हुमा । और संयोगवश
विदित हो सकी। तथा इसके पांचवें पद्यमें रूपचन्दजीके प्रस्तुत रूपचन्दजीके शिष्य परम्पराके यतिवर श्रीवालचंद
वंशका परिचय इस प्रकार दिया हैजीके हस्तलिखित ग्रन्थोंको देखनेका सुअवसर मिला। आपके संग्रह में रूपचन्दजी व उनके गुरु एवं शिष्यादिके
'वागदेवता मनुजरूप धरामरीच,
श्रीश्रोसवंशवर अंचलगोत्र शुद्धाः। हस्तलिखित व रचित भनेक प्रन्योंकी प्रतियाँ अवलोकनमें
श्री पाठकांचमगुगर्जयति प्रसिद्धाः 'माई, इसमे भापका विशेष परिचय प्रकाशित करने में और भी प्रेरणा मिली। प्रस्तुत लेख उसी प्रेरणाका
सस्पग्लिकापुष्करे भहमले च ॥ परिणाम है।
अष्टादशेव शतके 'चतुरुत्तरे च,
त्रिंशतमेव समये गुरुरूपचन्द्राः । महोपाध्याय रूपचन्दजी अपने समयके एक विशिष्टका
पाराधनां धवनभावयुतां विधाय, विद्वान एवं सुकवि थे। श्रापकी रचनामाका परिचय मुझे गत
भायु सुखं नवति वर्षमितं च भुक्त्वा । २१ वर्षसे बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंका अवलोकन करने पर मिल ही चुका था। पर आपके जन्म स्थान, वंश
अर्थात् भापका वंश भोसवान व गोत्र आंचलिया मादि जीवनी सम्बन्धी बातें जानने के लिये कोई साधन था। संवत् १३४ में पाराधना सहित आपका स्वर्गवास प्राप्त नहीं था । १६ वीं सदीके प्रसिद्ध विद्वान, उपाध्याय १० वर्षकी उम्रमें पाली में हुमा। समाकल्याणजीने महोपाध्याय रूपचन्दजीका गुण वर्णना- चित्तौरके यति बालचन्दजीके संग्रहके एक गुटके में स्मक-अष्टक बनाया । वह अवलोकनमें पाया पर इनका जन्म सं० १७१४ लिखा है और स्वर्गवास सं. उसका कुछ इतिवृत्त नहीं मिला। गत वर्ष मेरे पुत्र धर्मचंद- १८ । यद्यपि ये दोनों उल्लेख रूपचन्दजीके शिष्य के विवाहके उपलक्ष्य में लश्कर जाना हुभा, ता वैवाहिक परंपरा ही है। पर हमें अष्टक वाला उल्लेख अधिक कार्यों में जितना समय निकल सका, वहांके श्वेताम्बर प्रामाणिक प्रतीत होता है। अष्टककी रचना शिवचन्दके मन्दिरके प्रतिमा लेखोंकी नकल करने एवं हस्तलिखित शिष्य रामचन्द्र ने की थी। सम्बत् १११० के मार्गशिर सुदी भंडारके अवलोकनमें लगाया। क्योंकि हस्तलिखित ग्रन्थों पूनमको यह अष्टक बनाया गया है। इसमें रूपचन्दजीके की खोज मेरा प्रिय विषय बन गया है। जहाँ कहीं भी स्वर्गवास पर झालरके पासमे जिनकुशनसूरिजीके रूपके उनके होनेकी सूचना मिलती है उन्हें देख कर अज्ञात दक्षिण दिशामें रूपचन्दजीकी पादुकायें संवत् १८५. में सामग्रीको प्रकाश में जानेकी प्रबल उत्कंठा हो उठती है स्थापित करनेका उल्लेख है। चित्तौड़के गुटकेके अनुसार इसीके फलस्वरूप अब भी मेरा कहीं जाना होता है सर्व रूपचन्दजोकी मायु ११ वर्षकी हो जाती है और अष्टकप्रथम जैन मन्दिरोंके दर्शनके साथ वहांकी मूर्तियोंके लेख में स्पष्टरूपसे १० वर्षकी मायुमें स्वर्गवास होनेको लिखा लेने एवं हस्तलिखित ज्ञानभंडारोके अवलोकन इन दो है। मेरी रायमे वही उल्लेख ठीक है इनके अनुसार कार्योक लिये अपना समय निकाल ही लेता हूँ। अपने रूपचन्दजीका जन्म संवत् १७४४ सिद्ध होता है। चित्तौड़ पुत्रके विवाहके उपबच में जाने पर भी इन दोनों कामोंके वाले गुटकेमें १०३४ स्मृति कोषसे लिखा गया प्रतीत लिए लश्करमें कुछ समय निकाला गया। वहांके श्वेताम्बर होता है इनके गोत्रका नाम चलिया है। जिसकी वस्ती जैन मन्दिरकी धातु मतियांके लेख लिये गये और उस बीकानेरके देशनोक आदि कई गांवों में अब भी पाई जाती मन्दिरमें ही स्तलिखित ग्रन्थोंका खरतर गमीय यतिजी- है। अतः रूपचन्दजीका जन्म स्थान बीकानेरके ही किसी का संग्रह था, उसे भी देख लिया गया !
प्राममें होना चाहिये।
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माकीर्ति (५)
धर्मसुन्दर
)
[किरण समयसारके टोकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी
[२२६ मंवतानुक्रम इतिवृत्त लेखनकी प्रणाली
(१) जिनकुशजसूरि प्राचार्यपद सम्बत् ११. से
सम्बत् १३८८ में स्वर्गवास । खरतर गमछमें वीं शतीसे ऐतिहासिक वृतांत लिखा जाता रहा है। फलत: जिनदत्तसूरिजीके शिष्य मणिधारी
(२) महोपाध्याय विनयप्रभ (गौतमरासके रचयिता) बिन चन्द्रसरिसे लगाकर जो मूर्ति व मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा, (९) विजय तिलक (सुप्रसिद्ध शत्रुम्जय स्तवनके दीक्षा आदि महत्वपूर्णकार्य दफ्तर वही में लिखे रचियता) जाने लगे। जिनके आधारसे युगप्रधान गुरु वावनीका (१)माकीर्ति (२) उपाध्याय तपोरन (१)वचक प्रथम संकलन जिनपान उपाध्यायने संवत् १३०५ के पास- मुवनमोम (७) साधु रा (6) वा. धर्मसुन्दर (6)मा. पास किया था। जिसके पश्चात् उनकी पूर्ति समय समय दान विनय (10) वा. गुणवर्द्धन (11) श्रीसोम (१२) पर इस गच्छके अन्य विद्वान यतिगण करते रहे । संवत् शान्ति हर्ष (१३) जिनहर्ष। १३५ तककी संबतातुक्रमसे लिखित घटनाओंके संग्रह वाली युगप्रधान गुर्वावलिकी प्रति बीकानेरके समा- .
इनमें कई तो उच्च विद्वान ग्रंशकार हो गये है. कविवर कल्याणजीके ज्ञान भंडारमें हैं। हमें वह करीब १५ वर्ष
जिन-हर्ष तो बहुत बड़े लोक भाषाके कवि थे। इनकी रचनाएँ
खाधिक श्लोक परिमाणकी प्राप्त है। मूलतः राजपूर्व प्राप्त हुई थी। यह अपने ढङ्गका एक अद्वितीय ऐति
स्थानके थे। जसराज इनका मूल नाम था। सम्बत् १७०४ हासिक ग्रन्थ है। इसके महत्वके सम्बन्ध में भारतीय विद्यामें हमने एक लेख भी प्रकाशित किया था। सिंधी जैन ।
से सम्बत् १७६३ तककी भापकी सैकड़ों रचनायें उपलब्ध
है आपका प्राथमिक जीवन राजस्थान में बीता तब तककी प्रन्थमालासे करीब १० वर्ष हुए यह कपी हुई पड़ी है।
इनकी रचनाओंकी भाषा राजस्थानी ही है। पीछेसे ये गुजपर मुनि जिनविजयजीके प्रस्तावना आदिके लिये भी उसका
रात व पाटणमें किसी कारणवश जाके जम गये। अतः प्रकाशन रुका हुआ है। इसके बादकी गुर्वावती जैसलमेर
उत्तरकालीन रचनामोंकी भाषामें गुजरातीकी प्रधानता है। के बड़े ज्ञान भंडारमें होनेका उल्लेख मिला था । पर अब
आपके सम्बन्धमें राजस्थान क्षितिज' नामक मासिक पत्र में वह प्रति वहाँ नहीं है। परवर्ती कई दफ्तर-वाहिये भी अब
सुकवि जसराज और उनकी रचनायें शीर्षक मेरा लेख प्राप्त नहीं हैं । संवत् १७००से फिर यह सिलसिला मिलता है। जिससे विगत ३०० वष म खरतरगच्छकी
प्रकाशित हो चुका है। भट्टारक शाखामें जितने भी मुनि दीक्षित हुए उनका मूल
महोपाध्याय रूपचन्दजीने अपनी रचनाओंके चम्तमें नाम क्या ण दीक्षा नाम क्या रक्खा गया, किमका शिष्य
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स्वगुरु परम्पराका परिचय देते हुए अपने को मशाखाके बनाया गया। किस सम्बत् व मितीमें कहाँ पर किस
शान्तिहर्षके शिष्य वाचक सुखवर्धनके शिष्य वाणारस आचावके पाम दीक्षा ली गई, इसकी सूची मिल
दयासिंहका शिष्य बतलाया है। मापकी लिखित अनेक जाती है।
प्रतियां यति बालचन्दजोके संग्रहमें देखनेको मिली। उनसे
मापके भारतम्यापी विहार एवं चतुर्मास करने का पता रूपचंदजीकी दीक्षा
चलता है। मैंने एक ऐसीही दातर वहीसे दीक्षा सूचीकी नकल
ग्रन्थ रचनाप्राप्त की है। उसके अनुसार रूपचन्दजी की दीक्षा सम्वत् १७१५ के वैशाख वदी २ को विल्हावास गांवमें श्राचार्य
मापकी उपलब्ध रचनामों में प्रथम समुद्रपद वित्त.. जिनचन्द्रसूरिजीके हाथसे हुई थी। ये दयासिंहजीके शिष्य
१७ में विष्हावासमें रचित प्राप्त और अन्तिम रचना थे। और इनकी दीपाका नाम रामविजय रखा गया।
संवत् १८२६ की है। इससे १६ वर्ष वार साहित्य
सेवा करते रहे। जिससे पापकी रचनाओंसे चापकी विदूतागुरु परम्परा
का भलिभाति पता चल जाता है। संस्कृत एवं राजस्थानी में आपकी रचना एवं अन्य साधनोंके अनुसार इनकी गद्य एवं पब दोनों प्रकारकीरचना मायबाप सुकवि गुरु परम्पराकी नामावली इस प्रकार विदित हुई है। होनेके साथ २ सफर टीकाकार मी संस्कृतभाषाके
दीक्षित हुए
के शिष्य वा
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२५01
अनेकान्त
तो पाप प्रकार परिडत थे। गौतमीवकाग्य एवं कई होता है। गौतमीय काध्यकी प्रशस्तिमें रूपचन्दजीने स्वोत्रादि आपके काव्य प्रतिभाके परिचायक है। सिद्धा- अपनेको जोधपुरके महाराजा अभयसिहसे सम्मान प्राप्त मत-चन्द्रिकात्ति आपके व्याकरण ज्ञान एवं गुणमाला करने वाला लिया है। इन महाराजाका समय १७८1 प्रकरण मादि जैन सिद्धान्तोंके गंभीर ज्ञानको सूचना देते से १८०५ सका है। प्रशस्तिका ह वो इस है। हेमी माममाखा, अमरू शतक, भतृहरि. शतकत्रय, प्रकार है। बापस्तवन भक्तामर, कल्याणमन्दिर, शतश्लोकी, सखिपात' रिलशिष्योऽभयसिंह नाम नपते बलिया महा कक्षिका मादि संकृत प्रन्योंकी भाषा टीका मापने राज- गाम्भीरार्थ, मईशास्त्रवत्वरसिकोऽहम् रूपचन्द्रा हृदयान् स्थानी व हिन्दोभाषामें की। प्रथम वार भाषाटीका हिन्दी
प्रख्यातापर नाम रामविजयो, गश्वेशदत्ताशयाः। गय में लिखी गई है इससे प्राकृत संस्कृत हिन्दी व काम्ये कार्यमिमं कवित्व कसया श्रीगौतमीये शुभम् । राजस्थानी इस चारों भाषाओंके माप ज्ञाता व लेखक
काम्य प्रतिभा प्रस्तुत काव्य मौका है इसकी टीका
पापकी विद्यमानतामें ही समाकल्याणने बनानी प्रारम्भ की बाकरण, कोश, काम्य, वैयक और जैन सिद्धान्तके
थी और उसकी पूर्णाहुति आपके स्वर्गवास होने के बाद विद्वान होने के साथ साथ भापका ज्योतिष सम्बन्धि ज्ञान भी
हुई । यह ग्रन्थ टीका सहित बप चुका है। इस प्रन्यकी मलेखनीय हैं। मुहूर्त मणिमाला व विवाह पटल प्रापके
प्रस्तावनामें पति नारायणराम प्राचार्य काम्यतीर्थने इस योतिष प्रन्थ है। आपके प्रशिष्य रामचन्द्र के रचयिता
रचयिता काव्यकी प्रशंसा करते हुए लिखा है। पापके स्तुति अष्टकमें प्रापको पशास्ववादजयिका,
प्रकृतमिदं काम्यमनेनैवोद्देश्येन जैनसारस्वतभांडागारे अष्टावधान करने में कुशन, इच्छाविपिके माविष्कारक,
रत्नमिव चमकुरुते । जैन संप्रदाय प्रतिप्रमेयानुन्मखी कतुम् सकर समस्त वाङ्मय पारंगत, जीवनपर्यन्त, शीबधारक
अहिंसादयावतानुगामिनं दानं दृढीकतु मेव च कवि सौम्बत मादि विशेषयोंसे युक्त बनाया है।
गगनचन्द्रेण श्रीमतापारकेन रूपचंद्रण तदिदं काव्यउपाध्याय पद
मुपानिबद्धम् । नामतस्तदिदं काम्यम् , किन्तु जैनसंप्रदाय पापकी विद्वत्ताके कारण ही प्राचार्य जिनसामसूरिने रहस्यबोधने प्रमाण संथा, वादग्रंथ महाकाव्यम् सिद्धान्तसंवत् १८१0 से पूर्व पापको उपाध्याय पदसे अलंकृत किया बोधने सम्यक् प्रभवति । था: खरतरगच्छकी परम्परा अनुसार जिस समयमें जो काम्य गगन रवैः श्री रूपचन्द्र कदै कवितानि गुम्फन उपाण्याव सबसे अधिक दीचा पर्याय में वृद्ध होता है। उसे पाटव तथा विद्यते पेन हि क्लिष्टोऽपि विषयोनीरसोपिच महोपाध्याय लिखा जाता है। आपने लंबी आयु पाई और वयों लोकानां हृदयावर्जनचमो भवति । ऋतु उपवनादि बोटी उम्र में ही दीक्षा लेनेके कारण चारित्र पर्याय भी खूब वर्णने तु कर्मधरा रचनास्त्येव, परं सिद्धान्त वववोधनेपाला। प्रतः पाप अपने समयके महोपाध्याय पद पर प्रति. ऽपि सैव वै शैली एकान्तभावेन प्रचंडनीतिमहदेव ठित हुये।
गोरवं कथयितुः। बिहार
राजस्थानी भाषाके काव्योंमें भापकी चित्रसेन यमावति पापका विहार प्रधानतया बीकानेर, जोधपुर, जैसल- रास (रचना सम्बत् १८१४ बीकानेर) नेमिनाथरासो, मेर राज्यमें हुमा। बीकानेर जोधपुर, पाली, सोजत, गोडीकन्द, मोशवाबरास, फलोदी स्तवन, मावस्तवन, विल्हावास, कासाकुम्ता बीदासर मादि स्थानों में पापके समुद्रबंध कविच आदि उल्लेखनीय है। जिन सुख सरि रचे प्रन्य उपलब्ध है।
मजलश हिन्दीभाषामें तुकान्त गद्यकी विशिष्ट रचना जिन सुखसूरि मजलस संवत् 2008 में मापने बनवाई है। पापकी ज्ञात समस्त रचनामोंकी नामावली भागे दी जिसमें उत्' शब्दोंकी प्रधानता है। 'भक्ति सूरिसिंहप बाबा पद पाएकी पंजाबी भाषाकी रचना है। इन दोनों एक .देशमें संस्कृत पच और गरबा मण्ख रूपमें है नामोंसे पापका बिहार, पंजाब और सिंघमें होना भी सिद से यहां उसी रूपमें दिया जा रहा है। -प्रकाशक
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समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दनी
[२११ शिष्य परम्परा--
१२ व असोजबदि (स्वयं लिखित प्रति पति वावचन्द्रजीके
संग्रहमें, समयसार बकी भी संवत् में रूपचन्द्र महोपाध्याय रूपचन्द्रजीकी शिष्यपरंपरामें शिव
जीकी लिखित प्रति उनके संग्रहमें है) (१) बगुस्तकरवजी भादि अच्छे विद्वान हो गये हैं। भाज भी खरतरगच्छ
वा सम्बत् १७६८ (0) मुहू समधिमाला (पत्र अन्य के भट्टारक बीकानेर गहीके श्रीपूज्य विजयेन्द्रसूरिजी
1) सम्बत् १० मिगसरसुदी । जोशी रामकिशावइनकी ही विद शिष्य परंपरा प्रतीक है । चित्तौड़के
के पुत्र बच्छराजके लिए रचित ।) (5) गौतमीय काव्य, पति बालचंदजी भी बने सज्जन व्यक्ति है। ग्वाविपरमें
सम्बत् 1500 जोधपुर रामसिंह राज्ये रचित । () रामचन्द्रजीकी शिष्य पपंपरा चल रही है। जिनका संग्रह
भक्तामर टब्बा, सम्बत् १" (कालाउनामें, शिष्य लश्करके श्वेताम्बर जैन मन्दिरमें रक्खा हुमा है। शिष्य
पुण्यशील, विद्याशीलके भाग्रहसे रचित (१०) कल्याणपरंपराका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-रूपचन्दजीने
मन्दिर टन्या सम्बत् १८11 काबाउनामें। अपने ग्रंथोंमेंसे कई ग्रन्थ स्वशिष्य पदमा और वस्ताके लिये बनाये ऐसा उल्लेख किया है। उनके दीक्षा नाम पुण्य
(1) 'दुरियर' बीरस्तोत्र वालावरोध, लेखन संबद्ध शील विद्याशील था। इनमेंसे पुण्यशील रचित ज्ञेय चतु-१९ या
१८ वीबाडा 'पत्र' (१२) चित्रसेन पदमावतीविंशतिम्तवन मुनि विनयसागरजी ने प्रकाशित किये
, चौपाई सम्बत् १८१४ पौह सुदी १४ बीकानेर (३ चतुहै, जिनको प्रस्तावमा मैंने लिखी है। ज्ञानानंद प्रकाशन
विशति जिन स्तुति पंचाशिका, संवत् 141.माधवदी। नामक भापके अन्यकी अपूर्ण प्रति चित्तौड़के यति वास
बीकानेर (१४) गुबमावा प्रकरण, संवत् 1510 जेससदजीके संग्रह में अभी अवलोकनमें बाई जिसकी पूर्ण प्रति
मेर । (१५) साघुसमाचारी सम्बत् १८१६ (यह पसत्र
बालापबोधके अन्तरगत ही संभव है। (१६)भारवीर्यप्राप्त करना आवश्यक है।
यात्रा स्तवन संवत् १८२ प्राचार्य जिनसामरिके साथ पुण्यशीलके शिष्य समयसुन्दर उनके शिष्य उपाध्याय
८५ मुनियों के साथ यात्रा (१०) हेमीनाममाला भाषाढीका शिवचंद्रभी बड़े अच्छे विद्वान हो गये हैं। जिनके रचित
(कांड) सम्बत् १८२२ पौह सुदी ३ काबाना प्रय म्नलीलाप्रकाशकी प्रति भी अपूर्ण व बृटित अवस्था (मणोतसरतरामके लिये) (१८) खोदी पारवस्ववन, में प्राप्त हुई है। इसकी भी पूरी प्रति प्राप्त होनी आवश्यक
सम्वत् १८२५ मिगसर सुदी (18) अल्पाबहुत्व स्तवन है। आपके रचित ऋषिमण्डलपूना आदि प्रकाशित हो
सम्वत् १८२काबाऊनामें विलित ति (81) शत रखोकी चुकी है शिवचंद्रजीके शिष्य रूपचंद्रजी अच्छे विद्वान थे,
टम्या 10 मिगसरसुदी १. पाखी । (२२) सषिपात जिनके रचित कई ग्रंथ प्राप्त है। रामचंद्रजीके शिष्य
कलिका टब्बा सम्बत् १" माषसुदि १, पानी। उदयराजके शिष्य नेमचंद्रजीथे। जिनके शिष्य यति श्याम- (२३) सिदाम्तचन्द्रिका सुपोषिकावृत्ति (पत्र १२४) लालजीका उपाश्रय जयपुरमें है। इनके ही शिष्य विजयेन्द्र
सम्बत् ११३४ से पूर्व (सम्बत् है पर स्पहनहीं हो पाया। सूरिजी वर्तमान बीकानेर शाखाके श्री पूज्य है। शिषचंद्र
पचन (२४) कल्पसूत्रवाखावबोध (२२)वीर भायु २ वर्ष बीके दूसरे शिष्य ज्ञान विशाबजीके शिष्य प्रमोबकचंद और ime
स्पष्टीकरण, सम्वत् १८१४ से पूर्व (२१) नेमि नवरसा(२०) उनके शिष्य विनयचन्द्र हुए। जो सम्बत् ११४१ तक गौती छंद (गाथा ३१) (२८) बोसवाबरास गा. " विद्वान ये चित्तौरके यति बालचंद्रजी उन्हींके प्रशिघ्य (११) नयनिक्षेपस्तवन गा०३२(३०)सहखकूटस्तवन । होंगे। अब माहोपाध्याय रूपचन्द्रजीकी रचनायोंकी सूची ( विवाहपड (१२) वीर पंचकल्याक स्तवन सम्मतानुक्रमसे नीचे दी जा रही है
(१३) स्तवनावली (१७) पेराग्य सम्माय(१५साध्वाचार (१) समापद कवित्त सम्बत् ...विल्हावास में पटत्रिंशिका (११) पारस्तवन सटीक (१०वदेशी रचित (२) जिनसुखसूरि मजलस सम्बत् १७७१(३) स्तोत्र (स्लोक १६)(१८) विज्ञप्ति द्वात्रिंशिका गा०३३ शतकत्रय बालापबोध, संवत् १७८८ कार्तिक यदि (११)शषभदेव स्तोत्र (0) कुशलसरि पटक प्रादिसोजत् (७) अमस्थतक बाबावबोध, सम्बत् १ असो-- अभी जयपुरके यति स्वामबाबजीका संग्रह देखना जसविसोजत (समयसारपाजावयोष सम्बत् १-- और बाकी है। तथा पिचौरबाले ति पासचन्द्रजीके
(खोकतवा सोसावाचार
"क पदि।
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२३२ 1
अनेकान्त
गुरु भाइयोंका मी संग्रह देखने में पाया तो सम्भव है कि टीकामें अपने नामके भागे 'जी' विशेषण कभी महोपाध्याय रूपचन्दजीके और भी ग्रंथ उपलब्ध हो नहीं लिखते और टीकाका स्पष्टीकरण भी कुछ भित्र जाय।
तरहसे करते। संक्षेपमें जितनी जानकारी प्राप्त हुई है प्रकाशमें लाई
प्रस्तुत संस्करणमें मूल ग्रन्थ के समाप्तिके बाद टीकाजा रही है। विस्तारसे फिर कभी प्रकाश मिला तो उप
के रचना कालका सूचक पच भी कपा है उस पचके 'सत्रहस्थित करूंगा।
सौ बीते परि वानुजा' वर्ष में जिस पाठ पर ध्यान न देकर (भनुपूर्ति)
मर्ष करनेमें रचनाकाल सम्बत् १७.. सत्रहसौसे और दो महीने हुए अभी-अभी नाथूरामजी प्रेमीसे रूपचंद छंदमय पद्य सुबोध अन्य लिखके पूर्ण किया लिख दिया गया जी रचित समयसार टीकाका नया संस्करण प्र. नन्दलाल है। जबकि पथमें वार्तिक वात रूप शब्द पाते हैं जिसका दिगम्बर जैनग्रन्थमाला भिंडसे प्रकाशित होनेकी सूचना प्रर्थ 'भाषामें गय टीका' होता है। पारिवानुवा पाठका मिली। ता.१ अगस्तको रोज्यो प्रोग्रामके प्रसासे दिल्ली सन्धि विच्छेद परिवानु और 'पा' अलग छपनेसे उनके माना हुघा, तो दिक्जी हिन्दू कॉलेजके प्रो० दशरथ शर्माके शब्दोंकी मोर ध्यान नहीं गया प्रतीत होता है । टीकाकारके संग्रहीत पुस्तकोंमें इसकी प्रति देखने में भाई इस संस्करण परिचायक प्रशस्ति पत्र भी लेखन पुस्तिकाके बाद छापने में भी वही प्रम दुहराया गया है। इसके मुख पृष्ठ पर के कारण रचयितासे सम्बन्धित सारी बातें स्पष्ट होने परभी रूपचन्दजीको 'पांडे' लिखा है। प्रस्तावनामें पं० झम्मन- सम्पादकका उस मोर ध्यान नहीं गया उन दो सवैया में बाबजी तर्कतीर्थने इन्हें बनारसीदासजीके गुरु पंचमंगल- टीकाकारने अपनेको खेम शाखाके सुख वर्धनके शिष्य दयाके रचयिता बतलाया है। पर इस भाषा टीकाके शब्दों सिंहका शिष्य बतलाया है। खरतर गच्छके प्राचार्य जिन एवं पन्तकी प्रशस्ति पर्योपर जराभी ध्यान देते तो इसके भक्ति सूरिके राज्यमे सोनगिरिपुरमें गंगाधर गोत्रीय नथरचयिता पांडे रूपचन्दजीसे मित्र खरतरगच्छीय रूपचन्दजी मलके पुत्र फतेचन्द पृथ्वीराजमें से फतेचन्दके पुत्र जसरूप, है, यह स्पष्ट जान लेते । देखिये पृ.१६८,२८० में टीका जगनाथमेसे जगनाथके समझानेके लिये यह सुगम विवकारने ताम्बर होनेके कारण ही ये शब्द लिखे है 'साधुके रण बनाया गया लिखा है। २८ मूल गुण कहे सो दिगम्बर सम्प्रदाय हैं।
वास्तवम पांडे रूपचंदजीका स्वर्गवास तो अर्ध कथा२.अप्रमत्त गुणस्थानके कयनको 'ये कथन दिगम्बर नकके पांक १३५के अनुसार सम्बत् १६६२से के बीच , सम्प्रदायको है' लिखा है। पृ०१०-६11 में जिस पचमें हो गया, सिद्ध होता है। यह टीका उनके सौ वर्षके बनारसीदासजीने पण्डित रूपचन्दका उल्लेख कियाहै उसकी पश्चात् खरतरगच्छके यति महोपाध्याय रूपचन्दने बनाई टीका करते हुए रूपचन्द नामके पागे 'जी' विशेषण दिया है। भविष्य में इस भ्रमको कोई न दुहराये इसीलिये मैंने है और केवल मूल गत उल्लेख को ही दुहरा दिया यह विशेष शोधपूर्ण लेख प्रकाशित करना प्रावश्यक है। यदि इसके रचयिता पांडे रूपचन्दजी होते तो सममा ।
'समयसारकी १५ वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी नामका सम्पादकीय लेख सम्पादकजीके बाहर रहने आदिक कारण, इस किरणमें नहीं जा रहा है। वह अगली किरणमें दिया जावेगा।
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अहिंसा और जैन संस्कृतिका प्रसार
तथा एक चेतावनीभाइयो और बहनो,
खरबों रुपए खर्च कर रहे हैं। उन्हें क्या कमी बीपर युग अब बदल गया है और बड़ी तेजीसे संसार- नहीं । सद्भावना, सदिच्छा और व्यापक समर्थन ही जीने का सब कुछ बदल रहा है। लोगोंकी विचारधारामें बदा (Life and living)का तत्व, अमृत और जी भारी परिवर्तन हो गया और होता जारहा है। समय- है। इसीलिए वे प्रचारमें अपनी सारी शक्ति बगा कर की जरूरत और मांगके अनुकत अपना रवैया और रीति- बगे हुए हैं। जैमियोंको भी अपने सिद्धान्तकी वैज्ञानिनीति बनाना और वैसा ही पाचरण एवं व्यवहार वर्तना कता, सस्यता, समीचीनता, व्यावहारिकता इत्यादिका ही बुद्धिमानी कही जा सकती है। देशा, जातियों, समाजों प्रचार व्यापक रूपमें करना होगा। यदि वे निकट भविष्य में
और सम्प्रदायोंके पतन इसी कारण हए कि वे समयकी पाने वाले समयमें, अपनी संस्कृतिकी, अपनी स्वयंकी समानताम अपनेको नहीं ला सके। संक्षेप में जैनियोंकी और अपनी धामिक संस्थानों वीवों एवं पूज्य प्रतिमाओंवर्तमान हालत वैसी ही हो रही है। हमारे पूर्वज समयकी की सुरक्षा सच्चे दिलसे चाहते हैं और यह नहीं पसन्द गति के साथ चलना जानते थे इसीलिए हम आज भी शेष करते हैं कि मागे चल कर उनकी निष्क्रियता और अन्यहैं। परन्तु बौद्धोंका नाम भारतमें न रहा । अपने पूर्वजोंकी मनस्कताके कारण-उन्हींके अपने दोषोंके कारण उनके इस दीर्घ दशिताको हम भूल रहे है यह एक महा अपने नाम और निशान भी खोप हो जाय, बाकी न रह भयंकर बात है जिसका परिणाम हम अभी नहीं सोच,
से सोच जाय । जैनियोंकि सारे सार्वजनिक कालेज, स्कूल, धर्मार्थसमझ और जान रहे हैं। यदि यही हालत बनी रही। चिकित्सालय, धर्मशालाएँ, मन्दिर इत्यादि और अब तक हमारी निष्क्रियता नहीं छूटी एवं हम संसारकी समस्याओं की अपार दानशीलता एकदम व्यर्थ जायगी यदि अबसे
और परिस्थितियास अपनेको अलग, दर और उदासीन भी समयकी मांगके अनुसार व्यापक प्रचारको हाथमें नहीं ही रखते रहे तो इससे भागे चल कर बड़ा भारी अनिष्ट लिया गया । चेतना जीवन है और निष्क्रियता विनाश या होगा। भले ही इस बात और चेतावनी (Warning) मृत्यु । जागरण और जागृति तो कुछ हमारेमें है पर की महत्ताको हम सममें या न सममें, जानें या न जाने, हमारी शक्तियाँ उचित दिशामें नहीं लगाई जा रही है। अथवा जान बूझ कर भी अनजाने बने रहें यह दूसरी बात यही खराबी है। है। अनजान बने रहनेसे तो फलमें कमी नहीं पा सकती। विश्वम्यापी प्रचारकी एक ऐसी संस्था बनाई जानी हम अपने पैरों अपने आप कुल्हादी मार रहे हैं। ये बक्षण चाहिए जिसमें श्वेताम्बर, दिगम्बरादि सभी बिना किसी अ ही -हानिकारक है व्यक्तिके लिए भी और समाज मत भेदके सम्मिलित शक्ति लगा कर जोर शोरसे कार्य एवं देश और मानवताके लिए भी।
प्रारम्भ करदें-तभी कुछ अच्छा फल निकल सकता है। यह प्रचारका युग है। देश और विश्वके जनमतको काफी देर हो चुकी है, यदि हम अब भी नहीं चेते तो अपने पक्ष में खाना और अपना प्रशंसक बनाना अपने उद्दार या रखाका उपाय बादमें होना सम्भव नहीं स अस्तित्वकी सुर और विरोध या कटुवारहित उन्नतिके जायगा। लिए भावना तथा संसारके धनी और शक्तिशाली विश्वकी जनतामें मानव-समानताकी भावना और देश भी, जिन्हं कोई कमी नहीं और जिन्हें बाहरी सहा स्वाधिकार प्राप्तिकी चेष्टा दिन दिन बढ़ती जाती है। दया यताकी अपेक्षा नहीं, संसारकी जनताका सौहार्द, प्रशंसा, हुमा वर्ग सचेत, सजग, सज्ञान हो गया है और अधिकासहानुभूति एवं सहयोग पाने के लिए अपनेको एवं अपनी धिक होता जा रहा है। सभी मानवोंका सुख दुख और नीतिको सर्वजनप्रिय बनानेके लिए ही प्रचारमें भरषों जीवनकी पावश्यकताएं समान एवं पृथ्वी और प्रकृति
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भनेकान्त
[किरण
D
पर हर मायका, माय स्पो बम बेनेके कारण रहने कुर हो सकता है और भविष्य उज्ज्वर एवं माशापूर्ण और उसतिरका समान हक है, ऐसी भाषा दिन दिन बनाया जा सकता है। प्रबल होती जा रही है। जैनदर्शन, धर्म और सिद्धान्त श्री कामताप्रसादजी समाजके प्राचीन इतिहासज्ञ भी यही शिक्षा देते हैं और जैनियोंका सारा धार्मिक एवं और एक सच्चे बग्नशील कार्यकर्ता है। उन्होंने विश्वसामाजिक निर्माण और व्यवस्थाएं हसी मादर्सको लेकर जैन मिशन' नामकी संस्था स्थापित और चाल करके संस्थापित हुई है। केवल गर्म हो ऐसा धर्म है जो एक बड़ी कमीको पतिको है। इस संस्थाने थोडे ही समय'अनुण्याकी पूर्यताको सर्वोच्च ध्येय या भादर्श मानता में थोदे रुपये में ही बड़ा भारी काम किया है। पर समाज
और प्रतिपादित करता है। बाको दूसरे लोग 'देवस्व' को की उदासीनताके कारण इसे जितनी प्राधिक मदद मिलनी ही मादर्श मानते हैं जो संसारको सबसे बड़ी गवती चाहिए थी उसका शतांश भी नहीं मिल सका। यह रही है। तीर्थकरको कानक्की पूर्यताका सर्वोच्च एवं संस्था दिगम्बर, श्वेताम्बरके भेद भावोंसे तथा दूसरे सागपूर्ण उचम बाद माना गया है। इसी प्रादर्शक झगड़ोंसे मुक्त है। इसके कार्यको आगे बढ़ाना हम सभी बापक विस्तार, प्रचार बोर प्रसाबसे ही मानव मात्रका नियोंका कर्तव्य तोही-हमें अपनी रक्षा और अपने सच्चा ल्याव हो सकता है। अहिंसा और सत्य तो तीर्थों, संस्थानों और संस्कृतिकी रखाके लिए इस वर्तमान इलीकी दो साक्षाएं, जिनका भीएर विकास जैन प्रचार युगमें वो अत्यन्त जरूरी और भनिवार्य सिवान्बों में ही परस्पर विरोधी रूपसे पूर्णताको प्राप्त हो गया है। होता है। मानव-कवाणकी कामनासे भी और स्वकल्याण संसारमें युद्धकी विभीषिकाको समाप्त करना, हिमा, की अमरहित भावनासे भी हमारा यह पहला कर्तव्य है खूनखराबीको दूर करना और सर्वत्र सुख शान्ति स्थापित किहम इन सब्ने विश्व-कल्याणकारी सिद्धान्तोंका विश्व- करना हमारा ध्येय और कर्तव्य है इसलिए भी हमें ज्यक प्रचार अपनी पूरी शक्ति बगाकर करें । अन्यथा इस कल्याणकारी संस्थाकी हर प्रकारसे तन मन धनसे इस मिट जाये और हमारी सारी दूसरी सुकृतियों मिट्टी- पूर्ण शक्ति एवं खुले दिलसे सहायता करना और कार्यको में मिल जायेगी, बेकार हो जायेंगी-किसी काममें नहीं आगे बढ़ाना हमारा अपना पहला काम है और जरूरी पायेंगी। सावधान । उठो, जागो और काममें लग है। भाशा है कि हमारे जैन भाई इस समयानुकूल चेताअमो। पर अधिक देर करना अथवा अनिश्चितताकी बनी (Timely wrong ) और इस प्रथम भाव दीपस्वीदशा विनायकारक होगी। अब जो गलती श्यकताकी भोर गम्भीर ध्यान देगे। या दिवाई इस काममें हो गई सो हो गई। सबसे भी
अनन्तप्रसाद जैन संयोजकयदि सच्ची बगनसे काममें बन जाय तो अभी भी बहुत
अविश्व जैन मिशन पटना विवाह और दान । पीचन्दनी जैव संगत सरसावा निवासी हाल एटाके सुपुत्र चि. महेशचन्दबी.ए. का विवाहसंस्कार इटावा निवासी साहकचन्द पाचन्द जी जैन सुपुती चि. राधा रानीके साथ गवता.. दिसम्बरका जैन विवाह विधिसे सानन्द सम्पन हुमा ।इस विवाहकी खुशीमें डा० साहबने ३६१). वाममें निकाले, जिनमेंसे 11.). इटावा मन्दिाको (मवावा बरादि सामावो) दिये गये, शेष २५१).निम्न जैन खंस्थानों तथा मन्त्रों को भेंट किये गये:
२.१) वीरसेवामन्दिर सरसावा-दिल्ली, जिसमें २०) रु. 'भनेकान्त' की सहायतार्थ शामिल है। ३१)सरी संस्थाएं-श्री महावीरजी अतिशयक्षेत्र, स्याहाद महाविद्यालय काशी, ऋषभनाचर्याश्रम मथुरा,
3.प्रा. दि. गुरुकुल हस्तिनागपुर, बाहुबलि माचर्याश्रम बाहुबली (कोल्हापुर), जैन कन्या पाठसाला
सरसावा समन्तभद्र विद्यालय जैन अनाममा देहली, प्रत्येक को२)रुपये। १२)अनेकान्त भिसरे पत्र-जैन मित्र, जैन सम्देश, पाहिंसावादी, प्रत्येकको)रुपये।
बीरसेवामन्दिरको जो २०१ रुपयाकी सहायता प्राप्त हुई है उसके लिये डाक्टर साहब धन्यवाद के पात्र हैं।
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हमारी तीर्थ यात्राके संस्मरण
(गत किरण कसे भागे] कोल्ह पुर दक्षिण महाराष्ट्रका एक शक्तिशाली नगर कई शिलालेख पाये जाते है.जो जैनियोंकि गत गौरवके रहा है इस नगरका दूसरा नाम सुनकपुर शिलालेखों में परिचायक है। उनसे उनकी धार्मिक भावनाका भी संकेत रविवखित मिलता है। कोल्हापुरका प्रतीत गौरव कितना मिलता है। ये शिवालेख, मूर्तिलेख मन्दिर और प्रशसमृह एवं शक्ति सम्पद रहा है इसकी कल्पना भी प्राज स्तियाँ प्रादि सब पुरातन सामग्री जैनियोंके पतीस गौरवकी एक पहेली बना हुआ है। कोल्हापुर एक अच्छी रियासत स्मृति स्वरूप है। पर यह बडे म्वेद के साथ लिखना पड़ता थी जो अब बम्बई प्रान्तमें शामिल कर दी गई है। यह है कि कोल्हापुर राज्यके कितने हो मन्दिरों और धार्मिक नगर पंचगंगा नदी के किनारे पर बसा हुआ है। और स्थानों पर वैष्णव-सम्प्रदायका कब्जा है अनेक भाज भी समृर-सा बगता है। परन्तु कोल्हापुर स्टेटके मन्दिरोंमें शिवकी पिगडी रख दी गई है। ऐसा उपद्रव कम मूर्ति और मन्दिरोंके वे पुरातन खण्डहरात तथा साम्प्रदा- हुमा इसका कोई इतिवृत्त मुझे अभीतक हात नहीं हो यिक उथल पुथल्ल रूप परिवर्तन हृदयमें एक टीस उत्पन सका । कोल्हापुरसे १ मील पलटाके पास पूर्वी भोर एक किये विना नहीं रहते, जो समय-समय पर विद्यार्थियों द्वारा प्राचीन जैन काजिज ( Jain College) था जिस पर उत्पातादिके विरोध स्वरूप किए गए हैं। कोल्हापुर स्टेटमें ब्राह्मणोंने अधिकार कर लिया है। कितने ही कलापूर्ण दिगम्बरीय मन्दिर शिव या विष्णु इसी तरह अंबाबाईका मन्दिर, नवग्रह मन्दिर और मंदिर बना दिये गए है। और कितने ही मन्दिर और शेषशायी मन्दिर वे तीनों ही मन्दिर प्रायः किसी समय मूर्तियाँ मर-अकरदी गई है। कोल्हापुर कितना प्राचीन जैनियोंकी पूजाको वस्तु बने हुए थे। इनमेंसे अंबाबाईका स्थान है इसका कोई प्रमाणिक उस्लेख अथवा इतिवृत्त मन्दिर पद्मावती देवी के लिए बनवाया गया था। कोल्हामेरे अवलोकन में नहीं पाया । परन्तु मन् १८८० में पुरके उपलब्ध मन्दिरोंमें यह मन्दिर सबसे बड़ा और एक प्राचीन बड़े स्तूपके अन्दर एक पिटारा प्राप्त हुभा था, महत्वपूर्ण है। यह मंदिर पुराने शहरके मध्यमें है। और जिसमें ईस्वीपूर्व तृतीय शतानीके मौर्यसम्राट अशोकके
कृष्णपाषाणका दो खनका बना हमा है। यहांके निवासी समयके पक्षर ज्ञात होते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनीलांग इस मन्दिरको अपना मन्दिर बतलाते हैं। इतना कोल्हापुर एक प्राचीन स्थल है।
ही नहीं; किन्तु मन्दिरकी भीतों और गुबजों पर बहुतसी इस राज्यको सबसेपदी विशेषता यह है कि कांव्हा नग्न मूर्तियां और लेख अब भी अंकित है, जिनसे स्पष्ट पुर राज्यमें बत्तीस हमार जैन सैविबर (कृषक) है, जो प्रमाणित होता है कि यह मन्दिर जैन मंधका है। उक्त अपनी स्त्रियोंके साथ खेतीका कार्य करते है। बेतिहर मंदिरोंके पाषाण स्थानीय नहीं है किन्तु वे दूसरे स्थानोंसे अपने धर्मके सण उपासक और नियमोंके संपाकरे, बाकर लगाये गये हैं। उनमें कलात्मक खुदाईका काम तथाबदेही ईमानदार है। वह अपने मागदाको अदाबतो. किया हुधा है, जो दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट किए बिना में बहुत ही कमलेशाते है।वना हो नहीं किन्तु अप- नहीं रहता। राध बनजाने पर भी अपवा निपटारा बाप ही कर लेते कोल्हापुर के पास-पास बहुतसी सविडत जैनमूर्तियाँ है। प्रकृतिवः पद और साइसी एवं परिश्रमी है, उन्हें उपलब्ध होती हैं। मुसबमान बादशाहोंने वीं वी अपने धर्मसे विशेष प्रेम है।कोल्हापुर राज्यके पास-पास शताब्दी में अनेक जैनमन्दिर बोरे और मूर्तियोंको संक्षित स्थानों जैनियोंने अनेक मन्दिर बनवाए है जिनमेंसे किया। जिससे उनका यश सदाके लिए कलंकित हो गया। कितने ही मन्दिर पाल भी मौजा है। वहाँ पर शक संवत् जब जैन बोग बाबापुरी पर्वत पर अंबाबाईका मंदिर बनवा १०१८ (विक्रम सम्बत् ११३) से कर सक सम्बत् .. हे। उसी समय राजा जयसिंहने अपना एक किला भी २८ (विक्रम सम्बत् ११)तको उत्कीर्द किये हुए बनवाया था। कहा जाता है कि यह सभा कोल्हापुरसे
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अनेकान्त
[किरण
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पत्रिम 1 मील दूर बीडनामक स्थानपर किया कोल्हापुरसे उत्तरमें बस मील दूर वर्ती एक नगर है करता था ।
जिसका नाम बदगांव है। यहां एक जैन मन्दिर है। जिसे साकी १२वीं शताब्दी में कोल्हापुरमें कलचूरियोंके आदप्पा भग सेठीने सन् १६६५ में चालीस हजार रुपया साथ जिन्होंने कल्य के चालुक्योंको पराजित कर दक्षिण खर्च करके बनवाया था। देशपर अधिकार कर लिया था। चालुक्यराजाभोंके साथ इसी तरह कोल्हापुर स्टेटमें और भी अनेक ग्रामों में शिलाहार राजाओंका एक युद्ध हुआ था। उस समय सन्. प्राचीन जैन मन्दिरोंके बनाये जानेके समुल्लेख प्राप्त हो
(विक्रम सं० ११)से १२०६ (वि० सं० १३. सकते हैं। कोल्हापुर और उसके पास पासमें कितनेही १४ में शिलाहारराजा भोज द्वितीयने कोल्हापुरको अपनो शिलालेख और मूर्तिलेख है जिनका फिर कभी परिचय राजधानी बनाया था। और वहमनी राजाओंके वहाँ भाने कराया जावेगा। तक कोल्हापुरमें उन्हींका राज्य रहा।
इस नगरमें चार शिखर बंद मंदिर है और तीन चैत्या इस प्रदेशपर अनेक राजवंशोंने-अश्वभृत्य, कदम्ब, लय है । दिगम्बर जैनियोंकी गृह संख्या दिगम्बर जैन राष्ट्रकूट, चालुक्य, और शिलाहार राजाओंने-राज्य किया डायरेक्टरीके अनुसार २०१ और जन संख्या १०४६ है। है। चालुक्यराजाओंसे कोल्हापुर राज्य शिलाहार राजाओं वर्तमानमें उक संख्यामें कुछ हीनाधिकता या परिवर्तन नहीन लिया था। १३वीं शताब्दीमें शिलाहार नरेशोंका होना सम्भव है। शहरमें यात्रियोंके ठहरनेके लिये दो धर्मबन अधिक बढ़ गया था, इसीसे उन्होंने अपने राज्यका शाजाएँ हैं जो जैन मन्दिरोंके पास ही है । एक दिगम्बर यथेष्ट विस्तार भी किया। ये सब राजा जैनधर्मके उपासक मैन बोरिंग हाउस भी है, उसमें भी यात्रियोंको ठहरनेकी थे। इन राजाभोंमें सिह, भोज, बल्लाल, गंडरादिस्य, सुविधा हो जाती है। विजयादित्य और द्वितीय भोज नामके राजा बड़े पराक्रमी जैन समाजके सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् डाक्टर
और वीर हुए हैं जिन्होंने अनेक मंदिर बनवाए और ए. एन. उपाध्ये एम. ए. हो. लिट् उक्त जैन बोर्डिङ्ग उनकी पूजादिके लिए गांव और जमीनोका दान भी हाउस में ही रहते हैं। भाप स्थानीय राजाराम कालिजमें दिया है।
प्राकृत और अर्धमागधीके अध्यापक है । बड़े ही .. कोल्हापुरके 'भाजरिका' नामक स्थानके महामण्ले- मिलनसार और सहृदय विद्वान है, जैन साहित्य और श्वर गण्डरादित्यदेवद्वारा निर्मापित त्रिभुनतिलक नामक इतिहामके मर्मज्ञ सुयोग्य विचारक, लेखक तथा भनेक चैत्यालयमें शक सं० ११२७ (वि. स. १२६.) में अन्योंके सम्पादक है। आप अध्यापन कार्यके साथ-साथ मूलसंघके विद्वान मेषचन्द्र विद्यदेवके द्वारा दीक्षित सोम साहित्य सेवामें अपने जीवनको लगा रहे हैं। श्रीमुख्तार देव मुनिने शब्दार्गवर्चान्द्रका नामक वृत्ति रची थी, जो साहव और मैंने अापके यहां ही भोजन किया था। प्राप प्रकाशित हो चुकी है।
उस समय अन्य कार्यमें अत्यन्त व्यस्त थे, फिरभी आपने शिलाहार राजा विजयादिस्यके समयका एक शिला चर्चाके लिये समय निकाला यह प्रसन्नता की बात है। लेख वमनी प्राममें शक सम्वत् १०७३ वि. सं. १२०८ मापसे ऐतिहासिक चर्चा करके बदी प्रसपता हुई। समाजका प्राप्त हुआ है, जो एपिग्राफिका इंडिकाके तृतीयभागमें को मापसे बड़ी प्राशा है। पाप चिरायु हों यही हमारी मुद्रित हुआ है, यह लेख ४४ लाइनका पुरानी कनदी मंगल कामना है। संस्कृत मिश्रित भाषामें उत्कीर्ण किया हुआ है, जिसमें कोल्हापुरमें भट्टारकीय एक मठ भी है, और भट्टारक बतलाया गया है कि राजाविजयादित्यने चोडहोर-काम- जी भी रहते हैं। उनके शास्त्रमंडारमें अनेक ग्रन्थ है। गावुन्द नामक प्रामके पारवनाथके दिगम्बर जैन मन्दिरकी अभी उनकी सूची नहीं बनी है। केशववर्गीकी गोम्मटअष्टद्वन्यसे पूजा व मरम्मतके खिये नावुक गेगोल्ला जिलेके सारको कर्नाटकटीका इसी शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है, मूदलूर ग्राममें एक खेत और एक मकान श्रीकुन्दकुम्दान्वयी और भी कई अन्योंकी प्राचीन प्रतियां अन्वेषण करने पर श्रीकुलचन्दमुनिके शिष्य श्रीमाधर्नान्दसिद्धांत देवके शिष्य इस मंहार में मिनेगी। यहांका यह मठ प्राचीन समयसे भीमनिन्दि सिद्धान्तदेवके चरव धोकर दान दिया। प्रसिद्ध है। यहां पर पं. माशापरजीके शिय वादीन्द्र
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किरण ७]
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
[२३०
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विशालकीर्तिभी रहे हैं। कोल्हापुरसे चलकर हम लोग अतः खारा पानीका ही उपयोग करना पड़ा। और भोज' स्तवनिधि पहुँचे।
मादिमे निवृत्त होकर बजेके करीब हमलोग चाराय स्तनिधि दक्षिण प्रतिका एक सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र पहनके लिए चलदिये । और 1 बजेके करीब चाराय है। यहां चार मन्दिर व एक मानस्तम्भ है। मन्दिरके पहन पहुंच गए। और सराय पहनसे ८॥ बजे चलकर । पीछेके महातेकी दीवाल गिर गई है जिसके बनाये जानेकी बजेके करीब श्रवणबेलगोल (श्वेतसरोवर) पहुँच गए, रास्तेमावश्यकता है। यहां लोग अन्य तीर्थक्षेत्रीकी भांति मान- चलते समय श्रवणबेल्गोल जैसे २ समीप पाता जाता मनौती करनेके लिये आते हैं। उस समय एक बरात आई भा। उस जाकप्रसिद्धमूर्तिका दूरसे ही भम्य दर्शन होता हुई थी, मन्दिरोमें कोई खास प्राचीन मूर्तियां ज्ञात नहीं जाता था। और गोम्मटेश्वर की जयके नारोंसे प्रकाश गूंज हुई। यह क्षेत्र कब और कैसे प्रसिबिमें पाया । इसका कोई उठता था रास्तेका दृश्य पदाही सुहावना प्रतीत होता इतिवृत्त ज्ञात नहीं हुमा । हम लोग सानंद यात्रा कर भा। और मूर्ति के दूरसे ही दर्शन कर हृदय गद्गद् हो बेलगांव और धारवाड होते हुए हुबली पहुंचे। और रहा था। सभीके भावों में निर्मलता, भावुकता और मूर्तिके हुबलीसे हरिहर होते हुए हमलोग दावणगिरि पहुँचे । संठ समीपमें जाकर दर्शन कर अपने मानवजीवनको सफल जीकी नूतन धर्मशालामें ठहरे । धर्मशालामें सफाई और बनानेकी भावना अंतरमें स्फूर्ति पैदा कर रही थी, कि पानाकी अच्छी व्यवस्था है। नैमित्तिक क्रियानासे इतने में श्रवणबेलगोला गया । और मोर अपने निवृत्त होकर मंदिरजी में दर्शन करने गये। यह मंदिर अभी निश्चित स्थान पर रुकगई । और सभी सवारियाँ गम्मटकुछ वर्ष हुए बनकर तय्यार हुआ है। दर्शन-पूजनादि देवकी जयध्वनिके साथ मोटरसे नीचे उतरीं । और यही करके भोजनादि किया और रातको यहां ही भाराम किया, निश्चय हुआ कि पहले ठहरनेको व्यवस्था करने बादमें सब
और सबेरे चारबजे यहांसे चलकर एक बजेके करीब पार- कार्यों से निश्रित होकर यात्रा करें । अतः प्रयत्न करने पर सीकेरी पहुँचे, वहां स्नानादिसे निवृत्त हो मन्दिरजीमे दर्शन गाँवमें ही एक मुसलमानका बड़ा मकान सौ रुपये किये । पार्श्वनाथकी मूर्ति बनी ही मनोज्ञ है । एक शिला- किराये में मिल गया और हमलोगोंने " बजे तक लेम्व भी कनादी भाषामें उत्कीर्य किया हुमा है। यहां सामानमादिकी व्यवस्थासे निश्चित होकर स्थानीय समय अधिक हो जानेसे मीठे पानीके नल बंद हो चुके थे. मन्दिरों के दर्शनकर पाराम किया । क्रमशः परमानन्द जैन
विवाह और दान श्रीबाला राजकृष्णजी जैनके लघु भ्राता लाला हरिश्चन्द्रजी जैनके सुपुत्र बाबू सुरेशचन्द्रका विवाह मथुरा निवासी रमणलाल मोतीलालजी सारावानीकी सुपुत्री १० सुशीला कुमारीके साथ जैन विधिसे सानन्द सम्पन्न हुभा। वर परकी भोरस १०००) का दान निकाला गया, जिसकी सूची निम्न प्रकार है:१०१) वीर सेवा मन्दिर, जैन सन्देश, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, मधुरा, अग्रवाल कालेज मथुरा अग्रवाल कालेज मथुरा,
अग्रवाल कन्या पाठशाला मथुरा प्रत्येक को एक सौ एक। . २१) वाली संस्थाएं स्यावाद महाविद्यालय बनारस, उदासीनाश्रम ईसरी, अम्बाला कन्या पाठशाला, समन्द्रभद्र विद्यालय २५) जैन महिलाश्रम, देहली। अग्रवाल धर्मार्थ औषधालय, मथुरा, गौशाला मथुरा प्रत्येक को २५) २१) मन्दिरान मथुरा, जयसिहपुरा, वृन्दावन चौरासी, घिया मंडी, और पाटी। जैन अनाथाश्रम देहली। ___ भाचार्य नमि सागर औषधालव देहली हर एक को इक्कीस । ११) वाली संस्थाएं और पद जैन बाला विश्राम भारा, मुमुच महिलाश्रम महावीर जी, जैनमित्र सूरत । ७) परिन्दोंका हस्पताल, बालमन्दिर. देहली। २) अनेकान्त, जैन महिलादर्श, अहिंसा, वीर, जैन गजट देहली, प्रत्येक को पांच । ।) मनिवाडर फीस ।
बीरसेवामन्दिरको जो 1.1)रुपया विक्विग फंडमें और अनेकान्त को १) रुपया जो सहायता प्रदान किये हैं। उसके लिये दातार महोदय धन्यवादके पात्र है।
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साहित्य परिचय और समालोचन
तीर्थकर बदमान-लेखक श्री रामचन्द्रजी राम- है। अबकी बार समुदत वाक्योंके नीचे उस प्रन्यका नाम पुरिया बी. कॉम. एस. । प्रकाशक, हम्मीरमा पूनम मय उद्देशादिके दे दिया गया है। प्रस्तावना गाक्टर भगचन्द गमपुरिया, सुजानगढ़ (बीकानेर) । पृष्ठ संख्या वान दासजी लिखी है। छपाई-सफाई अच्छी है। ४७० । मूल्य जिन्द प्रतिका) रुपया।
कुण्डजपुर लेखक'नीरज' जैन । प्रकाशक पं. मोहनलाल प्रस्तुत पुस्तकका विषय उसके नामसे ही स्पष्ट है। जने शास्त्री, पुरानी घरहाई जवनपुर (मध्यप्रदेश) इस पुस्तक में तीर्थकर बईमानका श्वेताम्बरी मान्यतान- पृष्ठ संख्या २८ मूल्य पांच माना। साप परिचय दिया गया है। इस पुस्तकके दो भाग अथवा प्रस्तुत पुस्तकमें 'नीरज' जीने ५२ बखित पोंमें खगड हैं। जिनमें से प्रथममें महावीरका जीवन परिचय है कुण्डलपुर क्षेत्रका परिचय देते हुए वहां की भगवान्
और दूसरेमें उत्तराध्ययनादि सूत्रयोंपरसे उपयोगी महावीर की उस सातिशय मूतिका परिचय दिया है। विषयोंका संकलन सानुवाद दिया गया है और उन्हें शिक्षा- कविता सुन्दर एवं सरल है। और पढ़ने में स्फूर्ति दायक पद, निर्गन्धपद, दर्शनपद और कान्तिपदरूप चारविभागो- है। कविता के निम्न पोंको देखिये जिनमें कविने में यथाक्रमविभाजित करके रक्खा है। इन दोनोंमें जो मूर्ति भंजक प्रारंगजेब की मनोभावना का, जो टाकीलेकर सामग्री दी गई वह उपयोगी है।
मूर्तिके भंग करने का प्रयत्न करने वाला थापरन्तु यह खास तौरसे नोट करने लायक है कि तीर्थ- वईमानका जीवन-परिचय अपनी साम्प्रदायिक सबसे आगे औरंगजेब, करमें टाँको लेकर पाया। मान्यतानुसार ही दिया गया है। उसमें कोई नवीनता पर जाने क्योंकर अकस्मात उसका तन भौ' मन बर्राया मालूम नहीं हाती । दि प्रस्तुत ग्रन्थमें भगवान महापोरके जीवनको असाम्प्रदायिक रूपसे रक्खा जाता वह बोतराम छवि निनिमेष, अब भी पैसी मुस्काती थी तो यह अधिक सम्भव था कि उससे पुस्तक उपयोगी हो थी अटल शाँति पर लगती थी उसको उपदेश सुनाती थी नही होती, किंतु असाम्प्रदापी जनोंके लिए भी पठनीय और संग्रहपीय भी हो जाती। पुस्तककी प्रस्तावना
सुन पड़ा शाहके कानोंमें, मिट्टीके पुतले सोच जरा, बाबू यशपालजीने लिखी है।
यह भावार, धनधान्य सभी-कुछ,रह जावेगा यहीं धरा फिर भी श्रीचन्द्रजी रामपुरियाने उक्त पुस्तकको
२१ सरल और उपयागी बनानेका भरसक प्रयत्न किया है। 'जीवनकी पारामें भव मी, तू परिवर्तन ला सकता है इसके लिए ये बधाइके पात्र हैं। पुस्तकको बपाई और
अप भी भवसर है भरे मूढतू'मानव'कहला सकता है गेटअप, सुन्दर है।
२ महावीर वायी-सम्पादक, पं पेचरदासजी दोशी, अहमदाबाद । प्रकाशक, भारत जैन महामान बर्षा। सुनकर कुछ चौका बादशाह, मस्तक भन्नाया सारा पृष्ठ संख्या सब मिला कर २७०, साइज छोटा, मूल्य सवा अब तक कृत्यों पर उसके, मनने उसको ही विकारा दो रुपया।
उक्त ग्रन्धका विषय उसके नामसे स्पर प्रस्तुत यह भ्रम या अथवा सपना थाया मेरीहोमविभूलीथी पुस्तक श्वेताम्बरीय मागम अन्योंपरसे उपयोगी विषयों प्रतिमा कडबोली नहीं, किन्तु-यह सदा-गैर मामलीथाः का चयनकर उन सानुवाद दिया गया है। और पीसे पुस्तक प्रकाशकसे मंगाकर पड़ना चाहिये। उनका प्रथम परिशिष्ट संहत अनुवाद भी दिया गया
-परमानन्द शास्त्री
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जेनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-अन्याको पद्यानुक्रमणी. जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोमे
उद्धृत दूसरे पोकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पय-वाक्योंकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए, डी. लिट् के प्राकथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) में भूषित है, शोध-वोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
जिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२ आप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वीपज्ञ सटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुदर
मरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिमे युक्त, सजिल्द ।
...
... (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयांगी परिशिष्टांसे अलंकृत, सजिल्द । ... { ४) स्वयम्भूस्तात्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हई महत्वकी गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ठकी प्रस्तावनामे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोग्बी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिम अलंकृत मुन्दर जिल्द-सहित ।
..". .in) (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित ।
) (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसं परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था । मुख्तारश्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, सजिल्द। .. ११) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " ॥) () शासनचतुम्बिशिका-( तीर्थपरिचय )-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दो
अनुवादादि-सहित। ... (१० सत्साध-स्मरण-मगलपाठ--श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणांका
महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि-सहित । (११) विवाह-समुहेश्य मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन ... ॥) (१२) अनकान्त-रस लहरी-अनकान्त जैस गृढ गम्भीर विषयको अवती सरलतासे समझने-समझानेकी कुजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिग्वित । ११३, अनित्यभावना-श्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्य सहित ) (१) तत्त्वार्थमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । (१५ श्रवणबेल्गाल आर दक्षिणके अन्य जैनताथ क्षेत्रला . राजकृष्ण जैनकी सुन्दर सचित्र रचना भारतीय
पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टी०एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ।) नोट-थे सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालाको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर,१ दरियागंज, देहली
लाम्बत।
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००)बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, + २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी, ..
२५१) बा. सोहनलालजी जन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी , १०१) बा० धनंजयकुमारजी ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , १०१) बा० जीतमल जो जैन ५१) बा० दीनानाथजी सरावगी , १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी , २५१)पा० रतनलालजी झांझरी , १०१) वा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राचा २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १०१) ला महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजा मादीपुरिया, देहलो १) सेठ सुत्रालालजी जैन
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलका । १२४१)बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी , १०) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ ) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा १) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन
१८१) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा०जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली
१०१) बा०वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी हैन, देहली १०१) बा० बद्रीदास पात्मारामजी सरावगा, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली
१०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा०महावीरप्रसादजी एडवाकेट, हिसार २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि. हिसार
लारघवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) कुँबर यशवन्तसिहजी, हांसी जि हिमार। २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन,रांनो
१८१) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता ५१) सठ वीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी
'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहल *१०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, महारनपुर *१०१) ला०प.सादीलाल भगवानदासजी पाटनी, दहली *१०१) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन १०१) बाल घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी ,
सरसावा, जि. सहारनपुर
सहायक
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली । मुद्रक-रूप-चाणी प्रिटिंग हाउस २३, दरियागंज, देहली
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अनेकान्त
र माविको स्तर पर
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
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अनेकान्न वर्ष १२ किरा -
CTET
।
F
विन्ध्यगिरी पर गोमम्टेश्वर को विशाल मूर्ति (इनका वर्णन हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण नामक लेबमें देखिये)
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विषय-सूची
श्रीपारवनाय स्तोत्रम् [श्रुतसातारसूरि] हमारी-तीर्थ यात्राके संस्मरण
[परमानन्द जैन शास्त्री वामनावतार और जैन मुनि विष्णुकुमार
[श्री अगरचन्द्रजी नाहटा गोम्मटसार जीवकाण्डका हिन्दी पद्यानुवाद
६. परमानन्द जैन शास्त्री
२३६ जैनसाहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन
[पं० परमानन्द जैन शास्त्री २१ २४॥ ६हिन्दी जैन साहित्यमें अहिंसा
[कुमारी किरणवाला जैन २५६ २४० समयसारकी १५ वीं गाथा और श्रीकानजी म्वामी
[सम्पादकीय २६५ २१५ साहित्य परिचय और समालोचन
२७.
समाज से निवेदन 'अनेकान्त' जैन समाजका एक माहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मामिक पत्र है । उम में . अनेक खोज पूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं । पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनकर, तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाए । हमें केवल दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्रेणीमें नाम लिखाने वाले दो मौ सजनां की आवश्यकता है। आशा है समाजके दानी महानुभाव एक मौ एक रुपया प्रदानकर सहायकीणीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बंटायेगे।।
मैनेजर-'अनेकान्त' १ दरियागंज, देहली.
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(.) अनेकान्त के संश्नक' तथा महायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना नया दमरोंको बनाना । (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना। (५) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेट-स्वरूर अथवा को भिजवाना; जैसे विद्या-संम्या लायबेरियां,
सभा-सांसाइटियां और जैन-अजैन विद्वानोको । (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५),२०) श्रादिकी महायता भेजना। २५ की
महायतामै १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (१)अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको
प्रकाशनार्थ जुटाना। मोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंट
मैनेजर 'अनेकान्त' स्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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ॐ अहम
MAHE
नस्वन्सचातक
वार्षिक मूल्य ५)
meanuman एक किरण का मूल्य ॥)
SHEMISSIBE
PESABHA
नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुबनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः
वर्ष १२ किरण -
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरमेवामन्दिर, १ दरियागंज, दहली पौष वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०१०
जनवरी १६५४
श्रुतसागरसरिकृत
श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम्
अनेकान्त वर्ष किरण में अनेकान्तके सम्पादक श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने प्राचार्य प्रभाचके पशिष्य मुनि पद्मनन्दीका 'जीरा पल्ली पार्श्वनाथ' नामका एक स्तवन प्रकाशित किया था,जिनका समय विक्रमकी ध्वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और १५वीं शताब्दीका पूर्वाध है। वह स्तोत्र उन्हें सन् १९४७ में कानपुरके एक गुटके परसे उपलब्ध हुभा था। 'जीरापल्ली' नामका एक अतिशय क्षेत्र है जिसमें भगवान पार्श्वनाथकी सातिशय दिगम्बर मूर्ति विराजमान थी। यह क्षेत्र दिगम्बर समाजका था । भट्टारक पमनन्दि और श्रुतमागरमूरिश्रादिने उसकी वंदना की तथा स्तवन बनाये। परन्तु भाजहमें उसका पता भी नहीं है। इसी तरह हमने अनेक तीर्थक्षेत्रोंको उपेनासे छोड़ दिया है। विद्वानोंको इसका पता लगाना चाहिये। श्वेताम्बर समाज में भी 'जीरापल्ली' नामका भतिशय क्षेत्र माना जाता है। संभव है उसी स्थानपर दोनोंका एकही सम्मिलित क्षेत्र रहा हो, अथवा उसी स्थानपर उभय सम्प्रदायके अलग-अलग मन्दिर रहे हो. कुछ भी इस विषयमें वादको प्रकाश डालनेका यत्न किया जायगा।
अभी हाल में दिखीके धर्मपुराके नये मन्दिरका शास्त्रभरडार देखते हुए ..के गुटके में श्रीश्रतसागरसरिके दो नवीन अप्रकाशित स्तोत्र प्राप्त हुए हैं जिनमें प्रथम स्तोत्र शान्तिनाथका है और दूसरा 'जीरापल्ली पार्श्वनाथका स्तवन है। इन दोनों में पार्श्वनाथका यह स्तवन बड़ाही महत्वपूर्ण है। इस स्तवनकी बह खास विशेषता है कि उसमें भगवान पार्श्वनाथका पूरा जीवन परिचय १५ पचों में अंकित किया गया है और उनके तीर्थ में होनेवाले मुनि-श्रावकादिकी संघ-संख्याका भी निर्देश निहित है । रचना ललित और पढ़नेमें इचिकर प्रतीत होती है। यह स्तोत्र याद करने योग्य और संग्रहणीय है।
-परमानन्द मैन
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श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् । श्रीमत्योतनपत्तनाधिपसदाचारारविंदप्रभो मान्योऽभूत्किल विश्वभूत्यभिधिया विप्रः पुरोधा बुधैः।। कांता कांतिमदास्य निर्जितसुधा सूतिर्वरानुधरी, तस्य श्रीमरुभूतिरूतिचतुरः पुत्रस्तयोर्मामव ।। १ ।।
तदनु मलयभूधे सल्लकीसद्वनेभूः, शठ-कमठ-हतासुर्व घोषः करीन्द्रः ।
निजनृपमुनिदत्तश्रावकाचारचंचुश्चतुरसुरनिषत्र्यः सत्सहस्रारदेवः ॥२॥ ताराद्रो वरपौष्कलावतमित दुर्ग त्रिलोकोत्तम, विद्यद्गत्यभिधानखेचरतडिन्मालांगजन्माऽजनि । | निष्कान्तोऽत्र समाधिगुप्तनिकट प्रालयशैले शयप्तिप्राणविमर्जनो दिशतु वो देवोऽग्निवेगः श्रियं ॥३॥
सुरयुवति मनोऽभो जन्मनालीकिनीष्टः, प्रभु रजनि विमाने पुष्करेंत्य गुलोकं । नव रिपुरपिरेफप्रेरितोऽगादुरात्मा विमहशदशायुर्वाहमःश्वभ्रमध्ये ॥ ४ ॥ इहापरविदेहपद्मगतवाहपूर्नायकप्रमोदर्यादवज्ञवीर्यविजयात्तनूजोत्तमः ।
षडंगबलयुक्तपोनिधिरभूरभूतद्रह, कुरंगविशिवक्षतौ विमदवज्ञनाभीश्वरः ॥५॥ देवत्वं भवसिस्मविस्मयकरावयके पंचमे, पुण्यप्राप्त सुभद्रनानिविमानेहं मुराधीश्वरः । श्रीमत्काश्यपगोत्रपूर्वनगरश्रीक्ष्वाकुवंशप्रभं, कार्यानंददवज्ञ बाहुनृपतेरानंदनामा सुतः ॥ ६॥
स्वामीहिनसचिवविरचितजिनापविनिविपुलमनिकृतप्रश्नः ।
सागरदत्तात्ततपः क्षीरवनेसिंहधृनगलः शमिनः ॥ ७ ॥ । त्वं सार्द्धत्रिकरो जिन प्रकृतिभाग्दिव्यानते प्राणतं, विंशयन्धिमितायुराम्पदमितो धूमप्रभा-बोधनः ।
तावद्वर्षसहस्रमुक्तिरमराधीशैः कृतः प्रार्चनो, निःश्वामं भजसे दशम्वपिसमाशाग्वाम्बनीताम च ॥ ८ ॥ वमीष्टो विश्वसेनः शतमखरुचिनः काशिवाराणसीशः, प्राप्नेज्यो मरुभृग मरकनर्माणरक्पार्श्वनाथा जिनन्द्रः। तस्याभूस्त्वं तनूजःशनशरचितम्बायुरानंदहेतुर्भव्यानां भाव्यमानो भव कतधियां धर्मधुर्यो धरियां ॥६॥ स्वामिन पोडशवार्षिकेण भवता माता महस्तापम-श्छिदन काष्टमहीप्रबोध्य म महीपालो विमानीकृतः ।। वेश्मागाश्चसुभौमराजतनुजे नामाकुमारोवनं, त्रिंशद्वर्पमितो गतोमि तपसऽयाध्यापतेर्वर्णनात् ॥ १० ॥
श्राश्रित्याष्ट्र ममोपवस्त्रमवनीनाथ त्रिशत्यावृतो, भुक्त्वा ब्रह्ममहीपतेः शुचिगृहे श्रीगुल्मविटाम्पदे। । चातुर्माम्य मथातिबाह्यनपमा समाहयोगःकृती, सात्येनः किल सवरेण कुधिया शेप व्यपनाहिनः ।। ११ ।। । श्रुत्वाकेवलबोध वैभवमिदं दृष्टवा च ते तापमाः। पाइद्वंद्वगति शतापिगता प्रापत्रिलोकीपने । । आमन्तेदशगण्य गीर्गणधराः श्रीमत् म्वयंभूमुग्वाः, शून्यग्निमिनाश्च पूर्वचतुराश्चनश्चमत्कारिणः ।। १२ ।। । । रंध्राणि द्वि वियद्युतानि निरताः शश्वत्कृत शैक्षिकाः, मंतो विष्णुपदद्वयाहतगुणं स्थानावधिज्ञानिनः ।
भास्वत्केलिनः सहस्रमृषयस्तद्वहता विक्रिया-महन खत्तमप्रममिनियुता श्रीमन्मनःपर्ययाः ॥ १३ ॥ अष्टवेचशनानिदुर्मतभिदः स्याद्वादिनो वादिनः, मान्यः ग्वत्रयपद्भिमिनिमिनालक्षं तथोपामकाः । लक्षाम्निम्र उपासिकान गणिनादेवाश्चदेव्यो बुधै-निर्यचोमितकीर्तनश्चभगवन पुज्यम्त्वमभिः श्रियैः ।। १४ ॥ त्रैलोक्य स शिरोविभूपणमणे मम्मेदमुक्तेविभो, जीरापल्लिपुरप्रकृष्टमहिमन मौकुन्दमेवानिगे। श्रीमत्पाजिनंद्र चंद्रचलनालग्नस्य दामम्य मे, नाम्नव श्रुतमागरस्य शिवकृद्ध यान्भवोकिछत्तये ।। १५ ।।
॥ इति पार्श्वनाथ स्तोत्रं समाप्तम् ।।
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हमारी तीर्थ यात्राके संस्मरण
(परमानन्द जैन शास्त्री) श्रवणबेलगोल नामका एक छोटासा गांव है, वहाँ की भक्ति तत्पर रहते थे। जैनधर्मके संपोषक और जैन जैनियोंके मन्दिरों भादिके अतिरिका अन्य कोई वस्तु देखने साधुओंको माहारादि देने, जैनमन्दिरोंका निर्माण एवं जीणोंयोग्य नहीं है। इस प्रामके दक्षिणकी ओर वियागार वार करने और मैन पुराणोंको सुनने के विशेष उत्साहको खिचे और उत्तरकी भोर चन्द्रगिरि मामक पहाब हैं। इन पर्व हुए थे। इसकी उपाधि सम्यक्त्व चूडामणि थी। इनके गुरु तांके मध्यमें श्रवणबेलगोल ( श्वेत सरोवर ) नामका गाँव कुक्कुटासन मलधारीदेव थे। हुल्लराजकी धर्मपत्नीका नाम बसा हुआ, जिसे जैनबद्री भी कहा जाता है। यह गांव पदमावतीदेवी था। मंत्री हुल्लराजने नयकीर्तिमुनिके शिष्य मैसूरराज्यके हासन जिलेका प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। भानुकीर्तिको नरसिंहदेवके विजययात्रासे लौटने पर इस यह स्थान कितना सुरम्य है इसे बनानेकी अावश्यकता मन्दिरकी रक्षार्थ 'सवणूरु' नामका एक गाँव घारापूर्वक नहीं।, यह स्थान अनेक महर्षियोंकी तपोभूमि और समा- दान में दिया था। कोपण में नित्यदानके लिये वृत्तियोंका घिस्थान रहा है। यहाँ अनेक शिक्षालेख, विशाल मूर्तियाँ प्रबन्ध किया । गङ्गनरेशों द्वारा संस्थापित प्राचीन 'केलंप्राचीन गुफाएँ और अनेक भन्यमन्दिर विद्यमान है। यह गैरे' में एक विशाल जिनमन्दिर, और अन्य पाँच जिनपही स्थान है जहाँ ईसाकी तीसरी शताब्दी पूर्व भद्रबाहु मन्दिर निर्माण कराये । श्रवणबेल्गोल में परकोटा रंगशाला अतकेवलीने समाधिमरण पूर्वक दहोत्सर्ग किया था। तथा दो पाश्रमों सहित इस चतुर्विशति तीर्थंकर मंदिरका और उनके शिष्य मौर्यसाम्राट चन्द्रगुप्तने अपने गुरु भन्द- निर्माण कराया । इस वस्तिमें चतुर्विशति तीर्थकरोंकी प्रतिबाहुकी चरण पूजा करते हुए अपना शेष अन्तिम जीवन माएं प्रतिष्ठित हैं। इसी कारण इस मन्दिरको चतुर्विशति म्यतीत किया था। प्राचार्य भद्रबाहुने इन्हें दीक्षित किया वसति भी कहा जाता है यह मन्दिर बड़ी विशालताको था, इनका दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र रक्खा गया था। इसी लिए हुए है, और बड़े-बड़े पाषाणोंसे निर्मित है। इस स्थान पर मंगवंशी राजा रायमल द्वितीयके सेनानी, वैरी- मन्दिरमे गर्भगृह, नवरंग, द्वारमाप और उसके चारों कुखकालदण्ड रणराजसिह, समरधुरधर आदि अनेक पद और एक प्राकार (कोट ) बना हुमा ।इस मन्दिरके विभूषित महामात्य राजा चामुण्डायने बाहवनीकी विशाल सामने एक मानस्तम्भ और एक पाएकशिना भी मूर्तिको उद्घाटित कर सन् १०२८ में उसका प्रतिष्ठा बनी हुई है जिसे वहकि साहूकार चन्द्रव्याने बनवाया था कार्य सम्पस किया था। ऐसा प्रवणबेगोलके शिलालेखोंसे भडारबस्तिके पश्चिमकी मार जो शक सं. १08 ज्ञात होता है। राजा चामुण्डरापप्राचार्य भजितसनके शिष्य का शिलालेख अंकित है। उसमें होय्यसल नरेश नरसिंहके थे । गोम्मटसारके कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त- वंशका विस्तृत परिचय दिया हुआ है और चतुर्विशति चक्रवर्तीने कर्मकाण्डकी अन्तिम प्रशस्तिमे भगवान् मन्दिरकी वन्दनाकर 'सवणूस' प्रामके दानके उलेखके साग नेमिनाथको एक हस्त प्रमाण इन्द्रनीलमणिमय प्रतिमाके उनके लघुभ्राता लक्ष्मण और अमरका नाम भी उत्कीवि चामुण्डराय द्वारा बनाये जानेका उल्लेख किया है।x है। नरसिंहदेवने इस मन्दिरका नाम 'भव्य चूडामणि'
इस गांवम उक्त दोनो पहाबोंके अतिरिक्त अनेक जैन रक्खा था। इस लेख में हुल्लय्याटेगडे, और बोकय्य बसदि अथवा मन्दिर विद्यमान हैं जिनका परिचय निम्न आदिके द्वारा प्रार्थना पत्र देकर गोम्मटपुरके कुछ टैक्सोंका प्रकार है:
दान इस चतुर्विशति कम्तिको करानेका उल्लेख भी उत्की१ भण्डारवसदि-यह मन्दिर होयसल वंशके प्रथम
र्णित है। लेखका अन्तिम भाग बहुत घिस गया है वह राजा नरसिंह राजके कोषाध्यक्ष अमात्य (भण्डारी) हुल्ल
साफ नहीं पढ़ा जाता। दर्शन मण्डपमें ब्रह्मदेव और राजमे शकसं. 10. वि. सं.२ में बनवाया था
पद्मावतीकी मूर्तियां प्रतिष्ठित है। इस पसदि में कई शिलाइस कारण इसका नाम भंडारवस्ति पदा। हुल्लराज वानि
लेख भी अंकित हैं जिसमें इस मन्दिरके बनवाए जाने पीपराज और लोकाम्बिकाके पुत्र थे। वे सदा जिनेन्द्र प्रादिका उक कथन दिया है। शकसं० १२०.वि.
देखो, चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख नं.१ सं० १३३५ के एक शिलालेखमें इसी भयडारियवसतीके देखो, गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा नं. १२ देवर वस्लमदेवके निस्य अभिषेकके लिए उदयचन्ददेवके
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अनेकान्त
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शिव्य मुनि चन्द्रदेवादिने उक्त चन्देकी रकम एकत्रित सिद्धान्तवसदिहमा है। शक सं. १५२०वि० सं०१.. की थी।
१५ में किसी यात्रीने इसमें चतुर्विशति तीर्थकरोंकी एक २ अकनवसदि-यह वसदि चन्द्रगिरि पर्वतके नीचे मूर्तिको प्रतिष्ठित कराकर विराजमान किया है। अब इस बनी हुई है, जिसे शिलालेख नं. १२४ ३२०, के अनु- मन्दिर में सिद्धान्त ग्रन्थ नहीं रहे, ये मूडबिद्रीके सिद्धान्त सार होय्यसन वंशके द्वितीय राजा बलालके ब्राह्मण मन्त्री मन्दिरमें विराजमान हैं। चन्द्रमौलीके जैनधर्मावलम्बी होनेके बाद उनकी प्रचियका दानशाला वसदि-इस वस्तिका का निर्माण हुमा, नामकी पत्नीने शक संवत् ११०३ (वि० सं० १२३८) में
वत् १०३ (वि० स० १२५८) म यह कुछ ज्ञात नहीं है। परन्तु चिदानन्द कविके शक संवत् बनवाया था। मंत्रीके इस कार्यसे सन्तुभ होकर राजाने
१६०२ में रचित 'मुनिवंशाभ्युदय' नामक ग्रन्थसे इतना इस वसदिकी पूजनादि व्यवस्थाके लिये 'बम्मनहडि' नाम
जरूर ज्ञात होता है कि मैसूरके राजा दोहदेव राजवडयरके का एक प्राम दानमें दिया था। प्रचियका या भाचलदेवी- राज्यकालमें युवराज चिकदेवने सन् १६५६-७२ में इस केशारा निर्मित होनेके कारण इसका नाम अक्कनवसदि देवालयमें प्राकर पंचपरमेष्ठियोंकी मूर्तियोंके दर्शन कर इस पदा है। इस मन्दिरम गर्भगृह सुखनिवास नवरंग और वस्तिके सेवा-कार्यके लिये 'मदनेड' नामका एक ग्राम मुखमंडप है। गर्भगृह में भगवान पार्श्वनाथको सुन्दर मूर्ति दानमें दिया था। विराजमान है विग्रहके उपर सप्तफयवाला सर्व बना ६मंगायि वसदि-इस मंदिरमें गर्भगृह, सुखनासि हमा है और प्रभावली (भामयडन) में चतुर्विशति तीर्थ- दर्शनमाप है। गर्भगृह में शांतिनाथ भगवानकी॥ फुटकी करोंके चित्र अंकित है। गर्भगृहके सामने धरणेन्द्र और प्रतिमा विराजमान है। गर्भगृहके द्वारके दोनों भोर चमर पद्मावतीकी ३॥ फुटकी मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं। इस धारी ५ फुट उंची दो मूर्तियाँ है मुखमयसपमें वर्धमानवसदिमें कसौटीके अन्दर खम्मे जगे हुए हैं, जिनमें दर्श स्वामीकी मर्ति स्थापित है। इस मूर्तिके पीठमें एक शिलाकोंकि मुख प्रतिविम्बित होते हैं। ऊपर मन्दिरमें पूर्व चित्र- लेख नं. ४२६ (३३८) उस्कोर्णित है। इस मन्दिरके कखाके दर्शन होते हैं। मन्दिरके ये खम्भे बड़े ही दरवाजे में दो सुन्दर हाथी बने हुए हैं। शिलालेख कीमती है।
नम्बर १३२ (३१) ४३. (३३१) से पता ३नगर जिनालय-इस मन्दिरका निर्माण होय्य- चलता है कि श्री चारुकोतिकी भका और शिष्या 'मंगायि सन वंशके द्वितीय राजा बल्लालके नगर थोष्ठी तथा सम्माने इस मन्दिरका निर्माण कराया था इस कारण बम्मदेवहेगडे और जगवईके पुत्र और तथा नयकीति हमका नाम 'मंगायि बसदि' विभुत हुमा है। सिद्धान्तचक्रवर्तिके शिष्य मन्त्री नागदेव हेगडेने शक इस मन्दिरका दूसरा नाम त्रिभुवन चूदामणि है। सं० १११८ (.वि० सं० १२५३ ) में बनवाया था। नगरके ऐसा शिलालेख नं. १३२ (३४१) जिसका समय शक व्यापारियों द्वारा पोषित और संरक्षित होने पादिके कारण मम्वत् १२.७ के लगभग है, मालूम पड़ता है। भगवान इसका नाम 'नगरजिनालय' पड़ा है। इस मन्दिरमे गभ शान्तिनाथकी मूर्तिकी पीठमें उत्कीर्ण शिक्षालेखसे ज्ञात गृह, रंगमण्डप और दर्शन मण्डप हैं। गर्भगृहम भगवान होता है कि पंडिताचार्यकी शिष्या और देवराजकी रानी मादिनाथकी २० फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। शिला भीमादेवीने इसकी प्रतिष्ठा कराई थी । प्रस्तुत देवराज लेख १२२१२० से यह भी पता चलता है किन- विजयनगरके प्रथम देवराज जान पड़ते हैं। इस मन्दिरका यकी किंदेवके नाम पर 'नागसमुद्र' नामका एकतालाब भी जीर्णोबार कार्य गेरुसोप्पे गाँवके हिरियम्माके शिष्य गुम्मटने बनवाया था। जो इस समय 'जिगणे कट्ट' नामसे प्रसिद्ध शक सम्बत् ११३४ में कराया था। है। नयकीर्तिका समाधि मरण 1176 A. D. में हुअा ७. जैनमठ-यह मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है था। उनके शिष्य नागदेवने तब उनका स्मारक भी और न इसमें अधिक प्राचीन मूर्तियाँ ही हैं। जो मूर्तियाँ बनवाया था।
विराजमान है वे सब प्रायः १८वीं १९वीं सदीकी हात ४ सिद्धान्त वसदिइस मन्दिरके निर्माणके बहुत होती है। इस मठमें कागज पर लिखे हुए कई 'सनदपीछेसे सिद्धान्त अन्योंके रखने भादिके कारण इसका नाम पत्र' मौजूद है। मठमें बादपत्रीय प्रन्योंका एक महत्वपूर्ण
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किरण]
हमारी तीर्थ यात्रा के संस्मरण
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शास्त्रभण्डार है जिसे देखनेका मुझे उस समय कोई अव- ऊपर भी प्रकाशके प्रवाहकी (Feood eight) व्यवस्था सर नहीं मिला, मेलेके कारण देखना बड़ा कठिन था। हासन पुय्य स्वामी नामक श्रेण्ठि और उनके पुत्रोंकी मन्दिरों में दर्शन ही उस समय बड़ी कठिनतासे होता था। सहायतासे कई वर्षोंसे हुई है। जो रात्रिमें भी बराबर इस तरहसे यह नगर किसी समय अधिक सम्पन्न रहा है। मूर्तिका भव्यदर्शन करती रहती है। मैंने ता. २ मार्चके
श्रवण बेल्गोलके घासपास अनेक ग्राम हैं, उनमें जैन- प्रातःकाल गोम्टेश्वरकी उस दिव्यमूर्तिका साक्षात् दर्शन मन्दिर तथा अनेक शिलालेख पाये जाते हैं, जिन्हे लेख किया। मूर्तिकी वीतराग मुद्राका दर्शनकर चित्त में जो वृद्धिके भयसे छोड़ा जाता है। उनके देखनेसे यह स्पष्ट पाल्हाद, प्रानन्द तथा शान्ति प्राप्त हुई उसे वाणीक पता चलता है कि किसी समय श्रवणबेल्गालके आस-पास द्वारा प्रकाशमें लाना सम्भव नहीं है। बहुत दिनोंसे इस के प्र.म भी सम्पन और जैनियोंके आवाससे व्याप्त मूर्तिके दर्शन करनेकी प्रबल इच्छा बनी हुई थी, वह पूर्ण रहे हैं। परन्तु अब उन ग्रामोंमें जैनियोकी संख्या बहुत हुई, अतएव मैंने अपने मानव जीवनको सफल समझा। ही बिरल पाई जाती है जो नहींके बराबर है। जैनियोंकी वास्तवमें वह मूर्ति कितनी आकर्षक, सौम्य और वीतराइस हीनावस्थाके कारणोंके साथ वहाँ व्यापारिक व्यवस्था- गताकी निदर्शक है इसे वही जानता है जिसने उसका का न होना है। दक्षिण प्रान्तमें जैनियोके अभ्युदय और साक्षात् दर्शन कर अपनेको सफल बनाया है। मैंने स्वयं अवनतिका वह चित्र पर इस यात्रामें मेरे हृदयपर अंकित मूतिके सौन्दर्यका १५-२० मिनटतक चित्तकी एकाग्र दृष्टिसे हो गया है। अतः जब हम जैनधर्मके अभ्युदयक साथ निरीक्षण किया, तब जो स्तोत्र पाठ पढ़ रहा था वह स्वयं अपनी अवनति पर विचार करते है तब चित्तमे बड़ा ही ही रुक गया और ऐसा प्रतीत हुा कि जिमतरह किसी खेद और दुःख होता है।
दरिद्र व्यक्तिको अपूर्व निधिका दर्शन मिल जानेसे चित्तम विन्ध्यगिरि-स पर्वतका नाम 'दोडबेट्ट' अर्थात प्रसन्नता एवं मानन्दका अनुभव होता है उसी तरह मुझे बड़ा पर्वत है। समुद्रतलसे इसकी ऊंचाई ३३४७ फुट है
जो मानन्द मिला वह वाणीका विषय नहीं है। मूर्तिके और जमीनसे ४७० फुट ऊँचा है तथा उसका विस्तार पास जाकर दशक तक अपार सान्दय श्री चोथाई मीलके लगभग जान पड़ता है पर्वतको मधुरिमाका पान करते करते उसकी चित्तवृत्ति थककर भले गिरिरहसिया
ही परिवर्तित हो जाय परन्तु दर्शकी चिर पिपासित नीचेसे पहाड़के शिखरतक ऊपर जानेके लिये १०.सीदियाँ शाखें उस रूप-राशिका पान करती हुई भी तृप्त नहीं बनी हुई हैं। ये सीदियों पहारमें होकीर्यको है। होती । यही कारण है कि इन्द्र भी प्रभुको सहम्म्रो नेत्राये प्रवेशद्वारसे पहाड सन्दर जान पड़ता। अन्य पर्वतांक दम्वता हुचा भी तृप्त नहीं होता और सबसे अनठी बान समान वह बोहर अथवा भयंकर दिखाई नहीं देता।
तो यह है कि भगणित नर-नारी अपने रसज्ञ नेवासे उस
ता यह पाषाण चिकना और कुछ ढालूपनको लिये हुए है एक
मूतिके मौन्दर्य-सिन्धुका पान करते हैं परन्तु उसमें कोई दो पापाय तो इतने चिकने थे कि बालक उनपर बैठकर कमी नहीं पाती, वह पुन: देखने पर नवीन और पाश्चर्यउपरसे नीचे सरकते थे। पहायके ऊपर चारों तरफ कोट कारक प्रतीत होती है। जैसाकि माघकविके निम्नवाक्य उसमें एक बड़ा दरवाजा है जिसमें से उक्त मूर्तिके पास जाया पदस स्पष्ट ६.
माया पदसे स्पष्ट है-'पणे सणे यावतामुपैति तदेवरूप जाता है। मूतिके पीछे और बगल में कोठरियों बनी हुई रमय हैं जिनमें चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ विराजमान हैं। राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार, गरीब, अमीर, स्त्री. उस हातेके मध्यमें गोम्मटेश्वरकी १७ फीट ऊँची लोक पुरुष, वृद्ध, युवा और बालक जो कोई भी उस मूर्तिका प्रसिद्ध मूर्ति है। इस मूर्तिका मुख उत्तरकी ओर है, दर्शन करता है उसके हृदयमें उस मूर्तिकी पाश्चर्यकारक उपर मूर्तिका काई भाधार नहीं है, शिरके बाल घुघराले प्रतिमा, महानता और चतुर शिल्पीकी मनमोहक कलाका है,महामस्तकाभिषेकके कारण नीचेसे उपर तक बिजलीके सुन्दर चित्रपट अंकित हुए बिना नहीं रहता। मूर्तिका हरे, लाल, नीले, पीले श्रादि विभिन रंगोंके पश्वोंसे प्रत्येक अंग नूतन सुधामृतसे सराबोर जान पर्वतपर जानेका मार्ग रात्रि में भी प्रकाशमान था। मूर्तिके पड़ता है। अनेकवार दर्शन करनेपर भी वह ज्योंकी न्या
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अनेकान्त
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दर्शनीय बनी हुई है। इस मूर्तिको प्रतिष्ठित हुए एक भारतने इस नश्वर राज्य के लिये कैमा बज्जाजनक कार्य हजार वर्षके करीबका समय व्यतीत हो गया है फिरभी किया, धिक्कार हो इस राज्य सम्पदाको, जो फलकालमें नवीन मरीम्बी मालूम पड़ती है। इससे साफ ध्वनित दुखदाई भौर पणभंगुर है। यह साम्राज्य व्यभिचारिणी होता है कि उम मूर्तिक सौन्दर्यका अक्षय भंडार है। वह स्त्रीके समान है परन्तु विषयोंमें निमग्न प्राणी उनमें दर्शकको केवल अपनी भोर माकृष्ट ही नहीं करती, किन्तु पण भंगुरता और नीरसताका अनुभव नहीं करता भोगी उसे उसके वास्तविक स्वरूपकी भोर भी अभिव्यंजिन नर हित-अहितके ववेकसे शून्य होना है। परन्तु खेद है करती हैं। पार्श्ववर्ती लतावेज जो मुर्तिके कंधों तक पहुँच कि भरत उन सबको निस्य मान रहा है यह दुःखकी गई है और पैरोंके समीप उत्कीर्य किए हुए कुक्कुट सोंकी बात है, इस तरह भाईके उस लज्जाजनक कार्यका बामिये, पाहुबलीके निर्मम एवं निस्पृह साधु जीवनकी उल्लेख करते हुए बोले कि हे भाई! तूने मोहित होकर बाद दिलाती हैं, उन्होंने अपने साधु जीवन में भूख, प्याम, प्रकरणीय साहसका कार्य किया है। अत: यह राज्यसर्दी, गर्मी, डांस-मछरी, ठंड, वर्षा प्रादिकी बाधाओं सम्पदा तुम्हे ही प्रिय रहे, हे आयुष्मन् ! अब यह परिषहों-उपसर्गोंको जीतकर समता और समाधिकी एकता राज्य विभूति मेरे योग्य नहीं । इतना कहकरतथा दृढ़ताकी पराकाष्ठाको नो प्रकट किया है ही। साथही, बाहुबलीने अपने पुत्र महाबलीको राज्य देकर गुरु प्रारमध्यानकी उस निश्चल एवं निष्कंप एवं प्रबोल एकाग्र चरणोंकी स्वयं पाराधना करते हुए दीक्षा धारण की। चित्तवृत्तिको, जो मोहशवको पणमें विनष्ट करनेको क्षमता ममस्त परिग्रहम मुक्त होकर मुनि बाहुबलीने एक वर्षका को प्रकट करता है और जिससे बाहुबखीने चल्य पदको प्रतिमायोग धारण किया-एक ही स्थानपर एक ही मामनप्राप्त किया था।
__ में खड़े रहनेका कठोर नियम लिया-बाहुबलीने इस मूर्तिके विमल दर्शनमे बाहुबलीके जीवनकी महनताका दुर्धर तपश्चरणका अनुष्ठान करते हुए विविध कष्टी, म्पस्ट भाभाम होता है और हृदय में उनके जीवन-परिचयकी उपसर्ग परिषही, शीत-उच्य और वर्षा प्रादिकी बाधामों झांकीका वह दृश्य भी हृदय में हिलोरें लेने लगता है, जो की परवाह न करते हुये मौनपूर्वक म्वरूप चिन्तन में अपनेघटनाचक्र दीक्षा से पूर्व उनके जीवनकालमें घटित को जगाया। उनकी भुजामांसे बताएं लिपट गई और हुमा था और जो दीक्षा लेने कारण दुमा।
उनके चरणोंके समीप सोने वामियों बनानी । बाहुबलीबाहुबलीने जब राजाभोके समक्ष भरतजीको दृष्टि,
का मुनिजीवन कितना निस्पृह, कितना मिश्चल एवं पूर्व जल और मल्लयुद्ध मे जीत लिया, तो भी ये बड़े हैं इसीसे
था, तथा उनकी मात्म साधना और रलत्रयरूप निधि उन्हें प्रथ्वीपर नहीं पटका किन्नु भुजामासे ऊंच उठाकर
कषाय शत्रनामे कैसे अव बनी रही, यह कल्पनाकी कन्धे पर रख लिया, उस समय बाहुबलीके पक्ष वाले
वस्तु नहीं, तपश्चरणसे उन्हें अनेक ऋद्धियां प्राप्त हुई। राजाभाने बड़ा शोर मचाया, इतने में भारतकी पराजय
उनकी अहिंसाप्रतिष्ठासं जाति विरोधो जीवोंका वैर शांत महसा कांधमें परिणत हांगई उनका सारा शरीर क्रोधको
हो गया था। इस तरह बाहुबलीको तपश्चरण करते एक
वर्ष समाप्त होने पर भरतश्वरने उनके चरणों की पूजा की, ज्वानानास मुलमने लगा। उन्होंने क्रोधसं अंध बनकर
और बाहुबलीने केवलज्ञान प्राप्त किया, पश्चात् अवबाहुबलीपर चक्र चलाया; परन्तु देवापुनीत शम्त्र वशका
शिर अघातिया कर्म नष्ट कर अपने पितासे पूर्वही शिवघात नहीं करते। अतः बाहुबली बच गए और चक्ररत्न निस्तेज होकर उनके पास जा ठहरा। उस समय बड़े बड़े
धाम प्राप्त किया। राजाने चक्रवर्तीस कहा कि बम यह माहम रहने दो, मूनिके दर्शनसे उनकी जोवबगाथाका स्मरण हुए हमसे चक्रवर्तीको और भी अधिक मन्ताप हुश्रा। बाहुबली- विना नहीं रहता। मूर्तिकी गम्भीर प्रकृति, ध्यानस्थ
धीरेसे भाई को उतारा, राजाभाने बाहुबली कहाकि मुग्वमुद्रा, और मुखकी सौम्यता दर्शकके चिसको भाकृष्ट मापने खूब पराक्रम दिखलाया, उस समय कुछ क्षणके किये बिना नहीं रहती। गोम्मटेश्वरकी इस मूर्तिके चारों लिये बाहुबलीने भी अपनेको विजयी अनुभव किया, भोर या पिणीको मूर्तियाँ हैं, जिनमें एकके हाथमें किमत दसरे ही परश्य बदल गया और कहाकि देखो, चौरी और दूसरे में फल है। मृतिके वाईभोर पत्थरका
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करण
हमारी तीर्थ यात्राके संस्मरण
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एक गोल पात्र बना हमा है जिसका नाम 'ललितसरोवर' भोर भीति बनी हुई है जो १०० फुट लम्बी और २२५ है। अभिषेकका जल उसी में एकत्रित होता है।
मोम्मटेश्वर-दारकी बाई ओर एक पाषाण पर उत्कीय पाश्वनाथवस्ति-इसमें भगवान पार्श्वनाथकी हुए शक संवत् ११.२ के रोप्पनकविके कन्नर काग्यसे इस ५ फुट ऊँचीकायस्सर्ग सप्तफणान्वित मूर्ति विराजमान बातका पता चलता है कि गंगवंशीय राजा राचमलके है। इस पहाड़ी पर यह मूर्ति सबसे उन्नत है। इसके सेनापति राजा चामुण्डरायने गोम्मटेशकी इस विशाल नवरंगमें उत्कीणित शिलालेख नं. ६.सं प्रकट है कि मूर्तिका निर्माण करवाया था। इस बातकी पुष्टि बाहुबली- शक सं० १०५० सन् १२२६ में यहाँ मस्तिषेण मलधारीकी मूर्ति के घरण वाले चामुण्डरायके निम्न कमी लेखसे का समाधिमरण हुमा था। इसके सामने एक मानस्तम्भ भी होती है। 'श्री चामुगडराजे माडिसिदं'।
हैं जिसमें चारों तरफ मूर्तियां खड़ी हुई है। नीचे दक्षिण इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा २३ मार्च सन् १,०२८ मे सम्पन
की भोर पद्मावतीदेवीकी पचासन मूर्ति है । पूर्वमे यह खदे हुई है। मूतिका प्रतिष्ठापक उस समयका सुयोग्य वीरगनानी
हुए हैं और उत्तरमें बैठी हुई कूष्मांदिनी देवी है क्या और धर्मनिष्ठ राजा था, साथ ही विद्वान और कर्तव्यनिष्ठ
पश्चिममें ब्रह्मदेव नामका क्षेत्रपाल है। अनन्त कविक ग्यक्ति था। वह अपनी कला कृतियोंके द्वारा अमर है।
गोम्मटेश्वर परितके अनुसार इस मानस्तम्भको मैसूरवह परचकोटिका लेखक भी था, यह उसके 'चामुण्डराय
नरेश चिकदेवराय प्रोडयरके समय (सन् १६७२नामक' कनही पुराणके अवलोकनसे स्पष्ट है।
१७.४) मे जैन व्यापारी पुट्टय्याने बनवाया था। विन्ध्यगिरि पर्वतका परकोटा गंगराजने शक सम्बत्
२ कत्तलेवस्ति-इसका नाम पद्मावतीवस्ति भी है। ०३६ सन् . में बनवाया था, जो होयसल नरेश इसम भगवान मादिनाथकी ६ फुट उसत मूर्ति चमरेंद्रहित विष्णुवर्द्धनका मन्त्री था। इस परकोटे भीतर जो चौवीस
विराजमान है। भासनके लेख (..)संज्ञात होता है तीर्थकरांकी मूर्तियां विराजमान हैं, जिनकी संख्या १३ है कि होय्यसल राजा विष्णुवर्द्धनके सेनापति गंजराजने इम और जिन्हें नयकीति सिद्धान्तदेव और उनके शिष्य बान- वस्तीको अपनी माता पचयम्वेके लिये मन् १11८ (वि.. चन्द सिद्धान्तदेवके शिष्य भिन्न भिन श्रेष्ठियों द्वारा
सं०110) में बनवाया था। और इसका जीर्णोद्धार प्रतिष्ठित किया गया है।
१६ वर्षके करीब हुए जब मैसूर राजघरानेकी स्त्रियांने,
जिनके नाम देविरम्मत्री और केम्पमती है। इस विम्यगिरि पर अन्य अनेक वस्तियाँ बनी हुई हैं जिनका केवल नामोल्लेख यहाँ पर किया जाता है। अन्य
३ चन्द्रगुप्तवस्ति-इस मन्दिरमें तीन कोठरी हैं ग्रन्थों में उनका परिचय निहित है पाठक वहाँसं देम्बनेका
जिनमे दाहिनी थोर पद्मावतीदेवी और बाई पार इष्मांबत्न करें । ये वस्तियाँ विभिन्न समयों पर अनेक व्यक्तियों
हिनी देवो है और मध्यमें भगवान पार्श्वनाथकी मृति। द्वारा निर्मित हुई हैं।
वरामदमे दाहिनी तरफ धरणे द्र और वाई तरफ मन्दि
यह है, ये सब मूर्तियाँ बैठ प्रासन है। इस वस्तीके __, सिद्धरवस्ति, २ अखंडवागिलु, ३ सिद्धग्गुण्ड, ४ भीतर द्वारों पर बहुत सुन्दर खुदाई की हुई है। इसमें गल्लकायजिवागिल. त्यागदब्रह्मदेवस्तम्भ ६ कारण जो दिन उस्कोणित हैं उनमें भववाह श्रतकवली और वम्ति, ७ भोदंगलवस्ति, ६ चौबीसतीर्थकर वस्ति, और मौर्य चन्द्रगुप्त के जीवन-सम्बन्धि अनेक दृश्य अंकित हैं। * ब्रह्मदेव मन्दिर।
इसमें दासजहनामके चित्रकारका नाम १२ वी शताब्दीके चंद्रगिरि-प्राचीन लेखो इस पर्वतका नाम कटवप्र' अक्षरांमें उत्कीर्ण किया हुआ है। मध्य कोठरीके सामने या 'करणप्पु' पाया जाता है। इस "चिक्कबेट्ट' या छोटा कमरे में खड़ी हुई क्षेत्रपालको मूर्तिक मासनका (१४०) पहाब भी कहा जाता है। तीगिर और ऋर्षािगरि लेख भी सम्भवतः उक्त चित्रकार द्वारा सन् ११४५ में नामस भी उस्लेखित होता है। इस पहायक सभी जैन- खोदा गया है। १७ वीं सदी मुनिवंशाभ्युदय नामक मन्दिर द्राविडी ढंगके बने हुए हैं। इन मन्दिरोंके चारों काव्यमें चिदानन्द कविने इस मन्दिरको चन्ट्रगुप्तके वंशजों
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अनेकान्त
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द्वारा निर्मित बतलाया है। यह वस्ती इस पहार पर सबसे मजियणवस्ति-इस मन्दिरमें अनन्तनाथ पुरानी ज्ञात होती है।
स्वामीको साढ़े तीन फुट उसत मूर्ति है। बाहरी ४ शातिनाथवस्ति-इस मन्दिरमें भगवान दीवारके मामपास फूलदार चित्रकारीके पत्थरोंका शान्तिनाथकी " फुट ऊँची कायोत्सर्ग मूर्ति विराज. वेरा भी है।
१० परडुकट्टेवस्ति--इसमें भादिनाथ भगशनकी सुपार्श्वनाथवम्नि--इस मन्दिरमें . तीर्थंकर
५ फुट ऊँची एक मूर्ति चमरेन्द्र सहित विराजमान है। सपार्श्वनाथकी कण वाली ३ फुटी ऊँची मूर्ति चमरेन्द्रों इस मन्दिरको सन 1916 में सेनापति गंगराजकी भार्या सहित विराजमान है।
लक्ष्मीने बनवाया था। ६ चन्द्रप्रभवस्ति-इसमें चन्द्रप्रभ भगवानकी ३
११ सवतिगन्धवारणवस्ति-इस मन्दिरको सन् कुट ऊँची पद्मासनमूति विराजमान है । मन्दिरमें गर्भगृह,
११२३ में विष्णुवर्द्धनकी महारानी शान्तलदेवीने बनवाया सुखनासि, नवरंग और एक ड्योढ़ी है। सुग्वनासिमें उक्त
था। इसका नाम भी उक्त रानीके उन्मत्त एक हाथीके तीर्थकरके यक्ष और यक्षिणी श्यामा तथा ज्वालामालिनी विराजमान है। बाहरको भीतपर एक लेख उस्कोर्श
कारण पड़ा है। इसमें शान्तिनायकी ५ फुट उन्नत प्रतिमा है जिससे ज्ञात होता है कि इसका निर्माण प्राठवों
चमरेन्द्र सहित प्रतिष्टित है।। शताब्दीके गंगवंशी राजा श्रीपुरुषके पुत्र शिवमारने
१२ तेरिनवस्ति-इसके मन्मुख रथाकार इमारत बनी किया है।
हुई है, इसे बाहुबलि वस्ति भी कहा जाता है, क्योंकि चामुण्डरायवस्ति-यह मन्दिर बहुत सुन्दर है, इसमें बाहुबलीकी ५ फुट ऊँची मूर्ति है। सामने रथाकार इसके ऊपर भी मदिर तथा गुम्मट है। इसमें गर्भगृह, सुख मन्दिर पर चारों ओर जिन मूर्तियां उत्कीर्णित है। इसे नासि और नवरंग भी। नीचे नेमिनाथजी फुट उंची विष्णुवर्द्धनके समय पोयसबसेठकी माता माचिकच्चे और पल्पकासन मूर्ति चमरेन्द्रसहित विराजमान है। गर्भग्रहके नेमिमेठकी माना शान्तिकम्वेने बनवाया था। बगबमें सर्वान्हयक्ष और कृष्मांडिनी यक्षिणी प्रतिष्ठित १३ शानीश्वरवस्ति-इसमें शांतिनाथ भगवानहैं। बाहरी द्वारके बगल में भीतपर जो शिलालेख अंकित की मूर्ति है। है उससं ज्ञात होता है कि इस मन्दिरका निर्माण चांमुण्ड- १४ कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ-यह स्तम्भ गंगवंशी गयने सन् १८२के बगभग कराया है। नेमिनाथ भगवान
राजा मारमिह द्वितीयकी मृत्युका (सन् १७४) की मूर्तिके पासनपर जो लेख सन् ११३८ का उत्कोणित है उससं जान पड़ता है कि गंगराज सेनापतिके पुत्र एचनने
१५ महानवमी मंडप-कट्टले वस्तिके दक्षिण दो त्रैलोक्यरंजन या बाप्पण नामक चैत्यालय निर्माण कराया
सुन्दर चार खम्भे वाले मंडप पूर्व मुख पास-पास हैं। हर था, जो इस समय नहीं है। नेमिनाथ की यह मूति बींसं
एक स्वम्भे पर लेख अंकित हैं। नं. ६६ (४२) के लेखसे जाकर विराजमान की गई। उपरके खण्डमें पार्श्वनाथकी
जान पड़ता है कि यह जैनाचार्य नयकीर्तिका स्मारक है जिसे एक ३ फुट ऊँची मूर्ति है।
मन् १७६ में स्वर्गवास होने पर उनके शिष्य राज मंत्री ८ शासनवस्ति-इस मन्दिरको सेनापति गंगराजने
नागदवने स्थापित किया था। इस प्रकारके कई स्तम्भ इस बनवाया था गर्भगृह ५ फुट ऊँची भगवान मादिनाथको
पहार पर मौजूद हैं। चमरेन्द्र महित मूनि विराजमान है। द्वारपरके लेखसे ज्ञात होता है कि गंगराजने सन् ११३८ में 'परमप्राम' नाम
१६ इरुवे ब्रह्मदेव मन्दिर इसमें ब्रह्मदेवकी मूर्ति का एक गांव भेंट किया था, जो उस विष्णुवर्द्धन प्राप्त हुमा है, यह सन् १६० का बनवाया हुआ है। था। सुखनासिमें गोमुख यच और चक्रेश्वरी नामक १७ कन्डुन दोन-ऊपरके मन्दिरके उत्तर-पश्चिम यक्षिणीकी मूतियां हैं। बाहरी दीवारों और स्तम्भों में कहीं एक सरोवर है जिसे बेलसरोवर कहते है। यहाँ कई कहीं प्रतिमाएं उत्कीर्ण की हुई है।
शिलालेख है।
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वामनावतार और जैन मुनि विष्णु कुमार
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१८ लकीडोन-यह दूसरा सरोवर है इसे लक्की तीन बार । महामस्तिकाभिषेकके दिन जनताकी अपार भीड नामकी एक स्त्रीने बनवाया था। इसमें ३. शिलालेख थी। जैन समाजके अतिरिक्त इतर समाजकी उपस्थिति भी उस्कीणित हैं जो वी १० वीं शताब्दीके हैं। अनेक अधिक तादादमें थी। उस समय दोनों पहाड़ों पर जनता यात्रियों जैनाचार्यों, कवियों, आफिसरों और उच्च मस्तकाभिषेकका अपूर्व दृश्य देखने के लिये उत्सुक थी। पदाधिकारियोंके नाम भी अंकित हैं। इसका संरक्षण मैंने स्वयं चन्द्रगिरी पर्वत परसे अभिषेकका वह रमणीय आवश्यक है
श्य देखा, उस समय जो आनन्दातिरेक हुआ वह वचना१६ भद्रबाहगुफा-इस गुफामें भद्रबाहुश्रुत केवलीके तीतर।
तीत है। दुग्धसे अभिषेक होने पर मूर्तिका सर्व शरीर
अभिषेक चरण अंकित हैं। इसकी मरम्मत करते समय सन् १.. शुक्ल प्राभासे दैदीप्यमान हो रहा था। अम्य द्रव्योंसे का एक लेख नष्ट हो गया है।
अभिषेक करने पर उसका वह रूप परिवर्तित हो गया था। २० चामुण्डराय चट्टान-इस पहाड़ के नीचे खुदा और ऐसा जान पड़ता था कि उस प्रकृत रूपमें कुछ विकृति हुमा एक पाषाण है। कहा जाता है कि चामुण्डरायने सी आगई, किन्तु मुखाकृतिको वह स्निग्ध सौम्यता अपनी गोम्मटेशकी मूर्तिको उदाटित करनेके लिए इस परमे बाण आभासे और भी उसे उद्दीपित कर रही थी। ता.मार्चकी चलाया था। इस पर जैन गुफाओंके चित्र हैं और उनके रात्रिको वीरसेवा मन्दिरका नैमित्तिक अधिवेशन बाबू मिश्रीनीचे नाम भी अंकित हैं।
लाजजी कलकत्ताकी अध्यक्षतामें सानन्द सम्पन्न हुआ। श्रवणबेलगोल में हम लोग ६ दिन ठहरे मैंने भगवान और ता. . के प्रातःकाल हम लोग श्रवणबेलगोलसे माहवलीकी ६-७ बार दोनों वक्त यात्रा की,और चन्द्रगिरीकी हासनके लिये चल दिये।
-क्रमश:
वामनावतार और जैन-मुनि विष्णुकुमार
[ लेखक: श्री अगरचन्द्र जी नाहटा ] अनुकरण-प्रियता, प्राणियोंका सहज स्वभाव है। हृदय में घर कर चुकी हैं ! उनका प्रभाव उसके जीवन में बुद्धि का विकास आयु और शारीरिक स्थिति पर निर्भर और स्वभावमें अवश्य विद्यमान रहता है। बड़े होने पर होता है, उसमे पूर्व प्रत्येक प्राणधारी अनुकरणके जरिये ही भी वेशभूषा, रीति, रिवाज, प्राचार विचार एवं प्रवृत्तियों आगे बढ़ता है । जीवन व्यवहारकी शिक्षाए सब अनुकरण- में अधिकतर अनुकरणता ही प्रधान रहती है। अधिकांश प्रियताके कारण ही प्राप्त होती है। पशुओंका जीवन तो जनसाधारणका व्यवहार,उन्हीं पर निर्भर रहता है, विचारोंप्रायः इसी पर भाधारित रहता है। क्योंकि उनमें बुद्धिका की गहराई बुद्धिकी विलक्षणता कितने व्यक्तियोंको मिलती विकास,स्वतन्त्र विचार व रक्षणके योग्य नहीं हो पाता वे सोच है और इनके विना स्वतन्त्रपथ निर्माण कठिन ही है। नहीं सकते । मनुष्यमें भी बालकका स्वभाव व विकास भादान-प्रदान विश्वका सनातन नियम है मनुष्य जो इसो अनुकरण वृत्तिपर ही अवलम्बित है। वह अपने प्रास- विचार और चिन्तन करता है, उसका प्रचार भी करता पास जैसा देखता है, सुनता है, अनुभव करता है तदनुरूप रहता है, वह अपने में ही सीमित नहीं रहता। उसका उसका जीवन इनसा है । भावी जीवनके निर्माणकी तैयारी प्रभाव भासपासके व्यक्तियों पर पड़ता है। वैसे ही दूसरों इसी समय हो जाती है उस समय जो स्वभाव, वृत्तियां, का उन पर । जिसका व्यक्तित्व अधिक भाकर्षक और तरीके, बालक अपना लेता हैं उनका प्रभाव उसके जीवन प्रभावशाली होता है। उसका प्रभाव अधिक पदना स्वाभाभर दिखाई देता। विवेककी परिपक्वता अथवा प्रबलता विक ही है। एक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने विचारोंको होने पर यदि वह सुधरता है, नये रास्ते पर मुबता भी है, ऐसे ढंगसे व्यक्त करता है, कि दूसरा व्यक्ति या सहस्त्रों वो भी बहुत सी बातें जो दूसरों के अनुकरण द्वारा उसके व्यक्ति उसके विचारोंस तत्काल प्रभावित होजाते हैं, यावद
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विरोधी विचार रखनेवालोंको भी वह अपना समर्थक, और इत्यादि की कथायें मुखता पौराणिक प्रतीत होती है पर अनुकूल बना लेता है। विचार विनिमय द्वारा भी एक ये कथायें जैन साहित्यमें भी बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हैं। तुनइमरीके विचारों का मादान प्रदान होता ही रहता है। एक नात्मक अध्ययनको कमीके कारण ही हम एक दूसरेके व्यक्तिके रहन-सहन, वेश भूषा, धादिका प्रभाव उसके साहित्यकी विशेषताओंसे सर्वथा अपरिचित है। इसी सम्पर्क में पाने वालों पर न्यूनाधिक रूपमें अवश्य ही प्रकार वामनावतार और विष्णुकुमारकी है। कुछ बातों में परता है। कुछ बातें जो उसे प्राकर्षित करती हैं,वह अपना वैषम्य होने पर भी मूल घटनाओं में इतनी समानता है कि लेता है। संगतिका असर इसीलिये इतना अधिक माना पढ़ कर भारचर्य होता है। किसने किसका अनुकरण गया है। भारत में जब पाश्चात्य देशोंका सम्पर्क बढ़ा तो किया, यह तो निश्चित रूपस नहीं कहा जा सकता पर अधिकांश भारतीय भी पाश्चात्योंकी वेश भूषा, भाषा सम्भव है वामनावतार प्रसिद्ध १० अवतारों में सम्मिलित रहन, सहन, चालढाल इत्यादि अंगीकार करने लगे। और होनेसे यह कथा पौराणिक ही रही हो। भिन्न भिक समय अभीतक उन्हें छोड़ नहीं पाए भारतीय संस्कृतिको छोर. में भिन्न भिन्न व्यक्तियोंके सम्बन्धमें एकसी घटनायें कर वे उस विदेशी संस्कृतिकी ओर झुक रहे हैं तथा उसे
घटित होना असम्भव नहीं पर इस कथाको पढ़ कर हृदय अच्छा समझकर अपना रहे हैं। यह सब अनुकरण प्रयता
इस बातको माननेके लिये तैयार नहीं होता कि दोनोंकी
घटनायें अलग अलग हैं। कई वर्षोंसे इन दोनों कथानकों का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
की समानता मुझे प्राकर्षित कर रही थी। कुछ वर्ष हुये भारतमें आर्य, अनार्य संस्कृतिका सामाजिक, धार्मिक विष्णुकुमारके कथासम्बन्धी अनेक जैनग्रन्थोंको शोध क्षेत्रों में बहुत कुछ पारस्परिक आदान प्रदान हुआ। कई करते समय उनमें सबसे प्राचीन ग्रंथ वीं शताब्दीकी अनार्य देवताओं और पूजा विधिको पार्योंने अपना लिया 'वसुदेव हिंडी' ज्ञात हुआ अतः आगे उसी में वर्णित कथा तो अनार्योंकी कई बातोंको प्राोंने अपनाया। शदियोंके दी जा रही है । वामनावतार तो सब पुराणों में प्रसिद्ध हे सम्पर्कके बाद प्राज यह पता लगाना भी कठिन हो गया ही पर वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में भी उसका मूल प्रसंग है, कि किस विषय में किसका कितना प्रभाव है। लोक वणित है अतः उमको दिखाते हुये भागवत् पुराणमें वर्णित साहित्य और जनविश्वासमें तो बहुनसी बातें सारे विश्व प्रसंगको तुलनाके लिए यहाँ दिया जा रहा है। भरमें समानरूप में मिलती हैं। जोक कथानों में प्राय: एक
श्री सम्पूर्णानन्दने अपने पार्योंका आदि देश' नामक ही बात कुछ साधारण अन्तरके साथ या उसी रूप में भी
ग्रन्थमें वेदमें निहित वामनावतारके उल्लेखांको इस प्रकार
दिया है। विभिन्न राष्ट्रोके साहित्यमे मिलेगी। दार्शनिक क्षेत्रमें । कई सिमान्त और प्राचार विचारोंकी ममानताएँ पाई
"विष्णुके तीन पदोंकी कथा पुराणमें प्रसिद्ध है। जाती है साहित्य सम्बन्धमें भी यह सत्य है। असुरराज बलि ने इन्द्रमे स्वर्गका राज्य छोन लिया था । कहीं भाव साम्य, कहीं अर्थ साम्य तो कहीं शैली बजीकी दानवीरता प्रसिद्ध थी। विष्णु उनके यहां बौने
और नामकरणकी समानता देख बहुत बार तो विरमय सा ब्राह्मणके रूप में प्राये ओर उनसे तीन पद भूमि मांगी। होता है। जैनागमोकी कई गाथायें बौद्धारिक कथामन्यांमें श्री अगरचन्द जी नाहटाने संघदासगणोका जो पाई जाती है। इसी प्रकार कई पौराणिक आख्यानोको समय ५ वीं शताब्दी लिखा है वह ठीक मालूम नहीं वैदिकग्रन्थों और जैन साहित्यमें (एक ही कथा) समान होता, क्योंकि मनि श्री जिनविजयजीने भारतीयविद्याक रूपसे पाते हैं। इनमेंसे कई दन्तकथायें धादि तो लोकप्रिय वर्ष ३ अङ्क में संघदासगणीका समय विशेषावश्यक होनेसे तीनों जैन, बौद्ध और वैदिकोंने, अपने अनुकूल बना भाज्यके कर्ता जिनभद्रगणी हमाश्रमणके समीपवर्ती होना कर ग्रहण कर लिया प्रतीत होती हैं। कई एक दूसरेकी लिखा है। चूंकि जिनभद्रगणी समाश्रमणका समय शक कथाप्रोसे प्रभावित होकर अपने अपने धार्मिक कथा सं०५३. वि० सं० ६६६ निश्चित है। अतः यही समय साहित्यमें मिला दी गई है । कई पौराणिक कथामाको मुनि जिनविजयजीके अनुसार संघदासगणीका होना दोनों धर्म (जैन और वैदिक धर्म ) ग्रन्थों में समान रूपसे चाहिये । वह वीं शताब्दी किसी तरह भी नहीं हो साता। पादर प्राप्त है। मन दमयन्ती, सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र
-प्रकाशक
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वामनावतार और जैन मुनि विष्णुकुमार
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बजिने देना स्वीकार किया। विष्णुने दो पांवमें भूलोक भागवत्में वामनावतारकी कथा जिस रूपमें वर्णित है और सुरलोक माप लिया : तीसरे पांवमें बलिको अपना उसका सार निम्न प्रकार है:शरीर देना पड़ा, फलतः वह पातालमें जा बसे, और इन्द्रका भृगुवंशी शुक्राचार्यने बलि राजाको जीवित किया। फिर अपना राज्य मिल गया। विष्णुने बह वामन रूप तबसे वह उनका शिष्य हो गया। और उनकी सेवा करने इन्द्र की सहायता करनेके लिये धारण किया था।
लगा । स्वर्ग जीतनेके इच्छुक बलि राजासे उस प्रतापी ___ यह पौराणिक कथा एक वैदिक पाख्यानका विस्तृत ब्राह्मणने विश्वजीत नामक यज्ञ करवाया। यज्ञमें स्य, संस्करण है। वह पाख्यान इस प्रकार है
घोड़ा, ध्वज, धनुष, तरकश और दिव्य कवच, ये वस्तुयें "विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो वतानि पस्पशे। प्राप्त हुई। इन अलोकिक वस्तुओंको पाकर राजा इन्द्रको इन्द्रस्य युज्यः सखा (ऋक् १-२२-१६) इदं विष्णुविच- जीतनेके लिये स्वर्गपुरीको चला।। क्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूदमस्य पांसुरे (ऋक् ।२२-१७) इन्द्रने गुरु वृहस्पतिसे बलि राजाके पुण्य प्रतापकी ब्रीणि पदविक्रमे विष्णुगोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि कथा ज्ञात की, तण शत्रके इन पढ़ते दिनों में स्वर्ग त्याग धारयन् (ऋक् १-२२-15)
कर चले जानेकी सलाहको मानकर स्वर्गपुरीकी राजधानी विष्णुके कर्मों को देखो जिसके द्वारा यजमानादि व्रतों- बोदकर वे देवताओं के साथ अन्यत्र चले गये और पनि का अनुष्ठान करते हैं। विष्णु इन्द्र के योग्य सखा है। इस राजाने वहीं रहते हुये एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये। (सारे जग पर) विष्णु चल्ले (उन्होंने) विधा पांव देव माता अदितिने अपने पुत्रोंकी दुर्दशासे दुखी रक्खा । उनके धूजसे भरे पावसे ( यह सारा जगत ) ढक होकर पति कश्यप ऋषिसे सारा वृत्तान्त कहा। ऋषिने गया। अजेय, ( जगत् के) रक्षक विष्णु तीन पद चले, फालगुन शुक्ल पक्षके १२ दिनों तक भगवान वासुदेवकी धम्मोको धारण करते हुये।
उपासना 'माइम् नमो भगवते वासुदेवाय' द्वादशायरी विष्णु और इन्दके सखा होनेके कई उदाहरण आये महामन्त्रका जाप और ब्रह्मचर्य, हिंसा, असत्य आदि हैं। गउओके उद्धारमें तथा असुरांसे लड़ने में उन्होंने त्याग कर केवल दुग्धाहारमे जपयज्ञ करनेका आदेश बराबर इन्द्रका साथ दिया है। उन्होंने ये तीन पांव भी दिया। पति आज्ञा शिरोधार्य कर अदितिने ऐसा ही किया, इन्द्र के कहनेसे ही रखे, क्योंकि ऋक् ४-१८-11 में जिससे भगवानने प्रसन होकर उसके यहाँ अवतार ग्रहण वर्णन मिलता है।
कर, अभीष्ट सम्पादन करनेका वरदान दिया। इसके बाद 'प्रथाब्रवीत् वृत्रमिन्द्रो हनिष्यन्मखे विष्णो वितरं विक्रमस्य' योग्य समयमें अदितिकी कुटिमें पाकर भगवान वासुदेवन अथ वृत्तको मारते हुए इन्द्रने कहा हे सखे विष्णु '
भाद्रशुक्ला १२ 'विजयाद्वादशी के दिन वामन रूपसे
जन्म लिया । वामन बड़े तेजस्वी और उग्र तेज वाले थे। बड़े बड़े पांव रखो। "वितरं विक्रमस्य' का शब्दार्थ यही ह
वे योग्य वयमें सब संस्कार द्वारा सम्पन्न हुये। यहाँ 'क्रमस्व' जो क्रिया पद पाया है वह भी ऊपरके मंत्रोंके "विचक्रमे का सजातीय है। परन्तु सायणके
एक बार बलि राजाका अश्वमेध यज्ञ श्रवण कर भाष्यमें बड़े पराक्रमी हो' ऐसा अर्थ किया गया है। वामन नर्मदा नदीके तट पर भृगुकच्छ क्षेत्रमें गये जिससे अस्तु ये तीनो पद कहां रखे गये १ एक मत तो यह है समस्त ऋषि भीर सभासद् गण निस्तेज हो गये । वामन कि विष्णुने पृथ्वी अन्तरिक्ष और प्राकाश में पांव रखा। राजाने तेजस्वी राजाका बड़ा भादर सत्कार किया दूसरा मत यह भी है कि पहला पांच समारोह (उदयाचल) और इच्छित वस्तु याचना करनेके खिये निवेदन किया। में दूसरा आकाश (विष्णु पद) में और तीसरा ( जय वामनने उनके पूर्वजों और उसके दानगुणकी सराहना शिरस) अस्ताचलमें रखा गया। तीसरा मत यह है कि करते हुये अपने पैरके मापसे तीन ग पृथ्वी मांगी बलि विष्णु पृथ्वी पर भग्निरूपसे, अन्तरिक्षमें वायु रूपमें, राजाने अधिक मांगनेका बहुत भाग्रह किया। पर भगवान और आकाशमें सूर्यरूपसे वर्तमान है।
वामनने अधिक कुछ भी लेना स्वीकार न किया। वैदिक मतानुयायियोंके प्रति मान्य प्रन्य श्रीमद्
राजा बलि याचित पृथ्वीदान करनेके लिये हाथमें
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अनेकान्त
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जलपात्र लेकर संकल्प करनेके लिए तैयार हुभा । तब आकर भी धर्म और सत्यमें अविचल है। अतः देवोंसे शुक्राचार्यने अपने निश्चयको बदलने के लिये राजाको बहुत भी दुर्लभ मेरे स्थानके योग्य तो यह कभीका हो चुका है, समझाया तथा उस दानको सर्वनाशकारी बतलाया। पर जब तक पाठवां सावर्णि मन्वन्तर प्रारम्भ हो, तब बखि राजाने गरुकी सत्ताहको अमान्य करते हुए कहा कि तक भले ही सुतल निवास करे। वहाँ मानसिक कष्ट, प्रहलादका पौत्र होकर मैं अपनी प्रतिज्ञा-सत्यसे विचलित मालस्य, थकावट, पराभव तथा शारीरिक उपद्रव नहीं, कदापि नहीं हो सकता । उसे शुक्राचार्यने अपनी आज्ञा मेरे संरक्षणमें रहते हुए सदा अपनेको मेरे पास ही पायेगा उलंघन करने के अपराधमें राज्य लक्ष्मीसे भ्रष्ट होनेका दैत्योंके संसर्गजन्य इसके आसुरी भाव भी मेरे प्रभाव मे श्राप दे दिया। क गरुसे श्राप पाकर भी महान नरेश्वर नष्ट हो जायेंगे पीछे सावर्णि मनुके समय में यह इन्द्र सत्यसे भ्रष्ट नहीं हमा। उनकी पत्नी विन्ध्यावती भी होगा और मैं हर समय इसका रक्षण करूंगा। उसे प्रतिज्ञापालनमें रह रहनेके लिये उत्तेजित करती हुई इसके बाद शुक्राचार्यने भगवानकी श्राज्ञासे बलि वामनजीके चरण प्रक्षालनार्थ स्वर्ण कलश लेकर शीघ्रतासे राजाका अपूर्ण यज्ञ पूर्ण किया । बलि राजा सपरिवार भा पहुँची। बलि राजामे वामनजीके चरण युगल प्रचालन अपने पितामह प्रहलाद के साथ सुतन में रहने लगा । इस कर उनके द्वारा याचित तीन डग भूमि दान की । वामन- प्रकार भगवानने अदितिकी मनोकामना पूरी की तथा जीका शरीर तत्काल प्रभुत रूपमे बढ़ने लगा देखते देखते
इन्द्रको पुन: उसका स्वर्ग प्राप्त करा दिया। पृथ्वी, स्वर्ग, दिशायें और प्राकाश उनके स्वरूप में समा इस कथाका जैन ग्रन्थामें विष्णुकुमारको कथाके रूप में गये । उन्होंने बलि राजाकी समस्त पृथ्वीको एक पैरसे इस प्रकार वर्णन मिलता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर तथा दूसरे पैरसे स्वर्गकी भूमिको अधिकृत कर लिया। दोनों सम्प्रदायाके ग्रन्थों में जैन मुनि विष्णुकुमारनं किस तीसरे पैरकी भूमि मापने के लिए बलि राजाके पास क्या प्रकार मुनियोंके धर्मकी रक्षा की। इसके उदाहरण रूपमें बचा था ? उनके कद्ध अनुचर वामनजीका मायाचार देख यह कथा अनेक ग्रन्थों में वर्णित है। अनेक ग्रन्थोंकी कर मारने दौड़े। जिन्हें बलिराजाने अपने दुर्दिनको दोष टीकामोंमें एवं कथासंग्रह ग्रन्थों में अपनी अपनी शैली में देहए रोक दिया। तत्पश्चात् तीसरे पैरकी भूमि मांगने अनेक जैन विद्वानांने इसे प्रस्तुत किया है। परवर्ती कतिपर बलि राजाने अपने मस्तक बताते हुए कहा कि तीसरा पय मौलिक रचनायें भी प्राप्त है उन सबमें 'वसुदेवपैर मेरे मस्तक पर रखिये । मुझे अपकीर्तिका जितना हिंडी' ग्रंथ ही सबसे प्राचीन ज्ञात हुआ है, जो संघदासने भय है, स्थानभ्रष्ट होने का नहीं। पापन मुक मदान्धका ५वीं सदीमें प्राकृत भाषामें बनाया है। विविध दृष्टियोस ऐश्वर्य नष्ट करके उपकार ही किया है।
यह अन्य अत्यन्त मूल्यवान है उनका संक्षिप्त परिचय मैंने उस समय ब्रह्माजी वामन भगवानको निवेदन करने नागरीप्रचारिणी पत्रिकामे प्रकाशित किया है। जैन प्रारमा लगे हे ईश्वर ! आपने बाल राजाका सर्वस्व हरण कर नन्द सभा, भावनगरसं इसका मूल एव गुजराती अनु लिया है और बन्धनमें डाल दिया है फिर भी इसने वाद प्रकाशित हो चुका है । जैन ग्रंथ 'वसुदेवहिंडी' में अपना ऐश्वर्य तथा अपने आपको श्री चरणामें समपित वर्णित विष्णुकुमारको कथा निम्न प्रकारमे हैकर दिया है लोग तो श्रापको जल दूर्वा देकर ही उत्तम हस्तिनापुर नगरमें पद्मरथ नामक राजा था, जिसके गति पा लेते हैं फिर इसकी यह दशा करना योग्य लक्ष्मीमती नामक रानी और विष्णु एवं महापद्म नामक नहीं है।
दो पुत्र थे । पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ स्वामीकी परश्री वामन भगवानने कहा-हे ब्रह्मा ! मैं जिन पर पराके सुवतं नामक मणगार के पास राजाने विष्णुकुमारके प्रसन्न होता हूँ उनका धन हरण कर लेता हूँ क्योंकि साथ दीक्षा ली और महापद्म हस्तिनापुरका राज्य करने धनमद में प्राणी कल्याण मार्गसे परांगमुख हो जाता है। लगा। परम संविग्न भावसे संयमाराधन कर राजर्षि यह बलि राजा देस्य और दानवों में अग्रणी है, इसने मेरी पद्मरथ निवार्ण प्राप्त हुए । धर्मश्रद्धासे अविचल श्रमण पार्जित मायाको भी जीत लिया है। क्योंकि ऐसे दुर्भाग्य- विष्णुकुमारने आठ हजार वर्ष पर्यन्त दुष्कर बप किया पूर्ण समय में भी यह निर्भय निराकुल है छलस बन्धनमें जिससे उन्हें विकुर्वणी, सूचम बादर, विविधरूपकारिणी'
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वामनावतार और जैन मुनि विष्णुकुमार
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अन्तर्धानी और गगनगामिनी चार लब्धियाँ प्राप्त हुई। कुमारने कहा-भरत भादि नरेशोंने साधुनीका पूजन और महापद्म राजाके नमुचि नामक पुरोहित था जो महा
संरक्षण किया है, तुम यदि उन्हें पूज्य नहीं मानी तो ठीक जनोंके बीच साधुनोंसे शास्त्रार्थ में पराजित होकर उनके
किन्तु 'साधु मेरे लिए वध्य है।' ऐसा बोलना राजाके प्रति द्वेष रखने जगा था। एक बार नमुचि राजाको प्रसन्न
योग्य नहीं. ऐसा तो दम्युमोको शोभा नहीं देता। अतः कर वरदान पाकर स्वयं राजा हो गया । राज्याभिषेकके
शान्त हो व वर्षा काल बीतने पर साधु लांग स्वयं अन्यत्र सम्मानसे सम्मानित नमुचिने साधुओंको बुलाकर कहा
चले जायेंगे।' नमुचिने कहा तुम कहते हो पूर्व पुरुष साधु'तुम लोग मेरा जयकार नहीं बोलते.ससे ज्ञात होता की पूजा करते थे. यह तो उस राजाका चरित्र होगा, जो कि मैं तम्हें माम्य नोमानमानसे राज पुत्र हो पीढ़ियांसे राज करता पाया हो, उसका धर्म आपकी जय-पराजय थोड़े ही हाती है. स्वाध्याय ध्यानमें
है। मैं तो अपने वंशम पहला ही राजा हूँ। अतः मुझे लीन होनेके कारण हमें आपके अभिषेकका वृत्तान्त भी दूपराम काई प्रयोजन
TEA से दूपरोंमे कोई प्रयोजन नहीं । सात रातके बाद जो साधु मालूम नहीं हुमा । नमुचिने कहाअधिक क्या? मेरे राज्य में दिखाई दगा वह जीवित नहीं रह सकेगा। आप जाइये । तुम लोग नहीं रह सकोगे । साधुश्रांने कहा- राजन्,
मापका कुछ नहीं कहता। दूसरे साधुरामोका जीवन पाजसे वर्षाऋतुमें विहार करना शास्त्र विरुद्ध है अतः हम जोग खतरेम ही समझिए। शरद् ऋतुमें चले जायेंगे | नमुचिने कहा--सात रातसे अधिक जो यहाँ रहेगा उसका में वध कर दूंगा । साधुनोंने
विष्णु कुमारने कहा नमुचि ।' जब तुम्हारा यही
निश्चय है तो ऐसा करो-मुझे एकान्त प्रदेशमें तीन डग कहा--संघ एकत्र करके हम भापको कहेंगे।'
भूमि दी । जहाँ रह कर साधु लोग प्राण त्याग करेंगे । स्थविरोंने एकत्र होकर कहा-'मार्यो ! श्रमणसंघपर क्योंकि वर्षाकालम उन्हें विहार करना योग्य नहीं। इससे विपत्ति पाई हुई है अतः जिनके पास जो शक्ति हो, कहो मेरा वचन भी रह जाएगा। और तुम्हारी साधुनोंकी एक साधूने कहा-'मुझमें प्राकाश मार्गमें गमन करनेकी वध्य करनेकी प्रतिज्ञा भी पूरी हो जायगी।' नमुचिने शक्ति है अतः जो कार्य हो भाज्ञा कीजिये।' संघस्थविरों- सन्तुष्ट होकर कहा, यदि यह सत्य हो, कि वे उस भूमिमें ने कहा पार्य ! तुम अंगमन्दर पर्वतस्थ श्रमण विष्णुको से जीते बाहर न निकलें, तो मैं देता हूँ।' विष्णुकुमार कल ही यहाँ ले पात्रो वह साधु आकाशमार्गमें जाकर तीन ग जमीन लेना स्वीकार कर नगरके बाहर चजे गए। दूसरे दिन विष्णुकुमारको साथ लेकर हस्तिनापुरमें भा पहुँचा । साधुनोंको देश-निकालेका नमुचिका निश्चय ज्ञात
नमुचिने विष्णु कुमारमं कहा, मैंने जो तीन डग भूमि कर विष्णुने कहा-'संघ निश्चित रहे, अब मैं यह उत्तर
आपको दी है, माप कर ले ला, विष्णुकुमार रोष प्रज्वलित दायित्व अपनेपर लता हूँ।"
थे। श्रमण संघके संकटको दूर कर नमुचिको शिक्षा देने की
भावना उनके चित्तको उद्वेलित कर रही थी। उन्होंने विष्णु नमुचिके पास गये उसने उनका खड़े होकर तीन डग भूमि नापने लिए अपना विराट रूप विकुर्वण स्वागत किया। विष्णुने कहा -'साधु लोग वर्षाकालमें किया और पेरको ऊँचा किया । नमुचि भयये त्रस्त होकर यहाँ भले ही रहें नमुचिने कहा आप स्वामी हैं तो महा- विष्णु के चरणों में पढ़ कर क्षमा याचना करने लगे। विष्णुने पद्म राजके हैं इनसे मुझे क्या! मैं आपको कुछ भी नहीं ध्र पद पढ़ा जिससे क्षयाभरमें वे दिव्य रूपधारी हो गए। कहता, मुझे तो श्रमणोंको अवश्य ही देशसे निकालना है। उनके मुकटमणियोंकी किरण ज्योतिम दिशाएं रंगीन विष्णुने कहा-'वर्षाकालमें पृथ्वी जीव जन्तुओंसे भरी मालूम होने लगी। ग्रीष्म ऋतुके सूर्यको भाँति उनका तेज होने के कारण श्रमणोंको विहार करना निषिद्ध है, अतः असा हो रहा था । कानों पर कुण्डल संपूर्ण मगरल शशांउम्हारी प्राज्ञासे यदि वे उद्यानगृह में वर्षाकाल बिता कर नगर. ककी भौति चमकते थे,वक्षस्थल सेवतहारसं शरदऋनुके धवल ने प्रवेश किए बिना ही विदेश चले जाय तो भी मेरा वचन मेघालंकृत मन्दराचलकी भांति शाभायमान था। कदा और तुमने मान्य किया, समझूगा । नमुचिने कहा जो मेरे लिए केयूर पहिने हुए हाथ इन्द्र सुषकी भांति भासित होते थे। ध्य हैं, वे मेरे उद्यानों में भी कैसे रह सकते हैं ? विष्णु- मुक्कामोंके पालम्ब और प्रवचूत सूर्य मंडलको माला
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२५२ ]
अनेकान्त
[किरण ८
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सहित मध्यलोक प्रतीत होते थे। इस प्रकार वृद्धि पाते अपूर्व चेष्टा और उनके विराट रूपको ज्ञातकर राजा हुए विष्णुके रूपको देखकर भय सन्त्रस्त सुरासुर शिला, महापद्म नगर और जमपद सहित संघकी सरणमें पाया पर्वत शिखर और वृक्षादि प्राक्षेप करते थे। जो उनके और गद्गद् वाशीसे कहने लगा-मैं भगवान सुबत
कारकी वायसे उछलकर इतस्ततः गिरे जाते थे। विशाबदेह मणगारका शिष्य श्रमणोपासक है मेरी रक्षा कीजिये में वाले विष्णुको देखकर भयत्रस्त अप्सराए किसर, कि- आपके शरणागत हूँ।' श्रमय संघने कहा-'तुमने कुपात्रपुरुष, भूत, यश, राक्षस, महोरग, ज्योतिषी देवादि यतः को राजा स्थापित किया, हमें खबर भी नहीं दी यह स्ततः चिल्लाते, कपिते हुए दौड़ने लगे। देखते-देखते तुम्हारी बड़ी भूल हुई । प्रस्तु, हमारी तो कोई बात नहीं, विष्णुका शरीर लाख योजन ऊंचा हो गया। अत्यन्त तुम्हारी विजय प्रमत्त वृत्ति और असावधानीसे भाज तेजस्विता के कारण विष्णु किसीकी प्रज्वलित अग्नि व किसी जोक्यका अस्तित्व ही खतरेमें पा गया है। अतः श्रमण को चन्द्रमा प्रतीत होते थे। विष्णुके शरीरमें क्रमशः वह विष्णकुमारको शान्त करो, तत्पश्चात् समस्त श्रमासंघ स्थल नाभि, कटि प्रदेश और घुटनों पर ज्योतिष्कोंका मार्ग विष्णके चरणोंमें करबद्ध प्रार्थना करने लगा। हे विष्णु शांत भागया। भूमि कंप हुमा, विष्णुने मन्दरगिरि पर अपना हो। संघ महापदम राजाको क्षमा कर दिया। भाप दाहिना पैर रखा, इस पेरको पठाते ही समुद्र जल चुन्ध चरण न हिलाकर स्वामाविक रूपमें पायें। पापके तेजसे हमा विष्णुकी हथेलियोंको ऊपरको उठाते ही सबसे मह- कम्पित पृथ्वी रसातलको जा रही है यह श्रमण संघ द्धिक देवोंके अंगरक्षक बात हो उठे।
मापके चरणोंके अति निकट है अवस्थित है । लाखों
योजन ऊंचा होने के कारण श्रमण मर्यादाके बाहर श्रमणइस प्रकारको विकट स्थितिमें इन्द्रका प्रासन कम्पाय
संघके वचन नहीं सुननेसे बहुश्रुत श्रमणोंने कहा-विष्णुकी' मान हुमा । विपुल अवधिज्ञानसे सारी परिस्थिति शातकर
श्रोत्रन्द्रिय गगन मण्डल के किसी भागमें है लाखों योजन इन्द्रमे नृत्य और संगीत मंडलीको श्राशा.दी कि नमुचिक
ऊँची देह है और १२ योजनसे भागे शब्द नहीं सुनाई अत्याचारसे कुपित होकर श्रमण भगवान विष्णुने विराट
देते । अतः भगवानके चरणोंका स्पर्श करनेसे वे देखेंगे तो रूप धारण किया है अतः उन्हें गीत नृत्यादि द्वारा नम्रता
श्रमणसंघको देखकर अवश्य शान्त होंगे। यह विचार कर पूर्वक शान्त करो। इन्द्रावास मेनका रम्भा, उर्वशी और
सबने अब चरण दबाया तो विष्णु महषिने पृथ्वीकी धार तिलोत्तमाने विष्णुके दृष्टिक समक्ष नत्य किया। वादिध्वानके
देखा अपने अन्तःपुर और परिजनोंके साथ राजा महापदम साथ 'भगवान शान्त हो भावमय कर्ण-मधुर स्तुति करते हुए
के श्रमणसंघकी शरणमें हैं तथा श्रमणसंघको भी शान्त जिनेस्वरोंक चमादि गुण वर्णन मह तुम्बरू, नारद हा हा हु.
हो, बोलते हुए स्वचरणों के निकट देखकर उन्होंने सोचा ह. और विश्वावसुन गायन किया। भगवान विष्णुको प्रसमा
'मक्खनकी तरह कोमल स्वभाववाले श्रमणसं घने राजा करने के लिए देवराजइन्द्र के मब परिवार प्रागमनकी बात
महापदमको अवश्य ही क्षमा कर दिया, अतः सबकी सुनकर बैतान्य श्रेणिवासी महाधिक विद्याधर भी पाकर
इच्छाका मुझे भी उलंघन नहीं करना चाहिए। मिल गए। और विष्णुके चरणकमलोंमे लीन होकर स्तुति
देवोंके वचनमे मृदु हृदयवाले विष्णु अणगार, करने लगे। तुबुरू और नारद ने विद्याधरों पर प्रसन्न हो
संघकी इच्छानुसार अपना रूप संकोच कर शरदऋतुके कर संगीत कलाका वरदान देते हुए सप्तस्वराश्रित गधार
चंद्रमाकी तरह सौम्य होकर भूमि पर विराजमान स्वरमें विष्णु गीतिका प्रदान की।
हुए। देव, दानव, विद्याधरादि, वर्ग पुष्प वृष्टि करके 'उत्तम माहवस्ट्रिया, न हु कोवां वरिणो जिणदहि। हुँति हु कोवनसीलय, पाति बहूणि भमराई (१)
x नाहटाजीने मुनि विष्णुकुमारके वस्त्राभूषणांकित . हे माधुश्रीष्ठ शान्त हो जिनेश्वरने भी क्रोधको उत्तम वामन रूपका जो अलंकृत वर्णन किया है। वह दिगम्बर नही कहा । जो कद्ध होता है वह बहुसंसार भ्रमण करते परम्पराके हरिवंशपुराणमें नहीं है। और भी जहां कथाहैं। विद्याधरोंने भाभारपूर्वक यह गीतिका प्रहब की। में अतिरंजितरूप जान पड़ता है। वह भी नहीं है।
इधर नमचिके अविनीति पूर्ण और भगवान विष्णुकी
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किरण ८)
वामनावतार और जैनमुनि विष्णुकुमार
[२५३
इस प्रकार स्वाभाविक रूपमें पानेके बाद विष्णुकुमा की तरह उनके चरित्र में बड़ा अन्तर है। भागवतके अनुसार रने राजा महापाको रामोके पायोग्य बताते हुए कैद बलिराजा एक दानी और हर प्रतिज्ञ भादर्श व्यक्ति था। कर उसके पुत्रको न्याय पूर्वक प्रजा पालन करनेका निर्देश गुणोजनाका भादर करने वाला था। पर नमुच दुभ था। किया भगवान विष्णु की कृपासे प्रजाने भी उस पुत्रको राजा उसके अस्याचारके कारण ही जैन मुनिको अपनी तपशकिस्वीकार किया। बलू किए जाते नमुचिको श्रमण संघने को प्रयोग करना पड़ा था। उसका कार्य उचित जान पड़ता बचा लिया। उसे देशसे निष्कासित कर दिया गया। है। इसीलिए नमुचिके प्रति पाठकोंकी सहानुभूति नही
विष्णु भणगार एक लाख वर्ष तक तप करके कर्म उत्पन्न हुई । बजि जैसे किसी धर्मिष्टका अकारणा केवल मलको दूर कर केवलज्ञान, केवजदर्शन प्राप्त कर निर्वाण इन्धको ही सहायताके लिये, वामन रूप धरके कष्ट दना लक्ष्मी पा मोच पधारे।
अनुचित लगता है जिके प्रति सहज सहानुभूति होतो हे
पुराणोंमें भो अवताराका कार्य दुष्टरमन और माधु रक्षण यहाँ दानों कथानकोंके साम्य वैषम्य पर भी संक्षिप्त "विचार करना पावश्यक है।
बताया है। जो विष्णु कुमारको कार्यको पुष्टि करता है। भागवत में बृहद् रूप धारणा करने वाले वामन, वासुदेव विष्णुके अवतार हैं। ऋग्वेदमे
वामनावतारको उस रूप में चित्रित नहीं किया गया यहाँ वामनको विवरण ही कहा है जैन कथामें नाम विष्णुकुमार
बक्षिक प्रकारण कष्ट दिया गया है। इस दृष्टिस जैनकथा है। अतः नाम एक ही है। २ भागवतमें वामनको ऐसा
अधिक संगत है । वामनके कार्यके अनौचित्यका उद्घाटन करनेका कारण इन्द्रका कष्ट हटाना और सहायता करना ब्रह्माकी स्तुतिसे भी भली भांति हो जाता है यदि वामनबतलाया है। ऋग्वेदके अनुमार भी वे इन्द्र के सखा थे। ने अपना बचाव करनेका प्रयत्न किया है। पर वह जनसाजेन विष्णुकुमारने मुनियों के कष्ट निवारणार्थ वृहद्रूप धारणको दृष्टिसे सफल नहीं प्रतीत होता, उच्च भूमिका धारण किया था। दोनों में कष्ट निवारणार्थ उद्देश्य तो वालोंको ही भले न ठोक जंचे कथामें पहले धन एवं एकसा ही है। व्यक्ति अलग अलग ३ जिस राजानं ऐश्वर्य पाकर बनिराना अनाचार और अत्याचार करने लगा, तीन डग भूमिकी मांगकी गई भागवतादिके अनुसार उस- ऐसा चित्रण किया जाता तो भी संगति बैठ जाती। पर का नाम बलि राजा था। जैन कथानुसार नमुचि x नाम- उसे तो प्रशंपनीय बतलाया गया है। तीन डग जितनी
दिगम्बर कथा ग्रन्थों में राजा महापद्मकी कद करने भूमि मांगने और मापते समय बृहद्रूप धारण कर छल. जैसी कोई भी भात नहीं है।
नेको बात दोनोंमें ममान है ही। वास्तवमें वहीं सबसे x दिगम्बर परम्परामे राजावलिस ही तीन डग
प्रधान साम्य माना जाना चाहिए। पृथ्वी मांगनेका उल्लेख है और बलिको ही दुष्ट कार्य इस तरह हम देखते है कि दोनोंक रूप एकसे हैं। करने वाला, नथा मात दिनका राज्य प्राप्त करने वाला अब विद्वानोंको इस सम्बन्धमें विशेष विचार प्रगट करनेक लिम्बा है।
-प्रकाशक अनुरोध है।
'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें अनेकान्तकी कुछ पुरानी फाइलं वर्ष ४ से ११ वं वर्ष तक की अवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्ध खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं, जो पठनीय एवं संग्रहणीय हैं । फाइलों को लागत मून्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा।
मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली।
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गोम्मटसार जीवकाण्डका हिन्दी पद्यानुवाद
[परमानन्द जैन प्राचार्य नेमिचन्द्र सिदाम्तचक्रवर्तीके गोम्मटसार पर कविने अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिखा है कि अनेक टीका टिप्पण लिखे गये हैं x पाठकोंको जान कर ग्रन्थमें कहीं छन्द और अर्थ में भूल रह गई हो तो विद्वानों प्रसता होगी कि भा. दि. जैन महासभाके शास्त्रभंडारों को चाहिये कि मूलगाथाको देख कर उसका शोधन करने, मेस मुझे गोम्मटसार जीवकायका पद्यानुवाद उपलब्ध मैंने तो गाथाके अर्थको सुगम रीति अवधारण करनेके हमारे, जो पं. टोडरमलकी हिन्दी टीकाके बाद बनाया लिये मात्र प्रयत्न किया है।गया है। इस पद्यानुवादके कर्ता वर्णी दौलतराम हैं, यह जो है छन्द अर्थ महि भूल, सोधह सुधी देखि श्रुतमूल किस वंशके विद्वान थे और इनकी गुरुपरम्परा और समय गाथा
र समय गाथारथ अवधारण काज, सुगमरीति कीनी हित साज।२। क्या है इसका प्रन्यप्रशस्ति में कोई उल्लेख नहीं किया है।
कविने नेमिचन्द्रकी जीवतत्वप्रदीपिका नामक सिर्फ इतना ही बतलाया है कि मूलगाथाके अर्थको अव
संस्कृतटीका और पं. टोडरमलजीके 'सम्यज्ञानचन्द्रिका' धारण करने के लिये, और अपने शिष्यको पढ़ाने के लिये
नामक भाषाटीका इन दोनों टीकाओं से अर्थका अवलोकन जिसका नाम व्यक्त नहीं किया वर्णी दौलतरामने यह
कर संदृष्टि और यन्त्रोंको छोय कर मूल गाथाओंका अर्थ पद्यानुवाद किया है जैसा कि प्रन्धके अन्तिम मचया पद्यसे
कहा गया है। और यन्त्र वाली गाथाश्रोके अर्थको गुरु
टीका (पं० टोडरमनजीकी टीका ) देखनेका संकेत गाथा मूलमांहि अर्थ न विशेष समझांहि,
किया गया है यथाताते अर्थ अवधारनेका लोभी थायकें। अथवा स्वशिप्य ताके पढ़ावन काज,
तिनही संस्कृत भाषा दोय, वृत्तिनमेंसे अर्थ विलोय ।
संदृष्टि अरु यन्त्र विचार, गाथा मूल अर्थ कहूं सार।।८७ यह कर दियो प्रारम्भ गुरुपदेश पायकें। क्रीडनके तालसम मैं वर्णी दौलतबाल जान ।
यन्त्र तनी गाथानको, अर्थ सुरचनायुक्त । श्रत-सागरमें पर्यो उमगायके । देम्वा गुरूटीका विर्षे, करहु भ्रांत निजमुक्त ॥ ८ ॥ सो अब लघु बुद्धिपाय शारद सहाय थारी,
अब पाठकोंकी जानकारीके लिये कुछ मूल गाथाओका आय गयो आधे पार विलम्ब विहायक।
पद्यानुवाद मूलगाथाओंके नीचे दिया जाता है पाठक उस xप्राचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार पर अनेक टीकाएं परसे कविके रचना और भाषा बादिके सम्बन्धमें जानकारी लिखी गई है। उन उपलब्ध टीकाओंमें गम्मटसारकी' प्राप्त कर सकेंगे।
काहीका जिसके कर्ता प्राचार्य चन्द्रकीतिके शिष्य मिदं मदं पगामिय जिगाटतागोगिन मुनिििरकीर्ति हैं। उन्होंने यह टीका शक सं. १०१६
गुणरयणभूपणुदयं जीवस परुवणं वोच्छं ।। ( वि. सं. १७ में बनाकर समाप्त की है। इस
की है। इस दहा-गुण-मणि-भूषण उदय वर नेमिचन्द जिनराय ।
ना , टीकाकी एक प्रति मोजमाबाद जयपुरके शास्त्र भण्डारमें
सिद्ध शुखमकनकनम, कहुँ जिय प्ररुपण गाय ॥ १५६.की लिखी हुई मौजूद है जिसे भ. ज्ञानभूषणके
गुण-रतन-भूषण उदययुत श्रीसिद्ध शुद्ध जिनेन्द्रजी, शिष्य बघु विशालकीतिको गंधार मन्दिरमें हमदवंशी
। हुमनवशा बरनेमिचन्द कविन चौबीस वा तीर्थेन्द्रजी। भावक सर भाइयाकीका की पुत्री माणिकराईने लिखा कर प्रदानकी थी। दूसरी कनकी टीका केशववर्गीकी है जिसे * कविने २० टोडरमाजजीको छप्पयछन्दकी निम्न उन्होंने शक सं० १२८ामें बनाकर समाप्त की तीसरी पंक्तियों में सेठ लिखा है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि टीका अभयचन्द्र सूरीकी मन्दप्रयोधिका है। चौथी टीका पंजी अर्थसम्पन्न साहुकार थे। उनके यहाँ लेनदेनका नेमचन्द्रकी है।५ वी टीका पं० टोडरमबाजी की है। निजी कार्य भी सम्पन होता था
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गोमटसार जीवकाण्डका हिन्दी पद्यानुवाद
[२५५
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अथवा श्रीजिनबीर वा श्रीसिद वा सु-समय सही। हचर गाथा सुखकार, शाकमा पदमकार। वा सर्व सिदसह अथवा प्ररूपणा जियकी कही। गुणस्थान प्राधिकार पह, परम भयो प्रथम सुभगेह।
'पुन भाषाटीका तासुकी मम्यज्ञानजुचन्द्रका इति श्रीनेमिचन्द सिदान्तचक्रवर्ति विरचित गोम्स
श्री सेठ जु टोडरमल्लजी रची भरण श्रमरन्द्रका ८६॥ दसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ताकी जीवतत्वप्रदीपिका चा श्री नेमिचन्द्रवरसूर, सबही पूर्वकथित गुणपूर ।
नाम संस्कृत टीका वा लम्पक ज्ञानर्चान्द्रका माम भाषातिन युग चरणोज सिरनाय, जीवपरूपण कहीं सो गाय ॥३॥
टीकाके भनुमार मूलगायार्थ बन्द पन्ध ब.बाबीचा
वग्रन्थमें गुणस्थान प्ररूपणानाम प्रथमोऽधिकार: m मिछत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होदि।
रएट्ठ पमाए पढमा सरणा रणहि तत्स्थ कारणा भावा । हिण धम्मं रोचेदिहु महुरंखु रसं जहा जुरदो॥
सेसा कम्मनिछत्ते गुवयारे णस्थि ण हि कज्जे ॥६॥ अनुभवता मिथ्यात्व सदोष, है विपरीत वर्शनी जीव । परिण-अप्रमत्त चादिक गुणवान मकाली, सो पुन धर्म न रोचे कदा, जिय जुरवान मधुररस सदा ।
कारण तने प्रभाव प्रथम संज्ञानही।
कर्मोदय अस्तित्व हुसशा शेष ही। संजुलण णोकसायागुदयादो संजमो हवे जम्हा।
है उपचारहि मात्र कार्य रूपी नहीं। मलजगण पमादो विय नम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३॥
गाथा जु षट्नम बन्द महि अधिकार उत्तम यह सही। जो देशघाती संज्वलन नव-नोकाय र सही।
संज्ञा सुनामा पचमो परण कियो सुखदाय हो । संयम मकल अरु मल कनक परमाद दोट हेतु ही।
लाख छन्द अर्थ ममा घटबंद सुधी लेहु सुधारके। ताते जिया साई प्रमत सोई विरत उर बानिये। वांबहु पदाबहु पढ़हु जिहि विधि होहु तट तिन धारके। वरती जु षष्ठम यानि तातें प्रमत संयत मानिये ॥३२॥ संधि पुष्पिका वाक्य उपर मुजब है। इस तरा
गोम्मटसारका यह पद्यानुवाद एक अप्रकाशित रचना मीलेसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस श्रासयो जीवो।
जिसका समाजमें कोई उस्लेख पाजनक सामने नहीं कम्म-रय-विप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि।। ६५॥ पाया। इस तरहकी भनेकों अज्ञात रचनाएँ प्रन्यभपडारों में
छिपी पड़ी है जिन्हें प्रकाशमें खानेका बत्ल करना चाहिए। सब मेद शीलतने जु अठ दश सहस तिनको पायजी। आशा है कोई दानी महानुभाव दौलतरामवीकी इस माधव समस्त निरोधजिय पुन स्वपदमें थिर थाय जी॥
कृतिको प्रकाशमें लानेका यत्न करंगे इस ग्रन्थकी एक नव वध्यमान करममईरज कर विमुक्त भये सही।
प्रति बिजनौरके शास्.मयडारमें भी मौजूद है। मन वचन तनके योग विन जिनमजोगि संज्ञा नही ।। दोनों प्रतिया मथरामें सं०१६41 में प्रतिविपि की
गोवध बन्द करने के लिये ३१ करोड हिन्दुओंकी मांग ! क्रांतिकारी विचारों के साथ !
"गोरक्षण"
मासिक पत्र में पदिए गो सेवामें भाग लेने के लिये आन ही २) रु०वाषिक गोदान भेजकर प्राहक बनिए। नमूने के लिये का टिकट मेजिये। नमूना मुफ्त नहीं भेजा जाता। धार्मिक संस्थाओं और छात्रों को भद्ध मल्य में। ग्राहक बनाने वालों को भरपूर कमीशन दिया जाता है। गोबध बन्दी कराने त प्रकारकी सहायता तथा दान नीचे के पत्ते पर मनिआर्डर से भेजिए।
मैनेजर-'गोरक्षण रामनगर-बनारस।
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जैनसाहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन
[पं० परमानन्द जैन शास्त्री ] 'भ्रमब' के पांचवें वर्षके द्वितीय अंकमें जैनसाहित्यका न मान कर उन्हें यों ही मन माने ढंगसं अर्वाचीन प्रकट विहंगावलोकन' नामका एक तालिका-लेख डाक्टर इन्द्रके करना और अर्वाचीनोंको प्राचीन बतलाना क्या उचित कहा नामसे प्रकाशित दुपा है। उसको देखनेसं पता चलता है जा सकता है। आज यह लेख इसा विषय पर विचार करनेके कि जैन साहित्यका यह विहंगवलोकन बड़ा ही दोषपूर्ण लिये लिखा जाता है। प्राशा है डाक्टर साहब योजना है। उसमें अहमदाबादकी गत अक्तूबर मासमें होने वाली संयुक्त मत्रोंके नाते उस पर गहरा विचार करनेकी कृपा जैन साहित्य-इतिहास-परिषदके असाम्प्रदायिक प्रस्तावकी करेंगे। बहुत कुछ अवहेलना की गई है। डा. इन्द्रकं द्वारा निर्दिष्ट विहंगावलोकनको उस तालिका ३४वें नम्बर पर उस तालिकामें कितनेही अन्यकारोंको आगे पीछे कर दिया हरिभद्र के बाद जो हरिषेणका नामोल्लेख किया गया है है, कितनोंको विषकुल ही छोड़ दिया है और कितनांका वह गलत है; क्योंकि पापुराणके कर्ता हरिषेण नहीं हैं समय-निर्देश गलत रूपमें उपस्थित किया है। कह नहीं और न उनका समय ही वि० सं० ८०० हो सकता है। सकते कि यह सब कार्या० इन्द्रने स्वयं किया है या हरिषेण नामके दो विद्वानोंका उल्लेख मिलता है जिनमें किसी निर्दिष्ट योजनाका वह परिणाम है, पर इतना तो प्रथम हरिषेण 'हरिषेण कथाकोश' के कर्ता है जिसे उन्होंने स्पष्ट मसकता है कि उसका उद्देश्य समन्तभद्र और शक स. ८५३ (वि. सं. ७८८) मे विनायकपालक अकलंक जैसे न्यायसर्जक और प्रतिष्ठापक प्राचीन विद्वानो राज्यकाल में बनाकर समाप्त किया है। दूसरे हरिषेण वे को अर्वाचीन और अपने अर्वाचीन विद्वानोंको प्राचीन है जिन्होंने वि० सं० १.४४ में 'धर्मपरीक्षा' नामका ग्रन्थ सिद्ध करना रहा है। इससे जहाँ ऐतिहासिक तथ्यांको अपभ्रंश भापामें बनार समाप्त किया है। इन दोनों हानि पहुँचेगी और अनेक नूतन प्रान्त धारणाओंकी सृष्टि हरिपंणोंमसे वहाँ कोई भी विवक्षित नहीं है। वहीं हरिषेण होगी, वहाँ ऊपरसे असाम्प्रदायिक लगने वाली अन्तः की जगह रविषेण होना चाहिए । उस तालिकामं जो यह साम्प्रदायिक नीतिका उद्भावन भी हो जावेगा। तालिका गाती हुई है उसका कारण फतेचन्द बेलानीको व: में जा नीति वर्ती गई है उसमें अन्तः साम्प्रदायिक दृष्टिकोण पुस्तक जान पड़ती है जिसका नाम 'जैनग्रन्थ और अन्यभने प्रकार सन्निहित है और उसके द्वारा साहित्यिकाको कार' है, उपमें भी हरिभद्र के बाद 'पप्रचारत (पद्मपुराण) साहित्यके से इतिहास निर्माण की दृष्टि ही नहीं दी गई के कांको हरिषेण लिखा है उस पुस्तकमें दूसरे भी बल्कि एक प्रकारसे प्रेरणा भी की गई है। जबकि हम जोग बहुतसं गलत उल्लेख है, सैकड़ो ग्रन्थ तथा अन्य कार छूटे उस साम्प्रदायिकताम ऊपर उटना चाहते हैं जो पतनका हुए हैं। डाक्टर साहबने उक्त तालिका उसी परसे बनाई कारण है तब ऐसी नीति समुचित केसे कही जा सकती है ? जान पड़ती है, इसी दोनों में बहुत कुछ समानता पाई इतिहासज्ञोंको तो उदार और असाम्प्रदायिक होने के साथ जाती है तालिका बनाते समय उस पर कोई खास ध्यान साथ वस्तुतत्त्वक निर्णयमें दृष्टिको शुद्ध एवं निष्पक्ष रखने । दिया गया मालूम नहीं होता, अन्यथा ऐसी गल्तीकी की बड़ी जरूरत है, उसीको जुटाना चाहिय, बिना उसके गुमरावृत्ति न होती इतिहासमें प्रामाणिकता नहीं पा सकती । अप्रामाणिक
उक्त तालिका डा. इन्द्रने कषायपाहुर और षट्खण्डाइतिहास बहुत कुछ आपत्तियों-विप्रतिपत्तियोंका घर बन
गमके का प्राचार्य गुणधर भूतवली पुप्पदन्त के साथ सकता है जिनसे व्यर्थ ही समाजकी शक्तियांका क्षय होना
प्राचार्य कुन्दकुन्दको विक्रमकी तीसरी शताब्दीका विद्वान सम्भव है।
प्रकट किया है और उनके बाद मास्वातिको रक्खा है। यहाँ यह विचारणीय कि जिन पाचार्यों का समय उमास्वातिकाबादमें रखना तो ठीक है परंतु कुन्दकुन्दादिका ऐतिहासिक विद्वान प्रायः एक मतसे निरूपण करते हैं उसे समय ठीक नहीं है और न उमास्वातिसे पहले विमलका
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किरण]
जैन साहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन
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समय ही ठीक है। जबकि विद्याम अनेक प्रमाणोंके भाधार सं०७३३ के विद्वान होते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु पर कुन्दकुन्दाचार्यका समय विक्रमकी पहली शताब्दी उन्होंने अपनी निशीथचुणिं और नन्दीचूणिमें समन्तभद्रघोषित कर रहे है।
के कई शताब्दी बाद होनेवाले टीकाकार अकलंकदेवके ताखिका मित्रसेन दिवाकरको वि.....के सिदिनिश्चय' का स्पष्ट उल्लेख किया है। यह सब होते मध्य रक्या है और उन्हें सम्मतितका न्यायावतार तथा हुए भी जिनदासगणी महत्तरके बाद समन्तभद्रका नामोद्वात्रिंशकामोंका कर्ता सूचित किया है, जबकि जैन न्यायके एलेख करना कैसे संगत एवं रष्टि विकार विहीन कहा जा सर्जक समन्तभद्राचार्यको वि.... में जिनदास महत्तरके सकता है। और यह अवलोकन तो और भी अधिक रष्टि भी बाद रक्खा है। यह सब देखकर बदाही भाश्चर्य और विकारका सूचक है जो समन्तभद्रको पूज्यपादसे भी... खेद होता है; क्योंकि प्रसिद्ध ऐतिहामिक विद्वान पं० जुगल- वर्ष पीछेका विद्वान प्रकट करता है। जबकि पूज्यपाद स्वयं किशोरनी मुख्तारने अपने 'सम्मनिसूत्र और सिद्धसेन' अपने जेनेन्द्र व्याकरणमें समन्तभद्रका उल्लेख 'चतुष्टयं नामके विस्तृत निबन्धमें, अनेक प्रमाणोके आधारसे यह समन्तभद्रस्य' इस सूत्रके द्वारा करते है। सिन्दू किया है कि प्रस्तुत प्रन्योंके कर्ता एक सिद्धसेन नहीं इसी तरह प्राचार्य प्रकलंकदेवको जो हरिभद्र के बाद किन्तु तीन हुए हैं जिनमें प्रथमादि पाँच द्वात्रिंशिकाओंके अन्त में रक्खा है वह किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा कर्ता प्रथम, सन्मतिसूत्रके कर्ता द्वितीय और न्यायावतारके सकता, क्योंकि हरिभद्रकी कृतियों पर अकलंकदेवका स्पष्ट कर्ता तृतीय सिद्धसेन हैं और इन तीनोंका समय भिन्न भिन्न प्रभाव ही अंकित नहीं है। किन्तु हरिभद्र ने अपनी भनेहै। साथ ही यह भी बतलाया है कि सन्मतितर्कके कर्ता कान्तजय पताका' में अकलंकदेवके न्यायका उल्लेख भी सिद्धसेन बादको 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित किये जाते किया है। ऐसी स्थितिमें अकलंकदेवको हरिभद्रका थे, वे दिगम्बर विद्वान हैं, प्रथमादि कुछ द्वात्रिशिकाएँ उत्तर वर्ती बतलाना कितना जि दोषको लिये हुए है उसे जिन सिद्धसेनकी बनाई हुई हैं उनपर समन्तभद्रके ग्रन्थोंका बतबानेकी जरूरत नहीं रहती! स्पष्ट प्रभाव ही लक्षित नहीं होता बल्कि प्रथमद्वात्रिंशिका
अकलंक तो जिनदासगणी महत्तरसे भी पूर्ववर्ती है; में तो 'मर्वज्ञपरीक्षाक्षमा' जैसे शब्दो द्वारा समन्तभद्रका पोजिम
भद्रका क्योंकि जिनदासने अपनी चुणियों में उनके 'सिद्धिविनिश्चय' उल्लख तक किया है और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन
नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है यह सर्वविदित है। और श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वान हैं जिनका ममय पात्रकेशरी
साथ ही यह भी निश्चित है कि प्रकलंकका वि० सं०७.. और बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिके बाद का है और समन्तभद्र
मे यौद्धांस बहुत बड़ा बाद हुआ था, जिसमें उन्होंने विक्रमकी दूसरी-तीसरी शतादोके विद्वान है; जिस समयको
विजय प्राप्त की थी। इन सब ऐतिहासिक साक्षियोंके श्वेताम्बर ग्रन्थोंका भी समर्थन प्राप्त है। न्यायावतारके
होते हुए भी बलात् उन्हें हरिभद्रका उत्तरवर्ती विद्वान कर्तान तो समन्तभद्र के 'रस्नकरण्डश्रावकाचार' का 'प्राप्तो
प्रकट करना प्राचीन भाचार्योको अर्वाचीन और पर्वाचीनों पज्ञ' नामका पथ भी अपने प्रथम अपनाया है ।
को प्राचीन प्रकट करनेकी दूषित दृष्टि अथवा नीतिका ही मुख्तार श्री के उक्त निबन्धका कहींसे भी कोई प्रतिवाद
परिणाम जान पड़ता है। अकलंकदेवके विषयमें अधिक वर्ष हो जाने पर भी देखने में नहीं पाया। ऐसी स्थितिमें भी समन्तभद्रको जान बूम कर वीं सदीका विद्वान तिषु नन्द्यध्ययन चूर्णि समाप्ता। देखो भारतीय विचा वर्ष सूचित किया है. इतना ही नहीं किन्तु जिनदासगणी मह- ३ अंक में प्रकाशित जिनभद्माश्रमबा' नामका लेख तरके बादका भी विद्वान सूचित किया है, जबकि जिनदास- +'इति अकलंक म्यायानुसारि चेनोहरं क्या' भनेगणीने जो श्वेताम्बर विद्वान हैं, अपनी नन्दीचूर्णि शक कान्त जयपताका पृष्ठ २०२, विशेषके खिये न्यायकुमुदसंवत् २८८ में बनाकर समाप्त की है। इससे वे वि० चन्द्र के प्रथम भागकी प्रस्तावना देखें।
xदेखो, 'सम्मतिसिइसेनाङ्ग' नामका भनेकान्तका विक्रमार्क-शकान्दीय-शत-सप्त-प्रमानुषि । विशेषांक वर्ष है कि ११-१२
कालेऽकलंक यतिनो बौदादो महानभूत ॥ 'शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशेतषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनव
-अकलंक चरित
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२५]
अनेकान्त
[किरण संभव तो यह है कि वे जिनमदगणि माश्रमके समका- हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यय । बीन या कुछ पूर्व बी रहे है।
प्रदुर्भावे समाप्ते च इति शब्दः विदुर्बुधा ।। शालार्थव कर्ता प्राचार्य एभच्द्रको वि.सं. १३.. यह धवला टीका वि० सं०८७ में बनकर समाप्त में होनेवाले परिडत बसाधर जीके बादका विद्वान बतखाना हुई है। उक्त उल्लेखानुसार धनंजय कविका समय वि. किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता। जबकि पं० सं०७३ से पूर्व वर्ती है । अतः उनका नामोल्लेख वीरप्राशापरजी की इष्टोपदेशटीकामें ज्ञानार्यवके कई पद्य सेनाचार्यसे भी पूर्व होना चाहिए, कि विद्यानन्द के बाद । ' रूपसे पाये जाते है, ऐसी हालत उक निष्कर्ष इसी तरह अपनश दोहा साहित्यके रचयिता योगी निकालना समुचित नहीं कहा जा सकता शुभचन्द्र नामके देवको विक्रमकी १५वीं शताब्दीमें रक्खा है। जबकि अनेक विद्वान हुये हैं। प्रस्तुत शुभचन्द्र यदि १३ वीं परमात्मप्रकाश ग्रंथके टीकाकार ब्रह्मदेव विक्रमको १३ वीं शताब्दीके विद्वान होते तो वे जिनसेन तकके प्रधान भाषा शताब्दीके विद्वान है। और डाक्टर ए. एन. उपाध्ये एम. योका स्मरण करके ही न रह जाते बलिक जिनसेनके बाद ए.डो. जिट्ने भनेक प्रमाणोंके चाधारसे योगीद्रदेवका होनेवाले कुछ महान भाचार्योंका भी स्मरण करते; परन्तु समय परमात्मप्रकाशको प्रस्तावनामें ईसाकी.वीं शताब्दी स्मरण नहीं किया, इससे वे १३ वीं शताब्दीके उत्तरार्धके निश्चित किया है। अतः बिना किसी प्रमाणके उन विक्रम विद्वान नहीं जान पड़ते । ज्ञानार्यवके कर्ता अधिकसे अधिक की १३ वीं शताब्दीमें रखना उचित नहीं है। क्योंकि १.वीं"वीं शताब्दीके विद्वान ज्ञात होते हैं। ज्ञामाव पाचार्य हेमचन्दने योगीन्द्रदेवको परमात्मप्रकाशकी रचनासे के 'गुण दोष विचार' नामक प्रकरणमें जिन तीन पयोंको अनेक पच उद्धत किये है अपनश भाषाकी प्राचीन रचना 'उक्त'च' बतलाया गया है उन्हें ज्ञानार्णव कारने यशस्ति- दोहा साहित्यसे शुरू होती है। बक सम्पूसे नहीं लिया है। क्योंकि यशस्तिलकचम्पूकी
पउमचरियके कर्ता विमल कविके समयमें जरूर कुछ कई प्राचीन लिखित प्रतियोंमें उक्त तीनों ही पद्य 'उक्तच' संशोधन किया गया। ग्रन्थमें उल्लिखित विक्रम संवत रूपसे अंकित है इससे वे यशस्तिनको उदत होनेके
६० का रचनाकाल आपत्तिके योग्य है। इस पर कई कारण उपसे प्राचीन जान पाते हैं। अतः वे पच शुभच- विद्वानोंने प्रापत्ति की है। हमने भी उसका पान्तरिक परीनाने यशस्तिलक चम्पूसे लिये यह नहीं कहा जा सकता।
पण किया जिसके फलस्वरूप कविका समय विक्रमकी ५ हमने ज्ञानावकी कई प्राचीन प्रतियांका अवलोकन किया
वीं ६ ठी शताब्दी स्थिर किया गया, परन्तु प्रस्तुत तालिकाहै जिनमेंसे दो तीन प्रतियोंके हाशिये पर जो ग्रन्थ बाझ में वह बिना किसी प्रमाणके तीसरी शताब्दी रक्खा गया पच किसीमे अपनी जानकारीके लिये नोट कर दिये थे । उन्हें बाद लिपिकारोंने मूलमें शामिल कर दिया। इस अब मैं उन विद्वानोंमें से व प्रमुख विद्वानोंका तरह प्रतिलिपिकारोंकी कृपा अथवा नासमझीसं अनेको
नामोल्लेख कर देना चावश्यक समझता है जिनको प्रमुख पद्य प्रक्षिनरूपसं प्रन्या में शामिल हो गये है यह बात
पन्थकार होते हुए भी तालिकामे चोद दिया गया है। प्रन्यांका तुलनात्मक अध्ययन करने वालोंसे छिपी नहीं
उदाहरण स्वरूप 'जल्पनिर्णय' के कर्ता श्रीदत्त, 'सुमति है। ऐसी स्थितिम ज्ञानावकी शुद्ध प्राचीन प्रतियोसे
सप्तक' और सन्मतिसूत्रविवृ तके कर्ता सुमतिदेव, मुद्रित प्रतिका संशोधन होना जरूरी है।
जिनका तस्वसंग्रह नामक बौद्ध ग्रन्थके टीकाकार कमलशील'राघवपापडवीय' काव्यके कर्ता कविधनंजयका नामो- ने 'समतिदेव दिगम्बरेश इम वाक्यके द्वारा उक्लेख किया क्लेख तक तालिकामे प्राचार्य जिनमन वीरसेन, जिनसन -- शाकटायन और भाचार्य विद्यानन्दके बाद वि.सं.... सुमतिदेव ममुस्तुत येनवस्सुमति सप्तकमाप्ततयाकृतम् । में किया है वह भी ठीक नहीं है. क्योंकि उक्त विकी परिहतापथ-सव-पधार्थिनां सुमतिकोटिविवर्तिभवातहत् ॥ अनेकार्य नाम माला' का निम्न एक पथमाचार्य वीरसेनने
-शिलालेख सं० भा. १-२५ एक उपयोगो रलोक कह कर अपनी धवला टीकामे
इस ग्रंथका उल्लेख वादिराजने पारनाथ चरित्र उद्धत किया है:
में किया है। .
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किरण]
हिन्दी जैन-साहित्यमें अहिंसा
[२५४
है। तचासत्रके टीकाकार शिवकोटि x 'जिनस्तुति' विद्वानों और रचनामोंका उल्लेख यहाँ होना मावश्यकीय
और विवक्षण कदर्थन' नामक प्रन्योंके रचयिता पात्र है। केशरी, जिनका 'जिन तुति' नामका अन्य पात्रकेशरी यगसारके कर्ता अमितगति प्रथम, भारमानुशासन, स्तोत्र नामसे प्रकाशित हो चुका है, 'नव-तोत्र' के कर्ता उत्तरपुराण और जिनदत्तचरनके कर्ता (जिनसेनाचार्य वजनन्दी, + जिन्होंने किसी प्रमाण ग्रन्थकी भी रचनाकी के प्रधान शिष्य) गुणभद्राचार्य, समपसार, प्रवचनसार थी। 'वाद-याय' के कर्ता कुमारनन्दी, जिनका उल्लेख और पंचास्तिकामाप प्राभृतत्रयके टीकाकर तथा पुरुषार्थ'तत्वायरलोकवार्तिक' 'प्रमाव परीक्षा' और 'पत्र परीक्षा' सिद्धयुपाय, तत्त्वार्थसार भादि प्रन्योंके रचयिता अमृतमें प्राचार्य विद्यानन्दने किया है। 'लोकविभाग' प्राकृतके चन्द्राचार्य, धर्मरत्नाकरके कर्ता जयसेनाचार्य, काम्यानुकर्ता 'सर्वनन्दी जिन्होंने अपना उक्त ग्रंथ शक स. ३८० शासन और छन्दोनुसानके कर्ता नेमिकुमारके पुत्र वाग्भट्ट, में बना कर समाप्त किया है। 'सुलोचनाकथा' के कर्ता अध्यात्मकमलमार्तण्ड, जम्बूस्वामिचरित्र, बाटोसंहिता, महासेन, इन्दोनुशासन' के कर्ता जयकीर्ति, और 'श्रत- समयमारकलशाटीका, बन्दाविद्या और पंचाध्यायी नामक विन्दु' के कर्ता चन्द्रकीत्याचार्य, * 'वागर्थसंग्रह' पुराण अन्योंके कर्ता कवि राजमल्ल । के कर्ता कवि परमेष्ठी इन विद्वानोंकी अधिकांश रचनाएं इसी तरह अपभ्रंश माहित्यके भी कई प्रमुख विद्वानों यद्यपि इस समय अनुपलब्ध हैं फिर भी उनके स्पष्ट को भी छोड़ दिया गया है यथाउल्लेख तथा वाक्यांके उद्धरण तक मिलते हैं। इनके
पार्श्वनाथ पुरायके कर्ता कवि पद्मकीर्ति, जिनकी उक्त सिवाय जिन पाचोंकी महत्वपूर्ण कृतियाँ उपलब्ध हैं उनका
रचनाका काल वि० सं० है। जंबूस्वामिचरित्रके भी नामोल्लेख नहीं किया गया है। उदाहरणके तौर पर
कर्ता कवि 'वीर' जिनकी उक्त रचनाका समय वि. सं. पात्रकेशरी और उनके प्रसिद्ध स्तोत्रको छोड़कर निम्न
प्रसिद्ध स्तोत्रका बावकर निम्न १०७६ x तस्यैव शिष्यः शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बन देहयष्टिः। इस तरह जैन साहित्यका उक्त विहंगावलोकन भनेक संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थ सूत्र तदलंचकार ॥ दोषों, बटियों, म्खलनों और साम्प्रदायिकनीतिके दृष्टि
-शिलालेख सं० भा० १,१८५ कोणको जिये हुए है। यदि वस्तुतः तालिकाके निर्माणामें + नवस्तोत्र येन व्यरचि सकलाहस्प्रवचन । साम्प्रदायक नीतिका कोई रष्टिकोगा नहीं है-वैसे ही प्रपंचान्तर्भावप्रवण-वरसम्दर्भ सुभगम् ॥ फतेचन्द वेलानीकी उक्त पुस्तकका अनुसरण करके उसे
-शिलालेख सं० भाग १,५४ ६७ दे दिया गया है-तो खुले दिलम उमका शीघ्रही संशोधन * देखो, शिलालेख संग्रह भाग 1,५४,६७) होकर उस प्रकाशमे लाना चाहिये ।
= हिन्दी-जैन-साहित्यमें अहिंसा :
[वे. कुमारी किरणवाला जैन ] प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा।
प्राचीनकाल में यज्ञोंकी प्रधानता थी। यज्ञ देवताओंको -प्राचार्य उमास्वामी प्रसन्न करने के लिए किये जाते थे। यज्ञको विष्णु और अर्थात् प्रमाद और करायके योगसे प्राणोंका म्यरोपय प्रजापति भी कहा जाना था। जब वैदिक सम्प्रदायका जोर करना-बात करना, दुख देना-हिंसा है, और इनका पढ़ा और यज्ञोंका भारतमे अधिक प्रचार होने जगा तब म होना अहिंसा है। प्रमाद शब्दका एक विशेष लाक्षणिक उनकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था । उपासनाकी अर्थ भी है जिसका भाव है कि संकल्प द्वारा काम, क्रोध, अपेक्षा ये यश विशेषतः स्वार्थ-साधनाकी पूर्ति हेतु किये स्वार्थ क्या जोमादिके वशीभूत होकर कार्य में सावधानीसे आते थे। इनमें व्यक्तियोंके स्वार्थकी भावना अन प्रवृद्धि करना।
थी। उन्होंने उसे धर्म तक कह दिया था, क्योंकि साधा
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२६० ]
अनेकान्त
[किरण
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रण रूपसे मांस भक्षण करना हिंसा है तवदेपारकेन्तु भ स्पष्ट प्रमान है कि किस प्रकार परोपकारके हेतु उन्होंने मोग लेनेके पश्चात् वे उसे देव-प्रसादका रूप मानकर अपने व्यक्तिगत सखका त्यागकर साधनामें जीवन विताना उसका खाना धर्म मानते थे । वैदिक कर्मकाण्ड हिंसा स्वीकार किया। नेमिनाथ प्रभु रथ पर भारत हो राजुबसे प्रधान हो गया था। उसके विरोधमें उपनिषद् कालके विवाह करने जा रहे थे मार्गमें अनेक पशुओंको बन्धनसे विचारकोंने प्रात्मज्ञानकी स्थापना की। 'भारमानः वृद्धि' ग्रस्त देखकर उनका हृदय द्रवीभूत हो उठा ! उन्होंने पता अर्थात् अपनी प्रात्म.की उमति करो। यज्ञोंको उपनिषदमें किये तृण-भक्षक पशु यहाँ किस कारणसे प्रारूद किए फूटी नाव कहा गया है । 'यज्ञायते दृढ़ा प्लावा : ये यज्ञ गए हैं। पूछने पर उन्हें ज्ञात हा कि विवाहमें निमंत्रित निश्चय ही फूटी नाव हैं । वैदिक युगके ऋषि स्वर्ग- कुमारोंके सत्कारके निमित्त ये यहाँ लाए गए हैं। यह कामनासे यज्ञ करते थे, उपनिषद् कालके विचारक आत्म
सुनते ही उन्हें जगतसे वैराग्य हो गया। उन्होंने पशनोंको ज्ञानकी विपासासे भाकुल हो समस्त वैभव छोषकर वनमें
तत्काल पन्धनसे छुड़वाया और स्वयं उसी क्षण दीक्षा चले जाते थे।"
ग्रहण करनेके लिये बनकी ओर चल दिए। भागे चलकर नमक
पहिसाका उपदेश दिया।'x कर भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध अवतरित हुए। दूसरा उदाहरण प्रभु पार्श्वनाथजी का है। उन्होंने वे वैदिक हिंसाके अथवा क्रियाकाम्बको सहन न कर सके। कठोरसे कठोर विरोध का प्रतिशोध सहिष्णुता और धैर्यके उन्होंने दुखित प्राणियोंकी करुण-ध्वनिको अपनी ध्वनिमें आधार पर किया । अनेक वर्षों तक हिंसाका अहिंसासे मिभित कर दयाका संचार किया। और यज्ञांकी बलिमे
सामना करते रहे, परन्तु कभी भी हृदय में प्रतिकूल भावोंकी पा समुदायकी रक्षा की। मनुष्योंको उपदेश देते हुए सृष्टि नहीं हुई। उपयुक्त उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि जैनउन्होंने कहा कि विश्वकी शान्ति, अहिंसा और दया पर साहित्यमें अहिमाकी प्रतिष्ठा व्यक्तिगत साधना और ही अवलम्बित है। वीरप्रमुके उपदंशोंने प्राणियोंके अन्त- स्यागके बल पर ही जीवित एवं प्रतिष्ठित हुई है। स्तनको स्पर्श किया। स्थान-स्थान पर सभाएं कर अहिंसा तस्वका दिग्दर्शन कराया और उसकी महत्ता बताई। "The noble principle of Ahimia has संसारका प्रत्येक व्यकि अपना जीवन सुरक्षित रखना influenced the Hindn Vedic ntes. As चाहता है और जीवन वालोंके साथ रहना चाहता है, मत- a resuht ef Jain preachings. एव उन्होंने जियो और जीने दो' का उपदेश दिया। The animal sacrifices were comple
प्रोफेसर प्रायंगरने लिखा है-'महिंसाके पुण्य tely stopped by the Brahamens and सिद्धान्तने वैदिक हिन्दु धर्मकी क्रियाओं पर प्रभाव राला the inages of theasts made of flour
यानियोंके उपदेशका प्रभाव है जिससे ब्राह्मणोंने were substituted for the reat and पशुलिको पूर्णतया बन्द कर दिया था, तथा यज्ञोंके लिये veritable ones required in the conducसजीव प्राणियोंके स्थान में पाटेके पर बनाकर कार्य करना ting of yagas."(Prof. M.S. Rainaswami प्रारम्भ किया था।
Ayangar M.A.) -जैन शासन, पृ० १३४॥ श्री १०५ पूज्य शुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णकि कथना- २. भगवान नेमिनाथके विवाह और वैराग्यका वर्णन नुसार 'अहिंसा तत्व ही इतना व्यापक है कि उसके उदरमें जस्टिस जैनीने बड़ा पाकर्षक किया है
माजाते है जैसे हिंसा पापमें सब पाप गर्भित हो "He Naminath) was a Prince born जाते हैं। अहिंसा जैनधर्मका मूल सिद्धान्त है। इसके of the Yadva clan at Dwarka and he प्रभाव में जैनधर्म निमाण हो जायगा।'
renounced the world when about to be अहिंसामें प्राणी, भूत जीव और शत्र की रचाके married to princess Rajimati, daughलिये पात्मोत्सर्गको प्रधानता दी गई है। जैनपुराणों में ter of the chief, Ugrasena. When the यदुकुमार 'नेमिनाथ' के वैराग्यकी घटना इस बातका marriage procession of Naminath app
स
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किरण ]
हि दी जैन साहित्यमें अहिंसा
[२६१
अहिंसाका अर्थ है कर्तव्य परायणता। अपन कर्तव्यसे प्रसादजोने लिखा है-'सबसे ऊंचा प्रादर्श जिसकी कल्पना विमुख होनेपर ही हिमामें प्रवृत्ति होती है। साधारणतः मानवमस्तिष्क कर सकता है अहिंसा है। अहिंसाके हिसा दो प्रकार की होती है-1. द्रव्य हिंसा और २. मिद्धा-तका जितना व्यवहार किया जायगा उतनी ही मात्रा भाव हिंसा। कविवर वृन्दावनदासजीने भी हिंसाके दो सुख और शान्तिकी विश्वमंडल में होगी। यदि मनुष्य भेद मान है
अपने जीवनका विश्लेषण करे तो इस परिणाम पर पहुंचेगा 'हिंसा दोय प्रकार है, अंतरबाहिजरूप ।
कि सुख और शान्तिके लिये प्रान्तरिक सामजस्थकी ताको भेद लिखों यहां, ज्यों भापी जिनभूप ।। ६४ ॥ आवश्यकता है।' अंतरभाव अशुद्ध करि, जो मुनि वरतत होय ।
यह मान्तरिक सामंजस्यकी स्थिति तभी उत्पन होती घातत शुद्ध मुभाव निज,प्रवल मुहिंसक होय ॥ ५॥ है जब मनुष्यका सब प्राणियों के प्रति साम्यदृष्टि-बिन्दु हो। अरु वाहिज विनु जतन जो, करै चरन आप। सबसे परस्पर प्रेम भाव हो, मनुष्यको सूचमसे सूचमतर तहं पर जियको घात हो, वा मति होह कदाप ॥६६॥ प्राणीको कष्ट पहुँचानेका अधिकार नहीं। कष्ट सब जीवोंको अंतर निज हिंमा कर, अजतनचारी धार ।
अप्रिय होता है। सुख अनूकूल लगता है, दुःख प्रतिकूल ताको मुनिपद भंग है, यह निहचे निरधार ॥ १७॥ बगता है । जहाँ अहिंसा सब प्राणियों में मैत्रीभाव स्थापित ज मुनि शुद्धोपयोग जुत, ज्ञान प्रान निजरूप। करती है वहीं हिंसा अथवा क्रूरता वैर-भाव प्रकट ताको इच्छा करन नित, निरखत महज स्वरूप। हमा१ करती है। सूचमप्टिम अवलोकन करनपर यह स्वतः अनुभवमे
जैन-साहित्यमें अहिंसा तीन भागांमे विभक्त की गई आता है कि व्यक्ति कषाय करके स्वयं अपने भावोंका है-1. आध्यात्मिक हिसा, २. नैतिक अहिंसा और हनन करता है इसीलिये वह हिसक है अतः किसीके प्रति ३. बौद्धिक अहिंसा ।। राग या द्वेषके प्रभावको महिंसाकी संज्ञा दी जाती है। आध्यात्मिक अहिंसा का महत्व प्रारम-भावोंकी
अपनी महत्वपूर्ण कृति 'हिन्दुस्तानकी पुरानी सभ्यता' निर्मलता है इसी कारण जैनदर्शनमें भावनाको प्रधानता में प्रयाग विश्वविद्यालयके भूवपूर्व प्रोफेसर डा.वेणी- दी गई है। क्योंकि जहां भावोंमे कशता कठोरता एवं roached the bride's castle, be heard
फरताका दिग्दर्शन होता है वहां अवश्य हिसा होती है।
करता निर्बलतासे आती है। प्रास्मानर्बलताही कायरता the bleating and uioanmg of animals
अथवा हिसाको जनक है। इसीसं जैनधर्मन प्रान्तरिक in the cattie pen upon inquirv he boud
भावशुद्धि पर जोर दिया है। कारणकि भावांकी विशुद्धता that the animals were to be slaughte
ही अहिंसाकी प्रतिष्ठाको प्रतिष्ठापन करनमें सहायक है। red for the guests his own friends and
साधारणतः मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह भावनास party.
कार्यकी पहचान करें। अपने प्रेम व सहृदयताको भावनाके "Compossion surged in the youth
द्वारा शत्रोके हृदयको परिवर्तित कर उनके हृदय में प्रमful breast of Naminath and the torture
भावको स्थापित करना अहिंसा ही है। अहिंसा कठोरस which his mariage would cause to NO
कठोर विरोधोंका सामना करती है। अतः किसी भी व्यक्तिके many dumb ereature, pa'd bere be
प्रति कुविचार न रखते हुए प्रात्मसमपर्णकी भावना रखना tore him the mockery of buman civi
ही अहिंसाका वार्तावक पालन है। ligation and heartless selbishness. He
तिक अहिंसासे तात्पर्य है कि प्रत्येक प्राणी समाजके blung away his princly ornaments and repaired at once to the forest."
नयको समक्ष रखकर अपने जीवनकी भावश्यकताओंको
इतना सीमित रक्खें जिससे उसके स्वयंका जीवन तो शुद्ध [Cutlines of Jainisim PXXXIV ] प्र.परमागम पृ.१७१६-१८..
२ हिन्दुस्तानकी पुरानी सम्बता पृष्ठ ६३ ।
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२६२ ]
अनेकान्त
[किरण
और सरल रहे साथ ही अन्य व्यक्तियोंके जीवन में कोई पश्चात् दूसरा और दूसरेके पश्चात् तीसरे युबके काले बाधा न पड़े। वे अपनी प्रावश्यकताओंके हेतु किसीके काले मेघ उनके मस्तक पर मरा रहे है। वास्तवमें अर्थका शोषण न करें।
युद्धकी समाप्ति तभी सम्भव है जबकि मनुष्य में मानवबोरिक हिसा-मान विश्व में स्वार्थक साथ साथ ताका पर्याप्त विकास हो । डा. तानका यह कथन है, विचारोंका संघर्षमी चल रहा है। इसी कारण माधुनिक
मानवताका पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है इससे यह युगको बौद्धिक युगकी संज्ञा प्रदान की गई है। जैनदर्शन
अग्यवहार्य भले ही प्रतीत होता है, किन्तु जब मानवतास्थावादके रूपमें बौद्धिक महिसाका प्रदर्शन करता है। की वशेष उन्नति होगी तथा वह उच्च स्तर पर पहुंचेगी स्वाहाका अर्थ है अपनी दृष्टि,विचार और कथनको तब अहिंसाका विशेष प्रत सबको पालन करना होगा। . संकृषित हवपक्षपात पूर्वक न बनाकर उदार, निष्पक्ष सम्भव है विश्वके व्यक्ति तृतीय युबमें शामिल हों: एवं विशाल बनाना है। अपनी विचार धाराका उदार परन्तु यह निश्चय है कि उन्हें इस निर्णय पर पाना होगा
और निष्प बनानेके साथ उसका यह मुख्य कर्तव्य है कि कि वे युद्धको अच्छा समझते है या शान्तिको । वास्तवमें वह अपनी नीति सत्यको ग्रहण कर प्रसस्यको त्यागनेकी विज्ञान और नाश एक हलमें नहीं जोवे जा सकते उनका बनाये। अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण क्षेत्र और उद्देश्य विक्कुल भिक्ष है। विज्ञानकी उमतिके जगतको प्रात्मसात् करनेके लिये अग्रसर होनाही बौद्धिक साथ साथ मनुष्यको समस्या भी बढ़ती जा रही है। सन् महिंसा है।
१७१७ का भारतवर्षका प्लासीका विश्वविख्यात युद्ध दोनों
ओर केवल कुछ ही सहस्त्र सिपाहियों में सीमित था। देशके आधनिक विश्व प्रशान्त है। प्रशास्तिका मूल है अन्य लोगों पर इसका प्रभाव न पड़ा और पढ़ाई की जड़ व्यक्तित्ववाद क्योंकि व्यक्तिकी सामाजिकता नष्ट हो
का भी कुछ ही घण्टों में निर्णय हो गया। किन्तु माधुनिक ग अथवा व्यक्ति अधिक असमाजिक हो गया है । वह कालका युद्ध विज्ञानको उत्पति के साथ प्रतिभयानक है। समाजसे पृथक रहकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता कोरिया, जो कि विश्यका एक छोटासा भाग है, के युद्ध में है। समाजके स्थायित्वकी चिता न कर अपने स्वार्थ
इतनी बड़ी हिंसा हो सकती है जो कि प्रत्यक्ष ही है तो मापनोंकी पर्तिके हेतु चेष्टा करता है। मानवने क्या न यह विषय विचारयीय है कि विश्वव्यापी युद्ध में कितनी किया। मनुष्यने विज्ञानकी गहरी खाईयाँ खोदी तथा अधिक हिंसा होती होगी। इससे यह स्पष्ट है कि भाज भाना प्रकारकी गैसोंका निर्माण किया। किन्तु इन सबका का विज्ञान कितना हानिकारक हो गया । अतः प्रत्येक दुष्परिणाम स्वयं उन्हींको सहन करना पड़ा और पड़ेगा। प्राणीका कर्तव्य यह होना चाहिये कि वह इस प्रश्न पर
अतः अर्वाचीन काल में मनुष्य समाजको विश्वव्यापी विचार करे कि विश्व में शान्ति हो या युद्ध । क्योंकि यदि युद्ध और महिलाके मध्य अपनी रुचिके अनुकूल चुनाव इन दोनोंका परस्पर सम्बन्ध रहा तो यह निश्चय है कि करना है।बाज विश्वके सामने मुख्य समस्या यह है कि मनुष्य समाजका अन्त हो जायेगा। जिस प्रकार रोटीको किस प्रकार विज्ञानको नाशात्मक कार्योसे पृथक रक्खा खाना और बचाकर भी रख लेना असभव है इसी प्रकार जाय । अब भी इस विश्वमे ऐसी जाति और व्यक्ति विद्य युद्ध होते हुए शान्ति स्थापित करना भी असंभव है। मान हैं जो यह कल्पना करते हैं कि विज्ञान और युद्धका यदि विज्ञानका उद्देश्य मनुष्य समाजकी उसति है तो परस्पर सम्बन्ध है अथवा एक दूसरेके विरुद्ध नहीं है।
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09 Humanity hos not yet progreइस ऐसे भी व्यक्ति है जो सोचते हैं कि विश्व युद्ध होकर
seed enough. When the bumanity has हीरहेगा और शांति तथा अहिंसाके कोई भी उस प्रयत्नको रोक नहीं सकेंगे। एक अहिंसा प्रेमी व्यक्तिके लिये विश्वयुद्ध
sufficently developed and reached in क्या अन्य कलहके छोटे-छोटे कारण मात्रोसे घृणा होती है।
curtain higher stage this law of परन्तु यह मत्व न खेदका विषय है कि विश्वव्यापी युद्ध होते
Ahimsa should be and would be follo
wed by ael. -जैन शासन, पृ० १४६ । हुये भी जाति और मनुव्यके मेव नहीं खुलते और एक युवक
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हिन्दी जैन साहित्यमें अहिंसा
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अहिंसाके द्वारा ही यह सम्भव हो सकती है न कि हिंसाके गान्धीकी एकनिष्ठतासे अहिंसाकी साधनाका प्रभाव है कि द्वारा । यह सम्भव हो सकता है कि कुछ व्यक्तियोंको १०० वर्षोसे पराधीनताकी बेदी में पड़े हुए भारतवर्षको युद्धसे लाभ हो जाय परन्तु यदि उन्हें विज्ञानसे पूर्ण मुक्त कराया । उनके कथनानुसार अहिंसा मन्दिरों अथवा बाम उठाना है तो भहिंसाको कार्यरूपमें परिणित करना प्रकोष्ठोंके एक कोने में बैठ कर प्रयोग करनेको बस्तु नहीं होगा और शान्तिके सिद्धान्तोंका अनुगमन करना होगा! वरन् जीवनके प्रत्येक क्षेत्रम तथा प्रत्येक सबमें उसका विश्वमें रामराज्य अहिंसाके द्वारा ही स्थापित हो सकता उपयोग होना चाहिये । तभी मानव जीवन सफल हो हैन कि हिंसाके द्वारा । यदि मनुष्य विश्वम शामिन सकता है। स्थापित करना चाहता है तो यह आवश्यक है कि विज्ञानका प्राज विश्व युदोंका कारण केवल पूजीका मासउचित प्रयोग किया जाय और अहिंसाकी महत्ताको मान वितरण है। जब तक दूसरोंकी भूमिका निर्दयता समझा जाय । विश्वमे समय समय पर समाज सुधारक . पूर्वक हरूप लेना न बन्द होगा और पूंजीका समान वित
और धर्मोपदेशक अवतरित होते रहे हैं। जिन्होंने हिमाके रण न होगा, युद्ध होना निश्चित है। भाज कम्युनिज्म • उपद्रवसे विश्व को मुक्त किया और शान्ति तथा अहिंसाके और केपिलिज्मका ही संग्राम है। विश्वरूपी अखादेमें यह बादेशसे प्राणीमात्रकी रक्षा की। अहिंसाका उद्देश्य सर्व दानों पहलवान अपनी शक्तिकी परीक्षा हेतु उतरे है और प्रथम विशेषतया जैन तीर्थकरोंने गम्भीरता एष सुव्यवस्था जब तक इन समस्याओंका निर्णय न होगा यह भापति दूर पूर्वक बताया और उचित रीतिसं प्रचारित किया। अहिंसा न होगी। के विषयमें जैनधर्मका दृष्टिकोण वस्तुतः मौलिक है। विश्ववंच महात्मा गाँधीके प्रसिद्ध अनुयायी श्रीकाका यह मौलिकता इसमें है कि जैन विचारकॉन अहिंसकी कालेलकरके अहिंसाके विषयमे अत्यन्त उच्च विचार हैं। म्याख्याका विचारबिन्दु मारमाको माना है। जैनधर्मके उनके कथनानुसार 'जबसे मनुष्यने माताके पेटसे जन्म अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्धमानस्वामी और बुद्धधर्मके प्रवर्तक लिया, तबसे अहिंसाका जन्म हुआ है। बलिदान तथा महात्मा बुद्ध तथा ईसाई धर्मके प्रवर्तक लौर जेमफ स्वार्पणके विना अहिंसा जीवित नहीं रह सकती।' क्राइस्ट इत्यादिने अहिंसाकी महत्ता पर विचार कर विश्व
हिन्दी जैन-साहित्य में अहिंसाकी महत्ता और हिंसाके को उसका उपदेश दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने समय
निषेवक विषय पर साहिस्थिकोंने सुन्दर प्रकाश डाला है। के हिंसात्मक कार्योसे मनुष्योंको बचाया।
कवियर बनारसीदासजीके कथनानुसार हिंसा करनेसे सम्राट अशोकने कलिंगके महायुद्धके पश्चात् महिमाकी कमा भा पुण्य फलका प्राप्त नही हातामहत्ता समझी और जब तक राज्य किया प्रेम और
जो पश्चिम रवि उगै, तिरै पाषान जल, शान्तसे अपनी प्रजाको एक सूत्रमें बांधा। सन् १६८८
जो उलटे भूवि लोक होय शीतल अनल | में इग्लैंडमें रकहीन क्रान्ति हुई जो 'ग्लोरियस रेगूलेशन'
जो सुमेरू डिगमगे, सिद्ध के होय पग, के नामसे प्रसिद्ध है। यह घटना इग्लैंड एवं यारोपके
तबहु हिंमा करत, न उपजे पुण्य फल ॥१ इतिहासमें अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इनसे स्टूअर्ट
जैन-साहित्यके सुप्रसिद्ध कवि भूधरदासजीने हिसासे राजामोंके दैवी अधिकार मिद्धान्तका अन्त कर दिया
बलि किये गये पशुओंके मुखसे अत्यन्त करुण भाव व्यक भार इंग्लंडमें' पालियामैंटको प्रधानता प्रदान कर दी। कराय है। यथाइस क्रान्ति द्वारा यह सिद्ध होता है कि महिमामें जो शक्ति
कहै पशु दीन सुन यज्ञके करैया मोहि । विद्यमान है वह तलवार और पाम्ब मादिमें नहीं।
हेमत हुताशनमें कौनसी बड़ाई है ।। हमारे अपने युगमें विश्वविभूति महात्मा गान्धीजीने
स्वर्ग सुख में न चहों देह मुझे यों न कहों। जो महत्वपूर्ण कार्य कर विश्वके समस्त विचारकोंका ध्यान
घास खाय रहौं मेरे यही मन भाई है। प्राकर्षित किया-वह है सार्वजनिक क्षेत्रमें अहिंसाके जो तू यह जानत है वेद यों बखानत है। सिद्धान्तोंका प्रयोग । उन्होंने अपने निशदिनके व्यवहारमें . श्रमन, वर्ष क. पृ. ।। अहिंसाको कार्यरूपमें परिणत किया। यह उन्हीं महात्मा- १. प्राचीन हिजै. कवि पु.१०।
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२६४]
भनेकान्त
जल जलौ जीव पावै स्वर्ग सुखदाई है। जैसे अपने प्रान हैं तैसे परके जान । डारे क्यों न पीर वामैं अपने कुटुम्ब ही को। कैसे हरते दुष्टजन बिना बैर पर प्रान ।। मोहि जिन जारे जगदीशकी दुहाई है।॥२ निरजन वनधनमें फिर, मरै भूख भय हान ।
डीक यही भाव महात्मा कबीरदासजीने भी शिवह देखत ही घूसत छुरी, निरदय अधम अजान ।। की जाने वाली मुनकि मुखस व्यक्त कराये हैं
दुष्टसिंह अहि मारिये तामें का अपराध । ? मुर्गी मुबासौं कहै, जिवह करत हैं मोहि । प्रान पियारे सबनिको, याही मोटी बांध ।। साहिब लेखा मांगसी, संकट परिहै तोहि ।। भलो-भलो फल लेत है, बुरो बुरो फल देत । कहता हो कहि जात हो, कहा जोमान हमार। तू निरदय है मारकै, क्यों है पाप समेत ।। १ जाका गर तुम काटि हो सो फिर काटि तुम्हार।।३ यद्यपि अहिंसा जैनधर्मका प्राण है पर विश्वका
हिन्दी न गद्य साहित्यगगनके देदीप्यमान नक्षत्र ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसमें अहिंसाका विरोध किया ६. टोडरमलजी ने अपने 'पुरुषार्थ सिद्धयुय' परामक हो। चाहे वह हिन्दू धर्म हो, चाहे बौद्ध धर्म हो, चाहे प्रन्यकी टीकामें हिंसाके दोषोंका सुन्दर विवेचन किया है- इम्बाम हो अथवा क्रिश्चियन । इन भिन्न भिन्न मतानु
-हिंसा नाम तो धातहीका है। परन्तु पात दोय यायियोंने हिंसा जैसे रत्नको पाकर उसे पालोकित प्रकारके हैं, एक तो पात्मवात, एक परषात । सो जब यह किया। अहिंसाके विषयमें व्यासजीके वाक्य स्मरण रखने भारमा कषाव भावाने परणमते अपना बुरा किया तब यग्य हैंभारमधात तो पहिले ही होय, निवस्या पीछे अन्य जीवका अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयम् । भायु पूरा हुमा होय अथवा पापका उदय होय तो उसका परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। भी घात होय तो उसका घातको न कर सके हैं, तिमते प्राणघातत्वयोगेन धर्म यो मन तेजनः । उसका तो पात उसके धर्म माधीन है, इसकी तो इसके सः वान्छति सूधावृष्टि कृष्णाहिमुखकोटरात ।। भावनिका दोष है इस प्रकार प्रमादसहित योगविणे
अर्थात् अठारह पुराणों में केवल दो ही वचन श्रेष्ठ भास्मघातकी प्रतेक्षा तो हिंसा नाम पाया। अब भागे ।
ई-परोपकारसे पुण्य और पर पीटनसे पाप होता है। परवावकी अपेक्षा भी हिंसाका सद्भाव भी दिग्वावे है--
जो प्राणियोंकी हिंसासे धर्मकी इच्छा करता है वह कृष्ण -परजीवका पात रूप जो हिंसा सो दोय प्रकार है
मपके मुंहसे अमृतकी वृष्टि चाहता है। एक अविरमक रूप एक परिरमय रूप है। जिम काल
पाइबिल में हज़रत ईसामसीहने भी अहिंसाका उप- . जीव पर जीवका पात विष तो नाहीं प्रवते और ही कोई
देश देते हुए कहा तू प्राणियोंकी हत्या मत कर । कार्य विर्षे प्रव है, परन्तु हिंसाका स्याग नाहीं किया है।
हमारे राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादजीने जैनधर्मकी विसका बाहरवा जैसे हरित कायका त्याग नाहीं और वह
मान्यताके विषयमें निम्न माव व्यक्त किये है-'मैं अपने क्सिी काट विर्षे हरित काषका भक्षण भी नाहीं करै ।।
को धन्य मानता हूँ कि मुझे महावीर स्वामीके प्रदेशमें जैसे जो हिंसाका त्याग नाहीं है. और वह किसी काल
रहनेका सौभाग्य मिला है। अहिंसा जैनोंकी वशेष विवें हिंसा विर्ष नाही प्रवत है परन्तु अंतरंग हिमा करने
सम्पति है। जगतके अन्य किसी धर्ममें अहिंसाका प्रतिपाका अस्तित्व भावका नाश न हुमा तिसको अविरमण रूप
दन इतनी सूक्ष्मता और सरबतासे नहीं मिलता।' हिंसा कहिए। बहुरि जिस काज जीव परजीवके घात विष
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन तीर्थंकरोंने मामन करि वचन करि व कार्यकार प्रयत्न तिसको परिरमण
चारों और जैन कवियोंने एक स्वर होकर अहिंसा पर जोर रूप हिंसा कहिये ये दो भेद हिंसाकेकडे, तिन दोङ भेदन
दिया है। क्योंकि यह मानवता एवं धार्मिकताका मूख हैं। विर्षे प्रमाद सहित योगका अस्तित्व पाइये है। ..
धर्मका मूलाधार अहिंसा ही है। यही कारखी कि जैन अपनी प्रसिद कृति 'बुधजन सतसई' मे कवियर
कषियोंकी अन्तरवाणी भी यत्र तत्र सर्वत्र महिलासे मनुबुधजनजीभाखेटको निन्दा करते हुए कहा है
प्रमाणित होती रही है। पु• सियुपाय पू. ३६-01 २.जैन शतक पू.१५।.बीर वाणी वर्ष अंक
दु.सतसई १.११-१२।
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समयमारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी
(सम्पादकीय)
[गकिरण नं० से आगे] सारे जिनशासनको देखने में हेत
उसी प्रकार यह भी बताया कि "इस गाथा श्रीकानजीम्बामोने अपने प्रवचन में कहा कि प्राचार्यदेवने जेमदर्शनका मर्म खोलकर रखा है। यह 'शुद्ध भारमा वह जिनशासन है, इसतिर जो जीव अपने
कथन भी भापका कुछ संगत मालूम नहीं होता, क्योंकि शुवमात्माको देखता। वह समस्त जिनशासनको देखता
गाथाके मूलरूपको देखते हुए इसमें जैनदर्शन भयका है। इस सर्कवाक्यसं यह फलित होता है कि अपने गुर
जिनशासनके मर्मको खोलकर रखने जैसी कोई बात पास्माको देखने-जानन बाबा जीव जो समस्त जिनशासन
प्रतीत नहीं होती। जिनशासनका बाय या स्वरूप तक भी को देखता-जानता है उसके उस देखने-जानने में हेत या उसमें दिया हुमा नहीं है। याद दिया हुआ होता तो स्मा और जिनशासनका (म्वरूपादिसे) एकस्व है। यह हेतु दूसरी शंकाका विषयभूत यह प्रश्न ही पैदा न होता कि स्वामीजीके दाग नया ही प्राविष्कृतहमा है। क्योंकि प्रस्तत 'उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस रष्टाके द्वारा मूल गाथामे न तो एसा उल्लम्ब हक 'जो शुद्धामा वह पूर्णतः देखा जाता है? गाथामें सारे जिनशासनको देखने जिनश सन है और न मारे जिनशासनकी जानकारीको मात्रका उल्लेख है-उसे सार या संपादिके रूपमें सिहकरने के लिए किसी हेतुका ही प्रयोग किया गया है- देखने की भी कोई बात नहीं है। सारा जिनशासन
उसमें तो 'इलिए' अर्थका वाचक कोई पद वा शब्द भी अथवा जिनप्रवचन द्वादशांग जिमवाणीके विशाल रूपको नीजिससेवा तयोगी पी लिये हुए है, उसे वाल्मदीक द्वारा-एदारमाकेद्वारा जाती। ऐसी हालत में स्वामीनीने अपने वक्त तर्कवाक्यकी नहीं-कैसे देखा जाता है, किस रष्टि पा किन साधनोंसे बातको जो प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा गाथामें कही गई देखा जाता है, साचात् रूपमें देखा जाता है या प्रसाबतलाया है वह कुछ संगत मालूम न होकर उनकी निजी
सान् रूपमें और प्रात्माके उन पाँच विशेषयोंका जिनकल्पना ही जान परती है। प्रस्तु: इस कल्पनाके द्वारा
शासनका पूर्ण रूपमें दखनेके साथ क्या सम्बन्ध है अथवा जिस नये हेतुकी ईजाद की गई है वह प्रसिद्ध है अर्थात्
वे कैसे उस देखने में सहायक होते है, ये सब बाते गागामें शुद्धामा और समस्त जिनशासनका एकत्व किसी प्रमाणस
जैनदर्शनके मर्मकी तरह रहस्यम्पमें स्थित है। उनमेंसे सिद्ध नहीं होता, दोनों को एक मानने में अनेक प्रसंगतियों किसीको भी प्राचार्य श्रीकुन्दकुन्दन गाथामें खोखकर नहीं अथवा दोषापत्तियों उपस्थित होती है जिनका कुछ दिग्दर्शन रक्या है। जैनदर्शन अथवा जिनशासनके मर्मको खोलकर एवं स्पष्टीकरण ऊपर "शुद्धात्मदर्शी और जिनशासन" बतानका कुछ प्रयत्न कानजी स्वामीने अपने प्रवचन में शीर्षकके नीचे किया जा चुका है।
जरूर किया है परन्तु वे उस यथार्थरूपमे खोजकर बता जब यह हेतु प्रसिद्धसाधनके रूप में स्थित है तब नहीं सके-भलंही मारमधर्मके सम्पादक उक्त प्रवचनको इसके द्वारा समस्त जिनशासनको देखने-जानने रूप माध्यकी उद्धत करते हुए यह लिखते हों कि 'उस (१५ वी गाथा) सिद्धि नहीं बनती। अभीतक सम्पूर्ण जिनशामनको देखने में भरा हुमा जनशासनका अतिशय महत्वपूर्ण रहस्य जाननेका विषय विवादापत्र नहीं था-मात्र देखने-जानने- पूज्यस्वामीजीने इस प्रवचनमें स्पष्ट किया है (खोलकर का प्रकारादि ही जिज्ञासाका विषय बना हुभा था-अब रखा है)। यह बात मागे चलकर पाठकोंको स्वतः मालम इस हेतु प्रयोगने संपूर्ण जिनशासनके देखने-जाननेको भी पर जायगी यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता विवादापत्र बनाकर उसे ही नहीं किन्तु गाथाके प्रतिपाच हूँकि अपने द्वारा खोखे गये मर्म या रहस्यको स्वामीजीविषयको भी झमेले में डाल दिया है।
का श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके मत्थे मंदना किसी तरह भी समस्वामीजीने जिस प्रकार अपने उक तर्कवाक्यकी चित नहीं कहा जा सकता। इससे साधारण जनता म्यर्थ बावने श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-द्वारा गाथामें कही गई बतलाया ही प्रमका शिकार बनती है। अतः कानजी स्वामीने
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२६६ ]
अनेकान्त
[किरण
जिनशासनका जो भी मर्म या रहस्य अपने प्रवचन में हाजतमें केवल अपने शुद्वात्माका अनुभव करना यह जिनखोलकर रस्ता रेसका मूलसूत्र वही है कि 'जो शुद्ध शासन का सार नहीं कहाला सकता। अशुद्धामाओंके अनुभारमा वह जिनशासन है।' यह सूत्र कितना सारवान् भव विना शुद्धास्माका अनुभव बन भी नहीं सकता और अथवा दोषपूर्ण है और जिनशासनके विषय लोगोंको न अशुद्धामाके कथन विना शुद्वात्मा कहनेका व्यवहार ही कितना सच्चाज्ञान देने वाला या गुमराह करने वाला हे बन सकता है। अनः जिनशामनसे अशुद्धामाके कथनको इसका कुछ दिग्दर्शन इस लेख में पहले कराया जा चुका अजग नहीं किया जा सकता और जब उस अलग नहीं किया है। अब मैं जिन शासनसे सम्बन्ध रखने वाली प्रवचनकी जा सकता तब सारे जिनशामनके देखने और अनुभव करने में कुछ दूसरी बातोंको नेता हूँ।
एकमात्र शुद्धास्माका दग्वना या अनुभव करवा नहीं पाता, जिनशासनका सार
जिसे जिनशासनके साररूपमें प्रस्तुत किया गया है प्रवचन में भागे चलकर समस्त जिनशासनकी बातको वीतरागता और जैनधर्मबोरकर उसके सारकी बातको लिया गया है और उसके श्रीकानजीस्वामी अपने प्रवचन में कहते हैं कि "शुद्ध द्वारा यह भाव प्रदर्शित किया गया है कि शुद्धास्मदर्शनके प्रारमाके अनुभवसं वीतरागता होती है और वही (वोत्त- . साथ संपूर्ण जिनशासनके दर्शनको संगति विठलाना कठिन रागता ही) जैनधर्म है; जिससं रागकी उत्पत्ति हो वह है। चुनांचे स्वामीजी सारका प्रसंग न होते हुए भी स्वयं जैनधर्म नहीं है।" यह कथन प्रापका सर्वथा एकान्तदृष्टिसे प्रश्न करते हैं कि "समस्त जैनशासनका सार क्या है" भाक्रान्त है-व्याप्त है; क्याकि जैनदर्शनका ऐसा कोई भी और फिर उचर देते हैं-"अपने शुद्ध मारमाका अनुभव नियम नहीं जिससे शुद्धारमानुभवके साथ वीतरागताका करना" जब उक सूत्रके अनुसार शुद्धारमा और जिनशासन हाना अनिवार्य कहा जा सके- वह होती भी है और नहीं एक है सब जिनशासनका सार वही होना चाहिये था जो कि भी होती । शुद्ध प्रास्माका अनुभव हो जानेपर भी रागाशवाल्माका सार है न कि शुद्वात्माका अनुभव करना; परन्तु दिककी परिणात चलती है, इन्द्रियोंके विषय भोगे जाते शवाल्माकासार कुछ बतबाया नहीं गया, अतः जिनशासन- है, राज्य किये जाते हैं युद्ध लड़े जाते है और दूसरे भी का सार जो शुद्धास्माका अनुभवन प्रकट किया गया हबह अनेक राग-द्वेषके काम करने पड़ते हैं, जिन सबके उन्लेखोंविवादापस हो जाता है। वास्तवमे देखा जाय तो वह संमारी से जैनशास्त्र भरे पड़े हैं। इसकी वजह है दोनांके कारणाअशुद्धारमाके कर्तव्यका एक भांशिक सार है-पूरा सार भी का अलग अलग हाना । शुद्धास्माका अनुभव जिस नहीं है क्योंकि एकमात्र शुद्धास्माका अनुभव करके रह जाना सम्यग्दर्शनके द्वारा होता है उसके प्रादुर्भावमै दर्शनमाहया उसी में भटके रहना उसका कर्तव्य नहीं है बल्कि उसके नोय कर्मकी मिथ्यावादि तीन और चारित्रमाहनीयकी भागे भी उसका कर्तव्य है और वह हे कर्मोपाधिजनित अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी चार ऐसी सात कम-प्रकृतियोंके अपनी प्रशुद्धताको दूरकरके शुखात्मा बननेका प्रयत्न, जिसे उपशमादिक निमित्त कारण हैं और वीतरागता जिस वीत. एकान्तष्टिके कारण कार दिया गया जान पाता है। और रागचारित्रका परिणाम है उसकी प्रादुर्भूतिम चारित्रमोहइसलिये वह जिनशासनका सार नही है। जिनशासन नीयकी समस्त कर्म-प्रकृतियोंका सय निमित्त कारण है। दोनोंके वस्तुतः निश्चय और व्यवहार अथवा बाथिंक और निमित्त कारणोंका एक साथ मिलना अवश्यंभावी नहीं है और पर्यायार्थिक दोनों मूल नयोंके कथनोपकथनोंको भास्मसात् इसलिये स्वारमानुभवके होते हुए भी बहुधावीतरागता नहीं किये हुए है और इसलिये उसका सार वही हो सकता है होती। इस विषयमे यहां दो उदाहरण पर्यात होंगे-एक सम्यजो किसी एक ही नयके वक्तव्यका एकान्त पक्षपाती न बाट देवोंका और दूसरा राजा श्रेणिकका । राजा अंगिकहोकर दोनोंके समन्वय एवं अविरोधको लिए हुए हो। को मोहनीय कर्मकी उक्त साता प्रकृतियोंके पबमे शायिक इस दृष्टिसे पति संक्षेपमें यदि जिनशासनका सार कहना सम्यग्दर्शन उत्पब हुधा और इसलिए उसके द्वारा अपने हो तो यह कह सकते हैं कि-जयविरोधसे रहित जीवादि शुवास्माका अनुभव तो दुमा परन्तु वीतरागताका कारण तत्वों तथा दयोंके विवेक सहितको प्रात्माके समीचीन उपस्थित न होनेके कारण वीतरागता नहीं पा सकी और विकासमार्गका प्रतिपादन है वह जिनशासन है।' ऐसी इसलिये उसने राज्य किया, भोग मोगे, अनेक प्रकारके
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किरण]
समयसारकी १५वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी
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राग-द्वेषों को अपने में मामय दिया तथा अपघात करके बक्षिक गृहस्थों तथा गृहत्यागियोंके लिये इन चौक मनुमरख किया । वह मर कर पहले नरकमें गया, वहाँ भी छानका विधान है और हम दोनों धर्मोके कयनों तबा उसके वह चायिक सम्यच और स्वात्मानुभव मौजूद है उल्लेखासे अधिकांश जैन ग्रन्थ भरे हुए हैं, जिनमें श्रीकुन्दपरन्तु प्रस्तुत वीतरागता पाम नहीं फटकती, नित्य ही कुन्दक चारित्तपारमाय ग्रन्थ भी शामिल हैं। इन नरक-पर्यायाभित अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम दोनों धर्मों को जिनशासनसे मजग कर देने पर जैनधर्मका
और शुभतर देह वेदना तथा विक्रियाका शिकार बना फिर क्या रूप रह जायगा उसे विज्ञ पाठक सहजमें ही रहना होता है साथ ही दुःखाका समभाव विहीन होकर अनुभव कर सकते हैं। सहना पड़ता है। इसी तरह सम्यग्दष्टि देव, जिनके शायिक यहां पर इतना और भी बतला दना चाहता हूँ सम्यक्स्व तक होता है, अपने प्रास्माका अनुभव तो रखते
किमरागचारित्र जो सब मोरसे शुभभावोंकी सृष्टिको हैं परन्तु प्रस्तुत वीरागता उनके भी का बही फटकती
पाथमे लिये होता है तथा शुभोपयोगी कहलाता है,वीतरागहै-वे सदा रागादिकमें फंसे हुए, अपना जीवन प्रायः
चारित्रका साधक हेाधक नहीं *। उसकी भूमिकामें भामाद-प्रमोद एवं क्रीडायोंमे ज्यनीत करते है पर्याय
प्रवेश किय बिना वीतर गचारित्र तक किसीकी गति भी धर्मक कारण चारित्रके पालन में सदा असमर्थ भी बने रहते हैं.
नहीं होनी वीतरागचारित्र मोषका यदि साचात् हेतु है फिर भी चारित्रसं अनुराग तथा धर्मात्माओम प्रम रखते
तो वह पारम्पर्य हेतु है। दोनों मोक्षके हेतु है तब हैं और उनमेंसे कितने ही जैन तीर्थकरोके पंचकल्याणकके
एकका दूसरे साथ विरोध कैसा । इसीसे जिस निवाबनवअवसरों पर पाकर उनके प्रति अपना बड़ा ही भक्तिभाव
का विषय वीतरागचारित्र है वह अपने साधक अथवा प्रदशित करते हैं, ऐसा बेनशास्त्रोसे जाना जाता है।
सहायक व्यवहारनयके विषयका विरोधी नहीं होता, बदिक इस तरह यह स्पष्ट है कि शुद्धास्माके अनुभवसे वीत- अपने अस्तित्वके लिये उसको अपेक्षा रखता है। जो रागताका होना लाजिमी नहीं है और इसलिए स्वामीजीका निश्चयनय व्यवहारकी अपेक्षा नहीं रखता, व्यवहारमयके एकमात्र अपने शुद्धारमा अनुभवसे वीतरागताका होना विषयको जैनधर्म न बतलाकर उसका विरोध करता है बतलाना कोरा एकान्त है।
पार एकमात्र अपने ही विषयको जैनधर्म बतलाता हुमा हमी तरह वीतरागता ही जैनधर्म है जिससे रागकी निरपेश होकर प्रवर्तता है वह शुद्ध-पच्चा निश्चयनयन उत्पत्ति हा वह जैनधर्म नहीं है. यह कथन भी कोरी एका- होकर प्रशद्ध एवं मिथ्या निश्चयनय है और इसलिये मत कल्पनाको लिये हुए है क्योंकि इससे केवल वीतरागता वीतरागतारूप अपनी अर्थक्रियाके करने में असमर्थ है; अथवा सवथा वीतरागता ही जैनधर्मका एकमात्र रूप रह क्योंकि निरपेक्ष सभी नय मिथ्या होते हैं तथा अपनी अर्थकर उस समीचीन चारित्रधमका विराध भाता है जिसका क्रिया करने में असमर्थ होते हैं और पापेक्ष मभी मय सच्चे लक्षण अशुभम निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्ति है, जो व्रतों वास्तविक होते तथा अपनी प्रक्रिया करने में समर्थ होते समितियो तथा गुप्तियों बादिके रूपम स्थित है और।
है; जैसा कि स्वामा समन्तभद्र के निम्न वाक्यसं प्रकट हैजिसका जिनेन्द्रदेवन व्यवहारनयकी रटिसे अपने शासनम निरपेक्षा नया मिथ्या साक्षेपा वस्तु नेऽथेकृत (देवागम) प्रतिपादन किया है। जैसा कि द्रव्यसंग्रहकी निम्न गाथासं
*हमीमे स्वामी समन्तभदने 'रागद्वेषनिवृत्यै चरणं
प्रतिपद्यते साधुः' इस वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादन असुहादा विरिणवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
किया है कि चारित्रका अनुष्ठान-चाहे वह सकल बद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारण्या दुजिणभणियं ॥४५||
हो या विकल-रागद्वेषकी निवृत्तिक लिये किया साथ ही, मुनिधर्म और श्रावक (गृहस्थ ) धर्म दोनों के खोपका भी प्रसंग पाता है। क्योंकि दोनों ही प्रायः सरागचारिखके अंग हैं. जिसे व्यवहारचारित्र भी कहते x “स्वशुदाम्मानुभूतिरूप शुदोपयोगलाण-वीतरागहैं। इनके खोपसे जिनशासनका विरोध भी सुघटित होता
चारित्रस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्र प्रतिपादहैक्योकि जिनशासनमें इनका केवल उक्लेश ही नहीं
यति ।"-मयसम्राटीकायां, ब्रह्मदेवः
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२६८]
अनेकान्द
[किरण
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ऐसी हालत में जो निरपेठ निश्चयनयका अवलम्बन लेते देखा है, उनकी संस्था 'जैनस्वाध्यायमन्दिर' क्या लिये हए होने वीतरागताको प्राप्त नहीं होते। इसीसे उसकी प्रवृत्तियों को भी देखा है और साथ ही यह भी देखा श्रीमतचवसरि और जयसेनाचार्यने पंचास्तिकायकी है कि रामरहित नहीं हैं। परन्तु यह सब कुछ देखते १०२ वी गाथाकी टीकामें लिखा है कि व्यवहार तथा हुए भी मरे लय पर ऐसी कोई बाप नहीं पड़ी जिसका निश्चय दोनों नयोंके विरोधसे (सापेक्षसे) ही अनुगम्ब फलिता यह हो कि पाप जैन नहीं या आपके कार्य जैनमान जमा वीतरागभाव अभीष्टसिद्धि (मोर)का कारण भर्मक काय नहीं। मैं पापको पक्का जैन समकता है. बनता है, अन्यथा दोनों नयांके परस्पर निरपेक्षसे) श्रापके कार्योको रागमिश्रित होने पर भी जैनधर्मक कार्य नहीं
मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि उनके द्वारा जैनधर्म 'तदिदं वीतरागत्वं व्यवहार-निश्चयाऽविरोधेनैवानु तथा समाजको कितनी ही सेवा हुई है। इसीसे भापके गम्यमानं भवति ममीहितसिद्धये न पुनरन्यथा । व्यक्तिस्वके प्रति मेरा बहुमान है-भादर है और मैं पापके -(अमृतचंद्रः)'तम.वीतरागत्वं निश्चय-व्यवहारनयाभ्यां सत्संगको अच्छा समझता हूँ परन्तु फिर भी सत्यके अनुसाध्य-साधकरूपेण परस्परसाक्षेपाभ्यामेव भवति रोषसे मुझे यह मानने तथा कहने के लिये बाध्य होना मुक्तिसिद्धये न च पुननिरपेक्षाभ्यामिति वार्तिक ।' पता है कि भापके प्रवचन बहुधा एकान्तकी भार ढले होते
-(जयसेनः ) है-उनमें जाने-अनजाने बचनाऽनयका दोष बना यदि जैनधर्म में रागमात्रका सर्वथा अभाव माना जाय
रहता है। जो वचन-व्यवहार समीचीन नय-विवक्षाको तो जैनधर्मानुयायी जैनियों के द्वारा बौकिक और पारसौकिक
साथमे लेकर नहीं होता अथवा निरपेक्ष नय या नया
अवलम्बन लेकर प्रवृत्त किया जाता है वह वचनानयके दोनों प्रकारके धमों में से किसी भी धर्मका अनुष्ठान नहीं बन सकेगा। सन्तान-पालन और प्रजा संरचनादिसे ।
दोषसे दृषित कहलाता है। बौकिक मौकी बातोदिये देवपूजा पाईन्तादिकी भक्ति म्वामी समन्तभद्र ने अपने युक्त्यनुशायम ग्रन्थमें यह स्तुति-स्तोत्रोंका पाठ, स्वाध्याय, संयम. तप, दान, या प्रकट करते हुए कि वीरजिनेन्द्रका अनेकान्त शासन सभी परोपकार, इन्द्रियनिग्रह, कषायजय, मन्दिर-मृतियोंका प्रक्रियार्थी जनों द्वारा अवश्य प्राश्रयणीय ऐसी एकाधिनिर्माण, प्रविष्ठापन, बतानुष्ठान धर्मोपदेश-प्रवचन, धर्मभवय. पतिस्वरूप बमोका स्वामी होने की शक्तिसे सम्पन है. वात्सल्य, प्रभावना, सामायिक और ध्यान-से कार्योंको फिर भी वह जो विश्वव्यापी नहीं हो रहा है उसके कारणोंही लीजिये.खो सब पारलौकिक धर्मकार्यों में परिगणित में प्रवक्ताके इस वचनाऽनय दोषको प्रधान एवं साधारण और चैनधर्मानुयायियोंके द्वारा किये जाते है। ये सब
बाघ कारण रूपमें स्थित बतलाया है। -कलिकाल अपने अपने विषयक रागभावको साथमें लिये ए होते तो उसमें साधारण बाह्य कारण है--और यह ठीक ही है. और उत्तरोत्तर अपने विषयकी रागोत्पतिमें बहुधा कारण :
प्रवकामोंके प्रवचन यदि वचनानयके दोषसे रहित हों और भी पड़ते हैं। रागभावको साथमें लिये हुए हाने चादिके
वे सम्यक् नविवक्षाके द्वारा वस्तुतस्वको स्पष्ट एवं विशद कारण ये सब कार्य या जैनधर्मकार्य नहीं हैयदि जैन- करते हुए बिना किसी अनुचित पक्षपातके श्रोताओंके सामने भर्मक कार्य नहीं है तब क्या जैनेतरधर्मके कार्य है या अधर्म रक्खे जाय तो उनसे श्रोतामोंका कलुषित प्राशय भी बदल के कार्यश्री कानजी स्वामी इनमेंसे बहुतसे कार्योको सकता है और तब कोई ऐसी खास वजह नहीं रहती स्वयं करते-कराते तथा दूसरोंके द्वारा अनुष्ठित होने पर जिससे जिनशासन अथवा जैनधर्मका विश्वव्यापी प्रचार न उनका अनुमोदन करते हैं. तब क्या उनके ये कार्य जैन- हो सका स्वामी समन्समदके प्रवचन स्वादन्यापकी धर्मकै कार्य नहीं है। मैं तो कमसे कम इसे मानने के लिये तुला तुबे हुए होने के कारण बचनामयके दोषसे रहित तैयार नहीं हैं और न यही माननेके लिये तैयार किये होते ये इसीसे वे अपने कलियुगी समयमें बीवीरभिपके सब कार्य उनके द्वारा विमा रागके ही जब मशीनों की तरह शासनतीको बबारगुणी पूरिकरते हुए उदयो प्राप्त संचालित होते है। मैंने उन्हें स्वयं स्वेच्छासे प्रवचन .खामियो कपाशयो वा श्रोतुभवक्तुपंचनाऽनयो वा करते, शंका-समाधान करने और पाहताविकी भक्ति में भाग स्वच्यासमकाधिपतित्वसामीप्रमुस्वशक्तेरपवाददेतुः ॥.
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किरस]
समयसारकी १५ गावा और श्रीकानजी स्वामी
[२६६
हुए हैं, जिसका उल्लेख कनसीके एक प्राचीन शिलालेख में जामता बह मनास्माको भी नहीं जामता, (इस तरह) जो पाया जाता है। मोर जिस दीर्थ-प्रभावनाका अकमकदेव. जीव अजीवको नहीं जानता वह सम्यष्टि कैसे हो सकता जैसे महर्डिक प्राचार्यने भी बड़े गौरवके माथ अपने प्रष्ट है?-नहीं हो सकता। प्राचार्यो कुन्दकुन्दके इस सती माध्यमें उल्लेख किया है ।।
कथनानुसार क्या श्री कानजीस्वामीके विषय में यह कहना श्रीकागजीस्वामी अपने प्रवचनों पर यदि कसा होगा कि वे रागादिके सजावके कारण मात्मा-अनारमा अंकुश रखें, उन्हें निरपेक्ष निश्चयनयके एकान्तका भोर (जीव-जीव) को नहीं जानते और इसलिए सम्यग्दष्ट बबने न दें, उनमें निरषय-व्यवहार दोनों नयोंका समन्वय नहीं है। यदि नहीं कहना होगा और नहीं करना चाहिए करते हुए उनके वक्तव्योका सामजस्य स्थापित करें, एक- तो यह बतलाना होगा कि वे कौनसे रागादिक है जो दूमरेके वकव्यको परस्पर उपकारी मित्रांक वक्तव्यकी तरह यहाँ कुन्दकुन्दाचार्यको विर्वाचत हैं। उन रागादिकके चित्रित करें--न कि स्व-पर-प्रणाशो शोके बक्तब्यकी सामने माने पर यह महजमें ही फलित हो जायगा कि तरह---और साथ ही कुन्दकन्दाचार्य ववहारदेसिदा दूसरे रागादिक ऐसे भी हैं जो जैनधर्ममें सर्वथा निषिद पुण जे दु अपरमेटिदा भावे' हम वाक्यको खाम तोरसे नहीं है। ध्यान रखते हुए उन लोगोंकों जो कि अपरमभाव स्थित जहाँ तक मैंने इस विषयमें विचार किया है और है-वीतरागचारित्रकी सीमातक न पहुँचकर साधक __ स्वामो समन्तभद्र ने अपने युकाय नुशासनकी 'एकान्तधर्माअवस्थामें स्थित हुए मुनिधर्म था श्रावकधर्मका पालन भिनिवेशमूलाः' इत्यादिकारिकासे मुझे उसकी रष्टि प्रदान कर रहे है-- व्यवहारनयके द्वारा उस व्यवहाराधर्म की है, उक्त गावात रागादिक वे रागादिक है जो एकान्तका उपदेश दिया कर जिसे तरणोपायके रूप में तीथ' कहा धर्माभिनिवेशमूलक होने है-एकान्तरूपम निर गया है, तो उनके द्वारा जिनशापनकी अच्छी ठोस सबा हुए बस्तुके किसी भी धर्म में अभिनिवेशरूप जो मिथ्याबन सकती है और जैनधर्मका प्रचार भी काफोटा सकता श्रद्धान है वह उनका मूल कारण होता है-और मोही। अन्यथा, एकान्तका भोर ढल जानेसे ता जिनशासनका
मिथ्यारष्टि जीवोंके मिथ्यात्वके उदयमें जो महंकार-ममविरोध और तीर्थका लोप ही घटित होगा।
कारके परिणाम होते है उनसे वे उत्पन्न होते हैं। ऐसे हा, जब स्वामीजी रागरहित वीतराग नहीं और
रागादिक जिन्हें अमृतचन्द्राचार्यने उक्त गाथानोंको टीकाउनके कार्य भी रागसहित पाये जाते हैं तब एक नई
में मिथ्यात्वके कारण 'अज्ञानमय' निग्या है, जहाँ जीवासमस्या और खड़ी होती है जिसे समयसारकी निम्न दो
दिकके सम्यक् परिज्ञान में बाधक होते हैं वहाँ समतामेंगाथायें उपस्थित करती है
वीतरागतामें भी बाधक होते है इमीसे उन्हें निषिद
ठहराया गया है। प्रत्युत इसके, जो रागादिक एकान्त. परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्म ।
धर्माभिनिवेशरूप मिप्यादर्शनके प्रभावमे चारित्रमोहके णवि सो जाणदि अप्पाणमयं तु सवागमधरो वि।।२०१
उदयवश होते हैं वे उक्त गाथाओंमें विवक्षित नहीं है। अप्पाणमयाएंतो अणप्पयं चापि सो प्रयाणंतो।
ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होनेसे न तो जीवादिकके परिकह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीव श्रयाएंतो ।।२०२||
ज्ञानमें बाधक है और न समता-वीतरागताकी साधनामें न गाथामॉम बतलाया है कि 'जिसके परमाणुमात्र भी AMIोते है। सम्बकरष्टि जीव विवेकके कारण रागादित विद्यमान है वह'सर्वागमधारी (ध तकेवली जेमा) मोदयजन्य रोगके समान समझता है और उनको होने पर भी प्रास्माकी नहीं जानता, जो मामाको नहीं
दूर करनेकी बराबर इच्छा रखता एवं चेष्टा करता है। १. देखो, युक्त्यनुशासनकीप्रस्तावमाके साथ प्रकाशित इसीसे जिनशासनमें उन रागादिके निषेधकी ऐसी कोई समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय ।
खास बात नहीं जैसी कि मिथ्यादर्शनके उदयमें होने वाले १. तीर्थ सर्वपदार्थतत्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे, भन्या रागादिककी है। सरागचारित्रके धारक श्रापकों तथा मुनियोंनामकसंकभावकृतये प्राभावि काले कखौ । बेनाचार्य- में ऐसेही रागका सद्भाव विपिन है-जो रागादिक समन्तभद्र्यातना तस्मै नमः सम्वतं, करवा विवियो। रष्टिविकारके शिकार है बे विचित नहीं हैं।
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२७०]
अनेकान्त
[किरण
इस सब विवेचनसे स्पष्ट है किन तो एकमात्र वीतरा- व्यवहारमयके बाव्यका विरोधी है, वचनानयके दोषसे गता ही जैनधर्म है और न जैनशासनमें रागका मर्वथा दूषित है और जिनशासनके साथ उसकी संगति ठीक निषेधही निर्दिष्ट है अतः कानजीस्वामीका 'वीतरागता ही नहीं बैठती । जैनधर्म है इत्यादि कथन केवल निश्चयावलम्बी एकान्त है.
(क्रमशः)
साहित्य परिचय और समालोचन
समालोचनाके लिये प्रत्येक ग्रन्थकी दो प्रतियां पानी आवश्यक हैं। १ अहिंसावाणीका पाश्वनाथ अंक-सम्पा- गया है । इस सव प्रयत्नके लिए बाबूकामता प्रदसादजी दक, बाबू कामताप्रसादजी, अलीगंज-(एटा)। प्रकाशक. धन्यवादके पात्र हैं। अखिल जैन विश्वमिशन, अलीगंज (पटा)। वार्पिक- गोरक्षा- सम्पादक श्री महेशदत्त जी शर्मा, मूल्य ४॥) रुपया। इस अंकका मूल्य २) रुपयः। अध्यक्ष, गोरक्षण साहित्य मन्दिर रामनगर, बनारस ___ 'अहिंमावाणी' का यह विशेषांक है। इसमें भगवान वार्षिक मूल्य २॥) रुपया विदेशम ५) रुपया। पाश्वनाथका जीवन-परिचय अंकित है। भगवान र्श्व गोरक्षाके दो अंक इम ममय मेरे मामने हैं । नाथको मुक्त हए तीन हजर वर्षके लगभग ममय हो इनमें गोरक्षा-सम्बन्धि अनेक अच्छे लग्य दिये हा हैं गया है, परन्तु फिर भी आज उनकी स्मृति और पूजा जिनसे ज्ञात होता है कि भारतके स्वतन्त्र हो जानेके इस बातकी द्योतक है कि उन्होंने वैदिक क्रियाकाण्डोंके बाद यहां गोकशी वहुत अधिक तादाद में होने लगी बिरुद्ध अहिंसा मार्गका प्रदर्शन करते हुए लोकमें सुम्ब है। चर्म उद्योग लिय जीवित पशुओंका चर्म उन्हें
और शान्तिका अनुपम मार्ग प्रदर्शित किया था। इस भारी काट पहुँचा कर निकाला जाता है, जिसे देख व अंकमें उनके जीवन-सम्बन्धि अनेक चित्र दिये गये सुन कर महृदय मानवका दिल दहल उठना है, रोंगटे है, परन्तु उनसबमें कुमार पार्श्वनाथका 'वनविहार और खड़े हो जाते हैं। क्या यह अहिंसाका दुरुपयोग नहीं तायस सम्बोधन' नामका तिरंगा चित्र भावपूर्ण और है ? जबकि भारत जैसे गरीब देशमें शुद्ध घी दूधका चित्ताकर्षक है । सम्पादकजीने भगवान पार्श्वनाथके मिलना बहुत कठिन है। ऐसी स्थितिमें पशुधनका इम विहार-स्थलोंका मंक्षिप्त ऐतिहामिक परिचय देते हुए कदर संहार कियार किया जाना किसी तरह भी ठीक उनकी अनेक मूर्तियों और मन्दिरोंका उल्लेख किया है नहीं कहा जा सकता । मरकारको चाहिये कि वह
और अनेक चित्र भी दिये हैं, जिनसे स्पष्ट मालूम अविलम्ब गोकशीको बन्द करनेका आदेश दे और होता है कि भगवान पार्श्वनाथकी महत्ता आज भी कम पशुधनकी रक्षाका प्रयत्न करे । जैन ममाज और अहिंनहीं है। यपि वे भगवान महावीरसे २५० वर्ष पूर्व माकी उपासक हिंदू समाजका कर्तव्य है कि वह जीवित हुए हैं । हां, जैन आचारांग (मूलचार ) से उनके पशुओंके चकड़ेसे बनी हुई चीजोंका उपयोग करना 'चातुर्यभिधर्मका पता चलता है। बंग और विहारमें छोड़ दें। इससे गोरक्षामें बहुत सहायता मिलेगी। पत्र पाश्वनाथका शामन विस्तृतरूपसे फैला हुआ था। इस अच्छा है आशा है उसे और भी आकर्षक बनानेअंकमें उपयोगी और पठनीय सामग्रोका संकलन किया का प्रयत्न किया जाएगा।
परमानन्द जैन शास्त्री
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जेनवाक्य-मृची-प्राकृतक प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्यांको पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टोकादिग्रन्थोम
उद्धृत दुसरे पद्याकी भी अनुक्रमणो लगा हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्याको सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वको १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नाग एम. ए, डी. लिद के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी.लिट की भूमिका (Introduction) में भूषित है, शांध-नाज के विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा माइज,
जिल्द ( जिम्मकी प्रस्तावनादिका मृत्य अलग पांच रुपये है) (२) आप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज सटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीना द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
परस और सजीव विवंचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिमे
युक्त, मजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टापे अलंकृत, मजिल्द । ... (४) म्वयम्भूम्तात्र-ममन्तभदभारनीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, जानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठको प्रस्तावनामे सुशोभिन ।
... (५) मनुतिविशा -वामा समन्तभद्रकी अनाग्यो कृति, पापांक जोतनेकी कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिमं अलंकृत मुन्दर जिल्द-पहित । .. (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-हित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी ग्वाजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूपिन ।
... ॥ (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृनि, जिमका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुश्रा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, जिल्द । ... ) (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महन्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... ॥) (E) शासनचतुम्ििशका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि-सहित । ... (१० मत्साध-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान प्राचार्यों के १३० पुण्य-स्मरणांका
महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि-हित । (११) विवाह-समुद्देश्य मुख्तारधीका लिखा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन ... ) (१२) अनेकान्त-रस लहरी-अनेकान्त जैसे गृढ गम्भीर विषयका अवनी मरलतामे समझने-समझानेकी कुजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिग्वित । (१३) अनिन्यभावना-श्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थमूत्र-(प्रभाबन्द्रीय) मुख्तारधीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त। (१५, श्रवणबेलगोल और दक्षिण अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैनको सुन्दर सचित्र रचना भारतीय
पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टी०एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ) नोट-थे सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर,१ दरियागंज. देहली
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Regd. No. D. 211
RASH
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१
PRIMARY४२१
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५०० ) वा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) मा० बोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी, ... " २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा. गोपीचन्द रूपचन्दजी * २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदामजी , १०१) वा० धनंजयकुमारजी में-५) बा. ऋषभचन्द (B.R. .जैन, १०१) बा• जीतमल जा जैन
२५१) बा० दीनानाथनी सरावगी , १०१) बा० चिरंजीलालजी मरावगी २२५१) वा० रतनलालजी झांझरी ,
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रांची * २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी, १०१) ० महावीरप्रसादजी ठकदार. देहली . २५१) मेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली * २५१) सेठ मुत्रालालजी जेन |
१०१) श्रा फतहपुर जन समाज, कलकर । ५२५१) वा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी ,
१०) गुप्तसहायक, मदर बाजार, मेरठ १) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री शलमालादेवी धर्मपत्नी द्वा०श्रीचन्द्रजी, ण्टा २) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन
१८२) लामक्खनलाल मातीलालजी ठकदार, दहली २५१) बा० विशनदयान रामजीवनजी, पुलिया १८१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्।। २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बाल वंशीधर जुगलकिशारजी जेन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी न, देहली १०२) बा. बद्रीदाम आत्मागमजी सरावगा, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमल जी, देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) वा. महावीरप्रमादजी एडवोकट, हिमार २५१) सेठ बदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १००) ला बलवन्तमिहना, हांसी जिनहिसार २५१) ला० रघुवीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) कुवर यशवन्तामह जा, हासी जि हिमार २५१) राबहादुर सेठ दरखचन्दजी जैन, रांचो
१०१) मंठ जोम्बारम बजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवान, जयपुर
१०१) श्रीमती ज्ञानयतीदवी जैन, धर्मपत्नी महायक
'वैद्यन' श्रानन्ददाम जैन, धर्मपुरा, दहली * १.१) वा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१, या जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १८१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन १०१) ना० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा लाल चन्दजी जैन सरावगी ,
सरमाना, जि. महारनपुर
४४४३५१५
:
.४१
प्रायक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, बरियागंज देरली । मुद्रक-रूप-नाणी प्रिरिंग हाऊस २३, दरियागंज, दहती
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कान
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
90
सोनगढ़के सन्त श्री सत्पुरुष कानजी स्वामी
अनेकाना
१HANISEARNER
फरवरी
NCHAR
A
C
लन
श्री कानजी स्वामी करीब एक हजार साधर्मों भाइयांक साथ श्री ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार ) की यात्रार्थ गए हैं। उनके सदुपदेशसे गुजरातप्रान्त में
अनेक दिगम्बर जैनमन्दिराका निर्माण हुभा और हो रहा है।
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विषय-सूची
२२१
२८८
२०२
1. शान्तिनाथ स्तुति:
. श्री श्रुतसागर सूरि २. पाठ शंकानोंका समाधान
[लक सिद्धि सागर ३. हमारी तीर्थ यात्रा संस्मरण
[परमानन्द शास्त्री १. राष्ट्र कूट कालमें जैन धर्म
[रा. अ. स. अल्तेकर
५. मथुराके अनस्तूपादिकी
[यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख ६. अपभ्रश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ
[परमानन्द जैन . संस्कृत साहित्यके विकासमें
जैन विद्वानोंका सहयोग .. दोहाणुपेहा- बक्ष्मीचन्द
२६३
२६५ ३०२
२८३
श्री-जिज्ञासा
मुझे उन नियोको जाननेकी इच्छा है जो पुलका-ऐलको तथा मुनियोंके साथ लगी रहती हैं और जिनका सूचन पुस्तक-एलकोंके नामके साथ 'श्री १०" और मुनियों के नामके साथ श्री १०८ लिखकर किया जाता है। ये दोनों वर्गकी नियां यदि भिन्न भिन्न हैं तो उन सबके अलग-अलग नाम मालुम होनेकी जरूरत है और यदि मुनियोंको १०८ श्रियोंमें १०१ वे ही हैं जो चुल्लको ऐनकोंके साथ रहती है तो १०५ श्रियोंके नामके साथ केवल उन तीन श्रियोंके नाम और दे देनेकी जरूरत होगी जो चुल्लक-ऐलकोंकी अपेक्षा मुनियों में अधिक पाई जाती है। साथ ही यह भी जाननेको इच्छा है कि श्रियोंका वह विधान कौनमे पागम अथवा पार्य प्रथमें पाया जाता है, कबसे उनकी संख्या-सूचनका यह व्यवहार चालू हुभा है और उसको चालू करनेके लिये क्या जरूरत उपस्थित हुई है। मःमुनिमहाराजों, बुलकों-और दूसरे विद्वानोंसे भी मेरा विनम्र निवेदन है कि वे इस विषयमें समुचित प्रकाश डालकर मेरी जिज्ञासाको तृप्त करनेकी कृपा करें। इस कृपाके लिये मैं उनका बहुत भाभारी रहूंगा।
-जुगलकिशोर मुख्तार
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(1) अनेकान्तके 'संरतक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (३)विवाह-शादी भादि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेंट-स्वरूर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाओं लायरियों,
सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको। (१) विद्यार्थियों श्रादिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५),५०) आदिकी सहायता भेजना। २५ की
सहायतामें १ को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। ()अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे अन्य उपहारमें देना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको
प्रकाशनार्थ जुटाना। नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पताः'भनेकान्त' एक वर्ष तक भेंट
मैनेजर 'अनेकान्त' स्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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ॐ अहम
SEA
जतत्त्व-पधातक
विश्वतत्त्व प्रकाशक
Halwar
वाधिक मूल्य ५)
एक किरण का मूल्य ।)
ल
भाव
.
AN
Swarava
नीतिविरोध मीलोहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्यबीज भुक्नेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः
वर्ष १२ । किरण :
फरवरी १९५४
।
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवार'
, वीरगंवामन्दिर, १ दरियागंज, दहली माघ वीर नि० संवत २४८८, वि० संबन २०१०
श्रीश्र तमागरमूरिविरचिता
शांतिनाथस्तुतिः वाचामगम्या मनमोऽपि दृरः, काय कथं दनुमलं नमनः । तथापि भक्त्या त्रिनयन बंद्यः, श्रीशांनिनाथः शरणं ममाऽम्त ॥१॥ महीलनाऽहिम गराएमृगः म्यादिभः म्भोऽभोट चयो दवाग्निः । नाम्नापि यम्याऽममता म देव श्रीशांतिनाथ शरगं ममाऽस्तु ॥२॥ यः मंवरारिनकटाश्रवोभूचिर्नमंनापकरः परपां । चक्री तथाप्यत्र न च द्विजिहः, श्रीशांनिनाथ. शरणं ममाऽस्तु ।। ३॥ विघ्नव्यदाम निजगदव्यदामः प्रकाममिः प्रणनः मदा मः । संपत्तिकर्ता विपदेकर्ना, श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ।।४॥ न दुर्गनिर्नव यशोविनाशो न चाम्पमृत्यन रजां प्रवेश । यत्सेवया भमिदं चतुर्दा श्रीशांनिनाथः शरणं ममाऽस्तु ।। ५॥ कृतांजलिर्यम्य मदा पिनाकी, महान्युतम्नम्य कियान पिनाकी । योगकलक्ष्यः कृतिकल्पवृक्षः श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ॥ ६॥ नयस्त्रिवेदी परमस्त्रिवादी निराकृता यन विदां त्रिवेदी। तप:कुलारम्मरदारुभदी, श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ।। ७ ।। निर्दोपरूपः पदनम्रभूपः, कल कमुक्तः महगश्मयुक्तः ।
आनन्दमांद्रो भुवनकचन्द्रः, श्रीशांतिनाथः शरणं म्माऽस्तु ।।८।। म्तुनिः कृतेयं जिननाथ-भक्त्या, विद्रांवरेगा श्रुतसागरेण । बोधिः समाधिश्चनिधिqधानामिमां सदाऽऽदायजनो जिनोऽस्तु ।।१।।
॥ इति श्रीशांतिनाथस्तुनिः समाप्ता ।।
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अाठ शंकानोंका समाधान
(श्री. १.५ सुल्लुक मिद्धमागर ) समयसार की रवी गाथा और श्री कान जी स्वामी नामक लेखमें जो अनेकान्तकी गत किरण में प्रकाशित हमा है मुख्तार श्री जुगलकिशोर तोकी पाठ शंकाएँ प्रकाश में आई है जिनका समाधान मेरी रक्षिसे निम्न प्रकार हैমা যা
में और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रि (१) श्रात्माको अबस्पृष्ट, अनन्य और अविशेषरूपसे शिका) में 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयाग किया
देखने पर सारे जिनशासनको कैसे देखा जाता है ? है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्य ने भी (२) उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस द्रष्टाके 'मध्याद्यन्तावभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका द्वारा पूर्णतः देखा जाता है।
उल्लेख किया है। इन सब बातोंका भी ध्यान में (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र. उमास्वाति
लेना चाहिये पार तब यह निणय करना चाहिये कि और अकलंक जैसे महान् प्राचार्योंके द्वारा प्रतिपादित
क्या उक्त सुझाव ठाक है? याद ठीक नहीं है अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या कुछ भिन्न है ?
तो क्या? (१) यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा प्रतिपादित (5) १४वी गाथामें शुद्धनयके विषयभूत प्रात्माके लिए एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी संगति कैसे
पांच विशेषणाका प्रयोग किया गया है, जिनमेंस बैठती है?
कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १५ वी गाथाम (२) इस गाथामें 'अपदेमसंतमझ' नामक जो पद पाया
हुमा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणाजाता है और जिसे कुछ विद्वान् अपदेसमुत्तमम्झ'
"नियत और असयुक' को भी उपलक्षणके रूपमें रूपसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिगाशामण'
ग्रहण किया जाता है, तब यह प्रश्न पैदा होता है पदका विशेषण बतलाया जाता है और उससे द्रव्य
कि यदि मूलकारका ऐसा ही प्राशय था तो फिर श्रुत तथा भावश्रुतका भी अर्थ लगाया जाता है. यह
इस ९ वीं गाथाम उन विशेषणांको क्रमभंग करके सबकहाँ तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ
रखनेकी क्या जरूरत थी ? १४वीं गाथा के और सम्बन्ध क्या होना चाहिए !
पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष दो विशे(१) श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदक भर्थ विषयमे मौन है। पणोंको उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया, तब क्या इसमें प्रयुक्त हुए शब्दोको देखते हुए कुछ खटकता हुआ कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट होने की जरूरत है ? जान पड़ता है, यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थमें
अथवा इस गाथाके अर्थ में उन दो विशेषणांको ग्रहण खटकने जैसी कोई बात नहीं है?
करना युक्त नहीं है! , (७) एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंत
मझ (अप्रवेशसाम्तमध्यं) है, जिसका अर्थ अनादिमध्यान्त होता है और यह 'अप्पारणं । पास्मान)
१. उक १४ वीं गाथा इस प्रकार हैपदका विशेषण है, न कि जिणशासण पदका।
जो पस्सदि अप्पाणअब अणगणयं णियदं । शुद्धामाके लिये स्वामी समन्तभदने रत्नकरण्ड (६) अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धा वियाणीहि ॥१४॥
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करण]
आठ शङ्काओंका समाधान
[२७३
समाधान
करता है इसलिये मास्माको जानने वाला सारे जिन(१) समाधान-समयसार अन्धकी १५वीं माथामें जो शासनको पूर्ण रूपसे अवश्य जानता है जो कि प्रयोजन अबदस्पृष्ट प है-इसमें बहके साथ स्पृष्टका निषेध किया भूत है । प्रयोजनभूत जिनशासनका जो प्रयोजनभूतगया है। जाम्पृष्ठके कारण मानव तथा उसके रूपमे श्रुतज्ञान होता है वह प्रयोजनभूत अवज्ञान भी विरोधको संवर. बनस्पृष्टक एक देश के कारण छमस्थका पयोय है अतः जो पास्माको प्रयोजनभूत निर्जरा और बद्धस्पृष्टके निरवशेष रूपसे मारमासे दूर होने
रूपसे उन तीन विशेषणोंसे प्रबदम्पष्ट अनन्य-विशेष या पय होनेको जाने तबमात्मा के प्रबद्धस्पृष्ट स्वरूपका अविशेष-सामान्यरूपमे जानता है-वह प्रयोजनभूत ठीक बोध हो बंध प्रकृतमें मजीवक माथ जीवका है, अतः जिनशासनका पूर्ण रूपस जा
म
न जिनशासनको पूर्ण रूपसे जानता है अर्थात् जो समयमजोबका ज्ञान होना भी अत्यावश्यक है--उनके लक्षणों
र
सारक सम्पण
सारके मम्पूर्ण प्रयोजनभूत अधिकारीको सामान्य विशेष को विशेष प्रकारसे जानने पर ही श्रात्माका अनन्य रूपसे रूपम जानता है वास्तवम वह समयसारका तत्वतः जानता बोध होता है-जब यह अविशेषकी निष्ठाको जान
है और जो समयसारको तत्वतः जानता है वह निस्ताग्रह लेता है तब वह अविशेष रूप प्रात्माको जानना ई
मरे जिनशासनको कुछ गुणपर्यायों महित जानता है चाहे चंकि सामान्य विशेष-मिष्ठा प्राश्रय में रहता है-इस वह इन तम कहा गया हो या स्याद्वादरूपसं बतलाया प्रकार प्रयोजन भून मात तत्व जोकि जिनशामन रूप है गया हो या भावच तसे जाना गया हो। या जिन शासनम बतलाये गये है-इनको गुगाम्यान
भाव अ नज्ञान प्रामाका पर्याय है अत: आमाको मार्गणास्थान आदिको विवेचनसे-या दया, दम,
जानने वाला सम्यग्दृष्टि छमस्थ अवश्य उस (अ तज्ञान) ग्याग समाधिप विवेचनम-जो मानता है वह तत्वार्थ
के द्वारा जाने गये प्रयोजनभूत पूर्ण जिनशासनको घन करने वाला होने पर वाम्न में प्रात्मा को जानने
जानता है-प्रकृतमें आत्माको जानने वाला ज्ञान वाला मारे जिनशासनको जानता है-जो भी द्रव्य
परोक्ष है-वह न्यायशास्त्रकी अपेक्षा छमस्थका पात्मानु
भव या ज्ञान सांज्यवहारिक प्रत्यक्ष हो सकता है। अनरूप ग्यादवाद शासन में या भावश्रतमें जो भी प्रकाशित होता, वह सान तत्व रूपसे बतलाया जाता है ( समाधान-स्यावाद जिनशासनम बह ग्य, या जाना जाता है-जा प्रयोजन भूत पारमाको जानता पंचाम्तिकाय, मान तत्व भौर नौ पदार्थ बतलाए गये है वर प्रयोजनभृत मात तत्वको बतलाने वाले जिन है-ये सब जीव और अजीवके विशेष हैं। जीव और शासनको भी प्रयोजनभूत रूपसे अवश्य पूर्णरूपमै अजीवके विशेष प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोष है। जानता है। जो प्रयोजनभून जिनशामनको पूर्णतया सात तत्त्वांका विवेचन करने वाला तत्त्वार्थसूत्र इनमें पा नहीं जानता है वह प्रमावा भी नहीं जानता है गया है और उस सत्रद्वारा निर्दिष्ट सम्पूर्ण प्रमेय भी यो यथार्थ रुपये नहीं जानता है-'पदेशसुत्तममं सात तत्वका प्रति वर्तन नहीं करते हैं। सब सामान्यजिनसासणं' द्रव्य तमें बतलाये गये जिन
.विशेषात्मक जास्यन्तर है-इन सातोंमेंसे प्रयोजन भूत एक शासनको, मामाको यथार्थरूपमे जाननेवाला या
तत्वका पूरा ज्ञान तब होता है जब सातांका ज्ञान हो, प्रतः अनुभव करने वाला या देखने वाला अवश्य पूर्णरूपसे
भारमा सम्यग्बोध उसीको होता है जो प्रयोजन भूत जानता है जो कि प्रयोजन भूत है-मात्माको पूर्ण रूपसंसब गुणपर्यायों सहित जो जान लेता है वह सर्वज्ञ है
रूपसे इन साताको जान कर श्रद्धान करता है। वह द्रव्य, च कि किसी भी पदार्थका पूर्ण ज्ञान सर्वज्ञको होता है- पचास्तकाय भार नौ पदार्थ इन्हा सात तवाम अन्तरभूत उसने तो अवश्य ही सारे जिनशासनको जाना ही है- हैं-स्यावाद श्रुतज्ञान इनको जानता है और स्यावाद किन्तु तज्ञानमे युक्त छद्मस्थ भी सारे जिनशासनको द्रव्यश्रुत इनका विवेचन करता है । स्यावाद और उसका कुछ गुणपर्याय सहित प्रयोजनभूत रूपसे अवश्य जानला अन्यतम प्रमेय सामान्य विशेषात्मक है अतः सम्पूर्ण जिन है यदि वह सम्यक्रवी है, जो सम्यक्त्वी है वही मात तस्व- शासन सामान्य विशेषषात्मक है-कहा भी है 'अभेद को जानने वाले अपने भारमाका बास्थ अवस्थामै अनुभव भेदात्मकमयतत्त्वं, तब स्वतन्त्रमंत्रायत्तरत्ख पुष्पम इस
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२७४]
अनेकान्त
[किरण विषयमें प्रमेयकमनमार्तण्ड देखें । उक्त दो चरण युक्त्यनु नहुमा तो ये मब समीचीनशास्त्र जन्मान्धके नेत्रों पर शासनक है जो कि संस्कृतम उद्धत हैं।
चश्मा लगानेके समान हैं-जो निरस्ताग्रह नहीं होता है (३) समाधान--- वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, वह प्रकृतमें जन्मान्ध तुल्य है कि स्यावाद रूप सफेद समन्तभद्र, उमास्वाति-गृपिच्छाचार्य, और प्रकलङ्क चश्मा उसको यथार्थ वस्तुस्थिति देखने में निमित्त कारण जैसे महान् प्राचार्योके द्वारा प्रतिपादित अथवा संचित नहीं हो रहा है। यदि वह निमित्त कारण उसके देखने में है जिनशासनसे कोई भिन्न नहीं है।
तो वह जम्मान्ध नहीं है। सम्पूर्ण द्वादशांग या उसके (४) इन सबके द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिन- अवयव प्रादिक रूप समयसारादिक स्यावाद रूप है अतः शासनके साथ उसकी संगति बैठ जाती है कि कहीं पर वे सब महान प्राचावों द्वारा कहे गये प्रन्थ सत्यके आधार किसीने संक्षिप्त रूपसे वर्णन किया है तो किसीने विस्तारसे, पर ही है। किसीने किसी विषयको गौण और किसीको प्रधान रूपसे (५६ एमाधान-'अपदेससुत्तमझ सव्वं जिणवर्णन किया है-जैसे कि समयसारमें पात्माकी मुख्यतास मासणं द्रव्य श्रुतमें रहने वाले स-पूर्ण जिनशासनका यह वर्णन है यद्यपि शेष तत्वोंका भी प्रासंगिक रूपये गौणतया उक पाठका अर्थ होनेसे पाठ शुद्ध है। अथवा इग्यश्रतम वर्णन है-जीव द्रव्यका विशद विवेचन जीवकारडमें विवेचना रूपसे पाए जाने वाले सम्पूर्ण जिनशासनको' यह मिलेगा। बन्धका अत्यन्त विस्तार पूर्वक वर्णन महाबन्धम अर्थ ले लवें । अथवा सप्तमी श्रथम द्वितीयका प्रयोग मानमिलेगा। किसीने किसी भङ्गका छन्द के कारण पहले वर्णन कर उसको–“जिणसालणं' का विशेषण न रख कर प्रकृत किया तो किसीने बादमें, तो भी भंग तो सात ही मान है तीन विशेषणासे युक्त आन्माका बतलान वाले इस गाथा किसीने एव' कार लिखा है तो किसीने कहा कि उस रूप द्रव्यश्रतमे या इसके निमित्तसे होने वाले भावत में श्राशयसे जान लेना चाहिये या प्रतिज्ञासे जानना चाहिए सम्पूर्ण जिनशासनको देखता है जो कि उक्त तीन विशेष'स्थाद्', पदके प्रयोगके विषयमें भी उक्त मन्तव्य चरितार्थ गोल विशिष्ट प्राप्माको सम्यग् प्रकारमे जानता देखता होता है संग्रह, व्यवहार, और जुसूत्र इन तीन नयां- या अनुभव करता है। अतः 'अपदेससुत्तमझ' पाठ संगत के प्रयोगसे सामान्य विशेष और प्रवाच्यकी या विधि, हे और खटकन सरीखा नहीं है- भले ही यहाँ 'अपवेसनिषेध और अवाच्यकी या नित्य, अनिस्य और अवाच्यको सन्तमझ' बालं पाठकी संगति किमीने तात्पर्यभावम या व्यापक, व्याप्य और अवाच्यकी योजना करना चाहिये रकवी हो । किन्तु प्रचीनतम प्रतिमें जो 'अपदेसमुत्तमम न कि सर्वथा-मानहस । उभय नामका भंग, नैगमनयसे पाठ है तो अन्य पाठको संगति से क्या ? योजित करना चाहिये । संग्रह, व्यवहार और उभयके साथ में (.) समाधान-इस विषयमे मूल प्राचीनतम प्रतियोंऋजूसूत्रकी योजना करके शेष तीन संग्रह-प्रवाच्य म्यवहार- की देखना चाहिये और इस समयसार पर भा.प्रभाचन्द्रका अवाच्य और उभय-प्रवाच्य भा. नययोगसे जगाना चाहिये 'समयसारप्रकाश नामक व्याख्यान देखना चाहिये-जो न कि सर्वथा-विना सामान्यकी निष्ठाको समके सामान्य कि सेनगण मन्दिर कारंजाम है-जयसेनाचार्य के सामने का सच्चा ज्ञान नहीं होता है। चूंकि निर्विशेष सामान्य 'प्रपदेससुत्तमज्म'-यह पाठ था प्रा. अमृचन्द्र के सामने गधेक मींगके समान है । जब सामान्य है तो वह विशेष यह पाठ नहीं था यह निश्चित रूपसं नहीं कहा जा सकता रूप आधारम---निष्ठामें रहता है अतः संक्षिप्तसं वह है।'अपवेससम्तम' इस पाठको पास्माका भी विशेषण मारा शासन मामान्य और विशेष प्रात्मक है उसीको प्रामा- बनाया जा सकता है और जिनशासनका भी कि णिक प्राचार्योंने बतलया है। अतः समयसार पढ़ कर जिनशासन भी प्रवाहकी अपेक्षासे अनादिमध्यान्त है। निरस्ताग्रह होना चाहिये न कि दुराग्रही-उन्मत्त । इसी संभव है कि-सुत्तमे से 'उ' के नहीं लिखे जानेसे 'अप प्रकार अन्य किसी भी न्याय या सिद्धान्तको पढ़ कर या दससंतमझ' पाठ हो गया हो। और किपीने उसकी कमी भी अनुयोगका पढ़ कर बुद्धि और पाचरणमें शुद्धिके लिये म' को व' पढ़ा हो तब वह अपवेससंतमजक' अपने योग्य समरव और सौम्यताके दर्शन होना चाहिये। हो गया हो। दोनों पाठ राख हेच दोनोंमेंसे कोई यदि दुरभिनिवेशका या सर्वथा भानहरूपभावका अन्त हो किन्तु 'अपदंशसुत्तमझ' ही उसका मूल पाठ
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किरण]
आठ शङ्कामोंका समाधान
२७५]
होना चाहिये चूंकि जयसेनाचार्यने पाठको सुरक्षित नहीं हो सकता है कि पूर्व गाथामें अब्ध अर्थरखा है।
में प्रयुक्त हुचा है-उसका अर्थ मोह और राग द्वेष रहित (८) समाधान-जो अर्थ अनन्य विशेषणका है वह अवस्था विशेष है उससे मुक्त मामाको बतलाना इष्ट विशेष है और सामान्य अर्थका सूचक पद अविशेष है। था। किन्तु प्रकृतमें ऐसा अर्थ पाच वर्यको इष्ट नहीं वैसा अर्थ न तो नियत पदमें हैं जो कि क्षोभ रहित अर्थ था इसी लिए वह नियत पद अविशेषके स्थान पर रक्खा में प्रयुक्त हुआ है और न असंयुक्त-शब्दमें चूकि ।४ गया, नकि उपनय रूप वह बनाया गया। १७वीं गाथावी गाथामें उसका प्रयोग अमिश्रित अर्थमें हुआ है- में शुद्धनयके विषयभूत प्रास्माको पाँच विशेषणोंसे युक्त इसी लिए अविशेष शब्दको प्रयोग हुआ है । स्पष्ट अर्थमें बतलाया है-उसका अर्थ यह है कि शुद्ध नय कभी अबद्ध प्राचार्यवर्यको यह बताना था कि प्रारमाको अब तथा दखता है। कभी दसरे रूप नहीं है-अनन्य इस प्रकार विशेष और सामान्य दोनों प्रकारसं देखना चाहिये चूकि देखता है, कभी मोह होभ रहित नियत देखता है, कभी मात्माको विना पूर्वोकरीस्या देखे वह जिनशामनका पूर्ण वह ज्ञान, दर्शन, सुख इत्यादिक भेद न करते हुए, ज्ञाता नहीं कहा जा सकता था जो कि प्रकृत अपदेशमूत्रके ज्ञाता रूपसे देखता कि ज्ञान भी प्रात्मा है सुख भी प्रात्मा मध्य में निर्दिष्ट है- समयसारके सम्पूर्ण अधिकारों का विवे इत्यादि और कभी वह शुखनयसे मात्माको दूसरे चन इमी मूल गाथाकी भित्ति पर है यदि उसके अंत: व्यादिक्के मिश्रणसे रहित प्रसंयुक्त देखता है-किन्तु परीक्षणसं काम लिया जावे | समयमार कलशका मंगला- वी गाथा में हो सारे जिनशासनको देखनेका कहा है। चरण भी इस गाथाकी ओर इशारा करके बतला रहा है कि प्रतः१५ वी गाथाका विवेचन अपने विशिष्ट विवेचनसे 'सर्वभावान्तरच्छिदे ऐसे समयसारके लिये ही हमारा अंतः अत्यन्त गम्भीर भोर विस्तृत हो गया है जो शुद्ध प्रशुद्ध करणसं नमस्कार है-न कि दुराग्रहके दलदलके प्रति । प्रादिकको जानने वाला ज्ञाता-सप्ततत्त्व राष्टा उसको असंयुक्त और नियतपद १५ वी गाथामें प्रावश्यक न थे
केवल सामान्य ही नहीं विशेष भी जाननेको कहा है दोनोंचूकि सारा जिनशासन जी साततत्त्वको बतलाने वाला है वह समान्य विशेष प्रात्मक है अतः प्रकृनमें अविशेष
को प्रधान रूपसे जानने वाला ज्ञान प्रमाण है प्रकृत में वरी पद रखा गया है । यहाँ उपलक्षण वाले झमेजेसे क्या यहाँ इष्ट है जो भामरूप है। आगे इस पर और भी जब कि वह नियत पद प्रकृत 'विशेष' अर्थका घातक अधिक विस्तारसे मन्य लेखों में विचार किया गया है।
'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लन्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातच्च, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइले थोड़ी ही रह गई हैं। अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा।
मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली।
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हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण
( लेखक : परमानन्द जैन शास्त्री )
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श्रवणबेरगोल से चखकर हम लोग हासन आए। हामन मैसूर स्टेटका एक जिला है। यहाँ वनवासी के कदम्बवंशी राजाओंगे पोथी पांचवीं शताब्दीसे ११ वीं शताब्दी तक राज्य किया है। यहांका अधिकांश भाग जैन राजाओंके हाथमें रहा है। इस जिले में पूर्व कालमें जैनियोंका दा भारी अभ्युदय रहा है। वह इस जिलेमें उपलब्ध मूर्तियों, शिक्षालेखों ग्रन्थकारों और नत्र यदि हो जाता है [हासन दरने का कोई विचार नहीं था किन्तु रोड टैक्सको जमा करनेके लिए रुकमा पड़ा। यह केवल खारीका हा टेक्स नहीं लिया जाता किन्तु सवारियों से भी फी रुपया मवारी टैक्स लिया जाता है। इसमें कुछ अधिक विलम्ब होते देख म्युनिस्पल कमेटीके एक बाहमा लेकर मोहनादिका कार्य शुरू किया। मैं और मुकार साहब नहा लोकर शहरके मंदिर में दर्शन करने के लिए गए। शहरमें हमें पावड़ी में दो जिन मन्दिर मिले। जिनमें अन्य तीर्थंकर प्रतिमाओंके साथ मध्यमें भगवान पार्श्वनाथको मूर्ति विराजमान यो । दर्शन करके चित में बड़ी प्रसता हुई। परन्तु वहाँ और कितने मन्दिर हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका और न वहाँ के जैनियोंका ही कोई परिचय प्राप्त हो सका। जल्दीमें यह सब कार्य होना संभव भी नहीं है मन्दिरजीसे चलकर कुछ शाही खरीदी और भोजन करनेके बाद हम लोग 1 बजेके करीब हासनसे २४ मील चलकर बेलूर आए यह वही नगर है, जिसे दक्षिण काशी भी कहा जाय या क्योंकि यहां राजा विष्णुवर्द्धनने जैनधर्मले वैष्णव होकर पेश' का विशाल एवं सुन्दर मन्दिर बनवाया था । बेलुरमे ११ मोक्ष पूर्व चलकर हम लोग 'इलेबीड' आये हमे दोर या द्वारसमुद्र भी कहा जाता है।
जाता।
बंध दान देने में दक्ष और विनयादि सद्गुषों प्रभाषन्द्र सिद्धान्तदेवी 'शच्या थी, जो मूळसंघ देशीयगया पुस्तके विद्वान् प्राचार्य मेषचन्द्र चैविद्यदेवके शिष्य थे, जिनका स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० संवत् ११०२) में मगशिर सुदि १४ बृहस्पतिवार के दिन सद्ध्यानसहित हुआ था। उनके शिष्य प्रसिद्धदेव महाराज द्वारा उनकी नया बनवाई थी। जिनकी मृत्यु शक संवत् १०६८ (वि० संवत् १२०३ )
सुदि वृहस्पतिवार के दिन हुई बी x शान्तदेवीके पिताका नाम 'मारसिह और माताका नाम साविक था। इनकी मृत्यु शान्तलदेवीके बाद हुई थी। शाम्तलदेवीने शक सं० १०५० (वि० सं० १९८५ )
में चैनसुदि के दिन शिवगड़" नामक स्थानमा शरीरका
त्याग किया था ।
राजा विवर्द्धन एक वीर एवं पराक्रमी शासक था । इसने मांडलिक राजाओं पर विजय प्राप्त की थी और अपने राज्यका खूब विस्तार किया था। पहले इस राजाकी आस्था जैनधर्मपर थी किन्तु सन् 1910 में रामानुजके प्रभावसे वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया था, और उसीकी म्यूतिस्वरूप बेलूर में विष्णु का विशाल मंदिर भी बनवाया था। यह मन्दिर देखने योग्य है। कहा जाता हूँ कि जैनियोंके ध्वंस किए गए मन्दिरोंके पत्थरोंका उपयोग इसके बनाने में किया गया है। उस समय हलेविड - में निय७२० निमन्दिर थे। जैनधर्मका परित्याग जैनियोंके करनेके बाद विष्णुवर्द्धनने उम जैनमन्दिरोंको गिरवा कर 'नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया था, इतना ही नहीं; किन्तु उस समय इसने अनेक प्रसिद्ध २ जैनियोंको भी मरवा दिया या और उन्हें अनेक प्रकारके भी दिये थे, जैनियों साथ उस समय भारी अन्याय और अत्याचार किये गए थे जिनका उल्लेख कर मै समाजको शोकाकुल नहीं बनना
चाहवा
'सेबी' पूर्व समय जैनधर्मका केन्द्रस्थल रहा है किसी समय यह नगर जन धनसे समृद्ध रहा है और इसे होय के राजा की राजधानी बननेा भी देखें सेना संग्रह भाग १ नं. ४० (१२० ) । सौभाग्य प्राप्त हुआ है । राज्ञा विवर्द्धनको पहरानी २० (१४०) । चैनधर्म-पराया, धर्मनिष्ठा व शीक्षा, मुनिमा, चतु + शिलालेख मं० १३ (१४३) ।
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हमारी जन तीथयात्राके संस्मरण
[२७७
हो. 'स्थत पुराव' के कथनसे इतना अवश्य ज्ञात की झांकीका भी दिग्दर्शन हो जाता है। विष्णुवर भने होता है कि विष्णुवईनके द्वारा जैनियों पर किये गए शक सं० १.३३ (वि.. १८से शक संवत् १०॥ अत्याचारोंको पृथ्वी भी सहन करने में समर्थ नहीं हो (वि. स.11 ) तक राज्य किया है। हलेविरमें सकी। फलस्वरूप हलेविरके दक्षिणमें अनेकवार भूकम्प इस समय जैनियोंके तीन मन्दिर मौजूद है पावनायवस्ति, हुए और उन भू-कम्पोंमें पृथ्वीका कुछ भू-भाग भी भू-गर्भ मादिनाथवस्ति और शान्तिनाथस्ति, जिनका संचित में विलीन हो गया, जिससे जनताको अपार जन-धनकी परिचय निम्न प्रकार है:हानि उठानी पड़ी। इन उपद्रवोंको शान्त करनेके लिये पार्श्वनाथवस्ति-हलेविरकी इस पारकाथवस्तियद्यपि रामाने अनेक प्रयत्न किये, अनेक शान्ति-यश को शक सं. १०१५वि.सं.१०)में बोप्याने अपने कराये और प्रचुर धन-स्यय करने पर भी राजा वहाँ जब
स्वर्गीय पिता गणराजकी पुण्य-स्मृति में बनवाया था। इस प्रकृतिके प्रकोपजन्य उपद्वांको शांत करनेमें समर्थ न हो
मन्दिरमें पार्श्वनाथ भगवानकी १४ फुट ऊँची काले सका। तब अन्तमें मजबूर होकर विष्णुवर्द्धनको श्रवण
पाषाणकी मनोश एवं चित्ताकर्षक तथा कलापूर्ण मूर्ति बेगोल तत्कालीन प्रसिद्ध प्राचार्य शुभचन्द्र के पास मा
विराजमान है । इस मूर्तिके दोनों ओर धरणेन्द्र और कर षमा याचना करनी पड़ी। प्राचार्य शुभचन्द्र राजाके
पद्मावती उत्कीर्पित है। मन्दिर ऊपरसे साधारणसा द्वारा किये गए अत्याचारोंको पहलेसे ही जानते थे। प्रथम
प्रतीत होता है। परन्तु अन्दर जाकर उसकी बनावटको तो उन्होंने राजाकी उस अभ्यर्थनाको स्वीकार नहीं किया;
या देखनेसे उसकी कलात्मक कारीगरीका सहजही बोध हो किन्तु बहुत प्रार्थना करने या गिड़गिड़ानेके पश्चात् राजा
जाता है इस मन्दिर में कसौटी पाषाणके सुन्दर चौदा को मा किया। राजामे जैनधर्मके विरोध न करनकी
खम्भे लगे हुए है उनमेंसे भागेके दो खम्भोंपर पानी प्रतिज्ञा की और राज्यकी ओरसे जैनमन्दिरों एवं मठोंको
सलनेसे उनका रंग कालेसे हरा हो जाता है। मुख्य पूजादि निमित्त जो दानादि पहले दिया जाता था उसे
धारके दाहिनी ओर एक यक्षकी मूर्ति और बाई मोर पूर्ववत् देनेका आश्वासन दिलाया तथा उक्त कार्यों के अन
कूष्मांटिनीदेवीकी मूर्ति है। स्तर शान्तिविधान भी किया गया।
इस मन्दिरके बाहरकी दीवालके एक पाषाण पर विष्णुवर्द्धनके मंत्री और सेनापति गंगराज तथा
संस्कृत और कनदी भाषाका एक विशाल शिलालेख अंकित हुल्लाने उस समय जैनधर्मका बहुत उद्योत किया, अनेक
है जिसमें इस मन्दिरके निर्माण कराने और प्रतिहादि जिन मन्दिर बनवाए और मन्दिरोंकी पूजादिके निमित्त ।
कार्य सम्पन किये जाने मादिका कितनाही इतिहास दिया भूमिके दान भी दिये । श्रवणबेलगोल भादिके अनेक
हुआ है। उसमें गंगवंशके पूर्वजोंका प्रादि स्रोत प्रकट शिलालेखोंसे गंगराज और हुलाकी धर्मनिष्ठा और कर्तव्य
करते हुए उनके 'पोरसख' नाम रूढ होनेका उल्लेख परायणताके उक्लेख प्राप्त हैं जिनसे उनके वैयक्तिक जीवन
भी किया गया है। उसी वंश विनयादिस्य रामाका पुष यह शुभचन्द्राचार्य सम्मतः वे ही जान पड़ते हैं जो एरेयंग था उसकी पत्नी एचबादेवीसे ब्रह्मा विष्णु और मूबसंघ कुन्दकुन्दन्वय देशीगण और पुस्तकगच्छके कुछ. शिवकी तरह बबाल, विष्णु और उदयादिस्य नामके तीन टासन मबधारिदेवके शिष्य थे और जिन्हें मंडलिनाके पुत्र हुए इनमें विष्णुका नाम बोकमें सबसे अधिक प्रसिद भुजबल गंग पेमार्दिदेवकी काकी एडविरेमियक्कने श्रत- हमा। उसकी दिग्विजयों और उपाधियोंका वर्णन करमेके पंचमीके उद्यापनके समय, जो बखिकरेके उत्तग चैत्यालयः पश्चात् तबकार, कोक, नलि, गावाति, नोखम्बवादि, में विराजमान थे । धवलाटीकाको प्रति समर्पित की गई मासवाडि, हुखिगेटे, सिगे वगवसे, हानुगल. मा, थी। इन शुभचन्द्राचार्यका स्वर्गारोहण शक सं० १.४५ कुन्तल, मध्यदेण, कान्धी, विनीत और मदुरापर भी (वि.सं0 1150) श्रावण शुक्ला .मी एक्रवारको उनके अधिकारको सूचित किया है। दुपा था।
विष्णुषईनका पादपदमोपजीवी महानायक गंगराज देखो, जैन शिलालेख संग्रह भा०ले.नं.१ था.जो भनेकपाधियोंसे प्रवकृत था, उसने अनेक ध्वस्त.
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२७८]
अनेकान्त
[किरण
जैन मन्दिरोंका पुनः निर्माण कराया था और अपने दानों- इस पत्र में बनाया गया है कि इन्द्र के मस्तक पर से १६...) गंगवारिको कोपाके समान प्रसिद्ध किया बगे हुए मणियोंमे जरित मुकुर की माता पंकिसे पूजित था। उक्त गंगराजको रायमें सात नरक निम्न थे-मूठ भुवनत्रयके लिये धर्मनेत्र, कामदेवका अन्त करने वाले बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणा- जन्म जरा और मरणको जीतने वाले उन विजय पार्श्वनाथ थियोंको प्राशय न देना, अधीनस्थोंबो अपरितृप्त रखना, जिनेन्द्र के खिये नमस्कार हो। जिन्हें पासमे रखना आवश्यक है उन्हें छोष देना और यह मन्दिर जितना सुन्दर बना हुआ है खेद है कि अपने स्वामीसे विद्रोह करना।
माजकल इस मन्दिरमें बिल्कुल सफाई नहीं है, उसमें उक सेनापति गङ्गराज और नागनदेवीसे 'बोप्प' हजारों चमगाद लटकी हुई है जिनकी दुर्गान्धसे दर्शकनामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके कुलगुरु गौतमगण का जी ऊब जाता है, और वह उममे बाहर निकलने धरकी परम्परामें प्रख्यात मलधारीदेवके शिष्य शुभचन्द- जल्दी प्रयत्न करता है। मैसूर सरकारका कर्तव्य है कि देव थे जो बोपदेवके गुरु थे, और बोपदेवके पूज्य गुरु वह उस मन्दिरको सफाई करानेका यत्न करे । जब सरकार गंगमहलाचार्य प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिक थे । बोपदेवन दोर पुरातन धर्मस्थानोंकां अपना रक्षक माननी है, ऐमो हालतमें या द्वार समुद्र के मध्यमें अपने पिताकी पवित्र स्मृतिमें उसके संरचणादिका पूरा दायित्व सरकार पर ही निर्भर उक्त पाश्वनाथ वस्तिका निर्माण कराया था। उसमें भग- हो जाता है। प्राशा है मैसूर सरकार इस सम्बन्धम पूरा वान पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा नयकीर्ति सिद्धान्त- विचार करेगी। चक्रवर्तक द्वारा शक सं० १.१५ (वि. सं. ११६४) २ आदिनाथवस्ति-दुसरा मन्दिर भगवान प्रादिमें सोमवारके दिन सम्पा कराई गई थी, जो मूलसंध नाथका है जिसे सन् ११३८ में हेगड़े मल्जिमायान कुन्दकुम्दान्वय देशीयगण पुस्तकगच्छके विद्वान थे। भागे बनवाया था। शिवालेखमें बतलाया गया है कि हनसोगे ग्रामके समीप- ३ शान्तिनाथवस्ति-तीसरा मन्दिर भगवान शाति. वर्ती इस द्रोह घरजिनालयकी प्रतिष्ठाके बाद जब पुरोहित नाथका है। इस मन्दिर में शान्तिनाथकी १४ फुट उची चढ़ाए हुए भोजनको बंकापुर विष्णुवर्द्धनके पास ले गए खगासनमूर्ति विराजमान है। यह मन्दिर सन् १२०४ तब विष्णुवईनने मसण नामक प्राक्रमण करने वाले का बना हुआ है। इस मन्दिरमें एक जैन मुनिका अपने राजाको परास्त कर मार दिया और उसकी राज्यनी जन्त शिष्यको धर्मोपदेश देनेका बड़ा ही सुन्दर दृश्य अकित कर ली। उसी समय उसकी रानी लक्ष्मीमहादेवीके एक है। मूर्तिके दोनों ओर मस्तकाभिषेक करनेके लिये सीढ़ी पुत्र उत्पन्न हुआ, जो गुणोंमें दशरथ और नहुष के समान बनी हुई हैं। और मन्दिरके सामने वाले मानस्तम्भमें था। राजाने पुरोहितोंका स्वागत कर प्रणाम किया और श्रीगोम्मटेश्वरकी मूर्ति विराजमान है। यह समझ कर कि भगवानकी पार्श्वनाथ प्रतिष्ठासे युद्ध- हलविडमें सबसे अच्छा दर्शनीय मन्दिर होयसलेश्वर विजय और पुत्रोत्पत्ति एवं सुख-समृद्धि के उपनक्षमें विडणु- का है। कहा जाता है कि इस कलात्मक मन्दिरके निर्माणबर्डनने देवताका नाम 'विजय पारवनाथ' और पुत्र का कार्य में ८६ वर्षका समय लगा है। फिर भी वह अधूरा नाम विजयनरसिहदेव' रक्खा, और अपने पुत्र की सुख- ही है-उसका शिखर अभी तक मी पूरा नहीं बन सका समृद्धि एवं शान्तिकी अभिवृद्धि के लिये 'मान्दिना के है पर यह मन्दिर जिस रूप में अभी विद्यमान है वह अपनी जावगरका मन्दिरके लिये दान दिया, इसके सिवाय, और ललित कलामें दूमा सानी नहीं रखता । इसकी शिक्ष्पभी बहुतसे दान दिये । उक्त शिलालेखके निम्न पचमें कला अपूर्व एवं बेजोब है। जिस चतुर शिल्पीने इसका विजयपाश्यनाथ की स्तुनिकी गई है वह पद्य इस प्रकार है:- निर्माण किया उमने केवल अपनी कलाकृतिका प्रदर्शन श्रीमझतेन्दर्माणमौलिमरीचिमाला.
ही नहीं किया; प्रत्युत इन कलात्मक चीजोंके निर्माण द्वारा मालार्चिताय भुवनयधम्मने ।
अपनी आन्तरिक प्रतिभाका सजीव चित्रय भी अभियंजित कामान्तकाय जित-जन्मजरान्तकाय,
किया है। इस मन्दिरकी बाह्य दीवालों पर हाथी, सिंह, भक्त्या नमो विजय-पाश्व-जिनेश्वराय॥
और विभिन प्रकारके पक्षी, देवी देवता और४०० फुटकी
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किरण] हमारो जैन तीर्थयात्रा संस्मरण
२७६] बम्बाई में रामायण सरस व मी अंकित किए गए हैं जो पहुँचे और वहांके राबा देवपासके पेखिस भवन में ठहरे, दर्शकों को अपनी चोर भाकर्षित किये बिना नहीं रहते। भवनके इस हिस्से पर सरकारने कब्जा कर लिया है।
खेद है कि इनेविडमें भाज जैनियोंकी पावादी नहीं है। आपके निजी भवन में भी एक चैत्यालय है। शिलालेखोंमें - वहाँ के कीर्ति-मन्दिर जैनधर्मकी गुण-गरिमा पर किसी मूबग्दिीका प्राचीन नाम 'रिणी' 'वेणूपुर' या 'सर'
समय इठलाते थे। पर माज यह नगर अपने गौरव हीन उल्लिखित मिलता है। इसे नकाशीमा कहा जाता है। जीवन पर सिसिको ले रहा-दुख प्रकट कर रहा है। यह नगर 'तुलु' या तौलवदेशमें वसाहचा इस देशसबकसे दूर होने के कारण यात्री वहाँ दर्शनार्थ बहुत ही के बोलचालको भाम भाषा भी 'तुलु' है परन्तु व्यावहाकम जाते हैं। हलेविडसे चल कर हम लोगोंने रात्रि खि- रिक भाषा कनादी होने के कारण इसे कर्नारकश भी
यूरमे धर्मशाबाके पीछेके दहलानमें विताई और सवेरे कहा जाता है। यह नगर किसी समय कर्नाटक देशक ' ४ बजेसे चल कर ॥ बजेके करीव दुपहरके समय वेएर कांची राज्यमं शामिल भी था, जिसकी राजधानी बादामी ( Venuru) पहुंचे।
थी, जो बोजापुर जिले में अवस्थित है। उसके बाद उत्तर यह ग्राम दक्षिण कनारामें इलेविडसे ६० मील दूर है कनाडा में स्थित कदम्बवंशी राजाओंने भी उस पर राज्य और गुरपुर नदीके किनारे बसाइमा है। यहाँ तालाबमें शासन किया है और सम्भवतः छठी शताब्दीके लगभग हम लोगोंने स्नान किया, बाहुबली और अन्य चार मंदि- यह पूर्वी चालुक्य राजाओंके अधिकार में चला गया था। रोंके दर्शन किये, तथा थोड़ा सा नास्ता किया। भिंडी तथा उस समय तक इस देशका राजधर्म जैनधर्म बना रहा, रमाशकी फली खरीदी। यहा श्रवणबेलगोलके भट्टारक जब तक होयसाबवंशके राजा विष्णुवईन और पश्वासने चारुकीर्तिकी प्रेरणासे शक सं० ११२६ (वि.सं. १९६1) नधर्मका परित्यागकर बैशवधर्मको स्वीकार नहीं किया में चामुगहरायके कटुम्बी तिम्मराजने (Timmaraja) था। राजा विष्णुवनके धर्मपरिवर्तन के कारण जैन राजा ने, जो अजलरका शासक था, बाहुबलीकी ३० फुट ऊँची भैरसूर प्रोडीयर स्वतन्त्र हो गए, उस समय उनका शासन कार्योत्सर्ग मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई। इस मूतिका ६.. कुछ ऐसा रहा जो दूसरे सम्प्रदायके खोगों पर विपरीत वर्ष में एक बार मस्तिकाभिषेक होता है । इसके चारों भोर प्रभाव को श्रीकत कर रहा था। फलतः उस समय जैन ७-८ फुट ऊँचा एक कोर भी है। उक्त तिम्मराजने एक धर्मकी स्थिति अस्थिर एवं कमजोर हो गई। उस समय मन्दिर शान्तिनाथका भी बनवाया था। इस मन्दिरमं शक उनके आधीन चौटर, बंगर और मजसार वगैरह प्रसिदर सं० १५२६ (वि० सं० १६६१) का एक शिलालेख भी राजा थे। मूलजिवीमें चौटर जैन राजामौकाराज्य था, तब श्रीकत है । गोम्मटेश्वरकी यह मूर्ति गुरुपुर नदीके बायें तट यह नगर चोटर राजाओंका प्रसिद्ध नगर कहा जाता था। पर प्राकारके अन्दर भस्यन्त मनोग्य जान पड़ती है। अब भी यहां चौटरवंशी रहते हैं जिन्हें अंग्रेजी राज्य में पेन्शन गोम्मेटेश्वरकी इस मूर्तिका पग - फुट ३ इंच लम्बा है। मिनती थी। नंदायरमें कंगर, मजदंगदीके मजलर और बाहुबलीकी मूसिके अतिरिक यहाँ चार मन्दिर और भी मुल्कीके सेहतर हुए। यहाँ राजाका पुराना महल भी है, हैं। इसे शक सं० १९२६ में स्थानीय रानीने बनवाया है। जिसमें बकदी की बस पर दिया खुदाई की गई है और
विभित वस्ति र अक्किनगलेवस्ति । तीर्थकर परित- भीतों पर अनेक चित्र भी उस्कीर्णित है। इस मन्दिरके शक सं० १५४ शिलालेखसे ज्ञात होता दक्षिण बोलवदेशके अनेक राजाओंने वहाँ पर बहुतले है कि इसे यहाँ स्थानीय राजाने बनवाया था। और जिन मंदिर बनवाए हैं जिनकी संख्या १८० के करीब भयान्तिनाथ वरित । यहाँ के एकमन्दिरमें एक सहस्त्र मूर्ति. बतलाई जाती है। उनमें से 5 मंदिर मुखबिद्री भोर यो विराजमान है, ऐसा बहाके पुजारीसं ज्ञात हुभा। वे १८ मंदिर कारकलके भी भन्तर्निहित हैं।इन सब मंदिरों देखने में भी भाई, परम्तु जब्दीमें कोई गणना नहीं की जा और उस समयके राज्यों का इतिवृत्त मालूम करनेसे इस सकी। यहाँसे चलकर हम बोगर बजेके करीव मूखबिद्री पातका सहज ही पता लग जाता है कि उस समय वहां * See, Indian Antiquary V. 36
जैनधर्मका कितना गहरा प्रभाव किता। भूविजीका .See, mediaval Jainisin P.663 माम दक्षिण दिशा जैनतीनोंमें प्रसिर है।
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भनेकान्त
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गुरुवस्ति-यहां के स्थानीय १८ मन्दिरों में सबसे मैरादेवीने इसका एक मंडप बनवाया था जिसे 'भैरादेवी प्राचीन 'गुरुवस्ति' नामका मंदिरही जान पड़ता है। कहा मंडप' कहा जाता है उसमें भीतरके खम्भोंमें सुन्दर चित्रजाता है कि उसे बने हुए एक हजार वर्षसे भी अधिकका कारी उत्कीर्ण की गई है। चित्रादेवी मंडप और नमस्कार समय हो गया है। इस मन्दिरमें षट्खयबागमधवला टीका मंडप भादि छह मंडपोंके अनन्तर पंचधातुकी कायोत्सर्ग साहित, कषायपाहुर जयवक्षा टीका सहित तथा महा- चन्द्रप्रभ भगवानकी विशाल प्रतिमा विराजमान है। दूसरे बबादि सिदान्तग्रन्थ रहनेके कारण इसे सिद्धान्तबस्ति खहमें अनेक प्रतिमाएँ और सहस्त्रकूट चैत्यालय है। भी कहा जाता है। इस मन्दिरमें ३२ मूर्तियाँ रनोंकी और तीसरी मंजिल पर भी एक वेदी है जिसमें स्फटिकमयिकी एक मूर्ति तारपत्रके आपकी इस तरह कुल ३३ अनर्थ्य अनेक मनोग्य मूर्तियाँ हैं। इस मन्दिर में प्रवेश करते समय मूतियां विराजमान है जो चाँदी सोना, हीरा, पला, एक उन्नत विशाल मानस्तम्भ है जो शिल्पकलाकी साचात् मीवम, गरुत्मणि, वेदमणि, मूंगा, नीलम, पुखराज, मूर्ति है। इस मन्दिरका निर्माण शकसंवत् १५५१ (वि० मोती, माणिक्य,स्फटिक और गोमेधिक रनोंकी बनी हुई स. १४८७) में श्रावकों द्वारा बनवाया गया है। हैं। इस मंदिरमें एक शिलालेख शक संवत् १३६ (वि. तीसरा मंदिर बडगवस्ति' कहलाता है, क्योंकि वह सं०७.१)का उससे ज्ञात होता है कि इस मन्दिरको उत्तर दिशा में बना हुआ है इसके सामन भी एक मानस्थानीय जैन पंचोंने बनवाया था। इस मन्दिरके गहरके स्तम्भ बना हुआ है। इसमें सफेद पाषासकी तीन फुट 'गदके' मंडपको शक संवत् ११३० (वि. सं. १९७२) ऊँची चन्द्रप्रभ भगवानकी अति मनाग्यमूर्ति विराजमान है। में चोखसेटि नामक स्थानीय श्रेष्ठीने बनवाया था। इसी शेटवस्ति-इसमें मूलनायक श्री वर्धमानकी धातुमय वस्तिके एक पाषायपर शक सं० १९२६ (वि. सं. १४६४) मूर्ति विराजमान है। इस मन्दिरके प्राकारमें एक मंदिर का एक उत्कीर्य किया हुमा एक लेख है जिसमें लिखा है और है जिसमें काले पाषाण पर चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियां कि इसे स्थानीय राजाने दान दिया। तीर्थंकर वस्तिके पास प्रतिष्ठित हैं। इसके दोनों ओर शारदा और पद्मावतीदेवी एक पाषाण स्तम्भ लेखमें जो शक सं० १२२६ (वि० की प्रतिमा है। सं० १३१४) में उत्कीर्ण हुआ है उक गुरुवस्तिको दान
हिरवेवस्ति-इस मदिरमें मूलनायक शान्तिनाथ है। देने का उल्लेख है। इस मंदिरकी दूसरी मजिल्लपर भी एक
इम मन्दिरके प्राकारके अन्दर पद्मावतीदेवीका मंदिर है, वेदी है उसमें भी अनेक अनध्य मूर्तियाँ विराजमान हैं।
जिम में मिट्टी से निमित चौवीस तीर्थंकर मूतियाँ है। पना. कहा जाता है कि कुछ वर्ष हुए जब भट्टारकजीने इसका
वती भोर सरस्वति की भी प्रतिमाएं हैं इसीसे इसे अभ्मजीर्णोद्धार कराया था, इसा कारण इसे 'गुरुवस्ति' नामसे
नवरबस्ति कहा जाता है। पुकारा जाने लगा है। मुख्तारश्रीने मेंने और बाबू पक्षालालजी अग्रवाल आदिने इन सब मूर्तियांके सानन्द दर्शन
बेटकेरिबस्ति-इसमें वर्धमान भगवानकी ५ फुर किये है जिस पं. नागराजजी शास्त्रीने कराये थे और
ऊँची भूवि विराजमान है। ताडपत्रीय धवल गन्धकी वह प्रति भी दिखलाई थो जिसमें कोटिवस्ति--इस मन्दिर को 'कोटि' नामक अंष्ठिीने संयत' पद मौजूद है, पं. नागराजजीने यह सूत्र पढ़कर बनवाया था। इसमें नेमिनाथ भगवानकी खड्गासन एक भी बतलाया था। इसी गुरुवस्तिके सामनेही पाठशालाका फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। मन्दिर है जिसमें मुनिसुव्रतनाथकी मूति विराजमान है। विक्रम सद्विवस्ति-इस मौदरका निर्माण विक्रमनामक
दूसरा मन्दिर 'चन्द्रनाथ' का है जिसे त्रिलोकचूडा- सेठने कराया था। इसमें मूलनायक मादिनाथकी प्रतिमा मणि स्ति' भी कहते हैं। यह मन्दिर भी सम्भवतः हसौ है। अन्दर एक चैत्यालय है और जिसम धातुकी चौबीस व जितना पुराना है। यह मन्दिर तीन सानका है जिसमे मर्निया विराजमान हैं। एक जार शिक्षामय स्तम्भ बगे हुए हैं। इसीसे इसे लेप्यदवस्ति-इसमें मिट्टीकी लेप्य निर्मित चन्द्रप्रमकी 'साधिरकमदवसदी' भी कहा जाता है। इस मन्दिरके मूर्ति विराजमान है। इस मूर्तिका अभिषेक वगैरह नहीं चारों भोर एक पक्का परकोटा भी बना हमा। रानी किया जाता। इस मंदिरमें खेप्प निमित ज्वालामालिनीकी
या मन्दिरको छानका जिसमे मनिकाप्दवस्ति इसमें मितिका अभिनेक वाचनाको
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किरण]
हमारी जन तीथयात्राके संस्मरण
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एक मूर्ति विराजमान मिट्टीकी मूर्तियोंके बमानेका कारकल-यह नगर मदास प्रान्तके दक्षिण कर्नाटक रिवाज कबसे प्रचलितमा बह विचारणीय है। जिले में अवस्थित है। कहा जाता है कि यह मगर विममकी
कल्लनि वासी वीं शताब्दसे १.वीं शताब्दी तक जन-धनसे सम्पत्र मति विराजमान है। कहा जाता है कि पहले इस मंदिरके
९५ खूब समृदशाबी रहा है। इसकी समृद्धिमें नियोने भूगर्भ में ही सिद्धान्तमम्बरले जाते थे।
अपना पूरा योगदान दिया था । इक शताब्दियामें कार
कल भेररस नामक पायब्य राजर्षशके जैन राजामोंसे देरमसेटिवस्ति-इस मंदिरको देरम' नामक सेठने
शासित रहा है। प्रारम्भमें यह राजवंश अपनी स्वतन्त्र बनवाया था। मूलनायक मूर्ति तीनफुट ऊंची है इस मूर्तिके
सत्ता रखता था; परन्तु यह स्वतन्त्रता अधिक समय पक मीचे भागमें चौबीस बोधकर मूर्तियाँ है। और उपरके
कायम न रह सको । कारकबके इस पारब्यवंशको विजयखंडमें भगवान मल्लिनाथकी पदमासन मूर्ति विराजमान है।
नगर और हापसल बंश तथा अन्य भनेक बखशाली शासक चोलसेद्विवस्ति-इस मन्दिरको उक्त सेठने बनवाया
राजामों की प्रधानता अथवा परतंत्रतामें रहना पड़ा। उस था। इस मंदिरमें सुमति पमप्रभ और सुपारवनाथकी
समय वहां जनियोंका बहु संख्यामें निवास या और वहांके चार चार फुट ऊँची मूर्तियों विराजमान हैं। इस मंदिरके व्यापार मादिमें भी उनका विशेष हाथ था। मागे भागमें दायें बायें वाले कोठोंमें चौवीस तीर्थंकर कारकनमें सन् १२६ से सन् १९८६ तक पारब्ध मूतियाँ विराजमान हैं। इसीसे इसे 'तीर्थकरवस्ति' कहा चक्रवती, रामनाथ, वीर पायख्य और इम्मति भैरवराय जाता है।
मादि जैन राजामोंने उस पर शासन किया है। मेररस महादेवसेद्विवस्ति-इस वस्तिके बनवाने वाले उक्त राजा वीर पाययन शक संवत् १३१४ (वि०सं० 100%) सेठ हैं। इसमें मूलनायक फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। में फागुन शुक्ला द्वादशीके दिन वहांके तत्कालीन प्रसिद्ध
बंकिवरित-इस किसीकम अधिकारीने बनवाया राजगुरुभहारक बलितकीर्ति जो मूलसंध कुन्दसन्दाम्बय था। इस अनन्तनाथ भगवानकी मूर्ति विराजमान है। देशीयगय पुस्तकगच्छके विद्वान देवकीरिक शिष्य थे और करवस्ति-इस मन्दिरमे कालेपाषाणकी ५ फुट ऊंची
पनसोगेके निवासी थे, उनके द्वारा स्थिरबग्नमें बाहुबलीकी मल्लिनाथ भगवान की मूति विराजमान है।
उस विशाल मूर्तिकी, जो फुट ५ इंच ऊंची थो
प्रतिष्ठा कराई गई थी। मूर्तिके इस प्रतिष्ठा महोत्सबमें विजय पडुवस्ति-इसमें मूलनायक प्रतिमा अनंतनाथ की है
मगरके तत्कालीन शासक राजादेवराय (द्वितीय) भी शामिल जो पभासन चार फुट ऊँची है। कहा जाता है कि पहले
हुए थे। कविचन्द्रमने अपने 'गोम्मटेश्वर परिव' नामक शास्त्रभण्डार इसी मन्दिरके भूप्रहमें विराजमान था, जो
प्रथमें बाहुबलीकी इस मूर्तिके निर्माण और प्रतिष्ठादि दीमकादिने भषणकर लुप्त प्रायः कर दिया था, उसमिसे
का विस्तृत परिचय दिया है जिसमें बताया गया है अवशिष्ट योकी सुचादिका कार्य पारा निवासी बाबू ।
कि उक्त मूर्तिके निर्माणका यह कार्य युवराजकी देखरेख में देवकुमारजीने अपने दम्यसं कराया था। बादमें वे सब --- अन्य ममें विराजमान करा दिये गए है।
| ও মাৰু বিধি জাল ম্যাথ স্বাক্ষরি
शास्त्रोंके अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भहारकहनके मठवस्ति-इस मन्दिरमें काले पाषाणकी पार्श्वनाथ
बाद कारकलकी इस महारकीय गही पर जो भी महारक की सुन्दर मूर्ति है।
प्रतिष्ठिव हाता था, वह बहान बलितकीवि नामस ही यहाँ सुपारी नारियल कालीमिर्च और काजूके वृक्षोंके उक्लेखित किया जाता है। कभ. बखितकातिके अनेक अनेक बाग हैं। कालीमिर्चका भाव उस समय ३) रुपया शिष्य थे। कल्यायकीर्ति, देवबन्द्र माद इनमें कल्याण सेर था। धान भी यहाँ अच्छा पैदा होता है। यहाँ के कीतिने, जिनयज्ञफलोदय (११५.) ज्ञानचनाभ्युदय, चावलभी बहुत अच्छे और स्वादिष्ट होते हैं। यहाँ से कामनक्ये, मनु, जिनम्नुति, वस्वमेदाष्टक, सिदाशि, भोजनकर १५बजेके करीब चलकर हम लोग कारकल योधर चरित (श. १३०५) और शशिकुमारचरितका
(२०१३)रचनाकाल पाया जाता।
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अनेकान्त
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सम्पन्न हुआ था। और बीच-बीच में राजा स्वयं भी उपयोगी सलाह देता रहता था मूर्ति तैयार होने पर बीस पहियोंकी मजबूत एक गाड़ी तय्यार करा कर दस हजार मनुष्यों द्वारा मूर्तिको गाड़ी पर चढ़ाया गया था, जिसमें राम मंत्री, पुरोहित और सेनानायक के साथ जनसमुदायाने जयबोधके साथ उस गाड़ी को खींचा था और कई दिनोंके गातार परिभ्रमके बाद सूतिको अभिलषित स्थान पर बाईस सम्भंकि बने हुए अस्थायी मंडप में विराजमान कर पाया था, मूर्तिकी रचनाका अवशिष्ट कार्य एक वर्ष तक बरा बर वहीं होता रहा वहाँ ही मूर्ति पर बता बेल और नासादृष्टि आदिका यह कार्य सम्पन्न हुआ था। इस मूर्ति का कोई आधार नहीं है। मूर्ति सुन्दर और कलापूर्ण तो है ही, अतः अब इसकी सुरक्षाका पूरा ध्यान रखनेकी आवश्यकता है। क्योंकि यह राजा बीरपायकी भक्तिका सुन्दर बना है।
राजा इम्मडि भैरवरायने जो अपने समयका एक वोर पराक्रमी शासक या अपने राज्यको पूर्ण स्वतन्त्र बनानेके प्रयत्न सफल नहीं हो सका। यह राजा भी जिन मतिमै कम नहीं था। इसने शक सं० १२०८ (वि० सं० १६४३) में 'ऋतु'अवसर' नामका एक मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर की दृष्टि अनुपम है और अपनी खास विशेपता रखता है। इस मन्दिरका मूल नाम 'त्रिविक चैत्यालय' है। इस मन्दिरके चारों तरफ एक एक द्वार है जिनमें से तीन द्वारोंमें पूर्व दक्षिण उत्तर में प्रत्येक घरह नाथ मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत इन तीन तीर्थंकरोंकी तीन मूर्तियाँ विराजमान है। और पश्चिम द्वारमें चतुविरास तीर्थंकरोंकी २४ सूर्तियां स्थापित हैं। इनके सिवाय दोनों
म मी अनेक प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है। दक्षिय और बाम भागमा और थावतकी सुन्दर चित्ताक मूर्तियां है। मन्दिर की दीवालों पर और संभों पर भी पुष्प जवा आदि अनेक चित्र कति है, जो राजाके कथा प्रेम है। जैन रामाने सहा दूसरे धर्म वालोंके साथ समानताका व्यवहार किया है । राजाओं का वास्तविक कर्तव्य है कि वह दूसरे धर्मियोंके साथ समामताका व्यवहार करें, इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती है और राज्य में सुख शान्तिकी समृद्धि भी होती है।
[ किरण
राजा इम्मति भैरबराय समुदार प्रकृति था। उसने सन् १९८४ में शंकराचार्य के पहाघीरा नरसिंह भारतीको राजधानी में कुछ समय तक ठहरनेका आग्रह किया था, इस पर उन्होंने कहा कि यहाँ अपने कर्म नुष्ठान के लिये कोई देव मन्दिर नहीं है, अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। इससे राजाके चित्तमें कष्ट पहुँचा और उसने व अप्रति ष्ठित जैन मन्दिर जो नयोन उसने मनश्या था और जिसमें तक नरसिंह भारतीको उदराया गया था, उसीमें राजाने 'शेषशायी अनन्तेश्वर विष्णु' की सुन्दर मूर्ति स्थापित करा दो थी । इससे भट्टारक जी रुष्ट हो गये थे अतः उनसे राजाने क्षमा माँगी, और एक वर्षमें उससे भी अच्छा मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा ही नहीं की, किन्तु 'त्रिभुवनतिलक' नामक चैत्यालय एक वर्ष के भीतर ही निमाण करा दिया। यह मन्दिर जैनमटके सामने उत्तर दिशामें मौजूद है । मठ की पूर्व दिशा में पार्श्वनाथ वस्ति है।
कार कलमें बाहुबलीकी उस विशाल मूर्तिके अतिरिक्त १८ मन्दिर और है जिनकी हम सब बांगने सानन्द यात्रा की। उक्त पर्वत पर बाहुबली सामने दाहिनी ओर बाई और दो मन्दिर है उनमें एक शीतलनाथका और दूसरा पाश्वनाथका है।
कारकका यह स्थान जहाँ बाहुबली की मूर्ति विराजमान है बड़ा ही रमणीक है। यह नगर भी किसी समय वैभवकी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। यहाँ इस वंश में अनेक राजा हुए है जिन्होंने समयसमय पर जैनधर्मका उद्योत किया है। इन राजाओोंकी सभायें विद्वानोंका सदाचार रहा है। कई राजा तो अच्छे कवि भी रहे हैं। पाय
तिने 'अध्यानन्द' नामका सुभाषित प्रन्थ बनाया था और बोर पागव्य 'क्रियानिषष्टु' नामका ग्रन्थ रचा था। इनके समय में इस देशमें अनेक जैन कवि भी हुए हैं, ललित कीर्ति देवचन्द, काल्याणकीर्ति और नागचन्द्रयादि । इन कवियों और इन कृतियोंके सम्बन्धमें फिर कभी - अवकाथ मिलने पर प्रकाश डाला जायगा ।
उक्त
कारका अनेक राजा ही शासक नहीं रहे हैं, किन्तु उस वंशकी अनेक वीरानाने मी राज्यका भार बहन करते हुए : धर्म और देशकी सेवा की है। -क्रमशः
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राष्ट्रकूटकालमें जैनधर्म
(ले०.०० बोकर, एम.१०. बिट०) दक्षिण और कर्नाटक अब भी जैनधर्मके सुपगढ़ है। धर्मके अनुमाथी तथा अभिषक थे। सचमेश्वरमें कितने वह कैसे हो सका। इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये राष्ट्रक्ट ही कल्पित अमिलेगा (तानपत्रादि) मिले हैं जो सम्भवंशके इतिहासको पर्यानोचन अनिवार्य है। दक्षिणमारत- पतः ईसाको पथवा वीं शतीमें दिये गये होंगे के इतिहास में राष्ट्रकूट राज्यकालका (सं०७३-101.) व्यापि उनमें वे धार्मिक उल्लेख हैं जो प्रारम्भिक चालुक्यसबसे अधिक समृद्धिका युग था। इस काल में हो जैन- राजा विनयादित्य, विजयादिस्य तथा विक्रमादिस्य द्वितीयने धर्मका भी दक्षिण भारतमें पर्याप्त विस्तार हुमाया। जैन धर्मायतनोंको दिये थे। फलतः इतना तो मानना ही राष्ट्रकूटोंके पतनके बाद ही नये धार्मिक सम्प्रदाय निका- पदेगा कि कचालुक्य नृपति यदा कदा जैनधर्मके पृटयतोंको उत्पति तथा तीव विस्तारके कारण जैनधर्मको पोषक अवश्य रहे होंगे अन्यथा जब ये परचात् लेख लिखे प्रबल धक्का लगा। राष्ट्रकूटकाल में जैनधर्मका कोई गये तब उक्त चालुक्य राजा हो क्यों दातार' रूपमें चुने सक्रिय विरोधी सम्प्रदाय नहीं था फलतः वह राज्यधर्म गये तथा दूसरे अनेक प्रसिद्ध राजाओं के नाम क्यों न दिये तथा बहुजन धर्मके पद पर प्रतिष्ठित था। इस युगमें गये इस समस्याको सुखसाना बहुत ही कठिन हो जाता जनाचार्योंने जैन साहित्यकी असाधारण रूपसे वृद्धि की है।बर संभव है कि ये अभिलेख पहिले प्रचारित हुए थी। तथा ऐमा प्रतीत होता है कि वे जनसाधारणको तथा छाल कर मिटा दिये गये सून लेखोंकी उत्तरकालीन शिक्षित करनेके सत्मयत्नमें भी संलग्न थे। वर्णमाला प्रतिलिपि मात्र थे। और भावी इतिहासकारोंके उपयोगके सीखनेके पहले बालकको श्री गणेशाय नमः' कण्ठस्थ लिये पुनः उस्की करा दिये गये थे, जोकि वर्तमानमें करा देना वैदिक सम्प्रदायों में सुप्रचलित प्रथा है, किन्तु उन्हें मनगदंत कह रहे हैं। जलवायके गंगराजवंशके अधिदक्षिण भारतमें अब भी जैन नमस्कार, वाक्य 'भीम् नमः काश राजा जैन धर्मानुयायी तथा अमिरक मे। जैनसिद्धेभ्यः' (ोनामासीधं.) व्यापक रूपसे चलता । धर्मायतनोंको गंगराज राचमा द्वारा प्रदा दानपत्र श्री. चि. वि. वैयने बताया है कि उक्त प्रचलनका यही कुर्ग में मिले हैं। जब इस राजाने बहुमलाई पर्वत पर वारपन लगाया जा सकता है कि हमारे काल ( राष्ट्रकूट ) अधिकार किया था तो उस पर एक नमन्दिरका निर्माखर में जैन गुरुवोंने देशको शिक्षामे पूर्ण रूपसे भाग लेकर कराके विजयी स्मृतिको अमर किया था। प्रकृत राज्यकाखइतनी अधिक अपनी छाप जमाई थी कि जैनधर्मका में नवमेश्वर में 'राय-राम बसवि, गंगापरमादिस्यादक्षिणमें संकोच हो जाने के बाद भी वैदिक सम्प्रदायोंके बय, तथा गंग-कन्दर्प चैत्यमन्दिर बामोंसे विख्यात जैन. बोग अपने बालकोंको उक जैन नमस्कार वाक्य सिखाते मन्दिर वर्तमान थे। जिन राजापाक नामानुसार उक ही रहें। यद्यपि इस जैन नमस्कार वाक्यके मज नमान्यता मन्दिरों का नामकरण हुमा था ये सब गंगवंशोष राजा पर रख अर्थ भी किये जा सकते है तथापि यह सुनिश्चित गेग नधर्मके अधिष्ठाता थे; ऐसा निष्कर्षक लेख परसे है कि इसका मूलस्रोत जन-संस्कृति ही थी।
निकालना समुचित है। महाराज मारसेन द्वितीको परम भूमिका
जैन थे। प्राचार्य अजितसेन उनके गुरु थे। जैनधर्म में राष्ट्रकूट युगमें हुए जैनधर्मके प्रसारकी भूमिका पूर्ववर्ती उनकी इतनी प्रगाढ बा थी कि उसोके वश होकर राज्यकालोंमें भली भांति तैयार हो चुकी थी। कदम्बवंश उन्होंने १७६० में राज्य त्याग करके समाधि मरस (ज.५ वी. ६ठी शती ई०) के कितने ही राग जैन- ---
३ इण्डियन एक्टीक्वायरी -पृ. 1 तथा भागे। १मध्यभारत तथा उत्तरभारतके दक्षिणी भागमें इस रूपमें अब भी चलता है।
४३० एण्टी०६पू. १०३ इविडयन एण्टीक्वायरी -पृष्ठ १९व्या मागे
५ एपी ग्राफिका इसिका, ४१०. इपिडयन एण्टीक्वायरी -पृ०३
ह.एण्टी .. ...-1
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२८४]
अनेकान्त
[किरण
(सक्लेखना) पूर्वक प्राव विसर्जन किया था। मारसिंहके यह बताता है कि वह कितना सच्चा जैन था। क्योंकि मन्त्री चामुसराय चामुहरायके रचयिता स्वामिभक्त सम्भवतः अब समय तक 'अकिबिन' धर्मका पालन करने प्रबल प्रतापी सेनापति थे। अवयवेलगोलामें गोम्मटेश्वर के लिये ही उसने यह राज्य स्याग किया होगा । यह (प्रथम तीर्थकर भदेवके द्वितीय पुत्र बाहुबली) की प्रमोषवर्षकी जैन-धर्म-भास्था ही थी जिसने भादिपुरायके बोकोत्तर, विशाल तथा सर्वात सुन्दर मूतिकी स्थापना अन्तिम पांच अध्यायोंके रचयिता गुणभवाचायको अपने इन्होंने करवाई थी। जैनधर्मकी बास्था तथा प्रसारकताके पुत्र कृष्ण द्वितीयका शिक्षक नियुक करवाया था। मूलकारण ही चामुण्डरायकी गिनती उन तीन महापुरुषोंमें गुण्डमें स्थितन मन्दिरको कृष्णाराज द्वितीयने भी दान की जाती है जो जनधर्मके महान प्रचारक थे। इन महा- दिया था । फलतः कहा जा सकता है कि यदि वह पूर्णपुरुषों में प्रथम दो वो भीगंगराज तया हुल्ल थे जो कि रूपसे जैसी नहीं था तो कमसे कम जैन धर्मका प्रश्रयदाता होयसबबंशीय महाराज विष्णुवईन त्या मारसिंह प्रथमके तो था ही। इतना ही इसके उत्तराधिकारी इन्द्र तृतीयके मन्त्री येनोलम्बावाडी जैनधर्मकी खूब दि हो रही विषयमें भी कहा जा सकता है। दानवुलपदु शिलालेख में
कि ऐसा शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि लिखा है कि महाराज श्रीमान् निस्पवर्ष (इन्द्र त• ने नोलम्बाबाडी प्रान्तमें एक प्रामको सठने राजासे खरीदा अपनी मनोकामनाओका पूर्तिकी भावनासे श्रीमहन्तदेवके था तथा उसे धर्मपुरी ( वर्तमान सोम जिलेमें पढ़ती अभिषेक मंगलके लिये पाषाणकी वेदी (सुमेरु पर्वतका है)में स्थित जन धर्मायतनको दान कर दिया था। उपस्थापन) बनवायी थी। अंतिम राष्ट्रकूट राजा इन्द्रजैन-राष्ट्रकूट-राजा- .
चतुर्थ भी सच्चा जैन था जब वह वारंवार प्रयत्न करके
भी तेल द्वितीयसे अपने राज्यको वापस न कर पाया तब राष्ट्रकूट राजामों में प्रमोधवर्ष प्रथम वैदिक धर्मानु
उसने अपनी धार्मिक आस्थाके भनुमार सक्ले अनावत पायीकी अपेक्षा जैन ही अधिक था। प्राचार्य जिनसेनने
धारण करके प्राण त्याग कर दिया था । अपने 'पारम्युिदय कायमें 'अपने भापको नृपतिका
जैन सामंतराजापरमगुरु लिखा है, जो कि अपने गुरु पुण्यात्मा मुनिराजका
राष्ट्रकूट नृपतियोंके भनेक सामंत राजा भी जैन धर्मानाम मात्र स्मरण करके अपने अपको पवित्र मानताया
बलम्बी थे। सौनत्तिके रहशासकों में लगभग सब सही गणितशास्त्र ग्रन्थ सारसग्रह' में इस बातका उल्लेख
सपातका बलर जैन धर्मावलम्बी थे। जैसा कि राष्ट्रकूट इतिहासमें लिख हैकि'मोघवर्ष' स्याद्वादधर्मका अनुयायी था । अपने चुका । अमोघ वर्ष प्रथमका प्रतिनिधि शासक बैंकेपर राज्यको किसी महामारीसे बचाने के लिए अमोघवर्षने भी जैगया। यह वनवासीका शासक था। अपनी राजअपनी एक अंगुलीकी पवि महालक्ष्मीको चढ़ाई थी। पानीके जैन धर्मापतनोंको एक ग्राम दान करने के लिए इसे यह बताता है कि भगवान महावीरके साथ साथ वह वैदिक राज ज्ञा प्राप्त हुई थी। देवताओं को भी पूजता था वह जैन धर्मका सक्रिय व्या बल्केयका पुत्र खोकादित्य जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट जागरुक अनुपाची था। स्व.मा. राखालदास बनर्जीने धर्मका प्रचारक था; ऐसा उसके धर्मगुरु श्रीगुराचम्चने भी सके बताया था कि बगवासीमें स्थित बैनधर्मायतनोंने लिखा है। इन्द्रतृतीयके सेनापति श्रीविजयामीन थे अमोघवर्षका अपनी कितनी ही धार्मिक क्रियामोंके प्रवर्तक इनकी पत्रकायाम जैन साहित्यका पर्याय विकासाचा था। रूपमें उल्लेख किया है। यह भी सुविदित है कि ममोप- (७) अन्न.मा. रो.ए.सो., भा०२२ पृ.१, वर्ष प्रथमने अनेकवार राजसिंहासन स्यागकर दिया था। (२) जनवब.मा.रो.ए. सो०भा०० पृ. १२,
() मा. सर्व.रि. ९.१६ पृ. १२१., एपी०ए०भा० ..पू.२७
(७). एण्टी . भा. २३ पृ. १२४, (१). एण्टी० मा० .पू. २१-८,
(5) ट्रिी मो. राष्ट्रक्टस पृ. २०२३, २) विक्टर निरशका प्रैशीची' भा. पू. १७५,
(९) एपी०ए०भा०६० २६। (३) पी० . भा. १८ पृ. २५८
(१०) एपी.ए. भा. . .. ,
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करण
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राष्ट्रकूटकालमें जैन धर्म
/२८५
उपयु लिखित महाराज, सामंतराजा पदाधिकारी तो था और एक सप्ताह तक चलता था । श्वेताम्बरोंमें वह ऐसे हैं जो अपने दान पवादिकके कारण राष्ट्रक्ट युगमें शुक्ला ८मी से प्रारम्भ होता है। शब अवश्पर्वत पर यह जैन धर्म प्रसारकके रूपसे ज्ञात है, किन्तु शीघ्र ही ज्ञान पर्व अब भी बड़े समारोहसे मनाया जाता है, क्योंकि होगा कि इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक जन राजा इस उनकी मान्यतानुसार श्रीऋषभदेवके गणधर पुण्डरीकने युग में हुए थे। इस युगने जैन ग्रंथकार तथा उसके उप- पंच करोग अनुवायीयोंके साथ इह तिथिको हो मुक्ति देशकोंकी एक प्रखण्ड सुन्दर मालाही उत्पा की थी। पाथीर थी। यह दोनों पर्व पशवीसे दषियमें सुप्रचलित यता इन सबको राज्याश्रय प्राप्त था फबताइनकी साहि- थे। फलतः ये राष्ट्रकूट युगमें भी अवश्य बड़े उत्साहसे त्यिक एवं धर्म प्रचारकी प्रवृत्तियोंसे समस्त जनपद पर मनाये जाते होंगे। क्योंकि जैन शास्त्र इनकी विधि करता गम्भीर प्रभाव पड़ा था। बहुत सम्भव है इस युगमें रह है और ये माज भी मनाये जाते हैं। जनपद की समस्त जनसंख्याका एक तृतीयांश भगवान महा- राष्ट्रकूट युगके मंदिर तो बहुत कुछ पोंमें वैदिक वीरको दिव्यध्वनि (सिद्धांतोंका अनुयायी रहा हो। मन- मंदिर कलाको प्रतिलिपि थे। भगवान महावीरकी पूजापहनीके उदारण के प्राचारपर रसीद उद-दीनने लिखा है विधि सी ही व्यय-साध्य तथा विबासमय हो गयी थी कि कोंकण तथा थानाके निवासी की व्यारवीं शतीके जैसी कि विष्णु तथा शिवकी थी। प्रारम्भन समनी (श्रमण अर्थात बौद्ध धर्म अनुयायी थे। शिलालेखों में भगवान महावीरके 'अंग मोग तथा रंग
अल-इदसीने नहरवासा (भाहल पहन राजाको भोग' के लिये दान देनेके उक्लेख मिलते हैं जैसा कि बौद्ध धर्मावलम्बी लिखा है। इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी वेदिक देवताओंके लिये चखन था । यह सब भगवान जानता कि जिस राजाका उसने उक्लेख किया है वह महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वांग माकिंचम्य धर्मकी व्याख्या जैन था, बौद्ध नहीं । अत एव स्पष्ट है कि मुसलमान नहाया। बहुधा जैनोंको बौद्ध समझ लेते थे। फलतः उपयु लिखित जैन मठोंमें भोजन तथा भौषधियोंकी पूरी व्यवस्था रशीद-उद-दीनका वक्तव्य दक्षिण कोंकण तथा थाना रहती थी तथा धर्म शास्त्रके शिषबकी भी पर्याप्त व्य. भागोंमें दशमी तथा ग्यारहवीं शतीके जैन धर्म-प्रसारका वस्था थी। सूचक है बौद्ध धर्मका नहीं । राष्ट्रकूट कालकी ममासके अमोघवर्ष प्रथमका कोन्नूर शिलालेख तथा कार्कके उपरान्तही लिंगायत सम्प्रदायके उदयके कारण जैनधर्मको सूरत ताम्रपत्र जैन धर्मायतनोंके लिये ही दिये गये थे। अपना बहुत कुछ प्रभाव खोना पड़ा था क्योंकि किसी हद किन्तु दोनों लेखोंमें दानका उद्देश्य बलिदान, वैश्वदेव तक यह सम्प्रदाय जैन धर्मको मिटाकर ही बढ़ाया। तथा अग्निहोत्र दिये हैं। ये सबके सब प्रधान वैदिक जैन संघ जोवन
संस्कार है। पापाततः इनको करने के लिए जैन मंदिरोंको
दिये गये दान को देखकर कोई भी व्यक्ति भारचर्य में पर इस कानके अभिलेखोंसे प्राप्त सूचनाके आधार पर उस जाता है। सम्भव है कि राष्ट्रकूट युगमें जैन धर्म क्या समयके जेन मठोंके भीतरी जीवनकी एक झांकी मिलती वैदिकधर्मके बीच प्राजकी अपेक्षा अधिकतर समता रही है। प्रारम्भिक कदम्बर वंशके अभिलेखोंसे पता लगता है
हो। अथवा राज्यके कार्यालयकी असावधानीके कारण कि वर्षा ऋतु में चतुर्मास अनेक जैन साधु एक स्थान पर
दानके उक्त हेतु शिलालेखों में जीव दिये गये है। कोम्नर रहा करते थे। इसीके (वर्षाक३) अन्त में वे सुप्रसिद्ध जैन
शिबालेसमें ये हेतु इतने प्रयुक्त स्थान पर है कि मुझे पर्व पयूषण मनाते थे। जैन शास्त्रोंमें पर्यषण बड़ा महत्व
दूसरी व्याख्या ही अधिक उपयुक्त अंचती है। (१) भादोंके अंत में पयूषण होता है। तथा चतुर्मासके
अन्तमें कार्तिककी अष्टान्हिका पड़ती है। (१) इलियट, १.१.१८.
(१) इनसाइकलोपी डिया भोफ रिखीजन तथा विकास (२)इ. एण्टी . भा .. पृ ३४,
माग .८.51 (३) एन. एपी टोम मोफ जैनिज्म पृ.६०५.०। () जनंख बो. मा. रो.ए. सोमा...पृ. २१.
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२०६]
भनेकान्त
[किरण
राष्ट-कूट युगका जैन साहित्य
विल्यात 'प्रमेयकमसमातंवर टीका लिखी थी। इन्होंने जैसा कि पहले पा चुका है अमोघवर्ष प्रथम कृष्ण मातडके अतिरिक्त 'न्यायकुमुदचन्द्रमी लिखा था। जैन द्वितीय तथा इन्द्र तृतीय वा तो जैन धर्मानुयायी थे
तर्कशास्त्रके दूसरे प्राचार्य जो कि इसी युगमें हुए येथे अथवा जैनधर्मकै प्रश्य दाता थे। यही अवस्था उसके
मालवादी थे, जिन्होंने नवसारीमें दिगम्बर जैन मठकी अधिकतर सामन्तोंकी भी बी। अतएव यदि इस युगमें
स्थापना की थी जिसका अब कोई पता नहीं ! कई जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुमा तो यह विशेष
स्वर्णवर्षक सूत पत्रमं इनके शिष्य शव्यको २१ई. पाश्चर्यजी पास नहीं है। वीं शतीके मध्य में हरिभद्रसूरि
में दच्दानका उल्लेख है इन्होंने धर्मोत्तराचार्यकीर म्यायहुए है तथापि इनका प्रति अज्ञात होनेसे इनकी कृतियोंका
विन्दुटीकापर टिप्पण विखे थे जो कि धर्मोत्तर टिप्पण यहां विचार नहीं करेंगे। स्वामी समन्तभद्र यद्यपि राष्ट्र
नामसे ज्यात है। बौद्धग्रन्थके उपर जैनाचार्य द्वारा टीका कूट कालकै बहुत पहले हुए हैं तथापि स्थाबादकी सर्वो.
लिखा जाना राष्ट्रकूटकालके धार्मिक समन्वय तथा सहि
ब्णुताकी भावनाका सर्वथा उचित फल था। तम व्याख्या तथा तत्कालीन समस्त दर्शनोंकी स्पष्ट तथा
अमोघवर्षकी राजसभातो अनेक विद्वानरूपी मालासे सयुक्तिक समीक्षा करनेके कारण उनकी प्राप्त मीमांसा
सुशोभित थी.यही कारण है कि आगामी अनेक शखियों में इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि इस राज्यकालमें ८वीं
वह महान-साहित्यिक प्रश्रयदाताके रूपमें ख्यात था। शती के प्रारम्भसे लेकर आगे इस पर अनेक टीकार्य
उसके धर्मगुरु जिनसेनाचाय हरिवरापुराणके र यता थे, दक्षिण में खिंखी गयी थी।
वह अन्य ७८६ ई. में समाप्त हुआ था। अपनी कृतिकी राष्ट्रकूट युगके प्रारम्भमें प्रककक महने इस पर
प्रशस्तिमें उस वर्ष में विद्यमान राजाओंके नामाका उल्लेख अपनी अष्टशती टीका लिखी थी । श्रवणबेलगोलाके
करके उमके प्राचीन भारतीय इतिहासके शोधक विद्वानों शिखालेखमें भकर्मकदेव राजा साहसतासे अपनी
पर बड़ा उपकार किया है वह अपनी कृति प्रादि पुराणको महत्ता करते हुए चित्रित किये गये हैं। ऐसा अनुमान
अनुमान समाप्त करने तक जीवित नहीं रह सके थे। जिसे उनके किया जाता है कि ये साहसतुझ दन्तिदुर्ग द्वितीय थे। इस शिष्य गुणचन्द्रने ८७ ई. में समाप्त किया था, जो शिलालेखमें पौदोंके विजेता रूपमें अकलकमहका वर्णन बनवासी १२...के शासक जांकादित्यके धर्मगुरु थे। है। ऐसी मी दन्तोकि किसकसक महाराष्ट्रकप सम्राट
पादि पुराण जैनगन्य हैं जिसमें जैनतीर्थ र मादि शनाका कृष्ण प्रयमके पुत्र थे।। किन्तु इसे ऐतिहासिक सत्य
पुरुषोंके जीवन चरित्र है। प्राचार्य जिनसनन अपने पाम्युिबनामेके लिये अधिक प्रमाद्योंकी पावश्यकता है। प्राप्त-
दय काम्यमें शकारिक खाकाव्य मेघदतकी प्रत्येक श्लोककी
me मीमांसाकी सर्वांगसुन्दरटीकाके रचयिता श्रीविद्यानन्द
अंतिम पक्कि (चतुर्थ भरण) को तपस्वी तीर्थंकर पाश्यनाथ इसके योदेसमय बाद हुए थे। इनके उल्लेख श्रवणवेब-
के जीवन वर्णनमें समाविष्ट करनेकी अद्भुत बौद्धिक कुश
सीम m an गोलाके शिलालेखोंमें है।
लताका परिचय दिया है। पाश्र्वाम्युदयके प्रत्येक पथकी न्याय-शास्त्र
अन्तिम पंक्ति मेघदूत के उसी संख्याके रखोकसे ली गई इस युगमें जैन तर्कशास्त्रका जो विकास हुआ है वह है। ज्याकरण य शाकटायनकी आमाधति तथा भी साधारण न था१८वीं शतीके उत्तरार्धमे हुए पा- बीराचार्यका गणित ग्रन्थ 'गयितसार संग्रह' भी अमोघमाणिक्यनंदिने 'परीक्षामुखसूत्र'३ की रचना की थी। नौवीं वर्ष प्रथम राज्यकाबने समाप्त हुए थे। शतीके पूर्वाद्ध में इस पर प्राचार्य प्रभाचम्बने अपनी एपी०ए०भाग २ (भान्या.पृ.१६-१७ (१) पिटरसमकी रिपोट सं .. ..मा.रो.ए. (२)० एण्टी० १६०४ पृ.७,
११). एण्टी० भा० १२ पृ.२१६ सो. भा. १८ पृ. २१
() इसमें अपनेको खर्कप्रमोषवर्षका परमगुरु'कहता है (१) एपी० कर्मा. मा..सं. २०
(८). एण्टी० १६१४ पृ. २०१ ()भारतीय न्यायका इतिहास पृ. ११,
() बिस्टर नित्य गटी. भा. ..
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किरण ]
राष्ट्रकूटकालमें जैनधर्म
[२८७
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D
तद्देशीय साहित्य
परमारुतीर्थकरने जनपदकी भाषामोंमें पोपदेश दिया कनारी भाषामें प्रथम शास्त्र विराजमार्ग था। परिणामस्वरूप १०ी शीमें मनारी बेखकोंलिखे जानेका श्रेय भी सम्राट् अमोघवर्षके राज्यकालको
की भरमार पाते हैं। जिनमें जैनी ही अधिक थे। इनमें है। किन्तु वह स्वयं रचयिता या बनकर प्राचीनतम तथा प्रधानतम महाकवि पम्प ये इनका जन्म अब भी विवादस्वाहै। प्रश्नोचरमावाका रविता भी
१०२ ई. में हुआ था। पात्रदेशके निवासी होकर भी विवादका विषय है क्योंकि इसके लिये श्री शंकराचार्य कमारी भाषाके आदि कवि हुए थे। इन्होंने अपनी कृति विमल तया अमोघवर्ष प्रथमके नाम खिचे जाते . माद पुराणको १५०० में समाप्त किया था, वह एफ• बस्यू. बोमसो विम्बती भाषाकास भववादको प्रत्य है। अपने मूल प्रम्य 'विक्रमाउन विजय' में इन्होंने प्रशस्विके माधार पर बिना किस पुस्तिकाके तिब्बतीर अपने भाभयदावा 'भरिकेशरी' द्वितीयको अरूपसे भाषा अनुवादके समय प्रमोचवर्ष प्रथम सिकारी उपस्थित किया है। अतः यह अन्य ऐविहासिक रचना। माना जाता था। अत: बहुत सम्भव है कि वही इसका इसी प्रन्यसे हमें इन्द्र तृतोषके उत्तर भारत पर किये कर्ता रहा हो।
गौ इन पाक्रमणोंकी सूचना मिलती है जिनमें उसका
सामन्त भरिकेशरी द्वितीय भी जाता था। इस कालके दशवीं शतीके मध्य तक दक्षिण कर्नाटक के चालुक्य
दूसरे प्रन्यकार 'प्रसंग' तथा 'जिनभा'थे जिनका उबखेल वंशीय सामन्तोको राजधानी गंगधारा भी साहित्यिक
पूतने किया है यपि इनकी एक भी कृति उपबन्धनहीं प्रवृत्तियोंका बड़ा केन्द्र हो गई थी। यहीं पर सोमदेवसूरि।
है। पून कवि १० वीं शतीके तृतीय चरण में हुए हैं। यह ने अपने 'यशस्विनकचम्पू' क्या 'नीतिवाक्यामृत' का
संस्कृत तथा कनारी भाषामें कविता करने में इतने अधिक निर्माण किया था। यशस्तिवक यद्यपि धार्मिक पुस्तक है
द थे कि इन्हें कृष्ण तृतीयने उभयकुख चक्रवर्तीको तथापि बेखकने इसको सरस चम्प बनाने में अद्भुत
उपाधि दी थी। इनकी प्रधान कृति 'शांतिपुराय है। साहित्यिक सामयंका परिचय दिया है। द्वितीय पुस्तक राजनीतिकी है। कौटिल्यके अर्थशास्त्रकी अनुगामिनी
महाराज मारसिंह द्वितीयके सेनापति चामुण्डरावने 'चामु
पहराय पुराण' को दसवीं शतीके तीसरे चरणमें लिखा होनेके कारण इसका स्वतन्त्र महत्व नहीं आंका जा सकता है तथापि यह साम्प्रदायिकतासे सर्वथा शून्य है तथा
था रम्न भी प्रसिद्ध कमारी कवि थे। इनका जन्म कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे भी ऊँची नैतिक दृष्टिसे लिखा
ई. में हुमा था । इनका अजितनाथ पुराण ॥ गया है।
में समाप्त हुमा था जैनधर्म अन्योंका पुराण रूपमें रचा
जाना बताता है कि राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्मका प्रभाव तथा महाकवि पम्प
मान्यता दक्षिण में असीम थी। इस राज्यकालमें कर्नाटक जैनधर्मका सुष्प गढ़ था।
-(वर्षी अभिनन्दन ग्रंपसे) तथा जैनाचार्यों को यह भली भांति स्मरण था कि उनके
(४) कर्नाटक भाषाभूषण, भूमिका०पू०१५-५ (१)३० एण्टी १० १० ॥
२)कर्नाटक भाषाभूषस भूमिका• पृ. १ (९)...मा.रो.ए.सो. १९०२८० (१) एपी०३०मा०५.१.५ (1) यशस्तिवकच पृ० ॥
(७) एपी.इ. भाग ६.०३
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मथुराके जैनस्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख
(मी भगरचन्द नाहटा)
मधुराकी सुदाईसे जो प्राचीन सामग्री प्राप्त हुई है वह सूची में शौरसेन देशको राजधानी के रूप में मथुराकाउल्लेख जैन इतिहास और मूर्तिपूजा भादिकी प्राचीनताकी ररिसे पाया जाता है। तत्परवर्ती साहित्य 'वसुदेवहिण्डी' ५वीx बहुत ही महत्वपूर्ण है, मथुराका देवनिर्मित स्तूप तो जैन शताब्दीका प्राचीनतम प्राकृत कथा प्रन्य है, इसके श्यामासाहित्यमें बहुत ही प्रसिद्ध रहा है, प्रस्तुत लेख में हम विजय बंभको कंस अपने श्वसुरसे मधुराका राज्य मांगता प्राचीन जैन साहित्यसे ई०७वीं शताब्दी तक ऐसे है, और अपने पिता सग्रसेनको कैद कर स्वय मथुराका उस्लेखोंको संगृहीतकर प्रकाशित कर रहे हैं, जो मथुरासे शासक बन जाता है। उरण है-इस पंधके प्रारंभ में जंबू अनोंके दीर्घ कालीन संबंध पर नया प्रकाश गगे, उनसे स्वामाका चरित्र दिया गया है। उसमें मथुराको कुबेरदत्ता पता चलेगा कि कब-कब किस प्रकार इन स्तूपादि- वेश्याका 15 मातों वाला विचित्र कथानक है फिर की यात्राके लिये जैन यात्री मथुरा पहुँचे। इन उल्लेखोंसे भागमांकी चूर्णियां और भाष्यों में भी मधुराके सम्बन्धमें मथुराके जैन स्तूपों व तीर्थक रूपमें कब तक प्रसिदि रहो, महत्वपूर्ण उल्लेख मिलते है।ा. जगदीशचन्द्र जैनने इसका हम भली-भांति परिचय पाजाते हैं सर्व-प्रथम जैन इन उजखों का संक्षिप्त अपमे 'जैन ग्रन्थोंमें भौगोलिक साहित्यमें मथुरा सम्बन्धी लेखोंकी चर्चा की जाती है। सामग्री और भारतवर्षम जैनधर्मका प्रचार' नामक लेख में जैन-साहित्य में मथुग
दिया गया है. जिसे यहां उद्धृत कर देना पावश्यक समवे. जैनागमोंमें एकदश अंग सूत्र सबसे प्राचीन ग्रन्थ
मता हूँ माने जाते हैं। भगवान महावीरकी वाणीका प्रामाणिक
'मथुराके पास पासका प्रदेश शूरसेन' कहा जाता है, संहाइन ग्रंथों में मिलता है जहां तक मेरे अध्ययन,मथुराका
मथुग अत्यन्त प्राचीन नगरी मानी जाती है। जहा जैनसबसे प्राचीन उल्लेख इन "मंग सूत्रों से छह ज्ञाता
भमणोका बहुत प्रचार था। (उत्तराध्ययन चूर्णी)। सूत्र में माता है, प्रसंग है द्रौपदीके स्वयंवर मंडपका
__ उत्तरापथमें मथुरा एक महत्व पूर्ण नगर था। जिसके स्वयंवर मंडपमें मानेके लिये अनेक देशके राजाओंको
अन्तर्गत १६ ग्रामोंमें जाग अपन परोंमें और चौराहों पर द्रौपदीके पिता अपने हतोंके द्वारा भामंत्रण पत्र भेजता है,
जिन मूर्तिकी स्थापना करते थे। अन्यथा घर गिर पड़ते इनमें एक दूत मथुराक 'घर नामक राजाके पास भी जाता या (वृहद् कल्पभाष्य)। है, इससे उस समय मथुराका शासक 'घर' नामक कोई मथुरामें एक देवनिर्मित स्तूप था। जिसके लिये नों राजा रहा था, ऐसा ज्ञात होता है। इसी द्रौपदी अध्ययनके और पौडोमें झगड़ा हुमा था। कहा जाता था कि इसमें भागे चलकर दक्षिणमे पांडवोंने मथुरा मगरी बसाई. इनका जैनोंकी जीत हुई और स्तूप पर उनका अधिकार हो भी उल्लेख मिलता है. इसखिये वृहदकल्पसूत्र में उत्सर गया(व्यवहार भाष्य) मथुरा और दक्षिण मथुरा, इन दो मथुरामोंका नाम मथुरा प्रायमंगू व भार्यरषित मादि जैन समयका मिलता है, वहाँके उस्लेखानुसार शालिवाहनका नायक विहार स्थल था । यहाँ भनेर पाबंदी साघुरहते थे, प्रतदोनों मथुरा पर अधिकार करता है, परवती प्रबंधकोषमें एव मथुराको 'पाखडी गर्भ कहा गया है। (चावश्यक भी यह अनुभूति सी मिलती है।
चूर्णी, प्राचारांग-चूर्वी भावकचरित्र) अंगसूत्रांके बाद उपांगसत्रोंका स्थान है। इनकी संस्था १२ मानी गई है, जिनमें से पावणा (प्रज्ञापनासूत्र)
xयह अन्य वीं शताब्दीका है, विना किसी प्रामामें साढ़े पच्चीस प्रार्य देशोंकी सूची दी गई है। इन
णिक अनुसंधानके अनुमानसे श्वीं शती लिख दिया गया
है। उसकी रचना वीं शताब्दीसे पूर्वकी नहीं है। लेखकका यह कथन अमी बहुत ही विवादापन
-प्रकाशक .-प्रकाशक ..इसके कारणके लिये देखिये विविध तीर्याप ।
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किरण]
मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख
[२८८
जैन सूत्रों का संस्कार करनेके लिये मथुरामें अनेक कथा कोश' के अन्तरगत रकुमारकी कयामें मधुराके जैन धमणोंका संघ उपस्थित हुमा था। वह सम्मेलन पंच स्तूपोंका वर्णन भाषा है। इस प्रन्यका रचनाकार 'माथुरी वाचना' के नामसे प्रसिद्ध है। (नन्दीची ) ई. सं. २है। तदनंतर ई.सं. १६ में रचित
मथुरा भंडारयज्ञकी यात्राके लिये प्रसिर था । (भाव- सामवसूरिक यशस्तिवकपूमें कब हेर फेरके साथ श्यक चूी।
देवनिर्मित स्तूपकी अनुमति दी है। सोमदेवने जब एक यह मगर व्यापारका बड़ा केन्द्र था, और विशेषकर स्तूप होना बसखाया है तो हरिषेणने स्तूपोंकी संका बस्वके लिए प्रसिद्ध था। (पावश्यक टीका)।
बतखाई है। इन अनुभूतियोंके सम्बन्ध विशेष विचार ___ यहाँके लोग व्यापार पर ही जीवित रहते थे, 10 मोतीचंद्रजीने अपने उक लेख में भली प्रकार किया खेती-बापी पर नहीं' (वृहदकल्प भाग्य,)यहां है। उन्होंने जिमप्रभुसूरिक 'विविधतीर्थकल्प' की स्थल मार्गसे माल माता जाता था। प्राचारांग चूों)। अनुभुतिका सारांश भी दिया है।
मथुराके क्षिण पश्चिपकी भोर महोती नामक प्रामको अभी तक विद्वानोंके सम्मुख उपयुक उल्लेख ही प्राचीन ग्रन्थों में मथुरा बताया जाता है। (मुनि कल्याण- पाये हैं। अब मैं अपनी खोजकद्वारा मधुराके जैन स्तुपाविजयजीका श्रमण भगवान महावीर, पृ० ३०१)। दिके बारेमे जो महत्वपूर्ण उपलेख प्राप्त हुये हैं उन्हें
इसमें प्राधारित मथुराके देवनिर्मित जैन स्तूपकी क्रमशः दे रहा हूँअनुश्रति व्यवहारमाध्यमें सर्वप्रथम पाई जाती है । ० भाचार्य भद्रबाहकी प्रोपनियुक्तिमें मुनि कहां 'मोतिचन्द्र'क'कुछ जैन मनुवतियाँ और पुरातत्व' शीर्षक विहार करें। इनका निर्देश करते हुए 'वक्के थुमे पाठ लेखमें उस अनुश्राविका सारांश इस प्रकार है-
पाता है। टीकाकारने इसका 'स्तूपमथुरायां' इन शब्दों एक समय एक जैनमुनिने मथुरामें तपस्या की। द्वारा स्पष्टीकरण किया है। तपस्यासे प्रसन्न होकर एक जैनदेवीने मुनिको वरदान
सं० १३३४ में प्रभावक चरित्रके अनुसार प्रारक्षितदेना चाहा, जिसे मुनिने स्वीकार नहीं किया। रुष्ट होकर
सरि मधुराम पधारे थे सब इन्द्रने पाकर मिगोद सम्बन्धी देवीने एनमय देवनिर्मितस्तूपकी रचना की । स्तूपको
पृष्या की थी, जिसका सही उत्तर पाकर उसने सन्तोष देखकर बौद भिक्षु वहां उपस्थित हो गये और स्तूपको
पाया। हवी प्रन्यके पादजिवरि प्रबंधानुसार ये भी अपना कहने लगे। बौद और जैनोंको स्तूप सम्बन्धि
यहां पधारे थे व 'सुपार्श्वजिनस्तुपकी यात्रा की थी। बदाई ६ महीने तक चलता रही। जैन साधुभोंने ऐसी
यथागडबडी देखकर उस देवीकी आराधना की। जिसका वरदान
'अथवा मथुरायां स सरिर्गस्वा महायशः लेना पहले अस्वीकार कर चुके थे। देवीने उन्हें राजाके
श्रीसुपार्वजिन-स्तुपेऽनमत् श्रीपालमजुसु" पास जाकर यह अनुरोध करनेकी सलाह दी कि राजा इस शर्त पर फैसला करे कि अगर स्तूप गैडोंका है तो उस
'प्रभावकचरित्र' एवं 'प्रबन्धकोश' 'दोनों प्रम्यकि पर गैरिक झंडा फहराना चाहिये, अगर वह जैनका है तो
बप्पभरि प्रबन्धके अनुसार यहां धाम राजाने पाश्वनाथ सफेद मंडा। रातों रात देवीनं बौद्धोंका केशरिया मंडा
मंदिर बनवाया था जिसकी प्रतिष्ठा बप्पष्टिसरिजीने की बदलकर नोंका सफेद भएडा स्तूप पर लगा दिया और
थी। माम रानाके कहनेसे वाक्पतिराजको प्रबोध देनेको
वे मथुरा पाये तब वाक्पति राजा 'वराह मंदिर में ध्यानस्थ सबेरे जब राजा स्तुप देखने पाया तो उस पर सफेद मंडा
था। सरिजीने इसे 'प्रबोध देकर जैन बनाया. उसका फहराते देखकर उसने उसे जैन स्तूप मान लिया।
स्वर्गवास भी यहीं हुमा । बप्पभसूरिसे लेपमय बिम इसके पश्चात् दिगम्बर हरिषेणाचार्य रचित 'बृहत्
कलाकारसे बनवाये थे। उनमेंसे एक मथुरामें स्थापित १. वृहबूकल्पभाष्यगत उल्लेखोंक जिषे मुनि पुवय- किया गया। विविध तीर्थ कम्पानुसार बप्पमसिरिजीने विजयजी सम्पादित संस्करणके बडे भागका परिशिष्ट जीर्णोदार करवाया एवं महावीर बिम्बकी स्थापना की। देखिये।
इनमें माधरचित प्रथम शती, पादखिप्त पांचवीं,
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२६०]
भनेकान्त
(किरण
।
बबप्पमहि वीं शताब्दी में हुये हैं। प्रभावक चरित्रमें इस गाथा व्यवहारभाज्यकी पूर्व दी गई अनुमतिबोरसूरिके भी यहाँ पधारनेका उल्लेख है।
का उल्लेख दिया गया है। अन्यबागच्च पहावबीमें इस युगप्रधानाचार्य गुर्वावली अनुसार सं. १२१४से तीर्थमाखाके रचयिता महेन्द्रसिंहमूरिका गडनायक १७के बीच मविचारी जिमचन्द्र सरिने मथुराकी यात्रा काल सं० २१६ से ११०६वकका बताया है। इस कीवी।
तीर्थमाला भावूके वस्तुपालका रचित मन्दिरका भी सं.१३.१ में हस्तिनापुर और मथुरा महातीर्थको उल्लेख होनेसे इसकी रचना सं. ..से ११० के बाबाका संघ खरतरगच्छाचार्य जिनचन्द्रसूरिके नेतृत्वमें बीच में हुई प्रतीत होती है। जाकर पचलने निकाला। इस बने सपने मथुराके पावं, १५वीं शतोकी अंचलग संघ यात्राका उल्लेख सुपार व महावीरकी यात्रा की । इस संघका विस्तृत पूर्व किया जा चुका है। वर्णन उपयुक युगप्रधानाचार्य गुर्वावबीमें मिबता है।
वौं शताब्दीके खरवर गणाचार्य जिनवर्धनसूरि'मत्यपूज्यः । सुनावकसपमहामेलापकेन श्रीमथुरायां जीने पूर्वदेशके जैनतीयोंकी यात्रा करके 'पूर्वदेशचत्य श्रीपार, श्रीमहावीरतीयकरण व राजायां च महता परिपाटी की रचना की। इसकी वी गाथामें लिखा है विस्तरेण यात्रा कता'
तपासु सुपासह थूम नमर्ड, सिरिमथुरा नयरंमि । पाटय भंडारके वारपत्रीय ग्रंथोंको सूचिके पृष्ठ ११५में तसौरीपूर सिरिनेमिजिण, समुदविजय संमि ॥६॥ सिद्धसेगसूरि रचित सकतीर्थस्तोत्रमें ऐतिहासिक जैन इसी शती मुनि प्रभसरिके भट्ठोतरी तीर्थमालाके तो सम्बन्धि गाथायें प्रकाशित है। उनमें मथुरा सम्बंधी २० पचमें 'महुरानयरी थूमु सुपासह इन शब्दों में गाथा इस प्रकार है
उल्लेख मिलता है। सिरि पासनाह सहियं रम्मं सिरिनिम्मियं महाथूमं । 10वीं शताब्दीके भयरव रचित 'पूर्व देश चैत्यकविकाबवि सुतिस्पं महुरानवरीड (ए)दामि ॥२॥ परिपाटी' की गाथामें मथुरा पात्राका उल्लेख इस
यद्यपि इस स्वोधके रचनाकाखका ठीक समय शात 'प्रकार हैनहीं, पर वायपत्रीय प्रतिको देखते हुए यह वीं वीं तिह वीरथ यात्रा करि, पटुवा मथुरा ठाम, शखाम्दीकी रवा अवश्य होगी।
दुई जिणहर थी रिषमना, थम सिरि प्रभवा स्वामी ॥५॥ संसातमें संगमसहि रचित 'तीर्थमाबा' की एक प्रति मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र बंशोल्कीर्तन काव्यके अनुसार हमारे संग्रहमें है। इसमें मथुराके स्तूपादिका उल्लेख इस बीकानेरके महाराजा रायसिंहके मन्त्री कर्मचन्नने मथुराके प्रकार है
चैत्योंका जीर्णोद्धार करवाया था। यथामधुरापुरि प्रतिष्ठितः सुपार्वजिनकास संभवी जति । शाये मधुपये जीर्णोद्वार चकार यः प्रचापि सूराऽभ्यर्य श्रीदेवी विनिर्मित स्तूप :...
तसशं पुण्यं कारणं नास्ति किंचन ॥३१४ । इस तीर्थ मालामें भी रचनाकाब दिया इमा नहीं है व्याख्या-यो मंत्री शत्र अये पुण्डरीकाक्षे तथा मधुपपर इसमें मायके जैन मन्दिरका उल्लेख करते हुये केवल मथुरानांजीणोदार-जीर्थ पतितं चैत्य समारचनं चकार । विमलवाहके रचित युगादिमन्दिरका ही उल्लेख , सी शताब्दीके कवि व्याकुशलने सं. १५0 में वस्तुपाल तेजपाल कारित मिजिनालयका नहीं है। इस अनेक जनतीर्थों की यात्रा करके 'तीर्थमाना बनाई। इसकी खिये इसकी रचना संवत् १०८ से १२ के बीचकी प्रारम्भिक २८ गाथायें प्राप्त नहीं है पर प्राप्त पचों में से निश्चित है।
४० में मथुराके १०. स्तूपों और स्थान स्थान पर जिन इसके पश्चात् बंचगच्छके महेन्द्रसहि रचित प्रतिमामोंके होनेका उक्लेख इस प्रकार है'अष्टोवरी तीर्थमाखा' में मथुराके सुपारयस्थप सम्बन्धी मथुरा देखि मन बसह, मनोहर शुम्भ जिहां पांचसइं। गाया इस प्रकार मिलती है।
गौतम जंप्रभवो साम, जिशावर प्रतिमा डामोठाम ॥४०॥ बच्चनियाणवाये, सेय पदागा निसाह जहिं जाया. इस शताब्दीके सुप्रसिदभाचार्य हीरविजय सूरिजीने सवग पभावा तं युधि, महुराई सुपाजण धूम... मथुराके १२० स्पोंकी यात्रा की, जिसका उल्लेख उनके भक्त
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किरण]
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कवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरिरास' में इस प्रकार किया है : हीरे को जे विहारवाला, हीरे कयौ ने बिहार । मथुरापुर नगरीमें आये, उद्दारमा ज पास ॐ बार बाला || यात्रा करि सुपासनी रे, पूठे बहु परिवार। संघ चतुर्विधति मिल्यो, पुरसे तीरथ सुसार बाख ॥२॥ जम्बू परमुख ना बहीरे, धूम से अतिहि उदार । पांचसे सताविस सूतो, हार हर्ष पार बाळा ॥३॥
इस यात्राका विस्तृत वर्णन हीरसौभाग्यकाम्यके १४ में सर्व मिश्रण है। पार्श्वनाथ सुपाएवं २० स्तूपोंकी यात्राका ही उसमें उल्लेख है ।
उपयु'क सभी उल्लेख श्वेताम्बर जैन साहित्यके है दिगम्बर साहित्य में भी कुछ उल्लेख खोजने पर अवश्य मिखना चाहिए १० वीं शतीके दि० कवि राजमायके अंबूस्वामी चरित्रके प्रारम्भ में यह ग्रन्थ, जिस शाहूटोडरके अनुरोधसे रचा गया उसका ऐतिहासिक परिचय देते हुए [सं०] १६३० में उसके द्वारा मधुराके स्तुपर्कि जीर्णोदारका महत्वपूर्ण विवस्या दिया है ।
मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख
प्रस्तुत ग्रन्थ जगदीशचन्द्र शास्त्री द्वारा संपादित मानिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमावासे प्रकाशित है। जगदीशचन्द्रजीने उपयुक्त प्रसंगका सार इस प्रकार दिया है
'अगरवाल जालिके गगांधी साधु टोबरके किये राजमधन्वने संवत् १६३२ दि को यहाँ बंधू स्वामि चरित्र बनाया। टोडर भाटनियाके निवासी थे।
२१]
कराया । तथा इन स्तुपोंके पास ही १२ द्वारपाल आदि की भी स्थापना की। प्रतिष्ठा कार्य विक्रम सं० १६३० के ज्येष्ठख भवार के दिन वो बड़ी व्यतीत होने
पर सूरिमन्ध पूर्वक निर्विघ्न सानन्द समाप्त हुआ। साटोरने संघको ग्रामन्त्रित किया। सबने परम धानन्दित होकर टोटरको आशीर्वाद दिया । और गुरुमे उसके मस्तक पर पुष्प वृष्टि की उत्पाद टोडरने सभामें खड़े होकर शास्त्रश कवि राममश्वसे प्रार्थना की कि सुके स्वामिपुरा म सुनने की पड़ी उकठा है। इस प्रार्थनासे प्रेरित हो कविराज यह रचना की ।
एक बारकी बात है कि साधु टोडर सिद्धक्षेत्रको यात्रा करने मथुरा में आये । वहाँ पर बीच में लंबू स्वामिका खूप (निःसही स्थान ) बना हुआ था और उसके चयमें विद्युच्चरनिका स्तूप था। आस पास अन्य मोड जाने वाले अनेक मुनियोंके स्तूप भी मौजूद मे इन सुनियोंके स्तूप कहीं पांच कहीं घाट, कहीं एस और बी कहीं इस तरह बने हुये थे। साहू डोकरको इन शीर्ण अवस्थामें देख कर इनका जीर्णोदार करनेकी प्र भावना जागृत हुई। फलतः टोडरने हम दिन और म देखकर अत्यन्त उत्साहपूर्वक इस पवित्र कार्यका प्रारम्भ किया। साहू डोडरको इस पुनीत कार्या धन व्यय करके १०१ स्तूपोंका एक समूह और १२ स्तूपोंका दूसरा समूह इस तरह कुछ २१४ स्तूपोंका निर्माण
पंकि
म
विशाल जैन साहित्यके सम्यम् अनुशीलनसे और भी बहुत सामग्री मिलनेकी सम्भावना है पर अभी तो जो उपप्रेस म्यानमें थे, उन्हें ही संग्रहित कर प्रकाशित कर रहा हूँ। इनसे भी निम्नोक हुई नये ज्ञातव्य प्रकाशमें आते हैं।
१. मथुरा सम्बन्धी उपखोंकी प्रचुरता श्वेताम्बर साहित्य में ही अधिक है। अतः उनका संबंध अधिक रहा है। जैन तीर्थके रूपमें मधुराकी यात्रा १७ वीं शती तक श्वे० मुनि एवं भावकगण निरन्तर करते रहे ।
२. देव निर्मित स्तूप सम्बन्धी सम्प्रदाय के साहित्य में मिलती है, लिए समान रूपसे मान्य-पूज्य रहा पार्श्वनाथका था।
अनुभुतियाँ दोनों वह स्तूप दोन होगा। यह स्तुप
२. कुछ शादियों तक तो बैन किये मथुरा एक विशिष्ट प्रचार केन्द्र रहा है। जैनोंका प्रभाव बहाँ बहुत अधिक रहा । जिसके फलस्वरूप मथुरा व उसके ३६ गांवों में भी प्रत्येक घर मंगल स्थापित किये जाने जिसमें जन मूर्तियाँ होती थी । विविधतीर्थंकल्पके अनुसार यहाँके राजा भी जैन रहे हैं।
४. नागमोंकी 'माधुरी बाचना' पकी एक चिरस्मरणीय घटना है।
२.चार्य बप्यमइरिने यहाँ पार विनाखयको प्रतिष्ठित किया व महावीर विभीमेा ।
६. पहले यहाँ एक देवनिर्मित स्तुप हो या फिर पाँच स्तूप हुये, क्रमशः स्तूपोंकी संख्या १२० तक पहुँच गई, जो १७ वीं शती तक पूज्य रहे हैं । २२७ स्तूपोंका
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२४२] अनेकान्त
[किरण। सम्बन्ध स्वामी, प्रभवस्वामी प्रादि ५२० व्यक्तियोंसे सकता है कि-'मथुरा सम्बन्धी उल्लेखोंकी प्रचुरता श्वेत म्बर जो साथ ही दोषित हुए थे प्रोदा गया प्रतीत होता है। साहित्यमें ही है। अतः उनका सम्बन्ध यहाँ से अधिक
..भवरखनी चैरव परिपाटी अनुपार 10वीं शतो रहा है। दिगम्बर प्रन्योंमें मथुरा सम्बन्धी अनेक उल्लेख से पहले पहा मोबके भी दो मन्दिर स्थापित हो मिहित हैं। इतना ही नहीं किन्तु मथुरा और उसके पास
पासके नगरों में दिगम्बर नोंका प्राचीन समयसे निवास ८. . में यहाँ दि. साहु टोडर द्वारा ११४ है। अनेक मंदिर और शास्त्र भरवार है, बादशाही समयमें स्तूपोंकी प्रविहा उस्लमीय है।
जो नपभ्रष्ट किये गये हैं और अनेक शास्त्र भण्डार जला प्राय सभी उ पकरके राज्यकाब तक है। दिये गये। थोड़ी देर के लिये यदि यह भी मान लिया जाय यहाँ तक तो स्तपादिसति और पूज्य थे। इसके बाद कि उक्लेख कम है और यह भी हो सकता है कि दिगम्बर इनका उल्लेख नहीं मिलता । अतः औरंगजेबके समय विद्वान् इस विषयमें मात्रकी तरह उपेषित भी रहे हों तो पहाँ सम्म हिंद प्राचीन मन्दिरोंके साथ और स्मारक भी इससे क्या उनकी मान्यताको कमीका अंदाज खगाया जा विनाशके शिकार बन गये होंगे।
.
सकता है। मधुरासे प्राप्त जैन पुरातत्व और इन साहित्यगत
मधुरामें राजा उदितोदयके राज्यकालमें महरास सेठके खेलोंके प्रकाशमें मधुराके मेन इतिहास पर पुनः विचार
कथानकमें कार्तिकमासकी शुक्लपक्षकी ८मीसे पूर्णिमा तक करमा पावश्यक है। यहां प्रतिमालेखोंका संग्रह
कौमुदी महोत्सव मनानेका उल्लेख हरिषेण कथाकोषमें स्व. पूर्वचन्द्रजी माहटा, हिंदी अंग्रेजी अनुवाद व टिप्प
विद्यमान है जिनमें उक सेठकी पाठ स्त्रियोंके सम्यक्त्व चिचों सहित पाना चाहते थे। पर उनके स्वर्गवास हो
प्राप्त करके उसके साथ उस समय मधुरामें प्राचार्यों जानेसे वह संग्रहमन्य यों ही पका रह गया। इसे किसी
और साधुसंघका भी लेख किया गया है। इसके सिवाय
तीर्थस्थानरूपसे निर्वाचकाडकी'महराए महिहिते'मामक पोपण्याचसे संपादित कराके शीतही प्रकाशित करना
गाथामें मथुराका स्पष्ट उल्लेख है। इस कारण तीर्थक्षेत्रकी जैन मूर्तिकला पर श्री उमाकान्त शाहने हालहीमें
बाबाके लिये भीमाने जाते रहे और वर्तमानमें तीर्थ
यात्राके खिये मी भाते रहते हैं। 'डाक्टरे' पद प्राप्त किया है उन्होंने मधुराकी जनकला
इनके सिवाय मथुराके देवनिर्मित स्तुपका उल्लेख पर भी अच्छा अध्ययन किया होगा। उसका भी शीघ्र प्रकाशित होना भावश्यक है।
भाचार्य सोमदेवने अपने पशस्तिबकाम्पूमें किया और
भाचार्य हरिषेयने अपने व्याकांधमें बैरमुनिकी कथा जैन साहत्यको विशद जानकारी वाले विद्वानांसे
निम्नपचमें मथुगमें पंचस्तूपोंक बनाये जानेका उक्लेख मधुरा सम्बन्धी और भी जहाँ कहीं उबल्लेख मिलता है
किया है। उसका संग्रह करवाया जाना चाहिए। भाशान
'महारजतनिर्मणान् खचिताम् मणिनायकैः । समाज इस भोर शीघ्र ध्यान देगी दि० विद्वानोंस विशेष
पकचस्तूपान् विधायाने समुच्चजिनवेश्मनाम् ॥१३२॥ रूपसे अनुरोध है कि उनको निर्वाणकांड-क्ति धादिमें
पंचस्तूपान्वयही यह दिगम्बर परम्परा बहुत पुरानी जो जो रखको शीघ्र प्रकाशित कर मारी जानकारी
हैमाचार्य वीरसेनने धवखामें और उनकशिष्य जिनसेगने
अपवाटीका प्रशस्तिमें पंचस्पा-क्यके चन्द्रसम मान्दि नोट:बी गरजी नाहटाने अपने इस लेख में नामक दोभाचार्योका नामोक्वेश किया है जो बीरसेनके मथुराके सम्बन्ध में जो अपनीधारणानुसार विकर्ष निकासा गुरुमगुरुये। इससे स्पट है कि भाचार्य वनसेनसे
यह डोकमावलमहीं होता। क्या दिगम्बर साहित्यके पूर्वस परंपरा चलित थी इसके सिवाय पंचस्तप मधुरा सम्बन्धी समी उल्लेख प्रकाशित हो चुके बखि विकायके भाचा गुदमन्दीका उम्मेख पहायपुरके बीलो फिर जो कुछ बोदेसेसमुक्त प्रकाशित हुए हैं वामपनमें पाया जाता है, जिसमें गुप्त संवत् सन् इल परसे क्या निम्न निकर निकालना लिहाजा १.में नाबशर्मा वामपके द्वारा गुहनन्दीके बिहारमें
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अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ अन्य
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महन्तोंकी पूजाके लिये तीन प्रामों और अशर्फियोंक देने प्रतीत नहीं होता । दिगम्बर जैन परम्पराका मधुरासत का उल्लेख है। इससे भी स्पष्ट है कि उक संवत्से पूर्व पुरावा सम्बन्ध है। पंयस्पाम्ब विधमान था।
लेखको वेवामारीव प्रबोंमें मधुराबपिन र
मधुराका उल्लेख किया है। दिगम्बर साहित्य में भी रचर पांडे रायमचने अपने जम्म् स्वामीचरितमें 1.
दषिव मधुराके उल्लेख विहित है। इलाहीमही जर स्तूणका जीर्णोदार साह टोडर द्वारा करानेका उक्लेख
मधुरा तो दिगम्बर
मोही . किन्तुषिय किया है। इससे वीं शताब्दी तक तो मथुराके स्वपोंका
मधुरा भी दिगंबर जैन संस्कृतिका रहा है। महासका समुदार दिगम्बर परम्पराकी भोरसे किया गया है।
वर्तमान मदुरा जिया ही र मधुरा कामाती। उस यात्रादिक साधारण लेखोंको कोष दिया गया है। इस
जिले में दि. जैन गुफाएं और प्राचीन मतियोंका अस्तित्व सब विवेचनसे स्पीकि मधुरा दिन समाजका पुरातन माज भी उसकी विशालताका बोतको। मदुराका पाया
बस ही मान्यतावस्थान था और वर्तमानमे भी है। राज्यवंशमी जैनधर्मका पाबहरहा। मुनि उदयकीर्तिने अपनी निर्वाण पूजामें मधुरामें
हरिषेणकथाकोशके अनुसार पायदेशमें दक्षिण स्तूपोका उस्लेख किया है
मथुरा मामका नगर था। जो धन धान्य और जिनायतनोंसे 'महुरारि बंदर पासनाह, धुम पंचसय ठिपंदराई।
मंडित था, वहां पाक्दुमामका राजा था और सुमति नामकी
उसकी पत्नी । वहाँ समस्त शास्त्र महातपस्वी प्राचार्य संवत् ११. में ब्रह्मचारी भगवतीदासके शिष्य पनि
मुनिगप्त थे। एकदिन मनोवेग नामके विचार मारने जिनदासनं अपने जंबूस्वामिचरित्रमें साहु पारसके पुत्र
* जैनमंदिर और उतभाचार्यकी भक्तिभावसहित बन्दना की। टोडर द्वारा मथुराके पास निसही बनानेका भी उल्लेख एकमाकपाकुमारने भावस्ति नगर जिनकी वन्दना किया है। और भी अनेक उल्लेख पत्र तत्र बिखरे पड़े हैं को जानेका उल्लेख किया। तब गुप्ताचार्यने कुमारसे कहा जिन्हें फिर किसी समय संकलित किया जायगा । कि तुम रेवती रानीसे मेरा मार्गीवाद कह देना। बस मत: नाहटाजीने माधुनिक तीर्थयात्रादिके सामान्य उल्लेखों विचार मारने रेवती रानीकी अनेक वरसे परीक्षा की परसे जो निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया, वह समुचित और बाद में प्राचार्य गुप्तका पाशीर्वाद कहा। इस सब
-- मनसे दोनों मधुरामोंसे निग्रंथ दिगम्बर सम्प्रदायका देखो, एपि ग्राफिका इंडिका भाग २.०५६। सम्बन्ध ही पुरातन रहा जान पलता है।
अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ
(परमानन्द जैन शास्त्री) [कुछ वर्ष हुए जब मुझे जैमशास्त्रमारोंका भारतीय भाषामों में अपनश भी एक साहित्यिक अन्वेषण कार्य करते हुए अपनश भाषाके कुछ अन्य मिले भाषा रही है। खोकमें उसकी प्रसिदिन कारव भाषा थे जिनका सामान्य परिचय पाठकोंको कानेके लिये मैने सौष्ठव और मधुरता है। उसमें प्राकृत और देशी भाषादो वर्ष पूर्व एकजविखा था, परन्तु पहले किसी के शब्दोका सम्मिश्रण होनेसे प्रान्तीय मापाक विकासमें अन्य कागजके साथ अन्यत्र रक्खा गया, जिससे वह अभी उमसे परत महायता मिली है। पर अपळशमापाका तक भी प्रकाशित नहीं हो सका । उसे तलाश भी किया पथ साहित्य ही देखने में मिलता पवाहित्य नहीं। गया परन्तु वह उस समय नहीं मिला किन्तु वह मुझे नदियोंने प्रायः पद्य साहित्यी सबिकी है। बपि कुछ नोट सके कागजोंको देखते हुए अब मिट गया। अतः दूसरे कवियोंने भी प्रबबिसी पर उनकी संख्या उसे इस किरणमें दिया जा रहा है।
अत्यन्त विरल है अपमान कितना ही प्राचीन
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२६४]
अनेकान्त
[किरण :
साहित्यमहोगया और कितना ही साहित्य बैक- वह उपलब्ध हो जाय। कविने से प्रन्यको भाषाढ़ शुक्ला शास्त्रमयबारों में अमीदमा पदालिसके प्रकाश में बाने. त्रयोदशीको प्रारम्भ करके चैत्र कृष्णा प्रयोदशीको. की खास मान वही कारन है कि अपनश महीने में समास किया है। इस प्रन्यकी एक प्रति जयपुर भाषाका अभी तक कोई प्रामाणिक इतिहास सध्यार नहीं में मैने सं० १२३६ की खिली हुई सन् ४५ के मई महीनेकिया जा सका। अस्तु इस बेबमें निम्न अन्योंका परि. में देखी थी, और डाक्टर हीरालालजी एम.ए.टी.
यरिया जाता है जो विद्वानोंबीरहिमे अभी तक मोमल बिटको इस प्रस्थकी एक प्रति सं. 11. में प्राप्त हई थे। उनके नाम इस प्रकार है-मिलाहचरित समय- पी। सम्भव भन्य प्रथमवहारोंमें इससे भी प्राचीन देव सम्भववाहचरिर और वरांगारिट कवि तेजपात प्रतियों उपलब्ध हो जायं। सुकमालचरिउके कर्ज मुनि पूर्णभद्र सिरिपाबचरिड और २. सम्भवणाहचरिउ सधके कर्ता कवि तेजजिनरतिक्या कर्ता कवि बरसेग, मिणाहरिर और
मोनिशान और पास हैं, मो काष्ठासंघान्तर्गत माथुराम्वयके महारक चन्दप्पहरिउके कर्ता कवि दामोदर, भाराहवासारके
सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, पशाकीर्ति मजयकीर्ति और गुबकर्वाकवि वीर।
भद्रकी परम्पराके विद्वान थे। यह महारक देहली, ग्वाधि
पर, सोनीपत और हिसार भादि स्थानों में रहे हैं। पर वह १.णेमियाहचरिउ स प्रन्यके गर्ता कवि सम
यह पह कहाँ था इस विषवमें प्रमी निश्चयतः कुछ नहीं परे है। इनका वंश पुरवार था और पिताका नाम रख
कहा जा सकता है, पर उक्त पटके स्थान वही है जिनका पा रलदेव था । इनकी जन्मभूमि मानवदेश मन्तर्गत
नामोल्लेख उपर किया गया है। कवि तेजपानने अपने गोगन्द नामक नगरमें बी, जहाँ पर अनेक उत्तुंग जिन- जीवन और माता-पितादिक तथा वंश एवं जाति प्रादिका मन्दिर और मै जिमाल भी था । वही पर कविने कोई समक्लेश नहीं किया। प्रस्तुत अन्धमें. सम्धियाँ पहले किसी व्याकरण प्रन्यका निर्माण किया था जो पुष- है जिनमें जैनियोंकि तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथजीका जीवन जों काठका पाभरण रूप , परन्तु वह कौनसा परिचय दिया हुआ है। इस प्रन्यकी रचना भादानक व्याकरण प्रन्य है, उसका कोई उल्लेख देखने में नहीं पाया देशके श्रीनगरमें दाउदशाहक राज्यकालमें की गई है।
और न अभी तक उसके अस्तित्वका पता हो चला है। श्रीप्रमनगरके अग्रवाल वंशीय मित्तलगोत्रीय साहू गोमन्द नगर कहाँ बसा था. इसके अस्तित्वका ठीक पता बलमदेवके चतुर्थ पुत्र थीवहा, जिनकी माताका नाम नहीं चलता; परन्तु इतना जरूर मालूम होता है कि यह महादेवी और प्रथमपतीका नाम की और नगरी उज्जैन और मेलमा मध्यवर्ती किसी स्थान पर दूसरी पत्नीका नाम पासारही या, जिससे त्रिभुवनपाल रही होगी। कवि सश्मण उसी गोमन्द नगरमें रहते थे, और रणमस नामके दो पुत्र उत्पाहुए थे। थीमहाके पाँच विषयों के लिए प्रोत्साह वंशके तिजक, तथा
भाई और भी थे, जिनके नाम बिसी, होल, दिवसी, 'रात दिन जिनवाणकरको पान किया करते थे। कवि मलिदास और कुन्थवास थे। ये सभी भाई और उनकी भाई अम्बदेव भी कषि थे, उन्होंने भी किसी अन्धकी संतान नकि उपासक थे। रचना की थी, उस प्रन्यका नाम, पारमाण मार रचना- बलमदेषके पितामह साह ने जिन विम्ब प्रतिष्ठा कालादिया था यह सब अन्वेषणीय।।
मी कराई थी. उन्हींकज धीवदाके अनुरोधसे कवि कविवर समयकी एकमात्र कृति 'येमियाहचरिट जपावने कसम्भवनावपरितकी रचना की।प्रन्यमें ही ससमय उपबन्धजिसमें वियोंके बाईस वी- रचनाकाबका कोई सालमही,महारकी नामावली रमीकृपके पचेरे भाई भयवान नेमिनायका जीवन- जो उपर दी गई है उनमें सबसे बम्सिम नाम महारक परिचय दिया गया है । इस प्रथमें • परिषद या गुबमका है, जो महारक मायकीर्तिके शिष्य थे, और संधिया है, जिसके खोकॉजीमाबुमाविक संख्या १. सं.१९..केबाद किसी समय पह पर प्रतिक्षित हुए थे,
है।यली मिस प्रशस्त्रिों का विवा म उनका सबब चिकमकी की सवादीका अन्तिम चरण मासम्मवीपम्पकी किसी अन्य प्राचीन प्रतिमें औरसोबाशवाणीका प्रारम्भिकबाम परवा।
मलिदास और कुन्थदासात दिवसी,
भी कवि थे, उन्होंने भी किसी
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अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ प्रन्थ
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इस ग्रन्थकी एक प्रति सं०५१ को लिखी हुई महारक शुभचन्द्र के शिष्य एवं पधर महारक जिमचन्द्र ऐबक पक्षाला दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ज्यावर समयमें लिखी गई है। भ. जिमचन्द्रका पहसमय सं.. मौजूद है. जिससे स्पष्ट है कि इस प्रग्यका रचनाकाल उक्त ११०. पहालियों में पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट जान सं० १९८३ सेवादका नहीं है यह सुनिश्चित है, किन्तु पड़ता है कि इस प्रन्यका निर्माण सं०५१से पूर्व हुमा वह उससे कितने पूर्वका है यह ऊपरके कबनसे स्पष्ट ही है. परन्तु पूर्व सीमा अभी अनिश्चित। प्रन्धमें दो है, अर्थात् यह अन्य संभवतः ११०० के पास पासकी सन्धियाँ हैं जिनमें श्रीपान नामक राजाका चरित्र और रचना है।
सिदचक्रवतके महत्वका दिग्दर्शन कराया गया है। इनकी दूसरी कृति 'वरांगचरि' है। यह अन्य इनकी दूसरी कृति 'जिनरत्तिविहाणकहा' नामकी है, नागौरके भहारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। उसमें जिसमें शिवरात्रिके ढंग पर 'वीरजिननिवाणरात्रिकथा' चार संधियाँ है। यह ग्रंथ इस समय सामने नहीं है, इस को जन्म दिया गया है और उसकी महत्ता घोषित की गई कारण उसके सम्बन्धमे अभी कुछ भी नहीं कहा है। यह एक छोटा सा खयह प्रन्थ है जो भट्टारक महेन्द्र जा सकता ।
कीर्तिके भामेर के भण्डारमें सुरक्षित है। ३ सुकमालचरिउ-इस थके कर्ता मुनि पूर्णभद्र हैं ५-६ णमिणाहचरिउ, चंदप्पहचरिउन दोनों को मुनि गुणभद्रके प्रशिध्य और कुसुमभद्रके शिष्य थे। यह अन्योंके कर्ता जिनदेवके मुत कवि दामोदर है। ये दोनोंही गुजरात देशके नागर मंडल' नामक नगरके निवासी थे। ग्रन्थ नागौर भयहार में सुरक्षित हैं,प्रन्थ सामने न होने से अन्यकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुनि पूर्णभद्र ने अपनी गुरु पर- इस समय इनका विशेष परिचय देना सम्भव नहीं है। म्पराका उल्लेख करते हुए निम्न मुनियोंके नाम दिये हैं। मल्लिनाथकाव्य-इस प्रन्थके कर्ता मूबसंघके वीरसूरि, मुनिभव, कुसुमभद्र, गुणभद्र, भोर पूर्णभद्र । भहारक प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और महारक पमनन्दिके शिष्य अन्यकर्ताने अपनेको शीलादिगुणोंसे प्रशंकृत और 'गुण- कवि जयमित्रहल या कवि हरिचन्द्र है जो सहदेवके पुत्र समुद्र' बतलाया है।
थे यह प्रन्थ अभीतक अपूर्ण है। भामेर भंडारने इसकी इनको एकमात्र कृति 'सुकमानचरित' है. जिसमें एक खण्डित प्रति प्राप्त हुई है। इस प्रन्थ प्रतिमें शुरुके भवन्तीके राजा सुकमालका जीवन परिचय छह सधियों चार पत्र नहीं है और अन्तिम १२२वो पत्र भी नहीं है। अबवा परिच्छेदोंमें दिया हुआ है जिससे मालूम होता है प्रन्धकी उपबन्ध प्रशस्तिमें उसका रचना काल भी दिया कि वे जितनं सुकोमल थे, परीपहों तथा उपसर्गाके जीतने
हमा नहीं है जिससे कवि हरिचन्द्रका समय निश्चित किया में उतने ही कठोर एवं गम्भीर थे और उपसर्गादिक मष्टोंके जा सके । यह ग्रंथ पुहम (पृथ्वी) देशके राजाके राज्यों सहन करनेमे दर थे। प्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया भाल्हासाहुके अनुरोधस बनाया गया था। भारतासाहुके, हुमा नहीं है जिससे निश्चियत: यह कहना कठिन है कि पुत्र थे जिन्होंने इस ग्रंथको लिखाकर प्रसिद्ध किया है। यह ग्रंथ कब बना? आमेर भण्डारकी इस प्रतिमें लेखक इनको दूसरी कृति 'वतमायकम्य अथवा श्रेणिक पुष्पिका वाक्य नहीं है किन्तु देहली पंचायती मन्दिरकी चरित है। यह प्रन्य सन्धियामें पूर्ण हुमा है जिसमें प्रति सं. १६३२ की लिखी हुई और इसकी पत्र संख्या नियोंके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और तत्कालीन मगध४५ है। जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ सं० १५१२ से पूर्व देशके सम्राट लिम्पसार या श्रेणिकका चरित वर्णन किया की रचना है कितने पर्व को यह अभी भम्बेषणीय है। गया है। इस प्रन्धको देवरायके पुत्र संचाधिप होविवम्मु'
४सिरिपाल चरिउ-इस ग्रन्थके कर्ता कवि नरसेन के अनुरोधसे बनाया गया है और उन्होंके कर्याभरण है कविने इस प्रथमें अपना कार्य परिचय नहीं दिया किया गया है। समयको कई पतिवाकई शारत्र और न ग्रन्थका रचनाकार ही दिया है, जिससे उस पर भंडारोंमें पाई जाती हैं। इस ग्रंथों मी रचनाकन दिया विचार किया जा सकता । इस प्रन्यकी एक प्रति संवर हुमा नहीं है। यह प्रति जैन सिद्धान्त भवन भाराकी है ११२वदि। मंगलवारका रावर पत्तनके राजाधि- संवत् ११.. की लिखी हुई है जिससे इस प्रन्यकी उत्तरा राजरंगरसिंहके राज्यकालमें बलात्कारगण सरस्वति गणके बधि तो निश्चिम कि यह ६..से पूर्व रचा गया है।
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अनेकान्त
[किरण
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कन्यककि गुरु मशरक पचनन्दि हैं जो महारक राजस्थानमें प्राप्त हुई है। इस सब विवेचनसे स्पष्ट है प्रमाचन्द्र के पट्टधर थे जैसा कि 'मल्लिनाथचरिड' की कि उक्त दोनों के कर्ता कवि हरिचन्द वा जमित्रहल विक्रमअन्तिम प्रशस्तिक निम्न वाक्यसे प्रकट है जिसमें पन- की १५वीं शताब्दीके प्रारम्भिक विद्वान है। मन्दिको प्रभाचन्दके पट्टधर होनेका स्पष्ट उल्लेख है-
आराधनासार-स प्रन्यके कर्ता कवि वीर हैं ये मुखि पहचंद पट्ट सुपहावया, पउमणंदिगुरु विरिय उपावण। कर हुए हैं और उनकी गुरु परम्परा क्या? यह प्रन्य जिनका समय विक्रमको ७वीं शताब्दीका अन्तिम चरण परसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता। यह पीर कवि 'जम्बस्वा
और वीं शताब्दीका प्रारम्भिक समय है क्योंकि पहा- मी चरित' के कर्तासे संभवतः भिम जान पड़ते हैं जिसका बखियोंमें पानन्दीके गुरु प्रभाचन्दके पट्ट पर प्रतिष्ठित रचनाकाल विक्रम संवत् १०७६ है प्रस्तुत प्रम्पमें दर्शन समय संवत् १५७९ बनाया गया है।
ज्ञान, चारित्र, और तप रूप चार माराधनामोंका स्वरूप पानन्दी मूबसंघ, नन्दिसंघ,बलात्कारगद और सर२० करवकोंमें बतलाया गया है। जो भामेर भंडारके एक स्वती गच्छके विद्वान थे। यह उस समयके अत्यन्त प्रभाव बड़े गुटके में पत्र ३३३ से ३३% तक दिया हुमा है। शासी विद्वान भहारक थे। इनकी कई कृतियाँ उपलब्ध इन प्रन्थोंके अतिरिक्त और भी अनेक ग्रन्थ अपनशहा है। जिनमें पदमन्दिचावकाचार प्रमुख है, दूसरी भाषाके रासा अथवा 'रास' नामसे सूचियोंमें दर्ज मिलते कृति 'भावन पद्धति' जिसका दूसरा नाम 'भावनाचतुस्त्रिं- है, परन्त उनके अवलोकनका अवसर न मिलनेसं यहाँ परिएतिका'तीसरी कृति वर्धमान चरित' है जो संवत् ११२२ चय नही दिया जा सका। फागुण सुदि सप्तमीका लिखा हुआ है और गोपीपुरा दोहानुप्रेक्षा-इस अनुप्रेक्षा प्रन्यके कर्ता अन्य सरतके शास्त्रमंडारमें सुरक्षित है। इनके सिवाय 'जीरा- प्रतिमें लचमीचन्द्र बतलाए गये हैं. परन्तु उनकी गुरु परपछी 'पारवनाथ स्तवन' और अनेक स्तवन, पद्मनन्दि म्पराका कोई परिजन नहीं हो सका । प्रन्थमें ४७ दोहे हैं मुनिके द्वारा बनाए हुए उपलब्ध हुए हैं। इनके अनेक जिनमें १२ भावनामोंके अतिरिक्त अध्यात्मका संक्षिप्त वर्णन शिष्य थे. जिनमें अनेक शिव्य तो बड़े कवि और अन्य कर्ता दिया हुआ है। यह ग्रंथ अनेकान्तकी इसी किरणाम अन्यत्र हुये हैं। जिनमें म. सकलकीर्ति और भ.शुभचन्द्र के नाम दिया जा रहा है। उस्लेखनीय है। इनके एक शिष्य विशासकीर्ति भी थे दिगम्बर शास्त्रभयारों में अभी सहस्त्रों प्रन्थ पढ़े जिनके द्वारा सं० १४७० में प्रतिष्ठित २६ मूर्तियाँ टोंक हए है जिनके देखने या नोट करनेका कोई अवसर ही नहीं x भीमप्रसाचन्दमुनीद्रपट्टे शश्वप्रतिष्ठा प्रतिभा गरिष्टः। पाया है। जैन समाजका इस ओर कोई सय भी नहीं विश्वसिद्धान्तरहस्यरस्नरत्नाकरी नन्दतु पद्मनन्दो है। खेद है कि इस उपेचा मावसे अनेक बहुमूल्य कृतियाँ
-विजोखिया शिलालेख नष्ट हा गई हैं और हो रही हैं। क्या सम जके साधर्मी इसो ज्ञानमराखिका समसमाश्वेषप्रभूताभुता
भाईब भी अपनी उस गाढ निद्राको दर करनेका बस्न न कोडति मानसेति विशदे यस्यानिशं सर्वतः। स्वादादाससिन्धुवर्धनविधौधीमध्यमे दुधमार,
-सरसावा (सहारनपुर),ता. १२-12-1 पर सूरिमछिका स जपतात् श्रीपद्मनन्दीमुनिः ॥
संवत् ११०० ज्येष्ट सुदि, गुरौ श्रीमूलसंधे महाबतपुरन्दरामदग्ध रागाः ।
गुणे (गच्छे) लोकगण उद्धारक श्री प्रभाचन्द्रदेवः (तद) स्फुरत्परमपौरुषःस्थितिरशेषशास्त्राषित् । पई पदमनम्ति देवाः शिष्यः वशालकीर्तिदेवः तयोरुपदेशेन यशोभरमनोहरी कृतसमस्तविश्वम्भरः,
महासंघ खंडेलवाल गंगवाल गोत्रस्य खेता भार्या खिवापरोपकृतितत्परो अयति पद्मनन्दीश्वरः॥
सिरी यो पुत्र धर्मा भार्या जल यो पुत्रत्रयःसा. भोजा, -शुभचन्द्र गुर्वावती राजा, देदूमयमंति[नित्यम् ।
करेंगे।
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संस्कृत साहित्य के विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोग
(डा० मंगलदेव शास्त्री, एम. ए., पी. एच. डी. )
भारतीय विचारधाराकी समुन्नति और विकास में अन्य आचार्योंके समान जैन श्राचार्यों तथा ग्रन्थकारोंका जो बड़ा हाथ रहा है उससे आजकलकी विद्वानमंडली साधारणतया परिचित नहीं है। इस लेखका उद्देश्य यही है कि उक्त विचार धाराकी समृद्धि में जो जैन विद्वानोंने सहयोग दिया है उसका कुछ दिग्दर्शन कराया जाय जैन विद्वानोंने प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती हिन्दी, राजस्थानी, ते जगु, तामिल आदि भाषाओंके साहित्यकी तरह संस्कृत भाषा के साहित्य की समृद्धि में बड़ा भाग लिया है। सिद्धान्त, आगम, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, चम्पू, ज्योतिष भावुर्वेद, कोष, अलंकार, छन्द. गणित, राजनीति, सुभाfer आदि क्षेत्र में जैन लेखकोंकी मूल्यवान संस्कृत रचनाएँ उपलब्ध हैं। इस प्रकार खोज करने पर जैन संस्कृत साहित्य विशालरूपमें हमारे सामने उपस्थित होता है । उस विशाल साहित्यका पूर्णं परिचय कराना इस अल्पकाय लेखमें संभव नहीं है। यहाँ हम केवल उन जैन रचनाओंकी सूचना देना चाहते हैं जो महत्वपूर्ण हैं। जैन सैद्धान्तिक तथा घारं भिक ग्रन्थोंकी चर्चा हम जानबूझकर छोड़ रहे हैं। जैन न्याय
जैन के मौलिक तत्वोंको परल और सुबोधरीतिले प्रतिपादन करने वाले मुख्यतया दो ग्रन्थ हैं। प्रथम अभि नव धर्म भूषणयति-विरचित न्यायदीपिका दूसरा माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख, न्यायदीपिकामें नमाण और नयका बहुत ही स्पष्ट और व्यवस्थित विवेचन किया गया है। यह एक प्रकरणात्मक संक्षिप्त रचना है जो तीन प्रकाशमें समाप्त हुई है ।
गौतमके न्यायसूत्र' और दिग्नागके 'म्यायप्रवेश' की are माणिक्यनन्दिका 'परीक्षामुख' जैन न्यायका सर्व प्रथम सूत्र ग्रंथ है। यह छः परिच्छेदोंमें विभक्त है और समस्तसूत्र संख्या २०७ है। यह नवमी शतीकी रचना हूँ और इतनी महत्वपूर्ण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंने इसपर अनेक विशालटीकाएँ लिखी हैं प्राचार्य प्रभाचन्द्र [७८०१०६५ ई०] ने इस पर' बारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमक्षमा' नामक विस्तृत टीका बिली है ।
१२वीं शती अघुनन्तवीर्थने इसी प्रन्थ पर एक 'प्रयरत्नमाला' नामक विस्तृत टीका लिखी है। इसकी रचनाशैली इतनी विशद और प्राब्जल है और इसमें बत किया गया प्रमेय इतने महत्वका है कि आचार्य हेमचन्ने अनेक स्थलोंपर अपनी 'प्रमाणमीमांसा' में इसका शब्दशः और अर्थश: धनुकरण किया है। लघु अनन्तवीर्यमे तो माणिक्यनन्दीके/परीक्षामुखको प्रकखडके वचनरूपी समुद्रके मन्थन से उद्भूत न्यायविद्यामृतः बतलाया है
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उपर्युक दो मौलिक ग्रन्थोंके अतिरिक्त अन्य प्रमुख म्य यथोंका परिचय देना भी यहाँ अप्रासंगिक म होगा। अनेकान्तवादको व्यवस्थित करने का सर्वप्रथम श्रम स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शदी ई०) और सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है स्वामी समन्तभद्रकी
मीमांसा और युक्त्यनुशासन महत्व पूर्ण कृतियां हैं। प्राप्त मीमांसा में एकान्तवादियोंके मन्तब्योंकी गम्भ आलोचना करते हुए प्राप्तकी मीमांसा की गई है और युक्तियोंके साथ स्वाद्वाद सिद्धान्तकी व्याख्या की गई है। इसके ऊपर भट्टाकलंक (६२०-६८० ई०) का अष्टती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानंद (हवीं श. ई०) का 'अष्टसहस्री' नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी (देवागम वृत्ति) नामक टीका प्राप्य है । युक्त्यनुशासन में जैन शासनकी निर्दोषता सयुक्तिक सिद्ध की गई है। इसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर द्वारा अपनी स्तुति प्रधान बसीसियोंमें और महत्वपूर्ण सम्मतितर्कभाष्य में बहुतही स्पष्ट रीतिसे तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादका स्वाद्वाद सिद्धातके साथ किया गया समन्वय दिखलाई देता है।
महाकादेव जैन न्यायके प्रस्थापक माने जाते हैं और इनके पश्चाद्भावी समस्त जैनतार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्याय मार्गका अनुसरण करते हुए ही दृष्टि चर होते हैं। इनकी अष्टशती, न्यायविनिश्वय सिद्धिविनिश्चय लघीय और प्रमाणसंग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाएँ हैं। इनकी समस्तरचनाएँ जटिल और दुर्योध
१. 'अकलङ्कवचोऽम्भोषेरुद्ध मेन धीमता ।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥' 'प्रमेयरत्नमाला' पु० २
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अनेकान्त
[किरण
है। परन्तु वे इतनी गम्भीर है कि उनमें 'गागरमें सागर' प्रस्तुत जैन व्याकरणके दो प्रकारके सूत्र पाठ पाये की तरह पदे-पदे जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान भरा पडा। जाते हैं। प्रथम सत्रपाठके दर्शन उपरि लिखित चार
पाठवीं शतीके विद्वान भाचार्य हरिभद्रकी 'अनेकांत टीकाग्रंथों में होते हैं और दूसरे सूत्रपाठके शब्दावचन्द्रिका अबपताका' व्या षट् दर्शन समुच्चय मूल्यवान और सार- तथ शब्दार्शवप्रक्रियामें । पहले पाठमें १०..सत्र है। पूर्ण कृतियाँ हैं। ईसाकी नवों शतीके प्रकाण्ड प्राचार्य यह सूत्रपाठ पाणिनीयकी सूत्र पद्धतिके समान है। इसे विद्यानन्दके अष्टसहस्त्री, प्रामपरीक्षा और तत्वार्यश्लोक- सर्वाङ्ग सम्पन्न बनानेकी रष्टिसे महावृत्ति में अनेक वातिक बार्तिक, मादि रचनामों में भी एक विशाल किन्तु पालो- और उपसंख्याओंका निवेश किया गया है। दूसरे सूत्रपाठबना पूर्ण विचारराशि बिखरी हई दिखलाई देती। में ३७०० सूत्र हैं। पहले सूत्रपाठकी अपेक्षा इसमें ... इनकी प्रमाणपरीक्षा मामक रचनामें विभिन प्रामाणिक सूत्र अधिक हैं और इसी कारण इसमें एक भी वार्तिक मान्यवानोंकी मालोचना की गई है और प्रकसम्मत आदिका उपयोग नहीं हुआ है। इस संशोधित और प्रमाणोंका सयुक्तिक समर्थन किया गया है। सुप्रसिद्ध परिवद्धित संस्करणका नाम शब्दाव। इसके कर्ता वार्षिक प्रमाचन्द्र आचार्यने अपने दीर्घकाय प्रमेयकमल गुणनन्दि (वि०१. श.) प्राचार्य है। शब्दाव पर मार्तड और न्यायकमन में जैन प्रमाण शास्त्रसे भी दो टीकाएं उपलब्ब -(१) शब्दाणवचन्द्रिका सम्बन्धित समस्त विषयोंकी विस्तृत और व्यवस्थित विवे और (२) शब्दार्णव प्रक्रिया। शब्दाणवचन्द्रिका मामदेव चना की तथा ग्यारवीं शताके विद्वान अभय देवने मुनिने वि० सं० १२६२ में लिख कर समाप्त की है और सिद्धसेन दिवाकर कृत सन्मतितर्ककी टीकाके व्याजसे शब्दार्णवप्रक्रियाकार भी बारवीर शती चारुकीर्ति समस्त दार्शनिक वादोंका संग्रह किया है। बारवीं शतीके पपिहनाचार्य अनुमानित किये गये हैं। विद्वान् वादी देवराज सूरिका स्याद्वादरलाकर भी एक महाराज प्रमोघवर्ष . प्रथम ) के समकालीन शाकमहत्वपूर्ण प्रन्य है। तथा कलिकाल सबज्ञ पाचहेम टायन या पाल्यकीर्तिका शाकटायन (शब्दानुशासन) चन्द्रको प्रमाणमीमांसा भी जैन न्यायकी एक अनठी व्याकरण भी महत्वपूर्ण रचना है। प्रस्तुत व्याकरण पर रचना है।
निम्नाङ्कित मात टोकाएं उपलब्ध हैउक रचनाएनन्य न्यायकी शैक्षीसे एकरम अस्पष्ट
) अमोधवृत्ति-शाकटायनके शब्दानुशासन पर हॉ. विमलदायको समभंगतरंगियी और वाचक यशो- स्वयं सूत्रकार द्वारा लिखी गयी यह सर्वा धक विस्तृत विजयजी द्वारा निखित अनेकाम्तव्यवस्था शाम्बवार्ता- और महत्वपूर्ण टीका है। राष्ट्रकूट मरेश प्रमोषवर्षको समुषय तथा प्रष्टसहनीको टीका अवश्य ही नन्य म्यायकी बक्यमें रखते हुए ही इसका उक नामकरण किया गया शेल मे लिखित प्रतीत होती है।
प्रतीत होता है (२) शाकटायनम्यास अमोषवृत्ति पर व्याकरण-पाचार्य पूज्यपाद (विपी श.)का प्रमाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित यह बास इसके केवल 'जैमेन्द्रग्याकरण' सर्वप्रथम जैनण्याकरण माना जाता है। दो अध्याय ही उपलब्ध है। (३)चिंतामाण का महाकवि धनम्जय (6वीं शती) ने इसे अपविमरन (जघीयसीवृत्ति) इसके रचयिता यचवर्मा और प्रमोषबतलाया है। इस प्रन्य पर निम्नलिखित टीकाएँ वृत्तिको संचित करके ही इसकी रचना की गयी है। उपलब्ध है:
(१) मणिप्रकाशिका -इसके कर्ता अजितसेनाचार्य है। (१) अभयनन्दिकृत महावृत्ति (२) प्रभाचन्द्रकृत
(१) प्रक्रियासंग्रह-भट्ठोजीदीक्षितकी सिद्धांतकौमुदीकी
(१) प्रक्रिय शब्दाम्भोजभास्कर प्राचार्य श्रतकीर्तिकर पंचव- पति पर लिखी गयी यह एक प्रक्रिया टीका है. इसके प्रक्रिया, (५)पं० महाचन्द्रात बघुजैनेन्द्र ।
कर्ता अभयचन्द्र प्राचार्य है। (१) शाकटायन टीका१ प्रमाणमकबरस्य पूज्यपादस्य जपणं ।
२जैन साहित्य और इतिहास ( पं. नाथूराम प्रेमी) धनजयको काम्यं रनवषमपश्चिमम् ।
का 'देवनम्दि और ' उनका जैनेन्द्रग्याकरण' -धर्मजयनाममाता
शीर्षक निवन्ध
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किरण )
संस्कृत-साहित्यके विकास में जैन विद्वानोंका सहयोग
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भावसेना विधदेवने इसकी रचना की है यह कातन्त्र उस्लेखनीय नाटक है। भादिके दो नाटक महाभारतीय रूपमाला टीकाके भो रचयिता है।) रूपसिदि-ब-कथाके माधारपर रचे गये है और उत्तरके दो रामकथाके कोमुदीके समान यह एक पकाय टीका है। इसके पर्वा बाधारपर । हेमचन्द्र प्राचार्य शिव्य रामचन्द्ररिक दयापाव वि. वीं श.) मुनि हैं।
अनेक नाटक उपलब्ध है जिसमें मलविवार, सत्यहरिचंद्र, प्राचार्य हेमचन्द्रका सिद्धहेम शब्दानुशासन भी महत्व कौमुदी मित्रानंद, राघवाम्युदय, निर्भयभीमण्यायोग पूर्व रचना है। यह इतनी भाकर्षक रचना रही है कि इस- आदि नाटक बहुत ही प्रसिद्ध हैं। के माधार पर तैयार किये गये अनेक व्याकरण अन्य उप- श्रीकृष्णमिश्रके 'प्रबोधचंद्रोदय' की परतिपर रुपकालब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन व्याकरण त्मक ( Allegorical) शैलीमें लिखा गया यशपाल ग्रंय जैनाचार्योंने लिखे है और अनेक जैनेतर व्याकरण (१५वीं शती.) का 'मोहराज पराजय' एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टोका भी लिखी है। पूज्यपादने पा नाटक है। इसी शैली में लिखे गये वादिचन्द्रसारकृत सनीय व्याकरण पर शब्दावतार' नामक एक न्यास लिखा ज्ञानसूर्योदय तथा यशश्चंद्रकृत मुदितकुमुदचंद्र प्रसाम्प्रथा जो सम्प्रति अप्राप्य है। और जैनाचार्यों द्वारा सारस्वत दायिक नाटक हैं। इनके अतिरिक्त जयसिंहका हम्मीरमद. व्याकरण पर लिखित विभिन्न बीस टीकाएं आज भी उप- मर्दन नामक एक ऐतिहासिक नाटक भी उपलब्ध है।
काव्यशर्ववर्मका कातंत्रव्याकरण भी एक सुबोध और संक्षिप्त जैन काव्य-साहित्य भी अपने दंगका निराला है। व्याकरणतया इस पर भी विभिन्न चौदह टीकाएँ प्राप्य
काव्य साहित्यसे हमारा प्राशय गय काम्य, महा काव्य,
चरित्रकाव्य, चम्पकाव्य, चित्रकाव्य और दूतकाव्योंसे है। अलङ्कार
गद्यकाव्यमें तिलकमंजरी (१७.ई.) और घोडयदेव मलक्कार विषय में भी जैनाचायौंकी महत्वपूर्ण रचनाएं (वादीभसिंह "वीं सदी) को गधचिन्तामणि महाकवि उपलब्ध हैं। हेमचन्द्र और वाग्भटके काव्यानुशासन तथा बाणकृत कादम्बरीके जोपकी रचनाएँ हैं। बाग्भटका वाग्भटालंकार महत्वकी रचनाएँ हैं जिनसेन महाकाव्यमें हरिचंद्रका धर्मशर्माभ्युदय, वीरनन्दिका माचार्यकी अलंकार चिन्तामणि और अमरचन्दकी काव्य- चन्द्रप्रभचरित अभयदेवका जयन्तविजय, अईहासका करूपता बहुत ही सफल रचनाय हैं। . मुनिसुव्रत काव्य, वन्दिराजका पार्श्वनाथचरिख वाग्भटका
जैनेतर अलंकार शास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी तिपय नेमिनिर्वाणकाव्य मुनिचन्दका शान्तिनाथचरित और टीकाएँ पायी जाती हैं। काव्यप्रकाशके ऊपर भानुचन्द्रगहि महामनका प्रयुम्नचरित्र, भादि उत्कृष्ट कोटिके महाकाव्य जयनन्दिसूरि और यशोविजयगणि (तपागच्छ की टीकाए तथा काव्य है। चरित्र काव्यमें जटासिंहननिका बर:उपलब्ध हैं। इसके सिवा, दरडीके काव्य दश पर त्रिभुवन चरित, रायमल्लका जम्बूस्वामीचरित्र, असग कविका चद्रकृत टीका पायी जाती है और हटके काव्यासकार महावीर चरित, भादि उत्तम चरित काम्य माने जाते है। पर नमिसाधु (१२५ वि०सं०) के टिप्पण भी सारपूर्ण है। चम्पू काव्यमें प्राचार्य सोमदेवका यस्तिबकाम्पू नाटक
(वि. १.१६)बहुत ही ख्याति प्राप्त रचना है। अनेक नाटकीय साहित्यसजनमें भी जैन साहित्यकारोंने विद्वानोंके विचारमें उपलब्ध संस्कृत साहित्य में इसके और अपनी प्रतिभाका उपयोग किया है । उभय-भाषा-कवि- का एकमा
का एकभी चम्पू काम्य नहीं है। हरिश्चन्द्र महाकविका चक्रवर्ति इस्तिमक्स (18वीं श). विक्रांतकौरव, जीवन्धरचम्पू तथा महासका पुरुदेवचम्प (१३वीं शती) जयकुमार सुलोचना) सुभद्राहरण और अंजनापवनंजय भी उच्च कोटिकी रचनाएं हैं। चित्रकाम्यमें महाकष
धनंजय (८वीं श०)का द्विसन्धान शान्तिराजका पचजिनरत्वकोश (भ.मों.रि..पूना)
संधान, हेमचन्द तथा मेषविजयगबीके सप्तसम्यान, * जिनरलकोट (मो रि..., पा)। जगनाथ (१६॥ वि०सं०)का चर्दियति सम्मान तथा
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३००]
अनेकान्त
जिनसेनाचार्यका पार्श्वभ्युदय उत्तम कोटिक चित्र काम्य है। का यथेष्ट कौशल प्रदर्शित किया है । अमरसिंहगणीकृत
काध्यमें मेघदूतकी पद्धति पर लिखे गये वादि. अमरकोष संस्कृत समाजमें सर्वोपयोगी और सर्वोत्तम चन्द्रका पवनदूत, चारित्र सुन्दरका शीसदव, विनयप्रभा कोष माना जाता है। उसका पठन-पाठनमी मम्योपोंकी चन्द्रदूत. विक्रमका नेमिदत और जयतिलकसूरिका धर्मदूत अपेक्षा सर्वाधिक रूपमें प्रचलित है । धनञ्जयकृत धनावउल्लेखनीय दूत-काव्य है।
नाममाला दो सौ रखाकोंकी अल्पकाय रचना होने परभी इनके अतिरिक्त चन्द्रप्रभसूरिका प्रभावक चरित, बहुत ही उपयोगी है। प्राथमिक कक्षाके विद्यार्थियों के लिये मेहतुमकृत प्रबन्ध चिन्तामणि (१३०६ई.) राजशेखर जैन समाज में इसका खूब प्रचलन है। का प्रबन्ध कोष (१३४२ ई.)भादि प्रबम्बकाम्य ऐति
अमरकोषकी टीका (व्याख्यासुधाख्या)की तरह
इस पर भी अमरकीर्तिका एक भाष्य उपलब्ध है। इस हासिक रस्टिसे बदेही महत्व पूर्ण है।
प्रसममें प्राचार्य हेमचन्द्रविरचित अभिधानचिन्तामणि छन्दशास्त्र
नाममाला एक उल्लेखनीय कोशकृति है। श्रीधरसेनका बन्द शास्त्र पर भी जैन विद्वानोंकी मूल्यवान रचनाएँ विश्वलोचनकोष, जिसका अपर नाम मुक्तावली है एक उपसाप जयकीति ( R)का स्वोपज्ञ छन्दोऽनु- विशिष्ट और अपने ढंगकी अनूठी रचना है। इसमें ककाशासन तथा प्राचार्य हेमचन्द्रका स्वोपक्ष बन्दोऽनुशासन रातादि व्यंजनोंके कमसे शब्दोंकी संकलना की गयी है महत्वकी रचनाएं हैं। जयकीर्तिने अपने छन्दोऽनुशासनके जो एकदम नवीन है। मतमें लिखा है कि उन्होंने मापडण्य, पिनल, जनाश्रय, मन्त्रशास्त्रशैतव, श्रीपूज्यपाद और जयदेव भाविक छन्दशास्त्रोंके मन्त्रशास्त्र पर भी न रचनाएं उपलब्ध है। विक्रमसाधारपर अपने बन्दोऽनुशासनकी रचना की है। वाग्भट- की। वीं शतीके अन्त और बारवींके आदिके विद्वान काबन्दोऽनुशासन भी इसी कोटिकी रचना है और इस मलिषेणका 'भैरवपद्मावतिकल्प, सरस्वनीमन्त्रकल्प और पर इनकी स्वोपज्ञ का भी है। राजशेखरसूरि ज्वालामालिनीकल्प महत्वपूर्ण रचनाएं है। भैरव पनावति( वि.)का बन्दाशेखर और रत्नमंजूषा भी उल्लेख- कल्पमें। मन्त्रीखण, सकलीकरण, देव्यर्चन, द्वादशनीय रचनाएं हैं।
रंजिकामन्त्रोदार, क्रोधादिस्तम्भन, अङ्गनाकर्षण, वशीइसके अतिरिक्त जैनेतर छन्दः शास्त्र पर भी जैना
करणयन्त्र, निमित्तषशीकरणतन्त्र और गाहामन्त्र नामक
दस अधिकार है तथा इस पर बन्धुषेयका एक संस्कृत चार्योंकी टीकाएं पायी जाती है। केदारभट्टके वृत्तरत्ना
विवरण भी उपलब्ध है। ज्वालामालिनी काप नामक कर पर सोमचन्द्रगणी, महंसगणी, समयसुन्दरउपाध्याय, मासा और मेहसुन्दर भादिकी टीकायें उपलब्ध
एक अन्य रचना इन्द्रनन्दिको भी उपलब्ध है जो शक
सं. 1 में माम्यखेटमें रची गयी थी। विधानुवाद हैं। इसी प्रकार कालिदासके अ तबोध पर भी हर्षकीर्ति, और कातिविजयगणीकी टीकाएँ प्राप्य हैं। संस्कृत भाषा
मा वियानुशासन नामक एक और भी महत्वपूर्ण रचना है
जो २४ अध्यायों में विभक है। वह मलिषणाचार्यकी कृति केन्द-शास्त्रोंके सिवा प्राकृत और अपनश भाषाके छंद
बतखायी जाती है परन्तु अन्तः परीक्षबसे प्रतीत होता है शास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी महत्वपूर्ण टीकाएं उप
कि इसे मलिषेणके किसी उत्तरवर्ति विद्वानने प्रथित किया
है। इनके अतिरिक्त इस्तिमल्लका विद्यानुवादास तथा कोश
भक्तामरस्तोत्र मन्त्र भी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। कोशके क्षेत्रमें भी जैन साहित्यकारोंने अपनी लेखनी- -
इस ग्रन्थको श्री साराभाई मविवान नवाब (1) मारम-पिंगल-जमाश्रय सैतवाल्य,
अहमदाबादने सरस्वतीकाप तथा भनेक परिशिहोंश्रीपज्यपाद-जयदेवबुधादिकाना।
में गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित किया है। पदासि बीच विविधानपि, सत्प्रयोगान् ,
२ जैन साहित्य और इतिहास (श्री पं० माथूरामबन्दोनुशासबमिदं जबकीर्तिनोकम् ॥
बीममी).
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P
संस्कृत-साहित्य के विकासमें जंन विद्वानोंका सहयोग
किरण 2 ]
सुभाषित और राजनीति -
सुभाषित और राजनीति से सम्बंधित साहित्यके सृजनमें जैन लेखकोंने पर्याप्त योगदान किया है। इस प्रसंगमें आचार्य अमितगतिका सुभाषित रत्नसन्दोह (१०५० वि० ) एक सुन्दर रचना है इसमें सांसारिकविषयनिराकरण, मायाकारनिराकरण इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोषविचार, देवनिरूपण आदि बत्तीस प्रकरया हैं। प्रत्येक प्रकरण बीस बीस, पचीस पच्चीस पद्योंमें समाप्त हुआ है । सोमप्रभ की सूक्तिमुक्तावली. सकलकीर्तिकी सुभाषिता reat आचार्य शुभचन्द्रका शानार्थव, हेमचन्द्राचार्यका योग शास्त्र wife उच्च कोटिके सुभाषित प्रन्थ हैं। इनमें से 'अन्तिम दोनों ग्रन्थों में योगशा त्रका महत्वपूर्ण निरूपण है।
राजनीतिम सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है । सोमदेवसूरिने अपने समय में उपलब्ध होने वाले समस्त राजनैतिक और अर्थशास्त्रीय साहित्यका मन्थन करके इस सारवत् नीतिवाक्यामृतका सृजन किया है । अतः यह रचना अपने ढंगकी मौलिक और मूल्यवान है।
आयुर्वेद
आयुर्वेदके सम्बन्धमें भी कुछ जैन रचानाएं उपलब्ध हैं । उग्रादित्यका कक्ष्यायकारक, पूज्यपादवेधसार अच्छी रचनाएँ हैं। पण्डितप्रवर श्राशावर ( १३ वीं सदी) ने बाम्भट्ट या चरक संहितापर एक भ्रष्टाङ्ग हृदयोद्योतिनी नामक टाका लिखी थी परन्तु सम्प्रति वह प्रमाप्य है । चामुण्डरायकृत नरचिकित्सा, मलिषेयकृत बालग्रह चिकित्सा, तथा सोमप्रभाचार्यका रसप्रयोग भी उपयोगी रचनाएं हैं।
कला और विज्ञान
जैनाचार्योंने वैज्ञानिक साहित्यके ऊपर भी अपनी लेखनी चलायी। हंसदेव ( १३ वीं सदी) का मृगपक्षी - शास्त्र एक उत्कृष्टकोटिकी रचना मालूम होती है । इसमें १०१२ पद्म हैं और इसकी एक पाय पत्रिवे
दमके राजकीय पुस्तकागारमें सुरक्षित है। इसके प्रति रिक चामुण्डरायकृत कूपजलज्ञान, वनस्पतिस्वरूप, विधानादि परीक्षाशास्त्र, धातुसार, धनुर्वेद रत्नपरीक्षा, विज्ञानार्थव भादि ग्रन्थ भी उल्लेसनीय वैज्ञानिक रचनाएं हैं।
३०१]
ज्योतिष, सामुद्रिक तथा स्वप्नशास्त्र
ज्योतिष शास्त्र के सम्बन्धमें जैनाचायोंकी महत्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध है। गणित और फलित दोनों भागोंके ऊपर ज्योतिग्रन्थ पाये जाते हैं। जैनाचायने गणित ज्योतिष सम्बन्धि विषयका प्रतिपादन करनेके लिये पाटीगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गोखीयरेखागणित, चापीय एवं वक्रीयत्रिकांयमिति, प्रतिभागणित, गोर्खात गणित, पंचांगनिर्माण गणित, जन्मपत्रनिर्माण गणित महयुति उदयास्तसम्बन्धी गणित एवं यन्त्रादिसाधनसम्बन्धितगणितका प्रतिपादन किया है।
जैन गणित के विकालका स्वर्णयुग छठवीं से बारवीं तक है। इस बीच अनेक महत्वपूर्ण गणित ग्रंथोंका प्रथन हुआ है। इसके पहलेकी कोई स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है । कतिपय श्रागमिक ग्रन्थोंमें अवश्य गणितसम्बन्धि कुछ बीजसूत्र जाते हैं।
सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति प्राकृतकी रचनायें होने पर भी जैन गायकी अस्यन्त महत्वपूर्ण तथा प्राचीन रचनाएं हैं। इनमें सूर्य और चन्द्रसे तथा इनके ग्रह, वारा महल आदि सम्बन्धित गणित तथा विद्वानोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । इनके अतिरिक्त महावीराचार्य (स्वी सदी) का गणितसारसंग्रह श्रीधरदेवका गणितश पत्र, हेमप्रभसूरिका त्रैवाक्यप्रकाश और सिंहतिलकसूरिका गणिततिलक आदि प्रम्थ सारगर्भित और उपयोगी है।
फलित ज्योतिषसे सम्बन्धित होराशास्त्र, संहिताशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र प्रश्नशास्त्र और स्वप्नशास्त्र आदि पर भी जैनचायने अपनी रचनाओंमें पर्याप्त प्रकाश डाला है और मौखिक प्रथ भी दिये है । इस प्रसंग में चन्द्रसेन मुनिका केवलज्ञान होरा दामनंदिके शिष्य भट्टवासरिका प्रायज्ञानतिलक चंद्रम्मीखनप्रश्न, भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र, अर्धकाण्ड, मुहूर्तदर्पण. जिनपाक्षगणीका स्वप्नचिंतामणि आदि उपयोगी ग्रन्थ 弯 1
जैसा ऊपर कहा गया है, इस लेख में संस्कृत साहित्यके विषयमें जैनविद्वानोंके मूल्यवान सहयोगका केवल दिग्दर्शन ही कराया गया है। संस्कृत साहित्यके प्र ेमियोंकी उन भादरणीय जैन विद्वानोंका कृतज्ञ ही होना चाहिए । हमारा यह कर्तव्य है कि हम हृदयसे इस महान् साहित्यसे परिचय प्राप्त करें और यथा सम्भव उसका संस्कृत समाजमें प्रचार करें । ( वय अभिनन्दन ग्रन्थले )
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दोहाणुपेहा
(कवि लक्ष्मीचंद )
पणविवि सिद्ध महारिसिहिं, जो परभावहं मुक्कु | परमाणंद परिठियड, चउ-गइ-गमरणहं चुक्कु ॥ १ ॥ जइ बीहउ च-इ-गमरण, तो जिउत्तु करेहि । दो दह रवेझ मुहि, लहु सिव-सुक्खु लहेहि ॥२॥ अय असर जिणु भणई, संसारु वि दुहखाणि । कवि तु मुणि, असुइ सरीरु वियाणि ॥३ सत्र संवर णिज्जर वि, लोया भावविसेसु । धम्मुवि दुल्लह बोहिजिय,, भावें गलइ किलेसु ||४|| जलबुब्बउ जोविउ चवलु, धरणु जोन्त्रण तडि-तुल्लु । इस वियाणि विमा गर्माहिं माणुस - जम्मु मुल्लु ||५|| जइ णिच्चु वि जाणियइ, तो परिहरहिं अणिच्चु ।
कोई किवि मुहिं, इम सुय केवलि वुत्तु ॥६ असर जाहिं सयलु जिय, जीवहं सरगु ण कोइ । दंसण-गाण-चरितमड, अप्पा अप्पर जोइ ॥ ७ दसरण - गाण-चरित्तमड अप्पा सर मुणेइ । असर विया तुहुँ जिणवरु एम भणेइ ||८|| तइ लोउ वि महु मरणु बुहु, हउं कहु सरण हु जाम । इम जाणे विणु थिरु रहइ, जो तइ लोयकु साम ॥६॥ पंच पयारह परिभमइ पंचह बंधिउ सोइ । जाम या अप्पु मुणेहि फुड, एम भांति हु जोइ ॥ १०॥ इल्लिउ गुणगरण निलड, बीयउ अस्थि र कोइ । मिस मोहियड, चउगइ हिंडई सोइ ||११ जसस सो लहइ, तो परभाव चएइ । इकिल सित्र - सुहु लहर, जिरणवरु एम भइ ||१२|| stry सरीरु मुणेहिं जिय, अप्पर केवल अणु । तो विसयलु त्रिचयहि, अप्पा अप्पर मरणु || ३ || जिम कहह उहह मुहिं वइसानरु फुड होइ । तिम कम्मह डहणहं भविय, अप्पा अणुक होइ ॥ १४ सत्त धाउमड पुग्गालु वि, किमि-कुलु-असुर निवासु । तर्हि गाडि किमहं करइ, जो खंडइ तव पामु ||१५||
सुइ सरीरु मुणेहिं जइ, अप्पा गिम्मलु जाणि । तो सुइ वि पुग्गनु चयर्हि, एम भरांति हु गाणि ॥ १६ ॥ जो स-सहाव च वि मुणि, परभावहिं परणे । सोस जाहि तुहुं, जिणवर एम भणेइ ||१७|
कोइ ।
श्रासउ संसारह मुहिं, कारण अणु इम जाणे विंणु जी तुहुँ, अप्पा अप्पर जो ॥१८ जो परियार अप्प परु, जो परभाव चएइ । सो संवर जाणे वि तुहुँ, जिरणवर एम भइ ॥ १६ ॥ जइ जिय संवरु तुहु करहि भो ! सिव सुक्खु लहेहिं । stry विसयलु परिचर्याहिं, जिरणवर एम भणेहिं ॥२०॥ सहजाद परिट्ठियडं, जे परभाव ण लिति । ते सुहु असुहु विणिज्जर हिं, जिरणवरु एम भांति ॥२१॥ स-सरीरु वितइलोउ मुणि, अणु ए बीयर कोइ । जहिं आधार परिट्ठियड, सो तुहुं अप्पा जोइ ॥ २२॥ सो दुल्लाह लाहु वि मुहिं, जो परमप्पय लाहु । try दुल्लह किंपि तुहुँ, पाणी बोलहिं साहु ॥ २३ पुणु पुणु अप्पा झाइयइ, मरण-वय- काय-ति-सुद्धि | राय रोस-वे परिहरि वि, जइ चाहहि सिव-सिद्धि ||२४|| राय-रोम-जो परिहरि वि, अप्पा अप्पा जोइ । जिणसामिउ एमइ भरणई, सहजि उपज्जइ सोइ ||२५|| जो जोइसो जोइयs, गु ण जोयहिं कोइ । इम जाणेविणु सम-रहं, सई पहुँ पइयउं होइ || ६ || को जोबइ को जोइयइ, अणु ण दीसइ कोइ । सो अखंड जिण उत्तियउ, एम भरणंतिहु जोइ ||२७ जो 'सुणु विसो सुरण माण, अप्पा सुरगुरण होइ । सल्लु सहावें रिहवई, एम भांति हु जोइ ॥ २८ परमाणंद परिट्ठियहिं, जो उपज्जइ कोइ । सोपा जोवितु, एम भणति हु जोइ ॥ २६॥ सुधु सहावें परिवइ, परभावहं जिरण उत्तु ।
सहावें सुवि, इम सुइ केवलि उत्तु ॥३०॥ अप्पसरूवहं लइ रहहि, खंडइ सयल-उपाधि भाई जाइ जोइहिं भरणउ, जीवह एह समाधि ॥३१॥ सोप्पा मुणि जीव तुहुं, केवलरणाण सहावु । भाइ जोई जोईहि जिउ, जइ चाहहि सिवलाहु ॥३ जोइय जोड निवारि, समरसताइ परिट्ठियउ । अप्पा अणु विचारि, भणई जोइहि भणिउ ॥३३ जोइ य जोयइ जीओ, जो जोइज्जइ सो जि तुहुं । अणु ण बीयर कोइ, भाई जोइ जोइहिं भणिउ ॥३४
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किरगण ]
दोहाणुपेहा
[३०३ सोहं सोहं जि हउँ, पुणु पुणु अप्पु मुणेइ । जो सुहु-असुहु विवज्जयउ, सुद्ध सचेयण भाउ । मोक्खहं कारणि जोइया, अण्णु म सो चितेइ ॥३५ । सो धम्मु वि जाणेहिं जिय, णाणी बोल्लहि साहु ॥४२॥ धम्मु मुणिजहि इक्कु पर, जइ चेयण परिणामु । घेयहं धारणु परिहरिउ, जासु पइट्टइ भाउ । अप्पा अप्पउ झाइयइ, सो सासय-सह-धामु ॥३६ सो कम्मेण हि बंधयई, जहिं भावइ तहिं जाउ ।।४३ ताई भूप विडवियो, णो इत्यहि (णिव्वाणु। सो दोहउ अप्पारण हो, अप्पा जो ण मुणेइ । तो न समीहहि तत्तु तुई, जो तइलोय-पहाणु ॥३७ सो झायंत हं परम पउ, जिणवरु एम भणेइ ॥४४ हत्य थ दुट्ठ जु देवलि, तहि सिव संतु मुणेइ । वउत्तउ-रिणयमु करत यहं जो ण मुणइ अप्पाणु। मूढा देवलि देउ णवि, भल्लउ काई भमेइ ॥३८ सो मिच्छादिहि हवइ बहु पावहि णिव्वाणु ।।४५ जो जाणइ ति जाणियउ, अण्णु ण म जाणइ कोइ। जो अप्पा णिम्मलु मुणइ, वय-तव-सील समाणु । घंधइ पडियउ सयल्लु जगु एम भणंति हु जोइ ॥३॥ सो कम्मक्खउ फुडु करइ, पावइ लहु णिव्वाणु ॥४६ जो जाणइ सो जाणियई यहु सिद्धतहं सारु । ए अणुवेहा जिण भणय, णाणी बोलहिं साहु । सो झाइजइ इक्कु पर, जो तइलोयह सारु ॥४०॥ ते ताविजहिं जीव तुहुँ, जइ चाहहि सिव-लाहु ॥४७॥ अज्झवसाण णिमित्तइण, जो बंधिज्जइ कम्मु । सो मुच्चिज्जइ तो जिपरु, जइ लब्भइ जिण धम्मु ।।४१
इति अणुवेहा
वीरसेवामन्दिरका नया प्रकाशन पाठकोंको यह जानकर अत्यन्त हर्ष होगा कि प्राचार्य पूज्यपादका 'समाधितन्त्र और । इष्टोपदेश' नामकी दोनों माध्यात्मिक कृतियों संस्कृतटीकाके साथ बहुत दिनोंसे अप्राप्य थीं, तथा मुमुक्षु प्राध्यात्म प्रेमी महानुभावोंकी इन ग्रन्थोंकी मांग होनेके फलस्वरूप वीरसेवामन्दिरने 'समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ पं० परमानन्द शास्त्री कृत हिन्दी टीका और प्रमाचन्द्राचार्यकृत समाधितन्त्र टीका और प्राचार्य कल्प पं. माशाधरजी कृत इप्टोपदेशकी संस्कृतटीका भी साथमें लगा दी है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये यह प्रन्थ खास तौरसे उपयोगी है। पृष्ठ संख्या सब तीनसौ से ऊपर है । सजिन्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया और बिना जिन्दका २) रुपया है। वाइडिंग होकर ग्रन्थ एक महीनेमें प्रकाशित हो जायगा। ग्राहकों और पाठकोंको अभीसे अपना मार्डर मेज देना चाहिये।
मैनेजर-वीरसेवा मन्दिर,
१ दरियागंज, देहली
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Regd. No. D.21,1
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
23REER
संरचक
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, * २५१) वा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी, ... - २५१) वा० सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी * २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , १०१) बा० धनंजयकुमारजी
५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , १०१) बा. जीतमलजो जैन 5-५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी २५१) वा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची । बाबल्देवदासजी जैन सरावगी
१०) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली ) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) श्री फतहपुर जन समाज. कलकत्ता ) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०.)गुप्तमहायक, मदर बाजार, मेरठ २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री शालमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) मेठ शान्तिप्रसादजी जेन ।
१०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, दहली २५१) बा० विशनदयाल रामजोवनजी, पुनिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, दहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी न, देहली १०१) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगो, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमल जी, देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवाकेट, हिसार में २५१) मठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) कुवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि. हिसार ५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जेन, रांची
१८१) सेठ जोखाराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता * २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, ज पुर १०१) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी सहायक
'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली * १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू दहली
१०१) बाबू निनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटना दडली १०') वंद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर १०१) बा० लालचन्दजी बी० मेठी, उन
१ १०१) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी ,
सरसावा, जि. सहारनपुर
२१
प्रकाशक - परमानन्दजी जैन थाम्श्री. दरियाज देहली । मुद्रक-रूप-बाणी प्रिटिंग हाउस २१, दरियागंज, जो
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अनेकान्त
मार्च १६५४
यह चित्ताकर्षक मूर्ति श्रीसीममधरस्वामीकी है और राजकोटके नूतन जैनमन्दिर में विराजमान है। इस मन्दिर और मूर्तिका निर्माण सोनगढ़ के सम्त सत्पुरुष कानजी स्वामीकी प्र ेरणा से हुआ है और उन्होंके द्वारा यह प्रतिष्ठित हूँ । यात्राथियोंको गिरनारजी जाते समय इस भव्य मूर्तिका दर्शन जरूर करना चाहिये ।
सम्पादक मण्डल
श्रीजुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' बा० छोटेलाल जैन M. RA.S. बा० जय भगवान जैन एडवोकेट पण्डित डी. एस. जैतली पं० परमानन्द शास्त्री
अनेकान्त वर्ष १२ किरण १०
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बिषय-सूची
१. श्री शारदा स्तवनम्-भ• शुभचन्द्र
[२. परमानन्द शास्त्री २. जन्म जाति गर्वायतम्-['युगवीर'
१ . धर्म और जैन दर्शन३. कविवर भूधरदास और उनकी विचार धारा
[श्री अम्बुजात सरकार एम.ए.वी.एस. २२२ [६० परमानन्द जैन शास्त्री २०१८. उज्जैके निकट प्राचीन दि.जैन मूर्तियाँ५. भी बाहुबलीकी पाश्चर्यमयी प्रतिमा
[बा.छोटेलाल जैन प्राचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि . १. श्रमणका उत्तर लेख न छापना
३२८ ५. गरीबी फ्यो? स्वामी सत्यभक्त संगमसे) ३१.१०.श्री जिज्ञासा पर मेरा विचार-टाइटिल पे०३ १. इमारी तीर्थ यात्रा संस्मरण
[चुल्लक सिद्धिसागर ३३.
मेरीभावनाका नया संस्करण
मेरोभावना की बहुत दिनोंसे मांगे पारही थी, अता बोरसेवामन्दिरने मेरीभावनाका यह नया संस्करण ३२ पौंडके बढ़िया कागज पर बाप कर प्रकाशित किया है। जो सज्जन बांटनेके लिये चाहें उन्हें ५) रुपया सैकड़ाके हिसाबसे दी जायेंगी। पोस्टेज खर्च अलग देना होगा।
एक प्रतिका मूल्य -) एक माना है।
मैनेजर वीरसेवामन्दिर, ग्रन्थमाला, जैनम्यूजियमकी आवश्यकता
जैन आर्ट-गेलरी देहलीमें किसी उचित स्थान पर एक जैन म्यूजियमकी दिल्लीमें किसी योग्य स्थानपर जैसे लाल मन्दिर या अत्यन्त आवश्यकता है जिसमें पुरातत्त्वकी दृष्टिसे मब नई दिल्लीमें एक 'जैन पार्ट-गैलरी' की अत्यन्त आवश्यकता
जिममें जैन आर्टको सर्वोत्तमरूपसे प्रदर्शित किया जाय । सामग्री एकत्रित की जाय । प्राशा है समाज पूरा ध्यान देगा
समाजको इसपर विचारकर शीघ्रही कार्यरूपमें परिणत करना धरना वीरसेवामन्दिको इस कमीकी पूर्ति करनी चाहिए ।
चाहिए । अथवा वीरसेवान्दिर जो अपना भवन बनवानेका १६-३-५४ ]
प्रायोजन कर उसे इस लक्ष्यकी ओर ध्यान देना चाहिए। ~पमालाल जैन अग्रवाल
-पन्नालाल जैन अग्रवाल
अनेकान्तकी सहायताके सात माग
(.) अनेकान्तके 'संरक्षक'-तथा 'सहायक' बनना और बनाना। (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना। (३) विवाह-शादी भादि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेंट-स्वरूर अथवा फ्री भिजवाना: जैसे विद्या-संस्थानों, लायरियों,
सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको। (५) विद्यार्थियों प्रादिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २१), १०) आदिकी सहायता भेजना। २५ की
सहायतामें १.को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (१)अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे अन्य उपहारमें देना तथा दिलाना। (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
सहायतादि मेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
मैनेजर 'अनेकान्त' 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंटस्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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अहम
बस्ततत्वमपात
-प्रकाशक
चर्षिक बन्य ५)
एक किरण का मूल्य ।)
%
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नीतिविरोषध्वंसालोकव्यवहारवर्तक सम्पदा परमाममस्यबीज भुबनेकगकर्जयत्यनेकान्ता।
मार्च
वष १२ किरण १०
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली फाल्गुण वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०१० भ० पानन्दि-शिष्य-शुमचन्द्र-कृतम्
श्रीशारदास्तवनम् सुरेन्द्र-नागेन्द्र-नरेन्द्रवंद्या, या चर्षिता योगिजनैः पवित्रः। • कवित्व-वक्तृत्व-फलाधिरूढां, सा शारदा मे वितनोतु बुद्धिम् ।।१।।
शब्दागमैस्तपित-देववन्दं, मायाक्षरी सावेपथीनमागेम । मंत्राक्षरैश्चर्चितदेहरूपमर्चन्ति ये त्वां भुवि वन्दनीयाम् ॥ २॥ या चक्षुषा झानमयेन वाणी, विश्वं पुनातीन्दुकलेव नित्यम। शब्दागमं भास्वति वर्तमानं, सा पातु वो हंसरथाधिरूढा ॥३॥ प्रमाण-सिद्धान्त-सुतत्त्वबोधाद्या संस्तुता योगि-सुरेन्द्रवृन्दः । तां स्तोतुकामोऽपि न लज्जयामि, पुत्रेषु मातेव हितापरा सा॥४॥ नीहारहारोत्थितधौतवस्त्राम श्रीबीजमंत्रातर-दिव्यरूपाम् । या गद्य-पद्यैःस्तवनैः पवित्रस्त्वं स्तोतुकामो भुवने नरेन्द्रैः ।।५।। अवश्यसेव्यं तब पादपद्म ब्रह्मन्द्र-चन्द्रार्क-हदि स्थितं यः । न दृश्यमानः कुरुते बुधानां ज्ञानं परं योगिनि योगिगम्यम् ।। ६ ।। कायेन वाचा मनसा च कृत्वा, न प्राध्यते ब्रह्मपदं त्वदीयम् । भक्ति परां त्वच्चरणारविन्दे, कवित्वशति मयि देहि दीने ॥७॥ तव स्तुति यो वितनोतु वागि ! वर्णाक्षरैरचितरूपमालाम् । स गाहते पुण्य-पवित्र मुकिमर्थागमं खण्डित-वादि-वृन्दम् ॥८॥ बीपवनन्दीन्द्र-मुनीन्द्र-पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः ॥ विदां विनोदाय विशारदायाः श्रीशारदायाः स्तवनं चकार ॥॥
इतिश्रीशारदास्तवनम् ।
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जन्म-जाति-गर्वापहार
[ असा हुमा मुझे एक गुटका वैचश्री पं० कन्हैयालाल जी कानपुरसे देखनेको मिला था, जो २०० वर्षसे अपरन खिला हुआ है और जिसमें कुछ प्राकृत वैद्यक ग्रन्थों, निमित शास्त्रों, यंत्रों मंत्रों तवा कितनी ही टकर बातोंके साव अनेक सुभाषित पचोंका भी संग्रह है। उसकी कतिपय बातोंको मैंने उस समय नोट किया था, जिनमेंसे दो एकका परिचय पहले भनेकान्तपाठकोंको दिया जा चुका है। प्राज उसके पृष्ठ २२१ पर उदरत दो सुभाषित पचोंको भावावादो साल पालो सामने रक्सा जाता है, जो कि जन्म-जाति-विषयक गर्वको दूर करनेमें सहायक है। -पुगवीर ]
कोरोयं कृषिवं सुवर्षअपना [व] दापि गोरोमतः पंकाचामासं शशांकम (उ)दरिंदीवरं मोमयात् । काप्टादग्निरहे। मबादपि मणि गोंदिगो (तो) रोचना, प्राकारयं स्वगुणोदयेन गुखिनो गच्छंति किं जन्मना ॥१॥ जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न कों, दूरे शोमा वपुषि नियत पंकशंकां करोति । न तस्याः सकतासुरमिद्रव्यग पहारी
को जानीते परिमलगुणांकस्तु कस्तूरिकायाः। २॥ भावार्थ-उस रेशमको देखो जो कि कीदोंसे उत्पन होता है, उस सुवर्णको देखो जो कि पत्थरसे पैदा होता है, उस (मांगलिक गिनी जाने वाली हरी भरी) दबको देखो जो कि गौके रोमोसे अपनी उत्पत्तिको लिये हुए है, उस खालकमक को देखो जिसका जन्म कीचड़से है, उस चन्द्रमाको देखो जो समसे (मन्थन-द्वारा) उद्भूत हुमा कहा जाता है, उस इन्दीवर (नीलकमल)को देखो जिसकी उत्पत्ति गोमयसे बतलाई जाती है। उस अग्निको देखो जो कि काठसे उत्पा होतीस मशिकोहात होती है. उस (चमकीले पीतवर्ण) गोरोचनको देख जो कि होती है, उस मणिको देखो जो कि सपके फणसे उद्भूत होता गायके पित्तसे तयार होता अथवा बनता है. और फिर यह शिवा जो कि जो गुणी हैं-गुणोंसे युक्त हैं
से युक्त है वे अपने गुणोंके
अपने गु उदय-विकाशके द्वारा स्वयं प्रकाशको-प्रसिद्धि एवं लोकप्रियताको प्राप्त होते हैं, उनके जन्मस्थान या जातिसे क्या ? उनके उस प्रकाश अथवा विकाशमें बाधक नहीं होते। और इसलिए हीन जन्मस्थान अथवा जातिकी बातको खेका उनका तिरस्कार नहीं किया जा सकता॥१॥इसी तरह उस कस्तुरीको देखो जिसका जन्मस्थान विमल नहीं किन्तु समल है वह शुगकी नाभि में उत्पड होती है, जिसका वर्ष भी वर्णनीय (प्रशंसा योग्य)नहीं-वह काली कलूटी कुरूम जान पड़ती है। (इसीसे) शोभाकी बात तो उससे दर वह शरीरमें स्थित प्रभवा वेपको प्राप्त हुई पंककी शंकाको उत्पन करती है-ऐसा मालूम होने लगता है कि शरीरमें कुछ कीचड़ लगा है। इतने पर भी उसमें सकल सुगन्धित अन्योंके गर्वको हरने वाला जो परिमल (सातिशायि गन्ध) गुण है उसके मल्यको कौन प्रॉक सकता है? क्या उसके जन्म जाति या वर्णके द्वारा उसे चॉका या जाना जा सकता है ? नहीं। ऐसी स्थितिमें जन्म-जाति अथवा वर्ण जैसी बातको लेकर किसीका भी अपने । खिये गर्व करना और दूसरे गुणीजनोंका तिरस्कार करनाम्य ही नहीं किन्तु नासमझाका भी चोतक है।२॥
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कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा
( परमानन्द जैवशाली) हिन्दीभाषाके जैनकरियों में पं. भूधरदासजीका नाम भी कविवरकी पाल्मा जैनधर्म रहस्यसे केवल परिचित ही उल्लेखनीय है। भाप भागरेके निवासी थे और भापकी जाति नहीं थी किन्तु उसका सरस रस उनके बारम-प्रदेशों में मिद श्री खंडेलवाल । उन दिनों प्रागरा अध्यात्मविद्याका केख बना चुका था, जो उनकी परिणतिको बदलने तथा सरस बनाने दुपा था। भागरेमें माने जाने वाले सज्जन उस समय वहां- एक अद्वितीय कारण था। उन्हें कविता करनेका बना की गोष्ठीसे पूरा नाम लेते थे। अध्यात्म के साथ वहां अभ्यास था। उनके मित्र चाहते थे कि कविवर अस ऐसे माचार-मार्गका भी खासा अभ्यास किया जाता था, प्रतिदिन साहित्यका निर्माण कर जांब, जिसे पढ़कर दूसरे खोग भी शामसभा होती थी, सामायिक और पूजनादि क्रियाओंके अपनी प्रात्म-साधना अथवा जीवनचर्याक साब वस्तुतत्वको साथ भात्म-साधनाके मार्ग पर भी चर्चा चलती थी। हिंसा, समने में सहायक हो सकें। उन्हीं दिनों बागरेमें जवसिंह मूठ, चोरी, कुशीन और पदार्थसंग्रहरूप पापोंकी निवृत्तिके सवाई सूबा और हाकिम गुलाबचन्द यहां पाए, शाहहरीलिये यथाशक्य प्रयत्न किया जाता था और बुद्धिपूर्वक उनमें सिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य थे उनकी बार-बार प्रवृत्ति न करनेका उपदेश भी होता-था, गोष्ठीके प्रायः सभी प्रेरखासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने सं. सदस्यगब उनका परिमाण अथवा त्याग यथाशक्ति करते थे, 1051 में पौष कृष्णा के दिन 'शतक' नामका अन्य
और यदि उनका त्याग करनेमें कुछ कचाई वा शक्ति बनाकर समास किया। मालूम होती थी तो पहले उसे दूर करनेका यथा साध्य
अध्यात्मरसकी चर्चा करते हुए कविवर प्राम-रसमें प्रयल किया जाता था, उस मारम निबंबता (कमजारा) का विमोर हो उठते थे। उनका मन कभी-कभी बेराग्यकी तरंगों दूर कर करने की चेष्टा की जाती थी, और उनके त्यागकी
में उबलने लगता था। और कमी-कमी उनकी दृष्टि पन
स. भावनाको बलवती बनाया जाता था, तथा उनके त्यागका चुप- सम्पदाको चलता
सम्पदाकी चंचलता, अस्थिरता और शरीर भादिकी उस चाप साधन भी किया जाता था। बाहरके लोगों पर इस बात
विनाशीक परिणति पर जाती थी, और जब वे संसारकी उस का बड़ा प्रभाव पड़ता था और वे जैनधर्मकी महत्तासे
दुःखमय परिणतिका विचार करते जिसके परिणमनका एक प्रेरित हो अपनेको उसकी शरणमें ले जाने में अपना गौरव
भी कभी-कभी उनकी मान्योंके सामने मा जाया करता था।
तो वे यह सोचने ही रह जाते थे कि अब क्या करना चाहिये, जो नवागन्तुक भाई राज्यकार्यमें भाग लेते थे, वे रात्रिमें
इतनेमें मनकी गति बदल जाती थी और विचारधारा उस अवकाश होनेपर धर्मसाधनमें अपनेको लगाने में अपना कर्तम्य समझते थे। उस समय धर्म और तजनित धार्मिक क्रिया- स्थानसे दूर जा पड़ती थी, अनेक तणाएँ उत्पच होती और काण्डपदी श्रद्धा तथा प्रात्म-विश्वासके साथ किये जाते
समा जाती थों अनेक विचार पाते और चले जाते थे, पर थे, आजकल जैसी धार्मिक शिथिलता या प्रश्रद्धाका कहीं पर
अपने जीवनका कोई अन्तिम बच्च स्थिर नहीं कर पा रहेथे।
घरके भी सभी कार्य करते थे, परन्तु मन उनमें वहीं बागवा भी पाभास नहीं होता था । श्रद्धालु धर्मात्मामोंकी उस समय कोई कमी भी नहीं थी, पर आज तो उनकी संख्या था, कभी प्रमाद सताता था और कभी कुछ दयमें धात्मअत्यन्त विरख दिखाई देती है। किन्तु लोकदिखावा करनेवाले प्रागरे मैं बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालकके स्याया सौ-दोसौ रूपया देकरसंगमरमरका फर्शादि बगवाकर नाम सौ कवित्त कर जाने है। ऐसे ही करत भयो जैसिंघ सवाई खुदवानेवाले तथा अपनी इष्ट सिदिके लिये बोलकबूल या मान- सूवा, हाकिम गुलाबचन्द भाये तिहि थान है। हरीसिंह मनौती रूप अभिमतकी पुष्टिमें सहायक पदमावती मादि शाहके सुवंश धर्मरागी मर, तिनके कडेसी जोरि कीनी एक देवियोंकी उपासना करने वाले लोगोंकी भीड़ अधिक दिखाई ठाने है। फिरि-फिर रे मेरे पालसको अन्त भयो, उनकी देती है। ये सब क्रियाएँ जैनधर्मकी निर्मल एवं निस्पृह सहाय यह मेरो मन माने है ॥ सहरवसे इत्यासिया पोह मात्मपरिणतिसे सर्वया मित्र है उनमें बैनधर्मकी उस पास तमसीन।-तिथितेरस रविवारको सतक समापत कीन। प्राय-अविद्याका अंशमी नहीं है।
-जिन शतक प्रशस्ति।
समझते थे।
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३०६]
[किरण १० हितकी जो तरंग उठती थी वह भी विदा हो जाती थी किन्तु दी, 'तो मैं कब स्वहित करूंगा? फिर मुझे जीवन में केवल संसारके दुःखोंले छूटनेकी जो टीस हृदयमें पर किये हुए वी पहावा ही रह जायगा । पर एक बात सोचने की है और बहरम होतीबी, और न उसकी पूर्तिका कोई ठोस प्रयत्न ही वह यह कि यह प्रज्ञ मानव कितना अमिमानी है, रूप हो पाता था। अध्यात्मगोष्ठीमें जाना और चर्चा करनेका विषय सम्पदाका लोभी, विषय-सुखमें मग्न रहने वाला नरकीट है, उसी क्रमसे बराबर चल रहा था, उनके मित्रोंकी तो एकमात्र बूतेकी दशाको देखकर तरह-तरहके विकल्प करता है, परके अमिताचा थी 'पचबद्धसाहित्यका निर्माण। अतः जब वे बुढ़ापे और उसके सुख-दुखकी चर्चा तो करता है किन्तु अक्सर पाते कविवरको उसकी प्रेरणा अवश्य किया करते थे। अपनी ओर मांककर भी नहीं देखता, और न उसकी दुर्वल
एक दिन अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे कि वहांसे दुःखावस्यामें, अनन्त विकल्पोंके मध्य पड़ी हुई भयावह अवएकपूर पुरुष गुजरा, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि स्थाका अवलोकन ही करता है, और न आशा तृप्याको अत्यन्त कमजोर बी, दुबला-पतला लठियाके सहारे चल रहा जीतने अथवा कम करनेका प्रयत्न ही करता है। हां, चाहथा, उसका सारा बदन कांप रहा था, मुहले कमी-कभी लार दाहकी भीषण ज्वालामें जलाता हुआ भी अपनेको भी टपक पड़ती थी। बुद्धि शठियासी गई थी। शरीर अशक सुखी मान रहा है । यही इसका अज्ञान है, पर हो रहा था किंतु फिर भी वह किसी भाशाले चलने का प्रयत्न कर इस अज्ञानसे छुटकारा क्यों नहीं होता ! उसमें चार रहा था। यद्यपि लठिया भी स्थिरतासे पकड़ नहीं पा रहा था बार प्रवृत्ति क्यों होती है यह कुछ समझ नहीं पाता, यह वह वहांसे दस पांच कदम ही आगेको चल पाया था कि देव- शरीर जिसे मैं अपना मान कर सब तरहसे पुष्ट कर रहा हूँ योगले उसकी खाठी कट गई और वह बेचारा धड़ामसे नीचे एक दिन मिट्टीमें मिल जायेगा । यह तो जड़ है और मैं स्वयं गिर गया, गिरने के साथही उसे लोगोंने उठाया, खड़ा किया, शायक भावरूप चेतन द्रव्य है, इसका और मेरा क्या नाता, वह हांप रहा था, चोट लगनेसे कराहने लगा, लोगोंने उसे मेरी और इस शरीरकीकी जाति भी एक नहीं है फिरभी जैसे-तैसे साठी पकदाई और किसी तरह उसे ले जाकर उसके चिरकालसे यह मेरा साथी बन रहा है और मैं इसका दास घर तक पहुँचाया। उस समय मित्रोंमें बूढेकी दशाका और बन कर बराबर सेवा करता रहता हूँ और इससे सब काम उसकी उस घटनाका जिक्र चल रहा था । मित्रोंमेंसे एकने भी लेता हैं। यह सब मैं स्वयं पढ़ता हूँ और दूसरोंसे कहता कहा भाई क्या देखते हो? यही दशा हम सबकी आने वाली भी हैं फिर भी मैने इन दोनोंकी कभी जुदाई पर कोई ध्यान है, उसकी व्यथाको वही जानता है, दूसरा तो उसकी व्यथा- नहीं दिया और उसे बराबर अपना मानता रहा, इसी कारण का कुछ अनुभव भी नहीं कर सकता, हमें भी सचेत स्वहित करनेकी बात दूर पड़ती रही, इन विचारोंके साथ होनेकी पावश्यकता है, कविवर भी उन सबकी बातें सुन कविवर निद्राकी गोदमें निमग्न हो गये। रहे थे, उनसे न रहा गया और वे बोल उठे
प्रातःकाल उठकर कविवर जब सामायिक करने बैठे. आयारे बुढ़ापा मानी सुधि बुधि विसरानी।
तब पुनः शरीरकी जरा अवस्थाका ध्यान आया। और श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चले अटपटी, देह लटी विधर सोचने लगेभूख घटी, लोचन मरत पानी ॥१॥ दाँतनकी पंक्ति जब चर्खा पुराना पड़ जाता है, उसके दोनों खूटे हिलने टूटी हाडनकी संधि छूटी, कायाकी नगरि लूटी, जात चलने लग जाते हैं, उर-मदरा स्वखराने लगता है-आवाज नहिं पहिचानी ॥२॥ बालोंने वरन फेरा, रोगने शरीर करने लगता है। पंखुबिया छिद्दी हो जाती हैं, तकनी बल घेरा, पुत्रहू न आवै नेरा, औरोंकी कहा कहानी ||३| खाजाती है-वह नीचेकी अोर नव जाती है, तब सूतकी गति भूधर सममि अब, स्वहितकरेगो कब ? यह गति सीधी नहीं हो सकती, वह बारबार लूटने लगता है । प्रायुहै है जब, तब पछतैहै प्रानी ॥४॥
मान भी तब काम नहीं देती, जब सभी अंग चनाचन हो पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और यह जाते हैं तब वह रोजीना मरम्मत चाहता है अन्यथा वह कहा कि यही दशा तो हमारी होने वाली है, जिस पर हम अपने कार्य में प्रथम होजाता है। किन्तु नया चरखता सबका कुछ दिलगीर और कभी कुछ इंस से रहे है। यदि हम अब मन मोह लेता है, वह अपनी अबाधगतिसे दूसरोंको अपनी
नहीं संभले, न चेते, और न अपने हितकी ओर रष्टि मोर प्राकर्षित करता है, किन्तु पुरातन हो जाने पर उसकी
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कक्किर भूपरदास और उनकी विचारधारा
[३०७
भीवही दशा हो जाती है, और अन्त में वह चिनका काम पुरुषार्थकी कुल कमी है। यह सब विकल्पज कविको देता है। ठीक इसी प्रकार जब यह शरीर रूपी र्खा पुराना स्थिर नहीं होने देते थे। पर मंदिरजीमें प्रवेश करते ही ज्यों पर जाता है, दोनों पग मशक हो जाते हैं। हाथ, मुंह, ही अन्दर पार्श्वप्रभुकी मूर्तिका दर्शन किया त्यों ही रहिमें नाक, कान, प्रांख और हृदय मावि, शरीरके सभी अवयव कुछ अद्भुत प्रसादकी रेखा प्रस्फुटित हुई । कविवरकी रष्टि अर्जरित, निस्तेज और चनाचत हो जाते हैं तब शब्दको गति मूर्तिके उस प्रशांत रूप पर जमी हुई थी मानों उन्हें साहात भी ठीक ढंगसे नहीं हो सकती। उसमें प्रशक्ति और बद. पार्श्वप्रभुका दर्शन हो रहा था, परन्तु शरीरकी सारी चेटाएँ खड़ानापन आ जाता है। कुछ कहना चाहता है और कुछ किया शून्य निश्चड थीं। कविवर प्रारम-विभोर -मानों के कहा जाता है । पर्खेकी तो मरम्मत हो जाती है। परन्तु इस समाधिमें तल्लीन हों, उनके मित्र उन्हें पुकार रहे थे, पंडित शरीर रूपचलंकी मरम्मत वैचोंसे भी नहीं हो सकती। जी प्राइये समय हो रहा है कुछ अध्यात्मको पर्चा द्वारा उसकी मरम्मत करते हुए वैध हार जाते हैं ऐसी स्थितिमें प्रारमबोध करानेका उपक्रम कीजिये पर दूसरोंको कविवरकी आयुकी स्थिति पर कोई भरोसा नहीं रहता, वह अस्थिर हो उस दशाका कोई प्रामास नहीं था, हाँ, दूसरे लोगोंको तो जाती है। किन्तु जब शरीर नया रहता है, उसमें बल, तेज इतना ही ज्ञात होता था कि प्राजकविवरकारा प्रसव है। और कार्य करनेकी शक्ति विद्यमान रहती है। तब वह दूसरों के भक्केि प्रवाहमें निमग्न है। इतने में कविवरके पढ़नेकी को अपनी ओर आकर्षित करता ही है। किन्तु शरीर और आवाज सुनाई दी, वे कह रहे है:उसके वदिक गुणोंके पलटने पर उसकी वही दशा हो
भवि देखि छवि भगवानकी। जाती है। और अन्तमें वह अग्निमें जला दिया जाता है।
सुन्दर सहज सोम पानंदमय, दाता परम कल्याणकी। ऐसी स्थितिमें हे भूधर ! तुम्हीं सोचो, तुम्हारा क्या कर्तव्य
नासादृष्टि मुदित मुख वारिज, सीमा सब उपमानको । है। तुम्हारी किसमें भलाई है। यही भाव कविके निम्नपदमें गुंफित हुए हैं
अंग अडोल अचल आसन दिद, वही दशा निज ध्यानकी।
इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्धमई शिव-थानकी। चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना ॥
ऐसे प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा - धात - परवानकी। पग खूटे दो हाल न लागे, उरमदरा खखराना।
जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी । छीदी हुई पांखुड़ी पांसू , फिर नहीं मनमाना ॥११॥
तृषत होत 'भूधर' जो अब ये, अंजुलि अमृतपानकी । रसनातकलीने बलखाया, सो अब कैसे खूटे।
हे भाई ! तुम भगवानकी छबीको देखो, वह सहज शब्द सूत सूधा नहिं निकस, घड़ी-घड़ी पल टूटै ॥२॥
सुन्दर हैं, सौम्य है, आनन्दमय है, परम कल्याणका दाता है, श्रायु मालका नहीं भरोसा, अङ्ग चल.चल सारे। रोज इलाज मरम्मत चाहें, वैद बाद ही हारे ।।३।।
नासादृष्टि है, मुख कमल मुदित है, सभी अंग अडोल और नया चरखला रंगाचंगा, सबका चित्त चुरावै।।
भासन सुहढ है, यही दशा प्रात्म-ध्यानकी है । इसी योगापलटा वरन गये गुन अगले. अब देख नहिं आवै ॥ सन और योग्यानुष्ठानसे उन्होंने वसुविध-समिधि जला कर
शिव स्थानकी प्राप्ति की है इस तरह धातु-पाषाएकी यह मूर्ति मोटा महीं काम-कर भाई, कर अपना सुरमेरा।
प्रात्म-मार्गका दर्शन कराती है। जिसके दर्शनसे फिर अन्यके अंत भागमें इंधन होगा, भूधर समझ सबेरा ॥५॥ कविवर इस पदको पढ़ ही रहे थे कि सहसा प्रातः काल
देखनेकी अभिलाषा भी नहीं रहती । प्रत. हे मधुर ! तू तूस उठकर कविवर जब सामायिक करने बैठे तब उस बद
होकर उस छविका अमृत पान कर, वह तुझे बड़े भारी माग्य
से मिली है। जिसका विमल दर्शन दुःखोंका नाशक है और की दशाका विकल्प पुनः उग्र, जिसे कविने जैसे तैसे दवाया और नित्यकर्मसे निमिटकर मंदिरजीमें पहुंचे। मंदिरजीमें
पूजनसे पातकोंका समूह गिर जाता है । उसके बिना इस जानेसे पहले कविवरके मनमें बारबार यह भावना उद्गत हो
खारी संसार समुद्रसे अन्य कोई पार करने वाला नहीं है।। रही थी कि पात्मदर्शन कितनी सूक्ष्म वस्तु है क्या मैं उसका अता तू उन्हांका ज्यान घर, एक भी उन्हें मत छोड़ पात्र नहीं हो सकता है जिन दर्शन करते करते युग बीत गये १देखत दुख भाजि जाति दशों दिश पूजत पातकज गिरे। परन्तु प्रात्मदर्शनसे रिक रहे, यह तेरा अभाग्य है या तेरे इस संसार बार सागरसों और न कोई पार करे।
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३०८]
भनेकान्त
[किरण १०
सोच और समक, यह नर भव प्रासान नहीं है, तात,मात, तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे ही। मात, सुत दारा भादि सभी परिकर अपने अपने स्वार्यके गर्जी दास खबास प्रवास अटा, धनजोर करोरनकोश मरेहो, है। नाहक पराये कारण अपनेको भरकका पात्र बना रहा ऐसे बढेतौ कहा भयो हेनर,छोरिचले उठिअन्तछरेही।' है। परकी चिंता में प्रात्म निधिको व्यर्थ क्यों खो रहा है, तू धाम खरे हे काम परे रहे दाम हरे रहे ठाम धरे ही। . मत भूख, यह दगा जाहिर है। उस ओर रष्टि क्यों नहीं देता। समीके कारण जो महंकार उत्पन होता है यह जीव यह मनुष्यदेह दुर्लभ है, दाव मत चूक । जो अब चूक गए उसके नशे में इतना मशगूल हो जाता है कि वह अपने तो केवल पढ़ताचा ही हाथ रहेगा, यह मानव रूपी हीरा तुझे तम्यसे भी हाथ धो बैठता है । ऐशो भारतमें वैभवके भाग्योदयसे मिला हैद्मज्ञानी बन उसके मूल्यको न समझ नजारेका जब पागलपन सवार होता है तब वह अचिन्त्य सम्पर्थ मत फैक । नटका स्वांग मत मर, यह प्रायु छिनमें एवं प्रकल्पनीय कार्य कर बैठता है, जिनकी कमी स्वप्नमें मल जायगी, फिर करोड़ों रुपया खर्च करने पर भी प्रात न मी माशा नहीं हो सकती। मानो विवेक उसके हृदयसे कूच होगी, उठ जाग, और स्वरूप में सावधान हो।। कर जाता है, न्याय अन्यायका उसे कोई भान नहीं होता,
यह माया उगनी है, झूठी है जगतको ठगती फिरती है, वह सदा अभिमानमें घर रहता है, कभी कोमल रष्टिसे जिसने इसका विद्यास किया वही पछताया, यह अपनी थोड़ी दूसरोंकी मोर झांक कर भी नहीं देखता, वह यह भी नहीं' सी चटक मटक दिखा कर तुमे हुभाती है, यह कुल्टा है, सोचता कि आज तो मेरे वैभवका विस्तार है यदि कक्षको इसके अनेक स्वामी हो रहे हैं। परन्तु इसकी किसीसे भी यह न रहा तो मेरी भी इन रंकों जैसी दुर्दशश होगी, मुझे तृप्ति नहीं हुई, इसने कभी किसीके साथ भी प्रेमका बर्ताव कंगला बन कर पराये पैरोंकी खाक झाड़नी पड़ेगी। भूख, नहीं किया। अतः हे भूधर ! यह सब जगको भोंदू बनाकर गर्मी शर्दीकी म्पया सहनी पड़ेगी। असती फिरती है। इस मायाके चकरमें व्यर्थ क्यों परेशान परन्तु फिर भी यह धन और जीवनसे राग रखता है तथा हो रहा है। यह माया तेरा कभी साथ न देगी, इसे नहीं विरागसे कोसों दूर भागता है। जिस तरह खर्गोश अपनी बोदेगा, तो यह तुझे छोड़ कर अन्यत्र भाग जायगी, माया प्रांखें बन्द करके यह जानता है कि अब सब जगह अम्बेरा कभी स्थिर नहीं रहती। इस तरहके अनेक रय तूने अपनी हो गया है, मुझे कोई नहीं देखता कविने यही प्राशय अपने इन पांचोंसे देखे हैं, इसकी चंचलता और मम्मोहकता निम्न पचमें अंकित किया है:लुभाने वाली है। जरा इस ओर मुके कि स्वहितसे वंचित 'देखो भर जोबनमें पुत्रको वियोग आयो, हुए । इतना सब कुछ होते हुए भी यह मानव मोहसे लक्ष्मी- तैसे ही निहारी निज नारी काल मग मैं । की भोर ही मुकता है, स्वारमःकी भोर तो भूलकर भी नहीं जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पे, देखता, परको उपदेश देता है, उन्हें मोह छोड़नेकी प्रेरणा रंक भये फिरें तेऊ पनही न पगमैं । करता है, पर स्वयं उसीमें मग्न रहना चाहता है। चाहता है एते पै प्रभाग धन-जीतबसौं धर राग, किसी तरह धन इकट्ठा हो जाय तो मेरे सब कार्य पूरे होय न विराग जानै रहँगौ अलगमैं । हो जायेंगे और बनाशा पूर्तिके अनेक साधनभी जुटाता है आखिन विलोकि अन्ध सूसेकी अंधेरी कर, उन्हींकी चिन्तामें रात-दिन मग्न रहता है। रात्रिमें स्वप्न- ऐमेराजरोगको इलाज कहा जम मैं ।। ३५॥ सागरमें मग्न हुमा अपनेको धनी और वैभवसे सम्पन्न सम
हे भूधर ! क्या संसारकी इस विषम परिस्थितिसे कता है। पर अन्तिम प्रस्थाकी ओर उसका कोई लचय परिचित नहीं है, और यदि है तो फिर पर पदार्थोमें रागी मी नहीं होता। यही भाव कविने शतकके निम्न दो पयोमें क्यों हो रहा है? क्या उन पदार्थोसे तेरा कोई सुहित दुमा
है,या होता है? क्या तूने यह कभी अनुभव भी किया है चाहत हैं धन होय किसीविध,तो सब काज सरें जियराजी, कि मेरी यह परिणति दुखवाई है, और मेरी भूल ही मुझे - गेहचिनायकरूंगहना कछु,व्याहिस्तासुत बांटिए भाजी। कुखका पात्र बना रही है। जब संसारका अणुमात्र भी परचितत यो दिन जाहिंचले,जम प्रान अचानक देतदगाजी पदार्थ तेरा नहीं है. फिर तेरा उस पर राग क्यों होता है। खेलत खेलखिलारि गए, रहिजाइ रुपीशतरंजकी बाजी। चितवृत्ति स्वहितकी भोर न मुक कर परहितकी भोर क्यों
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किरण १०]
कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा
३०४
मुकती है, यह सब जानते हुए भी अनजान सा क्यों हो अथवा प्रारम कमजोरी है। इस कमजोरीको दूर कर मुझे • रहा है यह रहस्य कुछ मेरी समझमें नहीं पाता
प्रात्मबल बढ़ाना आवश्यक है । वास्तवमें जिनभगवान और हे भूधर ! परपदार्यों पर तेरे इस रागका कारण अनन्त- जिनवचन ही इस प्रसार संसारसमुद्रसे पार करनेमें समर्थ जन्मोंका संचित परमें मारम-कल्पनारूप तेरा मिथ्या मध्य- है। अतः भव-भवमें मुझे उन्हींकी शरण मिले यही मेरी वसाय ही है जिसकी वासनाका संस्कार तुझे उनकी भोर भाक- आन्तरिक कामना हैxजिन वचनोंने ही मेरी रष्टिको निर्मल र्षित करता रहता है-बार बार भुकाता है। यही वासना बनाया है और मेरे उस प्रान्तविवेकको जागृत किया है रूप संस्कार तेरे दुःखोंका जनक है। अतः उसे दूर करनेका जिससे मैं उस अनादि भूलको समझ पाया है। जिनवचनप्रयत्न करना ही तेरे हितका उपाय है। क्योंकि जब तक परमें रूप ज्ञानःशलाकासे वह अज्ञान अन्धकार रूप कल्मष अंजन तेरी उक्र मिथ्या वासनाका संस्कार दर नहीं होगा तब तक पर धुल गया है और मेरी प्टिमें निर्मलता प्रागई है। अब मुके पदार्थोंसे तेरा ममत्व घटना संभव नहीं है। यदि तुझे अपने सांसारिक मंझटें दुखद जान-जान पड़ती है। और जगत के हितकी चिन्ता है, द सुखी होना चाहता है, और निजानन्द- ये सारे खेल प्रसार और मूठे प्रतीत होते हैं। मेरा मन प्रय रिसमें लीन होनेकी तेरी भावना है तो तू उस प्रामक संस्कार- उनमें नहीं लगता, यह इन्द्रिय विषय कारे विषधरके समान 'को छोड़नेका शीघ्र ही प्रयत्न कर, जब तक ऐसा प्रयत्न भयंकर प्रतीत होते हैं। मेरी यह भावना निरन्तर जोर पर नहीं करता तब तक तेरा वह मानसिक दुःख किसी तरह भी बती जाती है कि तू अब घरसे उदास हो जंगल में चला जा, कम नहीं हो सकता, किन्तु वह तेरे नूतन दुःखोंका जनक और वहाँ मनकी उस चंचल गतिको रोकनेका प्रयत्न कर, होता रहेगा।
अपनी परिणतिको स्वरूपगामिनी बना वह अनादिसे परइस तरह विचार करते हुए कविवरने अपनी भूल पर गामिनी हो रही है, उसे अपनी ज्ञान और विक ज्योतिके गहरा विचार किया और प्रारम-हितमें बाधक कारयका पता द्वारा निर्मल बनानेका सतत उद्योग कर, जिससे अविषम लगा कर उसके छोड़ने अथवा उससे छूटनेकी भोर अपनी ध्यानकी सिद्धि हो, जो कर्म कलंकके जलानेमें असमर्थ है। शक्ति और विवेककी ओर विशेष ध्यान दिया । कविवर क्योंकि भारम-समाधिकीदता यथाजात मुबाके बिना नहीं हो सोचते हैं कि देखो, मेरी यह भूल अनादि कालसे मेरे एखों- सकती। और न विविध परीषहोंके सहनेकी वह समता ही की जनक होती रही है, मैं बावला हया उन दःखोंकी प्रसाद पा सकती है। कविवरकी इस भावनाका वह रूप निम्न बेदनाको सहता रहा है,परंतु कभी भी मैने उनसे छटनेका सही पद्यमें अंकित मिलता है। उपाय नहीं किया, और इस तरह मैने अपनी जिन्दगीका कब गहवाससौं उदास होय वन सेॐ. बहुभाग यों ही गुजार दिया। विषयोंमें रत हुमा कर पर- ऊँ निजरूप गति रोकू मन-करीकी । म्पराकी उस बेदनाको सहता हुआ भी किसी खास प्रीतिका रहिही बडोल एक आसन अचल अंग, कोई अनुभव नहीं किया । दुखसे छूटनेके जो कुछ उपाय अब सहिही परीसा शीत घाम-मेष-मरीकी । तक मेरे द्वारा किए गए है वे सब भ्रामकथे। अपनी • सारंग समाज कवी खुजै है पानि, मिथ्याचारबावश अपने दुःखोंका कारण परको सममता रहा ध्यान-दल-जोर जीतू सेना मोह-अरीकी ।
और उससे अपने राग-द्वेष रूप कल्पनाजाबमें सदा उब- एकल विहारी जथाजात लिंगधारी कब, मता रहा, यह मेरी कैसी नादानी (अज्ञानता) थी जिसकी होऊँइच्छा चारी बलिहारी हौवा घरी की। मोर मेरा कभी ध्यान ही नहीं जाता था, अब भायोक्षसे कविवरकी वह उदास भावना रक्के समुचत जीवनको मेरे उस विषकको जागृति हुई है जिसके द्वारा अपनी प्रतीक है। कविको उपक्षध रचनाएँ उनकी प्रथम साक उस अनादि भूलको सममनेका प्रयत्न कर पाया हैअब अवस्था की है जिनका ध्यानसे समीक्षण करने पर उनमें मुझे यह विश्वास हो गया है कि मैं उन दुःखोंसे वास्तविक कविकी अन्तर्भावना प्रच्या रूपसे कित पाई जाती है। छुटकारा पा सकता हूँ। पर मुझे अपनी उस सं स्थाका जो उनके मुमुह जीवन बितानेकी भोर संकेत करती है। ख्याल बार बार क्यों पाता है। जिसका ध्यान पाते ही इस आसार संसारमैं और न सरन उपाय। मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह मेरी मानसिक विका जन्म-जन्म जो हमैं, जिनवर धर्म सहाय ।
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३१०]
अनेकान्त
[करण १०
कविवर कहते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि जरा त्यों ही कुषिसन रत पुरुष होय अवसि अविवेक। (डापा) सत्यकी लषु बहन है फिर भी यह जीव अपने हित अनहित सोचे नही हिये विसनकी टेक ॥७२ हितकी चिन्ता नहीं करता, यह इस पास्माकी बड़ी भूल है। सज्जन टरै न टेवसौं, जो दुर्जन दुख देय । पही भाव उनके निम्न दोहेमें निहित है
चन्दन कटत कुठार मुख, अवसि सुवास करेय ।।१०॥ "जरा मौतकी लघुवहन यामें संशयनाहिं।। दुर्जन और सलेश्मा ये समान जगमांहि । तौ मी मुहित न चिन्तये बड़ी भूल जगमाहि ॥"६२ ज्यों ज्यों मधुरो दीजिये त्यों त्यों कोप कराहिं ।। ११३ रचनाएँ
जैसी करनी आचरै तैसो ही फल होय । कविकी इस समय तीन हतियाँ उपलब्ध है, जिनशतक, इन्द्रायनकी बेलिके आम न लागै कोय ॥ १२० पदसंग्रह और पार्श्वपुराव।
बढी परिग्रह पोट सिर, घटी न घटकी चाह । ये तीनों ही कृतियाँ अपने विषयकी सुन्दर रचनाएं हैं। ज्यों ईधनके योगमौं अगिन करै अति दाह ।। १५०
सारस सरवर तजगए, मुखो नीर निराट । हृदयकी अभिव्यंजक हैं। उनमें पाशवपुराणकी रचना अत्यन्त फलविन विरख विलोककै पक्षी लागे वाट ।। १६० सरल और संचित होते हुए भी पाश्र्धनाथके जीवनकी परि
कविवरने अपने पार्श्वपुराणकी रचना संवत् १७८६ में चायक है। जीवन-परिचयके साथ उसमें अनेक सूक्रियाँ
प्रागरामें अषाढ सुदि पंचमीकै दिन पूर्ण की हैऔर जिनमौजूद हैं जो पाठकवं हृदयको केवल स्पर्श ही नहीं करती।
शतककी रचनाका उल्लेख पहले किया जा चुका है। पदप्रत्युत उनमें वस्तुस्थितिके दर्शन भी होते हैं। पाठकोंकी
संग्रह कविने कब बनाया । इसका कोई उल्लेख अभी तक जानकारी के लिए कुछ सूकि पद्य नीचे दिये जाते हैं
प्रास नहीं हुआ। मालूम होता है कविने उसकी रचना भित्र सपजे एकहि गर्भसौं सज्चन दुजेन येह । भिन्न समयों में की है। इस पदसंग्रहमें कविकी अनेक भावलोह कवच रक्षा करे खांडो खंडे देह ॥ ५८ पूर्ण स्तुतियोंका भी संकलन किया गया है जो विविध समयों दर्जन दृषित संतको सरल सुभाव न जाय। में रची गई हैं।
हापणकी छवि छारसौं अधिकहिं उज्जवल थाय || पिता नीर परसे नहीं, दूर रहे रवियार । - संवत् सतरह शतकमैं, और नवासी लीय । ता अंबुजमें मूढ अलि उझि मरै अविचार ।।७१ सुदि अषाढतिथि पंचमी मंथ समापत कीय ॥
'अनेकान्त की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोनपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है। लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही रह गई है। अत: मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा।
मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ परियागंज, दिखी।
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श्रीबाहुबलीकी आश्चर्यमयी प्रतिमा
[भाचार्य श्रीविजयेन्द्रसरि ] श्रवणबेलगोल नामके ग्राममें प्रतिविशाल, स्थापत्य है। अवयवेखगोखवाली प्रतिमाकी ऊंचाई कीट है। कलाकी रप्टिसे अद्भुत एक मनुष्याकार मूर्ति है, जो इसके विभिन्न अंगोंकी मापसे इसकी विशालताका अनुमान श्रीबाहुबलीकी है यह मूति पर्वतके शिखरपर विद्यमान किया जा सकता है। है और पर्वतकी एक बृहदाकार शिक्षाको काटकर इसका परमसे कान अधोभाग तक ०." निर्माण किया गया है। नितान्त एकान्त वातावरणमें स्थित कामके अधोभागसे मस्तक " यह सपोरत प्रतिमा मीलों दूरीसे दर्शकका ध्यान अपनी
चरबकी बम्बाई भोर माकृष्ट करती है।
चरबके मनमागकी चौड़ाई ४-" श्रवणबेलगोलगांव मैसूर राज्यमें मैसरसे १२मासिकेरी
चरमका अंगूठा 'स्टेशनसे ४२, हासनशहरसे ३१ और चहरायपहनसे -
कातीकी चौदाई मीजकी दूरीपर है।इसके पासही हवेलमोख और कोटी
पहब मूरे मनाइट पत्थरके एक विद्यालयको बेलगोल नामके गाँव है, उनसे पृथक् दर्शाने के लिए ही इसे काटकर बनाई गई है और जिस स्थानपर स्थित है, वहीं श्रमण अर्थात् जैनसाधुनीका बेलगोल कहा जाता है। पर ही निर्मित की गई थी।कारका बाखी प्रतिमा भी उसी बेलगोल कसदभाषाका शब्द है और इसका अर्थ है। पत्थरकी है और उसकी उंचाई ४२ कीट प्रबुमानतः श्वेत सरोवर इस स्थानपर स्थित एक सरोवरके कारण ही बह मन भारी है। इन विशालकाय प्रतिमानों में सम्भवतः यह नाम पड़ा है। इस सरोवरके उत्तर और बेपुर वाली प्रतिमा सबसे छोटी है,इसकी उंचाई. कीट दक्षिण में दो पहादिया है और उनके नाम क्रमशः चन्द्र- कलात्मकरष्टिसे तीनों एक होनेपर भी बेखरकी प्रतिमाके सिर और विध्यगिरि है। इस विध्यगिरिपर चामुखरायने पोलोंमें गवलेसे है जो गंभीर मुस्कराहटकासा भाव बाहाबली अथवा भुजवलीकी-जिनका बोकमसिब नाम लिए है। सम्भवतः उसके प्रभावोत्पादक भावमें गोम्मटस्वामी या गोम्मटेश्वर है-विशाल प्रतिमाका निर्माण
म्यूनता मा गई है। कराया। यह मूर्ति पर्वतके चारों ओर १५ मीलकी रीसे
अवयवेखगोलकी प्रतिमा तीनोंसे सर्वाधिक प्राचीन दिखाई देती है और चचरायपहनसे वो बहुत अधिक अथवा विशाल ही नहीं किन्तु ढालू पहावीकी चोटी पर स्पष्ट हो जाती है।
स्थित होनेके कारण इसके निर्माणमें बड़ी कठिनाइयोंका इस विशाल प्रतिमाके आसपास बादमें चामुखरापका सामना करना पड़ा होगा। यह मूर्ति उत्तराभिमुख सीधी अनुकरण करके वीर-पाएज्यके मुख्याधिकारीने १४१२. सदी और दिगम्बर है। जांघोंसे उपरका भाम बिना में कारकत मूडबिद्रीसे २२ मीबामें गोम्मटेश्वरकी दूसरी किसी सहारे है उस स्थडकबहबल्मीकसे पाच्छामर्ति बनवाई। कुछ काल बाद प्रधान तिम्मराजने बेसूर
ति। जिसमेंसे सांप निकलते प्रतीत होते हैं। उसके मरवितीसे १२ मील और अवयवेबमोबसे १६.मीख में
मोर मा. सन् १६०४ई. में गोम्मटेश्वरकी उसी प्रकारकी एक और
ईहै और बता अपने अन्तिम हिरों पर पुष्प गुपयोंसे प्रतिमा निर्मित करवाई। इन तीनों निर्माणकाल में अन्तर
- - होनेपर भी तीनों एक ही सी हैं। इससे जेनकबाकी एक- इस प्रतिमाके निर्माता हैं शिल्पी अरिष्टनेमि । शन्होंने नियम-पता और प्रविधि प्रवाहका परिचय मिलता है। निर्माता निर्माताले
है कि उसमें किसी प्रकारका दोष निकाल सकना सम्भव प्रतिमाएं संचारके पाश्चों में से है। श्री रमेशचन्द्र महींहै। सामुद्रिकशास्त्रमें जिन अंगोंका वीर्ष और बना मजमदारके विचारसे तो बह प्रतिमाएं विश्वभरमें अद्वितीय होना सौभाग्य-सूचक माना जाता हैअंग से ही है।
प्रतिमा
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मुख
र
३१२] अनेकान्त
[किरण १० उदाहरणार्य कानोंका निचला भाग, विशाल कंधे और भेजकर बाहुबलीसे अधीनता स्वीकार करनेको कहा, भाजानुबाहु । मार्मिक कंधे सीधेमसे दो विशाल परन्तु बाहुबलीने यह स्वीकार नहीं किया मरतने भुजाएं स्वाभाविक रंगसे पवलम्बित है हाथकी उंगलियाँ पाहुबली पर चढ़ाई की, दोनों में भयर युद्ध हुमा, सीधा हैं और अंगूठा उपरको उठा हुमा उंगलिबले भन्तन विजय बचमी बाहुबलीको प्राप्त हुई। अलग है। पद पर त्रिवलियां गलेकी धारियां, धुधरीले विजय प्रासकर लेने पर भी बाहुण्डीको राज्य उत्पस बालोंके गुच्छे मादि स्पष्ट है। कलात्मक रहिसे भाडम्बर- हो गया और उन्होंने भगवान् ऋषभदेव पास जागेका हीन, सादी और सुडौल
विचार किया। होनेपर भी भावब
समय यह विचार पाया जनाकी रहिसे अबु
meron. 4 कि मेरे १८ भाई पहले
... ही दोहा लेकर देवसबाहुबली
ज्ञान प्राप्त कर चुके है जैसा कि अपर निर्देश
वे वहां होंगे और उन्हें । किया गया है ये तीनों
वन्दन करना पड़ेगा, मूर्तियों बाहुबखोकी हैं
इसलिए केवलज्ञान प्रात जो प्रथम तीर्थकर मावि
करके ही वहां जाना ठीक जिन वषमनाबके पुत्र थे
रहेगा। यह विचार कर अनुभुति परम्पराके अनु
वहीं तपस्यारत हो गए। सार उनकी दो पलियां
वर्षभर मूतिकी भौति खड़े थीं, समझना और
रहे ! वृक्षों में लिपटी सुबन्दा । धुमाजासे
बताएं उनके शरीर उत्पन हुभवां का नाम
में लिपट गई । उन्होने था भरत और ब्राझी,
अपने वितानसे उनके एक बड़का और एक
सिरपर पत्र सा पना सबकी, सुमङ्गलासे ही
बना दिया । उनके अन्य १८ पुत्र उत्पन्न हुए ...*
कैरोके बीच कुश उग सुनन्दामे दोसन्तान थीं,
भाए जो देखने में बाहुबली और सुन्दरी।
मम्मीकसे प्रतीत होने जब भगवान ऋषभदेवने
लगे। एक वर्ष तक उम्र केवल-शान मासिके लिए
तप करने पर भी जब गृह-त्याग किया तो
उन्हें केवल ज्ञाम नहीं सन्होंने अपना राज्य
प्राप्त हुमा- क्योंकि भरतादि सौ पुत्रों को बांट दिया । बालीको तक्षशिलाका उनके मनमें यह भाव विद्यमान था कि मुझे अपने राज्य मिला। भरतने सम्पूर्ण पृथ्वीका विजय करके सेबोटे भायोंको बन्दन करना पड़ेगा-उन्हें प्रतियोध चक्रवर्तीका पद धारण तो किया परन्तु भरत चक्रवर्तिका कराने के हेतु उनकी बहिने माहो और सुन्दरी पायी
कराने के हेतु उनका वाहन पाहा चामायुधशाला (शस्त्रा गार) में प्रवेश नहीं करता और बोडी-'भाई! मोहके मदोन्मत्त हाथीसे नीचे भारमन्त्रीसे कारण पूछने पर ज्ञात हुआ कि उनके भाई वरो । इसने ही तुम्हारी तपस्याको निरर्थक बना बाहुबलीने अधीनता स्वीकार नहीं की, इस कारण यह
या उजवेताम्बर-मान्यता अनुसार। शस्त्रागारमें प्रवेश नहीं करता । भरतने सन्देश
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किरण १०]
श्रीबाहुबलीकी आश्चर्यमयी प्रतिमा
[३१३
रखा है। यह सुनकर बाहुबलीको ज्योति-मार्ग मिल गया चरित्र मामक संस्कृत काव्यके अनुसार राचमालकी राजऔर उन्हें केवन-शान हो गया।
मभामें चामुण्डायने एक पथिक-व्यापारीसे यह सुना कि यह प्रतिमा इन्ही बाहुबलीजी की है। उत्तरभारतमें उत्तरमें पोदनपुरी स्थानपर भरतद्वारा स्थापित बाहुबलीकी बह इसी नामसे विख्यात है। परंतु दक्षिणमें यह गोम्मटेश्वर एक प्रतिमा है। उसने अपनी माता समेत उस प्रतिमाके नामसे प्रसिद्ध है। प्राचीन ग्रंथों में गोम्मटेवर नामका प्रयोग दर्शनका विचार किया। परन्तु. पोदनपुरी जाना अत्यन्त नहीं मिलता। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह नाम
दुक्कर समझ कर एक सुवर्णवाणसे पहादीको बेदकर प्राचार्य नेमिचन्द्र पिबाम्त-चक्रवती द्वारा दिया हुआ है।
रावण द्वारा स्थापित बाहुबलीको प्रतिमाका पुनरूदार मूर्तिके निर्माता चामुण्डरायका एक अन्य नाम गोम्मटराय किया। देवचन्द्र द्वारा रचित कनाडी भाषाकी एक नवीन था, कादो में गोम्मटका अर्थ होता है कामदव', यह नाम पुस्तक में भी धोरे अन्तरसे यही कथा भायी है इसके ही वस्तुतः काल भाषाका है। गोम्मटराय चामुखराब)
अनुसार इस प्रतिमाके सम्बन्धमें चामुण्डरायकी माताने के पूज्य होने के कारण बाहुबली गोम्मटेश्वर कहलाए होंगे।
पमपुराणका पाठ सुनते समय यह सुना कि पौदनपुरीमे दक्षिणी भाषाका शब्द होने के कारण इसका वहाँ चलन हो
बाहुबलीकी प्रतिमा है। इस कथासे भी यह प्रतीत होता
है कि चामुण्डरायने यह प्रतिमा नहीं बनवाई अपितु इस चामुण्डराय
पहाड़ पर एक प्रतिमा पहलेसे विद्यमान थी, चामुण्डरायने चामुण्डराय गंगवंशके राजा राममायके मन्त्री और
शिल्पियोंपे इस प्रतिमाके सब अंगोंको ठीक ढंगसे सुख सेनापति थे । इससे पूर्व चामुण्डराय गंगवंशीय मारसिंह
बनवाकर सविधि स्थापना और प्रतिष्ठा कराई। प्रवणद्वितीय और उनके उत्तराधिकारी पांचाबदेवके भी मन्त्री
बेलगोलमें भी कुछ इसी प्रकारकी लोक-कथाएं प्रचलित सयुके थे। पांगदेवके बाद ही राचमन गद्दी पर बैठे
हैं और उनसे उपरकी किंवदन्तियोंक अनुसार प्रतीत थे। मारसिंह द्वितीयका शासनकाल चेर, चोल, पाययों
होता है कि इस स्थान पर एक प्रतिमा थी जो पृथ्वीसे पर विजय प्राप्तिके लिए प्रसिद्ध है। मारसिंह प्राचार्य
स्वतः निर्मित थी। अजितसेनके शिष्य थे और अपने युगके बड़े भारी योद्धा थे और अनेक जैनमन्दिरीका निर्माण कराया था। राचमन
: प्रतिमा-निमोण काल भी मारसिंहकी भांति जैनधर्म पर श्रद्धा रखते थे।
जिस शिलालेख में चामुण्डरावने अपना वर्णन किया चामुण्डराय तीन तीन नृपतियोंके समय अमात्य रहे। है उसमें केवल अपनी विजयोंका उस्लेख किया है किसी इन्हींके शौर्य के कारण ही मारसिह द्वितीय वज्जन, गोनूर धार्मिक कृत्यका नहीं। यदि मारसिंह द्वितीयके समय उसने
और उच्छंगीके रणक्षेत्रों में विजय प्राप्त कर सके । राचमल्ल प्रतिमाका निर्माण कराया होता तो स शिलालेख में के लिए भी उन्होंने अनेक युर जीते । गोविन्दराज, कोंडुअवश्य इसका निर्देश रहता। मारसिंह द्वितीयकी पल राज आदि अनेक राजाओंको परास्त किया। अपनी योग्यता २०५ई. में हुई । चामुण्डरायने अपने अन्य चामुबहरामके कारण इन्हे अनेक बिरुद प्राप्त हुए । श्रवणबेलगोनके पुराणमें भी इस प्रतिमाके सम्बन्धमें कोई निर्देश नही शिलालेखामें चामुण्डरायकी बहुत प्रशसा है। इन बेखोंमें किया। इस पुस्तकका रचनाकाई.है। राजमा अधिकांशतः युद्धोंमें विजय प्राप्त करनेका ही उल्लेख है। द्वितीयने १८ ई. तक राज्य किया । इसलिए ऐसा प्रतीत परन्तु जीवनके उत्तरकाखमें चामुण्डराय धार्मिक कृत्योंमें होता है कि इस प्रतिमाका निर्माण १७० और १t. प्रवृत्त रहे । वृद्धावस्थामें इन्होंने अपना जीवन गुरु भजित- के बीच हुमा होगा। सेनकी सेवामें ब्बतीत किया।
बाहुख-चरितमें पाये एक रखोकके अनुसार चामचामुण्डराय द्वारा निमित इस प्रतिमाके सम्बन्धमें डरायने बेबगुल नगरमें कुम्भलग्न में रविवार चैत्र शुक्ल अनेक प्रकारको किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। बाहुबलि- पंचमीके दिन विभव नाम कविक पदावाम संवत्सरके * यह सबयन श्वेताम्बर-माभ्यता के अनुसार है। प्रशस्त सुगशिरा नपत्र में गोमटेश्वरकी स्थापना की।
इस खोकमें निर्दिष समय पर अबतक ज्योतिष
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३१४
अनेकान्त
[किरण १०
हिसाबसे जो कार्य हुमा है उसके अनुसार १७और निर्दिष्ट समयके प्रतिकूल है। परन्तु यह मान लिया गया
और ८४ के बीच ३ अप्रैल ०ई० को मृगशिरा है कि कल्कि संवत् ६०० का अभिप्राय बटी सताब्दि है, नक्षत्र था और पूर्व दिवस (चैत्रकी बीसवीं तिथि) शुक्ल संस्कृतका इसके अनुरूप पद है : 'करस्यन्दे ष्टशताख्ये'। परकी पंचमी बग गई थी और रविवारको कुम्भवग्न मी विभवको ८ वर्ष मान लेनेसे १०८ कास्यन्द बनता है बा । परन्तु कलिक संवत् ..ई.सनका १०७२ होता जो कि ईस्वी सन् का १८०बन जाता है। इस गानासे है और इस सन्में चैत्र शुक्ल पक्षकी पंचमी तिथि चैत्रके उपरकी संगति बैठ जाती है और प्रतिमाका स्थापनाकाल वेईसवें दिन शुक्रवार पड़ता है जो उपयुक श्लोकमें अब १८०ई० निश्चित होता है। (हिन्दुस्थान से)
गरीबी क्यों? (गरीबीके दस कारणों की खोज और व्याख्या)
'गरीबी क्यों इस प्रश्नका सीधा-सा और बंधाबंधाया कि एक आदेमीका शोषण इतना अधिक हो जाता है कि उत्तर दिया जाता है 'पूजीवादी शोषणके कारण गरीबी वह भादमियोको गरीब करदे। है। इस उत्तरमें सचाई है और काफी सचाई है, फिर भी मैं एक बड़ी भारी कपडेकी मित्रमें गया। पता भी कितने लोग इस सचाईका मर्म समझते हैं मैं नहीं कह खगा कि यहाँ साधारणसे साधारण मजदूरको कम-से-कम सकता। जीवादसे गरीबी क्यों माती है इसकी बानबीन ७५) माह मिलता है। और किसी किसीको १००) माह भी शायद ही कोई करता हो। महर्षि मार्सने मुनाफा से भी अधिक मिलता है। तब मैंने सोचा कि इन मजदूरों पा अतिरिक्त मूल्यका जो विश्लेषण किया है वही रट- की टोटल आमदनी प्रति व्यक्ति १०.) माहवार सममना स्टाया उत्तर बहुतसे लोग दुहरा देते हैं। पर यह सिर्फ चाहिये। दिशा-निर्देश है उससे गरीबीके सब या पर्याप्त कारयों पर अब मान लीजिये कि मजदूर तो १००) माह पाता है प्रकाश नहीं पड़ता, सिर्फ गरीबीके विष-वृषके बीजका और मालिक पच्चीस हजार रुपया माह लेकर घोर शोषण पता लगता है। पर वह बीज अंकुरित कैसा होता है और अन्याय करता है। अगर मालिक यह पच्चीस हजार फूलता फलता कैसे है इसका पता बहुतोंको नहीं है। रुपया न ले और यह रुपया मजदूरों में बंट जाय तो पाँच
साधारणतः शोषकों में मिलमाखिकों, बैंकरों या बडे हजार मजदूरों पच्चीस हजार रुपवा बंटनेसे हरएक मजकारखानेदारोंको गिना जाता है, और यह ठीक भी है। दूरको सौ के बदले एक सौ पाँच रुपया माहवार मिलने बोटे-छोटे कारखाने जिनमें दस-दस पाँच-पाँच भादमी काम बगे । निःसन्देह इससे मजदूरको बामदानीमें तो अन्तर करते हैं, उनमें माखिक तो उतना ही कमा पाता है जितना पड़ेगा। पर क्या वह अन्तर इतना बड़ा है कि...) में कि उस कारखाने में एक मैनेजर रख दिया जाय और उसे मजदूरको गरीब कह दिया जाय और १०५ में अमीर वेतन दिया जाय । जीवादी प्रथा न होने पर भी उन कह दिया जाय ? क्या देशको प्रमोरीका पावर्शमें और छोटे छोटे कारखानों में मजदूरोंको बामदानीका उतना ही प्राजकी गरीबी में सिर्फ पाँच फीसदीका ही फर्क है। हिस्सा मिलेगा जितना माज मिलता है। इसलिये उनका यदि देशके अमीरोंकी सब सम्पत्ति गरीबोंमें बांट दी शोषकों में गिनमा ठीक नहीं । बाकी किसान, मजदूर, जाय तब भी क्या गरीबोंकी सम्पत्ति ५ फीसदीसे अधिक दुकानदार, अध्यापक, लेखक, कलाकारमादिमीयोषकों- बढ़ सकती है। अगर हम पैतीस करोड़ रुपया र साल में नहीं गिने जाते और भी यह टीका बरिक इनमेंसे अमीरोंसे छोनकर पैंतीस करोड़ गरीबोंमें बांट दे तो सबको अधिकाँश शोषित ही होते हैं। सच पूछा जाय तो इस एक-एक रुपया मिल जायगा । इस प्रकार साबमें एक-एक प्रकार देसकी जनतामें शोषकोंका अनुपात हजारमें एकके रुपएकी भामदनीसे क्या गरीबी अमीरोमें बदल जाएगी। हिसावले पड़ता है। ऐसी हालतमें यह कहना कठिन है बैंतीस करोड़की बात जाने दें पर बह रुपया सिर्फ सादे
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किरण १०]
गरीबी क्यों?
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तीन करोड भादमियों में ही बांटे तो भी दस-दस रुपए १.अश्रम-पतसे लोग श्रम करनेके योग्य होने हिस्सोंमें पायेंगे इससे भी गरीबी अमीरीमें तब्दील नहीं पर भी प्रम नहीं करते । इसलिए उनसे जो सुख-सुविधा हो सकती। तब सम्पति दानबहमें हर साल दस बीस या सुख-सुविधाका सामान पैदा हो सकता वह नहीं हो कोष रुपया पानेसे भी क्या होगा?
सकता है वह नहीं हो पाता । बालक और पदोंको पोष जो बोग दानके द्वारा गरीब देशको अमीर बनाना दिया जाय तो भी इस श्रेणी में कई करोष बादमी पाये चाहते है वे अर्थ शास्त्रकी वर्णमाला भी नहीं जानते ऐसा जाते हैं। कह देना अपमान जनक होगा, जो लोग विचारकतामें नहीं (क)-समाजकी कोई सेवाम करने वाले पुषक संस्कारमान्य यश प्रतिष्ठा ही पड़प्पन समझते है वे इसे साधुवेषो, जो बालोंकी संख्यामें है। वे सिर्फ भजन पूला छोटे मुंह बड़ी बात सममेंगे, कुछ लोग इसे पृष्टता कहेंगे करते हुए भाशीर्वाद देते हुए मुफ्त में जाते हैं। इसलिए यह पात न कहकर इतना तो कहना चाहिए कि (ख)-भिखारी काम करनेकी योग्यता रखते हुए भी ये लोग अर्थशास्त्रके मामले में देशको काफी गुमराह कर किसी न किसी बहानेसे भीख मांगते हैं। इनसे भी कोई रहे हैं न वे गरीबीके कारणोंकों इंटकर उसका निदान उत्पादन नहीं होता। कर पा रहे हैं न उसका इलाज ।
(ग)-पैत्रिक सम्पत्ति मिल जानेसे, या दहेज प्रादिमें
सम्पत्ति मिल जानेसे जो पड़े पड़े खाते हैं और कुछ उत्पादस कारण
दन नहीं करते। ऐसे लोग भी हजारोंकी संख्यामें हैं। शोषयका प्रत्यक्ष परिणाम विषम वितरण भी गरीबी
(घ)-घरमें चार दिनको खानेको है, मजदूरी क्यों का कारण है, पर यह एकही कारण है, वह भी इतना
करें, इस प्रकारका विचार करने वाले लोग बीच-बीच में बना नहीं कि अन्य कारण न हों वो अकेला यही कारण
काम नहीं करते, इससे भी उत्पादन कम होता है। मजदूर देशको गरीब बनादे । विषम वितरण और शोषण अमे
संगठन करके अधिक मजदूरी ले लेते हैं और फिर रिकामें होने पर भी अमेरिका संसारका सबसे बड़ा धन
दिन काम नहीं करते। वान देश है। इसलिए सिर्फ गरीबीके लिए इसी पर सारा
(क)-चाटुकार चापलूसी करके कुछ मांगने वाले दोष नहीं महा जा सकता। हाँ! कुछ कारण इसके
जोग भी मुफ्तखोर हैं। राजाभोंके पास ऐसे लोग रहते हैं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिणाम स्वरूप अवश्य हैं।
या रहते थे जो हुजूरकी जय हो मादि बोल कर हुजूरको खैर ! हमें देशकी और व्यक्तिकी गरीबीके सब खुश करके चैनसे खाने पीनेकी सामग्री पा जाते हैं। कारणों पर विचार करना है और उनमेंसे जितने कारण पर्यापन मसाहितोंडी चापलसोंकी टोलियाँ कम होती दरोसबर करना और यह भी सोचना है कि जाती हैं पर अभी भी है।
जाक किस कारणका दूर करनका क्या पारणाम होगा। इस प्रकार कई करोष भादमी हैं जो कोई उत्पादन गरीबीके दस कारण है
श्रम नहीं करते। अगर ये काम में खगें तो देशकी सुख१.भश्रम
(नोशिहो) सम्पत्ति काफी बढ़ जाये। २. श्रमानुपलब्धि (शिहोनोशिनो) २. श्रमानुपलब्धि-श्रम करनेकी तैयारी होने पर ३. कामचोरी
(कज्जो चुरो) भी श्रम करनेका अवसर नहीं मिलता। इस बेकारीके ४. असहयोग
(मोमाजो) कारणसे काफी उत्पादन रुकता है और देश गरीवहता ५. वृथोत्पादकश्नम (नकंजेजशिहो) है। बेकारीका कारण वह नहीं है कि देश में काम नहीं है। ६. अनुत्पादक श्रम (नोजेजशिहो) काम तो असीम पड़ा है। पीढ़ियों तक सारी जनता काम.. पापश्रम
(पाप शिहो) में पुरी रहे तो भी काम पूरा न होगा. इतना पहा है। ८. अल्पोत्पादक श्रम (बेजेज शिहो) अधिकांश बोगोंके पास रहने योग्य ठीक मकान हैन सब १. अनुत्पादकार्जन (मोजेज भनों) जगह यातायातकै खिचे सबके है,न भरपर पदे हैं.न १०. अनुचित वितरण (नोषिष सरो) परमें जली सामान है,नसबको उचित शिक्षण मिल
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अनेकान्त
[ वर्ष ४०
रहते है और बेज़रूरी काम भ्रम और सामनोंकी वी करने लगते हैं।
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पाता है, न कायोंका विकास हो पाया है, न चिकिस्सा की भरपूर व्यवस्था है, न सबके पास बाटाबायके भरपूर साधन है, इत्यादि असीम काम पड़ा है, इसलिए कामके नाव बेकारी नहीं है। एक तरफ काम पड़ा है, दूसरी तरफ कामकी सामग्री पड़ी है, तीसरी तरफ काम करने बाले बेकार बैठे हैं, इन तीनोंको मिलानेकी कोई धार्षिक व्यवस्था नहीं है यही बेकारीका कारण है जिससे असीम उत्पादन रुका पड़ा है और देश गरीब है।
३. कामचोरी - काम करने वाले मौकरोंमें उत्तेजनाका कोई कारण न होने से वे किसी तरह समय पूरा करते हैं कम-से-कम काम करते हैं, किसी न किसी बहानेसे समय बर्बाद करते है, मन्द गतिसे काम करते हैं इसलिये उत्पादन कम होता है। कामका ठेका दिया जाय पा मौकरोंकी हिस्सेदारकी तरह आमदनी में हिस्सा दिया जाब तो इस तरह समयको बर्बादी न हो, न मन्दगति से काम हो । उत्पादन बड़े इसलिए किसी न किसी तरहका संधीकरण करना जरूरी है।
४. असहयोगक्तिवादी धार्थिक व्यवस्था होनेसे काममें दूसरोंका उचित सहयोग नहीं मिलता इसलिए कार्य ठीक ढंगले और ठीक परिमाण में नहीं हो पाता, इसलिए उत्पादन काफी घट जाता है। जानकारोंकी सलाह न मिल सकना, यातायातके ठीक साधन न मिलना, या जरूरत समको जानेमे काफी महंगे और पूरे साधन मिलना, मजदूरोंका अड़कर बैठ जाना आदि अस हयोगके कारण उत्पादन घटता है। व्यक्तिवादका यह स्वाभाविक पाप है।
५. वृथोत्पादकश्रम-श्रम करने पर उत्पादन तो होता है पर वह उत्पादन किसी कामका नहीं होता या उचित कामका नहीं होता। एक आदमी काफी मेहनत करके दवाइयाँ बनाता है, पर दवाई किसी कामकी नहीं होती सिर्फ किसी तरह दवाई बेच कर पेट पान दिया जाता है। इसी तरह कोई बेकार जिसने बना कर पेट पाखने लगता है, ये सब पृथोत्पादक श्रम हैं इनसे मेहनत तो होती है पर कुछ लाभ नहीं होता बल्कि सामग्री बेकार नष्ट हो जाती है। व्यक्तिवादकी प्रधानताओं अब आदमीका कोई धन्धा नहीं मिलता वह ऐसे इथोत्पाएक अम करके गुजर करने लगता है काम पड़े
६. अनुत्पादकश्रम – जिसमें मेहनत तो की जा पर उससे उत्पादन या काम कुछ न हो वह अनुत्पादक भ्रम है।
बीमारीका इलाज करने के लिए जप, होम, बलिदान, परिक्रमा तथा पूजा आदि में धन और शक्ति बर्बाद करना या पानी बरसाने आदिके लिये ऐसे कार्य करना, जिससे शारीरिक शक्तिका कोई उपभोग नहीं ऐसी शारीरिक शक्ति बढ़ानेके लिये मेहनत करना जैसे पहलवानी आदि शांतिकी ठीक योजनाओं के बिना विश्व शान्ति यज्ञ करना, आदि अनुत्पादक अम हैं ।
मनुष्यजातिकी दृष्टिसे सैनिकता के कार्य भी अतुस्पादक श्रम हैं। फौजी बजटका बढ़ना भी देशकी गरीबीको निमन्त्रण देना है ।
स्वास्थ्यके लिये व्यायाम करना, मनकी शांतिके जिये प्रार्थना आदि करना, अनुत्पादक भ्रम नहीं है। क्योंकि जिस शारीरिक और मानसिक नामके जिये ये
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किये जाते है उस जानके वे उचित उपाय है। अनुत्पा दक अममें ऐसे अनुचित कार्य किए जाते हैं जो अपने लक्ष्यके उपाय साबित नहीं होते । अमुपादमश्रममें देशका उत्पादन होता ही नहीं किन्तु उत्पादनके निमित्त धन-जन-शक्तिकी बर्बादी होती है।
७. पापमचोरी डकैती हुधा आदि कार्य जो अम किया जाता है इससे पाप होता ही है पर देश में उत्पादन कुछ नहीं बढ़ता। जिनका धन जाता है ये तो गरीब होते ही है पर जिन्हें धन मिलता है वे भी मुफ्तके धनको उड़ा डालते है। इस तरह के पापकार्य जिस
देश में जितने अधिक होंगे देशकी गरीबी उतनी ही बढ़ेगी।
८. अल्पोत्पादकश्रम-जिस भ्रम से जितना पैदा होना चाहिये उससे कम पैदा करना, अर्थात् यो कार्य अधिक लोगोंका लगना था अधिक शक्ति लगना पाक है। जैसे
जो कार्य मशीनों सरिये अधिक मात्रामें पैदा किया जा सकता है उसे कोरे हाथोंसे करना । इससे अधिक आदमी अधिक शक्ति खर्च करके कम पैदा कर पायेंगे। जैसे मिलोंकी अपेक्षा हायसे सूत कातना । इसमें अधिक आदमियोंके द्वारा बोदा कपड़ा पैदा होता है, कई ज्यादा
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किरण १०]
गररावी क्यों।
बगतीमान भी बराबनता है। इसी प्रकार बायसे और भक्ष्योल्पादक श्रमके समर्थकोंपर यह कहावत परी कागज तैयार करना। इसमें भी समय ज्यादा अगता है तरहबाग होती है। और खराब माल बार होता है। मनुष्यकी शक्ति अधिक बेकारी दूर करनेके दो उपाय है, एक तो अधिक लगती है। जिस कामके लिये मशीमें नहीं हैं था जहां भादमियोंसे अधिक उत्पादन करना, दूसरा पुराने या चला मशीने नहीं मिल सकतो वहाँकी बात दूसरी है पर उत्पादनमेंही अधिक भादमियोंको खपा देना । पहिला बेकारी हटनके नाम पर मशीनोंका बहिष्कार करना देशको तरीका समाजके वैभवका है, दूसरा समाजकी गरीबी या कंगाल बनाना है। सबको जीविका देनेकी वार्षिक योजना कंगालीका। न बनाकर इस्तोचोगके नामपर व्यक्तिवाद पनपना देश है.अनुत्पादकार्जन-बोग ऐसा काम करते हैं
और दुनियाके साथ दुस्मनी रना है, उन्हें कंगाल जिससे देशर्म धनका या सुविधाका या गुबका उत्पादनतो बनाना है।
नहीं बढ़ता फिर मी व्यक्तिगत रूपमें लोग कुछ कमा खेते जहाँ अमुक तरहका माल बेचने के लिये पांच दुकानोंको है। यह अनुत्पादकाजल है। इससे कुछ लोगोंकी शक्ति •अरूलत है वहाँ पच्चीस दुकान बन जाना भी अल्पोपादक- व्यर्थ जाती है। जो शक्ति कुछ उत्पादन कर सकती बी अमरे। क्योंकि ग्राहकों की सुविधा तो उतनी पैदा की वह अनुत्पादक कार्यों में खर्चा हो जानेसे देशको गरीबी ही जायगी पर श्रमखर्च होगा पाँचकी जगह पच्चीस का । बहाती इस प्रकार हर एकका श्रम प्रपोत्पादक होगा। व्यक्ति- सहा भादि इसी श्रेणी का है। इससे खींचवानकर बादमें यह हानि स्वाभाविक है, क्योंकि किस किस काममें कृत्रिमरूपम बाजार बंधा-नीचा किया जाता है, और इसी कहाँ कितने भादमियोंको लगानेकी जरूरत है इसकी कोई उतार पड़ावमें सटोरिये लोग व्यर्थ ही काफी सम्पत्ति सामाजिक व्यवस्था तो हाती नहीं है, जिसे जो करना पट लेते है । यह सम्पति ग्राहकों और उत्पादकों होता है अपनी इच्छासे करने लगता है। इसलिये एक पाक्टिसे बिनती है और कुछ मुफ्तखोरोको अमीर बनाती दुकानकी जगह चार दुकानदार एक प्रेसकी जगह चार है। देशका इससे कोई लाभ नहीं, अमका तथा पनका प्रसपन जाते है, महक एकको जगह चार जगह बट नुकसान ही है। जाते है इसलिये दुकानको अधिक मुनाफा लेना पड़ता है, बीमा व्यवसाय भी इसी कोटिका है। इससे देशमें फिर भी बहुत बाधक नहीं लिया जा सकता है इसलिये कुछ उत्पादन नहीं बढ़ता, बल्कि कमी कभी काफी उनको भी गरीबी में रहना पड़ता है। इस प्रकार प्राहक नुकसान होता है। जैसे सम्पत्तिका अधिक पीमा भी नुकसान उठाते हैं और दुकानदार भी नुकसान उठाते कराके, सम्पत्ति में इस ढंगले भाग लगा देना जो है पर व्यक्तिवाद में भाज इसका इलाज नहीं है। स्वामाविक लगी हुई कहलाये, भाग दुकाने की तत्परतासे
देशर्म महोत्पादन के लिये जितने भादमियोंकी जरूरत कोशिश न करना. इस प्रकार सम्पत्ति नष्ट करके अधिक है उससे अधिक प्रादमियोंका उसी काममें खपाना भी पैसे वसूल कर लेना। बीमा कम्पनियाँ ऐसे बदमाशोंका अस्पोत्पादकसम है। अमेरिकामें एक समय अस्मी फ्रीसदी पैसा चुका तो देती है पर यह माता कहां से है। दूसरे भादमो खेतीमें लगे थे फल यह था कि अन्य उद्योग पनप बीमावाबोंके शोषण से ही यह पैसा दिया जाता है, नहीं पाते थे और देश गरीब था, अब पच्चीस कोसदी यदि बीमा कम्पनीका दिवाला निकल जाये वो शेयर भादमी की खेती में लगे है और देश अमीर है। जो लोग होल्डरोंके सेसे यह चुकाना कहलाया। मतलब यह कि किसी भी एक काममें जरूरतसे ज्यादा भादमियों को खपाने बोमा कम्पनियाँ बहुतसे ईमानदारोंको लुमाकर उनसे पैसा की योजना बनाते हैपपोत्पादक श्रमसे देशको कंगाल बीमती है और कप भने बुरोको बोट देती हैं और पर बनाते है। सम्भवतः वे शुभ कामनासे भी ऐसा करते भी बीच में दवाबी का जाती हैं। इससे इतने बोगोंकी होंगे पर उनकी शुभ कामनाएँ देशको कंगाल बनानेकी शकिम्बखो जाती ही है, उत्पादन भी नहीं होता तरफहीप्ररित करता है। जीकी यह कहावत बहुत है, साथ ही समय समय पर बालोंकी सम्पत्ति जानक ठीक है कि 'नरकका रास्ता शुभकामनामोंसे पट पदारपर्वाद की जाती है, यहाँ बाकि कमी कमी जीवन
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अनेकान्त
[किरण १०
बीमामें मन्दविषसे या माकस्मिक कारणोंके बहाने जामें किसी देशकी या मानव समाजकी गरीबीके ये दस वकले ली जाती है। पर यह व्यक्तिवादका अनिवार्य कारण है। हमें इन सभी कारणोंको दूर करना है। पाप बना हुआ है। यह भी अनुत्पादकार्जन है। किसी एक ही कारवको दूर करनेकी बात पर जोर देने से,
विज्ञापनबाजी और दलालीके भीतसे काम मनु- एक कारण तो दूर किया जाता है पर सरे कारणको त्पादकार्जग है। इससे उत्पादन तो नहीं बढ़ता, सिर्फ बुला लिया जाता है। जैसे साम्यवादी जोग विषम व्यक्तिवादकी लूट खसौटमें ये विचभैये भी कुछ लूट खसोट वितरणको हटानेकी बात कहकर भक्पोत्पादक श्रमको बेते हैं। यह भी व्यक्तिवादका अनिवार्य पाप बना हुया है। इतना अधिक बुला लेते हैं कि विषम वितरणको गरीबीसे ___ यह सब अनुत्पादकार्जन है इससे देश गरीब ही
लेंकडों गुणी गरीबी अल्पोत्पादकश्रमसे बढ़ जाती हैं। होता है। भावश्यक सीमित कलाकृतियाँ भानंद पैदा
इसलिये गरीबीके दसों कारणोंको दूर करना चाहिये और
एक कारण हटानेका विचार करते समय इस बातका करने के कारण अनुत्पादकार्जनमें न गिनी बायंगी।
ख्याल रखना चाहिये कि उससे गरीबीका दूसरा कारण १०. अनुचित वितरण-मेहनत और गुणके अनु
उभदन पदे या इतमाम उमद पदे कि एक तरफ जितनी सार फल न मिलना, यह अनुचित वितरण है। इससे
गरीबी दूरकी जाय दूसरी तरफसे उससे अधिक गरीबी एक तरफ मुफ्तखोरी विलास आदि बढ़ता है दूसरी तरफ
बुला ली जाय। अनुत्पादहीनता बढ़ती है। बेकारी शोषण प्रादि इसीके दुर्भाग्यसे इस समब देश में गरीबीके सब कारणों पर परिणाम है।इसे ही जीवादका पाप कहते हैं। जो कि विचार करने वाले राजनीतिक लोगोंकी कमी है। किसी म्यक्तिवादका एक रूप है। इससे बेकारी फैलती है। एक दो कारणों पर जोर देनेवाले तथा दूसरे कारणों को मजदूरोंमें उत्साह नहीं होता, इससे उत्पादन रुकताके उभारने वाले कार्यक्रमही यहाँ पख रहे हैं। यह देशका
और विषम वितरणसे एक तरफ माल सड़ता है दूसरी दुर्भाग्य है। इस दुर्भाग्यको दूर करनेके लिये सर्वतोमुख वरक मानके लिये जोग पते रहते हैं इस प्रकार इससे दृष्टिसे, विवेकसे और निरतिवादसे काम लेना चाहिये । देश कंगाल होता है।
-'संगम' से
वीरसेवामन्दिरका नया प्रकाशन . ___ पाठकोंको यह जानकर अत्यन्त हर्ष होगा कि प्राचार्य पूज्यपादका 'समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामकी दोनों आध्यात्मिक कृतियों संस्कृतटीकाके साथ बहुत दिनोंसे अशाप्य थी, तथा समक्षु प्राध्यात्म प्रेमी महानुभावोंकी इन ग्रन्थोंकी मांग होनेके फलस्वरूप वीरसेवामन्दिरने समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ पंडित परमानन्द शास्त्री कृत हिन्दीटीका और प्रभाचन्द्राचार्यकृत समाधितन्त्र टीका और भाचार्यकल्प पंडित माशाधरजी कृत इष्टोपदेशकी संस्कृतटीका भी साथमें लगा दी है । स्वाध्याय प्रेमियों के लिये यह ग्रन्थ खास तौरसे उपयोगी है। पृष्ठ संख्या सब तीनसौ से ऊपर है । सजिन्द प्रतिका मून्य ३) रुपया और विना जिन्दके २२) रुपया है। वाइडिग होकर अन्य एक महीने में प्रकाशित हो जायगा । ग्राहकों और पाठकोंको अभीसे अपना आर्डर मेज देना चाहिये ।
मैनेजर-वीरसेवामन्दिर,
१दरियागंज, देहली
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हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री) कारकलसे ३४ मील चलकर 'वरंगल' पाए । यहाँ स चौकीके समीप हमें रुकना पड़ा। और शिमोगा एक छोटीसी धर्मशाला एक कुवा और तालाबके अन्दर जानेके लिये हमें बतलाया गया कि इस रास्तेसे लारी एक मदिर है दूरसे देखने पर पावापुरका दृश्य आँखोंके नहीं जा सकती आपको कुछ घेरेसे जाना पड़ेगा। सामने आ जाता है। मंदिरमें जानेके लिये तालाबमें अतः हमें विवश हो कर सीधा मार्ग छोड़ कर मोड़से एक छोटीसी नौका रहती है जिसमें मुश्किलसे १०-१२ बांए हाथकी ओर वाली सड़कसे गुजरना पड़ा, क्योंकि आदमी बैठ कर जाते हैं। हमलोग ४-५ बारमें गए मीधे रास्तेसे जाने पर नदीके पुल पर से कार ही जा और उतनी ही बार में वापिस लौट कर आए। नौकाका सकती थी, लारी नहीं, उस मोड़से हम दो तीन मील चार्ज ३॥) दिया। मंदिर विशाल है। ४-५ जगह दर्शन ही चले थे कि एक ग्राम मिला, जिसका नाम मुझे इस हैं। मूर्तियोंको संख्या अधिक है और वे संभवतः दोसौके 'ममय स्मरण नहीं है, वहाँ हम लोगोंने शामका भोजन लगभग होंगी। मध्य मंदिरके चारों किनारों पर भी दश किया। उसके बाद उसी गांवकी नदीके मध्य में से निकल सुन्दर मूर्तियाँ विराजमान हैं । मन्दिरमें बैठ कर शांति कर पार वाली घाटीकी सड़कमें हमारा रास्ता मिल गया। का अनुभव होता है। इस मन्दिरका प्रबन्ध 'हुम्मच' यहाँ नदीका पल नहीं है, नदीमें पानी अधिक नहीं था, के भट्टारके आधीन है । प्रबन्ध साधारण है। परन्तु सिर्फ घुटने तक ही था, हम लोगाने लारीसे उतर कर तालाबमें सफाई कम थी-घास-फूस हो रहा था। नदीको पैरोंसे पार कर पुनः लारीमें बैठ गए। घाटीके बरसात कम होनेसे तालाबमें पानी भी कम था, तालाब रास्ते में मीलकी चदाई है और इतनी ही उतराई है। में कमल भी लगे हुए हैं, जब वे प्रातःकाल खिलते हैं सड़कके दोनों ओर सघन वृक्षोंकी ऊँची ऊँची विशाल तब तालाबकी शोभा देखते ही बनती है। गर्मी के दिनों में पंक्तियाँ मनोहर जान पड़ती हैं। सलोंकी सघन कतारी तालाबका पानी भी गरम हो जाता है । परन्तु मन्दिरमें के कारण ऊँची नीची भूमि-विषयक विषम स्थान दुर्गम स्थित लोगोंको ठंडी वायुके झकोरे शान्ति प्रदान करते से दिखाई देते थे । चढ़ाई अधिक हानेके कारण हैं। उक्त भट्टारकजीके पास वरंगक्षेत्र-सम्बन्धी एक मोटरका इञ्जन जब अधिक गर्म हो जाता था तब हम 'स्थलपुराण' और उसका महात्म्य भी है ऐसा कहा
लोग उतर कर कुछ दूर पैदल ही चलते थे । परन्तु जाता है। हुम्मच शिमोगा जिले में है। यहांके पद्मा
रात्रिको वह स्थान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था। वती वस्तिक मंदिर में एक बड़ा भारी शिलालेख अंकित
कहा जाता है कि उस जंगल में शेर व्याघ्र, चीता वगैरह है जो कनाड़ी और संस्कृत भापामें उत्कीणे किया हुआ हिंस्त्र-जन्तओंका निवास है। पर हम लोग बिना किसी है। उसमें अनेक जैनाचार्योंका इतिवृत्त और नाम अंकित
भयके १८ मील लम्बी उस घाटीको पार कर । बजे मिलते हैं जो अनुसन्धान प्रिय विद्वानोंके लिये बहुत रात्रिक करीव शिमोगा पहुंचे। और वहां दुकानोंकी उपयोगी हैं। यहाँ पुरानी भट्टारकीय गही है जिस पर पटडियों पर बिछौना बिछा कर थोड़ी नींद ली। और आज भी भट्टारक देवेन्दुकीर्ति मौजूद हैं। यहाँ एक प्रातः काल नैमित्तिक कार्योंसे निवृत्त होकर तथा मंदिरमें शास्त्रभंडार भी है जिसमें संस्कृत प्राकृत और कनाड़ी दर्शन कर हरिहरके लिये चल दिये। और साड़े ग्यारह भाषाके अनेक अप्रकाशित ग्रन्थ मौजूद हैं। बजेके लगभग हम हरिहर पहुँचे । हरिहरमें हम सर
वरंगसे चलते समय काजू और सुपारी आदिके कारी बंगलामें ठहरे और वहाँ भोजनादि बना खाकर विशाल सुन्दर पेड़ दिखाई देते थे। दृश्य बड़ा ही दो बजेके करीब चलकर रातको । बजेके लगभग मनोरम था। सड़कके दोनों ओरकी हरित वृक्षावलो हुगली पहुंचे और मोटरसे केवल बिस्तरादि उतार कर दर्शकके चित्तको आकृष्ट कर रही थी। हम लोग वरंग हम लोगोंने मंदिरमे दर्शन किये मंदिर अच्छा है उस से १०-१२ मीलका ही रास्ता तय कर पाये थे कि पुलि- में मूल नायककी मूर्ति बड़ी मुन्दर हैं । जैन मन्दिरकी
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अनेकान्त
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धर्मशालामें थोड़ेसे स्थानमें रात्रिको विश्राम करना पड़ा; दशा हूमड़, पंचम कासार आदि जातियोंके लोग पाये क्योंकि धर्मशाला अन्य यात्रियोंसे भरी हुई थी, उनके जाते हैं। शहर में दो दिगम्बर जैनमंदिर हैं जिनमें शोरोगुलसे रात्रिमें नींद नहीं आई, फिर भी प्रातःकाल पार्श्वनाथकी मूलनायक प्रतिमा विराजमान हैं। हम चार बजे उठ कर चल दिये, और रास्ते में भोजनादि लोगोंने उनकी सानन्द बन्दना की। बीजापुरसे दो कार्योंसे उन्मुक्त हो कर २॥ बजेके करीब हम लोग मील दूरी पर जमीनमें गड़ा अति प्राचीनकालीन कलाबीजापुर पहुंचे।
. कौशल सम्पन्न भगवान पाश्र्वनाथका मंदिर मिला था। बीजापुर-बम्बई अहातेके दक्षिणी विभागका एक उसमें भगवान पार्श्व नाथकी लगभग एक हाथ ऊँची प्राचीन प्रसिद्ध नगर था। इसे पूर्व समयमें विजयपर १०८ सर्प फोंसे युक्त पद्मासन मति विराजमान है। के नामसे पुकारा जाता था ईसाकी द्वितीय शताब्दीमें उसके सिंहासन पर कनड़ी भाषामें एक शिलालेख इस नगर पर बादामीके राष्टकट राजाओंका सन ७६० उत्कीरणे किया हुआ है; परन्तु उसके अक्षर अत्यन्त से ६७३ तक अधिकार रहा है। उनके बाद सन १७३ घिस जानेसे पढ़ने में नहीं आते। बीजापुरके पंच ही से ११६० तक कलचूरी राजाओंका और होसाल वंशके उक्त मन्दिरकी पूजाका प्रबन्ध करते हैं। यशस्वी राजा बल्लालका अधिकार रहा है। जिनमें मुसलमानोंके शासन कालमें दर्शनीय पुरातन जैन दक्षिणी बीजापुरमें सिंदा राजाओंने सन् ११२० से मन्दिरोंको ध्वंस करा दिया था और मूर्तिय अख११८० तक शासन किया है। इनमें अधिकांश राजा ण्डितदशामें चन्दा बावड़ीमें फिकवा दिया गया था। जैनधर्म प्रिय थे-उनकी जैन धर्मपर आस्था और प्रेम किलेमें जो जैन मूर्तियाँ मिली थीं उन्हें और बावड़ी था, यही कारण है कि इनके समयमें इस प्रान्तमें सैकड़ों वाली मतियोंको अंग्रेजोंने बोली गुम्बज वाले पुरातन जैन मंदिर बने थे परंतु आज उन मंदिरोंके प्राचीन खंड- संग्राहलयमें रखवा दिया था। संग्राहलयकी मूर्तियों में से हरात और अनेक मूर्तियाँ मूर्ति-लेखोंसे अंकिन पाई जाती एक मूर्ति काले पाषाणकी है जो करीब तीन हाथ ऊँची हैं। और सन् १९७० से १३वीं शताब्दीतक यादव वंशके होगी 'इम मनिके आसनमें जो लेख अंकित है वह राजाओंने मुसलमानों के आक्रमणसे पूर्व तक राज्य संवत् १२३२ का है यह लेख मैंने उसी समय पूरा नोट किया है। मुसलमान बादशाहोंमें सबसे पहले अलाउ- कर लिया था परन्तु वह यात्रामें इधर उधर हो गया, हीन खिलजीने देवगिरि पर हमला किया था। और इसी कारण उसे यहाँ नहीं दिया जा सका। वहां से बहमूल्य सम्पत्ति रत्न जवाहिरात और सोना बीजापुर में मसलमानोंकी दो मस्जिदें हैं, जो पुरानी वगैरह लूट कर लाया था इसने यादव वंशके नवमें मस्जिद और जम्मा मस्जिदके नामसे पकारी जाती हैं। राजा रामदेवका परास्त किया था। सन् १६८६ ई० में कहा जाता है कि ये दोनों ही मस्जिदें हिन्दू और जैन
ओरंगजेबने बीजापुर पर कब्जा कर लिया। इसने इस मन्दिरोंको तोड़ कर उनके पत्थरों और स्तम्भोंसे बनाई प्रान्तके अनेक मन्दिरोंको धराशायी करवा दिया और गई हैं। पुरानी मस्जिदके मध्यकी लेन उत्तरी बगलके मूर्तियोंको खंडित करवा दिया। बीजापुरके मुसलमानों
पास नक्कासीदार एक काले स्तम्भ पर कनाड़ी अक्षरोंमें के सातवें बादशाह मुहम्मद आदिल शाहने एक मकबरा संस्कृतका एक शिला लेख अंकित है इतना ही नहीं बनवाया था जो गोल गुम्बज'के नामसे आज भी प्रसिद्ध किन्तु चारों ओरके अन्य कई स्तम्भों पर भी संस्कृत है। इसमें आवाज लगानेसे जो प्रतिध्वनि निकलती है और कनडीमें लेख उत्कीर्ण हैं उनमें एक लेख सन् वह बड़ी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है इसी कारण इसे १३२० ई० का बतलाया जाता है। इन सब उल्लेखोंसे 'बोली गुम्बज' भी कहा जाता है। मुसलमानोंके बाद यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त शिलालेख वाले पुराबीजापुर पर महाराष्ट्रोंका अधिकार हो गया और उनके तन जैन पाषाण स्तम्भ जैन मन्दिरों के हैं। इस तरह बाद अंग्रेजोका शासन रहा है।
जैनियोंके धार्मिक स्थानोंका मुसलमानोंने विध्वंस किया बीजापुरमें जैनियोंके पचीस तीस घर हैं जिनमें है। परन्तु जैनियोंने आज तक किसीके धार्मिक स्थानों.
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किरण १०]
को क्षति पहुंचाने का कोई उपक्रम नहीं कियां । बीजापुर से चलकर हम लोग रास्ते में एक बड़ी नदीको पार कर १ बजेके करीब शोलापुर पहुँचे और जैन श्राविकाश्रममें टहरे ।
हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण
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प्रात कालको नैमित्तिक क्रियाओंसे फ़ारिख हो कर जिनमन्दिर में दर्शन किये और श्रीमती सुमतिवाईने श्राविकाश्रम में एक सभाका आयोजन किया जिसमें मुख्तार साला ० राजकृष्णजी बाबूलाल जमादार, मेरा, विद्युल्लता और सुमतिबाईजीके संक्षिप्त भाषण हुए । श्राविकाश्रमका कार्य अच्छा चल रहा है। श्री सुमतिबाई जी अपना अधिकांश समय संस्था संचालनमें तथा कुछ समय ज्ञान -गोष्ठी में भी बिताती हैं। सालापुरमें कई जैनसंस्थाएँ हैं । जैन समाजका पुरातन पत्र 'जैन बोधक' हाॅ से ही प्रकाशित होता है, श्रीकुन्थुसागर मंथमालाके' प्रकाशन भी यहाँ से ही होते हैं और जीवराज ग्रन्थमालाका आफिम और सेठ माणिकचन्द दि० जैन परीक्षालय बम्बईका दफ्तर भी यहाँ ही है । सोलापुर व्यापारका केन्द्रस्थल है। सोलापुरसे ता० १२ के दुपहर बाद चल कर हम लोग वार्सी आए। और वहां सेठजीके एक क्वाटरमें ठहरे जो एक मिलके मालिक हैं और जिनके अनुरोधसे आचार्य शांतिसागरजी उन्हींके बगीचे में ठहरे हुए थे । हम लोगोंने रात्रिमें विश्राम कर प्रातःकाल आवश्यक क्रियाओंसे निमिट कर आचार्यश्री के दर्शन करने गये । प्रथम जिनदर्शन कर आचार्य महाराजके दर्शन किये, जहाँ पं० तनसुम्बरायजी कालाने लाला राजकृष्णजी और मुख्तार साहब आदिका परिचय कुछ भ्रान्त एवं आक्षेपात्मकरूपमें उपस्थित किया जिसका तत्काल परिहार किया गया और जनता ने तथा आचार्य महाराजने पंडितजीकी उस अनर्गल प्रवृत्तिको रोका। उसके बाद आचार्य महाराजका उपदेश प्रारम्भ हुआ । आपने श्रावक व्रतोंका कथन करते हुए कहा कि जिन भगवानने श्रावकोंको जिन पूजादिका उपदेश दिया । तब मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीने आचार्यश्रीसे पूछा कि महाराज श्राचार्य पात्रकेशरीने, जे. अकलंकदेव से पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने अपने 'जिनेन्द्रस्तुति' नामके प्रन्थ में यह स्पष्ट बतलाया है कि ज्वलित (देदीप्यमान) केवल ज्ञानके धारक जिनेन्द्रभगवानने
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मुक्ति-सुबके लिये चैत्यनिर्माण करना, दान देना और पूजनादिक क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया; क्योंकि ये सब क्रियाएँ प्राणियोंके मरण और पीड़नादिककी कारण हैं; किन्तु आपके गुणों में अनुराग करने वाले श्रावउनके निम्न पद्यसे स्पष्ट है कोंने स्वयं ही उनका अनुष्ठान कर लिया है जैसा कि
"विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः, क्रिया बहुविधासुभ्रन्मरणपीड़नादिहेतवः ।” त्वया ज्वलितकेवलेन नहि देशितः किंतु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः || ३७॥
इस पद्यको सुनकर आचार्यश्रीने कहा कि आदिपुराण में जिनसेनाचार्योंने जिनपूजाका सम्मुल्लेख किया है । तब मुख्तार साहबने कहा कि भगवान आदि नाथने गृहस्थ अवस्थामें भले ही जिनपूजाका उपदेश दिया हो; किन्तु केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद उपदेश दिया हो, ऐसी कोई उल्लेख अभी तक किसी प्रन्थमें देखने में नहीं आया । इसके बाद आचार्यश्रीसे कुछ समय एकान्त में तत्त्व चर्चाके लिए समय प्रदान करनेकी प्रार्थन की गई, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया । अनन्तर आचार्यश्री चर्याके लिए चले गए। और हम लोग उनके आहारके बाद डेरे पर आये, तथा भोजनादिसे निवृत्त होकर और सामानको लारीमें व्यवस्थि कर आचार्यश्री के पास मुख्तार सा०, लाला राजकृष्णजी और सेठ छदामीलालजी बाबूलाल जमादार और मैं गए। और करीब डेढ़ घण्टे तक त्रिविध विषयों पर बड़ी शांति से चर्चा होती रही। पश्चात् हम लोग ४ बजेके लगभग वार्सटाउनसे रवाना होकर सिद्ध क्षेत्र कुंथलगिरी श्राये | कुंथलगिरिमें देखा तो धर्मशाला यात्रियोंसे परिपूर्ण थी । फिर भी जैसे तैसे थोड़ी नींद लेकर रात्रि व्यतीत की, रात्रिमें और भी यात्री आये । और प्रातःकाल नैमित्तिक क्रिय
वन्दना की । निर्वाणकाण्डके अनुसार कुंथलगिरिसे कुलभूषण और देशभूषण मुनि मुक्ति गये थे जैसा कि निर्वाणकाण्डकी निम्न गाथासे प्रकट है। वंसस्थलवरणियरे पच्छिमभायम्मि कुंथुगिरीसिहरे कुलदेसभूषणमुखी, णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥
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यहाँ पर १० १२ मन्दिर हैं। पर वे प्रायः सब ही
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अनेकान्त
[किरण १०
आधुनिक हैं प्राचीन मंदिर जीर्णशीर्ण हो गया था पाते हैं। यह क्षेत्र कितना पुराना है इसका कोई इतिवृत्त जिसका जीर्णोद्धर संवत् १६३२ में भट्टारक कनककीर्ति मुझे जल्दीमें प्राप्त नहीं हो सका । हम लोगोंने सानन्द ईडरवालोंकी ओरसे किया गया था। यहाँ एक ब्रह्मचर्या- यात्रा की। और भोजनादिके पश्चात् यहांसे ओरंगाश्रम भी है जिसमें उस प्रान्तके अनेक विद्यार्थी शिक्षा बादके लिये रवाना हुए।
(क्रमशः)
जैनधर्म और जैनदर्शन
(लेखक : श्री अम्बुजाक्ष एम. ए. बी. एल.) पुण्यभूमि भारतवर्ष में वैदक (हिन्दू) बौद्ध और जैन उपस्थित हो जाता है। अशोकस्तम्भ, चीनी यात्री ह्रयेन्सांग इन तीन प्रधान धर्मोंका अभ्युत्थान हुआ है। यद्यपि बौद्धधर्म का भारत भ्रमण, आदि जो प्राचीन इतिहासकी निर्विवाद भारतके अनेक सम्प्रदायों और अनेक प्रकारके प्राचारों बातें हैं उनका बहुत बड़ा भाग बौद्धधर्मके साथ मिला व्यवहारों में अपना प्रभाव छोड़ गया है, परन्तु वह अपनी हुश्रा है भारतके कीर्तिशाली चक्रवर्ती राजाओंने बौद्धधर्मको जन्मभूमिसे खदेड़ दिया गया है और मिहल, ब्रह्मदेश, ' राजधर्मक रूपमें ग्रहण किया था, इसलिए किसी समय तिब्बत, चीन आदि देशोंमें वर्तमान है। इस समय हमारे हिमालयस लेकर कन्याकुमारी तककी समस्न भारत भूमि देशमें बौद्धधर्मके सम्बन्धमें यथेष्ट अालोचना होती है, परन्तु पीले कपड़े वालोंस व्याप्त हो गयी थी। किन्तु भारतीय जैनधर्मके विषयमें अब तक कोई भी उल्लेख योग्य आलोचना इतिहासमें जैनधर्मका प्रभाव कहाँ तक विस्तृत हुआ था नहीं हुई । जैनधर्मके सम्बन्ध में हमारा ज्ञान बहुतही परिमित यह अब तक भी पूर्ण रूपसे मालूम नहीं होता है । भारतक है। स्कूलोंमें पढ़ाये जाने वाले इतिहामोंके एक दो पृष्ठोंमें विविध स्थानोंमें जैनकीतिक जो अनेक ध्वंसावशेष अब भी तीर्थकर महावीर द्वारा प्रचारित जैनधर्मक सम्बन्धमें जो वर्तमान है। उनके सम्बन्धमें अच्छी तरह अनुसन्धान करक अत्यन्त संक्षिप्त विवरण रहता है, उमको छोड़ कर हम कुछ ऐतिहासिक तत्त्वोंको खोजनेकी कोई उल्लेख योग्य चेष्टा नहीं भी नहीं जानते । जैनधर्म-सम्बन्धी विस्तृत अालोचना करनेकी हुई है। मैसूर राज्यक श्रवणबेलगोल नामक स्थानके चन्द्रलोगोंकी इच्छा भी होती है, पर अभी तक उसके पूर्ण होने- गिरि पर्वत पर जो थोड़ेसे शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनसे का कोई विशेष सुभीता नहीं है। कारण दो चार ग्रन्थोंको मालूम होता है कि मौर्यवंशके प्रतिष्ठाता महाराज चन्द्रगुप्त छोड़ कर जैनधर्म सम्बन्धी अगणित प्रन्थ अभी तक भी जैनमतावलम्बी थे। इस बातको श्री विन्संट स्मिथने अपने अप्रकाशित हैं। भिन्न-भिन्न मन्दिरोंके भण्डारोंमें जैन ग्रन्थ भारतक इतिहासके तृतीय संस्करण (१९९४) में लिम्वा छुपे हुए हैं, इसलिए पठन या आलोचना करनेके लिए ये है परन्तु इस विषयमैं कुछ लोगोंने शंका की है किन्तु अब दुर्लभ हैं।
अधिकांश मान्य विद्वान इस विषयमें एक मत हो गये हैं। हमारी उपेक्षा तथा अज्ञता
जैन शास्त्रोंमें लिखा है कि महाराज चन्द्रगुप्त (छ??) बौधर्मके समान जैनधर्मकी आलोचना क्यों नहीं पांचवे श्रुतकवली भद्रबाहुकं द्वारा जैनधर्ममें दीक्षित किये हुई? इसके और भी कई कारण हैं। बौद्धधर्म पृथ्वीके गये थे और महाराज अशोक भी पहले अपने पितामहस एक तृतीयांश प्राणियोंका धर्म है, किन्तु भारतकं चालीस ग्रहीत जैनधर्मके अनुयायी थे पर पीछे उन्होंने जैनधर्मका करोड़ लोगोंमें जैनधर्मावलम्बी केवल लगभग बीस लाग्य परित्याग करके बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया था। भारतीय हैं। इसी कारण बौद्धधर्मके समान जैनधर्मके गुरुत्वका किसी विचारों पर जैनधर्म और जैनदर्शनने क्या प्रभाव डाला है, को अनुभव नहीं होता। इसके अतिरिक्र भारतमें बौद्ध इसका इतिहास लिखनेके समग्र उपकरण अब भी संग्रह प्रभाव विशेषताके साथ परिस्फुटित है। इसलिए भारतके नहीं किए गए हैं। पर यह बात अच्छी तरह निश्चित हो इतिहासकी आलोचनामें बौद्धधर्मका प्रसंग स्वयं ही कर चुकी है कि जैन विद्वानोंने न्यायशास्त्रमें बहुत अधिक उमति
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किरण १० ]
की थी। उनके और बौद्धनेयायकोंकि संसर्ग और संघर्ष कारण प्राचीन न्यायका कितना ही अंश परिवर्द्धित और परिवर्तित किया गया और नवीन न्यायके रचनेकी आवश्यकता हुई थी। शाकटायन आदि वैयाकरण, कुन्दकुन्द समन्तभ स्वामी, उमास्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, महादेव, आदि नैयायिक टीकाकृत कुलरवि मल्लिनाथ, कोषकार अमरति अभिधानकार पूज्यपाद, हेमचन्द्र तथा गणितज्ञ महावीराचार्य,
चादि विद्वान् जैन धर्मावलम्बी थे। भारतीय ज्ञान भण्डार दिगम्बर मूल परम्परा है
इन सबका बहुत ऋणी है।
जैन धर्म और दर्शन
अच्छी तरह परिचय तथा श्रालोचना न होनेक कारण अब भी जैनधर्मके विषय में लोगोंके तरह तरह के उटपटांग ख्याल बने हैं। कोई कहना था यह बौद्धधर्मका ही एक मेद है। कोई कहना था वैदिक (हिन्दू) धर्म में जो अनेक सम्प्रदाय हैं, इन्हींमेंसे यह भी एक है जिसे महावीर स्वामीने प्रवर्तित किया था। कोई कोई कहते थे कि जैन चार्य नहीं हैं, क्योंकि वे ना मूर्तियोंको पूजने हैं जैनधर्म भारतक मूलनिवासियोंक किसी एक धर्म सम्प्रदायका केवल एक रूपान्तर है । इस तरह नाना अनभिज्ञताओंक कारण नाना प्रकारकी कल्पनाओंसे प्रसून भ्रांतियां फैल रही थीं, उनकी निराधारता अब धीरे-धीरे प्रकट होती जाती है जैनधर्म बौद्धधमें से अति प्राचीन
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यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाम्बा नहीं है महावीर स्वामी जनधर्म संस्थापक नहीं हैं, उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया था । महावीर या वहमान स्वामी देवके ममकालीन थे। बुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मप्रचार कार्यका व्रत लेकर जिस समय धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय महावीर स्वामी एक मति तथा मान्यधर्म शिक्षक थे। बौद्धोंक त्रिपिटक नामक ग्रन्थ में 'नातपुत्त' नामक जिम्म निर्मन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख है, वह 'नातपुन' ही महावीर स्वामी हैं उन्होंने ज्ञातृनामक क्षत्रियवंशमें जन्म ग्रहण किया था, इसलिए ज्ञानपुत्र (पाली भाषामें जा [ना] स पुत्र) ये कहलाने थे। जैन मतानुसार महावीरस्वामी चौबीस या
तिम तीर्थंकर थे। उनके लगभग २०० वर्ष पहले तेईसवें १ दिगम्बर सम्प्रदायक ग्रन्थोंमें महावीर स्वामीकं वंशका उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय ही ही 'ज्ञातृ' के प्राकृत रूप 'णात' का ही रूपान्तर है ।
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तीर्थंकर श्रीपारवनाथस्वामी हो चुके थे। अब तक इस विषयमें सन्देह था कि पार्श्वनाथ स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति थे या नहीं। परन्तु डा० हर्मन जैकोबीने सिद्ध किया है कि पार्श्वनाथने ईसासे पूर्व भ्राठवीं शताब्दी में जैनधर्मका प्रचार किया था। पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती अन्य बाईस तीर्थकरोंके सम्बन्धमें अब तक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला है।
'तीर्थक', निर्गन्थ, और नग्न नाम भी जैनांक लिये व्यवहृत होते हैं । यह तीसरा नाम जैनोंके प्रधान और प्राचीनतम दिगम्बर सम्प्रदायके कारण पड़ा है। मेगस्थनीज इन्हें नग्न दार्शनिक ( ( Gymnosphists) के नामसे उल्लेख करता है। प्रोम देशमें एक ईलियाटिक नामका सम्प्रदाय हुआ है। वह नित्य, परिवर्तन रहित एक त सत्तामात्र स्वीकार करके जगतके मारे परिवर्तनों, गतियों और क्रियाओंकी संभावनाको अस्वीकार करता है। इस मतका प्रतिद्वन्द्वी एक 'हिराक्लीटियन' सम्प्रदाय हुआ है वह विश्वस्की ( द्रव्य) की नित्यता सम्पूर्ण रूपसे अस्वीकार करता है। उसके मनसे जगत सर्वथा परिवर्तनशील है। जगतो निरबाध गतिसे वह रहा है, एक भरके लिए भी कोई वस्तु एक भाव स्थित होकर नहीं रह सकती। ईलियाटिक-सम्प्रदायक द्वारा प्रचारित उक्त नित्यबाद और हीराक्लीरियन सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित परिवर्तनवाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेक रूपोंमें नाना समस्याओंके आवरण में प्रकट हुए हैं। इन दो मर्तीक सम न्वयकी अनेक बार चेप्टा भी हुई है; परन्तु वह सफल कभी नहीं हुई। वर्तमान समयके प्रसिद्ध फांसीमी दार्शनिक वर्गमान ( Bergson ) का दर्शन हिराक्लीटियनक मतका ही रूपान्तर है ।
भारतीय नित्य-अनित्यवाद
वेदान्तदर्शनमें भी मासे वह दार्शनिक विवाद प्रकाशमान हो रहा है। वेदान्तमसे केवल नित्य-शुद्ध--- मन्य स्वभाव चैतन्य ही 'सत्' है, शेष जो कुछ है वह केवल नाम रूपका विकार 'माया प्रपंच'अन्' हे शङ्कराचार्यने सत् शब्दकी जो व्याख्या की है उसके अनुसार इम दिग्बलाई देने वाले जगत प्रपंचकी कोई भी वस्तु सत् नहीं हो पकती । भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालोंमें जिस वस्तुक
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अनेकान्त
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सम्बन्धमें बुद्धिकी भांति नहीं होती, वह सत् है और जिसके विनाशशील है, अर्थात् ब्रम्यके स्वरूप या स्वभावकी अपेक्षासे सम्बन्धमें व्यभिचार होता है-वह असत् है।। जो वर्तमान देखा जाय तो वह नित्यस्थायी पदार्थ है, किन्तु साक्षात् समयमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी समयमें नहीं परिदृश्यमान व्यवहारिक जगतकी अपेक्षासे देखा जाय तो था और अनन्त भविष्यत्के भी किसी समयमें नहीं रहेगा, वह अनित्य और परिवर्तनशील है। दव्यके सम्बन्धमें तो सत् नहीं हो सकता-वह असत् है। परिवर्तनशील नित्यता और परिवर्तन प्रांशिक या अपेक्षिक भावसे सत्य हैअसदस्तुके साथ वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है ! वेदांत- पर सर्वथा एकांतिक सत्य नहीं है। वेदान्तने द्रव्यकी नित्यता दर्शन केवल प्रत सद्ब्रह्मतत्व दृष्टिसे अनुसंधान करता है। के उपर ही दृष्टि रखी है और भीतरकी वस्तुका सन्धान वेदान्तकी यही प्रथम बात है। 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' पाकर, बाहरके परिवर्तनमय जगत-प्रपञ्चकों तुच्छ कह कर
और यही अन्तिम बात है। क्योंकि-'तस्मिन् विज्ञाने सर्व उड़ा दिया है। और बौद्ध क्षणिकवादने बाहरके परिवर्तनकी मिदं विज्ञातं भवति ।
प्रचुरताके प्रभावसे रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्शादिकी विचित्रतामें वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई त्रिकाल अव्यभि- ही मुग्ध होकर इस बहिवैचित्र्यके कारणभूत, नित्य-सूत्र चारी नित्य वस्तु महीं मानी गयी है बौद्ध क्षणिकवादके अभ्यंतरको खो दिया है। पर स्याद्वादी जैनदर्शनने भीतर मतसे 'सर्वः सणं गणं' । जगत् स्रोत अप्रतिहततया अबाध और बाहर, आधार प्राधेय, धर्म और धर्मी, कारण और गतिसे बराबर वह रहा है-क्षणभरके लिए भी कोई कार्य, अत और वैविध्य दोनोंको ही यथास्थान स्वीकार वस्तु एक ही भावसे एक ही अवस्थामें स्थिर होकर नहीं कर किया है। रह सकती। परिवर्तन ही जगतका मूलमन्त्र है ! जो इस स्याद्वादकी व्यापकता समें मौजूद है, वह अागामी पणमें ही नष्ट होकर दूसरा इस तरह स्याद्वादने, विरुद्ध वादोंकी मीमांसा करके रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार अनन्त मरण और उनके अन्तःसूत्र रूप प्रापेक्षिक सत्यका प्रतिपादन करके उसे अनन्त क्रीडायें इस विश्वके रंगमंच पर लगातार हुआ करती पूर्णता प्रदान की है। विलियम जेम्स नामके विद्वान-द्वारा हैं । यहाँ स्थिति, स्थैर्य, नित्यता असम्भव है।
प्रचारित-Pragmtarsm वादक साथ स्थाबादकी अनेक जैन अनेकान्त
अंशोंमें तुलना हो सकती है। स्याद्वादका मूलसूत्र जुदे-जुई
दर्शन शास्त्रोंमें जुदे-जुदे रूपमें स्वीकृत हुआ है। यहाँ तक ___ 'स्थाद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धमतकी मांशिक सत्यताको स्वीकार करके कहता है कि विश्वतत्व या द्रव्य
कि शंकराचार्यने पारमार्थिक-सत्यसे व्यवहारिक सत्यको जिस नित्य भी है और अनित्य भी। वह उत्पत्ति, ध्रुवता और
कारण विशेष रूपमें माना है, वह इस स्याद्वादके मूलसूत्रक
साथ अभिन है। श्रीशंकराचार्यने परिदृश्यमान या दिखविनाश इन तीन प्रकारकी परस्पर विरुद्ध अवस्थानोंमेंसे युक है। वेदान्तदर्शनमें जिस प्रकार 'स्वरूप' और 'तटस्थ' लक्षण
लायी देने वाले जगतका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया है। कहे गये हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको समझाने
बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवादके विरुद्ध उन्होंने जगतकी के लिये दो तरहसे निर्देश करनेकी व्यवस्था है । एकको कहने ।
र व्यवहारिक सत्ताको अन्यन्त रदताक साथ प्रमाणित किया है। है 'निश्चयनय' और दूसरको कहते हैं 'व्यवहारनय'।
समतल भूमि पर चलने समय एक तत्त्व, द्वितत्त्व, त्रितत्त्व, स्वरूप लक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही अर्थ निश्चयनयका आदि उच्चताके नानाप्रकारके झंद हमें दिखलायी देते हैं, है। वह वस्तुके निजभाव या स्वरूपको बतलाता है। व्यव
किन्तु बहुत ऊँचे शिखरसे नीचे देखने पर सत खण्डा महल हारनय वेदांतके तटस्थ लक्षणके अनुरूप है। उससे वश्य
और कुटियामें किसी प्रकारका भेद नहीं जान पड़ता। इसी माण वस्तु किसी दूसरी-वस्तुकी अपेक्षासे वर्णित होती है। तरह ब्रह्मबुद्धिस दखने पर जगतमायाका विकास, ऐन्द्रजालिक
रचना अर्थात् अनित्य है। किन्तु साधारण बुद्धिसे देखने पर द्रव्य निश्चयनयसे ध्रुव है किन्तु व्यवहारनयसे उत्पत्ति और
जगतको सत्ता स्वीकार करना ही पड़ती है। दो प्रकारका सत्य १ 'यद्विषया बुद्धिर्नव्यभिचरति तत्सत् ,
दो विभिन्न दृष्टियोंके कारणसे स्वयं सिद्ध है। वेदांतसारमें यद्विषिया बुद्धिर्व्यभिचरति तदसत्' ।
मायाको नो प्रसिद्ध 'संज्ञा दी गई है, उससे भी इस प्रकारगीता शंकरभाष्य २-१६। की मिज दृष्टियोंसे समुत्पत्र सत्यताके मित्र रूपोंकी स्वीकृति
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जैनधर्म और जैनदर्शन
किरण १० ]
इष्ट है। बौद्ध दृश्यवादमें शून्यका जो व्यतिरेकमुख लक्षण किया है, उसमें भी स्पाहारकी छाया स्पष्ट प्रतीत होती है अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति दोनों, श्रस्ति नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावनाओंके जो परे हैं, उसे शून्यत्व कहते है. इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दर्शनोंके ह स्थानोंमें स्थाद्वादका मूलसूत्र तत्वज्ञान के कारण रूपले स्वीकृत होने पर भी, स्याद्वादको स्वतन्त्र उच्च दार्शनिक मतके रूपमें प्रसिद्ध करनेका गौरव केवल जैनदर्शनको ही मिल सकता है।
जैन सृष्टिक्रम -
जैनदर्शनके मूलतय या दव्यके सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालूम हो जाता है कि जैनदर्शन यह learकार नहीं करता कि सृष्टि किसी विशेष समय में उत्पन्न हुई है। एक ऐसा समय था जब सृष्टि नहीं थी, सर्वत्र शून्यता थी, उस महाशून्यके भीतर केवल सृष्टिकर्ता श्रकेला विराजमान था और उसी शून्यसे किसी एक समयमें उसने उम ब्रह्माण्डको बनाया । इस प्रकारका मत दार्शिनिक दृष्टिले श्रतिशय भ्रमपूर्ण है। शून्यसे (असत्से) मनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । सत्यार्थवादियोंके मतसे केवल सन्से ही सत्की उत्पत्ति होना सम्भव है २ सत्कार्यवादका यह मूलसूत्र संक्षेपमें भगवत् गीता में मौजूद है। सांख्य और वेदांतके समान जैनदर्शन भी सत्कार्यवादी हैं।
'वेदांतदर्शनमें संचित कियामाण और प्रारब्ध इन तीन प्रकारके कर्मोका वर्णन हे जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता बन्ध और उदय कहा है दोनों दर्शनोंमें इनका स्वरूप भी एकसा है।'
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जैनधर्ममें अहिंसाको इतनी प्रधानता क्यों दी गयी है ? यह ऐतिहासिकोंकी गवेषणाके योग्य विषय है। जैनसिद्धांतमें हिंसा शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर हुआ है तथा अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थों में वह रूपांतर भावसे ग्रहण किया गया गीताके निष्काम-कर्म-उपदेशसा प्रतीत होता है तो भी, पहले अहिंसा शब्द साधारण प्रचलित अपने ही व्यवहुत होता था, इस विषय में कोई भी सन्देह नहीं है। वैदिक
'जैनदर्शनमें 'जीव' रायकी जैसी विस्तृत मालोचना युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा अत्यंत निष्ठुर सीमा पर जा
हे वैसी और किसी दर्शनमें
'योगी और अयोगवली अवस्थाकं साथ हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति और विदेहमुनिको तुलना हो सकती है उदे उदे गुणस्थानक समान मोषमाप्तिकी सदी जुरी अवस्थाएँ वैदिक-दर्शनोंगे मानी गयी है। योगवाशिमें शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, संसक्रि, पदार्थाभाविनी और सूर्यर्गाः इन सात ब्रह्मविद्, भूमियोंका वर्णन किया गया है।
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'संवत और 'प्रतिमा' पालन जैनदर्शनका चारित्रमार्ग है। इससे एक ऊँचे स्तरका नैतिक आदर्श प्रतिज्ञापित किया गया है। सब प्रकारसे अस िरहित होकर कर्म करना ही साधनाकी भित्ति है प्रासनिके कारण ही कर्मबन्ध होता है; अनासक होकर कर्मकरनेसे उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होगा। भगवद्गीतामें निष्काम कर्मका जो अनुपम उपदेश किया है, जैनशास्त्रोंके चरित्र विषयक ग्रन्थोंमें वह छाया विशदरूपमें दिखलाई देती है ।
(1) "सदसदुभवानुभव-चतुष्कोटिविनिमु' शून्यत्वम्"(२) " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः "
"
'जैनधर्मने अहिंसा तत्वको अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक करके व्यवहारिक जीवनको पग पग पर नियमित और वैधा निक करके एक उपहासास्पर सीमा पार पहुंचा दिया है, ऐसा कतिपय लोगोंका कथन है। इस सम्बंध जिनेविधिनिषेध है उन सबको पालते हुए चलना इस बीसवीं शती के जटिल जीवनमें उपयोगी, सहज और संभव है या नहीं यह विचारणीय है।
पहुँची थी । इम क्रूरकर्मके विरुद्ध उस समय कितने ही अहिंसावादी सम्प्रदायोंका उदय हुआ था, यह बात एक प्रकारसे सुनिश्चित है। बेदमें 'मा हिस्यात् सर्वभूतानि यह साधारण उपदेश रहने पर भी यज्ञकर्ममें पशु हत्याकी अनेक विशेष विधियोंका उपदेश होनेके कारण यह साधारणविधि (व्यवस्था) केवल विधिके रूपमें ही सीमित हो गयी थी. पद पदपर उपेक्षित तथा उचित होनेसे उसमें निहित कल्याणकारी उपदेश सहाके लिये विस्मृतिके गर्भमें विलीन हो गया था और अंतमें 'पशुशके लिये ही बनाये गये हैं यह अद्भुत मत प्रचलित हो गया था । इसके फलस्वरूप वैदिक कर्मकाण्डः बलिमें मारे गये पशुओंके रक्कसे लाल होकर समस्त सात्विक भावका विरोधी हो गया था । जैन
"यशार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । तवां घातविस्वामि तस्माचशे वचोऽवधः ॥"
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३२६]
अनेकान्त
[किरण १०
कहते हैं कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशु हत्याके विरुद्ध पद्धतिमें वैष्णव और शाक्रमतोंके समान भक्रिकी विचित्र जिस-जिस मतने विरोधका बीड़ा उठाया था उनमें जैनधर्म तरङ्गोंकी सम्भावना बहुत ही कम रह जाती है। सबसे आगे था 'मुनयो वातवसनाः' कहकर ऋग्वेदमें जिन बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्धमत और जैनमतमें मग्न मुनियोंका उल्लेख है, विद्वानोंका कथन है कि वे जैन भिन्नता नहीं है पर दोनों धर्मों में कुछ अंशों में समानता होने दिगम्बर सन्यासी ही हैं।
पर भी असमानताकी कमी नहीं है। समानतामें पहली बात बुद्धदेवको लक्ष्य करके जयदेवने कहा है
तो यह है कि दोनों में अहिंम्माधर्मकी अत्यन्त प्रधानता है। "निन्दसि यज्ञाविधेरहह श्रुतिज्ञातं
दूसरे जिन, सुगत, बहन, सर्वज्ञ तथागत, बुद्ध आदि नाम सदय हृदय दिशति पशुधातम् ?"
बौद्ध और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य देवोंके लिये प्रयुक्र किन्तु यह अहिंसातत्त्व जैनधर्ममें इस प्रकार अंग-अंगी- करते हैं। तीसरे दोनों ही धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरोंकी भाक्से मिश्रित है कि जैनधर्मकी सत्ता बौद्धधर्मके बहुत एक ही प्रकारकी पाषाण प्रतिमाएँ बनवाकर चैत्यों या स्तूपोंमें पहलेसे सिद्ध होनेके कारण पशुधातान्मक यज्ञ विधिके विरुद्ध स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं । स्तूपों और पहले पहले खड़े होनेका श्रेय बुद्धदेवकी अपेक्षा जैनधर्मको ही मूर्तियोंमें इतनी अधिक पदृशता है कि कभी कभी किसी अधिक है। वेदविधिकी निंदा करनेके कारण हमारे शास्त्रोंमें मूर्ति और स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैनमूर्ति है या चार्वाक, जैन और बौद्ध पाषण्ड 'या अनास्तिक' मतके नामसे बौद्ध, विशेषज्ञोंके लिये कठिन हो जाता है। इन सब विख्यात हैं। इन तीनों सम्प्रदायोंकी भूठी निंदा करके जिन बाहरी समानताओंके अतिरिक्त दोनों धर्मोंकी विशेष मान्यशास्त्रकारोंने अपनी साम्प्रदायिक संकीर्णताका परिचय दिया नात्रोंमें भी कहीं कहीं सदृशता दिखती है, परन्तु उन मब है, उनके इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा कि विषयों में वैदिकधर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका ही प्रायः जो ग्रन्थ जितना ही प्राचीन है, उसमें बौद्धोंकी अपेक्षा एक मन्य है। इस प्रकार बहुन मी समानताएँ होने पर भी जैनोंको उतनी ही अधिक गाली गलौज की है। अहिंसावादी दोनोंमें बहुत कुछ विरोध है। पहला विरोध तो यह है कि जैनांक शांत निरीह शिर पर किसी किसी शास्त्रकारने तो बौद्ध क्षणिकवादी हैं। पर जैन क्षणिकवादको एकांतरूपमें श्लोक पर श्लोक प्रन्थित करके गालियोंकी मूसलाधार स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म कहता है कि कर्म फलरूपसे वर्षा की है। उदाहरणक तौर पर विष्णुपुराणको ले लीजिये प्रवर्तमान जन्मांतरवादक माथ क्षणिकवादका कोई मामंजम्य अभीतककी खोजोंक अनुसार विष्णुपुराण सारे पुराणोंसे नहीं हो सकता । क्षणिकवाद माननेस कर्मफल मानना प्राचीनतम न होने पर भी अत्यन्त प्राचीन है। इसके तृतीय असम्भव है । जैनधर्ममें अहिंमा नीतिको जितनी सूक्ष्मतास भागके सत्तरहवें और अठारवें अध्याय केवल जनांकी निंदास लिया है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे हुए पूर्ण है । 'नग्नदर्शनसे श्राद्धकार्य भ्रष्ट हो जाता है और जीवका मांस ग्वानेको बौद्धधर्म मना नहीं करता, उसमें स्वयं नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो हत्याकरना ही मना है । बौद्वदर्शनके पंचस्कन्धोंके समान जाता है। शतधनुनामक राजाने एक नग्न पाषण्डसे संभाषण कोई मनोवैज्ञानिक तत्वभी जैनदर्शनमें माना नहीं गया। किया था, इस कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, गीध और बौद्ध दर्शनमें जीवपर्याय अपेक्षाकृत सीमित है, जैनमोरकी योनियोंमें जन्म धारण करके अंतमें अश्वमेधयजके दर्शनके समान उदार और व्यापक नहीं है। वैदिकधर्मो तथा जलसे स्नान करने पर मुकिलाम कर सका ।' जैनोंके प्रति जैनधर्ममें मुक्रिके मार्गमें जिस प्रकार उत्तरोत्तर सीढियोंकी वैदिकोंके प्रबल बिवषकी निम्नलिखित श्लोकोंसे अभि- बात है, वैसी बौद्धधर्म में नहीं है । जैनगोत्र-वर्णके रूपमें जातिव्यक्ति होती है
विचार मानते हैं, पर बौद्ध नहीं मानते। 'न पठेत् यावनी भाषां प्रामः कण्ठगतैरपि ।
'जैन और बौढोंको एक समझनेका कारण जैनमतका हस्तिना पीब्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ॥ भलीभांति मनन न करनेके सिवाय और कुछ नहीं है। यद्यपि जैन लोग अनंत मुक्तात्माओं (सिद्धों) की उपासना प्राचीन भारतीय शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समझनेकी करते हैं तो भी वास्तवमें वे व्यक्तित्वहित पारमात्म्य स्वरूपकी भूल नहीं की गई है। वेदांतसूत्र में जुदे जुदे स्थानों पर ही पूजा करते हैं । व्यक्रिन्द रहित होने के कारण ही जैनपूजा- जुदे जुदे हेतुवादसे बौद्ध और जैनमतका खण्डन किया है।
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किरण १०]
जैनधर्म और जैनदर्शन
[३२७
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शंकर दिग्वजयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें बौद्धोंके यह स्पष्ट रूपसे जैन और वैदिक शास्त्रोंमें घोषित किया साथ और उज्जयनीमें जैनोंके साथ शास्त्रार्थ किया था। यदि गया है। 'जन्मजन्मांतरोंमें कमाये हुये कर्मोंको वासनाके दोनों मत एक होते, तो उनके साथ दो जुदे जुदे स्थानों में दो विध्वंसक निवृत्तिमार्गके द्वारा तय करके परम पद प्राप्तिकी बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं थी। प्रबोधचन्द्रोदय माधना वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्मोमें तर-तमक नाटकमें बौद्ध भिक्षु और जैनदिगम्बरकी लड़ायीका वर्णन है। समान रूपसे उपदेशित की गई है। दार्शनिक मतवाढोंक
'वैदिक (हिन्द) के साथ जैनधर्मका अनेक स्थानोंमें विस्तार और साधनाकी क्रियाओंकी विशिष्टतामें मित्रता हो विरोध है। परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्यही अधिक है। सकती है, किन्तु उद्धश्य और गन्तव्य स्थल सबका ही इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य विरोधोंकी ओर दृष्टि रखने एक हैकारण वैर-विरोध बढ़ता रहा और लोगोंको एक दुसरेको रूचीनां वैचित्र्याजुकुटिलनानापथजुषां । अच्छी तरहसे देखसकनेका अवसर नहीं मिला । प्राचीन नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ वैदिक सब सह मकने थे परन्तु वेद परित्याग उनकी दृष्टिमें महिम्नस्तानकी मर्व-धर्म-समानत्वको करनमें समर्थ यह अपराध था।
उदारता वैदिक शास्त्रोमें सतत उपदिष्ट होने पर भी संकीर्ण वैदिकधर्मको इप्ट जन्म-कर्मवाद जैन और बौद्ध दानों साम्प्रदायिकतास उत्पन्न विष बुद्धि प्राचीन ग्रन्थों में जहाँही धर्मोका भी मेरुदण्ड है। दोनों ही धर्मोमें इसका अवि- नहीं प्रकट हुई है। किन्तु आजकल हमने उस संकीर्णताकी कृत रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जनोंने कर्मको एक चुदमर्यादाका अतिक्रम करके यह कहना सीखा हैप्रकारक परमाणुरूप सूचम पदार्थ (कार्मणवर्गणा) के रूपमें यं शैवाः ममुपामत शिव मन ब्रह्मेति वेदान्तिना, कल्पना करके, उसमें कितनी मयुक्तिक श्रेष्ठ दार्शनिक
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । विशेषताओंकी सृष्टि ही नहीं की है, किन्तु उसमें कर्म-फल- अर्हनिन्यथ जैनशामनरताः कर्मतिमीमांसकाः वादकी मूल मन्त्रताको पूर्णरूपसे सुरक्षित रखा है : वैदिक मोऽयं वो विदधातु वांछितफलं लोक्यनाथो हरिः॥ दर्शनका दुःखबाद और जन्म-मरणान्मक दुग्वरुप संसार 'ईसाकी आठवीं शती में इसी प्रकारके महान उदारभावोंमागरसे पार होनेके लिए निवृत्तिमार्ग अथवा मोक्षान्वपण- मे अनुप्राणित होकर जैनाचार्य मूनिमान स्याहाट भट्टाकलकयह वैदिक-जैन और बौद्ध सबका ही प्रधान साध्य है। निवृत्ति दव कह गए हैंएवं नपा द्वारा कर्मबन्धका क्षय होने पर अान्मा कर्मबन्धस यो विश्वं वेदवेद्य जननजलनिधेर्भगिनः पारदृश्वा, मुक्त होकर स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-अबद्ध पौवापर्याविरुद्ध वचनमनुपमं निष्कलङ्क यदीयम् । शुद्ध स्वभावक निस्सीम गौरवसे प्रकाशित होगा। उस समय- तं वन्द माधुवन्यमकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषनं, भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्तं सर्वसंशया. ।
बुद्ध वा वर्धमानं शतदानलयं केशवं वा शिवं वा ।। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि नम्मिन दृष्टे परावर ।।
(वी अभिनन्दन ग्रन्थसे)
उज्जैनके निकट दि. जैन प्राचीन मूर्तियाँ
(बाबू छोटेलाल जैन)
अभी ४ मार्चको पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरक्टर का है। यहाँ धरणेन्द्र पद्मावती महित पाश्वनाथ धर्मजनरल श्री टी. एन रामचन्द्रन उज्जनक दारे पर गए थे। चक्र सहित २-और सिहलांछन और मातंगयक्ष नथा उज्जैनसे ४५ मील दूर 'गन्धबल' नामक स्थानमें अनक सिद्धायनी यक्षिणी महित एक खण्डित महावीर प्राचीन अवशेषोंका निरीक्षण किया, जिनमें अधिकांश दिग- स्वामीका पादपीठ दशमी शताब्दीका है।३-प्रथम तीर्थकरम्बर जैन मूर्तियाँ थीं। ये अवशेष परमारयुग-कालीन दशमी की यक्षिणी चक्रेश्वरी।४-मिद्यायनी सहित बर्द्धमान, शताब्दीके प्रतीत होते हैं।
पार्श्वनाथकी मूर्तिक ऊपरी भागमें है। ५-द्वारपाल । १. भवानीमन्दिर-यह जैनमन्दिर १०वीं शताब्दी- --द्वारपाल । ७-एक शिलापट्ट तीर्थकगेका विद्या देवियों
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३२८]
अनेकान्त
[किरण १०
सहित, देवियाँ कृषिका सहित प्रदर्शितकी गई हैं। - एक विशाल तीर्थकर मूर्ति चमरेन्द्रों सहित संभवतः वईद्वारपाल । -छतका शिलाखण्ड जिसकी चौकोर वेदीमें मानकी है। नेमिनाथ और अम्बिकाकी मूर्ति भी है। इस कीर्तिमुख प्रदर्शित किये गए हैं।१०-समासन वईमान टीलेकी बुवाई होनी चाहिए । यहाँ दशवीं शताब्दीका मंदिर प्रतिमा और उसके ऊपर पाश्र्वनाथकी मूर्ति स्तम्भ पर अंकित प्राप्त होनेकी सम्भवना है। है।"-बगासन व मान, अमरेन्द्र तथा छत्रत्रयादि ७ गंधर्वसेनकामन्दिर-स मन्दिरमें एक प्रस्तरप्रातिहारों सहित । १२-शिलापट्टचौवीस तीर्थकरों सहित। खण्ड पर पार्श्वनाथको उपसर्गके बाद केवलज्ञान प्राप्तिका १३-शान्तिनाय, इसके नीचे दानपति और प्रतिष्ठाचार्य दृश्य अंकित है। यह प्रस्तरखण्ड वशमी शताब्दीसे पूर्व भी प्रणाम करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं । १४-शांतिनाथ और पर गुप्त कालीन मालूम होता है। इसके अतिरिक्त १५-हस्तिपदाद चतुर्भुज इन्द। १६-पमप्रभु। वर्तमान और आदिनाथकी मूर्तियाँ हैं। १७-सुमतिनाथ । १८इन्द्र हाथीपर । १६-मातंग बालिकाविद्यालय-यहाँ दो तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ
और सिहायनी सहित वईमान । २० द्वारपाल वीणा- हैं। उज्जैनमें सिन्धिया प्रोरियन्टल इन्स्टीव्य ट है जहाँ सहित चास्या, मातंगया, और शंखनिधिसहित । हजारों हस्तलिखित प्रन्योंका संग्रह है जिनमें जैनग्रन्थ भी
२-उक्र भवानीमन्दिरसे ५० फीट दक्षिण पूर्वमें काफी हैं, जिनकी सूचीके लिये पुस्तकाध्यक्षको लिखा गया नेमिनाथकी मूर्ति है। तथा प्रादिनाथका मस्तकभाग, एक है। यहाँ को मूर्तियों के फोटो आगामी अंकमें प्रकाशित यक्षी, और बर्द्धमानकी मूर्ति है।
किये जायंगे। ३. दरगाह-यहाँ व मानकी मूर्तिको लपेटे हुए एक
श्रमणका उत्तरलेख न छापना बड़का वृक्ष है जहाँ निम्नलिखित मूर्तियों हैं। -सिद्धायनी
और मातंग यशपहित बईमान । २-अम्बिका यक्षी और दो महीनेसे अधिकका समय हो चुका, जब मैंने श्रमण सर्वारहयच खगासन । ३-कश्वरी आदिनाथ । ४- वर्ष ५ के दूसरे अंकमें प्रकाशित जैन साहित्यका विहंगालोकन
नामक लेखमें 'जैन साहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन' नामपार्श्वनाथ । नेमिनाथ । -ईश्वर (शिव) यक्ष
का एक सयुक्रिक लेख लिखकर और श्रमणके सम्पादक डा. श्रेयांसनाथ । १०-त्रिमुखयक्ष संभवनाथ । ११-त्रिमुख- इन्द्रका प्रकाशनाथ दिया था। परन्तु उन्हान उस भपन पत्रम यक्ष । १२ धर्मचक्र गोमुखया और चक्रेश्वरी (आदिनाथ)
अभी तक प्रकट नहीं किया, इतना ही नहीं किन्तु उन्होंने ४. शीतलामाता मन्दिर-यहाँ चक्रेश्वरी, गौरीयक्षी,
ला. राजकृष्णाजी को उसं वापिस लिवानेको भी कहा था, नेमिनाथकी यह यक्षी (अम्बिका)। आदिनाथ, वर्द्धमानकी
और मुझे भी वापिस लेनेकी प्रेरणाकी थी और कहा था कि खड्गामन मूर्तियाँ, शीतलनाथकी यही माननी, पार्श्वनाथ,
आप अपना लेख वापिस नहीं लेंगे तो मुझे अपनी पोजीशन किसी तीर्थकरका पादपीठ, दशवें तीर्थकरका यज्ञ मी श्वर,
क्लीयर (साफ) करनी होगी। मैंने कहा कि आप अपनी एक तीर्थकरका मस्तक, तथा अनेक शिलापर, जो एक चबूतरे
पोजीशन क्लीयर (साफ) करें, पर उस लेखको जरूर प्रकामें जड़े हुए हैं उन पर तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ अंकित है, एक
शित करें। परन्तु श्रमणके दो अंक प्रकाशित हो जाने परभी तीर्थकर मूर्तिका उपरका भाग, जिसमें सुर पुष्पवृष्टि प्रदर्शित
डा. इन्द्रने उसे प्रकाशित नहीं किया। यह मनोवृत्ति बढ़ी ही है, बईमानकी मूर्ति।
चिन्स्यनीय जान पड़ती हैं और उससे सत्यको बहुत कुछ
आघात पहुंच सकता है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि ५ हरिजनपुर-यह एक नया मन्दिर है जिसकी दीवालों पर लेमिनाथ, पाश्र्वनाथ, मुमतिनाथ और मातंगयर
जिन पाठकोंके सामने श्रमणका लेख गया उन्हीं पाठकोंके की मूर्तियाँ अंकित हैं।
सामने इमारा उत्तरलेख भी जाना चाहिए, जिससे पाठकों
को वस्तु-स्थिति के समझनेमें कोई गल्ती या भ्रम न हो। ६ चमरपुरीकी मात-यह एक प्राचीन टीला है यहाँ का व इमलीके पूरके नीचे जैनमूर्तियाँ दबी हुई हैं। १२ फीट की
-परमानन्द जैन
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वीरसेवा-मन्दिर ट्रस्टकी मीटिंग
श्रीजिज्ञासापर मेरा विचार
आज ता. २१-२-५४ रविवारको रात्रिके ७॥ बजेके
अनेकान्तकी गत किरण में पंडित श्रीजुगलकिशोरजी बाद निम्न महानुभावोंकी उपस्थितिमें वीरसेवामन्दिर ट्रस्टकी मुख्तारने 'श्री जिज्ञासा' नामकी एक शंका प्रकट की थी और मीटिंगका कार्यप्रारम्भ हुआ। बाबू छोटेलालजी कलकत्ता उसका समाधान चाहा था, जिस पर मेरा विचार निम्न (अध्यक्ष)२५० जुगलकिशोरजी (अधिष्ठाता)३ बाबू जय- प्रकार हैभगवानजी एडवोकेट (मन्त्री) पानीपत, ४ ला. राजकृष्णजी
'श्री' शब्द स्वयं लक्ष्मी, शोभा, विभूति, सम्पत्ति, वेष, (पा. व्यवस्थापक) देहली, ५ श्रीमती जयवन्तीदेवी, ६
रचना, विविधउपकरण, त्रिवर्गसम्पत्ति तथा प्रादर-सत्कार और बाबू पन्नालालजी अग्रवाल, जो हमारे विशेष निमंत्रण
आदि अनेक अर्थोंको लिये हुए है। श्री शब्दका प्रयोग पर उपस्थित हुए थे।
प्राचीनकालसे चला आ रहा है। उसका प्रयोग कब, किसने १-मंगलाचरणके बाद संस्थाके मंत्री बाबू जयभगवान जी एडवोकट पानीपतने वीरसवामन्दिरका विधान उपस्थित
और किसीक प्रति सबसे पहले किया यह अभी अज्ञात है।
श्री शब्दका प्रयोग कभी शुरू हुआ हो, पर वह इस बातका किया, और यह निश्चय हुआ कि विधानका अंग्रेजी अनुवाद
द्योतक जरूर है कि वह एक प्रतिष्ठा और आदर सूचक शब्द कराकर बा. जयभगवानजी वकील पानीपतके पास भेजा जाय, तथा उनके देखनेके बाद ला. राजकृष्णजी उमकी रजिष्ट्री
है । अतः जिस महापुरुषके प्रति 'श्री' या 'श्रियों का प्रयोग
हुआ है वह उनकी प्रतिष्ठा अथवा महानताका द्योतन करता करानेका कार्य सम्पन्न करें।
२-यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि दरिया गंज नं० है। लौकिक व्यवहार में भी एक दूसरक प्रति पत्रादि लिखनम २१ दहली में जो प्लाट वीरसेवामन्दिरके लिये खरीदा हुआ।
'श्री' शब्द लिखा जाता है । सम्भव है इसीकारण पूज्यहै उस पर बिल्डिंग बनानेका कार्य जल्दीसे जल्दी शुरू
पुरुषोंके प्रति संख्यावाची श्री शब्द रूढ हुआ हो। बुल्लकों किया जाय।
और आर्यिकाओंको १०५ श्री और मुनियोंको १०८ श्री ३-अनेकांतका एक संपादक मंडल होगा, जिसमें निम्न क्यों लगाई जाती हैं। इसका कोई पुरातन उल्लेख मेरे ५ महानुभाव होंगे। श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, बा. दग्वनेमें नहीं आया और न इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख छोटेलालजी, बा. जयभगवानजी वकील, पं० धर्मदेवजी ही दृष्टिगोचर हुआ है। जैनली, और पं० परमानन्द शास्त्री।
तीर्थकर एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त होते हैं। संभव -यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि सोमाइटीके
है इसी कारण उन्हें एक हजार आठ श्री लगाई जाती हों। रजिष्टर्ड होने पर मुख्तार साहब अपने शयर्म, जो दहली
मुनियोंको १०८, सुल्लकों और प्रायिकाओंको १०५ श्री क्लॉथ मिल्म और बिहार सुगर मिल के हैं उन्हें वीरसेवा
- उनके पदानुमार लगानेका रिवाज चला हो। कुछ भी हो मन्दिरक अध्यक्षक नाम ट्रान्सफर कर देखें।
पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह पृथा पुरानी है। ५-यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि वीरसेवामन्दिर
हां, एक श्री का प्रयोग तो हम प्राचीन शिलालेखों में प्राचार्यों, मरसावाका बिाल्डगक दाक्षणका श्रार जा जमान मकान भट्टारकों, विद्वानों और राजाओंके प्रति प्रयुक्त हुआ बनाने के लिये पड़ी हुई है, जिसमें दो दुकानें बनानेके लिये न जिम्मका प्रस्ताव पहलेसे पास हो चुका है उसके लिये दो
नारायना (जयपुर) के १८वीं शताब्दीके एक लेखमें हजार रुपया लगाकर बना लिया जाय ।
प्राचार्य पूर्णचन्द्र के साथ १००८ श्री का उल्लेख है। परन्तु ६-यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि पत्र व्यवहार और
इससे पुराना संख्यावाचक 'श्री' का उल्लेख अभी तक नहीं हिसाब किताबमें मिति और तारीख अवश्य लिखी जानी
मिला है।
-खुल्लक सिद्धिसागर चाहिये । ७-यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि हिसाब किताबके
* श्रीवेषरचनाशोभा भारतीसरलद्रुमे। लिये एक क्लर्ककी नियुक्तिकी जाय ।
लक्ष्म्यां त्रिवर्गसंपत्तौ वेषोपकरणे मतौ॥ -मेदिनीकोषः । -यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि अनेकान्तका नये वर्षका मूल्य ६) रुपया रक्खा जा ।
x कितने ही श्वेताम्बर विद्वान् अपने गुरु प्राचार्योंको १००% जय भगवान जैन मंत्री, वीरसेवामन्दिर श्री का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। -सम्पादक
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
शानाथजी,
...
संरक्षक
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००)बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, १२५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी, * २५१) वा० सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी
२५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी .. १०१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन
१०१) बा• जीतमलजी जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा०चिरंजीलालजी सरावगी २५१) बा. रतनलालजी झांझरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी
५०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १२५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली सेठ सुआलालजी जैन
१०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्। २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी , १०.) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) श्री शोलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन
१०१) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलाल जी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ मरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बा. वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना
२५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर ५२५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा० महावीरप्रसादजी. एडवोकेट, हिसार में २५१) मेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार
२५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) कुँवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि. हिमार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन.रांची
१८१) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता ५१) सेट बधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी सहायक
'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी.टेडली १०१) वंद्यराज'कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली *१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा. लालचन्दजी जैन सरावगी ,
___ सरसावा, जि० सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्रीररियागंज रेहली । मबक-स्प-बाशी प्रिटिंग हाऊस २३. दरियागंज, देहली
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सनकात
अप्रैल १९५४
सम्पादक-मण्डल
धीजुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' बा. बोटेलाल जैन M. R.A.S. ना. जय भगवान जैन एडवोकेट पण्डित धर्मदेव जैतली पं० परमानन्द शास्त्री
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भनेकान्त वर्ष १२ किरण ११
केशारमा जी (उदयपुर). प्रसिद्ध सापयं दिगम्बर जैन मन्दिर
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विषय-सूची
११
चिन्तामणि-पार्वगायत्तवन-[ सोमसेन १२ १ वैभवको शृङ्गलाएँ (कहानी)- . . मूलाचारकी मौलिकता और उसके रचयिता
[मनु 'ज्ञानार्थी साहित्यरत्न
३५१ [पं.हीरालालजी सिवात शास्त्री ..धर्म और राष्ट्रनिर्माण- प्राचार्य खसी १४८ मार्य और विद संस्कृतिके सम्मेलनका उपक्रम-
..कापुर-[पं.के. मुजवलीजी शास्त्री "
१५३ [बा. जयभगवानशी एवोकेट
.८ मूलाचार संग्रहप्रायन होकर भाचारारूपमौलिक युगपरिवर्तन (कविता)
प्रन्थ है-[पं० परमानन्द शास्त्री [मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न
विविध विषय महावीर जयन्ती मावि .
समाजसे निवेदन 'अनेकान्त' जेन समाजका एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है। उसमें अनेक खोज पूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं । पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनकर, तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ वनाएं । हमें केवल दो सौ इक्यावन वथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्रेणी में नाम लिखाने वाले दो सौ सजनोंकी भावश्यकता है। आशा है समाजके दानी महानुभाव एक सौ एक रुपया प्रदानकर सहायकश्रेणी में अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बंटायगे।
मैनेजर-'अनेकान्त'
१ दरियागंज, देहली.
विवाहमें दान अमृतसर निवासी बा. मुखीमालजी जैमने अपने सपनचि. वर्शनकुमारके विवाझोपनयमें १.१). राममे दिये है।
-जयकुमार जैन अनेकान्तकी सहायताके सात माग (.) अनेकान्तके 'संरक्षक'-तथा 'सहायक' बनना और बनामा। (२) स्वयं अनेकाम्तके प्राहक बनना तथा दूसरों को बनाना। (३) विवाह-शादी भादि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवामा । (.) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेंट-स्वरूकर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाओं लायरियों,
सभा-सोसाइटियों और जैन-मजैन विद्वानों।। (१) विद्यार्थियों मादिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें नेके लिये २५),१०) प्रादिकी सहायता भेजना। २५ की
सहायतामें ..को अनेकान्त अर्धमूल्य में भेजा जा सकेगा। (4)अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे प्रस्थ उपहारमें देना तथा दिनाना । (.) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
...... सहायतादि मेंजने तथा पत्रव्यवहारका पता:नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
- मैनेजर अनेकान्त' 'भनेकान्त' एक वर्ष तक भेडस्वरूप भेजा जायगा।
बीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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3अहम
वस्ततत्त्व-मधातक
विश्वतत्त्वप्रकाशक
बाषिक भूल्य ६)
एक किरण का मूल्य ॥)
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नीनिविरोधप्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः मम्यक् ।। परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त ।
वर्ष १ किरण ११
अप्रैल १६५४
वीरमेवामन्दिर,१ दरियागंज, दहली चैत्र वीर नि० संवत ०४८०, वि. संवत २०११
मोमसेन-विरचितम् चिन्तामणि-पाश्वनाथ-स्तवनम् श्रीशारदाऽऽधारमुखारविन्दं सदाऽनवद्यं नतमौलिपादम् । चिन्तामणि चिन्तिनकामरूपं पाचप्रभ नौमि निरस्तपापमा निराकृतारातिकृतान्तसङ्ग सन्मण्डलीमण्डितसुन्दराङ्गम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभुनौमि निरस्तपापम ॥२॥
शिप्रभा-रीतियशोनिवासं समाधिसाम्राज्यसुखावभासम । चिन्तामणि चिन्तिनकामरूपं पार्श्वप्रमुनौमि निरस्तपापम् ॥३॥ अनलाकल्याणसुधाब्धिचन्द्र सभावलीमून-सुभाव-केन्द्रम । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभुनौमि निरस्तपापम ॥४॥ करालकल्पान्तनिवारकारं कारुण्यपुण्याकर-शान्तिसारम । चिन्तामणि चिन्ततकामरूपं पाश्वप्रभुनौमि निरस्तपापम् ।। वार्णरिसोल्लासकरीरभूतं निरन्जनाऽलंकृतमुक्तिकान्तम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पाश्वप्रभुनौमि निरस्तपापम् ॥६॥ क्रूरोपसर्ग परिहतु मेकं वाञ्छाविधानं विगताऽपसङ्गम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभुनौमि निरस्तपापम् ।।७।। निरामयं निर्जितवीरमारं जगद्धितं कृष्णपुरावतारम् ।
चिन्तामणिं चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभुनौमि निरस्तपापम् ॥८॥ अविरलकविलक्ष्मीसेनशिष्येन लक्ष्मी-विभरणगुणपूतं सोमसेनेन गीतम् । पठति विगतकामः पार्श्वनाथस्तवं यः सुकृतपदनिधानं सप्रयाति प्रधानम् ॥३॥
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मूलाचारकी मौलिकता और उसके रचयिता
(श्री पं० हीरालाल जो सिद्धान्तशास्त्री) 'मूलाचार' जैन साधुमोके प्राचार-विचारका निरू- प्राचीन साहित्यमें उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने व पण करने वाला एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक सुनने में नहीं आया । यह लेख मापने 5-1-३८ में लिखा था ग्रंथ है, जिसे दिगम्बर-सम्प्रदायका भाचारांगसूत्र माना इसलिए बहुत संभव है कि तब तकके आपके देखे हुए जाता है और प्रत्येक दिगम्बर जैन साधु इसके अनुपार अन्यों में इसका कोई उल्लेख भापको प्राप्त न हुआ हो । ही अपने मूलोत्तर गुणोंका पाचरण करता है। पर सन् ११३८ के बाद जो दि० सम्प्रदायके षट्खंडागम, ___ मूलाचारके का 'वकेराचार्य माने जाते हैं, पर तिलोयपण्णत्ती भादि प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशमें पाए है, उनकी स्थिति अनिर्णीत या संदिग्धसी रहने के कारण कुछ उन तकमें इस मूलाचारके उल्लेख मिलते हैं। पाठकोंकी विद्वान् इसे एक संग्रह ग्रन्थ समझते हैं और इसी लिये जानकारीके लिए यहाँ उक्त दोनों प्रन्थोंका एक-एक उल्लेख मूलाचारकी मौलिक गाथानोंको प्रन्यान्तरों में पाये जाने दिया जाता है :मात्रमे वे उन्हें वहाँसे लिया हुमा भी कह देते हैं। श्वेता (1) षटखण्डागम भाग के पृष्ठ ३१६ पर धवला म्बर विद्वान् प्रज्ञाच्नु पं० सुखलालजी सन्मति-प्रकरणके टीकाकार प्राचार्य वीरसेन अपने मतकी पुष्टि करते हुए द्वितीय संस्करणको अपनी गुजराती प्रस्तावनाम लिखते दिखते हैं :
'तह पायारंगे वि उत्तं- दिगम्बराचार्य वट्टकेरकी मानी जाने वाली कृति पंचस्थिकाया य छज्जीवणिकायकालदबमएणे य । 'मुलाचार' प्रयका बारीक अभ्यास करने के बाद हमें खातरी हो गई है कि वह कोई मौलिक ग्रन्थ नहीं है, परन्तु
आणागेज्मे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥ एक संग्रह है। वहकरने सन्मतिकी चार गाय ए (२,४..
यह गाथा मूलाचार (१,२०२) में ज्योंकी त्यों पाई ३) मूलाचारके समयसारराधिकार 1 80) में की जाती है। इस उन्लेखसे केवल मुखाचारकी प्राचीनताका हैं. इससे आपन इतना कह सकते हैं कि यह ग्रंथ सिदमनके ही पता नहीं चलता, बस्कि वीरमनाचार्यके समय में वह बाद संकलित हुआ है।"
'चारांग' नामसे प्रसिद्ध था, इसका भी पता चलता है। इसी प्रकार कुछ दिगम्बर विद्वान भी ग्रन्थकादिकी प्रा० वारसनकी धवला टीका शक सं० ७३८ मे बन कर स्थिति स्पष्ट न होनसे इस संबह प्रन्थ मानते पा रहे हैं. समाप्त हुई है। जिनमें पं० परमानन्दजी शास्त्रीका नाम उस्लेखनीय है। (२) दूसरा उल्लेख धबलाटीकासे भी प्राचीन ग्रन्थ जिन्होंने अनेकाम्त वर्ष किरण ५ में 'मूनाचार संग्रह तिलोयपण्णत्तीमें मिलता है, जो कि यतिवृषभकीबनाई हई प्रन्थ है। इस शीर्षकसे एक लेख भी प्रगट किया है और है और जिनके समयको विद्वानांने पांचवीं शताब्दी माना , उसके अन्तम लेखका उपसंहार करते हुए लिखा है:- है। तिलोयपण्णसीके पाठवे अधिकारकी निम्न दो गाथा___ "इस सब तुखना और अन्य के प्रकरणों अथवा प्रधि- भामें देवियोंकी आयुके विषय में मतभेद दिखाते हुए यतिकारोंकी उक्त स्थिति परसे मुझे तो यही मालूम होता है वृषभाचार्य लिखते हैं:कि मूलाचार एक संग्रह अन्य है और उसका यह संभहस्व पलिदोवमाणि पंच य सत्तारस पंचवीस पणतीसं। अथवा सकलन अधिक प्राचीन नहीं है, क्योंकि टीकाकार
र चउसु जुगलेसु भाऊ णादव्या इंददेवीणं ॥५३१॥ वसुनन्दीसे पूर्व के प्राचीन साहित्यमें उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने तथा सुनने में नहीं पाया।"
* पारणदुगपरियं वदंते पंचपल्लाई । ___ उपरि-लिखित दोनों उदारणोंसे यह स्पष्ट है कि ये मूलाधारे इरिया एवं पिउणं शिरूवेंति ॥५३२॥ विद्वान् इसे संकलित और अर्वाचीन ग्रंथ मानते हैं।
पति-चार युगों में इन्द्र-देवियोंकी मायु-कमसे पं. परमानन्दजीने 'मुजाचार'को अधिक प्राचीनन पांच, सत्तरह, पच्चीस और पैतीस पस्यप्रमाण जानना माननेमें युक्ति यह दी है कि टीकाकार बसुनन्दोसे पूर्व के चाहिए ॥१३॥इसके भागे भारवयुगल तक पांच पांच
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किरण १९ ] मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता
[३३१ पल्यकी वृद्धि होती है। ऐमा मूलाचारमें आचार्य स्पष्ट. जो प्रश्न और उत्तर रूपसे दो गाथाएं पाई जाती है, तासे निरूपण करते हैं I
भी श्वेता भाचारांगमें उपलब्ध नहीं हैं, जबकि वे दोनों यतिवृषभने यहां मूलाचारके जिस मतभेदका उल्लेख गाथाएं मूलाचारके समयसाराधिकारमें पाई जाती है किया है, वह वर्तमान मूलाचारके बारहवें पर्याप्त्यधिकारकी और इस प्रकार हैं:८०वीं गाथामें उक्त रूपसे ही इस प्रकार पाया जाता है:- कधं चरे कधं चिकघमासे क सये! पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । कथं भुजेज मासिज कधं पार्वण बज्झदि ॥१२१ चत्तालं पणदालं परणाश्रो पएणपण्णाओ॥०॥ जद चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये।
अर्थात्-देवियोंकी भायु सौधर्म-ईशान कल्पमें पांच जदं भुजेज मासेज एवं पावं स बज्मद ॥१२२॥ पल्य, सनकुमार माहेन्द्रकल्पमें सत्ताह पक्ष्य, ब्रह्मा ब्रह्मोत्तर
धवला टीकाके उपयुक्त उल्लेखसे तथा इन दोनों करूप में पच्चीस पक्ष्य, सान्तव-कापिष्ठ-कापमें पैंतीस पक्ष्य,
गाथाओंकी उपलब्धिसे वर्तमान मूलाचार ही आचारांग रक-महाशुझमें चालीस पक्ष्य, शतार-सहनापकरूप में
सूत्र है, यह बात भले प्रकार सिद्ध होती है। बैंतालीम पल्य, मानत-प्राणत कल्पमें पचास पश्य और
अब देखना यह है कि स्वयं मनाचारकी स्थिति क्या भारण-अच्युत कल्पमे पचवन पल्य है।
है और वह वर्तमान में जिस रूप में पाया जाता है उसका यतिवृषभाचार्यके हम उल्लेखसे मुलाचारकी केवल
वह मौलिक रूप है या संगृहीत रूप! प्राचीनता ही नहीं, कितु प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है।
मूलाचारकी रीका प्रारम्भ करते हुए मा.बसुनन्दीने यहाँ एक बात और भी जानने योग्य है और वह यह
जो उत्थानिका दी है, उससे उक्त प्रश्न पर पर्याप्त प्रकाश कि मूलाचार-कारने देवियांकी मायुसे सम्बन्ध रखने वाले
पड़ता है अतः उसे यहां उदघन किया जाता है। वह जहां केवल दो ही मतोंका उल्लेख किया है, वहां तिलोय
उस्थानिका इस प्रकार है:पण्णत्तीकारने देवियोंकी भायु-सम्बन्धी चार मत-भेदोंका उल्लेख किया है। उनमें प्रथम मतभेद तो बारह स्वर्गोंकी
श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलमान्यतः वालाका है। तीसरा मतभेद 'लोकायनी' (संभवतः
गुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाचार
पिंडशुद्धि-पडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षाऽनगारभावनालोकविभाग) ग्रन्थका है। दूसरा और चौथा मत मुलाचार
समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार-निबद्धमहार्थका है। इससे एक खास निष्कर्ष यह भी फालत होता है
गभीरं, लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोकि मूलाचार-कारके सम्मुख जब दो ही मत-भेद थे. तब
त्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायवचितपद्र्व्य नवपतिलोयपण्णती-कारके सम्मुख चार मतभेद थे-अर्थात्
दार्थजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोऽनुष्ठानोत्पन्नानेकतिलोयपण्णत्तीके रचना-कालसं मूलाचारका रचना-कान इतना प्राचीन है कि मूलाचारकी रचना होनेके पश्चात्
प्रकारद्धिसमन्वितगणधर देवरचितं मूलगुणोत्तरगुणस्वऔर तिलोयपयणात्तीकी रचना होनेके पूर्व तक अन्तराल- रूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचारांगवर्ती काल में अन्य भोर भी दो मत-भेद देवियों की भायुके
माचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायू-शिष्यनिमित्तं विषय में उठ खड़े हुए थे और तिलोयपरणत्तीकारने उन द्वादशाधिकारैरुपमहतुकामः स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धसबका संग्रह करना आवश्यक समझा।
कार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षम शुभपरिणामं विद्धच्छीवट्टइन दो उल्लेखोंसे भूनाचारको प्राचीनता और मौलि- केराचार्यः प्रथमनरं तावन्मूलगुणधिकारप्रतिपादनार्थ कता असंदिग्ध हो जाता है।
मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते_यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य यह है कि अर्थात् जोश्रतस्कन्ध-बादशाहरूपश्रुतवृषका प्राधारधवला टीका जो गाथा पाचारांगके नामसे उद्धत है, भूत है, भट्ठारह हजार पद-परिमाया है, मूलगुण वह श्वेत. माचरांगमें नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त मादि पारह अधिकारोंमे मिबद्ध एवं महान अर्थ-गाम्भीर्यराजवातिकमादिमें पाचारांग स्वरूपका बटन करते हुए से युक्त है, बाण-सिर वर्ण, पद और वाक्योंसे सम
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३३२]
भनेकान्त
[किरण ११
वित है. पातिकर्मचयसे उत्पस केवलज्ञानके द्वारा प्रामाणिकताका ही बोध होता है, अपितु उसके कर्ता जिन्होंने षट द्रव्यों और नव पदाकि समस्त गुण और बट्टकेराचार्यके अगाध तपांडित्यका भी पता चलता है। पर्यायोंको जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेवसे उपदिष्ट है, उक्क उल्लेखके माधार पर कमसे कम इतना तो निर्विवाद बारह प्रकारके तपोंकि अनुष्ठानसे जिनके अनेक प्रकारकी मानना ही पड़ेगा कि उन्हें प्राचार्य-परम्परासे आचारांगअद्धियां उत्पन हुई है, ऐसे गणधरदेवसे जो रचित है, का पूर्ण ज्ञान था, वे उसके प्रत्येक अधिकारसे भली और जो साधुओंके मूलगुणों और उत्तरगुणोंके स्वरूप, भेद भांति परिचित थे और इसीलिए उन्होने उन्हीं बारह उपाय, साधन, सहाय और फलका निरूपण करने वाला अधिकारोंमें अट्ठारह हजार पदप्रमाण उस विस्तृत प्राचा. है, ऐसे प्राचार्य-परम्परासे पाये हुए आचाराङ्गको पप संगसूत्रका उपसंहार किया है। ठीक वैसे ही, जैसे कि बल बुद्धि और माथु बाजे शिष्यों के लिए द्वादश अधिकारों- सोलह हजार पदप्रमाण पेजदोसपाहुडका गुणधराचार्यने से उपसंहार करनेके इच्छुक श्रीवट्टकेराचार्य अपने और मात्र एक सौ अस्सी गाथाओंमें उपसंहार किया है। श्रोताजनांके प्रारब्ध कार्य में पाने वाले विघ्नोंके निराकरण- मूलाचार एक मौलिक प्रन्थ है, संग्रह ग्रन्थ नहीं, में समर्थ ऐसे शुभ परिणामको धारण करते हुए सर्व प्रथम इसका परिज्ञान प्रत्येक अधिकारके आद्य मंगलाचरण मूलगुणाधिकारके प्रतिपादन करनेके लिए मंगख-पूर्वक और अन्तिम उपसंहार-वचनोंसे भी होता है और जो प्रतिज्ञा करते हैं:
पाठकके हृदयमें अपनी मौलिकताकी मुद्राको सहजमें ही इस उत्थानिकाके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि अंकित करता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि जब जिनेन्द्र-उपदिष्ट एवं गणधर-रचित, द्वादशांग वाणीका यह मौलिक ग्रन्थ है, तो फिर इसके भीतर अन्य ग्रंथोंकी भाष जो पाचारांग सूत्र है वह महान् गम्भीर और अति गाथाएं क्यों उपलब्ध होती है। इस प्रश्नके उत्तरमें दो विशाल है, उसे अप बल-बुद्धि वाले शिष्यों के लिए बातें कहीं जा सकती हैं। एक तो यह-कि जिन गाथाओंअन्धकार उन्हीं बारह अधिकारों में उपसंहार कर रहे है, को भम्य ग्रन्थोंकी कहा जाता है, बहुत सम्भव है कि वे जिन्हें कि गणधरदेवने रचा था। इस उल्लेखमे प्रस्तुत इन्हींके द्वारा रचित अन्य प्रन्योंकी हों? और दूसरे यह प्रन्थकी मौलिकता एवं प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। कि अनेकों गाथाएँ प्राचार्य-परम्परासे चली आ रही थीं, यह उक्लेख डीक उसी प्रकारका है, जैसा कि कसाय- उन्हें मूलाचारकारने अपने अन्यमें यथास्थान निबद्ध कर पाहरके लिए वीरसेनाचार्यने किया है। यथा- दिया। अपने इस निबद्धीकरणका ये प्रस्तुत प्रन्थमें यथा
'दो अंगपुण्यायमेगदेसो चेव पाइरियपरपराए स्थान संसूचन भी कर रहे हैं। उदाहरणके तौर पर यहाँ मागंण गुणहराइरियं संपत्तो पुणो तेण गुणहरभडारण ऐसे कुछ उस्लेख दिये जाते हैं:यायपवादपंचमपुष्व-दसमवस्थु-तदियकसायपाहुडमहण्णव- (१)वंछ सामाचारं समासदो आरणुपुव्वीए (1) पारएक गंयवोच्छेदभएण पदयणवलपरवसोकयहियएण (२) वोच्छामि समवसारं सुण संखेवं जहावुत्तं (८,१) एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलमपदसहस्सपमाणं होतं (३) पजत्ती-संगहणी वोच्छामि जहाणुपुव्वीए (१२,१) असीदिसदमेत्तगाहाहि उपसंहारिदं।"
तीसरे उद्धरणमें भाया हुमा 'पज्जत्ती संगहणी' पद अर्थात्-उक्त अंग-पूर्वोका एक देश की प्राचार्य उपयुकशंकाका भली भांति समाधान कर रहा है। परम्परासे पाकर गुणधराचार्यका प्रास हुआ। पुनः ज्ञान
बट्टकराचाय कौन हैं ? प्रवाद नामक पाँच पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे कसाय पाखरूप महार्यवके पारको प्राप्त उन गुणधर-महारकने
मूलाचार कत्तकि रूपमें जिनका नाम लिया जाता जिनका कि हृदय प्रवचनके वारसत्यसे परिपूर्ण या, सोलह है, वे बहकेराचार्य कौन हैं, इस प्रश्नका अभी तक निर्णय हजार पदपमाण इस पेज्जदोसपाहुडका प्रन्थ-विच्छेदके
पासवान नहीं हो सका विभिड विद्वानोंने इसके लिए विभिल सेवन अम्मी कदा पहा प्राचार्योकी कल्पनाएं की है. परन्तु इस नामके प्राचार्यकिया।
का किसी शिलालेखादिमें कोई उस्लेखादि न होनेसे इस विवेचनसे भवन मूलाचारको मौलिकता और 'बकेराइरिय अभी तक विचारणीय ही बने हुए है।
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किरण ११]
मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता
[३३३
पुरातन-जैनवाक्य-सची की प्रस्तावनाके 11 पर ध्यायने मुझे बताया किकनकीमें 'बेह' कोटी पहादीको पाचार्य श्री. जुगकिशोरजी मुख्तारने लिखा है- और 'करो' गवी या मोहल्लेको कहते है। बेखगाय और
"xxx इस (बहराइरिय) नामके किसी भी पारबाद जिले में इस मामके गांव भय भी मौजूद हैं। प्राचार्यका उक्लेख अन्यत्र गुर्वावलियों, पहावलियों शिखा- भागे भाप लिखते है-"पं. सुब्सम्या शास्त्रीसे जेब तथा प्रम्भ प्रशस्तियों मादिमें कहीं भी देखने में नहीं मालूम हुमा कि श्रवणवेल्गोखका भी एक मुहला वेहगेरि पाता और इसलिए ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्च स्क- नामसे प्रसिद्ध है।कारिकलके हिरियंगडि बस्ति पत्रावती बरोंके सामने यह प्रश्न पराबर सपा मा है कि ये बह- देवी मन्दिरके एक स्तम्भ पर शक सं०१५१७ का एक करादिनाम कौनसे भावार्य और का " शिलालेख है जो भगवी भाषामें है । इस लेख में बहकार'
श्री मुख्तार साने 'बहराचार्य के सन्धि-विच्छेद- गांवका नाम दो बार भाया है और वह कारिकसके पास द्वारा अर्थ-संगति बिठानेका प्रयास भी उक्त प्रस्तावनामें ही कहीं होना चाहिए । सो हमारा अनुमान है कि भूखाकियावे 'बहराइरिय' का बकरा मारिया चारके कर्ता 'बहकेरि' भी कमामके गांवोमसही किसी ऐसा सन्धि-विच्छेद करते हुए लिखते है:
गांवके रहने वाले होंगे।" __ "वटक' का अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है, ''शिवाणी- प्रेमीजीके इस लेख में सुझाई गई पनामों के विषय. सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी सरस्वती प्रवर्तिका में मुख्तार साहब अपनी उसी प्रस्तावनामें बिखतेहो जनताको सदाचार एवं सम्मान में लगाने वाली हो- “बेहगेरि पाबेट्टकेरी नामके कुछ माम तथा स्थान पाये उसे बहकेर' सममना चाहिए। दूसरे, बहका-प्रवतंकों में जाते हैं. मुखाचारके कर्ता उन्हों में से किसी हरि या जो इरिगिरि प्रधान-प्रतिष्ठित हो, अथवा रि=समर्थ- बहकेरी ग्रामके ही रहने वाले होंगे और उस परसे औरतशक्तिशाली हो, उसे 'बहकेरि' जानना चाहिए। तीसरे कुण्डादिकी तरह 'बेहोरी' कहलाने लगेगे, हम 'वट' नाम वर्तन-माचरणका है और 'क' प्रेरक तथा संगत नहीं मालूम होता-बेह और वह शब्दोंके रूपमें ही प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें जो प्रवृत्ति कराने वाला हो नहीं. किन्तु भाषा तथा अर्थमें भी बहुत अन्तर है।'' उसका नाम 'वहरक' है। अथवा घट्ट माम मार्गका है. शम्मप्रेमीजीके लेखानुसार छोरी पहादीका वाचा कमी सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी भाषाका शब्द है और 'गेरि' उस भाषामें गली-मोहल्लेबहरक कहते हैं। और इसलिए अर्थकी हटिसे ये वह को कहते हैं, जबकि 'वह' और बट्टक' जैसे शब्द प्राकृत रादि पद कुन्दकुन्दके लिए बहुत ही उपयुक्त तथा संगत भाषाके उपयुक्त अर्थके वाचक शब्द है और प्रम्पकी मालूम होते हैं। भारचर्य नहीं, जो प्रवर्तकरव-गुणकी भाषाके अनुकूल पड़ते हैं। प्रन्यभरमें तथा उसकी टीकामें विशिष्टता के कारण ही कुन्दकुन्द के लिए बहकेरकाचाय
'बेहगेरि' या 'बेडकरी' रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं (प्रवर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो।" पाया जाता और न इस प्रन्यके कवरूपमें अन्यत्री श्रीमानकर उसका प्रयोग देखने में माता है, जिससे उक्त कापनाको शीर्षक लेख जैन सिदान्त-भास्करके भाग १२ की किरय अवस में प्रकाशित भा., उसमें वे लिखते है:
पुरातन जैनवाक्यसूरी प्रस्ता..)
उपयुक्त दोनों विद्वानों के कथनोका समापन करते xxxपहरि' नाम भी गाँवका बोधक होना
हुए मुझे गुरुवार साहबका अर्थ वास्तविक नामकी ओर चाहिए और मूलाचारके कर्ता बेडगेरी या बेकरी प्रामके
अधिक संकेत करता दुभा जान पाता है। बदि पहरा ही रहने वाले होंगे और जिस तरह कोखकुण्डके रहने
हरिय' का सम्धि-विम्लेर 'बट्टक+एरा+भारिय' करके वाले प्राचार्य कोणाकोणाचार्य, तथा उम्मुलर प्रामके और संस्कत-प्राइतके 'उ-खयोः वयोरमेद: नियमको रहने वाले तुम्बुलूराचार्य कहलाये, उसी तरह ये बकरा ध्यान में रख सकार्य किया जाय, तो सहजमें ही बाय कहलाने लगे।
पक+एखा+भाचार्य-वर्तकलाचार्य नाम प्रगट हो इसी लेख में पाप विवेक ५. एन. उपा- बापाचार्य इन्दकुन्दका एक नाम 'एखाचार्य भी
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३३४ ]
अनेकान्त
[किरण ११
प्रसिद्ध है। वर्तक या प्रवर्तक यह उनकी उपाधि या पद यही कारण है कि वे शिष्यों-सामान्य साधुजनोंके लिए रहा है, जिसका अर्थ होता है-वर्तन, प्रवर्तन, या पाच- हिदायत देते हुए कहते हैं कि साधुको उस गुरुकुल में रण करानेवाला । मेरे इस कथनकी पुष्टि इसी मूलाचारके नहीं रहना चाहिए, जहाँ पर कि उक्त पांच प्राधार न हों। समाचाराधिकारसे भी होती है जिसमें साधुको कहाँ पर दूसरे उल्लेखसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है, जिसमें नहीं रहना चाहिए इस पातको बतलाते हुए मूलाचार- कि संघ के प्राधारभूत उक्त पांचोंके कृतिकर्म करनेका कार कहते है
विधान किया गया है। तत्थ व कप्पह वासोजत्य इमे मत्थि पंच आधारा। समाचाराधिकारकी गाथा नं. ११६ के 'संघवहवमो पदका माइरिय-उवझाया पवत्त थेरा गणधरा य ॥१५५
मा. वसुनन्दिकृत अर्थ 'संघप्रवर्तकश्चर्यादिभिरुपकारक:
देखनेसे और स्वयं प्राचारांग शास्त्रके रचयिता होनेसे अर्थात्-साधुको उस गुरुकुममे नहीं रहना चाहए,
' यह बात सहजमें ही हृदय पर अंकित होती है कि एलाजहां पर कि प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थावर और
चार्य किसी बहुत बड़े साधु संघके प्रवर्तक पद पर पासीन गए.धर, ये पाँच प्राधार न हों।
थे और इसी कारण पश्चाद्वर्ती प्राचार्योंने उन्हें इसी नाममा. बसुनन्दी 'पवत्त' पदकी व्याख्या करते हुए
से स्मरण किया । वर्तक एजाचार्यका ही प्राकृतरूप लिखते हैं:-'संघं प्रवर्तयतीति प्रवतेकः' भर्थात् जो संघ.
'बहराइरिय' है। ऐसा ज्ञात होता है कि मूलाचारकी जो का उत्तम दिशा में प्रवर्तन करे, वह प्रवर्तक कहलाता है।
मूलतियाँ प्रा. वसुनन्दीके सामने रही हैं उनके अन्त स्वयं मूलाचार-कार उपयुक्त पांचों माधारोंका अर्थ
में 'बहराइरिय विरहय' जैसा पाठ रहा होगा और उसमें इससे भागेकी गाथामे इस प्रकार सूचित करते है:
के अन्तिम पद 'माइरिय' का संस्कृतरूप प्राचार्य करके सिसाणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसोय संघवट्टयो। प्रारंभके 'चट्टकेर' को उन्होंने किसी प्राचार्य विशेषका नाम
। समझकर और उसके संस्कृतरूप पर ध्यान न देकर अपनी प्रति-जो शिष्योंके अनग्रह में कुशल हो. टीकाके मादि बचतमें उसके रचयिताका 'वट्टकेराचार्य प्राचार्य करते हैं जो धर्मका उपदेश दे, वह उपाध्याय
नाम से उल्लेख कर दिया। कहलाता है। जो संघका प्रवर्तक हो चर्या आदिके द्वारा वर्तक-एलाचार्य या कुन्दकुन्द उपकारक हो उसे प्रवर्तक कहते है, जो साधु-मर्यादाका
उक्त विवेचनसे यह तो स्पष्ट हो गया कि मूलाचारके उपदेश दे, यह स्थविर है और जो सर्व प्रकारसे गयाको
कर्ता प्रवर्तक एनाचार्य है। पर इस नामके भनेक प्राचार्य रक्षा करे उसे गणधर कहते हैं।
हो गये हैं, प्रत मूलाचारके कर्त्ता कौनसे एलाचार्य है। मूलाचार कारने इससे भागेके षडावश्यक अधिकार में
यह सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है । ऐतिहासिक सामायिक करनेके पूर्व किस-विसका कृतिका करना
विद्वानोंने तीन एनाचार्योंकी खोज की है। प्रथम कुन्दकुन्द, चाहिए, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है :
जो मूलसघके प्रवर्तक माने जाते हैं। दूसरे वे, जो धवला मारिय-उवझायाणं पवत्तय त्थेर-गणधरादीणं। टीकाकार वीरसेनाचार्यके गुरु थे और तीसरे 'ज्वालिनीमत' एदेसि किदियम्म कायन णिज्जरछाए ॥४४॥ नामक ग्रन्थ के प्राध प्रणेता । जैसा कि लेखके प्रारम्भमें
अर्थात् कर्मोंकी निर्जराके लिए प्राचार्य, उपाध्याय, बताया गया है, धवला टीकामें मूलाचारके प्राचारांगके प्रवर्तक स्थविर और गणधरादिका कृतिकर्म करना चाहिए। रूपसे और तिलोयपरणतीमें मूलाचारके रूपसे उल्लेख
मूलाचारके इन दोनों उद्धरणोंसे जहां प्रवर्तक' पद होने के कारण मूलाचारके कर्ता अन्तिम दोनों एलाचार्य की विशेषता प्रकट होती है, वहां उससे इस बात पर भी नहीं हो सकते है, अतः पारिशेषन्यायसे कुन्दकुन्द ही प्रकाश पड़ता है कि मूलाचार-रचयिताले समय तक अनेक एखाचार्यके रूपसे सिद्ध होते हैं। साधु-संघ विशाल परिमाण में विद्यमान थे और उनके मूलाचारकी कितनी ही प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों भीतर उक्त पाँचों पदोंके धारक मुनि-पुंगव भी होते थे। में भी प्रन्यकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य पाया जाता है।
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आर्य और द्रविड़ संस्कृति के सम्मेलन का उपक्रम
किरण ११ ]
माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाले प्रकाशित मूलाचार के अन्त में जो पुष्पिका पाई जाती है उसमें भी मूत्राचारको कुरंदकुदाचार्य प्रीत लिखा है। वह पुष्पिका इस प्रकार है :'इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृतः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमहस्थ ।' इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है ।
• कुन्दकुन्द के समयसार, प्र.चनसारादि ग्रन्थोंके साथ मूलाचारका कितना सादृश्य है, यह पृथक् लेख द्वारा प्रगट किया जायगा | यहाँ पर इस समय इतना ही कहना है कि मूलाचारको सामने रखकर कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंका गहरा अभ्यास करने वाले पाठकोंसे यह भविदित नहीं रहेगा कि मूलाचार के कर्ता प्रा० कुन्दकुन्द ही हैं। ऐसी हालत में प्रज्ञाच पं० सुखलाल जोका या पं० परमानंदजी शान्त्रीक कथन कितना पार गर्भित है, यह सहज ही जाना जा सकता है। यहाँ पर मुझे यह प्रकट करते हुए प्रसवता
[ ३३५
होती है कि पं० परमानन्दजीको अब अपने उस पूर्व कथनका आग्रह नहीं है, वे कुछ पहलेसे ही मूळाचारको एक अति प्राचीन मौलिक ग्रन्थ समझने लगे हैं। पाँचवे श्रुतकेवली भद्रबाहुके समय में होने वाले दुर्भिस मे जो संघभेद हो गया और इधर रहने वाले साधुग्रोके आचार-विचार में जो शिथिलता भाई, उसे देखकर ही मानों प्रा० कुन्दकुन्दने साधुओंके आचार प्रतिपादक मूल आचारांगका उद्धार कर प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की, इसी कारण से इस प्रन्थका नाम मूलाचार पड़ा और तदनुसार साधु- संघका प्रवर्तन कराने से उनके संघका नाम भी मूल संघ प्रचलित हुआ, ये दोनों ही बातें 'बट्टराइ रिय' नामके भीतर छिपी हुई हैं और इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूलाचार अति प्राचीन मौलिक प्रन्ध है और उसके रचयिता एकाचार्य नाम से प्रख्यात भा० कुन्दकुन्द ही है।
आर्य और द्रविड़ संस्कृतिके सम्मेलनका उपक्रम
( बाबू जयभगवानजी एडवोकेट )
द्रविड़ संस्कृतिकी रूप रेखा
भारतको हिन्दू संस्कृति दो मुख्य संस्कृतियोंके सम्मेनसे बनी है, इनमें एक वैदिक आर्योंकी आधिदैविक संस्कृति और दूसरी द्राविड़ लोगोंकी आध्यात्मिक संस्कृति । परन्तु वास्तव में यदि देखा जाय तो हिंदू संस्कृतिका अधिकांश भाग बारहमे चौदह श्राने तक सब अनार्य है। भार तीयांका खान-पान (चावल, भात, दाल, सत्त ू, दूध, घी, गुड़, शक्कर आदि ) वेषभूषा (धोती, चादर, पगड़ी) रहन सहन. ( ग्राम, नगर दुर्ग, पत्तन ) आचार व्यवहार ( अहिसात्मक - सभी के अधिकारों और सुभीताम्रका आदर करना ), जीवन आदर्श - ( मुक्तिकी खोज), धाराध्यदेव ( त्यागी, तपस्वी सिद्ध पुरुष ) धर्म मार्ग - (दया, दान, दमन, व्रत, उपवास ) पूजा-भक्ति तीर्थ गमन आदि सभी बातें द्रविड़ संस्कृतिके सांचे में ढली हैं १ ।
भारतीय व वैदिक साहित्यके अनुशीलनसे तथा बघु १. (अ) अनेकान्त वर्ष १३ किरया ४-२--लेखक द्वारा जिलित 'भारतकी अहिंमा संस्कृति' शीर्षक लेख । (घा) बंगाल रावल एशियाटिक सोसाइटीकी पत्रिका भाग १६ संख्या १ वर्ष ई० १३५० में प्रकाशित
एशियायी पुरातत्व व सिन्ध और पंजाबके मोहनजोदड़ों तथा हड़प्पा नगरोंकी खुदाईसे प्राप्त वस्तुओंसे यह बात तो सर्व सम्मत ही है कि वैदिक आर्यगण लघु एशिया और मध्य एशिया के देशों में से होते हुए त्रेतायुगकी चाह लगभग ३००० ई० पूर्व मे इछावर्त और उत्तरपश्चिमके द्वार से पंजाब में आये थे । उस समय पहजेसे ही द्राविद लोग गान्धारसे विदेह तक; और पंचानसं दक्षिण के मयदेश तक अनेक जातियों में बटे हुए अनेक जनपदोंमें बसे हुए थे, और सभ्यता में काफी बढ़े खड़े थे। ये दुर्गं ग्राम, पुर और नगर बनाकर एक सुव्यवस्थित राष्ट्रका जीवन व्यतीत करते थे। ये वास्तुकला में बड़े प्रवीण थे। ये भूमि खोदकर बड़े सुन्दर कूप, तालाब, बायदो, भवन और प्रासाद बनाना जानते थे । इनके नगर और दुर्गं ईंट, पत्थर और चूने के बने हुए थे। इनके कितने ही दुर्ग लोहा, सोना डा० सुनीति कुमार चटर्जीका लेखा 'कृष्णा द्वपायन व्यास और कृष्ण वासुदेव ।'
२. (घ) " हि सर्पाः कृपा इव हि सर्पाणामायतनानि अस्ति वै मनुष्यायां च सर्पायां च विभ्रातृव्यम्" । ०४-१-२-३
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३३६ ]
और दीसे युक्त थे। कृषि पशुपालन
व्या
दक्ष ।
पार और शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे । ये जहाज चलाने की कला एक थे वे जाओं द्वारा समुद्री मार्गसे लघु एशिया तथा उत्तर पूर्वीय अफ्रीका के दूरवर्ती देशोंके साथ व्यापार करते थे१ |
अनेकान्त
इन्होंने अपने उच्च नैतिक जीवनले उक्त देशोंोगों को काफी प्रभावित किया था और उन्हें अपने बहुत धार्मिक प्राध्यान बतलाये थे। उनमें अपनी आध्यात्मिक संस्कृतिका प्रसार भी किया था। उक देशों जमने वाले सभी सुमेरी और बासुरी सभ्यताओंने जो सृष्टि-प्र और सृष्टि पूर्व व्यवस्था सम्बन्धी मृत्यु तमादपुरुष चारमा असुर-वा-प्रजापति- हिरययगर्भवाद. विसृष्टि इच्छा, तपनादिके आख्यान (Mythes ) प्रचलित हैं, वे इन दस्युलोगोंकी ही देन हैं। वे इनके मृत्यु व अज्ञानतम प्राच्छादित संसारसागरवाद, संसार-विच्छेदक चादिपुरुष जन्मवाद, शाहिवार, त्याग तपस्या ध्यान विखीनता द्वारा संसारका प्रलयवाद अन्य अध्यात्मिक आख्यानोंके ही आधिदैविक रूपान्तर हैं; मे आख्यान लघु एशियामेंसे चलकर आनेवाले आर्य अबके वैदिक साहित्य में तो काफी भरे हुए हैं; परन्तु मध्यसागरके निकटवर्ती देशोंमें पीछेसे बहुरी, ईसाई, इसलाम आदि जिसने भी धर्मोका विकास हुआ है, उन सभी अपने-अपने ग्रन्थों क क्यानोंका अतिरूपसे बखान किया है, चूँकि ये सभी ध्यान आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक व्याख्याही सार्थक ठहरते है | इसलिये आध्यात्मिक परम्पराले विलग हो जाने के कारण जब इनका अर्थ अन्य उक देश वालों
आधिदैविक रीति करना चाहा तो ये सभी विचारकोंके लिये जटिल समस्या बन गये । और आज भी ये ईश्वर वादी विचारकोंके लिये एक गहन समस्या है।
वेदविद लोग सर्प चिन्हका टोटका ( Totem ) अधिक प्रयोग में जानेके कारण नाग, अहि, सर्प आदि नामोंसे थे। वाणिज्य व्यापारमै कुरा हो कारण ये पार्थं (वधिक) कहलाते थे । श्यामवर्ण होनेके
[रिख ११
कारण मे कृष्ण भी कहलाते थे। अपनी बौद्धिक प्रतिमा और उच्च आचार-विचारके कारय मे अपनेको दास व दस्यु (चमकदार) नामले पुकारते थे। प्रभारी व संबधी । होने तथा इसके उपासक होने के कारण मे मात्य भी कहलाते वृत्र थे, ये प्रत्येक विद्याओंके जानकार होनेसे द्राविद नामसे प्रसिद्ध थे, संस्कृत विद्याधर शब्द 'शावि' शब्दका ही । इसीसंकृविद्यार लिये पिले पौराणिक व साहित्य कथा, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थोंमें इन्हें विशेषतया बिन्ध्याचल प्रदेशी तथा दक्षिय अनार्य लोगोंका विद्याधर शब्द ही निर्देश किया गया है। ये बड़े बलिष्ठ, धर्मनिष्ठ, दयालु और अहिसाधर्मको माननेवाले थे। वे अपने इष्टदेवको पुत्र (अर्थात् सब ओरसे घेर कर रहने वाला अर्थात् सर्वज्ञ) ४ (सचादरी परमेष्ठी (परम सिद्धिके मालिक जिन (संसारके विजेता मृत्युन्जय ) शिव (भानन्दपूर्ण ) ईश्वर (महिमापूर्ण नामसे पुकारते थे। आम-शुद्धिके लिये महिला संयम रूप मागंडे अनुयायी, ये वे देशी (जटाधारी) (शिशन- देव ) ( नग्नसाधुओं) के उपासक पेट मे नदियों और पर्वतोंको इन योगियोंकी तपोभूमि होने के कारण तीर्थस्थान मानते थे। ये व्यग्रोध, अश्वस्थ, आदि वृत्तोंको योगियोंके ध्यान साधनासे सम्बन्धित होनेके कारण पूज्य वस्तु मानते थे।
(1) [अ] विशेष पर्यागके लिये देखें अनेकान्स वर्ष 11
किर २ में प्रकाशित लेखकका "मोहनजोदडो कजीन और आधुनिक जैन संस्कृति" शीर्षक लेख ।
द्राविड़ संस्कृतिकी प्राचीनता
शाविक लोगोंकी इस प्राध्यात्मिक संस्कृतिकी प्राचीनताके सम्बन्ध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्यजन के श्रागमन से पूर्व यह संस्कृति भारत में प्रचलित थी। यहांके विज्ञजन देव-उपासना सत्य-चिन्तन, और कविभावुकता ऊपर उठकर धारमयकी साधना हट चुके थे। वे सांसारिक अभ्युदयको नीरस और मिथ्या जान अध्यात्म
(२) ऋग्वेद ८ ८-११-१२
(३) रामायण ( वाल्मीकि) सुन्दरकांड सर्ग १२ । ब्राह्मी
संहिता १२०३८ पद्मपुराण स्वर्गख । (४) वृत्रोह वाऽइदं सर्वे वृत्वा शिश्यो यदिदमन्तरेण द्यावा
पृथिवी यदिदं सर्वं कृत्वा हिरवे तस्मादो नाम । - शतपथ मा० १. १.२.४
(२) इसके लिये देखें अनेकान्त वर्ष १२ किरण २ व ३ में लेखकके 'भारत योगियोंका देश है शीर्षक लेख
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किरण ११)
आर्य और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम
[३३७
अभ्युदय के लिये स्यागी, भिवाचारी पोर अरण्यवासी वैदिक आर्योंका आदि धर्मबन चुके थे, वे तपस्या द्वारा महन्, जिन, शिव, ईश्वर, पंजाबमे बसने वाले मार्यगण अपनी फारसी शाखाके परमेष्ठोब्य जीवनके उच्चतम भादशंकी सिद्धि पा स्वयं समान ही जो फारस (ईरान) में भावाद हो गई थी, सिद्धबन चुके थे। भरण्यों में इन सिद्धपुरुष के नेके.
माधिदैविक संस्कृतिके मानने वाले थे। वे मानव चेतनाकी स्थान जो निषद, निषीदि, निषधा, निषोदिका नामोसे उस शैशवदशासे अभी उपर न उठे थे, जब मनुष्य सम्बोधित होते थे. भारतीय जनके लिए शिक्षा दीक्षा, स्वाभाविक पसन्दके कारण रंगविरंगी चमत्कारिक चीजोंशोध-चिंतन, माराधना उपासनाके केन्द्र बने हुए थे। इन को देख पाश्चर्य-विभोर हो उठता है, जब वह बाहनिषदों परसे प्राप्त होनेके कारण ही भार्यजनने पोचेस तयोंके साथ दबकर उन्हें अपने खेल-कूद मामोद-प्रमोदका अध्यात्मविद्याको 'उपनिषद्' शब्दमे कहना शुरू किया साधन बनाता है उनके भोग उपभोगमें वहता हुमा । ये स्थान पाजकल जैन जागोम निशिया वो निशि
गायन और नृत्यके लिए प्रस्तुत होता है। जब वह अपनी नामांसे प्रसिद्ध है और इन स्थान की यात्रा करना एक
लघुता व बेवसी प्राकृति शक्तियों की व्यापकता और पुण्य कार्य समझा जाता है। उनकी इस जीवन-झांकीसे aareता
. यहाँ पर यही अनुमान किया जा सकता है कि ऐहिक उनमें देवता बुद्धि धारण करता है, उनके सामने नतमस्तक वैभव और दुनियावी भाग विलास वाले शैशव कालसे हो उनसे सहायतार्थ प्रार्थना करने पर उतारू होता है। उठ कर त्याग और सन्तोषके प्रौढ़ जीवन तक पहुँचते थे, हम दशामें सर्वव्यापक ऊंचा प्राकाश और उसमें रहने उन्हें क्या कुछ समय न लगा होगा। प्रवृत्ति मागस वाले सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण तथा नियमबद घूमने निवृत्तिकी भोर मांब खानेसे पहले इन खांगांने ऐहिक
बाबा तुचक अन्तरिष. लोक और उसमें बसने वाले वैभवके सृजन, प्रसार और विलासमें काफी समय बिताया मेघ, पर्जन्य, विद्य त प्रभंजा, वायु, तथा पृथ्वीलोक, और होगा। बहुत कुछ देवी-देवता अर्चन धर्म पुरुषार्थ अथवा उस पर टिके हुये समुद्र, पर्वत, चितिज, उषा भादि सभी मर्थ काम पुरुषार्थ अथवा वशीकरण यन्त्र-मन्त्रोंके करने
सुन्दर और चमत्कारिक तव जीवन में जिज्ञासा, भोज, पर भी जब उनका मनोरथकी प्राप्ति न हुई होगी. तब ही
स्कृति और विकास करने वाले होते है, इसीलिए हम ही तो वे इनको दृष्टिम मिथ्या और निस्मार जचे होंगे। देखने
में इस लम्बे जीवन प्रयोग पर ध्यान देनेसे यह अनुमान फारमी और हिन्दी पोरोपीय शाखाओंकी तरह पस होता है कि भारतीय संस्कृतिका प्रारम्भिक काल घेदिक (माकाश वरुण (प्राकाराका व्यापक देवता) मित्र प्रार्यजनके आगमनसे कमसे कम १.०० वर्ष पूर्व अर्थात् (भासमानी प्रकाश ) सूर्य, महत (अन्तरिक्षमें विचरने १०.. ईसा पूर्तका जरूर होगा । इस अनुमानकी पुष्टि वाला वायु) अग्नि, उषा, अधिन् (प्रति और सम्या भारतीय अनुश्रतिसे भी होती है कि सतयुगका धर्म तप समयकी प्रभा) भादि देवताओंके उपासक थे । था, और त्रेता युगमें यज्ञोंका विधान रहा, और द्वापरम
इस सम्बन्धमें यह बात याद रखने योग्य है कि यज्ञोंका हास होना शुरू हो गया। भारतीय ज्योतिष गण
शैशवकालमें मनुष्यकी मान्यता बाहरी और प्राधिदैविक नाके अनुसार सतयुगका परिमाण ४८००, प्रेताका १६..
क्यों न हो उसके साथ उसकी कामनाओं और वेदनामोंकी द्वापरका २४..और कलिका १२०० वर्ष है। यदि वैदिक
अनुभूतियांका घनिष्ट सम्बन्ध बना रहता है। और यह भार्यजन श्रेतायुगके मध्य में भारतमें पाये हुए माने जाय
स्वाभाविक भी है, क्योंकि जगत् और तत्सम्बन्धि बातोंऔर नेताका मध्यकाल ३... ईम्बी पूर्व माना जाय तो
को जानने के लिए मनुष्यके पास अपने अनुभूतिके सिवाय द्वाविद संस्कृतिका भारम्भिक काल उससे कई हजार वर्ष पूर्वका होना सिद्ध होता है।
(२) (A) S. Radha Krishnan-Indian
philosophy Vol. one-chapter first. (१)मनुस्मृति 1.1, महाभारत शान्तिपर्वअध्याय २१. (B) Prof. A Macdonell-Vedic My२१-११। मुण्डक उपनिषद-1-1-1
thology V), 2 and 3
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३३८]
अनेकान्त
[किरण ११
और प्रमाण भी कौनमा है। इसीलिये वह जगत् और नहीं है। दुःखोंकी निवृत्ति और सुखोंकी सिद्धि के लिये उसकी शक्तियोंकी व्याख्या सदा अपनो अनुभूतिके अनुः यज्ञ ही जीवनका प्राधार है । देवता स्तुति एक मंत्र ही रूप ही करता है। यद्यपि भाधिदैविक पक्ष वालोंकी शब्दविद्याको पराकाष्ठा है। इससे अधिक लाभदायक मान्यता है कि ईश्वरने मनुष्यको अपनी छाया अनुरूप और कोई वाणी नहीं हो सकती। इसी तरह ब्राह्मण प्रन्थोंपैदा किया है। परन्तु मनोविज्ञान और इतिहासवालों में कहा गया है कि यज्ञ ही देवताओंका अस है। यज्ञ का कहना है कि मनुष्य अपनी अनुभूतिके अनुरूप ही ही धर्मका मूल है । यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है३ । बिना जगत् , ईश्वर, और देवताओंकी दृष्टि करता है। और यज्ञ किये मनुष्य अजातके समान है। इसीलिये देवइस तरह मनुष्यका मादिधर्म सदा मानवीय देवतावाद तामोंकी प्रार्थना की गई है कि सभी देवता अपनी-अपनी (Anthropomorahism ) होता है।
पत्नियों सहित रयांमें बैठकर भावें और हवि ग्रहण करके इसी तरह पैदिक मायोका आदि धर्म भी मानवीय सन्तुष्ट होवें। देवतावाद थार । इनके सभी देवता मानव-समान सजीन
जब तक मनुष्यको अपनी गरिमा और शोभाका बोध सचेष्ट, प्राकृति-प्रकृतिवाने थे । वे मानव समान ही
नहीं होता उसकी भावनाएं भी उसकी बाह्यदृष्टि अनुरूप खान पान करते और वस्त्राभूषण पहनते थे। वे मानवी
साधारण ऐहिक भावनामों तक ही सीमित रहती है। वे राजामोंकी तरह ही वाहन, अस्त्र, शस्त्र, सेना, मन्त्री
धन धान्य-समृद्धि पुत्र-पौत्र उत्पत्ति, रोगव्याधि-निवृत्ति, भादि राजविभूतियोंसे सम्पन्न थे। वे राजाओंकी तरह ही
दीर्घ प्रायु, शत्रमाशन, आदि तक पहुँचकर रुक जाती है। रुष्ट होने पर रोग, मरी, दुभित, अतिवृष्टि, अनावृष्टि
उसके लिये इन्हींकी सिद्धि जोवनकी पराकाष्ठा है, इनसे बादि विपदामोसे दुनियामें तबाही वरपा कर देते है और
मागे उसे जीवन-कल्याणका और कोई प्रादर्श नजर नहीं संतुष्ट होने पर वे लोगोंको धन-धान्य, पुत्र पौत्र संतानसे
पाता। इसलिए स्वभावतः आधिदैविकयुगके पार्यजन माखा-माल कर देते है।
उक्तभावनाओंको लेकर ही देवताओंकी प्रार्थना करते हुए
दिखाई पड़ते हैं। ऋग्वेदका अधिकांश भाग इस ही प्रकारइन देवतामोंको सन्तुष्ट करनेके लिए मनुष्यके पास
की भावनाओं और प्रार्थनामोंसे भरपूर है । इन मन्त्रों में सिवाय यज्ञ, हवन कुरवानी, प्रार्थना-स्तुतिके और उपाय हो कौनसा है। इसलिए मानव समाज में जहाँ कहीं और
इन्द्रदेवतास जहाँ-जहाँ दम्युनोंके सर्वनाश और इनके जब कभी भी देवतावादका विकास हुमा है तो उसके
धन-हरण मादिके लिये प्रार्थनाएं की गई हैं वे उन घोर
जबाइयांकी प्रतिध्वनि है जो पार्यजनको अपने वर्ण और साथ साथ यज्ञ, हवन, स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रीका भी विस्तार हुमा है । इस तरह देवतावादके साथ स्तोत्रों
सांस्कृतिक विभेदोंके कारण दीर्घकाल तक दम्यु लोगोंके
साथ लड़नी पड़ी है। इनका ऐतिहासिक तथ्य सिंधुदेश और याज्ञिक क्रियाकाण्डका घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऋग्वेद में
और पंजाबके १००० वर्ष पुराने मोहनजोदड़ो और हरप्पा इन प्रश्नोंके उत्तरमें कि 'पृथ्वीका अंत कौनसा है,संसार
__ सरीखे दस्यु लोगोंके उन समृद्धशाली नगरोंकी बरबादीसे की नाभि कौनसी है, शब्दका परमधाम कौनसा है' कहा
समझमें पा सकता है जिनके ध्वंस अवशेष अभी ११२५ गया है कि यज्ञवेदी ही पृथ्वीका अन्त है, यज्ञ ही संसारकी नाभि है और ब्रह्म (मन्त्रस्तोत्र ही)शब्दका परमधाम (१) यज्ञो देवतानाम् भवम्॥ शतपथ ब्राह्मण ८-१-२१. अर्थात् शिन कायमसे भागे कोई कल्याणाका स्थान (२) यज्ञोपं ऋतस्य योनिः ॥शतपथ ब्राह्मण १-३,४-१६
(२) यहोवे श्रेष्ठतमं कर्म शतपथ ब्राह्मण १-0.14 (9) So god created man in his own image. Bible Genesis 1-27
(७) अजातोह वैतावत्पुरुषों यावच भजते स (२) वही Indian Philosophy और Vedic
यझेनैव जायते।
जैमिणि उप. ३-115 Mythology.
(१) ऋग-३.६- २ (., इयं वेदिः परोअंत:पृथिव्या अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। (१)ग-२.२ । पुत्र पौत्र उत्पत्ति के लिये) अयं सोमो वृष्णो भरवस्थ रेजो महायं वाचः परमं ब्योम। भग-10-15(शतवर्ष मायुके खिये)
बग-1, १६५, १९, राग-10-2010-11-11-1(दस्यु नाशके लिये)।
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किरण ११]
आर्य और द्रविड़के सस्कृति सम्मेलन उपक्रम
[३३६
के लगभग सरकारी पुरातत्व विमाग द्वारा प्रकासमें उपायों द्वारा मनीषिजन इन देवतामोके नाम उच्चारण माये हैं।
भारसे बचने का प्रयत्न कर रहे थे। बहुदेवतावादका उदय
ये सभी देवता एक समय ही रष्टिने न पाये थे, ये
विभिन्न युगोंकी पैदावार थे। शुरू शुरूमें ये सभी देवता ज्यों-ज्या वैदिक ऋषियोंका अनुभव बड़ा और उनपर नीचे, दायें-बायें लोककी विभिन्न शक्तियां उनके अवलो
अपने-अपने क्षेत्र में एक दूसरेसे बिल्कुल स्वतन्त्र, विक्कुल
म्बरछन्द महाशक्तिशाली माने जाते रहे। अपने अपने कनमें पाई. त्या त्यों इनके अधिनायक देवताओंकी संख्या
विशेष क्षेत्र में प्रत्येक देवता सभी अन्य देवताओंका शासक बढ़ती चली गई। भाखिर यह संख्या कम ब्रायविंरा अर्थात्
बना था। पीछेसे एक जगह सम्मिश्रण होने पर इसमें तारसेतोस तक पहुंच गई। भूग्वेदकी ३६६ की श्रुति अनु.
तम्यता, मुख्यता व गोणताका भाव पैदा होने लगा। सार ती संख्या ३५ तक भी पहुँच गई थी। इन
इनकी शुरू शुरू वाली स्वच्छन्दताकी विशेषता एक ऐमी २३ देवों में पाठ वसु (१ अग्नि, २ पृथ्वी, ३ वायु,.
विशेषता है जो न बहुईश्वरवादसे सूचित की जा सकती है अन्तरित भादिस्य, ६ चौ, चन्द्रमा, मनचय )२
और न एकेश्वरवादसे 1 प्रो. मेक्समूलरने इसके लिये एक ग्यारह रुब दश प्राण और एक भारमा३ । द्वादश भादस्य
नई संज्ञा प्रस्तुत की है Henotheism अर्थात् बारी(दादरा माप) एक इन्द्र, एक प्रजापति, सम्मिलित
बारीसे विभिन्न देवोंकी सर्वोच्च प्रधानता, यह बात वो माने जाने लगे थे। इन देवताओं की संख्या बढ़ती-बढ़ती
सहज मनोविज्ञानकी है कि कोई मनुष्य एक साथ अनेक इतनी योफल हो गई कि इन्हें समझने और समझाने के
देवताओंको एक समान सर्वोच्च प्रधान होनेकी कल्पना लिये विद्वानांन इन्हें लोकको अपेक्षा तीन श्रेणियोंमें
नहीं करता, वह एक समय में एकको ही प्रधानता देता है। विभक्त करना शुरू किया। यस्थानीय, अन्तरिक्ष स्थानीय
ऋग्वेदमें जो हम सभी देवताओंको बारी-बारीसे सर्वप्रधान और पृथ्वी स्थानीय । इन श्रेणिबद्ध देवताओं में भी
हुमा देखते हैं उसका स्पष्ट तथ्य यही है कि ये सभी चजोकका सूर्य, अन्तरिक्ष लोकका वायु और पृथ्वीलोककी
देवता एक ही जाति और एक ही युगकी कल्पना नहीं अग्नि मुख्य देवता माने जाने लगे, परन्तु इनमें भी देवा
है कि ये भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थिति अनुसार सुर अथवा भार्यदम्यु संग्रामों में अधिक सहायक होनेके
विभिन्न जातियों और विभिन्न युगांकी कल्पना पर भाषाकारण वैदिक पार्योंन जो महत्ता इन्द्रको प्रदान की वह
रित है! इसलिए ये अपने-अपने वर्ण, युग और क्षेत्र में अन्य देवतायोंको हासिल न हुई । जब इन देवतामांकी
प्रधानताका स्थान धारण करते रहे हैं। इन सबका उद्गम पृथक् पृथक स्तुति और यज्ञ अनुष्ठान करना, मनुप्यकी
इतिहास एक दूसरेसे पृथक् है और उन सूक्तोंसे बहुत पुराना शक्तिमे पाहरका काम हो गया। तब एक ही स्थानमें
है, जिनमें इनका स्तुति गान, किया गया है। इन बायश्विदेवाके उच्चारण द्वारा सबहीका ग्रहण किये जाने
खिश देवताचामें सबसे भाखिरी दाखला उन देवांका है जो लगा इन उपरोक्त बातोंसे पता लगता है कि किन-किन
रुद्र संज्ञासे सम्बोधित किए गए हैं। इनमें पुरुषके दश () ऋग्वेद ३-६-१, (२) शतपथ ब्राह्मण १.६.३.६ प्राय और एक माल्मा शामिल है। शतपथ बायकारने बृह-उप ३.१.३, (३) शतपथ ब्राह्मण 11.0.4, शतपय दशब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है-कतमे रुद्रा इति । मा11-६३-७, बृह. उप. ३-६-४ का. उप. ३.१५-4 दश इमे प्राणा, पारमा एकादश, ते यदा यस्मात् शरीरात
वह अप.३.१.१, (३) .प्रा. ४.१.७२, (६) मान् उत्क्रान्ति पय रोदयन्ति तस्मात् का इति ।' (अ) ग्वेद १३.31,(मा) भास्कराचार्यकृत निहाय (शतपथमा०11-1-1.0 श.पा.१५-७ । (देवतकायह) 12-1 (1) शौन-सर्वानुक्रमणी२८। पर्याद य कौनसे हैं ये दश प्राय, और ग्यारहवा वेद में "विश्वदेवा' के नामसे सबकी इक्ट्ठी पास्मा,
शरीरसे ये निकलकर चले जाते हैं संतति की गई है। एते वै सबै देवा यविश्वे देवाः, कौशन- और दुनियावालोंको लाते हैं, इसलिए ये रुख कहलाते हैं। की प्रा. १-१४-१-३ । विश्वे देवाः यत सर्व देवाः, गोपथ रुद्रदेवता यम-जन व दस्युजनके पुराने देवता हैं मा. उत्तराई॥२०॥
और भारतीय योगसाधनाकी संस्कृतिसे घनिष्ठ सम्बम्ब
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३४०]
अनेकान्त
[किरण ११
रखते हैं। सभी तांत्रिक पौराणिक और जैनसाहित्यमे "इन विभक्त देवोंमें वह कौनसा देवाधिदेव है जो इनकी मान्यता सुरक्षित है। भारतीय अनुश्रुति-अनुसार सबसे पहले पैदा हुआ जो सब भूतोंका पति है, जो चु ये मृत्युको हिलानेवाले घोर तपस्वी ग्यारह महायोगियोंके और पृथ्वीका माधार है, जो जीवन और मृत्युका मालिक नाम है। महाभारत में इनके नाम निम्न प्रकार बतलाए है,इनमेंसे हम किसके लिये हवि प्रदान करें?" गए है-मृगव्याध, २ सर्प, ३ निऋति, ४ अजैकपाद्, "जिस समय अस्थिरहित प्रकृतिम अस्थियुक्त संसारको ५ अहिबुभ्य (पिनाकी. . दहन, ईश्वर, कपालो धारण किया, उस समय प्रथम उत्पन्नको किसने देखा था। १. स्थाणु, भग। इसमेंसे अजैकपाद, अहिन्य, मान लो पृथ्वीस प्राण और रक्त उत्पन्न हुए परन्तु आत्मा भग, स्थाणु मादि कई रुद्रोंका उपरोक्त नामांसे ऋग्वेदके कहाँ से पैदा हया । इस रहस्यके जानकारके पाम कौन कितने ही सूत्रोंमे बखान किया गया है। ये देवता प्राय- इस विषषकी जिज्ञासा लेकर गया था ?" जनने इलावर्त और सप्तसिन्धु देशमे प्रवेश होने के साथ ही इस उठती हुई शंका लहरीने इन्द्रको भी अछूता न माय वहाँक निवासी यक्ष और गन्धर्व जातियोंसे ग्रहण छोदा । होते-होते चैदिक ऋषि अपने उस महान् देवता इंद्र किये है।इस तरह यद्यपि भारत - प्रवेशके माथ इनके के प्रति भी सशंक हो उठे। जो सदा देवासुर और देवता-मयानमें 'मामा' नामके देवताका समावेश जरूर आर्य-दम्युसंग्रामों में प्रार्यगणका अग्रणी नायक बना हो गया, पर भी प्रास्मीय वस्तु नहोकर देवता ही रहा। जिसने को मरा : बना रहा। इस'पास्मा' देवताको धारमीय तत्त्वमें प्रवृत्त वसनेके लिये युद्ध कराया. जिसने दम्युचोंका विध्वंस करके करनेम पार्यजनको बहुत-सी मजिलों से निकलना पड़ा है। उनके दुर्ग नगर, धन, सम्पत्ति, आर्यजनमें वितरण की,
जो अपने उक्त पराक्रमके कारण महाराजा, महेन्द्र, विश्वबहुदेवतावादका ह्रास
कर्मा आदि नामोंसे विख्यात हुमा । इस बदती हुई संख्याके साथ ही साथ देवतावादका एक देवतावादकी स्थापनाहास भी शुरू हो गया और यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति
यह प्रश्नावली निरन्तर उन्हें एक देवतावादकी भार थी। भाखिर बुद्धि इन देवतामोंके अव्यवस्थित भारको ।
प्रेरणा दे रही थी। आखिरकार भीतरसे यह घोषणा कब तक सहन करती। जहां शिशु-जीवन विस्मयसे प्रेरा
सुनाई देने लगीहुमा, सामान्य विशेषताकी भोर, एकसं अनेकताकी भोर
इन्द्रं वरुणं मित्रंमग्निमाहरथो दिग्यः स सुपर्णो गरुस्मान् । छटपटाता है, वहाँ सन्तुष्टि-जाम होने पर प्रौढ उदय
एक सद्विप्रा बहुधा वदन्स्यग्नि यमं मातरिश्वामाह ॥ बाहुल्यता और विभिन्नतासे हटकर एकता और व्यवस्था
॥ऋग-1 १६४-४६ की राह इंदता है। स्वभावतः बुद्धिमे किसी एक ऐसे
मेधावी लोग जिले आज तक इन्द्र, मित्र, वरुण, स्थायो, अविनाशी, सर्वव्यापी सत्ताकी तलाश करनी शुरू
अग्नि मादि अनेक नामांसे पुकारते चले पाये है की जिसमें तमाम देवताओंका समावेश हो सके । शंका ही
वह एक अलौकिक सुन्दर पक्षी के समान (स्वतन्त्र) दर्शनशास्त्रको जननी है, इस उक्तिके अनुसार एकताका
है। वह अग्नि, यम, मातरिश्वा प्रादि भनेक रूप नहीं दर्शन होने पहले इन देवतामोके प्रति ऋषियोंके मन में
है । वह तो एक रूप है। इस भावनाके परिपक्व अनेक प्रकारको शंकाएँ पैदा होना शुरू हुई।
होने पर अनेक देवताओंकी जगह यह एक देवता __ "ये बाकाशमें घूमनेवाला समऋषिचक्र दिनके समय संसारकी समस्त शक्तियोंका सृष्टा वा संचालक बन गया। कहाँ चला जाता है।" " और पृथ्वी में पहले कौन पैदा हुमा कौन पोछे ।।
(३) कस्में देवाय हविषा विधेम-ऋग 10-१२१, किसलिए दा हुए. यह बात कौन जानता है (१)?"
(०) ऋग. 2-10-1, (२) ऋग १.८६-१-२-१२-१,
(७) इन्द्रके इस विवेचन के लिये देखें 'ममेकान्त' वर्ष, +महाभारत पादिपर्व १८,३।
किरण ' में लेखकका मोहनजोदडों कालीन और (1)अग् । २४-10, (२) ग 1-1८५-1,
माधुनिक जैनसंस्कृति "शीर्षक लेख।
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किरण ११]
आर्य और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम
यही जोवन समस्त सुख-दुःखाका एक मात्र प्राधार हो अध्यात्मवादकी ओर गया। और ब्रह्मा, प्रजापति,विश्वकर्मा-प्रादि नामोंसे निर्देश इस प्रकार वैदिक जिज्ञासा तकहीन विश्वाससे होने लगा । परन्तु मारमाको प्रेरक सत्ताको छोड़कर बो निकल कर एक सतर्क विचारणाकी भोर वह रही थी। समस्त देवताका जनक है, जो पात्म अनुरूपही देव- इनकी रस तयक्त प्राधिदैविक विचारणामेंसे ही भागे ताओंकी सृष्टि करने वाला है, जो समस्त प्रकारके दर्शनों
चख कर ईश्वर और सष्टिप्रलयवाद-मूलक वैशेषिक तथा (Philosphies) विज्ञानों (Since) और कलाका नैयायिक दर्शनका जन्म हुमा। इसमेंसे ही हष्टपूर्व अवस्था रचयिता है, समस्त रूपोंका सृष्टा है किसीबाझ अनात्म सत्ता- सम्बन्धी सत्-असत्, सदसत् रूप तीन वादांका भी विकास को संसारका प्रेरक माननमें जो ऋटियाँ बहु देवतावादमें
हुमा, उपरोक्त सिद्धान्तोंके निर्माणमें यद्यपि उन माध्याद थी-वही त्रुटिया इस एक दवतावादम भा था स्मिक श्राख्यानोंकी गहरी छाप पड़ी है, जो संसार सागरइसीलिये जीवन और जगतके प्रति निरन्तर बढ़ती हुई
वाद, संसाराच्छेदकपुरुष जन्मवाद, ज्ञानात्मक सृष्टिवाद, जिज्ञासा इस एक देवतावादसे भी शान्त न हो सकी । वह
तपध्यानविलीनतास्य प्रलयवादके सम्बन्धमे दस्युलोगोंने प्रश्न करती ही चली गई।
लघुएशियायी देशों में पहिलेसे ही प्रमारित किये हुए थे। सृष्टिकाल में विश्वकर्माका श्राश्रय क्या था? कहाँ से
तो भी प्राधिदैविक रूपमें ढलने के बाद वे उनकी विचारऔर कैसे उसने सृष्टि कार्य प्रारम्भ किया? विश्वदर्शक देव
णाकी स्वाभाविक प्रगतिका ही फल कहे जा सकते है। विश्वकर्माने किस स्थान पर रहकर पृथ्वी और श्राकाशको
परन्तु यह सब कुछ होने पर भी वैदिक विश्व देवतारिख बनाया? वह कौलसा बन और उसमें कौनसा वृक्ष है,
एक निरर्थक बस्तु और मानव एक शुष्क अस्थिकालसे जिससे सृष्टि कर्ताने चावा पृथ्वीको बनाया ? विद्वानों!
धागे न बढ़ सका, एक प्रजापतिबादको ऋग्वेद :-10. अपने मनको पूर्व देखो कि किस पदार्थके उपर खड़ा होकर
और १०८1 में किये गये, (क्यों कर पार कैसे सृष्टिकी ईश्वर सारे विश्वको धारण करता है।
रचमा हुई)' प्रश्नोंका हल न कर सकी। मस्तिष्क निरन्तर
ए. ऐसे अहंकारमय चैतन्य तत्वकी मांग करता रहा, जो "वह कौनसा गर्भ था जो च लोक, पृथ्वी, असुर देवों
अपनी कामनापास इस विश्वका सार्थक बनादे, और इस के पूर्व जल में अवस्थित था, जिसमें इन्द्रादि सभी देवता
कंकालको अपनी मादकता और स्फूर्तिसे उदीप्त करदें। रहकर समष्टिसे देखते थे ।
चुनांचे हम आगे चल कर देखते है कि इस मांगके "विद्वान् कहते हैं कि सृष्टिसे पहिले सबभोर अन्ध
अनुरूप ही वैदिक विचारणा सहसा ही एक ऐसी क्रांतिका
उदय हुमा जिसने इसकी दिशाको बाहरसे हटा भीतरकी कार छाया हुआ था, सभी अज्ञात और जल मग्न था,
ओर मोष रिया, उसे देवतावादसे निकाल पारमबादमें जुटा तपस्याके प्रभावसे वह एक तत्व (प्रजापति ) पैदा हुआ। उसके मनमें सृष्टिको इच्छा पैदा हुई । परन्तु इन सन्त
दिया। इस क्रान्तिके फलस्वरूप ही उसे प्रथम वार यह भान गातोंको कौन जानता है। और किसने इन बातोंको जताया?
हुमा कि रंगरूप वाला विश्व जिसकी चमत्कारिक अभि
व्यक्तियोंके माधार पर वह इसे महाशक्ति और बुद्धिमान यह विस्ट किस उपादान कारणसे पैदा हुई। देवता खोग तो इस विसृष्टि के बाद ही पैदा हुए । इसलिए
देवताओंमे अनुशासित मानता रण है, सत् होते भी यह कौन जानता है कि सृष्टि उस प्रकारसं पैदा हुई। यह
असत् है. ऋतवान् होते हुए भी, अनृतसे भरपूर है, विस्टष्टि उसमें से पैदा हुई। जो इसका अध्यक्ष है और
सुन्दर होते भीकर उपद्रवोंका पर है यह.रोग-शोक परम व्योमन रहता , वही ये बातें जानता होगा और
और मौतसे व्याप्त है, वह कभी किसीके पशमें नहीं हो सकता है कि वह भी न जानता हो (३)।
रहता , इसकी ममता. इसका परिवहन बहुत दुःखमय
है। अग्निवायु इन्द्र मादि विश्वदेवतामोंमें जो शक्ति दिखाई (१) भगवेद
देती है, वह उनकी अपनी नहीं है। इन्हें उद्विग्न और (२) ऋग्वेद १०-२
विलोडित करनेवाली कोई और ही भीतरीही यति है। (३) ऋग्वेद १.-१२१
*दिक विचारणाकी यह कान्ति उसकी स्वाभाविक
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३४२1
अनेकान्त
किरण १
प्रगतिका फल नथी, बल्कि यह भारतकी द्रविड़ संस्कृतिका इन्हें विदेशी और अपनी परम्परा विरुद्ध समझकर सदा ही उसे एक अमर देन थी । यही कारण है कि भार्यजाति- इनका विरोध करते रहे और इन दार्शनिकोंको देवता-द्रोह की अन्य हिन्दी यूरोपीय शाखाएँ जो यूरोपके अन्य देशोंमें और अत्याचारका अपराधी ठहरा। इन्हें या तो कारावास जाकर मावाद हुई, वे भारतकी दस्युसंस्कृतिका सम्पर्क न में डाल दिया या इन्हें देश छोड़ने पर बाध्य किया। मिलनेके कारण अध्यात्मिक वैभवमे सदा वंचित ही बनी चुनांचे हम देखते हैं कि डायोजिनीस (१००ई० पूर्व) रही। ईसा पूर्व की छठी सदीसे यूनान देशकी सभ्यता और प्रोटोगोरस (१६०ई० पूर्व) को एथेन्स नगर कोड और साहित्यमें नो माध्यामिक फुट नजर पाती है और वहाँ कर विदेश जाना पड़ा और सुकरात (४००ई० पूर्व) को पथ्यगोरस, डायोजिनोस, कोटामोरण. जैना, पलेटो, सुक विष भरा जाम पी अपने प्राणोंसे विदा लेनी पड़ी। इस रात, जैसे अध्यात्मवादी महा दार्शनिक दिखाई पड़ते है, अध्यात्मविद्याके साथ जो दुर्व्यवहार उक्त काल में यूनान उनका एकमात्रध्येय आत्मविद्याके अमरदूत भारतीय संता- निवामियाने किया वही दुर्व्यवहार आजसे खगभग २००० को ही है, जो समय समय पर विशेषतया बुद्ध और महा- वर्ष पूर्व फिलिस्तीन निवासी यहूदियोंने प्रभु ईसाकी जान वोरकालमें तथा उनके पीछे अशोक और सम्प्रतिकाल में लेकर किया। उन यूनानी दार्शनिकोंके समान प्रभु ईसा पर यूनान, ईराक सिरिया, फिलिस्तीन, इथोपिया, प्रादि भारतीय सन्तोंके त्यागी जीवन और उनके उच्च प्राध्यादेशोंमें देशना और धर्मप्रवर्तनाके लिए जाते रहे हैं। उन्हीं. मिक विचारोंका गहरा प्रभाव पड़ा था। भारत यात्रासे की दी हुई यह विद्या यूनानसे होती हुई रोमको ओर लौटने पर जब उसने अपने देशवासियोमें जीवकी भमरता प्रसारित हुई है। परन्तु इस सम्बन्धमें यह बात याद रखने मास्म-परमात्माकी एकता, अहिंसा संयम, तप, त्याग, योग्य है..क्यपि भारतीय सन्तोंके परिभ्रमण और देशना- प्रायश्चित्त धादि शोध मार्गका प्रचार करना शुरू किया तो के कारण यूनान में माध्यामिक विचारोंका उत्कर्ष जरूर उस पर ईश्वर-द्रोह और भ्रष्टाचारका अपराध बगा फांसी हमा । परन्तु अभ्यास्मिक संस्कृतिकी सजीव धारासे अलग पर टांग दिया गया। रहने के कारण, ये वहाँ फलोभूत न हो सके। वहाँ के लोग
युग-परिवर्तन
श्री मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न, प्रभाकर
देख रहा हूँ युग-परिवर्तन,
यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ? आज जगतके मदिरालयमें,
अपना अहम् बनाये रखना; दना मद्यपी पागल मानव
परका लघु अस्तित्व मिटाना, आत्मज्ञानसे शून्य हो चला
अपना जीवन हो चिर सुखमय; परके दुःखका ज्ञान न कण भर
परके जीवन पर छा जाना, मुख पर तो देवत्व झलकता
इसी अहम्की मृग-तृष्णामें; अन्तरमें दानवता छाई
छलकी चिर-सञ्चित छलनामें; वचनोंमें याडम्बर कितना
उलझ रहा है पागल मानव तदनुसार आचार नहीं है। अपने पनका भान नहीं है। देख रहा हूँ युग-परिवर्तन,
देख रहा हूँ युग-परिवर्तन, यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
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नूनी
उन दिनों वरिषक श्र ेष्ठ शूरदत्तका वैभव अपनी चरमसीमा पर पहुँच चुका था। मालव-राष्ट्र के प्रिय नृपति शूरसेनने अपनी राजसभामें उन्हें 'राष्ट्र गौरव' कह कर अनेकों बार सम्मानित किया था पर, अनि
जो संसारी पदार्थोंके साथ जुड़ी है, शूरदत्तत्रे Street सूर्य मध्यान्हके बाद धीरे धीरे ढलने लगा। और, शूरदत्त की मृत्यु के बाद तो वैभव कर्पूरेकी तरह उड़ गया; विलीन हो गया । लक्ष्मी अपने चंचल चरण रखती हुई न जाने किस ओर बढ़ गई ? विशाल भवनमें गृहस्वामिनी है, दो पुत्र हैं, एक पुत्री है किन्तु धनके अभाव में भवन मानो सूना-सूना है। प्रतिक्षण असन्तोष, लज्जा और गत वैभवका शोक समस्त परि बारमें छाया रहता है।
निर्धनता बादका वैभव मनुष्यके हृदयको विकसित कर देता है किन्तु वैभवके बादकी दरिद्रता मनुष्य के मनको साके लिए कुम्हला देती है। दोनों पुत्र व्यथित थे । हीन दशामें पुरजन और परिजनों से निःसंकोच बोलनेका उनमें साहस अवशेष न था । रह-रह कर विचार आता था देशान्तरमें जानेका, किंतु कहाँ जाया जाय ?
शूरमित्र बोला- 'प्रिय अनुज ! यहांसे चलना ही ठीक है ।"
!
शूरचन्द्र बोला- 'पर, कहाँ जानेकी सोच रहे हो ?' शूरमित्रने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा- 'भाई जहाँ स्थान मिल जाय मुँह छुपाने के लिए। एक ओर पिताका वैभव कहता है उच्च स्तरसे रहनेके लिए, दूसरी ओर दरिद्रता खींचती है बार-बार होन की ओर। बस, चल दें घरसे। मार्ग मिल हो जायगा ।
शूर चन्द्र बड़े असमंजस में था । उसका हृदय परदेशकी दिक्कतोंकी कल्पना मात्र से बैठ सा गया या । वह अन्यमनस्क होकर बोला-'यहीं कहीं नौकरी करलें । लब्जा-लज्जा में पेट पर बन्धन बाँध कर भूखा रहने से तो अच्छा है ।'
वैभवकी श्रृंखलायें
( मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरन, प्रभाकर )
शूरमित्रने अनुजकी विकलता देखी। आँखोंसे आँसू वह निकले। वह बोला- 'भाई ! नौकरीका अर्थ है: भाग्यको हमेशा-हमेशा के लिए बेच देना और व्यापारका अर्थ है, भाग्यकी बार-बार परीक्षा करना । देशान्तर चलें, और व्यापर आरम्भ करें, भाग्य होगा तो पुनः बीते दिन लौट आयेंगे।
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दूसरे दिन जब सबेरा होने को ही था, दोनों भाई माताका आशिष लेकर रथ्यपुरसे प्रस्थान करके किसी अनजान पथकी ओर बढ़ चले।
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अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। पद-पद पर भटकने हुए ये दोनों सिंहलदीप जा पहुँचे । प्रयत्न करते, पर कुछ हाथ नहीं आता । भाग्य जैसे रूठ गया है। लक्ष्मीको पकड़ने के लिए शून्यमें हाथ फैलाते किन्तु लक्ष्मी जैसे हाथोंमें आना ही नहीं चाहती । उत्साह और आशा टूटने लगी । देशकी स्मृति दिनों दिन हरी होने लगी। एक दिन, दिन भरकी थकान के बाद जब वे आवासकी ओर लौट ही रहे थे, कि दूर एक प्रकाशपुञ्ज दृष्टिगोचर हुआ । समीपं जाकर देखा तो आश्चर्य और हर्षसे मानों पागल हो गये। प्रकाशपुञ्ज एक दिव्य-रत्नका था, जिसकी किरणे दिरा-दिगंत में फैल रही थीं। हृदय उमंगोंसे भर गया । भविष्य के लिए सहस्रों सुम्बद कल्पनायें उठने लगी । शूरभित्र मुस्कराते हुए पीला- 'क्या सोचते हो चन्द्र ! दिव्य मणि हाथ आ गया है। बस, एक मणि ही पर्याप्त है रूठी हुई चञ्चलाको मनानेके लिए । बैभव फिर लौटेगा, परिजन अपने होंगे, पुरजन अपने होंगे। अब उठ जायेंगे हम पुन: दुनियाको दृष्टि में, और मालवपतिकी राजसभा में होगा पिता-तुल्य सम्मान । चलो, अब देश चलें। माता और बहिन प्रतीक्षा में होंगीं ।
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भविष्यकी मधुर कल्पनाओं में सहस्रों योजनका
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३४४ ]
कर गया । धनकी उप्ाता मनुष्यको गति देती है, स्फूर्ति देती है । एक दिन चलते-चलते सन्ध्याका समय होने लगा । एक ग्राम समीप ही दृष्टिमें आया । अमूल्य रत्न लेकर ग्राम में जाना उचित न सभ कर अनुज बोला- 'भाई ! आप मांग लेकर यहीं ठहरें, मैं भोजनकी सामग्री लेकर शीघ्र ही आता हूँ ।' इतना कह कर वह प्रानकी ओर चल दिया ।
अनेकान्त
शूरचन्द्रके अदृश्य होते ही शूरमिन रत्नको देख'देख कर मोचने लगा- 'कितना कीमती है मरिण ! म एक है, बांटने वाले हैं दो ? अमूल्य मरिण मेरे ही पास क्यों न रहे ? चन्द्रको हिस्सेदार बनाया ही क्यों जाय ? थोड़ा सा प्रयत्न ही तो करना है चन्द्र चिरनिद्रा में सोया कि रत्न एकका गया । marat सम्पूर्ण वैभव, एकाकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा और एकाकी सम्पूर्ण कीत्ति की धारा प्रवाहित होगी मेरे नाम पर । नया घर बसेगा, नवीन वधू आयेगी, सन्तान-परम्परा विकसित होगी। समस्त संगीत भरा संसार एकका
होगा । दूसरा क्यों रहे मार्गमें बाधक ? पनपनेके पूर्व ही बाधाका अंकुर तोड़ ही क्यों न दिया जाय ? काँटा तोड़नेके बाद ही तो फूल हाथ श्राता है।' लालसा की तीव्रताने विचारों को धीरे-धीरे दृढ़ बनाना प्रारम्भ कर दिया । वेभवका महल अनुजकी लाश पर रखे जानेंका उपक्रम होने लगा । कुछ समय बाद अनुज सामने आया । उसकी आकृति पर संकोच था । वह आने ही वोला- 'भाई ! बड़े व्याकुल हो नहीं हुई मुझे भोजन लाने में? लो, श्रय भोजन ग्रहण करो ।
?
समाप देर तो शीघ्र ही
[ किरण १५
किया है।” इतना कहते-कहते उसने रत्नको अनुजके हाथों में सौंप दिया। अनुजकी समझमें यह विचित्र घटना एक पहेली वन कर रह गई । प्रभात होते ही फिर प्रस्थान किया । धीरे धीरे पुनः दिन ढलने लगा । पुनः किसी नगर के समीप वसेरा किया। ज्येष्ठ बोला"मणि सम्हाल कर रखना, मैं भोजन लेकर शीघ्र ही लौहूँगा ।" इतना कह कर वह नगरकी ओर चल दिया ।
अनुजका स्वाभाविक आत्मीयताने ज्येष्ठके विकारी मनको झकझोर डाला । विरोधी विचार टूट टूट कर गिरने लगे । अनायास ही बाल्यकालका अनोखा प्यार स्मृति-पट पर अति होने लगा। नन्हें-से चन्द्रकी लीलाएँ एक-एक करके चित्रोंकी भांति आँखों सामने आने लगीं । ममतासे हृदय गीला हो चला और अनुजको खींच कर अपने हृदयसे लगाते हुए वह बोला- 'चन्द्र ! यह रत्न अपने पास ही रखा। रत्नका भार अब असह्य हो चला है। छोटेसे मणिने मेरे आत्मिक सन्तुलनको नष्ट कर देनेका दुस्साहस
शूरमित्रके जानेके बाद शूरचन्द्रने रत्न निकाल कर हथेली पर रखा । उसे ऐसा लगा मानों सारा विश्व ही उसकी हथेली पर नाच रहा हो। कितना कीमती है ? करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का होगा ? नहीं, इससे भी अधिकका है । पर मैं क्यों मानता हूँ इसे केवल अपना ? ज्येष्ट भ्राताका भी तो भाग है इसमें । अंह ! होगा ज्येष्टका हिस्सा। बांटना, न बांदना मेरे ही तो आधीन है आज। पर, कैसे होगा ऐसा ? रास्ते से हटाना होगा ? वैभवकी पूर्णताके लिये बड़े-बड़े पुरुषोंने भी पिता तकका वध किया है। वैभव और प्रतिष्ठाक राहसे द्वित्वको हटाना ही होता है । है,
पर विभाजन तो उसीके कारण है । सारे कृत्योंका श्रय ज्येष्ठको ही मिलता है और अनुजं आना है बहुत समय बाद दुनियां को दृष्टिमें । ज्येष्ठ ही वैभव और प्रतिष्ठा पर दीर्घकाल तक छाया रहे, यह कैसे सहन होगा ? सामने ही अन्धकूप है, पानी भरने को जायगा । बस, एक ही धक्केका तो काम है ।" इन्हीं रौद्र विचारोंमें उसके भविष्यका मधुर स्वप्न और भी रंगीन हो चला
"पत्नी आयेगी । भवन किलकारियोंस भर जाएगा। वह भी एकमात्र घरकी अधिस्वामिनी क्यों न होगी ? जेठानीका अंकुश क्यों होगा उसके ऊपर ? वह स्वाधीन होगी, एकमात्र स्वामित्व होगा उसका भृत्य वर्ग पर ।"
इसी समय शूरमित्र श्राता हुआ दिखाई दिया । शूरचन्द्र भयसे सहसा कांप गया । दुष्कल्पनाओं उसके मनको विचलित कर दिया। आकृति पर पीलापन छा गया। सोचने लगा--"ज्येष्ठकी आकृति पर हास क्यों ? क्या समझ गया है उसकी विचार धाराको ?"
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किरण ११ ] वैभव की शृखलाए
[३४५ शूरमित्र ममीप आते ही बोला-चन्द्र ! बेचैन ही शूमित्रने वह अमूल्य मणि बेतवाके प्रवाहमें इस क्यों हो? कुछ देर तो अवश्य हो गई है। लो; अब प्रकार फेंक दिया जैसे चरवाहोंके बच्चे मध्यान्हमें जल्दी ही भोजन करो।" यह कहते-कहते उसने बड़े नदीके तीर पर बैठ कर जलमें तरंगे उठानेके लिए स्नेहसे अनुजके सामने भोजन सामग्री रख दी। कंकड़ फेंकते हैं। रत्नके जल में विलीन होते ही दोनोंने
अनुजका मन स्नेहक बन्धनमें आने लगा। अपने सुखकी साँस ली, स्नेहका गढ़ अभेद्य हो गया। अब मानसिक पतन पर रह-रह कर उसे पश्चाताप होने उसमें लालच जैसे प्रबल शत्रके प्रवेशके लिए कोई लगा-"ज्येष्ठ भ्राता पिता-तुल्य होता है। कितना नीच मागे अवशेष न था। मार्ग तय हो चका था। स्नेहसे हूँ में ? एक मणिके लिए ज्येष्ठ भ्राताका वध करनेको परिपूणे दोनों भाई अपने घर जा पहुंचे। उद्यत हुआ हूँ ! वाह रे मानव ! बुद्र स्वार्थके भीषणनम स्वप्न बनाने लगा ! भ्रातृद्रोही! तुझे शान्ति न पुत्र-युगलका मुख देखते ही माताकी ममता उमड़ने मिलेगी। तेरी कलुषित आत्मा जन्म-जन्मान्तर तक लगी। बहिनने दौड़ कर उन्हें हृदयसे लगा लिया। भटकती रहेगी। वाह री वैभवकी आग ! अन्तरके माँ बोली-कैमा समय बीता परदेशमें ? नहको जलानेके लिए मैं ही अभागा मिला था तुझे ? शूरमित्र गम्भीरता पूर्वक बोला-माँ ! परदेश तो अनुज विचारोंमें खो रहा था और ज्येष्ठ उसके मस्तक
परदेश । सुग्व दुख मब सहन करने पड़ते हैं। पर हाथ रखकर सींच रहा था स्नेह । स्नेहकी धारा बहने
जीवनके हर्ष विपाद मामने आए, लोभन श्राप । लगी और बहने लगा उसमें अनुजका विकारी मन।
मब पर विजय पाकर दोनों उसी स्नेहसे परिपूर्ण आपशुरचन्द्र अपने आपको अधिक समय तक न सम्हाल में सका, स्नेहसे गद्-गद् होता हुआ वह, शूरमित्रके चरणोंमें लोटने लगा। कैसी थी वह आत्मग्लानिकी
माता पुत्रोंक विश्राम और भोजनके प्रबन्धके
लिए व्याकुल थी। समस्त छोटी-मोटी बातें रात्रिके पीड़ा हृदय भीतर ही भीतर छटपटा रहा था। जैसे
लिए छोड़ कर वह बाजार गई और रोहित नामक अन्तरमें कोई मुष्टिका प्रहार ही कर रहा हो। अनुज कराह उठा । वह टूटे कण्ठसे बोला- हे ज्येष्ठ भ्रात!
मछली लेकर घर आ पहुंची। पुत्रीने सारा सामान हे पितातुल्य भ्रात ! लो इम पापी मणिको। लो इस
व्यवस्थित कर ही दिया था। उसने ज्यों ही मछली
को थोड़ा चीरा ही था कि हाथ सहसा रुक गये, श्राश्च- . पतनकी आधारशिलाको । दा हृदयोंमें दीवार बनाने
यसे मुम्ब विस्फारित होकर रह गया। मछलीके पेट में वाले इम पत्थरको आप ही मम्हालो एक क्षण भी यह
दिव्य-मणि ! हाथमें मणि लेते ही वह सोचने लगीभार असा है मुझे ज्येष्ट!
आज वर्षों के बाद देखा है ऐसा महार्घ मणि । वर्षोंका ज्येष्ठकी आँखांसे धारा वह रही थी । वह लड़ख- दारिद्र नष्ट होनेको है क्षण भरमें । पुत्रोंको दिखाऊँ ड़ाते स्वर में बोला-"अनुज ! कैसे रग्वू इसे अपने
क्या ? ऊँह क्या दिग्वाना है पुत्रोंको । कौन किसका पास ? सबसे पहले तो पापी मणिने मुझे ही गिराया है ? बुढ़ापा आया कि मन्तान उपेक्षाकी दृष्टिसे देखने है मानसिक शुद्धिके मार्गसे । रत्नके दावमें आते ही लगी। भोजन, वस्त्र ही नहीं पानी तकको तरसते मैं दानव हो जाता हूँ। तुम इसे रग्वने में असमर्थ हो, है , वृद्ध माँ-बाप । बहुऐ नाक-भौंह सिकोड़ती हैं, मैं इसे रखनेके लिए और भी पहले असमर्थ हूँ। क्या पुत्र घृणासे मुंह फेर लेते हैं । बुढ़ापेका सहारा मिल किया जाय इस रत्नका ?"
गया है । क्यों हाथसे जाने दूं ? पर, कैसे भोग शूरचन्द्र मौन था ! प्राणों में कम्पन तोत्र वेगसे सकूँगी इसे ? मार्गसे हटाना होगा पुत्र-पुत्रीके जंजाल उठने लगा। मौन-भंग करते हुए वह बोला-"क्या को ? क्यों नहीं, रत्नका प्रतिफल तभी तो पूरा मिलेगा, करना इस पत्थरका ? फेंक दो बेतवाके प्रवाहमें । भाई संसारमें पुत्रोंसे नहीं,धनसे मान मिलता है। एक बूदन उतार दो इस जघन्यतम अभिशापको।" इतना सुनते हलाहलका ही तो काम है।"
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' अनेकान्त
। किरण ११
इसी समय पुत्रीने भोजन-कक्षमें प्रवेश किया। भाइयोंकी ओर देखनेका उस साहस नहीं होता। पाप आते ही वह बोली-'कितना सुहावना लगता है आज जो सिर पर चढ़ कर बाल रहा है। वह फफक-फफक भवनमें । धन भले ही न हो, पुत्र रत्न तो हैं, मनकी कर रो पड़ी। माँका प्यार स्मरण पाने लगा। वे शान्तिके लिये । तुम कितनी भाग्यवान हो माँ ! लोरियाँ स्मरण आने जो उसे सुलाने के लिए मां बचपन
पुत्रीके शब्द सुनते ही उसे एक धक्का सा लगा। में गाती रही थी। वे कौतुक याद आने लगे जो बचचेतना पुनः जागृत हुई। मन धीरे-धीरे विवेककी ओर पनमें स्नेह-सिक्त होकर भाइयों के साथ किए थे। लिः मुड़ने लगा। सोचने लगी-"ऋषियोंने कहा है पुत्र, पापिष्ठे ! जन्म दात्री माताका हनन करने चली है? कुपुत्र हो सकता है पर माता, कुमाता नहीं होती। और वाह री भगिनी ! फूलसे कोमल भाइयोंको मारने चली मैं ? वाह री माता ! नौ माह जिन्हें गभेमें धारण किया,
है, एक पाषाण-खण्डके लिए? जिनका मुंह देख कर प्रसव पीड़ा भी भूल गई, जिनके
बहिनकी करुण स्थिति देख कर दोनों भाई सोच मुखको देख-देखकर एक एक क्षण आत्मविस्मृति में रहे थे कितना स्नेह है दोनोंके प्रति बहिनका, सारासमाप्त हुआ; जिनकी किलकारियोंसे सारा भवन भरा का सारा स्नेह जैसे आंसुओंकी धारा बन कर वहा जा रहा, आज उसी अपने रक्तको कुचलने चलो है माता ? रहा है। बस, एक पत्थरके टुकड़े के लिए? धिक् पापिष्ठे! मित्रवती भोजन करनेके बाद बहुत समय तक अचेतनके लिये चेतनका व्याघात करने चली है ?" एकान्तमें रोती रही। पश्चातापकी ज्वालामें जलती हुई इतना सोचते हुए उसने अन्यमनस्क भावसे कहा- वह रात्रिके समय भाइयों के कक्ष में जा पहुंची। हृदय"पुत्री ! देखो, यह मूल्यवान रत्न है। सम्हाल कर की समस्त वेदनाको अन्तरमें छुपा कर वह मुस्कराती रखना।"
__ हुई बोली-लो भैया ! एक रत्न है यह मूल्यवान । मित्रवतीने रत्नको हाथमें लिया पर माताकी अन्य- इसे अपने पास रखो । रत्न देखते ही दोनों सारा मनस्कता वह समझ न सकी। धनमें बड़ा नशा है। रहस्य समझ गये । बहिनक रत्न-दानका रहस्य सोच जब यह नशा चढ़ता है तो बेहोश हो जाता है प्राणी। कर उनमें संसारक प्रति एक विचित्र सी अरुचि होने विवेककी ऑखें बन्द हो जाती हैं। अदृश्यपूर्व था लगी। माता भी गृह-कार्यसे निवृत होकर श्र पहुँची। रत्न । सोचने लगी-कौन-किसका भाई ? कौन-किस- देश विदेशकी चर्चाओंक बाद उन्होंने मातासे कहा, की माँ ? सब स्वार्थके सगे हैं। गरीब बहिनको किमने 'मों ! दरिद्रता कोई बुरा वस्तु नहीं। दरिद्रतामें व्यक्ति प्यार दिया है ? भाई वैभवके नशेमें चूर रहते हैं और इतना दुःखी नहीं जितना वैभव पाने के बाद । दरिद्रता वहिन दर-दरकी ठोकरें खाती है। क्यों न मुलादू
व्यक्तिके लिए वरदान है। वैभवकी अपेक्षा दरिद्रतामें सदाके लिए। धनवान युवतीके लिए कल्पनातीत वर शान्ति है, तृप्ति है।' भी तो मिल जाता है। आश्चर्यकी क्या बात है...? माँ ने बेटोंकी ओर प्रश्न-सूचक दृष्टिसे देखा। ___ भोजन तैयार हो चुका था मां बेटोंको लेकर मानों जानना चाहती है कि वैभवमें अशान्ति कैसी ? भोजन-भवनमें आई । शूरमित्र बाला-चन्द्र आज तो शूरमित्र बोला-माँ ! एक रत्न मिला था हम वहिन मित्रवती के साथ भोजन करेंगे। याद है जब दोनोंका, जिसे संसार सम्पदा मानता है। रत्न हाथ छोटी सी गुड़ियांकी तरह इसे लिए फिरते थे ? चिढ़ाते में आते ही मैंने एकाकी ऐश्वर्यके काल्पनिक सपने थे, रुलाते थे, मनाते थे इसे।" इत | कहते-कहते बना लिए । अनुजको मार कर वैभवकी एकाकी भोगनेउसने मित्रवतीको अपने थालके समीप ही खोंच लिया की विषैली महत्वाकांक्षा मनमें भड़कने लगी। भाग्यसे दोनों भाई स्वयं खात, बहिनको खिलाते, भवनमें मनमें स्नेहकी धारा वह निकली, अन्यथा भ्रातृ-हत्याका मानन्दकी लहर दौड़ गई।
पाप जन्म-जन्ममें लिए भटकता फिरता। शूरचन्द्र पर, मित्रवती तो जेसे धरतीमें धंसी जा रही है। वोला-माँ ! ज्येष्ठ भ्राताने रत्न मुझे सौप दिया था
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किरण ११]
वैभवकी शृङ्खलाएँ
[ ३४७
किन्तु कुछ समझ में न आ सका था। धनकी मदिरा किसी अदृश्य शक्तिके न्यायालयमें चार अपराधी पीते समय कुछ न सोचा। थोड़ी देरमें वही नशा अपना-अपना हृदय खोल कर अचल हो गये थे। मुझे भी बेहोश बनाने लगा, जिसका परिणाम ज्येष्ठ चारों ओर स्मशान जैसी भयानक नीरवता थी।
घ-कूपमें गिरानेका दृढ़ निश्चय पश्चातापकी लपटें सू-सूकरके पापी हृदयोंका दाहकर लिया। किन्तु स्नेहने विकारी मनको रोक दिया, संस्कार कर रही थीं । एककी ओर देखनेका दूसरेमें बाँध दिया। बच गया पापके पङ्कमें गिरते-गिरते। किंतु साहस न था। मस्तक नत थे, वाणी जड़ थी, विवेक माँ ! ज्ञात होता है पापका बीज फिर आगया है इस गतिमान था। घर में । मित्रवती द्वारा अर्पित रत्न वही रत्न है, माँ। शूरस्त्रि बोला भारी मनसे-'माँ ! इस संसारके
माँ की आकृति पर विषादकी रेखायें गहरी हो थपेड़े अब सहन नहीं होते । काम, क्रोध, माया और चलीं। शूरमित्र बोला-माँ ! अब दुखी होनेसे क्या लालसाका ज्वार उठ रहा है पल पलमें। आत्मा क्षतलाम ? इस रत्नको अपने पास रखो। माँ ! तुम जन्म- विक्षत हो रही है, आधारहीन भटक रही है जहाँ पात्री हो, पवित्र हो, गंगा-जलकी भांति । सन्तानके नहाँ। संसारी सुखोंकी मृग-तृष्णामें कब तक छलू ' लिए माताके मनमें कल्पना भी नहीं प्रामकती, अपने आपको । दर किसी नीरव प्रदेशसे कोई आह्वान । खोटी।
कर रहा है। कितना मधुर है वह ध्वनि? कितना पुत्रोंकी बात सुन मॉका विषाद आँखोंकी राहसे संगीत-मय है वह नाद ? अनादि परम्परा विघटित वह निकला । वह भर्रायो हई ध्वनिमें बोली-बेटा। होना चाहती हैं। देव ! अब सहा नहीं जाता। शरण वैभवको लालमा बड़ी निष्ठुर है। उसे पानेके लिए दो, शान्ति दो। मॉ भी सन्तानको मारने के लिए कटिबद्ध हो जाय, तो
काटबद्ध हा जाय, ता शरमित्र ही नहीं सारे परिवारका वह करुण इसमें क्या आश्चये है? वैभवकी तुधा सर्पिणीकी चीत्कार था: विकलता थी; विरक्ति थी, जो उन्हें कि प्रसव कालीन क्षुधा है जो अपनी सन्तानको निगलने
अज्ञात पथकी ओर खींच रही थी। पर ही शान्त होती है। मैंने भी मछलाके पेटको चीरते
____
xxx समय ज्यों ही रत्न देखा, मित्रवती और तुम दोनोंको
प्रभातका समय है। दिनकरकी कोमल किरणें मार डालनेके विचार बलवान होने लगे। पर मॉकी
धरती पर नृत्य करने लगी है। दो युवा पुत्र, पुत्री ममताने विजय पायी और मैंने ही बड़ी ग्लानिस
और माता मुनिराजके चरणों में नतमस्तक हैं । अरहंत मित्रवतीको दे दिया था; वह रत्न ।'
शरणं गच्छामि ! धर्मशरणं गच्छामि !! साधु शरणं मित्रवती बोली-'माँ ! मैं भी हतबुद्धि हो चली थी गच्छामि !!! की ध्वनिसे दिग्-दिगन्त व्याप्त है।
पानक बाद लालसान पारावारक बन्धन ढाल चैभवकी श्रृङ्खलायें, जो मानवको पापमें जकड़ देती हैं, कर दिये थे। एक विचित्र पागलपन चलने लगा था खण्ड खण्ड हो गई हैं। उदय-कालीन सूर्यकी रश्मियाँ मस्तिष्कमें। सौभाग्य है कि दुर्विचार शांत हो गये हैं।' पल-पल पर उनका अभिषेक कर रही है। आज उनकी
आत्मामें अनन्त शान्ति है।
आवश्यक सूचना आगामी वर्षसे अनेकान्तका वार्षिक मूल्य छह रुपया कर दिया गया है। कृपया ग्राहक महानुभाव छह रुपया हो भेजनेका कष्ट करें।
मैनेजर-'अनेकान्त'
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धर्म और राष्ट्र निर्माण
(लेखक-आचार्य श्रीतुलसी) धर्म उत्कृष्ट मंगल है। प्रश्न होता है-कौन सा धर्म? जमा लेना राष्ट्र-निर्माण है। यदि इन्हींका नाम राष्ट्र-निर्माण क्या जैनधर्म, क्या बौद्धधर्म, क्या वैदिक धर्म? नहीं यहाँ होता है तो मैं बल पूर्वक कहूँगा-यह राष्ट्र-निर्माण नहीं जो धर्मका स्वरूप बताया गया है वह जैन, बौद्ध या वैदिक बल्कि राष्ट्रका विध्वंस है, विनाश है। ऐसे राष्ट्रके निर्माणमें सम्प्रदायसे सम्बन्धित नहीं। उसका स्वरूप है-अहिंसा, धर्म कभी भी सहायक नहीं हो सकता। ऐसे राष्ट्र-निर्माणसे संयम और तप । जिस व्यक्किमें यह त्रयात्मक धर्म अवतरित धर्मका न कभी सम्बन्ध था और न कभी होना ही चाहिए। हुआ है उस व्यक्ति के चरणों में देव और देवेन्द्र अपने मुकुट यदि किसी धर्मसे ऐसा होता हो तो मैं कहूँगा-वह धर्म. रखते हैं । देवता कोई कपोल-कल्पना नहीं है। वह भी एक धर्म नहीं बल्कि धर्मके नाम पर कलंक है । धर्म राष्ट्रके कलेमनुष्य जैसा ही प्राणी है। यह है एक अमाम्प्रदायिक विशुद्ध वरका नहीं उसकी आत्माका निर्माता है । वह राष्ट्रके जनधर्मका स्वरूप ।
जनमें फैली हुई बुराइयोंको हृदय परिवर्तनके द्वारा मिटाता आप पूछेगे-महाराज ! आप किस सम्प्रदायक धर्मको है। हम जिस धर्मकी विवेचना करना चाहते हैं वह कभी अच्छा मानते हैं ? मैं कहूंगा-सम्प्रदायमें धर्म नहीं है। उपरोक्त राष्ट्र के निर्माणमें अपना अणुभर भी सहयोग नहीं द तो धर्मप्रचारक संस्थायें हैं । वास्तवमें जो धर्म जीवन-शुद्धिका सकता। मार्ग दिखलाता है वही धर्म मुझे मान्य है । फिर चाहे उस धर्मसे सब कुछ चाहते हैं धर्मके उपदेष्टा और प्रवर्तक कोई भी क्यों न हो? जीवन शुध्द्यात्मक धर्म सनातन और अपरिवर्तनशील है वह चाहं.
धर्मकी विवेचना करनेके पहले हम यह भी कुछ सोच ले कहीं भी हो, मुझे सहर्ष ग्राह्य है।
कि धर्मकी आज क्या स्थिति है ? और लोगोंके द्वारा वह
किस रूपमें प्रयुज्य है? धर्मक विषयमें आज लोगोंकी सबस आज जो विषय रखा गया है वह सदाकी अपेक्षा कुछ
बड़ी जो भूल हो रही है वह यह है कि धर्मको अपना उपजटिल है। जहाँ हम सब प्रात्मनिर्माण, व्यक्रि-निर्माण और
कारी समझ कर उसे कोई बधाई द या न दे परन्तु दुन्कार जननिर्माणको लेकर धर्मकी उपयोगिता और औचित्य पर
आज उस सबसे पहले ही दी जाती है। अच्छा काम हुआ प्रकाश डाला करते हैं, आज वहाँ राष्ट्रनिर्माणका सवाल जोड
तो मनुष्य बड़े गर्वस कहेगा-मैंने किया है और बुरा काम कर धर्मक्षेत्रकी विशालताकी परीक्षाक लिए उसे कमीटी पर
हो जाता है तो कहा जाता है कि परमात्माकी एसी ही मर्जी
जाना जाता उपस्थित करना है। इस विषय पर जिन वनाओंने आज दिल
थी? आगे न देखकर चलनेवाला पत्थरसे टक्कर खाने पर खोल कर असंकीर्ण दृष्टिकोणसे अपने विचार प्रकट किये हैं
यही कहेगा कि किस बेवकूफने रास्ते में पत्थर ला कर रख इस पर मुझे प्रसन्नता है।
दिया। मगर वह इस ओर तो कोई ध्यान ही नहीं देता कि राष्ट-विध्वंस
यह मेरे देख कर न चलनेका ही परिणाम है। लोगोंकी कुछ विषयमें प्रविष्ट होते ही सबसे पहले प्रश्न यह होता है ऐसी ही आदत पड़ गई है कि वे दोषोंको अपने सिर पर कि राष्ट्र-निर्माण कहते किसे हैं ? क्या राष्ट्रकी-दूर-दूर नक लेना नहीं चाहते, दूसरोंके सिर पर ही मढना चाहते हैं। मीमा बढ़ा देना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सेना बढ़ाना राष्ट्र- अहिंसाका उपयुक्र पालन तो स्वयं नहीं करते और अपनी निर्माण है ? क्या संहारके अस्त्र-शस्त्रोंका निर्माण व संग्रह कमजोरियों, भीरुता और कायरताका दोषारोपण करते हैंकरना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या भौतिक व वैज्ञानिक नये-नय अहिंसा पर । धर्मके उसूलों पर स्वयं तो चलते नहीं और आविष्कार करना राष्ट्र-निर्माण है? क्या सोना-चाँदी और भारतकी दुर्दशाका दोष थोपते हैं-धर्म पर । मेरी दृष्टिमें यह रुपये पैसोंका संचय करना राष्ट्र-निर्माण है? क्या अन्याय भी एक भयंकर भूल है कि लोग अच्छा या बुरा सब कुछ शक्तियों व राष्ट्रों को कुचल कर उन पर अपनी शक्रिका मिका धर्मक द्वारा ही पाना चाहते हैं, मानो धर्म कोई 'कामकुम्भ'
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किरण ११]
धर्म और राष्ट्र निर्मा
[३४६
ही है। कहा जाता है-कामकुम्भसे जो कुछ भी मांगा जाता और प्रसन्न रह सकती है जब कि उसमें धर्मके तत्व घुलेहै वह सब मिल जाता है। मुझे यहाँ नीचेका एक छोटा मा मिले हों। किस्सा याद आता है:
व्यवस्था और धर्म दो हैं "एक बेवकूफको संयोगसे कामकुम्भ मिल गया। उसने सोचा-मकान, वस्त्र, सोना-चाँदी प्रादि अली बोलेनो धर्म क्या राष्ट्र और क्या समाज दोनोंका ही निर्माता है, इससे सब मिलती ही हैं पर देखें शराब जैसी बुरी चीज भी
किन्तु जब उसको राज्य-व्यवस्था व समाज-व्यवस्था मिला मिलती है या नहीं। ज्योंही शराब मांगी त्योंही शराबसे
दिया जाता है तब राज्य और समाज-दोनोंमें भयंकर गढ़छलाछल भरा प्याला उसके सामने आ गया। अब वह मोचने
बड़का मुत्रपान होना है किन्तु इसके साथ-साथ धर्मके प्राण बगा-शराब तो ठीक, मगर इसमें नशा है या नहीं। पीकर
भी संकट में पड़ जाते हैं। लोगोंकी मनोवृत्ति ही कुछ ऐसी है परीक्षा करूं। पीनेके बाद जब नशा चढ़ा और मस्ती आई
कि यहां माधारणम साधारण कार्य भी धर्मकी मोहर लगा तब वह मोचने लगा-वेश्याओंके नयन-मनोहारी नृत्यक'
दी जाती है। किमीको जल पिला दिया, या किसीको भोजन विना तो सब कुछ फीका ही है। विलम्ब क्या था। कामक
करा दिया. बम इतनं मात्रसे आपने बहुत बड़ा धर्मोपार्जन म्भके प्रभावसं वह भी होने लगा। तब उसने मोत्रा-देखें,
__ कर लिया ! यह क्या है ? इसमें धर्मकी दुहाई क्यों दी जाती में इस कामकुम्भको मिर पर रखकर नाच सकता है या नहीं।
हैं? और धर्मको ऐस संकीर्ण धरातल पर क्यों घसीटा जाता आन्विर होना क्या था? कामकुम्भ धरनी पर गिरकर चकना
है ? ये सब नो धर्मक धरातलसे बहुत नीचे एक साधारण चूर हो गया । वेश्यायोंक नृत्य बन्द हो गए और जब उस
व्यवस्था और नागरिक कर्तव्यकी चीजें हैं। व्यवस्था और बेवकृफकी अग्वेिं खुली तो उस कामकुम्भक फूटे टुकडोंके साथ
धर्मको मिलानेस जहाँ धर्मका अहित होता है वहाँ व्यवस्था साथ उसे अपना भाग्य भी फूटा हुआ मिला।
भी लडम्बडा जानी है। धर्म, व्यवस्था और सामाजिक कर्त
व्यसे बहुत ऊपर श्रात्म-निर्माणकी शकिका नाम है। भौतिक कहनेका तात्पर्य यह है कि लोग कामकुम्भकी तरह शकियोंकी अभिवृद्धिक साथ उसका काई सम्बन्ध नहा भार धर्मसे सब कुछ पाना चाहते हैं। मगर इसके साथ मजकी न उसका यह लक्ष्य ही है कि वे मिले। आज राजनातक बात यह है कि अगर अच्छा हो जाय तो धर्मको कोई बधाई
काइ बधाई नेता उम आवाजको बुलन्द अवश्य करने लगे हैं कि धर्मको नहीं देता। उसके लिए तो अपना प्रकार प्रदर्शित किया जाता राजनीतिसे परे रग्या नाय पर हम तो शताब्दियोंसे यही है और अगर बुरा हो गया तो फिर धर्म पर दुत्कारोंकी बौछार आवाज बुलन्द करते आ रहे हैं। मेरा यह निश्चित अभिमत कर उसकी चाम उधेड ली जाती है। आप यह निश्चित है कि यदि धर्मको राजनीतिसं अलग नहीं रखा जाएगा तो समझे कि धर्म किमीका बुग कग्नं या बुग देनेके लिए है ही जिम प्रकार एक ममय 'इस्लाम स्वतरे का नार बुलन्द हुश्रा नहीं । वह तो प्रत्येक व्यक्रिका सुधार करनेके लिए है और था उसी प्रकार 'कहीं और कोई धर्म खतरेमें ऐसा नारा न उपका इसीलिए उपयोग होना चाहिए ।
गूज उठे । में समझता हैं यदि धार्मिक लोग सजग व संचन
रहें तो कोई कारण नहीं कि भविष्य में यह त्रुटी दुहरायी राष्ट्र और धर्म
जाय। अब यह पांचना है कि धमका राष्ट्र-निर्माणसे क्या निरपेक्ष राज्य सम्बन्ध है। वास्तवमें राष्ट्रक अात्मनिर्माणका जहाँ सवाल है वहाँ धर्मका राष्ट्रस गहरा सम्बंध है। मेरी दृष्टिमें राष्ट्रकी प्रामा भारतीय संविधानमें धर्मको जो धर्म-निरक्षेप राज्य बताया मानव समाजके अतिरिक दसर्ग सम्भव नहीं। मानव-समाज गया है उसको लेकर भी आज अनेक भ्रान्तियाँ और उलझने व्यकियोंका समूह है और व्यक्रि-निर्माण धर्मका अमर व फैली हुई हैं। कोई इसका अर्थ धर्महीन राज्य करता है तो अमिट नाग है ही। इस दृष्टिसे राष्ट्र-निर्माण धर्मसे मीधा कोई 'नास्तिक राज्य'। कोई आध्यात्मिक राज्य करता है तो सम्बन्ध है । धर्म रहित गष्ट्र राष्ट्र नहीं अपितु प्राण शून्य कोई पापी राज्य । देहली प्रवासमें जब मेरा संविधान विशेषकलेवरक समान है। राष्ट्रको प्रान्मा नब ही म्वस्थ मजबूत जोसे सम्पर्क हश्रा तो मैंने उनसे इस विषयमें चर्चा की।
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अनेकान्त
[किरण ११ उन्होंने बताया-"महाराज ! लोग जैसा अर्थ करते हैं वास्तव कर गई है वे सपनेमें भी कभी भागे नहीं बढ़ सकते । इसी में इस शब्दका यह अर्थ नहीं है। इसका मतलब यह है कि प्रकार घरपर किसी अभ्यागतका तिरस्कार करना भी इसीका यह राज्य किसी धर्म-सम्प्रदाय विशेषका न होकर समस्त सूचक है कि असलियतमें धर्म अभी पारमामें उतरा नहीं है। धर्म सम्प्रदायोंका राज्य है।" वास्तवमें यह ठीक ही है जैसे धर्म कभी नहीं सिखाता कि किसीके साथ अनुचित व अशिअभी-अभी स्वामीजी (काशीके मण्डलेश्वर) ने बताया कि प्रतापूर्वक व्यवहार किया जाय । वास्तवमें भूतकालमें भारतकी भारतमें एक हजार धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित हैं। झार जो प्रतिष्ठा थी, जो उसका गौरव था वह इसलिये नहीं था किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेषका राज्य स्थापित किया जाय कि भारत एक धनाव्य व समृद्धिशाली राज्य था और न वह तो मार्ग सम नहीं रहेगा, प्रत्युत बड़ा विषम व कण्टकाकीर्ण इसलिये ही था कि यहां कुछ विस्मयोत्पादक आविष्कारक बन जायगा । इतने धर्म सम्प्रदायोंमें किसी एक धर्म या व शक्तिशाली राजा-महाराजा तथा सम्राट् थे। इसका जो गौरव सम्प्रदाय विशेष पर यह सेहरा बांधना अनेक जटिल सम- था वह इसलिये था कि यहां के कण कणमें धर्म, सदाचार,नीति, स्याओंसे खाली नहीं है। मेरे विचारसे ऐसा होना नहीं न्याय और नियन्त्रणकी पावन पुनीत धारा बहती रहती थी। चाहिए। धर्मको राज्यक संकीर्ण व परिवर्तनशील फंदमें सन्य और ईमानदारी यहांके अणु-अणुमें कूट-कूटकर भरी हुई फंसाना राज्यको भयंकर खतरेके मुंहमें ढकेलना और धर्म थी। तभी बाहरके लोग यहांकी धर्मनीतिका अध्ययन करनेके को गन्दा व सबीला बनाना है। विमाश कारक बनाना है। लिये यहां पर आनेको विशेष उत्सुक व लालायित रहते थे।आज ये दो अलग-अलग धारायें हैं और दोनोंका अलग-अलग प्रत्येक भारतीयका यह कर्तव्य है कि वह विचार करे कि प्राज अस्तित्त्व, महत्त्व और मार्ग है। इनको मिलाकर एक करना हम उम ममृद्धिशाली विश्वगुरु भारतकी संतानें अपनी मूलन तो बुद्धिमत्ता ही है और न कल्याणकर ही।
पूंजी संभाले हुए हैं या नहीं। यदि भारतीय लोग ही अपनी
मूलपूजीको भूल बैगे तो क्या यह उनके लिये विडम्बनासंकीरता न रहे
की बात नहीं है ? कहते हुए खेद होता है कि यहां पर नित्य यह भी पाजका एक सवाल है कि अलग-अलग इननी नये धर्म व सम्प्रदायाँक पैदा होनेके बावजूद भी न तो भारत अधिक संख्यामें सम्प्रदाय क्यों प्रचलित है? क्या इन सबको की कुछ प्रतिष्ठा ही बढ़ी है और न कुछ गौरव ही ! प्रत्युत मिलाकर एक नहीं किया जा सकता। मैं मानता है कि ऐसा मन्य तो यह है कि उल्टी प्रतिष्ठा एवं गौरव घटे हैं। अगर करना असम्भव तो नहीं है फिर भी जो सदासे अलग-अलग अब भी स्थितिने पल्टा नहीं खाया और यह स्थिति मौजूद विचारधारा चली प्रारही हैं उन सबको ग्वत्मकर एक कर रही तो मुझे कहने दीजिये कि धार्मिक व्यक्ति अपनी इज्जत दिया जाय यह बुद्धि और कल्पनासं कुछ परे जैसी बात है। और शान दोनोंको गंवा बैठेंगे मैं इस विषयमें ऐसा कहा करता हूं कि पारस्परिक विचारभेद मिट जाय । जब यह भी संभव नहीं तो ऐसी परिस्थितिमें
भ्युदयपारस्परिक जो मनोमेद और आपसी विग्रह हैं उनको तो इतनं विवंचनके बाद अब मुझे यह बताना है कि वास्तवअवश्य मिटाना ही चाहिये । उनको मिटाये विना धार्मिक में धर्म है क्या? इसके लिये मैं आपको बहुत थोड़े और संस्कारको क्या तोदें और क्या लें इसका निर्णय कैसे करें? सरल शब्दोंमें बताऊँ तो धर्मकी परिभाषा इस प्रकार की जा इसलिये इस विभेदकी दीवार किसी धार्मिक व्यक्रिके लिये सकती है कि जो 'आत्मशुद्धि के साधन हैं उन्हींका नाम धर्म इष्ट नहीं। यदि परस्पर मिलकर धार्मिक व्यक्ति कुछ विचार- है।' इस पर प्रतिप्रश्न उठाया जा सकता है कि फिर लौकिक विमर्श हो नहीं कर सकते तो वे कहां कैस जाय? वे कहां अभ्युदयकी सिद्धिके साधन क्या है ? जबकि धर्मकी परिभाषा बैठेगे, हम कहां बैठेंगे। यदि हम लोग ऐसी ही तुच्छ व में कहीं-कहीं लौकिक अभ्युदयक साधनोंको भी धर्म बताया संकीर्ण बातों में उल्लमते रहे तो मैं कहूंगा-ऐसे मंकीर्ण गया है। मेरी दृष्टिमें लौकिक अभ्युदयका साधन धर्म नहीं धार्मिक व्यकि धर्मकी उन्नतिके बदले धर्मकी अवनति ही है वह तो धर्मका आनुषंगिक फल है। क्योंकि लौकिक करनेवाले हैं और वे धर्मके मौलिक तथ्यसे अभी कोसों दूर अभ्युदय उसीको माना गया है जो पारमातिरिक्र सामग्रियोंका है। जिन धार्मिक व्यकियों में संकीर्णता व असहिष्णुता घर विकास प्रापण होता है। गहराईसे सोचा जाय तो धर्मकी
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किरण ११]
इसके लिये कोई स्वतन्त्र आवश्यकता है ही नहीं जिस । प्रकार गेहूं की खेती करनेसे चूमा आदि गेहूंके साथ-साथ अपने-आप पैदा हो जाती है उनके लिये अलग खेती करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, इसी प्रकार धर्म तो आत्मसुदिके लिये ही किया जाता है' मगर ने साथ दूरीकी तरह लौकिक अभ्युदय उसके साथ-साथ अपने-आप फलने वाला है। उसके लिये स्वतन्त्र रूपसे धर्म करनेकी कोई भावश्यकता नहीं ।
धर्म और राष्ट्र निर्माण
लौकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म
प्राचीन साहित्य में धर्म शब्द अनेक पथमें प्रयुक्र हुआ । उस समय धर्म शब्द श्रत्यन्त लोकप्रिय था । इसलिये कुछ अच्छा लगा जमीको धर्म शब्दसे सम्बोधित कर दिया जाता था। इसीलिये सामाजिक कर्तव्य और व्यवस्थाके नियमों को भी ऋषि महर्षियोंने धर्म कहकर पुकारा जैन । साहित्य में स्वयं भगवान् महावीरने सामाजिक कर्तव्योंके दश प्रकारकं निरूपण करते हुए उन्हें धर्म शब्द अभिहित किया है। उन्होंने बताया है कि जो ग्रामकी मर्यादा व प्रथाएँ हैं उन्हें निभाना ग्राम धर्म है। इसी प्रकार नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म बादिका विवेचन किया है। यद्यपि तत्वतः धर्म वही है जिसमें आत्मशुद्धि और आत्म-विकास हो। मगर तात्कालिक धर्मकी व्यापकताको देखते हुए सामाजिक रस्मों व रीतिरिवाजोंको भी लौकिक धर्म बताया गया है। जीकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म सर्वथा पृथक-पृथक हैं । उनका मिश्रण करना दोनों को ग़लत व कुरूप बनाना है । इनका प्रथक्व इस तरह समझा जा सकता है कि जहां लौकिक धर्म परि वर्तनशील है वहां पारमार्थिक धर्म सर्वदा सर्वत्र अपरिवर्तनशोल व अटल है । चाज जिसे हम राष्ट्रधर्म व समाजधर्म कहते हैं वे राष्ट्र एवं समाज की परिवर्तित स्थितियोंके अनुसार कल परिवर्तित हो सकते हैं। स्वतन्त्र होनेके पूर्व भारतमें जो राष्ट्रधर्म माना जाता था। आज वह नहीं माना जाता । श्राज भारतका राष्ट्रधर्म बदल गया है मगर इस तरह पारमार्थिक धर्म कभी और कहीं नहीं बदलता। वह जो कुछ था वही आज है और जो आज है यही धागे रहेगा । गोर करिये— अहिंसा-पत्य स्वरूपमय जो पारमार्थिक धर्म है वह कभी किसी भी स्थितिमें बदला क्या इसी तरह लौकिक धर्म अलग-अलग राष्ट्रोंका अलग-अलग है जबकि पारमार्थिक धर्म सब राष्ट्रोंके लिये एक समान है। इन कारणोंसे यह कहना
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चाहिये कि लोकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म दो है और मित्र है। पारमार्थिक धर्मकी गति जय भारत-विकासकी और है तब खीकिक धर्मका तांता संसारले जुड़ा हुआ है।
राष्ट्र-निर्माण में धर्म
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राष्ट्रनिर्माण में धर्म कहां तक सहायक हो सकता है और इसके लिये धर्म कुछ सूत्रोंका प्रतिपादन करता है । वे हैं प्रथम स्वतन्त्रता, आत्म-विजय, अदीन भाव, आत्मविकास और आत्म-नियन्त्रण । इन सूत्रोंका जितना विकास होगा उतना ही राष्ट्र स्वस्थ, उचत और विकसित बनेगा इन सूत्रका विकास धर्मके परे नहीं है और न धर्मा इन सूत्रोंका सूत्रपात व उचयन हो किया जा सकता है। आज जब राष्ट्रमें धर्मके निस्मत भौतिकवादका वातावरण फैला हुआ है तब राष्ट्रमें दुर्गुणों व अवनतिका विकास हो ही हो, तो इसमें कोई चारवर्यकी बात नहीं। यही कारण है जहां पदके लिये मनुहारें होतीं दीं फिर भी कहा जाता था कि मुझे पद नहीं चाहिये, मैं इसके योग्य नहीं हूं, तुम्हीं मंभालो यहां आज कहा जाता है कि पदका हक मेरा है, तुम्हारा नहीं परके योग्य मैं हूं, तुम नहीं। पद पानेके लिये । पत्र अपने-अपने अधिकारोंका वर्णन करते हैं मगर यह कोई नहीं कहता कि पदके योग्य या अधिकारी दूटा अमुक है। यह पद लोलुपताका रोग धर्मको न अपनाने और भौतिकवादको जीवनमें स्थान देनेका ही दुष्परिणाम है। एक वह समय था कि जब पदकी लालसा रखनेवालोंको निथ, अयोग्य और अनधिकारी समझा जाता था और पद न चाहनेवालोंको प्रशंस्य, योग्य और अधिकारी सुभटोंका किस्सा इसी । तयपर प्रकाश डालता है। "एक बार किसी देशमें ५०० सुभट प्राये । मन्त्रीने परीक्षा करनेके लिए रात्रि समय सबको एक विशाल हॉल सौंपा और कहा कि तुममेंसे जो बड़ा हो यह हॉखडे बोचमें बिछे पलंग पर मोये तथा अन्य सब नीचे जमीनपर सोयें। सोनेका समय आने पर उनमें बड़ा संघर्ष मचा पलंग पर सोनेके लिये वे अपने-अपने एक योग्यता और अधिकारों की दुहाइयां देने लगे सारी रात बीत गई किन्तु वे एक मिनट भी न सो पाये। सारी रात कुलोंकी तरह आपसमें बढ़ते-भगते रहे। प्रात मंत्रीने उनका किस्सा सुनकर उन्हें उसी समय वहांसे निकाल दिया। दूसरे दिन दूसरे २०० सुभट आये मंत्रीने उनके लिये भी वही व्यवस्था की। उनके सामने समस्या यह थी
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प्रातःकाल
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कि पलंग पर कौन सोये। सबमें परम्पर मनुहारें होने लगी। कोई कहता था मैं इस बडप्पनके योग्य नहीं। कोई कहता था- मैं अधिक अनुभवी नहीं । कोई कहता था मुझमें विद्या बुद्धि कम है। आखिर किमीने पलंग पर सोना स्वीकार नहीं किया। वे बड़े समझदार थे--उसने विचार किया नींद क्यों नष्ट की जाय ? सबको पलंगकी ओर सिर करके मो जाना चाहिए। सबने रात भर खूब श्रानन्दसे नींद ली । प्रात-काल मंत्रीने सारा किस्सा सुनकर उनको बड़े सन्कारके साथ बड़े-बड़े पद सौंपकर सम्मान किया ।" जबतक यह स्थिति न हो यानी पदके प्रति आकर्षण कम न हो तब तक राष्ट्र-निर्माण कैसे हो सकता है। देहली प्रवासमें मेरी पं० नेहरूजी से जब-जब मुलाकात हुई तो मैंने प्रसंगवश कहा“पंडितजी ! लोगोंमें कुर्सीकी इतनी छीनाझपटी क्यों ही रही है ?” उन्होंने खेद भरे शब्दोंमें कहा - "महाराज ! हम इससे बड़े परेशान हैं परन्तु करें क्या ?” जिम राष्ट्र में यह श्रहंमन्यता, पदलोलुपता और अधिकारोंकी भावनाका बोलबाला है वह राष्ट्र ऊंचे उठनेके स्वप्न कैसे देख सकता है ? वह तो दिन प्रतिदिन दुःखित, पीडित और श्रवनत होता जायगा । महाभारत में लिखा है---
बहवो यत्र नेतारः सर्वे पंडितमानिनः । सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तद्राष्ट्रमवसीदति ॥
अनेकान्त
[ किरण ११
जिम राष्ट्रमें मब व्यक्ति नेता बन बैठते हैं, सबके सब अपने आपको पंडित मानते हैं और सब बड़े बनना चाहते हैं वह राष्ट्र जरूर दुःखी रहेगा । भारतकी स्थिति करीब-करीब ऐसी हो रही है इसलिए राष्ट्रकी बुराइयोंको मिटानेके लिए सत्य-निष्ठा और प्रामाणिकताकी अत्यन्त आवश्यकता है। जबतक सत्य-निष्ठा और प्रामाणिकता जीवनका मूलमंत्र नहीं बन जाती तबतक मानवताका सूत्र पहचाना जाय यह कभी भी संभव नहीं और राष्ट्रका निर्माण हो जाय यह भी कभी नहीं हो सकता ।
उपसंहार
अन्तमें मैं यही कहूँगा कि लोग धर्मके नामसे चिढें नहीं । धमं कल्याणका एकमात्र साधन है। उसके नाम पर फैली हुई बुराइयोंको मिटाना आवश्यक है न कि धर्मको । मैं चाहता हूँ कि धर्म और राष्ट्रके वास्तविक स्वरूप और पृथकत्वको समझकर धर्मके मुख्य अंग अहिंसा, सत्य और सन्तोषकी भित्तिपर राष्ट्रके निर्माणके महान कार्यको सम्पन किया जाय । मैं समझता हूँ कि यदि ऐसा हुआ तो राष्ट्र ऊँचा, सुखी, सम्पन व विकसित होगा । वहाँ धर्मका भी वास्तविक रूप निखरेगा तथा उससे जन-जनको एक नई प्रेरणा भी प्राप्त हो सकेगी। ( जैन भारतीसे )
'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें
'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वे वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं । फाइलें थोड़ी ही रह गई हैं । अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा । पोस्टेज खर्च अलग होगा ।
मैनेजर - 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली ।
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बंकापुर
(विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री) बंकापुर पूना-वगलूर रेलवे लाइनमें, हरिहर रेलवे से लोकादित्यके द्वारा स्थापित किया गया था। और स्टेशनके समीपवर्ती हारि रेलवे स्टेशनसे १५ मील उम जमाने में इसे एक समृद्धिशाली जैन राजधानी पर, धारवाड जिले में है । यह-वह पवित्र स्थान है, होनेका सौभाग्य प्राप्त था। बंकेय भी सामान्य व्यक्ति जहां पर प्रातः स्मरणीय आचार्य गुणभद्रने मं० ८२० नहीं था। राष्ट्र-कूट नरेश नृपतुङ्गके लिये राज्य कार्योंमें अपने गुरु भगवजिनसेनके विश्रुत महापुराणांतर्गत में जैन वीर बंकेय ही पथ प्रदशक था। मुकुलका पुत्र उत्तर पुराणको समाप्त किया था । आचार्य जिनसेन एरकोरि, एरकोरिका पुत्र घोर और घोरका पुत्र बंकेय
और गुणभद्र जैन संसारके न्यानि प्राप्त महाकवियोंमें था । बंकेयका पुत्रपितामह मुकुल शुभतुङ्ग कृष्णराज'से हैं । इस बातको माहित्य-संसार अच्छी तरह जानता का पितामह एरकोरि शुभतुबके पुत्र ध्रुवदेवका एवं हैं। संस्कृत साहित्यमें महाराण वस्तुतः एक अनूठा पिता घोर चक्री गोविन्दराजका राजकार्य सारथि था। रत्न है। इसका विशेष परिचय और किसी लेखमें इससे सिद्ध होता है कि लोकादित्य और बंकेय ही दिया जायगा। उत्तरपुराणके ममाप्ति-कालमें बंकापुर- नहीं; इनके पितामहादि भी राज्य-कार्य पटु तथा महासे जैन वीरबंकेयका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य विजय शूर थे। नगरके यशस्वी एवं प्रतापी शासक अकालवर्ष या अस्तु, नृपतुङ्गको बंकेय पर अटूट श्रद्धा थी। कृष्णराज (द्विनीय) के सामंतके रूपमें राज्य करता यही कारण है कि एक लेख में नृपतुङ्गने बंकेयके था । लोकादित्य महाशूर तेजस्वी और शत्रु-विजयी सम्बन्धमें "विततज्योतिनिशितासिरि वा परः" यों कहा था। इसके ध्वजमें मयूरका चिन्ह अङ्कित था। और है। पहले बंकेय नृपतुनके आप्त सेनानायकके रूपमें यह चेल्लध्वजका अनुज और चेल्लकेत (बंकय) का अनेक युद्धोंमें विजय प्राप्तकर नरेशके पूर्ण कृपापात्र पुत्र था। उस समय समूचा वनवास (वनवासि) प्रदेश बनने के फल-स्वरूप बादमें वह विशाल वनवास या लाकादित्यके ही वशमें रहा । उत्तरपुराणकी प्रशस्ति निवासिप्रांतका सामन्त बना दिया गया था। सामन्त देखें।
बंकेयने ही गंगराज राजमल्लको एक युद्धमें हराकर उपर्यत बंकापुर श्रद्धय पिता वीर बंकयके नाम बन्दी बना लिया था । बल्कि इस विजयोपलक्ष्य में
भरी सभामें वीर बंकेयका नृपतुनके द्वारा जब शक संवत २० प्राचार्य गुणभद्रके उत्तर पुराणका कोई अभीष्ट वर मांगनेकी आज्ञा हुई तब जिनभक्त ममाप्ति कान नहीं है किन्तु यह उनके शिष्य मुनि लोकसेन
बंकेयने मगद्गद महाराज नृपतुंगने यह प्रार्थना की की प्रशस्तिका पद्य है जिसमें उसकी पूजाके समयका
कि 'महाराज, अब मेरी कोई लौकिक कामना बाकी उपख किया गया है। --परमानन्द जैन
नहीं रही। अगर आपको कुछ देना ही अभीष्ट हो तो
कोलनूरमें मेरे द्वारा निर्माणित पवित्र जिनमंदिरके + उत्तर पुराणको प्रशस्ति देखें।
लिये सुचारु रूपसे पूजादिकार्य संचालनार्थ एक भूदान उत्तर पुराणकी प्रशस्तिमे दिया हुमा "चेल्लपताके" प्रदान कर सकते हैं। बस, ऐसे ही किया गया। वाक्यम चेल्ल शब्दका अर्थ अमरकोष और विश्वलाचन कोषमें यह उल्लेख एक विशाल प्रस्तर खण्डमें शासनके रूपमें चोल (पक्ष। विशेष ) पाया जाता है। अतः खोकादिस्यकी आज भी उपलब्ध होता है । बंकेयके असीम धर्म-प्रेमयजामें चीलका चिन्ह था न कि मोरकार
के लिये यह एक उदाहरण ही पर्याप्त है। इस प्रसंग-परमानन्द जैन में यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि वीर
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अनेकान्त
[किरण ११ बंकेयकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी रही। इसने बगल में उन्नत एवं विशाल मैदानमें एक ध्वंवसावशिष्ट संस्कृतमें एक काव्य रचा है। इस काव्यका एक पद्य पुराना किला है। इस किलेके अंदर १२ एकड़ जमीन श्रीमान वेंकटेश भीमराव आलूर, बी० ए०, एल० एल० है। यह किला बम्बई सरकारके वशमें है। यहाँ पर इस बी० ने 'कर्नाटकगतवैभव' नामक अपनी सुन्दर रचना समय सरकारने एक डेरी फार्म खोल रखा है। जहाँमें उदाहरणके रूपमें उद्धत किया है।
तहाँ खेती भी होती है । राजमहलका स्थान ऊँचा है _____ बंकेयके सुयोग्य पुत्र लोकादित्यमें भी पूज्य पिता- और इसके चारों ओर विशाल मैदान है । यह मैदान के समान धर्म-प्रेमका होना सर्वथा स्वाभाविक ही है। इन दिनों में खेतोंके रूप में दृष्टिगोचर होता है। इन साथ ही साथ लोकादित्य पर 'उत्तर पुराण' के रच- विशाल खेतोंमें आजकल ज्वार, बाजरा, ऊख, गेहूँ, यिता श्री गुणभद्राचार्यका प्रभाव भी पर्याप्त था। इसमें चावल, उड़द, मूग, चना, तुबर, कपास और मूंगसंदेह नहीं हैं कि धर्मधुरीण लोकादित्यके कारण बंका
__ फली आदि पैदा होते हैं। स्थान वड़ा सुन्दर सुयोग्य पर उस समय जैनधर्मका प्रमुख केन्द्र बन गया था। अपनी समृद्धिक जमाने में वह स्थान वस्तुतः देखने ही यद्यपि लोकादित्य राष्ट्रकूट राजाओंका सामंत था । लायक रहा होगा । मुझे तो बड़ी देर तक यहाँ से हटफिर भी राष्ट्रकूट शासकोंके शासन कालमें यह एक नेकी इच्छा ही नहीं हुई। किलेके अन्दर इस समय वैशिष्ट्य था कि उनके सभी सामंत स्वतन्त्र रहे। एक सुन्दर जिनालय अवशिष्ट है। यहाँ वाले इसे श्राचार्य गुणभद्रजीके शब्दोंमें लोकादित्य शत्ररूपी 'अरवत्तमूरूकबंगल बस्ति' कहते हैं। इसका हिन्दी अन्धकारको मिटाने वाला एक ख्याति प्राप्त प्रतापी
अर्थ ६३ खम्भोंका जैन मन्दिर होना है। मेरा अनुभव शासक ही नहीं था, साथ ही साथ श्रीमान भी। उस है कि यह मन्दिर जैनोंका प्रसिद्ध शान्तिनाथ मन्दिर जमाने में बंकापरमें कई जिन मन्दिर थे । इन मंदिरोंको और इसके ६३ ग्वंभ जैनोंके त्रिपष्ठिशलाका पुरुषोंका चालुक्यादि शासकोंसे दान भी मिला था। बकापुर स्मृतिचिन्ह हाना चाहिये। एक प्रमुख केन्द्र होनेसे यहाँ पर जैनाचार्योंका वास मन्दिर बड़ा सुन्दर है । मन्दिर वस्तुतः सर्वोच्च अधिक रहता था। यही कारण है कि इसकी गणना
कलाका एक प्रतीक है। खंभोंका पालिश इतना सुन्दर एक पवित्र क्षेत्रके रूपमें होती थी। इसीलिये ही गंग
है कि इतने दिनोंके बाद, आज भी उनमें आसानीसे नरेश नारसिंह जैसा प्रतापी शासकने यहीं आकर प्रातः मुख देख सकते हैं। मन्दिर चार खण्डोंमें विभक्त है। स्मरणीय जैन गुरुओंके पादमूलमें सल्लेग्वनावत संपन्न गर्भ गृह विशेष बड़ा नहीं है । इसके मामनेका खण्ड किया था। दंडाधिप हुल्लने यहाँ पर कैलास जैसा गर्भगृहसे बड़ा है। तीसरा खण्ड दूसरेसे बड़ा है। उत्तंग एक जिन मन्दिर निर्माण कराया था। इतना ही अंतिम वा चतुर्थं खण्ड सबसे बड़ा है। यह इतना नहीं, प्राचीन कालमें यहाँ पर एक दो नहीं, पाँच महा
विशाल है कि इसमें कई सौ आदमी आरामसे बैठ
सकते हैं। छत और दीवालों परकी सुन्दर कलापूर्ण विद्यालय मौजूद थे । ये सब बीती हुई बातें हुई।
मूर्तियां निर्दयी विध्वंसकोंके द्वारा नष्ट की गई हैं । इस वर्तमान कालमें बंकापुरकी स्थिति कैसी है, इसे भी
मन्दिरको देख कर उस समयकी कला, आर्थिक स्थिति विज्ञ पाठक एक बार अवश्य सुन लें। सरकारी रास्तेके।
और धार्मिक श्रद्धा आदिको आज भी विवेकी परम्ब * "सरस्वतीय कर्णाटी विजयांका जयस्यसो। सकता है । खेद है कि बंकापुर आदि स्थानोंके इन
या बैदर्भगिरी वास: कालीदासादनन्तरम् ॥" प्राचीन महत्वपूर्ण जैन स्मारकोंका उद्धार तो दूर रहा। x'बम्बई प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक देखें। जैन समाज इन स्थानोंको जानती भी नहीं है।
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मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर प्राचारांगके रूपमें मौलिक अन्य है
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
सन् ११३८ में मैंने 'मलाचार संग्रह ग्रन्थ है। इस रखने के लिए उक्त मूल पाचारके प्रवर्तक बहुमत दिगशीर्षकसे एक लेख लिखा था। उस समय मूलाचारकी कुछ मराचार्यने मूल भाचारांग सूत्रका १२ अधिकारों में संचित गाधामोंके श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति प्रादि प्रन्थों में रूपसे सार खींचकर इस प्रन्धकी रचना की है। उपलब्ध होनेसे मैंने यह समझ लिया था कि ये गाथाएँ प्राचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिकने इस प्रन्य पर लिखी मूलाचारके कर्ताने वहांसे ली है और उनके सम्बन्धमें अपनी 'प्राचारवृत्ति' की उत्थानिकामें स्पष्ट लिखा है कि विशेष विचारका अवसर न पाकर उक्त लेखमें उसे एक अठारह हजार पद प्रमाण पाचारांगसूत्रको मूलगुणा'संग्रहग्रन्थ' बतला दिया था। साथ ही, उसके बारहवें धिकारसे लेकर पर्याप्ति अधिकार पर्यन्त १२ अधिकारों में पर्याप्ति नामक अधिकारको असम्बद्ध भी लिख दिया था। उपसंहार किया हैउस लेखके प्रकाशित होनेके बादसे मेरा अध्ययन उस "श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलविषय पर बराबर चलता रहा। दूसरे प्राचीन दिगम्बर गुग्ण - प्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाग्रंथोंको भी देखने का अवसर प्राप्त हुभा जो उस समय चार-पिंडशुद्धि - षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षानागारभावनामुझे उपलब्ध न थे। तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मैंने समयसार-शीलगुण प्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार निबदममूलाचार और उसकी टीका 'प्राचारवृत्ति' का गहरा मनन हार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मकिया और अधिक वाचन चिन्तनके फलस्वरूप मेरा बह क्षयोत्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषडद्रव्यअभिमत स्थिर नही रहा, अब मेरा यह ह निश्चय हो नवपदाथजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नागया है कि मूलाचार सग्रह प्रन्थ नहाकर एक व्यवस्थित नेकप्रकारर्द्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं, मलगणोत्तर प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। इस लेख द्वारा अपने इन्हीं गुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाविचारों को स्पष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। चाराङ्गमाचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायुःशिष्य
यह ग्रंथ दिगम्बर जैन परंपराका एक मौलिक आधार निमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तु कामः स्वस्य श्रोतृणां
है. उसकी गहरी विचारधारा और विषयका विवंचन च प्रारब्धकार प्रत्यूहनिराकरणक्षम शुभपरिणामं विदधबदा ही समृद्ध और प्राचीनताका उन्नायक है। इतना ही न्छीवट्टकेराचार्यः प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकार-प्रतिनहीं; किन्तु भगवान महावीरकी वह उस मूल परम्पराका पादनाथे मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते सबसे पुरातन प्राचार विषयका प्रन्य है जिसका भगवान ग्रन्थको बनाते समय प्राचार्य प्रवरने इस बातका महावीर द्वारा कथित और गणधर इन्द्रभूति द्वारा प्रथित खास तौरसे ध्यान रक्खा मालूम होता है कि इस ग्रन्थमें द्वादशांगतके भाचारांग नामक सूत्र ग्रन्यसे सीधा संबंध प्राचारांगमूत्र-विषयक मूलपरम्पराका कोई भी अंश जान पड़ता है। इस प्रन्थकी रचना उस समय हुई है जब छूटने न पावे । चुनांचे हम देखते हैं कि प्रन्थकर्तान प्रत्येक द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट अधिकारमें मंगलाचरण कर उसके कहनेकी प्रतिज्ञा की प्राचार मार्गमें विचार-शौथिल्यका समावेश प्रारम्भ होने है और अन्त में उसका प्रायः उपसंहार भी किया है। लगा था। कुछ साधुजन अपने आचार-विचारमें शिथि- जैसा कि मूलाचारके 'सामाचार नामक अधिकार' अधिलताको अपनानेका उपक्रम करने लगे थे और अचेलकताके कारकी आदि पन्तिम गाथासे स्पष्ट हैखिलाफ वस्त्र धारण करने लगे थे। परन्तु उस समय तक तेल्लोक पूयणीए अरहते बंदिऊण तिविहेण । अचेलकताके नग्नता अर्थमें कोई विकृति नहीं पाई थी, वोच्छ समाचारं समासदो आरणपुवीयं ॥१२२॥ जिसका अर्थ वादको बिगाइकर 'अल्पचेल' किया जाने बगा। उस समय मुल परम्परागत माचारको सुरक्षित एवं सामाचारो बहभेदो बरिणदो समासेण ।
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अनेकान्त
- [करण ११ वित्थारसमावण्णो वित्थरिव्वो बहजणेहिं ॥१७॥ प्राप्त हुआ है। चुनांचे श्वेताम्बरीय पाचासंगमें यहाँ तक
इस प्रकरण में उक्त अन्तिम गाथासे पूर्व निम्न गाथा विकार भागया है कि वहाँ पिण्ड एषणांक साथ पात्र एषणा और भी दी हुई है जिसमें विषयका उपसंहार करते हुए और वस्त्र एषणाको और भी जोड़ा गया। जिससे यह बतलाया गया है कि जो साधु और आर्यिका अन्थमें उल्लुि- साफ ध्वनित होता है कि 'मूलभाचार' में द्वादश वर्षीय खित प्राचारमार्गका अनुष्ठान करते हैं वे जगत्पूज्य, कीर्ति दुर्भिसके कई शताब्दी बाद वस्त्र एषणा और पात्र एषणाकी और सुखको प्राप्त कर सिदिको प्राप्त करते है
कल्पना कर उन्हें एषणा समितिके स्वरूप में जोद दिया है। एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। इससे साफ ध्वनित होता है कि मूल प्राचारांगकी रचनाइन ते जगपुज्जं कित्तिं सुहं लण सिझति ॥१६ ॥ सब कल्पनामोंसे पूर्व की है। अन्यथा कल्पनामोंके रूद होने
इसी रह "पिण्डविद्धि' अधिकारम पिण्ड विशुदि पर उनका विरोध अवश्य किया जाता। का कथन करते हुए जिन साधुनाने उसकालमें क्रोध, मान, पडावश्यक अधिकारमें कायोत्सर्गका म्वरूप बतलाते माया और लोभ रूप चार प्रकारके उत्पादन दोषसे दूषित हुए कथन किया है कि जो साधुमोक्षार्थी है, जागरणशील मिक्षा ग्रहणकी है उनका उल्लेख मी बतौर उदाहरणके ई निद्राको जीतने वाला, सूत्रार्थ विशारद है,करण निम्न गाथामें अहित किया है
शुद्ध है, आत्मबल वीर्यसे युक्त उसे विशुद्धात्मा कायोकोधो य हथिकप्पे माणो वेणायडम्मि एयरम्मि। स्सर्गी जानना चाहिए। माया वाणारसिए लोहोपुण रासियाणम्मि ।।४५५ मुक्खट्ठी जिदणिहो मुत्तत्त्व विसारदो करणसुद्धो।
इस अधिकार में बताया गया है कि जो साधु भिक्षा आद-बल-विरिय-जुत्तो काउम्सग्गो विसुद्धप्पा ॥६५६।। अथवा चर्यामे प्रवृत्ति करता है वह मनागुप्ति, वचनगुप्ति यहाँ यह बात खास तौरस भ्यान देने योग्य है और कार्यगुप्ति के संरक्षणके साथ मूलगुण और शीलसंयमा- वह यह कि मूलाचारके कर्ताने षडावश्यक अधिकारकी विककी रक्षा करता है तथा संसार, शरीर और संग (परिग्रह) चूलिकाका उपसंहार करते हुए यह स्पष्ट रूपसे उल्लेख निर्वेदभाव देखता हुमा वीतरागकी प्राज्ञा और उनके किया है कि मैंने यह नियुक्तिकी नियुक्ति संक्षेपसे कही शासनकी रक्षा करता है। अनवम्ण (म्वेच्छा प्रवृत्ति) है इसका विस्तार अनुयोगसे जानना चाहिए। मिथ्यावाराधना और संयम विराधना रूप चर्याका परिहार णिजुत्ती णिजुत्ती एसा कहिदा मए समासण। करता है भिक्खा चरियाए पुण गुत्तीगुणसील संजमादीणं।
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदिणादव्यो ।।६६४
समस्त जैनवमय चार अनुयोगामें विभक्त है, रक्वंतो चरदि मुणी णिव्वेदतिगं च पेच्छतो १७४|| आरणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणामो य ।
प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग म्यानुयोग । संजम विराधणाविय चरियाए परिहरेदव्वा ।।७।।
इन चार अनुयोगांमें प्राचार विषयक विस्तृत कथन पिण्ड शब्दका अर्थ है माहार (भोज्य योग्य वस्तुओंका
चरणानुयोगमें समाविष्ट है। यहाँ प्रन्यकर्ता प्राचार्यका
अभिप्राय 'अनुयोग' से चरणानुयोगका है इसीलिए उसके समूह रूप प्रास) या पिराह| जो साधुनोंको पाणिपात्र में दिया जाता था और भाज भी दिया जाता है। इस अधि
देखनेकी प्रेरणा की गई है।
मूलाचारके कर्वाने जिन नियुक्तियों परसे सार लेकर कारमें चर्या सम्बन्धि विशुद्धिका विशदवर्णन किया गया है।
षडावश्यक नियुकिका निर्माण किया है। वे नियुक्तियाँ मूलाचारमें एषणा समितिके स्वरूप कथनमे एषणाको
वर्तमानमें अनुपलब्ध हैं और वे इस प्रन्य रचनासे केवल माहार के लिए प्रयुक्त किया गया है और बतलाया
पूर्व बनी हुई थी, जिन्हें अन्यकतकि गमकगुरु भद्रबाहुगया है कि जो साधु उद्गम, उत्पादन और एषणादि रूप दोषोंमे शुद्ध, कारण सहित नवकोटिसे विन शीत
श्रुतकेवळीने बनाया था। उन्हींका संचित प्रसार मूनाचारब्यादि भचय पदार्थों में राग द्वेषादि रहित सम मुक्ति ऐसी ® 'महाया कालपरिहाणि दोसेणं तामो णिज्युत्तिपरिशुद्ध अत्यन्त निर्मल एषा समिति है। यह इस भास चुबीमो बुखियामो। एषया समितिका प्राचीन मूल रूप है, जो बाद में विकृतिको
- महानिशीय सूत्र मध्याव
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किरण ११]
. मूलाचार संग्रह प्रन्थ न होकर पाचाराशनके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है।
[३४०
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के इस पडावश्यक अधिकारमें पाया जाता है। पर कुछ अपने मूलाचार प्रदीप' नामक ग्रन्थमें भी मूबापरकी गाथाएं उपलब्ध श्वेताम्बरीय नियुकियोंमें पाये जानेके गाथानोंका सार दिया है। इन सब उबलेखोंसे कारण संग्रह ग्रंथ होने की जो कल्पना की थी वह ठीक नहीं दिगम्बर समाजमें मुखाचारके प्रचारके साथ उसकी प्राचीहै, क्योंकि ये नियुक्तियाँ विकमकी छठी शताब्दीसे नवाका इतिवृत्त पाया जाता है, जो इस बातका बोतको पूर्वको बनी हुई नहीं जान पड़ती हैं। और कि यह मुखग्रन्थ दिगम्बर परम्पराका मौखिक भाचारांग मूलाचार उनसे कई सौ वर्ष पूर्वका बना हुआ है; क्योंकि सूत्र है, संग्रह प्रन्य नहीं है। उसका समुल्लेख विक्रमकी पांचवी शताफीके प्राचार्य- प्रतः श्वे. नियुक्तियों परसे 'भूताचार' में कुष यतिवृषभन अपनी 'विलोयपरणत्ती' के पाठवें अधिकार गाथामोके संग्रह किये जानेकी जो कल्पना की गई थी, की १३२वी गाथामें 'मूलायारे' वाक्यके साथ किया है वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि वीर शासनकी जो जिसस मूलाचारकी प्राचीनता पर अच्छा प्रकाश पड़ता श्रत सम्पत्ति दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें परम्परासे है। उसके बाद प्राचार्यकल्प रडत प्रासाधरजाने दुभिक्षादि मतभेद के कारण बटी, वह पूर्व परम्परासे दोनोंअपनी 'प्रनगारधर्मामृत टीका' (वि० सं० १३०.) में के पास बराबर चली भा रही थी। भद्रबाहु इतकेवबी 'उक्तं च मूलाचारे' वाक्यके साथ उसकी निम्नगाथा उद्धृत तक दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे मेदोंकी कोई सृष्टि नहीं हुई को जो मूलाचार मे १९ नं. पर उपलब्ध होती है। थी, उस समय तक भगवान महावीरका शासन यमाजात सम्मत्तणाण संजम तहि जंत पसत्थ समगमगणं । मदारूपमे ही चल रहा था। उनके हारा रची गई समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणे ।। नियुक्तियाँ उस समय साधु सम्प्रदायमें प्रचलित थी, सास
-अनगारधर्मामृत टी० पृ० ६०५ कर उनके शिष्य-शिष्योंमें उनका पठन-पाठन बराबर पर इनके सिवाय, प्राचार्य वीरसेनन अपनी धवला टीका रहा था। ऐमी हालतमें मूलाचारमें कुछ गाणमोंकी में तह पायारंगे विवुत्तं' वाक्यके साथ 'पंचस्थिकाया' समानता परसे पादान-प्रदानकी कल्पना करना संगत नहीं नाम की जो गाथा समुदत की है वह उक्त प्राचारांग जान पड़ती। ४.०० पर पाई जाती है। वर्तमान में उपलब्ध श्वेता- मूलाचारके कनि 'अनगार भावना' नामके अधिम्बरीय पाचारांग में नहीं है। इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ- कारका प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरणमे त्रिमुवन जवानी की प्रसिद्धि पुरातन काल मूलाचार और प्राचारांग दोनों नया मंगलसंयुक्त अर्थात् सर्वकर्मके जलाने में समर्थ पुण्यसे नामांसे रही है।
युक्त, कंचन, पियंगु, विद्रुम, धब, कुन्द और मृणावरूप आचार्य वीरनन्दीने जो मेषचन्द्र विद्यदेवके शिष्य वर्णविशेष वाले जिनवरोंको नमस्कार कर नागेन्द्र, नरेन एवं पुत्र थे, और जिनका स्वर्गवास शक संवत् १.३७ ओर इन्द्रसे पूजित अनगार महषियोंके विविध शास्त्रोके (वि० सं० १९७२) में हुआ था । अतः यही समय सार-भूत महंत गुपवाले 'भावना' सूत्रको कहनेका उपक्रम (विक्रमकी १२वीं शताब्दी) प्राचार्य वीरनन्दीका है। किया है। यथाप्राचार्य वीरनन्दीने अपने प्राचारसारमें मूलाचारकी मिनिटय जय मंगलो व बेदाग। गाथानोका प्रायः अर्थशः अनुवाद किया हैxभाचार्य कंचण-पियंगु-विद्रम-घण-कुंद-मुणाल लवरणाणं॥ वसुनन्दीने उक्त मूखाचार पर 'प्रचारवृत्ति' नामकी टीका .
अणयार महरिसिणं णाइंद परिंदं इंद महिदाणं । लिखी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। विक्रमको ५ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध महारक सकलकीतिने
वोच्छामि विवहसारं भावणसुत्त गुणमहंतं ।।
इस अधिकारमें जिंगशुद्धि, प्रतादि, बसयिदि मिला+ देखो, अनेकान्त वर्ष ३ कि. १२ में प्रकाशित भद्र
६. शुद्धि, ज्ञानशुदि, उज्मानशुदि-शरीरादिकसे ममत्वका बाहुस्वामी' नामका लेख।
त्याग-खोकवादिरहित वाक्यादि, तपादि-पूर्वकर्म xदेखो, 'वीरननन्दी और उनका प्राचारसार' नामका रूप मखके शोधन में समर्थ अनुष्ठान-ध्यान द-एकान
मेरा खेल, चैन सिक भास्कर मा० किरव चिन्तानिरोधरूपप्रवृति-दन दश अधिकारोंका सुन्दर
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३५८]
अनेकान्त
[किरण ११ एवं मौखिक विवेचन किया गया है। जिससे इस ग्रंथमें गणधर द्वारा तीर्थंकरदेव (भगवान महावीर) से पूछे गये उस समयके मुनियोंके मूल प्राचारका ही पता नहीं प्रश्नोत्तर वानी दोनों गाथाएँ देकर उनका फल भी चलता, किन्तु उस समय साधुनोंकी पर्वाका भी पुरातन बतलाया है:रूप सामने भा जाता है, जिसमें बतलाया गया है कि वे
जाता ६, जिसम बतलाया गया कि वे कि यत्नपूर्वक भाचरण करने वाले दया-प्रेक्षक मिधुके साधु भयकोटिसे शुद्ध शंकादि दश दोष रहित, नख
राहत, नख नवनकर्मबन्ध नहीं होता; किन्तु चिरंवन कर्मबन्धन नष्ट रोमादि चौदह दोषोंसे विशुद्ध पाहार दूसरोंके द्वारा दिया जाता है। इमा परपरमें पाशि-पात्रमें लेते थे। और मॉशिक,
जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो। कीत-खरीदा दुधा-अज्ञात, शंकित अभिघट और सूत्र
एवं ण बज्मदे कम्म पोराणं च विधूयदि ॥१२३ प्रतिकूल पशुखपाहार ब्रहण नहीं करते थे। वे साधुचर्या
इसी अधिकारमें पापश्रमणका नसण निर्देश करते हुए को जाते समय इस बातका तनिक भी विचार नहीं करते कि ये दरिद्र कुन है यह श्रीमंत है और यह समान
बतलाया है कि जो साधु आचार्य-कुलको बोरकर स्वतन्त्र है। वे तो मौनपूर्वक घरों में घूमते थे। और शीतल, उष्ण,
एकाकी विचरता है, उपदेश देने पर भी ग्रहण नहीं करता, राक रूप, स्निग्ध, शुदबोणिद, मनोणित माहारको
वह साधु पापश्रमण कहलाता है। श्वी गाथामें उदाहरण अनास्वावभावसे ग्रहण करते थे। वे साधु अमृक्षणक
म्वरूप ढोढाचार्य नामक एक ऐसे प्राचार्यका नामोल्लेख समान प्राण धारण और धर्मके निमित्त योदासा माहार लेते
भी किया है। जैसा कि ग्रन्थकी निम्न दो गाथाम्रोसे थे। यदि कारणवश विधिके अनुसार पाहार नहीं मिलता
प्रकट है:था, तो भी मुनि खेदित नहीं होते थे किन्तु सुख दुख में
आयरिय कुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। मध्यस्थ और अनाकुल रहते थे। वे दीन वृत्तिके धारक
ण य गेएहदि उवदेसं पावस्समणो त्ति वुच्चदि दु ।।६८ नहीं थे, किन्तु वे नरसिंह सिंहकी तरह गिरि-गुह कन्द
आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तर्ण अकाऊणं । रामोमें निर्भय होकर वास करते थे। यथाजातमुद्राके
हिंडइ ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्व ॥६६ धारक थे, अर्थात् दिगम्बर रहते थे। और ध्यान अध्ययनके
इन गाथाघोंसे स्पष्ट है कि उस समय कुछ साधु साथ अंग पूर्वादिका पाठ करते थे। वस्तुतरवके प्रवधारयम ऐसे भी पाये जाते थे, जिनका प्राचार स्वच्छन्द था-वे समर्थ थे। जिस तरह गिरिराज सुमेरु कल्पान्त कालकी .गुरु-परम्पराका प्राचीन
पराकी प्राचीन परिपाटीमें चलना नहीं चाहते थे; वायुसे भी नहीं चलता। उसी तरह वे योगीगण भी किन्तु विवेक शून्य होकर स्वच्छन्द एवं अनर्गल सूत्र ध्यानसे विचलित नहीं होते थे। इस अनगार भावना विरुद्ध प्रवृत्तिको अहिनकर होते हुए भी हितकर समझते थे। अधिकारकी १२० वीं गाया- उस समयके साधुमोके जो
शीलगुणाधिकारमें कुल २६ गाथाएं हैं जिनमे शीलपर्याय नाम दिये हैं वे इस प्रकार है:
स्वरूपका वर्णन करते हुए शीलके मूलोत्तर भेदोंका वर्णन समणोत्ति संजदोत्ति यरिसि मणि साधत्ति वीरगोन किया है । जिनका प्राचारके साथ गहरा सम्बन्ध है।
१२ पर्याप्ति' नामक अधिकारमें पर्याप्ति और णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।।१२०ा संग्रहणी-सिद्धान्तार्थ प्रतिपादक सूत्रों का ग्रहण किया
यह सबथन अन्यकी प्राचीनताका ही घोतक है। गया है। जिनमें पर्याप्ति, देह, संस्थान, काय-दिय, समयसार मामका अधिकार भी अत्यन्त वस्थित योनि, भाऊ, प्रमाण, योग, वेद, बेश्या, प्रवीचार, उपपाद और सूत्रात्मक है। समयसारका अर्थ टीकाकार वसुनन्दीने उदत्त न, स्थान कुल, अल्पबहुत्व और प्रकृति स्थिति-मनु'द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वं मूलोत्तरगणा- भाग और प्रदेशबंधरूप सूत्र-पदोंका विवेचन किया है। नां च दर्शनशानचारित्राणां शुद्धिविधानस्य च भिक्षा- इस अधिकारमे कुल २०६ गाथाएं पाई जाती हैं। जिनमें शुद्धश्च सारभूतं किया है। जिससे यह स्पष्ट जाना जाता उक्त विषयों पर विवेचन किया गया है। है कि इस अधिकारमें हादशांग वाणीका सार खींच कर इस अधिकारमें चचित गति-प्रामतिका कवन साररक्सा गया है। इसी अधिकारमे प्राचारांगसे सम्बन्धित समय अर्यात व्याख्या प्रप्तिमें कहा गया है। 'म्यास्या
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किरण ११] मूलाचार संग्रह अन्य न होकर आचाराङ्गके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है। [३५६ प्रशसि' मामका एक सूत्र प्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदायमें था। कर्मनोकर्मनिर्मोतादात्मा शुखात्मतां व्रजेत् ॥ जिसका उल्लेख धवला-अयधवला टीकामें पाया जाता है।
-आचारसार-११,१८६ षट् खण्डागमका 'गति-प्रागति' नामका यह अधिकार मतः जीवस्थान और उनके प्रकारोंको जाने बिना व्याख्याप्रज्ञप्तिसे निकला है+ अन्य दूसरे ग्रन्थों में भी साधु हिंस्य, हिंसक हिंसा और उसके फल या परिणामसे यह कथन उपलब्ध होता है। इस अधिकारके सम्बन्धमें बच नहीं सकता । उनका परिज्ञान ही उनकी रक्षाका कारण जो मैंने यह कवपना पहलेकी थी कि इस अधिकारका कथन है। अतएव अपनेको मासिक बनानेके लिए उनका जानप्राचारशास्त्र के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता, वह
आय कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता, वह नाप्रत्यन्त भावश्यक है। ठीक नहीं है क्योंकि साधुको आचार मार्गके साथ जीवो
इस विवेचनसे स्पष्ट है कि मलाचारके उक अधिकार स्पसिके प्रकारों, उनकी अवस्थिति, योनि और भायु काय
का वह सब कथन सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित है। प्राचार्य पादिका भले प्रकार ज्ञान न हो तो फिर उनकी संयममें
महोदयने इस अधिकारमे जिन-जिन बातोके कहनेका उपठीक रूपसे प्रवृत्ति नहीं बन सकती, और जब ठीक रूपमे
कम किया है उन्हीं का विवेचन इस ग्रन्थमें किया गया है। प्रवृत्ति नहीं होगी, तब वह साधु षटकायके जीवोंको रखामें
इस कारण इस अधिकारका सब कथन सुव्यवस्थित और तत्पर कैसे हो सकेगा। अतः जीवहिंसाको दूर करन अथवा
सुनिश्चित है और व्याख्याति जैसे सिद्धान्त ग्रंथसे मार उससे बचनेके लिए उस साधुको जीवस्थान मादिका परि
रूपमें गृहीत कपनकी प्राचीनताकोही प्रकट करता है। ज्ञान होना ही चाहिए । जैसा कि प्राचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दीकी तस्वार्थवृत्ति' के और प्राचार्य वीरनंहीके
इस तरह मूलाचार बहुत प्राचीन ग्रन्थ है। वह विगनिम्न वाक्यासे प्रकट है:
म्बर परम्पराका एक प्रामाणिक प्राचार अन्य है, भाचारांग
रूपसे उल्लेखित है। अतः वह संग्रह मन्य न होकर मौखिक "ता एताः पंच समितयो विदितजीवस्थानादि अन्य है।इस अन्धके कर्वा भद्रबाहुके शिष्य कुम्बान्दाविधेमुनेः प्राणि-पीडापरिहाराभ्यपाया वेदितव्याः 'चाय ही हैं। भाचार्य कुन्दकुन्दके दूसरे प्रम्बोंको सामने
रख कर मूलाचारका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अनेक -तत्त्वार्थवृत्ति-अ०६, ५. .
गाथामोका साम्य ज्योंके-त्या रूपमें अथवा कुलभोवेसे पाठजीवकर्मस्वरूपज्ञा विज्ञानातिशयान्वितः।
भेदके साथ पाया जाता है। कथन शैली में भी बहुत कुछ
माश्य है जैसा कि मैंने पहले 'क्या कुनाकुन्द ही मूखा+ 'वियाह परणातीदो गदिरागदिपिग्मदा ।
चारके कर्ता है' नामके लेख में प्रकट किया था। धवक्षा भाग पृ० १३० देखो, वस्वार्थ राजवार्तिक १ पृ. ३२॥
देखो अनेकान्त वर्ष किरण पृ. २१॥
अनेकान्तके ग्राहकोंसे अगली किरणके साथ १२वें वर्षके ग्राहकोंका मूल्य कमसे कम आठ पानेकी बचत होगी और अनेकान्तसमाप्त हो जाता है । आगामी वर्षसे अनेकान्तका मूल्य का प्रथमाङ्क समय पर मिल सकेगा तथा कार्यालय भी छः रुपया कर दिया गया है। अतः प्रेमी ग्राहकोंसे
बी० पी० की झंझटोंसे बच जायगा। निवेदन है कि वे ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर
मैनेजर 'अनेकान्त' अनुगृहीत करें । मूल्य मनाआर्डरसे भेज देनेसे उन्हें
१ दरियागंज, देहली
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श्री महावीर जयन्ती
अभिनन्दन समारोह इस वर्ष देहवीमें भगवान महावीरकी जन्म जयन्ती
ता. अप्रेलको भगवान महावीरकी जयंतीके शुभ का उत्सव बहुत ही उत्साहपूर्वक मनाया गया। सब्जीमंग अवसर पर भारतके उपराष्ट्रपति डा. राधा कृष्णननके बोदरोड, पहादीधीरज, म्यू देहली और परेडके मैदाममें हायसे समाज सेविका ब्रह्मचारिणी श्रीमती पंडिता चन्दाबनाये हुए विशाल पंडाल में जैन मित्रमंडलकी भोरसे मनाया बाईजी को उनकी सेवायोंके उपलक्ष्यमें देहली महिला गया।
ताको पहादी धीरजसे एक विशाल जलस समाजकी ओरसे अभिनन्दन प्रस्थ भेंटमें दिया गया। चाँदनी चौक होता हुचा परेडके मैदान में पहुंचा और वहाँ श्रीमती बजवालादेवी पाराने बाइजोका जाव
श्रीमती बजवालादेवी पाराने बाईजीका जीवन परिचय मारत सरकारसे निवेदन किया गया कि भगवानकी जन्म- कराया। ता. १६ को भारत वर्षीय दि. जैन महासभाकी अयंतीकी छुट्टी अवश्य हमी चाहिए। इस वर्ष देहलीको जन- ओरसे सर सेठ भागचन्दजी मानी अजमेरके हाथ से एक ताने अपना सब कारोबार बंद रखा। भारत सरकारका चाहिये अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया। उस समय कई विद्वानाने कि जब उसने दूसरे धर्मवालोंकी जयन्तियोंकी छही म्बीकत आपकी कार्यक्षमता और जीवन घटनाओं पर प्रकाश डाला। की। तबहिंसाके अवतार महावीरकी जन्म जयन्तीकी चन्दाबाईजी जैन समाजको विभूति हैं, हमारी हार्दिक
ही देना उसका स्वयं कर्तव्य हो जाता है। पाशा कामना है कि वे शतवर्ष जीवी हो ताकि समाज और देशकी भारत सरकार इस पर जरूर विचार करेगो, भागामी वर्ष भार भी अधिक सेवा कर सकें। महावीर जयन्तीकी छुट्टी देकर अनुगृहीत करेगी।
-परमानन्द जैन शास्त्री जयन्तीमें अबकी बार अनेक विद्वानोंके महत्वपूर्ण भाषण हुए ! उन भाषणोंमें भारतके उपराष्ट्रपति डा. सर राधाकृष्णनका भाषण बड़ा ही गौरवपूर्ण हमा। . पाठकोंको यह जान कर हर्ष होगा कि वीर-सेवापापने अहिंसाकी व्याख्या करते हुए बताया कि अहिसा
मन्दिरके सतत प्रयत्नसे मुडविद्रीके भण्डार में विराजजैनोंका ही परमधर्म नहीं है कि वह भारतीय धर्म है।
मान श्रीधवला (तीनों प्रतियाँ), श्री जयधवला तथा पाहिंसाकी प्रतिष्ठासे बैर-विरोधका प्रभाव हो जाता है और महाधवला (महाबन्ध) की ताड़पत्रीय प्रतियोंके भामा प्रशान्त अवस्थाको पा लेता है। इसमें सन्देह नहीं
फोटो ले लिये गए हैं। वहांक विस्तृत समाचार तथा महावीरन अपनी अहिंसाको अमिट छाप दूसरे धर्मों पर
मूल प्रतियों के कुछ पृष्टोंके फोटो अगली किरणमें दिए
मूल जमाई और उन्होंने उसे वैदिक क्रिया काण्डके विरुद्ध
जावेंगे।
इस महान कार्यमें उग्रतपस्वी श्री १०८ आचार्य स्थान दिया और कहा :
नमिसागरजी तथा श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक पं० गणेशयूपं बध्वा पशून हत्या कृत्या रुधिरकर्दमम ।
प्रसाद जी वणींके शुभाशीर्वाद प्राप्त हैं। यदेव गम्यते स्वर्ग नरके कन गम्यते ।।
-राजकृष्ण जैन यज्ञस्तंभमे धांवकर, पशुओंको मारकर और रुधिरकी कीचड़ बहाकर यदि प्राण। स्वर्गमें जाता है तो फिर नरक कौनजायगा। अतः हिसा पाप, नरकका द्वार है। हिसा खतौली जि. मुजफ्फर नगर निवासी ला. बलवन्तही परम धर्म और उससे ही सुख-शान्ति मिल सकता है सिंह माम चन्द्रजीने अपने सुपुत्र चि. बा. हेमचन्द्र मापने अहिंसाके साथ जैनियोके भनेकांतवाद सिदा- शुभ विवाहोपलच्यमें वीरसेवामन्दिरको ..) रुपया मतका भी युक्तिपूर्ण विवेचन किया । डा. युद्धवीरसिंहका प्रदान किये हैं। इसके लिये दातार महोदय धन्यवादके भाषण भी अच्छा और प्रभावक था । इसतरह महावीर पात्रह। जयन्तीका यह उत्सब भारतके कोने-कोने में सोरसाह मनाया
राजकृष्ण जैनगया है।
व्यवस्थापक बीरसेवा मन्दिर
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन..
(१) पुरातन जैनवाक्य-सूची - प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल ग्रन्थोंकी पचानुक्रमयी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोंमें उद्धत दूसरे पथोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १०० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा० कालीदास नागर एम. ए., डी. लिटू के प्राकथन ( Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट् की भूमिका ( Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये प्रतीय उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है ) १५) (२) आप्त- परीक्षा - श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति, आप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द । ८) (३) न्यायदीपिका - न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । (४) स्वयम्भू स्तोत्र - समन्तभद्वभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद इन्दपरि चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या - स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
२)
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मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द - सहित ।
(१)
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(६) अध्यात्मकमल मार्तण्ड - पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद-सहित और मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठको विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित ।
www
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911)
(७) युक्त्यनुशासन - तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुआ था । मुख्तारी के विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले अलंकृत, सजिल्द ।
१1)
m)
(८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र - प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महस्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित ।
1 (1) शासनचतुस्त्रिशिका - ( तीर्थपरिचय ) मुनि मदनकीतिंकी १३ वीं शताब्दी की सुन्दर रचना, हिन्दी
...
...
...
2)
अनुवादादि सहित |
(१० सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ - श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् श्राचार्यों के १३७ पुण्य स्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि सहित ।
(१) विवाह - समुद्देश्य - मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तास्विक विवेचन (१२) अनेकान्त-रस लहरी — अनेकान्त जैसे गुढ़ गम्भीर विषयको भवती सरलतासे समझने-समझानेकी कुंजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित ।
...
...
1)
1)
(१३) अनित्यभावना - प्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तार श्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित 1) (१४) तत्वार्थसूत्र - ( प्रभाचन्द्रीय ) - मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । (१५. श्रवण गोल और दक्षिण के अन्य जैनतोर्थ क्षेत्र - जा० राजकृष्ण जैनको सुन्दर सचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभाग के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा०डी०एन० रामचन्द्रन की महत्व पूर्णा प्रस्तावनासे अलंकृत ) नाटये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंकी ३८॥ ) की जगह ३०) में मिलेंगे ।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर - ग्रन्थमाला' वीर सेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
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Regd. No. D. 211
२
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
४५५२४३५१२४१५४
संरक्षक
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता स. १५००) बा. नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी,
२५१) बा.छोटेलालजी जैन सरावगी ., १०१) बा० काशीनाथजी, ...
२५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेच , १०१) बाल गोपीचन्द रूपचन्दजी , २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी ,, १०१) बा० धनंजयकुमारजी ०५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन
१०१) बा जीतमल जी जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी , २५१) बाल रतनलालजी झांमरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी
१०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली * २५१) मेठ सुआलालजी जैन
१०१) श्री फतेहपुर जंन समाज, कलकत्ता २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०) गुप्तमहायक, मदर बाजार, मेरठ * २५१) मेठ मांगोलालजी
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी दा०श्रीचन्द्रजी, एट २५१) मेठ शान्तिप्रसादजी जैन
१०१) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, दहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलाल जी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देह जी १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा० महावीरप्रसादजो एडवाकर, हिसार २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला. बलवन्तसिंहजा, हांसी जि० हिसार २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) कुवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि: हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १८१) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) संठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) श्री ज्ञानवतीदेवी ध.. सहायक
वैद्य आनन्ददास देहली * १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी.डली १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर १०१) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन
१०१) रतनलालजी जैन कामका वाले देहली
१०१) रतनल १०१) वा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी ,
__ सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमाननजी जैन शास्त्री, परियागंज रेहबी । मुद्रक-रूप-चाप्यो प्रिटिंग हाउस २५, दरियागंज, बडो
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कान्त
मई १९५४
सापादक-मण्डल
श्रीजुगलकिशोर मुख्तार
'युगवीर' 'वा० छोटेलाल जैन बा. जय भगवान जैन
एडवोकेट पण्डित धर्मदेव जैतली पं० परमानन्द शास्त्री
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अनेकान्त वर्ष १२ : किरण १२
। अभी जो पहबद्री में सिद्धान्त शास्त्र-श्री धवला , जयधवला तथा
महाधवला के फोटो लिये गये हैं, उनमें धवला
के प्रथक तीन पृष्ठ के फोटो।
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विषय-सूची १ प्रारम-सम्बोधक-अध्यात्म-पद (कविता)-[कविवर साहित्य पुरस्कार और सरकार-[मन्यभक ३७५
दौलतराम ३६१ हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण-[५० परमानन्द जैन २ मूलाचारकी कुन्दकुन्दके अन्य ग्रंथों माथ समता
शास्त्री ३७७ [पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ३६२
अत्यावश्यक वर्णी सन्देश-[शिम्वरचन्द जैन ३८१ ३ श्रमण बलिदान-श्री अलम्ब ४ धवलादि ग्रन्थोंके फोटो और हमारा कर्तव्य
१० धवलादि मिहान ग्रन्थोंका उद्धार-[सम्पादक [ला० गजकृष्ण जन ३६१
विवेकाभ्युदय ३८३ ५ मूलाचारके कर्म-खुल्लक मिद्धिसागर ३७२ ११ साहित्य परिचय और ममालोचन ६ स्तरके नीचे कहानी -[मनुज्ञानार्थी माहिन्यरत्न ३७३ १० अनान्सका द्विवार्षिक हिसाब
३८७ (पृष्ट ३८६ का शेष ग्मक है उपका अधूरापन दूर हो जायगा ।
प्रबलकारण अभाव जान पड़ता है। इस मुनीम यह । ग्रन्थ-सूचीका कार्यश्रममाध्य है। जान पडता है कि जानना अत्यन्त कठिन है कि कान अन्य किम सम्प्रदायका है पादकजीने इसके निर्माणमें पर्याप्त श्रम किया है । महावीर इसका उल्लेग्य होना आवश्यक है। विविध ग्रंथभंडागेकी तीर्थक्षेत्रकमेटीका यह कार्य प्रशंमीय है। कमेटी को चाहिए मूचियोंपरस एक बृहत् ग्रंथ-सृञ्चीका निर्माण अत्यन्तयांछनीय कि वह इस उपयोगी कार्यमें और भी गति प्रदान कर है उसमें इन मूचियोस पर्याप्त सहायता मिल सकी। जिससे ग्रन्थ-सूचीका कार्य जल्दी सम्पन्न हो सके। खेदक इस सब कार्य लिये कमेटीक मन्त्री, संठ वर्धाचन्दजी माथ लिखना पडता है कि दिगर पर समाजकी पोरमे दिग- गंगवाल और सम्पादक महंन्य दोनों ही धन्यवादक पात्रह। म्बर ग्रंथोंकी एक वृहन्मूचीका निर्माण नहीं हो सका । इम्पका
-परमानन्द जैन
अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन अनेकान्तकी इस किरणके साथ पादकोंका मूल्य समाप्त हो जाता है । आगामी वर्षका मूल्य छः रुपया है । अतः प्रेमो ग्राहक महानुभावोंसे निवेदन है कि वे अनेकान्तका वार्षिक मूल्य छह रुपया मनीआर्डर भेजकर थनगृहीत करें, मनिआर्डरसे मूल्य भेजदेने से उन्हें आठ प्राना की बचत होगी, और अनेकान्ती प्रथम किरण भी समय पर मिल जावेगी । आशा है ग्राहक महानुभाव इस निवेदन पर ध्यान देंगे और कार्यालयको वी.पी.की मंझटोंसे बचायेंगे।
मैनेजर-अनेकान्त, १ दरियागंज, देहली
श्री महावीर जयन्तीके अवसर पर
वीर सेवा-मन्दिरकी ओर ।
भारतके उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन और गृहमन्त्री डा० कैलाशनाथ ... काटजू को स्वयंभू स्तोत्र ओर युक्त्यनुशासनादि ग्रंथ भेंट किये गये ।
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ॐ अहम
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वस्वतत्व-मधातकी
विश्वनत्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ६)
एक किरण का मूल्य 1) Jammmmmunesammaanaam
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नीतिविरोधष्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त।
वर्ष १२ किरण १२
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली वैशाख वीर नि० संवत् २४८०, वि० संवत २०११
आत्म-संबोधक-अध्यात्म-पद
-: कविवर दौलतराम :
हमतो कबहूँ न हित उपजाये सुकुल-सुदेव-सुगुरु-सुसंगहित, कारन पाय गमाये ॥ टेक ।। ज्यौं शिशु नाचत, आप न माचत, लखनहार बौराये। त्यौं श्रुत वाचत पाप न राचत, औरनको समुझाये ॥१॥ सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरषाये। विषय तजे न रचे निजपदमें, परपद अपद लुमाये ॥२॥ पाप त्याग जिन-जाप न कीन्हौं, सुमनचाप-तप-ताये। चेतन तनको कहत मित्र पर, देह-सनेही थाये ॥३॥ यह चिरभूल मई हमरी भव, कहा होत पछताये । दौल अबौं भव-भोग रचौ मत, पो गुरुवचन सुनाये ॥४॥
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मूलाचारकी कुंदकुंदके अन्य ग्रंथोंके साथ समता
(पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ) भनेकान्तकी गत किरणमें मैंने मूलाचारकी मौलिकता (३) वंदित्त देवदेवं तिहणमहिदं च सव्वसिद्धार्गबतलाते हुए उसके रचयिताकी भोर संकेत किया था और
(मुलाचार, १०.) यह बतलाया था कि 'वट्टकेराइरिय' यह पद ही मूलाचार
____वंदित्तु सव्वसिद्धे (समयपाहुड, 1,) रचयिता के नामका स्वयं उद्घोष कर रहा है। और वे बर्तकाचार्य कुन्दकुन्द की है। अब इस लेखद्वारा मूलाचार
__वंदित्तु तिजगवंदा अरहता (चारित्रपाहुन ) की कुन्दकुन्दाचार्य के अन्य प्रन्थोंसे शब्द-साम्य और अर्थ- णमिऊण जिणवरिंदे णर-सुर-भवणिंदवंदिए मिद्धे । । साम्यक साथ-साथ शैली-गत समता बतलाते हुए यह
भावपाहुर, ) दिखाया जायगा कि मूलाचारकी गाथाएं कुन्दकुन्दके अन्य
सिद्धाणं कम्मचक्वजाणं। प्रन्थों में कहां और किस परिमाणमें पाई जाती हैं, जिससे
(मूलाचार, १२, १) कि मूलाचारके कर्ता प्रा० कुन्दकन्द ही हैं, यह बात भली
सिद्धवरसासणाणं सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं । भांति जानी जा सके। शेली-समता
काऊण णमुक्कार। (श्रुतभक्ति ) जिस प्रकार कुन्दकुन्द-रचित पाहा, ग्रंथों और ग्रन्थ
सिदण य झाणुत्तमखविददीहसंसारे। गत अधिकारोंके प्रारम्भमें मंगलाचरण पाया जाया है, ठीक दह दह दो दोय जिणे दह दो अणुपेहणं वाच्छं। उन्हीं या उसी प्रकारके शब्दोंमें हम मूलाचार-गत प्रत्येक
( मूलाचार, ८, १) अध्यायके प्रारम्भमे मंगलाचरण देखते हैं। यहाँ उदाहरब- णमिऊण सव्वसिद्धे झाणुत्तमखविददीहसंसारे । के तौर पर कुछ नमूने प्रस्तुत किए जाते हैं :
दस दस दो दो य जिण दस दोअणुपहणं वान्छे ।। (१) एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स बड्ढमाणस्स ।
(वारस अणुवेक्खा . ) सेसाणं च जिणाण सगण-गणधराणं च सव्वेसि॥ उक्त अवतरणांसे पाठकगण स्वयं यह अनुभव करेगे
(मूलाचार, ३.५) कि मंगलाचरणके इन पद्योंमें परस्पर कितना साम्य है। काऊरण णमुक्कार जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स। इनमें नं० २ का उदाहरण तो शब्दशः ही पूर्ण समता
(वर्शनपाहर रखता है। यही हाल नं.४ के अवतरणका है उसमें चउवीसं तित्थयरे उसहाइवीरपच्छिम वंदे। मूलाचारके प्रथम द्वितीय चरण श्रतभक्तिके द्वितीय तृतीय सव्वे सगणगणहरे सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ चरणके साथ शब्दशः समता रखते हैं भेदकेवल 'वजाणं' (चतुर्विशति तीर्थकरक)
के स्थान पर 'मुक्का' पदका है, जो कि पर्यायवाची ही एवं पमिय सिद्धे जिणवरवसह पुणो पुणो समणे।
है। पांचवें उद्धरणको तो पूरी गाथा की गाथा ज्यो की
त्यों दोनोंमें समान है, केवल प्रथम चरणके दोनों पद एक (प्रवचनसार २०१)
इसरेमें आगे पीछे रखे गये हैं। 'दस' मादि पदोंके 'स' (२) काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं। के स्थान पर 'ह' पाठ और 'बोच्छं' के स्थान पर 'बोच्छे'
(मूलाचार, ...)
पाठ भी माकृत भाषाके नियमसे बाहिर नहीं हैं। मंगलाकाऊण णमोकार अरहताणं तहेव सिद्धाणं। चरणकी यह समता मूलाचारको कुन्दकुन्द-रचित माननेके
(लिगपाहुर) लिए प्रेरित करती है।
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किरण १२] मूलाचारकी कुन्दकुन्दके अनेक प्रन्थों के साथ समता
[३६३ जिस प्रकार कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थों में मंगलाचरणके भट्ठाईस मूलगुणोंका विस्तारके साथ प्रवचनसार-निर्दिष्ट साथ ही अपने प्रतिपाच विषयके कहनेकी प्रतिज्ञा करते ब्रमसं वर्णन किया गया है जो कि मुनिधर्मका प्रतिपादक हुए दृष्टिगोचर होते हैं, ठीक यही क्रम मूलाचारके प्रत्येक माचार शास्त्र होनेके नाते उसके अनुरूप ही है। इन अधिकारमें दृष्टिगोचर होता है। यथा
मन्याके संक्षेप-विस्तारका यह साम्य भी दर्शनीय है । यथाः(१) इहपरलोगहिदत्थे मलगणे कित्तइस्मामि ।
वदमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं ।
(मुलाचार. १,१) खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभायणमेगभत्तं च ।।२०८।। मुक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पएणत्ता ॥२०६ (चारित्रपाहु )
(प्रवचनसार) (२) वोच्छं सामाचारं समासदो आणुपुब्वीए। पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्रिा।
(मुलाचार. ४.)
पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोचो ॥२॥ पज्जतीसंगहणी वोच्छामि जहागुपुव्वीए ।
अच्चेलकमण्हाणं खिदिसयणमदतघंसणं चेव ।
ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अठवीसा दु ॥२॥ (मूलाचार. १२, १)
(मूलाचार, मूलगु०) दंसणमगं वोच्छामि जहाकम समासेण ।
प्रवचनमारके 'वसमिदिदियरोधो' इस सूत्रका मूला
(दर्शनपाहुड.) चारमें भाष्यरूप दृष्टिगोचर होता है। शेष सात गुणों के (३) वाच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं । नाम दोनोंमें ज्यों के त्यों ही है । अर्थात् ५ महावत, ५
(मूलाचार, १०,१)
समिति, इन्द्रियनिरोध, ६ श्रावश्यक और केशलोंच, वोच्छामि समयपाइडमिणमो सुयकेवलीभणियं । २ श्राचेलक्य, ३ अस्नान, " भूमिशयन, ५ अदन्तधावन,
६ स्थितिभोजन, और . एक वार भोजन मुनियोंके (समयसार..)
इन २८ मूलगुणोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। वोच्छामि समलिंगं पाहुडसत्थं (लिगपाहुड) (२) भावपाहुड में कान्दपी, किस्विषिकी, संमोही, वोच्छामि भावपाहुड० (भावपाहुद. १) दानवी और भाभियोगिकी इन पांच अशुभ भावनाओं के वोच्छामि रयणसारं
रयणसार. १)
त्यागनेका माधुको उपदेश दिया गया है और बतलाया
गया है कि इनके कारण देव-दुर्गति प्राप्त होती है अर्थात् (४) पणमिय मिरसा वोच्छं ममासदो पिंडसुद्धी दु।
किस्विषिक आदि देवों में उत्पन्न होना पड़ता है। भाव
(मूलाचार. ६.१) पाहुबमें जहां यह उपदेश एक गाथा ( नं. १३) में दिया एसो पमिय सिरमा समयमियं सुणह वोच्छामि। गया. वहां इन्हीं पांचों अशुभ भावनाओं का विस्तृत उप.
(पंचास्तिकाय.) देश मूलाचारके द्वितीय अधिकारमें • गाथाओंके द्वारा
दिया गया है, जो कि उसके अनुरूप है। (देवां गाया जहां उपरि-उक्त अवतरणोंमे प्रतिपाद्य विषयके कहने
__० ६२ से १८ तक) की प्रतिज्ञा मूलाचारके समान ही कुन्दकुन्दके अन्य प्रन्यों
(३) प्रवचनसारके तृतीय अधिकारमें साधुके लिए जो में पाई जाती है, वहां क्रियापदोंका और 'समामदो, समा
कर्तब्यमार्गका उपदश दिया है, उसके साथ जब मूलाचारसेण, संखेवं, माणुपुग्वीए, जहाणुपुवीए आदि पदोंकी
के भनगार भावनाधिकारका मिलान करते हैं, तो ऐसा समता भी इन प्रन्यांके एक कर्तृत्वको प्रगर करती है।
प्रतीत होता है कि प्रवचनसारके सूत्रोंका यहां पर भाष्यविषय-समता
रूपसे व्याख्यान किया जा रहा है। आहार, विहार, (१) मा. कुन्दकुन्दने प्रवचनसारके तृतीय अधिकार- उपधि, वसति प्रादिके विषयमें दोनों ही प्रन्यों में एकसा में मुनियोंके २८ मुबगुणोंका संक्षेपस वर्णन किया है, वर्णन मिलता है। भेद दोनों में केवल संक्षेप और विस्तार क्योंकि साररूप ग्रन्थ है । परन्तु मूलाचारमें उन्हीं का है।
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३६४ ]
अनेकान्त
(४) अहिंसादि पांच व्रतोंकी पांच-पांच भावनाओंका जैसा वर्णन मूलाचारके पंचाचाराधिकारमें गाथा नं० १४० से १४४ तक पाया जाता है, कुछ साधारणसे पाठ भेदके साथ उन्हीं शब्दों में वह चारित्रपाहुडके गाथा नं० ३२से ३६ तक भी पाया जाता है। यहां उदाहरण के तौर पर एक नमूना प्रस्तुत किया जाता है :महिलालोयरण - पुव्वरदिसरण संसत्तवसधि विकहाहिं । परिणदरसेहिं य विरदी य भावणा पंच बह्महि ||१३| (मूलाचार, पंचाचा० ) महिलालोयण- पुव्वरइसरण संसत्तवसहि-विकहाहि । पुट्ठियरसेहिं विरश्रो भावरण पंचावि तुरियम्मि ||३४|| ( चारित्रपाहुड)
पाहुडमें पांच गावाभोंके द्वारा पांचों व्रतोंकी भावनाएं बताकर भागे समितियांका संक्षिप्त वर्णन किया है । परन्तु मूलाचारमें भावनधोंका वर्णन कर उनका माहात्म्य बतलाते हुये कहा गया है कि---
साधु इन भावनाकी निरन्तर भावना करता है, उसके व्रतोंमें इतनी दृढ़ता आजाती है कि स्वप्नमें भी उसके ती विराधना नहीं होती । सुप्त और मूच्छित दशामें भी उसके व्रत अखंडित और शुद्ध बने रहते हैं । किर जो जागृत साधु है, उसके व्रतोंकी शुद्धि या निर्मलताका तो कहना ही क्या है ?
| करेदि भावणाभाविदो हु पीलं वदारण सव्वेमिं । साधू पासुतो समुदहो वि किं दाणि वेदंतो || १४५ |
(मूलाचार, पंचा० )
किरण १२
जीवोंसे व्याप्त प्रदेश में बिहार करते हुए भी हिंसादिके पापसे लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार स्नेहगुणयुक्त कमलिनीपत्र अलसे लिप्त रहता है, उसी प्रकार समिति-युक्त साधु जीवोंके समूह में संचार करते हुए भी पापसे अलिप्त रहता है । अथवा जैसे दृढ़ कवचका धारक योद्धा युद्धमें बायावर्षा होने पर भी अभेद्य बना रहता है, उसी प्रकार साधु भी समितियोंके प्रभावसे जीव-समूहमें विहार करते हुए भी पाप अलिप्त बना रहता है ।
(५) चारित्रपाहुडमें पांच समितियोंका प्रति संचेपसे
वर्णन किया गया है। मूलाचार के पंचाचाराधिकार में उसका विस्तार पूर्वक अति हृदयग्राहा मार्मिक वर्णन पूरी
३० गाथाओंमें किया गया हूं जो कि उसके अनुरूप हो है। समितियोंका उपसंहार करते हुए लिखा है किदाहिं सया जुत्तो समिदीहिं महिं बिहरमाणो दु । हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीर्वारणका आउले साहू ।। १२= ॥ पडर्मािणिपत्तं व जहा उदएण ग लिप्पदि सिरोहगुणजुत्तं तह समिदीहिं ग लिपद साहू काएस इरियंतो ॥ १३० ॥ सरवासेहि पडतेहि जह दिढकवचो ण भिज्जदि सरेहिं वह समिदीहिं ण लिप्पइ साहू काएम इरियंतो ।। १३१
अर्थात् इन पाँचों समितियांसे सदा सावधान साधु
इस प्रकार विषयकी समवासे भी मूलाचार कुन्दकुन्दरचित सिद्ध होता है ।
शब्द-समता
विषय - समता के समान मूलाचारकी कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंके साथ शब्द समता भी पाई जाती है। जिसके कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं:---
(१) मग्गो मग्गफलं तिय दुविहं जिस सामणे समवाद । मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वारणं ॥ ५ ॥ ( मूला०, पंचाचाराधिकार ) मग्गो मोक्ख उवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं || २ || मग्गो मग्गफल ं ति यदुविहं जिरण सासरणं समक्खादं । ( नियमसार )
(२) पेसुर हासक कसपरणिदापप्प संसविकहादी | वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी हवे कहणं ।। १२ ।। (मूलाचार, मूलगुणाधिकार ) 4 पेसुरणहासकक्कस परदिप्पप्पसंसियं वयणं । परिचित्ता सपर हिदं भासासमिदी वदं तस्स ।। ६२ ॥ ( नियमसार ) (३) एगंते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे । उच्चारादिच्चा पदिठावरिया हवे समिदी ||१५|| (मूलाचार, मूलगुणाधिकार) पामुकभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठा समिदी हवे तस्स ॥ ६५ ॥ ( नियमसार ) (४) रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवएसो समासदो बंधमोक्खाणं ।। ५० ।। मूलाधार, पंचाचाराधिकार ) रतो बंधदि कम्मं मुचदि जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज || १५० || ( समयसार )
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किरण १२]
मूलाचारको कुन्दकुन्द के अन्य प्रन्यांके साथ समता
[३६५
१०४
उपरके उबरणोंमें नाम मात्रका ही साधारण सा शब्द- नं. १२५ से ११३ तक कितनी समता रखती हैं यह भेद है इनकी शब्द-समता दोनों प्रन्योंके एककतृत्वको पाठकोंको मिलान करने पर ही ज्ञात होगा । मेव केवल पुष्ट करती है।
इतना ही है कि इन गाथानोंका उत्तराई एकसा होनेसे इसके अतिरिक्त मूलाचारका द्वादशानुमेधा नामक मूलाचारमें दो गाथाघोंके पश्चात् पुनः लिखा नहीं गया पाठवां अधिकार तो कुन्तकुन्द-कृत 'बारस अणुक्खा ' है। जबकि नियमसारकी प्रत्येक गाथामें वह दिया हुमा नामक प्रग्यके साथ शब्द और अर्थकी रष्टिसे कितना है।गाथानोंकी यह एकरूपता और समझा भास्मिक साम्य रखता है, यह पाठकोंको स्वयं पड़ने पर ही विदित नहीं है। इस प्रकरण की जो गाथाएँ एकसे दूसरेमें मित्र हो सकेगा । बहुभाग गाथाएं दोनोंकी एक हैं। भेद केवल पाई जाती है. वे भिन्न होने पर भी अपनी रचना-समतासे इतना ही है कि एकमें यदि किसी अनुप्रचाका संक्षेपसे एक-कर्तृत्वकी सूचना दे रही हैं। वर्णन है, तो दूसरेमें उसीका कुछ विस्तारसे वर्णन है। गाथा-साम्य-तालिका वाकी मंगलाचरणा और अनुवाओंके नामोंका एक ही कम है, जो कुन्दकुन्दको खास विशेषता है । इस प्रकरणके
मूलाचारकी जो पाथाएँ कुन्दकुन्दके अन्य प्रन्यों में ज्यों अवतरयोंको लेखके विस्तार भयस नहीं दिया जारहा है।
की त्यों पाई जाती है, उनकी सूची इस प्रकार है :मूलाचार और नियमसार
मूलाचा. गा.नं. कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थ गाथा, नं. मूलाचारके विषयका नियममारके माय कितना सारश्य १२,१५५,५६ नियमसार १२,६५,६६१.. ६ यह दोनाके साथ-साथ अध्ययन करने पर हो विदित हो ४७,४८,३६,४२ " १०१,१०२,१०३१.५, सकेगा। यहाँ दो-एक प्रकरणोंकी समता दिखाई जाती है।
२०.
चरित्रपाहुर (१) मूलाचारके प्रथम अधिकारमें जिस प्रकार और जिन
समयसार शब्दोंमें पांच महावत और पाँच समितियोंका वर्णन किया
२२६
बारसमणुपेक्खा मया है, ठीक उसी प्रकार और उन्हीं शब्दोंमें नियमसार
पंचाम्तिकाय के भीतर भी वर्णन पाया जाता है। यही नहीं, बल्कि कुछ
३१२ नियमसार गाथाएँ तो ज्यो की त्यो मिलती हैं। इसके लिए मूलाचारके प्रथम अधिकारकी गा०म०५ से १५ तकके साथ नियमसारकी गा.नं.१६ से ६५ तकका मिलान करना
बारसमणुपंक्वा " चाहिए।
७०१,७०२७०६ (0) दोनों ही प्रन्यों में तीनों गुप्नियोंका स्वरूप एक
८४१ दर्शनपाहुड मा ही पाया जाता है। यहाँ तक कि दोनाकी गाथायें भी
पंचास्तिकाय एक हैं। ( देखिए नियमसार गा. नं० १९-७० और
बांधपाहुए मूलाचार गा० नं. ३३२-३३३)
10 (३) दोनों ही प्रन्योंकी जो गाथाएँ शब्दशः समान
जिस प्रकार मूलाचारको कुन्नकुन्दके अन्य प्रन्योंके हैं, उनकी तालिका पृथक् गाथा-समता-सूची में दी गई है। उसके अतिरिक्त भनेक गाथानों में अर्ध-समता भी पाई
साथ मगलाचरण, प्रतिक्षा विषय प्रादिके साथ समता
पाई जाती है, उसी प्रकार मूलाचार-गन अधिकारोंके जाती है। लेख-विस्तारके भयसे उन्हें यहाँ नहीं दिया
अम्नमें जो उपसंहार वाक्य हैं वे भी कुन्दकुन्दके अन्य जा रहा है।
अन्योंके उपसंहार वायोंसे मिलते जुलते हैं। उदाहरणके (४) मूलाचारके पडावश्यकाधिकारको 'विरदो सम्व
तौर पर कुछ उद्धरण नीचे दिए जाते है:सावज' (गा.. २३) से लेकर 'जो दुधम्म च सुक्क
(गा..३२)तकको गाभार नियमसारकी गा. वालिकाके अंक हिंदी मूलाचारके अनुमार दिए गये हैं।
३३३
"
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३६६ ]
अनेकान्त
[किरण १२ (१) होऊण जगदि पुज्जो अक्खयसो क्खं लहइ मोक्खं । पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तम ठाणं । (मूलाचार, गुणा०३६)
(लिंगपाहुर २२) सो तेण वीदरागो भविश्रो भवसायरं तरदि। (५) एवं मए अभियुदा अणगारा गारवेहिं उम्मुक्का ।
(पंचास्तिकाय १७६ (२) जो उवजूंजदि पिच्चं सो सिद्धि जादि विसुद्धप्पा।
धरणिधरेहिं य महिया देंतु समाधिं च बोधि च ॥ (मूला. पडाव. १९३)
(मूलाचार अनगारभा० १२१) अत्थे ठाहिदि चेया सो होहि उत्तमं सोकावं । एवं मएऽभित्र्या अणयारा रागदोसपरिसुद्धा ।
- (समयसार ५१४) संघस्स वरसमाहिं मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ।। (३) तह सव्वलोगणाहा विमलगदिगदा पसीदंतु।
(योगिक्ति, २३) (मूलाचार बारसश्रणु०७१)
अन्तिम सदरणका साहश्य हो दोनों रचनामोंकी एक सिग्धं मे सुदलाहं जिणवरवसहा पयच्छंतु ।
(श्रतभक्ति ) प्राचार्य-कत ताका स्पष्ट उद्घोष कर रहा है। (४) जो पालेदि विसुद्धो सो पावदि सव्वकल्लाणं । उपयुक्त तुलनासे पाठक स्वयं हो इस निर्णय पर
(मूलाचार. शीलगु० १२५) पहुंचेंगे कि मूलाचारके रचयिता प्राचार्य कुन्दकुन्द ही हैं।
श्रमण बलिदान
( श्री अखिल) [यह लेख ई. सन् १९१० में मद्रासकी पोन्नि' नामक तामिलपत्रिकाके मकान्ति-विशेषांक में प्रकट हुना था। इसके प्रशंसनीय लेखक 'अखिल' नामक व्यक्ति हैं जो कि समताभाव एवं मचाई के साथ लिखने वाले ऊंचे दर्जे के लेखकों में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने तामिल में कई पुस्तकें लिखी हैं जिनके कारण इनका नाम स्खून प्रसिद्ध है। इनकीलेम्वनशैली एवं यथार्थ भावनाका पाठक इस लेखसे कितना ही पता लगा सकते हैं। आपने अजैन होते हुए भी जैनस्वकी गरिमा पर खुले दिलसे विचार किया है। साथ ही 'सित्तावासल' पुदुक्कोटा) के कलामय एक चित्रको आधार बना कर ८वीं सदोमें जैनोंके प्रति अजैनों द्वारा जो अनर्थ एवं पैशाचिक नरसंहारका अनुष्ठान 'तिरुनावुक्करसु' एवं संबन्ध नामक ब्राह्मणोंके हाथों किया गया था उसका छोटा सा वर्णन किया है। इसके अलावा जैनिया द्वारा तामिलके प्रति की हुई साहित्य-सेवा और उसके गुणका अभिनन्दन भी किया है। इस उत्तर हिन्दुस्तान वाले भी पढ़कर विचारमे नासके, इसीलिए हिन्दीमें यह भाषान्तर प्रस्तुत किया गया है
-अनुगदक मल्लिनाथ जैन शास्त्री। 'लोकाः भिरचयः' इस नोतिके अनुसार लौकिक-जन मारुत अपनी मन्दगतिसे चलकर प्रामोद - प्रमोद भिन्न-भिन्न रुचि एवं विचार वाले होते हैं; तदनुसार मैं कराता है। भी एक दिन कुछ रसिक. लेखक और प्रकाशक आदि मित्र हम लोग वहाँ सम्प्रति 'एनडिपट्टम' के नामसे महानुभावाक साथ एक छोटे पहाड़ पर चित्रित "सित्ता पुकारी जाने वाली एक गुकामें प्रविष्ट होकर अपनी वासल' की सुन्दर एवं पुरातन सजीव चित्रकलाको देखने- थकावटको दूर करनेके वास्ते बैठने लगे और हममें से के लिये निकल पड़ा।
कुछ उस चिकनी राथ्यापर भारूढ़ होकर अपने तन एवं ___ वह मनोज्ञ स्थान 'पुदुक्कोग' से करीब दस मीलकी मनको सन्तोष पहुंचाने लगे। मैं भी उनमेंसे एक हूँ इसे दूरी पर है। वहाँ जंगलके बीच में पहाडके पत्थर पर खोद भूल न जाइयेगा । लेटने पर दो तीन मिनट के अन्दर ही कर कलाविज्ञ श्रमणों (जैनों) ने अपनी कर-कौशलता मुझे गाढ निद्रा मा गयी और मैं सो गया। (स्वप्नमें)दिखलाई हैं। वहाँ दो तीन शय्यायें बनायी गयी है जिन पहारसे गिरने वाली छोटो भरनीके शब्दसमान मन्दहासपर हाथ रखनेसे हाय सचिक्कनताका अनुभव करने जगता का मधुर बन्द गंज उठा। मुडकर देखा-मित्रोंमें से है। प्रीष्मकानकी कठिन धूपके समग्रमें भी वहाँ मन्द- एक भी नहीं है। लेकिन एक नवयौवना नारी मेरे सम्मुख
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किरण १२]
श्रमण बलिदान
[३६७
पागा
खड़ी थी। उसे देखनेसे मालूम पदने बगा मानो हजारों युक्त सरोवरमें जल क्रीडाकर गाने बजानेके साथ साथ कलाविज्ञों एवं रसिकोंको पागज बना रही है। उसकी भानन्दसे दिन बीतता था । वहाँ मृग - जाति भी मेखरूपखावण्यता ने अश्रद्धय इस गुफाको अदा करने योग्य मिलापके साथ रहती थी। तत्र स्थित पालिकाएं सरोवरमें बना दिया है। वहाँ के सारे चित्रोंमें वह शिखर समान नहा-नहाकर उसमें खेलने वाले मत्स्यों के साथ क्रीडा किया दीख पड़ती थी मेरे पास तो वह उस समय सजीव करती थी। चित्रवत खड़ी थी।
वह रूपवती बीच में मुमासे पूछने लगी-'मापने उस वह कहने खगी-'चित्रमें मुझे देखनेके बाद सब
गुफाके ऊपर चित्रित कमनीय कमलकुल-विकसित सरोवर
गुन लेखकोंके समान माप भी एक प्रेम की कथा लिखने वाले को देखा?"...। मैंने सिर हिलाकर 'हो' भरी। हैं ना और इस प्रकार कहतो हुई जीवित चित्रवत् वहीं
फिर कहने लगी-इस प्रानन्दमय जीवनके समय विराजमान हो गई।
सहसा मथुरा (मदुरा) से एक समाचार प्राया, जहाँ उस आजतक नहीं देखी गई, इस रूप सौंदर्य राशिके समय "कृनपाण्य" नामक राजा राज्य करता था। वह सामने में कुछ भी बोल नहीं सका । मेरा म बन्द रहने जनमतावलम्बी था। परन्तु उसकी साध्वी रानी मंगके कारण वह खुद ही बोलने लगी।
यक्करसि और प्रधान अमात्य 'कुलरिचरै नायनार' वह यों कहने लगी-सच्ची कथा लिखिये । कृपाकर
दोनों शैवमतानुयायी थे। एक 'ज्ञानसम्बन्ध' नामका शैव मेरे लिये ही वास्तविक कथा लिखनेका प्रयत्न कीजिये।
ब्राह्मण रानीके द्वारा बुलाया गया और राजाको शैव सचाईको बताने में हिचकिचानेके कारण ही माज अपनी
बनानेका दोनों (गनी और अमान्य) षडयन्त्र रचने लगे।
श्रमण एवं शेव समय वादियोंके संघर्षका समाचार सारी तमिलनांद पतित होती जा रही है। प्रान्तकी बात रहने
दिशाओंमें गूंज उठा । सारी गुफाओं में बसनेवाले श्रमणगण बो; मेरा दिल भी सैकड़ों वर्षोंसे रोता हुआ पा रहा है।
एकदम मथुरा में एकत्रित हो गये। उस समय 'सित्ता मेरे रूपको देखकर चकित होने वाले मेरी अन्तरात्माको
वासन'लोग भी चल पड़े। पहचान नहीं सकते...।'
चित्रस्थित कमनीय कामिनी, कान्त, पिता, माता, वह रूप लावण्यकी पुतली रो रोकर अपनी भाखोंसे
भ्राता भी खुद चल पड़े हहा एक प्रेमकी कथा कहना मोतिषोंकी माता गूंधने लगी । वह दृश्य मेरे दिलको
भूल गया। चित्र में चित्रित सुन्दरीका प्रमी एक नौजबहुतही खटकने लगा उसके रक्तमे सिंचित दिलके साथ
जक साथ वान था। वह दो विषयांम पागल था-एक तो स रूपउसके ही द्वारा कही हुई शोकपूर्ण कथाको मैं आपके
रानीके लावण्यमे और दूसरे चित्रकलामें । उस प्रेमीने सम्मुख चित्रित करता हूँ।
उन दोनोंके मम्मिश्रण (रूप और कला) उस पत्थरमें वह कथा यह है कि-उस छोटे पहाड़के नजदीक इस महिनाको चित्रित किया होगा। वह कामिनो उसके बहुतमी गृहस्थियाँ बसती थीं। कुछ लोग खेती करते थे, प्रमीके हाथसे ही निर्मापित की गया होगो । वशंकि यह कुछ कपड़े बुनते थे और कुछ आस-पासके पत्ते, फल, रूपवती प्रा. भी उमकी याद का प्रतिबिब बनकर चमक और मूल भादिसे लोगोंकी दवादारू किया करते थे। रही है। 'हमारे मतके अन्दर भाजीविकाके साथ उच्चनीचताका दक्षिण) मथुरामें कोलाहल मच गया। 'पारख्यभेद भाव नहीं समझा जाता, और जन्मना भी भेद-भाव राजाके पेट में सहसा असह्य वेदना होने लगी। एक तरफ नहीं है। नीच जाति वाले भी हमारी श्रमण (जैन) जाति ज्ञान-सम्बन्ध (शव बाह्मण खड़ा था और दूसरी तरफ के द्वारा सच्चा रास्ता पहचान कर अपनी उन्नति कर श्रमण-गग (जैन माधु)। सकते हैं। सबके लिये हमारे यहाँ द्वार खुला हुभा है। मैंने कहा-क्यों श्रमण-साधु बाँसे राजा की बीमारी सब लोग पाइये ! उठकर भाइये !! दोरकर आइये !!!" हटायो नहीं गयी। सम्बन्ध (शैव माझण) ने ही उसे इस तरह कुछ लोग प्रचार करते थे।
निवारण किया। वहाँ का जीवन कलामय नन्दनवन बना था। कमल- रमणी बोल उठो-'सम्बन्धने ही राजा की बीमारी
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भनेकाना
[किरण ११
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पैदा की। जिसने उसे पैदा किया उसको दूसरोंकी अपेक्षा शैव मवावलंबियोने शास्त्रार्य किया। लेकिन उन उस रोगको शान्त करने में भासानी होगीनी
पाखण्डियों बसे हार बताकर एक दो नहीं, पाड मुझे बो चोटसी नगी । फिर भी वही बोलने हजार भमणों साधुनों (जैन) का बलिदान किया! दयाबगी:-'पाप उन लोगोंपे लिखी हुई कथाको पढ़कर शील ! प्रापको श्रमणोंके शूबारोपणकी कया मालूम कहते हैं। शायद हमारे समाजके नेता गण कुछ मन्त्र होगी। शायद अबतक जिम तामिल लोगोंको मालूम नहीं सबके द्वारा उगाकर राये होंगे । हमारे तालके पत्ते है उन्हें मेरी प्रार्थना पर दया कर इसे बताने की कृपा करें जलना, उनका वेगवती (वैगै) नदीमें बह जाना जैसी और उनकी साधुता पर खुद भी सोचें। घटना शायद भापको सच सी दीखती होगी। लेकिन हे वह सुन्दर नारी जैसे आई थी वैसे ही भरय हो मानव हृदय ! मापसे प्रमके नामसे पूछती हूँ। या यों गई। लेकिन उसका स्वप्न मुझे भूलने पर भी भूला नहीं सर्मामले मापके शवस्वके नामसे पूछती है क्या प्रम. जाता। उस स्वप्नमें पायख्य राजा, उसकी रानी, अमात्य, 'सच्चाई.' प्रानन्द भादि दुनियां की स्वतन्त्र चीजें नहीं तथा ज्ञान सम्बन्ध भी प्रत्यद हुए। है क्या विभिख मतवाले एवं विभिन्न विचारके खोग गौर करनेकी बात यह है कि-जब पायल्य राजा दुनियामें जीने नहीं चाहिए?
श्रमण ( श्रमणोपासक जन ) था; तब उसकी रानी और यदि हम जोग हार खाये हुए होते तो हम उस सचो अमात्य शैवमतावलंबी हो कर भी बड़े मजे से रहते थे। कथा को मीठी-मीठी भाषामें । तामिल में) बोलते और किन्तु जब राजा शैव हुमा तब एक श्रमण ( जैन भी लिखते। हे सहृदय! द्राविडसुत! तामिनरूपी शस्व- नहीं रह सका । कल तक राजाके विचार-विमर्शक एवं मित्र सामबिको हम लोगोंने ही सुगन्धित एवं मधुमिश्रित के पथ पर रहते हुए लोगोंका भी आज शैवके प्रमने सीमाबनाया। हमलोगोंने ही तामिल भाषाकी सजीवताको का उल्लंघन कर सत्यानाश कर डाला। सारे श्रमणों (जैनों)
किया है। तामिन एवं उस भाषा-भाषीके हृदयको को शूबी पर चढ़ाने का हुक्म दे दिया गया। उस माझा धर्म, प्रेम, दया और दान भादि हम जोगांने ही दिया है। को सिरपर धारण कर कुबग्चिरनायनार' ने उस कामको 'तिरुक्कुरल', 'जीवकचिन्तामणि', सिलप्पधिकार' बड़ी प्रसन्नता संपन्न किया। 'नालडियार' 'नन्नूल', मेरुमन्थरपुराणम्' 'नीलकंशी' फिर हुमा क्या? सुन्दर मथुरा एकदम श्मसानभूमि पादिके रूपमें कमनीय काम्यरस हमारे धर्मवालोनेही बन गई । सर्वत्र मृत शरीरोंकी दुर्गन्ध फैलने बगी। पिलाया है।
वेगवती (बैंगै) नदीमें पानी बहने के बदले रकका प्रवाह वह रूपरानी अपनी इस बातको रोककर और बोलने बहने लगा। मृत शरीरों पर प्रेमासक्त पशु-पक्षियोंने बगी कि:-हमारे यहाँ शिक्षिका पर बैठकर जाने वाले शिवभकांसे दिए हुए सम्मानको बड़े प्रमसे ग्रहण किया। कोई 'नायनमार' नहीं है। और उस शिविकाको अपने मथुरा नगरीके श्मसानभूमिमें काव्य दिए हुए कन्धे पर उठाकर ले जाने वाले कोई 'नायनमार' भी नहीं हृदयको, धर्मोपदेश दो हुई जिह्वाको और चित्रकलामें दर है। हम तो जातिकी कदर नहीं करते । हम यदि हार गये हाथोको कुत्ते, स्वार, पिशाच मादि खींच खींच कर इधरहोते तो उसे भी अपनी कवितामें जरूर लिख देते । इसके उधर लेजाकर पटक देते थे और भाग जाते थे। अलावा शाश्वत संपत्तिके समान उसे पत्थरमें शिलान्यास मैंने शूली पर चढ़ा कर मारना क्या चीज है; उसे भी कर देते । मान बीजिये, उस वक हमें हार भी हो गई उसी समय जाना । मानों मुझीको शूली पर चढ़ाया गया होती; बाद में वह हमें हजारों गुणी विजयका कारण बन हो! ऐसा कम्प होने बगा कि मेरा स्वप्न टूट गया और जाती । मानो इसी भयसे हम लोगोंका तत्क्षण सत्यानाश मांखें खुल गई। कर दिया गया है। उस समय हम लोग उन पाखविडयों- मेरे पासपासके मित्र हसे, लेकिन मैं कुछ नहीं केद्वारा (मूठे ) प्रेमके नामसे, सरपके नामसे, धर्मके नाम बोला। ठंडी आहें भरी। कभी न मुरमाने वाली उस सेबड़ी निर्दयताके साथ शुजीवर चढ़ाकर बलिदान कर चित्रकी बजना एवं उसका प्रिय पति दोनों उस भयंकर दिये गये।
पैशाधिक मनुण्याहुतिमें हव्य बने हों!!!
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धवलादि ग्रन्थोंके फोटो और हमारा कर्तव्य
(ले० श्री ला० राजकृष्ण जी जैन) जैन बार मय में भी धवन, जयधवल और महाथवनका प्राचार, न्याय, ज्योतिष, गणित आयुर्वेद प्रादि विषध वही स्थान है, जो कि हिन्दुओं में वेदोंका, ईसाइयों में बाह- विषयोंपर सहस्रों अन्योंकी रचना जैनाचाोंने की । शायद बिल का और मुसलमानों में कुरानका है।
ही कोई ऐमा विषय वचा हो, जिस पर कि जैनाचार्योंने भगवान महावीरके पश्चात् ६३ वर्ष तक केवल ज्ञानी प्रकृत. संस्कृत भाषाके अतिरिक कनादी, तामिन भादि और तत्पश्चात् १०० वर्ष तक पूर्ण तहानी होते रहे। विभिन देशी भाषामोंमें भी अपने साहित्यको रचा, जो काल क्रमसे अज्ञातका उत्तरोत्तर वास होता गया, कि माज भी भारतीय वायमें सर्वोच स्थानको ग्राम है। . तब श्रीधरसेनाचार्य ने प्रवचन-वात्सत्यसे प्रेरित होकर जब भारतम सम्प्रदायिकताका-बांसवाला था, तब और दिन पर दिन लोगोंकी धारणाशक्तिकी हीनता जैनेतरोंक धर्मान्ध प्रबल भाक्रमणोंने हजारों जैन प्रधोंको होती हुई देखकर श्रतविच्छेदके भयसे दक्षिण देशसे दो अग्निमें जलाया, तथा नदी और समुद्रामें बहाया । इनके सुयोग्य शिष्योंको बुलाकर अपना श्रुतज्ञान उन्हें पढ़ाया अत्याचारोंसे पीदित होकर धार्मिक लोगोंने बचेखुचे जो कि पाके भूतबलि और पुष्पदन्तके नामसे प्रसिद्ध हुए। साहित्यको रखाके लिए अवशिष्ट प्रन्थोंको भंडारों और इन्होंने पट खंडागमकी रचना की। इसी समयके पास-पास गलियों में बन किया।
किसानों गुणधराचार्य ने कसायपाहुबकी रचना की। इन दोनों रहने और सार संभाल नहो सकनेसे हजारों ही अन्य सिद्धातग्रन्थों पर वीरसेनाचार्यने विशाल भाष्य रचे । षट्- सीलनसे गल गये और हजारों ही दीमकोंके भय बन गये खंडागमके प्रारम्भिक ५ खंडोंके भाष्यका नाम धवल है ऐसे समयमेंहमारे महविद्रीके धर्मप्राण पंचाने करीवजार और कषायपाहुडके भाष्यका नाम जयधवल है। षट्- वर्षसे उक्त प्रन्थोंकी एकमात्र प्रतिषोंकी अत्यन्त सावधानी खंडागमके छठे खंडका नाम महाबन्ध है जो कि महा- के साथ रक्षा की। पतदर्थ उनको जितना भी धन्यवाद धवन नामसे भी प्रसिद्ध है।
दिया जाय और भाभार प्रदर्शित किया जाय थोता है। भारतीय वाङ्गमयमें वेदव्यासके महाभारतका प्रमाण सारा जैन समाज उनके इस महान कार्यक बिधे कल्पात सबसे अधिक माना जाता है, जबकि वह मूल ८ हजार तक ही रहेगा। महविजीके पंचों और गुरुभोंके प्रसादसे श्लोकके लगभग ही रहा है। परन्तु वीरसेनाचार्य रचित
ही पाज ये ग्रन्थ सुरक्षित रहे और हमारे रष्टिगोचर हो अकेले धवल्लभाष्यका प्रमाण बहत्तर हजार श्लाक और है। जयधवल भाष्यका प्रमाण साठ हजार श्लोक है मेरे ख़यालमें भारतीय ही क्या, संसारके समप्रवाहमय में किसी धवलादि सिद्धातग्रथाक प्रकाशमानेका इतिहास एक ही ग्रन्थका इतना विशाल प्रमाण खोजने पर भी नहीं
सुना जाता है कि इन प्रग्योंके प्रकाशम लाने और मिलेगा।
उनका उत्तर भारतमें पठन-पाठन द्वारा प्रचार करनेका धवखसिद्धान्तमें जीवकी विविध दशाओंका महा- विचार पं. टोडरमलजीके समयमें जयपुर और अजमेरकी धवल में चार प्रकारके कर्मबन्धका और जयध्वनमें जीव भोरसे हुा था, पर उस समय सफलता न मिल सकी तथा कर्मके निमित्तसे होने वाले राग-दूषकी नाना पर्यायों तदनन्तर प्राजसंलगभग ७० वर्ष पूर्व स्व. सेठ माथिका का वर्णन है । जीव और कर्म जैसे सूक्ष्म तत्वोंका यह चन्द पानाचन्द जे. पी. बम्बई, सेठ हीराचन्द नेमचन्द सुन्दर. सरल और दार्शनिक विवेचन अवख, जयधवक्ष सोलापुर और सेठ मूलचन्दजी सोनी अजमेरके वर्षो
और महाधवन जैसे निर्मल नामोंसे ही अपने उज्जवल सतत प्रयासके पश्चात् , ताइपत्रोंसे कागजके ऊपर कनाली देशका परिचय दे रहा है।
और नागरी प्रतिलिपि सन् १९९८ में सम्पन हो सकी। इन विशालकाय सिद्धान्तपन्धोंके अतिरिक्त दर्शन, उक्त सिद्धान्त अन्य की प्रतिलिपि करते समय पंडित
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३७० ]
अनेकान्त
[किरण १२
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गजपति उपाध्यायने गुप्तरीतिसे उनकी एक कनदी प्रति- यात्रासे वापिस लौटकर मैं पूज्यपाद श्रीपुल्लक बिपि भी कर ली। उसे लेकर वे सेठ हीराचन्दजी और पं० गणेशप्रसादजी वर्णक दर्शनार्थ गया, और सर्व वृत्तान्त सेठ माणिकचन्द्रजीके पास पहुंचे । पर उन्होंने चोरीसे कहा। जिनवाणीके आधारभूत उक्त सिद्धांतमयोंकी जनकी गई उस प्रतिलिपिको नैतिकताके नाते खरीदना उचित रित दशाको सुनकर श्री वीजीका हदय द्रवित हो उठा नहीं सममा । अन्तमें वह सहारनपुरके लाला जन्बूप्रसादजी और उन्होंने मूलप्रतियोंके फोटो लिये जानेका भाव मेरे ने खरीदकर अपने मन्दिर में विराजमान कर दी। कनकीस से व्यक्त किया । मैंने दिल्खी पाकर पूज्य वर्गीका विचार नागरी लिपि में विखते हुए एक गुप्त कापी पं० सीताराम श्री १०८ नमिसागर जी के सम्मुख प्रकट किया। और शास्त्रीने भी कर ली, और उनके द्वारा ही ये ग्रन्थराज उन्होंने भी उसका समर्थन ही नहीं किया, बल्कि तस्कान उचर भारतके अनेकों भण्डारोंमें पहुंचे।
उसे कार्यान्वित करनेके लिये प्रेरित भी किया। सन् १९५५ में भेलसा निवासी श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजीके दानके द्वारा स्थापित जैनसाहित्योद्धारक फंड
न दो मास पूर्व श्री बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता, मध्यर
दा मास पूर्व श्राप अमरावतीसे धवलसिद्धान्तका हिन्दी अनुवादके साथ वार
वीरसेवामंदिर देहली गिरनारकी यात्राये जाते हुए पूज्य प्रकाशन प्रारम्भ हुमा । सन् १९४२ में श्री भा० दि. जैन
वर्णीजीके पास पहुँचे, तब वणींजीने उनका ध्यान भी इस संघ बनारससे जयधवलका और सन् १९४७ में भारतीय
भोर पाकषित किया। उनके यात्रासे वापिस लौटने पर मैं, ज्ञानपीठ बनारससे महाधवलका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ।
मेरी धर्मपत्नी और बाबू छोटेलालजी २६ मार्च को मूडइस प्रकार उक्त तीनों संस्थानोंके द्वारा तीनों सिद्धांत
बिद्ीके लिए रवाना हुए। हमारे साथ वायू पन्नालालजी प्रन्योंके प्रकाशनका कार्य हो रहा है।
अग्रवाल के सुपुत्र बाबू मोतीरामजो फोटोग्राफर भी थे। परन्तु उक तीनों सिद्धान्त प्रन्थोंके सम्पादकोंने प्रन्यों- बार हमारा प्र
और हमारी प्रेरणाको पाकर श्रीमान् पं. खूबचन्द्रजी का सम्पादन करते हुए अनुभव किया कि चोरीकी पर- सिद्धान्त
सिद्धान्तशास्त्री भी मूडबिद्री पहुंच गए थे। म्परासे पाये हुए इन ग्रन्थराजोंमें अशुद्धियोंकी भरमार हमारे भाने के समाचार मिल जानेसे पहुँचनेके पूर्व हो है, अनेक स्थलो पर पृष्ठोंके पृष्ठ छूट गये हैं और साधा- हमारे ठहरने आदिको समुचित व्यवस्था वहाँके श्री १०५ रण छूटे हुए पाठोंकी तो गिनती ही नहीं है। यपि उक्त भट्टारकजी और पंचाने कर रखी थी। हमने जाकर अपने संस्थानोंने मूडबिद्रीमे मूखप्रतियोंके साथ अपनी प्रतियोंका
मानेका उद्देश्य बताया। हमें यह सूचित करते हुए मिलान कराया, जिससे अनेक छूटे और अशुद्ध पाठ ठीक
अत्यन्त हर्ष होता है कि श्री १०५ भट्टारक चारूकीर्ति हुए, तथापि भनेक स्थान संदिग्ध ही बने रहे और भाज
महाराजने और वहांक पंचोंने धर्मस्थलके श्री मंज या भी मूलप्रतिसे मिलानकी अपेक्षा रखते हैं।
हेगडेकी अनुमति लेकर हमें न केवल उन प्रन्यांके गतवर्ष मैं सकुटम्ब और श्री. जुगर्जाकशोर जी
कांटा बनेकी ही आज्ञा दी, अपितु हर प्रकार मुख्तार, मादि (अधिष्ठाता-वीर सेवा मन्दिर ) विद्वानों
सवा मान्दर ) विद्वामा का महयोग प्रदान किया। हम लोग वहां पर करीब के साथ महामस्तकाभिषेकके समय दक्षिणकी यात्राको
१२ दिन रहे। इस बीच वहांके भट्टारक जी और पंचोंने गया और मूडबिद्री पहुँच कर सिद्धान्तप्रन्थोंके दर्शन
जिस वात्सल्य, सौहार्द एवं प्रेमका परिचय दिया, उसे किये। सिद्धान्तप्रन्योंके दर्शन करते हुए जितना हर्ष ।
व्यक्त करनेके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं। इनमें हुमा, उससे कई सहनगुणा दुःख उनकी दिन पर दिन
उक्लेखनीय नाम श्री १०५ भट्टारक चारूकीति जी महाजीर्ण शीर्ण होती हुई अवस्थाको देखकर हुमा। तापत्रीय प्रतियोंके अनेक पत्र टूट गये है और अनेक स्थलों राज, श्री दी. मंजेया हेगडे धर्मस्थल, श्री पुहा स्वामी के अपर बिखर गये हैं। हम लोगोंने उस समय यह अनु- एडवोकेट मंगन
व एडवोकेट मंगलौर, श्री देवराज एम. ए.बी. एब. भव किया कि यदि यही हाल रहा और कोई समुचित मंगलौर, श्री धर्मसाम्राज्य मंगलौर, श्री जगतपालजी मूड व्यवस्था न की गई, तो वह दिन दूर नहीं, जब कि हम विद्री, श्रीधर्मपालजी सेठी मूडपिद्रो, की पमराजजी सेठी योग सदाके लिए इनके दर्शनोंसे वंचित हो जायेंगे। महविद्री तथा श्री पं० मायराजजी शास्त्री के है।
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किरण १२]
धवलादि ग्रन्थों के फोटो और हमारा कर्तव्य
[३७१
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हमारा उद्देश्य
कर हमें सूचित करें। मैंने दिल्ली में इस विभागसे बातचीत माज भारत स्वतन्त्र है। प्रत्येक धर्म और प्रारम्भ कर दी है। प्राशा है कि उक्त विभाग की भोरसे समाज अपने पूर्वजोंकी कृतियोंको सुरक्षित रखनेके लिए
शीघ्र स्वीकृति मिल जायगी और बहुत शीघ्र तारपत्रीय प्रयत्नशील है। भारतकी राजधानी देहलीमें निस्य
प्रतियोंका कायाकल्प किया जा सकेगा। सांस्कृतिक सम्मेलन होते रहते हैं। राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र
यह बात तो सिद्धान्तप्रन्थोंकी हुई । इनके पतिप्रसादजीने अपने भवनका एक भाग पुरातत्व कला और रिक्त मूडबिद्रीके भंडारमें इससमय कई हजार ताइपत्रीय साहित्यके संग्रह तथा प्रदर्शनके लिए नियत किया हमा प्रस्थ हैं जिन्हें खोलनेका शायद ही कभी किसी को कोई हे। ऐसी दशामें हमारे भी मनमें यह भाव जागृत हुधा अवसर प्राप्त हुआ हो। इन प्रन्योंको वहांके पंचोंने कई कि यदि हमारी भी प्राचीन कला और पूरातत्वकी सामग्री वर्षों के सतत परिश्रमके पश्चात् दणि कर्नाटक संग्रह प्रकाश में पाये, तो जैनधर्मका महत्व सारे संसारमें ग्यास किया है। उनके द्वारा हमें यह भी ज्ञात हुपा है कि उत्तर हो सकता है।
कर्नाटक और तामिल प्रदेशमें अभीभी हजारों जैनग्रन्थ इसी उद्देश्यको लेकर हमने निश्चय किया कि दि०
लोगोंके पास और मन्दिरोंके भएमरोंमें अपने जीवनकी जैन सम्प्रदायके इन ग्रन्थराजांकी जिनकी कि एकमात्र
अन्तिम घड़ियां गिन रहे हैं, जिनके तत्काल उद्धारकी मूलतियां दिन पर दिन जीर्ण शीर्ण हो रही हैं। इनके अत्यन्त आवश्यकता है। फोटो लेकर उसी कनवी लिपिमें ताम्र पट पर ज्योंका त्यों हमारे समाजका लाखों रुपया प्रति वर्ष मेले ठेखों में अंकित कराया जाय और उनके मूलभूत सिद्धान्तोंका जग- व्यव होता है। विवाह शादियों में भी रुपया पानीकी तरह तमें प्रचार किया जाय । जिससे कि भौतिकवादकी भोर बहाया जाता है। फिर भी हमारी समाजका अपनी गिनभागता हुआ संसार अध्यात्मवादको और मदे और प्रशां- वाणी माताकी इस दुर्दशाकी भोर जरा भी ध्यान नहीं तिके गहरे गतसे निकल कर शांतिकी शीतल छायाकी
गया है। भाजके युगमें जिस समाजका या नातिका इतिओर अग्रसर हो।
हास जिन्दा न हो, साहित्यका प्रचार न हो, वह जाति भी जैसा कि ऊपर बताया गया है, सिद्धांत-प्रन्यांकी क्या संसार की जीवित जातियों गिनी जानेके योग्य है। मूलप्रतियां कालके असरसे बहुत ही जीर्ण शीर्ण हो गई अतएव यह मावश्यक है कि समाजकी सम्पूर्ण शक्ति इस हैं। हमें फोटो लेते वक्त बहुतही सावधानीसे कार्य करना कार्य में लग जावे । यह कार्य यद्यपि लाखों रुपयेके व्ययसे पड़ा लेकिन उसी वक्त हमने यह अनुभव किया कि यदि सम्पन्न हो सकेगा। लेकिन इस प्रयाससे पता नहीं, हम 'तत्काल हो इन प्रतियांका कायाकल्प नहीं किया गया, तो कितने अदृष्ट और भूतपूर्व अनमोल प्रन्थ-रत्नोंको प्रास इनकी श्रायु अधिक दिनकी नहीं है। हमें यह सूचित करते कर सकेंगे। हुए हर्ष होता है कि मुबिद्री के पंचोंने भी इसी बातका जिनवाणी जिनेन्द्र भगवानकी दिग्य ध्वनिका ही अनुभव किया है। इनके कारण ही महान गौरव भाज नाम है। जिनवाणीका उद्धार और प्रचार करना जिनेन्द्र मूडबिद्री को प्राप्त है, वह सदाके लिए विलुप्त हो भगवानकी प्राज्ञाका ही प्रसार करना। हमारे महर्षिों जायेगा।
भारत सरकार का एक प्रालेख संग्रहालय Natio- ये यजन्तं भक्त्या ते यजम्तेऽम्जसा जिनम् । nal Archive of India नामक विभाग है, जहां न किंचदन्तरं प्राहुराप्ता हि अवदेवयो। लाखों रुपये की कीमती मशीनरी है, जो अतिजीर्ण-शीर्ण प्रार्थात्-जो मक्कि पूर्वक अत (शास्त्र) की पूजा पत्रोंका वैज्ञानिक ढङ्कसे कायाकल्प करती है। जिससे कि करते हैं, वे निश्चयतः जिनभगवानकी पूजा करते हैं। उन अन्योंकी प्रायु सैकड़ों वर्षकी और बढ़ जाती है। क्योंकि प्राप्तजनोंने श्रत और देवमें कुछ भी अन्तर नहीं मैने जब इस विभागका परिचय वहांके पंचोंको कराया, कहा है। तब उन खोगोंने सरसुकता प्रगट की कि आप दिल्ली जाकर यह कार्य किसी एक व्यक्ति या संस्थाका नहीं है.पक जन प्रन्योंके कायाकल्पक विषयमें उस विभागसे बातचीत सारी जैन समाजका है। अतएव इस पुनीत कार्य में भा.
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अनेकान्त
[किरण १२
दि. जैन महासभा, दि. जैन परिषद्, दि. जैन संघ, विदू- अतः तभी से यह तिथि श्रुत पंचमीके नामसे प्रसिद्ध रपरिषद, भारतीय ज्ञानपीठ, ऐलक पन्नालाल दि.मैन है और प्रति-' इस दिन हमारे मन्दिरों में शास्त्रोंकी सरस्वती भवन आदि सभी सामाजिक संस्थाएं वीरसेवा पूजन होती है और सार सम्भाल की जाती है। हमने मन्दिरको अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करें, तभी यह इस वर्ष इसी श्रुत्त पंचमी के समय भूत सप्ताह मनानेका महान कार्य सुचारु रूपसे सम्पन हो सकेगा । आशा है विचार किया है। हम चाहते है कि इस अवसर पर सारे समाजके श्रीमान अपने धनसे, धीमान अपने बौद्धिक सह- भारतवर्ष में श्रुत सप्ताह मनाया जाय और सरस्वती-भंडारों योगसे और अन्य जब अपने वाचनिक और को खोलकर शास्त्रोंकी सार-सम्भाल की जाय, जीर्ण-शीब कायिक साहाय्यसे इस पुनीत कार्य में अपना हाथ बटा पत्रांकी मरम्मत की जाय, शास्त्रोंके वेष्टन बदले जायें
और ग्रन्थ सूची बनाई जाय । जहाँ जिन भाइयोंको कोई . उक्त सिद्धान्त प्रन्योंकी रचना पूर्ण होने पर ज्येष्ठ नवीन ग्रन्थ दृष्टिगोचर हो, वे हमें उसकी सूचना दे और
शुक्ला को सर्व प्रथम बड़े समारोहके साथ पूजन की थी, पत्रोंमे प्रकाशित कराय।
मलाचारके कर्ता
(हुल्लक सिद्धिसागर) मूलाचार अपरनाम 'पाचाराज' दिगम्बरजैन समाज- बा वट्टक एलाइरिय बना है। बट्टक शब्दका अर्थ वर्तक और का एक प्रसिद्ध प्रमाणिक ग्रंथ हैं। जिसका सीधा बृहद् आदि होता है। 'वट्ट' शब्दसे तदभाव अर्थ में 'क' सम्बन्ध भगवान महावीरकी प्रसिद्ध देशनासे है। जो प्रत्यय करने पर वट्टक' शब्द निष्पा होता है। वह शब्दके गणधर केवली श्रतकेलियोंकी परम्परासे प्राचार्य कुन्द- उराल, थूल, वहल्ल, जेट्र और पहाण पर्यायवाची नाम कुन्दको प्राप्त हुई थी। जो भद्रबाहु नामक पंचम श्रुतकेव- हैं। प्राचार्य वीरसेनस्वामीने उरालके पर्यायवाची नाम या जी उनके गमक गुरु थे। जो पूर्व परंपराके पाठी थे । वृत्ति एकार्थका विवेचन करते हुए धवनामें लिखा है किकार प्राचार्य वसुनन्दीने स्पष्ट रूपमें मूलाचारके कर्ताको 'उरालं थूलं ववहल्ल मिदि एयहो, अथवा उरालं जेट्ट, १८००० पद प्रमाण प्राचारांगके उपसंहारकर्ताके रूपमें पहाण मिदि एयहो। --धवला टीका ता. प. प्रति । बतलाया है। इस प्रथका पुराना उल्लेख निलोयपण्णत्ती उक्त कथनसे 'चट्टक' या 'वट्ट' का अर्थ ज्येष्ठ प्रधान में मूलाचार नामसे हुश्रा है और षट् खण्डागमको धवला या वृहद् होता है। अतः वृहर 'एलाचार्य ज्येष्ट एलाचार्य टीकाके कर्ता प्राचार्यवीरसेनने 'माचाराग' नामसे उद्घो. या प्रधान एलारियको वट्टकेराचार्यका नामान्तर समझना पित किया है। अतः इस ग्रन्थके अत्यन्त प्राचीन और चाहिये । यहां ऐतिहासिक दृप्टिसे वृहद भर्थ मेरे विचारसे महत्वपूर्ण होने में कोई सन्देह नहीं रहता है।
उस तथ्यके अधिक निकट जान पड़ता है। एलाचार्य में भी मूनाचारके कर्ता वट्टकेराचार्य हैं। 'वट्टकेराचार्य वृहद् एजाचार्य इट है, क्योंकि एलाचार्य नामके अनेक शब्दका अर्थ क्या है, इस पर सबसे पहले पं० जुगल- विद्वान हुए हैं। वटकका वृहद् अर्थ, प्रधान या ज्येष्ट अर्थ किशोरजी मुख्तारने विचार किया। उसके बाद पं.हीरा करने पर उनसे उनका पृथकत्व भी हो जाता है। साली शास्त्रीने अपने लेखमें प्रकाश डाला है। वह अनेकान्त वर्ष १२ की किरण " में मूनाचारके सन्द वर्तक-प्रवर्तक, वृहद स्थूल और प्रधान जैसे मयों में सम्बन्धमें पं० हीरालाल जी सिदान्त शास्त्री और पं० प्रयुक्त हुआ है।जसे प्राकृतमें 'ईश:' के स्थानपर 'एलि. परमानन्दजी शास्त्रीख विचारपूर्ण हैं, अनेकान्त मंगासो' होता है वैसे ही बहनहरा चार्यका वहक एलाचार्य कर पाठकोंको उसे अवश्य पढना चाहिये।
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कहानी
स्तरके नीचे
-मनु हानार्थी' साहित्य रत्न
प्रीष्मका तस मध्याह्न है। मानव क्या सृष्टिका मुद्र- बाल हो उठी-"देखो न संसारमें ढोंगियों की भी कमी तम प्राणी भी प्रकृति की हरित छायामें अपने पापको नहीं। चोर-उचक्के सण्डे-मुसटे इसी वेषमें छुपते हैं। छुपाये हुए हैं। अब दिनकर की प्रखर किरणे असा हो नंगा बैठा है मंगा! दुनियाको बताता फिरता हैकपदेकी चली है। महामुनि चारुकीर्तिके तपश्चरणकी यही अबा. भी चाह नहीं और राजा महाराजा, सेठ साहूकारोंके घर धित वेला है । भिक्षाग्रहणके उपरान्त द्वितीय प्रहरके हलुभा पूरी, मेवे-मुरब्बे पर हाथ साफ करता है। बस अन्त मे, महामुनि जलते हुए पाषाण खण्डों पर ध्यानस्थ थोड़ा सा उपदेश सा उपदेश दे दिया-'गरीबों कोन हो गये हैं। धरती पर हैं मुनिकी आस्मिक तेज-रश्मियाँ, सतायो । बराबर बर्ताव करो' जैसे इसकी पावाज पर और पाकाशसे अविरल बरस रही हैं भास्कर की उत्तप्त रुक जायेंगे, ये सतानेके अभ्यासी लोग ! जहाँ पती-पदी रश्मियाँ । सृष्टि में मानों तेज-द्वयकी विचित्र स्पर्धा हो रही तोंद वालों और चमकते हुए मुकटवारियोंने 'महामुनि की हे! काम, क्रोध, माया और लोभके भयानक मेव मुनिके जय; महामुनि की जय' दो चार नारे लगाये कि फूलकर हृदयाकाशसे छिन्न-भिन्न हो चुके है। भाज ध्याता, स्वयं गुब्वारा हो गया। बिक गया जय-जयकी बोली पर और ही ध्यान और ध्येय बग गया है।
ये जय बोलने वाले हाँ! ये जय बोलने वाले चिकने बड़े x x x
की भाँति उपदेशका जल एक मोर बहाकर दुनिया में बेचारा धोबी अपने आपमें जलकर अङ्गार होता जा खून की होलियां खेलने लगते हैं।...... रहा है। जाने उसकी धोबिन कहाँ जा बैठी है।न भोजन तैयार है और न भोजनकी सामग्री। राजकीय
इस प्रकारके भयानक उहापोहमें गंगूका मास्मिक
सन्तुलन टूटने लगा और गरजता हुमा मुनिसे बोलावस्त्र संध्याके समय देना है। एक ओर है पेटकी ज्वाला और दूसरी ओर है राजाज्ञाका भय भूखा व्यक्ति व्याघ्र
"श्री ढोंगी ! उठ यहांसे । क्यों भूपमें सिर फोड़ रहा से कम नहीं होता । पेटको भाग उसे दानव बना देती
है। मगजम गर्मी चढ़ जायगी तो फिर बड़बड़ाने लगेगा है। पर करे तो, क्या करे ? वस्त्रोंकी गठरी लिए नदीकी उप
का उपदेश ।" ओर बढ़ रहा है। पैर बढ़ रहे हैं, मन भारी होता ना पर महामुनि चारुकीतितो अनन्नमें अपने पापको रहा है। क्रोधके श्रावेशमें सोचता है-औरत क्या, दरमन खो चुके थे । संसारी नानवकी दुर्बलताएं उन्हें डिगानेको है। मामने दिख जाय तो ऐसी मरम्मत करूं बिनाल की पर्याप्त न थीं। वे सोचने लगेकि छठीका दृध याद आ जाय, और महाराजा साहब, 'वेचारा संसारी क्रोधकी श्रागमें मुलमा जा रहा
बैठे होंगे राजमहलों में, खसके पदों में | उडेल रहे है। कैसी भयानक हैं दुनियां की परिस्थितियाँ। परिहोंगे अंगूरीके गिलास पर गिलास | संध्याका समय स्थितियाँका स्वामी श्राज उनका दास बना है। भाज होगा। राज भवनका ऊपरी भाग तर कर दिया जायगा, बन्धनाम जकड़ा मानव अपनेको बन्धनोंका स्वामी मान बैठा जलसे । पलंग डाले जायेंगे और कामुकता बर्द्धक चादर है, कैसी विडम्बना है ? जहाँ दुर्बलतामोंका ज्वार भाया कि लेकर जायगा गंगू । बदले में मिलेगा तिरस्कार और मुका दिया मस्तक, और दाम बन गया, युगों के लिए! घृणा ।......
मोह ! अम्तरमें कषायोंका दास और बांछमें परिस्थितियोंका मानसिक द्वन्दोंमें उलझा हुमा गंगू ज्योंही जमुनाके संकेत-नक ? बेचारा मानव ! चाट पर पहुंचा और मुनिको पाषाण खराहों पर ध्यानस्थ इधर मुनि मानसिक संसारमें उनके हुए थे और पाया तो सहसा जखकर अंगार हो गया। काले नागका उपर अनजान संसारी कोधकी भागमें जब बकर मिट बैसे मार्ग रोक दिया हो किसी ने कोषले बा बाब- रहा था। मावेशमें वह पागल हो उठा और भाव देखा
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३७४ ]
अनेकान्त
[किरण १२
मताव, ऐसा धक्का मारा कि विरागीका मिर घाटके ही के परस्परमें पात-प्रतिघात ! पत्थरोंसे जा टकरावा । मुनिकी मास्मिकशक्ति सहसा उनके पैर धीरे २ स्थलकी ओर बढ़ने लगे। अधरों तिलमिला उठी । अान्तरिक शत्र जो दीर्घकालमे उपशान्त और आँखों में व्यंगात्मक मुम्कान दौरने लगी। दूसरे ही थे, एकाएक भड़क उठे। भावों में क्रोधके बाल २ डोरे सण ज्योंही दोनोंने महाराज जयवर्माको सामने देखा कि रह रह कर भाग बरसाने लगे । फिर क्या था हिमाकी दोनों पाषाण-खण्डोंकी भांति बचत हो गए। प्रकृति में प्रतिक्रिया हिंसामें कूद पड़ी। मुनिको पांखें देख कर गंगू स्तब्धता है पर हृदयोंमें ज्वार उठ रहा है। एक राज-कोप दानव बन बैठा और व्याघ्रकी भांति गरजता हुना टूट पड़ा से कॉप रहा है, तो दूसरा प्रारमग्लानिसे पानीपानी हो मुनि पर । पाँच-सात बार दे मारा सिर शिलखगहों पर। चला है। युगोंकी साधना एक शुद्र मानसिक दुबर्जताने मानों कोप-देवताके तर्पणके लिए नारियल फोड़ दिया हो। छिछ भिकर दी थी। जिस क्रोध-शत्रको मुनि चुका हुमा संसारी पर तरस खाने वाला विरागी भी खो बैठा अपने मानकर निश्चिन्त हो गया था वही राखके नीचे दवे हुए को और कूद पड़ा पावेशकी ज्वालामें।
अंगारेकी भांति भड़क उठा, साधनाको नष्ट कर गया। दोनों ही पात्मिक, मानसिक और शाद्विक संयम खो प्रान्तरिकसे युद्ध था, वाझसे उलझ बैठा न जाने कितने बैट और होने लगा मलों जैसा भीषण युद्ध ।
विकारांको जीतकर वीतरागी होनेका सपना देख रहा x x x x
था। परीक्षाका समय आया, आँख खोलकर देखा तापाया महाराजके वस्त्रोंमें विलम्ब क्या? नौकर दौड़ा हुमा
अपने आपको साधनाके शिखरके नीचे । साधनाच्युत मुनि गंगू के घर पाया । पर उसे घर न पाकर ज्यांही घाट पर प्रास्मग्लानिने इतना जल उठा था कि उसका वश चले तो पाया तो संसारी और विरक्तका द्वन्द मचा देखा। महाराजकी कटार उनकी कटिसे खींच कर आत्म-घात कर माहस न हुधा निवारण करने का । उल्टे पांव दौडा और ले । पर शरीर तो पाषण हो गया है। महाराजको एक सासमें ही सब कुछ सुना गया। महाराज मुनिकी दयनीय स्थिति देखकर सिहर उठे। वे बोलेघबरा कर उठ खड़े हुए और पलक मारते ही घोड़ेको एड मुनिराज ! क्षमा करना मुझे । प्रयत्न करनेपर न पहचान देते हुए घाट पर जा पहुँचे। पर किनारा पाकर भी हतबुद्धि मका भापको । गुरुदेव । न जाने कितना विकृत हो गया क्यों ? क्या करते वे इस धर्म-संकट में । द्वंद्वके घात-अति- था पापका रूप उस समय ! घातमें कटिवस्त्र खो चुका था धोवीका । दोनों ही दिगंबर शिष्टाचार और खेदके ये शब्द मुनिको भात्मग्लानि बन बैठे थे । रूपसे दिगंबर, पर कृस्यसे दागव ? नग्नत्वकी की भागमें जैसे एक धक्का और मारने लगे । भारी सीमामें दोनांका परीक्षण कठिनतम होता जा रहा था प्रयत्न करने पर उनके मुखसे अस्पष्ट शब्द निकले । बबमहाराज बदी उनमन में थे। वे युगों पूर्वकी घटना स्मरण खड़ाती ध्वनि में वे बोले.."राजन् ! आपका क्या दोष । करने लगे।..."चालि और सुप्रीवमें युद्ध हुमा था, स्तर के नीचे गिरने के बाद महान नहीं रह जाता। फिर वहाँ मी सुग्रीवके गलेकी माला प्राधार थी, रामके महानताकी समाप्तिके बाद महान और साधारणमें भेद लक्ष्यका आज था प्राधर हीन न्याय, किसकी रक्षा किसको कैसा? अब कौन गुरुदेव और कौन मुनिराज । राजन ! दया? दोगेही नग्न, दोनोंकी आंखों में चिनगारियाँ, दोनों साधना-भ्रष्टको चुकजाने दो, मिटजाने दो।
अनेकान्तके ग्राहकोंसे इस किरणके साथ १२वें वर्षके ग्राहकोंका मूल्य समाप्त हो जाता है । १३ वें वर्षसे अनेकान्तका वार्षिक मूल्य छः रुपया कर दिया गया है । अतः प्रेमी ग्राहकोंसे निवेदन है कि वे ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर अनुगृहीत करें । मूल्य मनीआर्डरसे भेज देनेसे उन्हें कमसे कम आठ आनेकी वचत होगी और अनेकान्तका प्रथमा समय पर मिल सकेगा तथा कार्यालय भी वी० पी० को झंझटोंसे बच जायगा।
मैनेजर 'अनेकान्त' १, दरियागंज, देहली
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साहित्य पुरस्कार और सरकार
(सत्यभक्त) साहित्य निर्माण कार्य में सरकार द्वारा मदद एक है वह फैल नहीं पाता। ऐसी अवस्थामें यह जरूरी है कि प्राचीन परम्परा है और जरूरी भी है। साहित्यिक समाज- इस कार्यको राज्याश्रय दिया जाय । सेवा असाधारण है । वह मनुष्यबाका निर्माण करने वाला सरकारोंका ध्यान है। जिन विचारोंके कारण यह मनुष्याकार प्राणी वास्त- यह प्रसन्नताकी बात है कि स्वराज्य मिलमेके बाद विक मनुष्य कहलाता है उन विचारोंका दान साहित्यिक कुछ सरकारोंका ध्यान इस भोर गया है। उत्तर प्रदेशीय करता है। लेकिन उसे इसका प्रतिपादन नहीं मिलता। सरकारने इस विषय में देशका पथ-प्रदर्शन किया है। वह उसका पूरा प्रतिदान मिलना तो कठिन ही है, पर पुष्पके मरछी पुस्तकों पर ३०० से १२००)वक लेखकको रूप में भी नहीं मिल पाता है।
पुरस्कार देती है। इससे अनेक लेखकोंको राहत मिली है। पुराने जमानेमें छापेका रिवाज न होने से प्रथ विक्रय- परन्तु इस याजनामें एक त्रुटि है कि लेखकको तो का कार्य नहीं होता था, अब होने लगा है. और दूसरे पुरस्कार मिल जाता है लेकिन उसका साहित्य जनता तक देशमें प्रन्य-प्रणेता लोग इसी कार्यसे काफी बड़े धनवान नहीं पहुंचता । इसलिये साहित्य निर्माणका वास्ताविक भी बन जाते है। पर भारत में यह बात नहीं है। यहाँ साध्य सिद्ध नहीं होता। धनवान बनना तो दूर, पर मध्यम श्रेण के एक गृहस्थके इस वर्ष केन्द्रीय सरकारने कुछ सुधरी हुई व्यवस्था समान गुजर करना भी मुश्किल है। इने गिने प्रकाशक बनाई है। उसने हजार हजार रुपये पाँच और पाँच पाँच जरूर कुछ धनवान बने हैं कुछ पुस्तक विक्रेता भी धनवान सौ रुपयेके पन्द्रह पुरस्कार रक्खे हैं। साथ ही यह भी बने हैं। पर अन्य प्रणेता तो दुर्भाग्यका शिकार ही हैं। निश्चित किया है कि जो साहित्य पुरस्कृत किया जायगा
फिर जो लोग ठोस साहित्य नहीं किन्तु मनोरंजक उसकी दो दो हजार प्रतियाँ सरकार खरीदेगी। वास्तवमें साहित्य लिखते हैं वे ही किसी तरह कुछ कमा पाते हैं। यह विधान बहुत जरूरी है। गत वर्ष मेरी पुस्तकोपर उत्तर प्रकाशकको अच्छे साहित्यसे मतलब नहीं उसे अधिकसे प्रदेशकी सरकारने १२००)का प्रथम पुरस्कार दिया इससे अधिक चलतू साहित्य चाहिए और पुस्तक विक्रताको कुछ वधाइयाँ तो मिली पर १२००)का पुरस्कार होने पर चलतू सादिस्यके साथ अधिकसे अधिक कमीशन मिलना भी पुरस्कारकी शुहरतसे बाहर पुस्तकें भी नहीं बिकी। चाहिये । कमीशन अधिक मिले तो वह कचड़ा भी बेचेगा, इस मामले में तो मछ। और उच्च साहित्यपर तो घोर कमीशन कम मिले तो वह अच्छे से अच्छा साहित्य भी न संकट है। जो उसे समझ सकते हैं समर्थ होने पर भी छयेगा । यहाँ तक कि चलता साहित्य भी न छुयेगा । ऐसी समझदारीके हनामके रूपमें मुफ्त में साहित्य मंगाते हैं। हालतमें उन लेखकांकी को मौत ही है जो समाजके लिये जो नहीं समझते वे उस लेंगे क्यों? इसलिये सरकारको उपयोगी और जरूरी साहित्य तो लिखते हैं पर वह चलतू ही लेखकोंके पुरस्कृत करनेके समान साहित्यका खरीदना साहित्य नहीं होता।
भी जरुरी है। केन्द्रीय सरकारने इस तरफ ध्यान देकर ___ यह पाश्चय और खंदकी बात है कि उच्च श्रेणीका, बहुत अच्छा कार्य किया है। बहुत कष्टसाध्य, मौलिक साहित्य जो लिखते हैं उनकी तपस्या जयपुर सरकारने इस विषयमें कुछ दूसरे ढंगसे कार्य मार्थिक दृष्टिमे बिलकुल व्यर्थ जाती है, उन्हें प्रकाशक तक किया है, वह लेखकोंको पुरस्तक तो नहीं करती है किन्तु नहीं मिलते और किसी तरह प्रकाशन हां भी जाय तो पुस्तक अच्छी पुस्तकें अपने राज्यकी ११ पुस्तकालयोंके लिये विक्रेता और ग्राहक नहीं मिलते। इसका परिणाम यह खराद लेती है। सत्याश्रमके ८-१० प्रकाशन उसने १५३. हुआ कि हिन्दीमें प्रकाशन बहुत होने पर भी साहित्य १५३ की संख्यामें खरीदी है। ईमान नामक पुस्तक तो निर्माणकी तपस्या नहीं होती, नई-नई खोजें नहीं होती, उसने ४५. की संख्यामें खरीदी थी। यह भी एक अच्छा मनोरंजन कथा साहित्यके सिवाय अन्य उपयोगी और तरीका है। लेकिन अब वह समयमा गया है जब इस जली साहित्य बहुत कम निकलता है और जो निकलता योजना पर म्यापक रूपमें विचार किया जाय जिससे लेखकों
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३७६]
अनेकान्त
[किरण १२
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मापा
और प्रकाशकोंको न्याय मिबनेके साथ साहित्यके साथ वाली रायल्टी उसके उत्तराधिकारियोंको मृत्युके दस भी न्याय हो, जनताको भी उसका नाम मिले। मैं इस वर्ष बाद तक ही मिले। विषय के कुछ सुझाष रख रहा हूँ।
(ज) जो लेखक भी नहीं है, अनुवादक भी नहीं हैं सिफ पुरस्कार प्रणाली
संग्राहक या सम्पादक हैं उन्हें पांच फीसदी रायल्टी
मिले । वह भी उस अवस्था में जब प्रकाशकसे उसने (१) सरकार अच्छे साहित्य पर पुरस्कार भी दे और
मिहनताना प्राप्त न किया हो। उसकी प्रतियाँ भी खरीदे।।
(१) सरकारको साहित्यके भिन्न भागों पर भिन्न भिन्न (२) पुरस्कार परिमित ही होंगे। यह हो सकता है कि कुछ
तरीकांसे ध्यान देना चाहिए। पुस्तकों पर पुरस्कार न मिले पर वे अच्छी हों तो उन
(क) अन्वेशक साहित्य । विज्ञानके नए सिद्धान्त, नई भाषा पुस्तकोंको खरीदनेका ही निर्णय करे।
नई निपि या भाषा जिपीसुधार, नए दार्शनिक (३) पुस्तककी उपयोगिता मादिका विचार कर कमसे कम
सिद्धांत, धर्म संस्कृति प्रादिका नया निर्माण, भादिको २०.और अधिक से अधिक ....पुस्तकें सरकार
पुरस्कार पहले देना चाहिए। को खरीदना चाहिये।
(ख) रचना साहित्य । जिसमें आविष्कार सरीखी तो कोई (४) जो पुस्तके खरीदी जाये उनका बिल प्रकाशकोंको
बात नहीं हो किन्तु जनताके लिए उपयोगी विचारोंको चुकाते समय सरकार रायल्टीके दाम काटले । और वह रायल्टी सीधे लेखकोंको दी जाय।
अच्छी तरहसे पेश किया गया हो इस दुसरी श्रेणी (१) पुस्तक भेजनेके साथ भेजने वालेको यह लिखना
में रखना चाहिए।
(ग) पद्य साहित्यको तीसरी श्रेणी में रखना चाहिए। होगा कि उसने लेखकसे रचना किस शर्त पर ली। इस विषयके उपनियम इस प्रकार हो।
(घ) क्या साहित्यको चौथी श्रेणीमें रखना चाहिए ।
(क) जो साहित्य पद्यात्मक हो या कथा साहित्यमय हो, (क) यदि लेखक और प्रकाशक एक ही हैं तब पूरा
माथ ही उसमें अन्वेषणकी बातें भी हो तो उसे विव प्रकाशकको चुकाया जाय।
ऊंची श्रेणी में ही गिना जाना चाहिए। (ख) यदि प्रकाशक लेखकको रायल्टी देता है तो
अन्यरचनामें ग्रन्थको योजनाका मूल्य तो होना ही सरकार से खरीदी गई पुस्तकों पर लेखकको २० फीसदी चाहिए। साथ ही वह किस श्रेणीका है यह बात भी ध्यान रायटीदेइसके बाद उन पुस्तकों पर प्रकाशक लेखक में रखना चाहिए । उपचणीकी रचनाको अधिक अवसर को रायल्टी न दे।
मिलना चाहिए। (ग) यदि प्रकाशकने लेखकको पूरे दाम देकर सदाके लिए (७) हस्तलिखित प्रतियों पर सरकार पुरस्कार ही दे।
यह पुस्तक खरीद ली है, या मजदूरी देकर पुस्तक उनके खरीदनेकी जिम्मेदारी न छपने पर वह लिखाई है तो सरकार सिर्फ पांच फीसदी रायल्टी खरीदन की दृष्टिसे फिर विचार करे। लेखक को दे और वह प्रकाशको चुकाये जानेवाले (5) पुस्तक खरीदते समय सरकार इस बात पर भी ध्यान दामों में से काट है।
दे कि पुस्तककी कीमत तो अधिक नहीं है। कीमत (घ) यदि पुस्तक अनुवादित है तो पाधी या दस फीसदी अधिक होतो वह कम करनेकी शर्त लगा सकती है।
रायस्टी अनुवादकको और आधी या दस फीसदी (8) सरकार जो पुस्तक खरीदे उस पर २५ फीसदी रायल्टीमूल लेखकको मिले।
कमीशन लें। (6) यदि अनुवादकने अपना मिहनाताना प्रकाशकसे बे (10) पुस्तकोंका मूल्य, रायल्टी पुरस्कारकी रकमें घोषणा लिया है तो अनुवादकको रायल्टी न मिले।
एक माइके भीतरही सरकार चुका दे। (च) यदि मूल लेखक विदेशी है तो उसे रायल्टी न मिले व्यवस्था
(सिर्फ मनुवादक को ही दस फीसदी रायल्टी मिले) इस समय पुरस्कार योजना जुदी-शुदी सरकारोंकी (क) यदि खक या अनुवादक मर चुका है तो उसे मिलने तरफसे चल रही है। इसको केन्द्रीय सरकारके मार्फत
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किरण १२ ]
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
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सारे देशके लिये लागू करना चाहिये इसके लिये निम्न- उन प्रान्तोंकी भाषा साहित्यके लिये खर्च होगी। मध्यखिखित सुझाव हैं।
प्रदेश सरीखे प्रांतों में जहां हिन्दी और मराठी दो भाषाएँ है (1) प्रत्येक प्रांतकी सरकार इस योजनाके लिये एक- वहाँ हिन्दी को १० फीसदी बो मिलेगा, साथ ही..
एक लाख रुपया दे। और छोटे प्रान्त पचास-पचास फीसदी से भाधा, १५ फीसदी भाग और भी मिलेगा। हजार रुपये दे। भोपाल अमेर प्रादि और भी कोटे (४) हर एक भाषा साहित्यकी जांच उस भाषाके क्षेत्र में प्रान्त और भी कम दें। एक लाख रुपया केन्द्रीय ही हो। और हिन्दी साहित्यकी जांचका केन्द्र केन्दीय सरकार दे।
सरकारका स्थान हो। (१२) इस रकमका चालीस प्रतिशत माग पुरस्कारके लिये (1) इस योजनाकी सफलता इस बात पर निर्भर है कि और ६० प्रतिशत भाग पुस्तक खरीदने के लिये रक्खा
निरीक्षक लोग या अधिकारी लोग बिलकुल निष्पक्ष जाय।
हो । भाई भतीजावाद रिश्वतखोरी या सिफारिशका ३३ केन्द्रीय सरकारकी रकम प्राधी हिन्दीके लिये और
जोर इसमें घुमा कि योजना बरबाद हई। सिई माधी अन्य सभी प्रान्तीय भाषाओंके लिये खर्च हो
साहित्यको रप्टिसे ही यह जांच होनी चाहिये । लेखकऔर प्रान्तीय सरकारकी रकम दस फीसदी हिन्दी
का व्यक्तित्व उसके विचार या दन, या लेखक प्रकाऔर • फीसदी प्रान्तीय भाषाके साहित्यके लिए
शाकके वैयक्तिक सम्बन्धोंका विचार उसमें न माणा सई की जाय।
चाहिये। इस हिसाबसे जिन प्रान्तोंकी भाषा हिन्दी है उनकी साहित्य पुरस्कारकी योजनाओंसे हमें अच्छे साहित्यका तो सब रकम हिन्दी साहित्यके लिये ही जायगी । पर निर्माण करना है, उसका प्रचार कराना है और लेखकोंको जिन प्रान्तांकी भाषा दूसरी है उनकी रकम है. फोसदी यथाशक्य आर्थिक न्याय देना है। -मंगम' से
हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
( गत किरण १० से आगे) (पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
औरंगाबादसे ५ बजे चल कर हमलोग 'एलोरा' तब देखने पर ऐसा जान पड़ा कि हम लोग दिव्य लोकमें आये। पलोग एक प्राचीन स्थान है। इसका प्राचीन नाम मा गए । पहाड़को काटकर पोला कर दिया गया है । गुफाओं'इलापुर' या एलापुर था। अाजकल यहां पर 'एलापुर' नाम- में अन्धेरा नहीं है, पर्वतके छोटेसे दरवाजेके अन्दर आलीशान का छोटा सा गांव है । यह राष्ट्रकूट राजाओंका प्रमुख नगर महल और मन्दिर बने हुए हैं। उनमें शिल्प तथा चित्रण रहा है। उस समय उसका वैभव अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा कलाके नमूने दर्शनीय हैं। एक ही पाषाण-स्तम्भ पर हजारों हा था । इस स्थानकी सबसे बड़ी विशेषता यह है यहां मन वजन वाला पाषाणमय उत्तुगगिरि अवस्थित है। कहा पर जन यौद्ध और हिन्दुओंकी प्राचीन संस्कृतियोंकी कलापूर्ण जाता है कि इस कैलाश भवन (शिव मंदिर को राष्ट्रकूट अनूठी कृतियां पाई जाती हैं, जिन्हें देखकर दर्शकका चित्त राजा कृष्णराज (प्रथम) ने बनवाया था। यह राजा शिवका भानन्द-विभोर हो उठता है, और वह अपने पूर्वजोंकी गौरव- भक्र था। इसने और भी अनेक मन्दिर बनवाए थे, पर उन गरिमाका उत्प्रेक्षण करता हुआ नहीं थकता।
सबमें उन कैलाश मन्दिर ही अपनी कलात्मक कारीगरीके सबसे पहले हमलोग कैलाशमन्दिरके द्वारसे भीवर धुसे, लिये प्रसिद्ध है। शक सम्बत् ११४ (वि० सं० २६) की
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अनेकान्त
[किरण १२
इस राजाकी एक प्रशस्ति भी मिली है।
जिसकी वासनक बिना ऊँचाई १५ फुटके लगभग है जो अब इसके बाद हम लोग जैन गुफाओंको देखने के लिए गए। गिर गया है। एक सुन्दर स्तम्भ२७फुटकी ऊँचाईको लिए हुए नगुफाएँ उन कैलाशमन्दिरसे उत्तरकी ओर दो मीलके है, उसके ऊपर चतुर्मुख प्रतिमाविराजमान थी जो अब धरा•शब दूर होंगी। बाहर लारी, स्टेशनबैंगन और कार आदि शायी हो गई है। यहां 4 अन्यत्र कमरके भीतर बेदी पर खडी करके हमलोग अन्य गुफाओंको देखते हुए नं.३० की चारों दिशाओं में भगवान महावीरकी प्रतिमाएँ उत्कीर्णित हैं गुपामें पहुंचे। उससे बगलवाली गुफा नं० २६ भी जैन ही दूसरे कमरमें भगवान महावीरकी मूर्ति सिहासन पर विराजजानपड़ती है क्योंकि उसमें ऐसे कोई चिन्ह विशेष नहीं मान है, उनके सामने धर्मचक्र भी बना हुआ है। इसीमें आन पदे जिनसे उसे जैन गुफा होनेसे इन्कार किया पिछली दीवालके सहारे इन्द्रकी एक मूर्ति बनी हुई है। जासके। नं. ३० से ३४ तक की सभी गुफाएँ जैन हैं। उससे पश्चिमकी और इन्द्राणीकी सुन्दर मृति अंकित है, ये गुफाएँ बहुत ही विस्तृत और सुन्दर हैं, इनमें मनोहर वह श्रासन पर बैठी हुई है और अनेक आभूषणोंस अलंकृत दि. जैन प्रतिमाएं विराजमान हैं। इनके तोरणद्वार, स्तम्भ है। यहांसे ही अन्य छोटे-छोटे कमरों में जाना होता है, महराव तथा छतें बड़ी ही सुन्दर बनी हुई हैं जिनमें शिल्प- जिनमें भी तीर्थकर मूर्तियाँ अंकित हैं। कलाका अनुपमकार्य दिखलाया गया है। इन गुफाओं में इन्द्रमभाक पश्चिम मध्यके कमरेमें दक्षिण दीवाल पर 4.३३ की 'इन्द्रसभा' नामकी गुफा कैलाशगुफाके समान श्रीपार्श्वनाथकी मूर्ति अंकित है और सामने गोम्मटेश्वर हैं। ही मध्यमें दो खन की है। यह एक विशाल मन्दिर है जो दीवालके पीछे इन्द्र इन्द्राणी और मन्दिरके भीतर भगवान पहारको काटकर बनाया गया है। इसमें प्रवेश करते ही महावीरकी मूर्ति मिहामन पर विराजमान है, तथा नीची बोटी सी गुफामें रंगविरंगी चित्रकलाकी छायामात्र अवशिष्ट हाल में प्रवेश करते ही मामने बरामदेक बाई ओर दो बड़ा है। कहा जाता है कि वहां ततइयोंने छत्ता लगा लिया था, मूर्तियां अवस्थित हैं। जिनमें एक मूनि मोलहवें तीर्थकर उन्हें उड़ानेके लिए आग जलाई गई, जिससे चित्रकलामें शांतिनाथ की है, जिस पर पाठवीं नौवीं शताब्दी अक्षरों में कालिमा श्रा गई है। और भी छोटी गुफाएँ है। गुफाका 'श्री माहिल ब्रह्मचारिणा शान्तिभट्टारक प्रतिमयार' नाम मुंह दक्षिणकी ओर है। सभाके बाहर एक छोटापा कमरा का लेंग्व उकाणित है. जिसमे मान्नम होता है कि शांतिनाथभी है। यह इन्द्र सभा दो भागोंमें विभक है । उसका एक की इस मूर्तिका निर्माण ब्रह्मचारी मोहिलन किया है । इसक भाग इन्द्रगुफा और दूसरा भाग जगन्नाथगुफाके नामसे श्रागे एक मन्दिर और है जिसमें एक स्तम्भ है जिसपर उल्लेखित किया जाता है।
'श्रीनागवर्पकृता प्रतिमा' लिग्या हुआ है। इन्द्रगुफाका विशाल मण्डप चार विशालस्तम्भों पर दूसरी जगन्नाथ गुफा, जो इन्द्रसभाक समीप है। इसकी अवस्थित है। सभा मंडपकी उत्तरीय दीवारके किनारे पर रचना प्रायः विनष्ट हो चुकी है। नीचंकी और इसमें एक भगवान पार्श्वनाथकी विशाल दि. जैन प्रतिमा विराजमान है. कमरा है जिसकी ऊँचाई १३ फुटक लगभग होगी, उसकी उनके शीशपर ससफणवाला मुकुट शोभायमान है। इसीके छत चार स्तम्भों पर अवस्थित है। सामने एक बरामदा है दक्षिण पार्श्व में ध्यानस्थ बाहुबलीकी एक सुन्दर खड्गासन
और भीत पर दो चोकोर स्तम्भ हैं, दो स्तम्भ बरामदे से मूर्ति विराजमान है, माधवी लताएँ जिनके शरीर पर चढ़ रही
कमरेको अलग करते हैं जिसमें दो वेदियों बनी हुई हैं बाई हैं और भक्तजन पूजन कर रहे हैं । परन्तु मूर्ति परम ध्यान
ओर भगवान पार्श्वनाथ सप्तफण और चमरेन्द्रादि सहित की गम्भीर प्राकृतिको लिए हुए है, और उसकी निश्चल
विराजमान हैं : और दहिनी ओर श्री गोम्मटस्वामी हैं। एवं निरीहवृत्ति दर्शकके मनको आकृष्ट करती हुई मानों
अन्यत्र ६ पभासन तीर्थकरमूर्तियाँ उ कीर्णित हैं । बरामदेमें जगतकी आसार वृत्तिका अभिव्यंजन कर रही है। सभाके
बाई तरफ इन्द्र और दाहिनी ओर इन्द्राणी है । इसके बादकमरेकी लम्बाई दक्षिण उत्तर ५६ फुट और पूर्व पश्चिममें के एक कमरेमें पद्मासनस्थ भगवान महावीरकी मूर्तिहै । जग15 फुटके करीब है। इसमें दाहिनी ओर एक हाथी है
बाथसभाके बाई ओर एक छोटा सा हाल है, उसमें एक कोठरी बायस
है जिसके बाहं तरफ पासकी गुफामें जानेका मार्ग है। इस सभा.देखो, एपिग्राफिया हरिखका भाग ५ पृष्ठ ११५ की दूसरी ओर दो छोटे मंदिर हैं जिनमें चित्रकारी अंकित है।
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किरा १२]
इस गुफा कुछ स्तम्भों पर पुरानी कनादीके कुछ लेख उत्कीर्ण हैं जिनका समय मन्य०० से ८५० तकका बतलाया जाता है। ३४वीं गुफाका बरामदा नष्ट हो गया है इसमें एक विशाल हाल है भीतों पर सुन्दर चित्रकारी अंकित है।
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इन गुफाओंकी पहाड़ीकी दूसरी ओर कुछ ऊपर जाकर एक मंदिर में भगवान पार्श्वनाथकी बहुत बड़ी मूर्ति है जो १६ फुट ऊँची है उसके आसन पर सं० ११५६ फागुन सुदि भीजका एक लेख भी अंकित है। जिसमें उन समय श्री व मानपुर निवासी रेगुगी पुत्र गेलुजी और पत्नी स्वर्णाले चक्रेश्वर आदि चार पुत्र थे, उसने चारणोंसे निवासित इस पहाडी पर पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई।
छोटे कैलाम नामकी गुफामें जिसे जैनियोंकी पहली गुफा बतलाई जाती है । उसका हाल ३६ फुट चौकोर है इसमें १६ स्तम्भ है। कहा जाता है कि यहां खुदाई करने पर शक सम्वत ११६१ की कुछ मूर्तियां मिली थीं ।
एलोराकी गुफाओं मानव कदकी एक प्रतिमा अम्बिकाकी अंकित है, जो संभवतः नोमी दशवीं सदी की जान पड़ती है। उसके मस्तक पर श्राम्रवृत्तकी सघन छाया पड़ रही है। देवी की मुख्य मूर्तिके शिर पर एक छोटी सी पद्मासन प्रतिमा है जो भगवान नेमिनाथ की है। इस मूर्तिकी रचनामें शिल्पीने प्रकृतिके साथ जो सामंजस्य स्थापित करनेका प्रयत्न किया है, वह दर्शनीय है। देवीके हम रूपका टल्लेख ग्रन्थोंमें मिलता है ।
हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण
एलोरा चलकर हम लोगोंने जलगांव खरपूसंत वगैरह खरीदे और फिर अजन्ता पहुँचे, उस समय १ ॥ बज चुका था, धूप तेज पड रही थी। फिर भी हम लोगोंना की प्रसिद्ध उन बी गुफाओंको देखा। अजंगाकी गुफा बड़ी सुन्दर हैं, इनमें चित्रकारी अब भी सुन्दर रूपमें विद्यमान है। सरकार उनके संरक्षण में मावधान है। वहां पर बिजलीकी लाईट के प्रकाशमें हम लोगोंने उन चित्रोंको देखा, और घूम फिर कर सभी गुफाएँ देखीं, कुछ में सुधार हो रहा था और कुछ नई बन रही थीं। एक गुफा में बुद्धकेपरि निर्वाणकी 'मृत्यु अवस्थाकी' सुन्दर विशाल मूर्ति है। जिसे देखकर कुछ लोग शोकपूर्ण अवस्थामें हैं और कुछ हंस रहे * सव्येक पतियंकर सुतं प्रीत्यै करे वित दिव्याग्रस्तवकं शुभंकरकरशिलाप्टान्य हस्तांगुलीम् । सिंहे भर्तृश्वरे स्थितां हरितमामाखच्ायां । बन्या दशकामु कोच्छ्रयजनं देवीमा बजे
[ ३७६
हैं, यह दृश्य अंकित है, यहां बुद्धकी कुछ मूर्तियां ऐसी भी पाई जाती हैं जो पद्मासन जिनप्रतिमाके बिलकुल सहश हैं । जिन पर फण बना हुआ है। वह मूर्ति पार्श्वनाथ जैसी प्रतीत होती है। चित्रोंमें अधिकांश चित्र बुद्धके जीवनसे सम्बन्ध रखते हैं और अन्य घटनाओंके चित्र भी अंकित हैं उन सबको समझने के लिए काफी समय चाहिए। इनमें कई गुफाएं बड़ी सुन्दर और विशाल हैं। जो दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। कुछ मूर्तियां भी चित्ताकर्षक धीर कलापूर्ण हैं।
1
अजंता से चलकर पुनः जलगांव होते हुए हम लोग पाँच बजे शामको जामनेर आए, और यहां जल्दी ही भोजनादिकी व्यवस्था निमट कर यहांके श्वेताम्बर जैन सेट राजमलजी के बंगलेपर टहरे । रात्रि सानंद विताई और प्रातः जिन दर्शन पूजनकर आवश्यक क्रियाओस मुक्र होकर 11 बजेके करीब हम यहां धूलिया ओर रवाना हुए। और ला० राजकृष्णाजी सपरिवार और मुख्तार साहय तथा सेठ ददामीलालजी कौरह बुरहानपुर होते हुए मुनागिरकी तरफ चले गए ।
११
हम लोग ४ बजेके करीब धूलिया पहुँचे और वहाँ शामका भोजन कर ६० मील 'मांगीतु ंगी' के दर्शनार्थ गए और रातको १ बजे करीब पहुॅचे। यहां दो पहाड़ है मांगी और तुंगी । निर्वाण काण्डकी निम्न गाथामें इसे सिद्ध क्षेत्र बतलाया है
रामहणू सुग्गीओ ग गयाक्खो व शीलमहणीलो । वणवदी कोडीओ मुंगीगिरिब्बुदे बंदे ॥
इस गाथामें इस क्षेत्रका नाम 'तु' गीगिर' सूचित किया है न कि मांगी तुरंगी । पूज्यपाद की संस्कृत निर्वाणभक्रिमें 'तु'ग्यां तु मंगतो बलभद्र नामा' वाक्यमें इसे तुरंगीगिर ही बतलाया है साथही उसमें बलभद्रको मुक्तिका विधान है प्राकृत गाथाकी तरह अन्यका कोई उल्लेख नहीं है। ऐसी स्थितिमें यह बात विचारणीय है कि इस पहाड़का नाम 'मांगी तुंगी' क्यों पदा ? जबकि मालसागरजीने बोधपादुरकी २० मं०की गाधाकी टीकामें तीर्थक्षेत्रों के नामोल्लेखमें 'ग्राभीरदेश तुरंगीगिरी' ऐसा उल्लेख किया है जिसमें तुरंगीगिरकी अवस्थिति श्राभीरदेशमें बतलाई है। बचभद्र ( रामचंद्र ) का कोट शिलापरकी केवलोत्पत्तिका उल्लेख तो मिलता है, परंतु निर्वाणका उल्लेख अभीतक मेरे देखनेमें नहीं आया। इस क्षेत्रका मांगीतु गीनाम कब पड़ा यह अभी विचारणीय है। मांगी पर्वतकी शिखर पर चढ़ते हुए मध्यमे सीताका स्थान बना दिया है, जहां पर सीताक
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३८.]
अनेकान्त
[किरण १२
भक्तिभावसे अर्ध चढ़ाया जाता है । समझमें नहीं आता कि रेवा तडम्मि तीरे सम्भवणाहस्स केवलुप्पत्ति । भक जनतामें इस प्रकारकी नई रूदी कहां से प्रचलित हुई। मांगी पाहुद्दय कोडीओ णिवाणगया णमो तेमि ॥ शिखरमें अनेक गुफाएँ और तीन सौ से ऊपर प्रतिमाएं और संस्कृत सिद्धभक्रिमें भी 'वरसिद्धकूटे' नामसे उल्नेग्व चरण हैं। यहां अनेक साधुओं और भहारकोंकी भी मूर्तियाँ मिलता है। ब्रह्म श्रुतसागरने भी सिद्धवरकूटका उल्लंग्य किया उत्कोर्णित हैं जिनके पास पीछी और कमण्डलु भी उत्कीर्णित है। यह मोरटक्का स्टेशनसे ७ मोल बडवाहसे ६ मील और है। और पास हीमें उनके नाम भी अंकित हैं। जिनमें भट्टा- सनावदसे पाठ मील दूर है । सिद्धवरकूटको जानेके लिए रक सकल कीर्ति, और शुभचन्द्रादिके नाम स्पष्ट पढ़े जाते नर्वदा नदीको पार करना पड़ता है। धर्मशालाओं में ठहरनेहैं। एक शिलालेखमें संवत् १४४३ भी अंकित था। यहांपर की उचित व्यवस्था है। प्राचीन मंदिर जीर्ण हो जानेसे सं.१९शिलालेख नोट करनेकी इच्छा थी, परन्तु जल्दोके कारण नोट ५१ माघवदी १५ को जीर्णोद्धार कराया गया है। तीनों नहीं कर सका। इससे पुराने कोई उल्लेख मेरे देखनेमें नहीं मन्दिरोमें सम्भवनाथ चन्द्रप्रभ और पाश्र्वनाथकी प्रतिमाएँ भाग, और न राम हनुमानादिकी तपश्चर्यादिके कोई प्राचीन मूलनायकके रूपमें विराजमान हैं। सिद्धवरकूटका प्राचीन स्थल उल्लेख ही अवलोकनमें पाये ।
कहां था यह अभी विचारणीय है पर सिद्धवरकूट नामका एक तुगीगिर बलभद्रका मुक्तिस्थान माना जाता है। इसमें तीर्थ नर्वदानदीक किनारे अवश्य था। यह वही है इसे अन्य २-३ गुफाएँ उत्कीणित हैं। मूलनायकककी प्रतिमा चन्द्रप्रभ प्राचीन प्रमाणोंक द्वारा सिद्ध करनेकी आवश्यकता है।
नवीन वर्तमान क्षेत्रका प्राचीन क्षेत्रसे क्या कुछ सम्बन्ध रहा है, चारों ओर उत्कीर्ण की हुई हैं। सामने पानीका एक कुण्ड इस बातका भी अन्वेषण होना आवश्यक है। मिद्धवरकूटस भी है। इसकी चढ़ाई बहुन कठिन थी, जरा फिसले कि हम पुनः इन्दौर पाए। जीवन खतरेसे खाली नहीं था। सेठ ग़जराजजी गंगवालके
जानी वा इन्दौर होलकर स्टेटकी राजधानी है। शहर अच्छा है. सत् प्रयत्नसे वहां मीदियोंका निर्माण किया जारहा है। यहाँ जनियोंकी अच्छी वस्ती है । पर सेठ मचन्द्रजीका
निवासस्थान है। जंबरीबागमें पार्श्वनाथ चैत्यालय है मयानीचे मन्दिर व धर्मशालाएँ हैं जिनमें यात्रियोंके ठहरने की व्यवस्था है। पासही में एक नदी बहती है। मांगी-तुगी
गिता गंजमें पंचायती मन्दिर और गेंदालालजी ट्रस्टका
मंदिर है। पलासिया आगरा यम्बट रोड पर से चल कर धूलिया पुनः वापिस पाए । और ५ बजे चलकर
शरामल
मो.नीलालजीका चल्यालय है । तुकागजमें उदासीन याश्रम, मउ छावनी होते हुए १ बजे के करीब दुपहरको इंदौर आए।
इन्द्रभवन चन्यालय, शान्तिनाथ जिनालग, अनूप भवनऔर सर सेठ हुकमचन्द्रजीकी धर्मशाला जंबरी बागमें ठहरे। जहां पर अगले दिन सवेरे ला० राजकृष्णजी और मुरू ारसाहब
चैत्यालय, तिलोकभवन चैत्यालय और कमलविध चैत्यालय
है। स्नहजतागंजमें-शंकरलालजी वाशलीवाल का चन्यामुनागिरक ५१ मन्दिरों तथा सिद्ध वरकूटक मन्दिरोंकी यात्रा करते हुए इंदौरमें आये और हम लोग इंदौरसे ५६ मील
लय है। परदेशीपुरम गुलाबचन्द्रजीका चैत्यालय, राजा
वाडामें मानिकचौकमन्दिर, नरसिंहपुरा मन्दिर, शक्कर सिद्धवरकूटको यात्रार्थ पाए। निर्वाणकांडकी गाथामें उमः। उल्लेख निम्नप्रकार है:
बाजारमं मारवाड़ी गोठका आदिनाथ जिनालय है, इस मंदिर
में अच्छा शास्त्र भंडार है। तेरापंथी मंदिर और चिमनराम रेवा गइए तीर पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूटे ।
जुहारुमलजीका पार्श्वनाथ जिनालय है। और दातवारिया दो चक्की दहकप्पे पाहुट्टयकोडि णिच्युदे वंदे॥
बाजारमें शान्तिमाथ भगवानका वह प्रसिद्ध कांचका मन्दिर है, परन्तु कुछ अन्य प्रतियोंमें उन गाथाकी बजाय निम्न दो जिस दखनेक लिये विविध देशांक व्याक प्रतिवर्ष श्राया करत गाया उपलब्ध होती हैं जिनमें द्वितीय गाथा पूर्वार्धमें संभव- हैं। यह मन्दिर अपनी कलाकं लिए प्रसिद्ध है | मल्हारगंजमायकी केवलुप्पुत्तिका उल्लेख किया गया है जो अन्यत्र उप- में रामासाका प्राचीन मन्दिर है। संभवनाथका एक चैत्यालय बन्ध नहीं होता
वीस पंथियोंका है और मोदीजीकी नशियां इस तरह इंदौररेवा तम्मितीरे दक्खिणभायम्मि सिद्धवरकूटे ।
का यह स्थान व्यापारका केन्द्र होते हुए भी धार्मिकताका पाहुदय कोडीओ णिवाणगया यमो तसि ॥ केन्द्र बना हुआ है।
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किरण १२]
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
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इन्दौरसे १४ मील चलकर मक्सीपार्श्वनाथ पाये । यहाँ मन्दिर नं. १६ राजा खेडा वालोंका-१-'संवत लारीसे सामान उतरवाने श्रादिमें काफी परेशानी उठानी १२१३ गोलापल्ली वसे मा० साबू मोदो, माधू श्री लल्लू पडी । यहां चोरीका भी डर रहता है। इस क्षेत्रको दिगम्बर भार्या जिणा तयो सुत साबृ दील्हा भार्या पल्हासरु जिननार्थ श्वेताम्बर दोनों ही मानते हैं। दोनोंकी धर्मशालाएँ हैं तथा सविनय प्रणमंति ।' दो दिगम्बर मन्दिर और भी हैं। प्राचीन मन्दिर सिर्फ एक २-संवत १६४३ वर्षे श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे ही है जिसमें भगवान पार्श्वनाथकी एक श्याम वर्ण २॥ फुट बलात्कारगणे | श्री ] चारुणंदोदेव नदन्वये श्रीगोलाराडान्वये ऊँची चित्ताकर्षक मूर्ति विगजमान है, मूलनायक मन्दिरके सा० नावे भार्या कवल, पुत्र नगउ गोल्लासुत सेठ चलाती चारों ओर ५२ देवकुलकाएँ भी बनी हुई हैं। उनमें जो प्रति- नित्यं प्रणमंति।" माएँ विराजमान है उनकी चरणचौकी पर मूलमंघ भट्टारक...
मुख्नार माहब और मैंने वर्तमान भट्टारकजीका शास्त्र शाहजीवराज पापडीचाल सं० १५४८ वैसाखवदी ६ अंकित
भण्डार भी दखा, इसके लिये हम उनके प्राभारी हैं। है। सबसे पहले पूजन प्रक्षाल दिगम्बर करते हैं, उसके बाद
समयाभावसे हम लोगोंने कुछ थोडेस ग्रन्थ ही देख पाये थे, श्वेताम्बर करते हैं। हम लोग पूजनादि करके ग्वालियर
जिनमें भ. अमरकीर्तिका मं० १२४४ कारचा हुश्रा नेमिनाथ थागरा रोड पर चले, और बावरामें मध्यभारतका टैक्स देकर
चरित्रकी कुछ प्रशस्ति नोट की। यह ग्रन्थ इमी भण्डार तथा पैट्रोल लेकर एक बागमें भोजनादिक श्रावश्यक क्रियाओं
में प्राप्त हुया है, अन्यत्र उसके अस्तित्वका पता नहीं से मुक्त होकर रातको ८ बजे शिवपुरी पहुँचे।
चलता। पं० श्राशाधरजी के सहस्रनामकी स्वोपज्ञ टीका, शिवपुरीमें रात्रि में विश्राम कर तथा प्रातःकाल दर्शनपूज- और श्रनमागरमरिकी टीकाकी एक प्रति सं० १५७० की लिम्बी नादि कार्योको सम्पम कर नथा भोजनादि कर सोनागिरित लिए हई यहाँ मौजद है। शेष भंडारको अवकाश मिलने पर रवाना हुए, और ३॥ बजे के लगभग मोनागिरि आय । धर्म- दग्वनेका यत्न किया जावेगा। शाला में सामान लगाकर यात्राको जानका विचार किया,
नाशि चलकर वालियर आये और धर्मशालाम परन्तु शारीरिक हरारत होनस जानेको जी नहीं
गत्रि व्यतीतकर प्रातःकाल दर्शनकर धौलपुर होते हुए प्रागरा करता था, फिर भी मुग्टतार माहबके साथ पहाडकी
थाये और वहां एक बागमें भोजनादि बना ग्वाकर श्राचार्य सानन्द यात्रा की । मोनागिर पहाड़क मन्दिर भृतियों में
वीरसागरजीक दर्शनार्थ बेलनगंजक मन्दिरमें गए और समुचित सुधार हुआ है, पहाड पर राम्ना अच्छा हो गया है
दर्शनकर अलीगढ, पुर्जा गाजियागत होकर राग्रिको एक सफाई भी है । रात्रिमें तबियत खराब रही। परन्तु प्रातः
बज दहली सानन्द वापिस आ गये। ता. १६-५-१४ काल उठकर मुख्तार साहबक साथ नीचक मन्दिगेंक दर्शन किये । भट्टारकीय मन्दिरों दर्शन करने ममय कई मनियों ® दवा, अनकान्त वर्ष ११ किरण १२ में प्रकाशित प्राचीन से व लेनेका विचार पाया और एक दो मृतिलच 'अपनश भाषाका नेमिनाथ चरित' नामका लेख, भी नोट किये । जिस दो नमून नीचे दिये जाने हैं :
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अत्यावश्यक वर्णी सन्देश
संसारमें अभिलषित कार्यकी सिद्धि होना प्रायः भोजनकी व्यवस्था पृथक् हो। वे दिनमें स्वच्छा पूर्वक असंभव है। मेरे मनमें निरन्तर यह भावना बहुत कार्य करें । रात्रिमें आपसमें जो कार्य दिनमें करें कालसे रहती है । कि प्राचीन जैनसाहित्यका उस पर ऊहापोह करें। यह कार्य १० वर्ष तक निर्वाध संग्रह किया जाय । उसके लिए चार विद्वानोंको चले । इसके बाद प्रत्येक विद्वानको दस दस हजार रखा जाय । उनको निःशल्य कर दिया जाय। रुपये दिए जांय अथवा १ वर्ष २ वर्ष आदि तक र्याद कार्य कोई चिन्ता उन्हें न रहे। वर्तमानमें उन्हें २५०) करके पृथक होवे तब उतने ही हजार रुपये दिए जाय । रुपया मासिक कुटुम्ब व्ययका दिया जाय तथा उनके इसके बाद र्याद वे चाहें तो अन्य विद्वानोंको यह
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अनेकान्त
[किरण१२
कला सिखा देवें । व्यवस्था जैसी बन जाए समय बत- पर्याय भरमें बड़े ही अद्भुत कार्य किए हैं। जो जो लाएगा।
प्रण किए उन्हें अपने ही समक्ष पूर्ण किए। इस ८० इसके खर्च के लिये--४००००) रुपया तो ४- वर्षकी वृद्धावस्था में सर्व दिशाओंकी यात्रा समाप्त कर विद्वानोंको अन्तमें देना । १०००) रुपया मासिक भेंट, सागरसे अन्तिम यात्रा ७०० मीलकी क्रमशः ५ मील २५०) भोजन व्यय व २५०) लेखक आदिके लिये। प्रति दिन चल कर पूर्ण की, और इस निर्वाण पुरीइस तरह कुल १५०० एक माहका। दस वर्षका को ऐश्वर्य अन्वित कर केवल्यके ध्येयसे अपनेको ईसरी २२००००) इतने में यह प्राचीन जैन साहित्यका उद्धार में ही अचल बनाया । आज महाराजके मुखारबिन्दसे कार्य हो सकता है। यदि सागर प्रान्त चाहता तो सह
जो अमृत वर्षा हुई वह इस प्रकार हैजमें यह कार्य हो सकता था कोई कठिन बान न थी। शीरके वेगोंको रोकनेसे कोई लाभ नहीं । भूखकी परन्तु हम स्वयं इतने कायर रहे जो स्वयं अपने अभि- बाधा होगी। तब एक दिन नहीं सहोगे दो दिन नहीं प्रायको पूर्ण न कर सके । अव पश्चातापसे क्या लाभ, सहागे अन्त में खाना ही होगा। इसी तरह निद्रा है अब तो वृद्ध हो गए । चलनेमें असमर्थ बोलने में कब तक नहीं सोवोगे अन्त में सोना ही पड़ेगा। हाँ असमर्थ लिखने में असमर्थ । यह सब होकर भी आत्माके वेगांको रोका। क्रोधादिको छोड़ो। यदि क्रोध भावना वही है जो पूर्वमें थी। अब तो श्री पार्श्वदेवके न करोगे तो काम चल जाएगा। शान्ति क्षमा आदिसे निर्वाण क्षेत्र में पहुँच गये हैं। क्या होगा प्रभु जाने। जीवन व्यतीत होगा। इससे ही आनन्द होता है ! यह इस कार्यके योग्य क्षेत्र पार्श्व जन्म नगरी वाराणसी ही स्वानुभव प्रत्यक्ष है। स्वाध्याय करो लक्ष्य संवर निर्जराउपयुक्त है। यदि किसीके मनमें यह आवे तब इस का रखो । केवल ज्ञानवृद्धिका नहीं। ज्ञान तो स्वभाव कायको बनारस में ही प्रारम्भ करें।
ही है। कम हो या ज्यादा आशा रहित करो । इसी मैंने अब क्षेत्रन्यास कर लिया। यदि क्षेत्रन्यास
तरह सब काम ताव आने पर होते हैं। जैसे रोटी न किया होता तो अवश्य एक बार उस प्रांतमें जाता
सेंकनेका ताव । कड़ाईका ताव विद्यार्थीको परीक्षाका और एक वर्षमें ही इस कार्यकी व्यवस्था पूर्ण करवा
ताव । दुकानदारको विक्रीका ताव । आपका नरभवका लेता। ऐसे कई महानुभाव थे, पर अब वह बात दूर
ताव आया । इसालिए तैयार हो जाओ कुछ न कुछ हो गई । अब तो पार्श्वप्रभुके चरणों में कालपूर्ण कर
छोटी सी प्रतिज्ञा करो उसमें भंग होनेका भय न जन्मान्तरमें इस विकासको देखगा। यह मेरा भाव
करो। भंग होन पर सावधानीसे प्रतिज्ञाको सम्भालो। था सो व्यक्त करके निःशल्य हुआ।
एक बार नरभवको इसी अज्ञान रागादि निवारणमें अब मैंने १ मासमें एक बार पत्र देनेका नियम
लगादा आदि। किया है। अतः कोई भाई पत्र व्यवहार न करे. जो . श्री वर्णी जीने यह भी मंकेत किया कि प्राचीन भाई वा बहिन जिन्हें धर्म-साधनकी इच्छा हो वे निः जनसाहित्यका संग्रह कार्य बनारसमें होगा। तदर्थ शल्य होकर यहाँ धर्म साधन करें। यहाँ समागम एक मकान होना चाहिये। जिसके लिये ४००००) ब्रह्मचारी श्री सुरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता वालोंका उत्तम तथा उसको सुशोभित करनेके लिए ४००००) केथों है। तथा समय समय पर श्रीमान प्यारेलालजी भगत की आवश्यकता होगी। इस तरह सब मिला कर जो कि विशिष्ट विद्वान तथा त्यागी हैं उनका भी समा- ३०००००) की जरूरत है। एक हजारके ३०० सदस्य गम रहता है।
बन जाय तो सहजमें यह यह कार्य हो जाय । जिनईसरी आश्रम
शुभचिन्तक
वाणीकी सेवाके लिए अपने द्रव्यका सदुपयोग करनेका वैशाख बदी २ सं० २०११
गणेश वर्णी मुभवसर है। नोट:-परम धार्मिक बन्धुओंको सूचित करते हुए
गुरुमक सन्देश प्रकाशकहर्ष हो रहा है कि महाराज श्रीवर्णीजीने अपनी
शिखरचन्द्र जैन
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धवलादि सिद्धान्त-ग्रन्थोंका उद्धार
POST
[अभी पिछले दिनों मृडबद्री में सिद्धान्त ग्रन्थोंके फोटो वीरसेवामन्दिरकी ओरसे लिए गये थे। उसका समाचार गतांकमें दिया जा चका है। उसका विस्तृत समाचार पाठकों की जानकारीके लिये विवेकाभ्युदयसे अनुवादित करके दिया जा रहा है। सम्पादक]
मूडबिद्री में गुरुवमदि(सिम्त यसदि) में विराज- अबलाकी एक एक प्रतियाँ है। प्रतियाँ अधिक प्राचीन मान श्री धवला, जयधवला और महावना तीनों ही जानेके कारण जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। उपयुक सिदाम्त प्रन्थ जैन अन्य रचनामें प्रथम तथा महत्वपूर्ण धवलाकी तीन प्रतियों में से दो प्रतियाँ तो पूर्वतया जीर्ण महान ग्रन्थ राज है। इन महान प्रबोंके कारण ही यह एवं अपूर्ण रूपमें हैं। बसदि (मन्दिर) सिद्धान्त मन्दिर' अथवा 'सिद्धान्त बसदि मूडविदोके अतिरिक सम्पन्न अप्राप्य इन प्रन्योंकी के नामसे ---- -
जीर्ण-शीर्ण प्रसिद्ध है।
অষক न पवित्र
देखकर जैन ग्रंथाके दर्शनों
समाजमें के लिए भारतवर्षके
रस्नोंके उद्धार समस्त भागों
करनेकी से अनेक
चिता होने जैन यात्री
जगी। इसके प्रति वर्ष
জন্য এ पाते रहते
Adaai एक प्रकार सिद्धांतयों का परिचय
खन उत्पा पहले 'वीर
होने के कारण बायो' और
मृडवद्रों में लिया गया फोटो प्रप। 'विवेका- अगली लाइन वाई से दाई ओर-(६) पुट्टा स्वामी ऐडवोकेट संपादक विवेका- दानवीर मेड भ्युदयमादि भ्युदय मङ्गलौर (२) लाला राजकृष्णजी देहली (३) श्री १०५ स्वामी चारुकीर्ति जी माणिकचन्द पत्रिकाओं में महाराज भट्टारक मडबिद्री (8) श्री पदमराज जी सेठी मृडबिद्री
जी और में विस्तार रूप पीछे की लाइन-(१) श्री धर्मपाल जी सेठी वल्लाल (२)पं. चन्द्र राजेन्द्र जी हीराचन्दजी से दे दिया शास्त्री साहित्यालङ्कार (३) श्रीधर्म साम्राज्यजी मजालौर (४) बावृ छोटेलालजी जैन नेमचन्मजी गया है। कलकत्ता।
सोलापुरके पुनः उसे वहाँ देना उचित नहीं समझता हूँ। 'विवेका. सफल प्रयत्नमे सन १८१५ से १६२२ तक इन ग्रन्थोंकी म्युश्य' कार्यालयसे प्रकाशित 'ऐड कुसुम गलु' नामक एक एक देवनागरी और कमी लिपि में प्रतियाँ कराई पुस्तकमें भी इन अन्योंका संक्षिप्त परिचय दिया हुआ है। गई। देवनागरी प्रति श्री ब्रह्ममूरिकी शास्त्री मैसूर और
इन अन्धोंकी भाषा संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा है। श्री गजपतिजी शास्त्री मिरज द्वारा तथा काडी प्रति
न्य प्राचीन वारपत्रके अपर प्राचीन शिलालेखोंकी देवराज जी सेठी मूरविही, शांतप्प इन्द्र, नहाय्या इन्द्र तरह पुरानी काटो खिपियोंमें बासकी स्याहीसे पिसे गए तथा पं० नेमराजजी इद (श्री पारकोर्तिजी स्वामी) है। इनमें धवबाकी तीन प्रवियों और अवयवबा, महा- द्वारा लिखी गई। इस कार्य थिए माया बीस हजार रुपये
समाजमे
का आंदो
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३८४]
भनेकान्त
[किरण १२ खर्च हुए। इस प्रकार इन प्रन्योंका उद्धार प्रारम्भ हुआ। कर ( enlargement ) उसोको ताम्र शासनके
इसके पश्चात् श्रीमन्त सेठ जमीचन्दजी भेजसासे रूपमें करा कर मुहबिदीमें ही स्थापित किया जाय इस १२.००) बारह हजार रु. प्राप्त कर प्रो.हीरालालजी प्रकारका एक प्रस्ताव पास हुआ था जो पाठवें प्रस्तावके अमरावतीने प्रायः १६३६ में 'धवला' को सम्पादित कर नामसे प्रसिद्ध है। परन्तु अब तक यह प्रस्ताव कार्य रूपमें हिन्दी टीकाके साय १. भागों में प्रबग-अलग छपवा परिणत नहीं हुमा । फलतः इसी उद्देश्यकी पूर्ति करनेकी दिया। 'मयधनबा' के दो भाग भारतवर्षीय दिगम्बर सद्भावनासे प्रेरित होकर देहजीके प्रसिद्ध साहकार धर्मात्मा जैन संघ मथुराकी भोरसे जयधवना कार्यालय बनारससे बाला राजकृष्णाजी जैन बाबू छोटेबालजी कलकत्ता वाले प्रकाशित हो चुके है। महाबन्ध अथवा महाधवलाका प्रथम और पं० खूबचन्दजी शास्त्रीने प्रसिद फोटोग्राफर श्री भाग पं० सुमेरचन्द्र जी दिवाकर सिवनीके द्वारा सम्पादित
त मोतीरामजी जैन देशलीके साथ मुविद्री पाकर अपना होकर भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित हुया है। सद् उद्देश्य समझाया और ताडपत्रीय मूल प्रतियांका चित्र दूसरा नीसरा और चौथा भाग पं० सुमेरचन्दजी द्वारा लेकर उसे तात्र शासन में कराकर मूडविद्गीमें पुनः स्थापित सम्पादित होकर जिनवाणी रद्धारक संघकी ओरसे और
करनेका प्रतिज्ञापत्र भी गुरुवादिके ट्रस्टियोंके सामने भर ६. पूनचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा सम्पादित होकर
दिया गया। वह प्रतिज्ञापत्र इस प्रकार है
महाशयजी, भारतीय ज्ञानपीठ काशीने प्रकाशित हो रहे हैं। धवला
प्राचीन कालसे मूडबिद्रीके गुरुवदिम आप लोगोंकी और जयधवनाकी मुद्रसपतियोंको (प्रेस कासी)सरम्बती
देख रेखमं विराजमान ताडपत्रीय सिद्धान्त प्रन्योंकी छाया भूषण पं. लोकनायशी शास्त्री. सुमेरचन्द्रजी द्वारा
प्रतियों ( Photo) को लेकर उन्हें ताम्रशासन के रूपमें सम्पादित महाधवडाको मुद्रण प्रति ( प्रेस कापी) को
परिणत करनेकी अनुमति प्रदान करेंगे, हमें मापसे प्रेमी पंरित एम. चन्द्र राजेन्द्र शास्त्री साहित्यालंकारने ताड.
अपेक्षा है। हम प्रतिज्ञा करते है. उन ताम्र प्रतियोंको हम पत्रीय मूलप्रतिके साथ मिला कर शुद्ध करके दी है।
मूडबिद्रीके उसी गुरुवदिम स्थापित करेंगे। आप लोगों इस बीच इन धवलादि प्रन्योकी सुदीर्घ रताकी
को इस कार्यको अनुमति देकर बहुत बड़ी कृपा की है। पावश्यकताको समझ कर प्राचार्य प्रवर स्वस्ति श्री शांति.
उपयुक प्रतिज्ञा पत्र पाप लोगोंके द्वारा स्वीकृत होने सागर जी महामुमिके उपदेशसे श्रीमन्त तथा धार्मिक
पर हम उन प्रन्योंकी छाया प्रतियोंको लेने के अधिकारी हैं। लोगोंने 'धवला अन्यको देवनागरी (बालबोध ) लिपिमें
छोटेलाल जैन कलकत्ता, राजकृष्ण जैन दिल्ली वान शासन करवाया।
खूबचन्द जैन शास्त्री इन्दौर धार्मिक जनताका हृदय इतने में भी शान्त नहीं हुमा।
पंचोंकी प्रोरसे, श्री पद्मराज सेठी, श्री धर्मपाल सेठी ताडपत्रीय मूलप्रतियोंकी दिन दिन शिथिल होकर नष्ट हो
जैनागमकी रक्षाके इस पुनीत कार्य के लिए गुरुवसदिजानेकी चिन्ता अब भी बनी हुई है। इसके लिए पूज्य
के टूम्टियोंने सन्तोषसे अनुमति प्रदान की। इनके अतिरिक्त भाचार्य श्रीके मादेश पाकर उन शास्त्रोके उद्धारके लिए
श्री मंजण्या इंगदे धर्मस्थल, श्री एम. के. देवराज मंगलूर, स्थापित संघके कार्यदर्शी श्री बालचन्दजी देवचन्दजी शाह
पूज्य स्वामीजी मूडबिद्दी, श्रीजगत्पालजी. श्री पट्टन सेठी, बम्बईने मूरबिद्री जाकर समस्त प्रज्योंके फोटो लेकर
श्रीपराजी और भी बाल आदि स्थानीय और बाहरके उन्हें यथा स्थित ताम्र शासन कराने के उद्देश्यसे कुछ दिनों
महानुभावोंने इस कार्यकी प्रशंसा कर प्रोत्साहन दिया। के प्रमस्नसे फोटो कराकर ले गए । परन्तु वह कार्य भी
इन धवलादि अन्योंके फोटो लेनेका कार्य इसी महीने में तक किसी कारण रुका हुपा पड़ा है।
दिनांक से प्रारम्भ होकर : तक पूर्ण हुभा। उसके बाद बाहुवली स्वामाके महामस्तकाभिषेकके
अन्धोंके फोटो लेनेके कार्य में ६. के. मुजबली शास्त्री समय भवणबेलगोजमे भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा
" पं.चन्द्रराजेन्द्र शास्त्री, पं.मागराज जी शास्त्री, पं. का अधिवेशन हुमा । उसम मूडबिद्री में विराजमान भव
देव कुमारजी ने प्रादि महानुभावांने जो सहायता माधि प्रन्योंकी वारपत्रीय मूलतियाँ भीण-शीर्ण और परिजम लिया. इसके लिये हम भाभारी शिभित हो जाने के कारण उनका चित्र लेकर विस्तृत करा
-सम्पादक विवेकाम्युदय
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साहित्य परिचयं और समालोचन
१ वर्णीवाणी (द्वितीयभाग)-पंकलयिता और उपयोगी बन सके । इस पुस्तकको पढ़कर सभी साधारणजन सम्पदक विद्यार्थी नरेन्द्र प्रकाशक, श्रीगणेशप्रसाद वर्णी जैन- अपने जीवनको समुन्नत बनाने में समर्थ हो सकते हैं। लेखक ग्रंथ-माला भदैनीघाट, काशी । पृष्ठसंख्या ४४८ । मूल्य मजि- ने ग्रन्थमें जहां तहां संस्कृत मृत्रियोंको अपने ही शब्दोंमें रुद प्रतिका ४) रुपया।
रग्बनेका यत्न किया है। इस पुस्तक की प्रस्तावनाके लेखक .. प्रस्तत पुस्तकका विषय उसके नामसं ही स्पष्ट है। हीरालालजी शास्त्री कौशल हैं. पुस्तक पठनीय है इसके पूज्य वर्णीजी भारतक ही नहीं। किन्तु समस्त संमार अद्वि- लिये लेखक महानुभाव धन्यवादाह है। तीय महापुरुष हैं. उनका त्याग, तपश्चर्या, तथा प्रात्ममाधना, ३चन्दवाई अभिनन्दन प्रन्थ-सम्पादिका श्रीसुशीविवेकवनी प्रज्ञा, लोकोद्धारकी निर्मल भावना और उनकी ला देवी सुलतानमिह जैन, श्री. जयमालादेवी जिनेन्द्रकल्याणकारक वाणी जगतके जीवांका हित करने में समर्थ है। किशोर जैन दिल्ली। प्रकाशिका अ. भा. दि.जैन महिला
की पावन और मधुरवाणीको, जो समय समय पर उनके परिषद्, पृष्ठ संख्या लगभग ७०० । मूल्य १०) रुपया। द्वारी पत्रादिकॉमें लिखी गई,संकलन किया गया है। वह कि
ब्रह्मचारिणी चन्दाबाई जी इस शताब्दीकी सभ्रान्त कुलकी तनी मूल्यवान है इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं है, जिन्हों
ग्व्याति प्राप्त एक विदुषी जन महिला हैं। जिन्होंने महिलामके ने उनक आध्यात्मिक पत्रोंका अध्ययन किया है उनक भाषण
जागरणम्वरूप समाज-संवामें प्रमुख हाथ बटायों है। उन्होंने और प्रवचन सुन है वे उसक महत्वसे परिचित ही हैं। इस
समाजमें शिक्षा-पा हिन्य, पत्रकारिता तथा दूसरे लोकसेवाके पुस्तक में भाई नरेन्द्रजीने उनके प्रवचन, अभिलेख और दन
उपयोगी कार्योमें अपना माधनामय जीवनव्यतीत किया और न्दिनीक मारपूर्ण वाक्योंका सिलसिलवार यथास्थान संकलन
कर रही है। आपका व्यक्रिगत जीवन, बड़ा ही निस्पृह, कर दिया है। इस लिए वे धन्यवादके पात्र हैं । पुस्तकको
मीधा सादा रहन-सहन, त्याग और साधना स्पृहाकी वस्तु हैं। छपाई सफाई अच्छी है। प्रान्महितोंको उसे मंगाकर
चंपाराकी जनजागृतिकी तो उत्तम प्रतीक है ही। साथ ही अवश्य पढ़ना चाहिये।
चरित्र निष्ठा, सरल व्यवहार और गुणानुराग उनके जीवनके २ जीवन्धर-जेवक पं. अजितकुमार जी शास्त्री। महचर हैं। एसी महिला रत्नको उनकी संवानोंके उपलक्ष्यप्रकाशक मन्त्री श्री जैन सिद्धान्तग्रन्थमाला दि. जैन धर्म में अभिनन्दन ग्रन्थभेंट करनेका एक प्रस्ताव सन् ४८ ई. में शाला पहाडी धीरज, दहली । पृष्ठ संख्या ३१६ । मूल्य म- दहली में पास हुआ था । जो प्रागत अनेक विघ्नबाधामोको जिल्द प्रतिका दो रुपया।
पार करता हुआ पूर्ण होकर अपने वर्तमान रूपमें महावीर इस पुस्तकमें भगवान महावीरके समकालीन राजा जयन्तीक इस शुभअवसर पर दहलीमें उपराष्ट्र पतिक द्वारा पत्यंधरके पुत्र जीवंधर कुमारका जीवन परिचय दिया गया समर्पित किया गया। है। जीवन्धरन अपने पिता सत्यन्धरसे काष्ठांगारके द्वारा छीने प्रस्तुत अन्य ६ विभागों में विभाजित है। जीवन सस्मगए गज्यको पुनः प्राप्त किया और अन्तमें भगवान महावीरके रण और अभिनन्दन २ सन्तोंक शुभाशीर्वाद और श्रद्धासमवपरणमें दीक्षा लंकर घोर तपश्चरण किया, फलस्वरूप अलियौं ३ दर्शन-धर्म ४ इतिहास और साहित्य, ५ नारी ध्यानाग्निके द्वारा कर्ममलको जलाकर स्वात्मोपलब्धिको- अतीत प्रगति और परम्परा, और ६ विहार । इनमें से प्रथम पूर्ण श्रात्मस्वातन्त्र्यको प्राप्त किया। और उनकी आठों विभागमें ३० व्यक्रियोने प्र.चन्दावाईजीक जीवन पर अनेक स्त्रियोंने आर्यिकाक व्रतोंका सझनुष्ठान कर उत्तमार्थकी दृष्टि विन्दुओंसे प्रकाश डाला है। दूसरे में ५५ सन्तों, महिप्राप्ति की।
लाओं, सज्जनोंने अपने पाशीर्वाद और श्रद्धांजलियों भेंट की लेखकने इस पुस्तकमें उन्हींके पावनजीवनको संस्कृत हैं। अवशिष्ट चार विभागोंमें विविध विद्वान लेखकों द्वारा प्रन्योंपर से लेकर भाजकी हिन्दी भाषामें रखनेका यत्न किया विविध विषयों पर लिखे गये ७८ लेख दिये हप है। चित्रों. है। भाषा मुहावरेदार और सुगम है। फिर भी उसमें साहि- की पृष्ठ संख्या १६ है जिनमें बाईजी और उनके परिवारसे त्यिक निखार होनेकी आवश्यकता है जिससे प्रन्य और भी संबन्धित चित्रोंके अतिरिक्र अनेक मूर्तियोंके कलापूर्ण चित्र भी
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३८६1
अनेकान्त
किरण १२
दिये हुए हैं।
अच्छा संकलन है। इस ग्रन्थमें जहां अ. चन्दाबाईजीक पावन जीवन और प्रथम शास्त्र भण्डारमें ६०० हस्तलिखित ग्रंथ और उनकी महत्वपूर्ण सेवाओंपर प्रकाश डाला गया है वहां जैन- २२५ गुटक हैं । इस भण्डारमें सबसे पुराना सम्बत् १४०० संस्कृतिक विभिन्न अंगों, नारीजातिकी विविध समास्याओंके । का हस्तलिखित ग्रन्थ परमात्मप्रकाश है। भट्टारक सकल साथ उनकी कर्मस्थली विहारका गौरवर्ण इतिवृत्त भी पठनीय कीर्तिक 'यशोधर चरित्र' की प्रति भी सचित्र है जिसमें कथा सामग्री प्रदान करता है।
प्रसंगमें लगभग ३५ चित्र दिये हुए हैं। 'मालिषेणाचार्यका अभिनन्दन ग्रन्थ जहाँ उपयोगी बना है। वहां लोगोंकी २३८ पत्रात्मक विद्यानुवाद' नामक संस्कृतका एक सचित्र संकीर्ण एवं अनुदार मनोवृत्तिका स्मरण हो पाता है, जिस मूल ग्रन्थ भी मूल्यवान और प्रकाशनके योग्य है। शिल्पीने कठिन परिश्रम, प्रतिभा और कलाकं द्वारा उसे वर्त- दूसरे भण्डारमें २६२६ ग्रन्थ हैं जिनमें ३२४ गुटके भी मान मूर्तिमान रूप दिया है उसका नामोल्लेख भी नहीं है शामिल हैं। इन गुटकोंमें अनेक छोटे छोटे पाठों अथवा ग्रंथोंअस्तु, काश ! हमलोग इतने विवेकी, सहृदय और समुदार का अच्छा संग्रह पाया जाता है। इस शास्त्र भण्डारकी सबसे होते, तो शिल्पीकी कला, तथा प्रतिभाका अवश्य ही मूल्यां- बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संगृहीत साहित्य साम्प्रदायि- . कन करने और साधुवाद देते। यदि किसी कारणवश उपमें कताकं स कुचित दायरसे उन्मुक्त है। इसमें व्याकरण छन्द, समर्थ न हो पाने, तो साधुवादमें उसका नामोल्लेख किये काव्य, कथा, दर्शन, संगीत, ज्योतिष, वैद्यक पुराण चरित बिना भी नहीं चूकने । पर इसमें वह भी नहीं है यह खेदका इनिहाम श्रादि विविध विषयोंके ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह किया विषय है।
गया है । इस भण्डारकी लिखित निम्न प्रनियों दर्शनीय एवं प्रस्तुन ग्रन्थकी प्रेससम्बन्धी अशुद्धियों और वाइडिग प्राचीन है । मंवत् १३२६ का योगिनीपुर (देहली) में लिखा मादिकी त्रुटियोंपर लक्ष्य न दें, तो भी परिमाण तथा सामग्री हुश्रा प्राचार्य कुन्दकुन्दका पंचास्तिकाय, सम्बन १४६ की दृष्टिसे ग्रन्थ काफी मुन्दर बन गया है । गेट अब चित्ता विद्यानन्दाचार्यकी अष्टपहस्त्री । इन ग्रन्थोंक अतिरिक्त इस कर्षक है । ग्रन्थके अन्तमें आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाली भंडारमें कुछ नूनन ग्रन्थ भी मिले हैं जिनके अस्तित्वका पता महिलाओंकी एक सूची भी लगी हुई है।
अभीतक दुसर भंडारास नहीं चला था। यहां उदाहरणक ४ राजस्थानके जंन शास्त्र-भंडारोंकी ग्रन्थ-सची तौर पर कुछ ऐसे ग्रंथोंके नामोंका भी उल्लेग्व करदना उचित (द्वितीय विभाग)-सम्पादक पं. कस्तूचन्द्रजी एम. ए. समझता हूँ। शास्त्री काशलीचाल । प्रकाशक-सेठ वधीचन्द्र गंगवाल मंत्री प्रवचनमार अमितगनि २ योगमार श्रुतकीति ३ प्रबन्धकारिणी कमेटी, श्री दि. जैन अतिशयक्षेत्र श्री महा- पंचरत्न परीक्षा अपभ्रंश, ४ नागकुमारिचरितपं० धर्मधीर, ५ वीर जी (जयपुर)। पृष्ठ संख्या सब मिला कर ४३६ . प्रद्युम्नचरित भ. सकलकीर्ति, ६ अत्याचार बसुनन्दि सजिल्द प्रतिका ८) रुपया।
(प्राकृत), पार्श्वनाथ चरित असवाल, अपभ्रंश, ८ णिकराजस्थान दिगम्बर जैन ममाजका केन्द्रस्थान रहा है. चरित और धन्यकुमार चरित यशः कीर्ति, १० संगो सार, जैनियोंका पुरातत्त्व और हस्तलिखित अपार ग्रंथराशि, अन- दामादर ११ उत्तरपुराणटिप्पण लिपि सम्बत् १५६६ १२ गिनत मूर्तियाँ, शिलालेख, कलापूर्ण मन्दिर उनकी गरिमा- विमलनाथ पुराण, रत्नचन्द्र हिन्दी। के प्रतीक हैं, राजस्थानके खण्डहरों और भूगर्भमें अभी प्रा- १३ सिद्धान्तार्थसार, कविरइधू । इस ग्रंथकी सं १९९३ चीन सामग्री दबी पड़ी है। राजस्थान जैनाचार्योंकी रचनाका वैशाख शुक्ला प्रयोदशी भोमवारको कुरु जांगल देशस्थ सुस्थान भी रहा है जिस पर फिर कभी विचार किया जावेगा। वर्णपथ (श्वनिपद) या सोनीपतमें पातिशाह बाबर मुगल
प्रस्तुत ग्रन्थका विषय उसके नामसे ही प्रकट है। इसमें काविलीके राज्यमें लिखी हुई १६ पत्रात्मक अपूर्ण प्रति मैने जयपुरके दो दिगम्बर जैन मन्दिरोंके शस्त्रभण्डारोंके अन्योंकी सन् ४७में बाबा दुखीचन्द्रजीके शास्त्रभंडारमें देखी थी, उसी सूची दी हुई है जिनके नाम है- पं. सूणकरणजी परसे उसका प्राचभाग और लेखक प्रशस्ति नोट की गई पांयाका शास्त्रभण्डार और दूसरा तेरह पंथियोंके दि. जैन थी। हर्षकी बात है कि इस उपलब्ध प्रतिसे जो १५५ पत्रामन्दिरका शास्त्रमंडार । दूसरे शास्त्र भण्डारमें अन्योंका (शेष टाइटिल के दूसरे एप पर)
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अनेकान्तका द्विवार्षिक हिसाब
चिट्ठा हिसाब अनेकान्त वर्ष ११वां
(सितम्बर सन् ५० से मई सन १६५३ तक) आय (जमा)
___ व्यय (वर्च) १३५०%) ग्राहक खाते ज्मा, जिसमें १५४ वी.पी. से २३३ ) पिछले वर्षका घाटा - प्राप्त हुआ पोस्टेज भी शामिल है।
१३३५३) कागज खाते नाम इस प्रकार-: १३५०/-)
६२६॥ कागज सफेद २४ पौंड, २०४३० ११६) साधारण महायता खाते जमा
माइज ४६ रिम, मयमजदूरी के। ११६)
२४ ) आटेपेपर टाइटिल और चित्रोंके १६०।-)|| फाइलों और फुटकर किरणों की विक्रीखाते
वास्ते रिम, मयमजदूरी,
५८॥-)| रेपर पेपर १ रिम १३ दस्ते मयमजजमा। १६० ॥ १२-) सूद बाते जमा, जो ला० कापरचन्दजो कान
१३३५) __पुर से प्राम हुए
६०) डिजाइन ग्वाते खर्च जो आशाराम शुक्लाको ३२०)
दिये गये ४६) कागज खाते जमा बावत ५४ शीट हाइट
११६।।) ब्लाक बनवाई खाते जिसमें १०७ धूमीप्रिन्टिग और ३९० शीट आर्टपेपर जो इम
मल धर्मदास को [ मुरारी फाइन आर्ट वर्प खर्च होने से बचा है।
दिल्लीको दिये गये। ४६ )
११) १७८८॥
३२०) चित्रग्वाते वर्च ३०४) कलकत्तासे चित्रोंके ८६४०) संरक्षकों और सहायकोंसे प्राप्त सहायता
छपकर आने में मयार्द पेपर, छपाई, पोस्टेज
और पैकिंग मा. बा० छोटेलालजी कलकत्ताके १८३४०)
१६) 'शास्ता वीरजिन चित्रकी छपाई धूमीमल धर्मदास दिल्ली को
दूरा
२४३८१) छपाई बंधाई अनेकान्त खाते, खर्च इसप्रकार
१५१३) नेशनल प्रिंटिंग प्रेम दिल्ली को ८५७) रूपयाणी प्रेस दिल्लीको ४८) धूमोमल धर्मदासको छपाई टाइटिल पेज
दुरंगा ३००० कापी
ॐ दशवें वर्षकी किरण ११-१२ में उस वर्षका हिसाब प्रगट करते हुए घाटे की अन्दाजी रकम २४७६) प्रगट की गई थी। माथ ही उम संयुक्त किरणकी बावत खर्चकै भन्दाजन ३००) देने बाकी लिखे गए थे, जिसके स्थानपर २०१७) दिये गये। इससे २४ ) की रकम घाटेमें कम हुई और
10m) की प्राप्ति विज्ञापनादिसे और होकर ) की रकम घाटे को स्थिर रही।
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२०) रैपर पेपरकी छपाई शक्ति प्रिटिंग प्रेस और धूमीमल धर्मदासको
२४३८॥) १३) विज्ञप्ति और पोस्टरकी छपाई शक्ति प्रेस तथा
रूपवाणी प्रेसको। ३४) स्टेशनरी खर्च खाते ११६)। सफर खर्च खाते १९००) वेतन खर्च, जो पं० परमानन्दजीको १४
मासके दिये गये ७॥-1 मुतरिक खर्च ग्वाते २१002 पोस्टेज खर्च खाते १५) लेख पुरस्कार खर्च खाते
. ६५६७||चिट्ठा हिसाब अनेकान्त वर्ष १२वां
८ ॥3) (जून सन ५३ से मई मन १.५४ तक)
१४४६)। शेष रहे।
१४)
जुगलकिशोर मुख्तार, परमानन्द जैन शास्त्री १४४६७। पिछला बकाया
६१७॥2)। कागज खर्च खाते नाम, मय आर्ट पेपर के ६६०) अनेकान्त ग्राहक खातं जमा, जिसमें वा. पी. ८८६|)| जो टाइटिल व चित्रों में लगा है से प्राप्न पोस्टेज भी शामिल है
३०) पेपर रिम १ वा)
१ ॥ १४६) साधारण सहायता खाते जमा, जिससे जैनेतर २०२०) छपाई बन्धाई खाते खर्च
विद्वानों और लाइब्रेरी आदिको अनेकान्त १५२८) ११ किरणोंका रूप-वाणी प्रेसको दिये फ्री भेजा गया
१७५) के लगभग १२ वो किरण का देना १४६)
१॥) रेपर छपाई १२६) संरक्षक सहायता फीस वाते जमा
२०२० ६)
६२/-) ब्लाक बनवाई खाते खर्च ६६)। फाइल और फुटकर किरण विक्रीखाते जमा
१७/-) ब्लाक ३ बनवाई और सुधराई
४५) ब्लाक ५ की वनवाई पुरानी फाइल आदि ५) विज्ञापन खाते जमा
रा) ६ ) आटपेपर ७३ सीट शेष
११॥-)। स्टेशनरी खर्च खाते ४८-कागज खाते जमा जो १२वी किरणके अति- २) सफर खर्च खाते रिक्त बचा, सफेद कागज २ रिम १८६ मीट १७७%2)॥ पोस्टेज खर्च खाते २१मात्रा
१६७/-)। किरण ११ का १४४६)
१०) किरण १२ वीं का ३६२७)
१७जात्रा II-)|| घाटेकी रकम देना
१४२५) वेतन खर्च खाते नाम परमानन्द जैनशास्त्री प्रकाशक अनेकान्त
१०५०)पं० परमानन्दजी को ७ मांहका दर १५०) से ३७५) पं०जयकुमारजीको ५माहका
१४२५) ४६१६|||-)|
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वीरसेवान्दिरके सुरुचिपूण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्यांकी पथानुक्रमणी, जिसके साथ १८ टीकादिप्रन्थोंमें
उद्धृत दुसरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योंको सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत,सा.कालीदास नागर एम. ए, डी. लिट् के प्राक्कथन (Formond) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए.डी.लिट की भूमिका ( nuoductron) सं भूषित है, शोध-योजके विद्वानों के लिये प्रतीव उपयोगी, बा साइज,
पजिल्द । जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग पांच रुपये है) (२ श्राप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायको स्वीपज्ञ मटीक अपूर्वकृति प्राप्तांको परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
मरम और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल जो के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युक्त, मजिल्द । (३) न्यायनीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरवारीलालजीक संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांस अलंकृत, मजिल्द। ... (४) स्वयम्भूम्नात्र-ममन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छम्दपरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयांगका विश्लेषण करती हुई महत्वको गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ठकी प्रस्तावनास सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-स्वामी ममन्तभद्रकी अनोग्वी कृति, पापांक जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिस अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित। " (६) अध्यात्मकमानमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमलकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी ग्बोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावमामे भूषित । (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान परिपूर्ण ममन्तभद्की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं
हुश्रा था। मुख्तारधीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले अलंकृत, सजिल्द । " 11) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तात्र-श्राचार्य विद्यानन्दचिन, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ) (६) शासनचतुस्त्रिाशका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीनिकी १३ वी शताब्दीकी मुन्दर रचना. हिन्दी
अनुवादादि-यहित । (१०) मत्साध-स्मरगा-मंगलपाठ-श्रीवार वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३० पुण्य-स्मरणांका
महत्वपूण संग्रह, मु.नारश्रीक हिन्दी अनुवादादि-हित । (२१) विवाह-ममुहश्य - मुख्तारीका लिग्बा हुआ विवाहका मग्रमाण मामिक और तान्त्रिक विवेचन ... ) (१०) अनेमान्न-रस लहरी-अनकान्त जैसे गृढ गम्भीर विषयको अवती मरलनासं समझने-समझानेकी कुंजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिम्वित । (१३ अनि-ग्रभावना-प्रा. पद्मनन्दी का महत्वको रचना, मुन्नार नाक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१) तत्वार्थमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय )-मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद नथा व्याख्यान युक्त। ... ) (१५ श्रवणवल्गान श्रार दक्षिण अन्य जनताय क्षेत्र-ना. राजकृष्ण जैनको सुन्दर मचित्र रचना भारतीय
पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टोएन. रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ) नाट-ये मब अन्य एकसाथ लनवालाको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरमवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
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Regd. No. D.211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) बा०मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, ५ २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी. ... २५१) बा० सोहनलालजी जन लमेचु ,
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) लाल गुलजारीमल ऋपभदासजी ,
१०१) बा० धनंजयकुमारजी ५) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन ,
१०१) बा. जोतमलजा जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी , २५१) वा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची २५१) बा० बल्देवदासजी जैन मरावगी
१०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली - २५१) सेठ सुत्रालालजी जैन
१०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) मेठ मांगीलालजी
१०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डालश्रीचन्द्रजी,ए ५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जन
१०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकदार, देहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहलो १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशारजी जेन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहजी १०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी मरावगी, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर
१०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवाकर, हिमार २५१) मेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि. हिसार
२५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०५) कुँवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि. हिसार ६२५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १८१) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ वर्धाचन्दजी गंगवाल, जयपुर
१०१) श्री ज्ञानवतीदेवी ध.. सहायक
वैद्य आनन्ददास दहली * १०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
१०१) बाबु जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली
१०.) वद्यराज कन्हैयालालजा चाँद औपधालय,काना
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"१०१) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी ,
सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शारीररियागंज देहबी। मुद्रक-रूप-चापी प्रिटिंग हाऊस २६, दरियागंज, देह
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