SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [किरण ३ वहीं ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवनको दिगम्बर जैन मन्दिर, चित्रकूटका जैन कीर्तिस्तम्भ, और देखा। पं पनालालजी सोनी उसके सुयोग्य व्यवस्थापक चित्तौड़के पुरातन मन्दिर एवं मूर्तियाँ, और महारकीय हैं। उन्होंने भवनकी सब व्यवस्थासे अवगत कराया। गद्दीका इतिवृत्त इस समय सामने नहीं है। धुलेव (केश कि यहांसे जल्दी ही उदयपुरको प्रस्थान करना था, रिया जी) का आदिनाथका पुरातन दि. जैन मन्दिर इसीसे समयकी कमीके कारण भवनके जिन हस्तलिखित जैनधर्मकी उज्वल कीर्तिके पुज हैं, परन्तु यह सब उपलब्ध प्रन्योंको देख कर नोट लेना चाहते थे वह कार्य शीघ्रतामें पुरातन सामग्री विक्रमकी १० वीं शताब्दीके बादकी मम्पर नहीं हो सका । व्यावरसे हम लोग ठीक है बजे देन है। संबरेसे ११० मीलका पहादी रास्ता तय कर रात्रिको . उदयपुरमें इस समय ८ शिखरवन्द मन्दिर और ५ १०॥ बजेके करीब उदयपुर पहुंचे। रास्ते में हिन्दुओके स्यालय हैं। हम सब लोगोंने सानन्द बन्दना की। प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारेको भी देखा और शामका वहीं भोज उदयपुरके पार्श्वनाथके एक मन्दिरमें मूलनायककी मृति नादि कर सड़कके पहाड़ी विषम रास्ते को तय कर, तथा सुमतिनाथकी है, किन्तु उसके पीछे भगवान पार्श्वनाथकी प्राकृतिक श्योंका अवलोकन करते हुए उदयपुर के प्रसिद्ध सं० १९४८ वैशाख सुदी १३ की भट्टारक जिनचन्द द्वारा 'फतेसिंह मेमोरियल' में ठहरे। यह स्थान बड़ा सुन्दर प्रतिष्ठित मूर्ति भी विराजमान है। समय कम होनेसे और माफ रहता है, सभी शिक्षित और श्रीमानोंके ठहरने मूर्तिलेख नहीं लिये जा सके, पर वहाँ १२ वी १३वीं की इसमें व्यवस्था है। मैनेजर योग्य आदमी हैं। यद्यपि शताब्दीकी भी मूर्तियां विराजमान हैं। वसवा निवासी यहाँ ठहरनेका विचार नहीं था, परन्तु मोटरके कुछ खराब प्रानन्दरामके पुत्र पं. दौलतरामजी काशलीवाल, जो हो जानेके कारण ठहरना पड़ा। जयपुरके राजा जयसिंहके मन्त्री थे वहाँ कई वर्ष रहे हैं और वहाँ रह कर उन्होंने जैनधर्मका प्रचार किया, वसुउदयपुर एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। राजपूताने नन्दि श्रावकाचारकी सं०1८०८ में टवा टीका वहांके (राजस्थान ) में उसकी अधिक प्रसिद्धि रही है। उदयपुर गज्यका प्राचीन नाम 'शिविदेश' था, जिसकी राजधानी सेठ वेलजीके अनुरोधसे बनाई। इतना ही नहीं, किन्तु. संवत् १७६५ में क्रियाकोषको रचना की। और संवत् महिमा या मध्यमिका नगरी थी, जिसके खण्डहर इम १७६८ में अध्यात्म बारहवड़ी बना कर समाप्त की x। समय उक्त नगरीके नामसे प्रसिद्ध है और जो चित्तौड़मे इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिम वहांके अनेक साधर्मी ७ मोल उत्तरमें अवस्थित हैं । उदयपुर मेवाबका ही सज्जनोंका नामोल्लेख किया गया है जिनकी प्रेरणासे उक्त भूषण नहीं है किन्तु भारतीय गौरवका प्रतीक है। यह राजपूतानेकी वह वीर भूमि है जिसमें भारतकी दासता ग्रन्थकी रचना की गई है, उनके नाम इस प्रकार हैं पृथ्वीराज, चतुर्भुज, मनोहरदास, हरिदास, बखतावरदास, अथवा गुलामीको कोई स्थान नहीं है। महाराणा प्रतापने कर्णदास और पण्डित चीमा। मुसलमानोंकी दासता स्वीकार न कर अपनी भानकी रक्षामें - सर्वस्व अर्पण कर दिया, और अनेक विपत्तियोंका सामना x संवत् सत्रहसो भट्ठाणच, फागुन मास प्रसिद्धा। करके भारतीय गौरवको अक्षुण्ण बनाये रखनेका यस्न शुकलपक्ष पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा ॥३० किया। उदयपुरको महाराणा दयसिंहने सन् १९५४ जब उसरा भाद्र नखत्ता, शुकल जोग शुभ कारी। में बसाया था, जब मुगल सम्राट अकबरने चित्तौड़गढ़ बालव नाम करण तब वरते, गायो ज्ञान विहारी ॥३॥ फतह किया। उस समय उदयसिहने अपनी रक्षाके एक महूरत दिन जब चढ़ियो, मीन लगन तब सिद्धा। निमित्त इस नगरको बसानेका यत्न किया था। उदयपुर भगतिमाल त्रिभुवन राजाकी, भेंट करी परसिद्धा । ३२ स्टेटमें जैन पुरातत्वकी कमी नहीं है। उदयपुर और भास- ® उदियापुरमें रूचिधरा, कैयक जीव सुजीव । पासके स्थानों में, तथा भूगर्भ में कितनी ही महत्वकी पुरा- पृथ्वीराज चतुर्भुजा, श्रद्धा धरहिं अतीव ॥५ तन सामग्री दो पड़ी है। विजोखियाका पार्श्वनाथका दास मनोहर पर हरी, द्वै वखतावर कर्ण । केवल केवल रूपकों, राखें एकहि सणं ॥६ ®देखो, नागरी प्रचारिणो पत्रिका भाग २१०२२७ चीमा पंडित आदि ले, मनमें धरिउ विचार ।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy