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________________ हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान [१६७ मा जीवात्मा अनादि और चनन्त पदार्थ है। इसकी सकती है, जो कि सभी विद्वानोंकी अभिवृद्धि करता अवस्थायें तो परिवर्तित होती ही हैं और गुण भी तिरोहित है। प्राचार्य अमृतचन्दने उसे, 'परमागमस्थ बीजम्'और विकसित होते रहते है। जब तक इसकी यह अवस्था परमागमका प्राण प्रतिपादन करके उसके महत्वको चरम रहती है तब तक वह संसारी कहलाता है। गुणों के इस सीमा तक पहुंचा दिया है। 'भनेकान्तवाद' एक मनोहर, क्रमिक वृद्धि हास-का अन्त होकर जब यह जीव अपने सरल एवं कल्याणकारो शैली है। जिससे एकान्त रूपसे गुणोंका पूर्ण विकास कर लेता है तब यह मुक्त कहे गये सिद्धान्तोंका विरोध दूर कर उसमें अभूतपूर्व कहलाता है। मैत्रीका प्रादुर्भाव होता है। गुणोंकी वृद्धि और हास कुछ कारणोंसे होती है। वे 'एकनाकर्षन्ती श्लथयन्तो वस्तुतत्त्वमितरेण। कारण क्रोध, मान माया लोभ भादि कषायें हैं। इन 'अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी। कारणोंसे जीव अपने स्वरूपको भूलजाता है। दूसरे शब्दों में यों कहिये कि मोहके कारण अपने स्वरूपको भूल जाना -पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २२५ ही बन्धका कारण है और जब यह अपने स्वरूपकी ओर अर्थात् जिस प्रकार दधि मंधनके समय ग्वालिम जब मुकता है-उसको पानेके प्रयत्नमें लगता है तब इसके बाह्य मथानीके एक छोरको खींचती है तब दूसरे छोरको छोड़ पदार्थोंसे मोह मन्द हो जाता है और मंद होते होते जब नहीं देती परन् टोखा कर देती है और इस प्रकार दूध दहीवह बिलकुल नष्ट हो जाता है तब वह मुक्त या सिद्ध हो के सार मक्खनको निकालती है। उसी प्रकार जैनी नीति जाता है। भी वस्तुके स्वरूपका प्रतिपादन करती है, अर्थात् प्रत्येक श्रद्धा, विज्ञान और सुप्रवृत्ति पारमाके स्वाभाविक वस्तुमें चमेक धर्म रहते हैं उनके सब गुणोंका एक साथ गुण है। यह गुण किसी दूसरे द्रव्यमें नहीं होते । मुख प्रतिपादन करना भवसनीय है। इसी लिए किसी गुणका अवस्थामें यह गुण पूर्ण विकसित हो जाते हैं। संसारी एक समय मुख्य प्रतिपादन किया जाता है कि किसी दूसरे अवस्थामें यह गुण या तो विकृत रहते हैं या इनकी ज्योति समय उसके दूसरे दूसरे गुणोंका प्रतिपादन किया जाता मन्द रहती है। इन गुणोंके अतिरिक्त किसी भी पदार्थसे ऐसी हालतमें किसी एक गुणका प्रतिपादन करते अनुराग रखना यही बंधका कारण है। किसीसे अनुराग समय उस वस्तुमें दूसरे गुण रहते ही नहीं या नहीं, होगा तो किसी दूसरेसे द्वेष उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ऐसा नहीं समझना चाहिये । 'इसीका नाम 'अनेकान्तवाद' है। इन राग और द्वेषोंका किस प्रकार प्रभाव हो और जैसे एक ही पदार्थमें बहुतसे प्रापेक्षिक स्वभाव पाये . मात्माके स्वाभाविक गुणोंमें किस प्रकार वृद्धि हो, इन जाते हैं जिनमें एक दूसरेका विरोध दीखता है स्वादाद परनोंका हल करना ही जैन शासन या इन सात तत्वोंका उनको भिन्न अपेचासे ठीक ठीक बता देता है। सर्वविप्रयोजन है। रोध मिट जाता है। स्याद्वादका अर्थ है स्यात्-किसी अपे'स्थावाद' जैन-तस्व ज्ञानका एक मुख्य साधन है। से वाद कहना । किप्ती अपेवासे किसी बातको जो बताये अनेकान्तवाद, सप्तमंगी नय मादि स्याद्वादके पर्याय- वह 'स्याद्वाद। एकात्म पदार्थको ही ले लिया जाय वाची शब्द है यह स्याहाद ही हमें पूर्ण सत्य तक वह द्रव्यकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है-उसका न ले जाता है। नाश होता है न उत्पाद । किन्तु पर्यायोंकी अपेक्षा वह ___ 'अनेकान्तवाद' का अर्थ है-बाबा धर्मात्मक वस्तुका परिवर्तनशील है। जिसे हम डाक्टर या वकील कहते हैं कथन । अनेकका अर्थ है नाना, अन्तका अर्थ है धर्म। उसका पुत्र उसे 'पिता', उसका पिता, 'पुत्र' मतीजा और बादका अर्थ कहना, यह भनेकान्तवाद' ही सत्यको 'चाचा', चाचा भतीजा', भानजा 'मामा', 'मामा', 'भानस्पष्ट कर सकता है, क्योंकि सत्य एक मापेक वस्तु जा' कहते हैं। यह सब धर्म एक ही व्यक्तिमें एक ही है, सापेक्ष सत्य द्वारा ही असत्यका अंश निकाला समय विद्यमान रहते हैं। जब हम एक सम्बन्धको कहते जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुँचा हुए स्यात् शब्द पहिले लगा देंगे तो सममाने वाला यह जा सकता है। इसी रीतिसे शान-कोषकी श्रीवृद्धि हो ज्ञानप्राप्त कर लेगा कि इसमें और भी सम्बन्ध है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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