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भनेकान्त
[किरण जैन-दर्शनकी एटिसे प्रत्येक वस्तु मन्यकी अपेक्षा नित्य भारतीय साहित्यके मध्ययुगमें तर्क-जाव-सगुफित और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य होती है। म्यरष्टिकोणके घनघोर शास्त्रार्थ रूप संघर्षकै समयमें जैन साहित्यकारोंने बश्व बिन्दुको रष्टिमें रखकर उसे नित्य बनाती है। इन्य इसी सिद्धान्तके स्थात् अस्ति, स्यामास्ति और स्थादअनाशात्मक हैं। पर्यायष्टि पर्यावाको अनित्य बनाती हैं। वत्कण्य इन तीन शब्दसमहकि साधारपर सप्तभंगीके पर्याय उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली होती हैं। साथ रूपमें स्थापित किया है। वह इस प्रकार हैही उत्पाद व्ययसे वस्तुमें उसकी स्थितिरूप अवताका भी १. उपभ्ने वा विगये वा धुवे वा नामक परिहंत प्रत्या अनुभव होता है। यही स्थिरता वस्तुमें नित्य धर्म- प्रवचन । का अस्तित्व सिद्ध करती है। अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद. २. सिया अस्थि, सिवा स्थि, सिया भवितव्य व्यय और प्रौव्य युक्त हुआ करती है। जैसा कि प्राचार्य नामक भागम् वाक्य । उमास्वामि ने कहा है-उत्पादव्ययधौम्ययुक्तं सत् ।' ३. 'उत्पादध्ययधौम्ययुक्तं सत्' नामक सूत्र ।
श्रीरतनलालजी संघवी अपने, 'स्याद्वाद' नामक १. स्यादस्ति, स्याचास्ति, स्यादवक्तव्यं नामक लेखमें 'ममेकान्तबाद' का स्वरूप बताते हुए कहते है:- संस्कृत काव्य, यह सब स्याद्वाद सिद्धांतके मूर्तवाचक रूप
'दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीरने इस सिदान्तको, हैं। शब्द रूप कथानक है और भाषा रूप शरीर है। सिया अस्थि, सिया सस्थि, सिया अवत्तम्य' के रूप में स्याद्वादका यही बाझ रूप है। ज्ञानोदय पृ. ४५६-४६. बताया है। जिसका यह तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु. सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें नित्य और अनित्य तस्वकिसी अपेक्षा वर्तमानरूप होता है और किसी दसरी रूप स्वभावोंका होना आवश्यक है। यदि यह दोनों अपेचासे बही नाश रूप भी हो जाता है इसी प्रकार किसी स्वाभाव एक ही समयमें द्रव्यमें न पाये जावे तो द्रव्य तीसरी अपेक्षा विशेषसे वही तत्त्व त्रिकाल सत्ता रूप होता निरर्थक हो जाता है। इसके लिए सुवर्णका दृष्टान्त लेना हुमा भी शब्दों द्वारा प्रवाच्य प्रयवा अकथनीय रूपवाना उपयुक्त होगा। यदि सुवर्ण नित्य हो तो उसमें भवस्थाभी हो सकता है।
परिवर्तन नहीं हो सकता। वह सदैव एकसी स्थितिमें जैन तीर्थकरोने और पूज्य भगवान अरिहन्तोंने इसी
रहेगा। उसे कोई भी व्यक्ति मोल न लेगा। क्योंकि उससे सिदान्तको उत्पन्ने वा, विनष्टे वा, घुवे वा, इन तीनों शब्द
प्राभूषणोंकी अवस्था तो बनेगी नहीं। यदि सुवर्यको द्वारा, त्रिपदीके रूपमें संग्रथित कर दिया है। इस त्रिपदी
अनित्य मान लिया जाय तब भी उसका कोई मूल्य नहीं का जैन भागों में इतना अधिक महत्व और सर्वोच्च
क्योंकि वह पणभरमें नष्ट हो जायगा। परन्तु सुवर्ण- . शीलता पतलाई है कि इनके अपवमानसे ही गणधरोंको
का स्वभाव ऐसा नहीं। सुवर्ण रूप रहता हुआ अपनी चौदहपूर्वोका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है।
अवस्थाओंमें परिवर्तित होता रहता है। सुवर्णके एक डेले : द्वादशांगी रूप वीतराग-वाणीका यह हृदय स्थान कहा
मानसे वाली बन सकती है। वाजीको तोड़कर अंगूठी जाता है।
और अंगूठीसे अन्य किसी भी प्रकार प्राभूषय बन सकता
है। इसी प्रकार जीवमें भी नित्य और अनित्य दोनों : भारतीय साहित्यके सूत्रयोगमें निर्मित महान अन्य स्वभाव है. तथा वह संसारीसे सिद्ध हो सकेगा। अब तत्वार्यसूत्रमें इसी सिद्धान्तका 'उत्पादन्ययाधौम्पयुक्त सद' स्थानों में परिवर्तन होता है जो संसारी था वही सिद्ध हो इस सूत्रके रूपमें उल्लेख किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो सत् पानी द्रव्य रूप प्रयवा भावरूप है, उसमें
वस्तुमें अनित्य धर्मका प्रतिपादन निम्न साव प्रकारोंसे प्रत्येक बमवीन पर्यायोंकी उत्पत्ति होती रहती है, एवं
होता है। पूर्ण पर्यायोंका नाश होता रहता है परन्तु फिर भी मूल अन्यकी द्रव्यता, मूल सत्की सत्ता पर्यायोंके परिवर्तन
..स्वादस्ति-पचित है। होगहने पर भी प्रौव्य रूपसे बराबर कायम रहती है। ..स्यावास्ति-कथंचित् नहीं है। विश्वका कोई भी पदार्थ इस स्थितिसे वंचित नहीं है। ३. स्यादस्तिनास्ति -कथंचित है और नहीं है।