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________________ किरण ६] हिन्दी जैन साहित्य मेंतत्वा [१६L १. स्यादवक्तग्य-किसी अपेक्षासे पदार्थ वचनसे एक 'जबसे मैने शंकराचार्य द्वारा जैन-सिदान्तका खंडन साथ नहीं कहने योग्य है। पड़ा है तबसे मुझे विश्वास हुमा कि इस सिद्धान्तमें बहुत १. स्थादस्ति प्रवक्तव्यं च-किसी अपेक्षाले दम्य नहीं है, जिसे वेदान्तके प्राचार्योने नहीं समझा और जो है और भवाच्य है। कुछ मैं अब तक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा स्थादस्ति नस्ति प्रवक्तव्यं च-कथंचित् नहीं विश्वास हुभा है कि यदि वे ( शंकराचार्य ) जैनधमके है और भवक्तव्य भी है। असली प्रन्थों को देखनेका कष्ट उठाते तो जैनधर्मके विरोध .. स्यादस्ति नास्ति वक्तव्यं च-कथंचित है. नहीं करनेकी कोई बात नहीं मिलती।' है और प्रवक्तव्य भी है। पूनाके प्रसिद्ध डा. भंडारकर सप्तमंगो प्रक्रियाके इन सात प्रकारके समूहों को 'सप्तभंगी नय' कहते। विषयमें लिखते हैहै। कविवर बनारसीदासजीने नाटक समयसारमें स्थावा इन मंगोंके कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रश्नमें बकी महत्ता वर्णित की है। निश्चयपना नहीं है या एक मात्र सम्भव रूप कल्पनायें जथा जोग करम करे ममता न धरै, करते हैं जैसा कुछ विद्वानोंने समझा है इन सबसे यह भाव है कि जो कुछ कहा जाता है वह सब किसी म्य, रहे सावधान ज्ञान-ध्यानकी टहलमें। क्षेत्र, कालादिको अपेक्षासे सत्य है। तेई भवसागरके उपर है तरे जीव, विश्वबंध महात्मा गांधीजीने इस सम्बन्धमें निम्न जिन्हको निवास स्यादवादके महल में । विचार व्यक्त किये हैनाटक समयसार पृ०॥५॥ यह सत्य है कि मैं अपनेको अद्वैतवादी मानता है, 'तस्वार्थराजवार्तिक' में प्राचार्य अकलंकदेवने बताया परन्तु मैं अपनेको द्वैतवादीका भी समर्थन करता हूँ। है कि वस्तुका वस्तुस्व इसी में है कि वह अपने स्वरूपका सृष्टिमें प्रतिपय परिवर्तन होते है, इसलिये सृष्टि अस्तित्व ग्रहण करे और परकी अपेक्षा प्रभाव रूप हो। इसे विधि रहित कही जाती है, लेकिन परिवर्तन होने पर भी उसका और विविध रूप अस्ति और नास्ति नामक भिम धर्मों एक रूप ऐसा है जिसे स्वरूप कह सकते हैं। उस रूपसे द्वारा बताया है। वह है' यह भी हम देख सकते हैं, इसलिये वह सत्य भी । देश और विदेशके विभिन्न दार्शनिकोंने स्थाद्वादको है। उसे सस्थासत्म कहो तो मुझे कोई उग्र नहीं। इसलिए यदि मुझे अनेकान्तवादी या स्थावादी माना जाय तो मौलिकता और उपादेयताकी मुक कंठसे प्रशंसा की इसमें मेरी कोई हानि नहीं होगी । जिस प्रकार स्वादद्वाद' है। डा.बी. एन. पात्रेय काशी विश्वविद्यालयके को जानता हूँ उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ."मुझे यह कथनानुसार अनेकान्त बदा प्रिय है। 'जैनियोंका अनेकान्तवाद और नयवाद एक ऐसा सारांश यह है कि स्यावाद न्याय पदार्थको जानने मित कि सत्यको खाजम पक्षपात राहत कान लिये एक निमित्त साधन है। इसका महत्व केवल जेम की प्रेरणा करता है, जिसकी आवश्यकता सब सम्प्रदायके हेतु ही नहीं वरन् जैनेतर सम्प्रदायके लिये भी धर्मोको है। प्रयोगमें बानेका सिद्धान्त है। स्वामी समन्तभवने इस महामहोपाध्याय 1. गंगानाथ झा भूतपूर्व वाहचांस- सत्यका अधिक प्रयोग किया। स्याद्वाद एक वह यस्तो पर प्रयाग विश्वविधालयने इस सिद्धान्तकी महत्ता निम्न जिसके प्रयोग द्वारा साम्राज्यमें किसी प्रकारका उपद्रव रूपसे वर्णित की है और विरोध नहीं उपस्थित हो सकता।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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