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कुरलका महत्व और जैनधर्म
(श्री विद्याभूषण पं० गोविन्दराय जैन शास्त्री)
(गत किरणले मागे)
(8) तामिल जनतामें प्राचीन परम्परासे प्राप्त जन- एलेनाशनि हो गया है । यह एखेलाशिकन और कोई अति चली माती है कि कुरनका सबसे प्रथम पारायण नहीं एबचार्य ही हैं। कुंदकंदाचार्य ऐलसत्रियोंके वंशधर पांघराज 'उग्रवेरुवादि' के दरबारमें मदुराके १६ कवि थे, इसलिए इनका नाम एलाचार्य था। योंके समक्ष हुमा था । इस राजाका राज्यकाब श्रीयुत एम इन पर्याप्त प्रमाणोंके प्राधार पर हमने कुरनकाव्यका श्रीनिवास अय्यारने १२५ ईस्वीके बगभग सिद्ध रचनाकाल ईसासे पूर्व प्रथम शताग्दी निश्चित किया है। किया है।
और यही समय अन्य ऐतिहासिक शोधोंसे श्रीऐलाचार्य (२) जैन प्रन्योंसे पता लगता है कि ईस्वीसनसे
का ठोक बैठता है। मूलसंघकी उपलब्ध दो पहिवालयों . पूर्व प्रथम शताब्दीमें दक्षिण पाटलिपुत्र में विदसंघके
में तस्वार्थसत्रके कर्ता उमास्वातिके पहिले श्रीएखाचार्यका प्रमुख श्रीकुन्दकुन्दाचार्य अपर नाम एनाचार्य थे। इसके
नाम पाता है और यह भी प्रसिद कि उनास्वातिके अतिरिक्त जिन प्राचीन पुस्तकोंमें कुरलका उल्लेख पाया
गुरु श्री एलाचार्य थे। अतः कुरखकी रचना तवार्थसूत्रके है उनमें सबसे प्रथम अधिक प्राचीन 'शिवप्पदिकरम्' .
पहले की है। यह बात स्वता सिद्ध हो जाती है। नामका जैनकाम्य और 'मणिमेखले' नामक बौद्धकान्य है। कुरलका कुन्दकुन्द (एलाचार्य) रोनोंका कथा विषय एक ही है तथा दोनोंक कर्वा भापसमें विक्रम सं०११. में विद्यमान श्री देवसेनाचर्य अपने मित्र थे। बता दोनों ही काम्य सम-सामयिक हैं और दर्शनसार नामक ग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्य नामके साथ उनके दोनों में रख काग्यके बठे अन्यायका पांचवां पच उडत अन्य चार नामोंका उल्लेख करते हैं:किया गया है । इसके अतिरिक्त दोनोंमें कुरक्षके नामके पद्मनन्दि, वक्रमीवाचाय, एलाचार्य, गृद्धपिमारलोक और उत। "शिवप्पदिकरम्" च्छाचार्य।
वामिल भाषाके विद्वानोंका इतिहासकाल जानने के लिए श्री कुन्दकुन्दके गुरू द्वितीय भगवाह थे ऐसा बोधसीमा निर्णायकका काम करता है और इसका रचना- प्रामृतकी निम्न लिखित गायासे ज्ञात होता है। कार ऐतिहासिक विद्वानोंने इंसाकी द्वितीय शताब्दी
सहवियारो हो मासामुत्तेसु जं जिणे कहियं । माना है।
सो तह कहियं णाणं सीसेण य महवाहुस्स ॥ (१) यह भी जनधति है कि तिरुवल्लुवरका एक मित्र एलेलाशिान नामका एक व्यापारी कप्तान था । कहा
ये भद्रबाहु द्वितीय नान्दसंघकी प्राकृत पहावलीके जावा है कि यह इसी नामक चोलवंशके राजाका छठा अनुसार वीर निर्वाणसे ४६९ बाद हुए हैं। वंशज था, जो लगभग २०६० वर्ष पूर्व राज्य करता था कुरलकतोके अन्य ग्रन्थ तथा उनका प्रभाव और सिहलद्वीपके महावंशसे मालूम होता है कि ईसासे कुरजका प्रत्येक अध्याय अध्यात्म भावनासे प्रोत१. वर्ष पूर्व उसने सिंहलद्वीप पर पढ़ाई कर उसे प्रोत है, इसलिए विज्ञपाठकके मनमें यह कल्पना सहज विजय किया और वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। हो उठती है कि इसके कर्ता बने अध्यात्मरसिक महाइस शिान और उक्त पूर्वजके बीच में पांच पीरियाँ स्मा होंगे। और जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि इसके भाती हैं और प्रत्येक पीढ़ी ५० वर्षकी माने तो हम इस रचयिता वे एनाचार्य हैं जो कि मण्यात्मचक्रवर्ती थे जो नियंब पर पहुंचते हैं कि एलेखाशिान ईसासे पूर्व प्रथम यह कल्पना यथार्थताका रूप धारण कर लेती है। कारण शताब्दी में थे।
एखाचार्य जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्द है ऐसे ही बाव असलम यह है कि एखाचार्यका अपभ्रंश अद्वितीय अन्योंकि प्रणेता है।