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अनेकान्त
बिये विविध तपों और ध्यानादिके अभ्यास द्वारा शुब प्रकृतिवन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबनानेका उपाय बतलाया गया है। प्रस्तु मामाको बंध । बन्धके कारणोंको भावबन्ध कहते हैं। कोक बंधनसद करने के लिए इन तत्वोंका ज्ञान प्राप्त करना भी को इम्यबन्ध कहते है। जब कर्म बंधता है तब जैसी मन अत्यन्त पावरवक है। इनके जान बेमेसे प्रास्मादि का पचन कायकी प्रवृत्ति होती है उसके अनुसार कर्मपिण्डों ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
के बंधनका स्वभाव पर जाता है। इसीको प्रकृतिबंध कहते मसिद्धान्तमें सात तस्वोंके नाम इस प्रकार बतलाये
हैं। कर्मपिण्डोंकी नियत संख्याको प्रदेशबंध कहते है। गये :-, जीव, २. अजीब, ३. मानव.. बंधयह दोनों प्रकृति और प्रदेशबंध योगोंसे होते है, कर्मपिंक १. संवर, ६. निर्जरा और • मोर । इनमें पाप और जब बंधता है तब उसमें कालकी मर्यादा पड़ती है इसी पुरखको जोर देनेसे । पदार्थ हो जाते है।
कानकी मर्यादाको स्थितिबंध कहते है। कषायोंकी तीव्रता जीव-जो अपने चैतन्य लक्षण रखते हुये शाश्वत रहे
या मन्दताके कारण काँको स्थिति वीव या मन्द होती उसे जीवकी संज्ञा दी जाती है। अथवा ज्ञान, दर्शन
है। इसी समय उन कर्मपिंडोंमें तीन या मन्द फल दान
की शक्ति पड़ती है उसे अनुभामबंध कहते हैं। यह बंध और चेतनामय पदार्थको मात्मा या जीव कहते है, जो
भी कषायके अनुसार तीव या मन्द होता है। स्थितिबंध प्रत्येक प्राणीमें विद्यमान है वह सुख दुखका अनुभव
अनुमत्र और अनुभागबंध कषायोंके कारण होते है। करता है।
अजीव-विसमें जीवका बह चैतन्य लपवनो संबर-मानवका विरोधी संवर है। कर्मपिडोंके उसे अजीव या जब कहते हैं। अजीव पांच प्रकार के होते
पानेका रुक जाना संवर है। जिन मार्गोंसे कर्म रुकते है-1.पुद्गल, २. भाकाश, ३. काल, १.धर्मास्तिकाय
है उन्हें भावसंबर और कर्मोके हक जानेको दन्यसंवर और १. अधर्मास्तिकाव।
मानव-शुभ या अशुभ कर्म बंधने योग्य कर्म ___ जीवोंके भाव तीन प्रकारके होते है-अशुभउपयोग, वर्गणाओंके मानके द्वार या कारणको तथा उन कर्म- शुभउपयोग, भरि शुद्धउपयोग । भएभरपयोगसे पापकर्म पिण्डोंके मास्माकै निकट मानेको पाश्रव कहते हैं।
बंधता है,और शुभ उपयोगसे पुण्यकर्म बन्धता है, बपजो कमपिंडके पानेके द्वार या कारण हैं उनको भावा
योगके लाभ होने पर कर्मों का आवागमन रुक जाता सव कहते है और कर्मपिंडके भनेको अन्य मानव
है। पात्माको मव कर्मबंधनसे बचानेका उपाय शुद्ध कहते हैं। जैसे नौकामें विख, जबके प्रविष्ट होनेका उपयोग है।
निर्जरा-कर्म अपने समय पर फल देकर मरते हैं। सोनी
इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं। प्रात्मध्यानको लिए साहु ये तप करने व इच्छाओंके निरोधसे जब भावोंमें बीताकरते है, बचनसे वार्तालाप करते है और कायासे क्रियादि गता पाती है तब कर्म अपने पकनेके समयसे पूर्व ही करते हैं। जीवके प्रति दया, सत्यवचन, संतोषभावमादि
फल देकर मर जाते है। इसको भविपाक निर्जरा शुभ कर्म हैं। मिथ्याज्ञान, असत्यवचन, चौर्य, विषयोंकी कहते है। सम्परता आदि अशुभकर्म है। सारांश यह है कि स्वयं मोच-बामाके सर्व काँसे छट जानेकीव मागे नवीन अपने ही भावोंसे कर्मपिंडको आकर्षित करना मानव कर्म बंध होनेके धारयोंके मिट जामेको मोल तप तत्व कहलाता है।
कहते हैं। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर मारमा शुद्ध हो बंध-कर्मपिंडोंको प्रात्माके साथ दूध और पानीकी जाती है। इसी शुद्ध मास्माको सिद्धकी संज्ञा प्रदान हमिलकर एक हो जानेको बन्धकहते हैं। यहबंध की गई है। वास्तवमें कोष, मान, माया, लोभ, मोहपादि कषायोंका पुण्य कर्मको पुण्य और पाप कर्मको पाप कहते हैं। कार । बंधको चारभागों में विभक्त किया गया है- इन्ही सात तस्वोंके अन्दर इनका स्वरूप गर्मित है।