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हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान
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समन्तभद्र प्रकृतितः भा और शाम्ब कर्तव्य कर्ममें साहबसे कहा मापने समाजकी ब सेवा की है। और बदेही सावधान है।
उच्च कोटिका साहित्य भी निर्माण किया है। उसके साथ इन्होंने अपनी पुस्मक अवस्थामें चैनसमाजमें गुरुकुल
संस्थाको अपना धम भी दे शाखा है। अब पाप अपनी पद्धति पर शिक्षाका प्रचार किया और कितने ही बी०ए०
मोर भी देखिये और कुछ बात्म साधनको घोर अग्रसर एम. ए.शास्त्री, न्यायती योग्य कार्यकर्ता तैयार किये होनेका प्रयत्न कीजिये । मुख्तार साहबने मुनिजीसे कहा हैं। कारंजाका प्रसिद्ध ब्रह्मचर्याश्रम मापकी बदौलत ही कि मेरा पाश्मसाधमकी भोर खगनेका स्वयं विचार इतनी तरक्की करनेमें समर्थ हो सका है। अब भी यहाँ रहा है और उसमें यथाशक्ति प्रयत्न भी करूंगा। मुनिजी दो घण्टा स्वयं पढ़ाते हैं। गुरुकुलका स्थान सुन्दर गुरुकुलके एक सज्जनने मुख्तार साहबका चित्र भी है। व्यवस्था भी अच्छी है। प्राशा है गुरुकुल अपने को लिया और दूधका माहार भी दिया हम लोग यहांसे बोर भी समुचत बनाने में समर्थ होगा। उनसे प्रारम- २० मील चल कर कोल्हापुरमें दि. जैन बोकि कल्याण सम्बन्धि चर्चा हुई। मुनिजीने श्रीमुख्तार हाउस में, ठहरे।
क्रमशः परमानन्द जैन शास्त्री
हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान
(मीकुमारी किरणवाला जैन)
किसी पदार्थके यथार्थ स्वरूपको अथवा सारको वस्व पोदित होने पर जब वह बचके समीप जाता है सब पैच कहते है। उनकी संख्या सात है। उनमें जीव और जीव रोगीको परीक्षा करनेके पश्चात् बताता है कि वास्तव में जा और चेतन ये दो तत्व प्रधान है। इन्हीं दो तत्वोंके तो रोगी नहीं है, परन्तु निम्नकारयोंसे रे यह रोग उत्पा सम्मिश्रणसे अन्य तत्वोंकी सृष्टि होती है। संसारका सारा हुआ है। तेरा रोग ठीक हो सकता है परन्तु तुझे मेरे कडे परिणाम अथवा परिणमन इन्हीं दो तत्वोंका विस्तृत रूप अनुसार प्रयत्न करना पडेगा, तो इस रोगसे वेरा छुटकारा हो है। इन तत्वोंको जैन सिद्धान्तमें मास्माका हितकारी बताया सकेगा अन्यथा नीं। वैध रोगीको रोगका निदान बतखानेगया है और उन्हीं को जैनसिद्धान्तमें 'तस्व संज्ञा प्रदान की गई के बाद उससे छुटकारा पानेका उपाय बनाता है, उसके है। प्रात्माका वास्तविक स्वभाव शुद है। परन्तु वर्तमान बाद रोगकी वृद्धि न होनेके लिये उपचार करता है। संसार अवस्था पाप पुण्य रूपी काँसे मलिन हो रही है। जिससे रोगी रोगसे मुक्त हो सके। जैनतीर्थकरोंके कथनानुसार अस्माका पूर्ण हित, स्वाधीनता- इसी प्रकार मलिन बस्त्रको स्वच्छ करनेके पूर्व वस्त्र का बाम है जिसमें पारमाके स्वाभाविक सर्वगुण और उसकी मलिनताके कारणों को जानना मावश्यक है। विकसित हो जायें, तथा वह सर्व कर्मकी मलिनतासे मुक वस्त्र मलिन कैसे हुमा और किस प्रकार वस्त्रकी मकिहो जाय-छूट जाय । उस मन्तिम अवस्थाको प्राप्त होनाही नताको दूर किया जा सकता है जो व्यक्ति भनेक प्रयोगों मुकि है। पास्माके पूर्ण मुक्त हो जाने पर उसे परमात्मा द्वारा उसकी मलिनताको दूर करनेका प्रयत्न करता है वही कहा जाता है। उसीको सिद्ध भी कहते हैं। मुक्त अवस्था- मलिन बस्त्रको धोकर स्वच्छ कर लेता है। वस्तुकी मधिमें परमात्मा सदा अपने स्वभावमें मग्न होकर चिदानन्दका नताको दूर करनेका यही क्रम है अनेक प्रयोगोंके द्वारा उसे भोग करता है । जैनाचार्योंके अनुसार इसी मुख्य गश्य- गुद एवं स्वच्छ बनाया जासकता है। इसी प्रकार जेगाका निष्पक्षभावसे विचार ही तत्वज्ञान है। इन तत्वों द्वारा चार्योने भात्माको शुद्ध करनेकी प्रक्रिया, जानसे निकाले बताया गया है कि यह मामा वास्तव में तो राव है, परन्तु गए सुवर्णपाषाणको घर्षण वन वान-वापनादि प्रयोगों के वह समस्त कर्मकालिमाके सर्वथा वियोगसे होता है इसका द्वारा अन्तर्वासमवसे राव करनेके समान बनाई है। जैमग्रन्थों में विस्तृत विवेचन किया गया है जैसे रोगी रोगसे उसी तरह मामाको भी मन्तबधिमबसे मुक करने