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अनेकान्त
[करण १०
कविवर कहते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि जरा त्यों ही कुषिसन रत पुरुष होय अवसि अविवेक। (डापा) सत्यकी लषु बहन है फिर भी यह जीव अपने हित अनहित सोचे नही हिये विसनकी टेक ॥७२ हितकी चिन्ता नहीं करता, यह इस पास्माकी बड़ी भूल है। सज्जन टरै न टेवसौं, जो दुर्जन दुख देय । पही भाव उनके निम्न दोहेमें निहित है
चन्दन कटत कुठार मुख, अवसि सुवास करेय ।।१०॥ "जरा मौतकी लघुवहन यामें संशयनाहिं।। दुर्जन और सलेश्मा ये समान जगमांहि । तौ मी मुहित न चिन्तये बड़ी भूल जगमाहि ॥"६२ ज्यों ज्यों मधुरो दीजिये त्यों त्यों कोप कराहिं ।। ११३ रचनाएँ
जैसी करनी आचरै तैसो ही फल होय । कविकी इस समय तीन हतियाँ उपलब्ध है, जिनशतक, इन्द्रायनकी बेलिके आम न लागै कोय ॥ १२० पदसंग्रह और पार्श्वपुराव।
बढी परिग्रह पोट सिर, घटी न घटकी चाह । ये तीनों ही कृतियाँ अपने विषयकी सुन्दर रचनाएं हैं। ज्यों ईधनके योगमौं अगिन करै अति दाह ।। १५०
सारस सरवर तजगए, मुखो नीर निराट । हृदयकी अभिव्यंजक हैं। उनमें पाशवपुराणकी रचना अत्यन्त फलविन विरख विलोककै पक्षी लागे वाट ।। १६० सरल और संचित होते हुए भी पाश्र्धनाथके जीवनकी परि
कविवरने अपने पार्श्वपुराणकी रचना संवत् १७८६ में चायक है। जीवन-परिचयके साथ उसमें अनेक सूक्रियाँ
प्रागरामें अषाढ सुदि पंचमीकै दिन पूर्ण की हैऔर जिनमौजूद हैं जो पाठकवं हृदयको केवल स्पर्श ही नहीं करती।
शतककी रचनाका उल्लेख पहले किया जा चुका है। पदप्रत्युत उनमें वस्तुस्थितिके दर्शन भी होते हैं। पाठकोंकी
संग्रह कविने कब बनाया । इसका कोई उल्लेख अभी तक जानकारी के लिए कुछ सूकि पद्य नीचे दिये जाते हैं
प्रास नहीं हुआ। मालूम होता है कविने उसकी रचना भित्र सपजे एकहि गर्भसौं सज्चन दुजेन येह । भिन्न समयों में की है। इस पदसंग्रहमें कविकी अनेक भावलोह कवच रक्षा करे खांडो खंडे देह ॥ ५८ पूर्ण स्तुतियोंका भी संकलन किया गया है जो विविध समयों दर्जन दृषित संतको सरल सुभाव न जाय। में रची गई हैं।
हापणकी छवि छारसौं अधिकहिं उज्जवल थाय || पिता नीर परसे नहीं, दूर रहे रवियार । - संवत् सतरह शतकमैं, और नवासी लीय । ता अंबुजमें मूढ अलि उझि मरै अविचार ।।७१ सुदि अषाढतिथि पंचमी मंथ समापत कीय ॥
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