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________________ किरण १०] कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा ३०४ मुकती है, यह सब जानते हुए भी अनजान सा क्यों हो अथवा प्रारम कमजोरी है। इस कमजोरीको दूर कर मुझे • रहा है यह रहस्य कुछ मेरी समझमें नहीं पाता प्रात्मबल बढ़ाना आवश्यक है । वास्तवमें जिनभगवान और हे भूधर ! परपदार्यों पर तेरे इस रागका कारण अनन्त- जिनवचन ही इस प्रसार संसारसमुद्रसे पार करनेमें समर्थ जन्मोंका संचित परमें मारम-कल्पनारूप तेरा मिथ्या मध्य- है। अतः भव-भवमें मुझे उन्हींकी शरण मिले यही मेरी वसाय ही है जिसकी वासनाका संस्कार तुझे उनकी भोर भाक- आन्तरिक कामना हैxजिन वचनोंने ही मेरी रष्टिको निर्मल र्षित करता रहता है-बार बार भुकाता है। यही वासना बनाया है और मेरे उस प्रान्तविवेकको जागृत किया है रूप संस्कार तेरे दुःखोंका जनक है। अतः उसे दूर करनेका जिससे मैं उस अनादि भूलको समझ पाया है। जिनवचनप्रयत्न करना ही तेरे हितका उपाय है। क्योंकि जब तक परमें रूप ज्ञानःशलाकासे वह अज्ञान अन्धकार रूप कल्मष अंजन तेरी उक्र मिथ्या वासनाका संस्कार दर नहीं होगा तब तक पर धुल गया है और मेरी प्टिमें निर्मलता प्रागई है। अब मुके पदार्थोंसे तेरा ममत्व घटना संभव नहीं है। यदि तुझे अपने सांसारिक मंझटें दुखद जान-जान पड़ती है। और जगत के हितकी चिन्ता है, द सुखी होना चाहता है, और निजानन्द- ये सारे खेल प्रसार और मूठे प्रतीत होते हैं। मेरा मन प्रय रिसमें लीन होनेकी तेरी भावना है तो तू उस प्रामक संस्कार- उनमें नहीं लगता, यह इन्द्रिय विषय कारे विषधरके समान 'को छोड़नेका शीघ्र ही प्रयत्न कर, जब तक ऐसा प्रयत्न भयंकर प्रतीत होते हैं। मेरी यह भावना निरन्तर जोर पर नहीं करता तब तक तेरा वह मानसिक दुःख किसी तरह भी बती जाती है कि तू अब घरसे उदास हो जंगल में चला जा, कम नहीं हो सकता, किन्तु वह तेरे नूतन दुःखोंका जनक और वहाँ मनकी उस चंचल गतिको रोकनेका प्रयत्न कर, होता रहेगा। अपनी परिणतिको स्वरूपगामिनी बना वह अनादिसे परइस तरह विचार करते हुए कविवरने अपनी भूल पर गामिनी हो रही है, उसे अपनी ज्ञान और विक ज्योतिके गहरा विचार किया और प्रारम-हितमें बाधक कारयका पता द्वारा निर्मल बनानेका सतत उद्योग कर, जिससे अविषम लगा कर उसके छोड़ने अथवा उससे छूटनेकी भोर अपनी ध्यानकी सिद्धि हो, जो कर्म कलंकके जलानेमें असमर्थ है। शक्ति और विवेककी ओर विशेष ध्यान दिया । कविवर क्योंकि भारम-समाधिकीदता यथाजात मुबाके बिना नहीं हो सोचते हैं कि देखो, मेरी यह भूल अनादि कालसे मेरे एखों- सकती। और न विविध परीषहोंके सहनेकी वह समता ही की जनक होती रही है, मैं बावला हया उन दःखोंकी प्रसाद पा सकती है। कविवरकी इस भावनाका वह रूप निम्न बेदनाको सहता रहा है,परंतु कभी भी मैने उनसे छटनेका सही पद्यमें अंकित मिलता है। उपाय नहीं किया, और इस तरह मैने अपनी जिन्दगीका कब गहवाससौं उदास होय वन सेॐ. बहुभाग यों ही गुजार दिया। विषयोंमें रत हुमा कर पर- ऊँ निजरूप गति रोकू मन-करीकी । म्पराकी उस बेदनाको सहता हुआ भी किसी खास प्रीतिका रहिही बडोल एक आसन अचल अंग, कोई अनुभव नहीं किया । दुखसे छूटनेके जो कुछ उपाय अब सहिही परीसा शीत घाम-मेष-मरीकी । तक मेरे द्वारा किए गए है वे सब भ्रामकथे। अपनी • सारंग समाज कवी खुजै है पानि, मिथ्याचारबावश अपने दुःखोंका कारण परको सममता रहा ध्यान-दल-जोर जीतू सेना मोह-अरीकी । और उससे अपने राग-द्वेष रूप कल्पनाजाबमें सदा उब- एकल विहारी जथाजात लिंगधारी कब, मता रहा, यह मेरी कैसी नादानी (अज्ञानता) थी जिसकी होऊँइच्छा चारी बलिहारी हौवा घरी की। मोर मेरा कभी ध्यान ही नहीं जाता था, अब भायोक्षसे कविवरकी वह उदास भावना रक्के समुचत जीवनको मेरे उस विषकको जागृति हुई है जिसके द्वारा अपनी प्रतीक है। कविको उपक्षध रचनाएँ उनकी प्रथम साक उस अनादि भूलको सममनेका प्रयत्न कर पाया हैअब अवस्था की है जिनका ध्यानसे समीक्षण करने पर उनमें मुझे यह विश्वास हो गया है कि मैं उन दुःखोंसे वास्तविक कविकी अन्तर्भावना प्रच्या रूपसे कित पाई जाती है। छुटकारा पा सकता हूँ। पर मुझे अपनी उस सं स्थाका जो उनके मुमुह जीवन बितानेकी भोर संकेत करती है। ख्याल बार बार क्यों पाता है। जिसका ध्यान पाते ही इस आसार संसारमैं और न सरन उपाय। मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह मेरी मानसिक विका जन्म-जन्म जो हमैं, जिनवर धर्म सहाय ।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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