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________________ कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा ( परमानन्द जैवशाली) हिन्दीभाषाके जैनकरियों में पं. भूधरदासजीका नाम भी कविवरकी पाल्मा जैनधर्म रहस्यसे केवल परिचित ही उल्लेखनीय है। भाप भागरेके निवासी थे और भापकी जाति नहीं थी किन्तु उसका सरस रस उनके बारम-प्रदेशों में मिद श्री खंडेलवाल । उन दिनों प्रागरा अध्यात्मविद्याका केख बना चुका था, जो उनकी परिणतिको बदलने तथा सरस बनाने दुपा था। भागरेमें माने जाने वाले सज्जन उस समय वहां- एक अद्वितीय कारण था। उन्हें कविता करनेका बना की गोष्ठीसे पूरा नाम लेते थे। अध्यात्म के साथ वहां अभ्यास था। उनके मित्र चाहते थे कि कविवर अस ऐसे माचार-मार्गका भी खासा अभ्यास किया जाता था, प्रतिदिन साहित्यका निर्माण कर जांब, जिसे पढ़कर दूसरे खोग भी शामसभा होती थी, सामायिक और पूजनादि क्रियाओंके अपनी प्रात्म-साधना अथवा जीवनचर्याक साब वस्तुतत्वको साथ भात्म-साधनाके मार्ग पर भी चर्चा चलती थी। हिंसा, समने में सहायक हो सकें। उन्हीं दिनों बागरेमें जवसिंह मूठ, चोरी, कुशीन और पदार्थसंग्रहरूप पापोंकी निवृत्तिके सवाई सूबा और हाकिम गुलाबचन्द यहां पाए, शाहहरीलिये यथाशक्य प्रयत्न किया जाता था और बुद्धिपूर्वक उनमें सिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य थे उनकी बार-बार प्रवृत्ति न करनेका उपदेश भी होता-था, गोष्ठीके प्रायः सभी प्रेरखासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने सं. सदस्यगब उनका परिमाण अथवा त्याग यथाशक्ति करते थे, 1051 में पौष कृष्णा के दिन 'शतक' नामका अन्य और यदि उनका त्याग करनेमें कुछ कचाई वा शक्ति बनाकर समास किया। मालूम होती थी तो पहले उसे दूर करनेका यथा साध्य अध्यात्मरसकी चर्चा करते हुए कविवर प्राम-रसमें प्रयल किया जाता था, उस मारम निबंबता (कमजारा) का विमोर हो उठते थे। उनका मन कभी-कभी बेराग्यकी तरंगों दूर कर करने की चेष्टा की जाती थी, और उनके त्यागकी में उबलने लगता था। और कमी-कमी उनकी दृष्टि पन स. भावनाको बलवती बनाया जाता था, तथा उनके त्यागका चुप- सम्पदाको चलता सम्पदाकी चंचलता, अस्थिरता और शरीर भादिकी उस चाप साधन भी किया जाता था। बाहरके लोगों पर इस बात विनाशीक परिणति पर जाती थी, और जब वे संसारकी उस का बड़ा प्रभाव पड़ता था और वे जैनधर्मकी महत्तासे दुःखमय परिणतिका विचार करते जिसके परिणमनका एक प्रेरित हो अपनेको उसकी शरणमें ले जाने में अपना गौरव भी कभी-कभी उनकी मान्योंके सामने मा जाया करता था। तो वे यह सोचने ही रह जाते थे कि अब क्या करना चाहिये, जो नवागन्तुक भाई राज्यकार्यमें भाग लेते थे, वे रात्रिमें इतनेमें मनकी गति बदल जाती थी और विचारधारा उस अवकाश होनेपर धर्मसाधनमें अपनेको लगाने में अपना कर्तम्य समझते थे। उस समय धर्म और तजनित धार्मिक क्रिया- स्थानसे दूर जा पड़ती थी, अनेक तणाएँ उत्पच होती और काण्डपदी श्रद्धा तथा प्रात्म-विश्वासके साथ किये जाते समा जाती थों अनेक विचार पाते और चले जाते थे, पर थे, आजकल जैसी धार्मिक शिथिलता या प्रश्रद्धाका कहीं पर अपने जीवनका कोई अन्तिम बच्च स्थिर नहीं कर पा रहेथे। घरके भी सभी कार्य करते थे, परन्तु मन उनमें वहीं बागवा भी पाभास नहीं होता था । श्रद्धालु धर्मात्मामोंकी उस समय कोई कमी भी नहीं थी, पर आज तो उनकी संख्या था, कभी प्रमाद सताता था और कभी कुछ दयमें धात्मअत्यन्त विरख दिखाई देती है। किन्तु लोकदिखावा करनेवाले प्रागरे मैं बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालकके स्याया सौ-दोसौ रूपया देकरसंगमरमरका फर्शादि बगवाकर नाम सौ कवित्त कर जाने है। ऐसे ही करत भयो जैसिंघ सवाई खुदवानेवाले तथा अपनी इष्ट सिदिके लिये बोलकबूल या मान- सूवा, हाकिम गुलाबचन्द भाये तिहि थान है। हरीसिंह मनौती रूप अभिमतकी पुष्टिमें सहायक पदमावती मादि शाहके सुवंश धर्मरागी मर, तिनके कडेसी जोरि कीनी एक देवियोंकी उपासना करने वाले लोगोंकी भीड़ अधिक दिखाई ठाने है। फिरि-फिर रे मेरे पालसको अन्त भयो, उनकी देती है। ये सब क्रियाएँ जैनधर्मकी निर्मल एवं निस्पृह सहाय यह मेरो मन माने है ॥ सहरवसे इत्यासिया पोह मात्मपरिणतिसे सर्वया मित्र है उनमें बैनधर्मकी उस पास तमसीन।-तिथितेरस रविवारको सतक समापत कीन। प्राय-अविद्याका अंशमी नहीं है। -जिन शतक प्रशस्ति। समझते थे।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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