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________________ ३०६] [किरण १० हितकी जो तरंग उठती थी वह भी विदा हो जाती थी किन्तु दी, 'तो मैं कब स्वहित करूंगा? फिर मुझे जीवन में केवल संसारके दुःखोंले छूटनेकी जो टीस हृदयमें पर किये हुए वी पहावा ही रह जायगा । पर एक बात सोचने की है और बहरम होतीबी, और न उसकी पूर्तिका कोई ठोस प्रयत्न ही वह यह कि यह प्रज्ञ मानव कितना अमिमानी है, रूप हो पाता था। अध्यात्मगोष्ठीमें जाना और चर्चा करनेका विषय सम्पदाका लोभी, विषय-सुखमें मग्न रहने वाला नरकीट है, उसी क्रमसे बराबर चल रहा था, उनके मित्रोंकी तो एकमात्र बूतेकी दशाको देखकर तरह-तरहके विकल्प करता है, परके अमिताचा थी 'पचबद्धसाहित्यका निर्माण। अतः जब वे बुढ़ापे और उसके सुख-दुखकी चर्चा तो करता है किन्तु अक्सर पाते कविवरको उसकी प्रेरणा अवश्य किया करते थे। अपनी ओर मांककर भी नहीं देखता, और न उसकी दुर्वल एक दिन अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे कि वहांसे दुःखावस्यामें, अनन्त विकल्पोंके मध्य पड़ी हुई भयावह अवएकपूर पुरुष गुजरा, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि स्थाका अवलोकन ही करता है, और न आशा तृप्याको अत्यन्त कमजोर बी, दुबला-पतला लठियाके सहारे चल रहा जीतने अथवा कम करनेका प्रयत्न ही करता है। हां, चाहथा, उसका सारा बदन कांप रहा था, मुहले कमी-कभी लार दाहकी भीषण ज्वालामें जलाता हुआ भी अपनेको भी टपक पड़ती थी। बुद्धि शठियासी गई थी। शरीर अशक सुखी मान रहा है । यही इसका अज्ञान है, पर हो रहा था किंतु फिर भी वह किसी भाशाले चलने का प्रयत्न कर इस अज्ञानसे छुटकारा क्यों नहीं होता ! उसमें चार रहा था। यद्यपि लठिया भी स्थिरतासे पकड़ नहीं पा रहा था बार प्रवृत्ति क्यों होती है यह कुछ समझ नहीं पाता, यह वह वहांसे दस पांच कदम ही आगेको चल पाया था कि देव- शरीर जिसे मैं अपना मान कर सब तरहसे पुष्ट कर रहा हूँ योगले उसकी खाठी कट गई और वह बेचारा धड़ामसे नीचे एक दिन मिट्टीमें मिल जायेगा । यह तो जड़ है और मैं स्वयं गिर गया, गिरने के साथही उसे लोगोंने उठाया, खड़ा किया, शायक भावरूप चेतन द्रव्य है, इसका और मेरा क्या नाता, वह हांप रहा था, चोट लगनेसे कराहने लगा, लोगोंने उसे मेरी और इस शरीरकीकी जाति भी एक नहीं है फिरभी जैसे-तैसे साठी पकदाई और किसी तरह उसे ले जाकर उसके चिरकालसे यह मेरा साथी बन रहा है और मैं इसका दास घर तक पहुँचाया। उस समय मित्रोंमें बूढेकी दशाका और बन कर बराबर सेवा करता रहता हूँ और इससे सब काम उसकी उस घटनाका जिक्र चल रहा था । मित्रोंमेंसे एकने भी लेता हैं। यह सब मैं स्वयं पढ़ता हूँ और दूसरोंसे कहता कहा भाई क्या देखते हो? यही दशा हम सबकी आने वाली भी हैं फिर भी मैने इन दोनोंकी कभी जुदाई पर कोई ध्यान है, उसकी व्यथाको वही जानता है, दूसरा तो उसकी व्यथा- नहीं दिया और उसे बराबर अपना मानता रहा, इसी कारण का कुछ अनुभव भी नहीं कर सकता, हमें भी सचेत स्वहित करनेकी बात दूर पड़ती रही, इन विचारोंके साथ होनेकी पावश्यकता है, कविवर भी उन सबकी बातें सुन कविवर निद्राकी गोदमें निमग्न हो गये। रहे थे, उनसे न रहा गया और वे बोल उठे प्रातःकाल उठकर कविवर जब सामायिक करने बैठे. आयारे बुढ़ापा मानी सुधि बुधि विसरानी। तब पुनः शरीरकी जरा अवस्थाका ध्यान आया। और श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चले अटपटी, देह लटी विधर सोचने लगेभूख घटी, लोचन मरत पानी ॥१॥ दाँतनकी पंक्ति जब चर्खा पुराना पड़ जाता है, उसके दोनों खूटे हिलने टूटी हाडनकी संधि छूटी, कायाकी नगरि लूटी, जात चलने लग जाते हैं, उर-मदरा स्वखराने लगता है-आवाज नहिं पहिचानी ॥२॥ बालोंने वरन फेरा, रोगने शरीर करने लगता है। पंखुबिया छिद्दी हो जाती हैं, तकनी बल घेरा, पुत्रहू न आवै नेरा, औरोंकी कहा कहानी ||३| खाजाती है-वह नीचेकी अोर नव जाती है, तब सूतकी गति भूधर सममि अब, स्वहितकरेगो कब ? यह गति सीधी नहीं हो सकती, वह बारबार लूटने लगता है । प्रायुहै है जब, तब पछतैहै प्रानी ॥४॥ मान भी तब काम नहीं देती, जब सभी अंग चनाचन हो पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और यह जाते हैं तब वह रोजीना मरम्मत चाहता है अन्यथा वह कहा कि यही दशा तो हमारी होने वाली है, जिस पर हम अपने कार्य में प्रथम होजाता है। किन्तु नया चरखता सबका कुछ दिलगीर और कभी कुछ इंस से रहे है। यदि हम अब मन मोह लेता है, वह अपनी अबाधगतिसे दूसरोंको अपनी नहीं संभले, न चेते, और न अपने हितकी ओर रष्टि मोर प्राकर्षित करता है, किन्तु पुरातन हो जाने पर उसकी
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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