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कक्किर भूपरदास और उनकी विचारधारा
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भीवही दशा हो जाती है, और अन्त में वह चिनका काम पुरुषार्थकी कुल कमी है। यह सब विकल्पज कविको देता है। ठीक इसी प्रकार जब यह शरीर रूपी र्खा पुराना स्थिर नहीं होने देते थे। पर मंदिरजीमें प्रवेश करते ही ज्यों पर जाता है, दोनों पग मशक हो जाते हैं। हाथ, मुंह, ही अन्दर पार्श्वप्रभुकी मूर्तिका दर्शन किया त्यों ही रहिमें नाक, कान, प्रांख और हृदय मावि, शरीरके सभी अवयव कुछ अद्भुत प्रसादकी रेखा प्रस्फुटित हुई । कविवरकी रष्टि अर्जरित, निस्तेज और चनाचत हो जाते हैं तब शब्दको गति मूर्तिके उस प्रशांत रूप पर जमी हुई थी मानों उन्हें साहात भी ठीक ढंगसे नहीं हो सकती। उसमें प्रशक्ति और बद. पार्श्वप्रभुका दर्शन हो रहा था, परन्तु शरीरकी सारी चेटाएँ खड़ानापन आ जाता है। कुछ कहना चाहता है और कुछ किया शून्य निश्चड थीं। कविवर प्रारम-विभोर -मानों के कहा जाता है । पर्खेकी तो मरम्मत हो जाती है। परन्तु इस समाधिमें तल्लीन हों, उनके मित्र उन्हें पुकार रहे थे, पंडित शरीर रूपचलंकी मरम्मत वैचोंसे भी नहीं हो सकती। जी प्राइये समय हो रहा है कुछ अध्यात्मको पर्चा द्वारा उसकी मरम्मत करते हुए वैध हार जाते हैं ऐसी स्थितिमें प्रारमबोध करानेका उपक्रम कीजिये पर दूसरोंको कविवरकी आयुकी स्थिति पर कोई भरोसा नहीं रहता, वह अस्थिर हो उस दशाका कोई प्रामास नहीं था, हाँ, दूसरे लोगोंको तो जाती है। किन्तु जब शरीर नया रहता है, उसमें बल, तेज इतना ही ज्ञात होता था कि प्राजकविवरकारा प्रसव है। और कार्य करनेकी शक्ति विद्यमान रहती है। तब वह दूसरों के भक्केि प्रवाहमें निमग्न है। इतने में कविवरके पढ़नेकी को अपनी ओर आकर्षित करता ही है। किन्तु शरीर और आवाज सुनाई दी, वे कह रहे है:उसके वदिक गुणोंके पलटने पर उसकी वही दशा हो
भवि देखि छवि भगवानकी। जाती है। और अन्तमें वह अग्निमें जला दिया जाता है।
सुन्दर सहज सोम पानंदमय, दाता परम कल्याणकी। ऐसी स्थितिमें हे भूधर ! तुम्हीं सोचो, तुम्हारा क्या कर्तव्य
नासादृष्टि मुदित मुख वारिज, सीमा सब उपमानको । है। तुम्हारी किसमें भलाई है। यही भाव कविके निम्नपदमें गुंफित हुए हैं
अंग अडोल अचल आसन दिद, वही दशा निज ध्यानकी।
इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्धमई शिव-थानकी। चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना ॥
ऐसे प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा - धात - परवानकी। पग खूटे दो हाल न लागे, उरमदरा खखराना।
जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी । छीदी हुई पांखुड़ी पांसू , फिर नहीं मनमाना ॥११॥
तृषत होत 'भूधर' जो अब ये, अंजुलि अमृतपानकी । रसनातकलीने बलखाया, सो अब कैसे खूटे।
हे भाई ! तुम भगवानकी छबीको देखो, वह सहज शब्द सूत सूधा नहिं निकस, घड़ी-घड़ी पल टूटै ॥२॥
सुन्दर हैं, सौम्य है, आनन्दमय है, परम कल्याणका दाता है, श्रायु मालका नहीं भरोसा, अङ्ग चल.चल सारे। रोज इलाज मरम्मत चाहें, वैद बाद ही हारे ।।३।।
नासादृष्टि है, मुख कमल मुदित है, सभी अंग अडोल और नया चरखला रंगाचंगा, सबका चित्त चुरावै।।
भासन सुहढ है, यही दशा प्रात्म-ध्यानकी है । इसी योगापलटा वरन गये गुन अगले. अब देख नहिं आवै ॥ सन और योग्यानुष्ठानसे उन्होंने वसुविध-समिधि जला कर
शिव स्थानकी प्राप्ति की है इस तरह धातु-पाषाएकी यह मूर्ति मोटा महीं काम-कर भाई, कर अपना सुरमेरा।
प्रात्म-मार्गका दर्शन कराती है। जिसके दर्शनसे फिर अन्यके अंत भागमें इंधन होगा, भूधर समझ सबेरा ॥५॥ कविवर इस पदको पढ़ ही रहे थे कि सहसा प्रातः काल
देखनेकी अभिलाषा भी नहीं रहती । प्रत. हे मधुर ! तू तूस उठकर कविवर जब सामायिक करने बैठे तब उस बद
होकर उस छविका अमृत पान कर, वह तुझे बड़े भारी माग्य
से मिली है। जिसका विमल दर्शन दुःखोंका नाशक है और की दशाका विकल्प पुनः उग्र, जिसे कविने जैसे तैसे दवाया और नित्यकर्मसे निमिटकर मंदिरजीमें पहुंचे। मंदिरजीमें
पूजनसे पातकोंका समूह गिर जाता है । उसके बिना इस जानेसे पहले कविवरके मनमें बारबार यह भावना उद्गत हो
खारी संसार समुद्रसे अन्य कोई पार करने वाला नहीं है।। रही थी कि पात्मदर्शन कितनी सूक्ष्म वस्तु है क्या मैं उसका अता तू उन्हांका ज्यान घर, एक भी उन्हें मत छोड़ पात्र नहीं हो सकता है जिन दर्शन करते करते युग बीत गये १देखत दुख भाजि जाति दशों दिश पूजत पातकज गिरे। परन्तु प्रात्मदर्शनसे रिक रहे, यह तेरा अभाग्य है या तेरे इस संसार बार सागरसों और न कोई पार करे।