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कर गया । धनकी उप्ाता मनुष्यको गति देती है, स्फूर्ति देती है । एक दिन चलते-चलते सन्ध्याका समय होने लगा । एक ग्राम समीप ही दृष्टिमें आया । अमूल्य रत्न लेकर ग्राम में जाना उचित न सभ कर अनुज बोला- 'भाई ! आप मांग लेकर यहीं ठहरें, मैं भोजनकी सामग्री लेकर शीघ्र ही आता हूँ ।' इतना कह कर वह प्रानकी ओर चल दिया ।
अनेकान्त
शूरचन्द्रके अदृश्य होते ही शूरमिन रत्नको देख'देख कर मोचने लगा- 'कितना कीमती है मरिण ! म एक है, बांटने वाले हैं दो ? अमूल्य मरिण मेरे ही पास क्यों न रहे ? चन्द्रको हिस्सेदार बनाया ही क्यों जाय ? थोड़ा सा प्रयत्न ही तो करना है चन्द्र चिरनिद्रा में सोया कि रत्न एकका गया । marat सम्पूर्ण वैभव, एकाकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा और एकाकी सम्पूर्ण कीत्ति की धारा प्रवाहित होगी मेरे नाम पर । नया घर बसेगा, नवीन वधू आयेगी, सन्तान-परम्परा विकसित होगी। समस्त संगीत भरा संसार एकका
होगा । दूसरा क्यों रहे मार्गमें बाधक ? पनपनेके पूर्व ही बाधाका अंकुर तोड़ ही क्यों न दिया जाय ? काँटा तोड़नेके बाद ही तो फूल हाथ श्राता है।' लालसा की तीव्रताने विचारों को धीरे-धीरे दृढ़ बनाना प्रारम्भ कर दिया । वेभवका महल अनुजकी लाश पर रखे जानेंका उपक्रम होने लगा । कुछ समय बाद अनुज सामने आया । उसकी आकृति पर संकोच था । वह आने ही वोला- 'भाई ! बड़े व्याकुल हो नहीं हुई मुझे भोजन लाने में? लो, श्रय भोजन ग्रहण करो ।
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समाप देर तो शीघ्र ही
[ किरण १५
किया है।” इतना कहते-कहते उसने रत्नको अनुजके हाथों में सौंप दिया। अनुजकी समझमें यह विचित्र घटना एक पहेली वन कर रह गई । प्रभात होते ही फिर प्रस्थान किया । धीरे धीरे पुनः दिन ढलने लगा । पुनः किसी नगर के समीप वसेरा किया। ज्येष्ठ बोला"मणि सम्हाल कर रखना, मैं भोजन लेकर शीघ्र ही लौहूँगा ।" इतना कह कर वह नगरकी ओर चल दिया ।
अनुजका स्वाभाविक आत्मीयताने ज्येष्ठके विकारी मनको झकझोर डाला । विरोधी विचार टूट टूट कर गिरने लगे । अनायास ही बाल्यकालका अनोखा प्यार स्मृति-पट पर अति होने लगा। नन्हें-से चन्द्रकी लीलाएँ एक-एक करके चित्रोंकी भांति आँखों सामने आने लगीं । ममतासे हृदय गीला हो चला और अनुजको खींच कर अपने हृदयसे लगाते हुए वह बोला- 'चन्द्र ! यह रत्न अपने पास ही रखा। रत्नका भार अब असह्य हो चला है। छोटेसे मणिने मेरे आत्मिक सन्तुलनको नष्ट कर देनेका दुस्साहस
शूरमित्रके जानेके बाद शूरचन्द्रने रत्न निकाल कर हथेली पर रखा । उसे ऐसा लगा मानों सारा विश्व ही उसकी हथेली पर नाच रहा हो। कितना कीमती है ? करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का होगा ? नहीं, इससे भी अधिकका है । पर मैं क्यों मानता हूँ इसे केवल अपना ? ज्येष्ट भ्राताका भी तो भाग है इसमें । अंह ! होगा ज्येष्टका हिस्सा। बांटना, न बांदना मेरे ही तो आधीन है आज। पर, कैसे होगा ऐसा ? रास्ते से हटाना होगा ? वैभवकी पूर्णताके लिये बड़े-बड़े पुरुषोंने भी पिता तकका वध किया है। वैभव और प्रतिष्ठाक राहसे द्वित्वको हटाना ही होता है । है,
पर विभाजन तो उसीके कारण है । सारे कृत्योंका श्रय ज्येष्ठको ही मिलता है और अनुजं आना है बहुत समय बाद दुनियां को दृष्टिमें । ज्येष्ठ ही वैभव और प्रतिष्ठा पर दीर्घकाल तक छाया रहे, यह कैसे सहन होगा ? सामने ही अन्धकूप है, पानी भरने को जायगा । बस, एक ही धक्केका तो काम है ।" इन्हीं रौद्र विचारोंमें उसके भविष्यका मधुर स्वप्न और भी रंगीन हो चला
"पत्नी आयेगी । भवन किलकारियोंस भर जाएगा। वह भी एकमात्र घरकी अधिस्वामिनी क्यों न होगी ? जेठानीका अंकुश क्यों होगा उसके ऊपर ? वह स्वाधीन होगी, एकमात्र स्वामित्व होगा उसका भृत्य वर्ग पर ।"
इसी समय शूरमित्र श्राता हुआ दिखाई दिया । शूरचन्द्र भयसे सहसा कांप गया । दुष्कल्पनाओं उसके मनको विचलित कर दिया। आकृति पर पीलापन छा गया। सोचने लगा--"ज्येष्ठकी आकृति पर हास क्यों ? क्या समझ गया है उसकी विचार धाराको ?"