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किरण ११ ] वैभव की शृखलाए
[३४५ शूरमित्र ममीप आते ही बोला-चन्द्र ! बेचैन ही शूमित्रने वह अमूल्य मणि बेतवाके प्रवाहमें इस क्यों हो? कुछ देर तो अवश्य हो गई है। लो; अब प्रकार फेंक दिया जैसे चरवाहोंके बच्चे मध्यान्हमें जल्दी ही भोजन करो।" यह कहते-कहते उसने बड़े नदीके तीर पर बैठ कर जलमें तरंगे उठानेके लिए स्नेहसे अनुजके सामने भोजन सामग्री रख दी। कंकड़ फेंकते हैं। रत्नके जल में विलीन होते ही दोनोंने
अनुजका मन स्नेहक बन्धनमें आने लगा। अपने सुखकी साँस ली, स्नेहका गढ़ अभेद्य हो गया। अब मानसिक पतन पर रह-रह कर उसे पश्चाताप होने उसमें लालच जैसे प्रबल शत्रके प्रवेशके लिए कोई लगा-"ज्येष्ठ भ्राता पिता-तुल्य होता है। कितना नीच मागे अवशेष न था। मार्ग तय हो चका था। स्नेहसे हूँ में ? एक मणिके लिए ज्येष्ठ भ्राताका वध करनेको परिपूणे दोनों भाई अपने घर जा पहुंचे। उद्यत हुआ हूँ ! वाह रे मानव ! बुद्र स्वार्थके भीषणनम स्वप्न बनाने लगा ! भ्रातृद्रोही! तुझे शान्ति न पुत्र-युगलका मुख देखते ही माताकी ममता उमड़ने मिलेगी। तेरी कलुषित आत्मा जन्म-जन्मान्तर तक लगी। बहिनने दौड़ कर उन्हें हृदयसे लगा लिया। भटकती रहेगी। वाह री वैभवकी आग ! अन्तरके माँ बोली-कैमा समय बीता परदेशमें ? नहको जलानेके लिए मैं ही अभागा मिला था तुझे ? शूरमित्र गम्भीरता पूर्वक बोला-माँ ! परदेश तो अनुज विचारोंमें खो रहा था और ज्येष्ठ उसके मस्तक
परदेश । सुग्व दुख मब सहन करने पड़ते हैं। पर हाथ रखकर सींच रहा था स्नेह । स्नेहकी धारा बहने
जीवनके हर्ष विपाद मामने आए, लोभन श्राप । लगी और बहने लगा उसमें अनुजका विकारी मन।
मब पर विजय पाकर दोनों उसी स्नेहसे परिपूर्ण आपशुरचन्द्र अपने आपको अधिक समय तक न सम्हाल में सका, स्नेहसे गद्-गद् होता हुआ वह, शूरमित्रके चरणोंमें लोटने लगा। कैसी थी वह आत्मग्लानिकी
माता पुत्रोंक विश्राम और भोजनके प्रबन्धके
लिए व्याकुल थी। समस्त छोटी-मोटी बातें रात्रिके पीड़ा हृदय भीतर ही भीतर छटपटा रहा था। जैसे
लिए छोड़ कर वह बाजार गई और रोहित नामक अन्तरमें कोई मुष्टिका प्रहार ही कर रहा हो। अनुज कराह उठा । वह टूटे कण्ठसे बोला- हे ज्येष्ठ भ्रात!
मछली लेकर घर आ पहुंची। पुत्रीने सारा सामान हे पितातुल्य भ्रात ! लो इम पापी मणिको। लो इस
व्यवस्थित कर ही दिया था। उसने ज्यों ही मछली
को थोड़ा चीरा ही था कि हाथ सहसा रुक गये, श्राश्च- . पतनकी आधारशिलाको । दा हृदयोंमें दीवार बनाने
यसे मुम्ब विस्फारित होकर रह गया। मछलीके पेट में वाले इम पत्थरको आप ही मम्हालो एक क्षण भी यह
दिव्य-मणि ! हाथमें मणि लेते ही वह सोचने लगीभार असा है मुझे ज्येष्ट!
आज वर्षों के बाद देखा है ऐसा महार्घ मणि । वर्षोंका ज्येष्ठकी आँखांसे धारा वह रही थी । वह लड़ख- दारिद्र नष्ट होनेको है क्षण भरमें । पुत्रोंको दिखाऊँ ड़ाते स्वर में बोला-"अनुज ! कैसे रग्वू इसे अपने
क्या ? ऊँह क्या दिग्वाना है पुत्रोंको । कौन किसका पास ? सबसे पहले तो पापी मणिने मुझे ही गिराया है ? बुढ़ापा आया कि मन्तान उपेक्षाकी दृष्टिसे देखने है मानसिक शुद्धिके मार्गसे । रत्नके दावमें आते ही लगी। भोजन, वस्त्र ही नहीं पानी तकको तरसते मैं दानव हो जाता हूँ। तुम इसे रग्वने में असमर्थ हो, है , वृद्ध माँ-बाप । बहुऐ नाक-भौंह सिकोड़ती हैं, मैं इसे रखनेके लिए और भी पहले असमर्थ हूँ। क्या पुत्र घृणासे मुंह फेर लेते हैं । बुढ़ापेका सहारा मिल किया जाय इस रत्नका ?"
गया है । क्यों हाथसे जाने दूं ? पर, कैसे भोग शूरचन्द्र मौन था ! प्राणों में कम्पन तोत्र वेगसे सकूँगी इसे ? मार्गसे हटाना होगा पुत्र-पुत्रीके जंजाल उठने लगा। मौन-भंग करते हुए वह बोला-"क्या को ? क्यों नहीं, रत्नका प्रतिफल तभी तो पूरा मिलेगा, करना इस पत्थरका ? फेंक दो बेतवाके प्रवाहमें । भाई संसारमें पुत्रोंसे नहीं,धनसे मान मिलता है। एक बूदन उतार दो इस जघन्यतम अभिशापको।" इतना सुनते हलाहलका ही तो काम है।"