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नूनी
उन दिनों वरिषक श्र ेष्ठ शूरदत्तका वैभव अपनी चरमसीमा पर पहुँच चुका था। मालव-राष्ट्र के प्रिय नृपति शूरसेनने अपनी राजसभामें उन्हें 'राष्ट्र गौरव' कह कर अनेकों बार सम्मानित किया था पर, अनि
जो संसारी पदार्थोंके साथ जुड़ी है, शूरदत्तत्रे Street सूर्य मध्यान्हके बाद धीरे धीरे ढलने लगा। और, शूरदत्त की मृत्यु के बाद तो वैभव कर्पूरेकी तरह उड़ गया; विलीन हो गया । लक्ष्मी अपने चंचल चरण रखती हुई न जाने किस ओर बढ़ गई ? विशाल भवनमें गृहस्वामिनी है, दो पुत्र हैं, एक पुत्री है किन्तु धनके अभाव में भवन मानो सूना-सूना है। प्रतिक्षण असन्तोष, लज्जा और गत वैभवका शोक समस्त परि बारमें छाया रहता है।
निर्धनता बादका वैभव मनुष्यके हृदयको विकसित कर देता है किन्तु वैभवके बादकी दरिद्रता मनुष्य के मनको साके लिए कुम्हला देती है। दोनों पुत्र व्यथित थे । हीन दशामें पुरजन और परिजनों से निःसंकोच बोलनेका उनमें साहस अवशेष न था । रह-रह कर विचार आता था देशान्तरमें जानेका, किंतु कहाँ जाया जाय ?
शूरमित्र बोला- 'प्रिय अनुज ! यहांसे चलना ही ठीक है ।"
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शूरचन्द्र बोला- 'पर, कहाँ जानेकी सोच रहे हो ?' शूरमित्रने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा- 'भाई जहाँ स्थान मिल जाय मुँह छुपाने के लिए। एक ओर पिताका वैभव कहता है उच्च स्तरसे रहनेके लिए, दूसरी ओर दरिद्रता खींचती है बार-बार होन की ओर। बस, चल दें घरसे। मार्ग मिल हो जायगा ।
शूर चन्द्र बड़े असमंजस में था । उसका हृदय परदेशकी दिक्कतोंकी कल्पना मात्र से बैठ सा गया या । वह अन्यमनस्क होकर बोला-'यहीं कहीं नौकरी करलें । लब्जा-लज्जा में पेट पर बन्धन बाँध कर भूखा रहने से तो अच्छा है ।'
वैभवकी श्रृंखलायें
( मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरन, प्रभाकर )
शूरमित्रने अनुजकी विकलता देखी। आँखोंसे आँसू वह निकले। वह बोला- 'भाई ! नौकरीका अर्थ है: भाग्यको हमेशा-हमेशा के लिए बेच देना और व्यापारका अर्थ है, भाग्यकी बार-बार परीक्षा करना । देशान्तर चलें, और व्यापर आरम्भ करें, भाग्य होगा तो पुनः बीते दिन लौट आयेंगे।
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दूसरे दिन जब सबेरा होने को ही था, दोनों भाई माताका आशिष लेकर रथ्यपुरसे प्रस्थान करके किसी अनजान पथकी ओर बढ़ चले।
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अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। पद-पद पर भटकने हुए ये दोनों सिंहलदीप जा पहुँचे । प्रयत्न करते, पर कुछ हाथ नहीं आता । भाग्य जैसे रूठ गया है। लक्ष्मीको पकड़ने के लिए शून्यमें हाथ फैलाते किन्तु लक्ष्मी जैसे हाथोंमें आना ही नहीं चाहती । उत्साह और आशा टूटने लगी । देशकी स्मृति दिनों दिन हरी होने लगी। एक दिन, दिन भरकी थकान के बाद जब वे आवासकी ओर लौट ही रहे थे, कि दूर एक प्रकाशपुञ्ज दृष्टिगोचर हुआ । समीपं जाकर देखा तो आश्चर्य और हर्षसे मानों पागल हो गये। प्रकाशपुञ्ज एक दिव्य-रत्नका था, जिसकी किरणे दिरा-दिगंत में फैल रही थीं। हृदय उमंगोंसे भर गया । भविष्य के लिए सहस्रों सुम्बद कल्पनायें उठने लगी । शूरभित्र मुस्कराते हुए पीला- 'क्या सोचते हो चन्द्र ! दिव्य मणि हाथ आ गया है। बस, एक मणि ही पर्याप्त है रूठी हुई चञ्चलाको मनानेके लिए । बैभव फिर लौटेगा, परिजन अपने होंगे, पुरजन अपने होंगे। अब उठ जायेंगे हम पुन: दुनियाको दृष्टि में, और मालवपतिकी राजसभा में होगा पिता-तुल्य सम्मान । चलो, अब देश चलें। माता और बहिन प्रतीक्षा में होंगीं ।
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भविष्यकी मधुर कल्पनाओं में सहस्रों योजनका