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________________ अहिंसा और जैन संस्कृतिका प्रसार तथा एक चेतावनीभाइयो और बहनो, खरबों रुपए खर्च कर रहे हैं। उन्हें क्या कमी बीपर युग अब बदल गया है और बड़ी तेजीसे संसार- नहीं । सद्भावना, सदिच्छा और व्यापक समर्थन ही जीने का सब कुछ बदल रहा है। लोगोंकी विचारधारामें बदा (Life and living)का तत्व, अमृत और जी भारी परिवर्तन हो गया और होता जारहा है। समय- है। इसीलिए वे प्रचारमें अपनी सारी शक्ति बगा कर की जरूरत और मांगके अनुकत अपना रवैया और रीति- बगे हुए हैं। जैमियोंको भी अपने सिद्धान्तकी वैज्ञानिनीति बनाना और वैसा ही पाचरण एवं व्यवहार वर्तना कता, सस्यता, समीचीनता, व्यावहारिकता इत्यादिका ही बुद्धिमानी कही जा सकती है। देशा, जातियों, समाजों प्रचार व्यापक रूपमें करना होगा। यदि वे निकट भविष्य में और सम्प्रदायोंके पतन इसी कारण हए कि वे समयकी पाने वाले समयमें, अपनी संस्कृतिकी, अपनी स्वयंकी समानताम अपनेको नहीं ला सके। संक्षेप में जैनियोंकी और अपनी धामिक संस्थानों वीवों एवं पूज्य प्रतिमाओंवर्तमान हालत वैसी ही हो रही है। हमारे पूर्वज समयकी की सुरक्षा सच्चे दिलसे चाहते हैं और यह नहीं पसन्द गति के साथ चलना जानते थे इसीलिए हम आज भी शेष करते हैं कि मागे चल कर उनकी निष्क्रियता और अन्यहैं। परन्तु बौद्धोंका नाम भारतमें न रहा । अपने पूर्वजोंकी मनस्कताके कारण-उन्हींके अपने दोषोंके कारण उनके इस दीर्घ दशिताको हम भूल रहे है यह एक महा अपने नाम और निशान भी खोप हो जाय, बाकी न रह भयंकर बात है जिसका परिणाम हम अभी नहीं सोच, से सोच जाय । जैनियोंकि सारे सार्वजनिक कालेज, स्कूल, धर्मार्थसमझ और जान रहे हैं। यदि यही हालत बनी रही। चिकित्सालय, धर्मशालाएँ, मन्दिर इत्यादि और अब तक हमारी निष्क्रियता नहीं छूटी एवं हम संसारकी समस्याओं की अपार दानशीलता एकदम व्यर्थ जायगी यदि अबसे और परिस्थितियास अपनेको अलग, दर और उदासीन भी समयकी मांगके अनुसार व्यापक प्रचारको हाथमें नहीं ही रखते रहे तो इससे भागे चल कर बड़ा भारी अनिष्ट लिया गया । चेतना जीवन है और निष्क्रियता विनाश या होगा। भले ही इस बात और चेतावनी (Warning) मृत्यु । जागरण और जागृति तो कुछ हमारेमें है पर की महत्ताको हम सममें या न सममें, जानें या न जाने, हमारी शक्तियाँ उचित दिशामें नहीं लगाई जा रही है। अथवा जान बूझ कर भी अनजाने बने रहें यह दूसरी बात यही खराबी है। है। अनजान बने रहनेसे तो फलमें कमी नहीं पा सकती। विश्वम्यापी प्रचारकी एक ऐसी संस्था बनाई जानी हम अपने पैरों अपने आप कुल्हादी मार रहे हैं। ये बक्षण चाहिए जिसमें श्वेताम्बर, दिगम्बरादि सभी बिना किसी अ ही -हानिकारक है व्यक्तिके लिए भी और समाज मत भेदके सम्मिलित शक्ति लगा कर जोर शोरसे कार्य एवं देश और मानवताके लिए भी। प्रारम्भ करदें-तभी कुछ अच्छा फल निकल सकता है। यह प्रचारका युग है। देश और विश्वके जनमतको काफी देर हो चुकी है, यदि हम अब भी नहीं चेते तो अपने पक्ष में खाना और अपना प्रशंसक बनाना अपने उद्दार या रखाका उपाय बादमें होना सम्भव नहीं स अस्तित्वकी सुर और विरोध या कटुवारहित उन्नतिके जायगा। लिए भावना तथा संसारके धनी और शक्तिशाली विश्वकी जनतामें मानव-समानताकी भावना और देश भी, जिन्हं कोई कमी नहीं और जिन्हें बाहरी सहा स्वाधिकार प्राप्तिकी चेष्टा दिन दिन बढ़ती जाती है। दया यताकी अपेक्षा नहीं, संसारकी जनताका सौहार्द, प्रशंसा, हुमा वर्ग सचेत, सजग, सज्ञान हो गया है और अधिकासहानुभूति एवं सहयोग पाने के लिए अपनेको एवं अपनी धिक होता जा रहा है। सभी मानवोंका सुख दुख और नीतिको सर्वजनप्रिय बनानेके लिए ही प्रचारमें भरषों जीवनकी पावश्यकताएं समान एवं पृथ्वी और प्रकृति
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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