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किरण]
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कवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरिरास' में इस प्रकार किया है : हीरे को जे विहारवाला, हीरे कयौ ने बिहार । मथुरापुर नगरीमें आये, उद्दारमा ज पास ॐ बार बाला || यात्रा करि सुपासनी रे, पूठे बहु परिवार। संघ चतुर्विधति मिल्यो, पुरसे तीरथ सुसार बाख ॥२॥ जम्बू परमुख ना बहीरे, धूम से अतिहि उदार । पांचसे सताविस सूतो, हार हर्ष पार बाळा ॥३॥
इस यात्राका विस्तृत वर्णन हीरसौभाग्यकाम्यके १४ में सर्व मिश्रण है। पार्श्वनाथ सुपाएवं २० स्तूपोंकी यात्राका ही उसमें उल्लेख है ।
उपयु'क सभी उल्लेख श्वेताम्बर जैन साहित्यके है दिगम्बर साहित्य में भी कुछ उल्लेख खोजने पर अवश्य मिखना चाहिए १० वीं शतीके दि० कवि राजमायके अंबूस्वामी चरित्रके प्रारम्भ में यह ग्रन्थ, जिस शाहूटोडरके अनुरोधसे रचा गया उसका ऐतिहासिक परिचय देते हुए [सं०] १६३० में उसके द्वारा मधुराके स्तुपर्कि जीर्णोदारका महत्वपूर्ण विवस्या दिया है ।
मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख
प्रस्तुत ग्रन्थ जगदीशचन्द्र शास्त्री द्वारा संपादित मानिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमावासे प्रकाशित है। जगदीशचन्द्रजीने उपयुक्त प्रसंगका सार इस प्रकार दिया है
'अगरवाल जालिके गगांधी साधु टोबरके किये राजमधन्वने संवत् १६३२ दि को यहाँ बंधू स्वामि चरित्र बनाया। टोडर भाटनियाके निवासी थे।
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कराया । तथा इन स्तुपोंके पास ही १२ द्वारपाल आदि की भी स्थापना की। प्रतिष्ठा कार्य विक्रम सं० १६३० के ज्येष्ठख भवार के दिन वो बड़ी व्यतीत होने
पर सूरिमन्ध पूर्वक निर्विघ्न सानन्द समाप्त हुआ। साटोरने संघको ग्रामन्त्रित किया। सबने परम धानन्दित होकर टोटरको आशीर्वाद दिया । और गुरुमे उसके मस्तक पर पुष्प वृष्टि की उत्पाद टोडरने सभामें खड़े होकर शास्त्रश कवि राममश्वसे प्रार्थना की कि सुके स्वामिपुरा म सुनने की पड़ी उकठा है। इस प्रार्थनासे प्रेरित हो कविराज यह रचना की ।
एक बारकी बात है कि साधु टोडर सिद्धक्षेत्रको यात्रा करने मथुरा में आये । वहाँ पर बीच में लंबू स्वामिका खूप (निःसही स्थान ) बना हुआ था और उसके चयमें विद्युच्चरनिका स्तूप था। आस पास अन्य मोड जाने वाले अनेक मुनियोंके स्तूप भी मौजूद मे इन सुनियोंके स्तूप कहीं पांच कहीं घाट, कहीं एस और बी कहीं इस तरह बने हुये थे। साहू डोकरको इन शीर्ण अवस्थामें देख कर इनका जीर्णोदार करनेकी प्र भावना जागृत हुई। फलतः टोडरने हम दिन और म देखकर अत्यन्त उत्साहपूर्वक इस पवित्र कार्यका प्रारम्भ किया। साहू डोडरको इस पुनीत कार्या धन व्यय करके १०१ स्तूपोंका एक समूह और १२ स्तूपोंका दूसरा समूह इस तरह कुछ २१४ स्तूपोंका निर्माण
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विशाल जैन साहित्यके सम्यम् अनुशीलनसे और भी बहुत सामग्री मिलनेकी सम्भावना है पर अभी तो जो उपप्रेस म्यानमें थे, उन्हें ही संग्रहित कर प्रकाशित कर रहा हूँ। इनसे भी निम्नोक हुई नये ज्ञातव्य प्रकाशमें आते हैं।
१. मथुरा सम्बन्धी उपखोंकी प्रचुरता श्वेताम्बर साहित्य में ही अधिक है। अतः उनका संबंध अधिक रहा है। जैन तीर्थके रूपमें मधुराकी यात्रा १७ वीं शती तक श्वे० मुनि एवं भावकगण निरन्तर करते रहे ।
२. देव निर्मित स्तूप सम्बन्धी सम्प्रदाय के साहित्य में मिलती है, लिए समान रूपसे मान्य-पूज्य रहा पार्श्वनाथका था।
अनुभुतियाँ दोनों वह स्तूप दोन होगा। यह स्तुप
२. कुछ शादियों तक तो बैन किये मथुरा एक विशिष्ट प्रचार केन्द्र रहा है। जैनोंका प्रभाव बहाँ बहुत अधिक रहा । जिसके फलस्वरूप मथुरा व उसके ३६ गांवों में भी प्रत्येक घर मंगल स्थापित किये जाने जिसमें जन मूर्तियाँ होती थी । विविधतीर्थंकल्पके अनुसार यहाँके राजा भी जैन रहे हैं।
४. नागमोंकी 'माधुरी बाचना' पकी एक चिरस्मरणीय घटना है।
२.चार्य बप्यमइरिने यहाँ पार विनाखयको प्रतिष्ठित किया व महावीर विभीमेा ।
६. पहले यहाँ एक देवनिर्मित स्तुप हो या फिर पाँच स्तूप हुये, क्रमशः स्तूपोंकी संख्या १२० तक पहुँच गई, जो १७ वीं शती तक पूज्य रहे हैं । २२७ स्तूपोंका