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जैनधर्म और जैनदर्शन
किरण १० ]
इष्ट है। बौद्ध दृश्यवादमें शून्यका जो व्यतिरेकमुख लक्षण किया है, उसमें भी स्पाहारकी छाया स्पष्ट प्रतीत होती है अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति दोनों, श्रस्ति नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावनाओंके जो परे हैं, उसे शून्यत्व कहते है. इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दर्शनोंके ह स्थानोंमें स्थाद्वादका मूलसूत्र तत्वज्ञान के कारण रूपले स्वीकृत होने पर भी, स्याद्वादको स्वतन्त्र उच्च दार्शनिक मतके रूपमें प्रसिद्ध करनेका गौरव केवल जैनदर्शनको ही मिल सकता है।
जैन सृष्टिक्रम -
जैनदर्शनके मूलतय या दव्यके सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालूम हो जाता है कि जैनदर्शन यह learकार नहीं करता कि सृष्टि किसी विशेष समय में उत्पन्न हुई है। एक ऐसा समय था जब सृष्टि नहीं थी, सर्वत्र शून्यता थी, उस महाशून्यके भीतर केवल सृष्टिकर्ता श्रकेला विराजमान था और उसी शून्यसे किसी एक समयमें उसने उम ब्रह्माण्डको बनाया । इस प्रकारका मत दार्शिनिक दृष्टिले श्रतिशय भ्रमपूर्ण है। शून्यसे (असत्से) मनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । सत्यार्थवादियोंके मतसे केवल सन्से ही सत्की उत्पत्ति होना सम्भव है २ सत्कार्यवादका यह मूलसूत्र संक्षेपमें भगवत् गीता में मौजूद है। सांख्य और वेदांतके समान जैनदर्शन भी सत्कार्यवादी हैं।
'वेदांतदर्शनमें संचित कियामाण और प्रारब्ध इन तीन प्रकारके कर्मोका वर्णन हे जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता बन्ध और उदय कहा है दोनों दर्शनोंमें इनका स्वरूप भी एकसा है।'
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जैनधर्ममें अहिंसाको इतनी प्रधानता क्यों दी गयी है ? यह ऐतिहासिकोंकी गवेषणाके योग्य विषय है। जैनसिद्धांतमें हिंसा शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर हुआ है तथा अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थों में वह रूपांतर भावसे ग्रहण किया गया गीताके निष्काम-कर्म-उपदेशसा प्रतीत होता है तो भी, पहले अहिंसा शब्द साधारण प्रचलित अपने ही व्यवहुत होता था, इस विषय में कोई भी सन्देह नहीं है। वैदिक
'जैनदर्शनमें 'जीव' रायकी जैसी विस्तृत मालोचना युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा अत्यंत निष्ठुर सीमा पर जा
हे वैसी और किसी दर्शनमें
'योगी और अयोगवली अवस्थाकं साथ हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति और विदेहमुनिको तुलना हो सकती है उदे उदे गुणस्थानक समान मोषमाप्तिकी सदी जुरी अवस्थाएँ वैदिक-दर्शनोंगे मानी गयी है। योगवाशिमें शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, संसक्रि, पदार्थाभाविनी और सूर्यर्गाः इन सात ब्रह्मविद्, भूमियोंका वर्णन किया गया है।
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'संवत और 'प्रतिमा' पालन जैनदर्शनका चारित्रमार्ग है। इससे एक ऊँचे स्तरका नैतिक आदर्श प्रतिज्ञापित किया गया है। सब प्रकारसे अस िरहित होकर कर्म करना ही साधनाकी भित्ति है प्रासनिके कारण ही कर्मबन्ध होता है; अनासक होकर कर्मकरनेसे उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होगा। भगवद्गीतामें निष्काम कर्मका जो अनुपम उपदेश किया है, जैनशास्त्रोंके चरित्र विषयक ग्रन्थोंमें वह छाया विशदरूपमें दिखलाई देती है ।
(1) "सदसदुभवानुभव-चतुष्कोटिविनिमु' शून्यत्वम्"(२) " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः "
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'जैनधर्मने अहिंसा तत्वको अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक करके व्यवहारिक जीवनको पग पग पर नियमित और वैधा निक करके एक उपहासास्पर सीमा पार पहुंचा दिया है, ऐसा कतिपय लोगोंका कथन है। इस सम्बंध जिनेविधिनिषेध है उन सबको पालते हुए चलना इस बीसवीं शती के जटिल जीवनमें उपयोगी, सहज और संभव है या नहीं यह विचारणीय है।
पहुँची थी । इम क्रूरकर्मके विरुद्ध उस समय कितने ही अहिंसावादी सम्प्रदायोंका उदय हुआ था, यह बात एक प्रकारसे सुनिश्चित है। बेदमें 'मा हिस्यात् सर्वभूतानि यह साधारण उपदेश रहने पर भी यज्ञकर्ममें पशु हत्याकी अनेक विशेष विधियोंका उपदेश होनेके कारण यह साधारणविधि (व्यवस्था) केवल विधिके रूपमें ही सीमित हो गयी थी. पद पदपर उपेक्षित तथा उचित होनेसे उसमें निहित कल्याणकारी उपदेश सहाके लिये विस्मृतिके गर्भमें विलीन हो गया था और अंतमें 'पशुशके लिये ही बनाये गये हैं यह अद्भुत मत प्रचलित हो गया था । इसके फलस्वरूप वैदिक कर्मकाण्डः बलिमें मारे गये पशुओंके रक्कसे लाल होकर समस्त सात्विक भावका विरोधी हो गया था । जैन
"यशार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । तवां घातविस्वामि तस्माचशे वचोऽवधः ॥"