________________
३२४]
अनेकान्त
[किरण १०
सम्बन्धमें बुद्धिकी भांति नहीं होती, वह सत् है और जिसके विनाशशील है, अर्थात् ब्रम्यके स्वरूप या स्वभावकी अपेक्षासे सम्बन्धमें व्यभिचार होता है-वह असत् है।। जो वर्तमान देखा जाय तो वह नित्यस्थायी पदार्थ है, किन्तु साक्षात् समयमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी समयमें नहीं परिदृश्यमान व्यवहारिक जगतकी अपेक्षासे देखा जाय तो था और अनन्त भविष्यत्के भी किसी समयमें नहीं रहेगा, वह अनित्य और परिवर्तनशील है। दव्यके सम्बन्धमें तो सत् नहीं हो सकता-वह असत् है। परिवर्तनशील नित्यता और परिवर्तन प्रांशिक या अपेक्षिक भावसे सत्य हैअसदस्तुके साथ वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है ! वेदांत- पर सर्वथा एकांतिक सत्य नहीं है। वेदान्तने द्रव्यकी नित्यता दर्शन केवल प्रत सद्ब्रह्मतत्व दृष्टिसे अनुसंधान करता है। के उपर ही दृष्टि रखी है और भीतरकी वस्तुका सन्धान वेदान्तकी यही प्रथम बात है। 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' पाकर, बाहरके परिवर्तनमय जगत-प्रपञ्चकों तुच्छ कह कर
और यही अन्तिम बात है। क्योंकि-'तस्मिन् विज्ञाने सर्व उड़ा दिया है। और बौद्ध क्षणिकवादने बाहरके परिवर्तनकी मिदं विज्ञातं भवति ।
प्रचुरताके प्रभावसे रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्शादिकी विचित्रतामें वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई त्रिकाल अव्यभि- ही मुग्ध होकर इस बहिवैचित्र्यके कारणभूत, नित्य-सूत्र चारी नित्य वस्तु महीं मानी गयी है बौद्ध क्षणिकवादके अभ्यंतरको खो दिया है। पर स्याद्वादी जैनदर्शनने भीतर मतसे 'सर्वः सणं गणं' । जगत् स्रोत अप्रतिहततया अबाध और बाहर, आधार प्राधेय, धर्म और धर्मी, कारण और गतिसे बराबर वह रहा है-क्षणभरके लिए भी कोई कार्य, अत और वैविध्य दोनोंको ही यथास्थान स्वीकार वस्तु एक ही भावसे एक ही अवस्थामें स्थिर होकर नहीं कर किया है। रह सकती। परिवर्तन ही जगतका मूलमन्त्र है ! जो इस स्याद्वादकी व्यापकता समें मौजूद है, वह अागामी पणमें ही नष्ट होकर दूसरा इस तरह स्याद्वादने, विरुद्ध वादोंकी मीमांसा करके रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार अनन्त मरण और उनके अन्तःसूत्र रूप प्रापेक्षिक सत्यका प्रतिपादन करके उसे अनन्त क्रीडायें इस विश्वके रंगमंच पर लगातार हुआ करती पूर्णता प्रदान की है। विलियम जेम्स नामके विद्वान-द्वारा हैं । यहाँ स्थिति, स्थैर्य, नित्यता असम्भव है।
प्रचारित-Pragmtarsm वादक साथ स्थाबादकी अनेक जैन अनेकान्त
अंशोंमें तुलना हो सकती है। स्याद्वादका मूलसूत्र जुदे-जुई
दर्शन शास्त्रोंमें जुदे-जुदे रूपमें स्वीकृत हुआ है। यहाँ तक ___ 'स्थाद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धमतकी मांशिक सत्यताको स्वीकार करके कहता है कि विश्वतत्व या द्रव्य
कि शंकराचार्यने पारमार्थिक-सत्यसे व्यवहारिक सत्यको जिस नित्य भी है और अनित्य भी। वह उत्पत्ति, ध्रुवता और
कारण विशेष रूपमें माना है, वह इस स्याद्वादके मूलसूत्रक
साथ अभिन है। श्रीशंकराचार्यने परिदृश्यमान या दिखविनाश इन तीन प्रकारकी परस्पर विरुद्ध अवस्थानोंमेंसे युक है। वेदान्तदर्शनमें जिस प्रकार 'स्वरूप' और 'तटस्थ' लक्षण
लायी देने वाले जगतका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया है। कहे गये हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको समझाने
बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवादके विरुद्ध उन्होंने जगतकी के लिये दो तरहसे निर्देश करनेकी व्यवस्था है । एकको कहने ।
र व्यवहारिक सत्ताको अन्यन्त रदताक साथ प्रमाणित किया है। है 'निश्चयनय' और दूसरको कहते हैं 'व्यवहारनय'।
समतल भूमि पर चलने समय एक तत्त्व, द्वितत्त्व, त्रितत्त्व, स्वरूप लक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही अर्थ निश्चयनयका आदि उच्चताके नानाप्रकारके झंद हमें दिखलायी देते हैं, है। वह वस्तुके निजभाव या स्वरूपको बतलाता है। व्यव
किन्तु बहुत ऊँचे शिखरसे नीचे देखने पर सत खण्डा महल हारनय वेदांतके तटस्थ लक्षणके अनुरूप है। उससे वश्य
और कुटियामें किसी प्रकारका भेद नहीं जान पड़ता। इसी माण वस्तु किसी दूसरी-वस्तुकी अपेक्षासे वर्णित होती है। तरह ब्रह्मबुद्धिस दखने पर जगतमायाका विकास, ऐन्द्रजालिक
रचना अर्थात् अनित्य है। किन्तु साधारण बुद्धिसे देखने पर द्रव्य निश्चयनयसे ध्रुव है किन्तु व्यवहारनयसे उत्पत्ति और
जगतको सत्ता स्वीकार करना ही पड़ती है। दो प्रकारका सत्य १ 'यद्विषया बुद्धिर्नव्यभिचरति तत्सत् ,
दो विभिन्न दृष्टियोंके कारणसे स्वयं सिद्ध है। वेदांतसारमें यद्विषिया बुद्धिर्व्यभिचरति तदसत्' ।
मायाको नो प्रसिद्ध 'संज्ञा दी गई है, उससे भी इस प्रकारगीता शंकरभाष्य २-१६। की मिज दृष्टियोंसे समुत्पत्र सत्यताके मित्र रूपोंकी स्वीकृति