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अनेकान्त
[किरण १०
कहते हैं कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशु हत्याके विरुद्ध पद्धतिमें वैष्णव और शाक्रमतोंके समान भक्रिकी विचित्र जिस-जिस मतने विरोधका बीड़ा उठाया था उनमें जैनधर्म तरङ्गोंकी सम्भावना बहुत ही कम रह जाती है। सबसे आगे था 'मुनयो वातवसनाः' कहकर ऋग्वेदमें जिन बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्धमत और जैनमतमें मग्न मुनियोंका उल्लेख है, विद्वानोंका कथन है कि वे जैन भिन्नता नहीं है पर दोनों धर्मों में कुछ अंशों में समानता होने दिगम्बर सन्यासी ही हैं।
पर भी असमानताकी कमी नहीं है। समानतामें पहली बात बुद्धदेवको लक्ष्य करके जयदेवने कहा है
तो यह है कि दोनों में अहिंम्माधर्मकी अत्यन्त प्रधानता है। "निन्दसि यज्ञाविधेरहह श्रुतिज्ञातं
दूसरे जिन, सुगत, बहन, सर्वज्ञ तथागत, बुद्ध आदि नाम सदय हृदय दिशति पशुधातम् ?"
बौद्ध और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य देवोंके लिये प्रयुक्र किन्तु यह अहिंसातत्त्व जैनधर्ममें इस प्रकार अंग-अंगी- करते हैं। तीसरे दोनों ही धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरोंकी भाक्से मिश्रित है कि जैनधर्मकी सत्ता बौद्धधर्मके बहुत एक ही प्रकारकी पाषाण प्रतिमाएँ बनवाकर चैत्यों या स्तूपोंमें पहलेसे सिद्ध होनेके कारण पशुधातान्मक यज्ञ विधिके विरुद्ध स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं । स्तूपों और पहले पहले खड़े होनेका श्रेय बुद्धदेवकी अपेक्षा जैनधर्मको ही मूर्तियोंमें इतनी अधिक पदृशता है कि कभी कभी किसी अधिक है। वेदविधिकी निंदा करनेके कारण हमारे शास्त्रोंमें मूर्ति और स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैनमूर्ति है या चार्वाक, जैन और बौद्ध पाषण्ड 'या अनास्तिक' मतके नामसे बौद्ध, विशेषज्ञोंके लिये कठिन हो जाता है। इन सब विख्यात हैं। इन तीनों सम्प्रदायोंकी भूठी निंदा करके जिन बाहरी समानताओंके अतिरिक्त दोनों धर्मोंकी विशेष मान्यशास्त्रकारोंने अपनी साम्प्रदायिक संकीर्णताका परिचय दिया नात्रोंमें भी कहीं कहीं सदृशता दिखती है, परन्तु उन मब है, उनके इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा कि विषयों में वैदिकधर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका ही प्रायः जो ग्रन्थ जितना ही प्राचीन है, उसमें बौद्धोंकी अपेक्षा एक मन्य है। इस प्रकार बहुन मी समानताएँ होने पर भी जैनोंको उतनी ही अधिक गाली गलौज की है। अहिंसावादी दोनोंमें बहुत कुछ विरोध है। पहला विरोध तो यह है कि जैनांक शांत निरीह शिर पर किसी किसी शास्त्रकारने तो बौद्ध क्षणिकवादी हैं। पर जैन क्षणिकवादको एकांतरूपमें श्लोक पर श्लोक प्रन्थित करके गालियोंकी मूसलाधार स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म कहता है कि कर्म फलरूपसे वर्षा की है। उदाहरणक तौर पर विष्णुपुराणको ले लीजिये प्रवर्तमान जन्मांतरवादक माथ क्षणिकवादका कोई मामंजम्य अभीतककी खोजोंक अनुसार विष्णुपुराण सारे पुराणोंसे नहीं हो सकता । क्षणिकवाद माननेस कर्मफल मानना प्राचीनतम न होने पर भी अत्यन्त प्राचीन है। इसके तृतीय असम्भव है । जैनधर्ममें अहिंमा नीतिको जितनी सूक्ष्मतास भागके सत्तरहवें और अठारवें अध्याय केवल जनांकी निंदास लिया है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे हुए पूर्ण है । 'नग्नदर्शनसे श्राद्धकार्य भ्रष्ट हो जाता है और जीवका मांस ग्वानेको बौद्धधर्म मना नहीं करता, उसमें स्वयं नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो हत्याकरना ही मना है । बौद्वदर्शनके पंचस्कन्धोंके समान जाता है। शतधनुनामक राजाने एक नग्न पाषण्डसे संभाषण कोई मनोवैज्ञानिक तत्वभी जैनदर्शनमें माना नहीं गया। किया था, इस कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, गीध और बौद्ध दर्शनमें जीवपर्याय अपेक्षाकृत सीमित है, जैनमोरकी योनियोंमें जन्म धारण करके अंतमें अश्वमेधयजके दर्शनके समान उदार और व्यापक नहीं है। वैदिकधर्मो तथा जलसे स्नान करने पर मुकिलाम कर सका ।' जैनोंके प्रति जैनधर्ममें मुक्रिके मार्गमें जिस प्रकार उत्तरोत्तर सीढियोंकी वैदिकोंके प्रबल बिवषकी निम्नलिखित श्लोकोंसे अभि- बात है, वैसी बौद्धधर्म में नहीं है । जैनगोत्र-वर्णके रूपमें जातिव्यक्ति होती है
विचार मानते हैं, पर बौद्ध नहीं मानते। 'न पठेत् यावनी भाषां प्रामः कण्ठगतैरपि ।
'जैन और बौढोंको एक समझनेका कारण जैनमतका हस्तिना पीब्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ॥ भलीभांति मनन न करनेके सिवाय और कुछ नहीं है। यद्यपि जैन लोग अनंत मुक्तात्माओं (सिद्धों) की उपासना प्राचीन भारतीय शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समझनेकी करते हैं तो भी वास्तवमें वे व्यक्तित्वहित पारमात्म्य स्वरूपकी भूल नहीं की गई है। वेदांतसूत्र में जुदे जुदे स्थानों पर ही पूजा करते हैं । व्यक्रिन्द रहित होने के कारण ही जैनपूजा- जुदे जुदे हेतुवादसे बौद्ध और जैनमतका खण्डन किया है।