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________________ किरण १०] जैनधर्म और जैनदर्शन [३२७ - शंकर दिग्वजयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें बौद्धोंके यह स्पष्ट रूपसे जैन और वैदिक शास्त्रोंमें घोषित किया साथ और उज्जयनीमें जैनोंके साथ शास्त्रार्थ किया था। यदि गया है। 'जन्मजन्मांतरोंमें कमाये हुये कर्मोंको वासनाके दोनों मत एक होते, तो उनके साथ दो जुदे जुदे स्थानों में दो विध्वंसक निवृत्तिमार्गके द्वारा तय करके परम पद प्राप्तिकी बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं थी। प्रबोधचन्द्रोदय माधना वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्मोमें तर-तमक नाटकमें बौद्ध भिक्षु और जैनदिगम्बरकी लड़ायीका वर्णन है। समान रूपसे उपदेशित की गई है। दार्शनिक मतवाढोंक 'वैदिक (हिन्द) के साथ जैनधर्मका अनेक स्थानोंमें विस्तार और साधनाकी क्रियाओंकी विशिष्टतामें मित्रता हो विरोध है। परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्यही अधिक है। सकती है, किन्तु उद्धश्य और गन्तव्य स्थल सबका ही इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य विरोधोंकी ओर दृष्टि रखने एक हैकारण वैर-विरोध बढ़ता रहा और लोगोंको एक दुसरेको रूचीनां वैचित्र्याजुकुटिलनानापथजुषां । अच्छी तरहसे देखसकनेका अवसर नहीं मिला । प्राचीन नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ वैदिक सब सह मकने थे परन्तु वेद परित्याग उनकी दृष्टिमें महिम्नस्तानकी मर्व-धर्म-समानत्वको करनमें समर्थ यह अपराध था। उदारता वैदिक शास्त्रोमें सतत उपदिष्ट होने पर भी संकीर्ण वैदिकधर्मको इप्ट जन्म-कर्मवाद जैन और बौद्ध दानों साम्प्रदायिकतास उत्पन्न विष बुद्धि प्राचीन ग्रन्थों में जहाँही धर्मोका भी मेरुदण्ड है। दोनों ही धर्मोमें इसका अवि- नहीं प्रकट हुई है। किन्तु आजकल हमने उस संकीर्णताकी कृत रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जनोंने कर्मको एक चुदमर्यादाका अतिक्रम करके यह कहना सीखा हैप्रकारक परमाणुरूप सूचम पदार्थ (कार्मणवर्गणा) के रूपमें यं शैवाः ममुपामत शिव मन ब्रह्मेति वेदान्तिना, कल्पना करके, उसमें कितनी मयुक्तिक श्रेष्ठ दार्शनिक बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । विशेषताओंकी सृष्टि ही नहीं की है, किन्तु उसमें कर्म-फल- अर्हनिन्यथ जैनशामनरताः कर्मतिमीमांसकाः वादकी मूल मन्त्रताको पूर्णरूपसे सुरक्षित रखा है : वैदिक मोऽयं वो विदधातु वांछितफलं लोक्यनाथो हरिः॥ दर्शनका दुःखबाद और जन्म-मरणान्मक दुग्वरुप संसार 'ईसाकी आठवीं शती में इसी प्रकारके महान उदारभावोंमागरसे पार होनेके लिए निवृत्तिमार्ग अथवा मोक्षान्वपण- मे अनुप्राणित होकर जैनाचार्य मूनिमान स्याहाट भट्टाकलकयह वैदिक-जैन और बौद्ध सबका ही प्रधान साध्य है। निवृत्ति दव कह गए हैंएवं नपा द्वारा कर्मबन्धका क्षय होने पर अान्मा कर्मबन्धस यो विश्वं वेदवेद्य जननजलनिधेर्भगिनः पारदृश्वा, मुक्त होकर स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-अबद्ध पौवापर्याविरुद्ध वचनमनुपमं निष्कलङ्क यदीयम् । शुद्ध स्वभावक निस्सीम गौरवसे प्रकाशित होगा। उस समय- तं वन्द माधुवन्यमकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषनं, भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्तं सर्वसंशया. । बुद्ध वा वर्धमानं शतदानलयं केशवं वा शिवं वा ।। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि नम्मिन दृष्टे परावर ।। (वी अभिनन्दन ग्रन्थसे) उज्जैनके निकट दि. जैन प्राचीन मूर्तियाँ (बाबू छोटेलाल जैन) अभी ४ मार्चको पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरक्टर का है। यहाँ धरणेन्द्र पद्मावती महित पाश्वनाथ धर्मजनरल श्री टी. एन रामचन्द्रन उज्जनक दारे पर गए थे। चक्र सहित २-और सिहलांछन और मातंगयक्ष नथा उज्जैनसे ४५ मील दूर 'गन्धबल' नामक स्थानमें अनक सिद्धायनी यक्षिणी महित एक खण्डित महावीर प्राचीन अवशेषोंका निरीक्षण किया, जिनमें अधिकांश दिग- स्वामीका पादपीठ दशमी शताब्दीका है।३-प्रथम तीर्थकरम्बर जैन मूर्तियाँ थीं। ये अवशेष परमारयुग-कालीन दशमी की यक्षिणी चक्रेश्वरी।४-मिद्यायनी सहित बर्द्धमान, शताब्दीके प्रतीत होते हैं। पार्श्वनाथकी मूर्तिक ऊपरी भागमें है। ५-द्वारपाल । १. भवानीमन्दिर-यह जैनमन्दिर १०वीं शताब्दी- --द्वारपाल । ७-एक शिलापट्ट तीर्थकगेका विद्या देवियों
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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