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________________ अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ अन्य - - महन्तोंकी पूजाके लिये तीन प्रामों और अशर्फियोंक देने प्रतीत नहीं होता । दिगम्बर जैन परम्पराका मधुरासत का उल्लेख है। इससे भी स्पष्ट है कि उक संवत्से पूर्व पुरावा सम्बन्ध है। पंयस्पाम्ब विधमान था। लेखको वेवामारीव प्रबोंमें मधुराबपिन र मधुराका उल्लेख किया है। दिगम्बर साहित्य में भी रचर पांडे रायमचने अपने जम्म् स्वामीचरितमें 1. दषिव मधुराके उल्लेख विहित है। इलाहीमही जर स्तूणका जीर्णोदार साह टोडर द्वारा करानेका उक्लेख मधुरा तो दिगम्बर मोही . किन्तुषिय किया है। इससे वीं शताब्दी तक तो मथुराके स्वपोंका मधुरा भी दिगंबर जैन संस्कृतिका रहा है। महासका समुदार दिगम्बर परम्पराकी भोरसे किया गया है। वर्तमान मदुरा जिया ही र मधुरा कामाती। उस यात्रादिक साधारण लेखोंको कोष दिया गया है। इस जिले में दि. जैन गुफाएं और प्राचीन मतियोंका अस्तित्व सब विवेचनसे स्पीकि मधुरा दिन समाजका पुरातन माज भी उसकी विशालताका बोतको। मदुराका पाया बस ही मान्यतावस्थान था और वर्तमानमे भी है। राज्यवंशमी जैनधर्मका पाबहरहा। मुनि उदयकीर्तिने अपनी निर्वाण पूजामें मधुरामें हरिषेणकथाकोशके अनुसार पायदेशमें दक्षिण स्तूपोका उस्लेख किया है मथुरा मामका नगर था। जो धन धान्य और जिनायतनोंसे 'महुरारि बंदर पासनाह, धुम पंचसय ठिपंदराई। मंडित था, वहां पाक्दुमामका राजा था और सुमति नामकी उसकी पत्नी । वहाँ समस्त शास्त्र महातपस्वी प्राचार्य संवत् ११. में ब्रह्मचारी भगवतीदासके शिष्य पनि मुनिगप्त थे। एकदिन मनोवेग नामके विचार मारने जिनदासनं अपने जंबूस्वामिचरित्रमें साहु पारसके पुत्र * जैनमंदिर और उतभाचार्यकी भक्तिभावसहित बन्दना की। टोडर द्वारा मथुराके पास निसही बनानेका भी उल्लेख एकमाकपाकुमारने भावस्ति नगर जिनकी वन्दना किया है। और भी अनेक उल्लेख पत्र तत्र बिखरे पड़े हैं को जानेका उल्लेख किया। तब गुप्ताचार्यने कुमारसे कहा जिन्हें फिर किसी समय संकलित किया जायगा । कि तुम रेवती रानीसे मेरा मार्गीवाद कह देना। बस मत: नाहटाजीने माधुनिक तीर्थयात्रादिके सामान्य उल्लेखों विचार मारने रेवती रानीकी अनेक वरसे परीक्षा की परसे जो निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया, वह समुचित और बाद में प्राचार्य गुप्तका पाशीर्वाद कहा। इस सब -- मनसे दोनों मधुरामोंसे निग्रंथ दिगम्बर सम्प्रदायका देखो, एपि ग्राफिका इंडिका भाग २.०५६। सम्बन्ध ही पुरातन रहा जान पलता है। अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ (परमानन्द जैन शास्त्री) [कुछ वर्ष हुए जब मुझे जैमशास्त्रमारोंका भारतीय भाषामों में अपनश भी एक साहित्यिक अन्वेषण कार्य करते हुए अपनश भाषाके कुछ अन्य मिले भाषा रही है। खोकमें उसकी प्रसिदिन कारव भाषा थे जिनका सामान्य परिचय पाठकोंको कानेके लिये मैने सौष्ठव और मधुरता है। उसमें प्राकृत और देशी भाषादो वर्ष पूर्व एकजविखा था, परन्तु पहले किसी के शब्दोका सम्मिश्रण होनेसे प्रान्तीय मापाक विकासमें अन्य कागजके साथ अन्यत्र रक्खा गया, जिससे वह अभी उमसे परत महायता मिली है। पर अपळशमापाका तक भी प्रकाशित नहीं हो सका । उसे तलाश भी किया पथ साहित्य ही देखने में मिलता पवाहित्य नहीं। गया परन्तु वह उस समय नहीं मिला किन्तु वह मुझे नदियोंने प्रायः पद्य साहित्यी सबिकी है। बपि कुछ नोट सके कागजोंको देखते हुए अब मिट गया। अतः दूसरे कवियोंने भी प्रबबिसी पर उनकी संख्या उसे इस किरणमें दिया जा रहा है। अत्यन्त विरल है अपमान कितना ही प्राचीन
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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