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मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर प्राचारांगके रूपमें मौलिक अन्य है
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
सन् ११३८ में मैंने 'मलाचार संग्रह ग्रन्थ है। इस रखने के लिए उक्त मूल पाचारके प्रवर्तक बहुमत दिगशीर्षकसे एक लेख लिखा था। उस समय मूलाचारकी कुछ मराचार्यने मूल भाचारांग सूत्रका १२ अधिकारों में संचित गाधामोंके श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति प्रादि प्रन्थों में रूपसे सार खींचकर इस प्रन्धकी रचना की है। उपलब्ध होनेसे मैंने यह समझ लिया था कि ये गाथाएँ प्राचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिकने इस प्रन्य पर लिखी मूलाचारके कर्ताने वहांसे ली है और उनके सम्बन्धमें अपनी 'प्राचारवृत्ति' की उत्थानिकामें स्पष्ट लिखा है कि विशेष विचारका अवसर न पाकर उक्त लेखमें उसे एक अठारह हजार पद प्रमाण पाचारांगसूत्रको मूलगुणा'संग्रहग्रन्थ' बतला दिया था। साथ ही, उसके बारहवें धिकारसे लेकर पर्याप्ति अधिकार पर्यन्त १२ अधिकारों में पर्याप्ति नामक अधिकारको असम्बद्ध भी लिख दिया था। उपसंहार किया हैउस लेखके प्रकाशित होनेके बादसे मेरा अध्ययन उस "श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलविषय पर बराबर चलता रहा। दूसरे प्राचीन दिगम्बर गुग्ण - प्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाग्रंथोंको भी देखने का अवसर प्राप्त हुभा जो उस समय चार-पिंडशुद्धि - षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षानागारभावनामुझे उपलब्ध न थे। तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मैंने समयसार-शीलगुण प्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार निबदममूलाचार और उसकी टीका 'प्राचारवृत्ति' का गहरा मनन हार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मकिया और अधिक वाचन चिन्तनके फलस्वरूप मेरा बह क्षयोत्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषडद्रव्यअभिमत स्थिर नही रहा, अब मेरा यह ह निश्चय हो नवपदाथजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नागया है कि मूलाचार सग्रह प्रन्थ नहाकर एक व्यवस्थित नेकप्रकारर्द्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं, मलगणोत्तर प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। इस लेख द्वारा अपने इन्हीं गुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाविचारों को स्पष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। चाराङ्गमाचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायुःशिष्य
यह ग्रंथ दिगम्बर जैन परंपराका एक मौलिक आधार निमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तु कामः स्वस्य श्रोतृणां
है. उसकी गहरी विचारधारा और विषयका विवंचन च प्रारब्धकार प्रत्यूहनिराकरणक्षम शुभपरिणामं विदधबदा ही समृद्ध और प्राचीनताका उन्नायक है। इतना ही न्छीवट्टकेराचार्यः प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकार-प्रतिनहीं; किन्तु भगवान महावीरकी वह उस मूल परम्पराका पादनाथे मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते सबसे पुरातन प्राचार विषयका प्रन्य है जिसका भगवान ग्रन्थको बनाते समय प्राचार्य प्रवरने इस बातका महावीर द्वारा कथित और गणधर इन्द्रभूति द्वारा प्रथित खास तौरसे ध्यान रक्खा मालूम होता है कि इस ग्रन्थमें द्वादशांगतके भाचारांग नामक सूत्र ग्रन्यसे सीधा संबंध प्राचारांगमूत्र-विषयक मूलपरम्पराका कोई भी अंश जान पड़ता है। इस प्रन्थकी रचना उस समय हुई है जब छूटने न पावे । चुनांचे हम देखते हैं कि प्रन्थकर्तान प्रत्येक द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट अधिकारमें मंगलाचरण कर उसके कहनेकी प्रतिज्ञा की प्राचार मार्गमें विचार-शौथिल्यका समावेश प्रारम्भ होने है और अन्त में उसका प्रायः उपसंहार भी किया है। लगा था। कुछ साधुजन अपने आचार-विचारमें शिथि- जैसा कि मूलाचारके 'सामाचार नामक अधिकार' अधिलताको अपनानेका उपक्रम करने लगे थे और अचेलकताके कारकी आदि पन्तिम गाथासे स्पष्ट हैखिलाफ वस्त्र धारण करने लगे थे। परन्तु उस समय तक तेल्लोक पूयणीए अरहते बंदिऊण तिविहेण । अचेलकताके नग्नता अर्थमें कोई विकृति नहीं पाई थी, वोच्छ समाचारं समासदो आरणपुवीयं ॥१२२॥ जिसका अर्थ वादको बिगाइकर 'अल्पचेल' किया जाने बगा। उस समय मुल परम्परागत माचारको सुरक्षित एवं सामाचारो बहभेदो बरिणदो समासेण ।