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अनेकान्त
- [करण ११ वित्थारसमावण्णो वित्थरिव्वो बहजणेहिं ॥१७॥ प्राप्त हुआ है। चुनांचे श्वेताम्बरीय पाचासंगमें यहाँ तक
इस प्रकरण में उक्त अन्तिम गाथासे पूर्व निम्न गाथा विकार भागया है कि वहाँ पिण्ड एषणांक साथ पात्र एषणा और भी दी हुई है जिसमें विषयका उपसंहार करते हुए और वस्त्र एषणाको और भी जोड़ा गया। जिससे यह बतलाया गया है कि जो साधु और आर्यिका अन्थमें उल्लुि- साफ ध्वनित होता है कि 'मूलभाचार' में द्वादश वर्षीय खित प्राचारमार्गका अनुष्ठान करते हैं वे जगत्पूज्य, कीर्ति दुर्भिसके कई शताब्दी बाद वस्त्र एषणा और पात्र एषणाकी और सुखको प्राप्त कर सिदिको प्राप्त करते है
कल्पना कर उन्हें एषणा समितिके स्वरूप में जोद दिया है। एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। इससे साफ ध्वनित होता है कि मूल प्राचारांगकी रचनाइन ते जगपुज्जं कित्तिं सुहं लण सिझति ॥१६ ॥ सब कल्पनामोंसे पूर्व की है। अन्यथा कल्पनामोंके रूद होने
इसी रह "पिण्डविद्धि' अधिकारम पिण्ड विशुदि पर उनका विरोध अवश्य किया जाता। का कथन करते हुए जिन साधुनाने उसकालमें क्रोध, मान, पडावश्यक अधिकारमें कायोत्सर्गका म्वरूप बतलाते माया और लोभ रूप चार प्रकारके उत्पादन दोषसे दूषित हुए कथन किया है कि जो साधुमोक्षार्थी है, जागरणशील मिक्षा ग्रहणकी है उनका उल्लेख मी बतौर उदाहरणके ई निद्राको जीतने वाला, सूत्रार्थ विशारद है,करण निम्न गाथामें अहित किया है
शुद्ध है, आत्मबल वीर्यसे युक्त उसे विशुद्धात्मा कायोकोधो य हथिकप्पे माणो वेणायडम्मि एयरम्मि। स्सर्गी जानना चाहिए। माया वाणारसिए लोहोपुण रासियाणम्मि ।।४५५ मुक्खट्ठी जिदणिहो मुत्तत्त्व विसारदो करणसुद्धो।
इस अधिकार में बताया गया है कि जो साधु भिक्षा आद-बल-विरिय-जुत्तो काउम्सग्गो विसुद्धप्पा ॥६५६।। अथवा चर्यामे प्रवृत्ति करता है वह मनागुप्ति, वचनगुप्ति यहाँ यह बात खास तौरस भ्यान देने योग्य है और कार्यगुप्ति के संरक्षणके साथ मूलगुण और शीलसंयमा- वह यह कि मूलाचारके कर्ताने षडावश्यक अधिकारकी विककी रक्षा करता है तथा संसार, शरीर और संग (परिग्रह) चूलिकाका उपसंहार करते हुए यह स्पष्ट रूपसे उल्लेख निर्वेदभाव देखता हुमा वीतरागकी प्राज्ञा और उनके किया है कि मैंने यह नियुक्तिकी नियुक्ति संक्षेपसे कही शासनकी रक्षा करता है। अनवम्ण (म्वेच्छा प्रवृत्ति) है इसका विस्तार अनुयोगसे जानना चाहिए। मिथ्यावाराधना और संयम विराधना रूप चर्याका परिहार णिजुत्ती णिजुत्ती एसा कहिदा मए समासण। करता है भिक्खा चरियाए पुण गुत्तीगुणसील संजमादीणं।
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदिणादव्यो ।।६६४
समस्त जैनवमय चार अनुयोगामें विभक्त है, रक्वंतो चरदि मुणी णिव्वेदतिगं च पेच्छतो १७४|| आरणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणामो य ।
प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग म्यानुयोग । संजम विराधणाविय चरियाए परिहरेदव्वा ।।७।।
इन चार अनुयोगांमें प्राचार विषयक विस्तृत कथन पिण्ड शब्दका अर्थ है माहार (भोज्य योग्य वस्तुओंका
चरणानुयोगमें समाविष्ट है। यहाँ प्रन्यकर्ता प्राचार्यका
अभिप्राय 'अनुयोग' से चरणानुयोगका है इसीलिए उसके समूह रूप प्रास) या पिराह| जो साधुनोंको पाणिपात्र में दिया जाता था और भाज भी दिया जाता है। इस अधि
देखनेकी प्रेरणा की गई है।
मूलाचारके कर्वाने जिन नियुक्तियों परसे सार लेकर कारमें चर्या सम्बन्धि विशुद्धिका विशदवर्णन किया गया है।
षडावश्यक नियुकिका निर्माण किया है। वे नियुक्तियाँ मूलाचारमें एषणा समितिके स्वरूप कथनमे एषणाको
वर्तमानमें अनुपलब्ध हैं और वे इस प्रन्य रचनासे केवल माहार के लिए प्रयुक्त किया गया है और बतलाया
पूर्व बनी हुई थी, जिन्हें अन्यकतकि गमकगुरु भद्रबाहुगया है कि जो साधु उद्गम, उत्पादन और एषणादि रूप दोषोंमे शुद्ध, कारण सहित नवकोटिसे विन शीत
श्रुतकेवळीने बनाया था। उन्हींका संचित प्रसार मूनाचारब्यादि भचय पदार्थों में राग द्वेषादि रहित सम मुक्ति ऐसी ® 'महाया कालपरिहाणि दोसेणं तामो णिज्युत्तिपरिशुद्ध अत्यन्त निर्मल एषा समिति है। यह इस भास चुबीमो बुखियामो। एषया समितिका प्राचीन मूल रूप है, जो बाद में विकृतिको
- महानिशीय सूत्र मध्याव