________________
किरण ११]
. मूलाचार संग्रह प्रन्थ न होकर पाचाराशनके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है।
[३४०
-
के इस पडावश्यक अधिकारमें पाया जाता है। पर कुछ अपने मूलाचार प्रदीप' नामक ग्रन्थमें भी मूबापरकी गाथाएं उपलब्ध श्वेताम्बरीय नियुकियोंमें पाये जानेके गाथानोंका सार दिया है। इन सब उबलेखोंसे कारण संग्रह ग्रंथ होने की जो कल्पना की थी वह ठीक नहीं दिगम्बर समाजमें मुखाचारके प्रचारके साथ उसकी प्राचीहै, क्योंकि ये नियुक्तियाँ विकमकी छठी शताब्दीसे नवाका इतिवृत्त पाया जाता है, जो इस बातका बोतको पूर्वको बनी हुई नहीं जान पड़ती हैं। और कि यह मुखग्रन्थ दिगम्बर परम्पराका मौखिक भाचारांग मूलाचार उनसे कई सौ वर्ष पूर्वका बना हुआ है; क्योंकि सूत्र है, संग्रह प्रन्य नहीं है। उसका समुल्लेख विक्रमकी पांचवी शताफीके प्राचार्य- प्रतः श्वे. नियुक्तियों परसे 'भूताचार' में कुष यतिवृषभन अपनी 'विलोयपरणत्ती' के पाठवें अधिकार गाथामोके संग्रह किये जानेकी जो कल्पना की गई थी, की १३२वी गाथामें 'मूलायारे' वाक्यके साथ किया है वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि वीर शासनकी जो जिसस मूलाचारकी प्राचीनता पर अच्छा प्रकाश पड़ता श्रत सम्पत्ति दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें परम्परासे है। उसके बाद प्राचार्यकल्प रडत प्रासाधरजाने दुभिक्षादि मतभेद के कारण बटी, वह पूर्व परम्परासे दोनोंअपनी 'प्रनगारधर्मामृत टीका' (वि० सं० १३०.) में के पास बराबर चली भा रही थी। भद्रबाहु इतकेवबी 'उक्तं च मूलाचारे' वाक्यके साथ उसकी निम्नगाथा उद्धृत तक दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे मेदोंकी कोई सृष्टि नहीं हुई को जो मूलाचार मे १९ नं. पर उपलब्ध होती है। थी, उस समय तक भगवान महावीरका शासन यमाजात सम्मत्तणाण संजम तहि जंत पसत्थ समगमगणं । मदारूपमे ही चल रहा था। उनके हारा रची गई समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणे ।। नियुक्तियाँ उस समय साधु सम्प्रदायमें प्रचलित थी, सास
-अनगारधर्मामृत टी० पृ० ६०५ कर उनके शिष्य-शिष्योंमें उनका पठन-पाठन बराबर पर इनके सिवाय, प्राचार्य वीरसेनन अपनी धवला टीका रहा था। ऐमी हालतमें मूलाचारमें कुछ गाणमोंकी में तह पायारंगे विवुत्तं' वाक्यके साथ 'पंचस्थिकाया' समानता परसे पादान-प्रदानकी कल्पना करना संगत नहीं नाम की जो गाथा समुदत की है वह उक्त प्राचारांग जान पड़ती। ४.०० पर पाई जाती है। वर्तमान में उपलब्ध श्वेता- मूलाचारके कनि 'अनगार भावना' नामके अधिम्बरीय पाचारांग में नहीं है। इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ- कारका प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरणमे त्रिमुवन जवानी की प्रसिद्धि पुरातन काल मूलाचार और प्राचारांग दोनों नया मंगलसंयुक्त अर्थात् सर्वकर्मके जलाने में समर्थ पुण्यसे नामांसे रही है।
युक्त, कंचन, पियंगु, विद्रुम, धब, कुन्द और मृणावरूप आचार्य वीरनन्दीने जो मेषचन्द्र विद्यदेवके शिष्य वर्णविशेष वाले जिनवरोंको नमस्कार कर नागेन्द्र, नरेन एवं पुत्र थे, और जिनका स्वर्गवास शक संवत् १.३७ ओर इन्द्रसे पूजित अनगार महषियोंके विविध शास्त्रोके (वि० सं० १९७२) में हुआ था । अतः यही समय सार-भूत महंत गुपवाले 'भावना' सूत्रको कहनेका उपक्रम (विक्रमकी १२वीं शताब्दी) प्राचार्य वीरनन्दीका है। किया है। यथाप्राचार्य वीरनन्दीने अपने प्राचारसारमें मूलाचारकी मिनिटय जय मंगलो व बेदाग। गाथानोका प्रायः अर्थशः अनुवाद किया हैxभाचार्य कंचण-पियंगु-विद्रम-घण-कुंद-मुणाल लवरणाणं॥ वसुनन्दीने उक्त मूखाचार पर 'प्रचारवृत्ति' नामकी टीका .
अणयार महरिसिणं णाइंद परिंदं इंद महिदाणं । लिखी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। विक्रमको ५ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध महारक सकलकीतिने
वोच्छामि विवहसारं भावणसुत्त गुणमहंतं ।।
इस अधिकारमें जिंगशुद्धि, प्रतादि, बसयिदि मिला+ देखो, अनेकान्त वर्ष ३ कि. १२ में प्रकाशित भद्र
६. शुद्धि, ज्ञानशुदि, उज्मानशुदि-शरीरादिकसे ममत्वका बाहुस्वामी' नामका लेख।
त्याग-खोकवादिरहित वाक्यादि, तपादि-पूर्वकर्म xदेखो, 'वीरननन्दी और उनका प्राचारसार' नामका रूप मखके शोधन में समर्थ अनुष्ठान-ध्यान द-एकान
मेरा खेल, चैन सिक भास्कर मा० किरव चिन्तानिरोधरूपप्रवृति-दन दश अधिकारोंका सुन्दर