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________________ १३४] अनेकान्त [किरण ४ अन्य कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो, देश-कालका विचार के रूपमें परिवर्तित करने के लिए दान-संस्थाका जन्म हुआ न हो वह लाग धर्मकी कोटिमें नहीं पाता। हमारा प्रत्येक है और यह सच है कि इस संस्थाने दानार्थी और दानी स्याय धर्म की कोटिमें समाविष्ट हो इसके लिए हमें अपने सबका समाम रूपसे उपकार किया है। अब तक दान पूरे विवेक का उपयोग करना चाहिए। धनिक समाजकं लिए वरदान स्वरूप सिद्ध हुभा है। त्यामधर्म जैनाचार अथवा सदाचारकी एक बड़ी शाखा दानाथियामें तब तक उत्पानको भावना पैदा नहीं होती है। व्याम का अर्थ छोड़ना है। कोबनके भी दो रूप है। जब तक धनियोंके द्वारा दिये गये दानसे किसी न किसी कोई चीज किसी को देकर भी छोड़ी जा सकती है और रूपमें उनकी श्रावश्यकताएं पूरी होती जाती हैं। दानी को विना दिये भी, किसीको कोई चीज देनेके लिए जब हम अपने मनमें कभी यह थहंकार लानेकी जरूरत नहीं है कि छोड़ते हैं तो वह त्याग दानबहलाता है से पाहारदान, मैं दान देकर दुखी, दरिद्र और गरीबोंका भला करता हूँ औषधदान भादि । किन्तु दान शब्दका प्रयोग ज्ञान और बल्कि उसको यह सोचना चाहिए कि इनको दान देना ही जीवनके साथ भी होता है ज्ञानदान, जीवनदान । कोई । मेरी रक्षाका कवच हैं। किसीको ज्ञान देता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि विश्व-प्रकृति स्वयं संग्रह अथवा अतिसंग्रहके विरुद्ध वह ज्ञान को इस तरह छोड़ देता है जैसे माहारदानके है। समुद्र, मेष, वृक्ष और स्वयं पृथ्वी संग्रहके विरुद्ध समय माहारको कोष दिया जाता है। ज्ञानको तो किसी क्रान्ति पैदा कर देते हैं और दानकी महत्ता को प्रकट करते भी तरह कोदना सम्भव नहीं है। जैसे एक दीपसे दूसरा है। दानके विषयमें एक कविने कितना अच्छा कहा हैदीपक जला दिया जाता है इसी तरह एक भास्माके ज्ञान- ऋतु वसन्त जाचक भयो, हप दिये दुम पात । से दूसरे भास्माम शान उत्पन्न किया जाता है। अभय तामें नव पल्लव भये, दियो दूर नहीं नात ।। दानमें तो अपने पाससे सचमुच कुछ भी नहीं दिया जाता। वसन्त ऋतु आई, उसने पाकर वृक्षों से कहा-मैं उसमें तो वह प्रापिरचाका प्रपरन ही किया जाता है। तुम्हारी याचक है. मुझे दान दो, वृक्ष यह सुनकर बड़े उस प्रयत्नकी सफलता ही अभयदान है।। खुश हुए और अपने सारे पत्ते ऋतुको दान स्वरूप दे ___ जो चीज किसीको किमी रूपमें बिना दिये छोड़ी जाती दिये । वृत्तोंका यह दान निष्फल नहीं गया; क्योकि है वह भी त्यागका एक रूप है । जब मनुष्य कषाय सत्काल ही उन पत्तोंके स्थानमें नये पत्ते पा गए । यह अथवा बासनाओंका परित्याग करता है तो वह उस्कृष्ट सच है कि दिया हुश्रा कभी व्यर्थ नहीं होता। काटिका त्यागी कहलाता है। इस त्यागका दानके प्रकरण किन्तु यह बात भी भूलनको नहीं है कि कोई भी से कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्पूर्ण बाह्य परिग्रहको बोरकर मनुष्य कुछ न कुछ तो दान दनको क्षमता रखता ही है। जब कोई संसार-विरक होता है तब उसका वह बाह्य परि- एक करोड़ रुपयेका दान और एक पैसेका दान दोनों ही ग्रह-स्याग किसीको देने के लिए नही होता. वह ता उसे दानकी कोटि में आते हैं और क्षमताकी दृष्टिसे दोनोंका हेय समझकर छोड़ता है। इस सारे विवेचनका यह अर्थ बराबर महत्व है। यदि भावामें विषमता न हो तो दोनों है कि त्याग शब्दका प्रयोग दानार्थमे भी होता है और का समानफल भी हो सकता है। जब यह बात है तब इससे भिन्न मर्थमें भी। स्पष्ट है कि दानी केवल धनी ही नहीं बन सकता निर्धन ___ संग्रहसे दोष पैदा होते हैं इसलिए सबसे अच्छी बात भी बन सकता है। इसलिए धनियोंकी तरह निर्धन भी यह है कि संग्रह न किया जाय; पर मनुष्यकी यह प्रवृत्ति अपनी शक्तिका विना छिपाय और शक्तिका अतिक्रमण यों ही छूटनेवाली नहीं है इसलिए विवेक-पूर्वक संग्रहके किये विना त्याग धर्मकी भोर अच्छी तरह प्रवृत हो सकते वितरबकी व्यवस्था करना मनुष्यका अनिवार्य कर्तव्य है । जब मनुष्यके मनमें ठीक अर्थ में-सहानुभूतिके भाव इस कर्तब्यका जो पावन नहीं करता वह मानव-समाजमें उत्पन्न होते हैं तब उसमे दयाकी वृत्ति जागृत होती है अशान्ति उत्पन्न करनेके दोषका हिस्सेदार है। अतिसंग्रह- और तभी वह देने की प्रेरणा भी पाता है। महान् विचासे जो विषमता आती है उस विषमताको भोशिक समता- रक श्री विनोबा भावे के शब्दोंमें देनेकी प्रेरणाको ही दया
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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